QUESTION & ANSWER
Udio Pankh Pasar 04
Fourth Discourse from the series of 10 discourses - Udio Pankh Pasar by Osho. These discourses were given during MAY 11-20 1980, Pune.
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पहला प्रश्नः भगवान,
संन्यास जीवन का त्याग है या कि जीवन जीने की कला?
निर्मल भारती! सदियों से संन्यास जीवन का त्याग रहा है और वही भ्रांति थी, जिसके कारण संन्यास सर्वव्यापी नहीं हो सका। उसी चट्टान से टकरा कर संन्यास के फूल की पंखुरियां बिखर गईं। संन्यास कोमल फूल है और त्याग की कठोर धारणा स्वभावतः उस नाजुक सी चीज को नष्ट करने में समर्थ हो गई।
त्याग की धारणा में ही बुनियादी रूप से अज्ञान है। त्याग का अर्थ है: भगोड़ापन, पलायनवाद, कायरता। त्याग के लिए किसी बुद्धिमत्ता की कोई आवश्यकता नहीं है। जीने के लिए बुद्धिमत्ता चाहिए, प्रखरता चाहिए, प्रतिभा चाहिए। भागने के लिए तो प्रतिभा की कोई जरूरत नहीं। युद्ध के मैदान से जो भागते हैं, उन्हें तो हम कायर कहते हैं और जीवन के रणक्षेत्र से जो भाग जाते हैं, उनको? उनको रणछोड़दास जी! वे भी भगोड़े हैं। अच्छे नाम देने से कुछ भी न होगा। सुंदर नामों की ओट में गंदगियां कितनी देर तक छिपाई जा सकती हैं?
एक ओर तो धर्म कहते रहे: ‘संसार परमात्मा का सृजन है’, और दूसरी ओर यही लोग कहते रहे कि ‘संसार को छोड़ो, त्यागो; संसार पाप है।’ अगर संसार परमात्मा का सृजन है तो परमात्मा पापी है। यह तो सीधा सा गणित है। अगर संसार गलत है तो संसार को बनाने वाला ठीक कैसे हो सकेगा? और अगर संसार को बनाने वाला ठीक है तो उसकी कृति भी सुंदर हो जाएगी। परमात्मा अगर स्रष्टा है तो सृष्टि सौंदर्य है; यह उसका काव्य है। यह उसके हाथ से रंगा हुआ चित्र है, इसके सब रंग उसने ही तो भरे हैं। उसकी ही तूलिका के तो चिह्न हैं जगह-जगह। उसके ही तो हस्ताक्षर हैं पत्ते-पत्ते पर।
लेकिन महात्मा दोहरी बातें कहते रहे। एक तरफ कहते रहे: परमात्मा ने सृष्टि बनाई। और दूसरी तरफ कहते रहे: छोड़ो, भागो, त्यागो! और हमें विकृति भी न दिखाई पड़ी उनके तर्क में। हम सुनते-सुनते इस बात के इतने आदी हो गए कि हमने कभी सोचा ही नहीं। असल में हमें सोचने की क्षमता ही धर्म ने नहीं दी; सोचने की क्षमता हमसे छीन ली। हमसे कहा: विश्वास करो। हमसे नहीं कहा कि जागो, होश से भरो। हमसे कहा: जो कहा जाए उसे मानो। बाबा वाक्य प्रमाणम! जो भी कहा जाए, वह कितना ही मूढ़तापूर्ण हो, उसे स्वीकार करो, अंगीकार करो। यही आस्तिकता थी। इसलिए हमने आस्तिकता के भीतर छिपी हुई विसंगतियों को नहीं देखा, क्योंकि जो देखे वह नास्तिक, जो देखे वह नरक में पड़े। अंधों के लिए स्वर्ग था। आंख वालों के लिए नरक था। कौन जाना चाहे नरक में। इससे बेहतर है आंख बंद करके ही जीओ, अंधे होकर ही जी लो। चार दिन की जिंदगी है, आंख बंद कर के गुजार लो। फिर पुरस्कार है स्वर्ग का। और सार क्या है प्रश्न उठाने में? क्यों झंझट में पड़ो? पंडितों से, पुरोहितों से, राजनेताओं से, समाज के ठेकेदारों से झंझट लेनी सुगम बात तो नहीं है। उपद्रव मोल लेना है। बगावत है।
तो धर्म हमेशा से रूढ़ियों के परिपोषक रहे हैं, अंधेपन के समर्थक रहे हैं। उन्होंने विचार की आग नहीं जलाई। उन्होंने विचार की आग को बुझाया। उन्होंने चिंतन और मनन को गति नहीं दी; मारा, हत्या की। इसलिए वे हमसे न मालूम कैसी-कैसी मूढ़तापूर्ण बातें मनवा सके; मनवा ही नहीं सके, करवा भी सके!
संन्यास त्याग नहीं है, संन्यास परम भोग है।
मैंने कल ही तुमसे कहा: ‘विष्णु-सहस्र-नाम’ में परमात्मा का एक नाम है--महाभोग। वही नाम मुझे सर्वाधिक प्यारा है, क्योंकि उस नाम में बात जैसे पूरी-पूरी आ गई।
जीवन को भोगने की कला संन्यास है। निश्चित ही सितार को तोड़ देना तो कोई भी कर सकता है; सितार बजाने के लिए कोई रविशंकर चाहिए। वर्षों की तपश्चर्या चाहिए। तोड़ने में तपश्चर्या नहीं करनी होती। तोड़ने में क्या है, एक बच्चा तोड़ दे! लेकिन सितार को बजाना हो, ऐसा बजाना हो कि दीपक राग उठे, कि बुझे दीये जल जाएं, तो फिर वर्षों का श्रम और साधना चाहिए।
त्याग में कोई साधना नहीं है। मूढ़ से मूढ़ व्यक्ति भाग सकता है। भागने में क्या है? भय काफी है। बस भयभीत कर दो, लोग भागने लगेंगे। लोगों को डरा दो, लोग भागने लगेंगे। लेकिन अगर सितार बजाना सीखना है तो वर्षों सतत, अहर्निश श्रम करना होगा। एक दिन में बात नहीं आ जाती। पहले दिन तो सितार बजाओगे तो भरोसा ही नहीं आएगा कि इस सितार में से कभी राग उठने वाले हैं। विराग ही उठेगा, राग नहीं। शोरगुल उठेगा, संगीत नहीं।
मुल्ला नसरुद्दीन ने नया-नया सितार खरीद लिया। सुन लिया होगा किसी वादक को, प्रभावित हो गया होगा और बस आकर बजाना शुरू कर दिया। बस वह एक ही तार को ठोंकता रहे--रा-रूं, रा-रूं, रा-रूं! पत्नी पगलाने लगी, बच्चे घबड़ाने लगे। बच्चे कहें कि पापा, परीक्षा पास आ रही है और हमें सिवाय रा-रूं के कुछ सुनाई नहीं पड़ता। हम परीक्षा में क्या रा-रूं, रा-रूं लिखेंगे? हमें कुछ सूझता ही नहीं। हमने बहुत सितार बजाने वाले देखे, मगर यह आप क्या कर रहे हैं?
पत्नी सिर ठोके, बर्तन तोड़े, प्लेटें फूटें। सब्जी में ज्यादा नमक डाल दे। सब्जी कम, मिर्च ज्यादा। मगर उससे और जोश चढ़े उसको, वह और रा-रूं...! मोहल्ले-पड़ोस के लोग भी हैरान हो गए। न सोने दे, न चैन से रहने दे किसी को। आखिर सारे मोहल्ले के लोग इकट्ठे हुए और हाथ जोड़े कि या तो हम मोहल्ला छोड़ें या आप। यह क्या कर रहे हो। हमने बहुत बजाने वाले देखे, मगर आप गजब के बजाने वाले हो! ऐसा न कभी हुआ, न कभी होगा बजाने वाला। यह कौन सा राग है?
नसरुद्दीन मुस्कुराया और उसने कहा कि दूसरे बजाने वाले अभी अपने स्वर को खोज रहे हैं, मैंने पा लिया। वे तलाश में इस तार से उस तार पर जाते हैं और मैंने पा लिया अपना गंतव्य, मैं क्यों भटकूं? मुझे मिल गया मेरा स्वर। अब तो मैं हूं, मेरा स्वर है! यही बजेगा। जिसको रहना हो इस मुहल्ले में रहे, जिसको जाना हो जाए।
वैराग्य में कोई संगीत है, कोई सौरभ है, कोई फूल खिलते हैं, कोई जीवन का उल्लास है, कोई आह्लाद है, नृत्य है? वैराग्य के लिए कोई कला चाहिए, कोई कलाविद् चाहिए? कोई आवश्यकता नहीं। कोई भी भाग सकता है। और जिंदगी दुख से भरी है, इसमें कोई शक नहीं। दुख से भरी है इसलिए कि हम मूढ़ हैं; इसलिए नहीं कि जिंदगी बुरी है।
तुम्हें बार-बार कहा गया है--संसार दुख है, लेकिन इस तरह कहा गया है कि जैसे संसार का स्वभाव दुख है। मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि संसार दुख है, क्योंकि हम मूढ़ हैं, अन्यथा संसार दुख नहीं है। जहां इतने मूढ़ इकट्ठे हों, वहां दुख होना स्वाभाविक है। सच पूछो तो बड़ा चमत्कार है कि दुख इतना कम क्यों है! करोड़ों-करोड़ों मूढ़ लगे हैं, फिर भी दुख कुछ बहुत ज्यादा नहीं है।
संसार दुख नहीं है--न सितार में शोरगुल है। संसार तो एक अवसर है--अनुभव के लिए, आत्म-साक्षात्कार के लिए, परमात्म-प्रतीति के लिए। लेकिन तब तुम्हें बड़ी बुद्धिमत्ता चाहिए। तुम्हें धार रखनी पड़ेगी अपनी प्रतिभा पर। तुम्हें तीक्ष्ण होना पड़ेगा। तुम्हें ध्यान को सजग करना होगा। तुम्हें ध्यानपूर्वक जीना होगा। तुम्हें बड़ी सावचेतता बरतनी होगी। एक-एक कदम फूंक कर रखना होगा--होशियारी से, कुशलता से। अंधों की तरह, मूढ़ों की तरह दौड़े चले जाओगे, तो टकराओगे। टकराओगे तो दुख होगा।
दुख जरूर है, मगर दुख इसलिए नहीं है कि संसार का स्वभाव दुख है; दुख इसलिए है कि हम नासमझ हैं। तुम्हारी बगिया में फूल नहीं खिलते, इसका कारण यह नहीं है कि बगिया का कोई कसूर है; फूल खिलें तो खिलें कैसे, घास-पात तो उगाते हो, कंकड़-पत्थर तो बीनते नहीं! गुलाबों को तो उखाड़ कर फेंक देते हो, फूल लगेंगे कैसे?
एक बात समझ लेने की है कि घास-पात उगाने के लिए कोई मेधा नहीं चाहिए। घास-पात अपने से उग आता है।
मुल्ला नसरुद्दीन के पड़ोसी ने पूछा नसरुद्दीन से कि तुम्हारी बगिया का लान बड़ा प्यारा है। मैंने भी लाकर दूब के बीज बोए हैं, अब अंकुर भी आने शुरू हो गए। लेकिन कौन से अंकुर दूब के हैं और कौन सा सिर्फ व्यर्थ घास-पात है, यह कैसे पहचानें?
मुल्ला ने कहा: बड़ी सीधी तरकीब है। दोनों को उखाड़ कर फेंक दो, फिर जो अपने आप उग आए, वह घास-पात।
घास-पात अपने से उग आता है, इसको उगाना नहीं पड़ता। नीचे की तरफ जाना हो तो तुम कार का इंजन बंद कर सकते हो, उसके लिए कोई पेट्रोल जलाने की जरूरत नहीं है। लेकिन कार को पर्वत पर ले जाना हो तो फिर इंजन बंद करके नहीं चलेगा काम। फिर तो तुम्हें होशपूर्वक गाड़ी चलानी पड़ेगी, इंजन को सक्रिय करना होगा।
जो लोग जीवन में उतर रहे हैं, ढलान पर हैं, उनके जीवन में कोई कला नहीं चाहिए। इसलिए भगोड़ापन लोगों को जंच गया था, कमजोरों को जंच गया था। वे भाग गए और न केवल खुद भाग गए, वे अपने पीछे यह भाव छोड़ते चले गए कि जीवन विषाद है, कि जीवन दुख है, कि जीवन गलत है।
जीवन में कुछ भी गलत नहीं है। जीवन तो परमात्मा का प्रकट रूप है। यह तो उसकी देह है, उसकी काया है। जैसे तुम्हारे भीतर आत्मा छिपी है, दिखाई नहीं पड़ती, देह दिखाई पड़ती है--वैसे ही संसार दिखाई पड़ता है। उसके भीतर जो छिपा है, वह परमात्मा है। तुम छोड़ कर भागोगे तो फिर खोजोगे कैसे, खोदोगे कैसे? माना कि खुदाई कठिन है, पत्थर भी आएंगे, चट्टानें भी तोड़नी पड़ेंगी, श्रम करना होगा गहरा, तब कहीं जल-स्रोत तक पहुंच पाओगे; लेकिन सस्ते नुस्खे मिल गए लोगों को कि सब छोड़-छाड़ कर बैठ जाओ; राम-राम जपते रहो, सब ठीक हो जाएगा।
काश, इतना आसान होता सब, तो तो हमने जिंदगी को अब तक स्वर्ग बना लिया होता! इतने तो तुम्हारे संन्यासी हुए, जिंदगी स्वर्ग तो न बनी, रोज-रोज नरक बनती चली गई। अब समय आ गया है कि पुनर्विचार करें हम। कहीं कोई बुनियादी भूल हो गई है। और मैं इसको बुनियादी भूल कहता हूं निर्मल, कि संन्यास को जीवन का त्याग समझा, वहीं भूल हो गई। संन्यास में जरूर कुछ त्याग है, लेकिन वह जीवन का त्याग नहीं है, मूढ़ता का त्याग है। जरूर कुछ त्याग है, लेकिन वह जीवन का त्याग नहीं है; मूर्च्छा का त्याग है। जरूर कुछ त्याग है, लेकिन वह जीवन का त्याग नहीं है; क्रोध का, लोभ का, मोह का, ईर्ष्या का, अहंकार का, इन सारे रोगों का त्याग है। और इनके त्याग के लिए कोई हिमालय जाने की जरूरत नहीं है। इनके लिए श्रेष्ठतम कोई अवसर अगर कहीं है तो यहीं बीच बाजार में है, क्योंकि यहीं प्रतिपल परीक्षा होती रहती है। प्रतिपल अवसर आते हैं जहां क्रोध भभक उठता है, वासना जग जाती है, ईर्ष्या के बादल घने हो आते हैं। हिमालय की गुफा में बैठ जाओगे तो पता ही नहीं चलेगा। वहां तो अवसर से ही चूक जाओगे। भीतर सब बीज पड़े रह जाएंगे, जीवन रूपांतरित नहीं होगा। और जरा सी भी कसौटी का कोई मौका आया कि तुम फिसल जाओगे।
यहीं जीवन में ही, जो व्यर्थ है उसे छोड़ो। मगर जीवन व्यर्थ नहीं है। और व्यर्थ को छोड़ कर ही तुम जान पाओगे जीवन की सार्थकता। कचरा छोड़ो, मगर कचरे के साथ सोने को मत फेंक देना। कंकड़-पत्थर छोड़ो, मगर यहीं हीरे भी हैं, उन हीरों को मत छोड़ देना। भगोड़े सब छोड़ कर भाग गए--कंकड़-पत्थर भी, हीरे भी।
इसलिए तुम्हारे कथाकथित पलायनवादी संन्यासियों के जीवन में तुम्हें कोई ज्योति नहीं दिखाई पड़ेगी; एक विषाद दिखाई पड़ेगा, एक गहरी हताशा, एक निराशा। उनकी आंखों में तुम्हें आनंद के दीये जलते हुए नहीं मालूम पड़ेंगे; दीवाली नहीं, बल्कि जैसे दिवाला निकल गया हो।
जीवन का रास, जीवन का आनंद, जीवन का रस जो पीएगा ध्यानपूर्वक--रोज उसकी दीवाली है, रोज उसकी होली है, रोज रंगों की फुहार है, रोज गीतों का जन्म है, रोज पैरों में उसके पायल बजेगी, रोज उसके प्राणों की बांसुरी बजेगी! उसके जीवन में मोरमुकुट बंधेगा। उसकेजीवन में चारों तरफ एक सुगंध होगी, एक सुवास होगी।
इसलिए मैं तो संन्यास को जीने की कला कहता हूं। मेरे संन्यासी को एक नये संन्यास के लिए आह्वान करना है जगत में। इसलिए मेरे संन्यासी के सामने एक महत कार्य है। मेरा संन्यासी साधारण संन्यासी नहीं है। साधारण संन्यास के दिन खत्म हुए, लद गए। मर गई वह बात। अजायबघरों में रखे जाएंगे उस तरह के लोग जल्दी ही। उनका कोई स्थान नहीं रहा। उनकी जीवन से जड़ें टूट चुकी हैं। वे अप्रासंगिक हो गए हैं।
मैं तुम्हें जो संन्यास दे रहा हूं, वह भविष्य का संन्यास है। उसका भविष्य है। और ऐसा संन्यास फैल सकता है, आग की लपटों की तरह सारी पृथ्वी को घेर ले सकता है। क्योंकि इस संन्यास के लिए न कहीं जाना है, न कुछ थोथे उपक्रम करने हैं, बल्कि जीवन को भीतर से बदलना है। और जीवन को जीने की कला सीखनी है।
ध्यान जीवन को जीने की कला है। वही जीवन को जानते हैं जो ध्यानस्थ हैं। जो अपने केंद्र पर थिर हो गए हैं वही पहचानते हैं अहोभाग्य को, जो हमें अस्तित्व ने दिया है। उनके जीवन में एक धन्यता है। उनके प्राणों में एक कृतज्ञता है। वे झुकेंगे समर्पण में। उनके भीतर से प्रार्थना उठेगी। प्रार्थना की गंध, प्रार्थना का रंग उनसे फूटेगा, झरने फूटेंगे, स्वभावतः, क्योंकि जीवन में उनको दिखाई पड़ना शुरू होगा कि कितना मिला है! कितना, जिसकी हमारी कोई पात्रता नहीं थी! कितना, जिसके लिए हमने कोई कमाई नहीं की थी! जो सिर्फ प्रकृति की देन है! हमारी झोली भरी है, मगर हम उस झोली की तरफ देखते नहीं। और हम टुच्ची बातों में उलझे हुए हैं, छोटी बातों में उलझे हुए हैं।
निर्मल, संन्यास को जीवन की कला समझो। कठिन बात है यह। मैं तुम्हें एक कठिन चुनौती दे रहा हूं, क्योंकि मैं तुमसे कह रहा हूं कि भागना मत। भागना बिलकुल आसान है। मैं तुमसे कह रहा हूः यहीं! मैं तो किसी को भी कुछ छोड़ने को नहीं कहता। अगर मुझ से चोर भी आकर कहता है कि मैं संन्यासी होना चाहता हूं, मैं कहता हूं हो जाओ। वह कहता हैः मेरी चोरी का क्या होगा? मैं कहता हूं: वह पीछे देखेंगे। संन्यास देखेगा उसको। तुम चोर हो, ठीक है; इतना ही क्या कम है कि चोर होकर भी तुम्हारे मन में संन्यासी होने का भाव उठा! तुम साहूकारों से बेहतर हो, जिनके भीतर संन्यासी होने का भाव नहीं उठा। वे क्या खाक साहूकार हैं! वे चोर हैं, तुम साहूकार हो।
मेरे देखने का ढंग और है। अगर मैं तुम्हें चोरी करते हुए भी पा लूंगा तो मैं यह नहीं कहूंगा कि तुम्हें शर्म नहीं आती कि तुम संन्यासी होकर और चोरी कर रहे हो? मैं यही कहूंगा कि तुम अदभुत व्यक्ति हो कि चोर होकर भी संन्यासी हो! मेरे देखने का ढंग विधायक है।
एक यहूदी आश्रम में दो युवक सुबह-सुबह बगीचे में टहल रहे हैं। दोनों को सिगरेट पीने की आदत है। और एक घंटे भर के लिए उनको आश्रम में घूमने का अवसर मिलता है बगीचे में--वह भी घूमने के लिए नहीं मिलता, घूम कर ध्यान करने के लिए मिलता है। शेष तेईस घंटे तो आश्रम के भीतर, वहां तो सिगरेट पीने का सवाल उठता नहीं। यहां बाहर पी सकते हैं, क्योंकि यहां गुरु मौजूद नहीं है। मगर मन में उनको संकोच लगता है, अंतःकरण में चोट पड़ती है कि क्या यह उचित है, क्या हम इस तरह करें? तो उन्होंने कहा, बेहतर है हम गुरु से पूछ लें। कल पूछ लें, फिर शुरू करें।
दूसरे दिन दोनों मिले। एक तो बहुत ही उदास बैठा था बगीचे में और दूसरा सिगरेट पीता हुआ धुआं उड़ाता चला आ रहा था। पहला युवक तो भन्ना गया। उसने कहा कि मामला क्या है, तुम सिगरेट पी रहे हो, गुरु की आज्ञा नहीं मानोगे?
उसने कहा: गुरु से आज्ञा ली, तब तो पी रहा हूं।
उसने कहा: ये कैसे गुरु हैं! क्योंकि मैंने पूछा, एकदम नाराज हो गए। एकदम पास में डंडा पड़ा था, डंडा उठा लिया और कहा सिर तोड़ दूंगा, शर्म नहीं आती? तुमको कैसे आज्ञा दी?
दूसरा युवक मुस्कुराने लगा। उसने कहा: पहले तुम यह कहो, तुमने पूछा क्या था?
उसने कहा: क्या पूछा था! मैंने यही पूछा था कि अगर मैं ध्यान करते समय सिगरेट पीऊं तो कोई एतराज तो नहीं? बस, वे एकदम भन्ना गए, एकदम डंडा उठा लिया, कहा: सिर तोड़ दूंगा! शर्म नहीं आती? ध्यान करते हुए सिगरेट? तो यहां आए किसलिए थे?
