QUESTION & ANSWER
Upasana Ke Kshan 05
Fifth Discourse from the series of 12 discourses - Upasana Ke Kshan by Osho.
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बीस साल में आप रुपया कमा पाए उतना जिससे आप सुख और शांति से रह सकते हैं। लेकिन बीस साल मन का तनाव और चिंता इस हालत में आपको ला दिया कि अब आपके पास कितना ही रुपया हो आप सुख और शांति से नहीं रह सकते। बीस साल में मन को इतना श्रम करना पड़ा, इतनी चिंता करनी पड़ी, उसकी वह आदत हो गई।
प्रश्न:
चिंता करने की?
चिंता करने की, बेचैन होने की। सब रूट्स बन गईं चिंता की। जैसे, बैलगाड़ी चलती है, तो एक रास्ता बन गया। अब बैलगाड़ी के चकों को उसी में फंस कर चलना पड़ेगा। अब इधर-उधर थोड़ी-बहुत देर चलेगी, फिर उसी में आ जाएगी। रट बन गई।
तो बीस साल आदमी चिंता, फिकर; सोया नहीं, पैसा, पैसा, कैसे कमाऊं, कैसे कमाऊं, तो धीरे-धीरे, धीरे-धीरे, धीरे-धीरे उसका दिमाग एक चिंता--स्नायु मस्तिष्क के सब चिंता करने के लिए आदी हो गए हैं। अब वह रुपया कमा पाया। अब। और इसके लिए उसने इतनी चिंता की थी बीस साल! और रुपया कमा कर वह पाता है कि न कोई सुख है, न कोई शांति है। सुख और शांति इसलिए नहीं है कि रुपया आपको कोई शांति नहीं दे सकता, रुपया व्यवस्था दे सकता है, लेकिन बीस साल में आपका मस्तिष्क गड़बड़ हो गया। तो वह आदमी फिर यह कहने लगा कि अरे, रुपये, इसमें कोई सुख-शांति नहीं है! क्योंकि मैंने कमा भी लिया और मैं और अशांत और दुखी हो गया हूं! तो रुपये में कोई सार नहीं है। इसको छोड़ना चाहिए।
यह आदमी से भूल हो रही है। वह यह नहीं समझ पा रहा है कि यह, यह रुपया तो जरूर... रुपया तो केवल एक सुविधा है, माध्यम है। आपके पास वह है, तो आप जिंदगी को एक व्यवस्था दे सकते हैं। और व्यवस्था के माध्यम से आप शांत भी हो सकते हैं, चैन से भी रह सकते हैं, विश्राम भी पा सकते हैं।
मेरा कहना यह है कि रुपये को कमाने के साथ ही साथ अगर उसने मन की शांति कमाने का भी उपाय किया होता, तो वह जिस दिन उसके पास रुपया होता, उस दिन वह उतना सुखी होता जितना वह गरीब रह कर कभी भी सुखी नहीं हो सकता था। क्योंकि रुपया उसको बाहरी व्यवस्था दे देता और मन की शांति उसको भीतरी व्यवस्था दे देती। और ये दोनों चीजें जिस दिन मिल जातीं, उस दिन वह परम शांति को अनुभव करता।
लेकिन यह हो नहीं पाया। उसने बाहर की व्यवस्था जुटाने में, जो कि बिलकुल जरूरी है, भीतर की कोई व्यवस्था जुटाई ही नहीं। और जिस चीज के लिए इतनी मेहनत की, आखिर में पाने के बाद पाया कि उसको कुछ मिल नहीं रहा है, तो ठीक विरोधी रुख पैदा हो गया कि इसमें कोई सार नहीं है, सब असार है, इसको छोड़ कर भागना चाहिए। और इस तरह के लोगों ने समाज के चित्त में हवा पैदा कर दी। जो दरिद्र है, उसको तो रुपये का कोई पता नहीं है--कि रुपया शांति लाता कि नहीं लाता। उसको पता नहीं कि रुपया क्या लाएगा? जो अमीर है, उसका यह अनुभव है कि रुपये से शांति नहीं आई। तो बुद्ध और महावीर, ये सब अमीर घरों के लड़के हैं। इन्होंने एक हवा पैदा कर दी पूरे समाज में। और जब ये छोड़ कर चले गए, तो दरिद्र को भी दिखाई पड़ा कि जिनके पास सब था, वे छोड़ कर जा रहे हैं, कुछ नहीं है उसमें। तो जिस चीज में कुछ नहीं है, उसको पकड़ना नासमझी है।
लेकिन गरीब का मन और अमीर के मन में एक फर्क है। अमीर समझ कर जाता है कि रुपये में कुछ नहीं है, तो उसे रुपये का भय नहीं होता। बुद्ध और महावीर को रुपये का भय नहीं है बिलकुल। वे समझ कर गए हैं कि रुपये में कुछ नहीं है। रामकृष्ण बिलकुल दरिद्र ब्राह्मण के लड़के हैं। रुपये का कोई अनुभव है नहीं। सुना हुआ है यह कि रुपये में कुछ भी नहीं है, लेकिन मन में तो कामना रुपये की है। वह दरिद्र के लड़के में होनी ही चाहिए, वह जानता नहीं है।
प्रश्न:
नॉलेज नहीं है वह।
नॉलेज नहीं है। और आशा और मन में इच्छा है रुपये की। इधर इच्छा है और उधर बुद्धि कहती है कि कुछ भी नहीं है। एक द्वंद्व चल रहा है भीतर। इस द्वंद्व में यह हालत हो जाएगी कि छूना भी पाप है। छूने का मन है, पकड़ लेने का मन है। कहीं पकड़ न लें, तो फिर इतना भयभीत अपने को कर लिया है कि छू लेना भी पाप है, छूना भी नहीं है। तो रामकृष्ण को छूना भी पाप है। बुद्ध में वह ऑब्सेशन नहीं है। क्योंकि बुद्ध रुपये को देख कर आया है। सब देखा है। बुद्ध में स्त्री का ऑब्सेशन नहीं है। क्योंकि बुद्ध और महावीर सुंदर से सुंदर स्त्रियों को भोग कर आए हैं। जितनी देश में सुंदरतम स्त्रियां थीं, बुद्ध के महल में सब उपस्थित थीं। तो स्त्री को छू लेने और नहीं छू लेने में प्रॉब्लम बुद्ध को नहीं है।
अब वह मेरी चेष्टा बड़ी मुश्किल की हो गई है। मेरी चेष्टा यह है कि, मेरा कहना है कि रुपये का मूल्य है। उतना मूल्य नहीं है, जितना पैसे के पागल को होता है। उतना निर्मूल्य भी नहीं है, जितना पैसे के दुश्मन को होता है। पैसा एक तटस्थ साधन है। उसका उपयोग है। उसका, समझ हो तो बहुत सदुपयोग है। और अगर उसकी व्यवस्था जुटाने के साथ-साथ मनुष्य भीतर की व्यवस्था भी जुटा ले...
प्रश्न:
वह हो सकती है?
बिलकुल हो सकती है। वह हमारे खयाल में नहीं है। और समाज को आज तक उसकी दृष्टि नहीं दी गई। कभी नहीं दी गई। उसका कारण यह था कि समाज को दृष्टि देने वाले जो लोग थे, वे ये धनी लोग थे। समाज को दृष्टि देने वाला जो वर्ग था, वह धनिकों का वर्ग था।
प्रश्न:
और वह उसने पाया कुछ नहीं।
उसने पाया कुछ नहीं है। और उसने यह दृष्टि दे दी। और दूसरा गरीब का वर्ग है। गरीब को पता नहीं है, लेकिन आकांक्षा है उसको कि अच्छा मकान हो, शांति से रहूं, खाने-पीने की रोज चिंता न करनी पड़े, यह उसका खयाल है। तो उसकी इच्छा तो कहती है कि पैसा हो। और यह सारे समाज के नेताओं का--और नेता ये सब पैसे वाले लोग हैं--इनका अनुभव कहता है कि पैसे में कोई सार नहीं है, तो वह पड़ जाता है द्वंद्व में। और वह द्वंद्व उसकी जान खाए जाता है कि क्या करूं, क्या न करूं। अगर पैसा कमाने में लगता है तो लगता है पाप कर रहा हूं, कोई सार नहीं है। नहीं कमाने में लगता है तो देखता है कि कष्ट ही कष्ट इकट्ठे होते चले जा रहे हैं। तो उसको हमने एक कांफ्लिक्ट में डाल दिया। और उस कांफ्लिक्ट में आदमी जी रहा है। और उसको तोड़ने का कोई उपाय नहीं सूझ पड़ता।
अगर इस गरीब का नेता होना हो, तो आपको भी पैसे को गाली देना पड़ेगी। क्योंकि गरीब के मन में पैसे की इच्छा है, तृष्णा है। ईर्ष्या भी है। पैसे वाले के प्रति घृणा भी है। वह खुद पैसा वाला होना चाहता है। लेकिन जिसके पास है उसके प्रति उसके मन में घृणा भी है, ईर्ष्या भी है।
अगर गांधी पैसे को लात मारते हैं, तो गरीब उनके चरण छुएगा। वह कहेगा कि यह है आदमी। क्योंकि पैसे के प्रति जो इसकी ईर्ष्या और घृणा है--यह इसको लात मारता है, दो कौड़ी का समझता है। यह बात उसको अपील करती है। तो रामकृष्ण पैसे को देख कर चौंक जाते हैं, तो सारा गरीब जो वर्ग है वह प्रभावित होता है। और बड़े मजे की बात है, कि पैसे वाला इसलिए प्रभावित होता है कि उसके पास इतना पैसा है, फिर भी अभी इतनी सामर्थ्य नहीं जुटा पाया कि पैसे को लात मार दे, और जिसके पास कुछ भी नहीं है वह लात मार रहा है! जरूर अदभुत है यह आदमी। यह हमारा माइंड कैसे काम करता है। गरीब इसलिए प्रभावित होता है कि वह पैसे के प्रति ईर्ष्यालु है। पैसे वाला इसलिए प्रभावित होता है कि अरे, जिसके पास कुछ भी नहीं है, वह लात मारने की हिम्मत रखता है। वह अदभुत शक्ति संपन्न आदमी है। और तब सिलसिला जारी रहता है। और उस सिलसिले को तोड़ना कठिन होता चला गया है।
अब मेरे सामने जो बड़ी समस्या खड़ी हो गई है वह यह कि मैं दोनों से राजी नहीं हूं। मैं उस आदमी से भी राजी नहीं हूं जो कि पागल की तरह पैसा इकट्ठा करता चला जाता है। और उसको इकट्ठे करते-करते मर जाता है। मैं उससे भी राजी नहीं हूं जो कि पैसे से भागता है और चिल्लाता है कि उसको बिच्छू ने काट खाया अगर पैसे छू गए। ये दोनों एक ही बीमारी के एक्सट्रीम्स हैं।
सच्चाई हमेशा कहीं मध्य में है।
सच्चाई यह है कि अगर समझदारी से पैसे का उपयोग हो--जो कि हो सकता है, क्योंकि समझदारी और पैसे में कोई विरोध नहीं है। मेरा कहना यह है, समझदारी एक और बात है, पैसा एक और बात है, उसमें कोई विरोध नहीं है। बल्कि सच्चाई यह है कि पैसा हो तो समझदारी सरलता से आ सकती है, पैसा न हो तो समझदारी बहुत कठिन है आना। क्योंकि समझदारी आने के लिए भी जो व्यवस्था चाहिए, वह भी पैसे के बिना नहीं जुड़ सकती है।
यह जो, जो व्यवस्था जुड़ती है समझदारी लाने के लिए... अब कोई हम खाना खाएं, हम कैसा खाना खाते हैं, इससे हमारा व्यक्तित्व, हमारा मस्तिष्क सब प्रभावित होता है। अगर ऐसा खाना एक आदमी को मिलता रहे जिसमें कि विटामिंस नहीं हैं, ताकत का कुछ भी नहीं है, उसका मस्तिष्क भी विकसित नहीं होगा। समझदारी आएगी कहां से खाक! वे जो आदिवासी हैं, जंगली मुल्कों के लोग हैं, इन्होंने संस्कृति क्यों विकसित नहीं की? इनका भोजन डिफेक्टिव है। ये संस्कृति विकसित कर ही नहीं सकते। क्योंकि जितना भोजन स्वस्थ मस्तिष्क को बनाने के लिए चाहिए, वह इनको कभी मिला नहीं। यह कोई ऐसा नहीं कि ये आकस्मिक रूप से वैसे पड़े रह गए हैं। जैसे अफ्रीकन हैं, या हमारे जंगल में रहने वाला आदमी है, इसका भोजन बिलकुल ही अव्यवस्थित है। उस भोजन में जो सार्थक है वह न के बराबर है। तो शरीर का काम किसी तरह चल जाता है, लेकिन मस्तिष्क विकसित नहीं हो पाता।
अमरीका इतने जोर से विकास करता चला जा रहा है, उसके बच्चे इतनी दूर की बातें सोच रहे हैं, उसका कुल कारण यह है कि उसका भोजन ज्यादा कैलोरी का है, वेल प्रवाइडेड है, ठीक विटामिन-युक्त है, व्यवस्थित है, साइंटिफिक है। दो सौ वर्षों में अगर अमरीका का यही भोजन रहा और हमारा यही भोजन रहा, तो हमारे बच्चे में और अमरीका के बच्चे में जमीन-आसमान का फासला हो जाएगा। क्योंकि हमारा बच्चा बेसिकली डिफेक्टिव होगा। यानी इस बात की संभावना है कि अगर पांच सौ साल यही स्थिति चलती चली गई, तो बिलकुल अमरीका एक सुपरह्यूमन बेस पैदा कर लेगा, जो बिलकुल और तरह के आदमी होंगे। जिनका सोचना, जिनकी समझ, जिनकी इनसाइट बहुत ही सही होगी, जिसका हम कोई मुकाबला नहीं कर सकेंगे, हम कहीं किसी तल पर खड़े न रह जाएंगे। और इधर हमारे बेवकूफ यही कहे चले जा रहे हैं कि पैसा बेकार है। और वे हमारी जान लिए ले रहे हैं।
रूस के बच्चे हैं, उनको बिलकुल साइंटिफिक भोजन मिल रहा है। एक-एक हिसाब है कि कितनी कैलोरी, कितना कौन सा विटामिन, कितना खनिज, कितना सॉल्ट, सब साइंटिफिक है। दो सौ वर्षों में जो बच्चा वे पैदा करेंगे वह बच्चा वेल इक्विप्ड पैदा हो रहा है माइंड की तरफ से। उसका माइंड जो चीज लाएगा, वह हमारे बच्चे कहां से लाएंगे!
तो यह जो, इसमें सारी व्यवस्था का सवाल तो यह है कि पैसा तो सिर्फ माध्यम है जो बाहर के सारे जीवन की व्यवस्था जुटा देता है। और वह व्यवस्था जितनी सम्यक होगी, उतनी भीतर संभावना बढ़ती चली जाती है।
अब एक आदमी को ठीक खाना ही नहीं मिला है, उससे हम कह रहे हैं कि तुम चित्त को शांत करो। यह बिलकुल पागलपन की बातें कर रहे हैं। एक आदमी ठंड में ठिठुरा जा रहा है, हम उससे कह रहे हैं कि तुम अपने चित्त को शांत करो। अब वह कह रहा है कि चित्त का अभी सवाल नहीं है; अभी सवाल यह है कि मेरा शरीर कैसे शांत हो?
और जब शरीर शांत नहीं होता, तो चित्त कैसे शांत हो? चित्त तो केवल खबर देने वाला है। चित्त खबर दे रहा है कि शरीर अशांति में है। तुम उसको ठीक कर दो, तो शरीर मिट जाएगा। तो जब तक शरीर अशांति में है, चित्त खबर देता ही चला जाएगा। वह तो केवल... जैसे कि नीचे एरोड्रम पर से खबर दी जा रही ऊपर हवाई जहाज को कि अभी तुम मत उतारो, अभी यहां बादल हैं, अभी उतारोगे तो मर जाओगे। और वह सुने न, और कहे कि मैं तो उतारता हूं। ऐसी हालत है। चित्त तो खबर दे रहा है पूरे वक्त कि शरीर इतनी ठंड नहीं सह सकेगा। अगर जल्दी कपड़ा नहीं जुटाते तो खत्म हो जाएगा। अब वह चित्त यह खबर दे रहा है कि तुम कपड़ा जुटाओ; तुम कह रहे हो कि कपड़े-लत्ते से क्या लेना-देना है, अरे शरीर से क्या लेना-देना, ये तो सब बाहरी चीजें हैं। तो शरीर टूटेगा; साथ ही चित्त टूट जाएगा।
गरीब मुल्क का मस्तिष्क विकसित नहीं हो पा रहा है। हो नहीं सकता। गरीब मुल्क में भी जो दो-चार-दस मस्तिष्क पैदा हो जाते हैं, आकस्मिक हैं। आकस्मिक, मतलब यह कि कई दूसरे कारणों पर। और यह मस्तिष्कों को अगर पूरा व्यवस्थित जन्म से ही हिसाब मिलता, तो ये कितना कर पाते और क्या कर पाते, इसका कोई हिसाब नहीं लगा सकते।
हमारा तो ऐसा है कि चालीस करोड़, पचास करोड़ लोग हैं, कितनी प्रतिभा हम पैदा कर पाते हैं, वह न के बराबर है। रूस बीस करोड़ का मुल्क है, पचास साल में कितनी प्रतिभा पैदा उसने की, जरा हम आंकड़ा तो देखें!
प्रश्न:
बेसिकली फूड है?
बेसिकली फूड है। कपड़े हैं। अब एक आदमी धूप में बैठा काम कर रहा है और एक आदमी एअरकंडीशन में बैठा काम कर रहा है, दोनों के काम में बुनियादी फर्क पड़ने वाला है। अब तुम कहो कि बाहर से कुछ नहीं होता, तो बेवकूफी की बातें कर रहे हो। सब-कुछ बाहर से हो रहा है। और बाहर अगर सब व्यवस्थित हो जाए, तो भीतर कुछ होता है।
तो मेरी दृष्टि, मुझे बड़ी तकलीफ हो गई, मेरी दृष्टि यह हो गई कि मैं यहां किसी से राजी नहीं हूं। वह जो बाहर वाला है, वह सिर्फ इसी की फिकर में पड़ा है कि यह हो जाए, वह हो जाए; उसको भीतर की कोई चिंता नहीं है। यह जो भीतर वाला है, यह भीतर की चिंता की इतनी बातचीत करता है कि बाहर की सब फिकर छोड़ देता है। और ये दोनों चीजें सम्मिलित और एक हैं। और दोनों जब बिलकुल बैलेंस में होती हैं, तब व्यक्ति की ठीक-ठीक स्थिति बनती है। और ये दोनों अनबैलेंस्ड हैं।
यह एटिट्यूड पहुंचाना लोगों तक इसलिए मुश्किल होता चला जा रहा है कि वह जो गरीब है, उसको इसमें उसकी प्रशंसा नहीं मिलती, जितना गांधी या रामकृष्ण उसको प्रशंसा देते हैं--कि तू तो दरिद्रनारायण है, तू तो भगवान का रूप है। मैं उसको कहता हूं, तू भगवान-वगवान का रूप नहीं है। दरिद्रता जो है बीमारी है। यह कोई नारायण-वारायण का सवाल नहीं है। यह रोग है। इससे छुटकारा पाना है।
तो मेरी बात से उसको उसका अहंकार तृप्त नहीं होता। गांधी कहते, तू तो भगवान का रूप है, तू तो दरिद्रनारायण है। तो उसको आदर मिलता है, सम्मान मिलता है। और उसके पास धन तो है नहीं, आदर पाने का वह तो रास्ता है नहीं। पद नहीं, प्रतिष्ठा नहीं। एक ही, गरीबी है कुल उसके पास। अगर गरीबी को आदर देते हो, तो उसको आदर मिलता है, नहीं तो खत्म हो गया। और मैं कहता हूं कि गरीबी बीमारी है। तो उसके अहंकार को चोट लगती है।
इधर अमीर को मैं कहता हूं कि तुम यह सब पैसा इकट्ठा करते जा रहे, इससे कुछ होने वाला नहीं है। तुम बिलकुल बेवकूफी की तरह से लगे हुए हो। पैसा जरूरी है, लेकिन अकेला पैसा काफी नहीं है। भीतर कुछ और चाहिए। तो उसको भी यह अच्छा नहीं लगता। उसको अच्छा लगता है कि कोई कहे कि तुमने बहुत महल बना लिया, तुमने बहुत अच्छा काम कर लिया, बस काफी है, पर्याप्त है। तुमने राज्य जीत लिया, तुम प्राइम मिनिस्टर हो गए, बहुत हो गया। उसको यह अच्छा नहीं लगता कि उसको यह कोई कहे कि नहीं, यह काफी नहीं है, असली चीज छूट गई है।
तो वह दोनों के साथ कठिनाई है। और वह दो ही हैं समाज में। इसलिए इस तरह की बात को पहुंचाना हमेशा कठिन रहा है।
प्रश्न:
तो लोगों ने ईजी मार्ग से...
