LAO TZU

Tao Upanishad 70

Seventieth Discourse from the series of 127 discourses - Tao Upanishad by Osho. These discourses were given during JUN 19-26, 1971 - APR 10 1975.
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Chapter 37

WORLD PEACE

The Tao never does, Yet through it everything is done, If princes and dukes can keep the Tao The world will of its own accord be reformed. When reformed and rising to action, Let it be restrained by the Nameless pristine simplicity. The Nameless pristine simplicity Is stripped of desire (for contention). By stripping of desire quiescence is achieved, And the world arrives at peace of its own accord.
अध्याय 37

विश्व-शांति

ताओ कभी कर्मरत नहीं होता, तो भी सभी कुछ उसके द्वारा ही कर्मरत है। यदि सम्राट और भूस्वामी ताओ को अक्षुण्ण रख सकें, तो संसार आप ही सुधर जाएगा। और जब सुधर जाए और कर्मरत हो जाए, तब उस अनाम पुरातन सरलता के द्वारा उसका अनुशासन हो। यह अनाम पुरातन सरलता (स्पर्धा के लिए) वासना से रहित है। वासनारहितता से निश्चलता प्राप्त होती है; और संसार आप ही आप शांति को उपलब्ध होता है।
सूर्य उगता है, डूबता भी है। श्वास आती है, जाती भी है। तारे घूमते हैं; मौसम परिवर्तित होते हैं। प्रकृति का विराट कर्म चलता है, लेकिन बिलकुल अकर्म जैसा। वहां कोई कर्ता नहीं है। न तो सूरज उगने के लिए कोई प्रयत्न करता है; न चांद-तारे चलने के लिए कोई आयोजन करते हैं; न फूल खिलने के लिए कोई व्यवस्था जुटाते हैं; न नदियां सागर की तरफ बहने के लिए किसी अस्मिता से, कर्ता के भाव से भरती हैं।
मनुष्य को छोड़ कर कर्म कहीं भी नहीं है। गति तो बहुत है, क्रिया बहुत है; लेकिन कर्ता का बोध कहीं भी नहीं है। बीज जब फूटता है और अंकुरित होता है तो कोई भाव पैदा नहीं होता कि मैं फूटता हूं, मैं अंकुरित होता हूं, मैं वृक्ष बनने जा रहा हूं। और जब वृक्ष में फूल खिलते हैं तब भी वृक्ष को नहीं लगता कि मैंने फूल खिलाए हैं। विराट कर्म होता है, लेकिन कर्ता का कोई बोध नहीं है।
निश्चित ही, कर्ता का बोध मनुष्य की बीमारी है। इस बात को गहरे से समझना जरूरी है। क्योंकि यह बीमारी बहुत गहरी है, और हमारे प्रत्येक होने के ढंग में प्रविष्ट हो गई है। आप, जो भी हो रहा है, उसे तत्काल कर्म बना लेते हैं। भूख लगती है, जवानी आती है, बुढ़ापा आता है; जीवन जन्मता है और मृत्यु में फिर सब लीन हो जाता है। इस सब में कहीं भी कोई कर्म नहीं है। आप कुछ करते नहीं हैं; यह सब हो रहा है। लेकिन अगर यह सब हो रहा है, इसको आप ऐसा ही देखें, तो अहंकार को खड़े होने की जगह न होगी। तो आप होने को करने में बदलते हैं। जो हो रहा है, उसे आप कर्म बना लेते हैं। और आप कर्म बना कर ही एहसास कर सकते हैं कि मैं हूं। तो कर्म की सारी बीमारी के पीछे मैं को पैदा करने की आकांक्षा है। अगर सब हो रहा है तो आपके होने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। जैसे ही आप कुछ करते हैं, मैं खड़ा होता है।
यह जो हमारा मैं है, सारी दुनिया के धर्म कहते हैं कि यही बाधा है; इसे छोड़ दें, इसे त्याग दें, इसे विनष्ट कर दें। लेकिन मजे की बात यह है कि ताओ जैसे बुद्धत्व को उपलब्ध लोग ही ठीक से समझ पाते हैं कि ये शिक्षाएं गलत हो गईं। क्योंकि जब हम कहते हैं, अहंकार को छोड़ दें, तब भी हम उसे कृत्य बना लेते हैं और कर्म बना लेते हैं। छोड़ेगा कौन? जो छोड़ेगा, वह फिर कर्ता बन गया। अहंकार का त्याग कौन करेगा? अहंकार का नाश कौन करेगा? जो करेगा, वह फिर नया अहंकार निर्मित हो गया।
अहंकार का अर्थ ही कर्ता का भाव है। तो अहंकार का त्याग नहीं किया जा सकता; कोई उपाय नहीं है। क्योंकि आप त्याग करेंगे तो वह जो त्याग करने वाला है वह एक नया अहंकार निर्मित हो गया। पुराना गया, नया बना। और नया निश्चित ही पुराने से ज्यादा खतरनाक होगा, ज्यादा सूक्ष्म होगा, ज्यादा ताजा होगा, ज्यादा शक्तिशाली होगा। और फिर उसे पहचानने में जन्म लग जाएंगे।
अहंकार का न तो विनाश किया जा सकता, न अहंकार का त्याग किया जा सकता, न अहंकार को काट-छांट कर विनम्र बनाया जा सकता। क्योंकि अहंकार कर्ता का भाव है। लाओत्से कहता है, अगर यह समझ में आ जाए कि जीवन की लीला अपने से चल रही है, बिना किसी कर्ता के, अगर आपको अपने भीतर भी यह समझ में आ जाए कि सब हो रहा है, करने का कोई सवाल नहीं है, तो अहंकार निर्मित ही न होगा; त्याग करने का सवाल नहीं आएगा। त्याग करने का सवाल तो तब आता है जब अहंकार निर्मित हो जाए। और निर्मित अहंकार को त्याग करना असंभव है। यह संभव है कि उसे निर्मित न होने दिया जाए। यह संभव है कि उसे भोजन न दिया जाए। यह संभव है कि उसके बनने की प्रक्रिया समझ ली जाए और उस प्रक्रिया से बच जाया जाए, लेकिन बने हुए अहंकार को मिटाना मुश्किल है, क्योंकि मिटाना फिर कृत्य है। और कृत्य से ही अहंकार मजबूत होता है।
इसलिए संसारी का अहंकार होता है; संन्यासी का अहंकार होता है--संसारी से भी ज्यादा सूक्ष्म और ज्यादा विषाक्त। भोगी का अहंकार होता है, लेकिन योगी के अहंकार का कोई मुकाबला नहीं है। साधारणजन का अहंकार होता है, असाधारणों का अहंकार होता है। लेकिन असाधारणजनों का, साधुओं का अहंकार बड़ा सूक्ष्म, दिखाई भी नहीं पड़ता। लेकिन उसकी धार बड़ी पैनी है। देखें महात्माओं के आस-पास तो वह दिखाई पड़ जाएगा, जरा पैनी आंखें देखने को चाहिए पड़ेंगी।
अभी मैं पढ़ रहा था किसी का संस्मरण। एक पंडित एक जैन मुनि के पास गया। उन मुनि की बड़ी प्रतिष्ठा थी। वह पंडित उनके जीवन पर एक किताब लिखना चाहता था। तो पंडित ने मुनि को कहा कि मुझे आज्ञा दें कि मैं आपका जीवन-चरित्र लिखूं और आशीर्वाद दें कि मैं इसमें सफल हो जाऊं। जैन मुनि ने कहा, मुझे प्रशंसा की कोई भी जरूरत नहीं है, मुझे प्रशस्ति की कोई भी जरूरत नहीं है, मुझे ख्याति का कोई लोभ नहीं। पंडित बहुत प्रभावित हुआ कि कितने विनम्र व्यक्ति हैं! न ख्याति की कोई जरूरत है, न लोग जानें इसकी कोई जरूरत है।
लेकिन जो स्वर है, अगर उसे थोड़ा गौर से देखें, तो वह अहंकार का स्वर है। मुझे प्रशंसा की कोई जरूरत नहीं है! मुझे ख्याति का कोई लोभ नहीं है! यह जो मैं खड़ा है पीछे, यह सूक्ष्म है। यह एकदम से पहचान में नहीं आएगा। लेकिन किसे प्रशस्ति की जरूरत नहीं है? वह कौन है जो कहता है कि मुझे ख्याति की जरूरत नहीं है?
तो एक दफे मैं कहता है कि मुझे ख्याति की जरूरत है; वह संसारी का मैं है। फिर एक बार मैं कहता है कि मुझे ख्याति की कोई जरूरत नहीं है; यह संन्यासी का मैं है। और दूसरा मैं ज्यादा खतरनाक है। क्योंकि जिस मैं को ख्याति की जरूरत है, वह अभी बहुत बड़ा मैं नहीं। अभी अधूरा है, भरा नहीं है; खाली है, कुछ जरूरत है। और जिस मैं को ख्याति की बिलकुल जरूरत नहीं है, वह कह रहा है यह कि दो कौड़ी की है तुम्हारी ख्याति; तुम्हारा यश, तुम्हारा गुणगान दो कौड़ी का है। मैं लात मारता हूं उसे, मुझे उसकी कोई भी जरूरत नहीं है। मैं वहां हूं जहां तुम्हारी ख्याति मुझे नहीं छू सकती।
यह बहुत सूक्ष्म है, और इसे देखने के लिए बहुत बारीक दृष्टि चाहिए। लेकिन इसे पहचानना मुश्किल होता है। क्योंकि स्थूल अहंकार को तो हम जानते हैं, सब परिचित हैं; सूक्ष्म अहंकार को हम जानते नहीं हैं।
लेकिन यह क्यों घटता है? यह इसीलिए घटता है। इस मुनि को क्यों यह सूक्ष्म अहंकार होगा? क्योंकि ये मुनि अहंकार को छोड़ने की कोशिश में लगे हैं; यह उसका परिणाम है--ख्याति की जरूरत नहीं है! ख्याति की जरूरत है तो भी बात वही है, और ख्याति की जरूरत नहीं है तो भी बात वही है। जब अहंकार नहीं होगा तो दोनों जरूरतें विदा हो जाएंगी। न तो ख्याति की जरूरत होगी; और न ही ख्याति की जरूरत नहीं है, यह जरूरत होगी। दोनों नहीं रह जाएंगी। क्योंकि फिर कुछ होता नहीं मेरे से; कर्ता नहीं हूं मैं। फिर जो हो रहा है प्रवाह में, उसको देख रहा हूं, द्रष्टा हूं। फिर निंदा होती है तो उसे देखता हूं; और ख्याति होती है तो उसे भी देखता हूं। फिर निंदा कोई कर जाए तो उसे भी देख लेता हूं; और कोई प्रशंसा कर जाए तो उसे भी देख लेता हूं। फिर मेरे बोलने की कोई भी जरूरत नहीं। फिर इस मैं को खड़ा करने की कोई आवश्यकता नहीं।
लेकिन साधक छोड़ने की कोशिश में लगा है अहंकार को, तो एक नया अहंकार खड़ा हो जाता है। अहंकार के रास्ते बहुत विचित्र हैं। लाओत्से के इस सूत्र को समझेंगे तो बहुत हलकापन आएगा। क्योंकि लाओत्से नहीं कहता कि तुम छोड़ो। क्योंकि तुम छोड़ क्या सकते हो? तुम कुछ कर ही नहीं सकते हो; करने की बात ही भ्रांति है। इधर हम संसार बनाते हैं तो भी मजा लेते हैं कि मैं संसार बसा रहा हूं, मकान बना रहा हूं, धन कमा रहा हूं; तिजोड़ी बड़ी होती जा रही है। यह एक रस है, मैं का ही रस है; मैं कर रहा हूं। फिर एक दिन इस सबसे ऊब जाते हैं। फिर हम छोड़ते हैं। तब हम कहते हैं, मैंने धन छोड़ा। फिर हम छोड़ने का भी हिसाब रखते हैं। फिर कितना छोड़ा, उसका भी हम हिसाब रखते हैं। कितना था, उसका भी हिसाब रखते थे; फिर कितना छोड़ा, उसका भी हिसाब रखते हैं। फिर कितना बड़ा मकान था, उसको लात मार दी, उसका भी हिसाब रखते हैं। फिर कितनी सुंदर स्त्री थी, उसका त्याग कर दिया, उसका भी हिसाब रखते हैं। फिर सबका हिसाब रखते हैं, क्योंकि हमने छोड़ा। तब इकट्ठा करना हमारी संपदा थी; अब छोड़ना हमारी संपदा है। लेकिन संपदा अपनी जगह खड़ी है। तब हम इस जगत के सिक्के इकट्ठे कर रहे थे; अब हम मोक्ष के सिक्के इकट्ठे कर रहे हैं। लेकिन इकट्ठा करना जारी है। और वह मैं अकड़ा हुआ है। और उसकी मैं की अकड़ स्वभावतः ज्यादा होगी। क्योंकि तुम सब इकट्ठा कर सकते हो, लेकिन छोड़ने की हिम्मत कम लोग जुटा पाते हैं। परम अहंकारी ही छोड़ने की हिम्मत जुटा पाते हैं।
इसका यह मतलब नहीं है कि मैं कह रहा हूं कि तुम छोड़ना मत। इसका यह भी मतलब नहीं है कि मैं कह रहा हूं कि छोड़ोगे तो पाप होगा। मैं यह कह रहा हूं कि जहां भी कर्तृत्व आ गया वहां पाप हो जाएगा। तुमने इकट्ठा किया था, वहां कर्ता था। तुमने छोड़ा, वहां भी कर्ता हो गया। कर्ता छूट जाए तो पुण्य की घटना घटती है। इसलिए क्या तुम पकड़ते हो, क्या तुम छोड़ते हो, यह महत्वपूर्ण नहीं है; उन दोनों से कौन भरता है, कौन पोषित होता है, वही महत्वपूर्ण है। स्वभाव कर रहा है। आप जैसे हैं, जो हो रहा है, वह विराट धर्म की लीला है--या परमात्मा की लीला है, अगर परमात्मा शब्द प्रीतिकर है।
लाओत्से कहता है, ‘ताओ कभी कर्मरत नहीं होता, तो भी सभी कुछ उसी के द्वारा कर्मरत है। दि ताओ नेवर डज, यट थ्रू इट एवरीथिंग इज़ डन।’
कृत्य कमजोर आदमी की धारणा है। करने का भाव ही कमजोरी है। करने के भाव से ही हम अपने को खड़ा रखते हैं। लगता है, हम कुछ कर रहे हैं, कुछ कर रहे हैं, कुछ कर रहे हैं। फिर यह करने की भाषा भला बदलती जाए, लेकिन यह करने का जो रस है, जो रोग है, वह जारी रहता है। इसे पहचान लेने की जरूरत है। इसे पहचानने के लिए कुछ दिशाओं से खोज करना जरूरी है।
पहली बात तो यह, आप जनमे हैं। यह जन्म आपका कृत्य है? किसी ने आपसे पूछा कि कृपा करें और जन्में? किसी ने आपसे सलाह ली? आपके निर्णय की कोई जरूरत पड़ी?
