QUESTION & ANSWER

Upasana Ke Kshan 03

Third Discourse from the series of 12 discourses - Upasana Ke Kshan by Osho.
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विवेकानंद देवेंद्रनाथ के पास गए। अचानक, और कोई बात भी नहीं करता है, आकर हिलाया। आंख खोली तो पूछा कि ईश्र्वर को जानते हैं? वे थोड़े झिझक गए। वे झिझके, विवेकानंद वापस कूद गए। उन्होंने चिल्ला कर कहा कि रुको युवक! बात क्या है?
विवेकानंद ने कहा: आपकी झिझक ने सब-कुछ कह दिया, अब पूछने को मुझे कुछ है नहीं। आपकी झिझक ने सब कह दिया।
रामकृष्ण के पास गए। तो रामकृष्ण से भी वही पूछा--ईश्र्वर को जानते हैं? तो रामकृष्ण ने कहा कि तुझे जानना है? तू जानेगा?
इसमें यह जो फर्क है... एक महर्षि देवेंद्रनाथ हैं, रामकृष्ण कुछ भी नहीं जानते देवेंद्रनाथ के मुकाबले। कुछ भी नहीं जानते हैं। जहां शब्द और शास्त्र के जानने का संबंध है। लेकिन यह आदमी है जो शब्द और शास्त्र को नहीं जानता, लेकिन कुछ जानता है। जो एक अलग आयाम है, एक अलग दिशा है चित्त के जानने की।
तो एक तो हमारा रास्ता है जीवंत अनुभव का और एक रास्ता है शाब्दिक स्मृति का।
मैं अभी एक अनाथालय में गया। वहां बच्चों को वे सिखाते हैं--धर्म सिखाते हैं। जैसा कि आप कह रहे थे कि धर्म की शिक्षा होनी चाहिए। नहीं होगी धर्म की शिक्षा तो क्या होगा? और मैं तो कहता हूं कि धर्म की शिक्षा से ज्यादा खतरनाक कोई शिक्षा नहीं हो सकती! क्योंकि धर्म की शिक्षा में आप सिखाइएगा क्या? शब्द ही सिखाइएगा। उन्होंने मुझे कहा कि हम धर्म की शिक्षा देते हैं बच्चों को! आप इनसे कुछ भी प्रश्न पूछिए, ये उत्तर देंगे।
मैंने कहा: आप ही पूछिए, मैं सुनूंगा।
उन्होंने पूछा कि ईश्र्वर है? उन सब बच्चों ने हाथ हिला दिए--हां, ईश्र्वर है।
यह हाथ किस बात पर हिल रहा है? इनको पता है ईश्र्वर का, इन बच्चों को?
नहीं। इन्हें एक शब्द सिखा दिया गया कि ईश्र्वर है। इस शब्द में कोई भी अर्थ नहीं है। कोई भी अर्थ नहीं है इस शब्द में! एक बच्चे को सिखा दिया कि ईश्र्वर है। जैसे कैमेस्ट्री सिखाते हैं, फिजिक्स सिखाते हैं, ऐसा यह भी सिखा दिया। इसको परीक्षा पास करनी है तो इसने सीख लिया कि ईश्र्वर है। यह किताब में लिखेगा कि ईश्र्वर है। ये उत्तर देंगे तो हाथ हिलाएगा कि ईश्र्वर है। यह, यह अनुभव है? ये शब्द हैं।
आत्मा है?
तो बच्चों ने कहा: हां, आत्मा है।
कहां है?
तो उन्होंने हाथ उठा कर बता दिया कि यहां है।
ये, ये हाथ झूठे हैं, जो कह रहे हैं कि यहां है। यह भी सीखा हुआ है। इन बच्चों को कोई भी पता नहीं है।
मैंने एक लड़के से पूछा कि हृदय कहां है?
उसने कहा: यह तो हमें बताया नहीं।
आत्मा कहां है? वह कहता है, यहां। फिर पूछा, हृदय कहां है? वह बोला, यह तो हमें बताया नहीं गया।
ये बच्चे सीख जाएंगे, ये बच्चे बूढ़े भी हो जाएंगे, लेकिन यह जो सीखा है, इसको दोहराते रहेंगे। जब भी जिंदगी में सवाल उठेगा--ईश्र्वर है? इनका सीखा हुआ उत्तर आएगा कि हां, ईश्र्वर है। और यह उत्तर बिलकुल झूठा है। यह इन्होंने जाना नहीं है। ये बच्चे हों या ये बूढ़े हो जाएं, तब भी ये इसी उत्तर को दोहराते रहेंगे।
यह खतरनाक बात हो गई। यह शब्द पकड़ लिया गया। और इसीलिए तो इतने धर्म हैं। अगर दुनिया में सत्य जाना जाता तो इतने धर्म कैसे हो सकते थे? लेकिन शब्द बहुत हैं, इसलिए बहुत धर्म हैं। धर्म शब्दों पर खड़े हैं, सत्यों पर खड़े नहीं हैं। नहीं तो इतने धर्म कैसे हो सकते थे? मैं जानता, आप जानते--और अगर हम सत्य जानते, तो मेरे बीच और आपके बीच फासला और दीवाल क्या हो सकती थी? नहीं, लेकिन आप कुरान जानते हैं, मैं गीता जानता हूं, तो दीवाल है। मैंने एक तरह के शब्द पकड़े हैं, आपने दूसरे तरह के शब्द पकड़े हैं। अब ये शब्द और आपके शब्द में विरोध है।

प्रश्न:
ये साधन हैं।
नहीं।

प्रश्न:
मैं जहां तक समझ सकूंगा, वह साधन है।
काहे का?

प्रश्न:
उस धर्म को जानने के लिए, जिस धर्म की व्याख्या एक आदिभौतिक इसमें भी हो सकती है, आध्यात्मिक भी हो सकती है।
यह जो, यह जो हमें खयाल होता है, असल में साधन केवल उन चीजों को जानने के हो सकते हैं जो हमसे पराई हों, जो हमसे दूर हों, उन तक पहुंचने के साधन हो सकते हैं।
जैसे मैं जबलपुर से हैदराबाद आया, तो बीच का रास्ता पार करना पड़ा। लेकिन मनुष्य और परमात्मा के बीच फासला नहीं है, इसलिए साधन हो नहीं सकता।

प्रश्न:
मनुष्य और जीवन में फासला है।
नहीं।

प्रश्न:
मनुष्य और अंतर-आत्मा जो है... जैसे मनुष्य का एक ध्येय है, अंतर-आत्मा का कोई आकार नहीं है। जो उस आकार को और इस ध्येय को, बीच में जो कुछ एक अंतर है, उस अंतर को जानने के लिए साधन न हो, तो कैसे उसकी परिपूर्णता होगी?
कोई अंतर नहीं है। यह जो सारी बात है, जिन चीजों के बीच भी फासला है, उन चीजों के बीच रास्ते होंगे।

प्रश्न:
नहीं, फासला हमारे लिए है, क्योंकि हमने उस परिपूर्णता को लिया नहीं, इसलिए वह साधन है।
न, न, न। आपके बीच और परमात्मा के बीच कोई भी फासला नहीं है।

प्रश्न:
मैं परमात्मा को आत्मा ही बोल रहा हूं।
आत्मा बोलें, उससे फर्क नहीं पड़ता।

प्रश्न:
परमात्मा पर कोई और दूसरी... एक विभूति, अतः यह दर्शन नहीं होता।
तब तो फासला और भी नहीं है। फिर तो वही है।

प्रश्न:
नहीं, मेरे लिए इसलिए है कि मैंने उस आत्मा को देखा नहीं है, न दिखा हुआ है। अब यह देह को देखा हूं, तो उस आत्मा को मुझे देखना हो...।
इस पर थोड़ा मैं जो कह रहा हूं, तब फिर ‘आत्मा’ नाम के शब्द और आपके बीच फासला है। आत्मा नाम के शब्द... आत्मा को देखा नहीं, जाना नहीं, एक शब्द सुना है।

प्रश्न:
नहीं, शब्द नहीं सुना।
और क्या जाना है?

प्रश्न:
उस शब्द को सुना नहीं है, मगर उसे परिपूर्णता को देखने के लिए मैंने विचार किया।
वह विचार भी तो आपका कहां से? वह विचार--विचार हम करते ही उस चीज का हैं जिस चीज का हमें अनुभव नहीं होता। जिस चीज का हमें अनुभव होता है उसका हम विचार ही नहीं करते।

प्रश्न:
तो लक्ष्य ही नहीं है फिर जीवन में?
मैं उसकी अलग बात करूं। इस तरह कूदिएगा तो मुश्किल होगी। यानी, यह जो मैं कह रहा हूं, अंतर और फासले हमें मालूम पड़ रहे हैं, क्योंकि हमने कुछ शब्द--कोई एक परंपरा में पैदा हुआ है, ईश्र्वर शब्द को सीख लिया है, किसी ने आत्मा को, किसी ने किसी और को। इन शब्दों के बीच और हमारे बीच फासला मालूम पड़ता है। लेकिन अगर आत्मा का जरा सा भी अनुभव हो, तो पता चलेगा कि कोई फासला नहीं है, क्योंकि आप ही तो आत्मा हो। और मैं यह कह रहा हूं कि जब तक अनुभव नहीं होगा, जब तक इस शब्द पर पकड़ रहेगी तब तक अनुभव नहीं होगा।
क्योंकि होता क्या है, हम जिन चीजों के संबंध में भी शब्दों को पकड़ लेते हैं, जैसे समझ लें कि मैं यहां आया, और आपके आने के पहले मुझे किसी ने कह दिया कि आप बहुत भले आदमी हैं या किसी ने कह दिया कि बहुत बुरे आदमी हैं, और मैंने आपके बाबत एक तस्वीर बना ली। वह तस्वीर तो बिलकुल झूठी है। आपको तो मैं जानता नहीं। अच्छी या बुरी, एक खयाल मैंने बना लिया। फिर आपसे मुझे मिलाया गया, फिर मैं आपसे मिल नहीं पाऊंगा। आपके और मेरे बीच में एक तस्वीर खड़ी हुई है जो मैं बना कर आया हूं अच्छे और बुरे होने की। फिर मैं उसी तस्वीर से आपको देख रहा हूं।