दूसरे युवक ने कहा: शांत हो जाओ। अब मैं तुम्हें बताता हूं राज। मैंने भी पूछा। मैंने उनसे पूछा: गुरुदेव, सिगरेट पीते वक्त अगर ध्यान करूं तो कोई एतराज है? उन्होंने कहा: बिलकुल नहीं। अब सिगरेट तो पी ही रहे हो, अगर इसमें ध्यान और जुड़ा तो बुरा नहीं है, कुछ भी बुरा नहीं है। सदुपयोग हो गया। और अगर सिगरेट और ध्यान साथ चले तो ध्यान जीत कर रहेगा। तू फिकर न कर। सिगरेट पी और ध्यान कर। यह तेरे मन में बड़ा शुभ भाव उठा है। यह सिगरेट पीने वालों को मुश्किल से उठता है।
इसलिए तुम देखते हो इस आश्रम में एक ही स्थान को हम मंदिर कहते हैं, जहां लोग सिगरेट पीते हैं--धूम्रपान मंदिर। बाकी कोई स्थान मंदिर इस आश्रम में है ही नहीं।
मेरा देखने का ढंग विधायक है, नकारात्मक नहीं। ‘नहीं’ पर मेरा जोर नहीं है। ‘हां’ पर मेरा जोर है। मैं विधायकता को ही आस्तिकता कहता हूं; नकार को नास्तिकता कहता हूं। ईश्वर को मानने न मानने से आस्तिक और नास्तिक का कोई संबंध नहीं है। आस्तिकता और नास्तिकता बड़ी और बात है। जीवन को विधायक ढंग से देखने का नाम आस्तिकता है।
इसलिए मेरे लिए महावीर आस्तिक हैं, बुद्ध आस्तिक हैं; यद्यपि उन्होंने ईश्वर को नहीं माना, फिर भी परम आस्तिक हैं। कौन उन जैसा आस्तिक होगा! यद्यपि हिंदू इस बात को मानने को राजी नहीं होते कि वे आस्तिक हैं। कैसे होंगे, क्योंकि हिंदुओं की तो परिभाषा बड़ी ओछी थी। उन दिनों तो और भी ओछी थी। बुद्ध और महावीर के समय में तो हिंदुओं की आस्तिकता की परिभाषा थी--जो वेद को मानें वे आस्तिक; जो वेद को न मानें वे नास्तिक। यह भी कोई बात हुई! कहीं किसी किताब के मानने न मानने से आस्तिकता और नास्तिकता तय होती है? तब तो फिर सब मुसलमान नास्तिक, सब ईसाई नास्तिक, सब यहूदी नास्तिक, सब पारसी नास्तिक, सब जैन नास्तिक, सब बौद्ध नास्तिक। तो इस दुनिया में आस्तिक बचेंगे ही कहां? ये ही रह जाएंगे थोड़े से हिंदू। और इनमें भी शूद्रों को छोड़ दो, क्योंकि वह तो वेद पढ़ ही नहीं सकते, तो क्या खाक मानेंगे! फिर इनमें से स्त्रियों को भी छोड़ दो, क्योंकि स्त्रियों को तो वेद पढ़ने का कोई अधिकार नहीं; इनको तो एक ही अधिकार है--पिटने का। ‘ढोल गंवार शूद्र पशु नारी’...यह पता नहीं बाबा तुलसीदास से कब छुटकारा होगा! इस आदमी से ज्यादा भ्रष्ट करने वाला इस देश को दूसरा कोई व्यक्ति नहीं हुआ।
मगर बैठ गई है बात हमारे दिमाग में--जैसे ढोल को पीटो, ऐसे ही स्त्रियों को पीटो। यह पुरुषों के ही दिमाग में बैठ गई होती तो भी ठीक था, स्त्रियों तक के दिमाग में बैठ गई है। अगर पुरुष स्त्रियों की पिटाई न करे तो उनको लगता है शायद प्रेम नहीं करता, कि अब आजकल मार-पीट होती ही नहीं है घर में--मतलब सब शांति है, सब खत्म हो गया, खेल खत्म पैसा हजम! कुछ होती थी मार-पीट तो उसका मतलब था अभी कुछ लगाव जारी है, अभी कुछ बात बनी है, अभी कुछ नाता-रिश्ता चलता है। स्त्रियां तक राह देखती हैं कि पीटो, क्योंकि उनको भी वही बाबा तुलसीदास समझा गए। सच तो यह है कि जितना स्त्रियां सुनने जाती हैं रामायण, पुरुष नहीं जाते। अरे पुरुष जाएं क्यों! उनको तो राज की बात मिल गई। स्त्रियां जाती हैं सीखने के लिए कि सीता के साथ कैसा राम ने व्यवहार किया। ऐसा व्यवहार भी अगर तुम्हारे पति तुम्हारे साथ करें, तो भी वे परमात्म-स्वरूप हैं। गर्भिणी स्त्री को भी अगर जंगल में भेज दें एक धुब्बड़ के कहने से! अगर ऐसी ही शान की बात थी, अगर ऐसी ही बात थी तो खुद भी चले गए होते सीता के साथ जंगल में। तो कुछ बात थी, कुछ गौरव होता। एक असहाय स्त्री को, गर्भिणी स्त्री को, यूं भेज दिया जंगल में!
मगर यह नारी का आदर्श है। सीता नारी का आदर्श है। राम जो हैं, वे मर्यादा पुरुषोत्तम हैं! वे पुरुषों के आदर्श हैं। तुम्हारे पति अगर तुम्हारे साथ ऐसा व्यवहार भी करें तो भी शुभ है। तुम तो चुपचाप झुके जाना, पिटे जाना। तुम्हारा काम ही यही है। स्त्री तो पैर की जूती है, पांवों की दासी है!
स्त्रियों को काट दो, उनको वेद पढ़ने का अधिकार नहीं है। शूद्रों को काट दो, उनको वेद पढ़ने का अधिकार नहीं है। यह जानकार तुम चकित होओगे कि हम कैसे बर्दाश्त करते रहे हैं! आज तुम गालियां देते हो। आज तुम नाराज होते हो। अगर कहीं शूद्र जला दिए जाते हैं, अगर कहीं शूद्रों के गांव में बलात्कार हो जाता है, अगर कहीं शूद्रों की बस्तियां उजाड़ दी जाती हैं, तो बहुत छिन्न-भिन्न हो जाता है तुम्हारा मन, तुम खिन्न हो जाते हो। लेकिन राम ने क्या किया था? मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने क्या किया था? एक ब्राह्मण का बेटा मर गया। बाप के सामने बेटा मर जाए तो जरूर कहीं कोई महापाप हो रहा है! इस बाप ने कोई महापाप किया होगा पिछले जन्म में, यह सवाल नहीं उठता! ब्राह्मण और महापाप करता, यह तो बात ही नहीं उठती। जरूर कहीं कोई महापाप हो रहा है! कहां महापाप हो रहा है? तो उस ब्राह्मण ने बताया कि एक शूद्र, शंबूक नाम का शूद्र, वेद पढ़ता है, वेद सुनता है। उसी के पाप के कारण।
कहां शंबूक! उसका क्या लेना-देना! वह एक हजार मील दूर था। और किसी का बेटा न मरा, इस ब्राह्मण का बेटा मरा। और मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने क्या किया, मालूम है! उस शंबूक के कानों में सीसा पिघलवा कर, गरम सीसा भरवा दिया, उसके कान जलवा दिए, क्योंकि उसने वेद सुन लिया था।
शूद्रों को छोड़ दो, स्त्रियों को छोड़ दो। और सारे धर्मों को छोड़ दो। तो आस्तिक कितने बचते हैं फिर? फिर तो सारी पृथ्वी नास्तिकों की हो गई। वह धारणा बड़ी ओछी थी, छोटी थी। फिर धारणा बदली। फिर धारणा यह बनी कि जो ईश्वर को माने वह आस्तिक; जो ईश्वर को न माने वह नास्तिक। लेकिन तब बुद्ध और महावीर ने उस धारणा को तोड़ दिया, क्योंकि बुद्ध और महावीर के मुकाबले कौन आस्तिक! इन जैसा ज्यादा विधायक आस्तिक व्यक्ति कहां खोजोगे! इन्होंने फीके कर दिए तुम्हारे सारे महात्मा।
लेकिन अभी भी बात, परिभाषा वही चल रही है। मैं उस परिभाषा को फिर बदलना चाहता हूं। वक्त आ गया है कि अब वह परिभाषा काम नहीं पड़ेगी, क्योंकि उस परिभाषा में बुद्ध और महावीर बाहर छूट जाते हैं। मैं आस्तिक की परिभाषा करता हूं--वह, जिसकी जीवन दृष्टि विधायक है, नकारात्मक नहीं। जो जीवन को आलिंगन करने को राजी है--वह आस्तिक और जो जीवन से भागता है, भगोड़ा है, इनकार करता है, निषेध करता है--वह नास्तिक। पुराना संन्यास नास्तिक था। मैं जिस संन्यास की बात कर रहा हूं वह आस्तिक है।
लेकिन मेरा संन्यास निश्चित ही चुनौतीपूर्ण है। तुम्हें एक-एक बात सीखनी होगी, क्योंकि सदियों से तो छोड़ना सिखाया था, उसमें तो कुछ सीखने की जरूरत ही न थी। किसी बच्चे को अगर स्कूल छोड़ना सिखाया जाए, तो तो मामला बिलकुल आसान है, कौन बच्चा नहीं स्कूल छोड़ देना चाहता! चले जाओ किसी भी स्कूल में, बच्चों से पूछो कि हाथ उठा दो बच्चो, कौन-कौन स्कूल छोड़ना चाहता है? सब बच्चे हाथ उठा देंगे। ये सब पुराने अर्थों के संन्यासी समझो। शायद ही कोई एकाध बच्चा हो प्रतिभाशाली, जो कहे कि नहीं मैं स्कूल नहीं छोड़ना चाहता। जो स्कूल छोड़ कर जाना चाहते हैं, इनको तो कुछ भी न सीखना पड़ेगा। ये सीखने से बचने के लिए ही तो स्कूल छोड़ना चाहते हैं। सीखना ही होता तो स्कूल ही क्या बुरा था! सीखना जहां होता है उसी का नाम तो स्कूल है। और स्कूल में रहेंगे तो सीखना पड़ेगा। और उस सीखने से तो जान छुड़ाना चाहते हैं। गणित सीखो, भाषा सीखो, भूगोल सीखो, इतिहास सीखो, विज्ञान सीखो...सीखते ही रहो, सीखते ही रहो, कोई अंत नहीं सीखने का! इतना विस्तार है सीखने के लिए!
और स्कूल तो छोटी-मोटी बात है। यह तो केवल प्राथमिक शिक्षण है। विश्वविद्यालय भी प्राथमिक शिक्षा ही है। असली शिक्षा तो तब शुरू होती है जब तुम विश्वविद्यालय से उत्तीर्ण होकर जीवन में प्रवेश करते हो। तब कदम-कदम पर सीखना होता है--कैसे व्यक्तियों के साथ रहना, उठना-बैठना, कैसा जीवन-व्यवहार हो, कैसा शिष्टाचार हो, कैसा जीवन में प्रसाद हो, सौंदर्य हो, कैसे जीवन में आनंद हो, कैसे हम दुख के कांटे न बोएं और सुख के फूल बोएं, और कैसे हम प्रेम को बांट सकें, और लोगों को दुख न दें। क्योंकि जो दुख देगा वह दुख पाएगा। और जो प्रेम बांटेगा वह प्रेम पाएगा। यहां तो पल-पल सीखना है, मरते दम तक सीखना है, मरते-मरते सीखना है! आखिरी क्षण तक भी सीखने की प्रक्रिया बंद नहीं होती। तो इतना साहस हो सीखने का, तो मेरी परिभाषा तुम्हें स्वीकार हो सकती है कि जीवन को जीने की कला है संन्यास।
निर्मल, तुम संन्यासी हुए, तुमने एक दुस्साहस किया है। यह सस्ता काम नहीं है। अब तुम्हें एक-एक कदम होशपूर्वक रखना होगा। अब तुम्हें सोच-सोच कर जीना होगा। अब तुम वैसे नहीं जी सकते जैसे अब तक जीते थे। आमतौर से तो आदमी यूं जीते हैं कि कहो अपने से जीते ही नहीं, भीड़-भाड़ में जैसा और सब लोग करते हैं वे भी करते रहते हैं, नकल से जीते हैं। किसी ने नया मकान बनाया, बस वैसा ही मकान तुम्हें बनाना है, चाहे कर्ज लेना पड़े, चाहे कर्ज में दब जाना पड़े। किसी ने नये कपड़े पहने, वैसे ही कपड़े तुम्हें पहनने हैं।
रोटरी-क्लब में, लायंस-क्लब में लोग करते क्या हैं? यही देखने जाते हैं कि कौन क्या पहने हुए है। मंदिरों में स्त्रियां करती क्या हैं? एक-दूसरे की साड़ी का पोत देखती हैं। मंदिरों में जैसे मिलों का विज्ञापन चलता है! असल में मिलों को मंदिर बनाने चाहिए। बिड़ला होशियार आदमी थे, जो उन्होंने बिड़ला-मंदिर बनवाए। राज धर्म नहीं है बिड़ला-मंदिरों का। तुम लाख अखबारों में विज्ञापन दो, उसका कोई फायदा नहीं है। एक महिला को कपड़े पहना कर मंदिर पहुंचा दो, पर्याप्त, पूरे गांव में चर्चा हो जाएगी। सारी महिलाएं दीवानी हो जाएंगी। सारे पतियों के गले में फांसी लग जाएगी।
अमरीका की एक कंपनी जिन चीजों को बेचना चाहती, उनका विज्ञापन नहीं देती थी। लोगों का फोन नंबर और उनकी डायरेक्टरी में से देख कर उनका पता निकाल कर, उनके नाम व्यक्तिगत पत्र लिख देती थी। पत्र होता पति के नाम और पत्र के ऊपर लिखा होता--‘प्राइवेट, कृपा करके कोई और न खोले।’ स्वभावतः पत्नी खोलेगी ही। सुनिश्चित। इसकी गारंटी समझो। अन्यथा हो ही नहीं सकता। और उसके भीतर विज्ञापन, और कुछ भी नहीं। विज्ञापनदाता भी आते हैं, सेल्समैन भी आते हैं, तो जब पति दफ्तर चला जाता है। देखते रहते हैं कि कब पति दफ्तर निकले कि वे दरवाजे पर दस्तक दें, घंटी बजाएं। क्योंकि पत्नी को राजी करो, बस फिर सब ठीक है, फिर पति की क्या बिसात है? पत्नियां एक-दूसरे की साड़ियां देख-देख कर साड़ियां खरीदने पहुंच जाती हैं। यूं फैशन चलते हैं। लोग एक-दूसरे को देख-देख कर जी लेते हैं। यह कोई जीना नहीं है, यह नकल है।
अगर जीवन की कला सीखनी है तो तुम्हें नकल छोड़नी पड़ेगी। वह पहला कदम है। तुम्हें पहली दफा अपनी निजता पर ध्यान देना होगा--क्या मेरी जरूरत है, क्या मेरी आवश्यकता है? करीब-करीब नब्बे प्रतिशत काम तुम ऐसे कर रहे हो जो तुम न करो तो चल जाएगा, मगर उसमें तुम्हारी शक्ति व्यय हो रही है। वही शक्ति लगे तो जीवन का शिखर उपलब्ध हो। मगर वह शक्ति तो यूं क्षीण हो जाती है। सभी एक-दूसरे को देख कर जी रहे हैं। यह बहुत हैरानी की दुनिया है। यहां अपने निजी बोध से बहुत ही कम लोग जी रहे हैं। जो जी रहे हैं, वही सच्चे जी रहे हैं, बाकी तो सब मुर्दा हैं, लाशें हैं। उनकी जिंदगी में इतनी भी प्रतिभा नहीं है कि अपने लिए तय करें कि कैसे जीना है। सब दूसरे तय कर रहे हैं उनके लिए। विज्ञापनदाता तय कर देते हैं कि तुम कौन सा दंत-मंजन उपयोग करो, कौन सी साबुन उपयोग करो, कौन सी फिल्म देखो। सब दूसरे तय कर रहे हैं। तुम अपने मालिक ही नहीं हो।
और संन्यास अपनी मालकियत है।
तुम्हें शायद खयाल में भी नहीं आता होगा, क्योंकि तुम इस तरह अचेतन में जीते हो कि तुम्हें पता भी नहीं चलता, कि तुम जब जाते हो दुकान पर, जहां कि सब तरह की साबुनें सजी हैं और दुकानदार पूछता है कौन सी साबुन और तुम कहते हो: लक्स। तो तुम कभी सोचते भी नहीं कि तुम्हारे मुंह से लक्स क्यों निकला। तुम शायद यही सोचते होओगे कि यह तुम्हारा खुद का चुनाव है। यह तुम्हारा चुनाव नहीं है। वह जो अखबार में रोज ‘लक्स टायलेट साबुन’, फिल्म देखने जाओ तो लक्स टायलेट साबुन, रास्ते से निकलो तो बड़े-बड़े तख्ते लगे हुए हैं--लक्स टायलेट साबुन! जहां जाओ वहीं लक्स टायलेट साबुन। सुंदर-सुंदर अभिनेत्रियों के अखबार में फोटो छपते हैं। उनकी त्वचा इतनी कोमल क्यों है? लक्स टायलेट साबुन! बस, तुम्हें लक्स टायलेट साबुन शब्द पकड़ा। यह तुम्हारे भीतर बैठने लगा। यह तुम्हारे अचेतन में डूबने लगा। अब तुम्हें कोई नींद में भी पूछे अगर कि कौन सा साबुन, तो नींद में भी कहोगे--लक्स टायलेट साबुन! अब तुम्हें होश में बोलने की कोई जरूरत नहीं है। यह तुम्हारे अचेतन में चली गई बात। विज्ञापन की सारी कला यही है।
विज्ञापन की कला इसीलिए चलती है, क्योंकि आदमी नकलची है। बहुत से प्रयोग किए गए हैं इस बात पर। दस वैज्ञानिकों के वक्तव्य तय किए गए कि कौन सा साबुन शरीर के लिए वैज्ञानिक रूप से श्रेष्ठ है और दस अभिनेत्रियों के नाम तय किए गए सबसे रद्दी साबुन के लिए--और दोनों विज्ञापन दिए गए। विज्ञापन, जिसमें वैज्ञानिकों के नाम थे, वह साबुन तो बिका ही नहीं। विज्ञापन कोई वैज्ञानिकों के नाम से बिकता है! पहली तो बात यह है कि वैज्ञानिकों के नाम ही कोई नहीं जानता था, कि ये सज्जन कौन हैं! होंगे कोई ऐरे-गैरे-नत्थू-खैरे, इनसे लेना-देना क्या है! और ये बातें जो गिना रहे हैं कि इसमें इस तरह के केमिकल हैं और उस तरह के केमिकल हैं और इस तरह के जर्म मर जाते हैं और उस तरह के जर्म मर जाते हैं...जर्म मारना किसको है! केमिकल से प्रयोजन किसको है! लेकिन दस अभिनेत्रियां जो कह रही हैं कि उनके शरीर का सौंदर्य, यह बचपन का भोलापन जो उनका अभी भी कायम है, यह मखमली त्वचा, यह जो रेशम जैसा हाव-भाव, यह इसी साबुन की वजह से है!
मुल्ला नसरुद्दीन सौ साल का हो गया, तो मैंने उससे पूछा: नसरुद्दीन, तुम्हारे सौ साल तक जीने का राज क्या है?
उसने कहाः आप दो-तीन दिन ठहरें।
मैंने कहाः क्यों, दो-तीन दिन ठहर कर कैसे बता सकोगे? खोज-बीन में लगे हो?
उसने कहाः नहीं, खोज-बीन में नहीं। दो-तीन कंपनियों से बात चल रही है। जो कंपनी ज्यादा देगी, वही राज है। एक बिस्कुट कंपनी पीछे पड़ी है, एक बोर्नविटा वाले पीछे पड़े हैं, एक विटामिन बनाने वाली कंपनी पीछे पड़ी है। जो ज्यादा देगा। हालांकि मैंने तीनों में से कोई नहीं छुए जिंदगी में। छूने की जरूरत क्या है!
वे जो तुम चमकदार दांत देखते हो, हंसते हुए अभिनेत्रियों के, और बस एकदम दिल आ जाता है--बिनाका! शायद बिनाका कभी उन दांतों ने छुआ ही न हो। सच तो यह है कि जहां तक संभावना है वे दांत सच्चे हों ही न। अक्सर तो दांत वे नकली होंगे, बनावटी होंगे। पश्चिमी अभिनेत्रियों के दांत तुम्हें जितने सुंदर दिखाई पड़ेंगे उतने भारतीय अभिनेत्रियों के दांत सुंदर नहीं दिखाई पड़ेंगे। उसका कारण है कि पश्चिम में सारी अभिनेत्रियां अपने दांत बदलवा लेती हैं। प्राकृतिक दांत इतने सुंदर होते ही नहीं। प्राकृतिक दांत कुछ इरछे-तिरछे होंगे, कुछ छोटे-बड़े होंगे, कहीं रंध्र होगा, कहीं संध होगी। मगर जब प्लास्टिक के दांत कोई बनाता है, नकली दांत जब कोई बनाता है, तो फिर सुडौल, बिलकुल ही मोती जैसे! वे नकली दांत। वह हंसी भी नकली। वह फटा हुआ ओंठ--सिर्फ अभ्यास, और कुछ भी नहीं। न कोई भीतर हंसी आ रही है, न कुछ सवाल है। जैसे जिमी कार्टर का तुम देखते हो न चेहरा, एकदम दांत निकले हुए; बत्तीसों दांत गिन लेते शुरू-शुरू में, अब नहीं गिन सकते बत्तीसों। अभी-अभी तो बिलकुल बंद हो गए हैं। अब जब से तेहरान में उपद्रव हुआ है, तब से उनके दांत दिखाई नहीं पड़ते। नहीं तो शुरू-शुरू में बिलकुल दांत एकदम सब दिखाई पड़ते थे। वह अमरीका में बिलकुल जरूरी है। राजनेता को सफल होना हो तो उतने दांत दिखाई पड़ने चाहिए। और अभ्यास खूब किया होगा उन्होंने, क्योंकि चौबीस घंटे दांत खुले ही रखते हैं।
मैंने तो सुना है, एक रात...क्योंकि वे रात को भी नहीं बंद होते। जब अभ्यास मजबूत हो जाए तो नींद भी लग जाए, मगर वे दांत खुले ही रहते हैं। पत्नी को डर लगता होगा कि अब ये क्या कर रहे हैं। तो ऐसे तो वह बंद कर देती रात उनका मुंह, जैसे ही वे सोए उसने मुंह बंद किया। पर एक दिन भूल गई होगी। तो रात उसने डॉक्टर को फोन किया कि जल्दी आइए, एक चूहा उनके मुंह में घुस गया है। डॉक्टर ने कहा कि मुझे आने में फिर भी दस-पंद्रह मिनट लगेंगे, फासला इतना है, तब तक तुम ऐसा करो कि ची़ज का टुकड़ा मुंह के सामने लटका कर हिलाओ, शायद चूहा निकल आए। पंद्रह मिनट बाद जब डॉक्टर आया तो वह बहुत हैरान हुआ, पत्नी एक मरा हुआ चूहा कार्टर के मुंह के सामने हिला रही थी! उसने कहा: अरे यह तू क्या कर रही है बाई? मैंने कहा था चीज़ का टुकड़ा, यह तू मरा चूहा क्यों हिला रही है?
उसने कहा कि मुझे मालूम है, मगर उस चूहे के पीछे एक बिल्ली चली गई! तो पहले बिल्ली को निकाल रही हूं। एक दफा बिल्ली निकल आए तो फिर ची़ज का टुकड़ा, फिर उस चूहे को निकालें।
अभ्यास जब बहुत गहरा हो जाए तो ऐसे परिणाम होने शुरू होते हैं। लेकिन लोग नकल से जी रहे हैं। दांत, आंखें, चमड़ी, हर चीज नकल है। बाल...हर चीज नकल है। एकाध स्त्री को खोज लेते हैं, उसके बड़े बाल हैं और बस विज्ञापन शुरू! और तुम चले खरीदने तेल। इस तेल से तुम्हारे बाल भी ऐसे ही हो जाएंगे।
जिस व्यक्ति को अपने जीवन को कला बनानी है, पहली तो बात उसे नकल से मुक्त होना पड़ता है। उसे विचारपूर्वक, विवेकपूर्वक अपने जीवन का नियंता होना पड़ता है; अपने जीवन का मालिक बनना पड़ता है। दूसरों के हाथों में मालकियत देनी बंद करनी पड़ती है। वह संन्यासी का पहला कृत्य है कि वह अपनी मालकियत अपने हाथ में ले ले। वह कहे कि अब मैं अपने ढंग से जीऊंगा; भूल भी होगी तो कोई बात नहीं। भूल होगी तो उससे भी सीखूंगा। भूल होगी तो कुछ लाभ ही होगा, कुछ अनुभव होगा। मगर नकल नहीं करूंगा। दूसरे की नकल करके ठीक भी काम करो तो व्यर्थ है। अपने ढंग से जीकर भूल भी करो तो ठीक है, क्योंकि भूल-चूक कर के ही तो कोई व्यक्ति जीवन में सीखता है।
और फिर एक-एक बात पर विचार करना है। तुम क्रोध करते हो, वही क्रोध रोज करते चले जाते हो; कल भी किया था, परसों भी किया था, पिछले जन्म में भी करते रहे होओगे, आज भी कर रहे हो। पाया क्या? कभी कुछ पाया? बैठ कर कभी सोचोगे, कभी विमर्श करोगे, कभी पुनर्मूल्यांकन करोगे कि कितनी ऊर्जा तुम्हारी क्रोध में नष्ट होती है? यह क्रोध तुम्हें खाए जा रहा है, इससे बड़ी कोई बीमारी नहीं है। मगर तुम इस बीमारी को पोसते हो, पालते हो, इसको भोजन देते हो, इसको सम्हालते हो, दंड-बैठक लगा-लगा कर तैयारी करते
हो। और तुम्हें यह पता नहीं कि इससे ज्यादा तुम्हारा कोई शत्रु है? यह तुम अपने को ही जहर से भर रहे हो। अब तो वैज्ञानिक भी इस बात से राजी हैं कि जब तुम क्रोध से भर जाते हो, तब तुम्हारे खून में जहर छूट जाता है। तुम्हारे शरीर में जहर की ग्रंथियां हैं, जो तुम्हारे खून में जहर को छोड़ देती हैं। इसलिए तो आदमी क्रोध में ऐसे काम कर गुजरता है जो होश में कभी नहीं कर सकता था। और जब उसे होश लौटता है तो बहुत पछताता है; सोचता है--यह मैंने क्या किया, यह मैंने कैसे किया!
