QUESTION & ANSWER

Vigyan Dharam Aur Kala 03

Third Discourse from the series of 11 discourses - Vigyan Dharam Aur Kala by Osho.
You can listen, download or read all of these discourses on oshoworld.com.


मेरे प्रिय आत्मन्‌!
सर्विस अबॅव सेल्फ, सेवा स्वार्थ के ऊपर। इतना सीधा-सादा सिद्धांत मालूम पड़ता है जैसे दो और दो चार। लेकिन अक्सर जो बहुत सीधे-सादे सिद्धांत मालूम होते हैं, वे उतने सीधे-सादे होते नहीं हैं। जीवन इतना जटिल है और इतना रहस्यपूर्ण और इतना कांप्लेक्स कि इतने सीधे-सादे सत्यों में समाता नहीं है। दूसरी बात भी प्रारंभ में आपसे कह दूं और वह यह कि शायद ही कोई व्यक्ति इस बात को इनकार करने वाला मिलेगा। इस सिद्धांत को अस्वीकार करने वाला आदमी जमीन पर खोजना बहुत मुश्किल है। लेकिन अक्सर ऐसा होता है कि बहुत लोग जिस सिद्धांत को चुपचाप स्वीकार करते हैं उसके गलत होने की संभावना बढ़ जाती है। वक्त था, जमीन चपटी दिखाई पड़ती है--है नहीं। हजारों साल तक करोड़ों लोगों ने माना कि जमीन चपटी है। क्यों? हजारों साल तक आदमी ने समझा कि सूरज जमीन का चक्कर लगाता है--लगाता नहीं। अब हमें पता भी चल गया, तब भी सनराइज और सनसेट शब्द मिटने बहुत मुश्किल हैं। सूरज उगता है, सूरज डूबता है; इससे ज्यादा गलत और कोई बात नहीं होगी, लेकिन भाषा में चलेगी।
दूसरी जो बात आपसे कहना चाहता हूं वह यह कि जो बहुत ऑब्वइस सत्य मालूम होता है, जो बहुत प्रकट सत्य मालूम होता है, अक्सर स्थिति उससे ठीक उलटी होती है। और जिसे साधारणतः हम कभी इनकार नहीं करते, उसे हम चौबीस घंटे इनकार करते रहते हैं। इसीलिए इनकार करने की कोई जरूरत भी नहीं पड़ती। जिंदगी में उससे कोई बाधा पड़े तो हम इनकार भी करें। जिंदगी में उससे कोई बाधा नहीं पड़ती। जितने अच्छे सिद्धांत हैं उन्हें हम कभी चर्चा का विषय भी नहीं बनाते। क्योंकि जिंदगी उनके बिना चली जाती है।
निश्चित ही आपने तो सर्विस अबॅव सेल्फ, इस पर बहुत बार बातें सुनी होंगी। कॉमनसेंस, बिलकुल साधारण बुद्धि की बात मालूम पड़ती है कि सेवा को हम स्वार्थ के ऊपर रखें। लेकिन कॉमनसेंस बहुत बार नॉनसेंस सिद्ध होता है। यह जब मैं आपसे कहूंगा तो कुछ बातें मेरे साथ सोचनी पड़ेंगी। पहली बात तो मैं आपसे यह कहना चाहूंगा कि स्वार्थ के ऊपर जगत में किसी भी चीज को रखना संभव नहीं है। इंपॉसिबिलिटी। सेल्फ के ऊपर जगत में कोई भी चीज रखनी संभव नहीं है। वह अस्वाभाविक है। वह असंभव है। और जब कभी आप रखते भी हैं, तब अगर थोड़े गहरे में झांकेंगे, तो पाएंगे आपने रखा नहीं है।
एक आदमी नदी में डूब रहा है। दस आदमी गुजरते हैं। आप अपनी जान जोखिम में डाल कर नदी में कूद पड़ते हैं और उस आदमी को बचा कर बाहर निकाल लाते हैं। निश्चित ही हम कहेंगे, सर्विस अबॅव सेल्फ। यहां तो स्वयं को खतरे में डाल कर उस आदमी को बचाया गया है। लेकिन मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि सच्चाई बहुत दूसरी है। जब आप किसी आदमी को नदी में डूबते से बचाते हैं, तो उस आदमी से आपका कोई संबंध नहीं होता, उस आदमी को डूबते देखना आपको कठिन और दुखद होता है। अपने दुख को बचाने के लिए आप नदी में से किसी डूबते को बचाते हैं।
वहां भी सेल्फ के बाहर आदमी जाता नहीं, भीतर ही होता है। आज तक कोई आदमी गया भी नहीं है। अगर भगत सिंह को ठीक लगता है मुल्क के लिए मर जाना, तो आप यह मत समझना कि भगत सिंह मुल्क के लिए मरते हैं। भगत सिंह अपने खयाल के लिए मरते हैं कि मुल्क को बचाना जरूरी है। दुनिया के सब शहीद अपने खयाल के लिए कुर्बानी देते हैं। उनका खयाल आपके हित में सिद्ध होता है, यह बिलकुल दूसरी बात है। लेकिन उनका खयाल उनका आनंद है। इसलिए भगत सिंह जैसे व्यक्ति को सूली पर चढ़ते वक्त दुख नहीं है, वह आनंदित है, वह फुलफिल्ड है। उन्होंने जो चाहा था, वह किया। और उस सीमा तक किया है जहां स्वयं को मिटा डाला है। मिटा डालने की जोखिम उठाई है। लेकिन यह भी गहरे में स्वयं का ही आनंद है। यह भी गहरे में सेल्फ ही है। हां, यह बात दूसरी है कि सेल्फ का एस छोटा हो या कैपिटल लेटर्स में हो। इसके लिए थोड़ी आपसे बात करूंगा। लेकिन यह भी स्वयं है। सेवा को आज तक पृथ्वी पर कोई आदमी स्वयं के ऊपर नहीं रख सका है।
यह जब मैं कहूंगा तो बड़ी अजीब सी बात लगेगी। क्योंकि हमने बड़े-बड़े सेवकों के नाम सुन रखे हैं। हमारी पूरी कथाएं सेवकों के नाम से भरी हैं। लेकिन मैं आपसे यह कहना चाहता हूं कि यह सेवा का आनंद भी किसी के स्व का आनंद है। और जो आदमी स्व के ऊपर सेवा रखेगा, वह सेवा में कभी आनंदित नहीं हो सकता। सदा दुखी होगा। और तब वह सेवा से कुछ और चीजों की पूर्ति करना चाहेगा। यश कमाना चाहेगा, धन कमाना चाहेगा, कम से कम अखबार में नाम चाहेगा।
इसलिए सेवक जब सेवा करने जाता है तो फोटोग्राफर को साथ ले जाना नहीं भूलता। पता कर लेता है कि अखबार वाले आस-पास हैं या नहीं। और इस देश में तो अभी हमने देखा है कि सेवा करने वाले किस तरह से देश की छाती पर सवार हो गए हैं। अगर हम मनोविज्ञान की गहराइयों में उतरें, तो समझ लेना चाहिए कि जो आदमी आपके पैर दबाने से शुरू करेगा, आज नहीं कल आपकी गर्दन दबाने पर काम पूरा करेगा। क्योंकि किसी के भी मतलब की बात नहीं है कि आपके पैर दबाए।
असल में स्वयं के बाहर जाना वैसा ही कठिन है जैसा अपने जूते के बंद को पकड़ कर खुद को उठाना--कठिन ही नहीं, असंभव है। आप जो भी करेंगे वह स्व ही होगा, सेल्फ ही होगा। अगर लोग परमात्मा को भी खोजे हैं, तो स्वयं के लिए। और अगर लोगों ने मोक्ष भी चाहा है, तो स्वयं के लिए। और लोग अगर मिटे भी हैं, स्वयं को भी मिटाया है, तो भी स्वयं के लिए।
