LAO TZU

Tao Upanishad 21

TwentyFirst Discourse from the series of 127 discourses - Tao Upanishad by Osho. These discourses were given during JUN 19-26, 1971 - APR 10 1975.
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Chapter 8 : Sutra 1, 2&3

WATER

1. The highest excellence is like (that of) water. The excellence of water appears in its befitting all things, and in its occupying, without striving (to the contrary) the low place which all men dislike. Hence (its way) is near to (that of) the Tao.
2. The excellence of a residence is in (the suitability of) the place; That of the mind is in abysmal stillness; That of association is in their being with the virtuous; That of government is in its securing good order; That of (the conduct) of affairs is in its ability; And that of (initiation of) any movement is in its timeliness.
3. And when (one with the highest excellence) does not wrangle (about his position) no one finds fault with him.

अध्याय 8: सूत्र 1, 2 व 3

जल

1. सर्वोत्कृष्टता जल के सदृश होती है।
जल की महानता पर-हितैषणा में निहित होती है, और उस विनम्रता में होती है, जिसके कारण वह अनायास ही ऐसे निम्नतम स्थान ग्रहण करती है, जिनकी हम निंदा करते हैं। इसीलिए तो जल का स्वभाव ताओ के निकट है।
2. आवास की श्रेष्ठता स्थान की उपयुक्तता में होती है, मन की श्रेष्ठता उसकी अतल निस्तब्धता में, संसर्ग की श्रेष्ठता पुण्यात्माओं के साथ रहने में, शासन की श्रेष्ठता अमन-चैन की स्थापना में, कार्य-पद्धति की श्रेष्ठता कर्म की कुशलता में, और किसी आंदोलन के सूत्रपात की श्रेष्ठता उसकी सामयिकता में है।
3. और जब तक कोई श्रेष्ठ व्यक्ति अपनी निम्न स्थिति के संबंध में कोई वितंडा खड़ा नहीं करता, तब तक वह समादृत होता है।
श्रेष्ठता का आवास कहां है?
साधारणतः जब भी हम सोचते हैं, कोई व्यक्ति श्रेष्ठ है, तो हम सोचते हैं उसके पद के कारण, उसके धन के कारण, उसके यश के कारण। लेकिन सदा ही हमारे कारण उस व्यक्ति के बाहर होते हैं। यदि पद छिन जाए, धन छिन जाए, यश छिन जाए, तो उस व्यक्ति की श्रेष्ठता भी छिन जाती है।
लाओत्से कहता है, जो श्रेष्ठता छिन सके, उसे हम श्रेष्ठता न कहेंगे। और जो श्रेष्ठता किसी बाह्य वस्तु पर निर्भर करती हो, वह उस वस्तु की श्रेष्ठता होगी, व्यक्ति की नहीं। अगर मेरे पास धन है, इसलिए श्रेष्ठ हूं, तो वह श्रेष्ठता धन की है, मेरी नहीं। मेरे पास पद है; वह श्रेष्ठता पद की है, मेरी नहीं। मेरे पास ऐसा कुछ भी हो जिसके कारण मैं श्रेष्ठ हूं, तो वह मेरी श्रेष्ठता नहीं है। अकारण ही अगर मैं श्रेष्ठ हूं, तो ही मैं श्रेष्ठ हूं।
लाओत्से यह कहता है कि श्रेष्ठता व्यक्ति की निजता में होती है। उसकी उपलब्धियों में नहीं, उसके स्वभाव में। क्या उसके पास है, इसमें नहीं; क्या वह है, इसमें। उसके पजेशंस में नहीं, उसकी संपदाओं में नहीं; स्वयं उसमें ही श्रेष्ठता निवास करती है। लेकिन इस श्रेष्ठता को नापने का हमारे पास क्या होगा उपाय? धन को हम नाप सकते हैं, कितना है। पद की ऊंचाई नापी जा सकती है। त्याग कितना किया, नापा जा सकता है। ज्ञान कितना है, प्रमाणपत्र हो सकते हैं। सम्मान कितना है, लोगों से पूछा जा सकता है। आदमी भला है या बुरा है, गवाह खोजे जा सकते हैं। लेकिन निजता की श्रेष्ठता के लिए क्या होगा प्रमाण?
अगर कोई बाह्य कारण से व्यक्ति श्रेष्ठ नहीं होता...और नहीं होता है, लाओत्से ठीक कहता है। सच तो यह है कि जो लोग भी बाहर श्रेष्ठता खोजते हैं, वे निकृष्ट लोग होते हैं। जब कोई व्यक्ति धन में अपनी श्रेष्ठता खोजता है, तो एक बात तो तय हो जाती है कि स्वयं में श्रेष्ठता उसे नहीं मिलती है। जब कोई राजनीतिक पद में खोजता है, तो एक बात तय हो जाती है कि निज की मनुष्यता में उसे श्रेष्ठता नहीं मिलती है। श्रेष्ठता जब भी कोई बाहर खोजता है, तो भीतर उसे श्रेष्ठता से विपरीत अनुभव हो रहा है, इसकी खबर देता है।
पश्चिम के एक बहुत बड़े मनस्विद एडलर ने इस सदी में ठीक लाओत्से को परिपूर्ण करने वाला, सब्स्टीट्यूट करने वाला सिद्धांत पश्चिम को दिया है। और वह यह है: जो लोग भी सुपीरियर होने की चेष्टा करते हैं, वे भीतर से इनफीरियर होते हैं। जो लोग भी श्रेष्ठता की खोज करते हैं, वे भीतर से हीनता से पीड़ित होते हैं। और इसलिए एक बहुत मजे की बात घटती है कि अक्सर जिन लोगों को हीनता का भाव बहुत गहन होता है, इनफीरियारिटी कांप्लेक्स भारी होती है, वे कोई न कोई पद, कोई न कोई धन, कोई न कोई यश उपलब्ध करके ही मानते हैं। क्योंकि वे बिना सिद्ध किए नहीं मान सकते कि वे अश्रेष्ठ नहीं हैं, वे भी श्रेष्ठ हैं। और उनके पास एक ही उपाय है, आपकी आंखों में जो दिखाई पड़ सके।
मैंने एक मजाक सुना है। सुना है कि एडलर को मानने वाला एक बड़ा मनोवैज्ञानिक एक राजधानी में व्याख्यान करता है। वह कहता है कि जो लोग भीतर से दरिद्र होते हैं, वे लोग धन की खोज करते हैं और धनी हो जाते हैं। जो लोग भीतर से कमजोर होते हैं, भयभीत होते हैं, डरपोक होते हैं, वे अक्सर बहादुरी की खोज करते हैं और बड़े बहादुर भी हो जाते हैं। जो लोग हीन होते हैं, वे श्रेष्ठता की खोज करते हैं।
नसरुद्दीन भी उस सभा में मौजूद था। उसने खड़े होकर पूछा कि मैं यह जानना चाहता हूं, क्या वे लोग, जो मनोवैज्ञानिक हैं, मानसिक रूप से कमजोर होते हैं? दोज हू आर साइकोलॉजिस्ट्‌स, आर दे मेंटली इनफीरियर? जो लोग मन पर ही अपनी सारी प्रतिष्ठा को निर्भर कर देते हैं, क्या वे मानसिक रूप से कमजोर होते हैं?
इस बात की भी संभावना है। यह मजाक ही नहीं, इस बात की संभावना भी है। इस बात की संभावना है कि जो लोग दूसरों के मनों के संबंध में जानने को बहुत आतुर होते हैं, भीतर इनके मन में भी कोई पीड़ा और ग्लानि का भाव बहुत होता है। असल में, हम जो भी बाहर करने जाते हैं, उसके कारण कहीं हमारे भीतर ही होते हैं।
लाओत्से कहता है, श्रेष्ठता निजता में होती है, स्वयं में होती है, स्वभाव में होती है।
पर उस श्रेष्ठता को हम जानेंगे कैसे? उसकी पहचान क्या है? क्योंकि यह जिसको हम अब तक श्रेष्ठता कहते रहे हैं, इसकी तो पहचान है। लेकिन वह पहचान लाओत्से की दृष्टि से सिर्फ इस व्यक्ति को भीतर हीन सिद्ध करती है, श्रेष्ठ सिद्ध नहीं करती।
लाओत्से कहता है, उसकी पहचान है: ‘दि हाईएस्ट एक्सीलेंस इज़ लाइक दैट ऑफ वाटर!’
यह उसकी पहचान है कि वह जो परम श्रेष्ठता है, वह पानी के स्वभाव जैसी होती है।
पानी का स्वभाव यह है कि वह बिना किसी प्रयास के निम्नतम स्थान में प्रवेश कर जाता है। बिना किसी प्रयास के, अनायास ही, स्वभाव ही उसका ऐसा है कि वह नीचे की तरफ बहता है। आप पहाड़ पर छोड़ दें, थोड़े ही दिन में आप उसे घाटी में पाएंगे। इस घाटी तक पहुंचने के लिए उसे कोई सायास चेष्टा नहीं करनी पड़ती। इसके लिए वह सोचता भी नहीं, इसके लिए वह अपने को समझाता भी नहीं। इसके लिए वह साधना भी नहीं करता, तप भी नहीं करता, अपने मन को भी नहीं मारता। बस यह उसका स्वभाव है कि जहां गड्ढा हो, नीचा हो स्थान, वहीं वह प्रवेश कर जाता है। अगर उस गड्ढे से भी नीचा गड्ढा उसे मिल जाए, तो वह तत्काल उसमें प्रवेश कर जाता है।
लाओत्से कहता है कि जो परम श्रेष्ठता है, वह जल के सदृश होती है।
श्रेष्ठतम व्यक्ति गड्ढे खोज लेता है, शिखर नहीं खोजता। क्यों? यह लक्षण बहुत अजीब मालूम पड़ता है! और इससे बेहतर लक्षण ढाई हजार साल में फिर नहीं बताया जा सका। लाओत्से ने जो लक्षण बताया है, वह परम रेखा हो गई, अल्टीमेट। उसके बाद फिर कोई लक्षण नहीं खोजा जा सका इससे बेहतर। क्या बात है?