हां, ईजी मार्ग हुआ उसी से, कौन झंझट में पड़ता है, किसकी झंझट में पड़ने की कूवत है। और मैं हर चीज में झंझट में पड़ गया हूं। सूत्र सीधे-सादे, उतना कह कर निपटारा हो जाता है। और मुझे किसी चीज में निपटारा नहीं होता, जब तक कि मैं पूरा आपको समझा न पाऊं। और समझाने के लिए मुझे पूरा ब्योरा देना पड़ता है, क्योंकि वह सारा ब्योरा जब तक खयाल में न आ जाए कि किस वजह से यह हो रहा है।
पूरे समाज का चित्त रोग-ग्रसित हो गया है।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं है।)
दो चीजें खयाल में लेना चाहिए। एक तो यह खयाल में लेना चाहिए कि हम धंधे की भी चिंता किसलिए कर रहे हैं, यह हमारे पास स्पष्ट होना चाहिए। इसीलिए कर रहे हैं न कि हम ज्यादा शांति और आनंद से रह सकें। लक्ष्य क्या है? काहे के लिए चिंता कर रहे हैं? कोई धंधे की चिंता धंधे के लिए कर रहे हैं? चिंता इसलिए कर रहे हैं कि मैं कैसे ज्यादा शांति और आनंद से रह सकूं। यह हमारा बेसिक मोटिव बिलकुल साफ होना चाहिए।
यह भूल जाता है रोज-रोज। यह हमें खयाल में नहीं रहता। अगर यह हमारे खयाल में है, तो उसका मतलब यह हुआ कि धंधे की चिंता उस सीमा तक करनी है जहां तक वह शांति और आनंद को नष्ट न करता हो। क्योंकि अगर वह शांति और आनंद को नष्ट करने वाला बन जाए, तो बेसिक मोटिव ही गड़बड़ में पड़ गया।
समझ लीजिए मैं बंबई आया, और बंबई मैं इसलिए आ रहा हूं कि बंबई पहुंच कर मेरा स्वास्थ्य ठीक हो जाए। और बंबई आने के रास्ते में मुझको जहर पीना पड़े। तो मैं कहूंगा, मैं नहीं जाता। क्योंकि मैं जा इसलिए रहा था कि बंबई पहुंच कर मैं स्वस्थ हो जाऊं। पर तुम कहते हो कि पहले तुम्हें जहर पीना पड़े, तब तुम बंबई पहुंचो। तो मैं वापस जाता हूं। कम से कम जिंदा तो हूं। मैं जहां था ठीक था। मैं इसके आगे नहीं बढ़ता अब।
अगर हमें बुनियादी दृष्टि साफ हो जीवन की कि हमें सुख और शांति और एक आनंद का जीवन उपलब्ध करना है। और उसके लिए हम धंधा भी कर रहे हैं, पैसा भी कमा रहे हैं। तो वह उसी सीमा तक, जहां तक कि हमारी बुनियादी इच्छा को चोट नहीं पहुंचती। जिस क्षण बुनियादी इच्छा को चोट पहुंचती है, हम वापस लौटने को हमेशा तैयार हैं। क्योंकि हम धंधे के लिए धंधा कर नहीं रहे हैं। यह अगर दृष्टि में हो, तो आप धंधे का काम करेंगे, विचार करेंगे, लेकिन चिंता नहीं। और विचार और चिंता में यही फर्क है।
समझ लीजिए कि आप एक उलझन में पड़ गए हैं, कि अगर यह काम करते हैं तो दस लाख का फायदा होता है, यह काम करते हैं तो पांच लाख का फायदा होता है; यह काम नहीं करते हैं तो इतने का नुकसान होता है। तो चिंता का क्या मतलब होता है? चिंता का मतलब यह होता है कि बिना कोई हल किए आप भागे चले जा रहे हैं मन ही मन में कि यह करूं कि वह करूं कि वह करूं, क्या करूं, क्या न करूं। इसमें यह हो जाएगा और उसमें वह हो जाएगा। यह तो चिंता हो गई।
विचार का मतलब यह होता है कि उठा लीजिए कागज, तीन विकल्प हैं, लिख डालिए कि यह एक विकल्प है, यह ऑल्टरनेटिव है, इसमें इतना लाभ होता है, इतनी परेशानी होती है। दूसरा विकल्प यह है, इसमें इतना लाभ होता है, इतनी परेशानी होती है। तीसरा विकल्प यह है, इतना लाभ होता है, इतनी परेशानी होती है। हमेशा राइट डाउन कर लीजिए। अगर चिंता से बचना है तो। जो-जो है साफ लिख लीजिए और तौल लीजिए कि इसमें कौन सा सर्वाधिक शांतिपूर्ण, सुविधापूर्ण, आनंदपूर्ण है। क्योंकि वह हमारा लक्ष्य है। फिर आपको नंबर दो का दिखाई पड़ता है, बस बाकी को पोंछ दीजिए और बात खत्म कर दीजिए। यह नंबर दो को कर डालिए। क्योंकि हम... और यह सब विचार करने का, इसमें कोई चिंता लेने का सवाल नहीं है। चिंता का क्या सवाल है? चिंता लेने का मतलब यह है कि आप शांति खोने का उपाय करने लगे।
प्रश्न:
समझो कि नंबर टू लिया था, उसमें अपनी बुद्धि रांग चली गई थी।
चली जाए। चली जाए।
प्रश्न:
उसमें कुछ मुश्किल ही आती है, उससे परेशानी होगी।
ठीक है। बिलकुल ठीक है। जब हमने चार नंबर चुन, देख लिए थे और काकूभाई ने उनको निर्णय किया। और उनके पास जितनी बुद्धि थी उससे समझ कर उन्होंने नंबर दो चुना। इससे ज्यादा बुद्धि काकूभाई के पास नहीं थी। जो चुना, वह हमारे पास इतनी बुद्धि थी। अब नंबर दो में हम गए और नुकसान हुआ। हमको जानना चाहिए कि मेरे पास इतनी बुद्धि थी, उससे मैंने चुना था, उसमें नुकसान हुआ। उससे ज्यादा बुद्धि मेरे पास है नहीं। इसमें चिंता का क्या सवाल है?
चिंता का सवाल इसलिए पैदा होता है कि काकूभाई हमेशा इस भ्रम में हैं कि मेरे पास ज्यादा बुद्धि थी, मैं और पहले थोड़ा सोचता और चिंता करता, तो मैं नंबर तीन चुन लेता। वह गलती है आपकी। हमारा अहंकार यह मानने को राजी नहीं होता कि हमारे पास सीमित बुद्धि है। और सबके पास सीमित बुद्धि है। चाहे कितनी ही बड़ी हो। हमारे पास सीमित बुद्धि है। और मैंने अपनी पूरी बुद्धि लगा दी थी। अब इसके बाद उपाय नहीं था। जो मैं कर सकता था, वह मैंने किया। नुकसान हुआ। ठीक है। इससे अन्यथा मैं कुछ कर ही नहीं सकता था; क्योंकि मेरे पास बुद्धि थी, वह इतनी थी। और यह मैंने किया, इतना नुकसान हुआ। ठीक है। अब आइंदा मैं देखूंगा कि नंबर दो जैसा गलत फिर दुबारा न चुनूं। बात खत्म हो गई है। क्योंकि अब पीछे लौटने का तो सवाल नहीं है। अब जो हो गया उसको तो अनकिया नहीं किया जा सकता। वह बात खत्म हो गई है।
लेकिन हम क्या करते हैं, अब हम पीछे बैठ कर सोचते हैं कि अगर हमने पहले वाला चुना होता तो बहुत अच्छा होता। अब बेवकूफी की बातें कर रहे हैं। हमने चौथा चुन लिया होता तो बहुत अच्छा होता, उसमें इतना लाभ हो जाता। यह तो झंझट हो गई। नुकसान हुआ।
एक बात हमें जानना चाहिए, जो हो गया वह हो गया। वह अब पत्थर की लकीर हो गई है। अब उसमें कुछ सेंस नहीं है इधर-उधर सोचने का।
प्रश्न:
उसे याद ही नहीं करना चाहिए।
कोई मतलब ही नहीं है न! इसको जानना कि कोई मतलब ही नहीं है अब उसमें। एक अनुभव हुआ जरूर हमें। अब हमें फिर से अपने चार विकल्प उठा कर देख लेना चाहिए, कि अब हमें अनुभव हुआ कि नंबर दो का विकल्प गलत था। नंबर दो को काट डालते हैं। अब तीन बचते हैं। अगर भविष्य में हमें सोचना है, तो अब तीन लाइन पर सोचना है, नंबर दो की लाइन गलत हो गई। और एक अनुभव कीमती हो गया कि नंबर दो की गलती अब नहीं करनी है। बात खत्म हो गई।
तो जीवन की हर भूल-चूक अनुभव बना लेनी चाहिए और मुक्त हो जाना चाहिए। और करिएगा क्या? और ऐसा जो आदमी करता है वह धीरे-धीरे, धीरे-धीरे, धीरे-धीरे ठीक की दिशा में सोचना शुरू कर देता है।
चिंता और विचार में यही फर्क है।
चिंतित आदमी कभी कुछ नहीं सोचता, सिर्फ कनफ्यूज्ड है, भाग-दौड़ करता रहता है।
प्रश्न:
विचारित आदमी कुछ प्रोग्रेस कर सकता है?
विचारित ही आदमी प्रोग्रेस करता है। चिंतित आदमी कैसे प्रोग्रेस करेगा? विचारित आदमी बहुत प्रोग्रेस करता है। तो बाहर के जगत में जो भी प्रोग्रेस है, वह सब विचार से होती है। और भीतर के जगत में...
प्रश्न:
समझो कि दो दिन वह विचार की लाइन में चल जाए, तो निर्विचार में उसकी विपरीतता है।
न, न, न। बिलकुल विपरीतता नहीं है। जैसे कि हम दिन भर जागते हैं, तो जितना आप दिन में जागेंगे तो रात नींद में कठिनाई थोड़े ही होगी, उतनी ही अच्छी नींद आएगी। लेकिन दोनों उलटे हैं। आप कहें कि हम दिन भर जागेंगे तो फिर रात में सोएंगे कैसे? क्योंकि जागना उलटा है; सोना उलटा है। एक आदमी कहे कि हम बहुत मेहनत कर लेंगे तो फिर हम विश्राम कैसे करेंगे? मेहनत उलटी है; विश्राम उलटा है। लेकिन हम जानते हैं कि जितनी मेहनत आप करेंगे, उतना ज्यादा विश्राम करेंगे। जितना जागेंगे, उतने गहरे सोएंगे। जितनी भूख लगेगी, उतना ज्यादा खाएंगे। तो उलटे का जो सवाल है न, पेंडुलम की घड़ी की तरह माइंड चलता है। अगर आप एक्सट्रीम इस कोने तक गए, फिर वहां से रिलैक्स हो जाइए, तो फट से दूसरे कोने पर एक्सट्रीम पर पहुंच जाएंगे।
तो विचार बाहर के जगत के लिए, और निर्विचार भीतर के जगत के लिए। जागना और सोने के तरह का संबंध है उनमें। वे विरोधी नहीं हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
तो जब आप... दिन भर ऑफिस में खूब विचार करिए; मैं नहीं कहता कि ऑफिस में आप ध्यान करिए; खूब विचार करिए। टाइम तय रखिए कि मैं ग्यारह बजे से लेकर पांच बजे तक विचार की दुनिया में रहूंगा। फिर एक सेकेंड के लिए भी वहां दूसरी चीज का सवाल नहीं। पूरा विचार करिए। और पूरी ताकत लगा कर करिए। इतनी जितनी ताकत आप में है, सब लगा दीजिए। पांच बजे तक विचार इतना श्रम कर लेगा कि वह खुद की कहेगा कि अब रिलैक्स हो जाएं।
घर आकर ऑफिस को बंद कर दीजिए फिर दिमाग को कि अब खत्म। अब निर्विचार की दुनिया में आए। अब हम बिस्तर पर लेट कर शांत और ध्यान में जाएंगे। खत्म हो गई वह बात। और वह खत्म हो जाएगी अगर आपने पूरी ताकत से किया तो। क्योंकि जितना हम कर सकते थे छह घंटे, पूरी ताकत लगा कर किया। अब माइंड खुद कहेगा कि अब रिलैक्स हो जाओ, अब बहुत हो गया। और फिर अब ठीक है, ऑफिस से घर आ गए, तो कल ग्यारह बजे तक बिलकुल विश्राम। फिर कल ग्यारह बजे दफ्तर जाते हैं, तो ध्यान को घर छोड़ जाइए, निर्विचार को। और इनमें विरोध नहीं है। और जितना यह कंपार्टमेंट साफ हो जाएगा, जिसको मैं कह रहा हूं कि दोनों विकसित होना चाहिए बाहर और भीतर, इस तरह विकसित होंगे। जब आप विचार की दुनिया में हैं, तो पूरा विचार करिए। जब निर्विचार की दुनिया में हैं, तो पूरे निर्विचार हो जाइए। और इन दोनों में बिलकुल टोटल, होल डूब जाइए। और ये विरोधी नहीं हैं।
प्रश्न:
और सोशियल लाइफ ट्रीटमेंट कितना?
हर चीज के लिए ध्यान उतना ही है... हमारे जीवन का लक्ष्य इतना है कि हम आनंद और शांति से जी सकें। तो हर चीज को उस क्राइटेरियन पर तौलते रहिए कि कितनी सोशल लाइफ, जिससे मेरे आनंद और शांति में बढ़ती होती हो, उतनी, उससे इंच भर ज्यादा नहीं। इंच भर ज्यादा, वह वापस लौट आइए।
सोशल लाइफ का उपयोग है। अकेले नहीं हैं आप। जिंदगी बड़ी है। और बहुत अच्छे लोग हैं जिंदगी में। बहुत से संबंध हैं, उनका उपयोग है, उतना संबंध बांटिए। लेकिन वह बोझ हो जाए कि हमको जाना-आना ही मुश्किल है, अब लेकिन चूंकि सोशल लाइफ है इसलिए जा रहे हैं और उदास वहां बैठे हैं, और सिर ठोक रहे हैं कि कहां फंस गए। सिनेमा नहीं जाना है, लेकिन पत्नी कहती है कि चलो; तो अब उसके साथ बैठे हैं और वहां गाली दे रहे हैं मन ही मन में कि यह कहां लिवा लाई। नहीं, इसमें कोई सेंस नहीं रहा।
तो वह तो हमेशा क्राइटेरियन साफ होना चाहिए, कि मुझे यह-यह है, उतने दूर तक मैं हमेशा तैयार हूं चलने को। अपने मित्रों को, पत्नी को, बच्चों को, सबको कह रखना चाहिए कि मेरा क्राइटेरियन यह है। मैं इतने दूर तक तैयार हूं। उसके आगे खींचोगे तुम, वह मेरे दुख का कारण है। उसके आगे जाने को मैं तैयार नहीं हूं। इतना साफ होना चाहिए। और अपनी सफाई के साथ जीना चाहिए। अगर बिलकुल साफ हो, तो आप धीरे-धीरे-धीरे पाएंगे कि इतना सुख है जीवन में कि जिसका कोई हिसाब नहीं है।
लेकिन हम सब कनफ्यूज किए हुए हैं। और सब क्लम्जि कर लिया है। सब घोलमेल हो गया है। हमें कुछ पता नहीं कि कहां तक जाना है सोशल लाइफ में। चले गए तो बिलकुल चले गए, नहीं गए तो बिलकुल नहीं गए। दोनों हालत में नुकसान होता है। और तब क्या होता है? एक अजीब स्थिति पैदा होती है। बहुत सोशल लाइफ में चले गए, तो दुख होना शुरू होता है। तो फिर बिलकुल सोशल लाइफ छोड़ दी, तो दुख होना शुरू होता है। तो फिर कूद पड़े।
तो ऐसा एक, एक आदमी सिगरेट पीता है, किसी ने कहा, बिलकुल छोड़ देनी चाहिए, तो बिलकुल छोड़ दी। तो तकलीफ हुई। तो फिर कूद पड़े, तो बहुत ज्यादा पी गए। उससे तकलीफ हुई। तो फिर किसी ने समझाया कि सिगरेट पीने से बहुत तकलीफ होगी। फिर बिलकुल छोड़ दी। अब बड़े उपद्रव में पड़ गए।
हमेशा उसे देखना चाहिए कि अगर मुझे सिगरेट पीने से सुख मिलता है, तो कितनी दूर तक, बस उतनी दूर तक ठीक। फिर दुनिया की बात-वात सुनने की जरूरत नहीं है। और मुझे कितनी दूर से दुख मिलना शुरू होता है, तो उतनी दूर तक ठीक, उतनी दूर से मुझे लौट आना चाहिए। ऐसा प्रत्येक चीज के साथ स्पष्ट निर्णय लेने से आदमी साल-छह महीने में बहुत साफ हो जाएगा। और साफ जिंदगी हो तो उतना ही साफ दिखाई पड़ने लगता है उतनी दूर तक।
मगर ये सब शिक्षक और गुरु और ये सब व्यवस्थित होने नहीं देते आदमी को। वे सब खींचते हैं एक-एक दिशा में उसको। और आदमी को सब दिशाओं के बीच जीना है। और सब दिशाओं के बीच एक सिंथेसिस पैदा करनी है।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं है।)
और ध्यान इस पर ही रखा कि विचार नहीं करना है, तो अंततः ध्यान विचार पर ही है, और विचार जारी रहेगा। जरूरत इस बात की है कि विचार के जो केंद्र हैं वहां से ध्यान हट जाए, उसका फोकस हट जाए, फोकस दूसरी चीज पर चला जाए।
तो हमारे व्यक्तित्व में फोकस हमारा धीरे-धीरे विचार पर ही केंद्रित हो जाता है जीवन भर का, और कहीं हटता ही नहीं। जैसे कि एक टॉर्च जला रहे हैं हम और उसमें हमको यह दिखाई पड़ गई खिड़की; टॉर्च हमने दूसरी तरफ घुमा ली, खिड़की दिखाई पड़नी बंद हो गई, दरवाजा दिखाई पड़ने लगा। तो ध्यान जो है, अगर ठीक से समझें, तो चेतना का फोकस है। उसको विचार की तरफ लगाए हुए हैं। और चूंकि बचपन से ही हमारा ध्यान विचार की तरफ लगा दिया जाता है, तो फोकस धीरे-धीरे फिक्स्ड हो जाता है। पढ़ना-लिखना, स्कूल-कॉलेज, फिर धंधा, दुकान, पत्नी, घर-बार, वह पूरे वक्त एक ही केंद्र धीरे-धीरे फोकस हो जाता है।
तो जो टॉर्च मूवेबल थी, कि घूम सकती थी कहीं भी, वह धीरे-धीरे स्थिर हो गई। तो फिर, उसे हटाना हो, तो उसको वहीं लगा कर नहीं हटा सकते। उस फोकस को दूसरी तरफ ले जाइए। जैसे चल रहे हैं तेजी से, तो सारा ध्यान चलने पर ले जाइए। जो शरीर के मूवमेंट हो रहे हैं, गति हो रही है, पैर चल रहे हैं, हाथ हिल रहे हैं, श्र्वास चल रही है, इस पर सारा ध्यान ले जाइए। एकदम से फोकस माइंड से शरीर पर चला जाएगा और विचार बंद हो जाएंगे। फोकस कहीं बदलना चाहिए और विचार बंद हो जाएंगे। फोकस कहीं बदलना चाहिए।
प्रश्न:
समंदर के तट पर ऐसा देख कर सनसेट अच्छा लगता है।
वह अच्छा लगेगा, लेकिन माइंड से यह फोकस जाए। क्योंकि समंदर को भी देखोगे तो तुम सोचोगे कि अहाऽऽ कितना...!
प्रश्न:
कितनी लहरें हैं! कितनी लहरें होती हैं...!
यह चलेगा। यह चलेगा।
प्रश्न:
विचार तो चलते ही आएंगे, चल रहे हैं ये सब, भोजन करते वक्त भोजन कर रहा हूं, विचार रहा हूं कि भोजन कर रहा हूं।
यह अगर इसको सोचा कि मैं भोजन कर रहा हूं, तो विचार है। नहीं, भोजन करने की जो क्रिया चल रही है, सारा फोकस उस पर। भोजन करने की क्रिया है। जैसे मेरा यह हाथ है, यह मैंने उठाया, अब इसमें दो बातें हुईं: या तो मैं सोचूं कि हाथ उठ रहा है, तो हाथ के एक तरफ रहा मेरा फोकस, फिर हाथ उठ रहा है इस विचार चल रहा। विचार का सवाल नहीं है। यह हाथ उठ रहा है, इसका जो मूवमेंट हो रहा है, सारा ध्यान इस मूवमेंट पर है। इसको मैं विचार नहीं रहा कि हाथ उठ रहा है, हाथ उठने का जो मूवमेंट चल रहा मेरे भीतर, सारा ध्यान मेरा उस पर है। और तब आप देखें एक हाथ को उठा कर, और दोनों का फर्क खयाल में ले लें। फर्क बारीक है। आप उसको सोचें मत की हाथ उठ रहा है, हाथ उठ रहा है इसको अनुभव करें। और तब विचार नहीं बनेगा, तब सारा फोकस हाथ के उठने पर चला जाएगा।
तो जब मैं कहता हूं कि चल रहे हैं आप, तो ऐसा आपको सोचना नहीं है कि मैं चल रहा हूं; क्योंकि आपने अगर यह सोचा, तो फोकस तो यहां हो गया, चलना तो दूर रह गया। चलने की जो गति हो रही है, वह जो गति की क्रिया हो रही पूरी की पूरी, उस पूरी क्रिया पर फोकस हो, सोचना-वोचना नहीं है, तब फोकस हटेगा वहां से। समुद्र पर भी हट सकता है, लेकिन सोचें मत। इसलिए कठिन है क्योंकि समुद्र पर सोचने की आदत है हमारी। कि यह समुद्र है, लहरें उठ रही हैं, बड़ा अच्छा है, बड़ा सुंदर है। यह हमारी खराबी क्या हो गई कि हमारी जो सारी ट्रेनिंग है बचपन से, वह प्रत्येक चीज को विचार में परिवर्तित करने की है। फूल दिखा, फौरन मन कहेगा, गुलाब का फूल है, बड़ा अच्छा है।
बचपन से हमारा सारा जो प्रशिक्षण है हमारे जीवन का, वह वस्तुओं को शब्द में परिवर्तित करने का है। और उस वजह से बड़े विचार में हम पड़े हैं। और वह हमारी इतनी पक्की आदत हो गई कि हमने देखा नहीं कि हमने उसको शब्द में बनाया नहीं।
अब दूसरी क्रिया सीखनी जरूरी है कि हम चीजों को देख सकें, क्रियाओं को देख सकें और शब्द में रूपांतरित न होने दें। तो जितनी दूर की चीज होगी, उतनी मुश्किल पड़ेगी। जितनी निकट की होगी, और आपके शरीर के भीतर होगी, उतनी आसान पड़ेगी।
इसलिए बुद्ध ने श्र्वास पर सारा जोर दिया। क्योंकि निकटतम जो हमारे प्राणों के है वह श्र्वास है।
प्रश्न:
तो उसी को देख कर ध्यान करें?
श्र्वास को ही ध्यान करें। श्र्वास नीचे गई, ऊपर गई। यह मैं कह रहा हूं समझाने के लिए। उसका ऊपर जाना, नीचे जाना! ऊपर गई, नीचे गई, यह तो विचार हो गया। जाना-आना उसकी क्रिया है, उस क्रिया पर सारा फोकस। तो थोड़ी देर में आप पाएंगे कि निर्विचार हो गए। क्योंकि माइंड एक साथ दो काम नहीं कर सकता। फोकस एक ही साथ दो जगह नहीं हो सकता।
और इसलिए यह होता है कि अभी एक आदमी आए और एक छुरा लेकर छाती पर खड़ा हो जाए, आपका विचार एकदम बंद हो जाएगा; क्योंकि सारा फोकस छुरे पर हो जाएगा। एक सेकेंड बाद आपको खयाल आएगा कि बचने के लिए क्या करूं। लेकिन एक सेकेंड के लिए सारी कांशसनेस टूट जाएगी पुराने सिलसिले से, क्योंकि इतना बड़ा आघात है सामने कि एकदम से पैटर्न जो है बंधा हुआ टूट जाएगा और आप चौंक कर खड़े हो जाएंगे।
आप कार चला रहे हैं, और एकदम से एक बच्चा सामने आ गया, और आप एकदम से ब्रेक मारते हैं, एक सेकेंड के लिए फोकस टूट जाएगा विचार का बिलकुल, फोकस में कार रह जाएगी, बच्चा रह जाएगा। और यह भी खयाल नहीं रह जाएगा कि बच्चा आया और मर जाएगा, यह भी नहीं। यह भी पीछे, ऑफ्टर इफेक्ट होगा। पीछे खयाल आएगा कि मर जाता बच्चा, यह हो जाता। लेकिन उस सेकेंड में सिर्फ मूवमेंट रह जाएगा। और अगर आपने सोचा, तो बच्चा मरा। अगर सिर्फ मूवमेंट नहीं रहा, तो बच्चा मर जाने वाला है। क्योंकि उतनी देर में तो फिर ब्रेक नहीं लगाया जा सकता। सोचने में जितना समय गिर जाएगा, वह गया।
और इसलिए जब भी आपको कार या ऐसी जगह एक्सीडेंट की हालत में जब आप हों, बाद में आप वह खयाल करेंगे तो आप पाएंगे कि सारी चोट आपकी नाभि पर पहुंचेगी। एकदम से आपने ब्रेक लगाया और गाड़ी रुकी, तो आप पाएंगे, आपकी बॉडी में जो जगह सबसे ज्यादा प्रवाहित हुई वह नाभि हुई। और वह इसलिए होगी कि सारा फोकस नाभि पर चला जाएगा एकदम। क्योंकि जीवन की जितनी क्रियाओं का संबंध है उनका नाभि से संबंध है। और विचार की जितनी क्रियाओं का संबंध है उनका मस्तिष्क से संबंध है।
इसलिए जापान में उन्होंने नाभि के उठने-गिरने पर कनसनट्रेशन को बनाने के लिए कहा कि फोकस नाभि पर ले जाओ। इधर साधना-पथ में मैंने कहा कि फोकस नाभि पर ले जाओ।
प्रश्न:
तो जो झेन लोग हैं...