स्व के ऊपर कभी कोई आदमी गया नहीं। न कभी कोई आदमी जा सकता है। लेकिन इसका क्या मतलब है? क्या मैं यह कह रहा हूं कि सभी लोग एक जैसे स्वार्थी हैं? यह मैं नहीं कह रहा हूं। ऐसा स्व भी हो सकता है जो नरक की यात्रा करा दे और ऐसा स्व भी हो सकता है जो स्वर्ग की यात्रा पर ले जाए। लेकिन ये दोनों सेल्फ हैं। ऐसा स्व हो सकता है जो रावण बना दे। ऐसा स्व हो सकता है जो राम बना दे। लेकिन ये दोनों स्व हैं। ऐसा स्व हो सकता है जो जीवन को दुख और पीड़ा से भर दे; और ऐसा स्व हो सकता है जो जीवन को आनंद बना दे, संगीत से भर दे। लेकिन ये दोनों सेल्फ हैं। इनके सेल्फ होने में कोई फर्क नहीं है।
और साथ ही यह बात भी मैं आपसे कह दूंं कि जो आदमी अपने स्व को नरक की यात्रा पर ले जाता है, वह दूसरे को नरक पहुंचा पाए, न पहुंचा पाए; खुद को पहुंचाने में जरूर सफल हो जाता है। और यह भी आपसे कह दूं कि जो आदमी अपने स्व को स्वर्ग ले जाने की यात्रा पर निकलता है, वह अपने को तो स्वर्ग पहुंचाता ही है, उसकी सुगंध दूसरों को भी छूती है और स्वर्ग के रास्ते पर दीया बन जाती है।
यह भी आपसे मैं कहना चाहूंगा कि जिस आदमी के जीवन में स्व की पूर्ति नहीं हुई, उसके जीवन में सेवा कभी नहीं हो सकती। सर्विस अबॅव सेल्फ जैसी चीज नहीं है। बल्कि फुलफिल्ड सेल्फ बिकम्स सर्विस, जितना ही तृप्त हो जाता है स्वार्थ; उतना ओवरफ्लो होकर सर्विस बन जाता है, सेवा बन जाता है।
सेवा जो है, ओवरफ्लोइंग, आप वही दे सकेंगे दूसरे को, जो आपके पास जरूरत से ज्यादा हो जाए। चाहे आनंद, चाहे प्रेम, चाहे धन, जो भी आप दे सकेंगे दूसरे को, वह ओवरफ्लोइंग होगी। और इसलिए ध्यान रहे, जब भी कोई ओवरफ्लोइंग से सेवा को उपलब्ध होता है, तो जो उससे सेवा ले लेता है, वह उसका ग्रेटिट्यूड मानता है। क्योंकि उसकी ओवरफ्लोइंग को झेलने के लिए कोई रास्ता चाहिए, कोई मार्ग चाहिए।
लेकिन जो आदमी कहता है, मैंने आपकी सेवा की, इसलिए आप मेरे प्रति ग्रेटफुल हों। यह आदमी, सेवा का इसे पता ही नहीं। सेवा करने वाला तो आपके प्रति, जिसने सेवा ली, अनुगृहीत होगा। क्योंकि आपने उसकी ओवरफ्लोइंग के लिए रास्ता दिया। उसके भीतर कुछ भर गया था, जैसे आकाश में बादल भर जाते हैं, तो बरसना चाहते हैं। और जो जमीन उनकी बूंदों को पी जाती है, उसके प्रति अनुगृहीत होते हैं। और फूल जब पूरा हो जाता है, तो खिलता है और सुगंध उसकी फैलना चाहती है। और जो हवाएं उसकी सुगंध को दूर-दिगंत तक ले जाती हैं, उनका अनुगृहीत होता है। और दीया जब जलता है, तो प्रकाश फैलता है। यह दीया किसी को देता नहीं, यह दीये के पास ज्यादा होने से बिखरता है।
असल में फुलफिल्ड सेल्फ, जिसका स्व भर जाता है वह सेवा में रूपांतरित होता है। और अगर स्व इतना भर जाए कि सेवा अनंत तक पहुंचने लगे, तो स्व छोटा एस न रह कर बड़ा एस हो जाता है, कैपिटल एस हो जाता है। उस क्षण पर कोई ऋषि कह पाता है, अहं ब्रह्मास्मि! वह यह कह पाता है कि मैं ही ब्रह्म हूं! वह यह कह पाता है कि नाउ दि स्माल सेल्फ इ़ज दि सुप्रीम सेल्फ। अब वह यह कह पाता है कि मैं ही सब हूं।
ध्यान रहे, जब हम कहते हैं कि सेवा को ऊपर रखें स्वयं के, तब तक हम दूसरा दूसरा है, इसे मानते ही हैं। दि अदर इ़ज अदर। और जब तक दूसरा दूसरा है, तब तक दुश्मन है। तब तक मित्र हो नहीं सकता। दि अदरनेस इ़ज दि एनिमिटी। वह जो दूसरापन है, वही दुश्मनी है। जब तक मैं कहूंगा कि मैं सेवा करता हूं, तब तक कोई और भी है जिसकी मैं सेवा करता हूं। और कोई है जो सेवा करता है। असल में सेवा के महत्वपूर्ण क्षण में, कोई दूसरा नहीं रह जाता, तभी सेवा संभव हो पाती है।
एक मां सेवा कर पाती है अपने बेटे की। इसलिए नहीं कि बेटा दूसरा है। जिस दिन बेटा दूसरा हो जाता है उसी दिन मां कलह करती है, फिर सेवा नहीं करती। जब तक बेटा उसे अपना एक्सटेंशन मालूम होता है, लगता है मेरा ही फैलाव है, मेरे ही हाथ-पैर बड़े हो गए, मेरा ही शरीर और आगे विकसित हो गया है, यह मैंने ही फिर से जन्म लिया है, मैं ही हूं उसमें पुनर्जन्म होकर, मेरे लिए सिर्फ दर्पण की तरह वह बन गया--तब तक मां सेवा कर पाती है। तब तक मां सेवा दूसरे की नहीं कर रही है; अगर हम ठीक से कहें तो अपनी ही कर रही है। जिन्होंने भी सेवा की है अपनी ही की है। हां, उनका अपनापन बहुत बड़ा है। वह अपनापन इतना बड़ा है कि उसमें दूसरे खो जाते हैं और विलीन हो जाते हैं।
जीसस का एक वचन है, वह आपने सुना होगा। लव दाई नेबर ए़ज दाई सेल्फ। अपने पड़ोसी को अपने जैसा प्रेम करो। लेकिन अपने जैसा अपने पड़ोसी को कोई तब तक प्रेम नहीं कर सकता जब तक पड़ोसी मिट न जाए और अपना ही शेष न रह जाए। जब तक नेबर मौजूद है तब तक प्रेम अपने जैसा नहीं हो सकता। नो वन कैन लव हिज नेबर, ए़ज दाई सेल्फ, ए़ज वन्स ओन सेल्फ। जब नेबर मिट जाए, बचे ही न, मैं ही वहां भी दिखाई पड़ने लगूंं, तभी मैं सेवा कर सकता हूं अपने जैसी।
लेकिन यह जो सिद्धांत कि हम सेवा को स्वार्थ के ऊपर रखें, एक और खतरे में ले गया। इसने सेवा को पैदा नहीं किया, सिर्फ पाखंड और हिपोक्रेसी को पैदा किया। हम रख तो नहीं सकते स्वयं के ऊपर सेवा को, लेकिन दिखला सकते हैं। रख तो नहीं सकते, लेकिन एक तरह की शक्ल बना सकते हैं कि रखी हमने। रख तो नहीं सकते, लेकिन धोखा दे सकते हैं, डिसेप्शन कर सकते हैं। और डिसेप्शन चला है।
दस हजार साल की मनुष्य-जाति की संस्कृति बड़ी धोखे की संस्कृति है। उसके बुनियादी धोखे के ढांचों में एक सिद्धांत यह भी काम करता रहा कि स्वार्थ के ऊपर रखो दूसरे को, सेवा को। लेकिन यह संभव ही नहीं, यह संभव नहीं है। यह मनुष्य की प्रकृति के ही लिए संभव नहीं है। यह असंभावना है। आप कैसे दूसरे को रखेंगे?
