QUESTION & ANSWER
Udio Pankh Pasar 06
Sixth Discourse from the series of 10 discourses - Udio Pankh Pasar by Osho. These discourses were given during MAY 11-20 1980, Pune.
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पहला प्रश्न: भगवान,
मैं धर्म करते-करते थक गया हूं; व्रत-उपवास, यम-नियम सब कर देखे, पर पाया कुछ भी नहीं। अब क्या करूं, यह पूछने आपकी शरण आया हूं।
दयानंद! धर्म करते-करते थक गए हो, लेकिन अभी करने से नहीं थके; अभी कुछ और करना चाहते हो।
पूछ रहे हो कि ‘अब क्या करूं, यह पूछने आपकी शरण आया हूं।’
जब करने से थकोगे, तभी क्रांति घटित होगी।
धर्म कृत्य नहीं है, धर्म स्वभाव है। जो करने की बात होती तो तुमने कभी की कर ली होती। करने की बात ही नहीं है। इसमें न तो व्रत का कोई कसूर है, न उपवास का, न यम का, न नियम का। कसूर है तो इस भ्रांत धारणा का कि धर्म क्रिया है, कर्म है।
धर्म अक्रिया है, अकर्म है। धर्म है शून्य, स्वभाव में ठहर जाना। कृत्य में तो आपा-धापी है, दौड़-धूप है। कृत्य तो अहंकार की प्रक्रिया है। अहंकार जीता है करने से। अहंकार बिना किए नहीं जी सकता; कुछ करो तो जीएगा। जितना करो उतना ज्यादा जीएगा। कुछ बड़ा करके दिखाओ तो अहंकार और बड़ा हो जाएगा। चपरासी हो तो छोटा अहंकार और राष्ट्रपति हो जाओ तो बड़ा अहंकार। बड़ा कृत्य करके दिखा दिया! चपरासी तो कोई भी हो जाए। राष्ट्रपति तो साठ करोड़ में कोई एक हो पाए। गरीब हो तो छोटा है अहंकार; अमीर हो जाओ तो बड़ा अहंकार।
अहंकार जीता है करने से। इसलिए अहंकार हमेशा आकांक्षा करता है--यह करूं, वह करूं; दुनिया को दिखा दूं कि मैं कुछ हूं, छोड़ जाऊं छाप इतिहास के पृष्ठों पर! छोटे-छोटे बच्चों के मन में हम जहर भरते हैं, कहते हैं: कुछ करना कि इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्ण अक्षरों में तुम्हारा नाम लिखा जाए! कुछ करना ताकि तुम्हारे वंश का नाम जीवित रहे।
यह नाम की धारणा अहंकार का ही दूसरा रूप है।
तुमने व्रत किए, मगर किसलिए? उपवास किए, किसलिए? तुम सोचते थे धर्म कर रहे हो। लेकिन धर्म का करने से कभी कोई संबंध ही नहीं रहा। धर्म तो ध्यान है और ध्यान कृत्य नहीं है। ध्यान है सारे कृत्य को छोड़ कर साक्षीभाव में विराजमान हो जाना। दौड़ना नहीं, बैठ रहना। चलना नहीं, ठहर जाना। बोलना नहीं, मौन हो जाना। शब्द नहीं, शून्य। विचार नहीं, निर्विचार।
तुम ध्यान की परिभाषाएं देखो, तो तुम सदा पाओगे वे नकारात्मक हैं। विचार--विधायक और ध्यान--निर्विचार, नकारात्मक। कृत्य--विधायक और ध्यान--अकृत्य। इस मौलिक बात को अगर समझ सको कि धर्म कहीं दूर होता तो हम पहुंच जाते चल कर। फिर जो जितनी तेजी से चलता उतनी जल्दी पहुंचता। फिर जो जितना तेज वाहन लेता उतनी त्वरा से पहुंचता। फिर जिसका जितना बल होता, भीड़-भाड़ को चीर कर आगे निकल जाता, धक्के दे कर क्यू में प्रथम हो जाता। लेकिन धर्म तो तुम्हारा स्वभाव है, दूर नहीं है। कहो कि पास है, तो भी कहना ठीक नहीं। क्योंकि पास कहने में भी दूरी ही पता चलती है। पास होना भी दूरी का ही एक नाता है। जिसको हम कहते हैं बहुत पास, उसका इतना ही अर्थ हुआ कि ज्यादा दूर नहीं है--पास।
धर्म तो तुम स्वयं हो, तुम्हारी निजता है। ‘पास’ भी कहना ठीक नहीं। तो इसको, जो भीतर ही विराजमान है, कहां चले हो खोजने? किस वन-उपवन में? किस काबा में, किस काशी में?
व्रत में क्या करोगे? अपने ऊपर एक अनुशासन थोपोगे, एक जीवन की मर्यादा बनाओगे--इतने बजे उठना, इतने बजे सोना। मगर तुम कितने ही बजे उठो, तुम तो तुम ही रहोगे! तुम पांच बजे उठो सुबह ब्रह्ममुहूर्त में तो, और तुम दस बजे सुबह उठो तो--तुम में कुछ भेद नहीं पड़ेगा। क्या तुम सोचते हो, सुबह ब्रह्ममुहूर्त में उठ आओगे तो धर्म उपलब्ध हो जाएगा? तो सारे पशु-पक्षी ब्रह्ममुहूर्त में उठते हैं। तो ऋषि-मुनि कोई नया काम नहीं कर रहे, पशु-पक्षियों की जमात में सम्मिलित हो रहे हैं। यह तो आदमी की ही खूबी है कि सूरज चढ़ जाए और सोया रहे। यह तो कोई भी पशु कर लेगा, पक्षी कर लेगा। करना ही पड़ेगा। सूरज उगा, कंबल है ही नहीं जिसको तान ले, चादर है ही नहीं जिसमें सिकुड़ जाए और एक करवट लेकर सो रहे। तुम भी उठ आए अगर सुबह जल्दी...!
और मैं यह नहीं कह रहा कि सुबह जल्दी मत उठना। उसके अलग लाभ हैं, लेकिन धर्म नहीं है। स्वास्थ्य अच्छा होगा, ताजी हवा मिलेगी। शायद तुम थोड़े दिन ज्यादा जिंदा रहो। लेकिन धर्म से कुछ लेना-देना नहीं है। ज्यादा दिन जीने वाला धार्मिक थोड़े ही हो जाता है। कम जीने वाला अधार्मिक थोड़े ही है। नहीं तो शंकराचार्य तैंतीस साल की उमर में मर गए--अधार्मिक! और कोई सौ साल जीए--तो धार्मिक। रामकृष्ण को कैंसर हुआ, तो अधार्मिक हो जाने चाहिए। और जिनको कैंसर नहीं हुआ, वे सब धार्मिक। रमण महर्षि को भी कैंसर हुआ। महावीर की मृत्यु पेचिश की बीमारी से हुई। बुद्ध की मृत्यु विषाक्त भोजन से हुई। बुद्ध तो निरंतर बीमार रहते होंगे, क्योंकि किसी सम्राट ने अपना निजी चिकित्सक--जीवक, जो उस समय का सबसे प्रसिद्ध चिकित्सक था--उनको भेंट दिया हुआ था। जीवक उनके साथ चलता था--सतत, ताकि उनकी देह की सदा सुरक्षा कर सके।
ज्यादा जीने से कोई संबंध नहीं है। कम जीने से कुछ संबंध नहीं है। न स्वस्थ होने से कोई संबंध है, न बीमार होने से कोई संबंध है। इसलिए मैं यह नहीं कह रहा हूं कि सुबह जल्दी मत उठना। उसके अपने लाभ हैं। पर इतना स्मरण रहे कि धर्म से उसका कुछ लेना-देना नहीं है।
जो व्यक्ति अनुशासन में जीता है उसके जीवन में एक सुडौलपन होता है, एक सौंदर्य होता है। उसके जीवन में एक व्यवस्था होती है। उसका जीवन अराजक नहीं होता। उसके जीवन में एक सुव्यवस्था होती है। जैसे कोई सजा-संवरा, साफ-सुथरा घर, ऐसा उसका जीवन होता है। इसलिए मैं यह नहीं कह रहा हूं कि अपने जीवन को मर्यादा मत दो, कि उच्छृंखल होकर जीओ, कि अपने जीवन को अराजक बना लो, कि एक दिन सुबह भोजन करो, दूसरे दिन आधी रात भोजन करो, तीसरे दिन दोपहर भोजन करो, अपने को अस्त-व्यस्त कर लो। यह मैं नहीं कह रहा हूं।
मर्यादा शुभ है। उसके अपने लाभ हैं। पर धर्म नहीं है। अनुशासन भी शुभ है। उससे तुम्हारे जीवन में बहुत से व्यर्थ के जाल कट जाएंगे। अनुशासनहीन जीवन व्यर्थ की उलझनों में पड़ जाता है।
तुम जरा गौर करो, तुम नामालूम कितनी बातें बोलते हो और उनको बोल कर तुम उलझनों में फंस जाते हो। झगड़े-झांसे हो जाते हैं। पीछे तुम पछताते हो कि न कहा होता तो भी चल जाता, मुझे बोलने की कोई जरूरत भी न थी।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन और उसके तीन साथियों ने तय किया कि सात दिन का मौन रखें। गए, पहाड़ की एक गुफा में बैठे। दृढ़ संकल्प करके गए थे। कोई पांच-सात मिनट ही बैठे होंगे कि पहले ने कहा कि मैं बड़ी उलझन में पड़ा हूं, पता नहीं बिजली घर की बुझा आया कि जलती छोड़ आया! और अब सात दिन यहां बैठना है, बिजली का बिल चढ़ जाएगा।
दूसरे ने उससे कहा: अरे बुद्धू, यहां हम मौन होने के लिए आए हैं और तू बोल गया!
तीसरे ने कहा: नालायक तू भी है। अरे वह बोला था सो बोला था, तू क्यों बोला?
मुल्ला नसरुद्दीन ने हाथ जोड़े आकाश की तरफ और यह कहा: अल्लाह मियां, एक मैं ही हूं जो अब तक चुप हूं।
थोड़ा सा जीवन में अनुशासन उपयोगी है। अनुशासनहीनता एक तरह की विकृति है। उससे जीवन बेडौल हो जाता है, जीवन का संगीत खो जाता है। इसलिए मैं अनुशासन का विरोध नहीं कर रहा हूं; यद्यपि अनुशासन अपने ही भीतर से आना चाहिए, बाहर से आरोपित नहीं होना चाहिए। जिसे दूसरा तुम्हारे ऊपर थोप दे, वह अनुशासन नहीं है, वह तानाशाही है। जिसे तुम अपनी बुद्धि से, अपने विवेक से अपने जीवन को संवारने के लिए सोचो, निर्णय करो--वह शुभ है। एक दृढ़ता आएगी, एक प्रखरता आएगी। तुम्हारी तलवार पर धार आएगी। लेकिन धर्म नहीं।
कभी-कभी उपवास भी प्रीतिकर है, क्योंकि आदमी पेट से जरूरत से ज्यादा काम लेता रहता है। पेट के ऊपर जितना अनाचार आदमी करता है, उतना कोई और नहीं करता। पशु-पक्षी भी जब बीमार होते हैं तो भोजन बंद कर देते हैं। तुम लाख उपाय करो, तो भी भोजन नहीं लेंगे। तुम्हारा कुत्ता भी तुमसे ज्यादा समझदार है। अगर उसकी तबीयत ठीक नहीं होगी, बाहर जाएगा, घास खा लेगा और वमन कर देगा, ताकि पेट हलका हो जाए। क्योंकि जब देह रुग्ण है और पेट पर बोझ रखना देह पर दोहरा बोझ डालना है। एक बीमारी का बोझ, एक भोजन को पचाने का बोझ। अभी तो उचित है कि भोजन को पचाने से शरीर को छुटकारा दिला दिया जाए, ताकि शरीर बीमारी से निपट ले। इसलिए कभी-कभी उपवास सुंदर है, कभी-कभी पेट को छुट्टी दे देनी उपयोगी है।
परमात्मा भी थक गया था--ईसाइयों की कहानी कहती है। छह दिन में दुनिया बनाई, सातवें दिन आराम किया। वह तो परमात्मा ने अच्छा किया कि सातवें दिन आराम किया, नहीं तो रविवार की छुट्टी असंभव थी। वह तो ईसाई ले आए, नहीं तो भारत में कहीं रविवार की छुट्टी होने वाली थी! सारी दुनिया में अगर ईसाइयों ने कोई अच्छी बात पहुंचाई, तो रविवार की छुट्टी। क्योंकि जब परमात्मा ही विश्राम करे तो फिर आदमी को तो विश्राम करना ही चाहिए।
तो कभी-कभी उपवास उपयोगी है। लेकिन उपवास कोई जीवन की शैली नहीं है। तब तो तुम भूखे मरने लगे। तब तो तुमने एक तरह का आत्मघात चुन लिया। तब तो तुम अपने को सताने में मजा लेने लगे। तब तो तुम दुष्ट प्रकृति के हो, हिंसक हो। तुम्हारा उपवास तब अनाचार है--अपने ऊपर ही अनाचार है। इसलिए कोई रक्षा भी नहीं कर सकता। और मूक देह पर तुम वैसे ही बहुत अनाचार करते हो। इस अनाचार से कोई तुम धर्म को उपलब्ध हो जाओगे, ऐसा मत समझ लेना। हां, शरीर सूख जाएगा, कुम्हला जाएगा। शरीर के कुम्हला जाने से कोई आत्मा का कमल खिल जाता है, इस भ्रांति में मत पड़ना। इन दोनों का कोई अनिवार्य संबंध नहीं है।
तो तुमने जो भी किया, यम-नियम, व्रत-उपवास, सब अपना मूल्य रखते हैं--अपनी जगह। लेकिन जब तुम इनको धर्म का पर्यायवाची मान लेते हो दयानंद, तब भूल हो जाती है। ये धर्म के पर्यायवाची नहीं हैं। धर्म का तो सिर्फ एक ही पर्यायवाची है--वह ध्यान है। महावीर ने उसके लिए ठीक शब्द उपयोग किया--‘सामायिक।’ महावीर आत्मा को समय कहते हैं। सामायिक का अर्थ होता है: आत्मा में ठहर जाना, आत्मा में डूब जाना। महावीर ने जैसा प्यारा शब्द उपयोग किया, ऐसा किसी और ने नहीं किया। पतंजलि कहते हैं: समाधि--जहां सब समस्याओं का समाधान हो जाए; जहां सब समस्याएं गिर जाएं; जहां तुम भूल ही जाओ कि कोई समस्या है। ऐसे शून्य, ऐसे मौन, ऐसे निर्विचार, ऐसे निर्विकल्प--तब ध्यान का अनुभव होगा।
दयानंद, कुछ तो तुम्हारी समझ में आया।
तुम कहते हो: ‘मैं धर्म करते-करते थक गया...।’
अच्छा हुआ, शुभ हुआ। धन्यभागी हो कि कम से कम धर्म करते-करते थक तो गए। कुछ मूढ़ तो ऐसे हैं कि करते ही चले जाते हैं, थकते ही नहीं। और अगर कुछ हाथ नहीं आता तो वे न मालूम कितने-कितने तर्क खोज लेते हैं कि क्यों हाथ नहीं आ रहा है।
पिछले जन्मों के कर्म बाधा डाल रहे हैं। जन्मों-जन्मों के कर्म बाधा डाल रहे हैं, इसलिए हाथ नहीं आ रहा है। और करो मेहनत, और करो श्रम! रेत से तेल निचोड़ने की कोशिश कर रहे हैं और सोच रहे हैं कि तेल इसलिए नहीं निकल रहा, क्योंकि पिछले जन्मों के कर्म बाधा डाल रहे हैं। रेत से तेल निकलेगा ही नहीं, चाहे पिछले जन्मों में शुभ कर्म किए हों और चाहे अशुभ कर्म किए हों। रेत में तेल पहले हो तो, तो निकले! निचोड़-निचोड़ कर तुम्हीं निचुड़ जाओगे। तुम्हारा ही तेल निकल जाए तो बात अलग। मगर रेत से तेल निकलने वाला नहीं है।
मगर लोग तर्कजाल फैला लेते हैं। और लोगों को अपने को समझाने के लिए समाधान भी तो चाहिए, सांत्वना भी तो चाहिए। तुम्हारे पंडित-पुरोहित इसीलिए हैं, तुम्हारे संत-महात्मा इसीलिए हैं कि जब तुम थकने लगो, हारने लगो, तो वे तुम्हारे दीये की लौ को उकसाते रहें, तुम्हें उत्साह देते रहें कि बेटा, बढ़े चलो, चले चलो, अब ज्यादा दूर मंजिल नहीं है। वे तुमको धक्के देते रहे हैं और वे तुम्हें कारण बताते रहे हैं कि क्यों नहीं पहुंच रहे हो, चाहे तुम्हारी दिशा ही गलत क्यों न हो।
और धर्म की दिशा, सौ में निन्यानबे मौकों पर तुम जो भी कर रहे होते हो, गलत ही होती है। शायद सौ में एक ही मौका ऐसा होता है, जब धर्म की दिशा गलत नहीं होती। लेकिन वह घटना कृत्य से नहीं घटती। वह कभी-कभी, अनायास, आकस्मिक घटती है। सांझ को सूर्य को डूबते हुए देखा और तुम तल्लीन हो गए--तुम ऐसे तल्लीन हो गए कि भूल ही गए, सब भूल गए! न स्मरण रहा अपना, न स्मरण रहा देह का, न चित्त में कोई और विचार रहे। बदलियों पर फैल गए ये सुखद रंग! सूरज का यह डूबता हुआ अनूठा रूप! यह सागर पर छा गई सूरज की लालिमा! तुम एकदम अवाक रह गए--आश्चर्य-विमुग्ध! क्षण भर को जैसे सब ठहरा, समय ठहरा और एक झलक मिली--आनंद की, सौंदर्य की, काव्य की! यह झलक तुम्हारे भीतर से आती है। मगर तुम सोचते हो कि यह सूर्यास्त के कारण मिल रही है। यह झलक आई इसलिए कि सब कृत्य बंद हो गया। कृत्य बंद हो गया तो धर्म की एक बूंद चू पड़ी। एक बूंद ही, लेकिन उसका स्वाद भी बड़ा मधुर है। एक बूंद अमृत भी काफी है।
इसलिए मैं तुमसे कहता हूं: अक्सर यह हो जाता है कि तुम्हारे त्यागी-तपस्वियों की बजाय कवि और चित्रकार और मूर्तिकार और संगीतकार धर्म के ज्यादा करीब होते हैं। तुम्हारे त्यागी-तपस्वियों का तो धर्म से कुछ संबंध दिखाई पड़ता नहीं। हां, कोई वीणा को बजाते-बजाते ऐसा लीन हो जाता है कि वीणा जैसे अपने से बजने लगती है। बजाने वाला मिट गया। कृत्य न रहा। वीणा अपने से बजने लगी। तब उस क्षण कुछ अनूठा घटता है। हालांकि वीणावादक यही समझेगा कि यह जो रस आया, यह संगीत का है। यह संगीत का नहीं है।
उपनिषद ठीक कहते हैं, परमात्मा की एक ही परिभाषा की जा सकी है अब तक--रसो वै सः! वह रस-रूप है। जहां से भी रस बह जाए, समझ लेना कि वहां परमात्मा से संबंध हुआ। उसका रूप रस है। रस यानी एक मिठास--एक ऐसी मिठास जो रोएं-रोएं को भर जाती है; एक ऐसा स्वाद कि तुम नहा गए, कि तुम ताजे हो गए। मगर वीणावादक भूल करेगा। वह यही समझेगा कि वीणा के कारण हुआ। मूर्तिकार यही भूल करेगा; वह समझेगा कि मूर्ति बनाने के कारण हुआ। चित्रकार भूल करेगा। मगर भूल भी करें वे, निष्पत्ति उनकी गलत है। विचार से उन्होंने जो सोचा है, वह गलत है। लेकिन जो प्रतीति हुई थी, वह ठीक दिशा में थी।
मगर त्यागी-तपस्वियों को तो कुछ भी नहीं मिलता। उनसे ज्यादा कोरे और खाली लोग खोजने मुश्किल हैं। वे बिलकुल थोथे हैं। मगर तुम्हारा उनके लिए बड़ा सम्मान है। उतना ही उनका रस है। उनके अहंकार को तुमसे तृप्ति मिलती है। तुम सम्मान देते हो, उनके अहंकार को तृप्ति मिलती है। और इतना सस्ता अहंकार और किसी तरह से पाया नहीं जा सकता। धन कमाओ तो मेहनत करनी पड़ती है; आसान नहीं है। बड़ी प्रतिस्पर्धा है, गलाघोंट प्रतियोगिता है। लाखों लोग लगे हुए हैं, जूझना पड़ेगा। फिर भी कोई पक्का नहीं है कि जीत जाओ। सब जुए का खेल है। कभी कोई जीतता है। अधिक लोग तो हारते ही हैं। पद पाना है तो जी-जान लगा कर दौड़ना पड़ेगा। दीवानापन चाहिए, बिलकुल पागलपन चाहिए।
लेकिन त्यागी बनना हो तो कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है। वहां कोई प्रतियोगी ही नहीं है। और धन कमाना हो या पद पर पहुंचना हो तो कुछ तो कुशलता चाहिए, कुछ तो गुणवत्ता चाहिए, कुछ तो बुद्धि चाहिए। त्याग करने के लिए कोई बुद्धि की आवश्यकता है? उपवासे बैठे रहने के लिए कोई बुद्धि की आवश्यकता है? निर्बुद्धि से निर्बुद्धि आदमी बैठ सकता है। सच तो यह है सिर्फ निर्बुद्धि ही बैठेगा। बुद्धिमान क्यों बैठेगा भूखा, किसलिए बैठेगा? बुद्धिमान क्यों अपने शरीर को सताएगा? निर्बुद्धि ही इस तरह के काम कर सकता है। उसकी चमड़ी बहुत मोटी होती है। लेकिन उसे सम्मान मिलेगा, सत्कार मिलेगा। जो धन वह कभी नहीं पा सकता था, वे ही धनी उसके चरणों में सिर झुकाएंगे। जो पद वह कभी नहीं पा सकता था, वे ही पद वाले उसके चरणों मे सिर रखेंगे। उसके अहंकार को आनंद ही आनंद आ रहा है। मगर यह अहंकार का आनंद है। धर्म का इससे कुछ लेना-देना नहीं है।
दयानंद, एक बात तो तुम्हें समझ में आई सो अच्छा हुआ, कि ‘धर्म करते-करते तुम थक गए।’ लेकिन एक और बात अगर समझ में आ जाए तो बिगड़ी बात अभी भी बन सकती है। अभी तुम करने से नहीं थके। अभी तुम फिर पूछ रहे हो कि ‘अब क्या करूं, यह पूछने आपकी शरण में आया हूं।’ करने से भी थकना होगा। नहीं तो तुम यूं ही भटकते रहोगे। इस करने से, उस करने में। उस करने से और करने में। तुम्हें बताने वाले मिल जाएंगे कि यह करो। हजार-हजार बातें बताई जा सकती हैं करने के लिए।
लेकिन, यहां अगर तुम आ गए हो तो मैं तो ‘न करना’ सिखाता हूं। यहां तो जो भी आयोजन है वह ‘न करने’ की दिशा में है। नाचते भी हैं लोग, गीत भी गाते हैं, संगीत भी बजाते हैं--लेकिन सबका आयोजन उसी तरफ इशारे के लिए है। सारे तीर एक ही तरफ जा रहे हैं कि जल्दी ही तुम सीख सको कि बस खाली बैठ सको, बिना कुछ किए। राम-राम भी न जपना पड़े, क्योंकि वह भी बकवास है। धार्मिक बकवास समझ लो, मगर बकवास तो बकवास है। अगर कोई आदमी बैठ कर अंट-शंट कोई शब्द बके तो तुम उसको धार्मिक नहीं कहोगे। जैसे कोई आदमी बैठा कहे: कोकाकोला, कोकाकोला, कोकाकोला, तो तुम कहोगे कि ‘तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है? होश से बातें करो! बंद करो यह बकवास!’ लेकिन वही आदमी बैठ कर अगर कहे कि राम-राम-राम, तो अहा, धार्मिक काम कर रहा है! बात वही की वही है। कोकाकोला में भी उतने राम हैं जितने राम में, इससे ज्यादा नहीं; शायद थोड़े ज्यादा ही हों। थोड़ा रस तो है कोकाकोला में, राम में वह भी नहीं। पीओगे तो थोड़ी देर को तो कम से कम राहत मिलेगी। राम में तो कुछ भी नहीं है। यह तो तुम सूखी हड्डी चूस रहे हो। मगर राम-राम कोई कर रहा हो तो तुम्हें लगता है, धार्मिक कार्य कर रहा है। यह कोई धार्मिक कार्य नहीं है।
कोई कार्य धार्मिक नहीं है, अगर मेरी बात तुम्हें समझ में आ सकती हो तो। बैठ रहना, चुप हो रहना। न प्रार्थना, न मंत्र, न जाप। वह अजपा स्थिति--जहां कोई तरंग नहीं उठती चेतना में, जहां कोई आकांक्षा भी नहीं पाने की। फिर क्या घटेगा? थोड़ा सोचो! जहां कोई हलचल नहीं है, वहां तुम अपने में ही डूब जाओगे। डूब ही जाओगे। कुछ और बचा नहीं जाने को कहीं। भागने को कोई उपाय न रहा। तुम अपने में लीन हो जाओ। उस लीनता में, उस तल्लीनता में तुम्हें पहली दफा धर्म का अनुभव होगा।
दयानंद, अब करने की मत पूछो। अब तो ‘न करने’ की बात समझो। फिर तुम्हारे भीतर जब ‘न करने’ से धर्म का अनुभव हो जाए, तो मैं कोई अकर्मण्यता नहीं सिखा रहा हूं। फिर तुम्हारे जीवन में कृत्य हो सकता है, लेकिन उस कृत्य का पूरा का पूरा गुण बदल जाएगा। फिर तुम जो करोगे वह आनंद से करोगे--कुछ पाने के लिए नहीं, बल्कि इसलिए कि कुछ पा लिया है। वह तुम्हारे भीतर के रस से झरेगा। तुम सक्रिय हो जाओगे, बहुत सक्रिय हो जाओगे। शायद पहले इतने सक्रिय कभी न रहे थे। लेकिन अब कृत्य की पूरी गुणवत्ता और होगी। अब इसका कोई लक्ष्य नहीं होगा। अब यह अपने आप में आनंद होगा। अब तुम गीत गाओगे तो अपने में आनंद, तुम वीणा बजाओगे तो अपने में आनंद। तुम ब्रह्ममुहूर्त में उठोगे तो अपने में आनंद। इसलिए नहीं कि इससे कुछ पाना है। तुम पाओगे कि यह अपने में ही आनंद है, पाना क्या है? फिर तुम अगर जाकर मंदिर में झुक रहोगे तो यह अपने में ही आनंद है; इसलिए नहीं कि कुछ पाने गए थे, कोई सौदा करने गए थे, कि परमात्मा को फुसलाने गए थे, कि उसकी खुशामद करने गए थे, कि उसकी स्तुति करने गए थे।
इस देश में रिश्वत को मिटाना मुश्किल पड़ रहा है और मुश्किल पड़ेगा, क्योंकि यह कार्य बहुत प्राचीन है और बहुत धार्मिक है। हम परमात्मा तक को रिश्वत देते रहे, तो आदमी की क्या बिसात! जब परमात्मा तक रिश्वत स्वीकार करता है, तो बेचारे छोटे-मोटे अफसर--पुलिसवाला, स्टेशन-मास्टर, डिप्टी-कलेक्टर, इनकी क्या हैसियत! तुम तो हनुमान जी को दे आते हो रिश्वत, कि मेरे लड़के को पास करवा देना, एक नारियल चढ़ाऊंगा। और हनुमान जी भी खूब हैं, एक नारियल के पीछे तुम्हारे लड़के को पास भी करवा देते हैं! गजब के हनुमान जी हैं। और तुम कभी सोचते नहीं कि तुम क्या कह रहे हो।
तुम मंदिर जाओ, मस्जिद जाओ, गिरजा जाओ, गुरुद्वारा जाओ--मगर जाने का कारण एक कि कुछ पाना है। आनंद को उपलब्ध व्यक्ति भी जाएगा, लेकिन पाने नहीं, बांटने। उसके जीवन में करुणा होगी, प्रेम होगा, दया होगी। उसके जीवन में बहुत फूल खिलेंगे, लेकिन वे सारे फूल स्वांतः सुखाय! वह अगर गुनगुनाएगा भी उपनिषद तो इसलिए नहीं कि कुछ पाना है, बल्कि इसलिए कि उपनिषद के गुनगुनाने का मजा ही और! यह वाणी मधुर है, इसलिए। वह अगर धम्मपद को स्मरण करेगा तो इसलिए नहीं कि धम्मपद को स्मरण करने से भगवान बुद्ध प्रसन्न हो जाएंगे और जब प्रसन्न हो जाएंगे तो फिर कुछ काम बनेगा, कुछ काम सटेगा। नहीं, उसे प्यारे लगते हैं वचन। अब तो उसका अनुभव भी यही है। बुद्ध इसी अनुभव को इतने सुंदर ढंग से कह सके हैं कि वह स्वयं कहने में असमर्थ है। उसके पास ऐसी वाणी नहीं, उसके पास ऐसे सुंदर शब्द नहीं। इसलिए उपनिषद है, कुरान है, बाइबिल है, धम्मपद है, जिन-वचन हैं; लेकिन अब इनसे पाने की कोई आकांक्षा नहीं है। अगर अब परमात्मा भी उसको मिल जाए और कहे कि कुछ मांग लो, तो वह बड़ी मुश्किल में पड़ जाएगा। वह कहेगा: अब क्या मांगना है! जो मांगना था वह मिल चुका। अब तो तुम्हें कुछ चाहिए हो तो मुझसे ले लो।
और अभी तुम्हें परमात्मा तो क्या, अगर भूत-प्रेत भी मिल जाए, तो तुम उसी के पैर पर गिर पड़ोगे।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन को धंधे में नुकसान लग गया, दिवाला निकलने के करीब आ गया। तो गया कि कूद जाऊंगा नदी में। आधी रात का सन्नाटा, नदी के पुल पर कोई भी नहीं। बस, वह कूदने को ही था कि किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखा। लौट कर उसने देखा--ऐसी कुरूप स्त्री उसने अपने जीवन में नहीं देखी थी! सुन रखा था चुड़ैलें होती हैं, मगर देखी पहली दफा। एकदम घबड़ा गया। मौत से नहीं घबड़ा रहा था, चुड़ैल से घबड़ा गया। लेकिन चुड़ैल ने कहा...खिलखिला कर हंसी पहले तो। उसकी खिलखिलाहट नसरुद्दीन के प्राणों में ऐसे गई जैसे कोई कटार चुभो दे। थर-थर कांपने लगा। कहा कि मुझे छोड़ो, मैं तो मरने जा रहा हूं। उसने कहा: पहले मेरी सुनो। क्यों मरते हो? मैं तुम्हें तीन वरदान दे सकती हूं, अगर तुम मेरी एक इच्छा पूरी करो।
नसरुद्दीन ने कहा: वे कौन से तीन वरदान हैं?