इसे अगर हम दूसरी तरफ से देखें, तो समझ में आ जाएगा।
हीन आदमी प्रयास करता है ऊंचे स्थान की तरफ जाने का। हीन आदमी को मौका मिले ऊपर चढ़ने का, तो वह छोड़ेगा नहीं। मौका न भी मिले, तो भी जद्दोजहद करता है। उसका पूरा जीवन एक ही कोशिश में होता है: और ऊपर, और ऊपर, और ऊपर। वह आयाम कोई भी हो--धन का, यश का, पद का, ज्ञान का, त्याग का--इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, और ऊपर! वह आयाम अंत में यह भी हो सकता है कि निकृष्ट और हीन आदमी यह कहे कि मैं बिना ईश्वर को पाए तृप्त नहीं होऊंगा। जब तक मैं घोषणा न करूं अहं ब्रह्मास्मि की, तब तक मेरी तृप्ति नहीं है।
लाओत्से के हिसाब से अपने को ईश्वर की अंतिम स्थिति तक पहुंचाने की जो आकांक्षा है, वह आकांक्षा विपरीत है जल के स्वभाव के। उसे हम ऐसा समझ लें कि वह अग्नि का स्वभाव है, उदाहरण के लिए। अग्नि ऊपर की तरफ भागती है। उसे कितना ही दबाओ, वह छूटते ही ऊपर की तरफ भागती है। अग्नि नीचे की तरफ नहीं जाती। अगर हम दीए को उलटा भी कर दें, तो दीया उलटा हो जाता है, लेकिन ज्योति उलटी होकर ऊपर की तरफ भागने लगती है। बुझ जाए भला, लेकिन ज्योति नीचे की तरफ जाने को राजी नहीं होती। उसे अगर नीचे की तरफ ले जाना हो, तो बड़े प्रयास की जरूरत है। उसे बहुत दबाना पड़ेगा। अगर अहंकार को नीचे की तरफ ले जाना हो, तो बड़े प्रयास की जरूरत है। लेकिन जल नीचे की तरफ सहज जाता है। अगर उसे ऊपर की तरफ ले जाना हो, तो बड़े प्रयास की जरूरत है। कुछ पंपिंग का इंतजाम करना पड़े, मशीनें लगानी पड़ें, तब हम उसे ऊपर चढ़ा सकते हैं। फिर भी मौका पाते ही पानी नीचे भाग आएगा।
यह नीचे की तरफ जाने की बात को लाओत्से श्रेष्ठता का परम लक्षण कहता है। क्योंकि नीचे जाने को वही राजी हो सकता है, जिसकी श्रेष्ठता इतनी सुनिश्चित है कि नीचे जाने से नष्ट नहीं होती है। ऊपर वही जाने को उत्सुक होता है, जिसे पता है कि अगर वह नीचे रहा, तो निकृष्ट समझा जाएगा। वह खुद भी अपने को निकृष्ट समझेगा। ऊपर पहुंच जाए, तो दूसरे भी उसे श्रेष्ठ समझेंगे। और दूसरों की आवाज सुन कर वह भी अपने को श्रेष्ठ समझने की व्यवस्था बना पाएगा। भीतर जो निकृष्टता का भाव है, वह ऊपर की तरफ जाने की प्रेरणा देता है। भीतर अगर श्रेष्ठता हो, तो आदमी पीछे, नीचे गड्ढे में समा जाना चाहता है। क्यों? आखिर यह गड्ढे में अनायास उतर जाने की भी बात क्यों? यह इसलिए कि वहां कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है, वहां कोई संघर्ष नहीं है, वहां जाने को कोई राजी ही नहीं है।
सुना है मैंने कि एक नए आदमी ने नसरुद्दीन से उसके गांव में निवास के लिए पूछा और कहा कि मैं तुम्हारे गांव में आकर बहुत ईमानदारी से धंधा करना चाहता हूं। नसरुद्दीन ने कहा, तुम बिलकुल आ जाओ, देयर इज़ नो काम्पिटीशन। अगर ईमानदारी से धंधा करना है, तो बिलकुल आ जाओ, कोई काम्पिटीशन ही नहीं है। क्योंकि सभी धंधे वाले बेईमान हैं। तुम मजे से आ जाओ, कोई झगड़ा नहीं है। हम सभी खुश होंगे। कोई प्रतिस्पर्धा ही नहीं है।
लाओत्से कहता है कि वह जो श्रेष्ठता है आंतरिक, वह उस जगह खड़ी हो जाती है, जहां कोई संघर्ष नहीं है। और संघर्ष अंतिम स्थिति पर भर नहीं है। बाकी सब स्थितियों पर है। इसलिए श्रेष्ठता अंतिम को खोज लेती है। वह उसकी सुरक्षा का कवच है।
लाओत्से के पीछे चीन का सम्राट वर्षों तक पड़ा रहा कि वह वजीर हो जाए। उस जैसा ज्ञानी आदमी खोजना मुश्किल था। सिर्फ उसके वजीर होने की स्वीकृति से सम्राट की प्रतिष्ठा में हजार चांद जुड़ जाते। लाओत्से के पीछे उसके वजीर घूमते रहे। जहां-जहां लाओत्से को पता चले कि उसे पता लगाते लोग आ रहे हैं, वह उस गांव से विदा हो जाए। गांव में जब वजीर पहुंचें, वे पूछें, तो वे कहें कि रात ही लाओत्से यहां से चल पड़ा।
बामुश्किल लाओत्से को पकड़ पाए। एक नदी के किनारे वह बैठा था और मछलियां मार रहा था। वजीर ने हाथ-पैर जोड़े और कहा कि तुम पागल हो, तुम हमसे बचते फिर रहे हो और तुम्हें पता नहीं कि हम तुम्हें किसलिए खोज रहे हैं। सम्राट ने आदेश दिया है कि तुम्हें परम सम्मान के पद पर बिठा दिया जाए। तुम राष्ट्र के बड़े वजीर हो जाओ! लाओत्से चुपचाप बैठा रहा। उस वजीर ने समझा कि शायद उसने सुना नहीं। उसने उसे हिलाया और कहा कि हम तुमसे क्या कह रहे हैं, तुमने सुना?
पास में ही एक गड्ढे में कीचड़ में कोई लोट रहा है। लाओत्से ने कहा, देखो उस गड्ढे को, उसमें तुम्हें क्या दिखाई पड़ता है? कीचड़ है, गड्ढे में कोई हलन-चलन है। वजीर और उनके साथी गड्ढे के पास गए। देखा, एक कछुआ कीचड़ में लोटता है। उन्होंने कहा, एक कछुआ कीचड़ में लोट रहा है।
लाओत्से ने कहा, मैंने सुना है कि तुम्हारे राजमहल में एक सोने से मढ़ा हुआ कछुआ है। वह चीन का, उस समय के सम्राट का राज्य-चिह्न था। और मैंने सुना है कि हर वर्ष, वर्ष के प्रथम दिन पर उसकी पूजा होती है। और लाखों रुपए खर्च होते हैं। उन्होंने कहा, तुमने ठीक सुना है।
लाओत्से ने कहा, मैं तुमसे यह पूछता हूं, अगर तुम इस कीचड़ में लोटते हुए प्राणी से कहो, कछुए से कहो कि चल, हम तुझे राजमहल में बिठा कर सोने से मढ़ कर रख देंगे और हर वर्ष तेरी पूजा होगी, तो यह राजमहल जाना पसंद करेगा? या इसी गड्ढे में कीचड़ में लोटना पसंद करेगा?
उस वजीर ने कहा कि अगर यह पागल होगा, तो राजमहल में सोने में मढ़ने को राजी होगा; क्योंकि वह मौत है। वह पूजा तो मिलेगी, लेकिन मर कर मिलेगी। सोना तो मढ़ जाएगा, लेकिन भीतर से प्राण उड़ जाएंगे। अगर इस कछुए में थोड़ी भी समझ है, तो यह अपनी कीचड़ में ही लोटना पसंद करेगा।
लाओत्से ने कहा, मुझमें कम से कम इस कछुए के बराबर समझ तो है। तुम जाओ! मेरी कीचड़ भली। सोने में मुझे मत मढ़ो। क्योंकि मढ़ कर तुम मुझे मार डालोगे।
असल में, सोने से मढ़ना और मरना एक ही बराबर है। बिना मरे कोई सोने से मढ़ा नहीं जा सकता। जितने बड़े पद पर जाना हो, उतना मुर्दा होना पड़ता है। जितने बड़े धन के ढेर पर बैठना हो, उतना मुर्दा हो जाना पड़ता है। मरे बिना ऊपर चढ़ना मुश्किल है। वह चढ़ने में ही प्राण कट जाते हैं। सब चढ़ाव आत्मघात हैं, सुसाइडल हैं।
इसलिए लाओत्से कहता है, परम श्रेष्ठता तो वह है, जो अनायास, जल के सदृश, उन स्थानों को खोज लेती है, जिन स्थानों में जाने के लिए हम कभी भी राजी न हों, जिनकी हमारे मन में बड़ी निंदा है।
‘जल की महानता हितैषणा में निहित है और उस विनम्रता में, जिसके कारण वह अनायास ऐसे निम्नतम स्थान ग्रहण करता है, जिनकी हम निंदा करते हैं। इसलिए तो जल का स्वभाव ताओ के निकट है।’
लाओत्से कहता है, ताओ का अर्थ है धर्म। ताओ का अर्थ है स्वभाव। ताओ का अर्थ है स्वरूप। जीवन का जो परम नियम है, उसका नाम है ताओ। लाओत्से कहता है, जल की यह व्यवस्था ठीक ताओ के निकट है। ताओ को उपलब्ध व्यक्ति भी इसी तरह, सर्वोत्कृष्ट व्यक्ति भी इसी तरह नीचे, पीछे और दूर हट जाता है। छाया में, जहां उसे कोई देखे भी नहीं। भीड़ की अंतिम कतार में, जहां कोई संघर्ष न हो। और जब भी कोई वहां मौजूद हो, तब वह पीछे हटता चला जाता है।
दो तरह के लोग हैं: आगे बढ़ते हुए लोग और पीछे हटते हुए लोग। पीछे हटते हुए लोग कभी-कभी पैदा होते हैं। कभी कोई बुद्ध, कभी कोई लाओत्से, कभी कोई क्राइस्ट। आगे बढ़ते हुए लोगों की बड़ी भीड़ है।
एक सभा में नसरुद्दीन गया है। जरा देर से पहुंचा है, तो आगे जगह खाली नहीं रही है। दरवाजे के पास ही उसे बैठना पड़ा है। उसे बड़ी बेचैनी हुई है। सभापति के आसन पर बैठने की उसकी आदत है। उसने पीछे बैठ कर गपशप करनी शुरू कर दी। उसने कुछ लतीफे सुनाने शुरू कर दिए। कुछ लोग उसकी बातों में उत्सुक हो गए। उन्होंने सभापति की तरफ पीठ कर ली और नसरुद्दीन की बातें सुनने लगे। थोड़ी देर में पूरी सभा नसरुद्दीन की तरफ हो गई। सभापति का चेहरा लोगों की पीठ हो गई। सभापति चिल्लाया कि नसरुद्दीन, तुम यह क्या कर रहे हो? सभापति के पद पर मैं हूं!
