LAO TZU

Tao Upanishad 60

Sixtieth Discourse from the series of 127 discourses - Tao Upanishad by Osho. These discourses were given during JUN 19-26, 1971 - APR 10 1975.
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Chapter 29

WARNING AGAINST INTERFERENCE

There are those who will conquer the world, And make of it (what they conceive or desire). I see that they will not succeed. (For) the world is God's own vessel It cannot be made (by human interference). He who makes it, spoils it. He who holds it, loses it. For: Some things go forward, some things follow behind; Some blow hot, and some blow cold; Some are strong, and some are weak; Some may break, and some may fall. Hence the Sage eschews excess, eschews extravagance, eschews pride.
अध्याय 29

हस्तक्षेप से सावधान

वैसे लोग भी हैं, जो संसार को जीत लेंगे; और उसे अपने मन के अनुरूप बनाना चाहेंगे। लेकिन मैं देखता हूं कि वे सफल नहीं होंगे। संसार परमात्मा का गढ़ा हुआ पात्र है, इसे फिर से मानवीय हस्तक्षेप के द्वारा नहीं गढ़ा जा सकता। जो ऐसा करता है, वह उसे बिगाड़ देता है। और जो उसे पकड़ना चाहता है, वह उसे खो देता है। क्योंकि: कुछ चीजें आगे जाती हैं, कुछ चीजें पीछे-पीछे चलती हैं। एक ही क्रिया से विपरीत परिणाम आते हैं, जैसे फूंकने से गरम हो जाती हैं चीजें, और फूंकने से ही ठंडी। कोई बलवान है, और कोई दुर्बल; कोई टूट सकता है, तो कोई गिर सकता है। इसलिए, संत अति से दूर रहता है, अपव्यय से बचता है, और अहंकार से भी।
यह सूत्र इस सदी के लिए बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण है।
लाओत्से ने जो कहा है, कुछ लोग हैं, जो जगत को जीत लेना चाहेंगे और उसे अपने मन के अनुरूप गढ़ना भी चाहेंगे।
जिस दिन लाओत्से ने यह कहा था, उस दिन तो उन लोगों ने यात्रा शुरू ही की थी, जो जगत को अपने अनुरूप गढ़ना चाहते हैं। आज वे लोग जगत को जीतने में बहुत दूर तक सफल हो गए हैं। और जगत को गढ़ने की चेष्टा भी उन्होंने की है। पर बड़े मजे की बात है कि लाओत्से की भविष्यवाणी रोज-रोज सही होती चली जाती है।
लाओत्से कहता है, मैं देखता हूं कि वे सफल नहीं हो सकेंगे।
और वे सफल नहीं हो रहे हैं।
और वह यह भी कहता है कि मैं यह भी देखता हूं कि बनाने की बजाय वे जगत को बिगाड़ देंगे।
और यह भी वह सही कहता है। क्योंकि वे लोग जो जगत को गढ़ रहे हैं, बिगाड़ने में सफल हो रहे हैं। इसके प्रत्यक्ष प्रमाण आज उपलब्ध हैं। लाओत्से ने जब कही थी यह बात, तब तो यह भविष्यवाणी थी। आज यह भविष्यवाणी नहीं है। आज तो यह होकर, घट कर हमारे सामने खड़ी हुई स्थिति है।
इसे थोड़ा सा हम समझ लें फिर सूत्र में प्रवेश करें। यूरोप और अमरीका में एक आंदोलन चलता है--इकोलॉजी का। यह आंदोलन रोज गति पकड़ रहा है। इस आंदोलन का कहना है कि प्रकृति का एक संगीत है, उसे नष्ट मत करें। और एक तरफ से हम नष्ट करते हैं संगीत को तो हम पूरी व्यवस्था को बिगाड़ देते हैं। और हमें पता नहीं कि हम क्या कर रहे हैं और उसके क्या परिणाम होंगे। क्योंकि जगत एक व्यवस्था है। केऑस नहीं, एक अराजकता नहीं है; जगत एक व्यवस्था है। और इस जगत की व्यवस्था में छोटी से छोटी चीज बड़ी से बड़ी चीज से जुड़ी है। यहां कुछ भी विच्छिन्न नहीं है, अलग-अलग नहीं है। जब आप कुछ छोटा सा भी फर्क करते हैं तो आप पूरे जगत की व्यवस्था में फर्क ला रहे हैं। एक पत्थर का हटाया जाना भी पूरे जगत की व्यवस्था में परिवर्तन की शुरुआत है। और इसके क्या परिणाम होंगे, कितने व्यापक होंगे, उन्हें कहना मुश्किल है।
ऐसा हुआ कि बर्मा के एक बहुत छोटे, दूर देहात में प्लेग की बीमारी से बचने के लिए चूहों को मार डाला गया। चूहों के मर जाने पर गांव की बिल्लियां मरनी शुरू हो गईं; क्योंकि चूहे उनका भोजन थे। और गांव की बिल्लियों के मर जाने पर एक बीमारी गांव में फैल गई, जो उस गांव में कभी भी नहीं फैली थी। क्योंकि उन बिल्लियों की मौजूदगी की वजह से कुछ कीटाणु गांव में विकसित नहीं हो सकते थे, बिल्लियों के मर जाने की वजह से वे विकसित हो गए। और जिस मिशन ने गांव के चूहे नष्ट किए थे प्लेग को अलग करने के लिए, वह बड़ी मुश्किल में पड़ गया। गांव के मुखिया को बहुत समझा-बुझा कर राजी किया जा सका था चूहों को मारने के लिए।
उस गांव के मुखिया ने कहा कि अब हम क्या करें? बिल्लियां भी मर गईं, और यह नई बीमारी फैल गई। और इस नई बीमारी का अभी कोई इलाज नहीं था। यह बात कोई चालीस साल पहले की है। तो जिस मिशन ने यह सेवा की थी गांव की, उन्होंने कहा कि हम पता करते हैं। लेकिन उन बूढ़े गांव के पंचायत के लोगों ने कहा कि तुम कब तक पता कर पाओगे, यह बीमारी हमारे प्राण ले लेगी। फिर प्लेग के हम आदी हो चुके थे। और प्लेग के लिए हमने एक प्रतिरोधक शक्ति भी विकसित कर ली थी। हजारों वर्ष से प्लेग थी; हम उससे लड़ना भी सीख गए थे। इस नई बीमारी से लड़ना भी संभव नहीं है। हमारा शरीर भी प्लेग के लिए सक्षम हो गया था। यह नई बीमारी हमारे प्राण लिए ले रही है, तोड़े डाल रही है। इतनी जल्दी तो नई बीमारी दूर नहीं की जा सकती थी।
और गांव के बूढ़ों ने यह भी कहा कि अगर तुम यह नई बीमारी भी दूर कर दो, तो क्या भरोसा है कि तुम और दूसरी बीमारियां पैदा करने के कारण न बन जाओ? इसलिए उचित यही होगा कि पड़ोस के गांव से हम चूहे मांग लें। कोई उपाय नहीं था। पड़ोस के गांव से चूहे मांग लिए गए। चूहों के पीछे बिल्लियां चली आईं। और बिल्लियों के आते ही वह जो बीमारी फैली गई थी, वह विदा हो गई।
इकोलाजी का अर्थ है कि जिंदगी एक व्यवस्था है। उसमें जरा सा भी कहीं कोई फर्क, तत्काल पूरे पर फर्क पैदा करता है। और पूरे का हमें कोई बोध नहीं है। पूरे का हमें कोई पता नहीं है।
यह बड़े मजे की बात है कि आज जमीन पर सर्वाधिक दवाइयां हैं, और सर्वाधिक बीमारियां हैं। और आज जमीन पर आदमी को सुख पहुंचाने के सर्वाधिक उपाय हैं, और आज से ज्यादा दुखी आदमी जमीन पर कभी भी नहीं था। क्या कारण होगा? कारण एक ही मालूम पड़ता है कि हम एक का इंतजाम करते हैं और दस इंतजाम बिगाड़ लेते हैं। जब तक हम दस का इंतजाम करते हैं, तब तक हम हजार इंतजाम बिगाड़ लेते हैं।
अभी--ठीक यह तो बर्मा के गांव में घटी घटना--अभी लास एंजिल्स में, अमरीका में घटना घटी। क्योंकि लास एंजिल्स में कारों की अत्यधिकता के कारण, कारों के एक्झास्ट धुएं के कारण हवा इतनी विषाक्त हो गई है कि चमत्कार मालूम पड़ता है। वैज्ञानिक कहते हैं, जितना विष हवा में सहा जा सकता है, आदमी सह सकता है, उससे तीन गुना विष हवा में हो गया है; फिर भी आदमी जिंदा है। लेकिन जिंदा तो परेशानी में ही होगा। जब तीन गुनी मृत्यु को झेलना पड़ता हो जीवन को तो जीवन मुर्दा जैसा हो जाएगा, कुम्हला जाएगा। तो चेष्टा की गई कि कारें इस ढंग की बनाई जाएं कि उनमें कम एक्झास्ट निकले और पेट्रोल में भी ऐसे फर्क किए जाएं कि इतना विष हवा में न फैले।
वे फर्क किए गए। लेकिन तब हवा में दूसरी चीजें फैलीं, जो पहले से भी ज्यादा संघातक हैं। अब क्या किया जा सकता है? और आदमी इतने विष को झेल कर जिंदा रहे तो तनावग्रस्त होगा, बीमार होगा, परेशान होगा। जीएगा जरूर, लेकिन जीने की कोई रौनक और जीने की कोई लय उसके भीतर नहीं रह जाएगी।
हमने चांद पर आदमी भेजा। तो हमने पहली दफा, पृथ्वी को जो वायुमंडल घेरे हुए है, उसमें छेद किए--पहली दफा। पर किसी को खयाल नहीं था कि वायुमंडल में भी छेद का कोई अर्थ होता है। करने के बाद ही खयाल हुआ। स्वभावतः कुछ चीजें करने के बाद ही पता चलती हैं।
हम ऐसा समझें। जैसे कि अगर सागर है, तो सागर मछलियों के लिए वायुमंडल है। पानी उनके लिए वातावरण है। मछलियां पानी में जीती हैं, पानी के बाहर नहीं जी सकतीं। हम भी हवा में जीते हैं, हवा के बाहर नहीं जी सकते। जमीन को दो सौ मील तक हवा घेरे हुए है। ऐसा समझें कि हम दो सौ मील तक हवा के सागर में हैं। इसके पार होते ही हम जी नहीं सकते, जैसे मछली किनारे पर फेंक दी जाए और जी न सके।
आमतौर से हम सोचते हैं कि हम जमीन के ऊपर हैं। बेहतर होगा सोचना कि हम हवा के सागर की तलहटी में हैं। ज्यादा उचित होगा, ज्यादा वैज्ञानिक होगा। जैसे कि कोई जानवर सागर की तलहटी में रहता हो और उसके ऊपर दो सौ मील तक पानी हो, ठीक आदमी हवा के सागर की तलहटी में रहता है, दो सौ मील तक उसमें हवा का सागर है। यह दो सौ मील तक हवा का जो सागर है, सारे ब्रह्मांड से आती हुई किरणों में छांटता है। और केवल वे ही किरणें हम तक पहुंच पाती हैं, जो जीवन के लिए घातक नहीं हैं। इसलिए हमारे चारों तरफ दो सौ मील तक एक सुरक्षा का वातावरण है। सभी किरणें, जो पृथ्वी की तरफ आती हैं, प्रवेश नहीं कर पातीं। यह वातावरण इनमें से नब्बे प्रतिशत किरणों को वापस लौटा देता है, आठ प्रतिशत किरणों को इस लायक बना देता है दो सौ मील में छान कर कि वे हमारे प्राण न ले पाएं। और दो प्रतिशत किरणें, जो हमारे प्राण के लिए जरूरी हैं, जीवन के लिए, वे वैसी की वैसी हम तक पहुंच जाती हैं। ऐसा समझें कि दो सौ मील तक हमारे चारों तरफ छनावट का इंतजाम है।
पहली दफा, जब हमने चांद की यात्रा की और हमने अंतरिक्ष में यात्री भेजे, हमने इस वातावरण को कई जगह से तोड़ा। जहां से यह वातावरण टूटा, वहां से पहली दफा उन किरणों का प्रवेश हुआ पृथ्वी पर, जो अरबों वर्षों से प्रवेश नहीं हुआ था। वैज्ञानिकों ने एक नया शब्द उपयोग किया: वातावरण में छेद हो गए। और उन छेदों को भरना मुश्किल है। उन छेदों से रेडिएशन किरणें भीतर आ रही हैं। उनके क्या परिणाम होंगे, कहना मुश्किल है। वे जीवन के लिए कितनी घातक होंगी, कहना मुश्किल है। किस तरह की बीमारियां फैलेंगी, कहना मुश्किल है।
पश्चिम में, जहां कि वातावरण को बदलने की, जिंदगी को बदलने की सर्वाधिक चेष्टा विज्ञान ने की है, वहां के जो चोटी के विचारक हैं, वे लाओत्से से राजी होने लगे हैं। वे कहते हैं, करके हमने यह देखा, आदमी सुखी नहीं हुआ, आदमी दुखी हुआ। जीवन अनेक तरह के कष्टों में पड़ गया, जिनका हमें खयाल नहीं था।
