QUESTION & ANSWER
Udio Pankh Pasar 07
Seventh Discourse from the series of 10 discourses - Udio Pankh Pasar by Osho. These discourses were given during MAY 11-20 1980, Pune.
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पहला प्रश्न: भगवान,
आपका हम बूढ़ों के लिए क्या संदेश है?
पंडित तुलसीदास शास्त्री! आत्मा न तो बूढ़ी होती है, न जवान। देह बूढ़ी होती है। देह के साथ तादात्म्य हो तो बुढ़ापे की भ्रांति होती है। देह बीमार हो तो बीमारी की भ्रांति होती है। देह मरे तो मृत्यु की भ्रांति होती है।
मैं देह हूं, इसमें ही हमारी सारी भ्रांतियां छिपी हैं। इस तादात्म्य को छोड़ो। देह में हो, देह नहीं हो।
मैं देह का विरोधी नहीं हूं। देह मंदिर है, पूजास्थल है--उतना ही पवित्र--जितना काबा या काशी। उससे भी ज्यादा पवित्र, क्योंकि काबा तो फिर भी पत्थर है। देह के भीतर तो स्वयं परमात्मा विराजमान है। लेकिन स्मरण रखो कि वह जो भीतर बैठा है मेहमान होकर, वह देह के साथ एक नहीं है, देह से भिन्न है, देह से अन्य है। फिर न कोई बुढ़ापा है, न कोई जवानी है, न कोई बचपन है। फिर तुम शाश्वत हो। शाश्वत से संबंध जोड़ना है। शाश्वत के प्रति सजग होना है।
मन बूढ़ा होता है। मन सदा ही बूढ़ा होता है। देह तो कभी जवान भी होती है; मन कभी जवान नहीं होता। मन जवान हो ही नहीं सकता। मन का गुणधर्म बुढ़ापा है। इस सत्य को ठीक से समझो।
मन का अर्थ ही होता है: स्मृति। स्मृति का अर्थ होता है: जो बीत गया, जो जा चुका, जो अतीत हो चुका। मन उसी का संग्रह करता है, जो अब नहीं है। सांप तो जा चुका, रेत पर उसके चिह्न रह गए हैं। व्यक्ति तो जा चुका, धूल पर उसके पगचिह्न छूट गए हैं। ऐसा ही मन है। मन अतीत है। मन व्यतीत है। जा चुके का संग्रह है। इसलिए मन सदा ही मरा हुआ है, मुर्दा है, बूढ़ा है।
मन के साथ हम अपने को बहुत कस कर बांधे हुए हैं। हमने अपना सारा दांव मन के साथ लगा दिया है। हिंदू मन होता है, मुसलमान मन होता है। आत्मा न तो हिंदू होती है, न मुसलमान होती है। जिस दिन तुम मन से जागोगे, उस दिन पाओगे--कैसा हिंदू होना, कैसा मुसलमान होना? कैसा ज्ञान, कैसा अज्ञान? आत्मा तो शुद्ध चैतन्य है। मन तो धूल की तरह जम जाता है दर्पण पर।
और वह धूल तुम पर काफी जम गई होगी। तुम्हारा नाम ही खबर देता है। तुम प्रश्न पूछते समय भी छोड़ नहीं सके। लिखते हो--‘पंडित तुलसीदास शास्त्री।’ पांडित्य तो बूढ़ा होगा। पांडित्य तो सड़ा-गला होता है। अन्यथा हो ही नहीं सकता।
पांडित्य को छोड़ो। पांडित्य का क्या करोगे? पांडित्य का अर्थ क्या होता है?--उधार, बासा! औरों से इकट्ठा कर लिया। उपनिषद, गीता, कुरान, बाइबिल, धम्मपद, इन सबसे संगृहीत कर लिया। अपना तो कुछ भी नहीं है। और जो अपना नहीं है, वह मुक्तिदायी नहीं है। जो अपना नहीं है, वह बंधन बन जाता है।
बुद्ध कहते थे कि मैं एक चरवाहे को जानता हूं, जिसका कुल काम इतना था: दूसरों की गाएं चरा लाना। लेकिन वह उनकी गिनती कर-कर के खुश होता था, कि आज इतनी गाएं चरा कर लौटा, कि आज इतनी गाएं चरा कर लौटा। बुद्ध ने कहा, मैंने उससे पूछा: पागल, इसमें एकाध गाय भी तेरी है? तो वह चौंका। उसने कहा: मेरी! मेरी तो इसमें एक गाय भी नहीं है। सब औरों की हैं, गांव वालों की हैं।
तो बुद्ध ने कहा: जब तेरी एक भी गाय नहीं है, तो कितनों को चरा कर लौटा, इससे क्या होगा?
पंडित दूसरों की गाएं गिनता रहता है। गीता में ऐसा लिखा, कुरान में ऐसा लिखा, बाइबिल में ऐसा लिखा--इसी हिसाब-किताब में लगा रहता है। भूल ही जाता है कि जीसस ने जिसको जाना था, वह मेरे भीतर भी छिपा है, सीधा ही क्यों न जान लूं! इतनी लंबी यात्रा करने की क्या जरूरत, कि दो हजार साल पहले जीसस हुए, हुए या नहीं हुए, यह भी आज तय करना मुश्किल है। दो हजार साल की परिक्रमा करूं, फिर कुछ जानूं। वह जानना भी कितने दूर तक प्रामाणिक है, कहना मुश्किल है। क्योंकि जिन्होंने संगृहीत किया है, उन्होंने खुद भी नहीं जाना था। जीसस ने कुछ कहा होगा, उन्होंने कुछ सुना होगा। यह स्वाभाविक है।
हम अपने हिसाब से सुनते हैं। हम अपनी बुद्धि से सुनते हैं, अपने अनुभव से सुनते हैं। फिर उन्होंने संगृहीत किया। फिर सदियां-सदियां उसकी व्याख्या करती रही हैं। लोग आते रहे, जोड़ते रहे, तोड़ते रहे। आज हमारे हाथ में जो है, उसमें कितना प्रामाणिक है, कहना बहुत मुश्किल है। कोई उपाय नहीं है जांच करने का। गीता पर एक हजार टीकाएं हैं। कृष्ण पागल तो नहीं थे। उनका तो अर्थ एक ही रहा होगा; एक हजार अर्थ तो नहीं हो सकते। एक हजार अर्थ होते तो अर्जुन की क्या गति होती! कृष्ण भी पागल होते औैर अर्जुन भी पगला जाता। अर्थ ही बिठालने में मुश्किल हो जाती। अर्थ ही कभी नहीं बैठता। वह पहेली बन जाती बात, सुलझती ही नहीं।
और इन अर्थ करने वालों से पूछो। हर एक का दावा है कि उसका अर्थ सही है। वे ही शब्द हैं, लेकिन अर्थ की अलग-अलग कलमें लोगों ने लगाई हैं। उन्हीं शब्दों में से शंकराचार्य ज्ञान निकाल लेते हैं, संन्यास निकाल लेते हैं, त्याग निकाल लेते हैं। उन्हीं शब्दों में से कर्म-संन्यास निकाल लेते हैं--कि सब कर्म को छोड़ कर व्यक्ति परमात्मा को पा सकता है, और कोई उपाय नहीं है।
उन्हीं शब्दों में से रामानुज, निम्बार्क, वल्लभ भक्ति निकाल लेते हैं। ज्ञान नहीं, भक्ति। ज्ञान तो कूड़ा-कर्कट है। भक्ति और भाव, भाव भरे आंसू, पूजा और प्रार्थना--उससे परमात्मा पाया जा सकता है। उससे ही तिलक कर्म निकाल लेते हैं। वे ही शब्द। ज्ञान भी छोड़ा, भक्ति भी छोड़ी, कर्म निकाल लिया--कि कर्मठ पुरुष, कर्मयोगी ही केवल परमात्मा को पा सकता है।
कृष्ण भी अगर इन एक हजार टीकाओं को पढ़ें तो खुद संदिग्ध हो जाएंगे कि मेरा मतलब क्या था! खुद ही सोच-विचार में पड़ जाएंगे कि अब मैं क्या करूं, कौन सा सही मेरा मतलब है? इन एक हजार टीकाओं की भीड़ में से तुम खोज पाओगे, क्या सच है? असंभव! फिर तुम भी जो खोजोगे, वह तुम्हारी टीका होगी; वह एक हजार एकवीं टीका होगी। तुम भी यूं ही तो नहीं छोड़ दोगे। तुम भी कुछ अर्थ लगाओगे। तुम भी कुछ अर्थ बिठाओगे। तुम अपने को जमाओगे।
बुद्ध रोज रात्रि को, जब उनका प्रवचन पूरा होता, तो कहते थे नियम से कि भिक्षुओ, अब जाओ। दिवस का अंत हुआ, अब अंतिम कार्य पूरा करो, ताकि दिवस की पूर्णाहुति हो। विश्राम के पहले कार्य पूरा कर लेना।
रोज-रोज कहने की जरूरत नहीं थी। मतलब था कि ध्यान करके और सो जाओ। रोज-रोज क्या कहना, एक दफा समझा दिया था, हजार दफे समझा दिया था, फिर तो यह प्रतीक हो गया था कि भिक्षुओ, अब अपना अंतिम कार्य पूरा कर लो और फिर विश्राम में जाओ। एक दिन सुबह उन्होंने कहा कि तुम्हें पता है भिक्षुओ, कल रात क्या हुआ! जब मैंने तुमसे कहा कि अब उठो, अंतिम कार्य पूरा कर लो, यूं ही बहुत देर हो गई है--तो तुम सब ध्यान करने चले गए। एक चोर भी आया हुआ था सभा में, वह एकदम चौंका, वह बड़ा हैरान भी हुआ कि बुद्ध को कैसे पता चला कि मैं चोर हूं और मेरे काम का समय आ गया! वह चोरी करने चला गया, कि गजब के आदमी हैं बुद्ध भी, कि खूब चेताया कि अब क्या बैठा है तू, अब उठ, अपने काम में लग! नहीं तो फिर पीछे पछताएगा।
एक वेश्या भी आई थी। वह भी किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई, एक क्षण अवाक हो गई। चौंक कर उसने बुद्ध को देखा कि क्या इनको खबर मिल गई, क्या जासूस छोड़ रखे हैं। क्योंकि वह तो कपड़े वगैरह बदल कर आई थी कि कोई उसे पहचान भी न सके। ऐसी ही बन कर आई थी कि जैसे भिक्षुणी हो। कैसे इनको पता चल गया! जाऊं। रात देर हुई जाती है, ग्राहक आने लगे होंगे। अंतिम काम पूरा करूं।
चोर चोरी करने चला गया, वेश्या अपनी दुकानदारी पर चली गई, भिक्षु ध्यान करने लगे। बुद्ध ने एक ही बात कही थी, तीन तरह के लोगों ने तीन तरह के अर्थ निकाल लिए।
पांडित्य से कुछ हाथ नहीं आने वाला। पांडित्य थोथी चीज है। इस जगत में सबसे ज्यादा थोथी चीज अगर कोई है तो पांडित्य है। पांडित्य बोध नहीं है। बोध तो ध्यान से मिलता है। बोध तो समाधि से मिलता है। पांडित्य मिलता है अध्ययन से, चिंतन से, सोच-विचार से। दोनों की प्रक्रियाएं अलग हैं। बोध मिलता है निर्विचार होने से, निश्चिंत होने से, मन के पार होने से! अ-मनी दशा में बोध जगता है। और पांडित्य तो मन का ही खेल है। पांडित्य तो बस तोतों जैसा है। सच पूछो तो तोते भी शायद पंडितों से कहीं ज्यादा होशियार होते हैं।
एक पंडित तोते को खरीदने गया। वह चाहता था धार्मिक तोता। पंडित था, चाहता था द्वार पर कोई धार्मिक तोता। सुन रखी थी उसने कहानी कि जब पहली दफा शंकराचार्य मंडनमिश्र के गांव पहुंचे तो उन्होंने गांव के बाहर कुएं पर पानी भरती हुई स्त्रियों से पूछा पनघट पर कि मंडनमिश्र का निवास कहां है?
तो वे स्त्रियां हंसने लगीं। उन्होंने कहा: यह भी कोई पूछने की बात है! जिस द्वार पर तोते भी उपनिषद का पाठ करते हों, समझ लेना वही मंडनमिश्र का घर है।
शंकर भीतर प्रविष्ट हुए और निश्चित ही तोतों की पंक्ति बैठी हुई थी। उपनिषदों के वचन तोते दोहरा रहे थे। यही मंडनमिश्र का घर है।
इस पंडित ने भी यह कहानी सुनी थी, यह भी चाहता था कि मेरे द्वार पर भी एक तोता लटका रहे, कि सारा गांव जाने। पूछा दुकानदार से कि कोई ऐसा तोता है। उसने कहा: तोता तो है--और बड़े गजब का तोता है! मगर दाम भी लगेंगे। दो हजार से कम नहीं लूंगा। बड़ी मेहनत से तैयार किया है।
पंडित ने कहा: देखूं तो पहले! तोता सुंदर था, बड़ा प्यारा था। तोते के दोनों पैरों में छोटे-छोटे काले धागे बंधे हुए थे। पंडित ने पूछा: ये धागे किसलिए हैं?
उस दुकानदार ने कहा: अगर बाएं पैर का धागा धीरे से खींच दो, किसी को दिखाई भी नहीं पड़ेगा, तो यह तत्क्षण गायत्री मंत्र बोलता है।
और पंडित ने पूछा: दाएं पैर का धागा?
कहा: अगर दाएं पैर का धागा खींच दो तो यह नमोकार मंत्र बोलता है। मेरे पास दोनों तरह के ग्राहक आते हैं--हिंदू भी, जैन भी। सो दोनों से निष्णात कर रखा है।
पंडित ने पूछाः और अगर दोनों धागे एक साथ खींच दूं तो?
तो तोते ने कहाः अरे उल्लू के पट्ठे, चारों खाने चित्त नहीं गिर पडूंगा?
तोते भी थोड़े ज्यादा अकल रखते हैं। पंडित तो बिलकुल ही थोथे होते हैं।
तुलसीदास, पहला काम तो यह करो, यह ‘पंडित’ की बदनामी जाने दो। यह पंडित को नाम के आगे मत जोड़ो। इसके गिरते ही बुढ़ापा विदा हो जाएगा। तुम फिर ताजे हो जाओगे। यह धूल झाड़ दो। मगर तुम दोनों तरफ से दबे हो।
कबीर ने कहा है...पता नहीं उनका क्या मतलब था! मगर मुझे तो लगता है, जैसे तुमको ही देख कर कहा हो, ‘दो पाटन के बीच में साबित बचा न कोय।’ आगे ‘पंडित’, पीछे ‘शास्त्री!’ तुम साबित बच गए, यही बहुत। तुम यहां तक आ गए, यही बहुत। आगे से ‘पंडित’ को गिरा दो, पीछे से ‘शास्त्री’ को गिरा दो। तुलसीदास बहुत है। पर्याप्त है। नाम कोई चाहिए। उतने से काम हो जाएगा। नाम की औपचारिकता है। नाम का कोई अस्तित्व नहीं है। कामचलाऊ है।
अनाम हम पैदा होते हैं, अनाम ही हम जीते हैं, अनाम ही हम मरते हैं। परमात्मा का कोई नाम नहीं है--और न हमारा कोई नाम है। हम सब परमात्मा के ही रूप हैं। लेकिन ये पंडित और शास्त्री तुम्हें बूढ़ा कर रहे हैं। इन दोनों का त्याग कर सको तो तुम्हारे जीवन में क्रांति हो जाए। ढो तो चुके शास्त्र बहुत, पाया क्या? अब भी न चेतोगे तो कब चेतोगे? अगर कुछ मिला हो तो मैं नहीं कहता छोड़ो। मगर पुनर्विचार कर लो, मिला है कुछ? किसी को कभी नहीं मिला, तुमको कैसे मिल सकता है? कोई अपवाद नहीं हो सकता।
पांडित्य से कभी किसी को कुछ नहीं मिला। हां, धोखा होता है मिलने का, भ्रांति होती है मिलने की। क्योंकि सुंदर-सुंदर शब्दों की कतारें बंध जाती हैं, प्यारे शब्दों की पंक्तियां लग जाती हैं, सुंदर-सुंदर सुभाषित कंठस्थ हो जाते हैं, और यह भ्रांति हो जानी बहुत मुश्किल नहीं है कि बहुत बार दोहराने पर लगने लगे कि ये सारे शब्द मेरे हैं। तुम झूठ भी बोलते रहो बहुत दिन तक, तो वह भी सच मालूम होने लगेगा। यही तो कुल जमा आत्म-सम्मोहन की व्यवस्था है। जिस बात को तुम बहुत दिन तक बोलते रहोगे, खुद ही भूल जाओगे कि यह झूठ थी। झूठ बोलने का सबसे बड़ा खतरा यही है--दूसरे तो धोखा खाते ही खाते हैं, बोलने वाला खुद धोखा खा जाता है।
मैंने सुना है, एक पत्रकार स्वर्ग पहुंचा। द्वारपाल ने कहा: क्षमा करें, हमारा कोटा पूरा है। बारह पत्रकार से ज्यादा हम अंदर लेते नहीं। और सदियां हो गईं, बारह पत्रकार हैं। वैसे भी उनकी भी कोई जरूरत नहीं है। एक औपचारिकतावश उनको रखा हुआ है। अखबार यहां निकलता नहीं, क्योंकि अखबार निकलने योग्य घटनाएं नहीं घटतीं। न कोई किसी की पत्नी भगाता है, न कोई डाका डालता है, न कोई चुनाव लड़ता है। यहां समाचार होते ही नहीं।
द्वारपाल ने कहाः तुमने सुना तो होगा, जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने समाचार की क्या परीभाषा की है? बर्नार्ड शॉ ने कहा है कि अगर कुत्ता आदमी को काटे तो यह कोई समाचार नहीं है; जब आदमी कुत्ते को काटे, वह समाचार है। यहां आदमी कुत्ते को काटे, यह तो होता ही नहीं; यहां कुत्ता भी आदमी को नहीं काटता। समाचार यहां कुछ घटता नहीं। अखबार यहां कोई निकलता नहीं। तुम करोगे भी क्या? वह सामने रहा दरवाजा नरक का, वहां चले जाओ। वहां खूब अखबार छपते हैं, रोज-रोज नये-नये अखबार निकलते हैं। फिर भी समाचार इतने ज्यादा हैं वहां कि अखबार कम पड़ते हैं, समाचार ज्यादा हैं। नरक में तो समाचार ही समाचार समझो। ऐसी शायद ही कोई घड़ी बीतती हो, जब कुछ उपद्रव न हो रहा हो। कहीं घेराव, कहीं हड़ताल, कहीं किसी ने किसी की गर्दन काट दी, कहीं कोई किसी की पत्नी ले भागा, कहीं कोई किसी का पति ले भागा। नरक क्या है--समझो दिल्ली है!
कल ही मैंने अखबार में पढ़ा कि एक आदमी दिल्ली स्टेशन पर उतरा, उसका कोई सामान लेकर नदारद हो गया। वह बेचारा सामान खोजने गया, लौट कर आया, कोई उसकी पत्नी लेकर नदारत हो गया। सामान भी गया, पत्नी भी गई। उसको जल्दी भाग आना चाहिए, नहीं तो कोई उसी को उड़ा ले जाएगा। अभी भी कुछ तो बचा है। जान बची और लाखों पाए, लौट कर बुद्धू घर को आए! पकड़े गाड़ी और भागे, निकल भागे। दिल्ली में खतरा है।
और नरक तो समझो एकाध दिल्ली नहीं; दिल्लियां ही दिल्लियां बसी हैं। सारे राजनेता वहां हैं।
बहुत समझाया द्वारपाल ने, लेकिन अखबार वाले तो जिद्दी होते ही हैं। उसने कहा: कुछ भी हो, एक काम करो, चौबीस घंटे का मुझे मौका दे दो। मैं किसी अखबार वाले को अगर राजी कर लूं नरक जाने के लिए तो फिर तो जगह एक खाली हो जाएगी, मुझे दे सकोगे?
द्वारपाल ले कहा: यह ठीक है। यह बात मेरी समझ में आती है। तुम चौबीस घंटे के लिए भीतर हो जाओ। अगर किसी को राजी कर लो तो तुम रह जाना, वह चला जाएगा। हमें कुछ फर्क नहीं पड़ता। अ रहा कि ब रहा, सब बेकार हैं। तुम रहोगे, तुम्हें रहना हो तुम रह जाओ।
वह आदमी अंदर गया और जाते से ही जो उसे मिला, उसने अफवाह उड़ानी शुरू की कि नरक में एक नया अखबार निकल रहा है। बड़ी तनख्वाह है। प्रधान संपादक की, उपप्रधान संपादक की, और पत्रकारों की जरूरत है। तनख्वाह, बंगला, कारें, सब...। उसने ऐसा शोरगुल मचाया चौबीस घंटे में कि जब चौबीस घंटे बाद वह द्वार पर आया तो सोचता था कम से कम एकाध चला गया होगा। द्वारपाल ने एकदम उसे रोक लिया, संगीन उसके सामने कर दी कि भीतर रहना, बाहर मत जाना, क्योंकि बाकी बारह ही भाग गए हैं। वे सब नरक चले गए। अब कम से कम एक तो होना ही चाहिए, कहने को; नहीं तो शैतान हांकेगा डींग कि तुम्हारे पास एक अखबार वाला नहीं है। अक्सर हर बात में वह डींग हांकता है। यह तुम देख रहे हो कि नरक और स्वर्ग के बीच में यह जो दीवाल है, इसकी ईंटें गिर गई हैं। उसी तरफ के शैतानों ने ईंटें खींच ली हैं। एक दूसरे पर ईंटें निकाल-निकाल कर मारते हैं, तो दीवाल की ईंटें गिर गई हैं। दीवाल में छेद हो गए हैं। परमात्मा ने एक दिन कहा उस शैतान से कि देख, दीवाल सुधरवा, तेरे ही आदमियों ने गड़बड़ की है। उसने कहा: हमें कोई फिकर नहीं है, दीवाल रहे की जाए। हमें क्या चिंता! अरे दीवाल न रहेगी तो हमारे आदमी स्वर्ग पर कब्जा कर लेंगे। तुम्हें फिकर हो अपने को बचाने की तो दीवाल सुधरवा लो। परमात्मा भी तैश में आ गया। उसने कहा कि मुकदमा चलाऊंगा। उसने कहा: चला लेना मुकदमा! सारे वकील तो यहां हैं! तुम मुकदमा कैसे चलाओगे? वकील कहां से पाओगे? तो वह हर बात में इस तरह की हरकत करता है। वह यही कहने लगेगा कि तुम्हारे पास अब कोई अखबार वाला नहीं है। अब तू भीतर रह।
लेकिन वह अखबार वाला खड़ा होकर सोचने लगा। उसने कहा कि अब मैं नहीं रुक सकता। द्वारपाल ने कहा: तू पागल हो गया है, तूने ही झूठी अफवाह उड़ाई, तू क्या करेगा जा कर?
उसने कहा: हो न हो, इस बात में कुछ सचाई होनी ही चाहिए। जब बारह आदमी चले गए तो बात बिलकुल झूठ हो, यह नहीं हो सकता। माना कि मैंने ही शुरू की थी, मगर संयोगवशात ऐसा लगता है कि बात में कुछ सचाई होगी। मैंने तो झूठ की तरह ही शुरू की थी, मगर अगर सत्य न होता बात में तो इतने लोग प्रभावित न होते। सत्यमेव जयते! जब इतनी विजय हो गई है तो लोग कहते हैं कि सत्य की विजय होती है, सच्चाई और ही है--जो चीज जीत जाए, लोग उसी को सत्य कहने लगते हैं। झूठ जीत जाए तो झूठ सत्य हो जाता है। सत्य की विजय होती है या नहीं, कहना मुश्किल है; मगर जो भी जीत जाए, लोग उसे सत्य मान लेते हैं। वह अखबार वाला नहीं रुका। उसने कहा: चौबीस घंटे से एक मिनट ज्यादा नहीं ठहरने वाला। तुमने ही चौबीस घंटे का मौका दिया था, मुझे बाहर जाने दो; नहीं तो मैं बहुत शोरगुल मचाऊंगा, मैं बहुत उपद्रव मचा दूंगा। जब बारह चले गए हैं तो मैं रहने वाला नहीं। तुम खुद भी सोचो। तुम कई बार कोई चीज झूठ से शुरू करते हो और धीरे-धीरे खुद भी उस पर भरोसा आ जाता है। पुनरुक्ति से भरोसा आता है।
एडोल्फ हिटलर ने लिखा है अपनी आत्म-कथा में: किसी भी झूठ को दोहराते रहो बार बार, वह सच हो जाता है। झूठ और सच में, उसने कहा है, इतना ही भेद है, बहुत बार दोहराए गए झूठ सच हो जाते हैं। और सच भी जब पहली दफा कहा जाता है तो झूठ ही मालूम पड़ता है।
पांडित्य है क्या? उधार बातों को तुम दोहराते हो। दोहराते-दोहराते आत्म-सम्मोहित हो जाते हो। वही गीता को पढ़ रहे हो रोज। इसलिए तो तुम्हारे तथाकथित पुरोहित, तुम्हारे महात्मा एक बात समझाते हैं कि पाठ करो। और किसी किताब का पाठ नहीं करना होता। अगर तुम्हें भूगोल पढ़नी है, इतिहास पढ़ना है, तो पढ़ लिया, बात खत्म हो गई। यह नहीं कि रोज उठ कर पाठ कर रहे हैं। पाठ करने का मतलब क्या है? पाठ करने का मतलब यह है कि रोज-रोज उसी को दोहराओ, दोहराए चले जाओ, इतना दोहराओ, इतना दोहराओ कि जैसे पत्थर पर लकीर खिंच जाए। और कुछ लोग हैं जो जिंदगी भर गीता दोहरा रहे हैं। उनको गीता बिलकुल कंठस्थ हो जाती है। वे फिर गीता सामने रख लेते हैं और दोहराए चले जाते हैं। कई बार तो तुम चकित होओगे कि वे जो दोहरा रहे हैं, वह पृष्ठ ही सामने नहीं होता, उसकी जरूरत ही नहीं है पृष्ठ की। कोई भी पृष्ठ हो, चलेगा।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन पढ़ रहा था कुरान शरीफ। मैं चकित हुआ, क्योंकि वह किताब उलटी रखे था। मैंने पूछा: यह क्या कर रहे हो, बड़े मियां? किताब उल्टी है!