वे सिर्फ नाभि पर, वे कहते हैं, कुछ और करने की जरूरत नहीं, बस नाभि पर ध्यान चला गया तो सब ठीक हो जाएगा। क्योंकि नाभि जो है, वह बॉडी का जितना मूवमेंट हो रहा है, उस सबका सेंटर है। और स्वाभाविक, मां के पेट में सबसे पहले पैदा होने वाली चीज वह है। और मां के शरीर से जुड़ी हुई चीज वह है। मां के शरीर से सारी गति, सारी फोर्सेस नाभि से ही फैलती है। तो नाभि हमारा सेंटर है बॉडी का।
माइंड एक नया सेंटर बना लिया है इधर। पशु-पक्षियों में वह नहीं है, वे सिर्फ नाभि से जी रहे हैं। इसलिए उनका मूवमेंट एकदम प्योर, स्पांटेनियस है।
एक बिल्ली बैठी है चूहे को पकड़ने को, सोच-वोच नहीं रही कि चूहा आएगा तो पकड़ लूंगी, चूहा आया और पकड़ा। यह विचार नहीं है उसका, प्योर मूवमेंट है। बस बैठी है, वह सोच नहीं रही कि चूहा निकलेगा तो अपन पकड़ लेंगे। सोचने-वोचने का सवाल नहीं है। नाभि पर सब-कुछ गति हो रही है। बैठी है बस। तैयार है बिलकुल। चूहा आया, वह यह नहीं सोचेगी कि चूहा आया अब मैं पकडूं, यह इतनी फुर्सत नहीं है, चूहा आया कि पकड़ना हुआ।
जापान में एक बहुत प्रसिद्ध कहानी है, झेन फकीर कहते हैं। शायद कभी मैं कहा। एक घर में एक बहुत बड़ा सिपाही था, तलवारबाज था बहुत बड़ा। और वहां बड़ा आदर है सिपाही और तलवारबाज का। वह इतना बहादुर योद्धा था कि उसने सब विजय कर लिया, बड़े-बड़े उसने ड्यूअल लड़े, और आखिर में वह जापान का सबसे बड़ा तलवार चलाने वाला हो गया। वह राजधानी से सम्मानित होकर लौटा।
जिस कमरे में वह सोया, उसने देखा कि एक चूहा दौड़ रहा है, उसकी नींद में बाधा डाल रहा है। तो वह गुस्से में उठा, तो वह चूहा अपने बिल में हो जाए। तो उसका क्रोध बढ़ता ही चला गया। वह कोई साधारण आदमी नहीं था। उसने तलवार निकाल ली। जरा सा चूहा और मुझे यानी चिढ़ा रहा है। क्योंकि जब वह लेट जाए, तो वह चूहा बाहर मुंह निकले। और वह तो आदमी वह था कि जरा-से से चिढ़ जाए और तलवार से जूझ पड़े। इतना सा चूहा और मुझे इतना सता रहा है। तो उसने तलवार खींच ली। जिन तलवारों से वह योद्धाओं से लड़ा था उससे वह चूहे से लड़ने की कोशिश करने लगा। अब वह चूहा तो मूवमेंट से चलता है, वह तलवार देखे, तो वह अंदर हो जाए। तो वह छिपा खड़ा रहा। जब वह चूहा बाहर निकला, तो उसने जोर से तलवार मारी, तलवार फर्श पर जाकर लगी, चूहा तो अंदर हो गया, तलवार के चार टुकड़े हो गए।
अब तो उसके क्रोध का ठिकाना नहीं रहा कि यह तो हद हो गई। यानी वह कभी वार नहीं चूका था, किसी आदमी पर उसका वार यानी आखिरी वार था, और एक चूहा! उसको तो, पागल हो गया वह बिलकुल। और भागा निकल कर बाहर और अपने मित्रों से कहा कि हद हो गई, मेरी तलवार जो...!
तो मित्रों ने कहा: तुम बिलकुल पागल हो, तुम भी चूहे से लड़ने लगे। चूहे की तो एक-एक गति स्पांटेनियस है। वह कोई सोचता थोड़े ही कि तुमने तलवार चलाई इसलिए बच जाओ। और दूसरा आदमी जो तुम्हारे सामने लड़ता था अपनी तलवार और ढाल लेकर, वह सोचता था कि तुमने तलवार चलाई तो बचूं। जितनी देर में सोचता था उतनी देर में तुम्हारी तलवार घुस जाती थी भीतर।
चूहा सोचता थोड़े ही, वह तो गति करता है। तलवार, यानी अंदर। वह सोचेगा थोड़े ही कि तलवार आ रही है। तो वह जो फासला है, जो डिस्टेंस है, वह डिस्टेंस नहीं है--तुम तलवार से चूहे को नहीं मार सकते। तुमको चूहा मारना है तो बिल्ली लाओ। आदमी चूहा नहीं मार सकता। बहुत मुश्किल मामला है उसका मारना। क्योंकि वह जब तक सोचेगा, वार करेगा, तब तक वह तो मूव कर जाएगा। उसकी गति तो उधर सोच-विचार के लिए तो कंपन ही नहीं, कंपन सीधे हैं, और इमिजिएट हैं। तुमने गलती की, व्यर्थ तलवार तोड़ ली। तुम सिर्फ एक बिल्ली ले आते, वह फौरन उसे खत्म कर देती।
तो कल वह एक बिल्ली को पकड़ कर लाया। गांव में जो सबसे अच्छी बिल्ली मजबूत थी, जिसने बड़े-बड़े चूहे मारे थे, उसको पकड़ लाया। बिल्ली को लाया गया। और उसको जबर्दस्ती बांध कर लाया गया, उसके गले में सांकल डाल कर। वह बिल्ली ऐसे डरे पहले से ही। उसको जब सांकल से बांध कर लाए, तो वह घबड़ाई की मामला क्या है? और जब जबर्दस्ती उसको अंदर करके दरवाजा बंद कर दिया, जब दरवाजा खुला तो बिल्ली एकदम बाहर भाग गई। चूहा-वूहा तो उसने मारा नहीं था।
तो वह बड़ा हैरान हुआ! तब तो यह शक हुआ कि चूहा कुछ मिरैकुलस है। तलवार भी तोड़ दी उसने और बिल्ली को भगा दिया! और बिल्ली कुछ भी न कर पाई। जब वह अंदर आया तो वह चूहा झांक रहा था उसमें से, वह देख रहा है। तब तो यह हुआ कि यह चूहा साधारण नहीं है। और वह बहुत घबड़ा गया। और उसने मित्रों को कहा, तो उन्होंने कहा कि भई, अगर ऐसा है, तो राजा के पास एक मास्टर कैट है। वह बिल्ली तो श्रेष्ठतम है मुल्क की। वह तो राजा के महल की बिल्ली है, उसने बड़े-बड़े चूहे मारे हैं। और राजा ने उसको पाला है। इसलिए मास्टर कैट लानी पड़ेगी। यह साधारण चूहा नहीं है। साधारण बिल्ली के बस का नहीं है। बिल्ली भाग कर निकल गई। और बिल्ली बेचारी कुल इसलिए भाग कर निकल गई कि उसे चूंकि बांध कर लाया गया, वह घबड़ा गई कि मामला क्या है अंदर? उसको तो समझ में नहीं आया कि चूहा है अंदर। वह तो सिर्फ घबड़ा गई। वह जब उसको बंद कर दिया, तो और डर गई। दरवाजा खुलते से ही वह निकल कर बाहर भागी, और ये सब समझे कि चूहे ने उसको डरवा दिया।
तो वे राजा के पास गए और कहा कि हम बड़ी मुश्किल में पड़ गए हैं। बिल्ली लाए थे तो बिल्ली भाग गई, और चूहा बड़ा अजीब है। और अपना जो बड़ा योद्धा है उसकी तलवार तोड़ दी चूहे ने। और योद्धा रात भर सो नहीं सका। और उसका दिमाग बिलकुल खराब हो गया। वह कहता है, चूहे को मार कर रहूंगा। मेरी तलवार तोड़ दी! मैंने बड़े-बड़े योद्धा जीते!
तो राजा ने कहा कि, राजा समझा, उसने कहा: मास्टर कैट मेरे पास है। लेकिन बांध कर मत ले जाना, एक बात। और कमरे के भीतर मत छोड़ना, घर के बाहर छोड़ना। तो बातें शर्त हैं। यह बिल्ली ऐसी है कोई कैसा ही चमत्कारी चूहा हो, उसको खत्म कर देगी। लेकिन दो शर्तें हैं। एक तो बांध कर नहीं ले जा सकोगे, और घर के बाहर छोड़ना, कमरे के अंदर नहीं।
उस बिल्ली को लाए और घर के बाहर छोड़ दी, वह घर के बाहर घूमती रही, फिर अंदर आई, फिर उस कमरे में गई, और एक दो सेकेंड में चूहे को लेकर बाहर आ गई।
बड़ी प्रशंसा हुई उस बिल्ली की। और राजा से पूछा उस योद्धा ने कि यह मास्टर कैट दिखती तो साधारण, इसमें मास्टर कैट वगैरह कुछ भी नहीं पाया।
बिल्ली तो मीलों से पता लगा लेगी कि चूहा कहां है। तुमको उसे वहां छोड़ने की जरूरत नहीं है। वह तो सुराग खोज लेगी कि वह कहां है। बिल्ली का पूरा बीइंग चूहे की खोज में है। वह थोड़े ही उसको बिल के पास छोड़ने की जरूरत है। उसकी पूरी आत्मा चूहे की खोज कर रही है। वह कोई सोच-विचार थोड़े ही कर रही है। बिल्ली के होने का मतलब चूहे की खोज। वह जो कहा न, उसका होना ही चूहे की खोज है। यदि तुम उसको बिल के पास छोड़ दो तो वह घबड़ा जाएगी। और डर भी सकती है। और चिंतित भी हो सकती है कि ऐसा कैसा चूहा है कि उसके पास लाकर छोड़ा। उसको बाहर छोड़ दिया मकान के। वह थोड़ी देर घर के भीतर आई। जगह-जगह उसने सूंघी, और वह पहुंच गई बिल के पास।
फिर कहानी और आगे यह कहती है कि फिर गांव भर की बिल्लियां इकट्ठी हुईं उस बिल्ली से पूछने को कि हम तो डर गए थे और हमारी बिल्ली भाग आई थी। तुमने कैसे मारा?
उसने कहा: इसमें बात ही क्या है, मैं बिल्ली हूं, वह चूहा है। इसमें कैसे मारा, यह सवाल नहीं है, मैं बिल्ली हूं, वह चूहा है। वह मर लेता है, मैं मार देती हूं। और इन दोनों का बीइंग है। इसमें कोई सोच-विचार थोड़े ही है कि मैंने उसको कैसे मारा, क्या तरकीब लगाई। वह योद्धा इसीलिए तो हार गया, उस बिल्ली ने कहा, कि वह सोच-सोच कर हमले करने लगा। वह बिल्ली इसीलिए तो भाग गई कि वह विचार में पड़ गई कि मामला क्या है। मैं तो बिल्ली हूं, वह चूहा है। वह निकला और मैंने उसको पकड़ा।
अब इन दोनों के बीच में विचार नहीं है। इन दोनों के बीच में कहीं कोई...। विचार का जितना फासला है, उतने ही हम दूर होते चले जाते हैं। और निर्विचार में जब कोई आदमी जीने लगता है, तो समस्याएं भी उसके लिए इसी तरह हो जाती हैं जैसे बिल्ली और चूहा। समस्या सामने आई और उसने मारी। उसमें सोच-विचार नहीं है कि वह उस पर सोचता है, कि आपने एक समस्या उसके सामने रखी तब वह सोचने लगा। सोचने लगा तो बात गई। समस्या उसके सामने आई, तो जैसे उस बिल्ली ने कहा कि मैं बिल्ली हूं, और बिल्ली के होने का मतलब यह है कि चूहे की खोज है, चूहे को पकड़ लेना है।
निर्विचार चेतना चेतना है और चेतना का मतलब है कि समस्या को पकड़ना और हल कर लेना। सोच-विचार का सवाल नहीं है।
प्रश्न:
तो यह निर्विचार में कोई शक्ति पैदा हो जाती है?
निर्विचार परिपूर्ण शक्ति है। वह समस्या सामने आई कि वह पकड़ी गई और वह टूटी। उसके टूटने में उसे कुछ करना नहीं पड़ता। यह इतना ही ऑटोमैटिक है जैसे बिल्ली ने चूहे को देखा और चूहा गया।
तो वह जो हमारा सारा फोकस धीरे-धीरे एक ही बात, हमारा पूरा व्यक्तित्व एक ही काम, उस वक्त तो कोई भी तीव्र गति पर, और वह शरीर की हो उतने ही फायदे की है। जोर से चल रहे हैं, और धीरे मत चलें, क्योंकि धीरे आप चलेंगे तो फोकस आप नहीं ले जा सकते हैं। तेजी से चल रहे हैं। इतनी तेजी से चल रहे हैं कि सारा व्यक्तित्व चलने में परिवर्तित हो गया है। चल रहे हैं सिर्फ। और अब सारे फोकस को इस चलने पर ले जाएं, यह मत सोचिए कि मैं चल रहा हूं, यह जो चलने की क्रिया हो रही है यह क्या है, बस माइंड इस पर ही लगा रहे। तो आप थोड़ी देर में पाएंगे, जयंतीभाई नहीं हैं यहां पर, बस एक चीज चल रही है, तेजी से मूवमेंट हो रहा है। और वह मूवमेंट ही थोड़ी देर में रह जाएगा जब फोकस में है, तो एकदम मन, एकदम शांत हो जाएगा। और वह जो शांति होगी वह बहुत और ही तरह की शांति है। वह आपकी चेष्टा से नहीं आई है, वह सहज आ गई है। इस तरफ से मन हट गया, उधर आ गई है। मगर अधिक लोग वह उसी दिक्कत में पड़ जाते हैं।
प्रश्न:
बस यह मन हटने वाली बात की वजह से, वह विचार वाली बात खड़ी हो जाती है, सबसे बड़ी बात यहीं आकर अटकती है।
हां।
प्रश्न:
भगवान, माइंड हम लोगों ने डवलप किया है?
बिलकुल डवलप किया है।
प्रश्न:
अच्छा। यह नाभि, असल जो सेंटर वहां है। लेकिन माइंड हम लोगों ने डवलप किया अपने आप?
माइंड जो है बिलकुल ह्यूमन अन्वेषण है। और इसलिए साइड ट्रैक हो गया हमारा व्यक्तित्व। मेरी अपनी समझ यह है कि पशु-पक्षी सभी हमसे ज्यादा आनंद में हैं। आदमी कुछ केंद्र से च्युत हो गया। तो जहां से उसका जीवन गतिमान हो रहा है वहां उसका सेंटर नहीं रहा। उसने एक नया सेंटर विकसित कर लिया है। जो बिलकुल ही उस जीवन के केंद्र से बहुत दूर है। उसकी जरूरत थी, उस सेंटर की जरूरत थी--जैसे हमारे हाथ-पैर की जरूरत है। और कुछ खास वजह से वह विकसित हुआ। लेकिन धीरे-धीरे हमारा पूरा प्राण ही वहां केंद्रित हो गया, वह गलती हो गई।
मस्तिष्क की जरूरत है, विचार की जरूरत है। लेकिन जरूरत वैसी है जैसे कि मेरे पैर की जरूरत है। जब मुझे चलना होता है तो पैर चलते हैं, जब नहीं चलना होता है तो पैर चुप हो जाते हैं। एक आदमी ऐसा हो कि बैठा हो और पैर चलाता रहे और वह कहे कि मेरी तो चलने की आदत पड़ गई है, तो हम कहेंगे, इसका दिमाग खराब हो गया। इसका पूरा प्राण पैरों में केंद्रित हो गया आकर। अब पैर चलने का काम नहीं करते--अब यह चलने के सिवाय कुछ करता ही नहीं, बैठा है तो भी टांग चला रहा है। माइंड के साथ ऐसी भूल हो गई है।
माइंड--जब आपके सामने एक समस्या हो, तो काम करना चाहिए। जब समस्या न हो, तो जैसे पैर, नहीं चलने की जरूरत, तो बंद पड़े हैं, ऐसा माइंड बंद हो जाना चाहिए। सेंटर हमेशा वापस नाभि पर चला जाना चाहिए। आए, माइंड पर काम करे, फिर वापस लौट जाए। उतनी देर में माइंड फिर ताजा हो जाए, फिर तैयार हो जाए। और जब फिर जरूरत पड़े, तो फिर उपस्थित, दौड़े और माइंड को फिर भर दे, और फिर आप देख लें, फिर वापस लौट जाएं।
जैसे आपने एक प्रश्न किया, तो मैंने आपसे बात की, आपका प्रश्न खत्म हुआ, मैं वापस लौट गया। इस कमरे के आप बाहर गए, मैं वापस लौट गया, माइंड का काम खत्म, कोई जरूरत न रही। लेकिन हमारा माइंड रुग्ण हो गया है। जरूरत-गैर-जरूरत वह चले चला जा रहा है। कोई नहीं है, कोई समस्या नहीं है, कोई प्रश्न नहीं है और वह चल रहा है, चल रहा है, चल रहा है। तब परिणाम यह होता है कि जब समस्या आएगी, तब वह इतना थका हुआ रहेगा कि उसको पकड़ भी नहीं पाएगा, उसकी शक्ति इतनी खोई हुई रहेगी... अब जैसे एक आदमी चौबीस घंटे पैर चला रहा है, और अब चलने का वक्त आ गया, तो वह कहता है कि मेरे तो पैर दुख रहे हैं, मुझसे तो चला नहीं जाता, क्योंकि मैं तो काफी चल चुका हूं। और बैठा है और पैर चला रहा है। तो जब भागने का वक्त आ जाए, तो वह गिर पड़ेगा। और जब बैठने का वक्त था, तब वह बेवकूफ पैर चला रहा था!
माइंड की हमने हालत आदमी ने ऐसी कर ली कि जब उसकी जरूरत नहीं तब आप चला रहे हैं। और जब जरूरत आती तो तब आप पाते हैं कि अब कुछ समझ में नहीं आ रहा कि अब क्या करें क्या न करें!
