LAO TZU
Tao Upanishad 18
Eighteenth Discourse from the series of 127 discourses - Tao Upanishad by Osho. These discourses were given during JUN 19-26, 1971 - APR 10 1975.
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Chapter 6 : Sutra 1&2
THE SPIRIT OF THE VALLEY
1. The Valley Spirit dies not, ever the same. The Female Mystery thus do we name. It's gate, from which at first they issued forth, Is called the root from which grew Heaven and Earth.
2. Long and unbroken does its power remain, Use gently and without the touch of pain.
अध्याय 6: सूत्र 1 व 2
घाटी की आत्मा
1. घाटी की आत्मा कभी नहीं मरती, नित्य है। इसे हम स्त्रैण रहस्य, ऐसा नाम देते हैं। इस स्त्रैण रहस्यमयी का द्वार स्वर्ग और पृथ्वी का मूल स्रोत है।
2. यह सर्वथा अविच्छिन्न है; इसकी शक्ति अखंड है; इसका उपयोग करो, और इसकी सेवा सहज उपलब्ध होती है।
जिसका जन्म है, उसकी मृत्यु भी होगी। जो प्रारंभ होगा, वह अंत भी होगा। वही केवल मृत्यु के पार हो सकता है, जिसका जन्म न हो। और वही केवल अनंत हो सकता है, जो अनादि हो।
प्रकाश जन्मता है, मिट जाता है। अंधकार सदा है। शायद इस भांति कभी न सोचा हो। सूर्य निकलता है, सांझ ढल जाता है। दीया जलता है, बाती चुक जाती है, बुझ जाती है। जब दीया नहीं जला था, तब भी अंधकार था। जब दीया जला, अंधकार हमें दिखाई नहीं पड़ा। दीया बुझ गया, अंधकार अपनी जगह है। अंधकार का बाल भी बांका नहीं होता। और अंधकार कभी बुझता नहीं। और अंधकार का कभी अंत नहीं आता, क्योंकि अंधकार का कभी प्रारंभ नहीं होता। प्रकाश का प्रारंभ होता है, इसलिए प्रकाश का अंत होता है।
और भी मजे की बात है, प्रकाश को हम पैदा कर सकते हैं, इसलिए प्रकाश को हम मिटा भी सकते हैं। अंधकार को हम पैदा नहीं कर सकते, इसलिए अंधकार को हम मिटा भी नहीं सकते। अंधकार की शक्ति अनंत है। प्रकाश की शक्ति अनंत नहीं है।
लाओत्से कहता है, घाटी की आत्मा अमर है। दि वैली स्पिरिट डाइज नॉट। नहीं, कभी घाटी की आत्मा नहीं मरती। एवर दि सेम, वही बनी रहती है। जैसी है, वैसी ही बनी रहती है।
यह घाटी की आत्मा क्या है?
जहां भी पर्वत-शिखर होंगे, वहां घाटी भी होगी। लेकिन पर्वत पैदा होते हैं और मिट जाते हैं; घाटी न पैदा होती, न मिटती। घाटी का अर्थ है, दि निगेटिव, वह जो निषेधात्मक है, अंधकार। पहाड़ का अर्थ है, पाजिटिव, विधायक, जो है। ठीक से समझें तो घाटी क्या है? घाटी किसी चीज का अभाव है। पहाड़ किसी चीज का भाव है, किसी चीज का होना है। प्रकाश किसी चीज का होना है। अंधकार अभाव है, एब्सेंस है, अनुपस्थिति है।
मैं इस कमरे में हूं, तो मुझे बाहर निकाला जा सकता है। जब मैं इस कमरे में नहीं हूं, तो मेरी अनुपस्थिति, माई एब्सेंस इस कमरे में होगी। उसे आप बाहर नहीं निकाल सकते। अनुपस्थिति को छूने का कोई उपाय नहीं है। अगर मैं जिंदा हूं, तो मेरी हत्या की जा सकती है। लेकिन अगर मैं मर गया, तो मेरी मृत्यु के साथ कुछ भी नहीं किया जा सकता। जो नहीं है, उसके साथ कुछ भी नहीं किया जा सकता। जो है, उसके साथ कुछ किया जा सकता है। इसलिए अंधेरे को हम बना भी नहीं सकते और मिटा भी नहीं सकते।
घाटी की आत्मा लाओत्से का पारिभाषिक शब्द है--दि वैली स्पिरिट। क्या है घाटी की आत्मा? घाटी होती नहीं, दो पर्वतों के बीच में दिखाई पड़ती है। पर्वत खो जाते हैं, घाटी तो बनी रहती है। घाटी कहीं जाती नहीं, लेकिन दिखाई नहीं पड़ती पर्वत के खो जाने पर। जब दो पर्वत खड़े होते हैं, घाटी फिर दिखाई पड़ने लगती है। अंधेरा कहीं जाता नहीं; जब आप दीया जलाते हैं, तब सिर्फ छिप जाता है। प्रकाश की वजह से दिखाई नहीं पड़ता। प्रकाश चला जाता है, अंधेरा अपनी जगह है। शायद अंधेरे को पता भी नहीं है कि बीच में प्रकाश जला और मिट गया।
लाओत्से का समस्त चिंतन, लाओत्से का समस्त दर्शन निगेटिव पर खड़ा है, नकारात्मक पर खड़ा है; शून्य पर खड़ा है। और इसलिए लाओत्से ने कहा है, ‘दि फीमेल मिस्ट्री दस डू वी नेम; हम इसे स्त्रैण रहस्य का नाम देते हैं।’
इसे समझ लेना जरूरी है। और इसमें थोड़ा गहरे उतरना पड़ेगा। क्योंकि यह लाओत्से के तंत्र का मूल आधार है। फेमिनिन मिस्ट्री, स्त्री का रहस्य क्या है? वही घाटी का रहस्य है। और जो स्त्री का रहस्य है, वही अंधकार का रहस्य है। और जो स्त्री का रहस्य है, वह अस्तित्व में बहुत गहरा है।
इसलिए दुनिया के जो प्राचीनतम धर्म हैं, वे परमात्मा को पुरुष के रूप में नहीं मानते थे, स्त्री के रूप में मानते थे। और उनकी समझ परमात्मा को फादर या पिता मानने वाले लोगों से ज्यादा गहरी थी। लेकिन पुरुष का प्रभाव भारी हुआ और तब हमने ईश्वर की जगह भी पुरुष को बिठाना शुरू किया। लेकिन ईश्वर की जगह गॉड दि फादर बहुत नई बात है, गॉड दि मदर बहुत पुरानी बात है।
सच तो यह है, फादर ही नई बात है, मदर पुरानी बात है। पिता को जन्मे हुए पांच-छह हजार वर्ष से ज्यादा नहीं हुआ। पिता से पुराना तो काका या चाचा या अंकल है। शब्द भी अंकल पुराना है फादर से, पिता से। पशुओं में, पक्षियों में पिता का तो कोई पता नहीं चलता, लेकिन मां सुनिश्चित है। इसलिए पिता की जो संस्था है, वह मनुष्य की ईजाद है। बहुत पुरानी भी नहीं है। पांच हजार साल से ज्यादा पुरानी नहीं है। लेकिन जब हमने मनुष्य में पिता को बना लिया, तो हमने बहुत शीघ्र परमात्मा के सिंहासन से भी स्त्री को हटा कर पुरुष को बिठाने की जल्दी की। और तब जिन धर्मों ने परमात्मा की जगह पिता को रखा, उनके हाथ से फेमिनिन मिस्ट्री के सूत्र खो गए; वह जो स्त्रैण रहस्य है, उसका सारा राज खो गया।
और लाओत्से उस समय की बात कर रहा है, जब कि गॉड दि फादर का कोई खयाल ही नहीं था दुनिया में। और यह बहुत अर्थों में सोच लेने जैसी बात है। इसे कई तरफ से देखना पड़ेगा, तभी आपके खयाल में आ सके।
एक बच्चे का जन्म होता है। पिता बच्चे के जन्म में बहुत एक्सीडेंटल है, उसका कोई बहुत गहरा भाग नहीं है। और अब वैज्ञानिक कहते हैं कि पिता के बिना भी चल जाएगा, बहुत ज्यादा दिन जरूरत नहीं रहेगी। पिता का हिस्सा बहुत ही न के बराबर है। जन्म तो मां से ही मिलता है। तो जीवन को पैदा करने की जो कुंजी है और रहस्य है, वह तो मां के शरीर में छिपा है। पिता के शरीर में वह कुंजी और रहस्य नहीं छिपा हुआ है। इसलिए पिता को कभी भी गैर-जरूरी सिद्ध किया जा सकता है। उसका काम एक इंजेक्शन भी कर देगा।
और अगर मैं आज से दस हजार साल बाद किसी बच्चे का पिता बनना चाहूं, तो बन सकता हूं। लेकिन कोई मां अगर आज तय करे, तो दस हजार साल बाद मां नहीं बन सकती है। क्योंकि मां की मौजूदगी अभी जरूरी होगी, मेरी मौजूदगी जरूरी नहीं है। मेरे वीर्य-कण को संरक्षित रखा जा सकता है, डीप फ्रीज किया जा सकता है। दस हजार साल बाद इंजेक्शन से किसी भी स्त्री में वह जन्म का सूत्र बन सकता है। मेरा होना आवश्यक नहीं है। इसलिए बहुत जल्दी पोस्थुमस चाइल्ड पैदा होंगे। पिता मरे दस हजार साल हो गए, उसका बच्चा कभी भी पैदा हो सकता है। क्योंकि पिता का काम प्रकृति बहुत गहरा नहीं ले रही थी। गहरा काम तो मां का था। सृजनात्मक काम तो मां का ही था।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं, इसीलिए स्त्रियां दुनिया में कोई क्रिएटिव काम नहीं कर पाती हैं। क्योंकि वे इतना बड़ा क्रिएटिव काम कर लेती हैं कि और कोई सब्स्टीट्यूट खोजने की जरूरत नहीं रह जाती है--एक जीवित बच्चे को जन्म देना! लेकिन पुरुष ने दुनिया में बहुत सी चीजें पैदा की हैं, स्त्री ने नहीं पैदा की हैं। पुरुष चित्र बनाता है, मूर्तियां बनाता है, विज्ञान की खोज करता है, गीत लिखता है, संगीत बनाता है। यह जान कर आप हैरान होंगे कि स्त्रियां सारी दुनिया में खाना बनाती हैं, लेकिन अच्छे खाने की खोज सदा ही पुरुष करता है। नए खाने की खोज पुरुष करता है। और दुनिया का कोई भी बड़ा होटल या कोई बड़ा सम्राट स्त्री-रसोइए को रखने को राजी नहीं है, पुरुष-रसोइए को रखना पड़ता है। चाहे चित्र बनता हो दुनिया में, चाहे कविता पैदा होती हो, चाहे एक उपन्यास लिखा जाता हो, चाहे एक नई मूर्ति गढ़ी जाती हो, वह सब काम पुरुष करता है। बात क्या है?
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि पुरुष ईर्ष्या अनुभव करता है; स्त्री के समक्ष हीनता भी अनुभव करता है। वह भी कुछ पैदा करके दिखाना चाहता है, जो स्त्री के समक्ष सामने खड़ा हो जाए और कहा जा सके, हमने भी कुछ बनाया है, हमने भी कुछ पैदा किया है। और स्त्री कुछ पैदा नहीं करती, क्योंकि वह इतनी बड़ी चीज पैदा करती है कि उसके मन में फिर और पैदा करने की कोई कामना नहीं रह जाती। और एक स्त्री अगर मां बन गई है, तो कितना ही अच्छा चित्र बनाए, वह उसके बेटे या उसकी बेटी के सामने सदा फीका और निर्जीव होगा। इसलिए बांझ स्त्रियां जरूर कुछ-कुछ कोशिश करती हैं पुरुषों जैसी। वे जरूर पुरुष के साथ कुछ निर्माण करने की प्रतियोगिता में उतरती हैं। लेकिन एक स्त्री अगर सच में मां बन जाए, तो उसका जीवन बहुत आंतरिक गहराइयों तक तृप्त हो जाता है। स्त्री को प्रकृति ने सृजन का स्रोत चुना है।
निश्चित ही, स्त्री के शरीर में, वह जिसे लाओत्से कह रहा है स्त्रैण रहस्य, उसे हमें समझना पड़ेगा, तो ही हम अस्तित्व में स्त्रैण रहस्य को समझ पाएंगे। और हमारी कठिनाई ज्यादा बढ़ जाती है, क्योंकि सारी कोशिश जीवन को समझने की पुरुष ने की है। और सारी फिलासफीज, सारे दर्शन पुरुष ने निर्मित किए हैं। अब तक एक भी धर्म किसी स्त्री पैगंबर, स्त्री तीर्थंकर के आस-पास निर्मित नहीं हुआ है। सब शास्त्र पुरुषों के हैं। इसलिए लाओत्से को साथी खोजना मुश्किल हो गया, क्योंकि उसने स्त्रैण रहस्य की तारीफ की।
पुरुष जो भी सोचेगा और जो भी करेगा, उसमें पुरुष जहां खड़ा है, वहीं से सोचता है। और पुरुष को स्त्री कभी समझ में नहीं आ पाती है। इसलिए पुरुष निरंतर अनुभव करता है कि स्त्री बेबूझ है, समथिंग मिस्टीरियस। कुछ है जो छूट जाता है। वह क्या है जो छूट जाता है? निश्चित ही, पुरुष और स्त्री साथ-साथ जीते हैं। पुरुष स्त्री से पैदा होता है, स्त्री के साथ जीता है, प्रेम करता है, जन्म, पूरा जीवन बिताता है। फिर भी क्या है जो स्त्री के भीतर पुरुष के लिए अनजान और अपरिचित रह जाता है? वही अनजान और अपरिचित तत्व का नाम लाओत्से कह रहा है, फेमिनिन मिस्ट्री। घाटी का रहस्य, अंधकार का रहस्य, निषेध की खूबी। क्या है स्त्री के भीतर?
अगर एक स्त्री आपके प्रेम में पड़ जाए, तो भी आक्रमण नहीं करती है। प्रेम में भी आक्रमण नहीं करती है। प्रेम में भी प्रतीक्षा करती है। आक्रमण का मौका आपको ही देती है। आप कभी किसी स्त्री से ऐसा न कह सकेंगे कि तूने मुझे प्रेम में उलझा दिया, कि तूने मुझे विवाह में डाल दिया। स्त्रियां ही डालती हैं। लेकिन कभी आप किसी स्त्री से ऐसा न कह सकेंगे कि तूने मुझे प्रेम में उलझा दिया। क्योंकि इनीशिएटिव वे कभी नहीं लेतीं, पहल वे कभी नहीं करतीं। वही उनका रहस्य है: खींचना बिना किसी क्रिया के, बिना किसी कर्म के आकर्षित करना, सिर्फ होने मात्र से आकर्षित करना। जिसको कृष्ण ने गीता में इन-एक्शन कहा है, अकर्म कहा है, स्त्री का रहस्य वही है।
वह अगर प्रेम में भी गिर जाए, तो उसकी तरफ से इशारा भी नहीं मिलता कि वह आपके प्रेम में गिर गई है। उसकी मौजूदगी आपको खींचती है, खींचती है। आप ही पहली दफा कहते हैं कि मैं प्रेम में पड़ गया हूं। स्त्री कभी किसी से नहीं कहती कि मैं तुम्हारे प्रेम में पड़ गई हूं। पहल कभी नहीं करती, क्योंकि पहल आक्रामक है, एग्रेसिव है, पाजिटिव है। जब मैं किसी से कहता हूं कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूं, मैं अपने से बाहर गया। मैंने कहीं जाकर आक्रमण किया। मैंने ट्रेसपासिंग शुरू की। मैं दूसरे की सीमा में प्रवेश कर रहा हूं। स्त्री कभी किसी की सीमा में प्रवेश नहीं करती। फिर भी स्त्री आकर्षक है। उसका रहस्य क्या है?
