LAO TZU

Tao Upanishad 76

SeventySixth Discourse from the series of 127 discourses - Tao Upanishad by Osho. These discourses were given during JUN 19-26, 1971 - APR 10 1975.
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Chapter 40
THE PRINCIPLE OF REVERSION

Reversion is the action of Tao. Gentleness is the function of Tao.
The things of this world come from Being, And Being comes from Non-Being.

Chapter 41 : Part 1
QUALITIES OF THE TAOIST

When the highest type of men hear the Tao (truth), They try hard to live in accordance with it.
When the mediocre type hear the Tao, They seem to be aware and yet unaware of it.
When the lowest type hear the Tao, they break into loud laughter--If it were not laughed at, it would not be Tao.
Therefore there is the established saying: Who understands Tao seems to be dull of comprehension; Who is advanced in Tao seems to slip backwards; Who seems to move on the even Tao (Path) seems to up and down.
अध्याय 40
प्रतिक्रमण का सिद्धांत

प्रतिक्रमण ताओ का कर्म है। और भद्रता ताओ का व्यवहार है।
संसार की वस्तुएं अस्तित्व से पैदा होती हैं; और अस्तित्व अनस्तित्व से आता है।

अध्याय 41 : खंड 1
ताओपंथी के गुणधर्म

जब सर्वश्रेष्ठ प्रकार के लोग ताओ को सुनते हैं, तब वे उसके अनुसार जीने की अथक चेष्टा करते हैं।
जब मध्यम प्रकार के लोग ताओ को सुनते हैं, तब वे उसे जानते से भी लगते हैं और नहीं जानते से भी।
और जब निकृष्ट प्रकार के लोग ताओ को सुनते हैं, तब वे अट्टहास कर उठते हैं--मानो इस पर यदि हंसा न जाए, तो यह ताओ नहीं है।
इसलिए यह प्रसिद्ध कहावत है: जो ताओ को समझता है, उसकी बुद्धि मंद मालूम पड़ती है; जो ताओ में खूब गतिवान है, वह बार-बार पिछड़ता मालूम पड़ता है। और जो समतल ताओ (पथ) पर चलता है, वह ऊपर-नीचे होता दिखता है।
मूल और अंत सदा एक ही होते हैं। जहां से जीवन प्रारंभ होता है वहीं लीन भी होता है। प्रारंभ और पूर्णता एक ही घटना को दो तरफ से देखी गई, एक ही घटना को दो तरफ से पहचानी गई, एक ही घटना को दो दृष्टिकोणों से नापी गई बातें हैं।
ताओ का यह मौलिक आधारभूत विचार है। इसलिए जो पूर्ण होना चाहता है, उसे मूल में वापस लौट जाना पड़ेगा। और जिस दिन कोई वृद्ध व्यक्ति छोटे बच्चे जैसा सरल हो जाता है, जीवन की पूर्णता उपलब्ध हो जाती है। और जिस दिन कोई मृत्यु को भी जन्म की भांति स्वागत करने में समर्थ हो जाता है, उस दिन मृत्यु भी नया जन्म बन जाती है।
साधारण विचार मूल और अंत को विपरीत करके देखता है। अगर कोई मूल की तरफ जाता हुआ मालूम पड़े तो हमें लगेगा कि वह पिछड़ रहा है, गिर रहा है; उसका विकास नहीं हो रहा, पतन हो रहा है। लेकिन लाओत्से कहता है कि जो प्रतिक्रमण की कला सीख लेता है, जो मूल में वापस गिरने की कला सीख लेता है, वह जीवन के परम अर्थ को उपलब्ध हो जाता है। वृद्धावस्था की पूर्णता फिर से बालक जैसा सरल हो जाना है। ज्ञानी की पूर्णता फिर से अज्ञानी जैसा निरहंकारी हो जाना है। पूर्ण प्रकाश तभी जानना उपलब्ध हुआ जब पूर्ण प्रकाश भी परिपूर्ण अंधकार जैसा शांत हो जाए। मरने की फिर कोई सुविधा न रही, जिस दिन मृत्यु अमृत जैसी दिखने लगे, जिस दिन मृत्यु जन्म बन जाए।
इसे लाओत्से कहता है, प्रतिक्रमण का सिद्धांत, लॉ ऑफ रिवर्सन।
यह बहुत विचारणीय है; बहुत साधना योग्य है। हमारी नजर आगे लगी होती है। और हम सोचते हैं कि आगे जो होने वाला है, वह पीछे जो हुआ है, उससे विपरीत है। और इसलिए हम मूल से हटते चले जाते हैं। और जितना ही हम मूल से दूर हटते हैं उतना ही हम अंत से भी दूर हट जाते हैं। क्योंकि मूल और अंत बिलकुल एक जैसे हैं।
पश्चिम और पूरब में जीवन की गति के अलग-अलग दृष्टिकोण हैं। पश्चिम सोचता है कि जीवन की गति रेखाबद्ध है, लीनियर है, एक पंक्ति में चल रही है। पूरब सोचता है कि जीवन की गति वर्तुलाकार है, सर्कुलर है, एक पंक्ति में नहीं चल रही, बल्कि एक वर्तुल में घूम रही है।
अगर पश्चिम का दृष्टिकोण सही हो, जो कि तर्कनिष्ठ बुद्धि का दृष्टिकोण है, तो फिर मूल में वापस लौटने का कोई उपाय नहीं। कोई भी सीधी चलती रेखा अपने मूल बिंदु पर कभी भी वापस नहीं लौटेगी। कैसे लौट सकती है? सीधी रेखा आगे ही बढ़ती चली जाएगी। पर बहुत सी बातें सोचने जैसी हैं। अगर सीधी रेखा आगे ही बढ़ती चली जाएगी तो जो हुआ है वह फिर कभी नहीं हो सकेगा। जो हो गया, वह हो गया। और जो भी होने वाला है, वह सदा नया होगा। पीछे लौटने का कोई उपाय नहीं। प्रारंभ का बिंदु कभी उपलब्ध न होगा। दूसरी बात, सीधी रेखा कभी भी अंत को उपलब्ध न होगी। उसके अंत का भी कोई उपाय नहीं है। वह अंत भी कैसे होगी?
पूर्वीय विचार बिलकुल उलटा है: वर्तुलाकार है जीवन की गति। जहां से शुरू होती है रेखा, वर्तुल वहीं आकर पूरा हो जाता है। इसलिए जो हुआ है वह फिर-फिर होगा। और जो मूल था वह फिर उपलब्ध होगा।
एक बहुत मजे की बात ध्यान रखने जैसी है, क्योंकि इन मौलिक दृष्टिकोणों पर जीवन के सभी अंग प्रभावित होते हैं। भारत की भाषाओं में बीते कल के लिए और आने वाले कल के लिए एक ही शब्द है--कल। जो जा चुका उसके लिए भी वही शब्द है; जो आने वाला है उसके लिए भी वही शब्द है। यस्टरडे भी कल; टुमारो भी कल। दुनिया की किसी भाषाओं में ऐसा नहीं है। क्योंकि पूरब की धारणा यही है कि जो बीत गया है, वह फिर आ जाएगा; जो कल था वह फिर कल हो जाएगा। आने वाला कल कोई नई बात नहीं है। वह आवर्तन है बीते का ही। दोनों ही कल हैं। जो बीत गया परसों, उसको भी हम परसों कहते हैं। जो आने वाला है, उसको भी परसों कहते हैं। हम बीच में खड़े हैं--जो हो गया वह, और वही फिर होगा। यह वर्तुलाकार समय की दृष्टि है। पश्चिम के लोगों की बिलकुल समझ में नहीं आता कि बीते हुए कल के लिए भी एक शब्द और आने वाले कल के लिए भी एक शब्द! बहुत उलझन में डालता है। शब्द अलग होने चाहिए। लेकिन शब्दों के पीछे भी जीवन-दृष्टिकोण होते हैं।
फिर पूरब का दृष्टिकोण ज्यादा वैज्ञानिक मालूम होता है। क्योंकि जीवन की सभी तरह की गतियां वर्तुलाकार हैं। चांद घूमता है तो वर्तुल में; सूरज घूमता है तो वर्तुल में; पृथ्वी घूमती है तो वर्तुल में; सारे ग्रह-नक्षत्र, पूरा ब्रह्मांड घूमता है वर्तुल में; मौसम आते हैं वर्तुल में। सिर्फ मनुष्य का जीवन क्यों वर्तुलाकार नहीं होगा जहां सभी कुछ वर्तुलाकार है! मनुष्य का जीवन अपवाद नहीं हो सकता। प्रकृति के महानियम के भीतर मनुष्य का जीवन भी अंतर्निहित है। मनुष्य कोई प्रकृति के बाहर घटी हुई दुर्घटना नहीं है। मनुष्य भी प्रकृति के भीतर ही जीता, जन्मता, बढ़ता, फैलता और लीन होता है। तो जो प्रकृति का नियम है वर्तुल, वही मनुष्य के जीवन का भी नियम होना चाहिए। पूरब की दृष्टि ज्यादा प्राकृतिक है। पश्चिम की दृष्टि मनुष्य को कुछ अनूठा मान लेती है, अलग मान लेती है।
विज्ञान कहता है कि सभी गतियां सर्कुलर हैं। नवीनतम खोजें सीधी रेखाओं में विश्वास नहीं करतीं। यूक्लिड ने सीधी रेखाओं के सिद्धांत को जन्म दिया था। और यूक्लिड का खयाल है कि दो समानांतर रेखाएं कहीं भी नहीं मिलेंगी, पैरेलल लाइंस कहीं भी नहीं मिलती हैं। लेकिन जैसे-जैसे समझ पश्चिम में भी विकसित हुई है तो नॉन-यूक्लिडियन ज्यामेट्री का जन्म हुआ। नॉन-यूक्लिडियन ज्यामेट्री बिलकुल उलटी है। नॉन-यूक्लिडियन ज्यामेट्री कहती है, सीधी रेखा का तो अस्तित्व ही नहीं है; कोई सीधी रेखा खींची भी नहीं जा सकती। अगर आप एक सीधी रेखा खींचते हैं तो वह आपको सीधी दिखाई पड़ती है; सीधी हो नहीं सकती। क्योंकि जिस पृथ्वी पर आप बैठ कर खींच रहे हैं वह वर्तुलाकार है। अगर उस रेखा को हम बढ़ाते चले जाएं दोनों तरफ तो वह पृथ्वी को घेरने वाला वर्तुल बन जाएगी। तो सभी सीधी रेखाएं किसी बड़े वर्तुल का खंड हैं। कोई सीधी रेखा होती ही नहीं। सीधी रेखा के होने का उपाय ही नहीं है।
यह थोड़ा मुश्किल मालूम पड़ता है, क्योंकि बचपन से हम सबने यूक्लिड की ज्यामेट्री पढ़ी है। स्कूलों में अब भी पढ़ाया जा रहा है कि दो समानांतर रेखाएं कहीं नहीं मिलती हैं, और सीधी रेखा वर्तुल का खंड नहीं है। लेकिन सीधी रेखा होती ही नहीं, और समानांतर रेखाएं भी नहीं होतीं। अगर हम खींचते ही चले जाएं तो समानांतर रेखाएं भी कहीं जाकर मिल जाती हैं। कितनी ही दूरी हो वह मिलने की, लेकिन मिल जाती हैं। क्योंकि सीधी रेखा नहीं हो सकती तो समानांतर रेखाएं भी नहीं हो सकतीं। सब रेखाएं झुकती हैं और वर्तुल बन जाती हैं।
लेकिन पूरब पहले से ही मानता रहा है कि जीवन में कोई सीधी रेखा नहीं होती। फिर जहां-जहां गति है वहां-वहां वर्तुल दिखाई पड़ता है। नदियां हैं। अगर हमें पूरा वर्तुल खयाल में न हो तो शक हो सकता है। नदी गिरती है सागर में; भाप बनती है; आकाश में बादल बनते हैं; बादल पर्वतों पर पहुंच जाते हैं; वर्षा होती है; नदी का स्रोत बन जाता है। नदी फिर सागर में गिरती है; फिर बादल बनते हैं; फिर पानी उठता है; फिर स्रोत पर गिरता है; फिर नदी सागर की तरफ बहती है। एक वर्तुल है।
मनुष्य का जीवन भी एक वर्तुल है। समय भी वर्तुलाकार है। इसलिए हमने इस देश में समय की जो धारणा की है वह वर्तुल में है। इसलिए हमने इतिहास लिखने में बहुत रस नहीं लिया। पश्चिम के इतिहासविद बहुत हैरान होते हैं कि पूरब की कौमों ने बहुत कुछ लिखा है, लेकिन इतिहास नहीं लिखा। हमने पुराण लिखे हैं। पुराण बड़ी और बात है। इतिहास बड़ी और बात है। इतिहास का मतलब है कि जो घटना घटी है वह यूनीक है, इसलिए उसकी तिथि, समय, वर्ष, काल, सब सुनिश्चित लिखा जाना चाहिए। पुराण का अर्थ है कि जो घटना घटी है वह एक कथा है जो बहुत बार घट चुकी है और बहुत बार घटेगी। समय, स्थान मूल्यहीन हैं, क्योंकि घटना बेजोड़ नहीं है।