कहा: जो तू मांगे। तो नसरुद्दीन ने कहा: ठीक। तो पहला तो यह कि मेरा बैंक-बैलेंस दस लाख का हो जाए।
उसने कहा: कल सुबह हो जाएगा। दूसरा बोल।
उसने कहा कि दूसरा कि मैं जवान हो जाऊं फिर से।
उसने कहा: सुबह, सूरज ऊगते ही अपना मुंह जाकर दर्पण में देख लेना। और तीसरा?
उसने कहा कि मेरी पत्नी भी जवान हो जाए, नहीं तो मैं जवान हो गया, वह बूढ़ी रही तो और झंझट खड़ी होगी।
उसने कहा: कल सुबह तू देखना। कोई अभिनेत्री तेरी पत्नी का मुकाबला न कर सकेगी। सबको मात कर देगी। अब तू मेरी इच्छा पूरी कर।
नसरुद्दीन ने कहा: बोल, तेरी क्या इच्छा है?
तो उसने कहा कि आज रात मेरे साथ प्रेम कर। प्राण कंप गए। छाती की हड्डियां बजने लगीं। इस नर-कंकाल औरत से...पता नहीं सौ साल पुरानी है कि दो सौ साल पुरानी है कि तीन सौ साल पुरानी है, जिंदा है कि भूत-प्रेत है, कि क्या है कि क्या नहीं है...मगर आदमी लोभ में करने को क्या राजी न हो जाए! वे जो तीन मांगें पूरी करने वाली है, इसी शर्त पर करेगी। सोचा कि आंख बंद करके किसी तरह रात गुजार देंगे। अल्ला मियां का नाम ले-ले कर रात गुजार देंगे। अरे, एक ही रात की तो बात है, फिर तो पांसा पलट ही जाएगा, सुबह दस लाख का बैंक-बैलेंस, जवान, जवान औरत, क्या कहने!
चल पड़ा। वह बुढ़िया ले गई उसे अपने मकान पर। रात भर उस बुढ़िया ने सताया उसे। वह तो कहती थी प्रेम कर रही है, मगर नसरुद्दीन की तरफ से सताया ही जाना था। और नसरुद्दीन को भी प्रेम करना पड़ा उस बुढ़िया को। सुबह की राह देख रहा था और रात ऐसी लगे कि जैसे कटेगी ही नहीं, कि जैसे रात का अंत आने वाला नहीं है। बार-बार घड़ी की तरफ देखे, जैसे घड़ी भी आज धीमे-धीमे चल रही है। और उस स्त्री ने रात भर परेशान किया, निचोड़ कर रख दिया इस नसरुद्दीन को। बचा-खुचा दिवाला भी निकल गया। सुबह हुई। नसरुद्दीन उठा, वह बुढ़िया एकदम खिलखिला कर हंसने लगी। नसरुद्दीन ने पूछा: तू क्यों हंसती है?
उसने कहा: मैं इसलिए हंसती हूं...मुझे तुम पर बड़ी दया आती है। तुम्हारी उम्र कितनी है?
नसरुद्दीन ने कहा: साठ साल।
उस बुढ़िया ने कहा: तुम सठिया गए। अरे, साठ साल के हो गए और अभी भी तुम चुड़ैलनों में भरोसा करते हो और तुम सोचते हो कि चुड़ैलनें तुम्हारी इच्छाएं पूरी कर देंगी! अब भागो, घर जाओ!
और उसने कहा: बैंक-बैलेंस? और दर्पण? और मेरी पत्नी?
उसने कहा: अपने घर जाओ और मरना हो तो अब मर जाना। मगर तुम पर मुझे दया आती है कि तुम साठ साल के हो गए और अभी इस तरह की बातों में भरोसा करते हो कि कोई चुड़ैलन मिल जाएगी और तुम्हारी सब इच्छाएं पूरी कर देगी। तुम निपट बुद्धू के बुद्धू रहे!
मगर तब तक तो बहुत देर हो चुकी थी। लौट कर बुद्धू घर को आए, जान बची और लाखों पाए! अब तो मरने तक की आकांक्षा चली गई कि अब मर कर भी क्या करना, अब मरने से भी बड़ा कष्ट रात भर देख लिया। नरक के दर्शन यहीं हो गए।
तुमको अगर चुड़ैलन भी मिल जाए, भूत-प्रेत भी मिल जाएं और कहें कि तुम्हारी इच्छा पूरी कर देंगे, तो तुम एकदम अपनी इच्छाओं का जाल फैला दोगे, फेहरिश्त खोल दोगे पूरी। लेकिन जिस व्यक्ति को धर्म का अनुभव हुआ है, वह धन्यवाद देगा परमात्मा को कि आपकी बड़ी कृपा, बड़ी अनुकंपा! लेकिन अब मुझे कुछ चाहिए नहीं। जो पाना था वह मेरे भीतर था। मैं दौड़ता रहा, इसलिए चूकता रहा। पाने की कोशिश करता रहा, इसलिए भटकता रहा। जब मैंने सब कोशिश छोड़ दी तो उसे अपने ही भीतर जान लिया, जी लिया, पा लिया। मैंने सब पा लिया। आपकी अनुकंपा है, धन्यवाद! अब मुझे कुछ और चाहिए नहीं। अपने को पा लिया तो सब पा लिया। अपने को जान लिया तो सब जान लिया। अपने को जीत लिया तो सारा अस्तित्व जीत लिया।
दयानंद, अब करने की बात छोड़ो। अब यहां अगर आ गए हो तो अपने पर दया करो, तुमने काफी कष्ट अपने को दे लिए।
कहते हो: ‘व्रत-उपवास, यम-नियम सब कर देखे, पर कुछ पाया नहीं।’
वह तुम पाने की आकांक्षा से कर रहे थे, इसलिए गड़बड़ हो गई। अब यहां तुम मिटना सीखो। पाना नहीं, खोना सीखो। शून्य होना सीखो। और तुम चकित हो जाओगे यह बात जान कर कि जिस दिन तुम शून्य होने में समर्थ हो, उसी दिन पूर्ण तुम्हारे भीतर उतर आता है। सब पा लिया जाता है, मिटने की तैयारी चाहिए! खोने की तैयारी चाहिए और सब मिल जाता है। और फिर तुम्हारे जीवन में व्रत भी होंगे, नियम भी होंगे, उपवास भी होंगे।
यही तो एक बहुत बड़ी अड़चन की बात बनी है। महावीर ने उपवास किए, इसलिए जैन मुनि उपवास कर रहे हैं। लेकिन बड़ी भ्रांति हो गई। महावीर ने उपवास किए, क्योंकि उन्होंने धर्म का अनुभव किया। उस धर्म के अनुभव से उपवास में उन्हें आनंद आया। उपवास का अर्थ समझते हो? उपवास का अर्थ होता है: अपनी आत्मा के पास निवास। उपवास शब्द का अर्थ ही यही होता है: अपने पास होना। उसका मतलब अनशन नहीं होता। महावीर ने उपवास किए और जैन मुनि अनशन कर रहे हैं। उनको मैं उपवासी नहीं कहता। उपवास का अर्थ होता है: वे अपने पास आ गए, इतने पास आ गए, अपने में ऐसे लीन हो गए कि दिन आए और गए, वे अपनी मस्ती में ऐसे डूबे कि भूल ही गए! भूख भूल गई, प्यास भूल गई।
तुम्हें पता नहीं है, कभी-कभी जब तुम आनंदित होते हो तो भूख भी भूल जाती है, प्यास भी भूल जाती है। यह जान कर तुम चकित होओगे कि दुख में कभी भूख नहीं भूलती। इसलिए दुखी लोग ज्यादा खाते हैं और मोटे हो जाते हैं। यह दुखी लोगों का लक्षण है। कोई पशु मोटा नहीं दिखाई पड़ेगा। कोई पशु तुम्हें ऐसा नहीं दिखाई पड़ेगा कि नित्यानंद महाराज, कि अखंडानंद महाराज! कोई पशु ऐसा नहीं दिखाई पड़ेगा। अगर तुम हजार बारहसिंगों की कतार देखो तो तुम एक सा पाओगे--एक सा अनुपात उनकी देह का। क्या चमत्कार है! और तुम क्या सोचते हो ये कोई डंड-बैठक लगाते हैं, कि कोई योगासन वगैरह करते हैं, शीर्षासन वगैरह करते हैं, कि कोई पतंजलि के सूत्रों का अनुसरण कर रहे हैं। नहीं, ये दुखी नहीं हैं। यह आश्चर्य की बात है कि तुम्हारे तथाकथित महात्मागण या तो जैनियों के मुनि हैं, जो सूख कर हड्डी हो जाते हैं और या फिर हिंदुओं के महात्मा हैं, जो फूलते ही चले जाते हैं।
नित्यानंद महाराज की तस्वीर देखी? तस्वीर देखोगे तो चकित हो जाओगे। और लोगों को तोंद होती है, अगर नित्यानंद को देखोगे तो तुमको पता चलेगा, यहां हालत बिलकुल उलटी है--इसमें तोंद को आदमी है! आदमी को तोंद, ऐसा तुम कह ही नहीं सकते। बस तोंद है, उसमें जरा सा आदमी जुड़ा हुआ है। इधर ऊपर सिर लगा दिया, इधर दो टागें लगी दीं, दो हाथ लगा दिए, बाकी असलियत में तोंद है। यह दुखी आदमी का लक्षण है।
आज अमरीका में सबसे बड़ी जो समस्या है, वह है मोटापन। लोग एकदम मोटे होते जा रहे हैं। कारण? बहुत दुख है, मानसिक दुख है। मनोवैज्ञानिक इस तथ्य पर पहुंचे हैं कि जो आदमी जितना मानसिक रूप से दुखी होता है, तनावग्रस्त होता है, जितना अपने को खाली-खाली अनुभव करता है, वह उतना ही भोजन से अपने को भर लेता है। भोजन से भरना अपने दुख को भुलाने का एक उपाय है। वह दिन भर बैठा कुछ न कुछ चबाता ही रहेगा। नहीं कुछ होगा तो पान ही चबाएगा, तम्बाकू चबाएगा, कुछ न कुछ खाता रहेगा। अमरीकन पांच दफा दिन में भोजन करते हैं। और बीच की तो बात छोड़ दें, पांच दफे के बीच में जो करते हैं उसका तो अलग ही हिसाब है। बस, जरा ही मौका मिला उनको कि चले फ्रिज की तरफ।
एक महिला बहुत मोटी हो गई थी। उसके डॉक्टर ने कहा कि तू एक काम कर, यह सुंदर तस्वीर ले जा। उसने एक फिल्म अभिनेत्री की नग्न तस्वीर दी--समानुपातिक देह; सारे अंग जैसे होने चाहिए वैसे, अति सौष्ठव, अति सौंदर्य! और कहा कि इस तस्वीर को तू अपने फ्रिज में लगा दे। तो जब भी तू खोलेगी और देखेगी इस तस्वीर को, तो तुझे याद आ जाएगा कि मत भोजन कर। ऐसा सुंदर तेरा भी रूप हो सकता है।
मनोवैज्ञानिकों के इस आधार पर अमरीका में अब तो...! अभी मैं कुछ दो महीने पहले खबर पढ़ा कि फ्रिज बन गए हैं कि तुम दरवाजा खोलो, वे तत्क्षण तुमसे कहते हैं: अपने पर दया करो! कुछ खयाल रखो! क्या कर रहे हो, पुनर्विचार करो। तुम आइस्क्रीम निकाल रहे हो और वे कह रहे हैं: अपने पर दया करो। फिर एक बार सोच लो। पीछे पछताओगे। इस तरह के वचन बोल रहे हैं।
यह इस घटना के पहले की कहानी है।...तो उस महिला को बात जंची। उसने जाकर तस्वीर टांग ली अपने फ्रिज में और सच में इसका परिणाम हुआ। उसका वजन कम होने लगा, क्योंकि जब भी वह दरवाजा खोले...औरतों को तो एक-दूसरे से बड़ी ईर्ष्या होती है, तस्वीरों तक से ईर्ष्या हो जाती है, असली औरत होना जरूरी नहीं है। उसको भारी ईर्ष्या होने लगी कि ऐसा ही करके दिखाऊंगी। जाकर कभी खोल भी ले दरवाजा, जो तस्वीर दिखाई पड़े, फौरन दरवाजा बंद कर दे कि नहीं, संयम रखना है। मगर एक बड़ी हैरानी हुई: वह तो दुबली होने लगी, पति उसका मोटा होने लगा! पत्नी ने कहा कि मामला क्या है। उसने कहा: दुष्ट, जब से तूने वह फोटो टांगी है, तब से मुझे जब भी मौका मिलता है मैं फोटो देखने के लिए जाता हूं। और जब फोटो देखने गया तो सोचता हूं, थोड़ा आइस्क्रीम भी ले लो कि थोड़ा चलो भुट्टा ही निकाल लो एक। हटा वह तस्वीर, नहीं तो मैं मारा गया। तू तो दुबली हुई जा रही है और मेरी फांसी लगा दी। मुझे चैन ही नहीं मिलता। अखबार पढ़ रहा हूं, बीच-बीच में खयाल आ जाता है कि जरा देख तो आऊं, क्या तस्वीर लाई है तू भी!
लोग खाली हैं, किसी भी तरह अपने को भर रहे हैं। बैठे-बैठे चबाते रहते हैं। अमरीका में लोग कुछ नहीं तो गाद ही चबाते रहते हैं। मुंह चलता रहना चाहिए। मुंह नहीं चलता तो उनको बेचैनी होने लगती है कि अब क्या करें, यह एक तरह का मंत्रोच्चार है--गाद चबा रहे हैं। कोई पान चबा रहा है, कोई सिगरेट फूंक रहा है। धुआं ही बाहर भीतर ले जा रहे हैं। एक तरह का प्राणायाम समझो। जरा गंदे किस्म का, मूर्खतापूर्ण, मगर है प्राणायाम ही।
दुखी आदमी ज्यादा भोजन करते हैं। सुखी आदमी कम भोजन करते हैं, क्योंकि सुख से भरे होते हैं, सुख से लबालब होते हैं।
तुमने यह देखा कि महिलाओं के जैसे ही विवाह हो जाते हैं, उसके बाद वे मोटी होनी शुरू हो जाती हैं! जब तक विवाह नहीं होता तब तक उनके शरीर में एक ढंग होता है, लेकिन जैसे ही विवाह हुआ कि बस सब गड़बड़ होनी शुरू हो जाती है। चर्बी एकदम इकट्ठी होने लगती है। पता नहीं क्या इनको एकदम विवाह के बाद होता है! और लोग तो कहते हैं कि ‘विवाह होने के बाद फिर दोनों सुख से रहने लगे।’ मगर बात में कुछ शक दिखाई पड़ता है। यह पत्नी जरूर दुखी है, यह कहे न कहे; क्योंकि बहुत सी बातें हम कहते नहीं; कहनी नहीं चाहिए, इसलिए नहीं कहते। दिखाते कुछ और हैं, होता कुछ और है।
स्त्रियां विवाह के बाद एकदम मोटी होने लगती हैं, स्थूल होने लगती हैं। उनका शरीर सौंदर्य खोने लगता है। थुलथुल देह हो जाती है उनकी।
मैंने सुना, टुनटुन सवार थी एक बस में। आखिर बगल वाले आदमी ने कहा कि बाई, कब तक बर्दाश्त करूं, क्यों मुझे हुद्दे मार रही है? टुनटुन एकदम नाराज हो गई। उसने कहा: हुद्दे! हुद्दे नहीं मार रही। क्या मैं श्वास लूं कि न लूं?’
अब टुनटुन श्वास लेगी तो हुद्दे तो लगेंगे ही।
महावीर ऐसे आनंद को उपलब्ध हुए कि बहुत दिन तक भूख का पता नहीं, प्यास का पता नहीं। यह उपवास था। लेकिन नकलची तो कैसे उपवास करें! नकलचियों ने तो यह देखा, बाहर से देखा। नकलची की यह मुसीबत है, वह बाहर से ही देख सकता है, भीतर से तो देखे भी तो कैसे देखे! भीतर का तो दिखाई पड़ता भी नहीं। अंतर्तम तो छिपा रहता है, ओझल है। उसने बाहर से देखा कि महावीर भोजन नहीं लेते; दिन गुजर जाते हैं, भोजन नहीं लेते। तो शायद यही राज है इनका परमात्मा को पा लेने का। तो मैं भी भोजन न लूं, तो मैं भी पा लूंगा।
मगर यह राज नहीं था परमात्मा को पाने का। यह तो परमात्मा को पा लेने के बाद की घटना थी। तो ये बेचारे, आज पच्चीस सौ साल हो गए, ये नासमझ उपवास किए जा रहे हैं। यह उपवास है ही नहीं। यह शब्द गलत है इनके लिए। महावीर के लिए सही है। ये तो अनशन कर रहे हैं। और इसलिए तुम महावीर की देह में जो ताजगी देखोगे, वह इनकी देह में तो नहीं दिखाई पड़ेगी। ये तो दया-योग्य मालूम होते हैं। ये तो बड़े दीन-हीन मालूम होते हैं। क्योंकि भीतर तो कुछ आनंद है नहीं। भीतर तो दुख ही दुख है और दुख को किसी तरह भोजन से भर लेते हैं, वह भी रोक दिया। इनकी स्थिति तो त्रिशंकु की हो गई--न इस संसार के रहे, न उस संसार के। ये तो बीच में लटक गए। ये तुम्हारे महात्मागण हैं!
