QUESTION & ANSWER

Upasana Ke Kshan 04

Fourth Discourse from the series of 12 discourses - Upasana Ke Kshan by Osho.
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तो जब भी कोई पूछता है: ‘जीवन क्या है?’ तो वह ऐसी बात पूछ रहा है, जैसे अंधा आदमी पूछे, प्रकाश क्या है? या कोई आदमी पूछे, स्वाद क्या है? या कोई आदमी पूछे, सुगंध क्या है? अगर तुमसे कोई पूछे, स्वाद क्या है? तो क्या कहोगे? पूछे, सुगंध क्या है? तो क्या कहोगे?
जब कोई पूछे, स्वाद क्या है? तो तुम ज्यादा से ज्यादा यह कह सकते हो कि लिया जा सकता है, लेकिन कहा नहीं जा सकता। स्वाद चखा जा सकता है, जीया जा सकता है, जाना जा सकता है, लेकिन कहा नहीं जा सकता।
और स्वाद तो जीवन का एक अनुभव है; सुगंध जीवन का दूसरा अनुभव है; प्रेम जीवन का तीसरा अनुभव है; पीड़ा जीवन का चौथा अनुभव है; आनंद पांचवां अनुभव है। जीवन के हजार-हजार अनुभव हैं।
एक अनुभव को भी नहीं कहा जा सकता। और जीवन समग्र अनुभव का जोड़ है। तो एक अनुभव को भी नहीं कहा जा सकता कि क्या है, तो समग्र जोड़ को तो कहने का कोई उपाय नहीं रह जाता कि क्या है।
इसीलिए आदमी पूछता चला जाता है कि जीवन क्या है और सोचता है कि मैं बिलकुल ही ठीक प्रश्न पूछ रहा हूं। और उत्तर बिलकुल नहीं मिलता। हजारों साल से आदमी पूछता है, जीवन क्या है? अभी तक कोई उत्तर किसी ने दिया नहीं। आगे भी कभी कोई देगा नहीं।
उत्तर लोग देने की कोशिश करते हैं, वे उनसे भी ज्यादा नासमझ हैं, जो प्रश्न पूछते हैं। क्योंकि प्रश्न इररिलेवेंट है, प्रश्न जो है असंगत है। कौन सी चीज पूछी जा सकती है और कौन सी चीज नहीं पूछी जा सकती, इसका हम कभी भेद ही नहीं करते। हम तो मानते हैं कि जिस चीज को भी हम प्रश्न बना सकते हैं, उसको हम पूछ सकते हैं। जिसको भी भाषा में क्वेश्र्चन मार्क दिया जा सकता है, वह प्रश्न बन जाता है। भाषा का जहां तक संबंध है, बन जाता है।
सुगंध क्या है? इस प्रश्न में कहां भूल है? भाषा के लिहाज से प्रश्न पूरा बन गया। सुगंध के बाबत पूछ रहे हैं, क्या है? यह पूछ रहे हैं और प्रश्नवाचक लगा हुआ है। सुगंध क्या है? उत्तर चाहिए।
भाषा की दृष्टि से जो संगत प्रश्न हैं, वे भी अनुभव की दृष्टि से असंगत हो सकते हैं। सुगंध जानी जा सकती है, कही नहीं जा सकती। और सुगंध जीवन के हजार-हजार अनुभव का जरा सा टुकड़ा है। जीवन का अर्थ है समस्त अनुभवों का जोड़।
कोई पूछता है, जीवन क्या है? प्रश्न बिलकुल ठीक मालूम पड़ता है। प्रश्न है। उत्तर देना वाला भी सोचता है, उत्तर होना चाहिए कोई, क्योंकि प्रश्न पूछा गया है। और झंझट शुरू हो गई, गलती शुरू हो गई।
लिंग्विस्टिक भूल है, भाषा की गलती है और कुछ नहीं है। और यह अगर तुम्हें दिखाई पड़ जाए, यह अगर तुम्हारी समझ में आ जाए कि कुछ चीजें हैं जो पूछी नहीं जा सकती हैं। क्योंकि पूछने भर से कोई मतलब हल नहीं होता। कुछ चीजें हैं जो नहीं पूछी जा सकती हैं। अगर यह भी तुम्हारी समझ में आ जाए, तो शायद तुम्हें यह भी समझ में आ जाए कि फिर जीवन को जानने का रास्ता कुछ और होगा। पूछने का रास्ता नहीं रह जाता।
तो पहली तो बात यह है कि ऐसे प्रश्न की असंगति, इनहेरेंट इनकंसिस्टेंसि है।

