LAO TZU
Tao Upanishad 36
ThirtySixth Discourse from the series of 127 discourses - Tao Upanishad by Osho. These discourses were given during JUN 19-26, 1971 - APR 10 1975.
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पहला प्रश्न:
भगवान, जल के निर्मल होने की प्रतीक्षा मैं बारह वर्षों से कर रहा हूं। किंतु परिस्थितियों की गाड़ियां तो गुजरती रहती हैं; और यह आजीवन होता रहेगा। फिर भी क्या प्रतीक्षा करता रहूं?
प्रतीक्षा महत्वपूर्ण है, जरूरी, लेकिन काफी नहीं है। प्रतीक्षा के साथ-साथ मन के किनारे बैठना भी आना चाहिए। अगर नदी की धार में ही बैठ गए और प्रतीक्षा की, तो परिणाम न होगा। नदी की धार में बैठ रहे, तो खुद के होने से भी गंदगी उठती रहेगी। धार के बाहर, तट पर बैठने की कला ही ध्यान है।
प्रतीक्षा ध्यान का अनिवार्य अंग है। लेकिन प्रतीक्षा ही ध्यान नहीं है। जो प्रतीक्षा नहीं कर सकता, वह तो ध्यान कर ही नहीं सकेगा। लेकिन जो प्रतीक्षा को ही ध्यान समझ ले, वह भी भूल में है। ध्यान है किनारे पर बैठने की कला।
मन की धार है, विचार हैं। मन के बीच ही बैठ कर अगर आपने मन को कितनी ही प्रतीक्षा से देखा, तो भी मन के बाहर कभी न हो पाएंगे। और न ही मन की धार कभी शुद्ध हो पाएगी। आपकी मौजूदगी भी मन को अशुद्ध बना रही है। आप मन के बाहर हो जाएं, किनारे से बैठ कर देखें, मन को देखें दूर से। जैसे कोई आकाश में उड़ते हुए पक्षियों को देखे, ऐसे ही दूर से अपने विचारों को चलते हुए देखें। जैसे कोई नदी को बहता हुआ देखे, ऐसे ही किनारे बैठ कर अपने मन को भी बहता हुआ देखें। जितनी यह दूरी बढ़ेगी, उतनी ही जल्दी मन शांत और शुद्ध हो जाएगा, एक बात।
दूसरी बात, जीवन की अनंत कथा में बारह वर्ष कुछ भी नहीं हैं। जीवन के अनंत विस्तार में बारह वर्ष का क्या मूल्य है? तो ऐसा मत सोचें कि बारह वर्ष प्रतीक्षा की, तो बहुत बड़ी प्रतीक्षा हो गई। क्योंकि बारह वर्ष प्रतीक्षा की है, तो बारह लाख जन्म उस नदी को गंदा करने का पूरा प्रयास किया है। अनुपात कुछ भी नहीं है। इसलिए मैं कहता हूं: अनंत प्रतीक्षा।
लेकिन अनंत प्रतीक्षा का यह अर्थ नहीं है कि जन्मों-जन्मों प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। करने की तैयारी होनी चाहिए। घटना तो एक क्षण में भी घट सकती है। और जितनी बड़ी होगी तैयारी प्रतीक्षा की, उतनी जल्दी घटना घट जाती है। क्यों? क्योंकि अधैर्य भी मन को आंदोलित करता है। परिस्थितियों की गाड़ियां मन की गंदगी को उतना नहीं उठातीं, जितना खुद का अधैर्य मन की गंदगी को उठा देता है।
प्रतीक्षा का अर्थ है कि मैं अब धैर्य को उपलब्ध हुआ। कभी भी हो घटना, मैं प्रतीक्षा करूंगा जन्मों-जन्मों तक, मेरा कोई अधैर्य नहीं है, मेरी कोई जल्दी नहीं है। जितनी हो जल्दी, उतनी देर लगती है। और जितनी देर तक प्रतीक्षा करने के लिए राजी हो मन, उतनी जल्दी घटना घट जाती है।
तो बारह वर्ष को बहुत बड़ी बात मत समझें। और प्रतीक्षा को काफी न समझें। किनारे पर बैठने, साक्षी होने, जागरूक होने की बात पर ध्यान दें।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, लाओत्से कहते हैं कि ताओ में प्रतिष्ठित संतजनों की अस्मिता पिघलते बर्फ की तरह सतत विसर्जित होती रहती है। तो क्या अस्मिता के रहते हुए भी कोई परम सत्य में प्रतिष्ठित हो सकता है? और क्या अस्मिता के रहते भी कोई व्यक्ति संत व ज्ञानी कहा जा सकता है? अस्मिता की स्थिति मानसिक ही है या मन के पार आध्यात्मिक है? फिर आपने कहा कि अस्मिता के पूर्ण विसर्जन पर संत परमात्मा हो जाता है। तो क्या संत अस्मिता के रहने पर परमात्मा से वियुक्त रहता है?
तीन बातें हैं। दो शब्दों को ठीक से समझ लेना चाहिए। एक है अहंकार और दूसरा है अस्मिता।
अहंकार का अर्थ है: मैं शरीर से एक हूं। जब शरीर से चेतना जुड़ जाती है, जुड़ा हुआ अनुभव करती है, तादात्म्य कर लेती है, एकता बना लेती है, तो अहंकार निर्मित होता है। जब चेतना शरीर से अपने को अलग जान लेती है, भिन्न पहचान लेती है, तादात्म्य टूट जाता है, तो अहंकार टूट जाता है। लेकिन शरीर से मैं अलग हूं, यह जान लेना जरूरी नहीं है, काफी नहीं है यह जानने के लिए कि मैं परमात्मा से एक हूं। मैं शरीर से अलग हूं, इस भाव में अगर कोई ठहर जाए और परमात्मा के साथ एकता को अनुभव न कर पाए, तो इस स्थिति का नाम अस्मिता है।
मैं शरीर के साथ एक हूं, इस स्थिति का नाम अहंकार। मैं शरीर से अलग हूं, इस स्थिति का नाम अस्मिता। और मैं परमात्मा के साथ एक हूं, यह अस्मिता के भी पार।
लाओत्से कहता है कि संत के लिए एक बात तो अनिवार्य है कि उसका अहंकार टूट जाए; वह जान ले कि मैं शरीर नहीं हूं, मन नहीं हूं। इतना पहचान ले, यह तो संत का लक्षण है। लेकिन संत यहां भी रुक सकता है। बहुत संत यहीं रुक जाते हैं। जिन संतों ने यह कहा है कि परमात्मा नहीं है, बस आत्मा ही है, वे संत इसी वर्ग के हैं। उन्होंने एक कड़ी तो तोड़ दी बंधन की, उन्होंने गलत से तो नाता तोड़ लिया--और यह बड़ी घटना है। उन्होंने क्षुद्र से तो संबंध अलग कर लिया--और यह बहुत बड़ी क्रांति है। लेकिन आधी है क्रांति। अभी एक काम और करना है: विराट से संबंध जोड़ना है। जब विराट से भी संबंध जुड़ता है, तो अस्मिता भी खो जाती है।
मैंने आपसे कहा, मैं हूं; इसमें दो शब्द हैं। मैं अहंकार है और हूं अस्मिता है। संत का मैं तो गिर जाता है, सिर्फ हूं रह जाता है--एमनेस, हूं। लाओत्से कहता है, यह संत की परिभाषा है कि उसकी अस्मिता अभी है, अहंकार खो गया।
यह अस्मिता अगर सघन होती रहे, मजबूत होती रहे, तो अहंकार वापस लौट सकता है। अगर अस्मिता और जम जाए, गहरी हो जाए, तो अहंकार वापस लौट सकता है। यह अस्मिता पिघलती रहे--इसलिए यह बात भी लाओत्से ने जोड़ी कि संत की अस्मिता बर्फ की तरह पिघलती रहेगी; जैसे धूप में पड़ी बर्फ हो, पिघलती रहेगी--पिघलती रहे, तो एक दिन अस्मिता भी खो जाएगी। मैं तो खो गया; हूं भी एक दिन खो जाएगा। उस दिन शुद्ध अस्तित्व बचेगा। उस दिन, लाओत्से कहता है कि फिर संत भी कहने का कोई अर्थ न रहा। उस दिन वह व्यक्ति, वह लहर सागर के साथ एक हो गई।
संत होना भी तो दूरी है। असंत बहुत दूर होगा; संत निकट होगा। लेकिन निकटता भी एक दूरी है। निकटता भी एकता नहीं है। संत भी दूर है। पास है, बहुत पास है, असंत से बहुत ज्यादा पास है। लेकिन कितने ही पास हो, फासला अभी कायम है। लाओत्से का अंतिम जो लक्ष्य है, वह है जब इतना फासला भी न रह जाए, पास होना भी मिट जाए। दूर होना तो मिट ही गया, पास होना भी मिट जाए। दूरी तो खो गई, निकटता भी खो जाए। तभी, तभी एकता उपलब्ध होगी।
साधारणतः हमें दिखाई पड़ता है: दूरी खो गई, तो एकता हो गई। दूरी खोने से एकता नहीं होती, बल्कि सच तो यह है कि जितने निकट आते हैं, उतनी दूरी मालूम पड़ती है। असंत को कभी भी नहीं अखरती ईश्वर की दूरी। ईश्वर की दूरी असंत को अखरती ही नहीं। दूरी इतनी बड़ी है कि उसे पता भी नहीं चलता। वह पूछता है, कहां है ईश्वर? दूरी इतनी बड़ी है कि उसे ईश्वर कहीं दिखाई भी नहीं पड़ता।
संत की पीड़ा बढ़ जाती है। निकट इतने होता है कि हाथ बढ़ाए और ईश्वर है, श्वास ले और ईश्वर है, हिले और ईश्वर से धक्का लगता है। इतनी निकटता है! और तभी, जिसको संतों ने विरह कहा है...। असंत को विरह पैदा नहीं होता। वह इतने दूर है कि विरह का कोई सवाल नहीं है। संत को विरह पैदा होता है। इतने निकट है, फिर भी एक नहीं हो पाता। वह निकटता भी कष्ट देने लगती है। बहुत झीना सा पर्दा रह जाता है।
लेकिन दीवार हो बीच में, तो हमें दिखाई भी नहीं पड़ता उस पार। आकांक्षा भी नहीं होती; आशा भी नहीं उमड़ती; प्यास भी नहीं जगती। अहंकार पत्थर की दीवार है। अस्मिता बहुत ट्रांसपैरेंट, पारदर्शी कांच की दीवार है। उस पार सब दिखाई पड़ता है, जैसे बीच में कोई दीवार ही न हो। लेकिन जब भी संत बढ़ने की कोशिश करता है, तभी वह दीवार टकराती है। तब पीड़ा भारी हो जाती है और विरह सघन हो जाता है।
संतों ने ही ईश्वर का विरह जाना है। संत भी वियुक्त है, अभी संयुक्त नहीं है। एक पारदर्शी दीवार संत को भी दूर करती है। जिस दिन यह पारदर्शी दीवार भी पिघल जाती है, उस दिन न दूरी रहती है, न निकटता रहती है। उस दिन एकता सधती है। उस दिन संत खो जाता है और परमात्मा ही शेष रह जाता है।
यह जो अस्मिता है, यह आध्यात्मिक स्थिति है या मन की? यह भी पूछा है।
यह मन की अंतिम स्थिति है और अहंकार मन की प्रथम स्थिति है। अहंकार मन की स्थूलतम स्थिति है, अस्मिता मन की सूक्ष्मतम।
हम ऐसा समझें कि मन है बीच में। एक तरफ जगत है और एक तरफ परमात्मा है, और मन है बीच में। जहां मन जगत से जुड़ता है, वहां अहंकार पैदा होता है। और जहां मन परमात्मा से जुड़ता है, वहां अस्मिता खड़ी है। ये दो जोड़ हैं। जहां मन जगत से जुड़ता है, उस जोड़ का नाम है अहंकार। और जहां मनुष्य का मन परमात्मा से जुड़ता है या टूटता है--क्योंकि सब जोड़ तोड़ भी होते हैं; जहां चीजें जुड़ती हैं, वहीं टूटती भी हैं--वह है अस्मिता।
संत लाओत्से कहता है उसे, जिसका पहला जोड़ टूट गया, जगत से संबंध विच्छिन्न हुआ; लेकिन जिसका अभी दूसरा तोड़ कायम है, अभी परमात्मा से एकता नहीं सधी। तो अस्मिता कायम है। अस्मिता मन का सूक्ष्मतम रूप है और अहंकार मन का स्थूलतम। लेकिन दोनों ही मन की घटनाएं हैं।
ध्यान रहे, असंत भी मन है और संत भी। मन के बाहर जाकर तो दोनों नहीं रह जाते। श्रेष्ठतम भी मन के भीतर है और निकृष्टतम भी। क्योंकि मन के पार जाकर तो न श्रेष्ठ रहता है और न निकृष्ट। अशुभ भी मन का है, शुभ भी। बुरा भी मन का है, भला भी। मन के पार जाकर न तो बुरा रह जाता है और न भला। द्वंद्व खो जाते हैं। जब तक द्वंद्व है, तब तक जानना कि मन है। जहां द्वंद्व नहीं, वहां मन नहीं। संत भी द्वंद्व का हिस्सा है। असंत और संत दो छोर हैं द्वंद्व के।
अगर यह खयाल में आ जाए, तो अंतिम छलांग! पहली छलांग अहंकार से और अंतिम छलांग अस्मिता से। पहली छलांग ‘मैं’ से और अंतिम छलांग ‘होने’ से।
इसलिए बुद्ध अनात्मा की बात कहते हैं। बुद्ध ने अस्मिता की जगह आत्मा शब्द का उपयोग किया है। बुद्ध कहते हैं, अहंकार छूटे और फिर आत्मा भी छूटे; तभी परम सत्य में प्रवेश है।
इस सारी बात में जो कठिनाई हमारे मन में होती है, वह यह कि फिर क्या ऐसे व्यक्ति को हम संत कहेंगे जो अभी मन में ही हो? क्या हम कहेंगे कि उसने परम सत्य को पा लिया?
भाषा में सभी बातें सापेक्ष हैं, रिलेटिव हैं। जब हम कहते हैं, संत ने परम सत्य पा लिया, तो उसका इतना ही मतलब होता है कि जहां हम खड़े हैं, वहां से संत परम सत्य के बहुत निकट पहुंच गया। हमारे और सत्य के बीच पत्थर की दीवार है; उसके और सत्य के बीच कांच की दीवार है, जो दिखाई भी नहीं पड़ती। अब सत्य उसे इतना ही साफ है, जैसे कि दीवार न हो। लेकिन दीवार अभी है।
वह दीवार हमें दिखाई नहीं पड़ेगी, एक बात समझ लें। जो स्वयं संत नहीं हो गए हैं, उन्हें वह दीवार बिलकुल दिखाई नहीं पड़ेगी। वे तो कहेंगे कि संत के लिए अब कोई दीवार न रही। लेकिन जो उस दीवार के पास पहुंच गया है, स्वयं संत, उसे वह दीवार पता चलेगी। क्योंकि दीवार पारदर्शी है; दिखाई नहीं पड़ती, लेकिन स्पर्श होता है। पार होना चाहो, तो सिर टकराता है। उस पार का सब कुछ दिखाई पड़ता है; लेकिन दिखाई ही पड़ता है, अगर उसमें प्रवेश करना चाहो, तो दीवार बीच में खड़ी हो जाती है।
अस्मिता इतनी सूक्ष्म दीवार है कि सिर्फ संत को दिखाई पड़ती है। संत के भक्तों को भी दिखाई नहीं पड़ सकती। संत के भक्तों को तो लगता है कि संत परमात्मा हो गया। स्वाभाविक! संत के भक्तों ने कांच की कोई दीवार नहीं देखी, पत्थर की दीवारें देखी हैं। लेकिन संत को स्वयं प्रतिपल अनुभव होता है कि एक सूक्ष्म दीवार अभी भी उसे घेरे हुए है। अभी वह मिट नहीं गया है। अभी भी वह है।
लाओत्से संत के अनुभव से कह रहा है कि अस्मिता भी पिघल जाए, पिघल जाए, खो जाए, तभी; उसके पहले नहीं। लेकिन हमारे अनुभव से हम कह सकते हैं कि संत ईश्वर हो गया। सापेक्ष है। हम भी जब संत होंगे, तब हम पाएंगे कि नहीं, अभी एक दीवार और रह गई है। अभी होना भी बाधा है। वह भी खो जाना चाहिए; वह भी मिट जाना चाहिए। जब तक संत की जगह शून्य न आ जाए, तब तक वह दीवार भी नहीं गिरती।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, ताओ में निष्णात एवं प्रतिष्ठित व्यक्ति के लक्षण बताते समय लाओत्से कहता है कि ऐसे व्यक्ति अपने बारे में किसी प्रकार की घोषणा नहीं करते हैं। लेकिन मंसूर कहते हैं, अनलहक! उपनिषद के ऋषि कहते हैं, अहं ब्रह्मास्मि! जीसस कहते हैं, मैं परमात्मा का पुत्र हूं! मेहरबाबा कहते हैं अवतार, भगवान स्वयं को। तो इन सबकी घोषणाओं का लाओत्से के उपरोक्त वचन से क्या संबंध है?