व्रत भी आएगा, उपवास भी आएगा, यम-नियम भी आएंगे; मगर वे परिणाम हैं। वे ध्यान के सहज परिणाम हैं। ध्यानस्थ व्यक्ति उच्छृंखल नहीं होता, अराजक नहीं होता। उसके जीवन में बड़ी व्यवस्था होती है, नियोजन होता है। मगर नियोजन जबर्दस्ती नहीं होता, आरोपित नहीं होता; सहजस्फूर्त होता है, अनायास होता है। और स्वभावतः जब जबर्दस्ती आरोपित नहीं होता, तो वैसा आदमी मतांध नहीं होता। कुछ ऐसी जिद नहीं होती कि रोज ब्रह्ममुहूर्त में ही उठेगा, कि एक दिन बीमार है तो भी ब्रह्ममुहूर्त में उठेगा। वैसी भी कोई जरूरत नहीं है। अगर बीमार है तो देर से भी उठ सकता है। उसके जीवन में सहज स्फुरणा होती है। वह अपने प्रतिपल की आवश्यकता के अनुसार जीता है, चलता है। उसके भीतर एक दीया जल रहा है, जो उसके कदमों को रोशनी देता है, जो उसकी आंखों को स्पष्टता देता है। वह अपने ही प्रकाश में अपने जीवन को नियोजित करता है।
यहां कल ही मुझे दो लेख एक साथ मिले--संयोग की बात। एक तो है जर्मनी की प्रसिद्ध पत्रिका ‘स्टर्न’ में छपा हुआ लेख मेरे खिलाफ। जो कारण मेरे खिलाफ दिया है पत्रिका ने, वह यह है कि मैं एडोल्फ हिटलर जैसा व्यक्ति हूं और मैंने अपने संन्यासियों के ऊपर परिपूर्ण रूप से काबू पा लिया है। वे मेरे इशारे से चलते हैं, उठते हैं, बैठते हैं। उनकी अपनी कोई स्वतंत्रता नहीं है।
इससे कोई झूठी बात नहीं हो सकती, क्योंकि मैं तो दिन भर अपने कमरे के बाहर भी नहीं निकलता। मैं इस आश्रम में भी कभी पूरा नहीं गया हूं। इस स्थान से लेकर अपने कमरे तक, इसके सिवाय मुझे दूसरा रास्ता मालूम नहीं है। इस आश्रम के दफ्तर में कभी नहीं गया हूं। इस आश्रम का हिसाब-किताब मुझे पता नहीं है। कौन क्या कर रहा है, यह मुझे मालूम नहीं है। अगर मुझे आंख बंद करके आंख पर पट्टी बांध कर एक जगह छोड़ दिया जाए और आंख की पट्टी खोल दी जाए, तो अपने कमरे तक पहुंचने में मुझे मुश्किल होगी। पूछना पड़ेगा कि भई मेरा कमरा कहां है! और ‘स्टर्न’ को मुझे एडोल्फ हिटलर सिद्ध करने की पड़ी है, क्योंकि जर्मनी में एडोल्फ हिटलर से ऐसी घबड़ाहट बैठ गई है कि किसी को भी एडोल्फ हिटलर सिद्ध कर दो, तो उससे घबड़ाहट बैठ जाए।
और साथ ही एक दूसरा लेख मिला। नासिक में किन्हीं सज्जन ने, मैं उन्हें जानता नहीं, नाम है--आचार्य शिवाजीराव भोंसले, उनका वक्तव्य छपा है। उन्होंने मेरे संबंध में कहा है कि यह व्यक्ति तो बहुत महान हैं, इनके विचार बहुत अदभुत हैं, इनके पास सारी मनुष्यता को रूपांतरित करने का संदेश है। मगर इनके अनुयायी इनकी सुनते नहीं। और वे इनके सारे काम को खराब किए दे रहे हैं।
दोनों बातें झूठ हैं; क्योंकि न तो मैं कोई आरोपित कर रहा हूं किसी के ऊपर कुछ, इसलिए एडोल्फ हिटलर होने का तो सवाल ही नहीं है। और जब मैं आरोपित ही नहीं कर रहा हूं तो संन्यासी नहीं सुनते, यह सवाल भी नहीं उठता। नहीं सुनने की बात तो तब उठे जब मैं उनसे कहूं कि ऐसा करो और वे न करें। मैं तो किसी को कुछ कह नहीं रहा हूं कि ऐसा करो। मैं तो सिर्फ इतना ही निवेदन कर रहा हूं--यह भी निवेदन है, आदेश नहीं--कि कुछ ‘न करने’ से मैंने पाया है; तुम भी उस कुछ ‘न करने’ की दिशा में डुबकी मारो। और फिर रोशनी तुम्हें जब मिल जाए, उसी रोशनी में चलना, ताकि तुम्हारा व्यक्तित्व न खो जाए, तुम्हारी स्वतंत्रता न खो जाए।
तो मैं कोई नियंत्रण कर ही नहीं रहा हूं--न तो एडोल्फ हिटलर जैसा और न किसी और जैसा। और जब नियंत्रण ही नहीं कर रहा हूं तो मेरी मानते नहीं संन्यासी, यह बात तो बिलकुल गलत है। मनाने का कोई सवाल ही नहीं है। मैंने किसी को कभी कहा ही नहीं--कैसे उठो, कैसे बैठो; कब उठो, कब न उठो; क्या खाओ, क्या पीओ। इस सब व्यर्थ की बकवास में मैं पड़ता नहीं हूं।
दयानंद, अगर तुम यहां आ गए हो तो ‘न करने’ की कला सीखो; वही ध्यान है।
दूसरा प्रश्न: भगवान,
व्यक्ति के मर जाने पर क्यों सभी लोग उसकी प्रशंसा करते हैं? वे भी जो कि जीवन में जीवन भर उसकी निंदा करते रहे! इसका राज क्या है?
राज भारती! कुछ खास राज नहीं। बात सीधी-साफ है कि अब बेचारा मर ही गया, अब मरे को क्या मारना! जब तक जिंदा था, तब तक उसके पीछे पड़े थे। उससे स्पर्धा थी, संघर्ष था। अब मर ही गया, अब कोई स्पर्धा भी न रही, कोई संघर्ष भी न रहा। अब तो दुश्मन भी उसके संबंध में अच्छी बातें कहेंगे।
वालटेयर मरा--फ्रांस का बड़ा विचारक--और रूसो से उसका बड़ा विरोध था, जीवन भर दोनों में घमासान तर्कयुद्ध छिड़ा रहा। दोनों सिद्ध करते रहे एक-दूसरे को मूढ़। जब वालटेयर मर गया तो किसी ने भाग कर रूसो को खबर दी कि सुना तुमने, प्रसन्न हो जाओ कि वालटेयर की मृत्यु हो गई!
रूसो ने कहा: ऐसा! आदमी वह महान था। अगर यह बात सच है कि वह मर गया, तो आदमी वह महान था। और अगर यह बात झूठ है तो मैं अपने शब्द वापस लेता हूं। अगर जिंदा है तो टक्कर चलेगी। अगर मर ही गया तो अब मरे को क्या मारना! मुर्दे से कौन लड़े!
लेकिन इसके पीछे लंबी कहानी है। खो गई है कहानी। मुर्दों से लोग डरते हैं। भूत हो जाएं, प्रेत हो जाएं--कुछ तो होंगे ही। जो भी मर जाता है, उसको हम कहते हैं ‘स्वर्गीय’ हो गए। हालांकि सौ में से निन्यानबे स्वर्गीय हो नहीं सकते, मगर हम किसी को नहीं कहते कि नारकीय हो गए। जो मरता है, वही स्वर्गीय हो गया! प्रभु को प्यारा हो गया! प्रभु ने उसे इतना चाहा कि उठा लिया?
क्यों? सदियों पुराना एक भय है कि आदमी मर गया--भूत होगा, प्रेत होगा, सताए, परेशान करे। हम डरते हैं। हम भयभीत होते हैं। हम घबड़ाते हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन और उसकी पत्नी दोनों बात कर रहे थे। पत्नी बीमार थी। मरणासन्न थी। पत्नी ने कहा कि नसरुद्दीन, एक करार करो कि अगर मैं तुमसे पहले मर जाऊं और अगर मैं बचूं मरने के बाद, जैसा कि हिंदुओं का मानना है, तो मैं आऊंगी प्रमाण देने कि हां यह बात सच है। या तुम पहले मर जाओ तो तुम आना और मुझे प्रमाण देना कि यह बात सच है।
नसरुद्दीन घबड़ाया। यह तो मरणासन्न है, नसरुद्दीन को तो अभी मरना भी नहीं है। और यह बाई गजब की बातें कर रही है! नसरुद्दीन तो सोच रहा था दिल ही दिल में कि अब छूटे तब छूटे; यह कह रही है कि बाद में भी आकर प्रमाण देगी! लेकिन अब उससे कुछ विवाद भी नहीं कर सकता, तो कहा: अच्छी बात, मगर एक बात का खयाल रखना कि दिन में आना, रात में मत आना। रात में मुझे वैसे ही डर लगता है। दूसरी बात, तुमको मैं यह भी बता दूं, रात में आओगी तो घर पर मैं तुम्हें मिलूंगा भी नहीं। मैं अकेला घर में सो भी नहीं सकता। मैं किसी दोस्त के घर सोऊंगा। आओ तो दिन में आना, भरी दोपहरी में आना। प्रमाण मुझको ही मत देना, मोहल्ले वालों को भी मिल जाए, चार आदमियों के सामने देना। एकांत में प्रमाण मुझे नहीं चाहिए।
यह घबड़ाहट! तुम जरा सोचो, तुम्हारी पत्नी मर जाए और फिर आकर प्रमाण दे...जिंदगी भर प्रमाण दिए उसने और मर कर भी पीछा न छोड़े!
अक्सर हम जब भयभीत होते हैं तो हम भय को समादर में छिपाते हैं। तुम्हें यह पता है, खाते-बही तुम शुरू करते हो तो लिखते हो--श्री गणेशाय नमः! क्यों? तुमको शायद पता न हो कि गणेश बिलकुल प्रारंभ में बहुत उपद्रवी थे, विघ्न कारक थे। कहीं भी कोई अच्छा काम हो रहा हो तो उनसे नहीं देखा जाता था। बिगाड़ खड़ा कर दें, उपद्रव मचा दें। यूं भी शिवजी के बेटे हैं, ले आते होंगे शिवजी की बरात के कुछ और संगी-साथी। तो कहीं भी हू-हुल्लड़ मचा दें। घेराव डाल दें, हड़ताल करवा दें, कोई भी व्यवधान खड़ा कर दें। पुराने शास्त्रों में इस बात का उल्लेख है कि पहले वे व्यवधान और उपद्रव करने वाले देवता थे। अब ऐसे आदमी को क्या करो! एक ही उपाय है कि इनका पहले ही स्मरण कर लो कि भैया, आप भर कृपा करना! बाकी सबसे तो हम निपट लेंगे। तो श्री गणेशाय नमः इसलिए सबसे पहले। बड़े-बड़े देवता हो गए और बड़े-बड़े अवतारी पुरुष हो गए, किसी की फिकर नहीं; ये सूंडधारी गणेश जी, मगर इनको सबसे शुरू में लिखना पड़ता है--श्री गणेशाय नमः! क्योंकि अगर इनको नंबर दो पर रखो, उसी में नाराज हो जाएं। चले आएं, एकदम घुस आएं भीड़ में, उपद्रव करने लगें।
मैं स्कूल में कभी भी जिस क्लास में रहा वहीं कैप्टन बना दिया जाता था एकदम! क्योंकि शिक्षकों को एक बात पता चल गई थी कि अगर मुझे कैप्टन नहीं बनाया तो मैं उपद्रव करूंगा। तो वे कहते--श्री गणेशाय नमः! मैं कैप्टन हो जाऊं तो उपद्रव कैसे करूं! मुझे दूसरे जो उपद्रव करें, उनको रोकना पड़े। तो जिस क्लास में भी पढ़ा, वहां सारे स्कूल में यह खबर थी कि जिस क्लास में यह विद्यार्थी आए, इसको कैप्टन एकदम बना ही देना, नहीं तो यह उपद्रव मचाएगा।
तुम पूछ रहे हो कि ‘व्यक्ति के मर जाने पर क्यों सभी लोग उसकी प्रशंसा करते हैं?’ करनी पड़ती है। इसीलिए तो विवाह के अवसर पर लोग शुभकामना करते हैं, आशीर्वाद देते हैं बड़े-बूढ़े हूए तो, समसामायिक हुए तो बधाइयां देते हैं, क्योंकि यह आदमी मर रहा है बेचारा! खतम! इति आ गई इनकी। जैसे कहते हैं न, जब चींटी मरने को होती है तो उसको पंख ऊग आते हैं--इनका विवाह होने लगा, अब चींटी मरने के करीब आई! अब आगे से इनका कोई भविष्य नहीं है। अब सब अंधकारपूर्ण है। अब कर लो जितनी भी बधाइयां वगैरह करनी हैं और जितनी भी शुभकामनाएं करनी हैं। अब इनको आखिरी विदाई दे दो कि भैया, आगे तुम जानो और भगवान जाने!
इसीलिए तो तुम महात्माओं की, संतों की इतनी आवभगत करते हो--मर गए बेचारे! मरे-मराए लोग! चलती-फिरती लाशें! अब इनका सम्मान न करो तो क्या करो और! अब और करने योग्य कुछ बचा भी नहीं। जिंदा होते तो कुछ और भी कर सकते थे। अब तो इनके प्रति जितना भी समादर प्रकट कर सको, करो। अगर मुर्दों को यह पता चल जाए...।
मैंने सुना है कि एक राजनेता मरा। लाखों की भीड़ इकट्ठी हुई। राजनेता था, भीड़ में उसकी सदा उत्सुकता थी। एकदम छाती पीट कर रोने लगी उसकी आत्मा। देख रही थी आत्मा एक झाड़ पर बैठ कर। एकदम छाती पीट कर रोने लगी। पुराने मरे एक राजनेता ने पूछा कि भई, क्यों ऐसे छाती पीट रहे हो, क्या बात है? अरे, खुश होओ, कितने लोग विदा करने आए हैं!
‘इसलिए तो रो रहा हूं कि अगर ये दुष्ट पहले ही बता देते कि इतना मेरे प्रति इनका प्रेम है, तो मैं मरता ही क्यों? तब तो इनमें से किसी का पता न चला। अब आए हैं, जबकि मैं मर चुका। अरे, जिंदगी में आए होते तो मजा आ जाता। इसलिए छाती पीट कर रो रहा हूं कि अगर इतने लोग जिंदगी में साथ होते तो प्रधानमंत्री हो गया होता। तब तो एम. एल. ए. तक होने में मुसीबत थी। खोजता फिरता था, लोग भागते फिरते थे। मैं पुकारता था, वे कहते थे, काम हैं। और अब ये सब काम छोड़ कर चले आए हैं।’
बुजुर्ग राजनेता, जो पहले मर चुका था; वह हंसने लगा। उसने कहा: तुम समझे नहीं, ये सब खुशी मना रहे हैं। ये सब प्रसन्न हो रहे हैं कि चलो झंझट मिटी, एक और स्वर्गीय हुए! चलो इनको भी राजघाट पहुंचा दिया!
चंदूलाल उन दिनों बीमा-कंपनी के दफ्तर में काम किया करता था। काम तो लग गया, बस अपने दफ्तर में बैठा-बैठा सोया करता था। दफ्तर के कर्मचारी परेशान--न खुद काम करे, न दूसरों को काम करने दे। अपना पड़े-पड़े कुर्सी पर ही खर्राटे भरे। मैनेजर ने समझाया कि देखो चंदूलाल, तुम काम खुद तो करते नहीं और खर्राटे ऐसे लेते हो कि दूसरों को भी काम नहीं करने देते। आखिर यह कब तक चलेगा?
लेकिन जब बात सीमा के बहुत आगे बढ़ने लगी तो एक दिन मैनेजर ने उसे नौकरी से इस्तीफा दे देने के लिए कह दिया। चंदूलाल ने अपनी आदतों को सुधारने की बजाय इस्तीफा देना ही उचित समझा, सो उन्होंने इस्तीफा लिख कर दे दिया। दफ्तर के सारे लोगों ने देखा कि अब यह जा रहा है, तो क्यों न इसके जाने की खुशी में एक पार्टी का आयोजन कर दिया जाए। सो उसके जाने के उपलक्ष में एक पार्टी का आयोजन हुआ। सभी ने उसके विषय में कुछ न कुछ कहा। किसी ने कहा कि ऐसा साथी खोजना कठिन है, इसकी वजह से ही दफ्तर में कुछ रौनक थी। मैनेजर ने आंखों से आंसू टपकाते हुए कहा कि चंदूलाल, सच कहता हूं कि तुम्हीं इस दफ्तर की जान थे। तुम्हारे जाने से हम सबको बड़ा दुख हो रहा है। तुम्हारे कारण ही दफ्तर की प्रतिष्ठा में चार चांद लग गए थे।
चंदूलाल तो यह सुन कर अपनी सीट से खड़ा हो गया और बोला कि ऐसी की तैसी उस इस्तीफे की! अरे, मुझे क्या पता था कि तुम सब मुझसे इतना प्रेम करते हो। अब मैं कहीं आने-जाने वाला नहीं।
वे तो जो मर गए हैं बेचारे, लौट नहीं सकते, नहीं तो तुम्हारी प्रशंसाएं सुन कर लौट आएं; वे कह दें कि ऐसी की तैसी मरने की। अब हमें नहीं मरना--जब इतने लोग हमारे पीछे दीवाने हैं। पत्नी ऐसा छाती पीट-पीट कर रो रही है, जिसने जिंदगी भर हमें छाती पिटवाई और रोआया। काश हमें पता होता कि यह इतना प्रेम हमें करती है! बेटे इस तरह रो रहे हैं, जो हमेशा जेब में हाथ डाले रखते थे और जितना झपट लें--उस कोशिश में लगे रहते थे। मोहल्ले-पड़ोस के लोग तक दुख मना रहे हैं, जिन्होंने हर तरह से सताया, मुकदमे चलाए, अदालतों में घसीटा। गांव के गुंडे-बदमाश भी मरघट पर पहुंचाने आए हैं, हजार काम छोड़ कर। काश, हमको यह पता होता कि ये लोग हमें इतनी मोहब्बत करते हैं, तो हम मरते ही क्यों!
अगर आदमी के वश में हो तो तत्क्षण वापस लौट आए, एकदम वापस लौट आए। अगर लोग वापस लौटने लगें, तो राज भारती, प्रशंसा बंद हो जाए। फिर कोई मरे की प्रशंसा न करे। फिर लोग डरें; अभी डरने का कोई कारण नहीं। अब मर ही गया, अब क्या बिगाड़ सकता है, करो प्रशंसा! और भय भी है कि कहीं मर कर सताए न, कहीं मर कर पीछा न करे, भूत-प्रेत न हो जाए। होना तो चाहिए भूत-प्रेत ही, कोई देवी-देवता इतने तो दिखाई पड़ते नहीं कि इन लोगों में से देवी-देवता होते होंगे लोग। इनकी हरकतें जाहिर करती हैं कि ये कहां जाते होंगे।
जब चंदूलाल मरा तो सारे लोग उसे पहुंचाने गए, बड़ी भीड़-भाड़ थी। संयोगवशात चंदूलाल की अरथी आगे-आगे चली जा रही है, उस भीड़-भाड़ में अरथी की धक्कम-धक्की में एक ट्रक भी जो कोयले से भरा हुआ था, वह भी फंस गया। वह भी उसी दिशा में जा रहा था, सो उसको भी अरथी के पीछे चलना पड़ा। नसरुद्दीन अपने साथी से बोला कि हद्द हो गई, यह तो मुझे पक्का पता था कि यह कहां जाएगा, मगर यह नहीं मैंने सोचा था कभी जिंदगी में कि अपने साथ ईंधन भी ले जाना पड़ता है। नरक तो जाने ही वाला है यह, मगर यह ईंधन का ट्रक, यह एक नई बात है! पहले भी आदमी मरते थे, नरक जाते थे। ईंधन वहीं मिलता था। अगर चूल्हा जलेगा और कढ़ाए चढ़ाए जाएंगे और उनमें तुम पकोड़ों की तरह तले जाओगे, मगर अपने साथ कोयला ले जाना, यह तो बात जंचती नहीं कुछ, कि सताओ भी हम ही को और कोयला भी हम लेकर आएं!
नसरुद्दीन ने कहा: इससे तो दिल बैठा जा रहा है। यह क्या बात हुई कि नरक की कीमत भी खुद ही चुकाओ। आज पहली दफा नरक से घबड़ाहट हो रही है--वह कहने लगा--कि हम तो सोचते थे चले जाएंगे, उठाया मुंह, चले जाएंगे; जो होगा, देखा जाएगा। लोग तो नरक ही जाएंगे--यह तुम्हें भी पता है--जिनका तुम कहते हो स्वर्गीय हो गए। लेकिन घबड़ाहट लगती है, डर लगता है--कहीं ये सताएं न, परेशान न करें।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि मृतकों की, पितरों की पूजा का आधार ही यही है--भय, कि आप तो मर गए, हमें अभी जिंदा रहना है, जिंदा रहने देना, कृपा रखना! तो यहां हिंदू हैं कि पितर-पक्ष मनाते हैं। कोई नहीं मिलता तो कौओं को ही भोजन करवाते हैं, कि भैया पहुंचा देना पितरों तक खबर, कि कृपा करना! हे पितर देवता, आप उसी तरफ रहना! अब चले ही गए तो अच्छा हुआ, इधर लौट मत आना। हम मजे में हैं। हमारी खोज-खबर लेने मत चले आना।
और कुछ राज नहीं है।
जीवन में तो निंदा की जाएगी, क्योंकि जीवन में अहंकार को चोट लगती है। किसी की प्रशंसा करना बड़ा कठिन काम है। अगर कोई तुमसे कहे कि फलां आदमी बहुत सुंदर बांसुरी बजाता है, तुम तत्क्षण बोलोगे: अरे, वह क्या बांसुरी बजाएगा--चोर-उचक्का! वह बांसुरी बजाएगा! वह क्या बांसुरी बजाएगा? चार सौ बीस, वह बांसुरी बजाएगा! उसे हम सात पीढ़ी से जानते हैं। वह बांस भी बजा ले तो बहुत, बांसुरी क्या बजाएगा! तुम्हें बर्दाश्त के बाहर है यह भी कहना कि वह बांसुरी सुंदर बजाता है। तुम जरूर कुछ न कुछ भूल-चूक निकाल लोगे। भूल-चूक निकालने में लोग इतने कुशल हैं, क्यों? क्योंकि भूल-चूक से तुम्हारा अहंकार तृप्त होता है। जितनी तुम दूसरों में भूल-चूक निकाल सकते हो, उतना ही तुम्हें लगता है कि हम बड़े। और जितना तुम दूसरों में प्रशंसा के कारण देखोगे, उतना ही तुम्हें लगेगा हम छोटे। और अपने को कोई छोटा मानना चाहता नहीं। अपने को कौन छोटा मानना चाहता है!
अरबी कहावत है कि परमात्मा भी खूब मजाक करता है। जब आदमियों को बना कर भेजता है तो हर आदमी के कान में कह देता है कि तुझ जैसा गजब का आदमी मैंने पहले कभी बनाया नहीं! बस, वह भ्रांति हर आदमी अपने दिल ही दिल में लिए रहता है। कह तो सकते नहीं किसी से, क्योंकि कहो तो लोग कहेंगे: पागल हो, अहंकारी हो! छिपा कर रखना पड़ता है। लेकिन तरकीबों से कहना भी पड़ता है, क्योंकि बिलकुल छिपा कर भी नहीं रख सकते। तो बड़ा मकान बना कर दिखलाना पड़ेगा, बड़ी सीढ़ियां चढ़ कर बताना पड़ेगा--यश की, पद की, प्रतिष्ठा की, सफलता की--ताकि लोगों को सिद्ध हो जाए परोक्ष रूप से कि हूं तो मैं गजब का! तुम क्या हो, दो कौड़ी के हो! तुम्हारी हैसियत क्या, बिसात क्या!
इसीलिए हम जिंदा में तो किसी की प्रशंसा कर सकते नहीं। प्रशंसा मुश्किल पड़ती है। वह हमारे अहंकार के विपरीत है। निंदा आसान है और निंदा करने के लिए हम क्या-क्या नहीं कर सकते!
चंदूलाल का मकान नदी के किनारे था। जब चंदूलाल शादी करके घर आए तो कुछ दिनों बाद उन्होंने पाया कि उनकी नई पत्नी बड़े ही क्रोध में है। उन्होंने पूछा कि बात क्या है। श्रीमती जी बोली कि मोहल्ले के कुछ उच्चके सामने ही नदी के घाट पर रोज नग्न स्नान किया करते हैं और एक दिन तो कलमुंहे बिलकुल ही नंगे हुड़दंग मचा रहे थे, बिलकुल मेरे सामने।
चंदूलाल ने खिड़की से देखा, कुछ दिखाई नहीं पड़ा। तो चंदूलाल ने कहा: मुझे तो कुछ दिखाई नहीं पड़ता।
तो पत्नी ने कहा: अरे, स्टूल पर खड़े होकर देखो! ऐसे कहीं दिखाई पड़ेगा?
तो चंदूलाल स्टूल पर खड़े हुए। जब पत्नी कहे स्टूल पर खड़े होओ तो खड़े होना पड़े स्टूल पर, पत्नी कहे हाथी पर बैठो तो हाथी पर बैठना पड़े। पत्नी जो कहे वह पति को करना ही पड़े। यह तो शाश्वत नियम है। इसमें जो पति डगमगाया, वह मुश्किल में पड़ा। चढ़ कर स्टूल पर गौर से देखा, कोई लुच्चे-लफंगे नहीं थे, कोई उचक्के नहीं थे, मोहल्ले के लड़के--कोई होगा आठ साल का, कोई दस साल का। अब वे नंगे न नहाएं तो क्या सूट-पैंट और टाई पहन कर नहाएं? टोप लगा कर और जूते पहन कर नहाएं? मगर अब पत्नी से क्या कहना! चंदूलाल ने कहा: मैं जाता हूं, समझाता हूं। जाकर लड़कों को समझाया कि भाई, यहां नग्न स्नान मत किया करो। मुझे कोई एतराज नहीं, मगर मेरी पत्नी मेरी जान खाती है। तुम जरा दूर को निकल गए। नदी तो बड़ी पड़ी है, जरा आधा मील नीचे। वहां दिल खोल कर नहाओ। वहां कोई मकान भी नहीं है। तो मैं ही नहीं परेशान, दूसरा भी कोई परेशान नहीं होगा।
थोड़ा ना-नुच के बाद लड़के मान गए। मगर दो-चार दिन के बाद श्रीमती जी बोलीं कि देखो, उन नालायकों ने फिर नग्न होकर नहाना शुरू कर दिया। चंदूलाल बोले: लेकिन अब तो वे दूर वाले घाट पर नहाते हैं, आधा मील नीचे!