उसने कहा: किताब से करना क्या है? अरे, मुझे शब्द-शब्द याद है। किताब कैसी रहे, सीधी रहे कि उलटी रहे। यह दिखता है मेरे लड़के ने हरकत की है। मैं तो आंख बंद करके अपना कुरान पाठ कर रहा हूं, वह इसको उलटी कर गया होगा। वह दुष्ट जो न करे सो थोड़ा है।
मगर क्या प्रयोजन है, जब तुम्हें कंठस्थ ही है तो सीधी हो किताब कि उलटी हो किताब, पन्ना सामने हो कि न हो। यंत्रवत तुम दोहराए चले जाते हो।
पांडित्य यंत्र की भांति है। छूटो तुलसीदास। पांडित्य से छूटो, शास्त्रीयता से छूटो--अगर सत्य को पाना है। और सत्य किताबों में नहीं है। सत्य तुम्हारे भीतर है। सत्य मैं तुम्हें नहीं दे सकता। कोई भी तुम्हें नहीं दे सकता। जिन्होंने पाया है, वे केवल इतना ही इशारा कर सकते हैं कि तुम भी अपने भीतर जाओ तो पा लोगे। कोई दे नहीं सकता। सत्य हस्तांतरणीय नहीं है। यह कोई वस्तु नहीं है कि एक हाथ से दूसरे हाथ में दे दो। नहीं तो हर बाप जैसे संपत्ति दे जाता है अपने बेटे को, हर गुरु अपने शिष्यों को सत्य दे जाता। लेकिन सत्य इतना आसान नहीं।
गुरु केवल तुम्हारी प्यास जगा सकता है, प्यास प्रज्वलित कर सकता है। तुम्हारे भीतर सत्य की आकांक्षा को गहन कर सकता है। एक ऐसी त्वरा पैदा कर सकता है कि तुम्हारा रोआं-रोआं अभीप्सा से भर उठे सत्य को पाने की। लेकिन सत्य तुम्हें ही पाना होगा।
लेकिन खतरा यह है कि सुंदर-सुंदर वचन शास्त्रों के, मोहक वचन शास्त्रों के भ्रांति दे सकते हैं। ऐसा लग सकता है कि पा लिया, सब तो मालूम है!
इस देश के बड़े से बड़े दुर्भाग्यों में यही है कि इस देश में सभी को ब्रह्मज्ञान है। यहां पान बेचने वाले से लेकर प्रधानमंत्री तक, सबको ब्रह्मज्ञान है, क्योंकि कौन है जिसको दो-चार चौपाइयां न आती हों, कौन है जिसको गुरुग्रंथ साहिब के दो-चार पद न आते हों? कौन है जिसको गीता के कुछ श्लोक न आते हों? कौन है जो ब्रह्म के संबंध में थोड़ी सी बातें न कर सके, जो सारे जगत को माया न कह सके? जीवन कुछ कहता हो उनका, लेकिन शब्द उनके दोहराए चले जाते हैं--जगत माया है! ब्रह्म सत्य है।
ये बातें कोरी बातें हैं; इनके भीतर कोई प्राण नहीं हैं। ये लाशें हैं। ये पिंजड़े हैं, जिनके भीतर कोई पक्षी नहीं हैं। ये कितने ही हीरे-जवाहारातों से जड़े हों, सोने के बने हों, सावधान रहना, इनमें उलझ मत जाना।
तुम पूछते हो तुलसीदास: ‘आपका हम बूढ़ों के लिए क्या संदेश है?’
पहली तो बात यह, बूढ़ा होना तुम्हें आवश्यक नहीं है। तुम होना ही चाहो तो बात और है। तुमने जिद्द ही कर ली हो, तुम्हारी मौज। तुमने संकल्प ही कर लिया हो बूढ़ा रहने का, तो फिर इस दुनिया में कोई भी कुछ भी नहीं कर सकता। यह तुम्हारी स्वतंत्रता है। अन्यथा ये दोनों जो चट्टानें तुमने लटका रखी हैं अपनी गर्दन से--पांडित्य की और शास्त्रीयता की--इनको गिरा दो, निर्भार हो जाओ। अभी तुम्हारे पंख आकाश में खुल जाएंगे। अभी भी तुम उड़ सकते हो। कभी भी तुम उड़ सकते हो।
मृत्यु के अंतिम क्षण तक भी व्यक्ति चाहे तो एक क्षण में परमात्मा को पा सकता है। साहस चाहिए--साहस चाहिए, थोथे ज्ञान को छोड़ने का।
और बड़ा मजा है। लोग संसार छोड़ने को राजी हैं, धन छोड़ने को राजी हैं, पद छोड़ने को राजी हैं, मगर ज्ञान छोड़ने को राजी नहीं हैं! मैं देखता हूं, किसी ने गृहस्थी छोड़ दी, पत्नी छोड़ दी, बच्चे छोड़ दिए, दुकान छोड़ दी; मगर सब छोड़-छाड़ कर अब भी वह जैन है, या हिंदू है, या मुसलमान है। आश्चर्य! ज्ञान नहीं छोड़ा। वह थोथा जो यांत्रिक, शाब्दिक ज्ञान था, उसे और छाती से जकड़ लिया है। धन छोड़ने में कुछ बड़ी खूबी नहीं है, क्योंकि धन तो बाहर है। ज्ञान छोड़ने में मुश्किल पड़ती है, क्योंकि ज्ञान लगता है भीतर है। ज्ञान भी भीतर नहीं है; वह भी बाहर है।
तुम जहां हो, अंतर्तम में बैठे, वहां ज्ञान भी नहीं है; वहां तो एक निर्दोष मौन है। वहां कोई शब्द नहीं है। वहां निःशब्द है, वहां तो एक संगीत है--एक मौन संगीत, एक शून्य संगीत। उसे अनाहत नाद कहो, या जो तुम्हारी मर्जी हो। समाधि कहो, निर्वाण कहो, कैवल्य कहो--जो शब्द देना हो। मगर इतना खयाल रखना कि वह शून्य संगीत है। वहां कोई शब्द नहीं है, न कोई ज्ञान है, न कोई अज्ञान है। वहां केवल शुद्ध चैतन्य है। वहां तुम सिर्फ द्रष्टामात्र हो। उस द्रष्टा के सामने ज्ञान भी बाहर है। विचार भी उस द्रष्टा के सामने दृश्य हैं।
तुम भी जरा आंख बंद करके कभी बैठो तो देख सकोगे--यह गीता का श्लोक जा रहा। जैसे कि रास्ते पर लोग चलते हैं, ऐसे ही श्लोक चलते हैं मन के रास्ते पर। कुछ भेद नहीं है। जैसे नदी बहती है बाहर, तुम किनारे पर बैठ कर नदी को बहता देख सकते हो, वैसे ही भीतर, बैठ कर मन की बहती हुई धारा को देख सकते हो। कोई फिल्मी गाना सुनता है, कोई शास्त्रीय ज्ञान सुनता है, मगर भेद जरा भी नहीं है। क्या फर्क है? दोनों ही बाहर हैं। तुम द्रष्टा हो, दृश्य नहीं। तुम देखने वाले हो; जो दिखाई पड़ता है वह नहीं। बस, इस द्रष्टा में रमो, तुलसीदास, मुक्त हो जाओगे बुढ़ापे से। मुक्त हो जाओगे सारे बंधनों से।
और कहीं जाने की जरूरत नहीं है--न पहाड़, न कंदराओं में। जहां हो वहीं बैठे-बैठे द्रष्टा में थिर होते जाओ। जितना ही तुम्हारे भीतर का द्रष्टा-भाव स्थिर होगा, यहीं रहोगे, इसी जगत में रहोगे, यही सब काम करोगे, फिर भी ऐसे रहोगे जैसे जल में कमल। कुछ छुएगा नहीं। कुंआरे रहोगे।
दूसरा प्रश्न: भगवान,
सीखने से भी अनसीखना क्यों इतना कठिन मालूम पड़ता है?
आनंद मैत्रेय! सीखने से अहंकार को तृप्ति मिलती है। मैं जानता हूं, इतना जानता हूं--तो अहंकार भरता है। अहंकार बिलकुल खाली चीज है, थोथी चीज है--कुछ न कुछ भरने को चाहिए। धन हो, पद हो, प्रतिष्ठा हो, यश हो, सम्मान हो, ज्ञान हो, त्याग हो--कुछ न कुछ भरने को चाहिए।
अहंकार थोथा है। अगर कुछ भी भरने को न हो तो अहंकार फुग्गे की तरह फूट जाता है। अहंकार में कुछ न कुछ भरने की सतत कोशिश करनी होती है। फिर भी कभी भर नहीं पाता। झूठ को तुम कितना ही सम्हालो, कितना सम्हालोगे? आज नहीं कल, कल नहीं परसों, गिरेगा। कितना ही चलाओ, उसके पास पैर नहीं हैं और प्राण भी नहीं हैं।
अहंकार छाया की तरह है। उसमें कुछ भी तथ्य नहीं है; सिर्फ भ्रांति है; सिर्फ आभास है। तुम आत्मा हो, अहंकार नहीं। आत्मा तो भरी-पूरी है--इतनी भरी-पूरी है कि उसमें रंचमात्र स्थान नहीं है और भरने को। परमात्मा भरा हुआ है, अब और क्या भरने को जगह उसमें होगी? सारा अस्तित्व उसमें समाया हुआ है।
लेकिन अहंकार बिलकुल थोथा है। और इसलिए अहंकार हमेशा चेष्टा में लगा रहता है कि कुछ भर ले, कहीं से भी कुछ मिल जाए तो भर ले। तलाश करता रहता है। अहंकार पूरे वक्त कोशिश में लगा रहता है--लोग मेरे संबंध में क्या कहते हैं? लोग अच्छा कहते हैं न मेरे संबंध में? लोग मेरी प्रशंसा करते हैं न? अहंकार कुछ भी करने को राजी है, लोग प्रशंसा भर करें। कोई भी मूढ़ता करवा लो आदमी से, प्रशंसा भर करो। हर तरह की बेवकूफी करने को वह राजी है, बस तुम प्रशंसा भर करो। तुम्हारी प्रशंसा मिलती रहे तो वह एक दफा भोजन करने को राजी है, भूखा मरने को राजी है, उपवासा रहने को राजी है, सिर के बल खड़ा होने को राजी है, तरह-तरह के शरीर को तोड़ने-मरोड़ने के व्यायाम करके दिखाने को राजी है। योग कहेगा उसको। तुम उससे कुछ भी करवा लो। जमीन पर घिसट-घिसट कर तीर्थयात्रा कर सकता है।
एक गांव में मैं गया। किसी ने कहा कि आपको मालूम है, हमारे गांव में एक बहुत प्रसिद्ध संत हैं!
‘उनकी क्या प्रसिद्धि है?’
कहा कि वे दस साल से खड़े हुए हैं। उनका नाम ही ‘खड़ेश्री बाबा’ है! दस साल से खड़े हुए हों कि सौ साल से खड़े हुए हों, इसमें खूबी की बात क्या है? आदमी बुद्धू होगा, जिसको बैठना भी नहीं आता। इसने अपनी अकल गंवाई। इसकी अक्ल मारी गई।
लोगों ने कहा: अरे, आप क्या कहते हैं? हजारों लोग दर्शन करने आते हैं।
मैंने कहा: वे ही मूढ़ जो इसका दर्शन करने आते हैं, इसको खड़ा करवाए हुए हैं। वे दर्शन करने आना बंद कर दें, फिर देखें यह कितनी देर खड़ा रहता है! यह भाग खड़ा होगा। मगर हजारों लोग आ रहे हैं, चढ़ोतरी चढ़ रही है।
मैं जब उस रास्ते से गुजरा, तो मैंने देखा वहां भीड़ लगी है। चौबीस घंटे अखंड कीर्तन चलता है। ‘कीरंतन’ कहना चाहिए, कीर्तन नहीं। क्योंकि चौबीस घंटे चलाओगे, मोहल्ले वालों का जीना हराम हो गया है। मगर कुछ कह भी नहीं सकते, धार्मिक कार्य हो रहा है! कोई बाधा भी नहीं डाल सकता। और वह कीर्तन चलाना पड़ता है चौबीस घंटे, ताकि बाबा सो न जाएं, कहीं नींद न लग जाए बाबा को। और उनकी हालत मैंने देखी तो पैर उनके हाथीपांव जैसे हो गए हैं। हाथीपांव की बीमारी होती है न, सारे शरीर का रक्त पैरों में चला जाता है--चला ही जाएगा, दस साल तुम खड़े रहोगे...! तो शरीर तो सूख गया है, पैर काफी मोटे हो गए हैं। अब तो वे बैठना भी चाहें तो बैठ सकते नहीं। अब तो पैर मुड़ेंगे भी नहीं। अब तो पैर बिलकुल जड़ हो गए हैं। नसें फूल गई हैं। यह आदमी भयंकर रोग से ग्रस्त हो गया--अपने ही हाथ से! मगर गिर सकते हैं; क्योंकि नींद स्वाभाविक चीज है। तो बैसाखियां लगा दी हैं उनको ताकि वे बैसाखियों के सहारे खड़े रहें। और बैसाखियां छप्पर से बांध दी हैं, ताकि लाख उपाय करें तो भी गिर नहीं सकते, छप्पर से लटके रहेंगे। और सोने उनको देते नहीं हैं, सेवकगण पूरे वक्त उनकी सेवा कर रहे हैं, ताकि उनको नींद न लग जाए।
और मैंने पूछा: यह पागलपन किसलिए है?
किसी ने कहा: अरे, कृष्ण ने गीता में नहीं कहा-- या निशा सर्वभूतायां तस्यांजागर्ति संयमी! संयमी पुरुष तो जागता है। जब सब सो जाते हैं, तब भी जागता है--यह संयम की पराकाष्ठा है।
मैंने कहा: इन्होंने तो कृष्ण को भी मात कर दिया। यह मैंने कभी सुना नहीं कि कृष्ण खड़ेश्री बाबा थे। कोई ऐसी घटना नहीं है कृष्ण के जीवन में। ऐसी घटनाएं तो हैं कि वे सोए थे, लेटे थे, जब दुर्योधन और अर्जुन उनके पास गए थे कि महाभारत में हमारे साथ युद्ध में भागीदार हों, तो सोए हुए थे। खड़ेश्री बाबा नहीं थे कि खड़े थे। लेटे थे। दुर्योधन तो अकड़ की वजह से सिर के पास खड़ा हुआ। अर्जुन पैर के पास खड़े हुए। अगर खड़े होते तो बड़ी मुश्किल हो जाती, दुर्योधन कहां खड़ा होता? दुर्योधन पर दया करके वे लेटे हुए थे। नहीं तो संयमी तो जागा ही रहता है। दुर्योधन को देख कर आंखें बंद कर ली होंगी कि बेचारा दुर्योधन आ रहा है, सिर के पास खड़ा होना पड़ेगा, अब मैं ही खड़ा हो जाऊं तो यह कहां खड़ा होगा! इसको छप्पर पर चढ़ना होगा।
कोई कृष्ण के जीवन में तो ऐसा उल्लेख नहीं आता। तो उनका मतलब कुछ और रहा होगा, ये खड़े श्री बाबा समझे नहीं हैं। और जो इनको समझा रहे हैं, वे भी कुछ समझे नहीं हैं।
कुल मतलब इतना है कि जो व्यक्ति ध्यानस्थ है वह नींद में भी, गहरी निद्रा में भी, उसके भीतर का साक्षीभाव जागा रहता है। वह अपने स्वप्नों का भी द्रष्टा होता है। उसका द्रष्टा-भाव नहीं खोता। चाहे वह जागे, चाहे सोए, चाहे उठे, चाहे बैठे, उसका द्रष्टा-भाव सदा बना रहता है। एक क्षण को भी द्रष्टा-भाव से च्युत नहीं होता। लेकिन खड़े रहने की कोई जरूरत नहीं है। खुद विष्णु महाराज लेटे हुए दिखाई पड़ते हैं क्षीर सागर में। क्या मौज से लेटे हुए हैं! इनको अक्ल न आई, नहीं तो खड़ेश्री बाबा हो जाते। यह बुद्धूपन पहली दफा इस आदमी को सूझा है!
और जब मैं उनका चेहरा देखा तो उनकी हालत दयनीय थी, दया योग्य थी। आंखें उनकी निस्तेज हो गई हैं, फीकी हो गई हैं। हो ही जाएंगी, क्योंकि सारा खून निचुड़ गया है। चेहरा निष्प्राण है, जैसे कोई मुर्दा खड़ा हो। कोई भाव नहीं है। चेहरे पर कोई फूल नहीं खिलते मालूम होते, न कोई दीया जलता मालूम पड़ता है। लेकिन रस क्या है फिर? रस एक है कि यह जो हजारों लोगों की कतार लगी है चौबीस घंटे, यह जो सम्मान मिल रहा है। तुम कोई भी मूर्खता करवा लो आदमियों से, सम्मान मिलना चाहिए।
रूस में ईसाइयों का एक संप्रदाय था जो अपनी जननेंद्रियां काट डालता था, क्योंकि इसी बात को सम्मान मिलता था। ये ही असली ब्रह्मचारी थे। तो हर वर्ष इनकी जमात इकट्ठी होती थी और जिनको इनका शिष्य होना होता था, वे इकट्ठे होते थे। बड़ी भीड़ लगती थी, लाखों लोग देखने इकट्ठे होते थे। और उस विक्षिप्तता की अवस्था में बैंड-बाजे बज रहे हैं, शोरगुल मच रहा है, धूप-दीप जलाए जा रहे हैं। लोग ऐसे जोश-खरोश में आ जाते थे कि कई बार भीड़ में से ऐसे व्यक्ति, जो सिर्फ देखने आए थे, वे उछल पड़ते, कपड़े फेंक देते। और वहां तलवारें रखी रहती थीं, तलवार उठा कर जननेंद्रिय काट डालते। फिर पीछे पछताएं, अब पीछे पछताने से क्या होता है जब चिड़िया चुग गई खेत! मगर तब तक तो सम्मान मिल चुका होता था। और तब तक तो हो ही गए साधु, फिर लौटना भी बहुत मुश्किल है, फिर अपमानजनक है।
इसलिए किसी साधु को हम लौटने नहीं देते। इससे बड़े अपमान की कोई बात नहीं समझी जाती कि कोई आदमी साधु से लौट आए।
एक महिला मेरे पास आकर रोती थी हमेशा। उसका पति साधु हो गया था। मैंने उसे कहा: तू ठहर। मैं तेरे पति को जानता हूं। मैं उनको पकडूंगा। मैं काशी गया था, वे मुझे मिलने आ गए। मैंने उन्हें समझाया-बुझाया। अब तक उनकी भी अक्ल दुरुस्त आ गई थी एक आठ महीना साधु रहने के बाद। उनको भी समझ में आ गया था कि कुछ सार नहीं है। बुद्धू बन गए। मगर अब किस मुंह से घर लौटें!
मैंने कहा: तुम फिकर न करो। हम तुम्हारे घर लौटने का स्वागत करवा देंगे, और क्या चाहिए! बैंड-बाजे से स्वागत होगा, स्टेशन से ही जुलूस निकलेगा। जितना बड़ा जुलूस तुम्हारा साधु होने के वक्त निकला था, उससे बड़ा जुलूस निकलवा देंगे, और क्या चाहते हो?
सो वे राजी हो गए। उनको मैं समझा-बुझा कर ले आया, मित्रों को खबर की। भीड़-भाड़ इकट्ठी करवा दी, फूलमालाएं पहना दीं। और तो सब ठीक, चकित मैं तो तब हुआ, जब उनकी पत्नी ने उनको घर में घुसने देने से इनकार कर दिया। उसने कहा: साधु होकर और भ्रष्ट होते हो! अरे बेशर्म! अब एक भूल की साधु होकर, अब दूसरी भूल करते हो। तुम्हारे साथ मुझको भी डुबाओगे?
मैंने कहा: तूने हद्द कर दी। तू मेरे पीछे पड़ी थी। मैं तीन दिन इस आदमी के साथ सिर पचाया, बमुश्किल उसको राजी करवाया। इतनी भीड़-भाड़ इकट्ठी करवाई। ये सब किराए से आदमी लाना पड़े। और तू कहती है घर में नहीं...।
उसने कहा: कभी नहीं! साधु हो गए, अब इनको मैं पतिभाव से नहीं देख सकती। और मैं इन्हें अपनी देह नहीं छूने दूंगी। यह तो बिलकुल भ्रष्ट हो जाने की बात हो जाएगी। अब जो हुआ सो हुआ।
वह आदमी भी बेचारा खड़ा रह गया। मैंने कहा: अब बड़ी मुसीबत हुई। भैया, तू मेरे घर चल। तेरी दूसरी शादी करवाएंगे, अब और क्या करें! इससे बेहतर स्त्री खोज देंगे, और क्या कर सकते हैं! अब जो भूल हो गई कि तुझे समझा कर ले आए...।
जब मैंने कहा दूसरी स्त्री खोज देंगे, तब वह स्त्री चौंकी। उसने कहा: कहीं जाने की जरूरत नहीं है! क्योंकि अगर दूसरी स्त्री का मामला हो तो मुर्दा स्त्री भी जिंदा हो जाती है, एकदम, कि नहीं, यह कभी बर्दाश्त नहीं होगा! चलो घर में अंदर! शांतिपूर्वक घर में रहो!
और वह मेरे पास उनको आने के लिए मना करने लगी कि वहां जाना मत। यह आदमी तुम्हें भ्रष्ट करवा दिया। और अब यह और भ्रष्ट करवाने में लगा है कि एक दूसरी स्त्री खोज देंगे।
साधुओं को हम फिर एक दफा साधु बना देते हैं, उनको इतना स्वागत-सम्मान दे देते हैं, उनके अहंकार को ऐसा भर देते हैं कि फिर बेचारे अटक जाते हैं। फांसी लग गई। फिर अगर लौटना चाहें तो हम उनका खूब अपमान करते हैं, भयंकर अपमान करते हैं।
एक जैन मुनि ने मेरी बात मान कर मुनि-वेश छोड़ दिया। मैं हैदराबाद में था। मैं एक सभा में जैनियों की बोलने गया था, वे भी मेरे साथ चले गए। मैं मंच पर बैठा। वे भी पुरानी आदत हो गई थी उनकी, कोई दस साल, बारह साल साधु रह चुके थे, सो वे भी कैसे श्रावकों के बीच बैठें! सो वे भी मेरे साथ आकर मंच पर बैठ गए। अब जैन इसको कैसे बर्दाश्त करें कि जो आदमी साधु रह कर और फिर साधुपन छोड़ दिया, वह मंच पर बैठे! उनके मंदिर में! खुसर-पुसर शुरू हो गई। मैंने कहा: मामला क्या है? मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा है। मैं बोल रहा हूं, आप लोग कुछ खुसर-पुसर कर रहे हैं। बात पहले तय हो जानी चाहिए, बात क्या है?
उन्होंने कहा कि हमें आपसे कोई एतराज नहीं है, मगर ये सज्जन मंच पर नहीं होने चाहिए। इनको हम नीचे उतारेंगे। इन्होंने मुनि-वेश छोड़ा है। मैंने कहा कि इन्होंने मुनि-वेश छोड़ा है, मैंने तो कभी मुनि-वेश ग्रहण भी नहीं किया। इन्होंने तो कम से कम ग्रहण भी किया था। ये मुझसे तो ज्यादा ही आदर योग्य हैं। बैठे रहने दो, तुम्हारा क्या बिगाड़ते हैं? उन्होंने कहा कि नहीं, हमारे मंदिर में यह नहीं होगा। उपद्रव हो जाएगा, आप इनको समझा कर नीचे उतार दो।
मैंने देखा कि वह तो लिखा तो मंदिर में था, ‘अहिंसा परमोधर्मः’ लेकिन हालत वहां ऐसी थी कि वे मार-पीट पर उतारू थे उनकी। मैंने उनसे कहा कि भैया, तुम नीचे उतर जाओ, नाहक मार-पीट हो जाएगी! मगर वे भी आखिर थे तो जैन-मुनि! ऐसे श्रावकों से हार जाएं! और फिर उनको भी उतरने में संकोच मालूम पड़े, पैर अटकें। तो वे मंच से न उतरें, वे एकदम ऐसे चिपक कर बैठ गए मंच से कि मैंने उनसे कहा: तुम उतरते हो कि वे लोग उतारने को तैयार हो रहे हैं! नहीं उतरे और लोग दौड़ पड़े और उन्हें खींचने लगे नीचे।
मैंने उनसे कहा कि अजीब पागलपन है! न वह आदमी उतरने को तैयार है। उसको बारह साल तक सम्मान मिला है तो वह एकदम से छोड़ने को राजी नहीं। और तुम बारह साल तक सम्मान देते रहे। और मैं तुम्हारा कभी मुनि नहीं रहा और न कभी रहूंगा, मुझको तुम मंच पर बिठाले हुए हो, तो इसको बेचारे को बैठा रहने दो!