नसरुद्दीन ने कहा, हम कोई पद नहीं जानते; हम जहां होते हैं, वहीं सभापति का पद होता है। सभा दो ही हालत में चल सकती है, या तो मैं सभापति रहूं और या फिर सभा नहीं चल सकेगी। सभापति तो मैं रहूंगा ही।
बुलाना पड़ा नसरुद्दीन को, सभापति के पद पर बिठालना पड़ा। तब सभा आगे चल सकी।
नसरुद्दीन ने कहा, हम जहां होते हैं, वहीं सभापति का पद होता है। यह हम सब की आकांक्षा है। न भी हों सभापति के पद पर, तो भी हम जहां होते हैं, वहीं सभापति का पद है, ऐसा हम सब का भाव है। सारी दुनिया के सेंटर पर हम हैं। सब चांद-तारे हमारा चक्कर लगा रहे हैं। इसलिए जब पहली दफा गैलीलियो ने कहा कि नहीं, सूरज पृथ्वी का चक्कर नहीं लगाता, तो समस्त मनुष्य-जाति को धक्का जो पहुंचा वह यह नहीं था कि हमारी धारणा गलत हो गई। इससे क्या फर्क पड़ता है कि सूरज चक्कर लगाता है या नहीं लगाता है! कि पृथ्वी चक्कर लगाती है! नहीं, गहरा आघात आदमी को पहुंचा कि उसकी पृथ्वी, उसकी पृथ्वी जगत का सेंटर नहीं रह गई। आदमी को सदा खयाल था कि पृथ्वी जगत का सेंटर है, केंद्र है। सूरज और चांद-तारे सब जमीन का चक्कर लगाते हैं। मेरी जमीन! आदमी की जमीन! गैलीलियो ने बड़ा धक्का पहुंचाया। उसने कहा कि नहीं, सूरज चक्कर लगाता नहीं, पृथ्वी ही चक्कर सूरज का लगाती है। और यह सूरज भी किसी महासूर्य का चक्कर लगा रहा है। हम केंद्र पर नहीं हैं।
फिर भी आदमी को डार्विन तक भरोसा था कि आदमी को परमात्मा ने अपनी ही शक्ल में बनाया--ही क्रिएटेड मैन इन हिज ओन इमेज। आदमी ने किताबें लिखी हैं। अगर गधे किताबें लिखें, तो वे लिखेंगे कि परमात्मा ने हमको उसकी ही शक्ल में बनाया। क्योंकि गधे यह मानने को राजी न होंगे कि परमात्मा आदमी को अपनी शक्ल में बनाता है। आदमी ने किताबें लिखी हैं, आदमी ने लिखा है कि ईश्वर ने हमें बनाया जगत का सर्वश्रेष्ठ प्राणी।
डार्विन ने बहुत मुश्किल खड़ी कर दी। उसने कहा कि परमात्मा का कोई पता नहीं चलता पीछे, पता यह चलता है कि आप बंदर से पैदा हुए हैं। भारी धक्का लगा अहंकार को। कहां आदमी परमात्मा से पैदा होता था, कहां अचानक बंदर से पैदा होना पड़ा! डार्विन का जो विरोध हुआ, वह इसलिए नहीं कि वह गलत कहता था, वह इसलिए कि आदमी के अहंकार को और एक सीढ़ी से नीचे गिरा दिया गया।
और फ्रायड ने इस सदी में तीसरा बड़ा धक्का दिया। आदमी सदा से सोचता था कि मैन इज़ ए रेशनल बीइंग, बुद्धिमान प्राणी है आदमी। फ्रायड ने कहा कि आदमी से ज्यादा निर्बुद्धि प्राणी खोजना मुश्किल है। आदमी जो भी करता है, वह बिलकुल बिना बुद्धि के करता है। सिर्फ होशियार इतना है कि उस पर बुद्धि का मुलम्मा चढ़ाता है। रेशनलाइजेशन करता है, रीजन बिलकुल नहीं है। तो जो करना चाहता है, उसके लिए कारण खोज लेता है। जो करना चाहता है, उसके लिए कारण खोज लेता है। अगर युद्ध करना है; तो कारण खोज लेता है। युद्ध नहीं करना है; तो कारण खोज लेता है। प्रेम करना है; तो कारण खोज लेता है। घृणा करनी है; तो कारण खोज लेता है। और हमेशा कारण खोज लेता है। लेकिन जो करना है, वह कारण के पहले करता है।
हम सब यही करते हैं। अगर मैं कहता हूं कि आप मुझे अच्छे नहीं मालूम पड़ते, तो मैं बराबर कारण बताऊंगा कि क्यों अच्छे नहीं मालूम पड़ते। लेकिन अच्छा नहीं मालूम पड़ना बिना कारण के पहले घटित हो जाता है मेरे इमोशंस में। फिर मैं कारण खोजता हूं, पीछे वजह खोज लेता हूं। एक आदमी मुझे अच्छा लगता है, तो मैं कहता हूं, वह सुंदर है इसलिए अच्छा लगता है। फ्रायड कहता है कि नहीं, आपको अच्छा लगता है इसलिए आप सुंदर कहते हैं। अच्छा पहले लग जाता है, फिर आप कहते हैं सुंदर है। लेकिन पीछे जब आप बताते हैं, तो आप कहते हैं कि अच्छा इसलिए लगता है, क्योंकि सुंदर है। चांद सुंदर है, इसलिए अच्छा लगता है? कि आपको अच्छा लगता है, इसलिए सुंदर मालूम पड़ता है? आपका दिवाला निकल गया हो; चांद वही का वही होता है, फिर सुंदर नहीं मालूम पड़ता। फिर ऐसा लगता है कि चांद से आंसू टपक रहे हैं। चांद बैंक्रप्ट हो गया है। आपका भाव ही चांद पर आरोपित हो जाता है। आप जो भीतर अनुभव करते हैं, वह बाहर फैला देते हैं।
लेकिन आदमी कुशल है। वह अपने अंधे भावों के लिए भी तर्कयुक्त व्याख्याएं करता है। वह कहता है कि हमारी व्याख्याएं ये हैं। ऐसे ही हम चांद को पसंद नहीं करते; चांद सुंदर है, इसलिए पसंद करते हैं। फलां आदमी है, हम उसको आदर यों ही नहीं देते; उसमें सदगुण हैं, इसलिए आदर देते हैं। सचाई और है। आप किसी आदमी को आदर पहले दे देते हैं; सदगुण वगैरह की खोज पीछे होती है। और जब आप किसी आदमी से आदर छीनते हैं और उसकी निंदा करते हैं, तब भी आप सोचते हैं कि हम निंदा इसलिए करते हैं कि हमें उसके दुर्गुण मिल गए। फिर आप गलती करते हैं। निंदा आपके मन में पहले आ जाती है; दुर्गुण आप पीछे से खोज लाते हैं।
लेकिन आदमी सदा फ्रायड के पहले ऐसा ही मानता था कि वह जो भी करता है, बुद्धि से, तर्क से करता है। लेकिन इधर पचास वर्षों की साइकोएनालिसिस ने बहुत प्रमाणित कर दिया है कि आदमी बुद्धि से कुछ भी करता हुआ मालूम नहीं पड़ता। सैकड़ों प्रयोग हैं। बर्ट्रेंड रसेल ने एक उल्लेख किया है। बर्ट्रेंड रसेल ने उल्लेख किया है कि एक साबुन की फैक्टरी को बर्ट्रेंड रसेल ने राजी किया कि वह दस ब्रिटेन के बड़े से बड़े डाक्टरों का वक्तव्य ले अपनी साबुन के संबंध में। ब्रिटेन के दस बड़े वैज्ञानिक चिकित्सकों का वक्तव्य लेकर उस साबुन के मालिक ने अपना विज्ञापन अखबारों में दिया, जिनमें देश के चोटी के दस वैज्ञानिकों ने वक्तव्य दिए थे कि यह श्रेष्ठतम साबुन है। और दूसरे साबुन के मालिक को तैयार किया, जिसका साबुन बिलकुल ही हेठा था, इस साबुन के मुकाबले बिलकुल नहीं था, जिसको एक भी डाक्टर कहने को राजी नहीं था कि यह साबुन श्रेष्ठ है। एक सस्ती, दो कौड़ी की फिल्म अभिनेत्री को राजी किया कि वह कहे कि मेरा सौंदर्य इसी साबुन की वजह से है। फिल्म अभिनेत्री वाला साबुन बिका, दस डाक्टरों वाला साबुन नहीं बिका।
आदमी बुद्धिमान प्राणी है! बहुत बुद्धिमान प्राणी है! वे दस चोटी के वैज्ञानिक किसी मतलब के नहीं हैं। लेकिन एक नाचने वाली लड़की ज्यादा मतलब की है। क्योंकि चोटी के वैज्ञानिक बुद्धि से बात करते हैं, नाचने वाली लड़की बुद्धि के पीछे, जहां से आप चलते हैं, उसको छूती है, उसको टिटिलेट करती है।
अब सबको समझ में आ गया है दुनिया में। इसलिए कुछ भी बेचना हो, लड़की को खड़ा करो और दलीलें देने की कोई भी जरूरत नहीं है। कुछ भी बेचना हो; इससे कोई संबंध नहीं है कि क्या बेचना है आपको। कुछ भी बेचना हो, लड़की को खड़ा करो अर्धनग्न; वह चीज बिकेगी। आप दुनिया भर के वैज्ञानिकों की दलीलें ले आओ, सब महात्माओं के वक्तव्य ले आओ; वह चीज नहीं बिकेगी। एक नाचने वाली लड़की सबको हरा देगी। क्योंकि आदमी बुद्धिमान प्राणी है, ऐसी भ्रांति है। है नहीं। आदमी चलता है किन्हीं और कारणों से। उसके भीतर जो चलने की व्यवस्था है, वह बौद्धिक नहीं है, रेशनल नहीं है। इम्मोशनल है, भावुक है, इंसटिंक्टिव है, वृत्तियों से चलता है। लेकिन मानने को मन नहीं होता।
आदमी सदा अपने को जगत के केंद्र में, बुद्धिमानों में श्रेष्ठ, परमात्मा से सीधा उपजा हुआ--ऐसा मानता रहा है। इधर डेढ़ सौ वर्षों में जो मनुष्य को बहुत धक्के लगे हैं, जिनसे मनुष्य का बिलकुल सारा का सारा भवन अहंकार का गिर गया है...।