श्रीमती जी बोलीं: लेकिन दूरबीन लगा कर देखने पर तो वे वैसे के वैसे ही पास दिखाई देते हैं।
अब अगर देखने की ही जिद कर रखी है तो स्टूल पर चढ़ो, दूरबीन लगाओ। फिर तो बड़ी मुश्किल है। अहंकार जिद किए बैठा है कि दूसरे में भूल-चूक निकालेंगे ही निकालेंगे। वह जीता ही इस पर है। और तब किसी के मर जाने पर एक पछतावा भी होता है, एक पश्चात्ताप, कि जिंदगी भर भूल-चूक निकाली, अब किसी तरह से हिसाब-किताब ठीक कर लो। अब प्रशंसा कर दो, अब क्या बिगड़ता है! अब तो आदमी गया ही। अब अहंकार को कोई चोट लगती नहीं।
इसलिए जिन लोगों ने जीसस को सूली दी, वे ही यहूदी ईसाई बन गए। जिन यूनानियों ने सुकरात को जहर पिलाया, वे ही यूनानी सदियों से सुकरात का गुणगान कर रहे हैं। जिन लोगों ने महावीर पर पत्थर फेंके, उनके कानों में खीले ठोके, वे ही लोग उनको भगवान कह रहे हैं। जिन्होंने बुद्ध को मार डालने के हजार तरह के उपाय किए, पागल हाथी छोड़ा, चट्टान गिराई उनके ऊपर, और संभवतः जहर पिलाने की चेष्टा की, वे ही लोग अब उनको परमात्मा का अवतार मान रहे हैं। वे ही लोग! यह बड़ी हैरानी की बात लग सकती है, मगर हैरानी की कुछ भी नहीं, पश्चात्ताप पकड़ता है।
जीसस को दुनिया में मानने वाले सर्वाधिक लोग हैं, उसका कारण सूली है, जीसस नहीं। अगर जीसस को सूली न लगती तो इतनी बड़ी संख्या जीसस को मानती नहीं। सूली दे कर जो पश्चात्ताप हुआ इस आदमी के मरने के बाद, इतने लोगों को अपराध-भाव अनुभव हुआ कि हमने यह क्या किया, करना नहीं था ऐसा--तो अब क्या करें? इससे विपरीत करो! ताकि रफा-दफा हो जाए बात। और पता नहीं, कौन जाने यह ईश्वर का बेटा हो ही! और फिर आगे बदला ले! तो अब निपटारा कर ही लेना ठीक है।
वे ही लोग ईसाई हो गए। ईसाई होकर उन्होंने कुछ ईसा ने जो कहा था उसका पालन किया हो ऐसा नहीं; सिर्फ नाम--लेबिल बदल लिया। रहे तो वे वही के वही, आज भी वही के वही हैं, कोई फर्क नहीं पड़ता।
महावीर के पीछे जो लोग चल रहे हैं, वे कौन लोग हैं? वे वही के वही लोग हैं। महावीर नग्न थे। तुम जरा सोच लो कि महावीर के नग्न रहने के साथ लोगों को कितनी अड़चन हुई। गांव-गांव से भगाए गए। लोग उनके पीछे कुत्ते लगा देते थे, ताकि उनको गांव में न टिकने दें। वे ही लोग अब महावीर की पूजा कर रहे हैं। लेकिन अगर कोई दूसरा व्यक्ति आज नग्न खड़ा हो जाए तो वे ही लोग उसकी निंदा करने को तत्पर हो जाएंगे--वे ही लोग! हां, अगर महावीर की ही धारा में खड़ा हो और महावीर का ही अनुसरण करे और महावीर की ही लीक पर बिलकुल लीक-लीक चले, लकीर-लकीर चले, तो सम्मान करेंगे। क्योंकि वह कुछ महावीर से भिन्न नहीं अपना अस्तित्व जाहिर कर रहा है।
तुम देखते हो, क्यों तीर्थंकर, पैगंबर अपनी जीवित अवस्था में अपमानित किए जाते हैं? मोहम्मद को लोगों ने जिंदगी में एक दिन शांति से न रहने दिया। और अब करोड़ों लोग स्मरण करते हैं। ये वे ही लोग--जिन्होंने शांति से न रहने दिया। अब पश्चात्ताप कर रहे हैं। अब हाथ धो रहे हैं, लहू के दाग मिटाने की कोशिश कर रहे हैं। और ये दाग ऐसे नहीं हैं जो कि मिट जाएं। यह मजबूरी में, आत्मग्लानि में सम्मान चल रहा है। मगर मुर्दों का सम्मान करने में सुविधा है, क्योंकि मुर्दों के संबंध में तुम कहानियां गढ़ सकते हो, जिंदा आदमियों के संबंध में कहानियां गढ़ना बहुत मुश्किल है।
महावीर के संबंध में क्या-क्या कहानियां लोगों ने नहीं गढ़ीं। महावीर के संबंध में पहली कहानी तो यह है कि वे पैदा तो हुए थे एक ब्राह्मणी के गर्भ में; लेकिन जैन ब्राह्मणों के विरोध में रहे हैं, तो यह तो वे बरदाश्त कर नहीं सकते कि महावीर और ब्राह्मण घर में पैदा हों, तो पहली शल्य-क्रिया गर्भ बदलने की महावीर के लिए की गई, कि देवता आए आकाश से और उन्होंने गर्भणी ब्राह्मणी का गर्भ निकाला, क्षत्राणी के गर्भ में महावीर को रखा और क्षत्राणी का गर्भ निकाल कर ब्राह्मणी के गर्भ में बदल दिया। ऐसी देवताओं ने चार सौ बीसी की! तब महावीर क्षत्रिय के घर में पैदा हुए, क्योंकि तीर्थंकर सदा ही क्षत्रिय होने चाहिए। महावीर के पहले तेईस तीर्थंकर हो चुके थे, वे सब क्षत्रिय ही होने चाहिए। अब यह थोथी कहानी गढ़नी पड़ी--सिर्फ ब्राह्मणों का अपमान करने के लिए, कि कहीं तीर्थंकर और ब्राह्मण-कुल में पैदा हो सकता है!
जैनों के चौबीस तीर्थंकरों में एक महिला है, मल्लीबाई। लेकिन जैन उसे मल्लीबाई नहीं कहते, मल्लीनाथ कहते हैं। मैं जब छोटा था तो मैं भी यही समझता था कि मल्लीनाथ भी पुरुष हैं, नाथ से साफ होता है कि पुरुष हैं। यह तो बहुत बाद में मुझे समझ में आया कि मल्लीनाथ पुरुष नहीं थे, स्त्री थे। लेकिन कहानी को बदल लेना पड़ा जैनों को, क्योंक स्त्री पर्याय से तो मोक्ष हो ही नहीं सकता। जैसे ब्राह्मण कुल में तीर्थंकर पैदा नहीं होता, ऐसे ही स्त्री-पर्याय से मोक्ष नहीं होता। वह तो पुरुष पर्याय से ही मोक्ष होता है। सो दूसरा चमत्कार उन्होंने किया। यह वैज्ञानिक अब कर रहे हैं। यही तो हमारे शास्त्रों की खूबी है कि हम सब जो पहले कर चुके हैं, वह अब यह बेचारे तीन हजार साल बाद कर रहे हैं। हमने पहले ही स्त्री का ऑपरेशन करके पुरुष कर दिया। लिंग-परिवर्तन हम कब का कर चुके हैं! ये अब कर रहे हैं और समझते हैं समाचार है यह, कि कोई स्त्री को पुरुष बना दिया, कि किसी पुरुष को स्त्री बना दिया--विटामिन और हारमोन, इनकी बदलाहट से। यह तो हम बहुत पहले कर चुके। हमने मल्लीबाई को मल्लीनाथ बना दिया--सिर्फ एक धारणा को बचाए रखने के लिए--पुरुष का अहंकार।
मल्लीबाई को बहुत गालियां पड़ी होंगी--कई कारणों से। एक तो पुरुष नग्न हो तो ही तुम दिक्कत दोगे और मल्लीबाई स्त्री थी और नग्न हुई होगी, तो तुम समझ सकते हो कि कितनी तुमने दिक्कत न दी होगी। स्त्री और नग्न हो जाए, यह तो नारी की लज्जा गई।
यह तो तुम्हारी नारी की धारणा ही नष्ट हो गई। तो जिंदा में तो अपमान किया होगा। सब तरह से अपमान किया होगा। फिर मर जाने के बाद तुम पछताए होओगे। तुमने फिर लीपा-पोती की। फिर तुमने कहा कि अब कुछ हिसाब जमा लेना चाहिए। हिसाब सीधा-साफ था, जरा सी तरकीब करनी थी--मल्लीबाई को मल्लीनाथ कर दो।
उन्नीस सौ बावन में हिमालय में नीलगाय पाई जाती थी। उसकी संख्या बहुत बढ़ गई और वह खेतों में बहुत उपद्रव करने लगी। संसद में सवाल उठा कि इसको गोलियां मार दी जाएं, इसकी हत्या की जाए, नहीं तो यह खेतों को बर्बाद कर देगी। यह उत्पात बहुत बढ़ गया है। इसकी संख्या रोज बढ़ती जा रही है। मगर सवाल यह था कि अगर नीलगाय को मारा, हालांकि नीलगाय गाय नहीं है, सिर्फ नाममात्र को गाय है; लेकिन अगर ‘गाय’ शब्द भी रहा उसमें तो हिंदू उपद्रव खड़ा कर देंगे। और फौरन विरोध शुरू हो गया कि गाय की हत्या नहीं की जा सकती। ‘गऊमाता!’ शब्द ही काफी है। लोग शब्दों से जीते हैं। तो तुम्हें पता है, संसद ने क्या तरकीब निकाली। उन्होंने उसका नाम रख दिया: नीलघोड़ा। फिर गोली मार कर खत्म कर दिया। नीलघोड़े को मारने में किसको तकलीफ है? किसी हिंदू ने एतराज नहीं उठाया, नीलघोड़े को मारना हो मारो; नीलगाय को भर मत मारना! वही गाय गरीब घोड़ा होकर मारी गई। लोग शब्दों से जीते हैं।
वही मल्लीबाई मल्लीनाथ होकर पूजी गई। मल्लीबाई होकर उसको सताया गया, परेशान किया गया, हैरान किया गया। लेकिन जब ये लोग मर जाएं तो फिर कहानियां गढ़नी आसान हो जाती हैं।
महावीर के संबंध में कहानियां हैं कि उनको पसीना नहीं निकलता। तीर्थंकरों को पसीना नहीं निकलता। क्या पागलपन की बात है! कोई प्लास्टिक के बने होते हैं? कुछ होश की बात करो। तीर्थंकरों को तो और ज्यादा निकलता होगा, क्योंकि नंग-धड़ंग रहेंगे, धूप-धाप में घूमेंगे...। और अधिक तीर्थंकर उत्तर भारत में हुए। महावीर खुद बिहार में हुए जहां सूरज आग की तरह बरसता है। वहां पसीना न निकले!
और फिर जैनों की धारणा है कि तीर्थंकर स्नान नहीं करते। स्नान की जरूरत ही नहीं। जब पसीना ही नहीं निकलता तो स्नान की क्या जरूरत है? यह तो साधारण आदमियों का काम है स्नान वगैरह करना। तीर्थंकर को पसीना ही नहीं निकलता। तीर्थंकर जब जिंदा रहे होंगे, तब यह कहानी गढ़नी मुश्किल थी, क्योंकि प्रत्यक्ष सामने लोग जाकर देख लेंगे, फिर? हां, जब मर गए तब तुम कहानी गढ़ सकते हो। अब तुम्हारे हाथ में है। अब कुछ भी करो तुम।
कहते हैं, सांप ने काट खाया महावीर को तो दूध की धार बही।
मैं एक जैन सभा में बोल रहा था। मुझसे पहले एक जैन मुनि, चित्रभानु बोले। उन्होंने कहा कि यह बिलकुल वैज्ञानिक है। विज्ञान की अभी प्रतिष्ठा है, इसलिए हर तरह की मूढ़तापूर्ण बात को वैज्ञानिक सिद्ध करने की कोशिश चलती है। विज्ञान की प्रतिष्ठा है, साख है; इसलिए किसी भी चीज को वैज्ञानिक सिद्ध करने की चेष्टा होती है। हर चीज को! लेकिन मानने वाले को दिखाई नहीं पड़ेगा कि ये मूर्खतापूर्ण बातें हैं। जो नहीं मानता, उसको साफ दिखाई पड़ जाएगी कि यह क्या पागलपन की बात कर रहे हो! और उन्होंने क्या वैज्ञानिक उल्लेख किया, तालियां पिट गईं। जैन तो बिलकुल बाग-बाग हो गए, हृदय गदगद हो गया! स्त्रियों की आंखों से आंसू बहने लगे, कि मुनि महाराज क्या गजब की बात कह रहे हैं!
और मैंने कहा कि यह कहां के मूर्खों के बीच में फंस गया! वे क्या समझा रहे थे, वे कह रहे थे कि जब स्त्री के स्तन से दूध निकल सकता है, तो स्तन भी आखिर है तो शरीर का ही हिस्सा। जब स्तन में से दूध निकल सकता है तो पैर में से क्यों नहीं निकल सकता?
मैं उनके पीछे बोला। मैंने कहा कि यह बात तो बड़े पते की बता रहे हैं। अंधे को अंधेरे में बड़ी दूर की सूझी! इसका मतलब यह हुआ कि महावीर के पैर में स्तन था। और पैर में ही नहीं रहा होगा, क्योंकि क्या पता सांप कहां काटे, सारे शरीर पर स्तन रहे होंगे। अगर आज होते तो गजब हो जाता। हर फिल्म में मांग होती। जहां जाते भीड़ लग जाती--स्तन ही स्तन! और चाहिए ही क्या!
और स्तन में कुछ ऐसे ही दूध नहीं आ जाता। स्तन में पूरा यंत्र है खून को दूध में रूपांतरित करने का। वह यंत्र पैर में होना चाहिए, तो ही दूध बन सकता है। ऐसा कोई दूध भरा हुआ नहीं है भीतर स्तन में। कोई डब्बा नहीं है स्तन कि उसके भीतर दूध भरा है कि दबा दिया कि पिचकारी निकल गई दूध की! वहां यंत्र है। नहीं तो पुरुष ही दूध पिलाने लगें न फिर! स्तन तो पुरुषों के पास भी है। छोटे-मोटे सही...तो छोटे-छोटे इल्ले-पिल्लों को पिलाएं, कोई बात नहीं, बड़े-बड़ों को न सही। मगर यंत्र नहीं है।
और अगर तुम यह समझते हो कि महावीर के शरीर में दूध ही दूध भरा था तो सांप ने जब काटा तब तक दूध कभी का दही हो गया होता। और ऐसी बास उठती दही की, सड़ गया होता दही, कि सांप की हिम्मत ही न पड़ती पास आने की। सांप तो सांप, पशु-पक्षी, आदमी सब एकदम भागते। जहां महावीर पहुंच जाते वहीं एकदम तहलका मच जाता, जैसे प्रलय आ गई हो!
लेकिन इसको वैज्ञानिक कह कर समझाया जा रहा है। बात कुल कविता की है, विज्ञान क्या है इसमें? बात काव्य की है, प्रीतिकर है। इतनी ही बात कही जा रही है कि महावीर को तुम चोट भी करो तो उनसे प्रेम ही निकलता है, बस इतनी ही बात कहने की है। उनका तुम अपमान भी करो तो भी उनके भीतर से करुणा ही बहती है, बस इतनी ही बात कहनी है। इसको प्रतीक कहने का है।
लेकिन पीछे जब कहानियां गढ़ी जाती हैं तो फिर उनमें कुछ हिसाब रखने की जरूरत नहीं रह जाती। जो मौज आए, जैसी कहानी गढ़नी हो वैसी कहानी गढ़ लो! जीसस को पानी पर चलाओ, मो़जे़ज से समुद्र कटवा दो। समुद्र दो हिस्सों में कट कर खड़ा हो गया और मो़जे़ज और उनके यहूदी उनके पीछे निकल गए। जिंदा आदमी तो ये सब काम नहीं कर सकता तो जिंदा आदमी की तुम प्रशंसा कैसे करो? इसलिए जिंदा पैगंबर तो इनकारे जाते हैं, अस्वीकारे जाते हैं। और मर जाने के बाद पश्चात्ताप में, ग्लानि में, अपराध में तुम कहानियां गढ़नी शुरू कर देते हो। फिर उन्हीं कहानियों को लोग पूजते हैं। फिर उन्हीं कहानियों को लोग मानते हैं। फिर उन्हीं कहानियों के आधार पर और कहानियां गढ़ते चले जाते हैं। फिर धीरे-धीरे असली आदमी तो खो ही जाता है, एक नकली आदमी बन कर खड़ा हो जाता है--बिलकुल झूठा आदमी।
अब जीसस कुआंरी बेटी से पैदा हुए, यह और गजब की बात! वह ऑपरेशन भी कुछ इतना गजब का नहीं था जो महावीर के लिए किया गया। कुआंरी कन्या से पैदा होना...बड़ा कठिन काम किया उन्होंने भी! कैसे किया, यही बड़ा मुश्किल मामला है। यह हो नहीं सकता। मगर जब कहानी गढ़नी हो, तो फिर कोई पाबंदी नहीं रह जाती। यह तुमने सदियों से किया है। यह तुम आज भी कर रहे हो। अगर महावीर जिंदा हों तो तुम आज भी अपमान करोगे। अगर जीसस मौजूद हों, तुम फिर सूली लगाओगे। बुद्ध अगर सामने खड़े हो जाएं तो बस, तत्क्षण तुम्हारी सब पूजा खो जाएगी। लेकिन मरे हुए बुद्ध को तुम अपने अनुकूल बना लेते हो।
यह राज की बात समझो, राज भारती। मरे हुए व्यक्ति को तुम जैसा चाहो वैसा बना लेते हो, क्योंकि वह तुम्हारे हाथ में है। तुम जो रंग देना चाहो दे दो, जो ढंग देना चाहो वह दे दो। लेकिन जिंदा व्यक्ति तो अपने ढंग का होता है, अपने रंग का होता है। और जिंदा व्यक्ति के साथ तुम कहानियां नहीं गढ़ सकते। और ऐसे व्यक्ति--बुद्ध या महावीर या जीसस जैसे लोग--तुम्हें कहानियां गढ़ने भी नहीं देंगे। तुम्हारी कहानियां तोड़ देंगे, तत्क्षण तोड़ देंगे। ऐसे लोग सत्य को दिखाने के लिए जीवन भर आतुर होते हैं, झूठ गढ़ने के लिए नहीं।
अंतिम प्रश्न: भगवान,
क्या तर्कशास्त्र बिलकुल व्यर्थ है?
सागर! बिलकुल व्यर्थ तो नहीं; अपनी जगह उसकी सार्थकता है। लेकिन सीमा है उसकी। उसे सीमा के बाहर मत खींचना।
पदार्थ के संबंध में तर्कशास्त्र की उपयोगिता है, लेकिन चेतना के संबंध में नहीं। तर्कशास्त्र जीता है संदेह पर। संदेह उसकी आत्मा है। और चैतन्य को अनुभव करना हो तो श्रद्धा के फूल चाहिए।
एक तर्कशास्त्र के प्रोफेसर से किसी ने पूछा: आपके घर में किसका शासन चलता है?
प्रोफेसर ने कहा: अपनी-अपनी जगह सभी शासन करते हैं।
पूछने वाले ने कहा: मैं कुछ समझा नहीं। कुछ विस्तार से समझाइए।
प्रोफेसर ने कहा: सुनो, मेरी पत्नी बच्चों को अनुशासित करती है, उन्हें डांटती-डपटती है। मेरे बच्चे हमेशा नौकरों पर हुक्म चलाते हैं। मेरे घर के नौकर-चाकर अपनी-अपनी औरतों पर शासन करते हैं। और मुझे जब भी किसी पर गुस्सा आता है तो मैं अपने कुत्ते पर बरस पड़ता हूं और उसकी अच्छी मरम्मत कर देता हूं। इस प्रकार सब अपनी-अपनी जगह शासन कर रहे हैं।
यह तर्कशास्त्र का प्रोफेसर है, इसने ठीक-ठीक सरणी बांट ली है कि कौन किस पर शासन करे। सबने अपना-अपना क्षेत्र बांट लिया।
मुल्ला नसरुद्दीन से मैंने पूछा एक दिन: तेरे घर में झगड़ा नहीं होता, नसरुद्दीन?
उसने कहा: कभी नहीं! क्योंकि विवाह के बाद ही मैंने पहला काम यही तय किया कि अपना-अपना बंटवारा कर लेना चाहिए!
मैंने कहा: कैसा बंटवारा किया?
तो नसरुद्दीन ने कहा: बंटवारा ऐसा किया कि बड़ी-बड़ी जो समस्याएं हैं जीवन की वे मैं सम्हालूंगा, छोटी-मोटी जो बातें हैं वे पत्नी सम्हालेगी।
मैंने कहा: यह तो बड़ी गजब की बात है! पत्नी राजी हो गई?
उसने कहा: बिलकुल राजी हो गई।
मैंने कहा: मैं इतना और पूछना चाहता हूं कि बड़ी-बड़ी समस्याएं यानी क्या और छोटी-छोटी समस्याएं यानी क्या?
तो उसने कहा: छोटी-छोटी समस्या यानी कौन सा मकान खरीदना, कौन सी कार खरीदना, बच्चों को किस स्कूल में पढ़ाना, मेरी पत्नी कौन से कपड़े पहने, मैं कौन से कपड़े पहनूं, किस डॉक्टर से इलाज करवाना--ये छोटी-छोटी बातें।
और मैंने पूछा: बड़ी-बड़ी बातें?
उसने कहा कि ईश्वर है या नहीं, स्वर्ग है या नहीं, पुनर्जन्म होता है या नहीं? ये बड़ी बड़ी समस्याएं मैं तय करता हूं। झगड़ा होता ही नहीं। हमने बांट कर ली है।
तर्कशास्त्र अगर बंटवारा कर सके तो झगड़ा नहीं है। तर्कशास्त्र विज्ञान का उपाय है, धर्म का नहीं। श्रद्धा को विज्ञान में मत डालना और तर्कशास्त्र को धर्म में मत डालना, तो दोनों का सह-अस्तित्व हो सकता है।
गुलजान बहुत दिनों से नसरुद्दीन के पीछे पड़ी थी कि मुझे साड़ी खरीदनी है, मगर नसरुद्दीन उसे टालता रहा। मगर जब एक दिन नसरुद्दीन साड़ी खरीदने के लिए राजी हो गया तो गुलजान की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। नसरुद्दीन गुलजान को लेकर साड़ियों की दुकान पर पहुंचा और दुकानदार को साड़ियां दिखाने के लिए कहा। दुकानदार ने अनेक साड़ियां दिखाईं। गुलजान को डेढ़-डेढ़ सौ वाली दो और तीन सौ रुपये वाली एक साड़ी बहुत पसंद आई। नसरुद्दीन ने दुकानदार को तीन सौ रुपये वाली साड़ी पैक करने को कहा। जब साड़ी पैक करके दुकानदार लाया तो नसरुद्दीन बोला: क्षमा करें महाशय, कृपया इसके बदले में डेढ़-डेढ़ सौ वाली ये साड़ियां हमें चाहिए।
दुकानदार ने उसे अलग रख कर डेढ़-डेढ़ सौ रुपये वाली दो साड़ियां पैक कर दीं। पैकिट लेकर जब नसरुद्दीन चलने को हुआ तो दुकानदार ने कहा: बड़े मियां, पैसे?
नसरुद्दीन बोला: कैसे पैसे?
दुकानदार बोला: अरे इन दो साड़ियों के पूरे तीन सौ रुपये!
नसरुद्दीन बोला: लेकिन ये साड़ियां तो मैंने तीन सौ रुपये की साड़ी के बदले में ली हैं। बोलो, ली हैं या नहीं?
अब दुकानदार घबड़ाया। बोला: आप कह तो सही रहे हैं, ली तो आपने तीन सौ रुपये की साड़ी के बदले में, तो उसी के पैसे दे दीजिए।
नसरुद्दीन बोला: लेकिन तीन सौ रुपये वाली साड़ी मैंने ली ही नहीं, फिर पैसे कैसे? वह साड़ी तो मैं कब की वापस कर चुका हूं।
तर्क की अपनी जगह है। उसे हर जगह मत प्रवेश करवा देना।
नसरुद्दीन की कहानी में आगे क्या हुआ, वह अगर जानना हो, तो तुम्हें रूबी हॉस्पीटल जाना पड़े। कई फ्रैक्चर हो गए हैं। उनकी मरम्मत हो गई। दुकानदार टूट पड़ा। उसके नौकर-चाकर भी टूट पड़े। पट्टियां बंधी हैं सारे शरीर पर। मैं देखने गया था। मैंने नसरुद्दीन को पूछा कि नसरुद्दीन, बहुत दुख होता होगा, बहुत तकलीफ होती होगी?
उसने कहा: नहीं, वैसे तो नहीं होती। जब हंसता हूं तब होती है।
मैंने कहा: तुम हंसते काहे को हो?
उसने कहा: हंसता इसलिए हूं कि मैं भी कहां के मूरख दुकानदार के पास पहुंच गया! उसी घटना को सोच कर हंसी आ जाती है। मगर दुष्टों ने भी क्या मार की! और मेरी पत्नी भी क्या खड़े होकर देखती रही!
