QUESTION & ANSWER

Vigyan Dharam Aur Kala 04

Fourth Discourse from the series of 11 discourses - Vigyan Dharam Aur Kala by Osho.
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मेरे प्रिय आत्मन्‌!
धर्म के संबंध में थोड़ी सी बातें कहने को मुझे कहा गया। लेकिन सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि धर्म के संबंध में कुछ भी कहना संभव नहीं। धर्म को जाना तो जा सकता है, कहा नहीं जा सकता। इसलिए एक बहुत विरोधाभासी बात आपसे कहना चाहूंगा सबसे पहले। और वह यह कि जो भी कहा जा सकता है वह धर्म नहीं होता; और जो धर्म है वह कहा नहीं जा सकता है।
जीवन में जितनी गहरी अनुभूतियां हैं, वे कोई भी कही नहीं जा सकतीं। जीवन में जो बहुत क्षुद्र है, उस संबंध में ही हम बातचीत कर पाते हैं। जो गहरा है, वह बात के बाहर छूट जाता है।
रवींद्रनाथ मर रहे थे, मृत्यु की शय्या पर थे। उन्होंने अपने जीवन में छह हजार गीत लिखे हैं। और समझा जाता है कि दुनिया में किसी कवि ने इतने अदभुत और इतने ज्यादा गीत कभी नहीं लिखे। अंग्रेज कवि शेली को महाकवि कहा जाता है, उसके केवल दो हजार गीत हैं। और रवींद्रनाथ के छह हजार गीत हैं। तो एक व्यक्ति उनसे मिलने आया था, उसने रवींद्रनाथ को कहा कि आप तो जो भी जीवन में पाना था पा लिए हैं; जो गाना था, गा लिए हैं; जो कहना था, कह चुके हैं। आप तो बड़ी शांति से विदा ले सकते हैं। तो रवींद्रनाथ रोने लगे। और रवींद्रनाथ ने कहा कि गलत कह रहे हैं! जो मुझे कहना था, अभी कहां कह पाया! जो मुझे गाना था, अभी कहां गा पाया। अभी तो केवल साज बिठा पाया था और जाने का समय आ गया। जो कहना था, वह भीतर ही रह गया। और परमात्मा से इधर मैं रोज कह रहा हूं कि यह क्या मजाक है? अब जब कि मैं कुछ कहने की चेष्टा करने में सफल हो रहा था, तब मुझे विदा होना पड़ रहा है।
तो उस आदमी ने पूछा: जो आपने गाया, इतने गीत लिखे? रवींद्रनाथ ने कहा: गाने के पहले सोचता था कि कुछ कह पाऊंगा, गाने के बाद पता चला शब्द बाहर चले गए हैं, लेकिन अर्थ भीतर ही रह गया है। वह जो मैं कहना चाहता था, वह मेरे हृदय में ही रह गया।
करीब-करीब जिन्होंने भी सत्य को, सौंदर्य को, परमात्मा को जाना है, उन सबकी सबसे बड़ी कठिनाई यही है कि उसे कहना असंभव है। आदमी के पास जो भाषा है, बहुत कमजोर है। और आदमी की भाषा बाजार के काम में आ जाती है, कामचलाऊ जिंदगी के काम में आ जाती है। लेकिन जैसे ही किसी गहरे स्रोत को छूने की कोशिश की जाए, वैसे ही कठिन हो जाता है।
अगर हम किसी को प्रेम करते हों, तो प्रेम के क्षण में बोलना बंद हो जाता है। प्रेमी ने कितना ही सोचा हो कि यह कहूंगा, यह कहूंगा, जब वह प्रेमी के पास पहुंचे, प्रेयसी के पास पहुंचे, मित्र के पास पहुंचे, मां के पास पहुंचे--जिसे उसने प्रेम किया है, तो उसके पास जाकर मौन हो जाता है। शब्द काम नहीं पड़ते, चुप रह जाना पड़ता है।
यह बड़े आश्चर्य की बात है कि इस जगत में जो भी महत्वपूर्ण बातें हैं वे चुप रह कर कही गई हैं, वे बोल कर नहीं कही गईं। साधारण से प्रेम में भी चुप रहना पड़ता है। क्योंकि प्रेम का अनुभव भी इतना गहरा है कि शब्दों में ढालना कठिन हो जाता है। तो परमात्मा का अनुभव तो बहुत गहरा है। उसे शब्दों में ढालने का तो कोई उपाय ही नहीं है।
चीन में एक बहुत अदभुत संत हुआ है, लाओत्सु। अस्सी वर्ष का हो गया था, तब तक उसने कुछ लिखा नहीं था। लोग कहते थे कि अपना अनुभव लिख जाओ। तो लाओत्सु हंस कर टाल देता था। वह कहता था कि अभी मेरी तैयारी पूरी नहीं हुई। फिर तो उसके अंतिम क्षण आ गए। और लोगों ने कहा: अब तो लिख कर छोड़ ही जाओ, क्योंकि तुम्हारा अनुभव कहीं खो न जाए।
तो लाओत्सु ने कहा कि कैसे कहूं, जिंदगी भर कोशिश की। जब भी कहने की कोशिश करता हूं, तो जो कहना चाहता हूं वह पीछे ही छूट जाता है। और जो बिलकुल नहीं कहना चाहा था, वह शब्दों से निकल जाता है। लेकिन लोग नहीं माने तो उसने एक किताब लिखी। उस किताब का नाम है: ताओ तेहकिंग। उस किताब में पहली बात ही उसने यह लिखी कि सबसे पहले मैं यह निवेदन कर दूं कि जो भी मैं कहूंगा, उसे पकड़ कर मत बैठ जाना। क्योंकि जो मैं कहना चाहता हूं, वह मैं कह ही नहीं पाऊंगा।
उसने पहली ही भूमिका में यह बात कही कि जैसे मैं चांद को अंगुली से बताऊं और कोई मेरी अंगुली पकड़ ले और समझे कि यही चांद है, ऐसी ही भूल शब्दों के साथ हो जाती है। शब्द इशारा कर सकते हैं, सत्य को कह नहीं पाते। लेकिन हम शब्दों को पकड़ लेते हैं। जैसे मैंने अंगुली बताई और मेरी अंगुली को कोई पकड़ ले और समझ ले कि यही चांद है।
अंगुली चांद नहीं है। और जहां चांद है वहां से अंगुली का कोई संबंध नहीं है। और अगर चांद को देखना हो, तो अंगुली को भूल जाना पड़ेगा। लेकिन अंगुलियां पकड़ ली जाती हैं। हिंदू है, मुसलमान है, ईसाई है, सिक्ख--ये सब चांद को छोड़ कर अंगुली पकड़े हुए लोगों के नाम हैं। किसी ने नानक की अंगुली पकड़ ली है, तो वह सिक्ख है; और किसी ने कृष्ण की अंगुली पकड़ ली है, तो वह हिंदू है; और किसी ने क्राइस्ट की अंगुली पकड़ ली है, तो वह ईसाई है। लेकिन चांद तो एक है, अंगुलियां बहुत हो सकती हैं। चाहे क्राइस्ट की अंगुली उठे, चाहे नानक की, और चाहे कृष्ण की, और चाहे बुद्ध की, चाहे महावीर की। अंगुलियां हजार हो सकती हैं, लाख हो सकती हैं, लेकिन चांद एक है।
धर्म एक है। लेकिन धर्म एक दिखाई नहीं पड़ता। बहुत धर्म दिखाई पड़ते हैं। इसलिए मैं कहता हूं, अंगुलियां पकड़ ली गई हैं इसलिए बहुत धर्म हैं। अगर चांद देखा जाए, तो एक ही धर्म रह जाएगा; बहुत धर्म नहीं रह जाएंगे। सत्य बहुत हो भी नहीं सकते; असत्य बहुत हो सकते हैं। अगर मैं असत्य बोलूं तो बहुत विकल्प हैं, बहुत ऑल्टरनेटिव हैं। लेकिन अगर मैं सत्य बोलूं तो कोई विकल्प नहीं है। सत्य एक ही होता है, असत्य बहुत हो सकते हैं। और धर्म तो परम सत्य है। वह जो अल्टीमेट ट्रूथ है, धर्म का उससे संबंध है। इसलिए बहुत धर्म नहीं हो सकते।
तो धर्म के संबंध में पहली बात तो मैं यह कहना चाहूंगा कि धर्म के संबंध में कुछ भी कहा नहीं जा सकता, इशारे किए जा सकते हैं। और खतरा यह है कि इशारे पकड़ न लिए जाएं, अन्यथा भूल हो जाती है। इशारे छोड़ने योग्य हैं। इसलिए जिस आदमी को धर्म तक जाना हो, उसे शास्त्र छोड़ने पड़ते हैं, क्योंकि शास्त्र इशारे हैं। और जिसे धर्म तक जाना हो, उसे गुरु छोड़ने पड़ते हैं, क्योंकि गुरु इशारे हैं। और जिसे धर्म तक जाना हो, उसे संप्रदाय छोड़ने पड़ते हैं, क्योंकि सब संप्रदाय इशारे हैं। धर्म तक जिसे जाना हो, उसे सब इशारे छोड़ देने पड़ते हैं। और आंख वहां उठानी पड़ती है, जहां चांद है। वहां कोई इशारा नहीं है।
तो पहली बात तो यह ठीक से समझ लेनी जरूरी है कि आदमी इशारों को पकड़े हुए है। इशारों ने बहुत उपद्रव पैदा कर दिया है। इशारों की वजह से हम लड़ रहे हैं। और जितना हम लड़ते हैं उतना ही जीवन में धर्म का आना मुश्किल हो जाता है। लड़ने वाले चित्त में धर्म का आगमन नहीं हो सकता।
धर्म तो उस चित्त में उतरता है, परमात्मा तो उस द्वार पर आता है, जहां सब संघर्ष बंद हो गया, जहां सन्नाटा है, जहां शांति है। लेकिन हिंदू के दरवाजे पर शांति नहीं हो सकती। मुसलमान के दरवाजे पर शांति नहीं हो सकती। वहां झगड़ा जारी रहेगा।