मैंने एक छोटी सी मजाक सुनी है। मैंने सुना है कि एक पिता अपने बेटे को समझा रहा है कि दूसरे की सेवा करनी चाहिए। बेटा पूछता है, क्यों? उसके पिता ने कहा: परमात्मा ने तुम्हें पैदा ही इसलिए किया है कि तुम दूसरे की सेवा करो। वह पुराने जमाने का बेटा होता तो राजी हो जाता। वह नये जमाने का बेटा था। उसने कहा, यह तो मैं समझ गया कि मुझे परमात्मा ने दूसरों की सेवा के लिए पैदा किया, अब मैं यह और जानना चाहता हूं कि दूसरों को किसलिए पैदा किया? सिर्फ इसीलिए कि मैं उनकी सेवा करूं? या दूसरों को इसलिए पैदा किया है कि वे मेरी सेवा करें और मुझे इसलिए पैदा किया है कि मैं दूसरों की सेवा करूं? तब परमात्मा का दिमाग बहुत कंफ्यूज्ड मालूम पड़ता है। उस बेटे ने कहा: इससे तो बेहतर है मैं अपनी कर लूं और दूसरा अपनी कर ले। इस उपद्रव में, इतने जाल में डालने की जरूरत नहीं है।
मैं कह रहा हूं कि यह मजाक है। लेकिन कई बार मजाक जिंदगी के बड़े सत्य होते हैं, और जिंदगी के बड़े सत्य बिलकुल मजाक होते हैं।
ऐसा ही है। आप सोचें, तो आप नहीं पा सकेंगे कि आप किस भांति दूसरे को अपने से ऊपर रख सकते हैं, कोई उपाय नहीं है। वह साइकोलॉजिकली असंभव है। आप दूसरे को अपने से ऊपर रख नहीं सकते। हां, एक ही हालत में रख सकते हैं कि दूसरा दूसरा न रह जाए। लेकिन तब आप ही रह जाते हैं। तब दूसरा नहीं बचता।
और सेवा जिसे हम कहते हैं, तो वह सेवा अगर दूसरे को ऊपर रखने की असंभव चेष्टा से पैदा हुई, तो वह सेवा ईगो सेंटर्ड हो जाएगी। वह अहंकार की पूर्ति करेगी। इसलिए सेवकों से ज्यादा अहंकारी आदमी, ईगोइस्ट आदमी खोजने मुश्किल हैं। सेवा भी इस दंभ को, इस अहंकार को मजबूत करती है कि मैं सेवक हूं। सेवक को तो मिट जाना चाहिए। उसे पता भी नहीं होना चाहिए कि मैं हूं भी। उसे तो पता भी नहीं चलना चाहिए कि मैंने सेवा की। सर्विस दैट बिकम्स कांशस ऑफ इटसेल्फ, सर्विस नहीं रह जाती, सेवा नहीं रह जाती। जो सेवा जाग कर कहने लगे कि मैं सेवा हूं, वह सेवा नहीं रह गई। और जो विनम्रता, जो ह्यूमिलिटी कहने लगे कि मैं विनम्र हूं, वह अहंकार का ही एक रूप हो गया।
जिंदगी बहुत जटिल है, यहां सेवा तभी संभव हो पाती है जब हम दूसरे को अपने ऊपर रखने की कोशिश छोड़ दें। अपने को फैलाने की कोशिश करें। और मैं कह रहा हूं, दो उपाय हैं। एक उपाय तो यह है कि हम दूसरे की सेवा करें। और दूसरे की सेवा हम सिर्फ हिपोक्रेसी कर सकते हैं। हम सिर्फ पाखंड पैदा कर सकते हैं। इसलिए दुनिया में सेवा चल रही है और कोई दुखों का अंत नहीं हुआ। दुनिया में सेवा चल रही है और सेवा की जरूरतों का कोई अंत नहीं हुआ। दुनिया में सेवा चल रही है और दुनिया अपने दुखों में और गहरी होती चली जाती है।
बल्कि सच तो यह है, जितनी दुनिया में सेवा बढ़ती है, उतने उपद्रव बढ़ते चले जाते हैं।
राजनैतिक नेता भी सेवा करता है। धर्मगुरु भी सेवा करता है। शिक्षक भी सेवा करता है। सैनिक भी सेवा करता है। डाक्टर भी सेवा करता है। वकील भी सेवा करता है। सब सेवा कर रहे हैं, सबकी। और आदमी की ऐसी हालत कर दी है कि वह कितने दिन जिंदा रहे इन सेवकों के बीच में, यह कहना बहुत मुश्किल है कि आदमी बच भी सकेगा इतने सेवकों के साथ। इतनी सर्विस चल रही है कि यह सुसाइडल हो गई है। इसके पीछे कुछ कारण हैं।
और एक बड़ा पाखंड पैदा हुआ। क्योंकि जब भी हम कोई असंभव चीज करने लगते हैं, तो हिपोक्रेसी पैदा होती है। असंभव को पैदा करने से हिपोक्रेसी पैदा होती है। जो हो सकता है वह करने से तो जीवन विकसित होता है। जो नहीं हो सकता उसका दिखावा करने से जीवन पाखंडी और झूठा होता चला जाता है। इसे मैं कुछ असंभव बातों में से एक मानता हूं। यह नहीं हो सकेगा।
संभव क्या हो सकता है? संभव बिलकुल दूसरी बात हो सकती है। संभव यह नहीं है कि मैं दूसरे की सेवा करूंं। संभव यह है कि मैं बड़ा होऊं, मैं फैलूं, मैं इतना फैलूं और इतना बड़ा हो जाऊं कि दूसरे के लिए जगह न रह जाए। दूसरा बचे न। दूसरे का उपाय न रहे। तब भी एक सेवा जीवन में आएगी, वही सेवा है। लेकिन वह सेवा छाया की तरह आएगी आपके पीछे; आपके आगे झुंड की तरह नहीं चलेगी। आप घोषणा करते हुए नहीं चलेंगे कि मैं सेवक हूं। वह छाया की तरह आएगी, उसकी पगध्वनि भी सुनाई नहीं पड़ेगी।