जैसे समझें, हम कोशिश करते हैं कि आदमी ज्यादा जीए। हम कोशिश करते हैं, जो बच्चा पैदा हो जाए, वह मरे नहीं। आज से हजार साल पहले दस बच्चे पैदा होते थे तो नौ बच्चे मर जाते थे, एक बच्चा बचता था। वह प्रकृति की व्यवस्था थी। बड़ी क्रूर मालूम पड़ती है--नौ बच्चे मर जाएं और एक बच्चा बचे। तो हमने चेष्टा की हजार साल में; आज दस बच्चे पैदा होते हैं तो नौ बचते हैं, एक मरता है। हमने बिलकुल उलटा दिया। लेकिन परिणाम क्या हुआ? परिणाम बहुत हैरानी का है। जो नौ बच्चे हजार साल पहले मर जाते, वे अब बच जाते हैं। वे नौ बच्चे जो हजार साल पहले मर जाते, मरते ही इसलिए कि उनमें जीवन की क्षमता कम थी। आज वे बच जाते हैं। उनमें जीवन की क्षमता कम है। वे जीते हैं, लेकिन बीमार जीते हैं। और वे अकेले ही नहीं जीते, वे बच्चे पैदा कर जाएंगे। और उनके बच्चों के बच्चे--और लाखों साल तक वे बीमारी के गढ़ बन जाएंगे।
अभी एक बहुत बड़े चिकित्साशास्त्री ने, कैनेथ वाकर ने कहा था कि हमने जो इंतजाम किया है चिकित्सा का और जो खोज की है, उसका परिणाम यह होगा कि हजार साल बाद स्वस्थ आदमी खोजना ही असंभव हो जाएगा।
हो ही जाएगा। क्योंकि वे जो नौ बच्चे बच रहे हैं, वे बच्चे पैदा कर रहे हैं। और धीरे-धीरे सारी मनुष्यता रुग्ण होती जा रही है। उन नौ बच्चों में वे बच्चे भी बच जाएंगे, जो बुद्धिहीन हैं, विक्षिप्त हैं, जिनमें कोई कमी है, अंधे हैं, लूले हैं, लंगड़े हैं। वे भी बच जाएंगे। और जिन्होंने बचाया है, वे मानवतावादी हैं। उनकी अभीप्सा पर संदेह करने का कोई कारण नहीं है। उनके विचार में दया है। लेकिन उतनी गहरी समझ नहीं है, जितनी लाओत्से बात कर रहा है। वे सब बच्चे जो बुद्धिहीन हैं, रुग्ण हैं, विक्षिप्त हैं, पागल हैं, वे सब बच जाएंगे। और वे बच्चे पैदा करते रहेंगे। कोई आश्चर्य नहीं कि पांच हजार साल के भीतर सारी मनुष्यता रोग, विक्षिप्तता और पागलपन से भर जाए। आज अगर अमरीका में वे कहते हैं कि हर चार आदमी में एक आदमी मानसिक रूप से रुग्ण है। तो यह ज्यादा देर तक रुकेगा नहीं एक पर मामला; धीरे-धीरे फैलेगा और चारों रुग्ण हो जाएंगे।
हमने उम्र बढ़ा ली। आज अमरीका में सौ के ऊपर हजारों लोग हैं। रूस में और भी बड़ी संख्या है। लेकिन बड़ी कठिनाई खड़ी हो गई। वह जो सौ के ऊपर जिंदा रह जाता है, उसके जीवन की सारी शक्ति तो क्षीण हो गई होती है। वह जीवन के किसी उपयोग का भी नहीं रह जाता। जीवन से उसके कोई संबंध भी नहीं रह जाते। उसकी तीसरी-चौथी पीढ़ी काम में लग गई होती है, उससे उसका फासला इतना बड़ा हो जाता है कि कोई स्नेह नाता भी नहीं रह जाता। वह मुर्दे की भांति अस्पतालों में टंगा रहता है, या विश्रामगृहों में या वृद्धों के लिए बनाए गए विशेष स्थानों में टंगा रहता है। उसका जीवन एक है कि वह रोज दवाएं लेता रहे और बचा रहे। न कोई प्रेम है उसके आस-पास, न कोई परिवार है; न हो सकता है परिवार। वह मर भी नहीं सकता। आत्महत्या करना गैर-कानूनी है। डाक्टर अगर यह भी समझें कि इस आदमीके जिंदा रहने का कोई उपाय नहीं है, तो भी उसे मरने में सहयोगी नहीं हो सकते। क्योंकि डाक्टर का काम बचाना है, मारना नहीं।
पुराने दिन की डाक्टर की जो परिभाषा थी बचाना, वह अब भी है। लेकिन आदमी उम्र के इतने आगे चला गया है, जहां कि डाक्टर का काम उसे मरने में भी सहयोग देना होना चाहिए। क्योंकि एक आदमी अगर एक सौ बीस वर्ष का होकर सिर्फ खाट पर पड़ा रहे, फोसिल हो जाए, किसी मतलब का न हो--किसी और के न खुद के--और फिर भी जिंदा रखा जा सके क्योंकि जिंदा हम रख सकते हैं अब, और वह आदमी चिल्लाए कि मुझे मर जाने दो, तो भी हमारे कानून में कोई व्यवस्था नहीं है। अगर डाक्टर यह भी सोचे कि इसे दवा न दें--मारने के लिए दवा न दें, जिंदा रखने की दवा न दें--तो भी उसके अंतःकरण में उसे अपराध का भाव होगा कि जो आदमी अभी बच सकता था, उसे मैं मरने दे रहा हूं।
सारी दुनिया में चिकित्सकों के सम्मेलन रोज विचार करते हैं अथनासिया के लिए कि आदमी को मरने में सहयोग देना या नहीं देना, इसका क्या नैतिक--यह नैतिक होगा या अनैतिक होगा? अभी तो सौ की बात है, आज नहीं कल, हम दो सौ और तीन सौ साल तक आदमी को बचा लेंगे। इस आदमी का बचा कर क्या होगा? यह सब तरह से बोझ हो जाता है। क्योंकि इसकी आर्थिक उपादेयता न रही। पचपन साल में आप रिटायर कर देते हैं एक आदमी को। अगर वह एक सौ दस साल जी जाता है, तो बाकी पचपन साल समाज उसको खिलाता है, पिलाता है। और परेशान रहने, बीमार रहने, दुख उठाने के लिए जिंदा रखता है। उसके मित्र, उसके प्रियजन चाहते हैं वह विदा हो जाए, क्योंकि अब वह बोझ मालूम होता है। अगर उसको कोई सार्थकता देनी हो तो उसे काम में रखना चाहिए। अगर उसे काम में रखना है तो नए आने वाले बच्चों के लिए कोई काम नहीं है। वैसे ही नए बच्चों के लिए काम कम है, बच्चे ज्यादा हैं। बूढ़ों को हटाना पड़ेगा। तो उनको तो कचरेघर पर बिठा देना पड़ेगा।
और जब वे कचरेघर पर पड़े रहते हैं, तो उन्हें मरने का भी कोई हक नहीं है। जीने की कोई व्यवस्था नहीं है, मरने का कोई हक नहीं है। और ये बूढ़े सब के चित्त पर भारी होते चले जाएंगे। धीरे-धीरे बूढ़ों की संख्या बढ़ जाएगी। जैसे-जैसे विज्ञान का विकास होगा, औषधि की सुविधा होगी, बूढ़ों की संख्या बढ़ जाएगी। और अभी आप बच्चों की बगावत से परेशान हैं, आज नहीं कल, बूढ़ों के उपद्रव से परेशान होंगे।
आपको खयाल में नहीं है कि उपद्रव कैसे आते हैं। आज सारी दुनिया में युवकों से परेशानी है, विद्यार्थियों से परेशानी है। तोड़-फोड़ है, उपद्रव, क्रांति। क्या कारण है? ये बच्चे सदा थे दुनिया में, ये कोई आज पैदा नहीं हो गए। ये सदा थे दुनिया में। फिर क्या कारण हो गया आज इनके उपद्रव का?
आज इनके उपद्रव का कारण है। ये पहले भी थे, लेकिन कभी भी एक जगह संगृहीत नहीं थे। आज बड़े विश्वविद्यालय, कालेज, स्कूल, ये सब इकट्ठे हैं। एक-एक नगर में लाख-लाख विद्यार्थी इकट्ठे हैं। युवक कभी भी इतने इकट्ठे एक जगह न थे। जब एक लाख युवक इकट्ठे होंगे तो उपद्रव की शुरुआत होगी।
आज नहीं कल, बूढ़े भी लाखों की संख्या में एक जगह इकट्ठे होने लगेंगे। एक नए तरह के उपद्रव की शुरुआत होगी, जो कि लड़कों के उपद्रव से ज्यादा महंगा होगा। क्योंकि ज्यादा समझदार लोग उसे करेंगे। उसे सम्हालना भी मुश्किल होगा। उससे अड़चनें नई तरह की होंगी। क्योंकि बूढ़े अगर जीते हैं तो जीवन की सार्थकता की मांग करेंगे। और किसी भी आदमी का जीवन सार्थक तभी होता है, जब वह कोई सार्थक काम कर रहा हो। अगर उसके पास कोई काम नहीं है सार्थक करने का तो उसकी आत्म-श्रद्धा खो जाती है। उसे लगता है मैं बेकाम हूं। ऐसा लगना कि मैं बेकाम हूं, बड़े से बड़ा कष्ट है। मैं किसी के भी काम का नहीं हूं, किसी काम का नहीं हूं, यह मन में भारी पत्थर की तरह प्रवेश कर जाता है। और एक आत्मग्लानि, स्वयं को नष्ट करने का भाव गहरा होने लगता है।
लेकिन हमने बचा लिया है। और अभी भी कोई यह नहीं कहेगा कि आदमी को लंबी उम्र मिले, इसमें कुछ बुराई है। हम भी चाहेंगे कि लंबी उम्र मिले। पर बड़े मजे की घटनाएं घटती हैं।
मैं पढ़ रहा था कि उन्नीस सौ अठारह में न्यूयार्क में घोड़ागाड़ी चलती थी। घोड़ागाड़ी की रफ्तार ग्यारह मील प्रति घंटा थी। आज न्यूयार्क में कार की रफ्तार प्रति घंटा साढ़े सात मील है। यह बहुत हैरानी की बात है। क्या हुआ? रफ्तार बढ़ाने के लिए कार थी। आज रफ्तार को कार ने बिलकुल कम कर दिया। क्योंकि वह सब जगह ट्रैफिक जाम कर रही है। अगर कार इसी तरह बढ़ती जाती है तो पैदल आदमी तेज चलेगा--बहुत जल्दी। कोई कारण नहीं है, सात मील अब भी चल सकता है तेज आदमी। जल्दी ही चार मील--चार मील तो कोई भी चल सकता है घंटे में।
हम जो करते हैं, उसके परिणाम क्या होंगे? परिणाम अनंत आयामी हैं, उनका कोई भी पता नहीं है। जब हम एक तार छूते हैं, तब हम पूरे जीवन को छू रहे हैं। और उसके क्या-क्या दूरगामी अर्थ होंगे, उनका हमें कुछ भी पता नहीं है। ऐसा नहीं है कि हम पहली दफा इन चीजों को कर रहे हैं। आदमी ने ये चीजें बहुत बार कर ली हैं। और यह जो लाओत्से कह रहा है, यह सिर्फ भविष्यवाणी नहीं है, अतीत का अनुभव भी है। इस सदी के आदमी को ऐसा खयाल है कि जो हम कर रहे हैं, यह हम पहली दफा कर रहे हैं। यह बात सही नहीं मालूम पड़ती। अगर हम इतिहास की गहन खोज में जाएं तो हमें पता चलेगा, जो-जो हम आज कर रहे हैं, आदमी बहुत बार कर चुका और छोड़ चुका। बहुत बार कर चुका और छोड़ चुका। छोड़ चुका इसलिए कि पाया व्यर्थ है।
अगर महाभारत पढ़ें, और महाभारत में जो युद्ध का विवरण है, पहली दफा जब हिरोशिमा और नागासाकी पर एटम बम गिरा तो जो दृश्य बना, उस दृश्य का विवरण पूरा का पूरा महाभारत में है। उसके पहले तो कल्पना थी, महाभारत में जो बात लिखी थी। तब तो यही सोचा था, कवि का खयाल है। लेकिन जब हिरोशिमा में एटम गिरा और धुएं का बादल उठा और वृक्ष की तरह आकाश में फैला; नीचे जैसे वृक्ष की पीड़ होती है, वैसे ही धुएं की धारा बनी और ऊपर जैसे आकाश में उठता गया धुआं वैसा फैलता गया, अंत में वृक्ष का आकार बन गया। महाभारत में उसका ठीक ऐसा ही वर्णन है। इसलिए अब वैज्ञानिक कहते हैं कि यह वर्णन कवि की कल्पना से तो आ ही नहीं सकता। इसका कोई उपाय नहीं है। क्योंकि एटम के विस्फोट में ही ऐसा होगा। एटम के बिना विस्फोट के और कोई विस्फोट नहीं है जिसमें इस तरह की घटना घटे।
जो महाभारत में वर्णन है, वह यह है कि वृक्ष के आकार में धुआं आकाश में फैल गया। सारा आकाश धुएं से भर गया। और उस धुएं के आकाश से रक्तवर्ण की किरणें जमीन पर गिरने लगीं। और उन किरणों का जहां-जहां गिरना हुआ, वहां-वहां सब चीजें विषाक्त हो गईं। भोजन रखा था, वह तत्क्षण जहर हो गया। वर्णन है महाभारत में कि जब वे रक्तवर्ण की किरणें नीचे गिरने लगीं, तो जो बच्चे मां के पेट में गर्भ में थे, वे वहीं मृत हो गए। जो बच्चे पैदा हुए, वे अपंग पैदा हुए। और जमीन पर जहां भी वे किरणें गिरीं, जिस चीज को उन किरणों ने छुआ, वे विषाक्त हो गईं। उनको खाते ही आदमी मरने लगा। कोई उपाय नहीं है कि कवि इसकी कल्पना कर सके। लेकिन उन्नीस सौ पैंतालीस के पहले इसके सिवा हमारे पास भी कोई उपाय नहीं था कि हम इसको कविता कहें। अब हम कह सकते हैं कि यह किसी अणु-विस्फोट का आंखों देखा हाल है।
महाभारत में कहा है कि इस तरह के अस्त्र-शस्त्रों का जो ज्ञान है, वह सभी को न बताया जाए।
