QUESTION & ANSWER
Upasana Ke Kshan 07
Seventh Discourse from the series of 12 discourses - Upasana Ke Kshan by Osho.
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उपासना का मतलब होता है: उसके पास बैठना। और जितना द्वैत होगा, उतनी आसन से दूरी रहेगी। उतनी उपासना कम होगी। जितना अभेद होगा, उतने ही उसके निकट हम बैठ पाएंगे। उपवास का भी वही अर्थ होता है, उपासना का भी वही अर्थ होता है। उपवास का मतलब होता है: उसके निकट रहना। उसका मतलब भी भूखे मरना नहीं होता है।
तो उसके निकट हम कैसे पहुंच जाएं?
और अगर उसकी निकटता में थोड़ी भी दूरी रही, तो दूरी रही। तो उसके निकट तो हम वही होकर ही हो सकते हैं। कितनी भी निकटता रही, तो भी दूरी रही। निकटता भी दूरी का ही नाम है--कम दूरी का नाम, ज्यादा दूरी का नाम। तो ठीक निकट तो हम तभी हो सकते हैं, जब हम वही हो जाएं।
तो यह तो हम जितना साक्षीभाव में जाएंगे, उतना ही हम वह जो द्वैत है उसको छोड़ते हैं और वह जो एक है, वह जो मैं ही हूं, उसमें बैठते हैं। जिस दिन यह पूरा हो जाएगा, उस दिन साक्षीभाव भी विलीन हो जाएगा।
प्रश्न:
विलीन हो जाएगा?
क्योंकि साक्षीभाव में भी द्वैत की अंतिम सीमा बाकी है। जिस दिन यह पूरा हो जाएगा, उस दिन यह सवाल भी नहीं कि मैं साक्षी हूं। क्योंकि किसका साक्षी हूं और कौन साक्षी है? वे दोनों ही गए। वह तो जब तक हम दृश्य से मुक्त होने की कोशिश कर रहे हैं, तब तक द्रष्टा पर जोर देना है। जैसे ही दृश्य से मुक्त हो गए, द्रष्टा भी गया। फिर तो वही रह गया। न वहां कोई दृश्य है, न वहां कोई द्रष्टा है। और यही उपासना का वास्तविक अर्थ होगा।
लेकिन हमारी कठिनाई क्या हो गई है कि हमेशा जो भी कहा जाएगा, वह थोड़े दिन में जड़ हो जाता है। और फिर उसकी निषेध करने की जरूरत पड़ जाती है। और तब ऐसा लगता है कि यह कोई चीज तोड़ने के लिए कह रहे हैं, कोई चीज छोड़ने के लिए कह रहे हैं। लेकिन हर बार निषेध फिर मूल पर पहुंचाता है। और निषेध से हमें फिर मूल पर वापस पहुंचना पड़ता है। और नहीं तो बीच में बहुत जाल खड़ा हो जाता है। उसको फिर तोड़ने की जरूरत पड़ जाती है। निषेध की भाषा में सिर्फ इसलिए बोलना पड़ता है, कि विधेय की भाषा में बोलने पर फिर सारा क्रियाकांड चलता है।
प्रश्न:
फैलाव होता है।
फैलाव होता है।
प्रश्न:
विधेय में तो फैलाव होगा।