प्रश्न:
पूर्व-कल्पना।
हां। उसी तस्वीर से देख रहा हूं। और वह तस्वीर मुझे आपसे जोड़ नहीं रही, तोड़ रही है। अगर मेरे और आपके बीच कोई तस्वीर न हो, तो मैं आपको वैसा ही देख पाऊंगा जैसे आप हैं।
तो हम तो हर चीज के बाबत बीच में कुछ बना लेते हैं। परमात्मा के या आत्मा के बाबत भी बीच में बना लेते हैं। और वह जो बनाया हुआ है, वह हमारे जानने का साधन नहीं बनता, बल्कि दीवाल बनता है, बीच में वह खड़ा हो जाता है।
जैन एक तरह के शब्द खड़े करता है, मुसलमान एक तरह के, हिंदू एक तरह के, बौद्ध एक तरह के--शब्दों को बीच में खड़ा कर लेते हैं। ये शब्दों के द्वारा वह देखता है फिर पार। अब ये, ये शब्द जो हैं, और इनकी व्याख्या जो है, और इनका सोच-विचार जो है, वह सब बीच में एक दीवाल की तरह खड़ा होता है।
जिस चीज की भी परिपूर्ण सच्चाई को हमें जानना हो, उसके संबंध में हमारी कोई पूर्व-कल्पना, कोई प्रिज्युडिस, कोई पक्षपात, कोई धारणा, कुछ भी नहीं होनी चाहिए। हमें इतना निष्पक्ष, इतना शांत, इतना निःशब्द होकर जाना चाहिए उस सत्य के पास कि हम अपनी तरफ से कुछ भी उस पर आरोपित न करें, कुछ इंपोज न करें। सीधे जैसी हों हम वैसा उन्हें देख पाएं।
तो शब्द और शास्त्र आपकी कल्पना बन जाती, बीच में बाधा बन जाती। फिर आप जानते नहीं कि ये शब्द सत्य हैं या शास्त्र सत्य हैं, यह भी आप नहीं जानते। यह आपको कैसे पता है कि सत्य है? सिर्फ इसलिए कि परंपरा कहती है। और तो कुछ नहीं। और परंपरा तो एक लंबा प्रचार है।
हिटलर ने अपनी आत्म-कथा में लिखा कि ऐसा कोई असत्य नहीं है जिसे थोड़े प्रोपेगेंडा से सत्य न बनाया जा सके। उसने लिखा, मैं अपने अनुभव से कहता हूं कि मैंने बड़े-बड़े असत्य बोले और वे सब सत्य हो गए। और करोड़ों लोगों ने उन पर विश्र्वास कर लिया।
आप हिंदू घर में पैदा हुए हैं, या मैं मुसलमान घर में पैदा हुआ हूं, तो मैं जिस किताब को कहता हूं कि यह सच है, सिवाय इसके और क्या इसके सच होने का प्रमाण है कि मेरे दिमाग में बचपन से यह बात प्रोपेगेट की गई है कि यह सच है। और क्या इससे ज्यादा प्रमाण है। मेरे पिता के दिमाग में भी प्रोपेगेट की गई है। और परंपराओं से, हजारों वर्ष से एक चीज का प्रचार किया गया है कि यह सत्य है। आपके दिमाग में दूसरी किताब सत्य है। एक तीसरे के दिमाग में तीसरी किताब सत्य है। यह सब प्रोपेगेंडा है। और यह प्रोपेगेंडा मेरे दिमाग में मैं भर लूं और फिर इसको लेकर मैं खोजने जाऊं, मेरी खोज असंभव हो जाएगी। मैं तो बंध गया। और जो दिमाग बंधा हुआ है वह खोज नहीं कर सकता। खोज के लिए तो चाहिए बिलकुल खुला हुआ मन। जिसकी कोई पक्षपात नहीं, जिसका कोई शब्द नहीं है, कोई शास्त्र नहीं। सिर्फ एक खोज है, एक प्यास है।
तो इतनी खोज और प्यास अगर हो, तो दिखाई पड़ना शुरू हो जाएगा कि शब्द बाधा बन रहा है। किसने आपको सिखाया शब्द? और यह बिलकुल संयोग की बात थी कि आपको एक घर में रखा गया, दूसरे घर में रख कर आपको दूसरे शब्द सिखाए जा सकते थे, और कोई अड़चन न आती।
जैन घर में लड़का पैदा होता है तो उसे ईश्र्वर का, सृष्टिकर्ता का कोई खयाल नहीं आता। क्योंकि उसके घर में नहीं सिखाया जाता कि किसी ने सृष्टि बनाई है। उसी के बगल में हिंदू परिवार में लड़का सीख रहा है कि सृष्टि बनाने वाला भगवान है, उसने दुनिया बनाई है। और ये दोनों सीख कर बड़े हो रहे हैं।
वहां सोवियत रूस में दूसरा लड़का पैदा हो रहा है, जिसको हुकूमत सिखा रही है कि कोई भगवान नहीं है, कोई आत्मा नहीं है, आदमी सिर्फ शरीर है। वह बच्चा वह सीख कर खड़ा हो रहा है।
मेरे एक मित्र रूस से लौटे, तो वे मुझे कहने लगे कि एक छोटे से बच्चे से मैंने पूछा कि तुम्हारा ईश्र्वर के संबंध में क्या खयाल है? तो उसने कहा कि पहले हुआ करता था ईश्र्वर, अब नहीं है। पहले हुआ करता था, अब नहीं है। पहले लोग नासमझ थे, ईश्र्वर को मानते थे। अब तो लोग समझ गए, यहां कोई ईश्र्वर को कोई मानता नहीं।
उस बच्चे को यह सिखाया जा रहा है। आप अपने बच्चे को एक दूसरी बात सिखा रहे हैं, तीसरा तीसरी बात सिखा रहा है। यह जो सिखावट से पैदा हुआ ज्ञान है बिलकुल झूठा है।
मेरा कहना यह है कि इसमें कौन सा ठीक, यह सवाल नहीं है। मेरा कहना यह है कि जो भी हम इस तरह की बातें सीख लेते हैं और उनको हम आधार बना कर खोज शुरू करते हैं, वह खोज गलत है। वह पहले से ही पंगु हो गई खोज, पैर काट दिए गए पहले से ही। सत्य की खोज के लिए निष्पक्ष मन चाहिए।

प्रश्न:
निर्मल भी चाहिए।
निर्मल भी चाहिए। जरूर चाहिए। जरूर चाहिए। तो वह जितना निर्मल और निष्पक्ष, जितना निर्दोष मन होगा, उतनी खोज गतिमान होगी।

प्रश्न:
क्षमा कीजिए! मैंने जो प्रश्न आप पर खड़ा किया था, यह सारी अवस्था कब होती है कि इस पंक्ति में न बैठें, किस पंक्ति में--सोचने के, विचार के, ये सब प्रकृतियां कब बनती हैं? इस आयु में तो नहीं बनेगी जिस आयु में मैं विज्ञान जानता ही नहीं, यानी बचपन में। जिस काल में कि मैं अभी जानता ही नहीं ईश्र्वर-वगैरह, उस काल में तो बनता नहीं। फिर से एक रूढ़ि से, शास्त्र से बनाया जाता है, जैसी आपकी कल्पना है। और नहीं बनाने के लिए अगर फिर मुझको ही छोड़ दिया जाए, कोई साधन न दिया जाए मुझे--न शास्त्र का, न शब्द का, न सिद्धांतों का, कोई दिया नहीं गया, और मुझे ही छोड़ा गया, तो क्या मेरे लिए वह संस्कार आएगा और वह संस्कृति आएगी, जिस संस्कृति से मैं आपकी विचारधारा, उस पंक्ति में जाकर बैठूं कि जहां मैं उस आत्मा को, जिस आत्मा को कि मैं परमेश्र्वर समझता हूं, उसको मेरी आयु में बगैर साधना के उसको ले लूं?
दो बातें हैं। एक बात तो यह कि अगर व्यक्ति को बिलकुल उस पर छोड़ दिया जाए बचपन से, बिलकुल उस पर छोड़ दिया जाए बचपन से, तो भी सत्य की खोज की संभावना इस स्थिति से ज्यादा होगी जिसमें हम उसे कुछ सिखाते हैं, एक बात। इसलिए ज्यादा होगी कि जिज्ञासा बच्चे को सिखानी नहीं पड़ती, जिज्ञासा तो बच्चे में होती है। जिज्ञासा मारनी पड़ती है, सिखानी नहीं पड़ती। छोटा सा बच्चा भी जिज्ञासा तो करता है कि क्या है यह? सब क्या है यह? ये प्रश्न उसमें उठते हैं। लेकिन इन प्रश्नों को हम दबा देते हैं। सिखाते तो यही कि यह भगवान की बनाई हुई प्रकृति है। बच्चा पूछता है, यह कहां से आया? हम कहते हैं, यह भगवान ने बनाया।
हम एक झूठी बात कह रहे हैं, जिसका हमें भी पता नहीं है। और बच्चा इतना छोटा है कि सोचता है कि पिता बहुत ज्ञानी हैं, इसलिए जरूर ठीक कहते होंगे। पिता भी कहते हैं, स्कूल का शिक्षक भी कहता है, संन्यासी भी कहता है, पंडित भी कहता है, आस-पास के लोग भी कहते हैं। बच्चा सोचता है, इतने बड़े-बड़े लोग, इतने ताकत के लोग, समझदार लोग, ये जब कहते हैं तो ठीक ही कहते होंगे। बच्चा पकड़ लेता है आप जो कहते हैं उसको।
परिणाम क्या होता है?
आप उसे ज्ञान तो दे नहीं रहे हैं, आप केवल एक शब्द दे रहे हैं, सिद्धांत दे रहे हैं। और एक बड़ी महत्वपूर्ण चीज नष्ट कर रहे हैं जो उसके भीतर थी, इंक्वायरी जो थी, वह नष्ट हो रही है। क्योंकि जैसे ही वह इसको पकड़ लेगा, इंक्वायरी खत्म हो जाएगी। और लड़का अगर इंक्वायरी करता ही चला जाए, तो आप कहते हैं, छोटे मुंह बड़ी बात मत करो। अगर वह लड़का यह कहता ही चला जाए कि नहीं, हमें शक होता है। भगवान को किसने बनाया है? तो आप कहेंगे कि देखो, ये अभी तुम्हारी पूछने की बातें नहीं हैं, अभी उम्र आने दो। और आप खुद भी अपने दिल में जानते हैं कि अभी हमको भी इसका पता नहीं है। लेकिन आप बच्चे के सामने ज्ञानी बने हुए हैं।
असल में हरेक को ज्ञानी बनने में बड़ा सुख मिलता है--बाप को भी, गुरु को भी। उपदेशक, ज्ञानी बनने में, गुरु बनने में बड़ा सुख है। और छोटे के सामने तो बहुत सुख है। वह छोटा सा बच्चा है, उसकी अभी कोई... आप उसकी जिज्ञासा की हत्या कर रहे हैं। अगर वह यह जिज्ञासा किए जाएगा तो आप उसको गाली देंगे कि नास्तिक है, गड़बड़ है, यह है, वह है। सब तरह के दबाव डाल कर धीरे-धीरे, धीरे-धीरे, धीरे-धीरे उसकी जिज्ञासा तो खत्म हो जाएगी और वह आपकी बातें दोहराने लगेगा कि जगत को ईश्र्वर ने बनाया है, आत्मा अमर है, ऐसा है, वैसा है, वे सारी बातें। जैसा आप दोहरा रहे हैं, तोते की तरह वह भी उन बातों को दोहराने लगेगा। इनको आप कहते हैं कि हमने उसे सत्य की दिशा में भेज दिया? आपने हत्या कर दी। सत्य की दिशा में तो जिज्ञासा ले जाती उसे। मैं यह नहीं कहता कि आप इसको बिलकुल इस पर छोड़ दें, मैं यह कहता हूं, इसके भीतर जो जिज्ञासा है उसके सहयोगी बनें, दुश्मन न बनें।
तो मैंने कहा कि पहली बात तो मैं यह कहता हूं कि अगर यही विकल्प हों हमारे सामने कि या तो हम सिखाएंगे बच्चे को कि ईश्र्वर है, आत्मा है, फलां-ढिकां और या हम बिलकुल छोड़ देंगे, तो भी मैं कहूंगा कि बिलकुल छोड़ देना बेहतर है। इससे ज्यादा बच्चे सत्य की खोज में जा सकेंगे जितने जा रहे हैं, एक बात।
लेकिन मेरा कहना यह नहीं है, मेरा कहना यह है कि बच्चे की जिज्ञासा के साथी बनें। उसकी इंक्वायरी को और बढ़ाएं। और उससे कहें कि तूने बहुत अदभुत प्रश्न पूछा है। मैं भी इसे पूछ रहा हूं, अभी तक जान नहीं पाया हूं। हम मिल कर पूछें। हमारा पूरा परिवार मिल कर पूछे, हम खोजें, हम सोचें। ये-ये उत्तर लोगों ने दिए हैं, लेकिन मुझे अभी तृप्ति नहीं हुई, क्योंकि मैंने नहीं जाना। ये-ये उत्तर हैं लोगों के दिए हुए कि ईश्र्वर ने बनाया है। लेकिन इसके विरोध में भी कहने वाले लोग हैं कि ईश्र्वर ने नहीं बनाया, ईश्र्वर है ही नहीं।
बच्चे के सामने सारी बातें खोल दें। उसकी इंक्वायरी बढ़ने दें, उसकी जिज्ञासा बढ़ने दें। उसको ज्ञान न दें, उसकी जिज्ञासा को बढ़ाएं। अगर आप उसकी जिज्ञासा इतनी प्रबल कर सकते हैं कि वह उस समय तक किसी बात को मानने को राजी नहीं होगा, जब तक कि वह खुद न जान ले, तो आपसे बेहतर पिता उस बच्चे को दूसरा नहीं मिल सकता। जब तक वह मानने को राजी नहीं होगा तब तक कि वह खुद जानने की दिशा में खड़ा न हो जाए। जब तक कि खुद कुछ उसे अनुभव न मिलने लगे तब तक वह मानने को राजी नहीं होगा। इसका मतलब यह नहीं कि आप अश्रद्धा सिखा रहे हैं। इसका मतलब यह नहीं कि आप अश्रद्धा सिखा रहे हैं! क्योंकि अश्रद्धा भी एक तरह की शिक्षा है, जैसे श्रद्धा एक तरह की शिक्षा है। आप यह नहीं सिखा रहे हैं कि ईश्र्वर नहीं है। एक शिक्षा यह है कि ईश्र्वर है, एक शिक्षा यह है कि ईश्र्वर नहीं है। ये दोनों शिक्षाएं हैं। यह भी मत सिखाइए की ईश्र्वर नहीं है, आपको यह भी कहां पता है। आप तो बच्चे को कहिए कि मुझे पता नहीं है। कुछ लोग कहते हैं ईश्र्वर है, कुछ लोग कहते हैं ईश्र्वर नहीं है। मैं भी खोज रहा हूं। मैंने अभी जाना नहीं है। तुम भी खोजना। तुम भी खोजना!

