LAO TZU
Tao Upanishad 99
NinetyNinth Discourse from the series of 127 discourses - Tao Upanishad by Osho. These discourses were given during JUN 19-26, 1971 - APR 10 1975.
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पहला प्रश्न:
आप कहते हैं कि भगवान, कुछ होने, बनने या बिकमिंग की चेष्टा मत करो, बस जो हो वही हो रहो--जस्ट बीइंग। विस्तार से बताएं कि यह कैसे साधा जाए?
साधने की बात ही पूछी कि समझने से चूक गए। क्योंकि साधने का अर्थ ही यह होता है कि कुछ होने की चेष्टा शुरू हो गई। जब मैं कहता हूं, जो हैं, जैसे हैं, वैसे ही रहें, तो साधने का सवाल नहीं उठता। साधने का तो मतलब ही यह है कि जो हम नहीं हैं वह होने की कोशिश शुरू हो गई। तो समझे नहीं।
कुछ भी साधने का अर्थ है कि असंतोष है; जैसे हैं वैसे होने में तृप्ति नहीं है। मन कह रहा है, कुछ और हो जाएं। थोड़ा धन है, ज्यादा धन इकट्ठा कर लें। थोड़ा ज्ञान है, ज्यादा ज्ञान इकट्ठा कर लें। थोड़ा त्याग है, और बड़े त्यागी हो जाएं। ध्यान का थोड़ा-थोड़ा रस आ रहा है, समाधि का रस बना लें। सभी एक सा है; कुछ फर्क नहीं। क्योंकि सवाल न धन का है और न ध्यान का, सवाल तो और ज्यादा की मांग का है।
तो चाहे धन मांगो तो भी सांसारिक, चाहे ध्यान मांगो तो भी सांसारिक। जहां और की मांग है वहां संसार है। और जब तुम और नहीं मांगते, तुम जैसे हो परम प्रफुल्लित हो, अनुगृहीत हो; जैसे हो--बुरे-भले, काले-गोरे, छोटे-बड़े--जैसे हो उस होने में ही तुमने परमात्मा को धन्यवाद दिया है, तत्क्षण क्रांति घटित हो जाएगी। कुछ साधना न पड़ेगा। क्योंकि जब तक तुम साधते हो, तुम्हारा अहंकार खड़ा रहेगा। तुम्हीं तो ध्यान करोगे। अहंकार ही तो तुमसे कहेगा कि देखो कुंडलिनी जाग रही है, कि देखो प्रकाश दिखाई पड़ता है, कि नील-तारा प्रकट होने लगा, कि चक्र जागने लगे। कौन कहेगा तुमसे? कौन अकड़ेगा? कौन रस लेगा इसका? वह सब अहंकार है। वही अहंकार तो बाधा है।
परम संतुष्ट व्यक्ति का कोई अहंकार नहीं हो सकता, क्योंकि वह कुछ कर ही नहीं रहा है जिससे अहंकार भर जाए। वह ध्यान भी नहीं कर रहा है। ध्यान कभी कोई कर सकता है? ध्यान का अर्थ है परितोष, ए डीप कंटेंटमेंट, जहां कोई एक लहर भी असंतोष की नहीं उठती।
फिर तुम कहोगे, बड़ी मुश्किल है; असंतोष की लहर तो उठती है, कुछ और होने का मन होता है।
मन का स्वभाव यही है कि वह तुमसे कहता है, कुछ और हो जाओ। तुम मोक्ष में भी चले जाओगे तो मन कहेगा, और खोजो, कुछ और हो जाओ। तुम परमात्मा भी हो जाओगे तो मन कहेगा, इतने से कहीं कुछ होता है, कुछ और हो जाओ। मन और की मांग है। और जहां तक मन है वहां तक ध्यान नहीं। मन असंतोष है। जहां तक असंतोष है वहां तक कोई धन्यवाद नहीं, कोई अनुग्रह का भाव नहीं, वहां तक शिकायत है।
होने की दौड़ को समझ लो कि होने की दौड़ ही भ्रांत है। तुम जो भी हो सकते हो वह तुम हो। जब तक दौड़ोगे तब तक चूकोगे। जब तक खोजोगे तब तक खोओगे। जिस दिन खोज भी छोड़ दोगे, दौड़ भी छोड़ दोगे, बैठ जाओगे शांत होकर कि न कहीं जाना है, यही जगह मंजिल है; न कुछ होना है, यही होना आखिरी है; उसी क्षण क्रांति घटित हो जाती। तुम्हारे करने से क्रांति घटित नहीं होती। तुम्हारे किए तो जो भी होगा उपद्रव ही होगा, क्रांति नहीं होगी। जब तुम्हारा करने का भाव ही खो जाता है, तत्क्षण क्रांति हो जाती है। क्रांति आती है, अवतरित होती है तुम पर। तुम जिस दिन कुछ भी न करने की अवस्था में होते हो उसी क्षण तालमेल बैठ जाता है, उसी क्षण सब सुर सध जाते हैं। उसी क्षण तुम और विराट के बीच जो विरोध था वह खो जाता है।
विरोध क्या है? विरोध यह है कि परमात्मा तुम्हें कुछ बनाया है, तुम कुछ और बनने की कोशिश में लगे हो। गुरजिएफ का एक बहुत प्रसिद्ध वचन है। बहुत मुश्किल है समझना, लेकिन मेरी बात समझते हो तो समझ में आ जाएगा। गुरजिएफ कहता है कि सभी साधक, सभी महात्मा परमात्मा से लड़ रहे हैं। परमात्मा ने तो तुम्हें यह बनाया है जो तुम हो। अब तुम परमात्मा पर भी सुधार करने की कोशिश में लगे हो। इसलिए गुरजिएफ कहता है, सभी धर्म परमात्मा के खिलाफ हैं। समझना बहुत मुश्किल होगा। बात बिलकुल ठीक कह रहा है। परमात्मा के जो पक्ष में है उसका क्या धर्म? जब साधने को कुछ न बचा तो धर्म कहां बचेगा? न वह साधता है, न वह दौड़ता है, न वह मांगता है। उसकी कोई आकांक्षा नहीं।
इसलिए तो कबीर कहते हैं: साधो सहज समाधि भली।
सहज समाधि का यह अर्थ है जो मैं कह रहा हूं: कुछ न किए सध जाए वही सहज समाधि। तुम्हारे करने से जो सधे वह तो असहज होगी; वह सहज नहीं होगी। वह चेष्टित होगी। और जो चेष्टा से होगी वह तुमसे बड़ी नहीं होगी। तुम्हारी चेष्टा तुमसे बड़ी कैसे हो सकेगी, थोड़ा सोचो! तुम ही जो करोगे वह तुम्हें तुमसे ऊपर कैसे ले जा सकेगा, जरा विचारो! यह तो ऐसे ही है जैसे कोई जूते के बंद पकड़ कर खुद को उठाने की कोशिश में लगा हो। सभी साधक यही कर रहे हैं।
छोड़ो यह नासमझी। साधक कभी नहीं पहुंचता। साधक पहुंच ही नहीं सकता, सिद्ध ही पहुंचता है। और सिद्ध का अर्थ साध-साध कर नहीं सधता। सिद्ध तुम हो। तुम्हें जो भी मिल सकता है मिला ही हुआ है; जरा सी पहचान की कमी है। जिस खजाने की तुम तलाश कर रहे हो वह छिपा ही हुआ है; जरा पर्दे का उठाना है।
दिल के आईने में है तस्वीर-यार
जब जरा गर्दन झुकाई देख ली
थोड़ी सी गर्दन झुकने की बात है। वह गर्दन झुकना ही अहंकार का झुकना है। और जब तक तुम करोगे तब तक गर्दन अकड़ी रहेगी। कर्ता का भाव गर्दन का न झुकना है। अकर्ता का भाव कि मेरे किए क्या होगा। मैं हूं कौन? मेरी सामर्थ्य क्या? असहाय हूं। न कोई सामर्थ्य है, न कुछ कर सकता हूं। श्वास चलती है तो चलती है, नहीं चलेगी तो क्या करोगे? सूरज निकलता है तो निकलता है, नहीं निकलेगा तो क्या करोगे? जीवन है तो है, नहीं हो जाएगा तो क्या करोगे? तुम्हारा बस कितना है? और तुम मोक्ष खोजने चले हो! और तुम परमात्मा की तलाश कर रहे हो! और तुम अमृत-पथ के यात्री बनने की आकांक्षा रखे हो! तुम्हारी सामर्थ्य कितनी है?
जैसे ही कोई अपनी सामर्थ्य को समझता है, अर्थात अपनी असामर्थ्य को पहचान लेता है, जैसे ही कोई अपनी शक्ति को पहचानता है, वैसे ही अपनी अशक्ति की परिपूर्णता पता चल जाती है। उसी क्षण तुम ठहर जाते हो, दौड़ना रुक जाता है। तुम बैठ जाते हो, खड़े होना विदा हो जाता है। तुम झुक जाते हो, अकड़ खो जाती है। उसी झुकाव में--जब जरा गर्दन झुकाई--वह घड़ी आ जाती है जिसको तुम खोज-खोज कर न खोज सके। जिसे तुम खोज रहे थे वह खुद ही तुम्हारे द्वार पर आ जाता है। वह द्वार पर ही खड़ा था। लेकिन तुम खोज में इतने व्यस्त थे कि फुरसत न थी कि तुम उसे देख लो। वह तुम्हारे भीतर बैठा था, तुम कहीं और तलाश रहे थे।
जब तलाश बंद हो जाती है तो तुम अपने भीतर देखोगे। करोगे क्या और? जब सब तलाश खो जाएगी, जब तुम पहली दफा अपने आमने-सामने खड़े होओगे, उस घड़ी में ही सब सध जाता है बिना साधे।
कबीर कहते हैं: अनकिए सब होय।
तुमने किया कि बिगाड़ा। तुमने कर-कर के ही तो बिगाड़ा है। इतनी लंबी यात्रा कर रहे हो। तुम न करो। थोड़ी देर भी न करके देखो; सब सुधर जाता है। तुम चुप हुए कि अस्तित्व तुम्हारे आस-पास ठीक होने लगता है। तुम मौन हुए कि विकृतियां अपने आप बैठने लगती हैं। ऐसे ही जैसे नदी बहती है, कूड़ा-कर्कट उठ आता है; तुम किनारे बैठ जाते हो, थोड़ी देर में कूड़ा-कर्कट अपने से बह जाता है, धूल-धवांस नीचे बैठ जाती है।
भूल कर भी नदी में मत उतर जाना सफाई करने के लिए। नहीं तो तुम्हारी सफाई करने की कोशिश, तुम और कीचड़-कबाड़ को उठा दोगे। नदी और गंदी हो जाएगी। अनकिए सब होय। तुम न करना सीख लो। मत पूछो कैसे साधें! क्योंकि तुम फिर वही अपनी नासमझी ले आए। इतना ही पूछो कि कैसे समझें? साधने में कृत्य है; समझ में कोई कृत्य नहीं है। और ध्यान रखना, जितने लोग तुम्हें साधते हुए मिलेंगे, तुम उन्हें नासमझ पाओगे। असल में, बुद्धू ही साधते हैं; ज्ञानी समझते हैं। साधने को यहां कुछ है नहीं। सब सधा ही हुआ है। तुम्हारे लिए रुका था कुछ? तुम नहीं थे तब भी सब सधा था; तुम नहीं हो जाओगे तब भी सब सधा रहेगा। चांद-तारे चल रहे हैं। सूरज निकल रहा है। इतना विराट विश्व सधा है--तुम्हारे बिना साधे।
लेकिन तुम उसी भ्रांति में हो। मैंने सुना है, एक छिपकली को उसके मित्रों ने भोज के लिए निमंत्रित किया। कहीं शादी-विवाह था। छिपकली ने कहा, मैं न आ सकूंगी। इस महल को कौन सम्हालेगा? मैं रहती हूं तो छप्पर सम्हला रहता है। मैं गई कि छप्पर गिरा।
तुम उस छिपकली की भांति हो जो नाहक परेशान हो रहे हो। महल का छप्पर छिपकली से नहीं सधा है, छप्पर के कारण छिपकली सधी है। तुम्हारे साधने के लिए बचा क्या है? सब सधा ही हुआ है। तुम अकारण श्रम मत उठाओ। जैसे ही तुम समझोगे, सब साधना व्यर्थ हो जाती है।
तो अगर तुम मुझसे पूछो कि फिर साधना का प्रयोजन क्या है? साधना का कुल प्रयोजन इतना है कि जब तक तुम समझे नहीं हो और समझने को राजी नहीं हो तब तक तुमसे कुछ करवाए रखना जरूरी है। यह करवाना ऐसे है जैसे बच्चों को मिठाई दे दी जाती है; मिठाई के कारण वे रुके रहते हैं। यह करवाना वैसे ही है जैसे दवा के ऊपर हम शक्कर की एक पर्त चढ़ा देते हैं। तुम बिना किए न मानोगे, तुम्हारा मन कहता है, कुछ करना है, इसलिए तुम्हारे मन को करने को कुछ दे देते हैं।
ये जितनी विधियां हैं ध्यान की, सब तुम्हारे मन को कुछ करने के लिए देना है। धीरे-धीरे ताकि तुम्हें खुद ही बोध आए कि किए कहीं कुछ होता है! एक दिन ऐसी घड़ी आएगी कि करते-करते तुम जाग जाओगे और देखोगे कि क्या कर रहे हो, इस करने से कुछ भी नहीं होता। करना हाथ से छूट जाएगा और टूट जाएगा और बिखर जाएगा पारे की तरह। फिर तुम उसे इकट्ठा न कर पाओगे। और उसी घड़ी सब हो जाएगा।
सब तैयारी उस घड़ी को लाने की है जब तुम थोड़ी देर के लिए न करने को राजी हो जाओ। अगर तुम अभी राजी हो तो अभी हो जाएगा। इसी क्षण हो सकता है। आध्यात्मिक जीवन, आत्मिक जीवन का रूपांतरण, भविष्य की प्रतीक्षा नहीं कर रहा है; वह इसी क्षण हो सकता है। तुम बिलकुल पूरे हो। कुछ कमी नहीं है जिसको पूरा करने के लिए समय लगे। सिर्फ आंख झुकानी थोड़ी। अपने को देखना थोड़ा। उसमें तुम जितनी देर लगा दो, तुम्हारी मर्जी। तुम मंदिर के चारों तरफ जितनी देर परिक्रमा करते रहो, तुम्हारी मर्जी। अन्यथा मंदिर का सिंहासन खाली है, आ जाओ और बैठ जाओ। तुम किसकी परिक्रमा लगा रहे हो? तुम मंदिर के सिंहासन पर बैठने को बने हो, परिक्रमा लगाने को नहीं। और जब तक परिक्रमा लगाते रहोगे, साफ है कि सिंहासन पर बैठ न सकोगे।
मत पूछो कैसे साधें! बस समझो। समझे कि तुम पाओगे: गूंगे केरी सरकरा, खाय और मुस्काय। कुछ साधने को नहीं है।
यह बड़ा कठिन लगता है। मन कहता है कि पहाड़ पर भी चढ़ना हो, हिमालय पर, तो भी कोई हर्जा नहीं। कुछ तो करने को कहो, हम कर लेंगे। गौरीशंकर भी चढ़ जाएंगे। कितनी ही मुसीबत होगी, पार कर लेंगे। मन हर तरह की कठिनाई से लड़ने को तैयार है। मन लड़ने की तैयारी है। और जब मैं कहता हूं, कुछ भी नहीं करना, तो मन कहता है, बड़ी मुसीबत हो गई। लड़ने को कुछ नहीं, करने को कुछ नहीं; फिर होगा कैसे? जैसे तुम्हारे करने से सब हो रहा है।
तुमने सुनी है कहानी उस बूढ़ी औरत की जो नाराज हो गई गांव से और अपने मुर्गे को लेकर दूसरे गांव चली गई। क्योंकि गांव वालों से उसने कहा कि मेरा मुर्गा बांग देता है इसलिए सूरज निकलता है। गांव में लोग हंसने लगे। किसी ने उसकी मानी नहीं। उसने कहा, फिर पछताओगे। अगर मैं दूसरे गांव चली गई तो सूरज वहां निकलेगा; जहां मेरा मुर्गा बांग देगा वहां सूरज निकलेगा। फिर रोओगे, छाती पीटोगे अंधेरे में। लोग हंसते रहे; किसी ने उसकी मानी नहीं। बूढ़ी अपने मुर्गे को लेकर दूसरे गांव चली गई। दूसरे दिन सुबह मुर्गे ने बांग दी दूसरे गांव में, सूरज निकला। बूढ़ी ने कहा, अब रोते होंगे।
सूरज के निकलने के कारण मुर्गा बांग देता है; मुर्गे के बांग देने के कारण सूरज नहीं निकलता। परमात्मा के निकट आने के कारण ध्यान लगता है; ध्यान लगने के कारण परमात्मा निकट नहीं आता। तुम्हारे करने का कुछ नहीं है। एक गहन प्रतीक्षा मौन। एक गहन प्रतीक्षा; और जो हो, जैसे हो, उससे राजी हो जाना। इसको लाओत्से तथाता कहता है--टोटल एक्सेप्टबिलिटी। और खयाल रखना, समग्र, टोटल, उससे कम में न चलेगा।
तब तुम पूछते हो, लेकिन मन में अशांति है, क्या करें? स्वीकार करो कि है; कुछ मत करो। तुम कहते हो, क्रोध होता है। स्वीकार करो कि क्रोध होता है--है। कुछ मत करो। होने दो क्रोध, राजी रहो। तुम कहते हो, कामवासना है। है। न तुमने बनाई है, न तुम मिटा सकोगे। जो तुमने बनाया ही नहीं उसे तुम मिटाओगे कैसे? कामवासना न होती तो तुम पैदा कर सकते थे? है तो तुम कैसे मिटा सकोगे? जिसने दी है वही ले लेगा। जिसने बनाई है वही मिटाएगा। तुम्हारे किए कुछ भी न होगा। तुम राजी हो जाओ कि जो तेरी मर्जी।
इसी को मैं प्रार्थना कहता हूं। जिस दिन तुम्हारा हृदय परिपूर्ण रूप से कह सके: जो तेरी मर्जी। अगर वासना में भटकाना है, राजी हूं। अगर ब्रह्मचर्य में ले जाना है, राजी हूं। अगर क्रोध करवाना है और जगत का निकृष्टतम आदमी बनाना है, राजी हूं। अगर करुणा से भरना है और जगत में श्रेष्ठतम उठाना है, राजी हूं। मेरी कोई मर्जी नहीं, तेरी मर्जी। तेरी मर्जी का भाव! कोई शिकायत नहीं! और तुम पाओगे, क्षण की देर नहीं लगती। एक पल भी नहीं खोता और द्वार पर मंजिल आ जाती है। बिना चले आती है मंजिल; बिना हिले-डुले मोक्ष मिल जाता है।
यह गहनतम सार है समस्त ज्ञानियों का।
न रुचे, न जंचे, फिर अज्ञानियों से पूछो। वे तुम्हें बहुत रास्ते बताएंगे। जब अज्ञानियों से थक जाओ तब मेरे पास आना। उसके पहले तुम मुझे समझ ही न पाओगे। पहले तुम अज्ञानियों के साथ खूब उलटा-सीधा कर लो, शीर्षासन लगा लो, आड़े-टेढ़े व्यायाम कर लो, तंत्र-मंत्र सब कर आओ। जब तुम थक जाओ कर-करके, न पाओ, तब मेरे पास आ जाना। क्योंकि मैं तो न करना सिखाता हूं।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, आपने कहा कि व्यक्ति में सौ प्रतिशत अच्छा या बुरा हो नहीं सकता। लेकिन क्या आप स्वयं ही सौ प्रतिशत शुभ के प्रतीक नहीं? मैं आपमें कुछ भी बुराई नहीं देख पाता हूं। या यह प्रश्न इसलिए ही उठ रहा है कि मैं कुछ न कुछ बुराई देखने की कामना रखता हूं?