अभी अमरीका में एक मुकदमा चला अमरीका के बड़े से बड़े अणुविद डाक्टर ओपेन हाइमर पर। और मुकदमा यह था कि ओपेन हाइमर को कुछ चीजें पता थीं जो अमरीका की सरकार को भी बताने को राजी नहीं था। और ओपेन हाइमर अमरीकी सरकार का आदमी है। तो ओपेन हाइमर पर एक विशेष कोर्ट में मुकदमा चला। उस कोर्ट ने यह कहा कि तुम जिस सरकार के नौकर हो और तुम जिस देश के नागरिक हो, उस सरकार को तुमसे सब चीजें जानने का हक है। लेकिन ओपेन हाइमर ने कहा कि उससे भी बड़ा मेरा निर्णायक मेरी अंतरात्मा है। कुछ बातें मैं जानता हूं जो मैं किसी राजनैतिक सरकार को बताने को राजी नहीं हूं। क्योंकि हम देख चुके हिरोशिमा में क्या हुआ। हमारी ही जानकारी लाखों लोगों की हत्या का कारण बनी।
निश्चित ही, महाभारत में जो कहा है कि कुछ बातें हैं जो सबको न बताई जाएं और ज्ञान के कुछ शिखर हैं जो खतरनाक सिद्ध हो सकते हैं, वह किसी अनुभव के कारण होगी। ओपेन हाइमर किसी अनुभव के कारण कह रहा है कि कुछ बातें जो मैं जानता हूं नहीं बताऊंगा।
जो इतिहास हम स्कूल-कालेज, युनिवर्सिटी में पढ़ते हैं, वह बहुत अधूरा है। आदमी इस इतिहास से बहुत पुराना है। और सभ्यताएं हमसे भी ऊंचे शिखर पर पहुंच कर समाप्त होती रही हैं। और हमसे भी पहले बहुत सी बातें जान ली गई हैं और छोड़ दी गई हैं; क्योंकि अहितकर सिद्ध हुई हैं। अभी इस संबंध में जितनी खोज चलती है, उतनी ही अड़चन होती है समझने में। उतनी ही कठिनाई होती है। ऐसा कोई भी सत्य विज्ञान आज नहीं कह रहा है जो किसी न किसी अर्थ में इसके पहले न जान लिया गया हो। परमाणु की बात भारत में वैशेषिक बहुत पुराने समय से कर रहे हैं। यूनान में हेराक्लतु, पारमेनेडीज बहुत पुराने समय से परमाणु की बात कर रहे हैं। और परमाणु के संबंध में वे जो कहते हैं, वह हमारी नई से नई खोज कहती है। हमने बहुत बार उन चीजों को जान लिया, जिनसे जिंदगी बदली जा सकती है। और फिर छोड़ दिया; क्योंकि पाया कि जिंदगी बदलती नहीं, सिर्फ विकृत हो जाती है।
तो लाओत्से का यह कहना--हस्तक्षेप से सावधान--बहुत विचारणीय है। लाओत्से मानता है कि निसर्ग ही नियम है। आदमी को जीने दो, जैसा वह निसर्ग से है। वह जो भी है, अच्छा और बुरा, वह जैसा भी है, सुख में और दुख में, उसे निसर्ग से जीने दो। क्योंकि निसर्ग से जीकर ही वह ब्रह्मांड के साथ एकसूत्रता में है। निसर्ग से हट कर ही ब्रह्मांड से उसकी एकसूत्रता टूटनी शुरू हो जाती है। और फिर उस टूटने का कोई अंत नहीं है। और टूटते-टूटते अंत में वह बिलकुल ही रिक्त, खाली और व्यर्थ हो जाता है।
अब हम इस सूत्र में प्रवेश करें।
‘वैसे लोग भी हैं, जो संसार को जीत लेंगे; और उसे अपने मन के अनुरूप बनाना चाहेंगे। लेकिन मैं देखता हूं कि वे सफल नहीं होंगे।’
उमर खय्याम ने कहा है, कितनी बार होता है मन कि मेरे हाथ में हो ताकत मैं दुनिया को फिर से बना पाऊं, ताकि मैं अपने मन का बना लूं।
हर आदमी के मन में वह भाव है। और जो हम में बहुत ज्यादा महत्वाकांक्षी हैं, उस भाव को जीवन में लाने की, यथार्थ करने की चेष्टा भी करते हैं। वैज्ञानिक हैं, राजनीतिक हैं, समाज-नेता हैं, उन सारे लोगों की चेष्टा यह है कि आदमी को हम मन के अनुकूल बना लें। और जब भी मन के अनुकूल बनाने की घटना में कहीं हम सफल होते हैं, पाते हैं, हम बुरी तरह असफल हो गए। हमारी सब सफलताएं असफलताएं सिद्ध होती हैं।
अब जैसे उदाहरण के लिए, क्या हम न चाहेंगे कि ऐसा आदमी हो, जिसे क्रोध पैदा न होता हो, जिसमें घृणा न हो! दुनिया के आदर्शवादी निरंतर यही सोचते रहे हैं--सब यूटोपियंस--आदमी में क्रोध न हो, घृणा न हो, वैमनस्य न हो, ईर्ष्या न हो। अब हमारे हाथ में ताकत आ गई कि हम ऐसा आदमी बना सकते हैं। और अब आदमी से पूछने की जरूरत नहीं; उसे समझाने की, शिक्षा देने की, और योग और साधना में उतारने की जरूरत नहीं। अब तो हम प्रयोगशाला में उसको क्रोधहीन बना सकते हैं।
अमरीका का बहुत बड़ा विचारक है, स्किनर। अब वह कहता है कि जिस बात को दुनिया के सारे महत्वाकांक्षी लोग सोचते रहे और सफल न हो पाए, अब हमारे हाथ में ताकत है और अब हम चाहें तो अभी कर सकते हैं। लेकिन अब कोई राजी नहीं है, विचारशील आदमी, कि यह किया जाए। क्योंकि अब हम समझते हैं कि हारमोन अलग किए जा सकते हैं, ग्रंथियां आदमी की अलग की जा सकती हैं जिनसे क्रोध का जहर पैदा होता है। उनको काट कर अलग किया जा सकता है। बच्चे को जन्म के साथ ही--कभी पता नहीं चलेगा--जैसे हम उसका टांसिल निकाल दें, वैसे उसकी ग्रंथि निकाल दे सकते हैं। वह कभी क्रोधी नहीं होगा।
लेकिन उसमें सारी गरिमा भी खो जाएगी। वह बिलकुल नपुंसक होगा। उसमें कोई तेज, कोई बल, कुछ भी नहीं होगा। रीढ़हीन, जैसे कोई उसकी रीढ़ ही न हो। उसे आप धक्का दे दें तो गिर जाएगा, उठ जाएगा और चलने लगेगा। उसको आप गाली दे दें तो उसे कुछ भी न होगा। क्योंकि गाली जिस ग्रंथि पर चोट करती है, वह वहां मौजूद नहीं है। क्या आप ऐसा आदमी पसंद करेंगे?
कुछ लोग पसंद करेंगे। स्टैलिन पसंद करेगा, हिटलर पसंद करेगा। सभी राजनेता पसंद करेंगे कि काश, हमको छोड़ कर सारे आदमी ऐसे हो जाएं! तो फिर कोई बगावत नहीं है, कोई विरोध नहीं है, कोई क्रोध नहीं है। तब आदमी एक घास-पात है। उसे काट भी दो तो विनम्रता से कट जाएगा। पर आदमी कहां होगा? आदमी कहीं भी नहीं होगा।
हम सफल हो जाते हैं और तब हमें पता लगता है कि यह तो बड़ी असफलता हो गई। आज हम कर सकते हैं यह, मगर शायद हम न करना चाहेंगे। शायद हमारी आत्मा राजी न होगी अब यह करने के लिए।
हम कितना नहीं चाहते कि सभी बच्चों के पास एक सा, समान प्रतिभा, समान स्वास्थ्य हो। समानता की हम कितनी आकांक्षा करते हैं! जल्दी ही हम उपाय कर लेंगे कि बच्चे समान हो सकें। क्योंकि पैदा हो जाने के बाद तो समानता लानी बहुत मुश्किल है, असंभव है। क्योंकि पैदा होने का मतलब है असमानता की यात्रा शुरू हो गई। लेकिन अब जीव-विज्ञानी कहते हैं कि अब दिक्कत नहीं है। हम पैदा होते के साथ ही, पैदा होने में ही समानता का आयोजन कर सकते हैं।
लेकिन वह भी बड़ा दुखद मालूम होता है। जैसे कि सरकारी बस्तियां हैं नई, एक से मकान, बेरौनक, उबाने वाली, वैसे ही आदमी हों एक से, बहुत बेरौनक, बहुत घबराने वाला होगा। शायद हम राजी न होंगे। शायद हम चाहेंगे कि नहीं, ऐसी समानता नहीं चाहिए। क्योंकि अगर आदमी इतना समान हो सकता है तो यंत्रवत हो जाएगा। यंत्र ही हो जाएगा। यंत्र ही केवल समान हो सकते हैं। आदमी के होने में ही असमानता का तत्व छिपा हुआ है।
लेकिन समाजवादी हैं, साम्यवादी हैं, वे कहते हैं, सब मनुष्यों को समान करना है और एक ऐसी स्थिति लानी है जहां कि बिलकुल कोई वर्ग न हो।
आपको खयाल नहीं है, गरीबी-अमीरी उतना बड़ा वर्ग नहीं है, और हजार वर्ग हैं। बुद्धिमान और बुद्धिहीन का वर्ग है, सुंदर और कुरूप का वर्ग है, स्वस्थ और अस्वस्थ का वर्ग है। वे वर्ग और गहरे हैं। और आखिरी कलह, और आखिरी संघर्ष तो बुद्धिमान और बुद्धिहीन का है। क्योंकि कुछ भी उपाय करो, बुद्धिमान बुद्धिहीन के ऊपर हावी हो जाता है। समानता टिक नहीं सकती--कुछ भी करो, कैसा ही इंतजाम करो। कौन करेगा इंतजाम? इंतजाम करने वाला और इंतजाम किए जाने वाले, दो वर्ग फिर निर्मित हो जाते हैं। वे अमीर और गरीब के न होंगे तो सरकार और जनता के होंगे। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन इंतजाम करने वाला वर्ग और जिनका इंतजाम करना है, ये दो वर्ग हमेशा निर्मित हो जाते हैं।
गहरे में देखें, तो वह जो बुद्धिमान है, वह हर हालत में हावी हो जाता है। कभी वह ब्राह्मण होकर हावी हो जाता है, कभी वह कमीसार होकर हावी हो जाता है। कभी वह कम्युनिस्ट सत्ता में कॉमिनटर्न का मेंबर होकर हावी हो जाता है, कभी वह ब्राह्मण की पंचायत में हावी हो जाता है। लेकिन वह आदमी वही है। आदमी में कोई फर्क नहीं है। कभी धन पर हावी होता है, तब वह सत्ता करता है। अगर धन पर भी हावी न हो, उस बुद्धिमान आदमी को निर्धन भी बना दिया जाए, तो वह फकीर होकर सत्ता शुरू कर देता है। लेकिन उससे सत्ता नहीं जाती। उससे सत्ता नहीं छीनी जा सकती। वह धन को लात मार सकता है, नंगा खड़ा हो सकता है। वह धन के द्वारा सिर झुकवाता था; वह नंगा खड़ा होकर सिर झुकवा लेता है। लेकिन कोई है जो सिर झुकवाता है, और कोई है जो सिर झुकाता है। और उन दोनों का फासला बना ही रहता है। उसमें कोई अंतर नहीं पड़ता, कोई भेद नहीं पड़ता।
अंतिम कलह और अंतिम वर्ग-संघर्ष तो बुद्धिमान और बुद्धिहीन का है। उसको मिटाना है तो ही समानता हो सकती है। और जिस दिन हम उसे मिटा लेंगे, उस दिन हम आदमी को मिटा देंगे। तब शायद असमानता निसर्ग है, और समानता केवल एक आकांक्षा है; जिसमें हम सफल न हों तो अच्छा, हम सफल हो जाएं तो बुरा।
यह सूत्र कहता है, ‘वैसे लोग हैं, जो संसार को जीत लेंगे; उसे अपने मन के अनुरूप बनाना चाहेंगे।’
आदमी जीतना ही इसलिए चाहता है कि मन के अनुरूप बना ले। नहीं तो जीत का कोई मजा ही नहीं है। जीत का रस क्या है? इसे थोड़ा समझ लें, जीत का मजा क्या है?
जीत का मजा यह है कि फिर मैं मालिक हो गया--तोडूं, बनाऊं, मिटाऊं, अपने मन के अनुरूप ढालूं। इसलिए दुनिया में दो तरह के जीतने वाले लोग हैं। एक, जिनको हम राजनीतिज्ञ कहें। वे आदमी को पहले जीतते हैं, और फिर उसको तोड़ कर अपने अनुरूप बनाने की कोशिश करते हैं।
स्टैलिन ने एक करोड़ लोगों की हत्या की। बीस करोड़ के मुल्क में एक करोड़ की हत्या छोटा मामला नहीं है। हर बीस आदमी में एक आदमी मारा। और एक करोड़ एक आदमी के द्वारा हत्या का कोई उल्लेख नहीं है सारे इतिहास में। लेकिन स्टैलिन कर क्या रहा था? कोई हत्यारा नहीं था, आदर्शवादी था। और सभी आदर्शवादी हत्यारे हो जाते हैं। आदर्शवादी था, लोगों को अपने अनुरूप बनाने की कोशिश कर रहा था। जो बाधा डाल रहे थे, उनको साफ कर रहा था। आकांक्षा भली थी। और जब भली आकांक्षा वाले लोग ताकत में होते हैं, तो बड़े खतरनाक होते हैं। क्योंकि बुरी आकांक्षा के लोग ताकत से तृप्त हो जाते हैं; भली आकांक्षा के लोग ताकत का उपयोग करके आदर्श को लाना चाहते हैं, तब तक तृप्त नहीं होते। तो स्टैलिन ने जब तक मुल्क को बिलकुल सपाट नहीं कर दिया, जरा सा भी विरोध का स्वर समाप्त नहीं कर दिया, और जब तक मुल्क को ढांचे में ढाल नहीं डाला, तब तक वह काटता ही चला गया। एक करोड़ लोगों की हत्या, स्टैलिन के मन को पीड़ा नहीं हुई होगी?