फैलाव होगा। इसलिए निषेध करना अंतिम वहां तक ले जाना है, जहां सब निषिद्ध हो जाए। वह द्रष्टा भी निषिद्ध हो जाए। और, तो उसके निकटतम जो द्वैत है, वह साक्षी का है। अद्वैत से जो निकटतम द्वैत है, वह साक्षी का है। यानी जो, इसको हम आखिरी मजबूरी कहें। बस इसको कहना चाहिए न्यूनतम बुराई है। यह भी बुराई है, यह भी जानी चाहिए। बस यह आखिरी बुराई है। और यह चली गई उस दिन तो... और अगर इससे दूर हम दृश्य को पकड़ते हैं, तो हम बहुत दूर फासले पर हैं। फिर दृश्य से द्रष्टा पर आना पड़े, और द्रष्टा से फिर पीछे जाना पड़े। तो जितना कम से कम पकड़ें जिसे हम छोड़ सकें उतना अच्छा है। उसी खयाल से की जाती है। पूरी उपासना है, उसमें कहीं कोई कमी नहीं है।
प्रश्न:
आप तो सर्वत्र घूमते ही हैं, लेकिन मैं तो उलटी शर्मिंदगी महसूस करता हूं कि हम लोगों की स्थिति हम देखते हैं, तो सचमुच सच्ची जिज्ञासा, सुनने वालों की जिज्ञासा जगती जरूर है।
बिलकुल जगती है। यह तो प्रत्येक की जगती है। जो बिलकुल अकारण भी आकर खड़ा हो गया हो, मनोरंजन के लिए भी आकर खड़ा हो गया हो, ऐसे रास्ते से निकलता भी खड़ा हो गया हो, उसमें भी कुछ होता है।
प्रश्न:
सत्संग की बड़ी महिमा है।
हां, कुछ न कुछ होता है। कुछ न कुछ होता है। लेकिन जिसको बड़ी जलती हुई जिज्ञासा कहें, बहुत थोड़े से लोग होंगे। इसीलिए तो इतनी मेहनत करने पर भी बहुत ज्यादा परिणाम नहीं दिखता। नहीं तो एक गांव में एक आदमी भी ठीक जिज्ञासु हो तो पूरे गांव की हवा बदल जाती है।
प्रश्न:
बदल जाती है।
बदलनी ही है। क्योंकि वह एक, वह ऐसा ही जैसे कि हजारों बुझे दीये रखे हों और एक दीया भी जल जाए, तो भी उस जगह क्रांति हो गई। और उस एक जले हुए दीये को देख कर हजारों बुझे दीयों के प्राणों में प्यास जगनी शुरू हो जाती है कि हम कैसे जलें?
थोड़े से लोग चाहिए। कोई बहुत लाखों लोगों की जरूरत नहीं है। एक-एक गांव में एक-एक आदमी ठीक ऐसा हो जो कि सच में ही जिज्ञासा से भरा है, तो बड़ा क्रांति का केंद्र बनता है। बहुत कम लोग हैं। लेकिन कुछ लोग हैं। और कुछ लोग हैं, इसीलिए कोई धारा टूटती नहीं है। और नहीं तो, पूरी धारा तो विपरीत चली गई है, वह कभी की टूट गई होती। यानी पूरा का पूरा जनमानस तो बिलकुल ही विपरीत चला गया है। कुछ थोड़े से लोग हैं जो सूत्र को कायम रखे हुए हैं और किसी न किसी तरह उसको आहुति देकर सूत्र को बनाए रखे हैं।
प्रश्न:
अब देखिए आप तर्क के संबंध में रात को कितना बोले हैं, हद कर दी आपने, लेकिन आज सैकड़ों तर्क फिर सामने आने वाले हैं, चर्चा करने वाले हैं। लोग समझे नहीं इसका मतलब। तर्क में फर्क पड़ने वाला नहीं है।
नहीं, कोई फर्क नहीं पड़ने वाला।
प्रश्न:
और दूसरी बात इन लोगों पर खास करके इसमें ही अपना वह मानते हैं कुछ विशेषता।
कुछ नहीं, सिर्फ व्यायाम है। ठीक है, व्यायाम करने के लिए अच्छा है, इससे ज्यादा कोई मतलब नहीं है।
प्रश्न:
और जिनका साधन के संबंध में...