इस सूत्र को समझना हो, तो दो बातें समझनी जरूरी हैं।
पहला: जीवन को समझने के, जीवन को प्रकट करने के, जीवन को शब्द देने के दो ढांचे हैं। एक विधायक, एक नकारात्मक; एक पाजिटिव, एक निगेटिव। जब भी हम कोई चीज कहना चाहें, तो दो ढंग से कह सकते हैं। इस कमरे में अंधेरा हो, तो हम कह सकते हैं, अंधेरा है; और हम यह भी कह सकते हैं कि प्रकाश नहीं है। एक आदमी जीवित हो, तो हम यह भी कह सकते हैं, वह जीवित है; और हम यह भी कह सकते हैं कि वह अभी मरा नहीं है। विधायक, पाजिटिव अभिव्यक्ति हो सकती है और नकारात्मक, निषेधात्मक, निगेटिव। निर्भर करता है व्यक्तियों के ऊपर।
लाओत्से और बुद्ध नकारात्मक शब्दों को अत्यंत प्रेम करते हैं। किसी भी चीज को कहना हो, तो वे नकारात्मक ढंग से ही कहना उचित मानते हैं। उसके कारण भी हैं। उसके अनेक कारण हैं। सबसे बड़ा कारण तो यह है कि जैसे बुद्ध को जब अपने अनुभव को कहना पड़ा, तो बुद्ध को अनुभव हुआ कि चारों तरफ विधायक बातें कही गई हैं और उन विधायक बातों को मान कर लाखों लोग भटक गए हैं।
जैसे एक आदमी कहता है कि मैं ईश्वर हूं। इसमें दो संभावनाएं हैं। एक संभावना यह है कि वह जो कहता हो, वह सच हो। इसमें दूसरी संभावना यह है कि वह जो कहता हो, वह झूठ हो और पाखंड हो। ये दोनों बातें संभव हैं। अगर सौ आदमी घोषणा करते हों ईश्वर होने की, तो बहुत संभावना यह है कि निन्यानबे लोग झूठ ही घोषणा करते हों। आदमी का अहंकार इसमें भी मजा ले सकता है कि मैं ईश्वर हूं। अहंकार के रास्ते बड़े सूक्ष्म हैं। और अहंकार को इससे ज्यादा मजा और किस बात में आएगा कि मैं ईश्वर हूं?
तो बुद्ध को ऐसा लगा, लाओत्से को भी ऐसा लगा, कि इस संबंध की विधायक घोषणा खतरनाक है। जरूरी रूप से गलत है, ऐसा नहीं। क्योंकि मंसूर जब कहता है अनलहक, तो ठीक ही कहता है। मंसूर की तरफ से इसमें कहीं भी भूल-चूक नहीं है। जब मंसूर कहता है मैं ब्रह्म हूं, तो मंसूर असल में यही कहता है कि मैं नहीं हूं, ब्रह्म है। और जब उपनिषद के ऋषि कहते हैं अहं ब्रह्मास्मि--मैं ब्रह्म हूं--तो उनका भी यही अर्थ होता है कि मैं अब कहां, ब्रह्म ही है। मैं ब्रह्म हूं, इसका यही अर्थ होता है। लेकिन अगर सत्य हो स्थिति, तब।
लेकिन कोई पागल भी कह सकता है कि अहं ब्रह्मास्मि, मैं ब्रह्म हूं। और उसको रोका नहीं जा सकता। और डर इस बात का है कि ऐसे लोग भी लोगों को प्रभावित करेंगे। ऐसे लोग भी लोगों को आंदोलित करेंगे। और ऐसे लोग गलत रास्तों पर भटकाने का कारण भी बनेंगे।
तो बुद्ध ने कहा, घोषणा नहीं, घोषणा नहीं। लाओत्से ने भी कहा, घोषणा नहीं। संत घोषणा नहीं करेगा; चुप रहेगा।
लेकिन चुप होना भी घोषणा है। आदमी कुछ भी करे, घोषणा होगी ही। और अगर समझ लें कि यहां जितने लोग बैठे हैं, वे सब यह मानते हों कि संत का लक्षण है कि वह घोषणा न करे, तो जो घोषणा नहीं करेगा उसे वे संत मानेंगे। तो जिसे संत अपने को मनवाना हो, वह घोषणा से बच सकता है।
बुद्ध और लाओत्से ने नकारात्मक का उपयोग किया। लेकिन बहुत शीघ्र दोनों मुल्कों में पाया गया कि अहंकार के रास्ते बड़े अदभुत हैं; वह विधायक से भी शोषण कर सकता है, नकारात्मक से भी शोषण कर सकता है। अगर आप मेरे पास आकर कहते हैं कि फलां व्यक्ति कहता है कि मैं ईश्वर हूं, तो मैं कहूंगा: वह संत नहीं है, क्योंकि संत घोषणा नहीं करते। मुझे देखो, मैं घोषणा नहीं करता।
घोषणा हो गई। घोषणा नकारात्मक भी हो, तो हो जाएगी।
मेहरबाबा कहते हैं, मैं अवतार हूं। यह विधायक घोषणा है। कृष्णमूर्ति कहते हैं, मैं अवतार नहीं हूं। यह नकारात्मक घोषणा है। लेकिन दोनों घोषणाएं हैं। घोषणाओं से बचना मुश्किल है। कैसे बचिएगा? कहां भागिएगा? कुछ भी करिएगा, कुछ मत करिएगा; लेकिन आपका हर कृत्य वक्तव्य है। वक्तव्य से कैसे बचिएगा? मैं चुप रहता हूं, तो भी वक्तव्य देता हूं।
बर्नार्ड शॉ को एक मित्र अपना नाटक दिखाने ले गया था। मित्र ने एक नाटक लिखा है। और नाटक खेला जा रहा है। बर्नार्ड शॉ के बहुत पीछे पड़ा था। बामुश्किल, नहीं माना, तो बर्नार्ड शॉ गया। लेकिन पूरे समय सोया रहा। वह मित्र बहुत बेचैन हुआ। बामुश्किल तो यह आदमी आया और फिर पूरे समय घर्राटे लेता रहा। जब नाटक समाप्त हुआ, तो बर्नार्ड शॉ ने कहा कि बहुत अच्छा नाटक था। उस मित्र ने कहा, मुझे आप धोखा मत दें। क्योंकि आप पूरे समय सोए रहे, आपको वक्तव्य देने का कोई हक नहीं है। बर्नार्ड शॉ ने कहा, मेरा सोया हुआ होना ही मेरा वक्तव्य था। और जो मैं कह रहा हूं बहुत अच्छा नाटक है, वह इसलिए कह रहा हूं कि नींद बहुत अच्छी आई।
बुद्ध और लाओत्से ने चेष्टा की। चेष्टा बहुत महत्वपूर्ण है। लेकिन चेष्टा सफल नहीं हो सकती। और आदमी किसी भी तरह से धोखे का यंत्र पैदा कर ले सकता है। आत्मा जिन्होंने मानी, जिन्होंने घोषणा की परमात्मा होने की, उन्होंने तो धोखा दिया ही; बुद्ध के बाद बुद्ध के भिक्षुओं ने भी वही किया। उन्होंने कोई घोषणा नहीं की; लेकिन तब भी धोखा दिया। धोखा कहीं से भी दिया जा सकता है। धोखे से बचने का कोई उपाय नहीं है।
फिर इसका अर्थ हुआ कि यह निर्भर करेगा व्यक्ति के अपने रुझान पर कि वह कैसे प्रकट करे। लाओत्से और बुद्ध की रुझान, उनकी पसंदगी नकार की है, नेति-नेति की है। किसी बात को कहना हो, तो वे कहते हैं, वह जो नहीं है, उससे ही कहो। अगर उनका बस चले, तो वे चाहते हैं कि मौन रह कर ही कहो। लेकिन यह निर्भर करेगा। मीरा मौन नहीं रह सकती; मंसूर भी मौन नहीं रह सकता। यह मंसूर और मीरा के व्यक्तित्व में फर्क है। चैतन्य मौन नहीं रह सकते; नाचेंगे, गाएंगे और घोषणा करेंगे। यह घोषणा की नहीं जा रही है, हो रही है।
इसे थोड़ा ठीक से समझ लें। एक आदमी चुप बैठ सकता है। बुद्ध को जब ज्ञान हुआ, तो बुद्ध सात दिन तक बोले नहीं। बुद्ध को जब ज्ञान हुआ, तो वे सात दिन तक चुप रह गए। और बड़ी मीठी कथा है कि देवताओं ने बुद्ध के चरणों पर सिर रखा और प्रार्थना की कि करोड़ों-करोड़ों वर्षों में कभी कोई व्यक्ति इस परम अवस्था को उपलब्ध होता है; जन्मों-जन्मों से न मालूम कितने लोग प्रतीक्षा करते हैं कि कोई बुद्ध हो और बोले; आप बोलें, चुप न रह जाएं। आप चुप रह जाएंगे, तो जो सुनने को आतुर हैं, उनका क्या होगा? जो प्यासे हैं, चातक की तरह जिन्होंने प्रतीक्षा की है जन्मों-जन्मों तक, वे प्यासे ही रह जाएंगे।
लेकिन बुद्ध का तब भी मन न हुआ। बुद्ध ने कहा कि मेरी समझ में नहीं आता कि क्या बोलूं? क्योंकि जो भी मैं कहूंगा, वह गलत होगा। शब्द ही गलत है; मौन ही सही है। तो जो मौन से समझ सकते हों, वे समझ लें।
लेकिन अगर मौन से ही लोग समझते हों, तो आकाश मौन है। अगर मौन से ही लोग समझते हों, तो बुद्ध के लिए रुकने की क्या जरूरत? चांद-तारे मौन हैं। अगर मौन से ही लोग समझते हों, तो पहाड़, पत्थर, झीलें, फूल, सब मौन हैं। चारों तरफ मौन का विराट साम्राज्य है। मौन से कहां कौन समझता है! बुद्ध का मौन भी इस मौन को गहरा तो न कर पाएगा।
देवताओं ने कहा कि नहीं, आप बोलें, चाहे बोलने में गलती हो और चाहे लोग न समझ पाएं। अगर सौ सुनें और एक भी समझ जाए, तो भी काफी है, तो भी बहुत है।
बुद्ध ने कहा, कुछ लोग हैं, जो मेरे बोलने से गलत न समझेंगे, ठीक समझेंगे। जो मेरे बोलने को ठीक समझ सकते हैं, वे मेरे बिना बोले भी समझ लेंगे। और कुछ लोग हैं, जो मेरे बोलने से भी गलत समझेंगे। जो मेरे बोलने से भी गलत समझने वाले हैं, उनके लिए तो बोलने का कोई प्रयोजन नहीं है। तुम मुझे चुप रह जाने दो।
लेकिन देवताओं ने भी एक तर्क उपस्थित किया। और प्रीतिकर तर्क था। और उन्होंने कहा, आपकी बात ठीक है। अगर जगत में दो ही तरह के लोग होते, तो हम मान जाते। तीसरे तरह के भी लोग हैं, जो दोनों के बीच में हैं। जो आप न बोलेंगे, तो न समझ पाएंगे; आप बोलेंगे, तो समझ जाएंगे। किनारे पर खड़े हैं। आप न बोलेंगे, तो न समझ पाएंगे; आप बोलेंगे, तो समझ जाएंगे। जरा सा धक्का, और उनकी छलांग लग सकती है। उनके लिए बोलें।
स्वभावतः जो आदमी मौन का आग्रह कर रहा था, जब बोलेगा, तो उसका बोलना नकारात्मक होगा। उससे आप पूछें कि ईश्वर क्या है? तो वह बताएगा, ईश्वर यह नहीं है, ईश्वर यह नहीं है, ईश्वर यह नहीं है। मौन का जिसका आग्रह था, निषेध उसकी पसंदगी होगी।
लेकिन चैतन्य हैं, या मीरा है, इनका ज्ञान नृत्य बन गया, अभिव्यक्ति बन गया। इनका ज्ञान गीत बन गया। इनके ज्ञान और इनकी अभिव्यक्ति में क्षण भर का फासला न पड़ा। ये काफी मुखर हैं। मुंह से ही नहीं, शरीर से भी। सारा व्यक्तित्व मुखर है। इन्होंने कभी रुक कर नहीं सोचा कि कहें तो भूल हो जाएगी। इन्हें पता ही नहीं चला कि कब कहना शुरू हो गया है।
यह व्यक्तित्व पर निर्भर है। इनकी भाषा पाजिटिव होगी। मीरा जब बोलेगी, तो वह परमात्मा में यह नहीं कहेगी कि वह क्या नहीं है, वह कहेगी कि वह क्या है। सारे भक्त विधायक भाषा का उपयोग करेंगे: परमात्मा क्या है। इसलिए भक्तों का परमात्मा निर्गुण नहीं बन पाएगा, सगुण! क्योंकि विधायकता का अर्थ है--सगुण, साकार। समस्त ज्ञानी निषेध का उपयोग करेंगे। इसलिए उनका परमात्मा शून्य रह जाएगा--निराकार। उसमें कोई गुण नहीं होंगे। वे इनकार करेंगे: यह नहीं, यह नहीं। भक्त कहेंगे: यह, यह।
ये दोनों ही सही हैं और दोनों ही गलत हैं, क्योंकि दोनों अधूरे हैं। और पूरा अभिव्यक्ति में होने का कोई उपाय नहीं है। अभिव्यक्ति अधूरी होगी ही। जैसे ही शब्द का उपयोग किया, शब्द आधा कहेगा, आधा छूट जाएगा। क्योंकि विपरीत शब्दों को एक साथ कहने का कोई अर्थ नहीं है। ऐसा भी प्रयास हुआ। उपनिषदों ने कहा है, वह दूर से दूर और पास से पास। अब भाषा में यह कहना...।
पश्चिम में नया स्कूल है दार्शनिकों का: पाजिटिव एनालिस्टि्स, विधायक विश्लेषक। तर्कशास्त्रियों का वर्ग है। वे इस वक्तव्य को कहेंगे नानसेंस; यह वक्तव्य जो है, अर्थहीन है। क्योंकि जब तुम कहते हो दूर से दूर, तो रुको, फिर तत्काल मत कहो कि पास से पास। क्योंकि दोनों एक-दूसरे को काट कर व्यर्थ कर देते हैं।
अगर लाओत्से का वचन सुनें ये पश्चिम के विचारक कि निराकार ही उसका आकार है, तो वे कहेंगे एब्सर्ड। फिर भाषा का कोई मतलब ही नहीं रहा। आकार का मतलब आकार होता है, निराकार का मतलब निराकार होता है। और आप कहते हैं, निराकार ही उसका आकार है। तो फिर कहिए ही मत। जैसे हम कहें कि मरा होना ही उनका जीवन है। कोई अर्थ न हुआ। कि कुरूप होना ही उनका सौंदर्य है; कि अंधा होना ही उनकी आंखें हैं। तो फिर भाषा का उपयोग मत करिए। भाषा पर कृपा करिए। क्योंकि आंखों का मतलब आंखें रहने दीजिए और अंधेपन का मतलब अंधापन। अगर आंख का मतलब अंधापन और अंधेपन का मतलब आंख है, तो फिर बोलिए ही मत।
इस स्कूल के बहुत बड़े विचारक लुडविग विटगिंस्टीन ने कहा है, दैट व्हिच कैन नाट बी सेड, मस्ट नॉट बी सेड। अगर नहीं कह सकते हैं, तो चुप रहिए। जो नहीं कहा जा सकता, उसको कहिए ही मत। लेकिन इस तरह तो मत कहिए कि भाषा ही सब अस्तव्यस्त हो जाए।
तो तीन ही उपाय हैं अब तक। एक, विधायक भाषा का उपयोग करो। विधायक भाषा के खतरे हैं। सीमा बनेगी, परिभाषा बनेगी और विराट संकीर्ण हो जाएगा। दूसरा, निषेध भाषा का उपयोग करो। सीमा नहीं बनेगी, आकार नहीं बनेगा, विराट सीमित नहीं होगा; लेकिन विराट समझ के पार हो जाएगा, बेबूझ हो जाएगा। तीसरा उपाय है, दोनों का एक साथ प्रयोग करो। कहो कि वह है भी और नहीं भी; कहो कि वह बड़ा भी है और छोटा भी। दोनों का एक साथ प्रयोग करो। तब भाषा पहेली हो जाएगी, अभिव्यक्ति नहीं। फिर क्या करो?
