QUESTION & ANSWER
Vysat Jeevan Main Ishwar Ki Khoj 04
Fourth Discourse from the series of 6 discourses - Vysat Jeevan Main Ishwar Ki Khoj by Osho.
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प्रश्न:
भगवान, ...जहां पर ध्यान करने पर आवाज निकलती है, आपने बताया था कल ही कि वहां ध्यान करो। लेकिन कंपन ज्यादा होने से वहां पर एकाग्रता टिकती नहीं...
नहीं; पहली तो यह बात आपके खयाल में नहीं आई कि एकाग्रता ध्यान नहीं है। मैंने कभी एकाग्रता करने को नहीं कहा। ध्यान बहुत अलग बात है। साधारणतः तो यही समझा जाता है कि एकाग्रता ध्यान है। एकाग्रता ध्यान नहीं है। क्योंकि एकाग्रता में तनाव है। एकाग्रता का मतलब यह है कि सब जगह से छोड़ कर एक जगह मन को जबरदस्ती रोकना। एकाग्रता सदा जबरदस्ती है; उसमें कोएर्शन है। क्योंकि मन तो भागता है और आप कहते हैं नहीं भागने देंगे। तो आप और मन के बीच एक लड़ाई शुरू हो जाती है। और जहां लड़ाई है वहां ध्यान कभी भी नहीं होगा। क्योंकि लड़ाई ही तो उपद्रव है हमारे पूरे व्यक्तित्व की, कि वहां पूरे वक्त कांफ्लिक्ट है, द्वंद्व है, संघर्ष है।
तो मन को ऐसी अवस्था में छोड़ना है जहां कोई कांफ्लिक्ट ही नहीं है। तब तो ध्यान में आप जा सकते हैं। मन को छोड़ना है निर्द्वंद्व। अगर द्वंद्व किया तो कभी ध्यान में नहीं जा सकते। और अगर द्वंद्व किया, द्वंद्व किया तो परेशानी बढ़ जाने वाली है। क्योंकि हारेंगे, दुखी होंगे। जोर से द्वंद्व करेंगे--हारेंगे, दुखी होंगे, और चित्त विक्षिप्त होता चला जाएगा। बजाय इसके कि आनंदित हो, प्रफुल्लित हो--और उदास, और हारा हुआ, फ्रस्ट्रेटेड हो जाएगा।
तो मन से तो लड़ना ही नहीं है, यह तो मेरा पहला सूत्र है। जो मन से लड़ेगा उसकी हार निश्चित है। अगर जीतना हो मन को तो पहला नियम यह है कि लड़ना मत। तो इसलिए मैं एकाग्रता के लिए, कनसनट्रेशन के लिए सलाह नहीं देता हूं। मेरी सलाह तो है रिलैक्सेशन के लिए, कनसनट्रेशन के लिए नहीं। मेरी सलाह एकाग्रता के लिए नहीं है, मेरी सलाह तो विश्राम के लिए है।
तो घंटे भर के लिए मन को विश्राम देना। तो विश्राम का सूत्र अलग हो जाएगा। विश्राम का पहला तो सूत्र यह है कि मन जैसा है हम उससे राजी हैं। अगर आप नाराज हैं उससे तो फिर विश्राम नहीं संभव हो सकता। क्योंकि नाराजी से लड़ाई शुरू हो जाएगी। मन जैसा भी है--बुरा और भला, क्रोध से भरा, चिंता से भरा, विचारों से भरा--जैसा भी है, हम उसी मन के साथ राजी हैं। तो एक घंटे के लिए वक्त निकाल लें और मन जैसा है उसके साथ पूरी तरह राजी हो जाएं। टोटल एक्सेप्टबिलिटी। विरोध ही नहीं है हमारा कोई। अगर मन भागता है तो हम भागने देते हैं। अगर रोता है तो रोने देते हैं। अगर हंसता है तो हंसने देते हैं। अगर वह व्यर्थ की बातें सोचता है तो सोचने देते हैं। हम कहते हैं कि मन जो भी करे, एक घंटा लड़ाई नहीं करेंगे। तो पहली बात, हम लड़ेंगे ही नहीं। मन जो भी करेगा, हम चुपचाप बैठे देखते रहेंगे।
यह न लड़ना हो, तो एक तो स्थूल लड़ाई है जब आप लड़ते हैं--कि मन कह रहा है कि यहां जाना है और आप कहते हैं कि वहां नहीं जाएंगे। जैसा कि साधारणतः धार्मिक आदमी करता रहता है। इसलिए धार्मिक आदमी साधारणतः दुखी आदमी होगा। धार्मिक आदमी पूरे वक्त यही करता रहता है। मन कहता है खाना खाओ, वह कहता है नहीं खाएंगे। मन कहता है यह कपड़ा बहुत सुंदर है, वह कहता है हम कपड़े छोड़ देंगे। वह मन से लड़ कर ही चलता है। तो मन से लड़ कर वह दुखी होगा, परेशान होगा, लेकिन शांत नहीं हो पाएगा।
तो एक घंटे के लिए मन से कोई लड़ाई नहीं लेनी है। मन जो करता है, हम कहते हैं करो। लेकिन यह तो बहुत स्थूल हुई बात; हमारे मन में बड़ी सूक्ष्म लड़ाई है जिसका हमें पता नहीं है। कंडेमनेशन है हमारे मन में। जैसे हम यह भी कह देंगे कि अच्छा जो करना है करो। लेकिन इसमें भी कंडेमनेशन हो सकता है।
इसमें भी यह हो सकता है कि कोई बात नहीं, हम नहीं लड़ते हैं। यह बात तो ठीक नहीं है कि मन सोच रहा है कि एक वेश्या के घर चले जाएं। हम कहते हैं, बात तो ठीक नहीं है, लेकिन चूंकि एक घंटा हमको नहीं लड़ना है इसलिए हम नहीं लड़ते हैं, लेकिन यह बात ठीक नहीं है। अगर इतना भी रुख है भीतर कि यह बात ठीक नहीं है, तो लड़ाई जारी है। तब विश्राम उपलब्ध नहीं होगा।
तो स्थूल रूप से लड़ना नहीं है, सूक्ष्म रूप से निंदा और प्रशंसा नहीं करनी है--कि यह ठीक है, यह गलत है। यह मन करेगा, तो एक भीतरी एप्रूवल है हमारा कि हां, यह बहुत बढ़िया हो रहा है। कि कृष्ण भगवान की मूर्ति बना रहा है, यह बहुत ही बढ़िया हो रहा है। और एक नग्न स्त्री की मूर्ति बना रहा है, तो बहुत बुरा हो रहा है। यह सूक्ष्म निंदा और प्रशंसा भी नहीं होनी चाहिए ध्यान में। इसका मतलब यह हुआ कि लड़ना मत और किसी तरह का रुख मत लेना, एटिट्यूड मत लेना कि यह अच्छा है कि बुरा है। निर्णय मत लेना कि क्या है। जो है--है।
हम एक वृक्ष के पास खड़े हैं। उसमें कांटे लगे हैं तो लगे हैं और फूल लगा है तो लगा है। हम न तो यह कहते हैं कि फूल अच्छा है, न यह कहते हैं कि कांटे बुरे हैं। हम इतना ही कहते हैं कि हमें पता चल रहा है कि कांटे लगे हैं और फूल लगा है। हम फूल और कांटे के बीच न कोई तुलना करते हैं, न एक-दूसरे को ऊंचा-नीचा बिठाते हैं, न हम यह चाहते हैं कि फूल ही फूल हो जाएं और कांटे बिलकुल न रह जाएं।
तो अगर इसे ठीक से समझेंगे तो एक तो स्थूल लड़ाई हुई, एक सूक्ष्म लड़ाई हुई और एक अति सूक्ष्म लड़ाई है। अति सूक्ष्म का मतलब यह है कि अगर हमारे मन में कोई चाह भी है कि ऐसा होना चाहिए, तो बहुत गहरे में लड़ाई चलती रहेगी। हम नहीं कहते कि कांटा बुरा है, लेकिन बहुत गहरे में मन यह है कि कांटा न होता और फूल होता तो अच्छा होता। अगर इतना भी भीतर की किसी पर्त पर भाव है तो लड़ाई जारी रहेगी। आप लड़ रहे हैं। आप कांटे को स्वीकार नहीं कर पाए हैं।
तो मेरे लिए ध्यान का मतलब है: संपूर्ण स्वीकृति। स्थूल लड़ाई नहीं, सूक्ष्म लड़ाई नहीं, अति भावों की सूक्ष्म लड़ाई भी नहीं।
घड़ी, दो घड़ी के लिए चौबीस घंटे में इस तरह छोड़ने लगें अपने को। इस छोड़ने से जैसे-जैसे छोड़ना सरल होगा...एकदम से छोड़ना बहुत कठिन होता है। क्योंकि हम इतने लड़ रहे हैं कि हम भूल ही गए हैं कि न लड़े कैसे रहें।
अगर एक पति-पत्नी को हम कहें कि चौबीस घंटे बिना लड़े इस घर में रह जाओ, तो रह सकते हैं बिना लड़े। लेकिन उनसे कहें कि लड़ने का भाव ही मत उठने दो; निंदा, प्रशंसा भी मत करो; तो कठिनाई शुरू हो जाएगी। और उनसे अगर हम यह कहें कि यह सोचो ही मत कि पत्नी कैसी है, कि पति कैसा है; जैसा है--है। तब और कठिन हो जाता है। न लड़ना बहुत आसान है कि चौबीस घंटे का कस्द कर लिया कि नहीं लड़ेंगे। तो एक-दूसरे से बच कर जा रहे हैं। लेकिन लड़ाई जारी है, क्योंकि उस बच कर जाने में भी लड़ाई चल रही है। नहीं बोल रहे हैं कि कहीं लड़ाई न हो जाए, तो न बोलना लड़ाई हो गई। ऐसी बातें नहीं उठा रहे हैं जिनमें लड़ाई हो जाए, तो लड़ाई जारी है।
लेकिन सूक्ष्म तल पर अगर हम कोई भाव और रुख ले रहे हैं--देख रहा हूं मैं कि यह जो पत्नी है, टेबल फिर वहीं रखे दे रही है जहां कि हजार दफे कहा है कि मत रखना। चूंकि लड़ना नहीं है, नहीं लड़ रहे। और ठीक है, स्वीकार भी कर रहे हैं कि टेबल अब जहां रखनी है रख दो, कोई बात नहीं, क्योंकि चौबीस घंटे लड़ना नहीं है। लेकिन मन में यह भाव आ रहा है कि वही गलती फिर की जा रही है जो कि सदा मना की गई है। तो वह लड़ाई जारी है। अब वह प्रकट नहीं हो रही, लेकिन लड़ाई जारी है।
प्रश्न:
भगवान, तो उसको देखते रहना चाहिए? उसको महसूस करते रहना चाहिए? उस समय क्या विचार रहना चाहिए? उस समय क्या फीलिंग रहनी चाहिए?
नहीं, तुम लाने की कोई कोशिश ही मत करना किसी फीलिंग की। तुम लाए तो लड़ाई शुरू हो गई। तुम्हारा लाना ही नहीं है तुम्हें कुछ, जो हो रहा है वह है। तुम्हारी तरफ से कुछ भी मत करना, जो होता हो उसे होने देना। यही तकलीफ है, यही तकलीफ है कि हम सोचते हैं कि हम क्या करें फिर? नहीं; आपने कुछ किया कि लड़ाई शुरू हुई। क्योंकि करने का मतलब ही यह होता है कि कुछ था जो नहीं होना था वह हो रहा था, कुछ था जो होना था और नहीं हो रहा था, हम उसको बदल रहे हैं। लड़ाई शुरू हो गई।
न, मैं यह कह रहा हूं कि तुम कुछ करना ही मत। जो हो, होने देना। लेट गो की हालत रखना। अपनी तरफ से डूइंग की हालत नहीं है, लेट गो की हालत है। जैसे समझ लो कि मैं मर जाऊं इस कमरे में, फिर कमरा कैसा चलेगा यह। लोग यहां से गुजरेंगे, टेबल कहीं रखी जाएगी, फोन की घंटी बजेगी, सब होगा। लेकिन मैं क्या करूंगा?
मैं नसरुद्दीन की एक कहानी कहता रहता हूं। उसने अपनी पत्नी से एक बार पूछा कि कई लोग मरते जा रहे हैं, मेरी समझ में यह नहीं आता कि लोग मर कैसे जाते हैं? और अगर कभी मैं मर जाऊं तो मैं कैसे पहचानूंगा कि मैं मर गया हूं? तो तुझे अगर कुछ पता हो तो मुझे बता दे। समझूंगा कैसे कि मैं मर गया हूं?
तो उसकी पत्नी ने कहा, इसमें कुछ समझने की बात है? हाथ-पैर ठंडे हो जाएंगे!
नसरुद्दीन गया था जंगल में लकड़ी काटने। सर्द थी सुबह, बर्फ पड़ रही थी, उसके हाथ-पैर ठंडे हो गए। तो उसने सोचा कि लगता है कि अब मैं मर रहा हूं, क्योंकि हाथ-पैर ठंडे हो रहे हैं। और लक्षण एक ही बताया गया था: जब हाथ-पैर ठंडे हो जाएं।
जब वे होते ही चले गए ठंडे और उसकी कुल्हाड़ी भी छूटने लगी हाथ से, उसने कहा, अब तो पक्का ही है। तो उसने मरते हुए लोगों को देखा था कि मरा हुआ आदमी खड़ा नहीं रहता, लेटा रहता है, तो वह लेट गया। जब वह लेट गया तो और सब ठंडा होने लगा। क्योंकि काम कर रहा था तो थोड़ा गर्म था। तो और सब ठंडा होने पर उसने कहा, अब ठीक है, अब तो आखिरी वक्त आ गया, अब मर गए। जब पूरा ठंडा हो गया तो उसने समझा कि मर गए। तो स्वभावतः मरा हुआ आदमी किसी को चिल्लाता नहीं, किसी से बोलता नहीं, किसी को देख नहीं सकता। तो उसने आंख बंद कर ली, चिल्लाना बंद कर दिया। उसने कहा, अब कोई सार ही नहीं, जब मर ही गए और लक्षण पूरा हो गया।
चार आदमी निकलते थे रास्ते से, उन्होंने देखा कि कोई आदमी मर गया। तो उन्होंने अरथी बनाई उसकी। उसने सोचा कि मुर्दे की तो अरथी बनती ही है, तो बन रही है। कई बार अरथी ठीक नहीं भी बन रही थी, क्योंकि उन चारों को कोई इंतजाम नहीं था, तो कई बार उसे लगा कि सुझाव दे दूं कि जरा ऐसा बांधो डंडा। लेकिन उसने कहा कि मुर्दे कुछ... यह बात ही नहीं करनी चाहिए, क्योंकि जो आदमी मर ही गया वह कैसे बताएगा! इसलिए उसने जैसी भी बनी अरथी बन जाने दी, अरथी पर सवार भी हो गया, अरथी चल पड़ी।
लेकिन वे चारों परदेसी थे, चौरस्ते पर पहुंचे तो उनको सवाल उठा कि मरघट कहां है इस गांव का? उसको मालूम था, लेकिन उसने सोचा कि...। उन चारों ने सोचा कि बड़ी सर्दी है, बर्फ पड़ रही है, मरघट कहां है? अब कोई निकले राहगीर तो पूछ लें। बड़ी देर हो गई, कोई राहगीर न निकला। तो नसरुद्दीन से रहा न गया, बड़ी देर तो उसने खुद को सम्हाला, फिर उसने कहा कि कोई राहगीर ही नहीं निकल रहा, ऐसे इमरजेंसी के क्षण में तो मुर्दा भी बोले तो कोई हर्जा नहीं है इसमें। तो उसने कहा कि जब मैं जिंदा हुआ करता था तब लोग बाएं तरफ जाते थे मरघट के लिए। उसने कहा कि जब मैं जिंदा हुआ करता था तब बाएं तरफ जाते थे। फिर इतना कह कर वह अपनी जगह पर लेट गया। तो उन्होंने कहा कि अरे मूरख, अगर तू बोल ही रहा है, तो हमें क्यों परेशानी में डाले हुए है!
यह जो एक घंटे भर नसरुद्दीन ने किया, यह ध्यान में होगा, होना चाहिए। यानी आपको कुछ करना ही नहीं है, इमरजेंसी भी आ जाए तो भी नहीं बताना है कि यह हो रहा है। आपको सब कुछ छोड़ ही देना है। जो हो रहा है, हो रहा है। जब आप सब छोड़ देंगे और जो...होता तो रहेगा ही, बंद तो नहीं हो जाने वाला--विचार चलते रहेंगे, आवाज कानों में पड़ती रहेगी, हृदय धड़कता रहेगा, श्वास चलती रहेगी, पैर में कीड़ा काटेगा तो पता चलेगा, पैर जाम हो जाएगा तो पता चलेगा, करवट बदलने का मन होगा--तो रोकना मत, करवट बदलने का मन हो तो करवट को करवट लेने देना, पैर-हाथ कीड़ी को हटाना चाहे तो हटाने देना। न तो अपनी तरफ से हटाना, न अपनी तरफ से रोकना।
मेरा मतलब समझ रहे हैं न? यानी अपनी तरफ से कुछ मत करना। अगर हाथ हटाना चाहे तो हटा देने देना और न हटाना चाहे तो पड़े रहने देना। तो सारी स्थिति को पूरी तरह स्वीकार कर लेना है। सब होता रहेगा। लेकिन जब सब होता रहे और हम सब स्वीकार कर लें, तो एक बहुत नई चेतना का जन्म शुरू होता है। तत्काल तुम साक्षी हो जाते हो--तत्काल! क्योंकि जैसे ही तुम कर्ता नहीं रहते, तुम साक्षी हो जाते हो। कोई उपाय ही नहीं है दूसरा। यह ट्रांसफार्मेशन आटोमेटिक है।
लोग सोचते हैं कि साक्षी होना पड़ेगा।
साक्षी कोई हो ही नहीं सकता। वह तो जब कर्ता नहीं रह जाता तो होगा क्या? अब जैसे कि नसरुद्दीन की अरथी बांधी जा रही है; अब वह क्या करेगा बेचारा? देख रहा है; साक्षी ही है भर; करने की तो बात ही खत्म हो गई, क्योंकि वह आदमी मर गया है। जिस क्षण तुम्हारे कर्ता का भाव चला जाता है, उसी क्षण तुम्हारे साक्षी का भाव आविर्भूत हो जाता है। यह सहज होता है।
इसलिए साक्षी होना कोई कर्म नहीं, कृत्य नहीं। और वह साक्षी हो जाना ध्यान है। साक्षी हो जाना ध्यान है, इससे ज्यादा ध्यान कुछ भी नहीं है।
इसलिए एकाग्रता तो कभी ध्यान नहीं; क्योंकि तुम कर्ता हो, तुम कर रहे हो। तुम्हारा किया हुआ तुमसे बड़ा नहीं होने वाला है। तुम परेशान हो, दुखी हो; तुम्हारा किया हुआ भी परेशानी होगी, दुख होगा। अगर मैं स्टुपिड आदमी हूं, मूढ़ आदमी हूं, तो मेरी एकाग्रता भी मूढ़ता ही होगी। मैं ही एकाग्र करूंगा न! एकाग्रता कोई और तो नहीं करेगा। मैं एक मूढ़ आदमी हूं, मैं एकाग्रता करता हूं, तो एक मूरख एकाग्र हो जाएगा। और क्या होने वाला है? और एकाग्र मूरख और खतरनाक है। अगर तुम दुखी हो तो दुखी होना ही एकाग्रता बन जाएगी तुम्हारी, दुख पर ही तुम एकाग्र हो जाओगे, जो और मुश्किल है। एकाग्रता कभी भी तुम्हें अपने से ऊपर नहीं ले जा सकती; ट्रांसेनडेंस नहीं है उसमें संभव। क्योंकि तुम ही करोगे, तो आगे कैसे जाओगे?