प्रश्न:
किस साधनों पर खोजना?
विवेक से। साधन से नहीं। विवेक खोज है असल में। असल में बच्चे का विवेक बढ़ना चाहिए।

प्रश्न:
विवेक कैसे बढ़े?
उसके तो रास्ते हैं न सब।

प्रश्न:
लेकिन रास्ते होकर फिर साधन हुआ।
मेरा मतलब नहीं समझे आप! विवेक को जगाने के रास्ते हैं। परमात्मा को पाने के रास्ते नहीं हैं।

प्रश्न:
विवेक को जगाने का रास्ता भी हो तो लक्ष्य वही है।
नहीं। इसको समझ लें। फर्क क्या होगा, जैसे कि इस कमरे में अंधेरा भरा हो, तो मैं आपसे कहूंगा कि प्रकाश को जलाने के रास्ते हैं, अंधेरे को अलग करने के रास्ते नहीं हैं।
मेरा मतलब आप समझे?
मैं कहूंगा, प्रकाश को जलाने के रास्ते हैं, अंधेरे को अलग करने के रास्ते नहीं हैं। हां, प्रकाश जल जाए तो अंधेरा अलग हो जाता है। लेकिन अगर हम अंधेरे को अलग करने का कोई उपाय खोजने लगें कि लाओ गठरियां बांधो अंधेरे को फेंको, तलवार लाओ अंधेरे को धकाओ, मित्र इकट्ठे हो जाओ, रस्सियों में बांधो, अंधेरे को बाहर निकालो, तो हम पागल हो जाएंगे।
अंधेरे को निकालने का कोई रास्ता नहीं होता। प्रकाश को जलाने का रास्ता होता है। और बड़े मजे की बात यह है कि प्रकाश जल जाए तो अंधेरा पाया ही नहीं जाता। मैं जो फर्क कर रहा हूं, ईश्र्वर को पाने का कोई रास्ता नहीं है। मेरा मतलब यह है कि न पूजा से ईश्र्वर मिल सकता है, न माला फेरने से, न शास्त्र रटने से, न राम-राम रटने से, ईश्र्वर को मिलने का सीधा कोई रास्ता नहीं है। सीधा आप चाहें कि मैं ईश्र्वर को पा लूं, तो क्या करूं, तो कोई रास्ता नहीं है।
नहीं, लेकिन विवेक को जगाने का रास्ता है। और विवेक जग जाए, तो ईश्र्वर पाया ही हुआ है। विवेक जगने पर ऐसा नहीं मालूम होता कि मैंने ईश्र्वर को पा लिया, ऐसा मालूम पड़ता मैं कैसा पागल था, ईश्र्वर जो कि मिला ही था, आत्मा जो कि मेरे भीतर थी ही, वह मुझे दिखाई नहीं पड़ती थी। यानी ईश्र्वर...

प्रश्न:
विवेक के लिए सदबुद्धि की जोड़ होनी चाहिए।
उसी सदबुद्धि के लिए यह सारा प्रयोग है। और ये जो, ये विवेक को रोकने वाले रास्ते हैं--शास्त्र और शब्द और स्मृति, ये सब विवेक रोकने वाले रास्ते हैं। क्योंकि इससे विवेक पैदा नहीं होता, इससे पकड़ पैदा होती है, श्रद्धा पैदा होती है; इंक्वायरी पैदा नहीं होती, जिज्ञासा पैदा नहीं होती। यह जो कठिनाई है न, जो विवेक को रोकने वाला रास्ता है वह यह है कि तुम मान लो। यह खतरनाक है। तुम खोजो। लेकिन हम तो बच्चे को कहते हैं कि मान लो। तुम मान लो कि ऐसा हम कहते हैं, हमारे पिता कहते हैं, ऋषि-मुनि कहते हैं, हजारों साल से लोग कहते हैं, तुम मान लो।
मान लेने की जो बात है, विश्र्वास कर लेने की जो बात है वह विवेक-विरोधी है। विवेक पैदा नहीं होगा। यह दुनिया की हत्या इसी में हो गई। आज दुनिया में इतना अविवेक है, उसका सारा बुनियादी कारण धार्मिक लोग हैं, जिन्होंने अविवेक की शिक्षा दी। विश्र्वास के नाम पर दी है, श्रद्धा के नाम पर दी है, आस्था के नाम पर दी है। अविवेक--सारी दुनिया में अविवेक है। और जब यह अविवेक हमारे सामने आता तो हम घबड़ाते हैं कि यह क्या हो रहा है? यह क्या हो रहा है? अब यह देखिए न...

प्रश्न:
उनको विवेक को लाने के लिए आप तो कहते हैं पाठ नहीं होनी चाहिए। उनको विवेक को लाने के लिए कोई आदर्शित जीवनों का अभ्यास नहीं होना चाहिए।
बिलकुल नहीं।

प्रश्न:
तो फिर विवेक स्वयंभू और स्वयंप्रेरित...
विवेक जो है, विवेक जो है, जब भी हम उसके सामने आदर्श रखते हैं तो कुंठित होता है, विवेक जो है। जैसे हम एक बच्चे को कहते हैं, तुम गांधी जैसे बन जाओ।

प्रश्न:
आपने अभी जैसे स्वामी रामकृष्ण का कहा, विवेकानंद जी का कहा, आपने यह कहा।
तो मैं यह आदर्श नहीं बता रहा हूं। इनको आदर्श नहीं बता रहा हूं।

प्रश्न:
उदाहरण के रूप में तो बतलाया।
तो मैं जो कह रहा हूं उसको एक्सप्लेन भर करने को। ये आदर्श नहीं हैं। मैं किसी बच्चे को नहीं कह सकता कि तुम विवेकानंद बन जाओ। यह इससे गलत कोई बात ही नहीं हो सकती। मैं तो यह किसी बच्चे को कह ही नहीं सकता कि तुम रामकृष्ण बन जाओ। यह तो बात ही गलत है और झूठी है।
क्योंकि जब भी हम किसी को कहते हैं कि तुम उस जैसे बन जाओ, तभी पाखंड शुरू हो जाता है। क्योंकि यह बच्चा असल में अपने जैसा ही बन सकता है, किसी और जैसा कभी बन ही नहीं सकता। आज तक कोई बच्चा बन ही नहीं सका है। एक गांधी पैदा होता, एक रामकृष्ण, एक विवेकानंद, कोई बच्चा किसी जैसा पैदा होता--हो भी नहीं सकता। होना भी नहीं चाहिए। दुनिया में जरूरत भी नहीं है एक जैसे दो आदमियों की। लेकिन जब भी हम कह देते हैं कि उस जैसे बन जाओ, तो इसके मन में एक झूठा काम शुरू होता है।