उन्होंने कहा कि आप बैठें, कोई भी बैठ सकता है; मगर इस आदमी ने हमारे साथ दगा किया, धोखा किया। यह भ्रष्ट है! इसको तो हम नीचे उतारेंगे।
खींचातानी हुई। वे उनको नीचे उतार कर रहे। मार-पीट की हालत खड़ी हो गई। जब उन सज्जन ने देखा कि अब पिटने की ही नौबत है, तभी वे उतरे। मगर उस दिन से वे जो नदारद हुए तो मुझे दिखाई नही पड़े कि वे कहां गए। फिर मैं उनकी बहुत तलाश करता रहा कि वे गए कहां! मगर उनको ऐसा सदमा पहुंचा कि फिर उनका पता ही नहीं चला आज तक। इस बात को हुए कोई आज बारह साल हो गए। वे कहां भाग गए मंच से उतर कर फिर...मुझे भी शक्ल नहीं दिखाई। तिरोहित ही हो गए एकदम!
सम्मान देते हैं हम--इसीलिए सम्मान देते हैं कि फिर लौटना मुश्किल हो जाए। और लौटने वाले को हम अपमान देते हैं, ताकि जिनको सम्मान मिल रहा है, वे भी सावधान रहें, कि परिणाम क्या होगा! ये सब अहंकार को भरने की बातें हैं। सीखने से अहंकार भरता है। सबसे ज्यादा सरलता से अहंकार को भरने का जो उपाय है, वह है ज्ञान से भर लेना। सबसे सस्ता मार्ग--शास्त्रों से भर लेना। कुछ लगता नहीं। कुछ खर्च नहीं करना पड़ता। कोई बड़ी बुद्धिमत्ता नहीं चाहिए।
तुम पूछते हो आनंद मैत्रेय: ‘सीखने से भी अनसीखना क्यों इतना कठिन मालूम पड़ता है?’
इसलिए अनसीखना कठिन मालूम पड़ता है, अनसीखने का अर्थ है: अहंकार को खाली करना। अहंकार को खाली करने का अर्थ है: अहंकार को मरना, अहंकार को मरने के लिए तैयार करना, अहंकार की मृत्यु। जैसे ही अहंकार का पोषण बंद हुआ, अहंकार मरा।
महर्षि रमण से एक जर्मन दार्शनिक ने कहा कि मैं बहुत दूर से आपके पास कुछ सीखने आया हूं, मुझे सिखाएं।
रमण ने कहा: फिर तुम गलत जगह आ गए। फिर तुम कहीं और जाओ। हम तो यहां सिखाते नहीं, भुलाते हैं। अगर कुछ अनसीखना हो तो ठहरो, क्योंकि यहां तो सारी प्रक्रिया यही है कि जो तुम जानते हो, उसको छीन लेना है। क्योंकि तुम्हारा जानना भी भ्रांत है; तुम्हारा नहीं है, थोथा है, बासा है, उधार है, दो कौड़ी का है। उसे छीन लें तो तुम निर्दोष हो जाओ। और निर्दोष चित्त ही जान सकता है।
पंडित का चित्त निर्दोष नहीं होता। पापी भी पहुंच सकते हैं; पंडित कभी पहुंचा है, ऐसा सुना नहीं!
मैंने सुना है, एक बार एक पंडित स्वर्ग पहुंचा। वह बड़ा हैरान हुआ। उसका खूब स्वागत किया गया, खूब बैंड-बाजे बजाए गए। ऐसा स्वागत! सारे स्वर्ग के निवासी इकट्ठे हुए। और उसके साथ ही एक बहुत बड़ा संत, एक बहुत बड़ा ऋषि भी मरा था--उसी दिन। वह भी आया। दोनों करीब-करीब साथ स्वर्ग के द्वार पर पहुंचे। ऋषि का कोई स्वागत ही नहीं किया गया। द्वारपाल ने ऐसा भीतर ले लिया और कहा कि ठीक है, आ जाइए। पंडित बड़ा हैरान हुआ। दिल ही दिल में सोचने लगा कि ठीक ही कहा है कि पांडित्य का सब जगह सम्मान होता है, आज अपनी आंखों से देख लिया कि स्वर्ग में भी...! यह आदमी तो महर्षि था। इस आदमी को तो मैंने भी सम्मान दिया। इस आदमी के वचनों से तो मधु बरसता था। मगर इसकी भी कोई फिकर नहीं है। और मेरा तो सब जानना उधार था। अदभुत है पांडित्य की बात! ठीक ही कहा है लोगों ने कि सर्वत्र पूजा मिलती है पंडित को। सम्राट को तो अपने देश में मिलती है, पंडित को सब देशों में मिलती है। स्वर्ग तक में यही बात है।
उसकी यह हालत देख कर द्वारपाल ने कहा: आप भूल में न पड़ें, आप भ्रांति में न पड़ें, बात कुछ और है। बात यह है कि ऋषि-मुनि तो यहां रोज आते रहते हैं, पंडित आप पहले हो। आज तक पंडित आया ही नहीं। आप किस भूल-चूक से आ गए हो; फाइल में कुछ गड़बड़ हो गई, किसी और की जगह आप को ले आया गया है! इसलिए इतना उत्सव मनाया जा रहा है, क्योंकि यह अनहोनी घटना है। ऐसा कभी हुआ ही नहीं था आज तक। ऋषि-मुनि तो रोज आते हैं, अब इनका क्या स्वागत करें! इनकी तो कतार लगी रहती है। आते ही ये लोग हैं। मगर आप अनूठे हैं, अद्वितीय हैं! आपने तो गजब कर दिया। आपने सब नियम तोड़ दिए। आप अपवाद हैं। सदियां बीत गईं, जब से स्वर्ग बना आप नहीं आए। आप जैसा कोई व्यक्ति नहीं आया। और हमें शक है कि अब दोबारा शायद फिर कभी नहीं आएगा। कभी एकाध बार भूल हो जाती है। आ गए हैं आप किसी भूल से, तो हम स्वागत कर रहे हैं। आप इस भ्रांति में न हों कि पांडित्य का सम्मान हो रहा है।
पंडित तो अहंकारी व्यक्ति होता है, महा अहंकारी व्यक्ति होता है। यह भी हो सकता है कि पंडित अपने को समझता हो कि मैं बड़ा विनम्र हूं। यह भी हो सकता है कि वह विनम्रता दिखाता भी हो। यह भी हो सकता है कि आपसे कहता हो: मैं आपके चरणों की धूल हूं। मगर जरा उसकी आंखों में देखना, वह यह कह रहा है कि देखो मैं कितना विनम्र हूं, मुझसे ज्यादा विनम्र कोई और है? है कोई पृथ्वी पर माई का लाल, जो मुझसे ज्यादा विनम्र हो? और अगर कोई पंडित तुमसे कहे कि मैं तो आपके चरणों की धूल हूं और तुम कहो कि भैया, वह तो हमें मालूम ही है, कि तुम चरणों की धूल से भी गए-बीते हो, तो देखना कैसा गुस्सा हो जाता है! एकदम भनभना जाएगा कि क्या कहा। और तुम अगर कहो कि हम तो सिर्फ वही कह रहे हैं जो आपने कहा, हम तो आपकी बात ही स्वीकार कर रहे हैं। वह इसलिए उसने कही नहीं थी कि आप स्वीकार करो। वह इसलिए उसने कही थी कि आप कहो कि नहीं नहीं, आप और चरणों की धूल! आप तो मोरमुकुट हैं! आप तो सरताज हैं! आप तो कोहिनूर हीरे हैं! आप और चरणों की धूल, कभी नहीं, कभी नहीं! यह आपकी विनम्रता है। यही तो सिद्ध करती है कि आप मोरमुकुट हैं!
तीन ईसाई फकीर एक चौराहे पर मिले। एक ईसाई फकीर ने कहा कि हमारा जो आश्रम है, उस आश्रम में जैसा त्याग है, जैसी तपश्चर्या है, जैसा कठोर व्रत-नियमों का अनुशासन है, वैसा कहीं और नहीं।
दूसरे ने कहा: यह बात ठीक हो सकती है। लेकिन हमारे आश्रम में जैसी ज्ञान की धारा बहती है, जैसा पांडित्य, जैसा उज्ज्वल पांडित्य, जैसी शास्त्रीयता है, जैसे शुद्ध शास्त्रों के जानकार हैं, जैसे खोजी हैं, शोध करने वाले हैं--ऐसे कहीं और भी नहीं।
तीसरा खड़ा मुस्कुराता रहा। दोनों ने कहा: आप कुछ बोले नहीं?
उसने कहा: कुछ बोलने की जरूरत नहीं। हमारा आश्रम विनम्र है। बोलने की कुछ आवश्यकता नहीं। हम तो विनम्र लोग हैं। विनम्रता में हमसे आगे कोई भी नहीं है। विनम्रता में तो हम समझो गौरीशंकर के शिखर हैं। और ये सब दो कौड़ी की बातें हैं--त्याग-तपश्चर्या, और पांडित्य इत्यादि। विनम्रता असली चीज है। क्योंकि कहा है जीसस ने: धन्य हैं वे जो विनम्र हैं, क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है। सो अंत में पछताओगे। जब देखोगे कि स्वर्ग का राज्य हमारा, तब रखा रह जाएगा सब ज्ञान और रखी रह जाएगी सब तपश्चर्या। तब पछताओगे, तब रोओगे। अभी वक्त है। अभी भी आ जाओ हमारी तरफ। अभी भी विनम्र हो जाओ।
आदमी का अहंकार ऐसा है कि वह किस-किस तरकीब से अपने को भर लेगा, कहना बहुत मुश्किल है। बड़े सूक्ष्म उसके मार्ग हैं। और ज्ञान सूक्ष्मतम प्रक्रिया है। इसलिए अनसीखना कठिन मालूम पड़ता है, मृत्यु जैसा मालूम पड़ता है। छोड़ना ही नहीं चाहता कोई। ऐसा पकड़ते हैं हम? और पकड़ने के लिए हम सब तरह के तर्क इकट्ठे करते हैं, सब तरह के कारण खोजते हैं, सब तरह की व्यवस्था जुटाते हैं। ऐसा नहीं कि हम यूं ही पकड़े हुए हैं, हम पकड़ने के लिए पूरा का पूरा चारों तरफ से तर्कों का एक जाल बिछाते हैं। हम सिद्ध करते हैं कि पकड़ना आवश्यक है, अनावश्यक नहीं है। बिना ज्ञान के क्या होगा? बिना शास्त्रों के कैसे तिरोगे? यह तो शास्त्रों के सहारे तो तिरा जाता है।
और शास्त्र हैं क्या--कागजों की नावें हैं! इनमें डूबना हो तो बैठना; तिरना हो तो शायद तैरना ही सीख लो तो काम आए। तैरना ही काम आएगा। ये कागज की नावों में बैठ कर मत चल पड़ना, इनमें बड़ा खतरा है। नावों जैसी लगती हैं ये। बड़ा खतरा यही है कि बिलकुल नाव जैसी लगती है--कागज की नाव। इसलिए तो उसको नाव कहते हैं। और तुमने असली नाव तो देखी नहीं, कागज की ही नावें देखी हैं। हिंदुओं की, मुसलमानों की, जैनों की, बौद्धों की, सबकी कागज की नावें हैं। अलग रंग की होंगी, अलग ढंग की होंगी, अलग झंडे उड़ रहे होंगे। मगर सब कागज की नावें हैं। और दूसरा खतरा यह है कि किनारे पर ही नहीं डूबतीं कागज की नावें; डूबने में थोड़ा समय लगता है, गलने में थोड़ा वक्त लगता है; सो किनारा भी छूट जाएगा और जब डूबने की घड़ी आएगी, तब तुम हैरान होओगे कि तुम्हें तैरना तो आता नहीं। तैरना तो तुमने कभी सीखा नहीं। तुम अपने पैर पर तो कभी खड़े हुए नहीं। तुमने ध्यान तो कभी सीखा नहीं।
ध्यान तैरने जैसा है और ज्ञान कागजी नाव है। और सस्ते में निपट जाए बात, तो कौन झंझट में पड़े तैरने की! तैरने के लिए साहस चाहिए, छाती चाहिए। क्योंकि दूसरा किनारा दिखाई भी तो नहीं पड़ता--और तूफान है, अंधड़ है और अज्ञात में उतरना है। इस किनारे पर सब सुरक्षा है। फिर सभी लोग नावों में जा रहे हैं, तुम अकेले ही तैरने की बात करोगे तो लोग कहेंगे: पागल हुए हो? अरे जहां सब जा रहे हैं, उनके साथ चलो! अकेले मत चल पड़ना, नहीं तो भटक जाओगे। यह भवसागर है, इसमें तो भीड़ के साथ रहना।
और ध्यान रखना एक बात, इसमें भीड़ जितनी भटकी होती है, व्यक्ति कभी भटका नहीं होता। इस दुनिया में भीड़ ने जितने पाप किए हैं, व्यक्ति ने कभी नहीं किए हैं। हिंदुओं की भीड़ जैसे पाप करती है, वैसा कोई हिंदू व्यक्ति नहीं कर सकता। मुसलमानों की भीड़ जैसा पाप करती है वैसा कोई मुसलमान व्यक्ति नहीं कर सकता। मंदिर जलाना हो तो कोई एक मुसलमान से कहो कि जला दो, तो उसकी भी छाती फटेगी, उसको भी पीड़ा होगी कि मैं यह क्या कर रहा हूं! सोचेगा। मगर अगर भीड़ मुसलमानों की हो--अल्ला-हू-अकबर! फिर जब भीड़ कर रही है तो उत्तरदायित्व खो जाता है। फिर अपना क्या उत्तरदायित्व? इतने लोग कर रहे थे, कोई हम थोड़े ही कर रहे थे। हम तो सिर्फ संग-साथ हो लिए थे। हम न भी होते तो भी मंदिर तो जलता ही। कोई हमारे होने से नहीं जल गया। और जब इतने लोग कर रहे थे तो ठीक ही कर रहे होंगे। इतने लोग गलत कैसे हो सकते हैं?
किसी व्यक्ति से पूछो कि किसी मुसलमान की छाती में छुरा भोंक सकोगे? व्यक्ति से। निपट व्यक्ति से। तो वह भी सोचेगा कि आखिर मुसलमान, यह मुसलमान, जिसको शायद पहले कभी देखा भी नहीं, झगड़ा-झांसे का तो सवाल नहीं, मुलाकात भी नहीं, शत्रुता तो दूर रही, मित्रता भी नहीं। शत्रु होने के पहले मित्र तो होना जरूरी है! परिचय भी नहीं है, राम-राम भी नहीं हुई कभी। इस अपरिचित अनजान आदमी की छाती में छुरा भोंक रहा हूं! इसकी भी मां होगी, जो घर राह देखती होगी, जैसे मेरी मां राह देखती है। इसकी भी पत्नी होगी, जो विधवा हो जाएगी। शायद जिंदगी भर भीख मांगेगी,
कि उसे वेश्या हो जाना पड़े। इसके भी बच्चे होंगे, जो अनाथ हो जाएंगे। मैं यह क्या कर रहा हूं? और इसने क्या बिगाड़ा है?
लेकिन अगर भीड़ इस आदमी को मार रही हो, फिर तुम्हें चिंता नहीं होती। जिम्मा भीड़ का हो गया।
भीड़ में व्यक्ति का उत्तरदायित्व समाप्त हो जाता है। कोई उत्तरदायित्व किसी का नहीं रह जाता। इसलिए भीड़ ने जैसे पाप किए हैं दुनिया में, व्यक्तियों ने नहीं किए। मैं व्यक्ति का समर्थक हूं, भीड़ का विरोधी हूं। मैं चाहता हूं दुनिया में व्यक्ति ही व्यक्ति रह जाएं, भीड़ें समाप्त हो जाएं। न कोई हिंदू हो, न कोई मुसलमान हो, न कोई जैन हो। व्यक्ति हों। फिर तुम्हें जो प्रीतिकर लगे, व्यक्ति की हैसियत से करो। तुम्हें अगर प्रीतिकर लगता है महावीर का रास्ता, तो व्यक्ति की हैसियत से चलो उस रास्ते पर। मगर भीड़ के अंग मत बनो। तुम्हें अगर प्रीतिकर लगती है मोहम्मद की बात तो ठीक है, तुम बिलकुल मालिक हो अपने, तुम उस मार्ग से चलो। मगर भीड़ के हिस्से मत बनो।
दुनिया से भीड़ें मिट जाएं तो दुनिया से निन्यानबे प्रतिशत पाप मिट जाएं। मगर भीड़ों के नाम पर सब हो जाता है। ‘इस्लाम खतरे में है!’ जैसे कि इस्लाम भी खतरे में हो सकता है! इस्लाम क्या खतरे में होगा? कैसे खतरे में होगा? इस्लाम को जला सकते हैं कि पानी में डुबा सकते हैं? क्या खतरा करोगे इस्लाम का? मगर कोई पूछता ही नहीं। ‘इस्लाम खतरे में है’--बस भीड़ पागल हो उठती है। ‘हिंदू धर्म खतरे में है’--भीड़ पागल हो उठती है। बस, भीड़ की याद दिला दो कि लोग चल पड़े। फिर लोगों से तुम कुछ भी करवा लो। भारत के नाम पर कोई भी पाप करवा लो; यह बड़ी भीड़ है। पाकिस्तान के नाम पर कोई भी पाप करवा लो; यह बड़ी भीड़ है। ईरान के नाम पर कोई भी पाप करवा लो--करवा रहे हैं लोग अभी। कोई भी पाप!
अभी ईरान के बादशाह के पिता का मकबरा जो करोड़ों रुपये की लागत से बना था--एक सुंदरतम इमारत थी दुनिया की--वह मुल्लाओं ने खड़े होकर अभी चार दिन पहले डाइनामाइट लगवा कर उड़वा दिया। बुलडोजर चलवा कर संगमरमर की वह अदभुत इमारत मिट्टी में मिलवा दी। और उसकी जगह पर बनवा रहे हैं वे पेशाबघर--जनता के लिए, सार्वजनिक पेशाबघर। ये मुल्ला हैं, ये अयातुल्ला हैं! ये पंडित हैं, ये धार्मिक हैं! यह पागलों की जमात! मगर भीड़ जो भी करवा ले।
भीड़ के खिलाफ व्यक्ति को बल देना जरूरी है। और व्यक्ति होने का साहस ही धर्म है। भीड़ में डूबना राजनीति है। व्यक्ति होना धर्म है, अध्यात्म है।
लद गए राजनीति के दिन, चुक गए राजनीति के दिन। अब एक सूर्योदय होना चाहिए, जो व्यक्ति का हो, जिसमें व्यक्ति की गरिमा प्रतिष्ठित हो। और इसके लिए सबसे बड़ा काम यह होगा कि हम बहुत सी बातें जो सीखे बैठे हैं, उनको अनसीखा करें।
क्या-क्या तुम सीखे बैठे हो, कभी तुमने सोचा है? लेकिन अंधे की तरह चले जाते हो। किसी हिंदू से पूछो कि यह चुटैया किसलिए बढ़ा रखी है? सोचा ही नहीं उसने कभी। और जो सोचते हैं, वे और नालायकी की बात बताएंगे। एक किताब मैं पढ़ रहा था--‘हिंदू धर्म क्यों?’ सात सौ पृष्ठों की बड़ी किताब है, उसमें हिंदू धर्म को वैज्ञानिक सिद्ध किया गया है। हर चीज वैज्ञानिक! सभी की यह चेष्टा है इस समय कि हर चीज वैज्ञानिक सिद्ध कर दो, क्योंकि विज्ञान की साख है। तो कुछ भी उलटा-सीधा, लेकिन किसी तरह वैज्ञानिक सिद्ध करने कोशिश करो। तो चुटैया वैज्ञानिक है, उस किताब के लेखक ने लिखा है। वे एक हिंदू संन्यासी हैं। संन्यासी इस तरह की बातें करते हैं! लेकिन भीड़ में चाहे संन्यासी हों, चाहे महात्मा हों, चाहे साधु हों, उनकी हैसियत अध्यात्म की नहीं होती। तो उन्होंने लिखा है कि जिस तरह बड़े-बड़े मकानों पर लोहे का सींखचा लगा देते हैं; ताकि बिजली वगैरह गिरे तो मकान को कोई नुकसान न हो, लोहे के सींकचे में से बिजली प्रवेश करे और जमीन में चली जाए--ऐसे हिंदुओं ने सबसे पहले यह विज्ञान खोजा। चुटैया में गांठ बांध कर खड़ी रखो, इससे बिजली वगैरह गिरेगी तो तुमको कोई हानि नहीं होगी। यह लोहे का सींखचा है!
इन सज्जन से एक धर्मसभा में मेरा मिलना हो गया। मैंने कहा कि रुको, आपकी चुटैया कहां है? क्योंकि हिंदू संन्यासी तो बिलकुल घुटमुंड होता है, चुटैया होती ही नहीं उसकी। संन्यासी तो बिलकुल घुटमुंड होगा।
मैंने कहा: अगर तुमने जो लिखा है, वह सच है, तब तो बिजलियां खोज-खोज कर संन्यासियों पर गिरेंगी। ऐसी सरपट खोपड़ी, जैसे रेसकोर्स का मैदान! बिजलियों को तो मौज आ जाएगी।
कितने संन्यासी मरे हैं बिजलियों से, मैंने उनसे पूछा। संन्यासी तो बचने ही नहीं चाहिए। जहां जाएंगे बेचारे, फौरन बिजली गिरी, क्योंकि वह चुटैया है ही नहीं जो बचाए।
उन्हीं सज्जन ने लिखा है कि हिंदू इसलिए खड़ाऊं पहनते हैं, क्योंकि खड़ाऊं अंगूठे और अंगुली के बीच में दबानी पड़ती है, उससे एक नस पर दबाव पड़ता है। उस नस के दबाव के कारण आदमी में ब्रह्मचर्य सधता है।
क्या गजब की बातें कर रहे हो! अगर इतना मामला आसान हो तब तो हिंदुस्तान की आबादी का मसला अभी हल हो जाए; सिर्फ खड़ाऊं पहनाने की जरूरत है। कहां के संतति-नियमन के गलत-सलत साधन और क्यों ब्रह्मचर्य की शिक्षा दे रहे हो लोगों को? सिर्फ खड़ाऊं पहनाओ, बस पर्याप्त है। और खड़ाऊं पहनाने से अगर नस दबती है, वह भी पैर की, अंगूठे के पास की, तो नसबंदी करने की क्या जरूरत है? जाकर अस्तपाल में पैर के अंगूठे की नस ही क्यों नहीं दबवा लेते? एक दफा दबवा लो इकट्ठा तो फिर जूता पहनो, चप्पल पहनो, जो पहनना हो पहनो। ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो गए। फिर तो कोई अड़चन ही न रही।
तो मैंने उनसे पूछा कि ऋषि-मुनियों के बच्चे कैसे पैदा हुए? और इस देश में तो सभी लोग कहते हैं कि हम ऋषि-मुनियों की संतान हैं। इतनी संतानें ऋषि-मुनियों की! और हर ऋषि-मुनि के बच्चे थे। हिंदू ऋषि-मुनि कोई ब्रह्मचारी नहीं थे; काफी बच्चे-कच्चे थे उनके। खड़ाऊं भी पहने रहे और बच्चे-कच्चे भी होते रहे! तो कोई जंतर-मंतर जानते होंगे कि नस को दबने भी न दिया, खड़ाऊं भी पहनी और नस के दबने से भी बच गए। या फिर ये बच्चे नाजायज होंगे, कि ऋषि-मुनि तो खड़ाऊं पहने रहे और लुच्चे-लफंगे बच्चे पैदा करते रहते। क्या, मामला क्या है?
वे तो एकदम भनभना गए कि आप किस तरह की बातें कर रहे हैं! आप हिंदू धर्म के दुश्मन हैं!
मैंने कहा: मैं किसी का दुश्मन नहीं हूं, न किसी का दोस्त हूं। मैं तो सिर्फ यह पूछ रहा हूं कि ये बेवकूफी की बातें हैं और इनको तुम विज्ञान कहते हो!