चौथा विकल्प है, चुप रह जाओ। उससे भी कुछ हल नहीं होता। जरूरी बुराई है भाषा। और उसमें चुनाव करना होता है। और चुनाव पसंदगी की बात है। लाओत्से की पसंदगी निषेध की है। मंसूर की, जीसस की पसंदगी विधेय की है। कोई नहीं कह सकता कि दोनों में कौन ठीक है। जीसस के लिए जीसस का वक्तव्य ठीक है; लाओत्से के लिए लाओत्से का वक्तव्य ठीक है। यह उनके देखने के ढंग पर निर्भर करता है।
और हमारी यह तकलीफ है कि हम सदा इस कोशिश में रहते हैं कि उन सबके वक्तव्य एक से होने चाहिए, तो ही ठीक होंगे। हमारी तकलीफ है। हमारी तकलीफ यह है कि या तो लाओत्से ठीक है या जीसस ठीक हैं, या तो बुद्ध ठीक हैं या कृष्ण ठीक हैं। दोनों ठीक नहीं हो सकते।
तो मैं आपसे कहता हूं, आप दोनों की चिंता छोड़ दें। आपको जो दो में से ठीक लगता हो, उसके पीछे चुपचाप चल पड़ें, दूसरे की फिक्र छोड़ दें। जिस दिन आप मंजिल पर पहुंचेंगे, उस दिन आपको दोनों ठीक मालूम पड़ेंगे। लेकिन जब तक मंजिल पर नहीं पहुंचे हैं, तब तक जो आपके लिए रुचिकर लगता हो, आपके व्यक्तित्व के अनुकूल लगता हो, उसके साथ चल पड़ें। और कभी भूल कर यह कोशिश मत करें कि जो आपको ठीक लगता हो, वह दूसरे को भी ठीक लगे। इसकी बहुत चेष्टा में मत पड़ें। क्योंकि हो सकता है, दूसरे के व्यक्तित्व के वह अनुकूल न हो। और आप उसकी हत्या के जिम्मेवार हो जाएं।
हम सब एक-दूसरे की हत्या के लिए जिम्मेवार हैं। एक आदमी नाच रहा है, कीर्तन कर रहा है। दूसरा आदमी कहता है, क्या मूढ़ता कर रहे हो? कुछ तो बुद्धि से काम लो! वह असल में यह कह रहा है कि अगर मैं नाचूं, तो वह मूढ़ता का काम होगा। वह यह कह रहा है कि अगर मैं नाचूं, तो वह बुद्धिहीनता होगी। लेकिन वह सीमा से बाहर जा रहा है। वह दूसरे व्यक्ति से कह रहा है कि क्या मूढ़ता कर रहे हो? वह अपने को मापदंड बनाए ले रहा है। वह अपने को मापदंड बनाए ले रहा है।
दुनिया में कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे के लिए मापदंड नहीं है। और जो व्यक्ति सोचता है कि मैं दूसरे के लिए मापदंड हूं, वह बहुत गहन हिंसा का जिम्मेवार है, अपराधी है। हो सकता है, जो मुझे मूढ़ता मालूम पड़ती हो, वह दूसरे के लिए परम आनंद हो। और जो मुझे परम ज्ञान मालूम पड़ता है, दूसरे के लिए मूढ़ता दिखाई पड़ती हो। लेकिन दूसरा विचारणीय नहीं है, सदा मैं ही विचारणीय हूं अपने लिए। मेरे लिए जो आनंद है, वह सारे जगत के लिए भी मूढ़ता हो, तो भी मुझे अपने ही आनंद की तलाश करनी चाहिए।
इसलिए कृष्ण ने कहा है कि स्वयं का धर्म, स्वधर्म ही श्रेयस्कर है। और दूसरे के धर्म से भयभीत होना चाहिए। वह पराए का जो धर्म है, वह भय का कारण है।
लेकिन हमें कोई चिंता नहीं है। हम सब अपना धर्म दूसरे पर थोपने की चेष्टा में संलग्न होते हैं।
लाओत्से उनके लिए समझ में पड़ जाएगा, जो निषेध की रुचि रखते हैं, जो नकार की भाषा में आनंद लेते हैं। लाओत्से उनकी समझ में नहीं पड़ेगा, जो विधायक भाषा में आनंद लेते हैं। पड़ने की कोई जरूरत नहीं है। आप कहां से चलते हैं, यह महत्वपूर्ण नहीं है। आप अंततः वहां पहुंच जाएं, जिसकी लाओत्से और कृष्ण दोनों ही चर्चा करते हैं। जिस दिन आप पहुंच जाते हैं, उस दिन सभी रास्ते वहीं आते हुए मालूम पड़ते हैं। जब तक आप नहीं पहुंचते, तब तक आपको एक रास्ता चुन लेना जरूरी है।
एक और खतरा होता है। कुछ लोग हैं, जो बहुत बुद्धिमान हो जाते हैं। बहुत बुद्धिमान का मतलब यह कि वे कहते हैं कि दोनों ठीक हैं। वे कभी चल ही नहीं पाते। क्योंकि दो रास्तों पर दुनिया में कोई भी नहीं चल सकता। चलना तो एक ही रास्ते पर पड़ता है।
इस सदी में ऐसे बुद्धिमानों की संख्या बड़े पैमाने पर बढ़ गई है जो कहते हैं, ईसाइयत भी ठीक, हिंदू भी ठीक, मुसलमान भी ठीक, कुरान भी ठीक, बाइबिल भी ठीक, गीता भी ठीक, सब ठीक हैं। अल्ला ईश्वर तेरे नाम, सब ठीक हैं। ये वे लोग हैं, जो चल ही नहीं पाते। ये वे लोग हैं, जो चल ही नहीं पाते। क्योंकि सब रास्ते ठीक हैं, तो पैर उठते ही नहीं। और एक रास्ते पर चलो, तो लगता है कि दूसरा ठीक है, थोड़ा उस पर चलो। दूसरे पर चलो दो कदम कि तीसरा बुलाता है कि ठीक तो मैं भी हूं, थोड़ा मुझ पर चलो। चलने वाले के लिए सदा एक ही रास्ता ठीक है; सोचने वाले के लिए सब रास्ते ठीक हो सकते हैं। चलने वाले के लिए सदा एक ही रास्ता ठीक है।
हां, पहुंचने वाले को भी सब रास्ते ठीक हो जाते हैं। लेकिन जब तक आप पहुंच नहीं गए हैं, तब तक पहुंचने वाले की भाषा बोलना ही मत। वह मंहगा काम है। खड़े हैं दरवाजे पर और महल के भीतर की भाषा अगर आपकी पकड़ में आ गई, तो आप अभागे हैं, मुश्किल में पड़ेंगे। क्योंकि अभी यात्रा करनी थी वहां तक; अब वह यात्रा भी नहीं होगी। सब ठीक हैं, लेकिन उसके लिए जो पहुंच गया केंद्र पर और उसने केंद्र पर खड़े होकर देखा कि सभी रास्ते चले आ रहे हैं यहीं। लेकिन जो अभी परिधि पर खड़ा है और एक रास्ते पर भी नहीं चला है, वह कहता है सब रास्ते ठीक हैं, वह चलने के लिए अपने हाथ से अपने पैर काटे डाल रहा है। वह चल नहीं पाएगा।
इसलिए कई दफे बड़ी मजेदार घटनाएं घटती हैं। सभी धर्मों ने कहा है कि बाकी सब धर्म गलत हैं। सभी धर्मों ने कहा है। और बड़ा कीमती है उनका वक्तव्य--खतरनाक भी। सभी कीमती चीजें खतरनाक होती हैं। सिर्फ गैर-कीमती चीजें खतरनाक नहीं होतीं। जितना महत्वपूर्ण सत्य हो, उतना ही खतरनाक भी होता है। क्योंकि अगर उसमें जरा भी भूल-चूक हुई, तो खतरा हो जाएगा। सभी धर्मों ने कहा है कि यही धर्म सत्य है। यह खतरनाक वक्तव्य है, बहुत शक्तिशाली वक्तव्य है।
खतरनाक है, अगर आपने इसका मतलब लिया कि दुनिया में मेरे अलावा कोई भी सत्य नहीं। अगर इतना ही मतलब लिया, तो बहुत खतरनाक है। इसका मतलब कुछ और था। इसका मतलब यह था कि जिसे चलना है, उसके लिए एक ही सत्य हो, तो ही चल सकता है। और धर्मों ने फिक्र नहीं की परम सत्य की घोषणा की। क्योंकि जब कोई पहुंच जाएगा, तो वह खुद ही पता चल जाएगा। उसकी जल्दी नहीं है।
हम सब के पास बहुत अबॉर्टिव माइंड हैं; गर्भपात हो गया जिन मस्तिष्कों का, ऐसे मस्तिष्क हैं हमारे पास। पूरा हो नहीं पाता कुछ भी और वक्तव्य हमारे भीतर घने हो जाते हैं। चल नहीं पाते और मंजिल की भाषा पकड़ जाती है। लाओत्से ठीक है और मंसूर भी। लेकिन यह उस दिन पता चलेगा, जब आप पहुंचेंगे। अभी जल्दी न करें। अभी आपको जो ठीक लगे, उसको ठीक मान लें। और जो गलत लगे, उसे बिलकुल गलत मान लें। लेकिन ठीक मान कर अगर बैठना हो, तो इसका कोई प्रयोजन नहीं है। ठीक मानने का एक ही अर्थ होना चाहिए कि मुझे चलना है।
लोग समझते हैं कि दुनिया में हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध के बीच वैमनस्य कम हो रहा है; दुनिया अच्छी हो रही है। मामला ऐसा नहीं है। वैमनस्य इसलिए कम नहीं हो रहा है कि दुनिया अच्छी हो रही है, वैमनस्य इसलिए कम हो रहा है कि अब किसी को भी किसी धर्म पर नहीं चलना है। झगड़े की भी क्या जरूरत है? वैमनस्य इसलिए कम नहीं हो रहा है कि लोग बड़े उदार और भले हो गए हैं। वैमनस्य इसलिए कम हो रहा है कि धर्म की अब उपेक्षा की जा सकती है। वह इतना महत्वपूर्ण ही नहीं है कि उस पर झगड़ा किया जाए। उस पर झगड़ा करने का भी मन नहीं रहा।
अगर कोई आज आदमी कह देता है ईश्वर नहीं है, तो कोई झगड़ा करने का भी मन नहीं होता। ठीक है, नहीं होगा। यह कुछ उदारता बढ़ गई है, ऐसा नहीं है। उपेक्षा बढ़ गई है। उपेक्षा है, कोई मतलब नहीं है, ठीक है। अगर आज कोई कहता है कि गीता और कुरान में एक ही बात लिखी है, तो हम कहते हैं कि होगी। इसका यह मतलब नहीं है कि हमको पता है कि एक ही बात लिखी है। इसलिए कि बेमानी है, क्यों व्यर्थ समय खराब करते हो! होगी, मान लिया, ज्यादा बातचीत न चलाओ।
एक मित्र ने मुझे किताब भेजी है। उन्होंने गीता और बाइबिल दोनों में एक ही संदेश है, इसके लिए बड़ी खोजबीन की है। मैं उनकी पूरी किताब देख गया। खोजबीन बिलकुल बेकार है। कहीं भी कोई तालमेल वे बिठा नहीं पाए। एक वक्तव्य से भी दूसरे वक्तव्य का कोई मेल नहीं है। लेकिन राधाकृष्णन से लेकर विनोबा तक सबने सम्मतियां दी हैं उनको कि आप बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। उनकी सम्मतियां देख कर मुझे लगा कि उनमें से किसी ने भी वह किताब नहीं पढ़ी है। सिर्फ यह देख कर कि गीता और बाइबिल को समतल बनाने की कोशिश की है, काम अच्छा है, सब ने सम्मतियां दी हैं। क्योंकि एक भी वक्तव्य का कोई मेल नहीं है।
पर उनको प्रसन्नता हुई होगी; प्रसन्नता--ये सब के वक्तव्य कि बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। इसका यह मतलब नहीं है कि सच में कोई बहुत अच्छा काम...। इतनी उपेक्षा है कि होगा बाइबिल में कुछ, होगा गीता में कुछ; किसको प्रयोजन है? किसको लेना-देना है?
दोनों सही हैं--विधायक और निषेधात्मक वक्तव्य--लेकिन उनके लिए ही, जो पहुंच गए हों। आपके लिए, मैं कृष्ण पर भी बात करता हूं। अगर आपको विधायक ठीक लगता हो, विधायक को पकड़ कर चल पड़ें। लाओत्से की बात जान कर कर रहा हूं; क्योंकि निषेध का इतना सुंदर वक्तव्य जगत में दूसरा नहीं है। लाओत्से शिखर है निषेध के वक्तव्य में। तो जिनके मन में भी निषेध के प्रति आकर्षण हो, वे उस मार्ग पर चल पड़ें। वक्तव्य सही क्या है, इसकी चिंता न करें। क्या आपको सही लगता है जिससे आप चल सकें, वही प्राथमिक मूल्य की बात है।
चौथा प्रश्न:
भगवान, कल के अंतिम सूत्र में कहा गया है कि जो व्यक्ति प्रत्येक सक्रियता के बाद सहज ही घटित होने वाले विश्राम के राज को जान लेता है, वह अपनी समता को सतत बनाए रख सकता है। फिर आपने कहा कि सघन सक्रियता के बाद गहन विश्रांति उपलब्ध होती है। लेकिन अनुभव ऐसा है हमारा कि सघन सक्रियता के बाद उपलब्ध होने वाली समता अस्थायी होती है, जो मिल कर पुनः-पुनः बिखर जाती है। कृपया बताएं कि व्यक्ति स्थायी समता को कैसे उपलब्ध हो सकता है।
हमारे चित्त की दो अवस्थाएं हैं: अशांति और शांति। जब भी हम सक्रिय होते हैं, तो चित्त अशांत होगा। क्रिया पैदा होगी, तनाव पैदा होगा, विचार जगेंगे। काम भीतर भी शुरू होगा, जब बाहर शुरू होगा। जितना बड़ा काम बाहर होगा, उतना ही बड़ा काम, अनुपात में, भीतर भी होगा। वही अशांति है। फिर काम विसर्जित हो जाएगा। अगर काम में, लाओत्से कहता है, समग्रता से प्रवेश किया, तो जैसे ही काम समाप्त होगा, वैसे ही भीतर का काम भी समाप्त हो जाएगा। और शांति उपलब्ध होगी।
हमारी अवस्था ऐसी है कि हम न कभी ठीक से अशांत होते और न कभी ठीक से शांत। और जिसे ठीक से शांत होना है, अगर वह ठीक से अशांत ही न हुआ हो, तो बड़ा मुश्किल है। हमारी अशांति भी पूरी नहीं है। इसलिए जब अशांति का काम भी चला जाता है, तो जो बच गई अशांति है, वह भीतर सरकती रहती है, सस्पेंडेड हो जाती है।
समझ लें कि मैंने आप पर क्रोध किया। तो मैं क्रोध कभी पूरा नहीं करूंगा, दबा लूंगा कुछ। क्रोध भी करूंगा और पूरा भी नहीं करूंगा। आप भी चले गए, बात भी समाप्त हो गई। जो भीतर अटका रह गया क्रोध, अब चलेगा। अगर मैं पूरा क्रोध कर लूं, तो घटना के साथ ही भीतर भी क्रोध समाप्त हो जाएगा।
जॉर्ज गुरजिएफ अपने शिष्यों को क्रोध करना सिखाता था। इस सदी में अकेला शिक्षक था--समझदार। नासमझ शिक्षकों की तो कोई कमी नहीं है, जो समझा रहे हैं कि क्रोध न करना, यह न करना, वह न करना। वे पिटी हुई बातें दोहरा रहे हैं, जिनका उन्हें भी पता नहीं है कि वे क्या कह रहे हैं। गुरजिएफ कहता था--अगर कोई क्रोधी आता, तो वह कहता--कि अब तुम पहले ठीक से क्रोध करना सीखो। सुनने वाला भी मुश्किल में पड़ जाता। वह कहता, मैं क्रोध छोड़ने आया हूं आपके पास। क्या कहते हैं, ठीक से क्रोध! मुझसे ठीक से और कौन क्रोध करेगा? उसी में मैं जल रहा हूं।
तो गुरजिएफ कहता, अगर ठीक से क्रोध किया होता, तो उतनी जलन को तुम सह न पाते, बाहर निकल गए होते। जब घर में आग लगती है, तो आदमी कूद कर बाहर निकल जाता है। वह यह भी नहीं पूछता कि रास्ता कहां है? कौन गुरु से रास्ता पूछूं? किसको मानूं? और फिर कोई रास्ता भी बता दे, तो वह बैठ कर विचार नहीं करता कि पहले विचार तो कर लूं--कि तुम ठीक कहते हो कि गलत कहते हो? यह रास्ता ठीक है कि नहीं? इस पर पहले भी महाजन गए हैं कि नहीं गए?