प्रश्न:
नहीं, वैसे बन जाओ नहीं, वे इस तरीके से ऐसे बने।
तुम भी उस तरीके से... आखिर सवाल यह है, सवाल यह है असल में, सवाल असल में यह है कि कौन किस तरीके से कैसा बना, अगर उसी तरीके से आप बिलकुल चले, तो आप बिलकुल एक नकली आदमी बन कर खड़े होंगे। आपके भीतर असली आदमी पैदा नहीं होगा। आपके भीतर असली आदमी कभी पैदा नहीं होगा। क्योंकि हर आदमी इतना यूनीक है, इतना अद्वितीय है कि हर आदमी की जिंदगी का रास्ता भी अद्वितीय है और अलग है। और नहीं तो मेरे होने की, आपके होने की कोई जरूरत नहीं है। मैं काफी हूं या आप काफी हैं। हम इतने लोग यहां बैठे हैं, हम सब उठ कर यहां से अगर चलेंगे, हम सबके रास्ते अलग होने वाले हैं। क्योंकि हम जहां बैठे हैं हम सब अलग जगह बैठे हैं। हम सब अपनी-अपनी जगह से चलेंगे। हम सब अपनी-अपनी जगह से चलेंगे!
अभी तक व्यक्तित्व की मौलिक गरिमा स्वीकृत नहीं हुई है--अभी तक। अभी तक हम कहते हैं किसी को आदर्श बना कर टाइप बना लेते हैं कि वैसे बन जाओ। तो उसके परिणाम यह होते हैं कि राम तो कोई बनता नहीं, रामलीला के राम बन जाते हैं बस, घूम-फिर कर इतना हो पाता है। और उससे दुनिया धीरे-धीरे झूठी होती चली गई। यह जो इतना पाखंड, और उन मुल्कों में जहां धर्म की ज्यादा शिक्षा, पाखंड ज्यादा है। उसका कुल कारण इतना है, क्योंकि धार्मिक शिक्षा यह कहती है कि इस जैसे बनो, इस रास्ते से चलो!
नहीं, मेरा कहना यह है कि रास्ते की फिकर न करें। फिकर करें विवेक की, जो कि रास्ता खोज लेता है।
हम यहां बैठे हैं, एक तो रास्ता यह है कि हमसे कहा जाए कि आगे रास्ता है, वहां से निकलिए। और एक रास्ता यह है कि हमें आंख दी जाए और हमसे कहा जाए: आपके पास आंख है, और रास्ता खोज लीजिए।
तो मेरा कहना यह है: बच्चे को आंख दें, विवेक दें। सहारा दें कि उसमें खुद खोजने की, सोचने की, विचार करने की बुद्धि उत्पन्न हो--जिंदगी में वह अपना रास्ता खोजे। रास्ता न दें। रास्ता देना आसान है, आंख देनी कठिन है।

प्रश्न:
विवेक हैज कम इन मैन बाय इटसेल्फ।
हां, विवेक भीतर है, सोया हुआ है। हम थोड़ा सहारा दें, तो वह जग जाएगा। जैसे एक बीज है, हम उसे बगीचे में डाल देते हैं--पानी डालते हैं, खाद डालते हैं; अंकुर थोड़े ही निकालते हैं, अंकुर तो भीतर है। सारी स्थिति जमा देते हैं।

प्रश्न:
अंकुर तो है सबमें।
हां।

प्रश्न:
बाय इ़ज बॉर्न, ही हैज गॉट दैट, ही इ़ज बॉर्न विद दैट। ही शुड डवलप बाय हिमसेल्फ।
हेल्प हिम, उसको हेल्प करें, सहायता करें।

प्रश्न:
नो-नो, यू गिव हिम शास्त्र, सम बिलीफ।
नो-नो, विद नो बिलीफ। चाइल्ड इ़ज बार्न विद एन इंक्वायरी। विद नो बिलीफ। बिलीफ इ़ज गिवेन।

प्रश्न:
इन दि हिंदू शास्त्रा, व्हेन ए सोल माइग्रेट्‌स इट कैरी़ज सच क्वालिटीज।
यही तो बिलीफ हैं। यही तो बिलीफ हैं। यह आपको किसने कहा? यह आपको किसने कहा? यह आपने कैसे मान लिया? यह तो एक प्रोपेगेंडा है। आप हिंदू घर में पैदा हुए, एक हिंदू प्रोपेगेंडा के भीतर पले, आप बातें दोहराने लगे। यह बिलकुल मैकेनिकल है। ये जो हम बातें मान लेते हैं, ये बिलीफ्स हैं। और इनसे विवेक पैदा नहीं होता।

प्रश्न:
यह तो कहना मानने में जरा तकलीफ है।
तकलीफ होगी। तकलीफ होगी! तकलीफ होनी जरूरी है। तकलीफ इसलिए होगी कि हम, हमारा सारा माइंड, हमारा सारा माइंड बिलीफ्स पर बना हुआ है। तो अगर हम यह कहें कि सब बिलीफ्स गलत हैं, तो घबड़ाहट होगी।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं है।)
न, न, न। यह मैं आपसे विश्र्वास करने को नहीं कह रहा। आइ डोंट से दैट यू बिलीव मी। ऑल बिलीफ्स आर फॉल्स। यह मैं नहीं कह रहा। मैं तो यह कह रहा हूं कि विचार करें। थिंक ओवर इट। और अगर ऐसा दिखाई पड़े कि बिलीफ गलत है...

प्रश्न:
इट इ़ज एन इनबॉर्न क्वालिटी विद हिम।
नो, इट इ़ज नॉट इनबॉर्न, इट इ़ज एन कल्टीवेटेड।

प्रश्न:
नो, आइ से इनबॉर्न।
न-न, समझ गया मैं। समझा। यह जो हम कहते हैं कि इनबॉर्न है...

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं है।)
न-न, समझ गया मैं आपकी बात। इनबॉर्न कहें, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। जब हम कहते हैं कि यह इनबॉर्न है--इनबॉर्न इमिटेशन नहीं है, इनबॉर्न ईगो है।

प्रश्न:
वॉटेवर दट इ़ज।
न, फर्क हो जाएगा। बहुत बड़ा फर्क हो जाएगा। जब हम कहते हैं कि यह जज है, इसका अनुकरण करो, तुम भी जज हो जाओ। जज इमिटेट करने की बात इनबॉर्न नहीं है, लेकिन अहंकार! जज को आदर मिल रहा है समाज में, रिस्पेक्ट मिल रहा है, रिस्पेक्टिबिलिटी है, लोग नमस्कार कर रहे हैं। इसके भीतर भी इनबॉर्न है कि मुझे भी लोग नमस्कार करें, मुझको भी लोग आदर दें। तो जब आप कहते हैं कि जज बन जाओ; जज यह नहीं बनना चाहता, लेकिन रिस्पेक्ट मिलेगा जज बनने से, तो यह पीछे लग जाता है। इस तरह हम एक्सप्लायट कर रहे हैं इसके ईगो को।
जब हम एक बच्चे को कहते हैं, गांधी बन जाओ--देखो गांधी कितना बड़ा महात्मा है! बच्चे के मन में भी होता--बड़ा महात्मा हो जाऊं तो मुझे भी आदर मिलेगा। तो वह जो अहंकार है वह इनबॉर्न है। और उस अहंकार को एक्सप्लायट कर रहे हैं। आप कह रहे हैं: गांधी बन जाओ, राम बन जाओ, कृष्ण बन जाओ, जज बन जाओ, चोर बन जाओ, डाकू बन जाओ, नेता बन जाओ। कुछ न कुछ कह रहे हैं उसको। उसका एक्सप्लायटेशन कर रहे हैं आप--उसके ईगो का। उसको आप कह रहे हैं कि तुम यह बन जाओ, तो तुमको भी ऐसा ही आदर मिलेगा--लोग नमस्कार करेंगे, पैर छुएंगे, ऊंची गद्दी पर बिठाएंगे, तुमको भी आदर मिलेगा। आदर पाने की इच्छा इनबॉर्न है। और आप उसका एक्सप्लायटेशन कर रहे हैं। और एंबीशन में लगा रहे हैं ईगो को।
अगर दूसरे तरह की एजुकेशन हो, दूसरे तरह का कल्चर हो, तो हम इस अहंकार को किसी दूसरे काम में लगाएंगे, इस काम में नहीं। इससे खतरनाक दुनिया पैदा हुई है।
जब हम कहते हैं, इस जैसे बन जाओ, तो एक काम्पिटेटिव वर्ल्ड पैदा हुई है। हर आदमी दूसरे जैसा बनने की कोशिश में लगा हुआ है। उसके परिणाम सामने हैं। दस साल में एक महायुद्ध होगा। जरूरी हो गया, क्योंकि एक आदमी दूसरे आदमी जैसा बन रहा है। एक नेशन दूसरे नेशन जैसा बनने की कोशिश में लगा हुआ है। सारे लोग इस कोशिश में लगे हुए हैं। एक कांफ्लिक्ट और एक स्ट्रगल पैदा हुई, एक वायलेंस पैदा हुई।
लेकिन, क्या यह नहीं हो सकता कि यह जो हमने कोशिश की है कि तुम इस जैसे बन जाओ, इसको हम कुछ और रास्ते पर ले जा सकें। जैसे मेरा खयाल यह है, हर बच्चे को कहा जाना चाहिए कि तुम किसी जैसे बनने की कोशिश मत करना, क्योंकि तुम खुद ही कुछ बनने को पैदा हुए हो।