प्रश्न:
जी, मेरे कहने का मतलब...
मेरी बात समझ लो पहले।

प्रश्न:
जी हां। जी हां।
तुम्हारा मतलब तो मैं बिलकुल ठीक समझ रहा हूं।

प्रश्न:
मेरे कहने का मतलब और है।
कुछ प्रश्न मूलतः असंगत होते हैं। और सारा दर्शनशास्त्र असंगत प्रश्नों पर खड़ा होता है। संगत प्रश्नों के तो उत्तर मिल जाते हैं, तो बात खत्म हो जाती है। असंगत प्रश्नों के उत्तर नहीं मिलते, इसलिए बात खत्म नहीं होती।
पांच हजार साल पीछे चले जाओ, ऋग्वेद का ऋषि भी यही पूछता है: जीवन क्या है? ढाई हजार साल पहले चले जाओ, बुद्ध से भी आदमी पूछ रहा है: जीवन क्या है? तुम मुझसे पूछ रहे हो: जीवन क्या है? हजार साल बाद भी, दस हजार साल बाद भी कोई पूछेगा किसी से: जीवन क्या है?
प्रश्न बिलकुल पूछा जा रहा है निरंतर, उत्तर एक भी नहीं दिया गया आज तक। इससे दो बातें हो सकती हैं। या तो यह हो सकता है कि आज तक किसी को उत्तर पता नहीं है, आगे पता चल जाएगा। या यह भी हो सकता है कि प्रश्न ऐसा है कि असंगत है, इसलिए उत्तर कभी नहीं होगा।
मेरी दृष्टि में ऐसे प्रश्न का उत्तर नहीं होता; ऐसे प्रश्न का अनुभव होता है।
तो यह मत पूछो कि जीवन क्या है, यह पूछो कि जीवन कैसे जाना जाए?
जीवन तो है, और कुछ है--एक्स वाय जेड कुछ भी है। जीवन तो है। तुम्हारे पास भी जीवन है।
तुम्हारी इतनी उम्र बीत गई तुम जीए हो--एक आदमी सत्तर साल तक जीएगा--और सत्तर साल के बाद भी पूछेगा कि जीवन क्या है? यह आदमी जीया, जीवन से गुजरा, रोज-रोज जीया--श्र्वास चली, श्र्वास गई; सोया, उठा; दुख झेले, सुख झेले; प्रेम किया, घृणा की; लड़ा-झगड़ा, दोस्त बना, सब इसने जीया, और आखिर में सत्तर साल के बाद पूछता है--जीवन क्या है?
तो दो ही मतलब हैं इसके। एक तो यह, कि जीवन गुजर गया, यह जीवन को जान नहीं पाया; जीवन में बहता रहा, लेकिन जीवन को पकड़ नहीं पाया। या जीवन इसको ऊपर से छूता रहा, इसके पूरे प्राणों तक... वे जो पूछ रही हैं: ‘समग्र रूप से कैसे जीएं?’ ...यह समग्र रूप से नहीं जी पाया।
जैसे कि समझो मैं तुम्हारे घर आऊं, दौड़ता हुआ तुम्हारे घर में से निकल जाऊं। घर में से निकला--वहां कौन सी तस्वीर लगी थी, कौन लोग बैठे थे, वहां क्या हो रहा था, कौन गीत गा रहा था, कुछ भी नहीं, दौड़ता हुआ घर से निकल गया। एक गीत की कड़ी मेरे मन में गूंजती हुई सुनाई पड़ी, किसी बच्चे का रोना सुनाई पड़ा, बर्तन बजते थे घर के वे सुनाई पड़े, कुछ बात चलती थी उसकी एक कड़ी सुनाई पड़ी और मैं भागता हुआ निकल गया, वह सब गड्डमड्ड हो गया। गीत की कड़ी, बर्तन की आवाज, झगड़ा, बातचीत, घर, चित्र, सब गड्डमड्ड हो गया। मैं भागता हुआ निकल गया। अब मैं लौट कर देखता हूं, तो मुझे समझ में नहीं आया कि मैं जहां से निकला वह क्या था?--वह घर था, पागलखाना था, संगीत-घर था, चौका था, झगड़ने वाले लोग थे, दफ्तर था, क्या था? अब मैं पूछता हूं: वह घर क्या था? और मैं उससे निकला, उस घर से मैं गुजरा--और अब मेरे सामने सवाल है: वह घर क्या था? उसकी बहुत सी चीजें चित्त पर रह गईं--गीत की कड़ी भी रह गई, झगड़े की आवाज भी रह गई, बर्तन भी रह गए, चौका भी रह गया, घर के लोग भी रह गए, चित्र भी रह गए, दीवाल--छोटा सा एक सबका मिक्सचर, एक सबका सम्मिश्रण, मन पर एक छाया रह गई। और मैं इतनी तेजी से निकला उस छाया के पास से कि उस छाया का भी पूरा इंपैक्ट, उस छाया की भी पूरी छवि मेरे चित्त पर बन नहीं पाई, बस मैं निकल गया।
जैसे कि मैं एक कैमरा लेकर दौड़ता हुआ निकल जाऊं इस कमरे से, और कैमरे की आंख खुली हो, और पीछे जाकर कैमरे का चित्र खोलूं और देखूं कि सब गड्डमड्ड है, कुछ समझ में नहीं आता। अब दौड़ता हुआ कोई कैमरा लेकर यहां से निकल जाएगा, तो तस्वीर तो बनेगी, लेकिन बहुत सी तस्वीरें बन जाएंगी, और एक-दूसरे के ऊपर बन जाएंगी, और फिर उसे खोल कर देखना--पहचानना मुश्किल है कि आदमी है कि कुर्सी है कि मकान है कि क्या है, क्या नहीं है। तब आदमी पूछने लगे कि यह चित्र क्या है? वह आदमी ठीक प्रश्न पूछ रहा है। उसकी समझ में नहीं आता यह चित्र क्या है। वह पूछता है, यह चित्र क्या है? लेकिन सवाल यह है कि इससे एक ही बात साबित होती है कि यह चित्र भागते में लिया गया है--कैमरा कंपता था, हिलता था; आदमी ठहरा हुआ नहीं था, रुका हुआ नहीं था।
जीवन से हम भागते हुए, दौड़ते हुए, आंखें बंद किए हुए, इधर-उधर देखते हुए निकल जाते हैं। पीछे हम पूछने लगते हैं, जीवन क्या है? यह, यह जो प्रश्न उठता है, यह जीवन गलत ढंग से जीया जा रहा है, इसका सबूत है। यह प्रश्न उठता है, यह इस बात की खबर है कि जीवन को जितनी समग्रता से, जितनी पूर्णता से जीना चाहिए, वह नहीं जी रहे हैं। अब यह जो... हम जीते हैं अत्यंत आंशिक रूप से, अत्यंत उथले।
तुम मेरे पास आए। तुम आए, तुमने मुझे नमस्कार कर लिया और बैठ गए। क्या तुम सोच सकते हो कि नमस्कार जैसे छोटे से कृत्य में इंटेंसिटी के कई लेयर हो सकते हैं, कई सतह हो सकती हैं गहराई की।
एक आदमी नमस्कार करके चला गया। न उसने मुझे देखा, न उसके हाथ उसने जान कर उठाए, एक मैकेनिकल एक्ट--कोई दिखता है, नमस्कार कर लेते हैं, गुजर जाते हैं। उससे तुम पूछो कि कौन बैठा था? तुमने किसको नमस्कार किया था? शायद वह सांझ को याद भी न कर पाए--कि मुझे कुछ खयाल नहीं आता; दिन में पच्चीस लोगों को नमस्कार करता हूं; जो मिलता है, नमस्कार करता हूं।
इस नमस्कार के पीछे कोई भाव भी नहीं है। एक औपचारिकता है, पूरी हो जाती है; एक फॉर्मेलिटी पूरी हो गई। एक दूसरा आदमी किसी को नमस्कार करता है, इसके पीछे पूरे प्राण हो सकते हैं, पूरे प्राण हो सकते हैं। यह नमस्कार सिर्फ हाथों का जुड़ना नहीं, पूरे प्राणों का जुड़ना हो सकता है। यह नमस्कार सिर्फ एक औपचारिक कृत्य नहीं, एक हार्दिक घटना हो सकती है। और हो सकता है कि सारे जीवन इस घटना को भूला न जा सके, यह इतनी गहरी बैठ जाए चित्त में कहीं जाकर, यह एक जीवंत अनुभव बन जाए।
हम जीते हैं ऐसे जैसे भागते हुए लोग, दौड़ते हुए लोग, जो किसी भी क्षण खड़े नहीं होते, भागे चले जाते हैं, भागे चले जाते हैं। आगे देखते हैं; वह जो पास दिखाई पड़ रहा है, उस पर नजर नहीं पड़ती; या जो गुजर गया है, उसका विचार करते हैं। लेकिन जो गुजर गया, वह भी नहीं है अब। जो आगे आने वाला है, वह भी नहीं है अभी। जो है--मोमेंट, इस क्षण में--उसको पूरे रूप से, उसको पूरी टोटेलिटी में, इतना कि जैसे उसका हमने पूरा रस निचोड़ लिया हो, हमने सारा सार जो था सब खींच लिया हो, सब आत्मसात कर लिया हो, ऐसा हम नहीं जीते। इंटेंसिटी नहीं है, एक तीव्रता!
अकबर के दरबार में दो जवान लड़के एक दिन गए। दोनों राजपूत हैं। और जाकर दरबार में खड़े हो गए हैं तलवारें लिए हुए और अकबर से कहने लगे कि हम दो बहादुर जवान हैं और सेना में भर्ती होना चाहते हैं।
अकबर ने सहज पूछ लिया: बहादुर हो, यह तुम सर्टिफिकेट लाए हो, प्रमाण-पत्र लाए हो बहादुरी का कोई? मैं कैसे जानूं कि तुम बहादुर हो? अकबर का यह कहना था कि वे दोनों तलवारें तो म्यान के बाहर आ गईं। अकबर तो एक क्षण चौंक ही गया! और वे तलवारें तो एक-दूसरे की छाती में घुस गईं, वे दोनों जवानों की। एक सेकेंड में यह हो गया। वे दोनों तो गिर पड़े, खून के फव्वारे छूट गए।
अकबर ने कहा: पागलो, यह क्या किया?
अकबर के दरबार में एक राजपूत था, मानसिंह। वह सेनापति था उसका, वह आया। अकबर ने कहा कि यह क्या पागलपन है? ये दोनों राजपूत लड़के छुरे भोंक दिए। दोनों सगे भाई हैं। जुड़वां भाई हैं।
मानसिंह ने कहा कि राजपूत से और बहादुरी का प्रमाण-पत्र मांगना बेहूदी बात है। राजपूत से बहादुरी का प्रमाण-पत्र मांगना! बहादुरी का कोई प्रमाण-पत्र होता है? एक जिंदा मिसाल हो सकती है। और बहादुरी की एक ही मिसाल होती है कि आदमी मरने को दो कौड़ी का समझता है। और तो कोई बहादुरी की मिसाल होती नहीं। बहादुरी का और कोई प्रमाण होता ही नहीं कि आदमी मौत को दो कौड़ी का समझता है। उन लड़कों ने कह दिया कि यह है बहादुरी, कि मौत हमारे लिए इस क्षण या उस क्षण, कोई फर्क नहीं लाती। कारण-अकारण चिंता की बात नहीं है, सार्थक-व्यर्थ--हम मर सकते हैं। लेकिन इसके लिए क्या प्रमाण दें? किसी से सर्टिफिकेट लिखा कर लाएं? क्या प्रमाण हो सकता है इसका? इसका एक ही प्रमाण हो सकता है--कि हम वह दिखा दें, जो हम कहते हैं कि हम कर सकते हैं।
मानसिंह ने कहा कि भूल कर कभी किसी राजपूत से बहादुरी का प्रमाण-पत्र मत मांगना। यह बात ही बेहूदी है। यह तो, यह सवाल ही नहीं उठ सकता।
अकबर ने अपनी आत्म-कथा में लिखवाया है कि मैंने पहली दफा किसी छोटे से कृत्य पर पूरे जीवन को भी दांव में लगाने वाले लोग देखे। एक छोटे से कृत्य पर! एक आंशिक, एक जरा सी बात, लेकिन क्षण में सारा, पूरा! इसको कहूंगा इंटेंसिटी।
हम होते उसकी जगह, हम कहते, अच्छा साहब, हम कहीं से लिखवा लाते हैं। कलेक्टर का लिखवा लाएं? एम पी का लिखवा लाएं? कि किसका चल जाएगा? हम लिखवा लाते हैं, सर्टिफिकेट लिखवा लाते हैं।
हम सर्टिफिकेट तो लिखवा लाते हैं, लेकिन थोड़ा सोचो, बहादुरी का सर्टिफिकेट केवल कायर लिखवा सकता है। बहादुरी का सर्टिफिकेट बहादुर नहीं लिखवा सकता। बहादुरी का प्रमाण-पत्र केवल कायर, वह जो कावर्ड है, वह जो कायर है, वह ला सकता है; बहादुर नहीं ला सकता। नैतिकता का सर्टिफिकेट, जिसके जीवन में कोई नैतिकता नहीं है, वह ला सकता है। जिसके जीवन में कुछ भी नैतिकता है, सर्टिफिकेट नहीं ला सकता, जी सकता है।
इसको मैं कहूंगा, समग्रता से! नहीं कह रहा हूं कि मर जाएं या छुरा मार लें, यह नहीं कह रहा हूं। यह कह रहा हूं कि जीवन का कोई भी कृत्य इतना समग्र हो कि सारा जीवन कनसनट्रेटिड हो जाए, सारा जीवन एकाग्र, उस पूरे क्षण में डूब जाए।
उस क्षण में उन बहादुरों ने क्या जाना होगा, इसकी आप कल्पना कर सकते हैं? आप पूरी जिंदगी जी कर नहीं जान सकोगे। आप सत्तर साल जी कर नहीं जान सकोगे जो उस एक मोमेंट में, सत्तर साल कनसनट्रेटिड, सत्तर साल का सारा निचोड़! कल्पना कर सकते हो उस क्षण में जब वे तलवारें बहार आ गई होंगी? डिसिसिव मोमेंट! जिसका आगा-पीछा नहीं!