अभी मैं अहमदाबाद था। मुझसे पहले खान अब्दुल गफ्फार खान वहां थे। वहां दंगा हो गया था। तो खान अब्दुल गफ्फार खान ने वहां लोगों को समझाया, मुसलमानों को कहा, तुम्हें सच्चा मुसलमान होना चाहिए। हिंदुओं को कहा कि तुम्हें सच्चा हिंदू होना चाहिए। उनके पीछे जयप्रकाश वहां थे, तो उन्होंने लोगों से कहा कि मैं हिंदू हूं और मुझे हिंदू होने पर गौरव है। पीछे मैं वहां गया, तो मुझे बहुत हैरानी की बातें मालूम पड़ीं। मैंने लोगों से कहा: कच्चे मुसलमान इतनी मुसीबत डालते हैं, कच्चे हिंदू इतनी मुसीबत डालते हैं, अगर सच्चे और पक्के हिंदू और पक्के मुसलमान हो जाएं तो मुसीबत हजार गुनी बढ़ जाएगी, कम होने वाली नहीं है।
नहीं, सवाल मुसलमान के पक्के मुसलमान होने का नहीं है, सवाल पक्का हिंदू होने का नहीं है। सवाल हिंदू के हिंदू मिट जाने का है, मुसलमान के मुसलमान मिट जाने का है। पीछे हिंदू-मुसलमान मिट जाने के बाद जो बाकी रह जाएगा, वह धार्मिक आदमी हो सकता है। पक्का आदमी नहीं। पक्का हिंदू नहीं, पक्का मुसलमान नहीं, ये पक्की खोलें मिट जानी चाहिए। और भीतर जो, जो आदमी है सीधा और साफ, जिसके ऊपर कोई लेबल नहीं है, जो हिंदू और मुसलमान में बंटा हुआ नहीं है, अब वह आदमी धार्मिक हो सकता है।
अगर परमात्मा से किसी को मिलने जाना हो, तो हिंदू की हैसियत से वहां कोई नहीं जा सकता, वहां मुसलमान की हैसियत से कोई नहीं जा सकता। क्योंकि मैंने कहा, ये इशारे हैं। और इशारों को जो पकड़ लेगा वह चांद तक नहीं जा सकता। लेकिन हमें बड़ी भूल चलती है, बड़ी भ्रांति चलती है। और हमारी सारी कोशिश जिंदगी में यह होती है कि हम पक्के हिंदू हो जाएं कि पक्के मुसलमान हो जाएं।
लेकिन पक्के हिंदू और पक्के मुसलमान होने का कोई सवाल नहीं है। धार्मिक होने से हिंदू-मुसलमान होने का कोई संबंध नहीं है। धार्मिक होना एक अलग ही डाइमेन्शन है। एक अलग ही आयाम है। एक अलग ही यात्रा है। उस यात्रा पर जब कोई निकलता है, तो सब मंदिर, सब मस्जिद, सब गिरजे, सब गुरुद्वारे, सब उस एक के ही मंदिर और मस्जिद हो जाते हैं। लेकिन हमारी बड़ी तकलीफ है, हमारी बड़ी कठिनाई यह है कि जब भी दुनिया में ऐसे धर्म को कोई पाता है, और जब वह हमसे कहने आता है, तभी कुछ भूल हो जाती है।
एक मुसलमान फकीर था, फरीद। वह यात्रा पर निकला हुआ था। कबीर का आश्रम रास्ते में पड़ता था। तो फरीद के साथियों ने कहा, अच्छा होगा कि कबीर के आश्रम में दो दिन हम मेहमान हो जाएं। तुम दोनों की बातें होंगी, तो हमें बहुत आनंद होगा। फरीद ने कहा: रुकेंगे जरूर, लेकिन बातें शायद ही हों, क्योंकि बात क्या होगी। कबीर को भी लोगों ने कहा उनके आश्रम के कि फरीद निकलने वाला है, अच्छा हो कि हम रोक लें उसे, मेहमान बना लें, दो दिन यहां रुकें, आप दोनों की बातें होंगी तो हमारे ऊपर अमृत की वर्षा हो जाएगी। कबीर बहुत हंसने लगे, उन्होंने कहा: बातें शायद ही हों। लेकिन शिष्यों की समझ में न आया। फरीद को रोक लिया। फरीद दो दिन वहां रुका। कबीर और फरीद मिले, गले मिले, रोए भी, हंसे भी, साथ भी बैठे, दो दिन बीत गए, लेकिन बोले नहीं।
दो दिन में तो शिष्य घबड़ा गए। फरीद के शिष्य भी घबड़ा गए और कबीर के शिष्य भी घबड़ा गए। दो दिन में तो बहुत ऊब पैदा हो गई। और दो दिन बाद जब विदा किया, तो जैसे ही कबीर और फरीद अलग हुए, कबीर के शिष्यों ने कबीर को पकड़ लिया, फरीद के साथियों ने फरीद को पकड़ लिया और कहा कि यह क्या किया, चुप क्यों रहे? तो कबीर ने कहा: परमात्मा को कहने का तो उपाय नहीं है। अगर फरीद न जानता होता, तो हम कह कर भी समझाने की कोशिश करते। लेकिन वह भी जानता है, इसलिए कहने की कोई भी जरूरत नहीं है। फरीद से कहा तो फरीद ने कहा: जो बोलता वह नासमझ होता, क्योंकि उस दुनिया में बोलने का उपाय नहीं है। वहां तो केवल वही प्रवेश करते हैं जो चुप हो जाते हैं। लेकिन फरीद के शिष्यों ने कहा, आप हमसे तो बोलते हैं।
तो फरीद ने कहा: मजबूरी में बोलता हूं। इस आशा में बोलता हूं कि किसी दिन बोलना सुन कर तुम थक जाओगे, थक जाओगे और बोलना भी छोड़ दोगे। बातचीत सुनते-सुनते, शब्द सुनते-सुनते मौन हो जाओगे, इसलिए बोलता हूं। क्योंकि तुम नहीं जानते, तुम शब्द भी नहीं समझ पाते तो मौन कैसे समझ पाओगे। लेकिन कबीर जानते हैं, उनसे बोलने का कोई भी अर्थ नहीं है।
आज तक इस पृथ्वी पर जिन्होंने भी जाना है, जो जाना है, उसे नहीं कहा जा सका। लेकिन इशारे उन्होंने बताने की कोशिश की है। उन्होंने कुछ इशारे किए हैं, वह इशारों से बड़ी गलती हो गई है। क्योंकि इशारों से हम वही समझ सकते हैं, जो हम जानते हैं। अगर गीता आप पढ़ेंगे, तो आप वही समझ पाएंगे गीता में, वह नहीं जो कृष्ण ने कहा है, वह जो आप समझ सकते हैं। अगर आप नानक की वाणी पढ़ेंगे, तो आप वह नहीं समझ पाएंगे जो नानक ने कहा है, क्योंकि उसे समझने के लिए जो नानक ने कहा है, नानक की भाव-दशा में होना जरूरी है। आप वही समझ पाएंगे जो आप समझ सकते हैं।
इसीलिए तो इतना विवाद चलता है, गीता पर हजार टीकाएं, हजार आदमी हजार मतलब निकालते हैं कि गीता में यह मतलब है, गीता में यह मतलब है। वे विवाद भी करते हैं कि तुम गलत हो और हमारा मतलब सही है। अब कृष्ण का दिमाग खराब नहीं था कि उनकी एक ही बात में हजार मतलब हों। कृष्ण का दिमाग तो बहुत साफ था। उन्होंने तो जो कहा है उसका मतलब एक ही है, लेकिन वह मतलब कृष्ण को पता होगा। टीका करने वाले को, कमेंटेटर को उसका कुछ पता नहीं है। वह तो अपना मतलब डाल रहा है। जब हम कोई किताब पढ़ते हैं, तो हम उसमें से मतलब निकालते नहीं, उसमें से शब्द लेते हैं, अर्थ अपना डालते हैं। मीनिंग सदा हमारा होता है। शब्द किताब के होते हैं, अर्थ हमारा होता है।
बुद्ध एक रात बोल रहे थे। वे जब भी बोलते थे तो बोलने के अंत में, उनके भिक्षु, उनके संन्यासी उनके साथ होते थे, उनसे वे कहते थे, अब बात पूरी हो गई, अब तुम असली काम मेें लग जाओ। यह रोज की बात थी। तो बुद्ध के भिक्षु जानते थे कि असली काम क्या है। जब बुद्ध बोल चुकते, तो असली काम का मतलब था कि अब प्रार्थना में, ध्यान में लीन हो जाओ, समाधि में डूब जाओ। उस रात एक चोर भी आया हुआ था। जब बुद्ध बोल चुके और उन्होंने कहा कि अब तुम रात के असली काम में लग जाओ। उस चोर ने कहा बहुत रात हो गई, मैं जाऊं, चोरी पर निकलूं। उस रात एक वेश्या भी सुनने आई थी। जब बुद्ध ने कहा, अब रात के असली काम में लग जाओ, तो भिक्षु समाधि के लिए चले गए, वेश्या अपनी दुकान खोलने चली गई। बुद्ध ने एक ही बात कही थी। चोर ने अपना मतलब लिया, वेश्या ने अपना मतलब लिया, भिक्षुओं ने अपना मतलब लिया। आप भी वहां होते, मैं भी वहां होता, हम भी अपना मतलब लेते। मतलब सदा हमारे हैं।
जो सारा उपद्रव पैदा हो गया है वह इसलिए पैदा हो गया है कि शास्त्र में शब्द हैं, अर्थ हम अपने डाल देते हैं। इसलिए शास्त्र से कोई कभी सत्य तक नहीं पहुंच पाता। शास्त्र पकड़ कर हम अपने ही आस-पास घूमते रह जाते हैं। अगर सत्य तक किसी को जाना है, तो उसे अपने अर्थ डालने की प्रक्रिया बंद कर देनी पड़ेगी। चीजें जैसी हैं उन्हें वैसा ही देखना पड़ेगा। कुछ अर्थ मत डालें।