नहीं होती आदर्शवादी को। क्योंकि वह किसी को मार नहीं रहा है। किसी महान लक्ष्य के लिए, जो लोग बाधा बन रहे हैं, वे अलग किए जा रहे हैं। इसलिए महान लक्ष्य अगर न हो तो बड़ी हत्याएं नहीं की जा सकतीं। छोटे-मोटे हत्यारे बिना लक्ष्य के होते हैं, बड़े हत्यारे लक्ष्य वाले होते हैं। तो स्टैलिन ने महान सेवा का काम किया--अपनी तरफ से। लेकिन मुल्क को रौंद डाला। चाहता था मन के अनुरूप एक समान समाज निर्मित कर लिया जाए।
ऐसा नहीं है कि स्टैलिन को यह खयाल पहली दफा आया था। सिकंदर को यह खयाल था कि मैं दुनिया इसलिए जीतना चाहता हूं ताकि दुनिया को एक बना सकूं। ये फासले देशों के टूट जाएं और सारी दुनिया एक हो। सारी दुनिया को एक बनाने के लिए वह जीत रहा था।
हिटलर अगर सारी दुनिया को रौंद डालना चाहता था, तो कारण था, लक्ष्य था। हिटलर कहता था कि मनुष्य में सभी जातियां बचने के योग्य नहीं हैं; सिर्फ एक नार्डिक, एक आर्य, शुद्ध आर्य जाति बचने के योग्य है। शुद्ध आर्य की वजह से तो सुभाष को भी हिटलर की बात में जान मालूम पड़ने लगी थी। सुभाष का मन भी नाजी की तरफ झुका हुआ मन था। इसलिए हिंदुस्तान से भाग कर वे जर्मनी पहुंच गए। और हिटलर ने जब सुभाष को पहली सलामी दिलवाई थी जर्मनी में तो उसने कहा था: मैं तो केवल चार करोड़ लोगों का फ्यूहरर हूं, यह आदमी सुभाषचंद्र चालीस करोड़ लोगों का फ्यूहरर है।
हिटलर मानता था कि शुद्ध आर्य ही केवल मनुष्य हैं, बाकी नीची जाति के लोग हैं। उनको ठीक-ठीक मनुष्य नहीं, सब-ह्यूमन, उप-मनुष्य कहा जा सकता है। उनको हटाना है। उनके ताकत में होने की वजह से ही सारी दुनिया में उपद्रव है। इसलिए उसने लाखों यहूदियों को काट डाला; क्योंकि वे नार्डिक नहीं थे। बड़े मजे से काट डाला; क्योंकि एक महान लक्ष्य--शुद्ध रक्त, शुद्ध मनुष्य, सुपर मैन, एक महा मानव को बनाना और बचाना है। सारी दुनिया को उपद्रव में डाल दिया। इतना बड़ा रक्तपात, इतना बड़ा युद्ध, इस महान आदर्श के आस-पास हुआ।
और अगर जर्मन जाति उसके साथ लड़ रही थी, तो पागल नहीं है। जर्मन जाति इस जमीन पर सबसे ज्यादा बुद्धिमान जाति कही जा सकती है। फिर इतने बुद्धिमानों को इस पागल आदमी ने कैसे प्रभावित कर लिया? महान लक्ष्य के कारण। यह बुद्धिमान जाति भी आंदोलित हो उठी। इसको लगा कि बात तो ठीक है, शुद्ध मनुष्य बचना चाहिए, तो दुनिया स्वर्ग हो जाएगी। उस शुद्ध मनुष्य के लिए कुछ भी किया जा सकता है। एक बार आदर्श आंख को अंधा कर दे, तो आदमी कुछ भी कर सकता है।
राजनीतिज्ञ पहले आदमी को अपनी ताकत में लाना चाहता है, फिर आदमी को बदलता है।
धार्मिक गुरुओं ने भी यह काम किया है। वे दूसरी तरफ से यात्रा शुरू करते हैं। वे आदमी को बदलना शुरू करते हैं। और जैसे-जैसे आदमी बदलने लगता है, उनकी ताकत बढ़ने लगती है। राजनीतिज्ञ पहले ताकत स्थापित करता है। वह कहता है, पहले पावर, फिर क्रांति। धर्मगुरु कहता है, पहले क्रांति, ताकत तो उसके पीछे चली आएगी। इसलिए धर्मगुरु के पास आप जाएं तो आपको बिना बदले नहीं मानता। कहता है, छोड़ो सिगरेट पीना! छोड़ो शराब पीना! यह मत खाओ, वह मत खाओ। अगर आप उसकी मानते हैं, तो उसने आप पर कब्जा करना शुरू कर दिया। जैसे आप मानते जाएंगे, वह आपको बदलने लगा। जिस दिन आप बदलने के लिए पूरी तरह राजी हो जाएंगे, उस दिन उसकी ताकत आपके ऊपर पूरी हो गई। धर्मगुरु राजनीतिज्ञ की तरह ही उलटी यात्रा कर रहा है।
इसलिए वास्तविक धार्मिक व्यक्ति आपको बदलना नहीं चाहता। इस फर्क को थोड़ा खयाल में रख लेना। क्योंकि जब मैं कह रहा हूं धर्मगुरु आपको बदलना चाहता है, तो मेरा मतलब यह नहीं है कि बुद्ध आपको बदलना चाहते हैं, या महावीर आपको बदलना चाहते हैं, या लाओत्से आपको बदलना चाहते हैं। न; लाओत्से, महावीर या बुद्ध या जीसस जैसे लोग आपको बदलना नहीं चाहते। क्योंकि आपके ऊपर कोई ताकत कायम करने की आकांक्षा नहीं है। उन्होंने अपने जीवन में कुछ जाना है, वह आपको भी दे देना चाहते हैं, दिखा देना चाहते हैं, उसमें आपको साझीदार बना लेना चाहते हैं। अगर उस साझेदारी में कोई बदलाहट आप में होने लगती है, उसके जिम्मेवार आप हैं। अगर उस साझेदारी में आप बदलने लगते हैं तो उसके मालिक आप हैं। आप बुद्ध को जिम्मेवार नहीं ठहरा सकते।
बुद्ध से आपकी तरफ जो संबंध है, वह आपको बदलने का कम, आपको कुछ देने का ज्यादा है। बदलने वाला तो आपसे कुछ लेता है, ताकत लेता है। बुद्ध को आपसे कोई ताकत नहीं लेनी है, बुद्ध को आपसे कुछ लेना ही नहीं है। आपके पास कुछ है भी नहीं जो आप बुद्ध को दे सकें। बुद्ध को आपकी तरफ से कुछ भी नहीं जाता। बुद्ध को कुछ मिला है। जैसे कि आप भटक रहे हों अंधेरे में और एक आदमी के पास दीया हो और दीया जलाने की तरकीब हो और वह आपसे कहे कि क्यों भटकते हो, दीया जलाने की यह तरकीब रही। बस इतना ही संबंध है। जैसे आप रास्ते पर भटक रहे हों और किसी से आप पूछें कि नदी का रास्ता क्या है? और उसे मालूम हो और वह कह दे कि बाएं मुड़ जाओ, यह नदी का रास्ता है। बस इतना ही बुद्ध से आपका संबंध है।
धर्मगुरु अलग बात है। धर्मगुरु के लिए धर्म राजनीति ही है। पोप है; धर्म राजनीति है। धर्म भी एक तरह का साम्राज्य है। उसके भीतर फंसा हुआ आदमी भी पोप की ताकत बना रहा है।
लाओत्से कहता है, ऐसे लोग बदलना चाहेंगे; लेकिन मैं देखता हूं, वे सफल नहीं होंगे।
इसलिए नहीं कि उनकी ताकत कम है। ताकत तो उन पर बहुत है। इसलिए भी नहीं कि बदलने के नियम उन्हें पता नहीं चल गए हैं। नियम भी पता चल गए हैं। फिर भी वे सफल नहीं होंगे। सफल वे इसलिए नहीं होंगे कि--
‘संसार परमात्मा का गढ़ा हुआ पात्र है; इसे फिर से मानवीय हस्तक्षेप के द्वारा नहीं गढ़ा जा सकता।’
सफल वे इसलिए नहीं होंगे कि विराट है यह जगत; अंतहीन, आदिहीन इसका फैलाव है। और आदमी की समझ बहुत संकीर्ण है। जैसे किसी आदमी ने आकाश को अपने घर की खिड़की से देखा हो; खिड़की भी बड़ी बात है, शायद एक छोटा छेद हो, उस छेद से देखा हो। विराट है जगत; आदमी की समझ संकीर्ण है। इस संकीर्ण समझ के कारण इस विराट को नहीं बदला जा सकेगा। और जब तक हम पूरे को ही न जान लें, तब तक हमारी सब बदलाहट आत्मघात होगी। क्योंकि पूरे को जाने बिना हम जो भी करेंगे, उसके परिणाम का हमें कोई भी पता नहीं है कि परिणाम क्या होगा। इसे हम जरा देखें; अपने चारों तरफ हमने जो किया है, किसी भी कोने से देखें।
एक मित्र हैं मेरे, बीस-तीस साल से आदिवासी बच्चों को शिक्षा देने का काम करते हैं। बड़े सेवक हैं। देश के बड़े नेता भी उनके चरणों में सिर रखते हैं। सभी कहते हैं कि महान सेवा का कार्य किया है। वे मुझे मिलने आए थे। मैंने उनसे पूछा कि अगर तुम बिलकुल ही सफल हो गए, और तुमने सब आदिवासियों को शिक्षित कर दिया, तो होगा क्या? ये बंबई में जो शिक्षित हो गए हैं, ये भी कभी आदिवासी थे। ये शिक्षित हो गए हैं। ये जो कर रहे हैं, तुम्हारे आदिवासी भी शिक्षित होकर यही करेंगे या कुछ और करेंगे? वे जो बनारस विश्वविद्यालय में लड़के पढ़ रहे हैं, तुम्हारे आदिवासी भी पढ़ कर अगर विश्वविद्यालय के स्नातक होकर निकलेंगे तो क्या करेंगे?
वे थोड़े बेचैन हुए, क्योंकि कभी किसी ने उनसे यह सवाल उठाया ही न होगा। जो भी कहता था, वह कहता था, आप महान कार्य कर रहे हैं; बोलें, मैं क्या सेवा कर सकता हूं? लोग उनको धन देते हैं, गाड़ियां देते हैं, व्यवस्था देते हैं कि जाओ, सेवा करो, बड़ा अच्छा कार्य कर रहे हैं। क्योंकि अशिक्षित को शिक्षित करना बड़ा अच्छा कार्य है, इसमें संदेह का कोई सवाल ही नहीं है। शिक्षितों को कोई देखता ही नहीं कि जो शिक्षित हो गए हैं उनकी क्या दशा है। अगर कोई शिक्षितों को ठीक से देखे तो शायद संदेह उठना शुरू हो कि अशिक्षित को शिक्षित करना सेवा है या नहीं। लेकिन संदेह उठता ही नहीं, क्योंकि हम सोचते ही नहीं।
आदिवासियों को हम शिक्षित करके क्या करेंगे? ज्यादा से ज्यादा, जो शिक्षित कर रहे हैं, उन जैसे ही उनको बना लेंगे। और क्या होने वाला है? लेकिन जो शिक्षित कर रहे हैं, वे कहां हैं? वे यह मान कर ही बैठे हैं कि जैसे वे मोक्ष में पहुंच गए हैं। वे कहां हैं?
और बड़ी हैरानी की बात है कि हम बिलकुल नहीं देखते कि आदिवासी को हम अपनी शिक्षा देकर उससे क्या छीने ले रहे हैं। वह हमें दिखाई नहीं पड़ता। वह हमें दिखाई नहीं पड़ता। और आदिवासी बेचारा इस स्थिति में नहीं है कि हमसे संघर्ष ले सके अशिक्षित रहने के लिए। वह शिकार है; वह कुछ कर नहीं सकता। हम जो करेंगे, उसको उसे झेलना ही पड़ेगा। और जब तक हम सफल न हो जाएंगे, तब तक हम उसका पीछा न छोड़ेंगे। और जिस दिन हम सफल हो जाएंगे, उस दिन हम चौंकेंगे कि यह क्या आदमी पैदा हुआ! यह हमारी सफलता का परिणाम हुआ।
आज अमरीका दुनिया में सबसे ज्यादा शिक्षित देश है। और अमरीका के विश्वविद्यालय में जो होता है, उससे ज्यादा अशिक्षित स्थिति खोजनी मुश्किल है। और जिन्होंने शिक्षित किया है उसको, तीन सौ, दो सौ वर्षों के सतत श्रम के बाद, वे भी अपना सिर ठोंक लेंगे कि हम इसीलिए इतनी मेहनत कर रहे थे! आज अमरीका में जब शिक्षा पूरी हो गई है, तो परिणाम क्या है?
परिणाम यह है कि वह पूरी तरह शिक्षित व्यक्ति आपकी शिक्षा के प्रति क्रोध से भरा है; आपके शिक्षकों के प्रति घृणा से भरा है; आपके पूरे आयोजन, व्यवस्था, समाज, सबके प्रति घृणा से भरा है। आपकी शिक्षा का यह फल है। मां-बाप के प्रति, परंपरा के प्रति, जिन्होंने उसको शिक्षित किया है, जिन्होंने उसे यहां तक खींच-खींच कर लाया और बड़ा त्याग किया है--वह बड़ा मजा लेते रहे मां-बाप उनके कि हम बड़ा त्याग करके बच्चों को शिक्षित कर रहे हैं--और अब बच्चे उन सबकी निंदा कर रहे हैं। बात क्या है?