प्रश्न:
थॉटलेसनेस।
थॉटलेसनेस। क्योंकि अगर विचार करें, तो थोड़ा सोचेंगे कि क्या करना चाहिए। विचार नहीं। उसने पूछा: प्रमाण बहादुरी का? तलवार बाहर आ गई, छाती में चली गई। वे दोनों हंसते हुए जमीन पर गिर पड़े।
उस एक क्षण में क्या आप कल्पना कर सकते हैं उनके भीतर क्या हुआ होगा? नहीं कर सकते। नहीं कर सकते! आप इतना ही सोचेंगे, बड़े पागल थे, नाहक मर गए। इतना ही सोच पाएंगे ज्यादा से ज्यादा कि बड़े पागल थे, नाहक मर गए। ऐसे कोई मरना होता है?
आप कौन सी समझदारी से मर जाओगे? आप क्या करोगे? लेकिन उस एक क्षण में जिसने इतना दांव लगा दिया पूरा जीवन का, इतनी तीव्रता से, इतना कनसनट्रेटिड, तो उस क्षण में क्या उदघाटन हुआ होगा?
सूरज की किरणें गिर रही हैं, अलग-अलग पड़ रही हैं: छोटा सा कांच ले आएं फोकस करने वाला, सूरज की किरणें इकट्ठी हो गईं और एक बिंदु पर पड़ने लगीं और आग जल उठी। एक-एक किरण बिखरती है, कुछ नहीं कर पाती। इतनी किरणें इकट्ठी हो गई हैं एक कांच के द्वारा, और एक कागज पर पड़ीं, आग भभक उठी। एक-एक किरण को पता ही नहीं है इस अनुभव का कि आग भड़क उठती है, वह अनुभव क्या है। लेकिन वे कनसनटे्रटिड किरणें जानती हैं।
तो हम जीते हैं सत्तर साल, लेकिन किसी क्षण में ऐसे नहीं जीते कि पूरा जीवन दांव पर हो। जब मैं कहता हूं, समग्रता से जीना, तो उसका मतलब है एक-एक क्षण पूरे जीवन को दांव की चुनौती मानता, एक-एक क्षण। यह भी सवाल नहीं है कि कौन सा क्षण; एक-एक क्षण पूरे जीवन की चुनौती मानता, पूरे जीवन को दांव पर मानता है।
एक जापानी फिल्म अभिनेता था, निकाजो। उसने कोई एक करोड़ रुपया कमाया अमरीका में। बचपन से अमरीका चला गया। एक करोड़ रुपया कमाया। और जब वृद्ध होने लगा, तो रुपया लेकर, दुनिया का चक्कर मार कर, जापान वापस लौटने लगा। इधर पेरिस आया। एक करोड़ रुपया उसके पास है। वह सारी जिंदगी की कमाई है। वह वापस जा रहा है, वह अपने किसी गांव में एक झोपड़ा बना कर रहेगा। पेरिस में ठहरा है। उसके मित्र वहां हैं बहुत से, वे मिलने आए और उन्होंने कहा कि पेरिस आए हो, तो माउंट कार्ले जरूर देख लो। वह जुए के अड्डे हैं माउंट कार्ले में। क्योंकि पेरिस जो आया उसने अगर माउंट कार्ले में जुआ नहीं खेला, तो वह पेरिस आया ही नहीं। वही तो मजा है वहां।
उसने कहा: अच्छी बात। वह एक करोड़ रुपया लेकर वहां पहुंच गया। एक करोड़ रुपया ले गया। सारी जिंदगी की कमाई है। वह एक करोड़ रुपये लेकर माउंट कार्ले पहुंच गया।
उसके मित्रों ने कहा: एक करोड़!
एक ही दांव लगाना है, क्योंकि एक-एक रुपये का क्या दांव लगाना।
उसके मित्रों ने कहा: पागल तो नहीं हो गए हो!
उसने कहा: पागल मैं हमेशा से हूं। लेकिन दांव जब लगाना है तो पूरा ही लगाना। फिर काहेका... तुम काहेका जुआ, एक रुपये का जुआ। एक करोड़ रुपया जिसके पास हो वह एक रुपया जुए पर लगा कर क्या कोई जुए का अनुभव ले सकता है? पागल है वह। उसका एक रुपया कोई मीनिंग का नहीं है। एक करोड़ रुपया पास है, एक रुपया जुए के दांव पर लगा रहा है। धोखा दे रहा है दांव का। दांव-वांव लगा ही नहीं रहा है वह। उसको पता है, इसका क्या है, जाए जाए, कोई मतलब नहीं।
एक करोड़ रुपये उसने जाकर दांव पर लगा दिए। माउंट कार्ले पर इतना बड़ा दांव कभी नहीं लगाया गया दुनिया में। वह जुए का सबसे बड़ा अड्डा है। रात कोई दस-पांच करोड़ रुपये का जुआ होता है। लेकिन एक करोड़ का! स्वीडन का, डेनमार्क का राजा भी मौजूद है। वे देखने आ गए हैं सारे लोग कि एक करोड़ का दांव कभी नहीं लगा माउंट कार्ले में। वह राजा भी दंग रह गया। उसकी भी हिम्मत के बाहर है। एक करोड़ का दांव! एक दांव!
तुम उस आदमी की कल्पना करो। अब मैं यह कह रहा हूं कि जुआरी किस तरह जी सकता है। एक-एक रुपया लगा कर जी सकता है; उसको मैं कहता हूं, आंशिक जीना। सब, टोटल; उसको मैं कहता हूं, समग्र। अब उस आदमी के क्षण की कल्पना करो, उस आदमी के भीतर क्या हुआ हो? साइलेंस आ जाएगी।

प्रश्न:
कंप्लीट साइलेंस।
कंप्लीट साइलेंस आ जाएगी। कंप्लीट सरेंडर हुआ जा रहा है। यह कोई मामला ऐसा नहीं है कि खेल लिए और घर जाकर सो गए। यह मामला अब आखिरी है।

प्रश्न:
पीछे कुछ नहीं है।
अब वह, उसको थोड़ा देखें, निकाजो को, वह खड़ा है जुए की दांव की टेबल पर। लगा दिया एक करोड़ रुपया उसने दांव पर। अब वहां पूरे जुआघर में सन्नाटा छा गया, न केवल उस पर सन्नाटा छा गया है। अब वह घड़ी की टिक-टिक भी सुनाई पड़ रही है एक-एक आदमी को। एक-एक क्षण बीत रहा है और यह इसका पूरा फैसला हुआ जा रहा है यह आदमी का कि क्या होगा, क्या नहीं होगा। और वह हार गया। और वह हार गया निकाजो! वह टैक्सी में बैठा, मित्र ने पैसे चुकाए टैक्सी के और होटल में आकर सो गया।
दूसरे दिन अखबारों ने तो खबर ही छाप दी कि उसने आत्महत्या कर ली। किसी और आदमी ने आत्महत्या की थी। अखबार में खबर छप गई, उसने आत्महत्या कर ली, क्योंकि वह और क्या करेगा।
सुबह जब वह नौ बजे उठा, उसने अखबार पढ़ा। एक किसी आदमी ने आत्महत्या की है और लोगों को शक हो गया कि वही निकाजो ने कर ली होगी। क्योंकि वह करेगा। वह करेगा क्या अब?
वह हंसने लगा खूब। उसने कहा कि इसमें आत्महत्या की क्या बात है। इसमें आत्महत्या की क्या बात है!
वह वापस लौट गया, जापान नहीं आया, वापस अमरीका लौट गया। वहां लोगों ने कहा: क्या किया? उसने कहा कि मैंने जो जान लिया, वह कभी मुश्किल से कोई जान सकता है। मैंने जो जान लिया, उस एक क्षण में जो मुझे दिखाई पड़ा, उस क्षण में मेरे लिए सारा सब-कुछ साफ हो गया। मैंने जी लिया।
इसको मैं कहता हूं, टोटल लिविंग। यह मैं नहीं कह रहा हूं कि जुआ खेलने लगे कोई। मेरी बातों से यह झंझट रोज हो जाती है। फिर इधर-उधर लिखते हैं लोग कि मैंने कह दिया कि जुआ खेलो। मैंने कह दिया कि छाती में छुरा मार लो। और मेरी बातों से ये मतलब निकल सकते हैं।
लेकिन मैं कह यह रहा हूं, मैं सिर्फ कह यह रहा हूं कि ‘टोटल लिविंग’ का क्या मतलब है मेरा।
तो जिस क्षण में भी, अगर मैं आपका हाथ भी प्रेम से पकड़ता हूं, तो वह हाथ मेरे लिए दांव होना चाहिए टोटल लिविंग का। मैंने हाथ पकड़ा तो ऐसे जैसे मेरे लिए यह सब-कुछ, मेरा सारा जीवन उस हाथ में इकट्ठा हो गया है, मेरी अंगुलियों में आ गया है। तो फिर उस इंपैक्ट की बात और है। तो वह हाथ जब आपको छुएगा, तो उस छूने की बात और है। वह राज और है, वह रहस्य और है।
हाथ आप भी छूते हैं, हाथ वह भी छूता है। किसी को हृदय से लगाया है प्रेम से--तो फिर उस क्षण में सब समाप्त हो गया, वह दांव है पूरा! तो वहां जितना प्रेम मेरे पास है, वह सब लगा दिया है दांव पर--इसके पीछे बचेगा कि नहीं बचेगा, यह सवाल नहीं है। तो वह जो छूना है, वह जो स्पर्श है, वह बात और है।
जिंदगी भर उसी के लिए तड़फता है आदमी कि कोई किसी परिपूर्ण क्षण में हृदय से लगा ले। लेकिन न लगाने वाला है परिपूर्ण क्षण में, न हमारी हिम्मत है कि हम तैयार हो जाएं लगाने को। तो टुकड़ा-टुकड़ा, एक-एक रुपया दांव पर जिंदगी भर लगाते हैं। सत्तर साल में जुआ तो खेलते हैं, लेकिन एक-एक रुपये का खेलते हैं। कभी दांव का मजा भी नहीं आता। जुआ भी खेल लेते हैं, जिंदगी भी खराब हो जाती है। इकट्ठा! तो तुम्हें पता चल जाएगा कि जीवन क्या है। नहीं तो तुम्हें कभी पता नहीं चलेगा। पूछने से तो कभी पता नहीं चलेगा।