अगर आप एक क्षण को भी जगत को पूरी आंख खोल कर देख लें और कोई अर्थ न डालें, तो हम परमात्मा को अभी और यहां भी देख ले सकते हैं। लेकिन हम नहीं देख पाते। कोई आ रहा है, तो मैं कहता हूं कि मेरी पत्नी आ रही है। मैंने अर्थ डाल दिया। मैं कहता हूं, मेरा मित्र आ रहा है, मैंने अर्थ डाल दिया। मैं कहता हूं, मेरा शत्रु आ रहा है, मैंने अर्थ डाल दिया। अगर हम हमारे चारों तरफ जो हो रहा है, उसमें कोई अर्थ न डालें, और जैसा है, जो है, उसको वैसा ही जान लें, तो बड़े हैरानी की घटना घट जाती है।
जब कोई व्यक्ति अपनी तरफ से कोई अर्थ नहीं डालता, तब जो दिखाई पड़ता है, वह परमात्मा है। तब एक वृक्ष में भी परमात्मा दिखाई पड़ जाएगा। तब एक फूल में भी, तब सड़क के किनारे पड़े हुए पत्थर में भी। लेकिन हमें वह नहीं दिखाई पड़ता। हम अर्थ डालने के लिए आदी हो गए हैं। इसलिए हम अगर परमात्मा को भी खोजने जाते हैं, तो हम एक मूर्ति बना लेते हैं और अपना अर्थ डाल देते हैं कि यह रहा परमात्मा। मूर्ति क्या है, हमें मतलब नहीं है। हम अपना अर्थ डाल देते हैं कि यह रहा परमात्मा। वहां भी हम अपने ही अर्थ डालते रहते हैं। वहां भी जो है उसे हम नहीं देखते।
मैंने सुना है, जापान में एक फकीर हुआ है। वह एक मंदिर में ठहरा हुआ था। बौद्ध मंदिर था। रात सर्द थी। और बहुत सर्दी लग रही थी उस फकीर को। वह अंदर उठ कर गया, उसने देखा, भगवान बुद्ध की तीन मूर्तियां, लकड़ी की मूर्तियां रखी हैं। वह एक मूर्ति उठा लाया, आग जला कर तापने लगा। पुजारी को मंदिर में आग जली हुई मालूम पड़ी, पुजारी भागा हुआ आया। उसने कहा: यह क्या कर रहे हो? मंदिर में आग! लेकिन आग ही नहीं थी, वहां तो भगवान जल रहे थे। तब तो वह पुजारी पागल हो गया। लेकिन वह मूर्ति तो राख हो चुकी थी। उस पुजारी ने कहा: यह तुमने क्या किया? तुम आदमी पागल तो नहीं हो? तुमने भगवान की मूर्ति जला डाली? तो उस फकीर ने पास में पड़ी हुई लकड़ी उठा कर उस राख को कुरेदा। उस पुरोहित ने पूछा: यह क्या कर रहे हो? तो उसने कहा: मैं भगवान की अस्थियां खोज रहा हूं। तो उस पुजारी ने कहा: तुम निपट पागल हो। लकड़ी की मूर्ति में कहीं अस्थियां होती हैं? तो उस फकीर ने कहा: फिर रात बहुत सर्द है और दो मूर्तियां और पीछे बाकी हैं, तुम वह भी उठा लाओ, उनको भी जला कर हम ताप लें। क्योंकि तुम खुद ही कहते हो कि लकड़ी की मूर्ति में कहीं अस्थियां होती हैं, तो तुम जानते तो हो कि लकड़ी की मूर्ति है--और मानते हो कि भगवान! जानते हो कि लकड़ी है, मानते हो कि भगवान है। वह मानना तुम्हारा डाला हुआ है।
पुजारी ने तो उस फकीर को मंदिर के बाहर निकाल दिया। सुबह जब द्वार खोला, तो वह फकीर जो रात मंदिर में भगवान की मूर्ति को जला कर ताप गया था, वह सामने मील का पत्थर लगा है, उस मील के पत्थर पर दो फूल रखे हाथ जोड़े बैठा हुआ है। तब तो उस पुजारी ने कहा: यह आदमी निश्चित ही पागल है। उसने जाकर हिलाया और कहा: यह क्या कर रहे हो? भगवान की मूर्ति को तो जला डाला और इस साधारण से मील के पत्थर को हाथ जोड़ कर बैठे हो? तो उस फकीर ने कहा: मैं यही जांचने के लिए रात तुम्हारी मूर्ति में आग लगा दिया था कि भगवान तुम्हें दिखाई पड़ा है? और यही जांचने के लिए अब भी मैं पत्थर के सामने हाथ जोड़ कर बैठा हूं, तुम्हें भगवान दिखाई नहीं पड़ रहा है?
अगर भगवान दिखाई पड़ेगा तो तभी जब हम अपने मीनिंग जिंदगी के ऊपर इंपोज न करें, जिंदगी के ऊपर थोपें न।
हमने सब मतलब थोप दिए हैं। हम जिंदगी में वही देख रहे हैं जो हमें देखना है। हम वह नहीं देख रहे हैं जो है। नास्तिक देख लेता है कि भगवान नहीं है, वह भी एक अर्थ थोप रहा है। आस्तिक देख लेता है कि भगवान है, वह भी एक अर्थ थोप रहा है। धार्मिक आदमी बिलकुल तीसरे तरह का आदमी है, जो कोई अर्थ नहीं थोपता, जो कहता है कि मैं अपनी तरफ से जिंदगी में कुछ देखने न जाऊंगा। मैं खाली खड़ा हो जाऊंगा और जिंदगी जैसी है उसको वैसा ही जान लूंगा।
जो व्यक्ति जिंदगी जैसी है उसको वैसा ही जानने को तैयार है, वह तत्काल धर्म के सत्य को जानने में समर्थ हो जाता है। लेकिन बहुत कठिन है। हमने इतने धोखे दिए हैं, हमने सब चीजों को, सब चीजों को जैसी हैं वैसा जानने से बदल दिया है। अब मैं देखता हूं एक आदमी मंदिर में मूर्ति के सामने हाथ जोड़े खड़ा है, वह कहता है यह मैं प्रार्थना कर रहा हूं। और अगर हम उसका हृदय फाड़ सकें, तो उसके हृदय के भीतर प्रार्थना बिलकुल न मिलेगी। हो सकता है भय मिल जाए, फियर मिल जाए। और घुटने टेकने का कोई संबंध प्रार्थना से है भी नहीं। भयभीत आदमी घुटने टेके हुए है, हाथ जोड़े हुए है। भय है भीतर, लेकिन वह कह रहा है कि प्रार्थना है। भय के ऊपर प्रार्थना का अर्थ थोप रहा है।
हमने सब चीजें बदल दी हैं, हमने सब चीजों पर नये नाम लगा दिए हैं। गुलाब का जो फूल है, वह गुलाब का फूल नहीं है। वह गुलाब के फूल को कुछ भी पता नहीं है कि मैं गुलाब का फूल हूं। लेकिन हमने एक शब्द थोप दिया है कि यह रहा गुलाब का फूल। बस इस शब्द के साथ हम जी रहे हैं। गुलाब के फूल में जो छिपा है, उसे हमने कभी भी नहीं देखा। जिंदगी में जो छिपा है, उससे हम बच गए, चूक गए। उससे हम चूकते ही रहेंगे, क्योंकि हम कुछ देखने की कोशिश करते रहेंगे।
मैंने एक घटना सुनी है।
मैंने सुना है, एक संन्यासी एक गांव में बोलने गया था। वह उस गांव के लोगों को समझा रहा है। थोड़े से लोग सुनने आए हैं। कुछ स्त्रियां भी आई हैं। एक स्त्री के साथ उसका बेटा, छोटा बेटा भी आया है। उस बेटे ने बीच में खड़े होकर अपनी मां से कहा कि मुझे पेशाब लगी है। तो सारे लोग हंसने लगे और उस बेटे की तरफ देखने लगे। सभा समाप्त हो जाने पर संन्यासी ने उस स्त्री को अपने पास बुलाया और कहा कि अपने बेटे को समझा दो, अगर कभी भीड़ में, समूह में, समाज में ऐसा हो भी तो सीधा नहीं कह देना चाहिए कि पेशाब लगी है। कुछ और कह सकता है। तो उस स्त्री ने पूछा कि क्या कहे? तो संन्यासी ने कहा कि कोई भी कोड बना लेना चाहिए। जैसे कि बच्चा कह सकता है कि मां मुझे गाना गाना है। तो तुम समझ जाओगी और बाकी कोई नहीं समझ पाएगा। बात खत्म हो गई, मां ने अपने बेटे को सिखा दिया कि जब भी पेशाब लगे तो कहना कि गाना गाना है।
साल भर बाद वह संन्यासी उस स्त्री के घर मेहमान हुआ। उस स्त्री को पड़ोस में कहीं शादी थी, वह वहां गई और अपने बेटे को संन्यासी के पास सुला गई कि आप थोड़ा ध्यान रख लेना। कोई बारह बजे होंगे रात, उस बेटे ने संन्यासी को हिलाया और उसने कहा: स्वामी जी, मुझे गाना गाना है। तो उन स्वामी जी ने कहा कि आधी रात को कोई गाना गाया जाता है? चुपचाप सो जाओ। लड़का थोड़ी देर चुप रहा, उसने फिर कहा कि नहीं स्वामी जी, चुपचाप नहीं सोया जा सकता, गाना गाना ही पड़ेगा। उस स्वामी ने कहा: कैसा पागल लड़का है, आधी रात को कोई गाना गाता है, सुबह गा लेना। उस लड़के ने कहा: सुबह फिर से गाएंगे, लेकिन अभी भी गाना है। स्वामी ने कहा कि कहां की मुसीबत यह स्त्री मेरे पास छोड़ गई। मैं दिन भर का थका-मांदा हूं, मुझे सोना है और तुझे गाना गाना है। चुपचाप सो जाओ, गड़बड़ मत करो। लेकिन वह लड़का कैसे चुपचाप सो सकता है। उसने थोड़ी देर फिर स्वामी जी को कहा कि नहीं स्वामी जी, चुपचाप सोना असंभव है, गाना गाना ही पड़ेगा। तो स्वामी जी ने कहा कि नहीं मानते हो तो धीरे-धीरे कान में गुनगुना दो।
