QUESTION & ANSWER

Upasana Ke Kshan 01

First Discourse from the series of 12 discourses - Upasana Ke Kshan by Osho.
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हम इतने चिंतायुक्त हैं कि जो अंतर-धारा चिंता की चल रही है वह दिखाई नहीं पड़ रही है। और जब हम इस ऊपर की सतह पर शांत हो जाएंगे, तो अंतर-धारा बड़ी चिंता की चलती हुई मालूम होगी, जिससे घबड़ाहट होगी और लगेगा कि यह क्या हो रहा है। उस वक्त भी बिलकुल शिथिल होकर, उस वक्त भी चुपचाप साक्षीभाव रखना चाहिए। उस वक्त भी देखते रहना चाहिए, कुछ नहीं करना चाहिए। कुछ किया कि गड़बड़ शुरू हुई।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं है।)
नहीं, कुछ भी मत करिए। नॉन-कोऑपरेशन करिए। किसी तरह का भी सहयोग मत दीजिए विचार को। चुपचाप बैठे देखिए और वे चले जाएंगे। विचार तो हैं, चल रहे हैं, लेकिन विचार अपने में शक्तिहीन हैं, जब तक कि मेरा उन्हें सहयोग न मिले, जब तक कि मैं उनको शक्ति न दूं। उनमें अपनी कोई शक्ति नहीं है। तो मुझे विचार से कुछ नहीं करना है, मैं जो शक्ति उसे देता हूं, वह भर नहीं देनी है। अभ्यास कुल इतना ही है कि मैं अपनी तरफ से शक्ति न दूं, वे आएं, आने दें; जाएं, जाने दें। आप किसी तरह की आइडेंटिटी विचार के साथ, किसी तरह का तादात्म्य, किसी तरह की मैत्री कायम न करें। इतना ही होश रखें कि मैं केवल देखने वाला भर हूं--ये आए और गए।
तो आप धीरे-धीरे पाएंगे कि जो-जो विचार आएगा, अगर आपने कोई सहयोग नहीं दिया, तो वह बिलकुल निष्प्राण होकर मर जाएगा। उसके प्राण नहीं रह सकते, वह खत्म हुआ। और इस तरह सतत प्रयोग करने पर अचानक आप पाएंगे कि उसका आना भी बंद हो गया है। इसी साक्षी के माध्यम से हमारे भीतर जो संगृहीत हैं, उनकी भी निर्जरा हो जाएगी।

प्रश्न:
संचित।
हां, संचित जो हैं, उनकी भी निर्जरा हो जाएगी। वे आएंगे, उठेंगे, पूरे रूप से खड़े होंगे; लेकिन हम अगर चुप रहे और कोई सहयोग नहीं दिया, तो सिवाय इसके कि वे विसर्जित हो जाएं, उनका और कोई रास्ता नहीं है।
कितनी ही चिंता पकड़ती हुई मालूम हो, चुपचाप देखते रहें। यह भाव मत करिए कि मैं चिंतित हो रहा हूं। क्योंकि वह सहयोग शुरू हो गया फिर। इतना ही भाव करिए कि मैं देख रहा हूं कि चिंता है। मैं चिंतित हूं, यह तो खयाल ही मत करिए। यह विचार तो फिर सहयोग हो गया।
असहयोग का अर्थ है कि मैं एक सेपरेशन, एक भेद मान कर चल रहा हूं चिंता में और अपने में, विचार में और अपने में। जो हो रहा है उसमें और मैं जो देख रहा हूं उसमें, मैं एक भेद मान रहा हूं। इसी भेद को साधते चले जाना है कि जो भी मेरे भीतर हो रहा है, उससे मैं भिन्न हूं; जो भी मुझसे बाहर हो रहा है, उससे मैं भिन्न हूं। इस बोध को साधते चले जाना है। तो एक सीमा आएगी कि जो-जो जिस-जिस से मैं भिन्न हूं वह-वह विलीन हो जाएगा और अंततः केवल वही शेष रह जाएगा जिससे मैं अभिन्न हूं। भिन्न के विलीन हो जाने पर जो अभिन्न है वह शेष रह जाएगा, उसी शेष सत्ता का जो अनुभव है वही स्व-अनुभव है।
तो उससे किसी तरह का तादात्म्य न करें, किसी तरह का संबंध न जोड़ें।
बात थोड़ी ही है, बहुत नहीं है वह। नहीं करते हैं इसलिए बहुत बड़ी मालूम होती है। बात तो थोड़ी ही है।

प्रश्न:
खयाल रहता है वह तो द्वैत नहीं होता है?
हां, प्रारंभ में द्वैत होगा। प्रारंभ में द्वैत होगा। अंत में द्वैत नहीं होगा। प्रारंभ से यह बोध रहेगा यह विचार नहीं है, बोध ही है। भीतर बैठेंगे मौन होकर तो दिखाई पड़ेगा विचार का चलना। यह बोध ही है कि यह जो विचार चल रहा है यह और मैं भिन्न हूं। यह कोई विचार नहीं है। यह तो हम बाद में जब चर्चा करते हैं तो मालूम होता है कि ये विचार हैं।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं है।)
न, वह कोई बात नहीं है, बस यह विचार चल रहा है और हम देख रहे हैं। जब यह विचार चलना बंद हो जाएगा और केवल हम देखते रह जाएंगे और कुछ दिखेगा नहीं। यानी दो ही स्थितियां हैं--हम देख रहे हैं और कुछ दिख रहा है, और हम देख रहे हैं और कुछ नहीं दिख रहा है। अभी हम जब भी देखेंगे भीतर, तो कुछ दिखाई पड़ेगा। कुछ दिखाई पड़ेगा--वही विचार है। जो भी दिखाई पड़ेगा--वही विचार है। एक सीमा आएगी देखते-देखते कि हम देखते रहेंगे और कुछ दिखाई नहीं पड़ेगा। जब कुछ नहीं दिखाई पड़ेगा, तब जो अनुभूति होगी, वह विचार की न होकर चैतन्य की होगी, क्योंकि अब तो वहां कोई दिखाई पड़ नहीं रहा। अब कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा, तो जो देखने की क्षमता है, वह जो ज्ञान की शक्ति है, वह जो अभी तक किसी-किसी को देखती रही थी, अब तो वहां कोई कंटेंट नहीं है जिसको देखे, चूंकि अब वहां कोई भी नहीं है जिसको देखे, इसलिए सिवाय अपने को देखने के कोई इसके पास मार्ग नहीं रह जाएगा।
तो हमारे पास जो ज्ञान है उस ज्ञान से उसके ऑब्जेक्टस छीन लेने हैं, ताकि उसके पास देखने को कुछ न रह जाए। जब उसके पास देखने को कुछ न रह जाएगा, तब भी देखने की क्षमता तो रहेगी। और जब कुछ देखने को नहीं रहेगा, तो फिर वह देखने की क्षमता किसे देखेगी? उस अंतिम क्षण में, जब कि चैतन्य देखने को कुछ नहीं पाता है, तो अपने को देखता है। इसी अपने को देखने को आत्म-ज्ञान कहते हैं।
एक ही साधना है कि हम किसी तरह से अपनी चेतना के जो ऑब्जेक्ट्‌स हैं, जो कंटेंट है कांशसनेस का, उसको छीनते चले जाएं, उसको विरल करते चले जाएं, उसे विलीन करते चले जाएं। एक सीमा आएगी कि कंटेंट कुछ नहीं होगा, केवल कांशसनेस होगी। जब तक कंटेंट कुछ है, तब तक कांशसनेस दूसरे की है। और जब कंटेंट कुछ नहीं होगा, तब कांशसनेस सेल्फ-कांशसनेस हो जाएगी। जब तक हम किसी को देख रहे हैं, तब तक अपने को नहीं देख रहे हैं। और जब हमें कुछ भी देखने को शेष नहीं रह जाएगा, तब जिसको हम देखेंगे, वह हम स्वयं हैं।

प्रश्न:
मात्र दर्शन रह जाएगा।
हां, बस दर्शन मात्र रह जाएगा। इतनी साधना है कि हम चेतना के सामने से उसके सारे विषय, जिन-जिन पर चेतना रुकती और ठहर जाती है--और जिनकी वजह से अपने पर नहीं लौट पाती है, उनको धीरे-धीरे क्षीण कर दें। और क्षीण करने का रास्ता है कि हम असहयोग करें।
हम अभी उनके बनाने वाले हैं, यानी हम ही उनको बनाए हुए हैं। जैसे, खाली बैठते हैं तो कुछ न कुछ विचार चल रहे हैं। जो विचार चल रहे हैं वे अचानक थोड़े ही चल रहे हैं, हम ही उनको चला रहे हैं। क्योंकि हमारे बिना सहयोग के वे चल नहीं सकते हैं, उनके नीचे हमारा सहयोग है।
जब मैं क्रोध कर रहा हूं किसी पर, तो मैं क्रोध को चला रहा हूं। कहीं मेरा सहयोग है। अगर मैं अपने सहयोग को हटा लूं, तो क्रोध का चलना संभव नहीं रह जाएगा। वह वहीं के वहीं गिर जाएगा।
जो-जो विचार चल रहे हैं, उनसे सहयोग को खींच लें। और कुछ न करें, बस। इसी को सामायिक, इसी को ध्यान समझें।

प्रश्न:
कंटेंट निकाल दिया, तो कॉस्मिक हो जाता है कि इंडिविजुअल रहता है?
असल में ये दोनों शब्द जो हैं हमारे ‘इंडिविजुअल’ और ‘कॉस्मिक’ ये दोनों विचार के ही हैं। जो रह जाता है न इंडिविजुअल है न कॉस्मिक है, उसे कहना कठिन है कि क्या है। क्योंकि उसे कोई भी विचार देना असंभव है, सारे विचार तो हमने अलग कर लिए हैं। ये दोनों तो विचार ही हैं। वह उस सतह पर कोई विचार सार्थक नहीं है। न तो कह सकते हैं कि व्यक्ति है और न कह सकते हैं कि निर्व्यक्ति है। उस सीमा पर जो भी है वह किसी शब्द से उसको नहीं कहा जा सकता।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं है।)
यह हमारे सब विचार करने में--अगर हम करेंगे तो जरूर होगा। यह तो हम कॉस्मिक भी कहेंगे तो भी लिमिटेशन हो गई।