लेकिन साक्षीभाव जो है वह तुम्हारा कृत्य नहीं है। तुम हो ही नहीं उसमें। वह हैपनिंग है। तुम तो अचानक पाते हो कि जिस क्षण वह स्थिति आ जाती है कि तुम कर्ता नहीं रहे, तुम अचानक पाते हो कि तुम साक्षी हो गए हो। इस होने में कोई यात्रा नहीं करनी पड़ती। यानी कर्ता होने से साक्षी होने तक तुम्हें जाना नहीं पड़ता। बस अचानक एक क्षण पहले तुम कर्ता थे और अचानक एक क्षण बाद तुम पाते हो कि कर्ता खो गया है और मैं सिर्फ साक्षी रह गया हूं।
यह जो दशा है यह ध्यान है। और इसलिए ध्यान करने की कोशिश मत करना। ध्यान हो सके, इस हालत में अपने को छोड़ना है। ध्यान होगा, आपको तो सिर्फ अपने को इस हालत में छोड़ देना है कि वह हो जाए। सूरज निकला है और मैंने अपना दरवाजा खुला छोड़ दिया है। सूरज निकलेगा, रोशनी भीतर आ जाएगी, वह मुझे लानी नहीं पड़ेगी।
लेकिन एक बड़े मजे की बात है कि मैं सूरज की रोशनी बांध कर कमरे के भीतर तो नहीं ला सकता, लेकिन दरवाजा बंद करके सूरज की रोशनी बाहर रोक सकता हूं। बाहर रोकने में कठिनाई नहीं है, दरवाजा बंद है तो रुक जाएगी।
तो तुम ध्यान को होने से रोक सकते हो, रोक रहे हो, लेकिन ध्यान को ला नहीं सकते। हमारी जो सारी तकलीफ है वह बहुत उलटी है। जो असलियत है वह यह है कि जब कोई मुझसे पूछता है कि ध्यान नहीं हो रहा है, तो वह उलटी ही बात पूछ रहा है। वह असल में प्राणपण से चेष्टा कर रहा है कि कहीं ध्यान न हो जाए। पूरी जिंदगी लगा रहा है कि ध्यान न हो जाए। जन्म-जन्म उसने खराब किए हैं कि कहीं ध्यान न हो जाए। और ध्यान के लिए उसने हजार तरह के बैरियर खड़े किए हैं कि वह हो न जाए।
कहीं मैं साक्षी न हो जाऊं, इसके लिए तुम सब इंतजाम किए हुए बैठे हो। और फिर जब सुनते हो किसी से कि साक्षी होने में बड़ा आनंद है, तब तुम सोचते हो: चलो साक्षी भी हो जाएं। तो साक्षी होने की भी कोशिश करते हो। और वह तुम्हारा साक्षी से रोकने का पूरा इंतजाम जारी है, उसमें कोई फर्क पड़ता नहीं। उसी इंतजाम के भीतर तुम साक्षी भी होना चाहते हो। यह नहीं होगा।
तो घड़ी, दो घड़ी के लिए अपने को पूरा छोड़ो और जो हो रहा है उसे पूरा स्वीकार कर लो। फिर कुछ होगा। वह कुछ होना ध्यान है। और इसलिए जिनको ध्यान मिलेगा, जिनको हो जाएगा, वे यह नहीं कह सकेंगे कि मैंने किया। नहीं कह सकेंगे। अगर कहते हों तो समझ लेना अभी नहीं हुआ।
और इसीलिए तो बेचारा वैसा आदमी कहता है: प्रभु की कृपा से! उसका कोई और मतलब नहीं है। कोई प्रभु कृपा वगैरह नहीं करता। मगर उसकी तकलीफ है। उसकी तकलीफ यह है कि उसके द्वारा तो हुआ नहीं। वह कहां कहे? किससे कहे? हो तो गया है। उसके द्वारा हुआ नहीं। तो किसने किया है--बताने जाइए तो उसकी बड़ी मुश्किल है। तो वह कहता है, प्रभु कृपा से हुआ है। यह ‘प्रभु कृपा से हुआ है’ इसका कुल मतलब इतना है कि मेरे द्वारा नहीं हुआ है। प्रभु कृपा से नहीं हुआ है। क्योंकि प्रभु कृपा का मतलब तो फिर यह हो जाएगा: प्रभु किसी पर कम कृपालु है, किसी पर ज्यादा है। तब तो बड़ी गड़बड़ हो जाएगी, उसमें प्रभु पर बड़ा लांछन लगेगा।
प्रश्न:
भगवान, अभी एक प्रश्न था उसमें आपने यही कहा है: प्रभु की इच्छा से! मैं तो कुछ करता नहीं हूं, सब प्रभु ही करते हैं। और ऊपर से आपने यह कहा कि मेरा ऑब्जेक्ट जो है विद्रोह है। मतलब मैं जो कर रहा हूं, सिर्फ लोगों की चेतना के लिए...या जो पुराना रूढ़िवाद चला है, उसके एकदम अपोजिट में चला जा रहा हूं; इसलिए नेचरल है कि उसको हटाने के लिए तो संघर्ष करना ही पड़े। मैंने इसीलिए ही, मैंने इसीलिए पत्र आपको लिखा हूं कि भई आज एक तरफ तो आप यह कह रहे हैं...
तुम जरा जल्दी पत्र लिख दिए। क्योंकि मामला ऐसा है, मामला ऐसा है--जिंदगी इतनी जटिल है, जिंदगी इतनी जटिल है और हमारे निर्णय सब सरल होते हैं। और इसलिए हम तालमेल नहीं बिठा पाते। लगता है। तुम्हारा पत्र मैंने पढ़ लिया है। उसमें लगता ही है कि एक तरफ मैं कह रहा हूं कि मैं विद्रोह उठाना चाहता हूं और दूसरी तरफ मैं कह रहा हूं कि परमात्मा जो करवा रहा है वह मैं कर रहा हूं। तो विरोध दिखता है, है नहीं।
प्रश्न:
भगवान, अब विरोध नहीं रहा। अभी आपने जो जवाब दिया तो अब विरोध नहीं रहा।
हां, समझ में आई न बात! विरोध नहीं है। क्योंकि जब मैं यह कह रहा हूं कि मैं विद्रोह कर रहा हूं, यह भी परमात्मा ही कह रहा है मेरे हिसाब में तो। इसलिए विरोध नहीं है। और अगर तुम्हारे हिसाब में ऐसा लगता है कि यह आप ही कह रहे हो, तो दूसरा भी मैं ही कह रहा हूं, तब भी कोई फर्क नहीं है, तब भी विरोध नहीं होता है। यानी मैं कह रहा हूं कि मैं विद्रोह कर रहा हूं, अगर आप मानो कि यह आप ही कह रहे हो, हम किसी परमात्मा को नहीं मानते। तो दूसरी बात मैं कह रहा हूं कि यह परमात्मा कर रहा है। यह भी मैं ही कह रहा हूं। तब भी कोई विरोध नहीं है। तुम्हारी तरफ से भी विरोध नहीं है। विरोध इसलिए होता है कि एक बात मेरी तरफ से ले लेते हो और एक तुम्हारी तरफ से ले लेते हो, तब विरोध होता है। अगर तुम भी अपनी दोनों ही बातें लो तो विरोध नहीं है।
प्रश्न:
मैं समझा नहीं।
मेरा मतलब यह है कि मैं कह रहा हूं कि मैं विद्रोह जगा रहा हूं। अगर तुम्हें यह लगता है कि यह आप ही कह रहे हो और दूसरी तरफ आप कहते हो कि जो करवा रहा है वह परमात्मा करवा रहा है। तो विरोध दिखता है इसमें। क्योंकि अगर परमात्मा करवा रहा है, तो फिर आप ऐसा क्यों कह रहे हैं कि मैं विद्रोह जगा रहा हूं? मेरी तरफ से इसलिए विरोध नहीं है, क्योंकि मैं कहता हूं कि यह भी परमात्मा ही कहला रहा है।
प्रश्न:
भगवान, वह वहां पर आपने एक्सप्लेन कर दिया इस बात को।
हां, मेरे लिए इसमें कोई फर्क नहीं है दोनों बातों में। एक ही बात है। यानी यह भी मैं अपनी तरफ से नहीं कह रहा हूं कि मैं विद्रोह जगा रहा हूं।
प्रश्न:
एक जनरल जेंट्री को...
न, न, न, वह जनरल जेंट्री की बात मत करो। वह है ही नहीं कहीं। वह है ही नहीं कहीं। तुम हो, मैं हूं; ये हैं, मैं हूं। जनरल जेंट्री कहीं भी नहीं है। वह है ही नहीं कहीं। मैं तो इधर पंद्रह साल से भटकता हूं, वह मुझे मिलती नहीं। सीधे आदमी हैं और सीधी बात करनी चाहिए। वह जनरल जेंट्री बहुत दिक्कत दे देती है। फिर उसको बीच में लेकर बड़ा मुश्किल हो जाता है काम करना। तुम्हारी बात मेरे खयाल में आती है, मेरी बात तुम्हें, बात खत्म हो गई। जनरल जेंट्री जब मुझे मिलेगी उससे मैं बात कर लूंगा।
मेरा मतलब समझे न!
प्रश्न:
जनरल में ही तो आ गए न हम सब।
नहीं, अगर तुम्हारी समझ में आ गया तो जनरल को भी समझ में आ सकता है फिर। यानी मैं जो यह कह रहा हूं, मैं यह कह रहा हूं कि जैसे ही ध्यान का विस्फोट होगा--कल तक तुमने जहां अपने को कर्ता माना था, कल तक सब काम तुम्हारा कर्तृत्व का था--जैसे ही ध्यान का विस्फोट होगा, काम सब जारी रहेंगे, लेकिन कर्ता विदा हो जाएगा। और अब तुम्हारी बड़ी तकलीफ होगी कि तुम क्या कहो कि कैसे कर रहे हो।
कल तक तुमने अपनी पत्नी को कहा था कि मैं तुझे प्रेम करता हूं, अपने बेटे से कहा था कि मैं तुझे प्रेम करता हूं। अगर ध्यान का विस्फोट हो गया तो तुम कहोगे कि मैं नहीं जानता, यह प्रेम तेरी तरफ बहता है, मुझे पता नहीं। एक रास्ता तो यह है--कि यह प्रेम हो रहा है; मुझे पता नहीं है। मैं करता हूं, अब मैं नहीं कह सकता। मैंने कभी किया नहीं प्रेम, यह हुआ है। एक तो रास्ता यह है।
यह सेक्युलर हुआ। यानी इसमें परमात्मा को बीच में नहीं लिया गया। समझे न! हम कहते हैं कि प्रेम जो है वह घटता है, कोई करता नहीं। यह सेक्युलर हुई बात। इसमें धर्म को बीच में लेने की जरूरत नहीं समझी गई। यानी यह उसी बात को गैर-धार्मिक ढंग से कहने की व्यवस्था हुई।
लेकिन अगर इसमें और गहराई बढ़ जाए, और गहराई बढ़ जाए, तो तुम्हें यह पता लगेगा कि अगर मैं यह कहता हूं कि मैंने प्रेम नहीं किया और प्रेम घटा है, तो इसके दो मतलब हो गए। या तो प्रेम सिर्फ एक्सीडेंट है, जिसके पीछे कुछ भी नहीं है, कोई सोर्स नहीं है। जो कि बहुत इल्लाजिकल और अनसाइंटिफिक है। क्योंकि अगर घट रही है कोई चीज तो भी कोई ओरिजिनल सोर्स होना चाहिए। नहीं तो घट नहीं सकती। कहां से घटेगी? कैसे घटेगी?
तो धर्म की जो दृष्टि है वह और गहरी है, वह घटना पर ही नहीं रुकती; वह इस पर रुकती है कि मैंने तो प्रेम नहीं किया और प्रेम हो रहा है। और तुमको भी मैं प्रेम करते देखता हूं और मैं देखता हूं कि तुमने प्रेम नहीं किया, प्रेम हो रहा है। और उनको भी प्रेम करते देखता हूं और देखता हूं कि प्रेम हो रहा है। तब इस समग्र का जो इकट्ठा नाम है--धार्मिक--वह परमात्मा है। तब हम समग्र को कह देते हैं कि समग्र की तरफ से हो रहा है। इसमें व्यक्ति नहीं कर रहे हैं। वह जो समग्रीभूत चेतना है, सब जहां इकट्ठे हैं, वहीं से कुछ हो रहा है।
एक वृक्ष बड़ा हो रहा है। अगर हम इस वृक्ष से पूछ सकें और वृक्ष उत्तर दे सके, तो दो ही उत्तर हो सकते हैं। या तो वह यह कहे कि मैं बड़ा हो रहा हूं। जो कि जरा ज्यादा होगा कहना। क्योंकि फिर सूरज का क्या होगा? अगर सूरज न उगे तो वृक्ष बड़ा न हो। हवाओं का क्या होगा? अगर हवाएं न बहें तो वृक्ष बड़ा न हो। जमीन का क्या होगा? अगर जमीन पानी न दे तो वृक्ष बड़ा न हो। लेकिन अगर वृक्ष को भी चेतना आ जाए तो वह यह कहेगा कि मैं बड़ा हो रहा हूं।
लेकिन अगर वृक्ष थोड़ा समझे तो शायद वह कहे कि मैं बड़ा नहीं हो रहा हूं, बड़े होने की घटना घट रही है। लेकिन तब इसमें वह कोई सोर्स नहीं पकड़ पाए, कहां से घट रही है? अगर और उसकी समझ गहरी हो जाए तो शायद वह यह कहे कि समस्त जगत मुझमें बड़ा हो रहा है। समस्त जगत--सूरज भी, पानी भी, जमीन भी, हवा भी, आग भी, सब मुझमें बड़े हो रहे हैं।
अब सारे जगत की अगर एक-एक चीज को गिनाने जाएं तो बहुत असंभव होगा। सब बड़े हो रहे हैं। करोड़ों-करोड़ों मील दूर बैठा एक तारा भी उस वृक्ष के बड़े होने में हाथ बंटा रहा है। आकाश में उड़ती हुई बदली भी हाथ बंटा रही है। दस करोड़ मील दूर बैठा सूरज भी हाथ बंटा रहा है। एक बच्चा सुबह आकर उस वृक्ष को प्रेम करता है और पानी डाल जाता है, वह भी हाथ बंटा रहा है। एक बकरी उस वृक्ष की टहनी काट डालती है, टहनी में से चार टहनियां निकल आती हैं, वह भी हाथ बंटा रही है। अगर हम इन सारी चीजों को गिनाएं तो सेक्युलर ढंग से भी कहा जा सकता है।
लेकिन सारी चीजों को गिनाना बिलकुल बेमानी है। इसलिए धार्मिक आदमी ने एक शब्द निकाल लिया--परमात्मा। परमात्मा का मतलब है: वह सब जो गिना नहीं जा सकता, वह सब हाथ बंटा रहा है।
तो जब मैं यह कह रहा हूं कि वही करवा रहा है, तो उसका मतलब यह है कि यह सब जो है यह सब का होना ही होना है; हम इसमें व्यक्ति की हैसियत से नहीं कुछ कर पा रहे हैं। लेकिन ध्यान की घटना न घटे तो यह दिखाई भी नहीं पड़ेगा। तब तो दिखाई पड़ेगा कि मैं कर रहा हूं।
और इसीलिए ध्यान के पहले अशांति है। क्योंकि वह मैं कर रहा हूं; तो फिर जब न होगा तो मुझसे नहीं हुआ। हारूंगा तो मैं हारा और जीतूंगा तो मैं जीता। तो वह मैं चिंताएं इकट्ठी कर लेगा। ईगो जो है वह एंग्जाइटी का केंद्र है, सारी चिंता का केंद्र मैं है। क्योंकि आज मैं कहूंगा कि हां, मैं जीत गया! और कल हार जाऊंगा तो फिर मुझे कहना पड़ेगा मैं हार गया। तो जब जीत कर अकड़ कर निकला था सड़क पर तो फिर हार कर रोता हुआ निकलना पड़ेगा। तो वह सारी तकलीफ खड़ी होगी।
लेकिन घटना के बाद, हैपनिंग के बाद, ध्यान के बाद वह एवोपरेट हो गया मैं। अब हो रहा है। अब हारे तो परमात्मा हारता है और जीते तो परमात्मा जीतता है। अपना कुछ लेना-देना न रहा। अपन ही न रहे। इसलिए ऐसे आदमी को सुखी और दुखी होने के दोनों उपाय न रहे। और जब सुखी और दुखी होने का कोई उपाय नहीं रह जाता, तब जो शेष रह जाता है वही आनंद है। सुखी-दुखी होने का जब कोई उपाय नहीं रह जाता तब भी तो कुछ शेष तो रह ही जाएगा, मैं तो रहूंगा ही, सब रहेगा, लेकिन तब जो स्थिति होगी वह आनंद की है या शांति की है या मुक्ति की है।
तो इसलिए ध्यान जो है वह अनिवार्य प्रक्रिया है, जिसके बिना मुक्ति, आनंद और शांति का कभी कोई पता नहीं चल सकता। क्योंकि उसके बिना अहंकार नहीं टूटता। और अहंकार टूट जाए तो क्या कहिएगा? क्या कहिएगा, कौन करवा रहा है?
तो एक तो रास्ता यह है कि हो रहा है, कोई भी नहीं करवा रहा। कहने में हर्जा नहीं है। मैं कोई इनकार नहीं करता। इसमें भी कुछ हर्जा नहीं है। लेकिन जितनी गहरी दृष्टि बढ़ेगी वैसे दिखाई पड़ेगा कि कोई नहीं करवा रहा, ऐसा कहना बहुत अवैज्ञानिक है। समष्टि, दि कलेक्टिव भागीदार है। तो परमात्मा जो है वह आमतौर से हम व्यक्तिवाची समझ लेते हैं, वह गलत है। वह व्यक्तिवाची नहीं है। असल में, परमात्मा एकवचन में है ही नहीं; बाइ इट्स वेरी नेचर प्लूरल है, सिंगुलर नहीं है वह। इसलिए परमात्मा शब्द का बहुवचन नहीं बनाया जा सकता। ‘परमात्माओं’ ऐसा नहीं बनाया जा सकता। कोई मतलब ही नहीं है, उसका कोई मतलब नहीं है। परमात्मा एकवचन में ही बोलना पड़े, क्योंकि वह एकवचन है नहीं, वह कलेक्टिव की खबर है, समष्टि की; वह सब जो है, उसकी खबर है। अब सब में सब आ गया। इसलिए अब और आगे बचने को नहीं रहा कि हम परमात्माओं, गॉड्स, ऐसा उपयोग गलत है।
इसीलिए अंग्रेजी जैसी भाषाओं के पास परमात्मा के लिए ठीक शब्द नहीं है। उनका जो गॉड है वह गॉड्स भी हो सकता है। इसलिए वह देवता का पर्यायवाची है, परमात्मा का पर्यायवाची नहीं है। देवता बहुवचन में हो सकते हैं; परमात्मा नहीं। वह शब्द जो है वह समष्टि का, सबका, दि होल। अंग्रेजी का ‘होली’ शब्द ज्यादा करीब है परमात्मा के, क्योंकि वह ‘होल’ से बनता है। होल से ही होली बनता है। होली शब्द ज्यादा ठीक है, वह परमात्मा का अर्थ रखता है। लेकिन उसका हमने मतलब पवित्रता और दूसरी बातें ले लीं, अब वह ठीक नहीं है। दि होली, वह निकट से पकड़ता है बात को, कि वह जो समष्टि है, इकट्ठा जहां सब हो गया है। उस इकट्ठे को कोई नाम हम देना चाहें तो कोई नाम दिया जा सकता है, वह नाम परमात्मा है।
यानी जब मैं यह कह रहा हूं कि मैं नहीं कर रहा, तो मैं यह कह रहा हूं कि सब कर रहे हैं, उस करने में मैं सिर्फ एक हिस्सा हूं, उससे ज्यादा नहीं। और यह खयाल में आ जाए तो सारी चिंता गई। क्योंकि तब न हार है, तब न जीत है; तब न जन्म है, तब न मरण है। क्योंकि कौन मरेगा, कौन जीएगा--सब तो सदा है। वह व्यक्ति मरता और जीता है--तो वह गया, वह ध्यान में डूब गया, खतम हो गया।
तो ध्यान को करने की कोशिश मत करना। इतना खयाल लोगे तो बहुत अच्छा होगा।
प्रश्न:
भगवान, पर इसके साथ ही, अगर किसी के मन में यह विचार है कि भगवान जो करता है, देखता जाता है। सब इन्सान उसकी एक आदत बन गई है कि जो हो रहा है ठीक है, साक्षी बन जाता है। लेकिन जब वह एक भी आदमी देखे कि वह गलत बोल रहा है और वह रोक देता है उसको कि यह गलत है बात। कठोर शब्द उससे निकल जाते हैं। तो सब लोग उससे बोलते हैं, तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। क्योंकि तुमने इतने कठोर शब्द कह कर उसका दिल दुखाया। लेकिन मैं तो यह समझती हूं कि यह बात जो है निकलवाई गई है भगवान की तरफ से। कही गई है कि यह गलत है।
नहीं, अगर यह भगवान से निकलवाई गई है, तो वह जो तुम्हारी गरदन दबा कर कह रहे हैं कि ‘ये कठोर शब्द निकले’ वह भगवान से नहीं निकलवाए गए? मामला खतम ही है, उसमें क्या दिक्कत है! तुम्हारी तो भगवान से निकलवाई गई है और यह जो दूसरे आपसे कह रहे हैं कि तुमने गाली देकर बहुत बुरा किया, यह किससे निकलवाई गई है? इनको तुम छोड़ देती हो भगवान के बाहर। तब फिर बेईमानी हो जाती है, तब बेईमानी हो जाती है। यही तो बेईमानी चल रही है पूरे वक्त। और जब सभी भगवान से निकलवाया गया है तब क्या सवाल है?