हमने जिंदगी में भी जो जैसा है उसको वैसा न जान कर कोड बनाए हुए हैं। हम कुछ और कह रहे हैं, हमने पूरी जिंदगी को फॉल्सीफाई किया हुआ है। यह जो जिंदगी का तथ्य है, जिंदगी का जो सत्य है, उसे हमने फॉल्सीफाई किया हुआ है, हम कुछ-कुछ नाम दे रहे हैं। और नाम दे-दे कर हमने सब मुसीबत खड़ी कर ली है। नाम देने की वजह से जो है वह दिखाई नहीं पड़ता। जो नहीं है वह पकड़ में आता है। है तो परमात्मा। काश हम नाम देने की प्रक्रिया से, दि टेक्निक ऑफ नेमिंग, उससे अगर हम बच सकें, तो परमात्मा हमें तत्काल दिखाई पड़ जाए।
लेकिन बिना नाम दिए हम नहीं रह सकते। फूल होगा, तो हम कहेंगे, गुलाब है। आदमी होगा, तो हम कहेंगे, हिंदू है, मुसलमान है। किताब होगी, तो हम कहेंगे, पवित्र है, अपवित्र है। हम बिना नाम दिए जिंदगी को देखने को राजी नहीं हैं। और इसलिए परमात्मा चूंकि अनाम है, नेमलेस है, हमसे चूक जाता है। क्योंकि हम बिना नाम दिए कुछ देख ही नहीं सकते।
हम तो परमात्मा को भी नाम दे दिए हैं। कोई कहता है, उसका नाम राम है। राम दशरथ के बेटे का नाम था; परमात्मा का नाम नहीं है। राम बहुत प्यारे आदमी थे, लेकिन उनका नाम परमात्मा का नाम नहीं है। कोई कहता है, उसका नाम अल्लाह है। कोई कहता है, उसका नाम कुछ और है--ओम है, ब्रह्म है, ईश्वर है, हजार नाम हमने दे दिए हैं। हम परमात्मा, जिसका हमें पता भी नहीं है, उसको भी नाम दे दिए हैं। और एक आदमी बैठ कर राम-राम जपता है और वह सोचता है कि परमात्मा मिल जाएगा। और जिसका कोई नाम नहीं है वह राम-राम जपने से कैसे मिल जाएगा? वह कभी नहीं मिलेगा। हां, इस राम-राम जपने में जिंदगी खराब हो सकती है। समय व्यतीत हो सकता है।
मैं अभी एक गांव में गया था। तो उस गांव में एक मंदिर बनाया है। उस मंदिर में हजारों किताबें रखी हैं, और एक-एक किताब में लाखों बार राम-राम लिखा हुआ है। और उस मंदिर में एक ही काम है--कोई सौ आदमी दिन-रात बैठ कर राम-राम लिखते रहते हैं। और उस मंदिर के भक्त सारे हिंदुस्तान में हैं। वे जगह-जगह से पोथियां भर-भर कर राम-राम, राम-राम लिख कर उस मंदिर को भेजते रहते हैं। वहां एक लाइबे्ररी खड़ी हो रही है। उस मंदिर को जो सम्हालते हैं, उन्होंने मुझे कहा, आपको पता है, अरबों नाम आ चुके हैं। किताबें भर गई हैं, अब हमारे पास जगह नहीं है। अब हमें नया मंदिर बनाना पड़ेगा। इतना धर्म का प्रचार हो रहा है कि लोग राम-राम लिख-लिख कर भेज रहे हैं। मैंने कहा: धर्म का प्रचार हो रहा है कि पागलपन का प्रचार हो रहा है? ये किताबें इतनी बच्चों के काम आ सकती थीं। ये किताबें खराब हो गईं। लेकिन राम-राम दोहराने वाला सोच रहा है, मैं परमात्मा को पा लूंगा!
परमात्मा का कोई भी नाम नहीं है। राम-राम दोहराने से तो मिलेगा ही नहीं, हमें जिंदगी में जो नाम देने की आदत पड़ गई है उसे भी छोड़ देना पड़ेगा। हमें बिना नाम के चीजों को देखना पड़ेगा।
इसका थोड़ा प्रयोग करेंगे, तो बहुत नया अनुभव होगा। कभी बगीचे से निकलें और फूल को नाम न दें, बस खड़े हो जाएं फूल के पास। मन तो कहेगा कि चमेली है; मन तो कहेगा, गुलाब है; मन तो कहेगा, जूही है, लेकिन मन को कहना कि नाम देना ही नहीं, क्योंकि जूही को कुछ पता ही नहीं कि उसका नाम क्या है। जूही का कोई भी नाम नहीं है, गुलाब का भी कोई नाम नहीं है। सूरज का कोई नाम है? चांद-तारों का कोई नाम है? हम भी बिना नाम के पैदा हुए हैं। लेकिन हमने अपने को भी नाम दिया हुआ है, और उसी दिन से धोखा शुरू हो गया।
एक आदमी पैदा होता है, हम कहते हैं, तुम्हारा नाम ‘राम’ हुआ। अब वह जिंदगी भर यही समझेगा कि मैं राम हूं। और अगर कोई राम को गाली दे देगा, तो लड़ने को खड़ा हो जाएगा। लेकिन नाम कोई आदमी लेकर पैदा होता है?
हम सब बिना नाम के पैदा होते हैं। जिंदगी अनाम है। सत्य का कोई नाम नहीं। लेकिन हमारे मन की आदत नाम देने की है। बिना नाम के हम मानने को राजी नहीं हैं। अगर एक आदमी हमें मिल जाए और वह कहे कि मेरा कोई नाम नहीं है, तो हम कहेंगे, तुम्हारा दिमाग खराब है। लेकिन वह ठीक कह रहा है, दिमाग हमारा खराब है। नाम किसका है?
मेरे एक मित्र हैं, वे ट्रेन से गिर पड़े। डाक्टर हैं, सिर में चोट लग गई और सब भूल गए, अपना नाम भी भूल गए। अभी मैं उन्हें देखने गया, तो मुझे पहचाने नहीं। मैंने उनसे कहा कि पहचाने नहीं आप? उन्होंने कहा: आपको कैसे पहचानें, अपने को पहचानना मुश्किल हो गया। मैं कौन हूं यही मुझे पता नहीं। उनके पिता ने मुझे कान में कहा कि आप कुछ भी कहें, अरे उनका दिमाग खराब हो गया है। मैंने उनके पिता से कहा कि आपको पता है कि आप कौन हैं? लड़के को कह रहे हैं दिमाग खराब हो गया है। आपको पता है आप कौन हैं? उन्होंने कहा: मुझे पता है, मुझे मेरा नाम पता है, उसको उसका नाम भी पता नहीं रहा। गिरने से सब खराब हो गया है।
लेकिन नाम हम हैं? नाम हम नहीं हैं। लेकिन हमने सब तरफ नाम दे दिए हैं, और आदमी खो गया है--शब्दों में, नामों में। अगर आदमी को ऊपर उठना हो इस सबके तो उसे नाम देने की आदत छोड़नी पड़े। चीजों को देखने की आदत शुरू करनी चाहिए, नाम देने की आदत बंद करनी चाहिए।
अगर एक घंटे भी चौबीस घंटे में हम बिना नाम दिए जी सकें, तो जिंदगी में एक नया द्वार खुल जाएगा, जहां से परमात्मा प्रवेश होता है। क्योंकि उसका कोई नाम नहीं है। अगर एक घंटे भी हम रह सकें कि नाम नहीं देंगे, शब्द नहीं बनाएंगे, एक घंटे भी अगर हम बिना सोचे रह सकें...क्योंकि ध्यान रहे, जब हम नाम न देंगे, शब्द न बनाएंगे, तो विचार बंद हो जाएगा। विचार की प्रक्रिया नाम देने की प्रक्रिया है। विचार टूट जाएगा, समाप्त हो जाएगा। और जहां विचार बंद होता है, समाप्त होता है, वहीं से वह द्वार खुलता है जो परमात्मा का द्वार है। निर्विचार में उसका द्वार खुलता है। थॉटलेसनेस में, जहांं कोई विचार नहीं है, वहां वह भीतर चला आता है।
लेकिन हम तो विचार से भरे हुए हैं। हम चौबीस घंटे विचार में डूबे हुए हैं--शब्द और शब्द और शब्द। हमारे मस्तिष्क में शब्द ही शब्द घूम रहे हैं। अगर हम एक दरवाजा बंद करके एक कोने में बैठ जाएं और हमारे मन में जो शब्द घूम रहे हैं उन्हें एक कागज पर लिख लें, तो हम अपने सगे मित्र को भी बताने को राजी न होंगे वह कागज। क्योंकि वह कागज देख कर हमें लगेगा, क्या मैं पागल हूं, यह सब मेरे दिमाग में घूम रहा है। दिमाग में मक्खियों की तरह शब्द चक्कर लगा रहे हैं। दिमाग पूरे समय शब्दों से भरा हुआ है। वह कभी खाली नहीं हो रहा है। और शब्द जब तक भरे रहेंगे तब तक, तब तक वह नहीं आ सकेगा जो शब्दों के बाहर है।
इसलिए दूसरी बात धर्म के संबंध में आपसे मैं यह कहना चाहता हूं कि निर्विचार होने की कला सीखनी पड़ेगी, तो ही हम धर्म से संबंधित हो सकते हैं। मौन होने की, टु बी साइलेंट, सब तरफ से चुप होने की कला सीखनी पड़ेगी। भीतर भी, बाहर भी। उस सन्नाटे में ही उसके पैरों की आवाज सुनाई पड़ती है। लेकिन हम तो इतने शोरगुल से भरे हैं कि अगर बैंड-बाजे बजाता हुआ भी परमात्मा हमारे घर के पास से निकले, तो शायद ही हमें सुनाई पड़ेगा। और उसके कदमों की कोई चाप नहीं बनती, ध्वनि नहीं आती, वह चुपचाप आता है। वह इतने चुपचाप आता है कि हमें पता नहीं चलता। हम अपने से भरे हैं।