मैंने सुना है, यूनान में एक फकीर ज्ञान को उपलब्ध हुआ। तो कहानी है कि देवताओं ने आकर उससे कहा कि तुम कोई वरदान मांग लो। परमात्मा बहुत प्रसन्न हैं। और तुम जो चाहो करने को राजी हैं। उस फकीर ने कहा: लेकिन अब तो मुझे कोई चाह न बची। परमात्मा बड़ी देर से राजी हुआ। जब मेरी चाहें थीं, तब तुम आए नहीं। अब मेरी कोई चाह न बची, अब तुम आए हो, अब मैं क्या मांगूं? अब तुमने मुझे मुश्किल में डाल दिया। अब मेरे पास मांग ही नहीं बची, तो तुम वापस लौट जाओ और परमात्मा को कहना कि अब तो मांगने वाला भी नहीं बचा, मांग भी नहीं बची, बड़ी देर से मैसेंजर्स भेजे। थोड़ी जल्दी भेजते तो बहुत मांगें भी थीं, मांगने वाला भी था। लेकिन वे देवता नहीं माने।
जिस आदमी की मांग खत्म हो जाए, उसे दुनिया बहुत कुछ देना चाहती है, परमात्मा भी देना चाहता है। असल में भिखारियों को कभी कुछ नहीं मिलता, सिर्फ सम्राटों को ही मिलता है। जीसस का एक वचन है: जिनके पास थोड़ा बहुत है, उनसे और भी छीन लिया जाएगा। और जिनके पास बहुत है, उन्हें और दे दिया जाएगा। उलटा ही वचन है। लेकिन जिंदगी में बड़े गणित उलटे हैं।
देवता नहीं माने। और उस फकीर से कहा: कुछ तो मांगना ही पड़ेगा। उस फकीर ने कहा: फिर तुम ही दे दो, जो तुम्हें सूझे। उन्होंने कहा कि तुम जिस आदमी को छुओगे, अगर वह बीमार है तो स्वस्थ हो जाएगा। और अगर मुर्दा है तो जिंदा हो जाएगा। तुम अगर फूल को छू दोगे तो कुम्हलाया फूल फिर से खिल जाएगा। उस फकीर ने कहा: लेकिन यह तो बड़ा खतरनाक मामला है, यह मेरी आंख के सामने ही होगा कि मेरे हाथ के छूने से वह मरीज ठीक होगा, तो मरीज तो ठीक हो जाएगा, मैं मरीज हो जाऊंगा। उन देवताओं ने कहा: मतलब नहीं समझे। उस फकीर ने कहा: मुझे तो दिखाई पड़ जाएगा कि मैंने मरीज को ठीक किया, मेरे द्वारा मरीज ठीक हो गया, तो मरीज की तो छोटी सी बीमारी मिटेगी और मुुझे महा भयंकर बीमारी पकड़ लेगी--मैं की, ईगो की। मेरी कृपा करो, यह ऐसा वरदान मत दो। पर उन्होंने कहा: दिए हुए वरदान वापस नहीं लिए जा सकते। तो उस फकीर ने कहा: इस तरह से दो कि मुझे पता न चले कि मुझसे कोई सेवा हुई। क्योंकि जो सेवा पता चल जाती है, वह जहर हो जाती है, पायज़नस हो जाती है। तो देवता बड़ी मुश्किल में पड़े, फिर आखिर उन्होंने रास्ता खोज लिया। उन्होंने कहा कि तुम्हें जो वरदान दिया वह हम तुमसे लिए लेते हैं और तुम्हारी छाया को दिए देते हैं। तुम जहां से गुजरोगे, तुम्हारी छाया अगर कुम्हलाए फूल पर पड़ जाएगी तो फूल ठीक हो जाएगा। तुम्हारी छाया अगर मरीज पर पड़ जाएगी तो मरीज स्वस्थ हो जाएगा। तुम्हारी छाया अगर मुर्दे पर पड़ जाएगी तो मुर्दा जी जाएगा। उस फकीर ने कहा कि फिर ठीक है, मुझे एक वरदान और दे दो कि मेरी गर्दन पीछे की तरफ मुड़ना बंद हो जाए। अब मैं आगे की तरफ ही देखूं।
सेवा, सच में जिसे सर्विस कहें, वह अहंकार के ऊपर रखने से नहीं आती। वह अहंकार को पोंछ डालने से आती है। मगर अहंकार को पोंछ डालने का क्या मतलब? क्या अहंकार को हम काट डालें? काटेंगे तो न काट पाएंगे। क्योंकि कौन काटेगा? किसे काटेगा? नहीं, अहंकार को मिटाने का काटना कोई रास्ता नहीं है। बहुत लोग काटने में लग जाते हैं: धन छोड़ देते हैं, पद छोड़ देते हैं, महल छोड़ देते हैं, सब छोड़ कर नंगे खड़े हो जाते हैं। वह अहंकार बहुत कुशल है। सटल आर इट्‌स वेज। वह एक नंगेपन में ही कहता है कि मैंने सब छोड़ दिया। मुझसे बड़ा त्यागी और कोई भी नहीं है। वह वहां भी खड़ा हो जाता है। वह पीछा नहीं छोड़ता। आप अगर काटेंगे उसको, तो वह कहेगा मैं ही तो काट रहा हूं।
नहीं, अहंकार को मिटाने का एक ही रास्ता है। और वह रास्ता है कि अहंकार इतना बड़ा हो जाए कि उसके अतिरिक्त और कुछ शेष न रहे। वह फैलता जाए। उसमें धीरे-धीरे दूसरों की सीमाएं टूटती चली जाएं। धीरे-धीरे दूसरा मिटता चला जाए और मैं ही रह जाऊं। जिस दिन व्यक्ति अकेला ही रह जाता है, व्हेन दि सेल्फ इज़ दि ओनली रियलिटी, जब कि सेल्फ ही रह जाता है, न कोई सर्विस रह जाती है, न दि अदर रह जाता है, दूसरा नहीं रह जाता। उस दिन, उस दिन उस स्व से सेवा ऐसे ही बहती है जैसे दीये से रोशनी बहती है, और फूलों से सुगंध बहती है, और आकाश के बादलों से वर्षा झरती है। फिर ऐसे ही बहती है।