निश्चित ही, उसका आकर्षण इन-एक्टिव है, एक्टिव नहीं है। पुकारती है, लेकिन आवाज नहीं होती उस पुकार में; हाथ फैलाती है, लेकिन उसके हाथ दिखाई नहीं पड़ते; निमंत्रण दिया जाता है, लेकिन निमंत्रण की कोई भी रूप-रेखा नहीं होती। कर्म पुरुष को करना पड़ता है। कदम उसे उठाना पड़ता है। जाना उसे पड़ता है। प्रार्थना उसे करनी पड़ती है। और फिर भी स्त्री इनकार किए चली जाती है। और जब भी कोई स्त्री किसी के प्रेम में जल्दी हां भर देती है, तब समझना चाहिए, उस स्त्री को भी स्त्रैण रहस्य का कोई पता नहीं है। क्योंकि जैसे ही स्त्री हां भरती है, वैसे ही व्यर्थ हो जाती है। उसका निषेध, उसका इनकार, उसका इनकार किए चले जाना ही उसका अनंत रस का रहस्य है। लेकिन उसकी नहीं कुछ ऐसी है, जैसी नहीं पुरुष कभी नहीं बोल सकता। क्योंकि जब पुरुष बोलता है नहीं, कहता है नो, इटमीन्स नो! और जब स्त्री कहती है नो, इट मीन्स यस। अगर स्त्री को नो ही कहना है, तो वह नो भी नहीं कहेगी। क्योंकि उतना कहना भी बहुत ज्यादा कहना है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक युवती के प्रेम में पड़ गया है। बहुत परेशान है। घर आकर अपने पिता को कहा है...। चिंतित, उदास है। तो पिता ने पूछा है, इतना चिंतित क्यों है नसरुद्दीन? नसरुद्दीन ने कहा कि मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं। जिस स्त्री के पीछे मैं नौ महीने से चक्कर लगा रहा हूं, आज उसने सब बात ही तोड़ दी। पिता ने कहा, तू नासमझ है! स्त्री जब कहे नहीं, तो उसका अर्थ नहीं नहीं होता। नसरुद्दीन ने कहा, वह तो मैं भी जानता हूं। लेकिन उसने नहीं नहीं कहा, उसने कहा कि तू कुत्ता! नहीं उसने कहा ही नहीं। अगर वह नहीं कहती, तो अभी मैं और नौ वर्ष चक्कर लगा सकता था। उसने नहीं भी नहीं कहा है। उतना भी रास्ता नहीं छोड़ा है।
स्त्री जब हां करती है, तब वह पुरुष की भाषा बोल रही है। इसलिए स्त्री के मुंह से हां बहुत ही छोछा, उथला और गहरे अर्थों में अनैतिक मालूम पड़ता है। उतना भी आक्रमण है। स्त्री का सारा रहस्य और राज तो इसमें है, उसकी मिस्ट्री इसमें है कि वह नहीं कहती है और बुलाती है। नहीं बुलाती और निमंत्रण जाता है। अपनी ओर से कभी कोई कमिटमेंट स्त्री नहीं करती। सब कमिटमेंट पुरुष करता है। सब प्रतिबद्धताएं पुरुष की हैं।
और इस भ्रांति में कोई पुरुष न रहे कि स्त्री ने कुछ भी नहीं किया है। स्त्री ने बहुत कुछ किया है। लेकिन उसके करने का ढंग निषेधात्मक है, घाटी की तरह है, अंधेरे की तरह है। निषेध ही उसकी तरकीब है। दूर हटना ही पास आने का निमंत्रण है। उसकी बचने की कोशिश ही बुलावा है। यह फेमिनिन मिस्ट्री है। और इसमें और गहरे उतरेंगे, तो बहुत सी बातें खयाल में आएंगी। स्त्री संभोग की दृष्टि से भी निषेधात्मक है, पैसिव है। इसलिए दुनिया में स्त्रियों के ऊपर कोई बलात्कार का जुर्म नहीं रखा जा सकता। किसी स्त्री ने लाखों वर्ष के इतिहास में किसी पर बलात्कार नहीं किया है। स्त्री के व्यक्तित्व में बलात्कार असंभव है।
पुरुष बलात्कार कर सकता है, करता है। और सौ में नब्बे मौके पर पुरुष जो भी करता है, वह बलात्कार ही होता है। सौ में नब्बे मौके पर! उन मौकों पर नहीं, जो अदालत में पकड़े जाते हैं; पति अपनी पत्नी के साथ भी जो संबंध निर्मित करता है, उसमें नब्बे मौके पर बलात्कार होता है। क्योंकि स्त्री चुप है। उसकी चुप्पी हां समझी जा सकती है। और जो हमने व्यवस्था की है समाज की, पति के प्रति हमने उसका कर्तव्य बांधा हुआ है। पति उससे प्रेम मांगे, तो वह चुप होकर दे देती है। लेकिन अगर उसके भीतर उस क्षण प्रेम नहीं था, तो पति का यह प्रेम बलात्कार होगा। लेकिन पुरुष बलात्कार कर सकता है, क्योंकि पुरुष का पूरा व्यक्तित्व आक्रामक, एग्रेसिव है, हमलावर है।
स्त्री का व्यक्तित्व रिसेप्टिव, ग्राहक है। यह न केवल व्यक्तित्व है, बल्कि शरीर की संरचना भी प्रकृति ने ऐसी ही की है कि स्त्री का शरीर केवल ग्राहक है। पुरुष का शरीर आक्रामक है। लेकिन सृजन होता है स्त्री से, जन्म होता है स्त्री से। आक्रमण करता है पुरुष, जो कि बिलकुल सांयोगिक है, जिसके बिना चल सकता है। और जन्म होता है स्त्री से, जो केवल ग्राहक है।
वैज्ञानिक कहते हैं, जब भी कहीं जन्म होता है, तो अंधेरे में; बीज फूटता है, तो जमीन के अंधेरे में। रोशनी में ले आओ, और बीज फूटना बंद कर देता है। एक व्यक्ति जन्मता है, तो मां के गर्भ के अंधकार में, निपट गहन अंधकार में। प्रकाश में ले आओ, जन्म मृत्यु बन जाती है। जीवन में जो भी पैदा होता है सूत्र रहस्य का, वह सदा अंधकार में, गुप्त और छिपे हुए जगत में होता है। और गुप्त वही हो सकता है, जो एग्रेसिव न हो, आक्रामक न हो। जो आक्रामक है, वह गुप्त कभी नहीं हो सकता।
इसलिए पुरुष के व्यक्तित्व में सतह बहुत होती है, गहराई नहीं होती उतनी। स्त्री के व्यक्तित्व में सतह बहुत कम होती है, गहराई बहुत ज्यादा होती है। और यही कारण है कि पुरुष जल्दी थक जाता है और स्त्री जल्दी नहीं थकती। आक्रमण थका देगा। इसलिए पुरुष-वेश्याएं नहीं हो सकीं, क्योंकि कोई पुरुष वेश्या नहीं हो सकता। एक संभोग, थक जाएगा। स्त्री वेश्या हो सकी; क्योंकि पचास संभोग भी उसे नहीं थका सकते। वह सिर्फ रिसेप्टिव है, वह कुछ करती ही नहीं। इसलिए एक अनोखी घटना घटी कि पुरुष वेश्याएं नहीं हो सके, स्त्रियां वेश्याएं हो सकीं। पुरुष बलात्कारी हो सके, स्त्रियां बलात्कारी नहीं हो सकीं। पुरुष गुंडे हो सके, स्त्रियां गुंडे नहीं हो सकीं। लेकिन स्त्रियां वेश्याएं हो सकीं, पुरुष वेश्याएं नहीं हो सके। और कारण कुल इतना है कि पुरुष का सारा व्यक्तित्व आक्रामक है। जो आक्रमण करेगा, वह थक जाएगा।
यह जान कर आप हैरान होंगे कि जब बच्चे पैदा होते हैं, तो सौ लड़कियां पैदा होती हैं तो एक सौ सोलह लड़के पैदा होते हैं। प्रकृति संतुलन को कायम रखती है। क्योंकि पुरुष कमजोर है। हम सब यही सोचते हैं कि पुरुष बहुत शक्तिशाली है। वह सिर्फ पुरुष का खयाल है। पुरुष कमजोर है। इसलिए एक सौ सोलह लड़के पैदा करने पड़ते हैं और सौ लड़कियां। क्योंकि चौदह वर्ष के होते-होते सोलह लड़के मर जाते हैं, और लड़के और लड़कियों का अनुपात बराबर हो जाता है। सोलह लड़के एक्सट्रा, अतिरिक्त, स्पेयर प्रकृति को पैदा करने पड़ते हैं। क्योंकि पता है कि सोलह लड़के सौ में से चौदह वर्ष की उम्र पाते-पाते मर जाएंगे।
स्त्रियों की औसत उम्र पुरुषों से ज्यादा है पांच वर्ष। अगर पुरुष सत्तर साल जीता है, तो स्त्रियां पचहत्तर साल जीती हैं। और स्त्रियां जितना श्रम उठाती हैं शरीर से! क्योंकि एक बच्चे को जन्म देने में जितना श्रम है, उतना एक एटम बम को जन्म देने में भी नहीं है। एक स्त्री बीस बच्चों को जन्म दे और फिर भी पुरुष से पांच साल ज्यादा जीती है। स्त्रियां कम बीमार पड़ती हैं। और जो बीमारियां स्त्रियों को हैं, वे स्त्रियों की नहीं, पुरुषों ने जो समाज निर्मित किया है, उसकी परेशानी की वजह से हैं। स्त्रियां कम बीमार पड़ती हैं। फिर भी जितनी बीमार पड़ती हैं, उसमें भी कोई सत्तर प्रतिशत कारण, पुरुषों ने जो व्यवस्था की है वह है, स्त्रियां नहीं। क्योंकि सारी व्यवस्था पुरुष की है, मैन-डामिनेटेड है। और पुरुष अपने ढंग से व्यवस्था करता है। उसमें स्त्री को एडजस्ट होना पड़ता है। वह उसकी बीमारी का कारण है।
हिस्टीरिया पुरुषों के समाज में स्त्रियों को एडजस्ट होने का परिणाम है। अगर स्त्रियों का समाज हो और पुरुषों को उसमें एडजस्ट होना पड़े, तो हिस्टीरिया इससे पांच गुना ज्यादा होगा। करीब-करीब सारे पुरुष पागल हो जाएंगे। वह स्त्रियों का रेसिस्टेंस है, प्रतिरोधक शक्ति है कि वे सब पागल नहीं हो गई हैं। फिर भी स्त्रियां आपको क्रोधी दिखाई पड़ती हैं, ईर्ष्यालु दिखाई पड़ती हैं, उपद्रव-कलह चौबीस घंटे वे जारी रखती हैं। उसका कुल कारण इतना है कि वे जो होने को पैदा हुई हैं, समाज उनको वह नहीं होने देता और कुछ और करवाने की कोशिश करता है। उससे उनकी सृजनात्मक शक्ति विध्वंस की तरफ, परवर्शन की तरफ, विकृति की तरफ चली जाती है।
और पुरुषों ने स्त्रियों को इतना दबाया और इतना सताया, तो आमतौर से लोग समझते हैं--स्त्रियां भी यही समझती हैं--कि स्त्रियां कमजोर थीं, इसलिए पुरुषों ने इतना सताया।
मैं आपसे कहना चाहता हूं, जो जानते हैं वे कुछ और जानते हैं। वे यह जानते हैं कि स्त्रियां इतनी शक्तिशाली थीं कि अगर न दबाई गई होतीं, तो पुरुषों को उन्होंने कभी का दबा डाला होता। उनको बचपन से ही दबाने की जरूरत है; नहीं वे खतरनाक सिद्ध हो सकती हैं। स्त्रियों को सारी दुनिया में दबाए जाने का जो असली कारण है, वह असली कारण यह है कि वे इतनी शक्तिशाली सिद्ध हो सकती हैं, अगर बिना दबाई छोड़ दी जाएं, कि पुरुष बहुत मुश्किल में पड़ जाएगा। इसलिए उन्हें सब तरफ से रोक देना जरूरी है। और बचपन से रोक देना जरूरी है।
और रुकावट करीब-करीब वैसी है, जैसे चीन में हम स्त्रियों को लोहे के जूते पहना देते थे। फिर उनका पैर बड़ा नहीं हो पाता था। फिर वे स्त्रियां दौड़ नहीं सकती थीं, चल नहीं सकती थीं ठीक से, भाग नहीं सकती थीं। सच तो यह है, उन्हें सदा ही पुरुष के कंधे के सहारे की जरूरत थी। और फिर पुरुष उनसे कहता था: नाजुक, डेलिकेट। और नाजुक होने को पुरुष ने एक मूल्य बना दिया, एक वैल्यू बना दिया। क्योंकि स्त्री नाजुक हो, तो ही उस पर काबू किया जा सकता है।
स्त्री पुरुष से ज्यादा मजबूत सिद्ध हो सकती है, अगर उसको पूरा विकसित होने दिया जाए। क्योंकि प्रकृति ने उसे जन्म की शक्ति दी है। और जन्म की शक्ति सदा उसके पास होती है, जो ज्यादा शक्तिशाली है। अन्यथा गर्भ को खींच लेना असंभव हो जाएगा।
लाओत्से कहता है, इस स्त्रैण रहस्य को ठीक से समझ लें। यह घाटी की जो आत्मा है, इसे ठीक से समझ लें। यह घाटी की आत्मा कभी थकती नहीं। यह कभी मरती नहीं। यह जो निषेध है, यह जो न करने के द्वारा करने की कला है, यह जो बिना आक्रमण के आक्रमण कर देना है, यह बिना बुलाए बुला लेने का जो राज है, इसे ठीक से समझ लें। क्योंकि लाओत्से कहता है, इस राज को समझ कर ही कोई जीवन के परम सत्य को उपलब्ध कर सकता है। हम पुरुष की तरह परम सत्य को कभी नहीं पा सकते, क्योंकि परम सत्य पर कोई आक्रमण नहीं किया जा सकता। कोई हम बंदूकें और तलवारें लेकर परमात्मा के मकान पर कब्जा नहीं कर लेंगे।
परमात्मा को केवल वे ही पा सकते हैं, जो स्त्रैण रहस्य को समझ गए, जिन्होंने अपने को इतना समर्पित किया, इतना छोड़ा, लेट गो, कि परमात्मा उनमें उतर सके। ठीक वैसे ही, जैसे स्त्री पुरुष के प्रेम में अपने को छोड़ देती है; कुछ करती नहीं, बस छोड़ देती है; और पुरुष उसमें उतर पाता है।
एक बहुत अनूठी बात जो इधर दस वर्षों में खयाल में आनी शुरू हुई। क्योंकि वास्तविक स्त्री खो गई है दुनिया से। और जो स्त्री है, वह बिलकुल सूडो है, वह पुरुष के द्वारा बनाई गई है, वह बिलकुल बनावटी है। जिसको हम आज स्त्री कह कर जानते हैं, वह पुरुष के द्वारा बनाई गई गुड़िया से ज्यादा नहीं है। वह स्वाभाविक स्त्री नहीं है, जैसी होनी चाहिए।
अभी पश्चिम में एक छोटा सा वैज्ञानिकों का प्रयोग चलता है, जिसमें वे यह कोशिश करते हैं कि क्या यह संभव है! और तंत्र ने इस पर बहुत पहले काम किया है--बहुत पहले, कोई दो हजार साल पहले--और यह अनुभव किया है कि यह हो सकता है। स्त्री और पुरुष के संभोग में चूंकि पुरुष सक्रिय होता है। अगर पुरुष सक्रिय न हो पाए, तो संभोग असंभव है। अगर पुरुष कमजोर हो जाए, वृद्ध हो जाए, उसके जनन-यंत्र शिथिल हो जाएं, तो संभोग असंभव है। लेकिन अभी पश्चिम में दस वर्षों में कुछ प्रयोग हुए हैं गहरे, जिनमें वे कहते हैं कि अगर पुरुष की जननेंद्रिय बिलकुल शिथिल और क्षीण, शक्तिहीन हो जाए, तो भी फिक्र नहीं। स्त्री अगर उस पुरुष को प्रेम करती है, तो सिर्फ स्त्री-जननेंद्रिय के पास पहुंच जाने पर स्त्री की जननेंद्रिय पुरुष की जननेंद्रिय को चुपचाप अपने भीतर खींच लेती है। पुरुष को प्रवेश की भी जरूरत नहीं है। अगर स्त्री का प्रेम भारी है, तो उसका शरीर ऐसे खींच लेता है, जैसे खाली जगह में हवा खिंच कर आ जाए।
यह बहुत हैरानी का तथ्य है। और अगर ऐसा नहीं होता, तो उसका कुल कारण इतना है कि स्त्री प्रेम नहीं करती है उस पुरुष को। इसलिए उसका शरीर उसे खींचता नहीं। और इसलिए पुरुष जो भी कर रहा है, वह बलात्कार है। अगर स्त्री प्रेम करती है, तो खींच लेगी। उसका पूरा बायोलॉजिकल, उसका जैविक यंत्र ऐसा है कि वह व्यक्ति को अपने भीतर खींच लेगी।
लाओत्से कहता है, यह स्त्री का रहस्य है कि बिना कुछ किए वह कुछ कर सकती है। बिना कुछ किए! पुरुष को कुछ भी करना हो, तो करना पड़ेगा। धर्म का रहस्य भी स्त्रैण है। अगर कोई परमात्मा को पाने जाए, तो कभी न पा सकेगा। और कोई केवल अपने हृदय के द्वार क
ो खोल कर ठहर जाए, तो परमात्मा यहीं और अभी प्रवेश कर जाता है। दूर-दूर खोजे कोई, अनंत की यात्रा करे कोई, भटके जन्मों-जन्मों तक, तो भी परमात्मा को नहीं पा सकेगा। क्योंकि परमात्मा को पाने का राज ही यही है कि हम रिसेप्टिव हो जाएं, एग्रेसिव नहीं। हम अपने को खुला छोड़ दें। हम सिर्फ राजी हो जाएं कि वह आता हो तो हमारे द्वार-दरवाजे बंद न पाए। हमारा प्रेम इतना ही करे कि वह एक पैसिव अवेटिंग, एक निष्क्रिय प्रतीक्षा बन जाए।
स्त्री जन्म-जन्म तक अपने प्रेमी की प्रतीक्षा कर सकती है; पुरुष नहीं कर सकता। पुरुष प्रतीक्षा जानता ही नहीं है। पुरुष के मन की जो व्यवस्था है, उसमें प्रतीक्षा नहीं है। उसमें अभी और यहीं, इंसटैंट सब चाहिए। इंसटैंट काफी भी, इंसटैंट सेक्स भी। अभी! इसलिए पुरुष ने विवाह ईजाद किया। क्योंकि विवाह के बिना इंसटैंट सेक्स, अभी, संभव नहीं है। पुरुष प्रतीक्षा बिलकुल नहीं कर सकता। आतुर है, व्यग्र है, तनावग्रस्त है। लेकिन स्त्री प्रतीक्षा कर सकती है, अनंत प्रतीक्षा कर सकती है।
इसलिए जब इस मुल्क में हिंदुओं ने पुरुषों को विधुर रखने की व्यवस्था नहीं की और स्त्रियों को विधवा रखने की व्यवस्था की, तो यह सिर्फ स्त्रियों पर ज्यादती ही नहीं थी, यह स्त्रियों की प्रतीक्षा के तत्व की समझ भी इसमें थी। एक स्त्री अपने प्रेमी के लिए पूरे जन्म, अगले जन्म तक के लिए प्रतीक्षा कर सकती है। यह भरोसा किया जा सकता है। लेकिन पुरुष पर यह भरोसा नहीं किया जा सकता।
इसलिए भारत ने अगर स्त्रियों को विधवा रखने की व्यवस्था दी और पुरुषों को नहीं दी, तो सिर्फ इसलिए नहीं कि यह व्यवस्था पुरुष के पक्ष में थी। जहां तक मैं समझ पाता हूं, यह पुरुष का बहुत बड़ा अपमान था, यह स्त्री का गहनतम सम्मान था। क्योंकि इस बात की सूचना थी कि हम स्त्री पर भरोसा कर सकते हैं कि वह प्रतीक्षा कर सकती है। लेकिन पुरुष पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। पुरुष पर भरोसा नहीं किया जा सकता, इसलिए विधुर को रखने के लिए आग्रह नहीं रहा। कोई रहना चाहे, वह उसकी मर्जी! लेकिन स्त्री पर आग्रह था।
और आग्रह इसलिए था कि उसकी प्रतीक्षा में ही उसका वह जो स्त्रैण तत्व है, वह ज्यादा प्रकट होगा। उसे जितना अवसर मिले निष्क्रिय प्रतीक्षा का, उसके भीतर की गहराइयां उतनी ही गहन और गहरी हो जाती हैं। और उसके आंतरिक रहस्य मधुर और सुगंधित हो जाते हैं।
एक बहुत हैरानी की बात मैं कभी-कभी पढ़ता रहा हूं। कभी मेरे खयाल में नहीं आती थी कि बात क्या होगी। कैथोलिक प्रीस्ट के सामने लोग अपने पापों की स्वीकृतियां करते हैं, कन्फेशन करते हैं। अनेक कैथोलिक पुरोहितों का यह अनुभव है कि जब स्त्रियां उनके सामने अपने पापों की स्वीकृति करती हैं, तो स्वभावतः वे भी मनुष्य हैं और केवल ट्रेंड प्रीस्ट हैं।
ईसाइयत ने एक दुनिया को बड़े से बड़ी जो बुरी बात दी है, वह यह, प्रशिक्षित पुरोहित दिए। कोई प्रशिक्षित पुरोहित नहीं हो सकता। प्रशिक्षित डाक्टर हो सकते हैं, प्रशिक्षित वकील हो सकते हैं, लेकिन प्रशिक्षित पुरोहित नहीं हो सकता; उसी तरह, जैसे प्रशिक्षित पोएट, कवि नहीं हो सकता। और अगर आप कविता को सिखा दें और ट्रेनिंग दे दें और सर्टिफिकेट दे दें कि यह आदमी ट्रेंड है कविता में, तो वह सिर्फ तुकबंदी करेगा। कविता उससे पैदा नहीं हो सकती। पुरोहित भी जन्मजात क्षमता है, साधना का फल है। उसे कोई प्रशिक्षित नहीं कर सकता। लेकिन ईसाइयत ने प्रशिक्षित किए। ट्रेंड पुरोहित हैं, उनके पास डिग्रियां हैं, उनमें कोई डी.डी. है, डाक्टर ऑफ डिविनिटी है। डाक्टर ऑफ डिविनिटी कोई नहीं होता, क्योंकि सर्टिफिकेट पर जो डिविनिटी तय हो जाएगी, वह डिविनिटी नहीं हो सकती है। वह क्या दिव्यता होगी जो एक स्कूल-सर्टिफिकेट देने से तय हो जाती हो!
तो पुरोहित के पास जब स्त्रियां अपने पापों का कन्फेशन करती हैं, तो यह कन्फेशन बहुत टेंपटिंग हो जाता है। स्वाभाविक! जब कोई स्त्री अपने पाप का स्वीकार करती है, और एकांत में करती है, तो पुरोहित के लिए बड़ी बेचैनी हो जाती है। स्त्री तो हलकी हो जाती है, पुरोहित भारी हो जाता है। लेकिन कैथोलिक पुरोहितों का एक वक्तव्य मुझे सदा हैरान करता था, वह यह कि विधवा स्त्रियां ज्यादा आकर्षक और टेंपटिंग सिद्ध होती हैं। मैं बहुत हैरान था कि यह क्या कारण होगा?