लेकिन सब धर्मों की यह चेष्टा चलती है कि अपने को वैज्ञानिक सिद्ध करने की जिस तरह भी बन सके, उलटे-सीधे ढंग से।
भीड़ यह कोशिश करती है कि हम बहुत समझदार हैं और भीड़ नासमझ होती है। भीड़ समसामयिक भी नहीं होती, समझदार होना तो दूर है। भीड़ रहती है दो-तीन हजार साल पहले।
अनसीखना करना होगा ये सब बातें। व्यर्थ की बातें छोड़नी पड़ेंगी। ये टुच्ची बातें हैं। और इन्हीं टुच्ची बातों के भेद हैं तुममें। कोई बड़े भेद नहीं हैं। ईसाई में और हिंदू में, हिंदू में और जैन में, जैन में और बौद्ध में कोई बड़े भेद नहीं हैं--टुच्ची बातों के भेद हैं, दो कौड़ी की बातों के भेद हैं। मगर भेदों में तलवारें खिंची रहीं, गर्दनें कटती रहीं, हत्याएं होती रहीं। क्योंकि हम उन भेदों को बहुत महत्वपूर्ण समझते हैं।
अनसीखा करो यह सब कचरा। यह कचरा हटाओ! कठिन तो है, क्योंकि इसको हटाते वक्त छाती फटेगी। लगेगा कि सब गया। यही तो हमारी संपदा थी। यही तो हमारे विचार थे। यही तो हमारी संस्कृति थी। फिर हमारी भारतीय संस्कृति का क्या होगा! फिर हमारे धर्म का क्या होगा! फिर हमारा प्राचीन सनातन धर्म, इसका क्या होगा!
तुमने कुछ ठेका लिया हुआ है इन सब चीजों के बचाने का? तुम्हें प्रयोजन है? तुम बच जाओ तो पर्याप्त। तुम अपने जीवन को अनुभव कर लो तो काफी। और यह कचरा है तो जाने दो। इसको बचाने की कोई आवश्यकता नहीं--सिर्फ भारतीय है, इसलिए बचाएंगे; कि हिंदू है, इसलिए बचाएंगे; कि जैन है, इसलिए बचाएंगे। सत्य है तो बचेगा, असत्य है तो जाने दो। लेकिन सत्य बचेगा तुम्हारे अनुभव से, तुम्हारे तथाकथित शास्त्रों को पकड़ लेने से नहीं।
काश! हम अपने शास्त्रों को एक बार फिर से गौर करके देखें तो हम बहुत हैरान हो जाएंगे--कितना कचरा भरा है! और हम पूजा किए चले जा रहे हैं।
छोड़ना कठिन तो है आनंद मैत्रेय, लेकिन छोड़ना अत्यंत अनिवार्य है। बिना छोड़े, बिना इन सब मूढ़तापूर्ण धारणाओं को अंधविश्वासों को त्यागे कोई व्यक्ति अपने भीतर के चैतन्य को निर्मल नहीं कर सकता, न उस दर्पण को साफ कर सकता है। क्योंकि धूल से मोह है, तो दर्पण कैसे साफ करोगे? और दर्पण साफ हो तो दर्पण में प्रतिबिंब बने परमात्मा का। परमात्मा तो मौजूद है; हमारा दर्पण गंदा है।
तीसरा प्रश्न: भगवान,
मैं भी शादी करना चाहता हूं। आपके कल के प्रवचन के बाद मैं भी डांवाडोल हो गया हूं। मैं क्या करूं?
प्रमोद! भारतीय होकर इतनी जल्दी डांवाडोल होते हो! शर्म नहीं आती? कभी नहीं! झंडा ऊंचा रहे हमारा! कुछ भी हो जाए, अपनी बात पर जमे रहो। ऐसी बातें तो लोग कहते ही रहते हैं, सुनते ही क्यों हो? बहरे बन कर बैठो। और जब ऐसी खतरनाक बातें कही जाएं, कान में अंगुलियां डाल लो।
डांवाडोल! यह तो लक्षण नहीं। यह तो सनातन-धर्मियों का लक्षण है ही नहीं। हम डांवाडोल तो हुए ही नहीं सदियों से। हम तो जहां बैठे हैं वहीं बैठे हैं। हम इंच भर नहीं सरकते। दुनिया सरक जाए, दुनिया कहीं चली जाए, हमें फिकर नहीं। हमने तो जो पकड़ लिया सो पकड़ लिया। हम कोई धोखेबाज नहीं हैं, दगाबाज नहीं हैं। हम कोई बेईमान नहीं हैं। अरे, एक दफा जो पकड़ा सो पकड़ा, फिर लाख बुद्धि कहे कि गलत है, हम बुद्धि की कभी नहीं सुनेंगे। विवेक कुछ भी कहे, विवेक को अनसुना करो।
ऐसा महान कार्य करने जा रहे हो--विवाह करने! और विवेक की सुनोगे तो मुश्किल में पड़ जाओगे। विवेक इत्यादि तो विवाह के बाद। पहले विवाह तो हो जाने दो। फिर तो अड़चनें बहुत आएंगी। मुझे क्या पता कि तुम भी यहां हो, नहीं तो मैं कभी ऐसी बात ही नहीं कहता। अब मुझसे जो भूल हो गई, माफ करो। ऐसे भी बहुत अड़चनें आती हैं, और यह अड़चन आ गई! शुभ कार्य में हजार बाधाएं पड़ती हैं!
नसरुद्दीन का एक धनपति की लड़की से प्रेम चल रहा था। दोनों समय निकाल कर एक-दूसरे को मिला करते थे। नसरुद्दीन उसके सामने अनेकों बार विवाह का प्रस्ताव रख चुका था, मगर वह हर बार टाल जाती थी। एक दिन उसने बड़े ही घबड़ाए स्वर में नसरुद्दीन से कहा कि जानते हो नसरुद्दीन, कल पापा का दिवाला निकल गया!
नसरुद्दीन बोला: मैं पहले ही जानता था कि वह बुड्ढा, वह खूसट हमारे विवाह में कोई न कोई अड़चन अवश्य खड़ी करेगा!
अड़चनें तो आ सकती हैं हजार! अड़चनों की कोई कमी है? जल्दी करो! कहीं कोई अड़चन ऐसी न आ जाए कि जिससे विवाह करने जा रहे हो उसके पिता का दिवाला निकल जाए, कि जिससे विवाह करने जा रहे हो वह किसी और से विवाह करने को उत्सुक हो जाए, कि जिससे विवाह करने जा रहे हो तुम्हीं उसमें उत्सुक न रह जाओ। देर नहीं करनी, अच्छे काम में कभी देर नहीं करनी। काल करै सो आज कर, आज करै सो अब; पल में परलय होएगी, बहुरि करोगे कब?
मुल्ला नसरुद्दीन के दफ्तर में, जैसा भारतीय सभी दफ्तरों में चलता है, कोई काम नहीं करता था। लोग गपशप करते, तम्बाखू बनाते हाथ में, पान चबाते, पिचकारी मारते। टांगें फैला कर कुर्सी पर झपकियां लेते, अखबार पढ़ते। सब करते--सिवाय काम के। घबड़ा गया नसरुद्दीन। एक मनोवैज्ञानिक से सलाह ली। उसने कहा: तुम यह सूत्र टांग दो जगह-जगह, हर टेबिल पर। इससे उनको बोध आएगा।
सो नसरुद्दीन ने यह दोहा जगह-जगह टांग दिया--सुंदर अक्षरों में लिखवा कर। हर टेबिल पर, आगे-पीछे, कहीं से भी नजर जाए तो दिखाई पड़ता रहे। काल करै सो आज कर, आज करै सो अब; पल में परलय होएगी, बहुरि करोगे कब?
तीसरे दिन मनोवैज्ञानिक नसरुद्दीन को रास्ते में मिला, हाथ पर पलस्तर चढ़ा था नसरुद्दीन के, सिर में पट्टी बंधी थी, लंगड़ा कर चल रहा था। पूछा मनोवैज्ञानिक ने: क्या हुआ?
नसरुद्दीन ने कहा: अब तुम कुछ बोलो मत। अब जो हुआ सो हुआ। वह तो यह कहो कि मेरी हालत अभी खराब है, नहीं तो वह मजा चखाता कि तुम्हें छठी को दूध याद आ जाता। सब मनोविज्ञान भुला देता। यह तुम्हारे दोहे की बदौलत है।
मनोवैज्ञानिक ने कहा: मैं कुछ समझा नहीं।
नसरुद्दीन ने कहा: तुम समझोगे भी नहीं, तुममें बुद्धि नहीं है। अरे, नहीं चलता था काम तो ठीक था, कम से कम सब चलता तो था, काम नहीं चलता था, कोई बात नहीं। मगर जिस दिन यह मैंने सूत्र टांगा तुम्हारा, उसी दिन गड़बड़ हो गई। मैनेजर मेरी पत्नी को ले भागा और चिट्ठी लिख कर छोड़ गया--‘बहुरि करोगे कब, पल में परलय होएगी!’ सोच तो रहा था बहुत दिन से, मगर आपने खूब चेताया; सो मैंने सोचा--कर ही गुजरो जो करना है। आप ठीक कहते हैं। चिट्ठी लिख कर रख गया है कि आप ठीक कहते हैं। असिस्टेंट मैनेजर मेरी स्टेनो को ले भागा। कैशियर साफ कर दिया पूरी तिजोड़ी और तिजोड़ी पर तख्ती लटका गया--वही तख्ती जो मैंने लटकाई थी उसके दफ्तर में। और यह तो सब ठीक था; वह जो चपरासी था, वह एकदम अंदर घुस गया और उसने मेरी पिटाई कर दी। मैंने उससे पूछा: यह तू क्या करता है? उसने कहा: यह मैं सोच रहा था आज कम से कम पंद्रह साल से; मगर तुमने वह दोहा क्या लटकवा दिया, मैंने भी सोचा कि अरे, जो करना है, सो कर ही लो! बात तो सच्ची है, कि फिर क्या पता पंद्रह साल तो यूं ही निकल गए! अरे, कल का क्या भरोसा, तुम न रहो, मैं न रहूं! सो यह हालत देख रहे हो मेरी? जरा ठीक हो जाऊं, फिर आकर तुम्हें मजा चखाऊंगा।
मुझे पता नहीं था, प्रमोद कि तुम भी शादी करना चाहते हो, नहीं तो कभी ऐसी बात नहीं कहता। सुनी, अनसुनी करो। समझो कि कही ही नहीं। शादी कर गुजरो। शादी में एकदम खराबियां ही खराबियां नहीं हैं, बड़े लाभ भी हैं। शादी न हो तो संसार में वैराग्य पैदा ही न हो। सारा वैराग्य ही विवाह पर खड़ा हुआ है। यह तो विवाह का उपद्रव ही है जो आदमी को विरागी बनाता है। नहीं तो लाख कहते रहें महात्मागण, कोई विरागी होने वाला है? ये तो पत्नियां ही हैं जिन्होंने न मालूम कितने लोगों को स्वर्ग पहुंचा दिया! पता नहीं कौन नासमझ कहता है कि स्त्रियां नरक के द्वार हैं। स्वर्ग के द्वार हैं! उसमें तरमीम कर लो, सुधार कर लो!
हां, पत्नी जरा ढंग की चुनना। ऐसी चुनना कि बस आवागमन से छुटकारा हो जाए। बार-बार फिर न चुनना पड़े। जब चुन ही रहे हो...।
आखिर बहुत सोच-विचार के बाद चंदूलाल ने एक धनी विधवा से शादी कर ही ली। काफी उत्सव चला। बधाई देने के लिए आए ढब्बू जी और नसरुद्दीन। ढब्बू जी ने चंदूलाल के कान में कहा कि पता नहीं यार, तुमने क्यों इस बदसूरत खूसट बुढ़िया से शादी कर ली! जरा देखो तो मुंह में एक दांत तक नहीं और आंखें भी कैसी भैंगी हैं कि एक कहीं जा रही है, दूसरी कहीं जा रही है!
चंदूलाल बोला: मित्रो, ये बातें कान में कहने की नहीं। अरे तुम खुल्लमखुल्ला कह सकते हो, क्योंकि इसके कान भी खुदा के फजल से बंद हो चुके हैं। अरे, बहरी भी है! खोज कर लाए हैं।
प्रमोद, खोजो ही तो फिर ठीक से ही खोज लेना, कि बस इस जीवन के बाद फिर दुबारा खोजने की जरूरत न रहे। ऐसा अनुभव हो जाए कि लाख तुम उपाय करो तो भी माया-मोह मिटा कर रहे। लाभ हैं, एकदम हानियां ही हानियां नहीं हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन के मित्र चंदूलाल एक दिन उनसे मिलने आए। नसरुद्दीन ने जब चंदूलाल को देखा तो एकदम प्रसन्नता से भर गए और दौड़ कर गले लिपट गए चंदूलाल से और उन्हें गोद में उठा कर नाचने लगे। चंदूलाल की उन्होंने बड़ी आवभगत की। पत्नी तो यह देख कर बहुत जलभुन गई। जब चंदूलाल चले गए तो गुलजान क्रोध से बोली कि सुनो जी, शर्म नहीं आती तुम्हें? अपने मित्रों के आने पर तो तुम खुशी से पागल हो जाते हो, उन्हें गोद में उठा लेते हो और नाचने लगते हो। लेकिन मेरी सहेलियां जब-जब आती हैं तो तुम ऐसा दिखलाते हो कि जैसे तुम्हें उनके आने से कोई खुशी ही न हुई हो।
नसरुद्दीन बोला: अरे नासमझ, प्रसन्नता तो उस समय भी मुझे बहुत होती है, चाहता हूं कि दौड़ कर उन्हें गोद में उठा लूं और उठा कर नाचने लगूं, आलिंगन में भर लूं। मगर जैसे ही तेरा खयाल आता है कि सब प्रसन्नता का सत्यानाश हो जाता है।
प्रमोद, एक स्त्री चाहिए ही चाहिए--दूसरी स्त्रियों से बचाने के लिए। नहीं तो तुम बड़ी मुश्किल में पड़ोगे। एक स्त्री तो होनी ही चाहिए, नहीं तो आदमी बड़ा कमजोर है, बहुत धक्कम-धक्की खाएगा। एक रक्षक चाहिए ही। हालांकि पतियों को खयाल यही होता है कि वे रक्षक हैं। स्त्रियां बड़ी होशियार हैं, वे यह भ्रांति देती हैं कि आप रक्षक हैं। मगर सचाई उलटी ही है। सचाई यह है कि पत्नी रक्षा करती है, नहीं तो ये इस गड्ढे में गिरेंगे, उस गड्ढे में गिरेंगे। ये जगह-जगह गिरेंगे, हाथ-पैर तोड़ कर आएंगे, रोज इनकी हालत खराब होती चली जाएगी।
चंदूलाल का बेटा उससे पूछ रहा था कि पापा, यह सरकार ने नियम क्यों बनाया है कि पुरुष एक ही स्त्री से विवाह कर सकता है?
चंदूलाल ने कहा: बेटा, सरकार उनकी रक्षा के लिए है जो स्वयं अपनी रक्षा नहीं कर सकते। यह पुरुषों के हित के लिए बनाया हुआ है। नहीं तो पुरुष तो ऐसी झंझट में पड़ेंगे और ऐसे पिटेंगे कि जीवन तो वैसे ही दूभर है, और दूभर हो जाएगा।
तो प्रमोद, पत्नी रक्षा करेगी। खुशी का तो सत्यानाश हो जाएगा, वह दूसरी बात है, उसकी तुम फिकर न करो। वह तो अच्छा ही है हो जाए, क्योंकि वह हो जाए तो फिर आवागमन से छूटने की इच्छा जगती है। इस देश में जितनी आवागमन से छूटने की आकांक्षा है, उतनी दुनिया के किसी देश में नहीं है। उसका कारण? इस देश में विवाह जैसा मजबूत है, वैसा दुनिया में कहीं भी नहीं। सो दुनिया में थोड़ी आशा रहती है लोगों को। यहां बिलकुल आशा नहीं रहती।
एक महिला ने पूछा है, उसी प्रश्न के उत्तर में, जो मैंने कहा--उस बाबत कि ‘आप जो विवाह के संबंध में कहते हैं, उससे मैं राजी नहीं हूं। जब से मैं और मेरे पति आपके संन्यासी हुए हैं, तब से हमारे जीवन में आनंद ही आनंद है। पहले भी हमारा जीवन बड़ा प्रेमपूर्ण था, अब और भी प्रेमपूर्ण हो गया है।’
हे देवी, कम से कम पति के दस्तखत तो करवा लेती! बिना पति के दस्तखत के मैं नहीं मानूंगा। पतिदेव क्यों चुप हैं? वे भी तो बोलें! और महिला ने लिखा है कि ‘मुझे बहुत दुख हुआ कि आपने विवाह के संबंध में ऐसी बात कह दी।’
अगर सच में ही जीवन इतना प्रेमपूर्ण है और इतना आनंदपूर्ण है तो इतनी चोट खाने की बात नहीं। कहीं कुछ गड़बड़ होगी। कहीं कोई घाव होगा, जो छू गया होगा। कहीं कोई डर लगा होगा, कहीं कुछ भय लगा होगा। नहीं तो बात चुभती नहीं। चुभने की कोई जरूरत नहीं।
मैं कुछ प्रेम के विरोध में नहीं हूं। मैं तो सिर्फ इस बात का तुम्हें इशारा देना चाहता हूं कि जीवन में जितने कम बंधन हों, उतना अच्छा। प्रेम करो, जी भर कर करो, मगर बंधन क्यों बांधने? बंधन से इतना आग्रह क्यों है? क्या तुम्हें प्रेम पर भरोसा नहीं है? प्रेम पर भरोसा है ही नहीं। प्रेम पर किसी को भरोसा नहीं है। इसलिए हमें कानून की जरूरत पड़ती है। अगर प्रेम पर भरोसा हो तो कानून की कोई जरूरत नहीं है। प्रेम पर्याप्त होगा। विवाह अनावश्यक हो जाएगा।
विवाह इसलिए आवश्यक है कि प्रेम तो संदिग्ध है मामला, कितनी देर टिकेगा! फिर कानून आएगा, अदालत रहेगी, पुलिसवाला रहेगा, मजिस्ट्रेट रहेगा, समाज, प्रतिष्ठा, ये सब रोकेंगे। अगर प्रेम पर सच में भरोसा हो तो विवाह बिलकुल अनावश्यक है। लेकिन प्रेम है कहां? और प्रेम इस देश में तो हो कैसे सकता है, यहां तो नियोजित विवाह हो रहे हैं।
अब ये प्रमोद कह रहे हैं कि मैं विवाह करना चाहता हूं। तुम विवाह करना चाहते हो कि तुम्हारे माता-पिता विवाह करना चाहते हैं? और वे तो कर ही चुके विवाह, अब उनको क्या परेशानी है? तुम विवाह करना चाहते हो कि दो पंडित जन्म-कुंडली बिठालने को बैठे हुए हैं कि वे जन्म-कुंडली मिला कर रहेंगे तुम्हारी? कि जब तक तुम जन्म-कुंडली न मिलवाओगे, तब तक उनको चैन न पड़ेगा। और जिनसे तुम जन्म-कुंडली मिलवाने जाते हो, उनकी हालत तो देखो। उनकी और उनकी पत्नी के बीच तो देखो--कैसे राग छिड़े हैं! वे अपनी नहीं मिला पाए, वे तुम्हारी मिला रहे हैं!
इस देश में सब जन्म-कुंडलियां मिल कर विवाह होते हैं और फिर कैसा तुमुलनाद छिड़ता है! कहीं कुंडलियां मिलाने से कोई विवाह बनते हैं? कहीं पंडितों से, ज्योतिषियों से मां-बाप से निर्णय होने वाला है? हां, तुम्हारा किसी से प्रेम हो, तुम्हारी प्रीति हो, तो ठीक। मैं प्रेम का पक्षपाती हूं। मैं इतना प्रेम का पक्षपाती हूं, इसलिए मैं कहता हूं कि विवाह की इतनी आतुरता क्या? इतनी जल्दबाजी क्या? क्या तुम्हें डर है कि अगर दो-चार दिन विवाह नहीं किया तो फिर ऐसा न हो कि प्रेम खिसक जाए? अगर ऐसा डर है तो रुको, क्योंकि दो-चार दिन बाद चाहे विवाह करो या न करो, वह खिसक ही जाएगा। और एक दफा विवाह कर लिया और फिर खिसक गया, तब क्या करोगे? तब बहुत मुश्किल में पड़ जाओगे। तब बहुत असुविधा अनुभव करोगे। तब फांसी लग जाएगी।
प्रेम करो, वर्ष दो वर्ष प्रतीक्षा करो। एक दूसरे के साथ रहो। जल्दबाजी बच्चों की मत करो। दो वर्ष कम से कम मौका दो। और तुम्हें लगे कि दोनों का जीवन एक आनंदपूर्ण यात्रा पर निकल रहा है साथ--विवाह हो गया! फिर विवाह की अगर औपचारिकता निभानी हो तो निभा लेना। और जब तक यह निश्चित न हो जाए कि तुम्हारा प्रेम इतना थिर है, तब तक विवाह करना मत। और जब तय हो जाए कि प्रेम थिर है, तभी बच्चों को जन्म देना! क्योंकि जो बच्चे प्रेम से पैदा होते हैं वे ही जायज बच्चे हैं, बाकी सब बच्चे नाजायज हैं। सिर्फ इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुमने अपनी पत्नी से ही बच्चे पैदा किए हैं। अगर वे बिना प्रेम के पैदा हो रहे हैं, न तुम्हारा पत्नी से कोई प्रेम है, न उसका तुमसे कोई प्रेम है, क्योंकि साथ-साथ रह रहे हो, मजबूरी है, गुजार रहे हो, अब इसी गुजारने में बच्चे भी पैदा हुए जा रहे हैं।
चंदूलाल गए थे तलाक देने। पत्नी एकदम उनको पकड़ कर ले गई अंदर। चंदूलाल तो दुबले-पतले आदमी हैं। पत्नी भारी मजबूत। अंदर ले गई एकदम और वकील से कहा कि हमें तलाक चाहिए।
सब बंटवारा हुआ जाता था लेकिन झंझट एक आ गई कि तीन बच्चे थे, तो वकील ने कहा: तीन बच्चे हैं, इनका बंटवारा कैसे हो?
तो पत्नी ने कहा कि उठो जी, अगले साल आएंगे! जब चार बच्चे हो जाएंगे तब बंटवारा कर लेंगे।
वकील भी चौंका। उसने कहा कि तरकीब तो बड़ी गजब की निकाली! मगर यह बच्चा किस तरह का होगा, जो कि तलाक के लिए पैदा किया जा रहा है? यह बच्चा किस तरह का होगा!
पत्नी ने कहा: तुम बातें फिजूल की मत करो, तुम्हें अपने कानून से मतलब, मुझे अपनी जिंदगी से मतलब। इस चंदूलाल का भरोसा ही किसको है, इसके भरोसे बैठती तो तीन भी नहीं होते!
बच्चे इकट्ठे होते चले जाते हैं, फिर जाल फैलता चला जाता है। फिर उनकी व्यवस्था करनी है, फिर उनको शिक्षा देनी है। फिर तुम उलझते चले जाते हो।
प्रमोद, विवाह करना, पहले प्रेम तो करो! पहले बीज तो बोओ, फिर फसल काटना। एकदम फसल ही काटने लगे! कहते हो: हम तो फसल काटेंगे! फसल क्या काटोगे? कागजी फूल खरीद लाओगे बाजार से। प्लास्टिक के फूल खरीद लाओगे। असली गुलाब चाहिए तो फिर मेहनत करनी होगी।
प्रेम तपश्चर्या है। प्रेम साधना है। और प्रेम से जो फूल निकलें, वे ही सुंदर हैं। प्रेम से अगर विवाह भी निकले तो सुंदर है। मैं विवाह के विपरीत नहीं हूं। मैं उस विवाह के विपरीत हूं, जो यह मान कर चलता है कि विवाह से प्रेम निकलेगा। ऐसा न कभी हुआ है, न हो सकता है। हां, कभी संयोगवशात, जैसे कोई अंधेरे में तीर मारता रहे, हजार तीर चलाए और एकाध लग जाए निशाने पर--लग जाए तो तीर, नहीं तो तुक्का--वह बात अलग। ऐसे कभी-कभी तुक्के लग जाते हैं और तीर हो जाते हैं। मगर पृथ्वी प्रेम से शून्य है।
मैं चाहता हूं--पृथ्वी प्रेम से पूर्ण हो। मैं नहीं चाहता कि तुम परमात्मा को जीवन से ऊब कर मांगो। मैं चाहता हूं--तुम परमात्मा को जीवन के उत्सव से मांगो। मैं चाहता हूं--तुम जीवन के आनंद से भर कर परमात्मा को पुकारो। उसे धन्यवाद देकर पुकारो। तुम पुकारो इसलिए कि तूने इतना दिया मुझे--अनुग्रह से, आनंद से, महोत्सव से, अहोभाव से!
मैं वैराग्य के पक्ष में नहीं हूं। मैं तो चाहता हूं कि तुम परमात्मा को, जीवन की यह इतनी महान भेंट जो उसने तुम्हें दी है, इसका रस पी कर, इसका मधुरस पी कर, इसकी मदिरा में मस्त होकर पुकारो! तब तुम्हारे जीवन में एक और ही तरह के धर्म का जन्म होगा। मैं अपने संन्यासी को उसी तरह का जीवन देना चाहता हूं--विराग का नहीं, उत्सव का; त्याग का नहीं, धन्यता का!
परमात्मा अगर धन्यवाद का अंग हो, तो ही सच है। परमात्मा अगर विराग से आ रहा है, उदासी से आ रहा है, उदासीनता से आ रहा है, तो झूठ है। वह केवल तुम्हारा हारापन है, थकापन है। वह वास्तविक धर्म नहीं है।
आज इतना ही।
आपका हम बूढ़ों के लिए क्या संदेश है?