प्रश्न:
दि बॉय इ़ज बॉर्न टु डिस्कवर हिज ओन ग्रोथ, हिज डेस्टिनी।
वही तो आप नहीं होने दे रहे हैं। वह आप नहीं होने दे रहे हैं। आप नहीं होने दे रहे हैं।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं है।)
मैं समझा, मैं समझा आपकी बात। आप जब भी यह कहते हैं कि गांधी जैसे बनो, हो सकता है आपका यही खयाल हो कि आप गांधी की कॉपी करो यह नहीं कहना चाह रहे हैं, यह आप नहीं कहना चाह रहे हैं, लेकिन आप बच्चे के माइंड में एक आइडियल पैदा कर रहे हैं, एक कांसेप्ट पैदा कर रहे हैं कि ऐसा आदमी होना चाहिए। गांधी जैसा होना चाहिए, या राम जैसा होना चाहिए। आप एक कांसेप्ट पैदा करते हैं। बच्चा एक तरह का है, एक तरह का कांसेप्ट पैदा कर रहे हैं। एक डिस्टेंस है दोनों के बीच में। उस कांसेप्ट को पाने के लिए बच्चा कोशिश करेगा कि मैं इस तरह का हो जाऊं। गांधी ने एक खास सिचुएशन में एक तरह से एक्ट किया, मैं भी करूं। गांधी ने सादगी जीवन में रखी, मैं भी सादा बनूं। गांधी नॉन-वायलेंट हैं, तो मैं नॉन-वायलेंट हो जाऊं। एक कांसेप्ट आप पैदा कर रहे हैं, एक पैटर्न पैदा कर रहे हैं, जिसमें बच्चा अपने को ढालना शुरू करेगा।
फर्क समझ लें यह आप।
बच्चे के सामने एक पैटर्न है, जिसमें वह अपने को ढालना शुरू करेगा। यह एक स्थिति है। और मैं यह कह रहा हूं, बच्चे के सामने कोई पैटर्न नहीं है; बच्चे की अपनी क्वालिटीज हैं, बच्चे की अपनी क्षमताएं हैं, अपनी कैपेबिलिटिज हैं, अपनी संभावनाएं हैं, सीड्‌स हैं अपने। कोई पैटर्न नहीं है आगे। इनको हम सहारा दे रहे हैं बढ़ने के लिए। बिना किसी पैटर्न के आगे इनको हम बढ़ने का सहारा दे रहे हैं। तो बच्चा उस स्थिति में पहुंचेगा जहां बच्चे को पहुंचना चाहिए। जहां बच्चे के भीतर की अपनी आत्मा उसे उपलब्ध होगी। और जब हम पैटर्न देते हैं, तो उसमें काट-छांट होगी, च्वाइस होगी। बच्चा एक चीज को हटाएगा, एक को लाएगा, एक को सम्हालेगा। च्वाइस होगी न! एक पैटर्न होगा, एक ढांचा होगा। एक ढांचे में बच्चा खड़ा होगा। यह हो सकता है कि दस-पंद्रह-बीस साल की निरंतर कोशिश के बाद बच्चा कुछ-कुछ गांधी जैसा आदमी खड़ा हो जाए। तो यह आदमी झूठा होगा। और इस तरह के व्यक्तित्व से इस बच्चे को कभी कोई शांति नहीं मिलेगी। क्योंकि इसके भीतर बहुत कुछ दबा देगा यह, बहुत कुछ हटा देगा, बहुत कुछ सम्हाल लेगा। यह एक च्वाइस होगी। यह ग्रोथ नहीं होगी।
और एक, एक बच्चा है, जिसके सामने बिलकुल फ्रीडम है, आगे कोई पैटर्न नहीं है, कोई आइडिया नहीं है, उसके भीतर कुछ क्वालिटीज हैं। प्रेम है। हम कहते हैं, प्रेम को बढ़ाओ, विकसित करो। हम यह नहीं कहते कि गांधी जैसा प्रेम करो। क्योंकि गांधी जैसा प्रेम एक च्वाइस है। और गांधी एक लिमिटेड च्वाइस है। और आदमी हजार ढंग से प्रेम कर सकता है। कोई गांधी जैसे प्रेम करने की जरूरत भी नहीं है। और मेरा तो कहना यह है कि मोहनदास करमचंद गांधी के अलावा उस तरह से कोई एक्ट कर ही नहीं सकता दूसरा आदमी। क्योंकि न वैसी सिचुवेशन हो सकती है, न वैसा वक्त हो सकता है, न वैसा व्यक्तित्व हो सकता है, न वे क्वालिटीज हो सकती हैं। कोई दूसरा आदमी वैसा एक्ट कर ही नहीं सकता। और जब भी कोई दूसरा आदमी एक्ट करने की कोशिश करेगा, तो एक तरह की अपने ऊपर जबर्दस्ती करेगा। अनिवार्य रूप से करेगा। अपने को तोड़ेगा, फोड़ेगा, मिटाएगा, बनाने की कोशिश करेगा। अगर बन भी गया किसी तरह से, तो एक झूठा आदमी खड़ा होगा। वह आपने चाहा हो या न चाहा हो। लेकिन आपने आइडिया पैदा किया उसके दिमाग में कि ऐसा!
मेरा कहना है, आइडिया पैदा न करें। बच्चे की जो--जो-जो इनबॉर्न क्वालिटीज आप कहते हैं--हैं उसमें कुछ। सब बच्चों में हैं। उनमें कौन सी क्वालिटी जीवन के लिए आनंद से भरती हैं, कौन सी क्वालिटी जीवन को शांति से भरती हैं, कौन सी क्वालिटी विवेक से भरती हैं, उसकी तरफ बच्चे को सहारा दें। सामने एक कांसेप्ट खड़ा मत करें, एक आइडियालॉजी खड़ी मत करें। सहारा दें। प्रेम के लिए सहारा दें। समझ में आने वाली बात होगी उसके लिए कि उसका प्रेम विकसित हो। हो सकता है गांधी से बड़ा प्रेम उसके भीतर से निकले। और यह तो तय है कि उसका प्रेम जिस ढंग का निकलेगा वह किसी दूसरे जैसा होने वाला नहीं है, वह बिलकुल अपनी किस्म का होगा।
और यह जो यूनीकनेस है एक-एक इंडिविजुअल की, यह जो गरिमा है, जब यह पूर्ति के करीब पहुंचती है, तो जो शांति मिलनी शुरू होती है, वही शांति है।
एक चमेली का फूल है, एक गुलाब का फूल है; हम चमेली के फूल को कहें कि गुलाब के फूल जैसे हो जाओ। अगर कोशिश करके वह फूल गुलाब जैसा होने की कोशिश करने लगे, तो एक बात तय है--अगर किसी तरह गुलाब का फूल हो भी जाए, तो भी न तो उसमें गुलाब की वह गंध होगी, न वह रौनक होगी, न वह शान होगी, जो उसके चमेली होने में होती। और दूसरी बात यह है कि एक तो वह हो ही नहीं पाएगा। और इस कोशिश में एक बात तय है: गुलाब होने की कोशिश में चमेली का फूल चमेली नहीं हो पाएगा, और गुलाब तो हो ही नहीं पाएगा। एक, एक बिलकुल क्रिपिल्ड... यह हमारी सारी दुनिया में जो क्रिपिल्ड आदमी पैदा हो रहा है, उसका कुल कारण ये आइडियाज हैं, ये कांसेप्ट्‌स, आइडियालॉजी और आइडियल्स कि ऐसे बनो, ऐसे बनो!
आप देखिए कि पांच-छह हजार साल के इतिहास में मनुष्य-जाति के आप मुश्किल से ऐसे सौ आदमी निकाल पाएंगे जिनको आप कहें कि ये आइडियल हैं। और बाकी सारे लोगों का क्या हुआ? बाकी सारे लोग कहां गए? और मैं आपको यह भी कह दूं, ये वे ही लोग हैं जिन्होंने किसी को आइडियल नहीं माना। यह बड़े मजे की बात है। ये सौ लोग वे ही लोग हैं जिनकी ग्रोथ बिलकुल इनडिपेंडेंट है।
गांधी हैं, अगर गांधी हिंदुस्तान के किसी भी संन्यासी को अपना आइडियल बना लें, तो गांधी पैदा ही नहीं होगा। रामकृष्ण को बना लें, या विवेकानंद को बना लें, या शंकराचार्य को बना लें, या बुद्ध को बना लें, या महावीर को, गांधी पैदा नहीं होगा। ये गांधी बिलकुल गड़बड़ चीज हैं, इन सबको अगर आप आइडियल मानते हैं तो। ये बुद्ध को अगर आइडियल मानते हैं तो, महावीर को आइडियल मानते हैं तो। महावीर राज्य छोड़ कर भागते हैं, यह गांधी राजनीति में खड़ा हुआ है बिलकुल बिना भय के। इसे कोई घबड़ाहट नहीं मालूम हो रही है यहां, यह बल्कि जिंदगी में खड़ा हुआ है वहां सामने। आपका सारा संन्यासी संसार छोड़ कर भागता है, यह संसार में खड़ा हुआ है। यह अगर किसी को भी आइडियल बना ले, तो यह आदमी गांधी नहीं हो सकता। यह हो जाता, ऐसे बहुत से संन्यासी घूम रहे हैं सारे मुल्क में, उनमें से एक यह भी होता। इसका कोई पैटर्न नहीं है, इसकी ग्रोथ है। और बिलकुल अननोन ग्रोथ है। इसलिए गांधी कहते हैं कि मैं एक्सपेरिमेंट कर रहा हूं। कर रहा हूं, यह ठीक लगता है, यह ठीक लगता है। करता हूं, देखता हूं। नहीं ठीक लगता, छोड़ता हूं। जो ठीक लगता है फिर उसको करता हूं। एक ग्रोथ है।
तो गांधी में एक ग्रोथ है। और ग्रोथ जहां होती है वहां लाइफ होती है। और जहां पैटर्न होता है वहां लाइफ नहीं होती।
आप पैटर्न में मशीन ढाल सकते हैं। जब आप आदमी को ढालने लगते हैं, तो आप गलती कर रहे हैं। आदमी में कुछ फर्क रखिए, वह पैटर्न नहीं है। कोई ढांचे में मत ढालिए उसको।
तो बच्चे के सामने तस्वीर मत लटकाइए कि यह तेरा ढांचा है, तू ऐसा बन जा। इससे नुकसान हुए। क्राइस्ट का ढांचा लटका कर कितने पादरी क्राइस्ट जैसी शक्ल-सूरत और लटकाए हुए क्रॉस घूम रहे हैं, एक क्राइस्ट तो पैदा होता नहीं! और क्राइस्ट जो पैदा हुआ, वह बिलकुल ढांचे के बाहर। उस वक्त का जो ढांचा था, उसमें बैठा नहीं, तब तो लोगों ने फांसी लगाई। नहीं तो फांसी क्यों लगाते? अगर आइडियल होता वह, आदर्श होता। बिलकुल आदर्श नहीं था यह आदमी। उस जमाने का जो आदर्श था, जिनको जिनके बीच में था उनको लगा कि यह गड़बड़ है। इसको मारना चाहिए, इसको जिंदा रखना ठीक नहीं है।
तो जो हम जिनको आदर्श बनाए हुए हैं--कभी आपने सोचा इस बात को कि वे जब पैदा हुए थे, जब थे, तो वे कुछ गड़बड़ लोग थे? इनमें कोई आदर्श नहीं थे। तो दुनिया में सौ-पचास थोड़े से लोग हुए हैं जिन्होंने लिविंग लाइफ में कुछ ऊंचाइयां पाई हैं। और बाकी लोग इमिटेशन कर रहे हैं। या तो इमिटेशन करने में सफल हो जाते हैं, तो भी मेरा कहना है, व्यर्थ हो गए वे। असफल हो जाते, तो भी व्यर्थ हो गए। दोनों हालतों में असफल हो जाते हैं। क्योंकि उसके भीतर जो पैदा होना था वह पैदा नहीं हो पाता।
तो एक-एक व्यक्ति की व्यक्तिगत खूबी, उसकी यूनीक इंडिविजुअलिटी की स्वीकृति नहीं है हमारे धर्म में, हमारे विचार में, हमारे समझ में।
मेरा कहना है, प्रत्येक व्यक्ति अपने जैसा है। और इसलिए उससे मत कहिए कि तुम किसी और जैसे हो जाओ। उससे यह कहिए कि जो तुम्हारे भीतर है, जो तुम्हारे भीतर पोटेंशियल है, उसे फैलाओ, उसे विकसित करो। हम उसके सहारे बनेंगे। हम उसे ढांचा नहीं देंगे; हम उसके साथी होंगे। हम उसे आदर्श नहीं देंगे; हम उसे सहारा देंगे।
हम एक पौधे को गड़ाते हैं जमीन में बीज को, हम उसको आदर्श नहीं देते कि तुम ऐसे बन जाना। हम सिर्फ खाद देते हैं, पानी देते हैं; साथ देते हैं, बागुड़ लगा देते हैं कि तुम्हें बकरी न चर जाए। तो वह बड़ा होता है।