प्रश्न:
मेरा पूछना ऐसा था कि आपने जैसे कहा कि टेस्ट है, स्मेल है, तो ये सब प्रॉपर्टीज हैं, इसे भी डिसक्राइब कर सकते हैं हम?
कोई डिसक्रिप्शन नहीं हुआ।

प्रश्न:
क्योंकि वह प्रॉपर्टी नहीं है? अब यह ब्राउन कलर दिखता है, तो ब्राउन कलर प्रॉपर्टी है।
बिलकुल नहीं है।

प्रश्न:
ब्राउन कलर यह इसका प्रॉपर्टी नहीं दिखता है?
बिलकुल नहीं। उसकी प्रॉपर्टी तो कलर होती ही नहीं किसी चीज की।

प्रश्न:
मगर यह अभी की बात है।
न-न, अभी भी नहीं, कभी नहीं होती।

प्रश्न:
तो यह ब्राउन क्यों दिखता है?
हां, ब्राउन क्यों दिखता है, वह मैं तुम्हें कहता हूं। वह मैं तुम्हें कहता हूं। तुम विज्ञान के विद्यार्थी हो थोड़े-बहुत।

प्रश्न:
हां जी, थोड़ा-बहुत किया था मैंने, ज्यादा नहीं किया है।
थोड़ा-बहुत किए हैं।
कलर प्रॉपर्टी नहीं है किसी चीज की। इस कमरे के बाहर हम चले गए, इस कमरे में कोई चीज कलर की नहीं रह जाएगी। कलर आंख और चीज के जोड़ के बीच की घटना है। आंख के बिना कलर नहीं होता कहीं।
समझ लें इसको थोड़ा।
तुम सोचते होओगे: हम कमरे के बाहर चले गए तो यहां की कुर्सी जो लाल रंग की है वह लाल रंग की रहेगी, इस भूल में मत रहना। कमरे के बाहर और कमरे के भीतर--दोनों में कुर्सी में कोई रंग नहीं रह जाएगा, कुर्सी बेरंग हो जाएगी। क्योंकि कलर जो है वह आंख और कुर्सी के जोड़ से पैदा होता है।

प्रश्न:
जी, वह संयोग है।
समझो थोड़ा। समझो थोड़ा। कलर कुर्सी की प्रॉपर्टी नहीं है। अंधेरे कमरे में कोई चीज में कोई कलर नहीं होता। यह मत सोचना कि दिखाई नहीं पड़ता। कलर ही नहीं होता। क्योंकि कलर होने के लिए प्रकाश चाहिए।
अब कलर की जो पूरी की पूरी व्यवस्था है, वह यह है कि सूरज की किरण में सात हिस्से होते हैं। वह तो तुम जानते हो न? सात रंग होते हैं।

प्रश्न:
जी।
सूरज की किरण पड़ती है मेरी इस धोती पर, अगर मेरी धोती सारी किरणों को वापस लौटा देती है, कोई किरण को एब्जार्ब नहीं करती, तो धोती सफेद मालूम पड़ेगी। सफेद का मतलब है, सूरज की सारी किरण वापस लौटा दी गई। अगर मेरी धोती सारी किरणों को पी जाती है, तो धोती काली दिखाई पड़ेगी। काली का मतलब यह है कि सूरज की सारी किरण पी गई धोती। अगर मेरी धोती लाल दिखाई पड़ती है, तो उसका मतलब है, सब किरणें पी गई, लाल किरण नहीं पी। लाल किरण धोती की क्वालिटी नहीं है। लाल किरण धोती नहीं पीती है, इसलिए लौट कर लाल किरण आंख में दिखाई पड़ती है। धोती में लाल रंग कहीं भी नहीं है। बड़े मजे की बात है। धोती में लाल को छोड़ कर सब रंग पी गई है वह, सिर्फ लाल रंग को उसने छोड़ दिया। वह छूटा हुआ रंग लौट कर आंख पर दिखाई पड़ रहा कि धोती लाल है। धोती बिलकुल लाल नहीं है, इसीलिए लाल दिखाई पड़ रही है। धोती अगर लाल हो, तो लाल दिखाई नहीं पड़ेगी।
तो लाल रंग जो है वह धोती की प्रॉपर्टी नहीं है। लाल रंग--आंख, धोती और किरण के बीच का अनुभव है। अनुभव किसी की प्रॉपर्टी नहीं है। अकेली आंख भी लाल रंग नहीं देख सकती, अकेली धोती भी लाल रंग की नहीं होती, अकेली किरण में भी कोई रंग नहीं होता। अनुभव!
जब तुमने कोई चीज खाई और तुम्हें वह खट्टी मालूम पड़ी, तो तुम सोचते हो नीबू खट्टा है। तुम पागल हो। नीबू खट्टा नहीं होगा। तुम्हारी जीभ का जो अनुभव है करने का, जो ढंग है, वह जो अनुभव करने का ढंग है। वही नीबू दूसरे जानवर की जीभ में खट्टा नहीं होगा; तीसरे जानवर की जीभ में दूसरा स्वाद लाएगा; चौथे जानवर की... पांचवां...। और हम इतने लोग जो बैठे हैं, सबकी जीभ पर भी एक सा खट्टे का अनुभव नहीं लाएगा। एक आदमी बुखार में है, उसकी जीभ पर दूसरा स्वाद होगा। एक आदमी स्वस्थ है, उसकी जीभ पर दूसरा स्वाद होगा। एक आदमी को सर्दी है, तो उसकी जीभ पर तीसरा स्वाद होगा। यह जो स्वाद का अनुभव तुम्हें हो रहा है, यह नीबू का अनुभव नहीं है, न तुम्हारी जीभ का अनुभव है: नीबू और जीभ के बीच जो घटना घटती है...

प्रश्न:
संयोग का।
संयोग का अनुभव है। और अनुभव है। प्रॉपर्टी किसी की भी नहीं है। प्रॉपर्टी का मतलब होता है कि वह उस चीज का गुण है, हमसे उसका कोई संबंध नहीं।
तो जब कोई पूछे कि क्या है स्वाद? तो अगर तुम यह भी कह देते हो कि तीन चीजों के बीच में घटा हुआ अनुभव है, तब भी अनुभव से अभी कुछ पता नहीं चला। हम पूछेंगे, वह अनुभव क्या है? तब आखिर में रिडयूज करनी पड़ेगी बात यहां कि अनुभव लेना होता है, अनुभव कहा नहीं जा सकता। यानी मेरा मतलब यह है कि हम कितना ही चक्कर लगा-लगू कर व्याख्या करें, आखिर में हमको यह कहना पड़ेगा कि भई, यह तो, यह तो चख कर देखना पड़े। और फिर भी जरूरी नहीं है कि चख कर जो मैंने देखा है, वही तुम देख लोगे। क्योंकि मेरी जीभ है और तुम्हारी जीभ है, इनमें इतना फर्क है जिसका हिसाब नहीं है।
तो इसलिए मैं कहता हूं, अनुभव है और वैयक्तिक अनुभव है। तो महावीर को जैसा अनुभव जीवन का हुआ, तुमको होगा मैं नहीं कहता।