लाओत्से कहता है कि यह भवन बनाने की जरूरत ही नहीं है। किस पागल ने तुमसे कहा? लाओत्से ईश्वर का नाम भी नहीं लेता अपने पूरे वक्तव्यों में--जान कर। क्योंकि वह कहता है, ईश्वर का नाम लेते ही आदमी कोशिश करता है कि अपने अहंकार को ईश्वर से जोड़ ले। वह नाम भी नहीं लेता ईश्वर का। वह परम पद की बात ही नहीं करता। वह मोक्ष की बात ही नहीं करता। वह कहता है, अंतिम पद! आखिरी पद! पीछे खड़े हो जाओ! वही मोक्ष है।
कोई राजी नहीं होता पीछे खड़े होने को। आप आगे खड़े होने को किसी भी काम में राजी कर सकते हैं आदमी को--किसी भी काम में! कितना ही एब्सर्ड और कितना ही मूढ़तापूर्ण हो, आगे खड़े होने के लिए आप आदमी को किसी भी चीज के लिए राजी कर सकते हैं। पीछे खड़े होने के लिए, अगर परमात्मा भी मिलता हो पीछे खड़े होने से, तो आदमी को आप राजी नहीं कर सकते हैं। पीछे खड़े होने की तैयारी ही हमारी भीतर की निकृष्टता नहीं दिखा पाती; भीतर श्रेष्ठता हो, तो ही संभव है कि कोई पीछे खड़े होने को राजी हो जाए। और मजा यह है कि प्रथम केवल वे ही पहुंच पाते हैं, जो पीछे खड़े हो जाते हैं। और मोक्ष की अंतिम ऊंचाई उनको उपलब्ध होती है, जो जल की भांति वादियों और घाटियों की अंतिम नीचाई को खोजने के लिए राजी हो जाते हैं।
यह जो विपरीत का नियम है, इसे ध्यान में रख कर लाओत्से कहता है कि मैं एक ही सूचना देता हूं, जल के सदृश जो हो जाए, वह ताओ को उपलब्ध हो जाता है।
‘आवास की श्रेष्ठता स्थान की उपयुक्तता में है।’
हमारे लिए नहीं। ये वक्तव्य कोई भी हम पर लागू नहीं होंगे। लाओत्से कहता है, स्थान की श्रेष्ठता उसकी उपयुक्तता में है। हमारे लिए नहीं। अगर हम एक मकान खरीदते हैं, तो इसलिए नहीं कि वह मकान रहने के लिए उपयुक्त है। मकान हम इसलिए खरीदते हैं कि वह हमारे अहंकार को प्रोजेक्ट करने के लिए कितना उपयुक्त है। इसलिए कई बार आप ऐसे मकान में रहने को राजी हो जाएंगे जहां अमीरों के घर हैं, चाहे
वह मकान रहने के उपयुक्त न हो। और उस इलाके में रहने को आप राजी न होंगे जहां गरीबों के घर हैं, चाहे मकान रहने को ज्यादा उपयुक्त हो। उपयुक्तता से हमें प्रयोजन नहीं है। हमारे लिए तो एक ही प्रयोजन है कि अहंकार किससे तृप्त हो।
कई बार हम बड़ी कठिनाइयां झेलते रहते हैं अहंकार की तृप्ति के लिए। अगर अहंकार टाई बांधने से तृप्त होता हो, तो हम पसीना झेल सकते हैं, लेकिन टाई हटा नहीं सकते। अगर रिस्पेक्टबिलिटी जूते पहनने में ही हो, तो चाहे जूतों में आग पड़ रही हो, लेकिन हम नंगे पैर नहीं चल सकते हैं।
चीन में स्त्रियां पैर में लोहे के जूते पहन कर पैर छोटे करती रही हैं, क्योंकि वे रिस्पेक्टबल थे। बड़े घर की स्त्री की पहचान उसका छोटा पैर थी। और इसीलिए चीन में पैर जो था, वह सेक्स-सिंबल बन गया था। जैसे आज स्तन सारी दुनिया में सेक्स-सिंबल बन गया है। चीन में पांच हजार साल तक स्तन पर कोई ध्यान नहीं देता था स्त्री के, पैर पर ध्यान देता था। छोटा पैर दिखा कि आदमी एकदम दीवाना हो जाता था। अभी कोई दीवाना नहीं होता। पैर से संबंध टूट गया, खयाल मिट गया। कंडीशनिंग थी पांच हजार साल की।
तो जिसका पैर बड़ा था, वह स्त्री इतनी बेचैन और दुखी होती थी, जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है। पैर की वजह से नहीं; क्योंकि पैर बड़ा हो, इससे दुख का क्या संबंध है? बड़ा पैर तो और भी जमीन पर ढंग से रखा जाता है। चलने की क्षमता बड़े पैर में ज्यादा होती है। दौड़ने की क्षमता भी ज्यादा होती है। बलशाली भी होता है। शरीर को सम्हालने के उपयुक्त भी होता है। लेकिन नहीं, वह सवाल नहीं था। स्थान की उपयुक्तता उपयुक्तता में नहीं है, अहंकार की तृप्ति में है। तो जो स्त्री बिना किसी के कंधे का सहारा लेकर चलती थी, वह कुलीन घर की नहीं थी, यह सिद्ध होता था। सहारा चाहिए, कंधे पर किसी के हाथ चाहिए; क्योंकि पैर इतने छोटे कर लेते थे कि वे बड़े शरीर को सम्हालने के योग्य नहीं रह जाते थे। स्त्रियां चल नहीं सकती थीं।
आज भी वही हालत है; कोई फर्क नहीं पड़ गया। सिंबल्स बदल जाते हैं, प्रतीक बदल जाते हैं, हालत वही होती है। आप हजार तरह की मुसीबत झेलने को तैयार होते हैं, अगर अहंकार उससे तृप्त होता हो। और आप हजार तरह के आनंद छोड़ सकते हैं, अगर अहंकार तृप्त न होता हो। तो आप छोड़ सकते हैं। आदमी के ऊपर बढ़ने की यात्रा में कैसा भी कष्ट उसे मिले, वह शहीद होने को सदा तैयार है। हमारे पहनने के ढंग, हमारे कपड़े, हमारे जेवर, हमारा मकान, हमारी कारें, उनमें कोई में भी इस बात की फिक्र नहीं है कि वे उपयुक्त हैं। हमारा भोजन, उसमें भी कोई फिक्र नहीं है कि वह उपयुक्त है। फिक्र इस बात की है कि वह रिस्पेक्टबल है, अहंकार को तृप्ति देता है।
आपके घर एक मेहमान आता है, तो आप इसकी फिक्र नहीं करते कि मेहमान को जो भोजन दिया जाए, वह स्वास्थ्यप्रद हो। कोई फिक्र नहीं करता। इसलिए तो हर मेहमान लौट कर फिर बीमार पड़ता है। मेहमान को बीमार पड़ना ही चाहिए; नहीं तो आपकी प्रतिष्ठा नहीं है। अगर मेहमान बिना बीमार पड़े घर चला जाए, तो उसका मतलब यह है कि स्वागत-सत्कार नहीं हुआ। आपने भी नहीं किया और मेहमान भी समझेगा कि स्वागत-सत्कार ठीक से नहीं हुआ है। सीधा मेजबान के घर से डाक्टर की एंबुलेंस पर जाना पड़े!
तो हम कोशिश तो पूरी करते हैं। बच जाए, उसकी किस्मत! नहीं, स्वास्थ्य की फिक्र नहीं है कि उसे जो भोजन मिले, वह स्वास्थ्यप्रद हो। नहीं, उसे वह भोजन दिया जाए जिसका कोई अहंकार से संबंध है। वह जाने कि वह ऐसी चीज खाकर लौटा है, जो कहीं और नहीं मिल सकती है।
स्त्रियां गहने लादे रही हैं, वजनों, इतना वजन कि अगर उनसे कहा जाए कि इतना झोला उठा कर तुम दो घर चलो, तो वे इनकार कर दें। लेकिन सेर-सेर, दो-दो सेर सोना वे लाद कर चल सकी हैं। बहुत नाजुक स्त्रियां, जिनको नाजुक होने का खयाल है, वे भी सोने के वक्त बिलकुल नाजुक नहीं रह जातीं। सोने को ढोया जा सकता है। हालांकि सोने में और लोहे में तराजू पर कोई फर्क नहीं होता। जो वजन तराजू पर सोने का पता चलेगा, वही लोहे का पता चलेगा। लेकिन ईगो के तराजू पर फर्क है। तो अगर लोहा उठाना पड़े, तो हाथ दुखते हैं। लेकिन अगर सोना उठाना पड़े, तो पैरों में पर लग जाते हैं। बात क्या है? हो क्या जाता है?
अफ्रीका में औरतें हैं, गले में हड्डियों का इतना सामान पहनती हैं कि गला जो है, वह करीब-करीब ऊंट जैसा हो जाता है। लेकिन वह चलेगा, उसमें कोई तकलीफ नहीं है। अगर हम ऐसे किसी आदमी के गले को फंसाएं, तो वह कहेगा, आप फांसी लगा रहे हैं मेरी। लेकिन अगर वह सौंदर्य का प्रतीक हो, तो चल सकता है। कुछ भी चल सकता है।
अभी अमरीका में नई पीढ़ी के लड़के और लड़कियां हैं; वे सब तरह की गंदगी में जी रहे हैं। क्योंकि हिप्पीज ने गंदगी को एक मूल्य दे दिया, जो कभी नहीं था। हिप्पीज ने कहा कि ये स्वच्छता की जो बातें हैं, बुर्जुआ! ये बैठे-ठाले मुफ्तखोर लोगों की बातें हैं। यह जो स्वच्छता की--साबुन है, और पाउडर है, और डियोडरेंट है--यह सारी जो स्वच्छता है, स्नान है, ये सब झूठी बातें हैं। ये सब मुफ्तखोर लोगों की, बुर्जुआ लोगों की बातें हैं। असली आदमी इन बातों में नहीं पड़ता। तो आज गंदगी को एक नई वैल्यू हिप्पीज ने दे दी है। अब अगर किसी को हिप्पी के समाज में आदृत होना है, तो वह रिस्पेक्टबिलिटी का हिस्सा है कि उसको गंदा रहना चाहिए। वह जितना गंदा रहे, उतना महान हिप्पी है। आस-पास के हिप्पी, अगर आप पहुंच जाएं ठीक से बाल-वाल कटा कर, साफ-सुथरे, पुराने ढंग के साफ-सुथरे आदमी बन कर, तो सारे हिप्पी कहेंगे, स्क्वायर आ गया, यह पोंगा-पंथी आ गया! देखो, कैसा क्लीन शेव किया हुआ है!