न किसी ने पूछा, न पूछने का सवाल उठा। एक दिन आप नहीं थे और एक दिन आप हो गए। जन्म घटा है; वह कृत्य नहीं है। फिर आप बच्चे थे, सरल थे, भोले थे; वह भी कोई कृत्य नहीं था। फिर आप जवान हुए, तिरछापन आया, जीवन में वासनाएं जगीं, क्रोध और कामनाएं जगीं, महत्वाकांक्षा फैली; उसमें भी कुछ कृत्य नहीं है। वह भी हो रहा है। फिर आप बूढ़े हुए; वासनाएं थक गईं, क्षीण हो गईं। दौड़ कर देख लिया, कुछ पाया नहीं; विराग जन्मने लगा, वैराग्य का उदय हुआ। उसमें भी कुछ कृत्य नहीं है; वह भी हो रहा है। फिर मृत्यु घटी; उसमें भी कुछ कृत्य नहीं है। जीवन, अगर गौर से देखें, तो कृत्यहीन है।
और अगर यह दिखाई पड़ जाए कि घटनाएं हो रही हैं, मैं कुछ कर नहीं रहा हूं, तो आपकी सारी चिंता खो जाएगी, सारा तनाव क्षण भर में विलीन हो जाएगा। कोई जन्मों-जन्मों की तपश्चर्या की जरूरत न होगी; यह बोध, कि सब हो रहा है, आपको निर्भार कर देगा। फिर क्या बोझ है आपके ऊपर? फिर अगर आप बुरे भी हैं तो भी जिम्मेवारी आपकी नहीं है। फिर आप भले हैं तो भी कोई गौरव और प्रशंसा आपकी नहीं है।
ऐसा हुआ है कि एक आदमी की नाक थोड़ी लंबी है, और एक आदमी की नाक थोड़ी लंबी नहीं है। और एक आदमी की आंखों में चमक है, और एक आदमी की आंखों में चमक नहीं है। और एक आदमी चोरी करता है, और एक आदमी साधु है। अगर यह सब हो रहा है तो सारा बोझ विदा हो गया। फिर किसी पौधे में कांटे हैं और किसी पौधे में कांटे नहीं हैं; और किसी पौधे में लाल फूल लगते हैं और किसी में पीले फूल लगते हैं; और किसी में बड़े फूल लगते हैं और किसी में छोटे फूल लगते हैं। एक बार यह दिखाई पड़ना शुरू हो जाए कि घटनाएं हो रही हैं।
पर यह बड़ा मुश्किल है। इस सत्य के करीब बहुत बार ज्ञानी आ गए हैं, लेकिन इस सत्य को प्रकट करना भी खतरनाक है। क्योंकि डर यह लगता है कि अगर ऐसा कहा जाए कि सब हो रहा है तो लोग बिगड़ जाएंगे। क्योंकि लोग कहेंगे, फिर कोई उत्तरदायित्व ही न रहा। फिर हत्या करनी तो हम हत्या करेंगे, क्योंकि हो रहा है। फिर चोरी करनी तो हम चोरी करेंगे, क्योंकि हो रहा है। फिर हमें क्रोध करना है तो हम क्रोध करेंगे। और वासना हो रही है तो हो रही है। हम क्या हैं? हमारा कोई दायित्व, हमारी कोई जिम्मेवारी नहीं है। इस भय के कारण इस परम सत्य को बहुत बार छिपाया गया है।
लेकिन यह भय निर्मूल है। यह भय बिलकुल ही फिजूल है। सच तो यह है कि बात बिलकुल उलटी है। जो व्यक्ति ऐसा अनुभव कर ले कि सब हो रहा है, उसके जीवन से, जिसको हम पाप कहते हैं, वह अपने आप गिरना शुरू हो जाएगा। क्योंकि सभी पाप के मूल में अहंकार होता है। चाहे एकदम से उलटा दिखाई पड़े, लेकिन सभी पाप के मूल में अहंकार होता है। अगर सभी कुछ हो रहा है, ऐसी प्रतीति किसी को होने लगे...।
हमने भारत में इसको किसी और ढंग से रखा है। हम उसे नियतिवाद कहते हैं। हम कहते हैं कि भाग्य। वह यही बात है गहरे में। हम कहते हैं कि परमात्मा कर रहा है। उसका मतलब सिर्फ इतना ही है कि हम यह कहते हैं कि हम नहीं कर रहे हैं। परमात्मा कर रहा है या नहीं कर रहा है, यह सवाल नहीं है।
लेकिन ताओ की बात ज्यादा वैज्ञानिक है; लाओत्से का विचार ज्यादा वैज्ञानिक है। क्योंकि वह कहता है कि हम अपने पर से कर्ता का भाव हटाते हैं तो भी कर्ता के भाव को नहीं हटाते, उसको परमात्मा पर आरोपित कर देते हैं। यहां से हटाया तो वहां रख देते हैं, लेकिन उसको बिलकुल छुटकारा नहीं हो पाता। लाओत्से कहता है, उससे बिलकुल छूट जाने की जरूरत है। न तो तुम कर्ता हो और न परमात्मा कर्ता है। यहां कर्तृत्व हो ही नहीं रहा; जीवन का प्रवाह है सहज; उसमें घटनाएं घट रही हैं। उन घटनाओं के विराट आयोजन में तुम भी हो; अनेकों घटनाओं में जुड़ी हुई एक ग्रंथि तुम भी हो। इस बात की प्रतीति होते ही अहंकार गिर जाएगा, यह तो पहली बात है।
लेकिन नीतिशास्त्रियों को डर रहा है कि यह सत्य खतरनाक है। सच तो यह है कि सभी सत्य खतरनाक होंगे, क्योंकि समाज असत्य पर खड़ा हुआ है। जब आप असत्य पर खड़े होते हैं तो सत्य खतरनाक होता है। क्योंकि जैसे ही सत्य दिखाई पड़ेगा, आपका भवन गिरेगा। वह आपने असत्य पर बनाया हुआ है। एक आदमी ताश का भवन बना कर बैठा हुआ है; आंख बंद करके और सोच रहा है कि इस मकान में रहेंगे, विवाह करेंगे और बच्चे होंगे। और कोई भी उसको कह दे कि तुम यह क्या कर रहे हो, यह मकान ताश के पत्तों का है! तो निश्चित ही वह नाराज होगा। क्योंकि आप उसका मकान ही नहीं खराब कर रहे हैं, आप उसके पूरे कल्पना का जाल, उसके सारे स्वप्न, उसका सारा भविष्य छीन रहे हैं; सारा अतीत, सारा भविष्य आप नकार किए दे रहे हैं। क्योंकि पीछे पूरी जिंदगी उसने इसी भवन को बनाने में खर्च की है। और आगे की पूरी जिंदगी इसी भवन में जीने की योजना है। और आप कह रहे हैं, यह ताश का भवन है! तो वह आपकी बात को सुनने को राजी नहीं होगा। वह आपको झुठलाएगा। वह कहेगा, यह सच नहीं हो सकता। क्या झूठ बात कह रहे हो! क्या गलत बात कह रहे हो! वह इसलिए नहीं कह रहा है कि आप जो कह रहे हो वह झूठ है। वह इसलिए कह रहा है कि वह जिस झूठ पर सहारे पर खड़ा हुआ है, आप उसको छीने ले रहे हो।
इसलिए दुनिया ने सत्य को निकट से उदघाटित करने वाले लोगों का कभी भी स्वागत नहीं किया। न तो वे लाओत्से का स्वागत कर सकते हैं, न जीसस का स्वागत कर सकते हैं। हां, बहुत समय बाद स्वागत कर सकते हैं, जब उनके सत्य के आस-पास भी झूठ बुनने वाले लोगों का गिरोह इकट्ठा हो जाएगा, और जब वे उनके सत्य की व्याख्या भी ऐसी कर देंगे कि सत्य उसमें बचेगा नहीं और सिर्फ असत्य का जाल हो जाएगा।
अब जीसस का और वेटिकन के पोप का क्या संबंध है? कोई भी संबंध नहीं है। जीसस और वेटिकन का पोप, जितने दूरी पर हो सकते हैं, उतने दूरी पर हैं। आपका भी संबंध हो सकता है जीसस से, लेकिन वेटिकन के पोप का कोई संबंध नहीं है। लेकिन वह प्रतिनिधि है। और निश्चित ही, ईसाइयत को खड़ा करने में जीसस का हाथ नहीं है, पोपों का हाथ है। लेकिन जीसस के सत्य के आस-पास असत्य का जाल बुनेंगे। जाल इतना ज्यादा हो जाएगा कि सत्य बिलकुल दिखाई नहीं पड़ेगा। असत्य की राख, सिद्धांतों की राख इतनी बढ़ जाएगी कि सत्य का अंगारा बिलकुल दिखाई नहीं पड़ेगा। तब आप आश्वस्त हो जाएंगे, फिर आप पूजा करेंगे।
लाओत्से शुद्ध सत्य की बात कह रहा है। वह यह कह रहा है कि जीवन का एक ही पाप है, या एक ही भ्रांति है, और एक ही अज्ञान है कि मैं कर रहा हूं। जब जन्म आपके हाथ में नहीं और जीवन आपके हाथ में नहीं और मृत्यु आपके हाथ में नहीं, तो क्या आपके हाथ में है? वे जो छोटी-छोटी चीजें आपको अपने हाथ में लगती हैं, उनके भी गहरे में विश्लेषण करें। किसी ने आपको गाली दी, क्रोध आ गया। क्या आप क्रोध कर रहे हैं? क्या आप कर्ता हैं? या कि क्रोध आ रहा है? कोई सुंदर व्यक्ति दिखाई पड़ा और आप प्रेम में पड़ गए। क्या आप सोचते हैं, आप प्रेम कर रहे हैं? या कि प्रेम हो गया? और क्या आप किसी व्यक्ति को प्रेम कर सकते हैं जिससे प्रेम न हुआ हो?