आपकी सेवा में कहीं कोई बुनियादी भूल थी। क्योंकि हमें खयाल नहीं है, जीवन बड़ी जटिल रचना है। आप शिक्षा देते हैं, महत्वाकांक्षा बढ़ती है। असल में महत्वाकांक्षा के लिए ही आप शिक्षा देते हैं। आदिवासी को भी आप समझाते हैं कि अगर पढ़ोगे-लिखोगे तो होगे नवाब। फिर वह पढ़-लिख कर नवाब होना चाहता है, तो मुसीबत खड़ी होती है। फिर कितने लोग नवाब हों? फिर वह कहता है नवाब हुए बिना हम न मानेंगे। हर बच्चे को हम महत्वाकांक्षा दे रहे हैं। महत्वाकांक्षा के बल ही हम उसको खींच रहे हैं, धक्का दे रहे हैं कि पढ़ो, लिखो, लड़ो, प्रतिस्पर्धा करो; क्योंकि कल बड़ा सुख पाओगे। कोई नहीं पूछ रहा है कि कल वह सुख अगर इसको नहीं मिला, तो तुमने जो आशा बंधाई थी, अगर वह असफल हुई, तो इस बच्चे का जीवन सदा के लिए व्यर्थ हो जाएगा। क्योंकि आधा जीवन इसने शिक्षा में गंवाया, इस आशा में कि शिक्षा से सुख मिलेगा और फिर आधा जीवन रोकर गंवाएगा कि वह सुख नहीं मिला। लेकिन इसकी कोई फिक्र नहीं कर रहा है।
आज अमरीका में बच्चा वही अपने मां-बाप से पूछ रहा है। एक मित्र मुझे मिलने आए थे। वे प्रोफेसर हैं। वे कहने लगे, मेरा लड़का मुझसे यह पूछता है। वह भाग जाना चाहता है। हाईस्कूल में है अभी और हाईस्कूल छोड़ कर हिप्पी हो जाना चाहता है। और मैं उसको समझाता हूं तो वह यह पूछता है कि ज्यादा से ज्यादा, अगर मैं पढ़ा-लिखा, तो आप जैसा प्रोफेसर हो जाऊंगा। आपको क्या मिल गया है?
वह पिता ईमानदार हैं। इधर भारतीय पिता होता तो वह कहता कि मुझे सब मिल गया है। मगर वह पिता ईमानदार हैं। वह कहते हैं, मैं अपनी आत्मालोचना करता हूं तो मुझे लड़के का सवाल सही मालूम पड़ता है। और मैं झूठा जवाब नहीं दे सकता। मुझे कुछ भी नहीं मिला है। हालांकि मेरे बाप ने भी मुझे यही कहा था कि बहुत कुछ मिलेगा। उसी आशा पर तो मैंने यह सब दौड़-धूप की थी। अब मैं किस तरह कहूं इस बेटे को? और तब डरता भी हूं कि अगर यह छोड़ कर भाग गया हाईस्कूल, इसकी जिंदगी खराब हो जाएगी। मगर मैं यह भी नहीं कह सकता कि मेरी जिंदगी खराब नहीं हो गई है। यह कठिनाई है। मेरी जिंदगी भी खराब हो गई है।
तो जिंदगी खराब करने के दो ढंग हैं। एक व्यवस्थित लोगों का ढंग है; एक अव्यवस्थित लोगों का ढंग है। पर वह लड़का यह पूछता है, तो अव्यवस्था से जिंदगी खराब करने में क्या एतराज है? जब खराब ही करनी है तो अच्छी नौकरी पर रह कर खराब की कि सड़क पर भीख मांग कर खराब की, अंतर क्या है? और जब खराब ही होनी है जिंदगी तो कम से कम स्वतंत्रता से खराब करनी चाहिए। इतना तो कम से कम भरोसा रहेगा कि अपनी ही मर्जी से खराब की है। आपकी मर्जी से क्यों खराब करूं?
यह अशिक्षित बच्चे ने कभी बाप से नहीं पूछा था, यह खयाल में रखिए। अशिक्षित बच्चे ने कभी बाप से यह नहीं पूछा था। बाप के मूल्यों पर कभी शक नहीं उठाया था। अब यह बाप खुद परेशान है। लेकिन इसको पता नहीं कि इसकी परेशानी का कारण यह लड़का नहीं है, इसकी परेशानी का कारण पिछले दो सौ वर्षों के बाप, जो सबको शिक्षित करने में लगे हैं, वे हैं। अब वे शिक्षित हो गए। अब शिक्षा का जो फल हो सकता था, वह सामने आ रहा है। अब वे पूछने लगे, अब वे तर्क करने लगे, अब वे विचार करने लगे। अब जिंदगी उनको बिना विचार के व्यर्थ मालूम होती है। अब वे कुछ भी करेंगे तो सोच कर करेंगे। अब वे हर कुछ मान नहीं सकते। तब मां-बाप और शिक्षक चिल्ला रहे हैं कि अनुशासनहीनता है।
शिक्षित आदमी अनुशासनबद्ध होना मुश्किल है। सिर्फ अशिक्षित आदमी अनुशासनबद्ध हो सकता है। या फिर एक बिलकुल और ढंग की शिक्षा चाहिए, जिसका हमें अभी कोई भी पता नहीं है। अभी तो हम जब भी शिक्षित करेंगे किसी को, वह अनुशासनहीन हो जाएगा। हां, एक मजे की बात है--वह अनुशासनहीन हो जाएगा और दूसरों पर अनुशासन करना चाहेगा। इसको आप देखें। विद्यार्थी को शिक्षक कहता है अनुशासनहीन। और वाइस चांसलर को पूछें, वह कहता है कि शिक्षक अनुशासनहीन। और राष्ट्रपति को पूछें, वे कहते हैं, वाइस चांसलर कोई हमारी सुनते नहीं, सब अनुशासनहीन। ऊपर वाला सदा नीचे वाले को कहता है अनुशासनहीन है। उसके ऊपर वाला उसको कहता है अनुशासनहीन है।
असल में शिक्षित आदमी अपने ऊपर किसी को पसंद नहीं करता; सबको अपने नीचे चाहता है। जो भी नीचे है, उसको अनुशासित करना चाहता है। लेकिन वह जो नीचे है, वह भी नीचे नहीं रहना चाहता। वह भी शिक्षित है। शिक्षा महत्वाकांक्षा को जगा देती है। हमने सार्वभौम शिक्षा फैला कर सार्वभौम महत्वाकांक्षा जगा दी। हमने हर आदमी का अहंकार जगा दिया। अब उस अहंकार को तृप्ति का कोई उपाय नहीं है। इसलिए आग की लपटें जल रही हैं। बहाने हैं सब।
अभी एक मित्र, एक विधान सभा के व्हिप हैं, वे मुझे मिलने आए थे। वे कहने लगे कि पहले एक सत्ता थी, एक पार्टी की हुकूमत थी हमारे राज्य में, उसको हम लोगों ने मेहनत करके बदल डाला। अब दूसरी पार्टी की हुकूमत आ गई। बड़ी आशाएं थीं, वे सब खतम हो गईं। अब हम लोग क्या करें? क्या हम इसको बदल कर अब तीसरी पार्टी को ले आएं? मैंने उनको कहा कि आप ला सकते हैं, लेकिन फिर भी आशाएं इसी तरह व्यर्थ होंगी। क्योंकि जो आप कर रहे हैं, उससे आशाओं के पूरे होने का कोई लेना-देना नहीं है। एक की जगह दूसरे को रखें, दूसरे की जगह तीसरे को रखें, थोड़ी देर के लिए राहत मिलती है। थोड़ी देर के लिए राहत मिलती है, क्योंकि थोड़ी देर के लिए लगता है कि अब दूसरे को मौका मिला, थोड़ा काम होने का समय दो। लेकिन जैसे-जैसे समय निकलता है, पता चलता है--अरे, कुछ भी नहीं हो रहा, कुछ भी नहीं हो रहा। पुरानी कांग्रेस सत्ता से गई, नई कांग्रेस सत्ता में आई; आशा बंधी। अब ढीली होती जा रही है आशा कि कुछ नहीं हो रहा।
आदमी जो करता है, नहीं जानता कि उसके परिणाम क्या होंगे। और यह भी नहीं जानता कि क्यों कर रहा है। उसके भीतर अचेतन कारण क्या हैं, उसका भी उसे पता नहीं है। भविष्य के परिणाम क्या होंगे, इसका भी उसे पता नहीं है। लेकिन किए चला जाता है। और तब जाल में उलझता चला जाता है।
लाओत्से कहता है, ये लोग सफल नहीं होंगे। क्योंकि संसार विराट की कृति है, इसे मानवीय हस्तक्षेप से नहीं गढ़ा जा सकता।
लेकिन यह बड़ी कठिन बात है। क्योंकि आदमी हस्तक्षेप करना चाहता है। छोटी-छोटी बात में हस्तक्षेप करना चाहता है। जहां न किए भी चल जाता, वहां भी करना चाहता है। आपका बच्चा आपसे कह रहा है, जरा बाहर जाकर खेलूं? नहीं! खेल सकता था, कुछ दुनिया बिगड़ी नहीं जा रही थी। लेकिन हस्तक्षेप करने का मजा। नहीं तो बाप होने का कोई मजा ही नहीं है। अगर हां और हां ही कहते चले जाएं तो बाप किसलिए हुए? इतनी तकलीफ झेल रहे हैं--इसको पैदा किया, इसको बड़ा कर रहे हैं--तो थोड़ा नहीं कहने का मजा...। मैं घरों में ठहरता हूं कभी-कभी, तो मैं सुनता हूं, हैरान होता हूं। अकारण ‘नहीं’ कहा जा रहा है। क्या रस होगा? क्या कारण होगा भीतर? हस्तक्षेप में एक मजा है। न कहने में इतना आनंद है किसी को, जिसका हिसाब नहीं।
आप खड़े हैं खिड़की पर, क्लर्क से कह रहे हैं कि यह कर दीजिए। वह कहता है, आज नहीं हो सकता। खाली भी बैठा हो तो भी वह कहता है, आज नहीं हो सकता। क्योंकि नहीं कहने से ताकत पता चलती है, हां कहने से ताकत पता नहीं चलती। नहीं किसी से भी कह दो, उसका मतलब है कि तुम नीचे हो गए, हम बड़े हो गए।
तो हस्तक्षेप अहंकार का लक्षण है। जितना नहीं कहने वाला आदमी होगा, समझना कि उतना अहंकारी है।
विचारशील व्यक्ति पहले हर कोशिश करेगा हां कहने की, असंभव ही हो हां कहना, तो ही नहीं कहेगा। और तब भी नहीं को इस ढंग से कहेगा कि वह भीतर जाकर छुरी की तरह काटती न हो। उसका रूप हां का ही होगा।
हमारे हां की भी जो शकल होती है, वह नहीं की होती है। और हम हां तभी कहते हैं, जब कोई और उपाय नहीं रह जाता। यह लड़का जो कह रहा है बाहर जाकर खेलूं, इसको भी थोड़ी देर में बाप हां कहेगा; लेकिन तब कहेगा जब कि हां का सारा मजा ही चला जाएगा। और हां विषाक्त हो जाएगा और नहीं के बराबर हो जाएगा। इसने नहीं कह दिया। लड़का भी जानता है; क्योंकि हस्तक्षेप कोई पसंद नहीं करता। बाहर नहीं जाने का बदला लेना शुरू करेगा कमरे के भीतर ही। शोर करेगा, चीजें पटकेगा, दौड़ेगा, भागेगा, जब तक यह हालत पैदा नहीं कर देगा कि बाप को कहना पड़े, बाहर चले जाओ! लेकिन तब बाहर चले जाओ हां जैसा लगता है, लेकिन उसका रूप तो न का हो गया। वह विषाक्त हो गया। और संबंध विकृत हो गए। और दोनों के अहंकार को अकारण बढ़ने का मौका मिला। अकारण बढ़ने का मौका मिला। क्योंकि जब भी मैं कहूं नहीं, तो मेरा अहंकार बोलता है। और जिससे भी मैं कहूंगा नहीं, उसका अहंकार संघर्ष करेगा। और जब तक वह मेरी नहीं को न तोड़ दे, तब तक संघर्ष करेगा। अगर बाप कह दे हां, तो खुद के भी अहंकार को मौका नहीं मिलता और बेटे के अहंकार को भी मौका नहीं मिलता कि वह हां कहलवाए।
हमारी हस्तक्षेप की बड़ी सहज वृत्ति है। चारों तरफ हम हस्तक्षेप करते रहते हैं। जितने दूर तक हम रुकावटें डाल सकते हैं, उतने दूर तक लगता है हमारा साम्राज्य है। लेकिन यह जो रुकावट डालने वाला मन है, यह रुकावट डालने वाला मन जीवन को दुख और नरक में उतार देता है--चाहे व्यक्तिगत रूप से, चाहे सामाजिक रूप से।
नरक निर्मित करना हो तो नहीं को जीवन की दृष्टि बनाएं। स्वर्ग निर्मित करना हो तो हां की जीवन की दृष्टि बनाएं--स्वीकार की, तथाता की। निसर्ग को जहां तक बन सके मत छेड़ें। और बड़े आश्चर्य की बात है, अगर कोई व्यक्ति तैयार हो तो अनंत तक बन सकता है। मैं कहता हूं, जहां तक बन सके मत छेड़ें। और अगर आप तैयार हों तो अनंत तक बन सकता है। छेड़ने का कोई सवाल ही नहीं है। और जो व्यक्ति निसर्ग को नहीं छेड़ता, उसके भीतर उस घनीभूत शांति का जन्म होता है, उस अतुल शांति का जन्म होता है, जिसकी हमें कोई खबर भी नहीं। क्योंकि उसे अशांत ही नहीं किया जा सकता। जो आदमी हस्तक्षेप नहीं करता, उसे अशांत ही नहीं किया जा सकता। जो चीजों को स्वीकार कर लेता है, उसे अशांत ही नहीं किया जा सकता। सच यह है कि उसे किसी संघर्ष में घसीटा नहीं जा सकता, उसे किसी कलह में नहीं खींचा जा सकता।