हर वक्त वापस लौट जानी चाहिए एनर्जी। सेंटर पर वापस हो जानी चाहिए। जब जरूरत होगी तब फिर पुकार ली जाएगी। जैसे कि आपको रुपये की जरूरत होती है तो आप खीसे से निकालते हैं बाहर, ऐसा हाथ में लिए उछालते हुए नहीं फिरते, फिर वापस रख देते हैं खीसे में। एक आदमी ऐसे रुपये उछालते हुए चलने लगे--हम ऐसे चल रहे हैं। माइंड, माइंड--बस वहीं उबल रहा है सब-कुछ।
और वह बचपन से ही हम दूसरे केंद्रों को विकसित नहीं करते, उससे तकलीफ हो जाती है। बच्चे के बस एक ही केंद्र पर जोर है। स्कूल की शिक्षा एक ही केंद्र की है। पैदा नहीं हुआ बच्चा कि एक ही बात की चेष्टा है। हम इसको... यानी इतने ऑल्टरनेटिव हैं आदमी में। जैसे कि एक घर में एक आदमी रहता हो और बचपन से एक ही दरवाजे से निकलने की उसे ट्रेनिंग दी गई हो, उसे पता ही न हो कि और दरवाजे भी हैं, और जब भी निकलने का सवाल हो बस उसी से। वैसा हमारे व्यक्तित्व में और भी केंद्र हैं, और उनसे निकलने की हमें कोई आदत नहीं है, बस एक ही केंद्र से हमें निकलने की और जुड़ने की आदत है। और वह बहुत कृत्रिम केंद्र है।
उसकी जरूरत है, और बहुत जरूरत है, लेकिन वह जितना कम चले उतना ज्यादा उपयोगी है। उस जाल में हम पड़ गए हैं, वह जो, वह मामला ऐसा हो गया जैसे कि एक आदमी के दोनों हाथ ही काम करें और सारे व्यक्तित्व की शक्ति धीरे-धीरे, धीरे-धीरे, धीरे-धीरे दोनों हाथों में ही केंद्रित हो जाए, वह दो हाथ ही रह जाए आदमी, और हाथ के अलावा वह कोई काम न कर सके, और सारा व्यक्तित्व सिकुड़ कर छोटा हो जाए और हाथ बड़े-बड़े लंबे हो जाएं, तो वह जो आदमी जैसा बेढंगा हो जाएगा, वैसे हम हो गए हैं।
माइंड का एक यंत्र एकदम विकसित हो गया है, टू मच फंक्शनिंग है वहां। और बाकी सब केंद्र...। पर इसके व्यापक परिणाम हुए हैं। इसके व्यापक परिणाम होने ही थे। सबसे व्यापक परिणाम यह हुआ है... कि सब चीजों को हम शब्द में परिवर्तित कर लेते हैं। उससे जीवन की जरूरी चीजों को भी हमने शब्द में परिवर्तित कर लिया है।
जैसे कि एक आदमी भोजन कर रहा है, तो भोजन करने से मस्तिष्क का कोई लेना-देना नहीं है। भोजन करने का पूरा यंत्र दूसरा है। मस्तिष्क से कोई भी लेना-देना नहीं है, सिवाय इसके कि मस्तिष्क आपको खबर देता है कि भूख लगी है। मस्तिष्क से, आप उठ कर चौके तक जाते हैं, या खाना इकट्ठा करते हैं, बस इससे ज्यादा जरूरी काम नहीं है। जरूरी काम मुंह का है, जीभ का है, लार का है, गले का है, पेट का है, आमाशय का है, इस सबका है भोजन का जरूरी काम। लेकिन हमने भोजन--हमारी चूंकि आदत बन गई हर चीज को विचार में बदलने की, हमने भोजन को भी विचार में बदल लिया।
जब आप बैठे हैं तब आप भोजन के बाबत सोच रहे हैं कि क्या खाना चाहिए, खाएंगे तो कितना आनंद आएगा, ये सब शब्द हैं। और जब आप खाना खाने बैठे हैं, तब आपको खाने को कितनी तल्लीनता से खाने की क्रिया करनी चाहिए, उसका कोई सवाल नहीं है। तब आपका मस्तिष्क दूसरे धंधे कर रहा है। तब उस खाने को पूरा आप खा नहीं पा रहे, कितना चबाना चाहिए उतना चबा नहीं पा रहे।
जो आदमी खाते वक्त जितना सोचेगा, उतना कम चबाएगा, उतना जल्दी वह गटकता चला जाएगा। जितना कम सोचेगा, उतना पूरा चबाएगा। जानवर बिलकुल परफेक्ट चबाएगा, उसमें रत्ती भर कमी नहीं होने वाली है। जितना चबाना हो उतना ही चबाएगा। उतना चबाएगा तो ही गटकेगा, उसके पहले गटकने का सवाल नहीं है उसे। क्योंकि वह कोई दूसरा काम कर नहीं रहा है, सिर्फ खाना ही खा रहा है। तो ऐसा कभी नहीं है कि एक जानवर को यह हो जाए कि डॉक्टर यह कह दे कि इसने कम चबाया हुआ खा लिया। वह कम चबाया हुआ तो भीतर ले जाता ही नहीं है। सारा यंत्र काम कर रहा है पूरे परफेक्शन में अपने। जब वह पूरा चब जाता है तब गले से नीचे उतरता है। जब पूरी लार मिल जाती है तब वह गले के नीचे उतरता है।
तो जानवर को खाने में जो आनंद आ रहा है, वह हमको नहीं आ सकता। क्योंकि खाने का आनंद लेने वाला जो यंत्र है, वह फंक्शन ही पूरा हमारा नहीं कर पा रहा। और हम आनंद लेना चाहते हैं सोच कर, और सोच कर खाने से कोई संबंध नहीं है। तो एक आदमी बैठा-बैठा सोच रहा है कि इतनी अच्छी-अच्छी चीजें खाऊंगा, बड़ा आनंद आएगा। और सोचने से आनंद का, उस खाने का कोई संबंध नहीं है।
ऐसी स्थिति सेक्स की हो गई है--कि आदमी सोच रहा है, सेक्स को भी कनवर्ट कर लिया उसने सोचने में। तो वह सोच रहा है। कामुकता की तस्वीरें सोच रहा है। संबंध नहीं है अनुभव का, उससे कुछ लेना-देना नहीं है। तो वह यह सब सोचने में लगा हुआ है। लेकिन बेसिक सेक्सुअल एक्ट के वक्त वह पाएगा कि कुछ वह नहीं पा रहा है, कुछ आनंद नहीं है, कोई अर्थ नहीं है। वह बड़ी परेशानी हो गई। जब सोचता है, तो बड़ा रस मालूम होता है। जब क्रिया में उतरता है, तो बात अलग होती, कोई रस नहीं है वहां। और जब क्रिया में रस नहीं पाता, तो फिर और सोच-सोच कर रस लेने की कोशिश करता है, क्योंकि क्रिया में रस मिला नहीं, तो सोच-सोच कर। और जितना सोचता है उतना क्रिया की तरफ जाता है; और जब क्रिया में जाता है तब फिर पाता है कि रस नहीं है।
सेक्स का आनंद पशु-पक्षी ले रहे हैं, आदमी नहीं ले रहा। और इसलिए आदमी फिर दूसरी चीजें ईजाद कर रहा है। घर में एक नंगी तस्वीर लटकाए हुए है। सब्स्टीट्यूट खोज रहा है। एक चित्र देख रहा है नंगा, अश्लील। एक कहानी पढ़ रहा है नंगी, अश्लील। यह सब्स्टीट्यूट खोज रहा है वह।
जैसे खाने में सब्स्टीट्यूट खोज रहा है। खाना अगर वह ठीक से खाए, तो न मिर्च की जरूरत है उसमें, न मसाले की जरूरत है। क्योंकि ठीक से चबाया गया और ठीक से खाया गया इतना स्वादपूर्ण है। लेकिन वह ठीक से खा नहीं रहा है। और स्वाद चाहिए। तो सब्स्टीट्यूट ला रहा है वह। तो वह कह रहा है कि फिर मिर्च डालो। तो मिर्च जबर्दस्ती उसके मुंह में जाकर लार को निकाल देती--जबर्दस्ती। जो चबाने से निकलनी चाहिए थी, वह फोर्सफुली मिर्च जाती है और तेज असर करती है और लार फेंक देता है मुंह। तो जब वह बिना मिर्च के खाता है, वह कहता है, कोई स्वाद नहीं आ रहा। क्योंकि लार जो चबाने से निकलनी थी, जब वह तीस-पैंतीस दफे चबाता, तो लार ऑटोमैटिकली निकलती है, और स्वाद आता है। लेकिन उतनी फुर्सत नहीं है। न उसका फिकर है उसे, न खयाल है। चिंतन में लगा हुआ है वह। तो अब वह एक जबर्दस्ती करवा रहा है। सेक्सुअल एक्ट के साथ भी वही हो गया, कि सेक्सुअल एक्ट अपने आप में उसे आनंदपूर्ण नहीं रहा। तो सब्स्टीट्यूट खोज रहा है। और सब्स्टीट्यूट बढ़ाता चला जा रहा है।
लोग समझते हैं कि जिस समाज या जिस संस्कृति में गंदी फिल्में बनती हों, गंदी किताबें लिखी जाती हों, गंदे पोस्टर, गंदे चित्र बनते हों, गंदे गीत गाए जाते हों, तो वह समाज बहुत सेक्सुअल है। यह बात बिलकुल गलत है। यह इस सबका बढ़ता हुआ प्रचार इस बात का सबूत है कि समाज ने सेक्स के बेसिक एक्ट को खो दिया है। जो रस उसे सेक्सुअल एक्ट से मिलना था वह उसको नहीं मिल रहा है। वह सब्स्टीट्यूट ईजाद कर रहा है।
एक आदिवासी है जंगली, उसके सामने तुम नंगी औरत की तस्वीर रखो, वह कहेगा कि किसलिए? क्या? क्या मतलब है? यानी इसका मतलब क्या है? क्योंकि जो बुनियादी कृत्य है यौन का, उसने इतना रस पाया है, कि तुम्हारी नंगी तस्वीर कोई मतलब नहीं रखती। यानी वह ऐसे ही है कि जिस आदमी ने भोजन का पूरा आनंद लिया है, उसके सामने भोजन की तस्वीर ले जाकर रखो, तो उसको क्या आनंद आएगा। एक भूखा आदमी है, उसके सामने तुम अच्छी भोजन की एक तस्वीर ले जाकर रखो, वह उसको बड़े गौर से देखेगा और कहेगा, बड़ी प्यारी है। मेरा मतलब समझे न?
अब यह, अगर यह आदमी कहता है कि बड़ी प्यारी है, बड़ी सुंदर लग रही है, बहुत अच्छी मालूम होती है, मैं तो इसको अपने घर में लटकाऊंगा। तो इसका सबूत, इसका मतलब यह है कि आदमी भूखा है। इसे भोजन का कभी आनंद नहीं मिला। नहीं तो, नहीं तो वह कहता कि यह काहे के लिए बनाई।
ठीक वही हालत है, अगर सेक्स का एक्ट पूर्ण और आनंद से भरा हुआ है, तो नंगी तस्वीर और अश्लील किताबें, वह आदमी कहेगा, ये किसलिए लिखी हैं? इनकी जरूरत क्या है? और ये इतनी व्यर्थ मालूम होंगी, इतनी बेवकूफी से भरी हुई मालूम होंगी, जिसका कोई हिसाब नहीं।
लेकिन हम उलटी बात समझ रहे हैं। सारी दुनिया में लोगों को यह खयाल है कि जिस समाज में, जितनी नंगी तस्वीरें लटकी हैं, जितनी औरतों को अर्द्धनग्न करके घुमाया जा रहा है, वह समाज उतना सेक्सुअल है। यह बात उलटी है। वह समाज उतना कम सेक्सुअल है और बेसिकली इंपोटेंट होता जा रहा है। वह समाज बेसिकली इंपोटेंट होता चला जा रहा है। इधर वह नंगी तस्वीरें लटका रहा है, अश्लील किताबें लिख रहा है, गंदी फिल्में बना रहा है और उधर जाकर वह चिकित्सक से पूछ रहा है कि मैं इंपोटेंस अनुभव कर रहा हूं।
अब यह जरा इसको सोचने जैसा है, क्योंकि यहां तो यह सब कर रहा है, यह बड़े मजे की बात है। और वह उधर चिकित्सक के पास जा रहा है कि मैं क्या करूं? मैं तो बिलकुल निःसत्व मालूम होता हूं। स्त्री के पास जाकर निःसत्व हूं। तस्वीर, फिल्म में बड़ा मुझे रस आता है। सपने मुझे बहुत अच्छे लगते हैं। सपने में स्त्री को भोगता हूं। लेकिन स्त्री के पास जाता हूं, बिलकुल निःसत्व हूं।
सारी अमरीका में आज युवक के सामने जो, युवती के सामने, युवती फ्रिजिड है, कल्पना करती है; लेकिन जब प्रेमी के पास जाती है तो पाती है कि कोई रस नहीं है। वह बिलकुल सख्त है, मजबूत है; वह रिलैक्स नहीं है। बिलकुल फ्रिजिड है। वह बिलकुल निःसत्व मालूम पड़ती है कि कुछ नहीं है। और यह सब बढ़ता चला जा रहा है।
इसको थोड़ा, यानी मेरा कहना यह है कि अगर अश्लील किताबें बनती हों, अश्लील चित्र बनते हों, तो समझ लेना चाहिए समाज बेसिकली इंपोटेंट हो रहा है; सेक्सुअल नहीं। क्योंकि अगर समाज पूरा सेक्सुअल है, तो इनकी कोई जरूरत नहीं है।
जब भी कोई कल्चर इंपोटेंट होने लगता है... जब पोटेंट कल्चर होता है तब जिंदगी की असलियत से संबंध होता है, वह औरतों को प्रेम करता है न कि नंगी तस्वीरों को। और जब समाज निःसत्वहीन हो जाता है, तब वह नंगी तस्वीरों को प्रेम करता है। या फिर औरतों को भी वह तभी प्रेम करता है जब वे तस्वीरों जैसी मालूम पड़ें, औरतों जैसी नहीं। वह नंगी तस्वीरों से आइडेंटिटी उनकी हो जाए कि तस्वीर जैसी थी वैसी औरत मालूम पड़ने लगे नंगी, तो वह उसे अच्छी लगती है। पर वह तस्वीर की तरह थी। वह सड़क पर चलती हुई एक औरत को देख कर बहुत खुश हो जाता है, लेकिन घर की बैठी पत्नी कुछ खुशी नहीं देती। बाहर की सड़क की औरत तस्वीर है। घर की पत्नी जिंदा औरत है, वह बिलकुल मतलब नहीं रखेगा उसका।
इधर मैं जितना इस पर सोचा, मैं इतना हैरान हुआ हूं, इतना हैरान हुआ हूं कि अमरीका या ऐसा मुल्क कहीं न कहीं निश्र्चित बुनियादी रूप से इंपोटेंस पर पहुंच गया है।
हमारी स्मृति में साफ हो जाए कि हम जिस चीज को साहित्य में, संस्कृति में, कला में, बाहर की दुनिया में खोजना शुरू करते हैं, वह वही चीज है जो हमने वास्तविक दुनिया में भोगनी बंद कर दी है। अगर हम वास्तविक दुनिया में उसको भोग सकें, तो हम कभी काल्पनिक चर्चा में उसकी पड़ने वाले नहीं हैं।
अगर एक पुरुष स्त्री को वस्तुतः भोग सके, तो कभी गंदी तस्वीर, गंदी फिल्म और गंदी किताब पढ़ने को नहीं जाएगा। क्योंकि वे इतनी शैडोई मालूम पड़ेंगी, वे इतनी छाया जैसी लगेंगी, अनसब्स्टेंशियल, कि जिसका कोई मतलब नहीं है। जिसने असली स्त्री को जाना है, वह अपने घर में एक नंगी स्त्री की तस्वीर टांगने के लिए तैयार नहीं होगा। वह कहेगा, यह क्या पागलपन है। यह इतनी ना-कुछ है, जिसका कोई मतलब नहीं है।
एक आदमी नंगी तस्वीर टांगे है घर में, और एक गंदी किताब लेकर पढ़ कर फोटो देख रहा है, वह इस बात का सबूत है कि असली स्त्री को जानने में वह असमर्थ हो गया है, या असली स्त्री को जानने की उसने कला खो दी है, या असली स्त्री से परिचित होने के लिए जितना जीवंत व्यक्तित्व चाहिए वह उसके पास नहीं रह गया है। इसलिए अब वह सब्स्टीट्यूट खोज रहा है।
तो जब भी कोई समाज जीवंत नहीं रह जाएगा, तब वह गैर-जीवंत रूपों में जीवन की तृप्ति खोजने के उपाय करेगा। और यह सब तरफ, सब तरफ यही होगा।
वस्त्र अगर बहुत अच्छे होते जाते हैं किसी समाज में, और सुंदर से सुंदर वस्त्र की तलाश शुरू होती है, तो बुनियादी मतलब इसका यह है कि शरीर असुंदर हो रहा है, अस्वस्थ हो रहा है। क्योंकि जब शरीर स्वस्थ हो, शरीर पर अपनी चमक हो, शरीर की अपनी गति और जीवंतता हो, तब आप कपड़ों की फिकर नहीं करते। कपड़ों की फिकर सब्स्टीट्यूट है। जब शरीर दीन-हीन हो जाता है, हड्डी-हड्डी हो जाता है, शरीर उघाड़ा देख कर खुद को भय लगने लगता है, तब हम अच्छे कपड़ों में उसे छिपाते हैं। अच्छे कपड़ों से हम वह काम लेना चाहते हैं जो शरीर की चमकती चमड़ी ने दिया होता। जब चेहरे उदास हो जाते हैं, फीके और निस्तेज हो जाते हैं तब हम पाउडर है और लाली है उस पर थोपते हैं। उस लाली को हम पूर्ति खोज रहे हैं जो कि चेहरे पर रही होती, तो चेहरे को सुंदर बनाती, लेकिन वह नहीं है। तब हम एक रंग लाकर बाजार से चेहरे पर पोत रहे हैं। जब कोई रंग लाकर बाजार से पोतने लगे, तो किस बात की खबर है? वह इस बात की खबर है कि जो लाली होनी चाहिए थी चेहरे पर वह खो गई है। और सब चीज के मामले में यही सच है।
तो इसलिए मेरा आधारभूत खयाल यह है कि अगर समाज में लोग अच्छे कपड़े पहनने पर अति उत्सुक हो गए हैं तो आप गाली मत दीजिए। अच्छे सुंदर कपड़ों से इसका कोई संबंध नहीं है। आप फिकर करिए कि शरीर कहीं रुग्ण हुआ जा रहा है, इसलिए आदमी सुंदर कपड़ों में उत्सुक हुआ है। नहीं तो स्वस्थ आदमी, जैसा कि जंगली जानवर का शरीर है, उसको आप कपड़े पहना दें, वह बहुत बेहूदा लगने लगेगा। और हमारे आदमी को हम नंगा खड़ा कर दें, तो वह बहुत बेहूदा लगेगा।
हजारों साल पीछे या आज भी जो ठीक जंगली अवस्था में रहने वाला आदमी है, उसके शरीर की अपनी चमक है, अपनी गति है, अपनी जीवंतता है। उसके मूवमेंट का अपना--उसको देखना भी एक सुख है; उसका उठना, बैठना, चलना। वह सारा शरीर हमने खो दिया। अब हमें कोई पूरक चाहिए कि हम उसको ऊपर से ढांक लें और व्यवस्था दें।
यह जो समाज की सारी, सारी रुग्णता एक ही बात से पैदा हो रही है कि वह जहां आधारभूत रूप से हमें होना चाहिए वहां हम नहीं हैं, तो हम सबका विचार में जाकर परिपूरक और सब्स्टीट्यूट खोजते चले जाते हैं। वह टूट जाना चाहिए।...
...सर्वाधिक नुकसान पहुंच रहा हो मनुष्य की जाति को, तो वह समाजवादी दृष्टिकोण से परेशान है। और सर्वाधिक नुकसान इसी बात से पहुंच सकता है कि जो बात हमें सर्वाधिक सीधे-सीधे अपील करती हो, तो नुकसान पहुंच भी नहीं सकता। जो बात एकदम ओबियस मालूम होती हो कि बिलकुल ठीक है, वही हमें सबसे ज्यादा नुकसान भी पहुंचा सकती है। और समाजवाद ऊपर से देखने पर इतना ठीक मालूम पड़ता है कि कोई वजह नहीं मालूम पड़ती कि वह क्यों ठीक न हो। और पूंजीवाद ने जैसी स्थितियां ले ली हैं सारी दुनिया में, उससे वह ऐसा लगता है कि जितनी जल्दी हट जाए तो अच्छा।
लेकिन समाजवाद पूंजीवाद का ही सघन रूप है, और इसके रोगों को समाप्त नहीं करता, बल्कि केंद्रित करता है। इस पर कोई दृष्टि नहीं है स्पष्ट। क्योंकि समाजवाद पूंजीवाद का दुश्मन है नहीं, बाइ-प्रोडक्ट है, वह पूंजीवाद से पैदा होने वाली संतान है। और पूंजीवाद के सारे रोग उसमें हैं, पूंजीवाद की सारी भलाइयों को छोड़ कर। क्योंकि पूंजीवाद के साथ जो स्वतंत्रता है, जो मानव की गरिमा है, जो व्यक्तित्व का अर्थ है, वह उसमें सब खो जाने वाला है। और मानव की गरिमा और व्यक्तित्व तभी तक है, एक-एक व्यक्ति की, जब तक एक-एक व्यक्ति के पास पूंजी की सामर्थ्य है। जिस दिन व्यक्ति के पास पूंजी की सामर्थ्य नहीं, उसके पास कोई सामर्थ्य नहीं। उसके ऊपर जितना उसका पूंजी पर बल है...
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं है।)
बचेगा नहीं, क्योंकि मनुष्य का व्यक्तित्व कुछ चीजों से जुड़ कर बना हुआ है। और उस सब, सबसे ज्यादा जो मूल्यवान उसके व्यक्तित्व को बनाने में बात है, वह यह है कि उसके पास कुछ अपना है। व्यक्तित्व कोई एब्स्ट्रेक्ट चीज नहीं है। यह मकान है, अगर यह मेरा अपना है, तो मेरे व्यक्तित्व में एक चीज जुड़ती है। ये कपड़े जो मैं पहने हूं, अगर मेरे अपने हैं; यह जो बात मैं कह रहा हूं, अगर यह मेरी अपनी है, तो मेरे एक व्यक्तित्व को बल देती है। अगर यह उधार है, किसी की है, किसी से ली हुई है, तो मेरा व्यक्तित्व उतना ही निःसत्व हो जाता है।
तो यह बात उनके समझ में आ गई, बहुत ठीक से समझ में आ गई कि अगर मनुष्य के हाथ से उसकी व्यक्तिगत संपदा का अधिकार छीन लिया जाए, तो हमने करीब-करीब जो भी उसके पास था, सब छीन लिया। अगर यह केंद्र के या स्टेट के पास सब इकट्ठा हो जाए, तो स्टेट आपके शरीर की नहीं आपकी आत्मा की भी मालिक हो गई, आपके मन की भी, आपकी बुद्धि की भी, आपके विचार की भी। उससे इंच भर आप इधर-उधर होते हैं कि सिवाय मौत के आपको कुछ नहीं बचता। क्योंकि आप खड़े भी नहीं हो सकते हैं, गए आप।
हमारे मुल्क में संयुक्त परिवार था, या जिन मुल्कों में भी संयुक्त परिवार था, सभी जगह था, जितना संयुक्त परिवार था, संयुक्त परिवार के भीतर एक-एक व्यक्ति की कोई गरिमा नहीं थी, हो नहीं सकती थी। सौ आदमी थे घर में, और घर में एक आदमी के पास घर की सारी संपदा की मालकियत थी, बाकी लोग हमेशा उसकी तरफ देख कर ही जी सकते थे। और जरा विरोध उससे, तो उनका अस्तित्व गया। सारे मुल्क में पंचायत, गांव, बड़े मूल्यवान थे। एक-एक व्यक्ति की कोई हैसियत न थी। अगर एक व्यक्ति ने जरा समाज और संप्रदाय और व्यवस्था से आना-काना की, उसका हुक्का-पानी बंद। वह जी भी नहीं सकता। उसका जीना दूभर हो गया। वह कुएं पर पानी नहीं भर सकता, वह भोज में सम्मिलित नहीं हो सकता। जैसे-जैसे, जैसे-जैसे व्यक्तिगत संपदा बढ़ी, वैसे-वैसे एक-एक व्यक्ति की अपनी व्यक्तिगत गरिमा पैदा हुई।
स्त्रियों की गरिमा आज तक इसीलिए पैदा नहीं हो सकी क्योंकि स्त्री के पास कोई व्यक्तिगत संपदा नहीं रही। स्त्रियों की कभी गरिमा बन भी नहीं सकती जब तक उनकी भी अपनी व्यक्तिगत संपदा न हो। सारी दुनिया में स्त्री गुलाम है और गुलाम रही। और तब तक रहेगी जब तक पति से भिन्न उसकी अपनी व्यक्तिगत संपदा और हैसियत नहीं है।
प्रश्न:
आर्थिक।
हां। अगर उसकी व्यक्तिगत हैसियत, संपदा नहीं है, तो वह हमेशा लचर है, उसकी सब स्वतंत्रता बकवास है। वह जानती है बहुत गहरे में कि पति सब-कुछ है, क्योंकि संपदा पति के पास है।
पश्र्चिम में जो स्त्री की स्वतंत्रता आनी शुरू हुई वह स्त्री की व्यक्तिगत संपदा बनने से आनी शुरू हुई। उसके पास जब अपनी संपदा हुई खड़ी, उसका एक व्यक्तित्व बनना शुरू हुआ।
अगर हम मनुष्य से संपदा छीन लेते हैं, उसका स्वप्न छीन लेते हैं और राज्य के हाथ में सब दे देते हैं, सबको हम व्यक्ति-शून्य कर देते हैं, तब हम एक भीड़ रह जाते हैं और मनुष्य नहीं रह जाते। और इसके कितने दुष्परिणाम मनुष्य के ऊपर होंगे, उसकी कल्पना भी करनी कठिन है। कितनी संस्कृति पर होंगे उसकी कल्पना करनी भी कठिन है। और बड़ा मजा यह है कि इस स्टेट पर जो भी हावी हो जाए, वह कितना शक्तिशाली हो जाता है, वह उसी अनुपात में शक्तिशाली हो जाता है जिस अनुपात में व्यक्ति निःसत्व हो जाता है। यहां एक-एक व्यक्ति की शक्ति तो छीन जाती है और कुछ आदमियों के हाथ में वह सारी शक्ति इकट्ठी हो जाती है। फिर वे कुछ भी कर सकते हैं।
स्टैलिन ने रूस में कोई पचास लाख से लेकर अस्सी लाख लोगों तक की हत्या की। माओ इससे बड़ा हत्यारा सिद्ध होगा, जिस दिन आंकड़े साफ होंगे। जब तक स्टैलिन के आंकड़े साफ नहीं थे, तब तक कोई सवाल नहीं था। और इस तरह हत्या चली कि हत्या नियम बन गई, अपवाद नहीं। वह किसी भी तरह के आदमी को मार डालने में कोई अड़चन नहीं रही। मिटा डालने में कोई अड़चन नहीं रही। उधर माओ बहुत जोर से वह सारी व्यवस्था कर रहा है।
और इस तरह का जो आयोजन है, उसके पीछे जो दलीलें जीतती जाती हैं, वे हमें एकदम अपील करती मालूम पड़ती हैं। क्योंकि दलीलें इस संबंध की नहीं होतीं, वे बिलकुल दूसरे संबंध की हैं। गरीब है, गरीब की गरीबी मिटनी चाहिए, कोई भी यह नहीं कह सकता कि नहीं मिटनी चाहिए। अमीर है, उसके पास बहुत संपदा इकट्ठी हो गई, कोई भी नहीं कह सकता कि इतनी संपदा किन्हीं लोगों के पास इकट्ठी होनी चाहिए। शोषण है, शोषण नहीं होना चाहिए, इसके लिए कोई, कोई इनकार नहीं करेगा, यह तो मिटना चाहिए।
तो समाजवाद की सारी दलीलें अर्थपूर्ण हैं, और सारे परिणाम अनर्थकारी हैं। और यह, यह इतनी उलझन में खड़ा कर दिया आदमी को, क्योंकि दलील एक-एक अर्थपूर्ण हैं। और दलील पर, एक-एक दलील पर आप खड़े होकर लड़ने का कोई उपाय नहीं है। दलीलें सब ठीक हैं।
प्रश्न:
चिंता करने की?