रवींद्रनाथ ने एक गीत लिखा है। लिखा है रवींद्रनाथ ने कि एक मंदिर था और उस मंदिर के बड़े पुजारी को एक रात स्वप्न आया। मंदिर में सौ पुजारी थे। बड़ा मंदिर था, करोड़ों-अरबों की संपत्ति थी। हजारों भक्त थे, लाखों भक्त थे। बड़े पुजारी को स्वप्न आया कि कल भगवान मंदिर में आने वाला है। पहले तो पुजारी ने भरोसा न किया।
यह बड़े मजे की बात है कि मंदिर में जाने वाले जितना भरोसा भगवान का करते हैं, उतना वह मंदिर में जो पुजारी खड़ा है, वह भी नहीं करता। क्योंकि उसे तो दुकान का सारा हाल मालूम होता है। यह सब जाल उसका ही खड़ा किया हुआ है, वह भलीभांति जानता है कि कोई भगवान वगैरह नहीं है। पुजारियों से ज्यादा नास्तिक आदमी खोजना बहुत मुश्किल है। वह सिर्फ ट्रेड, उनके लिए तो धंधा है। वह धंधा पूरा कर रहे हैं। उस धंधे का वह पूरा का पूरा सूत्र समझ गए हैं कि वह कैसे चलता है। लेकिन उन्हें, उन्हें परमात्मा से कोई मतलब नहीं है। उन्हें किसी और बात से मतलब है, वे वह पूरा कर रहे हैं।
पुजारी को विश्वास न आया। पुजारी ने कहा: सपना ही मालूम होता है, भगवान कभी नहीं आए। लेकिन दूसरे पुजारियों को बड़े पुजारी ने बताया कि मैंने एक सपना देखा है। दूसरे पुजारियों ने कहा: सपना सच भी हो सकता है। क्योंकि जिंदगी बड़ी अजीब है, इसमें जिसको हम सच कहते हैं वह सपना हो जाता है, तो कभी सपने भी सच हो सकते हैं। तो प्रतीक्षा करनी चाहिए, अगर भगवान कहीं आ न जाए। बड़े पुजारी ने कहा: पागल हो गए हो, मैं वर्षों से इस मंदिर में पूजा करता हूं, वह कभी नहीं आया। पूजा करने वालों को तो मैंने आते-जाते देखा, लेकिन पूजा लेने वाले को मैंने कभी आते नहीं देखा। सपना ही है। लेकिन फिर भी दूसरे पुजारियों ने कहा कि सपना ही हो तो भी हर्ज क्या है, तैयारी तो हम कर लें। अगर न आया तो कोई हर्ज नहीं। और अगर आ गया और हम तैयार न हुए, तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। यह सोच कर, यह सोच कर कि शायद कहीं आ ही न जाए, उन्होंने मंदिर की तैयारी की, मंदिर को साफ-सुथरा किया, दीप जलाए, भोज बनाया, भगवान के लिए सब तैयारियां कीं।
रोज भी वे भोग लगाते थे भगवान के लिए। लेकिन वह भोग अंततः उन्हीं को लग जाता था। इसलिए उस भोग की तैयारी की बात और थी, आज उनको बड़ा शक भी मालूम हो रहा था कि हम यह क्या पागलपन कर रहे हैं, कौन आएगा भोग लेने? फूल किसके लिए लगा रहे हैं? दीये किसके लिए जला रहे हैं? लेकिन सिर्फ पोलिटिकली, रिलिजियसली नहीं। राजनैतिक ढंग से कि कहीं आ ही न जाए, इंतजाम कर लेना जरूरी है, उन्होंने इंतजाम कर लिया। सांझ हो गई, वह नहीं आया। वे बार-बार बाहर जाकर देख आए, वह नहीं आया। क्योंकि जिसे हमें जाकर देखना पड़े बाहर, वह नहीं आएगा। क्योंकि वह आता है भीतर से। वे बाहर देख आए, बार-बार सीढ़ियों पर झांक कर देख आए, फिर उन्होंने कहा कि नहीं आया। नहीं आया।
बड़े पुजारी ने कहा: पागलो, मैंने सुबह ही कहा था। अब जो भोग हमने बनाया वह हम भोजन कर लें। अब हम सो जाएंं। हम दिन भर के व्यर्थ थक गए। सपनों में आने की कोई जरूरत नहीं है। भगवान कभी नहीं आता है। उन्होंने भोजन कर लिया। वे दिन भर के थके-मांदे प्रतीक्षा करते थे, सो गए।
आधी रात गए द्वार पर जैसे कोई रथ आकर रुका। रथ के चक्कों की आवाज। तो किसी पुजारी की नींद टूट गई, और उसने कहा कि मालूम होता है उसका रथ आ गया। लेकिन दूसरे पुजारियों ने कहा: चुप रहो नासमझ। दिन भर परेशान किया, अब बातें बंद करो। रथ नहीं है यह बादलों की गड़गड़ाहट। सो जाओ। दिन भर खराब किया, अब रात खराब मत करो।
वे सो गए। फिर कोई सीढ़ियां चढ़ा, पैरों की आवाज आई। फिर किसी पुजारी ने आधी नींद में टूट कर कहा कि मालूम होता है कोई सीढ़ियां चढ़ रहा है। दूसरों ने कहा कि चुप भी रहो, कोई सीढ़ियां नहीं चढ़ता। दिन भर कोई सीढ़ियां नहीं चढ़ा, रात कौन सीढ़ियां चढ़ेगा। कोई नहीं है, भ्रम हुआ है तुम्हें। कामना की है मन में कि आएगा, आएगा, इसलिए भ्रम हो रहा है। सो जाओ। फिर किसी ने द्वार पर दस्तक दी, फिर कोई बोला कि कोई द्वार पर दस्तक देता है। बड़े पुजारी ने कहा: नासमझो, सोने दोगे कि नहीं सोने दोगे? हवा के झोंके हैं किवाड़ों को खड़खड़ाते हैं। कोई नहीं है, हवा धक्के मारती है।
रात गुजर गई। वे लोग सुबह उठे, तो द्वार तक रथ के आने के चिह्न थे। सीढ़ियों पर किसी के पैरों के कदम थे। द्वार तो किसी ने थपथपाया था। तब वे सब रोने लगे। वे सब रोने लगे कि अवसर चूक गया।
यह गीत जब मैंने पढ़ा, तो मुझे लगा कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि हम सबको भी ऐसा ही अवसर चूक जाता हो। जब किसी के पद-चिह्न सुनाई पड़े, तो उन्होंने कहा भ्रम होगा। और जब रथ के चाक की आवाज आई, तो उन्होंने कहा बादलों की गड़गड़ाहट है। और जब किसी ने द्वार थपथपाया, तो उन्होंने कहा हवा के झोंके होंगे। उन्होंने विचार कर लिया वहीं सोए-सोए। वे उठ कर न गए वहां तक, उन्होंने शब्द बना लिए, उन्होंने देखा नहीं जाकर कि क्या है। उन्होंने नाम दे दिए, शब्द दे दिए, विचार कर लिया और चुपचाप अपनी जगह पर रहे। हम जिंदगी भर यही कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि परमात्मा किसी रात किसी मंदिर पर आता है, हम सबके मंदिर पर रोज ही उसका आना होता है, प्रतिपल उसका आना होता है। लेकिन हम शब्द देकर चूक जाते हैं।
एक फकीर थे, साईं बाबा। उनके पास एक हिंदू संन्यासी भी आता था। लेकिन साईं तो रहते थे मस्जिद में। और कुछ पक्का न था कि वे हिंदू हैं कि मुसलमान। असल में संतों का कोई पक्का नहीं हो सकता, सिर्फ असंतों का पक्का हो सकता है कि वे हिंदू हैं या मुसलमान। संत का क्या पक्का? मस्जिद में रहते थे। तो वह जो हिंदू संन्यासी उनका शिष्य हो गया था, वह तो मस्जिद में नहीं रुक सकता था। तो गांव के बाहर एक मंदिर में रुकता था। लेकिन प्रेम इतना था साईं के प्रति कि वह रोज भोजन बना कर पहले साईं को कराता और फिर जाकर भोजन करता। तीन-चार मील धूप में चल कर उसे आना पड़ता। तो साईं ने एक दिन उससे कहा कि तू इतनी दूर क्यों आता है, मैं वहीं आ जाऊंगा, दोपहरी बहुत धूप होती है। मैं खुद ही कल आ जाऊंगा। तो उस हिंदू संन्यासी ने कहा: मेरा सौभाग्य। इससे बड़ा और क्या होगा सौभाग्य मेरा कि आप मेरे झोपड़े पर आ जाएंंगे। तो कल मैं प्रतीक्षा करूंगा। साईर्ंं ने कहा: प्रतीक्षा तू करना, लेकिन पहचान भी लेगा कि नहीं? उस संन्यासी ने कहा: मैं और आपको न पहचानूं? पहचान लूंगा। वे साईं हंसने लगे, उन्होंने कहा: पहले भी मैं आया हूं, लेकिन तू पहचानता नहीं। उस संन्यासी ने कहा: कल मैं आंख भी न झपकूंगा, कहीं भूल-चूक न हो जाए। पहचान लूंगा, आपकी प्रतीक्षा करूंगा।
बारह बज गए, खाने का समय हो गया, लेकिन जिसको आना था वे तो नहीं आए। एक बज गया। फिर वह हिंदू संन्यासी परेशान हुआ। फिर वह थाली लेकर भागा मस्जिद की तरफ। जाकर थाली साईं के सामने रखी और कहा कि आप आए नहीं। तो वह साईर्ंं हंसने लगे, उन्होंने कहा: मैं आया था, लेकिन तू फिर नहीं पहचाना। उसने कहा: लेकिन कोई भी नहीं आया, सिर्फ एक कुत्ता जरूर वहां आया था। वह थाली में मुंह मारता था तो मैंने रोक दिया। मैंने कहा: कुत्ते हट। तो साईर्ंं ने कहा: वही मैं था। कल फिर आऊंगा, लेकिन पहचानेगा कि नहीं?