मनुष्य है क्या? एक छोटा जीवाणु। और जब वह विराट में हस्तक्षेप करता है, तो वह उस तिनके की भांति है जो नदी में बह रहा है और सोच रहा है कि नदी के विपरीत बहूं, उलटा बहूं, लडूं। बह नहीं पाएगा; लेकिन बहने की कोशिश में दुखी बहुत हो जाएगा, असफल बहुत हो जाएगा।
लाओत्से कहता है, उस तिनके की भांति हो रहो जो नदी से कोई कलह ही नहीं करता, जो नदी के साथ बहता है।
जो लड़ता है वह भी साथ ही बहेगा, ध्यान रखना, कोई उलटा तो बहने का तिनके के पास उपाय नहीं है। क्या तिनका नदी में उलटा बहेगा? वह भी नदी में ही बहेगा; लेकिन मजबूरी में, दुख में, पीड़ा में, लड़ता हुआ, हारता हुआ, पराजित होता हुआ, प्रतिपल उखड़ता हुआ बहेगा। विषादग्रस्त होगा। और जो तिनका नदी में दूसरा बह रहा है उसके पड़ोस में, बिना लड़े, वह भी बहेगा। दोनों बहेंगे तो नदी की धारा में ही--क्योंकि नदी है विराट, तिनका है क्षुद्र, कोई उपाय नहीं है विपरीत जाने का।
लेकिन जो जाने की कोशिश करेगा, वह दुख में गिर जाएगा और उसकी शक्ति व्यर्थ ही अपव्यय होगी। क्योंकि लड़ने में शक्ति लगेगी। वह भी पहुंचेगा सागर तक, लेकिन मुर्दा पहुंचेगा। और रास्ते का जो आनंद हो सकता था, रास्ते के किनारे जो वृक्ष मिलते और जो पक्षियों के गीत होते और आकाश में सूरज निकलता और रात तारों से भरा आकाश होता, वह उसे कुछ भी दिखाई नहीं पड़ेगा। उसका सारा काम तो लड़ने में लगा रहेगा। और वह जो तिनका नदी के साथ बह रहा है, उसे नदी से कोई दुश्मनी नहीं है; उसने नदी को वाहन बना लिया।
ध्यान रहे, क्षुद्र अगर विराट के साथ हो तो विराट भी क्षुद्र का वाहन हो जाता है। और क्षुद्र अगर विराट से लड़े तो अपना ही दुश्मन हो जाता है। विराट तो वाहन नहीं होता, सिर्फ अपना ही दुश्मन हो जाता है। ये दोनों तिनके सागर में पहुंचेंगे। लेकिन एक रोता और रुदन से भरा, हारा, थका, पराजित, क्रुद्ध, जलता हुआ, सारा जीवन व्यर्थ गया, ऐसे संताप में और रास्ते के अदभुत अनुभव से वंचित। दूसरा भी पहुंचेगा सागर में--आह्लाद से भरा, रास्ते के सारे नृत्य को अपने में समाए हुए। और रास्ते का सारा यात्रा-पथ उसके लिए तीर्थयात्रा हो जाएगी। सागर में गिरना उसके लिए महामिलन होगा। आदमी के बस दो ही तरीके हैं।
लाओत्से कहता है कि जो हस्तक्षेप करेगा, वह उसे और बिगाड़ देता है।
‘जो ऐसा करता है, वह उसे बिगाड़ देता है। और जो उसे पकड़ना चाहता है, वह उसे खो देता है।’
इस निसर्ग को जो बदलना चाहता है, वह उसे बिगाड़ देता है। बस बिगाड़ ही सकता है, बदलने की कोशिश में बिगाड़ ही सकता है।
ध्यान रहे, यह केवल समाज के लिए ही सही नहीं है, यह व्यक्ति के स्वयं के लिए भी सही है। कुछ लोग दूसरे को बदलने की फिक्र में नहीं होते हैं तो खुद को ही बदलने की फिक्र में होते हैं। वे कहते हैं, यह गलत है, यह नहीं होना चाहिए मुझमें। यह ठीक है, यह ज्यादा होना चाहिए मुझमें। यह क्रोध को काट डालूं, यह काम को जला दूं, बस मेरे भीतर प्रेम ही प्रेम रह जाए, सत्य ही सत्य रह जाए, शुद्ध, पवित्र पुण्य ही रह जाए, सब पाप काट डालूं। तो लोग अपने को भी बदलने की कोशिश में लगते हैं और लड़ते हैं। हम इन्हें साधु कहते रहे हैं--इस तरह के लोगों को जो अपने भीतर काटते हैं और साधुता आरोपित करते हैं।
लाओत्से उनके भी पक्ष में नहीं है। लाओत्से तो उसे साधु कहता है, जो अपने को पूरा स्वीकार कर लेता है--जैसा हूं, ऐसा हूं। और बड़े आश्चर्य की घटना तो यह है कि ऐसा व्यक्ति साधु हो जाता है। पुण्य उस पर बरस जाते हैं; पाप उससे खो जाते हैं। क्रोध उसका विलीन हो जाता है; प्रेम उसका प्रगाढ़ हो जाता है। लेकिन वह यह करता नहीं है। यह स्वीकार का परिणाम है। यह सर्व-स्वीकार है।
अब ध्यान रखें, यह कैसे होता होगा? क्योंकि जो सब स्वीकार कर लेता है, वह क्रोध कैसे करेगा? इसे थोड़ा समझें, यह थोड़ा आंतरिक कीमिया की बात है। अगर मैं अपने क्रोध को भी स्वीकार करता हूं तो मैं क्रोध कर ही नहीं सकूंगा। इस स्वीकृति में ही क्रोध क्षीण हो जाता है। क्योंकि क्रोध का मतलब ही अस्वीकार है। कोई चीज मैं नहीं चाहता, उससे ही क्रोध आता है। पत्नी नहीं चाहती कि पति कहीं भी कपड़े उतार कर कमरे में डाल दे। और डालता है पति, तो क्रोध आ जाता है। लेकिन जो अपने भीतर क्रोध को तक स्वीकार करती हो, वह कहीं पड़े हुए कमरे में कपड़ों को स्वीकार न कर पाएगी? वह कर पाएगी। पति सिगरेट पीता है, वह पत्नी स्वीकार नहीं कर पाती। लेकिन जिस पत्नी ने अपने क्रोध तक को स्वीकार कर लिया हो, वह पति की इस निर्दोष नासमझी को स्वीकार न कर पाएगी? कि धुआं भीतर करता है, बाहर करता है, तो करने दो। जैसे ही हम अपनी बुराइयों को स्वीकार कर लेते हैं, ध्यान रखना, हम दूसरों की बुराइयों के विरोध में नहीं रह जाते।
इसलिए जो लोग अपनी बुराई स्वीकार नहीं करते, वे दूसरे की बुराई के प्रति बड़े दुष्ट होते हैं, बड़े कठोर होते हैं। हम उन्हें महात्मा कहते हैं। महात्माओं का लक्षण यह है कि वे कठोर होते हैं--अपने प्रति भी, दूसरों के प्रति भी। जो गलत है, उसके प्रति सख्त कठोर होते हैं। उसको काट कर फेंक देना है।
लेकिन लाओत्से यह कहता है कि गलत और सही, इतनी बंटी हुई चीजें नहीं हैं। गलत और सही भीतर एक ही चीज के दो पहलू हैं। और तुम एक को काटो, दूसरा कट जाता है। तुम एक को बचाओ, दूसरा बच जाता है। जो आदमी क्रोध को काट डालेगा बिलकुल, उसके भीतर प्रेम भी कट जाएगा। बचेगा नहीं। जो आदमी यह कहता है कि मेरा दुनिया में कोई शत्रु नहीं, ध्यान रखना, उसका कोई मित्र भी नहीं हो सकता। अगर आप चाहते हैं दुनिया में कोई शत्रु न हो तो मित्र बनाना ही मत। क्योंकि शत्रु बिना मित्र बनाए नहीं बनता कोई। पहले मित्र बनाना पड़ता है, तब कोई शत्रु बनता है। पहले कदम पर रुक जाना। तो जो शत्रु से डरता है, वह मित्र भी नहीं बनाएगा।
हम विरोध में काट नहीं सकते। विरोध एक ही सिक्के के दो पहलू, एक ही चीज के दो छोर का नाम है।
लाओत्से कहता है, अपने भीतर भी बदलने की चेष्टा, काटने की चेष्टा, बनाने की चेष्टा, व्यर्थ है। और अभी मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि आदमी कितनी ही चेष्टा करे, जैसे होता है वैसा ही रहता है, कुछ बदलता नहीं। यह बड़ी कठिन बात है। और कम से कम धर्मगुरु इसे कभी मानने को राजी नहीं होंगे। क्योंकि धर्मगुरु का तो सारा व्यवसाय इस बात पर निर्भर है कि लोग बदले जा सकते हैं। अगर मैं आपसे कहूं कि आप जैसे हैं वैसे ही रहेंगे, आपमें कभी कोई बदलाहट नहीं हो सकती; आप दुबारा मेरे पास नहीं आएंगे। धंधा खतम ही हो गया। क्योंकि मेरे पास आप इस आशा में आते हैं कि यह आदमी कुछ करेगा, बदलेगा, अच्छा बना देगा; हम भी महात्मा हो जाएंगे। और मैं आपसे कह दूं कि तुम जैसे हो इसमें रत्ती भर कुछ होने वाला नहीं है, तुम तुम ही रहोगे, तब स्वभावतः यह आदमी गुरु होने के योग्य न रहा। गुरु तो वही है, जो बदल दे।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि हम तो अपने को नहीं बदल पाते, आपकी कृपा से बदल दीजिए। और आप कृपा करेंगे तो बदलाहट हो जाएगी। अब मैं उनको कहूं कि बदलाहट तो हो ही नहीं सकती; परमात्मा ने तुमको बनाया, इससे बड़ी कृपा अब और कौन करेगा? और मैं इसमें हेर-फेर करने वाला कौन? परमात्मा ने तुमको ऐसा बनाया, बहुत सोच-समझ कर बनाया। अब तुम कुछ न करो, तुम काफी हो, परमात्मा की कृति हो, काफी सुंदर, अच्छे, जैसे हो ठीक हो, तो दुबारा वह आदमी आने वाला नहीं है। इसलिए धर्मगुरु सत्य कह ही नहीं पाते। क्योंकि असत्य पर तो सारा व्यवसाय है।
आप जरा सोचें, पचास साल की उम्र है आपकी, आप रत्ती भर बदले हैं? लौटें पचास साल में, सोचें, क्या बदले हैं आप?
आइजनहावर साठ वर्ष के थे जब वे अमरीका के प्रेसीडेंट हुए। तो उन्होंने अमरीका की अर्थनीति में कुछ फर्क किए। उनके बड़े भाई, एडगर, या कुछ नाम है, उनके बड़े भाई जो उनसे दो या तीन साल बड़े होंगे। पत्रकारों ने उनसे जाकर पूछा कि आइजनहावर की अर्थनीति के संबंध में आपका क्या खयाल है? उनके बड़े भाई ने कहा कि बिलकुल बेकार है, उसमें कुछ सार नहीं है उसकी अर्थनीति में। बरबाद कर देगा मुल्क को। पत्रकार वापस आइजनहावर के पास गए; उन्होंने कहा, आपके बड़े भाई ने ऐसा कहा है। आइजनहावर ने कहा कि जब मैं पांच साल का था, तब से वे ऐसा मुझसे कह रहे हैं। कोई नई बात नहीं है। पांच साल का था, तब से वे मेरी आलोचना कर रहे हैं इसी तरह। यह कोई अर्थनीति का सवाल नहीं है। जो भी मैं करता हूं, उसको वे गलत कहते हैं। पत्रकार, जिसने यह सुना, वह वापस गया। उसने बड़े भाई से कहा कि वह आइजनहावर ऐसा कह रहे थे। बड़े भाई ने कहा कि अभी भी मैं उसको धूल चटा सकता हूं। बड़े भाई ने कहा कि अभी भी एक धक्का दूं तो धूल चटा सकता हूं। वह आदमी वापस लौटा। उसने आइजनहावर से कहा कि हद हो गई, आपके बड़े भाई कहते हैं कि एक धक्के में आपको चारों खाने चित्त कर देंगे। आइजनहावर ने कहा, हद हो गई, यह बात भी वे मुझसे जब मैं पांच साल का था, तब से कह रहे हैं। और मैं आपसे कहता हूं कि मुझे धूल नहीं चटा सकते। यह मैं भी तब से कह रहा हूं।
अगर आप लौटें अपने पीछे, आप बदले नहीं हैं। आप आदमी वही हैं। आपके कपड़े बड़े हो गए, शरीर बड़ा हो गया; थोड़ा भीतर खोज-बीन करें, आपका अणु वही का वही है। ढंग बदल गए होंगे, रास्ते बदल गए होंगे; लेकिन भीतर की गहरी सच्चाइयां नहीं बदलतीं। और कभी नहीं बदलतीं।
इससे निराश मत हो जाना कि तब तो इसका मतलब यह हुआ कि कुछ हो ही नहीं सकता!