कोशिश करें तो आपको अपनी असफलता दिखाई पड़ेगी। ऐसे व्यक्ति को प्रेम करने की कोशिश करें जिसके प्रति आपका कोई प्रेम नहीं है। तो आप क्या करेंगे? कैसे आप प्रेम को जन्माएंगे? नहीं है तो नहीं है। आप कह सकते हैं कि मेरा प्रेम है। कहने से प्रेम नहीं हो जाएगा। आप वस्तुएं खरीद कर भेंट कर सकते हैं। उससे भी प्रेम नहीं हो जाएगा। आप कुछ भी करें, प्रेम नहीं है तो होने का कोई उपाय नहीं है। और अगर है तो उसे नहीं करने का भी कोई उपाय नहीं है। भाग जाएं प्रेमी से हजारों मील दूर तो भी वह नहीं नहीं हो जाएगा। सब तरह की दीवालें खड़ी कर लें तो भी वह मिट नहीं जाएगा। जो है, वह आपका कृत्य नहीं है।
अगर आप जीवन की सारी पर्त-पर्त पहेली को खोलें तो आप कहीं भी ऐसा न पाएंगे कि आपका कृत्य है; आप सभी जगह पाएंगे कि कुछ हो रहा है। लेकिन समाज भयभीत है आपके होने से। तो समाज इंतजाम करता है कि सभी नहीं होने देगा। क्रोध आए तो समाज कहता है, भीतर ही रखना। और बचपन से सिखाया जाता है कि क्रोध आए तो भीतर रखना, क्योंकि उसके नुकसान हो सकते हैं। बाहर क्रोध को प्रकट करने के नुकसान हो सकते हैं, इसलिए भीतर रखना। लेकिन भीतर रखने के नुकसान हो सकते हैं, इसकी कोई फिक्र नहीं करता। जब आपको क्रोध आता है तो आप इतना कर सकते हैं जरूर...।
यह बड़े मजे की बात है कि जीवन में जो भी विधायक है वह तो होता है, लेकिन जो भी निषेधक है वह आप कर सकते हैं। क्रोध आ रहा है; क्रोध नहीं आ रहा है तो आप पैदा नहीं कर सकते। या आप कर सकते हैं? तो आप कोशिश करें तो आपको समझ में आएगा कि कितनी नपुंसकता मालूम होती है। क्रोध नहीं आ रहा है, और आपसे कहा जाता है कि चलिए, क्रोध करके दिखाइए। आप उछलकूद कर सकते हैं; लेकिन हास्यास्पद होगी। आप आंखें गुरेर कर देख सकते हैं, मुट्ठी बांध सकते हैं। लेकिन उसको देख कर हंसी आएगी, किसी को भी लगेगा नहीं कि आप क्रोध कर रहे हैं। और आपको खुद भी हंसी आएगी कि मैं क्या कर रहा हूं! और भीतर सब सन्नाटा है। सच तो यह है, क्रोध करने की कोशिश में आपका विचार तक रुक जाएगा। वह भी नहीं चल सकेगा भीतर। इस कोशिश में सब रुक जाएगा।
आप क्रोध तो नहीं पैदा कर सकते, आप प्रेम तो पैदा नहीं कर सकते, आप घृणा पैदा नहीं कर सकते। लेकिन आप एक काम कर सकते हैं: क्रोध आया हो तो आप उसे छिपा सकते हैं, नकारात्मक, आप एक अवरोध कर सकते हैं। आप झूठी एक व्यवस्था दे सकते हैं कि क्रोध का पता न चल पाए।
लेकिन वह भी झूठ आप दूसरे को ही बता सकते हैं; खुद आपके लिए तो वह झूठ नहीं है। आपके लिए तो क्रोध आ गया। अब वह भीतर घूमेगा। आप उसे भीतर इकट्ठा कर ले सकते हैं। तो हर आदमी के पास अपना बैंक है, जहां वह क्रोध इकट्ठा किए है। और वह बढ़ता जाता है। क्योंकि रोज इकट्ठा करना है, रोज इकट्ठा करना है।
इसलिए हर दस वर्ष में युद्ध की जरूरत पड़ जाती है। बिना युद्ध के आपके इकट्ठे बैंकों का क्या होगा? हिंदू-मुस्लिम दंगे की जरूरत पड़ जाती है। गुजराती-मराठी के दंगे की जरूरत पड़ जाती है। कोई भी बहाना, वे बैंक तैयार हैं। वहां आप इतना भरे हुए बैठे हैं कि कोई सामूहिक निकास का अवसर चाहिए।
नहीं तो अचानक भला-अच्छा आदमी चला जा रहा है, एक भीड़ मस्जिद में आग लगा रही है, वह उसमें सम्मिलित क्यों हो जाता है? उसे कभी खयाल भी नहीं था कि मस्जिद में आग लगाना है, मंदिर की मूर्तियां तोड़नी हैं, या दुकानें लूट लेनी हैं या कारों पर पत्थर फेंक देना है; उसे कभी खयाल भी नहीं था। भला-चंगा, अच्छा आदमी अपने दफ्तर से लौट रहा है, दूसरे लोग कारों के कांच फोड़ रहे हैं, वह भी संलग्न हो जाता है।
इस आदमी को क्या हो रहा है? इसका बैंक है; इसके पास अपना रिजर्वायर है, जिसको यह सम्हाल कर चलता है, बचा-बचा कर रखता है। आज सामूहिक मौका है; कानून टूट गया, व्यवस्था नहीं है; इसके भीतर जो भरा हुआ है, वह बाहर निकलना शुरू हो जाता है। यह खुद भी भरोसा नहीं कर सकेगा दो दिन बाद कि इसने गाड़ियां खड़ी थीं, उनके कांच तोड़े, किसलिए? इससे भी आप पूछिए तो यह भी कहेगा कि क्या बात है? यह भी कहेगा कि क्या हो गया? किसी शैतान ने मेरे सिर में प्रवेश कर लिया; कोई भूत-प्रेत मेरे ऊपर आ गया।
न तो कोई भूत है, न कोई प्रेत है, न कोई शैतान है; आपका अपना रिजर्वायर है, वह तैयार है। जरा सा मौका मिल जाए, वह फूट पड़ता है। आप किसी भी क्षण पागल हो सकते हैं। आप पागल होने के किनारे पर सदा ही खड़े हुए हैं। सिर्फ अवसर की जरूरत है। ठीक अवसर, और आप पागल हो जाएंगे।
जिन लोगों ने हिंदुस्तान-पाकिस्तान के बंटवारे पर लाखों लोगों की हत्या की, वे आप ही जैसे लोग थे। हत्या के पहले ऐसे ही दुकान जाते थे, ऐसे ही लौट कर पत्नी को मुस्कुरा कर देखते थे, ऐसे ही बच्चे की पीठ थपथपाते थे, ऐसे ही समय, अवसर पर मित्रों को फूल भेंट करते थे, मस्जिद जाते थे, मंदिर जाते थे, गीता पढ़ते थे, कुरान पढ़ते थे, सब धार्मिक कृत्य करते थे; बिलकुल आप जैसे लोग थे। कोई दानव नहीं थे, कोई दैत्य नहीं थे। हिंदुस्तान-पाकिस्तान के बंटवारे के पहले आपकी और उनकी शक्ल में कोई फर्क नहीं था। बंटवारा हुआ, एक मौका मिला। वह जो मंदिर-मस्जिद जाने वाला भक्त था, अचानक पागल हो गया। वह जो दुकान पर बैठा हुआ दुकानदार था, वह अचानक पागल हो गया। एकदम खून सवार हो गया लोगों को; लोग काटने-पीटने में लग गए। आप भी यही कर सकते हैं, इसे ध्यान रखना। क्योंकि आप भी वही इकट्ठा कर रहे हैं जो उन लोगों ने इकट्ठा किया था।
हम जीवन की धारा में कोई विधायक तो कुछ भी नहीं कर सकते, लेकिन जीवन की धारा में अवरोध खड़े कर सकते हैं। इसलिए हमारी सारी शिक्षाएं अवरोध की हैं: डोंट डू दिस; यह मत करो, यह मत करो। सारे टेन कमांडमेंट्‌स बस एक ही तरह की शिक्षा देते हैं: यह मत करो, यह मत करो। कोई नहीं कहता कि क्या करो, क्योंकि कर तो आप कुछ सकते नहीं। ज्यादा से ज्यादा इतना ही कर सकते हैं कि न करें। न करने का मतलब यह, बाहर न जाने दें ऊर्जा को। ऊर्जा भीतर घूमने लगेगी; और भीतर घाव बना लेगी और नासूर बना लेगी।
हर आदमी के मन में कैंसर है, क्योंकि उसने जो-जो नहीं किया है वह इकट्ठा हो गया है, वह भीतर घूम रहा है। हर आदमी पागल की तरह चल रहा है। लोग मेरे पास आते हैं, कहते हैं, रात भर सपने चलते हैं, कैसे रोकें? वे नहीं रुकेंगे। क्योंकि वह आप जो पागलपन इकट्ठा कर रहे हैं, वे सपने आपको बचा रहे हैं।
एक महिला मेरे पास आई और उसने कहा कि कुछ समझ नहीं आता मुझे। उसके सीधे हाथ में लकवा लग गया है। उसने मुझे कहा कि सपने में उसे सदा एक ही बात खयाल में आती है कि वह अपने पति की हत्या कर रही है। तो मैंने पूछा, किस हाथ से? तो वह थोड़ी बेचैन हुई। उसने कहा, आप यह क्यों पूछते हैं? मैंने कहा, मैं पूछता हूं कि किस हाथ से? तो उसने कहा कि सीधे हाथ से मैं उसकी हत्या कर रही हूं।
यह जो सपना है, यह वह हत्या करने का जो भाव उसके मन में घूम रहा है, उसकी खबर दे रहा है। और भय इतना गहरा हो गया है कि उस भय के कारण हाथ पैरालाइज्ड हो गया है। मैंने उसको कहा कि तेरे हाथ की कोई चिकित्सा नहीं कर सकेगा डाक्टर। और वह कहती है कि डाक्टर कहते हैं इसमें कुछ खराबी नहीं है। यह पैरालिसिस गहरी है; इसका शरीर से कोई संबंध नहीं है। यह पैरालिसिस इस भय से पैदा हो गई है कि कहीं मैं पति की हत्या न कर दूं। तो यह हाथ जड़ हो गया है। उस महिला को मैंने सम्मोहित किया और उससे कहा कि उठा हाथ! उसका हाथ उठने लगा, काम करने लगा। जब वह मूर्च्छित थी तो उसके हाथ में कोई लकवा नहीं था; जब वह होश में आई तो उसका हाथ फिर लकवे से भर गया। हाथ में कोई भी खराबी नहीं है; नहीं तो सम्मोहन में भी हाथ चल-फिर नहीं सकता। हाथ बिलकुल ठीक है। लेकिन एक गहरे भय ने हाथ को भीतर से खींच लिया है। सपना उसी को निकाल रहा है। उससे थोड़ी राहत है, नहीं तो उसका पूरा शरीर लकवे से लग सकता है।
विक्टोरिया के जमाने में इंग्लैंड में स्त्रियों को एक बीमारी होती थी जो अब बिलकुल नहीं होती। चिकित्सक बहुत हैरान हुए कि यह बीमारी होती थी, अब क्यों नहीं होती? यह बीमारी अचानक तिरोहित हो गई। और उस बीमारी का कोई इलाज नहीं था; और चिकित्सक हैरान हो गए इलाज खोज-खोज कर। अचानक वह बीमारी नदारद कैसे हो गई? विक्टोरिया के जमाने में कोई सैकड़ों स्त्रियां इंग्लैंड में एक खास बीमारी से पीड़ित थीं जिसमें उनके दोनों पैर में लकवा लग जाता था।