प्रश्न:
न, ऐसा कहेंगे तो?
हां, कुछ भी कहें हम।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं है।)
नहीं, असल में यह जो हमारी इंडिविजुअल की धारणा है कि मैं एक व्यक्ति हूं, यह हमारे विचारों के कारण है। अगर मेरे सारे विचार विलीन हो गए, तो आपमें कोई ईगो, और कोई व्यक्ति मालूम नहीं होगा। आपको मालूम होगा केवल होना। केवल बीइंग मालूम होगा। जिसमें न तो यह भेद मालूम होगा कि मैं व्यक्ति हूं या समिष्ट हूं। केवल होना मात्र रह जाएगा। सत्ता मात्र रह जाएगी। वह प्योर एक्झिस्टेंस मात्र होगा। उस प्योर एक्झिस्टेंस पर जो विचार हमारे इकट्ठे हैं उन विचारों के कारण हम एक इंडिविजुअल मालूम होते हैं।
अभी भी आंख बंद करके किसी दिन शांति से भीतर उतरिए तो नहीं पता चलेगा कि जिसमें उतरे थे वह पटेल साहब थे। समझ में आई बात? यह जो हमें लगता है कि मैं ‘अ’ हूं, आप ‘ब’ हैं, आप ‘स’ हैं। यह जो अ ब स हमने चिपकाया हुआ है, यह हमारे विचार तक ही है--यह नाम काम देता है, सार्थक है। विचार के पीछे यह कोई नाम सार्थक नहीं है। वहां तो एक नेमलेस, एक बिलकुल अनाम सत्ता रह जाती है। उस सत्ता में रंच मात्र भी यह तय करना संभव नहीं है कि वह किसकी है, वह केवल सत्ता है।
अभी मैंने कहना शुरू किया कि अगर हम... जो हम कहते हैं कि ‘मैं मुक्त हो जाऊंगा।’ मैं मुक्त हो जाऊंगा, यह बात बहुत ठीक नहीं है। असल में ‘मैं’ से मुक्त हो जाऊंगा। यानी ‘मैं मुक्त हो जाऊंगा’, इसमें तो कहीं धारणा है कि मुक्त होकर भी ‘मैं’ रहूंगा, यानी ‘मैं’ की तरह। ऐसी बात नहीं है। मैं की मुक्ति ‘मैं’ से भी मुक्ति है। जो शेष रह जाएगा उसमें इस ‘मैं’ जैसी चीज को खोजे भी पाना संभव नहीं है। क्योंकि यह ‘मैं’ जो था, यह जो अहंकार था, यह जो बोध था व्यक्ति होने का, यह उन्हीं विचारों के इकट्ठे पुंज की वजह से था। उन्हीं विचारों के इकट्ठे रूप का नाम मैं था। वे एक-एक खिसक जाएंगे, मैं खिसक जाएगा।
एक बौद्ध भिक्षु हुआ है, नागसेन। एक बौद्ध ग्रंथ है: मिलिन्दपन्हो। वह बड़ा अदभुत भिक्षु हुआ। और बड़ी मीठी कथा है। नागसेन को मिनांदर नाम के यूनानी सेनापति ने, जिसको सिकंदर भारत में छोड़ गया था। मिनांदर ने नागसेन को आमंत्रित किया राज्य में, दरबार में, उससे चर्चा करने को। वह बड़ा उत्सुक था धार्मिक चर्चा का। तो उसने अपना रथ और अपने स्वागत के लिए लोग भेजे गांव के बाहर।
नागसेन भिक्षु को रथ पर लेकर वे आए। पांच सौ भिक्षु और साथ थे। महल के बाहर आकर मिनांदर ने उसको नमस्कार किया नागसेन को। नागसेन रथ से उतरा। मिनांदर ने कहा कि नागसेन भिक्षु का हम स्वागत करते हैं।
उस नागसेन ने कहा: हम स्वागत को स्वीकार करते हैं, यद्यपि नागसेन भिक्षु जैसा कोई है नहीं! उसने कहा कि हम स्वागत को स्वीकार करते हैं, यद्यपि भिक्षु नागसेन जैसा कोई है नहीं।
वह मिनांदर बोला: क्या कहते हैं? फिर स्वीकार कौन करता है?
नागसेन ने कहा: कामचलाऊ है, कि आपको बुरा न लगे, लेकिन सच ही भिक्षु नागसेन जैसा कोई नहीं है।
तो मिनांदर ने कहा: फिर यह कौन आया? आप आए, आप मेरे सामने खड़े हैं, आप कौन हैं?
तो उसने एक बड़ी अदभुत बात कही। उसने कहा: यह जो रथ है, यह रथ है न?
मिनांदर ने कहा: निश्र्चित ही रथ है।
तो उसने कहा: इसके पहियों को निकाल कर हम अगर तुमसे पूछें कि यह रथ है, तो तुम क्या कहोगे? वह कहेगा कि यह रथ नहीं है, ये पहिए हैं। उसने कहा: हम एक-एक हिस्सा इसका निकाल कर तुमसे पूछें कि यह क्या है, तो तुम क्या कहोगे? वह कहेगा कि ये पहिए हैं, यह आगे का डंडा है, यह पीछे का डंडा है, फलां है, ढिकां है। सारे रथ के अंग हम निकाल लेंगे, तुम किसी को भी रथ नहीं कहते, तो फिर रथ कहां है? तो नागसेन ने कहा कि रथ केवल जोड़ है। अगर सारे अंग खींच लिए जाएं तो जोड़ नहीं बच रहेगा। रथ केवल जोड़ है।
नागसेन ने कहा कि जैसा रथ जोड़ है वैसे ही यह नागसेन नाम का जो व्यक्ति है, यह केवल जोड़ है। इसके हट जाने पर नागसेन नहीं रह जाएगा। जो रह जाएगा उसको नागसेन कहना कठिन है। जो रह जाएगा उसको नागसेन कहना कठिन है!
जैनों ने इसको अहंकार-विसर्जन और आत्म-उपलब्धि कहा। वह आत्मा जो है वह व्यक्ति नहीं है, अहंकार नहीं है। बौद्धों ने इसको अनात्म ही कह दिया। उन्होंने कहा कि वह आत्मा ही नहीं है। और कोई फर्क नहीं है दोनों में। जो शेष रह जाता है उसको ‘मैं’ की सत्ता का संस्कार देना नासमझी है।
जैसे-जैसे मैं अपने भीतर चलता हूं, वैसे-वैसे ‘मैं’ विलीन होता चला जाता है।
यह आपको समझने जैसी बात है।
जैसे-जैसे मैं बाहर चलता हूं ‘मैं’ सघन होता चला जाता है। वह जो ‘मैं’ है स्ट्रेंथन होता चला जाता है। तो जैसे-जैसे भीतर चलिएगा--‘मैं’ जो है विरल होता चलेगा। जो आदमी अपने से जितना बाहर चला गया है, उतना उसका मैं मजबूत पाइएगा। और जो आदमी अपने जितने भीतर चला गया है, उतना उसमें मैं नहीं पाइएगा। और हम जो बाहर चलते हैं, अगर बहुत गौर से देखें, तो उसको ‘मैं’ को ही मजबूत होने का सुख है, और कोई सुख नहीं है।
वह जो बड़ा भवन खड़ा कर लेते हैं, उसमें सुख लेते हैं; वह जो बड़ा राज्य जीत लेते हैं, उसमें सुख लेते हैं; वह जो बड़ा धन इकट्ठा कर लेते हैं; वह जो पांडित्य, या बड़ा साधु बन जाते हैं, उसमें जो सुख लेते हैं, वह सब ‘मैं’ का सुख है। वह जितना हम यह सब तरह की चीजें इकट्ठा करते हैं उतना ‘मैं’ जो है भर जाता है और वजनी हो जाता है। कुछ मालूम होने लगता है। क्योंकि फिर हम कह पाते हैं कि मैं, मैं कोई साधारण आदमी नहीं हूं। फिर हम कह पाते हैं कि मैं कोई साधारण आदमी नहीं हूं! ‘मैं’ उतना ही ज्यादा ठोस और वजनी हो जाता है।
तो दुनिया में दो ही दौड़े हैं और दो ही तरह के आदमी हैं। एक दौड़ है कि ‘मैं’ को मजबूत करो, और एक दौड़ है कि ‘मैं’ को विसर्जित करो। एक तरह का आदमी है जो उस दिशा में चल रहा है जहां और घना ‘मैं’ होता चला जाएगा। जितना घना ‘मैं’ होगा, आत्मा से उतनी ही दूरी हो जाएगी। जितना प्रगाढ़ ‘मैं’ का बोध होगा, उतने ही हम आत्मा से फासले पर चले जाएंगे।
यानी अगर ठीक से समझिए तो ‘मैं’ की प्रगाढ़ता आत्मा से दूरी नापने का यंत्र है। और जितना ‘मैं’ विरल होता चला जाएगा, उतना ही हम अपने करीब आने लगेंगे। और जिस क्षण हम बिलकुल अपने में आएंगे, हम पाएंगे ‘मैं’ नहीं है। यानी वास्तविक ‘मैं’ को पाते ही, जिसको हम ‘मैं’ करके जानते रहे हैं वह नहीं रह जाएगा।