लोग अक्सर कहते सुने जाते हैं कि ‘मेरे बावजूद यह हो गया।’ तुम्हारे बावजूद हो गया! तो तुम कहां थे? तुम कहीं और चले गए थे? तुम्हारे बावजूद कितनी चीजें हो रही हैं, क्रोध हो रहा है, ईर्ष्या हो रही है, वैमनस्य हो रहा है, लोभ हो रहा है, काम हो रहा है, सब चल रहा है--तुम्हारे बिना! तुम्हारे बावजूद! तुम हो क्या? तुम्हारे होने की अर्थवत्ता क्या है? तुम अपने होने की घोषणा कब करोगे?
तो अगर तुम क्रोध पर विचार करोगे तो पाओगे यह तो निहायत मूढ़ता है। मैं क्रोध को पाप नहीं कहता, सिर्फ मूर्खता कहता हूं। पाप कहने से कुछ हल नहीं होता। पाप तो तुमसे सदियों से कहा गया है, मगर कुछ फर्क नहीं हुआ। मैं तो सिर्फ मूर्खता कहता हूं। तुम अगर थोड़े समझोगे, थोड़ा जगोगे, तो तुम पाओगे यही ऊर्जा जीवन को चमक दे सकती है।
तुम आकाश में बिजली को कौंधते देखते हो! वेद के समय में तुम्हारे तथाकथित ऋषि-मुनि इसी बिजली को देख कर कंप जाते थे, यज्ञ-हवन करने लगते थे--सोच कर कि इंद्र देवता नाराज हो रहे हैं, उन्होंने धुनष खींच लिया है। उन्होंने धनुष पर बाण चढ़ा दिया है, कि यह बिजली उनके धनुष की टंकार है। करो पूजा-पाठ! इंद्र देवता को राजी करो! अब कोई छोटा बच्चा भी नहीं डरता। अब सब बच्चे-बच्चे भी जानते हैं कि बिजली से इंद्र का क्या लेना-देना! इंद्र विदा ही हो गए। जो ऋषि-मुनियों के लिए इतने साक्षात मालूम होते थे कि जिनका चौबीस घंटा इंद्रदेवता के स्मरण में गुजरता था...जितनी ऋचाएं इंद्र के लिए वेदों में हैं उतनी किसी के लिए नहीं। बड़ी दहशत रही होगी। और एक झूठ की दहशत--और वह भी ऋषि-मुनियों को! क्या खाक ऋषि-मुनि रहे होंगे! अब हम जानते हैं कि बिजली में क्या है। अब तो बिजली हमारे घर में चाकर है। वही इंद्र देवता का धनुष, वही उनकी टंकार, वही उनके तीर बल्ब जला रहे हैं तुम्हारे घर में, चूल्हा जला रहे हैं, पंखा चला रहे हैं। इंद्र देवता से भी खूब सेवा ली! यह हुआ असली यज्ञ-हवन! वह भी क्या पागलपन था! मगर कुछ पागल अभी भी यज्ञ-हवन किए जाते हैं। वे कहते है: वर्षा नहीं हुई, यज्ञ-हवन करो। इंद्र देवता नाराज हैं।
कुछ लोग अभी भी समसामयिक नहीं हैं, वे पांच हजार साल पुरानी दुनिया में जी रहे हैं। संन्यासी को समसामयिक होना होता है। उसको आज के बोध से भरना चाहिए। वह भविष्य का नियंता है, निर्णायक है। उसके पीछे-पीछे भविष्य आएगा। वह सूर्योदय है। इसलिए मैंने गैरिक रंग चुना है; वह सुबह का रंग है, सूर्योदय का रंग है। वह वसंत का रंग है, फूलों का रंग है। वह खबर है कि अब बहुत फूल आने को हैं, कि अब सूरज उगने के करीब है। अब पक्षी गीत गाएंगे, अब फूल खिलेंगे, अब सूरज आकाश पर उठेगा। अंधेरे के दिन लद गए। अब हम जानते हैं कि बिजली से कुछ डरने की जरूरत नहीं। बटन दबाओ और बिजली हाजिर। बटन बंद कर दो, बिजली विदा हो गई। अब बिजली तुम्हारी चाकर है।
ठीक ऐसा ही भीतर भी हमारी ऊर्ंजाएं हैं--क्रोध की, काम की, लोभ की। इनसे डरने की जरूरत नहीं है। इनसे कंपने की जरूरत नहीं है। इनके साथ भी उतना ही वैज्ञानिक व्यवहार किया जा सकता है। और यह भी अगर हम वैज्ञानिक रूप से समझ लें तो ये भी हमारे भीतर रोशनी बन सकते हैं। इनसे भीतर का दीया जलेगा। इनसे भीतर शीतलता आएगी। इनसे भीतर के जीवन में झरने फूटेंगे।
संन्यासी का अर्थ है: वह पूरे जीवन को एक कच्चे अवसर की तरह लेता है। जैसे कि वह कच्चा है, अभी-अभी निकाला हुआ खदान से हीरा, अनगढ़, सिर्फ जौहरी ही पहचान सकते हैं, हर कोई नहीं। लेकिन जब उस पर छैनी चलेगी जौहरी की और जब वह उस पर धार रखेगा और उसको पहलू देगा और जब उसमें चमक आनी शुरू होगी, तब कोई अंधा भी पहचान लेगा, तब जौहरी होने की जरूरत न रहेगी। जब कोहिनूर पहली दफा मिला था गोलकुंडा में तो तीन साल एक किसान के घर में पड़ा रहा। किसान के बच्चे उससे खेलते रहे। आंगन में पड़ा रहता था। कोई भी चुरा ले जा सकता था। मगर किसी को पता ही नहीं था कि वह कोहिनूर है। वह तो संयोग की बात, एक जौहरी मेहमान हुआ और उसने कहा: पागलो, यह क्या कर रहे हो? इससे बड़ा हीरा मैंने नहीं देखा! तब उन्हें होश आया। तब वह हीरा बिका। जब अनगढ़ हालत में था तो आज जितना उसका वजन है, इससे तीन गुना ज्यादा वजन था। फिर उस पर काट-छांट की गई, वजन तो कम हो गया; जितना वजन कम हुआ उतना मूल्य बढ़ता चला गया। आज एक तिहाई ही बचा है अपने मूल वजन का। लेकिन आज करोड़ों गुनी कीमत है उसकी। आज उससे बड़ा कोई हीरा नहीं है दुनिया में।
तुम्हारे भीतर भी अनगढ़ हीरा है। अभी क्रोध की पर्त है, कामवासना की पर्त है, लोभ है, मोह है, न मालूम क्या-क्या जुड़ा है! इस सबको छांटना है, काटना है। मगर इस सबको काटने-छांटने के लिए दुश्मनी से नहीं चलेगा, बड़ा प्रीतिपूर्ण व्यवहार चाहिए, क्योंकि सिवाय प्रेम के कोई अपने को समझ नहीं पाता। अपने से प्रेम करो। अपने को समझने की कोशिश करो। तुम्हें इतनी ऊर्जा मिली है कि काश! तुम इस ऊर्जा के साथ मैत्री साध लो तो यही ऊर्जा सोपान बन जाएगी परमात्मा तक पहुंचाने का। अगर इससे दुश्मनी कर ली तो बस इसी में लड़-झगड़ कर मर जाओगे, नष्ट हो जाओगे।
संन्यास जीवन की कला है निर्मल, जीवन का त्याग नहीं।
तुम बहते जाना, बहते जाना, बहते जाना भाई!
तुम शीश उठा कर सरदी-गरमी सहते जाना भाई!
सब यहां कह रहे हैं रो-रो कर अपने दुख की बातें!
तुम हंस कर सब के सुख की बातें कहते जाना भाई!
भ्रम रहे यहां पर हैं बेसुध-से सूरज, चांद, सितारे,
गल रही बरफ, चल रही हवा, जल रहे यहां अंगारे,
है आना-जाना सत्य, और सब झूठ यहां पर भाई,
कब रुकने पाए झुकने वाले जीवन पर बेचारे?
तुम किस पर खुश हो गए और तुम बोलो किस पर रूठे?
जो कल वाले थे स्वप्न सुनहले आज पड़ चुके झूठे!
है यह कांटों की राह विवश-सा सबको चलते रहना,
जो स्वयं प्रगति बन जाए उसी के स्वप्न अपूर्व अनूठे!
तुम जो देते हो मानवता को आठों याम चुनौती,
तुम महल खजानों को जो अपनी समझे हुए बपौती!
तुम कल बन कर रजकण पैरों से ठुकराए जाओगे!
है कौन यहां पर ऐसा जो खा कर आया हो अमरौती?
यह रंग-बिरंगी उषा लिए है दुख की काली रातें,
हैं ग्रीष्म-काल की दाहक लपटों में रस की बरसातें!
यह बनना-मिटना अमिट काल के चल-चरणों का क्रम है,
छाया के चित्रों सदृश यहां हैं ये सुख-दुख की बातें!
रुकना है गति का नियम नहीं, तुम चलते जाना भाई,
बुझना प्राणों का नियम नहीं, तुम जलते जाना भाई!
हिम-खंड सदृश तुम निर्मल, शीतल, उज्ज्वल यश के भागी,
जमना आंसू का नियम नहीं, तुम गलते जाना भाई!
दूसरा प्रश्नः भगवान,
मैं मारवाड़ी हूं, क्या मैं भी मोक्ष पा सकता हूं?
प्रकाश! बात तो जरा कठिन है, मगर असंभव नहीं है। मारवाड़ी से पहले मुक्ति पानी होगी। मारवाड़ी ही रह कर मोक्ष तो नहीं पा सकते, इतना पक्का है। लेकिन उसमें कुछ चिंता की बात नहीं। कोई हिंदू रह कर मोक्ष नहीं पा सकता, कोई जैन रह कर मोक्ष नहीं पा सकता, कोई मुसलमान रह कर मोक्ष नहीं पा सकता। ये सब सीमाएं छोड़नी होती हैं। ये सब सीमाओं के पार जाना होता है।
और मारवाड़ी बड़ी कठोर सीमा है। तुम्हारे मन में यह चिंता पैदा हुई, यही बताती है बात कि तुम्हें भी लगता होगा कि मोक्ष और म्हारो देश मारवाड़, दोनों में तालमेल बैठेगा कि नहीं!
दो मारवाड़ी कंजूस एक-दूसरे के पड़ोसी थे। एक दिन सुबह दोनों मिले तो पहला बहुत उदास था। दूसरे ने उदासी का कारण पूछा, तो पहला बोला कि आज का दिन मेरे लिए बड़ा मनहूस दिन है। मेरे कंघे का एक दांत आज सुबह ही टूट गया है।
नुकसान के लिए मुझे भी गहरा दुख है--दूसरा बोला--पर इसके लिए इतना उदास होना तो उचित नहीं।
पहला बोलाः क्या बताऊं भाई, वह कंघे का आखिरी दांत था!
एक मारवाड़ी अपनी कंजूसी के लिए प्रसिद्ध था। एक अजनबी उसकी तारीफ सुन कर रात को उससे मिलने गया, दरवाजा खटखटाया। वह आदमी लालटेन ले कर आया और पूछा: क्या आप थोड़ी देर बैठेंगे?
आगंतुक बोलाः हां, आपकी बड़ी तारीफ सुनी है। कुछ देर बैठ कर देखना चाहता हूं।
उस कंजूस ने फौरन लालटेन को बुझा दिया। आगंतुक बोला: मैं समझ गया, आप फालतू तेल जलाना पसंद नहीं करते।
वह कंजूस बोला: वह तो ठीक है, परंतु अंधेरे में मैं धोती खोल कर रख देता हूं। इससे धोती का कपड़ा कम घिसता है।
तो जरा कठिन तो है, मगर घबड़ाओ मत। तोड़ लेंगे। आदमी हो, मारवाड़ी थोड़े ही। विशेषण को पकड़े हो तब तक, पकड़े हो, छोड़ दो तो गिर गया।
एक लंगोटी मात्र धारण किए हुए संन्यासी जी भाषण दे रहे थे। बेचारा चंदूलाल मारवाड़ी सुने जा रहा था। मगर उसे बार-बार झपकी आ जाती थी। बीच में ही भाषण रोक कर स्वामी जी ने गुस्से में कहा: चंदूलाल के बच्चे, तुम्हें ब्रह्मचर्चा की बातें समझ आ रही हैं या नहीं? सो-सो क्यों जाते हो, आदमी हो या पाजामा?
चंदूलाल मारवाड़ी ने चौंक कर आंखें खोलीं और कहा: आदमी ही होना चाहिए स्वामी जी, यदि पाजामा होता तो आपने कब का मुझे पहन लिया होता!
आदमी हो, कोई पाजामा थोड़े ही हो, इतने क्या घबड़ाने की बात है? मोक्ष भी संभव है, प्रकाश। यह धारणा छोड़ो। कैसा मारवाड़! क्यों छोटी-छोटी सीमाओं में अपने को बांधते हो? मगर हम सीमाओं के आदी हैं। हम सीमाओं में बड़ा रस लेते हैं। मारवाड़ छूटेगा तो भारतीय हो जाओगे एकदम। और तब भारत की अकड़ पकड़ लेगी। अकड़ में ही जकड़ है। तो एक जकड़ से छूटे, बड़ी जकड़ में पड़ गए। छोटी कैद से छूटे, बड़ी कैद में आ गए।
मुझे रोज पत्र आते हैं कि आपकी बातें भारतीय संस्कृति के अनुकूल नहीं हैं। तो तुमसे भई कहा किसने कि अनुकूल हैं? मैंने दावा कब किया? यह तुम कुछ मेरी आलोचना नहीं कर रहे हो। यही तो मेरी घोषणा है कि मेरी बातें जागतिक हैं, भारतीय से क्या लेना-देना? यह पृथ्वी कोई बंटी थोड़े ही है ऐसे खंडों में। ये खंड तो सब राजनीति के हैं। पृथ्वी अखंड है। मनुष्य अखंड है। भारतीय अकड़ पकड़ लेती है कि ‘यह तो पुण्य-भूमि है भारत, यहां देवता पैदा होने को तरसते हैं!’ होंगे कोई मूढ़ देवता, नहीं तो काहे को तरसेंगे यहां पैदा होने को? यहां क्या रखा है, जिसके लिए देवता यहां पैदा होने को तरसेंगे? मगर सारे देशों में इस तरह की धारणाएं होती हैं। सभी के अपने अहंकार होते हैं। और जहां अहंकार है, वहीं बंधन है। फिर अहंकार को तुम क्या नाम देते हो, इससे फर्क नहीं पड़ता। अगर मारवाड़ नाम दे दिया तो जरा छोटा; भारत नाम दे दिया, जरा बड़ा। हिंदू नाम दे दिया, थोड़ा और बड़ा, क्योंकि हिंदू मारिशस में भी रहते हैं और सिंगापुर में भी रहते हैं और कनाडा में भी रहते हैं और इंग्लैंड में भी रहते हैं। मगर जब अहंकार छोड़ना ही हो तो सारे विशेषण छोड़ देने चाहिए। आदमी होना काफी है। अंततः तो आदमी का विशेषण भी छोड़ देना है। तब चैतन्य होना मात्र काफी है, साक्षी होना मात्र काफी है। वही मोक्ष है। साक्षी बनो!
कोई मारवाड़ी थोड़े ही होता है, कोई हिंदू थोड़े ही होता है, कोई मुसलमान थोड़े ही होता है, कोई भारतीय थोड़े ही होता है, कोई पाकिस्तानी थोड़े ही होता है। कोई खून से बता सकता है कि यह मारवाड़ी का खून है, कि यह जैन का खून है, कि यह हिंदू का खून है? खून तो बस खून है, हड्डी तो बस हड्डी है। जरा मरघट पर जाकर हड्डियां छांटो और बताओ: कौन हड्डी किसकी है, हिंदू की कि मुसलमान की? और तुम मुश्किल में पड़ जाओगे। यह सब तो बातचीत है। इस बातचीत को इतना मूल्य न दो। यह तो कूड़ा-कर्कट है। इस सबको तो आग लगा देना है। मारवाड़ी को मारवाड़ी होने से छूटना है। बंगाली को बंगाली होने से छूटना है। बिहारी को बिहारी होने से छूटना है। भारतीय को भारतीय होने से छूटना है। जो जहां बंधा है, वहीं से छूटना है। फिर बंधन चाहे लोहे के हों, चाहे सोने के, इससे भी भेद नहीं पड़ता। बंधन से छूटना है। मोक्ष का अर्थ क्या होता है? सारे बंधनों से छूट जाना। और ध्यान रखना, बंधन तुम्हें नहीं पकड़े हुए हैं, तुम्हीं उन्हें पकड़े हुए हो।
एक आदमी शेख फरीद के पास आया। फरीद बड़ा मस्त आदमी था, बहुत अलमस्त फकीर था! पहुंचा हुआ सूफी था। उसके जवाब भी बड़े अनूठे होते थे। इस आदमी ने पूछा कि आप तो पहुंच गए, हमें भी कोई रास्ता बताएं, ये जंजीरों से हम कैसे छूटें? फरीद ने एक नजर उसे देखा, उठ कर खड़ा हो गया। पास में ही एक खंभा था, खंभे को जोर से पकड़ लिया और चिल्लाया बड़े जोर से कि बचाओ, बचाओ, मुझे खंभे से बचाओ! वह आदमी भी हैरान हुआ कि इसको क्या हो गया! वह भी उठ कर खड़ा हो गया घबड़ाहट में। उसने कहा: आपको हो क्या गया अचानक? भले-चंगे बैठे थे। मैंने प्रश्न क्या पूछा, आप एकदम पगला गए! मगर वह सुने ही न, फरीद एकदम चिल्लाता ही गया। मोहल्ले के लोग आ गए। सब खड़े भौचक्के से कि करना क्या! यह भी क्या गजब की बात कह रहा है: खंभे से छुड़ाओ! पकड़े है खुद ही खंभे को।
वह आदमी बोला: आप भी क्या मजाक कर रहे हैं! आप खुद खंभे को पकड़े हैं।
फरीद ने कहा: तो, तो फिर आदमी मूढ़ नहीं है तू। तो फिर क्या प्रश्न पूछता है? वे जंजीरें तुझे पकड़े हुए हैं? कौन सी जंजीर तुझे पकड़े हुए है? बता तो मैं छुड़ा दूं। तू खुद जंजीरों को पकड़े हुए है।
लोग अकड़े हुए हैं अपनी जंजीरों पर। लोग इसको अपना अहंकार का आभूषण समझते हैं। छोटे-मोटे लोग भी नहीं, सब छोटे-बड़े एक जैसे हैं। अभी मार्गरेट थैचर ने, इंग्लैंड की प्रधानमंत्री ने कुछ दिन पहले कहा कि ‘मैं परम गौरवान्वित अनुभव करती हूं कि मैं ब्रिटिश हूं। ब्रिटिश होना गौरव की बात है।’ क्यों ब्रिटिश होना क्या गौरव की बात है? इसमें ऐसी कौन सी खास खूबी है। लेकिन यही सबका मामला है। भारतीयों को भी यही अकड़ है कि हम भारतीय हैं। यह बड़े गौरव की बात है! हमारे यहां बुद्ध हुए, महावीर हुए, कृष्ण हुए--बड़े गौरव की बात है! सो तुम्हारा क्या बिगाड़ लिया उन्होंने, हुए तो हुए? तुम तो जैसे हो वैसे के वैसे। तुम तो अछूते के अछूते रहे। तुम तो जल में कमलवत! तुम्हारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। होते रहो बुद्ध, महावीर, कृष्ण, आओ, जाओ, तुम्हारा कोई बाल बांका कर ले! तुम्हें कोई हिला दे, तुम हिलते नहीं! अरे, तुम बिलकुल अडिग चट्टान हो!
सभी को यही अकड़ है। सारी दुनिया में हर जाति को, हर कौम को। यह अकड़ तुम ही पकड़े हो। छोड़ दो। और कम से कम मारवाड़ी होने की अकड़ तो अकड़ जैसी भी नहीं, कि किसी से बताओ तो भी झेंप लगे कि मारवाड़ी हूं!
ऐसी कुछ जगहें हैं, जैसे पंजाब में एक गांव है, होशियारपुर। कभी होशियारपुर के आदमी से पूछ लो कहां रहते हो, एकदम गुस्सा हो जाता है कि तुम्हें क्या मतलब जी? समझ लेना कि होशियारपुर रहता है। क्योंकि यह खयाल है कि होशियारपुर में बुद्धू रहते हैं। तो होशियारपुर वाले से अगर तुमने पूछ लिया ट्रेन में कि भैया कहां रहते हो, वह एकदम गरम हो जाता है कि तुम्हें मतलब, कहीं रहें? तुम्हारा क्या बिगाड़ा हमने? तुम हो कौन जी पूछने वाले? समझ लेना कि अच्छा समझ गए कि तुम होशियारपुर रहते हो।
कहते हैं, अकबर के जमाने में ऐसा हुआ कि होशियारपुर के लोगों को बहुत दुख पहुंचता था इस बात से कि वे अपने गांव का नाम तक नहीं बता सकते। कि जिससे कहो वही हंसने लगता कि अच्छा, होशियारपुर! इस नाम ने ही बदनामी करवा दी होगी। यह नाम ही खराब है--होशियारपुर। अब तुम खुद ही अपने को होशियार कहोगे तो लोग हंसेंगे--अपने मुंह मियां मिट्ठू! तो कोई भी हंसेगा। इसी से लोग बुद्धू समझने लगे होंगे कि इनको इतनी भी अक्ल नहीं कि अपने मुंह से अपने को होशियार नहीं कहना चाहिए। अकबर के पास होशियारपुर का एक प्रतिनिधि-मंडल मिलने गया। उसने अकबर से कहा: कुछ करना होगा। हम मूर्ख नहीं हैं, मगर हमारी ऐसी बदनामी हो गई है। यह जालसाजी है। आप चाहें जांच करवा लें।
अकबर ने कहा कि ठीक है। उसने वजीर भेजे। होशियारपुर के लोगों ने बड़ा स्वागत किया उनका, दिल खुश कर दिया उनका। वजीर भी बाग बाग हो गए कि कौन कहता है इनको कि ये मूरख हैं, ये तो बड़े अच्छे लोग हैं, बड़े प्यारे लोग हैं! बहुत लोग देखे हमने, दिल्ली में भी ऐसे प्यारे लोग नहीं हैं। क्योंकि वे तो बिलकुल ही तैयारी से थे, कहीं कचरा नहीं, कूड़ा नहीं सड़कों पर, सब साफ-सुथरा! दीवालें सजाई गई थीं, मकान सजाए गए थे, दीये जलाए गए थे। और हर आदमी सावचेत था कि कोई भूल-चूक न हो जाए। तीन दिन वजीर और उनके साथी रहे, उनका खूब स्वागत-सत्कार हुआ, खूब मालाएं पहनाई गईं, खूब सम्मान किया गया! भोज दिए गए। जब उनको विदा करके सब लोग लौटे तो लौट कर लोगों ने पूछा कि भई, कोई भूल-चूक तो नहीं हुई अपने से? तब एक ने कहा कि भैया, एक भूल हो गई है, आज ही हुई है, कि दाल में जीरा डालना भूल गए। बात तो जरा सी है मगर कहीं वे यह न सोचें कि इन बद्धुओं को अभी यह भी पता नहीं कि दाल में जीरा डाला जाता है!