तर्क की अपनी जगह है। उसे अपनी जगह पर छोड़ दो, उसकी उपयोगिता है; व्यर्थ नहीं है। लेकिन उसे सीमा के बाहर मत जाने दो। तर्क अगर तुम्हारी श्रद्धा को खंडित न करे तो तुमने उसका उपयोग कर लिया। तर्क यानी मन। श्रद्धा यानी हृदय। तर्क यानी विचार। श्रद्धा यानी भाव। तर्क यानी बहिर्यात्रा। श्रद्धा यानी अंतर्यात्रा।
आज इतना ही।
मैं धर्म करते-करते थक गया हूं; व्रत-उपवास, यम-नियम सब कर देखे, पर पाया कुछ भी नहीं। अब क्या करूं, यह पूछने आपकी शरण आया हूं।
दयानंद! धर्म करते-करते थक गए हो, लेकिन अभी करने से नहीं थके; अभी कुछ और करना चाहते हो।
पूछ रहे हो कि ‘अब क्या करूं, यह पूछने आपकी शरण आया हूं।’
जब करने से थकोगे, तभी क्रांति घटित होगी।
धर्म कृत्य नहीं है, धर्म स्वभाव है। जो करने की बात होती तो तुमने कभी की कर ली होती। करने की बात ही नहीं है। इसमें न तो व्रत का कोई कसूर है, न उपवास का, न यम का, न नियम का। कसूर है तो इस भ्रांत धारणा का कि धर्म क्रिया है, कर्म है।
धर्म अक्रिया है, अकर्म है। धर्म है शून्य, स्वभाव में ठहर जाना। कृत्य में तो आपा-धापी है, दौड़-धूप है। कृत्य तो अहंकार की प्रक्रिया है। अहंकार जीता है करने से। अहंकार बिना किए नहीं जी सकता; कुछ करो तो जीएगा। जितना करो उतना ज्यादा जीएगा। कुछ बड़ा करके दिखाओ तो अहंकार और बड़ा हो जाएगा। चपरासी हो तो छोटा अहंकार और राष्ट्रपति हो जाओ तो बड़ा अहंकार। बड़ा कृत्य करके दिखा दिया! चपरासी तो कोई भी हो जाए। राष्ट्रपति तो साठ करोड़ में कोई एक हो पाए। गरीब हो तो छोटा है अहंकार; अमीर हो जाओ तो बड़ा अहंकार।
अहंकार जीता है करने से। इसलिए अहंकार हमेशा आकांक्षा करता है--यह करूं, वह करूं; दुनिया को दिखा दूं कि मैं कुछ हूं, छोड़ जाऊं छाप इतिहास के पृष्ठों पर! छोटे-छोटे बच्चों के मन में हम जहर भरते हैं, कहते हैं: कुछ करना कि इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्ण अक्षरों में तुम्हारा नाम लिखा जाए! कुछ करना ताकि तुम्हारे वंश का नाम जीवित रहे।
यह नाम की धारणा अहंकार का ही दूसरा रूप है।
तुमने व्रत किए, मगर किसलिए? उपवास किए, किसलिए? तुम सोचते थे धर्म कर रहे हो। लेकिन धर्म का करने से कभी कोई संबंध ही नहीं रहा। धर्म तो ध्यान है और ध्यान कृत्य नहीं है। ध्यान है सारे कृत्य को छोड़ कर साक्षीभाव में विराजमान हो जाना। दौड़ना नहीं, बैठ रहना। चलना नहीं, ठहर जाना। बोलना नहीं, मौन हो जाना। शब्द नहीं, शून्य। विचार नहीं, निर्विचार।
तुम ध्यान की परिभाषाएं देखो, तो तुम सदा पाओगे वे नकारात्मक हैं। विचार--विधायक और ध्यान--निर्विचार, नकारात्मक। कृत्य--विधायक और ध्यान--अकृत्य। इस मौलिक बात को अगर समझ सको कि धर्म कहीं दूर होता तो हम पहुंच जाते चल कर। फिर जो जितनी तेजी से चलता उतनी जल्दी पहुंचता। फिर जो जितना तेज वाहन लेता उतनी त्वरा से पहुंचता। फिर जिसका जितना बल होता, भीड़-भाड़ को चीर कर आगे निकल जाता, धक्के दे कर क्यू में प्रथम हो जाता। लेकिन धर्म तो तुम्हारा स्वभाव है, दूर नहीं है। कहो कि पास है, तो भी कहना ठीक नहीं। क्योंकि पास कहने में भी दूरी ही पता चलती है। पास होना भी दूरी का ही एक नाता है। जिसको हम कहते हैं बहुत पास, उसका इतना ही अर्थ हुआ कि ज्यादा दूर नहीं है--पास।
धर्म तो तुम स्वयं हो, तुम्हारी निजता है। ‘पास’ भी कहना ठीक नहीं। तो इसको, जो भीतर ही विराजमान है, कहां चले हो खोजने? किस वन-उपवन में? किस काबा में, किस काशी में?
व्रत में क्या करोगे? अपने ऊपर एक अनुशासन थोपोगे, एक जीवन की मर्यादा बनाओगे--इतने बजे उठना, इतने बजे सोना। मगर तुम कितने ही बजे उठो, तुम तो तुम ही रहोगे! तुम पांच बजे उठो सुबह ब्रह्ममुहूर्त में तो, और तुम दस बजे सुबह उठो तो--तुम में कुछ भेद नहीं पड़ेगा। क्या तुम सोचते हो, सुबह ब्रह्ममुहूर्त में उठ आओगे तो धर्म उपलब्ध हो जाएगा? तो सारे पशु-पक्षी ब्रह्ममुहूर्त में उठते हैं। तो ऋषि-मुनि कोई नया काम नहीं कर रहे, पशु-पक्षियों की जमात में सम्मिलित हो रहे हैं। यह तो आदमी की ही खूबी है कि सूरज चढ़ जाए और सोया रहे। यह तो कोई भी पशु कर लेगा, पक्षी कर लेगा। करना ही पड़ेगा। सूरज उगा, कंबल है ही नहीं जिसको तान ले, चादर है ही नहीं जिसमें सिकुड़ जाए और एक करवट लेकर सो रहे। तुम भी उठ आए अगर सुबह जल्दी...!
और मैं यह नहीं कह रहा कि सुबह जल्दी मत उठना। उसके अलग लाभ हैं, लेकिन धर्म नहीं है। स्वास्थ्य अच्छा होगा, ताजी हवा मिलेगी। शायद तुम थोड़े दिन ज्यादा जिंदा रहो। लेकिन धर्म से कुछ लेना-देना नहीं है। ज्यादा दिन जीने वाला धार्मिक थोड़े ही हो जाता है। कम जीने वाला अधार्मिक थोड़े ही है। नहीं तो शंकराचार्य तैंतीस साल की उमर में मर गए--अधार्मिक! और कोई सौ साल जीए--तो धार्मिक। रामकृष्ण को कैंसर हुआ, तो अधार्मिक हो जाने चाहिए। और जिनको कैंसर नहीं हुआ, वे सब धार्मिक। रमण महर्षि को भी कैंसर हुआ। महावीर की मृत्यु पेचिश की बीमारी से हुई। बुद्ध की मृत्यु विषाक्त भोजन से हुई। बुद्ध तो निरंतर बीमार रहते होंगे, क्योंकि किसी सम्राट ने अपना निजी चिकित्सक--जीवक, जो उस समय का सबसे प्रसिद्ध चिकित्सक था--उनको भेंट दिया हुआ था। जीवक उनके साथ चलता था--सतत, ताकि उनकी देह की सदा सुरक्षा कर सके।
ज्यादा जीने से कोई संबंध नहीं है। कम जीने से कुछ संबंध नहीं है। न स्वस्थ होने से कोई संबंध है, न बीमार होने से कोई संबंध है। इसलिए मैं यह नहीं कह रहा हूं कि सुबह जल्दी मत उठना। उसके अपने लाभ हैं। पर इतना स्मरण रहे कि धर्म से उसका कुछ लेना-देना नहीं है।
जो व्यक्ति अनुशासन में जीता है उसके जीवन में एक सुडौलपन होता है, एक सौंदर्य होता है। उसके जीवन में एक व्यवस्था होती है। उसका जीवन अराजक नहीं होता। उसके जीवन में एक सुव्यवस्था होती है। जैसे कोई सजा-संवरा, साफ-सुथरा घर, ऐसा उसका जीवन होता है। इसलिए मैं यह नहीं कह रहा हूं कि अपने जीवन को मर्यादा मत दो, कि उच्छृंखल होकर जीओ, कि अपने जीवन को अराजक बना लो, कि एक दिन सुबह भोजन करो, दूसरे दिन आधी रात भोजन करो, तीसरे दिन दोपहर भोजन करो, अपने को अस्त-व्यस्त कर लो। यह मैं नहीं कह रहा हूं।
मर्यादा शुभ है। उसके अपने लाभ हैं। पर धर्म नहीं है। अनुशासन भी शुभ है। उससे तुम्हारे जीवन में बहुत से व्यर्थ के जाल कट जाएंगे। अनुशासनहीन जीवन व्यर्थ की उलझनों में पड़ जाता है।
तुम जरा गौर करो, तुम नामालूम कितनी बातें बोलते हो और उनको बोल कर तुम उलझनों में फंस जाते हो। झगड़े-झांसे हो जाते हैं। पीछे तुम पछताते हो कि न कहा होता तो भी चल जाता, मुझे बोलने की कोई जरूरत भी न थी।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन और उसके तीन साथियों ने तय किया कि सात दिन का मौन रखें। गए, पहाड़ की एक गुफा में बैठे। दृढ़ संकल्प करके गए थे। कोई पांच-सात मिनट ही बैठे होंगे कि पहले ने कहा कि मैं बड़ी उलझन में पड़ा हूं, पता नहीं बिजली घर की बुझा आया कि जलती छोड़ आया! और अब सात दिन यहां बैठना है, बिजली का बिल चढ़ जाएगा।
दूसरे ने उससे कहा: अरे बुद्धू, यहां हम मौन होने के लिए आए हैं और तू बोल गया!
तीसरे ने कहा: नालायक तू भी है। अरे वह बोला था सो बोला था, तू क्यों बोला?
मुल्ला नसरुद्दीन ने हाथ जोड़े आकाश की तरफ और यह कहा: अल्लाह मियां, एक मैं ही हूं जो अब तक चुप हूं।
थोड़ा सा जीवन में अनुशासन उपयोगी है। अनुशासनहीनता एक तरह की विकृति है। उससे जीवन बेडौल हो जाता है, जीवन का संगीत खो जाता है। इसलिए मैं अनुशासन का विरोध नहीं कर रहा हूं; यद्यपि अनुशासन अपने ही भीतर से आना चाहिए, बाहर से आरोपित नहीं होना चाहिए। जिसे दूसरा तुम्हारे ऊपर थोप दे, वह अनुशासन नहीं है, वह तानाशाही है। जिसे तुम अपनी बुद्धि से, अपने विवेक से अपने जीवन को संवारने के लिए सोचो, निर्णय करो--वह शुभ है। एक दृढ़ता आएगी, एक प्रखरता आएगी। तुम्हारी तलवार पर धार आएगी। लेकिन धर्म नहीं।
कभी-कभी उपवास भी प्रीतिकर है, क्योंकि आदमी पेट से जरूरत से ज्यादा काम लेता रहता है। पेट के ऊपर जितना अनाचार आदमी करता है, उतना कोई और नहीं करता। पशु-पक्षी भी जब बीमार होते हैं तो भोजन बंद कर देते हैं। तुम लाख उपाय करो, तो भी भोजन नहीं लेंगे। तुम्हारा कुत्ता भी तुमसे ज्यादा समझदार है। अगर उसकी तबीयत ठीक नहीं होगी, बाहर जाएगा, घास खा लेगा और वमन कर देगा, ताकि पेट हलका हो जाए। क्योंकि जब देह रुग्ण है और पेट पर बोझ रखना देह पर दोहरा बोझ डालना है। एक बीमारी का बोझ, एक भोजन को पचाने का बोझ। अभी तो उचित है कि भोजन को पचाने से शरीर को छुटकारा दिला दिया जाए, ताकि शरीर बीमारी से निपट ले। इसलिए कभी-कभी उपवास सुंदर है, कभी-कभी पेट को छुट्टी दे देनी उपयोगी है।
परमात्मा भी थक गया था--ईसाइयों की कहानी कहती है। छह दिन में दुनिया बनाई, सातवें दिन आराम किया। वह तो परमात्मा ने अच्छा किया कि सातवें दिन आराम किया, नहीं तो रविवार की छुट्टी असंभव थी। वह तो ईसाई ले आए, नहीं तो भारत में कहीं रविवार की छुट्टी होने वाली थी! सारी दुनिया में अगर ईसाइयों ने कोई अच्छी बात पहुंचाई, तो रविवार की छुट्टी। क्योंकि जब परमात्मा ही विश्राम करे तो फिर आदमी को तो विश्राम करना ही चाहिए।
तो कभी-कभी उपवास उपयोगी है। लेकिन उपवास कोई जीवन की शैली नहीं है। तब तो तुम भूखे मरने लगे। तब तो तुमने एक तरह का आत्मघात चुन लिया। तब तो तुम अपने को सताने में मजा लेने लगे। तब तो तुम दुष्ट प्रकृति के हो, हिंसक हो। तुम्हारा उपवास तब अनाचार है--अपने ऊपर ही अनाचार है। इसलिए कोई रक्षा भी नहीं कर सकता। और मूक देह पर तुम वैसे ही बहुत अनाचार करते हो। इस अनाचार से कोई तुम धर्म को उपलब्ध हो जाओगे, ऐसा मत समझ लेना। हां, शरीर सूख जाएगा, कुम्हला जाएगा। शरीर के कुम्हला जाने से कोई आत्मा का कमल खिल जाता है, इस भ्रांति में मत पड़ना। इन दोनों का कोई अनिवार्य संबंध नहीं है।
तो तुमने जो भी किया, यम-नियम, व्रत-उपवास, सब अपना मूल्य रखते हैं--अपनी जगह। लेकिन जब तुम इनको धर्म का पर्यायवाची मान लेते हो दयानंद, तब भूल हो जाती है। ये धर्म के पर्यायवाची नहीं हैं। धर्म का तो सिर्फ एक ही पर्यायवाची है--वह ध्यान है। महावीर ने उसके लिए ठीक शब्द उपयोग किया--‘सामायिक।’ महावीर आत्मा को समय कहते हैं। सामायिक का अर्थ होता है: आत्मा में ठहर जाना, आत्मा में डूब जाना। महावीर ने जैसा प्यारा शब्द उपयोग किया, ऐसा किसी और ने नहीं किया। पतंजलि कहते हैं: समाधि--जहां सब समस्याओं का समाधान हो जाए; जहां सब समस्याएं गिर जाएं; जहां तुम भूल ही जाओ कि कोई समस्या है। ऐसे शून्य, ऐसे मौन, ऐसे निर्विचार, ऐसे निर्विकल्प--तब ध्यान का अनुभव होगा।
दयानंद, कुछ तो तुम्हारी समझ में आया।
तुम कहते हो: ‘मैं धर्म करते-करते थक गया...।’
अच्छा हुआ, शुभ हुआ। धन्यभागी हो कि कम से कम धर्म करते-करते थक तो गए। कुछ मूढ़ तो ऐसे हैं कि करते ही चले जाते हैं, थकते ही नहीं। और अगर कुछ हाथ नहीं आता तो वे न मालूम कितने-कितने तर्क खोज लेते हैं कि क्यों हाथ नहीं आ रहा है।
पिछले जन्मों के कर्म बाधा डाल रहे हैं। जन्मों-जन्मों के कर्म बाधा डाल रहे हैं, इसलिए हाथ नहीं आ रहा है। और करो मेहनत, और करो श्रम! रेत से तेल निचोड़ने की कोशिश कर रहे हैं और सोच रहे हैं कि तेल इसलिए नहीं निकल रहा, क्योंकि पिछले जन्मों के कर्म बाधा डाल रहे हैं। रेत से तेल निकलेगा ही नहीं, चाहे पिछले जन्मों में शुभ कर्म किए हों और चाहे अशुभ कर्म किए हों। रेत में तेल पहले हो तो, तो निकले! निचोड़-निचोड़ कर तुम्हीं निचुड़ जाओगे। तुम्हारा ही तेल निकल जाए तो बात अलग। मगर रेत से तेल निकलने वाला नहीं है।
मगर लोग तर्कजाल फैला लेते हैं। और लोगों को अपने को समझाने के लिए समाधान भी तो चाहिए, सांत्वना भी तो चाहिए। तुम्हारे पंडित-पुरोहित इसीलिए हैं, तुम्हारे संत-महात्मा इसीलिए हैं कि जब तुम थकने लगो, हारने लगो, तो वे तुम्हारे दीये की लौ को उकसाते रहें, तुम्हें उत्साह देते रहें कि बेटा, बढ़े चलो, चले चलो, अब ज्यादा दूर मंजिल नहीं है। वे तुमको धक्के देते रहे हैं और वे तुम्हें कारण बताते रहे हैं कि क्यों नहीं पहुंच रहे हो, चाहे तुम्हारी दिशा ही गलत क्यों न हो।
और धर्म की दिशा, सौ में निन्यानबे मौकों पर तुम जो भी कर रहे होते हो, गलत ही होती है। शायद सौ में एक ही मौका ऐसा होता है, जब धर्म की दिशा गलत नहीं होती। लेकिन वह घटना कृत्य से नहीं घटती। वह कभी-कभी, अनायास, आकस्मिक घटती है। सांझ को सूर्य को डूबते हुए देखा और तुम तल्लीन हो गए--तुम ऐसे तल्लीन हो गए कि भूल ही गए, सब भूल गए! न स्मरण रहा अपना, न स्मरण रहा देह का, न चित्त में कोई और विचार रहे। बदलियों पर फैल गए ये सुखद रंग! सूरज का यह डूबता हुआ अनूठा रूप! यह सागर पर छा गई सूरज की लालिमा! तुम एकदम अवाक रह गए--आश्चर्य-विमुग्ध! क्षण भर को जैसे सब ठहरा, समय ठहरा और एक झलक मिली--आनंद की, सौंदर्य की, काव्य की! यह झलक तुम्हारे भीतर से आती है। मगर तुम सोचते हो कि यह सूर्यास्त के कारण मिल रही है। यह झलक आई इसलिए कि सब कृत्य बंद हो गया। कृत्य बंद हो गया तो धर्म की एक बूंद चू पड़ी। एक बूंद ही, लेकिन उसका स्वाद भी बड़ा मधुर है। एक बूंद अमृत भी काफी है।
इसलिए मैं तुमसे कहता हूं: अक्सर यह हो जाता है कि तुम्हारे त्यागी-तपस्वियों की बजाय कवि और चित्रकार और मूर्तिकार और संगीतकार धर्म के ज्यादा करीब होते हैं। तुम्हारे त्यागी-तपस्वियों का तो धर्म से कुछ संबंध दिखाई पड़ता नहीं। हां, कोई वीणा को बजाते-बजाते ऐसा लीन हो जाता है कि वीणा जैसे अपने से बजने लगती है। बजाने वाला मिट गया। कृत्य न रहा। वीणा अपने से बजने लगी। तब उस क्षण कुछ अनूठा घटता है। हालांकि वीणावादक यही समझेगा कि यह जो रस आया, यह संगीत का है। यह संगीत का नहीं है।
उपनिषद ठीक कहते हैं, परमात्मा की एक ही परिभाषा की जा सकी है अब तक--रसो वै सः! वह रस-रूप है। जहां से भी रस बह जाए, समझ लेना कि वहां परमात्मा से संबंध हुआ। उसका रूप रस है। रस यानी एक मिठास--एक ऐसी मिठास जो रोएं-रोएं को भर जाती है; एक ऐसा स्वाद कि तुम नहा गए, कि तुम ताजे हो गए। मगर वीणावादक भूल करेगा। वह यही समझेगा कि वीणा के कारण हुआ। मूर्तिकार यही भूल करेगा; वह समझेगा कि मूर्ति बनाने के कारण हुआ। चित्रकार भूल करेगा। मगर भूल भी करें वे, निष्पत्ति उनकी गलत है। विचार से उन्होंने जो सोचा है, वह गलत है। लेकिन जो प्रतीति हुई थी, वह ठीक दिशा में थी।
मगर त्यागी-तपस्वियों को तो कुछ भी नहीं मिलता। उनसे ज्यादा कोरे और खाली लोग खोजने मुश्किल हैं। वे बिलकुल थोथे हैं। मगर तुम्हारा उनके लिए बड़ा सम्मान है। उतना ही उनका रस है। उनके अहंकार को तुमसे तृप्ति मिलती है। तुम सम्मान देते हो, उनके अहंकार को तृप्ति मिलती है। और इतना सस्ता अहंकार और किसी तरह से पाया नहीं जा सकता। धन कमाओ तो मेहनत करनी पड़ती है; आसान नहीं है। बड़ी प्रतिस्पर्धा है, गलाघोंट प्रतियोगिता है। लाखों लोग लगे हुए हैं, जूझना पड़ेगा। फिर भी कोई पक्का नहीं है कि जीत जाओ। सब जुए का खेल है। कभी कोई जीतता है। अधिक लोग तो हारते ही हैं। पद पाना है तो जी-जान लगा कर दौड़ना पड़ेगा। दीवानापन चाहिए, बिलकुल पागलपन चाहिए।
लेकिन त्यागी बनना हो तो कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है। वहां कोई प्रतियोगी ही नहीं है। और धन कमाना हो या पद पर पहुंचना हो तो कुछ तो कुशलता चाहिए, कुछ तो गुणवत्ता चाहिए, कुछ तो बुद्धि चाहिए। त्याग करने के लिए कोई बुद्धि की आवश्यकता है? उपवासे बैठे रहने के लिए कोई बुद्धि की आवश्यकता है? निर्बुद्धि से निर्बुद्धि आदमी बैठ सकता है। सच तो यह है सिर्फ निर्बुद्धि ही बैठेगा। बुद्धिमान क्यों बैठेगा भूखा, किसलिए बैठेगा? बुद्धिमान क्यों अपने शरीर को सताएगा? निर्बुद्धि ही इस तरह के काम कर सकता है। उसकी चमड़ी बहुत मोटी होती है। लेकिन उसे सम्मान मिलेगा, सत्कार मिलेगा। जो धन वह कभी नहीं पा सकता था, वे ही धनी उसके चरणों में सिर झुकाएंगे। जो पद वह कभी नहीं पा सकता था, वे ही पद वाले उसके चरणों मे सिर रखेंगे। उसके अहंकार को आनंद ही आनंद आ रहा है। मगर यह अहंकार का आनंद है। धर्म का इससे कुछ लेना-देना नहीं है।
दयानंद, एक बात तो तुम्हें समझ में आई सो अच्छा हुआ, कि ‘धर्म करते-करते तुम थक गए।’ लेकिन एक और बात अगर समझ में आ जाए तो बिगड़ी बात अभी भी बन सकती है। अभी तुम करने से नहीं थके। अभी तुम फिर पूछ रहे हो कि ‘अब क्या करूं, यह पूछने आपकी शरण में आया हूं।’ करने से भी थकना होगा। नहीं तो तुम यूं ही भटकते रहोगे। इस करने से, उस करने में। उस करने से और करने में। तुम्हें बताने वाले मिल जाएंगे कि यह करो। हजार-हजार बातें बताई जा सकती हैं करने के लिए।
लेकिन, यहां अगर तुम आ गए हो तो मैं तो ‘न करना’ सिखाता हूं। यहां तो जो भी आयोजन है वह ‘न करने’ की दिशा में है। नाचते भी हैं लोग, गीत भी गाते हैं, संगीत भी बजाते हैं--लेकिन सबका आयोजन उसी तरफ इशारे के लिए है। सारे तीर एक ही तरफ जा रहे हैं कि जल्दी ही तुम सीख सको कि बस खाली बैठ सको, बिना कुछ किए। राम-राम भी न जपना पड़े, क्योंकि वह भी बकवास है। धार्मिक बकवास समझ लो, मगर बकवास तो बकवास है। अगर कोई आदमी बैठ कर अंट-शंट कोई शब्द बके तो तुम उसको धार्मिक नहीं कहोगे। जैसे कोई आदमी बैठा कहे: कोकाकोला, कोकाकोला, कोकाकोला, तो तुम कहोगे कि ‘तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है? होश से बातें करो! बंद करो यह बकवास!’ लेकिन वही आदमी बैठ कर अगर कहे कि राम-राम-राम, तो अहा, धार्मिक काम कर रहा है! बात वही की वही है। कोकाकोला में भी उतने राम हैं जितने राम में, इससे ज्यादा नहीं; शायद थोड़े ज्यादा ही हों। थोड़ा रस तो है कोकाकोला में, राम में वह भी नहीं। पीओगे तो थोड़ी देर को तो कम से कम राहत मिलेगी। राम में तो कुछ भी नहीं है। यह तो तुम सूखी हड्डी चूस रहे हो। मगर राम-राम कोई कर रहा हो तो तुम्हें लगता है, धार्मिक कार्य कर रहा है। यह कोई धार्मिक कार्य नहीं है।
कोई कार्य धार्मिक नहीं है, अगर मेरी बात तुम्हें समझ में आ सकती हो तो। बैठ रहना, चुप हो रहना। न प्रार्थना, न मंत्र, न जाप। वह अजपा स्थिति--जहां कोई तरंग नहीं उठती चेतना में, जहां कोई आकांक्षा भी नहीं पाने की। फिर क्या घटेगा? थोड़ा सोचो! जहां कोई हलचल नहीं है, वहां तुम अपने में ही डूब जाओगे। डूब ही जाओगे। कुछ और बचा नहीं जाने को कहीं। भागने को कोई उपाय न रहा। तुम अपने में लीन हो जाओ। उस लीनता में, उस तल्लीनता में तुम्हें पहली दफा धर्म का अनुभव होगा।
दयानंद, अब करने की मत पूछो। अब तो ‘न करने’ की बात समझो। फिर तुम्हारे भीतर जब ‘न करने’ से धर्म का अनुभव हो जाए, तो मैं कोई अकर्मण्यता नहीं सिखा रहा हूं। फिर तुम्हारे जीवन में कृत्य हो सकता है, लेकिन उस कृत्य का पूरा का पूरा गुण बदल जाएगा। फिर तुम जो करोगे वह आनंद से करोगे--कुछ पाने के लिए नहीं, बल्कि इसलिए कि कुछ पा लिया है। वह तुम्हारे भीतर के रस से झरेगा। तुम सक्रिय हो जाओगे, बहुत सक्रिय हो जाओगे। शायद पहले इतने सक्रिय कभी न रहे थे। लेकिन अब कृत्य की पूरी गुणवत्ता और होगी। अब इसका कोई लक्ष्य नहीं होगा। अब यह अपने आप में आनंद होगा। अब तुम गीत गाओगे तो अपने में आनंद, तुम वीणा बजाओगे तो अपने में आनंद। तुम ब्रह्ममुहूर्त में उठोगे तो अपने में आनंद। इसलिए नहीं कि इससे कुछ पाना है। तुम पाओगे कि यह अपने में ही आनंद है, पाना क्या है? फिर तुम अगर जाकर मंदिर में झुक रहोगे तो यह अपने में ही आनंद है; इसलिए नहीं कि कुछ पाने गए थे, कोई सौदा करने गए थे, कि परमात्मा को फुसलाने गए थे, कि उसकी खुशामद करने गए थे, कि उसकी स्तुति करने गए थे।
इस देश में रिश्वत को मिटाना मुश्किल पड़ रहा है और मुश्किल पड़ेगा, क्योंकि यह कार्य बहुत प्राचीन है और बहुत धार्मिक है। हम परमात्मा तक को रिश्वत देते रहे, तो आदमी की क्या बिसात! जब परमात्मा तक रिश्वत स्वीकार करता है, तो बेचारे छोटे-मोटे अफसर--पुलिसवाला, स्टेशन-मास्टर, डिप्टी-कलेक्टर, इनकी क्या हैसियत! तुम तो हनुमान जी को दे आते हो रिश्वत, कि मेरे लड़के को पास करवा देना, एक नारियल चढ़ाऊंगा। और हनुमान जी भी खूब हैं, एक नारियल के पीछे तुम्हारे लड़के को पास भी करवा देते हैं! गजब के हनुमान जी हैं। और तुम कभी सोचते नहीं कि तुम क्या कह रहे हो।
तुम मंदिर जाओ, मस्जिद जाओ, गिरजा जाओ, गुरुद्वारा जाओ--मगर जाने का कारण एक कि कुछ पाना है। आनंद को उपलब्ध व्यक्ति भी जाएगा, लेकिन पाने नहीं, बांटने। उसके जीवन में करुणा होगी, प्रेम होगा, दया होगी। उसके जीवन में बहुत फूल खिलेंगे, लेकिन वे सारे फूल स्वांतः सुखाय! वह अगर गुनगुनाएगा भी उपनिषद तो इसलिए नहीं कि कुछ पाना है, बल्कि इसलिए कि उपनिषद के गुनगुनाने का मजा ही और! यह वाणी मधुर है, इसलिए। वह अगर धम्मपद को स्मरण करेगा तो इसलिए नहीं कि धम्मपद को स्मरण करने से भगवान बुद्ध प्रसन्न हो जाएंगे और जब प्रसन्न हो जाएंगे तो फिर कुछ काम बनेगा, कुछ काम सटेगा। नहीं, उसे प्यारे लगते हैं वचन। अब तो उसका अनुभव भी यही है। बुद्ध इसी अनुभव को इतने सुंदर ढंग से कह सके हैं कि वह स्वयं कहने में असमर्थ है। उसके पास ऐसी वाणी नहीं, उसके पास ऐसे सुंदर शब्द नहीं। इसलिए उपनिषद है, कुरान है, बाइबिल है, धम्मपद है, जिन-वचन हैं; लेकिन अब इनसे पाने की कोई आकांक्षा नहीं है। अगर अब परमात्मा भी उसको मिल जाए और कहे कि कुछ मांग लो, तो वह बड़ी मुश्किल में पड़ जाएगा। वह कहेगा: अब क्या मांगना है! जो मांगना था वह मिल चुका। अब तो तुम्हें कुछ चाहिए हो तो मुझसे ले लो।
और अभी तुम्हें परमात्मा तो क्या, अगर भूत-प्रेत भी मिल जाए, तो तुम उसी के पैर पर गिर पड़ोगे।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन को धंधे में नुकसान लग गया, दिवाला निकलने के करीब आ गया। तो गया कि कूद जाऊंगा नदी में। आधी रात का सन्नाटा, नदी के पुल पर कोई भी नहीं। बस, वह कूदने को ही था कि किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखा। लौट कर उसने देखा--ऐसी कुरूप स्त्री उसने अपने जीवन में नहीं देखी थी! सुन रखा था चुड़ैलें होती हैं, मगर देखी पहली दफा। एकदम घबड़ा गया। मौत से नहीं घबड़ा रहा था, चुड़ैल से घबड़ा गया। लेकिन चुड़ैल ने कहा...खिलखिला कर हंसी पहले तो। उसकी खिलखिलाहट नसरुद्दीन के प्राणों में ऐसे गई जैसे कोई कटार चुभो दे। थर-थर कांपने लगा। कहा कि मुझे छोड़ो, मैं तो मरने जा रहा हूं। उसने कहा: पहले मेरी सुनो। क्यों मरते हो? मैं तुम्हें तीन वरदान दे सकती हूं, अगर तुम मेरी एक इच्छा पूरी करो।
नसरुद्दीन ने कहा: वे कौन से तीन वरदान हैं?