प्रश्न:
भगवान, क्या आध्यात्मिकता और भौतिकवाद दोनों का समन्वय हो सकता है? विज्ञान कहता है, आत्मा कोई वस्तु ही नहीं है। तो वस्तुतः विचार, उसका नाम आत्मा है। आत्मा जैसी कोई वस्तु ही नहीं है, खाली शब्द है। आत्मा को किसी ने देखा नहीं है, अनुभव होती है, एक-दूसरे को अनुभव दे सकते नहीं हैं। एक सिद्धांत है। जो खुद के अनुभव लेता है, तो हरेक का अनुभव, आत्मा का विचार अलग-अलग होता है, हरेक जो आत्मा अपने को मानते हैं। ऐसा ये वैज्ञानिक लोग कहते हैं। तो मन उलझन में पड़ जाता है कि किसने सच्ची बात कही। यानी, जो आज तक किसी ने देखा तो नहीं है, तो बातें करते हैं आत्मा की। अभी यह जो मार्क्सवाद है, उसमें तो क्या है कि संयुक्त दो तत्व हैं। अपन तो एक ही तत्व मानते हैं, दूसरा कुछ है नहीं। वह तो दो मानता है: शक्ति और वस्तु। दोनों संयुक्त हैं। अलग नहीं हो सकते हैं। उनका रूपांतर होता है: शक्ति वस्तु हो जाती है, वस्तु आत्मा हो जाती है, यानी आत्मा वस्तु हो जाती है। और कृष्णमूर्ति यह कहते हैं कि तुम मन को मार डालो, निर्भार हो जाओ, तो तुम्हें आत्मा का दर्शन होगा।...
यह जो आपने पूछा कि कुछ विचारक हैं... यह जो आपने पूछा, बड़ा अर्थपूर्ण है। सारी दुनिया में विचार यही है इस समय। कुछ लोग हैं जो कहते हैं कि मनुष्य के भीतर सिवाय पदार्थ के और पदार्थ से उत्पन्न शक्ति के और कोई आत्मा नहीं है। आत्मा जैसी कोई वस्तु नहीं है, सब केमिकल ट्रांसफार्मेशन हैं। वह केवल पदार्थ का और रसायन का मिला-जुला रूप है। अगर ये सारी चीजें अलग हो जाएंगी, तो आत्मा जैसा वहां कोई भी नहीं है। यह विचार काफी जोर से पकड़ा है। और एकदम से टाल देने जैसा नहीं है।
दिक्कत सिर्फ यही है कि जो लोग इस विचार को दे रहे हैं, उनमें से एक ने भी आत्मा को जानने के जो उपाय हैं, उनका प्रयोग नहीं किया है। उसके जो एक्सपेरिमेंट्‌स हैं, उनमें से नहीं गुजरे हैं। यह बिना प्रयोग के--जैसा मार्क्स ने कहा--यह बिना प्रयोग के, बिना किसी वैज्ञानिक साधना के कही हुई केवल विचारगत बात है; विचार से ऐसा तय करते हैं कि यह इतनी बात है।
जो आप कहते हैं कि आत्मा को किसी ने देखा नहीं, यह गलत कहते हैं। ऐसा नहीं है कि आत्मा को किसी ने नहीं देखा। जिन्होंने देखा है, उन्हीं ने उसकी खबर दी है। वह कोई विचार नहीं है कि कुछ लोगों ने सोचा और तय किया कि आत्मा होनी चाहिए।
आप भी अपने भीतर उस सत्ता को अनुभव कर सकते हैं। अनुभव करने की पद्धति और प्रयोग हैं। और जब उस पूरी-पूरी चेतना को अनुभव करेंगे, तो आप सुस्पष्ट यह बात जानेंगे कि यह पूरा का पूरा शरीर अलग है। और मैं यह जो चैतन्य का बिंदु हूं, बिलकुल अलग हूं। उसमें रंच मात्र भी संबंध कहीं ढूंढे नहीं मिलेगा। और अगर और थोड़े गहरे जाइएगा तो बिलकुल इसे शरीर से पृथक करके अलग खड़े होकर शरीर को पड़े हुए भी देखा जा सकता है। उतना भी साहस करिए तो शरीर के बाहर भी इस चैतन्य के बिंदु को अलग निकाल ले सकते हैं।
साथ में यह जो हमको लगता है कि यह जो, ऐसा जो आत्मा का बिंदु है, यह जो चैतन्य का बिंदु है, यह बेभान होने से मिल जाएगा, तो कृष्णमूर्ति को आप गलत समझे। यह परिपूर्ण भान में होने से मिलेगा। बेभान होने से तो यह खोया हुआ है। बेभान होने से यह खोया हुआ है! जितने हम बेभान हैं, उतना ही हमको इसका पता नहीं लग रहा है।
बेभान होने से केवल शरीर का पता लगता है। क्योंकि यह इतना स्थूल है शरीर कि इसके जानने के लिए बहुत भान की जरूरत नहीं है। जितनी स्थूल चीज होगी, उतने बिना भान के भी पता चल जाएगी।
यहां से एक शराबी निकले नशे में, तो जो पत्थर पड़े होंगे, जिनसे वह टकराएगा, उनका उसे पता चल जाएगा कि यहां पत्थर पड़ा है, यहां रास्ता नहीं है। लेकिन जितनी सूक्ष्मतर चीजें इस कमरे में होंगी, उतना ही उसको पता पड़ना कठिन हो जाएगा।
तो जितने हम बेभान होंगे, उतना ही स्थूल और मोटी चीजों का पता चलेगा। अभी हमको अपने में खोजने से इतना ही पता चलता है कि शरीर है। यह हमारी एक बेहोशी की और बेभान की स्थिति है। जितना हमारा भान बढ़ेगा, जितनी कांशसनेस, अवेयरनेस बढ़ेगी, उतना ही हमको इससे ज्यादा सूक्ष्मतर चीजों का अपने भीतर होने का बोध होने लगेगा। जिस दिन हम परिपूर्ण भान में होंगे, उस दिन हमें उसका पता चलेगा जो मात्र कांशसनेस है। परिपूर्ण भान में आने पर उसका पता चलेगा जो केवल बोध मात्र है। उस परिपूर्ण बोध में जाने की जो प्रक्रिया है, वह मन को विसर्जित करने की है।
मन का विसर्जन आत्मा का विसर्जन नहीं है। मन के विसर्जन से ही आत्मा का बोध शुरू होता है। मन से मेरा अर्थ है विचार, उनका इकट्ठा जोड़, वह जो थॉट प्रोसेस है, जब वह मन के सारे विचार विलीन हो जाएंगे...। अभी तो हम, या मार्क्स, या कोई भी लोग, जो इस तरह चिंतन करते हैं, उनको दो ही बातें दिखाई पड़ती हैं: शरीर दिखाई पड़ता है और विचार दिखाई पड़ते हैं।
आप भी अपने भीतर जांचिएगा, तो दो ही बातें मिलेंगी। एक तो यह शरीर है, यानी यह रासायनिक प्रोसेसेस हैं, केमिकल प्रोसेसेस शरीर में हो रही हैं वे। और थोड़ा भीतर हटिएगा, तो थॉट प्रोसेस मिलेगी, विचार मिलेगा। बस दो ही चीजें मिलेंगी।
यह जो मन को मारने की बात है, यह इसीलिए है कि जब मन का विचार बंद हो जाएगा, तब आप अपने भीतर एक और तीसरी चीज पाएंगे, जो इसके पहले आपने पाई ही नहीं थी। और तब आपको कांशसनेस मिलेगी। वह कांशसनेस जो कि पाती थी कि मेरे में शरीर है और मेरे में विचार हैं।
आखिर कौन है जिसको यह पता चलता है कि यह मेरी देह है?
किसी को पता चल रहा है कि यह मेरी देह है। किसी को पता चल रहा है कि ये मेरे विचार हैं। जिसको यह पता चल रहा है कि मेरी देह, मेरे विचार--निश्र्चित ही देह और विचार के पीछे कुछ और भी है, जो इन दोनों को देखता और जानता है। वह जो बिंदु है इन दोनों के पीछे, जो दोनों को जानता और पहचानता है। जब ये दोनों बिलकुल परिपूर्ण शांत होंगे, या न होने के बराबर हो जाएंगे, तब उसका बोध होगा। इसलिए पुराना जो समस्त योग है, उसमें दो ही साधनाएं हैं। एक आसन की साधना है और एक ध्यान की साधना है।
आसन के माध्यम से शरीर की समस्त क्रियाओं को थिर किया जाता है। और ध्यान के माध्यम से विचार की क्रियाओं को थिर किया जाता है। आसन के माध्यम से शरीर को जड़वत कर देते हैं और ध्यान के माध्यम से विचार को जड़वत कर देते हैं। जब शरीर भी जड़वत हो जाता है और विचार भी जड़वत हो जाता है, तब भी पता चलता है कि मैं हूं! जब शरीर की समस्त क्रियाएं शून्यप्राय हो गईं और चित्त भी शून्यप्राय हो गया, तब भी पता चलता है कि मैं हूं! और तब इतना स्पष्ट पता चलता है कि देह यह पड़ी है, मरे हुए विचार ये डले हैं--मैं अलग खड़ा हूं!
वह जो अलग होने का आत्यंतिक बोध है, जो अनुभूति है--वह अनुभूति हुई है, उन लोगों ने कही है। और जो लोग उसका विरोध कर रहे हैं, उनकी बात का मूल्य इसलिए नहीं है कि उनमें से कोई भी उसका प्रयोग नहीं कर रहे हैं।
मार्क्स की बात का बहुत मूल्य नहीं है इस संबंध में। इसलिए नहीं कि उसने कोई गलत बात कही। इसलिए कि वह वहीं उस स्थल पर साइंटीफिक नहीं है, जिसका दावा है उसके दिमाग में। उसके दिमाग में दावा है कि मैं हर चीज में साइंटीफिक हूं। साइंटीफिक होने का दावा एक ही माने रखता है कि मैं जो भी कह रहा हूं--स्वीकार कर रहा हूं या डिनाई कर रहा हूं--उसको मैंने प्रयोग करके जाना है।
तो वैज्ञानिक इतना ही कह सकता है कि हम अभी जो प्रयोग करते हैं, उससे हमें आत्मा नहीं मिलती। वह यह नहीं कह सकता कि हमारे प्रयोगों से पता चलता है कि आत्मा नहीं है। यह अवैज्ञानिक हो जाएगी बात। वैज्ञानिक इतना कह सकता है कि हम जो प्रयोग करते हैं, उससे हमें आत्मा नहीं मिलती। यह तो साइंटीफिक असर्शन होगा। अगर वह यह कहे कि हमने प्रयोग करके देख लिया कि आत्मा नहीं है, यह बात अवैज्ञानिक हो जाएगी। यह बात वैज्ञानिक नहीं रह जाएगी। क्योंकि प्रयोग के बाहर की बात करने लगा वह।
महावीर या बुद्ध या उस तरह के जो लोग कहते हैं कि आत्मा है, वे इसलिए नहीं कहते कि आत्मा कोई सिद्धांत है, बल्कि एक प्रयोग से वे जानते हैं कि है। और एक ऐसे प्रयोग से उसको जानते हैं... बड़े आश्र्चर्य की बात यह है कि जिन-जिन को उसका अनुभव होगा, वे यहां तक कहने को राजी हैं कि एक दफा यह हो सकता है कि संसार न हो, लेकिन वह है। वह इस दूर तक कि जगत को वे माया तक कहने के लिए राजी हो सकते हैं, लेकिन उसको इनकार करने को राजी नहीं होते। हम जिसको स्वीकार करने में दिक्कत में हैं और हम जिसको इनकार करने में असमर्थ हैं, इसके बिलकुल विपरीत होता है। जो लोग उसको अनुभव करते हैं उसको ही स्वीकार कर पाते हैं, और जिसको हम स्वीकार कर पाते हैं, वे कहते हैं कि वह न भी हो तो भी चलेगा। वह नहीं के ही बराबर है।
करीब-करीब बात ऐसी है कि जैसे स्वप्न में हम सोए हों और स्वप्न को देखते हों। हमारे लिए स्वप्न सब-कुछ है, जब हम स्वप्न को देख रहे हैं। जाग कर हम कहेंगे कि जो जाग कर देख रहे हैं वह सब-कुछ है, वह स्वप्न कुछ भी नहीं था। लेकिन स्वप्न के भीतर निश्र्चित ही स्वप्न सब-कुछ है। तो गवाही उनकी अर्थपूर्ण नहीं है जिन्होंने स्वप्न को ही देखा है; गवाही उनकी अर्थपूर्ण है जिन्होंने जाग कर भी देखा है। जिन्होंने स्वप्न भी देखा और जाग कर भी देखा, जो दोनों स्थितियों से गुजरे, उनकी गवाही, उनकी साक्षी महत्वपूर्ण है। जो अकेले स्वप्न में देख रहे हों और जागृति के बाबत कोई निर्णय देते हों, स्वप्न में कही गई बात का उससे ज्यादा कोई और मूल्य नहीं है।
तो मेरे साथ एक ही कठिनाई है अब तक कि किसी भी मैटीरियलिस्ट या उस भांति के भौतिकवादी विचारक ने यह साहस क्यों नहीं किया कि वह थोड़ा योग के माध्यम से जानने की भी तो कोशिश करे। जिसको वैज्ञानिकता का इतना दावा है, वह इतना भी तो करे कि इसका भी तो परीक्षण कर ले। और आप हैरान होंगे, आज तक किसी परीक्षण किए व्यक्ति ने इनकार नहीं किया है निरपवाद रूप से।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं है।)
हां-हां, वही मैं कह रहा हूं। वही मैं कह रहा हूं कि उसका बिना परीक्षण किए। वे ठीक अर्थों में भौतिकवादी भी नहीं हैं। क्योंकि परीक्षण ही, प्रयोग ही तय करेगा कि क्या है और क्या नहीं है।
तो अभी मार्क्स के बाद अभी पिछले सौ वर्षों में बहुत फर्क हुआ है। और वैज्ञानिक उस अर्थ में जड़वादी नहीं रह गया जैसा कि था। क्योंकि कुछ अदभुत घटनाएं घटी हैं। पहली घटना तो यह घटी कि जिसको मार्क्स के समय में मैटर कहा जाता था, वह विलीन हो गई बात। अब मैटर जैसी कोई चीज है नहीं। पहले उसने इनकार कर दिया कि आत्मा जैसी कोई चीज नहीं है। इसके बाद बस पदार्थ ही सब-कुछ है। फिर पदार्थ की जो खोज चली उससे धीरे-धीरे पता चला कि पदार्थ तो है ही नहीं। वह पदार्थ के अंतिम तल में जाकर जहां इलेक्ट्रान और न्यूट्रान रह जाते हैं, वहां कोई पदार्थ नहीं है। वहां केवल विद्युत-कण हैं। और वे विद्युत-कण मैटीरियल नहीं हैं। यानी उनका कोई वजन नहीं है। और उनको कोई तौला नहीं जा सकता, नापा नहीं जा सकता। कोई रास्ता नहीं है।
विज्ञान एक अजीब मुसीबत में पड़ गया; आत्मा को पहले इनकार कर चुका था, मैटर को अब उसने इनकार कर दिया। अब उनके पास कहने को कुछ भी नहीं कि क्या है। इस वक्त का जो नवीनतम वैज्ञानिक है, उसके सामने सवाल यह है कि वह कुछ भी नहीं कह सकता कि क्या है।
तो मैंने तो एक और बात कहनी शुरू की, मैंने तो यह कहना शुरू किया कि विज्ञान सत्य के संबंध में कुछ भी नहीं कह सकता, विज्ञान केवल यूटीलिटी के संबंध में कुछ कह सकता है। ट्रूथ और यूटीलिटी में फर्क है। विज्ञान कह सकता है कि विद्युत से पंखा कैसे चलेगा; विज्ञान यह नहीं कह सकता कि विद्युत क्या है। और अभी भी नहीं कहता। अभी भी विज्ञान यह नहीं कहता कि विद्युत क्या है। अभी भी वह यह कहता है कि पंखा यूं चल सकता है और मशीन यूं चल सकती है। विद्युत की उपयोगिता तो विज्ञान देता है, विद्युत क्या है यह नहीं दे सका।
तो मेरे सामने अब यूं नजर है कि साइंस जो है वह यूटीलिटी की खोज है। रिलीजन जो है वह ट्रूथ की खोज है। इन दोनों में फर्क है।