प्रश्न:
नहीं, जो हो रहा है, आटोमेटिक कहलवाया गया है।
न, न, न, उनसे भी आटोमेटिक हो रहा है। तुम्हीं से आटोमेटिक हो रहा है? और वह जो आदमी ने बुरा काम किया था, जिसको तुमने गाली दी है, वह उससे भी आटोमेटिक हो रहा है। और ये बेचारे जो तुमसे कह रहे हैं कि तुमने बहुत कठोर शब्द बोल दिए, यह भी आटोमेटिक हो रहा है।
नहीं, हमारी कठिनाई यह है कि साक्षी का हमें पता नहीं है। इसलिए हम मान लेते हैं कि अगर साक्षी हो जाएं। अगर का सवाल नहीं है वहां; वह तो पता होगा तो फिर ये तीनों बातें ही एक हो गईं, इसमें कुछ झंझट न रही, इसमें कोई झंझट न रही। लेकिन हम मान कर सवाल उठाते हैं। हम कहते हैं कि अगर साक्षी हो गए और फिर ऐसा हुआ। तो अभी साक्षी तो हुए नहीं, इसलिए वह जो फिर ऐसा हुआ जो आप सोच रही हैं वह साक्षी होने के पहले का सोचना है। साक्षी हो गए तब क्या बात है? तब कोई बात ही नहीं है। तब कोई सवाल ही नहीं है।
महाभारत में एक बहुत मजेदार बात आती है। महाभारत में एक बात आती है कि दिन भर लड़ाई चलती, दिन भर लड़ते। सांझ जब लड़ाई बंद हो जाती तो सब एक-दूसरे के शिविरों में जाकर गपशप करते। वे जो दिन भर लड़े थे मैदान पर, दुश्मन थे, और जी-जान लगा दी थी एक-दूसरे को मारने-मिटाने में, जब बिगुल बज जाता और लड़ाई बंद हो जाती, तो फिर सब एक-दूसरे के शिविर में जाकर गपशप भी होती, बैठ कर बातचीत भी होती, रात आधी रात तक सब चर्चा भी चलती कि कौन मर गया, कौन बच गया। ये वही लोग जो दिन भर बिलकुल जी-जान से लड़े। बड़े अदभुत लोग हैं। क्योंकि जिससे हम दिन भर लड़े हैं उससे शाम को गपशप करने थोड़े ही जाएंगे। और जिससे हमने शाम को गपशप की है उससे दूसरे दिन लड़ेंगे कैसे!
पर यह हो सकता है। पर यह जिस तल पर होता है उसको मान कर नहीं चलना चाहिए। उसको मान कर नहीं चलना चाहिए कि हां, साक्षी हो गए। ऐसा मान कर नहीं सवाल बनाएं। साक्षी हो जाओ और फिर सवाल लाना। क्योंकि साक्षी कभी कोई सवाल नहीं लाया। असल में, साक्षी के लिए सवाल ही न बचा। प्रश्न तो उठते हैं हमारे कर्ता होने से। साक्षी अगर हो गए तो जो है वह है, अब प्रश्न का क्या सवाल है! इसको ठीक से समझ लेना जरूरी है। हमारे सारे प्रश्न हमारे कर्ता के भाव से उठते हैं। अगर कर्ता नहीं है तो प्रश्न क्या है? जो है--है। मैंने तो किया नहीं है। तो प्रश्न कैसे उठे?
कल मुझसे किसी ने एक बहुत बढ़िया बात पूछी। कल मुझसे किसी ने पूछा कि आपने कभी किसी से प्रश्न पूछा?
मैंने तो नहीं पूछा। अपनी पूरी जिंदगी में नहीं पूछा। ऐसा नहीं कि अभी नहीं। मैंने कभी किसी से प्रश्न पूछा ही नहीं। कभी मेरे घर के लोगों ने मुझे कहा भी हो कि मुनि आए हैं, कोई संन्यासी आए हैं, कोई स्वामी आए हैं। छोटा भी था तो मैं कहा, मैं चलता हूं। मेरे पिता मुझे कई दफा कहें कि इतनी बातचीत करते हो, कुछ पूछ लो! मैं कहूं, मैं क्यों पूछूं? क्योंकि अगर मैं पूछूं, कहूं कि ईश्वर है? और वह संन्यासी कह दे, है। तो मुझे क्या फर्क पड़ेगा? और वह कह दे, नहीं है। तो मुझे क्या फर्क पड़ेगा? यह तो मुझे ही खोजना पड़ेगा। इसके कहने से तो कुछ फर्क नहीं पड़ने वाला। और अगर वह कह दे--है, और झूठ बोल रहा हो, तो मैं कहां पता लगाऊं?
तो मेरे घर के लोग कहते, चार आदमियों से पता लगा सकते हो कि यह आदमी झूठ नहीं बोलता।
मैं उन चार आदमियों का किससे पता लगाऊं कि ये झूठ नहीं बोलते? इसका कोई मतलब नहीं है। एब्सर्ड है। मैं कहां पता लगाता फिरूंगा ऐसा? इसका तो कोई अंत ही नहीं होगा। क्योंकि मैं, संन्यासी झूठ नहीं बोलता, यह चार से पता लगाऊं। और ये चार झूठ नहीं बोलते, यह फिर सोलह से पता लगाऊं। और वे सोलह सच बोल रहे हैं कि झूठ बोल रहे हैं...। इसका कोई अंत नहीं होगा। तो मैंने कहा, मैं पता खुद ही लगा लूंगा। मैं इधर से शुरू करूं, उधर जाने की कोई जरूरत नहीं। किसी से क्या पूछना है!
सारे प्रश्न जो हैं...
प्रश्न:
रियलिटी में प्रश्न भी नहीं हैं।
नहीं हैं, नहीं हैं। हो ही नहीं सकते। वहां जो है--है। उसके लिए कोई न कारण दिया जा सकता, न कारण है। तो इसलिए वहां सवाल नहीं है, वहां सवाल नहीं है। लेकिन हमारा जो कर्ता है वह अनरियल है। वह है नहीं। इसलिए वह हर चीज में सवाल उठाता है।
मैं युनिवर्सिटी छोड़ा, तो जिनके घर पर मैं रहता था, उनको आकर मैंने कहा कि आज मैं नौकरी छोड़ आया।
तो उन्होंने कहा कि अरे! तो पूछ तो लेते। इतने दिन से हमारे साथ हो, आठ वर्ष से, तो हमें कम से कम एक बार पूछ तो लेना था।
तो मैंने उनसे पूछा कि जब मैं मरूं, तो आपसे पूछ कर मरूंगा?
उन्होंने कहा, नहीं, मुझसे पूछ कर कैसे मरोगे?
मैं जब जन्मा, आपसे पूछ कर जन्मा?
उन्होंने कहा कि नहीं।
तो मैंने कहा कि फिर क्या पूछना किससे है? असली काम तो बिना ही पूछे हुए जा रहे हैं, तो मैं फालतू काम क्यों पूछने आऊं?
तो उन्होंने कहा कि और कल अगर--नौकरी छोड़ दी है--कल अगर खाना न मिले, रोटी न मिले; भूखा मरना पड़े।
तो मैंने कहा कि मैं भूखा मरूंगा। वह भी मैं किसी से पूछने नहीं जाऊंगा कि मैं भूखा क्यों मर रहा हूं। इसमें क्या पूछने की बात है? मैं समझूंगा कि भूखा मरने का वक्त आ गया, तो भूखा मर रहा हूं।
उन्होंने कहा, अगर कोई मित्र तुम्हें खिलाएगा-पिलाएगा नहीं, ठहरने नहीं देगा--वे बहुत नाराज थे--कोई ठहरने नहीं देगा, कोई खिलाएगा-पिलाएगा नहीं, फिर क्या करोगे?
मैंने कहा कि जो उस वक्त हो जाएगा वह मैं करूंगा। आपसे मैं यह भी पूछने नहीं आऊंगा कि क्या करूं। क्योंकि सवाल यह है, जो मेरी समझ में आएगा उस वक्त, मैं कर लूंगा। अगर गड्ढा खोदना पड़ेगा तो गड्ढा खोद लूंगा। मिट्टी काटनी पड़ेगी, मिट्टी काटनी पड़ेगी।
उन्होंने कहा कि न तुम गड्ढा खोदोगे, न तुम मिट्टी काटोगे।
तो मैंने कहा कि फिर अगर खाना नहीं मिले, गड्ढा भी न खोद सकूं, मिट्टी भी न काट सकूं, कोई खिलाने वाला भी न हो, तो किसी कुएं में, किसी खाई में कूद जाऊंगा। लेकिन मैं क्या करूंगा, यह मैं पूछने नहीं जाऊंगा किसी से। क्योंकि मेरे होने न होने में किसी के भी उत्तर का कोई संबंध नहीं है।
अगर एक बार हमें यह खयाल में आ जाए कि हमारे सारे प्रश्न, हमारी एक फाल्स एनटाइटी है, जिससे उठते हैं। वह अपनी रक्षा के लिए सारा इंतजाम कर रही है। वह हजार सवाल उठा रही है, वह हजार व्यवस्थाएं कर रही है--ऐसा हो जाएगा तो क्या करोगे? ऐसा हो जाएगा तो क्या करोगे? ऐसा हो जाएगा तो क्या करोगे? वह सारे इंतजाम में लगी हुई है। और उस सारे इंतजाम में वह मजबूत होती चली जा रही है। अगर ऐसा चलता रहे, तो हर प्रश्न का उत्तर दस नये प्रश्न उठाता चला जाएगा। एंडलेस होगा, उसका कोई अंत नहीं होने वाला।
चीजें जैसी हैं--हैं। एक आदमी ने गाली दी है और तुमने उसको चांटा मारा है और दूसरे ने तुमको चांटा मारा है। चीजें ऐसी हैं, हंसो और घर चले जाओ। इसमें पूछना क्या है? तुमको ही आटोमेटिक हुआ, उसको भी आटोमेटिक हुआ, उसको भी आटोमेटिक हुआ। अब आटोमेटिक कौन करवा रहा है, वह कभी मिल जाए तो उससे पूछना कि यह कैसा आटोमेटिक करवा रहे हो तीन तरह का कि हमको ऐसा हो रहा है, इनको ऐसा हो रहा है, इनको ऐसा हो रहा है। वह कभी मिलेगा नहीं। और जब तुम उसके पास पहुंचोगी, तुम मिट जाओगी। पूछने वाला नहीं रहेगा, कोई उत्तर देने वाला नहीं रहेगा।
लेकिन हम मान कर कर लेते हैं। मान कर बहुत दिक्कत हो जाती है। और सब चीजों में तो चलता है। गणित में हम मान लेते हैं कि एक आदमी बाजार गया, उसने एक दुकान से छह आने के केले खरीदे, तीन दर्जन खरीदे तो कितने आने हुए। हम मान कर चलते हैं। मुझे बहुत मजा आता था। मेरे एक गणित के शिक्षक थे, वे बहुत नाराज हो जाते थे। वे कहते कि मान लो एक आदमी बाजार गया। मैंने कहा कि मानें क्यों? कहां गया बाजार? तो वे कहते कि तुम नासमझ हो, तुमको पता नहीं है। यह गणित है, इसमें मान कर चलना पड़ता है। मैं कहता कि आदमी गया ही नहीं, तो हम क्यों झंझट में पड़ें? आदमी कहां है?
यह सब बहुत आनंदपूर्ण था। वे मुझे क्लास के बाहर कर देते कि तुम बाहर रहो। वे कहते कि उसने तीन दर्जन केले खरीदे। मैं कहता, लेकिन खरीदे कब हैं? कहां खरीदे हैं? लेकिन वे कहते कि गणित इसके आगे नहीं बढ़ सकता, यह गणित में तो मान कर चलना ही पड़ेगा। तो मैं कहता कि जहां मान कर ही चलना है, तो मान लो उसने तीन दर्जन केले खरीदे तो ऐसा क्यों नहीं मानते सरल कि जिसमें कोई ज्यादा झंझट न हो! एक रुपया दर्जन के खरीदे, तीन रुपये में खरीद लिए। जब मान कर ही चलना है, तो पांच आने छह पाई के खरीदे और इतनी परेशानी क्यों करते हो?
तो वे कहते कि तुम समझ ही नहीं पाते हो। उन्होंने मुझे कभी...वह उनकी अकल में नहीं आई यह बात कि मैं मजाक कर रहा हूं। वे यही सदा समझे कि तुमको गणित कभी अकल में आ ही नहीं सकता। तुम गणित समझने के योग्य नहीं, तुम बाहर खड़े हो जाओ क्लास के। तुम पूरी क्लास को खराब कर देते हो। क्योंकि बाकी लड़के भी पूछने लगे कि हां, मानें क्यों?
अगर मानें न तो बहुत मुश्किल हो जाता है। और सारा खेल जो है वह मान कर चल रहा है कि ऐसा हो तो ऐसा हो, ऐसा हो, ऐसा हो। लेकिन वह पहली कड़ी क्यों मानने की जरूरत है? साक्षी हो जाओ, फिर देखना। न कोई बाजार जाता, न कोई केले खरीदता, न कोई हिसाब है। लेकिन वह साक्षी हो जाने के बाद, उसके पहले नहीं। सब गणित उसके पहले है, उसके बाद कोई गणित नहीं है।
सपोज की कोई जगह नहीं है जिंदगी में। और हम पूरा काम सपोज से चल रहे हैं। पति घर लौट रहा है तो वह सपोज करके आ रहा है कि पत्नी यह कहेगी--इतनी देर कहां थे--तो क्या जवाब दूंगा। वह सब सपोजीशन चल रहा है। पत्नी घर पर तैयार हो रही है कि पति आ रहा है, वह जरूर कहेगा कि दफ्तर में काम था इसलिए देर हो गई, तो फोन करके पता लगा लो कि दफ्तर में पांच बजे तक था कि नहीं था। यह सब सपोजीशन चल रहा है। और इस सपोजीशन में बड़ी झंझट हो रही है। क्योंकि वह दोनों का गणित तैयार है। और वे गणित टकरा जाने वाले हैं, क्योंकि दोनों के अपने सपोजीशंस हैं।
यानी सीधी बात है कि पति देर से आ रहा है, बात खत्म हो गई। अब इसमें और क्या जांच-पड़ताल करनी है! पति देर से आने वाला है, ऐसा आदमी मिला है जो देर से आता है, बात खत्म हो गई।
मगर नहीं, हम जिंदगी जैसी है वैसी स्वीकार नहीं करते। इसलिए हम उसके तरफ चारों तरफ जाल बुनते रहते हैं कि ऐसा होगा, ऐसा होगा। और तब एक दिमाग का जाल है। फिर हम कहते हैं, मन शांत नहीं होता, विचार बहुत चक्कर काटते हैं। और विचार तुम चौबीस घंटे पैदा कर रही हो। सब विचार सपोजीशन पर खड़े हैं। सब विचार! कि मान लो ऐसा हो जाए, बस उसमें सब खेल चल रहा है।
जैसा हो रहा है वैसा हो रहा है, जैसा होगा वैसा होगा। अगर ऐसा खयाल में आ जाए तो विचार की कहां गुंजाइश है? यह बात समझे न?
प्रश्न:
विचार के तरंग भी स्वाभाविक हैं?
जी!
प्रश्न:
जिस तरंग में विचार नहीं होता वह भी स्वाभाविक है?
स्वाभाविक तो सभी है।
प्रश्न:
लेकिन विचार करके काम करेंगे तो वह अस्वाभाविक हो जाएगा।
हां, हो जाने वाला है। लेकिन वह भी मनुष्य का स्वभाव है। नहीं तो वह भी नहीं हो सकता था। अस्वाभाविक होना भी मनुष्य का स्वभाव है। सिर्फ मनुष्य ही हो सकता है। कुत्ता नहीं हो सकता, बिल्ली नहीं हो सकती। मनुष्य ही हो सकता है। तो मनुष्य के स्वभाव की एक खूबी है कि वह अस्वाभाविक हो सकता है। वह उसका स्वभाव है।
प्रश्न:
यह जो सपोजीशन चल रही है यही सब भय का कारण है।
सारे भय का कारण है।
प्रश्न:
शिव सेना क्या कर रही है! दूसरे लोग क्या कर रहे हैं!...
हां-हां, यह सारा भय है, सारा भय है, सारा। हमने कितने सपोज किए हुए हैं--कि स्वर्ग होगा, सपोज स्वर्ग हो, नरक हो, पाप का फल मिलता हो, पुण्य का फल मिलता हो, भगवान हो, जवाब पूछे, कयामत आ जाए, उठाए और पूछे कि तुमने यह क्या किया? वह क्या किया? यह सारा सपोजीशन है।
प्रश्न:
रियलिटी इससे डिफरेंट है?
कुछ मतलब नहीं है इसका, इसका कोई मतलब नहीं है। लेकिन मनुष्य के स्वभाव का यह हिस्सा है कि वह अस्वाभाविक हो सकता है। अस्वाभाविक होता है तो दुख पाता है। दुख का मतलब है: अस्वाभाविक होने का फल। स्वाभाविक होता है, सुख पाता है। सुख का मतलब है: स्वाभाविक होने का फल। लेकिन स्वाभाविक होने की चेष्टा मत करना, नहीं तो वह भी अस्वभाव ही होगा। अस्वाभाविक होने को समझ लेना, बात खत्म हो जाएगी, धीरे-धीरे स्वभाव आ जाएगा। चीजें जैसी हैं--हैं। यह खयाल आ जाए तो ध्यान के लिए बड़ी संभावना बन जाती है।
प्रश्न:
भगवान, इस अहं-भाव की निवृत्ति कैसे हो? यानी साक्षित्व लाया नहीं जाता और साक्षी बना नहीं जाता। केवल हम कुछ बने हुए हैं, उसी के कारण साक्षीपन की अनुभूति नहीं हो रही है। तो यह अहं-भाव, जो बने हुए हैं हम, उसकी निवृत्ति कैसे हो?
नहीं-नहीं, उसकी निवृत्ति आप कर ही नहीं सकते हैं। क्योंकि जो कह रहा है कि मैं निवृत्ति कैसे करूं--वही है अहं। उसकी आप निवृत्ति कर ही नहीं सकते। अहंकार इतना सूक्ष्म है कि जब वह यह पूछता है कि अहंकार को कैसे मिटाएं? तो वही पूछ रहा है। सवाल और कहीं से नहीं आ रहा है। क्योंकि अहंकार के पीछे तो सवाल ही नहीं है, वहां अहंकार है ही नहीं। अहं उसका हिस्सा है। साक्षी होने की जो चित्त-दशा है उसका हिस्सा नहीं है।
अब जैसे समझ लीजिए, पानी है, पानी पूछता है कि मैं अपनी तरलता कैसे मिटाऊं? लिक्विडिटी कैसे मिटाऊं?
तो पानी तो तरल होकर ही हो सकता है। तो पानी तो तरलता नहीं मिटा सकता, क्योंकि पानी की परिभाषा में तरलता है। तरलता उसका हिस्सा है। हम उसको कहते हैं कि सौ डिग्री तक गर्म हो जाओ, कि शून्य डिग्री के नीचे ठंडे हो जाओ। तो शून्य डिग्री के नीचे होकर ठंडे हो जाओगे, तुम पानी रह नहीं जाओगे, बर्फ हो जाओगे।
तो वह कहता है कि वह तो ठीक है, मान लिया कि बर्फ हो गए, लेकिन तरलता कैसे मिटेगी? उसकी जो तकलीफ है, वह होकर तो नहीं देख रहा है। वह कह रहा है कि मान लिया कि बर्फ हो गए, लेकिन तरलता कैसे मिटेगी?
हम उससे कहते हैं, सौ डिग्री तक गर्म हो जाओ, तो तुम भाप हो जाओगे।
वह कहता है कि मान लिया कि भाप हो गए, लेकिन तरलता कैसे मिटेगी?
नहीं, तरलता तो पानी की ये सौ डिग्री के बीच का ही खेल है। अहंकार जो है वह कर्ता की डिग्रियों के बीच का खेल है। या तो उससे नीचे गिर जाओ। जैसे बेहोशी में गिर जाता है आदमी। अहंकार चला जाता है। वह फ्रोजेन स्थिति है, बर्फ हो गए आप। नीचे गिर गए। इसीलिए तो शराब का इतना शौक है। अहंकार से छुटकारा है--नीचे गिर कर। बर्फ की स्टेट में ला देता है वह आप को। लेकिन जिंदगी बहुत उष्ण है, ज्यादा देर बर्फ नहीं रह सकते। जिंदगी की उष्णता पिघला कर फिर पानी बना देती है। सुबह होते ही फिर नशा नदारद हो जाता है। फिर होश आता है, फिर पता चलता है कि मैं हूं।
तो एक रास्ता तो है कि बेहोश हो जाएं, तो अहंकार के बाहर हो जाएंगे। लेकिन इसका आपको पता नहीं चलेगा कि बाहर हो गए, क्योंकि बेहोश होकर बाहर हुए हैं। और दूसरा रास्ता यह है कि आप साक्षी में पहुंच जाएं, तो आप पाएंगे कि बाहर चले गए हैं। लेकिन चूंकि साक्षी में गए हैं, तो साक्षी तो होश है, इसलिए आपको यह भी पता चलेगा कि अहंकार नहीं रहा।
तो साक्षी की अवस्था और बेहोशी की अवस्था में बहुत बार भूल हो जाती है।
जैसे अब मेरी समझ है कि रामकृष्ण कभी भी साक्षी की अवस्था में नहीं पहुंचे। वे बेहोशी की अवस्था में ही पहुंचते रहे और वे नीचे ही गिरते रहे। लेकिन वे अवस्थाएं बिलकुल एक जैसी लगती हैं। क्योंकि पानी दोनों हालत में तरल नहीं रह जाता है। एक गुण तो दोनों में बराबर है बर्फ में और भाप में--कि तरलता खो जाती है।
प्रश्न:
भगवान, यह अहंकार भी रहे तो रहे, यह भी आत्मा का एक रूप है। इसको मारने की कोशिश क्यों करते हैं?