अरे, उन्होंने कहा: तुम घबड़ाओ मत! गांव भर में जितना जीरा है, इकट्ठा करो, लादो बैलगाड़ियों पर! भागे दो घुड़सवार। वजीरों को रोका कि आप रुकिए, एक-दो मिनट रुकिए। आप बिलकुल नाराज न होइए।
उन्होंने कहा: भाई हम नाराज हैं ही नहीं, हम बड़े खुश जा रहे हैं।
इन्होंने कहा: आप शांत तो रहिए, आप रुकिए, हम अभी सिद्ध करते हैं।
और बैलगाड़ियों पर बैलगाड़ियां चली आ रही हैं--जीरे से लदी हुई! वजीरों ने कहा: मामला क्या है?
कहा: यह जीरा है जी! आप यह मत समझना कि हमारे यहां जीरा नहीं होता, कि हम जीरा खाना नहीं जानते। वह तो भूल हो गई, रसोइए की भूल थी, उस कारण हमको बुद्धू मत समझ लेना। प्रमाण-स्वरूप यह जीरा हम आपके साथ भेज रहे हैं।
वजीरों ने कहा कि ये बुद्धू ही हैं! तब से मामला बिलकुल सुनिश्चित ही हो गया।
तो मारवाड़ी होने से तो छुटकारा बिलकुल आसान है। सबसे सरल रास्ता तो यह है, प्रकाश--संन्यासी हो जाओ। जैसे अब सोहन बैठी है--यह सामने ही हमारे मारवाड़ी बैठी है। मगर थी मारवाड़ी, अब नहीं है। अब संन्यासी है, अब कैसी मारवाड़ी!
जब भी मैं मारवाड़ियों के संबंध में कुछ कहता हूं, लोग उसके पास पहुंच जाते हैं कि क्यों सोहन? सोहन कहती है: हम संन्यासी हैं! मारवाड़ी थे पहले, वह बात खतम हो गई। संन्यास पुनर्जन्म है।
तो पहले तो तुम मारवाड़ी होने से छुटकारा पा जाओ। और ऐसे पाते रहे छुटकारा, पाते रहे छुटकारा, एक-एक एक-एक चीजें तोड़ते चले गए, तो मोक्ष कुछ दूर नहीं।
मोक्ष का कुल अर्थ इतना ही होता है: हम पर कोई विशेषण न रह जाएं। हम विशेषण-शून्य हो जाएं, क्योंकि परमात्मा विशेषण-शून्य है। निर्गुण है। हम भी निर्गुण हो जाएं। हम निर्गुण हो सकते हैं। वह हमारा स्वभाव है।
मोक्ष कुछ उपलब्धि नहीं है--अपने स्वभाव का आविष्कार है।
तीसरा प्रश्नः भगवान,
क्या मैं अगले जनम में गधे के रूप में पैदा हो सकता हूं?
संत महाराज! नहीं भाई, हर जन्म में वही रूप नहीं मिलता!...और एक जन्म से तुम तृप्त नहीं हुए हो?
तुमको मैंने ‘संत महाराज’ नाम क्यों दिया है? इसलिए कि भैया, अब बस करो! जब तुम आए थे तो मैंने गौर से देखा--नाम तुम्हारा सोचने लगा, तो जो नाम मुझे आया याद वह था--अंट-शंट महाराज! मगर मैंने कहा, वह तो जरा जंचेगा नहीं, सो मैंने कहा ‘अंट’ तो काट दो इसमें से, ‘शंट’ रहने दो। मगर शंट भी जरा जंचता नहीं, क्योंकि लोग पूछेंगे कि शंट का मतलब क्या! उसमें अंट की याद आ जाए! सो मैंने कहा ‘संत’ कर दो इसको जरा, सो बिलकुल अंट से छुटकारा हो जाए। इसलिए तुमको ‘संत महाराज’ नाम दिया।
वैसे अंट-शंट बना भी संतों के कारण ही। अंट-शंट का मतलब होता है: अरे, क्या संतों जैसी बात कर रहे हो! जब कोई आदमी अंट-शंट बोलने लगता है, तो लोग कहते हैः क्या संतों जैसी बात कर रहे हो! क्या अंट-शंट बक रहे हो! अंट-शंट का मतलब ही यही होता है कि अरे आदमी जैसी बात करो संतो जैसी नहीं। संतों की तो आदत ही अंट-शंट है।
ऐसा ही अंग्रेजी में शब्द है एक--‘जिबरिश।’ जिबरिश का मतलब भी अंट-शंट होता है। और वह भी बना एक सूफी फकीर ‘जब्बार’ के नाम पर। क्योंकि वह जो बकता था, वह किसी की समझ में नहीं आता था, वह क्या कह रहा है। ज्ञान की ऐसी बातें करे, ऐसी उलांचे भरे! कहते हैं न, अंधे को अंधेरे में बड़ी दूर की सूझी! किसी की समझ में ही नहीं आए कि वे क्या कह रहे हैं! तो जब्बार के नाम से अंग्रेजी का शब्द बना जिबरिश, कि क्या जब्बार जैसी बातें कर रहे हो! मगर वह आदमी प्यारा था।
शब्द कई दफा बड़े अदभुत ढंग से बनते हैं। अंट-शंट भी ऐसा ही शब्द है। अब जैसे कि तुम अगर कबीर को सुनते तो तुमको कई बार लगता कि अंट-शंट बक रहे हैं। कबीर के कई वचनों को ‘उलटबांसी’ कहा जाता है। उलटबांसी का अर्थ होता है--जो तुम्हारी समझ में न आएं। और कबीर कहते हैं कि बहुत अचंभा हुआ मुझे--‘नदिया देखी आगि।’ नदिया लागी आगि! अब नदी में कहीं आग लगती है? मगर कबीर कहते हैं कि मैंने नदी में आग लगी देखी, मुझे बड़ा अचंभा हुआ। अब तुम क्या कहोगे? कहोगे न कि अंट-शंट? हालांकि वे बात पते की कह रहे हैं, मगर वे बड़े ऐसे पते की कह रहे हैं कि जिनको पते की हो पता, वे ही समझेंगे; बाकी तो समझेंगे कि भैया...या तो अंटी चढ़ा गए, भांग खा गए, ज्यादा पी गए, सन्निपात में आ गए, कुछ का कुछ बोल रहे हैं! ‘एक अचंभा मैंने देखा, नदिया लागी आगि।’ किसने कब देखा कि नदिया में आग लगी है?
मगर कबीर बड़े पते की बात कह रहे हैं। वे यह कह रहे हैं कि आदमी के साथ करीब-करीब ऐसी ही घटना घट गई है, जैसे नदी में आग नहीं लगनी चाहिए, नहीं लग सकती--पानी में कहीं आग लग सकती है--और आदमी दुखी है! और आदमी का स्वभाव आनंद है। यह उससे भी बड़ी अदभुत बात हुई जा रही है, कि स्वभाव आनंद है और आदमी दुखी है। यह तो पानी में आग लग जाए, ऐसी बात हो गई। इस बात को कहने के लिए वे उस उलटबांसी को कहे। मगर तुम समझोगे तो, नहीं तो बात तो अंट-शंट लगेगी।
कबीर के बहुत से वचन उलटबांसी हैं। बहुत से संतों के वचन ऐसे हैं कि तुम समझ ही नहीं पाओगे। इसलिए उनकी वाणी को अंट-शंट कहने लगे लोग। सधुक्कड़ी कहने लगे उनकी भाषा को। कभी-कभी शब्द बड़े अदभुत रास्ते से आते हैं। हमारे पास एक शब्द है: ‘नंगा-लुच्चा।’ वह पहली दफा महावीर के लिए उपयोग किया गया था। अब तुम सोच भी नहीं सकते कभी कल्पना में कि महावीर के लिए और ‘नंगा-लुच्चा’ शब्द का उपयोग।
एक सज्जन मेरे पास आए। उन्होंने कहा कि मैं मुनि विद्यानंद से मिलने गया था। आपका नाम लिया, लिख कर चिट्ठी दी कि आपका क्या विचार है उनके संबंध में। तो उन्होंने चिट्ठी फाड़ कर फेंक दी गुस्से में। जवाब देना तो दूर, मेरी तरफ देखा ही नहीं। और दूसरों से बातें करने लगे। और जब मैं चला आया तब मेरे संबंध में पूछताछ की कि यह कौन आदमी है।
तो मैंने उनसे कहा कि तुम भी कहां नंगे-लुच्चों के पास गए! वे बोले: अरे, आप क्या कहते हैं! नंगे-लुच्चों के पास!
मैंने कहा कि हां, यह महावीर के लिए पहली दफा उपयोग हुआ था। नंगे रहते थे महावीर और बाल लोंचते थे, सो लोग कहने लगे नंगे-लुच्चे। बाल काटते नहीं थे, लोंचते थे। और नंगे रहते थे। शब्द तो ठीक बना नंगे-लुच्चे।
‘बुद्धू’ शब्द पहली दफा बुद्ध से बना, क्योंकि जब बुद्ध ने घर छोड़ दिया और जंगल में बैठ रहे तो अनेक लोग कहने लगे कि यह भी क्या बुद्धूपन है! और जो उनकी बात मान कर जाने लगे छोड़-छोड़ कर, लोगों ने कहा: यह भी हद हो गई! अरे, क्यों उस बुद्धू के पीछे पड़े हो, तुम भी बुद्धू हुए जा रहे हो? तब से बात पकड़ गई। तब से अब कोई भी आदमी ऐसे कुछ काम करे तो लोग कहते हैं: क्यों भैया, क्यों बुद्धूपन कर रहे हो! लेकिन आया शब्द बड़े अच्छे स्रोत से है, गंगोत्री से आया है।
ऐसे ही अंट-शंट है, संत महाराज! अब तुम्हें भी क्या सूझी! अगले जन्म में भी गधा ही होना है! अरे, एक जन्म का अनुभव काफी है। पहली तो बात, कुछ भी न होओ ऐसी कोशिश करो। और कुछ होना ही हो--खच्चर, घोड़ा, कुछ भी--मगर गधा! कुछ तो ऊपर उठो! कुछ तो गति करो! कुछ तो सीढ़ी चढ़ो!
अवसर न गंवाओ। चाहो तो कुछ ऐसी घड़ी आ सकती है कि कुछ भी न होना पड़े। होना तो यही चाहिए कि अगला जन्म ही न हो, क्योंकि जन्म से जो मुक्त हुआ, वह मृत्यु से मुक्त हुआ। जन्म और मृत्यु से जो मुक्त हुआ, वह परम जीवन को उपलब्ध हुआ। उस दशा को मोक्ष कहें, या निर्वाण कहें, या ब्रह्म-साक्षात्कार कहें।
आखिरी प्रश्नः भगवान,
यह मौसम चुनाव का है। क्या एकाध लतीफा राजनेताओं के संबंध में न सुनाएंगे?
राज भारती!
बहुत दिनों के बाद
उनसे मिलने, उनके घर आया
उन्होंने ड्राइंगरूम में बिठाया।
चाय पिलाई, नाश्ता कराया।
तपाक से मिले,
हाथ मेरे चरणों की तरफ बढ़ाया।
मैं चकराया,
जो आदमी तीन-तीन घंटे इंतजार कराता था,
बड़े नखरों के बाद बाहर आता था
आज वही सज्जन
मेरे पैरों को पकड़ रहे हैं?
उनके चपरासी ने रहस्य खोला,
‘आपको शायद मालूम नहीं है
हमारे मालिक चुनाव लड़ रहे हैं।’
मौसम तो है। और लतीफा सच्चा भी और झूठा भी। राज समझोगे इसका राज भारती, तो सच्चा। यूं झूठा।
एक बार शहर के माननीय नेता श्री जग्गू भैया को एक डेरी फार्म के उदघाटन के लिए बुलवाया गया। जग्गू भैया तो उदघाटनों के लिए एकदम उतावले ही रहते थे, पहुंच गए अपना खादी का धोती-कुर्ता और टोपी इत्यादि लगा कर। गए और निकाल ली अपनी कैंची और बोले कि बताओ, कहां है रिबन? डेरी फार्म के व्यवस्थापकों ने कहा कि महोदय, यह डेरी फार्म का उदघाटन है, यहां कैंची की जरूरत नहीं। इसका उदघाटन इस तरह होगा। यह जो बछड़ा यहां बंधा है, इसे आप इसके खूंटे से खोलेंगे और यह अपनी मां की ओर जाएगा।
जग्गू भैया ने जल्दी से उस बछड़े को खोला। बछड़ा काफी देर से बंधा हुआ घबड़ा गया था, अतः तेजी से भागा और जग्गू भैया की टांगों के बीच से उन्हें चारों खाने चित्त करता हुआ अपनी मां के पास जा पहुंचा। फोटोग्राफर ने जल्दी से इस सुंदर दृश्य को अपने कैमरे में कैद कर लिया। इसके बाद श्री जग्गू भैया के और भी चित्र उतारे गए। एक चित्र डेरी फार्म की सर्वश्रेष्ठ एवं सुंदर भैंस के साथ था। एक चित्र उनका उनकी पत्नी के सहित खींचा गया। कुछ एकल चित्र भी उतारे गए। कुछ चित्र डेरी फार्म के मजबूत और स्वस्थ सांड के भी उतारे गए। दूसरे दिन उतावले जग्गू भैया ने अखबार बुलाए, क्योंकि वे जानते थे कि मुखपृष्ठों पर उनके फोटो छपे होंगे। फोटो तो थे, मुखपृष्ठ पर ही थे, मगर उनके शीर्षक कुछ इस प्रकार थे।
पहले चित्र में जग्गू भैया चारों खाने चित्त डले थे। चित्र के नीचे लिखा था: ‘डेरी फार्म का उदघाटन करते माननीय श्री जग्गू भैया।’
दूसरे चित्र में जग्गू भैया अपनी पत्नी के साथ खड़े मुस्कुरा रहे थे, लिखा था: ‘श्री जग्गू भैया, डेरी फार्म की सर्वश्रेष्ठ और सुंदर भैंस के साथ।’
तीसरे चित्र में श्री जग्गू भैया एक भैंस के गले में हाथ डाले उसे आलिंगनबद्ध किए थे। चित्र का शीर्षक था: ‘माननीय श्री जग्गू भैया, अपनी प्यारी पत्नी के साथ।’
यह सब देख जग्गू भैया क्रोध से जलभुन गए और अपने ड्राइवर को बुला कर कहा: इसी समय गाड़ी निकालो और संपादक के यहां चलो। यह क्या बेहूदगी है!
ड्राइवर बोला: जनाब, वह तो कुछ भी नहीं, जरा यह समाचार-पत्र और देखिए। यह कहते हुए उसने अपनी जेब से एक दूसरा अखबार निकाला और उनके सामने रख दिया। उसके मुखपृष्ठ पर ही जग्गू भैया के चित्र खींसे निपोरे छपे हुए थे। शीर्षक था: ‘हमारे डेरी फार्म का मशहूर सांड!’
पास ही एक चित्र था जिसमें एक काला भुजंग सांड खड़ा था, उसके नीचे शीर्षक था: ‘माननीय श्री जग्गू भैया!’
मौसम तो अभी खराब है। जरा सोच-समझ कर कदम रखना, क्योंकि सभी खींसे निपोरे द्वार पर आ खड़े हो जाएंगे। जरा बुद्धि से काम लेना। जरा विवेक से काम लेना, क्योंकि फिर पांच साल के लिए कोई तुम्हें पूछता नहीं। तो पांच साल के लिए जिन्हें भी तुम सत्ता देते हो, काफी सोच कर देना।
अभी इस देश की जनता एकदम अबोध है। इसे कोई भी मूढ़ बना लेता है। इसे कोई भी खींसे निपोर कर राजी कर लेता है। इसे किसी भी तरह के झूठे आश्वासन दे कर भरमाया जा सकता है।
इस देश की जनता को थोड़ा सजग होना जरूरी है। नहीं तो हम यूं ही जंगलों में भटकते रहेंगे। ये तीस-पैंतीस साल यूं ही जंगलों में भटकते हुए गुजर गए। और अगर जल्दी कुछ नहीं होता तो हम मृत्यु के कगार पर पहुंच रहे हैं। जल्दी ही हमारी आबादी एक अरब हो जाएगी। न भोजन होगा, न वस्त्र होगा, न रहने का स्थान होगा, न काम होगा। ऐसी दुर्दशा भारत ने कभी भी नहीं देखी थी अतीत में जैसी कि देखनी पड़ सकती है। यह सब बदला जा सकता है। इस सबके होने की कोई अपरिहार्यता नहीं है। मगर जैसे मूढ़ों को हम चुनाव में समर्थन दे देते हैं, उससे यह संभावना नहीं दिखाई पड़ती।
चुनाव में तुम्हारे कारण ही हमेशा गलत होते हैं। मुसलमान मुसलमान को वोट देते हैं, हरिजन हरिजन को वोट देते हैं। यह भी कोई बात हुई? क्षत्रिय क्षत्रिय को वोट देंगे, कलार कलार को वोट देंगे। इस देश में जैसे हमारे पास सोचने-समझने का और कोई मापदंड ही नहीं है! जात-पात! महाराष्ट्रियन महाराष्ट्रियन को वोट देंगे, गुजराती गुजराती को वोट देंगे। जैसे ये कोई निर्णायक बातें हैं! किसको तुम मत देते हो? और तुम यह भी नहीं देखते कि जो आश्वासन तुम्हें दिए जा रहे हैं, वे आश्वासन तुम्हें कितनी बार दिए गए और कभी पूरे नहीं हुए! तो तुम उन आश्वासनों की व्यावहारिकता को भी तो देखो कि वे पूरे किए भी जा सकते हैं या नहीं। कुछ तो आश्वासन हैं जो पूरे किए नहीं जा सकते, सिर्फ देने के होते हैं। और तुम उन्हीं आश्वासनों में आ जाते हो।
और मजा यह है कि तुम अपनी बंधी हुई लकीरों, लीकों को पीटे चले जाते हो और उन्हीं के अनुकूल तुम मत देते हो। यह इस देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। उन्हीं को मिटाना है, उन्हीं के कारण हमारा रोग है, उन्हीं के कारण हम परेशान हैं। वे ही धारणाएं। अब जैसे जो व्यक्ति कहेगा कि इस देश में हम अनिवार्य संतति-नियमन लाएंगे, उसको कोई वोट नहीं दे सकता। उसकी हार सुनिश्चित है, हालांकि वही आदमी है जो इस देश में कुछ कर सकता है। मगर जो तुमको कहेगा कि संतति-नियमन की क्या जरूरत है, अरे ऋषि-मुनियों का देश है यह, ब्रह्मचर्य से काम चलांएगे--बस तुम्हारे दिल एकदम बाग-बाग हो जाते हैं!
मुल्ला नसरुद्दीन कहता है...बाग-बाग का उसने अनुवाद कर लिया है--अंग्रेजी में, कहता है--गार्डन-गार्डन! तुम्हारा दिल एकदम गार्डन-गार्डन हो जाता है। कोई मूढ़तापूर्ण बात तुमसे कही जाए, बस तुम प्रसन्न हो जाते हो। ऋषि-मुनियों का देश है! यहां संतति-नियमन की क्या जरूरत है? और अनिवार्य संतति-नियमन, बर्दाश्त नहीं किया जा सकता! हमें तो छूट है बच्चे पैदा करने की। और जब परमात्मा देने वाला है तो तुम कौन हो रोकने वाले!
परमात्मा देने वाला है, मगर वह साथ जमीन नहीं भेजता, न फैक्ट्री भेजता। आदमी भेजता चला जाता है। और जब भुखमरी बढ़ती है तो तुम परमात्मा को कहां खोजोगे? उससे तो उत्तर मांग नहीं सकते, जवाब-तलब कर नहीं सकते। अगर मुसलमानों से कहा जाए कि तुम चार-चार पत्नियां नहीं रख सकते, तो खतरा है, तो कोई वोट नहीं मिलेगा। धर्म का विरोध हो गया! अब एक आदमी अगर चार पत्नियां रखे तो यह खतरनाक बात है, यह अमानवीय बात है। एक ही पत्नी से तो इतने बच्चे तुम पैदा कर रहे हो, चार-चार से तो तुम बड़ा उपद्रव मचा दोगे। मगर मुसलमानों का अगर वोट चाहिए तो तुम्हें स्वीकार करना पड़ेगा कि वे चार पत्नियां रखें, ठीक, बिलकुल ठीक!
हिंदुओं के अगर वोट चाहिए तो तुम्हें कहना पड़ेगा कि ब्रह्मचर्य की बड़ी ऊंची बात है। न तुम्हारे देवी-देवता ब्रह्मचर्य साधते हैं, तुम्हारे ऋषि-मुनि भी सब संदिग्ध। औरों की तो तुम बात छोड़ दो, तुम पुराणों को उठा कर देखो! ब्रह्मा ने पृथ्वी को बनाया और जब पहली दफा पृथ्वी को बनाया तो पृथ्वी एक स्त्री थी। स्त्री के रूप में बनाया। और जब ब्रह्मा ने बनाया तो जिसे बनाया था वह उसकी बेटी, ब्रह्मा पिता। मगर ब्रह्मा उसी पर मोहित हो गए। ये तो तुम्हारे ब्रह्मा के हाल हैं। तुम क्या खाक ब्रह्मचर्य साधोगे! ब्र्रह्मा तक से नहीं सधता, जिनके नाम पर ब्रह्मचर्य शब्द बना है, उनसे तक नही सध रहा! वे अपनी बेटी पर ही मोहित हो गए और एकदम उसका पीछा करने लगे। बेटी घबड़ाई, वह गाय बन गई, तो ब्रह्मा फौरन सांड बन गए--या जग्गू भैया, जैसा तुम समझो! वह भाग-भाग कर बचने लगी। वह भैंस बन गई तो वे भैंसा बन गए। मगर पीछा करते गए। ऐसे पूरी सृष्टि का विस्तार हुआ। वह स्त्री भागती ही चली गई, बचती ही चली गई, नये-नये रूप लेती चली गई। मगर ऐसे ब्रह्मा को धोखा देना आसान नहीं था, वे भी नया-नया रूप लेते चले गए।
तुम जरा अपने देवी-देवताओं की कथा तो पढ़ कर देखो! और तुमसे ब्रह्मचर्य की बात कही जाती है। महात्मा गांधी ब्रह्मचर्य समझाते रहे, तुम्हें खूब जंचता था। खुद पांच बच्चे पैदा कर गए, फिर ब्रह्मचर्य की बात करने लगे। तुम्हें बात जंचती है बहुत कि बिलकुल ठीक है। तुम्हारे शास्त्र के अनुकूल कुछ भी कह दे कोई, तुम्हारी धारणा के अनुकूल कोई कुछ कह दे, बस तुम्हें बात जंच जाती है।
और अब जरूरत आ गई है कि तुम्हारी सारी धारणाएं तोड़नी पड़ेंगी, तो ही इस देश का कोई भाग्य रूपांतरित हो सकता है। और जब चुनाव का मौसम हो तभी अवसर होता है रूपांतरण का। तब तुम्हें सजग होना चाहिए। तब तुम्हें जागरूक होना चाहिए। मैं नहीं कहता किसको तुम चुनो। मेरी कोई उत्सुकता नहीं किसी में। लेकिन इतना मैं जरूर कहता हूं कि तुम विवेक से चुनो, होश से चुनो, सावधानीपूर्वक चुनो। और हिम्मत कर के उनको चुनो, जो रूढ़िवादी न हों, रूढ़िग्रस्त न हों और जो अतीत से मुक्त होने में तुम्हारा सहयोग दे सकें और जो देश को एक नया जीवन, और एक नया भविष्य देने में समर्थ हैं।
यह हो सकता है, मगर तुम होने दोगे तो ही हो सकता है। अगर तुम्हीं विपरीत हो और तुम्हारे ही वोट पर लोगों को निर्भर रहना है तो उनको तुम्हें देख कर चलना पड़ता है कि तुम जो कहो वही ठीक। नहीं तो पांच साल बाद तुम बदला लेते हो। और फिर पांच साल बाद कोई नहीं हारना चाहता। जो एक बार कुर्सी पर बैठ गया, वह सदा बैठा रहना चाहता है। इतनी हिम्मत भी किसी में भी नहीं है कि अपनी धारणाओं पर, अपनी नई धारणाओं पर बलिदान कर दे--पद का, प्रतिष्ठा का। वह भी हिम्मत किसी में भी नहीं है। और तुम अपनी धारणाओं से ऐसे चिपके हो कि तुम पुनर्विचार ही नहीं करते।
सोचो, खूब सोचो। ये क्षण सोचने के हैं। और इन्हीं सोचने के आधार पर तुम निर्णय लो। फिर तुम जो भी निर्णय लोगे, उससे देश का हित हो सकता है।
आज इतना ही।
संन्यास जीवन का त्याग है या कि जीवन जीने की कला?