निश्चित ही! मन किसी भी चीज में सौ प्रतिशत नहीं देख सकता। वह मन की क्षमता नहीं है। क्योंकि मन द्वंद्व के बिना सोच नहीं सकता। अगर तुमने कहा कि सौ प्रतिशत भलाई दिखाई पड़ती है तो कहीं न कहीं अचेतन में बुराई का कोई न कोई बादल भटक रहा है। अन्यथा भलाई भी कैसे दिखाई पड़ेगी?
भलाई के लिए भी बुराई की पृष्ठभूमि चाहिए। सफेद खड़िया की लकीर खींचनी हो तो काला ब्लैकबोर्ड चाहिए। कैसे पहचानोगे कि यह भलाई है? मुझसे लगाव हो, मुझसे प्रेम हो, मुझसे मोह बन गया हो, तो मन सारी बुराई को अचेतन में डाल देगा, सारी भलाई को ऊपर उठा लेगा। सौ प्रतिशत दिखाई पड़ेगी, लेकिन हो नहीं सकती। अचेतन में खोजोगे तो पाओगे, कुछ बुराई दिखाई पड़ती है। शायद वह बुराई दिखाई न पड़े, इसीलिए चेतन मन दोहराए चला जाता है कि नहीं, सौ प्रतिशत ठीक।
पर यह स्वाभाविक है। इससे कुछ चिंता लेने जैसी नहीं है। मन द्वंद्व में ही देख सकता है। जिस दिन तुम मन के बाहर होकर मुझे देखोगे, न मैं बुरा दिखाई पडूंगा, न भला; न साधु, न असाधु; न शुभ, न अशुभ। क्योंकि दोनों एक साथ चले जाते हैं, या दोनों साथ-साथ रहते हैं। जैसे सिक्के के दो पहलू साथ ही साथ होंगे, तुम एक पहलू न बचा सकोगे। हां, इतना कर सकते हो, एक पहलू नीचे दबा दो, एक पहलू ऊपर उठा लो; जो ऊपर का है वह दिखाई पड़े, जो नीचा है वह दबा रहे। लेकिन नष्ट नहीं हो गया, वह मौजूद है। सिक्के को या तो पूरा बचाओ तो दोनों पहलू बचते हैं, या पूरा फेंको तो दोनों पहलू जाते हैं। तो जब तक तुम्हें शुभ दिखाई पड़े, जानना कि कहीं न कहीं पृष्ठभूमि में अशुभ छिपा हुआ है। नहीं तो बैकग्राउंड कौन बनेगा? शुभ दिखाई कैसे पड़ेगा?
जब कोई व्यक्ति समर्पित होता है तो पहली घटना यही घटती है कि सौ प्रतिशत अच्छा दिखाई पड़ता है गुरु। यहां रुक मत जाना। क्योंकि यहां अंधेरे में छिपी पृष्ठभूमि मौजूद है। यह घड़ी भी कीमती है। ऐसा अनुभव होना भी कि कोई सौ प्रतिशत ठीक है, श्रद्धा की बड़ी ऊंचाई है। लेकिन यह अंतिम नहीं है। एक कदम और लेना जरूरी है। तब श्रद्धा की अंतिम छलांग लगती है। तब न गुरु भला रह जाता, न बुरा। क्योंकि जब तक मैं भला हूं तब तक मेरे बुरे होने की संभावना शेष है। कभी भी पांसा पलट सकता है। कभी भी जो पहलू नीचे दबा है ऊपर आ सकता है। हवा का जरा सा झोंका और सब बदल जा सकता है। इस पर बहुत भरोसा मत करना।
एक छलांग और, जब मैं न बुरा रह जाऊं, न भला। फिर तुम मुझसे दूर न जा सकोगे। फिर तुम मेरे विपरीत न हो सकोगे। फिर कोई उपाय ही न रहा। फिर मैं भला भी नहीं हूं, बुरा भी नहीं हूं। तो अश्रद्धा कैसे जगेगी? क्योंकि श्रद्धा भी गई। जब तक श्रद्धा है तब तक अश्रद्धा भी छिपी है। जब तक आदर है तब तक अनादर भी छिपा है। जब तक मान है तब तक अपमान भी छिपा है। जब तक मैं मित्र की भांति लगता हूं तब तक मैं कभी भी शत्रु की भांति लग सकता हूं। क्योंकि दूसरा मिट नहीं गया है, सिर्फ छिपा है।
और ध्यान रखना कि मन का एक नियम है: जो छिपा है वह धीरे-धीरे शक्तिशाली हो जाता है, और जो प्रकट है वह धीरे-धीरे धूमिल हो जाता है। क्योंकि जो छिपा है उसकी शक्ति व्यय नहीं होती, और जो प्रकट है उसकी शक्ति व्यय होने लगती है। फिर मन का एक दूसरा नियम भी खयाल रखना कि जिसको तुम बहुत देर तक देखते रहते हो उससे तुम ऊबने लगते हो; फिर स्वाद के परिवर्तन की आकांक्षा होने लगती है। सो रोज श्रद्धा, रोज श्रद्धा, रोज श्रद्धा; वही भोजन रोज, वही भोजन रोज।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी मुझसे एक दिन कह रही थी कि आपको कुछ करना पड़े; पति का दिमाग खराब हो गया मालूम होता है। मैंने पूछा कि क्या हुआ? उसने कहा कि शनिवार के दिन भी उन्होंने, जब मैंने भिंडी की सब्जी बनाई, बड़ी प्रशंसा की और कहा, बहुत अदभुत है। रविवार के दिन कहा, अच्छी है। सोमवार के दिन कुछ बोले नहीं। मंगल को बड़े उदास दिखाई पड़े। बुध को बड़े क्रोधित थे। बृहस्पति को उन्होंने थाली फेंक दी; कहने लगे, जीवन नष्ट कर दिया मेरा! भिंडी, भिंडी, भिंडी! इनका दिमाग खराब हो गया है। क्योंकि शनिवार के दिन कहा था, बहुत अच्छी है। और एक सप्ताह भी पूरा नहीं बीता और थाली फेंकते हैं।
कोई भी फेंक देगा। स्वाद मरने लगता है। स्वाद परिवर्तन मांगता है। सुख भी रोज-रोज मिले तो तुम दुख की आकांक्षा करने लगते हो। फूल ही फूल की शय्या पर लेटे रहो; कांटे की इच्छा पैदा हो जाती है। स्वाद परिवर्तन चाहता है। तुम अगर श्रद्धा ही श्रद्धा मुझ पर रखोगे तो आज नहीं कल श्रद्धा का स्वाद मर जाएगा। फिर तुम अश्रद्धा रखना चाहोगे। तब एक वर्तुल पैदा होता है। श्रद्धा अश्रद्धा में बदल जाती है, अश्रद्धा श्रद्धा में। और तब तुम एक ऐसे चक्र में पड़े जिससे निकलना मुश्किल हो जाएगा।
श्रद्धा पहला कदम है, अंतिम मंजिल नहीं। अश्रद्धा से श्रद्धा बेहतर है। फिर श्रद्धा से भी बेहतर एक घड़ी है; जहां न श्रद्धा है, न अश्रद्धा। उसके बाद फिर कोई टूटने का उपाय नहीं है। सौ प्रतिशत अच्छा देखते हो, शुभ है। क्योंकि इससे तुम्हारे भीतर की श्रद्धा प्रगाढ़ होगी। लेकिन इसको अंतिम मत मान लेना। ऐसी घड़ी लानी है जब शुभ-अशुभ दोनों ही व्यर्थ हो जाएं, फीके हो जाएं, दूर निकल जाएं। तभी तुम आमने-सामने मुझे जान सकोगे। और तब मुझसे टूटने की कोई व्यवस्था न होगी। यह मेरा शरीर भी गिर जाए तो भी मैं जुड़ा रहूंगा। तुम लाखों मील दूर रहो तो भी जुड़े रहोगे। तब टूटने की जगह ही न रही। तब बीच में फासला ही न रहा। एक बात!
दूसरी बात समझ लेनी जरूरी है कि जो व्यक्ति, जैसा मैंने कहा, कि भले से भले व्यक्ति में भी एक प्रतिशत बुराई रहनी जरूरी है, नहीं तो वह पृथ्वी पर न रह जाएगा। नाव को अगर इस किनारे पर रखना हो तो कम से कम एक खूंटी से तो बंधा रहना जरूरी है। नहीं तो नाव दूसरे किनारे की तरफ यात्रा पर निकल जाएगी। तो अच्छे से अच्छे आदमी में भी एक प्रतिशत बुराई होती है। उसकी बुराई भी बड़ी प्रीतिकर होती है, यह जरूर सच है। और शायद इसीलिए तुम्हें वह बुराई दिखाई न पड़े। बुरे से बुरे आदमी में भी एक प्रतिशत भलाई होती है। लेकिन वह भलाई भी बड़ी बुरी होती है; शायद इसीलिए तुम्हें दिखाई नहीं पड़ती। इसे थोड़ा समझो।
बड़े से बड़े सिद्धपुरुष में भी इस पृथ्वी पर होने के लिए एक खूंटी चाहिए। बिना खूंटी के उसकी नाव दूसरे तट पर चली जाएगी। खूंटी बांध कर रखनी पड़ती है, नहीं तो रुक नहीं सकता। वह खूंटी क्या है? उस खूंटी को तुम तो बुराई की तरह देख भी न पाओगे, क्योंकि जिस व्यक्ति में निन्यानबे प्रतिशत शुभ हो, उसका निन्यानबे प्रतिशत इतना आलोकित होता है कि वह जो एक प्रतिशत बुरा होता है वह भी उसके प्रकाश में स्वर्ण जैसा चमकता है। वह ऐसा ही समझो कि जैसे निन्यानबे बहुमूल्य हीरों के बीच में एक साधारण सा पत्थर जड़ा हो। वह निन्यानबे हीरों की चमक-दमक इतनी होगी कि तुम उस एक पत्थर को भी चमकता हुआ पाओगे। वह एक पत्थर भी पास की चमक से दीप्त होगा। निकट के हीरे उसमें झलकेंगे, वह शायद कांच का टुकड़ा ही हो। और अगर निन्यानबे पत्थर हों रद्दी-सद्दी इकट्ठे और उनके बीच में एक हीरा भी जड़ा हो तो भी यही घटेगा: तुम उस हीरे को न पहचान पाओगे।
इसीलिए तो ऐसा होता है कि अगर गरीब आदमी हीरे की अंगूठी भी पहने हो, कोई नहीं सोचता कि हीरा है। अमीर आदमी नकली पत्थर भी लगाए हो तो लोग समझते हैं करोड़ों का होगा। आदमी पर निर्भर है। गरीब पर तुम अपेक्षा कहां करते हो कि उसके पास हीरे की अंगूठी होगी। इसलिए अमीर अगर नकली हीरे भी पहने रहता है तो भी प्रशंसित होता है, और गरीब अगर असली हीरे भी लिए फिरे तो कोई देखता नहीं; कोई मान ही नहीं सकता।
बुरे से बुरे आदमी में भी एक तो हीरा होता ही है। अगर वह हीरा न हो तो उसकी मनुष्यता ही खो गई। उतना बुरा कोई कभी नहीं है। अंधेरे से अंधेरे में भी प्रकाश की किरण मौजूद होती है। कितना ही गहन अंधकार हो, वह भी प्रकाश का ही एक अभाव है, वह भी प्रकाश का ही एक रूप है। अगर तुम देख सको तो तुम्हें बुरे से बुरे आदमी में भी वह किरण दिखाई पड़ जाएगी। लेकिन उसके लिए बड़ी सधी आंखें चाहिए।
और वही भले से भले आदमी के जीवन में है। उसके जीवन में भी एक बुराई होगी। लेकिन तुम उसे पहचान न पाओगे। इतनी भलाई के बीच, जहां चारों तरफ मिठास हो वहां नमक की एक डली अगर तुम डाल भी दो तो खो जाती है; वह भी मिठास बन जाती है, उसका पता नहीं चलता। लेकिन इस पृथ्वी पर होने का अर्थ ही यह है कि शुद्धि पूर्ण नहीं हो सकती।
इसलिए हम समाधि की दो अवस्थाएं मानते रहे हैं, या निर्वाण की दो अवस्थाएं मानते रहे हैं। बुद्ध को ज्ञान हुआ चालीस वर्ष की उम्र में, उसे हम कहते हैं निर्वाण। फिर बुद्ध अस्सी वर्ष में शरीर को छोड़े, उसे हम कहते हैं महापरिनिर्वाण। वह निर्वाण था, लेकिन उसमें एक प्रतिशत अशुद्धि थी। सोना था, लेकिन ठीक चौबीस कैरेट नहीं। जरा सी भी अशुद्धि तो चाहिए, नहीं तो सोने का कोई गहना न बन सकेगा। उसमें थोड़ा तांबा, कुछ और मिला होना चाहिए। चौबीस कैरेट सोने का कोई गहना नहीं बनता। क्योंकि गहना थोड़ी सी सख्ती चाहता है। चौबीस कैरेट सोना इतना कोमल हो जाता है कि उसका कुछ बन नहीं सकता। चौबीस कैरेट बुद्धत्व इतना पारदर्शी हो जाता है कि वह दिखाई नहीं पड़ सकता। चौबीस कैरेट बुद्धत्व इतना अदृश्य हो जाता है, इतना अरूप हो जाता है कि फिर तुम्हें उसकी छाया भी बनती हुई दिखाई नहीं पड़ सकती। चौबीस कैरेट बुद्धत्व का अर्थ हुआ कि बुद्ध अब शरीर में नहीं रह सकते। शरीर अशुद्धि है। और चेतना जब तक शरीर में है तब तक थोड़ी सी अशुद्धि रहेगी।
वह अशुद्धि क्या है? जैनों और बौद्धों ने इस पर बड़ा गहन विचार किया है। जैनों ने तो इस संबंध में बड़ी गहन खोज की है। क्योंकि यह सवाल उनके सामने रहा है कि तीर्थंकर क्यों शरीर में हैं? तो उन्होंने तीर्थंकर-बंध की खोज की है। वे कहते हैं, तीर्थंकर का भी एक बंधन है। तो तीर्थंकरत्व भी आखिरी जंजीर है। इसलिए वे कहते हैं, तभी कोई व्यक्ति तीर्थंकर होता है जब उसने पिछले जन्मों में कोई कर्मबंध किया हो तीर्थंकर होने का। वह भी आखिरी पाप है। हमें तो तीर्थंकर एकदम पुण्य मालूम होता है। लेकिन तीर्थंकर स्वयं जानता है कि अभी एक कड़ी बाकी है; अन्यथा वह खो जाएगा। वह कड़ी क्या है?
जैन कहते हैं, वह कड़ी करुणा है। बौद्ध भी कहते हैं, वह कड़ी करुणा है। हमें तो क्रोध बुरा लगता है; करुणा से शुभ और क्या? लेकिन बुद्ध को, महावीर को करुणा भी बुरी लगती है। क्योंकि वह भी है तो क्रोध का ही रूपांतरण। क्रोध में हम दूसरे को नष्ट करना चाहते हैं, करुणा में हम दूसरे को फला-फूला देखना चाहते हैं। लेकिन नजर तो दूसरे पर ही है। क्रोध और करुणा दोनों ही दूसरे की तरफ बहते हैं। एक विध्वंसात्मक, एक सृजनात्मक; लेकिन ऊर्जा तो वही है। करुणा की खूंटी से बुद्ध बंधे हैं। उतनी अशुद्धि है।
अगर मैं तुम्हें चाहता हूं कि तुम्हारे जीवन में क्रांति घटित हो जाए, रूपांतरण हो जाए, यह करुणा ही वह एक प्रतिशत अशुद्धि है। नहीं तो तुम्हारे लिए मैं क्यों परेशान होऊं? क्या प्रयोजन है? एक खूंटी उखाड़ी जा सकती है, नाव दूसरे किनारे पर यात्रा पर निकल जाएगी। माना कि खूंटी सोने की है, लेकिन खूंटी खूंटी है--सोने की हो कि लोहे की हो। माना कि जंजीर हीरे-जवाहरातों से जड़ी है, लेकिन जंजीर जंजीर है--जंग खाई लोहे की हो कि हीरे-जवाहरातों से चमकती हो, इससे क्या फर्क पड़ता है। एक प्रतिशत अशुद्धि करुणा है।
बुरे से बुरे आदमी में एक प्रतिशत शुद्धि बोध है। क्योंकि बुरे से बुरे आदमी को यह बोध तो होता ही रहता है कि मैं बुरा कर रहा हूं। यह बोध कभी नहीं जाता। यहएक किरण उस गहन अंधकार में भी बनी रहती है। चोरी कर रहा हो, हत्या कर रहा हो, लेकिन मैं कर रहा हूं, और ठीक नहीं है, यह होश एकमात्र किरण है बुरे से बुरे आदमी में। यही किरण उसे उबारेगी। इसी किरण के सहारे वह ऊपर चढ़ेगा। इसी किरण के पायदानों पर यात्रा होगी। बोध बढ़ेगा, बढ़ेगा, बढ़ेगा, और एक दिन मुक्ति की घड़ी आ जाएगी।
भले से भले आदमी में एक प्रतिशत जो बुराई है वह करुणा है। क्योंकि करुणा ही उसे अंत में बांधे रखती है। जब सब बंधन टूट गया, न कोई मोह है, न कोई आसक्ति है, न कोई लोभ है, न कोई क्रोध है, उस दिन करुणा ही उसे बांधे रखती है। संसार की तरफ से देखने पर करुणा अदभुत है। हम तो कहते हैं, करुणा से बड़ा और कोई गुण नहीं। लेकिन अगर तुम परमात्मा की तरफ से जिस दिन देख पाओगे उस दिन तुम पाओगे, करुणा आखिरी बंधन है। संसार की तरफ से करुणा सबसे ऊपर है, लेकिन आखिरी ऊंचाई की तरफ से करुणा सबसे नीचे है। इस तरफ से, जहां हम हजारों बंधन से बंधे हैं, वहां करुणा मुक्ति मालूम होती है। लेकिन जो करुणा में खड़ा हो गया उसे पता लगता है, अब यह आखिरी बंधन है, यह भी टूट जाना चाहिए।
इसलिए बहुत लोग ज्ञान को उपलब्ध होते हैं, लेकिन सभी तीर्थंकर नहीं होते, सभी बुद्ध नहीं होते। ज्ञान को तो बहुत लोग उपलब्ध होते हैं, मोक्ष को भी उपलब्ध हो जाते हैं, लेकिन सभी लोग सदगुरु नहीं हो सकते। सदगुरु वही व्यक्ति हो सकता है जिसने जन्मों-जन्मों में करुणा का बंधन ढाला हो।
इसलिए बुद्ध ने तो एक नियम बनाया है कि ध्यान और करुणा का साथ-साथ ही विकास होना चाहिए। अगर ध्यान का अकेला विकास हो और करुणा का विकास न हो तो जिस दिन व्यक्ति ज्ञानी होगा उसी दिन तिरोहित हो जाएगा। व्यर्थ की खूंटियां उखाड़ो, लेकिन बुद्ध कहते हैं, एक सोने की खूंटी को गाड़ते भी रहो। क्योंकि जब सब खूंटियां टूट जाएं तब तुम्हारी नाव अगर एकदम से उस पार चली जाए तो इस तरफ तुम्हारा कोई भी लाभ न ले पाएगा। थोड़ी देर ठहर जाओ। मुक्त होकर थोड़ी देर इस किनारे रुक जाओ। ताकि जो राह पर हैं, जो भटक रहे हैं, जिन्हें कुछ सूझ नहीं रहा है, वे थोड़ी सी तुम्हारी रोशनी पी लें। थोड़ी देर!
और जब नाव तैयार हो गई हो और पाल खिंच गया हो और दूसरे किनारे का आमंत्रण आ गया हो, तब रुकना बड़ा मुश्किल हो जाता है। उस दिन कोई पीछे लौट कर देखना भी नहीं चाहता। इतने दिनों से जिस नाव की प्रतीक्षा की थी, जन्मों-जन्मों जिसके लिए यात्रा की थी, वह आज किनारे आ लगी। सब तैयारी हो गई, अब बस बैठना है और नाव खुल जाएगी। उस क्षण कौन किनारे रुकता है?
