LAO TZU
Tao Upanishad 121
One Hundred And TwentyFirst Discourse from the series of 127 discourses - Tao Upanishad by Osho. These discourses were given during JUN 19-26, 1971 - APR 10 1975.
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Chapter 76
HARD AND SOFT
When man is born, he is tender and weak; At death, he is hard and stiff, When the things and plants are alive, They are soft and supple; When they are dead, they are brittle and dry. Therefore hardness and stiffness are the companions of death, And softness and gentleness are the companions of life. Therefore when an army is headstrong, It will lose in battle. When a tree is hard, it will be cut down. The big and strong belong underneath. The gentle and weak belong at the top.
अध्याय 76
कठोर और कोमल
जब आदमी जन्म लेता है, वह कोमल और कमजोर होता है; मृत्यु के समय वह कठोर और सख्त हो जाता है। जब वस्तुएं और पौधे जीवंत हैं, तब वे कोमल और सुनम्य होते हैं; और जब वे मर जाते हैं, वे भंगुर और शुष्क हो जाते हैं। इसलिए कठोरता और दुर्नम्यता मृत्यु के साथी हैं; और कोमलता और मृदुता जीवन के साथी हैं। इसलिए सेना जब हठी होगी, वह युद्ध में हार जाएगी। जब वृक्ष कठिन होगा, वह काट दिया जाएगा। बड़े और बलवान की जगह नीचे है। सौम्य और कमजोर की जगह शिखर पर है।
लाओत्से से ज्यादा सूक्ष्म जीवन का निरीक्षक खोजना कठिन है। निरीक्षण तो बहुत लोग जीवन का करते हैं, लेकिन निरीक्षण में शुद्धता नहीं होती; चित्त दर्पण की भांति नहीं होता; विचारों से भरा होता है। इसलिए निरीक्षण निरीक्षण न रह कर व्याख्या बन जाता है; विचार सम्मिलित हो जाते हैं। और विचार निरीक्षण की शुद्धता को नष्ट कर देते हैं।
दो तरह के निरीक्षण हैं। एक निरीक्षण है जब तुम विचारों से भरे हुए जीवन को देखते हो। तब तुम जीवन को नहीं देखते। तुम अपने विचारों की ही छवि जीवन में देख लोगे। तब तुम अपने विचारों को ही जीवन पर आरोपित कर लोगे। तब तुम जो देखना ही चाहते थे वही देख लोगे। वही नहीं, जो है, वरन वह जो तुम पहले से ही मान बैठे थे--तुम्हारा विश्वास, तुम्हारी धारणा, तुम्हारा धर्म, तुम्हारा शास्त्र, तुम जीवन में देख लोगे। और तब तुम जीवन के सम्यक निरीक्षक नहीं हो।
जीवन को तो ऐसे देखा जाना चाहिए जैसे दर्पण देखता है--खाली; शून्य। जिसके पास अपना जोड़ने को कुछ भी नहीं है, जो सिर्फ दिखलाता है वही जो है। शांत झील; एक तरंग भी नहीं। उगता है चांद, बदलियां आकाश में गतिमान होती हैं; बनता है प्रतिबिंब। फिर एक और झील है, तरंगायित, लहरों से भरी। तब भी चांद का प्रतिबिंब तो बनता है, लेकिन हजार-हजार खंडों में टूट जाता है। तुम चांद को खोज न पाओगे। लहर-लहर पर चांद फैला होगा। तुम्हें पूरी झील पर ही चांदनी फैली हुई मालूम पड़ेगी। चांद को पकड़ना मुश्किल होगा।
तुम्हारा मन विचार की तरंगों से भरा है। जब तुम पांडित्य लेकर आते हो प्रकृति के पास तब तुम चूक जाते हो। तब तुम्हें जरूर कुछ दिखाई पड़ेगा, लेकिन तुम इस धोखे में मत पड़ना कि जो तुम्हें दिखाई पड़ रहा है वह सत्य है। वह केवल तुम्हारे विचार की अनुगूंज है। तुमने जो पहले से ही स्वीकार कर लिया था, वही प्रतिफलित हो रहा है। लाओत्से बड़ा शुद्ध निरीक्षक है। वह कोई विचार लेकर प्रकृति के पास नहीं गया है। उसने तथ्यों को सीधा-सीधा देखना चाहा है। बड़ा कठिन है; शायद इससे कठिन और कुछ भी नहीं है। क्योंकि यही तो मार्ग है सत्य के उदघाटन का।