असल में, विधवा अगर सच में विधवा हो, तो उसके सौंदर्य में बहुत बढ़ती हो जाती है। क्योंकि प्रतीक्षा उसके स्त्रैण रहस्य को गहन कर देती है। कुंवारी लड़की में जो रहस्य होता है, वह प्रतीक्षा का है। इसलिए सारी दुनिया में जो समझदार कौमें थीं, उन्होंने तय किया कि कुंवारी लड़की से ही विवाह करना। क्योंकि सच तो यह है कि जो लड़की कुंवारी नहीं है, उससे विवाह करने का मतलब है कि आपको स्त्री के रहस्य को जानने का मौका ही नहीं मिलेगा। वह रहस्य पहले ही खंडित हो चुका। वह स्त्री छिछली हो गई। उसने प्रतीक्षा ही नहीं की है इतनी, जितनी प्रतीक्षा पर वह भीतर का पूरा का पूरा रहस्यमय फूल खिलता है।
इसलिए जिन समाजों ने स्त्री के कुंवारे रहने पर और विवाह पर जोर दिया, उन्होंने पुरुष के कुंवारेपन की बहुत फिक्र नहीं की है। उसका कारण है कि पुरुष के कुंवारेपन या न कुंवारेपन से कोई फर्क नहीं पड़ता है। लेकिन स्त्री के कुंवारेपन से फर्क पड़ता है। कुंवारी स्त्री में एक सौंदर्य है जो विवाह के बाद उसमें खो जाता है।
वह सौंदर्य उसमें फिर से जन्मता है, जब वह मां बनना शुरू होती है। क्योंकि अब वह एक और बड़े रहस्य के द्वार पर, और एक और बड़ी प्रतीक्षा के द्वार पर खड़ी हो जाती है। उसे गर्भवती देख कर पति चिंतित हो सकता है। और पति चिंतित होते हैं। और उनकी चिंता स्वाभाविक है। क्योंकि उनके लिए प्रतीक्षा नहीं, केवल एक और इकोनॉमिक, एक आर्थिक उपद्रव उनके ऊपर आने को है। लेकिन मां मधुर हो जाती है। असल में, मां का गर्भ जैसे बढ़ने लगता है, उसकी आंखों की गहराई बढ़ने लगती है; उसके शरीर में नए कोमल तत्वों का आविर्भाव होता है। गर्भिणी स्त्री का सौंदर्य स्त्रैण रहस्य से बहुत भारी हो जाता है। यह क्या होगा रहस्य?
यह पैसिविटी इज़ दि सीक्रेट। अब मां बनने के लिए कुछ उसे करना तो पड़ता नहीं। बेटा उसके पेट में बड़ा होने लगता है; उसे सिर्फ प्रतीक्षा करनी होती है। उसे कुछ भी नहीं करना होता। असल में, उसे सब करना छोड़ देना होता है; सिर्फ प्रतीक्षा ही करनी होती है। जैसे-जैसे उसके बेटे का या उसकी बेटी का, उसके गर्भ का विकास होने लगता है, वैसे-वैसे सब काम उसे छोड़ देना पड़ता है। वह सिर्फ प्रतीक्षा में रह जाती है, वह सिर्फ स्वप्न देखने लगती है। इसलिए अगर सारा काम स्त्री छोड़ दे बच्चे के जन्म के करीब, तो वह वे स्वप्न देख सकती है, जो उसके बच्चे के भविष्य की सूचनाएं होंगे। इसलिए महावीर या बुद्ध की मां के स्वप्न बड़े मूल्यवान हो गए। महावीर या बुद्ध के संबंध में कहा जाता है कि जब वे पैदा हुए, तो उनकी मां ने स्वप्न देखे। वे स्वप्न रोज मां के सामने प्रकट होते गए। उन स्वप्नों में बुद्ध या महावीर के जीवन की सारी रूप-रेखा प्रकट हो गई।
अगर मां सच में ही मां हो और आने वाले भविष्य में जो जन्म लेने वाला प्राण है उससे, उसके साथ पूरी पैसिविटी में हो, तो वह अपने बच्चे की जन्मकुंडली खुद ही लिख जा सकती है। किसी पुरोहित, किसी पंडित को दिखाने की जरूरत नहीं है। और मां जिसकी जन्मकुंडली न लिख सके, उसकी कोई पुरोहित और पंडित न लिख सकेगा। क्योंकि इतना तादात्म्य, इतना एकात्म फिर कभी किसी दूसरे से नहीं होता है। पति से भी नहीं होता है इतना तादात्म्य पत्नी का, जितना अपने बेटे से होता है। बेटा उसका ही एक्सटेंशन है, उसका ही फैलाव है।
लेकिन मां बनने के लिए कुछ भी करना नहीं पड़ता; पिता बनने के लिए बहुत कुछ करना पड़ता है। मां बनने के लिए कुछ भी नहीं करना होता। मां बनने के लिए केवल मौन प्रतीक्षा करनी होती है। इस मौन प्रतीक्षा में दो चीजों का जन्म होता है: एक तो बेटे का जन्म होता है और एक मां का भी जन्म होता है।
इसलिए पूरब के मुल्क, जिन्होंने फेमिनिन मिस्ट्री को समझा, उन्होंने स्त्री को जो चरम आदर दिया है, वह मां का, पत्नी का नहीं। यह बहुत हैरानी की बात है।
मुझसे लोग पूछते थे कि आप संन्यासियों को स्वामी कहते हैं, लेकिन संन्यासिनियों को मां क्यों कहते हैं, जब कि अभी उनका विवाह भी नहीं हुआ? उनका बच्चा भी नहीं हुआ?
असल में, मां का संबंध स्त्री की चरम गरिमा से है। वह अपनी चरम गरिमा पर सिर्फ मां के क्षण में होती है। उसका जो पीक एक्सपीरिएंस है, वह पत्नी होना नहीं है, प्रेयसी होना नहीं है--प्रेयसी और पत्नी होना केवल चढ़ाई की शुरुआत है--उसका जो पीक एक्सपीरिएंस है, जो शिखर-अनुभव है, वह उसका मां होना है।
इसलिए जिन समाजों में भी स्त्रियों ने तय कर लिया है कि पत्नी होना उनका शिखर है, उन समाजों में स्त्रियां बहुत दुखी हो जाएंगी; क्योंकि वह उनका शिखर है नहीं। यद्यपि पुरुष राजी है कि वे पत्नी होने को ही अपना शिखर समझें। क्योंकि पुरुष को पति होने पर शिखर उपलब्ध हो जाता है। पिता होने पर उसे शिखर उपलब्ध नहीं होता। उसे प्रेमी होने पर शिखर उपलब्ध हो जाता है। लेकिन स्त्री को उपलब्ध नहीं होता।
स्त्री का यह जो मातृत्व का राज है, इसे लाओत्से कहता है, यह अंधेरे जैसा है।
इसमें और बहुत सी बातें खयाल में लेने जैसी हैं। जब पुरुष पैदा होता है, जब एक बच्चा पैदा होता है, लड़का पैदा होता है, तो उसके पास अभी सेक्स हारमोन होते नहीं, बाद में पैदा होने शुरू होते हैं। उसका वीर्य बाद में निर्मित होना शुरू होता है। लेकिन यह जान कर आप हैरान होंगे कि जब लड़की पैदा होती है, तो वह अपने सब अंडे साथ लेकर पैदा होती है। उसके जीवन भर में जितने अंडे प्रति माह उसके मासिक धर्म में निकलेंगे, उतने अंडे वह लेकर ही पैदा होती है। स्त्री पूरी पैदा होती है। उसके पास पूरा कोश होता है उसके एग्स का। फिर उनमें से एक-एक अंडा समय पर बाहर आने लगेगा। लेकिन वह सब अंडे लेकर आती है। पुरुष अधूरा पैदा होता है।
और अधूरे पैदा होने की वजह से लड़के बेचैन होते हैं और लड़कियां शांत होती हैं। एक अनइजीनेस लड़के में जन्म से होती है। लड़की में एक एटईजनेस जन्म से होती है। लड़की के शरीर का, उसके व्यक्तित्व का जो सौंदर्य है, वह उसकी शांति से बहुत ज्यादा संबंधित है। अगर लड़की को बेचैन करना हो, तो उपाय करने पड़ते हैं। और लड़के को अगर शांत करना हो, तो उपाय करने पड़ते हैं; अशांत होना स्वाभाविक है।
बायोलॉजिस्ट कहते हैं कि उसका कारण है कि स्त्री जिस अंडे से बनती है, उसमें जो अणु होते हैं, वे एक्स-एक्स होते हैं। दोनों एक से होते हैं। और पुरुष जिस क्रोमोसोम से बनता है, उसमें एक्स-वाई होता है; उसमें एक एक्स होता है, एक वाई होता है; वे समान नहीं होते। स्त्री में जो तत्व होते हैं, वे एक्स-एक्स होते हैं, दोनों समान होते हैं। इसलिए स्त्री सुडौल होती है, पुरुष सुडौल नहीं हो पाता। स्त्री के शरीर में जो कर्व्स का सौंदर्य है, वह उसके एक्स-एक्स दोनों संतुलित अंडों के कारण है। और पुरुष के शरीर में वैसा संतुलन नहीं हो सकता, क्योंकि एक्स-वाई, उसके एक और दूसरे में समानता नहीं है। स्त्री के व्यक्तित्व को बनाने वाले अड़तालीस अणु हैं; वे पूरे हैं चौबीस-चौबीस। पुरुष को बनाने वाले सैंतालीस हैं। और बायोलॉजिस्ट कहते हैं कि वह जो एक अणु की कमी है, वही पुरुष को जीवन भर दौड़ाती है--इस दुकान से उस दुकान, जमीन से चांद--दौड़ाती रहती है। वह जो एक कम है, उसकी खोज है। वह पूरा होना चाहता है।
यह जो स्त्री का संतुलित, शांत, प्रतीक्षारत व्यक्तित्व है, लाओत्से कहता है, यह जीवन का बड़ा गहरा रहस्य है। परमात्मा स्त्री के ढंग से अस्तित्व में है; पुरुष के ढंग से नहीं। इसलिए परमात्मा को हम देख नहीं पाते हैं। उसे हम पकड़ भी नहीं पाते हैं। वह मौजूद है जरूर; लेकिन उसकी प्रेजेंस स्त्रैण है, न होने जैसा है। उसे हम पकड़ने जाएंगे, उतना ही वह हमसे छूट जाएगा, उतना ही हट जाएगा। उतनी ही उसकी खोज मुश्किल हो जाएगी।
अस्तित्व स्त्रैण है। इसका अर्थ यह है कि अस्तित्व में जो भी प्रकट होता है, अस्तित्व में पहले से छिपा है--एक। जैसा मैंने कहा, स्त्री में जो भी पैदा होगा, वह सब पहले से ही छिपा है। वह अपने जन्म के साथ लेकर आती है सब। उसमें कुछ नया एडीशन नहीं होता। वह पूरी पैदा होती है। उसमें ग्रोथ होती है, लेकिन एडीशन नहीं होता। उसमें विकास होता है, लेकिन कुछ नई चीज जुड़ती नहीं। यही वजह है कि वह बड़ी तृप्त जीती है। स्त्रियों की तृप्ति आश्चर्यजनक है। अन्यथा इतने दिन तक उनको गुलाम नहीं रखा जा सकता था। उनकी तृप्ति आश्चर्यजनक है; गुलामी में भी वे राजी हो जाती हैं। कैसी भी स्थिति हो, वे राजी हो जाती हैं। अतृप्ति उनमें बड़ी मुश्किल से पैदा की जा सकती है; बड़ी कठिन है। और तभी पैदा की जा सकती है, जब कुछ बायोलॉजिकल कठिनाई उनके भीतर पैदा हो जाए। जैसा पश्चिम में लग रहा है कि कठिनाई पैदा हुई है। तो उनमें पैदा की जा सकती है बेचैनी।
और जिस दिन स्त्री बेचैन होती है, उस दिन उसको चैन में लाना फिर बहुत मुश्किल है। क्योंकि वह बिलकुल अप्राकृतिक है उसका बेचैन होना। इसलिए स्त्री बेचैन नहीं होती, सीधी पागल होती है। यह आप जान कर हैरान होंगे कि स्त्री या तो शांत होती है या पागल हो जाती है; बीच में नहीं ठहरती, ग्रेडेशंस नहीं हैं। पुरुष न तो शांत होता है इतना, न इतना पागल होता है; बीच में काफी डिग्रीज हैं उसके पास। अशांति की डिग्रीज में वह डोलता रहता है। बड़ी से बड़ी अशांति में भी वह पागल नहीं हो जाता; और बड़ी से बड़ी शांति में भी वह बिलकुल शांत नहीं हो जाता।
नीत्शे ने बहुत विचार की बात कही है। उसने कहा है कि जहां तक मैं समझता हूं, बुद्ध जैसे व्यक्ति में स्त्रैण तत्व ज्यादा रहे होंगे। बुद्ध को वूमेनिश कहा है नीत्शे ने। और मैं मानता हूं कि इसमें एक गहरी समझ है। सच यह है कि जब कोई पुरुष भी पूरी तरह शांत होता है, तो स्त्रैण हो जाता है। हो ही जाएगा। हो जाएगा इसलिए कि इतना शांत हो जाएगा कि वह जो पुरुष की अनिवार्य बेचैनी थी, वह जो अनिवार्य अशांति थी, अनिवार्य तनाव था, वह जो टेंशन था पुरुष के अस्तित्व का, वह खो जाएगा।
यही वजह है कि हमने भारत में प्रतीकात्मक रूप से कृष्ण की, बुद्ध की, महावीर की दाढ़ी-मूंछ नहीं बनाई। ऐसा नहीं कि नहीं थी; थी। लेकिन नहीं बनाई; क्योंकि वह सांकेतिक नहीं रह गई। सांकेतिक नहीं रह गई। वह बुद्ध के भीतर की खबर नहीं देती, इसलिए उसे हटा दिया। सिर्फ एक मूर्ति पर बुद्ध की दाढ़ी है, इसलिए लोग उस मूर्ति को कहते हैं वह झूठ है, वह ठीक नहीं है। क्योंकि किसी मूर्ति पर दाढ़ी नहीं है। महावीर की एक मूर्ति पर मूंछ है, तो लोग कहते हैं कि वह कुछ किसी जादूगर ने उन पर मूंछ उगा दी है। तो उस पूरे मंदिर का नाम मुछाला महावीर है, मूंछ वाले महावीर। क्योंकि महावीर तो मूंछ वाले थे नहीं।
लेकिन महावीर में मूंछ न हो, बुद्ध में मूंछ न हो, कभी एकाध दफा ऐसी घटना घट सकती है; क्योंकि कुछ पुरुष होते हैं, जिनमें हारमोन्स की कमी की वजह से दाढ़ी-मूंछ नहीं होती। लेकिन जैनों के चौबीस तीर्थंकर और किसी को दाढ़ी न हो, जरा कठिन है! इतना बड़ा संयोग मुश्किल है।
लेकिन वह प्रतीकात्मक है। वह इस बात की खबर है कि हमने यह स्वीकार कर लिया था कि यह व्यक्ति अब स्त्रैण रहस्य में प्रवेश कर गया, दि फेमिनिन मिस्ट्री में।
ध्यान रहे, जब मैं स्त्रैण रहस्य कह रहा हूं, तो कोई ऐसा न समझे कि मेरा मतलब स्त्री से ही है। स्त्री भी, हो सकती है, स्त्रैण रहस्य में प्रवेश न करे; और पुरुष भी प्रवेश कर सकता है। स्त्रैण रहस्य तो जीवन का एक सूत्र है।
लाओत्से इसलिए कहता है कि दि फीमेल मिस्ट्री दस डू वी नेम। हम इस तरह नाम देते हैं। नाम देने का कारण है। क्योंकि यह नाम अर्थपूर्ण मालूम पड़ता है। हम उस रहस्य को पुरुष जैसा नाम नहीं दे सकते; क्योंकि वह रहस्य परम शांत है। वह इतना शांत है कि उसकी उपस्थिति की भी खबर नहीं मिलती। क्योंकि उपस्थिति की भी खबर तभी मिलती है, जब कोई खबर दे।
इसलिए सच्ची प्रेयसी वह नहीं है जो अपने प्रेमी को अपने होने की खबर चौबीस घंटे करवाती रहती है। करवाते रहते हैं लोग। अगर पति घर आया है, तो पत्नी हजार उपाय करती है। बर्तन जोर से छूटने लगते हैं हाथ से। खबर करवाती है कि मैं हूं, इसे स्मरण रखना; मैं यहीं आस-पास हूं। पति भी पूरे उपाय करता है कि तुम नहीं हो। अखबार फैला कर, जिसे वह दस बार पढ़ चुका है, फिर पढ़ने लगता है। वह अखबार दीवार है, जिसके पार बजाओ कितने ही बर्तन, कितनी ही करो आवाज, बच्चों को पीटो, शोरगुल मचाओ, रेडियो जोर से बजाओ, नहीं सुनेंगे। हम अखबार पढ़ते हैं!
लेकिन प्रेयसी सच में वही है, जिस स्त्री को स्त्रैण रहस्य का पता चल गया। वह अपने प्रेमी के पास अपनी उपस्थिति को पता भी नहीं चलने देगी।
एक बहुत अदभुत घटना मैं आपसे कहता हूं। वाचस्पति मिश्र का विवाह हुआ। पिता ने आग्रह किया, वाचस्पति की कुछ समझ में न आया; इसलिए उन्होंने हां भर दी। सोचा, पिता जो कहते होंगे, ठीक ही कहते होंगे। वाचस्पति लगा था परमात्मा की खोज में। उसे कुछ और समझ में ही न आता था। कोई कुछ भी बोले, वह परमात्मा की ही बात समझता था। पिता ने वाचस्पति को पूछा, विवाह करोगे? उसने कहा, हां।
उसने शायद सुना होगा, परमात्मा से मिलोगे? जैसा कि हम सब के साथ होता है। जो धन की खोज में लगा है, उससे कहो, धर्म खोजोगे? वह समझता है, शायद कह रहे हैं, धन खोजोगे? उसने कहा, हां। हमारी जो भीतर खोज होती है, वही हम सुन पाते हैं। वाचस्पति ने शायद सुना; हां भर दी।
फिर जब घोड़े पर बैठ कर ले जाया जाने लगा, तब उसने पूछा, कहां ले जा रहे हैं? उसके पिता ने कहा, पागल, तूने हां भरा था। विवाह करने चल रहे हैं। तो फिर उसने न करना उचित न समझा; क्योंकि जब हां भर दी थी और बिना जाने भर दी थी, तो परमात्मा की मर्जी होगी।
वह विवाह करके लौट आया। लेकिन पत्नी घर में आ गई, और वाचस्पति को खयाल ही न रहा। रहता भी क्या! न उसने विवाह किया था, न हां भरी थी। वह अपने काम में ही लगा रहा। वह ब्रह्मसूत्र पर एक टीका लिखता था। वह बारह वर्ष में टीका पूरी हुई। बारह वर्ष तक उसकी पत्नी रोज सांझ दीया जला जाती, रोज सुबह उसके पैरों के पास फूल रख जाती, दोपहर उसकी थाली सरका देती। जब वह भोजन कर लेता, तो चुपचाप पीछे से थाली हटा ले जाती। बारह वर्ष तक उसकी पत्नी का वाचस्पति को पता नहीं चला कि वह है। पत्नी ने कोई उपाय नहीं किया कि पता चल जाए; बल्कि सब उपाय किए कि कहीं भूल-चूक से पता न चल जाए, क्योंकि उनके काम में बाधा न पड़े।
बारह वर्ष जिस पूर्णिमा की रात वाचस्पति का काम आधी रात पूरा हुआ और वाचस्पति उठने लगे, तो उनकी पत्नी ने दीया उठाया--उनको राह दिखाने के लिए उनके बिस्तर तक। पहली दफा बारह वर्ष में, कथा कहती है, वाचस्पति ने अपनी पत्नी का हाथ देखा। क्योंकि बारह वर्ष में पहली दफा काम समाप्त हुआ था। अब मन बंधा नहीं था किसी काम से। हाथ देखा, चूड़ियां देखीं, चूड़ियों की आवाज सुनी। लौट कर पीछे देखा और कहा, स्त्री, इस आधी रात अकेले में तू कौन है? कहां से आई? द्वार मकान के बंद हैं, कहां पहुंचना है तुझे, मैं पहुंचा दूं!