प्रश्न:
नहीं हो सकता।
मुझको जो हुआ, मैं नहीं कहता कि इनको होगा। इतना मैं कहता हूं कि जीवन का अनुभव होने का ढंग टोटल इंटेंसिटी है। फिर भी अनुभव अलग होंगे। फिर भी अनुभव अलग होंगे! क्योंकि निकाजो को जो अनुभव हुआ दांव लगा कर, हम नहीं कह सकते कि वही अनुभव अकबर के दरबार में उन लड़कों को हुआ होगा जो उनकी छाती में छुरा गया। अनुभव अलग रहे होंगे। क्योंकि ये व्यक्ति अलग हैं। इनकी टोटल कांबिनेशन अलग है। और इतनी, जिंदगी इतनी जटिल बात है कि जरा सा फर्क और सब फर्क हो जाता है। जरा सा फर्क। और हरेक का व्यक्तित्व बिलकुल अलग है।
तो जब हम पूछते हैं: जीवन क्या है? तो भी हम एक बड़ी गड़बड़ बात पूछ रहे हैं। हम पूछ सकते हैं--राम का जीवन क्या है? बुद्ध का जीवन क्या है? अ का जीवन क्या है? ब का जीवन क्या है?
जीवन क्या है? जीवन का ऐसा कोई मतलब नहीं होता। क्योंकि जीवन क्या है, यह हमेशा एक वैयक्तिक अनुभव है।
तो मेरा कहना यह है कि यह मत पूछो, क्योंकि यह पूछने के पीछे हमारा खयाल यह है कि चीजों की व्याख्या हो सकती है, एक डेफिनिशन हो सकती है।
मेरी समझ यह है, किसी चीज की कोई डेफिनिशन नहीं हो सकती। सब डेफिनिशन कामचलाऊ हैं, थोथी हैं। थोड़ा सा काम चलता है, फिर डेफिनिशन पूछनी पड़ती है, फिर डेफिनिशन पूछनी पड़ती है। अंत में इनडिफाइनेबल पकड़ में आता है। आखिर में हमेशा आता है पकड़ में वह जिसकी कोई व्याख्या नहीं हो पाती। वहां जाकर हम खड़े रह जाते हैं। वहां जाकर हम खड़े रह जाते हैं!
तो जब कोई पूछता है, तो पूछने वाला भी पूछ लेता है और उत्तर देने वाला भी दे देगा कि जीवन फलां है, ढिकां है। सब बोथा और थोथला है। जरूरत की बात समझने की यह है कि जीवन जाना जा सकता है--और कैसे? तो वह ‘कैसे’ के लिए वे जो पूछ रही हैं, वह मैंने कहा। जीओ ऐसे कि दांव इकट्ठा हो। जीओ ऐसे कि एक-एक क्षण में पूरे प्राणों की शक्ति संयुक्त हो जाए। जीओ ऐसे कि पीछे कुछ छूट न जाए। तुम पूरे मौजूद हो जाओ।
हम हमेशा जीते हैं विदहेल्ड, पीछे कुछ रुका हुआ है, कुछ छूटा हुआ है। मैंने अगर किसी को प्रेम किया, तो भी मैं पीछे रोका हुआ हूं कुछ। यह प्रेम मेरा पूरा नहीं है। अभी मैं पीछे काफी विदहेल्ड किए हुए हूं कि पता नहीं यह ठीक साबित हो कि नहीं हो, यह प्रेम आगे चले कि नहीं चले, यह आदमी ठीक हो कि नहीं हो, अभी मैं एक हिस्से से कर रहा हूं, बाकी हिस्से को पीछे रोके हुए हूं कि कल जरूरत पड़े तो इसको भी वहीं खींच लूं।
अभी परसों क्या हुआ, एक बहिन मुझसे मिलने आई। वह मिल कर जाने लगी--वह कृष्णमूर्ति के पास जाती होगी--मुझे बाथरूम जाना है, तो मैं भी उठ कर खड़ा हुआ, तो वह कहने लगी कि मैं आपके गले मिलना चाहूं तो मिल सकते हैं? मैंने कहा: तू बिलकुल मिल सकती है। तो वह मेरे गले मिली, मुझसे गले मिल रही है, लेकिन ऐसा देख खिड़की के बाहर रही है कि कोई देख तो नहीं रहा। अब मैं, यानी वह मिली मुझसे गले, लेकिन वह खिड़की खुली है, तो वह देख... गले मुझसे मिली, देखा खिड़की के बाहर। तो मैंने उससे पूछा कि तू मिली किससे? मुझसे कि खिड़की से, कि खिड़की के बाहर जो लोग हैं उनसे? क्योंकि सवाल यह है... अब यह इसको मैं कहता हूं कि यह बिलकुल नॉन-इंटेंस लिविंग। और काहे के लिए गले मिलना? मतलब क्या हुआ मिलने का? काहे के लिए मिलना गले? तो मिली भी और नहीं भी मिली। उसको खयाल भी हो गया कि मैं गले भी मिल ली। और मैं जानता हूं कि गले मिलने का तो कोई संबंध ही नहीं हुआ; क्योंकि वह देख रही खिड़की के बाहर कि कोई देख तो नहीं रहा।
यह इसको मैं कह रहा हूं, इसको मैं कह रहा हूं... एक किसी भी क्षण में--कोई भी क्षण; यह भी नहीं कह रहा हूं कि किस क्षण में; लेकिन हमारे पीछे कुछ विदहेल्ड नहीं किया गया, हमने चुकता अपने सारे जीवन के फोकस को लगा दिया, तो जीवन का अनुभव हो सकता है। नहीं तो नहीं हो सकता। वह कोई भी क्षण हो, इसका सवाल नहीं। भोजन करने में भी अगर मैंने समग्र जीवन को लगा दिया, तो मैं स्वाद को जानूंगा। संगीत सुनने में अगर मैंने सारा प्राण लगा दिया और मैं सिर्फ कान रह गया हूं, सब सिकुड़ कर कान बन गया, अब मेरे भीतर कुछ भी नहीं है, मैं कान ही कान हूं, तो फिर संगीत का अनुभव होगा। भोजन करते वक्त मैं जीभ ही रह गया हूं और कुछ भी नहीं हूं, सब खो गया, मेरा सारा व्यक्तित्व जीभ बन गया है, तो फिर मैं स्वाद का अनुभव कर लूंगा। प्रेम करते वक्त मैं हृदय ही रह गया हूं। विचार करते वक्त मैं बुद्धि ही रह गया हूं, फिर कुछ भी नहीं है मेरे पास आगे-पीछे, फिर कोई कुछ और मामला नहीं है, मैं सिर्फ बुद्धि हूं, तो फिर, तो मुझे बुद्धि का अनुभव होगा।... हर चीज के अनुभव हैं।

प्रश्न:
तो क्रोध करें?
बिलकुल क्रोध हो जाएं, चुकता, पूरे, तो क्रोध का अनुभव हो। तो क्रोध का अनुभव होगा। और मजा यह है कि क्रोध का अनुभव हो जाए, तो क्रोध से आदमी मुक्त हो जाता है। और प्रेम का अनुभव हो जाए, तो पूर्ण प्रेम हो जाता है। अनुभव हो जाए पूरा। मेरा मतलब यह है कि क्रोध के वक्त भी--मेरा तो कहना यह है कि पूरी इंटेंस लिविंग क्रोध की भी। तो जब पूरा क्रोध का पता चल जाएगा तो दुबारा क्रोध होगा ही नहीं।
मैं पाप उसको कहता हूं, बुराई उसको कहता हूं, जिसके पूरे अनुभव से छूट जाती हो वह। और पुण्य उसको कहता हूं, धर्म उसको कहता हूं, जिसके पूरे अनुभव से भीतर आ जाती हो वह।
किसी चीज का पूर्ण अनुभव अगर उससे मुक्त करा देता हो, तो समझ लेना कि वह फिजूल था, हम व्यर्थ उसके साथ परेशान हो रहे थे। और किसी चीज का पूर्ण अनुभव अगर उससे हमें पूरा आत्मैक्य बना देता हो, तो समझ लेना कि वह सार्थक था, उसके बाहर हम व्यर्थ जी रहे थे।
आप अभी पता नहीं कर सकतीं कि प्रेम बचेगा कि क्रोध; जो बच जाएगा उसको मैं पुण्य कहता हूं--पूरे जीवन से। जैसे हमने आग में सोना डाल दिया, सोना बच जाएगा, कचरा जल जाएगा। जो बच जाएगा, वह सोना; जो जल गया, वह कचरा।
तो इंटेंस लिविंग की जो फायर है, वह जो आग है पूरे जीवन की, समग्र जीवन की, उसमें डाल दो अपने को: जो बच जाए, वह धर्म; जो जल जाए, वह अधर्म। और वह जल जाएगा, क्योंकि उतनी इंटेंस लिविंग में वह बच नहीं सकता जो फिजूल है, वह तो जलेगा। वह बचता इसलिए है... अब यह बड़े मजे की बात है। इसके दो परिणाम होते हैं। क्योंकि हम टुकड़ा-टुकड़ा जीते हैं, तो जो व्यर्थ है, वह बचा रह जाता है। आग बुझी-बुझी सी है, उसमें कचरा भी नहीं जलता। राख में डाले हुए हैं, वह कचरा भी नहीं जलता। तो जो व्यर्थ है, वह बचा रह जाता है--टुकड़ा-टुकड़ा जीने से; और जो सार्थक है, वह निखर नहीं पाता--टुकड़ा-टुकड़ा जीने से। जीवन एक कचरा बना रह जाता है। पूरी तरह जीने वाले आदमी का व्यर्थ जल जाता है, सार्थक शेष रह जाता है।
इसलिए आप हैरान होंगे कि दुनिया में जो बड़े कनवरशंस हुए, वे उन लोगों के थे... जैसे कि वाल्मीकि का या अंगुलीमाल का, ये जो कनवरशंस थे, ये कनवरशंस इनके टोटल लिविंग से आए। ये चोरी भी कर रहे थे, तो वह पूरी समग्र थी। वाल्मीकि चोरी कर रहा था, तो समग्र थी। चोर था, तो पूरा था। वह हत्यारा था, अंगुलीमाल, तो पूरा था। हत्या ही थी उसकी जिंदगी। जब वह हत्या कर रहा था तो हत्यारा ही था सिर्फ और कुछ भी नहीं था। इस टोटल लिविंग से क्रांति आती है।
और यह जो मीडियाकर आदमी है, जो कभी किसी चीज को पूरी तरह नहीं जीता, किसी चीज को जीता ही नहीं पूरी तरह--न कभी प्रेम पूरा करता, न कभी घृणा पूरी करता; न कभी क्रोध पूरा करता, न कभी क्षमा पूरी करता; न कभी मित्र पूरा बनाता, न कभी शत्रु पूरा बनाता--यह आदमी जीवन को नहीं जान पाता। तो यह पूछता फिरता मंदिरों में, मस्जिदों में, गुरुओं के पास, साधु-संतों से कि जीवन क्या है? कोई क्या बताएगा कि जीवन क्या है! कोई क्या बताएगा इसमें! और बताने वाले मिल जाएंगे: क्योंकि न वे जीवन को जीए हैं, तो उन्होंने भी कुछ डेफिनेशंस बना रखी हैं कि फलाना, ढिकाना, यह है, वह है, वह बता देगा।
तो मैं नहीं कहता कि जीवन क्या है। मैं तो यह कहता हूं, जीवन कैसे जाना जा सकता है। और उसकी हिम्मत जुटानी चाहिए। और जब तक जवान हो तब तक जुटा लेनी चाहिए, क्योंकि जवान दांव नहीं लगा सकता तो बूढ़ा तो फिर कैसे लगाएगा। फिर बहुत मुश्किल है।

प्रश्न:
नहीं, मेरा कहने का मतलब ऐसा था कि यह पत्थर भी है...
मैं समझता हूं कि तुम अभी वहीं रुके हो। मैं जो कह रहा हूं उसको पूरा इंटेंसली सुन रहे हो?

प्रश्न:
मैं सुन रहा हूं। अभी आपने जो यह कहा कि यह सफेद दिखता है...
कहां... इसीलिए तो मैं कह रहा हूं कि तुम वहीं रुके हो।

प्रश्न:
नहीं, उसमें मेरी कुछ डिफिकल्टीज और हैं।
हां, तो तुम वहीं रुक जाओगे न! फिर मैं जो पीछे कहे चले जा रहा हूं, उसको सुन ही नहीं पा रहे।

प्रश्न:
नहीं, उसका सुना मैंने आपका।
उसको कैसे सुनोगे?