आत्मा की वृत्ति नहीं है यह।
प्रश्न:
नहीं, जो भी है, वह आत्मा का ही गुण है, वह रहे तो रहे। उसको मारने की कोशिश ही क्यों करनी?
नहीं-नहीं, कोई सवाल ही नहीं है करने का। मैं वही तो कह रहा हूं। नहीं, कोशिश करने का सवाल तो है ही नहीं। कोशिश करिएगा भी तो नहीं मार सकते हैं।
प्रश्न:
आजकल जितनी दुनिया है वह अहंकार को मारने के पीछे पड़ी है।
वह भी अहंकार का हिस्सा है, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। अहंकार को बढ़ाने की कोशिश करो कि मारने की कोशिश करो, दोनों हालत में अहंकार रहेगा। उससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। तो मैं कोशिश की बात नहीं कह रहा, मैं तो यह कह रहा हूं कि कर्ता होने की स्थिति से एक छलांग अपने आप घटती है।
प्रश्न:
साक्षी बन करके उस अहंकार को देखते रहो।
देखने को बचेगा नहीं वहां। यही तो सारी गड़बड़ है। वह सपोजीशन का मामला है। हम कहते हैं, साक्षी बन कर अहंकार को...। साक्षी जहां होगा वहां अहंकार कैसे होगा? दोनों बातें साथ नहीं होने वाली। साक्षी हुए कि तुम पाओगे--अहंकार न था, न है, न हो सकता है।
जैसे कि सुबह कोई आदमी कहे, रात सपना देखे और सुबह कहे कि सपने को कैसे तोड़ें? हम उससे कहेंगे, तुम तो नींद तोड़ो, सपने की फिकर छोड़ दो। वह कहे, हां, यह बात ठीक है, जाग कर सपने को देखते रहें। तो क्या मतलब रहेगा? वह जाग कर कैसे सपने को देखता रहेगा? वह जागने के साथ सपना टूट जाएगा। जागते से ही सपना देखने को बचेगा नहीं। वह नींद का हिस्सा है।
सपना मूल नहीं है, नींद मूल है। तो नींद तो बिना सपने की हो सकती है, लेकिन सपना बिना नींद के नहीं हो सकता। इसलिए सपने से मत लड़ो। क्योंकि अगर सपने में तुम सपने से भी लड़े, तो तुम सिर्फ नये सपने पैदा कर सकते हो, और कुछ भी नहीं कर सकते। जाग जाओ, सपने की फिकर ही छोड़ो। वह नींद का हिस्सा है, तुम जाग गए तो वह नींद के साथ गया। वह बचेगा नहीं कहीं।
हमारे कर्ता होने की जो नींद है, अहंकार उसका सपना है। अहंकार से लड़े तो नींद में ही चलेगी लड़ाई, कहीं पहुंचने वाले नहीं। दो तरह के नींद के सपने हो सकते हैं। कि एक आदमी कहे कि अब मैं बिलकुल निर-अहंकारी हो गया। मगर ‘मैं’ ही हो गया निर-अहंकारी। होगा कौन निर-अहंकारी? एक आदमी कहे कि मैं तो बड़े अहंकार से भरा हुआ हूं। एक कहे कि मुझमें तो अहंकार बचा ही नहीं। लेकिन दोनों में ‘मैं’ बचे हुए हैं। वे दो तरह की घोषणाएं कर रहे हैं। उससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। मैं मौजूद है और घोषणा कर रहा है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है।
नहीं; एक आदमी जाग गया। तुम उससे पूछो कि अहंकार मिट गया तुम्हारा? वह कहेगा, था ही नहीं। क्योंकि होता तो मिटाना मुश्किल था। मिटता कैसे? जो है वह कभी मिटता नहीं है। वह कहेगा, था ही नहीं। तो हम कहेंगे, अहंकार से छुटकारा हो गया तुम्हारा? वह कहेगा, हम कभी फंसे न थे, बंधे न थे। तब हमें उसकी भाषा समझ में नहीं आती। हम कहते हैं कि बड़ी मुश्किल की बात है। हम तो उसी से फंसे हैं। तो हमें कोई तरकीब बता दो कि तुम कैसे निकल गए बाहर?
वह कभी बाहर निकला नहीं; उसने जाग कर देखा और उसने पाया कि नींद में सपना देखा था कि बंधे हैं।
तो इसलिए मेरा सारा जोर इस बात पर है कि जिंदगी जैसी है उसको चुपचाप स्वीकार कर लो। जो है उसे पूरी तरह स्वीकार कर लो। जिस दिन स्वीकृति पूरी हो जाएगी, इंच मात्र भी अस्वीकृति तुम्हारे भीतर न होगी, उसी दिन तुम पाओगे घटना घट गई। उसके बाद एक क्षण रुकने की जरूरत नहीं है घटना को। बस उस क्षण तक घटना नहीं घट पाएगी। वह घट जाएगी। और उसके पार नहीं है; उसके पार यह भी पता है कि पहले भी नहीं था।
इसलिए जो कोई कहता है कि अहंकार छोड़ो! गलत बातें कह रहा है, गलत बातें कह रहा है। अहंकार छोड़ा नहीं जा सकता। क्योंकि छोड़ना-पकड़ना सब अहंकार की तृप्ति है। जो हमारी सारी तकलीफ है वह ऐसी है जैसे कि कुत्ता पूंछ को पकड़ रहा है अपनी। पास दिखाई पड़ती है बिलकुल, मुंह के पास रखी है बिलकुल, उचकता है। जब वह उचकता है तो पूंछ भी उचक जाती है। फिर उतना ही फासला रह जाता है। फिर वह देखता है कि पास तो बिलकुल है, जरा छलांग ठीक से लगानी चाहिए। अभी ठीक से पकड़ नहीं पाया, क्योंकि मैं जरा चूक गया। अब ऐसी ताकत से उछलो कि पूंछ मिल जाए वहां जहां है। वह जितनी ताकत से उछलता है उतनी ताकत से पूंछ उछल जाती है, क्योंकि वह पूंछ कुत्ते का हिस्सा है। तो वह सोचता है, इस तरफ से पकड़ में नहीं आती, इस तरफ से पकड़ो। मुंह फिराओ, उलटी तरफ से पकड़ लो। उधर से भी छलांग लगाता है, वह पाता है कि यह पूंछ हमेशा उचक जाती है। उसको यह पता नहीं चल पाता, पता चले भी कैसे, कि पूंछ उसकी छलांग में जुड़ी हुई है।
इसलिए वह धन इकट्ठा करता है तो अहंकार मजबूत हो जाता है। तो वह सोचता है: धन छोड़ दो। वह धन छोड़ देता है तो अहंकार मजबूत हो जाता है। वह पूंछ है उसकी जुड़ी हुई। वह कहता है, गृहस्थी में अहंकार से छुटकारा नहीं होगा, संन्यासी हो जाओ। तो संन्यासी का अहंकार पकड़ लेता है। अंतर कुछ पड़ता नहीं। अंतर पड़ नहीं सकता।
कुत्ते को किसी दिन समझना पड़ेगा कि पूंछ अपनी है, पकड़ने की जरूरत नहीं, अपने पीछे ही लटकी हुई है। इसको छोड़ो, इसकी झंझट में ही पड़ने की जरूरत नहीं। यह पूंछ अपनी ही है, इसको पकड़ना क्या है! यह पकड़ी ही हुई है। बस कुत्ता मुक्त हो गया। अब वह पूंछ को पकड़ता नहीं। अब वह शान से चला जा रहा है।
जो सारी कठिनाई है हमारी, वह कठिनाई बहुत ही विसियस है। क्योंकि हम जो करते हैं उससे वह कठिनाई और बढ़ती हुई मालूम पड़ती है, घटती नहीं। कुत्ता पागल हो सकता है, इतनी जोर-जोर से छलांग लगाने लगे पकड़ने को पूंछ कि पगला जाए, दिमाग खराब हो जाए उसका। और उसको पूंछ इतने करीब लगती है कि वह सोचता है: इस बार चूक गए, अगली बार पकड़ लेंगे। दूर तो दिखती नहीं, इतनी पास है। इससे भी दूर की चीजें पकड़ ली हैं उसने सदा। तो यह तो पूंछ है। उतनी दूर मिठाई पड़ी थी, उसने छलांग लगाई और पकड़ ली। उतने दूर आदमी जा रहा था, दौड़ा और पकड़ लिया। दूर-दूर की चीजें पकड़ लीं। तो कुत्ते के मन को बड़ा दुख होता है कि यह जो पूंछ है, इतने पास रखी है, यह चूकी जा रही है, तो मन में बड़ा क्रोध भरता है। क्रोध से जोर से छलांग बढ़ती है।
संन्यासी और गृहस्थ जो हैं, करवट बदले हुए पूंछ पकड़ रहे हैं। और कुछ फर्क नहीं है। एक इधर से पकड़ रहा है, एक उधर से पकड़ रहा है। पूंछ को पकड़ो ही मत।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
वे तो यह कहेंगे ही। वे यह कहेंगे ही। हरिद्वार गईं, यह आपकी गलती। उनको महात्मा समझा, यह आपकी भूल। उसमें वे क्या करें। वे क्या करें। आपके लौटने का इंतजाम करते हैं कि लौटो। टिकट खरीदो और वापस जाओ। अगर हरिद्वार न जाओ, तो कुछ दिन में महात्मा बंबई आएगा इधर आपके पास कि माई, कुछ जानना हो तो हम बताने आए हैं। उससे कहना कि बाबा, कुछ नहीं जानना, जा। तो वह हरिद्वार चला जाएगा।
प्रश्न:
अहंकार से मुक्त होना ही परमात्मा का मिलन है या परमात्मा के मिलन से अहंकार से मुक्त होते हैं?
बिलकुल, एक ही बात को कहने के दो ढंग हैं।
प्रश्न:
जैसे परमात्मा की अनुभूति हो जाने पर स्वतः का ही आनंद लिया जा सकता है या दूसरे भी...
दूसरा कुछ स्वतः बचता नहीं। वही तो झंझट है। वही तो हम सपोजीशन की वजह से हम परेशान हैं। परमात्मा की अनुभूति होने पर दूसरा बचता नहीं है। स्व भी नहीं बचता।
प्रश्न:
भगवान, लेकिन अपनी जो जरूरतें हैं, खाना-पीना और फैसेलिटीज, हम अपने लिए कमाते हैं। ऐसे हम दूसरे के लिए भी परमात्मा की अनुभूति...
यह सारी कठिनाई जो है हमारी, यह हम पहले से पूछ रहे हैं। ये सारे जो सवाल हैं, ये ऐसे सवाल हैं कि हम पहले से पूछ रहे हैं।
यह ऐसा मामला है कि एक आदमी बैलगाड़ी में बैठा है। उसको हमने कहा कि हवाई जहाज भी होता है। उस आदमी ने कहा, बैल कितने लगते हैं हवाई जहाज में? हमने कहा, बैलगाड़ी से बहुत तेज चलता है। उसने कहा, तो बैल तो हजार, दो हजार बांधने पड़ते होंगे। हमने कहा, भई, बैल लगते ही नहीं। उसने कहा, क्या बातें कर रहे हो? अगर चलता है तो बिना बैल के चलेगा कैसे? बिना बैल के चलेगा कैसे? हांकने वाला रहता है? हमने कहा, हांकने वाला नहीं रहता, क्योंकि बैल ही नहीं रहते। तो वह कहे, बिना हांकने वाले के कहीं चल सकता है!
मेरा मतलब समझ रहे हैं न। वह जो आदमी...दूसरा, कि रास्ता--कितना बड़ा रास्ता बनाना पड़ता है? हवाई जहाज को चलने के लिए कितना बड़ा रास्ता बनाना पड़ता है? हम कहें कि रास्ता बनाना नहीं पड़ता। उसकी जो कठिनाई है वह कठिनाई बैलगाड़ी में बैठ कर हवाई जहाज के संबंध में प्रश्न पूछने की कठिनाई है। जो बिलकुल स्वाभाविक है।
हमारी सब की कठिनाई यही है। तो मैं यह कहता हूं कि इसकी...ये प्रश्न अर्थ नहीं रखते। क्योंकि हम जो भी करेंगे वे प्रश्न गड़बड़ होंगे। गड़बड़ होने वाले हैं वे। क्योंकि हमें उस जगह का कोई पता नहीं है, कोई पता नहीं है कि वहां क्या होगा। उस संबंध में बिलकुल ही अज्ञात जाना पड़ेगा तुम्हें। उत्तर पहले मिल भी नहीं सकते हैं।
और इसलिए सब उत्तर नकार के होंगे, निगेटिव होंगे। यानी हम इतना ही कह सकते हैं कि नहीं, बैल नहीं होते, बैलगाड़ी वाले से। इतना तू पक्का मान। एक बात पक्की है कि बैल नहीं होते। और यही उसकी तकलीफ है। क्योंकि बैल अगर हों तो वह समझ भी ले कि हवाई जहाज, ठीक है, बड़ी बैलगाड़ी होगी। यही उसकी तकलीफ है। हम उससे कहते हैं, बैल नहीं होते। वह कहता है, आप निषेधात्मक बताते हैं। आप हमको पाजिटिवली बताओ। बैल नहीं होते, घोड़ा होता है? क्या होता है, यह बताओ! पाजिटिवली बताओ। और बैलगाड़ी के पास जो भाषा है, बैलगाड़ी वाले के पास जो भाषा है, उससे कुछ भी संबंध नहीं रह गया है।
जब हम पूछते हैं कि जब परमात्मा मिल जाएगा, तो फिर हम दूसरे के लिए कुछ करेंगे?
तब दूसरा बचेगा नहीं। आप बचेंगे नहीं। करना बचेगा नहीं। होना बचेगा। और होना होता रहेगा। दूसरे के लिए भी, अपने लिए भी, सबके लिए भी--होना होता रहेगा। उसको कुछ करने जाना नहीं पड़ेगा।
अभी आपको करने जाना पड़ता है। अभी रास्ते पर एक आदमी गिर पड़ता है, तो आपको सोचना पड़ता है कि उठाएं कि न उठाएं। इसका डिसीजन लेना पड़ता है कि इसको उठाएं कि न उठाएं। तो जरा उसकी टोपी उठा कर देखनी पड़ती है कि चोटी है कि नहीं। क्योंकि अगर मुसलमान हो तो नाहक उठाने का पाप लग जाए। हिंदू हो तो पुण्य मिल जाए। टोपी उठा कर देखनी पड़ती है।
यह जो, यह जो अभी हो रहा है न, ये अब आदमी यह पूछेगा कि समझ लो परमात्मा मिल गया, फिर हम इसकी टोपी उठा कर देखेंगे कि नहीं कि चोटी है कि नहीं?
चोटी होगी तो भी परमात्मा है, चोटी नहीं होगी तो भी परमात्मा है। चोटी वाला परमात्मा या गैर-चोटी वाला परमात्मा, उठाने के लिए इसमें कोई फर्क नहीं पड़ता है। फिर यह भी सवाल नहीं होगा कि उठाएं कि नहीं। क्योंकि उठाएं कि नहीं, यह सवाल तब उठता है जब मुझे कर्ता होना है। नहीं, हम आदमी को गिरते देखेंगे और फिर अपने को उठाते देखेंगे। इससे भिन्न कुछ बात नहीं रह जाती है। एक आदमी गिरा, यह दिखाई पड़ेगा। और हमने उसको उठाया, यह भी दिखाई पड़ेगा। और इन दोनों में कहीं कर्ता का सवाल नहीं उठता कि मैं उठाऊं कि न उठाऊं, कि यह करूं कि न करूं, यह सवाल नहीं उठता है।
प्रश्न:
भगवान, तो स्वतः की अनुभूति से कैसे यह बोध होगा?
उसके अतिरिक्त कोई रास्ता ही नहीं है। दूसरे से पूछ रहे हो इसलिए खयाल नहीं आ रहा है। दूसरे से पूछ रहे हो, इसलिए खयाल नहीं आ रहा है। नहीं पूछो तो अभी तुमको भी खयाल आ जाए।
प्रश्न:
भगवान, वैसे तो बहुत परेशान थे, लेकिन ध्यान का कुछ मतलब नहीं मालूम था कि ध्यान क्या है, कैसे करें, क्या करें। जब तक किसी से सुनें नहीं या पढ़ें नहीं...
तो पढ़ते रहो, सुनते रहो। जब उनसे भी परेशान हो जाओगे तब कहां जाओगे? फिर खुद ही पर लौट आना पड़ेगा।
प्रश्न:
भगवान, नहीं, जैसे ध्यान, मैंने सुना है कभी-कभी कि ध्यान भी होता है, तो अपने आप कैसे मालूम पड़ेगा वह?
अपने आप ही मालूम पड़ेगा। और नहीं मालूम पड़ेगा तो नहीं मालूम पड़ेगा। लेकिन दूसरे से तो कभी मालूम नहीं पड़ेगा। मेरा मतलब समझ रहे हो न! दूसरे से कभी नहीं मालूम पड़ेगा। पूछो! वह भी हिस्सा है भटकने का। भटकना जरूरी है अपने घर पर लौट आने के लिए। और जितना जो भटक ले उतना अच्छा है। क्योंकि जितना थका-मांदा लौटेगा उतना घर में विश्राम करेगा आकर। भटकना भी जरूरी है, एकदम जरूरी है। भटकना हिस्सा है जिंदगी का, उसमें भटकने में कुछ बुरा भी नहीं है। पूछो, भटको। जब भटक जाओगे और किसी से न मिलेगा तब क्या करोगे? फिर लौट ही आना पड़ेगा न अपने पर--थ्रोन बैक!
प्रश्न:
भगवान, वैसे तो हजारों वर्ष से लोग ऐसे ही भटक रहे हैं।
अरे हजारों वर्ष से कहां भटक रहे हो तुम! एक वर्ष भी भटक लो तो बहुत है। भटकते भी नहीं हो, ऐसे ही अपनी जगह पर खड़े होकर नाचते रहते हो, उचकते रहते हो वहीं। भटक भी लो तो कुछ हो जाए।
अब हजारों वर्ष से भटक रहा है! कौन भटक रहा है? तुम भटक रहे हो हजारों वर्ष से? एक दिन भी भटक लो चौबीस घंटे पूरी तरह से, पहुंच जाओगे घर। लेकिन भटकते भी नहीं हो, उसमें भी ताकत नहीं लगाते हो। खड़े हैं, उछलकूद कर रहे हैं वहीं। सोच रहे हैं: भटक रहे हैं, बड़ा खोज कर रहे हैं। कुछ खोज-वोज नहीं कर रहे हैं। कोई अपनी गीता पर उछल रहा है, कोई अपनी कुरान पर उछल रहा है, कोई बाइबिल पर खड़ा हुआ उछल रहा है। गीता, कुरान, बाइबिल मरे जा रहे हैं उछलकूद की वजह से। तुम कहीं जा नहीं रहे, अपनी किताब पर खड़े नाच रहे हो।
चीजें तो दिखाई पड़ेंगी न। भटकने से ही दिखाई पड़ेंगी। भटको, उसमें हर्ज नहीं है। पूछो, उसमें हर्ज नहीं है। लेकिन सब पूछना व्यर्थ सिद्ध होगा। आखिर में तुम पाओगे कि कहां के पागलपन में पड़े हैं! क्या पूछ रहे हैं? किससे पूछना है? कौन बताएगा? कोई बता भी देगा तो मैं कैसे जान लूंगा? यह पता चलेगा, एक रिवीलेशन होगा, तुम्हारे भीतर से होगा यह तो। तुम्हें लगेगा कि कोई नहीं बताएगा, कोई बताने वाला नहीं है। कोई जानता होगा तो भी नहीं बता सकता है, यह कोई बताने की बात नहीं है। तब क्या करोगे? जब कुछ करने को न बचेगा तब तुम ध्यान कर सकोगे, नहीं तो नहीं कर सकोगे। जब तक तुम्हें कुछ भी करने को बच गया है, तब तक तो तुम वही करोगे, ध्यान नहीं करोगे। ध्यान जो है, वह लास्ट...।
प्रश्न:
भगवान, इस हिसाब से, आपकी जो थ्योरी है इसके हिसाब से तो यह हुआ कि व्यापार है, लोगों के कर्ज हैं...और अगर यही विचारधारा रही...
यही तो तकलीफ है। वही मैं पूरे वक्त कह रहा हूं कि तुम वही मान कर चल रहे हो कि आदमी बाजार गया और उसने केले खरीदे। नहीं, उसने खरीदे भी नहीं, वह गया भी नहीं। वह तुम मान कर चलते हो न कि अगर आपकी बात मान लेंगे तो ऐसा हो जाएगा। ऐसा करके देखो न!
प्रश्न:
भगवान, नहीं, उनके जो विचार हैं आजकल, कारण ये हैं कि धर्म अलग है मंदिर में और व्यापार अलग है बाजार में। वह फिर सारी बिजनेस जो है--व्यापार लाइन...
इसके हिसाब से तो गफलियत खाई न। या तो यह है कि फिर वह स्टेज जैसे कि ध्यान के अंदर विचार अपने आप जब आते हैं, आपने जैसी थ्योरी बताई उसी हिसाब से फिर सारा जीवन ही उसी में है।
है, सच्चाई तो यही है कि पूरा जीवन ही ऐसा होना है।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
वह तो समझ में बात आ गई तो करने की थोड़े ही रही, वह चौबीस घंटे की हो गई। चौबीस घंटे की हो गई।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
वह हो ही गई, समझ में आ गई तो बात हो गई।
भगवान, ...जहां पर ध्यान करने पर आवाज निकलती है, आपने बताया था कल ही कि वहां ध्यान करो। लेकिन कंपन ज्यादा होने से वहां पर एकाग्रता टिकती नहीं...