नहीं, आप करना चाहें तो कुछ भी नहीं हो सकता। आप स्वीकार कर लें तो बहुत कुछ होता है। लेकिन वह किए से नहीं होता। जिस दिन आप अपने को स्वीकार कर लेते हैं और कह देते हैं मैं ऐसा हूं, बुरा या भला, क्रोधी, ईर्ष्यालु, जैसा भी हूं, ऐसा हूं--यह सत्य का पहला स्वीकार है कि मैं ऐसा हूं--इसमें कोई एतराज नहीं मुझे, परमात्मा ने मुझे ऐसा बनाया है, इस स्वीकृति के साथ ही पहली दफे आपकी क्षुद्रता समाप्त हो जाती है और आप विराट के अंग हो जाते हैं। और जिसने आपको बनाया है वह आपके भीतर आपको फिर से बनाने में संलग्न हो जाता है। सच बात यह है कि जब तक आप अपने को बनाने की कोशिश करते हैं, परमात्मा के हाथ रुके रहते हैं, विराट के हाथ रुके रहते हैं। जिस दिन आप अपने को छोड़ देते हैं, उसी दिन उसके हाथ फिर आपको बनाने लगते हैं। लेकिन वह बनावट बड़ी और है।
लाओत्से उसी को कहता है कि जो ऐसा करेगा, वह और बिगाड़ देता है। जो उसे पकड़ना चाहता है, वह उसे खो देता है। निसर्ग पकड़ में नहीं आता। लेकिन जो अपने को निसर्ग में छोड़ देता है, और निसर्ग के साथ बहने लगता है, निसर्ग उसकी पकड़ में तो नहीं आता, लेकिन निसर्ग उसके लिए साथी, सहयोगी और उसकी आत्मा बन जाता है।
‘क्योंकि कुछ चीजें आगे जाती हैं और कुछ चीजें पीछे-पीछे चलती हैं।’
हमें खयाल नहीं है कि कुछ चीजें आगे जाती हैं और कुछ पीछे-पीछे चलती हैं। जैसे मैंने कहा, स्वीकार आगे जाता है और क्रांति पीछे-पीछे चलती है। तथाता आगे जाती है--मान लेना कि मैं ऐसा हूं और जरा भी इसमें मुझे एतराज नहीं है, क्योंकि यह एतराज परमात्मा के प्रति ही एतराज है।
अब लोग मजेदार हैं। लोग कहे जाते हैं कि परमात्मा ने आदमी को बनाया। और आदमी को कोई स्वीकार नहीं करता। लोग कहते हैं कि भीतर आत्मा है। लेकिन उसको कोई स्वीकार आप भी नहीं करते। आप कहते हैं कि मैं प्रभु की कृति हूं। लेकिन इसमें भी आप सुधार करना चाहते हैं, तरमीम करना चाहते हैं। आप इसमें भी कुछ हेर-फेर करना चाहते हैं। अगर परमात्मा आपसे सलाह लेता, तो आप कभी बनने वाले नहीं थे; क्योंकि आप इतनी योजनाएं बदलते।
मैंने एक मजाक सुना है। मैंने सुना है, एक बेटा अपने बाप से पूछ रहा था कि परमात्मा ने आदमी को बनाया, फिर अदम की हड्डी निकाल कर ईव को, स्त्री को बनाया। तो उस बेटे ने पूछा कि परमात्मा ने पहले आदमी को क्यों बनाया, पहले स्त्री को क्यों नहीं बनाया? तो उसके बाप ने कहा, तू जब बड़ा होगा तो समझ जाएगा। अगर परमात्मा स्त्री को पहले बनाता तो आदमी बन ही नहीं पाता। स्त्री इतने सुझाव, इतनी सलाह देती कि फिर आदमी नहीं बन सकता था। वह कहती--ऐसा बनाओ, ऐसा बनाओ, वैसा बनाओ, यह न करे, वह न करे। वह कभी बना ही नहीं पाता। इसलिए उसने पहले आदमी बनाया, ताकि झंझट बिलकुल न हो। फिर स्त्री बनाई।
अभी भी स्त्री सलाह दिए चली जाती है आदमी को। अगर आप अपनी पत्नी के साथ कार चला रहे हैं, तो आप सिर्फ आदेश का पालन कर रहे हैं, कार तो पत्नी चलाती है। एक्सीडेंट वगैरह हो तो आप जिम्मेवार होंगे; सकुशल घर पहुंच जाएं, पत्नी ने गाड़ी चलाई।
आदमी जब अपने को बदलने की बात करता है, तभी वह परमात्मा का अस्वीकार कर देता है।
लाओत्से कहता है, कुछ चीजें आगे जाती हैं, कुछ चीजें पीछे-पीछे चलती हैं। और जो पीछे चलती हैं, उनको आगे लाने की कोशिश मत करना; नहीं तो भूल हो जाएगी।
गेहूं बो दें, घास-भूसा पीछे अपने आप हो जाता है। गेहूं के साथ भूसा पैदा हो जाता है। भूसे को बो दें, फिर कोई गेहूं पैदा नहीं होता; फिर भूसा भी पैदा नहीं होता। पास भी जो भूसा था, वह भी खराब हो जाता है। जो परिणाम है, उसको बीज नहीं बनाया जा सकता। और हम सब उसको बीज बनाने की कोशिश करते हैं।
लोग चाहते हैं कि शांत हो जाएं; लोग चाहते हैं कि आनंदित हो जाएं; लेकिन यह परिणाम है, यह बीज नहीं है। आप आनंद को सीधा पकड़ नहीं सकते; आनंद परिणाम है। आप कुछ और करें, जो बीज है, तो आनंद आ जाएगा। जैसे मैं कहता हूं: स्वीकार।
लाओत्से का जो कीमती से कीमती सूत्र है, वह है स्वीकार। लाओत्से कहता है, दुख को भी स्वीकार कर लो और तुम आनंदित हो जाओगे। और सुख को भी स्वीकार मत करो तो तुम दुखी रहे आओगे। दुख को भी कोई स्वीकार कर ले तो आनंदित हो जाता है। क्योंकि स्वीकार दुख जानता ही नहीं। स्वीकार को दुख का कोई पता ही नहीं है। इसलिए पुराने ऋषियों ने स्वीकृति को, संतोष को बहुत गहन प्रतिष्ठा दी थी। क्योंकि उसकी स्वीकार और संतोष के साथ ही परिणाम आने शुरू हो जाते हैं।
हम भी कोशिश करते हैं, लेकिन हम परिणाम को पहले लाना चाहते हैं। जैसे मैं अगर आपको कहूं कि मुझे कबड्डी खेलने में, या ताश खेलने में बहुत आनंद आता है। तो आप कहेंगे, आनंद तो मुझे भी चाहिए, मैं भी कबड्डी खेलने आता हूं। आपको नहीं आएगा, क्योंकि आनंद को आप बीज बना रहे हैं। और कबड्डी खेलते वक्त, पूरे वक्त आप तू-तू, तू-तू करते रहेंगे, लेकिन भीतर यही खयाल रहेगा--अभी तक आनंद नहीं आया, नाहक तू-तू कर रहे हैं, अभी तक कुछ आनंद नहीं आया। यह आदमी झूठ कह रहा था कि आनंद आता है; अभी तक नहीं आया। आप पूरे वक्त तू-तू करके घर लौट आएंगे; बिलकुल आनंद नहीं आएगा। थक जाएंगे सिर्फ। क्या हुआ क्या?
कबड्डी में जो डूब जाता है और जिसे इतना भी खयाल नहीं रहता कि आनंद आ रहा है कि नहीं आ रहा, जो इतना लीन हो जाता है खेलने में कि खेलने वाला बचता ही नहीं, उसे आनंद आ जाता है। वह परिणाम है। आप परिणाम को बीज की तरह पकड़े बैठे हुए हैं कि अब आए आनंद, अब आए आनंद! वह नहीं आता।
इसलिए दुनिया में आनंद की जितनी विधियां बताई गई हैं, आप सब को असफल कर देते हैं। आपकी कुशलता अनंत है। जितनी विधियां बताई हैं ऋषियों ने, आप सब को असफल कर देते हैं। क्योंकि विधियां, अगर आप उसमें पूरी तरह डूब जाएं तो आनंद आता है। आनंद लेने के लिए ही जो वहां जाता है, वह डूबता ही नहीं; वह डूब सकता नहीं। वह पूरे वक्त सचेतन है कि आनंद कहां है? वह सचेतना बाधा बन जाती है। आनंद कहीं भी मिल सकता है, लेकिन आता है किसी के पीछे छाया की तरह। उसे कोई सीधा पकड़ता नहीं; जो पकड़ता है, वह खो देता है।
‘एक ही क्रिया से विपरीत परिणाम आते हैं।’
अगर मुझे खेलने से आनंद मिल रहा है, तो जरूरी नहीं है कि आपको भी खेलने से आनंद मिले, दुख भी मिल सकता है। क्रियाओं पर कुछ निर्भर नहीं होता। क्रियाओं के पीछे करने वाले पर सब कुछ निर्भर होता है।
इसलिए अगर आप हनुमान से पूछें, तो वह कहेगा, बस काफी है; राम-राम, राम-राम कर लिया, काफी है, और परम आनंद आता है। वह हनुमान को आता है; आपको नहीं आएगा। आप कितना ही राम-राम कहें, कुछ भी नहीं होगा। थोड़ी देर बाद आप कहेंगे, छोड़ो भी, अखबार ही पढ़ो, उसमें ही ज्यादा आनंद आता है। यह कहां हनुमान की बातों में पड़ गए! और हनुमान कहां से मिल गए! छोड़ो, यह सब झंझट है। यह आदमी धोखे में मालूम पड़ता है, इसको भी कोई आनंद वगैरह आया नहीं होगा। आखिर बंदर ही ठहरे, कुछ आनंद इनको आया न होगा। हम क्यों इस नासमझी में पड़ें?
पर हनुमान को आया है।
अब कई स्त्रियां सीता बनने की कोशिश करती हैं। वे मुश्किल में पड़ेंगी। वह सीता को बहुत आनंद आया है। लेकिन सीता को आया है। आपको आएगा, मुश्किल है। क्योंकि सीता कोई बन नहीं सकता; या होता है या नहीं होता। तो सीता को जंगल भी फेंक दिया राम ने तो भी आनंदित है, अनुगृहीत है। और सीता के हृदय को समझना मुश्किल है, उसके अनुग्रह को समझना मुश्किल है। और बहुत सी किताबें लिखी जाती हैं, जिनमें स्त्री-जाति के पक्षपाती--जो सोचते हैं कि स्त्री-जाति के पक्षपाती हैं--वे लिखते हैं कि यह अन्याय हो गया। राम ने सीता को निकाल कर फेंक दिया घर के बाहर, यह अन्याय हो गया। लेकिन सीता गहन में यह जानती है, दूर जाने की पीड़ा है, अलग रहने का राम से दुख है, लेकिन गहन में सीता जानती है कि राम का भरोसा उस पर इतना है कि जरूरत पड़े तो उसे जंगल में फेंका जा सकता है--बिना पूछे। और यह भरोसा इतना गहरा है और यह प्रेम इतना गहरा है कि डरने का कोई कारण नहीं है कि सीता सोचेगी कि मुझे छोड़ दिया। इसका कोई कारण नहीं है। इसलिए राम सरलता से सीता को भेज पाए। प्रेम में जरा भी कमी होती तो हजार बार सोचते कि सीता क्या सोचेगी।
इसलिए आप देखते हैं, पत्नियां धीरे-धीरे समझ जाती हैं। जिस दिन पति घर कोई सामान लेकर आता है, घड़ी ले आता है, कुछ गहना ले आता है, स्त्री समझ जाती है--कुछ प्रेम में गड़बड़ है। यह काहे के लिए ला रहे हैं? यह सब्स्टीट्यूट है। और पति भी लाता ही उस दिन है, जिस दिन कुछ डरा होता है, कुछ भयभीत होता है। जिस दिन पति भयभीत होता है, उस दिन आइसक्रीम लिए चला आ रहा है, कुछ लेकर चला आ रहा है।
राम सहजता से सीता को फेंक सके, इतना भारी भरोसा था। पर वह सीता पर ही हो सकता था। फिर सीता बनने की बहुत सी स्त्रियां कोशिश कर रही हैं। कोई बन नहीं सकता वैसा।
बनना हो सकता है, पर वह बनने की प्रक्रिया से नहीं होता। जो जैसा है, उसे वैसा पूरा स्वीकार कर ले, अस्वीकार को छोड़ ही दे, खयाल से ही उतार दे, और जीवन जो लाए उसमें आह्लादित हो--दुख लाए तो, सुख लाए तो; यश तो, अपयश तो--जीवन जो भी दे जाए, उसमें हृदय प्रफुल्लित हो; तो कोई भी सीता हो सकता है।
‘क्योंकि कुछ चीजें आगे जाती हैं और कुछ चीजें पीछे-पीछे चलती हैं। एक ही क्रिया से विपरीत परिणाम आते हैं। जैसे चीजें फूंकने से गरम हो जाती हैं और फूंकने से ही ठंडी हो जाती हैं।’
मुल्ला नसरुद्दीन के संबंध में कथा है। वह गुरु की तलाश में था। और किसी ने उससे कहा कि फलां गांव में एक बड़ा फकीर है, उसके पास जाओ, शायद उससे तुम्हें ज्ञान मिल जाए। मुल्ला गया। सुबह ही सुबह पहुंचा। जांच-पड़ताल करनी जरूरी थी। जिसके प्रति समर्पण करना हो, उसकी पूरी जांच होनी चाहिए। चारों तरफ घूम-घाम कर उसने मकान के देखा, फिर अंदर गया। सर्द थी बहुत सुबह, और गुरु अपने कंबल
में दुबका हुआ हाथ रगड़ रहा था। तो मुल्ला ने कहा, आप यह क्या कर रहे हैं? उसने कहा कि मेरे हाथ ठंडे हैं, उन्हें गरम कर रहा हूं। रगड़ता रहा और मुंह से भी फूंकने लगा। तो उसने कहा, अब यह क्या कर रहे हैं? उसने कहा, मैं गरम ही कर रहा हूं। फूंक रहा हूं सांस कि हाथ गरम हो जाएं। मुल्ला ने कहा, ठीक है।
थोड़ी देर बाद उसकी पत्नी चाय लेकर आई। गुरु चाय पीने लगा, उसको भी फूंकने लगा। तो मुल्ला ने कहा, अब आप यह क्या कर रहे हैं? उसने कहा कि मैं चाय ठंडी कर रहा हूं। मुल्ला ने कहा, नमस्कार! ऐसे असंगत आदमी के पास मैं एक क्षण नहीं रुक सकता। अभी कहते थे फूंक कर गरम कर रहे हैं हाथ। अब कहते हैं फूंक कर चाय ठंडी कर रहे हैं! धोखे की भी कोई सीमा होती है! और आदमी बदले तो भी वक्त लगना चाहिए। अभी मैं मौजूद हूं यहीं के यहीं; इतनी जल्दी इतनी असंगति!