प्रश्न:
आपने कहा इंटेंसली जीना चाहिए।
क्या समझे उससे?

प्रश्न:
पूरी समग्रता से, पूरे रस से जीना चाहिए।
क्या समझे? जीए हो कभी?

प्रश्न:
कोई भी क्रिया करूं।
कोई क्रिया की है कभी?

प्रश्न:
हां जी, बहुत सी की है।
कौन सी क्रिया की है?

प्रश्न:
हां जी, जिंदगी में जो जी जाती है वह क्रिया।
तो वह सब लोग जी रहे हैं।

प्रश्न:
हां, तो वह तो है ही।
इंटेंसली।

प्रश्न:
वह इंटेंसिटी।
हां, कैसे जीए वह।

प्रश्न:
रस, रसवंती होता है जो, रस ज्यादा गिर रहा हो। कोई भी चीज को ज्यादा उपयोग से करना।
यह मैंने कहां कहा। न मैंने उपयोग का कहा, न मैंने रस का कहा।

प्रश्न:
मोर इंटेंसिटी। आप और हम उसका उपयोग भी करें तो आपको कोई उससे वास्ता तो नहीं होना चाहिए।
उपयोग की नहीं कह रहा हूं।

प्रश्न:
उपयोग यानी ज्यादा कनसनट्रेशन लगाना कोई भी चीज में। उपयोग हम इसे ही कहते हैं। कोई भी चीज में ज्यादा कनसनट्रेशन लगाना वह उपयोग कहा जाता है।
अच्छी बात है।

प्रश्न:
और आपने भी यही कहा कि ज्यादा कनसनट्रेशन से जीना चाहिए। मैंने भी वही कहा। तो अभी आपने जो बताया था कि सफेद रंग जो है वह कुछ किरणें वापस भेज देने से वह सफेद दिखता है। एक ब्राउन कलर है तो कुछ किरणें वापस भेजने से वह ब्राउन दिखता है, तो फिर वह वह कलर ही क्यों फेंक देते हैं और दूसरे कलर क्यों नहीं फेंकते?
यही तो जानना है। यही तो जानना है।

प्रश्न:
हां, तो यही बात है कि उसको प्रॉपर्टी कहना, क्या कहें?
इससे तुम्हें जीवन को जानने में क्या होगा? यही मैं कह रहा हूं कि तुम वहीं रुके हो! यही मैं कह रहा हूं कि तुम वहीं रुके हो! कठिनाई क्या हो जाती है, हम व्यर्थ की बातों पर रुक जाते हैं। उससे कोई लेना-देना नहीं है। मैं जो कर रहा हूं...

प्रश्न:
इसके पीछे मेरा मतलब है पूछने का...
तुम्हारा मतलब क्या है पीछे, वह मैं समझता हूं।

प्रश्न:
आप आत्मा में मानते हो या नहीं मानते? यह मेरा पूछने का मतलब है।
अब यह तो बिलकुल ही बेवकूफी हो गई फिर।

प्रश्न:
हां जी, क्योंकि जीवन को आप आत्मा के कारण समझते हो कि वह...
वह बड़ा मजा हो गया! यही तो मैंने पहले कहा था कि अपने सारे प्रश्न रख लो, और यह तो प्रश्न दूसरा ही हो गया, इससे कोई संबंध ही न रहा उसका।

प्रश्न:
इसके पीछे जो मेरा भाव था...
पीछे तुम्हारे क्या था, मैं पूछा पहले ही तुमसे। तो मैं अभी फिजूल मेहनत किया इतनी देर।

प्रश्न:
जीवन आत्मा के कारण रह गया, यही आपने अगर...
तुमको पता है क्या कुछ?

प्रश्न:
जी नहीं, मुझे कुछ पता नहीं, अज्ञानी हूं मैं।
यह जो, यह जो सारा मामला है, लेकिन तुम्हें पता है कि आत्मा और जीवन, फलां-ढिकां, यह सब पता मालूम होता है।

प्रश्न:
हां जी।
यह सब तुम्हें पता मालूम होता है आत्मा वगैरह का।

प्रश्न:
हां जी। आत्मा के लिए तो--यह हिंदुस्तान आर्य भूमि में जो आत्मा का नाम नहीं जानता वह तो कमभागी है।
कमभागी है। यह तो बात है। यह तो बात है! सब कमभागी यहीं आर्य भूमि में इकट्ठे हो गए मालूम होते हैं।

प्रश्न:
नहीं, मेरा कहने का, यानी इसके पीछे मेरा पूछने का उद्देश्य इतना ही है...
तुम्हारे उद्देश्य से मुझे मतलब नहीं। तुम जो पूछते हो, उससे ही मुझे मतलब है। और इसलिए सीधा उसकी मैं बात कर सकता हूं। अभी मैं आत्मा की बात करूंगा, फौरन दूसरा उद्देश्य निकल आएगा, जिसका कि तुम्हें अभी पता भी नहीं है कि वह है। हम तो शिफ्ट होते हैं। हमारे क्वेश्र्चन में भी हमारे पूरे प्राण थोड़े ही होते हैं। मैं तो रोज परेशान हो गया हूं इस बात को जान कर कि एक आदमी एक प्रश्न पूछता है, उससे भी उसे मतलब नहीं है। थोड़ी देर में मैं पाता हूं, जब मैं उस प्रश्न की चर्चा कर रहा हूं, तब वह कुछ और सोच रहा है। थोड़ी देर में वह कहने लगता है कि मेरा मतलब यह है, फिर वह कहने लगता है कि मेरा मतलब यह है। उसका मतलब कुछ भी नहीं है। फिजूल के शब्द उसके दिमाग में इकट्ठे हो गए हैं और शब्द प्रश्न बनाने लगे हैं। और कुछ भी मतलब नहीं है।

प्रश्न:
मगर जीवन का आत्मा के साथ कुछ लेन-देन है कि नहीं?
अरे, जीवन और आत्मा कोई अलग चीजें हैं कि लेन-देन हो सकता है।

प्रश्न:
हां, तो यही तो मैं पूछ रहा हूं कि जीवन क्या है? तो उससे, आत्मा है कि नहीं उसका का भी...
आत्मा से तो कुछ संबंध ही नहीं है न! जीवन काफी हो गया।

प्रश्न:
यानी आप आत्मा के अस्तित्व में मानते नहीं हैं?
बड़ा मजा यह है कि जीवन पर्याप्त है, जीवन का अस्तित्व काफी है, अब उसको और दूसरा नाम देने की क्या जरूरत है।

प्रश्न:
हां, मगर जीवन जो है, अभी इसको जो अज्ञान है, हमको ज्ञान है। आप जो बोलते हैं, मैं समझ सकता हूं, यह पत्थर नहीं समझ सकता।
किसको पता कि नहीं समझ सकता? पत्थर ने तुमसे कहा? कि तुमने पत्थर से पूछा? और तुम समझ सकते हो, यह किसने तुमको कह दिया? अगर तुम समझ लेते तो बात खत्म हो गई होती।

प्रश्न:
जी, मैं समझ ही रहा हूं।
यह पत्थर शायद ज्यादा समझ गया हो, क्योंकि चुप है।

प्रश्न:
ही सो साइलेंट।
तुम तो चुप नहीं हो, तुम्हारा समझना तो बहुत मुश्किल है। यह तो हमारे सब... हम, जिस तरह से दिक्कत में पड़ा है आदमी, यही तो सब रास्ते हैं दिक्कत में पड़ने के। न तुम्हें जीवन से मतलब, न तुम्हें जीने से मतलब। कुछ पिटे-पिटाए शब्द हैं जो हजारों साल से चल रहे हैं, उन शब्दों से मतलब है। आर्य भूमि और आत्मा और फलाना-ढिकाना, इनसे मतलब है। जीने वाले को क्या मतलब इनसे? जीने वाले को क्या मतलब? शब्दों से क्या मतलब? यह जो, जो मैंने कहा न तुमसे, जीवन की... आत्मा वगैरह तो शब्द हैं, परिभाषाएं हैं।

प्रश्न:
नहीं, आत्मा आप एक्स वाय जेड कुछ भी कह सकते हो।
अभी तो जीवन ही काफी है न, उसको क्यों बीच में लाते हो? जीवन काफी नहीं होता क्या?

प्रश्न:
कबूल है आपकी बात कि जीवन काफी है उसके लिए।
तो जीवन पर बात कर लेना काफी है। जीवन के अतिरिक्त और क्या हो सकता है।

प्रश्न:
यह बात सच है आपकी। मगर जब एक इंसान मर जाता है, तो मुर्दा हो जाता है, तो उसमें और जिंदा इंसान में फर्क क्या होता है, यह मैं चाहता हूं।
अरे!

प्रश्न:
यह भी तो फिर एक सवाल पैदा होता है कि कुछ ऐसा कोई द्रव्य चाहिए। मेरा यह कहना है आपको कि कुछ ऐसा कोई द्रव्य भी तो चाहिए कि जिसकी कुछ प्रॉपर्टीज हो कि जिसकी वजह से...
तुमने किसी आदमी को मरते देखा कभी?

प्रश्न:
हां जी।
आज तक किसी आदमी को मरते देखा?

प्रश्न:
एक-दो आदमी को देखा है, ज्यादा नहीं।
मरते?

प्रश्न:
जी हां, आखिरी वक्त पर, यानी अभी साथ में बैठे हैं--वह कब मर जाए, यह कैसे मालूम हो सकता है?
न, मरते भाई? मरते देखा किसी को?