चिंता करने की, बेचैन होने की। सब रूट्स बन गईं चिंता की। जैसे, बैलगाड़ी चलती है, तो एक रास्ता बन गया। अब बैलगाड़ी के चकों को उसी में फंस कर चलना पड़ेगा। अब इधर-उधर थोड़ी-बहुत देर चलेगी, फिर उसी में आ जाएगी। रट बन गई।
तो बीस साल आदमी चिंता, फिकर; सोया नहीं, पैसा, पैसा, कैसे कमाऊं, कैसे कमाऊं, तो धीरे-धीरे, धीरे-धीरे, धीरे-धीरे उसका दिमाग एक चिंता--स्नायु मस्तिष्क के सब चिंता करने के लिए आदी हो गए हैं। अब वह रुपया कमा पाया। अब। और इसके लिए उसने इतनी चिंता की थी बीस साल! और रुपया कमा कर वह पाता है कि न कोई सुख है, न कोई शांति है। सुख और शांति इसलिए नहीं है कि रुपया आपको कोई शांति नहीं दे सकता, रुपया व्यवस्था दे सकता है, लेकिन बीस साल में आपका मस्तिष्क गड़बड़ हो गया। तो वह आदमी फिर यह कहने लगा कि अरे, रुपये, इसमें कोई सुख-शांति नहीं है! क्योंकि मैंने कमा भी लिया और मैं और अशांत और दुखी हो गया हूं! तो रुपये में कोई सार नहीं है। इसको छोड़ना चाहिए।
यह आदमी से भूल हो रही है। वह यह नहीं समझ पा रहा है कि यह, यह रुपया तो जरूर... रुपया तो केवल एक सुविधा है, माध्यम है। आपके पास वह है, तो आप जिंदगी को एक व्यवस्था दे सकते हैं। और व्यवस्था के माध्यम से आप शांत भी हो सकते हैं, चैन से भी रह सकते हैं, विश्राम भी पा सकते हैं।
मेरा कहना यह है कि रुपये को कमाने के साथ ही साथ अगर उसने मन की शांति कमाने का भी उपाय किया होता, तो वह जिस दिन उसके पास रुपया होता, उस दिन वह उतना सुखी होता जितना वह गरीब रह कर कभी भी सुखी नहीं हो सकता था। क्योंकि रुपया उसको बाहरी व्यवस्था दे देता और मन की शांति उसको भीतरी व्यवस्था दे देती। और ये दोनों चीजें जिस दिन मिल जातीं, उस दिन वह परम शांति को अनुभव करता।
लेकिन यह हो नहीं पाया। उसने बाहर की व्यवस्था जुटाने में, जो कि बिलकुल जरूरी है, भीतर की कोई व्यवस्था जुटाई ही नहीं। और जिस चीज के लिए इतनी मेहनत की, आखिर में पाने के बाद पाया कि उसको कुछ मिल नहीं रहा है, तो ठीक विरोधी रुख पैदा हो गया कि इसमें कोई सार नहीं है, सब असार है, इसको छोड़ कर भागना चाहिए। और इस तरह के लोगों ने समाज के चित्त में हवा पैदा कर दी। जो दरिद्र है, उसको तो रुपये का कोई पता नहीं है--कि रुपया शांति लाता कि नहीं लाता। उसको पता नहीं कि रुपया क्या लाएगा? जो अमीर है, उसका यह अनुभव है कि रुपये से शांति नहीं आई। तो बुद्ध और महावीर, ये सब अमीर घरों के लड़के हैं। इन्होंने एक हवा पैदा कर दी पूरे समाज में। और जब ये छोड़ कर चले गए, तो दरिद्र को भी दिखाई पड़ा कि जिनके पास सब था, वे छोड़ कर जा रहे हैं, कुछ नहीं है उसमें। तो जिस चीज में कुछ नहीं है, उसको पकड़ना नासमझी है।
लेकिन गरीब का मन और अमीर के मन में एक फर्क है। अमीर समझ कर जाता है कि रुपये में कुछ नहीं है, तो उसे रुपये का भय नहीं होता। बुद्ध और महावीर को रुपये का भय नहीं है बिलकुल। वे समझ कर गए हैं कि रुपये में कुछ नहीं है। रामकृष्ण बिलकुल दरिद्र ब्राह्मण के लड़के हैं। रुपये का कोई अनुभव है नहीं। सुना हुआ है यह कि रुपये में कुछ भी नहीं है, लेकिन मन में तो कामना रुपये की है। वह दरिद्र के लड़के में होनी ही चाहिए, वह जानता नहीं है।
प्रश्न:
नॉलेज नहीं है वह।
नॉलेज नहीं है। और आशा और मन में इच्छा है रुपये की। इधर इच्छा है और उधर बुद्धि कहती है कि कुछ भी नहीं है। एक द्वंद्व चल रहा है भीतर। इस द्वंद्व में यह हालत हो जाएगी कि छूना भी पाप है। छूने का मन है, पकड़ लेने का मन है। कहीं पकड़ न लें, तो फिर इतना भयभीत अपने को कर लिया है कि छू लेना भी पाप है, छूना भी नहीं है। तो रामकृष्ण को छूना भी पाप है। बुद्ध में वह ऑब्सेशन नहीं है। क्योंकि बुद्ध रुपये को देख कर आया है। सब देखा है। बुद्ध में स्त्री का ऑब्सेशन नहीं है। क्योंकि बुद्ध और महावीर सुंदर से सुंदर स्त्रियों को भोग कर आए हैं। जितनी देश में सुंदरतम स्त्रियां थीं, बुद्ध के महल में सब उपस्थित थीं। तो स्त्री को छू लेने और नहीं छू लेने में प्रॉब्लम बुद्ध को नहीं है।
अब वह मेरी चेष्टा बड़ी मुश्किल की हो गई है। मेरी चेष्टा यह है कि, मेरा कहना है कि रुपये का मूल्य है। उतना मूल्य नहीं है, जितना पैसे के पागल को होता है। उतना निर्मूल्य भी नहीं है, जितना पैसे के दुश्मन को होता है। पैसा एक तटस्थ साधन है। उसका उपयोग है। उसका, समझ हो तो बहुत सदुपयोग है। और अगर उसकी व्यवस्था जुटाने के साथ-साथ मनुष्य भीतर की व्यवस्था भी जुटा ले...
प्रश्न:
वह हो सकती है?
बिलकुल हो सकती है। वह हमारे खयाल में नहीं है। और समाज को आज तक उसकी दृष्टि नहीं दी गई। कभी नहीं दी गई। उसका कारण यह था कि समाज को दृष्टि देने वाले जो लोग थे, वे ये धनी लोग थे। समाज को दृष्टि देने वाला जो वर्ग था, वह धनिकों का वर्ग था।
प्रश्न:
और वह उसने पाया कुछ नहीं।
उसने पाया कुछ नहीं है। और उसने यह दृष्टि दे दी। और दूसरा गरीब का वर्ग है। गरीब को पता नहीं है, लेकिन आकांक्षा है उसको कि अच्छा मकान हो, शांति से रहूं, खाने-पीने की रोज चिंता न करनी पड़े, यह उसका खयाल है। तो उसकी इच्छा तो कहती है कि पैसा हो। और यह सारे समाज के नेताओं का--और नेता ये सब पैसे वाले लोग हैं--इनका अनुभव कहता है कि पैसे में कोई सार नहीं है, तो वह पड़ जाता है द्वंद्व में। और वह द्वंद्व उसकी जान खाए जाता है कि क्या करूं, क्या न करूं। अगर पैसा कमाने में लगता है तो लगता है पाप कर रहा हूं, कोई सार नहीं है। नहीं कमाने में लगता है तो देखता है कि कष्ट ही कष्ट इकट्ठे होते चले जा रहे हैं। तो उसको हमने एक कांफ्लिक्ट में डाल दिया। और उस कांफ्लिक्ट में आदमी जी रहा है। और उसको तोड़ने का कोई उपाय नहीं सूझ पड़ता।
अगर इस गरीब का नेता होना हो, तो आपको भी पैसे को गाली देना पड़ेगी। क्योंकि गरीब के मन में पैसे की इच्छा है, तृष्णा है। ईर्ष्या भी है। पैसे वाले के प्रति घृणा भी है। वह खुद पैसा वाला होना चाहता है। लेकिन जिसके पास है उसके प्रति उसके मन में घृणा भी है, ईर्ष्या भी है।
अगर गांधी पैसे को लात मारते हैं, तो गरीब उनके चरण छुएगा। वह कहेगा कि यह है आदमी। क्योंकि पैसे के प्रति जो इसकी ईर्ष्या और घृणा है--यह इसको लात मारता है, दो कौड़ी का समझता है। यह बात उसको अपील करती है। तो रामकृष्ण पैसे को देख कर चौंक जाते हैं, तो सारा गरीब जो वर्ग है वह प्रभावित होता है। और बड़े मजे की बात है, कि पैसे वाला इसलिए प्रभावित होता है कि उसके पास इतना पैसा है, फिर भी अभी इतनी सामर्थ्य नहीं जुटा पाया कि पैसे को लात मार दे, और जिसके पास कुछ भी नहीं है वह लात मार रहा है! जरूर अदभुत है यह आदमी। यह हमारा माइंड कैसे काम करता है। गरीब इसलिए प्रभावित होता है कि वह पैसे के प्रति ईर्ष्यालु है। पैसे वाला इसलिए प्रभावित होता है कि अरे, जिसके पास कुछ भी नहीं है, वह लात मारने की हिम्मत रखता है। वह अदभुत शक्ति संपन्न आदमी है। और तब सिलसिला जारी रहता है। और उस सिलसिले को तोड़ना कठिन होता चला गया है।
अब मेरे सामने जो बड़ी समस्या खड़ी हो गई है वह यह कि मैं दोनों से राजी नहीं हूं। मैं उस आदमी से भी राजी नहीं हूं जो कि पागल की तरह पैसा इकट्ठा करता चला जाता है। और उसको इकट्ठे करते-करते मर जाता है। मैं उससे भी राजी नहीं हूं जो कि पैसे से भागता है और चिल्लाता है कि उसको बिच्छू ने काट खाया अगर पैसे छू गए। ये दोनों एक ही बीमारी के एक्सट्रीम्स हैं।
सच्चाई हमेशा कहीं मध्य में है।
सच्चाई यह है कि अगर समझदारी से पैसे का उपयोग हो--जो कि हो सकता है, क्योंकि समझदारी और पैसे में कोई विरोध नहीं है। मेरा कहना यह है, समझदारी एक और बात है, पैसा एक और बात है, उसमें कोई विरोध नहीं है। बल्कि सच्चाई यह है कि पैसा हो तो समझदारी सरलता से आ सकती है, पैसा न हो तो समझदारी बहुत कठिन है आना। क्योंकि समझदारी आने के लिए भी जो व्यवस्था चाहिए, वह भी पैसे के बिना नहीं जुड़ सकती है।
यह जो, जो व्यवस्था जुड़ती है समझदारी लाने के लिए... अब कोई हम खाना खाएं, हम कैसा खाना खाते हैं, इससे हमारा व्यक्तित्व, हमारा मस्तिष्क सब प्रभावित होता है। अगर ऐसा खाना एक आदमी को मिलता रहे जिसमें कि विटामिंस नहीं हैं, ताकत का कुछ भी नहीं है, उसका मस्तिष्क भी विकसित नहीं होगा। समझदारी आएगी कहां से खाक! वे जो आदिवासी हैं, जंगली मुल्कों के लोग हैं, इन्होंने संस्कृति क्यों विकसित नहीं की? इनका भोजन डिफेक्टिव है। ये संस्कृति विकसित कर ही नहीं सकते। क्योंकि जितना भोजन स्वस्थ मस्तिष्क को बनाने के लिए चाहिए, वह इनको कभी मिला नहीं। यह कोई ऐसा नहीं कि ये आकस्मिक रूप से वैसे पड़े रह गए हैं। जैसे अफ्रीकन हैं, या हमारे जंगल में रहने वाला आदमी है, इसका भोजन बिलकुल ही अव्यवस्थित है। उस भोजन में जो सार्थक है वह न के बराबर है। तो शरीर का काम किसी तरह चल जाता है, लेकिन मस्तिष्क विकसित नहीं हो पाता।
अमरीका इतने जोर से विकास करता चला जा रहा है, उसके बच्चे इतनी दूर की बातें सोच रहे हैं, उसका कुल कारण यह है कि उसका भोजन ज्यादा कैलोरी का है, वेल प्रवाइडेड है, ठीक विटामिन-युक्त है, व्यवस्थित है, साइंटिफिक है। दो सौ वर्षों में अगर अमरीका का यही भोजन रहा और हमारा यही भोजन रहा, तो हमारे बच्चे में और अमरीका के बच्चे में जमीन-आसमान का फासला हो जाएगा। क्योंकि हमारा बच्चा बेसिकली डिफेक्टिव होगा। यानी इस बात की संभावना है कि अगर पांच सौ साल यही स्थिति चलती चली गई, तो बिलकुल अमरीका एक सुपरह्यूमन बेस पैदा कर लेगा, जो बिलकुल और तरह के आदमी होंगे। जिनका सोचना, जिनकी समझ, जिनकी इनसाइट बहुत ही सही होगी, जिसका हम कोई मुकाबला नहीं कर सकेंगे, हम कहीं किसी तल पर खड़े न रह जाएंगे। और इधर हमारे बेवकूफ यही कहे चले जा रहे हैं कि पैसा बेकार है। और वे हमारी जान लिए ले रहे हैं।
रूस के बच्चे हैं, उनको बिलकुल साइंटिफिक भोजन मिल रहा है। एक-एक हिसाब है कि कितनी कैलोरी, कितना कौन सा विटामिन, कितना खनिज, कितना सॉल्ट, सब साइंटिफिक है। दो सौ वर्षों में जो बच्चा वे पैदा करेंगे वह बच्चा वेल इक्विप्ड पैदा हो रहा है माइंड की तरफ से। उसका माइंड जो चीज लाएगा, वह हमारे बच्चे कहां से लाएंगे!
तो यह जो, इसमें सारी व्यवस्था का सवाल तो यह है कि पैसा तो सिर्फ माध्यम है जो बाहर के सारे जीवन की व्यवस्था जुटा देता है। और वह व्यवस्था जितनी सम्यक होगी, उतनी भीतर संभावना बढ़ती चली जाती है।
अब एक आदमी को ठीक खाना ही नहीं मिला है, उससे हम कह रहे हैं कि तुम चित्त को शांत करो। यह बिलकुल पागलपन की बातें कर रहे हैं। एक आदमी ठंड में ठिठुरा जा रहा है, हम उससे कह रहे हैं कि तुम अपने चित्त को शांत करो। अब वह कह रहा है कि चित्त का अभी सवाल नहीं है; अभी सवाल यह है कि मेरा शरीर कैसे शांत हो?
और जब शरीर शांत नहीं होता, तो चित्त कैसे शांत हो? चित्त तो केवल खबर देने वाला है। चित्त खबर दे रहा है कि शरीर अशांति में है। तुम उसको ठीक कर दो, तो शरीर मिट जाएगा। तो जब तक शरीर अशांति में है, चित्त खबर देता ही चला जाएगा। वह तो केवल... जैसे कि नीचे एरोड्रम पर से खबर दी जा रही ऊपर हवाई जहाज को कि अभी तुम मत उतारो, अभी यहां बादल हैं, अभी उतारोगे तो मर जाओगे। और वह सुने न, और कहे कि मैं तो उतारता हूं। ऐसी हालत है। चित्त तो खबर दे रहा है पूरे वक्त कि शरीर इतनी ठंड नहीं सह सकेगा। अगर जल्दी कपड़ा नहीं जुटाते तो खत्म हो जाएगा। अब वह चित्त यह खबर दे रहा है कि तुम कपड़ा जुटाओ; तुम कह रहे हो कि कपड़े-लत्ते से क्या लेना-देना है, अरे शरीर से क्या लेना-देना, ये तो सब बाहरी चीजें हैं। तो शरीर टूटेगा; साथ ही चित्त टूट जाएगा।
गरीब मुल्क का मस्तिष्क विकसित नहीं हो पा रहा है। हो नहीं सकता। गरीब मुल्क में भी जो दो-चार-दस मस्तिष्क पैदा हो जाते हैं, आकस्मिक हैं। आकस्मिक, मतलब यह कि कई दूसरे कारणों पर। और यह मस्तिष्कों को अगर पूरा व्यवस्थित जन्म से ही हिसाब मिलता, तो ये कितना कर पाते और क्या कर पाते, इसका कोई हिसाब नहीं लगा सकते।
हमारा तो ऐसा है कि चालीस करोड़, पचास करोड़ लोग हैं, कितनी प्रतिभा हम पैदा कर पाते हैं, वह न के बराबर है। रूस बीस करोड़ का मुल्क है, पचास साल में कितनी प्रतिभा पैदा उसने की, जरा हम आंकड़ा तो देखें!
प्रश्न:
बेसिकली फूड है?
बेसिकली फूड है। कपड़े हैं। अब एक आदमी धूप में बैठा काम कर रहा है और एक आदमी एअरकंडीशन में बैठा काम कर रहा है, दोनों के काम में बुनियादी फर्क पड़ने वाला है। अब तुम कहो कि बाहर से कुछ नहीं होता, तो बेवकूफी की बातें कर रहे हो। सब-कुछ बाहर से हो रहा है। और बाहर अगर सब व्यवस्थित हो जाए, तो भीतर कुछ होता है।
तो मेरी दृष्टि, मुझे बड़ी तकलीफ हो गई, मेरी दृष्टि यह हो गई कि मैं यहां किसी से राजी नहीं हूं। वह जो बाहर वाला है, वह सिर्फ इसी की फिकर में पड़ा है कि यह हो जाए, वह हो जाए; उसको भीतर की कोई चिंता नहीं है। यह जो भीतर वाला है, यह भीतर की चिंता की इतनी बातचीत करता है कि बाहर की सब फिकर छोड़ देता है। और ये दोनों चीजें सम्मिलित और एक हैं। और दोनों जब बिलकुल बैलेंस में होती हैं, तब व्यक्ति की ठीक-ठीक स्थिति बनती है। और ये दोनों अनबैलेंस्ड हैं।
यह एटिट्यूड पहुंचाना लोगों तक इसलिए मुश्किल होता चला जा रहा है कि वह जो गरीब है, उसको इसमें उसकी प्रशंसा नहीं मिलती, जितना गांधी या रामकृष्ण उसको प्रशंसा देते हैं--कि तू तो दरिद्रनारायण है, तू तो भगवान का रूप है। मैं उसको कहता हूं, तू भगवान-वगवान का रूप नहीं है। दरिद्रता जो है बीमारी है। यह कोई नारायण-वारायण का सवाल नहीं है। यह रोग है। इससे छुटकारा पाना है।
तो मेरी बात से उसको उसका अहंकार तृप्त नहीं होता। गांधी कहते, तू तो भगवान का रूप है, तू तो दरिद्रनारायण है। तो उसको आदर मिलता है, सम्मान मिलता है। और उसके पास धन तो है नहीं, आदर पाने का वह तो रास्ता है नहीं। पद नहीं, प्रतिष्ठा नहीं। एक ही, गरीबी है कुल उसके पास। अगर गरीबी को आदर देते हो, तो उसको आदर मिलता है, नहीं तो खत्म हो गया। और मैं कहता हूं कि गरीबी बीमारी है। तो उसके अहंकार को चोट लगती है।
इधर अमीर को मैं कहता हूं कि तुम यह सब पैसा इकट्ठा करते जा रहे, इससे कुछ होने वाला नहीं है। तुम बिलकुल बेवकूफी की तरह से लगे हुए हो। पैसा जरूरी है, लेकिन अकेला पैसा काफी नहीं है। भीतर कुछ और चाहिए। तो उसको भी यह अच्छा नहीं लगता। उसको अच्छा लगता है कि कोई कहे कि तुमने बहुत महल बना लिया, तुमने बहुत अच्छा काम कर लिया, बस काफी है, पर्याप्त है। तुमने राज्य जीत लिया, तुम प्राइम मिनिस्टर हो गए, बहुत हो गया। उसको यह अच्छा नहीं लगता कि उसको यह कोई कहे कि नहीं, यह काफी नहीं है, असली चीज छूट गई है।
तो वह दोनों के साथ कठिनाई है। और वह दो ही हैं समाज में। इसलिए इस तरह की बात को पहुंचाना हमेशा कठिन रहा है।
प्रश्न:
तो लोगों ने ईजी मार्ग से...