तो बुद्ध कहते हैं, ध्यान के साथ-साथ करुणा को भी पोषित करो। ताकि जब नाव सामने आ जाए तो तुम तत्क्षण बैठ न जाओ, थोड़ी देर, थोड़ी देर नाव खड़ी रहने दो। कोई जल्दी नहीं है, थोड़ी देर दूसरों को तुम्हारा रस ले लेने दो। थोड़ी देर तुम्हारी प्रभा दूसरों के अंधकार में प्रविष्ट हो जाने दो। थोड़ी देर तुम्हारी जीवन-ऊर्जा का दान बंटने दो। थोड़ी ही देर सही, ज्यादा देर यह नहीं हो सकता, लेकिन थोड़ी देर संयम रखो। बुद्ध कहते हैं, थोड़ी देर संयम रखो; मत सवार हो जाओ नाव पर। जन्मों-जन्मों की खोज है, इसलिए पूरे प्राण कहेंगे, बैठ जाओ, आ गई मंजिल; अब क्या बाहर रुकना। देखो, पीछे बहुत लोग चल रहे हैं; तुम्हारे कारण शायद उन्हें थोड़ी रोशनी मिल जाए। शायद उस तरफ की थोड़ी झलक तुम्हारे झरोखे से उन्हें मिल जाए। शायद तुम्हारे माध्यम से वे उस अलौकिक का थोड़ा सा स्वाद ले लें। उससे उन्हें वंचित मत करो।
करुणा का इतना ही अर्थ है। लेकिन है यह बुराई। बुराई इसलिए है कि तुम्हारी परम मुक्ति के लिए यह आखिरी बाधा है। दूसरों के लिए हितकर है, लेकिन तुम्हारी परम मुक्ति के लिए आखिरी बंधन है। यह करुणा शुभ ही मालूम पड़ेगी, लेकिन यह शुभ नहीं है। इसे भी छोड़ देना होगा। क्रोध तो छोड़ना ही है, एक दिन करुणा भी छोड़ देनी है। तभी तुम परम शून्य हो सकोगे। अभी तुम क्रोध से भरे हो, कल करुणा से भर जाओगे। बड़ा भेद पड़ गया। लेकिन फिर भी तुम भरे रहोगे, खाली न हो पाए। कल तक तुम दूसरों का अहित करने के लिए चिंतन करते थे और सो न पाते थे; अब तुम दूसरों का हित करने का सोचोगे और सो न पाओगे। आखिरी अर्थों में तो यह भी उपद्रव है।
इसलिए जैन कहते हैं, तीर्थंकर भी बंधन है, और किसी कर्म का फल है; इसे भी भोगना पड़ेगा।
बड़ा सूक्ष्म विवेचन हुआ है इस पृथ्वी के टुकड़े पर और लोग इतनी गहराई में गए हैं कि दुनिया के शेष सारे धर्म बहुत बचकाने मालूम होते हैं। तुमने कभी सोचा भी न होगा कि तीर्थंकरत्व भी एक कर्म का फल है, और इससे भी छुटकारा पाना है। वह बुराई है। वह तुम्हें दिखाई नहीं पड़ेगी। लेकिन उसे खयाल में रखना। और उससे पार जाना है। तुम्हें शुभ और अशुभ दोनों के पार जाना है।
और अगर तुम मेरी मौजूदगी का इतना उपयोग कर सको कि शुभ और अशुभ को कम से कम मेरे तरफ छोड़ दो, कम से कम एक आदमी तुम्हारी जिंदगी में ऐसा आ जाए जो न बुरा है और न भला, तो भी बहुत बड़ी घटना घट गई। क्योंकि और तरह के लोग तो तुम्हारी जिंदगी में आएंगे ही, जो भले हैं, बुरे हैं। उनका तुम्हें काफी अनुभव है। अच्छे लोगों का अनुभव है, सज्जन का; बुरे लोगों का अनुभव है, दुर्जन का। संत न तो सज्जन है और न दुर्जन। तुम्हारी जिंदगी में यह स्वाद भी आ जाने दो कि तुम एक ऐसे आदमी से भी जुड़े हो जो अच्छा है न बुरा है, जिसका होना न होने के बराबर है; जिसकी मौजूदगी एक तरह की अनुपस्थिति है; जिसके आकार के भीतर कुछ निराकार घटित हुआ है; जिसके जीवन से तुम्हें कुछ जीवन के पार का सूचन और किरण मिल रही है।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, आप जो भी कहते हैं वह पूरा का पूरा इतना सत्य और फलदायी प्रतीत होता है कि वह सब का सब दूसरों को, पूरे जगत को बता देने का एक अतीव भाव घेर लेता है। परिणाम में आपकी बातें अनिवार्यरूपेण मन इकट्ठा करता है; दूसरों तक बातों को कैसे पहुंचाया जाए, इसका भी निरंतर विचार चलता है। साथ ही साथ इसका भी अनुभव होता है कि जब तक मैं खुद कुछ न पा लूं तब तक मैं दूसरों को कैसे कुछ कह सकता हूं। तो हम क्या करें?
उचित है। यही तो मैं अभी कह रहा था कि ध्यान को और करुणा को साथ-साथ बढ़ने दो। अगर ध्यान पूरा हो गया और तुमने पा लिया, और बीच में करुणा के आधार न रखे, तो तुम खो जाओगे। जिस दिन नाव तुम्हारी तैयार होगी उस दिन तुम चले जाओगे। इसलिए यह प्रतीक्षा मत करो कि जब तुम पूरे हो जाओगे तब तुम कुछ कहोगे। क्योंकि तब तुम कह ही न पाओगे। तुम पूरे नहीं हुए हो, तभी तुम करुणा के बीज बोने लगो।
यह जो भाव उठ रहा है निरंतर कि दूसरों को भी कहूं, यह करुणा का भाव है। क्योंकि दूसरों से कुछ लेना नहीं है, सिर्फ देना ही है। दूसरों को कुछ मिल जाए जो तुम्हें मिल रहा है, यह बड़ी प्रेम की भाव-भीनी दशा है। इसे बुरा मत समझो।
ध्यान रखो कि अगर अभी तुमने कहने का अभ्यास जारी रखा तो ही अंतिम घड़ी में, जब आखिरी कड़ी बचेगी, तब भी तुम थोड़ी देर कुछ कह पाओगे। नहीं तो तुम न कह पाओगे। बहुत से ज्ञानी ऐसे ही शून्य में खो जाते हैं; उनके महान अनुभव का कोई लाभ जगत को नहीं हो पाता। वे तैयारी ही नहीं कर पाते। सिर्फ ध्यान में जो लीन है, वह एक दिन पूरा हो जाएगा। उस तक तो बात पूरी हो गई, लेकिन उससे अंधेरे में भटकते लोगों को कुछ भी न मिल पाएगा। इसलिए करुणा को साथ-साथ साधो।
दूसरी बात भी ठीक है कि मन में यह लगेगा कि अभी मेरा तो कुछ पूरा हुआ नहीं, मैं कैसे कहूं!
अधूरे हो, तभी तक कहने का अभ्यास कर लो। पूरे हो जाने के बाद अभ्यास का मौका नहीं मिलता; आदमी खो जाता है, गहन सन्नाटे में डूब जाता है, वाणी नहीं निकलती। सोने की खूंटी तैयार कर लो, इसके पहले कि सब खूंटियां टूट जाएं। तो थोड़ी देर नाव को अटकाने का मौका रहेगा। नहीं तो तुम्हें पता ही नहीं चलेगा, तुम कब नाव में सवार हो गए, कब नाव की यात्रा शुरू हो गई, कब तुम दूसरे तट पर पहुंच गए। और एक बार नाव छूट जाए, तो तुमने जो पाया है वह तुम्हारे लिए महा आनंद होगा, लेकिन तुम उसे बांट न पाओगे।
बांटो! अधूरे हो, अभी पूरा हुआ नहीं है, पर बांटना जारी रखो, ताकि बांटने का अभ्यास बना रहे। और जब तुम पूरे हो जाओ तब भी बांटने की क्रिया थोड़ी देर चल जाए। थोड़ी देर ही सही! लेकिन बहुत लोग प्यासे हैं। एक बूंद भी उनके कंठ में पड़ जाए तो महाशुभ है, महामंगलदायी है।
मन में यह भाव उठता है कि अभी मैं पूरा नहीं हुआ, कैसे कहूं!
इस भाव को याद रखो। नहीं तो खतरा है। इसको भी भूलो मत कि मुझे पूरा होना है। कहीं ऐसा न हो कि करुणा महाफंदा बन जाए। कहीं ऐसा न हो कि तुम यह भूल ही जाओ कि अभी तुम्हें तो हुआ नहीं और तुम लोगों को समझाने में ही निरंतर रत हो जाओ। तब जो हुआ है वह भी खो जाएगा। तब तो तुम एक दिन पाओगे कि प्रज्ञा तो नहीं जगी, तुम एक पंडित होकर रह गए हो।
तो बड़ा बारीक रास्ता है। बड़ा सम्हल कर चलना है। करुणा को बोना है, ताकि अंतिम क्षण में तुम ऐसे ही न लीन हो जाओ बिना कुछ दिए। इस जगत ने तुम्हें बहुत कुछ दिया है। इस जगत को वापस कुछ दे जाना जरूरी है। इस जगत में तुम बहुत दिन रहे हो। इस घर में बहुत दिन बसे हो। इसे आखिरी अनुग्रह के रूप में कुछ दे जाना जरूरी है। तुम ऐसे ही चुपचाप चोरी-छिपे विदा मत हो जाना। जहां इतने दिन रहे हो, जहां तुमने बहुत से दुष्कृत्यों की छापें छोड़ी हैं, जहां तुम्हारे बहुत से सुकृत्यों की भी छापें हैं, वहां तुम्हारे उस कृत्य की छाप भी छोड़ जाना जो न तो शुभ की है और न अशुभ की है, जो पारमार्थिक है, जो आत्यंतिक है। तुम एक झलक उसकी भी छोड़ जाना। इसलिए करुणा को साधना जरूरी है। और बताओ लोगों को, कहो।
जीसस ने अपने शिष्यों को कहा है, खड़े हो जाओ मकानों के छप्परों पर और चिल्ला कर कहो, क्योंकि लोग बहरे हैं। तुम जब बहुत चिल्ला कर कहोगे तभी शायद उनकी नींद में कोई खबर पहुंच पाए।
कहो! लेकिन होश बनाए रखना कि यह कहना ही सब कुछ नहीं है। नहीं तो तुम्हारी प्रज्ञा खो जाए और तुम कहने में ही लीन हो जाओ; तब तुम एक पंडित हो जाओगे, एक उपदेशक, लेकिन ज्ञानी नहीं। इसलिए बारीक और नाजुक है रास्ता। होश रखना है कि मेरी प्रज्ञा बढ़ती रहे, और होश रखना है कि मेरी करुणा भी साथ-साथ आरोपित होती रहे। ध्यान और करुणा दोनों साथ-साथ बढ़ें; एक उनमें संतुलन बना रहे।
यह तुमने अभी से शुरू किया तो ही हो पाएगा। जरा भी देर हो जाने के बाद...। क्योंकि हर चीज का मौसम है। और हर चीज का वक्त है, जब बीज बोए जा सकते हैं। वक्त के गुजर जाने पर फिर बीज नहीं बोए जा सकते। अगर तुम ध्यान में बहुत गहरे चले गए तो फिर बीज न बो सकोगे करुणा के। क्योंकि ध्यान का अर्थ है अपने में डूबना, और करुणा का अर्थ है दूसरे में थोड़ा रस कायम रखना। ध्यान का आखिरी अर्थ है कि दूसरा बचे ही न, तुम्हीं बचे; कोई न रहा, सब खो गया, तुम्हारा होना ही बचा। तो ध्यान अगर बहुत गहन हो जाए तो करुणा का सवाल ही नहीं उठता, क्योंकि कोई दूसरा बचा ही नहीं। दूसरे का चिंतन भी नहीं उठता; विचार की आखिरी लकीर भी खो जाती है। इसके पहले कि दूसरा बिलकुल खो जाए, तुम दूसरे से थोड़े से सेतु बना रखना।
वे सेतु माया के न हों। क्योंकि अगर वे माया के हों, मोह के हों, क्रोध के हों, मैत्री के, शत्रुता के हों, तो फिर तुम भीतर न जा सकोगे। सिर्फ एक ही संबंध है करुणा का जो तुम्हारे भीतर जाने में बाधा न बनेगा। इसलिए उसको हम आखिरी बंधन कहते हैं और स्वर्ण का बंधन कहते हैं। करुणा का एकमात्र सेतु है जो तुम्हें दूसरे से भी जोड़े रखेगा और अपने से तोड़ने का कारण नहीं बनेगा।
इसलिए करुणा की महिमा अपार है। उसमें क्रोध का गुण है उतना जितना कि दूसरे से संबंध है और उसमें अक्रोध का गुण है उतना जितना कि दूसरे को शुभ हो, मंगल हो, ऐसी भावना का संबंध है। करुणा--क्रोध और अक्रोध के मध्य में है। करुणा बड़ा गहरा संतुलन है। करुणा में मोह जैसा भाव है, क्योंकि दूसरे का हित हो जाए। लेकिन करुणा मोह जैसी नहीं है, क्योंकि दूसरे का हित हो ही जाए ऐसा आग्रह नहीं है। हो जाए, ऐसी भावना है। हो ही जाए, ऐसा आग्रह नहीं है। अगर हो जाए तो ठीक, अगर न हो तो कोई पीड़ा न होगी। एक उदासीनता भी है, एक रस भी है। करुणा दोनों के मध्य में है।
तो ध्यान अगर गहरा होता जाए तो तुम उदासीन हो जाओगे; फिर करुणा पैदा करना मुश्किल हो जाएगा। ध्यान के साथ-साथ करुणा को जगाए चलो। ताकि आखिरी घड़ी में तुम्हारा अनुभव सिर्फ तुम्हारा न हो, आखिरी घड़ी में तुम्हारे आनंद का उत्सव तुम्हारा ही न हो, और भी उसमें भागीदार हो सकें, दूसरे लोग भी साझीदार हो सकें।
इसलिए शुरू करो। और कहता हूं मैं भी तुमसे, घरों के छप्परों पर चढ़ कर, क्योंकि लोग बहरे हैं, तुम जब बहुत जोर से चिल्लाओगे तभी शायद वे सुनें। उनकी नींद हिलानी पड़ेगी। वे नाराज भी होंगे, क्योंकि किसी की भी नींद तोड़ो तो स्वाभाविक है नाराजगी। तो तुम उससे--उनकी नाराजगी से, उनकी अवहेलना से, उनकी उपेक्षा से--निराश मत हो जाना, हताश मत हो जाना। तुम कहे ही चले जाना।
तो तुम हजार को कहोगे तो शायद दस सुन सकेंगे। दस सुनेंगे तो शायद एक चल सकेगा। इसलिए तुम बीज जितने दूर-दूर तक फेंको, फेंकना। क्योंकि हजार बीज फेंकोगे तो शायद एक बीज फल तक पहुंच सकेगा।
और यह मत सोचो कि जब तुम पूरे हो जाओगे तब यह कर सकोगे। तब तुम न कर सकोगे। और यह भी याद रखो हर वक्त कि जब तुम दूसरे से कह रहे हो तब उस कहने में इतने मत भूल जाना कि तुम्हारा ध्यान, तुम्हारा आत्म-भाव, तुम्हारी आत्म-स्मृति खो जाए। दूसरे की सहायता करना स्वयं को खोए बिना।
अगर ऐसा लगे कि दूसरे की सहायता करने में स्वयं अनिवार्यतः खोता है तो फिर दूसरे की फिकर छोड़ देना। क्योंकि अंतिम बात, महत्वपूर्ण बात, आखिरी चुनने की बात तो तुम्हारे जीवन का ज्योतिर्मय हो जाना है। अगर साथ-साथ, लगे हाथ, किसी दूसरे पर भी रोशनी पड़ जाए तो ठीक, लेकिन उसे लक्ष्य मत बना लेना।
चौथा प्रश्न:
भगवान, कितने वर्षों से मन एक होने की बात सीखता है, पर वह एक देखता नहीं। अच्छी लगती हैं ज्ञान की बातें, पर मन करने को राजी नहीं होता। इतने वर्ष चले गए सुनने में, पर परिवर्तन नहीं आता। वही द्वेष और अलग-अलग रूप दिखाई देते हैं। हमें भी वह दृष्टि दें जैसा आप देखते हैं, जिससे आप देखते हैं।
अड़चन परिवर्तन की आकांक्षा में है। क्या जरूरत है परिवर्तन की? द्वेष है तो है। उस पर इतना ध्यान क्यों दे रहे हैं? उससे लड़ने की जरूरत क्या है? माना कि गुलाब के पौधे में कांटे हैं। पर उन कांटों पर इतना ध्यान देने की जरूरत क्या है? फूल का ध्यान करें। और कांटे भी फूल की रक्षा के लिए हैं, कोई दुश्मन नहीं हैं। शुभ का फूल खिलाएं; अशुभ के कांटों की बहुत चिंता न करें। हैं तो हैं। राजी हो जाएं।
तो परिवर्तन आएगा। परिवर्तन चाहने से कभी परिवर्तन नहीं आता। परिवर्तन की चाह ही छोड़ दें। वह शिकायत शुभ नहीं, शोभा नहीं देती। प्रार्थना का भाव रखें, परिवर्तन का नहीं। परिवर्तन भी तो स्वयं को सजाने की ही आकांक्षा है--कि द्वेष न हो, कि क्रोध न हो, कि घृणा न हो। चरित्र हो चमकता हुआ, ज्योतिर्मय चरित्र हो। करुणा हो, अहिंसा हो, वीतरागता हो। यह आभूषणों की चाह भी क्यों? यह भी तो सजावट है। यह भी तो श्रृंगार की ही आकांक्षा है। यही चाह बाधा है। परिवर्तन की चाह ही परिवर्तन में बाधा है। मत चाहें।
तुमसे यह कहने को कोई दूसरा न मिलेगा। तुम जहां भी जाओगे लोग तुम्हें सिखाएंगे परिवर्तित होओ। छोड़ो क्रोध, यह बुरा है। छोड़ो काम, यह बुरा है। तुम जहां भी जाओगे लोग तुम्हें परिवर्तन के लिए प्रेरित करेंगे। और तुम परिवर्तित न हो सकोगे। और मैं तुम्हें परिवर्तन के लिए प्रेरित नहीं करता; क्योंकि मैं जानता हूं कि वही एकमात्र उपाय है परिवर्तन का। तुम सिर्फ राजी हो जाओ।
क्या करोगे वीतरागता का? राग है तो राग सही। जो उसकी मर्जी। परमात्मा तुमसे ज्यादा जानता है, इस भाव को गहन करो। और जो दे उसमें राजी रहो। चोर बनाए तो चोर, और बेईमान बनाए तो बेईमान, उसकी मर्जी। नाटक से ज्यादा मत समझो।
एक आदमी रावण बनता है नाटक में। तो क्या रोता है, चिल्लाता है कि मुझे राम बना दो? कि जाकर हाथ-पैर जोड़ता है कि मैं राम बनूंगा, रावण नहीं बन सकता? नहीं, इसकी कोई चिंता ही नहीं करता। क्योंकि सवाल रावण और राम बनने का नहीं है, सवाल अभिनय की कुशलता का है। रावण भी राम से बेहतर अभिनेता हो सकता है। तो प्रतिस्पर्धा वहां है। राम और रावण से क्या लेना-देना है? दोनों ही नाटक के पात्र हैं। दोनों ही कथानक के हिस्से हैं। बुरा भी कथा का हिस्सा है, भला भी कथा का हिस्सा है।
तुम्हें जो बना दिया, तुम्हें जो पात्र मिल गया पूरा करने को, उसे समग्रता से पूरा कर दो। वहीं से तुम्हारी धन्यता शुरू होगी। तुम कथा को बदलने का आग्रह मत करो। और तुम यह मत कहो कि मुझे यह बनाओ, मुझे वह बनाओ। मैं तो राम होना चाहता था; रावण बना दिया! तुम थोड़ा सोचो कि सभी राम होना चाहें--रामलीला खत्म। रामलीला चलती इसीलिए है, चल सकती इसीलिए है, कि कोई रावण भी बनने को राजी है।