प्रश्न:
वह तो मालूम नहीं हो सकता कि कब वह मर जाए उसका प्राण।
नहीं पता चलता न कुछ। कुछ पता नहीं चलता कि मर गया कि नहीं मर गया। और इतना ही पता चलता है कि एक आदमी बोलता था, नहीं बोलता। अरे, मर गया नहीं कहो। मर गया का तो कुछ पता नहीं है। आज तक मेरे हिसाब में तो कोई मरा नहीं। और जो जानते हैं, वे कहते हैं, कभी कोई मरता नहीं।

प्रश्न:
सच बात है।
सच बात है यह?

प्रश्न:
हरेक चीज के नहीं तो व्याख्यान दो। हरेक चीज के दो चीज हैं, दो बाजू हैं। अभी आप कहेंगे कि हाइड्रोजन और ऑक्सीजन मिक्स हुआ और वाटर बन गया, तो क्या हाइड्रोजन खलास हो गया? एक दृष्टि से देखो तो खलास भी हो गया, एक दृष्टि से देखो तो है भी।
तुम तो कुछ जानते हो भाई।

प्रश्न:
एक अलग दृष्टि है उसकी।
तो फिर पूछ क्या रहे हो? तुम तो सब पहलू जानते हो। खोज क्या रहे हो?

प्रश्न:
आपका क्या अभिप्राय है? मैं आपका अभिप्राय पूछना चाह रहा हूं।
मेरे अभिप्राय को क्या करोगे? मुझसे क्या लेना-देना? तुम जानते हो तो मामला खत्म हो गया।

प्रश्न:
नहीं, मैं कुछ नहीं जानता, उसके लिए तो मैं पूछने को आया हूं।
अरे!

प्रश्न:
जानता हूं क्या कि कुछ ऐसी प्रॉपर्टी चाहिए, कुछ ऐसा...
क्यों, कैसे जान गए? किसने बता दिया और कहां से जान लिया?

प्रश्न:
कुछ लोगों ने बताया मुझे ऐसा कि ज्ञान तो मिलता ही है।
उनको क्यों मान लिया?

प्रश्न:
माना नहीं है मैंने।
तो फिर?

प्रश्न:
आइ हैव स्टिल टु बिलीव।
फिर तो... पर लगता तो ऐसा है कि मान लिया।

प्रश्न:
वॉट शैल आइ बिलीव? ऐसा है साहब कि जब तक पांच-दस आदमी का अभिप्राय न ले लें और फिर अपना दिमाग उसके ऊपर दौड़ाएंगे नहीं तब तक सत्य कैसे लग सकता है?
तो पांच-दस का लोगे अभिप्राय?

प्रश्न:
हां जी।
दुनिया में तीन करोड़ आदमी हैं।

प्रश्न:
नहीं, जो ज्ञानी हैं उनसे ही लेना है न!
ज्ञानी का कैसे पता चलेगा तुम्हें?

प्रश्न:
जी?
ज्ञानी का कैसे पता चलेगा?

प्रश्न:
जी, जो व्याख्यान देते हैं, जो लोगों को समझाते हैं, वे ज्ञानी लोग हैं।
बस, ज्ञानी हो जाते हैं! फिर तो बड़ी सरल बात है। तो फिर बड़ी सरल बात है।

प्रश्न:
आपको ज्ञानी समझ कर ही हम आपके पास आए हैं।
गलती कर दी है बिलकुल।

प्रश्न:
तो आपको अज्ञानी समझना चाहिए हमें?
वह भी गलती हो जाएगी।

प्रश्न:
क्यों?
मुझे तुम समझ कैसे सकते हो? ये मुझे अज्ञानी समझें, यह नहीं कह रहा, न मुझे ज्ञानी... तुम मुझे समझ कैसे सकते हो? तुम अपने को ही नहीं समझते हो, मुझे कैसे समझने का ठेका लोगे।

प्रश्न:
आपके विचार समझने की बात है न!
नहीं। हमारी सारी कठिनाई यह है कि हमारी सारी बातचीत बिलकुल चकरीली और पागलपन की है--सबकी। अब एक आदमी कहता है कि मैं ज्ञानी से पूछने जाता हूं। तुम कैसे तय कर लेते हो? तुमको इतना तो पक्का ही हो गया कि तुम ज्ञानी को तय कर सकते हो। और तुम जब ज्ञानी को तय कर सकते हो, तो तुमको ज्ञान की कोई कमी नहीं रह गई। तुम तो ज्ञानी तक का तय कर लेते हो कि कौन ज्ञानी, कौन अज्ञानी। यह जब मैं यह तय कर लेता हूं कि फलां आदमी ज्ञानी है, यह मैं तय कर लेता हूं। तो जब मैं ज्ञानी तक का निर्णय कर लेता हूं कि कौन ज्ञानी, तो मुझे इसका तो ज्ञान होना ही चाहिए कि ज्ञान क्या है, तब तो मैं ज्ञानी का तय कर लेता हूं। मैं यह भी तय कर लेता हूं, फलां आदमी अज्ञानी है। तो मुझे यह भी पता है कि यह किस चीज का अभाव अज्ञान है। तो मुझे ज्ञान तो मिल ही गया, तब तो मैं तय करता हूं। और फिर मैं यह भी तय कर लेता हूं कि जो आदमी बोलता है, वह ज्ञानी है।

प्रश्न:
यह आप निश्र्चय-वृत्ति से मेल कर रहे हैं।
अरे, निश्र्चय-विश्र्चय-वृत्ति का कोई सवाल ही नहीं है। तुम्हारा ज्ञान तुम्हें दिक्कत दे रहा है। उसकी वजह से तुम सुन ही नहीं पा रहे हो। कहां का निश्र्चय और कहां का क्या। तय करने वाले तुम कौन होते हो, कैसे तय कर लोगे तुम?

प्रश्न:
जी, व्यवहार दृष्टि से। सद्‌व्यवहार भी है--कि लोग कहते हैं कि यह आदमी ज्ञानी है।
हां, तो लोग ही कहते हैं न! इसको थोड़ा सोचो।

प्रश्न:
हां जी।
अगर मान लो कि मैंने कह दिया कि वे महाराज जो बैठे हैं ज्ञानी हैं, तो बात यहां सरक आई कि तुम मेरी बात को क्यों मान लेते हो?

प्रश्न:
नहीं, पर बहुत से लोग जब कहें।
अरे, बहुत से लोगों का भी क्या सवाल है। सारी दुनिया के लोग कहते थे कि जमीन चक्कर नहीं लगाती है।

प्रश्न:
और फिर वही तय होता है। वही तय करने के लिए जी यहां पर आया हूं न मैं कि आपके विचार क्या हैं?
मैं तुमसे यही कह रहा हूं कि किसी के ओपिनियन से सत्य तय नहीं होता।

प्रश्न:
यानी किसी का ओपिनियन जानना ही नहीं चाहिए?
सत्य का कोई संबंध ही नहीं है।

प्रश्न:
नहीं, पर किसी का ओपिनियन जानना चाहिए या नहीं?
जानो। सत्य तय नहीं होता।

प्रश्न:
वह जानने की ही बात है न।
सत्य तय नहीं होता। सत्य तय नहीं होता! समझे न? सत्य तय नहीं होता। दुनिया भर में इतने लोग हैं, वे सभी मानते थे कि सूरज चक्कर लगाता है पृथ्वी का। संख्या उनकी थी मानने वालों की। जिस आदमी ने पहली दफा कहा कि नहीं, ऐसा नहीं होता। वह अकेला आदमी था। लेकिन वह सही निकला, वह सारी दुनिया के लोग गलत निकले।

प्रश्न:
हो सकता है।
तो ओपिनियन ट्रूथ नहीं है। यह कोई पोलिटिकल मामला नहीं है सत्य का कि तुमने वोट ले लिए कि इतने आदमी कहते हैं कि यह सत्य है, पच्चीस आदमी कहते हैं। और फिर बड़ा मजा यह है, बड़ा मजा यह है कि जब भी कोई आदमी पूछने चला जाता है किसी से... मेरा कहना ही यह है कि पूछना छोड़ो, जीना शुरू करो। जीने के अनुभव से तुम्हें दिखाई पड़ना शुरू होगा, जो सत्य होगा। और पूछने से तुम्हें सिर्फ शब्द मिलेंगे। और शब्द तुम इकट्ठे कर लोगे। और शब्दों के बीच जोड़-तोड़ कर लोगे। और एक फिलॉसफी बना लोगे। वह फिलॉसफी बिलकुल बोगस है, झूठी है। उसका कोई मूल्य नहीं है।

प्रश्न:
यानी किसी का भी ओपिनियन जानना नहीं चाहिए?
यह मुझसे पूछोगे, ओपिनियन जानने लगे। नहीं समझे मेरी बात को। यह जब मुझसे पूछोगे, फिर वही की वही बात हो गई खड़ी। मैं यह कह रहा हूं कि ओपिनियन जानने से सत्य नहीं मिल सकता, यह जानना चाहिए। पूछो न पूछो, यह मैं क्यों कहूं। पूछो तो भी जानो कि इससे कुछ होने वाला नहीं है, नहीं पूछो तो भी जानो कि इससे कुछ होने वाला नहीं है। होगा तो मेरे जीवन से, अपने अनुभव से।

प्रश्न:
वह कबूल है।
इतनी जल्दी कबूल तुम्हें हो जाता है! और फिर तुम प्रश्न पूछने लगते हो!