प्रश्न:
फॉर ऑर्डरली ग्रोथ ऑफ दि सोसाइटी...
यह जो ऑर्डरली ग्रोथ है न, यह जो ऑर्डरली...

प्रश्न:
अदरवाइज देयर विल बी अनार्की इन दि सोसाइटी...
हां-हां। मैं समझा। मैं समझा। हम बहुत जल्दी नतीजे ले लेते हैं। इतनी जल्दी कनक्लूजन न लें।
असल में, असल में, यह जो हम ऑर्डरली सोसाइटी की फिकर करते हैं न, बिलकुल ठीक कहते हैं, इसी की फिकर का परिणाम धीरे-धीरे यह हो रहा है कि दुनिया एक दिन इतनी ऑर्डरली होगी कि इंडिविजुअल्स होंगे ही नहीं। ऑर्डर में लाने की जो हमारी फिकर है उसका मतलब... ऑर्डर में आप तब आ जाएंगे जब आपके पास मस्तिष्क बिलकुल न हो। आपके पास बुद्धि बिलकुल न हो, आप बिलकुल ऑर्डर में आ जाएंगे। ये कुर्सियों को जहां रख दीजिए वहीं रखी रहती हैं। पंखे को चला दीजिए वह वैसा ही चलता रहता है, बीच में कहता नहीं कि अब हम चलने से इनकार करते हैं, हम नहीं चलेंगे। आदमी में थोड़ी गड़बड़ है, उसके पास दिमाग है। तो आदमी बिलकुल ऑर्डर में कभी नहीं हो सकता। और जिस दिन हो जाएगा, उससे बड़े दुर्भाग्य का कोई दिन नहीं होगा। उससे बड़े दुर्भाग्य का कोई दिन हो सकता है कि आदमी बिलकुल ऑर्डर में हो जाए?
लेकिन समाज चाहता है कि बिलकुल ऑर्डर में हो जाएं, पॉलिटिशियन चाहता है कि बिलकुल ऑर्डर में हो जाएं। क्योंकि जहां ऑर्डर है वहां रिबेलियन नहीं है, वहां कोई विद्रोह नहीं है, वहां कोई तोड़-फोड़ नहीं है। सारी दुनिया के डिक्टेटर्स चाहते हैं कि ऑर्डर में हो जाएं। बिलकुल ऑर्डर में हो जाएं। हम कहें लेफ्ट, तो आप लेफ्ट घूमें; हम कहें राइट, तो राइट घूमें; हम कहें खड़े हो जाओ, तो खड़े हो जाएं। वे तो हमको एक मिलिट्रीराइज करना चाहते हैं सारी दुनिया में लोगों को।
और उसके लिए करने का एक रास्ता सबसे अच्छा है कि हमारे भीतर जो थोड़ी सी बुद्धि है वह और खत्म कर दी जाए। उसको खत्म करने की कई तरकीबें हैं--विश्र्वास पैदा करो, तो खत्म होती है; शास्त्र पकड़ाओ, तो खत्म होती है; हिंदू पकड़ाओ, मुसलमान पकड़ाओ, तो खत्म होती है; मस्जिद और मंदिर पकड़ाओ, तो खत्म होती है। कुछ चीजें पकड़ा दो, बिलीफ पकड़ा दो। विवेक दो, खतरा है। विवेक तो रिबेलियस है।
लेकिन मेरा कहना यह है कि अगर सारी दुनिया में बहुत विवेक हो, तो विवेक का भी एक अपना ऑर्डर है। आपको मैं बताऊं, इसको समझ लें थोड़ा। अभी विवेक रिबेलियस है, क्योंकि बिलीफ से जो दुनिया बनी है, वह गलत है। इसलिए विवेक को रिबेलियन करना पड़ता है।
हम यहां इतने लोग बैठे हुए हैं, अगर हम सब लोग हिंदुस्तान में थे, गुलाम थे दो सौ साल तक, हम बड़े ऑर्डरली लोग थे, हम गुलामी के खिलाफ कुछ नहीं करते थे। दस-पच्चीस गड़बड़ लोग पैदा हुए, वे कहने लगे कि हमको आजाद होना है। ये खतरनाक लोग हैं, इन्होंने सोच-विचार शुरू कर दिया, ये कहते हैं कि हमको आजाद होना है, हमको बदलना है, हिसाब बदलना है, यह ठीक नहीं है यह हिसाब। ये दस-पांच लोगों में भी विवेक न होता, तो ठीक था, हम मजे से जी रहे थे, हम अपने आराम से चले जा रहे थे।

प्रश्न:
ऑर्डरली।
ऑर्डरली। बिलकुल ऑर्डर में थे। इन्होंने केऑस पैदा कर दी। ये गांधी गड़बड़ आदमी हैं। ये केऑटिक हैं, अनार्किक हैं। असल में, दुनिया में... लेकिन यह अनार्किक कब तक है? यह तब तक विवेक अनार्की पैदा करेगा जब तक कि विश्र्वास गड़बड़ पैदा कर रहा है। जिस दिन दुनिया में बहुत अधिक लोगों के पास विवेक होगा--अनार्की की कोई जरूरत नहीं रह जाएगी। विवेक विल क्रिएट इट्‌स ओन ऑर्डर।
अभी विवेक का ऑर्डर पैदा नहीं हुआ दुनिया में। जो ऑर्डर है, वह अविवेक का है, इग्नोरेंस का ऑर्डर है अभी। जब तक नॉलेज का ऑर्डर पैदा नहीं होता, तब तक तो रिबेलियन होगा। और मैं कहता हूं, होना चाहिए। नहीं तो बड़ा खतरनाक है अगर नहीं होगा तो।
हमारे मुल्क की हालत तो यह है... गरीबी सह रहे हम आज चार हजार, तीन हजार साल से! लेकिन हम कहते हैं कि यह हमारे कर्म का फल है। पिछले जन्म में हमने बुरा काम किया था, उसका हम फल भोग रहे हैं, इसलिए हम गरीब हैं। इसको हम दोहरा रहे हैं तीन हजार साल से।
हम कभी की गरीबी मिटा सकते थे अपने मुल्क में, लेकिन हम इसको नहीं मिटा पाए। और नहीं मिटा पाएंगे, जब तक हम इस बात को दोहराए चले जा रहे हैं। ऑर्डर है। इसमें कोई गड़बड़ करने का सवाल ही नहीं है। हम सब चीजों को सहते चले जाते हैं। हम कहते कि यह ऑर्डर है।
तो ऑर्डर डेड ऑर्डर नहीं होना चाहिए।

प्रश्न:
सेल्फ ग्रोथ।
एक सेल्फ ग्रोथ होनी चाहिए। एक फ्रीडम होनी चाहिए माइंड को। एक इंडिविजुअलिटी होनी चाहिए। और मैं कहता हूं कि इस दुनिया से अनार्किक दुनिया भी बेहतर होगी, जैसी यह दुनिया है। इसको, इसको क्या है इस ऑर्डर से!

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं है।)
न-न। यह हमारे मन को समझाने के कंसोलेशंस हैं। हिंदू कहता है कि हिंदू धर्म बहुत अच्छा है। मुसलमान कहता है, मुसलमान धर्म अच्छा है। ईसाई कहता है, ईसाई धर्म अच्छा है।

प्रश्न:
दे हैव गॉट रिटेन कांस्टिट्यूशन, वी डोंट हैव रिटेन कांस्टिट्यूशन।
देखिए, सवाल यह नहीं है। सवाल यह नहीं है। सवाल यह नहीं कि आपका रिटेन कांस्टिट्यूशन है या नहीं। सवाल यह है कि जो भी है रिटेन, अनरिटेन, उस पर आप फेथ करते हैं या उसको विचार करते हैं, सवाल यह है। आप उस पर विश्र्वास करते हैं या विचार करते हैं, सवाल यह है। सवाल यह नहीं है कि लिखा है कि गैर-लिखा है। अगर आप उस पर विश्र्वास करके मानते हैं, अगर आप मानते हैं कि वेद जो है भगवान की लिखी हुई किताब है, तो आप वही बात कर रहे हैं जो कि क्रिश्र्चिएन कर रहा है, वह कहता है, यह बाइबिल जो है ईश्र्वर के पुत्र की लिखी किताब है; कुरान जो है यह भगवान के भेजा हुआ पैगंबर की किताब है।

प्रश्न:
आइ डोंट थिंक एनी हिंदू सेज दैट। ही मे बिलीव इन समथिंग, बट ए हिंदू, एन इंटेलेक्चुअल हिंदू, नेवर...
इंटेलेक्चुअल तो जो है, वह समझिए कि अगर ठीक से इंटेलेक्चुअल है, तो हिंदू-मुसलमान हो नहीं सकता। यह तो नॉन-इंटेलेक्चुअल की बात है हिंदू होना, मुसलमान होना। यानी मेरा मतलब यह है कि अगर आप इंटेलेक्चुअल हैं, तो आप हिंदू हो नहीं सकते, न आप मुसलमान हो सकते हैं।