पंडित तुलसीदास शास्त्री! आत्मा न तो बूढ़ी होती है, न जवान। देह बूढ़ी होती है। देह के साथ तादात्म्य हो तो बुढ़ापे की भ्रांति होती है। देह बीमार हो तो बीमारी की भ्रांति होती है। देह मरे तो मृत्यु की भ्रांति होती है।
मैं देह हूं, इसमें ही हमारी सारी भ्रांतियां छिपी हैं। इस तादात्म्य को छोड़ो। देह में हो, देह नहीं हो।
मैं देह का विरोधी नहीं हूं। देह मंदिर है, पूजास्थल है--उतना ही पवित्र--जितना काबा या काशी। उससे भी ज्यादा पवित्र, क्योंकि काबा तो फिर भी पत्थर है। देह के भीतर तो स्वयं परमात्मा विराजमान है। लेकिन स्मरण रखो कि वह जो भीतर बैठा है मेहमान होकर, वह देह के साथ एक नहीं है, देह से भिन्न है, देह से अन्य है। फिर न कोई बुढ़ापा है, न कोई जवानी है, न कोई बचपन है। फिर तुम शाश्वत हो। शाश्वत से संबंध जोड़ना है। शाश्वत के प्रति सजग होना है।
मन बूढ़ा होता है। मन सदा ही बूढ़ा होता है। देह तो कभी जवान भी होती है; मन कभी जवान नहीं होता। मन जवान हो ही नहीं सकता। मन का गुणधर्म बुढ़ापा है। इस सत्य को ठीक से समझो।
मन का अर्थ ही होता है: स्मृति। स्मृति का अर्थ होता है: जो बीत गया, जो जा चुका, जो अतीत हो चुका। मन उसी का संग्रह करता है, जो अब नहीं है। सांप तो जा चुका, रेत पर उसके चिह्न रह गए हैं। व्यक्ति तो जा चुका, धूल पर उसके पगचिह्न छूट गए हैं। ऐसा ही मन है। मन अतीत है। मन व्यतीत है। जा चुके का संग्रह है। इसलिए मन सदा ही मरा हुआ है, मुर्दा है, बूढ़ा है।
मन के साथ हम अपने को बहुत कस कर बांधे हुए हैं। हमने अपना सारा दांव मन के साथ लगा दिया है। हिंदू मन होता है, मुसलमान मन होता है। आत्मा न तो हिंदू होती है, न मुसलमान होती है। जिस दिन तुम मन से जागोगे, उस दिन पाओगे--कैसा हिंदू होना, कैसा मुसलमान होना? कैसा ज्ञान, कैसा अज्ञान? आत्मा तो शुद्ध चैतन्य है। मन तो धूल की तरह जम जाता है दर्पण पर।
और वह धूल तुम पर काफी जम गई होगी। तुम्हारा नाम ही खबर देता है। तुम प्रश्न पूछते समय भी छोड़ नहीं सके। लिखते हो--‘पंडित तुलसीदास शास्त्री।’ पांडित्य तो बूढ़ा होगा। पांडित्य तो सड़ा-गला होता है। अन्यथा हो ही नहीं सकता।
पांडित्य को छोड़ो। पांडित्य का क्या करोगे? पांडित्य का अर्थ क्या होता है?--उधार, बासा! औरों से इकट्ठा कर लिया। उपनिषद, गीता, कुरान, बाइबिल, धम्मपद, इन सबसे संगृहीत कर लिया। अपना तो कुछ भी नहीं है। और जो अपना नहीं है, वह मुक्तिदायी नहीं है। जो अपना नहीं है, वह बंधन बन जाता है।
बुद्ध कहते थे कि मैं एक चरवाहे को जानता हूं, जिसका कुल काम इतना था: दूसरों की गाएं चरा लाना। लेकिन वह उनकी गिनती कर-कर के खुश होता था, कि आज इतनी गाएं चरा कर लौटा, कि आज इतनी गाएं चरा कर लौटा। बुद्ध ने कहा, मैंने उससे पूछा: पागल, इसमें एकाध गाय भी तेरी है? तो वह चौंका। उसने कहा: मेरी! मेरी तो इसमें एक गाय भी नहीं है। सब औरों की हैं, गांव वालों की हैं।
तो बुद्ध ने कहा: जब तेरी एक भी गाय नहीं है, तो कितनों को चरा कर लौटा, इससे क्या होगा?
पंडित दूसरों की गाएं गिनता रहता है। गीता में ऐसा लिखा, कुरान में ऐसा लिखा, बाइबिल में ऐसा लिखा--इसी हिसाब-किताब में लगा रहता है। भूल ही जाता है कि जीसस ने जिसको जाना था, वह मेरे भीतर भी छिपा है, सीधा ही क्यों न जान लूं! इतनी लंबी यात्रा करने की क्या जरूरत, कि दो हजार साल पहले जीसस हुए, हुए या नहीं हुए, यह भी आज तय करना मुश्किल है। दो हजार साल की परिक्रमा करूं, फिर कुछ जानूं। वह जानना भी कितने दूर तक प्रामाणिक है, कहना मुश्किल है। क्योंकि जिन्होंने संगृहीत किया है, उन्होंने खुद भी नहीं जाना था। जीसस ने कुछ कहा होगा, उन्होंने कुछ सुना होगा। यह स्वाभाविक है।
हम अपने हिसाब से सुनते हैं। हम अपनी बुद्धि से सुनते हैं, अपने अनुभव से सुनते हैं। फिर उन्होंने संगृहीत किया। फिर सदियां-सदियां उसकी व्याख्या करती रही हैं। लोग आते रहे, जोड़ते रहे, तोड़ते रहे। आज हमारे हाथ में जो है, उसमें कितना प्रामाणिक है, कहना बहुत मुश्किल है। कोई उपाय नहीं है जांच करने का। गीता पर एक हजार टीकाएं हैं। कृष्ण पागल तो नहीं थे। उनका तो अर्थ एक ही रहा होगा; एक हजार अर्थ तो नहीं हो सकते। एक हजार अर्थ होते तो अर्जुन की क्या गति होती! कृष्ण भी पागल होते औैर अर्जुन भी पगला जाता। अर्थ ही बिठालने में मुश्किल हो जाती। अर्थ ही कभी नहीं बैठता। वह पहेली बन जाती बात, सुलझती ही नहीं।
और इन अर्थ करने वालों से पूछो। हर एक का दावा है कि उसका अर्थ सही है। वे ही शब्द हैं, लेकिन अर्थ की अलग-अलग कलमें लोगों ने लगाई हैं। उन्हीं शब्दों में से शंकराचार्य ज्ञान निकाल लेते हैं, संन्यास निकाल लेते हैं, त्याग निकाल लेते हैं। उन्हीं शब्दों में से कर्म-संन्यास निकाल लेते हैं--कि सब कर्म को छोड़ कर व्यक्ति परमात्मा को पा सकता है, और कोई उपाय नहीं है।
उन्हीं शब्दों में से रामानुज, निम्बार्क, वल्लभ भक्ति निकाल लेते हैं। ज्ञान नहीं, भक्ति। ज्ञान तो कूड़ा-कर्कट है। भक्ति और भाव, भाव भरे आंसू, पूजा और प्रार्थना--उससे परमात्मा पाया जा सकता है। उससे ही तिलक कर्म निकाल लेते हैं। वे ही शब्द। ज्ञान भी छोड़ा, भक्ति भी छोड़ी, कर्म निकाल लिया--कि कर्मठ पुरुष, कर्मयोगी ही केवल परमात्मा को पा सकता है।
कृष्ण भी अगर इन एक हजार टीकाओं को पढ़ें तो खुद संदिग्ध हो जाएंगे कि मेरा मतलब क्या था! खुद ही सोच-विचार में पड़ जाएंगे कि अब मैं क्या करूं, कौन सा सही मेरा मतलब है? इन एक हजार टीकाओं की भीड़ में से तुम खोज पाओगे, क्या सच है? असंभव! फिर तुम भी जो खोजोगे, वह तुम्हारी टीका होगी; वह एक हजार एकवीं टीका होगी। तुम भी यूं ही तो नहीं छोड़ दोगे। तुम भी कुछ अर्थ लगाओगे। तुम भी कुछ अर्थ बिठाओगे। तुम अपने को जमाओगे।
बुद्ध रोज रात्रि को, जब उनका प्रवचन पूरा होता, तो कहते थे नियम से कि भिक्षुओ, अब जाओ। दिवस का अंत हुआ, अब अंतिम कार्य पूरा करो, ताकि दिवस की पूर्णाहुति हो। विश्राम के पहले कार्य पूरा कर लेना।
रोज-रोज कहने की जरूरत नहीं थी। मतलब था कि ध्यान करके और सो जाओ। रोज-रोज क्या कहना, एक दफा समझा दिया था, हजार दफे समझा दिया था, फिर तो यह प्रतीक हो गया था कि भिक्षुओ, अब अपना अंतिम कार्य पूरा कर लो और फिर विश्राम में जाओ। एक दिन सुबह उन्होंने कहा कि तुम्हें पता है भिक्षुओ, कल रात क्या हुआ! जब मैंने तुमसे कहा कि अब उठो, अंतिम कार्य पूरा कर लो, यूं ही बहुत देर हो गई है--तो तुम सब ध्यान करने चले गए। एक चोर भी आया हुआ था सभा में, वह एकदम चौंका, वह बड़ा हैरान भी हुआ कि बुद्ध को कैसे पता चला कि मैं चोर हूं और मेरे काम का समय आ गया! वह चोरी करने चला गया, कि गजब के आदमी हैं बुद्ध भी, कि खूब चेताया कि अब क्या बैठा है तू, अब उठ, अपने काम में लग! नहीं तो फिर पीछे पछताएगा।
एक वेश्या भी आई थी। वह भी किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई, एक क्षण अवाक हो गई। चौंक कर उसने बुद्ध को देखा कि क्या इनको खबर मिल गई, क्या जासूस छोड़ रखे हैं। क्योंकि वह तो कपड़े वगैरह बदल कर आई थी कि कोई उसे पहचान भी न सके। ऐसी ही बन कर आई थी कि जैसे भिक्षुणी हो। कैसे इनको पता चल गया! जाऊं। रात देर हुई जाती है, ग्राहक आने लगे होंगे। अंतिम काम पूरा करूं।
चोर चोरी करने चला गया, वेश्या अपनी दुकानदारी पर चली गई, भिक्षु ध्यान करने लगे। बुद्ध ने एक ही बात कही थी, तीन तरह के लोगों ने तीन तरह के अर्थ निकाल लिए।
पांडित्य से कुछ हाथ नहीं आने वाला। पांडित्य थोथी चीज है। इस जगत में सबसे ज्यादा थोथी चीज अगर कोई है तो पांडित्य है। पांडित्य बोध नहीं है। बोध तो ध्यान से मिलता है। बोध तो समाधि से मिलता है। पांडित्य मिलता है अध्ययन से, चिंतन से, सोच-विचार से। दोनों की प्रक्रियाएं अलग हैं। बोध मिलता है निर्विचार होने से, निश्चिंत होने से, मन के पार होने से! अ-मनी दशा में बोध जगता है। और पांडित्य तो मन का ही खेल है। पांडित्य तो बस तोतों जैसा है। सच पूछो तो तोते भी शायद पंडितों से कहीं ज्यादा होशियार होते हैं।
एक पंडित तोते को खरीदने गया। वह चाहता था धार्मिक तोता। पंडित था, चाहता था द्वार पर कोई धार्मिक तोता। सुन रखी थी उसने कहानी कि जब पहली दफा शंकराचार्य मंडनमिश्र के गांव पहुंचे तो उन्होंने गांव के बाहर कुएं पर पानी भरती हुई स्त्रियों से पूछा पनघट पर कि मंडनमिश्र का निवास कहां है?
तो वे स्त्रियां हंसने लगीं। उन्होंने कहा: यह भी कोई पूछने की बात है! जिस द्वार पर तोते भी उपनिषद का पाठ करते हों, समझ लेना वही मंडनमिश्र का घर है।
शंकर भीतर प्रविष्ट हुए और निश्चित ही तोतों की पंक्ति बैठी हुई थी। उपनिषदों के वचन तोते दोहरा रहे थे। यही मंडनमिश्र का घर है।
इस पंडित ने भी यह कहानी सुनी थी, यह भी चाहता था कि मेरे द्वार पर भी एक तोता लटका रहे, कि सारा गांव जाने। पूछा दुकानदार से कि कोई ऐसा तोता है। उसने कहा: तोता तो है--और बड़े गजब का तोता है! मगर दाम भी लगेंगे। दो हजार से कम नहीं लूंगा। बड़ी मेहनत से तैयार किया है।
पंडित ने कहा: देखूं तो पहले! तोता सुंदर था, बड़ा प्यारा था। तोते के दोनों पैरों में छोटे-छोटे काले धागे बंधे हुए थे। पंडित ने पूछा: ये धागे किसलिए हैं?
उस दुकानदार ने कहा: अगर बाएं पैर का धागा धीरे से खींच दो, किसी को दिखाई भी नहीं पड़ेगा, तो यह तत्क्षण गायत्री मंत्र बोलता है।
और पंडित ने पूछा: दाएं पैर का धागा?
कहा: अगर दाएं पैर का धागा खींच दो तो यह नमोकार मंत्र बोलता है। मेरे पास दोनों तरह के ग्राहक आते हैं--हिंदू भी, जैन भी। सो दोनों से निष्णात कर रखा है।
पंडित ने पूछाः और अगर दोनों धागे एक साथ खींच दूं तो?
तो तोते ने कहाः अरे उल्लू के पट्ठे, चारों खाने चित्त नहीं गिर पडूंगा?
तोते भी थोड़े ज्यादा अकल रखते हैं। पंडित तो बिलकुल ही थोथे होते हैं।
तुलसीदास, पहला काम तो यह करो, यह ‘पंडित’ की बदनामी जाने दो। यह पंडित को नाम के आगे मत जोड़ो। इसके गिरते ही बुढ़ापा विदा हो जाएगा। तुम फिर ताजे हो जाओगे। यह धूल झाड़ दो। मगर तुम दोनों तरफ से दबे हो।
कबीर ने कहा है...पता नहीं उनका क्या मतलब था! मगर मुझे तो लगता है, जैसे तुमको ही देख कर कहा हो, ‘दो पाटन के बीच में साबित बचा न कोय।’ आगे ‘पंडित’, पीछे ‘शास्त्री!’ तुम साबित बच गए, यही बहुत। तुम यहां तक आ गए, यही बहुत। आगे से ‘पंडित’ को गिरा दो, पीछे से ‘शास्त्री’ को गिरा दो। तुलसीदास बहुत है। पर्याप्त है। नाम कोई चाहिए। उतने से काम हो जाएगा। नाम की औपचारिकता है। नाम का कोई अस्तित्व नहीं है। कामचलाऊ है।
अनाम हम पैदा होते हैं, अनाम ही हम जीते हैं, अनाम ही हम मरते हैं। परमात्मा का कोई नाम नहीं है--और न हमारा कोई नाम है। हम सब परमात्मा के ही रूप हैं। लेकिन ये पंडित और शास्त्री तुम्हें बूढ़ा कर रहे हैं। इन दोनों का त्याग कर सको तो तुम्हारे जीवन में क्रांति हो जाए। ढो तो चुके शास्त्र बहुत, पाया क्या? अब भी न चेतोगे तो कब चेतोगे? अगर कुछ मिला हो तो मैं नहीं कहता छोड़ो। मगर पुनर्विचार कर लो, मिला है कुछ? किसी को कभी नहीं मिला, तुमको कैसे मिल सकता है? कोई अपवाद नहीं हो सकता।
पांडित्य से कभी किसी को कुछ नहीं मिला। हां, धोखा होता है मिलने का, भ्रांति होती है मिलने की। क्योंकि सुंदर-सुंदर शब्दों की कतारें बंध जाती हैं, प्यारे शब्दों की पंक्तियां लग जाती हैं, सुंदर-सुंदर सुभाषित कंठस्थ हो जाते हैं, और यह भ्रांति हो जानी बहुत मुश्किल नहीं है कि बहुत बार दोहराने पर लगने लगे कि ये सारे शब्द मेरे हैं। तुम झूठ भी बोलते रहो बहुत दिन तक, तो वह भी सच मालूम होने लगेगा। यही तो कुल जमा आत्म-सम्मोहन की व्यवस्था है। जिस बात को तुम बहुत दिन तक बोलते रहोगे, खुद ही भूल जाओगे कि यह झूठ थी। झूठ बोलने का सबसे बड़ा खतरा यही है--दूसरे तो धोखा खाते ही खाते हैं, बोलने वाला खुद धोखा खा जाता है।
मैंने सुना है, एक पत्रकार स्वर्ग पहुंचा। द्वारपाल ने कहा: क्षमा करें, हमारा कोटा पूरा है। बारह पत्रकार से ज्यादा हम अंदर लेते नहीं। और सदियां हो गईं, बारह पत्रकार हैं। वैसे भी उनकी भी कोई जरूरत नहीं है। एक औपचारिकतावश उनको रखा हुआ है। अखबार यहां निकलता नहीं, क्योंकि अखबार निकलने योग्य घटनाएं नहीं घटतीं। न कोई किसी की पत्नी भगाता है, न कोई डाका डालता है, न कोई चुनाव लड़ता है। यहां समाचार होते ही नहीं।
द्वारपाल ने कहाः तुमने सुना तो होगा, जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने समाचार की क्या परीभाषा की है? बर्नार्ड शॉ ने कहा है कि अगर कुत्ता आदमी को काटे तो यह कोई समाचार नहीं है; जब आदमी कुत्ते को काटे, वह समाचार है। यहां आदमी कुत्ते को काटे, यह तो होता ही नहीं; यहां कुत्ता भी आदमी को नहीं काटता। समाचार यहां कुछ घटता नहीं। अखबार यहां कोई निकलता नहीं। तुम करोगे भी क्या? वह सामने रहा दरवाजा नरक का, वहां चले जाओ। वहां खूब अखबार छपते हैं, रोज-रोज नये-नये अखबार निकलते हैं। फिर भी समाचार इतने ज्यादा हैं वहां कि अखबार कम पड़ते हैं, समाचार ज्यादा हैं। नरक में तो समाचार ही समाचार समझो। ऐसी शायद ही कोई घड़ी बीतती हो, जब कुछ उपद्रव न हो रहा हो। कहीं घेराव, कहीं हड़ताल, कहीं किसी ने किसी की गर्दन काट दी, कहीं कोई किसी की पत्नी ले भागा, कहीं कोई किसी का पति ले भागा। नरक क्या है--समझो दिल्ली है!
कल ही मैंने अखबार में पढ़ा कि एक आदमी दिल्ली स्टेशन पर उतरा, उसका कोई सामान लेकर नदारद हो गया। वह बेचारा सामान खोजने गया, लौट कर आया, कोई उसकी पत्नी लेकर नदारत हो गया। सामान भी गया, पत्नी भी गई। उसको जल्दी भाग आना चाहिए, नहीं तो कोई उसी को उड़ा ले जाएगा। अभी भी कुछ तो बचा है। जान बची और लाखों पाए, लौट कर बुद्धू घर को आए! पकड़े गाड़ी और भागे, निकल भागे। दिल्ली में खतरा है।
और नरक तो समझो एकाध दिल्ली नहीं; दिल्लियां ही दिल्लियां बसी हैं। सारे राजनेता वहां हैं।
बहुत समझाया द्वारपाल ने, लेकिन अखबार वाले तो जिद्दी होते ही हैं। उसने कहा: कुछ भी हो, एक काम करो, चौबीस घंटे का मुझे मौका दे दो। मैं किसी अखबार वाले को अगर राजी कर लूं नरक जाने के लिए तो फिर तो जगह एक खाली हो जाएगी, मुझे दे सकोगे?
द्वारपाल ले कहा: यह ठीक है। यह बात मेरी समझ में आती है। तुम चौबीस घंटे के लिए भीतर हो जाओ। अगर किसी को राजी कर लो तो तुम रह जाना, वह चला जाएगा। हमें कुछ फर्क नहीं पड़ता। अ रहा कि ब रहा, सब बेकार हैं। तुम रहोगे, तुम्हें रहना हो तुम रह जाओ।
वह आदमी अंदर गया और जाते से ही जो उसे मिला, उसने अफवाह उड़ानी शुरू की कि नरक में एक नया अखबार निकल रहा है। बड़ी तनख्वाह है। प्रधान संपादक की, उपप्रधान संपादक की, और पत्रकारों की जरूरत है। तनख्वाह, बंगला, कारें, सब...। उसने ऐसा शोरगुल मचाया चौबीस घंटे में कि जब चौबीस घंटे बाद वह द्वार पर आया तो सोचता था कम से कम एकाध चला गया होगा। द्वारपाल ने एकदम उसे रोक लिया, संगीन उसके सामने कर दी कि भीतर रहना, बाहर मत जाना, क्योंकि बाकी बारह ही भाग गए हैं। वे सब नरक चले गए। अब कम से कम एक तो होना ही चाहिए, कहने को; नहीं तो शैतान हांकेगा डींग कि तुम्हारे पास एक अखबार वाला नहीं है। अक्सर हर बात में वह डींग हांकता है। यह तुम देख रहे हो कि नरक और स्वर्ग के बीच में यह जो दीवाल है, इसकी ईंटें गिर गई हैं। उसी तरफ के शैतानों ने ईंटें खींच ली हैं। एक दूसरे पर ईंटें निकाल-निकाल कर मारते हैं, तो दीवाल की ईंटें गिर गई हैं। दीवाल में छेद हो गए हैं। परमात्मा ने एक दिन कहा उस शैतान से कि देख, दीवाल सुधरवा, तेरे ही आदमियों ने गड़बड़ की है। उसने कहा: हमें कोई फिकर नहीं है, दीवाल रहे की जाए। हमें क्या चिंता! अरे दीवाल न रहेगी तो हमारे आदमी स्वर्ग पर कब्जा कर लेंगे। तुम्हें फिकर हो अपने को बचाने की तो दीवाल सुधरवा लो। परमात्मा भी तैश में आ गया। उसने कहा कि मुकदमा चलाऊंगा। उसने कहा: चला लेना मुकदमा! सारे वकील तो यहां हैं! तुम मुकदमा कैसे चलाओगे? वकील कहां से पाओगे? तो वह हर बात में इस तरह की हरकत करता है। वह यही कहने लगेगा कि तुम्हारे पास अब कोई अखबार वाला नहीं है। अब तू भीतर रह।
लेकिन वह अखबार वाला खड़ा होकर सोचने लगा। उसने कहा कि अब मैं नहीं रुक सकता। द्वारपाल ने कहा: तू पागल हो गया है, तूने ही झूठी अफवाह उड़ाई, तू क्या करेगा जा कर?
उसने कहा: हो न हो, इस बात में कुछ सचाई होनी ही चाहिए। जब बारह आदमी चले गए तो बात बिलकुल झूठ हो, यह नहीं हो सकता। माना कि मैंने ही शुरू की थी, मगर संयोगवशात ऐसा लगता है कि बात में कुछ सचाई होगी। मैंने तो झूठ की तरह ही शुरू की थी, मगर अगर सत्य न होता बात में तो इतने लोग प्रभावित न होते। सत्यमेव जयते! जब इतनी विजय हो गई है तो लोग कहते हैं कि सत्य की विजय होती है, सच्चाई और ही है--जो चीज जीत जाए, लोग उसी को सत्य कहने लगते हैं। झूठ जीत जाए तो झूठ सत्य हो जाता है। सत्य की विजय होती है या नहीं, कहना मुश्किल है; मगर जो भी जीत जाए, लोग उसे सत्य मान लेते हैं। वह अखबार वाला नहीं रुका। उसने कहा: चौबीस घंटे से एक मिनट ज्यादा नहीं ठहरने वाला। तुमने ही चौबीस घंटे का मौका दिया था, मुझे बाहर जाने दो; नहीं तो मैं बहुत शोरगुल मचाऊंगा, मैं बहुत उपद्रव मचा दूंगा। जब बारह चले गए हैं तो मैं रहने वाला नहीं। तुम खुद भी सोचो। तुम कई बार कोई चीज झूठ से शुरू करते हो और धीरे-धीरे खुद भी उस पर भरोसा आ जाता है। पुनरुक्ति से भरोसा आता है।
एडोल्फ हिटलर ने लिखा है अपनी आत्म-कथा में: किसी भी झूठ को दोहराते रहो बार बार, वह सच हो जाता है। झूठ और सच में, उसने कहा है, इतना ही भेद है, बहुत बार दोहराए गए झूठ सच हो जाते हैं। और सच भी जब पहली दफा कहा जाता है तो झूठ ही मालूम पड़ता है।
पांडित्य है क्या? उधार बातों को तुम दोहराते हो। दोहराते-दोहराते आत्म-सम्मोहित हो जाते हो। वही गीता को पढ़ रहे हो रोज। इसलिए तो तुम्हारे तथाकथित पुरोहित, तुम्हारे महात्मा एक बात समझाते हैं कि पाठ करो। और किसी किताब का पाठ नहीं करना होता। अगर तुम्हें भूगोल पढ़नी है, इतिहास पढ़ना है, तो पढ़ लिया, बात खत्म हो गई। यह नहीं कि रोज उठ कर पाठ कर रहे हैं। पाठ करने का मतलब क्या है? पाठ करने का मतलब यह है कि रोज-रोज उसी को दोहराओ, दोहराए चले जाओ, इतना दोहराओ, इतना दोहराओ कि जैसे पत्थर पर लकीर खिंच जाए। और कुछ लोग हैं जो जिंदगी भर गीता दोहरा रहे हैं। उनको गीता बिलकुल कंठस्थ हो जाती है। वे फिर गीता सामने रख लेते हैं और दोहराए चले जाते हैं। कई बार तो तुम चकित होओगे कि वे जो दोहरा रहे हैं, वह पृष्ठ ही सामने नहीं होता, उसकी जरूरत ही नहीं है पृष्ठ की। कोई भी पृष्ठ हो, चलेगा।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन पढ़ रहा था कुरान शरीफ। मैं चकित हुआ, क्योंकि वह किताब उलटी रखे था। मैंने पूछा: यह क्या कर रहे हो, बड़े मियां? किताब उल्टी है!