इस जगत को एक बहुत बड़ा नाट्यघर समझो। इस पृथ्वी को समझो एक बड़ा मंच। जीवन को अभिनय से ज्यादा मत समझो। जो उसने दिया है उसे पूरा कर दो। उसे पूरे मन से पूरा कर दो। और तुम पाओगे, परिवर्तन हो गया। मैं तुमसे कहता हूं कि अगर रावण अपने पात्र को, अपने अभिनय को पूरा का पूरा कर दे तो राम हो गया। क्योंकि परिपूर्ण कुछ भी कर देने में परमात्मा प्रविष्ट हो जाता है। वह परिपूर्ण है। हम जब भी कुछ जीवन के हिस्से को पूरा का पूरा भाव से कर देते हैं, हम उससे जुड़ जाते हैं। और अगर राम भी बेमन से अभिनय कर रहे हों कि उन्हें कुछ रस न आ रहा हो, या उनकी भी कुछ इच्छा हो कि क्या जरूरत मुझे वनवास भेजने की चौदह वर्ष, यह मेरी सीता क्यों चुराई जाए, या इस तरह की बातें हों, तो राम भी रावण ही रह जाएंगे।
तो मेरी बात को ठीक से समझ लेना। अगर रावण भी पूरा कर दे कृत्य, बिना अपने को बीच में लाए, तो राम हो जाता है। अगर राम भी अपने कृत्य में ना-नुच करें, शिकायत करें, कहें कि थोड़ा यहां बदल दो कहानी को, तो राम भी राम होने से चूक जाते हैं। राम को जो दिया गया है रूप, जो पात्र होने का अभिनय मिला है, उसमें कोई मूल्य नहीं है। कैसे तुम उस पात्रता को निभाते हो, कितनी परिपूर्णता से, कितनी समग्रता से तुम निभाते हो, उस पर ही सब निर्भर है। वही गुणधर्म आना चाहिए।
तो मैं तुमसे कहूंगा, तुम राजी हो जाओ। परिवर्तन की जरूरत क्या है? तुम जैसे हो इतने भले हो, ऐसे सुंदर, तुम्हारी महिमा ऐसी है कि अब और क्या चाहिए? तुम्हें जो मिला है उसे तुम पूरा कर दो। दुकानदार हो, दुकानदार सही; संन्यासी की आकांक्षा मत करो। दुकान पर ही संन्यासी हो जाओगे। नौकर हो, नौकर; मालिक की आकांक्षा मत करो। अगर नौकर का भाव तुमने पूरा का पूरा प्रकट कर दिया तो तुम मालिक हो जाओगे। जंजीरें पड़ी रहें तुम्हारे हाथों पर, गुलामी तुम्हारा अभिनय हो, लेकिन अगर तुमने पूरे भाव से, समग्रता से कर दिया और तुम परमात्मा को धन्यवाद दे सके बिना किसी शिकायत के, तो तुम्हारी स्वतंत्रता अबाध है। कोई जंजीर तुम्हें रोक नहीं सकती; तुम्हारी मालकियत असीम है।
तो मैं तुम्हें स्क्रिप्ट बदलने को नहीं कहता कि तुम कथानक बदलो। मैं तुमसे कहता हूं, तुम स्वीकार करो। स्वीकार मेरा सूत्र है। और लाओत्से की भी सारी जीवन-दृष्टि स्वीकार की है।
और तुम चाहते हो, मेरी जीवन-दृष्टि तुम्हारी कैसे हो जाए।
यही रास्ता है। मैंने सब स्वीकार कर लिया है। मैं जैसा हूं, मैंने स्वीकार कर लिया है। फिर कोई कमी न रही। फिर सब भराव-भराव हो गया। फिर कोई रिक्तता न रही, सब पूर्णता हो गई। मैंने अपने में जरा भी फर्क नहीं किया है। इस राज को तुम ठीक से समझ लो। मैंने इंच भर भी कुछ अपने में कभी बदला नहीं है। जैसा था, मैं उससे राजी रहा हूं। उसी राजीपन से सब कुछ हो गया है।
अगर तुम मेरी जैसी जीवन-दृष्टि चाहते हो तो तुम्हें राजी होना पड़े। जो राजी है उसी को मैं आस्तिक कहता हूं। जो ना-राजी है उसी को मैं नास्तिक कहता हूं। ईश्वर को मानने न मानने का कोई सवाल आस्तिकता-नास्तिकता का नहीं है। आस्तिक वह है जो सारे जीवन को हां कह सकता है। और नास्तिक वह है जो कहता है--नहीं। नहीं में नास्तिकता है, हां में आस्तिकता है।
आखिरी सवाल:
ओशो. लाओत्से कहते हैं कि संत ही किसी देश का शासन करने की योग्यता रखते हैं। लेकिन कथा है कि उनके ज्ञानी शिष्य च्वांग्त्से ने उन्हें देश का प्रधानमंत्री बनाने का चीनी सम्राट का प्रस्ताव ठुकरा दिया था। लाओत्से के वचन की दृष्टि से तो सम्राट का प्रस्ताव सही है और च्वांग्त्से की अस्वीकृति गलत मालूम होती है, जब कि सब संत च्वांग्त्से के कृत्य की सराहना करने से नहीं थकते। संत के वचन और कृत्य के इस विरोधाभास पर प्रकाश डालें।
कथा है कि लाओत्से का शिष्य च्वांग्त्से नदी के किनारे बैठा मछली मार रहा था। उसके ज्ञान की खबर लोक-लोकांतर में पहुंच गई थी। सम्राट ने अपने वजीर भेजे कि वे च्वांग्त्से को पकड़ लाएं; जहां भी हो, खोज लाएं; उसे प्रधानमंत्री बनाना है।
सम्राट निश्चित लाओत्से के वचन पढ़ता रहा होगा। और संत शासक हो, यह बात उसे जंची होगी। अन्यथा च्वांग्त्से की कौन तलाश करता? लाओत्से तो चल बसा था इस संसार से, च्वांग्त्से मौजूद था। और ठीक उसी हैसियत का आदमी था। इंच भर फर्क नहीं। च्वांग्त्से यानी लाओत्से। ठीक वही भाव-दशा थी।
वजीर खोजते हुए आए। पहले तो बड़ी मुश्किल पता लगाने की हुई कि च्वांग्त्से कहां है। क्योंकि च्वांग्त्से तो आवारा फकीर था। आज इस गांव, कल दूसरे गांव। क्योंकि लाओत्से ने उससे कहा था, ज्यादा देर एक जगह मत रुकना। क्योंकि लोग जब जान लेते हैं, प्रसिद्धि फैल जाती है। लोग जब मानने लगते हैं कि तुम कुछ बहुत विशिष्ट हो, उसके पहले वहां से हट जाना। जहां लोग तुम्हें न जानते हों वहीं रहना। क्योंकि वहीं तुम साधारण रह सकोगे। तो वह एक गांव से दूसरे गांव चलता रहता था। बामुश्किल तो वजीर पता लगा पाए। फिर उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि च्वांग्त्से जैसा आदमी और मछली मारता मिलेगा।
लाओत्से के शिष्य बड़े अनूठे हैं, बड़े असाधारण। क्योंकि उन्होंने एक बड़ी अदभुत कला सीखी है, वह है साधारण होने की कला। वे साधारण आदमी से भिन्न कुछ भी नहीं करते। फिर साधारण आदमी मछली मारता तो च्वांग्त्से भी मछली मारता। कहीं अपने को विशिष्ट करके खड़ा नहीं करता। और यह बड़ी गहरी बात है। कभी भी यह नहीं कहता कि यह बुरा है, वह भला है। जैसा साधारण आदमी जीता है, वैसा जीता है। साधारणता ही उसकी साधना है।
वजीर पहुंचे और उन्होंने च्वांग्त्से को कहा कि हम निमंत्रण लाए हैं सम्राट का, प्रसन्न हो जाओ। तुम्हारे भाग्य कि प्रधानमंत्री बनाने को सम्राट राजी है। चलो राजधानी!
च्वांग्त्से वैसे ही बैठा रहा अपनी बंसी हाथ में लिए। उसने कहा कि मैंने सुना है--उसके चेहरे पर कोई भाव-परिवर्तन न हुआ, मछली के मारने का काम जारी रहा--उसने कहा, मैंने सुना है कि राजमहल में एक कछुआ है तीन हजार साल पुराना। और उस कछुए की पूजा की जाती है, और विशेष पर्वों पर उसे निकाला जाता है स्वर्ण के रथों में। और खुद सम्राट उसके चरणों में झुकता है। और वह सोने के पात्र में रखा गया है। और उसके ऊपर हीरे-जवाहरात जड़े हुए हैं। लेकिन मैं तुमसे यह पूछता हूं कि देखो, वह नदी के किनारे पर एक कछुआ मिट्टी के गड्ढे में कीचड़ में अपनी पूंछ हिला रहा है। अगर तुम इस कछुए से कहो कि तू राजमहल का सोने की पेटी में बंद कछुआ होना चाहेगा या तू मिट्टी में अपनी पूंछ हिलाना ही पसंद करता है, तो यह कछुआ क्या कहेगा?
वजीरों ने कहा कि साफ है कि कछुआ कहेगा कि मैं मिट्टी में ही अपनी पूंछ हिलाऊंगा। क्योंकि जीवित हूं।
तो च्वांग्त्से ने कहा, यही मेरी भी खबर सम्राट से कह देना कि मैं भी मिट्टी में ही पूंछ हिलाना पसंद करता हूं। कम से कम जीवित हूं।
यह कथा है। तो प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि लाओत्से कहता है कि शासक संत को होना चाहिए, और यह मौका सम्राट ने खुद दिया था च्वांग्त्से को, तो अपने गुरु का वचन मान कर उसे शासक हो जाना था। और एक मौका था कि वह दिखाता कि संत का शासन कैसे होता है। तो इसमें तो ऐसा लगता है कि च्वांग्त्से ने अपने गुरु की आज्ञा का उल्लंघन किया इनकार करके। सम्राट ही लाओत्से के ज्यादा अनुकूल मालूम पड़ता है बजाय च्वांग्त्से के।
नहीं! च्वांग्त्से बिलकुल अनुकूल है। बहुत सी बातें समझनी जरूरी हैं।
पहली बात, सम्राट प्रधानमंत्री बनाना चाहता था, शासक नहीं। अगर सम्राट ने ठीक से लाओत्से को समझा होता तो वह कहता कि तुम हो जाओ सम्राट, मैं तुम्हारा सेवक। च्वांग्त्से सेवक ही रहता, शासक नहीं होने वाला था। प्रधानमंत्री नौकर है। आज लिया, कल अलग किया। कोई शासक होने वाला नहीं था। वह गुलाम ही रहता। सम्राट ही उसे चलाता। और जैसा सम्राट कहता वैसा उसे करना पड़ता। और कोई भी ज्ञानी पुरुष अज्ञानी पुरुष की आज्ञाएं मान कर चलने को राजी नहीं हो सकता; क्योंकि वह बात ही बेहूदी है। अगर सम्राट बनाने का आमंत्रण होता तो कथा दूसरी होती। निमंत्रण सम्राट होने का नहीं था। वह सम्राट समझ नहीं पाया। लाओत्से को पढ़ता होगा, समझ नहीं पाया। प्रधानमंत्री बनाने के लिए बुलाने की बात ही गलत थी।
फिर दूसरी बात। लाओत्से कहता है, संत वही है जिसके मन में शासक होने की इच्छा नहीं है।
अब जरा हम गहरे जल में उतरते हैं। क्योंकि यह विरोधाभास हो गया। लाओत्से कहता है, संत वही है जिसकी शासक की कोई इच्छा नहीं है, शासक होने की। दूसरों के ऊपर मालकियत करने की जिसकी कोई आकांक्षा नहीं, वही संत है।
अगर लाओत्से की बात ठीक है तो च्वांग्त्से ने इनकार करके ठीक किया। इससे उसने जाहिर किया कि उसके मन में शासक होने की कोई इच्छा नहीं है। और शासकों को वह मुर्दे समझता है, मरे हुए, चाहे वे सिंहासनों पर बैठे हों। उनसे बेहतर तो वह समझता है एक कछुए को जो कीचड़ में पूंछ हिला रहा है और मस्त है, जो अपने स्वभाव में जी रहा है और मस्त है। च्वांग्त्से ने खबर दी कि वह पहुंच चुका है संतत्व को; कोई आकांक्षा नहीं है। कोई दूसरा होता तो फेंक कर बंसी उठ कर खड़ा हो जाता कि जल्दी करो, कहां चलना है!
शासक होने की कोई आकांक्षा नहीं है, यह संत का लक्षण है। सम्राट अगर सच में ही लाओत्से को समझता था, तो च्वांग्त्से को इतनी आसानी से छोड़ नहीं देना था। क्योंकि च्वांग्त्से ने तो सिर्फ खबर दी थी अपनी भाव-दशा की। सम्राट को भागा हुआ जाना था इसके चरणों में, गिर पड़ना था चरणों में। तो कथा दूसरी होती। लेकिन च्वांग्त्से ने इतना कहा, फिर कोई पता नहीं कि कहानी का क्या हुआ। फिर दुबारा कभी सम्राट के आदमी न आए। च्वांग्त्से जैसे आदमी को निमंत्रण करना हो तो आदमियों को नहीं भेजना चाहिए निमंत्रण पर। सम्राट की अकड़ है वह। च्वांग्त्से जैसी महाप्रतिभा को लाना हो तो सम्राट को खुद आना था। और यह खबर पाकर तो आना ही था।
अब तुम समझ लो बात को। अगर च्वांग्त्से राजी हो जाता तो वह संत ही न था। सम्राट राजी हो गया उसके इनकार को, वह लाओत्से को समझा ही न था। तब कथा बिलकुल दूसरी होती। और संत को बुलाने के ये ढंग नहीं हैं। क्योंकि संत का अर्थ है परम स्वतंत्रता। यही वह कह रहा है कि एक कछुआ परम स्वतंत्रता में भी ठीक है; अपना स्वभाव तो है। तुम मुझे वजीर बनाना चाहते हो, बड़ा वजीर सही, लेकिन हो तो जाऊंगा गुलाम। तुम चलाने लगोगे मुझे, तुम बताने लगोगे क्या करना उचित है, क्या करना उचित नहीं है। तुम्हारे रीति-नियम मुझे चलाने लगेंगे। और मेरा उपयोग इतना ही हो सकता है कि मेरी जीवन-चेतना तुम्हें चलाए।
यह नहीं होने वाला था। इसलिए दुबारा सम्राट ने फिकर न की। इनकार हो गया, बात खत्म हो गई। इनकार से तो समझना था कि यह आदमी सच में ही बहुमूल्य है। स्वीकार कर लेता तो बेकार था। अगर लाओत्से की बात मान कर च्वांग्त्से चला जाता तो बेकार था। तुम्हें एक कहानी कहूं, उससे तुम्हें समझ में आ सके।
एक झेन फकीर मर रहा था। उसने अपने एक शिष्य को पास बुलाया। उसके हजारों शिष्य थे। और उसने इस शिष्य को कहा कि देखो, मैं मर रहा हूं। और मेरे गुरु ने मरते वक्त मुझे यह शास्त्र दिया था जिसे मैंने जीवन भर सम्हाल कर रखा है। और तुम भी जानते हो कि यह हमेशा मेरे तकिए के पास रखा रहता है। इसे मैंने अपने प्राणों की संपदा समझी। इसमें हमारे प्राचीन गुरुओं के सब अनुभव लिखे हैं। और इसमें मैंने मेरे अनुभव भी संयुक्त कर दिए हैं। इसे तुम सम्हाल कर रखना। यह बहुमूल्य थाती है; खो न जाए!
शिष्य ने कहा, व्यर्थ की बातचीत न करो। जो मुझे पाना था वह मैंने बिना शास्त्र के पा लिया है। इस कचरे को तुम्हीं रखो। शिष्य ने ऐसा कहा!
गुरु ने कहा, यह अभद्रता है। और जब मैं तुम्हें आज्ञा दे रहा हूं, मरता हुआ गुरु, तो तुम्हें इस तरह की बात शोभा नहीं देती। शास्त्र को सम्हालो! क्योंकि मैं मर रहा हूं, अब कौन सम्हालेगा इसको?
शिष्य ने हाथ में शास्त्र ले लिया; पास में जलती थी आग, सर्द रात थी, उस आग में फेंक दिया।
गुरु प्रसन्न हुआ, आनंदित हुआ। और उसने कहा कि अगर तुम सम्हाल कर रख लेते तो मैं समझता सब खो गया, मेरी मेहनत बेकार गई। और अब मैं तुम्हें बता देता हूं, उस शास्त्र में कुछ भी न था, वह कोरी किताब है। मेरे गुरु ने मुझे धोखा दिया; उनके गुरु ने उन्हें धोखा दिया; मैं तुझे देने की कोशिश कर रहा था। उसमें कुछ है नहीं। किसी ने कुछ लिखा नहीं है। क्योंकि एक ही तो अनुभव है: आखिरी कोरापन। जिस दिन तुम कोरी किताब हो गए उस दिन तुम शास्त्र हो गए। और तूने आज भला किया कि तूने आग में फेंक दिया। अगर तू जरा भी चूक जाता और सम्हाल कर रख लेता तो मैं बड़ा दुखी मरता। अब मैं तेरे साथ अपना शास्त्र छोड़े जा रहा हूं। तूने ठीक से बचा लिया। जो बचाने योग्य था वह बचा लिया; जो फेंकने योग्य था वह फेंक दिया।
लाओत्से जरूर प्रसन्न हुआ होगा, उसकी आत्मा आनंदित हुई होगी, जब च्वांग्त्से ने कह दिया कि जाओ, भाग जाओ, मैं भी इस कछुए की भांति अपने स्वभाव, अपनी साधारणता में मस्त हूं। तुम्हारे राजमहलों में मरे हुए मुर्दे रहते हैं, जिंदों का वहां वास नहीं। तुम किसी मरे हुए आदमी को खोज लो। मेरी वहां क्या जरूरत है?
नहीं, च्वांग्त्से लाओत्से के विपरीत नहीं जा रहा है, ठीक अनुसरण कर रहा है। अगर चला जाता तो लाओत्से की आत्मा रोती।
संतत्व का शासन साधारण शासन जैसा शासन नहीं है। वह ऊपर से आरोपित नहीं किया जाता। कोई राजा किसी संत को बिठाल दे वजीर बना कर तो कोई संत का शासन नहीं हो जाता। शासन तो राजा का ही रहेगा। वह संत की महिमा का भी उपयोग कर लेगा अपनी राजनीति में।
संत का शासन तो शासित के हृदय से आता है; कोई उसे आरोपित नहीं कर सकता। जिन्हें संत से शासित होना है वे स्वयं ही दूर-दूर की यात्रा करके चले आते हैं। वह शासन अंतर्हृदय का है। वह समर्पण से फलित होता है। तुम खुद ही आकर कह देते हो कि अब मुझे शासन दो। तुम खुद ही अपने को समर्पित कर देते हो। तब च्वांग्त्से इनकार नहीं करता। तब वह तुम्हें स्वीकार कर लेता है।
जिस दिन तुम उसके सामने झुक जाते हो, उसी दिन--उसी दिन उसका होना, उसका अस्तित्व तुम्हारे रूपांतरण में संलग्न हो जाता है। वह कोई कृत्य नहीं है संत के लिए कि वह कुछ करके तुम्हारा रूपांतरण करता है। उसका होना ही पर्याप्त है। तुम झुको भर, गंगा तो बह ही रही है। तुम जरा झुको भर और प्यास को बुझा लो।
आज इतना ही।
आप कहते हैं कि भगवान, कुछ होने, बनने या बिकमिंग की चेष्टा मत करो, बस जो हो वही हो रहो--जस्ट बीइंग। विस्तार से बताएं कि यह कैसे साधा जाए?