...विरोधाभास का है सदा। या तो लोग यह समझेंगे कि उनको समझाया जाए कि पैर पड़ो, फिर वे समझेंगे।
प्रश्न:
या मत पड़ो।
या यह समझ जाएंगे कि मत पड़ो; तो यह भी समझ जाएंगे कि मत पड़ो। लेकिन एक आदमी पैर पड़ते वक्त पैर पड़ ही नहीं रहा है, यह उन्हें कभी नहीं दिखाई पड़ सकता। वह कुछ और ही कर रहा है, इसका उन्हें पता भी नहीं है। यह उन्हें पता भी नहीं चल सकता। वह उनकी कल्पना के बाहर है।
लेकिन उन्हें और बातें समझ में आती हैं। जैसे, उनको गुस्सा आ जाए, और क्रोध आ जाए, तो वे किसी का सिर तोड़ने को तैयार हो जाते हैं, किसी के सिर पर जूता मारने को तैयार हो जाते हैं, और उनको कभी खयाल नहीं आता कि किसी के सिर पर जूता मारने से क्या होगा! लेकिन वे अपना एक भाव प्रकट कर रहे हैं। अब किसी को किसी से प्रेम हो जाता है, वह उसको गले लगा लेता है, वह कभी नहीं सोचता कि गले लगाने से क्या होगा। हमारे भीतर जो भाव उठते हैं उनकी अभिव्यक्तियां हैं।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं है।)
उसके भीतर क्या हो रहा है यह सवाल है, पैर का सवाल नहीं है। उसके भीतर कहीं कोई बात उठी है, कि वह जानता भी नहीं है, और उसका सिर पैर से जुड़ गया है। उसे क्या मिल रहा है क्या नहीं मिल रहा है यह किसी दूसरे का समझने का मामला नहीं है। लेकिन उसकी देखादेखी अगर कोई किसी के पैर में सिर रख रहा हो, तो उसे कुछ भी नहीं मिल रहा है।
मैं एक सूफी कहानी पढ़ रहा था। एक सूफी फकीर हुआ, जुन्नैद। वह एक कहानी कहता था। एक माली है और एक बगीचे में अंगूर लगा रहा है। माली की उम्र कोई साठ साल की है। और जो अंगूर वह लगा रहा है वह उस जाति का है, जिसमें तीस साल बाद फल आएंगे। तो गांव का सम्राट वहां से निकला है। उसने घोड़ा रोक दिया और उसने कहा कि बूढ़े यह क्या कर रहा है? यह अंगूर तो तीस साल बाद आएगा, और तू तो तब तक होगा भी नहीं। तेरी उम्र क्या है? साठ साल की उम्र है।
तो उसे बूढ़े माली ने कहा कि मालिक, हमने बहुत से उन वृक्षों के फल खाए जिन्हें हमने नहीं लगाया था। और जिन्होंने लगाया था, वे अब नहीं हैं उनके फल खाने को। तो हम अगर ऐसे वृक्ष न लगा जाएं जिनके फल वे खाएं जो हमसे पीछे हैं, तो कर्तव्य पूरा न हुआ। सभी फल हम अपने खाने के लिए नहीं लगाते।
तो राजा ने कहा: ठीक, तेरी हिम्मत और तेरे साहस से हम खुश हैं! और अगर तू जिंदा रहे और मैं भी जिंदा रह जाऊं, तो पहले फल इस वृक्ष के मुझे पहुंचा देना।
तीस साल वह माली जिंदा रह गया और राजा भी। उसने, पहले जो अंगूर आए, वे सम्राट को भेजे। सम्राट के पास जब अंगूर पहुंचे और खबर पहुंची कि उस माली ने भेजे हैं जिससे आपने कहा था कि ये फल तू नहीं खा सकेगा। तो सम्राट ने कहा कि जितने अंगूर जितने वजन के हैं उतने हीरे-जवाहरात भर कर टोकरी में वापस पहुंचा दो। वह आदमी हिम्मत का है और जानदार है।