लाओत्से कहता है, फूंकने से चीजें गरम भी हो जाती हैं और ठंडी भी। इसलिए फूंकने से क्या हो रहा है, जल्दी मत करना समझने की। विपरीत घटनाएं एक ही क्रिया से घट सकती हैं।
‘कोई बलवान है, और कोई दुर्बल; और कोई टूट सकता है, और कोई गिर सकता है। इसलिए संत अति से दूर रहता है, अपव्यय से बचता है, और अहंकार से भी।’
कोई बलवान है और कोई दुर्बल! लेकिन कोई अपनी दुर्बलता को स्वीकार नहीं करता। दुर्बल आदमी भी बलवान बनने की कोशिश में लगा है। वह और दुर्बल हो जाएगा। जो थोड़ी-बहुत ताकत थी, वह बलवान बनने में खतम हो रही है। वह और दुर्बल हो जाएगा। और बलवान भी, आप यह मत सोचना कि आश्वस्त है। उससे भी बड़े बलवान हैं, जिनसे वह दुर्बल है। और आज बलवान है, अगर कल दुर्बल हो जाए। बुढ़ापा आएगा। शक्ति आज है, कल हाथ नहीं होगी। वह भी चिंतित और भयातुर है। दुर्बल भी डरे हुए हैं, बलवान भी डरे हुए हैं। और बलवान और बलवान बनना चाहता है, दुर्बल भी बलवान बनना चाहता है। लेकिन कोई अपने को स्वीकार नहीं करता।
लाओत्से यह कहता है, अगर तुम दुर्बल हो तो इस सत्य को पहचान लो, और दुर्बल रहो। रहने का मतलब सिर्फ इतना है कि अब इससे लड़ो मत। इससे बड़ी हैरानी की बात है।
जो लोग पशुओं का अध्ययन किए हैं गहरा, जैसे कोंड्रेड लारेंज ने बड़ा गहरा पशुओं का अध्ययन किया है; तो वह कहता है, आदमी को छोड़ कर कोई पशु, जब भी कोई पशु दुर्बलता को स्वीकार कर लेता है, तो उस पर हमला नहीं करता। एक कुत्ता एक कुत्ते से लड़ रहा है। जैसे ही कुत्ता अपनी पूंछ नीची कर लेता है, दूसरा कुत्ता लड़ना फौरन बंद कर देता है। बात खतम हो गई। एक तथ्य की स्वीकृति हो गई। इसका यह मतलब नहीं है कि दूसरा कुत्ता खड़े होकर अब इस पर हंसता है, या जाकर खबर करता है कि यह दुर्बल है। नहीं, बात ही खतम हो गई। इससे कोई दूसरा, जो पूंछ नीची झुका कर खड़ा हो गया है, वह अपमानित नहीं होता। और न ही जो जीत गया है, वह कोई सम्मानित होता है। सिर्फ एक तथ्य की स्वीकृति है कि एक सबल है, एक दुर्बल है। बात खतम हो गई। न तो सबल होने का कोई गुण है और न निर्बल होने का कोई दुर्गुण है। दुर्बल दुर्बल है, सबल सबल है।
एक पत्थर छोटा है, एक पत्थर बड़ा है। इसमें बड़े पत्थर के कोई सम्मान का कारण नहीं है। और एक झाड़ छोटा और एक झाड़ बड़ा है। इसमें बड़े झाड़ को कोई सम्मान का कारण नहीं है। छोटे झाड़ को अपमान का कोई कारण नहीं है।
पर आदमी के साथ बड़ी कठिनाई है। दुर्बल पहले तो स्वीकार नहीं करना चाहता कि दुर्बल है। और अगर स्वीकार कर ले, तो सबल उसको सताना शुरू करता है, अपमानित करता है, निंदित करता है। पशुओं में कभी भी कलह के कारण हत्या नहीं होती। हत्या के पहले ही बात रुक जाती है। सिर्फ, वैज्ञानिक कहते हैं कि आदमी और चूहे, दो अपनी ही जाति में हत्या करते हैं। और कोई नहीं; सिर्फ आदमी और चूहे! चूहे चूहे पर हमला करके मार डालते हैं। और आदमी। इन दो को छोड़ कर पूरी पृथ्वी पर अनंत-अनंत जीवन और प्राणी हैं, कोई किसी को मारता नहीं। लड़ाई होती है उस सीमा तक, जब तक कि तथ्य स्वीकृत नहीं हो जाता कि कौन बलवान, कौन कमजोर। स्वीकृत होते ही बात खतम हो जाती है।
इसलिए चूहे और आदमी में जरूर कोई गहरा आत्मिक संबंध है। जरूर कोई संबंध है। या तो आदमियों के साथ रह-रह कर चूहे बिगड़ गए हैं, या चूहों के साथ रह-रह कर आदमी बिगड़ गया। क्योंकि एक और मजे की बात है, सिर्फ आदमी और चूहे ही ऐसे हैं जो दुनिया की हर तरह की आबोहवा में रहते हैं। और ऐसी कोई जगह नहीं है दुनिया में जहां आदमी हो, वहां चूहा न हो। है ही नहीं। आदमी-चूहे बड़े संगी-साथी हैं। कोई जानवर हिंदुस्तान में होता है, कोई तिब्बत में नहीं होता। लेकिन चूहे के मामले में यह बात नहीं है। जहां आदमी होता है, चूहा उसके साथ होता है। बहुत साथ है। शायद किसी ने एक-दूसरे को संक्रामक बीमारी पकड़ा दी है।
लेकिन जानवर एक-दूसरे की हत्या नहीं करते; अपनी ही जाति में कभी हत्या नहीं करते। क्योंकि हत्या के पहले ही जैसे ही निर्बल को पता चलता है, नाप-तौल हो जाती है--दोनों गुर्राएंगे, पास आएंगे, रौब दिखाएंगे और दोनों एक-दूसरे को माप लेंगे--दुर्बल स्वीकार कर लेगा मैं दुर्बल हूं, सबल स्वीकृत हो गया कि सबल है। बात खतम हो गई। इस बात को आगे नहीं खींचा जाता।
क्यों? क्योंकि इसमें क्या गुण है कि आप सबल हैं? इसमें क्या दुर्गुण है कि कोई निर्बल है? उसका क्या कसूर है कि वह दुर्बल है? एक आदमी कमजोर है और आपके पास मजबूत हड्डियां हैं, इसमें कौन सा गुण है और कौन सा दुर्गुण है? माना कि आप उसे पटक सकते हैं और उसकी छाती पर बैठ सकते हैं, लेकिन इसमें क्या खूबी की बात है? इसमें कोई खूबी की बात नहीं है। बात वैसी ही है, जैसे तराजू पर हम एक बड़ा पत्थर रखें और एक छोटा, बड़ा पत्थर नीचे पहुंच जाए, छोटा ऊपर अटका रह जाए। लेकिन इसमें छोटा अपमानित कहां हो रहा है?
लाओत्से कहता है, इस कारण कि दुर्बल सबल होना चाहता है, कमजोर ताकतवर होना चाहता है, कुरूप सुंदर होना चाहता है, उपद्रव पैदा हो गया है। लाओत्से कहता है, तुम जो हो, उससे राजी हो जाओ। तथ्य से बाहर जाने का कोई उपाय नहीं है। तथ्य ही सत्य है। उसके विपरीत जाने का कोई उपाय नहीं है।
इसका क्या मतलब हुआ? इससे हमें बहुत हैरानी लगेगी कि इसका तो मतलब यह हुआ कि फिर आदमी कोई उन्नति ही न करे। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, आप यह क्या कहते हैं? इसका मतलब हुआ, उन्नति मत करो। सफल कैसे होंगे? फिर तो ऐसा मान कर बैठ जाएंगे तो बस जड़ हो जाएंगे।
नहीं, कभी कोई जड़ नहीं हुआ है। ऐसा मानने वाला अपनी व्यर्थ ताकत नहीं खोता। और वह जो व्यर्थ ताकत खोती है रोज, वही और कमजोर करती चली जाती है। ऐसा जान लेने वाला कि मैं क्या हूं, अपनी सीमा, अपनी समझ, अपनी सामर्थ्य, अपनी शक्ति जान लेने वाला व्यक्ति अपनी मर्यादा के भीतर शक्ति को नहीं खोता। शक्ति संगृहीत होती है। और वही संगृहीत शक्ति उसके जीवन में गति बन जाती है। लेकिन यह गति आती है भीतर से, बाहर की प्रतिस्पर्धा से नहीं।
अभी हम सब बाहर की प्रतिस्पर्धा में लगे रहते हैं। कोई आदमी बुद्धिमान है, आप कोशिश में लगे हैं बुद्धिमान होने की। कोई आदमी ताकतवर है, आप दंड-बैठक लगा रहे हैं। दूसरों को देख-देख कर लगे हुए हैं। मुसीबत में पड़ जाएंगे। चारों तरफ हजार तरह के लोग हैं। सब में से कुछ-कुछ सीखा! किसी की बुद्धि लेनी है आपको, बुद्धिमान होना है आपको आइंस्टीन जैसा, ताकतवर होना है कोई गामा जैसा। अब पड़े मुश्किल में आप; अब मुसीबत में पड़ जाएंगे; अब झंझट खड़ी होगी। आप अपने को इतना बांट देंगे इन आकांक्षाओं में कि टूट जाएंगे और कुछ भी न हो पाएंगे।
आप सिर्फ एक ही व्यक्ति हो सकते हैं दुनिया में, और वह व्यक्ति अभी तक पैदा नहीं हुआ कि उसकी आप नकल करें। वह आप ही हैं। अद्वितीय है प्रत्येक व्यक्ति। वह दूसरे जैसा नहीं हो सकता, वह सिर्फ अपने ही जैसा हो सकता है। फिर वह जो है, उससे राजी होकर उसे वही हो जाने की तथाता में प्रवेश कर जाना चाहिए।
‘कोई टूट सकता है, कोई गिर सकता है।’
ध्यान रखें, कमजोर गिर जाता है, ताकतवर टूट जाता है। बड़े वृक्ष, तूफान आता है, टूट जाते हैं। छोटे-छोटे पौधे हैं, गिर जाते हैं। तूफान चला जाता है, फिर उठ जाते हैं। अगर तूफान से पूछो तो तूफान कहेगा कि छोटे मुझसे जीत गए, बड़े मुझसे हार गए। ताकतवर टूटता है, कमजोर झुकता है। लेकिन यह देखने पर निर्भर करता है। इस झुकने को हम ताकत भी कह सकते हैं, फ्लेक्सिबिलिटी कह सकते हैं। इस झुकने को हम ताकत भी कह सकते हैं। यह तो हमारे देखने पर निर्भर है कि हमारे क्या सोचने के मापदंड हैं। अगर दुनिया ज्यादा समझदार होगी तो इसमें क्या कठिनाई है? झुकना भी एक ताकत है। जो नहीं झुक सका, वह टूट जाएगा।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन अपने लड़के को सिखा रहा था, दंड-बैठक करवा रहा था। पड़ोस के किसी आदमी ने पूछा कि यह क्या कर रहे हो नसरुद्दीन, यह दस साल के बच्चे के लिए? उसने कहा कि मैं इसको ताकतवर बना रहा हूं कि कोई लड़का इसको दबा न सके, कोई इसको परेशान न कर सके। तो इसको मैंने नौ तरकीबें सिखा दी हैं कि यह किसी को भी ठिकाने पर लगा देगा। पर उस पड़ोसी ने कहा कि नसरुद्दीन, क्या तुम सोचते हो इससे ताकतवर लड़के नहीं हैं? नसरुद्दीन ने कहा, वे भी हैं; उनके लिए मैं इसको दसवीं तरकीब भी सिखा दिया हूं। वह क्या है? नसरुद्दीन ने कहा, समय के पहले भाग खड़े होना। वह दसवीं तरकीब है, जैसे ही पता चले कि मामला गड़बड़ है और अपनी नौ तरकीबें काम नहीं आएंगी, दसवीं भी सिखा दी है। नौ का तभी तक उपयोग करना, जब तक देखे कि हां, अपने हाथ के भीतर बात है। और जब दिखाई पड़े कि अपने हाथ के बाहर है, तो दसवीं काम में लाना।
दो ही उपाय हैं संघर्ष में: लड़ना या भाग जाना--फाइट आर फ्लाइट। आदमी सोचता है कि भाग जाना बुरी बात है। नहीं, कम से कम हम अपने मुल्क में नहीं सोचते। हमने कृष्ण का एक नाम दिया है रणछोड़दास। जो युद्ध से भाग खड़े हुए--रणछोड़दासजी! उनको भी हम जी कहते हैं। समझदार लोग थे जिन्होंने यह नाम दिया। नहीं तो रणछोड़दासजी किसी को कोई कहेगा नहीं। अगर किसी से कहिए तो झगड़ा हो जाएगा कि आप रणछोड़दासजी हैं, आप युद्ध का मैदान छोड़ कर भाग गए थे। लेकिन बुद्धिमान आदमी अति पर नहीं जाता; जो उचित हो, जो संतुलित हो, वही करता है। इसलिए कृष्ण भाग भी सके और हमने उनका अपमान भी नहीं किया। बड़ी हैरानी की बात है। कोई कारण भी नहीं है। क्योंकि कभी भगाना सार्थक हो सकता है, कभी लड़ना सार्थक हो सकता है।
‘कोई टूटता है, कोई गिर सकता है। संत अति से दूर रहता है।’
वह सिद्धांत बना कर नहीं जीता कि मैं ऐसा ही जीऊंगा। वह जीवन को बहने देता है और जीवन के साथ बहता है। कभी इस किनारे भी, कभी उस किनारे भी। कभी हार में भी, कभी जीत में भी। कभी गिरता भी है, कभी नहीं भी गिरता। कभी कमजोर भी होता है, कभी ताकतवर भी। किसी के सामने बुद्धिमान होता है, किसी के सामने बुद्धिहीन भी होता है। किसी के सामने सुंदर और किसी के सामने कुरूप होता है। लेकिन लक्ष्य नहीं चुनता। दोनों के बीच डोलता रहता है।
‘संत अति से दूर रहता है, अपव्यय से बचता है।’
अपव्यय से बचता है। हम बहुत अपव्यय करते हैं। दूसरे की नकल अपव्यय है; वह आप कभी न हो सकेंगे। जो शक्ति खो गई, वह व्यर्थ खो जाएगी।
‘और अहंकार से भी।’
क्योंकि
अहंकार के कारण ही हम दूसरे जैसे होना चाहते हैं। अगर हमको लगता है कि सम्मान है कृष्ण का, तो हम कृष्ण जैसे होना चाहते हैं। और अगर हमें लगता है कि सम्मान है आइंस्टीन का, तो हम आइंस्टीन जैसे होना चाहते हैं। और हमें लगता है कि सम्मान है किसी अभिनेता का, तो हम अभिनेता होना चाहते हैं। लेकिन कारण क्या है? जिसका सम्मान है, वैसे हम हों, यह हमारे अहंकार की मांग हो जाती है।
लेकिन संत अहंकार से बचता है, अपव्यय से और अति से। जो इन तीन से बच जाता है--तीन क्या, एक अर्थ में एक ही बात है--जो इससे बच जाता है, वह परम शांति को, निसर्ग को, ताओ को उपलब्ध हो जाता है। वह स्वभाव में गिर जाता है।
हस्तक्षेप से बचें--दूसरों के प्रति भी और स्वयं के प्रति भी।

आज इतना ही। पांच मिनट रुकें, कीर्तन करें।

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