हां, ईजी मार्ग हुआ उसी से, कौन झंझट में पड़ता है, किसकी झंझट में पड़ने की कूवत है। और मैं हर चीज में झंझट में पड़ गया हूं। सूत्र सीधे-सादे, उतना कह कर निपटारा हो जाता है। और मुझे किसी चीज में निपटारा नहीं होता, जब तक कि मैं पूरा आपको समझा न पाऊं। और समझाने के लिए मुझे पूरा ब्योरा देना पड़ता है, क्योंकि वह सारा ब्योरा जब तक खयाल में न आ जाए कि किस वजह से यह हो रहा है।
पूरे समाज का चित्त रोग-ग्रसित हो गया है।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं है।)
दो चीजें खयाल में लेना चाहिए। एक तो यह खयाल में लेना चाहिए कि हम धंधे की भी चिंता किसलिए कर रहे हैं, यह हमारे पास स्पष्ट होना चाहिए। इसीलिए कर रहे हैं न कि हम ज्यादा शांति और आनंद से रह सकें। लक्ष्य क्या है? काहे के लिए चिंता कर रहे हैं? कोई धंधे की चिंता धंधे के लिए कर रहे हैं? चिंता इसलिए कर रहे हैं कि मैं कैसे ज्यादा शांति और आनंद से रह सकूं। यह हमारा बेसिक मोटिव बिलकुल साफ होना चाहिए।
यह भूल जाता है रोज-रोज। यह हमें खयाल में नहीं रहता। अगर यह हमारे खयाल में है, तो उसका मतलब यह हुआ कि धंधे की चिंता उस सीमा तक करनी है जहां तक वह शांति और आनंद को नष्ट न करता हो। क्योंकि अगर वह शांति और आनंद को नष्ट करने वाला बन जाए, तो बेसिक मोटिव ही गड़बड़ में पड़ गया।
समझ लीजिए मैं बंबई आया, और बंबई मैं इसलिए आ रहा हूं कि बंबई पहुंच कर मेरा स्वास्थ्य ठीक हो जाए। और बंबई आने के रास्ते में मुझको जहर पीना पड़े। तो मैं कहूंगा, मैं नहीं जाता। क्योंकि मैं जा इसलिए रहा था कि बंबई पहुंच कर मैं स्वस्थ हो जाऊं। पर तुम कहते हो कि पहले तुम्हें जहर पीना पड़े, तब तुम बंबई पहुंचो। तो मैं वापस जाता हूं। कम से कम जिंदा तो हूं। मैं जहां था ठीक था। मैं इसके आगे नहीं बढ़ता अब।
अगर हमें बुनियादी दृष्टि साफ हो जीवन की कि हमें सुख और शांति और एक आनंद का जीवन उपलब्ध करना है। और उसके लिए हम धंधा भी कर रहे हैं, पैसा भी कमा रहे हैं। तो वह उसी सीमा तक, जहां तक कि हमारी बुनियादी इच्छा को चोट नहीं पहुंचती। जिस क्षण बुनियादी इच्छा को चोट पहुंचती है, हम वापस लौटने को हमेशा तैयार हैं। क्योंकि हम धंधे के लिए धंधा कर नहीं रहे हैं। यह अगर दृष्टि में हो, तो आप धंधे का काम करेंगे, विचार करेंगे, लेकिन चिंता नहीं। और विचार और चिंता में यही फर्क है।
समझ लीजिए कि आप एक उलझन में पड़ गए हैं, कि अगर यह काम करते हैं तो दस लाख का फायदा होता है, यह काम करते हैं तो पांच लाख का फायदा होता है; यह काम नहीं करते हैं तो इतने का नुकसान होता है। तो चिंता का क्या मतलब होता है? चिंता का मतलब यह होता है कि बिना कोई हल किए आप भागे चले जा रहे हैं मन ही मन में कि यह करूं कि वह करूं कि वह करूं, क्या करूं, क्या न करूं। इसमें यह हो जाएगा और उसमें वह हो जाएगा। यह तो चिंता हो गई।
विचार का मतलब यह होता है कि उठा लीजिए कागज, तीन विकल्प हैं, लिख डालिए कि यह एक विकल्प है, यह ऑल्टरनेटिव है, इसमें इतना लाभ होता है, इतनी परेशानी होती है। दूसरा विकल्प यह है, इसमें इतना लाभ होता है, इतनी परेशानी होती है। तीसरा विकल्प यह है, इतना लाभ होता है, इतनी परेशानी होती है। हमेशा राइट डाउन कर लीजिए। अगर चिंता से बचना है तो। जो-जो है साफ लिख लीजिए और तौल लीजिए कि इसमें कौन सा सर्वाधिक शांतिपूर्ण, सुविधापूर्ण, आनंदपूर्ण है। क्योंकि वह हमारा लक्ष्य है। फिर आपको नंबर दो का दिखाई पड़ता है, बस बाकी को पोंछ दीजिए और बात खत्म कर दीजिए। यह नंबर दो को कर डालिए। क्योंकि हम... और यह सब विचार करने का, इसमें कोई चिंता लेने का सवाल नहीं है। चिंता का क्या सवाल है? चिंता लेने का मतलब यह है कि आप शांति खोने का उपाय करने लगे।
प्रश्न:
समझो कि नंबर टू लिया था, उसमें अपनी बुद्धि रांग चली गई थी।
चली जाए। चली जाए।
प्रश्न:
उसमें कुछ मुश्किल ही आती है, उससे परेशानी होगी।
ठीक है। बिलकुल ठीक है। जब हमने चार नंबर चुन, देख लिए थे और काकूभाई ने उनको निर्णय किया। और उनके पास जितनी बुद्धि थी उससे समझ कर उन्होंने नंबर दो चुना। इससे ज्यादा बुद्धि काकूभाई के पास नहीं थी। जो चुना, वह हमारे पास इतनी बुद्धि थी। अब नंबर दो में हम गए और नुकसान हुआ। हमको जानना चाहिए कि मेरे पास इतनी बुद्धि थी, उससे मैंने चुना था, उसमें नुकसान हुआ। उससे ज्यादा बुद्धि मेरे पास है नहीं। इसमें चिंता का क्या सवाल है?
चिंता का सवाल इसलिए पैदा होता है कि काकूभाई हमेशा इस भ्रम में हैं कि मेरे पास ज्यादा बुद्धि थी, मैं और पहले थोड़ा सोचता और चिंता करता, तो मैं नंबर तीन चुन लेता। वह गलती है आपकी। हमारा अहंकार यह मानने को राजी नहीं होता कि हमारे पास सीमित बुद्धि है। और सबके पास सीमित बुद्धि है। चाहे कितनी ही बड़ी हो। हमारे पास सीमित बुद्धि है। और मैंने अपनी पूरी बुद्धि लगा दी थी। अब इसके बाद उपाय नहीं था। जो मैं कर सकता था, वह मैंने किया। नुकसान हुआ। ठीक है। इससे अन्यथा मैं कुछ कर ही नहीं सकता था; क्योंकि मेरे पास बुद्धि थी, वह इतनी थी। और यह मैंने किया, इतना नुकसान हुआ। ठीक है। अब आइंदा मैं देखूंगा कि नंबर दो जैसा गलत फिर दुबारा न चुनूं। बात खत्म हो गई है। क्योंकि अब पीछे लौटने का तो सवाल नहीं है। अब जो हो गया उसको तो अनकिया नहीं किया जा सकता। वह बात खत्म हो गई है।
लेकिन हम क्या करते हैं, अब हम पीछे बैठ कर सोचते हैं कि अगर हमने पहले वाला चुना होता तो बहुत अच्छा होता। अब बेवकूफी की बातें कर रहे हैं। हमने चौथा चुन लिया होता तो बहुत अच्छा होता, उसमें इतना लाभ हो जाता। यह तो झंझट हो गई। नुकसान हुआ।
एक बात हमें जानना चाहिए, जो हो गया वह हो गया। वह अब पत्थर की लकीर हो गई है। अब उसमें कुछ सेंस नहीं है इधर-उधर सोचने का।
प्रश्न:
उसे याद ही नहीं करना चाहिए।
कोई मतलब ही नहीं है न! इसको जानना कि कोई मतलब ही नहीं है अब उसमें। एक अनुभव हुआ जरूर हमें। अब हमें फिर से अपने चार विकल्प उठा कर देख लेना चाहिए, कि अब हमें अनुभव हुआ कि नंबर दो का विकल्प गलत था। नंबर दो को काट डालते हैं। अब तीन बचते हैं। अगर भविष्य में हमें सोचना है, तो अब तीन लाइन पर सोचना है, नंबर दो की लाइन गलत हो गई। और एक अनुभव कीमती हो गया कि नंबर दो की गलती अब नहीं करनी है। बात खत्म हो गई।
तो जीवन की हर भूल-चूक अनुभव बना लेनी चाहिए और मुक्त हो जाना चाहिए। और करिएगा क्या? और ऐसा जो आदमी करता है वह धीरे-धीरे, धीरे-धीरे, धीरे-धीरे ठीक की दिशा में सोचना शुरू कर देता है।
चिंता और विचार में यही फर्क है।
चिंतित आदमी कभी कुछ नहीं सोचता, सिर्फ कनफ्यूज्ड है, भाग-दौड़ करता रहता है।
प्रश्न:
विचारित आदमी कुछ प्रोग्रेस कर सकता है?
विचारित ही आदमी प्रोग्रेस करता है। चिंतित आदमी कैसे प्रोग्रेस करेगा? विचारित आदमी बहुत प्रोग्रेस करता है। तो बाहर के जगत में जो भी प्रोग्रेस है, वह सब विचार से होती है। और भीतर के जगत में...
प्रश्न:
समझो कि दो दिन वह विचार की लाइन में चल जाए, तो निर्विचार में उसकी विपरीतता है।
न, न, न। बिलकुल विपरीतता नहीं है। जैसे कि हम दिन भर जागते हैं, तो जितना आप दिन में जागेंगे तो रात नींद में कठिनाई थोड़े ही होगी, उतनी ही अच्छी नींद आएगी। लेकिन दोनों उलटे हैं। आप कहें कि हम दिन भर जागेंगे तो फिर रात में सोएंगे कैसे? क्योंकि जागना उलटा है; सोना उलटा है। एक आदमी कहे कि हम बहुत मेहनत कर लेंगे तो फिर हम विश्राम कैसे करेंगे? मेहनत उलटी है; विश्राम उलटा है। लेकिन हम जानते हैं कि जितनी मेहनत आप करेंगे, उतना ज्यादा विश्राम करेंगे। जितना जागेंगे, उतने गहरे सोएंगे। जितनी भूख लगेगी, उतना ज्यादा खाएंगे। तो उलटे का जो सवाल है न, पेंडुलम की घड़ी की तरह माइंड चलता है। अगर आप एक्सट्रीम इस कोने तक गए, फिर वहां से रिलैक्स हो जाइए, तो फट से दूसरे कोने पर एक्सट्रीम पर पहुंच जाएंगे।
तो विचार बाहर के जगत के लिए, और निर्विचार भीतर के जगत के लिए। जागना और सोने के तरह का संबंध है उनमें। वे विरोधी नहीं हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
तो जब आप... दिन भर ऑफिस में खूब विचार करिए; मैं नहीं कहता कि ऑफिस में आप ध्यान करिए; खूब विचार करिए। टाइम तय रखिए कि मैं ग्यारह बजे से लेकर पांच बजे तक विचार की दुनिया में रहूंगा। फिर एक सेकेंड के लिए भी वहां दूसरी चीज का सवाल नहीं। पूरा विचार करिए। और पूरी ताकत लगा कर करिए। इतनी जितनी ताकत आप में है, सब लगा दीजिए। पांच बजे तक विचार इतना श्रम कर लेगा कि वह खुद की कहेगा कि अब रिलैक्स हो जाएं।
घर आकर ऑफिस को बंद कर दीजिए फिर दिमाग को कि अब खत्म। अब निर्विचार की दुनिया में आए। अब हम बिस्तर पर लेट कर शांत और ध्यान में जाएंगे। खत्म हो गई वह बात। और वह खत्म हो जाएगी अगर आपने पूरी ताकत से किया तो। क्योंकि जितना हम कर सकते थे छह घंटे, पूरी ताकत लगा कर किया। अब माइंड खुद कहेगा कि अब रिलैक्स हो जाओ, अब बहुत हो गया। और फिर अब ठीक है, ऑफिस से घर आ गए, तो कल ग्यारह बजे तक बिलकुल विश्राम। फिर कल ग्यारह बजे दफ्तर जाते हैं, तो ध्यान को घर छोड़ जाइए, निर्विचार को। और इनमें विरोध नहीं है। और जितना यह कंपार्टमेंट साफ हो जाएगा, जिसको मैं कह रहा हूं कि दोनों विकसित होना चाहिए बाहर और भीतर, इस तरह विकसित होंगे। जब आप विचार की दुनिया में हैं, तो पूरा विचार करिए। जब निर्विचार की दुनिया में हैं, तो पूरे निर्विचार हो जाइए। और इन दोनों में बिलकुल टोटल, होल डूब जाइए। और ये विरोधी नहीं हैं।
प्रश्न:
और सोशियल लाइफ ट्रीटमेंट कितना?
हर चीज के लिए ध्यान उतना ही है... हमारे जीवन का लक्ष्य इतना है कि हम आनंद और शांति से जी सकें। तो हर चीज को उस क्राइटेरियन पर तौलते रहिए कि कितनी सोशल लाइफ, जिससे मेरे आनंद और शांति में बढ़ती होती हो, उतनी, उससे इंच भर ज्यादा नहीं। इंच भर ज्यादा, वह वापस लौट आइए।
सोशल लाइफ का उपयोग है। अकेले नहीं हैं आप। जिंदगी बड़ी है। और बहुत अच्छे लोग हैं जिंदगी में। बहुत से संबंध हैं, उनका उपयोग है, उतना संबंध बांटिए। लेकिन वह बोझ हो जाए कि हमको जाना-आना ही मुश्किल है, अब लेकिन चूंकि सोशल लाइफ है इसलिए जा रहे हैं और उदास वहां बैठे हैं, और सिर ठोक रहे हैं कि कहां फंस गए। सिनेमा नहीं जाना है, लेकिन पत्नी कहती है कि चलो; तो अब उसके साथ बैठे हैं और वहां गाली दे रहे हैं मन ही मन में कि यह कहां लिवा लाई। नहीं, इसमें कोई सेंस नहीं रहा।
तो वह तो हमेशा क्राइटेरियन साफ होना चाहिए, कि मुझे यह-यह है, उतने दूर तक मैं हमेशा तैयार हूं चलने को। अपने मित्रों को, पत्नी को, बच्चों को, सबको कह रखना चाहिए कि मेरा क्राइटेरियन यह है। मैं इतने दूर तक तैयार हूं। उसके आगे खींचोगे तुम, वह मेरे दुख का कारण है। उसके आगे जाने को मैं तैयार नहीं हूं। इतना साफ होना चाहिए। और अपनी सफाई के साथ जीना चाहिए। अगर बिलकुल साफ हो, तो आप धीरे-धीरे-धीरे पाएंगे कि इतना सुख है जीवन में कि जिसका कोई हिसाब नहीं है।
लेकिन हम सब कनफ्यूज किए हुए हैं। और सब क्लम्जि कर लिया है। सब घोलमेल हो गया है। हमें कुछ पता नहीं कि कहां तक जाना है सोशल लाइफ में। चले गए तो बिलकुल चले गए, नहीं गए तो बिलकुल नहीं गए। दोनों हालत में नुकसान होता है। और तब क्या होता है? एक अजीब स्थिति पैदा होती है। बहुत सोशल लाइफ में चले गए, तो दुख होना शुरू होता है। तो फिर बिलकुल सोशल लाइफ छोड़ दी, तो दुख होना शुरू होता है। तो फिर कूद पड़े।
तो ऐसा एक, एक आदमी सिगरेट पीता है, किसी ने कहा, बिलकुल छोड़ देनी चाहिए, तो बिलकुल छोड़ दी। तो तकलीफ हुई। तो फिर कूद पड़े, तो बहुत ज्यादा पी गए। उससे तकलीफ हुई। तो फिर किसी ने समझाया कि सिगरेट पीने से बहुत तकलीफ होगी। फिर बिलकुल छोड़ दी। अब बड़े उपद्रव में पड़ गए।
हमेशा उसे देखना चाहिए कि अगर मुझे सिगरेट पीने से सुख मिलता है, तो कितनी दूर तक, बस उतनी दूर तक ठीक। फिर दुनिया की बात-वात सुनने की जरूरत नहीं है। और मुझे कितनी दूर से दुख मिलना शुरू होता है, तो उतनी दूर तक ठीक, उतनी दूर से मुझे लौट आना चाहिए। ऐसा प्रत्येक चीज के साथ स्पष्ट निर्णय लेने से आदमी साल-छह महीने में बहुत साफ हो जाएगा। और साफ जिंदगी हो तो उतना ही साफ दिखाई पड़ने लगता है उतनी दूर तक।
मगर ये सब शिक्षक और गुरु और ये सब व्यवस्थित होने नहीं देते आदमी को। वे सब खींचते हैं एक-एक दिशा में उसको। और आदमी को सब दिशाओं के बीच जीना है। और सब दिशाओं के बीच एक सिंथेसिस पैदा करनी है।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं है।)
और ध्यान इस पर ही रखा कि विचार नहीं करना है, तो अंततः ध्यान विचार पर ही है, और विचार जारी रहेगा। जरूरत इस बात की है कि विचार के जो केंद्र हैं वहां से ध्यान हट जाए, उसका फोकस हट जाए, फोकस दूसरी चीज पर चला जाए।
तो हमारे व्यक्तित्व में फोकस हमारा धीरे-धीरे विचार पर ही केंद्रित हो जाता है जीवन भर का, और कहीं हटता ही नहीं। जैसे कि एक टॉर्च जला रहे हैं हम और उसमें हमको यह दिखाई पड़ गई खिड़की; टॉर्च हमने दूसरी तरफ घुमा ली, खिड़की दिखाई पड़नी बंद हो गई, दरवाजा दिखाई पड़ने लगा। तो ध्यान जो है, अगर ठीक से समझें, तो चेतना का फोकस है। उसको विचार की तरफ लगाए हुए हैं। और चूंकि बचपन से ही हमारा ध्यान विचार की तरफ लगा दिया जाता है, तो फोकस धीरे-धीरे फिक्स्ड हो जाता है। पढ़ना-लिखना, स्कूल-कॉलेज, फिर धंधा, दुकान, पत्नी, घर-बार, वह पूरे वक्त एक ही केंद्र धीरे-धीरे फोकस हो जाता है।
तो जो टॉर्च मूवेबल थी, कि घूम सकती थी कहीं भी, वह धीरे-धीरे स्थिर हो गई। तो फिर, उसे हटाना हो, तो उसको वहीं लगा कर नहीं हटा सकते। उस फोकस को दूसरी तरफ ले जाइए। जैसे चल रहे हैं तेजी से, तो सारा ध्यान चलने पर ले जाइए। जो शरीर के मूवमेंट हो रहे हैं, गति हो रही है, पैर चल रहे हैं, हाथ हिल रहे हैं, श्र्वास चल रही है, इस पर सारा ध्यान ले जाइए। एकदम से फोकस माइंड से शरीर पर चला जाएगा और विचार बंद हो जाएंगे। फोकस कहीं बदलना चाहिए और विचार बंद हो जाएंगे। फोकस कहीं बदलना चाहिए।
प्रश्न:
समंदर के तट पर ऐसा देख कर सनसेट अच्छा लगता है।
वह अच्छा लगेगा, लेकिन माइंड से यह फोकस जाए। क्योंकि समंदर को भी देखोगे तो तुम सोचोगे कि अहाऽऽ कितना...!
प्रश्न:
कितनी लहरें हैं! कितनी लहरें होती हैं...!
यह चलेगा। यह चलेगा।
प्रश्न:
विचार तो चलते ही आएंगे, चल रहे हैं ये सब, भोजन करते वक्त भोजन कर रहा हूं, विचार रहा हूं कि भोजन कर रहा हूं।
यह अगर इसको सोचा कि मैं भोजन कर रहा हूं, तो विचार है। नहीं, भोजन करने की जो क्रिया चल रही है, सारा फोकस उस पर। भोजन करने की क्रिया है। जैसे मेरा यह हाथ है, यह मैंने उठाया, अब इसमें दो बातें हुईं: या तो मैं सोचूं कि हाथ उठ रहा है, तो हाथ के एक तरफ रहा मेरा फोकस, फिर हाथ उठ रहा है इस विचार चल रहा। विचार का सवाल नहीं है। यह हाथ उठ रहा है, इसका जो मूवमेंट हो रहा है, सारा ध्यान इस मूवमेंट पर है। इसको मैं विचार नहीं रहा कि हाथ उठ रहा है, हाथ उठने का जो मूवमेंट चल रहा मेरे भीतर, सारा ध्यान मेरा उस पर है। और तब आप देखें एक हाथ को उठा कर, और दोनों का फर्क खयाल में ले लें। फर्क बारीक है। आप उसको सोचें मत की हाथ उठ रहा है, हाथ उठ रहा है इसको अनुभव करें। और तब विचार नहीं बनेगा, तब सारा फोकस हाथ के उठने पर चला जाएगा।
तो जब मैं कहता हूं कि चल रहे हैं आप, तो ऐसा आपको सोचना नहीं है कि मैं चल रहा हूं; क्योंकि आपने अगर यह सोचा, तो फोकस तो यहां हो गया, चलना तो दूर रह गया। चलने की जो गति हो रही है, वह जो गति की क्रिया हो रही पूरी की पूरी, उस पूरी क्रिया पर फोकस हो, सोचना-वोचना नहीं है, तब फोकस हटेगा वहां से। समुद्र पर भी हट सकता है, लेकिन सोचें मत। इसलिए कठिन है क्योंकि समुद्र पर सोचने की आदत है हमारी। कि यह समुद्र है, लहरें उठ रही हैं, बड़ा अच्छा है, बड़ा सुंदर है। यह हमारी खराबी क्या हो गई कि हमारी जो सारी ट्रेनिंग है बचपन से, वह प्रत्येक चीज को विचार में परिवर्तित करने की है। फूल दिखा, फौरन मन कहेगा, गुलाब का फूल है, बड़ा अच्छा है।
बचपन से हमारा सारा जो प्रशिक्षण है हमारे जीवन का, वह वस्तुओं को शब्द में परिवर्तित करने का है। और उस वजह से बड़े विचार में हम पड़े हैं। और वह हमारी इतनी पक्की आदत हो गई कि हमने देखा नहीं कि हमने उसको शब्द में बनाया नहीं।
अब दूसरी क्रिया सीखनी जरूरी है कि हम चीजों को देख सकें, क्रियाओं को देख सकें और शब्द में रूपांतरित न होने दें। तो जितनी दूर की चीज होगी, उतनी मुश्किल पड़ेगी। जितनी निकट की होगी, और आपके शरीर के भीतर होगी, उतनी आसान पड़ेगी।
इसलिए बुद्ध ने श्र्वास पर सारा जोर दिया। क्योंकि निकटतम जो हमारे प्राणों के है वह श्र्वास है।
प्रश्न:
तो उसी को देख कर ध्यान करें?
श्र्वास को ही ध्यान करें। श्र्वास नीचे गई, ऊपर गई। यह मैं कह रहा हूं समझाने के लिए। उसका ऊपर जाना, नीचे जाना! ऊपर गई, नीचे गई, यह तो विचार हो गया। जाना-आना उसकी क्रिया है, उस क्रिया पर सारा फोकस। तो थोड़ी देर में आप पाएंगे कि निर्विचार हो गए। क्योंकि माइंड एक साथ दो काम नहीं कर सकता। फोकस एक ही साथ दो जगह नहीं हो सकता।
और इसलिए यह होता है कि अभी एक आदमी आए और एक छुरा लेकर छाती पर खड़ा हो जाए, आपका विचार एकदम बंद हो जाएगा; क्योंकि सारा फोकस छुरे पर हो जाएगा। एक सेकेंड बाद आपको खयाल आएगा कि बचने के लिए क्या करूं। लेकिन एक सेकेंड के लिए सारी कांशसनेस टूट जाएगी पुराने सिलसिले से, क्योंकि इतना बड़ा आघात है सामने कि एकदम से पैटर्न जो है बंधा हुआ टूट जाएगा और आप चौंक कर खड़े हो जाएंगे।
आप कार चला रहे हैं, और एकदम से एक बच्चा सामने आ गया, और आप एकदम से ब्रेक मारते हैं, एक सेकेंड के लिए फोकस टूट जाएगा विचार का बिलकुल, फोकस में कार रह जाएगी, बच्चा रह जाएगा। और यह भी खयाल नहीं रह जाएगा कि बच्चा आया और मर जाएगा, यह भी नहीं। यह भी पीछे, ऑफ्टर इफेक्ट होगा। पीछे खयाल आएगा कि मर जाता बच्चा, यह हो जाता। लेकिन उस सेकेंड में सिर्फ मूवमेंट रह जाएगा। और अगर आपने सोचा, तो बच्चा मरा। अगर सिर्फ मूवमेंट नहीं रहा, तो बच्चा मर जाने वाला है। क्योंकि उतनी देर में तो फिर ब्रेक नहीं लगाया जा सकता। सोचने में जितना समय गिर जाएगा, वह गया।
और इसलिए जब भी आपको कार या ऐसी जगह एक्सीडेंट की हालत में जब आप हों, बाद में आप वह खयाल करेंगे तो आप पाएंगे कि सारी चोट आपकी नाभि पर पहुंचेगी। एकदम से आपने ब्रेक लगाया और गाड़ी रुकी, तो आप पाएंगे, आपकी बॉडी में जो जगह सबसे ज्यादा प्रवाहित हुई वह नाभि हुई। और वह इसलिए होगी कि सारा फोकस नाभि पर चला जाएगा एकदम। क्योंकि जीवन की जितनी क्रियाओं का संबंध है उनका नाभि से संबंध है। और विचार की जितनी क्रियाओं का संबंध है उनका मस्तिष्क से संबंध है।
इसलिए जापान में उन्होंने नाभि के उठने-गिरने पर कनसनट्रेशन को बनाने के लिए कहा कि फोकस नाभि पर ले जाओ। इधर साधना-पथ में मैंने कहा कि फोकस नाभि पर ले जाओ।
प्रश्न:
तो जो झेन लोग हैं...