यह खबर तो पूरे गांव में फैल गई कि एक माली ने अंगूर के गुच्छे भेजे और उत्तर में साधारण अंगूरों के लिए राजा ने हीरे-जवाहरात भेजे।
दूसरे दिन तो सारे गांव के लोग अंगूर लेकर खड़े हो गए टोकरियां भर-भर कर। और एक औरत जो सबसे पहले पहुंची, उसने कहा कि जाओ, पहुंचा दो ये अंगूर राजा को और कहो कि हीरे-जवाहरात भर दे। हमारे साथ ज्यादती नहीं होनी चाहिए, जब एक आदमी को दिए गए।
राजा उठा सुबह तो देखा कि सारे महल के आस-पास लोग खड़े हैं अंगूर लिए हुए।
राजा ने सिपाहियों से कहा: इन सबको भगा दो। और इनसे कहना, पागलो, पहले यह तो पूछ लेते कि किसके अंगूरों के बदले में उत्तर दिया गया है? सिर्फ अंगूर का उत्तर नहीं दिया गया है। किसके अंगूर? और पीछे राज क्या है, वह तो पूछ लेते, कि तुम बस अंगूर लेकर आ गए।
तो वह पैर छूने से उत्तर भी मिलता है--लेकिन किसके पैर छूने का? वह बिना देखे जब कोई किसी के पैर में सिर रख देगा तो पाएगा कुछ भी नहीं मिलता। वह जाकर कहेगा कि फिजूल की मेहनत है, और नासमझी है। और तब दो स्थितियां हो जाती हैं।
मेरे सामने बहुत बड़े प्रॉब्लम्स हैं। मेरे सामने बड़े सवाल हैं। जो और लोगों के सामने सवाल नहीं हैं। मेरे सामने सवाल यह है कि मैं जानता हूं कि पैर छूने का अपना रस और आनंद है। और यह भी मैं जानता हूं कि पैर छूने की अपनी मूढ़ता और मूर्खता है। ये दोनों बातें मैं जानता हूं। इसलिए अब मेरे सामने बड़ी मुश्किल है। यानी मैं यह जानता हूं कि सौ में से निन्यानबे लोग तो सिर्फ म़ूढतावश पैर छुए चले जा रहे हैं। वे किसी का भी छुए चले जा रहे हैं। इनको रोका जाना जरूरी है। और यह भी मैं जानता हूं कि सौ में एक आदमी भी है, जिसको रोका जाना बिलकुल ही अनुचित है। और इसीलिए दोनों बातें कहने से बड़ी मुश्किल, उलझन हो जाती है कि मैं क्या कह रहा हूं, मेरा क्या मतलब है। उससे बहुत कठिनाई हो जाती है। बहुत कठिनाई हो जाती है।
और इसलिए मैं कहता हूं कि रोकना चाहिए पैर छूने से। जो नहीं रुकेगा, वह ठीक है। सवाल यह है कि जो रुक जाएगा, वह भी ठीक है। क्योंकि वह रुक जाएगा इसलिए कि उसके लिए बेकार था। और जो नहीं रुकेगा उसके लिए कोई अर्थ था, इसलिए वह तुम्हारी मानेगा नहीं।
मैं बंबई में एक मीटिंग में, माटुंग्गा में कहा कि पैर छूने के लिए मैं मना करता हूं, कोई मेरे पैर न छुए। मैं मंच से उतरा और एक महिला ने आकर कहा कि हम आपकी बात मानने से इनकार करते हैं। उसने पैर छुआ। वह दूसरे दिन मेरे पास आई और उसने कहा कि आपको क्या हक है कि आप हमें रोकें?
मैंने उससे कहा: कोई हक नहीं है। मुझे क्या हक हो सकता है? मुझे क्या हक हो सकता है? लेकिन, मैंने कहा: इतना कोई दावा तो करे, तो वह हकदार हो जाता है!