फुलफिल्ड सेल्फ बिकम्स सर्विस। टोटल सेल्फ बिकम्स सर्विस। सुप्रीम सेल्फ बिकम्स सर्विस।
लेकिन यह सिद्धांत बड़ा समझने जैसा है। क्योंकि आदमी ने ऐसा ही अब तक माना है कि हम अपने ऊपर सेवा को रखें। हम क्या करेंगे? एक आदमी हजार रुपये कमाएगा, पांच रुपये में सेवा कर देगा। असल में यह आदमी हजार रुपये कमा कर सिर्फ हजार रुपये ही नहीं कमाना चाहता, पांच रुपये में सेवा का सर्टिफिकेट भी कमा लेता है। यह आदमी कुशल है। यह आदमी होशियार है। कहना चाहिए चालाक है, कनिंग। यह आदमी गणित जानता है, कैल्कुलेटिंग। यह आदमी कहता है कि पांच रुपये में सेवा मिलती हो तो उसको भी छोड़ना ठीक नहीं है। उसको भी खरीद लेता है। इस आदमी के, इस आदमी के मन में मैं ही केंद्र है। सेवा झंडे की तरह आगे चलेगी। और जहां सेवा झंडा बन जाती है, इट बिकम्स मिस्चीवियस, वहीं उपद्रव शुरू हो जाता है।
और सेवकों ने जितना उपद्रव किया, उतना किसी और ने नहीं किया। अगर एक दिन भर के लिए, चौबीस घंटे के लिए, दुनिया के सेवक विश्राम को उपलब्ध हो जाएं, हॉलिडे पर चले जाएं, तो आप पाएंगे दुनिया में वियतनाम बंद, क्योंकि वह सेवा करने वाले करवा रहे थे। आप पाएंगे चीन में, चीन में हत्याएं बंद, क्योंकि वह सांस्कृतिक क्रांति करके जो चीन की सेवा कर रहे हैं, वह करवा रहे थे। आप पाएंगे हिंदू-मुस्लिम दंगा बंद, चौबीस घंटे के लिए। क्योंकि कोई मुसलमान धर्म की सेवा कर रहा है, कोई हिंदू धर्म की सेवा कर रहा है। कभी भगवान ऐसा करे कि चौबीस घंटे के लिए सेवकों को छुट्टी पर भेज दे, सिर्फ चौबीस घंटे के लिए छुट्टी हो जाए, फिर आप दुबारा सेवकों को वापस न आने देंगे। आप कहेंगे, माफ करिए, आपके बिना चौबीस घंटे इतनी शांति में बीते कि अब दुबारा आप मत आइए।
मैंने सुना है, मार्क ट्‌वेन एक मजाक किया करता था। वह कहता था कि एक बार ऐसा हुआ कि सारी दुनिया के लोगों को खयाल तो बहुत दिनों से है कि चांद पर आदमी होंगे, लेकिन कोई उपाय न था। उपाय तो अब हुआ। मार्क ट्‌वेन के मर जाने के बाद हुआ। मार्क ट्‌वेन ने कहा कि आदमी बहुत दिन से सोचता था कि चांद पर जरूर आदमी होंगे, लेकिन संदेश कैसे भेजा जाए? बात कैसे की जाए? तो सारी दुनिया के लोगों ने एक दिन तय किया, मुकर्रर किया कि फलां दिन ठीक बारह बजे दोपहर सारी दुनिया के लोग जोर से बू की आवाज करेंगे एक साथ। एक मिनट के लिए सारी दुनिया बू की आवाज से भर जाए। तो इतनी सारी दुनिया चिल्लाएगी तो चांद तक आवाज चली जाएगी। अगर लोग होंगे तो कुछ न कुछ उत्तर जरूर देंगे।
दिन आ गया। लोग रास्तों पर खड़े हो गए, छतों पर, पहाड़ों पर, जहां जो खड़ा हो सकता था, सारी जमीन पर लोग खड़े हो गए। ठीक ऐन वक्त पर मंदिरों, गिरजों के घंटे बजे, सारी दुनिया मेें बू की आवाज का वक्त आ गया। लेकिन एक मिनट के लिए एकदम सन्नाटा छा गया। किसी ने आवाज नहीं लगाई। क्योंकि हर आदमी ने सोचा कि इतन
ा बड़ा मौका मैं चूकूं न, इतनी बड़ी आवाज मैं भी सुन लूंं, मैं लगाने में लग गया तो मैं नहीं सुन पाऊंगा। और जब सारी दुनिया चिल्ला रही है, तो एक आदमी के न चिल्लाने से क्या फकर्र् पड़ेगा? यह बू की आवाज मैं भी तो सुन लूं, जिसको चांद के लोग सुनेंगे, कितनी भयंकर है? सारे लोगों ने यही सोचा। एक सेकेंड के लिए, एक मिनट के लिए सारी दुनिया में सन्नाटा हो गया। और पहली दफा आदमियों ने पाया कि हम व्यर्थ की बातें करके इतनी अपूर्व शांति को गंवा रहे हैं।
लेकिन पता नहीं यह कहानी कितनी पुरानी है। क्योंकि आदमी फिर भूल गया, फिर किसी दिन बू की आवाज करने की जरूरत है।
सेवकों को अगर चौबीस घंटे की छुट्टी दे दी जाए, तो आदमी को पहली दफा पता चलेगा कि उसके उपद्रवों का निन्यानबे प्रतिशत सेवा से आ रहा है। असल में सेवा, जब कोई करने जाता है, तो उपद्रव होगा ही। सेवा होनी चाहिए, करने नहीं जाना चाहिए। सेवा निकलनी चाहिए। वह आपका कृत्य नहीं हो सकता। सर्विस कैन नॉट बी एन एक्ट, इट मस्ट बी लिविंग। वह जीवन होना चाहिए, वह कृत्य नहीं होगा।
और जो आदमी सेवा का एक कृत्य करेगा, वह दिन भर में पचास कृत्य सेवा को खंडित करने के लिए करेगा। लेकिन जो आदमी सेवा को जीएगा, वह आदमी सेवा के विपरीत कुछ भी नहीं कर सकेगा।
लेकिन सेवा जीवन कब होगी?