अब मनसविद कहते हैं कि वह बीमारी शारीरिक नहीं थी। कामवासना का इतना विरोध था कि स्त्रियां भयभीत थीं अपनी कामवासना से। तो वे सारी ऊर्जा को खींच कर रखती थीं। उस ऊर्जा को खींचने के कारण, भय के कारण, नीचे का हिस्सा उनका अपंग हो जाता था। वह अपंग होने का शरीर में कोई खराबी नहीं थी। जैसे ही इंग्लैंड में कामवासना के संबंध में जो दुष्ट नैतिकता थी वह शिथिल हुई, वैसे ही वह बीमारी तिरोहित हो गई।
आप भी अपने नीचे के शरीर को अपना नहीं मानते हैं। आप भी एक सीमा के बाद के शरीर को इनकार करते हैं; जैसे वह है ही नहीं। इसलिए आपके पैर उतने शक्तिशाली कभी नहीं होते जितने कि होने को पैदा हुए हैं। हो नहीं सकते। क्योंकि शक्ति का विभाजन गलत हो गया, असंतुलित हो गया। आप अपने सारे शरीर को छिपाए रखते हैं। अगर आपकी गर्दन काट दी जाए और आपको ही दिखाया जाए आपका शरीर, आप पहचान न पाएंगे कि यह मेरा शरीर है। कैसे पहचानेंगे? सिर्फ चेहरे की पहचान है; और तो कोई पहचान नहीं है।
इंग्लैंड से अचानक बीमारी तिरोहित हो गई। हजारों बीमारियां हैं, जो इसी तरह तिरोहित हो सकती हैं, अगर भीतर की स्थिति को हम ठीक से समझ लें। बड़ी से बड़ी बीमारियों को पैदा करने वाली व्यवस्था है कि जो भी हो रहा है उसे हम न होने दें, उसे रोक लें। और एक बार यह जाल पैदा हो जाए तो जो व्यक्ति क्रोध को रोक लेता है, क्रोध को नहीं होने देता, वह फिर प्रेम को भी नहीं होने देगा; वह भी रुक जाएगा। क्योंकि यह रुकने की व्यवस्था इतनी यंत्रवत हो जाती है कि जो भी ऊर्जा भीतर से पैदा होती है, तत्क्षण बाहर न जाकर स्वयं के भीतर घूमनी शुरू हो जाती है। अगर आप क्रोध नहीं कर सकते तो आप प्रेम भी नहीं कर सकते; असंभव! और अगर आपका क्रोध रुका हुआ है तो आपका प्रेम भी रुका हुआ हो जाएगा। फिर सब भावनाएं रुक जाएंगी। और जब सब भावनाएं रुक जाती हैं तो आदमी मुर्दे की भांति हो जाता है। एक काम हम कर सकते हैं कि जो हो रहा है उसे न होने दें; इतना हम कर सकते हैं।
लाओत्से कहता है कि जो हो रहा है उसके आप कर्ता नहीं हैं। इसलिए उसे न करने में भी कर्ता मत बनें; उसे होने दें।
बड़ा भय लगता है कि क्रोध आए तो उसे होने दें? वासना आए तो उसे होने दें? हमें भय लगता है, वह स्वाभाविक है। क्योंकि हमने इतना इकट्ठा कर लिया है कि अगर आज हम होने दें तो उपद्रव हो जाएगा। लेकिन अगर बचपन से ही होने दिया जाए तो कोई उपद्रव नहीं है। तब क्रोध का भी एक अदभुत परिणाम है।
छोटे बच्चे जब क्रोध कर लेते हैं, उसके बाद उनकी आंखों को देखें, जैसे तूफान के बाद एक शांति आ गई। जैसे क्रोध में, उनके भीतर जो भी कचरा था, वह सब निकल गया। और अगर हम, छोटा बच्चा जब क्रोध कर रहा हो, उसके क्रोध को प्रेम से स्वीकार कर लें और कहें कि घबड़ा मत, ठीक से कर, भयभीत मत हो, यह भी स्वाभाविक है; अगर हम छोटे बच्चे को क्रोध के प्रति भी स्वभाव से भर दें और कहें कि यह भी हो रहा है, तेरा कुछ करने का सवाल नहीं है, इसे हो जाने दे; जैसे तूफान आता है और वृक्ष कंपने लगता है, ऐसा तुझमें तूफान आया है, कंप जा और इसे निकल जाने दे। अगर बच्चे को हम, जो भी उसके भीतर हो रहा है, उसे स्वीकार के भाव से भर दें तो उसमें कृत्य का भाव पैदा ही नहीं होगा। क्रोध के प्रति तो वह यह नहीं कह सकता कि मैं कर रहा हूं, लेकिन क्रोध रोके तो कह सकता है कि मैंने रोका। जो भी रोकेगा उससे मैं पैदा होगा।
इसलिए आप एक मजे की बात देखें, अहंकार हमेशा नकारात्मक होता है। वह हमेशा कहता है, नो। यस, हां कहना उसे बड़ा मुश्किल है--उन बातों में भी जहां कोई जरूरत न थी। छोटा बच्चा अपनी मां से पूछ रहा है कि जरा मैं बाहर खेल आऊं? वह कहती है, नहीं। बड़े आश्चर्य की बात है कि कोई कारण भी नहीं था रोकने का। लेकिन रोकने का एक मजा है। क्योंकि रोकने से लगता है मैं कुछ हूं।
आप दफ्तर में जाते हैं और क्लर्क बैठा है, वह चाहे तो एक सेकेंड में आपका काम कर दे; वह कहता है, अभी नहीं हो सकता, दो दिन बाद आओ। वह जब आपको कहता है नहीं, तभी उसे लगता है मैं हूं। अगर वह अभी कर दे तो उसको लगेगा ही नहीं। उसको भी नहीं लगेगा और आपको भी नहीं लगेगा कि यह भी कुछ है। आपको भी तभी लगेगा जब वह कहे कि नहीं। आप अपने जीवन में खुद निरीक्षण करें तो आप पाएंगे कि आप सौ में से निन्यानबे दफे नहीं सिर्फ अहंकार के रस के लिए कहते हैं। और तब आपकी सौवीं नहीं भी व्यर्थ हो जाती है; उसका कोई मूल्य नहीं रह जाता। बच्चे जानते हैं कि मां नहीं कहेगी ही।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन का बेटा उससे पूछ रहा था कि मैं बाहर जाऊं? मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा कि अगर तुझे जाना ही है बाहर तो जाकर अपनी मम्मी को कह कि पिताजी मना कर रहे हैं बाहर जाने से।
ठीक, यह बिलकुल ठीक कहा। अगर तुझे बाहर जाना ही है तो अपनी मम्मी को कह दे जाकर कि पिताजी बिलकुल सख्त मना कर रहे हैं बाहर जाने से; फिर तुझे कोई बाधा नहीं। निश्चित, वह ठीक कह रहा है।
नहीं कह कर हमारे अहंकार को रस आता है, क्योंकि लगता है हम कुछ हैं। इसलिए नास्तिकता अहंकार है, क्योंकि वह आखिरी नहीं है। ईश्वर नहीं है, यह कह कर आप परम अहंकार को पैदा करते हैं। आस्तिकता का अर्थ है समर्पण, आस्तिकता का अर्थ है हां पूरे अस्तित्व को, एक स्वीकार! नास्तिकता का अर्थ है नहीं, समर्पण बिलकुल नहीं; संघर्ष। नास्तिक कोई दार्शनिक आधार से नहीं होता, क्योंकि नास्तिकता के लिए कोई दार्शनिक आधार नहीं है। नास्तिक आदमी होता है मनोवैज्ञानिक रोग के कारण। क्योंकि अगर ईश्वर है तो आप मिट गए। इसको कभी आपने सोचा? चाहे आप मंदिर जाएं या न जाएं, अगर ईश्वर है तो आप मिट गए। क्योंकि फिर सब कुछ उसके द्वारा हो रहा है; और आपके करने, न करने का कोई मूल्य नहीं रहा।
नीत्शे ने लिखा है कि ईश्वर नहीं हो सकता; क्योंकि मैं हूं।
ठीक है। ईश्वर कैसे हो सकता है; मैं हूं। ‘मैं’ ईश्वर को नहीं मान सकता। क्योंकि ईश्वर मैं का सबसे बड़ा खंडन हो जाएगा। और ईश्वर है तो फिर मैं नहीं बच सकता, क्योंकि उसका होना मैं का विसर्जन है।
आप अपने जीवन से नहीं को कम करें तो आपकी नास्तिकता कम होगी। मैं नहीं कहता आप मंदिर जाएं। मैं आपको कहता हूं, अपने जीवन से नहीं को कम करें; और जहां तक बन सके, जहां तक हो सके, हां का उपयोग करें। आप अगर थोड़ा सा समझ का प्रयोग करेंगे और थोड़ा होश रखेंगे तो दिन में आप पाएंगे कि सौ में से निन्यानबे मौकों पर नहीं से बचा जा सकता है। उसी मात्रा में आपकी आस्तिकता सघन होने लगेगी। उस आखिरी हां कहने के पहले छोटी-छोटी हां कहना सीखना पड़ेगा। लोग सीधा कहते हैं, परमात्मा है। वह नहीं हो सकता, क्योंकि चौबीस घंटे वे हर चीज को नहीं कह रहे हैं। नहीं कह कर वे मैं को मजबूत कर रहे हैं, और फिर कहते हैं, परमात्मा है। इस मैं की मजबूती में परमात्मा से कोई संबंध नहीं हो सकता। जब कल सुबह उठ कर आपको पहले ही मौके पर नहीं कहने का खयाल आए तो आप सोचना कि इसकी जरूरत है? इसके बिना नहीं चल सकेगा?
और छोटे-छोटे बच्चे भी जानते हैं कि आपकी नहीं का कोई मूल्य नहीं है। वे पैर पटक कर वहीं खड़े रहेंगे कि जाऊं? खेलने जाऊं? और वे जानते हैं कि तीन दफे या चार दफे कहने की जरूरत है, और नहीं जो है वह गिर जाएगी और हां में बदल जाएगी। तो आप छोटे बच्चों को भी व्यर्थ का जाल सिखा रहे हैं। भरोसा उनका सब छुड़ाए दे रहे हैं आप। वे आप पर भरोसा नहीं कर सकते, क्योंकि आपकी बात का कोई मूल्य नहीं है। आप नहीं कहते हैं, और क्षण भर बाद आप हां कह देते हैं। बेहतर था, आप पहले ही हां कह देते।
जुंग ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि अगर मां-बाप, जहां हां कहना ही पड़ता हो वहां पहले से ही हां कह दें, तो बच्चों का भरोसा उन पर रहे। और जहां न कहना आखिरी बात हो, जहां कोई उपाय ही न हो, वहीं नहीं कहें। लेकिन जब एक दफा नहीं कह दें तो चाहे कुछ भी हो जाए, उसको फिर हां में न बदलें। क्योंकि नहीं को हां में बदलने का मतलब है कि आपका कोई मूल्य नहीं है।
जुंग ने लिखा है कि ऐसी बात तो बच्चे से कहना ही नहीं चाहिए जिसको वह नहीं कर दे। जैसे अब रो रहा है बच्चा, और आप उससे कहते हैं, मत रोओ। अगर वह रोता रहेगा तो आप करेंगे क्या? मार सकते हैं। वह और ज्यादा रोएगा। एक बार बच्चे को यह पता चल गया कि आपकी नहीं ठुकराई जा सकती है--आप कहते हैं मत रोओ, वह रो रहा है; और आप चिल्लाए जा रहे हैं, मत रोओ, वह रो रहा है--तो उसको पता चल गया कि आपका कोई भी मूल्य नहीं है। आपकी बात का भी कोई मूल्य नहीं है। जुंग ने कहा है कि वही बात कहो जिसको तुम करवा सकते हो; वह बात कहो ही मत जो तुम्हारे वश के बाहर है, कर ही नहीं सकते तुम। रोना कैसे रोकोगे?