हिप्पीज ने नया मूल्य बना लिया, तो आज हिप्पी लड़के और लड़कियां उस नए मूल्य के लिए भी राजी हैं। उसके लिए भी राजी हैं। गंदगी में रहने के लिए राजी हैं। उनके शरीर से बदबू निकले, तो वह मूल्य हो गया। और ऐसा नहीं कि ऐसा पहले हुआ है। हम सब ऐसे मूल्य देते रहे हैं। जैन साधु स्नान नहीं करता है। तो अगर जैन साधु को जो जानते हैं, वे उसके पास जाएं और पसीने की बदबू न आए, तो उन्हें शक हो जाए कि मामला कुछ गड़बड़ है। दातुन नहीं करता है। तो जब जैन साधु बात करे, तो उसके मुंह से बास आनी चाहिए। वह उसकी साधुता की प्रामाणिकता का सबूत है! अगर न आए, तो भक्त चिंता में पड़ जाएगा कि जरूर टूथपेस्ट कहीं छिपाया हुआ है। यद्यपि छिपाया हुआ है, आज तो छिपाया हुआ है।
अब उस जैन साधु की बड़ी तकलीफ है। उसकी तकलीफ यह है कि उसके पास एक रिस्पेक्टबिलिटी का मूल्य है दो हजार साल पुराना। और अभी वह जो पढ़ता-सुनता है, और चारों तरफ देखता है, वह टूथपेस्ट का मूल्य भी है। उसकी नजर में दोनों का मूल्य है। वह बड़ी कनफ्यूजन में पड़ गया है। वह बड़े धोखे में पड़ गया है। वह दोनों काम एक साथ करता है। अपनी पोटली में टूथपेस्ट भी छिपाए रहता है और ऐसे भी दिखाए रखता है कि वह दातुन नहीं करता है। स्पंज से स्नान भी करता रहता है...।
एक जैन साध्वी मुझे मिलने आई। तो मैंने पूछा कि तेरे शरीर से बास नहीं आ रही! तो उसने कहा, आप से तो मैं सच कह सकती हूं कि बर्दाश्त नहीं होता पसीना। तो मैं तो गीला कपड़ा भिगा कर स्पंज कर लेती हूं। लेकिन आप किसी को बताना मत। नहीं तो मेरी सब साधुता गई। क्योंकि वह सब साधुता इसमें है कि वह कितनी स्नान नहीं करती है। क्योंकि एक मूल्य था जैनों के मन में। वह मूल्य यह था कि जो आदमी स्नान करता है, वह शरीरवादी है। शरीर को स्वच्छ करना, शरीर को सजाना-संवारना, यह शरीरवादी का लक्षण है। आत्मवादी को शरीर की फिक्र ही नहीं करनी चाहिए।
इसमें आगे जैनियों से भी पहुंच गए कुछ लोग, जिनको हम परमहंस कहते रहे हैं। वे पाखाना करके बैठ जाएंगे और वहीं खाना खाएंगे। अगर परमहंस ऐसा न करे, तो लोग कहेंगे, कैसा परमहंस! अगर परमहंस होना हो, तो वहीं मल-मूत्र करो, वहीं बैठ कर खाना खाओ। तब लोग कहेंगे, यह है परमहंस! जिन-जिन के नाम के पीछे परमहंस पुराने दिनों में लगा है, वे ऐसे लोग हैं। जिस चीज को भी हम मूल्य दे दें और अहंकार की तृप्ति का रास्ता बता दें, आदमी वही करने को राजी हो जाता है। आदमी बड़ा अजीब है।
आप जब ये बातें सुन रहे हैं, तो आपको लगता होगा, ये दूसरों के बाबत हो रही हैं। ऐसी भ्रांति में मत पड़ना आप। आप अपनी तरफ खोजेंगे, तो खुद भी पा लेंगे कि आप क्या-क्या कर रहे हैं। जो आपकी प्रकृति के अनुकूल नहीं है, सुख भी नहीं आता, शांति भी नहीं आती; लेकिन चारों तरफ उसकी रिस्पेक्टबिलिटी है, उसका आदर है, तो आप वह कर रहे हैं। चारों तरफ पड़ोसियों के ऊपर सिक्का जमाना है, तो एक आदमी ऐसी कार खरीद लेता है, जिसकी उसकी हैसियत नहीं है खरीदने की। लेकिन पड़ोसी पर सिक्का जमाना है।
नसरुद्दीन की पत्नी ने एक दिन उससे कहा है कि अब दो ही उपाय हैं: या तो बड़ी कार खरीद लो, या मुहल्ला बदल लो; जो भी तुम्हें सस्ता लगे। क्योंकि पड़ोसी ने एक बड़ी कार खरीद ली है। अब दो ही उपाय हैं: या तो बड़ी कार खरीद लो, या पड़ोस बदल लो।
नसरुद्दीन ने कहा कि बड़ी कार ही खरीद लेना सस्ता पड़ेगा; पड़ोस बदलना बहुत मंहगा काम है। और फिर इस पड़ोसी की तो सब चीजों को हम जवाब दे चुके हैं; नए पड़ोसियों की चीजों को फिर जवाब देने की शुरुआत करनी पड़ेगी। और पता नहीं, नए पड़ोसियों के पास किस तरह की चीजें हों, उनको जवाब देना पड़ेगा।
सब एक-दूसरे को जवाब दे रहे हैं। इसकी उन्हें कोई फिक्र नहीं कि उनकी जरूरत क्या है! खुद की जरूरत क्या है!
लाओत्से कहता है, ‘आवास की श्रेष्ठता स्थान की उपयुक्तता में है।’
और कभी यह हो सकता है कि महल उपयुक्त न हो, वृक्ष के नीचे बैठ जाना उपयुक्त हो। और कभी यह हो सकता है कि कीमती से कीमती वस्त्र उपयुक्त न हों और एक लंगोटी लगा कर धूप में लेट जाना उपयुक्त हो। लेकिन हम मजेदार लोग हैं, हम लंगोटी लगा कर भी धूप में लेट सकते हैं; लेकिन वह तभी, जब वह रिस्पेक्टबल हो जाए। तब फिर गैर-जरूरी लोग भी लेटे रहते हैं। मोटी औरतें दुबला होने का प्रयास करती रहती हैं, दुबली औरतें मोटा होने का प्रयास करती रहती हैं। ऐसी औरत खोजना मुश्किल है, जो कोई प्रयास न कर रही हो। अगर मोटी है, तो दुबला होने का प्रयास कर रही है। अगर दुबली है, तो मोटा होने का प्रयास कर रही है।
अमरीका में अगर बाल उसके काले नहीं हैं, तो वह काले बालों के लिए दीवानी है। और अगर बाल काले हैं, तो वह विपरीत बालों के लिए दीवानी है। मगर दीवानगी जारी है। क्योंकि किसी को इससे मतलब नहीं है कि उपयुक्त क्या है। मतलब इससे है कि चारों तरफ क्या हवा कह रही है। और हवा रोज बदल जाती है। और हवा को चलाने वाले बहुत और लोग हैं, जिनका आपको पता ही नहीं है।
वैंस पैकार्ड ने एक किताब लिखी है: दि हिडेन परसुएडर्स! छिपे हुए फुसलाने वाले लोग! उनका धंधा इस पर निर्भर है कि आपको फुसलाते रहें। हिडेन परसुएडर्स हैं चारों तरफ। जब एक कपड़ा फैशन में छह महीने चल चुका होता है, तो वे हिडेन परसुएडर्स दूसरे कपड़े को गतिमान करते हैं। क्योंकि अन्यथा मिलें कैसे चलेंगी? धंधा कैसे चलेगा? कपड़ा तो एक चल सकता है सदा-सदा; लेकिन मिल एक कपड़े से नहीं चल सकती। और जब एक साबुन चल जाती है, तो एक साबुन काम कर सकती है। बड़े मजे की बात है कि सभी साबुन करीब-करीब एक से मैटेरियल से बनती हैं। लेकिन एक साबुन चल जाए, तो फैक्ट्री नहीं चलेगी। तो हिडेन परसुएडर्स हैं, छिपे हुए फुसलाने वाले लोग हैं। जैसे ही एक साबुन गति पकड़ती है, तत्काल खबर आती है कि वह आउट ऑफ फैशन हो गई। और सब आदमियों को फैशन में होना परम धर्म है। फैशन के बाहर होना मतलब आप जिंदा ही नहीं हैं। फैशन के बीच होना चाहिए। फैशन के बीच होने के लिए सब आपको बदलना पड़ता है।
अब अमरीका में इस वक्त बड़े से बड़ा जो प्रश्न है, वह यह है कि पुरानी कारों के ढेर लगते जा रहे हैं, जिनके लिए जगह नहीं है। लेकिन हर छह महीने में मॉडल बदल जाना चाहिए। पहले साल में बदलता था, अब वे छह महीने में बदलने लगे हैं। और अब जो हिडेन परसुएडर्स हैं...अब एक साल में कार का मॉडल बदलने की कोई जरूरत नहीं है, जहां तक कार का संबंध है। जहां तक अहंकार का संबंध है, हर महीने बदला जाए तो ठीक है। रोज बदला जाए तो और भी ठीक है। लेकिन हर साल कार का मॉडल बदलने से भी काम नहीं चलता। फैक्ट्रियां ज्यादा हैं। तो अब अमरीका का जो हिडेन परसुएडिंग विभाग है, वह लोगों को समझा रहा है कि एक कार तो गरीब आदमी के पास भी होती है; बड़े आदमी के पास दो कार होनी चाहिए। इसलिए अब बड़ा आदमी वह है, जिसके पास दो कार हैं। बड़ा आदमी वह है, जिसके पास दो मकान हैं। एक मकान तो गरीब आदमी के पास भी होता है। इससे कोई आपकी प्रतिष्ठा नहीं है। तो अब अमरीका में हर आदमी को दो मकान चाहिए। एक मकान जिसमें वह रहेगा और एक मकान जिसमें उसका अहंकार रहेगा। वह तो नहीं रह पाएगा दो में एक साथ। एक में उसका अहंकार रहेगा कि वह बड़ा आदमी है, वह खाली रखेगा।
एक बड़े आदमी के घर में मैं ठहरा था। सौ कमरे हैं। अकेले पति और पत्नी हैं। मैंने पूछा कि इन सौ कमरों का करते क्या होंगे? उन्होंने कहा, इनका कुछ नहीं करते हैं, यही इनका मूल्य है। गरीब आदमी अपने कमरे का कुछ करता है, हम इनका कुछ नहीं करते हैं। बस ये हैं। इनकी सफाई करवाते हैं, इनकी सजावट करवाते हैं। और ये हैं। इनका हम करेंगे क्या! हम दो ही हैं, पति-पत्नी। बेटा भी नहीं है। फिर इन पति-पत्नी का काम तो एक कमरे में चल जाता है। पुराने ढंग के पति-पत्नी, नहीं तो दो कमरे की जरूरत पड़ती; एक में ही चल जाता है। बाकी ये निन्यानबे कमरे का क्या हो रहा है? ये हैं। इनमें कौन रहता है?