जैसे राम का जन्म हुआ। अगर राम पश्चिम में पैदा होते तो उन्होंने बराबर हिसाब रखा होता, कब पैदा हुए, किस दिन पैदा हुए, किस दिन मरे, किस दिन दफनाए गए; सब हिसाब रखा होता। हमने कोई हिसाब नहीं रखा है। राम का जन्म होता है, राम का जीवन होता है, राम की जीवन की लीला होती है; सब होता है; लेकिन हमने कोई ऐतिहासिक कालबद्ध हिसाब नहीं रखा। कारण? कारण हमारा यह है कि हर युग में राम होते रहे हैं और हर युग में राम होते रहेंगे। यह एक वर्तुल है जो घूमता ही रहता है। जैसे गाड़ी का चाक घूमता है तो उसका एक आरा ऊपर आता है; इसको लिखने की, नोट करने की, इतिहास बनाने की कोई भी जरूरत नहीं। क्योंकि अनंत बार यह आरा ऊपर आ चुका है। और फिर भी अनंत बार यह आरा ऊपर आता रहेगा। यह चाक है जो घूम रहा है।
इसलिए हम संसार को संसार नाम दिए हैं। संसार का अर्थ है--दि व्हील, चाक। अशोक ने अपने राज्य के चिह्न में चाक को निर्मित किया था। फिर अभी भारत के स्वतंत्र होने पर हमने चाक को भारत के झंडे पर लिया है। लेकिन शायद हमें खयाल नहीं कि वह चाक किस बात का प्रतीक है। वह पश्चिम से बिलकुल विपरीत धारणा है। उसके पीछे पूरा एक जीवन का एक दर्शन है। और वह दर्शन यह है कि घटनाएं बेजोड़ नहीं हैं। इसलिए न हमें पक्का पता है कि बुद्ध किस सन में पैदा होते, किस दिन पर पैदा होते; न हमें पता है कृष्ण कब पैदा होते, कब विदा हो जाते; लेकिन कृष्ण के जीवन में जो भी सारभूत है वह हमें पता है। इसे हम असार कहते हैं, नॉन-एसेंशियल; इसका कोई मतलब ही नहीं है हिसाब रखने का।
सृष्टि बनती है, फिर प्रलय होता है। फिर सृष्टि बनती है, फिर प्रलय होता है। फिर सृष्टि बनती है, फिर प्रलय होता है। और जहां से सृष्टि बनती है, ठीक जब वर्तुल वहीं आकर मिलता है समय का, तो प्रलय हो जाता है। जितने काल तक सृष्टि रहती है, फिर उतने ही काल तक प्रलय रहता है। फिर सृष्टि होती है, फिर प्रलय होता है। और ऐसे प्रत्येक सृष्टि और प्रलय के एक वर्तुल को हम एक कल्प कहते हैं। उसे हमने ब्रह्मा का एक दिन कहा है। सृष्टि का समय दिन है और प्रलय का समय रात्रि है। वह ब्रह्मा के चौबीस घंटे हैं। फिर सुबह होती है, फिर सूरज निकलता है, फिर सृष्टि होती है। फिर सांझ अस्त हो जाता है सूरज, विश्राम को चली जाती है जीवन की सारी ऊर्जा, शक्ति। फिर सुबह होती है। हर युग में, हर कल्प में राम होंगे, हर कल्प में कृष्ण होंगे, हर कल्प में महावीर-बुद्ध होंगे। इसलिए हिसाब क्या रखना है? इसलिए जो सार है वह बचा लेना है।
बहुत मीठी कथा है कि वाल्मीकि ने राम के जन्म के पहले ही रामायण लिखी। राम का जन्म पीछे हुआ; रामकथा पहले लिखी गई। यह सिर्फ पूरब में हो सकता है। क्योंकि हमारी जो धारणा है, क्योंकि अनंत-अनंत कल्पों में राम हो चुके हैं, उनका सार पता है। घटनाएं गौण हैं, उनके जीवन का सार अर्थ पता है। तो वाल्मीकि ने सार अर्थ के आधार पर कथा लिख दी। फिर राम हुए। और राम के जीवन ने वही पूरा किया जो वाल्मीकि ने लिखा था। जो कवि को पहले दिख गया था, वह राम के जीवन में पूरा हुआ।
जैनों की धारणा भी वैसी है, बौद्धों की धारणा भी वैसी है। जैन कहते हैं कि हर कल्प के प्रारंभ में पहला तीर्थंकर होगा। फिर हर कल्प में चौबीस तीर्थंकर होंगे। हर कल्प का अंत चौबीसवें तीर्थंकर के साथ हो जाएगा। फिर पहला तीर्थंकर होगा, फिर चौबीस। तो तीर्थंकरों के जीवन के अलग-अलग हिसाब रखने जरूरी नहीं हैं।
इसलिए आप जैनों के चौबीस तीर्थंकरों की मूर्तियां देखें, एक सी हैं। कोई फर्क नहीं है; सिर्फ नीचे के चिह्न में फर्क है। वह चिह्न भर बताता है कि कौन सी पहले तीर्थंकर की, या चौबीसवें तीर्थंकर की, या बीसवें तीर्थंकर की मूर्ति है। मूर्तियां एक जैसी हैं। वह एसेंशियल है। वह जो तीर्थंकर के भीतर घटती है परम शांति और आनंद, वह उसकी मूर्ति है। उसके चेहरे में जो फर्क होंगे, लंबाई में फर्क होंगे, नाक छोटी-बड़ी होगी, आंख भिन्न होगी; ये गौण बातें हैं। इनका कोई मूल्य नहीं है; यह असार है। ऐसे बहुत तीर्थंकर हो चुके हैं। उनकी बहुत लंबी नाक, छोटी नाक, बड़ी आंख, शरीर की ऊंचाई, मोटाई भिन्न रही है। वह गौण है; उसका हम हिसाब नहीं रखते। वह जो भीतर तीर्थंकरत्व है, वह जो भीतर घटता है सारभूत, हमने उसका हिसाब रख लिया। इसलिए चौबीस तीर्थंकरों की मूर्तियां एक जैसी हैं। होंगी ही; वे भीतर की मूर्तियां हैं।
पश्चिम हिसाब रखता है। इसलिए जीसस ऐतिहासिक हैं। उस अर्थ में कृष्ण ऐतिहासिक नहीं हैं। कृष्ण पौराणिक हैं। पौराणिक का मतलब यह नहीं कि नहीं हुए। पौराणिक का मतलब, बहुत बार हुए और बहुत बार होंगे। ऐतिहासिक का अर्थ है, एक बार हुए और दुबारा नहीं हो सकते; पुनरुक्ति नहीं हो सकती।
इसलिए पश्चिम में नए की बड़ी दौड़ है; पूरब में नए की कोई दौड़ नहीं है। क्योंकि नया पुराना हो जाता है, पुराना रोज नया होता रहता है। पूरब में हम कहते हैं, सूर्य के नीचे कुछ भी नया नहीं। पश्चिम में हेराक्लतु ने कहा है, एक ही नदी में दुबारा उतरना असंभव है। नदी प्रतिपल नई हो जा रही है। हम पूरब में कहते हैं, सूर्य के नीचे कुछ भी नया नहीं। पश्चिम कहता है, एक ही नदी में दुबारा उतरना असंभव है; धारा बही जा रही है। लेकिन अगर हम बहुत गौर से देखें तो धारा कहीं भी बहे, वही धारा है। आकाश के बादल बन जाए तो भी वही धारा है; फिर वापस गंगोत्री में गिरे तो भी वही धारा है; फिर गंगा में बहे तो भी वही धारा है। तो हम यह कहते हैं कि दूसरी गंगा में उतरना ही असंभव है; वह वही गंगा है।
ये जो दो दृष्टिकोण हैं, उनमें ताओ वर्तुलाकार दृष्टिकोण को मानता है। इसके परिणाम होंगे।
अगर आप मानते हैं कि जीवन एक रेखाबद्ध विकास है तो आपके जीवन में बड़ा तनाव होगा। क्योंकि प्रतिपल कुछ हो रहा है नया जिससे आपको समायोजित होना है, एडजस्ट होना है; प्रतिपल नए के साथ आपको आयोजित होना है; फिर से अपने को जमाना है। आपका जीवन एक लंबी चिंता और तनाव होगा। अगर सब वही हो रहा है जो सदा होता रहा है तो आप अपने घर में हैं। रोज-रोज आयोजन, रोज-रोज समायोजन, रोज-रोज अपने को नए के साथ बिठाने की कोई भी जरूरत नहीं; सब बैठा ही हुआ है।
इसलिए पश्चिम एक शांत सरोवर की तरह नहीं हो पाता; तूफान है।
पूरब बिलकुल शांत सरोवर की तरह है, जहां कि तूफान के बहुत कारण भी मौजूद हों, तब भी सरोवर शांत ही बना रहता है। हम बहुत एक्साइटेड नहीं हो पाते, बहुत उत्तेजित नहीं हो पाते। क्रांति में हमें बहुत रस नहीं आता, क्योंकि हम जानते हैं क्रांति बहुत बार हुई है, और चीजें वहीं लौट कर आ जाती हैं जहां से शुरू होती हैं। तो हम बीच में जो शोरगुल करते हैं, बहुत उछलकूद मचाते हैं, बहुत परेशान होते हैं, वह व्यर्थ ही जाता है। क्योंकि चीजें वहीं लौट आती हैं जहां से शुरू होती हैं।
पूर्वीय जीवन की जो दृष्टि है वह साधना के लिए बड़ी अनूठी भूमिका है। ऐसा खयाल में आ जाए तो उत्तेजना विलीन हो जाती है और मन अपने आप शांत होने लगता है।
अब हम लाओत्से के सूत्र में चलें।
‘प्रतिक्रमण ताओ का कर्म है। रिवर्सन इज़ दि एक्शन ऑफ ताओ।’
वह जो मूल है, उसको ही पा लेना लक्ष्य है। जहां से हम प्रारंभ हुए वहीं पहुंच जाना मंजिल है। जो हमारा पहला क्षण है वही हमारा अंतिम क्षण हो जाए तो जीवन का गंतव्य पूरा हो गया। प्रतिक्रमण ताओ का धर्म है--लौटना, मूल पर लौटना, मूल में लीन हो जाना।
क्या है आपका मूल? अगर उसकी खोज में आप लग जाएं तो विचार खो जाएंगे, चिंताएं खो जाएंगी, तनाव खो जाएंगे, संताप खो जाएगा। क्योंकि मूल जहां है वहां कोई तनाव, कोई चिंता, कोई संताप नहीं है। जीवन बिना किसी शोरगुल के चुपचाप शुरू होता है। इसलिए अगर आप पीछे लौटें, अपने बचपन में, तो आप तीन वर्ष के पीछे नहीं लौट सकेंगे। तीन वर्ष तक की आपको याद आ सकती है; तीन वर्ष के पीछे प्रवेश करना मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि याद ही तब बननी शुरू होती है जब जीवन में बेचैनी आ जाती है। जब बेचैनी ही नहीं होती तो याद भी क्या बने? जब कुछ घटता ही नहीं और मन इतना शांत होता है तो स्मृति क्या बने? जब कुछ घटता है तो स्मृति बनती है। स्मृति एक आघात है, चोट है। इसलिए जिस चीज से जितनी ज्यादा चोट पहुंचती है उतनी देर तक याद रहती है। जिससे कोई चोट नहीं पहुंचती उसकी कोई याद नहीं रहती।
वास्तविक अर्थों में भी स्मृति एक चोट है मस्तिष्क के तंतुओं पर, घाव है। और इसलिए जो घाव बहुत बन जाता है उस पर आप बार-बार लौटते हैं। किसी ने गाली दे दी थी बीस साल पहले; अगर घाव गहरा बन गया था तो बीस साल बीच के बहुत मूल्य नहीं रखते, घाव हरा रहता है। जरा सा मौका, आप वापस लौट जाते हैं। और घाव ताजा है। कितनी चीजें आप भूल जाते हैं; कितनी चीजें आप बिलकुल नहीं भूल पाते। क्या कारण होगा? जिस घटना से घाव बनता है जितना गहरा वह उतना ही भूलना मुश्किल होता है।
तीन वर्ष के पीछे जाना मुश्किल है। क्योंकि तीन वर्ष तक मन शांत है, ताओ में है, धर्म में है। अभी बच्चे के जीवन में कुछ भी नहीं घट रहा है। धारा इतनी शांत है कि जैसे बह ही नहीं रही।
इसी में लौट जाना प्रतिक्रमण है। फिर ऐसी जगह आ जाना जहां मन बच्चे की तरह शांत हो गया है, सरल, निर्दोष हो गया है; जहां न कोई भविष्य है, न कोई अतीत है; जहां वर्तमान के क्षण में ही सब कुछ है। एक छोटा बच्चा एक तितली के पीछे दौड़ रहा है। इस घड़ी में, जब वह तितली के पीछे दौड़ रहा है, तो उसको तितली को छोड़ कर कोई भी नहीं है, जगत पूरा लीन हो गया है। एक बच्चा फूल को तोड़ कर देख रहा है। इस क्षण में सारा जगत खो गया है; फूल है और बच्चा है, उस फूल की सुगंध उसे घेरे है। तात्कालिक क्षण में सब कुछ है। न कोई अतीत है जिसका बोझ ढोना है, न कोई भविष्य है जिसकी आशाएं, कल्पनाएं, योजनाएं बनानी हैं। ऐसा वर्तमान में हो जाना ही निर्दोष हो जाना है। ऐसे क्षण में कोई घाव नहीं लगते। इस अवस्था में फिर से लौट जाना, इस मूल को फिर से पकड़ लेना ध्यान है। सारे ध्यान के प्रयोग इस मूल को पकड़ने के प्रयोग हैं।