प्रश्न:
वॉट आइ कुड अंडरस्टैंड फ्रॉम इंडिविजुअलिटी टु युनिवर्सलिटी, दे कुड थिंक ऑफ इट, इंडिविजुअलिटी टु युनिवर्सलिटी, दि पैकेज ऑफ टीचिंग, दैट वी शुड गिव हिम एज सून एज ही इज बॉर्न, मैन टु मैन। देयर इ़ज नो क्वेश्चन ऑफ एनी कांसेप्ट ऑफ रिलीजन, क्रीड ऑर एनी अदर।
हां-हां।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण ठीक नहीं है।)
हां-हां। यह जो है न, यह जो है, आप पौधे के साथ जो व्यवहार करते हैं, वही आदमी के साथ करना चाहते हैं। यही आपकी गलती है। मैं एक पौधे को लगाता हूं, अगर उसकी फिकर नहीं करूंगा, जंगल पैदा हो जाएगा। क्योंकि पौधे को विवेक नहीं दिया जा सकता। पौधे को विवेक नहीं दिया जा सकता। लेकिन एक आदमी को विवेक दिया जा सकता है। और आप कौन हैं इसके जिम्मेवार कि एक आदमी को आप जंगली नहीं होने देंगे और एक बगीचा बनाएंगे? आप कौन हैं? आप भी एक आदमी हैं न? आपको यह हक कहां से मिल जाता?
मैं पिता हूं एक बच्चे का, इससे मुझे यह हक मिल जाता है कि बच्चे को मैं बनाऊं जैसा मैं चाहता हूं? और मैं खुद कौन सा आदमी हूं, मैंने खुद कौन सी चीजें पा लीं, मैंने खुद जीवन में क्या जान लिया जो मैं बच्चे को बनाने की कोशिश कर रहा हूं? मैं ज्यादा से ज्यादा अपनी एक नकल और पैदा कर दूंगा। जो कि मैं खुद ही जमीन पर एक भार था और एक परेशानी था। यह बच्चा भी एक भार और परेशानी हो जाएगी।
मेरा कहना यह है, छह-सात हजार या दस हजार साल से हम आदमी को ढांचे में ढाल कर बनाने की कोशिश किए हैं--यह दुनिया पैदा हुई है! आप कहते हैं कि ‘यह अनार्की पैदा हो जाएगी।’ इससे ज्यादा बदतर दुनिया हो सकती है जैसी दुनिया है?

प्रश्न:
वे इसलिए कहते हैं कि मेरा विवेक और आपका विवेक अलग होगा।
कोई हर्जा नहीं।

प्रश्न:
इसलिए कहते हैं कि हरेक का विवेक अपना-अपना होगा।
अगर मैं आपको कहूं,... इसको थोड़ा विचार करेंगे, तो मेरा विश्र्वास और आपका विश्र्वास अगर अलग-अलग हो, तो खतरनाक दुनिया बनेगी; क्योंकि विश्र्वास लड़वा देगा। विवेक लड़वाएगा नहीं, एक बात। क्योंकि विवेक के साथ पहली शर्त यह है कि वह दूसरे को भी मौका देने के लिए राजी है। और मान्यता, विश्र्वास के साथ यह बात नहीं है। मैं कहता हूं, मेरा विश्र्वास ठीक, आपका गलत।

प्रश्न:
बिलीफ तो खतरनाक है वहां तो फर्क ही नहीं है।
बिलीफ तो खतरनाक है, क्योंकि मैं आपकी बिलीफ को कहता हूं गलत। और इसको मैं विचार करने को राजी नहीं हूं। मैं कहता हूं, गलत तो गलत और मेरी ठीक तो ठीक। और अगर ज्यादा गड़बड़ है तो तलवार से निर्णय कर लेते हैं कि कौन ठीक है और कौन गलत है। हिंदू-मुसलमान यही कर रहा है। तय कर लेता है कि तलवार निकाल लो, तो हम तय कर लेते हैं कौन ठीक।
बिलीफ के पास विचार करने का तो मौका नहीं है, तलवार चलाने का मौका है। तो तलवार चलती रही पांच हजार साल से। लेकिन विश्र्वास से अलग विवेक की बात यह है कि अगर आपकी बात मुझे गलत लगती है तो मैं समझाऊंगा और मेरी बात आपको गलत लगती है तो आप समझाएंगे।
झगड़ा वहीं शुरू होगा जहां विश्र्वास आ जाएगा और विवेक खत्म हो जाएगा। वहीं झगड़ा शुरू होगा। और अगर हम विवेक के अंत तक अनुगामी हों, तो झगड़े की कोई गुंजाइश नहीं है। एक सीमा आ जाएगी कि मेरा और आपका विवेक एक हॉर्मनी पैदा कर दे। और विश्र्वास से तो कभी हॉर्मनी पैदा हो नहीं सकती। क्योंकि कोई रास्ता ही नहीं है, कोई ब्रिज नहीं है मेरे और आपके बीच। आप हिंदू हैं, मैं मुसलमान हूं, ब्रिज है ही नहीं बीच में कोई।

प्रश्न:
तो फिर विवेक समझने और समझाने में है?
वह है न।
प्रश्न:
यू बिलांग टु नो सेक्ट।
आइ बिलांग टु रिलीजन एंड नो सेक्ट।

प्रश्न:
पहले मन में आती है या बुद्धि में आती है?
बात करनी पड़े। असल में, असल में...

प्रश्न:
तो वह कहां आती है पहले विवेक? क्या मन में आती है?
कभी बात करनी पड़े। लेकिन, मैं कहूंगा कि ऐसी दुनिया जो विवेक से भरी हो, अगर अराजक भी हो, तो भी स्वागत योग्य है ऐसी दुनिया से जो कि बिलकुल ऑर्डर में हो और जहां विवेक न हो, ऐसी दुनिया से। यानी ऐसी मृत्यु बेहतर जो विवेक से आए, उस जीवन के बजाय जो विश्र्वास से आता है। वह जीवन ही नहीं है फिर, वह तो मुर्दगी है। वह तो मुर्दगी है! एक कब्रिस्तान पर शांति होती है, उस तरह की शांति हमारे घरों में भी रही आए तो उसका कोई मतलब नहीं है। उसका कोई मतलब नहीं है! उसका कोई मतलब नहीं है!

प्रश्न:
आप ही का एक उदाहरण है कि एक ने पूछा कि मुझे--तपश्चर्या में बैठा हुआ था, वह ब्रह्म को जानना चाहता था--किसी ने जाकर उसको पूछा कि तुम ब्रह्म को जानना चाहते हो? उसने कहा कि मुझे बताइए कि ब्रह्म कहां है? तो उन्होंने आलिंगन दिया। और भी पूछा, बात नहीं कर रहा है, और ज्यादा आलिंगन दिया, और उस आलिंगन देने में ही उन्होंने उसको बतलाया कि यहां ब्रह्म है।
बताया जा सकता है।

प्रश्न:
तो वह आलिंगन देने के अंदर जो भीतर कल्पना आती है कि प्रेम--वह प्रेम ही वह यह है, वहां विवेक वह काम करता है?
बस दो बातें अगर मनुष्य के जीवन में संभव हो जाएं: उसके मस्तिष्क में विवेक हो और हृदय में प्रेम हो, तो बात पूरी हो जाती है। और किसी तरह की और कुछ करने की जरूरत नहीं है।

प्रश्न:
विवेक को भी क्यों जगाएं, प्रेम को क्यों जगाएं, यह दोनों भी छोड़ दीजिए?
हां, यह भी पूछा जा सकता है। यह इसलिए नहीं छोड़ सकते हैं कि हम-आप,...

प्रश्न:
आप जिसको विवेक समझते हैं हो सकता है कि वह बड़ा होने के बाद उसको विवेक न मानें?
हां-हां। मैं आपकी बात समझा।

प्रश्न:
हमने आपको आज देखा कि भई हमारे से पहले यह विवेक कह कर यह गलत चीज बताई, बहुत अच्छा होता कि अगर वे अच्छी चीज बताते?
नहीं, आप विवेक कह कर गलत चीज बता नहीं सकते।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं है।)
न-न। आप मेरी बात नहीं समझे। आप मेरी बात नहीं समझे। आप मेरी बात नहीं समझे। जब तक आप बिलीफ न दें, तब तक, तब तक कोई खतरा नहीं है। विवेक कोई कांसेप्ट थोड़े ही है देने का।
जैसे एक बच्चा है, हम उसे व्यायाम करवाते, उसे स्वास्थ्य मिल जाता है। तो स्वास्थ्य तो एक प्रगाढ़, एक ठोस चीज है। ठीक वैसे ही अगर हम उसे संदेह करना सिखाएं, तो उसे विवेक मिलना शुरू होता है। संदेह करना सिखाएं। तो विवेक को लाने का जो मैथड है, वह तो राइट डाउट है। उसे हम संदेह करना सिखाएं, तो विवेक आता है। और जब मैं उसे संदेह करना सिखाऊंगा, तो अपने पर संदेह करना भी सिखाता हूं।

प्रश्न:
संदेह का ट्रू माने क्या? जब मैंने पढ़ा तो मुझे संदेह का माने नहीं मालूम पड़ा। तो आपके सारे इसमें संदेह की कल्पना, जैसे हम दूसरे शब्दों में लेते हैं, वही है या...
क्या खयाल आपको?

प्रश्न:
संदेह यानी डाउट।
हां-हां, डाउट ही। डाउट सिखाएं बच्चे को। डाउट से बेहतर कुछ भी नहीं है।

प्रश्न:
आपका कहना है कि कोई चीज बगैर क्वेश्र्चन के कबूल न करें?
नहीं कबूल करें। नहीं कबूल करें। न हम कोशिश करें उसको कि वह कबूल कर ले, यह भी कोशिश न करें।

प्रश्न:
जैसे पिता ने बच्चे को नहीं समझाया, तो वह बच्चा हमेशा पिता के पास तो रहता नहीं, समाज में और भी लोग रहते हैं।
समझा मैं। समझा मैं।

प्रश्न:
किसी ने हिंदू बच्चे से कह दिया कि तुम्हारा मजहब, तुम्हारा मत बिलकुल गलत है, हमारा इस्लाम ठीक है। और बच्चा समझ गया बहुत ठीक है। पिता से पूछा...
नहीं, पिता ने अगर डाउट ठीक सिखाया हो, तो यह नहीं मानेगा। पिता ने डाउट नहीं सिखाया, तो मान सकता है। आप मेरी बात नहीं समझ रहे। अगर पिता ने डाउट सिखाया है उसे करना, तो कोई मुसलमान उससे यह कहेगा कि इस्लाम अच्छा है, तो वह डाउट करेगा। जिस बच्चे को डाउट सिखाया उसे तो कोई कनवर्ट कर नहीं सकता। वह तो दुनिया में एक अपने किस्म का, उसको तो आप कभी इस तरह से क्रिश्र्चिएन और मुसलमान बना नहीं सकते, कुछ नहीं कर सकते--हिंदू नहीं बना सकते, जैन नहीं बना सकते। और अगर वैसा बच्चा जिसने डाउट करना सीखा है...