प्रश्न:
भगवान, जितने संत पुरुष हो गए हैं, उनको तो ऐसा सब मालूम हुआ आत्मा का, तो उन्होंने तो रास्ता भी बहुत बताया है, बहुत-बहुत भजन में ऐसा बताया है, जैसा कि कबीर ने बताया कि ‘पांच शरीर पिऊ-पिऊ करे छट्ठा सुमिरे मन, आई सूरत कबीर की भीतर रामरतन।’ जैसा वह आपने आज सबेरे के लेक्चर में बोला कि ऐसी बात नहीं होनी चाहिए, प्यास बढ़नी चाहिए। तो इसलिए बोला कि पांचों इंद्रियों को पूरा तैयार होने की वह बात की। पांचों इंद्रियों को काम में लग जाना चाहिए। और मन को भी काम में लग जाना चाहिए। फिर यह आत्मा का कुछ भास होगा। जहां तक कोई विषय का अभ्यास नहीं है, या प्रयोग नहीं है, या कुछ भी इसके पीछे पढ़ा नहीं है, वहां तक तो खाली बातें ही बातें रहती हैं। तो यह अनुभव वर्णन नहीं कर सकता आदमी। आपने इतना जो बताया, आपको कभी ऐसा अनुभव हुआ कि शरीर और मन का जुदा अनुभव कभी आपको हुआ?
निरंतर हो रहा है।

प्रश्न:
निरंतर हो रहा है। अच्छा तो फिर यह तो अपनी पक्की श्रद्धा हो गई कि अभी आत्मा तो जरूर है ही। और आपको तो निरंतर यह चीज हो रही है। पर वह हम दूसरे को भाषा में समझाते हैं और भाषा से समझने वाला कोई नहीं है। जिसको अनुभव हुआ वह समझ सकता है, दूसरा नहीं समझ सकता।
न-न। यह जो है, यह जो हमको... असल में, भाषा से आप कोई भी चीज क्या समझाते हैं। मैं कहूंगा कि यह एक दरवाजा है। आप समझ लेते हैं। क्यों? क्या इसलिए कि मैंने भाषा से आपको समझा दिया? नहीं। भाषा के अलावा आप इसको जानते हैं। जब मैं कहता हूं, यह दरवाजा है, तब आप इसको पूर्व से जानते हैं कि यह दरवाजा है, और इसलिए मेरा यह कहना कि यह दरवाजा है, आपको कुछ समझा पाता है।
भाषा से केवल शब्द दिए जाते हैं। अनुभव उपस्थित होने चाहिए। जब मैं एक शब्द बोलता हूं, तो आपमें कोई अर्थ पैदा नहीं कर सकता, केवल शब्द की प्रतिध्वनि दे सकता हूं। अर्थ आपमें होना चाहिए।
जैसे, जब मैं कहता हूं कि यह मकान है, तो मकान आपको एक अर्थ देता है। जब मैं कहता हूं कि यह आत्मा है, तो ‘आत्मा’ शब्द खाली रह जाता है, वह कोई अर्थ नहीं देता। मकान को आप जानते हैं, इसलिए मकान अर्थ देता है। आत्मा को आप नहीं जानते, इसलिए वह अर्थ नहीं देता।
बोलने वाले की तरफ से सार्थकता नहीं आती, सार्थकता सुनने वाले की तरफ से पैदा होती है। बोलने वाले की तरफ से केवल शब्द आते हैं, सार्थकता सुनने वाला डालता है। तो आपकी जितनी अनुभूति होगी, उतने ही तल तक भाषा सार्थक होती है। आपकी जिस तल के आगे अनुभूति नहीं है, उस तल पर भाषा आपको शब्द रह जाएगी।
लेकिन उस तल पर भी वह एक तरह की सार्थकता उसमें है, और वह सार्थकता इसमें है कि उस तल पर जहां आपको शब्द समझ में नहीं पड़ते, क्योंकि आपकी अनुभूति नहीं है, वहां पर शब्द अर्थ नहीं देते, प्यास देना शुरू कर देते हैं।
मेरी आप बात समझ रहे हैं?
यानी, जैसे कि मैंने कहा, आत्मा है, आप नहीं समझ रहे हैं कि क्या है। लेकिन यह भी अगर आपको समझ में आ रहा है कि ‘यह मेरी समझ में नहीं आता कि आत्मा क्या है’, तो आपमें प्यास शुरू होनी शुरू हो गई है। यानी मैं आपको आत्मा तो नहीं बता पाया; लेकिन आत्मा कैसे आप जानेंगे, उस तरफ का शायद पहला संक्रमण आपमें हो गया।
वह मैंने आज सुबह भी आपसे कहा कि महावीर या उस तरह के कोई भी व्यक्ति आपको सत्य नहीं दे सकते हैं, वे केवल प्यास दे सकते हैं। वे जिस अनुभव की बातें कर रहे हैं, वह अनुभव आपको समझ में नहीं पड़ेगा। नहीं पड़ सकता। लेकिन यह आदमी कह रहा है। इस आदमी में कुछ आपको दिख रहा है कि यह जो कह रहा है वह कहना भी नहीं है, तो आपको प्रतीत होता है कि यह आदमी जो कह रहा है जरूर कुछ इसे दिखाई पड़ रहा है, जो हमको दिखाई नहीं पड़ रहा है। कुछ यह अनुभव कर रहा है, जो हम अनुभव नहीं कर रहे हैं। यह किसी अज्ञात दिशा की बातें कर रहा है, जो हमें ज्ञात नहीं हैं। और आपके प्राण में एक कंपन शुरू हो जाएगा। वह कंपन आपको उस अज्ञात दिशा में ले जाएगा।
असल में शब्दों की दोहरी सार्थकता है। जो आपको ज्ञात है, शब्द उसका बोध देते हैं; जो आपको अज्ञात है, शब्द उसकी प्यास देते हैं। समझे न? जो आपको ज्ञात है, उसका बोध देते हैं और जो आपको अज्ञात है, उसकी प्यास देते हैं। तो अगर मैं ठीक से समझूं, तो जो शब्द आपको बोध देते हैं वे बहुत अर्थ के नहीं हैं। अर्थ के वे शब्द हैं जो आपको प्यास देते हैं, क्योंकि वे आपको अपने ज्ञात घेरे के बाहर उठाते हैं और अज्ञात की तरफ आकर्षित करते हैं।
ये सारे शब्द: ईश्र्वर, आत्मा, परमात्मा, ये सारे शब्द शब्द की तरह घूमते हैं हमारे ऊपर। इनमें कोई कंटेंट नहीं है हमारे लिए। लेकिन ये शब्द भी हमको खींचते हैं। और ये शब्द इसलिए खींचते हैं कि जिन लोगों से ये शब्द आते हैं, वे लोग हमें खींचते हैं। और तब हमारे भीतर एक, एक क्रिया शुरू होती है कि जो भी ज्ञात है वही समाप्त नहीं है, जो मुझे ज्ञात है वह अंत नहीं है। अभी और है ज्ञात होने को। अभी और है ज्ञात होने को!
जब तक आप परम आनंद को उपलब्ध न हो जाएं, तब तक स्मरण रखें कि अभी बहुत है ज्ञात होने को। क्योंकि जो-जो अज्ञात है वही मेरे दुख का कारण है, क्योंकि वही मेरे नियंत्रण के बाहर है। असल में ठीक से हम समझें, तो परिपूर्ण आनंद की उपलब्धि सूचना है इस बात की कि अब कोई भी ऐसा इसके भीतर तत्व नहीं कि जो अज्ञात है, जो कि इसे परेशान करे।

प्रश्न:
यह आनंद का संबंध शरीर के साथ है कि नहीं?
काहे का?

प्रश्न:
जो आत्मानंद का संबंध है। अब समझो कि आपको ऐसा मालूम हो गया कि मैं तो सारा दिन शरीर और आत्मा दोनों जुदा देख रहा हूं, और उसमें आनंद और दुख दो बातें आती हैं। आनंद आता है तो आनंद का तो अनुभव अंदर में होता है। ऐसा एक शरीर में कोई दुख आता है तो आत्मा को दुख का अनुभव होता है, जैसा मन में अनुभव होता है? समझो कि बड़ा रोगी शरीर है और उसमें चौबीस घंटे दर्द हो रहा है, तो उसने जिसने आत्मा को पाया है उसको तो दर्द का असर होना नहीं चाहिए।
असल में, आत्मा केवल बोधमात्र की शक्ति है। बोध देती है। बोध का होना एक बात है, बोध से पीड़ित होना बिलकुल दूसरी बात है। इस पैर में चोट लगे, इसका बोध होना कि चोट है, एक बात है; चोट की पीड़ा से पीड़ित होना बिलकुल दूसरी बात है। बोध तो उसको नहीं होगा जो बेहोश है। बोध उसको नहीं होगा जो बेहोश है! उसे तो बोध परिपूर्ण रूप से होगा जो होश में है। लेकिन यह बोध होना कि पैर में दर्द है और यह बोध होना कि मैं दुखी हूं, अलग-अलग बातें हैं।
महावीर को भी अगर राह चलते कांटा गड़े, तो पता पड़ेगा कि कांटा गड़ा। लेकिन इतना ही पता पड़ेगा कि कांटा गड़ा। यह वैसे ही पता पड़ेगा कि जैसे आपको कांटा गड़ता, तो भी पता पड़ता। आप रास्ते पर चलते होते उनके किनारे, आपको कांटा गड़ता, तो वे कहते कि देखो, तुम्हारे पैर मैं कांटा गड़ा। जैसे यह उन्हें पता चलता है, ऐसे यह भी पता चलता है, और वे कहेंगे कि देखो, यह मेरे पैर में कांटा गड़ा। लेकिन इससे उनकी चेतना कहीं व्यथित नहीं होती है। यह केवल बोधमात्र है।
यह आप बात समझे?
यहां से हवा आई और मुझे बोध हुआ कि यहां से हवा आई। यह जो बोध है, यह पीड़ा नहीं है। पीड़ा, बोध, जो भी हो, उसके साथ ‘मैं’ का संयोग पीड़ा है। जैसे मुझे बोध हुआ कि पैर में दर्द है, लेकिन मुझे बोध ऐसा थोड़े ही होता कि पैर में दर्द है, मुझे बोध ऐसा होता है कि मुझमें दर्द है।

प्रश्न:
एकत्व बुद्धि है।
हां। एकत्व बुद्धि जो है, वह मुझे बोध होता है कि मुझमें दर्द है, मैं परेशान हूं। बोध के साथ तादात्म्य दुख लाता है। बोध के साथ तादात्म्य सुख लाता है। बोध के साथ तादात्म्यहीनता आनंद लाती है।
मेरा फर्क समझ रहे हैं आप?
यह मुझे बोध हुआ कि धन मेरा है, तो सुख मालूम होता है; फिर कल बोध हुआ कि जो धन मेरा था, वह चोरी चला गया, तो दुख होता है। धन मेरा था, यह सुख दे रहा था; धन मेरा अब नहीं रहा, यह दुख दे रहा है।
आनंद और सुख एक ही चीजें नहीं हैं। आनंद उस स्थिति का नाम है, जहां धन मेरा है, यह सुख भी मेरा नहीं मानता; जहां धन मेरा गया, यह दुख भी मेरा नहीं मानता। जहां निपट मैं ही रह गया हूं और किसी और चीज से मेरा कोई संबंध नहीं मानता, असंग जहां मेरी स्थिति है, उस स्थिति में जो है, वह आनंद है।