उसकी पत्नी ने कहा, आप शायद भूल गए होंगे, बहुत काम था। बारह वर्ष आप काम में थे। याद आपको रहे, संभव भी नहीं है। बारह वर्ष पहले, खयाल अगर आपको आता हो, तो आप मुझे पत्नी की तरह घर ले आए थे। तब से मैं यहीं हूं।
वाचस्पति रोने लगा। उसने कहा, यह तो बहुत देर हो गई। क्योंकि मैंने तो प्रतिज्ञा कर रखी है कि जिस दिन यह ग्रंथ पूरा हो जाएगा, उसी दिन घर का त्याग कर दूंगा। तो यह तो मेरे जाने का वक्त हो गया। भोर होने के करीब है; तो मैं जा रहा हूं। पागल, तूने पहले क्यों न कहा? थोड़ा भी तू इशारा कर सकती थी। लेकिन अब बहुत देर हो गई।
वाचस्पति की आंखों में आंसू देख कर पत्नी ने उसके चरणों में सिर रखा और उसने कहा, जो भी मुझे मिल सकता था, वह इन आंसुओं में मिल गया। अब मुझे कुछ और चाहिए भी नहीं है। आप निश्चिंत जाएं। और मैं क्या पा सकती थी इससे ज्यादा कि वाचस्पति की आंख में मेरे लिए आंसू हैं! बस, बहुत मुझे मिल गया है।
वाचस्पति ने अपने ब्रह्मसूत्र की टीका का नाम भामति रखा है। भामति का कोई संबंध टीका से नहीं है। ब्रह्मसूत्र से कोई लेना-देना नहीं है। यह उसकी पत्नी का नाम है। यह कह कर कि अब मैं कुछ और तेरे लिए नहीं कर सकता, लेकिन मुझे चाहे लोग भूल जाएं, तुझे न भूलें, इसलिए भामति नाम देता हूं अपने ग्रंथ को। वाचस्पति को बहुत लोग भूल गए हैं; भामति को भूलना मुश्किल है। भामति लोग पढ़ते हैं। अदभुत टीका है ब्रह्मसूत्र की। वैसी दूसरी टीका नहीं है। उस पर नाम भामति है।
फेमिनिन मिस्ट्री इस स्त्री के पास होगी। और मैं मानता हूं कि उस क्षण में इसने वाचस्पति को जितना पा लिया होगा, उतना हजार वर्ष भी चेष्टा करके कोई स्त्री किसी पुरुष को नहीं पा सकती। उस क्षण में, उस क्षण में वाचस्पति जिस भांति एक हो गया होगा इस स्त्री के हृदय से, वैसा कोई पुरुष को कोई स्त्री कभी नहीं पा सकती। क्योंकि फेमिनिन मिस्ट्री, वह जो रहस्य है, वह अनुपस्थित होने का है।
छुआ क्या प्राण को वाचस्पति के? कि बारह वर्ष! और उस स्त्री ने पता भी न चलने दिया कि मैं यहीं हूं। और वह रोज दीया उठाती रही और भोजन कराती रही। और वाचस्पति ने कहा, तो रोज जो थाली खींच लेता था, वह तू ही है? और रोज सुबह जो फूल रख जाता था, वह कौन है? और जिसने रोज दीया जलाया, वह तू ही थी? पर तेरा हाथ मुझे दिखाई नहीं पड़ा!
भामति ने कहा, मेरा हाथ दिखाई पड़ जाता, तो मेरे प्रेम में कमी साबित होती। मैं प्रतीक्षा कर सकती हूं।
तो जरूरी नहीं कि कोई स्त्री स्त्रैण रहस्य को उपलब्ध ही हो। यह तो लाओत्से ने नाम दिया, क्योंकि यह नाम सूचक है और समझा सकता है। पुरुष भी हो सकता है। असल में, अस्तित्व के साथ तादात्म्य उन्हीं का होता है, जो इस भांति प्रार्थनापूर्ण प्रतीक्षा को उपलब्ध होते हैं।
‘इस स्त्रैण रहस्यमयी का द्वार स्वर्ग और पृथ्वी का मूल स्रोत है।’
चाहे पदार्थ का हो जन्म और चाहे चेतना का, और चाहे पृथ्वी जन्मे और चाहे स्वर्ग, इस अस्तित्व की गहराई में जो रहस्य छिपा हुआ है, उससे ही सबका जन्म होता है। इसलिए मैंने कहा, जिन्होंने परमात्मा को मदर, मां की तरह देखा, दुर्गा या अंबा की तरह देखा, उनकी समझ परमात्मा को पिता की तरह देखने से ज्यादा गहरी है। अगर परमात्मा कहीं भी है, तो वह स्त्रैण होगा। क्योंकि इतने बड़े जगत को जन्म देने की क्षमता पुरुष में नहीं है। इतने विराट चांद-तारे जिससे पैदा होते हों, उसके पास गर्भ चाहिए। बिना गर्भ के यह संभव नहीं है।
इसलिए खासकर यहूदी परंपराएं, ज्यूविश परंपराएं--यहूदी, ईसाई और इसलाम, तीनों ही ज्यूविश परंपराओं का फैलाव हैं--उन्होंने जगत को एक बड़ी भ्रांत धारणा दी, गॉड दि फादर। वह धारणा बड़ी खतरनाक है। पुरुष के मन को तृप्त करती है, क्योंकि पुरुष अपने को प्रतिष्ठित पाता है परमात्मा के रूप में। लेकिन जीवन के सत्य से उस बात का संबंध नहीं है। ज्यादा उचित एक जागतिक मां की धारणा है। पर वह तभी खयाल में आ सकेगी, जब स्त्रैण रहस्य को आप समझ लें, लाओत्से को समझ लें। अन्यथा समझ में न आ सकेगी।
कभी आपने देखा है काली की मूर्ति को? वह मां है और विकराल! मां है और हाथ में खप्पर लिए है आदमी की खोपड़ी का! मां है, उसकी आंखों में सारे मातृत्व का सागर। और नीचे? नीचे वह किसी की छाती पर खड़ी है। पैरों के नीचे कोई दबा है। क्योंकि
जो सृजनात्मक है, वही विध्वंसात्मक होगा। क्रिएटिविटी का दूसरा हिस्सा डिस्ट्रक्शन है। इसलिए बड़ी खूबी के लोग थे, जिन्होंने यह सोचा! बड़ी इमेजिनेशन के, बड़ी कल्पना के लोग थे। बड़ी संभावनाओं को देखते थे। मां को खड़ा किया है, नीचे लाश की छाती पर खड़ी है। हाथ में खोपड़ी है आदमी की, मुर्दा। खप्पर है, लहू टपकता है। गले में माला है खोपड़ियों की। और मां की आंखें हैं और मां का हृदय है, जिनसे दूध बहे। और वहां खोपड़ियों की माला टंगी है!
असल में, जहां से सृष्टि पैदा होती है, वहीं प्रलय होता है। सर्किल पूरा वहीं होता है। इसलिए मां जन्म दे सकती है। लेकिन मां अगर विकराल हो जाए, तो मृत्यु भी दे सकती है। और स्त्री अगर विकराल हो, तो बहुत खतरनाक हो जाती है। शक्ति उसमें बहुत है। शक्ति तो वही है, वह चाहे क्रिएशन बने और चाहे डिस्ट्रक्शन बने। शक्ति तो वही है, चाहे सृजन हो, चाहे विनाश हो। जिन लोगों ने मां की धारणा के साथ सृष्टि और विनाश, दोनों को एक साथ सोचा था, उनकी दूरगामी कल्पना है। लेकिन बड़ी गहन और सत्य के बड़े निकट!
लाओत्से कहता है, स्वर्ग और पृथ्वी का मूल स्रोत वहीं है। वहीं से सब पैदा होता है। लेकिन ध्यान रहे, जो मूल स्रोत होता है, वहीं सब चीजें लीन हो जाती हैं। वह अंतिम स्रोत भी वही होता है।
‘यह सर्वथा अविच्छिन्न है।’
यह जो स्त्रैण अस्तित्व है, यह जो पैसिव अस्तित्व है, यह जो प्रतीक्षा करता हुआ शून्य अस्तित्व है, इसमें कभी कोई खंड नहीं पड़ते। अविच्छिन्न है, कंटीन्युअस है, इसमें कोई डिसकंटीन्यूटी नहीं होती। जैसा मैंने कहा, दीया जलता है, बुझ जाता है; अंधेरा अविच्छिन्न है। जन्म आता है, जीवन दिखता है; मृत्यु अविच्छिन्न है। वह चलती चली जाती है। पहाड़ बनते हैं, मिट जाते हैं; घाटियां अविच्छिन्न हैं। पहाड़ होते हैं, तो वे दिखाई पड़ती हैं; पहाड़ नहीं होते, तो वे दिखाई नहीं पड़तीं। लेकिन उनका होना अविच्छिन्न है।
‘सर्वथा अविच्छिन्न है। इसकी शक्ति अखंड है।’
कितनी ही शक्ति इस शून्य से निकाली जाए, वह चुकती नहीं है, वह समाप्त नहीं होती है। पुरुष चुक जाता है, स्त्री चुकती नहीं है। पुरुष क्षीण हो जाता है, स्त्री क्षीण नहीं होती।
साधारणतया जिसे हम स्त्री कहते हैं, वह भी पुरुष से कम क्षीण होती है। और अगर किसी स्त्री को स्त्रैण होने का पूरा राज मिल जाए, तो वह अपने वार्धक्य तक अपरिसीम सौंदर्य में प्रतिष्ठित रह सकती है। पुरुष का रहना बहुत मुश्किल है। पुरुष तूफान की तरह आता है और विदा हो जाता है। स्त्री को अगर उसका ठीक मातृत्व मिल जाए, तो वह अंतिम क्षण तक सुंदर हो सकती है। और पुरुष भी अंतिम क्षण तक तभी सुंदर हो पाता है, जब वह स्त्रैण रहस्य में प्रवेश कर जाता है। कभी! कभी-कभी ऐसा होता है।
इसलिए मैं एक दूसरा प्रतीक आपसे कहूं। हमने बुद्ध, राम, कृष्ण या महावीर के बुढ़ापे के कोई भी चित्र नहीं बनाए हैं। सब चित्र युवा हैं।
यह बात एकदम झूठ है। क्योंकि महावीर अस्सी वर्ष के होकर मरते हैं; बुद्ध अस्सी वर्ष के होकर मरते हैं; राम भी बूढ़े होते हैं, कृष्ण भी बूढ़े होते हैं। लेकिन चित्र हमारे पास युवा हैं। कोई बूढ़ा चित्र हमारे पास नहीं है। वह जान कर; वह प्रतीकात्मक है।
असल में, जो व्यक्ति इतना लीन हो गया अस्तित्व के साथ, हम मानते हैं, अब वह सदा ही यंग और फ्रेश, ताजा और युवा बना रहेगा। भीतर उसके युवा होने का सतत सूत्र मिल गया। अब वह अविच्छिन्न रूप से, अखंड रूप से अपनी शक्ति में ठहरा रहेगा।
‘इसका उपयोग करो।’
लाओत्से कहता है, इस अखंड शक्ति का उपयोग करो। इस स्त्रैण रहस्य का उपयोग करो।
‘और इसकी सहज सेवा उपलब्ध होती है।’
तुम्हें पता भर होना चाहिए, हाऊ टु यूज इट; एंड यू गेट इट। सिर्फ पता होना चाहिए, कैसे उपयोग करो; और सहज सेवा उपलब्ध होती है। क्योंकि यह द्वार जो है स्त्रैण, यह तैयार ही है अपने को देने को; तुम भर लेने को राजी हो जाओ।
‘यूज जेंटली एंड विदाउट दि टच ऑफ पेन, लांग एंड अनब्रोकेन डज इट्स पावर रिमेन।’
थोड़ी भद्रता से, यूज जेंटली, थोड़े भद्र रूप से इसका उपयोग करो।
ध्यान रहे, जितने आप भद्र होंगे, उतने आप स्त्रैण हो जाएंगे। जितने आप पुरुष होंगे, उतने अभद्र हो जाएंगे। इसलिए अगर पुरुष बहुत भद्र होने की कोशिश करेगा, तो उसमें पुरुष का तत्व कम होने लगेगा। इसलिए एक बड़ी अदभुत बात घटती है; जैसे अमरीका में आज हुआ है। आज अमरीका में नीग्रो, काली चमड़ी वाले आदमी से सफेद चमड़ी वाले आदमी को जो भय है, वह भय सिर्फ आर्थिक नहीं है, वह भय सेक्सुअल और भी ज्यादा है। सफेद चमड़ी का आदमी इतना भद्र हो गया है कि वह जानता है कि अब सेक्सुअली अगर नीग्रो और उसके सामने चुनाव हो, तो उसकी पत्नी नीग्रो को चुनेगी। जो घबड़ाहट पैदा हो गई है, वह घबड़ाहट यह है। क्योंकि वह नीग्रो ज्यादा पोटेंशियली सेक्सुअल मालूम पड़ता है। वह अभद्र है, जंगली है। जंगली पुरुष में एक तरह का आकर्षण होता है पुरुष का। वाइल्ड, तो एक रोमांटिक, एक रोमांचकारी बात हो जाती है। बिलकुल भद्र पुरुष को...बिलकुल भद्र पुरुष स्त्रैण हो जाता है।
अगर बुद्ध के आस-पास एक प्रेम की फिल्म-कथा बनानी हो, तो बड़ी मुश्किल पड़े, बड़ी मुश्किल पड़ जाए। प्रेम की कथा के लिए एक अभद्र नायक चाहिए। और जितना अभद्र हो, उतना रोचक, उतना पुरुष मालूम पड़ेगा। इसलिए अगर पश्चिम का डायरेक्टर, फिल्म का डायरेक्टर किसी अभिनेता को चुनता है, तो देखता है, छाती पर बाल हैं या नहीं! हाथों पर बाल हैं या नहीं! स्त्री को देखता है, तो बाल बिलकुल नहीं होने चाहिए। थोड़ा जंगली दिखाई पड़े, रॉ, थोड़ा कच्चा दिखाई पड़े, तो एक सेक्सुअल अट्रैक्शन, एक कामुक आकर्षण है।
नीग्रो से भय पैदा हो गया है। वह भय आर्थिक कम, मानसिक ज्यादा है। जैसे ही कोई पुरुष भद्र होगा, जितना भद्र होगा, उतना स्त्रैण हो जाएगा, उतना कोमल हो जाएगा। और बड़े मजे की बात है, जितना कोमल हो जाएगा, उतना कम कामुक हो जाएगा। जितना पुरुष कोमल होता जाता है, उतना कम कामुक होता चला जाता है। और यह उसकी जो कम कामुकता है, उसे जीवन के परम रहस्य की तरफ ले जाने के लिए मार्ग बन जाती है।
लाओत्से कहता है, यूज जेंटली, भद्ररूपेण अगर उपयोग किया। एंड विदाउट दि टच ऑफ पेन।
ध्यान रहे, यह थोड़ा समझने जैसा है। पुरुष जब भी स्त्री को छूता है, तो बहुत तरह के दर्द उसको देना चाहता है, बहुत तरह के पेन। असल में, पुरुष का जो प्रेम है, मेथडोलॉजिकली--विधि की दृष्टि से--स्त्री को सताने जैसा है। अगर वह ज्यादा प्रेम करेगा, तो ज्यादा जोर से हाथ दबाएगा। अगर चुंबन ज्यादा प्रेमपूर्ण होगा, तो वह काटना शुरू कर देगा। नाखून गड़ाएगा। पुराने कामशास्त्र के जो ग्रंथ हैं, उनमें नखदंश की बड़ी प्रशंसा है, कि वह पुरुष ही क्या जो अपनी स्त्री के शरीर में नख गड़ा-गड़ा कर लहू न निकाल दे! प्रेमी का लक्षण है, नखदंश। फिर प्रेमी अगर बहुत कुशल हो, जैसा कि मार्कस-डी सादे था। तो नाखून काम नहीं करते, तो वह साथ में छुरी-कांटे रखता था। जब किसी को प्रेम करे, तो थोड़ी देर नाखून; और फिर नाखून जब काम न करे, तो छुरी-कांटे!
पुरुष का जो प्रेम का ढंग है, उसमें हिंसा है। इसलिए वह जितना ज्यादा प्रेम में पड़ेगा, उतना हिंसक होने लगेगा। इस बात की संभावना है कि अगर पुरुष अपने पूरे प्रेम में आ जाए, तो वह स्त्री की हत्या कर सकता है--प्रेम के कारण। ऐसी हत्याएं हुई हैं। और अदालतें बड़ी मुश्किल में पड़ गईं, क्योंकि उन हत्याओं में कोई भी दुश्मनी न थी। अति प्रेम कारण था। इतने प्रेम से भर गया वह, इतने प्रेम से भर गया कि दबाते-दबाते कब उसने अपनी प्रेयसी की गर्दन दबा दी, वह उसे पता नहीं रहा।
लाओत्से कहता है, यूज जेंटली। यह परम सत्य के संबंध में वह कहता है कि बहुत भद्रता से व्यवहार करना। एंड विदाउट दि टच ऑफ पेन। और तुम्हारे द्वारा अस्तित्व को जरा सी भी पीड़ा न पहुंचे। तो ही तुम, तो ही तुम स्त्रैण रहस्य को समझ पाओगे।
स्त्री अगर पुरुष को प्रेम भी करती है, अगर स्त्री पुरुष के कंधे पर भी हाथ रखती है, तो वह ऐसे रखती है कि कंधा छू न जाए। और वही स्त्री का राज है। और जितना उसका हाथ कम छूता हुआ छूता है, उतना प्रेमपूर्ण हो जाता है। और जब स्त्री भी पुरुष के कंधे को दबाती है, तो वह खबर दे रही है कि उस स्त्रैण जगत से वह हट गई है और पुरुष की नकल कर रही है। वह सिर्फ अपने को छोड़ देती है, जस्ट फ्लोटिंग, पुरुष के प्रेम में छोड़ देती है। वह सिर्फ राजी होती है, कुछ करती नहीं। वह पुरुष को छूती भी नहीं इतने जोर से कि स्पर्श भी अभद्र न हो जाए!
लेकिन अभी पश्चिम में उपद्रव चला है। अभी पश्चिम की बुद्धिमान स्त्रियां--उन्हें अगर बुद्धिमान कहा जा सके तो--वे यह कह रही हैं कि स्त्रियों को ठीक पुरुष जैसा एग्रेसिव होना चाहिए। ठीक पुरुष जैसा प्रेम करता है, स्त्रियों को करना चाहिए। उतना ही आक्रामक।
निश्चित ही, उतना आक्रामक होकर वे पुरुष जैसी हो जाएंगी। लेकिन उस फेमिनिन मिस्ट्री को खो देंगी, लाओत्से जिसकी बात करता है। और लाओत्से ज्यादा बुद्धिमान है। और लाओत्से की बुद्धिमत्ता बहुत पराबुद्धिमत्ता है। वह जहां विजडम के भी पार एक विजडम शुरू होती है, जहां सब बुद्धिमानी चुक जाती है और प्रज्ञा का जन्म होता है, वहां की बात है।
पर यह पुरुष-स्त्री दोनों के लिए लागू है, अंत में इतना आपको कह दूं। यह मत सोचना, स्त्रियां प्रसन्न होकर न जाएं, क्योंकि उनमें बहुत कम स्त्रियां हैं। स्त्री होना बड़ा कठिन है। स्त्री होना परम अनुभव है। पुरुष परेशान होकर न जाएं, क्योंकि उनमें और स्त्रियों में बहुत भेद नहीं है। दोनों को यात्रा करनी है। समझ लें इतना कि हम सत्य को जानने में उतने ही समर्थ हो जाएंगे, जितने अनाक्रामक, नॉन-एग्रेसिव, जितने प्रतीक्षारत, अवेटिंग, जितने निष्क्रिय, पैसिव, घाटी की आत्मा जैसे! शिखर की तरह अहंकार से भरे हुए पहाड़ की अस्मिता नहीं; घाटी की तरह विनम्र, घाटी की तरह गर्भ जैसे, मौन, चुप, प्रतीक्षा में रत!
तो उस पैसिविटी में, उस परम निष्क्रियता में अखंड और अविच्छिन्न शक्ति का वास है। वहीं से जन्मता है सब, और वहीं सब लीन हो जाता है।
आज इतना ही। फिर हम कल बात करें। लेकिन अभी जाएं न। अभी हम कीर्तन में चलेंगे, हो सकता है यह कीर्तन स्त्रैण रहस्य को समझने का द्वार बन जाए। सम्मिलित हों।
THE SPIRIT OF THE VALLEY
1. The Valley Spirit dies not, ever the same. The Female Mystery thus do we name. It's gate, from which at first they issued forth, Is called the root from which grew Heaven and Earth.