हम जो भी कर रहे हैं अपने आस-पास उसमें हम नहीं पर बड़ा बल देते हैं। कभी खयाल में नहीं आता कि क्यों देते हैं। क्योंकि नहीं से हमारा मैं भरता है, और नहीं से दूसरे का मैं टूटता है। यही नहीं जब विराट रूप ले लेती है तो नास्तिकता बन जाती है। हम एक काम भर कर सकते हैं कि जो उठ रहा है उसको नहीं कह सकते हैं; जो नहीं उठ रहा है उसको उठा नहीं सकते। तो हमारा सारा कृत्य नकारात्मक है, निगेटिव है।
जीवन है विधायक, पाजिटिव, और हमारा कृत्य है नकारात्मक। अगर हम जीवन को देखें और जीवन पर ध्यान रखें तो हमारा नकार गिरेगा, नकार के साथ अहंकार गिरेगा। अगर हम नकार पर ध्यान रखें और जीवन को न देखें और अपने अहंकार का ध्यान रखें, तो धीरे-धीरे हमारा नकार, नहीं, बढ़ता जाएगा, हमारी नास्तिकता सघन होती चली जाएगी, और हमारा अहंकार गौरीशंकर का शिखर हो जाएगा।
‘ताओ कभी कर्मरत नहीं होता, तो भी सभी कुछ उसी के द्वारा कर्मरत है।’
यह तो एक अर्थ हुआ इसका; और इसका एक दूसरा अर्थ भी खयाल में ले लेना चाहिए। और वह है कि जब भी आप कर्मरत होते हैं तभी आपका ताओ से संबंध छूट जाता है। जब भी आप कुछ करने को आबद्ध हो जाते हैं तभी आपका ताओ से संबंध छूट जाता है। जब आप कुछ करने को आबद्ध नहीं होते, शून्यवत होते हैं, तभी आपका ताओ से संबंध होता है। इस बात का अर्थ है। इस बात का अर्थ यह हुआ कि जब भी आप कुछ करना चाहते हैं तभी आप कमजोर हो जाते हैं; क्योंकि विराट की शक्ति आपको नहीं मिलती।
दुनिया में जो इतनी असफलता है, इतना फ्रस्ट्रेशन, इतना विषाद है, इतना संताप है, और हर आदमी थका हुआ और पराजित है, उसका कारण? उसका कारण है कि हर आदमी करने में लगा है, और करने में असफलता अनिवार्य है। क्योंकि करने में आपकी शक्ति है ही कितनी? विराट की शक्ति आपको मिलती नहीं जब आप करने में लगते हैं। विराट की शक्ति तो आपको तभी मिलती है जब आप न करने में होते हैं। तब आप द्वार बन जाते हैं उसके बहाव का; तब आपसे बहता है परमात्मा, और उसके द्वारा होता है। विराट की शक्ति को आप सीमित कर लेते हैं जैसे ही आप आग्रह से भरते हैं कि मैं यह करके रहूंगा। आप अपने हाथों अपने को तोड़े ले रहे हैं, अपनी जड़ों को उखाड़े ले रहे हैं। आप कुम्हला जाएंगे। सारी दुनिया पर सारे लोग कुम्हलाए हुए हैं।
यह बहुत विचारणीय बात है कि आदिवासी, जंगली, जिनके पास कोई साधन, कोई सुविधा नहीं है, दीन हैं, दरिद्र हैं, पर कुम्हलाए हुए नहीं हैं, प्रफुल्लित हैं। भूख में भी उनका जीवन खिलता हुआ मालूम पड़ता है। रात नाच सकते हैं तारों के नीचे; गा सकते हैं। हृदय पर कहीं कोई अवरोध नहीं मालूम होता। उनके शरीरों में भी भूख है, लेकिन फिर भी ऊर्जा प्रफुल्लित मालूम होती है। और सभ्य लोगों के पास सब कुछ है, सब सुविधा है, सब साधन है, कुछ कमी नहीं रही है; बस जीवन का फूल कुम्हला गया। वहां कोई प्रफुल्लता नहीं है।
बर्ट्रेंड रसेल ने कहा है कि मैं अपना सब कुछ देने को राजी हूं, मुझे कोई वैसी शक्ति दे दे कि मैं सड़क पर खड़े होकर नाच सकूं; वह शक्ति मेरे पास नहीं है कि आकाश के तारों के नीचे मैं गीत गा सकूं और मेरे विचारों का बोझ खो जाए, और मैं रात वृक्ष के नीचे शांति से सो सकूं कि मुझे कोई सपना न दिखे, और सुबह मैं हलका और ताजा उठ सकूं जैसे सारे पशु-पक्षी उठते हैं।
आदमी इतना कुम्हलाया हुआ क्यों है? कुम्हलाए होने का कारण है। और वह कारण है कि हमारा विराट की शक्ति से संबंध विच्छिन्न हो गया। और विच्छिन्न उसी मात्रा में हो गया जिस मात्रा में हमको खयाल है कि हम कर सकते हैं। सभ्य आदमी इस भ्रांति में है कि वह कर रहा है। वह यह बना रहा है, यह निर्मित कर रहा है, यह कमा रहा है। सभ्य आदमी अहंकार से जी रहा है।
असभ्य, आदिम, आदिवासी, जंगल का निवासी मैं से नहीं जी रहा था; वह परमात्मा से जी रहा था। वह कर रहा है; हम उसके हाथ की कठपुतलियां हैं। वह चला रहा है; हम चल रहे हैं। वह गिरा देगा, हम गिर जाएंगे। हमारा कोई वश नहीं है। असहाय था वह, लेकिन बड़ी प्रफुल्लता थी। आदमी आज बड़ा शक्तिशाली मालूम पड़ता है, और एकदम उदास और टूटा हुआ है। कई बार ऐसा लगता है कि शायद आदमी को यह वहम कि मैं कुछ कर सकता हूं, सबसे ज्यादा घातक सिद्ध हुआ है।
लाओत्से कहता है, ताओ कभी कर्मरत नहीं है तो भी सभी कुछ उसके द्वारा होता है।
आप भी कर्म से अपने को हटा लें। इसका यह मतलब नहीं कि आप खाली होकर बैठ जाएं; इसका यह मतलब भी नहीं कि आप भाग जाएं। इसका यह मतलब भी नहीं कि आप जिंदगी को छोड़ दें, काहिल हो जाएं, सुस्त हो जाएं, लेट जाएं अपने बिस्तर पर, उठें ही नहीं। इसका यह मतलब नहीं है।
इसका कुल मतलब इतना है कि जो भी हो रहा है उसे आप अपना कर्म न समझें, उसे होने दें जीवन की धारा। नदियां जैसे बह रही हैं वैसे आप भी बह रहे हैं। और विराट ही उसका मूल स्रोत है। आप खुद स्रोत न रहें; आप सिर्फ उसके हाथ के उपकरण रह जाएं। तो कर्म तो होगा; व्यर्थ कर्म बंद हो जाएगा। व्यर्थ कर्म अपने आप गिर जाएगा; सिर्फ कर्म रह जाएगा। जो भी अनिवार्य है वह होगा। न आप उसको रोकेंगे, न आप उसको करेंगे। वह होगा। और आप सरल हो जाएंगे, पशु-पक्षियों की भांति सरल।
निश्चित ही, मनुष्य जब पशु-पक्षियों की भांति सरल होता है तब उसकी सरलता की गरिमा और ही है। क्योंकि वह बोधपूर्ण सरल होता है; वह जानता भी है अपनी सरलता को; वह इस सरलता का जागरूक द्रष्टा भी होता है। पशु-पक्षी सरल हैं, लेकिन उनकी सरलता मजबूरी है, क्योंकि वे जटिल नहीं हो सकते। उनकी सरलता कोई गुण नहीं है; उनकी सरलता एक तरह की मूर्च्छा है। लेकिन मनुष्य जब सरल होता है पशु-पक्षियों की भांति तब उसकी सरलता परम शिखर है जीवन के आनंद का, और जीवन के चैतन्य की आखिरी ऊंचाई है, और जीवन के भाव का आखिरी विस्तार है।
ताओ कर्मरत नहीं है। इसलिए जब भी आप कर्मरत हैं तब आप धार्मिक नहीं हैं। प्रार्थना करें मत, प्रार्थना होने दें। इस फर्क को समझ लें। मंदिर में जाकर बैठ गए हैं आप; प्रार्थना की जा सकती है। तब आपके पास रटे हुए शब्द हैं, वे आप दोहराते हैं। करके जल्दी निबटा लेते हैं। कभी जल्दी होती है तो तेजी से कर लेते हैं; कभी सुविधा होती है तो जरा ज्यादा देर बैठे रहते हैं। लेकिन एक और ढंग है--जो कि वास्तविक ढंग है--कि आप मंदिर में गए हैं, बैठ गए हैं। अब प्रार्थना को होने दें, करें मत। बैठे रहें, शांत बैठे रहें; होने दें प्रार्थना को।
ईसाइयों का एक छोटा सा संप्रदाय है जो अनूठा है। उस संप्रदाय की प्रार्थना बड़ी अदभुत है। वह तो आपको समझ में भी एकदम से न आए; लेकिन ताओ के बहुत अनुकूल है। उस संप्रदाय को कोई गति नहीं मिल सकी ज्यादा, क्योंकि उनकी प्रार्थना ने ही उनको नुकसान पहुंचा दिया। उनकी प्रार्थना की वजह से ही लोग समझे कि यह तो पागलपन है। उनकी प्रार्थना का एक ही नियम है कि आप उनके चर्च में जाकर बैठ जाएं और जो भी भाषा आप जानते हैं उस भाषा को बीच में मत आने दें। जैसे आप हिंदी जानते हैं, अंग्रेजी जानते हैं, गुजराती जानते हैं, तो इसका उपयोग मत करें। आप सिर्फ शांत बैठे रहें; और कुछ भी बेबूझ ध्वनियां आपके भीतर से आनी शुरू हो जाएं, उनसे ही प्रार्थना करें। भाषा का उपयोग न करें। ऐसा कोई शब्द उपयोग न करें जो आप जानते हैं। क्योंकि उसमें डर है कि आप उसका उपयोग कर रहे हैं--कि आप कहते हैं, हे प्रभु! हे पतित पावन! यह मत करें। इसमें कोई सार नहीं है बहुत। यह आप बहुत दफे कह चुके हैं। यह आपकी बुद्धि में समाया हुआ है, इसको आप कह सकते हैं। यह रिकार्डिंग है, इसको आप दोहरा सकते हैं। यह ग्रामोफोन का रिकार्ड है; यह रोज आप दोहरा कर वापस जा सकते हैं। इसका कोई भी मूल्य नहीं है। तो वह संप्रदाय ईसाइयों का कहता है कि आप भाषा का उपयोग न करें, जो भी आप जानते हैं।
निश्चित ही, इसका बड़ा गहरा परिणाम होगा। इसका मतलब हुआ कि आपकी बुद्धि को अब कोई उपाय न रहा। क्योंकि बुद्धि सब भाषा है। आप जो भी भाषा जानते हैं, उसका उपयोग मत करें। आप सिर्फ बैठे रहें; और कुछ भी बेबूझ ध्वनियां आने लगें, वही प्रार्थना है। आपको हुंकार आए तो हुंकार करें, चीख आए तो चीख करें, पुकार आए तो पुकार करें; लेकिन भाषा का भर उपयोग न करें। जैसे छोटे-छोटे बच्चे अनर्गल बकते हैं, बेबी लैंग्वेज, कुछ भी धुन बन जाती है उनको, तुक बन जाती है, तो वही कहे चले जाते हैं। बस वैसा। आप चकित हो जाएंगे कि इस प्रार्थना में आपकी बुद्धि नहीं बोलती; आपका हृदय, आपका शरीर, आपकी प्रकृति बोलने लगती है। कई बार आप पशु-पक्षियों जैसी आवाज करने लगेंगे। वह भी आपको नहीं करनी है; वह भी होने देना है। कुछ न हो तो शांत बने रहना है। तब समझना है कि शांति ही इस क्षण प्रार्थना है। कुछ हो तो उसे होने देना है। अपनी तरफ से रोकना नहीं, अपनी तरफ से पैदा नहीं करना; सिर्फ निष्क्रिय बहाव में अपने को छोड़ देना है जो भी हो।