अब कुत्ते को कैसे वह मान लेता? कुत्ता शब्द ने बाधा दे दी। जैसे ही दिखाई पड़ा कुत्ता, उसने कहा, कुत्ता आ गया। कुत्ता आ गया, तो परमात्मा रुक गया। कुत्ते में भी परमात्मा है। लेकिन कुत्ता शब्द बाधा डाल देगा। दूसरे दिन उसने कहा कि अब चाहे कुत्ता आ जाए तो मैं स्वीकार कर लूंगा। लेकिन कुत्ता नहीं आया। क्योंकि जिंदगी का कोई भरोसा नहीं है, जिंदगी रोज बदलती जाती है। एक भिखमंगा आया। लेकिन कोढ़ी था, तो उसने दूर से कहा, दूर रह, भोजन को अपवित्र मत कर देना। फिर दो बज गए। फिर वह भागा हुआ मस्जिद गया, उसने साईं को कहा: आप आए नहीं? आज तो मैं बहुत राह देखता रहा। साईं ने कहा: आया तो आज भी, लेकिन आज कोढ़ था मेरे ऊपर। तब तो वह हिंदू संन्यासी रोने लगा। उसने कहा: तब तो बड़ी मुसीबत हो गई। फिर मैं आपको कैसे पहचान पाऊंगा? तो साईर्ंं ने उसे कहा कि तू शब्द दे देता है, इससे कठिनाई हो जाती है, वहीं अटकाव हो जाता है। तूने कल कह दिया, यह कुत्ता है, फिर मुश्किल हो गई बात। तूने आज कह दिया, यह भिखमंगा कोढ़ी है, बात मुश्किल हो गई। तू शब्द मत दे, तो मैं तुझे दिखाई पड़ सकता हूं।
लेकिन हम सब शब्द देने के आदी हैं, इसलिए परमात्मा हमें दिखाई नहीं पड़ सकता है। परमात्मा को शब्द दिए बिना ही जानना पड़ेगा। अगर धर्म के सीक्रेट को, अगर धर्म के राज को, रहस्य को किसी को भी जानना हो, तो उसे शब्द देने की जो हमारी गलत आदत पड़ गई है, उस आदत को तोड़ देना पड़ेगा। निःशब्द होने की संभावना, शून्य होने की संभावना, शांत होने की संभावना विकसित करनी पड़ेगी। और तब ऐसा नहीं है कि किसी स्वर्ग में जाकर परमात्मा मिलेगा, तब वह कुत्ते में भी मिल जाएगा, भिखारी में भी मिल जाएगा, सड़क के किनारे पत्थर में भी मिल जाएगा, पड़ोस में जो आपके बैठा है उसमें भी मिल जाएगा, भीतर झांकेंगे तो स्वयं में भी मिल जाएगा।
परमात्मा का अर्थ है: अस्तित्व। परमात्मा का अर्थ है: वह जो है, दैट व्हिच इज़। परमात्मा का अर्थ है: दि टोटेलिटी। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है। परमात्मा समग्र अस्तित्व के जोड़ का नाम है। हम सबका जोड़। अगर कोई ग्रैंड टोटल हो सके, आखिरी जोड़, जहां हम सब जुड़ गए हों, तो उस जोड़ का नाम परमात्मा है। इसलिए उसे खोजने कोई हिमालय जाने की जरूरत नहीं है। और उसे खोजने कोई मक्का और काबा जाने की जरूरत नहीं है। उसे खोजने कोई काशी सहयोगी न होगी। उसे खोजना हो तो हमारे देखने का ढंग बदलना पड़ेगा।
हमारा देखने का ढंग अभी शब्दों से घिरा है, विचारों से घिरा है। उसे अगर देखना हो, तो हमें एक ऐसा देखने का ढंंग खोजना पड़ेगा, ऐसी आंख जो शब्द और विचार के बाहर देखती है। जो सिर्फ देखती है, सोचती नहीं। और ऐसी तीसरी आंख ही धर्म के अनुभव में ले जाने का मार्ग बन जाती है।
तो अंतिम यह बात आपको कह दूं कि यह तीसरी आंख जो सिर्फ देखती है, सोचती नहीं, जस्ट सीइंग। लेकिन हमने देखना बंद कर दिया है। हम देखते हैं, उसके पहले सोचना शुरू कर देते हैं। जब भी हम देखते हैं, सोचना साथ में आ जाता है। हम बिना सोचे देख ही नहीं सकते।
तो फिर हमारे भीतर धामिर्र्क आंंख भी पैदा नहीं हो सकती। बिना सोचे देखने की क्षमता विकसित करनी पड़ेगी। वही है दृष्टि, वही है दर्शन। लेकिन हम सोचने में लग जाते हैं। हम प्रत्येक चीज पर सोचते हैं। हम बिना सोचे कुछ भी कभी नहीं देखे। आप खयाल करेंगे तो बहुत हैरान हो जाएंगे। आपने कभी कुछ बिना सोचे नहीं देखा। रात आकाश में चांद हो तो आपने बिना सोचे नहीं देखा। रात का सन्नाटा हो तो आपने बिना सोचे नहीं देखा। ये तो दूर की चीजें हैं। अगर आप पति हैं तो आपने अपनी पत्नी की आंख में भी बिना सोचे नहीं देखा। अगर आप बाप हैं तो अपने बेटे की आंख को भी आपने बिना सोचे नहीं देखा।
अगर आप बिना सोचे कुछ भी देखने में समर्थ हो जाएं एक क्षण को भी, तो जैसे एक झटके से द्वार खुल जाएगा। पत्नी विदा हो जाएगी और परमात्मा आ जाएगा। बेटा विदा हो जाएगा और परमात्मा आ जाएगा। वृक्ष विदा हो जाएगा और परमात्मा आ जाएगा। दीवाल खो जाएगी और परमात्मा आ जाएगा। एक क्षण को भी अगर यह बिजली कौंध जाए हमारे भीतर कि हम बिना सोचे देख पाएं, यह हो सकता है, यह हमारे खयाल में नहीं है।
जब बच्चा पहली दफा पैदा होता है, तो सोचता नहीं, सिर्फ देखता है। अगर उसके सामने आप कोई लाल रंग की चीज ले जाते हैं, तो वह ऐसा नहीं सोच पाता कि यह लाल रंग है, क्योंकि इसका तो उसे कुछ पता नहीं। वह सिर्फ देखता है। वह यह भी नहीं जानता कि यह घुनघुना है, गुड़िया है, वह यह भी शब्द नहीं जानता, वह सिर्फ देखता है।
जीसस से किसी ने पूछा था कि तुम्हारे परमात्मा को कौन देख सकेगा? तो जीसस ने कहा: जिनके पास बच्चों जैसी आंख हो। तो जीसस ने कहा: जो बच्चों जैसे सरल हैं, वही देख पाएंगे।
मैं नहीं समझता कि बच्चों जैसे सरल होने का मतलब हमारे खयाल में आ गया हो। बच्चे की एक ही खूबी है, जो बूढ़े के पास नहीं रह जाती। बच्चा बिना सोचे देख पा सकता है, बूढ़ा बिना सोचे देख ही नहीं पा सकता। बच्चे और बूढ़े में एक ही बुनियादी फर्क है। बच्चे का जो परसेप्शन है, उसका जो दर्शन है वह शुद्ध है, उसमें कोई शब्द बाधा नहीं डालता। वह सिर्फ देखता है। इसलिए बच्चे की दुनिया के आनंद का हिसाब लगाना मुश्किल है।
सभी बच्चे परमात्मा के निकट होते हैं, हमसे ज्यादा। फिर हम उनको व्यवस्था दे-दे कर परमात्मा से दूर करते चले जाते हैं। बूढ़ा आदमी बहुत दूर पहुंच जाता है परमात्मा के। सभी बच्चे परमात्मा के निकट होते हैं। और उनके निकट होने की जो कला है वह सिर्फ इतनी है कि वे सीधा देख पाते हैं, इमिजिएट, बीच में कोई शब्द नहीं होता। उस तरफ जो दिखाई पड़ रहा है वह होता है, इस तरफ वे होते हैं, बीच में कोई शब्द नहीं होता। बीच में कोई बाधा नहीं होती। आंखें खुली और साफ होती हैं।
धार्मिक आदमी उसे कहता हूं मैं जिसने बाद में बच्चे की आंखें फिर से पा लीं। जिसने बच्चे जैसा इनोसेंस, निर्दोष चित्त फिर से पा लिया। यह हो सकता है। इसमें कठिनाई नहीं है। सिवाय आदत के और कोई कठिनाई नहीं है। हमारी एक आदत है, और हम आदत के गुलाम हैं।
मेरे एक मित्र प्रिवी कौंसिल में वकील थे। एक बड़े वकील थे। उनकी आदत थी कि जब भी वे कोई मुकदमा लड़ते, और कहीं आर्ग्युमेंट उलझ जाता, तो वे अपने कोट की बटन घुमाने लगते। वह आदत हो गई थी। जैसे ही वे कोट की पहली बटन घुमाते, उनके मन में तर्क की गति तीव्र हो जाती, वे सोच पाते। जब भी मुश्किल में होते वे बटन घुमाते।
हममें से भी, अगर कोई चिंता हो जाए, तो कोई सिर खुजलाएगा, कोई दाढ़ी पर हाथ लगाएगा, कोई कुछ और करेगा, और...और राहत मिलेगी।
प्रिवी कौंसिल में एक बड़ा मुकदमा था। एक हिंदुस्तानी रियासत का मुकदमा था। और वे उस रियासत के मुकदमे में लड़ रहे थे। करोड़ों का मामला था। विरोधी वकील बहुत दिन से यह देख रहा था कि जब भी वे बटन पर हाथ रखते हैं, तब बहुत ढंग से आर्ग्यू कर पाते हैं, तब वे ठीक से तर्क कर पाते हैं। उसने उनके ड्राइवर को, शोफर को मिला लिया और कहा कि कल जब तुम अदालत में आओ, तो पहली बटन को तोड़ लाना। वह कोट तो ड्राइवर उठा कर लाता था कोर्ट तक। तुम पहली बटन तोड़ देना। उसे कुछ पैसे दे दिए होंगे। उसने वह बटन तोड़ दी। वह मेरे मित्र अपने कोट को डाल कर अदालत में खड़े हो गए और उन्होंने जिरह शुरू कर दी। और जब उलझन का मामला आया, हाथ कोट के बटन पर गया, और जैसे सब खो गया। उन्होंने मुझे कहा कि जिंदगी में पहली दफा मेरा सिर घूम गया, मुझे सब चीजें घूमती मालूम पड़ीं, मैं फौरन कुर्सी पर बैठ गया। मेरे दिमाग से सारी दलीलें ही खो गईं, वह बटन क्या खो गई, सब गड़बड़ हो गया। वह पहली दफा हारे, और हारने का कारण था, वह एक छोटी सी बटन।