प्रश्न:
जल्दी असर करता शरीर के ऊपर। शरीर का कोई रोग होता है, शरीर में कोई तकलीफ होती है, और कोई बड़ा रोगी, जिंदगी भर का रोगी होता है, तो वह आत्मानंद ले सकता है कि नहीं?
हां, आप जो पूछते हैं न: ‘आत्मानंद जो ले सके।’ तो शरीर मेरा है, यह उसे बोध ही नहीं होता है। आपका शरीर स्वस्थ हो और चाहे बीमार हो, चाहे तकलीफ आपको पता चलती हो और चाहे तकलीफ पता न चलती हो, उसका आत्मानंद से कोई संबंध नहीं है। आत्मानंद अगर आदमी को हो सके, अनुभव हो सके उसका थोड़ा सा भी, तो वह थोड़ा सा भी अनुभव आपके सामने यह स्पष्ट कर जाएगा कि आप शरीर नहीं हो। तब इस शरीर के बाबत आपकी धारणाएं वैसी हो जाएंगी, जैसे किसी और के शरीर के बाबत हैं। इस शरीर के बाबत आपकी धारणा करीब-करीब वैसी हो जाएगी, जैसे नाटक में अभिनेता की अपने अभिनय के प्रति होती है।
जैसे कि राम की सीता चोरी गई होगी, वह एक बात रही होगी। वाल्मीक ने लिखा कि वे वृक्ष-वृक्ष से पूछते हैं, रोते हैं कि मेरी सीता कहां है? अब भी नाटक होता है, उसमें भी राम की सीता चोरी चली जाती है और वह भी वृक्ष-वृक्ष से पूछता है कि मेरी सीता कहां है? लेकिन इसके पूछने में और राम के पूछने में कुछ फर्क है! यह पूछ रहा है कि मेरी सीता कहां है? और हो सकता है कि राम से भी ज्यादा अभिनय कर रहा हो। लेकिन यह अभिनय है। और इसे परिपूर्ण ज्ञात है। पर्दे के पीछे जाएगा और रात भर मजे से सोएगा। इसे उस सीता से कोई मतलब नहीं है, जो पर्दे पर इसने कहा था कि चोरी चली गई है। इसे बोध है कि जो सीता चोरी जा रही है, वह मेरी नहीं है। इसे बोध है कि जो शरीर रो-चिल्ला रहा है कि सीता चोरी जा रही है, वह भी केवल अभिनय है।
जैसे ही व्यक्ति आत्म-ज्ञान की तरफ अग्रसर होगा, सामान्य जीवन में अभिनय का रूप ले लेगा। और अभी तो अभिनय भी आप करें, तो वह भी असलियत का रूप ले लेगा। अभी तो दिक्कत यह है कि अगर कहीं अभिनय भी करें, तो थोड़ी देर में उसी में उलझ जाएंगे।
आम अज्ञानी आदमी अभिनय करके भी उसमें उलझ जाता है। और ज्ञानी आदमी परिपूर्ण जीवन में रह कर भी उसे अभिनय जानता है और नहीं उलझता। जिंदगी तो चलेगी ही, जिंदगी तो चलेगी ही, जब तक जीवन है चलेगी। बात केवल दो ही हैं: जिसको आत्म-बोध होना शुरू होगा, उसे समस्त क्रियाएं अभिनय मात्र हो जाएंगी। इसलिए उसकी सारी क्रियाएं कुशल भी बहुत हो जाएंगी। पीड़ा और दुख अभिनय में नहीं होते हैं। केवल दिखावा रह जाएगा।
यह बोध अगर आपको कहीं घना होने लगे कि मैं कुछ और हूं, तो सब फर्क शुरू हो जाएंगे। दर्द शरीर में होगा, तो पहले जैसा होता था अब भी होगा। शायद पहले इतना पता नहीं पड़ता था, अब ज्यादा पता पड़ेगा। क्योंकि अब परिपूर्ण चित्त शांत है। अब तो हर चीज ज्ञात होगी। जरा सा भी टिक-टिक हो रहा है, वह भी पता चलेगा। लेकिन, परिपूर्ण शांत चित्त में पता तो सब चलेगा, लेकिन जो-जो पता चलेगा उसके साथ तादात्म्य बुद्धि नहीं रह जाएगी, उसके साथ आइडेंटिटी नहीं रह जाएगी। हम जानेंगे कि ऐसा हो रहा है। यह जानना होगा हमारा। यह हमारा ज्ञान होगा। लेकिन हम उससे संयुक्त हैं या वह हममें हो रहा है, यह बोध विलीन हो जाएगा। वह कहीं हो रहा है, जिसके हम जानने वाले हैं। धीरे-धीरे हमको इतना ही पता रह जाएगा कि मेरा संबंध केवल जानने की शक्ति से है, और किसी चीज से नहीं है। धीरे-धीरे पता चलेगा मैं के वल ज्ञान मात्र हूं। और जो-जो मुझे ज्ञात होता है, वह मेरे बाहर है।

प्रश्न:
अपने में तत्व कितना है विश्व का--दो है, एक है, पांच है, पचास है, कितना है? इतना ही जानना है। फिर उसका मूल हाथ में आ जाएगा। यह विश्व का तत्व कितना है?
असल में, हम यह भी जान लें कि तत्व कितना है, तो कौन सा अंतर पड़ेगा। मैं यह भी कह दूं कि तत्व इतना है, तो कौन सा अंतर पड़ेगा। करीब-करीब मैं कोई भी संख्या बोलूं, आप पर उसका कोई फर्क नहीं पड़ेगा। अगर मैं एक बोलूं, दो बोलूं, दस बोलूं, पचास बोलूं, तो आपको एक संख्या सुनाई पड़ेगी, और तो कुछ खास मतलब नहीं होगा।
तत्व कितना है, जब हम यह पूछते हैं, तभी हम संख्या में पूछना शुरू कर दिए--फिर चाहे हम एक कहें, चाहे दो कहें, चाहे दस कहें। असल में अगर आप परिपूर्ण शांत होकर अनुभव करें, जो है उसका, तो आपको संख्या में कुछ भी ज्ञात नहीं होगा। न एक का, न दो का, न तीन का, न चार का। आपको यह भी ज्ञात नहीं होगा कि आपके अतिरिक्त भी कुछ है। आपको ज्ञात होगा केवल होने का, बोधमात्र होगा कि हूं। आपको बोध होगा एक प्योर एक्झिस्टेंस का। उसे मोटे रूप से लोग कह देते हैं एक है।
एक कहने की गुंजाइश नहीं है वहां। क्योंकि एक कहा तो दो हो गए। क्योंकि जिसने कहा वह तत्काल उससे अलग हो गया जिसके लिए उसने कहा। एक कहा कि दो हो गए। वहां गुंजाइश नहीं है यह कहने कि कितने हैं। असल में वहां कुछ भी कहने की गुंजाइश नहीं है। वहां केवल जानना मात्र है। और जानना इस बात का है कि जो भी है--वह एक में, और दो में, और तीन में, किसी शब्द में प्रकट नहीं है। वह जो होना है, जहां कोई संख्या में विभाजन नहीं है, जब हम उसी को बुद्धि के और अशांत चित्त के माध्यम से देखते हैं, तो वह अनेक में विभाजित दिखाई पड़ता है। वे जो विभाजन हैं, सत्ता के नहीं हैं, वे विभाजन चित्त के हैं।
यहां एक पागल आदमी आए इसी कमरे में, यहीं एक शांत आदमी इसी कमरे से गुजरे। कमरा यही होगा। पागल गुजरेगा तब भी यही होगा, एक शांत आदमी गुजरेगा तब भी यही होगा। लेकिन दोनों के इस कमरे के अनुभव अलग-अलग होंगे। पागल इसमें न मालूम क्या देखे। कमरा यही होगा, लेकिन दोनों के अनुभव अलग-अलग होंगे। क्योंकि दोनों के चित्त अलग-अलग स्थितियों में हैं।
हम जो देख रहे हैं, जब तक चित्त के द्वारा देख रहे हैं, तब तक हमारे सब निर्णय गलत हैं। चाहे हम एक कहें, चाहे दो कहें, चाहे चार कहें। जब हम इसी को बिना चित्त के देखेंगे, तब हमारे समस्त निर्णय सही होंगे, हम कुछ भी कहें। लेकिन उस वक्त कोई भी कुछ कहता नहीं है। यानी मुसीबत यह है कि जो चित्त से देखते हैं, वे कहते हैं, और जो चित्त से देखते हैं सब गलत देखते हैं। जो चित्त से नहीं देखते, नहीं कहते, और जो चित्त के बिना देखते हैं वे जो भी देखते हैं सही देखते हैं।
तो मैं नहीं कहता कि कितने तत्व हैं। मैं इतना ही कहता हूं कि दो रास्ते हैं, जो है उसको देखने के। एक चित्त का रास्ता है, जिसके माध्यम से सब अनेक रूपों में दिखाई पड़ेगा। और एक अ-चित्त का रास्ता है। एक माइंड का, एक नो-माइंड का। एक अशांत चित्त का, एक परिपूर्ण शांत चित्त का, जहां कि चित्त भी नहीं है। एक लहरों के माध्यम से जगत को देखने का रास्ता है कि लहरें सब चीजों को तोड़े दे रही हैं, और एक परिपूर्ण शांत झील के माध्यम से देखने का रास्ता है। इतना ही मैं आपसे कह सकता हूं कि जिन्होंने शांति से देखा है, उन्होंने किसी संख्या की बात नहीं कही। जो अशांति से देखे हैं, वे पच्चीसों तरह की संख्या गिनाए हुए हैं।
तो मैं नहीं कहता कि कितने तत्व हैं, मैं इतना ही कहता हूं कि तत्व को देखने के दो रास्ते हैं। तत्व को देखने के दो रास्ते हैं! एक रास्ते से तो आप परिचित हैं।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं है।)
चित्त के माध्यम से जो देखता है, कभी परितृप्ति को उपलब्ध नहीं होता है। और जो भी जानता है, उसमें संदेह और प्रश्न बने रहते हैं। चित्त के माध्यम से जानता हुआ लगता है, जान कभी नहीं पाता। लगता है कि जान रहा हूं, लेकिन जान नहीं पाता। जान नहीं पाता, तो पीड़ा और परेशानी कायम रहती है। और चित्त रोज-रोज प्रश्न खड़े करता चला जाता है।
जीवन भर चित्त से जानेगा और वे प्रश्न वैसे के वैसे बने रहेंगे जो पहले दिन पूछना शुरू किए थे। चित्त कभी निष्प्रश्न स्थिति में नहीं ले जाएगा। निष्प्रश्न स्थिति में नहीं ले जाने का अर्थ है कि चित्त व्यथित होगा, पीड़ित होगा, परेशान होगा। क्योंकि जिस चित्त में प्रश्न हैं, वह पीड़ा में होगा। जिस चित्त में प्रश्न हैं, वह पीड़ा में होगा! प्रश्न जो हैं, पीड़ा के सूचक हैं। और प्रश्न जो हैं, वह कहीं अंतर एक व्यथा है, उसके सूचक हैं। वह सब सूचना है, उसको खोज रहा है कि कहीं कुछ रास्ता मिल जाए। कोई रास्ता नहीं मिलता।
चित्त से कोई रास्ता नहीं मिलता। चित्त केवल प्रश्न देता है, कोई उत्तर नहीं देता। आज तक चित्त ने केवल प्रश्न दिए हैं, उत्तर नहीं दिए। तो अगर प्रश्न ही प्रश्न जानने हों, तो चित्त दे सकता है। अधिक प्रश्न हो जाएंगे, तो विक्षिप्त हो जाइएगा। थोड़े प्रश्न होंगे, तो काम चलता रहेगा। फिर बहुत प्रश्न हो जाएंगे और उनका ओर-छोर बांधे नहीं मिलेगा, तो विक्षिप्त हो जाइएगा।
चित्त प्रश्न देता है, चित्त की अंतिम परिणति विक्षिप्तता देती है। चित्त का आंदोलन प्रश्न पैदा करता है। फिर आंदोलन इतने हो जाएं कि उनका सम्हालना मुश्किल हो जाए, तो आप विक्षिप्त हो जाते हैं। यानी चित्त का परिपूर्ण विकास विक्षिप्तता है। माइंड का पूरा विकास मैडनेस है।
इसलिए दुनिया के, पश्र्चिम के विशेषतया बड़े विचारक जो पागल होते रहे, वह आकस्मिक नही है, वह अनायास नही है। बड़ा विचारक पागल होगा।