साधने की बात ही पूछी कि समझने से चूक गए। क्योंकि साधने का अर्थ ही यह होता है कि कुछ होने की चेष्टा शुरू हो गई। जब मैं कहता हूं, जो हैं, जैसे हैं, वैसे ही रहें, तो साधने का सवाल नहीं उठता। साधने का तो मतलब ही यह है कि जो हम नहीं हैं वह होने की कोशिश शुरू हो गई। तो समझे नहीं।
कुछ भी साधने का अर्थ है कि असंतोष है; जैसे हैं वैसे होने में तृप्ति नहीं है। मन कह रहा है, कुछ और हो जाएं। थोड़ा धन है, ज्यादा धन इकट्ठा कर लें। थोड़ा ज्ञान है, ज्यादा ज्ञान इकट्ठा कर लें। थोड़ा त्याग है, और बड़े त्यागी हो जाएं। ध्यान का थोड़ा-थोड़ा रस आ रहा है, समाधि का रस बना लें। सभी एक सा है; कुछ फर्क नहीं। क्योंकि सवाल न धन का है और न ध्यान का, सवाल तो और ज्यादा की मांग का है।
तो चाहे धन मांगो तो भी सांसारिक, चाहे ध्यान मांगो तो भी सांसारिक। जहां और की मांग है वहां संसार है। और जब तुम और नहीं मांगते, तुम जैसे हो परम प्रफुल्लित हो, अनुगृहीत हो; जैसे हो--बुरे-भले, काले-गोरे, छोटे-बड़े--जैसे हो उस होने में ही तुमने परमात्मा को धन्यवाद दिया है, तत्क्षण क्रांति घटित हो जाएगी। कुछ साधना न पड़ेगा। क्योंकि जब तक तुम साधते हो, तुम्हारा अहंकार खड़ा रहेगा। तुम्हीं तो ध्यान करोगे। अहंकार ही तो तुमसे कहेगा कि देखो कुंडलिनी जाग रही है, कि देखो प्रकाश दिखाई पड़ता है, कि नील-तारा प्रकट होने लगा, कि चक्र जागने लगे। कौन कहेगा तुमसे? कौन अकड़ेगा? कौन रस लेगा इसका? वह सब अहंकार है। वही अहंकार तो बाधा है।
परम संतुष्ट व्यक्ति का कोई अहंकार नहीं हो सकता, क्योंकि वह कुछ कर ही नहीं रहा है जिससे अहंकार भर जाए। वह ध्यान भी नहीं कर रहा है। ध्यान कभी कोई कर सकता है? ध्यान का अर्थ है परितोष, ए डीप कंटेंटमेंट, जहां कोई एक लहर भी असंतोष की नहीं उठती।
फिर तुम कहोगे, बड़ी मुश्किल है; असंतोष की लहर तो उठती है, कुछ और होने का मन होता है।
मन का स्वभाव यही है कि वह तुमसे कहता है, कुछ और हो जाओ। तुम मोक्ष में भी चले जाओगे तो मन कहेगा, और खोजो, कुछ और हो जाओ। तुम परमात्मा भी हो जाओगे तो मन कहेगा, इतने से कहीं कुछ होता है, कुछ और हो जाओ। मन और की मांग है। और जहां तक मन है वहां तक ध्यान नहीं। मन असंतोष है। जहां तक असंतोष है वहां तक कोई धन्यवाद नहीं, कोई अनुग्रह का भाव नहीं, वहां तक शिकायत है।
होने की दौड़ को समझ लो कि होने की दौड़ ही भ्रांत है। तुम जो भी हो सकते हो वह तुम हो। जब तक दौड़ोगे तब तक चूकोगे। जब तक खोजोगे तब तक खोओगे। जिस दिन खोज भी छोड़ दोगे, दौड़ भी छोड़ दोगे, बैठ जाओगे शांत होकर कि न कहीं जाना है, यही जगह मंजिल है; न कुछ होना है, यही होना आखिरी है; उसी क्षण क्रांति घटित हो जाती। तुम्हारे करने से क्रांति घटित नहीं होती। तुम्हारे किए तो जो भी होगा उपद्रव ही होगा, क्रांति नहीं होगी। जब तुम्हारा करने का भाव ही खो जाता है, तत्क्षण क्रांति हो जाती है। क्रांति आती है, अवतरित होती है तुम पर। तुम जिस दिन कुछ भी न करने की अवस्था में होते हो उसी क्षण तालमेल बैठ जाता है, उसी क्षण सब सुर सध जाते हैं। उसी क्षण तुम और विराट के बीच जो विरोध था वह खो जाता है।
विरोध क्या है? विरोध यह है कि परमात्मा तुम्हें कुछ बनाया है, तुम कुछ और बनने की कोशिश में लगे हो। गुरजिएफ का एक बहुत प्रसिद्ध वचन है। बहुत मुश्किल है समझना, लेकिन मेरी बात समझते हो तो समझ में आ जाएगा। गुरजिएफ कहता है कि सभी साधक, सभी महात्मा परमात्मा से लड़ रहे हैं। परमात्मा ने तो तुम्हें यह बनाया है जो तुम हो। अब तुम परमात्मा पर भी सुधार करने की कोशिश में लगे हो। इसलिए गुरजिएफ कहता है, सभी धर्म परमात्मा के खिलाफ हैं। समझना बहुत मुश्किल होगा। बात बिलकुल ठीक कह रहा है। परमात्मा के जो पक्ष में है उसका क्या धर्म? जब साधने को कुछ न बचा तो धर्म कहां बचेगा? न वह साधता है, न वह दौड़ता है, न वह मांगता है। उसकी कोई आकांक्षा नहीं।
इसलिए तो कबीर कहते हैं: साधो सहज समाधि भली।
सहज समाधि का यह अर्थ है जो मैं कह रहा हूं: कुछ न किए सध जाए वही सहज समाधि। तुम्हारे करने से जो सधे वह तो असहज होगी; वह सहज नहीं होगी। वह चेष्टित होगी। और जो चेष्टा से होगी वह तुमसे बड़ी नहीं होगी। तुम्हारी चेष्टा तुमसे बड़ी कैसे हो सकेगी, थोड़ा सोचो! तुम ही जो करोगे वह तुम्हें तुमसे ऊपर कैसे ले जा सकेगा, जरा विचारो! यह तो ऐसे ही है जैसे कोई जूते के बंद पकड़ कर खुद को उठाने की कोशिश में लगा हो। सभी साधक यही कर रहे हैं।
छोड़ो यह नासमझी। साधक कभी नहीं पहुंचता। साधक पहुंच ही नहीं सकता, सिद्ध ही पहुंचता है। और सिद्ध का अर्थ साध-साध कर नहीं सधता। सिद्ध तुम हो। तुम्हें जो भी मिल सकता है मिला ही हुआ है; जरा सी पहचान की कमी है। जिस खजाने की तुम तलाश कर रहे हो वह छिपा ही हुआ है; जरा पर्दे का उठाना है।
दिल के आईने में है तस्वीर-यार
जब जरा गर्दन झुकाई देख ली
थोड़ी सी गर्दन झुकने की बात है। वह गर्दन झुकना ही अहंकार का झुकना है। और जब तक तुम करोगे तब तक गर्दन अकड़ी रहेगी। कर्ता का भाव गर्दन का न झुकना है। अकर्ता का भाव कि मेरे किए क्या होगा। मैं हूं कौन? मेरी सामर्थ्य क्या? असहाय हूं। न कोई सामर्थ्य है, न कुछ कर सकता हूं। श्वास चलती है तो चलती है, नहीं चलेगी तो क्या करोगे? सूरज निकलता है तो निकलता है, नहीं निकलेगा तो क्या करोगे? जीवन है तो है, नहीं हो जाएगा तो क्या करोगे? तुम्हारा बस कितना है? और तुम मोक्ष खोजने चले हो! और तुम परमात्मा की तलाश कर रहे हो! और तुम अमृत-पथ के यात्री बनने की आकांक्षा रखे हो! तुम्हारी सामर्थ्य कितनी है?
जैसे ही कोई अपनी सामर्थ्य को समझता है, अर्थात अपनी असामर्थ्य को पहचान लेता है, जैसे ही कोई अपनी शक्ति को पहचानता है, वैसे ही अपनी अशक्ति की परिपूर्णता पता चल जाती है। उसी क्षण तुम ठहर जाते हो, दौड़ना रुक जाता है। तुम बैठ जाते हो, खड़े होना विदा हो जाता है। तुम झुक जाते हो, अकड़ खो जाती है। उसी झुकाव में--जब जरा गर्दन झुकाई--वह घड़ी आ जाती है जिसको तुम खोज-खोज कर न खोज सके। जिसे तुम खोज रहे थे वह खुद ही तुम्हारे द्वार पर आ जाता है। वह द्वार पर ही खड़ा था। लेकिन तुम खोज में इतने व्यस्त थे कि फुरसत न थी कि तुम उसे देख लो। वह तुम्हारे भीतर बैठा था, तुम कहीं और तलाश रहे थे।
जब तलाश बंद हो जाती है तो तुम अपने भीतर देखोगे। करोगे क्या और? जब सब तलाश खो जाएगी, जब तुम पहली दफा अपने आमने-सामने खड़े होओगे, उस घड़ी में ही सब सध जाता है बिना साधे।
कबीर कहते हैं: अनकिए सब होय।
तुमने किया कि बिगाड़ा। तुमने कर-कर के ही तो बिगाड़ा है। इतनी लंबी यात्रा कर रहे हो। तुम न करो। थोड़ी देर भी न करके देखो; सब सुधर जाता है। तुम चुप हुए कि अस्तित्व तुम्हारे आस-पास ठीक होने लगता है। तुम मौन हुए कि विकृतियां अपने आप बैठने लगती हैं। ऐसे ही जैसे नदी बहती है, कूड़ा-कर्कट उठ आता है; तुम किनारे बैठ जाते हो, थोड़ी देर में कूड़ा-कर्कट अपने से बह जाता है, धूल-धवांस नीचे बैठ जाती है।
भूल कर भी नदी में मत उतर जाना सफाई करने के लिए। नहीं तो तुम्हारी सफाई करने की कोशिश, तुम और कीचड़-कबाड़ को उठा दोगे। नदी और गंदी हो जाएगी। अनकिए सब होय। तुम न करना सीख लो। मत पूछो कैसे साधें! क्योंकि तुम फिर वही अपनी नासमझी ले आए। इतना ही पूछो कि कैसे समझें? साधने में कृत्य है; समझ में कोई कृत्य नहीं है। और ध्यान रखना, जितने लोग तुम्हें साधते हुए मिलेंगे, तुम उन्हें नासमझ पाओगे। असल में, बुद्धू ही साधते हैं; ज्ञानी समझते हैं। साधने को यहां कुछ है नहीं। सब सधा ही हुआ है। तुम्हारे लिए रुका था कुछ? तुम नहीं थे तब भी सब सधा था; तुम नहीं हो जाओगे तब भी सब सधा रहेगा। चांद-तारे चल रहे हैं। सूरज निकल रहा है। इतना विराट विश्व सधा है--तुम्हारे बिना साधे।
लेकिन तुम उसी भ्रांति में हो। मैंने सुना है, एक छिपकली को उसके मित्रों ने भोज के लिए निमंत्रित किया। कहीं शादी-विवाह था। छिपकली ने कहा, मैं न आ सकूंगी। इस महल को कौन सम्हालेगा? मैं रहती हूं तो छप्पर सम्हला रहता है। मैं गई कि छप्पर गिरा।
तुम उस छिपकली की भांति हो जो नाहक परेशान हो रहे हो। महल का छप्पर छिपकली से नहीं सधा है, छप्पर के कारण छिपकली सधी है। तुम्हारे साधने के लिए बचा क्या है? सब सधा ही हुआ है। तुम अकारण श्रम मत उठाओ। जैसे ही तुम समझोगे, सब साधना व्यर्थ हो जाती है।
तो अगर तुम मुझसे पूछो कि फिर साधना का प्रयोजन क्या है? साधना का कुल प्रयोजन इतना है कि जब तक तुम समझे नहीं हो और समझने को राजी नहीं हो तब तक तुमसे कुछ करवाए रखना जरूरी है। यह करवाना ऐसे है जैसे बच्चों को मिठाई दे दी जाती है; मिठाई के कारण वे रुके रहते हैं। यह करवाना वैसे ही है जैसे दवा के ऊपर हम शक्कर की एक पर्त चढ़ा देते हैं। तुम बिना किए न मानोगे, तुम्हारा मन कहता है, कुछ करना है, इसलिए तुम्हारे मन को करने को कुछ दे देते हैं।
ये जितनी विधियां हैं ध्यान की, सब तुम्हारे मन को कुछ करने के लिए देना है। धीरे-धीरे ताकि तुम्हें खुद ही बोध आए कि किए कहीं कुछ होता है! एक दिन ऐसी घड़ी आएगी कि करते-करते तुम जाग जाओगे और देखोगे कि क्या कर रहे हो, इस करने से कुछ भी नहीं होता। करना हाथ से छूट जाएगा और टूट जाएगा और बिखर जाएगा पारे की तरह। फिर तुम उसे इकट्ठा न कर पाओगे। और उसी घड़ी सब हो जाएगा।
सब तैयारी उस घड़ी को लाने की है जब तुम थोड़ी देर के लिए न करने को राजी हो जाओ। अगर तुम अभी राजी हो तो अभी हो जाएगा। इसी क्षण हो सकता है। आध्यात्मिक जीवन, आत्मिक जीवन का रूपांतरण, भविष्य की प्रतीक्षा नहीं कर रहा है; वह इसी क्षण हो सकता है। तुम बिलकुल पूरे हो। कुछ कमी नहीं है जिसको पूरा करने के लिए समय लगे। सिर्फ आंख झुकानी थोड़ी। अपने को देखना थोड़ा। उसमें तुम जितनी देर लगा दो, तुम्हारी मर्जी। तुम मंदिर के चारों तरफ जितनी देर परिक्रमा करते रहो, तुम्हारी मर्जी। अन्यथा मंदिर का सिंहासन खाली है, आ जाओ और बैठ जाओ। तुम किसकी परिक्रमा लगा रहे हो? तुम मंदिर के सिंहासन पर बैठने को बने हो, परिक्रमा लगाने को नहीं। और जब तक परिक्रमा लगाते रहोगे, साफ है कि सिंहासन पर बैठ न सकोगे।
मत पूछो कैसे साधें! बस समझो। समझे कि तुम पाओगे: गूंगे केरी सरकरा, खाय और मुस्काय। कुछ साधने को नहीं है।
यह बड़ा कठिन लगता है। मन कहता है कि पहाड़ पर भी चढ़ना हो, हिमालय पर, तो भी कोई हर्जा नहीं। कुछ तो करने को कहो, हम कर लेंगे। गौरीशंकर भी चढ़ जाएंगे। कितनी ही मुसीबत होगी, पार कर लेंगे। मन हर तरह की कठिनाई से लड़ने को तैयार है। मन लड़ने की तैयारी है। और जब मैं कहता हूं, कुछ भी नहीं करना, तो मन कहता है, बड़ी मुसीबत हो गई। लड़ने को कुछ नहीं, करने को कुछ नहीं; फिर होगा कैसे? जैसे तुम्हारे करने से सब हो रहा है।
तुमने सुनी है कहानी उस बूढ़ी औरत की जो नाराज हो गई गांव से और अपने मुर्गे को लेकर दूसरे गांव चली गई। क्योंकि गांव वालों से उसने कहा कि मेरा मुर्गा बांग देता है इसलिए सूरज निकलता है। गांव में लोग हंसने लगे। किसी ने उसकी मानी नहीं। उसने कहा, फिर पछताओगे। अगर मैं दूसरे गांव चली गई तो सूरज वहां निकलेगा; जहां मेरा मुर्गा बांग देगा वहां सूरज निकलेगा। फिर रोओगे, छाती पीटोगे अंधेरे में। लोग हंसते रहे; किसी ने उसकी मानी नहीं। बूढ़ी अपने मुर्गे को लेकर दूसरे गांव चली गई। दूसरे दिन सुबह मुर्गे ने बांग दी दूसरे गांव में, सूरज निकला। बूढ़ी ने कहा, अब रोते होंगे।
सूरज के निकलने के कारण मुर्गा बांग देता है; मुर्गे के बांग देने के कारण सूरज नहीं निकलता। परमात्मा के निकट आने के कारण ध्यान लगता है; ध्यान लगने के कारण परमात्मा निकट नहीं आता। तुम्हारे करने का कुछ नहीं है। एक गहन प्रतीक्षा मौन। एक गहन प्रतीक्षा; और जो हो, जैसे हो, उससे राजी हो जाना। इसको लाओत्से तथाता कहता है--टोटल एक्सेप्टबिलिटी। और खयाल रखना, समग्र, टोटल, उससे कम में न चलेगा।
तब तुम पूछते हो, लेकिन मन में अशांति है, क्या करें? स्वीकार करो कि है; कुछ मत करो। तुम कहते हो, क्रोध होता है। स्वीकार करो कि क्रोध होता है--है। कुछ मत करो। होने दो क्रोध, राजी रहो। तुम कहते हो, कामवासना है। है। न तुमने बनाई है, न तुम मिटा सकोगे। जो तुमने बनाया ही नहीं उसे तुम मिटाओगे कैसे? कामवासना न होती तो तुम पैदा कर सकते थे? है तो तुम कैसे मिटा सकोगे? जिसने दी है वही ले लेगा। जिसने बनाई है वही मिटाएगा। तुम्हारे किए कुछ भी न होगा। तुम राजी हो जाओ कि जो तेरी मर्जी।
इसी को मैं प्रार्थना कहता हूं। जिस दिन तुम्हारा हृदय परिपूर्ण रूप से कह सके: जो तेरी मर्जी। अगर वासना में भटकाना है, राजी हूं। अगर ब्रह्मचर्य में ले जाना है, राजी हूं। अगर क्रोध करवाना है और जगत का निकृष्टतम आदमी बनाना है, राजी हूं। अगर करुणा से भरना है और जगत में श्रेष्ठतम उठाना है, राजी हूं। मेरी कोई मर्जी नहीं, तेरी मर्जी। तेरी मर्जी का भाव! कोई शिकायत नहीं! और तुम पाओगे, क्षण की देर नहीं लगती। एक पल भी नहीं खोता और द्वार पर मंजिल आ जाती है। बिना चले आती है मंजिल; बिना हिले-डुले मोक्ष मिल जाता है।
यह गहनतम सार है समस्त ज्ञानियों का।
न रुचे, न जंचे, फिर अज्ञानियों से पूछो। वे तुम्हें बहुत रास्ते बताएंगे। जब अज्ञानियों से थक जाओ तब मेरे पास आना। उसके पहले तुम मुझे समझ ही न पाओगे। पहले तुम अज्ञानियों के साथ खूब उलटा-सीधा कर लो, शीर्षासन लगा लो, आड़े-टेढ़े व्यायाम कर लो, तंत्र-मंत्र सब कर आओ। जब तुम थक जाओ कर-करके, न पाओ, तब मेरे पास आ जाना। क्योंकि मैं तो न करना सिखाता हूं।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, आपने कहा कि व्यक्ति में सौ प्रतिशत अच्छा या बुरा हो नहीं सकता। लेकिन क्या आप स्वयं ही सौ प्रतिशत शुभ के प्रतीक नहीं? मैं आपमें कुछ भी बुराई नहीं देख पाता हूं। या यह प्रश्न इसलिए ही उठ रहा है कि मैं कुछ न कुछ बुराई देखने की कामना रखता हूं?