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं है।)
हां, इतना कोई दावा तो करे न! तब ठीक है, फिर बात खत्म हो गई। फिर तुम्हारी मालकियत, तुम्हारी मौज है, इसमें क्या बात है।
प्रश्न:
बात तो पात्रता की है।
हां, दावे की पात्रता भी हो। लेकिन दूसरा रुक गया है, उसका कोई दावा नहीं था। वह किसी को देख कर छू रहा था। वह ठीक है, वह भी छुटकारा उसका हो गया।
तो उसके निकट हम कैसे पहुंच जाएं?
और अगर उसकी निकटता में थोड़ी भी दूरी रही, तो दूरी रही। तो उसके निकट तो हम वही होकर ही हो सकते हैं। कितनी भी निकटता रही, तो भी दूरी रही। निकटता भी दूरी का ही नाम है--कम दूरी का नाम, ज्यादा दूरी का नाम। तो ठीक निकट तो हम तभी हो सकते हैं, जब हम वही हो जाएं।
तो यह तो हम जितना साक्षीभाव में जाएंगे, उतना ही हम वह जो द्वैत है उसको छोड़ते हैं और वह जो एक है, वह जो मैं ही हूं, उसमें बैठते हैं। जिस दिन यह पूरा हो जाएगा, उस दिन साक्षीभाव भी विलीन हो जाएगा।
प्रश्न:
विलीन हो जाएगा?
क्योंकि साक्षीभाव में भी द्वैत की अंतिम सीमा बाकी है। जिस दिन यह पूरा हो जाएगा, उस दिन यह सवाल भी नहीं कि मैं साक्षी हूं। क्योंकि किसका साक्षी हूं और कौन साक्षी है? वे दोनों ही गए। वह तो जब तक हम दृश्य से मुक्त होने की कोशिश कर रहे हैं, तब तक द्रष्टा पर जोर देना है। जैसे ही दृश्य से मुक्त हो गए, द्रष्टा भी गया। फिर तो वही रह गया। न वहां कोई दृश्य है, न वहां कोई द्रष्टा है। और यही उपासना का वास्तविक अर्थ होगा।
लेकिन हमारी कठिनाई क्या हो गई है कि हमेशा जो भी कहा जाएगा, वह थोड़े दिन में जड़ हो जाता है। और फिर उसकी निषेध करने की जरूरत पड़ जाती है। और तब ऐसा लगता है कि यह कोई चीज तोड़ने के लिए कह रहे हैं, कोई चीज छोड़ने के लिए कह रहे हैं। लेकिन हर बार निषेध फिर मूल पर पहुंचाता है। और निषेध से हमें फिर मूल पर वापस पहुंचना पड़ता है। और नहीं तो बीच में बहुत जाल खड़ा हो जाता है। उसको फिर तोड़ने की जरूरत पड़ जाती है। निषेध की भाषा में सिर्फ इसलिए बोलना पड़ता है, कि विधेय की भाषा में बोलने पर फिर सारा क्रियाकांड चलता है।
प्रश्न:
फैलाव होता है।
फैलाव होता है।
प्रश्न:
विधेय में तो फैलाव होगा।