प्रश्न:
वह परिणाम है।
वह परिणाम है। अनिवार्य परिणाम है। यानी विचारक अगर कंसिस्टेंट है और विचार करता ही चला जाए तो पागल हो जाएगा। जो विचारक पागल नहीं होते, वे बड़े विचारक नहीं हैं; वे बीच में कहीं रुक गए हैं, अभी पूरे अंतिम कनक्लूजन तक नहीं ले गए विचार को। यानी अगर कोई विचारक अपने विचार को अंतिम निष्पत्ति तक ले जाए, वह लॉजिकल कनक्लूजन जो है आखिर में, वहां तक ले जाए, तो पागल होना अनिवार्य है।
लेकिन भारत में जिनको हम कहते हैं, उनमें से कोई पागल नहीं हुआ। वे विचारक नहीं हैं असल में। महावीर, बुद्ध वगैरह विचारक नहीं हैं। ये दार्शनिक हैं। ये विचारक नहीं हैं।
विचार की अंतिम परिणति विक्षिप्तता है और निर्विचार की अंतिम परिणति विमुक्ति है।
विचार प्रश्न देगा, उत्तर नहीं। निर्विचार होकर प्रश्न नहीं रह जाएंगे, उत्तर ही रह जाएगा।
तो अगर उत्तर पाना हो, तो निर्विचार में चलिए। और अगर प्रश्न ही प्रश्न जगाने हों एक के बाद एक, तो विचार में चलिए। जितने अधिक प्रश्न होंगे, उतनी व्यथा होगी, उतनी पीड़ा होगी। जितने प्रश्न न्यून होंगे, उतनी शांति घनीभूत होगी। निष्प्रश्न जिस दिन चित्त हो जाएगा, उस दिन परिपूर्ण शांति का अनुभव होगा।
विचार आनंद में नहीं ले जा सकता, क्योंकि विचार उत्तर में नहीं ले जा सकता।
निर्विचार आनंद में ले जाएगा, क्योंकि निर्विचार उत्तर में ले जाएगा।
दो ही दिशा हैं: या तो विचार से जगत को देखिए, चित्त से, और या फिर निर्विचार से, अ-चित्त से जगत को देखिए।

प्रश्न:
विचार-शून्य हो जाने से आनंद मिलता है। परंतु कैसे होता है--हाथ टूट गया तो वह साझा हो सकता है?
आप कहते हैं कि ‘निर्विचार होने से आनंद मिलेगा। हाथ टूट जाएगा तो वह जुड़ेगा या नहीं?’
जैसे ही व्यक्ति आनंद को उपलब्ध होगा, उसे पता चलेगा, मेरे भीतर कुछ भी टूट नहीं सकता है, जो मेरा है। और जो मेरा नहीं है, वह सब टूटा ही हुआ है। वह चाहे हाथ टूटा हो, चाहे जुड़ा हुआ हो, वह उसका कोई माने नहीं है।

प्रश्न:
समाधान नहीं है।
नहीं, समाधान नहीं है। उसका हाथ टूटा हो या साझा हो, वह दोनों स्थितियों में जानता है कि हाथ का कोई माने नहीं है। उसकी आंख फूटी हो या काम करती हो, वह दोनों स्थितियों में जानता है, यह आंख मेरी नहीं है। असल में हाथ साझा हो, इसका जो आग्रह है वह हाथ के साझे होने का थोड़े ही है, वह मेरे हाथ का है। अगर बहुत गौर से देखिए, आंख ठीक हो इसका थोड़े ही मतलब है, मेरी आंख ठीक होने का है। जैसे ही वह भीतर गया, वह जानता है, आंख आंख है, वह मेरी नहीं है।
आप हैरान होंगे, आपका हाथ टूटता है तो ठीक होने की कल्पना उठती है, किसी और का टूटा तो थोड़े ही उठती है, कि ठीक है। आपकी आंख फूटी हो तो ठीक होने का मन होता है, किसी और की फूटी हो, तो ठीक है। या वह कोई और भी, ऐसा हो कि उससे भी अपना कोई नाता है, तो उसकी भी ठीक हो जाए। वह भी हम, कहीं न कहीं अपने से संबंध हमारा है।

प्रश्न:
भगवान, आंख बंद करने पर आत्मा और शरीर अलग है, कितना टाइम तक सोच सकते हैं?
नहीं-नहीं, यह तो मैं सोचने को कहता ही नहीं। यह तो सोचने की थोड़े ही बात है। सोचिए मत। न, सोचिए मत। सोचिए मत। सोचने को नहीं कहता। सोचिए मत। चुपचाप आंख बंद करके बैठिए और कुछ मत सोचिए, और जो भी विचार चलते हैं, उनको चुपचाप देखते रहिए। कुछ सोचिए मत अपनी तरफ से। जो विचार चलते हैं, उनको देखते रहिए। उनको सहयोग मत दीजिए। यह तो अपने ही हाथ से सोचना-चलाना हो गया। यह तो सहयोग हो गया विचार को। जो विचार चलते हैं, अपने आप चलते हैं, उनको चुपचाप देखते रहिए। आंख बंद करके उनको सिर्फ देखते रहिए। कोई छेड़खानी मत करिए। उनको हटाने की भी कोशिश मत करिए। वे आते हैं, आने दीजिए; नहीं आते हैं, मत आने दीजिए। आएं तो उनको देखते रहिए।
एक पंद्रह दिन इसी तरह आधा घंटा बैठ कर सिर्फ देखिए और कुछ मत करिए। पंद्रह दिन में ही पता चलेगा कि वह रोज... एक दो-चार दिन तक बढ़ते हुए मालूम होंगे कि वे ज्यादा से ज्यादा आ रहे हैं। तो घबड़ाइए मत, उनको आने दीजिए। अगर नहीं घबड़ाएंगे और उनको आने दिया, तो क्रमशः आप पाएंगे कि वे जिस मात्रा में बढ़े थे उसी मात्रा में कम होने शुरू हो गए हैं। एक पंद्रह दिन के प्रयोग में आप पाइएगा कि उनकी संख्या बहुत न्यून हो गई है। वे कभी आते हैं, कभी खाली जगह छूट जाती है। कभी आते हैं, कभी खाली जगह छूट जाती है!
जो खाली जगह छूट जाएगी, उसमें आपको अपने आप अनुभव होगा कि शरीर से आत्मा अलग है। जब खाली जगह बड़ी होने लगेगी तो बड़ी देर तक अनुभव होगा कि आत्मा शरीर से अलग है। यह आपको सोचना नहीं है, यह अनुभव होगा। बात समझे न? और जब यह अंतराल काफी लंबा होगा, इंटरवल, कि एक विचार आया और फिर दूसरा बहुत देर तक नहीं आया, तो वह जो खाली गैप होगा बीच का, उसमें आपको अपने आप झलक मिलेगी कि मैं अलग हूं।
आत्मा अलग है, यह सोचना नहीं है; यह तो दिखाई पड़ेगा। विचार भर चले जाएं, तो इसका दर्शन होगा।
तो सोचिए मत, सोचने से कोई लाभ नहीं है। सोचने से कोई मतलब नहीं है। सोच-सोच कर आपने समझ भी लिया कि आत्मा अलग है, तो वह फिजूल की बात है। वह जिस दिन नहीं सोचिएगा, उसी दिन फिर वह खिसक जाएगा। वह तो कल्पना हो गई हमारी।
एक अंधा यहां बैठा है और सोच रहा है कि खूब प्रकाश भरा हुआ है कमरे में, खूब प्रकाश भरा हुआ है। वह कितना ही सोचे, इससे आंख थोड़े ही ठीक होगी। वह जैसे ही इसको सोचना छोड़ेगा, पाएगा कि टकरा गया, अंधेरा ही था, गिर पड़े हैं फिर। अंधा सोच-सोच कर बार-बार कि प्रकाश भरा हुआ है, कोई मतलब हल नहीं होता। प्रकाश भरा हुआ है, यह अंधे को सोचना नहीं है, उसको तो आंख ठीक करने के उपाय करने हैं। जिस दिन आंख ठीक होगी, उस दिन बिना सोचे उसको दिखाई पड़ेगा कि प्रकाश है। आप सोचते थोड़े ही हैं कि प्रकाश है, दिखाई पड़ रहा है।
आत्मा सोची नहीं जाती, उसका दर्शन होता है। विचार और दर्शन में यही भेद है।
वह जो अभी मैं पूरी चर्चा कर रहा हूं, उसमें विचार और दर्शन में यही भेद है। हमको आत्मा का दर्शन करना है, विचार नहीं करना है। जो विचार करेगा, वह आत्मा को कभी नहीं पाएगा। वह आत्मा के संबंध में दूसरों ने जो कहा है, उसी-उसी को दोहराता रहेगा। उससे कहीं नहीं पहुंचिएगा। विचार को देखिए चुपचाप, और परिपूर्ण ढीले शांत होकर बैठ जाइए।

प्रश्न:
सिद्धांत और अनेकवाद तो बिलकुल झूठ हैं?
बिलकुल झूठ हैं। वाद तो सब झूठ हैं। क्योंकि वाद से सत्य का कोई वास्ता नहीं है। यानी यह वाद ठीक और वह वाद झूठ, ऐसा मैं नहीं कहता, वाद मात्र असत्य हैं, क्योंकि वाद मात्र बुद्धि के खेल हैं, उनका सत्य से कोई संबंध नहीं है। वह जो जाना जाता है, बिलकुल निर्विवाद जाना जाता है। उसमें कोई वाद वाद नहीं है। जिस दिन सब चित्त शांत होकर जानेगा कुछ, वह बिलकुल निर्विवाद है। वहां कोई वाद नहीं है, कोई प्रतिवाद नहीं है।