अनूठे, अदभुत परिणाम होते हैं। एक घंटे की ऐसी प्रार्थना आपको इस तरह हलका कर जाएगी कि जैसे कोई वजन नहीं रहा शरीर में। जब आप इस मंदिर के बाहर आएंगे तो आप आदमी ही दूसरे होंगे। आपकी आंखें उसी सूरज को देखेंगी जिसको आपने जाते वक्त देखा था, लेकिन अब उसकी रौनक ही और है। वे ही वृक्ष, वे ही पक्षी। लेकिन अब आप हलके हैं, और भाषा का बोझ गिर गया। अब आप हार्दिक हैं, बौद्धिक नहीं हैं। अब आप ज्यादा प्राकृतिक हैं। अब आपने मनुष्य की शिक्षा का जो भी जाल था वह तोड़ दिया थोड़ी देर के लिए, और आप पहली दफा प्रकृति के विराट में गिर गए। आप फिर से छोटे बच्चे हो गए हैं। वह जो शिक्षित, कल्टीवेटेड, सुसंस्कृत आदमी था वह हट गया। आप छोटे बच्चे हो गए हैं। इस प्रार्थना का तो कोई मूल्य है, क्योंकि यह नैसर्गिक है। प्रार्थना करें मत, होने दें। पूजा करें मत, होने दें। निश्चित ही कठिनाई होगी। क्योंकि हम तो सब चीजों को बांध कर चलते हैं। पूजा, प्रेम, प्रार्थना, सबको हमने व्यवस्था दे रखी है कि ऐसा करो, ऐसा करो।
रामकृष्ण को उनके मंदिर के लोग निकालने को राजी हो गए थे पुजारी के पद से। रामकृष्ण जैसा पुजारी कभी हजारों साल में मिलता है! लेकिन सोलह रुपए महीने तो कुल तनख्वाह देते थे, और फिर भी कमेटी इकट्ठी हो गई मंदिर की, ट्रस्टियों की, और उन्होंने कहा, इस आदमी को निकाल बाहर करो, क्योंकि इसकी पूजा में ढंग नहीं है। स्वभावतः इसकी पूजा बेढंगी है। यह आदमी तो मंदिर को अपवित्र कर देगा! क्योंकि ऐसी-ऐसी खबरें आई हैं कि भोग लगाने के पहले खुद चख लेता है। खराब हो गया सब। भ्रष्ट हो गई बात। फूल चढ़ाने के पहले खुद सूंघता हुआ देखा गया है। और कोई ढंग ही नहीं है। कभी चार घंटे भी चलती है पूजा; कभी होती ही नहीं। कभी सुबह होती है; कभी सांझ होती है। तो यह आदमी कोई पुजारी नहीं है; इसको हटाओ, यह तो पागल है।
रामकृष्ण से पूछा ट्रस्टियों ने। तो उन्होंने कहा कि जिस दिन होती है उस दिन होती है और जिस दिन नहीं होती उस दिन नहीं होती। मैं कोई करने वाला नहीं हूं। होगी तो हो जाएगी। जब वही चाहता है कि हो पूजा तो होती है; जब वही नहीं चाहता तो हम कौन हैं? हम बीच में आने वाले कोई भी नहीं हैं। रही फूलों की बात, तो बिना सूंघे मैं नहीं चढ़ा सकता। पता नहीं, सुगंध है भी कि नहीं? रही भोग की बात, तो बिना चखे मेरी मां मुझे नहीं खिलाती थी तो मैं भी नहीं खिला सकता। नौकरी तुम अपनी सम्हाल सकते हो। लेकिन जैसा होता है वैसे ही होगा।
फिर कमेटी को तरकीब निकालनी पड़ी। आदमी तो यह कीमती था। तो एक दूसरा पुजारी रखना पड़ा कि इसको करने दो जो यह करता है, और व्यवस्थित पूजा जारी रहनी चाहिए। नहीं तो सब गड़बड़ हो जाएगा। तो एक दूसरा पुजारी व्यवस्थित पूजा करता था; रामकृष्ण अव्यवस्थित पूजा करते थे।
ताओ का आग्रह है एक ही कि कर्ता को बीच में मत लाओ जीवन के, तब तुम्हारा जीवन निसर्ग के अनुकूल हो जाएगा। नहीं कि कठिनाइयां न होंगी। कठिनाइयां होंगी, लेकिन उनमें भी आनंद होगा। और अभी हो सकता है, कठिनाइयां न भी हों, बड़ी सुविधा हो। लेकिन सुविधा भी नरक हो जाएगी। झूठी सुविधा भी नरक है। सच्ची कठिनाई भी स्वर्ग है। सचाई के साथ आनंद का संबंध है; झूठ के साथ आनंद का कोई संबंध नहीं है।
‘यदि सम्राट और भूस्वामी ताओ को अक्षुण्ण रख सकें, तो संसार आप ही सुधर जाएगा।’
वे जो नेतृत्व करते हैं, वे जो प्रभु हैं, मालिक हैं, गुरु हैं, जिनके पीछे लोग चलते हैं, अगर वे कर्ता का भाव छोड़ दें और स्वयं स्वभाव में लीन हो जाएं और स्वयं ताओ को करने दें अपने भीतर से काम, खुद न करें, तो जगत अपने आप सुधर जाएगा।
गुरुओं की कमी नहीं, नेताओं की कमी नहीं; दूसरों को सुधारने वालों की अंतहीन श्रृंखला लगी हुई है, उनकी कतार अंत नहीं आती। लेकिन कोई सुधरता नहीं दिखाई पड़ता; कोई बदलाहट होती दिखाई नहीं पड़ती। क्रांतियां हो जाती हैं और व्यर्थ हो जाती हैं। कितनी हत्याएं होती हैं क्रांतियों के नाम पर, और आदमी वहीं के वहीं खड़ा रह जाता है। इतने युद्ध होते हैं आदमी को बदलने के लिए, आदमी को अच्छा करने के लिए। कितना उपद्रव चलता है सारी दुनिया में एक ही बात को लेकर कि समाज अच्छा, शांत, स्वस्थ चाहिए! वह कभी नहीं होता। हर बार बदलाहट होती है, लेकिन बदलाहट से नई बीमारी, या पुरानी बीमारी नई शक्ल में नए नाम के साथ फिर खड़ी हो जाती है। पांच हजार साल का ज्ञात इतिहास इसी बात की कहानी दोहराता है कि आदमी वहीं के वहीं खड़ा रह जाता है। सब परिवर्तन, परिवर्तन के लाने वाले क्रांतिकारी नेता, शिक्षक, आते हैं, चले जाते हैं; और आदमी में कोई फर्क होता दिखाई नहीं पड़ता। तो ये सारे शिक्षक और ये सारे गुरु यही समझाते हैं कि आदमी की गलती है।
ताओ के हिसाब से आदमी की गलती नहीं है। लाओत्से कहता है कि जो लोगों को बदलना चाहते हैं उनमें कर्ता का भाव बाधा है। वे नहीं बदल पाते; क्योंकि वे विराट शक्ति के उपकरण नहीं बन पाते। वे खुद ही दुनिया को बदलना चाहते हैं। खुद को बदलना मुश्किल है; दुनिया को बदलना तो असंभव। वे अगर विराट के उपकरण बन जाएं तो जगत अपने आप सुधर जाए।
अगर हम जांच-पड़ताल करें, थोड़ी खोज-बीन करें, तो दिखाई पड़ेगा कि कहां कठिनाई है, कहां अड़चन है। चार महात्माओं को मिलाना मुश्किल है; दुनिया को बदलने की बात चलती है, चार महात्माओं को मिलाना मुश्किल है। एक जगह कुछ विचारशील लोगों ने एक बड़ा मंच बनाया, और बड़ी सभा का आयोजन किया; सभी धर्मों के ज्ञानियों को बुलाया। कोई तीस ख्यातिलब्ध महात्मा आमंत्रित किए; बड़ा आयोजन किया। बड़ा मंच बनाया कि तीस महात्मा बैठ सकें, लेकिन उस मंच पर एक-एक महात्मा ने ही बैठ कर व्याख्यान दिया। भूल से उन्होंने मुझे भी बुला लिया था। मैंने उनको पूछा कि इतना बड़ा मंच बनाया है, बाकी लोग इस पर बैठते क्यों नहीं? तो संयोजकों ने कहा, हम बड़ी मुश्किल में पड़ गए हैं। क्योंकि शंकराचार्य कहते हैं कि उनका सिंहासन है, वे उस पर बैठेंगे; और दूसरे कहते हैं कि अगर वे सिंहासन पर बैठेंगे तो हम नीचे नहीं बैठ सकते। और यह इतनी मुश्किल की बात हो गई कि आखिर में यही उचित मालूम पड़ा कि एक-एक ही बैठ कर यहां बोले। यहां सारे लोग मंच पर इकट्ठे साथ बैठ भी नहीं सकते; क्योंकि कौन नीचे बैठेगा, कौन ऊपर बैठेगा, यह इतनी उपद्रव की बात है!
ये महात्मा दुनिया को बदलने में लगे हुए हैं। ये किस तरह की दुनिया बनाएंगे? इनकी ही कृपा का परिणाम है जैसी दुनिया आज है। नेता हैं; बातें वे कुछ भी करते हों, कि राष्ट्र बचाना है, समाज बचाना है, लेकिन सबको सिर्फ नेतागिरी बचानी है। किसी को किसी और चीज से कोई मतलब नहीं है। बाकी सब बातें बहाने हैं। भीतर का रस अहंकार है।
लाओत्से यह कह रहा है कि जब तक भीतर का अहंकार न गिर गया हो तब तक तुम्हारे द्वारा कुछ भी नहीं हो सकता जिससे दुनिया में शांति आए। क्योंकि तुम ही शांत नहीं हो।
मनसविद बाद में बोलते हैं कि हिटलर पागल था, कि मुसोलिनी का दिमाग खराब था, कि स्टैलिन मानसिक रोगों से ग्रस्त था; यह सब वे बाद में बोलते हैं। और यह भी वे उन नेताओं के संबंध में बोलते हैं जो मर जाते हैं या असफल हो जाते हैं। जो सफल होते हैं उनके बाबत किसी की बोलने की हिम्मत नहीं होती। जब तक हिटलर जिंदा था तो जर्मनी के एक मनोवैज्ञानिक ने नहीं कहा कि यह आदमी पागल है। जब मर गया और हार गया, पराजित हो गया, तो जर्मनी के ही मनोवैज्ञानिक कहने लगे कि यह पागल है। खुद हिटलर का चिकित्सक, जो तीस साल से हिटलर की सेवा में रत था, उसने भी कभी नहीं कहा कि यह पागल है। हिटलर के मरने और हार जाने के बाद उसने अभी किताब छापी कि मैं तो भलीभांति जानता था कि वह पागल है। निक्सन के संबंध में अभी कोई चिकित्सक यह नहीं कहेगा। माओ के संबंध में कोई चिकित्सक यह नहीं कहेगा। मरने के बाद, असफल हो जाने के बाद, जब कि कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकता, तब बड़ी हैरानी की बातें मालूम होती हैं।
मुझे ऐसा लगता है कि स्टैलिन या हिटलर या मुसोलिनी या तोजो, ऐसा व्यक्तिगत पागल की बात ही गलत है। असल में, नेतृत्व पाने की जो आकांक्षा है, वह पागलपन का हिस्सा है। और अहंकार जड़ है पागलपन की। और राजनीति जितनी सुविधा से अहंकार को भरती है, और कोई चीज नहीं भर सकती। क्योंकि शक्ति वहां है। जहां शक्ति है वहां अहंकार को रस है, मजा है। सिंहासन वहां है। तो राजनीति में पागल ही उत्सुक होता है। और आज नहीं कल जब दुनिया थोड़ी शांत अगर कभी हो सकी, और राजनीति से हम थोड़ा छुटकारा पा सके, तो हम पाएंगे कि हमारा पूरा इतिहास पागलों की कथा है। कोई हिटलर और तोजो और स्टैलिन ही पागल हैं, ऐसा नहीं है। तब हम पाएंगे कि पूरा नेतृत्व हजारों वर्ष का, राजनीतिक नेतृत्व ही पागल था।
असल में, पागल ही महत्वाकांक्षी होता है। और जब पागल पद पर पहुंच जाता है तो उसके हाथ में ताकत होती है अपने पागलपन को पूरा करने की; फिर वह अपने पागलपन को पूरा कर लेता है। अगर वह सफल हो जाए तो उसकी प्रशस्ति में गीत लिखे जाते हैं। अगर वह असफल हो जाए तो लोग उसके विपरीत बातें करने लगते हैं। पांच हजार साल का यह जो इतिहास है, पागल लोगों के द्वारा समाज को बदलने की कोशिश का इतिहास है। उन्होंने पूरी जमीन को पागलखाना बना दिया है। लेकिन हमें दिखाई भी नहीं पड़ता कि जमीन पागलखाना बन गई। क्योंकि हम इसके आदी हैं, हम इसी के बीच बड़े होते हैं। हम देखते हैं यही शायद प्राकृतिक है।