उसने कहा: किताब से करना क्या है? अरे, मुझे शब्द-शब्द याद है। किताब कैसी रहे, सीधी रहे कि उलटी रहे। यह दिखता है मेरे लड़के ने हरकत की है। मैं तो आंख बंद करके अपना कुरान पाठ कर रहा हूं, वह इसको उलटी कर गया होगा। वह दुष्ट जो न करे सो थोड़ा है।
मगर क्या प्रयोजन है, जब तुम्हें कंठस्थ ही है तो सीधी हो किताब कि उलटी हो किताब, पन्ना सामने हो कि न हो। यंत्रवत तुम दोहराए चले जाते हो।
पांडित्य यंत्र की भांति है। छूटो तुलसीदास। पांडित्य से छूटो, शास्त्रीयता से छूटो--अगर सत्य को पाना है। और सत्य किताबों में नहीं है। सत्य तुम्हारे भीतर है। सत्य मैं तुम्हें नहीं दे सकता। कोई भी तुम्हें नहीं दे सकता। जिन्होंने पाया है, वे केवल इतना ही इशारा कर सकते हैं कि तुम भी अपने भीतर जाओ तो पा लोगे। कोई दे नहीं सकता। सत्य हस्तांतरणीय नहीं है। यह कोई वस्तु नहीं है कि एक हाथ से दूसरे हाथ में दे दो। नहीं तो हर बाप जैसे संपत्ति दे जाता है अपने बेटे को, हर गुरु अपने शिष्यों को सत्य दे जाता। लेकिन सत्य इतना आसान नहीं।
गुरु केवल तुम्हारी प्यास जगा सकता है, प्यास प्रज्वलित कर सकता है। तुम्हारे भीतर सत्य की आकांक्षा को गहन कर सकता है। एक ऐसी त्वरा पैदा कर सकता है कि तुम्हारा रोआं-रोआं अभीप्सा से भर उठे सत्य को पाने की। लेकिन सत्य तुम्हें ही पाना होगा।
लेकिन खतरा यह है कि सुंदर-सुंदर वचन शास्त्रों के, मोहक वचन शास्त्रों के भ्रांति दे सकते हैं। ऐसा लग सकता है कि पा लिया, सब तो मालूम है!
इस देश के बड़े से बड़े दुर्भाग्यों में यही है कि इस देश में सभी को ब्रह्मज्ञान है। यहां पान बेचने वाले से लेकर प्रधानमंत्री तक, सबको ब्रह्मज्ञान है, क्योंकि कौन है जिसको दो-चार चौपाइयां न आती हों, कौन है जिसको गुरुग्रंथ साहिब के दो-चार पद न आते हों? कौन है जिसको गीता के कुछ श्लोक न आते हों? कौन है जो ब्रह्म के संबंध में थोड़ी सी बातें न कर सके, जो सारे जगत को माया न कह सके? जीवन कुछ कहता हो उनका, लेकिन शब्द उनके दोहराए चले जाते हैं--जगत माया है! ब्रह्म सत्य है।
ये बातें कोरी बातें हैं; इनके भीतर कोई प्राण नहीं हैं। ये लाशें हैं। ये पिंजड़े हैं, जिनके भीतर कोई पक्षी नहीं हैं। ये कितने ही हीरे-जवाहारातों से जड़े हों, सोने के बने हों, सावधान रहना, इनमें उलझ मत जाना।
तुम पूछते हो तुलसीदास: ‘आपका हम बूढ़ों के लिए क्या संदेश है?’
पहली तो बात यह, बूढ़ा होना तुम्हें आवश्यक नहीं है। तुम होना ही चाहो तो बात और है। तुमने जिद्द ही कर ली हो, तुम्हारी मौज। तुमने संकल्प ही कर लिया हो बूढ़ा रहने का, तो फिर इस दुनिया में कोई भी कुछ भी नहीं कर सकता। यह तुम्हारी स्वतंत्रता है। अन्यथा ये दोनों जो चट्टानें तुमने लटका रखी हैं अपनी गर्दन से--पांडित्य की और शास्त्रीयता की--इनको गिरा दो, निर्भार हो जाओ। अभी तुम्हारे पंख आकाश में खुल जाएंगे। अभी भी तुम उड़ सकते हो। कभी भी तुम उड़ सकते हो।
मृत्यु के अंतिम क्षण तक भी व्यक्ति चाहे तो एक क्षण में परमात्मा को पा सकता है। साहस चाहिए--साहस चाहिए, थोथे ज्ञान को छोड़ने का।
और बड़ा मजा है। लोग संसार छोड़ने को राजी हैं, धन छोड़ने को राजी हैं, पद छोड़ने को राजी हैं, मगर ज्ञान छोड़ने को राजी नहीं हैं! मैं देखता हूं, किसी ने गृहस्थी छोड़ दी, पत्नी छोड़ दी, बच्चे छोड़ दिए, दुकान छोड़ दी; मगर सब छोड़-छाड़ कर अब भी वह जैन है, या हिंदू है, या मुसलमान है। आश्चर्य! ज्ञान नहीं छोड़ा। वह थोथा जो यांत्रिक, शाब्दिक ज्ञान था, उसे और छाती से जकड़ लिया है। धन छोड़ने में कुछ बड़ी खूबी नहीं है, क्योंकि धन तो बाहर है। ज्ञान छोड़ने में मुश्किल पड़ती है, क्योंकि ज्ञान लगता है भीतर है। ज्ञान भी भीतर नहीं है; वह भी बाहर है।
तुम जहां हो, अंतर्तम में बैठे, वहां ज्ञान भी नहीं है; वहां तो एक निर्दोष मौन है। वहां कोई शब्द नहीं है। वहां निःशब्द है, वहां तो एक संगीत है--एक मौन संगीत, एक शून्य संगीत। उसे अनाहत नाद कहो, या जो तुम्हारी मर्जी हो। समाधि कहो, निर्वाण कहो, कैवल्य कहो--जो शब्द देना हो। मगर इतना खयाल रखना कि वह शून्य संगीत है। वहां कोई शब्द नहीं है, न कोई ज्ञान है, न कोई अज्ञान है। वहां केवल शुद्ध चैतन्य है। वहां तुम सिर्फ द्रष्टामात्र हो। उस द्रष्टा के सामने ज्ञान भी बाहर है। विचार भी उस द्रष्टा के सामने दृश्य हैं।
तुम भी जरा आंख बंद करके कभी बैठो तो देख सकोगे--यह गीता का श्लोक जा रहा। जैसे कि रास्ते पर लोग चलते हैं, ऐसे ही श्लोक चलते हैं मन के रास्ते पर। कुछ भेद नहीं है। जैसे नदी बहती है बाहर, तुम किनारे पर बैठ कर नदी को बहता देख सकते हो, वैसे ही भीतर, बैठ कर मन की बहती हुई धारा को देख सकते हो। कोई फिल्मी गाना सुनता है, कोई शास्त्रीय ज्ञान सुनता है, मगर भेद जरा भी नहीं है। क्या फर्क है? दोनों ही बाहर हैं। तुम द्रष्टा हो, दृश्य नहीं। तुम देखने वाले हो; जो दिखाई पड़ता है वह नहीं। बस, इस द्रष्टा में रमो, तुलसीदास, मुक्त हो जाओगे बुढ़ापे से। मुक्त हो जाओगे सारे बंधनों से।
और कहीं जाने की जरूरत नहीं है--न पहाड़, न कंदराओं में। जहां हो वहीं बैठे-बैठे द्रष्टा में थिर होते जाओ। जितना ही तुम्हारे भीतर का द्रष्टा-भाव स्थिर होगा, यहीं रहोगे, इसी जगत में रहोगे, यही सब काम करोगे, फिर भी ऐसे रहोगे जैसे जल में कमल। कुछ छुएगा नहीं। कुंआरे रहोगे।
दूसरा प्रश्न: भगवान,
सीखने से भी अनसीखना क्यों इतना कठिन मालूम पड़ता है?
आनंद मैत्रेय! सीखने से अहंकार को तृप्ति मिलती है। मैं जानता हूं, इतना जानता हूं--तो अहंकार भरता है। अहंकार बिलकुल खाली चीज है, थोथी चीज है--कुछ न कुछ भरने को चाहिए। धन हो, पद हो, प्रतिष्ठा हो, यश हो, सम्मान हो, ज्ञान हो, त्याग हो--कुछ न कुछ भरने को चाहिए।
अहंकार थोथा है। अगर कुछ भी भरने को न हो तो अहंकार फुग्गे की तरह फूट जाता है। अहंकार में कुछ न कुछ भरने की सतत कोशिश करनी होती है। फिर भी कभी भर नहीं पाता। झूठ को तुम कितना ही सम्हालो, कितना सम्हालोगे? आज नहीं कल, कल नहीं परसों, गिरेगा। कितना ही चलाओ, उसके पास पैर नहीं हैं और प्राण भी नहीं हैं।
अहंकार छाया की तरह है। उसमें कुछ भी तथ्य नहीं है; सिर्फ भ्रांति है; सिर्फ आभास है। तुम आत्मा हो, अहंकार नहीं। आत्मा तो भरी-पूरी है--इतनी भरी-पूरी है कि उसमें रंचमात्र स्थान नहीं है और भरने को। परमात्मा भरा हुआ है, अब और क्या भरने को जगह उसमें होगी? सारा अस्तित्व उसमें समाया हुआ है।
लेकिन अहंकार बिलकुल थोथा है। और इसलिए अहंकार हमेशा चेष्टा में लगा रहता है कि कुछ भर ले, कहीं से भी कुछ मिल जाए तो भर ले। तलाश करता रहता है। अहंकार पूरे वक्त कोशिश में लगा रहता है--लोग मेरे संबंध में क्या कहते हैं? लोग अच्छा कहते हैं न मेरे संबंध में? लोग मेरी प्रशंसा करते हैं न? अहंकार कुछ भी करने को राजी है, लोग प्रशंसा भर करें। कोई भी मूढ़ता करवा लो आदमी से, प्रशंसा भर करो। हर तरह की बेवकूफी करने को वह राजी है, बस तुम प्रशंसा भर करो। तुम्हारी प्रशंसा मिलती रहे तो वह एक दफा भोजन करने को राजी है, भूखा मरने को राजी है, उपवासा रहने को राजी है, सिर के बल खड़ा होने को राजी है, तरह-तरह के शरीर को तोड़ने-मरोड़ने के व्यायाम करके दिखाने को राजी है। योग कहेगा उसको। तुम उससे कुछ भी करवा लो। जमीन पर घिसट-घिसट कर तीर्थयात्रा कर सकता है।
एक गांव में मैं गया। किसी ने कहा कि आपको मालूम है, हमारे गांव में एक बहुत प्रसिद्ध संत हैं!
‘उनकी क्या प्रसिद्धि है?’
कहा कि वे दस साल से खड़े हुए हैं। उनका नाम ही ‘खड़ेश्री बाबा’ है! दस साल से खड़े हुए हों कि सौ साल से खड़े हुए हों, इसमें खूबी की बात क्या है? आदमी बुद्धू होगा, जिसको बैठना भी नहीं आता। इसने अपनी अकल गंवाई। इसकी अक्ल मारी गई।
लोगों ने कहा: अरे, आप क्या कहते हैं? हजारों लोग दर्शन करने आते हैं।
मैंने कहा: वे ही मूढ़ जो इसका दर्शन करने आते हैं, इसको खड़ा करवाए हुए हैं। वे दर्शन करने आना बंद कर दें, फिर देखें यह कितनी देर खड़ा रहता है! यह भाग खड़ा होगा। मगर हजारों लोग आ रहे हैं, चढ़ोतरी चढ़ रही है।
मैं जब उस रास्ते से गुजरा, तो मैंने देखा वहां भीड़ लगी है। चौबीस घंटे अखंड कीर्तन चलता है। ‘कीरंतन’ कहना चाहिए, कीर्तन नहीं। क्योंकि चौबीस घंटे चलाओगे, मोहल्ले वालों का जीना हराम हो गया है। मगर कुछ कह भी नहीं सकते, धार्मिक कार्य हो रहा है! कोई बाधा भी नहीं डाल सकता। और वह कीर्तन चलाना पड़ता है चौबीस घंटे, ताकि बाबा सो न जाएं, कहीं नींद न लग जाए बाबा को। और उनकी हालत मैंने देखी तो पैर उनके हाथीपांव जैसे हो गए हैं। हाथीपांव की बीमारी होती है न, सारे शरीर का रक्त पैरों में चला जाता है--चला ही जाएगा, दस साल तुम खड़े रहोगे...! तो शरीर तो सूख गया है, पैर काफी मोटे हो गए हैं। अब तो वे बैठना भी चाहें तो बैठ सकते नहीं। अब तो पैर मुड़ेंगे भी नहीं। अब तो पैर बिलकुल जड़ हो गए हैं। नसें फूल गई हैं। यह आदमी भयंकर रोग से ग्रस्त हो गया--अपने ही हाथ से! मगर गिर सकते हैं; क्योंकि नींद स्वाभाविक चीज है। तो बैसाखियां लगा दी हैं उनको ताकि वे बैसाखियों के सहारे खड़े रहें। और बैसाखियां छप्पर से बांध दी हैं, ताकि लाख उपाय करें तो भी गिर नहीं सकते, छप्पर से लटके रहेंगे। और सोने उनको देते नहीं हैं, सेवकगण पूरे वक्त उनकी सेवा कर रहे हैं, ताकि उनको नींद न लग जाए।
और मैंने पूछा: यह पागलपन किसलिए है?
किसी ने कहा: अरे, कृष्ण ने गीता में नहीं कहा-- या निशा सर्वभूतायां तस्यांजागर्ति संयमी! संयमी पुरुष तो जागता है। जब सब सो जाते हैं, तब भी जागता है--यह संयम की पराकाष्ठा है।
मैंने कहा: इन्होंने तो कृष्ण को भी मात कर दिया। यह मैंने कभी सुना नहीं कि कृष्ण खड़ेश्री बाबा थे। कोई ऐसी घटना नहीं है कृष्ण के जीवन में। ऐसी घटनाएं तो हैं कि वे सोए थे, लेटे थे, जब दुर्योधन और अर्जुन उनके पास गए थे कि महाभारत में हमारे साथ युद्ध में भागीदार हों, तो सोए हुए थे। खड़ेश्री बाबा नहीं थे कि खड़े थे। लेटे थे। दुर्योधन तो अकड़ की वजह से सिर के पास खड़ा हुआ। अर्जुन पैर के पास खड़े हुए। अगर खड़े होते तो बड़ी मुश्किल हो जाती, दुर्योधन कहां खड़ा होता? दुर्योधन पर दया करके वे लेटे हुए थे। नहीं तो संयमी तो जागा ही रहता है। दुर्योधन को देख कर आंखें बंद कर ली होंगी कि बेचारा दुर्योधन आ रहा है, सिर के पास खड़ा होना पड़ेगा, अब मैं ही खड़ा हो जाऊं तो यह कहां खड़ा होगा! इसको छप्पर पर चढ़ना होगा।
कोई कृष्ण के जीवन में तो ऐसा उल्लेख नहीं आता। तो उनका मतलब कुछ और रहा होगा, ये खड़े श्री बाबा समझे नहीं हैं। और जो इनको समझा रहे हैं, वे भी कुछ समझे नहीं हैं।
कुल मतलब इतना है कि जो व्यक्ति ध्यानस्थ है वह नींद में भी, गहरी निद्रा में भी, उसके भीतर का साक्षीभाव जागा रहता है। वह अपने स्वप्नों का भी द्रष्टा होता है। उसका द्रष्टा-भाव नहीं खोता। चाहे वह जागे, चाहे सोए, चाहे उठे, चाहे बैठे, उसका द्रष्टा-भाव सदा बना रहता है। एक क्षण को भी द्रष्टा-भाव से च्युत नहीं होता। लेकिन खड़े रहने की कोई जरूरत नहीं है। खुद विष्णु महाराज लेटे हुए दिखाई पड़ते हैं क्षीर सागर में। क्या मौज से लेटे हुए हैं! इनको अक्ल न आई, नहीं तो खड़ेश्री बाबा हो जाते। यह बुद्धूपन पहली दफा इस आदमी को सूझा है!
और जब मैं उनका चेहरा देखा तो उनकी हालत दयनीय थी, दया योग्य थी। आंखें उनकी निस्तेज हो गई हैं, फीकी हो गई हैं। हो ही जाएंगी, क्योंकि सारा खून निचुड़ गया है। चेहरा निष्प्राण है, जैसे कोई मुर्दा खड़ा हो। कोई भाव नहीं है। चेहरे पर कोई फूल नहीं खिलते मालूम होते, न कोई दीया जलता मालूम पड़ता है। लेकिन रस क्या है फिर? रस एक है कि यह जो हजारों लोगों की कतार लगी है चौबीस घंटे, यह जो सम्मान मिल रहा है। तुम कोई भी मूर्खता करवा लो आदमियों से, सम्मान मिलना चाहिए।
रूस में ईसाइयों का एक संप्रदाय था जो अपनी जननेंद्रियां काट डालता था, क्योंकि इसी बात को सम्मान मिलता था। ये ही असली ब्रह्मचारी थे। तो हर वर्ष इनकी जमात इकट्ठी होती थी और जिनको इनका शिष्य होना होता था, वे इकट्ठे होते थे। बड़ी भीड़ लगती थी, लाखों लोग देखने इकट्ठे होते थे। और उस विक्षिप्तता की अवस्था में बैंड-बाजे बज रहे हैं, शोरगुल मच रहा है, धूप-दीप जलाए जा रहे हैं। लोग ऐसे जोश-खरोश में आ जाते थे कि कई बार भीड़ में से ऐसे व्यक्ति, जो सिर्फ देखने आए थे, वे उछल पड़ते, कपड़े फेंक देते। और वहां तलवारें रखी रहती थीं, तलवार उठा कर जननेंद्रिय काट डालते। फिर पीछे पछताएं, अब पीछे पछताने से क्या होता है जब चिड़िया चुग गई खेत! मगर तब तक तो सम्मान मिल चुका होता था। और तब तक तो हो ही गए साधु, फिर लौटना भी बहुत मुश्किल है, फिर अपमानजनक है।
इसलिए किसी साधु को हम लौटने नहीं देते। इससे बड़े अपमान की कोई बात नहीं समझी जाती कि कोई आदमी साधु से लौट आए।
एक महिला मेरे पास आकर रोती थी हमेशा। उसका पति साधु हो गया था। मैंने उसे कहा: तू ठहर। मैं तेरे पति को जानता हूं। मैं उनको पकडूंगा। मैं काशी गया था, वे मुझे मिलने आ गए। मैंने उन्हें समझाया-बुझाया। अब तक उनकी भी अक्ल दुरुस्त आ गई थी एक आठ महीना साधु रहने के बाद। उनको भी समझ में आ गया था कि कुछ सार नहीं है। बुद्धू बन गए। मगर अब किस मुंह से घर लौटें!
मैंने कहा: तुम फिकर न करो। हम तुम्हारे घर लौटने का स्वागत करवा देंगे, और क्या चाहिए! बैंड-बाजे से स्वागत होगा, स्टेशन से ही जुलूस निकलेगा। जितना बड़ा जुलूस तुम्हारा साधु होने के वक्त निकला था, उससे बड़ा जुलूस निकलवा देंगे, और क्या चाहते हो?
सो वे राजी हो गए। उनको मैं समझा-बुझा कर ले आया, मित्रों को खबर की। भीड़-भाड़ इकट्ठी करवा दी, फूलमालाएं पहना दीं। और तो सब ठीक, चकित मैं तो तब हुआ, जब उनकी पत्नी ने उनको घर में घुसने देने से इनकार कर दिया। उसने कहा: साधु होकर और भ्रष्ट होते हो! अरे बेशर्म! अब एक भूल की साधु होकर, अब दूसरी भूल करते हो। तुम्हारे साथ मुझको भी डुबाओगे?
मैंने कहा: तूने हद्द कर दी। तू मेरे पीछे पड़ी थी। मैं तीन दिन इस आदमी के साथ सिर पचाया, बमुश्किल उसको राजी करवाया। इतनी भीड़-भाड़ इकट्ठी करवाई। ये सब किराए से आदमी लाना पड़े। और तू कहती है घर में नहीं...।
उसने कहा: कभी नहीं! साधु हो गए, अब इनको मैं पतिभाव से नहीं देख सकती। और मैं इन्हें अपनी देह नहीं छूने दूंगी। यह तो बिलकुल भ्रष्ट हो जाने की बात हो जाएगी। अब जो हुआ सो हुआ।
वह आदमी भी बेचारा खड़ा रह गया। मैंने कहा: अब बड़ी मुसीबत हुई। भैया, तू मेरे घर चल। तेरी दूसरी शादी करवाएंगे, अब और क्या करें! इससे बेहतर स्त्री खोज देंगे, और क्या कर सकते हैं! अब जो भूल हो गई कि तुझे समझा कर ले आए...।
जब मैंने कहा दूसरी स्त्री खोज देंगे, तब वह स्त्री चौंकी। उसने कहा: कहीं जाने की जरूरत नहीं है! क्योंकि अगर दूसरी स्त्री का मामला हो तो मुर्दा स्त्री भी जिंदा हो जाती है, एकदम, कि नहीं, यह कभी बर्दाश्त नहीं होगा! चलो घर में अंदर! शांतिपूर्वक घर में रहो!
और वह मेरे पास उनको आने के लिए मना करने लगी कि वहां जाना मत। यह आदमी तुम्हें भ्रष्ट करवा दिया। और अब यह और भ्रष्ट करवाने में लगा है कि एक दूसरी स्त्री खोज देंगे।
साधुओं को हम फिर एक दफा साधु बना देते हैं, उनको इतना स्वागत-सम्मान दे देते हैं, उनके अहंकार को ऐसा भर देते हैं कि फिर बेचारे अटक जाते हैं। फांसी लग गई। फिर अगर लौटना चाहें तो हम उनका खूब अपमान करते हैं, भयंकर अपमान करते हैं।
एक जैन मुनि ने मेरी बात मान कर मुनि-वेश छोड़ दिया। मैं हैदराबाद में था। मैं एक सभा में जैनियों की बोलने गया था, वे भी मेरे साथ चले गए। मैं मंच पर बैठा। वे भी पुरानी आदत हो गई थी उनकी, कोई दस साल, बारह साल साधु रह चुके थे, सो वे भी कैसे श्रावकों के बीच बैठें! सो वे भी मेरे साथ आकर मंच पर बैठ गए। अब जैन इसको कैसे बर्दाश्त करें कि जो आदमी साधु रह कर और फिर साधुपन छोड़ दिया, वह मंच पर बैठे! उनके मंदिर में! खुसर-पुसर शुरू हो गई। मैंने कहा: मामला क्या है? मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा है। मैं बोल रहा हूं, आप लोग कुछ खुसर-पुसर कर रहे हैं। बात पहले तय हो जानी चाहिए, बात क्या है?
उन्होंने कहा कि हमें आपसे कोई एतराज नहीं है, मगर ये सज्जन मंच पर नहीं होने चाहिए। इनको हम नीचे उतारेंगे। इन्होंने मुनि-वेश छोड़ा है। मैंने कहा कि इन्होंने मुनि-वेश छोड़ा है, मैंने तो कभी मुनि-वेश ग्रहण भी नहीं किया। इन्होंने तो कम से कम ग्रहण भी किया था। ये मुझसे तो ज्यादा ही आदर योग्य हैं। बैठे रहने दो, तुम्हारा क्या बिगाड़ते हैं? उन्होंने कहा कि नहीं, हमारे मंदिर में यह नहीं होगा। उपद्रव हो जाएगा, आप इनको समझा कर नीचे उतार दो।
मैंने देखा कि वह तो लिखा तो मंदिर में था, ‘अहिंसा परमोधर्मः’ लेकिन हालत वहां ऐसी थी कि वे मार-पीट पर उतारू थे उनकी। मैंने उनसे कहा कि भैया, तुम नीचे उतर जाओ, नाहक मार-पीट हो जाएगी! मगर वे भी आखिर थे तो जैन-मुनि! ऐसे श्रावकों से हार जाएं! और फिर उनको भी उतरने में संकोच मालूम पड़े, पैर अटकें। तो वे मंच से न उतरें, वे एकदम ऐसे चिपक कर बैठ गए मंच से कि मैंने उनसे कहा: तुम उतरते हो कि वे लोग उतारने को तैयार हो रहे हैं! नहीं उतरे और लोग दौड़ पड़े और उन्हें खींचने लगे नीचे।
मैंने उनसे कहा कि अजीब पागलपन है! न वह आदमी उतरने को तैयार है। उसको बारह साल तक सम्मान मिला है तो वह एकदम से छोड़ने को राजी नहीं। और तुम बारह साल तक सम्मान देते रहे। और मैं तुम्हारा कभी मुनि नहीं रहा और न कभी रहूंगा, मुझको तुम मंच पर बिठाले हुए हो, तो इसको बेचारे को बैठा रहने दो!