प्रश्न:
एक निर्विवाद बात यह है कि जब सब आत्मा में शांति लेंगे, आनंद लेंगे, तो दुनिया में अनाज तो उत्पन्न नहीं होगा। सारी दुनिया मर जाएगी?
नहीं। आप यह ठीक कहते हैं। आप बड़े अच्छे प्रश्न पूछते हैं।
आप पूछते हैं कि ‘अगर सारे लोग आत्मा में आनंद लिए, तो फिर दुनिया में अनाज-वनाज पैदा नहीं होगा।’
जैसे कि पागल और विक्षिप्त जो हैं वे दुनिया में अनाज पैदा कर रहे हैं? मैं आपसे कह रहा हूं कि दुनिया में जो तकलीफ है वह अगर सारे लोग चित्त-शांति को उपलब्ध हो जाएं तो समस्त विलीन हो जाएगी। शायद अनाज बेहतर ही होगा। क्योंकि चित्त-शांत व्यक्ति जितना बेहतर अनाज पैदा कर सकता है, एक अशांत और विक्षिप्त आदमी नहीं कर सकता।
शांति का कर्म से विरोध नहीं है। अशांति का कर्म से विरोध है। अशांत आदमी जो भी कर्म करेगा, वह अकुशल होगा, क्योंकि अशांति उसको कर्म में बाधक होगी। शांत आदमी जो भी कर्म करेगा, वह सब कुशल हो जाएगा, क्योंकि शांति कर्म में सहयोगी है।
तो मेरी दृष्टि में, अगर दुनिया में शांत लोग बढ़ते हैं, तो दुनिया की कुशलता बढ़ेगी। वह शांत आदमी अगर जूते भी सिएगा, अगर... जैसे कबीर था, कपड़े बुनता रहा। तो कबीर के बाबत कहा जाता है कि वैसे कपड़े कभी किसी बुनकर ने नहीं बुने हैं। और जब वह अपने कपड़े को लेकर बाजार में बेचने जाता था, तो लोग पागल की तरह टूट पड़ते थे। और कबीर का कपड़ा खरीदना ही एक सुख की बात थी। कबीर से लोग कहते कि ऐसे कपड़े कभी किसी ने बुने नहीं। तो कबीर कहता कि इतनी शांति से भगवान के लिए कपड़े किसी ने नहीं बुने, मैं क्या करूं? मैं तुम्हारे लिए नहीं बुनता, भगवान के लिए बुनता हूं। क्योंकि मैं तुम्हारे भीतर जो भगवान है, उसको जानता हूं, वह पहनेगा। और उसके लिए कोई गलत चीज तो बुनी नहीं जा सकती। और जब बुनता हूं तो भगवान में भरा हुआ बुनता हूं। तो भूल-चूक की तो गुंजाइश नहीं है। तो कबीर ने कपड़े बनाए, वे कपड़े अर्थ रखते हैं और ही तरह का।
एक गोरा कुम्हार हुआ, वह भी एक फकीर था। उसने जो घड़े बनाए, वे अदभुत थे। और...
दुनिया में अब तक जो भी काम श्रेयस्कर हुआ है वह शांत लोगों ने किया है, अशांत लोगों ने थोड़े ही। अशांत लोगों की वजह से परेशानी है, उनकी वजह से अनाज नहीं होता। शांत लोगों की वजह से अनाज होगा।
इतना ही स्मरण रखिए कि यह जो हमारे चित्त में एक धारणा घर कर गई है कि शांत लोग छोड़ कर भाग खड़े होते हैं, यह गलत है। असल में अशांत लोग भाग खड़े होते हैं, अशांति में, घबड़ाहट में। शांत लोग तो फिर वापस लौट आते हैं।
मैं कल ही रात कह रहा था कि महावीर और बुद्ध जंगल में भाग गए थे, तब वे अशांत थे। जब वे शांत हुए तो वापस लौट आए। अभी तक ऐसे किसी आदमी के बाबत सुना है जो शांत होकर वापस बस्ती में नहीं लौट आया है। अशांत आदमी बस्ती से भाग गए जंगल में। लेकिन जब वे शांत हुए तो कहां गए, वे वापस बस्ती में लौट आए। और उसके बाद की जिंदगी कोई खाली हाथ बैठे थोड़े ही रहे! उन्होंने इतना किया कि हम कर नहीं सकते।
महावीर अपने उपलब्धि के बाद चालीस वर्ष तक सतत सक्रिय हैं। बुद्ध मरते घड़ी तक सक्रिय हैं, मर रहे हैं बुद्ध जिस घड़ी, अंतिम घड़ी है और उन्होंने अपने शिष्यों से कहा कि अब, अब तो मैं छोड़ता हूं देह। तो आनंद ने कहा: अब हम किसी को आने नहीं देंगे। अब हम बाहर रुकते हैं, अब कोई आए नहीं।
वे समाधि में लीन हो रहे हैं और तभी दूर से भागता हुआ एक युवक आया। और उसने आनंद को आकर कहा कि लेकिन फिर तथागत मुझे कहां मिलेंगे, अगर यह घड़ी मैं चूकता हूं। मुझे अंदर जाने दें। मुझे तो उनसे वचन सुन लेना है जो मेरे जीवन को बदल दे।
लेकिन आनंद ने कहा: अब तो बहुत देर हो गई। उसका नाम था सुभद्र, उससे कहा, सुभद्र, अब बहुत देर हो गई। अब तो वे अंतिम लीन हो रहे हैं। अब तो वे एक चरण नीचे उतर गए। अब तो वे देह को छोड़ रहे हैं, घड़ी भर में देह छूट जाएगी।
लेकिन सुभद्र बोला: तुम वह तो ठीक कह रहे हो, लेकिन फिर मुझे कब किस जन्म में ऐसा आदमी मिलेगा?
तो बुद्ध ने अंदर से कहा: सुभद्र को रोको मत, उसे आने दो। कोई यह न कहे कि तथागत पर एक पाप कलंक रह गया। एक कलंक रह गया कि सुभद्र खड़ा कहता था कि मैं प्यासा हूं, मुझे दो और उन्होंने नहीं दिया। थोड़ी घड़ी भर रुक सकता हूं। सुभद्र को अंदर आने दो। मरते घड़ी, मर रहा है आदमी, लेकिन सुभद्र को कह रहा है कि शांति और आनंद कैसे पाया जा सकता है!
जिस आदमी के हाथ से बुद्ध की मृत्यु हुई, एक लुहार के घर वे आमंत्रित थे भोजन के लिए। और वहां बिहार में--कुकुरमुत्ते, वे जो बरसात में उग आते हैं, उनको सुखा कर रख लेते हैं गरीब लोग और खिला देते हैं बाद में सब्जी बना कर। वह गरीब लुहार था। तो उसने उनकी सब्जी बनाई, बुद्ध को खिला दी। उनमें कभी-कभी जहर होता है। कहीं भी उग आते हैं। उस जहर से बुद्ध को शरीर में पीड़ा व्याप्त हुई।
जब वे घर लौटे, तो उन्हें--वहां से अपने आवास पर लौटे, तो उन्हें दिखा कि शरीर में विष व्याप्त हो रहा है। तो उन्होंने कहा कि जाओ, उस लुहार को कहना, कि तू अत्यंत धन्यभागी है कि तथागत अंतिम अन्न तेरा ग्रहण किए। उसको कहना जाकर कि तू अत्यंत धन्यभागी है कि तथागत ने अंतिम अन्न तेरा ग्रहण किया! ऐसा सौभाग्य बहुत मुश्किल से उपलब्ध होता है। इसलिए जाकर कहो कि कहीं लोग मेरे मरने के बाद उसको परेशान न करें। आनंद से कहा कि मेरे मरने के बाद कहीं लोग उसको परेशान न करें कि इसके खाने की वजह से उनकी मौत हो गई। उसको जाकर कहो और सारे गांव में यह ढिंढोरा पीट दो कि वह आदमी धन्यभागी है कि तथागत ने अंतिम अन्न उसका ग्रहण किया। ऐसा सौभाग्य कल्पों में कभी किसी को मिलता है।
यह शांत आदमी का लक्षण है जो अपने मरने के बाद उसको कोई परेशान न करे नाहक। इसको अपनी मौत की परेशानी नहीं है। यह आदमी मर रहा है उसकी चीज खाकर, इसको इसकी परेशानी नहीं है। इसको परेशानी इसकी है कि मेरे मरने के बाद कहीं लोग उसको परेशान न करें कि तुम्हारे भोजन से इसकी मौत हो गई। यह शांत आदमी अपनी मृत्यु के बाद भी उसको कारण मान कर कोई परेशान न किया जाए, उसकी व्यवस्था किए जाता है। अशांत आदमी और व्यवस्था करता है!
मैंने एक कहानी पढ़ी है कि एक वृद्ध आदमी मरता था। उसके सात जवान लड़के थे, उसने उन सबको बुलाया। और उनसे कहा कि मुझे एक खास बात कहनी है। अगर तुम वायदा करो तो मैं कहूं।
बड़े लड़के तो कोई उठे नहीं, छोटा लड़का नासमझ था; वह उठ कर उसके पास गया कि मरता हुआ पिता, और वह कहता है तो... वह बड़ा हैरान हुआ कि बड़े भाई क्यों नहीं जाते! बड़े भाइयों ने उसको रोका भी कि मत जाओ। लेकिन वह बड़ा हैरान हुआ कि मरता बाप! मरता बाप बोला कि मैं मर रहा हूं और तुम लोगों में इतना भी नहीं है कि मैं एक बात कहता हूं वह मान लो!
वह छोटा लड़का गया। उसने उसके कान में कहा कि मेरी एक ही प्रार्थना है, इतना तू कर देना। मैं तो मर ही रहा हूं, मैं तो मर ही जाऊंगा। मर जाऊं तो मेरी लाश के टुकड़े बगल वालों के घर में डाल देना। तो जब मैं उनको पकड़े हुए राजा के कर्मचारी उनको जेल में ले जाते देखूं--कि मेरी आत्मा उनको देखेगी, मैं बड़ा परितृप्त हो जाऊंगा। मैं तो मर ही रहा हूं, उनकी सजा हो जाएगी! यह जो आदमी है, उस लड़के से बोला कि मैं तो मर ही रहा हूं, मैं तो मर ही जाऊंगा, लेकिन जब मैं मर जाऊं तो मेरी लाश के टुकड़े बगल वाले के घर में डाल देना, तो मेरी आत्मा परितृप्त हो जाएगी, जब मैं देखूंगा कि राजकर्मचारी इनको बांधे हुए जेल लिए जा रहे हैं।... वह लड़का बड़ा हैरान हुआ कि यह मरता हुआ बाप और इसको यह सूझ रही है!
मैं आपसे पूछता हूं, आपको भी यही सूझेगी। यह अशांति का अंतिम... जिंदगी भर ही तो यही सूझ रहा है कि कौन किस तरह फंस जाए और तृप्ति हो जाए दिल को।
अशांति चारों तरफ अशांति को पैदा करती है। शांति चारों तरफ शांति को पैदा करती है। शांत मनुष्य से इस जगत का कोई अहित असंभव है। हित ही हो सकता है। अशांत आदमी से इस जगत का कोई हित असंभव है। अहित ही हो सकता है।
तो मुझे धार्मिक साधना जगत की विरोधी नहीं दिखाई पड़ती। धार्मिक साधना में ही जगत का हित और साध्य दिखाई पड़ता है।
तो मुझे नहीं लगता कि अन्न कम हो जाएगा। अन्न कम हुआ है अशांति से शायद। शायद शांति हो तो व्यवस्था हो जाए। शांत लोग सब-कुछ व्यवस्थित कर सकेंगे।