निर्मल भारती! सदियों से संन्यास जीवन का त्याग रहा है और वही भ्रांति थी, जिसके कारण संन्यास सर्वव्यापी नहीं हो सका। उसी चट्टान से टकरा कर संन्यास के फूल की पंखुरियां बिखर गईं। संन्यास कोमल फूल है और त्याग की कठोर धारणा स्वभावतः उस नाजुक सी चीज को नष्ट करने में समर्थ हो गई।
त्याग की धारणा में ही बुनियादी रूप से अज्ञान है। त्याग का अर्थ है: भगोड़ापन, पलायनवाद, कायरता। त्याग के लिए किसी बुद्धिमत्ता की कोई आवश्यकता नहीं है। जीने के लिए बुद्धिमत्ता चाहिए, प्रखरता चाहिए, प्रतिभा चाहिए। भागने के लिए तो प्रतिभा की कोई जरूरत नहीं। युद्ध के मैदान से जो भागते हैं, उन्हें तो हम कायर कहते हैं और जीवन के रणक्षेत्र से जो भाग जाते हैं, उनको? उनको रणछोड़दास जी! वे भी भगोड़े हैं। अच्छे नाम देने से कुछ भी न होगा। सुंदर नामों की ओट में गंदगियां कितनी देर तक छिपाई जा सकती हैं?
एक ओर तो धर्म कहते रहे: ‘संसार परमात्मा का सृजन है’, और दूसरी ओर यही लोग कहते रहे कि ‘संसार को छोड़ो, त्यागो; संसार पाप है।’ अगर संसार परमात्मा का सृजन है तो परमात्मा पापी है। यह तो सीधा सा गणित है। अगर संसार गलत है तो संसार को बनाने वाला ठीक कैसे हो सकेगा? और अगर संसार को बनाने वाला ठीक है तो उसकी कृति भी सुंदर हो जाएगी। परमात्मा अगर स्रष्टा है तो सृष्टि सौंदर्य है; यह उसका काव्य है। यह उसके हाथ से रंगा हुआ चित्र है, इसके सब रंग उसने ही तो भरे हैं। उसकी ही तूलिका के तो चिह्न हैं जगह-जगह। उसके ही तो हस्ताक्षर हैं पत्ते-पत्ते पर।
लेकिन महात्मा दोहरी बातें कहते रहे। एक तरफ कहते रहे: परमात्मा ने सृष्टि बनाई। और दूसरी तरफ कहते रहे: छोड़ो, भागो, त्यागो! और हमें विकृति भी न दिखाई पड़ी उनके तर्क में। हम सुनते-सुनते इस बात के इतने आदी हो गए कि हमने कभी सोचा ही नहीं। असल में हमें सोचने की क्षमता ही धर्म ने नहीं दी; सोचने की क्षमता हमसे छीन ली। हमसे कहा: विश्वास करो। हमसे नहीं कहा कि जागो, होश से भरो। हमसे कहा: जो कहा जाए उसे मानो। बाबा वाक्य प्रमाणम! जो भी कहा जाए, वह कितना ही मूढ़तापूर्ण हो, उसे स्वीकार करो, अंगीकार करो। यही आस्तिकता थी। इसलिए हमने आस्तिकता के भीतर छिपी हुई विसंगतियों को नहीं देखा, क्योंकि जो देखे वह नास्तिक, जो देखे वह नरक में पड़े। अंधों के लिए स्वर्ग था। आंख वालों के लिए नरक था। कौन जाना चाहे नरक में। इससे बेहतर है आंख बंद करके ही जीओ, अंधे होकर ही जी लो। चार दिन की जिंदगी है, आंख बंद कर के गुजार लो। फिर पुरस्कार है स्वर्ग का। और सार क्या है प्रश्न उठाने में? क्यों झंझट में पड़ो? पंडितों से, पुरोहितों से, राजनेताओं से, समाज के ठेकेदारों से झंझट लेनी सुगम बात तो नहीं है। उपद्रव मोल लेना है। बगावत है।
तो धर्म हमेशा से रूढ़ियों के परिपोषक रहे हैं, अंधेपन के समर्थक रहे हैं। उन्होंने विचार की आग नहीं जलाई। उन्होंने विचार की आग को बुझाया। उन्होंने चिंतन और मनन को गति नहीं दी; मारा, हत्या की। इसलिए वे हमसे न मालूम कैसी-कैसी मूढ़तापूर्ण बातें मनवा सके; मनवा ही नहीं सके, करवा भी सके!
संन्यास त्याग नहीं है, संन्यास परम भोग है।
मैंने कल ही तुमसे कहा: ‘विष्णु-सहस्र-नाम’ में परमात्मा का एक नाम है--महाभोग। वही नाम मुझे सर्वाधिक प्यारा है, क्योंकि उस नाम में बात जैसे पूरी-पूरी आ गई।
जीवन को भोगने की कला संन्यास है। निश्चित ही सितार को तोड़ देना तो कोई भी कर सकता है; सितार बजाने के लिए कोई रविशंकर चाहिए। वर्षों की तपश्चर्या चाहिए। तोड़ने में तपश्चर्या नहीं करनी होती। तोड़ने में क्या है, एक बच्चा तोड़ दे! लेकिन सितार को बजाना हो, ऐसा बजाना हो कि दीपक राग उठे, कि बुझे दीये जल जाएं, तो फिर वर्षों का श्रम और साधना चाहिए।
त्याग में कोई साधना नहीं है। मूढ़ से मूढ़ व्यक्ति भाग सकता है। भागने में क्या है? भय काफी है। बस भयभीत कर दो, लोग भागने लगेंगे। लोगों को डरा दो, लोग भागने लगेंगे। लेकिन अगर सितार बजाना सीखना है तो वर्षों सतत, अहर्निश श्रम करना होगा। एक दिन में बात नहीं आ जाती। पहले दिन तो सितार बजाओगे तो भरोसा ही नहीं आएगा कि इस सितार में से कभी राग उठने वाले हैं। विराग ही उठेगा, राग नहीं। शोरगुल उठेगा, संगीत नहीं।
मुल्ला नसरुद्दीन ने नया-नया सितार खरीद लिया। सुन लिया होगा किसी वादक को, प्रभावित हो गया होगा और बस आकर बजाना शुरू कर दिया। बस वह एक ही तार को ठोंकता रहे--रा-रूं, रा-रूं, रा-रूं! पत्नी पगलाने लगी, बच्चे घबड़ाने लगे। बच्चे कहें कि पापा, परीक्षा पास आ रही है और हमें सिवाय रा-रूं के कुछ सुनाई नहीं पड़ता। हम परीक्षा में क्या रा-रूं, रा-रूं लिखेंगे? हमें कुछ सूझता ही नहीं। हमने बहुत सितार बजाने वाले देखे, मगर यह आप क्या कर रहे हैं?
पत्नी सिर ठोके, बर्तन तोड़े, प्लेटें फूटें। सब्जी में ज्यादा नमक डाल दे। सब्जी कम, मिर्च ज्यादा। मगर उससे और जोश चढ़े उसको, वह और रा-रूं...! मोहल्ले-पड़ोस के लोग भी हैरान हो गए। न सोने दे, न चैन से रहने दे किसी को। आखिर सारे मोहल्ले के लोग इकट्ठे हुए और हाथ जोड़े कि या तो हम मोहल्ला छोड़ें या आप। यह क्या कर रहे हो। हमने बहुत बजाने वाले देखे, मगर आप गजब के बजाने वाले हो! ऐसा न कभी हुआ, न कभी होगा बजाने वाला। यह कौन सा राग है?
नसरुद्दीन मुस्कुराया और उसने कहा कि दूसरे बजाने वाले अभी अपने स्वर को खोज रहे हैं, मैंने पा लिया। वे तलाश में इस तार से उस तार पर जाते हैं और मैंने पा लिया अपना गंतव्य, मैं क्यों भटकूं? मुझे मिल गया मेरा स्वर। अब तो मैं हूं, मेरा स्वर है! यही बजेगा। जिसको रहना हो इस मुहल्ले में रहे, जिसको जाना हो जाए।
वैराग्य में कोई संगीत है, कोई सौरभ है, कोई फूल खिलते हैं, कोई जीवन का उल्लास है, कोई आह्लाद है, नृत्य है? वैराग्य के लिए कोई कला चाहिए, कोई कलाविद् चाहिए? कोई आवश्यकता नहीं। कोई भी भाग सकता है। और जिंदगी दुख से भरी है, इसमें कोई शक नहीं। दुख से भरी है इसलिए कि हम मूढ़ हैं; इसलिए नहीं कि जिंदगी बुरी है।
तुम्हें बार-बार कहा गया है--संसार दुख है, लेकिन इस तरह कहा गया है कि जैसे संसार का स्वभाव दुख है। मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि संसार दुख है, क्योंकि हम मूढ़ हैं, अन्यथा संसार दुख नहीं है। जहां इतने मूढ़ इकट्ठे हों, वहां दुख होना स्वाभाविक है। सच पूछो तो बड़ा चमत्कार है कि दुख इतना कम क्यों है! करोड़ों-करोड़ों मूढ़ लगे हैं, फिर भी दुख कुछ बहुत ज्यादा नहीं है।
संसार दुख नहीं है--न सितार में शोरगुल है। संसार तो एक अवसर है--अनुभव के लिए, आत्म-साक्षात्कार के लिए, परमात्म-प्रतीति के लिए। लेकिन तब तुम्हें बड़ी बुद्धिमत्ता चाहिए। तुम्हें धार रखनी पड़ेगी अपनी प्रतिभा पर। तुम्हें तीक्ष्ण होना पड़ेगा। तुम्हें ध्यान को सजग करना होगा। तुम्हें ध्यानपूर्वक जीना होगा। तुम्हें बड़ी सावचेतता बरतनी होगी। एक-एक कदम फूंक कर रखना होगा--होशियारी से, कुशलता से। अंधों की तरह, मूढ़ों की तरह दौड़े चले जाओगे, तो टकराओगे। टकराओगे तो दुख होगा।
दुख जरूर है, मगर दुख इसलिए नहीं है कि संसार का स्वभाव दुख है; दुख इसलिए है कि हम नासमझ हैं। तुम्हारी बगिया में फूल नहीं खिलते, इसका कारण यह नहीं है कि बगिया का कोई कसूर है; फूल खिलें तो खिलें कैसे, घास-पात तो उगाते हो, कंकड़-पत्थर तो बीनते नहीं! गुलाबों को तो उखाड़ कर फेंक देते हो, फूल लगेंगे कैसे?
एक बात समझ लेने की है कि घास-पात उगाने के लिए कोई मेधा नहीं चाहिए। घास-पात अपने से उग आता है।
मुल्ला नसरुद्दीन के पड़ोसी ने पूछा नसरुद्दीन से कि तुम्हारी बगिया का लान बड़ा प्यारा है। मैंने भी लाकर दूब के बीज बोए हैं, अब अंकुर भी आने शुरू हो गए। लेकिन कौन से अंकुर दूब के हैं और कौन सा सिर्फ व्यर्थ घास-पात है, यह कैसे पहचानें?
मुल्ला ने कहा: बड़ी सीधी तरकीब है। दोनों को उखाड़ कर फेंक दो, फिर जो अपने आप उग आए, वह घास-पात।
घास-पात अपने से उग आता है, इसको उगाना नहीं पड़ता। नीचे की तरफ जाना हो तो तुम कार का इंजन बंद कर सकते हो, उसके लिए कोई पेट्रोल जलाने की जरूरत नहीं है। लेकिन कार को पर्वत पर ले जाना हो तो फिर इंजन बंद करके नहीं चलेगा काम। फिर तो तुम्हें होशपूर्वक गाड़ी चलानी पड़ेगी, इंजन को सक्रिय करना होगा।
जो लोग जीवन में उतर रहे हैं, ढलान पर हैं, उनके जीवन में कोई कला नहीं चाहिए। इसलिए भगोड़ापन लोगों को जंच गया था, कमजोरों को जंच गया था। वे भाग गए और न केवल खुद भाग गए, वे अपने पीछे यह भाव छोड़ते चले गए कि जीवन विषाद है, कि जीवन दुख है, कि जीवन गलत है।
जीवन में कुछ भी गलत नहीं है। जीवन तो परमात्मा का प्रकट रूप है। यह तो उसकी देह है, उसकी काया है। जैसे तुम्हारे भीतर आत्मा छिपी है, दिखाई नहीं पड़ती, देह दिखाई पड़ती है--वैसे ही संसार दिखाई पड़ता है। उसके भीतर जो छिपा है, वह परमात्मा है। तुम छोड़ कर भागोगे तो फिर खोजोगे कैसे, खोदोगे कैसे? माना कि खुदाई कठिन है, पत्थर भी आएंगे, चट्टानें भी तोड़नी पड़ेंगी, श्रम करना होगा गहरा, तब कहीं जल-स्रोत तक पहुंच पाओगे; लेकिन सस्ते नुस्खे मिल गए लोगों को कि सब छोड़-छाड़ कर बैठ जाओ; राम-राम जपते रहो, सब ठीक हो जाएगा।
काश, इतना आसान होता सब, तो तो हमने जिंदगी को अब तक स्वर्ग बना लिया होता! इतने तो तुम्हारे संन्यासी हुए, जिंदगी स्वर्ग तो न बनी, रोज-रोज नरक बनती चली गई। अब समय आ गया है कि पुनर्विचार करें हम। कहीं कोई बुनियादी भूल हो गई है। और मैं इसको बुनियादी भूल कहता हूं निर्मल, कि संन्यास को जीवन का त्याग समझा, वहीं भूल हो गई। संन्यास में जरूर कुछ त्याग है, लेकिन वह जीवन का त्याग नहीं है, मूढ़ता का त्याग है। जरूर कुछ त्याग है, लेकिन वह जीवन का त्याग नहीं है; मूर्च्छा का त्याग है। जरूर कुछ त्याग है, लेकिन वह जीवन का त्याग नहीं है; क्रोध का, लोभ का, मोह का, ईर्ष्या का, अहंकार का, इन सारे रोगों का त्याग है। और इनके त्याग के लिए कोई हिमालय जाने की जरूरत नहीं है। इनके लिए श्रेष्ठतम कोई अवसर अगर कहीं है तो यहीं बीच बाजार में है, क्योंकि यहीं प्रतिपल परीक्षा होती रहती है। प्रतिपल अवसर आते हैं जहां क्रोध भभक उठता है, वासना जग जाती है, ईर्ष्या के बादल घने हो आते हैं। हिमालय की गुफा में बैठ जाओगे तो पता ही नहीं चलेगा। वहां तो अवसर से ही चूक जाओगे। भीतर सब बीज पड़े रह जाएंगे, जीवन रूपांतरित नहीं होगा। और जरा सी भी कसौटी का कोई मौका आया कि तुम फिसल जाओगे।
यहीं जीवन में ही, जो व्यर्थ है उसे छोड़ो। मगर जीवन व्यर्थ नहीं है। और व्यर्थ को छोड़ कर ही तुम जान पाओगे जीवन की सार्थकता। कचरा छोड़ो, मगर कचरे के साथ सोने को मत फेंक देना। कंकड़-पत्थर छोड़ो, मगर यहीं हीरे भी हैं, उन हीरों को मत छोड़ देना। भगोड़े सब छोड़ कर भाग गए--कंकड़-पत्थर भी, हीरे भी।
इसलिए तुम्हारे कथाकथित पलायनवादी संन्यासियों के जीवन में तुम्हें कोई ज्योति नहीं दिखाई पड़ेगी; एक विषाद दिखाई पड़ेगा, एक गहरी हताशा, एक निराशा। उनकी आंखों में तुम्हें आनंद के दीये जलते हुए नहीं मालूम पड़ेंगे; दीवाली नहीं, बल्कि जैसे दिवाला निकल गया हो।
जीवन का रास, जीवन का आनंद, जीवन का रस जो पीएगा ध्यानपूर्वक--रोज उसकी दीवाली है, रोज उसकी होली है, रोज रंगों की फुहार है, रोज गीतों का जन्म है, रोज पैरों में उसके पायल बजेगी, रोज उसके प्राणों की बांसुरी बजेगी! उसके जीवन में मोरमुकुट बंधेगा। उसकेजीवन में चारों तरफ एक सुगंध होगी, एक सुवास होगी।
इसलिए मैं तो संन्यास को जीने की कला कहता हूं। मेरे संन्यासी को एक नये संन्यास के लिए आह्वान करना है जगत में। इसलिए मेरे संन्यासी के सामने एक महत कार्य है। मेरा संन्यासी साधारण संन्यासी नहीं है। साधारण संन्यास के दिन खत्म हुए, लद गए। मर गई वह बात। अजायबघरों में रखे जाएंगे उस तरह के लोग जल्दी ही। उनका कोई स्थान नहीं रहा। उनकी जीवन से जड़ें टूट चुकी हैं। वे अप्रासंगिक हो गए हैं।
मैं तुम्हें जो संन्यास दे रहा हूं, वह भविष्य का संन्यास है। उसका भविष्य है। और ऐसा संन्यास फैल सकता है, आग की लपटों की तरह सारी पृथ्वी को घेर ले सकता है। क्योंकि इस संन्यास के लिए न कहीं जाना है, न कुछ थोथे उपक्रम करने हैं, बल्कि जीवन को भीतर से बदलना है। और जीवन को जीने की कला सीखनी है।
ध्यान जीवन को जीने की कला है। वही जीवन को जानते हैं जो ध्यानस्थ हैं। जो अपने केंद्र पर थिर हो गए हैं वही पहचानते हैं अहोभाग्य को, जो हमें अस्तित्व ने दिया है। उनके जीवन में एक धन्यता है। उनके प्राणों में एक कृतज्ञता है। वे झुकेंगे समर्पण में। उनके भीतर से प्रार्थना उठेगी। प्रार्थना की गंध, प्रार्थना का रंग उनसे फूटेगा, झरने फूटेंगे, स्वभावतः, क्योंकि जीवन में उनको दिखाई पड़ना शुरू होगा कि कितना मिला है! कितना, जिसकी हमारी कोई पात्रता नहीं थी! कितना, जिसके लिए हमने कोई कमाई नहीं की थी! जो सिर्फ प्रकृति की देन है! हमारी झोली भरी है, मगर हम उस झोली की तरफ देखते नहीं। और हम टुच्ची बातों में उलझे हुए हैं, छोटी बातों में उलझे हुए हैं।
निर्मल, संन्यास को जीवन की कला समझो। कठिन बात है यह। मैं तुम्हें एक कठिन चुनौती दे रहा हूं, क्योंकि मैं तुमसे कह रहा हूं कि भागना मत। भागना बिलकुल आसान है। मैं तुमसे कह रहा हूः यहीं! मैं तो किसी को भी कुछ छोड़ने को नहीं कहता। अगर मुझ से चोर भी आकर कहता है कि मैं संन्यासी होना चाहता हूं, मैं कहता हूं हो जाओ। वह कहता हैः मेरी चोरी का क्या होगा? मैं कहता हूं: वह पीछे देखेंगे। संन्यास देखेगा उसको। तुम चोर हो, ठीक है; इतना ही क्या कम है कि चोर होकर भी तुम्हारे मन में संन्यासी होने का भाव उठा! तुम साहूकारों से बेहतर हो, जिनके भीतर संन्यासी होने का भाव नहीं उठा। वे क्या खाक साहूकार हैं! वे चोर हैं, तुम साहूकार हो।
मेरे देखने का ढंग और है। अगर मैं तुम्हें चोरी करते हुए भी पा लूंगा तो मैं यह नहीं कहूंगा कि तुम्हें शर्म नहीं आती कि तुम संन्यासी होकर और चोरी कर रहे हो? मैं यही कहूंगा कि तुम अदभुत व्यक्ति हो कि चोर होकर भी संन्यासी हो! मेरे देखने का ढंग विधायक है।
एक यहूदी आश्रम में दो युवक सुबह-सुबह बगीचे में टहल रहे हैं। दोनों को सिगरेट पीने की आदत है। और एक घंटे भर के लिए उनको आश्रम में घूमने का अवसर मिलता है बगीचे में--वह भी घूमने के लिए नहीं मिलता, घूम कर ध्यान करने के लिए मिलता है। शेष तेईस घंटे तो आश्रम के भीतर, वहां तो सिगरेट पीने का सवाल उठता नहीं। यहां बाहर पी सकते हैं, क्योंकि यहां गुरु मौजूद नहीं है। मगर मन में उनको संकोच लगता है, अंतःकरण में चोट पड़ती है कि क्या यह उचित है, क्या हम इस तरह करें? तो उन्होंने कहा, बेहतर है हम गुरु से पूछ लें। कल पूछ लें, फिर शुरू करें।
दूसरे दिन दोनों मिले। एक तो बहुत ही उदास बैठा था बगीचे में और दूसरा सिगरेट पीता हुआ धुआं उड़ाता चला आ रहा था। पहला युवक तो भन्ना गया। उसने कहा कि मामला क्या है, तुम सिगरेट पी रहे हो, गुरु की आज्ञा नहीं मानोगे?
उसने कहा: गुरु से आज्ञा ली, तब तो पी रहा हूं।
उसने कहा: ये कैसे गुरु हैं! क्योंकि मैंने पूछा, एकदम नाराज हो गए। एकदम पास में डंडा पड़ा था, डंडा उठा लिया और कहा सिर तोड़ दूंगा, शर्म नहीं आती? तुमको कैसे आज्ञा दी?
दूसरा युवक मुस्कुराने लगा। उसने कहा: पहले तुम यह कहो, तुमने पूछा क्या था?
उसने कहा: क्या पूछा था! मैंने यही पूछा था कि अगर मैं ध्यान करते समय सिगरेट पीऊं तो कोई एतराज तो नहीं? बस, वे एकदम भन्ना गए, एकदम डंडा उठा लिया, कहा: सिर तोड़ दूंगा! शर्म नहीं आती? ध्यान करते हुए सिगरेट? तो यहां आए किसलिए थे?