सेवा जीवन तब होगी, व्हेन सर्विस बिकम्स दि सेल्फ, जब कि सेवा ही स्व हो जाएगी। या स्व ही सेवा हो जाएगा। उसके पहले जीवन नहीं बन सकती। हां, हम अपने जीवन को स्व बनाए रख सकते हैं। और हम कभी चौबीस घंटे में एकाध काम सेवा का कर सकते हैं।
मैंने एक कहानी सुनी है। एक स्कूल में एक पादरी ने जाकर बच्चों को समझाया कि कम से कम चौबीस घंटे में एक काम सेवा का जरूर करना चाहिए। यही परमात्मा के प्रति सबसे बड़ा कर्तव्य है। सात दिन बाद वह वापस आकर उसने पूछा उन बच्चों से, तुमने कोई सेवा का कार्य किया? तो एक बच्चे ने हाथ हिलाया। फिर दूसरे ने, फिर तीसरे ने, तीस बच्चों में तीन ने हाथ हिलाए। उस पादरी ने कहा: इतना भी बहुत है कि तीन लोग मान गए, क्योंकि पृथ्वी को अनंतकाल चलते हुए हो गया, इतने प्रतिशत भी कोई मानने को राजी नहीं होता सेवा की बात। मैं तुमसे पूछना चाहता हूं, तुमने सेवा क्या की? तो पहले लड़के ने कहा कि आपने बताया था, वैसी ही हमने सेवा की, बूढ़ी स्त्री को रास्ता पार करवाया।
उसने बताया था, कोई बूढ़ी स्त्री को रास्ता पार करवा दो, कोई डूबता हो बचा लो, कहीं आग लगी हो बुझाने दौड़ जाओ।
उसने कहा: बहुत अच्छा किया, शाबाश, भगवान की कृपा तुम्हारे ऊपर बरसेगी। फिर दूसरे से पूछा। उसने कहा: मैंने भी एक बूढ़ी औरत को रास्ता पार करवाया। तब उस पादरी को थोड़ा शक हुआ, लेकिन बूढ़ी औरतों की कोई कमी नहीं है, उसने सोचा कि हो सकता है इसे भी कोई बूढ़ी औरत मिल गई हो। रास्तों की भी कमी नहीं है।
उसने तीसरे से पूछा, उसने कहा: मैंने भी एक बूढ़ी औरत को रास्ता पार करवाया। तब जरा शक ज्यादा हुआ। उसने कहा कि तुम तीनों को तीन बुढ़ियां मिल गईं? उन्होंने कहा: नहीं, तीन बूढ़ियां नहीं थीं, बूढ़ी तो एक ही थी, हम तीनों ने मिल कर पार करवाया। तो उस पादरी ने कहा कि क्या बूढ़ी इतनी अशक्त थी कि तुम तीनों को सहयोग करना पड़ा पार करवाने के लिए? उन्होंने कहा: अशक्त! बूढ़ी बड़ी मजबूत थी, उस तरफ जाना ही न चाहती थी, हम बामुश्किल उस पार पहुंचा पाए। वह इस तरफ भागती थी, हमने उस पार किया। पर आपने कहा था कि कोई सेवा का काम करना चाहिए, तो हम करके आ गए।
सेवा का काम अगर कोई करने का तय कर ले, तब सेवा भी प्रोफेशन हो जाती है। तब वह भी एक धंधा हो जाती है। सेवा धंधा नहीं हो सकती। कोई आदमी सेवा का काम नहीं कर सकता। हां, कोई आदमी सेवा की जिंदगी जी सकता है। लेकिन यह जिंदगी भी तभी जी सकता है, जब दूसरा गिर जाए और मैं फैल जाए। मैं इतना बड़ा हो जाए कि कोई बचे ही न, जिसे मैं कह सकूं कि तुम्हारी सेवा कर रहा हूं। अपनी ही सेवा हो जाए। हम अपनी ही सेवा कर सकते हैं। वही सहज, वही स्वाभाविक है। हम अपने को बड़ा कर सकते हैं, वह भी सहज और स्वाभाविक है। यह मैं का बड़ा हो जाना ही, अंततः मैं का मिट जाना बन जाता है। मैं अगर इतना बड़ा हो जाए कि तू बाहर न बचे, तो फिर तू नहीं रहता। और जिस दिन तू नहीं रहता उस दिन मैं भी बच नहीं सकता, क्योंकि वह रिलेटिड टर्म है। वह तू के साथ ही बचती है। वह मैं तू के साथ ही गिर जाता है।
यह बात मैंने कही, यह बात मैंने इसीलिए कही...आपको अब थोड़ी और कठिनाई देना चाहूंगा। सर्विस अबॅव सेल्फ हो सके, इसीलिए मैंने यह बात कही। यह बात मैंने इसीलिए कही कि सेवा स्वयं के ऊपर हो सके। लेकिन कही तो पूरी खिलाफ में। कहा तो मैंने पूरा विरोध में। कहा तो मैंने यह कि सेवा स्वयंंं के ऊपर हो नहीं सकती। हां, स्वयं ही इतना फैल जाए कि जीवन सेवा हो जाए। कहा तो मैंने पूरे समय विरोध में, लेकिन कहा पूरे समय पक्ष में। और जिंदगी ऐसी ही है। यहां जरूरी नहीं है कि जो पक्ष में बोल रहे हैं वे पक्ष में बोल रहे हैं। और यहां जरूरी नहीं है कि जो विपक्ष में बोल रहे हैं वे विपक्ष में बोल रहे हैं। यहां बहुत बार जरूरत पड़ जाती है कि हमारे माने हुए सिद्धांतों को धक्का दिया जाए, तभी उनकी आत्मा और उनके प्राण हमारे समझ में आ पाते हैं। यहां जरूरत पड़ जाती है कि पुराने ढांचे को तोड़ा जाए, तभी उनके भीतर छिपा हुआ व्यक्तित्व प्रकट हो पाता है। ‘सर्विस अबॅव सेल्फ’ वह हमारे लिए सूत्र रट गया। उसे हम जगह-जगह लिख कर टांग देंगे। उससे हमारे मस्तिष्क में कहीं कुछ भी नहीं होता। वह मर गया। उसे हमने इतनी बार सुन लिया कि अब उसमें कोई प्राण नहीं हैं।
महान सत्य भी बार-बार सुने जाने पर असत्य से बदतर हो जाते हैं। क्योंकि उनमें कोई दंश नहीं रह जाता। उनमें कोई कांटा नहीं रह जाता। उनमें कोई चुभन नहीं रह जाती। इसलिए बार-बार महासत्यों को भी तोड़ कर पुनः निर्मित करना होता है। उन्हें भी फिर से बिखेर कर अलग-अलग करके फिर से जमाना होता है।
मैंने वही कहा जो सर्विस अबॅव सेल्फ सूत्र लिखने वाले आदमी ने कहना चाहा होगा। लेकिन मैंने वह नहीं कहा जो आप समझते हैं। मैंने वही कहा जो इस सूत्र को निर्माण करने वाले की आकांक्षा, अभीप्सा, एंबीशन रही होगी। लेकिन शब्द बड़े कमजोर हैं और सत्यों को प्रकट नहीं कर पाते।