निश्चित ही! मन किसी भी चीज में सौ प्रतिशत नहीं देख सकता। वह मन की क्षमता नहीं है। क्योंकि मन द्वंद्व के बिना सोच नहीं सकता। अगर तुमने कहा कि सौ प्रतिशत भलाई दिखाई पड़ती है तो कहीं न कहीं अचेतन में बुराई का कोई न कोई बादल भटक रहा है। अन्यथा भलाई भी कैसे दिखाई पड़ेगी?
भलाई के लिए भी बुराई की पृष्ठभूमि चाहिए। सफेद खड़िया की लकीर खींचनी हो तो काला ब्लैकबोर्ड चाहिए। कैसे पहचानोगे कि यह भलाई है? मुझसे लगाव हो, मुझसे प्रेम हो, मुझसे मोह बन गया हो, तो मन सारी बुराई को अचेतन में डाल देगा, सारी भलाई को ऊपर उठा लेगा। सौ प्रतिशत दिखाई पड़ेगी, लेकिन हो नहीं सकती। अचेतन में खोजोगे तो पाओगे, कुछ बुराई दिखाई पड़ती है। शायद वह बुराई दिखाई न पड़े, इसीलिए चेतन मन दोहराए चला जाता है कि नहीं, सौ प्रतिशत ठीक।
पर यह स्वाभाविक है। इससे कुछ चिंता लेने जैसी नहीं है। मन द्वंद्व में ही देख सकता है। जिस दिन तुम मन के बाहर होकर मुझे देखोगे, न मैं बुरा दिखाई पडूंगा, न भला; न साधु, न असाधु; न शुभ, न अशुभ। क्योंकि दोनों एक साथ चले जाते हैं, या दोनों साथ-साथ रहते हैं। जैसे सिक्के के दो पहलू साथ ही साथ होंगे, तुम एक पहलू न बचा सकोगे। हां, इतना कर सकते हो, एक पहलू नीचे दबा दो, एक पहलू ऊपर उठा लो; जो ऊपर का है वह दिखाई पड़े, जो नीचा है वह दबा रहे। लेकिन नष्ट नहीं हो गया, वह मौजूद है। सिक्के को या तो पूरा बचाओ तो दोनों पहलू बचते हैं, या पूरा फेंको तो दोनों पहलू जाते हैं। तो जब तक तुम्हें शुभ दिखाई पड़े, जानना कि कहीं न कहीं पृष्ठभूमि में अशुभ छिपा हुआ है। नहीं तो बैकग्राउंड कौन बनेगा? शुभ दिखाई कैसे पड़ेगा?
जब कोई व्यक्ति समर्पित होता है तो पहली घटना यही घटती है कि सौ प्रतिशत अच्छा दिखाई पड़ता है गुरु। यहां रुक मत जाना। क्योंकि यहां अंधेरे में छिपी पृष्ठभूमि मौजूद है। यह घड़ी भी कीमती है। ऐसा अनुभव होना भी कि कोई सौ प्रतिशत ठीक है, श्रद्धा की बड़ी ऊंचाई है। लेकिन यह अंतिम नहीं है। एक कदम और लेना जरूरी है। तब श्रद्धा की अंतिम छलांग लगती है। तब न गुरु भला रह जाता, न बुरा। क्योंकि जब तक मैं भला हूं तब तक मेरे बुरे होने की संभावना शेष है। कभी भी पांसा पलट सकता है। कभी भी जो पहलू नीचे दबा है ऊपर आ सकता है। हवा का जरा सा झोंका और सब बदल जा सकता है। इस पर बहुत भरोसा मत करना।
एक छलांग और, जब मैं न बुरा रह जाऊं, न भला। फिर तुम मुझसे दूर न जा सकोगे। फिर तुम मेरे विपरीत न हो सकोगे। फिर कोई उपाय ही न रहा। फिर मैं भला भी नहीं हूं, बुरा भी नहीं हूं। तो अश्रद्धा कैसे जगेगी? क्योंकि श्रद्धा भी गई। जब तक श्रद्धा है तब तक अश्रद्धा भी छिपी है। जब तक आदर है तब तक अनादर भी छिपा है। जब तक मान है तब तक अपमान भी छिपा है। जब तक मैं मित्र की भांति लगता हूं तब तक मैं कभी भी शत्रु की भांति लग सकता हूं। क्योंकि दूसरा मिट नहीं गया है, सिर्फ छिपा है।
और ध्यान रखना कि मन का एक नियम है: जो छिपा है वह धीरे-धीरे शक्तिशाली हो जाता है, और जो प्रकट है वह धीरे-धीरे धूमिल हो जाता है। क्योंकि जो छिपा है उसकी शक्ति व्यय नहीं होती, और जो प्रकट है उसकी शक्ति व्यय होने लगती है। फिर मन का एक दूसरा नियम भी खयाल रखना कि जिसको तुम बहुत देर तक देखते रहते हो उससे तुम ऊबने लगते हो; फिर स्वाद के परिवर्तन की आकांक्षा होने लगती है। सो रोज श्रद्धा, रोज श्रद्धा, रोज श्रद्धा; वही भोजन रोज, वही भोजन रोज।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी मुझसे एक दिन कह रही थी कि आपको कुछ करना पड़े; पति का दिमाग खराब हो गया मालूम होता है। मैंने पूछा कि क्या हुआ? उसने कहा कि शनिवार के दिन भी उन्होंने, जब मैंने भिंडी की सब्जी बनाई, बड़ी प्रशंसा की और कहा, बहुत अदभुत है। रविवार के दिन कहा, अच्छी है। सोमवार के दिन कुछ बोले नहीं। मंगल को बड़े उदास दिखाई पड़े। बुध को बड़े क्रोधित थे। बृहस्पति को उन्होंने थाली फेंक दी; कहने लगे, जीवन नष्ट कर दिया मेरा! भिंडी, भिंडी, भिंडी! इनका दिमाग खराब हो गया है। क्योंकि शनिवार के दिन कहा था, बहुत अच्छी है। और एक सप्ताह भी पूरा नहीं बीता और थाली फेंकते हैं।
कोई भी फेंक देगा। स्वाद मरने लगता है। स्वाद परिवर्तन मांगता है। सुख भी रोज-रोज मिले तो तुम दुख की आकांक्षा करने लगते हो। फूल ही फूल की शय्या पर लेटे रहो; कांटे की इच्छा पैदा हो जाती है। स्वाद परिवर्तन चाहता है। तुम अगर श्रद्धा ही श्रद्धा मुझ पर रखोगे तो आज नहीं कल श्रद्धा का स्वाद मर जाएगा। फिर तुम अश्रद्धा रखना चाहोगे। तब एक वर्तुल पैदा होता है। श्रद्धा अश्रद्धा में बदल जाती है, अश्रद्धा श्रद्धा में। और तब तुम एक ऐसे चक्र में पड़े जिससे निकलना मुश्किल हो जाएगा।
श्रद्धा पहला कदम है, अंतिम मंजिल नहीं। अश्रद्धा से श्रद्धा बेहतर है। फिर श्रद्धा से भी बेहतर एक घड़ी है; जहां न श्रद्धा है, न अश्रद्धा। उसके बाद फिर कोई टूटने का उपाय नहीं है। सौ प्रतिशत अच्छा देखते हो, शुभ है। क्योंकि इससे तुम्हारे भीतर की श्रद्धा प्रगाढ़ होगी। लेकिन इसको अंतिम मत मान लेना। ऐसी घड़ी लानी है जब शुभ-अशुभ दोनों ही व्यर्थ हो जाएं, फीके हो जाएं, दूर निकल जाएं। तभी तुम आमने-सामने मुझे जान सकोगे। और तब मुझसे टूटने की कोई व्यवस्था न होगी। यह मेरा शरीर भी गिर जाए तो भी मैं जुड़ा रहूंगा। तुम लाखों मील दूर रहो तो भी जुड़े रहोगे। तब टूटने की जगह ही न रही। तब बीच में फासला ही न रहा। एक बात!
दूसरी बात समझ लेनी जरूरी है कि जो व्यक्ति, जैसा मैंने कहा, कि भले से भले व्यक्ति में भी एक प्रतिशत बुराई रहनी जरूरी है, नहीं तो वह पृथ्वी पर न रह जाएगा। नाव को अगर इस किनारे पर रखना हो तो कम से कम एक खूंटी से तो बंधा रहना जरूरी है। नहीं तो नाव दूसरे किनारे की तरफ यात्रा पर निकल जाएगी। तो अच्छे से अच्छे आदमी में भी एक प्रतिशत बुराई होती है। उसकी बुराई भी बड़ी प्रीतिकर होती है, यह जरूर सच है। और शायद इसीलिए तुम्हें वह बुराई दिखाई न पड़े। बुरे से बुरे आदमी में भी एक प्रतिशत भलाई होती है। लेकिन वह भलाई भी बड़ी बुरी होती है; शायद इसीलिए तुम्हें दिखाई नहीं पड़ती। इसे थोड़ा समझो।
बड़े से बड़े सिद्धपुरुष में भी इस पृथ्वी पर होने के लिए एक खूंटी चाहिए। बिना खूंटी के उसकी नाव दूसरे तट पर चली जाएगी। खूंटी बांध कर रखनी पड़ती है, नहीं तो रुक नहीं सकता। वह खूंटी क्या है? उस खूंटी को तुम तो बुराई की तरह देख भी न पाओगे, क्योंकि जिस व्यक्ति में निन्यानबे प्रतिशत शुभ हो, उसका निन्यानबे प्रतिशत इतना आलोकित होता है कि वह जो एक प्रतिशत बुरा होता है वह भी उसके प्रकाश में स्वर्ण जैसा चमकता है। वह ऐसा ही समझो कि जैसे निन्यानबे बहुमूल्य हीरों के बीच में एक साधारण सा पत्थर जड़ा हो। वह निन्यानबे हीरों की चमक-दमक इतनी होगी कि तुम उस एक पत्थर को भी चमकता हुआ पाओगे। वह एक पत्थर भी पास की चमक से दीप्त होगा। निकट के हीरे उसमें झलकेंगे, वह शायद कांच का टुकड़ा ही हो। और अगर निन्यानबे पत्थर हों रद्दी-सद्दी इकट्ठे और उनके बीच में एक हीरा भी जड़ा हो तो भी यही घटेगा: तुम उस हीरे को न पहचान पाओगे।
इसीलिए तो ऐसा होता है कि अगर गरीब आदमी हीरे की अंगूठी भी पहने हो, कोई नहीं सोचता कि हीरा है। अमीर आदमी नकली पत्थर भी लगाए हो तो लोग समझते हैं करोड़ों का होगा। आदमी पर निर्भर है। गरीब पर तुम अपेक्षा कहां करते हो कि उसके पास हीरे की अंगूठी होगी। इसलिए अमीर अगर नकली हीरे भी पहने रहता है तो भी प्रशंसित होता है, और गरीब अगर असली हीरे भी लिए फिरे तो कोई देखता नहीं; कोई मान ही नहीं सकता।
बुरे से बुरे आदमी में भी एक तो हीरा होता ही है। अगर वह हीरा न हो तो उसकी मनुष्यता ही खो गई। उतना बुरा कोई कभी नहीं है। अंधेरे से अंधेरे में भी प्रकाश की किरण मौजूद होती है। कितना ही गहन अंधकार हो, वह भी प्रकाश का ही एक अभाव है, वह भी प्रकाश का ही एक रूप है। अगर तुम देख सको तो तुम्हें बुरे से बुरे आदमी में भी वह किरण दिखाई पड़ जाएगी। लेकिन उसके लिए बड़ी सधी आंखें चाहिए।
और वही भले से भले आदमी के जीवन में है। उसके जीवन में भी एक बुराई होगी। लेकिन तुम उसे पहचान न पाओगे। इतनी भलाई के बीच, जहां चारों तरफ मिठास हो वहां नमक की एक डली अगर तुम डाल भी दो तो खो जाती है; वह भी मिठास बन जाती है, उसका पता नहीं चलता। लेकिन इस पृथ्वी पर होने का अर्थ ही यह है कि शुद्धि पूर्ण नहीं हो सकती।
इसलिए हम समाधि की दो अवस्थाएं मानते रहे हैं, या निर्वाण की दो अवस्थाएं मानते रहे हैं। बुद्ध को ज्ञान हुआ चालीस वर्ष की उम्र में, उसे हम कहते हैं निर्वाण। फिर बुद्ध अस्सी वर्ष में शरीर को छोड़े, उसे हम कहते हैं महापरिनिर्वाण। वह निर्वाण था, लेकिन उसमें एक प्रतिशत अशुद्धि थी। सोना था, लेकिन ठीक चौबीस कैरेट नहीं। जरा सी भी अशुद्धि तो चाहिए, नहीं तो सोने का कोई गहना न बन सकेगा। उसमें थोड़ा तांबा, कुछ और मिला होना चाहिए। चौबीस कैरेट सोने का कोई गहना नहीं बनता। क्योंकि गहना थोड़ी सी सख्ती चाहता है। चौबीस कैरेट सोना इतना कोमल हो जाता है कि उसका कुछ बन नहीं सकता। चौबीस कैरेट बुद्धत्व इतना पारदर्शी हो जाता है कि वह दिखाई नहीं पड़ सकता। चौबीस कैरेट बुद्धत्व इतना अदृश्य हो जाता है, इतना अरूप हो जाता है कि फिर तुम्हें उसकी छाया भी बनती हुई दिखाई नहीं पड़ सकती। चौबीस कैरेट बुद्धत्व का अर्थ हुआ कि बुद्ध अब शरीर में नहीं रह सकते। शरीर अशुद्धि है। और चेतना जब तक शरीर में है तब तक थोड़ी सी अशुद्धि रहेगी।
वह अशुद्धि क्या है? जैनों और बौद्धों ने इस पर बड़ा गहन विचार किया है। जैनों ने तो इस संबंध में बड़ी गहन खोज की है। क्योंकि यह सवाल उनके सामने रहा है कि तीर्थंकर क्यों शरीर में हैं? तो उन्होंने तीर्थंकर-बंध की खोज की है। वे कहते हैं, तीर्थंकर का भी एक बंधन है। तो तीर्थंकरत्व भी आखिरी जंजीर है। इसलिए वे कहते हैं, तभी कोई व्यक्ति तीर्थंकर होता है जब उसने पिछले जन्मों में कोई कर्मबंध किया हो तीर्थंकर होने का। वह भी आखिरी पाप है। हमें तो तीर्थंकर एकदम पुण्य मालूम होता है। लेकिन तीर्थंकर स्वयं जानता है कि अभी एक कड़ी बाकी है; अन्यथा वह खो जाएगा। वह कड़ी क्या है?
जैन कहते हैं, वह कड़ी करुणा है। बौद्ध भी कहते हैं, वह कड़ी करुणा है। हमें तो क्रोध बुरा लगता है; करुणा से शुभ और क्या? लेकिन बुद्ध को, महावीर को करुणा भी बुरी लगती है। क्योंकि वह भी है तो क्रोध का ही रूपांतरण। क्रोध में हम दूसरे को नष्ट करना चाहते हैं, करुणा में हम दूसरे को फला-फूला देखना चाहते हैं। लेकिन नजर तो दूसरे पर ही है। क्रोध और करुणा दोनों ही दूसरे की तरफ बहते हैं। एक विध्वंसात्मक, एक सृजनात्मक; लेकिन ऊर्जा तो वही है। करुणा की खूंटी से बुद्ध बंधे हैं। उतनी अशुद्धि है।
अगर मैं तुम्हें चाहता हूं कि तुम्हारे जीवन में क्रांति घटित हो जाए, रूपांतरण हो जाए, यह करुणा ही वह एक प्रतिशत अशुद्धि है। नहीं तो तुम्हारे लिए मैं क्यों परेशान होऊं? क्या प्रयोजन है? एक खूंटी उखाड़ी जा सकती है, नाव दूसरे किनारे पर यात्रा पर निकल जाएगी। माना कि खूंटी सोने की है, लेकिन खूंटी खूंटी है--सोने की हो कि लोहे की हो। माना कि जंजीर हीरे-जवाहरातों से जड़ी है, लेकिन जंजीर जंजीर है--जंग खाई लोहे की हो कि हीरे-जवाहरातों से चमकती हो, इससे क्या फर्क पड़ता है। एक प्रतिशत अशुद्धि करुणा है।
बुरे से बुरे आदमी में एक प्रतिशत शुद्धि बोध है। क्योंकि बुरे से बुरे आदमी को यह बोध तो होता ही रहता है कि मैं बुरा कर रहा हूं। यह बोध कभी नहीं जाता। यहएक किरण उस गहन अंधकार में भी बनी रहती है। चोरी कर रहा हो, हत्या कर रहा हो, लेकिन मैं कर रहा हूं, और ठीक नहीं है, यह होश एकमात्र किरण है बुरे से बुरे आदमी में। यही किरण उसे उबारेगी। इसी किरण के सहारे वह ऊपर चढ़ेगा। इसी किरण के पायदानों पर यात्रा होगी। बोध बढ़ेगा, बढ़ेगा, बढ़ेगा, और एक दिन मुक्ति की घड़ी आ जाएगी।
भले से भले आदमी में एक प्रतिशत जो बुराई है वह करुणा है। क्योंकि करुणा ही उसे अंत में बांधे रखती है। जब सब बंधन टूट गया, न कोई मोह है, न कोई आसक्ति है, न कोई लोभ है, न कोई क्रोध है, उस दिन करुणा ही उसे बांधे रखती है। संसार की तरफ से देखने पर करुणा अदभुत है। हम तो कहते हैं, करुणा से बड़ा और कोई गुण नहीं। लेकिन अगर तुम परमात्मा की तरफ से जिस दिन देख पाओगे उस दिन तुम पाओगे, करुणा आखिरी बंधन है। संसार की तरफ से करुणा सबसे ऊपर है, लेकिन आखिरी ऊंचाई की तरफ से करुणा सबसे नीचे है। इस तरफ से, जहां हम हजारों बंधन से बंधे हैं, वहां करुणा मुक्ति मालूम होती है। लेकिन जो करुणा में खड़ा हो गया उसे पता लगता है, अब यह आखिरी बंधन है, यह भी टूट जाना चाहिए।
इसलिए बहुत लोग ज्ञान को उपलब्ध होते हैं, लेकिन सभी तीर्थंकर नहीं होते, सभी बुद्ध नहीं होते। ज्ञान को तो बहुत लोग उपलब्ध होते हैं, मोक्ष को भी उपलब्ध हो जाते हैं, लेकिन सभी लोग सदगुरु नहीं हो सकते। सदगुरु वही व्यक्ति हो सकता है जिसने जन्मों-जन्मों में करुणा का बंधन ढाला हो।
इसलिए बुद्ध ने तो एक नियम बनाया है कि ध्यान और करुणा का साथ-साथ ही विकास होना चाहिए। अगर ध्यान का अकेला विकास हो और करुणा का विकास न हो तो जिस दिन व्यक्ति ज्ञानी होगा उसी दिन तिरोहित हो जाएगा। व्यर्थ की खूंटियां उखाड़ो, लेकिन बुद्ध कहते हैं, एक सोने की खूंटी को गाड़ते भी रहो। क्योंकि जब सब खूंटियां टूट जाएं तब तुम्हारी नाव अगर एकदम से उस पार चली जाए तो इस तरफ तुम्हारा कोई भी लाभ न ले पाएगा। थोड़ी देर ठहर जाओ। मुक्त होकर थोड़ी देर इस किनारे रुक जाओ। ताकि जो राह पर हैं, जो भटक रहे हैं, जिन्हें कुछ सूझ नहीं रहा है, वे थोड़ी सी तुम्हारी रोशनी पी लें। थोड़ी देर!
और जब नाव तैयार हो गई हो और पाल खिंच गया हो और दूसरे किनारे का आमंत्रण आ गया हो, तब रुकना बड़ा मुश्किल हो जाता है। उस दिन कोई पीछे लौट कर देखना भी नहीं चाहता। इतने दिनों से जिस नाव की प्रतीक्षा की थी, जन्मों-जन्मों जिसके लिए यात्रा की थी, वह आज किनारे आ लगी। सब तैयारी हो गई, अब बस बैठना है और नाव खुल जाएगी। उस क्षण कौन किनारे रुकता है?