फिर यह गहरा होता जाए ध्यान, और हम पीछे प्रवेश करें, तो बच्चा मां के गर्भ में है। तब कोई दायित्व नहीं है, कोई रिस्पांसबिलिटी नहीं है। कोई एक विचार की तरंग भी नहीं उठती है, क्योंकि बच्चे की सभी इच्छाएं उठने के पहले पूरी हो जाती हैं। बच्चे को कुछ भी नहीं करना पड़ता। मां के पेट में बच्चा करीब कल्पवृक्ष के नीचे है। श्वास मां लेती है, उससे बच्चे को आक्सीजन मिल जाती है। मां का खून बच्चे का खून बनता है। मां का जीवन बच्चे का जीवन है; मां के हृदय की धड़कन बच्चे की धड़कन है। बच्चा परम सुख में है, जहां कोई दुख पैदा नहीं होता, जहां कोई चिंता नहीं पकड़ती, जहां आने वाले क्षण का कोई बोध भी नहीं है। अगर हम और पीछे प्रवेश करें तो ऐसे गर्भ की अवस्था है। इसको हमने मोक्ष कहा है। इसको फिर से पा लेना, इसको फिर से पा लेना महासुख है।
तो जब ध्यान गहरा होता है और निर्दोष होते-होते इतना निर्दोष हो जाता है कि जैसे आप फिर से गर्भ में पहुंच गए। अब की बार मां का गर्भ नहीं होता, सारा अस्तित्व मां का गर्भ हो जाता है। इस बार इस पूरे अस्तित्व में आप एक हो जाते हैं। परमात्मा श्वास लेता है, परमात्मा जीवन देता है; आप सारी चिंता उस पर छोड़ देते हैं। आप ऐसे होते हैं, जैसे गर्भस्थ शिशु। यह समाधि है। ध्यान जब गहरा होते-होते ऐसी जगह पहुंच जाता है जहां गर्भस्थ शिशु की चेतना आपके भीतर जन्म लेती है। बोधिवृक्ष के नीचे बैठे हुए बुद्ध ऐसे गर्भस्थ शिशु हैं। कहीं कोई उपद्रव नहीं रहा। कोई उपद्रव का कारण नहीं है। आप अपने घर वापस आ गए। यह अस्तित्व विरोधी नहीं रहा, इससे कोई संघर्ष न रहा; यह अस्तित्व गर्भ हो गया।
अस्तित्व को गर्भ बना लेने की कला ही धर्म है। यह पूरा अस्तित्व घर जैसा मालूम होने लगे, एट होम आप हो जाएं--आकाश, चांद-तारे, पृथ्वी सब आपके लिए चारों तरफ से सहारा दे रहे हैं। अभी भी दे रहे हैं; जब आप लड़ रहे हैं तब भी दे रहे हैं। जिस दिन आपकी लड़ाई छूट जाती है, और आप इस गर्भ में प्रवेश कर जाते हैं...। हम मंदिर के अंतरस्थ कक्ष को गर्भ कहते हैं इसी कारण। मंदिर के अंतरस्थ कक्ष में पहुंच जाना गर्भ में पहुंच जाना है।
पश्चिम का मनोविज्ञान भी, निंदा के स्वर में सही, लेकिन इस सत्य को स्वीकार करने लगा है कि मोक्ष की, निर्वाण की खोज गर्भ की खोज है। इसे बहुत अहोभाव से नहीं, स्वागत के लिए नहीं, निंदा के लिए ही पश्चिम का मनोविज्ञान स्वीकार करने लगा है कि निर्वाण की खोज गर्भ की खोज है। और पश्चिम की धारणा में पीछे लौटना तो हो ही नहीं सकता, इसलिए यह खोज गलत है, खतरनाक है, मनुष्य के विकास के लिए बाधा है।
लेकिन मैं मानता हूं कि शीघ्र उन्हें समझ में आना शुरू होगा। जैसे-जैसे यूक्लिड की ज्यामेट्री विदा हो रही है और नॉन-यूक्लिडियन ज्यामेट्री प्रवेश कर रही है, और जैसे-जैसे पुरानी रेखाबद्ध धारणाएं खो रही हैं वैसे-वैसे यह धारणा भी खोएगी। गर्भ ही अंतिम जगह भी होने वाली है। और जो व्यक्ति पुनः गर्भ की अवस्था तक नहीं पहुंच पाता वह अधूरा मर गया। इसलिए हम कहते हैं कि उसे बार-बार जन्म लेना पड़ेगा, क्योंकि गर्भ का अनुभव उसका पूरा नहीं हो पाया; अधूरा अनुभव अटका रह गया। अधूरा भटकाता है। जो व्यक्ति मरते क्षण में ऐसी अवस्था में पहुंच गया जैसी अवस्था में जन्म के क्षण में था, उतना ही शांत हो गया और पूरा अस्तित्व उसका गर्भ बन गया, उसके लिए दूसरे जन्म की कोई जरूरत न रहेगी। बात समाप्त हो गई। उसका अनुभव पूरा हो गया, शिक्षण पूरा हो गया। इस विद्यालय में लौटने की कोई आवश्यकता नहीं है। मरते क्षण में ऐसे मरना जैसे कोई मां के गर्भ में प्रवेश कर रहा है। क्या चिंता है? क्या डर है? क्या घबड़ाहट है? रोकने की कोई जरूरत नहीं है; सहज स्वीकार से प्रवेश है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि बच्चा जब पैदा होता है तो सबसे बड़ा आघात पहुंचता है। उसको वे ट्रॉमा कहते हैं। सबसे बड़ा आघात पहुंचता है बच्चा जब पैदा होता है। होगा ही। क्योंकि बच्चा इतने सुख से इतने महादुख में आता है। मां के पेट में सुख ही सुख है। और बच्चा ऐसे तैर रहा है मां के पेट में जैसा कि आप कल्पना करते हैं--क्षीर सागर में विष्णु तैर रहे हैं; अनंत शेषनाग के ऊपर, उसकी शय्या पर लेटे हैं। ठीक बच्चा मां के गर्भ में सागर में ही तैरता है। और मां के पेट में जो पानी होता है जिसमें बच्चा तैरता है, जो बच्चे को सम्हालता है, वह पानी ठीक सागर का ही पानी होता है। उतना ही नमक, उतने ही केमिकल्स होते हैं। बच्चा उसमें तैर रहा है। कोई धक्का भी नहीं पहुंचता। वह जो पानी का वर्तुल है चारों तरफ वह उसे सब तरह के धक्कों से बचाता है। मां गिर भी पड़े तो भी बच्चे को उतना धक्का नहीं पहुंचता जितना मां को पहुंचता है। बच्चा तैरता ही रहता है। इस शेषनाग की शय्या से, इस सागर में डूबे होने से बच्चे का एकदम निष्कासन होता है; फेंका जाता है बाहर, मां से संबंध टूटता है।
तो मनोवैज्ञानिक कहते हैं, यह ट्रॉमैटिक है, बहुत आघातपूर्ण है, गहरा घाव बनता है। और इस घाव से आदमी मरते दम तक भी मुक्त नहीं हो पाता। वह पीड़ा बनी ही रहती है। बच्चा कंप जाता होगा। क्योंकि जहां कोई भी चिंता न थी वहां सब चिंताएं शुरू हो गईं। अब श्वास भी खुद लेनी है। भोजन की भूख लगेगी तो अब खुद ही चिल्लाना और रोना है और आवाज करनी है। प्यास लगेगी तो खुद ही प्रयास करने हैं। कुछ न कुछ संकेत देने हैं कि मुझे प्यास लगी है। चिंता शुरू हो गई। अपनी कमियां खुद ही पूरी करनी हैं। अपने अभाव खुद को ही प्रतीत होने लगे। मां के सुरक्षित जगत से बच्चा अपने असुरक्षित अहंकार में प्रवेश कर गया।
इसलिए हर आदमी रोता हुआ पैदा होता है। यह आश्चर्यजनक नहीं है। लेकिन हर आदमी रोता हुआ मरता है, यह बहुत आश्चर्यजनक है। क्योंकि अगर जन्म इतना दुखद है तो मृत्यु इससे विपरीत होनी चाहिए। यह तो सीधा तर्क है, साफ गणित है। अगर जन्म इतना दुखद है, अगर अस्तित्व से टूटना और अहंकार बनना और व्यक्ति बनना, इतना पीड़ादायी है कि रोता हुआ जन्म होता है और बच्चे के चेहरे पर चिंताओं की रेखाएं खिंच जाती हैं, फिर खिंचती चली जाती हैं, यह तो समझ में आता है। पश्चिम का मनोविज्ञान इसको ट्रॉमा कहता है। यह एक बात हुई। लेकिन अभी पश्चिम का मनोविज्ञान इसका दूसरा पहलू नहीं खोज पाया; उसको खयाल में नहीं है। हम उसको समाधि कहते हैं, हम उसको आनंद कहते हैं, जो मृत्यु के पहले--जैसा जन्म के पहले अलग होने में पीड़ा हुई थी तो मृत्यु में फिर एक हो रही है चेतना, उतना ही आनंद होना चाहिए। अगर उतना आनंद वहां नहीं हो रहा तो आप अधूरे मर गए। आपने जन्म तो लिया, लेकिन मृत्यु का रस न ले पाए। आपको फिर जन्म लेना पड़ेगा। क्योंकि मृत्यु की शिक्षा एकदम जरूरी है--मां के पेट से बाहर आना और फिर गर्भ में प्रकृति के प्रवेश करना।
मृत्यु क्या है? अस्तित्व में वापस डूब जाना; एक परम विश्राम। जहां मुझे श्वास न लेनी होगी, जहां अस्तित्व श्वास लेगा। हवाएं तो न रुक जाएंगी, हवाएं बहती रहेंगी। जीवन तो धड़कता रहेगा, मेरी धड़कन के साथ जीवन की धड़कन न मिट जाएगी। इतना ही होगा कि मेरी जो अलग धड़कन थी वह उस महाधड़कन में लीन हो जाएगी। सब ऐसा ही होगा। जीवन का महाउपक्रम चलता रहेगा, यह महाउत्सव चलता रहेगा, जीवन नाचता रहेगा। लेकिन मेरे पैर अलग से न नाच सकेंगे। मेरे पैर लीन हो जाएंगे उस महानृत्य में, जो विराट का है।
आपने देखा, हम मूर्तियां बनाते हैं शंकर की, हजारों हाथ से नाचते हुए। आपको खयाल में नहीं होगा कि क्यों हम ऐसा बनाते हैं। और जब पहली दफा कोई पूरब की कला से परिचित होता है तो उसको लगता है, यह कुछ अजीब सा मामला है; एकदम अयथार्थ है। कहीं ऐसे हजार हाथ होते हैं! ऐसे अनंत हाथ होते हैं कि अनंत हाथों से कोई नाच रहा है! यह प्रतीक इस बात का है कि सभी हाथ इस महानृत्य में लीन होते जाते हैं; सभी हाथ उसी के हैं।
मुझे याद आता है; मैंने एक आयरिश कथा सुनी है। एक बूढ़ी वृद्धा बहुत चिंतित, पीड़ित और दुखी थी। मौत करीब आती थी। बिस्तर पर लग गई थी; बिस्तर से उठना भी मुश्किल था। और आखिरी चिंता जो मन को बहुत काले बादल की तरह घेरे थी, वह यह थी कि उसे लगता था कि उसका संबंध ईश्वर से टूट गया है। कोई संबंध उसे मालूम नहीं होता था, कोई भाव ईश्वर के प्रति बहता नहीं मालूम होता था। और मौत करीब आती थी और ईश्वर से कोई लगाव, कोई सेतु बीच में नहीं रह गया। जीवन ने सब सेतु गिरा दिए।
एक मित्र उसे देखने आया था। तो मित्र ने कहा, तू चिंता मत कर, ईश्वर का भाव आखिरी क्षण तक भी पुनः पाया जा सकता है। क्योंकि वस्तुतः हम उससे कभी टूटते नहीं, खयाल ही होता है कि टूट गए। क्योंकि टूट जाएं तो हम मिट ही जाएं। तो तू चिंता मत कर, तू आंख बंद कर और प्रार्थना कर। और उससे ही कह कि मैं तो असमर्थ हूं, मेरे हाथ छोटे हैं, तुझ तक कैसे फैलाऊं! लेकिन तेरे हाथ तो अनंत हैं, तेरा हाथ तो विराट है; तू अपने हाथ को फैला और मेरे सिर पर रख।
वृद्धा ने आंख बंद कर लीं; खुशी के आंसू उसकी आंख से बहने लगे; चिंता एक नई पुलक में बदल गई। और उसने प्रार्थना की कि हे परमात्मा, मेरे हाथ छोटे हैं, मैं तुझे खोजूंगी तो भी नहीं खोज पाती; टटोलूं तो भी तुझ तक नहीं पहुंच पाती; तू ही अपने हाथ को बढ़ा। और तब वृद्धा ने अनुभव किया कि उसके सिर पर कोई हाथ आ गया है। आनंद के आंसू बहने लगे। और उसने कहा कि धन्यवाद, मैं तो सोचती थी संबंध टूट गया, लेकिन तेरा हाथ तैयार है सदा मुझ तक पहुंचने को।
फिर उसने आंख खोलीं। आंख खोल कर--थोड़ी सी चिंता उसके चेहरे पर आई--और उसने मित्र से कहा, बात तो बहुत आनंदपूर्ण रही, लेकिन एक शक मुझे पैदा होता है। वह जो हाथ मेरे सिर पर आया, बिलकुल तुम्हारे हाथ जैसा लगता था। उस मित्र ने कहा, निश्चित ही! कोई परमात्मा आकाश से इतना लंबा हाथ करके तेरे सिर पर रखेगा, ऐसा थोड़े ही; जो हाथ पास में मिल गया, उसका ही उसने उपयोग कर लिया है।
सभी हाथ उसके हैं। इसलिए हमने अनंत हाथों वाले शिव को नृत्य करते दिखाया है। सभी हाथ उसके हैं। वह नृत्य चलता रहता है, शिव का नृत्य चलता रहता है; हमारा नृत्य डूबता जाता है, उसमें लीन होता जाता है।