नहीं; पहली तो यह बात आपके खयाल में नहीं आई कि एकाग्रता ध्यान नहीं है। मैंने कभी एकाग्रता करने को नहीं कहा। ध्यान बहुत अलग बात है। साधारणतः तो यही समझा जाता है कि एकाग्रता ध्यान है। एकाग्रता ध्यान नहीं है। क्योंकि एकाग्रता में तनाव है। एकाग्रता का मतलब यह है कि सब जगह से छोड़ कर एक जगह मन को जबरदस्ती रोकना। एकाग्रता सदा जबरदस्ती है; उसमें कोएर्शन है। क्योंकि मन तो भागता है और आप कहते हैं नहीं भागने देंगे। तो आप और मन के बीच एक लड़ाई शुरू हो जाती है। और जहां लड़ाई है वहां ध्यान कभी भी नहीं होगा। क्योंकि लड़ाई ही तो उपद्रव है हमारे पूरे व्यक्तित्व की, कि वहां पूरे वक्त कांफ्लिक्ट है, द्वंद्व है, संघर्ष है।
तो मन को ऐसी अवस्था में छोड़ना है जहां कोई कांफ्लिक्ट ही नहीं है। तब तो ध्यान में आप जा सकते हैं। मन को छोड़ना है निर्द्वंद्व। अगर द्वंद्व किया तो कभी ध्यान में नहीं जा सकते। और अगर द्वंद्व किया, द्वंद्व किया तो परेशानी बढ़ जाने वाली है। क्योंकि हारेंगे, दुखी होंगे। जोर से द्वंद्व करेंगे--हारेंगे, दुखी होंगे, और चित्त विक्षिप्त होता चला जाएगा। बजाय इसके कि आनंदित हो, प्रफुल्लित हो--और उदास, और हारा हुआ, फ्रस्ट्रेटेड हो जाएगा।
तो मन से तो लड़ना ही नहीं है, यह तो मेरा पहला सूत्र है। जो मन से लड़ेगा उसकी हार निश्चित है। अगर जीतना हो मन को तो पहला नियम यह है कि लड़ना मत। तो इसलिए मैं एकाग्रता के लिए, कनसनट्रेशन के लिए सलाह नहीं देता हूं। मेरी सलाह तो है रिलैक्सेशन के लिए, कनसनट्रेशन के लिए नहीं। मेरी सलाह एकाग्रता के लिए नहीं है, मेरी सलाह तो विश्राम के लिए है।
तो घंटे भर के लिए मन को विश्राम देना। तो विश्राम का सूत्र अलग हो जाएगा। विश्राम का पहला तो सूत्र यह है कि मन जैसा है हम उससे राजी हैं। अगर आप नाराज हैं उससे तो फिर विश्राम नहीं संभव हो सकता। क्योंकि नाराजी से लड़ाई शुरू हो जाएगी। मन जैसा भी है--बुरा और भला, क्रोध से भरा, चिंता से भरा, विचारों से भरा--जैसा भी है, हम उसी मन के साथ राजी हैं। तो एक घंटे के लिए वक्त निकाल लें और मन जैसा है उसके साथ पूरी तरह राजी हो जाएं। टोटल एक्सेप्टबिलिटी। विरोध ही नहीं है हमारा कोई। अगर मन भागता है तो हम भागने देते हैं। अगर रोता है तो रोने देते हैं। अगर हंसता है तो हंसने देते हैं। अगर वह व्यर्थ की बातें सोचता है तो सोचने देते हैं। हम कहते हैं कि मन जो भी करे, एक घंटा लड़ाई नहीं करेंगे। तो पहली बात, हम लड़ेंगे ही नहीं। मन जो भी करेगा, हम चुपचाप बैठे देखते रहेंगे।
यह न लड़ना हो, तो एक तो स्थूल लड़ाई है जब आप लड़ते हैं--कि मन कह रहा है कि यहां जाना है और आप कहते हैं कि वहां नहीं जाएंगे। जैसा कि साधारणतः धार्मिक आदमी करता रहता है। इसलिए धार्मिक आदमी साधारणतः दुखी आदमी होगा। धार्मिक आदमी पूरे वक्त यही करता रहता है। मन कहता है खाना खाओ, वह कहता है नहीं खाएंगे। मन कहता है यह कपड़ा बहुत सुंदर है, वह कहता है हम कपड़े छोड़ देंगे। वह मन से लड़ कर ही चलता है। तो मन से लड़ कर वह दुखी होगा, परेशान होगा, लेकिन शांत नहीं हो पाएगा।
तो एक घंटे के लिए मन से कोई लड़ाई नहीं लेनी है। मन जो करता है, हम कहते हैं करो। लेकिन यह तो बहुत स्थूल हुई बात; हमारे मन में बड़ी सूक्ष्म लड़ाई है जिसका हमें पता नहीं है। कंडेमनेशन है हमारे मन में। जैसे हम यह भी कह देंगे कि अच्छा जो करना है करो। लेकिन इसमें भी कंडेमनेशन हो सकता है।
इसमें भी यह हो सकता है कि कोई बात नहीं, हम नहीं लड़ते हैं। यह बात तो ठीक नहीं है कि मन सोच रहा है कि एक वेश्या के घर चले जाएं। हम कहते हैं, बात तो ठीक नहीं है, लेकिन चूंकि एक घंटा हमको नहीं लड़ना है इसलिए हम नहीं लड़ते हैं, लेकिन यह बात ठीक नहीं है। अगर इतना भी रुख है भीतर कि यह बात ठीक नहीं है, तो लड़ाई जारी है। तब विश्राम उपलब्ध नहीं होगा।
तो स्थूल रूप से लड़ना नहीं है, सूक्ष्म रूप से निंदा और प्रशंसा नहीं करनी है--कि यह ठीक है, यह गलत है। यह मन करेगा, तो एक भीतरी एप्रूवल है हमारा कि हां, यह बहुत बढ़िया हो रहा है। कि कृष्ण भगवान की मूर्ति बना रहा है, यह बहुत ही बढ़िया हो रहा है। और एक नग्न स्त्री की मूर्ति बना रहा है, तो बहुत बुरा हो रहा है। यह सूक्ष्म निंदा और प्रशंसा भी नहीं होनी चाहिए ध्यान में। इसका मतलब यह हुआ कि लड़ना मत और किसी तरह का रुख मत लेना, एटिट्यूड मत लेना कि यह अच्छा है कि बुरा है। निर्णय मत लेना कि क्या है। जो है--है।
हम एक वृक्ष के पास खड़े हैं। उसमें कांटे लगे हैं तो लगे हैं और फूल लगा है तो लगा है। हम न तो यह कहते हैं कि फूल अच्छा है, न यह कहते हैं कि कांटे बुरे हैं। हम इतना ही कहते हैं कि हमें पता चल रहा है कि कांटे लगे हैं और फूल लगा है। हम फूल और कांटे के बीच न कोई तुलना करते हैं, न एक-दूसरे को ऊंचा-नीचा बिठाते हैं, न हम यह चाहते हैं कि फूल ही फूल हो जाएं और कांटे बिलकुल न रह जाएं।
तो अगर इसे ठीक से समझेंगे तो एक तो स्थूल लड़ाई हुई, एक सूक्ष्म लड़ाई हुई और एक अति सूक्ष्म लड़ाई है। अति सूक्ष्म का मतलब यह है कि अगर हमारे मन में कोई चाह भी है कि ऐसा होना चाहिए, तो बहुत गहरे में लड़ाई चलती रहेगी। हम नहीं कहते कि कांटा बुरा है, लेकिन बहुत गहरे में मन यह है कि कांटा न होता और फूल होता तो अच्छा होता। अगर इतना भी भीतर की किसी पर्त पर भाव है तो लड़ाई जारी रहेगी। आप लड़ रहे हैं। आप कांटे को स्वीकार नहीं कर पाए हैं।
तो मेरे लिए ध्यान का मतलब है: संपूर्ण स्वीकृति। स्थूल लड़ाई नहीं, सूक्ष्म लड़ाई नहीं, अति भावों की सूक्ष्म लड़ाई भी नहीं।
घड़ी, दो घड़ी के लिए चौबीस घंटे में इस तरह छोड़ने लगें अपने को। इस छोड़ने से जैसे-जैसे छोड़ना सरल होगा...एकदम से छोड़ना बहुत कठिन होता है। क्योंकि हम इतने लड़ रहे हैं कि हम भूल ही गए हैं कि न लड़े कैसे रहें।
अगर एक पति-पत्नी को हम कहें कि चौबीस घंटे बिना लड़े इस घर में रह जाओ, तो रह सकते हैं बिना लड़े। लेकिन उनसे कहें कि लड़ने का भाव ही मत उठने दो; निंदा, प्रशंसा भी मत करो; तो कठिनाई शुरू हो जाएगी। और उनसे अगर हम यह कहें कि यह सोचो ही मत कि पत्नी कैसी है, कि पति कैसा है; जैसा है--है। तब और कठिन हो जाता है। न लड़ना बहुत आसान है कि चौबीस घंटे का कस्द कर लिया कि नहीं लड़ेंगे। तो एक-दूसरे से बच कर जा रहे हैं। लेकिन लड़ाई जारी है, क्योंकि उस बच कर जाने में भी लड़ाई चल रही है। नहीं बोल रहे हैं कि कहीं लड़ाई न हो जाए, तो न बोलना लड़ाई हो गई। ऐसी बातें नहीं उठा रहे हैं जिनमें लड़ाई हो जाए, तो लड़ाई जारी है।
लेकिन सूक्ष्म तल पर अगर हम कोई भाव और रुख ले रहे हैं--देख रहा हूं मैं कि यह जो पत्नी है, टेबल फिर वहीं रखे दे रही है जहां कि हजार दफे कहा है कि मत रखना। चूंकि लड़ना नहीं है, नहीं लड़ रहे। और ठीक है, स्वीकार भी कर रहे हैं कि टेबल अब जहां रखनी है रख दो, कोई बात नहीं, क्योंकि चौबीस घंटे लड़ना नहीं है। लेकिन मन में यह भाव आ रहा है कि वही गलती फिर की जा रही है जो कि सदा मना की गई है। तो वह लड़ाई जारी है। अब वह प्रकट नहीं हो रही, लेकिन लड़ाई जारी है।
प्रश्न:
भगवान, तो उसको देखते रहना चाहिए? उसको महसूस करते रहना चाहिए? उस समय क्या विचार रहना चाहिए? उस समय क्या फीलिंग रहनी चाहिए?
नहीं, तुम लाने की कोई कोशिश ही मत करना किसी फीलिंग की। तुम लाए तो लड़ाई शुरू हो गई। तुम्हारा लाना ही नहीं है तुम्हें कुछ, जो हो रहा है वह है। तुम्हारी तरफ से कुछ भी मत करना, जो होता हो उसे होने देना। यही तकलीफ है, यही तकलीफ है कि हम सोचते हैं कि हम क्या करें फिर? नहीं; आपने कुछ किया कि लड़ाई शुरू हुई। क्योंकि करने का मतलब ही यह होता है कि कुछ था जो नहीं होना था वह हो रहा था, कुछ था जो होना था और नहीं हो रहा था, हम उसको बदल रहे हैं। लड़ाई शुरू हो गई।
न, मैं यह कह रहा हूं कि तुम कुछ करना ही मत। जो हो, होने देना। लेट गो की हालत रखना। अपनी तरफ से डूइंग की हालत नहीं है, लेट गो की हालत है। जैसे समझ लो कि मैं मर जाऊं इस कमरे में, फिर कमरा कैसा चलेगा यह। लोग यहां से गुजरेंगे, टेबल कहीं रखी जाएगी, फोन की घंटी बजेगी, सब होगा। लेकिन मैं क्या करूंगा?
मैं नसरुद्दीन की एक कहानी कहता रहता हूं। उसने अपनी पत्नी से एक बार पूछा कि कई लोग मरते जा रहे हैं, मेरी समझ में यह नहीं आता कि लोग मर कैसे जाते हैं? और अगर कभी मैं मर जाऊं तो मैं कैसे पहचानूंगा कि मैं मर गया हूं? तो तुझे अगर कुछ पता हो तो मुझे बता दे। समझूंगा कैसे कि मैं मर गया हूं?
तो उसकी पत्नी ने कहा, इसमें कुछ समझने की बात है? हाथ-पैर ठंडे हो जाएंगे!
नसरुद्दीन गया था जंगल में लकड़ी काटने। सर्द थी सुबह, बर्फ पड़ रही थी, उसके हाथ-पैर ठंडे हो गए। तो उसने सोचा कि लगता है कि अब मैं मर रहा हूं, क्योंकि हाथ-पैर ठंडे हो रहे हैं। और लक्षण एक ही बताया गया था: जब हाथ-पैर ठंडे हो जाएं।
जब वे होते ही चले गए ठंडे और उसकी कुल्हाड़ी भी छूटने लगी हाथ से, उसने कहा, अब तो पक्का ही है। तो उसने मरते हुए लोगों को देखा था कि मरा हुआ आदमी खड़ा नहीं रहता, लेटा रहता है, तो वह लेट गया। जब वह लेट गया तो और सब ठंडा होने लगा। क्योंकि काम कर रहा था तो थोड़ा गर्म था। तो और सब ठंडा होने पर उसने कहा, अब ठीक है, अब तो आखिरी वक्त आ गया, अब मर गए। जब पूरा ठंडा हो गया तो उसने समझा कि मर गए। तो स्वभावतः मरा हुआ आदमी किसी को चिल्लाता नहीं, किसी से बोलता नहीं, किसी को देख नहीं सकता। तो उसने आंख बंद कर ली, चिल्लाना बंद कर दिया। उसने कहा, अब कोई सार ही नहीं, जब मर ही गए और लक्षण पूरा हो गया।
चार आदमी निकलते थे रास्ते से, उन्होंने देखा कि कोई आदमी मर गया। तो उन्होंने अरथी बनाई उसकी। उसने सोचा कि मुर्दे की तो अरथी बनती ही है, तो बन रही है। कई बार अरथी ठीक नहीं भी बन रही थी, क्योंकि उन चारों को कोई इंतजाम नहीं था, तो कई बार उसे लगा कि सुझाव दे दूं कि जरा ऐसा बांधो डंडा। लेकिन उसने कहा कि मुर्दे कुछ... यह बात ही नहीं करनी चाहिए, क्योंकि जो आदमी मर ही गया वह कैसे बताएगा! इसलिए उसने जैसी भी बनी अरथी बन जाने दी, अरथी पर सवार भी हो गया, अरथी चल पड़ी।
लेकिन वे चारों परदेसी थे, चौरस्ते पर पहुंचे तो उनको सवाल उठा कि मरघट कहां है इस गांव का? उसको मालूम था, लेकिन उसने सोचा कि...। उन चारों ने सोचा कि बड़ी सर्दी है, बर्फ पड़ रही है, मरघट कहां है? अब कोई निकले राहगीर तो पूछ लें। बड़ी देर हो गई, कोई राहगीर न निकला। तो नसरुद्दीन से रहा न गया, बड़ी देर तो उसने खुद को सम्हाला, फिर उसने कहा कि कोई राहगीर ही नहीं निकल रहा, ऐसे इमरजेंसी के क्षण में तो मुर्दा भी बोले तो कोई हर्जा नहीं है इसमें। तो उसने कहा कि जब मैं जिंदा हुआ करता था तब लोग बाएं तरफ जाते थे मरघट के लिए। उसने कहा कि जब मैं जिंदा हुआ करता था तब बाएं तरफ जाते थे। फिर इतना कह कर वह अपनी जगह पर लेट गया। तो उन्होंने कहा कि अरे मूरख, अगर तू बोल ही रहा है, तो हमें क्यों परेशानी में डाले हुए है!
यह जो एक घंटे भर नसरुद्दीन ने किया, यह ध्यान में होगा, होना चाहिए। यानी आपको कुछ करना ही नहीं है, इमरजेंसी भी आ जाए तो भी नहीं बताना है कि यह हो रहा है। आपको सब कुछ छोड़ ही देना है। जो हो रहा है, हो रहा है। जब आप सब छोड़ देंगे और जो...होता तो रहेगा ही, बंद तो नहीं हो जाने वाला--विचार चलते रहेंगे, आवाज कानों में पड़ती रहेगी, हृदय धड़कता रहेगा, श्वास चलती रहेगी, पैर में कीड़ा काटेगा तो पता चलेगा, पैर जाम हो जाएगा तो पता चलेगा, करवट बदलने का मन होगा--तो रोकना मत, करवट बदलने का मन हो तो करवट को करवट लेने देना, पैर-हाथ कीड़ी को हटाना चाहे तो हटाने देना। न तो अपनी तरफ से हटाना, न अपनी तरफ से रोकना।
मेरा मतलब समझ रहे हैं न? यानी अपनी तरफ से कुछ मत करना। अगर हाथ हटाना चाहे तो हटा देने देना और न हटाना चाहे तो पड़े रहने देना। तो सारी स्थिति को पूरी तरह स्वीकार कर लेना है। सब होता रहेगा। लेकिन जब सब होता रहे और हम सब स्वीकार कर लें, तो एक बहुत नई चेतना का जन्म शुरू होता है। तत्काल तुम साक्षी हो जाते हो--तत्काल! क्योंकि जैसे ही तुम कर्ता नहीं रहते, तुम साक्षी हो जाते हो। कोई उपाय ही नहीं है दूसरा। यह ट्रांसफार्मेशन आटोमेटिक है।
लोग सोचते हैं कि साक्षी होना पड़ेगा।
साक्षी कोई हो ही नहीं सकता। वह तो जब कर्ता नहीं रह जाता तो होगा क्या? अब जैसे कि नसरुद्दीन की अरथी बांधी जा रही है; अब वह क्या करेगा बेचारा? देख रहा है; साक्षी ही है भर; करने की तो बात ही खत्म हो गई, क्योंकि वह आदमी मर गया है। जिस क्षण तुम्हारे कर्ता का भाव चला जाता है, उसी क्षण तुम्हारे साक्षी का भाव आविर्भूत हो जाता है। यह सहज होता है।
इसलिए साक्षी होना कोई कर्म नहीं, कृत्य नहीं। और वह साक्षी हो जाना ध्यान है। साक्षी हो जाना ध्यान है, इससे ज्यादा ध्यान कुछ भी नहीं है।
इसलिए एकाग्रता तो कभी ध्यान नहीं; क्योंकि तुम कर्ता हो, तुम कर रहे हो। तुम्हारा किया हुआ तुमसे बड़ा नहीं होने वाला है। तुम परेशान हो, दुखी हो; तुम्हारा किया हुआ भी परेशानी होगी, दुख होगा। अगर मैं स्टुपिड आदमी हूं, मूढ़ आदमी हूं, तो मेरी एकाग्रता भी मूढ़ता ही होगी। मैं ही एकाग्र करूंगा न! एकाग्रता कोई और तो नहीं करेगा। मैं एक मूढ़ आदमी हूं, मैं एकाग्रता करता हूं, तो एक मूरख एकाग्र हो जाएगा। और क्या होने वाला है? और एकाग्र मूरख और खतरनाक है। अगर तुम दुखी हो तो दुखी होना ही एकाग्रता बन जाएगी तुम्हारी, दुख पर ही तुम एकाग्र हो जाओगे, जो और मुश्किल है। एकाग्रता कभी भी तुम्हें अपने से ऊपर नहीं ले जा सकती; ट्रांसेनडेंस नहीं है उसमें संभव। क्योंकि तुम ही करोगे, तो आगे कैसे जाओगे?