तो बुद्ध कहते हैं, ध्यान के साथ-साथ करुणा को भी पोषित करो। ताकि जब नाव सामने आ जाए तो तुम तत्क्षण बैठ न जाओ, थोड़ी देर, थोड़ी देर नाव खड़ी रहने दो। कोई जल्दी नहीं है, थोड़ी देर दूसरों को तुम्हारा रस ले लेने दो। थोड़ी देर तुम्हारी प्रभा दूसरों के अंधकार में प्रविष्ट हो जाने दो। थोड़ी देर तुम्हारी जीवन-ऊर्जा का दान बंटने दो। थोड़ी ही देर सही, ज्यादा देर यह नहीं हो सकता, लेकिन थोड़ी देर संयम रखो। बुद्ध कहते हैं, थोड़ी देर संयम रखो; मत सवार हो जाओ नाव पर। जन्मों-जन्मों की खोज है, इसलिए पूरे प्राण कहेंगे, बैठ जाओ, आ गई मंजिल; अब क्या बाहर रुकना। देखो, पीछे बहुत लोग चल रहे हैं; तुम्हारे कारण शायद उन्हें थोड़ी रोशनी मिल जाए। शायद उस तरफ की थोड़ी झलक तुम्हारे झरोखे से उन्हें मिल जाए। शायद तुम्हारे माध्यम से वे उस अलौकिक का थोड़ा सा स्वाद ले लें। उससे उन्हें वंचित मत करो।
करुणा का इतना ही अर्थ है। लेकिन है यह बुराई। बुराई इसलिए है कि तुम्हारी परम मुक्ति के लिए यह आखिरी बाधा है। दूसरों के लिए हितकर है, लेकिन तुम्हारी परम मुक्ति के लिए आखिरी बंधन है। यह करुणा शुभ ही मालूम पड़ेगी, लेकिन यह शुभ नहीं है। इसे भी छोड़ देना होगा। क्रोध तो छोड़ना ही है, एक दिन करुणा भी छोड़ देनी है। तभी तुम परम शून्य हो सकोगे। अभी तुम क्रोध से भरे हो, कल करुणा से भर जाओगे। बड़ा भेद पड़ गया। लेकिन फिर भी तुम भरे रहोगे, खाली न हो पाए। कल तक तुम दूसरों का अहित करने के लिए चिंतन करते थे और सो न पाते थे; अब तुम दूसरों का हित करने का सोचोगे और सो न पाओगे। आखिरी अर्थों में तो यह भी उपद्रव है।
इसलिए जैन कहते हैं, तीर्थंकर भी बंधन है, और किसी कर्म का फल है; इसे भी भोगना पड़ेगा।
बड़ा सूक्ष्म विवेचन हुआ है इस पृथ्वी के टुकड़े पर और लोग इतनी गहराई में गए हैं कि दुनिया के शेष सारे धर्म बहुत बचकाने मालूम होते हैं। तुमने कभी सोचा भी न होगा कि तीर्थंकरत्व भी एक कर्म का फल है, और इससे भी छुटकारा पाना है। वह बुराई है। वह तुम्हें दिखाई नहीं पड़ेगी। लेकिन उसे खयाल में रखना। और उससे पार जाना है। तुम्हें शुभ और अशुभ दोनों के पार जाना है।
और अगर तुम मेरी मौजूदगी का इतना उपयोग कर सको कि शुभ और अशुभ को कम से कम मेरे तरफ छोड़ दो, कम से कम एक आदमी तुम्हारी जिंदगी में ऐसा आ जाए जो न बुरा है और न भला, तो भी बहुत बड़ी घटना घट गई। क्योंकि और तरह के लोग तो तुम्हारी जिंदगी में आएंगे ही, जो भले हैं, बुरे हैं। उनका तुम्हें काफी अनुभव है। अच्छे लोगों का अनुभव है, सज्जन का; बुरे लोगों का अनुभव है, दुर्जन का। संत न तो सज्जन है और न दुर्जन। तुम्हारी जिंदगी में यह स्वाद भी आ जाने दो कि तुम एक ऐसे आदमी से भी जुड़े हो जो अच्छा है न बुरा है, जिसका होना न होने के बराबर है; जिसकी मौजूदगी एक तरह की अनुपस्थिति है; जिसके आकार के भीतर कुछ निराकार घटित हुआ है; जिसके जीवन से तुम्हें कुछ जीवन के पार का सूचन और किरण मिल रही है।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, आप जो भी कहते हैं वह पूरा का पूरा इतना सत्य और फलदायी प्रतीत होता है कि वह सब का सब दूसरों को, पूरे जगत को बता देने का एक अतीव भाव घेर लेता है। परिणाम में आपकी बातें अनिवार्यरूपेण मन इकट्ठा करता है; दूसरों तक बातों को कैसे पहुंचाया जाए, इसका भी निरंतर विचार चलता है। साथ ही साथ इसका भी अनुभव होता है कि जब तक मैं खुद कुछ न पा लूं तब तक मैं दूसरों को कैसे कुछ कह सकता हूं। तो हम क्या करें?
उचित है। यही तो मैं अभी कह रहा था कि ध्यान को और करुणा को साथ-साथ बढ़ने दो। अगर ध्यान पूरा हो गया और तुमने पा लिया, और बीच में करुणा के आधार न रखे, तो तुम खो जाओगे। जिस दिन नाव तुम्हारी तैयार होगी उस दिन तुम चले जाओगे। इसलिए यह प्रतीक्षा मत करो कि जब तुम पूरे हो जाओगे तब तुम कुछ कहोगे। क्योंकि तब तुम कह ही न पाओगे। तुम पूरे नहीं हुए हो, तभी तुम करुणा के बीज बोने लगो।
यह जो भाव उठ रहा है निरंतर कि दूसरों को भी कहूं, यह करुणा का भाव है। क्योंकि दूसरों से कुछ लेना नहीं है, सिर्फ देना ही है। दूसरों को कुछ मिल जाए जो तुम्हें मिल रहा है, यह बड़ी प्रेम की भाव-भीनी दशा है। इसे बुरा मत समझो।
ध्यान रखो कि अगर अभी तुमने कहने का अभ्यास जारी रखा तो ही अंतिम घड़ी में, जब आखिरी कड़ी बचेगी, तब भी तुम थोड़ी देर कुछ कह पाओगे। नहीं तो तुम न कह पाओगे। बहुत से ज्ञानी ऐसे ही शून्य में खो जाते हैं; उनके महान अनुभव का कोई लाभ जगत को नहीं हो पाता। वे तैयारी ही नहीं कर पाते। सिर्फ ध्यान में जो लीन है, वह एक दिन पूरा हो जाएगा। उस तक तो बात पूरी हो गई, लेकिन उससे अंधेरे में भटकते लोगों को कुछ भी न मिल पाएगा। इसलिए करुणा को साथ-साथ साधो।
दूसरी बात भी ठीक है कि मन में यह लगेगा कि अभी मेरा तो कुछ पूरा हुआ नहीं, मैं कैसे कहूं!
अधूरे हो, तभी तक कहने का अभ्यास कर लो। पूरे हो जाने के बाद अभ्यास का मौका नहीं मिलता; आदमी खो जाता है, गहन सन्नाटे में डूब जाता है, वाणी नहीं निकलती। सोने की खूंटी तैयार कर लो, इसके पहले कि सब खूंटियां टूट जाएं। तो थोड़ी देर नाव को अटकाने का मौका रहेगा। नहीं तो तुम्हें पता ही नहीं चलेगा, तुम कब नाव में सवार हो गए, कब नाव की यात्रा शुरू हो गई, कब तुम दूसरे तट पर पहुंच गए। और एक बार नाव छूट जाए, तो तुमने जो पाया है वह तुम्हारे लिए महा आनंद होगा, लेकिन तुम उसे बांट न पाओगे।
बांटो! अधूरे हो, अभी पूरा हुआ नहीं है, पर बांटना जारी रखो, ताकि बांटने का अभ्यास बना रहे। और जब तुम पूरे हो जाओ तब भी बांटने की क्रिया थोड़ी देर चल जाए। थोड़ी देर ही सही! लेकिन बहुत लोग प्यासे हैं। एक बूंद भी उनके कंठ में पड़ जाए तो महाशुभ है, महामंगलदायी है।
मन में यह भाव उठता है कि अभी मैं पूरा नहीं हुआ, कैसे कहूं!
इस भाव को याद रखो। नहीं तो खतरा है। इसको भी भूलो मत कि मुझे पूरा होना है। कहीं ऐसा न हो कि करुणा महाफंदा बन जाए। कहीं ऐसा न हो कि तुम यह भूल ही जाओ कि अभी तुम्हें तो हुआ नहीं और तुम लोगों को समझाने में ही निरंतर रत हो जाओ। तब जो हुआ है वह भी खो जाएगा। तब तो तुम एक दिन पाओगे कि प्रज्ञा तो नहीं जगी, तुम एक पंडित होकर रह गए हो।
तो बड़ा बारीक रास्ता है। बड़ा सम्हल कर चलना है। करुणा को बोना है, ताकि अंतिम क्षण में तुम ऐसे ही न लीन हो जाओ बिना कुछ दिए। इस जगत ने तुम्हें बहुत कुछ दिया है। इस जगत को वापस कुछ दे जाना जरूरी है। इस जगत में तुम बहुत दिन रहे हो। इस घर में बहुत दिन बसे हो। इसे आखिरी अनुग्रह के रूप में कुछ दे जाना जरूरी है। तुम ऐसे ही चुपचाप चोरी-छिपे विदा मत हो जाना। जहां इतने दिन रहे हो, जहां तुमने बहुत से दुष्कृत्यों की छापें छोड़ी हैं, जहां तुम्हारे बहुत से सुकृत्यों की भी छापें हैं, वहां तुम्हारे उस कृत्य की छाप भी छोड़ जाना जो न तो शुभ की है और न अशुभ की है, जो पारमार्थिक है, जो आत्यंतिक है। तुम एक झलक उसकी भी छोड़ जाना। इसलिए करुणा को साधना जरूरी है। और बताओ लोगों को, कहो।
जीसस ने अपने शिष्यों को कहा है, खड़े हो जाओ मकानों के छप्परों पर और चिल्ला कर कहो, क्योंकि लोग बहरे हैं। तुम जब बहुत चिल्ला कर कहोगे तभी शायद उनकी नींद में कोई खबर पहुंच पाए।
कहो! लेकिन होश बनाए रखना कि यह कहना ही सब कुछ नहीं है। नहीं तो तुम्हारी प्रज्ञा खो जाए और तुम कहने में ही लीन हो जाओ; तब तुम एक पंडित हो जाओगे, एक उपदेशक, लेकिन ज्ञानी नहीं। इसलिए बारीक और नाजुक है रास्ता। होश रखना है कि मेरी प्रज्ञा बढ़ती रहे, और होश रखना है कि मेरी करुणा भी साथ-साथ आरोपित होती रहे। ध्यान और करुणा दोनों साथ-साथ बढ़ें; एक उनमें संतुलन बना रहे।
यह तुमने अभी से शुरू किया तो ही हो पाएगा। जरा भी देर हो जाने के बाद...। क्योंकि हर चीज का मौसम है। और हर चीज का वक्त है, जब बीज बोए जा सकते हैं। वक्त के गुजर जाने पर फिर बीज नहीं बोए जा सकते। अगर तुम ध्यान में बहुत गहरे चले गए तो फिर बीज न बो सकोगे करुणा के। क्योंकि ध्यान का अर्थ है अपने में डूबना, और करुणा का अर्थ है दूसरे में थोड़ा रस कायम रखना। ध्यान का आखिरी अर्थ है कि दूसरा बचे ही न, तुम्हीं बचे; कोई न रहा, सब खो गया, तुम्हारा होना ही बचा। तो ध्यान अगर बहुत गहन हो जाए तो करुणा का सवाल ही नहीं उठता, क्योंकि कोई दूसरा बचा ही नहीं। दूसरे का चिंतन भी नहीं उठता; विचार की आखिरी लकीर भी खो जाती है। इसके पहले कि दूसरा बिलकुल खो जाए, तुम दूसरे से थोड़े से सेतु बना रखना।
वे सेतु माया के न हों। क्योंकि अगर वे माया के हों, मोह के हों, क्रोध के हों, मैत्री के, शत्रुता के हों, तो फिर तुम भीतर न जा सकोगे। सिर्फ एक ही संबंध है करुणा का जो तुम्हारे भीतर जाने में बाधा न बनेगा। इसलिए उसको हम आखिरी बंधन कहते हैं और स्वर्ण का बंधन कहते हैं। करुणा का एकमात्र सेतु है जो तुम्हें दूसरे से भी जोड़े रखेगा और अपने से तोड़ने का कारण नहीं बनेगा।
इसलिए करुणा की महिमा अपार है। उसमें क्रोध का गुण है उतना जितना कि दूसरे से संबंध है और उसमें अक्रोध का गुण है उतना जितना कि दूसरे को शुभ हो, मंगल हो, ऐसी भावना का संबंध है। करुणा--क्रोध और अक्रोध के मध्य में है। करुणा बड़ा गहरा संतुलन है। करुणा में मोह जैसा भाव है, क्योंकि दूसरे का हित हो जाए। लेकिन करुणा मोह जैसी नहीं है, क्योंकि दूसरे का हित हो ही जाए ऐसा आग्रह नहीं है। हो जाए, ऐसी भावना है। हो ही जाए, ऐसा आग्रह नहीं है। अगर हो जाए तो ठीक, अगर न हो तो कोई पीड़ा न होगी। एक उदासीनता भी है, एक रस भी है। करुणा दोनों के मध्य में है।
तो ध्यान अगर गहरा होता जाए तो तुम उदासीन हो जाओगे; फिर करुणा पैदा करना मुश्किल हो जाएगा। ध्यान के साथ-साथ करुणा को जगाए चलो। ताकि आखिरी घड़ी में तुम्हारा अनुभव सिर्फ तुम्हारा न हो, आखिरी घड़ी में तुम्हारे आनंद का उत्सव तुम्हारा ही न हो, और भी उसमें भागीदार हो सकें, दूसरे लोग भी साझीदार हो सकें।
इसलिए शुरू करो। और कहता हूं मैं भी तुमसे, घरों के छप्परों पर चढ़ कर, क्योंकि लोग बहरे हैं, तुम जब बहुत जोर से चिल्लाओगे तभी शायद वे सुनें। उनकी नींद हिलानी पड़ेगी। वे नाराज भी होंगे, क्योंकि किसी की भी नींद तोड़ो तो स्वाभाविक है नाराजगी। तो तुम उससे--उनकी नाराजगी से, उनकी अवहेलना से, उनकी उपेक्षा से--निराश मत हो जाना, हताश मत हो जाना। तुम कहे ही चले जाना।
तो तुम हजार को कहोगे तो शायद दस सुन सकेंगे। दस सुनेंगे तो शायद एक चल सकेगा। इसलिए तुम बीज जितने दूर-दूर तक फेंको, फेंकना। क्योंकि हजार बीज फेंकोगे तो शायद एक बीज फल तक पहुंच सकेगा।
और यह मत सोचो कि जब तुम पूरे हो जाओगे तब यह कर सकोगे। तब तुम न कर सकोगे। और यह भी याद रखो हर वक्त कि जब तुम दूसरे से कह रहे हो तब उस कहने में इतने मत भूल जाना कि तुम्हारा ध्यान, तुम्हारा आत्म-भाव, तुम्हारी आत्म-स्मृति खो जाए। दूसरे की सहायता करना स्वयं को खोए बिना।
अगर ऐसा लगे कि दूसरे की सहायता करने में स्वयं अनिवार्यतः खोता है तो फिर दूसरे की फिकर छोड़ देना। क्योंकि अंतिम बात, महत्वपूर्ण बात, आखिरी चुनने की बात तो तुम्हारे जीवन का ज्योतिर्मय हो जाना है। अगर साथ-साथ, लगे हाथ, किसी दूसरे पर भी रोशनी पड़ जाए तो ठीक, लेकिन उसे लक्ष्य मत बना लेना।
चौथा प्रश्न:
भगवान, कितने वर्षों से मन एक होने की बात सीखता है, पर वह एक देखता नहीं। अच्छी लगती हैं ज्ञान की बातें, पर मन करने को राजी नहीं होता। इतने वर्ष चले गए सुनने में, पर परिवर्तन नहीं आता। वही द्वेष और अलग-अलग रूप दिखाई देते हैं। हमें भी वह दृष्टि दें जैसा आप देखते हैं, जिससे आप देखते हैं।
अड़चन परिवर्तन की आकांक्षा में है। क्या जरूरत है परिवर्तन की? द्वेष है तो है। उस पर इतना ध्यान क्यों दे रहे हैं? उससे लड़ने की जरूरत क्या है? माना कि गुलाब के पौधे में कांटे हैं। पर उन कांटों पर इतना ध्यान देने की जरूरत क्या है? फूल का ध्यान करें। और कांटे भी फूल की रक्षा के लिए हैं, कोई दुश्मन नहीं हैं। शुभ का फूल खिलाएं; अशुभ के कांटों की बहुत चिंता न करें। हैं तो हैं। राजी हो जाएं।
तो परिवर्तन आएगा। परिवर्तन चाहने से कभी परिवर्तन नहीं आता। परिवर्तन की चाह ही छोड़ दें। वह शिकायत शुभ नहीं, शोभा नहीं देती। प्रार्थना का भाव रखें, परिवर्तन का नहीं। परिवर्तन भी तो स्वयं को सजाने की ही आकांक्षा है--कि द्वेष न हो, कि क्रोध न हो, कि घृणा न हो। चरित्र हो चमकता हुआ, ज्योतिर्मय चरित्र हो। करुणा हो, अहिंसा हो, वीतरागता हो। यह आभूषणों की चाह भी क्यों? यह भी तो सजावट है। यह भी तो श्रृंगार की ही आकांक्षा है। यही चाह बाधा है। परिवर्तन की चाह ही परिवर्तन में बाधा है। मत चाहें।
तुमसे यह कहने को कोई दूसरा न मिलेगा। तुम जहां भी जाओगे लोग तुम्हें सिखाएंगे परिवर्तित होओ। छोड़ो क्रोध, यह बुरा है। छोड़ो काम, यह बुरा है। तुम जहां भी जाओगे लोग तुम्हें परिवर्तन के लिए प्रेरित करेंगे। और तुम परिवर्तित न हो सकोगे। और मैं तुम्हें परिवर्तन के लिए प्रेरित नहीं करता; क्योंकि मैं जानता हूं कि वही एकमात्र उपाय है परिवर्तन का। तुम सिर्फ राजी हो जाओ।
क्या करोगे वीतरागता का? राग है तो राग सही। जो उसकी मर्जी। परमात्मा तुमसे ज्यादा जानता है, इस भाव को गहन करो। और जो दे उसमें राजी रहो। चोर बनाए तो चोर, और बेईमान बनाए तो बेईमान, उसकी मर्जी। नाटक से ज्यादा मत समझो।
एक आदमी रावण बनता है नाटक में। तो क्या रोता है, चिल्लाता है कि मुझे राम बना दो? कि जाकर हाथ-पैर जोड़ता है कि मैं राम बनूंगा, रावण नहीं बन सकता? नहीं, इसकी कोई चिंता ही नहीं करता। क्योंकि सवाल रावण और राम बनने का नहीं है, सवाल अभिनय की कुशलता का है। रावण भी राम से बेहतर अभिनेता हो सकता है। तो प्रतिस्पर्धा वहां है। राम और रावण से क्या लेना-देना है? दोनों ही नाटक के पात्र हैं। दोनों ही कथानक के हिस्से हैं। बुरा भी कथा का हिस्सा है, भला भी कथा का हिस्सा है।
तुम्हें जो बना दिया, तुम्हें जो पात्र मिल गया पूरा करने को, उसे समग्रता से पूरा कर दो। वहीं से तुम्हारी धन्यता शुरू होगी। तुम कथा को बदलने का आग्रह मत करो। और तुम यह मत कहो कि मुझे यह बनाओ, मुझे वह बनाओ। मैं तो राम होना चाहता था; रावण बना दिया! तुम थोड़ा सोचो कि सभी राम होना चाहें--रामलीला खत्म। रामलीला चलती इसीलिए है, चल सकती इसीलिए है, कि कोई रावण भी बनने को राजी है।