जो मृत्यु की कला जानता है, लीन होने की कला जानता है, वह जीवन का पूरा अर्थ, जीवन का पूरा स्वाद, जीवन की पूरी शिक्षा ले लिया। अब जीवन में लौटने की उसे जरूरत न रही। अब फिर से बूंद बनने की जरूरत न रही; अब वह सागर के साथ एक हो सकता है। जन्म के समय जिस तरह का झटका लगता है, मृत्यु के समय उसी तरह के आनंद का नृत्य भी होता है। लेकिन वह किसी बुद्ध को, किसी कृष्ण को। हम चूक जाते हैं। हम जन्म के दुख से मुक्त ही नहीं हो पाते और मृत्यु का आनंद ही नहीं ले पाते।
रोते हुए पैदा होना स्वाभाविक है; रोते हुए मरना दुर्घटना है। हंसते हुए मरना स्वाभाविक है; हंसते हुए पैदा होना दुर्घटना होगी। कोई बच्चा पैदा होते से हंस दे तो बड़ी मुसीबत हो जाएगी। बिलकुल समझ के बाहर हो जाएगा; मां-बाप भी डर जाएंगे। भरोसा भी नहीं आएगा। ठीक वैसी ही दुर्घटना रोते हुए मरना है।
मूल को वापस उपलब्ध कर लेना है। और तब जीवन एक वर्तुल बन जाता है। तब जीवन के सब सुख-दुख, जीवन की सारी यात्रा लीन होती जाती है। सब जरूरी था शिक्षा के लिए। फिर हम मूल पर वापस लौट आते हैं; विराट गर्भ में वापस लौट आते हैं। जगत, अस्तित्व फिर गर्भ बन जाता है; उसमें हम चुपचाप लीन हो जाते हैं। बिना शोरगुल, बिना विरोध, बिना प्रतिरोध, आनंद-भाव से, नाचते हुए, गीत गाते, उसमें सरिता वापस सागर में गिर जाती है।
लाओत्से कहता है, ‘प्रतिक्रमण ताओ का कर्म है और भद्रता ताओ का व्यवहार।’
स्वभावतः, यह तो अंतरस्थ घटना होगी; प्रतिक्रमण, रिवर्सन, वापस लौटना, यह तो भीतरी घटना होगी। इसका बाहरी परिणाम भद्रता होगी। क्योंकि जो व्यक्ति मूल से मिलने को चल पड़ा उसका व्यवहार भद्र हो जाएगा, शांत हो जाएगा, आनंदपूर्ण हो जाएगा, करुणा और प्रेम से भर जाएगा। उसके व्यवहार से कटुता खो जाएगी। उसके व्यवहार में चोट नहीं रह जाएगी। जैसे-जैसे व्यक्ति अपने भीतर लीन होने लगेगा मूल में, वैसे-वैसे बाहर उसका व्यवहार कटुता खोने लगेगा।
लेकिन इससे उलटा सही नहीं है। आप अपने व्यवहार से कटुता खो सकते हैं, आप अपने व्यवहार को सम्हाल सकते हैं, दमन कर सकते हैं। आप सब भांति से संस्कार ला सकते हैं अपने व्यवहार में, परिष्कार ला सकते हैं, चमक ला सकते हैं; लेकिन वह भद्रता न होगी। वह व्यवहार कामचलाऊ होगा। वह व्यवहार सभ्यता हो सकती है, भद्रता नहीं होगी। भद्रता तो, जब अंतस में लीनता होने लगती है, तब उसका जो सहज परिणाम, सहज छाया पड़ती है व्यवहार पर, वही है। इसलिए बाहर के व्यवहार से भीतर के आदमी को नहीं जाना जा सकता। बाहर के व्यवहार से भीतर की कोई भी खबर नहीं मिलती। क्योंकि बाहर का व्यवहार झूठा हो सकता है।
पश्चिम में व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिक हैं। वे कहते हैं, आदमी सिर्फ व्यवहार है, बिहेवियरिस्ट। कहते हैं, भीतर तो कोई आत्मा है नहीं; बस जो व्यवहार है उसी का जोड़ आदमी है। तो हम व्यवहार के अध्ययन से आत्मा को जान सकते हैं। इससे बड़ी कोई भ्रांत धारणा नहीं हो सकती। व्यवहार के अध्ययन से भीतर के आदमी को नहीं जाना जा सकता। क्योंकि हम देखते हैं नाटक में, फिल्म में, कोई आदमी प्रेम का व्यवहार कर रहा है, कोई आदमी क्रोध का व्यवहार कर रहा है। लेकिन भीतर, भीतर न क्रोध है, न भीतर प्रेम है। भीतर वह आदमी अपने घर जाने की सोच रहा है; कब नाटक पूरा हो जाए। और जिस भांति प्रेम उसने नाटक के मंच पर किया है वैसा ही प्रेम वह अपनी प्रेयसी से भी करता हुआ दिखाई पड़ेगा। दोनों व्यवहार में हमें फर्क करना मुश्किल होगा। लेकिन उसके लिए फर्क है। क्योंकि उसकी प्रेयसी के लिए भीतर से कुछ बह रहा है। अभिनय में बाहर से कुछ आरोपित किया जा रहा है।
मैंने सुना है कि एक ईसाई धर्मगुरु अपने दंत-चिकित्सक के पास गया, डेंटिस्ट के पास गया। उसके दांत गिर गए थे बहुत से, और उसने सब दांत साफ करवा कर नए कृत्रिम दांत लगवाने चाहे। दांत उसके अलग कर दिए गए। और कृत्रिम दांत बनने पर उसे बुलाया गया। जैसे ही चिकित्सक ने उसके कृत्रिम दांत उसके मुंह में बिठाए, चिकित्सक एकदम हैरान हुआ। क्योंकि जैसे ही दांत उसके मुंह में बैठे, उसने बड़े जोर से आवाज की: क्राइस्ट! जीसस! वह डाक्टर थोड़ा हैरान हुआ। उसने कहा कि श्रद्धेय, अगर दांत इतना दर्द दे रहे हैं तो मैं उन्हें निकाल कर फिर ठीक करके वापस जमा दूं।
ऐसा सुन कर चिकित्सक से धर्मगुरु और भी ज्यादा चकित हुआ। उसने कहा, क्या कहते हो? दांत तो बिलकुल ठीक हैं। दांतों में तो जरा भी गड़बड़ नहीं है। लेकिन ये दो प्यारे शब्द, जीसस और क्राइस्ट, वर्षों से मैं कहना चाहता था--बिना सीटी बजाए। दांत टूट गए थे तो जब भी वह जीसस कहता तो सीटी बजती। तो मुझे पीड़ा नहीं हो रही, मैं बड़ा आनंदित हूं कि वर्षों के बाद ये दो प्यारे शब्द मैं बिना सीटी बजाए कह सकता हूं। लेकिन चिकित्सक ने व्यवहार देख कर समझा कि वह महापीड़ा में है।
स्वभावतः कोई भी--क्राइस्ट, जीसस जब उसने कहा होगा--तो कोई भी सोचता कि महापीड़ा उसे हो रही है। व्यवहार भीतर की खबर नहीं देता। व्यवहार से हम अनुमान लगा सकते हैं। और इसलिए चूंकि व्यवहार से अनुमान लगाया जा सकता है, भद्रता की जगह हमने सभ्यता को सीख रखा है। सभ्यता सिर्फ ऊपरी आचरण है।
शब्द बड़ा अच्छा है सभ्यता। सभ्यता का अर्थ इतना ही होता है: सभा में बैठने की योग्यता। और कोई अर्थ नहीं होता। सभ्य का अर्थ होता है: सभा में जो बिठाया जा सके; उपद्रव न करे, गड़बड़ न करे, लोगों से ठीक व्यवहार करे। सभ्यता का और कोई मतलब नहीं होता। वह बाह्य व्यवहार है।
लेकिन भद्रता आंतरिक गुण है। सभ्य आदमी भीड़ में सभ्य होता है, एकांत में असभ्य हो जाता है। आप अपनी पत्नी से जैसा व्यवहार करते हैं अकेले में वैसा व्यवहार आप सड़क पर नहीं करते। चार लोगों के सामने आप ऐसे प्रेम से बोलते हैं जिसका हिसाब नहीं; एकांत में दोनों अपनी साफ शक्लों में आ जाते हैं। पति-पत्नी लड़ रहे हैं और एक मेहमान घर में आ जाए, लड़ाई समाप्त हो जाती है और दोनों के चेहरों पर सभ्यता आ जाती है। सभ्यता दूसरे को ध्यान में रख कर है। लेकिन भद्र आदमी एकांत में भी भद्र होता है। अकेला होता है, तब भी भद्र होता है। भद्र आदमी वस्तुओं के साथ भी भद्र होता है; व्यक्तियों का कोई सवाल नहीं है।
रिल्के, कवि रिल्के के बाबत कहा जाता है कि वह अपना जूता भी खोल कर रखता तो ऐसा जैसा किसी व्यक्ति को रख रहा हो; वह अपने कपड़े भी उतारता तो ऐसा धन्यवाद के भाव से कि तुमने मुझे सर्दी में सहायता दी, या धूप में सहायता दी, या वर्षा में सहायता दी, तुम्हारी बड़ी कृपा है। वह अपने वस्त्रों से भी बोलता, अपने जूते से भी बोलता। वह भद्र आदमी था।
भद्रता एकांत में भी होगी, अकेले में भी होगी; वस्तुओं के साथ भी होगी। सभ्यता भीड़ में होगी, बाजार में होगी, दूसरों के साथ होगी। और सशर्त होगी। अगर आप सभ्य हैं तो मैं सभ्य हूं, ऐसी शर्त होगी। लेकिन भद्रता बेशर्त है, अनकंडीशनल है। आप क्या हैं, इससे उसका कोई संबंध नहीं है। मैं भद्र हूं। भद्र होना मेरा गुण है। आप असभ्य भी हों तो भी मैं भद्र होऊंगा।
‘भद्रता ताओ का व्यवहार है। संसार की वस्तुएं अस्तित्व से पैदा होती हैं; और अस्तित्व अनस्तित्व से आता है।’
सब शून्य से पैदा होता है और सब शून्य में लीन हो जाता है। जन्म के पहले आप क्या थे? एक शून्य। मृत्यु के बाद आप क्या होंगे? एक शून्य। एक वृक्ष अभी पैदा नहीं हुआ, अभी शून्य में है। फिर आपने बीज बोया और वृक्ष को शून्य से पुकारा। बीज पुकार है शून्य से वृक्ष के लिए--कि परिस्थिति तैयार है, तुम आओ और प्रकट हो जाओ! और वृक्ष प्रकट होना शुरू हो गया। फैलेगा, विराट बनेगा। फिर वृद्ध होगा, गिरेगा, खो जाएगा। फिर शून्य में लीन हो जाएगा। अस्तित्व के दोनों तरफ अनस्तित्व है। अस्तित्व के दोनों तरफ शून्य है। अभिव्यक्ति के दोनों ओर अनभिव्यक्ति है। प्रलय है सृष्टि के दोनों ओर। जन्म के दोनों ओर मृत्यु है। जीवन दोनों ओर मृत्यु से घिरा है।
इसे खयाल में ले लें, तो वह जो अस्तित्व के साथ हमारा बड़ा राग पैदा हो जाता है, वह पैदा न हो। क्योंकि तब हम जानें कि अस्तित्व अनस्तित्व से आता है, और अस्तित्व फिर अनस्तित्व में खो जाता है। इसलिए व्यर्थ मोह और राग और बहुत बंधन में पड़ जाने का कोई अर्थ नहीं है। अगर पड़ना भी हो तो नाटक से ज्यादा उसका मूल्य नहीं है; अभिनय से ज्यादा परेशान होने की कोई जरूरत नहीं है। ऐसा बोध आ जाए तो सब समान हो जाता है। तब हम जानते हैं कि जो है वह कल नहीं था और कल फिर नहीं हो जाएगा। इसलिए आज जब है तब हम बहुत पागल न हो जाएं। और हम इतने पागल न हो जाएं कि कल जब वह नहीं होने लगे तो हमें पीड़ा हो।
आज आपका किसी से प्रेम हो गया। लेकिन कल तक यह शून्य था, कल तक इस प्रेम का कोई पता न था। आज अचानक प्रेम निर्मित हो गया; एक मैत्री बनी। लेकिन जानें कि कल यह शून्य थी और कल फिर शून्य हो जाएगी। सभी चीजें जहां से आती हैं वहीं लौट जाती हैं। तो इस प्रेम के लिए इतने पागल न हो जाएं कि कल जब यह शून्य होने लगे तो आप छोड़ न पाएं। आज एक बच्चा आपके घर में पैदा हुआ; कल यह मरेगा। क्योंकि जन्म मृत्यु को अपने भीतर लिए है। तो आप इससे इतने ज्यादा मोहग्रस्त न हो जाएं कि कल जब यह विदा होने लगे, या विदा का क्षण आ जाए, तो आप छोड़ न पाएं। इसका यह अर्थ नहीं है कि आप आनंदित न हों। इसके होने में आनंदित हों, लेकिन इसके होने के भीतर न होना छिपा है, इसे स्मरण रखें। और जब यह न होने लगे तब इसको सहज स्वीकार कर लें, जैसा इसके होने को स्वीकार किया था। जो व्यक्ति ऐसी अवस्था को उपलब्ध हो जाए, उसे उपनिषदों ने साक्षी कहा है; जो अस्तित्व में अनस्तित्व को देखता रहे, जो प्रकट में अप्रकट को देखता रहे, जो होने में न होने को देखता रहे। दोनों फिर शांत हो जाते हैं। फिर कोई पकड़, कोई बंधन पैदा नहीं होता, फिर कोई कर्म ग्रसता नहीं और कोई नियति निर्मित नहीं होती। जैसे ही कोई व्यक्ति दोनों को देख लेता है एक साथ, अस्तित्व-अनस्तित्व को, मुक्त हो जाता है।