2. Long and unbroken does its power remain, Use gently and without the touch of pain.
अध्याय 6: सूत्र 1 व 2
घाटी की आत्मा
1. घाटी की आत्मा कभी नहीं मरती, नित्य है। इसे हम स्त्रैण रहस्य, ऐसा नाम देते हैं। इस स्त्रैण रहस्यमयी का द्वार स्वर्ग और पृथ्वी का मूल स्रोत है।
2. यह सर्वथा अविच्छिन्न है; इसकी शक्ति अखंड है; इसका उपयोग करो, और इसकी सेवा सहज उपलब्ध होती है।
जिसका जन्म है, उसकी मृत्यु भी होगी। जो प्रारंभ होगा, वह अंत भी होगा। वही केवल मृत्यु के पार हो सकता है, जिसका जन्म न हो। और वही केवल अनंत हो सकता है, जो अनादि हो।
प्रकाश जन्मता है, मिट जाता है। अंधकार सदा है। शायद इस भांति कभी न सोचा हो। सूर्य निकलता है, सांझ ढल जाता है। दीया जलता है, बाती चुक जाती है, बुझ जाती है। जब दीया नहीं जला था, तब भी अंधकार था। जब दीया जला, अंधकार हमें दिखाई नहीं पड़ा। दीया बुझ गया, अंधकार अपनी जगह है। अंधकार का बाल भी बांका नहीं होता। और अंधकार कभी बुझता नहीं। और अंधकार का कभी अंत नहीं आता, क्योंकि अंधकार का कभी प्रारंभ नहीं होता। प्रकाश का प्रारंभ होता है, इसलिए प्रकाश का अंत होता है।
और भी मजे की बात है, प्रकाश को हम पैदा कर सकते हैं, इसलिए प्रकाश को हम मिटा भी सकते हैं। अंधकार को हम पैदा नहीं कर सकते, इसलिए अंधकार को हम मिटा भी नहीं सकते। अंधकार की शक्ति अनंत है। प्रकाश की शक्ति अनंत नहीं है।
लाओत्से कहता है, घाटी की आत्मा अमर है। दि वैली स्पिरिट डाइज नॉट। नहीं, कभी घाटी की आत्मा नहीं मरती। एवर दि सेम, वही बनी रहती है। जैसी है, वैसी ही बनी रहती है।
यह घाटी की आत्मा क्या है?
जहां भी पर्वत-शिखर होंगे, वहां घाटी भी होगी। लेकिन पर्वत पैदा होते हैं और मिट जाते हैं; घाटी न पैदा होती, न मिटती। घाटी का अर्थ है, दि निगेटिव, वह जो निषेधात्मक है, अंधकार। पहाड़ का अर्थ है, पाजिटिव, विधायक, जो है। ठीक से समझें तो घाटी क्या है? घाटी किसी चीज का अभाव है। पहाड़ किसी चीज का भाव है, किसी चीज का होना है। प्रकाश किसी चीज का होना है। अंधकार अभाव है, एब्सेंस है, अनुपस्थिति है।
मैं इस कमरे में हूं, तो मुझे बाहर निकाला जा सकता है। जब मैं इस कमरे में नहीं हूं, तो मेरी अनुपस्थिति, माई एब्सेंस इस कमरे में होगी। उसे आप बाहर नहीं निकाल सकते। अनुपस्थिति को छूने का कोई उपाय नहीं है। अगर मैं जिंदा हूं, तो मेरी हत्या की जा सकती है। लेकिन अगर मैं मर गया, तो मेरी मृत्यु के साथ कुछ भी नहीं किया जा सकता। जो नहीं है, उसके साथ कुछ भी नहीं किया जा सकता। जो है, उसके साथ कुछ किया जा सकता है। इसलिए अंधेरे को हम बना भी नहीं सकते और मिटा भी नहीं सकते।
घाटी की आत्मा लाओत्से का पारिभाषिक शब्द है--दि वैली स्पिरिट। क्या है घाटी की आत्मा? घाटी होती नहीं, दो पर्वतों के बीच में दिखाई पड़ती है। पर्वत खो जाते हैं, घाटी तो बनी रहती है। घाटी कहीं जाती नहीं, लेकिन दिखाई नहीं पड़ती पर्वत के खो जाने पर। जब दो पर्वत खड़े होते हैं, घाटी फिर दिखाई पड़ने लगती है। अंधेरा कहीं जाता नहीं; जब आप दीया जलाते हैं, तब सिर्फ छिप जाता है। प्रकाश की वजह से दिखाई नहीं पड़ता। प्रकाश चला जाता है, अंधेरा अपनी जगह है। शायद अंधेरे को पता भी नहीं है कि बीच में प्रकाश जला और मिट गया।
लाओत्से का समस्त चिंतन, लाओत्से का समस्त दर्शन निगेटिव पर खड़ा है, नकारात्मक पर खड़ा है; शून्य पर खड़ा है। और इसलिए लाओत्से ने कहा है, ‘दि फीमेल मिस्ट्री दस डू वी नेम; हम इसे स्त्रैण रहस्य का नाम देते हैं।’
इसे समझ लेना जरूरी है। और इसमें थोड़ा गहरे उतरना पड़ेगा। क्योंकि यह लाओत्से के तंत्र का मूल आधार है। फेमिनिन मिस्ट्री, स्त्री का रहस्य क्या है? वही घाटी का रहस्य है। और जो स्त्री का रहस्य है, वही अंधकार का रहस्य है। और जो स्त्री का रहस्य है, वह अस्तित्व में बहुत गहरा है।
इसलिए दुनिया के जो प्राचीनतम धर्म हैं, वे परमात्मा को पुरुष के रूप में नहीं मानते थे, स्त्री के रूप में मानते थे। और उनकी समझ परमात्मा को फादर या पिता मानने वाले लोगों से ज्यादा गहरी थी। लेकिन पुरुष का प्रभाव भारी हुआ और तब हमने ईश्वर की जगह भी पुरुष को बिठाना शुरू किया। लेकिन ईश्वर की जगह गॉड दि फादर बहुत नई बात है, गॉड दि मदर बहुत पुरानी बात है।
सच तो यह है, फादर ही नई बात है, मदर पुरानी बात है। पिता को जन्मे हुए पांच-छह हजार वर्ष से ज्यादा नहीं हुआ। पिता से पुराना तो काका या चाचा या अंकल है। शब्द भी अंकल पुराना है फादर से, पिता से। पशुओं में, पक्षियों में पिता का तो कोई पता नहीं चलता, लेकिन मां सुनिश्चित है। इसलिए पिता की जो संस्था है, वह मनुष्य की ईजाद है। बहुत पुरानी भी नहीं है। पांच हजार साल से ज्यादा पुरानी नहीं है। लेकिन जब हमने मनुष्य में पिता को बना लिया, तो हमने बहुत शीघ्र परमात्मा के सिंहासन से भी स्त्री को हटा कर पुरुष को बिठाने की जल्दी की। और तब जिन धर्मों ने परमात्मा की जगह पिता को रखा, उनके हाथ से फेमिनिन मिस्ट्री के सूत्र खो गए; वह जो स्त्रैण रहस्य है, उसका सारा राज खो गया।
और लाओत्से उस समय की बात कर रहा है, जब कि गॉड दि फादर का कोई खयाल ही नहीं था दुनिया में। और यह बहुत अर्थों में सोच लेने जैसी बात है। इसे कई तरफ से देखना पड़ेगा, तभी आपके खयाल में आ सके।
एक बच्चे का जन्म होता है। पिता बच्चे के जन्म में बहुत एक्सीडेंटल है, उसका कोई बहुत गहरा भाग नहीं है। और अब वैज्ञानिक कहते हैं कि पिता के बिना भी चल जाएगा, बहुत ज्यादा दिन जरूरत नहीं रहेगी। पिता का हिस्सा बहुत ही न के बराबर है। जन्म तो मां से ही मिलता है। तो जीवन को पैदा करने की जो कुंजी है और रहस्य है, वह तो मां के शरीर में छिपा है। पिता के शरीर में वह कुंजी और रहस्य नहीं छिपा हुआ है। इसलिए पिता को कभी भी गैर-जरूरी सिद्ध किया जा सकता है। उसका काम एक इंजेक्शन भी कर देगा।
और अगर मैं आज से दस हजार साल बाद किसी बच्चे का पिता बनना चाहूं, तो बन सकता हूं। लेकिन कोई मां अगर आज तय करे, तो दस हजार साल बाद मां नहीं बन सकती है। क्योंकि मां की मौजूदगी अभी जरूरी होगी, मेरी मौजूदगी जरूरी नहीं है। मेरे वीर्य-कण को संरक्षित रखा जा सकता है, डीप फ्रीज किया जा सकता है। दस हजार साल बाद इंजेक्शन से किसी भी स्त्री में वह जन्म का सूत्र बन सकता है। मेरा होना आवश्यक नहीं है। इसलिए बहुत जल्दी पोस्थुमस चाइल्ड पैदा होंगे। पिता मरे दस हजार साल हो गए, उसका बच्चा कभी भी पैदा हो सकता है। क्योंकि पिता का काम प्रकृति बहुत गहरा नहीं ले रही थी। गहरा काम तो मां का था। सृजनात्मक काम तो मां का ही था।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं, इसीलिए स्त्रियां दुनिया में कोई क्रिएटिव काम नहीं कर पाती हैं। क्योंकि वे इतना बड़ा क्रिएटिव काम कर लेती हैं कि और कोई सब्स्टीट्यूट खोजने की जरूरत नहीं रह जाती है--एक जीवित बच्चे को जन्म देना! लेकिन पुरुष ने दुनिया में बहुत सी चीजें पैदा की हैं, स्त्री ने नहीं पैदा की हैं। पुरुष चित्र बनाता है, मूर्तियां बनाता है, विज्ञान की खोज करता है, गीत लिखता है, संगीत बनाता है। यह जान कर आप हैरान होंगे कि स्त्रियां सारी दुनिया में खाना बनाती हैं, लेकिन अच्छे खाने की खोज सदा ही पुरुष करता है। नए खाने की खोज पुरुष करता है। और दुनिया का कोई भी बड़ा होटल या कोई बड़ा सम्राट स्त्री-रसोइए को रखने को राजी नहीं है, पुरुष-रसोइए को रखना पड़ता है। चाहे चित्र बनता हो दुनिया में, चाहे कविता पैदा होती हो, चाहे एक उपन्यास लिखा जाता हो, चाहे एक नई मूर्ति गढ़ी जाती हो, वह सब काम पुरुष करता है। बात क्या है?
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि पुरुष ईर्ष्या अनुभव करता है; स्त्री के समक्ष हीनता भी अनुभव करता है। वह भी कुछ पैदा करके दिखाना चाहता है, जो स्त्री के समक्ष सामने खड़ा हो जाए और कहा जा सके, हमने भी कुछ बनाया है, हमने भी कुछ पैदा किया है। और स्त्री कुछ पैदा नहीं करती, क्योंकि वह इतनी बड़ी चीज पैदा करती है कि उसके मन में फिर और पैदा करने की कोई कामना नहीं रह जाती। और एक स्त्री अगर मां बन गई है, तो कितना ही अच्छा चित्र बनाए, वह उसके बेटे या उसकी बेटी के सामने सदा फीका और निर्जीव होगा। इसलिए बांझ स्त्रियां जरूर कुछ-कुछ कोशिश करती हैं पुरुषों जैसी। वे जरूर पुरुष के साथ कुछ निर्माण करने की प्रतियोगिता में उतरती हैं। लेकिन एक स्त्री अगर सच में मां बन जाए, तो उसका जीवन बहुत आंतरिक गहराइयों तक तृप्त हो जाता है। स्त्री को प्रकृति ने सृजन का स्रोत चुना है।
निश्चित ही, स्त्री के शरीर में, वह जिसे लाओत्से कह रहा है स्त्रैण रहस्य, उसे हमें समझना पड़ेगा, तो ही हम अस्तित्व में स्त्रैण रहस्य को समझ पाएंगे। और हमारी कठिनाई ज्यादा बढ़ जाती है, क्योंकि सारी कोशिश जीवन को समझने की पुरुष ने की है। और सारी फिलासफीज, सारे दर्शन पुरुष ने निर्मित किए हैं। अब तक एक भी धर्म किसी स्त्री पैगंबर, स्त्री तीर्थंकर के आस-पास निर्मित नहीं हुआ है। सब शास्त्र पुरुषों के हैं। इसलिए लाओत्से को साथी खोजना मुश्किल हो गया, क्योंकि उसने स्त्रैण रहस्य की तारीफ की।
पुरुष जो भी सोचेगा और जो भी करेगा, उसमें पुरुष जहां खड़ा है, वहीं से सोचता है। और पुरुष को स्त्री कभी समझ में नहीं आ पाती है। इसलिए पुरुष निरंतर अनुभव करता है कि स्त्री बेबूझ है, समथिंग मिस्टीरियस। कुछ है जो छूट जाता है। वह क्या है जो छूट जाता है? निश्चित ही, पुरुष और स्त्री साथ-साथ जीते हैं। पुरुष स्त्री से पैदा होता है, स्त्री के साथ जीता है, प्रेम करता है, जन्म, पूरा जीवन बिताता है। फिर भी क्या है जो स्त्री के भीतर पुरुष के लिए अनजान और अपरिचित रह जाता है? वही अनजान और अपरिचित तत्व का नाम लाओत्से कह रहा है, फेमिनिन मिस्ट्री। घाटी का रहस्य, अंधकार का रहस्य, निषेध की खूबी। क्या है स्त्री के भीतर?
अगर एक स्त्री आपके प्रेम में पड़ जाए, तो भी आक्रमण नहीं करती है। प्रेम में भी आक्रमण नहीं करती है। प्रेम में भी प्रतीक्षा करती है। आक्रमण का मौका आपको ही देती है। आप कभी किसी स्त्री से ऐसा न कह सकेंगे कि तूने मुझे प्रेम में उलझा दिया, कि तूने मुझे विवाह में डाल दिया। स्त्रियां ही डालती हैं। लेकिन कभी आप किसी स्त्री से ऐसा न कह सकेंगे कि तूने मुझे प्रेम में उलझा दिया। क्योंकि इनीशिएटिव वे कभी नहीं लेतीं, पहल वे कभी नहीं करतीं। वही उनका रहस्य है: खींचना बिना किसी क्रिया के, बिना किसी कर्म के आकर्षित करना, सिर्फ होने मात्र से आकर्षित करना। जिसको कृष्ण ने गीता में इन-एक्शन कहा है, अकर्म कहा है, स्त्री का रहस्य वही है।
वह अगर प्रेम में भी गिर जाए, तो उसकी तरफ से इशारा भी नहीं मिलता कि वह आपके प्रेम में गिर गई है। उसकी मौजूदगी आपको खींचती है, खींचती है। आप ही पहली दफा कहते हैं कि मैं प्रेम में पड़ गया हूं। स्त्री कभी किसी से नहीं कहती कि मैं तुम्हारे प्रेम में पड़ गई हूं। पहल कभी नहीं करती, क्योंकि पहल आक्रामक है, एग्रेसिव है, पाजिटिव है। जब मैं किसी से कहता हूं कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूं, मैं अपने से बाहर गया। मैंने कहीं जाकर आक्रमण किया। मैंने ट्रेसपासिंग शुरू की। मैं दूसरे की सीमा में प्रवेश कर रहा हूं। स्त्री कभी किसी की सीमा में प्रवेश नहीं करती। फिर भी स्त्री आकर्षक है। उसका रहस्य क्या है?