इनमें भी कोई रहता है, वह हमारा अहंकार है। आदमी एक कमरे में रह जाए, अहंकार तो निन्यानबे कमरों को भी कम पाता है। स्थान की उपयुक्तता से हमें प्रयोजन नहीं।
‘मन की श्रेष्ठता उसकी अतल निस्तब्धता में है।’
लाओत्से कहता है कि मन की श्रेष्ठता उसकी अतल निस्तब्धता में है। और हमारे मन की श्रेष्ठता? उसकी गहन वाचालता में है। जो आदमी अपने मन में जितने शब्दों, जितने विचारों से भरा हो, उतना हमें श्रेष्ठ मालूम पड़ता है। और लाओत्से कहता है, अतल निस्तब्धता में, जहां मन बिलकुल शून्य और चुप हो जाता है, वहीं मन की श्रेष्ठता है। क्यों? क्योंकि जहां मन शून्य होता है, वहीं सत्य से मिलन है। क्यों? क्योंकि जहां मन शून्य होता है, वहीं शांति से मिलन है। क्यों? क्योंकि जहां मन शून्य होता है, वहीं दुख का अंत है। जितना मन चलता है, उतना दुख होगा। मन की जितनी यात्रा, दुख की उतनी बड़ी मंजिल उपलब्ध होगी।
लेकिन हमारी सारी कोशिश यह है कि आप कितना जानते हैं, कितना सोचते हैं, कितना विचारते हैं, कितने शब्दों के धनी हैं। जो आदमी बोल नहीं सकता, ज्यादा शब्दों का उपयोग नहीं कर सकता, ज्यादा विचारों का उपयोग नहीं कर सकता, वह ग्रामीण हो जाता है। वह ग्राम्य हो जाता है, वह गंवार हो जाता है। जरूरी नहीं है कि गंवार आप से कम बुद्धिमान हो; अक्सर तो आपसे ज्यादा बुद्धिमान होता है। लेकिन एक बात पक्की है कि वह आपसे कम बोल सकता है, कम सोच सकता है, इसीलिए गंवार है। आप शब्दों को मैनिपुलेट कर सकते हैं, आप शब्दों के साथ खेल सकते हैं।
हमारी सभ्यता में जो लोग सफल हैं, वे वे ही लोग हैं, जो शब्दों के संबंध में खेल करने में कुशल हैं। तो हम तो सिखाते हैं अपने बच्चों को कि शब्द सीखे, भाषा सीखे, साहित्य सीखे। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि साहित्य न सीखे। कह यह रहा हूं कि यह मन की परम उत्कृष्टता नहीं है। अगर कुछ भी इससे मिलता होगा, तो वह बाहर की उत्कृष्टताएं मिल जाती होंगी। इससे भीतर की उत्कृष्टता नहीं मिलती। अब तक जगत में जिन लोगों ने भीतर के आनंद को जाना है, वे वे ही लोग हैं, जो शब्द के कचरे को बाहर छोड़ कर भीतर चले गए हैं।
‘संसर्ग की श्रेष्ठता पुण्यात्माओं के साथ रहने में है।’
संसर्ग की श्रेष्ठता, सत्संग की श्रेष्ठता पुण्यात्माओं के साथ रहने में है! कभी आपने सोचा कि आप संसर्ग की श्रेष्ठता कब अनुभव करते हैं? अगर किसी गवर्नर के पास खड़े होकर चित्र उतर जाए, तब लगता है, सत्संग हुआ। या किसी फिल्म अभिनेता के पास खड़े होकर अगर चित्र उतर जाए, तो समझो कि सत्संग हुआ।
एक हंसोड़ अमरीका का अभिनेता दूसरे महायुद्ध में युद्ध के मैदान पर गया--सैनिकों के मनोरंजन के लिए। बॉब उसका नाम है। मैकार्थर, जनरल मैकार्थर जहां मौजूद थे, वहां भी उसने आकर सैनिकों को हंसाने का कुछ कार्यक्रम किया। और वह बड़ा आनंदित हुआ कि उसे मैकार्थर के पास फोटो उतरवाने का मौका मिला। वह बड़ा आनंदित हुआ कि उसे मैकार्थर के पास फोटो उतरवाने का मौका मिला। फोटो उतर जाने के बाद मैकार्थर ने उससे कहा, बॉब, एक कापी मुझे भी भेज देना।
वह बॉब थोड़ा हैरान हुआ कि मैकार्थर को मेरे साथ के चित्र का क्या प्रयोजन होगा! लेकिन उसने कापी भेज दी। और बाद में उसने पत्र लिखा मैकार्थर को कि मैं जानना चाहता हूं कि मुझ गरीब अभिनेता के साथ उतरवाए चित्र का आपके लिए क्या मूल्य होगा! मैकार्थर ने कहा कि जब मेरे बेटे ने तुम्हारे साथ चित्र देखा, तो उसने कहा, पिताजी, पहली दफे आप किसी शानदार और जानदार और प्रसिद्ध आदमी के साथ खड़े हुए हैं। उसके बेटे ने कहा। क्योंकि बेटे को मैकार्थर का क्या मूल्य! बेटे को बाप का कोई मूल्य नहीं होता। लेकिन बॉब, फिल्म अभिनेता, उसके साथ मैकार्थर खड़ा है, तो बेटे ने कहा कि यह चित्र शानदार है आपका। मैंने बहुत चित्र देखे, न मालूम किस-किस के साथ आप खड़े रहते हैं। यह आदमी है, सेलिब्रिटी! यह है एक।
आपने कभी सोचा कि अगर आपको चित्र उतरवाने का मौका मिले, तो कभी मन में आंख बंद करके थोड़ा कंटेम्प्लेट करना कि किसके साथ उतरवाना चाहेंगे? सौ में निन्यानबे मौके तो ये हैं कि वह कोई अभिनेत्री या अभिनेता होगा। सौ में दस मौके ये हैं कि वह कोई राजनैतिक नेता होगा। क्या कोई एकाध मौका भी ऐसा है कि कोई पुण्यात्मा होगा? संदेह है। भला ऊपर से आप कह दें कि नहीं-नहीं, मैं नहीं ऐसा करूंगा। लेकिन भीतर!
एक यूनिवर्सिटी में एक धर्मगुरु ने आकर विद्यार्थियों को कुछ पर्चे बांटे। एक क्वेश्चनेयर था। और उसमें पूछा कि तुम दुनिया की सर्वश्रेष्ठ पुस्तक कौन सी समझते हो? तो किसी ने लिखा शेक्सपियर की किताब, किसी ने लिखा बाइबिल, किसी ने लिखा कुरान, किसी ने लिखा झेंदावेस्ता, किसी ने लिखा गीता। जिसको जो पसंद थी। सारे इकट्ठे करके उसने उन विद्यार्थियों से पूछा कि तुमने जो-जो किताबें लिखीं, इनको तुमने पढ़ा? उन्होंने कहा, पढ़ा हमने नहीं है। ये श्रेष्ठ किताबें हैं, इन्हें पढ़ता कोई भी नहीं। जो किताबें हम पढ़ते हैं, वे दूसरी हैं। पर उनके बाबत आपने जानकारी नहीं चाही थी। आपने पूछा था, दुनिया की श्रेष्ठ किताबें।
असल में, श्रेष्ठ किताब की परिभाषा यही है कि जब उस किताब का नाम सब को पता हो जाए और कोई उसे न पढ़ता हो, तो समझना कि वह श्रेष्ठ किताब है। जब तक उसे कोई पढ़ता हो, तब तक वह श्रेष्ठ नहीं है, पक्का समझना। कुछ न कुछ गड़बड़ होगी।
पुण्यात्मा के संसर्ग में, लाओत्से कहता है, संसर्ग की श्रेष्ठता है। और इस जगत में बड़ी से बड़ी श्रेष्ठता संसर्ग की श्रेष्ठता है। किसी पुण्यात्मा के साथ होने का क्षण इस जगत में स्वर्ण-क्षण है। लेकिन पुण्यात्मा के साथ होने का क्षण शारीरिक क्षण नहीं है। हो सकता है, आप बुद्ध के पास खड़े कर दिए जाएं और फिर भी पुण्यात्मा से संसर्ग न हो। क्योंकि पुण्यात्मा से संसर्ग होने के लिए आपकी तैयारी चाहिए। तैयारी कैसी? वही पानी के जैसी, नीचे बहने वाली तैयारी चाहिए! तो ही पुण्यात्मा का संसर्ग हो सकता है। अगर आप ऊपर चढ़ने के आदी हैं, तो पुण्यात्मा का संसर्ग नहीं हो सकेगा।
इसलिए सत्संग का नियम था पुराना कि जब कोई किसी गुरु के पास जाए, तो उसके चरणों में सिर रख दे। वह खबर दे कि मैं पानी की तरह होने को तैयार हूं। वह सत्संग का अनिवार्य हिस्सा हो गया था--चरणों में सिर रख देना। सभी चीजें धीरे-धीरे औपचारिक, फॉर्मल हो जाती हैं। लेकिन इससे उनका मूल्य समाप्त नहीं होता। लेकिन जिस आदमी ने आकर चरणों में सिर रख दिया है, वह इस बात की खबर देता है, वह अपने बॉडी-गेस्चर से, अपने शरीर की भाषा से कहता है कि मैं चरणों में सिर रखने को तैयार हूं, अगर मुझे कुछ प्रसाद मिल जाए। मैं सब छोड़ने को, अपने अहंकार को गिराने को लिटाने को तैयार हूं, अगर मुझे कुछ प्रसाद मिल जाए।
संसर्ग पुण्यात्मा से अभूतपूर्व क्षण है।
बुद्ध का जन्म हुआ, तो हिमालय से एक महा तपस्वी उतर कर बुद्ध के घर आया। बुद्ध के पिता उसे स्वागत से भीतर ले गए। उन्होंने लाकर एक छोटे से बच्चे को, नवजात बच्चे को उसके चरणों में रखा। वह महा तपस्वी कोई सौ वर्ष का बूढ़ा था। उसकी आंख से झर-झर आंसू गिरने लगे।
बुद्ध के पिता बहुत घबड़ा गए। उन्होंने कहा, आप हैं महा तपस्वी, आप रोते हैं मेरे बेटे को देख कर। कोई अपशकुन! यह आप क्या कर रहे हैं? यह खुशी का क्षण है, आप आनंदित हों और आशीर्वाद दें। आपको कुछ दुर्घटना दिखाई पड़ती है?