लेकिन साक्षीभाव जो है वह तुम्हारा कृत्य नहीं है। तुम हो ही नहीं उसमें। वह हैपनिंग है। तुम तो अचानक पाते हो कि जिस क्षण वह स्थिति आ जाती है कि तुम कर्ता नहीं रहे, तुम अचानक पाते हो कि तुम साक्षी हो गए हो। इस होने में कोई यात्रा नहीं करनी पड़ती। यानी कर्ता होने से साक्षी होने तक तुम्हें जाना नहीं पड़ता। बस अचानक एक क्षण पहले तुम कर्ता थे और अचानक एक क्षण बाद तुम पाते हो कि कर्ता खो गया है और मैं सिर्फ साक्षी रह गया हूं।
यह जो दशा है यह ध्यान है। और इसलिए ध्यान करने की कोशिश मत करना। ध्यान हो सके, इस हालत में अपने को छोड़ना है। ध्यान होगा, आपको तो सिर्फ अपने को इस हालत में छोड़ देना है कि वह हो जाए। सूरज निकला है और मैंने अपना दरवाजा खुला छोड़ दिया है। सूरज निकलेगा, रोशनी भीतर आ जाएगी, वह मुझे लानी नहीं पड़ेगी।
लेकिन एक बड़े मजे की बात है कि मैं सूरज की रोशनी बांध कर कमरे के भीतर तो नहीं ला सकता, लेकिन दरवाजा बंद करके सूरज की रोशनी बाहर रोक सकता हूं। बाहर रोकने में कठिनाई नहीं है, दरवाजा बंद है तो रुक जाएगी।
तो तुम ध्यान को होने से रोक सकते हो, रोक रहे हो, लेकिन ध्यान को ला नहीं सकते। हमारी जो सारी तकलीफ है वह बहुत उलटी है। जो असलियत है वह यह है कि जब कोई मुझसे पूछता है कि ध्यान नहीं हो रहा है, तो वह उलटी ही बात पूछ रहा है। वह असल में प्राणपण से चेष्टा कर रहा है कि कहीं ध्यान न हो जाए। पूरी जिंदगी लगा रहा है कि ध्यान न हो जाए। जन्म-जन्म उसने खराब किए हैं कि कहीं ध्यान न हो जाए। और ध्यान के लिए उसने हजार तरह के बैरियर खड़े किए हैं कि वह हो न जाए।
कहीं मैं साक्षी न हो जाऊं, इसके लिए तुम सब इंतजाम किए हुए बैठे हो। और फिर जब सुनते हो किसी से कि साक्षी होने में बड़ा आनंद है, तब तुम सोचते हो: चलो साक्षी भी हो जाएं। तो साक्षी होने की भी कोशिश करते हो। और वह तुम्हारा साक्षी से रोकने का पूरा इंतजाम जारी है, उसमें कोई फर्क पड़ता नहीं। उसी इंतजाम के भीतर तुम साक्षी भी होना चाहते हो। यह नहीं होगा।
तो घड़ी, दो घड़ी के लिए अपने को पूरा छोड़ो और जो हो रहा है उसे पूरा स्वीकार कर लो। फिर कुछ होगा। वह कुछ होना ध्यान है। और इसलिए जिनको ध्यान मिलेगा, जिनको हो जाएगा, वे यह नहीं कह सकेंगे कि मैंने किया। नहीं कह सकेंगे। अगर कहते हों तो समझ लेना अभी नहीं हुआ।
और इसीलिए तो बेचारा वैसा आदमी कहता है: प्रभु की कृपा से! उसका कोई और मतलब नहीं है। कोई प्रभु कृपा वगैरह नहीं करता। मगर उसकी तकलीफ है। उसकी तकलीफ यह है कि उसके द्वारा तो हुआ नहीं। वह कहां कहे? किससे कहे? हो तो गया है। उसके द्वारा हुआ नहीं। तो किसने किया है--बताने जाइए तो उसकी बड़ी मुश्किल है। तो वह कहता है, प्रभु कृपा से हुआ है। यह ‘प्रभु कृपा से हुआ है’ इसका कुल मतलब इतना है कि मेरे द्वारा नहीं हुआ है। प्रभु कृपा से नहीं हुआ है। क्योंकि प्रभु कृपा का मतलब तो फिर यह हो जाएगा: प्रभु किसी पर कम कृपालु है, किसी पर ज्यादा है। तब तो बड़ी गड़बड़ हो जाएगी, उसमें प्रभु पर बड़ा लांछन लगेगा।
प्रश्न:
भगवान, अभी एक प्रश्न था उसमें आपने यही कहा है: प्रभु की इच्छा से! मैं तो कुछ करता नहीं हूं, सब प्रभु ही करते हैं। और ऊपर से आपने यह कहा कि मेरा ऑब्जेक्ट जो है विद्रोह है। मतलब मैं जो कर रहा हूं, सिर्फ लोगों की चेतना के लिए...या जो पुराना रूढ़िवाद चला है, उसके एकदम अपोजिट में चला जा रहा हूं; इसलिए नेचरल है कि उसको हटाने के लिए तो संघर्ष करना ही पड़े। मैंने इसीलिए ही, मैंने इसीलिए पत्र आपको लिखा हूं कि भई आज एक तरफ तो आप यह कह रहे हैं...
तुम जरा जल्दी पत्र लिख दिए। क्योंकि मामला ऐसा है, मामला ऐसा है--जिंदगी इतनी जटिल है, जिंदगी इतनी जटिल है और हमारे निर्णय सब सरल होते हैं। और इसलिए हम तालमेल नहीं बिठा पाते। लगता है। तुम्हारा पत्र मैंने पढ़ लिया है। उसमें लगता ही है कि एक तरफ मैं कह रहा हूं कि मैं विद्रोह उठाना चाहता हूं और दूसरी तरफ मैं कह रहा हूं कि परमात्मा जो करवा रहा है वह मैं कर रहा हूं। तो विरोध दिखता है, है नहीं।
प्रश्न:
भगवान, अब विरोध नहीं रहा। अभी आपने जो जवाब दिया तो अब विरोध नहीं रहा।
हां, समझ में आई न बात! विरोध नहीं है। क्योंकि जब मैं यह कह रहा हूं कि मैं विद्रोह कर रहा हूं, यह भी परमात्मा ही कह रहा है मेरे हिसाब में तो। इसलिए विरोध नहीं है। और अगर तुम्हारे हिसाब में ऐसा लगता है कि यह आप ही कह रहे हो, तो दूसरा भी मैं ही कह रहा हूं, तब भी कोई फर्क नहीं है, तब भी विरोध नहीं होता है। यानी मैं कह रहा हूं कि मैं विद्रोह कर रहा हूं, अगर आप मानो कि यह आप ही कह रहे हो, हम किसी परमात्मा को नहीं मानते। तो दूसरी बात मैं कह रहा हूं कि यह परमात्मा कर रहा है। यह भी मैं ही कह रहा हूं। तब भी कोई विरोध नहीं है। तुम्हारी तरफ से भी विरोध नहीं है। विरोध इसलिए होता है कि एक बात मेरी तरफ से ले लेते हो और एक तुम्हारी तरफ से ले लेते हो, तब विरोध होता है। अगर तुम भी अपनी दोनों ही बातें लो तो विरोध नहीं है।
प्रश्न:
मैं समझा नहीं।
मेरा मतलब यह है कि मैं कह रहा हूं कि मैं विद्रोह जगा रहा हूं। अगर तुम्हें यह लगता है कि यह आप ही कह रहे हो और दूसरी तरफ आप कहते हो कि जो करवा रहा है वह परमात्मा करवा रहा है। तो विरोध दिखता है इसमें। क्योंकि अगर परमात्मा करवा रहा है, तो फिर आप ऐसा क्यों कह रहे हैं कि मैं विद्रोह जगा रहा हूं? मेरी तरफ से इसलिए विरोध नहीं है, क्योंकि मैं कहता हूं कि यह भी परमात्मा ही कहला रहा है।
प्रश्न:
भगवान, वह वहां पर आपने एक्सप्लेन कर दिया इस बात को।
हां, मेरे लिए इसमें कोई फर्क नहीं है दोनों बातों में। एक ही बात है। यानी यह भी मैं अपनी तरफ से नहीं कह रहा हूं कि मैं विद्रोह जगा रहा हूं।
प्रश्न:
एक जनरल जेंट्री को...
न, न, न, वह जनरल जेंट्री की बात मत करो। वह है ही नहीं कहीं। वह है ही नहीं कहीं। तुम हो, मैं हूं; ये हैं, मैं हूं। जनरल जेंट्री कहीं भी नहीं है। वह है ही नहीं कहीं। मैं तो इधर पंद्रह साल से भटकता हूं, वह मुझे मिलती नहीं। सीधे आदमी हैं और सीधी बात करनी चाहिए। वह जनरल जेंट्री बहुत दिक्कत दे देती है। फिर उसको बीच में लेकर बड़ा मुश्किल हो जाता है काम करना। तुम्हारी बात मेरे खयाल में आती है, मेरी बात तुम्हें, बात खत्म हो गई। जनरल जेंट्री जब मुझे मिलेगी उससे मैं बात कर लूंगा।
मेरा मतलब समझे न!
प्रश्न:
जनरल में ही तो आ गए न हम सब।
नहीं, अगर तुम्हारी समझ में आ गया तो जनरल को भी समझ में आ सकता है फिर। यानी मैं जो यह कह रहा हूं, मैं यह कह रहा हूं कि जैसे ही ध्यान का विस्फोट होगा--कल तक तुमने जहां अपने को कर्ता माना था, कल तक सब काम तुम्हारा कर्तृत्व का था--जैसे ही ध्यान का विस्फोट होगा, काम सब जारी रहेंगे, लेकिन कर्ता विदा हो जाएगा। और अब तुम्हारी बड़ी तकलीफ होगी कि तुम क्या कहो कि कैसे कर रहे हो।
कल तक तुमने अपनी पत्नी को कहा था कि मैं तुझे प्रेम करता हूं, अपने बेटे से कहा था कि मैं तुझे प्रेम करता हूं। अगर ध्यान का विस्फोट हो गया तो तुम कहोगे कि मैं नहीं जानता, यह प्रेम तेरी तरफ बहता है, मुझे पता नहीं। एक रास्ता तो यह है--कि यह प्रेम हो रहा है; मुझे पता नहीं है। मैं करता हूं, अब मैं नहीं कह सकता। मैंने कभी किया नहीं प्रेम, यह हुआ है। एक तो रास्ता यह है।
यह सेक्युलर हुआ। यानी इसमें परमात्मा को बीच में नहीं लिया गया। समझे न! हम कहते हैं कि प्रेम जो है वह घटता है, कोई करता नहीं। यह सेक्युलर हुई बात। इसमें धर्म को बीच में लेने की जरूरत नहीं समझी गई। यानी यह उसी बात को गैर-धार्मिक ढंग से कहने की व्यवस्था हुई।
लेकिन अगर इसमें और गहराई बढ़ जाए, और गहराई बढ़ जाए, तो तुम्हें यह पता लगेगा कि अगर मैं यह कहता हूं कि मैंने प्रेम नहीं किया और प्रेम घटा है, तो इसके दो मतलब हो गए। या तो प्रेम सिर्फ एक्सीडेंट है, जिसके पीछे कुछ भी नहीं है, कोई सोर्स नहीं है। जो कि बहुत इल्लाजिकल और अनसाइंटिफिक है। क्योंकि अगर घट रही है कोई चीज तो भी कोई ओरिजिनल सोर्स होना चाहिए। नहीं तो घट नहीं सकती। कहां से घटेगी? कैसे घटेगी?
तो धर्म की जो दृष्टि है वह और गहरी है, वह घटना पर ही नहीं रुकती; वह इस पर रुकती है कि मैंने तो प्रेम नहीं किया और प्रेम हो रहा है। और तुमको भी मैं प्रेम करते देखता हूं और मैं देखता हूं कि तुमने प्रेम नहीं किया, प्रेम हो रहा है। और उनको भी प्रेम करते देखता हूं और देखता हूं कि प्रेम हो रहा है। तब इस समग्र का जो इकट्ठा नाम है--धार्मिक--वह परमात्मा है। तब हम समग्र को कह देते हैं कि समग्र की तरफ से हो रहा है। इसमें व्यक्ति नहीं कर रहे हैं। वह जो समग्रीभूत चेतना है, सब जहां इकट्ठे हैं, वहीं से कुछ हो रहा है।
एक वृक्ष बड़ा हो रहा है। अगर हम इस वृक्ष से पूछ सकें और वृक्ष उत्तर दे सके, तो दो ही उत्तर हो सकते हैं। या तो वह यह कहे कि मैं बड़ा हो रहा हूं। जो कि जरा ज्यादा होगा कहना। क्योंकि फिर सूरज का क्या होगा? अगर सूरज न उगे तो वृक्ष बड़ा न हो। हवाओं का क्या होगा? अगर हवाएं न बहें तो वृक्ष बड़ा न हो। जमीन का क्या होगा? अगर जमीन पानी न दे तो वृक्ष बड़ा न हो। लेकिन अगर वृक्ष को भी चेतना आ जाए तो वह यह कहेगा कि मैं बड़ा हो रहा हूं।
लेकिन अगर वृक्ष थोड़ा समझे तो शायद वह कहे कि मैं बड़ा नहीं हो रहा हूं, बड़े होने की घटना घट रही है। लेकिन तब इसमें वह कोई सोर्स नहीं पकड़ पाए, कहां से घट रही है? अगर और उसकी समझ गहरी हो जाए तो शायद वह यह कहे कि समस्त जगत मुझमें बड़ा हो रहा है। समस्त जगत--सूरज भी, पानी भी, जमीन भी, हवा भी, आग भी, सब मुझमें बड़े हो रहे हैं।
अब सारे जगत की अगर एक-एक चीज को गिनाने जाएं तो बहुत असंभव होगा। सब बड़े हो रहे हैं। करोड़ों-करोड़ों मील दूर बैठा एक तारा भी उस वृक्ष के बड़े होने में हाथ बंटा रहा है। आकाश में उड़ती हुई बदली भी हाथ बंटा रही है। दस करोड़ मील दूर बैठा सूरज भी हाथ बंटा रहा है। एक बच्चा सुबह आकर उस वृक्ष को प्रेम करता है और पानी डाल जाता है, वह भी हाथ बंटा रहा है। एक बकरी उस वृक्ष की टहनी काट डालती है, टहनी में से चार टहनियां निकल आती हैं, वह भी हाथ बंटा रही है। अगर हम इन सारी चीजों को गिनाएं तो सेक्युलर ढंग से भी कहा जा सकता है।
लेकिन सारी चीजों को गिनाना बिलकुल बेमानी है। इसलिए धार्मिक आदमी ने एक शब्द निकाल लिया--परमात्मा। परमात्मा का मतलब है: वह सब जो गिना नहीं जा सकता, वह सब हाथ बंटा रहा है।
तो जब मैं यह कह रहा हूं कि वही करवा रहा है, तो उसका मतलब यह है कि यह सब जो है यह सब का होना ही होना है; हम इसमें व्यक्ति की हैसियत से नहीं कुछ कर पा रहे हैं। लेकिन ध्यान की घटना न घटे तो यह दिखाई भी नहीं पड़ेगा। तब तो दिखाई पड़ेगा कि मैं कर रहा हूं।
और इसीलिए ध्यान के पहले अशांति है। क्योंकि वह मैं कर रहा हूं; तो फिर जब न होगा तो मुझसे नहीं हुआ। हारूंगा तो मैं हारा और जीतूंगा तो मैं जीता। तो वह मैं चिंताएं इकट्ठी कर लेगा। ईगो जो है वह एंग्जाइटी का केंद्र है, सारी चिंता का केंद्र मैं है। क्योंकि आज मैं कहूंगा कि हां, मैं जीत गया! और कल हार जाऊंगा तो फिर मुझे कहना पड़ेगा मैं हार गया। तो जब जीत कर अकड़ कर निकला था सड़क पर तो फिर हार कर रोता हुआ निकलना पड़ेगा। तो वह सारी तकलीफ खड़ी होगी।
लेकिन घटना के बाद, हैपनिंग के बाद, ध्यान के बाद वह एवोपरेट हो गया मैं। अब हो रहा है। अब हारे तो परमात्मा हारता है और जीते तो परमात्मा जीतता है। अपना कुछ लेना-देना न रहा। अपन ही न रहे। इसलिए ऐसे आदमी को सुखी और दुखी होने के दोनों उपाय न रहे। और जब सुखी और दुखी होने का कोई उपाय नहीं रह जाता, तब जो शेष रह जाता है वही आनंद है। सुखी-दुखी होने का जब कोई उपाय नहीं रह जाता तब भी तो कुछ शेष तो रह ही जाएगा, मैं तो रहूंगा ही, सब रहेगा, लेकिन तब जो स्थिति होगी वह आनंद की है या शांति की है या मुक्ति की है।
तो इसलिए ध्यान जो है वह अनिवार्य प्रक्रिया है, जिसके बिना मुक्ति, आनंद और शांति का कभी कोई पता नहीं चल सकता। क्योंकि उसके बिना अहंकार नहीं टूटता। और अहंकार टूट जाए तो क्या कहिएगा? क्या कहिएगा, कौन करवा रहा है?
तो एक तो रास्ता यह है कि हो रहा है, कोई भी नहीं करवा रहा। कहने में हर्जा नहीं है। मैं कोई इनकार नहीं करता। इसमें भी कुछ हर्जा नहीं है। लेकिन जितनी गहरी दृष्टि बढ़ेगी वैसे दिखाई पड़ेगा कि कोई नहीं करवा रहा, ऐसा कहना बहुत अवैज्ञानिक है। समष्टि, दि कलेक्टिव भागीदार है। तो परमात्मा जो है वह आमतौर से हम व्यक्तिवाची समझ लेते हैं, वह गलत है। वह व्यक्तिवाची नहीं है। असल में, परमात्मा एकवचन में है ही नहीं; बाइ इट्स वेरी नेचर प्लूरल है, सिंगुलर नहीं है वह। इसलिए परमात्मा शब्द का बहुवचन नहीं बनाया जा सकता। ‘परमात्माओं’ ऐसा नहीं बनाया जा सकता। कोई मतलब ही नहीं है, उसका कोई मतलब नहीं है। परमात्मा एकवचन में ही बोलना पड़े, क्योंकि वह एकवचन है नहीं, वह कलेक्टिव की खबर है, समष्टि की; वह सब जो है, उसकी खबर है। अब सब में सब आ गया। इसलिए अब और आगे बचने को नहीं रहा कि हम परमात्माओं, गॉड्स, ऐसा उपयोग गलत है।
इसीलिए अंग्रेजी जैसी भाषाओं के पास परमात्मा के लिए ठीक शब्द नहीं है। उनका जो गॉड है वह गॉड्स भी हो सकता है। इसलिए वह देवता का पर्यायवाची है, परमात्मा का पर्यायवाची नहीं है। देवता बहुवचन में हो सकते हैं; परमात्मा नहीं। वह शब्द जो है वह समष्टि का, सबका, दि होल। अंग्रेजी का ‘होली’ शब्द ज्यादा करीब है परमात्मा के, क्योंकि वह ‘होल’ से बनता है। होल से ही होली बनता है। होली शब्द ज्यादा ठीक है, वह परमात्मा का अर्थ रखता है। लेकिन उसका हमने मतलब पवित्रता और दूसरी बातें ले लीं, अब वह ठीक नहीं है। दि होली, वह निकट से पकड़ता है बात को, कि वह जो समष्टि है, इकट्ठा जहां सब हो गया है। उस इकट्ठे को कोई नाम हम देना चाहें तो कोई नाम दिया जा सकता है, वह नाम परमात्मा है।
यानी जब मैं यह कह रहा हूं कि मैं नहीं कर रहा, तो मैं यह कह रहा हूं कि सब कर रहे हैं, उस करने में मैं सिर्फ एक हिस्सा हूं, उससे ज्यादा नहीं। और यह खयाल में आ जाए तो सारी चिंता गई। क्योंकि तब न हार है, तब न जीत है; तब न जन्म है, तब न मरण है। क्योंकि कौन मरेगा, कौन जीएगा--सब तो सदा है। वह व्यक्ति मरता और जीता है--तो वह गया, वह ध्यान में डूब गया, खतम हो गया।
तो ध्यान को करने की कोशिश मत करना। इतना खयाल लोगे तो बहुत अच्छा होगा।
प्रश्न:
भगवान, पर इसके साथ ही, अगर किसी के मन में यह विचार है कि भगवान जो करता है, देखता जाता है। सब इन्सान उसकी एक आदत बन गई है कि जो हो रहा है ठीक है, साक्षी बन जाता है। लेकिन जब वह एक भी आदमी देखे कि वह गलत बोल रहा है और वह रोक देता है उसको कि यह गलत है बात। कठोर शब्द उससे निकल जाते हैं। तो सब लोग उससे बोलते हैं, तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। क्योंकि तुमने इतने कठोर शब्द कह कर उसका दिल दुखाया। लेकिन मैं तो यह समझती हूं कि यह बात जो है निकलवाई गई है भगवान की तरफ से। कही गई है कि यह गलत है।
नहीं, अगर यह भगवान से निकलवाई गई है, तो वह जो तुम्हारी गरदन दबा कर कह रहे हैं कि ‘ये कठोर शब्द निकले’ वह भगवान से नहीं निकलवाए गए? मामला खतम ही है, उसमें क्या दिक्कत है! तुम्हारी तो भगवान से निकलवाई गई है और यह जो दूसरे आपसे कह रहे हैं कि तुमने गाली देकर बहुत बुरा किया, यह किससे निकलवाई गई है? इनको तुम छोड़ देती हो भगवान के बाहर। तब फिर बेईमानी हो जाती है, तब बेईमानी हो जाती है। यही तो बेईमानी चल रही है पूरे वक्त। और जब सभी भगवान से निकलवाया गया है तब क्या सवाल है?