और जब भी कोई खास शब्द सत्यों के आस-पास जड़ जमा कर बैठ जाते हैं, तो धीरे-धीरे सत्य तो खो जाता है, शब्द ही हमारे हाथ में रह जाते हैं। वे हमारे हाथ में रह गए हैं। मैंने दूसरी तरफ से यात्रा की।
मैंने आपसे कहा, सर्विस पर जोर देना छोड़ दें। बहुत जोर दिया जा चुका, आदमी उससे फायदे में नहीं पहुंचा। अब तो सेल्फ को जोर दें। ऐसा नहीं है कि जो मैं कह रहा हूं वह कल असत्य नहीं हो जाएगा। अगर कुछ संस्थाएं बन जाएं और वहां तख्तियां लगा लें और वहां जो मैंने कहा वह लिख दें, तो थोड़े दिन में वे सत्य भी इतने ही पुराने और जरा-जीर्ण हो जाएंगे। उन पर भी धूल जम जाएगी। और हम सुनते-सुनते उनके आदी हो जाएंगे।
आदमी की सबसे बड़ी कठिनाई यही है कि वह हर चीज को पचा लेता है। सुनने का आदी हो जाता है। और जब एक बार आदी हो जाता है, तो फिर सो जाता है। फिर वह करवट लेकर आराम करने लगता है। और जरूरत इस बात की है कि आपकी करवट को बार-बार तोड़ा जाए। तो अक्सर मेरे जैसे लोगों को यही काम करना पड़ता है कि मुझसे पहले जो आपको बाईं करवट कर गया, मुझे आकर आपको दाईं करवट करना पड़ता है। हालांकि लगता है कि मैं उलटा काम कर रहा हूं। जो बाईं कर गया था, मैं दायां कर रहा हूं। लेकिन जिसने आपको बायां किया था, उसने भी नींद तोड़नी चाही थी आपकी, और मैं भी आपकी नींद ही तोड़ रहा हूं दाईं करके। अब आप बाईं में आश्वस्त हो गए हैं और सो गए हैं। मेरे पीछे कोई आएगा, हो सकता है वह फिर आपको बायां कर दे। आदमी को जिंदगी भर रीशॅफल करने की जरूरत है, वह बार-बार सो जाता है और अपनी नींद में फिर सपने देखने लगता है। हम सब अच्छे सत्यों का तकिया बना लेते हैं और आराम पर चले जाते हैं। सर्विस अबॅव सेल्फ हमारा एक तकिया है, जिस पर हम सिर रख कर सो गए हैं। सारे लोग मानते हैं।
और ध्यान रहे, जब सारे लोग किसी सत्य को मान लेते हैं, तो समझ लेना अब उस सत्य में जगाने की सामर्थ्य नहीं रही, नहीं तो सारे लोग नहीं मान सकते। जब तक सत्य जगाता है तब तक सारे लोग कभी नहीं मानते। जब सत्य को भी वे तकिया बना कर सो जाते हैं, तब सारे लोग मान लेते हैं।
इसलिए जो बहुत ऑब्वइस ट्रुथ्स हैं, वे अक्सर...जो बहुत प्रकट में दिखाई पड़ता है कि सत्य है, वह किसी सत्य की मरी हुई लाश होती है। जिसने कभी यह कहा था कि स्वयं के ऊपर रखो सेवा को, उसका मतलब? उसका मतलब बहुत और रहा होगा। उसका यह मतलब नहीं रहा होगा जो हम लेते रहे हैं कि हम स्वयं के ऊपर थोड़े से सेवा के कार्य करते चले जाएं।
नहीं, उसका मतलब वही है जो मैंने कहा। जो मैंने कहा उसका वही मतलब कि सेवा हमारी जिंदगी बन जाए। सेवा हमारा सेल्फ बन जाए। हम सेवा हो जाएं। और जिस दिन सेवा आप हो जाएंगे, उस दिन आपको पता भी नहीं चलेगा कि आपने सेवा की है। अगर किसी मां को पूछें, तुमने अपने बेटे की कितनी सेवा की? तो बता नहीं पाएगी।
हां, यह जरूर बता पाएगी कि कौन-कौन सी सेवाएं नहीं कर पाई। बता सकेगी कि ठीक कपड़े नहीं दे पाई। ठीक खाना नहीं दे पाई। ठीक शिक्षा नहीं दे पाई। बता पाएगी क्या-क्या नहीं कर पाई है। लेकिन फेहरिस्त नहीं बना सकेगी, जो कर पाई उसकी। लेकिन किसी संस्था के सेक्रेटरी को पूछें कि साल भर में आपने कितनी सेवाएं की हैं? तो जो उसने नहीं की हैं, वे भी फेहरिस्त में सब जुड़ी होती हैं।
संस्था का सेक्रेटरी सेवा करता है। मां से सेवा होती है। एक नर्स बता सकती है, उसने कितनी सेवा की है, एक मां नहीं बता सकती। और जिस दिन मां बता दे, तो समझना कि उसने सिर्फ नर्स का काम किया है, मां के धोखे में रही।
ये थोड़ी सी बातें मैंने कहीं। सेवा के खिलाफ बहुत सी बातें कहीं ताकि सेवा पैदा हो सके। सेवा के विरोध में कुछ बातें कहीं ताकि आपकी जिंदगी में सेवा का फूल लग सके। लेकिन सेवक का कांटा मत लगा देना। सेवक का तो कांटा होता है; सेवा का फूल होता है। सेवक मत बन जाना। सेवक बने कि उपद्रव शुरू हो गया। जिंदगी सहज सेवा होनी चाहिए।
झरने बहते हैं, और नहीं कहते किसी से कि तुमने पानी पीआ तो हमने बड़ी सेवा की। सूरज से रोशनी झरती है, नहीं कहता किसी से कि तुम पर बड़ी कृपा की, तुम्हारे आंगन में रोशनी भेजी। और परमात्मा अनंत-अनंत जीवन को रचता चला जाता है, कभी हमने उसे धन्यवाद भी नहीं दिया। और कभी वह हमारे द्वार पर धन्यवाद लेने आया भी नहीं। शायद इसी डर से वह सदा छिपा रहता है कि कहीं मिल जाए, तो हम धन्यवाद न दे दें।
इतना अनंत...लेकिन वह परमात्मा सेवक अगर होता, तो अब तक बोर हो गया होता, थक गया होता, घबड़ा गया होता, पागल हो गया होता। अब तक पागलखाने में इलाज हो रहा होता। लेकिन वह सेवक नहीं है, वह सेवा है।
अगर आप सेवक बने तो मुश्किल में पड़ेंगे। फिर सेवक होने की चिंता और एंग्जाइटी पकड़ेगी। लेकिन अगर सेवा आपकी जिंदगी हो गई, तो आप चिंता के बाहर हो जाएंगे। और तब ऐसा नहीं है कि सेवा करने के लिए कोई बूढ़ी औरत को ही रास्ता पार कराना पड़ता है। तब ऐसा भी नहीं है कि धन देकर ही सेवा करनी पड़ती है। तब ऐसा भी नहीं है कि किसी बीमार के पैर दबा कर ही सेवा करनी पड़ती है। तब आंख की पलक का हिलना भी सेवा बन जाता है। जब मिलना हो तो किसी की तरफ मुस्कुरा देना ही सेवा बन जाती है।