उन्होंने कहा कि आप बैठें, कोई भी बैठ सकता है; मगर इस आदमी ने हमारे साथ दगा किया, धोखा किया। यह भ्रष्ट है! इसको तो हम नीचे उतारेंगे।
खींचातानी हुई। वे उनको नीचे उतार कर रहे। मार-पीट की हालत खड़ी हो गई। जब उन सज्जन ने देखा कि अब पिटने की ही नौबत है, तभी वे उतरे। मगर उस दिन से वे जो नदारद हुए तो मुझे दिखाई नही पड़े कि वे कहां गए। फिर मैं उनकी बहुत तलाश करता रहा कि वे गए कहां! मगर उनको ऐसा सदमा पहुंचा कि फिर उनका पता ही नहीं चला आज तक। इस बात को हुए कोई आज बारह साल हो गए। वे कहां भाग गए मंच से उतर कर फिर...मुझे भी शक्ल नहीं दिखाई। तिरोहित ही हो गए एकदम!
सम्मान देते हैं हम--इसीलिए सम्मान देते हैं कि फिर लौटना मुश्किल हो जाए। और लौटने वाले को हम अपमान देते हैं, ताकि जिनको सम्मान मिल रहा है, वे भी सावधान रहें, कि परिणाम क्या होगा! ये सब अहंकार को भरने की बातें हैं। सीखने से अहंकार भरता है। सबसे ज्यादा सरलता से अहंकार को भरने का जो उपाय है, वह है ज्ञान से भर लेना। सबसे सस्ता मार्ग--शास्त्रों से भर लेना। कुछ लगता नहीं। कुछ खर्च नहीं करना पड़ता। कोई बड़ी बुद्धिमत्ता नहीं चाहिए।
तुम पूछते हो आनंद मैत्रेय: ‘सीखने से भी अनसीखना क्यों इतना कठिन मालूम पड़ता है?’
इसलिए अनसीखना कठिन मालूम पड़ता है, अनसीखने का अर्थ है: अहंकार को खाली करना। अहंकार को खाली करने का अर्थ है: अहंकार को मरना, अहंकार को मरने के लिए तैयार करना, अहंकार की मृत्यु। जैसे ही अहंकार का पोषण बंद हुआ, अहंकार मरा।
महर्षि रमण से एक जर्मन दार्शनिक ने कहा कि मैं बहुत दूर से आपके पास कुछ सीखने आया हूं, मुझे सिखाएं।
रमण ने कहा: फिर तुम गलत जगह आ गए। फिर तुम कहीं और जाओ। हम तो यहां सिखाते नहीं, भुलाते हैं। अगर कुछ अनसीखना हो तो ठहरो, क्योंकि यहां तो सारी प्रक्रिया यही है कि जो तुम जानते हो, उसको छीन लेना है। क्योंकि तुम्हारा जानना भी भ्रांत है; तुम्हारा नहीं है, थोथा है, बासा है, उधार है, दो कौड़ी का है। उसे छीन लें तो तुम निर्दोष हो जाओ। और निर्दोष चित्त ही जान सकता है।
पंडित का चित्त निर्दोष नहीं होता। पापी भी पहुंच सकते हैं; पंडित कभी पहुंचा है, ऐसा सुना नहीं!
मैंने सुना है, एक बार एक पंडित स्वर्ग पहुंचा। वह बड़ा हैरान हुआ। उसका खूब स्वागत किया गया, खूब बैंड-बाजे बजाए गए। ऐसा स्वागत! सारे स्वर्ग के निवासी इकट्ठे हुए। और उसके साथ ही एक बहुत बड़ा संत, एक बहुत बड़ा ऋषि भी मरा था--उसी दिन। वह भी आया। दोनों करीब-करीब साथ स्वर्ग के द्वार पर पहुंचे। ऋषि का कोई स्वागत ही नहीं किया गया। द्वारपाल ने ऐसा भीतर ले लिया और कहा कि ठीक है, आ जाइए। पंडित बड़ा हैरान हुआ। दिल ही दिल में सोचने लगा कि ठीक ही कहा है कि पांडित्य का सब जगह सम्मान होता है, आज अपनी आंखों से देख लिया कि स्वर्ग में भी...! यह आदमी तो महर्षि था। इस आदमी को तो मैंने भी सम्मान दिया। इस आदमी के वचनों से तो मधु बरसता था। मगर इसकी भी कोई फिकर नहीं है। और मेरा तो सब जानना उधार था। अदभुत है पांडित्य की बात! ठीक ही कहा है लोगों ने कि सर्वत्र पूजा मिलती है पंडित को। सम्राट को तो अपने देश में मिलती है, पंडित को सब देशों में मिलती है। स्वर्ग तक में यही बात है।
उसकी यह हालत देख कर द्वारपाल ने कहा: आप भूल में न पड़ें, आप भ्रांति में न पड़ें, बात कुछ और है। बात यह है कि ऋषि-मुनि तो यहां रोज आते रहते हैं, पंडित आप पहले हो। आज तक पंडित आया ही नहीं। आप किस भूल-चूक से आ गए हो; फाइल में कुछ गड़बड़ हो गई, किसी और की जगह आप को ले आया गया है! इसलिए इतना उत्सव मनाया जा रहा है, क्योंकि यह अनहोनी घटना है। ऐसा कभी हुआ ही नहीं था आज तक। ऋषि-मुनि तो रोज आते हैं, अब इनका क्या स्वागत करें! इनकी तो कतार लगी रहती है। आते ही ये लोग हैं। मगर आप अनूठे हैं, अद्वितीय हैं! आपने तो गजब कर दिया। आपने सब नियम तोड़ दिए। आप अपवाद हैं। सदियां बीत गईं, जब से स्वर्ग बना आप नहीं आए। आप जैसा कोई व्यक्ति नहीं आया। और हमें शक है कि अब दोबारा शायद फिर कभी नहीं आएगा। कभी एकाध बार भूल हो जाती है। आ गए हैं आप किसी भूल से, तो हम स्वागत कर रहे हैं। आप इस भ्रांति में न हों कि पांडित्य का सम्मान हो रहा है।
पंडित तो अहंकारी व्यक्ति होता है, महा अहंकारी व्यक्ति होता है। यह भी हो सकता है कि पंडित अपने को समझता हो कि मैं बड़ा विनम्र हूं। यह भी हो सकता है कि वह विनम्रता दिखाता भी हो। यह भी हो सकता है कि आपसे कहता हो: मैं आपके चरणों की धूल हूं। मगर जरा उसकी आंखों में देखना, वह यह कह रहा है कि देखो मैं कितना विनम्र हूं, मुझसे ज्यादा विनम्र कोई और है? है कोई पृथ्वी पर माई का लाल, जो मुझसे ज्यादा विनम्र हो? और अगर कोई पंडित तुमसे कहे कि मैं तो आपके चरणों की धूल हूं और तुम कहो कि भैया, वह तो हमें मालूम ही है, कि तुम चरणों की धूल से भी गए-बीते हो, तो देखना कैसा गुस्सा हो जाता है! एकदम भनभना जाएगा कि क्या कहा। और तुम अगर कहो कि हम तो सिर्फ वही कह रहे हैं जो आपने कहा, हम तो आपकी बात ही स्वीकार कर रहे हैं। वह इसलिए उसने कही नहीं थी कि आप स्वीकार करो। वह इसलिए उसने कही थी कि आप कहो कि नहीं नहीं, आप और चरणों की धूल! आप तो मोरमुकुट हैं! आप तो सरताज हैं! आप तो कोहिनूर हीरे हैं! आप और चरणों की धूल, कभी नहीं, कभी नहीं! यह आपकी विनम्रता है। यही तो सिद्ध करती है कि आप मोरमुकुट हैं!
तीन ईसाई फकीर एक चौराहे पर मिले। एक ईसाई फकीर ने कहा कि हमारा जो आश्रम है, उस आश्रम में जैसा त्याग है, जैसी तपश्चर्या है, जैसा कठोर व्रत-नियमों का अनुशासन है, वैसा कहीं और नहीं।
दूसरे ने कहा: यह बात ठीक हो सकती है। लेकिन हमारे आश्रम में जैसी ज्ञान की धारा बहती है, जैसा पांडित्य, जैसा उज्ज्वल पांडित्य, जैसी शास्त्रीयता है, जैसे शुद्ध शास्त्रों के जानकार हैं, जैसे खोजी हैं, शोध करने वाले हैं--ऐसे कहीं और भी नहीं।
तीसरा खड़ा मुस्कुराता रहा। दोनों ने कहा: आप कुछ बोले नहीं?
उसने कहा: कुछ बोलने की जरूरत नहीं। हमारा आश्रम विनम्र है। बोलने की कुछ आवश्यकता नहीं। हम तो विनम्र लोग हैं। विनम्रता में हमसे आगे कोई भी नहीं है। विनम्रता में तो हम समझो गौरीशंकर के शिखर हैं। और ये सब दो कौड़ी की बातें हैं--त्याग-तपश्चर्या, और पांडित्य इत्यादि। विनम्रता असली चीज है। क्योंकि कहा है जीसस ने: धन्य हैं वे जो विनम्र हैं, क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है। सो अंत में पछताओगे। जब देखोगे कि स्वर्ग का राज्य हमारा, तब रखा रह जाएगा सब ज्ञान और रखी रह जाएगी सब तपश्चर्या। तब पछताओगे, तब रोओगे। अभी वक्त है। अभी भी आ जाओ हमारी तरफ। अभी भी विनम्र हो जाओ।
आदमी का अहंकार ऐसा है कि वह किस-किस तरकीब से अपने को भर लेगा, कहना बहुत मुश्किल है। बड़े सूक्ष्म उसके मार्ग हैं। और ज्ञान सूक्ष्मतम प्रक्रिया है। इसलिए अनसीखना कठिन मालूम पड़ता है, मृत्यु जैसा मालूम पड़ता है। छोड़ना ही नहीं चाहता कोई। ऐसा पकड़ते हैं हम? और पकड़ने के लिए हम सब तरह के तर्क इकट्ठे करते हैं, सब तरह के कारण खोजते हैं, सब तरह की व्यवस्था जुटाते हैं। ऐसा नहीं कि हम यूं ही पकड़े हुए हैं, हम पकड़ने के लिए पूरा का पूरा चारों तरफ से तर्कों का एक जाल बिछाते हैं। हम सिद्ध करते हैं कि पकड़ना आवश्यक है, अनावश्यक नहीं है। बिना ज्ञान के क्या होगा? बिना शास्त्रों के कैसे तिरोगे? यह तो शास्त्रों के सहारे तो तिरा जाता है।
और शास्त्र हैं क्या--कागजों की नावें हैं! इनमें डूबना हो तो बैठना; तिरना हो तो शायद तैरना ही सीख लो तो काम आए। तैरना ही काम आएगा। ये कागज की नावों में बैठ कर मत चल पड़ना, इनमें बड़ा खतरा है। नावों जैसी लगती हैं ये। बड़ा खतरा यही है कि बिलकुल नाव जैसी लगती है--कागज की नाव। इसलिए तो उसको नाव कहते हैं। और तुमने असली नाव तो देखी नहीं, कागज की ही नावें देखी हैं। हिंदुओं की, मुसलमानों की, जैनों की, बौद्धों की, सबकी कागज की नावें हैं। अलग रंग की होंगी, अलग ढंग की होंगी, अलग झंडे उड़ रहे होंगे। मगर सब कागज की नावें हैं। और दूसरा खतरा यह है कि किनारे पर ही नहीं डूबतीं कागज की नावें; डूबने में थोड़ा समय लगता है, गलने में थोड़ा वक्त लगता है; सो किनारा भी छूट जाएगा और जब डूबने की घड़ी आएगी, तब तुम हैरान होओगे कि तुम्हें तैरना तो आता नहीं। तैरना तो तुमने कभी सीखा नहीं। तुम अपने पैर पर तो कभी खड़े हुए नहीं। तुमने ध्यान तो कभी सीखा नहीं।
ध्यान तैरने जैसा है और ज्ञान कागजी नाव है। और सस्ते में निपट जाए बात, तो कौन झंझट में पड़े तैरने की! तैरने के लिए साहस चाहिए, छाती चाहिए। क्योंकि दूसरा किनारा दिखाई भी तो नहीं पड़ता--और तूफान है, अंधड़ है और अज्ञात में उतरना है। इस किनारे पर सब सुरक्षा है। फिर सभी लोग नावों में जा रहे हैं, तुम अकेले ही तैरने की बात करोगे तो लोग कहेंगे: पागल हुए हो? अरे जहां सब जा रहे हैं, उनके साथ चलो! अकेले मत चल पड़ना, नहीं तो भटक जाओगे। यह भवसागर है, इसमें तो भीड़ के साथ रहना।
और ध्यान रखना एक बात, इसमें भीड़ जितनी भटकी होती है, व्यक्ति कभी भटका नहीं होता। इस दुनिया में भीड़ ने जितने पाप किए हैं, व्यक्ति ने कभी नहीं किए हैं। हिंदुओं की भीड़ जैसे पाप करती है, वैसा कोई हिंदू व्यक्ति नहीं कर सकता। मुसलमानों की भीड़ जैसा पाप करती है वैसा कोई मुसलमान व्यक्ति नहीं कर सकता। मंदिर जलाना हो तो कोई एक मुसलमान से कहो कि जला दो, तो उसकी भी छाती फटेगी, उसको भी पीड़ा होगी कि मैं यह क्या कर रहा हूं! सोचेगा। मगर अगर भीड़ मुसलमानों की हो--अल्ला-हू-अकबर! फिर जब भीड़ कर रही है तो उत्तरदायित्व खो जाता है। फिर अपना क्या उत्तरदायित्व? इतने लोग कर रहे थे, कोई हम थोड़े ही कर रहे थे। हम तो सिर्फ संग-साथ हो लिए थे। हम न भी होते तो भी मंदिर तो जलता ही। कोई हमारे होने से नहीं जल गया। और जब इतने लोग कर रहे थे तो ठीक ही कर रहे होंगे। इतने लोग गलत कैसे हो सकते हैं?
किसी व्यक्ति से पूछो कि किसी मुसलमान की छाती में छुरा भोंक सकोगे? व्यक्ति से। निपट व्यक्ति से। तो वह भी सोचेगा कि आखिर मुसलमान, यह मुसलमान, जिसको शायद पहले कभी देखा भी नहीं, झगड़ा-झांसे का तो सवाल नहीं, मुलाकात भी नहीं, शत्रुता तो दूर रही, मित्रता भी नहीं। शत्रु होने के पहले मित्र तो होना जरूरी है! परिचय भी नहीं है, राम-राम भी नहीं हुई कभी। इस अपरिचित अनजान आदमी की छाती में छुरा भोंक रहा हूं! इसकी भी मां होगी, जो घर राह देखती होगी, जैसे मेरी मां राह देखती है। इसकी भी पत्नी होगी, जो विधवा हो जाएगी। शायद जिंदगी भर भीख मांगेगी,
कि उसे वेश्या हो जाना पड़े। इसके भी बच्चे होंगे, जो अनाथ हो जाएंगे। मैं यह क्या कर रहा हूं? और इसने क्या बिगाड़ा है?
लेकिन अगर भीड़ इस आदमी को मार रही हो, फिर तुम्हें चिंता नहीं होती। जिम्मा भीड़ का हो गया।
भीड़ में व्यक्ति का उत्तरदायित्व समाप्त हो जाता है। कोई उत्तरदायित्व किसी का नहीं रह जाता। इसलिए भीड़ ने जैसे पाप किए हैं दुनिया में, व्यक्तियों ने नहीं किए। मैं व्यक्ति का समर्थक हूं, भीड़ का विरोधी हूं। मैं चाहता हूं दुनिया में व्यक्ति ही व्यक्ति रह जाएं, भीड़ें समाप्त हो जाएं। न कोई हिंदू हो, न कोई मुसलमान हो, न कोई जैन हो। व्यक्ति हों। फिर तुम्हें जो प्रीतिकर लगे, व्यक्ति की हैसियत से करो। तुम्हें अगर प्रीतिकर लगता है महावीर का रास्ता, तो व्यक्ति की हैसियत से चलो उस रास्ते पर। मगर भीड़ के अंग मत बनो। तुम्हें अगर प्रीतिकर लगती है मोहम्मद की बात तो ठीक है, तुम बिलकुल मालिक हो अपने, तुम उस मार्ग से चलो। मगर भीड़ के हिस्से मत बनो।
दुनिया से भीड़ें मिट जाएं तो दुनिया से निन्यानबे प्रतिशत पाप मिट जाएं। मगर भीड़ों के नाम पर सब हो जाता है। ‘इस्लाम खतरे में है!’ जैसे कि इस्लाम भी खतरे में हो सकता है! इस्लाम क्या खतरे में होगा? कैसे खतरे में होगा? इस्लाम को जला सकते हैं कि पानी में डुबा सकते हैं? क्या खतरा करोगे इस्लाम का? मगर कोई पूछता ही नहीं। ‘इस्लाम खतरे में है’--बस भीड़ पागल हो उठती है। ‘हिंदू धर्म खतरे में है’--भीड़ पागल हो उठती है। बस, भीड़ की याद दिला दो कि लोग चल पड़े। फिर लोगों से तुम कुछ भी करवा लो। भारत के नाम पर कोई भी पाप करवा लो; यह बड़ी भीड़ है। पाकिस्तान के नाम पर कोई भी पाप करवा लो; यह बड़ी भीड़ है। ईरान के नाम पर कोई भी पाप करवा लो--करवा रहे हैं लोग अभी। कोई भी पाप!
अभी ईरान के बादशाह के पिता का मकबरा जो करोड़ों रुपये की लागत से बना था--एक सुंदरतम इमारत थी दुनिया की--वह मुल्लाओं ने खड़े होकर अभी चार दिन पहले डाइनामाइट लगवा कर उड़वा दिया। बुलडोजर चलवा कर संगमरमर की वह अदभुत इमारत मिट्टी में मिलवा दी। और उसकी जगह पर बनवा रहे हैं वे पेशाबघर--जनता के लिए, सार्वजनिक पेशाबघर। ये मुल्ला हैं, ये अयातुल्ला हैं! ये पंडित हैं, ये धार्मिक हैं! यह पागलों की जमात! मगर भीड़ जो भी करवा ले।
भीड़ के खिलाफ व्यक्ति को बल देना जरूरी है। और व्यक्ति होने का साहस ही धर्म है। भीड़ में डूबना राजनीति है। व्यक्ति होना धर्म है, अध्यात्म है।
लद गए राजनीति के दिन, चुक गए राजनीति के दिन। अब एक सूर्योदय होना चाहिए, जो व्यक्ति का हो, जिसमें व्यक्ति की गरिमा प्रतिष्ठित हो। और इसके लिए सबसे बड़ा काम यह होगा कि हम बहुत सी बातें जो सीखे बैठे हैं, उनको अनसीखा करें।
क्या-क्या तुम सीखे बैठे हो, कभी तुमने सोचा है? लेकिन अंधे की तरह चले जाते हो। किसी हिंदू से पूछो कि यह चुटैया किसलिए बढ़ा रखी है? सोचा ही नहीं उसने कभी। और जो सोचते हैं, वे और नालायकी की बात बताएंगे। एक किताब मैं पढ़ रहा था--‘हिंदू धर्म क्यों?’ सात सौ पृष्ठों की बड़ी किताब है, उसमें हिंदू धर्म को वैज्ञानिक सिद्ध किया गया है। हर चीज वैज्ञानिक! सभी की यह चेष्टा है इस समय कि हर चीज वैज्ञानिक सिद्ध कर दो, क्योंकि विज्ञान की साख है। तो कुछ भी उलटा-सीधा, लेकिन किसी तरह वैज्ञानिक सिद्ध करने कोशिश करो। तो चुटैया वैज्ञानिक है, उस किताब के लेखक ने लिखा है। वे एक हिंदू संन्यासी हैं। संन्यासी इस तरह की बातें करते हैं! लेकिन भीड़ में चाहे संन्यासी हों, चाहे महात्मा हों, चाहे साधु हों, उनकी हैसियत अध्यात्म की नहीं होती। तो उन्होंने लिखा है कि जिस तरह बड़े-बड़े मकानों पर लोहे का सींखचा लगा देते हैं; ताकि बिजली वगैरह गिरे तो मकान को कोई नुकसान न हो, लोहे के सींकचे में से बिजली प्रवेश करे और जमीन में चली जाए--ऐसे हिंदुओं ने सबसे पहले यह विज्ञान खोजा। चुटैया में गांठ बांध कर खड़ी रखो, इससे बिजली वगैरह गिरेगी तो तुमको कोई हानि नहीं होगी। यह लोहे का सींखचा है!
इन सज्जन से एक धर्मसभा में मेरा मिलना हो गया। मैंने कहा कि रुको, आपकी चुटैया कहां है? क्योंकि हिंदू संन्यासी तो बिलकुल घुटमुंड होता है, चुटैया होती ही नहीं उसकी। संन्यासी तो बिलकुल घुटमुंड होगा।
मैंने कहा: अगर तुमने जो लिखा है, वह सच है, तब तो बिजलियां खोज-खोज कर संन्यासियों पर गिरेंगी। ऐसी सरपट खोपड़ी, जैसे रेसकोर्स का मैदान! बिजलियों को तो मौज आ जाएगी।
कितने संन्यासी मरे हैं बिजलियों से, मैंने उनसे पूछा। संन्यासी तो बचने ही नहीं चाहिए। जहां जाएंगे बेचारे, फौरन बिजली गिरी, क्योंकि वह चुटैया है ही नहीं जो बचाए।
उन्हीं सज्जन ने लिखा है कि हिंदू इसलिए खड़ाऊं पहनते हैं, क्योंकि खड़ाऊं अंगूठे और अंगुली के बीच में दबानी पड़ती है, उससे एक नस पर दबाव पड़ता है। उस नस के दबाव के कारण आदमी में ब्रह्मचर्य सधता है।
क्या गजब की बातें कर रहे हो! अगर इतना मामला आसान हो तब तो हिंदुस्तान की आबादी का मसला अभी हल हो जाए; सिर्फ खड़ाऊं पहनाने की जरूरत है। कहां के संतति-नियमन के गलत-सलत साधन और क्यों ब्रह्मचर्य की शिक्षा दे रहे हो लोगों को? सिर्फ खड़ाऊं पहनाओ, बस पर्याप्त है। और खड़ाऊं पहनाने से अगर नस दबती है, वह भी पैर की, अंगूठे के पास की, तो नसबंदी करने की क्या जरूरत है? जाकर अस्तपाल में पैर के अंगूठे की नस ही क्यों नहीं दबवा लेते? एक दफा दबवा लो इकट्ठा तो फिर जूता पहनो, चप्पल पहनो, जो पहनना हो पहनो। ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो गए। फिर तो कोई अड़चन ही न रही।
तो मैंने उनसे पूछा कि ऋषि-मुनियों के बच्चे कैसे पैदा हुए? और इस देश में तो सभी लोग कहते हैं कि हम ऋषि-मुनियों की संतान हैं। इतनी संतानें ऋषि-मुनियों की! और हर ऋषि-मुनि के बच्चे थे। हिंदू ऋषि-मुनि कोई ब्रह्मचारी नहीं थे; काफी बच्चे-कच्चे थे उनके। खड़ाऊं भी पहने रहे और बच्चे-कच्चे भी होते रहे! तो कोई जंतर-मंतर जानते होंगे कि नस को दबने भी न दिया, खड़ाऊं भी पहनी और नस के दबने से भी बच गए। या फिर ये बच्चे नाजायज होंगे, कि ऋषि-मुनि तो खड़ाऊं पहने रहे और लुच्चे-लफंगे बच्चे पैदा करते रहते। क्या, मामला क्या है?
वे तो एकदम भनभना गए कि आप किस तरह की बातें कर रहे हैं! आप हिंदू धर्म के दुश्मन हैं!
मैंने कहा: मैं किसी का दुश्मन नहीं हूं, न किसी का दोस्त हूं। मैं तो सिर्फ यह पूछ रहा हूं कि ये बेवकूफी की बातें हैं और इनको तुम विज्ञान कहते हो!