यह बिलकुल प्राकृतिक नहीं है। यह ऐसा ही है जैसे एक बच्चा अस्पताल में पैदा हो और कभी बाहर की दुनिया उसे देखने न मिले। अस्पताल में ही बड़ा हो, अस्पताल ही उसकी एकमात्र जानकारी हो। तो वह समझेगा यही दुनिया है; और लोगों का खाटों पर पड़े रहना, उनके टांगों का ऊपर लटके रहना, उनके हाथों में इंजेक्शन लगे रहने, उनके पास आक्सीजन की बोतल रखी रहनी; यही जिंदगी है। उसे कोई और जिंदगी का पता नहीं है। वह अस्पताल को ही जिंदगी समझेगा। और अगर वह जिंदगी भर वहीं रहे और फिर अचानक एक दिन बाहर लाया जाए तो वह बहुत हैरान होगा कि ये लोग सब क्या कर रहे हैं! ये सब गड़बड़ हो गए हैं। इनकी खाटें कहां हैं? इनके इंजेक्शन कहां हैं? इनकी बोतलें कहां हैं? इनको अपनी-अपनी जगह पर होना चाहिए; सब अस्तव्यस्त हो गया है, यह सब अराजकता फैली हुई है। स्वभावतः, क्योंकि उसके सोचने का ढंग, उसका तर्क, उसके मन की बनावट, उसका संस्कार जैसा है वैसा। जिस दुनिया को अभी हम कहते हैं दुनिया, यह करीब-करीब पागलखाना है। इसमें हमें दिखाई नहीं पड़ता, क्योंकि हम इसी में पैदा होते हैं, इसी में बड़े होते हैं। हम इसी से परिचित हैं।
बच्चा बड़ा होता है, वह देख कर बड़ा होता है कि मां और बाप उसके लड़ रहे हैं, लड़ रहे हैं, लड़ रहे हैं। वह इसी को प्रेम मानने लगता है कि यह प्रेम है। वह देखता है घर की राजनीति, वह देखता है कि मां पिता को दबा रही है, पिता मां को दबा रहा है। वह चौबीस घंटे देखते-देखते, देखते-देखते, इसी में बड़ा होता है। फिर जब वह शादी करता है तो उसी कहानी को दोहराता है जो उसने देखी थी। क्योंकि और उसे कुछ कहानी का पता भी नहीं है कि कोई और भी ढंग होता है। यही जिंदगी है। यही उसके बच्चे करेंगे। यही उसके बाप-दादों ने किया, उनके पहले किया। हम पागलपन को भी वंशानुक्रम से देते चले जाते हैं जो हम देखते हैं। कभी आपने खयाल नहीं किया, लेकिन आप खयाल करें कि जब आप अपनी पत्नी से व्यवहार करते हैं तो आप अपने पिता को पुनरुक्त तो नहीं कर रहे हैं! कि जब आप अपने पति से व्यवहार करती हैं तो आप अपनी मां को दोहरा तो नहीं रहीं! क्योंकि वह बचपन में जो देखा था, जिसमें हम बड़े हुए थे, वही हमारे पास एकमात्र माडल है; उसी के अनुसार चलना हमें रास्ता है।
करीब-करीब आप वही दोहराए चले जाते हैं, थोड़े-बहुत हेर-फेर के साथ। थोड़ा-बहुत हेर-फेर इसलिए आ जाता है कि जिंदगी में चारों तरफ थोड़े फर्क आते हैं। वे फर्क आपको थोड़ा हेर-फेर दे देते हैं। बाकी वही दोहरता चला जाता है। इसको हम प्रेम कहते हैं; इसको हम गृहस्थी कहते हैं; इसको हम घर कहते हैं; इसको हम परिवार कहते हैं। हम कहते हैं, परिवार स्वर्ग है। इसको भी दोहराए चले जाते हैं कि परिवार स्वर्ग है और इसको भी नहीं देखते कि परिवार बिलकुल पागलखाना हो गया है। अपने परिवार को नहीं देखते; परिवार स्वर्ग है, यह भी सुना हुआ है। और परिवार जो है वह भी हमें पता है। तो एक ही स्थिति रह जाती है भीतर, और वह यह कि कहने की बातें कुछ और हैं, असलियत कुछ और है।
एक मेरे मित्र कार खरीदना चाहते थे। प्रोफेसर थे; गरीब आदमी। मुश्किल से पैसा इकट्ठा कर पाए थे। लेकिन पत्नी सख्त खिलाफ थी। कुछ ऐसा नहीं कि उसे कार से कोई दुश्मनी थी। पत्नी सख्त खिलाफ रहती थी पति जो भी करना चाहें उसके। उन्होंने मुझसे पूछा कि मैं क्या करूं? बामुश्किल तो पैसे इकट्ठा कर पाया हूं कि एक पुरानी गाड़ी खरीद लूं, लेकिन गाड़ी का नाम ही सुनते पत्नी आगबबूला हो जाती है। इतना उपद्रव मच जाता है कि मैं हिम्मत ही नहीं कर पाता कि गाड़ी कैसे खरीदूं।
मैंने उनसे कहा कि मैं तुम्हें तरकीब बताता हूं। तुम अभी घर चले जाओ। यह रही तरकीब। तरकीब मैंने उन्हें समझा दी। वे घर गए; उन्होंने जाकर शांति से घोषणा की कि गाड़ी मैंने खरीद ली है। उपद्रव शुरू हो गया। पत्नी तो भरोसा ही नहीं कर सकी--खरीद ली है! क्योंकि हमेशा वे पूछते थे कि खरीद लूं? खरीद ली! एकदम से सकते में आ गई। इससे बड़ा शॉक नहीं हो सकता था--उसकी बिना आज्ञा के! फिर उसने जो उपद्रव मचाया तो पूरा पागलपन। लेकिन कितनी देर कोई पागल रह सकता है? अब खरीद ही ली; आधा घंटे बाद वह शांत हो गई।
वे मित्र मेरे पास आए। मैंने कहा, अब तुम जाकर खरीद लो। अब जो होना था वह हो चुका। जो आखिरी होना था हो चुका। अब और क्या बचा? अब तुम देर मत करो। और आगे के लिए इसको नियम समझो कि जो भी करना हो वह इस तरह किया करो।
हर घर में करीब-करीब कलह है, संघर्ष है। उस संघर्ष और कलह के बीच भी हम किसी तरह तालमेल बिठाए रखते हैं। जैसे एक ही बैलगाड़ी में दोनों तरफ बैल जोत दिए हों वैसी स्थिति बनी रहती है जिंदगी भर। थोड़ा इधर सरकते हैं, थोड़ा उधर; यात्रा कुछ नहीं होती, वहीं बने रहते हैं जहां के तहां। आखिर में इतना ही हो जाता है कि इस कशमकश में बैलगाड़ी के अस्थिपंजर सब ढीले हो जाते हैं। फिर जाने की इच्छा भी नहीं रह जाती।
पर इसको हम जिंदगी मान लेते हैं, क्योंकि इसी से हम परिचित हैं, यही जिंदगी है। आदमी की जिंदगी क्या हो सकती है, इसका हमें पता ही नहीं। और आदमी की जिंदगी क्या हो गई है! अगर ये दोनों का खयाल भी हमें आ सके तो हम भयभीत हो जाएं, कंप जाएं। आदमी की जिंदगी एक बहुत अदभुत अनूठा अनुभव हो सकती है। लेकिन जो हो गया है वह एक लंबा दुख-स्वप्न, एक नाइटमेयर है।
इस सारे दुख-स्वप्न के पीछे जो कारण है वह है हमारा निरंतर अप्राकृतिक होते चले जाना, जीवन की सहजता से धीरे-धीरे बिलकुल टूट जाना। सब असहज हो गया है। बोलते हैं, उठते हैं, बैठते हैं, करते हैं, लेकिन कहीं भी कोई साहजिकता नहीं है, कहीं कोई स्फुरणा नहीं है। हमारे प्राण से कुछ आता हुआ झरना नहीं मालूम होता। सब ऊपर-ऊपर के फूल हैं--कागज के, प्लास्टिक के। वे हमने लगा लिए हैं। देखने में फूल मालूम पड़ते हैं। न उनमें जीवन है, न उनमें सुगंध है; उनमें कुछ भी नहीं है, सिर्फ धोखा है।
लाओत्से कहता है कि इस सारे धोखे का मूल है कर्ता का भाव, और इस सारे धोखे की गहराई में आपका मैं खड़ा हुआ है। कर्ता का भाव गिरे, मैं गिर जाता है।
‘और यदि सम्राट और भूस्वामी ताओ को अक्षुण्ण रख सकें, स्वभाव को अक्षुण्ण रख सकें, तो संसार आप ही सुधर जाएगा। और जब संसार सुधर जाए और कर्मरत हो जाए, तब उस अनाम पुरातन सरलता के द्वारा उसका अनुशासन हो। यह अनाम पुरातन सरलता वासना से रहित है। वासनारहितता से निश्चलता प्राप्त होती है; और संसार आप ही आप शांति को उपलब्ध हो जाता है।’
यदि बिना चेष्टा और बिना प्रयास के किसी को बदला जा सके तो ही बदलाहट का मूल्य है। किसी की गर्दन को बिना दबाए, किसी को बिना आरोपण के, उसे पता भी न चले कि उसे कोई बदल रहा है, उसे खटक भी सुनाई न पड़े, ध्वनि भी सुनाई न पड़े कि कोई उसे बदल रहा है, बदलने का कोई भाव ही आस-पास न हो, सिर्फ आपकी सरलता, आपकी सहजता उसे बदलाहट दे दे, संक्रामक हो जाए, आपकी सरलता प्रतिध्वनित होने लगे उसके प्राणों में और वह बदल जाए, तो ही बदलाहट का कोई धार्मिक मूल्य है। और तो ही बदलाहट आत्मानुशासन बन जाती है। फिर उस सरलता को वह खो न सकेगा। फिर उस सरलता को छीनने का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि वह सरलता कभी थोपी नहीं गई। उस सरलता से वह मुक्त भी न होना चाहेगा। क्योंकि वह सरलता कोई परतंत्रता नहीं है। वह किसी ने उसके ऊपर डाली नहीं है।
हम सुंदर चीजों को भी कुरूप कर देते हैं थोप कर। हम अच्छी से अच्छी बात को भी विकृत कर देते हैं आग्रह करके। और जब भी किसी चीज के पीछे जबरदस्ती हो जाती है तो सब खराब हो जाता है।
अभी मैं पढ़ रहा था। एक डेनिश विचारक सोरेन कीर्कगार्ड ने लिखा है कि अगर ईश्वर ने, जब उसने आदम और हौवा को बनाया, ईसाइयों की कहानियों के हिसाब से, तो उसने कहा कि तुम ज्ञान के वृक्ष के फल को मत चखना। कीर्कगार्ड ने लिखा है कि अगर वह कह देता कि देखो, यहां एक सांप रहता है, वह शैतान है छिपा हुआ, तुम कभी उसको मत चखना! तो आदम और हौवा ढूंढ कर सांप को खा गए होते; दुनिया से शैतान का अंत हो जाता। लेकिन ईश्वर ने कहा कि तुम यह ज्ञान के फल को मत चखना। और फिर उनको ज्ञान का फल चखना पड़ा। इसलिए नहीं कि शैतान ने उन्हें भड़काया, ईश्वर ने ही उनको भड़का दिया। वह जो कहा कि मत चखना, उससे रस पैदा हो गया। वह जो कहा कि इस ज्ञान के वृक्ष के पास मत जाना, उससे उनको लगा कि बस अगर कुछ है खाने योग्य तो यह ज्ञान का वृक्ष ही है। नहीं तो क्यों ईश्वर रोकता!
इदन के बगीचे में बहुत वृक्ष थे, अनंत-अनंत वृक्ष थे। सबको छोड़ कर वे उसी के आस-पास घूमने लगे होंगे। और शैतान तो बेचारा सिर्फ बहाना है। शैतान ने तो सिर्फ इतना ही कहा कि ईश्वर ने रोका इसीलिए कि इसको जो भी खाता है वह ईश्वर हो जाता है। नहीं तो ईश्वर रोकता ही क्यों? तुम ईश्वर जैसे हो जाओगे, इस वृक्ष को चख लो। यह भी शैतान कहीं कोई बाहर है, यह बात फिजूल है। यह तो जब भी कोई निषेध करता है तो शैतान भीतर पैदा हो जाता है, जो कहता है, इसे करके देखो! इसमें जरूर कोई बात होनी चाहिए, कोई रस होना चाहिए; नहीं तो रोका ही क्यों जाता?