दूसरे युवक ने कहा: शांत हो जाओ। अब मैं तुम्हें बताता हूं राज। मैंने भी पूछा। मैंने उनसे पूछा: गुरुदेव, सिगरेट पीते वक्त अगर ध्यान करूं तो कोई एतराज है? उन्होंने कहा: बिलकुल नहीं। अब सिगरेट तो पी ही रहे हो, अगर इसमें ध्यान और जुड़ा तो बुरा नहीं है, कुछ भी बुरा नहीं है। सदुपयोग हो गया। और अगर सिगरेट और ध्यान साथ चले तो ध्यान जीत कर रहेगा। तू फिकर न कर। सिगरेट पी और ध्यान कर। यह तेरे मन में बड़ा शुभ भाव उठा है। यह सिगरेट पीने वालों को मुश्किल से उठता है।
इसलिए तुम देखते हो इस आश्रम में एक ही स्थान को हम मंदिर कहते हैं, जहां लोग सिगरेट पीते हैं--धूम्रपान मंदिर। बाकी कोई स्थान मंदिर इस आश्रम में है ही नहीं।
मेरा देखने का ढंग विधायक है, नकारात्मक नहीं। ‘नहीं’ पर मेरा जोर नहीं है। ‘हां’ पर मेरा जोर है। मैं विधायकता को ही आस्तिकता कहता हूं; नकार को नास्तिकता कहता हूं। ईश्वर को मानने न मानने से आस्तिक और नास्तिक का कोई संबंध नहीं है। आस्तिकता और नास्तिकता बड़ी और बात है। जीवन को विधायक ढंग से देखने का नाम आस्तिकता है।
इसलिए मेरे लिए महावीर आस्तिक हैं, बुद्ध आस्तिक हैं; यद्यपि उन्होंने ईश्वर को नहीं माना, फिर भी परम आस्तिक हैं। कौन उन जैसा आस्तिक होगा! यद्यपि हिंदू इस बात को मानने को राजी नहीं होते कि वे आस्तिक हैं। कैसे होंगे, क्योंकि हिंदुओं की तो परिभाषा बड़ी ओछी थी। उन दिनों तो और भी ओछी थी। बुद्ध और महावीर के समय में तो हिंदुओं की आस्तिकता की परिभाषा थी--जो वेद को मानें वे आस्तिक; जो वेद को न मानें वे नास्तिक। यह भी कोई बात हुई! कहीं किसी किताब के मानने न मानने से आस्तिकता और नास्तिकता तय होती है? तब तो फिर सब मुसलमान नास्तिक, सब ईसाई नास्तिक, सब यहूदी नास्तिक, सब पारसी नास्तिक, सब जैन नास्तिक, सब बौद्ध नास्तिक। तो इस दुनिया में आस्तिक बचेंगे ही कहां? ये ही रह जाएंगे थोड़े से हिंदू। और इनमें भी शूद्रों को छोड़ दो, क्योंकि वह तो वेद पढ़ ही नहीं सकते, तो क्या खाक मानेंगे! फिर इनमें से स्त्रियों को भी छोड़ दो, क्योंकि स्त्रियों को तो वेद पढ़ने का कोई अधिकार नहीं; इनको तो एक ही अधिकार है--पिटने का। ‘ढोल गंवार शूद्र पशु नारी’...यह पता नहीं बाबा तुलसीदास से कब छुटकारा होगा! इस आदमी से ज्यादा भ्रष्ट करने वाला इस देश को दूसरा कोई व्यक्ति नहीं हुआ।
मगर बैठ गई है बात हमारे दिमाग में--जैसे ढोल को पीटो, ऐसे ही स्त्रियों को पीटो। यह पुरुषों के ही दिमाग में बैठ गई होती तो भी ठीक था, स्त्रियों तक के दिमाग में बैठ गई है। अगर पुरुष स्त्रियों की पिटाई न करे तो उनको लगता है शायद प्रेम नहीं करता, कि अब आजकल मार-पीट होती ही नहीं है घर में--मतलब सब शांति है, सब खत्म हो गया, खेल खत्म पैसा हजम! कुछ होती थी मार-पीट तो उसका मतलब था अभी कुछ लगाव जारी है, अभी कुछ बात बनी है, अभी कुछ नाता-रिश्ता चलता है। स्त्रियां तक राह देखती हैं कि पीटो, क्योंकि उनको भी वही बाबा तुलसीदास समझा गए। सच तो यह है कि जितना स्त्रियां सुनने जाती हैं रामायण, पुरुष नहीं जाते। अरे पुरुष जाएं क्यों! उनको तो राज की बात मिल गई। स्त्रियां जाती हैं सीखने के लिए कि सीता के साथ कैसा राम ने व्यवहार किया। ऐसा व्यवहार भी अगर तुम्हारे पति तुम्हारे साथ करें, तो भी वे परमात्म-स्वरूप हैं। गर्भिणी स्त्री को भी अगर जंगल में भेज दें एक धुब्बड़ के कहने से! अगर ऐसी ही शान की बात थी, अगर ऐसी ही बात थी तो खुद भी चले गए होते सीता के साथ जंगल में। तो कुछ बात थी, कुछ गौरव होता। एक असहाय स्त्री को, गर्भिणी स्त्री को, यूं भेज दिया जंगल में!
मगर यह नारी का आदर्श है। सीता नारी का आदर्श है। राम जो हैं, वे मर्यादा पुरुषोत्तम हैं! वे पुरुषों के आदर्श हैं। तुम्हारे पति अगर तुम्हारे साथ ऐसा व्यवहार भी करें तो भी शुभ है। तुम तो चुपचाप झुके जाना, पिटे जाना। तुम्हारा काम ही यही है। स्त्री तो पैर की जूती है, पांवों की दासी है!
स्त्रियों को काट दो, उनको वेद पढ़ने का अधिकार नहीं है। शूद्रों को काट दो, उनको वेद पढ़ने का अधिकार नहीं है। यह जानकार तुम चकित होओगे कि हम कैसे बर्दाश्त करते रहे हैं! आज तुम गालियां देते हो। आज तुम नाराज होते हो। अगर कहीं शूद्र जला दिए जाते हैं, अगर कहीं शूद्रों के गांव में बलात्कार हो जाता है, अगर कहीं शूद्रों की बस्तियां उजाड़ दी जाती हैं, तो बहुत छिन्न-भिन्न हो जाता है तुम्हारा मन, तुम खिन्न हो जाते हो। लेकिन राम ने क्या किया था? मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने क्या किया था? एक ब्राह्मण का बेटा मर गया। बाप के सामने बेटा मर जाए तो जरूर कहीं कोई महापाप हो रहा है! इस बाप ने कोई महापाप किया होगा पिछले जन्म में, यह सवाल नहीं उठता! ब्राह्मण और महापाप करता, यह तो बात ही नहीं उठती। जरूर कहीं कोई महापाप हो रहा है! कहां महापाप हो रहा है? तो उस ब्राह्मण ने बताया कि एक शूद्र, शंबूक नाम का शूद्र, वेद पढ़ता है, वेद सुनता है। उसी के पाप के कारण।
कहां शंबूक! उसका क्या लेना-देना! वह एक हजार मील दूर था। और किसी का बेटा न मरा, इस ब्राह्मण का बेटा मरा। और मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने क्या किया, मालूम है! उस शंबूक के कानों में सीसा पिघलवा कर, गरम सीसा भरवा दिया, उसके कान जलवा दिए, क्योंकि उसने वेद सुन लिया था।
शूद्रों को छोड़ दो, स्त्रियों को छोड़ दो। और सारे धर्मों को छोड़ दो। तो आस्तिक कितने बचते हैं फिर? फिर तो सारी पृथ्वी नास्तिकों की हो गई। वह धारणा बड़ी ओछी थी, छोटी थी। फिर धारणा बदली। फिर धारणा यह बनी कि जो ईश्वर को माने वह आस्तिक; जो ईश्वर को न माने वह नास्तिक। लेकिन तब बुद्ध और महावीर ने उस धारणा को तोड़ दिया, क्योंकि बुद्ध और महावीर के मुकाबले कौन आस्तिक! इन जैसा ज्यादा विधायक आस्तिक व्यक्ति कहां खोजोगे! इन्होंने फीके कर दिए तुम्हारे सारे महात्मा।
लेकिन अभी भी बात, परिभाषा वही चल रही है। मैं उस परिभाषा को फिर बदलना चाहता हूं। वक्त आ गया है कि अब वह परिभाषा काम नहीं पड़ेगी, क्योंकि उस परिभाषा में बुद्ध और महावीर बाहर छूट जाते हैं। मैं आस्तिक की परिभाषा करता हूं--वह, जिसकी जीवन दृष्टि विधायक है, नकारात्मक नहीं। जो जीवन को आलिंगन करने को राजी है--वह आस्तिक और जो जीवन से भागता है, भगोड़ा है, इनकार करता है, निषेध करता है--वह नास्तिक। पुराना संन्यास नास्तिक था। मैं जिस संन्यास की बात कर रहा हूं वह आस्तिक है।
लेकिन मेरा संन्यास निश्चित ही चुनौतीपूर्ण है। तुम्हें एक-एक बात सीखनी होगी, क्योंकि सदियों से तो छोड़ना सिखाया था, उसमें तो कुछ सीखने की जरूरत ही न थी। किसी बच्चे को अगर स्कूल छोड़ना सिखाया जाए, तो तो मामला बिलकुल आसान है, कौन बच्चा नहीं स्कूल छोड़ देना चाहता! चले जाओ किसी भी स्कूल में, बच्चों से पूछो कि हाथ उठा दो बच्चो, कौन-कौन स्कूल छोड़ना चाहता है? सब बच्चे हाथ उठा देंगे। ये सब पुराने अर्थों के संन्यासी समझो। शायद ही कोई एकाध बच्चा हो प्रतिभाशाली, जो कहे कि नहीं मैं स्कूल नहीं छोड़ना चाहता। जो स्कूल छोड़ कर जाना चाहते हैं, इनको तो कुछ भी न सीखना पड़ेगा। ये सीखने से बचने के लिए ही तो स्कूल छोड़ना चाहते हैं। सीखना ही होता तो स्कूल ही क्या बुरा था! सीखना जहां होता है उसी का नाम तो स्कूल है। और स्कूल में रहेंगे तो सीखना पड़ेगा। और उस सीखने से तो जान छुड़ाना चाहते हैं। गणित सीखो, भाषा सीखो, भूगोल सीखो, इतिहास सीखो, विज्ञान सीखो...सीखते ही रहो, सीखते ही रहो, कोई अंत नहीं सीखने का! इतना विस्तार है सीखने के लिए!
और स्कूल तो छोटी-मोटी बात है। यह तो केवल प्राथमिक शिक्षण है। विश्वविद्यालय भी प्राथमिक शिक्षा ही है। असली शिक्षा तो तब शुरू होती है जब तुम विश्वविद्यालय से उत्तीर्ण होकर जीवन में प्रवेश करते हो। तब कदम-कदम पर सीखना होता है--कैसे व्यक्तियों के साथ रहना, उठना-बैठना, कैसा जीवन-व्यवहार हो, कैसा शिष्टाचार हो, कैसा जीवन में प्रसाद हो, सौंदर्य हो, कैसे जीवन में आनंद हो, कैसे हम दुख के कांटे न बोएं और सुख के फूल बोएं, और कैसे हम प्रेम को बांट सकें, और लोगों को दुख न दें। क्योंकि जो दुख देगा वह दुख पाएगा। और जो प्रेम बांटेगा वह प्रेम पाएगा। यहां तो पल-पल सीखना है, मरते दम तक सीखना है, मरते-मरते सीखना है! आखिरी क्षण तक भी सीखने की प्रक्रिया बंद नहीं होती। तो इतना साहस हो सीखने का, तो मेरी परिभाषा तुम्हें स्वीकार हो सकती है कि जीवन को जीने की कला है संन्यास।
निर्मल, तुम संन्यासी हुए, तुमने एक दुस्साहस किया है। यह सस्ता काम नहीं है। अब तुम्हें एक-एक कदम होशपूर्वक रखना होगा। अब तुम्हें सोच-सोच कर जीना होगा। अब तुम वैसे नहीं जी सकते जैसे अब तक जीते थे। आमतौर से तो आदमी यूं जीते हैं कि कहो अपने से जीते ही नहीं, भीड़-भाड़ में जैसा और सब लोग करते हैं वे भी करते रहते हैं, नकल से जीते हैं। किसी ने नया मकान बनाया, बस वैसा ही मकान तुम्हें बनाना है, चाहे कर्ज लेना पड़े, चाहे कर्ज में दब जाना पड़े। किसी ने नये कपड़े पहने, वैसे ही कपड़े तुम्हें पहनने हैं।
रोटरी-क्लब में, लायंस-क्लब में लोग करते क्या हैं? यही देखने जाते हैं कि कौन क्या पहने हुए है। मंदिरों में स्त्रियां करती क्या हैं? एक-दूसरे की साड़ी का पोत देखती हैं। मंदिरों में जैसे मिलों का विज्ञापन चलता है! असल में मिलों को मंदिर बनाने चाहिए। बिड़ला होशियार आदमी थे, जो उन्होंने बिड़ला-मंदिर बनवाए। राज धर्म नहीं है बिड़ला-मंदिरों का। तुम लाख अखबारों में विज्ञापन दो, उसका कोई फायदा नहीं है। एक महिला को कपड़े पहना कर मंदिर पहुंचा दो, पर्याप्त, पूरे गांव में चर्चा हो जाएगी। सारी महिलाएं दीवानी हो जाएंगी। सारे पतियों के गले में फांसी लग जाएगी।
अमरीका की एक कंपनी जिन चीजों को बेचना चाहती, उनका विज्ञापन नहीं देती थी। लोगों का फोन नंबर और उनकी डायरेक्टरी में से देख कर उनका पता निकाल कर, उनके नाम व्यक्तिगत पत्र लिख देती थी। पत्र होता पति के नाम और पत्र के ऊपर लिखा होता--‘प्राइवेट, कृपा करके कोई और न खोले।’ स्वभावतः पत्नी खोलेगी ही। सुनिश्चित। इसकी गारंटी समझो। अन्यथा हो ही नहीं सकता। और उसके भीतर विज्ञापन, और कुछ भी नहीं। विज्ञापनदाता भी आते हैं, सेल्समैन भी आते हैं, तो जब पति दफ्तर चला जाता है। देखते रहते हैं कि कब पति दफ्तर निकले कि वे दरवाजे पर दस्तक दें, घंटी बजाएं। क्योंकि पत्नी को राजी करो, बस फिर सब ठीक है, फिर पति की क्या बिसात है? पत्नियां एक-दूसरे की साड़ियां देख-देख कर साड़ियां खरीदने पहुंच जाती हैं। यूं फैशन चलते हैं। लोग एक-दूसरे को देख-देख कर जी लेते हैं। यह कोई जीना नहीं है, यह नकल है।
अगर जीवन की कला सीखनी है तो तुम्हें नकल छोड़नी पड़ेगी। वह पहला कदम है। तुम्हें पहली दफा अपनी निजता पर ध्यान देना होगा--क्या मेरी जरूरत है, क्या मेरी आवश्यकता है? करीब-करीब नब्बे प्रतिशत काम तुम ऐसे कर रहे हो जो तुम न करो तो चल जाएगा, मगर उसमें तुम्हारी शक्ति व्यय हो रही है। वही शक्ति लगे तो जीवन का शिखर उपलब्ध हो। मगर वह शक्ति तो यूं क्षीण हो जाती है। सभी एक-दूसरे को देख कर जी रहे हैं। यह बहुत हैरानी की दुनिया है। यहां अपने निजी बोध से बहुत ही कम लोग जी रहे हैं। जो जी रहे हैं, वही सच्चे जी रहे हैं, बाकी तो सब मुर्दा हैं, लाशें हैं। उनकी जिंदगी में इतनी भी प्रतिभा नहीं है कि अपने लिए तय करें कि कैसे जीना है। सब दूसरे तय कर रहे हैं उनके लिए। विज्ञापनदाता तय कर देते हैं कि तुम कौन सा दंत-मंजन उपयोग करो, कौन सी साबुन उपयोग करो, कौन सी फिल्म देखो। सब दूसरे तय कर रहे हैं। तुम अपने मालिक ही नहीं हो।
और संन्यास अपनी मालकियत है।
तुम्हें शायद खयाल में भी नहीं आता होगा, क्योंकि तुम इस तरह अचेतन में जीते हो कि तुम्हें पता भी नहीं चलता, कि तुम जब जाते हो दुकान पर, जहां कि सब तरह की साबुनें सजी हैं और दुकानदार पूछता है कौन सी साबुन और तुम कहते हो: लक्स। तो तुम कभी सोचते भी नहीं कि तुम्हारे मुंह से लक्स क्यों निकला। तुम शायद यही सोचते होओगे कि यह तुम्हारा खुद का चुनाव है। यह तुम्हारा चुनाव नहीं है। वह जो अखबार में रोज ‘लक्स टायलेट साबुन’, फिल्म देखने जाओ तो लक्स टायलेट साबुन, रास्ते से निकलो तो बड़े-बड़े तख्ते लगे हुए हैं--लक्स टायलेट साबुन! जहां जाओ वहीं लक्स टायलेट साबुन। सुंदर-सुंदर अभिनेत्रियों के अखबार में फोटो छपते हैं। उनकी त्वचा इतनी कोमल क्यों है? लक्स टायलेट साबुन! बस, तुम्हें लक्स टायलेट साबुन शब्द पकड़ा। यह तुम्हारे भीतर बैठने लगा। यह तुम्हारे अचेतन में डूबने लगा। अब तुम्हें कोई नींद में भी पूछे अगर कि कौन सा साबुन, तो नींद में भी कहोगे--लक्स टायलेट साबुन! अब तुम्हें होश में बोलने की कोई जरूरत नहीं है। यह तुम्हारे अचेतन में चली गई बात। विज्ञापन की सारी कला यही है।
विज्ञापन की कला इसीलिए चलती है, क्योंकि आदमी नकलची है। बहुत से प्रयोग किए गए हैं इस बात पर। दस वैज्ञानिकों के वक्तव्य तय किए गए कि कौन सा साबुन शरीर के लिए वैज्ञानिक रूप से श्रेष्ठ है और दस अभिनेत्रियों के नाम तय किए गए सबसे रद्दी साबुन के लिए--और दोनों विज्ञापन दिए गए। विज्ञापन, जिसमें वैज्ञानिकों के नाम थे, वह साबुन तो बिका ही नहीं। विज्ञापन कोई वैज्ञानिकों के नाम से बिकता है! पहली तो बात यह है कि वैज्ञानिकों के नाम ही कोई नहीं जानता था, कि ये सज्जन कौन हैं! होंगे कोई ऐरे-गैरे-नत्थू-खैरे, इनसे लेना-देना क्या है! और ये बातें जो गिना रहे हैं कि इसमें इस तरह के केमिकल हैं और उस तरह के केमिकल हैं और इस तरह के जर्म मर जाते हैं और उस तरह के जर्म मर जाते हैं...जर्म मारना किसको है! केमिकल से प्रयोजन किसको है! लेकिन दस अभिनेत्रियां जो कह रही हैं कि उनके शरीर का सौंदर्य, यह बचपन का भोलापन जो उनका अभी भी कायम है, यह मखमली त्वचा, यह जो रेशम जैसा हाव-भाव, यह इसी साबुन की वजह से है!
मुल्ला नसरुद्दीन सौ साल का हो गया, तो मैंने उससे पूछा: नसरुद्दीन, तुम्हारे सौ साल तक जीने का राज क्या है?
उसने कहाः आप दो-तीन दिन ठहरें।
मैंने कहाः क्यों, दो-तीन दिन ठहर कर कैसे बता सकोगे? खोज-बीन में लगे हो?
उसने कहाः नहीं, खोज-बीन में नहीं। दो-तीन कंपनियों से बात चल रही है। जो कंपनी ज्यादा देगी, वही राज है। एक बिस्कुट कंपनी पीछे पड़ी है, एक बोर्नविटा वाले पीछे पड़े हैं, एक विटामिन बनाने वाली कंपनी पीछे पड़ी है। जो ज्यादा देगा। हालांकि मैंने तीनों में से कोई नहीं छुए जिंदगी में। छूने की जरूरत क्या है!
वे जो तुम चमकदार दांत देखते हो, हंसते हुए अभिनेत्रियों के, और बस एकदम दिल आ जाता है--बिनाका! शायद बिनाका कभी उन दांतों ने छुआ ही न हो। सच तो यह है कि जहां तक संभावना है वे दांत सच्चे हों ही न। अक्सर तो दांत वे नकली होंगे, बनावटी होंगे। पश्चिमी अभिनेत्रियों के दांत तुम्हें जितने सुंदर दिखाई पड़ेंगे उतने भारतीय अभिनेत्रियों के दांत सुंदर नहीं दिखाई पड़ेंगे। उसका कारण है कि पश्चिम में सारी अभिनेत्रियां अपने दांत बदलवा लेती हैं। प्राकृतिक दांत इतने सुंदर होते ही नहीं। प्राकृतिक दांत कुछ इरछे-तिरछे होंगे, कुछ छोटे-बड़े होंगे, कहीं रंध्र होगा, कहीं संध होगी। मगर जब प्लास्टिक के दांत कोई बनाता है, नकली दांत जब कोई बनाता है, तो फिर सुडौल, बिलकुल ही मोती जैसे! वे नकली दांत। वह हंसी भी नकली। वह फटा हुआ ओंठ--सिर्फ अभ्यास, और कुछ भी नहीं। न कोई भीतर हंसी आ रही है, न कुछ सवाल है। जैसे जिमी कार्टर का तुम देखते हो न चेहरा, एकदम दांत निकले हुए; बत्तीसों दांत गिन लेते शुरू-शुरू में, अब नहीं गिन सकते बत्तीसों। अभी-अभी तो बिलकुल बंद हो गए हैं। अब जब से तेहरान में उपद्रव हुआ है, तब से उनके दांत दिखाई नहीं पड़ते। नहीं तो शुरू-शुरू में बिलकुल दांत एकदम सब दिखाई पड़ते थे। वह अमरीका में बिलकुल जरूरी है। राजनेता को सफल होना हो तो उतने दांत दिखाई पड़ने चाहिए। और अभ्यास खूब किया होगा उन्होंने, क्योंकि चौबीस घंटे दांत खुले ही रखते हैं।
मैंने तो सुना है, एक रात...क्योंकि वे रात को भी नहीं बंद होते। जब अभ्यास मजबूत हो जाए तो नींद भी लग जाए, मगर वे दांत खुले ही रहते हैं। पत्नी को डर लगता होगा कि अब ये क्या कर रहे हैं। तो ऐसे तो वह बंद कर देती रात उनका मुंह, जैसे ही वे सोए उसने मुंह बंद किया। पर एक दिन भूल गई होगी। तो रात उसने डॉक्टर को फोन किया कि जल्दी आइए, एक चूहा उनके मुंह में घुस गया है। डॉक्टर ने कहा कि मुझे आने में फिर भी दस-पंद्रह मिनट लगेंगे, फासला इतना है, तब तक तुम ऐसा करो कि ची़ज का टुकड़ा मुंह के सामने लटका कर हिलाओ, शायद चूहा निकल आए। पंद्रह मिनट बाद जब डॉक्टर आया तो वह बहुत हैरान हुआ, पत्नी एक मरा हुआ चूहा कार्टर के मुंह के सामने हिला रही थी! उसने कहा: अरे यह तू क्या कर रही है बाई? मैंने कहा था चीज़ का टुकड़ा, यह तू मरा चूहा क्यों हिला रही है?
उसने कहा कि मुझे मालूम है, मगर उस चूहे के पीछे एक बिल्ली चली गई! तो पहले बिल्ली को निकाल रही हूं। एक दफा बिल्ली निकल आए तो फिर ची़ज का टुकड़ा, फिर उस चूहे को निकालें।
अभ्यास जब बहुत गहरा हो जाए तो ऐसे परिणाम होने शुरू होते हैं। लेकिन लोग नकल से जी रहे हैं। दांत, आंखें, चमड़ी, हर चीज नकल है। बाल...हर चीज नकल है। एकाध स्त्री को खोज लेते हैं, उसके बड़े बाल हैं और बस विज्ञापन शुरू! और तुम चले खरीदने तेल। इस तेल से तुम्हारे बाल भी ऐसे ही हो जाएंगे।
जिस व्यक्ति को अपने जीवन को कला बनानी है, पहली तो बात उसे नकल से मुक्त होना पड़ता है। उसे विचारपूर्वक, विवेकपूर्वक अपने जीवन का नियंता होना पड़ता है; अपने जीवन का मालिक बनना पड़ता है। दूसरों के हाथों में मालकियत देनी बंद करनी पड़ती है। वह संन्यासी का पहला कृत्य है कि वह अपनी मालकियत अपने हाथ में ले ले। वह कहे कि अब मैं अपने ढंग से जीऊंगा; भूल भी होगी तो कोई बात नहीं। भूल होगी तो उससे भी सीखूंगा। भूल होगी तो कुछ लाभ ही होगा, कुछ अनुभव होगा। मगर नकल नहीं करूंगा। दूसरे की नकल करके ठीक भी काम करो तो व्यर्थ है। अपने ढंग से जीकर भूल भी करो तो ठीक है, क्योंकि भूल-चूक कर के ही तो कोई व्यक्ति जीवन में सीखता है।
और फिर एक-एक बात पर विचार करना है। तुम क्रोध करते हो, वही क्रोध रोज करते चले जाते हो; कल भी किया था, परसों भी किया था, पिछले जन्म में भी करते रहे होओगे, आज भी कर रहे हो। पाया क्या? कभी कुछ पाया? बैठ कर कभी सोचोगे, कभी विमर्श करोगे, कभी पुनर्मूल्यांकन करोगे कि कितनी ऊर्जा तुम्हारी क्रोध में नष्ट होती है? यह क्रोध तुम्हें खाए जा रहा है, इससे बड़ी कोई बीमारी नहीं है। मगर तुम इस बीमारी को पोसते हो, पालते हो, इसको भोजन देते हो, इसको सम्हालते हो, दंड-बैठक लगा-लगा कर तैयारी करते
हो। और तुम्हें यह पता नहीं कि इससे ज्यादा तुम्हारा कोई शत्रु है? यह तुम अपने को ही जहर से भर रहे हो। अब तो वैज्ञानिक भी इस बात से राजी हैं कि जब तुम क्रोध से भर जाते हो, तब तुम्हारे खून में जहर छूट जाता है। तुम्हारे शरीर में जहर की ग्रंथियां हैं, जो तुम्हारे खून में जहर को छोड़ देती हैं। इसलिए तो आदमी क्रोध में ऐसे काम कर गुजरता है जो होश में कभी नहीं कर सकता था। और जब उसे होश लौटता है तो बहुत पछताता है; सोचता है--यह मैंने क्या किया, यह मैंने कैसे किया!