जब घर में आग लगी हो और लपटें पकड़ लें, तो आदमी छलांग लगा कर बाहर हो जाता है। फिर रास्ता नहीं पूछता। जहां आंख पड़ जाती है, वहीं रास्ता बना लेता है। जैसे भी हो, बाहर निकलना महत्वपूर्ण हो जाता है, रास्ता महत्वपूर्ण नहीं रहता। यह ध्यान रखने की बात है, जब तक आपको रास्ता बहुत महत्वपूर्ण मालूम पड़ता है, उसका मतलब: घर में आग लगी है, इसका आपको अनुभव नहीं है। जब घर में आग लगती है, तो रास्ता महत्वपूर्ण नहीं होता, निकलना महत्वपूर्ण होता है। कोई भी रास्ता जो सामने पड़ जाए, आदमी उससे निकल जाता है। यह जितनी शांति से बैठ कर हम पूछते हैं: रास्ता क्या है? कहां से जाएं? कैसे जाएं? उसका मतलब यह है कि घर में लगी है आग, वह हमें दिखाई नहीं पड़ती।
गुरजिएफ कहता था कि पहले तुम ठीक से क्रोध ही कर लो। तो क्रोध सिखाता था कि कैसे क्रोध करो और क्रोध में कैसे पूरे उतर जाओ। कुछ भी मत रोको। और बड़े आश्चर्य की बात है कि जो भी व्यक्ति पूरे क्रोध में उसके पास उतरना सीख जाता, वह एक दिन आकर कहता: हैरानी की बात है, क्रोध के पीछे बड़ी शांति अनुभव होती है। एकदम सब शांत हो जाता है; जैसे तूफान आए और चला जाए और सब तरफ सन्नाटा हो जाए।
तो पहली तो नैसर्गिक बात समझ लेनी चाहिए, जो लाओत्से कह रहा है। वह यह है कि हर सक्रियता के बाद अनिवार्य विश्राम। लेकिन सक्रियता पूर्ण होनी चाहिए--एक। लेकिन इतना काफी नहीं है समता के लिए। समता इससे भी गहरी बात है और एक अनुभव पर निर्भर है। जब एक आदमी देखता है कि क्रोध के बाद शांति आ जाती है, शांति के बाद क्रोध आ जाता है; सुबह के बाद सांझ आती है, सांझ के बाद सुबह आ जाती है; अंधेरा होता है, प्रकाश होता है, फिर अंधेरा हो जाता है; जब एक आदमी यह अनुभव कर पाता है कि यह द्वंद्व का खेल मेरे चारों तरफ चलता ही रहता है, तब उसे तत्काल एक और नई बात पता चलती है कि मैं इन दोनों से अलग हूं।
अगर मैं देखूं कि मुझ पर क्रोध आया, घना क्रोध आया, और फिर क्रोध चला गया, फिर शांति आई, घनी शांति आई, फिर क्रोध आया, फिर शांति आई, तो यह ठीक वैसे ही हो गया कि मैं एक कमरे में बैठा हूं--सुबह हुई, सूरज निकला, किरणों ने मुझे घेर लिया, फिर सांझ होने लगी, ढल गया सूरज, रात हो गई, अंधेरे ने मुझे घेर लिया। क्या मैं कहूं कि मैं अंधेरा हूं या मैं कहूं कि मैं प्रकाश हूं? मैं कहूंगा, मैं दोनों को देखने वाला हूं। मैंने दोनों अनुभव किए; मैंने दोनों जाने। मैं दोनों का साक्षी हूं। सुबह भी आती है, सुबह चली जाती है। सांझ भी आती है, सांझ भी चली जाती है।
समता का अर्थ शांति नहीं है। समता का अर्थ शांति और अशांति के भीतर तीसरे को जान लेना है। जो आदमी कहता है मुझे शांति चाहिए, वह समता को उपलब्ध नहीं हो सकता। क्योंकि शांति चाहिए का मतलब है, फिर अशांति का क्या होगा? आपको शांति चाहिए, अशांति का क्या होगा? आपको दिन चाहिए, रात का क्या होगा? आपको सूर्योदय चाहिए, सूर्यास्त का क्या होगा? जिसको सूर्योदय चाहिए, उसे सूर्यास्त भी झेलना पड़ेगा। और जिसको शांति चाहिए, उसको अशांति से गुजरना ही पड़ेगा। जिसको जन्म चाहिए, उसे मृत्यु को स्वीकार करना पड़ेगा।
लेकिन हम कहते हैं कि नहीं, जन्म तो चाहिए, मृत्यु नहीं चाहिए। सुबह चाहिए, सांझ नहीं चाहिए। जवानी चाहिए, बुढ़ापा नहीं चाहिए। हम कुछ काट कर चाहते हैं। वह नहीं हो सकता। वह अस्तित्व का नियम नहीं है। तो फिर हम समता को कभी उपलब्ध नहीं होंगे।
शांति तो सभी चाहते हैं। जितने जोर से चाहते हैं, उतनी अशांति सिर पर टूट जाती है। और जो आदमी कहता है कि मुझे सुबह चाहिए, सांझ नहीं चाहिए; वह सुबह से ही चिंतित हो जाता है कि सांझ आ रही है, सांझ आ रही है; कैसे बचूं? वह सुबह को गंवा देता है सांझ से बचने में। और जब सांझ आ जाती है, तो सांझ का दुख भोगता है। और सुबह का सुख कभी नहीं भोग पाता, क्योंकि सांझ तो मौजूद हो जाती है सुबह के साथ।
जो आदमी बहुत शांति चाहने की कोशिश में लगता है, जब शांति होती है, तब वह डरा और भयभीत और चिंतित और घबड़ाया रहता है कि अब टूटी, अब टूटी। अशांति आती ही है। जब अशांति आती है, तब वह शांति चाहता रहता है। और जब शांति आती है, तब वह अशांति से भयभीत प्रतीक्षा करता रहता है: अब आई, अब आई, अब आई। समता असंभव हो जाती है।
समता कीमती शब्द है। समता का अर्थ है: अशांति है, तो वह जानता है कि अशांति है; और शांति है, तो वह जानता है कि शांति है। समता का अर्थ है: वह अशांति को भी झेलता है शांतिपूर्वक। अशांति को भी झेलता है शांतिपूर्वक, क्योंकि वह जानता है, जीवन का नियम है, सुबह होती है, सांझ होती है। शांति को भी गुजारता है शांतिपूर्वक; अशांति को भी झेलता है शांतिपूर्वक। इस स्थिति का नाम समता है। समता का अर्थ है, न अब अशांति छूती उसे, और न अब शांति छूती उसे। न तो अब वह चाहता है कि अशांति न हो और न चाहता है कि शांति हो। अब वह कुछ भी नहीं चाहता। अब वह देखता रहता है। एक साक्षी! जो होता है, देखता रहता है।
इस साक्षी-भाव में समता घटित होती है। वह समता स्थिर है; क्योंकि अशांति उसे मिटा नहीं सकती और शांति उसे ज्यादा नहीं करती। वह दोनों के बीच स्थिर है। ऐसी समता हो, तो स्थायी हो सकती है। शांति स्थायी नहीं हो सकती; अशांति भी स्थायी नहीं हो सकती। क्योंकि शांति और अशांति एक ही बड़ी घटना के दो हिस्से हैं। समता स्थिर हो सकती है। समता शाश्वत हो सकती है, सदा हो सकती है।
पांचवां प्रश्न:
भगवान, आपने कहा कि जो लोग ताओ को प्राप्त होते हैं, वे जीवन को प्रतिपल एक खतरे की तरह देखते हैं और गंभीर हो जाते हैं। ऐसे लोग अतिथि की तरह हो जाते हैं, ऐसा उनका स्वभाव हो जाता है। दूसरी तरफ जब आप कृष्ण की बात कहते हैं, तो कहते हैं कि जीवन उनके लिए खेल है, वे हंसते हुए जीवन को पार कर जाते हैं, जो वे करते हैं, वह नृत्य है, मजा है। साथ ही आप कहते हैं, संतों के आचरण की भिन्नता होगी ही। आचरण की भिन्नता की बात तो समझ में आती है, किंतु लाओत्से और कृष्ण के इस स्वभाव की भिन्नता समझ में नहीं आती। कृपया समझाएं।
स्वभाव कृष्ण का आपकी समझ में कभी नहीं आएगा। स्वभाव लाओत्से का आपकी समझ में कभी नहीं आएगा। कृष्ण का स्वभाव कृष्ण की समझ में आता है। लाओत्से का स्वभाव लाओत्से की समझ में आता है। आपको अपना स्वभाव समझ में आएगा। स्वभाव का मतलब ही यही होता है।
जो हमें दूसरे का समझ में आता है, वह आचरण है। दूसरे का आचरण ही दिखाई पड़ता है। स्वभाव कैसे दिखाई पड़ेगा? कृष्ण क्या करते हैं, वह दिखाई पड़ता है। कृष्ण क्या हैं, वह कैसे दिखाई पड़ेगा? बुद्ध क्या करते हैं, वह दिखाई पड़ता है। क्या बोलते हैं, वह सुनाई पड़ता है। क्या हैं, वह कैसे दिखाई पड़ेगा? स्वभाव का अर्थ है, जो अप्रकट भीतर छिपा है। वह आपको नहीं दिखाई पड़ेगा। आपको तो आचरण ही दिखाई पड़ेंगे।
अगर बुद्ध शांत बैठे हैं और कृष्ण बांसुरी बजा रहे हैं। तो आपको दिखाई पड़ता है कि कृष्ण बड़े मजे में हैं; क्योंकि बांसुरी बजा रहे हैं। मजा बांसुरी बजने के कारण आप अनुमान कर रहे हैं। बुद्ध मजे में नहीं होंगे, क्योंकि आंख बंद करके बैठे हैं, बांसुरी नहीं बजा रहे हैं। लेकिन स्वभाव आपको दिखाई नहीं पड़ सकता। बुद्ध और कृष्ण एक ही स्वभाव में हैं। लेकिन वह स्वभाव बुद्ध अपने ढंग से प्रकट करेंगे। प्रकटीकरण व्यक्तित्व की बात है।
ऐसा समझ लें कि यहां बिजली के दस बल्ब जल रहे हैं। एक ही बिजली दस में दौड़ती है। एक बल्ब नीला है, और एक लाल है, और एक पीला है। आपको लाल बल्ब से लाल बिजली निकलती हुई बाहर मालूम पड़ती है। नीले से नीली निकलती मालूम पड़ती है। बल्ब व्यक्तित्व है; बिजली एक है।
कृष्ण का शरीर उनका बल्ब है; बुद्ध का शरीर उनका बल्ब है; लाओत्से का शरीर उनका बल्ब है। ये व्यक्तित्व हैं। और भीतर जो स्वभाव है, वह एक है। लेकिन वह आपको दिखाई नहीं पड़ेगा। वह तो जब आप अपने बल्ब के भीतर प्रवेश करेंगे, और जानेंगे कि वह स्वभाव रंगहीन है, न लाल, न पीला, न हरा।
तो जो बुद्ध दिखाई पड़े थे, वह बुद्ध का व्यक्तित्व था; जो कृष्ण दिखाई पड़े थे, वह कृष्ण का व्यक्तित्व था। व्यक्तित्व दिखाई पड़ता है, आचरण दिखाई पड़ता है, व्यवहार दिखाई पड़ता है। वह जो भीतर घटित हो रहा है, वह दिखाई नहीं पड़ता। बल्ब बदल दें--जहां लाल बल्ब लगा है, वहां हरा लगा दें; और जहां हरा लगा है, वहां लाल लगा दें--तब आपको पता चलेगा कि अरे, जहां लाल रंग दिखता था, वहां अब हरा दिखता है। हमारे हाथ में अगर संभव हो कि बुद्ध के बल्ब को कृष्ण पर लगा दें, कृष्ण के बल्ब को बुद्ध पर लगा दें, तो आप देखेंगे: बुद्ध बांसुरी बजा रहे हैं और कृष्ण चुप होकर बैठे हैं।
लेकिन वह हमारे हाथ में नहीं है। लेकिन एक बात हमारे हाथ में है कि अपने बल्ब के भीतर हम प्रवेश करके स्वभाव को देखें। तब हम पाएंगे कि उस स्वभाव में सब शांत है, सब मौन है। सब निर्विकार हो गया, सब निराकार हो गया।
लेकिन जब उस निराकार को प्रकट करेंगे, तो इस शरीर का उपयोग करना पड़े, मन का उपयोग करना पड़े। बुद्ध पाली भाषा में बोलते हैं। बोलेंगे ही; वे पाली भाषा जानते हैं। कृष्ण संस्कृत में बोलते हैं। बोलेंगे ही; वे संस्कृत ही जानते हैं। लेकिन सत्य क्या संस्कृत है या पाली? जीसस हिब्रू में बोलते हैं। बोलेंगे ही। अगर कोई ने ऐसा समझा हो कि सत्य संस्कृत में ही बोला जाता है, तो हिब्रू में बोलने के कारण ही असत्य हो गया। लेकिन क्या जब जीसस को सत्य का अनुभव हुआ, वहां भीतर हिब्रू मौजूद है? या जब कृष्ण ने सत्य को जाना होगा, तो वहां संस्कृत रही होगी भीतर? या बुद्ध ने जब सत्य को अनुभव किया, तो वहां पाली थी?
नहीं, वहां न हिब्रू थी, न संस्कृत थी, न पाली थी। वहां तो सब शब्द खो गए, सब भाषा खो गई; वहां तो विराट मौन था, विराट शून्य था। जब सत्य को कोई जानता है, तो सब भाषा खो जाती है। लेकिन जब सत्य को कोई बोलता है, तो किसी न किसी भाषा का उपयोग करना पड़ता है। बुद्ध हिब्रू का उपयोग नहीं कर सकते। और जीसस संस्कृत का उपयोग नहीं कर सकते। और कृष्ण पाली का नहीं कर सकते। यह व्यक्तित्व का हिस्सा है। भाषा व्यक्तित्व का हिस्सा है। विधायक या नकारात्मक ढंग व्यक्तित्व का हिस्सा है। नाचना या मौन हो जाना व्यक्तित्व का हिस्सा है। लेकिन अनुभव उस स्वभाव का व्यक्तित्व के पार है।
लेकिन वह हमें दिखाई नहीं पड़ेगा। उसे हम नहीं समझ पाएंगे। उसे हम तभी देख पाएंगे, जब हम अपने स्वभाव में उतरें, उसके पहले नहीं। भिन्नता दिखाई पड़ेगी ही; भिन्नता है। क्योंकि जहां हम खड़े हैं, वहां से अभिन्नता का कोई दर्शन नहीं हो सकता। अभिन्नता का दर्शन करना हो, तो अपने उस केंद्र पर खड़े होना पड़ेगा, जहां विभिन्नता पैदा करने वाले, भिन्नता पैदा करने वाले सारे कारण तिरोहित हो जाते हैं। फिर वहां कोई भिन्नता न होगी।
ऐसा समझें कि हम यहां सौ कागज के टुकड़े डाल दें--खाली, कोरे। तो उनमें कोई भिन्नता नहीं है। फिर हम सौ लोगों के हाथों में दे दें, और उनसे कहें कि एक-एक आदमी की तस्वीर बना दें। सौ ही लोग आदमी की तस्वीरें बनाएंगे, लेकिन दो तस्वीरें एक सी नहीं होंगी। सौ तस्वीरें हो जाएंगी। आदमियों की तस्वीरें बनाईं, सौ ने ही बनाईं; सौ भिन्न हो गईं। फिर वे कागज के टुकड़े बड़े भिन्न हो गए।
जिस पर पिकासो ने तस्वीर बनाई होगी, उसकी करोड़ों कीमत हो सकती है। और जिस पर आपने तस्वीर बनाई होगी, उसको कोई रद्दी में भी लेने को तैयार नहीं होगा। अब क्या करिएगा? और ये दोनों कागज थे, अभी क्षण भर पहले दोनों की कीमत बराबर थी। ये दोनों कागज के टुकड़े थे, बराबर कीमत के थे, एक से खाली थे--अपने स्वभाव में थे। अब इन पर व्यक्तित्व आ गया। पिकासो ने जो बनाया, तो उसके व्यक्तित्व की कीमत है। आपने जो बनाया, तो आपका व्यक्तित्व उतरेगा। मैंने जो बनाया, तो मेरा व्यक्तित्व उतरेगा। उसके अनुसार कीमत होगी। कागज अलग-अलग हो गए अब।
बुद्ध और कृष्ण और लाओत्से और जीसस भीतर तो कोरे कागज हैं। लेकिन जैसे ही हम उनको देखते हैं बाहर से--तस्वीर बन गई। वह तस्वीर उनका व्यक्तित्व है। वह अस्तित्व नहीं है, व्यक्तित्व है। यह शब्द व्यक्तित्व बड़ा अच्छा है। इसका मतलब है कि जो छिपा है, वह नहीं; बल्कि माध्यम से जो प्रकट हुआ है, वह।
एक दीया जल रहा है लालटेन के भीतर। थोड़ी सी रोशनी बाहर आ रही है। कांच पर धुआं जम गया है। दूसरी लालटेन है, दीया जल रहा है, कांच साफ है; काफी रोशनी बाहर आ रही है। दोनों के भीतर एक सी रोशनी है। लेकिन दोनों के कांचों में बड़ा फर्क है। व्यक्तित्व अलग हैं। व्यक्तित्व, भीतर से जो आ रहा है, उसे गंदा भी कर देते हैं, स्वच्छ भी कर देते हैं।
अगर कबीर बोलेंगे, तो बोली जुलाहे की होने वाली है। इसलिए कबीर के सब प्रतीक जुलाहे के प्रतीक हैं। जुलाहे वे थे; कपड़ा जिंदगी भर बुनते रहे। तो वे कहते हैं: झीनी-झीनी बुन दीन्ही रे चदरिया। बुद्ध नहीं कह सकते यह वक्तव्य। कभी बाप-दादे ने चदरिया बुनी नहीं। कोई संबंध नहीं चादर बुनने का। चादर बुनने का खयाल भी नहीं आ सकता, कि झीनी-झीनी बुन दी। कबीर को आता है; कबीर जुलाहे हैं। जिंदगी चादर बुनने में बीती है।
तो कबीर जब बोलते हैं तो ऐसा लगता है कि खोपड़ी पर लट्ठ मार दिया। ग्रामीण प्रखरता है वक्तव्य में। बुद्ध लट्ठ भी मारें, तो ऐसा लगेगा, फूल मारा। एक शाही अभिजात्य है। वह व्यक्तित्व का हिस्सा है। इसलिए मोहम्मद या जीसस के वचनों में जो तीव्रता है, त्वरा है, वह न बुद्ध के वचनों में है, न कृष्ण के वचनों में है, न महावीर के वचनों में है। वह त्वरा नहीं है। मोहम्मद और जीसस के वचनों में जो धार है, वह इनमें से किसी के वचनों में नहीं है। उसका कारण है। ये बिलकुल अपढ़, ठेठ ग्रामीण लोग हैं। तो ग्रामीण के पास भाषा ज्यादा नहीं होती। थोड़े ही शब्द होते हैं उसके पास, लेकिन अनगढ़ होते हैं। बुद्ध और महावीर के पास जो भाषा है, वह ऐसी है जैसे कि तराश कर बनाया गया पत्थर हो--मूर्ति। मोहम्मद और जीसस के पास सीधा पत्थर है। उसमें कोई तराश वगैरह नहीं है।
इसलिए कोई आश्चर्य नहीं है कि मोहम्मद और जीसस आम जनता के जीवन में ज्यादा दूर तक प्रवेश कर गए और बुद्ध और महावीर बहुत पीछे पड़ गए। आम जनता उनकी बात को समझ पाती है, निकट मालूम पड़ती है। बुद्ध और महावीर बहुत दूर मालूम पड़ते हैं। बहुत शिखर के उनके वचन हैं। वे वचन ऐसे हैं कि हमारे और उनके बीच बहुत फासला है।
ये व्यक्तित्व के भेद हैं। और ध्यान रहे कि अगर महावीर और बुद्ध जीसस की भाषा या मोहम्मद की भाषा हिंदुस्तान में बोलते, तो कोई उनको सुनता भी नहीं। क्योंकि जिन दिनों में उन्होंने वह भाषा बोली, उन दिनों में यह मुल्क अभिजात्य के शिखर पर था। और अगर मोहम्मद भूल करते बुद्ध की भाषा बोलने की, तो कोई सुनने वाला नहीं मिलने वाला था उनको। क्योंकि जिनके बीच वे बोल रहे थे, वे ठीक मरुस्थली, खतरनाक, खूंखार लोग थे। उनके पास तलवार की धार वाली बात चाहिए थी। नहीं तो कोई मतलब न था।
व्यक्तित्व, समय, वे सारी की सारी चीजें हमें दिखाई पड़ती हैं। भीतर का जो अस्तित्व है, वह तो दिखाई नहीं पड़ता। उसकी चिंता न करें। इतना खयाल में भर आ जाए, तो धीरे-धीरे अपने भीतर के अस्तित्व का पता लगाने में लगें। जिस दिन आपको अपना अस्तित्व अपने व्यक्तित्व से अलग मिल जाएगा, उस दिन आपके लिए द्वार खुल जाएंगे, आप झांक पाएंगे।
बुद्ध भी वस्त्रों का एक ढेर हैं; कृष्ण भी वस्त्रों का एक ढेर हैं; लाओत्से भी वस्त्रों का एक ढेर हैं। वह जो भीतर छिपा है, वह वस्त्रों से बिलकुल अलग है। वस्त्रों से उसे मत सोचें। लेकिन हम क्या करें? हम अपने को वस्त्र ही मानते हैं। भीतर का हमें कुछ पता नहीं है। अपने वस्त्रों के पार जाकर जो छिपा है, उसे देखें; तो फिर सभी वस्त्रों के पार आपकी आंख पहुंचनी शुरू हो जाएगी।
चार-छह प्रश्न और रह गए हैं, वे अगली लाओत्से की बैठक होगी, तब हम उनकी चर्चा करेंगे। आज के लिए, इस चर्चा के लिए जो जरूरी प्रश्न थे, वे मैंने ले लिए हैं।
आज इतना ही।
अब कीर्तन में सम्मिलित हों। चाहे मूढ़ता ही किसी को मालूम पड़े, पर सम्मिलित हों। और फिर जाएं।
भगवान, जल के निर्मल होने की प्रतीक्षा मैं बारह वर्षों से कर रहा हूं। किंतु परिस्थितियों की गाड़ियां तो गुजरती रहती हैं; और यह आजीवन होता रहेगा। फिर भी क्या प्रतीक्षा करता रहूं?