लेकिन हम सोच भी नहीं सकते कि कोट की बटन से किसी अदालत में मुकदमे के जीतने का क्या संबंध? आदत। आपने शायद सुना भी न होगा, क्योंकि इतिहासज्ञ बहुत कीमती बातें छोड़ जाते हैं और व्यर्थ की बातें लिख देते हैं।
नेपोलियन नेल्सन से हारा, तो आपको पता भी न होगा कि क्यों हारा? एक बहुत अजीब बात से हारा। नेपोलियन नेल्सन से हारा ही नहीं।
नेपोलियन छह महीने का छोटा बच्चा था, तो एक जंगली बिल्ली उसकी छाती पर चढ़ गई थी। उसकी आया कहीं पास में गई थी, बिल्ली चढ़ गई छाती पर, आया आई, बिल्ली तो अलग कर दी, लेकिन छाती पर बिल्ली के चढ़ने से नेपोलियन घबड़ा गया। फिर वह बाद की जिंदगी में शेरों से लड़ सकता था, लेकिन बिल्ली को देख कर कंप जाता। वह छह महीने में जो अनकांशस तक, अचेतन तक बिल्ली बैठ गई छाती पर, बिल्ली को देख कर नेपोलियन छह महीने का हो जाता। उससे ज्यादा उसकी हिम्मत न रह जाती। वह युद्ध में तोप के सामने सीना लगा सकता था, लेकिन बिल्ली का पंजा बहुत खतरनाक चीज थी। जिस दिन वह हारा, नेल्सन सत्तर बिल्लियांं अपनी फौज के सामने बांध कर ले गया था। दुश्मन जो जीता, वह बिल्लियां बांध कर ले गया था। क्योंकि यह किसी तरह पता चल गया था कि वह बिल्ली से डरता है। और जब नेपोलियन ने बिल्लियां देखीं, तो उसने अपने पड़ोस के सेनापति को कहा कि तुम सम्हालो, मेरा होश खो गया, अब मेरी ताकत नहीं है लड़ने की, मेरे हाथ-पैर कंपते हैं। यह इस पर मेरा कोई काबू नहीं है। यह बिल्ली कैसे ले आया है नेलसन? आज जीत मुश्किल है। नेपोलियन पहली दफा हारा। आखिरी हार और पहली हार थी वह। लेकिन हम कहेंगे, बिल्ली को देख कर हार जाना सिर्फ आदत की बात है।
मनुष्य के मन पर भी शब्द की आदत है। सिर्फ आदत की बात है। हम परमात्मा को खो रहे हैं, एक गलत आदत की वजह से कि हमारे पास थॉटलेस व़िजन नहीं है। हमारे पास विचार-रहित दर्शन और दृष्टि नहीं है।
विचार-रहित दर्शन का नाम ही ध्यान है, मेडिटेशन है। अगर विचार-रहित हम देख पाएं, तो हमें परमात्मा अभी और यहीं दिखाई पड़ सकता है। धर्म को खोजने कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं है। धर्म को खोजने अगर जाना हो तो अपने मन की गलत आदत को समझने और उससे ऊपर उठ जाने की बात है। परमात्मा को हमने खोया नहीं है। मन की गलत आदत के कारण एक जाल पैदा हो गया है और हम उसमें खो गए। ऐसा लगता है कि हम खो गए।
एक छोटी सी कहानी और अपनी बात मैं पूरी करूंगा।
मैंने सुना है कि एक बहुत बड़ा महाकवि एक रात नाव पर बजरे में यात्रा कर रहा था। उसने एक मोमबत्ती जला रखी थी। और मोमबत्ती के प्रकाश में एक किताब पढ़ रहा था। वह किताब एस्थेटिक्स पर थी, सौंदर्यशास्त्र पर थी। वह आधी रात तक किताब पढ़ता रहा। थक गया, ऊब गया, किताब बंद करके फूंक मार कर मोमबत्ती बुझा दी। जैसे ही उसने मोमबत्ती बुझाई, वह दंग रह गया। जब तक मोमबत्ती जल रही थी, तो उसे पता ही नहीं था कि बाहर पूर्णिमा की रात है। पूरा चांद बाहर आकाश में है। और झील पर, चारों तरफ सौंदर्य बरस रहा है। उसे पता ही नहीं था। वह अपनी किताब में खोया था।
अब किताबों में सौंदर्य नहीं होता। वह अपनी किताब में खोया था, लेकिन सौंदर्यशास्त्र पर किताबें होती हैं। और सौंदर्य किताबों में नहीं होता।
सौंदर्य कहीं बाहर बरस रहा है, चारों तरफ फैल रहा है। लेकिन वह किताब में डूबा हुआ था। और मोमबत्ती जल रही थी, तो मोमबत्ती के कारण चांद का प्रकाश भीतर भी नहीं आ रहा था। खिड़कियों के बाहर ठहर गया था। जैसे ही मोमबत्ती बुझी, खिड़कियों से, द्वार से, दरवाजे से, रंध्र-रंध्र से, छेद-छेद से चांद भीतर आकर नाचने लगा। वह कवि तो चौंक गया। वह कवि भी नाचने लगा। उस कवि ने अपनी डायरी में लिखा है कि मैं भी कैसा पागल हूं, सौंदर्य चारों तरफ मौजूद था, लेकिन मैं एक किताब में उसे खोज रहा था। सौंदर्य चारों तरफ बरस रहा था और मैं शब्दों में खोज रहा था। सौंदर्य चारों तरफ जल रहा था, खिल रहा था और मैं एक धीमी सी मोमबत्ती जलाए हुए उसको रोके हुए था।
जिस दिन परमात्मा का आपको पता चलेगा, उस दिन आपको यह भी पता चलेगा, परमात्मा चारों तरफ बरस रहा है। लेकिन आप शब्दों की किताब में, विचारों की किताब में कहीं उलझे हुए हैं और अपने अहंकार की मोमबत्ती को जला कर बैठे हैं। उस अहंकार की एक छोटी सी रोशनी भी--पीली है रोशनी, गंदी है, धुआं देती है। लेकिन उस पीली रोशनी में अहंकार की, परमात्मा की, चांद की रोशनी--जिसमें धुआं भी नहीं, पीलापन भी नहीं, गंदगी भी नहीं, जो सदा ताजी है, कभी बासी नहीं होती--वह परमात्मा की रोशनी बाहर खड़ी राह देख रही है, कब आप अपनी मोमबत्ती बुझाते हैं।
लेकिन हम अपनी मोमबत्ती को और सम्हाले जा रहे हैं। उसको और बढ़ाए जा रहे हैं कि कहीं मोमबत्ती न बुझ जाए। और हम अपनी किताब में और डूबे जा रहे हैं।
ज्ञान किताबों में नहीं है। धर्म का ज्ञान किताबों में नहीं है। विज्ञान का ज्ञान किताबों में है। इसलिए विज्ञान लाइब्रेरी में मिल सकता है, लेबोरेटरी में मिल सकता है, युनिवर्सिटी में मिल सकता है। धर्म की कोई लाइब्रेरी नहीं, कोई लेबोरेटरी नहीं, कोई युनिवर्सिटी नहीं। वह कहीं भी नहीं मिल सकता। क्योंकि वह किताब में नहीं है। इसलिए हम सब चीजों की शिक्षा दे सकते हैं--एग्रीकल्चर पढ़ा सकते हैं, केमिस्ट्री पढ़़ा सकते हैं, फिजिक्स पढ़ा सकते हैं, फिलासफी पढ़ा सकते हैं, सिर्फ रिलीजन नहीं पढ़ाया जा सकता। धर्म नहीं पढ़ाया जा सकता। क्योंकि धर्म तो चारों तरफ मौजूद है। उसको जानने के लिए तो हमें अपने मन की आदत को, कंडिशनिंग को, मन का जो हमारा ढंग है, उसको बदल देना पड़ेगा।
खयाल आ जाए, तो बदल देना कठिन नहीं है। जब फूल के पास से गुजरें, तो कृपा करके दो क्षण कोई नाम न लें, सिर्फ उसको देखें--जो है। और तब फूल अचानक नया हो जाएगा। और उसकी पंखुड़ियां परमात्मा की पंखुड़ियां हो जाएंगी। और जब रात आकाश की तरफ देखें, तो तारों को नाम न दें, तारा भी मत कहें, सिर्फ देखें, जस्ट सीइंग। और तब तारों से इतनी शांति बरसने लगेगी, जो परमात्मा की है। और जब किसी आदमी के चेहरे में झांकें, तो नाम मत दें, हिंदू-मुसलमान मत कहें, जाति न दें, कुछ नाम न दें, सिर्फ आंख में झांकें। अगर एक आदमी की आंख में भी चुपचाप आप झांकने में समर्थ हो जाएं, तो आपने परमात्मा की आंख में झांक लिया। उसके बाद भूलना मुश्किल हो जाएगा कि जो देखा है वह कौन था।
इसलिए धर्म मेरे लिए एक अनुभव है, एक एक्सपीरिएंस। उसे आप करें तो ही जान सकते हैं। उसे कोई बता नहीं सकता। उसे बताने का कोई उपाय कभी नहीं रहा। लेकिन फिर मैं क्या कर रहा हूं घंटे भर से? अगर उसे बताया नहीं जा सकता, तो मैं घंटे भर आपको क्यों कुछ कह रहा हूं?