फैलाव होगा। इसलिए निषेध करना अंतिम वहां तक ले जाना है, जहां सब निषिद्ध हो जाए। वह द्रष्टा भी निषिद्ध हो जाए। और, तो उसके निकटतम जो द्वैत है, वह साक्षी का है। अद्वैत से जो निकटतम द्वैत है, वह साक्षी का है। यानी जो, इसको हम आखिरी मजबूरी कहें। बस इसको कहना चाहिए न्यूनतम बुराई है। यह भी बुराई है, यह भी जानी चाहिए। बस यह आखिरी बुराई है। और यह चली गई उस दिन तो... और अगर इससे दूर हम दृश्य को पकड़ते हैं, तो हम बहुत दूर फासले पर हैं। फिर दृश्य से द्रष्टा पर आना पड़े, और द्रष्टा से फिर पीछे जाना पड़े। तो जितना कम से कम पकड़ें जिसे हम छोड़ सकें उतना अच्छा है। उसी खयाल से की जाती है। पूरी उपासना है, उसमें कहीं कोई कमी नहीं है।
प्रश्न:
आप तो सर्वत्र घूमते ही हैं, लेकिन मैं तो उलटी शर्मिंदगी महसूस करता हूं कि हम लोगों की स्थिति हम देखते हैं, तो सचमुच सच्ची जिज्ञासा, सुनने वालों की जिज्ञासा जगती जरूर है।
बिलकुल जगती है। यह तो प्रत्येक की जगती है। जो बिलकुल अकारण भी आकर खड़ा हो गया हो, मनोरंजन के लिए भी आकर खड़ा हो गया हो, ऐसे रास्ते से निकलता भी खड़ा हो गया हो, उसमें भी कुछ होता है।
प्रश्न:
सत्संग की बड़ी महिमा है।
हां, कुछ न कुछ होता है। कुछ न कुछ होता है। लेकिन जिसको बड़ी जलती हुई जिज्ञासा कहें, बहुत थोड़े से लोग होंगे। इसीलिए तो इतनी मेहनत करने पर भी बहुत ज्यादा परिणाम नहीं दिखता। नहीं तो एक गांव में एक आदमी भी ठीक जिज्ञासु हो तो पूरे गांव की हवा बदल जाती है।
प्रश्न:
बदल जाती है।
बदलनी ही है। क्योंकि वह एक, वह ऐसा ही जैसे कि हजारों बुझे दीये रखे हों और एक दीया भी जल जाए, तो भी उस जगह क्रांति हो गई। और उस एक जले हुए दीये को देख कर हजारों बुझे दीयों के प्राणों में प्यास जगनी शुरू हो जाती है कि हम कैसे जलें?
थोड़े से लोग चाहिए। कोई बहुत लाखों लोगों की जरूरत नहीं है। एक-एक गांव में एक-एक आदमी ठीक ऐसा हो जो कि सच में ही जिज्ञासा से भरा है, तो बड़ा क्रांति का केंद्र बनता है। बहुत कम लोग हैं। लेकिन कुछ लोग हैं। और कुछ लोग हैं, इसीलिए कोई धारा टूटती नहीं है। और नहीं तो, पूरी धारा तो विपरीत चली गई है, वह कभी की टूट गई होती। यानी पूरा का पूरा जनमानस तो बिलकुल ही विपरीत चला गया है। कुछ थोड़े से लोग हैं जो सूत्र को कायम रखे हुए हैं और किसी न किसी तरह उसको आहुति देकर सूत्र को बनाए रखे हैं।
प्रश्न:
अब देखिए आप तर्क के संबंध में रात को कितना बोले हैं, हद कर दी आपने, लेकिन आज सैकड़ों तर्क फिर सामने आने वाले हैं, चर्चा करने वाले हैं। लोग समझे नहीं इसका मतलब। तर्क में फर्क पड़ने वाला नहीं है।
नहीं, कोई फर्क नहीं पड़ने वाला।
प्रश्न:
और दूसरी बात इन लोगों पर खास करके इसमें ही अपना वह मानते हैं कुछ विशेषता।
कुछ नहीं, सिर्फ व्यायाम है। ठीक है, व्यायाम करने के लिए अच्छा है, इससे ज्यादा कोई मतलब नहीं है।
प्रश्न:
और जिनका साधन के संबंध में...