प्रश्न:
नहीं, जो हो रहा है, आटोमेटिक कहलवाया गया है।
न, न, न, उनसे भी आटोमेटिक हो रहा है। तुम्हीं से आटोमेटिक हो रहा है? और वह जो आदमी ने बुरा काम किया था, जिसको तुमने गाली दी है, वह उससे भी आटोमेटिक हो रहा है। और ये बेचारे जो तुमसे कह रहे हैं कि तुमने बहुत कठोर शब्द बोल दिए, यह भी आटोमेटिक हो रहा है।
नहीं, हमारी कठिनाई यह है कि साक्षी का हमें पता नहीं है। इसलिए हम मान लेते हैं कि अगर साक्षी हो जाएं। अगर का सवाल नहीं है वहां; वह तो पता होगा तो फिर ये तीनों बातें ही एक हो गईं, इसमें कुछ झंझट न रही, इसमें कोई झंझट न रही। लेकिन हम मान कर सवाल उठाते हैं। हम कहते हैं कि अगर साक्षी हो गए और फिर ऐसा हुआ। तो अभी साक्षी तो हुए नहीं, इसलिए वह जो फिर ऐसा हुआ जो आप सोच रही हैं वह साक्षी होने के पहले का सोचना है। साक्षी हो गए तब क्या बात है? तब कोई बात ही नहीं है। तब कोई सवाल ही नहीं है।
महाभारत में एक बहुत मजेदार बात आती है। महाभारत में एक बात आती है कि दिन भर लड़ाई चलती, दिन भर लड़ते। सांझ जब लड़ाई बंद हो जाती तो सब एक-दूसरे के शिविरों में जाकर गपशप करते। वे जो दिन भर लड़े थे मैदान पर, दुश्मन थे, और जी-जान लगा दी थी एक-दूसरे को मारने-मिटाने में, जब बिगुल बज जाता और लड़ाई बंद हो जाती, तो फिर सब एक-दूसरे के शिविर में जाकर गपशप भी होती, बैठ कर बातचीत भी होती, रात आधी रात तक सब चर्चा भी चलती कि कौन मर गया, कौन बच गया। ये वही लोग जो दिन भर बिलकुल जी-जान से लड़े। बड़े अदभुत लोग हैं। क्योंकि जिससे हम दिन भर लड़े हैं उससे शाम को गपशप करने थोड़े ही जाएंगे। और जिससे हमने शाम को गपशप की है उससे दूसरे दिन लड़ेंगे कैसे!
पर यह हो सकता है। पर यह जिस तल पर होता है उसको मान कर नहीं चलना चाहिए। उसको मान कर नहीं चलना चाहिए कि हां, साक्षी हो गए। ऐसा मान कर नहीं सवाल बनाएं। साक्षी हो जाओ और फिर सवाल लाना। क्योंकि साक्षी कभी कोई सवाल नहीं लाया। असल में, साक्षी के लिए सवाल ही न बचा। प्रश्न तो उठते हैं हमारे कर्ता होने से। साक्षी अगर हो गए तो जो है वह है, अब प्रश्न का क्या सवाल है! इसको ठीक से समझ लेना जरूरी है। हमारे सारे प्रश्न हमारे कर्ता के भाव से उठते हैं। अगर कर्ता नहीं है तो प्रश्न क्या है? जो है--है। मैंने तो किया नहीं है। तो प्रश्न कैसे उठे?
कल मुझसे किसी ने एक बहुत बढ़िया बात पूछी। कल मुझसे किसी ने पूछा कि आपने कभी किसी से प्रश्न पूछा?
मैंने तो नहीं पूछा। अपनी पूरी जिंदगी में नहीं पूछा। ऐसा नहीं कि अभी नहीं। मैंने कभी किसी से प्रश्न पूछा ही नहीं। कभी मेरे घर के लोगों ने मुझे कहा भी हो कि मुनि आए हैं, कोई संन्यासी आए हैं, कोई स्वामी आए हैं। छोटा भी था तो मैं कहा, मैं चलता हूं। मेरे पिता मुझे कई दफा कहें कि इतनी बातचीत करते हो, कुछ पूछ लो! मैं कहूं, मैं क्यों पूछूं? क्योंकि अगर मैं पूछूं, कहूं कि ईश्वर है? और वह संन्यासी कह दे, है। तो मुझे क्या फर्क पड़ेगा? और वह कह दे, नहीं है। तो मुझे क्या फर्क पड़ेगा? यह तो मुझे ही खोजना पड़ेगा। इसके कहने से तो कुछ फर्क नहीं पड़ने वाला। और अगर वह कह दे--है, और झूठ बोल रहा हो, तो मैं कहां पता लगाऊं?
तो मेरे घर के लोग कहते, चार आदमियों से पता लगा सकते हो कि यह आदमी झूठ नहीं बोलता।
मैं उन चार आदमियों का किससे पता लगाऊं कि ये झूठ नहीं बोलते? इसका कोई मतलब नहीं है। एब्सर्ड है। मैं कहां पता लगाता फिरूंगा ऐसा? इसका तो कोई अंत ही नहीं होगा। क्योंकि मैं, संन्यासी झूठ नहीं बोलता, यह चार से पता लगाऊं। और ये चार झूठ नहीं बोलते, यह फिर सोलह से पता लगाऊं। और वे सोलह सच बोल रहे हैं कि झूठ बोल रहे हैं...। इसका कोई अंत नहीं होगा। तो मैंने कहा, मैं पता खुद ही लगा लूंगा। मैं इधर से शुरू करूं, उधर जाने की कोई जरूरत नहीं। किसी से क्या पूछना है!
सारे प्रश्न जो हैं...
प्रश्न:
रियलिटी में प्रश्न भी नहीं हैं।
नहीं हैं, नहीं हैं। हो ही नहीं सकते। वहां जो है--है। उसके लिए कोई न कारण दिया जा सकता, न कारण है। तो इसलिए वहां सवाल नहीं है, वहां सवाल नहीं है। लेकिन हमारा जो कर्ता है वह अनरियल है। वह है नहीं। इसलिए वह हर चीज में सवाल उठाता है।
मैं युनिवर्सिटी छोड़ा, तो जिनके घर पर मैं रहता था, उनको आकर मैंने कहा कि आज मैं नौकरी छोड़ आया।
तो उन्होंने कहा कि अरे! तो पूछ तो लेते। इतने दिन से हमारे साथ हो, आठ वर्ष से, तो हमें कम से कम एक बार पूछ तो लेना था।
तो मैंने उनसे पूछा कि जब मैं मरूं, तो आपसे पूछ कर मरूंगा?
उन्होंने कहा, नहीं, मुझसे पूछ कर कैसे मरोगे?
मैं जब जन्मा, आपसे पूछ कर जन्मा?
उन्होंने कहा कि नहीं।
तो मैंने कहा कि फिर क्या पूछना किससे है? असली काम तो बिना ही पूछे हुए जा रहे हैं, तो मैं फालतू काम क्यों पूछने आऊं?
तो उन्होंने कहा कि और कल अगर--नौकरी छोड़ दी है--कल अगर खाना न मिले, रोटी न मिले; भूखा मरना पड़े।
तो मैंने कहा कि मैं भूखा मरूंगा। वह भी मैं किसी से पूछने नहीं जाऊंगा कि मैं भूखा क्यों मर रहा हूं। इसमें क्या पूछने की बात है? मैं समझूंगा कि भूखा मरने का वक्त आ गया, तो भूखा मर रहा हूं।
उन्होंने कहा, अगर कोई मित्र तुम्हें खिलाएगा-पिलाएगा नहीं, ठहरने नहीं देगा--वे बहुत नाराज थे--कोई ठहरने नहीं देगा, कोई खिलाएगा-पिलाएगा नहीं, फिर क्या करोगे?
मैंने कहा कि जो उस वक्त हो जाएगा वह मैं करूंगा। आपसे मैं यह भी पूछने नहीं आऊंगा कि क्या करूं। क्योंकि सवाल यह है, जो मेरी समझ में आएगा उस वक्त, मैं कर लूंगा। अगर गड्ढा खोदना पड़ेगा तो गड्ढा खोद लूंगा। मिट्टी काटनी पड़ेगी, मिट्टी काटनी पड़ेगी।
उन्होंने कहा कि न तुम गड्ढा खोदोगे, न तुम मिट्टी काटोगे।
तो मैंने कहा कि फिर अगर खाना नहीं मिले, गड्ढा भी न खोद सकूं, मिट्टी भी न काट सकूं, कोई खिलाने वाला भी न हो, तो किसी कुएं में, किसी खाई में कूद जाऊंगा। लेकिन मैं क्या करूंगा, यह मैं पूछने नहीं जाऊंगा किसी से। क्योंकि मेरे होने न होने में किसी के भी उत्तर का कोई संबंध नहीं है।
अगर एक बार हमें यह खयाल में आ जाए कि हमारे सारे प्रश्न, हमारी एक फाल्स एनटाइटी है, जिससे उठते हैं। वह अपनी रक्षा के लिए सारा इंतजाम कर रही है। वह हजार सवाल उठा रही है, वह हजार व्यवस्थाएं कर रही है--ऐसा हो जाएगा तो क्या करोगे? ऐसा हो जाएगा तो क्या करोगे? ऐसा हो जाएगा तो क्या करोगे? वह सारे इंतजाम में लगी हुई है। और उस सारे इंतजाम में वह मजबूत होती चली जा रही है। अगर ऐसा चलता रहे, तो हर प्रश्न का उत्तर दस नये प्रश्न उठाता चला जाएगा। एंडलेस होगा, उसका कोई अंत नहीं होने वाला।
चीजें जैसी हैं--हैं। एक आदमी ने गाली दी है और तुमने उसको चांटा मारा है और दूसरे ने तुमको चांटा मारा है। चीजें ऐसी हैं, हंसो और घर चले जाओ। इसमें पूछना क्या है? तुमको ही आटोमेटिक हुआ, उसको भी आटोमेटिक हुआ, उसको भी आटोमेटिक हुआ। अब आटोमेटिक कौन करवा रहा है, वह कभी मिल जाए तो उससे पूछना कि यह कैसा आटोमेटिक करवा रहे हो तीन तरह का कि हमको ऐसा हो रहा है, इनको ऐसा हो रहा है, इनको ऐसा हो रहा है। वह कभी मिलेगा नहीं। और जब तुम उसके पास पहुंचोगी, तुम मिट जाओगी। पूछने वाला नहीं रहेगा, कोई उत्तर देने वाला नहीं रहेगा।
लेकिन हम मान कर कर लेते हैं। मान कर बहुत दिक्कत हो जाती है। और सब चीजों में तो चलता है। गणित में हम मान लेते हैं कि एक आदमी बाजार गया, उसने एक दुकान से छह आने के केले खरीदे, तीन दर्जन खरीदे तो कितने आने हुए। हम मान कर चलते हैं। मुझे बहुत मजा आता था। मेरे एक गणित के शिक्षक थे, वे बहुत नाराज हो जाते थे। वे कहते कि मान लो एक आदमी बाजार गया। मैंने कहा कि मानें क्यों? कहां गया बाजार? तो वे कहते कि तुम नासमझ हो, तुमको पता नहीं है। यह गणित है, इसमें मान कर चलना पड़ता है। मैं कहता कि आदमी गया ही नहीं, तो हम क्यों झंझट में पड़ें? आदमी कहां है?
यह सब बहुत आनंदपूर्ण था। वे मुझे क्लास के बाहर कर देते कि तुम बाहर रहो। वे कहते कि उसने तीन दर्जन केले खरीदे। मैं कहता, लेकिन खरीदे कब हैं? कहां खरीदे हैं? लेकिन वे कहते कि गणित इसके आगे नहीं बढ़ सकता, यह गणित में तो मान कर चलना ही पड़ेगा। तो मैं कहता कि जहां मान कर ही चलना है, तो मान लो उसने तीन दर्जन केले खरीदे तो ऐसा क्यों नहीं मानते सरल कि जिसमें कोई ज्यादा झंझट न हो! एक रुपया दर्जन के खरीदे, तीन रुपये में खरीद लिए। जब मान कर ही चलना है, तो पांच आने छह पाई के खरीदे और इतनी परेशानी क्यों करते हो?
तो वे कहते कि तुम समझ ही नहीं पाते हो। उन्होंने मुझे कभी...वह उनकी अकल में नहीं आई यह बात कि मैं मजाक कर रहा हूं। वे यही सदा समझे कि तुमको गणित कभी अकल में आ ही नहीं सकता। तुम गणित समझने के योग्य नहीं, तुम बाहर खड़े हो जाओ क्लास के। तुम पूरी क्लास को खराब कर देते हो। क्योंकि बाकी लड़के भी पूछने लगे कि हां, मानें क्यों?
अगर मानें न तो बहुत मुश्किल हो जाता है। और सारा खेल जो है वह मान कर चल रहा है कि ऐसा हो तो ऐसा हो, ऐसा हो, ऐसा हो। लेकिन वह पहली कड़ी क्यों मानने की जरूरत है? साक्षी हो जाओ, फिर देखना। न कोई बाजार जाता, न कोई केले खरीदता, न कोई हिसाब है। लेकिन वह साक्षी हो जाने के बाद, उसके पहले नहीं। सब गणित उसके पहले है, उसके बाद कोई गणित नहीं है।
सपोज की कोई जगह नहीं है जिंदगी में। और हम पूरा काम सपोज से चल रहे हैं। पति घर लौट रहा है तो वह सपोज करके आ रहा है कि पत्नी यह कहेगी--इतनी देर कहां थे--तो क्या जवाब दूंगा। वह सब सपोजीशन चल रहा है। पत्नी घर पर तैयार हो रही है कि पति आ रहा है, वह जरूर कहेगा कि दफ्तर में काम था इसलिए देर हो गई, तो फोन करके पता लगा लो कि दफ्तर में पांच बजे तक था कि नहीं था। यह सब सपोजीशन चल रहा है। और इस सपोजीशन में बड़ी झंझट हो रही है। क्योंकि वह दोनों का गणित तैयार है। और वे गणित टकरा जाने वाले हैं, क्योंकि दोनों के अपने सपोजीशंस हैं।
यानी सीधी बात है कि पति देर से आ रहा है, बात खत्म हो गई। अब इसमें और क्या जांच-पड़ताल करनी है! पति देर से आने वाला है, ऐसा आदमी मिला है जो देर से आता है, बात खत्म हो गई।
मगर नहीं, हम जिंदगी जैसी है वैसी स्वीकार नहीं करते। इसलिए हम उसके तरफ चारों तरफ जाल बुनते रहते हैं कि ऐसा होगा, ऐसा होगा। और तब एक दिमाग का जाल है। फिर हम कहते हैं, मन शांत नहीं होता, विचार बहुत चक्कर काटते हैं। और विचार तुम चौबीस घंटे पैदा कर रही हो। सब विचार सपोजीशन पर खड़े हैं। सब विचार! कि मान लो ऐसा हो जाए, बस उसमें सब खेल चल रहा है।
जैसा हो रहा है वैसा हो रहा है, जैसा होगा वैसा होगा। अगर ऐसा खयाल में आ जाए तो विचार की कहां गुंजाइश है? यह बात समझे न?
प्रश्न:
विचार के तरंग भी स्वाभाविक हैं?
जी!
प्रश्न:
जिस तरंग में विचार नहीं होता वह भी स्वाभाविक है?
स्वाभाविक तो सभी है।
प्रश्न:
लेकिन विचार करके काम करेंगे तो वह अस्वाभाविक हो जाएगा।
हां, हो जाने वाला है। लेकिन वह भी मनुष्य का स्वभाव है। नहीं तो वह भी नहीं हो सकता था। अस्वाभाविक होना भी मनुष्य का स्वभाव है। सिर्फ मनुष्य ही हो सकता है। कुत्ता नहीं हो सकता, बिल्ली नहीं हो सकती। मनुष्य ही हो सकता है। तो मनुष्य के स्वभाव की एक खूबी है कि वह अस्वाभाविक हो सकता है। वह उसका स्वभाव है।
प्रश्न:
यह जो सपोजीशन चल रही है यही सब भय का कारण है।
सारे भय का कारण है।
प्रश्न:
शिव सेना क्या कर रही है! दूसरे लोग क्या कर रहे हैं!...
हां-हां, यह सारा भय है, सारा भय है, सारा। हमने कितने सपोज किए हुए हैं--कि स्वर्ग होगा, सपोज स्वर्ग हो, नरक हो, पाप का फल मिलता हो, पुण्य का फल मिलता हो, भगवान हो, जवाब पूछे, कयामत आ जाए, उठाए और पूछे कि तुमने यह क्या किया? वह क्या किया? यह सारा सपोजीशन है।
प्रश्न:
रियलिटी इससे डिफरेंट है?
कुछ मतलब नहीं है इसका, इसका कोई मतलब नहीं है। लेकिन मनुष्य के स्वभाव का यह हिस्सा है कि वह अस्वाभाविक हो सकता है। अस्वाभाविक होता है तो दुख पाता है। दुख का मतलब है: अस्वाभाविक होने का फल। स्वाभाविक होता है, सुख पाता है। सुख का मतलब है: स्वाभाविक होने का फल। लेकिन स्वाभाविक होने की चेष्टा मत करना, नहीं तो वह भी अस्वभाव ही होगा। अस्वाभाविक होने को समझ लेना, बात खत्म हो जाएगी, धीरे-धीरे स्वभाव आ जाएगा। चीजें जैसी हैं--हैं। यह खयाल आ जाए तो ध्यान के लिए बड़ी संभावना बन जाती है।
प्रश्न:
भगवान, इस अहं-भाव की निवृत्ति कैसे हो? यानी साक्षित्व लाया नहीं जाता और साक्षी बना नहीं जाता। केवल हम कुछ बने हुए हैं, उसी के कारण साक्षीपन की अनुभूति नहीं हो रही है। तो यह अहं-भाव, जो बने हुए हैं हम, उसकी निवृत्ति कैसे हो?
नहीं-नहीं, उसकी निवृत्ति आप कर ही नहीं सकते हैं। क्योंकि जो कह रहा है कि मैं निवृत्ति कैसे करूं--वही है अहं। उसकी आप निवृत्ति कर ही नहीं सकते। अहंकार इतना सूक्ष्म है कि जब वह यह पूछता है कि अहंकार को कैसे मिटाएं? तो वही पूछ रहा है। सवाल और कहीं से नहीं आ रहा है। क्योंकि अहंकार के पीछे तो सवाल ही नहीं है, वहां अहंकार है ही नहीं। अहं उसका हिस्सा है। साक्षी होने की जो चित्त-दशा है उसका हिस्सा नहीं है।
अब जैसे समझ लीजिए, पानी है, पानी पूछता है कि मैं अपनी तरलता कैसे मिटाऊं? लिक्विडिटी कैसे मिटाऊं?
तो पानी तो तरल होकर ही हो सकता है। तो पानी तो तरलता नहीं मिटा सकता, क्योंकि पानी की परिभाषा में तरलता है। तरलता उसका हिस्सा है। हम उसको कहते हैं कि सौ डिग्री तक गर्म हो जाओ, कि शून्य डिग्री के नीचे ठंडे हो जाओ। तो शून्य डिग्री के नीचे होकर ठंडे हो जाओगे, तुम पानी रह नहीं जाओगे, बर्फ हो जाओगे।
तो वह कहता है कि वह तो ठीक है, मान लिया कि बर्फ हो गए, लेकिन तरलता कैसे मिटेगी? उसकी जो तकलीफ है, वह होकर तो नहीं देख रहा है। वह कह रहा है कि मान लिया कि बर्फ हो गए, लेकिन तरलता कैसे मिटेगी?
हम उससे कहते हैं, सौ डिग्री तक गर्म हो जाओ, तो तुम भाप हो जाओगे।
वह कहता है कि मान लिया कि भाप हो गए, लेकिन तरलता कैसे मिटेगी?
नहीं, तरलता तो पानी की ये सौ डिग्री के बीच का ही खेल है। अहंकार जो है वह कर्ता की डिग्रियों के बीच का खेल है। या तो उससे नीचे गिर जाओ। जैसे बेहोशी में गिर जाता है आदमी। अहंकार चला जाता है। वह फ्रोजेन स्थिति है, बर्फ हो गए आप। नीचे गिर गए। इसीलिए तो शराब का इतना शौक है। अहंकार से छुटकारा है--नीचे गिर कर। बर्फ की स्टेट में ला देता है वह आप को। लेकिन जिंदगी बहुत उष्ण है, ज्यादा देर बर्फ नहीं रह सकते। जिंदगी की उष्णता पिघला कर फिर पानी बना देती है। सुबह होते ही फिर नशा नदारद हो जाता है। फिर होश आता है, फिर पता चलता है कि मैं हूं।
तो एक रास्ता तो है कि बेहोश हो जाएं, तो अहंकार के बाहर हो जाएंगे। लेकिन इसका आपको पता नहीं चलेगा कि बाहर हो गए, क्योंकि बेहोश होकर बाहर हुए हैं। और दूसरा रास्ता यह है कि आप साक्षी में पहुंच जाएं, तो आप पाएंगे कि बाहर चले गए हैं। लेकिन चूंकि साक्षी में गए हैं, तो साक्षी तो होश है, इसलिए आपको यह भी पता चलेगा कि अहंकार नहीं रहा।
तो साक्षी की अवस्था और बेहोशी की अवस्था में बहुत बार भूल हो जाती है।
जैसे अब मेरी समझ है कि रामकृष्ण कभी भी साक्षी की अवस्था में नहीं पहुंचे। वे बेहोशी की अवस्था में ही पहुंचते रहे और वे नीचे ही गिरते रहे। लेकिन वे अवस्थाएं बिलकुल एक जैसी लगती हैं। क्योंकि पानी दोनों हालत में तरल नहीं रह जाता है। एक गुण तो दोनों में बराबर है बर्फ में और भाप में--कि तरलता खो जाती है।
प्रश्न:
भगवान, यह अहंकार भी रहे तो रहे, यह भी आत्मा का एक रूप है। इसको मारने की कोशिश क्यों करते हैं?
आत्मा की वृत्ति नहीं है यह।
प्रश्न:
नहीं, जो भी है, वह आत्मा का ही गुण है, वह रहे तो रहे। उसको मारने की कोशिश ही क्यों करनी?