कहा: जो तू मांगे। तो नसरुद्दीन ने कहा: ठीक। तो पहला तो यह कि मेरा बैंक-बैलेंस दस लाख का हो जाए।
उसने कहा: कल सुबह हो जाएगा। दूसरा बोल।
उसने कहा कि दूसरा कि मैं जवान हो जाऊं फिर से।
उसने कहा: सुबह, सूरज ऊगते ही अपना मुंह जाकर दर्पण में देख लेना। और तीसरा?
उसने कहा कि मेरी पत्नी भी जवान हो जाए, नहीं तो मैं जवान हो गया, वह बूढ़ी रही तो और झंझट खड़ी होगी।
उसने कहा: कल सुबह तू देखना। कोई अभिनेत्री तेरी पत्नी का मुकाबला न कर सकेगी। सबको मात कर देगी। अब तू मेरी इच्छा पूरी कर।
नसरुद्दीन ने कहा: बोल, तेरी क्या इच्छा है?
तो उसने कहा कि आज रात मेरे साथ प्रेम कर। प्राण कंप गए। छाती की हड्डियां बजने लगीं। इस नर-कंकाल औरत से...पता नहीं सौ साल पुरानी है कि दो सौ साल पुरानी है कि तीन सौ साल पुरानी है, जिंदा है कि भूत-प्रेत है, कि क्या है कि क्या नहीं है...मगर आदमी लोभ में करने को क्या राजी न हो जाए! वे जो तीन मांगें पूरी करने वाली है, इसी शर्त पर करेगी। सोचा कि आंख बंद करके किसी तरह रात गुजार देंगे। अल्ला मियां का नाम ले-ले कर रात गुजार देंगे। अरे, एक ही रात की तो बात है, फिर तो पांसा पलट ही जाएगा, सुबह दस लाख का बैंक-बैलेंस, जवान, जवान औरत, क्या कहने!
चल पड़ा। वह बुढ़िया ले गई उसे अपने मकान पर। रात भर उस बुढ़िया ने सताया उसे। वह तो कहती थी प्रेम कर रही है, मगर नसरुद्दीन की तरफ से सताया ही जाना था। और नसरुद्दीन को भी प्रेम करना पड़ा उस बुढ़िया को। सुबह की राह देख रहा था और रात ऐसी लगे कि जैसे कटेगी ही नहीं, कि जैसे रात का अंत आने वाला नहीं है। बार-बार घड़ी की तरफ देखे, जैसे घड़ी भी आज धीमे-धीमे चल रही है। और उस स्त्री ने रात भर परेशान किया, निचोड़ कर रख दिया इस नसरुद्दीन को। बचा-खुचा दिवाला भी निकल गया। सुबह हुई। नसरुद्दीन उठा, वह बुढ़िया एकदम खिलखिला कर हंसने लगी। नसरुद्दीन ने पूछा: तू क्यों हंसती है?
उसने कहा: मैं इसलिए हंसती हूं...मुझे तुम पर बड़ी दया आती है। तुम्हारी उम्र कितनी है?
नसरुद्दीन ने कहा: साठ साल।
उस बुढ़िया ने कहा: तुम सठिया गए। अरे, साठ साल के हो गए और अभी भी तुम चुड़ैलनों में भरोसा करते हो और तुम सोचते हो कि चुड़ैलनें तुम्हारी इच्छाएं पूरी कर देंगी! अब भागो, घर जाओ!
और उसने कहा: बैंक-बैलेंस? और दर्पण? और मेरी पत्नी?
उसने कहा: अपने घर जाओ और मरना हो तो अब मर जाना। मगर तुम पर मुझे दया आती है कि तुम साठ साल के हो गए और अभी इस तरह की बातों में भरोसा करते हो कि कोई चुड़ैलन मिल जाएगी और तुम्हारी सब इच्छाएं पूरी कर देगी। तुम निपट बुद्धू के बुद्धू रहे!
मगर तब तक तो बहुत देर हो चुकी थी। लौट कर बुद्धू घर को आए, जान बची और लाखों पाए! अब तो मरने तक की आकांक्षा चली गई कि अब मर कर भी क्या करना, अब मरने से भी बड़ा कष्ट रात भर देख लिया। नरक के दर्शन यहीं हो गए।
तुमको अगर चुड़ैलन भी मिल जाए, भूत-प्रेत भी मिल जाएं और कहें कि तुम्हारी इच्छा पूरी कर देंगे, तो तुम एकदम अपनी इच्छाओं का जाल फैला दोगे, फेहरिश्त खोल दोगे पूरी। लेकिन जिस व्यक्ति को धर्म का अनुभव हुआ है, वह धन्यवाद देगा परमात्मा को कि आपकी बड़ी कृपा, बड़ी अनुकंपा! लेकिन अब मुझे कुछ चाहिए नहीं। जो पाना था वह मेरे भीतर था। मैं दौड़ता रहा, इसलिए चूकता रहा। पाने की कोशिश करता रहा, इसलिए भटकता रहा। जब मैंने सब कोशिश छोड़ दी तो उसे अपने ही भीतर जान लिया, जी लिया, पा लिया। मैंने सब पा लिया। आपकी अनुकंपा है, धन्यवाद! अब मुझे कुछ और चाहिए नहीं। अपने को पा लिया तो सब पा लिया। अपने को जान लिया तो सब जान लिया। अपने को जीत लिया तो सारा अस्तित्व जीत लिया।
दयानंद, अब करने की बात छोड़ो। अब यहां अगर आ गए हो तो अपने पर दया करो, तुमने काफी कष्ट अपने को दे लिए।
कहते हो: ‘व्रत-उपवास, यम-नियम सब कर देखे, पर कुछ पाया नहीं।’
वह तुम पाने की आकांक्षा से कर रहे थे, इसलिए गड़बड़ हो गई। अब यहां तुम मिटना सीखो। पाना नहीं, खोना सीखो। शून्य होना सीखो। और तुम चकित हो जाओगे यह बात जान कर कि जिस दिन तुम शून्य होने में समर्थ हो, उसी दिन पूर्ण तुम्हारे भीतर उतर आता है। सब पा लिया जाता है, मिटने की तैयारी चाहिए! खोने की तैयारी चाहिए और सब मिल जाता है। और फिर तुम्हारे जीवन में व्रत भी होंगे, नियम भी होंगे, उपवास भी होंगे।
यही तो एक बहुत बड़ी अड़चन की बात बनी है। महावीर ने उपवास किए, इसलिए जैन मुनि उपवास कर रहे हैं। लेकिन बड़ी भ्रांति हो गई। महावीर ने उपवास किए, क्योंकि उन्होंने धर्म का अनुभव किया। उस धर्म के अनुभव से उपवास में उन्हें आनंद आया। उपवास का अर्थ समझते हो? उपवास का अर्थ होता है: अपनी आत्मा के पास निवास। उपवास शब्द का अर्थ ही यही होता है: अपने पास होना। उसका मतलब अनशन नहीं होता। महावीर ने उपवास किए और जैन मुनि अनशन कर रहे हैं। उनको मैं उपवासी नहीं कहता। उपवास का अर्थ होता है: वे अपने पास आ गए, इतने पास आ गए, अपने में ऐसे लीन हो गए कि दिन आए और गए, वे अपनी मस्ती में ऐसे डूबे कि भूल ही गए! भूख भूल गई, प्यास भूल गई।
तुम्हें पता नहीं है, कभी-कभी जब तुम आनंदित होते हो तो भूख भी भूल जाती है, प्यास भी भूल जाती है। यह जान कर तुम चकित होओगे कि दुख में कभी भूख नहीं भूलती। इसलिए दुखी लोग ज्यादा खाते हैं और मोटे हो जाते हैं। यह दुखी लोगों का लक्षण है। कोई पशु मोटा नहीं दिखाई पड़ेगा। कोई पशु तुम्हें ऐसा नहीं दिखाई पड़ेगा कि नित्यानंद महाराज, कि अखंडानंद महाराज! कोई पशु ऐसा नहीं दिखाई पड़ेगा। अगर तुम हजार बारहसिंगों की कतार देखो तो तुम एक सा पाओगे--एक सा अनुपात उनकी देह का। क्या चमत्कार है! और तुम क्या सोचते हो ये कोई डंड-बैठक लगाते हैं, कि कोई योगासन वगैरह करते हैं, शीर्षासन वगैरह करते हैं, कि कोई पतंजलि के सूत्रों का अनुसरण कर रहे हैं। नहीं, ये दुखी नहीं हैं। यह आश्चर्य की बात है कि तुम्हारे तथाकथित महात्मागण या तो जैनियों के मुनि हैं, जो सूख कर हड्डी हो जाते हैं और या फिर हिंदुओं के महात्मा हैं, जो फूलते ही चले जाते हैं।
नित्यानंद महाराज की तस्वीर देखी? तस्वीर देखोगे तो चकित हो जाओगे। और लोगों को तोंद होती है, अगर नित्यानंद को देखोगे तो तुमको पता चलेगा, यहां हालत बिलकुल उलटी है--इसमें तोंद को आदमी है! आदमी को तोंद, ऐसा तुम कह ही नहीं सकते। बस तोंद है, उसमें जरा सा आदमी जुड़ा हुआ है। इधर ऊपर सिर लगा दिया, इधर दो टागें लगी दीं, दो हाथ लगा दिए, बाकी असलियत में तोंद है। यह दुखी आदमी का लक्षण है।
आज अमरीका में सबसे बड़ी जो समस्या है, वह है मोटापन। लोग एकदम मोटे होते जा रहे हैं। कारण? बहुत दुख है, मानसिक दुख है। मनोवैज्ञानिक इस तथ्य पर पहुंचे हैं कि जो आदमी जितना मानसिक रूप से दुखी होता है, तनावग्रस्त होता है, जितना अपने को खाली-खाली अनुभव करता है, वह उतना ही भोजन से अपने को भर लेता है। भोजन से भरना अपने दुख को भुलाने का एक उपाय है। वह दिन भर बैठा कुछ न कुछ चबाता ही रहेगा। नहीं कुछ होगा तो पान ही चबाएगा, तम्बाकू चबाएगा, कुछ न कुछ खाता रहेगा। अमरीकन पांच दफा दिन में भोजन करते हैं। और बीच की तो बात छोड़ दें, पांच दफे के बीच में जो करते हैं उसका तो अलग ही हिसाब है। बस, जरा ही मौका मिला उनको कि चले फ्रिज की तरफ।
एक महिला बहुत मोटी हो गई थी। उसके डॉक्टर ने कहा कि तू एक काम कर, यह सुंदर तस्वीर ले जा। उसने एक फिल्म अभिनेत्री की नग्न तस्वीर दी--समानुपातिक देह; सारे अंग जैसे होने चाहिए वैसे, अति सौष्ठव, अति सौंदर्य! और कहा कि इस तस्वीर को तू अपने फ्रिज में लगा दे। तो जब भी तू खोलेगी और देखेगी इस तस्वीर को, तो तुझे याद आ जाएगा कि मत भोजन कर। ऐसा सुंदर तेरा भी रूप हो सकता है।
मनोवैज्ञानिकों के इस आधार पर अमरीका में अब तो...! अभी मैं कुछ दो महीने पहले खबर पढ़ा कि फ्रिज बन गए हैं कि तुम दरवाजा खोलो, वे तत्क्षण तुमसे कहते हैं: अपने पर दया करो! कुछ खयाल रखो! क्या कर रहे हो, पुनर्विचार करो। तुम आइस्क्रीम निकाल रहे हो और वे कह रहे हैं: अपने पर दया करो। फिर एक बार सोच लो। पीछे पछताओगे। इस तरह के वचन बोल रहे हैं।
यह इस घटना के पहले की कहानी है।...तो उस महिला को बात जंची। उसने जाकर तस्वीर टांग ली अपने फ्रिज में और सच में इसका परिणाम हुआ। उसका वजन कम होने लगा, क्योंकि जब भी वह दरवाजा खोले...औरतों को तो एक-दूसरे से बड़ी ईर्ष्या होती है, तस्वीरों तक से ईर्ष्या हो जाती है, असली औरत होना जरूरी नहीं है। उसको भारी ईर्ष्या होने लगी कि ऐसा ही करके दिखाऊंगी। जाकर कभी खोल भी ले दरवाजा, जो तस्वीर दिखाई पड़े, फौरन दरवाजा बंद कर दे कि नहीं, संयम रखना है। मगर एक बड़ी हैरानी हुई: वह तो दुबली होने लगी, पति उसका मोटा होने लगा! पत्नी ने कहा कि मामला क्या है। उसने कहा: दुष्ट, जब से तूने वह फोटो टांगी है, तब से मुझे जब भी मौका मिलता है मैं फोटो देखने के लिए जाता हूं। और जब फोटो देखने गया तो सोचता हूं, थोड़ा आइस्क्रीम भी ले लो कि थोड़ा चलो भुट्टा ही निकाल लो एक। हटा वह तस्वीर, नहीं तो मैं मारा गया। तू तो दुबली हुई जा रही है और मेरी फांसी लगा दी। मुझे चैन ही नहीं मिलता। अखबार पढ़ रहा हूं, बीच-बीच में खयाल आ जाता है कि जरा देख तो आऊं, क्या तस्वीर लाई है तू भी!
लोग खाली हैं, किसी भी तरह अपने को भर रहे हैं। बैठे-बैठे चबाते रहते हैं। अमरीका में लोग कुछ नहीं तो गाद ही चबाते रहते हैं। मुंह चलता रहना चाहिए। मुंह नहीं चलता तो उनको बेचैनी होने लगती है कि अब क्या करें, यह एक तरह का मंत्रोच्चार है--गाद चबा रहे हैं। कोई पान चबा रहा है, कोई सिगरेट फूंक रहा है। धुआं ही बाहर भीतर ले जा रहे हैं। एक तरह का प्राणायाम समझो। जरा गंदे किस्म का, मूर्खतापूर्ण, मगर है प्राणायाम ही।
दुखी आदमी ज्यादा भोजन करते हैं। सुखी आदमी कम भोजन करते हैं, क्योंकि सुख से भरे होते हैं, सुख से लबालब होते हैं।
तुमने यह देखा कि महिलाओं के जैसे ही विवाह हो जाते हैं, उसके बाद वे मोटी होनी शुरू हो जाती हैं! जब तक विवाह नहीं होता तब तक उनके शरीर में एक ढंग होता है, लेकिन जैसे ही विवाह हुआ कि बस सब गड़बड़ होनी शुरू हो जाती है। चर्बी एकदम इकट्ठी होने लगती है। पता नहीं क्या इनको एकदम विवाह के बाद होता है! और लोग तो कहते हैं कि ‘विवाह होने के बाद फिर दोनों सुख से रहने लगे।’ मगर बात में कुछ शक दिखाई पड़ता है। यह पत्नी जरूर दुखी है, यह कहे न कहे; क्योंकि बहुत सी बातें हम कहते नहीं; कहनी नहीं चाहिए, इसलिए नहीं कहते। दिखाते कुछ और हैं, होता कुछ और है।
स्त्रियां विवाह के बाद एकदम मोटी होने लगती हैं, स्थूल होने लगती हैं। उनका शरीर सौंदर्य खोने लगता है। थुलथुल देह हो जाती है उनकी।
मैंने सुना, टुनटुन सवार थी एक बस में। आखिर बगल वाले आदमी ने कहा कि बाई, कब तक बर्दाश्त करूं, क्यों मुझे हुद्दे मार रही है? टुनटुन एकदम नाराज हो गई। उसने कहा: हुद्दे! हुद्दे नहीं मार रही। क्या मैं श्वास लूं कि न लूं?’
अब टुनटुन श्वास लेगी तो हुद्दे तो लगेंगे ही।
महावीर ऐसे आनंद को उपलब्ध हुए कि बहुत दिन तक भूख का पता नहीं, प्यास का पता नहीं। यह उपवास था। लेकिन नकलची तो कैसे उपवास करें! नकलचियों ने तो यह देखा, बाहर से देखा। नकलची की यह मुसीबत है, वह बाहर से ही देख सकता है, भीतर से तो देखे भी तो कैसे देखे! भीतर का तो दिखाई पड़ता भी नहीं। अंतर्तम तो छिपा रहता है, ओझल है। उसने बाहर से देखा कि महावीर भोजन नहीं लेते; दिन गुजर जाते हैं, भोजन नहीं लेते। तो शायद यही राज है इनका परमात्मा को पा लेने का। तो मैं भी भोजन न लूं, तो मैं भी पा लूंगा।
मगर यह राज नहीं था परमात्मा को पाने का। यह तो परमात्मा को पा लेने के बाद की घटना थी। तो ये बेचारे, आज पच्चीस सौ साल हो गए, ये नासमझ उपवास किए जा रहे हैं। यह उपवास है ही नहीं। यह शब्द गलत है इनके लिए। महावीर के लिए सही है। ये तो अनशन कर रहे हैं। और इसलिए तुम महावीर की देह में जो ताजगी देखोगे, वह इनकी देह में तो नहीं दिखाई पड़ेगी। ये तो दया-योग्य मालूम होते हैं। ये तो बड़े दीन-हीन मालूम होते हैं। क्योंकि भीतर तो कुछ आनंद है नहीं। भीतर तो दुख ही दुख है और दुख को किसी तरह भोजन से भर लेते हैं, वह भी रोक दिया। इनकी स्थिति तो त्रिशंकु की हो गई--न इस संसार के रहे, न उस संसार के। ये तो बीच में लटक गए। ये तुम्हारे महात्मागण हैं!