निश्चित ही, उसका आकर्षण इन-एक्टिव है, एक्टिव नहीं है। पुकारती है, लेकिन आवाज नहीं होती उस पुकार में; हाथ फैलाती है, लेकिन उसके हाथ दिखाई नहीं पड़ते; निमंत्रण दिया जाता है, लेकिन निमंत्रण की कोई भी रूप-रेखा नहीं होती। कर्म पुरुष को करना पड़ता है। कदम उसे उठाना पड़ता है। जाना उसे पड़ता है। प्रार्थना उसे करनी पड़ती है। और फिर भी स्त्री इनकार किए चली जाती है। और जब भी कोई स्त्री किसी के प्रेम में जल्दी हां भर देती है, तब समझना चाहिए, उस स्त्री को भी स्त्रैण रहस्य का कोई पता नहीं है। क्योंकि जैसे ही स्त्री हां भरती है, वैसे ही व्यर्थ हो जाती है। उसका निषेध, उसका इनकार, उसका इनकार किए चले जाना ही उसका अनंत रस का रहस्य है। लेकिन उसकी नहीं कुछ ऐसी है, जैसी नहीं पुरुष कभी नहीं बोल सकता। क्योंकि जब पुरुष बोलता है नहीं, कहता है नो, इटमीन्स नो! और जब स्त्री कहती है नो, इट मीन्स यस। अगर स्त्री को नो ही कहना है, तो वह नो भी नहीं कहेगी। क्योंकि उतना कहना भी बहुत ज्यादा कहना है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक युवती के प्रेम में पड़ गया है। बहुत परेशान है। घर आकर अपने पिता को कहा है...। चिंतित, उदास है। तो पिता ने पूछा है, इतना चिंतित क्यों है नसरुद्दीन? नसरुद्दीन ने कहा कि मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं। जिस स्त्री के पीछे मैं नौ महीने से चक्कर लगा रहा हूं, आज उसने सब बात ही तोड़ दी। पिता ने कहा, तू नासमझ है! स्त्री जब कहे नहीं, तो उसका अर्थ नहीं नहीं होता। नसरुद्दीन ने कहा, वह तो मैं भी जानता हूं। लेकिन उसने नहीं नहीं कहा, उसने कहा कि तू कुत्ता! नहीं उसने कहा ही नहीं। अगर वह नहीं कहती, तो अभी मैं और नौ वर्ष चक्कर लगा सकता था। उसने नहीं भी नहीं कहा है। उतना भी रास्ता नहीं छोड़ा है।
स्त्री जब हां करती है, तब वह पुरुष की भाषा बोल रही है। इसलिए स्त्री के मुंह से हां बहुत ही छोछा, उथला और गहरे अर्थों में अनैतिक मालूम पड़ता है। उतना भी आक्रमण है। स्त्री का सारा रहस्य और राज तो इसमें है, उसकी मिस्ट्री इसमें है कि वह नहीं कहती है और बुलाती है। नहीं बुलाती और निमंत्रण जाता है। अपनी ओर से कभी कोई कमिटमेंट स्त्री नहीं करती। सब कमिटमेंट पुरुष करता है। सब प्रतिबद्धताएं पुरुष की हैं।
और इस भ्रांति में कोई पुरुष न रहे कि स्त्री ने कुछ भी नहीं किया है। स्त्री ने बहुत कुछ किया है। लेकिन उसके करने का ढंग निषेधात्मक है, घाटी की तरह है, अंधेरे की तरह है। निषेध ही उसकी तरकीब है। दूर हटना ही पास आने का निमंत्रण है। उसकी बचने की कोशिश ही बुलावा है। यह फेमिनिन मिस्ट्री है। और इसमें और गहरे उतरेंगे, तो बहुत सी बातें खयाल में आएंगी। स्त्री संभोग की दृष्टि से भी निषेधात्मक है, पैसिव है। इसलिए दुनिया में स्त्रियों के ऊपर कोई बलात्कार का जुर्म नहीं रखा जा सकता। किसी स्त्री ने लाखों वर्ष के इतिहास में किसी पर बलात्कार नहीं किया है। स्त्री के व्यक्तित्व में बलात्कार असंभव है।
पुरुष बलात्कार कर सकता है, करता है। और सौ में नब्बे मौके पर पुरुष जो भी करता है, वह बलात्कार ही होता है। सौ में नब्बे मौके पर! उन मौकों पर नहीं, जो अदालत में पकड़े जाते हैं; पति अपनी पत्नी के साथ भी जो संबंध निर्मित करता है, उसमें नब्बे मौके पर बलात्कार होता है। क्योंकि स्त्री चुप है। उसकी चुप्पी हां समझी जा सकती है। और जो हमने व्यवस्था की है समाज की, पति के प्रति हमने उसका कर्तव्य बांधा हुआ है। पति उससे प्रेम मांगे, तो वह चुप होकर दे देती है। लेकिन अगर उसके भीतर उस क्षण प्रेम नहीं था, तो पति का यह प्रेम बलात्कार होगा। लेकिन पुरुष बलात्कार कर सकता है, क्योंकि पुरुष का पूरा व्यक्तित्व आक्रामक, एग्रेसिव है, हमलावर है।
स्त्री का व्यक्तित्व रिसेप्टिव, ग्राहक है। यह न केवल व्यक्तित्व है, बल्कि शरीर की संरचना भी प्रकृति ने ऐसी ही की है कि स्त्री का शरीर केवल ग्राहक है। पुरुष का शरीर आक्रामक है। लेकिन सृजन होता है स्त्री से, जन्म होता है स्त्री से। आक्रमण करता है पुरुष, जो कि बिलकुल सांयोगिक है, जिसके बिना चल सकता है। और जन्म होता है स्त्री से, जो केवल ग्राहक है।
वैज्ञानिक कहते हैं, जब भी कहीं जन्म होता है, तो अंधेरे में; बीज फूटता है, तो जमीन के अंधेरे में। रोशनी में ले आओ, और बीज फूटना बंद कर देता है। एक व्यक्ति जन्मता है, तो मां के गर्भ के अंधकार में, निपट गहन अंधकार में। प्रकाश में ले आओ, जन्म मृत्यु बन जाती है। जीवन में जो भी पैदा होता है सूत्र रहस्य का, वह सदा अंधकार में, गुप्त और छिपे हुए जगत में होता है। और गुप्त वही हो सकता है, जो एग्रेसिव न हो, आक्रामक न हो। जो आक्रामक है, वह गुप्त कभी नहीं हो सकता।
इसलिए पुरुष के व्यक्तित्व में सतह बहुत होती है, गहराई नहीं होती उतनी। स्त्री के व्यक्तित्व में सतह बहुत कम होती है, गहराई बहुत ज्यादा होती है। और यही कारण है कि पुरुष जल्दी थक जाता है और स्त्री जल्दी नहीं थकती। आक्रमण थका देगा। इसलिए पुरुष-वेश्याएं नहीं हो सकीं, क्योंकि कोई पुरुष वेश्या नहीं हो सकता। एक संभोग, थक जाएगा। स्त्री वेश्या हो सकी; क्योंकि पचास संभोग भी उसे नहीं थका सकते। वह सिर्फ रिसेप्टिव है, वह कुछ करती ही नहीं। इसलिए एक अनोखी घटना घटी कि पुरुष वेश्याएं नहीं हो सके, स्त्रियां वेश्याएं हो सकीं। पुरुष बलात्कारी हो सके, स्त्रियां बलात्कारी नहीं हो सकीं। पुरुष गुंडे हो सके, स्त्रियां गुंडे नहीं हो सकीं। लेकिन स्त्रियां वेश्याएं हो सकीं, पुरुष वेश्याएं नहीं हो सके। और कारण कुल इतना है कि पुरुष का सारा व्यक्तित्व आक्रामक है। जो आक्रमण करेगा, वह थक जाएगा।
यह जान कर आप हैरान होंगे कि जब बच्चे पैदा होते हैं, तो सौ लड़कियां पैदा होती हैं तो एक सौ सोलह लड़के पैदा होते हैं। प्रकृति संतुलन को कायम रखती है। क्योंकि पुरुष कमजोर है। हम सब यही सोचते हैं कि पुरुष बहुत शक्तिशाली है। वह सिर्फ पुरुष का खयाल है। पुरुष कमजोर है। इसलिए एक सौ सोलह लड़के पैदा करने पड़ते हैं और सौ लड़कियां। क्योंकि चौदह वर्ष के होते-होते सोलह लड़के मर जाते हैं, और लड़के और लड़कियों का अनुपात बराबर हो जाता है। सोलह लड़के एक्सट्रा, अतिरिक्त, स्पेयर प्रकृति को पैदा करने पड़ते हैं। क्योंकि पता है कि सोलह लड़के सौ में से चौदह वर्ष की उम्र पाते-पाते मर जाएंगे।
स्त्रियों की औसत उम्र पुरुषों से ज्यादा है पांच वर्ष। अगर पुरुष सत्तर साल जीता है, तो स्त्रियां पचहत्तर साल जीती हैं। और स्त्रियां जितना श्रम उठाती हैं शरीर से! क्योंकि एक बच्चे को जन्म देने में जितना श्रम है, उतना एक एटम बम को जन्म देने में भी नहीं है। एक स्त्री बीस बच्चों को जन्म दे और फिर भी पुरुष से पांच साल ज्यादा जीती है। स्त्रियां कम बीमार पड़ती हैं। और जो बीमारियां स्त्रियों को हैं, वे स्त्रियों की नहीं, पुरुषों ने जो समाज निर्मित किया है, उसकी परेशानी की वजह से हैं। स्त्रियां कम बीमार पड़ती हैं। फिर भी जितनी बीमार पड़ती हैं, उसमें भी कोई सत्तर प्रतिशत कारण, पुरुषों ने जो व्यवस्था की है वह है, स्त्रियां नहीं। क्योंकि सारी व्यवस्था पुरुष की है, मैन-डामिनेटेड है। और पुरुष अपने ढंग से व्यवस्था करता है। उसमें स्त्री को एडजस्ट होना पड़ता है। वह उसकी बीमारी का कारण है।
हिस्टीरिया पुरुषों के समाज में स्त्रियों को एडजस्ट होने का परिणाम है। अगर स्त्रियों का समाज हो और पुरुषों को उसमें एडजस्ट होना पड़े, तो हिस्टीरिया इससे पांच गुना ज्यादा होगा। करीब-करीब सारे पुरुष पागल हो जाएंगे। वह स्त्रियों का रेसिस्टेंस है, प्रतिरोधक शक्ति है कि वे सब पागल नहीं हो गई हैं। फिर भी स्त्रियां आपको क्रोधी दिखाई पड़ती हैं, ईर्ष्यालु दिखाई पड़ती हैं, उपद्रव-कलह चौबीस घंटे वे जारी रखती हैं। उसका कुल कारण इतना है कि वे जो होने को पैदा हुई हैं, समाज उनको वह नहीं होने देता और कुछ और करवाने की कोशिश करता है। उससे उनकी सृजनात्मक शक्ति विध्वंस की तरफ, परवर्शन की तरफ, विकृति की तरफ चली जाती है।
और पुरुषों ने स्त्रियों को इतना दबाया और इतना सताया, तो आमतौर से लोग समझते हैं--स्त्रियां भी यही समझती हैं--कि स्त्रियां कमजोर थीं, इसलिए पुरुषों ने इतना सताया।
मैं आपसे कहना चाहता हूं, जो जानते हैं वे कुछ और जानते हैं। वे यह जानते हैं कि स्त्रियां इतनी शक्तिशाली थीं कि अगर न दबाई गई होतीं, तो पुरुषों को उन्होंने कभी का दबा डाला होता। उनको बचपन से ही दबाने की जरूरत है; नहीं वे खतरनाक सिद्ध हो सकती हैं। स्त्रियों को सारी दुनिया में दबाए जाने का जो असली कारण है, वह असली कारण यह है कि वे इतनी शक्तिशाली सिद्ध हो सकती हैं, अगर बिना दबाई छोड़ दी जाएं, कि पुरुष बहुत मुश्किल में पड़ जाएगा। इसलिए उन्हें सब तरफ से रोक देना जरूरी है। और बचपन से रोक देना जरूरी है।
और रुकावट करीब-करीब वैसी है, जैसे चीन में हम स्त्रियों को लोहे के जूते पहना देते थे। फिर उनका पैर बड़ा नहीं हो पाता था। फिर वे स्त्रियां दौड़ नहीं सकती थीं, चल नहीं सकती थीं ठीक से, भाग नहीं सकती थीं। सच तो यह है, उन्हें सदा ही पुरुष के कंधे के सहारे की जरूरत थी। और फिर पुरुष उनसे कहता था: नाजुक, डेलिकेट। और नाजुक होने को पुरुष ने एक मूल्य बना दिया, एक वैल्यू बना दिया। क्योंकि स्त्री नाजुक हो, तो ही उस पर काबू किया जा सकता है।
स्त्री पुरुष से ज्यादा मजबूत सिद्ध हो सकती है, अगर उसको पूरा विकसित होने दिया जाए। क्योंकि प्रकृति ने उसे जन्म की शक्ति दी है। और जन्म की शक्ति सदा उसके पास होती है, जो ज्यादा शक्तिशाली है। अन्यथा गर्भ को खींच लेना असंभव हो जाएगा।
लाओत्से कहता है, इस स्त्रैण रहस्य को ठीक से समझ लें। यह घाटी की जो आत्मा है, इसे ठीक से समझ लें। यह घाटी की आत्मा कभी थकती नहीं। यह कभी मरती नहीं। यह जो निषेध है, यह जो न करने के द्वारा करने की कला है, यह जो बिना आक्रमण के आक्रमण कर देना है, यह बिना बुलाए बुला लेने का जो राज है, इसे ठीक से समझ लें। क्योंकि लाओत्से कहता है, इस राज को समझ कर ही कोई जीवन के परम सत्य को उपलब्ध कर सकता है। हम पुरुष की तरह परम सत्य को कभी नहीं पा सकते, क्योंकि परम सत्य पर कोई आक्रमण नहीं किया जा सकता। कोई हम बंदूकें और तलवारें लेकर परमात्मा के मकान पर कब्जा नहीं कर लेंगे।
परमात्मा को केवल वे ही पा सकते हैं, जो स्त्रैण रहस्य को समझ गए, जिन्होंने अपने को इतना समर्पित किया, इतना छोड़ा, लेट गो, कि परमात्मा उनमें उतर सके। ठीक वैसे ही, जैसे स्त्री पुरुष के प्रेम में अपने को छोड़ देती है; कुछ करती नहीं, बस छोड़ देती है; और पुरुष उसमें उतर पाता है।
एक बहुत अनूठी बात जो इधर दस वर्षों में खयाल में आनी शुरू हुई। क्योंकि वास्तविक स्त्री खो गई है दुनिया से। और जो स्त्री है, वह बिलकुल सूडो है, वह पुरुष के द्वारा बनाई गई है, वह बिलकुल बनावटी है। जिसको हम आज स्त्री कह कर जानते हैं, वह पुरुष के द्वारा बनाई गई गुड़िया से ज्यादा नहीं है। वह स्वाभाविक स्त्री नहीं है, जैसी होनी चाहिए।
अभी पश्चिम में एक छोटा सा वैज्ञानिकों का प्रयोग चलता है, जिसमें वे यह कोशिश करते हैं कि क्या यह संभव है! और तंत्र ने इस पर बहुत पहले काम किया है--बहुत पहले, कोई दो हजार साल पहले--और यह अनुभव किया है कि यह हो सकता है। स्त्री और पुरुष के संभोग में चूंकि पुरुष सक्रिय होता है। अगर पुरुष सक्रिय न हो पाए, तो संभोग असंभव है। अगर पुरुष कमजोर हो जाए, वृद्ध हो जाए, उसके जनन-यंत्र शिथिल हो जाएं, तो संभोग असंभव है। लेकिन अभी पश्चिम में दस वर्षों में कुछ प्रयोग हुए हैं गहरे, जिनमें वे कहते हैं कि अगर पुरुष की जननेंद्रिय बिलकुल शिथिल और क्षीण, शक्तिहीन हो जाए, तो भी फिक्र नहीं। स्त्री अगर उस पुरुष को प्रेम करती है, तो सिर्फ स्त्री-जननेंद्रिय के पास पहुंच जाने पर स्त्री की जननेंद्रिय पुरुष की जननेंद्रिय को चुपचाप अपने भीतर खींच लेती है। पुरुष को प्रवेश की भी जरूरत नहीं है। अगर स्त्री का प्रेम भारी है, तो उसका शरीर ऐसे खींच लेता है, जैसे खाली जगह में हवा खिंच कर आ जाए।
यह बहुत हैरानी का तथ्य है। और अगर ऐसा नहीं होता, तो उसका कुल कारण इतना है कि स्त्री प्रेम नहीं करती है उस पुरुष को। इसलिए उसका शरीर उसे खींचता नहीं। और इसलिए पुरुष जो भी कर रहा है, वह बलात्कार है। अगर स्त्री प्रेम करती है, तो खींच लेगी। उसका पूरा बायोलॉजिकल, उसका जैविक यंत्र ऐसा है कि वह व्यक्ति को अपने भीतर खींच लेगी।
लाओत्से कहता है, यह स्त्री का रहस्य है कि बिना कुछ किए वह कुछ कर सकती है। बिना कुछ किए! पुरुष को कुछ भी करना हो, तो करना पड़ेगा। धर्म का रहस्य भी स्त्रैण है। अगर कोई परमात्मा को पाने जाए, तो कभी न पा सकेगा। और कोई केवल अपने हृदय के द्वार क
ो खोल कर ठहर जाए, तो परमात्मा यहीं और अभी प्रवेश कर जाता है। दूर-दूर खोजे कोई, अनंत की यात्रा करे कोई, भटके जन्मों-जन्मों तक, तो भी परमात्मा को नहीं पा सकेगा। क्योंकि परमात्मा को पाने का राज ही यही है कि हम रिसेप्टिव हो जाएं, एग्रेसिव नहीं। हम अपने को खुला छोड़ दें। हम सिर्फ राजी हो जाएं कि वह आता हो तो हमारे द्वार-दरवाजे बंद न पाए। हमारा प्रेम इतना ही करे कि वह एक पैसिव अवेटिंग, एक निष्क्रिय प्रतीक्षा बन जाए।
स्त्री जन्म-जन्म तक अपने प्रेमी की प्रतीक्षा कर सकती है; पुरुष नहीं कर सकता। पुरुष प्रतीक्षा जानता ही नहीं है। पुरुष के मन की जो व्यवस्था है, उसमें प्रतीक्षा नहीं है। उसमें अभी और यहीं, इंसटैंट सब चाहिए। इंसटैंट काफी भी, इंसटैंट सेक्स भी। अभी! इसलिए पुरुष ने विवाह ईजाद किया। क्योंकि विवाह के बिना इंसटैंट सेक्स, अभी, संभव नहीं है। पुरुष प्रतीक्षा बिलकुल नहीं कर सकता। आतुर है, व्यग्र है, तनावग्रस्त है। लेकिन स्त्री प्रतीक्षा कर सकती है, अनंत प्रतीक्षा कर सकती है।
इसलिए जब इस मुल्क में हिंदुओं ने पुरुषों को विधुर रखने की व्यवस्था नहीं की और स्त्रियों को विधवा रखने की व्यवस्था की, तो यह सिर्फ स्त्रियों पर ज्यादती ही नहीं थी, यह स्त्रियों की प्रतीक्षा के तत्व की समझ भी इसमें थी। एक स्त्री अपने प्रेमी के लिए पूरे जन्म, अगले जन्म तक के लिए प्रतीक्षा कर सकती है। यह भरोसा किया जा सकता है। लेकिन पुरुष पर यह भरोसा नहीं किया जा सकता।
इसलिए भारत ने अगर स्त्रियों को विधवा रखने की व्यवस्था दी और पुरुषों को नहीं दी, तो सिर्फ इसलिए नहीं कि यह व्यवस्था पुरुष के पक्ष में थी। जहां तक मैं समझ पाता हूं, यह पुरुष का बहुत बड़ा अपमान था, यह स्त्री का गहनतम सम्मान था। क्योंकि इस बात की सूचना थी कि हम स्त्री पर भरोसा कर सकते हैं कि वह प्रतीक्षा कर सकती है। लेकिन पुरुष पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। पुरुष पर भरोसा नहीं किया जा सकता, इसलिए विधुर को रखने के लिए आग्रह नहीं रहा। कोई रहना चाहे, वह उसकी मर्जी! लेकिन स्त्री पर आग्रह था।
और आग्रह इसलिए था कि उसकी प्रतीक्षा में ही उसका वह जो स्त्रैण तत्व है, वह ज्यादा प्रकट होगा। उसे जितना अवसर मिले निष्क्रिय प्रतीक्षा का, उसके भीतर की गहराइयां उतनी ही गहन और गहरी हो जाती हैं। और उसके आंतरिक रहस्य मधुर और सुगंधित हो जाते हैं।
एक बहुत हैरानी की बात मैं कभी-कभी पढ़ता रहा हूं। कभी मेरे खयाल में नहीं आती थी कि बात क्या होगी। कैथोलिक प्रीस्ट के सामने लोग अपने पापों की स्वीकृतियां करते हैं, कन्फेशन करते हैं। अनेक कैथोलिक पुरोहितों का यह अनुभव है कि जब स्त्रियां उनके सामने अपने पापों की स्वीकृति करती हैं, तो स्वभावतः वे भी मनुष्य हैं और केवल ट्रेंड प्रीस्ट हैं।
ईसाइयत ने एक दुनिया को बड़े से बड़ी जो बुरी बात दी है, वह यह, प्रशिक्षित पुरोहित दिए। कोई प्रशिक्षित पुरोहित नहीं हो सकता। प्रशिक्षित डाक्टर हो सकते हैं, प्रशिक्षित वकील हो सकते हैं, लेकिन प्रशिक्षित पुरोहित नहीं हो सकता; उसी तरह, जैसे प्रशिक्षित पोएट, कवि नहीं हो सकता। और अगर आप कविता को सिखा दें और ट्रेनिंग दे दें और सर्टिफिकेट दे दें कि यह आदमी ट्रेंड है कविता में, तो वह सिर्फ तुकबंदी करेगा। कविता उससे पैदा नहीं हो सकती। पुरोहित भी जन्मजात क्षमता है, साधना का फल है। उसे कोई प्रशिक्षित नहीं कर सकता। लेकिन ईसाइयत ने प्रशिक्षित किए। ट्रेंड पुरोहित हैं, उनके पास डिग्रियां हैं, उनमें कोई डी.डी. है, डाक्टर ऑफ डिविनिटी है। डाक्टर ऑफ डिविनिटी कोई नहीं होता, क्योंकि सर्टिफिकेट पर जो डिविनिटी तय हो जाएगी, वह डिविनिटी नहीं हो सकती है। वह क्या दिव्यता होगी जो एक स्कूल-सर्टिफिकेट देने से तय हो जाती हो!
तो पुरोहित के पास जब स्त्रियां अपने पापों का कन्फेशन करती हैं, तो यह कन्फेशन बहुत टेंपटिंग हो जाता है। स्वाभाविक! जब कोई स्त्री अपने पाप का स्वीकार करती है, और एकांत में करती है, तो पुरोहित के लिए बड़ी बेचैनी हो जाती है। स्त्री तो हलकी हो जाती है, पुरोहित भारी हो जाता है। लेकिन कैथोलिक पुरोहितों का एक वक्तव्य मुझे सदा हैरान करता था, वह यह कि विधवा स्त्रियां ज्यादा आकर्षक और टेंपटिंग सिद्ध होती हैं। मैं बहुत हैरान था कि यह क्या कारण होगा?