लोग अक्सर कहते सुने जाते हैं कि ‘मेरे बावजूद यह हो गया।’ तुम्हारे बावजूद हो गया! तो तुम कहां थे? तुम कहीं और चले गए थे? तुम्हारे बावजूद कितनी चीजें हो रही हैं, क्रोध हो रहा है, ईर्ष्या हो रही है, वैमनस्य हो रहा है, लोभ हो रहा है, काम हो रहा है, सब चल रहा है--तुम्हारे बिना! तुम्हारे बावजूद! तुम हो क्या? तुम्हारे होने की अर्थवत्ता क्या है? तुम अपने होने की घोषणा कब करोगे?
तो अगर तुम क्रोध पर विचार करोगे तो पाओगे यह तो निहायत मूढ़ता है। मैं क्रोध को पाप नहीं कहता, सिर्फ मूर्खता कहता हूं। पाप कहने से कुछ हल नहीं होता। पाप तो तुमसे सदियों से कहा गया है, मगर कुछ फर्क नहीं हुआ। मैं तो सिर्फ मूर्खता कहता हूं। तुम अगर थोड़े समझोगे, थोड़ा जगोगे, तो तुम पाओगे यही ऊर्जा जीवन को चमक दे सकती है।
तुम आकाश में बिजली को कौंधते देखते हो! वेद के समय में तुम्हारे तथाकथित ऋषि-मुनि इसी बिजली को देख कर कंप जाते थे, यज्ञ-हवन करने लगते थे--सोच कर कि इंद्र देवता नाराज हो रहे हैं, उन्होंने धुनष खींच लिया है। उन्होंने धनुष पर बाण चढ़ा दिया है, कि यह बिजली उनके धनुष की टंकार है। करो पूजा-पाठ! इंद्र देवता को राजी करो! अब कोई छोटा बच्चा भी नहीं डरता। अब सब बच्चे-बच्चे भी जानते हैं कि बिजली से इंद्र का क्या लेना-देना! इंद्र विदा ही हो गए। जो ऋषि-मुनियों के लिए इतने साक्षात मालूम होते थे कि जिनका चौबीस घंटा इंद्रदेवता के स्मरण में गुजरता था...जितनी ऋचाएं इंद्र के लिए वेदों में हैं उतनी किसी के लिए नहीं। बड़ी दहशत रही होगी। और एक झूठ की दहशत--और वह भी ऋषि-मुनियों को! क्या खाक ऋषि-मुनि रहे होंगे! अब हम जानते हैं कि बिजली में क्या है। अब तो बिजली हमारे घर में चाकर है। वही इंद्र देवता का धनुष, वही उनकी टंकार, वही उनके तीर बल्ब जला रहे हैं तुम्हारे घर में, चूल्हा जला रहे हैं, पंखा चला रहे हैं। इंद्र देवता से भी खूब सेवा ली! यह हुआ असली यज्ञ-हवन! वह भी क्या पागलपन था! मगर कुछ पागल अभी भी यज्ञ-हवन किए जाते हैं। वे कहते है: वर्षा नहीं हुई, यज्ञ-हवन करो। इंद्र देवता नाराज हैं।
कुछ लोग अभी भी समसामयिक नहीं हैं, वे पांच हजार साल पुरानी दुनिया में जी रहे हैं। संन्यासी को समसामयिक होना होता है। उसको आज के बोध से भरना चाहिए। वह भविष्य का नियंता है, निर्णायक है। उसके पीछे-पीछे भविष्य आएगा। वह सूर्योदय है। इसलिए मैंने गैरिक रंग चुना है; वह सुबह का रंग है, सूर्योदय का रंग है। वह वसंत का रंग है, फूलों का रंग है। वह खबर है कि अब बहुत फूल आने को हैं, कि अब सूरज उगने के करीब है। अब पक्षी गीत गाएंगे, अब फूल खिलेंगे, अब सूरज आकाश पर उठेगा। अंधेरे के दिन लद गए। अब हम जानते हैं कि बिजली से कुछ डरने की जरूरत नहीं। बटन दबाओ और बिजली हाजिर। बटन बंद कर दो, बिजली विदा हो गई। अब बिजली तुम्हारी चाकर है।
ठीक ऐसा ही भीतर भी हमारी ऊर्ंजाएं हैं--क्रोध की, काम की, लोभ की। इनसे डरने की जरूरत नहीं है। इनसे कंपने की जरूरत नहीं है। इनके साथ भी उतना ही वैज्ञानिक व्यवहार किया जा सकता है। और यह भी अगर हम वैज्ञानिक रूप से समझ लें तो ये भी हमारे भीतर रोशनी बन सकते हैं। इनसे भीतर का दीया जलेगा। इनसे भीतर शीतलता आएगी। इनसे भीतर के जीवन में झरने फूटेंगे।
संन्यासी का अर्थ है: वह पूरे जीवन को एक कच्चे अवसर की तरह लेता है। जैसे कि वह कच्चा है, अभी-अभी निकाला हुआ खदान से हीरा, अनगढ़, सिर्फ जौहरी ही पहचान सकते हैं, हर कोई नहीं। लेकिन जब उस पर छैनी चलेगी जौहरी की और जब वह उस पर धार रखेगा और उसको पहलू देगा और जब उसमें चमक आनी शुरू होगी, तब कोई अंधा भी पहचान लेगा, तब जौहरी होने की जरूरत न रहेगी। जब कोहिनूर पहली दफा मिला था गोलकुंडा में तो तीन साल एक किसान के घर में पड़ा रहा। किसान के बच्चे उससे खेलते रहे। आंगन में पड़ा रहता था। कोई भी चुरा ले जा सकता था। मगर किसी को पता ही नहीं था कि वह कोहिनूर है। वह तो संयोग की बात, एक जौहरी मेहमान हुआ और उसने कहा: पागलो, यह क्या कर रहे हो? इससे बड़ा हीरा मैंने नहीं देखा! तब उन्हें होश आया। तब वह हीरा बिका। जब अनगढ़ हालत में था तो आज जितना उसका वजन है, इससे तीन गुना ज्यादा वजन था। फिर उस पर काट-छांट की गई, वजन तो कम हो गया; जितना वजन कम हुआ उतना मूल्य बढ़ता चला गया। आज एक तिहाई ही बचा है अपने मूल वजन का। लेकिन आज करोड़ों गुनी कीमत है उसकी। आज उससे बड़ा कोई हीरा नहीं है दुनिया में।
तुम्हारे भीतर भी अनगढ़ हीरा है। अभी क्रोध की पर्त है, कामवासना की पर्त है, लोभ है, मोह है, न मालूम क्या-क्या जुड़ा है! इस सबको छांटना है, काटना है। मगर इस सबको काटने-छांटने के लिए दुश्मनी से नहीं चलेगा, बड़ा प्रीतिपूर्ण व्यवहार चाहिए, क्योंकि सिवाय प्रेम के कोई अपने को समझ नहीं पाता। अपने से प्रेम करो। अपने को समझने की कोशिश करो। तुम्हें इतनी ऊर्जा मिली है कि काश! तुम इस ऊर्जा के साथ मैत्री साध लो तो यही ऊर्जा सोपान बन जाएगी परमात्मा तक पहुंचाने का। अगर इससे दुश्मनी कर ली तो बस इसी में लड़-झगड़ कर मर जाओगे, नष्ट हो जाओगे।
संन्यास जीवन की कला है निर्मल, जीवन का त्याग नहीं।
तुम बहते जाना, बहते जाना, बहते जाना भाई!
तुम शीश उठा कर सरदी-गरमी सहते जाना भाई!
सब यहां कह रहे हैं रो-रो कर अपने दुख की बातें!
तुम हंस कर सब के सुख की बातें कहते जाना भाई!
भ्रम रहे यहां पर हैं बेसुध-से सूरज, चांद, सितारे,
गल रही बरफ, चल रही हवा, जल रहे यहां अंगारे,
है आना-जाना सत्य, और सब झूठ यहां पर भाई,
कब रुकने पाए झुकने वाले जीवन पर बेचारे?
तुम किस पर खुश हो गए और तुम बोलो किस पर रूठे?
जो कल वाले थे स्वप्न सुनहले आज पड़ चुके झूठे!
है यह कांटों की राह विवश-सा सबको चलते रहना,
जो स्वयं प्रगति बन जाए उसी के स्वप्न अपूर्व अनूठे!
तुम जो देते हो मानवता को आठों याम चुनौती,
तुम महल खजानों को जो अपनी समझे हुए बपौती!
तुम कल बन कर रजकण पैरों से ठुकराए जाओगे!
है कौन यहां पर ऐसा जो खा कर आया हो अमरौती?
यह रंग-बिरंगी उषा लिए है दुख की काली रातें,
हैं ग्रीष्म-काल की दाहक लपटों में रस की बरसातें!
यह बनना-मिटना अमिट काल के चल-चरणों का क्रम है,
छाया के चित्रों सदृश यहां हैं ये सुख-दुख की बातें!
रुकना है गति का नियम नहीं, तुम चलते जाना भाई,
बुझना प्राणों का नियम नहीं, तुम जलते जाना भाई!
हिम-खंड सदृश तुम निर्मल, शीतल, उज्ज्वल यश के भागी,
जमना आंसू का नियम नहीं, तुम गलते जाना भाई!
दूसरा प्रश्नः भगवान,
मैं मारवाड़ी हूं, क्या मैं भी मोक्ष पा सकता हूं?
प्रकाश! बात तो जरा कठिन है, मगर असंभव नहीं है। मारवाड़ी से पहले मुक्ति पानी होगी। मारवाड़ी ही रह कर मोक्ष तो नहीं पा सकते, इतना पक्का है। लेकिन उसमें कुछ चिंता की बात नहीं। कोई हिंदू रह कर मोक्ष नहीं पा सकता, कोई जैन रह कर मोक्ष नहीं पा सकता, कोई मुसलमान रह कर मोक्ष नहीं पा सकता। ये सब सीमाएं छोड़नी होती हैं। ये सब सीमाओं के पार जाना होता है।
और मारवाड़ी बड़ी कठोर सीमा है। तुम्हारे मन में यह चिंता पैदा हुई, यही बताती है बात कि तुम्हें भी लगता होगा कि मोक्ष और म्हारो देश मारवाड़, दोनों में तालमेल बैठेगा कि नहीं!
दो मारवाड़ी कंजूस एक-दूसरे के पड़ोसी थे। एक दिन सुबह दोनों मिले तो पहला बहुत उदास था। दूसरे ने उदासी का कारण पूछा, तो पहला बोला कि आज का दिन मेरे लिए बड़ा मनहूस दिन है। मेरे कंघे का एक दांत आज सुबह ही टूट गया है।
नुकसान के लिए मुझे भी गहरा दुख है--दूसरा बोला--पर इसके लिए इतना उदास होना तो उचित नहीं।
पहला बोलाः क्या बताऊं भाई, वह कंघे का आखिरी दांत था!
एक मारवाड़ी अपनी कंजूसी के लिए प्रसिद्ध था। एक अजनबी उसकी तारीफ सुन कर रात को उससे मिलने गया, दरवाजा खटखटाया। वह आदमी लालटेन ले कर आया और पूछा: क्या आप थोड़ी देर बैठेंगे?
आगंतुक बोलाः हां, आपकी बड़ी तारीफ सुनी है। कुछ देर बैठ कर देखना चाहता हूं।
उस कंजूस ने फौरन लालटेन को बुझा दिया। आगंतुक बोला: मैं समझ गया, आप फालतू तेल जलाना पसंद नहीं करते।
वह कंजूस बोला: वह तो ठीक है, परंतु अंधेरे में मैं धोती खोल कर रख देता हूं। इससे धोती का कपड़ा कम घिसता है।
तो जरा कठिन तो है, मगर घबड़ाओ मत। तोड़ लेंगे। आदमी हो, मारवाड़ी थोड़े ही। विशेषण को पकड़े हो तब तक, पकड़े हो, छोड़ दो तो गिर गया।
एक लंगोटी मात्र धारण किए हुए संन्यासी जी भाषण दे रहे थे। बेचारा चंदूलाल मारवाड़ी सुने जा रहा था। मगर उसे बार-बार झपकी आ जाती थी। बीच में ही भाषण रोक कर स्वामी जी ने गुस्से में कहा: चंदूलाल के बच्चे, तुम्हें ब्रह्मचर्चा की बातें समझ आ रही हैं या नहीं? सो-सो क्यों जाते हो, आदमी हो या पाजामा?
चंदूलाल मारवाड़ी ने चौंक कर आंखें खोलीं और कहा: आदमी ही होना चाहिए स्वामी जी, यदि पाजामा होता तो आपने कब का मुझे पहन लिया होता!
आदमी हो, कोई पाजामा थोड़े ही हो, इतने क्या घबड़ाने की बात है? मोक्ष भी संभव है, प्रकाश। यह धारणा छोड़ो। कैसा मारवाड़! क्यों छोटी-छोटी सीमाओं में अपने को बांधते हो? मगर हम सीमाओं के आदी हैं। हम सीमाओं में बड़ा रस लेते हैं। मारवाड़ छूटेगा तो भारतीय हो जाओगे एकदम। और तब भारत की अकड़ पकड़ लेगी। अकड़ में ही जकड़ है। तो एक जकड़ से छूटे, बड़ी जकड़ में पड़ गए। छोटी कैद से छूटे, बड़ी कैद में आ गए।
मुझे रोज पत्र आते हैं कि आपकी बातें भारतीय संस्कृति के अनुकूल नहीं हैं। तो तुमसे भई कहा किसने कि अनुकूल हैं? मैंने दावा कब किया? यह तुम कुछ मेरी आलोचना नहीं कर रहे हो। यही तो मेरी घोषणा है कि मेरी बातें जागतिक हैं, भारतीय से क्या लेना-देना? यह पृथ्वी कोई बंटी थोड़े ही है ऐसे खंडों में। ये खंड तो सब राजनीति के हैं। पृथ्वी अखंड है। मनुष्य अखंड है। भारतीय अकड़ पकड़ लेती है कि ‘यह तो पुण्य-भूमि है भारत, यहां देवता पैदा होने को तरसते हैं!’ होंगे कोई मूढ़ देवता, नहीं तो काहे को तरसेंगे यहां पैदा होने को? यहां क्या रखा है, जिसके लिए देवता यहां पैदा होने को तरसेंगे? मगर सारे देशों में इस तरह की धारणाएं होती हैं। सभी के अपने अहंकार होते हैं। और जहां अहंकार है, वहीं बंधन है। फिर अहंकार को तुम क्या नाम देते हो, इससे फर्क नहीं पड़ता। अगर मारवाड़ नाम दे दिया तो जरा छोटा; भारत नाम दे दिया, जरा बड़ा। हिंदू नाम दे दिया, थोड़ा और बड़ा, क्योंकि हिंदू मारिशस में भी रहते हैं और सिंगापुर में भी रहते हैं और कनाडा में भी रहते हैं और इंग्लैंड में भी रहते हैं। मगर जब अहंकार छोड़ना ही हो तो सारे विशेषण छोड़ देने चाहिए। आदमी होना काफी है। अंततः तो आदमी का विशेषण भी छोड़ देना है। तब चैतन्य होना मात्र काफी है, साक्षी होना मात्र काफी है। वही मोक्ष है। साक्षी बनो!
कोई मारवाड़ी थोड़े ही होता है, कोई हिंदू थोड़े ही होता है, कोई मुसलमान थोड़े ही होता है, कोई भारतीय थोड़े ही होता है, कोई पाकिस्तानी थोड़े ही होता है। कोई खून से बता सकता है कि यह मारवाड़ी का खून है, कि यह जैन का खून है, कि यह हिंदू का खून है? खून तो बस खून है, हड्डी तो बस हड्डी है। जरा मरघट पर जाकर हड्डियां छांटो और बताओ: कौन हड्डी किसकी है, हिंदू की कि मुसलमान की? और तुम मुश्किल में पड़ जाओगे। यह सब तो बातचीत है। इस बातचीत को इतना मूल्य न दो। यह तो कूड़ा-कर्कट है। इस सबको तो आग लगा देना है। मारवाड़ी को मारवाड़ी होने से छूटना है। बंगाली को बंगाली होने से छूटना है। बिहारी को बिहारी होने से छूटना है। भारतीय को भारतीय होने से छूटना है। जो जहां बंधा है, वहीं से छूटना है। फिर बंधन चाहे लोहे के हों, चाहे सोने के, इससे भी भेद नहीं पड़ता। बंधन से छूटना है। मोक्ष का अर्थ क्या होता है? सारे बंधनों से छूट जाना। और ध्यान रखना, बंधन तुम्हें नहीं पकड़े हुए हैं, तुम्हीं उन्हें पकड़े हुए हो।
एक आदमी शेख फरीद के पास आया। फरीद बड़ा मस्त आदमी था, बहुत अलमस्त फकीर था! पहुंचा हुआ सूफी था। उसके जवाब भी बड़े अनूठे होते थे। इस आदमी ने पूछा कि आप तो पहुंच गए, हमें भी कोई रास्ता बताएं, ये जंजीरों से हम कैसे छूटें? फरीद ने एक नजर उसे देखा, उठ कर खड़ा हो गया। पास में ही एक खंभा था, खंभे को जोर से पकड़ लिया और चिल्लाया बड़े जोर से कि बचाओ, बचाओ, मुझे खंभे से बचाओ! वह आदमी भी हैरान हुआ कि इसको क्या हो गया! वह भी उठ कर खड़ा हो गया घबड़ाहट में। उसने कहा: आपको हो क्या गया अचानक? भले-चंगे बैठे थे। मैंने प्रश्न क्या पूछा, आप एकदम पगला गए! मगर वह सुने ही न, फरीद एकदम चिल्लाता ही गया। मोहल्ले के लोग आ गए। सब खड़े भौचक्के से कि करना क्या! यह भी क्या गजब की बात कह रहा है: खंभे से छुड़ाओ! पकड़े है खुद ही खंभे को।
वह आदमी बोला: आप भी क्या मजाक कर रहे हैं! आप खुद खंभे को पकड़े हैं।
फरीद ने कहा: तो, तो फिर आदमी मूढ़ नहीं है तू। तो फिर क्या प्रश्न पूछता है? वे जंजीरें तुझे पकड़े हुए हैं? कौन सी जंजीर तुझे पकड़े हुए है? बता तो मैं छुड़ा दूं। तू खुद जंजीरों को पकड़े हुए है।
लोग अकड़े हुए हैं अपनी जंजीरों पर। लोग इसको अपना अहंकार का आभूषण समझते हैं। छोटे-मोटे लोग भी नहीं, सब छोटे-बड़े एक जैसे हैं। अभी मार्गरेट थैचर ने, इंग्लैंड की प्रधानमंत्री ने कुछ दिन पहले कहा कि ‘मैं परम गौरवान्वित अनुभव करती हूं कि मैं ब्रिटिश हूं। ब्रिटिश होना गौरव की बात है।’ क्यों ब्रिटिश होना क्या गौरव की बात है? इसमें ऐसी कौन सी खास खूबी है। लेकिन यही सबका मामला है। भारतीयों को भी यही अकड़ है कि हम भारतीय हैं। यह बड़े गौरव की बात है! हमारे यहां बुद्ध हुए, महावीर हुए, कृष्ण हुए--बड़े गौरव की बात है! सो तुम्हारा क्या बिगाड़ लिया उन्होंने, हुए तो हुए? तुम तो जैसे हो वैसे के वैसे। तुम तो अछूते के अछूते रहे। तुम तो जल में कमलवत! तुम्हारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। होते रहो बुद्ध, महावीर, कृष्ण, आओ, जाओ, तुम्हारा कोई बाल बांका कर ले! तुम्हें कोई हिला दे, तुम हिलते नहीं! अरे, तुम बिलकुल अडिग चट्टान हो!
सभी को यही अकड़ है। सारी दुनिया में हर जाति को, हर कौम को। यह अकड़ तुम ही पकड़े हो। छोड़ दो। और कम से कम मारवाड़ी होने की अकड़ तो अकड़ जैसी भी नहीं, कि किसी से बताओ तो भी झेंप लगे कि मारवाड़ी हूं!
ऐसी कुछ जगहें हैं, जैसे पंजाब में एक गांव है, होशियारपुर। कभी होशियारपुर के आदमी से पूछ लो कहां रहते हो, एकदम गुस्सा हो जाता है कि तुम्हें क्या मतलब जी? समझ लेना कि होशियारपुर रहता है। क्योंकि यह खयाल है कि होशियारपुर में बुद्धू रहते हैं। तो होशियारपुर वाले से अगर तुमने पूछ लिया ट्रेन में कि भैया कहां रहते हो, वह एकदम गरम हो जाता है कि तुम्हें मतलब, कहीं रहें? तुम्हारा क्या बिगाड़ा हमने? तुम हो कौन जी पूछने वाले? समझ लेना कि अच्छा समझ गए कि तुम होशियारपुर रहते हो।
कहते हैं, अकबर के जमाने में ऐसा हुआ कि होशियारपुर के लोगों को बहुत दुख पहुंचता था इस बात से कि वे अपने गांव का नाम तक नहीं बता सकते। कि जिससे कहो वही हंसने लगता कि अच्छा, होशियारपुर! इस नाम ने ही बदनामी करवा दी होगी। यह नाम ही खराब है--होशियारपुर। अब तुम खुद ही अपने को होशियार कहोगे तो लोग हंसेंगे--अपने मुंह मियां मिट्ठू! तो कोई भी हंसेगा। इसी से लोग बुद्धू समझने लगे होंगे कि इनको इतनी भी अक्ल नहीं कि अपने मुंह से अपने को होशियार नहीं कहना चाहिए। अकबर के पास होशियारपुर का एक प्रतिनिधि-मंडल मिलने गया। उसने अकबर से कहा: कुछ करना होगा। हम मूर्ख नहीं हैं, मगर हमारी ऐसी बदनामी हो गई है। यह जालसाजी है। आप चाहें जांच करवा लें।
अकबर ने कहा कि ठीक है। उसने वजीर भेजे। होशियारपुर के लोगों ने बड़ा स्वागत किया उनका, दिल खुश कर दिया उनका। वजीर भी बाग बाग हो गए कि कौन कहता है इनको कि ये मूरख हैं, ये तो बड़े अच्छे लोग हैं, बड़े प्यारे लोग हैं! बहुत लोग देखे हमने, दिल्ली में भी ऐसे प्यारे लोग नहीं हैं। क्योंकि वे तो बिलकुल ही तैयारी से थे, कहीं कचरा नहीं, कूड़ा नहीं सड़कों पर, सब साफ-सुथरा! दीवालें सजाई गई थीं, मकान सजाए गए थे, दीये जलाए गए थे। और हर आदमी सावचेत था कि कोई भूल-चूक न हो जाए। तीन दिन वजीर और उनके साथी रहे, उनका खूब स्वागत-सत्कार हुआ, खूब मालाएं पहनाई गईं, खूब सम्मान किया गया! भोज दिए गए। जब उनको विदा करके सब लोग लौटे तो लौट कर लोगों ने पूछा कि भई, कोई भूल-चूक तो नहीं हुई अपने से? तब एक ने कहा कि भैया, एक भूल हो गई है, आज ही हुई है, कि दाल में जीरा डालना भूल गए। बात तो जरा सी है मगर कहीं वे यह न सोचें कि इन बद्धुओं को अभी यह भी पता नहीं कि दाल में जीरा डाला जाता है!
अरे, उन्होंने कहा: तुम घबड़ाओ मत! गांव भर में जितना जीरा है, इकट्ठा करो, लादो बैलगाड़ियों पर! भागे दो घुड़सवार। वजीरों को रोका कि आप रुकिए, एक-दो मिनट रुकिए। आप बिलकुल नाराज न होइए।
उन्होंने कहा: भाई हम नाराज हैं ही नहीं, हम बड़े खुश जा रहे हैं।
इन्होंने कहा: आप शांत तो रहिए, आप रुकिए, हम अभी सिद्ध करते हैं।
और बैलगाड़ियों पर बैलगाड़ियां चली आ रही हैं--जीरे से लदी हुई! वजीरों ने कहा: मामला क्या है?