व्रत भी आएगा, उपवास भी आएगा, यम-नियम भी आएंगे; मगर वे परिणाम हैं। वे ध्यान के सहज परिणाम हैं। ध्यानस्थ व्यक्ति उच्छृंखल नहीं होता, अराजक नहीं होता। उसके जीवन में बड़ी व्यवस्था होती है, नियोजन होता है। मगर नियोजन जबर्दस्ती नहीं होता, आरोपित नहीं होता; सहजस्फूर्त होता है, अनायास होता है। और स्वभावतः जब जबर्दस्ती आरोपित नहीं होता, तो वैसा आदमी मतांध नहीं होता। कुछ ऐसी जिद नहीं होती कि रोज ब्रह्ममुहूर्त में ही उठेगा, कि एक दिन बीमार है तो भी ब्रह्ममुहूर्त में उठेगा। वैसी भी कोई जरूरत नहीं है। अगर बीमार है तो देर से भी उठ सकता है। उसके जीवन में सहज स्फुरणा होती है। वह अपने प्रतिपल की आवश्यकता के अनुसार जीता है, चलता है। उसके भीतर एक दीया जल रहा है, जो उसके कदमों को रोशनी देता है, जो उसकी आंखों को स्पष्टता देता है। वह अपने ही प्रकाश में अपने जीवन को नियोजित करता है।
यहां कल ही मुझे दो लेख एक साथ मिले--संयोग की बात। एक तो है जर्मनी की प्रसिद्ध पत्रिका ‘स्टर्न’ में छपा हुआ लेख मेरे खिलाफ। जो कारण मेरे खिलाफ दिया है पत्रिका ने, वह यह है कि मैं एडोल्फ हिटलर जैसा व्यक्ति हूं और मैंने अपने संन्यासियों के ऊपर परिपूर्ण रूप से काबू पा लिया है। वे मेरे इशारे से चलते हैं, उठते हैं, बैठते हैं। उनकी अपनी कोई स्वतंत्रता नहीं है।
इससे कोई झूठी बात नहीं हो सकती, क्योंकि मैं तो दिन भर अपने कमरे के बाहर भी नहीं निकलता। मैं इस आश्रम में भी कभी पूरा नहीं गया हूं। इस स्थान से लेकर अपने कमरे तक, इसके सिवाय मुझे दूसरा रास्ता मालूम नहीं है। इस आश्रम के दफ्तर में कभी नहीं गया हूं। इस आश्रम का हिसाब-किताब मुझे पता नहीं है। कौन क्या कर रहा है, यह मुझे मालूम नहीं है। अगर मुझे आंख बंद करके आंख पर पट्टी बांध कर एक जगह छोड़ दिया जाए और आंख की पट्टी खोल दी जाए, तो अपने कमरे तक पहुंचने में मुझे मुश्किल होगी। पूछना पड़ेगा कि भई मेरा कमरा कहां है! और ‘स्टर्न’ को मुझे एडोल्फ हिटलर सिद्ध करने की पड़ी है, क्योंकि जर्मनी में एडोल्फ हिटलर से ऐसी घबड़ाहट बैठ गई है कि किसी को भी एडोल्फ हिटलर सिद्ध कर दो, तो उससे घबड़ाहट बैठ जाए।
और साथ ही एक दूसरा लेख मिला। नासिक में किन्हीं सज्जन ने, मैं उन्हें जानता नहीं, नाम है--आचार्य शिवाजीराव भोंसले, उनका वक्तव्य छपा है। उन्होंने मेरे संबंध में कहा है कि यह व्यक्ति तो बहुत महान हैं, इनके विचार बहुत अदभुत हैं, इनके पास सारी मनुष्यता को रूपांतरित करने का संदेश है। मगर इनके अनुयायी इनकी सुनते नहीं। और वे इनके सारे काम को खराब किए दे रहे हैं।
दोनों बातें झूठ हैं; क्योंकि न तो मैं कोई आरोपित कर रहा हूं किसी के ऊपर कुछ, इसलिए एडोल्फ हिटलर होने का तो सवाल ही नहीं है। और जब मैं आरोपित ही नहीं कर रहा हूं तो संन्यासी नहीं सुनते, यह सवाल भी नहीं उठता। नहीं सुनने की बात तो तब उठे जब मैं उनसे कहूं कि ऐसा करो और वे न करें। मैं तो किसी को कुछ कह नहीं रहा हूं कि ऐसा करो। मैं तो सिर्फ इतना ही निवेदन कर रहा हूं--यह भी निवेदन है, आदेश नहीं--कि कुछ ‘न करने’ से मैंने पाया है; तुम भी उस कुछ ‘न करने’ की दिशा में डुबकी मारो। और फिर रोशनी तुम्हें जब मिल जाए, उसी रोशनी में चलना, ताकि तुम्हारा व्यक्तित्व न खो जाए, तुम्हारी स्वतंत्रता न खो जाए।
तो मैं कोई नियंत्रण कर ही नहीं रहा हूं--न तो एडोल्फ हिटलर जैसा और न किसी और जैसा। और जब नियंत्रण ही नहीं कर रहा हूं तो मेरी मानते नहीं संन्यासी, यह बात तो बिलकुल गलत है। मनाने का कोई सवाल ही नहीं है। मैंने किसी को कभी कहा ही नहीं--कैसे उठो, कैसे बैठो; कब उठो, कब न उठो; क्या खाओ, क्या पीओ। इस सब व्यर्थ की बकवास में मैं पड़ता नहीं हूं।
दयानंद, अगर तुम यहां आ गए हो तो ‘न करने’ की कला सीखो; वही ध्यान है।
दूसरा प्रश्न: भगवान,
व्यक्ति के मर जाने पर क्यों सभी लोग उसकी प्रशंसा करते हैं? वे भी जो कि जीवन में जीवन भर उसकी निंदा करते रहे! इसका राज क्या है?
राज भारती! कुछ खास राज नहीं। बात सीधी-साफ है कि अब बेचारा मर ही गया, अब मरे को क्या मारना! जब तक जिंदा था, तब तक उसके पीछे पड़े थे। उससे स्पर्धा थी, संघर्ष था। अब मर ही गया, अब कोई स्पर्धा भी न रही, कोई संघर्ष भी न रहा। अब तो दुश्मन भी उसके संबंध में अच्छी बातें कहेंगे।
वालटेयर मरा--फ्रांस का बड़ा विचारक--और रूसो से उसका बड़ा विरोध था, जीवन भर दोनों में घमासान तर्कयुद्ध छिड़ा रहा। दोनों सिद्ध करते रहे एक-दूसरे को मूढ़। जब वालटेयर मर गया तो किसी ने भाग कर रूसो को खबर दी कि सुना तुमने, प्रसन्न हो जाओ कि वालटेयर की मृत्यु हो गई!
रूसो ने कहा: ऐसा! आदमी वह महान था। अगर यह बात सच है कि वह मर गया, तो आदमी वह महान था। और अगर यह बात झूठ है तो मैं अपने शब्द वापस लेता हूं। अगर जिंदा है तो टक्कर चलेगी। अगर मर ही गया तो अब मरे को क्या मारना! मुर्दे से कौन लड़े!
लेकिन इसके पीछे लंबी कहानी है। खो गई है कहानी। मुर्दों से लोग डरते हैं। भूत हो जाएं, प्रेत हो जाएं--कुछ तो होंगे ही। जो भी मर जाता है, उसको हम कहते हैं ‘स्वर्गीय’ हो गए। हालांकि सौ में से निन्यानबे स्वर्गीय हो नहीं सकते, मगर हम किसी को नहीं कहते कि नारकीय हो गए। जो मरता है, वही स्वर्गीय हो गया! प्रभु को प्यारा हो गया! प्रभु ने उसे इतना चाहा कि उठा लिया?
क्यों? सदियों पुराना एक भय है कि आदमी मर गया--भूत होगा, प्रेत होगा, सताए, परेशान करे। हम डरते हैं। हम भयभीत होते हैं। हम घबड़ाते हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन और उसकी पत्नी दोनों बात कर रहे थे। पत्नी बीमार थी। मरणासन्न थी। पत्नी ने कहा कि नसरुद्दीन, एक करार करो कि अगर मैं तुमसे पहले मर जाऊं और अगर मैं बचूं मरने के बाद, जैसा कि हिंदुओं का मानना है, तो मैं आऊंगी प्रमाण देने कि हां यह बात सच है। या तुम पहले मर जाओ तो तुम आना और मुझे प्रमाण देना कि यह बात सच है।
नसरुद्दीन घबड़ाया। यह तो मरणासन्न है, नसरुद्दीन को तो अभी मरना भी नहीं है। और यह बाई गजब की बातें कर रही है! नसरुद्दीन तो सोच रहा था दिल ही दिल में कि अब छूटे तब छूटे; यह कह रही है कि बाद में भी आकर प्रमाण देगी! लेकिन अब उससे कुछ विवाद भी नहीं कर सकता, तो कहा: अच्छी बात, मगर एक बात का खयाल रखना कि दिन में आना, रात में मत आना। रात में मुझे वैसे ही डर लगता है। दूसरी बात, तुमको मैं यह भी बता दूं, रात में आओगी तो घर पर मैं तुम्हें मिलूंगा भी नहीं। मैं अकेला घर में सो भी नहीं सकता। मैं किसी दोस्त के घर सोऊंगा। आओ तो दिन में आना, भरी दोपहरी में आना। प्रमाण मुझको ही मत देना, मोहल्ले वालों को भी मिल जाए, चार आदमियों के सामने देना। एकांत में प्रमाण मुझे नहीं चाहिए।
यह घबड़ाहट! तुम जरा सोचो, तुम्हारी पत्नी मर जाए और फिर आकर प्रमाण दे...जिंदगी भर प्रमाण दिए उसने और मर कर भी पीछा न छोड़े!
अक्सर हम जब भयभीत होते हैं तो हम भय को समादर में छिपाते हैं। तुम्हें यह पता है, खाते-बही तुम शुरू करते हो तो लिखते हो--श्री गणेशाय नमः! क्यों? तुमको शायद पता न हो कि गणेश बिलकुल प्रारंभ में बहुत उपद्रवी थे, विघ्न कारक थे। कहीं भी कोई अच्छा काम हो रहा हो तो उनसे नहीं देखा जाता था। बिगाड़ खड़ा कर दें, उपद्रव मचा दें। यूं भी शिवजी के बेटे हैं, ले आते होंगे शिवजी की बरात के कुछ और संगी-साथी। तो कहीं भी हू-हुल्लड़ मचा दें। घेराव डाल दें, हड़ताल करवा दें, कोई भी व्यवधान खड़ा कर दें। पुराने शास्त्रों में इस बात का उल्लेख है कि पहले वे व्यवधान और उपद्रव करने वाले देवता थे। अब ऐसे आदमी को क्या करो! एक ही उपाय है कि इनका पहले ही स्मरण कर लो कि भैया, आप भर कृपा करना! बाकी सबसे तो हम निपट लेंगे। तो श्री गणेशाय नमः इसलिए सबसे पहले। बड़े-बड़े देवता हो गए और बड़े-बड़े अवतारी पुरुष हो गए, किसी की फिकर नहीं; ये सूंडधारी गणेश जी, मगर इनको सबसे शुरू में लिखना पड़ता है--श्री गणेशाय नमः! क्योंकि अगर इनको नंबर दो पर रखो, उसी में नाराज हो जाएं। चले आएं, एकदम घुस आएं भीड़ में, उपद्रव करने लगें।
मैं स्कूल में कभी भी जिस क्लास में रहा वहीं कैप्टन बना दिया जाता था एकदम! क्योंकि शिक्षकों को एक बात पता चल गई थी कि अगर मुझे कैप्टन नहीं बनाया तो मैं उपद्रव करूंगा। तो वे कहते--श्री गणेशाय नमः! मैं कैप्टन हो जाऊं तो उपद्रव कैसे करूं! मुझे दूसरे जो उपद्रव करें, उनको रोकना पड़े। तो जिस क्लास में भी पढ़ा, वहां सारे स्कूल में यह खबर थी कि जिस क्लास में यह विद्यार्थी आए, इसको कैप्टन एकदम बना ही देना, नहीं तो यह उपद्रव मचाएगा।
तुम पूछ रहे हो कि ‘व्यक्ति के मर जाने पर क्यों सभी लोग उसकी प्रशंसा करते हैं?’ करनी पड़ती है। इसीलिए तो विवाह के अवसर पर लोग शुभकामना करते हैं, आशीर्वाद देते हैं बड़े-बूढ़े हूए तो, समसामायिक हुए तो बधाइयां देते हैं, क्योंकि यह आदमी मर रहा है बेचारा! खतम! इति आ गई इनकी। जैसे कहते हैं न, जब चींटी मरने को होती है तो उसको पंख ऊग आते हैं--इनका विवाह होने लगा, अब चींटी मरने के करीब आई! अब आगे से इनका कोई भविष्य नहीं है। अब सब अंधकारपूर्ण है। अब कर लो जितनी भी बधाइयां वगैरह करनी हैं और जितनी भी शुभकामनाएं करनी हैं। अब इनको आखिरी विदाई दे दो कि भैया, आगे तुम जानो और भगवान जाने!
इसीलिए तो तुम महात्माओं की, संतों की इतनी आवभगत करते हो--मर गए बेचारे! मरे-मराए लोग! चलती-फिरती लाशें! अब इनका सम्मान न करो तो क्या करो और! अब और करने योग्य कुछ बचा भी नहीं। जिंदा होते तो कुछ और भी कर सकते थे। अब तो इनके प्रति जितना भी समादर प्रकट कर सको, करो। अगर मुर्दों को यह पता चल जाए...।
मैंने सुना है कि एक राजनेता मरा। लाखों की भीड़ इकट्ठी हुई। राजनेता था, भीड़ में उसकी सदा उत्सुकता थी। एकदम छाती पीट कर रोने लगी उसकी आत्मा। देख रही थी आत्मा एक झाड़ पर बैठ कर। एकदम छाती पीट कर रोने लगी। पुराने मरे एक राजनेता ने पूछा कि भई, क्यों ऐसे छाती पीट रहे हो, क्या बात है? अरे, खुश होओ, कितने लोग विदा करने आए हैं!
‘इसलिए तो रो रहा हूं कि अगर ये दुष्ट पहले ही बता देते कि इतना मेरे प्रति इनका प्रेम है, तो मैं मरता ही क्यों? तब तो इनमें से किसी का पता न चला। अब आए हैं, जबकि मैं मर चुका। अरे, जिंदगी में आए होते तो मजा आ जाता। इसलिए छाती पीट कर रो रहा हूं कि अगर इतने लोग जिंदगी में साथ होते तो प्रधानमंत्री हो गया होता। तब तो एम. एल. ए. तक होने में मुसीबत थी। खोजता फिरता था, लोग भागते फिरते थे। मैं पुकारता था, वे कहते थे, काम हैं। और अब ये सब काम छोड़ कर चले आए हैं।’
बुजुर्ग राजनेता, जो पहले मर चुका था; वह हंसने लगा। उसने कहा: तुम समझे नहीं, ये सब खुशी मना रहे हैं। ये सब प्रसन्न हो रहे हैं कि चलो झंझट मिटी, एक और स्वर्गीय हुए! चलो इनको भी राजघाट पहुंचा दिया!
चंदूलाल उन दिनों बीमा-कंपनी के दफ्तर में काम किया करता था। काम तो लग गया, बस अपने दफ्तर में बैठा-बैठा सोया करता था। दफ्तर के कर्मचारी परेशान--न खुद काम करे, न दूसरों को काम करने दे। अपना पड़े-पड़े कुर्सी पर ही खर्राटे भरे। मैनेजर ने समझाया कि देखो चंदूलाल, तुम काम खुद तो करते नहीं और खर्राटे ऐसे लेते हो कि दूसरों को भी काम नहीं करने देते। आखिर यह कब तक चलेगा?
लेकिन जब बात सीमा के बहुत आगे बढ़ने लगी तो एक दिन मैनेजर ने उसे नौकरी से इस्तीफा दे देने के लिए कह दिया। चंदूलाल ने अपनी आदतों को सुधारने की बजाय इस्तीफा देना ही उचित समझा, सो उन्होंने इस्तीफा लिख कर दे दिया। दफ्तर के सारे लोगों ने देखा कि अब यह जा रहा है, तो क्यों न इसके जाने की खुशी में एक पार्टी का आयोजन कर दिया जाए। सो उसके जाने के उपलक्ष में एक पार्टी का आयोजन हुआ। सभी ने उसके विषय में कुछ न कुछ कहा। किसी ने कहा कि ऐसा साथी खोजना कठिन है, इसकी वजह से ही दफ्तर में कुछ रौनक थी। मैनेजर ने आंखों से आंसू टपकाते हुए कहा कि चंदूलाल, सच कहता हूं कि तुम्हीं इस दफ्तर की जान थे। तुम्हारे जाने से हम सबको बड़ा दुख हो रहा है। तुम्हारे कारण ही दफ्तर की प्रतिष्ठा में चार चांद लग गए थे।
चंदूलाल तो यह सुन कर अपनी सीट से खड़ा हो गया और बोला कि ऐसी की तैसी उस इस्तीफे की! अरे, मुझे क्या पता था कि तुम सब मुझसे इतना प्रेम करते हो। अब मैं कहीं आने-जाने वाला नहीं।
वे तो जो मर गए हैं बेचारे, लौट नहीं सकते, नहीं तो तुम्हारी प्रशंसाएं सुन कर लौट आएं; वे कह दें कि ऐसी की तैसी मरने की। अब हमें नहीं मरना--जब इतने लोग हमारे पीछे दीवाने हैं। पत्नी ऐसा छाती पीट-पीट कर रो रही है, जिसने जिंदगी भर हमें छाती पिटवाई और रोआया। काश हमें पता होता कि यह इतना प्रेम हमें करती है! बेटे इस तरह रो रहे हैं, जो हमेशा जेब में हाथ डाले रखते थे और जितना झपट लें--उस कोशिश में लगे रहते थे। मोहल्ले-पड़ोस के लोग तक दुख मना रहे हैं, जिन्होंने हर तरह से सताया, मुकदमे चलाए, अदालतों में घसीटा। गांव के गुंडे-बदमाश भी मरघट पर पहुंचाने आए हैं, हजार काम छोड़ कर। काश, हमको यह पता होता कि ये लोग हमें इतनी मोहब्बत करते हैं, तो हम मरते ही क्यों!
अगर आदमी के वश में हो तो तत्क्षण वापस लौट आए, एकदम वापस लौट आए। अगर लोग वापस लौटने लगें, तो राज भारती, प्रशंसा बंद हो जाए। फिर कोई मरे की प्रशंसा न करे। फिर लोग डरें; अभी डरने का कोई कारण नहीं। अब मर ही गया, अब क्या बिगाड़ सकता है, करो प्रशंसा! और भय भी है कि कहीं मर कर सताए न, कहीं मर कर पीछा न करे, भूत-प्रेत न हो जाए। होना तो चाहिए भूत-प्रेत ही, कोई देवी-देवता इतने तो दिखाई पड़ते नहीं कि इन लोगों में से देवी-देवता होते होंगे लोग। इनकी हरकतें जाहिर करती हैं कि ये कहां जाते होंगे।
जब चंदूलाल मरा तो सारे लोग उसे पहुंचाने गए, बड़ी भीड़-भाड़ थी। संयोगवशात चंदूलाल की अरथी आगे-आगे चली जा रही है, उस भीड़-भाड़ में अरथी की धक्कम-धक्की में एक ट्रक भी जो कोयले से भरा हुआ था, वह भी फंस गया। वह भी उसी दिशा में जा रहा था, सो उसको भी अरथी के पीछे चलना पड़ा। नसरुद्दीन अपने साथी से बोला कि हद्द हो गई, यह तो मुझे पक्का पता था कि यह कहां जाएगा, मगर यह नहीं मैंने सोचा था कभी जिंदगी में कि अपने साथ ईंधन भी ले जाना पड़ता है। नरक तो जाने ही वाला है यह, मगर यह ईंधन का ट्रक, यह एक नई बात है! पहले भी आदमी मरते थे, नरक जाते थे। ईंधन वहीं मिलता था। अगर चूल्हा जलेगा और कढ़ाए चढ़ाए जाएंगे और उनमें तुम पकोड़ों की तरह तले जाओगे, मगर अपने साथ कोयला ले जाना, यह तो बात जंचती नहीं कुछ, कि सताओ भी हम ही को और कोयला भी हम लेकर आएं!
नसरुद्दीन ने कहा: इससे तो दिल बैठा जा रहा है। यह क्या बात हुई कि नरक की कीमत भी खुद ही चुकाओ। आज पहली दफा नरक से घबड़ाहट हो रही है--वह कहने लगा--कि हम तो सोचते थे चले जाएंगे, उठाया मुंह, चले जाएंगे; जो होगा, देखा जाएगा। लोग तो नरक ही जाएंगे--यह तुम्हें भी पता है--जिनका तुम कहते हो स्वर्गीय हो गए। लेकिन घबड़ाहट लगती है, डर लगता है--कहीं ये सताएं न, परेशान न करें।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि मृतकों की, पितरों की पूजा का आधार ही यही है--भय, कि आप तो मर गए, हमें अभी जिंदा रहना है, जिंदा रहने देना, कृपा रखना! तो यहां हिंदू हैं कि पितर-पक्ष मनाते हैं। कोई नहीं मिलता तो कौओं को ही भोजन करवाते हैं, कि भैया पहुंचा देना पितरों तक खबर, कि कृपा करना! हे पितर देवता, आप उसी तरफ रहना! अब चले ही गए तो अच्छा हुआ, इधर लौट मत आना। हम मजे में हैं। हमारी खोज-खबर लेने मत चले आना।
और कुछ राज नहीं है।
जीवन में तो निंदा की जाएगी, क्योंकि जीवन में अहंकार को चोट लगती है। किसी की प्रशंसा करना बड़ा कठिन काम है। अगर कोई तुमसे कहे कि फलां आदमी बहुत सुंदर बांसुरी बजाता है, तुम तत्क्षण बोलोगे: अरे, वह क्या बांसुरी बजाएगा--चोर-उचक्का! वह बांसुरी बजाएगा! वह क्या बांसुरी बजाएगा? चार सौ बीस, वह बांसुरी बजाएगा! उसे हम सात पीढ़ी से जानते हैं। वह बांस भी बजा ले तो बहुत, बांसुरी क्या बजाएगा! तुम्हें बर्दाश्त के बाहर है यह भी कहना कि वह बांसुरी सुंदर बजाता है। तुम जरूर कुछ न कुछ भूल-चूक निकाल लोगे। भूल-चूक निकालने में लोग इतने कुशल हैं, क्यों? क्योंकि भूल-चूक से तुम्हारा अहंकार तृप्त होता है। जितनी तुम दूसरों में भूल-चूक निकाल सकते हो, उतना ही तुम्हें लगता है कि हम बड़े। और जितना तुम दूसरों में प्रशंसा के कारण देखोगे, उतना ही तुम्हें लगेगा हम छोटे। और अपने को कोई छोटा मानना चाहता नहीं। अपने को कौन छोटा मानना चाहता है!
अरबी कहावत है कि परमात्मा भी खूब मजाक करता है। जब आदमियों को बना कर भेजता है तो हर आदमी के कान में कह देता है कि तुझ जैसा गजब का आदमी मैंने पहले कभी बनाया नहीं! बस, वह भ्रांति हर आदमी अपने दिल ही दिल में लिए रहता है। कह तो सकते नहीं किसी से, क्योंकि कहो तो लोग कहेंगे: पागल हो, अहंकारी हो! छिपा कर रखना पड़ता है। लेकिन तरकीबों से कहना भी पड़ता है, क्योंकि बिलकुल छिपा कर भी नहीं रख सकते। तो बड़ा मकान बना कर दिखलाना पड़ेगा, बड़ी सीढ़ियां चढ़ कर बताना पड़ेगा--यश की, पद की, प्रतिष्ठा की, सफलता की--ताकि लोगों को सिद्ध हो जाए परोक्ष रूप से कि हूं तो मैं गजब का! तुम क्या हो, दो कौड़ी के हो! तुम्हारी हैसियत क्या, बिसात क्या!
इसीलिए हम जिंदा में तो किसी की प्रशंसा कर सकते नहीं। प्रशंसा मुश्किल पड़ती है। वह हमारे अहंकार के विपरीत है। निंदा आसान है और निंदा करने के लिए हम क्या-क्या नहीं कर सकते!
चंदूलाल का मकान नदी के किनारे था। जब चंदूलाल शादी करके घर आए तो कुछ दिनों बाद उन्होंने पाया कि उनकी नई पत्नी बड़े ही क्रोध में है। उन्होंने पूछा कि बात क्या है। श्रीमती जी बोली कि मोहल्ले के कुछ उच्चके सामने ही नदी के घाट पर रोज नग्न स्नान किया करते हैं और एक दिन तो कलमुंहे बिलकुल ही नंगे हुड़दंग मचा रहे थे, बिलकुल मेरे सामने।
चंदूलाल ने खिड़की से देखा, कुछ दिखाई नहीं पड़ा। तो चंदूलाल ने कहा: मुझे तो कुछ दिखाई नहीं पड़ता।
तो पत्नी ने कहा: अरे, स्टूल पर खड़े होकर देखो! ऐसे कहीं दिखाई पड़ेगा?
तो चंदूलाल स्टूल पर खड़े हुए। जब पत्नी कहे स्टूल पर खड़े होओ तो खड़े होना पड़े स्टूल पर, पत्नी कहे हाथी पर बैठो तो हाथी पर बैठना पड़े। पत्नी जो कहे वह पति को करना ही पड़े। यह तो शाश्वत नियम है। इसमें जो पति डगमगाया, वह मुश्किल में पड़ा। चढ़ कर स्टूल पर गौर से देखा, कोई लुच्चे-लफंगे नहीं थे, कोई उचक्के नहीं थे, मोहल्ले के लड़के--कोई होगा आठ साल का, कोई दस साल का। अब वे नंगे न नहाएं तो क्या सूट-पैंट और टाई पहन कर नहाएं? टोप लगा कर और जूते पहन कर नहाएं? मगर अब पत्नी से क्या कहना! चंदूलाल ने कहा: मैं जाता हूं, समझाता हूं। जाकर लड़कों को समझाया कि भाई, यहां नग्न स्नान मत किया करो। मुझे कोई एतराज नहीं, मगर मेरी पत्नी मेरी जान खाती है। तुम जरा दूर को निकल गए। नदी तो बड़ी पड़ी है, जरा आधा मील नीचे। वहां दिल खोल कर नहाओ। वहां कोई मकान भी नहीं है। तो मैं ही नहीं परेशान, दूसरा भी कोई परेशान नहीं होगा।
थोड़ा ना-नुच के बाद लड़के मान गए। मगर दो-चार दिन के बाद श्रीमती जी बोलीं कि देखो, उन नालायकों ने फिर नग्न होकर नहाना शुरू कर दिया। चंदूलाल बोले: लेकिन अब तो वे दूर वाले घाट पर नहाते हैं, आधा मील नीचे!