उस बूढ़े तपस्वी ने कहा, नहीं, इस बच्चे के लिए नहीं; दुर्घटना मेरे लिए है। क्योंकि यह बच्चा बुद्ध होने को पैदा हुआ है। लेकिन मैं तब इसके संसर्ग को मौजूद न रहूंगा। यह मैं रो रहा हूं अपने लिए कि यह बच्चा बुद्ध होने को पैदा हुआ है और इसके चरणों में एक क्षण बैठ कर भी मैं वह पा लेता, जो मैंने अनंत जन्मों में चल कर नहीं पाया। लेकिन वह क्षण मुझे नहीं मिलेगा। मेरे मरने की घड़ी तो करीब आ गई। और इसके बुद्धत्व के फूल खिलने में अभी तो वक्त लग जाएगा, कोई चालीस साल लग जाएंगे। जब इसका फूल खिलेगा, तब मैं मौजूद नहीं रहूंगा। इसलिए मैं रो रहा हूं।
लेकिन यह एक आदमी है, जो बुद्ध को देख कर रोता है कि चालीस साल बाद मौजूद नहीं रहेगा। ऐसे लोग थे कि बुद्ध उस गांव में जाएं, तो वे गांव छोड़ कर भाग जाएं। गांव छोड़ कर भाग जाएं! गौतमी नाम की एक महिला की कथा है कि वह बुद्ध जिस गांव में जाएं, वहां से भाग जाती थी। क्योंकि वह कहती थी, इस आदमी के संसर्ग में न मालूम कितने लोग बिगड़ गए। जो भी इसकी बातों में पड़ता है, झंझट में आ जाता है। न मालूम कितने लोग संन्यासी हो गए, न मालूम कितने लोग भिक्षु हो गए, न मालूम कितने लोग आंख बंद करके ध्यान में डूब गए। धन की फिक्र छोड़ दी, पद की फिक्र छोड़ दी। लोग न मालूम पागल हो जाते हैं! यह आदमी हिप्नोटिक है, यह आदमी सम्मोहक है। इससे बचना चाहिए।
लेकिन एक दिन बड़ी भूल हो गई। बुद्ध अचानक एक गांव में पहुंच गए। और कृशा गौतमी रास्ते से गुजर रही थी। उसे कुछ पता न था। बुद्ध का मिलना हो गया। भागती थी वर्षों से। बुद्ध के ही उम्र की थी और बुद्ध के ही गांव की थी। भागती थी वर्षों से; जहां बुद्ध जाएं, वहां छाया से बचती थी। लेकिन इतना जो भागता है, उसका रस तो है ही। इतना जो बचता है, उसका भय तो है ही। और बुद्ध की प्रतिभा का खयाल भी तो है ही। वह अचानक रास्ते पर बुद्ध का आगमन हो गया। वह निकलती थी, उसने खड़े होकर देखा।
एक क्षण रुकी और उसने कहा, क्या तुम कोई दूसरे बुद्ध आ गए? क्योंकि तुम मुझे खींचे लिए ले रहे हो! बुद्ध ने कहा, मैं वही हूं, जिससे तू भागती फिरती है। आज अचानक मिलना हो गया। वह उसी क्षण चरणों में गिर पड़ी, उसी क्षण उसने दीक्षा ली। बुद्ध ने कहा, लेकिन तू इतने दिन से भागती थी! उसने कहा, भाग-भाग कर भी मन में एक खयाल तो बना ही था कि एक बार इस आदमी को देख लूं। शायद इसीलिए भागती थी कि डरती थी कि देखा कि मैं गई। और आज आकस्मिक हो गया है।
बुद्ध को भी भागने वाले लोग हैं। महावीर को सुनते कान में आवाज न पड़ जाए, तो कान में अंगुलियां डाल कर गुजरने वाले लोग हैं। जीसस को मार डालो, ताकि जीसस की बात लोगों तक न पहुंचे, ऐसे लोग हैं।
और लाओत्से कहता है, संसर्ग की श्रेष्ठता पुण्यात्माओं के साथ रहने में है। और पुण्यात्मा कौन है? किसे कहें पुण्यात्मा? कौन है पुण्यात्मा? क्या हमारे पास कोई कसौटी है कि हम नाप सकें कि कौन पुण्यात्मा है और कौन पापी है? नहीं, बस एक ही कसौटी है: जिसके पास, जिसके संसर्ग में आप अपने को खुला छोड़ कर बैठ पाएं और जिसके पास आनंद और जिसके पास शांति और जिसके पास प्रकाश की प्रतीति होती हो, वही पुण्यात्मा है!
आप इसकी फिक्र मत करना कि वह क्या खाता है और क्या पीता है। आप इसकी फिक्र मत करना कि वह क्या पहनता है और क्या नहीं पहनता। आप इसकी फिक्र मत करना कि वह क्या बोलता है और क्या नहीं बोलता। आप इसकी भी फिक्र मत करना कि लोग उसके बाबत क्या कहते हैं और क्या नहीं कहते। आप खुद ही प्रयोग कर लेना। लेकिन प्रयोग करने के लिए आपको पहले अपने पर प्रयोग करना पड़े। वह पानी की तरह होना पड़े। पानी की तरह जो हो जाए, उसे पुण्यात्मा का तत्काल पता चल जाता है, संसर्ग का क्षण उपलब्ध हो जाता है। फिर सारा जगत कुछ भी कहे, फिर कोई भेद नहीं पड़ता है।
लेकिन संसर्ग की श्रेष्ठता पुण्यात्माओं के साथ रहने में है, शासन की श्रेष्ठता सुव्यवस्था में है। और यह सुव्यवस्था लाओत्से की बड़ी अदभुत है। लाओत्से कहता है, सुव्यवस्था मैं उसे कहता हूं, जहां व्यवस्था की कोई जरूरत न हो। लाओत्से बहुत अजीब आदमी है! आई काल इट आर्डर, व्हेन नो आर्डर इज़ नीडेड। अगर सम्राट यहां प्रवेश करे और लोगों को चिल्ला-चिल्ला कर कहना पड़े कि सम्राट आ रहा है, शांत हो जाइए, तो लाओत्से कहता है, यह अव्यवस्था है। सम्राट यहां प्रवेश करे, लोग चुप होने लगें; लोगों को चुप जान कर लोग कहें कि मालूम होता है, सम्राट प्रवेश कर गया, क्योंकि लोग चुप हुए जा रहे हैं, यह व्यवस्था है। लाओत्से कहता है, जहां व्यवस्था जरूरी नहीं है।
अगर गुरु को कहना पड़े कि मुझे आदर दो और तब कोई आदर दे, तो यह अनादर के ही बराबर है। यह कोई व्यवस्था नहीं है। लाओत्से कहता है, गुरु वह है, जिसे तुम्हें आदर देना ही पड़ता है। अचानक, तुम्हें भी पता नहीं चलता, कब तुमने आदर दे दिया। जब तुम सिर उठा रहे होते हो चरणों से, तब पता चलता है कि अरे, यह सिर झुका! तो लाओत्से कहता है आदर है।
लाओत्से उलटा आदमी है। यह कहता है, जहां व्यवस्था की जरूरत है, वहां कोई व्यवस्था नहीं है। जहां पुलिस की जरूरत है चोरी रोकने के लिए, वह समाज चोरों का है। और जहां कारागृहों की जरूरत है अपराध रोकने के लिए, वह अपराधियों की जमात है। लेकिन जहां कोई कारागृह की जरूरत नहीं है; और जहां कोई पुलिस वाला खड़ा नहीं करना पड़ता; और जहां साधु-संन्यासी पुलिस वाले के दूसरे हिस्से की तरह लोगों को समझाते नहीं फिरते कि चोरी मत करो, बेईमानी मत करो, यह मत करो, वह मत करो, जहां इसकी चर्चा ही नहीं चलती, वहीं व्यवस्था है। लाओत्से कहता है, शासन की श्रेष्ठता है व्यवस्था में।
‘कार्य-पद्धति की श्रेष्ठता कर्म की कुशलता में है।’
और कर्म की कुशलता से लाओत्से का वही अर्थ है, जो कृष्ण का अर्थ है। कर्म में कुशल वही है, जिसका कर्ता खो जाए, जिसका करने वाला न रहे, बस कर्म ही रह जाए। क्योंकि वह कर्ता बीच-बीच में आकर कर्म की कुशलता में बाधा डाल देता है।
कभी आपने देखा है कि कार चलाते वक्त अगर आप चूक जाते हैं, एक्सीडेंट होने की हालत आ जाती है, तो वह वही क्षण होता है, जब ड्राइविंग की जगह ड्राइवर बीच में आ जाता है--तभी। अगर अकेली ड्राइविंग हो, तो एक्सीडेंट की कोई संभावना नहीं है। आपकी तरफ से तो नहीं है; दूसरे की तरफ से हो, तो वह दूसरी बात है। लेकिन जब ड्राइवर बीच में आ जाता है, तब गड़बड़ हो जाती है। ड्राइवर का मतलब है, जब आप बीच में आ जाते हैं। जब सिर्फ ड्राइविंग ही नहीं होती, आप भी बीच में आकर गड़बड़ करने लगते हैं, सोच-विचार चल पड़ता है, या अकड़ आ जाती है कि मुझसे कुशल और कोई ड्राइवर नहीं, तभी एक्सीडेंट हो सकता है। जहां कर्ता है, वहां कर्म की कुशलता खो जाती है।
कार्य की पद्धति की श्रेष्ठता है कर्म की कुशलता में, कर्ताहीन कर्म में। और कर्ताहीन कर्म तभी होता है, जब फल की कोई आकांक्षा नहीं होती। जब फल की आकांक्षा होती है, तो कर्ता मौजूद होता है। जब फल की कोई आकांक्षा नहीं होती, तो कर्म ही काफी होता है। इनफ अनटू इटसेल्फ! कर्म कर लिया, बात पूरी हो गई! इसलिए हम जो काम बिना किसी फल की आकांक्षा के करते हैं, उनमें हमारी कुशलता बड़ी श्रेष्ठ होती है। अगर आप शौकिया बागवानी करते हैं, तो आपकी बागवानी में जो कुशलता होगी, उसका हिसाब लगाना मुश्किल है। अगर आप शौकिया चित्र बनाते हैं, तो चित्र बनाने में जो आपकी लीनता होगी, वह ध्यान बन जाएगी। अगर आप शौकिया सितार बजाते हैं--व्यवसायी नहीं, प्रोफेशनल नहीं, वह आपका धंधा नहीं है, आपका आनंद है--तो सितार बजाने में आप उस कुशलता को उपलब्ध हो जाएंगे, जिसकी लाओत्से बात करता है।
इसलिए आपको अपनी हॉबी में जितना आनंद आता है, उतना अपने काम में नहीं आता। क्योंकि काम में आपका कर्ता मौजूद होता है; हॉबी में कर्ता की कोई जरूरत नहीं होती, कोई फल का सवाल नहीं होता, करना ही आनंद होता है।