आप जब भी किसी को रोक रहे हैं तब आप उसको कह रहे हैं कि करो। जब आप अपने बेटे को कह रहे हैं कि सिगरेट मत पीना, आपने उनको पहली दफे निमंत्रण दे दिया। अब इस बेटे का मन किसी और बात में न लगेगा। अब सब बातें बेकार हो गईं। अब सारा स्वर्ग सिगरेट में निहित है। अब यह जरूर इसको पीनी ही पड़ेगी। इसका कोई बचाव नहीं है। और आपने ही रस पैदा किया। आपने ही इसको उकसाया, भड़काया। और आप सोच रहे हैं, आपने सुधारने के लिए किया था; आपने रोका था। आपने भला बनाने के लिए किया था।
हम जो भी रुकावट डालते हैं उससे दूसरे के अहंकार को चोट पड़ती है। और दूसरे के अहंकार को चोट पड़ी कि अहंकार बदला लेना चाहता है। वह विपरीत जाएगा।
लाओत्से कहता है कि इस भांति सरलता से जो रूपांतरण हो लोगों का तो फिर उनका जीवन अनाम पुरातन सरलता से भर जाए। जिसका कोई नाम नहीं है, उस सरलता से भर जाए। और उनके जीवन से वासना तिरोहित हो जाए अपने आप। क्यों? क्योंकि वासना है स्पर्धा। वासना है दूसरे से आगे निकलने की दौड़। वासना है महत्वाकांक्षा। वासना अहंकार का ही फैलाव है। अगर आप सरल हो जाएं तो वासना, स्पर्धा अपने आप गिर जाए।
एक मित्र मेरे पास आते हैं, कहते हैं, शांत होना है। मैं पूछता हूं, किसलिए शांत होना है? तो वे कहते हैं, बड़ी उलझन में पड़ा हूं। एक राज्य के शिक्षा मंत्री हैं। तो वे कहते हैं, रात नींद नहीं आती, दिन चैन नहीं है; बड़ा काम है, बड़ी उलझन है। तो कुछ ऐसा ध्यान दें कि मैं शांत हो जाऊं। मैंने कहा कि अगर आप शांत हो जाएं तो फिर क्या करेंगे? मैंने कहा, ईमानदारी से मुझे कह दें। तो उन्होंने कहा, अब आप जब पूछते हैं तो आपसे क्या छिपाना! बड़ा उपद्रव चल रहा है राज्य में। मेरे भी मौके हैं चीफ मिनिस्टर हो जाने के। लेकिन मैं इतना अशांत हूं कि मेहनत ही नहीं कर पा रहा हूं; इसी में उलझा रहता हूं; रात नींद नहीं आती, बीमार रहता हूं। जरा शांत हो जाऊं तो मैं भी लग जाऊं।
तो मैंने उनको पूछा कि आप सोचते हैं, शांत हो जाएं तो चीफ मिनिस्टर होने में लग जाएं। लेकिन आप अशांत इसीलिए हैं कि चीफ मिनिस्टर होने में लगे हैं। और कौन कहता है कि आप शिक्षा मंत्री रहें? और इतने अशांत होकर आपके शिक्षा मंत्री होने से कौन सी शिक्षा का विस्तार होगा? कौन आपको परेशान कर रहा है? कोई आपको धक्के नहीं दे रहा है कि शिक्षा मंत्री हो जाएं। बल्कि कई लोग आपको इस परेशानी से मुक्त करने की कोशिश में लगे हैं कि आप हट जाएं तो यह परेशानी वे ले लें। कई लोग सेवा के लिए तैयार हैं। कई लोग चाहते हैं कि उनको रात नींद न आए। कई लोग चाहते हैं कि वे इतने परेशान हो जाएं जैसे आप हैं। कई लोग चाहते हैं कि फिर वे भी साधु-संन्यासियों के जाएं पास और पूछें कि महाराज, शांति का क्या उपाय है! आपको कौन रोक रहा है? कोई दुनिया में आपको रोकने वाला नहीं है। आप बिलकुल हट जाएं।
नहीं, वे बोले कि यह तो जरा मुश्किल है। आप तो सिर्फ शांत होने का रास्ता बता दें।
आदमी शांत भी इसलिए होना चाहता है ताकि और अशांति के उपद्रव गति से कर सके। कई बार ऐसा हो जाता है--कई बार क्या, निरंतर ऐसा होता है--कि इस तरह के लोग पूरा जीवन गंवा देते हैं। उनको शांति के आनंद का कोई क्षण नहीं मिल पाता। वे सोचते हैं कि अभी मिनिस्टर हैं, कल चीफ मिनिस्टर हो जाएं तो शायद आनंद। जब वे मिनिस्टर नहीं थे, क्योंकि पहले वे डिप्टी मिनिस्टर थे, तब वे सोचते थे मिनिस्टर हो जाएं।
मैंने कहा, कभी पीछे लौट कर अपने तर्क को भी सोचना चाहिए। पहले तुम सिर्फ एम एल ए थे, तब भी तुम मेरे पास आते थे; तब तुम डिप्टी मिनिस्टर होने की तरकीब में लगे थे। फिर तुम डिप्टी मिनिस्टर हो गए, फिर तुम मिनिस्टर होने की तरकीब में लगे थे। अब तुम मिनिस्टर भी हो गए। वे बोले, इसीलिए तो आशा बंधती है कि अगर कोशिश जारी रखूं तो चीफ मिनिस्टर भी हो ही जाऊंगा। मैंने कहा, बिलकुल हो जाओगे, लेकिन जीवन हाथ से जा रहा है। और चीफ मिनिस्टर होने से स्पर्धा तो रुकेगी नहीं, वासना तो ठहरेगी नहीं। वह कहेगी कि अब चलो सेंटर की तरफ, केंद्र की तरफ, दिल्ली की तरफ। फिर वहां दौड़ का सिलसिला है। और वहां जो हैं उनकी हालत!
मेरे पास लोग आते हैं; वे कहते हैं, बड़ी हैरानी की बात है! कहीं भी कोई साधु हो, मदारी हो, कुछ भी हो, ज्योतिषी हो, प्रधानमंत्री से लेकर राष्ट्रपति, गवर्नर, सब उसकी सेवा में हाजिर हो जाते हैं। क्या कारण होगा?
इसका कारण यह नहीं है कि वह जो चमत्कार दिखाने वाला है, वह चमत्कारी है; इसका कारण यह है कि ये सब बेचारे अशांत और परेशान लोग हैं और इनकी परेशानी इतनी है जिसका हिसाब नहीं। ये कहीं भी तलाश में हैं कि भी कोई राख दे दे, ताबीज दे दे, तो बस सब ठीक हो जाए।
राष्ट्रपति होकर भी, कोई का ताबीज मिले तब सब ठीक होगा, तो यह राष्ट्रपति होना ताबीज सिद्ध नहीं हुआ है। अभी भी दौड़ वही है। और अब दौड़ और बढ़ गई है। क्योंकि पहले तो यह आशा थी कि राष्ट्रपति हो जाएंगे तो सब ठीक हो जाएगा। अब राष्ट्रपति हो गए और कुछ ठीक नहीं हुआ, और जिंदगी हाथ से बह गई है। लेकिन इतनी हिम्मत भी नहीं है कि जहां तुम कष्ट पा रहे हो, जिस कुर्सी पर बैठ कर आग में जल रहे हो, उससे उठ कर अलग हो जाओ। उतनी हिम्मत भी नहीं है। उसको भी पकड़े हुए हैं जोर से। जहां जल रहे हैं उसको भी पकड़े हुए हैं।
धार्मिक बोध इस बात का बोध है कि जो आप कर रहे हैं उससे जीवन नरक बन गया है। तो कुछ और नया न करें, कम से कम वह जो आप कर रहे हैं, उसको शिथिल कर दें। एक दफा शिथिल हो जाएं। क्या फर्क पड़ेगा? आपका नाम इतिहास में नहीं लिखा जाएगा तो कुछ फर्क पड़ेगा? आपका नाम अखबारों में नहीं होगा तो कुछ फर्क पड़ेगा? और आपके मजार के आस-पास मेला न भरेगा तो कुछ हर्ज होगा? लेकिन कुछ लोग जिंदगी गंवा देते हैं, ताकि मजार के आस-पास मेला भरे। बड़े आश्चर्य की बात है, इसलिए जी रहे थे कि मजार के आस-पास मेला भरे! आप अहंकार के लिए जो भी कर रहे हैं उस सब में आप अपने को गंवा रहे हैं, खो रहे हैं।
लाओत्से कहता है, जैसे ही अहंकार गिर जाए...। और अहंकार तभी गिरता है जब जीवन सरल और निसर्ग के अनुकूल हो जाता है; जब आप जोर-जबरदस्ती छोड़ देते हैं और कहते हैं, परमात्मा की जो मर्जी; वह जो करा रहा है, हो रहा है; मैं न कुछ कर रहा हूं, न मैं कुछ करूंगा; मैं सिर्फ बहा जाऊंगा, मैं तैरूंगा भी नहीं; मैं सिर्फ बहूंगा, उसकी धार मुझे जहां ले जाए; मैं मोक्ष की तरफ भी जाने को उत्सुक नहीं हूं; मैं उसी जगह को मोक्ष समझ लूंगा जहां उसकी धार मुझे पहुंचा देगी। ऐसी भाव-दशा में अहंकार नहीं है। अहंकार नहीं तो स्पर्धा नहीं।
और जहां वासनारहितता है, लओत्से कहता है, वहां निश्चलता प्राप्त होती है। और संसार आप ही आप शांति को उपलब्ध हो जाता है।
अपने आप कैसे शांति घटित हो, इसका यह सूत्र है। यह कोई योग नहीं सिखाता आपको कि आप शीर्षासन करो तो शांति उपलब्ध होगी। यह कोई मंत्र नहीं देता आपको कि आप राम-राम, राम-राम जपो तो शांति होगी। यह कोई ताबीज-गंडा नहीं देता कि इसको बांध लेने से शांति होगी। लाओत्से तो आपकी अशांति के यंत्र को समझा देता है कि यह आपके अशांति का यंत्र है। यह आपका कर्ता-भाव ही आपकी अशांति की जड़ है। यह भाव गिर जाए, आप सदा से शांत हैं। अशांति अर्जित है; शांति स्वभाव है। तो शांति अर्जित नहीं करनी है; सिर्फ अशांति अर्जित कर देना बंद कर देना है। स्वास्थ्य पाना नहीं है; स्वास्थ्य तो मिला हुआ है। बीमारी इकट्ठी कर ली है; बीमारी इकट्ठा करना बंद कर देना है।
इस दृष्टि का थोड़ा सा भी स्मरण आना शुरू हो जाए और आप पाएंगे कि आप शांत होने लगे। और आपके शांत होते ही आपके आस-पास का संसार शांत होना शुरू हो जाता है। क्योंकि आप अपने आस-पास के संसार को, अशांत होने के कारण, काफी अशांत किए रहते हैं। आप एक केंद्र बन जाते हैं; आपके आस-पास भी एक छोटा संसार घूमता है। पत्नी है, बच्चा है, दफ्तर है, मित्र हैं, सगे-संबंधी हैं; वे आपके पास-पास घूम रहे हैं। आपकी अशांति उनको भी अशांत करती रहती है। उनकी अशांति आपकी अशांति को बढ़ाती रहती है। ऐसा हम एक-दूसरे का काफी गुणनफल कर देते हैं, एक-दूसरे को काफी मल्टीप्लाय कर देते हैं। हर आदमी एक-दूसरे की अशांति बढ़ा रहा है।
लाओत्से कहता है, अगर शांत व्यक्ति गांव में एक भी हो तो भी उसका परिणाम पूरे गांव पर पड़ना शुरू हो जाएगा। उसकी हवा धीरे-धीरे प्रवेश करने लगेगी।
संसार शांत हो सकता है, अगर महत्वाकांक्षा न हो। संसार शांत हो सकता है, अगर अहंकार का पागलपन गिर जाए। और यह आपके हाथ में है। एक क्षण में इसे छोड़ा जा सकता है।

पांच मिनट कीर्तन करें और फिर जाएं।