प्रश्न:
क्योंकि अनुभव से ही होता है। मगर मैंने क्या कहा कि जब ऐसा है कि बहुत से लोगों के एक ही चीज पर अनेक विचार होते हैं। एक ही चीज पर अगर अलग-अलग इंसान लो तो उसके विचार अलग-अलग होते हैं। तो सब विचारों को जब हम जानें, फिर कुछ अपने भी तरफ दौड़ाएं, तो सत्य लग सकता है कि अपने आप ही लगेगा।
अपने आप ही।

प्रश्न:
तो फिर ओपिनियन लेने की जरूरत नहीं हुई, इसका मतलब यह हुआ।
ओपिनियन शुरू कर दिया लेना।

प्रश्न:
हां जी?
ओपिनियन शुरू कर दिया लेना फिर।

प्रश्न:
ओपिनियन यानी अपना ओपिनियन न, बाहर से किसी का ओपिनियन लेने की जरूरत नहीं है।
कोई जरूरत नहीं है।

प्रश्न:
कोई जरूरत नहीं है?
कोई जरूरत नहीं है।

प्रश्न:
तो फिर किसी के व्याख्यान की भी जरूरत नहीं है?
कोई जरूरत नहीं है।

प्रश्न:
सुनने की भी जरूरत नहीं है, सुनाने की भी जरूरत नहीं है?
कोई जरूरत नहीं है। कोई जरूरत नहीं है।

प्रश्न:
फिर आप सुनाते क्यों हैं?
फिर पूछने लगे मुझसे तुम! फिर तुम मुझसे पूछने लगे न! जब यह तय कर लिया, कबूल कर लिया कि कोई जरूरत नहीं, अब मुझसे पूछने की कहां गुंजाइश बचती है।

प्रश्न:
क्योंकि आप ही कह रहे हैं कि ओपिनियन लेने की किसी से जरूरत नहीं है?
नहीं समझते, तुम नहीं समझते मेरी बात को। और नहीं समझ सकोगे। और अगर इसी दिशा में चलते गए, तो फिर कुछ भी नहीं समझ सकोगे, वक्त आ जाएगा। समझे न? यह सारी दिशा पागलपन की दिशा है--सारी दिशा। यह जो सब तुम्हारा जो चल पड़ा हिसाब, उसमें आखिर में सिर्फ विक्षिप्त हो सकते हो और कुछ भी नहीं हो सकते।
साइलेंस की दिशा की तरफ समझ लेनी चाहिए।
मैं जाऊं, पूछूं, एक अंधे से पूछूं कि प्रकाश कैसा है, दूसरे अंधे से पूछूं, तीसरे अंधे से, पच्चीस अंधों से पूछूं और सबका ओपिनियन कलेक्ट कर लूं, और फिर अपना ओपिनियन भी जोड़ दूं। अंधा तो मैं खुद भी हूं, नहीं तो मैं प्रकाश को पूछने जाता ही नहीं। अंधा तो मैं खुद भी हूं, नहीं तो मैं पूछने क्यों जाता कि प्रकाश कैसा है। मैं जानता। तो पहली तो बुनियाद तो यह कि मैं अंधा हूं। अंधे आदमी की दूसरी बुनियाद यह है कि वह पता नहीं लगा सकता कि किसके पास आंख है। एक अंधे का ओपिनियन एक मात्रा में पागलपन है, तो पचास अंधों का पचास गुना! फर्क इतना पड़ जाता कि उसको सैंटिटि मिल जाती है। वह कहता कि ठीक, जब पचास आदमी यह कहते हैं, तो यह बात ठीक होनी चाहिए। संख्या के बढ़ने से, स्वीकृति मिलने से, इसको अपने अंधेपन की बात को मानने का बल मिल जाता है कि यह ठीक होनी चाहिए, इतने लोग कह रहे हैं। लेकिन बेसिस यह है कि तुम पूछने गए, तो तुम्हें पता नहीं पहली तो बात; फिर दूसरी बात, तुम जिनसे पूछने गए, तुम पता नहीं लगा सकते कि उनको पता है कि नहीं पता है।
तो मेरा कहना यह है, मेरा कहना यह है, पूछने की यात्रा केवल फिलॉसफिक है। सिद्धांत वगैरह इकट्ठे करने हों, पंडित बन जाना हो, तो पूछना चाहिए, समझना चाहिए, पढ़ना चाहिए, सीखना चाहिए और उसको पकड़ना चाहिए और अपना भी उसमें जोड़-तोड़ करना चाहिए।
लेकिन अगर जानना हो, तो यह बुनियादी बात समझ लेनी चाहिए कि मैं कैसे पहचानूंगा कि कौन सत्य कह रहा है, कौन असत्य कह रहा है? मैं कैसे, कैसे तय करूंगा कि जो इन्होंने कहा... क्योंकि मुझे सत्य पता नहीं है। पता होता तब तो तय कर लेता। तय कर लेता तो जानने की, पूछने की जरूरत न थी।
तो यह आदमी की बेसिक डिफिकल्टी है, यह उसकी बुनियादी कठिनाई है कि उसे पता नहीं है। और पूछ कर पता लगाना है। और पूछ कर पता लगा नहीं सकता, क्योंकि किससे पूछे?
तो मेरा क्या कहना है, मैं क्या कर सकता हूं, तुमसे जो बात कर रहा हूं, या लोगों से कह रहा हूं, मैं यह कह रहा हूं कि मैं तुम्हें उतनी तुम्हारी बेसिक डिफिकल्टी की चर्चा कर सकूं कि यह बेसिक सिचुएशन है हमारी। इस बेसिक सिचुएशन में तुम सोचो कि क्या करने से ठीक होगा--क्या पूछने से, ओपिनियन इकट्ठा करने से, किताब पढ़ने से, क्या होगा? जरूर तुम कोई डिसीजन कर लोगे। लेकिन डिसीजन से कोई संबंध नहीं। तुम्हारे डिसीजन का कोई मूल्य नहीं है। क्योंकि तुम जानते नहीं हो। और फर्क इतना पड़ेगा कि अगर तुम अकेले सोचते, तो तुमको लगता मैं अकेला हूं; पचास आदमियों का ओपिनियन तुम्हारे पक्ष में पड़ गया, तो तुम समझोगे कि अब तो ठीक होने के करीब बात आ गई; तो तुम जड़ हो जाओगे, पकड़ लोगे।
मैं चाहता हूं कि यह तुम्हारा सब तरल हो जाए, इसकी बुनियाद उखड़ जाए, यह तुम्हारा खयाल मिट जाए कि इस तरह सत्य जाना जा सकता है।
नहीं; इस तरह नहीं जाना जा सकता। लेकिन किस तरह जाना जा सकता है?
हम जी रहे हैं, तो हम जीवन के साथ पूरे संतृप्त हो जाएं, हमारे प्राण उससे जुड़ जाएं। और जीवन कोई ऐसी चीज नहीं है कि मैं कहीं जाऊं और उसको गले लगा लूं। वह तो चौबीस घंटे मैं बह रहा हूं उसमें।
अभी तुमसे बोल रहा हूं--तो जी रहा हूं। अब मैं इस तरह जी सकता हूं कि मैं तुम पर पूरे प्राण लगा दूं। हालांकि इसका कोई मतलब नहीं है। तुमसे मुझे क्या लेना-देना है। लेकिन मैं तुमसे बोलूं तो इतनी इंटेंसिटी से कि जैसे मेरा सारा दांव है यह कि मुझे जो ठीक दिखाई पड़ता है वह मैं तुम्हें कहूं।
तो मैं तुमसे बोल रहा हूं, मैं इस तरह भी बोल सकता हूं कि ठीक है, आ गया आदमी तो थोड़ी-बहुत बात करके इसको विदा कर देना है। और वह विदा कर देना मुझे आसान है। मैं तुमसे सहमति भर दूं, झंझट तुमसे छूटी। मुझे तुमसे क्या लेना-देना है। क्या प्रयोजन है।
लेकिन नहीं; मैं तुमसे पूरी तरह जूझ ही लूंगा, मैं तुम पर दांव लगा दूंगा, जैसे कि मेरे लिए जीने-मरने का सवाल है यह। तो इस बोलने में भी इंटेंसिटी खड़ी हो जाएगी और बोलना मेरा एक लिविंग एक्सपीरिएंस हो जाएगा। मेरा मतलब समझ रहे न?
अब तुम भी इस तरह सुन सकते हो कि सुनना तुम्हारे लिए एक दांव हो जाए, तो तुम्हारे लिए भी लिविंग एक्सपीरिएंस हो जाएगा।
लेकिन तुम्हारे लिए लिविंग एक्सपीरिएंस नहीं हो पाएगा; क्योंकि तुम दांव लगा कर नहीं सुन रहे हो। तुम प्रिज्युडिस से सुन रहे हो। तुम विदहेल्ड हो पीछे। तुम सोच रहे हो कि मैंने कल यह पढ़ा था, परसों यह मैंने सुना था, मैंने तो यह तय किया हुआ--निश्र्चय में, व्यवहार में, आत्मा, फलां-ढिकां, ये सब तुमको पकड़े हुए हैं पीछे। तुम पूरे नहीं कूद गए हो मेरे साथ। तुम खड़े हो, वहां रुका है तुम्हारा माइंड, तुम वहीं से सोच रहे हो। जब मैं बोल रहा हूं, तब तुम वही सुन रहे हो--तो अच्छा, यह निश्र्चय में हुआ कि व्यवहार में हुआ, कि ये क्या कह रहे हैं, यह किस धर्म से मिलती है बात, यह किस शास्त्र में मिलती है, तुम इसमें उलझे हो। तुम्हारा जो सुनना है वह टोटल नहीं हो पा रहा। नहीं हो पा रहा, तो चूक गया जीवन का एक अनुभव। मेरे पास घंटे भर तुम थे, जीवन का एक अनुभव हो सकता था, वह चूक गया।

प्रश्न:
इसमें जो अपनी बात थी उसका कोई खुलासा नहीं हुआ?
खुलासा मैं कर ही नहीं रहा हूं।

प्रश्न:
हां जी, क्योंकि आपने जो बताया...
मैं तो यही कह रहा हूं कि तुम अभी वहीं रुके हो, तुम जो पूछे थे घंटे भर पहले।

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