‘संसार की वस्तुएं अस्तित्व से पैदा होती हैं; और अस्तित्व अनस्तित्व से आता है। जब श्रेष्ठ प्रकार के लोग इस तरह के सत्य को सुनते हैं...।’
यह बहुत महत्वपूर्ण है वचन।
‘जब श्रेष्ठ प्रकार के लोग ताओ को सुनते हैं...।’
इस तरह के वचन को सुनते हैं कि प्रतिक्रमण ताओ का धर्म है, कि भद्रता ताओ का व्यवहार है, कि संसार की वस्तुएं अस्तित्व से पैदा होती हैं और अस्तित्व स्वयं अनस्तित्व से आता है, और सभी चीजें वहीं लौट जाती हैं जहां से जन्म पाती हैं, जब इस तरह के सत्य को सर्वश्रेष्ठ प्रकार के लोग सुनते हैं।
‘...तब वे उसके अनुसार जीने की अथक चेष्टा करते हैं।’
जब भी कोई चेतनावान व्यक्ति को ऐसे सत्य चोट करते हैं उसके हृदय में तो वह इन्हें सुनता ही नहीं, वह इन्हें जीने के प्रयास में लग जाता है। श्रेष्ठता इसी से निर्धारित होती है कि सुन कर क्या वह अथक चेष्टा में लग जाता है कि इन सत्यों को जीए भी! क्योंकि जो सत्य जीने का आकर्षण न दे, उसे आप कितना ही सत्य कहें, आपने सत्य माना नहीं। जिस सत्य के अनुसार चलने की आकांक्षा पैदा न हो, अभीप्सा पैदा न हो, और जिस सत्य को जीवन में वास्तविक कर लेने का स्वप्न न जगे, आप कितना ही कहें कि यह सत्य है, आप उसे सत्य मानते नहीं। क्योंकि सत्य को सत्य की तरह मानने का अर्थ ही यह है कि उसी क्षण आपका जीवन उसके पीछे चलना शुरू हो जाएगा।
अगर आप कहते हैं कि नहीं, यह सत्य है, और चलते आप वैसे ही जाते हैं जैसा इस सत्य को जानने के पहले चलते थे, तो आप सिर्फ धोखा दे रहे हैं। आप बेईमान हैं। आप यह भी सत्य नहीं कहना चाहते कि आपको यह बात सत्य नहीं मालूम पड़ती है। वह आदमी ज्यादा धार्मिक है जो जिस तरह जीता है, कहता है, यही सत्य है। वह आदमी ज्यादा अधार्मिक है जो जीता एक तरह है और सत्य कुछ और बताता है; और कहता है कि सत्य तो वही है, लेकिन मैं अभी उस पर चल नहीं पाता।
जो सत्य मालूम होगा, उस पर चलना ही होगा; चलना अनिवार्यता है। यह कैसे हो सकता है कि मुझे दिखाई पड़ता हो कि दरवाजा यहां है और फिर भी मैं दीवार से निकलने की कोशिश करता रहूं! और कहता रहूं कि जानता हूं, दरवाजा तो वहां है, लेकिन क्या करूं, मैं यहीं से निकलना चाहता हूं! जैसे ही मुझे दिखाई पड़ गया कि यह दीवार है, निकलने का प्रयास बंद हो जाएगा। और जैसे ही मुझे दिखाई पड़ गया कि वह दरवाजा है, मेरे पैर उस तरफ उठने शुरू हो जाएंगे। आपके पैरों का उठना ही दरवाजे की तरफ बताएगा कि आपको दरवाजा दिखाई पड़ा है। और कोई प्रमाण नहीं है।
तो लाओत्से कहता है, ‘जब सर्वश्रेष्ठ प्रकार के लोग ताओ को सुनते हैं, तब वे उसके अनुसार जीने की अथक चेष्टा करते हैं।’
अथक! क्योंकि हममें से बहुत से चेष्टा भी करते हैं, लेकिन बड़े जल्दी थक जाते हैं। करते भी नहीं हैं, दो कदम भी नहीं चलते, और कहते हैं कि लंबी यात्रा है; वह अपनी दीवार से ही निकलना ठीक है, पास है। लेकिन कितने ही दूर हो दरवाजा, दरवाजे से ही निकला जा सकता है। और दीवार कितने ही पास हो तो भी उससे निकला नहीं जा सकता। और अगर आप निकल सकते होते तो कभी के निकल गए होते; पूरा जीवन आप उसी दीवार से निकलने की कोशिश करते रहे हैं। फिर-फिर वही कोशिश करते हैं, फिर-फिर भूल जाते हैं कि यहां से निकलने का उपाय नहीं है। फिर टकराते हैं, सिर में चोट लगती है। और जब स्वस्थ हो जाते हैं तो फिर उसी दीवार से निकलने की कोशिश करते हैं। स्वास्थ्य का उपाय इसीलिए करते हैं, ताकि और ताकत से उसी दीवार से निकलने की कोशिश करें। दरवाजा कितना ही दूर हो, दरवाजा ही दरवाजा है। दीवार कितनी ही पास हो तो भी दीवार है।
अथक चेष्टा का अर्थ यह है कि बहुत बार शरीर कहेगा, थकान आती है। बहुत बार मन कहेगा, कहां की उलझन में पड़े हो! वहीं ठीक थे; कुछ चलना-फिरना तो नहीं पड़ता था। दीवार पास थी, उसी से टकराते रहते थे। और आशा थी, कभी न कभी निकल जाएंगे। लौट चलो! मन बहुत बार कहेगा, सत्य से वापस लौट चलो। क्योंकि असत्य सुगम मालूम पड़ता है। सुगम है नहीं, सिर्फ आदत के कारण सुगम मालूम पड़ता है--पुरानी आदत के कारण। एडिक्शन है, उसमें उलझे हैं। और इतने आदी हो गए हैं कि पता है इससे निकल नहीं सकते।
कल भी क्रोध किया था आपने, परसों भी क्रोध किया था, आज भी क्रोध किया है। और क्रोध कर-कर के देख लिया है कि क्रोध से कोई निकलने का उपाय नहीं है, कहीं जाना नहीं होता, फिर वापस वहीं खड़े हो जाते हैं। फिर भी कल क्रोध करेंगे। और कितनी बार तय कर लिया कि क्रोध व्यर्थ है, फिर भी क्रोध करेंगे। क्रोध की आदत हो गई है। वह सुगम मालूम पड़ता है। पता ही नहीं चलता कब आ जाता है। उसे लाने के लिए चेष्टा नहीं करनी पड़ती, इसलिए सुगम मालूम पड़ता है। शांत होने के लिए चेष्टा करनी पड़ती है, इसलिए दुर्गम मालूम पड़ता है। जीवन की साधना इतनी दुर्गम मालूम पड़ती है कि हमने नाम तक--आपने सुना है--हमने, काली के भक्तों ने काली को एक नाम दे रखा है: दुर्गा। दुर्गा का मतलब है दुर्गम; जिसको पाया नहीं जा सकता। फिर भी पूजे जा रहे हैं और दुर्गा कहे जा रहे हैं, कि आशा नहीं है कि मिलना हो सके।
निश्चित ही दुर्गम है। लेकिन दुर्गम सत्य नहीं है; हमारी आदतें गलत के लिए सुगम हो गई हैं। सत्य भी अथक चेष्टा करने से इतना ही सुगम हो जाएगा; इससे भी ज्यादा सुगम हो जाएगा। एक बार शांत होने की कला आ जाए तो क्रोध दुर्गा, दुर्गम मालूम पड़ेगा; क्रोध बहुत मुश्किल हो जाएगा। बुद्ध से कहो कि थोड़ा क्रोध करो! तो अगर बुद्ध क्रोध करें तो बड़ा ही कष्टपूर्ण होगा। इतनी मुसीबत होगी जितनी मुसीबत आपको शांत होने में होने वाली नहीं है। क्योंकि शांत होना तो आनंदपूर्ण है; और क्रोध करना दुखपूर्ण है। जब आपको आनंद की तरफ जाना कष्टपूर्ण मालूम पड़ता है, तो थोड़ा सोचें, बुद्ध को दुख की तरफ आना कितना कष्टपूर्ण मालूम पड़ेगा! आपके सामने अमृत रखा है और आप कहते हैं, पीना बहुत मुश्किल है। और बुद्ध के सामने आप जहर रख रहे हैं कि इसको पीओ। तो हम समझ सकते हैं कि जो व्यक्ति एक बार शांति के, आनंद के रस को ले लेगा, उसके लिए क्रोध और कठोरता बहुत दुर्गम हो जाएंगी। असंभव कहना चाहिए। आपके लिए सुगम मालूम पड़ती हैं, क्योंकि एक आदत है, लंबी आदत है। और आप करीब-करीब यांत्रिक, मशीन की तरह किए चले जाते हैं।
‘जब सर्वश्रेष्ठ प्रकार के लोग ताओ को सुनते हैं, सत्य को सुनते हैं, तब वे उसके अनुसार जीने की अथक चेष्टा करते हैं।’
आपके भीतर सर्वश्रेष्ठ का जन्म भी तभी होगा जब सत्य को जीने की अथक चेष्टा करें। मिट जाएं, टूट जाएं, लेकिन वापस न लौटें; जो ठीक दिखाई पड़ रहा है उसका अनुगमन करें। हां, दिखाई ही न पड़ रहा हो तब बात अलग। लेकिन दिखाई पड़े तो अनुगमन करें, उसके पीछे चलें, और कितना ही मूल्य चुकाना पड़े चुकाएं। क्योंकि कोई भी मूल्य उसका मूल्य नहीं है। और जिस दिन आपको उपलब्धि होगी उस दिन आप पाएंगे कि जो मैंने दिया वह कुछ भी नहीं था; मैंने सिर्फ कचरा दिया और हीरे पाए।
लेकिन अभी कचरे पर मुट्ठी बंधी है, और अभी कचरे में संपत्ति मालूम पड़ती है। उसे छोड़ने में डर लगता है। हीरा दूर है। और पता नहीं, इंद्रधनुष सिद्ध हो, पास जाएं और न मिले, और शर्त यह है कि इस कचरे को छोड़ें तो ही उसके पास पहुंच सकते हैं। तो बुद्धिमान हमारे बीच जो हैं वे कहते हैं, हाथ की आधी रोटी दूर की पूरी रोटी से ठीक है। वे बुद्धिमान जो हैं वे कहते हैं, हाथ की आधी रोटी दूर की पूरी रोटी से ठीक है। लेकिन मैं आपसे कहता हूं, हाथ में आधी रोटी है ही नहीं, सिर्फ वहम है, सिर्फ खयाल है कि कुछ है। इस कुछ को गौर से देखें तो पाएंगे कुछ भी नहीं है। और इसे छोड़ना ही पड़े, असार को छोड़ना ही पड़े सार की यात्रा पर, असत्य को हटाना ही पड़े सत्य की तरफ बढ़ने के लिए।
‘जब मध्यम प्रकार के लोग ताओ को सुनते हैं, तब वे उसे जानते से भी लगते हैं और नहीं जानते से भी।’
आप में से अधिक की हालत ऐसी होती होगी कि लगता है समझे भी, और लगता है कहां समझे! बीच में अटक जाते हैं। मध्यम प्रकार के लोग सदा ही मध्य में अटक जाते हैं। उनको दोनों बातें मालूम पड़ती हैं। उनकी हालत बड़ी बुरी हो जाती है। उनकी हालत ऐसी हो जाती है कि आपने उस प्राचीन गधे की हालत सुनी होगी, जो दो घास के ढेरों के बीच में खड़ा था, बिलकुल मध्य में खड़ा था, और यह तय नहीं कर पाता था कि इस तरफ जाऊं कि इस तरफ जाऊं। भूख गहन थी, मगर दोनों ढेरियां बिलकुल एक बराबर दूरी पर थीं। एक क्षण इस ढेरी की तरफ झुकने को होता था कि मन कहता था कि उधर क्या, इस तरफ ज्यादा ठीक होगा। कहते हैं, वह पौराणिक गधा बीच में ही खड़ा-खड़ा मर गया। भूख जान ले ली। ढेरी पास थीं, भोजन दूर नहीं था; लेकिन गधे की मध्यम वृत्ति जानलेवा हो गई।
हममें से अधिक लोग मध्य से उलझ जाते हैं। ठीक भी लगता है कि ठीक है, बात तो ठीक है; और फिर हम पच्चीस और कारण भी खोज लेते हैं जिनसे लगता है: होगी ठीक, लेकिन अपने लिए नहीं।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, आपकी बात तो ठीक लगती है, लेकिन...।
मैं कहता हूं, फिर लेकिन मत उठाओ। या तो कहो, आपकी बात ठीक नहीं लगती, तो कोई रास्ता बने, तो मैं आपको समझाऊं। तो समझाने का भी उपाय आपने समाप्त कर दिया। कहते हैं, बात ठीक लगती है; अब समझाने को कुछ बचा नहीं। और फिर कहते हैं लेकिन। तो फिर लेकिन मत कहो। वह लेकिन हमारे साथ अटका हुआ है। वह लेकिन हमारे प्राण में तीर की तरह छिदा है। उसकी वजह से हम हिल नहीं पाते। या तो किसी चीज को साफ-साफ समझना कि गलत है, तो उससे छुटकारा हो गया। या साफ-साफ समझ लेना कि ठीक है, तो उसमें छुटकारा हो जाए। लेकिन हम दोनों के बीच में खड़े हैं। वर्षों तक लोग सुनते रहते हैं; धीरे-धीरे सुनने के आदी हो जाते हैं। उनको वहम होने लगता है, समझते भी हैं; और जीवन में कहीं कोई क्रांति नहीं होती।