इस जगत को एक बहुत बड़ा नाट्यघर समझो। इस पृथ्वी को समझो एक बड़ा मंच। जीवन को अभिनय से ज्यादा मत समझो। जो उसने दिया है उसे पूरा कर दो। उसे पूरे मन से पूरा कर दो। और तुम पाओगे, परिवर्तन हो गया। मैं तुमसे कहता हूं कि अगर रावण अपने पात्र को, अपने अभिनय को पूरा का पूरा कर दे तो राम हो गया। क्योंकि परिपूर्ण कुछ भी कर देने में परमात्मा प्रविष्ट हो जाता है। वह परिपूर्ण है। हम जब भी कुछ जीवन के हिस्से को पूरा का पूरा भाव से कर देते हैं, हम उससे जुड़ जाते हैं। और अगर राम भी बेमन से अभिनय कर रहे हों कि उन्हें कुछ रस न आ रहा हो, या उनकी भी कुछ इच्छा हो कि क्या जरूरत मुझे वनवास भेजने की चौदह वर्ष, यह मेरी सीता क्यों चुराई जाए, या इस तरह की बातें हों, तो राम भी रावण ही रह जाएंगे।
तो मेरी बात को ठीक से समझ लेना। अगर रावण भी पूरा कर दे कृत्य, बिना अपने को बीच में लाए, तो राम हो जाता है। अगर राम भी अपने कृत्य में ना-नुच करें, शिकायत करें, कहें कि थोड़ा यहां बदल दो कहानी को, तो राम भी राम होने से चूक जाते हैं। राम को जो दिया गया है रूप, जो पात्र होने का अभिनय मिला है, उसमें कोई मूल्य नहीं है। कैसे तुम उस पात्रता को निभाते हो, कितनी परिपूर्णता से, कितनी समग्रता से तुम निभाते हो, उस पर ही सब निर्भर है। वही गुणधर्म आना चाहिए।
तो मैं तुमसे कहूंगा, तुम राजी हो जाओ। परिवर्तन की जरूरत क्या है? तुम जैसे हो इतने भले हो, ऐसे सुंदर, तुम्हारी महिमा ऐसी है कि अब और क्या चाहिए? तुम्हें जो मिला है उसे तुम पूरा कर दो। दुकानदार हो, दुकानदार सही; संन्यासी की आकांक्षा मत करो। दुकान पर ही संन्यासी हो जाओगे। नौकर हो, नौकर; मालिक की आकांक्षा मत करो। अगर नौकर का भाव तुमने पूरा का पूरा प्रकट कर दिया तो तुम मालिक हो जाओगे। जंजीरें पड़ी रहें तुम्हारे हाथों पर, गुलामी तुम्हारा अभिनय हो, लेकिन अगर तुमने पूरे भाव से, समग्रता से कर दिया और तुम परमात्मा को धन्यवाद दे सके बिना किसी शिकायत के, तो तुम्हारी स्वतंत्रता अबाध है। कोई जंजीर तुम्हें रोक नहीं सकती; तुम्हारी मालकियत असीम है।
तो मैं तुम्हें स्क्रिप्ट बदलने को नहीं कहता कि तुम कथानक बदलो। मैं तुमसे कहता हूं, तुम स्वीकार करो। स्वीकार मेरा सूत्र है। और लाओत्से की भी सारी जीवन-दृष्टि स्वीकार की है।
और तुम चाहते हो, मेरी जीवन-दृष्टि तुम्हारी कैसे हो जाए।
यही रास्ता है। मैंने सब स्वीकार कर लिया है। मैं जैसा हूं, मैंने स्वीकार कर लिया है। फिर कोई कमी न रही। फिर सब भराव-भराव हो गया। फिर कोई रिक्तता न रही, सब पूर्णता हो गई। मैंने अपने में जरा भी फर्क नहीं किया है। इस राज को तुम ठीक से समझ लो। मैंने इंच भर भी कुछ अपने में कभी बदला नहीं है। जैसा था, मैं उससे राजी रहा हूं। उसी राजीपन से सब कुछ हो गया है।
अगर तुम मेरी जैसी जीवन-दृष्टि चाहते हो तो तुम्हें राजी होना पड़े। जो राजी है उसी को मैं आस्तिक कहता हूं। जो ना-राजी है उसी को मैं नास्तिक कहता हूं। ईश्वर को मानने न मानने का कोई सवाल आस्तिकता-नास्तिकता का नहीं है। आस्तिक वह है जो सारे जीवन को हां कह सकता है। और नास्तिक वह है जो कहता है--नहीं। नहीं में नास्तिकता है, हां में आस्तिकता है।
आखिरी सवाल:
ओशो. लाओत्से कहते हैं कि संत ही किसी देश का शासन करने की योग्यता रखते हैं। लेकिन कथा है कि उनके ज्ञानी शिष्य च्वांग्त्से ने उन्हें देश का प्रधानमंत्री बनाने का चीनी सम्राट का प्रस्ताव ठुकरा दिया था। लाओत्से के वचन की दृष्टि से तो सम्राट का प्रस्ताव सही है और च्वांग्त्से की अस्वीकृति गलत मालूम होती है, जब कि सब संत च्वांग्त्से के कृत्य की सराहना करने से नहीं थकते। संत के वचन और कृत्य के इस विरोधाभास पर प्रकाश डालें।
कथा है कि लाओत्से का शिष्य च्वांग्त्से नदी के किनारे बैठा मछली मार रहा था। उसके ज्ञान की खबर लोक-लोकांतर में पहुंच गई थी। सम्राट ने अपने वजीर भेजे कि वे च्वांग्त्से को पकड़ लाएं; जहां भी हो, खोज लाएं; उसे प्रधानमंत्री बनाना है।
सम्राट निश्चित लाओत्से के वचन पढ़ता रहा होगा। और संत शासक हो, यह बात उसे जंची होगी। अन्यथा च्वांग्त्से की कौन तलाश करता? लाओत्से तो चल बसा था इस संसार से, च्वांग्त्से मौजूद था। और ठीक उसी हैसियत का आदमी था। इंच भर फर्क नहीं। च्वांग्त्से यानी लाओत्से। ठीक वही भाव-दशा थी।
वजीर खोजते हुए आए। पहले तो बड़ी मुश्किल पता लगाने की हुई कि च्वांग्त्से कहां है। क्योंकि च्वांग्त्से तो आवारा फकीर था। आज इस गांव, कल दूसरे गांव। क्योंकि लाओत्से ने उससे कहा था, ज्यादा देर एक जगह मत रुकना। क्योंकि लोग जब जान लेते हैं, प्रसिद्धि फैल जाती है। लोग जब मानने लगते हैं कि तुम कुछ बहुत विशिष्ट हो, उसके पहले वहां से हट जाना। जहां लोग तुम्हें न जानते हों वहीं रहना। क्योंकि वहीं तुम साधारण रह सकोगे। तो वह एक गांव से दूसरे गांव चलता रहता था। बामुश्किल तो वजीर पता लगा पाए। फिर उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि च्वांग्त्से जैसा आदमी और मछली मारता मिलेगा।
लाओत्से के शिष्य बड़े अनूठे हैं, बड़े असाधारण। क्योंकि उन्होंने एक बड़ी अदभुत कला सीखी है, वह है साधारण होने की कला। वे साधारण आदमी से भिन्न कुछ भी नहीं करते। फिर साधारण आदमी मछली मारता तो च्वांग्त्से भी मछली मारता। कहीं अपने को विशिष्ट करके खड़ा नहीं करता। और यह बड़ी गहरी बात है। कभी भी यह नहीं कहता कि यह बुरा है, वह भला है। जैसा साधारण आदमी जीता है, वैसा जीता है। साधारणता ही उसकी साधना है।
वजीर पहुंचे और उन्होंने च्वांग्त्से को कहा कि हम निमंत्रण लाए हैं सम्राट का, प्रसन्न हो जाओ। तुम्हारे भाग्य कि प्रधानमंत्री बनाने को सम्राट राजी है। चलो राजधानी!
च्वांग्त्से वैसे ही बैठा रहा अपनी बंसी हाथ में लिए। उसने कहा कि मैंने सुना है--उसके चेहरे पर कोई भाव-परिवर्तन न हुआ, मछली के मारने का काम जारी रहा--उसने कहा, मैंने सुना है कि राजमहल में एक कछुआ है तीन हजार साल पुराना। और उस कछुए की पूजा की जाती है, और विशेष पर्वों पर उसे निकाला जाता है स्वर्ण के रथों में। और खुद सम्राट उसके चरणों में झुकता है। और वह सोने के पात्र में रखा गया है। और उसके ऊपर हीरे-जवाहरात जड़े हुए हैं। लेकिन मैं तुमसे यह पूछता हूं कि देखो, वह नदी के किनारे पर एक कछुआ मिट्टी के गड्ढे में कीचड़ में अपनी पूंछ हिला रहा है। अगर तुम इस कछुए से कहो कि तू राजमहल का सोने की पेटी में बंद कछुआ होना चाहेगा या तू मिट्टी में अपनी पूंछ हिलाना ही पसंद करता है, तो यह कछुआ क्या कहेगा?
वजीरों ने कहा कि साफ है कि कछुआ कहेगा कि मैं मिट्टी में ही अपनी पूंछ हिलाऊंगा। क्योंकि जीवित हूं।
तो च्वांग्त्से ने कहा, यही मेरी भी खबर सम्राट से कह देना कि मैं भी मिट्टी में ही पूंछ हिलाना पसंद करता हूं। कम से कम जीवित हूं।
यह कथा है। तो प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि लाओत्से कहता है कि शासक संत को होना चाहिए, और यह मौका सम्राट ने खुद दिया था च्वांग्त्से को, तो अपने गुरु का वचन मान कर उसे शासक हो जाना था। और एक मौका था कि वह दिखाता कि संत का शासन कैसे होता है। तो इसमें तो ऐसा लगता है कि च्वांग्त्से ने अपने गुरु की आज्ञा का उल्लंघन किया इनकार करके। सम्राट ही लाओत्से के ज्यादा अनुकूल मालूम पड़ता है बजाय च्वांग्त्से के।
नहीं! च्वांग्त्से बिलकुल अनुकूल है। बहुत सी बातें समझनी जरूरी हैं।
पहली बात, सम्राट प्रधानमंत्री बनाना चाहता था, शासक नहीं। अगर सम्राट ने ठीक से लाओत्से को समझा होता तो वह कहता कि तुम हो जाओ सम्राट, मैं तुम्हारा सेवक। च्वांग्त्से सेवक ही रहता, शासक नहीं होने वाला था। प्रधानमंत्री नौकर है। आज लिया, कल अलग किया। कोई शासक होने वाला नहीं था। वह गुलाम ही रहता। सम्राट ही उसे चलाता। और जैसा सम्राट कहता वैसा उसे करना पड़ता। और कोई भी ज्ञानी पुरुष अज्ञानी पुरुष की आज्ञाएं मान कर चलने को राजी नहीं हो सकता; क्योंकि वह बात ही बेहूदी है। अगर सम्राट बनाने का आमंत्रण होता तो कथा दूसरी होती। निमंत्रण सम्राट होने का नहीं था। वह सम्राट समझ नहीं पाया। लाओत्से को पढ़ता होगा, समझ नहीं पाया। प्रधानमंत्री बनाने के लिए बुलाने की बात ही गलत थी।
फिर दूसरी बात। लाओत्से कहता है, संत वही है जिसके मन में शासक होने की इच्छा नहीं है।
अब जरा हम गहरे जल में उतरते हैं। क्योंकि यह विरोधाभास हो गया। लाओत्से कहता है, संत वही है जिसकी शासक की कोई इच्छा नहीं है, शासक होने की। दूसरों के ऊपर मालकियत करने की जिसकी कोई आकांक्षा नहीं, वही संत है।
अगर लाओत्से की बात ठीक है तो च्वांग्त्से ने इनकार करके ठीक किया। इससे उसने जाहिर किया कि उसके मन में शासक होने की कोई इच्छा नहीं है। और शासकों को वह मुर्दे समझता है, मरे हुए, चाहे वे सिंहासनों पर बैठे हों। उनसे बेहतर तो वह समझता है एक कछुए को जो कीचड़ में पूंछ हिला रहा है और मस्त है, जो अपने स्वभाव में जी रहा है और मस्त है। च्वांग्त्से ने खबर दी कि वह पहुंच चुका है संतत्व को; कोई आकांक्षा नहीं है। कोई दूसरा होता तो फेंक कर बंसी उठ कर खड़ा हो जाता कि जल्दी करो, कहां चलना है!
शासक होने की कोई आकांक्षा नहीं है, यह संत का लक्षण है। सम्राट अगर सच में ही लाओत्से को समझता था, तो च्वांग्त्से को इतनी आसानी से छोड़ नहीं देना था। क्योंकि च्वांग्त्से ने तो सिर्फ खबर दी थी अपनी भाव-दशा की। सम्राट को भागा हुआ जाना था इसके चरणों में, गिर पड़ना था चरणों में। तो कथा दूसरी होती। लेकिन च्वांग्त्से ने इतना कहा, फिर कोई पता नहीं कि कहानी का क्या हुआ। फिर दुबारा कभी सम्राट के आदमी न आए। च्वांग्त्से जैसे आदमी को निमंत्रण करना हो तो आदमियों को नहीं भेजना चाहिए निमंत्रण पर। सम्राट की अकड़ है वह। च्वांग्त्से जैसी महाप्रतिभा को लाना हो तो सम्राट को खुद आना था। और यह खबर पाकर तो आना ही था।
अब तुम समझ लो बात को। अगर च्वांग्त्से राजी हो जाता तो वह संत ही न था। सम्राट राजी हो गया उसके इनकार को, वह लाओत्से को समझा ही न था। तब कथा बिलकुल दूसरी होती। और संत को बुलाने के ये ढंग नहीं हैं। क्योंकि संत का अर्थ है परम स्वतंत्रता। यही वह कह रहा है कि एक कछुआ परम स्वतंत्रता में भी ठीक है; अपना स्वभाव तो है। तुम मुझे वजीर बनाना चाहते हो, बड़ा वजीर सही, लेकिन हो तो जाऊंगा गुलाम। तुम चलाने लगोगे मुझे, तुम बताने लगोगे क्या करना उचित है, क्या करना उचित नहीं है। तुम्हारे रीति-नियम मुझे चलाने लगेंगे। और मेरा उपयोग इतना ही हो सकता है कि मेरी जीवन-चेतना तुम्हें चलाए।
यह नहीं होने वाला था। इसलिए दुबारा सम्राट ने फिकर न की। इनकार हो गया, बात खत्म हो गई। इनकार से तो समझना था कि यह आदमी सच में ही बहुमूल्य है। स्वीकार कर लेता तो बेकार था। अगर लाओत्से की बात मान कर च्वांग्त्से चला जाता तो बेकार था। तुम्हें एक कहानी कहूं, उससे तुम्हें समझ में आ सके।
एक झेन फकीर मर रहा था। उसने अपने एक शिष्य को पास बुलाया। उसके हजारों शिष्य थे। और उसने इस शिष्य को कहा कि देखो, मैं मर रहा हूं। और मेरे गुरु ने मरते वक्त मुझे यह शास्त्र दिया था जिसे मैंने जीवन भर सम्हाल कर रखा है। और तुम भी जानते हो कि यह हमेशा मेरे तकिए के पास रखा रहता है। इसे मैंने अपने प्राणों की संपदा समझी। इसमें हमारे प्राचीन गुरुओं के सब अनुभव लिखे हैं। और इसमें मैंने मेरे अनुभव भी संयुक्त कर दिए हैं। इसे तुम सम्हाल कर रखना। यह बहुमूल्य थाती है; खो न जाए!
शिष्य ने कहा, व्यर्थ की बातचीत न करो। जो मुझे पाना था वह मैंने बिना शास्त्र के पा लिया है। इस कचरे को तुम्हीं रखो। शिष्य ने ऐसा कहा!
गुरु ने कहा, यह अभद्रता है। और जब मैं तुम्हें आज्ञा दे रहा हूं, मरता हुआ गुरु, तो तुम्हें इस तरह की बात शोभा नहीं देती। शास्त्र को सम्हालो! क्योंकि मैं मर रहा हूं, अब कौन सम्हालेगा इसको?
शिष्य ने हाथ में शास्त्र ले लिया; पास में जलती थी आग, सर्द रात थी, उस आग में फेंक दिया।
गुरु प्रसन्न हुआ, आनंदित हुआ। और उसने कहा कि अगर तुम सम्हाल कर रख लेते तो मैं समझता सब खो गया, मेरी मेहनत बेकार गई। और अब मैं तुम्हें बता देता हूं, उस शास्त्र में कुछ भी न था, वह कोरी किताब है। मेरे गुरु ने मुझे धोखा दिया; उनके गुरु ने उन्हें धोखा दिया; मैं तुझे देने की कोशिश कर रहा था। उसमें कुछ है नहीं। किसी ने कुछ लिखा नहीं है। क्योंकि एक ही तो अनुभव है: आखिरी कोरापन। जिस दिन तुम कोरी किताब हो गए उस दिन तुम शास्त्र हो गए। और तूने आज भला किया कि तूने आग में फेंक दिया। अगर तू जरा भी चूक जाता और सम्हाल कर रख लेता तो मैं बड़ा दुखी मरता। अब मैं तेरे साथ अपना शास्त्र छोड़े जा रहा हूं। तूने ठीक से बचा लिया। जो बचाने योग्य था वह बचा लिया; जो फेंकने योग्य था वह फेंक दिया।
लाओत्से जरूर प्रसन्न हुआ होगा, उसकी आत्मा आनंदित हुई होगी, जब च्वांग्त्से ने कह दिया कि जाओ, भाग जाओ, मैं भी इस कछुए की भांति अपने स्वभाव, अपनी साधारणता में मस्त हूं। तुम्हारे राजमहलों में मरे हुए मुर्दे रहते हैं, जिंदों का वहां वास नहीं। तुम किसी मरे हुए आदमी को खोज लो। मेरी वहां क्या जरूरत है?
नहीं, च्वांग्त्से लाओत्से के विपरीत नहीं जा रहा है, ठीक अनुसरण कर रहा है। अगर चला जाता तो लाओत्से की आत्मा रोती।
संतत्व का शासन साधारण शासन जैसा शासन नहीं है। वह ऊपर से आरोपित नहीं किया जाता। कोई राजा किसी संत को बिठाल दे वजीर बना कर तो कोई संत का शासन नहीं हो जाता। शासन तो राजा का ही रहेगा। वह संत की महिमा का भी उपयोग कर लेगा अपनी राजनीति में।
संत का शासन तो शासित के हृदय से आता है; कोई उसे आरोपित नहीं कर सकता। जिन्हें संत से शासित होना है वे स्वयं ही दूर-दूर की यात्रा करके चले आते हैं। वह शासन अंतर्हृदय का है। वह समर्पण से फलित होता है। तुम खुद ही आकर कह देते हो कि अब मुझे शासन दो। तुम खुद ही अपने को समर्पित कर देते हो। तब च्वांग्त्से इनकार नहीं करता। तब वह तुम्हें स्वीकार कर लेता है।
जिस दिन तुम उसके सामने झुक जाते हो, उसी दिन--उसी दिन उसका होना, उसका अस्तित्व तुम्हारे रूपांतरण में संलग्न हो जाता है। वह कोई कृत्य नहीं है संत के लिए कि वह कुछ करके तुम्हारा रूपांतरण करता है। उसका होना ही पर्याप्त है। तुम झुको भर, गंगा तो बह ही रही है। तुम जरा झुको भर और प्यास को बुझा लो।
आज इतना ही।