उसे बताया नहीं जा सकता, लेकिन उसकी तरफ प्यास जगाई जा सकती है। मैं आपको सरोवर पर नहीं पहुंचा सकता, लेकिन सरोवर है, इसकी गवाही दे सकता हूं। मैं आपको पानी तक नहीं ले जा सकता, लेकिन आपके भीतर प्यास है, उसे उकसा सकता हूं।
दुनिया के सारे श्रेष्ठ पुरुषों ने, कृष्ण हों, क्राइस्ट, नानक, बुद्ध--सत्य नहीं दिया, सिर्फ सत्य की प्यास जगाई है। परमात्मा नहीं दिया, सिर्फ परमात्मा की प्यास जगाई है।
और अगर प्यास जग जाए, तो आप खुद ही उस सरोवर पर पहुंच जाएंगे। क्योंकि वह सरोवर दूर नहीं है, आपके घर के ठीक पीछे है। जरा गर्दन मुड़ाएं और पीछे देखें और वह सरोवर है।
लेकिन प्यास ही न हो तो हम गर्दन क्यों मुड़ाएं। प्यास हो तो गर्दन भी मुड़ जाए। प्यास हो तो सरोवर को भी खोजें। प्यास ही न हो तो...। लेकिन प्यास है, हमने उस प्यास को भी झूठे नाम दे दिए हैं। एक आदमी चाहता है कि मैं सबसे ऊंचे पद पर पहुंच जाऊं। यह झूठा नाम दे दिया उसने। वह कितने ही बड़े पद पर पहुंच जाए, कुछ भी न होगा, प्यास जारी रहेगी। क्योंकि एक ही पद है जो सब प्यास मिटा दे, वह परमात्मा का पद है। उसके पहले कोई प्यास नहीं मिटेगी। एक आदमी कहता है कि मैं बहुत धन इकट्ठा कर लूं।...
अमरीका में एक अरबपति मरा, एण्ड्रू कारनेगी। उसके पास मरते वक्त कोई दस अरब रुपयों की संपत्ति थी। किसी मित्र ने उससे कहा कि तुम तो तृप्त हो गए होओगे। तुम तो बहुत छोड़े जा रहे हो।
एण्ड्रू कारनेगी ने क्रोध से देखा और उसने कहा: क्या खाक छोड़े जा रहा हूं, केवल दस अरब रुपये! मेरा इरादा सौ अरब रुपये कमाने का था।
उसने ऐसे कहा जैसे दस नये पैसे। लेकिन क्या सौ अरब रुपये उसके पास होते, तो कोई फर्क पड़ जाता? कोई भी फर्क न पड़ता। इच्छा और आगे चली जाती, वह कहती, हजार अरब रुपये चाहिए, करोड़ अरब रुपये चाहिए। वह इच्छा आगे बढ़ जाती। लेकिन क्या करोड़ अरब रुपये मिल जाते तो बात पूरी हो जाती?
नहीं, हमारे प्राण किसी ऐसी संपत्ति के लिए लालायित हैं जो अनंत है। और हम...हम कुछ गलत खोज रहे हैं। परमात्मा को पाकर ही धन की दौड़ मिटती है, उसके पहले नहीं मिट सकती, क्योंकि वह परम धन है। उसके बाद फिर किसी संपदा की कोई जरूरत नहीं रह जाती। पद की दौड़ भी उसे पाकर मिटती है, क्योंकि वह परम पद है। असल में परमात्मा को पाकर पाने की सारी दौड़ मिट जाती है। लेकिन हमें पता ही नहीं है, हमने प्यास को भी गलत नाम दे दिए हैं। कोई आदमी कहता है, मुझे धन पाना है। असल में वह यह कह रहा है कि मैं निर्धन होने से राजी नहीं हूं।
लेकिन क्या आपको पता है? कितना ही धन पा लें तो भी निर्धन रह जाएंगे। धन पाने से कोई निर्धनता नहीं मिटती। इधर धन इकट्ठा हो जाता है, उधर भीतर निर्धन आदमी निर्धन ही बना रहता है। और कई दफा तो ऐसा होता है कि गरीब आदमी कम निर्धन होता है, अमीर आदमी ज्यादा निर्धन होता है। उसकी गरीबी और भी गहरी हो जाती है।
बड़े पद पाने से क्या फर्क पड़ जाएगा? कुर्सियां ऊंची हो जाएंगी, और ऊंची हो जाएंंगी, क्या फर्क पड़ जाएगा? कुर्सियां दिल्ली तक पहुंच जाएंगी, क्या फर्क पड़ जाएगा? कुर्सी के पैर बड़े होते जाएंगे। बचकानी बात है, चाइल्डिस! छोटे बच्चे अपने बाप के पास कुर्सी पर खड़े हो जाते हैं और कहते हैं, देखा, आपसे बड़ा हो गया हूं। बाप हंस कर चुप रह जाता है। कुर्सियों पर खड़े हुए लोग भी यह कहते हैं, देखा, आपसे बड़े हो गए हैं। कुर्सी पर खड़े हो गए हैं। मिनिस्टर हो गया हूं, राष्ट्रपति हो गया हूं। यह हो गया हूं, वह हो गया हूं। वह कुर्सी पर चढ़े हुए बच्चे हैं जो पास-पड़ोस के लोगों से कह रहे हैं कि हम बड़े हो गए हैं। लेकिन उनके भीतर कुछ फर्क नहीं पड़ा, वही, सब वही क्षुद्रता, वही दीनता, वही, वही तकलीफ।
परमात्मा को पाए बिना आदमी शांत नहीं होता। नहीं हो सकता। लेकिन हमने अपनी परमात्मा की खोज को भी डाइवर्ट किया हुआ है। बहुत से नये-नये डाइवर्सन्स दिए हुए हैं। और न मालूम क्या-क्या नाम दिए हुए हैं। इतना ही किया जा सकता है कि आपकी सारी इच्छाओं को उनके सही रूप में बताया जा सके।
आदमी की गहरी इच्छा न तो धन की है, न पद की। आदमी की गहरी इच्छा परमात्मा की है। और जिस दिन आपको दिखाई पड़ जाएगा कि मेरी इच्छा परमात्मा की है, उसी दिन आपकी जिंदगी में एक क्रांति हो जाती है। आपके भीतर धार्मिक आदमी का जन्म शुरू हो जाता है। और जिस दिन आपको यह समझ में आ जाएगा कि मैं शब्दों के जाल में उलझ गया हूं, तो शब्दों का जाल अगर तोड़ा जा सके, तो शब्दों के बाहर उठते ही आदमी सत्य की दुनिया में पहुंच जाता है।
जहां कोई शब्द नहीं है, वहां सत्य है। जहां परम मौन है, वहां सत्य है। जहां सत-चित है, वहां प्रभु का मंदिर है।
ये थोड़ी सी बातें मैंने कहीं, मेरी बातों को मत पकड़ लेना। क्योंकि बातों को पकड़ने से ही बहुत नुकसान हो गया है। बातों को मत पकड़ लेना, इशारों को मत पकड़ लेना। जिस तरफ मैंने इशारा उठाया, जिस तरफ अंगुली उठाई, वह--मुझे भूल जाना, मेरे शब्द भूल जाना--उस चांद की तरफ आंख उठाना जो कि वहां है। सदा आपकी प्रतीक्षा कर रहा है। और जिस दिन उस चांद पर आप पहुंच जाते हैं उसी दिन हमारे जीवन में धन्यता की वर्षा हो जाती है--अमृत की, जीवन की। धर्म के अतिरिक्त कोई आनंद नहीं है। और धर्म के अतिरिक्त कोई शांति नहीं है। और धर्म के अतिरिक्त कोई अमृत नहीं है। बाकी सब हम जहर पीए चले जा रहे हैं।

मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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