प्रतीक्षा महत्वपूर्ण है, जरूरी, लेकिन काफी नहीं है। प्रतीक्षा के साथ-साथ मन के किनारे बैठना भी आना चाहिए। अगर नदी की धार में ही बैठ गए और प्रतीक्षा की, तो परिणाम न होगा। नदी की धार में बैठ रहे, तो खुद के होने से भी गंदगी उठती रहेगी। धार के बाहर, तट पर बैठने की कला ही ध्यान है।
प्रतीक्षा ध्यान का अनिवार्य अंग है। लेकिन प्रतीक्षा ही ध्यान नहीं है। जो प्रतीक्षा नहीं कर सकता, वह तो ध्यान कर ही नहीं सकेगा। लेकिन जो प्रतीक्षा को ही ध्यान समझ ले, वह भी भूल में है। ध्यान है किनारे पर बैठने की कला।
मन की धार है, विचार हैं। मन के बीच ही बैठ कर अगर आपने मन को कितनी ही प्रतीक्षा से देखा, तो भी मन के बाहर कभी न हो पाएंगे। और न ही मन की धार कभी शुद्ध हो पाएगी। आपकी मौजूदगी भी मन को अशुद्ध बना रही है। आप मन के बाहर हो जाएं, किनारे से बैठ कर देखें, मन को देखें दूर से। जैसे कोई आकाश में उड़ते हुए पक्षियों को देखे, ऐसे ही दूर से अपने विचारों को चलते हुए देखें। जैसे कोई नदी को बहता हुआ देखे, ऐसे ही किनारे बैठ कर अपने मन को भी बहता हुआ देखें। जितनी यह दूरी बढ़ेगी, उतनी ही जल्दी मन शांत और शुद्ध हो जाएगा, एक बात।
दूसरी बात, जीवन की अनंत कथा में बारह वर्ष कुछ भी नहीं हैं। जीवन के अनंत विस्तार में बारह वर्ष का क्या मूल्य है? तो ऐसा मत सोचें कि बारह वर्ष प्रतीक्षा की, तो बहुत बड़ी प्रतीक्षा हो गई। क्योंकि बारह वर्ष प्रतीक्षा की है, तो बारह लाख जन्म उस नदी को गंदा करने का पूरा प्रयास किया है। अनुपात कुछ भी नहीं है। इसलिए मैं कहता हूं: अनंत प्रतीक्षा।
लेकिन अनंत प्रतीक्षा का यह अर्थ नहीं है कि जन्मों-जन्मों प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। करने की तैयारी होनी चाहिए। घटना तो एक क्षण में भी घट सकती है। और जितनी बड़ी होगी तैयारी प्रतीक्षा की, उतनी जल्दी घटना घट जाती है। क्यों? क्योंकि अधैर्य भी मन को आंदोलित करता है। परिस्थितियों की गाड़ियां मन की गंदगी को उतना नहीं उठातीं, जितना खुद का अधैर्य मन की गंदगी को उठा देता है।
प्रतीक्षा का अर्थ है कि मैं अब धैर्य को उपलब्ध हुआ। कभी भी हो घटना, मैं प्रतीक्षा करूंगा जन्मों-जन्मों तक, मेरा कोई अधैर्य नहीं है, मेरी कोई जल्दी नहीं है। जितनी हो जल्दी, उतनी देर लगती है। और जितनी देर तक प्रतीक्षा करने के लिए राजी हो मन, उतनी जल्दी घटना घट जाती है।
तो बारह वर्ष को बहुत बड़ी बात मत समझें। और प्रतीक्षा को काफी न समझें। किनारे पर बैठने, साक्षी होने, जागरूक होने की बात पर ध्यान दें।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, लाओत्से कहते हैं कि ताओ में प्रतिष्ठित संतजनों की अस्मिता पिघलते बर्फ की तरह सतत विसर्जित होती रहती है। तो क्या अस्मिता के रहते हुए भी कोई परम सत्य में प्रतिष्ठित हो सकता है? और क्या अस्मिता के रहते भी कोई व्यक्ति संत व ज्ञानी कहा जा सकता है? अस्मिता की स्थिति मानसिक ही है या मन के पार आध्यात्मिक है? फिर आपने कहा कि अस्मिता के पूर्ण विसर्जन पर संत परमात्मा हो जाता है। तो क्या संत अस्मिता के रहने पर परमात्मा से वियुक्त रहता है?
तीन बातें हैं। दो शब्दों को ठीक से समझ लेना चाहिए। एक है अहंकार और दूसरा है अस्मिता।
अहंकार का अर्थ है: मैं शरीर से एक हूं। जब शरीर से चेतना जुड़ जाती है, जुड़ा हुआ अनुभव करती है, तादात्म्य कर लेती है, एकता बना लेती है, तो अहंकार निर्मित होता है। जब चेतना शरीर से अपने को अलग जान लेती है, भिन्न पहचान लेती है, तादात्म्य टूट जाता है, तो अहंकार टूट जाता है। लेकिन शरीर से मैं अलग हूं, यह जान लेना जरूरी नहीं है, काफी नहीं है यह जानने के लिए कि मैं परमात्मा से एक हूं। मैं शरीर से अलग हूं, इस भाव में अगर कोई ठहर जाए और परमात्मा के साथ एकता को अनुभव न कर पाए, तो इस स्थिति का नाम अस्मिता है।
मैं शरीर के साथ एक हूं, इस स्थिति का नाम अहंकार। मैं शरीर से अलग हूं, इस स्थिति का नाम अस्मिता। और मैं परमात्मा के साथ एक हूं, यह अस्मिता के भी पार।
लाओत्से कहता है कि संत के लिए एक बात तो अनिवार्य है कि उसका अहंकार टूट जाए; वह जान ले कि मैं शरीर नहीं हूं, मन नहीं हूं। इतना पहचान ले, यह तो संत का लक्षण है। लेकिन संत यहां भी रुक सकता है। बहुत संत यहीं रुक जाते हैं। जिन संतों ने यह कहा है कि परमात्मा नहीं है, बस आत्मा ही है, वे संत इसी वर्ग के हैं। उन्होंने एक कड़ी तो तोड़ दी बंधन की, उन्होंने गलत से तो नाता तोड़ लिया--और यह बड़ी घटना है। उन्होंने क्षुद्र से तो संबंध अलग कर लिया--और यह बहुत बड़ी क्रांति है। लेकिन आधी है क्रांति। अभी एक काम और करना है: विराट से संबंध जोड़ना है। जब विराट से भी संबंध जुड़ता है, तो अस्मिता भी खो जाती है।
मैंने आपसे कहा, मैं हूं; इसमें दो शब्द हैं। मैं अहंकार है और हूं अस्मिता है। संत का मैं तो गिर जाता है, सिर्फ हूं रह जाता है--एमनेस, हूं। लाओत्से कहता है, यह संत की परिभाषा है कि उसकी अस्मिता अभी है, अहंकार खो गया।
यह अस्मिता अगर सघन होती रहे, मजबूत होती रहे, तो अहंकार वापस लौट सकता है। अगर अस्मिता और जम जाए, गहरी हो जाए, तो अहंकार वापस लौट सकता है। यह अस्मिता पिघलती रहे--इसलिए यह बात भी लाओत्से ने जोड़ी कि संत की अस्मिता बर्फ की तरह पिघलती रहेगी; जैसे धूप में पड़ी बर्फ हो, पिघलती रहेगी--पिघलती रहे, तो एक दिन अस्मिता भी खो जाएगी। मैं तो खो गया; हूं भी एक दिन खो जाएगा। उस दिन शुद्ध अस्तित्व बचेगा। उस दिन, लाओत्से कहता है कि फिर संत भी कहने का कोई अर्थ न रहा। उस दिन वह व्यक्ति, वह लहर सागर के साथ एक हो गई।
संत होना भी तो दूरी है। असंत बहुत दूर होगा; संत निकट होगा। लेकिन निकटता भी एक दूरी है। निकटता भी एकता नहीं है। संत भी दूर है। पास है, बहुत पास है, असंत से बहुत ज्यादा पास है। लेकिन कितने ही पास हो, फासला अभी कायम है। लाओत्से का अंतिम जो लक्ष्य है, वह है जब इतना फासला भी न रह जाए, पास होना भी मिट जाए। दूर होना तो मिट ही गया, पास होना भी मिट जाए। दूरी तो खो गई, निकटता भी खो जाए। तभी, तभी एकता उपलब्ध होगी।
साधारणतः हमें दिखाई पड़ता है: दूरी खो गई, तो एकता हो गई। दूरी खोने से एकता नहीं होती, बल्कि सच तो यह है कि जितने निकट आते हैं, उतनी दूरी मालूम पड़ती है। असंत को कभी भी नहीं अखरती ईश्वर की दूरी। ईश्वर की दूरी असंत को अखरती ही नहीं। दूरी इतनी बड़ी है कि उसे पता भी नहीं चलता। वह पूछता है, कहां है ईश्वर? दूरी इतनी बड़ी है कि उसे ईश्वर कहीं दिखाई भी नहीं पड़ता।
संत की पीड़ा बढ़ जाती है। निकट इतने होता है कि हाथ बढ़ाए और ईश्वर है, श्वास ले और ईश्वर है, हिले और ईश्वर से धक्का लगता है। इतनी निकटता है! और तभी, जिसको संतों ने विरह कहा है...। असंत को विरह पैदा नहीं होता। वह इतने दूर है कि विरह का कोई सवाल नहीं है। संत को विरह पैदा होता है। इतने निकट है, फिर भी एक नहीं हो पाता। वह निकटता भी कष्ट देने लगती है। बहुत झीना सा पर्दा रह जाता है।
लेकिन दीवार हो बीच में, तो हमें दिखाई भी नहीं पड़ता उस पार। आकांक्षा भी नहीं होती; आशा भी नहीं उमड़ती; प्यास भी नहीं जगती। अहंकार पत्थर की दीवार है। अस्मिता बहुत ट्रांसपैरेंट, पारदर्शी कांच की दीवार है। उस पार सब दिखाई पड़ता है, जैसे बीच में कोई दीवार ही न हो। लेकिन जब भी संत बढ़ने की कोशिश करता है, तभी वह दीवार टकराती है। तब पीड़ा भारी हो जाती है और विरह सघन हो जाता है।
संतों ने ही ईश्वर का विरह जाना है। संत भी वियुक्त है, अभी संयुक्त नहीं है। एक पारदर्शी दीवार संत को भी दूर करती है। जिस दिन यह पारदर्शी दीवार भी पिघल जाती है, उस दिन न दूरी रहती है, न निकटता रहती है। उस दिन एकता सधती है। उस दिन संत खो जाता है और परमात्मा ही शेष रह जाता है।
यह जो अस्मिता है, यह आध्यात्मिक स्थिति है या मन की? यह भी पूछा है।
यह मन की अंतिम स्थिति है और अहंकार मन की प्रथम स्थिति है। अहंकार मन की स्थूलतम स्थिति है, अस्मिता मन की सूक्ष्मतम।
हम ऐसा समझें कि मन है बीच में। एक तरफ जगत है और एक तरफ परमात्मा है, और मन है बीच में। जहां मन जगत से जुड़ता है, वहां अहंकार पैदा होता है। और जहां मन परमात्मा से जुड़ता है, वहां अस्मिता खड़ी है। ये दो जोड़ हैं। जहां मन जगत से जुड़ता है, उस जोड़ का नाम है अहंकार। और जहां मनुष्य का मन परमात्मा से जुड़ता है या टूटता है--क्योंकि सब जोड़ तोड़ भी होते हैं; जहां चीजें जुड़ती हैं, वहीं टूटती भी हैं--वह है अस्मिता।
संत लाओत्से कहता है उसे, जिसका पहला जोड़ टूट गया, जगत से संबंध विच्छिन्न हुआ; लेकिन जिसका अभी दूसरा तोड़ कायम है, अभी परमात्मा से एकता नहीं सधी। तो अस्मिता कायम है। अस्मिता मन का सूक्ष्मतम रूप है और अहंकार मन का स्थूलतम। लेकिन दोनों ही मन की घटनाएं हैं।
ध्यान रहे, असंत भी मन है और संत भी। मन के बाहर जाकर तो दोनों नहीं रह जाते। श्रेष्ठतम भी मन के भीतर है और निकृष्टतम भी। क्योंकि मन के पार जाकर तो न श्रेष्ठ रहता है और न निकृष्ट। अशुभ भी मन का है, शुभ भी। बुरा भी मन का है, भला भी। मन के पार जाकर न तो बुरा रह जाता है और न भला। द्वंद्व खो जाते हैं। जब तक द्वंद्व है, तब तक जानना कि मन है। जहां द्वंद्व नहीं, वहां मन नहीं। संत भी द्वंद्व का हिस्सा है। असंत और संत दो छोर हैं द्वंद्व के।
अगर यह खयाल में आ जाए, तो अंतिम छलांग! पहली छलांग अहंकार से और अंतिम छलांग अस्मिता से। पहली छलांग ‘मैं’ से और अंतिम छलांग ‘होने’ से।
इसलिए बुद्ध अनात्मा की बात कहते हैं। बुद्ध ने अस्मिता की जगह आत्मा शब्द का उपयोग किया है। बुद्ध कहते हैं, अहंकार छूटे और फिर आत्मा भी छूटे; तभी परम सत्य में प्रवेश है।
इस सारी बात में जो कठिनाई हमारे मन में होती है, वह यह कि फिर क्या ऐसे व्यक्ति को हम संत कहेंगे जो अभी मन में ही हो? क्या हम कहेंगे कि उसने परम सत्य को पा लिया?
भाषा में सभी बातें सापेक्ष हैं, रिलेटिव हैं। जब हम कहते हैं, संत ने परम सत्य पा लिया, तो उसका इतना ही मतलब होता है कि जहां हम खड़े हैं, वहां से संत परम सत्य के बहुत निकट पहुंच गया। हमारे और सत्य के बीच पत्थर की दीवार है; उसके और सत्य के बीच कांच की दीवार है, जो दिखाई भी नहीं पड़ती। अब सत्य उसे इतना ही साफ है, जैसे कि दीवार न हो। लेकिन दीवार अभी है।
वह दीवार हमें दिखाई नहीं पड़ेगी, एक बात समझ लें। जो स्वयं संत नहीं हो गए हैं, उन्हें वह दीवार बिलकुल दिखाई नहीं पड़ेगी। वे तो कहेंगे कि संत के लिए अब कोई दीवार न रही। लेकिन जो उस दीवार के पास पहुंच गया है, स्वयं संत, उसे वह दीवार पता चलेगी। क्योंकि दीवार पारदर्शी है; दिखाई नहीं पड़ती, लेकिन स्पर्श होता है। पार होना चाहो, तो सिर टकराता है। उस पार का सब कुछ दिखाई पड़ता है; लेकिन दिखाई ही पड़ता है, अगर उसमें प्रवेश करना चाहो, तो दीवार बीच में खड़ी हो जाती है।
अस्मिता इतनी सूक्ष्म दीवार है कि सिर्फ संत को दिखाई पड़ती है। संत के भक्तों को भी दिखाई नहीं पड़ सकती। संत के भक्तों को तो लगता है कि संत परमात्मा हो गया। स्वाभाविक! संत के भक्तों ने कांच की कोई दीवार नहीं देखी, पत्थर की दीवारें देखी हैं। लेकिन संत को स्वयं प्रतिपल अनुभव होता है कि एक सूक्ष्म दीवार अभी भी उसे घेरे हुए है। अभी वह मिट नहीं गया है। अभी भी वह है।
लाओत्से संत के अनुभव से कह रहा है कि अस्मिता भी पिघल जाए, पिघल जाए, खो जाए, तभी; उसके पहले नहीं। लेकिन हमारे अनुभव से हम कह सकते हैं कि संत ईश्वर हो गया। सापेक्ष है। हम भी जब संत होंगे, तब हम पाएंगे कि नहीं, अभी एक दीवार और रह गई है। अभी होना भी बाधा है। वह भी खो जाना चाहिए; वह भी मिट जाना चाहिए। जब तक संत की जगह शून्य न आ जाए, तब तक वह दीवार भी नहीं गिरती।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, ताओ में निष्णात एवं प्रतिष्ठित व्यक्ति के लक्षण बताते समय लाओत्से कहता है कि ऐसे व्यक्ति अपने बारे में किसी प्रकार की घोषणा नहीं करते हैं। लेकिन मंसूर कहते हैं, अनलहक! उपनिषद के ऋषि कहते हैं, अहं ब्रह्मास्मि! जीसस कहते हैं, मैं परमात्मा का पुत्र हूं! मेहरबाबा कहते हैं अवतार, भगवान स्वयं को। तो इन सबकी घोषणाओं का लाओत्से के उपरोक्त वचन से क्या संबंध है?