कहा: यह जीरा है जी! आप यह मत समझना कि हमारे यहां जीरा नहीं होता, कि हम जीरा खाना नहीं जानते। वह तो भूल हो गई, रसोइए की भूल थी, उस कारण हमको बुद्धू मत समझ लेना। प्रमाण-स्वरूप यह जीरा हम आपके साथ भेज रहे हैं।
वजीरों ने कहा कि ये बुद्धू ही हैं! तब से मामला बिलकुल सुनिश्चित ही हो गया।
तो मारवाड़ी होने से तो छुटकारा बिलकुल आसान है। सबसे सरल रास्ता तो यह है, प्रकाश--संन्यासी हो जाओ। जैसे अब सोहन बैठी है--यह सामने ही हमारे मारवाड़ी बैठी है। मगर थी मारवाड़ी, अब नहीं है। अब संन्यासी है, अब कैसी मारवाड़ी!
जब भी मैं मारवाड़ियों के संबंध में कुछ कहता हूं, लोग उसके पास पहुंच जाते हैं कि क्यों सोहन? सोहन कहती है: हम संन्यासी हैं! मारवाड़ी थे पहले, वह बात खतम हो गई। संन्यास पुनर्जन्म है।
तो पहले तो तुम मारवाड़ी होने से छुटकारा पा जाओ। और ऐसे पाते रहे छुटकारा, पाते रहे छुटकारा, एक-एक एक-एक चीजें तोड़ते चले गए, तो मोक्ष कुछ दूर नहीं।
मोक्ष का कुल अर्थ इतना ही होता है: हम पर कोई विशेषण न रह जाएं। हम विशेषण-शून्य हो जाएं, क्योंकि परमात्मा विशेषण-शून्य है। निर्गुण है। हम भी निर्गुण हो जाएं। हम निर्गुण हो सकते हैं। वह हमारा स्वभाव है।
मोक्ष कुछ उपलब्धि नहीं है--अपने स्वभाव का आविष्कार है।
तीसरा प्रश्नः भगवान,
क्या मैं अगले जनम में गधे के रूप में पैदा हो सकता हूं?
संत महाराज! नहीं भाई, हर जन्म में वही रूप नहीं मिलता!...और एक जन्म से तुम तृप्त नहीं हुए हो?
तुमको मैंने ‘संत महाराज’ नाम क्यों दिया है? इसलिए कि भैया, अब बस करो! जब तुम आए थे तो मैंने गौर से देखा--नाम तुम्हारा सोचने लगा, तो जो नाम मुझे आया याद वह था--अंट-शंट महाराज! मगर मैंने कहा, वह तो जरा जंचेगा नहीं, सो मैंने कहा ‘अंट’ तो काट दो इसमें से, ‘शंट’ रहने दो। मगर शंट भी जरा जंचता नहीं, क्योंकि लोग पूछेंगे कि शंट का मतलब क्या! उसमें अंट की याद आ जाए! सो मैंने कहा ‘संत’ कर दो इसको जरा, सो बिलकुल अंट से छुटकारा हो जाए। इसलिए तुमको ‘संत महाराज’ नाम दिया।
वैसे अंट-शंट बना भी संतों के कारण ही। अंट-शंट का मतलब होता है: अरे, क्या संतों जैसी बात कर रहे हो! जब कोई आदमी अंट-शंट बोलने लगता है, तो लोग कहते हैः क्या संतों जैसी बात कर रहे हो! क्या अंट-शंट बक रहे हो! अंट-शंट का मतलब ही यही होता है कि अरे आदमी जैसी बात करो संतो जैसी नहीं। संतों की तो आदत ही अंट-शंट है।
ऐसा ही अंग्रेजी में शब्द है एक--‘जिबरिश।’ जिबरिश का मतलब भी अंट-शंट होता है। और वह भी बना एक सूफी फकीर ‘जब्बार’ के नाम पर। क्योंकि वह जो बकता था, वह किसी की समझ में नहीं आता था, वह क्या कह रहा है। ज्ञान की ऐसी बातें करे, ऐसी उलांचे भरे! कहते हैं न, अंधे को अंधेरे में बड़ी दूर की सूझी! किसी की समझ में ही नहीं आए कि वे क्या कह रहे हैं! तो जब्बार के नाम से अंग्रेजी का शब्द बना जिबरिश, कि क्या जब्बार जैसी बातें कर रहे हो! मगर वह आदमी प्यारा था।
शब्द कई दफा बड़े अदभुत ढंग से बनते हैं। अंट-शंट भी ऐसा ही शब्द है। अब जैसे कि तुम अगर कबीर को सुनते तो तुमको कई बार लगता कि अंट-शंट बक रहे हैं। कबीर के कई वचनों को ‘उलटबांसी’ कहा जाता है। उलटबांसी का अर्थ होता है--जो तुम्हारी समझ में न आएं। और कबीर कहते हैं कि बहुत अचंभा हुआ मुझे--‘नदिया देखी आगि।’ नदिया लागी आगि! अब नदी में कहीं आग लगती है? मगर कबीर कहते हैं कि मैंने नदी में आग लगी देखी, मुझे बड़ा अचंभा हुआ। अब तुम क्या कहोगे? कहोगे न कि अंट-शंट? हालांकि वे बात पते की कह रहे हैं, मगर वे बड़े ऐसे पते की कह रहे हैं कि जिनको पते की हो पता, वे ही समझेंगे; बाकी तो समझेंगे कि भैया...या तो अंटी चढ़ा गए, भांग खा गए, ज्यादा पी गए, सन्निपात में आ गए, कुछ का कुछ बोल रहे हैं! ‘एक अचंभा मैंने देखा, नदिया लागी आगि।’ किसने कब देखा कि नदिया में आग लगी है?
मगर कबीर बड़े पते की बात कह रहे हैं। वे यह कह रहे हैं कि आदमी के साथ करीब-करीब ऐसी ही घटना घट गई है, जैसे नदी में आग नहीं लगनी चाहिए, नहीं लग सकती--पानी में कहीं आग लग सकती है--और आदमी दुखी है! और आदमी का स्वभाव आनंद है। यह उससे भी बड़ी अदभुत बात हुई जा रही है, कि स्वभाव आनंद है और आदमी दुखी है। यह तो पानी में आग लग जाए, ऐसी बात हो गई। इस बात को कहने के लिए वे उस उलटबांसी को कहे। मगर तुम समझोगे तो, नहीं तो बात तो अंट-शंट लगेगी।
कबीर के बहुत से वचन उलटबांसी हैं। बहुत से संतों के वचन ऐसे हैं कि तुम समझ ही नहीं पाओगे। इसलिए उनकी वाणी को अंट-शंट कहने लगे लोग। सधुक्कड़ी कहने लगे उनकी भाषा को। कभी-कभी शब्द बड़े अदभुत रास्ते से आते हैं। हमारे पास एक शब्द है: ‘नंगा-लुच्चा।’ वह पहली दफा महावीर के लिए उपयोग किया गया था। अब तुम सोच भी नहीं सकते कभी कल्पना में कि महावीर के लिए और ‘नंगा-लुच्चा’ शब्द का उपयोग।
एक सज्जन मेरे पास आए। उन्होंने कहा कि मैं मुनि विद्यानंद से मिलने गया था। आपका नाम लिया, लिख कर चिट्ठी दी कि आपका क्या विचार है उनके संबंध में। तो उन्होंने चिट्ठी फाड़ कर फेंक दी गुस्से में। जवाब देना तो दूर, मेरी तरफ देखा ही नहीं। और दूसरों से बातें करने लगे। और जब मैं चला आया तब मेरे संबंध में पूछताछ की कि यह कौन आदमी है।
तो मैंने उनसे कहा कि तुम भी कहां नंगे-लुच्चों के पास गए! वे बोले: अरे, आप क्या कहते हैं! नंगे-लुच्चों के पास!
मैंने कहा कि हां, यह महावीर के लिए पहली दफा उपयोग हुआ था। नंगे रहते थे महावीर और बाल लोंचते थे, सो लोग कहने लगे नंगे-लुच्चे। बाल काटते नहीं थे, लोंचते थे। और नंगे रहते थे। शब्द तो ठीक बना नंगे-लुच्चे।
‘बुद्धू’ शब्द पहली दफा बुद्ध से बना, क्योंकि जब बुद्ध ने घर छोड़ दिया और जंगल में बैठ रहे तो अनेक लोग कहने लगे कि यह भी क्या बुद्धूपन है! और जो उनकी बात मान कर जाने लगे छोड़-छोड़ कर, लोगों ने कहा: यह भी हद हो गई! अरे, क्यों उस बुद्धू के पीछे पड़े हो, तुम भी बुद्धू हुए जा रहे हो? तब से बात पकड़ गई। तब से अब कोई भी आदमी ऐसे कुछ काम करे तो लोग कहते हैं: क्यों भैया, क्यों बुद्धूपन कर रहे हो! लेकिन आया शब्द बड़े अच्छे स्रोत से है, गंगोत्री से आया है।
ऐसे ही अंट-शंट है, संत महाराज! अब तुम्हें भी क्या सूझी! अगले जन्म में भी गधा ही होना है! अरे, एक जन्म का अनुभव काफी है। पहली तो बात, कुछ भी न होओ ऐसी कोशिश करो। और कुछ होना ही हो--खच्चर, घोड़ा, कुछ भी--मगर गधा! कुछ तो ऊपर उठो! कुछ तो गति करो! कुछ तो सीढ़ी चढ़ो!
अवसर न गंवाओ। चाहो तो कुछ ऐसी घड़ी आ सकती है कि कुछ भी न होना पड़े। होना तो यही चाहिए कि अगला जन्म ही न हो, क्योंकि जन्म से जो मुक्त हुआ, वह मृत्यु से मुक्त हुआ। जन्म और मृत्यु से जो मुक्त हुआ, वह परम जीवन को उपलब्ध हुआ। उस दशा को मोक्ष कहें, या निर्वाण कहें, या ब्रह्म-साक्षात्कार कहें।
आखिरी प्रश्नः भगवान,
यह मौसम चुनाव का है। क्या एकाध लतीफा राजनेताओं के संबंध में न सुनाएंगे?
राज भारती!
बहुत दिनों के बाद
उनसे मिलने, उनके घर आया
उन्होंने ड्राइंगरूम में बिठाया।
चाय पिलाई, नाश्ता कराया।
तपाक से मिले,
हाथ मेरे चरणों की तरफ बढ़ाया।
मैं चकराया,
जो आदमी तीन-तीन घंटे इंतजार कराता था,
बड़े नखरों के बाद बाहर आता था
आज वही सज्जन
मेरे पैरों को पकड़ रहे हैं?
उनके चपरासी ने रहस्य खोला,
‘आपको शायद मालूम नहीं है
हमारे मालिक चुनाव लड़ रहे हैं।’
मौसम तो है। और लतीफा सच्चा भी और झूठा भी। राज समझोगे इसका राज भारती, तो सच्चा। यूं झूठा।
एक बार शहर के माननीय नेता श्री जग्गू भैया को एक डेरी फार्म के उदघाटन के लिए बुलवाया गया। जग्गू भैया तो उदघाटनों के लिए एकदम उतावले ही रहते थे, पहुंच गए अपना खादी का धोती-कुर्ता और टोपी इत्यादि लगा कर। गए और निकाल ली अपनी कैंची और बोले कि बताओ, कहां है रिबन? डेरी फार्म के व्यवस्थापकों ने कहा कि महोदय, यह डेरी फार्म का उदघाटन है, यहां कैंची की जरूरत नहीं। इसका उदघाटन इस तरह होगा। यह जो बछड़ा यहां बंधा है, इसे आप इसके खूंटे से खोलेंगे और यह अपनी मां की ओर जाएगा।
जग्गू भैया ने जल्दी से उस बछड़े को खोला। बछड़ा काफी देर से बंधा हुआ घबड़ा गया था, अतः तेजी से भागा और जग्गू भैया की टांगों के बीच से उन्हें चारों खाने चित्त करता हुआ अपनी मां के पास जा पहुंचा। फोटोग्राफर ने जल्दी से इस सुंदर दृश्य को अपने कैमरे में कैद कर लिया। इसके बाद श्री जग्गू भैया के और भी चित्र उतारे गए। एक चित्र डेरी फार्म की सर्वश्रेष्ठ एवं सुंदर भैंस के साथ था। एक चित्र उनका उनकी पत्नी के सहित खींचा गया। कुछ एकल चित्र भी उतारे गए। कुछ चित्र डेरी फार्म के मजबूत और स्वस्थ सांड के भी उतारे गए। दूसरे दिन उतावले जग्गू भैया ने अखबार बुलाए, क्योंकि वे जानते थे कि मुखपृष्ठों पर उनके फोटो छपे होंगे। फोटो तो थे, मुखपृष्ठ पर ही थे, मगर उनके शीर्षक कुछ इस प्रकार थे।
पहले चित्र में जग्गू भैया चारों खाने चित्त डले थे। चित्र के नीचे लिखा था: ‘डेरी फार्म का उदघाटन करते माननीय श्री जग्गू भैया।’
दूसरे चित्र में जग्गू भैया अपनी पत्नी के साथ खड़े मुस्कुरा रहे थे, लिखा था: ‘श्री जग्गू भैया, डेरी फार्म की सर्वश्रेष्ठ और सुंदर भैंस के साथ।’
तीसरे चित्र में श्री जग्गू भैया एक भैंस के गले में हाथ डाले उसे आलिंगनबद्ध किए थे। चित्र का शीर्षक था: ‘माननीय श्री जग्गू भैया, अपनी प्यारी पत्नी के साथ।’
यह सब देख जग्गू भैया क्रोध से जलभुन गए और अपने ड्राइवर को बुला कर कहा: इसी समय गाड़ी निकालो और संपादक के यहां चलो। यह क्या बेहूदगी है!
ड्राइवर बोला: जनाब, वह तो कुछ भी नहीं, जरा यह समाचार-पत्र और देखिए। यह कहते हुए उसने अपनी जेब से एक दूसरा अखबार निकाला और उनके सामने रख दिया। उसके मुखपृष्ठ पर ही जग्गू भैया के चित्र खींसे निपोरे छपे हुए थे। शीर्षक था: ‘हमारे डेरी फार्म का मशहूर सांड!’
पास ही एक चित्र था जिसमें एक काला भुजंग सांड खड़ा था, उसके नीचे शीर्षक था: ‘माननीय श्री जग्गू भैया!’
मौसम तो अभी खराब है। जरा सोच-समझ कर कदम रखना, क्योंकि सभी खींसे निपोरे द्वार पर आ खड़े हो जाएंगे। जरा बुद्धि से काम लेना। जरा विवेक से काम लेना, क्योंकि फिर पांच साल के लिए कोई तुम्हें पूछता नहीं। तो पांच साल के लिए जिन्हें भी तुम सत्ता देते हो, काफी सोच कर देना।
अभी इस देश की जनता एकदम अबोध है। इसे कोई भी मूढ़ बना लेता है। इसे कोई भी खींसे निपोर कर राजी कर लेता है। इसे किसी भी तरह के झूठे आश्वासन दे कर भरमाया जा सकता है।
इस देश की जनता को थोड़ा सजग होना जरूरी है। नहीं तो हम यूं ही जंगलों में भटकते रहेंगे। ये तीस-पैंतीस साल यूं ही जंगलों में भटकते हुए गुजर गए। और अगर जल्दी कुछ नहीं होता तो हम मृत्यु के कगार पर पहुंच रहे हैं। जल्दी ही हमारी आबादी एक अरब हो जाएगी। न भोजन होगा, न वस्त्र होगा, न रहने का स्थान होगा, न काम होगा। ऐसी दुर्दशा भारत ने कभी भी नहीं देखी थी अतीत में जैसी कि देखनी पड़ सकती है। यह सब बदला जा सकता है। इस सबके होने की कोई अपरिहार्यता नहीं है। मगर जैसे मूढ़ों को हम चुनाव में समर्थन दे देते हैं, उससे यह संभावना नहीं दिखाई पड़ती।
चुनाव में तुम्हारे कारण ही हमेशा गलत होते हैं। मुसलमान मुसलमान को वोट देते हैं, हरिजन हरिजन को वोट देते हैं। यह भी कोई बात हुई? क्षत्रिय क्षत्रिय को वोट देंगे, कलार कलार को वोट देंगे। इस देश में जैसे हमारे पास सोचने-समझने का और कोई मापदंड ही नहीं है! जात-पात! महाराष्ट्रियन महाराष्ट्रियन को वोट देंगे, गुजराती गुजराती को वोट देंगे। जैसे ये कोई निर्णायक बातें हैं! किसको तुम मत देते हो? और तुम यह भी नहीं देखते कि जो आश्वासन तुम्हें दिए जा रहे हैं, वे आश्वासन तुम्हें कितनी बार दिए गए और कभी पूरे नहीं हुए! तो तुम उन आश्वासनों की व्यावहारिकता को भी तो देखो कि वे पूरे किए भी जा सकते हैं या नहीं। कुछ तो आश्वासन हैं जो पूरे किए नहीं जा सकते, सिर्फ देने के होते हैं। और तुम उन्हीं आश्वासनों में आ जाते हो।
और मजा यह है कि तुम अपनी बंधी हुई लकीरों, लीकों को पीटे चले जाते हो और उन्हीं के अनुकूल तुम मत देते हो। यह इस देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। उन्हीं को मिटाना है, उन्हीं के कारण हमारा रोग है, उन्हीं के कारण हम परेशान हैं। वे ही धारणाएं। अब जैसे जो व्यक्ति कहेगा कि इस देश में हम अनिवार्य संतति-नियमन लाएंगे, उसको कोई वोट नहीं दे सकता। उसकी हार सुनिश्चित है, हालांकि वही आदमी है जो इस देश में कुछ कर सकता है। मगर जो तुमको कहेगा कि संतति-नियमन की क्या जरूरत है, अरे ऋषि-मुनियों का देश है यह, ब्रह्मचर्य से काम चलांएगे--बस तुम्हारे दिल एकदम बाग-बाग हो जाते हैं!
मुल्ला नसरुद्दीन कहता है...बाग-बाग का उसने अनुवाद कर लिया है--अंग्रेजी में, कहता है--गार्डन-गार्डन! तुम्हारा दिल एकदम गार्डन-गार्डन हो जाता है। कोई मूढ़तापूर्ण बात तुमसे कही जाए, बस तुम प्रसन्न हो जाते हो। ऋषि-मुनियों का देश है! यहां संतति-नियमन की क्या जरूरत है? और अनिवार्य संतति-नियमन, बर्दाश्त नहीं किया जा सकता! हमें तो छूट है बच्चे पैदा करने की। और जब परमात्मा देने वाला है तो तुम कौन हो रोकने वाले!
परमात्मा देने वाला है, मगर वह साथ जमीन नहीं भेजता, न फैक्ट्री भेजता। आदमी भेजता चला जाता है। और जब भुखमरी बढ़ती है तो तुम परमात्मा को कहां खोजोगे? उससे तो उत्तर मांग नहीं सकते, जवाब-तलब कर नहीं सकते। अगर मुसलमानों से कहा जाए कि तुम चार-चार पत्नियां नहीं रख सकते, तो खतरा है, तो कोई वोट नहीं मिलेगा। धर्म का विरोध हो गया! अब एक आदमी अगर चार पत्नियां रखे तो यह खतरनाक बात है, यह अमानवीय बात है। एक ही पत्नी से तो इतने बच्चे तुम पैदा कर रहे हो, चार-चार से तो तुम बड़ा उपद्रव मचा दोगे। मगर मुसलमानों का अगर वोट चाहिए तो तुम्हें स्वीकार करना पड़ेगा कि वे चार पत्नियां रखें, ठीक, बिलकुल ठीक!
हिंदुओं के अगर वोट चाहिए तो तुम्हें कहना पड़ेगा कि ब्रह्मचर्य की बड़ी ऊंची बात है। न तुम्हारे देवी-देवता ब्रह्मचर्य साधते हैं, तुम्हारे ऋषि-मुनि भी सब संदिग्ध। औरों की तो तुम बात छोड़ दो, तुम पुराणों को उठा कर देखो! ब्रह्मा ने पृथ्वी को बनाया और जब पहली दफा पृथ्वी को बनाया तो पृथ्वी एक स्त्री थी। स्त्री के रूप में बनाया। और जब ब्रह्मा ने बनाया तो जिसे बनाया था वह उसकी बेटी, ब्रह्मा पिता। मगर ब्रह्मा उसी पर मोहित हो गए। ये तो तुम्हारे ब्रह्मा के हाल हैं। तुम क्या खाक ब्रह्मचर्य साधोगे! ब्र्रह्मा तक से नहीं सधता, जिनके नाम पर ब्रह्मचर्य शब्द बना है, उनसे तक नही सध रहा! वे अपनी बेटी पर ही मोहित हो गए और एकदम उसका पीछा करने लगे। बेटी घबड़ाई, वह गाय बन गई, तो ब्रह्मा फौरन सांड बन गए--या जग्गू भैया, जैसा तुम समझो! वह भाग-भाग कर बचने लगी। वह भैंस बन गई तो वे भैंसा बन गए। मगर पीछा करते गए। ऐसे पूरी सृष्टि का विस्तार हुआ। वह स्त्री भागती ही चली गई, बचती ही चली गई, नये-नये रूप लेती चली गई। मगर ऐसे ब्रह्मा को धोखा देना आसान नहीं था, वे भी नया-नया रूप लेते चले गए।
तुम जरा अपने देवी-देवताओं की कथा तो पढ़ कर देखो! और तुमसे ब्रह्मचर्य की बात कही जाती है। महात्मा गांधी ब्रह्मचर्य समझाते रहे, तुम्हें खूब जंचता था। खुद पांच बच्चे पैदा कर गए, फिर ब्रह्मचर्य की बात करने लगे। तुम्हें बात जंचती है बहुत कि बिलकुल ठीक है। तुम्हारे शास्त्र के अनुकूल कुछ भी कह दे कोई, तुम्हारी धारणा के अनुकूल कोई कुछ कह दे, बस तुम्हें बात जंच जाती है।
और अब जरूरत आ गई है कि तुम्हारी सारी धारणाएं तोड़नी पड़ेंगी, तो ही इस देश का कोई भाग्य रूपांतरित हो सकता है। और जब चुनाव का मौसम हो तभी अवसर होता है रूपांतरण का। तब तुम्हें सजग होना चाहिए। तब तुम्हें जागरूक होना चाहिए। मैं नहीं कहता किसको तुम चुनो। मेरी कोई उत्सुकता नहीं किसी में। लेकिन इतना मैं जरूर कहता हूं कि तुम विवेक से चुनो, होश से चुनो, सावधानीपूर्वक चुनो। और हिम्मत कर के उनको चुनो, जो रूढ़िवादी न हों, रूढ़िग्रस्त न हों और जो अतीत से मुक्त होने में तुम्हारा सहयोग दे सकें और जो देश को एक नया जीवन, और एक नया भविष्य देने में समर्थ हैं।
यह हो सकता है, मगर तुम होने दोगे तो ही हो सकता है। अगर तुम्हीं विपरीत हो और तुम्हारे ही वोट पर लोगों को निर्भर रहना है तो उनको तुम्हें देख कर चलना पड़ता है कि तुम जो कहो वही ठीक। नहीं तो पांच साल बाद तुम बदला लेते हो। और फिर पांच साल बाद कोई नहीं हारना चाहता। जो एक बार कुर्सी पर बैठ गया, वह सदा बैठा रहना चाहता है। इतनी हिम्मत भी किसी में भी नहीं है कि अपनी धारणाओं पर, अपनी नई धारणाओं पर बलिदान कर दे--पद का, प्रतिष्ठा का। वह भी हिम्मत किसी में भी नहीं है। और तुम अपनी धारणाओं से ऐसे चिपके हो कि तुम पुनर्विचार ही नहीं करते।
सोचो, खूब सोचो। ये क्षण सोचने के हैं। और इन्हीं सोचने के आधार पर तुम निर्णय लो। फिर तुम जो भी निर्णय लोगे, उससे देश का हित हो सकता है।
आज इतना ही।