...विरोधाभास का है सदा। या तो लोग यह समझेंगे कि उनको समझाया जाए कि पैर पड़ो, फिर वे समझेंगे।
प्रश्न:
या मत पड़ो।
या यह समझ जाएंगे कि मत पड़ो; तो यह भी समझ जाएंगे कि मत पड़ो। लेकिन एक आदमी पैर पड़ते वक्त पैर पड़ ही नहीं रहा है, यह उन्हें कभी नहीं दिखाई पड़ सकता। वह कुछ और ही कर रहा है, इसका उन्हें पता भी नहीं है। यह उन्हें पता भी नहीं चल सकता। वह उनकी कल्पना के बाहर है।
लेकिन उन्हें और बातें समझ में आती हैं। जैसे, उनको गुस्सा आ जाए, और क्रोध आ जाए, तो वे किसी का सिर तोड़ने को तैयार हो जाते हैं, किसी के सिर पर जूता मारने को तैयार हो जाते हैं, और उनको कभी खयाल नहीं आता कि किसी के सिर पर जूता मारने से क्या होगा! लेकिन वे अपना एक भाव प्रकट कर रहे हैं। अब किसी को किसी से प्रेम हो जाता है, वह उसको गले लगा लेता है, वह कभी नहीं सोचता कि गले लगाने से क्या होगा। हमारे भीतर जो भाव उठते हैं उनकी अभिव्यक्तियां हैं।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं है।)
उसके भीतर क्या हो रहा है यह सवाल है, पैर का सवाल नहीं है। उसके भीतर कहीं कोई बात उठी है, कि वह जानता भी नहीं है, और उसका सिर पैर से जुड़ गया है। उसे क्या मिल रहा है क्या नहीं मिल रहा है यह किसी दूसरे का समझने का मामला नहीं है। लेकिन उसकी देखादेखी अगर कोई किसी के पैर में सिर रख रहा हो, तो उसे कुछ भी नहीं मिल रहा है।
मैं एक सूफी कहानी पढ़ रहा था। एक सूफी फकीर हुआ, जुन्नैद। वह एक कहानी कहता था। एक माली है और एक बगीचे में अंगूर लगा रहा है। माली की उम्र कोई साठ साल की है। और जो अंगूर वह लगा रहा है वह उस जाति का है, जिसमें तीस साल बाद फल आएंगे। तो गांव का सम्राट वहां से निकला है। उसने घोड़ा रोक दिया और उसने कहा कि बूढ़े यह क्या कर रहा है? यह अंगूर तो तीस साल बाद आएगा, और तू तो तब तक होगा भी नहीं। तेरी उम्र क्या है? साठ साल की उम्र है।
तो उसे बूढ़े माली ने कहा कि मालिक, हमने बहुत से उन वृक्षों के फल खाए जिन्हें हमने नहीं लगाया था। और जिन्होंने लगाया था, वे अब नहीं हैं उनके फल खाने को। तो हम अगर ऐसे वृक्ष न लगा जाएं जिनके फल वे खाएं जो हमसे पीछे हैं, तो कर्तव्य पूरा न हुआ। सभी फल हम अपने खाने के लिए नहीं लगाते।
तो राजा ने कहा: ठीक, तेरी हिम्मत और तेरे साहस से हम खुश हैं! और अगर तू जिंदा रहे और मैं भी जिंदा रह जाऊं, तो पहले फल इस वृक्ष के मुझे पहुंचा देना।
तीस साल वह माली जिंदा रह गया और राजा भी। उसने, पहले जो अंगूर आए, वे सम्राट को भेजे। सम्राट के पास जब अंगूर पहुंचे और खबर पहुंची कि उस माली ने भेजे हैं जिससे आपने कहा था कि ये फल तू नहीं खा सकेगा। तो सम्राट ने कहा कि जितने अंगूर जितने वजन के हैं उतने हीरे-जवाहरात भर कर टोकरी में वापस पहुंचा दो। वह आदमी हिम्मत का है और जानदार है।
यह खबर तो पूरे गांव में फैल गई कि एक माली ने अंगूर के गुच्छे भेजे और उत्तर में साधारण अंगूरों के लिए राजा ने हीरे-जवाहरात भेजे।