इस सूत्र को समझना हो, तो दो बातें समझनी जरूरी हैं।
पहला: जीवन को समझने के, जीवन को प्रकट करने के, जीवन को शब्द देने के दो ढांचे हैं। एक विधायक, एक नकारात्मक; एक पाजिटिव, एक निगेटिव। जब भी हम कोई चीज कहना चाहें, तो दो ढंग से कह सकते हैं। इस कमरे में अंधेरा हो, तो हम कह सकते हैं, अंधेरा है; और हम यह भी कह सकते हैं कि प्रकाश नहीं है। एक आदमी जीवित हो, तो हम यह भी कह सकते हैं, वह जीवित है; और हम यह भी कह सकते हैं कि वह अभी मरा नहीं है। विधायक, पाजिटिव अभिव्यक्ति हो सकती है और नकारात्मक, निषेधात्मक, निगेटिव। निर्भर करता है व्यक्तियों के ऊपर।
लाओत्से और बुद्ध नकारात्मक शब्दों को अत्यंत प्रेम करते हैं। किसी भी चीज को कहना हो, तो वे नकारात्मक ढंग से ही कहना उचित मानते हैं। उसके कारण भी हैं। उसके अनेक कारण हैं। सबसे बड़ा कारण तो यह है कि जैसे बुद्ध को जब अपने अनुभव को कहना पड़ा, तो बुद्ध को अनुभव हुआ कि चारों तरफ विधायक बातें कही गई हैं और उन विधायक बातों को मान कर लाखों लोग भटक गए हैं।
जैसे एक आदमी कहता है कि मैं ईश्वर हूं। इसमें दो संभावनाएं हैं। एक संभावना यह है कि वह जो कहता हो, वह सच हो। इसमें दूसरी संभावना यह है कि वह जो कहता हो, वह झूठ हो और पाखंड हो। ये दोनों बातें संभव हैं। अगर सौ आदमी घोषणा करते हों ईश्वर होने की, तो बहुत संभावना यह है कि निन्यानबे लोग झूठ ही घोषणा करते हों। आदमी का अहंकार इसमें भी मजा ले सकता है कि मैं ईश्वर हूं। अहंकार के रास्ते बड़े सूक्ष्म हैं। और अहंकार को इससे ज्यादा मजा और किस बात में आएगा कि मैं ईश्वर हूं?
तो बुद्ध को ऐसा लगा, लाओत्से को भी ऐसा लगा, कि इस संबंध की विधायक घोषणा खतरनाक है। जरूरी रूप से गलत है, ऐसा नहीं। क्योंकि मंसूर जब कहता है अनलहक, तो ठीक ही कहता है। मंसूर की तरफ से इसमें कहीं भी भूल-चूक नहीं है। जब मंसूर कहता है मैं ब्रह्म हूं, तो मंसूर असल में यही कहता है कि मैं नहीं हूं, ब्रह्म है। और जब उपनिषद के ऋषि कहते हैं अहं ब्रह्मास्मि--मैं ब्रह्म हूं--तो उनका भी यही अर्थ होता है कि मैं अब कहां, ब्रह्म ही है। मैं ब्रह्म हूं, इसका यही अर्थ होता है। लेकिन अगर सत्य हो स्थिति, तब।
लेकिन कोई पागल भी कह सकता है कि अहं ब्रह्मास्मि, मैं ब्रह्म हूं। और उसको रोका नहीं जा सकता। और डर इस बात का है कि ऐसे लोग भी लोगों को प्रभावित करेंगे। ऐसे लोग भी लोगों को आंदोलित करेंगे। और ऐसे लोग गलत रास्तों पर भटकाने का कारण भी बनेंगे।
तो बुद्ध ने कहा, घोषणा नहीं, घोषणा नहीं। लाओत्से ने भी कहा, घोषणा नहीं। संत घोषणा नहीं करेगा; चुप रहेगा।
लेकिन चुप होना भी घोषणा है। आदमी कुछ भी करे, घोषणा होगी ही। और अगर समझ लें कि यहां जितने लोग बैठे हैं, वे सब यह मानते हों कि संत का लक्षण है कि वह घोषणा न करे, तो जो घोषणा नहीं करेगा उसे वे संत मानेंगे। तो जिसे संत अपने को मनवाना हो, वह घोषणा से बच सकता है।
बुद्ध और लाओत्से ने नकारात्मक का उपयोग किया। लेकिन बहुत शीघ्र दोनों मुल्कों में पाया गया कि अहंकार के रास्ते बड़े अदभुत हैं; वह विधायक से भी शोषण कर सकता है, नकारात्मक से भी शोषण कर सकता है। अगर आप मेरे पास आकर कहते हैं कि फलां व्यक्ति कहता है कि मैं ईश्वर हूं, तो मैं कहूंगा: वह संत नहीं है, क्योंकि संत घोषणा नहीं करते। मुझे देखो, मैं घोषणा नहीं करता।
घोषणा हो गई। घोषणा नकारात्मक भी हो, तो हो जाएगी।
मेहरबाबा कहते हैं, मैं अवतार हूं। यह विधायक घोषणा है। कृष्णमूर्ति कहते हैं, मैं अवतार नहीं हूं। यह नकारात्मक घोषणा है। लेकिन दोनों घोषणाएं हैं। घोषणाओं से बचना मुश्किल है। कैसे बचिएगा? कहां भागिएगा? कुछ भी करिएगा, कुछ मत करिएगा; लेकिन आपका हर कृत्य वक्तव्य है। वक्तव्य से कैसे बचिएगा? मैं चुप रहता हूं, तो भी वक्तव्य देता हूं।
बर्नार्ड शॉ को एक मित्र अपना नाटक दिखाने ले गया था। मित्र ने एक नाटक लिखा है। और नाटक खेला जा रहा है। बर्नार्ड शॉ के बहुत पीछे पड़ा था। बामुश्किल, नहीं माना, तो बर्नार्ड शॉ गया। लेकिन पूरे समय सोया रहा। वह मित्र बहुत बेचैन हुआ। बामुश्किल तो यह आदमी आया और फिर पूरे समय घर्राटे लेता रहा। जब नाटक समाप्त हुआ, तो बर्नार्ड शॉ ने कहा कि बहुत अच्छा नाटक था। उस मित्र ने कहा, मुझे आप धोखा मत दें। क्योंकि आप पूरे समय सोए रहे, आपको वक्तव्य देने का कोई हक नहीं है। बर्नार्ड शॉ ने कहा, मेरा सोया हुआ होना ही मेरा वक्तव्य था। और जो मैं कह रहा हूं बहुत अच्छा नाटक है, वह इसलिए कह रहा हूं कि नींद बहुत अच्छी आई।
बुद्ध और लाओत्से ने चेष्टा की। चेष्टा बहुत महत्वपूर्ण है। लेकिन चेष्टा सफल नहीं हो सकती। और आदमी किसी भी तरह से धोखे का यंत्र पैदा कर ले सकता है। आत्मा जिन्होंने मानी, जिन्होंने घोषणा की परमात्मा होने की, उन्होंने तो धोखा दिया ही; बुद्ध के बाद बुद्ध के भिक्षुओं ने भी वही किया। उन्होंने कोई घोषणा नहीं की; लेकिन तब भी धोखा दिया। धोखा कहीं से भी दिया जा सकता है। धोखे से बचने का कोई उपाय नहीं है।
फिर इसका अर्थ हुआ कि यह निर्भर करेगा व्यक्ति के अपने रुझान पर कि वह कैसे प्रकट करे। लाओत्से और बुद्ध की रुझान, उनकी पसंदगी नकार की है, नेति-नेति की है। किसी बात को कहना हो, तो वे कहते हैं, वह जो नहीं है, उससे ही कहो। अगर उनका बस चले, तो वे चाहते हैं कि मौन रह कर ही कहो। लेकिन यह निर्भर करेगा। मीरा मौन नहीं रह सकती; मंसूर भी मौन नहीं रह सकता। यह मंसूर और मीरा के व्यक्तित्व में फर्क है। चैतन्य मौन नहीं रह सकते; नाचेंगे, गाएंगे और घोषणा करेंगे। यह घोषणा की नहीं जा रही है, हो रही है।
इसे थोड़ा ठीक से समझ लें। एक आदमी चुप बैठ सकता है। बुद्ध को जब ज्ञान हुआ, तो बुद्ध सात दिन तक बोले नहीं। बुद्ध को जब ज्ञान हुआ, तो वे सात दिन तक चुप रह गए। और बड़ी मीठी कथा है कि देवताओं ने बुद्ध के चरणों पर सिर रखा और प्रार्थना की कि करोड़ों-करोड़ों वर्षों में कभी कोई व्यक्ति इस परम अवस्था को उपलब्ध होता है; जन्मों-जन्मों से न मालूम कितने लोग प्रतीक्षा करते हैं कि कोई बुद्ध हो और बोले; आप बोलें, चुप न रह जाएं। आप चुप रह जाएंगे, तो जो सुनने को आतुर हैं, उनका क्या होगा? जो प्यासे हैं, चातक की तरह जिन्होंने प्रतीक्षा की है जन्मों-जन्मों तक, वे प्यासे ही रह जाएंगे।
लेकिन बुद्ध का तब भी मन न हुआ। बुद्ध ने कहा कि मेरी समझ में नहीं आता कि क्या बोलूं? क्योंकि जो भी मैं कहूंगा, वह गलत होगा। शब्द ही गलत है; मौन ही सही है। तो जो मौन से समझ सकते हों, वे समझ लें।
लेकिन अगर मौन से ही लोग समझते हों, तो आकाश मौन है। अगर मौन से ही लोग समझते हों, तो बुद्ध के लिए रुकने की क्या जरूरत? चांद-तारे मौन हैं। अगर मौन से ही लोग समझते हों, तो पहाड़, पत्थर, झीलें, फूल, सब मौन हैं। चारों तरफ मौन का विराट साम्राज्य है। मौन से कहां कौन समझता है! बुद्ध का मौन भी इस मौन को गहरा तो न कर पाएगा।
देवताओं ने कहा कि नहीं, आप बोलें, चाहे बोलने में गलती हो और चाहे लोग न समझ पाएं। अगर सौ सुनें और एक भी समझ जाए, तो भी काफी है, तो भी बहुत है।
बुद्ध ने कहा, कुछ लोग हैं, जो मेरे बोलने से गलत न समझेंगे, ठीक समझेंगे। जो मेरे बोलने को ठीक समझ सकते हैं, वे मेरे बिना बोले भी समझ लेंगे। और कुछ लोग हैं, जो मेरे बोलने से भी गलत समझेंगे। जो मेरे बोलने से भी गलत समझने वाले हैं, उनके लिए तो बोलने का कोई प्रयोजन नहीं है। तुम मुझे चुप रह जाने दो।
लेकिन देवताओं ने भी एक तर्क उपस्थित किया। और प्रीतिकर तर्क था। और उन्होंने कहा, आपकी बात ठीक है। अगर जगत में दो ही तरह के लोग होते, तो हम मान जाते। तीसरे तरह के भी लोग हैं, जो दोनों के बीच में हैं। जो आप न बोलेंगे, तो न समझ पाएंगे; आप बोलेंगे, तो समझ जाएंगे। किनारे पर खड़े हैं। आप न बोलेंगे, तो न समझ पाएंगे; आप बोलेंगे, तो समझ जाएंगे। जरा सा धक्का, और उनकी छलांग लग सकती है। उनके लिए बोलें।
स्वभावतः जो आदमी मौन का आग्रह कर रहा था, जब बोलेगा, तो उसका बोलना नकारात्मक होगा। उससे आप पूछें कि ईश्वर क्या है? तो वह बताएगा, ईश्वर यह नहीं है, ईश्वर यह नहीं है, ईश्वर यह नहीं है। मौन का जिसका आग्रह था, निषेध उसकी पसंदगी होगी।
लेकिन चैतन्य हैं, या मीरा है, इनका ज्ञान नृत्य बन गया, अभिव्यक्ति बन गया। इनका ज्ञान गीत बन गया। इनके ज्ञान और इनकी अभिव्यक्ति में क्षण भर का फासला न पड़ा। ये काफी मुखर हैं। मुंह से ही नहीं, शरीर से भी। सारा व्यक्तित्व मुखर है। इन्होंने कभी रुक कर नहीं सोचा कि कहें तो भूल हो जाएगी। इन्हें पता ही नहीं चला कि कब कहना शुरू हो गया है।
यह व्यक्तित्व पर निर्भर है। इनकी भाषा पाजिटिव होगी। मीरा जब बोलेगी, तो वह परमात्मा में यह नहीं कहेगी कि वह क्या नहीं है, वह कहेगी कि वह क्या है। सारे भक्त विधायक भाषा का उपयोग करेंगे: परमात्मा क्या है। इसलिए भक्तों का परमात्मा निर्गुण नहीं बन पाएगा, सगुण! क्योंकि विधायकता का अर्थ है--सगुण, साकार। समस्त ज्ञानी निषेध का उपयोग करेंगे। इसलिए उनका परमात्मा शून्य रह जाएगा--निराकार। उसमें कोई गुण नहीं होंगे। वे इनकार करेंगे: यह नहीं, यह नहीं। भक्त कहेंगे: यह, यह।
ये दोनों ही सही हैं और दोनों ही गलत हैं, क्योंकि दोनों अधूरे हैं। और पूरा अभिव्यक्ति में होने का कोई उपाय नहीं है। अभिव्यक्ति अधूरी होगी ही। जैसे ही शब्द का उपयोग किया, शब्द आधा कहेगा, आधा छूट जाएगा। क्योंकि विपरीत शब्दों को एक साथ कहने का कोई अर्थ नहीं है। ऐसा भी प्रयास हुआ। उपनिषदों ने कहा है, वह दूर से दूर और पास से पास। अब भाषा में यह कहना...।
पश्चिम में नया स्कूल है दार्शनिकों का: पाजिटिव एनालिस्टि्स, विधायक विश्लेषक। तर्कशास्त्रियों का वर्ग है। वे इस वक्तव्य को कहेंगे नानसेंस; यह वक्तव्य जो है, अर्थहीन है। क्योंकि जब तुम कहते हो दूर से दूर, तो रुको, फिर तत्काल मत कहो कि पास से पास। क्योंकि दोनों एक-दूसरे को काट कर व्यर्थ कर देते हैं।
अगर लाओत्से का वचन सुनें ये पश्चिम के विचारक कि निराकार ही उसका आकार है, तो वे कहेंगे एब्सर्ड। फिर भाषा का कोई मतलब ही नहीं रहा। आकार का मतलब आकार होता है, निराकार का मतलब निराकार होता है। और आप कहते हैं, निराकार ही उसका आकार है। तो फिर कहिए ही मत। जैसे हम कहें कि मरा होना ही उनका जीवन है। कोई अर्थ न हुआ। कि कुरूप होना ही उनका सौंदर्य है; कि अंधा होना ही उनकी आंखें हैं। तो फिर भाषा का उपयोग मत करिए। भाषा पर कृपा करिए। क्योंकि आंखों का मतलब आंखें रहने दीजिए और अंधेपन का मतलब अंधापन। अगर आंख का मतलब अंधापन और अंधेपन का मतलब आंख है, तो फिर बोलिए ही मत।
इस स्कूल के बहुत बड़े विचारक लुडविग विटगिंस्टीन ने कहा है, दैट व्हिच कैन नाट बी सेड, मस्ट नॉट बी सेड। अगर नहीं कह सकते हैं, तो चुप रहिए। जो नहीं कहा जा सकता, उसको कहिए ही मत। लेकिन इस तरह तो मत कहिए कि भाषा ही सब अस्तव्यस्त हो जाए।
तो तीन ही उपाय हैं अब तक। एक, विधायक भाषा का उपयोग करो। विधायक भाषा के खतरे हैं। सीमा बनेगी, परिभाषा बनेगी और विराट संकीर्ण हो जाएगा। दूसरा, निषेध भाषा का उपयोग करो। सीमा नहीं बनेगी, आकार नहीं बनेगा, विराट सीमित नहीं होगा; लेकिन विराट समझ के पार हो जाएगा, बेबूझ हो जाएगा। तीसरा उपाय है, दोनों का एक साथ प्रयोग करो। कहो कि वह है भी और नहीं भी; कहो कि वह बड़ा भी है और छोटा भी। दोनों का एक साथ प्रयोग करो। तब भाषा पहेली हो जाएगी, अभिव्यक्ति नहीं। फिर क्या करो?