असल में, विधवा अगर सच में विधवा हो, तो उसके सौंदर्य में बहुत बढ़ती हो जाती है। क्योंकि प्रतीक्षा उसके स्त्रैण रहस्य को गहन कर देती है। कुंवारी लड़की में जो रहस्य होता है, वह प्रतीक्षा का है। इसलिए सारी दुनिया में जो समझदार कौमें थीं, उन्होंने तय किया कि कुंवारी लड़की से ही विवाह करना। क्योंकि सच तो यह है कि जो लड़की कुंवारी नहीं है, उससे विवाह करने का मतलब है कि आपको स्त्री के रहस्य को जानने का मौका ही नहीं मिलेगा। वह रहस्य पहले ही खंडित हो चुका। वह स्त्री छिछली हो गई। उसने प्रतीक्षा ही नहीं की है इतनी, जितनी प्रतीक्षा पर वह भीतर का पूरा का पूरा रहस्यमय फूल खिलता है।
इसलिए जिन समाजों ने स्त्री के कुंवारे रहने पर और विवाह पर जोर दिया, उन्होंने पुरुष के कुंवारेपन की बहुत फिक्र नहीं की है। उसका कारण है कि पुरुष के कुंवारेपन या न कुंवारेपन से कोई फर्क नहीं पड़ता है। लेकिन स्त्री के कुंवारेपन से फर्क पड़ता है। कुंवारी स्त्री में एक सौंदर्य है जो विवाह के बाद उसमें खो जाता है।
वह सौंदर्य उसमें फिर से जन्मता है, जब वह मां बनना शुरू होती है। क्योंकि अब वह एक और बड़े रहस्य के द्वार पर, और एक और बड़ी प्रतीक्षा के द्वार पर खड़ी हो जाती है। उसे गर्भवती देख कर पति चिंतित हो सकता है। और पति चिंतित होते हैं। और उनकी चिंता स्वाभाविक है। क्योंकि उनके लिए प्रतीक्षा नहीं, केवल एक और इकोनॉमिक, एक आर्थिक उपद्रव उनके ऊपर आने को है। लेकिन मां मधुर हो जाती है। असल में, मां का गर्भ जैसे बढ़ने लगता है, उसकी आंखों की गहराई बढ़ने लगती है; उसके शरीर में नए कोमल तत्वों का आविर्भाव होता है। गर्भिणी स्त्री का सौंदर्य स्त्रैण रहस्य से बहुत भारी हो जाता है। यह क्या होगा रहस्य?
यह पैसिविटी इज़ दि सीक्रेट। अब मां बनने के लिए कुछ उसे करना तो पड़ता नहीं। बेटा उसके पेट में बड़ा होने लगता है; उसे सिर्फ प्रतीक्षा करनी होती है। उसे कुछ भी नहीं करना होता। असल में, उसे सब करना छोड़ देना होता है; सिर्फ प्रतीक्षा ही करनी होती है। जैसे-जैसे उसके बेटे का या उसकी बेटी का, उसके गर्भ का विकास होने लगता है, वैसे-वैसे सब काम उसे छोड़ देना पड़ता है। वह सिर्फ प्रतीक्षा में रह जाती है, वह सिर्फ स्वप्न देखने लगती है। इसलिए अगर सारा काम स्त्री छोड़ दे बच्चे के जन्म के करीब, तो वह वे स्वप्न देख सकती है, जो उसके बच्चे के भविष्य की सूचनाएं होंगे। इसलिए महावीर या बुद्ध की मां के स्वप्न बड़े मूल्यवान हो गए। महावीर या बुद्ध के संबंध में कहा जाता है कि जब वे पैदा हुए, तो उनकी मां ने स्वप्न देखे। वे स्वप्न रोज मां के सामने प्रकट होते गए। उन स्वप्नों में बुद्ध या महावीर के जीवन की सारी रूप-रेखा प्रकट हो गई।
अगर मां सच में ही मां हो और आने वाले भविष्य में जो जन्म लेने वाला प्राण है उससे, उसके साथ पूरी पैसिविटी में हो, तो वह अपने बच्चे की जन्मकुंडली खुद ही लिख जा सकती है। किसी पुरोहित, किसी पंडित को दिखाने की जरूरत नहीं है। और मां जिसकी जन्मकुंडली न लिख सके, उसकी कोई पुरोहित और पंडित न लिख सकेगा। क्योंकि इतना तादात्म्य, इतना एकात्म फिर कभी किसी दूसरे से नहीं होता है। पति से भी नहीं होता है इतना तादात्म्य पत्नी का, जितना अपने बेटे से होता है। बेटा उसका ही एक्सटेंशन है, उसका ही फैलाव है।
लेकिन मां बनने के लिए कुछ भी करना नहीं पड़ता; पिता बनने के लिए बहुत कुछ करना पड़ता है। मां बनने के लिए कुछ भी नहीं करना होता। मां बनने के लिए केवल मौन प्रतीक्षा करनी होती है। इस मौन प्रतीक्षा में दो चीजों का जन्म होता है: एक तो बेटे का जन्म होता है और एक मां का भी जन्म होता है।
इसलिए पूरब के मुल्क, जिन्होंने फेमिनिन मिस्ट्री को समझा, उन्होंने स्त्री को जो चरम आदर दिया है, वह मां का, पत्नी का नहीं। यह बहुत हैरानी की बात है।
मुझसे लोग पूछते थे कि आप संन्यासियों को स्वामी कहते हैं, लेकिन संन्यासिनियों को मां क्यों कहते हैं, जब कि अभी उनका विवाह भी नहीं हुआ? उनका बच्चा भी नहीं हुआ?
असल में, मां का संबंध स्त्री की चरम गरिमा से है। वह अपनी चरम गरिमा पर सिर्फ मां के क्षण में होती है। उसका जो पीक एक्सपीरिएंस है, वह पत्नी होना नहीं है, प्रेयसी होना नहीं है--प्रेयसी और पत्नी होना केवल चढ़ाई की शुरुआत है--उसका जो पीक एक्सपीरिएंस है, जो शिखर-अनुभव है, वह उसका मां होना है।
इसलिए जिन समाजों में भी स्त्रियों ने तय कर लिया है कि पत्नी होना उनका शिखर है, उन समाजों में स्त्रियां बहुत दुखी हो जाएंगी; क्योंकि वह उनका शिखर है नहीं। यद्यपि पुरुष राजी है कि वे पत्नी होने को ही अपना शिखर समझें। क्योंकि पुरुष को पति होने पर शिखर उपलब्ध हो जाता है। पिता होने पर उसे शिखर उपलब्ध नहीं होता। उसे प्रेमी होने पर शिखर उपलब्ध हो जाता है। लेकिन स्त्री को उपलब्ध नहीं होता।
स्त्री का यह जो मातृत्व का राज है, इसे लाओत्से कहता है, यह अंधेरे जैसा है।
इसमें और बहुत सी बातें खयाल में लेने जैसी हैं। जब पुरुष पैदा होता है, जब एक बच्चा पैदा होता है, लड़का पैदा होता है, तो उसके पास अभी सेक्स हारमोन होते नहीं, बाद में पैदा होने शुरू होते हैं। उसका वीर्य बाद में निर्मित होना शुरू होता है। लेकिन यह जान कर आप हैरान होंगे कि जब लड़की पैदा होती है, तो वह अपने सब अंडे साथ लेकर पैदा होती है। उसके जीवन भर में जितने अंडे प्रति माह उसके मासिक धर्म में निकलेंगे, उतने अंडे वह लेकर ही पैदा होती है। स्त्री पूरी पैदा होती है। उसके पास पूरा कोश होता है उसके एग्स का। फिर उनमें से एक-एक अंडा समय पर बाहर आने लगेगा। लेकिन वह सब अंडे लेकर आती है। पुरुष अधूरा पैदा होता है।
और अधूरे पैदा होने की वजह से लड़के बेचैन होते हैं और लड़कियां शांत होती हैं। एक अनइजीनेस लड़के में जन्म से होती है। लड़की में एक एटईजनेस जन्म से होती है। लड़की के शरीर का, उसके व्यक्तित्व का जो सौंदर्य है, वह उसकी शांति से बहुत ज्यादा संबंधित है। अगर लड़की को बेचैन करना हो, तो उपाय करने पड़ते हैं। और लड़के को अगर शांत करना हो, तो उपाय करने पड़ते हैं; अशांत होना स्वाभाविक है।
बायोलॉजिस्ट कहते हैं कि उसका कारण है कि स्त्री जिस अंडे से बनती है, उसमें जो अणु होते हैं, वे एक्स-एक्स होते हैं। दोनों एक से होते हैं। और पुरुष जिस क्रोमोसोम से बनता है, उसमें एक्स-वाई होता है; उसमें एक एक्स होता है, एक वाई होता है; वे समान नहीं होते। स्त्री में जो तत्व होते हैं, वे एक्स-एक्स होते हैं, दोनों समान होते हैं। इसलिए स्त्री सुडौल होती है, पुरुष सुडौल नहीं हो पाता। स्त्री के शरीर में जो कर्व्स का सौंदर्य है, वह उसके एक्स-एक्स दोनों संतुलित अंडों के कारण है। और पुरुष के शरीर में वैसा संतुलन नहीं हो सकता, क्योंकि एक्स-वाई, उसके एक और दूसरे में समानता नहीं है। स्त्री के व्यक्तित्व को बनाने वाले अड़तालीस अणु हैं; वे पूरे हैं चौबीस-चौबीस। पुरुष को बनाने वाले सैंतालीस हैं। और बायोलॉजिस्ट कहते हैं कि वह जो एक अणु की कमी है, वही पुरुष को जीवन भर दौड़ाती है--इस दुकान से उस दुकान, जमीन से चांद--दौड़ाती रहती है। वह जो एक कम है, उसकी खोज है। वह पूरा होना चाहता है।
यह जो स्त्री का संतुलित, शांत, प्रतीक्षारत व्यक्तित्व है, लाओत्से कहता है, यह जीवन का बड़ा गहरा रहस्य है। परमात्मा स्त्री के ढंग से अस्तित्व में है; पुरुष के ढंग से नहीं। इसलिए परमात्मा को हम देख नहीं पाते हैं। उसे हम पकड़ भी नहीं पाते हैं। वह मौजूद है जरूर; लेकिन उसकी प्रेजेंस स्त्रैण है, न होने जैसा है। उसे हम पकड़ने जाएंगे, उतना ही वह हमसे छूट जाएगा, उतना ही हट जाएगा। उतनी ही उसकी खोज मुश्किल हो जाएगी।
अस्तित्व स्त्रैण है। इसका अर्थ यह है कि अस्तित्व में जो भी प्रकट होता है, अस्तित्व में पहले से छिपा है--एक। जैसा मैंने कहा, स्त्री में जो भी पैदा होगा, वह सब पहले से ही छिपा है। वह अपने जन्म के साथ लेकर आती है सब। उसमें कुछ नया एडीशन नहीं होता। वह पूरी पैदा होती है। उसमें ग्रोथ होती है, लेकिन एडीशन नहीं होता। उसमें विकास होता है, लेकिन कुछ नई चीज जुड़ती नहीं। यही वजह है कि वह बड़ी तृप्त जीती है। स्त्रियों की तृप्ति आश्चर्यजनक है। अन्यथा इतने दिन तक उनको गुलाम नहीं रखा जा सकता था। उनकी तृप्ति आश्चर्यजनक है; गुलामी में भी वे राजी हो जाती हैं। कैसी भी स्थिति हो, वे राजी हो जाती हैं। अतृप्ति उनमें बड़ी मुश्किल से पैदा की जा सकती है; बड़ी कठिन है। और तभी पैदा की जा सकती है, जब कुछ बायोलॉजिकल कठिनाई उनके भीतर पैदा हो जाए। जैसा पश्चिम में लग रहा है कि कठिनाई पैदा हुई है। तो उनमें पैदा की जा सकती है बेचैनी।
और जिस दिन स्त्री बेचैन होती है, उस दिन उसको चैन में लाना फिर बहुत मुश्किल है। क्योंकि वह बिलकुल अप्राकृतिक है उसका बेचैन होना। इसलिए स्त्री बेचैन नहीं होती, सीधी पागल होती है। यह आप जान कर हैरान होंगे कि स्त्री या तो शांत होती है या पागल हो जाती है; बीच में नहीं ठहरती, ग्रेडेशंस नहीं हैं। पुरुष न तो शांत होता है इतना, न इतना पागल होता है; बीच में काफी डिग्रीज हैं उसके पास। अशांति की डिग्रीज में वह डोलता रहता है। बड़ी से बड़ी अशांति में भी वह पागल नहीं हो जाता; और बड़ी से बड़ी शांति में भी वह बिलकुल शांत नहीं हो जाता।
नीत्शे ने बहुत विचार की बात कही है। उसने कहा है कि जहां तक मैं समझता हूं, बुद्ध जैसे व्यक्ति में स्त्रैण तत्व ज्यादा रहे होंगे। बुद्ध को वूमेनिश कहा है नीत्शे ने। और मैं मानता हूं कि इसमें एक गहरी समझ है। सच यह है कि जब कोई पुरुष भी पूरी तरह शांत होता है, तो स्त्रैण हो जाता है। हो ही जाएगा। हो जाएगा इसलिए कि इतना शांत हो जाएगा कि वह जो पुरुष की अनिवार्य बेचैनी थी, वह जो अनिवार्य अशांति थी, अनिवार्य तनाव था, वह जो टेंशन था पुरुष के अस्तित्व का, वह खो जाएगा।
यही वजह है कि हमने भारत में प्रतीकात्मक रूप से कृष्ण की, बुद्ध की, महावीर की दाढ़ी-मूंछ नहीं बनाई। ऐसा नहीं कि नहीं थी; थी। लेकिन नहीं बनाई; क्योंकि वह सांकेतिक नहीं रह गई। सांकेतिक नहीं रह गई। वह बुद्ध के भीतर की खबर नहीं देती, इसलिए उसे हटा दिया। सिर्फ एक मूर्ति पर बुद्ध की दाढ़ी है, इसलिए लोग उस मूर्ति को कहते हैं वह झूठ है, वह ठीक नहीं है। क्योंकि किसी मूर्ति पर दाढ़ी नहीं है। महावीर की एक मूर्ति पर मूंछ है, तो लोग कहते हैं कि वह कुछ किसी जादूगर ने उन पर मूंछ उगा दी है। तो उस पूरे मंदिर का नाम मुछाला महावीर है, मूंछ वाले महावीर। क्योंकि महावीर तो मूंछ वाले थे नहीं।
लेकिन महावीर में मूंछ न हो, बुद्ध में मूंछ न हो, कभी एकाध दफा ऐसी घटना घट सकती है; क्योंकि कुछ पुरुष होते हैं, जिनमें हारमोन्स की कमी की वजह से दाढ़ी-मूंछ नहीं होती। लेकिन जैनों के चौबीस तीर्थंकर और किसी को दाढ़ी न हो, जरा कठिन है! इतना बड़ा संयोग मुश्किल है।
लेकिन वह प्रतीकात्मक है। वह इस बात की खबर है कि हमने यह स्वीकार कर लिया था कि यह व्यक्ति अब स्त्रैण रहस्य में प्रवेश कर गया, दि फेमिनिन मिस्ट्री में।
ध्यान रहे, जब मैं स्त्रैण रहस्य कह रहा हूं, तो कोई ऐसा न समझे कि मेरा मतलब स्त्री से ही है। स्त्री भी, हो सकती है, स्त्रैण रहस्य में प्रवेश न करे; और पुरुष भी प्रवेश कर सकता है। स्त्रैण रहस्य तो जीवन का एक सूत्र है।
लाओत्से इसलिए कहता है कि दि फीमेल मिस्ट्री दस डू वी नेम। हम इस तरह नाम देते हैं। नाम देने का कारण है। क्योंकि यह नाम अर्थपूर्ण मालूम पड़ता है। हम उस रहस्य को पुरुष जैसा नाम नहीं दे सकते; क्योंकि वह रहस्य परम शांत है। वह इतना शांत है कि उसकी उपस्थिति की भी खबर नहीं मिलती। क्योंकि उपस्थिति की भी खबर तभी मिलती है, जब कोई खबर दे।
इसलिए सच्ची प्रेयसी वह नहीं है जो अपने प्रेमी को अपने होने की खबर चौबीस घंटे करवाती रहती है। करवाते रहते हैं लोग। अगर पति घर आया है, तो पत्नी हजार उपाय करती है। बर्तन जोर से छूटने लगते हैं हाथ से। खबर करवाती है कि मैं हूं, इसे स्मरण रखना; मैं यहीं आस-पास हूं। पति भी पूरे उपाय करता है कि तुम नहीं हो। अखबार फैला कर, जिसे वह दस बार पढ़ चुका है, फिर पढ़ने लगता है। वह अखबार दीवार है, जिसके पार बजाओ कितने ही बर्तन, कितनी ही करो आवाज, बच्चों को पीटो, शोरगुल मचाओ, रेडियो जोर से बजाओ, नहीं सुनेंगे। हम अखबार पढ़ते हैं!
लेकिन प्रेयसी सच में वही है, जिस स्त्री को स्त्रैण रहस्य का पता चल गया। वह अपने प्रेमी के पास अपनी उपस्थिति को पता भी नहीं चलने देगी।
एक बहुत अदभुत घटना मैं आपसे कहता हूं। वाचस्पति मिश्र का विवाह हुआ। पिता ने आग्रह किया, वाचस्पति की कुछ समझ में न आया; इसलिए उन्होंने हां भर दी। सोचा, पिता जो कहते होंगे, ठीक ही कहते होंगे। वाचस्पति लगा था परमात्मा की खोज में। उसे कुछ और समझ में ही न आता था। कोई कुछ भी बोले, वह परमात्मा की ही बात समझता था। पिता ने वाचस्पति को पूछा, विवाह करोगे? उसने कहा, हां।
उसने शायद सुना होगा, परमात्मा से मिलोगे? जैसा कि हम सब के साथ होता है। जो धन की खोज में लगा है, उससे कहो, धर्म खोजोगे? वह समझता है, शायद कह रहे हैं, धन खोजोगे? उसने कहा, हां। हमारी जो भीतर खोज होती है, वही हम सुन पाते हैं। वाचस्पति ने शायद सुना; हां भर दी।
फिर जब घोड़े पर बैठ कर ले जाया जाने लगा, तब उसने पूछा, कहां ले जा रहे हैं? उसके पिता ने कहा, पागल, तूने हां भरा था। विवाह करने चल रहे हैं। तो फिर उसने न करना उचित न समझा; क्योंकि जब हां भर दी थी और बिना जाने भर दी थी, तो परमात्मा की मर्जी होगी।
वह विवाह करके लौट आया। लेकिन पत्नी घर में आ गई, और वाचस्पति को खयाल ही न रहा। रहता भी क्या! न उसने विवाह किया था, न हां भरी थी। वह अपने काम में ही लगा रहा। वह ब्रह्मसूत्र पर एक टीका लिखता था। वह बारह वर्ष में टीका पूरी हुई। बारह वर्ष तक उसकी पत्नी रोज सांझ दीया जला जाती, रोज सुबह उसके पैरों के पास फूल रख जाती, दोपहर उसकी थाली सरका देती। जब वह भोजन कर लेता, तो चुपचाप पीछे से थाली हटा ले जाती। बारह वर्ष तक उसकी पत्नी का वाचस्पति को पता नहीं चला कि वह है। पत्नी ने कोई उपाय नहीं किया कि पता चल जाए; बल्कि सब उपाय किए कि कहीं भूल-चूक से पता न चल जाए, क्योंकि उनके काम में बाधा न पड़े।
बारह वर्ष जिस पूर्णिमा की रात वाचस्पति का काम आधी रात पूरा हुआ और वाचस्पति उठने लगे, तो उनकी पत्नी ने दीया उठाया--उनको राह दिखाने के लिए उनके बिस्तर तक। पहली दफा बारह वर्ष में, कथा कहती है, वाचस्पति ने अपनी पत्नी का हाथ देखा। क्योंकि बारह वर्ष में पहली दफा काम समाप्त हुआ था। अब मन बंधा नहीं था किसी काम से। हाथ देखा, चूड़ियां देखीं, चूड़ियों की आवाज सुनी। लौट कर पीछे देखा और कहा, स्त्री, इस आधी रात अकेले में तू कौन है? कहां से आई? द्वार मकान के बंद हैं, कहां पहुंचना है तुझे, मैं पहुंचा दूं!