दूसरे दिन तो सारे गांव के लोग अंगूर लेकर खड़े हो गए टोकरियां भर-भर कर। और एक औरत जो सबसे पहले पहुंची, उसने कहा कि जाओ, पहुंचा दो ये अंगूर राजा को और कहो कि हीरे-जवाहरात भर दे। हमारे साथ ज्यादती नहीं होनी चाहिए, जब एक आदमी को दिए गए।
राजा उठा सुबह तो देखा कि सारे महल के आस-पास लोग खड़े हैं अंगूर लिए हुए।
राजा ने सिपाहियों से कहा: इन सबको भगा दो। और इनसे कहना, पागलो, पहले यह तो पूछ लेते कि किसके अंगूरों के बदले में उत्तर दिया गया है? सिर्फ अंगूर का उत्तर नहीं दिया गया है। किसके अंगूर? और पीछे राज क्या है, वह तो पूछ लेते, कि तुम बस अंगूर लेकर आ गए।
तो वह पैर छूने से उत्तर भी मिलता है--लेकिन किसके पैर छूने का? वह बिना देखे जब कोई किसी के पैर में सिर रख देगा तो पाएगा कुछ भी नहीं मिलता। वह जाकर कहेगा कि फिजूल की मेहनत है, और नासमझी है। और तब दो स्थितियां हो जाती हैं।
मेरे सामने बहुत बड़े प्रॉब्लम्स हैं। मेरे सामने बड़े सवाल हैं। जो और लोगों के सामने सवाल नहीं हैं। मेरे सामने सवाल यह है कि मैं जानता हूं कि पैर छूने का अपना रस और आनंद है। और यह भी मैं जानता हूं कि पैर छूने की अपनी मूढ़ता और मूर्खता है। ये दोनों बातें मैं जानता हूं। इसलिए अब मेरे सामने बड़ी मुश्किल है। यानी मैं यह जानता हूं कि सौ में से निन्यानबे लोग तो सिर्फ म़ूढतावश पैर छुए चले जा रहे हैं। वे किसी का भी छुए चले जा रहे हैं। इनको रोका जाना जरूरी है। और यह भी मैं जानता हूं कि सौ में एक आदमी भी है, जिसको रोका जाना बिलकुल ही अनुचित है। और इसीलिए दोनों बातें कहने से बड़ी मुश्किल, उलझन हो जाती है कि मैं क्या कह रहा हूं, मेरा क्या मतलब है। उससे बहुत कठिनाई हो जाती है। बहुत कठिनाई हो जाती है।
और इसलिए मैं कहता हूं कि रोकना चाहिए पैर छूने से। जो नहीं रुकेगा, वह ठीक है। सवाल यह है कि जो रुक जाएगा, वह भी ठीक है। क्योंकि वह रुक जाएगा इसलिए कि उसके लिए बेकार था। और जो नहीं रुकेगा उसके लिए कोई अर्थ था, इसलिए वह तुम्हारी मानेगा नहीं।
मैं बंबई में एक मीटिंग में, माटुंग्गा में कहा कि पैर छूने के लिए मैं मना करता हूं, कोई मेरे पैर न छुए। मैं मंच से उतरा और एक महिला ने आकर कहा कि हम आपकी बात मानने से इनकार करते हैं। उसने पैर छुआ। वह दूसरे दिन मेरे पास आई और उसने कहा कि आपको क्या हक है कि आप हमें रोकें?
मैंने उससे कहा: कोई हक नहीं है। मुझे क्या हक हो सकता है? मुझे क्या हक हो सकता है? लेकिन, मैंने कहा: इतना कोई दावा तो करे, तो वह हकदार हो जाता है!
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं है।)
हां, इतना कोई दावा तो करे न! तब ठीक है, फिर बात खत्म हो गई। फिर तुम्हारी मालकियत, तुम्हारी मौज है, इसमें क्या बात है।
प्रश्न:
बात तो पात्रता की है।
हां, दावे की पात्रता भी हो। लेकिन दूसरा रुक गया है, उसका कोई दावा नहीं था। वह किसी को देख कर छू रहा था। वह ठीक है, वह भी छुटकारा उसका हो गया।