वे सिर्फ नाभि पर, वे कहते हैं, कुछ और करने की जरूरत नहीं, बस नाभि पर ध्यान चला गया तो सब ठीक हो जाएगा। क्योंकि नाभि जो है, वह बॉडी का जितना मूवमेंट हो रहा है, उस सबका सेंटर है। और स्वाभाविक, मां के पेट में सबसे पहले पैदा होने वाली चीज वह है। और मां के शरीर से जुड़ी हुई चीज वह है। मां के शरीर से सारी गति, सारी फोर्सेस नाभि से ही फैलती है। तो नाभि हमारा सेंटर है बॉडी का।
माइंड एक नया सेंटर बना लिया है इधर। पशु-पक्षियों में वह नहीं है, वे सिर्फ नाभि से जी रहे हैं। इसलिए उनका मूवमेंट एकदम प्योर, स्पांटेनियस है।
एक बिल्ली बैठी है चूहे को पकड़ने को, सोच-वोच नहीं रही कि चूहा आएगा तो पकड़ लूंगी, चूहा आया और पकड़ा। यह विचार नहीं है उसका, प्योर मूवमेंट है। बस बैठी है, वह सोच नहीं रही कि चूहा निकलेगा तो अपन पकड़ लेंगे। सोचने-वोचने का सवाल नहीं है। नाभि पर सब-कुछ गति हो रही है। बैठी है बस। तैयार है बिलकुल। चूहा आया, वह यह नहीं सोचेगी कि चूहा आया अब मैं पकडूं, यह इतनी फुर्सत नहीं है, चूहा आया कि पकड़ना हुआ।
जापान में एक बहुत प्रसिद्ध कहानी है, झेन फकीर कहते हैं। शायद कभी मैं कहा। एक घर में एक बहुत बड़ा सिपाही था, तलवारबाज था बहुत बड़ा। और वहां बड़ा आदर है सिपाही और तलवारबाज का। वह इतना बहादुर योद्धा था कि उसने सब विजय कर लिया, बड़े-बड़े उसने ड्यूअल लड़े, और आखिर में वह जापान का सबसे बड़ा तलवार चलाने वाला हो गया। वह राजधानी से सम्मानित होकर लौटा।
जिस कमरे में वह सोया, उसने देखा कि एक चूहा दौड़ रहा है, उसकी नींद में बाधा डाल रहा है। तो वह गुस्से में उठा, तो वह चूहा अपने बिल में हो जाए। तो उसका क्रोध बढ़ता ही चला गया। वह कोई साधारण आदमी नहीं था। उसने तलवार निकाल ली। जरा सा चूहा और मुझे यानी चिढ़ा रहा है। क्योंकि जब वह लेट जाए, तो वह चूहा बाहर मुंह निकले। और वह तो आदमी वह था कि जरा-से से चिढ़ जाए और तलवार से जूझ पड़े। इतना सा चूहा और मुझे इतना सता रहा है। तो उसने तलवार खींच ली। जिन तलवारों से वह योद्धाओं से लड़ा था उससे वह चूहे से लड़ने की कोशिश करने लगा। अब वह चूहा तो मूवमेंट से चलता है, वह तलवार देखे, तो वह अंदर हो जाए। तो वह छिपा खड़ा रहा। जब वह चूहा बाहर निकला, तो उसने जोर से तलवार मारी, तलवार फर्श पर जाकर लगी, चूहा तो अंदर हो गया, तलवार के चार टुकड़े हो गए।
अब तो उसके क्रोध का ठिकाना नहीं रहा कि यह तो हद हो गई। यानी वह कभी वार नहीं चूका था, किसी आदमी पर उसका वार यानी आखिरी वार था, और एक चूहा! उसको तो, पागल हो गया वह बिलकुल। और भागा निकल कर बाहर और अपने मित्रों से कहा कि हद हो गई, मेरी तलवार जो...!
तो मित्रों ने कहा: तुम बिलकुल पागल हो, तुम भी चूहे से लड़ने लगे। चूहे की तो एक-एक गति स्पांटेनियस है। वह कोई सोचता थोड़े ही कि तुमने तलवार चलाई इसलिए बच जाओ। और दूसरा आदमी जो तुम्हारे सामने लड़ता था अपनी तलवार और ढाल लेकर, वह सोचता था कि तुमने तलवार चलाई तो बचूं। जितनी देर में सोचता था उतनी देर में तुम्हारी तलवार घुस जाती थी भीतर।
चूहा सोचता थोड़े ही, वह तो गति करता है। तलवार, यानी अंदर। वह सोचेगा थोड़े ही कि तलवार आ रही है। तो वह जो फासला है, जो डिस्टेंस है, वह डिस्टेंस नहीं है--तुम तलवार से चूहे को नहीं मार सकते। तुमको चूहा मारना है तो बिल्ली लाओ। आदमी चूहा नहीं मार सकता। बहुत मुश्किल मामला है उसका मारना। क्योंकि वह जब तक सोचेगा, वार करेगा, तब तक वह तो मूव कर जाएगा। उसकी गति तो उधर सोच-विचार के लिए तो कंपन ही नहीं, कंपन सीधे हैं, और इमिजिएट हैं। तुमने गलती की, व्यर्थ तलवार तोड़ ली। तुम सिर्फ एक बिल्ली ले आते, वह फौरन उसे खत्म कर देती।
तो कल वह एक बिल्ली को पकड़ कर लाया। गांव में जो सबसे अच्छी बिल्ली मजबूत थी, जिसने बड़े-बड़े चूहे मारे थे, उसको पकड़ लाया। बिल्ली को लाया गया। और उसको जबर्दस्ती बांध कर लाया गया, उसके गले में सांकल डाल कर। वह बिल्ली ऐसे डरे पहले से ही। उसको जब सांकल से बांध कर लाए, तो वह घबड़ाई की मामला क्या है? और जब जबर्दस्ती उसको अंदर करके दरवाजा बंद कर दिया, जब दरवाजा खुला तो बिल्ली एकदम बाहर भाग गई। चूहा-वूहा तो उसने मारा नहीं था।
तो वह बड़ा हैरान हुआ! तब तो यह शक हुआ कि चूहा कुछ मिरैकुलस है। तलवार भी तोड़ दी उसने और बिल्ली को भगा दिया! और बिल्ली कुछ भी न कर पाई। जब वह अंदर आया तो वह चूहा झांक रहा था उसमें से, वह देख रहा है। तब तो यह हुआ कि यह चूहा साधारण नहीं है। और वह बहुत घबड़ा गया। और उसने मित्रों को कहा, तो उन्होंने कहा कि भई, अगर ऐसा है, तो राजा के पास एक मास्टर कैट है। वह बिल्ली तो श्रेष्ठतम है मुल्क की। वह तो राजा के महल की बिल्ली है, उसने बड़े-बड़े चूहे मारे हैं। और राजा ने उसको पाला है। इसलिए मास्टर कैट लानी पड़ेगी। यह साधारण चूहा नहीं है। साधारण बिल्ली के बस का नहीं है। बिल्ली भाग कर निकल गई। और बिल्ली बेचारी कुल इसलिए भाग कर निकल गई कि उसे चूंकि बांध कर लाया गया, वह घबड़ा गई कि मामला क्या है अंदर? उसको तो समझ में नहीं आया कि चूहा है अंदर। वह तो सिर्फ घबड़ा गई। वह जब उसको बंद कर दिया, तो और डर गई। दरवाजा खुलते से ही वह निकल कर बाहर भागी, और ये सब समझे कि चूहे ने उसको डरवा दिया।
तो वे राजा के पास गए और कहा कि हम बड़ी मुश्किल में पड़ गए हैं। बिल्ली लाए थे तो बिल्ली भाग गई, और चूहा बड़ा अजीब है। और अपना जो बड़ा योद्धा है उसकी तलवार तोड़ दी चूहे ने। और योद्धा रात भर सो नहीं सका। और उसका दिमाग बिलकुल खराब हो गया। वह कहता है, चूहे को मार कर रहूंगा। मेरी तलवार तोड़ दी! मैंने बड़े-बड़े योद्धा जीते!
तो राजा ने कहा कि, राजा समझा, उसने कहा: मास्टर कैट मेरे पास है। लेकिन बांध कर मत ले जाना, एक बात। और कमरे के भीतर मत छोड़ना, घर के बाहर छोड़ना। तो बातें शर्त हैं। यह बिल्ली ऐसी है कोई कैसा ही चमत्कारी चूहा हो, उसको खत्म कर देगी। लेकिन दो शर्तें हैं। एक तो बांध कर नहीं ले जा सकोगे, और घर के बाहर छोड़ना, कमरे के अंदर नहीं।
उस बिल्ली को लाए और घर के बाहर छोड़ दी, वह घर के बाहर घूमती रही, फिर अंदर आई, फिर उस कमरे में गई, और एक दो सेकेंड में चूहे को लेकर बाहर आ गई।
बड़ी प्रशंसा हुई उस बिल्ली की। और राजा से पूछा उस योद्धा ने कि यह मास्टर कैट दिखती तो साधारण, इसमें मास्टर कैट वगैरह कुछ भी नहीं पाया।
बिल्ली तो मीलों से पता लगा लेगी कि चूहा कहां है। तुमको उसे वहां छोड़ने की जरूरत नहीं है। वह तो सुराग खोज लेगी कि वह कहां है। बिल्ली का पूरा बीइंग चूहे की खोज में है। वह थोड़े ही उसको बिल के पास छोड़ने की जरूरत है। उसकी पूरी आत्मा चूहे की खोज कर रही है। वह कोई सोच-विचार थोड़े ही कर रही है। बिल्ली के होने का मतलब चूहे की खोज। वह जो कहा न, उसका होना ही चूहे की खोज है। यदि तुम उसको बिल के पास छोड़ दो तो वह घबड़ा जाएगी। और डर भी सकती है। और चिंतित भी हो सकती है कि ऐसा कैसा चूहा है कि उसके पास लाकर छोड़ा। उसको बाहर छोड़ दिया मकान के। वह थोड़ी देर घर के भीतर आई। जगह-जगह उसने सूंघी, और वह पहुंच गई बिल के पास।
फिर कहानी और आगे यह कहती है कि फिर गांव भर की बिल्लियां इकट्ठी हुईं उस बिल्ली से पूछने को कि हम तो डर गए थे और हमारी बिल्ली भाग आई थी। तुमने कैसे मारा?
उसने कहा: इसमें बात ही क्या है, मैं बिल्ली हूं, वह चूहा है। इसमें कैसे मारा, यह सवाल नहीं है, मैं बिल्ली हूं, वह चूहा है। वह मर लेता है, मैं मार देती हूं। और इन दोनों का बीइंग है। इसमें कोई सोच-विचार थोड़े ही है कि मैंने उसको कैसे मारा, क्या तरकीब लगाई। वह योद्धा इसीलिए तो हार गया, उस बिल्ली ने कहा, कि वह सोच-सोच कर हमले करने लगा। वह बिल्ली इसीलिए तो भाग गई कि वह विचार में पड़ गई कि मामला क्या है। मैं तो बिल्ली हूं, वह चूहा है। वह निकला और मैंने उसको पकड़ा।
अब इन दोनों के बीच में विचार नहीं है। इन दोनों के बीच में कहीं कोई...। विचार का जितना फासला है, उतने ही हम दूर होते चले जाते हैं। और निर्विचार में जब कोई आदमी जीने लगता है, तो समस्याएं भी उसके लिए इसी तरह हो जाती हैं जैसे बिल्ली और चूहा। समस्या सामने आई और उसने मारी। उसमें सोच-विचार नहीं है कि वह उस पर सोचता है, कि आपने एक समस्या उसके सामने रखी तब वह सोचने लगा। सोचने लगा तो बात गई। समस्या उसके सामने आई, तो जैसे उस बिल्ली ने कहा कि मैं बिल्ली हूं, और बिल्ली के होने का मतलब यह है कि चूहे की खोज है, चूहे को पकड़ लेना है।
निर्विचार चेतना चेतना है और चेतना का मतलब है कि समस्या को पकड़ना और हल कर लेना। सोच-विचार का सवाल नहीं है।
प्रश्न:
तो यह निर्विचार में कोई शक्ति पैदा हो जाती है?
निर्विचार परिपूर्ण शक्ति है। वह समस्या सामने आई कि वह पकड़ी गई और वह टूटी। उसके टूटने में उसे कुछ करना नहीं पड़ता। यह इतना ही ऑटोमैटिक है जैसे बिल्ली ने चूहे को देखा और चूहा गया।
तो वह जो हमारा सारा फोकस धीरे-धीरे एक ही बात, हमारा पूरा व्यक्तित्व एक ही काम, उस वक्त तो कोई भी तीव्र गति पर, और वह शरीर की हो उतने ही फायदे की है। जोर से चल रहे हैं, और धीरे मत चलें, क्योंकि धीरे आप चलेंगे तो फोकस आप नहीं ले जा सकते हैं। तेजी से चल रहे हैं। इतनी तेजी से चल रहे हैं कि सारा व्यक्तित्व चलने में परिवर्तित हो गया है। चल रहे हैं सिर्फ। और अब सारे फोकस को इस चलने पर ले जाएं, यह मत सोचिए कि मैं चल रहा हूं, यह जो चलने की क्रिया हो रही है यह क्या है, बस माइंड इस पर ही लगा रहे। तो आप थोड़ी देर में पाएंगे, जयंतीभाई नहीं हैं यहां पर, बस एक चीज चल रही है, तेजी से मूवमेंट हो रहा है। और वह मूवमेंट ही थोड़ी देर में रह जाएगा जब फोकस में है, तो एकदम मन, एकदम शांत हो जाएगा। और वह जो शांति होगी वह बहुत और ही तरह की शांति है। वह आपकी चेष्टा से नहीं आई है, वह सहज आ गई है। इस तरफ से मन हट गया, उधर आ गई है। मगर अधिक लोग वह उसी दिक्कत में पड़ जाते हैं।
प्रश्न:
बस यह मन हटने वाली बात की वजह से, वह विचार वाली बात खड़ी हो जाती है, सबसे बड़ी बात यहीं आकर अटकती है।
हां।
प्रश्न:
भगवान, माइंड हम लोगों ने डवलप किया है?
बिलकुल डवलप किया है।
प्रश्न:
अच्छा। यह नाभि, असल जो सेंटर वहां है। लेकिन माइंड हम लोगों ने डवलप किया अपने आप?
माइंड जो है बिलकुल ह्यूमन अन्वेषण है। और इसलिए साइड ट्रैक हो गया हमारा व्यक्तित्व। मेरी अपनी समझ यह है कि पशु-पक्षी सभी हमसे ज्यादा आनंद में हैं। आदमी कुछ केंद्र से च्युत हो गया। तो जहां से उसका जीवन गतिमान हो रहा है वहां उसका सेंटर नहीं रहा। उसने एक नया सेंटर विकसित कर लिया है। जो बिलकुल ही उस जीवन के केंद्र से बहुत दूर है। उसकी जरूरत थी, उस सेंटर की जरूरत थी--जैसे हमारे हाथ-पैर की जरूरत है। और कुछ खास वजह से वह विकसित हुआ। लेकिन धीरे-धीरे हमारा पूरा प्राण ही वहां केंद्रित हो गया, वह गलती हो गई।
मस्तिष्क की जरूरत है, विचार की जरूरत है। लेकिन जरूरत वैसी है जैसे कि मेरे पैर की जरूरत है। जब मुझे चलना होता है तो पैर चलते हैं, जब नहीं चलना होता है तो पैर चुप हो जाते हैं। एक आदमी ऐसा हो कि बैठा हो और पैर चलाता रहे और वह कहे कि मेरी तो चलने की आदत पड़ गई है, तो हम कहेंगे, इसका दिमाग खराब हो गया। इसका पूरा प्राण पैरों में केंद्रित हो गया आकर। अब पैर चलने का काम नहीं करते--अब यह चलने के सिवाय कुछ करता ही नहीं, बैठा है तो भी टांग चला रहा है। माइंड के साथ ऐसी भूल हो गई है।
माइंड--जब आपके सामने एक समस्या हो, तो काम करना चाहिए। जब समस्या न हो, तो जैसे पैर, नहीं चलने की जरूरत, तो बंद पड़े हैं, ऐसा माइंड बंद हो जाना चाहिए। सेंटर हमेशा वापस नाभि पर चला जाना चाहिए। आए, माइंड पर काम करे, फिर वापस लौट जाए। उतनी देर में माइंड फिर ताजा हो जाए, फिर तैयार हो जाए। और जब फिर जरूरत पड़े, तो फिर उपस्थित, दौड़े और माइंड को फिर भर दे, और फिर आप देख लें, फिर वापस लौट जाएं।
जैसे आपने एक प्रश्न किया, तो मैंने आपसे बात की, आपका प्रश्न खत्म हुआ, मैं वापस लौट गया। इस कमरे के आप बाहर गए, मैं वापस लौट गया, माइंड का काम खत्म, कोई जरूरत न रही। लेकिन हमारा माइंड रुग्ण हो गया है। जरूरत-गैर-जरूरत वह चले चला जा रहा है। कोई नहीं है, कोई समस्या नहीं है, कोई प्रश्न नहीं है और वह चल रहा है, चल रहा है, चल रहा है। तब परिणाम यह होता है कि जब समस्या आएगी, तब वह इतना थका हुआ रहेगा कि उसको पकड़ भी नहीं पाएगा, उसकी शक्ति इतनी खोई हुई रहेगी... अब जैसे एक आदमी चौबीस घंटे पैर चला रहा है, और अब चलने का वक्त आ गया, तो वह कहता है कि मेरे तो पैर दुख रहे हैं, मुझसे तो चला नहीं जाता, क्योंकि मैं तो काफी चल चुका हूं। और बैठा है और पैर चला रहा है। तो जब भागने का वक्त आ जाए, तो वह गिर पड़ेगा। और जब बैठने का वक्त था, तब वह बेवकूफ पैर चला रहा था!
माइंड की हमने हालत आदमी ने ऐसी कर ली कि जब उसकी जरूरत नहीं तब आप चला रहे हैं। और जब जरूरत आती तो तब आप पाते हैं कि अब कुछ समझ में नहीं आ रहा कि अब क्या करें क्या न करें!
हर वक्त वापस लौट जानी चाहिए एनर्जी। सेंटर पर वापस हो जानी चाहिए। जब जरूरत होगी तब फिर पुकार ली जाएगी। जैसे कि आपको रुपये की जरूरत होती है तो आप खीसे से निकालते हैं बाहर, ऐसा हाथ में लिए उछालते हुए नहीं फिरते, फिर वापस रख देते हैं खीसे में। एक आदमी ऐसे रुपये उछालते हुए चलने लगे--हम ऐसे चल रहे हैं। माइंड, माइंड--बस वहीं उबल रहा है सब-कुछ।
और वह बचपन से ही हम दूसरे केंद्रों को विकसित नहीं करते, उससे तकलीफ हो जाती है। बच्चे के बस एक ही केंद्र पर जोर है। स्कूल की शिक्षा एक ही केंद्र की है। पैदा नहीं हुआ बच्चा कि एक ही बात की चेष्टा है। हम इसको... यानी इतने ऑल्टरनेटिव हैं आदमी में। जैसे कि एक घर में एक आदमी रहता हो और बचपन से एक ही दरवाजे से निकलने की उसे ट्रेनिंग दी गई हो, उसे पता ही न हो कि और दरवाजे भी हैं, और जब भी निकलने का सवाल हो बस उसी से। वैसा हमारे व्यक्तित्व में और भी केंद्र हैं, और उनसे निकलने की हमें कोई आदत नहीं है, बस एक ही केंद्र से हमें निकलने की और जुड़ने की आदत है। और वह बहुत कृत्रिम केंद्र है।
उसकी जरूरत है, और बहुत जरूरत है, लेकिन वह जितना कम चले उतना ज्यादा उपयोगी है। उस जाल में हम पड़ गए हैं, वह जो, वह मामला ऐसा हो गया जैसे कि एक आदमी के दोनों हाथ ही काम करें और सारे व्यक्तित्व की शक्ति धीरे-धीरे, धीरे-धीरे, धीरे-धीरे दोनों हाथों में ही केंद्रित हो जाए, वह दो हाथ ही रह जाए आदमी, और हाथ के अलावा वह कोई काम न कर सके, और सारा व्यक्तित्व सिकुड़ कर छोटा हो जाए और हाथ बड़े-बड़े लंबे हो जाएं, तो वह जो आदमी जैसा बेढंगा हो जाएगा, वैसे हम हो गए हैं।
माइंड का एक यंत्र एकदम विकसित हो गया है, टू मच फंक्शनिंग है वहां। और बाकी सब केंद्र...। पर इसके व्यापक परिणाम हुए हैं। इसके व्यापक परिणाम होने ही थे। सबसे व्यापक परिणाम यह हुआ है... कि सब चीजों को हम शब्द में परिवर्तित कर लेते हैं। उससे जीवन की जरूरी चीजों को भी हमने शब्द में परिवर्तित कर लिया है।
जैसे कि एक आदमी भोजन कर रहा है, तो भोजन करने से मस्तिष्क का कोई लेना-देना नहीं है। भोजन करने का पूरा यंत्र दूसरा है। मस्तिष्क से कोई भी लेना-देना नहीं है, सिवाय इसके कि मस्तिष्क आपको खबर देता है कि भूख लगी है। मस्तिष्क से, आप उठ कर चौके तक जाते हैं, या खाना इकट्ठा करते हैं, बस इससे ज्यादा जरूरी काम नहीं है। जरूरी काम मुंह का है, जीभ का है, लार का है, गले का है, पेट का है, आमाशय का है, इस सबका है भोजन का जरूरी काम। लेकिन हमने भोजन--हमारी चूंकि आदत बन गई हर चीज को विचार में बदलने की, हमने भोजन को भी विचार में बदल लिया।
जब आप बैठे हैं तब आप भोजन के बाबत सोच रहे हैं कि क्या खाना चाहिए, खाएंगे तो कितना आनंद आएगा, ये सब शब्द हैं। और जब आप खाना खाने बैठे हैं, तब आपको खाने को कितनी तल्लीनता से खाने की क्रिया करनी चाहिए, उसका कोई सवाल नहीं है। तब आपका मस्तिष्क दूसरे धंधे कर रहा है। तब उस खाने को पूरा आप खा नहीं पा रहे, कितना चबाना चाहिए उतना चबा नहीं पा रहे।
जो आदमी खाते वक्त जितना सोचेगा, उतना कम चबाएगा, उतना जल्दी वह गटकता चला जाएगा। जितना कम सोचेगा, उतना पूरा चबाएगा। जानवर बिलकुल परफेक्ट चबाएगा, उसमें रत्ती भर कमी नहीं होने वाली है। जितना चबाना हो उतना ही चबाएगा। उतना चबाएगा तो ही गटकेगा, उसके पहले गटकने का सवाल नहीं है उसे। क्योंकि वह कोई दूसरा काम कर नहीं रहा है, सिर्फ खाना ही खा रहा है। तो ऐसा कभी नहीं है कि एक जानवर को यह हो जाए कि डॉक्टर यह कह दे कि इसने कम चबाया हुआ खा लिया। वह कम चबाया हुआ तो भीतर ले जाता ही नहीं है। सारा यंत्र काम कर रहा है पूरे परफेक्शन में अपने। जब वह पूरा चब जाता है तब गले से नीचे उतरता है। जब पूरी लार मिल जाती है तब वह गले के नीचे उतरता है।
तो जानवर को खाने में जो आनंद आ रहा है, वह हमको नहीं आ सकता। क्योंकि खाने का आनंद लेने वाला जो यंत्र है, वह फंक्शन ही पूरा हमारा नहीं कर पा रहा। और हम आनंद लेना चाहते हैं सोच कर, और सोच कर खाने से कोई संबंध नहीं है। तो एक आदमी बैठा-बैठा सोच रहा है कि इतनी अच्छी-अच्छी चीजें खाऊंगा, बड़ा आनंद आएगा। और सोचने से आनंद का, उस खाने का कोई संबंध नहीं है।
ऐसी स्थिति सेक्स की हो गई है--कि आदमी सोच रहा है, सेक्स को भी कनवर्ट कर लिया उसने सोचने में। तो वह सोच रहा है। कामुकता की तस्वीरें सोच रहा है। संबंध नहीं है अनुभव का, उससे कुछ लेना-देना नहीं है। तो वह यह सब सोचने में लगा हुआ है। लेकिन बेसिक सेक्सुअल एक्ट के वक्त वह पाएगा कि कुछ वह नहीं पा रहा है, कुछ आनंद नहीं है, कोई अर्थ नहीं है। वह बड़ी परेशानी हो गई। जब सोचता है, तो बड़ा रस मालूम होता है। जब क्रिया में उतरता है, तो बात अलग होती, कोई रस नहीं है वहां। और जब क्रिया में रस नहीं पाता, तो फिर और सोच-सोच कर रस लेने की कोशिश करता है, क्योंकि क्रिया में रस मिला नहीं, तो सोच-सोच कर। और जितना सोचता है उतना क्रिया की तरफ जाता है; और जब क्रिया में जाता है तब फिर पाता है कि रस नहीं है।
सेक्स का आनंद पशु-पक्षी ले रहे हैं, आदमी नहीं ले रहा। और इसलिए आदमी फिर दूसरी चीजें ईजाद कर रहा है। घर में एक नंगी तस्वीर लटकाए हुए है। सब्स्टीट्यूट खोज रहा है। एक चित्र देख रहा है नंगा, अश्लील। एक कहानी पढ़ रहा है नंगी, अश्लील। यह सब्स्टीट्यूट खोज रहा है वह।
जैसे खाने में सब्स्टीट्यूट खोज रहा है। खाना अगर वह ठीक से खाए, तो न मिर्च की जरूरत है उसमें, न मसाले की जरूरत है। क्योंकि ठीक से चबाया गया और ठीक से खाया गया इतना स्वादपूर्ण है। लेकिन वह ठीक से खा नहीं रहा है। और स्वाद चाहिए। तो सब्स्टीट्यूट ला रहा है वह। तो वह कह रहा है कि फिर मिर्च डालो। तो मिर्च जबर्दस्ती उसके मुंह में जाकर लार को निकाल देती--जबर्दस्ती। जो चबाने से निकलनी चाहिए थी, वह फोर्सफुली मिर्च जाती है और तेज असर करती है और लार फेंक देता है मुंह। तो जब वह बिना मिर्च के खाता है, वह कहता है, कोई स्वाद नहीं आ रहा। क्योंकि लार जो चबाने से निकलनी थी, जब वह तीस-पैंतीस दफे चबाता, तो लार ऑटोमैटिकली निकलती है, और स्वाद आता है। लेकिन उतनी फुर्सत नहीं है। न उसका फिकर है उसे, न खयाल है। चिंतन में लगा हुआ है वह। तो अब वह एक जबर्दस्ती करवा रहा है। सेक्सुअल एक्ट के साथ भी वही हो गया, कि सेक्सुअल एक्ट अपने आप में उसे आनंदपूर्ण नहीं रहा। तो सब्स्टीट्यूट खोज रहा है। और सब्स्टीट्यूट बढ़ाता चला जा रहा है।
लोग समझते हैं कि जिस समाज या जिस संस्कृति में गंदी फिल्में बनती हों, गंदी किताबें लिखी जाती हों, गंदे पोस्टर, गंदे चित्र बनते हों, गंदे गीत गाए जाते हों, तो वह समाज बहुत सेक्सुअल है। यह बात बिलकुल गलत है। यह इस सबका बढ़ता हुआ प्रचार इस बात का सबूत है कि समाज ने सेक्स के बेसिक एक्ट को खो दिया है। जो रस उसे सेक्सुअल एक्ट से मिलना था वह उसको नहीं मिल रहा है। वह सब्स्टीट्यूट ईजाद कर रहा है।
एक आदिवासी है जंगली, उसके सामने तुम नंगी औरत की तस्वीर रखो, वह कहेगा कि किसलिए? क्या? क्या मतलब है? यानी इसका मतलब क्या है? क्योंकि जो बुनियादी कृत्य है यौन का, उसने इतना रस पाया है, कि तुम्हारी नंगी तस्वीर कोई मतलब नहीं रखती। यानी वह ऐसे ही है कि जिस आदमी ने भोजन का पूरा आनंद लिया है, उसके सामने भोजन की तस्वीर ले जाकर रखो, तो उसको क्या आनंद आएगा। एक भूखा आदमी है, उसके सामने तुम अच्छी भोजन की एक तस्वीर ले जाकर रखो, वह उसको बड़े गौर से देखेगा और कहेगा, बड़ी प्यारी है। मेरा मतलब समझे न?