लाओत्से कहता है, जब मध्यम प्रकार के लोग सत्य को सुनते हैं तो वे उसे जानते से भी लगते हैं और नहीं जानते से भी। जैसे अर्ध-निद्रा और अर्ध-जाग्रत; जैसे करवट बदली है नींद में, थोड़ा सा होश आता है और फिर करवट बदल कर आदमी सो जाता है। करवट आदमी बदलता ही सोने के लिए है। वह जो बीच में थोड़ा सा होश आता है वह अड़चन की वजह से आता है। शरीर को अड़चन होती है करवट बदलने में, नींद थोड़ी सी टूटती लगती है, और फिर गहरी नींद लग जाती है। और हमारे भीतर मन की संभावना है कि हम सपने में भी सपना देख सकते हैं कि हम जाग गए। आपने सबने ऐसे सपने देखे होंगे जिनमें आप सपने में देख रहे हैं कि आप जाग गए। सपने के भीतर भी सपना देखा जा सकता है। और जो बहुत कल्पनाशील हैं वे तो सपने के भीतर सपना, सपने के भीतर सपना, सपने के भीतर सपना देख सकते हैं। वे तो देख सकते हैं सपने में कि बिस्तर पर जा रहे हैं सोने के लिए, सो गए, नींद लग गई--सपने में। अब नींद में सपना देख रहे हैं कि बिस्तर पर सोने को जा रहे हैं। ऐसा वह तो डब्बे के भीतर डब्बा, उसके भीतर डब्बा, ऐसा कर सकते हैं। हममें से बहुत से लोग इसी तरह कर रहे हैं। लगता है, जाग गए हैं। सो रहे हैं। तो एक अर्ध-निद्रा, अर्ध-जाग्रत की अवस्था बन जाती है।
इसे तोड़ना जरूरी है। या तो ठीक से सो ही जाएं; तो कम से कम यह बेचैनी मिटे। धर्म को भूलें, सत्य को भूलें, यह परमात्मा की, परलोक की बातें, इनको भूलें। ठीक से सो जाएं संसार में। तो कम से कम दुकान तो ठीक से चले, जगत तो ठीक से चले। लेकिन इनकी वजह से वह भी चल नहीं पाता। बैठे दुकान पर हैं और माला हाथ में भी है। अब वह माला दुकान में भी बाधा डालती है और दुकान माला में बाधा डालती है। कुछ भी ठीक से नहीं चल पाता, सब गड़बड़ हो जाता है। जैसे एक आदमी ने अपनी बैलगाड़ी में सब तरफ बैल बांध लिए हों; पूरब भी बैल जा रहे, पश्चिम भी बैल जा रहे, दक्षिण भी, उत्तर भी। और बैलगाड़ी मरी जा रही है; उसके अस्थिपंजर ढीले हुए जा रहे हैं। क्योंकि कहीं जाना नहीं हो सकता है। एक ही यात्रा हो सकती है।
बहुत स्पष्ट हो जाना जरूरी है कि अगर कोई चीज सत्य लगती हो तो आप खतरे में उतर रहे हैं। इसको कहने के पहले कि मैं समझ गया तीन बार सोच लेना चाहिए कि मैं समझ गया? अगर नहीं समझा हूं तो बेहतर है यह समझना कि अभी नहीं समझा हूं। तो आप साफ होंगे, एक क्लैरिटी होगी; जीवन में एक व्यवस्था होगी। अगर समझ गए हैं तो साफ समझ लें कि समझ गया हूं। तो भी जीवन में एक गति होगी, विकास होगा। लेकिन मध्य में खड़े रहना बहुत खतरनाक है।
‘और जब निकृष्ट प्रकार के लोग ताओ को सुनते हैं, तब वे अट्टहास कर उठते हैं--मानो इस पर हंसा न जाए तो यह ताओ ही नहीं है।’
निकृष्ट प्रकार के लोग जब सत्य की बातें सुनते हैं तो निश्चित ही हंसते हैं। वे समझते हैं, पागलपन की बातें हैं! दिमाग खराब हो गया। कहीं ऐसा भी हुआ है? कि हो सकता है?
पर उनका हंसना भी एक सुरक्षा का उपाय है। इसे ध्यान रखना कि हम कितने कुशल हैं; कई तरह की सुरक्षाएं करते हैं। सत्य की बात सुन कर जब कोई आदमी हंस उठता है और कहता है, पागलपन है! तो वह सुरक्षा कर रहा है अपने चारों तरफ। हंस कर वह बात को ठेल रहा है। हंस कर वह यह कह रहा है कि ध्यान देने की जरूरत नहीं, हंसी-मजाक की बात है, गंभीर होने की कोई आवश्यकता नहीं। हंस कर वह यह कह रहा है कि मुझसे कुछ लेना-देना नहीं; हम इस रास्ते पर जाने वाले नहीं हैं। इसलिए वह कह रहा है, पागलों की बात है।
इसलिए हमने संतों को अक्सर पागल करार दे दिया। पागल करार देकर हम सुरक्षित हो गए। हमने अपने को मान लिया, हम बुद्धिमान हैं; ये तो पागल हैं, इनकी बात में मत पड़ो। आदमी अच्छे हैं, कभी जरूरत हो तो पैर पर दो फूल रख आओ और झंझट से दूर रहो। और ठीक हो भी सकते हैं, लेकिन अपने काम के नहीं। या अभी अपना समय नहीं आया; जब आएगा तब देखेंगे। अभी तो जीवन है, जीवन का राग-रंग है। हम बहुत तरह की सुरक्षाएं करते हैं।
प्रथम कोटि का मनुष्य सत्य को देख कर उसकी तरफ चलना शुरू करता है। मध्यम कोटि का मनुष्य अटका रह जाता है। सत्य उसे दिखाई पड़ता सा मालूम पड़ता है, धुंधला, नहीं भी दिखाई पड़ता है; कभी लगता है दिखा, कभी लगता है नहीं दिखा। लोग मुझसे कहते हैं कि जब हम पाटकर हाल के भीतर होते हैं तब बिलकुल साफ दिखाई पड़ता है; और जैसे ही पाटकर हाल की सीढ़ियों से नीचे उतर कर आपको विदा कर देते हैं, सब धुंधला हो जाता है। घर लौट कर लगता है, कुछ भी नहीं लगता कि क्या ठीक था, क्या गलत था।
तीसरी कोटि के आदमी हंस कर टाल देते हैं। लाओत्से बहुत बढ़िया बात कहता है। वह कहता है, व्हेन दि लोएस्ट टाइप हियर दि ताओ, दे ब्रेक इनटु लाउड लाफ्टर; इफ इट वर नाट लाफ्ड एट, इट वुड नॉट बी ताओ। अगर तीसरी कोटि के मनुष्य सत्य को सुन कर न हंसें तो वह सत्य ही नहीं है। तीसरी कोटि का मनुष्य तो उसी तरह हंसेगा सत्य को सुन कर, जैसा प्रथम कोटि का मनुष्य चलता है सत्य को सुन कर उसके पीछे। अगर प्रथम कोटि का मनुष्य चले न तो समझना वह सत्य नहीं, और अगर तृतीय कोटि का मनुष्य हंसे न तो समझना कि वह सत्य नहीं। हंसेगा ही। क्योंकि उसका वही उपाय है। उस भांति वह झाड़ रहा है अपने को। वह कह रहा है, हमसे कुछ लेना-देना नहीं। ज्यादा से ज्यादा हम हंस सकते हैं; इससे ज्यादा हमसे कुछ आशा मत रखो। और हंस कर वह अपने को बुद्धिमान मान रहा है।
यह जरा मजे की बात है। प्रथम कोटि का मनुष्य जब सुनता है तो वह समझ लेता है कि मैं अभी तक बुद्धिमान नहीं था, इसलिए चलता है, अपने को बदलता है; ताकि बुद्धिमत्ता उपलब्ध हो सके। तृतीय कोटि का मनुष्य सुन कर हंसता है, क्योंकि वह अपने को बुद्धिमान मानता ही है। तुम पागल हो, इसलिए ऐसी बात कर रहे हो। अज्ञानी अपने को ज्ञानी मान कर खड़ा रहता है। वही उसके लिए बाधा हो जाती है। ज्ञानी अपना अज्ञान स्वीकार कर लेता है और यात्रा पर निकल जाता है। वही उसकी मुक्ति हो जाती है।
‘इसलिए यह प्रसिद्ध कहावत है कि जो ताओ को समझता है, उसकी बुद्धि मंद मालूम पड़ती है।’
तीसरी कोटि के मनुष्यों ने कहावतें बनाई हैं। वे ही बड़ी संख्या में हैं, उनका ही समाज है; उनकी बड़ी ताकत है। और उनकी ताकत रोज-रोज बढ़ती चली गई है। और जिस दिन लोकतंत्र पूरा होगा इस जगत में उस दिन उनकी ही ताकत एकमात्र ताकत बच रहेगी। आज रूस में संत होना मुश्किल है। असंभव है। और संत भी होना हो तो कोई चोरी से ही हो सकता है, छिप कर ही हो सकता है। किसी को पता भी नहीं पड़ना चाहिए। क्योंकि रूस पूरा का पूरा मुल्क तीसरी कोटि के आदमियों के हाथ में पड़ गया है। जो तृतीय कोटि की बुद्धि का, निकृष्ट बुद्धि का मनुष्य था, जिसको हम शूद्र कहते थे, उस शूद्र के हाथ में ताकत है पूरी। सारी दुनिया में उसके हाथ में ताकत बढ़ रही है। सारी दुनिया में उसके हाथ में ताकत बढ़ रही है; क्योंकि उसको आंकड़े का पता चल गया। उसको अब तक पता नहीं था कि संख्या में ताकत है। अब तक सब तरह की ताकत थी; इस बार पहली दफा दुनिया में संख्या की ताकत, दि पावर ऑफ नंबर्स, पहली दफा आया।
वह तो एक स्कूल की क्लास में भी जो प्रथम है वह एक है; जो द्वितीय कोटि के हैं वे दो-चार हैं; जो तृतीय कोटि के हैं वे बड़ी संख्या में हैं, वे चालीस हैं, पचास हैं। वह तो उनको अभी पता नहीं है कि क्लास में भी यह नंबर एक जिसको गोल्ड मेडल मिलता है, यह भी शोषण कर रहा है। क्योंकि वे पचास खड़े होकर कह सकते हैं कि हम पचास हैं। अभी उन तीसरी कोटि के लड़कों को क्लास में पता नहीं है कि संख्या की भी ताकत है। पर उनको भी धीरे-धीरे पता चल रहा है; वे सब जगह उपद्रव कर रहे हैं। ये जो सारी दुनिया के विश्वविद्यालयों में उपद्रव हो रहे हैं, वह तीसरी कोटि की बुद्धि का लड़का कर रहा है। जो गोल्ड मेडल नहीं पा सकता, जो प्रथम नहीं आ सकता, जिसके पास कोई प्रतिभा नहीं है, वह सारे उपद्रव कर रहा है। तो वह दूसरे को प्रथम नहीं आने देगा; तो वह दूसरे को गोल्ड मेडल नहीं मिलने देगा। वह परीक्षा ही नहीं होने देगा। उसकी चेष्टा यह है कि परीक्षा के बिना ही उत्तीर्ण होना चाहिए। और अगर लोकतंत्र जीतेगा तो वह जीतने वाला है। परीक्षा की क्या जरूरत है? जब ज्यादा लोग चाहते हैं कि परीक्षा नहीं होनी चाहिए। तो अल्पमत को बहुमत पर अपना विचार थोपने की कौन सी सामर्थ्य है? वह बहुमत बगावत कर रहा है; वह कह रहा है, बिना परीक्षा के। क्योंकि वह बिना परीक्षा के ही बहुमत उत्तीर्ण हो सकता है। परीक्षा हटनी चाहिए, क्योंकि परीक्षा से कोटियां निर्मित होती हैं। और परीक्षा से ब्राह्मण निर्मित होते हैं। क्योंकि वे जो प्रथम आ जाते हैं वे ब्राह्मण हो जाते हैं; जो छूट जाते हैं वे शूद्र हो जाते हैं।
रूस में संत होना असंभव हो गया है। संतत्व एक तरह की अयोग्यता है। अयोग्यता ही नहीं, एक तरह का अपराध है। क्या कर रहे हो मौन में बैठ कर? श्रम करो! ध्यान से क्या होगा? ध्यान विलास है। बुर्जुआ धारणा है। श्रम! कुछ पैदा करो! ऐसा खाली आंख बंद करने से क्या होगा? यह आलस्य है। समाधि में लीन भी हो गए तो क्या फायदा, जब तक समाज को फायदा न मिले? तुम्हें अगर आनंद भी मिल गया तो वह आनंद एक स्वप्न है। उसको साकार करो समाज के लिए। फैक्ट्री चलाओ, बड़े मकान बनाओ, बड़े यंत्र खोजो, जिससे लोगों को लाभ हो। तुम्हारे लाभ का कोई सवाल नहीं है। तुम सिर्फ एक आंकड़े हो, तुम सिर्फ एक इकाई हो। और तुम्हारी इकाई रिप्लेस की जा सकती है। तुम नहीं रहोगे, दूसरा यंत्र चलाएगा। लेकिन ये ध्यान और समाधि खतरनाक हैं; इनसे निजता पैदा होती है, इनसे व्यक्ति पैदा होता है।
आप बुद्ध को रिप्लेस नहीं कर सकते; एक इंजीनियर को रिप्लेस कर सकते हैं, एक डाक्टर को रिप्लेस कर सकते हैं। दूसरा डाक्टर आपरेशन करेगा, तीसरा डाक्टर आपरेशन करेगा, चौथा डाक्टर आपरेशन करेगा। लेकिन बुद्ध को आप कैसे स्थानांतरित कर सकते हैं? दूसरे को कैसे बिठा सकते हैं? बुद्ध की जगह खाली होगी तो खाली रहेगी। सदियां बीत जाएंगी; उस जगह बैठना मुश्किल होगा। क्योंकि निजता की गहराई इतनी आसान नहीं है भर देना।