प्रश्न:
साधु-संत, बड़े अध्यात्म वाले कोई क्रिया नहीं करते हैं, बंधन मानते हैं, उनको बंधन होता है, खाते हैं उसका बंधन नहीं होता है उनको?
वह ठीक कहते हैं आप, वैसा आदमी साधु नहीं है, ऐसा समझना चाहिए। मैं ऐसे आदमी को साधु नहीं मानता। वैसा आदमी शांत भी नहीं है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
एक ही निर्णय आते हैं, एक ही परिणाम आते हैं। उनके कहने में शायद भेद हो सकता है, क्योंकि भाषाएं अलग हैं। उनके अपने विचार, जो उन्होंने जानने के पहले इकट्ठे कर लिए, वे अलग हैं। अब तक अनुभव तो एक ही हुआ है।
बड़ा अच्छा प्रश्न पूछ रही हैं कि ‘जब एक सा ही अनुभव होता है अ को और ब को, समस्त अनुभूति एक सी होती है धर्म की--और एक सी हो तभी वह वैज्ञानिक है। पर वह एक सी उनके बोलने में तो मालूम नहीं होती। कोई कुछ कहता हुआ दिखता है, कोई कुछ कहता हुआ दिखता है।’
तो दिखता है न--बुद्ध कुछ कहते दिखते हैं, महावीर कुछ कहते दिखते हैं, क्राइस्ट कुछ कहते दिखते हैं। अगर बहुत गौर से देखें, तो ये सारे लोग एक बात जरूर कहते हैं कि जो हम कह रहे हैं वह उसको प्रकट नहीं कर पा रहा है जो हम जान रहे हैं। एक बात तो ये सारे लोग कहते हैं। ये सारे लोग यह कहते हैं कि हम जो कह रहे हैं वह उसको नहीं प्रकट कर पा रहा है जो हम जान रहे हैं। तब जो ये कह रहे हैं, यह एक आर्टिफिशिएल डिवाइस भर है। तब ये जो कह रहे हैं, उसे कहा नहीं जा सकता जो अनुभव हुआ है। उसे बिना कहे भी रह जाना बड़ा मुश्किल मालूम हो रहा है।
जो अनुभव हुआ है उसे कहा नहीं जा सकता, बिना कहे रह जाना भी मुश्किल है। तो फिर एक ही रास्ता है कि ये कुछ एक कृत्रिम व्यवस्था करते हैं उसकी तरफ संकेत करने की। यह संकेत करने की जो कोड व्यवस्थाएं हैं, सबकी अलग-अलग होती हैं। और स्वाभाविक है अलग-अलग हों। इसलिए जैन एक तरह की बात करते हैं; ईसाई एक तरह की; मुसलमान एक तरह की।
ये सबकी आर्टिफिशिएल डिवाइसेस हैं। ये सब अलग-अलग मालूम होती हैं। इससे एक सारा विवाद सारे जगत में खड़ा होता है कि ये सारे लोग अगर एक ही सत्य को जान रहे हैं, तो अलग-अलग क्यों कह रहे हैं? और तब अंधे मतावलंबियों को यह दिक्कत पैदा होती है कि सत्य हमारा ही है, बाकी सब गलत हैं। क्योंकि सब तो दूसरा-दूसरा कुछ और कह रहे हैं तो वह गलत ही होगा। क्योंकि सत्य तो एक ही हो सकता है।
जब कि सच्चाई यह है कि ये सबके सब जो रूप हैं, इनमें कोई भी सत्य नहीं है। जो भी कहा जा सकता है, वह सत्य नहीं है।
वह अनुभूति तो सबकी समान है, जो नहीं कही जा रही है, लेकिन उस नहीं कही जाने वाले की तरफ इशारा करने की इन्होंने जो व्यवस्था की है, वह सबकी अपनी-अपनी कृत्रिम और काल्पनिक है। सारी फिलॉसफी की सिस्टम्स जो हैं, काल्पनिक हैं। उनमें सत्य प्रकट नहीं हुआ है। उनमें सत्य प्रकट नहीं होता है। लेकिन उनके माध्यम से अगर कोई चले, तो किसी दिन उसको सत्य प्रकट हो सकता है। मेरी आप बात समझे?

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं है।)
नहीं, कोई जरूरत नहीं है, कोई जरूरत नहीं है। उसको तो ध्यान की भी जरूरत नहीं है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं है।)
हां-हां, यह दोनों की जरूरत तो उसको लाने के लिए है। उसके आने पर इन दोनों की कोई जरूरत नहीं। शुरू में इनकी उपयोगिता है। इनकी उपयोगिता है। इनसे सहारा मिलता है। क्यों? क्योंकि आपने अनुभव किया होगा कि हमारे चित्त की सारी स्थितियां हमारे शरीर की आदतों से बंध जाती हैं। जैसे, आप अनुभव करेंगे, कोई चिंता आ गई, आप सिर खुजला रहे हैं। आप सिर क्यों खुजला रहे हैं? अगर ऐसे आदमी का हाथ पकड़ लीजिए, वह अपनी समस्या हल नहीं कर सकेगा।
मेरे एक वाइस चांसलर थे सागर युनिवर्सिटी के, डॉक्टर गोर। उनकी आदत थी, वे जब मुकदमा करते थे तो वे अपने कोट का एक बटन घुमाते रहते थे। जब भी उन्हें कोई चिंता या कोई खास दिक्कत हो तो वे इसको घुमाने लगेंगे और कुछ कहेंगे।
वे प्रिवी कौंसिल में एक मुकदमे में थे। यह जाहिर बात थी कि वे जब इसको घुमाते हैं तो वे कुछ जरूर कोई तरकीब निकाल रहे होते हैं। उनके विरोधी वकील ने उनके नौकर से वह बटन तुड़वा दी, वह जो कोट में उनके होती थी। वे तो अपना कोट पहन कर गए, वे गए। और वे ठीक मुद्दे पर जब आए, उन्होंने बटन पर हाथ रखा, बटन नदारद। बटन नदारद, वे घबड़ा गए। वह तो हैबिट थी उनकी, एसोसिएशन था उसका, वह हैबिट के साथ उनका चिंतन चलता था। एकदम से वह जो उन्होंने बटन घुमाया और उनका दिमाग भी उस तरफ काम करता था।
कुछ लोग हैं जो सिगरेट पीते बैठेंगे तो चिंतन चलेगा। आप हैरान होंगे, आप एक खास ढंग से बैठेंगे तो खास तरह का चिंतन चलेगा। अगर आप उसी चिंतन को दूसरी पोजिशन में बैठ कर करना चाहें, आप नहीं कर पाएंगे। आप हैरान होंगे कि आप करीब-करीब आपकी सब चिंतन की स्थितियों में शरीर एक विशेष आसन ग्रहण कर लेता है। उसकी आदत हो जाती है।

प्रश्न:
चित्त का शरीर के साथ संबंध है?
हां-हां, संबंध है। यह जो आसन है, यह आपकी जो रूटीन हैबिट है, उसको तोड़ने के लिए है। जैसे आप बैठे हैं, आप कभी खयाल नहीं करते कि आप एक घड़ी भर को भी थिर नहीं बैठते। कभी पैर चलाएंगे, कभी हाथ चलाएंगे, कभी सिर हिला लेंगे, कभी गर्दन हिला लेंगे, कभी बांहें उचका लेंगे, कुछ न कुछ आप कर रहे हैं। यह जो आपकी आदत है शरीर की अथिरता की, यह आपके अथिर चित्त के साथ संयुक्त हो गई है, वर्षों की आदत से। अगर इस शरीर को आप बिलकुल शिथिल छोड़ कर बैठ जाएं थोड़ी देर, तो आप हैरान होंगे कि आपकी बहुत तबीयत होगी इसको हिलाने-डुलाने की। लेकिन अगर आप न हिलाएं-डुलाएं, तो इसके साथ ही आप पाएंगे कि अथिर शरीर की आदतों के साथ जो अथिर चित्त की आदत थी, उसमें फर्क पड़ना शुरू हो जाएगा।
अगर शरीर भी आप बिना हिलाए पांच मिनट के लिए बैठ जाएं, बिलकुल बिना हिलाए, तो आप अचानक पाएंगे कि चित्त बहुत शांत हो गया। यह तो मेकेनिकल रूटीन है बनी हुई। तो इसलिए शरीर का भी उपयोग है, अगर उसको बिलकुल शांत, शिथिल मुर्दे की तरह छोड़ दिया जाए, तो आप पाएंगे कि चित्त शांत होने लगा।

प्रश्न:
तो शरीर पर काम करने में भी चित्त तो शांत होता ही है?
हां-हां, होता ही है। होता ही है। और फिर चित्त को... असल तो चित्त को शांत करना है, शरीर उसकी भूमिका बन जाता है। शरीर को शांत करिए, तो भूमिका बन जाती है। फिर चित्त को शांत करिए, भीतर और जाने की भूमिका बन जाती है।

प्रश्न:
एक भूमिका है खाली शांत होने की?
शांत होने की एक ही भूमिका है।
तो कुछ व्यक्तिगत प्रश्न हैं, तो उनकी मैं बात कर लूं।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं है।)
आपने जो कहा न कि अगर सीधी समाधि में कोई व्यक्ति जाए, तो वह फिर इतनी बात नहीं करेगा। चित्त का चिंतन चले तो बात करेगा। चित्त का जो चिंतन है, वह सत्य को नहीं देता है। लेकिन सत्य की अभिव्यक्ति के माध्यम देता है, एक्सप्रेशंस दे देता है। तो दुनिया में समाधि को बहुत लोग उपलब्ध हुए हैं, लेकिन जो-जो लोग समाधि को उपलब्ध हुए हैं, उन्होंने सत्य के बाबत कहा नहीं है। कहा थोड़े से लोगों ने है।
विचार जो है, सत्य तक ले जाने का तो माध्यम नहीं है, लेकिन सत्य अगर उपलब्ध हो जाए, तो दूसरे तक कहने का माध्यम जरूर है। उसकी उपयोगिता है। सत्य तक ले जाने में नहीं, लेकिन सत्य अगर अनुभव हो जाए, तो दूसरे से कम्युनिकेट करने में उसकी उपयोगिता है। सत्य को जानने में तो विचार का कोई उपयोग नहीं है, लेकिन अगर विचार की आपमें क्षमता और शक्ति है, तो सत्य अगर आपको अनुभव हो, तो उसको दूसरे से कह देने में उसकी उपयोगिता है। उसकी उपयोगिता है।
इसलिए मैं विचार का विरोधी नहीं हूं। सत्य को जानने में वह माध्यम है, इसका विरोधी हूं। मैं उसको जो कि मूढ़ है और विचार नहीं करता, कोई मूल्य नहीं देता हूं। जो जड़बुद्धि है और विचार नहीं करता, उसके लिए मेरा कोई मूल्य नहीं है। जड़बुद्धि विचार नहीं करता, इसलिए सत्य को जानता है, ऐसा मैं नहीं कहता। जो विचार करता है और विचार को छोड़ सकता है, वह सत्य को जान सकता है। जो विचार ही नहीं करता, वह तो सत्य को जान ही नहीं सकेगा।
मेरी आप बात समझ रहे हैं?
यानी विचार करना एक सीमा तक बहुत उपयोगी है, एक सीमा पर घातक हो जाएगा। प्यास को जगाने में बहुत उपयोगी है, सत्य को जानने में घातक हो जाएगा। तो प्यास जगाएगा विचार, प्यास को घनीभूत करेगा विचार।
इतना स्मरण रहे, कि जो प्यास को घनीभूत कर रहा है, वही पानी नहीं है। प्यास और पानी में अंतर है न! पानी कहीं और तलाश करना होगा। जो प्यास में ही पानी को तलाश करने लगे, तो नासमझ है। यानी मुझे प्यास लग रही है, तो प्यास में पानी नहीं खोजा जा सकता। प्यास तो पानी को खोजने की प्रेरणा भर है।
तो विचार आपमें प्रश्न खड़े करता है, विचार आपमें जिज्ञासा पैदा करता है। विचार आपमें प्यास को घनी करता है। लेकिन जो विचार में ही पानी को खोजने लगें, वे नासमझ हैं। विचार की सामर्थ्य इतनी है कि प्यास घनी कर दे, पानी देने की सामर्थ्य नहीं है। पानी तो और भी गहरे जाना होगा, जहां विचार भी नहीं हैं, वहां मिलेगा। लेकिन अगर विचार की एक ट्रेनिंग रही हो, तो जब सत्य मिलेगा, उसे कहने में सुविधा होगी। नहीं तो कहा नहीं जा सकता।

प्रश्न:
यानी आपका कहना ऐसा है कि हरेक प्रोसेस से आदमी को निकलना पड़ता है।
निकलना पड़ता है।

प्रश्न:
हरेक प्रोसेस से--विचार की प्रोसेस आ गई, शांति की प्रोसेस आ गई...
उससे भी निकलना पड़ेगा।

प्रश्न:
और जहां कहीं प्रोसेस नहीं रह जाए, वहां पहुंचना है। वह प्रोसेस पर पहुंच गए तो हमारे को आत्मा का दर्शन होता है।
नहीं रह जाए, वहां पहुंचना है। ठीक समझा आपने। ठीक कहते हैं आप। हर चीज से निकल जाना है।

प्रश्न:
हरेक के साधन एक ही होने चाहिए, अलग-अलग क्यों दिखते हैं?
है नहीं, दिखाई पड़ते हैं। है नहीं।