चौथा विकल्प है, चुप रह जाओ। उससे भी कुछ हल नहीं होता। जरूरी बुराई है भाषा। और उसमें चुनाव करना होता है। और चुनाव पसंदगी की बात है। लाओत्से की पसंदगी निषेध की है। मंसूर की, जीसस की पसंदगी विधेय की है। कोई नहीं कह सकता कि दोनों में कौन ठीक है। जीसस के लिए जीसस का वक्तव्य ठीक है; लाओत्से के लिए लाओत्से का वक्तव्य ठीक है। यह उनके देखने के ढंग पर निर्भर करता है।
और हमारी यह तकलीफ है कि हम सदा इस कोशिश में रहते हैं कि उन सबके वक्तव्य एक से होने चाहिए, तो ही ठीक होंगे। हमारी तकलीफ है। हमारी तकलीफ यह है कि या तो लाओत्से ठीक है या जीसस ठीक हैं, या तो बुद्ध ठीक हैं या कृष्ण ठीक हैं। दोनों ठीक नहीं हो सकते।
तो मैं आपसे कहता हूं, आप दोनों की चिंता छोड़ दें। आपको जो दो में से ठीक लगता हो, उसके पीछे चुपचाप चल पड़ें, दूसरे की फिक्र छोड़ दें। जिस दिन आप मंजिल पर पहुंचेंगे, उस दिन आपको दोनों ठीक मालूम पड़ेंगे। लेकिन जब तक मंजिल पर नहीं पहुंचे हैं, तब तक जो आपके लिए रुचिकर लगता हो, आपके व्यक्तित्व के अनुकूल लगता हो, उसके साथ चल पड़ें। और कभी भूल कर यह कोशिश मत करें कि जो आपको ठीक लगता हो, वह दूसरे को भी ठीक लगे। इसकी बहुत चेष्टा में मत पड़ें। क्योंकि हो सकता है, दूसरे के व्यक्तित्व के वह अनुकूल न हो। और आप उसकी हत्या के जिम्मेवार हो जाएं।
हम सब एक-दूसरे की हत्या के लिए जिम्मेवार हैं। एक आदमी नाच रहा है, कीर्तन कर रहा है। दूसरा आदमी कहता है, क्या मूढ़ता कर रहे हो? कुछ तो बुद्धि से काम लो! वह असल में यह कह रहा है कि अगर मैं नाचूं, तो वह मूढ़ता का काम होगा। वह यह कह रहा है कि अगर मैं नाचूं, तो वह बुद्धिहीनता होगी। लेकिन वह सीमा से बाहर जा रहा है। वह दूसरे व्यक्ति से कह रहा है कि क्या मूढ़ता कर रहे हो? वह अपने को मापदंड बनाए ले रहा है। वह अपने को मापदंड बनाए ले रहा है।
दुनिया में कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे के लिए मापदंड नहीं है। और जो व्यक्ति सोचता है कि मैं दूसरे के लिए मापदंड हूं, वह बहुत गहन हिंसा का जिम्मेवार है, अपराधी है। हो सकता है, जो मुझे मूढ़ता मालूम पड़ती हो, वह दूसरे के लिए परम आनंद हो। और जो मुझे परम ज्ञान मालूम पड़ता है, दूसरे के लिए मूढ़ता दिखाई पड़ती हो। लेकिन दूसरा विचारणीय नहीं है, सदा मैं ही विचारणीय हूं अपने लिए। मेरे लिए जो आनंद है, वह सारे जगत के लिए भी मूढ़ता हो, तो भी मुझे अपने ही आनंद की तलाश करनी चाहिए।
इसलिए कृष्ण ने कहा है कि स्वयं का धर्म, स्वधर्म ही श्रेयस्कर है। और दूसरे के धर्म से भयभीत होना चाहिए। वह पराए का जो धर्म है, वह भय का कारण है।
लेकिन हमें कोई चिंता नहीं है। हम सब अपना धर्म दूसरे पर थोपने की चेष्टा में संलग्न होते हैं।
लाओत्से उनके लिए समझ में पड़ जाएगा, जो निषेध की रुचि रखते हैं, जो नकार की भाषा में आनंद लेते हैं। लाओत्से उनकी समझ में नहीं पड़ेगा, जो विधायक भाषा में आनंद लेते हैं। पड़ने की कोई जरूरत नहीं है। आप कहां से चलते हैं, यह महत्वपूर्ण नहीं है। आप अंततः वहां पहुंच जाएं, जिसकी लाओत्से और कृष्ण दोनों ही चर्चा करते हैं। जिस दिन आप पहुंच जाते हैं, उस दिन सभी रास्ते वहीं आते हुए मालूम पड़ते हैं। जब तक आप नहीं पहुंचते, तब तक आपको एक रास्ता चुन लेना जरूरी है।
एक और खतरा होता है। कुछ लोग हैं, जो बहुत बुद्धिमान हो जाते हैं। बहुत बुद्धिमान का मतलब यह कि वे कहते हैं कि दोनों ठीक हैं। वे कभी चल ही नहीं पाते। क्योंकि दो रास्तों पर दुनिया में कोई भी नहीं चल सकता। चलना तो एक ही रास्ते पर पड़ता है।
इस सदी में ऐसे बुद्धिमानों की संख्या बड़े पैमाने पर बढ़ गई है जो कहते हैं, ईसाइयत भी ठीक, हिंदू भी ठीक, मुसलमान भी ठीक, कुरान भी ठीक, बाइबिल भी ठीक, गीता भी ठीक, सब ठीक हैं। अल्ला ईश्वर तेरे नाम, सब ठीक हैं। ये वे लोग हैं, जो चल ही नहीं पाते। ये वे लोग हैं, जो चल ही नहीं पाते। क्योंकि सब रास्ते ठीक हैं, तो पैर उठते ही नहीं। और एक रास्ते पर चलो, तो लगता है कि दूसरा ठीक है, थोड़ा उस पर चलो। दूसरे पर चलो दो कदम कि तीसरा बुलाता है कि ठीक तो मैं भी हूं, थोड़ा मुझ पर चलो। चलने वाले के लिए सदा एक ही रास्ता ठीक है; सोचने वाले के लिए सब रास्ते ठीक हो सकते हैं। चलने वाले के लिए सदा एक ही रास्ता ठीक है।
हां, पहुंचने वाले को भी सब रास्ते ठीक हो जाते हैं। लेकिन जब तक आप पहुंच नहीं गए हैं, तब तक पहुंचने वाले की भाषा बोलना ही मत। वह मंहगा काम है। खड़े हैं दरवाजे पर और महल के भीतर की भाषा अगर आपकी पकड़ में आ गई, तो आप अभागे हैं, मुश्किल में पड़ेंगे। क्योंकि अभी यात्रा करनी थी वहां तक; अब वह यात्रा भी नहीं होगी। सब ठीक हैं, लेकिन उसके लिए जो पहुंच गया केंद्र पर और उसने केंद्र पर खड़े होकर देखा कि सभी रास्ते चले आ रहे हैं यहीं। लेकिन जो अभी परिधि पर खड़ा है और एक रास्ते पर भी नहीं चला है, वह कहता है सब रास्ते ठीक हैं, वह चलने के लिए अपने हाथ से अपने पैर काटे डाल रहा है। वह चल नहीं पाएगा।
इसलिए कई दफे बड़ी मजेदार घटनाएं घटती हैं। सभी धर्मों ने कहा है कि बाकी सब धर्म गलत हैं। सभी धर्मों ने कहा है। और बड़ा कीमती है उनका वक्तव्य--खतरनाक भी। सभी कीमती चीजें खतरनाक होती हैं। सिर्फ गैर-कीमती चीजें खतरनाक नहीं होतीं। जितना महत्वपूर्ण सत्य हो, उतना ही खतरनाक भी होता है। क्योंकि अगर उसमें जरा भी भूल-चूक हुई, तो खतरा हो जाएगा। सभी धर्मों ने कहा है कि यही धर्म सत्य है। यह खतरनाक वक्तव्य है, बहुत शक्तिशाली वक्तव्य है।
खतरनाक है, अगर आपने इसका मतलब लिया कि दुनिया में मेरे अलावा कोई भी सत्य नहीं। अगर इतना ही मतलब लिया, तो बहुत खतरनाक है। इसका मतलब कुछ और था। इसका मतलब यह था कि जिसे चलना है, उसके लिए एक ही सत्य हो, तो ही चल सकता है। और धर्मों ने फिक्र नहीं की परम सत्य की घोषणा की। क्योंकि जब कोई पहुंच जाएगा, तो वह खुद ही पता चल जाएगा। उसकी जल्दी नहीं है।
हम सब के पास बहुत अबॉर्टिव माइंड हैं; गर्भपात हो गया जिन मस्तिष्कों का, ऐसे मस्तिष्क हैं हमारे पास। पूरा हो नहीं पाता कुछ भी और वक्तव्य हमारे भीतर घने हो जाते हैं। चल नहीं पाते और मंजिल की भाषा पकड़ जाती है। लाओत्से ठीक है और मंसूर भी। लेकिन यह उस दिन पता चलेगा, जब आप पहुंचेंगे। अभी जल्दी न करें। अभी आपको जो ठीक लगे, उसको ठीक मान लें। और जो गलत लगे, उसे बिलकुल गलत मान लें। लेकिन ठीक मान कर अगर बैठना हो, तो इसका कोई प्रयोजन नहीं है। ठीक मानने का एक ही अर्थ होना चाहिए कि मुझे चलना है।
लोग समझते हैं कि दुनिया में हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध के बीच वैमनस्य कम हो रहा है; दुनिया अच्छी हो रही है। मामला ऐसा नहीं है। वैमनस्य इसलिए कम नहीं हो रहा है कि दुनिया अच्छी हो रही है, वैमनस्य इसलिए कम हो रहा है कि अब किसी को भी किसी धर्म पर नहीं चलना है। झगड़े की भी क्या जरूरत है? वैमनस्य इसलिए कम नहीं हो रहा है कि लोग बड़े उदार और भले हो गए हैं। वैमनस्य इसलिए कम हो रहा है कि धर्म की अब उपेक्षा की जा सकती है। वह इतना महत्वपूर्ण ही नहीं है कि उस पर झगड़ा किया जाए। उस पर झगड़ा करने का भी मन नहीं रहा।
अगर कोई आज आदमी कह देता है ईश्वर नहीं है, तो कोई झगड़ा करने का भी मन नहीं होता। ठीक है, नहीं होगा। यह कुछ उदारता बढ़ गई है, ऐसा नहीं है। उपेक्षा बढ़ गई है। उपेक्षा है, कोई मतलब नहीं है, ठीक है। अगर आज कोई कहता है कि गीता और कुरान में एक ही बात लिखी है, तो हम कहते हैं कि होगी। इसका यह मतलब नहीं है कि हमको पता है कि एक ही बात लिखी है। इसलिए कि बेमानी है, क्यों व्यर्थ समय खराब करते हो! होगी, मान लिया, ज्यादा बातचीत न चलाओ।
एक मित्र ने मुझे किताब भेजी है। उन्होंने गीता और बाइबिल दोनों में एक ही संदेश है, इसके लिए बड़ी खोजबीन की है। मैं उनकी पूरी किताब देख गया। खोजबीन बिलकुल बेकार है। कहीं भी कोई तालमेल वे बिठा नहीं पाए। एक वक्तव्य से भी दूसरे वक्तव्य का कोई मेल नहीं है। लेकिन राधाकृष्णन से लेकर विनोबा तक सबने सम्मतियां दी हैं उनको कि आप बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। उनकी सम्मतियां देख कर मुझे लगा कि उनमें से किसी ने भी वह किताब नहीं पढ़ी है। सिर्फ यह देख कर कि गीता और बाइबिल को समतल बनाने की कोशिश की है, काम अच्छा है, सब ने सम्मतियां दी हैं। क्योंकि एक भी वक्तव्य का कोई मेल नहीं है।
पर उनको प्रसन्नता हुई होगी; प्रसन्नता--ये सब के वक्तव्य कि बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। इसका यह मतलब नहीं है कि सच में कोई बहुत अच्छा काम...। इतनी उपेक्षा है कि होगा बाइबिल में कुछ, होगा गीता में कुछ; किसको प्रयोजन है? किसको लेना-देना है?
दोनों सही हैं--विधायक और निषेधात्मक वक्तव्य--लेकिन उनके लिए ही, जो पहुंच गए हों। आपके लिए, मैं कृष्ण पर भी बात करता हूं। अगर आपको विधायक ठीक लगता हो, विधायक को पकड़ कर चल पड़ें। लाओत्से की बात जान कर कर रहा हूं; क्योंकि निषेध का इतना सुंदर वक्तव्य जगत में दूसरा नहीं है। लाओत्से शिखर है निषेध के वक्तव्य में। तो जिनके मन में भी निषेध के प्रति आकर्षण हो, वे उस मार्ग पर चल पड़ें। वक्तव्य सही क्या है, इसकी चिंता न करें। क्या आपको सही लगता है जिससे आप चल सकें, वही प्राथमिक मूल्य की बात है।
चौथा प्रश्न:
भगवान, कल के अंतिम सूत्र में कहा गया है कि जो व्यक्ति प्रत्येक सक्रियता के बाद सहज ही घटित होने वाले विश्राम के राज को जान लेता है, वह अपनी समता को सतत बनाए रख सकता है। फिर आपने कहा कि सघन सक्रियता के बाद गहन विश्रांति उपलब्ध होती है। लेकिन अनुभव ऐसा है हमारा कि सघन सक्रियता के बाद उपलब्ध होने वाली समता अस्थायी होती है, जो मिल कर पुनः-पुनः बिखर जाती है। कृपया बताएं कि व्यक्ति स्थायी समता को कैसे उपलब्ध हो सकता है।
हमारे चित्त की दो अवस्थाएं हैं: अशांति और शांति। जब भी हम सक्रिय होते हैं, तो चित्त अशांत होगा। क्रिया पैदा होगी, तनाव पैदा होगा, विचार जगेंगे। काम भीतर भी शुरू होगा, जब बाहर शुरू होगा। जितना बड़ा काम बाहर होगा, उतना ही बड़ा काम, अनुपात में, भीतर भी होगा। वही अशांति है। फिर काम विसर्जित हो जाएगा। अगर काम में, लाओत्से कहता है, समग्रता से प्रवेश किया, तो जैसे ही काम समाप्त होगा, वैसे ही भीतर का काम भी समाप्त हो जाएगा। और शांति उपलब्ध होगी।
हमारी अवस्था ऐसी है कि हम न कभी ठीक से अशांत होते और न कभी ठीक से शांत। और जिसे ठीक से शांत होना है, अगर वह ठीक से अशांत ही न हुआ हो, तो बड़ा मुश्किल है। हमारी अशांति भी पूरी नहीं है। इसलिए जब अशांति का काम भी चला जाता है, तो जो बच गई अशांति है, वह भीतर सरकती रहती है, सस्पेंडेड हो जाती है।
समझ लें कि मैंने आप पर क्रोध किया। तो मैं क्रोध कभी पूरा नहीं करूंगा, दबा लूंगा कुछ। क्रोध भी करूंगा और पूरा भी नहीं करूंगा। आप भी चले गए, बात भी समाप्त हो गई। जो भीतर अटका रह गया क्रोध, अब चलेगा। अगर मैं पूरा क्रोध कर लूं, तो घटना के साथ ही भीतर भी क्रोध समाप्त हो जाएगा।
जॉर्ज गुरजिएफ अपने शिष्यों को क्रोध करना सिखाता था। इस सदी में अकेला शिक्षक था--समझदार। नासमझ शिक्षकों की तो कोई कमी नहीं है, जो समझा रहे हैं कि क्रोध न करना, यह न करना, वह न करना। वे पिटी हुई बातें दोहरा रहे हैं, जिनका उन्हें भी पता नहीं है कि वे क्या कह रहे हैं। गुरजिएफ कहता था--अगर कोई क्रोधी आता, तो वह कहता--कि अब तुम पहले ठीक से क्रोध करना सीखो। सुनने वाला भी मुश्किल में पड़ जाता। वह कहता, मैं क्रोध छोड़ने आया हूं आपके पास। क्या कहते हैं, ठीक से क्रोध! मुझसे ठीक से और कौन क्रोध करेगा? उसी में मैं जल रहा हूं।
तो गुरजिएफ कहता, अगर ठीक से क्रोध किया होता, तो उतनी जलन को तुम सह न पाते, बाहर निकल गए होते। जब घर में आग लगती है, तो आदमी कूद कर बाहर निकल जाता है। वह यह भी नहीं पूछता कि रास्ता कहां है? कौन गुरु से रास्ता पूछूं? किसको मानूं? और फिर कोई रास्ता भी बता दे, तो वह बैठ कर विचार नहीं करता कि पहले विचार तो कर लूं--कि तुम ठीक कहते हो कि गलत कहते हो? यह रास्ता ठीक है कि नहीं? इस पर पहले भी महाजन गए हैं कि नहीं गए?