तो रूस में संतत्व एक अयोग्यता है, एक अपराध है। और अगर कम्युनिस्टों ने कभी दुनिया का इतिहास लिखा तो वे बुद्ध को, महावीर को, जीसस को अपराधी घोषित करेंगे। क्योंकि इन लोगों ने लोगों की दृष्टि समाज से मोड़ी, लोक-कल्याण से मोड़ी। और इन लोगों ने लोगों को एक गलत बात सिखाई कि आंख बंद करो और अपने में डूबो--जो कि व्यर्थ है, जो कि एक तरह की निद्रा है, जो कि इस व्यक्ति की शक्ति और सामर्थ्य का उपयोग न हो पाए, इसका उपाय है। इन लोगों ने लोगों को गलत रास्ते पर लगाया।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, आप लोगों को ध्यान करने को कहते हैं, समाधि सिखाते हैं, और लोग भूखे मर रहे हैं। और फलानी जगह अकाल पड़ा हुआ है। और फलानी जगह आदिवासियों को शिक्षा देने की जरूरत है। वहां भेजिए। बैठने से क्या होगा? ध्यान से क्या होगा?
मैं उनको कहता हूं कि अगर इनके पास ध्यान नहीं है तो ये वहां जाकर भी क्या करेंगे? अगर बिना ध्यान के इनको भेज दिया अकाल में सेवा करने के लिए तो ये वहां से रुपया बना कर वापस लौट आएंगे। जो रोटी मिलनी चाहिए थी उसमें ये बीच के मध्यस्थ हो जाएंगे। चार रोटी भेजी जाएंगी तो एक पहुंच जाए अकाल भूखे आदमी तक तो बहुत है। क्योंकि ये बीच के मध्यस्थ, तीन रोटी इनको भी चाहिए।
मगर हमारी--सारे जगत में--तीसरी कोटि का आदमी, वह जो शूद्र है...। शूद्र कोई जन्म से नहीं होता। कोई शूद्र के घर में पैदा होने से शूद्र नहीं होता। तीसरी कोटि के आदमी को मैं शूद्र कहता हूं। कोई ब्राह्मण जन्म से नहीं होता। बुद्ध ने कहा है, जन्म से ब्राह्मण होने का क्या संबंध, ब्राह्मण बनना होता है। बुद्ध ने कहा है, सभी शूद्र की तरह पैदा होते हैं, उनमें से कुछ ब्राह्मण बन जाते हैं; बाकी शूद्र रह जाते हैं।
यह जो तीसरी कोटि का मनुष्य है उसने कहावतें प्रसिद्ध कर रखी हैं। क्योंकि वह भी अपनी सुरक्षा करता है। वह भी हंसता है, वह भी व्यंग्य करता है, वह भी ताने कसता है। उसने कहावत बना रखी है कि जो ताओ को समझता है, उसकी बुद्धि मंद मालूम पड़ती है; बुद्धिमान आदमी इस तरफ नहीं जाते। इस तरफ तो वे ही लोग जाते हैं जिनके पास बुद्धि नहीं है। इस भांति वह अपने को बुद्धिमान समझ सकता है।
जीसस पर किताबें लिखी जाती हैं, जिनमें सिद्ध किया जाता है कि जीसस रुग्ण थे, मानसिक रूप से बीमार थे; जीसस स्वस्थ नहीं थे। हजार तरह की बातें लिखी जाती हैं। यह तीसरी कोटि का मनुष्य सब तरह के तर्क खोजता है कि जीसस गलत थे। तो फिर पीछे जाने की कोई जरूरत नहीं रह गई। जीसस को गलत सिद्ध करने से हमारा छुटकारा हो जाता है। एक बोझ, एक चुनौती मिट जाती है। फिर हम अपने रास्ते पर सुगमता से चल पाते हैं।
अभी हिंदुस्तान के तीसरी कोटि के आदमियों में इतनी हिम्मत नहीं आई, लेकिन जल्दी आ जाएगी। बढ़ती जा रही है उनकी हिम्मत। जल्दी ही वे लिखेंगे कि महावीर रुग्ण थे, पैथालाजिकल थे, न्यूरोटिक थे; इनके दिमाग में कुछ गड़बड़ थी। और कारण बराबर खोजे जा सकते हैं, क्योंकि परम संतों के जीवन में कुछ ऐसी बातें मिल जाती हैं जो परम पागलों के जीवन में होती हैं। और मिल जाने का कारण है, क्योंकि पागल भी समाज से बाहर गिर जाते हैं और संत भी समाज के बाहर उठ जाते हैं। यह बाहर उठ जाना समाज से दोनों का समान होता है। इसलिए उनमें बातें मिल जाती हैं।
महावीर अपने बाल लोंचते थे, उखाड़ देते थे। क्योंकि महावीर कहते थे, किसी यंत्र का, किसी साधन का उपयोग नहीं करना; जितना स्वावलंबन हो सके उतना हितकर है। जो मैं कर सकूं, वह काम दूसरे से नहीं लेना। यह उनकी परम निष्ठा थी और बड़ी मूल्यवान थी कि जो मैं कर सकूं वह दूसरे से क्यों लेना! और सभी कुछ मैं कर सकता हूं तो सभी कुछ मैं कर लूंगा। क्योंकि वही मेरी स्वतंत्रता होगी। मैं दूसरे पर निर्भर हूं तो गुलाम हो जाता हूं। तो महावीर अपने बाल अपने हाथ से, जब बढ़ जाते, तो खींच कर निकाल देते थे। पागलों का एक वर्ग होता है जो अपने बाल लोंचता है। आपको भी जब कभी क्रोध आता है या गुस्सा, तो बाल लोंचने का मन होता है। खयाल किया? स्त्रियां तो अक्सर जब बहुत ज्यादा देवी रूप में आ जाती हैं तो बाल, अपने बाल खींचने लगती हैं। पागलपन में कुछ बाल खींचने का अर्थ मालूम पड़ता है। कारण? अपने को नुकसान पहुंचाना।
अपने को नुकसान पहुंचाना, असल में, दूसरे को नुकसान पहुंचाने का ही ढंग है। स्त्रैण ढंग है। पुरुष तो आक्रामक है; अगर वह किसी से क्रोध में आ जाए तो वह हमला करेगा। स्त्री अगर क्रोध में आ जाए तो वह खुद को पीटेगी। ये उन दोनों के मनोविज्ञान के फर्क हैं। स्त्री अपने को पीट रही है उसका यह मतलब नहीं कि वह अपने को पीट रही है; वह आपको ही पीट रही है। उसका आक्रमण ज्यादा जटिल है। अगर किसी स्त्री का बच्चा किसी के घर नुकसान पहुंचा आए, और आप शिकायत करने जाएं, वह अपने बेटे की पिटाई शुरू कर देगी। लेकिन आप यह मत समझना कि वह उसको पीट रही है; वह आपको पीट रही है। स्त्री का ढंग है, दूसरे को चोट पहुंचाना हो तो खुद को चोट पहुंचाना।
बहुत सी स्त्रियां आत्महत्या कर लेती हैं, सिर्फ इसी सुख में--कि मैं मर जाऊं तब तुम्हें पता चलेगा, तब भोगोगे, तब मेरी कमी...। आत्महत्या करने से कोई मतलब नहीं है। पति की हत्या नहीं कर सकतीं। वह स्त्रैण भाव नहीं है। आक्रामक हिंसा नहीं है; हिंसा पैसिव है, निष्क्रिय है। तो वह खुद मर जाएगी, पर इसी आशा में। अगर उसको पक्का हो जाए कि इसको कोई दुख होने वाला नहीं तो स्त्री आत्महत्या करेगी ही नहीं। लेकिन पति को कुछ पता नहीं है, वह बेचारा कहता है कि तू मर मत जाना; मैं बहुत दुखी होऊंगा। उसको पता नहीं है कि वह उसको प्रोत्साहन दे रहा है। यही तो रस है। अगर पति कहे कि बिलकुल ठीक, कल की मरती तू आज मर जा, तो बहुत ही अच्छा है, छुटकारा हो गया। रस ही खो गया। मरने में कोई मतलब नहीं है। बल्कि अब तो जीना बिलकुल जरूरी है, क्योंकि अब जीकर ही दुख दिया जा सकता है। पहले मर कर दुख दिया जा सकता था। दुनिया में सौ हत्याओं में से निन्यानबे हत्याएं दूसरे की हत्या करने का ही ढंग होती हैं।
तो पागल आदमी अपने को नुकसान पहुंचाने के लिए बाल लोंच सकता है। तो मनोविज्ञान से सिद्ध किया जा सकता है कि महावीर में कुछ पागलपन था, इसलिए बाल लोंचते थे।
पागलों का एक वर्ग है जो नंगा होने में रस लेता है। अगर एकांत में सड़क पर कहीं कोई स्त्री वगैरह मिल जाए तो वह जल्दी से नंगा खड़ा हो जाएगा। एक्झिबीशनिस्ट उनको पश्चिम में कहते हैं; उनकी संख्या बढ़ती जाती है। महावीर नग्न खड़े थे। उन्होंने वस्त्र छोड़ दिए। उन्होंने वस्त्र इसलिए छोड़े कि वे बच्चे की तरह सरल और निर्दोष हो गए। लेकिन मनोविज्ञान से सिद्ध किया जा सकता है कि उनमें जरूर कोई वृत्ति थी कि वे चाहते थे लोग उनको नंगा देखें। और इसको गलत करना बहुत मुश्किल होगा। क्योंकि महावीर तो कभी-कभी एक होता है। ऐसे हजार आदमी होते हैं जो दूसरे को अपने को नंगा दिखाना चाहते हैं। तो उन हजार के सामने महावीर एक अपवाद रह जाते हैं, उनको सिद्ध करना बहुत कठिन होगा।
आसान है क्योंकि जो पागल हैं वे भी समाज के बाहर गिर जाते हैं और जो संत हैं वे समाज के ऊपर उठ जाते हैं। दोनों समाज की सीमा के बाहर हो जाते हैं। उनमें कई चीजें समान मिल सकती हैं। तो पश्चिम में तय किया जा रहा है बहुत तरह से कि यह सब पागलों की जमात है।
लाओत्से ने हजारों साल पहले कहा है कि यह जो तीसरी कोटि का मनुष्य है, यह जो शूद्र बुद्धि का मनुष्य है, जो ताओ को समझता है, उसको वह मानता है कि इसकी बुद्धि मंद मालूम पड़ती है। इसके पास बुद्धि नहीं है; इसमें कुछ गड़बड़ है; यह कुछ बीमार है, कि रुग्ण है, कि विक्षिप्त है, कि मूढ़ है।
जो ताओ में खूब गतिवान है, वह तीसरी कोटि की बुद्धि के मनुष्य को, जीवन में बार-बार पिछड़ता हुआ मालूम पड़ता है।
पड़ेगा ही। क्योंकि ताओ की गति, जीवन में हम जिसे गति कहते हैं, उससे बिलकुल विपरीत है। अब जो आदमी राजसिंहासन की तरफ चल रहा है, वह जब बुद्ध को देखेगा कि राजसिंहासन छोड़ कर भाग गए तो वह समझेगा, बुद्धू है। आपको पता है कि बुद्ध से ही बुद्धू शब्द बना है! तीसरी कोटि के आदमियों ने कहा होगा, कैसा बुद्धू, सब छोड़ कर चला आया। सुंदर पत्नी थी, महल था, राज्य था। इसके लिए तो आदमी कामना करता है। अभी भी, अभी भी घर में कोई हाथ-पांव बांध कर पद्मासन में बैठ जाए तो आप कहेंगे, छोड़ो, यह क्या बुद्धूपन कर रहे हो। यह बुद्ध जैसे बैठने से कुछ न होगा, उठो, काम-धाम में लगो, कुछ कमाओ। तीसरी कोटि के मनुष्य ने बुद्ध को अपमानित करने के लिए बुद्धू शब्द विकसित किया है। उसे तो लगेगा ही कि यह आदमी पिछड़ रहा है। सिंहासन से और बड़े सिंहासन पर जाना चाहिए था। यह सिंहासन छोड़ कर भाग रहा है। या तो इसकी बुद्धि कमजोर है, या यह जीवन में हार गया; पलायनवादी है, एस्केपिस्ट है।
और जो समतल पथ पर चलता है, सत्य के समतल पथ पर--क्योंकि वहां कोई उतार-चढ़ाव नहीं है, और जैसे-जैसे सत्य की निकटता बढ़ती है वैसे-वैसे पथ समतल होता जाता है--वह इस तीसरी कोटि के मनुष्य को ऊपर-नीचा होता हुआ दिखाई पड़ता है।
इस तीसरी कोटि के मनुष्य को सभी कुछ उलटा दिखाई पड़ेगा, स्वभावतः। क्योंकि वह ताओ, सत्य की तरफ जाने वाला आदमी इसके जीवन-दृष्टिकोण से बिलकुल विपरीत जा रहा है। जहां यह धन को पकड़ता है, वहां वह धन को छोड़ देता है। जहां यह स्त्री के पीछे भागता है, वहां वह स्त्री की तरफ मुंह कर लेता है। जहां सिंहासन के लिए यह जीवन देने को तैयार है, वहां उसको अगर हम मारने को भी तैयार हों और कहें कि सिंहासन पर बैठो, नहीं तो हत्या कर देंगे, तो भी वह सिंहासन से उतरने को तैयार है। बिलकुल विपरीत है। साधारण आदमी बहता है नदी की धार में उलटी तरफ, अप-स्ट्रीम; और ताओ की तरफ बहने वाला आदमी तैरना छोड़ देता है और नदी की धार में बहता है, डाउन-स्ट्रीम। दोनों उलटे मालूम पड़ते हैं। तो जो आदमी तैर रहा है उलटा, धारा में, और लड़ रहा है धारा से, जब भी आप लड़ना छोड़ेंगे, वे कहेंगे: कमजोर, कायर, नपुंसक, भाग रहे हो?