नहीं-नहीं, कोई सवाल ही नहीं है करने का। मैं वही तो कह रहा हूं। नहीं, कोशिश करने का सवाल तो है ही नहीं। कोशिश करिएगा भी तो नहीं मार सकते हैं।
प्रश्न:
आजकल जितनी दुनिया है वह अहंकार को मारने के पीछे पड़ी है।
वह भी अहंकार का हिस्सा है, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। अहंकार को बढ़ाने की कोशिश करो कि मारने की कोशिश करो, दोनों हालत में अहंकार रहेगा। उससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। तो मैं कोशिश की बात नहीं कह रहा, मैं तो यह कह रहा हूं कि कर्ता होने की स्थिति से एक छलांग अपने आप घटती है।
प्रश्न:
साक्षी बन करके उस अहंकार को देखते रहो।
देखने को बचेगा नहीं वहां। यही तो सारी गड़बड़ है। वह सपोजीशन का मामला है। हम कहते हैं, साक्षी बन कर अहंकार को...। साक्षी जहां होगा वहां अहंकार कैसे होगा? दोनों बातें साथ नहीं होने वाली। साक्षी हुए कि तुम पाओगे--अहंकार न था, न है, न हो सकता है।
जैसे कि सुबह कोई आदमी कहे, रात सपना देखे और सुबह कहे कि सपने को कैसे तोड़ें? हम उससे कहेंगे, तुम तो नींद तोड़ो, सपने की फिकर छोड़ दो। वह कहे, हां, यह बात ठीक है, जाग कर सपने को देखते रहें। तो क्या मतलब रहेगा? वह जाग कर कैसे सपने को देखता रहेगा? वह जागने के साथ सपना टूट जाएगा। जागते से ही सपना देखने को बचेगा नहीं। वह नींद का हिस्सा है।
सपना मूल नहीं है, नींद मूल है। तो नींद तो बिना सपने की हो सकती है, लेकिन सपना बिना नींद के नहीं हो सकता। इसलिए सपने से मत लड़ो। क्योंकि अगर सपने में तुम सपने से भी लड़े, तो तुम सिर्फ नये सपने पैदा कर सकते हो, और कुछ भी नहीं कर सकते। जाग जाओ, सपने की फिकर ही छोड़ो। वह नींद का हिस्सा है, तुम जाग गए तो वह नींद के साथ गया। वह बचेगा नहीं कहीं।
हमारे कर्ता होने की जो नींद है, अहंकार उसका सपना है। अहंकार से लड़े तो नींद में ही चलेगी लड़ाई, कहीं पहुंचने वाले नहीं। दो तरह के नींद के सपने हो सकते हैं। कि एक आदमी कहे कि अब मैं बिलकुल निर-अहंकारी हो गया। मगर ‘मैं’ ही हो गया निर-अहंकारी। होगा कौन निर-अहंकारी? एक आदमी कहे कि मैं तो बड़े अहंकार से भरा हुआ हूं। एक कहे कि मुझमें तो अहंकार बचा ही नहीं। लेकिन दोनों में ‘मैं’ बचे हुए हैं। वे दो तरह की घोषणाएं कर रहे हैं। उससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। मैं मौजूद है और घोषणा कर रहा है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है।
नहीं; एक आदमी जाग गया। तुम उससे पूछो कि अहंकार मिट गया तुम्हारा? वह कहेगा, था ही नहीं। क्योंकि होता तो मिटाना मुश्किल था। मिटता कैसे? जो है वह कभी मिटता नहीं है। वह कहेगा, था ही नहीं। तो हम कहेंगे, अहंकार से छुटकारा हो गया तुम्हारा? वह कहेगा, हम कभी फंसे न थे, बंधे न थे। तब हमें उसकी भाषा समझ में नहीं आती। हम कहते हैं कि बड़ी मुश्किल की बात है। हम तो उसी से फंसे हैं। तो हमें कोई तरकीब बता दो कि तुम कैसे निकल गए बाहर?
वह कभी बाहर निकला नहीं; उसने जाग कर देखा और उसने पाया कि नींद में सपना देखा था कि बंधे हैं।
तो इसलिए मेरा सारा जोर इस बात पर है कि जिंदगी जैसी है उसको चुपचाप स्वीकार कर लो। जो है उसे पूरी तरह स्वीकार कर लो। जिस दिन स्वीकृति पूरी हो जाएगी, इंच मात्र भी अस्वीकृति तुम्हारे भीतर न होगी, उसी दिन तुम पाओगे घटना घट गई। उसके बाद एक क्षण रुकने की जरूरत नहीं है घटना को। बस उस क्षण तक घटना नहीं घट पाएगी। वह घट जाएगी। और उसके पार नहीं है; उसके पार यह भी पता है कि पहले भी नहीं था।
इसलिए जो कोई कहता है कि अहंकार छोड़ो! गलत बातें कह रहा है, गलत बातें कह रहा है। अहंकार छोड़ा नहीं जा सकता। क्योंकि छोड़ना-पकड़ना सब अहंकार की तृप्ति है। जो हमारी सारी तकलीफ है वह ऐसी है जैसे कि कुत्ता पूंछ को पकड़ रहा है अपनी। पास दिखाई पड़ती है बिलकुल, मुंह के पास रखी है बिलकुल, उचकता है। जब वह उचकता है तो पूंछ भी उचक जाती है। फिर उतना ही फासला रह जाता है। फिर वह देखता है कि पास तो बिलकुल है, जरा छलांग ठीक से लगानी चाहिए। अभी ठीक से पकड़ नहीं पाया, क्योंकि मैं जरा चूक गया। अब ऐसी ताकत से उछलो कि पूंछ मिल जाए वहां जहां है। वह जितनी ताकत से उछलता है उतनी ताकत से पूंछ उछल जाती है, क्योंकि वह पूंछ कुत्ते का हिस्सा है। तो वह सोचता है, इस तरफ से पकड़ में नहीं आती, इस तरफ से पकड़ो। मुंह फिराओ, उलटी तरफ से पकड़ लो। उधर से भी छलांग लगाता है, वह पाता है कि यह पूंछ हमेशा उचक जाती है। उसको यह पता नहीं चल पाता, पता चले भी कैसे, कि पूंछ उसकी छलांग में जुड़ी हुई है।
इसलिए वह धन इकट्ठा करता है तो अहंकार मजबूत हो जाता है। तो वह सोचता है: धन छोड़ दो। वह धन छोड़ देता है तो अहंकार मजबूत हो जाता है। वह पूंछ है उसकी जुड़ी हुई। वह कहता है, गृहस्थी में अहंकार से छुटकारा नहीं होगा, संन्यासी हो जाओ। तो संन्यासी का अहंकार पकड़ लेता है। अंतर कुछ पड़ता नहीं। अंतर पड़ नहीं सकता।
कुत्ते को किसी दिन समझना पड़ेगा कि पूंछ अपनी है, पकड़ने की जरूरत नहीं, अपने पीछे ही लटकी हुई है। इसको छोड़ो, इसकी झंझट में ही पड़ने की जरूरत नहीं। यह पूंछ अपनी ही है, इसको पकड़ना क्या है! यह पकड़ी ही हुई है। बस कुत्ता मुक्त हो गया। अब वह पूंछ को पकड़ता नहीं। अब वह शान से चला जा रहा है।
जो सारी कठिनाई है हमारी, वह कठिनाई बहुत ही विसियस है। क्योंकि हम जो करते हैं उससे वह कठिनाई और बढ़ती हुई मालूम पड़ती है, घटती नहीं। कुत्ता पागल हो सकता है, इतनी जोर-जोर से छलांग लगाने लगे पकड़ने को पूंछ कि पगला जाए, दिमाग खराब हो जाए उसका। और उसको पूंछ इतने करीब लगती है कि वह सोचता है: इस बार चूक गए, अगली बार पकड़ लेंगे। दूर तो दिखती नहीं, इतनी पास है। इससे भी दूर की चीजें पकड़ ली हैं उसने सदा। तो यह तो पूंछ है। उतनी दूर मिठाई पड़ी थी, उसने छलांग लगाई और पकड़ ली। उतने दूर आदमी जा रहा था, दौड़ा और पकड़ लिया। दूर-दूर की चीजें पकड़ लीं। तो कुत्ते के मन को बड़ा दुख होता है कि यह जो पूंछ है, इतने पास रखी है, यह चूकी जा रही है, तो मन में बड़ा क्रोध भरता है। क्रोध से जोर से छलांग बढ़ती है।
संन्यासी और गृहस्थ जो हैं, करवट बदले हुए पूंछ पकड़ रहे हैं। और कुछ फर्क नहीं है। एक इधर से पकड़ रहा है, एक उधर से पकड़ रहा है। पूंछ को पकड़ो ही मत।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
वे तो यह कहेंगे ही। वे यह कहेंगे ही। हरिद्वार गईं, यह आपकी गलती। उनको महात्मा समझा, यह आपकी भूल। उसमें वे क्या करें। वे क्या करें। आपके लौटने का इंतजाम करते हैं कि लौटो। टिकट खरीदो और वापस जाओ। अगर हरिद्वार न जाओ, तो कुछ दिन में महात्मा बंबई आएगा इधर आपके पास कि माई, कुछ जानना हो तो हम बताने आए हैं। उससे कहना कि बाबा, कुछ नहीं जानना, जा। तो वह हरिद्वार चला जाएगा।
प्रश्न:
अहंकार से मुक्त होना ही परमात्मा का मिलन है या परमात्मा के मिलन से अहंकार से मुक्त होते हैं?
बिलकुल, एक ही बात को कहने के दो ढंग हैं।
प्रश्न:
जैसे परमात्मा की अनुभूति हो जाने पर स्वतः का ही आनंद लिया जा सकता है या दूसरे भी...
दूसरा कुछ स्वतः बचता नहीं। वही तो झंझट है। वही तो हम सपोजीशन की वजह से हम परेशान हैं। परमात्मा की अनुभूति होने पर दूसरा बचता नहीं है। स्व भी नहीं बचता।
प्रश्न:
भगवान, लेकिन अपनी जो जरूरतें हैं, खाना-पीना और फैसेलिटीज, हम अपने लिए कमाते हैं। ऐसे हम दूसरे के लिए भी परमात्मा की अनुभूति...
यह सारी कठिनाई जो है हमारी, यह हम पहले से पूछ रहे हैं। ये सारे जो सवाल हैं, ये ऐसे सवाल हैं कि हम पहले से पूछ रहे हैं।
यह ऐसा मामला है कि एक आदमी बैलगाड़ी में बैठा है। उसको हमने कहा कि हवाई जहाज भी होता है। उस आदमी ने कहा, बैल कितने लगते हैं हवाई जहाज में? हमने कहा, बैलगाड़ी से बहुत तेज चलता है। उसने कहा, तो बैल तो हजार, दो हजार बांधने पड़ते होंगे। हमने कहा, भई, बैल लगते ही नहीं। उसने कहा, क्या बातें कर रहे हो? अगर चलता है तो बिना बैल के चलेगा कैसे? बिना बैल के चलेगा कैसे? हांकने वाला रहता है? हमने कहा, हांकने वाला नहीं रहता, क्योंकि बैल ही नहीं रहते। तो वह कहे, बिना हांकने वाले के कहीं चल सकता है!
मेरा मतलब समझ रहे हैं न। वह जो आदमी...दूसरा, कि रास्ता--कितना बड़ा रास्ता बनाना पड़ता है? हवाई जहाज को चलने के लिए कितना बड़ा रास्ता बनाना पड़ता है? हम कहें कि रास्ता बनाना नहीं पड़ता। उसकी जो कठिनाई है वह कठिनाई बैलगाड़ी में बैठ कर हवाई जहाज के संबंध में प्रश्न पूछने की कठिनाई है। जो बिलकुल स्वाभाविक है।
हमारी सब की कठिनाई यही है। तो मैं यह कहता हूं कि इसकी...ये प्रश्न अर्थ नहीं रखते। क्योंकि हम जो भी करेंगे वे प्रश्न गड़बड़ होंगे। गड़बड़ होने वाले हैं वे। क्योंकि हमें उस जगह का कोई पता नहीं है, कोई पता नहीं है कि वहां क्या होगा। उस संबंध में बिलकुल ही अज्ञात जाना पड़ेगा तुम्हें। उत्तर पहले मिल भी नहीं सकते हैं।
और इसलिए सब उत्तर नकार के होंगे, निगेटिव होंगे। यानी हम इतना ही कह सकते हैं कि नहीं, बैल नहीं होते, बैलगाड़ी वाले से। इतना तू पक्का मान। एक बात पक्की है कि बैल नहीं होते। और यही उसकी तकलीफ है। क्योंकि बैल अगर हों तो वह समझ भी ले कि हवाई जहाज, ठीक है, बड़ी बैलगाड़ी होगी। यही उसकी तकलीफ है। हम उससे कहते हैं, बैल नहीं होते। वह कहता है, आप निषेधात्मक बताते हैं। आप हमको पाजिटिवली बताओ। बैल नहीं होते, घोड़ा होता है? क्या होता है, यह बताओ! पाजिटिवली बताओ। और बैलगाड़ी के पास जो भाषा है, बैलगाड़ी वाले के पास जो भाषा है, उससे कुछ भी संबंध नहीं रह गया है।
जब हम पूछते हैं कि जब परमात्मा मिल जाएगा, तो फिर हम दूसरे के लिए कुछ करेंगे?
तब दूसरा बचेगा नहीं। आप बचेंगे नहीं। करना बचेगा नहीं। होना बचेगा। और होना होता रहेगा। दूसरे के लिए भी, अपने लिए भी, सबके लिए भी--होना होता रहेगा। उसको कुछ करने जाना नहीं पड़ेगा।
अभी आपको करने जाना पड़ता है। अभी रास्ते पर एक आदमी गिर पड़ता है, तो आपको सोचना पड़ता है कि उठाएं कि न उठाएं। इसका डिसीजन लेना पड़ता है कि इसको उठाएं कि न उठाएं। तो जरा उसकी टोपी उठा कर देखनी पड़ती है कि चोटी है कि नहीं। क्योंकि अगर मुसलमान हो तो नाहक उठाने का पाप लग जाए। हिंदू हो तो पुण्य मिल जाए। टोपी उठा कर देखनी पड़ती है।
यह जो, यह जो अभी हो रहा है न, ये अब आदमी यह पूछेगा कि समझ लो परमात्मा मिल गया, फिर हम इसकी टोपी उठा कर देखेंगे कि नहीं कि चोटी है कि नहीं?
चोटी होगी तो भी परमात्मा है, चोटी नहीं होगी तो भी परमात्मा है। चोटी वाला परमात्मा या गैर-चोटी वाला परमात्मा, उठाने के लिए इसमें कोई फर्क नहीं पड़ता है। फिर यह भी सवाल नहीं होगा कि उठाएं कि नहीं। क्योंकि उठाएं कि नहीं, यह सवाल तब उठता है जब मुझे कर्ता होना है। नहीं, हम आदमी को गिरते देखेंगे और फिर अपने को उठाते देखेंगे। इससे भिन्न कुछ बात नहीं रह जाती है। एक आदमी गिरा, यह दिखाई पड़ेगा। और हमने उसको उठाया, यह भी दिखाई पड़ेगा। और इन दोनों में कहीं कर्ता का सवाल नहीं उठता कि मैं उठाऊं कि न उठाऊं, कि यह करूं कि न करूं, यह सवाल नहीं उठता है।
प्रश्न:
भगवान, तो स्वतः की अनुभूति से कैसे यह बोध होगा?
उसके अतिरिक्त कोई रास्ता ही नहीं है। दूसरे से पूछ रहे हो इसलिए खयाल नहीं आ रहा है। दूसरे से पूछ रहे हो, इसलिए खयाल नहीं आ रहा है। नहीं पूछो तो अभी तुमको भी खयाल आ जाए।
प्रश्न:
भगवान, वैसे तो बहुत परेशान थे, लेकिन ध्यान का कुछ मतलब नहीं मालूम था कि ध्यान क्या है, कैसे करें, क्या करें। जब तक किसी से सुनें नहीं या पढ़ें नहीं...
तो पढ़ते रहो, सुनते रहो। जब उनसे भी परेशान हो जाओगे तब कहां जाओगे? फिर खुद ही पर लौट आना पड़ेगा।
प्रश्न:
भगवान, नहीं, जैसे ध्यान, मैंने सुना है कभी-कभी कि ध्यान भी होता है, तो अपने आप कैसे मालूम पड़ेगा वह?
अपने आप ही मालूम पड़ेगा। और नहीं मालूम पड़ेगा तो नहीं मालूम पड़ेगा। लेकिन दूसरे से तो कभी मालूम नहीं पड़ेगा। मेरा मतलब समझ रहे हो न! दूसरे से कभी नहीं मालूम पड़ेगा। पूछो! वह भी हिस्सा है भटकने का। भटकना जरूरी है अपने घर पर लौट आने के लिए। और जितना जो भटक ले उतना अच्छा है। क्योंकि जितना थका-मांदा लौटेगा उतना घर में विश्राम करेगा आकर। भटकना भी जरूरी है, एकदम जरूरी है। भटकना हिस्सा है जिंदगी का, उसमें भटकने में कुछ बुरा भी नहीं है। पूछो, भटको। जब भटक जाओगे और किसी से न मिलेगा तब क्या करोगे? फिर लौट ही आना पड़ेगा न अपने पर--थ्रोन बैक!
प्रश्न:
भगवान, वैसे तो हजारों वर्ष से लोग ऐसे ही भटक रहे हैं।
अरे हजारों वर्ष से कहां भटक रहे हो तुम! एक वर्ष भी भटक लो तो बहुत है। भटकते भी नहीं हो, ऐसे ही अपनी जगह पर खड़े होकर नाचते रहते हो, उचकते रहते हो वहीं। भटक भी लो तो कुछ हो जाए।
अब हजारों वर्ष से भटक रहा है! कौन भटक रहा है? तुम भटक रहे हो हजारों वर्ष से? एक दिन भी भटक लो चौबीस घंटे पूरी तरह से, पहुंच जाओगे घर। लेकिन भटकते भी नहीं हो, उसमें भी ताकत नहीं लगाते हो। खड़े हैं, उछलकूद कर रहे हैं वहीं। सोच रहे हैं: भटक रहे हैं, बड़ा खोज कर रहे हैं। कुछ खोज-वोज नहीं कर रहे हैं। कोई अपनी गीता पर उछल रहा है, कोई अपनी कुरान पर उछल रहा है, कोई बाइबिल पर खड़ा हुआ उछल रहा है। गीता, कुरान, बाइबिल मरे जा रहे हैं उछलकूद की वजह से। तुम कहीं जा नहीं रहे, अपनी किताब पर खड़े नाच रहे हो।
चीजें तो दिखाई पड़ेंगी न। भटकने से ही दिखाई पड़ेंगी। भटको, उसमें हर्ज नहीं है। पूछो, उसमें हर्ज नहीं है। लेकिन सब पूछना व्यर्थ सिद्ध होगा। आखिर में तुम पाओगे कि कहां के पागलपन में पड़े हैं! क्या पूछ रहे हैं? किससे पूछना है? कौन बताएगा? कोई बता भी देगा तो मैं कैसे जान लूंगा? यह पता चलेगा, एक रिवीलेशन होगा, तुम्हारे भीतर से होगा यह तो। तुम्हें लगेगा कि कोई नहीं बताएगा, कोई बताने वाला नहीं है। कोई जानता होगा तो भी नहीं बता सकता है, यह कोई बताने की बात नहीं है। तब क्या करोगे? जब कुछ करने को न बचेगा तब तुम ध्यान कर सकोगे, नहीं तो नहीं कर सकोगे। जब तक तुम्हें कुछ भी करने को बच गया है, तब तक तो तुम वही करोगे, ध्यान नहीं करोगे। ध्यान जो है, वह लास्ट...।
प्रश्न:
भगवान, इस हिसाब से, आपकी जो थ्योरी है इसके हिसाब से तो यह हुआ कि व्यापार है, लोगों के कर्ज हैं...और अगर यही विचारधारा रही...
यही तो तकलीफ है। वही मैं पूरे वक्त कह रहा हूं कि तुम वही मान कर चल रहे हो कि आदमी बाजार गया और उसने केले खरीदे। नहीं, उसने खरीदे भी नहीं, वह गया भी नहीं। वह तुम मान कर चलते हो न कि अगर आपकी बात मान लेंगे तो ऐसा हो जाएगा। ऐसा करके देखो न!
प्रश्न:
भगवान, नहीं, उनके जो विचार हैं आजकल, कारण ये हैं कि धर्म अलग है मंदिर में और व्यापार अलग है बाजार में। वह फिर सारी बिजनेस जो है--व्यापार लाइन...
इसके हिसाब से तो गफलियत खाई न। या तो यह है कि फिर वह स्टेज जैसे कि ध्यान के अंदर विचार अपने आप जब आते हैं, आपने जैसी थ्योरी बताई उसी हिसाब से फिर सारा जीवन ही उसी में है।
है, सच्चाई तो यही है कि पूरा जीवन ही ऐसा होना है।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
वह तो समझ में बात आ गई तो करने की थोड़े ही रही, वह चौबीस घंटे की हो गई। चौबीस घंटे की हो गई।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
वह हो ही गई, समझ में आ गई तो बात हो गई।