प्रश्न:
आप भगवान को मानते हैं?
मैं किसी चीज को मानता नहीं, जिस चीज को जानता हूं उसको जानता हूं; जिसको नहीं जानता नहीं जानता।

प्रश्न:
भगवान को मानते नहीं?
नहीं, जानता हूं; मानता नहीं।

प्रश्न:
यू बिलीव इन गॉड?
नो-नो, आइ डोंट बिलीव, आइ नो।

प्रश्न:
यू बिलीव इन दि एक्झिस्टेंस ऑफ गॉड?
नो।

प्रश्न:
यू डोंट बिलीव।
आइ नो।

प्रश्न:
यू आर इवेडिंग दि क्वेश्चन।
नो, आइ एम नॉट इवेडिंग। मुझसे कोई पूछे कि आप प्रेम में विश्र्वास करते हैं कि नहीं? तो मैं कहूंगा कि मैं प्रेम को जानता हूं, विश्र्वास क्यों करूंगा? मैं प्रेम करता हूं।

प्रश्न:
यू हैव एक्सपीरिएंस्ड गॉड?
हां-हां।

प्रश्न:
इसमें तो बिलीव रहेगी?
न-न। बिलीव तो तभी आप करते हैं जिसको आप नहीं जानते हैं। यू बिलीव इन इग्नोरेंस।

प्रश्न:
यू नो दि गॉड एक्झिस्ट्‌स?
गॉड एक्झिस्ट्‌स, यह बिलीफ करने वाले का कहना है। आइ नो गॉड इट सेल्फ इ़ज एक्झिस्टेंस। बिलीफ जो करता है, वह कहता है, गॉड एक्झिस्ट्‌स। जो जानता है, वह कहता है, एक्झिस्टेंस इ़ज गॉड।

प्रश्न:
आइ एम गॉड।
एक्झिस्टेंस इ़ज गॉड। देयर इ़ज नो आइ, नो दाउ। जब तक आइ और दाउ है तब तक आपको पता भी नहीं उसका कि गॉड क्या है। अगर कोई कहता है कि आइ नो गॉड, तब भी गड़बड़ बात है। क्योंकि ‘आइ’ तो बचता नहीं। आइ तो बचता नहीं। देयर इ़ज ए नोइंग। एंड नो आइ नोइंग। देयर इ़ज ए नोइंग।

प्रश्न:
वैरी कनफ्यूजिंग।
हां।

प्रश्न:
देयर हैव बीन पीपुल हू हैव सेड आइ हैव रियलाइज्ड गॉड।
यस, आइ हैव...

प्रश्न:
एंड देन अदर्स से आत्मा एंड परमात्मा आर वन एंड सेम। यू डोंट कनफर्म दिस। देन माइ क्वेश्चन इ़ज डू यू बिलीव इन गॉड? गॉड इन दि सेंस ए सुप्रीम पॉवर हू गवर्नस्‌ दि वर्किंग ऑफ दिस वर्ल्ड? दैट इ़ज वॉट आइ बिलीव, हैंडेड डाउन फ्राम जनरेशन टु जनरेशन।
दैट इ़ज ए बिलीफ। दैट इ़ज नॉट नोइंग। ए बिलीफ इ़ज इग्नोरेंस।

प्रश्न:
अनलेस देयर इ़ज प्रूफ...
न, न, न। देयर इ़ज नो क्वेश्र्चन ऑफ प्रूफ ऑर डिसप्रूफ। देयर इ़ज नो क्वेश्र्चन ऑफ प्रूफ ऑर डिसप्रूफ। दि मोमेंट यू से आइ बिलीव, यू हैव सप्रेस्ड दि डाउट। बिलीफ इ़ज सप्रेसिव ऑफ डाउट।
जब मैं कहता हूं, मैं विश्र्वास करता हूं, इसका मतलब यह है कि मैंने संदेह को अपने भीतर दबा दिया। नहीं तो मैं यह क्यों कहूंगा कि मैं विश्र्वास करता हूं। विश्र्वास करने का मतलब यह है कि मेरे भीतर डाउट है। डाउट को मैंने दबा दिया और मैंने एक ट्रेडीशन को पकड़ लिया और मैं कहता हूं कि मैं विश्र्वास करता हूं। जितने जोर से आप कहते हैं कि मैं विश्र्वास करता हूं, उतने ही बड़े डाउट को अपने भीतर दबाए हुए हैं। जिसके भीतर कोई डाउट नहीं है, उसके भीतर बिलीफ भी नहीं रह जाती। वह चीजों को जानता है।
जैसे मुझसे कोई पूछे कि आप विश्र्वास करते हैं कि क्या वह दरवाजा है? डू यू बिलीव इन दि डोर? तो मैं कहूंगा कि इसमें बिलीफ का क्या सवाल है। आइ नो, दैट इ़ज ए डोर। इसमें बिलीफ का कहां सवाल है।

प्रश्न:
आइ अंडरस्टैंड देयर इ़ज ए गॉड।
यह आप अपनी बिलीफ के लिए सपोर्ट खोजते होंगे तो गलती हो जाएगी। जब हम कहते हैं, देयर इ़ज ए गॉड, तब मेरा जानना है कि यह एक बिलीफ होगी। मैं तो यह अनुभव कर पाया, जानता हूं, ऐसा दिखाई पड़ता है, दैट व्हिच इ़ज यू मे कॉल इट गॉड। दैट व्हिच इ़ज यू मे कॉल इट गॉड। दैट व्हिच एक्झिस्ट्‌स यू मे कॉल इट गॉड। जो कुछ भी है, और दैट इ़ज।

प्रश्न:
लाइफ इट सेल्फ इ़ज गॉड।
लाइफ इट सेल्फ इ़ज गॉड।

प्रश्न:
लाइफ इ़ज एनी फॉर्म।
लाइफ इ़ज एनी फॉर्म। च्वाइसलेसली इन एनी फॉर्म। ऑल दैट इ़ज। सो देयर इ़ज नॉट ए गॉड एंड ए क्रिएशन, ए क्रिएटर एंड ए क्रिएशन। दि क्रिएटिविटी इट सेल्फ इ़ज गॉड। दे आर नॉट टू थिंग्स--ए बीइंग, ए क्रिएटर एंड ए क्रिएशन। दि होल क्रिएटिविटी इ़ज गॉड। एंड दैट कैन नॉट बी बिलीव्ड, इट कैन बी एक्सपीरिएंस्ड।

प्रश्न:
वॉट एक्झेटली इ़ज गॉड। आइ बिलीव इन गॉड।
यू बिलीव इन ए बीइंग।

प्रश्न:
एक्झिस्टेंस इट सेल्फ इ़ज गॉड।
एब्सोल्यूटली।

प्रश्न:
एंड वॉट अबाउट यू सब्सक्राइब दि थइरी ऑफ दि एक्झिस्टेंस ऑफ गॉड, ओनली यू डिफर इन इंटरप्रिटेशन।
नो, नो, नो। योर्स इ़ज ए थइरी, माइन इ़ज नॉट ए थइरी। योर्स इ़ज ए बिलीफ, माइन इ़ज नॉट ए बिलीफ। दैट इ़ज दि डिफरेंस। ए ब्लाइंड मैन बिलीव इन लाइट, ए मैन विद आइज नोज। वह जो अंधा आदमी है वह विश्र्वास करता है कि लाइट है। क्या मतलब है उसके विश्र्वास का? कोई भी मतलब नहीं है। और आंख हो तो दिखाई पड़ता है कि लाइट है। तो अंधा आदमी कहेगा, हम दोनों की बातें बिलकुल एक जैसी हैं, क्योंकि मैं--आइ बिलीव इन लाइट एंड यू नो लाइट, दोनों एक जैसी हैं।
बिलकुल एक जैसी नहीं हैं।

प्रश्न:
बहुत फर्क है।
क्योंकि अंधा आदमी अंधेरे को भी नहीं जानता, लाइट तो दूर है; अंधेरे को देखने के लिए भी आंख चाहिए। टु नो डार्कनेस यू हैव टु हैव आइज। आंख न हो तो अंधेरा भी नहीं जान सकते आप।
यही मेरा कहना है कि यह बिलीफ जो है खतरनाक है। यह जानी चाहिए, तो नॉलेज आ सकती है। और जब तक बिलीफ है तब तक नॉलेज कभी नहीं आ सकती।

प्रश्न:
वॉट एक्झेटली योर मिशन सर?
नो मिशन सर।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं है।)
न-न। ऐसा खयाल मुझे नहीं जरा भी। क्योंकि किसी को एनलाइटन करने जाइए इससे ज्यादा बुरी बात और क्या हो सकती है। किसी को एनलाइटन करने जाना अच्छी बात नहीं है। क्योंकि उसमें हमने दूसरे को मान ही लिया कि वह बेचारा नहीं जानता है। तो अच्छी बात नहीं है। किसी को एनलाइटन करने का खयाल नहीं है, मुझे कुछ बातें दिखाई पड़ती हैं, अच्छी लगती हैं, सो आइ वांट टु शेयर विद यू, नॉट टु एनलाइटन यू। जस्ट टु शेयर विद यू।

प्रश्न:
वॉटेवर टर्मिनोलॉजी यू माइट यूज...
देयर इ़ज ए डिफरेंस...

प्रश्न:
यू काल इट शेयरिंग, आइ काल इट एनलाइटनमेंट।
न-न!

प्रश्न:
इ़ज देयर एनीथिंग कॉमन बिट्‌वीन यू एंड मेहरबाबा?
आदमियों के बाबत बात नहीं करता। कुछ भी कॉमन नहीं।

प्रश्न:
आइ हैव नॉट स्टॅडिड टू मच इन डिटेल, दि स्लोग्न देयर ही हैज गिवेन इ़ज: आइ हैव कम टु ओनली अवेकन यू, नॉट टु टीच यू।
नहीं, मैं तो आपको न टीच करना चाहता, न अवेकन करना चाहता।

प्रश्न:
ही ऑल्सो से दि सेम थिंग...
ही इ़ज ए टीचर, आइ एम नॉट ए टीचर।

प्रश्न:
नो, ही से आइ एम नॉट कम टु टीच यू।
अवेकनर, ही इ़ज ए अवेकनर।

प्रश्न:
डू यू से दैट हिंदू एंड...
नो।


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