‘और किसी भी आंदोलन के सूत्रपात की श्रेष्ठता उसकी सामयिकता में है।’
कोई भी आंदोलन, कोई भी विचार, कोई भी संगठन, कोई भी धर्म सफल होता है सामयिक होने के कारण। टाइमलीनेस! वह अपने समय की जरूरत पूरा करता है, तो सफल होता है।
लेकिन यही उसका खतरा भी है। क्योंकि सभी आंदोलन समय से बंधे होते हैं; लेकिन समय तो बीत जाता है, आंदोलन छाती पर बैठे रह जाते हैं।
अब दुनिया में तीन सौ धर्म हैं। इनकी कोई जरूरत नहीं है, तीन सौ धर्मों की। आज एक धर्म काफी हो सकता है। लेकिन हो नहीं सकता, क्योंकि ये तीन सौ धर्म तीन सौ अलग-अलग समय में पैदा हुए। समय तो जा चुका, धर्म का ढांचा कायम है। और जो उसको पकड़े हुए हैं, वे कहते हैं कि हम इसको छोड़ेंगे नहीं। हमारे पुरखों ने...। उन्हें पता ही नहीं कि उसकी सफलता ही यही थी कि वह उस समय के उपयुक्त था। आज वही उसकी असफलता बनेगी, क्योंकि आज वह समय के उपयुक्त नहीं है। उसकी उपयुक्तता ही यही थी कि उस दिन के वह काम का था।
बुद्ध ने जो कहा है, वह पच्चीस सौ साल पुराने काम का है। अगर आज उसे ठीक वैसा ही कोई कहे चला जाए, तो उसे जीवन के तर्क का कोई पता नहीं है। महावीर ने जो कहा है, वह पच्चीस सौ साल पहले की भाषा है। वह सफल हुआ इसीलिए कि उन्होंने सामायिक भाषा का उपयोग किया।
यह लाओत्से खुद सफल नहीं हुआ; इसका आंदोलन सफल नहीं हुआ। बिकाज ही स्पोक इन दि लैंग्वेज ऑफ टाइमलेसनेस, इसलिए सफल नहीं हुआ यह आदमी; यह ऐसी भाषा बोला, जो शाश्वत है। जब कोई शाश्वत भाषा बोलेगा तो आंदोलन नहीं चला सकता। आंदोलन चलाना हो तो समय की भाषा बोलनी पड़ती है, उस समय के लिए जो समझ में आ सके। लेकिन लाओत्से जैसे लोग आंदोलन नहीं चला सकते। ठीक वह जानता जरूर है लेकिन कि आंदोलन की सफलता उसकी सामयिकता में है। और लाओत्से भलीभांति जानता है कि उसके वश के बाहर है कोई आंदोलन चलाना। वह जो बोल रहा है, वह शाश्वत है।
इसलिए एक मजे की बात है कि जो आंदोलन सफल होते हैं, वे ही अंत में आदमी के लिए गले पर गांठ बन जाते हैं। लेकिन दूसरी बात भी है, लाओत्से जैसे लोग आदमी के गले पर कभी गांठ नहीं बनते, लेकिन वे कभी सफल ही नहीं होते। लाओत्से जैसे लोग कभी आदमी को गलत जगह नहीं ले जाते, क्योंकि वे सही ले जाने के लिए भी कोई सामयिक भाषा नहीं बोलते हैं। बुद्ध और महावीर और कृष्ण और क्राइस्ट और मोहम्मद सफल हुए। उसका कारण है कि उन्होंने समय की भाषा बोली। लेकिन वही बंधन हो गया। अब चाहिए कि कोई उनकी समय की भाषा को बिखरा दे और समय की भाषा के पीछे छिपा हुआ जो कालातीत तत्व है, उसको उघाड़ कर बाहर रख दे। लेकिन वह अनुयायी मुश्किल करता है। वह कहता है, बोलो तो ठीक कुरान की पूरी आयत; उसको जरा इधर-उधर मत करना।
औरंगजेब ने एक आदमी को सूली दी, सरमद को, सिर्फ एक छोटी सी बात पर। और वह बात इतनी थी कि सरमद एक आयत को पूरा नहीं बोलता था। एक आयत है, मुसलमान जिसको निरंतर दोहराता है, और बड़ी कीमती है: कोई अल्लाह नहीं, सिवाय एक अल्लाह के। कोई अल्लाह नहीं, सिवाय एक अल्लाह के। लेकिन सरमद कहता था सिर्फ इतना ही: कोई अल्लाह नहीं। आधा ही बोलता था: कोई अल्लाह नहीं। पुरोहित परेशान हो गए, औरंगजेब को जाकर कहा। सरमद को बुलाया गया। सरमद से कहा गया कि बोलो, सुना है कि तुम कुछ गलत बातें बोलते हो। उसने कहा, गलत नहीं बोलता; जो वचन है, वही बोलता हूं। सिर्फ आधा बोलता हूं। तो क्यों आधा बोलते हो? वचन पूरा बोलो! क्योंकि पूरे का मतलब और ही है। कोई अल्लाह नहीं है, सिवाय एक अल्लाह के। इसका तो मतलब और ही हुआ कि एक ही अल्लाह है, और कोई अल्लाह नहीं। लेकिन सरमद कहता, मैं आधा ही बोलता हूं, कोई अल्लाह नहीं। इसका तो मतलब हुआ, देयर इज़ नो गॉड, कोई अल्लाह नहीं।
सरमद ने कहा, इतना ही मुझे अभी तक पता चला है; दूसरा हिस्सा मुझे पता नहीं चला। अभी तक मेरे अनुभव ने इतना ही कहा है, कोई अल्लाह नहीं। जिस दिन मुझे पता चलेगा दूसरा हिस्सा भी, कि सिवाय एक अल्लाह के, उस दिन वह भी बोलूंगा। जब तक मुझे पता नहीं, मैं नहीं बोलूंगा।
निश्चित ही, यह आदमी काफिर है। नास्तिक है। इससे और ज्यादा नास्तिक क्या होगा? गर्दन कटवा दी गई। बड़ी मीठी कथा है। चश्मदीद गवाह थे हजारों उस घटना के। इसलिए कथा न भी कहें, तो भी चलेगा; ऐतिहासिक तथ्य भी है। जिस दिन दिल्ली की मस्जिद के सामने सरमद का गला काटा गया, उसकी गर्दन कट कर गिरी सीढ़ी पर, लहू की धारा बही और आवाज निकली: कोई अल्लाह नहीं, सिवाय एक अल्लाह के। कटी हुई गर्दन से!
सरमद को प्रेम करने वाले कहते हैं, जब तक कोई अपनी गर्दन न कटाए, तब तक उस अल्लाह का कोई पता नहीं चलता है, जो एक है। लेकिन कुरान की भाषा को पकड़ेंगे, तो सरमद नास्तिक मालूम होगा। लेकिन सरमद ही आस्तिक है। और औरंगजेब जब मरा, तो उसके मन में जो सबसे बड़ी पीड़ा थी आखिरी मरते क्षण तक, वह सरमद को मरवा देने की थी। आखिरी जो प्रार्थना थी औरंगजेब की, वह यह थी कि मैंने कितने ही पाप किए हों, उनकी मुझे फिक्र नहीं है; लेकिन इस एक सरमद को मार कर जो मैंने किया है, यह काफी है। इससे ज्यादा और कोई पाप की जरूरत नहीं है। यह काफी पाप हो गया है। अगर यह मेरा माफ हो जाए, तो सब माफ। अगर यह मेरा माफ न हो, तो मेरे लिए कोई उपाय नहीं है।
स्वभावतः लेकिन सब आंदोलन, सब भाषाएं, सब अभिव्यक्तियां सामयिक होती हैं। वही उनक
ी सफलता है। वही उनकी अंत में असफलता भी बनती है। इसलिए बुद्धिमान जगत रोज-रोज समय की राख को झाड़ देता है और समय के अतीत, ट्रांसेंडेंटल जो है, कालातीत जो है, उसे उघाड़ कर निखारता चलता है। लेकिन इतनी बुद्धिमानी अनुयायियों में कभी भी नहीं होती। अन्यथा वे अनुयायी ही न होते। इतनी बुद्धिमानी जिस दिन इस जगत में होगी, उस दिन हम किसी भी बहुमूल्य पदार्थ को, किसी भी बहुमूल्य सत्य को कभी भी खोएंगे नहीं।
अंतिम बात: ‘और जब तक कोई सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति अपनी निम्न स्थिति के संबंध में कोई वितंडा खड़ा नहीं करता, तब तक ही वह समादृत होता है।’
यह आखिरी शर्त लाओत्से जोड़ देता है कि यह भी हो सकता है कि आप अंत में खड़े हो जाएं और फिर लोगों से कहते फिरें कि देखो, पापी तो आगे खड़े हैं और पुण्यात्मा पीछे खड़ा है! और दुष्ट तो देखो सफल हुए जा रहे हैं और सीधा-सरल आदमी हारता जा रहा है! देखो, बेईमान अखबारों में हैं और मुझ ईमानदार की कोई भी खबर नहीं! चारों तरफ ऐसे लोग हैं, चारों तरफ, जो यही कह रहे हैं कि देखो, फलां आदमी ने बेईमानी की और सफल हो गए। यह कैसा न्याय है? यह परमात्मा के जगत में यह कैसा न्याय है कि चोर सफल हो जाते हैं और हम अचोर हैं और असफल हुए जा रहे हैं!
लाओत्से कहता है, अगर कभी भी तुमने अपनी आखिरी स्थिति के संबंध में वितंडा किया, तो जानना कि तुम श्रेष्ठ व्यक्ति नहीं हो। तुम्हारा समादर उसी क्षण समाप्त हो जाएगा। तुम्हारी श्रेष्ठता इसी में है कि तुम्हें जो भी उपलब्ध हो, वह तुम्हें परम भाव से स्वीकार है, अहोभाव से स्वीकार है। अगर तुम्हें पीछे खड़े होने से असफलता मिले, तो वही तुम्हारी सफलता है; अनादर मिले, वही तुम्हारा समादर है; अपमान मिले, वही तुम्हारा सम्मान है; गालियां तुम पर बरसें, वही तुम्हारे ऊपर फूलों की वर्षा है। लेकिन तुम वितंडा खड़ा मत करना। एक जरा सा वितंडा का शब्द, और सब नष्ट हो जाता है। जरा सी शिकायत, और श्रेष्ठता खो जाती है।
असल में, श्रेष्ठ व्यक्ति कभी भी शिकायत नहीं करता--कभी भी! उसकी कोई शिकायत ही नहीं है। क्योंकि जो भी उसे मिलता है, वह उसके लिए ही परमात्मा का अनुगृहीत है।

शेष हम कल बात करेंगे। एक पांच मिनट कीर्तन में डूबें। आप में भी जिनको खड़े होने की मौज आ जाती है, वे बीच की खाली जगह में खड़े हो जाएं। बीच में भी मौज आ जाए, तो दूसरों की फिक्र छोड़ दें और नाच में सम्मिलित हो जाएं।

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