अब यह, अगर यह आदमी कहता है कि बड़ी प्यारी है, बड़ी सुंदर लग रही है, बहुत अच्छी मालूम होती है, मैं तो इसको अपने घर में लटकाऊंगा। तो इसका सबूत, इसका मतलब यह है कि आदमी भूखा है। इसे भोजन का कभी आनंद नहीं मिला। नहीं तो, नहीं तो वह कहता कि यह काहे के लिए बनाई।
ठीक वही हालत है, अगर सेक्स का एक्ट पूर्ण और आनंद से भरा हुआ है, तो नंगी तस्वीर और अश्लील किताबें, वह आदमी कहेगा, ये किसलिए लिखी हैं? इनकी जरूरत क्या है? और ये इतनी व्यर्थ मालूम होंगी, इतनी बेवकूफी से भरी हुई मालूम होंगी, जिसका कोई हिसाब नहीं।
लेकिन हम उलटी बात समझ रहे हैं। सारी दुनिया में लोगों को यह खयाल है कि जिस समाज में, जितनी नंगी तस्वीरें लटकी हैं, जितनी औरतों को अर्द्धनग्न करके घुमाया जा रहा है, वह समाज उतना सेक्सुअल है। यह बात उलटी है। वह समाज उतना कम सेक्सुअल है और बेसिकली इंपोटेंट होता जा रहा है। वह समाज बेसिकली इंपोटेंट होता चला जा रहा है। इधर वह नंगी तस्वीरें लटका रहा है, अश्लील किताबें लिख रहा है, गंदी फिल्में बना रहा है और उधर जाकर वह चिकित्सक से पूछ रहा है कि मैं इंपोटेंस अनुभव कर रहा हूं।
अब यह जरा इसको सोचने जैसा है, क्योंकि यहां तो यह सब कर रहा है, यह बड़े मजे की बात है। और वह उधर चिकित्सक के पास जा रहा है कि मैं क्या करूं? मैं तो बिलकुल निःसत्व मालूम होता हूं। स्त्री के पास जाकर निःसत्व हूं। तस्वीर, फिल्म में बड़ा मुझे रस आता है। सपने मुझे बहुत अच्छे लगते हैं। सपने में स्त्री को भोगता हूं। लेकिन स्त्री के पास जाता हूं, बिलकुल निःसत्व हूं।
सारी अमरीका में आज युवक के सामने जो, युवती के सामने, युवती फ्रिजिड है, कल्पना करती है; लेकिन जब प्रेमी के पास जाती है तो पाती है कि कोई रस नहीं है। वह बिलकुल सख्त है, मजबूत है; वह रिलैक्स नहीं है। बिलकुल फ्रिजिड है। वह बिलकुल निःसत्व मालूम पड़ती है कि कुछ नहीं है। और यह सब बढ़ता चला जा रहा है।
इसको थोड़ा, यानी मेरा कहना यह है कि अगर अश्लील किताबें बनती हों, अश्लील चित्र बनते हों, तो समझ लेना चाहिए समाज बेसिकली इंपोटेंट हो रहा है; सेक्सुअल नहीं। क्योंकि अगर समाज पूरा सेक्सुअल है, तो इनकी कोई जरूरत नहीं है।
जब भी कोई कल्चर इंपोटेंट होने लगता है... जब पोटेंट कल्चर होता है तब जिंदगी की असलियत से संबंध होता है, वह औरतों को प्रेम करता है न कि नंगी तस्वीरों को। और जब समाज निःसत्वहीन हो जाता है, तब वह नंगी तस्वीरों को प्रेम करता है। या फिर औरतों को भी वह तभी प्रेम करता है जब वे तस्वीरों जैसी मालूम पड़ें, औरतों जैसी नहीं। वह नंगी तस्वीरों से आइडेंटिटी उनकी हो जाए कि तस्वीर जैसी थी वैसी औरत मालूम पड़ने लगे नंगी, तो वह उसे अच्छी लगती है। पर वह तस्वीर की तरह थी। वह सड़क पर चलती हुई एक औरत को देख कर बहुत खुश हो जाता है, लेकिन घर की बैठी पत्नी कुछ खुशी नहीं देती। बाहर की सड़क की औरत तस्वीर है। घर की पत्नी जिंदा औरत है, वह बिलकुल मतलब नहीं रखेगा उसका।
इधर मैं जितना इस पर सोचा, मैं इतना हैरान हुआ हूं, इतना हैरान हुआ हूं कि अमरीका या ऐसा मुल्क कहीं न कहीं निश्र्चित बुनियादी रूप से इंपोटेंस पर पहुंच गया है।
हमारी स्मृति में साफ हो जाए कि हम जिस चीज को साहित्य में, संस्कृति में, कला में, बाहर की दुनिया में खोजना शुरू करते हैं, वह वही चीज है जो हमने वास्तविक दुनिया में भोगनी बंद कर दी है। अगर हम वास्तविक दुनिया में उसको भोग सकें, तो हम कभी काल्पनिक चर्चा में उसकी पड़ने वाले नहीं हैं।
अगर एक पुरुष स्त्री को वस्तुतः भोग सके, तो कभी गंदी तस्वीर, गंदी फिल्म और गंदी किताब पढ़ने को नहीं जाएगा। क्योंकि वे इतनी शैडोई मालूम पड़ेंगी, वे इतनी छाया जैसी लगेंगी, अनसब्स्टेंशियल, कि जिसका कोई मतलब नहीं है। जिसने असली स्त्री को जाना है, वह अपने घर में एक नंगी स्त्री की तस्वीर टांगने के लिए तैयार नहीं होगा। वह कहेगा, यह क्या पागलपन है। यह इतनी ना-कुछ है, जिसका कोई मतलब नहीं है।
एक आदमी नंगी तस्वीर टांगे है घर में, और एक गंदी किताब लेकर पढ़ कर फोटो देख रहा है, वह इस बात का सबूत है कि असली स्त्री को जानने में वह असमर्थ हो गया है, या असली स्त्री को जानने की उसने कला खो दी है, या असली स्त्री से परिचित होने के लिए जितना जीवंत व्यक्तित्व चाहिए वह उसके पास नहीं रह गया है। इसलिए अब वह सब्स्टीट्यूट खोज रहा है।
तो जब भी कोई समाज जीवंत नहीं रह जाएगा, तब वह गैर-जीवंत रूपों में जीवन की तृप्ति खोजने के उपाय करेगा। और यह सब तरफ, सब तरफ यही होगा।
वस्त्र अगर बहुत अच्छे होते जाते हैं किसी समाज में, और सुंदर से सुंदर वस्त्र की तलाश शुरू होती है, तो बुनियादी मतलब इसका यह है कि शरीर असुंदर हो रहा है, अस्वस्थ हो रहा है। क्योंकि जब शरीर स्वस्थ हो, शरीर पर अपनी चमक हो, शरीर की अपनी गति और जीवंतता हो, तब आप कपड़ों की फिकर नहीं करते। कपड़ों की फिकर सब्स्टीट्यूट है। जब शरीर दीन-हीन हो जाता है, हड्डी-हड्डी हो जाता है, शरीर उघाड़ा देख कर खुद को भय लगने लगता है, तब हम अच्छे कपड़ों में उसे छिपाते हैं। अच्छे कपड़ों से हम वह काम लेना चाहते हैं जो शरीर की चमकती चमड़ी ने दिया होता। जब चेहरे उदास हो जाते हैं, फीके और निस्तेज हो जाते हैं तब हम पाउडर है और लाली है उस पर थोपते हैं। उस लाली को हम पूर्ति खोज रहे हैं जो कि चेहरे पर रही होती, तो चेहरे को सुंदर बनाती, लेकिन वह नहीं है। तब हम एक रंग लाकर बाजार से चेहरे पर पोत रहे हैं। जब कोई रंग लाकर बाजार से पोतने लगे, तो किस बात की खबर है? वह इस बात की खबर है कि जो लाली होनी चाहिए थी चेहरे पर वह खो गई है। और सब चीज के मामले में यही सच है।
तो इसलिए मेरा आधारभूत खयाल यह है कि अगर समाज में लोग अच्छे कपड़े पहनने पर अति उत्सुक हो गए हैं तो आप गाली मत दीजिए। अच्छे सुंदर कपड़ों से इसका कोई संबंध नहीं है। आप फिकर करिए कि शरीर कहीं रुग्ण हुआ जा रहा है, इसलिए आदमी सुंदर कपड़ों में उत्सुक हुआ है। नहीं तो स्वस्थ आदमी, जैसा कि जंगली जानवर का शरीर है, उसको आप कपड़े पहना दें, वह बहुत बेहूदा लगने लगेगा। और हमारे आदमी को हम नंगा खड़ा कर दें, तो वह बहुत बेहूदा लगेगा।
हजारों साल पीछे या आज भी जो ठीक जंगली अवस्था में रहने वाला आदमी है, उसके शरीर की अपनी चमक है, अपनी गति है, अपनी जीवंतता है। उसके मूवमेंट का अपना--उसको देखना भी एक सुख है; उसका उठना, बैठना, चलना। वह सारा शरीर हमने खो दिया। अब हमें कोई पूरक चाहिए कि हम उसको ऊपर से ढांक लें और व्यवस्था दें।
यह जो समाज की सारी, सारी रुग्णता एक ही बात से पैदा हो रही है कि वह जहां आधारभूत रूप से हमें होना चाहिए वहां हम नहीं हैं, तो हम सबका विचार में जाकर परिपूरक और सब्स्टीट्यूट खोजते चले जाते हैं। वह टूट जाना चाहिए।...
...सर्वाधिक नुकसान पहुंच रहा हो मनुष्य की जाति को, तो वह समाजवादी दृष्टिकोण से परेशान है। और सर्वाधिक नुकसान इसी बात से पहुंच सकता है कि जो बात हमें सर्वाधिक सीधे-सीधे अपील करती हो, तो नुकसान पहुंच भी नहीं सकता। जो बात एकदम ओबियस मालूम होती हो कि बिलकुल ठीक है, वही हमें सबसे ज्यादा नुकसान भी पहुंचा सकती है। और समाजवाद ऊपर से देखने पर इतना ठीक मालूम पड़ता है कि कोई वजह नहीं मालूम पड़ती कि वह क्यों ठीक न हो। और पूंजीवाद ने जैसी स्थितियां ले ली हैं सारी दुनिया में, उससे वह ऐसा लगता है कि जितनी जल्दी हट जाए तो अच्छा।
लेकिन समाजवाद पूंजीवाद का ही सघन रूप है, और इसके रोगों को समाप्त नहीं करता, बल्कि केंद्रित करता है। इस पर कोई दृष्टि नहीं है स्पष्ट। क्योंकि समाजवाद पूंजीवाद का दुश्मन है नहीं, बाइ-प्रोडक्ट है, वह पूंजीवाद से पैदा होने वाली संतान है। और पूंजीवाद के सारे रोग उसमें हैं, पूंजीवाद की सारी भलाइयों को छोड़ कर। क्योंकि पूंजीवाद के साथ जो स्वतंत्रता है, जो मानव की गरिमा है, जो व्यक्तित्व का अर्थ है, वह उसमें सब खो जाने वाला है। और मानव की गरिमा और व्यक्तित्व तभी तक है, एक-एक व्यक्ति की, जब तक एक-एक व्यक्ति के पास पूंजी की सामर्थ्य है। जिस दिन व्यक्ति के पास पूंजी की सामर्थ्य नहीं, उसके पास कोई सामर्थ्य नहीं। उसके ऊपर जितना उसका पूंजी पर बल है...
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं है।)
बचेगा नहीं, क्योंकि मनुष्य का व्यक्तित्व कुछ चीजों से जुड़ कर बना हुआ है। और उस सब, सबसे ज्यादा जो मूल्यवान उसके व्यक्तित्व को बनाने में बात है, वह यह है कि उसके पास कुछ अपना है। व्यक्तित्व कोई एब्स्ट्रेक्ट चीज नहीं है। यह मकान है, अगर यह मेरा अपना है, तो मेरे व्यक्तित्व में एक चीज जुड़ती है। ये कपड़े जो मैं पहने हूं, अगर मेरे अपने हैं; यह जो बात मैं कह रहा हूं, अगर यह मेरी अपनी है, तो मेरे एक व्यक्तित्व को बल देती है। अगर यह उधार है, किसी की है, किसी से ली हुई है, तो मेरा व्यक्तित्व उतना ही निःसत्व हो जाता है।
तो यह बात उनके समझ में आ गई, बहुत ठीक से समझ में आ गई कि अगर मनुष्य के हाथ से उसकी व्यक्तिगत संपदा का अधिकार छीन लिया जाए, तो हमने करीब-करीब जो भी उसके पास था, सब छीन लिया। अगर यह केंद्र के या स्टेट के पास सब इकट्ठा हो जाए, तो स्टेट आपके शरीर की नहीं आपकी आत्मा की भी मालिक हो गई, आपके मन की भी, आपकी बुद्धि की भी, आपके विचार की भी। उससे इंच भर आप इधर-उधर होते हैं कि सिवाय मौत के आपको कुछ नहीं बचता। क्योंकि आप खड़े भी नहीं हो सकते हैं, गए आप।
हमारे मुल्क में संयुक्त परिवार था, या जिन मुल्कों में भी संयुक्त परिवार था, सभी जगह था, जितना संयुक्त परिवार था, संयुक्त परिवार के भीतर एक-एक व्यक्ति की कोई गरिमा नहीं थी, हो नहीं सकती थी। सौ आदमी थे घर में, और घर में एक आदमी के पास घर की सारी संपदा की मालकियत थी, बाकी लोग हमेशा उसकी तरफ देख कर ही जी सकते थे। और जरा विरोध उससे, तो उनका अस्तित्व गया। सारे मुल्क में पंचायत, गांव, बड़े मूल्यवान थे। एक-एक व्यक्ति की कोई हैसियत न थी। अगर एक व्यक्ति ने जरा समाज और संप्रदाय और व्यवस्था से आना-काना की, उसका हुक्का-पानी बंद। वह जी भी नहीं सकता। उसका जीना दूभर हो गया। वह कुएं पर पानी नहीं भर सकता, वह भोज में सम्मिलित नहीं हो सकता। जैसे-जैसे, जैसे-जैसे व्यक्तिगत संपदा बढ़ी, वैसे-वैसे एक-एक व्यक्ति की अपनी व्यक्तिगत गरिमा पैदा हुई।
स्त्रियों की गरिमा आज तक इसीलिए पैदा नहीं हो सकी क्योंकि स्त्री के पास कोई व्यक्तिगत संपदा नहीं रही। स्त्रियों की कभी गरिमा बन भी नहीं सकती जब तक उनकी भी अपनी व्यक्तिगत संपदा न हो। सारी दुनिया में स्त्री गुलाम है और गुलाम रही। और तब तक रहेगी जब तक पति से भिन्न उसकी अपनी व्यक्तिगत संपदा और हैसियत नहीं है।
प्रश्न:
आर्थिक।
हां। अगर उसकी व्यक्तिगत हैसियत, संपदा नहीं है, तो वह हमेशा लचर है, उसकी सब स्वतंत्रता बकवास है। वह जानती है बहुत गहरे में कि पति सब-कुछ है, क्योंकि संपदा पति के पास है।
पश्र्चिम में जो स्त्री की स्वतंत्रता आनी शुरू हुई वह स्त्री की व्यक्तिगत संपदा बनने से आनी शुरू हुई। उसके पास जब अपनी संपदा हुई खड़ी, उसका एक व्यक्तित्व बनना शुरू हुआ।
अगर हम मनुष्य से संपदा छीन लेते हैं, उसका स्वप्न छीन लेते हैं और राज्य के हाथ में सब दे देते हैं, सबको हम व्यक्ति-शून्य कर देते हैं, तब हम एक भीड़ रह जाते हैं और मनुष्य नहीं रह जाते। और इसके कितने दुष्परिणाम मनुष्य के ऊपर होंगे, उसकी कल्पना भी करनी कठिन है। कितनी संस्कृति पर होंगे उसकी कल्पना करनी भी कठिन है। और बड़ा मजा यह है कि इस स्टेट पर जो भी हावी हो जाए, वह कितना शक्तिशाली हो जाता है, वह उसी अनुपात में शक्तिशाली हो जाता है जिस अनुपात में व्यक्ति निःसत्व हो जाता है। यहां एक-एक व्यक्ति की शक्ति तो छीन जाती है और कुछ आदमियों के हाथ में वह सारी शक्ति इकट्ठी हो जाती है। फिर वे कुछ भी कर सकते हैं।
स्टैलिन ने रूस में कोई पचास लाख से लेकर अस्सी लाख लोगों तक की हत्या की। माओ इससे बड़ा हत्यारा सिद्ध होगा, जिस दिन आंकड़े साफ होंगे। जब तक स्टैलिन के आंकड़े साफ नहीं थे, तब तक कोई सवाल नहीं था। और इस तरह हत्या चली कि हत्या नियम बन गई, अपवाद नहीं। वह किसी भी तरह के आदमी को मार डालने में कोई अड़चन नहीं रही। मिटा डालने में कोई अड़चन नहीं रही। उधर माओ बहुत जोर से वह सारी व्यवस्था कर रहा है।
और इस तरह का जो आयोजन है, उसके पीछे जो दलीलें जीतती जाती हैं, वे हमें एकदम अपील करती मालूम पड़ती हैं। क्योंकि दलीलें इस संबंध की नहीं होतीं, वे बिलकुल दूसरे संबंध की हैं। गरीब है, गरीब की गरीबी मिटनी चाहिए, कोई भी यह नहीं कह सकता कि नहीं मिटनी चाहिए। अमीर है, उसके पास बहुत संपदा इकट्ठी हो गई, कोई भी नहीं कह सकता कि इतनी संपदा किन्हीं लोगों के पास इकट्ठी होनी चाहिए। शोषण है, शोषण नहीं होना चाहिए, इसके लिए कोई, कोई इनकार नहीं करेगा, यह तो मिटना चाहिए।
तो समाजवाद की सारी दलीलें अर्थपूर्ण हैं, और सारे परिणाम अनर्थकारी हैं। और यह, यह इतनी उलझन में खड़ा कर दिया आदमी को, क्योंकि दलील एक-एक अर्थपूर्ण हैं। और दलील पर, एक-एक दलील पर आप खड़े होकर लड़ने का कोई उपाय नहीं है। दलीलें सब ठीक हैं।