बुद्ध को समझाने लोग आते थे। बुद्ध जब अपने राज्य को छोड़ कर दूसरे राज्य में गए तो दूसरे राज्य के सम्राट को पता चला। वह बुद्ध के पिता का मित्र था, शुद्धोधन का। वह बुद्ध के पास आया। उसने कहा कि इस उम्र में, जवान हो, स्वस्थ हो, हृष्ट-पुष्ट हो, भागते हो; शर्म नहीं आती? संकोच नहीं आता? यह तो कायरों का काम है भागना। तो बुद्ध ने कहा, मकान में आग लगी हो, और कोई आदमी मकान के बाहर आए, तो क्या आप उससे कहते हो--कायर, भागता है? जब मकान में आग लगी है तो भीतर बैठ! तो बुद्ध ने कहा, अगर आपकी भाषा में यह कायरता हो तो भी मुझे स्वीकार। आपकी बहादुरी को नमस्कार! उस बहादुरी में मैं नहीं पड़ने वाला। मकान में आग लगी है, मैं तो बाहर निकलूंगा। दुनिया कहे कि यह कायरपन है तो कहने दो। लेकिन जिसको आप महल कह रहे हैं वह जलता हुआ मकान है; वहां आग ही आग है, लपटों के सिवाय मैंने वहां कुछ भी नहीं पाया।
तो जो हमें पलायन मालूम पड़ता है, तृतीय कोटि के मनुष्य को, वह उसके लिए विजय-यात्रा है। और जो हमारे लिए विजय-यात्रा है वह उसके लिए आग का पथ है।
ये तीन तरह के लोग हैं। यह किन्हीं और के संबंध में बात नहीं है। तीनों तरह के लोग यहां मौजूद हैं। और आपका मन होगा मानने का कि आप पहले तरह के मनुष्य हैं। लेकिन जल्दी मत करना। पहली तरह का मनुष्य बहुत मुश्किल है। बेमन से शायद आप मानने को राजी हो जाएं कि चलो, दूसरी तरह के मनुष्य हैं। लेकिन दूसरी तरह का मनुष्य भी सौ में एकाध-दो होते हैं। क्योंकि दूसरी तरह के मनुष्य को बड़ी बेचैनी में जीना पड़ता है। पहली तरह का मनुष्य बेचैनी में नहीं जीता; तीसरी तरह का मनुष्य भी बेचैनी में नहीं जीता। वे आश्वस्त होते हैं। पहला वाला आश्वस्त चलता है, तीसरा वाला आश्वस्त रूप से छोड़ देता है कि यह सब फिजूल है, बकवास है, इसमें पड़ना नहीं है। दोनों निश्चिंत होते हैं। दूसरा मध्य वाला आदमी हमेशा चिंतित और बेचैन होता है। वह भी बहुत कम संख्या में होता है। तीसरी तरह का मनुष्य अधिकतम संख्या में होता है। वह कई तरह से अपने को सुरक्षित कर लेता है दीवार बना कर; कई तरह के उपाय कर लेता है; और कहता है, यह अपने लिए नहीं है। यही तो कारण है कि बुद्ध जैसे लोग भी जमीन पर हों तो भी कितने लोग रूपांतरित होते हैं! कितने कम लोग! बुद्ध एक गांव में आते हैं, कितने लोग सुनने जाते हैं?
ऐसा एक बार हुआ कि बुद्ध एक गांव में कई बार आए। और एक आदमी उन्हें सुनना चाहता था, लेकिन कोई न कोई बहाना खोज लेता। कभी उसकी पत्नी बीमारी थी, कभी लड़के को सर्दी-जुकाम, कभी दुकान पर ज्यादा ग्राहक, कभी वह खुद ही अस्वस्थ, कभी थका-मांदा, कभी कुछ, कभी कुछ। बुद्ध कई बार आए-गए; तीस साल उसके गांव से कई बार गुजरे। और हमेशा उसने कोई बहाना खोज लिया। फिर जब बुद्ध की मृत्यु का क्षण आया और खबर आई कि बुद्ध आज जीवन छोड़ते हैं, तब वह भागा हुआ पहुंचा। उसने लोगों से कहा, मुझे मिलने दो। तो लोगों ने कहा कि तीस साल तेरे गांव से गुजरते थे, तू तो कभी दिखाई नहीं पड़ा। उसने कहा, मुझे फुर्सत नहीं मिली।
बुद्ध को फुर्सत है आपके गांव में आने की; आपको फुर्सत नहीं है सुनने जाने की। और सब काम चल रहा है, सिर्फ बुद्ध को सुनने की फुर्सत नहीं है। वह बहाना है। वह तरकीब है। तीसरी कोटि का आदमी कई तरह के बहाने खोजता है। वह कहता है, अभी अपनी उम्र नहीं है, यह तो वृद्धावस्था की बात है; जब बूढ़े हो जाएंगे तब धर्म को सोच लेंगे, समझ लेंगे। वह तो अंतिम है। हजार बहाने खोज लेता है कि अभी अपने को सुविधा नहीं है।
एक मित्र मेरे पास आए। उन्होंने कहा कि मैं आपको सुनने इसलिए नहीं आता कि अगर कहीं आपकी बात ठीक लगने लगी तो! इसलिए न आना अच्छा है।
एक महिला मेरे पास आई, और उसने कहा कि ध्यान तो करना चाहती हूं, लेकिन मुझमें कुछ ऐसा फर्क तो नहीं हो जाएगा कि मेरे परिवार में अड़चन होने लगे। तो मैंने कहा, फर्क तो होगा ही, नहीं तो ध्यान करने की कोई जरूरत नहीं। और अड़चन भी होगी। क्योंकि परिवार में बुरे होने से ही अड़चन नहीं होती, अच्छे होने से भी अड़चन होती है। अड़चन का तो मतलब होता है कि पुराना एडजस्टमेंट टूट जाता है।
अब पत्नी क्रोध करती थी, दुष्ट थी, तो पति को सुविधा थी एक तरह की। वह किसी दूसरी स्त्री के प्रेम में पड़ता तो उसको भीतर एक तर्क था कि अपनी पत्नी इतनी दुष्ट, कर्कशा है, इसलिए! इसलिए कसूर मेरा नहीं है कि मैं दूसरी स्त्री की तरफ आकर्षित होता हूं; इसका ही है। फिर पत्नी ध्यान करने लगे, शांत हो जाए, कर्कशा न रह जाए, प्रसन्न चित्त हो जाए, कठोर न रहे, क्रूर न रहे, तो पति को बेचैनी शुरू होगी। अब, अब वह दूसरी स्त्री की तरफ देखे तो अड़चन मालूम होती है। इसका बदला वह इसी पत्नी से लेगा। बुरे होने से तो अड़चन होती ही है जीवन में, अच्छे होने से और भी ज्यादा अड़चन होती है।
तो मैंने उस स्त्री को कहा कि अड़चन तो होगी, यह तू सोच कर आ। फिर छह महीने हो गए, उसका मुझे पता नहीं चला।
मोक्ष को छोड़ने को लोग तैयार हो सकते हैं; अड़चन से बचते हैं। हजार बहाने हैं। तो तीसरी कोटि का आदमी बड़ी से बड़ी संख्या में है। सौ में अट्ठानबे, निन्यानबे आदमी तीसरी कोटि के हैं।
और अगर आपको दिखाई पड़ जाए कि आप तीसरी कोटि के हैं तो आपकी पहली कोटि के होने की यात्रा शुरू हो गई। तीसरी कोटि का लक्षण है यह कि वह मानता नहीं कि मैं तीसरी कोटि का हूं। तीसरी कोटि का आदमी मानता है कि मैं तो पहली कोटि का हूं। पहली कोटि का आदमी मान लेता है कि मैं तीसरी कोटि का हूं, और कैसे पहली कोटि का बनूं, इसके लिए जीवन को बदलने को तैयार हूं। तो अच्छा हो कि नीचे की सीढ़ी पर अपने को समझना। क्योंकि उससे ऊपर की सीढ़ी का द्वार खुलता है।
और अथक श्रम की जरूरत है। यात्रा तपश्चर्या है। पहुंचना तो हो जाता है, लेकिन चलना जरूरी है। और चल वही सकता है जो समझता है कि मंजिल मुझे मिल नहीं गई है। अगर आपको मंजिल मिल ही गई है--जो कि तीसरी कोटि का लक्षण है, शूद्र का लक्षण है कि वह मुक्त अपने को मानता ही है, ज्ञानी अपने को मानता ही है, ब्रह्मज्ञानी अपने को मानता ही है।
एक महिला ने मुझे आकर कहा कि मेरे पति आपके बहुत खिलाफ हैं। वे कहते हैं, ऐसा क्या है जो उन्हें सुनने से मिल सकता है--जब मैं घर में मौजूद हूं! और पति मैं हूं तुम्हारा कि वे? मुझसे पूछो! उस महिला ने मुझे कहा कि इसके पहले मैं उनसे कुछ पूछ भी सकती थी, अब वह भी मन नहीं रहा, कि यह आदमी किस तरह का आदमी है!
पर तृतीय कोटि के आदमी का यह लक्षण है कि वह उपलब्ध है, इसलिए कुछ करने को नहीं, कहीं जाने को नहीं; वह जो है, परम साकार प्रतिमा है परमात्मा की, अब कुछ और करने को नहीं रह गया।
अगर आप अपने को समझ लें नीचे की सीढ़ी पर खड़ा हुआ तो आपने ऊपर उठना शुरू कर दिया। वह प्रथम कोटि के आदमी का लक्षण है। इन पर विचार करना, इन पर ध्यान करना। और शीघ्रता से निर्णय मत लेना; आहिस्ता से निर्णय को आने देना। उससे जीवन में क्रांति की संभावना उन्मुक्त होती है।

पांच मिनट रुकें, कीर्तन करें, और जाएं।

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