लेकिन सब धर्मों की यह चेष्टा चलती है कि अपने को वैज्ञानिक सिद्ध करने की जिस तरह भी बन सके, उलटे-सीधे ढंग से।
भीड़ यह कोशिश करती है कि हम बहुत समझदार हैं और भीड़ नासमझ होती है। भीड़ समसामयिक भी नहीं होती, समझदार होना तो दूर है। भीड़ रहती है दो-तीन हजार साल पहले।
अनसीखना करना होगा ये सब बातें। व्यर्थ की बातें छोड़नी पड़ेंगी। ये टुच्ची बातें हैं। और इन्हीं टुच्ची बातों के भेद हैं तुममें। कोई बड़े भेद नहीं हैं। ईसाई में और हिंदू में, हिंदू में और जैन में, जैन में और बौद्ध में कोई बड़े भेद नहीं हैं--टुच्ची बातों के भेद हैं, दो कौड़ी की बातों के भेद हैं। मगर भेदों में तलवारें खिंची रहीं, गर्दनें कटती रहीं, हत्याएं होती रहीं। क्योंकि हम उन भेदों को बहुत महत्वपूर्ण समझते हैं।
अनसीखा करो यह सब कचरा। यह कचरा हटाओ! कठिन तो है, क्योंकि इसको हटाते वक्त छाती फटेगी। लगेगा कि सब गया। यही तो हमारी संपदा थी। यही तो हमारे विचार थे। यही तो हमारी संस्कृति थी। फिर हमारी भारतीय संस्कृति का क्या होगा! फिर हमारे धर्म का क्या होगा! फिर हमारा प्राचीन सनातन धर्म, इसका क्या होगा!
तुमने कुछ ठेका लिया हुआ है इन सब चीजों के बचाने का? तुम्हें प्रयोजन है? तुम बच जाओ तो पर्याप्त। तुम अपने जीवन को अनुभव कर लो तो काफी। और यह कचरा है तो जाने दो। इसको बचाने की कोई आवश्यकता नहीं--सिर्फ भारतीय है, इसलिए बचाएंगे; कि हिंदू है, इसलिए बचाएंगे; कि जैन है, इसलिए बचाएंगे। सत्य है तो बचेगा, असत्य है तो जाने दो। लेकिन सत्य बचेगा तुम्हारे अनुभव से, तुम्हारे तथाकथित शास्त्रों को पकड़ लेने से नहीं।
काश! हम अपने शास्त्रों को एक बार फिर से गौर करके देखें तो हम बहुत हैरान हो जाएंगे--कितना कचरा भरा है! और हम पूजा किए चले जा रहे हैं।
छोड़ना कठिन तो है आनंद मैत्रेय, लेकिन छोड़ना अत्यंत अनिवार्य है। बिना छोड़े, बिना इन सब मूढ़तापूर्ण धारणाओं को अंधविश्वासों को त्यागे कोई व्यक्ति अपने भीतर के चैतन्य को निर्मल नहीं कर सकता, न उस दर्पण को साफ कर सकता है। क्योंकि धूल से मोह है, तो दर्पण कैसे साफ करोगे? और दर्पण साफ हो तो दर्पण में प्रतिबिंब बने परमात्मा का। परमात्मा तो मौजूद है; हमारा दर्पण गंदा है।
तीसरा प्रश्न: भगवान,
मैं भी शादी करना चाहता हूं। आपके कल के प्रवचन के बाद मैं भी डांवाडोल हो गया हूं। मैं क्या करूं?
प्रमोद! भारतीय होकर इतनी जल्दी डांवाडोल होते हो! शर्म नहीं आती? कभी नहीं! झंडा ऊंचा रहे हमारा! कुछ भी हो जाए, अपनी बात पर जमे रहो। ऐसी बातें तो लोग कहते ही रहते हैं, सुनते ही क्यों हो? बहरे बन कर बैठो। और जब ऐसी खतरनाक बातें कही जाएं, कान में अंगुलियां डाल लो।
डांवाडोल! यह तो लक्षण नहीं। यह तो सनातन-धर्मियों का लक्षण है ही नहीं। हम डांवाडोल तो हुए ही नहीं सदियों से। हम तो जहां बैठे हैं वहीं बैठे हैं। हम इंच भर नहीं सरकते। दुनिया सरक जाए, दुनिया कहीं चली जाए, हमें फिकर नहीं। हमने तो जो पकड़ लिया सो पकड़ लिया। हम कोई धोखेबाज नहीं हैं, दगाबाज नहीं हैं। हम कोई बेईमान नहीं हैं। अरे, एक दफा जो पकड़ा सो पकड़ा, फिर लाख बुद्धि कहे कि गलत है, हम बुद्धि की कभी नहीं सुनेंगे। विवेक कुछ भी कहे, विवेक को अनसुना करो।
ऐसा महान कार्य करने जा रहे हो--विवाह करने! और विवेक की सुनोगे तो मुश्किल में पड़ जाओगे। विवेक इत्यादि तो विवाह के बाद। पहले विवाह तो हो जाने दो। फिर तो अड़चनें बहुत आएंगी। मुझे क्या पता कि तुम भी यहां हो, नहीं तो मैं कभी ऐसी बात ही नहीं कहता। अब मुझसे जो भूल हो गई, माफ करो। ऐसे भी बहुत अड़चनें आती हैं, और यह अड़चन आ गई! शुभ कार्य में हजार बाधाएं पड़ती हैं!
नसरुद्दीन का एक धनपति की लड़की से प्रेम चल रहा था। दोनों समय निकाल कर एक-दूसरे को मिला करते थे। नसरुद्दीन उसके सामने अनेकों बार विवाह का प्रस्ताव रख चुका था, मगर वह हर बार टाल जाती थी। एक दिन उसने बड़े ही घबड़ाए स्वर में नसरुद्दीन से कहा कि जानते हो नसरुद्दीन, कल पापा का दिवाला निकल गया!
नसरुद्दीन बोला: मैं पहले ही जानता था कि वह बुड्ढा, वह खूसट हमारे विवाह में कोई न कोई अड़चन अवश्य खड़ी करेगा!
अड़चनें तो आ सकती हैं हजार! अड़चनों की कोई कमी है? जल्दी करो! कहीं कोई अड़चन ऐसी न आ जाए कि जिससे विवाह करने जा रहे हो उसके पिता का दिवाला निकल जाए, कि जिससे विवाह करने जा रहे हो वह किसी और से विवाह करने को उत्सुक हो जाए, कि जिससे विवाह करने जा रहे हो तुम्हीं उसमें उत्सुक न रह जाओ। देर नहीं करनी, अच्छे काम में कभी देर नहीं करनी। काल करै सो आज कर, आज करै सो अब; पल में परलय होएगी, बहुरि करोगे कब?
मुल्ला नसरुद्दीन के दफ्तर में, जैसा भारतीय सभी दफ्तरों में चलता है, कोई काम नहीं करता था। लोग गपशप करते, तम्बाखू बनाते हाथ में, पान चबाते, पिचकारी मारते। टांगें फैला कर कुर्सी पर झपकियां लेते, अखबार पढ़ते। सब करते--सिवाय काम के। घबड़ा गया नसरुद्दीन। एक मनोवैज्ञानिक से सलाह ली। उसने कहा: तुम यह सूत्र टांग दो जगह-जगह, हर टेबिल पर। इससे उनको बोध आएगा।
सो नसरुद्दीन ने यह दोहा जगह-जगह टांग दिया--सुंदर अक्षरों में लिखवा कर। हर टेबिल पर, आगे-पीछे, कहीं से भी नजर जाए तो दिखाई पड़ता रहे। काल करै सो आज कर, आज करै सो अब; पल में परलय होएगी, बहुरि करोगे कब?
तीसरे दिन मनोवैज्ञानिक नसरुद्दीन को रास्ते में मिला, हाथ पर पलस्तर चढ़ा था नसरुद्दीन के, सिर में पट्टी बंधी थी, लंगड़ा कर चल रहा था। पूछा मनोवैज्ञानिक ने: क्या हुआ?
नसरुद्दीन ने कहा: अब तुम कुछ बोलो मत। अब जो हुआ सो हुआ। वह तो यह कहो कि मेरी हालत अभी खराब है, नहीं तो वह मजा चखाता कि तुम्हें छठी को दूध याद आ जाता। सब मनोविज्ञान भुला देता। यह तुम्हारे दोहे की बदौलत है।
मनोवैज्ञानिक ने कहा: मैं कुछ समझा नहीं।
नसरुद्दीन ने कहा: तुम समझोगे भी नहीं, तुममें बुद्धि नहीं है। अरे, नहीं चलता था काम तो ठीक था, कम से कम सब चलता तो था, काम नहीं चलता था, कोई बात नहीं। मगर जिस दिन यह मैंने सूत्र टांगा तुम्हारा, उसी दिन गड़बड़ हो गई। मैनेजर मेरी पत्नी को ले भागा और चिट्ठी लिख कर छोड़ गया--‘बहुरि करोगे कब, पल में परलय होएगी!’ सोच तो रहा था बहुत दिन से, मगर आपने खूब चेताया; सो मैंने सोचा--कर ही गुजरो जो करना है। आप ठीक कहते हैं। चिट्ठी लिख कर रख गया है कि आप ठीक कहते हैं। असिस्टेंट मैनेजर मेरी स्टेनो को ले भागा। कैशियर साफ कर दिया पूरी तिजोड़ी और तिजोड़ी पर तख्ती लटका गया--वही तख्ती जो मैंने लटकाई थी उसके दफ्तर में। और यह तो सब ठीक था; वह जो चपरासी था, वह एकदम अंदर घुस गया और उसने मेरी पिटाई कर दी। मैंने उससे पूछा: यह तू क्या करता है? उसने कहा: यह मैं सोच रहा था आज कम से कम पंद्रह साल से; मगर तुमने वह दोहा क्या लटकवा दिया, मैंने भी सोचा कि अरे, जो करना है, सो कर ही लो! बात तो सच्ची है, कि फिर क्या पता पंद्रह साल तो यूं ही निकल गए! अरे, कल का क्या भरोसा, तुम न रहो, मैं न रहूं! सो यह हालत देख रहे हो मेरी? जरा ठीक हो जाऊं, फिर आकर तुम्हें मजा चखाऊंगा।
मुझे पता नहीं था, प्रमोद कि तुम भी शादी करना चाहते हो, नहीं तो कभी ऐसी बात नहीं कहता। सुनी, अनसुनी करो। समझो कि कही ही नहीं। शादी कर गुजरो। शादी में एकदम खराबियां ही खराबियां नहीं हैं, बड़े लाभ भी हैं। शादी न हो तो संसार में वैराग्य पैदा ही न हो। सारा वैराग्य ही विवाह पर खड़ा हुआ है। यह तो विवाह का उपद्रव ही है जो आदमी को विरागी बनाता है। नहीं तो लाख कहते रहें महात्मागण, कोई विरागी होने वाला है? ये तो पत्नियां ही हैं जिन्होंने न मालूम कितने लोगों को स्वर्ग पहुंचा दिया! पता नहीं कौन नासमझ कहता है कि स्त्रियां नरक के द्वार हैं। स्वर्ग के द्वार हैं! उसमें तरमीम कर लो, सुधार कर लो!
हां, पत्नी जरा ढंग की चुनना। ऐसी चुनना कि बस आवागमन से छुटकारा हो जाए। बार-बार फिर न चुनना पड़े। जब चुन ही रहे हो...।
आखिर बहुत सोच-विचार के बाद चंदूलाल ने एक धनी विधवा से शादी कर ही ली। काफी उत्सव चला। बधाई देने के लिए आए ढब्बू जी और नसरुद्दीन। ढब्बू जी ने चंदूलाल के कान में कहा कि पता नहीं यार, तुमने क्यों इस बदसूरत खूसट बुढ़िया से शादी कर ली! जरा देखो तो मुंह में एक दांत तक नहीं और आंखें भी कैसी भैंगी हैं कि एक कहीं जा रही है, दूसरी कहीं जा रही है!
चंदूलाल बोला: मित्रो, ये बातें कान में कहने की नहीं। अरे तुम खुल्लमखुल्ला कह सकते हो, क्योंकि इसके कान भी खुदा के फजल से बंद हो चुके हैं। अरे, बहरी भी है! खोज कर लाए हैं।
प्रमोद, खोजो ही तो फिर ठीक से ही खोज लेना, कि बस इस जीवन के बाद फिर दुबारा खोजने की जरूरत न रहे। ऐसा अनुभव हो जाए कि लाख तुम उपाय करो तो भी माया-मोह मिटा कर रहे। लाभ हैं, एकदम हानियां ही हानियां नहीं हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन के मित्र चंदूलाल एक दिन उनसे मिलने आए। नसरुद्दीन ने जब चंदूलाल को देखा तो एकदम प्रसन्नता से भर गए और दौड़ कर गले लिपट गए चंदूलाल से और उन्हें गोद में उठा कर नाचने लगे। चंदूलाल की उन्होंने बड़ी आवभगत की। पत्नी तो यह देख कर बहुत जलभुन गई। जब चंदूलाल चले गए तो गुलजान क्रोध से बोली कि सुनो जी, शर्म नहीं आती तुम्हें? अपने मित्रों के आने पर तो तुम खुशी से पागल हो जाते हो, उन्हें गोद में उठा लेते हो और नाचने लगते हो। लेकिन मेरी सहेलियां जब-जब आती हैं तो तुम ऐसा दिखलाते हो कि जैसे तुम्हें उनके आने से कोई खुशी ही न हुई हो।
नसरुद्दीन बोला: अरे नासमझ, प्रसन्नता तो उस समय भी मुझे बहुत होती है, चाहता हूं कि दौड़ कर उन्हें गोद में उठा लूं और उठा कर नाचने लगूं, आलिंगन में भर लूं। मगर जैसे ही तेरा खयाल आता है कि सब प्रसन्नता का सत्यानाश हो जाता है।
प्रमोद, एक स्त्री चाहिए ही चाहिए--दूसरी स्त्रियों से बचाने के लिए। नहीं तो तुम बड़ी मुश्किल में पड़ोगे। एक स्त्री तो होनी ही चाहिए, नहीं तो आदमी बड़ा कमजोर है, बहुत धक्कम-धक्की खाएगा। एक रक्षक चाहिए ही। हालांकि पतियों को खयाल यही होता है कि वे रक्षक हैं। स्त्रियां बड़ी होशियार हैं, वे यह भ्रांति देती हैं कि आप रक्षक हैं। मगर सचाई उलटी ही है। सचाई यह है कि पत्नी रक्षा करती है, नहीं तो ये इस गड्ढे में गिरेंगे, उस गड्ढे में गिरेंगे। ये जगह-जगह गिरेंगे, हाथ-पैर तोड़ कर आएंगे, रोज इनकी हालत खराब होती चली जाएगी।
चंदूलाल का बेटा उससे पूछ रहा था कि पापा, यह सरकार ने नियम क्यों बनाया है कि पुरुष एक ही स्त्री से विवाह कर सकता है?
चंदूलाल ने कहा: बेटा, सरकार उनकी रक्षा के लिए है जो स्वयं अपनी रक्षा नहीं कर सकते। यह पुरुषों के हित के लिए बनाया हुआ है। नहीं तो पुरुष तो ऐसी झंझट में पड़ेंगे और ऐसे पिटेंगे कि जीवन तो वैसे ही दूभर है, और दूभर हो जाएगा।
तो प्रमोद, पत्नी रक्षा करेगी। खुशी का तो सत्यानाश हो जाएगा, वह दूसरी बात है, उसकी तुम फिकर न करो। वह तो अच्छा ही है हो जाए, क्योंकि वह हो जाए तो फिर आवागमन से छूटने की इच्छा जगती है। इस देश में जितनी आवागमन से छूटने की आकांक्षा है, उतनी दुनिया के किसी देश में नहीं है। उसका कारण? इस देश में विवाह जैसा मजबूत है, वैसा दुनिया में कहीं भी नहीं। सो दुनिया में थोड़ी आशा रहती है लोगों को। यहां बिलकुल आशा नहीं रहती।
एक महिला ने पूछा है, उसी प्रश्न के उत्तर में, जो मैंने कहा--उस बाबत कि ‘आप जो विवाह के संबंध में कहते हैं, उससे मैं राजी नहीं हूं। जब से मैं और मेरे पति आपके संन्यासी हुए हैं, तब से हमारे जीवन में आनंद ही आनंद है। पहले भी हमारा जीवन बड़ा प्रेमपूर्ण था, अब और भी प्रेमपूर्ण हो गया है।’
हे देवी, कम से कम पति के दस्तखत तो करवा लेती! बिना पति के दस्तखत के मैं नहीं मानूंगा। पतिदेव क्यों चुप हैं? वे भी तो बोलें! और महिला ने लिखा है कि ‘मुझे बहुत दुख हुआ कि आपने विवाह के संबंध में ऐसी बात कह दी।’
अगर सच में ही जीवन इतना प्रेमपूर्ण है और इतना आनंदपूर्ण है तो इतनी चोट खाने की बात नहीं। कहीं कुछ गड़बड़ होगी। कहीं कोई घाव होगा, जो छू गया होगा। कहीं कोई डर लगा होगा, कहीं कुछ भय लगा होगा। नहीं तो बात चुभती नहीं। चुभने की कोई जरूरत नहीं।
मैं कुछ प्रेम के विरोध में नहीं हूं। मैं तो सिर्फ इस बात का तुम्हें इशारा देना चाहता हूं कि जीवन में जितने कम बंधन हों, उतना अच्छा। प्रेम करो, जी भर कर करो, मगर बंधन क्यों बांधने? बंधन से इतना आग्रह क्यों है? क्या तुम्हें प्रेम पर भरोसा नहीं है? प्रेम पर भरोसा है ही नहीं। प्रेम पर किसी को भरोसा नहीं है। इसलिए हमें कानून की जरूरत पड़ती है। अगर प्रेम पर भरोसा हो तो कानून की कोई जरूरत नहीं है। प्रेम पर्याप्त होगा। विवाह अनावश्यक हो जाएगा।
विवाह इसलिए आवश्यक है कि प्रेम तो संदिग्ध है मामला, कितनी देर टिकेगा! फिर कानून आएगा, अदालत रहेगी, पुलिसवाला रहेगा, मजिस्ट्रेट रहेगा, समाज, प्रतिष्ठा, ये सब रोकेंगे। अगर प्रेम पर सच में भरोसा हो तो विवाह बिलकुल अनावश्यक है। लेकिन प्रेम है कहां? और प्रेम इस देश में तो हो कैसे सकता है, यहां तो नियोजित विवाह हो रहे हैं।
अब ये प्रमोद कह रहे हैं कि मैं विवाह करना चाहता हूं। तुम विवाह करना चाहते हो कि तुम्हारे माता-पिता विवाह करना चाहते हैं? और वे तो कर ही चुके विवाह, अब उनको क्या परेशानी है? तुम विवाह करना चाहते हो कि दो पंडित जन्म-कुंडली बिठालने को बैठे हुए हैं कि वे जन्म-कुंडली मिला कर रहेंगे तुम्हारी? कि जब तक तुम जन्म-कुंडली न मिलवाओगे, तब तक उनको चैन न पड़ेगा। और जिनसे तुम जन्म-कुंडली मिलवाने जाते हो, उनकी हालत तो देखो। उनकी और उनकी पत्नी के बीच तो देखो--कैसे राग छिड़े हैं! वे अपनी नहीं मिला पाए, वे तुम्हारी मिला रहे हैं!
इस देश में सब जन्म-कुंडलियां मिल कर विवाह होते हैं और फिर कैसा तुमुलनाद छिड़ता है! कहीं कुंडलियां मिलाने से कोई विवाह बनते हैं? कहीं पंडितों से, ज्योतिषियों से मां-बाप से निर्णय होने वाला है? हां, तुम्हारा किसी से प्रेम हो, तुम्हारी प्रीति हो, तो ठीक। मैं प्रेम का पक्षपाती हूं। मैं इतना प्रेम का पक्षपाती हूं, इसलिए मैं कहता हूं कि विवाह की इतनी आतुरता क्या? इतनी जल्दबाजी क्या? क्या तुम्हें डर है कि अगर दो-चार दिन विवाह नहीं किया तो फिर ऐसा न हो कि प्रेम खिसक जाए? अगर ऐसा डर है तो रुको, क्योंकि दो-चार दिन बाद चाहे विवाह करो या न करो, वह खिसक ही जाएगा। और एक दफा विवाह कर लिया और फिर खिसक गया, तब क्या करोगे? तब बहुत मुश्किल में पड़ जाओगे। तब बहुत असुविधा अनुभव करोगे। तब फांसी लग जाएगी।
प्रेम करो, वर्ष दो वर्ष प्रतीक्षा करो। एक दूसरे के साथ रहो। जल्दबाजी बच्चों की मत करो। दो वर्ष कम से कम मौका दो। और तुम्हें लगे कि दोनों का जीवन एक आनंदपूर्ण यात्रा पर निकल रहा है साथ--विवाह हो गया! फिर विवाह की अगर औपचारिकता निभानी हो तो निभा लेना। और जब तक यह निश्चित न हो जाए कि तुम्हारा प्रेम इतना थिर है, तब तक विवाह करना मत। और जब तय हो जाए कि प्रेम थिर है, तभी बच्चों को जन्म देना! क्योंकि जो बच्चे प्रेम से पैदा होते हैं वे ही जायज बच्चे हैं, बाकी सब बच्चे नाजायज हैं। सिर्फ इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुमने अपनी पत्नी से ही बच्चे पैदा किए हैं। अगर वे बिना प्रेम के पैदा हो रहे हैं, न तुम्हारा पत्नी से कोई प्रेम है, न उसका तुमसे कोई प्रेम है, क्योंकि साथ-साथ रह रहे हो, मजबूरी है, गुजार रहे हो, अब इसी गुजारने में बच्चे भी पैदा हुए जा रहे हैं।
चंदूलाल गए थे तलाक देने। पत्नी एकदम उनको पकड़ कर ले गई अंदर। चंदूलाल तो दुबले-पतले आदमी हैं। पत्नी भारी मजबूत। अंदर ले गई एकदम और वकील से कहा कि हमें तलाक चाहिए।
सब बंटवारा हुआ जाता था लेकिन झंझट एक आ गई कि तीन बच्चे थे, तो वकील ने कहा: तीन बच्चे हैं, इनका बंटवारा कैसे हो?
तो पत्नी ने कहा कि उठो जी, अगले साल आएंगे! जब चार बच्चे हो जाएंगे तब बंटवारा कर लेंगे।
वकील भी चौंका। उसने कहा कि तरकीब तो बड़ी गजब की निकाली! मगर यह बच्चा किस तरह का होगा, जो कि तलाक के लिए पैदा किया जा रहा है? यह बच्चा किस तरह का होगा!
पत्नी ने कहा: तुम बातें फिजूल की मत करो, तुम्हें अपने कानून से मतलब, मुझे अपनी जिंदगी से मतलब। इस चंदूलाल का भरोसा ही किसको है, इसके भरोसे बैठती तो तीन भी नहीं होते!
बच्चे इकट्ठे होते चले जाते हैं, फिर जाल फैलता चला जाता है। फिर उनकी व्यवस्था करनी है, फिर उनको शिक्षा देनी है। फिर तुम उलझते चले जाते हो।
प्रमोद, विवाह करना, पहले प्रेम तो करो! पहले बीज तो बोओ, फिर फसल काटना। एकदम फसल ही काटने लगे! कहते हो: हम तो फसल काटेंगे! फसल क्या काटोगे? कागजी फूल खरीद लाओगे बाजार से। प्लास्टिक के फूल खरीद लाओगे। असली गुलाब चाहिए तो फिर मेहनत करनी होगी।
प्रेम तपश्चर्या है। प्रेम साधना है। और प्रेम से जो फूल निकलें, वे ही सुंदर हैं। प्रेम से अगर विवाह भी निकले तो सुंदर है। मैं विवाह के विपरीत नहीं हूं। मैं उस विवाह के विपरीत हूं, जो यह मान कर चलता है कि विवाह से प्रेम निकलेगा। ऐसा न कभी हुआ है, न हो सकता है। हां, कभी संयोगवशात, जैसे कोई अंधेरे में तीर मारता रहे, हजार तीर चलाए और एकाध लग जाए निशाने पर--लग जाए तो तीर, नहीं तो तुक्का--वह बात अलग। ऐसे कभी-कभी तुक्के लग जाते हैं और तीर हो जाते हैं। मगर पृथ्वी प्रेम से शून्य है।
मैं चाहता हूं--पृथ्वी प्रेम से पूर्ण हो। मैं नहीं चाहता कि तुम परमात्मा को जीवन से ऊब कर मांगो। मैं चाहता हूं--तुम परमात्मा को जीवन के उत्सव से मांगो। मैं चाहता हूं--तुम जीवन के आनंद से भर कर परमात्मा को पुकारो। उसे धन्यवाद देकर पुकारो। तुम पुकारो इसलिए कि तूने इतना दिया मुझे--अनुग्रह से, आनंद से, महोत्सव से, अहोभाव से!
मैं वैराग्य के पक्ष में नहीं हूं। मैं तो चाहता हूं कि तुम परमात्मा को, जीवन की यह इतनी महान भेंट जो उसने तुम्हें दी है, इसका रस पी कर, इसका मधुरस पी कर, इसकी मदिरा में मस्त होकर पुकारो! तब तुम्हारे जीवन में एक और ही तरह के धर्म का जन्म होगा। मैं अपने संन्यासी को उसी तरह का जीवन देना चाहता हूं--विराग का नहीं, उत्सव का; त्याग का नहीं, धन्यता का!
परमात्मा अगर धन्यवाद का अंग हो, तो ही सच है। परमात्मा अगर विराग से आ रहा है, उदासी से आ रहा है, उदासीनता से आ रहा है, तो झूठ है। वह केवल तुम्हारा हारापन है, थकापन है। वह वास्तविक धर्म नहीं है।
आज इतना ही।