जब घर में आग लगी हो और लपटें पकड़ लें, तो आदमी छलांग लगा कर बाहर हो जाता है। फिर रास्ता नहीं पूछता। जहां आंख पड़ जाती है, वहीं रास्ता बना लेता है। जैसे भी हो, बाहर निकलना महत्वपूर्ण हो जाता है, रास्ता महत्वपूर्ण नहीं रहता। यह ध्यान रखने की बात है, जब तक आपको रास्ता बहुत महत्वपूर्ण मालूम पड़ता है, उसका मतलब: घर में आग लगी है, इसका आपको अनुभव नहीं है। जब घर में आग लगती है, तो रास्ता महत्वपूर्ण नहीं होता, निकलना महत्वपूर्ण होता है। कोई भी रास्ता जो सामने पड़ जाए, आदमी उससे निकल जाता है। यह जितनी शांति से बैठ कर हम पूछते हैं: रास्ता क्या है? कहां से जाएं? कैसे जाएं? उसका मतलब यह है कि घर में लगी है आग, वह हमें दिखाई नहीं पड़ती।
गुरजिएफ कहता था कि पहले तुम ठीक से क्रोध ही कर लो। तो क्रोध सिखाता था कि कैसे क्रोध करो और क्रोध में कैसे पूरे उतर जाओ। कुछ भी मत रोको। और बड़े आश्चर्य की बात है कि जो भी व्यक्ति पूरे क्रोध में उसके पास उतरना सीख जाता, वह एक दिन आकर कहता: हैरानी की बात है, क्रोध के पीछे बड़ी शांति अनुभव होती है। एकदम सब शांत हो जाता है; जैसे तूफान आए और चला जाए और सब तरफ सन्नाटा हो जाए।
तो पहली तो नैसर्गिक बात समझ लेनी चाहिए, जो लाओत्से कह रहा है। वह यह है कि हर सक्रियता के बाद अनिवार्य विश्राम। लेकिन सक्रियता पूर्ण होनी चाहिए--एक। लेकिन इतना काफी नहीं है समता के लिए। समता इससे भी गहरी बात है और एक अनुभव पर निर्भर है। जब एक आदमी देखता है कि क्रोध के बाद शांति आ जाती है, शांति के बाद क्रोध आ जाता है; सुबह के बाद सांझ आती है, सांझ के बाद सुबह आ जाती है; अंधेरा होता है, प्रकाश होता है, फिर अंधेरा हो जाता है; जब एक आदमी यह अनुभव कर पाता है कि यह द्वंद्व का खेल मेरे चारों तरफ चलता ही रहता है, तब उसे तत्काल एक और नई बात पता चलती है कि मैं इन दोनों से अलग हूं।
अगर मैं देखूं कि मुझ पर क्रोध आया, घना क्रोध आया, और फिर क्रोध चला गया, फिर शांति आई, घनी शांति आई, फिर क्रोध आया, फिर शांति आई, तो यह ठीक वैसे ही हो गया कि मैं एक कमरे में बैठा हूं--सुबह हुई, सूरज निकला, किरणों ने मुझे घेर लिया, फिर सांझ होने लगी, ढल गया सूरज, रात हो गई, अंधेरे ने मुझे घेर लिया। क्या मैं कहूं कि मैं अंधेरा हूं या मैं कहूं कि मैं प्रकाश हूं? मैं कहूंगा, मैं दोनों को देखने वाला हूं। मैंने दोनों अनुभव किए; मैंने दोनों जाने। मैं दोनों का साक्षी हूं। सुबह भी आती है, सुबह चली जाती है। सांझ भी आती है, सांझ भी चली जाती है।
समता का अर्थ शांति नहीं है। समता का अर्थ शांति और अशांति के भीतर तीसरे को जान लेना है। जो आदमी कहता है मुझे शांति चाहिए, वह समता को उपलब्ध नहीं हो सकता। क्योंकि शांति चाहिए का मतलब है, फिर अशांति का क्या होगा? आपको शांति चाहिए, अशांति का क्या होगा? आपको दिन चाहिए, रात का क्या होगा? आपको सूर्योदय चाहिए, सूर्यास्त का क्या होगा? जिसको सूर्योदय चाहिए, उसे सूर्यास्त भी झेलना पड़ेगा। और जिसको शांति चाहिए, उसको अशांति से गुजरना ही पड़ेगा। जिसको जन्म चाहिए, उसे मृत्यु को स्वीकार करना पड़ेगा।
लेकिन हम कहते हैं कि नहीं, जन्म तो चाहिए, मृत्यु नहीं चाहिए। सुबह चाहिए, सांझ नहीं चाहिए। जवानी चाहिए, बुढ़ापा नहीं चाहिए। हम कुछ काट कर चाहते हैं। वह नहीं हो सकता। वह अस्तित्व का नियम नहीं है। तो फिर हम समता को कभी उपलब्ध नहीं होंगे।
शांति तो सभी चाहते हैं। जितने जोर से चाहते हैं, उतनी अशांति सिर पर टूट जाती है। और जो आदमी कहता है कि मुझे सुबह चाहिए, सांझ नहीं चाहिए; वह सुबह से ही चिंतित हो जाता है कि सांझ आ रही है, सांझ आ रही है; कैसे बचूं? वह सुबह को गंवा देता है सांझ से बचने में। और जब सांझ आ जाती है, तो सांझ का दुख भोगता है। और सुबह का सुख कभी नहीं भोग पाता, क्योंकि सांझ तो मौजूद हो जाती है सुबह के साथ।
जो आदमी बहुत शांति चाहने की कोशिश में लगता है, जब शांति होती है, तब वह डरा और भयभीत और चिंतित और घबड़ाया रहता है कि अब टूटी, अब टूटी। अशांति आती ही है। जब अशांति आती है, तब वह शांति चाहता रहता है। और जब शांति आती है, तब वह अशांति से भयभीत प्रतीक्षा करता रहता है: अब आई, अब आई, अब आई। समता असंभव हो जाती है।
समता कीमती शब्द है। समता का अर्थ है: अशांति है, तो वह जानता है कि अशांति है; और शांति है, तो वह जानता है कि शांति है। समता का अर्थ है: वह अशांति को भी झेलता है शांतिपूर्वक। अशांति को भी झेलता है शांतिपूर्वक, क्योंकि वह जानता है, जीवन का नियम है, सुबह होती है, सांझ होती है। शांति को भी गुजारता है शांतिपूर्वक; अशांति को भी झेलता है शांतिपूर्वक। इस स्थिति का नाम समता है। समता का अर्थ है, न अब अशांति छूती उसे, और न अब शांति छूती उसे। न तो अब वह चाहता है कि अशांति न हो और न चाहता है कि शांति हो। अब वह कुछ भी नहीं चाहता। अब वह देखता रहता है। एक साक्षी! जो होता है, देखता रहता है।
इस साक्षी-भाव में समता घटित होती है। वह समता स्थिर है; क्योंकि अशांति उसे मिटा नहीं सकती और शांति उसे ज्यादा नहीं करती। वह दोनों के बीच स्थिर है। ऐसी समता हो, तो स्थायी हो सकती है। शांति स्थायी नहीं हो सकती; अशांति भी स्थायी नहीं हो सकती। क्योंकि शांति और अशांति एक ही बड़ी घटना के दो हिस्से हैं। समता स्थिर हो सकती है। समता शाश्वत हो सकती है, सदा हो सकती है।
पांचवां प्रश्न:
भगवान, आपने कहा कि जो लोग ताओ को प्राप्त होते हैं, वे जीवन को प्रतिपल एक खतरे की तरह देखते हैं और गंभीर हो जाते हैं। ऐसे लोग अतिथि की तरह हो जाते हैं, ऐसा उनका स्वभाव हो जाता है। दूसरी तरफ जब आप कृष्ण की बात कहते हैं, तो कहते हैं कि जीवन उनके लिए खेल है, वे हंसते हुए जीवन को पार कर जाते हैं, जो वे करते हैं, वह नृत्य है, मजा है। साथ ही आप कहते हैं, संतों के आचरण की भिन्नता होगी ही। आचरण की भिन्नता की बात तो समझ में आती है, किंतु लाओत्से और कृष्ण के इस स्वभाव की भिन्नता समझ में नहीं आती। कृपया समझाएं।
स्वभाव कृष्ण का आपकी समझ में कभी नहीं आएगा। स्वभाव लाओत्से का आपकी समझ में कभी नहीं आएगा। कृष्ण का स्वभाव कृष्ण की समझ में आता है। लाओत्से का स्वभाव लाओत्से की समझ में आता है। आपको अपना स्वभाव समझ में आएगा। स्वभाव का मतलब ही यही होता है।
जो हमें दूसरे का समझ में आता है, वह आचरण है। दूसरे का आचरण ही दिखाई पड़ता है। स्वभाव कैसे दिखाई पड़ेगा? कृष्ण क्या करते हैं, वह दिखाई पड़ता है। कृष्ण क्या हैं, वह कैसे दिखाई पड़ेगा? बुद्ध क्या करते हैं, वह दिखाई पड़ता है। क्या बोलते हैं, वह सुनाई पड़ता है। क्या हैं, वह कैसे दिखाई पड़ेगा? स्वभाव का अर्थ है, जो अप्रकट भीतर छिपा है। वह आपको नहीं दिखाई पड़ेगा। आपको तो आचरण ही दिखाई पड़ेंगे।
अगर बुद्ध शांत बैठे हैं और कृष्ण बांसुरी बजा रहे हैं। तो आपको दिखाई पड़ता है कि कृष्ण बड़े मजे में हैं; क्योंकि बांसुरी बजा रहे हैं। मजा बांसुरी बजने के कारण आप अनुमान कर रहे हैं। बुद्ध मजे में नहीं होंगे, क्योंकि आंख बंद करके बैठे हैं, बांसुरी नहीं बजा रहे हैं। लेकिन स्वभाव आपको दिखाई नहीं पड़ सकता। बुद्ध और कृष्ण एक ही स्वभाव में हैं। लेकिन वह स्वभाव बुद्ध अपने ढंग से प्रकट करेंगे। प्रकटीकरण व्यक्तित्व की बात है।
ऐसा समझ लें कि यहां बिजली के दस बल्ब जल रहे हैं। एक ही बिजली दस में दौड़ती है। एक बल्ब नीला है, और एक लाल है, और एक पीला है। आपको लाल बल्ब से लाल बिजली निकलती हुई बाहर मालूम पड़ती है। नीले से नीली निकलती मालूम पड़ती है। बल्ब व्यक्तित्व है; बिजली एक है।
कृष्ण का शरीर उनका बल्ब है; बुद्ध का शरीर उनका बल्ब है; लाओत्से का शरीर उनका बल्ब है। ये व्यक्तित्व हैं। और भीतर जो स्वभाव है, वह एक है। लेकिन वह आपको दिखाई नहीं पड़ेगा। वह तो जब आप अपने बल्ब के भीतर प्रवेश करेंगे, और जानेंगे कि वह स्वभाव रंगहीन है, न लाल, न पीला, न हरा।
तो जो बुद्ध दिखाई पड़े थे, वह बुद्ध का व्यक्तित्व था; जो कृष्ण दिखाई पड़े थे, वह कृष्ण का व्यक्तित्व था। व्यक्तित्व दिखाई पड़ता है, आचरण दिखाई पड़ता है, व्यवहार दिखाई पड़ता है। वह जो भीतर घटित हो रहा है, वह दिखाई नहीं पड़ता। बल्ब बदल दें--जहां लाल बल्ब लगा है, वहां हरा लगा दें; और जहां हरा लगा है, वहां लाल लगा दें--तब आपको पता चलेगा कि अरे, जहां लाल रंग दिखता था, वहां अब हरा दिखता है। हमारे हाथ में अगर संभव हो कि बुद्ध के बल्ब को कृष्ण पर लगा दें, कृष्ण के बल्ब को बुद्ध पर लगा दें, तो आप देखेंगे: बुद्ध बांसुरी बजा रहे हैं और कृष्ण चुप होकर बैठे हैं।
लेकिन वह हमारे हाथ में नहीं है। लेकिन एक बात हमारे हाथ में है कि अपने बल्ब के भीतर हम प्रवेश करके स्वभाव को देखें। तब हम पाएंगे कि उस स्वभाव में सब शांत है, सब मौन है। सब निर्विकार हो गया, सब निराकार हो गया।
लेकिन जब उस निराकार को प्रकट करेंगे, तो इस शरीर का उपयोग करना पड़े, मन का उपयोग करना पड़े। बुद्ध पाली भाषा में बोलते हैं। बोलेंगे ही; वे पाली भाषा जानते हैं। कृष्ण संस्कृत में बोलते हैं। बोलेंगे ही; वे संस्कृत ही जानते हैं। लेकिन सत्य क्या संस्कृत है या पाली? जीसस हिब्रू में बोलते हैं। बोलेंगे ही। अगर कोई ने ऐसा समझा हो कि सत्य संस्कृत में ही बोला जाता है, तो हिब्रू में बोलने के कारण ही असत्य हो गया। लेकिन क्या जब जीसस को सत्य का अनुभव हुआ, वहां भीतर हिब्रू मौजूद है? या जब कृष्ण ने सत्य को जाना होगा, तो वहां संस्कृत रही होगी भीतर? या बुद्ध ने जब सत्य को अनुभव किया, तो वहां पाली थी?
नहीं, वहां न हिब्रू थी, न संस्कृत थी, न पाली थी। वहां तो सब शब्द खो गए, सब भाषा खो गई; वहां तो विराट मौन था, विराट शून्य था। जब सत्य को कोई जानता है, तो सब भाषा खो जाती है। लेकिन जब सत्य को कोई बोलता है, तो किसी न किसी भाषा का उपयोग करना पड़ता है। बुद्ध हिब्रू का उपयोग नहीं कर सकते। और जीसस संस्कृत का उपयोग नहीं कर सकते। और कृष्ण पाली का नहीं कर सकते। यह व्यक्तित्व का हिस्सा है। भाषा व्यक्तित्व का हिस्सा है। विधायक या नकारात्मक ढंग व्यक्तित्व का हिस्सा है। नाचना या मौन हो जाना व्यक्तित्व का हिस्सा है। लेकिन अनुभव उस स्वभाव का व्यक्तित्व के पार है।
लेकिन वह हमें दिखाई नहीं पड़ेगा। उसे हम नहीं समझ पाएंगे। उसे हम तभी देख पाएंगे, जब हम अपने स्वभाव में उतरें, उसके पहले नहीं। भिन्नता दिखाई पड़ेगी ही; भिन्नता है। क्योंकि जहां हम खड़े हैं, वहां से अभिन्नता का कोई दर्शन नहीं हो सकता। अभिन्नता का दर्शन करना हो, तो अपने उस केंद्र पर खड़े होना पड़ेगा, जहां विभिन्नता पैदा करने वाले, भिन्नता पैदा करने वाले सारे कारण तिरोहित हो जाते हैं। फिर वहां कोई भिन्नता न होगी।
ऐसा समझें कि हम यहां सौ कागज के टुकड़े डाल दें--खाली, कोरे। तो उनमें कोई भिन्नता नहीं है। फिर हम सौ लोगों के हाथों में दे दें, और उनसे कहें कि एक-एक आदमी की तस्वीर बना दें। सौ ही लोग आदमी की तस्वीरें बनाएंगे, लेकिन दो तस्वीरें एक सी नहीं होंगी। सौ तस्वीरें हो जाएंगी। आदमियों की तस्वीरें बनाईं, सौ ने ही बनाईं; सौ भिन्न हो गईं। फिर वे कागज के टुकड़े बड़े भिन्न हो गए।
जिस पर पिकासो ने तस्वीर बनाई होगी, उसकी करोड़ों कीमत हो सकती है। और जिस पर आपने तस्वीर बनाई होगी, उसको कोई रद्दी में भी लेने को तैयार नहीं होगा। अब क्या करिएगा? और ये दोनों कागज थे, अभी क्षण भर पहले दोनों की कीमत बराबर थी। ये दोनों कागज के टुकड़े थे, बराबर कीमत के थे, एक से खाली थे--अपने स्वभाव में थे। अब इन पर व्यक्तित्व आ गया। पिकासो ने जो बनाया, तो उसके व्यक्तित्व की कीमत है। आपने जो बनाया, तो आपका व्यक्तित्व उतरेगा। मैंने जो बनाया, तो मेरा व्यक्तित्व उतरेगा। उसके अनुसार कीमत होगी। कागज अलग-अलग हो गए अब।
बुद्ध और कृष्ण और लाओत्से और जीसस भीतर तो कोरे कागज हैं। लेकिन जैसे ही हम उनको देखते हैं बाहर से--तस्वीर बन गई। वह तस्वीर उनका व्यक्तित्व है। वह अस्तित्व नहीं है, व्यक्तित्व है। यह शब्द व्यक्तित्व बड़ा अच्छा है। इसका मतलब है कि जो छिपा है, वह नहीं; बल्कि माध्यम से जो प्रकट हुआ है, वह।
एक दीया जल रहा है लालटेन के भीतर। थोड़ी सी रोशनी बाहर आ रही है। कांच पर धुआं जम गया है। दूसरी लालटेन है, दीया जल रहा है, कांच साफ है; काफी रोशनी बाहर आ रही है। दोनों के भीतर एक सी रोशनी है। लेकिन दोनों के कांचों में बड़ा फर्क है। व्यक्तित्व अलग हैं। व्यक्तित्व, भीतर से जो आ रहा है, उसे गंदा भी कर देते हैं, स्वच्छ भी कर देते हैं।
अगर कबीर बोलेंगे, तो बोली जुलाहे की होने वाली है। इसलिए कबीर के सब प्रतीक जुलाहे के प्रतीक हैं। जुलाहे वे थे; कपड़ा जिंदगी भर बुनते रहे। तो वे कहते हैं: झीनी-झीनी बुन दीन्ही रे चदरिया। बुद्ध नहीं कह सकते यह वक्तव्य। कभी बाप-दादे ने चदरिया बुनी नहीं। कोई संबंध नहीं चादर बुनने का। चादर बुनने का खयाल भी नहीं आ सकता, कि झीनी-झीनी बुन दी। कबीर को आता है; कबीर जुलाहे हैं। जिंदगी चादर बुनने में बीती है।
तो कबीर जब बोलते हैं तो ऐसा लगता है कि खोपड़ी पर लट्ठ मार दिया। ग्रामीण प्रखरता है वक्तव्य में। बुद्ध लट्ठ भी मारें, तो ऐसा लगेगा, फूल मारा। एक शाही अभिजात्य है। वह व्यक्तित्व का हिस्सा है। इसलिए मोहम्मद या जीसस के वचनों में जो तीव्रता है, त्वरा है, वह न बुद्ध के वचनों में है, न कृष्ण के वचनों में है, न महावीर के वचनों में है। वह त्वरा नहीं है। मोहम्मद और जीसस के वचनों में जो धार है, वह इनमें से किसी के वचनों में नहीं है। उसका कारण है। ये बिलकुल अपढ़, ठेठ ग्रामीण लोग हैं। तो ग्रामीण के पास भाषा ज्यादा नहीं होती। थोड़े ही शब्द होते हैं उसके पास, लेकिन अनगढ़ होते हैं। बुद्ध और महावीर के पास जो भाषा है, वह ऐसी है जैसे कि तराश कर बनाया गया पत्थर हो--मूर्ति। मोहम्मद और जीसस के पास सीधा पत्थर है। उसमें कोई तराश वगैरह नहीं है।
इसलिए कोई आश्चर्य नहीं है कि मोहम्मद और जीसस आम जनता के जीवन में ज्यादा दूर तक प्रवेश कर गए और बुद्ध और महावीर बहुत पीछे पड़ गए। आम जनता उनकी बात को समझ पाती है, निकट मालूम पड़ती है। बुद्ध और महावीर बहुत दूर मालूम पड़ते हैं। बहुत शिखर के उनके वचन हैं। वे वचन ऐसे हैं कि हमारे और उनके बीच बहुत फासला है।
ये व्यक्तित्व के भेद हैं। और ध्यान रहे कि अगर महावीर और बुद्ध जीसस की भाषा या मोहम्मद की भाषा हिंदुस्तान में बोलते, तो कोई उनको सुनता भी नहीं। क्योंकि जिन दिनों में उन्होंने वह भाषा बोली, उन दिनों में यह मुल्क अभिजात्य के शिखर पर था। और अगर मोहम्मद भूल करते बुद्ध की भाषा बोलने की, तो कोई सुनने वाला नहीं मिलने वाला था उनको। क्योंकि जिनके बीच वे बोल रहे थे, वे ठीक मरुस्थली, खतरनाक, खूंखार लोग थे। उनके पास तलवार की धार वाली बात चाहिए थी। नहीं तो कोई मतलब न था।
व्यक्तित्व, समय, वे सारी की सारी चीजें हमें दिखाई पड़ती हैं। भीतर का जो अस्तित्व है, वह तो दिखाई नहीं पड़ता। उसकी चिंता न करें। इतना खयाल में भर आ जाए, तो धीरे-धीरे अपने भीतर के अस्तित्व का पता लगाने में लगें। जिस दिन आपको अपना अस्तित्व अपने व्यक्तित्व से अलग मिल जाएगा, उस दिन आपके लिए द्वार खुल जाएंगे, आप झांक पाएंगे।
बुद्ध भी वस्त्रों का एक ढेर हैं; कृष्ण भी वस्त्रों का एक ढेर हैं; लाओत्से भी वस्त्रों का एक ढेर हैं। वह जो भीतर छिपा है, वह वस्त्रों से बिलकुल अलग है। वस्त्रों से उसे मत सोचें। लेकिन हम क्या करें? हम अपने को वस्त्र ही मानते हैं। भीतर का हमें कुछ पता नहीं है। अपने वस्त्रों के पार जाकर जो छिपा है, उसे देखें; तो फिर सभी वस्त्रों के पार आपकी आंख पहुंचनी शुरू हो जाएगी।
चार-छह प्रश्न और रह गए हैं, वे अगली लाओत्से की बैठक होगी, तब हम उनकी चर्चा करेंगे। आज के लिए, इस चर्चा के लिए जो जरूरी प्रश्न थे, वे मैंने ले लिए हैं।
आज इतना ही।
अब कीर्तन में सम्मिलित हों। चाहे मूढ़ता ही किसी को मालूम पड़े, पर सम्मिलित हों। और फिर जाएं।