ब्लावट्‌स्की हिंदुस्तान आई। तो अपनी गाड़ी में जहां भी चलती थी, झोले में हाथ डालती, कुछ बाहर फेंकती रहती। तो जो भी उसको मिलता वह पूछता, आप यह क्या फेंक रही हैं? तो वह कहती, ये मौसमी फूलों के बीज हैं। तो लोग कहते, आप पागल हो गई हैं? चलती ट्रेन से मौसमी फूल के बीज फेंकना पागलपन है! आप दुबारा कब निकलेंगी इस रास्ते से? वह कहती कि शायद ही कभी निकलूं, क्योंकि जिंदगी का तो कल का भी भरोसा नहीं। यही रास्ते पर दुबारा आने का कैसे पक्का हो सकता है। तो वे कहते कि फिर पागल हो, फिर ये बीज किसलिए फेंके? तो ब्लावट्‌स्की कहती, कोई तो इस रास्ते से कभी न कभी निकलता रहेगा। और अगर किसी भी आंख में इन फूलों के सौंदर्य की छवि बनी, और अगर किसी भी नाक पर इन फूलों की गंध की थिरक हुई, और अगर कोई भी इन फूलों को देख कर मुस्कुरा लिया, तो मैं अभी ही तृप्त हो गई।
सेवा कृत्य नहीं है; वह सहज जीवन है। श्वास-श्वास सेवा बन जाती है।
बुद्ध की आखिरी घड़ी थी, और उन्होंने मरते क्षण मित्रों को पूछा कि कुछ और पूछना हो तो पूछ लो। चिकित्सकों ने कहा है कि अब मत पूछो, उनसे बोलते भी नहीं बनता। लेकिन बुद्ध ने कहा: कोई यह न कहे कि अभी मैं कुछ बोल सकता था और किसी का प्रश्न था और वह बिना पूछे रह गया, मुझ पर ऐसा आरोप मत लगवा देना। अभी मेरी श्वास चलती थी और कोई प्यासा आया और प्यासा लौट गया। लेकिन मित्रों ने कहा: हम सब पूछ लिए जीवन भर, अब आप विदा हों, अब हमें कुछ भी नहीं पूछना है। बुद्ध वृक्ष के पीछे चले गए, उन्होंने आंख बंद कर ली, वे समाधिस्थ हो गए। तब एक आदमी गांव से भागा हुआ आया।
उस गांव से बुद्ध कई बार निकले थे। सुभद्र नाम के उस आदमी को कई बार लोगों ने कहा था, बुद्ध आए हैं, जाओ सुन आओ। लेकिन सुभद्र ने कहा: फिर कभी आएंगे तब सुन लूंगा, अभी तो ग्राहक बहुत हैं और दुकान चलती है। फिर बुद्ध कई बार निकले, लेकिन सुभद्र को दुकान से फुरसत न मिली। आज उसे पता चला कि बुद्ध की आखिरी घड़ी है, वे मरणशय्या पर हैं। तो वह दुकान बंद करके भागा हुआ आया। उसने भिक्षुओं से कहा: बुद्ध कहां हैं? मुझे कुछ पूछना है। तो उन्होंने कहा: बहुत देर हो गई। अब नहीं हो सकता। अब तो बुद्ध जा चुके विश्राम में, अंतिम निर्वाण में लीन होने। अब तो उनकी बूंद सागर में गिरने को है, अब नहीं पूछा जा सकता।
बुद्ध यह सुने और उठ कर वापस बाहर आ गए। और उन्होंने कहा कि तुम मेरे ऊपर इलजाम मत लगवा देना कि मैं जीवित था और कोई प्यासा आया और प्यासा लौट गया। क्या पूछना है सुभद्र?
श्वास-श्वास, आंख की पलक का झपना भी, हाथ का उठना-गिरना भी, राह पर चलना भी, एक सत्य का मुंह से निकलना भी, मौन भी, सभी कुछ सेवा बन जाता है। सेवक भर आप मत बनना।
और यह कैसे संभव होगा? तो मैंने एक सूत्र कहा: इस स्व को फैलाएं। फैलाना कहना ठीक नहीं है, भाषा की भूल है। गलती है हमारी कि हम समझ रहे हैं कि यह स्व मेरे शरीर तक सीमित है। वह दस करोड़ मील दूर जो सूरज है, अगर वह बुझ जाए, तो मैं यहां ठंडा हो जाऊंगा, आप वहां ठंडे हो जाएंगे, हमको पता भी नहीं चलेगा कि सूरज बुझ गया। क्योंकि यह पता चलने के लिए भी तो जिंदगी चाहिए। सूरज बुझा कि हम बुझे। दस करोड़ मील दूर जो सूरज है, वह भी मेरा स्व है। उसके बिना मैं एक क्षण जी नहीं सकता।
और वह जो दस करोड़ मील दूर सूरज है वह भी, और करोड़ों मील दूर जो सूरज है उससे रोशनी लेता है, गर्मी लेता है, तो जीता है। यह जगत का जीवन समूह जीवन है। यहां मैं से बड़ी कोई भ्रांति, कोई इलूजन नहीं है। यहां मैं का खयाल ही सबसे बड़ा पागलपन है। यहां हर लहर अपने को समझ रही है, मैं हूं, और लगता भी है।
क्योंकि जब लहर नाचती है मौज में, तो वह कैसे मान ले कि पड़ोस की लहर अलग नहीं है। पड़ोस की लहर अलग मालूम पड़ती है। पड़ोस की लहर गिर जाती है और मैं नहीं गिरता। पड़ोस की लहर उठती है ऊंची और मैं नहीं उठ पाता। तो लहर कैसे मान ले कि यह पड़ोस में हजारों लहरें जो हैं, यह भी मैं हूं। लेकिन अगर लहर थोड़ा भीतर झांके, तो उस सागर को पाएगी जो सब लहरों का प्राण है।
इस ‘मैं’ के थोड़ा हम भीतर झांकें, तो वह सागर दिखाई पड़ता है जहां स्व-पर सब मिट जाते हैं और वही रह जाता है जो है। दैट व्हिच इ़ज। और उसके अनुभव से जिस जीवन का जन्म होता है उस जीवन का नाम सेवा है। वह सेवक का कृत्य नहीं, वह धार्मिक व्यक्ति के जीवन का नाम है।
ये थोड़ी बातें मैंने कहीं। मानने की कोई जरूरत नहीं। मैं आपका कोई सेवक नहीं हूंं कि आपको समझाऊं और आप मानें। यह मेरा आनंद है। मुझे अच्छा लगा, मैंने आपसे कहा। सोचना, ठीक लगे ठीक, गलत लगे गलत। अगर कोई बात ठीक लग जाए, सोच लें आप, मेरे कहने से नहीं, अगर आपके सोचने से कोई बात सत्य मालूम पड़े, तो वह आपकी जिंदगी को बदलने का कारण हो जाएगी। जो सत्य हमारे सत्य हैं, वे हमें बिना बदले नहीं छोड़ते। और अंत में, जो भी मैंने कहा, वह इसीलिए कहा कि सर्विस अबॅव सेल्फ, सेवा स्व के ऊपर संभव हो सके।

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

Spread the love