उसकी पत्नी ने कहा, आप शायद भूल गए होंगे, बहुत काम था। बारह वर्ष आप काम में थे। याद आपको रहे, संभव भी नहीं है। बारह वर्ष पहले, खयाल अगर आपको आता हो, तो आप मुझे पत्नी की तरह घर ले आए थे। तब से मैं यहीं हूं।
वाचस्पति रोने लगा। उसने कहा, यह तो बहुत देर हो गई। क्योंकि मैंने तो प्रतिज्ञा कर रखी है कि जिस दिन यह ग्रंथ पूरा हो जाएगा, उसी दिन घर का त्याग कर दूंगा। तो यह तो मेरे जाने का वक्त हो गया। भोर होने के करीब है; तो मैं जा रहा हूं। पागल, तूने पहले क्यों न कहा? थोड़ा भी तू इशारा कर सकती थी। लेकिन अब बहुत देर हो गई।
वाचस्पति की आंखों में आंसू देख कर पत्नी ने उसके चरणों में सिर रखा और उसने कहा, जो भी मुझे मिल सकता था, वह इन आंसुओं में मिल गया। अब मुझे कुछ और चाहिए भी नहीं है। आप निश्चिंत जाएं। और मैं क्या पा सकती थी इससे ज्यादा कि वाचस्पति की आंख में मेरे लिए आंसू हैं! बस, बहुत मुझे मिल गया है।
वाचस्पति ने अपने ब्रह्मसूत्र की टीका का नाम भामति रखा है। भामति का कोई संबंध टीका से नहीं है। ब्रह्मसूत्र से कोई लेना-देना नहीं है। यह उसकी पत्नी का नाम है। यह कह कर कि अब मैं कुछ और तेरे लिए नहीं कर सकता, लेकिन मुझे चाहे लोग भूल जाएं, तुझे न भूलें, इसलिए भामति नाम देता हूं अपने ग्रंथ को। वाचस्पति को बहुत लोग भूल गए हैं; भामति को भूलना मुश्किल है। भामति लोग पढ़ते हैं। अदभुत टीका है ब्रह्मसूत्र की। वैसी दूसरी टीका नहीं है। उस पर नाम भामति है।
फेमिनिन मिस्ट्री इस स्त्री के पास होगी। और मैं मानता हूं कि उस क्षण में इसने वाचस्पति को जितना पा लिया होगा, उतना हजार वर्ष भी चेष्टा करके कोई स्त्री किसी पुरुष को नहीं पा सकती। उस क्षण में, उस क्षण में वाचस्पति जिस भांति एक हो गया होगा इस स्त्री के हृदय से, वैसा कोई पुरुष को कोई स्त्री कभी नहीं पा सकती। क्योंकि फेमिनिन मिस्ट्री, वह जो रहस्य है, वह अनुपस्थित होने का है।
छुआ क्या प्राण को वाचस्पति के? कि बारह वर्ष! और उस स्त्री ने पता भी न चलने दिया कि मैं यहीं हूं। और वह रोज दीया उठाती रही और भोजन कराती रही। और वाचस्पति ने कहा, तो रोज जो थाली खींच लेता था, वह तू ही है? और रोज सुबह जो फूल रख जाता था, वह कौन है? और जिसने रोज दीया जलाया, वह तू ही थी? पर तेरा हाथ मुझे दिखाई नहीं पड़ा!
भामति ने कहा, मेरा हाथ दिखाई पड़ जाता, तो मेरे प्रेम में कमी साबित होती। मैं प्रतीक्षा कर सकती हूं।
तो जरूरी नहीं कि कोई स्त्री स्त्रैण रहस्य को उपलब्ध ही हो। यह तो लाओत्से ने नाम दिया, क्योंकि यह नाम सूचक है और समझा सकता है। पुरुष भी हो सकता है। असल में, अस्तित्व के साथ तादात्म्य उन्हीं का होता है, जो इस भांति प्रार्थनापूर्ण प्रतीक्षा को उपलब्ध होते हैं।
‘इस स्त्रैण रहस्यमयी का द्वार स्वर्ग और पृथ्वी का मूल स्रोत है।’
चाहे पदार्थ का हो जन्म और चाहे चेतना का, और चाहे पृथ्वी जन्मे और चाहे स्वर्ग, इस अस्तित्व की गहराई में जो रहस्य छिपा हुआ है, उससे ही सबका जन्म होता है। इसलिए मैंने कहा, जिन्होंने परमात्मा को मदर, मां की तरह देखा, दुर्गा या अंबा की तरह देखा, उनकी समझ परमात्मा को पिता की तरह देखने से ज्यादा गहरी है। अगर परमात्मा कहीं भी है, तो वह स्त्रैण होगा। क्योंकि इतने बड़े जगत को जन्म देने की क्षमता पुरुष में नहीं है। इतने विराट चांद-तारे जिससे पैदा होते हों, उसके पास गर्भ चाहिए। बिना गर्भ के यह संभव नहीं है।
इसलिए खासकर यहूदी परंपराएं, ज्यूविश परंपराएं--यहूदी, ईसाई और इसलाम, तीनों ही ज्यूविश परंपराओं का फैलाव हैं--उन्होंने जगत को एक बड़ी भ्रांत धारणा दी, गॉड दि फादर। वह धारणा बड़ी खतरनाक है। पुरुष के मन को तृप्त करती है, क्योंकि पुरुष अपने को प्रतिष्ठित पाता है परमात्मा के रूप में। लेकिन जीवन के सत्य से उस बात का संबंध नहीं है। ज्यादा उचित एक जागतिक मां की धारणा है। पर वह तभी खयाल में आ सकेगी, जब स्त्रैण रहस्य को आप समझ लें, लाओत्से को समझ लें। अन्यथा समझ में न आ सकेगी।
कभी आपने देखा है काली की मूर्ति को? वह मां है और विकराल! मां है और हाथ में खप्पर लिए है आदमी की खोपड़ी का! मां है, उसकी आंखों में सारे मातृत्व का सागर। और नीचे? नीचे वह किसी की छाती पर खड़ी है। पैरों के नीचे कोई दबा है। क्योंकि
जो सृजनात्मक है, वही विध्वंसात्मक होगा। क्रिएटिविटी का दूसरा हिस्सा डिस्ट्रक्शन है। इसलिए बड़ी खूबी के लोग थे, जिन्होंने यह सोचा! बड़ी इमेजिनेशन के, बड़ी कल्पना के लोग थे। बड़ी संभावनाओं को देखते थे। मां को खड़ा किया है, नीचे लाश की छाती पर खड़ी है। हाथ में खोपड़ी है आदमी की, मुर्दा। खप्पर है, लहू टपकता है। गले में माला है खोपड़ियों की। और मां की आंखें हैं और मां का हृदय है, जिनसे दूध बहे। और वहां खोपड़ियों की माला टंगी है!
असल में, जहां से सृष्टि पैदा होती है, वहीं प्रलय होता है। सर्किल पूरा वहीं होता है। इसलिए मां जन्म दे सकती है। लेकिन मां अगर विकराल हो जाए, तो मृत्यु भी दे सकती है। और स्त्री अगर विकराल हो, तो बहुत खतरनाक हो जाती है। शक्ति उसमें बहुत है। शक्ति तो वही है, वह चाहे क्रिएशन बने और चाहे डिस्ट्रक्शन बने। शक्ति तो वही है, चाहे सृजन हो, चाहे विनाश हो। जिन लोगों ने मां की धारणा के साथ सृष्टि और विनाश, दोनों को एक साथ सोचा था, उनकी दूरगामी कल्पना है। लेकिन बड़ी गहन और सत्य के बड़े निकट!
लाओत्से कहता है, स्वर्ग और पृथ्वी का मूल स्रोत वहीं है। वहीं से सब पैदा होता है। लेकिन ध्यान रहे, जो मूल स्रोत होता है, वहीं सब चीजें लीन हो जाती हैं। वह अंतिम स्रोत भी वही होता है।
‘यह सर्वथा अविच्छिन्न है।’
यह जो स्त्रैण अस्तित्व है, यह जो पैसिव अस्तित्व है, यह जो प्रतीक्षा करता हुआ शून्य अस्तित्व है, इसमें कभी कोई खंड नहीं पड़ते। अविच्छिन्न है, कंटीन्युअस है, इसमें कोई डिसकंटीन्यूटी नहीं होती। जैसा मैंने कहा, दीया जलता है, बुझ जाता है; अंधेरा अविच्छिन्न है। जन्म आता है, जीवन दिखता है; मृत्यु अविच्छिन्न है। वह चलती चली जाती है। पहाड़ बनते हैं, मिट जाते हैं; घाटियां अविच्छिन्न हैं। पहाड़ होते हैं, तो वे दिखाई पड़ती हैं; पहाड़ नहीं होते, तो वे दिखाई नहीं पड़तीं। लेकिन उनका होना अविच्छिन्न है।
‘सर्वथा अविच्छिन्न है। इसकी शक्ति अखंड है।’
कितनी ही शक्ति इस शून्य से निकाली जाए, वह चुकती नहीं है, वह समाप्त नहीं होती है। पुरुष चुक जाता है, स्त्री चुकती नहीं है। पुरुष क्षीण हो जाता है, स्त्री क्षीण नहीं होती।
साधारणतया जिसे हम स्त्री कहते हैं, वह भी पुरुष से कम क्षीण होती है। और अगर किसी स्त्री को स्त्रैण होने का पूरा राज मिल जाए, तो वह अपने वार्धक्य तक अपरिसीम सौंदर्य में प्रतिष्ठित रह सकती है। पुरुष का रहना बहुत मुश्किल है। पुरुष तूफान की तरह आता है और विदा हो जाता है। स्त्री को अगर उसका ठीक मातृत्व मिल जाए, तो वह अंतिम क्षण तक सुंदर हो सकती है। और पुरुष भी अंतिम क्षण तक तभी सुंदर हो पाता है, जब वह स्त्रैण रहस्य में प्रवेश कर जाता है। कभी! कभी-कभी ऐसा होता है।
इसलिए मैं एक दूसरा प्रतीक आपसे कहूं। हमने बुद्ध, राम, कृष्ण या महावीर के बुढ़ापे के कोई भी चित्र नहीं बनाए हैं। सब चित्र युवा हैं।
यह बात एकदम झूठ है। क्योंकि महावीर अस्सी वर्ष के होकर मरते हैं; बुद्ध अस्सी वर्ष के होकर मरते हैं; राम भी बूढ़े होते हैं, कृष्ण भी बूढ़े होते हैं। लेकिन चित्र हमारे पास युवा हैं। कोई बूढ़ा चित्र हमारे पास नहीं है। वह जान कर; वह प्रतीकात्मक है।
असल में, जो व्यक्ति इतना लीन हो गया अस्तित्व के साथ, हम मानते हैं, अब वह सदा ही यंग और फ्रेश, ताजा और युवा बना रहेगा। भीतर उसके युवा होने का सतत सूत्र मिल गया। अब वह अविच्छिन्न रूप से, अखंड रूप से अपनी शक्ति में ठहरा रहेगा।
‘इसका उपयोग करो।’
लाओत्से कहता है, इस अखंड शक्ति का उपयोग करो। इस स्त्रैण रहस्य का उपयोग करो।
‘और इसकी सहज सेवा उपलब्ध होती है।’
तुम्हें पता भर होना चाहिए, हाऊ टु यूज इट; एंड यू गेट इट। सिर्फ पता होना चाहिए, कैसे उपयोग करो; और सहज सेवा उपलब्ध होती है। क्योंकि यह द्वार जो है स्त्रैण, यह तैयार ही है अपने को देने को; तुम भर लेने को राजी हो जाओ।
‘यूज जेंटली एंड विदाउट दि टच ऑफ पेन, लांग एंड अनब्रोकेन डज इट्स पावर रिमेन।’
थोड़ी भद्रता से, यूज जेंटली, थोड़े भद्र रूप से इसका उपयोग करो।
ध्यान रहे, जितने आप भद्र होंगे, उतने आप स्त्रैण हो जाएंगे। जितने आप पुरुष होंगे, उतने अभद्र हो जाएंगे। इसलिए अगर पुरुष बहुत भद्र होने की कोशिश करेगा, तो उसमें पुरुष का तत्व कम होने लगेगा। इसलिए एक बड़ी अदभुत बात घटती है; जैसे अमरीका में आज हुआ है। आज अमरीका में नीग्रो, काली चमड़ी वाले आदमी से सफेद चमड़ी वाले आदमी को जो भय है, वह भय सिर्फ आर्थिक नहीं है, वह भय सेक्सुअल और भी ज्यादा है। सफेद चमड़ी का आदमी इतना भद्र हो गया है कि वह जानता है कि अब सेक्सुअली अगर नीग्रो और उसके सामने चुनाव हो, तो उसकी पत्नी नीग्रो को चुनेगी। जो घबड़ाहट पैदा हो गई है, वह घबड़ाहट यह है। क्योंकि वह नीग्रो ज्यादा पोटेंशियली सेक्सुअल मालूम पड़ता है। वह अभद्र है, जंगली है। जंगली पुरुष में एक तरह का आकर्षण होता है पुरुष का। वाइल्ड, तो एक रोमांटिक, एक रोमांचकारी बात हो जाती है। बिलकुल भद्र पुरुष को...बिलकुल भद्र पुरुष स्त्रैण हो जाता है।
अगर बुद्ध के आस-पास एक प्रेम की फिल्म-कथा बनानी हो, तो बड़ी मुश्किल पड़े, बड़ी मुश्किल पड़ जाए। प्रेम की कथा के लिए एक अभद्र नायक चाहिए। और जितना अभद्र हो, उतना रोचक, उतना पुरुष मालूम पड़ेगा। इसलिए अगर पश्चिम का डायरेक्टर, फिल्म का डायरेक्टर किसी अभिनेता को चुनता है, तो देखता है, छाती पर बाल हैं या नहीं! हाथों पर बाल हैं या नहीं! स्त्री को देखता है, तो बाल बिलकुल नहीं होने चाहिए। थोड़ा जंगली दिखाई पड़े, रॉ, थोड़ा कच्चा दिखाई पड़े, तो एक सेक्सुअल अट्रैक्शन, एक कामुक आकर्षण है।
नीग्रो से भय पैदा हो गया है। वह भय आर्थिक कम, मानसिक ज्यादा है। जैसे ही कोई पुरुष भद्र होगा, जितना भद्र होगा, उतना स्त्रैण हो जाएगा, उतना कोमल हो जाएगा। और बड़े मजे की बात है, जितना कोमल हो जाएगा, उतना कम कामुक हो जाएगा। जितना पुरुष कोमल होता जाता है, उतना कम कामुक होता चला जाता है। और यह उसकी जो कम कामुकता है, उसे जीवन के परम रहस्य की तरफ ले जाने के लिए मार्ग बन जाती है।
लाओत्से कहता है, यूज जेंटली, भद्ररूपेण अगर उपयोग किया। एंड विदाउट दि टच ऑफ पेन।
ध्यान रहे, यह थोड़ा समझने जैसा है। पुरुष जब भी स्त्री को छूता है, तो बहुत तरह के दर्द उसको देना चाहता है, बहुत तरह के पेन। असल में, पुरुष का जो प्रेम है, मेथडोलॉजिकली--विधि की दृष्टि से--स्त्री को सताने जैसा है। अगर वह ज्यादा प्रेम करेगा, तो ज्यादा जोर से हाथ दबाएगा। अगर चुंबन ज्यादा प्रेमपूर्ण होगा, तो वह काटना शुरू कर देगा। नाखून गड़ाएगा। पुराने कामशास्त्र के जो ग्रंथ हैं, उनमें नखदंश की बड़ी प्रशंसा है, कि वह पुरुष ही क्या जो अपनी स्त्री के शरीर में नख गड़ा-गड़ा कर लहू न निकाल दे! प्रेमी का लक्षण है, नखदंश। फिर प्रेमी अगर बहुत कुशल हो, जैसा कि मार्कस-डी सादे था। तो नाखून काम नहीं करते, तो वह साथ में छुरी-कांटे रखता था। जब किसी को प्रेम करे, तो थोड़ी देर नाखून; और फिर नाखून जब काम न करे, तो छुरी-कांटे!
पुरुष का जो प्रेम का ढंग है, उसमें हिंसा है। इसलिए वह जितना ज्यादा प्रेम में पड़ेगा, उतना हिंसक होने लगेगा। इस बात की संभावना है कि अगर पुरुष अपने पूरे प्रेम में आ जाए, तो वह स्त्री की हत्या कर सकता है--प्रेम के कारण। ऐसी हत्याएं हुई हैं। और अदालतें बड़ी मुश्किल में पड़ गईं, क्योंकि उन हत्याओं में कोई भी दुश्मनी न थी। अति प्रेम कारण था। इतने प्रेम से भर गया वह, इतने प्रेम से भर गया कि दबाते-दबाते कब उसने अपनी प्रेयसी की गर्दन दबा दी, वह उसे पता नहीं रहा।
लाओत्से कहता है, यूज जेंटली। यह परम सत्य के संबंध में वह कहता है कि बहुत भद्रता से व्यवहार करना। एंड विदाउट दि टच ऑफ पेन। और तुम्हारे द्वारा अस्तित्व को जरा सी भी पीड़ा न पहुंचे। तो ही तुम, तो ही तुम स्त्रैण रहस्य को समझ पाओगे।
स्त्री अगर पुरुष को प्रेम भी करती है, अगर स्त्री पुरुष के कंधे पर भी हाथ रखती है, तो वह ऐसे रखती है कि कंधा छू न जाए। और वही स्त्री का राज है। और जितना उसका हाथ कम छूता हुआ छूता है, उतना प्रेमपूर्ण हो जाता है। और जब स्त्री भी पुरुष के कंधे को दबाती है, तो वह खबर दे रही है कि उस स्त्रैण जगत से वह हट गई है और पुरुष की नकल कर रही है। वह सिर्फ अपने को छोड़ देती है, जस्ट फ्लोटिंग, पुरुष के प्रेम में छोड़ देती है। वह सिर्फ राजी होती है, कुछ करती नहीं। वह पुरुष को छूती भी नहीं इतने जोर से कि स्पर्श भी अभद्र न हो जाए!
लेकिन अभी पश्चिम में उपद्रव चला है। अभी पश्चिम की बुद्धिमान स्त्रियां--उन्हें अगर बुद्धिमान कहा जा सके तो--वे यह कह रही हैं कि स्त्रियों को ठीक पुरुष जैसा एग्रेसिव होना चाहिए। ठीक पुरुष जैसा प्रेम करता है, स्त्रियों को करना चाहिए। उतना ही आक्रामक।
निश्चित ही, उतना आक्रामक होकर वे पुरुष जैसी हो जाएंगी। लेकिन उस फेमिनिन मिस्ट्री को खो देंगी, लाओत्से जिसकी बात करता है। और लाओत्से ज्यादा बुद्धिमान है। और लाओत्से की बुद्धिमत्ता बहुत पराबुद्धिमत्ता है। वह जहां विजडम के भी पार एक विजडम शुरू होती है, जहां सब बुद्धिमानी चुक जाती है और प्रज्ञा का जन्म होता है, वहां की बात है।
पर यह पुरुष-स्त्री दोनों के लिए लागू है, अंत में इतना आपको कह दूं। यह मत सोचना, स्त्रियां प्रसन्न होकर न जाएं, क्योंकि उनमें बहुत कम स्त्रियां हैं। स्त्री होना बड़ा कठिन है। स्त्री होना परम अनुभव है। पुरुष परेशान होकर न जाएं, क्योंकि उनमें और स्त्रियों में बहुत भेद नहीं है। दोनों को यात्रा करनी है। समझ लें इतना कि हम सत्य को जानने में उतने ही समर्थ हो जाएंगे, जितने अनाक्रामक, नॉन-एग्रेसिव, जितने प्रतीक्षारत, अवेटिंग, जितने निष्क्रिय, पैसिव, घाटी की आत्मा जैसे! शिखर की तरह अहंकार से भरे हुए पहाड़ की अस्मिता नहीं; घाटी की तरह विनम्र, घाटी की तरह गर्भ जैसे, मौन, चुप, प्रतीक्षा में रत!
तो उस पैसिविटी में, उस परम निष्क्रियता में अखंड और अविच्छिन्न शक्ति का वास है। वहीं से जन्मता है सब, और वहीं सब लीन हो जाता है।
आज इतना ही। फिर हम कल बात करें। लेकिन अभी जाएं न। अभी हम कीर्तन में चलेंगे, हो सकता है यह कीर्तन स्त्रैण रहस्य को समझने का द्वार बन जाए। सम्मिलित हों।