श्रीमती जी बोलीं: लेकिन दूरबीन लगा कर देखने पर तो वे वैसे के वैसे ही पास दिखाई देते हैं।
अब अगर देखने की ही जिद कर रखी है तो स्टूल पर चढ़ो, दूरबीन लगाओ। फिर तो बड़ी मुश्किल है। अहंकार जिद किए बैठा है कि दूसरे में भूल-चूक निकालेंगे ही निकालेंगे। वह जीता ही इस पर है। और तब किसी के मर जाने पर एक पछतावा भी होता है, एक पश्चात्ताप, कि जिंदगी भर भूल-चूक निकाली, अब किसी तरह से हिसाब-किताब ठीक कर लो। अब प्रशंसा कर दो, अब क्या बिगड़ता है! अब तो आदमी गया ही। अब अहंकार को कोई चोट लगती नहीं।
इसलिए जिन लोगों ने जीसस को सूली दी, वे ही यहूदी ईसाई बन गए। जिन यूनानियों ने सुकरात को जहर पिलाया, वे ही यूनानी सदियों से सुकरात का गुणगान कर रहे हैं। जिन लोगों ने महावीर पर पत्थर फेंके, उनके कानों में खीले ठोके, वे ही लोग उनको भगवान कह रहे हैं। जिन्होंने बुद्ध को मार डालने के हजार तरह के उपाय किए, पागल हाथी छोड़ा, चट्टान गिराई उनके ऊपर, और संभवतः जहर पिलाने की चेष्टा की, वे ही लोग अब उनको परमात्मा का अवतार मान रहे हैं। वे ही लोग! यह बड़ी हैरानी की बात लग सकती है, मगर हैरानी की कुछ भी नहीं, पश्चात्ताप पकड़ता है।
जीसस को दुनिया में मानने वाले सर्वाधिक लोग हैं, उसका कारण सूली है, जीसस नहीं। अगर जीसस को सूली न लगती तो इतनी बड़ी संख्या जीसस को मानती नहीं। सूली दे कर जो पश्चात्ताप हुआ इस आदमी के मरने के बाद, इतने लोगों को अपराध-भाव अनुभव हुआ कि हमने यह क्या किया, करना नहीं था ऐसा--तो अब क्या करें? इससे विपरीत करो! ताकि रफा-दफा हो जाए बात। और पता नहीं, कौन जाने यह ईश्वर का बेटा हो ही! और फिर आगे बदला ले! तो अब निपटारा कर ही लेना ठीक है।
वे ही लोग ईसाई हो गए। ईसाई होकर उन्होंने कुछ ईसा ने जो कहा था उसका पालन किया हो ऐसा नहीं; सिर्फ नाम--लेबिल बदल लिया। रहे तो वे वही के वही, आज भी वही के वही हैं, कोई फर्क नहीं पड़ता।
महावीर के पीछे जो लोग चल रहे हैं, वे कौन लोग हैं? वे वही के वही लोग हैं। महावीर नग्न थे। तुम जरा सोच लो कि महावीर के नग्न रहने के साथ लोगों को कितनी अड़चन हुई। गांव-गांव से भगाए गए। लोग उनके पीछे कुत्ते लगा देते थे, ताकि उनको गांव में न टिकने दें। वे ही लोग अब महावीर की पूजा कर रहे हैं। लेकिन अगर कोई दूसरा व्यक्ति आज नग्न खड़ा हो जाए तो वे ही लोग उसकी निंदा करने को तत्पर हो जाएंगे--वे ही लोग! हां, अगर महावीर की ही धारा में खड़ा हो और महावीर का ही अनुसरण करे और महावीर की ही लीक पर बिलकुल लीक-लीक चले, लकीर-लकीर चले, तो सम्मान करेंगे। क्योंकि वह कुछ महावीर से भिन्न नहीं अपना अस्तित्व जाहिर कर रहा है।
तुम देखते हो, क्यों तीर्थंकर, पैगंबर अपनी जीवित अवस्था में अपमानित किए जाते हैं? मोहम्मद को लोगों ने जिंदगी में एक दिन शांति से न रहने दिया। और अब करोड़ों लोग स्मरण करते हैं। ये वे ही लोग--जिन्होंने शांति से न रहने दिया। अब पश्चात्ताप कर रहे हैं। अब हाथ धो रहे हैं, लहू के दाग मिटाने की कोशिश कर रहे हैं। और ये दाग ऐसे नहीं हैं जो कि मिट जाएं। यह मजबूरी में, आत्मग्लानि में सम्मान चल रहा है। मगर मुर्दों का सम्मान करने में सुविधा है, क्योंकि मुर्दों के संबंध में तुम कहानियां गढ़ सकते हो, जिंदा आदमियों के संबंध में कहानियां गढ़ना बहुत मुश्किल है।
महावीर के संबंध में क्या-क्या कहानियां लोगों ने नहीं गढ़ीं। महावीर के संबंध में पहली कहानी तो यह है कि वे पैदा तो हुए थे एक ब्राह्मणी के गर्भ में; लेकिन जैन ब्राह्मणों के विरोध में रहे हैं, तो यह तो वे बरदाश्त कर नहीं सकते कि महावीर और ब्राह्मण घर में पैदा हों, तो पहली शल्य-क्रिया गर्भ बदलने की महावीर के लिए की गई, कि देवता आए आकाश से और उन्होंने गर्भणी ब्राह्मणी का गर्भ निकाला, क्षत्राणी के गर्भ में महावीर को रखा और क्षत्राणी का गर्भ निकाल कर ब्राह्मणी के गर्भ में बदल दिया। ऐसी देवताओं ने चार सौ बीसी की! तब महावीर क्षत्रिय के घर में पैदा हुए, क्योंकि तीर्थंकर सदा ही क्षत्रिय होने चाहिए। महावीर के पहले तेईस तीर्थंकर हो चुके थे, वे सब क्षत्रिय ही होने चाहिए। अब यह थोथी कहानी गढ़नी पड़ी--सिर्फ ब्राह्मणों का अपमान करने के लिए, कि कहीं तीर्थंकर और ब्राह्मण-कुल में पैदा हो सकता है!
जैनों के चौबीस तीर्थंकरों में एक महिला है, मल्लीबाई। लेकिन जैन उसे मल्लीबाई नहीं कहते, मल्लीनाथ कहते हैं। मैं जब छोटा था तो मैं भी यही समझता था कि मल्लीनाथ भी पुरुष हैं, नाथ से साफ होता है कि पुरुष हैं। यह तो बहुत बाद में मुझे समझ में आया कि मल्लीनाथ पुरुष नहीं थे, स्त्री थे। लेकिन कहानी को बदल लेना पड़ा जैनों को, क्योंक स्त्री पर्याय से तो मोक्ष हो ही नहीं सकता। जैसे ब्राह्मण कुल में तीर्थंकर पैदा नहीं होता, ऐसे ही स्त्री-पर्याय से मोक्ष नहीं होता। वह तो पुरुष पर्याय से ही मोक्ष होता है। सो दूसरा चमत्कार उन्होंने किया। यह वैज्ञानिक अब कर रहे हैं। यही तो हमारे शास्त्रों की खूबी है कि हम सब जो पहले कर चुके हैं, वह अब यह बेचारे तीन हजार साल बाद कर रहे हैं। हमने पहले ही स्त्री का ऑपरेशन करके पुरुष कर दिया। लिंग-परिवर्तन हम कब का कर चुके हैं! ये अब कर रहे हैं और समझते हैं समाचार है यह, कि कोई स्त्री को पुरुष बना दिया, कि किसी पुरुष को स्त्री बना दिया--विटामिन और हारमोन, इनकी बदलाहट से। यह तो हम बहुत पहले कर चुके। हमने मल्लीबाई को मल्लीनाथ बना दिया--सिर्फ एक धारणा को बचाए रखने के लिए--पुरुष का अहंकार।
मल्लीबाई को बहुत गालियां पड़ी होंगी--कई कारणों से। एक तो पुरुष नग्न हो तो ही तुम दिक्कत दोगे और मल्लीबाई स्त्री थी और नग्न हुई होगी, तो तुम समझ सकते हो कि कितनी तुमने दिक्कत न दी होगी। स्त्री और नग्न हो जाए, यह तो नारी की लज्जा गई।
यह तो तुम्हारी नारी की धारणा ही नष्ट हो गई। तो जिंदा में तो अपमान किया होगा। सब तरह से अपमान किया होगा। फिर मर जाने के बाद तुम पछताए होओगे। तुमने फिर लीपा-पोती की। फिर तुमने कहा कि अब कुछ हिसाब जमा लेना चाहिए। हिसाब सीधा-साफ था, जरा सी तरकीब करनी थी--मल्लीबाई को मल्लीनाथ कर दो।
उन्नीस सौ बावन में हिमालय में नीलगाय पाई जाती थी। उसकी संख्या बहुत बढ़ गई और वह खेतों में बहुत उपद्रव करने लगी। संसद में सवाल उठा कि इसको गोलियां मार दी जाएं, इसकी हत्या की जाए, नहीं तो यह खेतों को बर्बाद कर देगी। यह उत्पात बहुत बढ़ गया है। इसकी संख्या रोज बढ़ती जा रही है। मगर सवाल यह था कि अगर नीलगाय को मारा, हालांकि नीलगाय गाय नहीं है, सिर्फ नाममात्र को गाय है; लेकिन अगर ‘गाय’ शब्द भी रहा उसमें तो हिंदू उपद्रव खड़ा कर देंगे। और फौरन विरोध शुरू हो गया कि गाय की हत्या नहीं की जा सकती। ‘गऊमाता!’ शब्द ही काफी है। लोग शब्दों से जीते हैं। तो तुम्हें पता है, संसद ने क्या तरकीब निकाली। उन्होंने उसका नाम रख दिया: नीलघोड़ा। फिर गोली मार कर खत्म कर दिया। नीलघोड़े को मारने में किसको तकलीफ है? किसी हिंदू ने एतराज नहीं उठाया, नीलघोड़े को मारना हो मारो; नीलगाय को भर मत मारना! वही गाय गरीब घोड़ा होकर मारी गई। लोग शब्दों से जीते हैं।
वही मल्लीबाई मल्लीनाथ होकर पूजी गई। मल्लीबाई होकर उसको सताया गया, परेशान किया गया, हैरान किया गया। लेकिन जब ये लोग मर जाएं तो फिर कहानियां गढ़नी आसान हो जाती हैं।
महावीर के संबंध में कहानियां हैं कि उनको पसीना नहीं निकलता। तीर्थंकरों को पसीना नहीं निकलता। क्या पागलपन की बात है! कोई प्लास्टिक के बने होते हैं? कुछ होश की बात करो। तीर्थंकरों को तो और ज्यादा निकलता होगा, क्योंकि नंग-धड़ंग रहेंगे, धूप-धाप में घूमेंगे...। और अधिक तीर्थंकर उत्तर भारत में हुए। महावीर खुद बिहार में हुए जहां सूरज आग की तरह बरसता है। वहां पसीना न निकले!
और फिर जैनों की धारणा है कि तीर्थंकर स्नान नहीं करते। स्नान की जरूरत ही नहीं। जब पसीना ही नहीं निकलता तो स्नान की क्या जरूरत है? यह तो साधारण आदमियों का काम है स्नान वगैरह करना। तीर्थंकर को पसीना ही नहीं निकलता। तीर्थंकर जब जिंदा रहे होंगे, तब यह कहानी गढ़नी मुश्किल थी, क्योंकि प्रत्यक्ष सामने लोग जाकर देख लेंगे, फिर? हां, जब मर गए तब तुम कहानी गढ़ सकते हो। अब तुम्हारे हाथ में है। अब कुछ भी करो तुम।
कहते हैं, सांप ने काट खाया महावीर को तो दूध की धार बही।
मैं एक जैन सभा में बोल रहा था। मुझसे पहले एक जैन मुनि, चित्रभानु बोले। उन्होंने कहा कि यह बिलकुल वैज्ञानिक है। विज्ञान की अभी प्रतिष्ठा है, इसलिए हर तरह की मूढ़तापूर्ण बात को वैज्ञानिक सिद्ध करने की कोशिश चलती है। विज्ञान की प्रतिष्ठा है, साख है; इसलिए किसी भी चीज को वैज्ञानिक सिद्ध करने की चेष्टा होती है। हर चीज को! लेकिन मानने वाले को दिखाई नहीं पड़ेगा कि ये मूर्खतापूर्ण बातें हैं। जो नहीं मानता, उसको साफ दिखाई पड़ जाएगी कि यह क्या पागलपन की बात कर रहे हो! और उन्होंने क्या वैज्ञानिक उल्लेख किया, तालियां पिट गईं। जैन तो बिलकुल बाग-बाग हो गए, हृदय गदगद हो गया! स्त्रियों की आंखों से आंसू बहने लगे, कि मुनि महाराज क्या गजब की बात कह रहे हैं!
और मैंने कहा कि यह कहां के मूर्खों के बीच में फंस गया! वे क्या समझा रहे थे, वे कह रहे थे कि जब स्त्री के स्तन से दूध निकल सकता है, तो स्तन भी आखिर है तो शरीर का ही हिस्सा। जब स्तन में से दूध निकल सकता है तो पैर में से क्यों नहीं निकल सकता?
मैं उनके पीछे बोला। मैंने कहा कि यह बात तो बड़े पते की बता रहे हैं। अंधे को अंधेरे में बड़ी दूर की सूझी! इसका मतलब यह हुआ कि महावीर के पैर में स्तन था। और पैर में ही नहीं रहा होगा, क्योंकि क्या पता सांप कहां काटे, सारे शरीर पर स्तन रहे होंगे। अगर आज होते तो गजब हो जाता। हर फिल्म में मांग होती। जहां जाते भीड़ लग जाती--स्तन ही स्तन! और चाहिए ही क्या!
और स्तन में कुछ ऐसे ही दूध नहीं आ जाता। स्तन में पूरा यंत्र है खून को दूध में रूपांतरित करने का। वह यंत्र पैर में होना चाहिए, तो ही दूध बन सकता है। ऐसा कोई दूध भरा हुआ नहीं है भीतर स्तन में। कोई डब्बा नहीं है स्तन कि उसके भीतर दूध भरा है कि दबा दिया कि पिचकारी निकल गई दूध की! वहां यंत्र है। नहीं तो पुरुष ही दूध पिलाने लगें न फिर! स्तन तो पुरुषों के पास भी है। छोटे-मोटे सही...तो छोटे-छोटे इल्ले-पिल्लों को पिलाएं, कोई बात नहीं, बड़े-बड़ों को न सही। मगर यंत्र नहीं है।
और अगर तुम यह समझते हो कि महावीर के शरीर में दूध ही दूध भरा था तो सांप ने जब काटा तब तक दूध कभी का दही हो गया होता। और ऐसी बास उठती दही की, सड़ गया होता दही, कि सांप की हिम्मत ही न पड़ती पास आने की। सांप तो सांप, पशु-पक्षी, आदमी सब एकदम भागते। जहां महावीर पहुंच जाते वहीं एकदम तहलका मच जाता, जैसे प्रलय आ गई हो!
लेकिन इसको वैज्ञानिक कह कर समझाया जा रहा है। बात कुल कविता की है, विज्ञान क्या है इसमें? बात काव्य की है, प्रीतिकर है। इतनी ही बात कही जा रही है कि महावीर को तुम चोट भी करो तो उनसे प्रेम ही निकलता है, बस इतनी ही बात कहने की है। उनका तुम अपमान भी करो तो भी उनके भीतर से करुणा ही बहती है, बस इतनी ही बात कहनी है। इसको प्रतीक कहने का है।
लेकिन पीछे जब कहानियां गढ़ी जाती हैं तो फिर उनमें कुछ हिसाब रखने की जरूरत नहीं रह जाती। जो मौज आए, जैसी कहानी गढ़नी हो वैसी कहानी गढ़ लो! जीसस को पानी पर चलाओ, मो़जे़ज से समुद्र कटवा दो। समुद्र दो हिस्सों में कट कर खड़ा हो गया और मो़जे़ज और उनके यहूदी उनके पीछे निकल गए। जिंदा आदमी तो ये सब काम नहीं कर सकता तो जिंदा आदमी की तुम प्रशंसा कैसे करो? इसलिए जिंदा पैगंबर तो इनकारे जाते हैं, अस्वीकारे जाते हैं। और मर जाने के बाद पश्चात्ताप में, ग्लानि में, अपराध में तुम कहानियां गढ़नी शुरू कर देते हो। फिर उन्हीं कहानियों को लोग पूजते हैं। फिर उन्हीं कहानियों को लोग मानते हैं। फिर उन्हीं कहानियों के आधार पर और कहानियां गढ़ते चले जाते हैं। फिर धीरे-धीरे असली आदमी तो खो ही जाता है, एक नकली आदमी बन कर खड़ा हो जाता है--बिलकुल झूठा आदमी।
अब जीसस कुआंरी बेटी से पैदा हुए, यह और गजब की बात! वह ऑपरेशन भी कुछ इतना गजब का नहीं था जो महावीर के लिए किया गया। कुआंरी कन्या से पैदा होना...बड़ा कठिन काम किया उन्होंने भी! कैसे किया, यही बड़ा मुश्किल मामला है। यह हो नहीं सकता। मगर जब कहानी गढ़नी हो, तो फिर कोई पाबंदी नहीं रह जाती। यह तुमने सदियों से किया है। यह तुम आज भी कर रहे हो। अगर महावीर जिंदा हों तो तुम आज भी अपमान करोगे। अगर जीसस मौजूद हों, तुम फिर सूली लगाओगे। बुद्ध अगर सामने खड़े हो जाएं तो बस, तत्क्षण तुम्हारी सब पूजा खो जाएगी। लेकिन मरे हुए बुद्ध को तुम अपने अनुकूल बना लेते हो।
यह राज की बात समझो, राज भारती। मरे हुए व्यक्ति को तुम जैसा चाहो वैसा बना लेते हो, क्योंकि वह तुम्हारे हाथ में है। तुम जो रंग देना चाहो दे दो, जो ढंग देना चाहो वह दे दो। लेकिन जिंदा व्यक्ति तो अपने ढंग का होता है, अपने रंग का होता है। और जिंदा व्यक्ति के साथ तुम कहानियां नहीं गढ़ सकते। और ऐसे व्यक्ति--बुद्ध या महावीर या जीसस जैसे लोग--तुम्हें कहानियां गढ़ने भी नहीं देंगे। तुम्हारी कहानियां तोड़ देंगे, तत्क्षण तोड़ देंगे। ऐसे लोग सत्य को दिखाने के लिए जीवन भर आतुर होते हैं, झूठ गढ़ने के लिए नहीं।
अंतिम प्रश्न: भगवान,
क्या तर्कशास्त्र बिलकुल व्यर्थ है?
सागर! बिलकुल व्यर्थ तो नहीं; अपनी जगह उसकी सार्थकता है। लेकिन सीमा है उसकी। उसे सीमा के बाहर मत खींचना।
पदार्थ के संबंध में तर्कशास्त्र की उपयोगिता है, लेकिन चेतना के संबंध में नहीं। तर्कशास्त्र जीता है संदेह पर। संदेह उसकी आत्मा है। और चैतन्य को अनुभव करना हो तो श्रद्धा के फूल चाहिए।
एक तर्कशास्त्र के प्रोफेसर से किसी ने पूछा: आपके घर में किसका शासन चलता है?
प्रोफेसर ने कहा: अपनी-अपनी जगह सभी शासन करते हैं।
पूछने वाले ने कहा: मैं कुछ समझा नहीं। कुछ विस्तार से समझाइए।
प्रोफेसर ने कहा: सुनो, मेरी पत्नी बच्चों को अनुशासित करती है, उन्हें डांटती-डपटती है। मेरे बच्चे हमेशा नौकरों पर हुक्म चलाते हैं। मेरे घर के नौकर-चाकर अपनी-अपनी औरतों पर शासन करते हैं। और मुझे जब भी किसी पर गुस्सा आता है तो मैं अपने कुत्ते पर बरस पड़ता हूं और उसकी अच्छी मरम्मत कर देता हूं। इस प्रकार सब अपनी-अपनी जगह शासन कर रहे हैं।
यह तर्कशास्त्र का प्रोफेसर है, इसने ठीक-ठीक सरणी बांट ली है कि कौन किस पर शासन करे। सबने अपना-अपना क्षेत्र बांट लिया।
मुल्ला नसरुद्दीन से मैंने पूछा एक दिन: तेरे घर में झगड़ा नहीं होता, नसरुद्दीन?
उसने कहा: कभी नहीं! क्योंकि विवाह के बाद ही मैंने पहला काम यही तय किया कि अपना-अपना बंटवारा कर लेना चाहिए!
मैंने कहा: कैसा बंटवारा किया?
तो नसरुद्दीन ने कहा: बंटवारा ऐसा किया कि बड़ी-बड़ी जो समस्याएं हैं जीवन की वे मैं सम्हालूंगा, छोटी-मोटी जो बातें हैं वे पत्नी सम्हालेगी।
मैंने कहा: यह तो बड़ी गजब की बात है! पत्नी राजी हो गई?
उसने कहा: बिलकुल राजी हो गई।
मैंने कहा: मैं इतना और पूछना चाहता हूं कि बड़ी-बड़ी समस्याएं यानी क्या और छोटी-छोटी समस्याएं यानी क्या?
तो उसने कहा: छोटी-छोटी समस्या यानी कौन सा मकान खरीदना, कौन सी कार खरीदना, बच्चों को किस स्कूल में पढ़ाना, मेरी पत्नी कौन से कपड़े पहने, मैं कौन से कपड़े पहनूं, किस डॉक्टर से इलाज करवाना--ये छोटी-छोटी बातें।
और मैंने पूछा: बड़ी-बड़ी बातें?
उसने कहा कि ईश्वर है या नहीं, स्वर्ग है या नहीं, पुनर्जन्म होता है या नहीं? ये बड़ी बड़ी समस्याएं मैं तय करता हूं। झगड़ा होता ही नहीं। हमने बांट कर ली है।
तर्कशास्त्र अगर बंटवारा कर सके तो झगड़ा नहीं है। तर्कशास्त्र विज्ञान का उपाय है, धर्म का नहीं। श्रद्धा को विज्ञान में मत डालना और तर्कशास्त्र को धर्म में मत डालना, तो दोनों का सह-अस्तित्व हो सकता है।
गुलजान बहुत दिनों से नसरुद्दीन के पीछे पड़ी थी कि मुझे साड़ी खरीदनी है, मगर नसरुद्दीन उसे टालता रहा। मगर जब एक दिन नसरुद्दीन साड़ी खरीदने के लिए राजी हो गया तो गुलजान की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। नसरुद्दीन गुलजान को लेकर साड़ियों की दुकान पर पहुंचा और दुकानदार को साड़ियां दिखाने के लिए कहा। दुकानदार ने अनेक साड़ियां दिखाईं। गुलजान को डेढ़-डेढ़ सौ वाली दो और तीन सौ रुपये वाली एक साड़ी बहुत पसंद आई। नसरुद्दीन ने दुकानदार को तीन सौ रुपये वाली साड़ी पैक करने को कहा। जब साड़ी पैक करके दुकानदार लाया तो नसरुद्दीन बोला: क्षमा करें महाशय, कृपया इसके बदले में डेढ़-डेढ़ सौ वाली ये साड़ियां हमें चाहिए।
दुकानदार ने उसे अलग रख कर डेढ़-डेढ़ सौ रुपये वाली दो साड़ियां पैक कर दीं। पैकिट लेकर जब नसरुद्दीन चलने को हुआ तो दुकानदार ने कहा: बड़े मियां, पैसे?
नसरुद्दीन बोला: कैसे पैसे?
दुकानदार बोला: अरे इन दो साड़ियों के पूरे तीन सौ रुपये!
नसरुद्दीन बोला: लेकिन ये साड़ियां तो मैंने तीन सौ रुपये की साड़ी के बदले में ली हैं। बोलो, ली हैं या नहीं?
अब दुकानदार घबड़ाया। बोला: आप कह तो सही रहे हैं, ली तो आपने तीन सौ रुपये की साड़ी के बदले में, तो उसी के पैसे दे दीजिए।
नसरुद्दीन बोला: लेकिन तीन सौ रुपये वाली साड़ी मैंने ली ही नहीं, फिर पैसे कैसे? वह साड़ी तो मैं कब की वापस कर चुका हूं।
तर्क की अपनी जगह है। उसे हर जगह मत प्रवेश करवा देना।
नसरुद्दीन की कहानी में आगे क्या हुआ, वह अगर जानना हो, तो तुम्हें रूबी हॉस्पीटल जाना पड़े। कई फ्रैक्चर हो गए हैं। उनकी मरम्मत हो गई। दुकानदार टूट पड़ा। उसके नौकर-चाकर भी टूट पड़े। पट्टियां बंधी हैं सारे शरीर पर। मैं देखने गया था। मैंने नसरुद्दीन को पूछा कि नसरुद्दीन, बहुत दुख होता होगा, बहुत तकलीफ होती होगी?
उसने कहा: नहीं, वैसे तो नहीं होती। जब हंसता हूं तब होती है।
मैंने कहा: तुम हंसते काहे को हो?
उसने कहा: हंसता इसलिए हूं कि मैं भी कहां के मूरख दुकानदार के पास पहुंच गया! उसी घटना को सोच कर हंसी आ जाती है। मगर दुष्टों ने भी क्या मार की! और मेरी पत्नी भी क्या खड़े होकर देखती रही!
तर्क की अपनी जगह है। उसे अपनी जगह पर छोड़ दो, उसकी उपयोगिता है; व्यर्थ नहीं है। लेकिन उसे सीमा के बाहर मत जाने दो। तर्क अगर तुम्हारी श्रद्धा को खंडित न करे तो तुमने उसका उपयोग कर लिया। तर्क यानी मन। श्रद्धा यानी हृदय। तर्क यानी विचार। श्रद्धा यानी भाव। तर्क यानी बहिर्यात्रा। श्रद्धा यानी अंतर्यात्रा।
आज इतना ही।