लाओत्से न तो हिंदू है, न मुसलमान है, न जैन है, न बौद्ध है। लाओत्से का कोई धर्म नहीं है। लाओत्से का कोई शास्त्र भी नहीं है। लाओत्से ने जो भी देखा है वह किसी शास्त्र, किसी शब्द की आड़ से नहीं देखा; सब हटा कर देखा है। इसलिए जो लाओत्से को दिखाई पड़ा है वह बहुत कम लोगों को दिखाई पड़ता है।
महावीर के वचनों में भी ऐसी शुद्धता नहीं है, क्योंकि महावीर के वचन बड़ी प्राचीन परंपरा पर आधारित हैं। कृष्ण के वचनों में भी ऐसी शुद्धता नहीं है, क्योंकि कृष्ण के वचन तो वेदों और उपनिषदों का सार हैं। बुद्ध के वचन महावीर और कृष्ण के वचनों से ज्यादा शुद्ध हैं, फिर भी लाओत्से के मुकाबले वैसी शुद्धता नहीं है। बुद्ध बगावती हैं। उन्होंने वेदों को इनकार कर दिया है, शास्त्रों को इनकार कर दिया है, उपनिषदों को ताक पर रख दिया है। लेकिन अगर कोई गौर से खोजेगा तो बुद्ध के प्राणों में उपनिषदों की गूंज मौजूद है; वह खो नहीं गई है। तुम उनके वचनों में छिपा हुआ उपनिषद पा लोगे। तुम उनके एक-एक शब्द में, भारत का जो पूरा अतीत है, उसका रंग पाओगे, गंध पाओगे।
मनुष्य-जाति के इतिहास में लाओत्से जैसा दूसरा व्यक्ति खोजना करीब-करीब असंभव है। कोई गूंज नहीं है अतीत की। किसी शास्त्र की कोई प्रतिध्वनि नहीं है। जैसे लाओत्से पहला आदमी है; उसके पहले जैसे आदमी हुए ही न हों। जैसे कोई संस्कृति, सभ्यता लाओत्से के पहले थी ही नहीं; जैसे कोई कंडीशनिंग नहीं है, कोई संस्कार नहीं है। लाओत्से बिलकुल पहले आदमी की तरह जगत को देख रहा है।
और जिस दिन तुम भी इस तरह देख सकोगे जैसे पीछे कोई अतीत हुआ ही नहीं, जैसे तुम अभी और यहां बस पहली बार अवतरित हुए हो, खाली और शून्य, उस क्षण तुम लाओत्से को समझ पाओगे। उसके पहले तुम लाओत्से की व्याख्या समझ लोगे, लाओत्से को न समझ पाओगे। लाओत्से को समझने के लिए लाओत्से जैसा हो जाना जरूरी है। यह पहली बात खयाल रखनी आवश्यक है।
लाओत्से को समझने की चेष्टा में इस बात का ध्यान रखना कि लाओत्से किसी सिद्धांत को सिद्ध करने नहीं निकला है। उसका कोई सिद्धांत ही नहीं है। वह तो जीवन के सिद्धांत को खोजने निकला है। वह आरोपित नहीं कर रहा है कुछ, अगर कुछ हो जीवन में तो उसे खोलने की कोशिश कर रहा है। वह तथ्यों के ऊपर पड़े घूंघट को उठा रहा है। उस घूंघट को उठाने में भी उसकी कला अनूठी है। क्योंकि वह घूंघट भी बहुत तरह से उठाया जा सकता है। रास्ते पर चलती एक स्त्री का घूंघट जबरदस्ती उठाया जा सकता है; बलात उसे निर्वस्त्र किया जा सकता है। लेकिन तब तुम देह को ही खोज पाओगे; उस देह के भीतर छिपी गरिमा विलुप्त हो जाएगी। क्योंकि बलात, सौंदर्य को देखा ही नहीं जा सकता। सौंदर्य नाजुक है, टूट जाता है। सौंदर्य अति कोमल है; आक्रामक रूप से तुम सौंदर्य के रहस्य को कभी भी न जान पाओगे। यह तो ऐसा है जैसे झपट कर फूल तोड़ लिया, पंखुड़ियां उखाड़ दीं, और खोजने लगे कि सौंदर्य कहां है?
तुम राह चलती एक स्त्री को निर्वस्त्र कर सकते हो, लेकिन नग्न न कर पाओगे। यही तो महाभारत की मीठी कथा है कि दुर्योधन द्रौपदी को नग्न करना चाहता है; कर नहीं पाया। कहानी का अर्थ इतना ही है कि जब तुम जबरदस्ती किसी को नग्न करने की चेष्टा करोगे तब तुम हारोगे। कोई कृष्ण ने द्रौपदी का चीर बढ़ा दिया हो, ऐसा मत समझ लेना। कौन बैठा है किसी का चीर बढ़ाने को? लेकिन जीवन की व्यवस्था ऐसी है कि उसमें जब तुम जबरदस्ती किसी के वस्त्र उतारना चाहोगे तब चीर बढ़ता ही चला जाता है--जैसे कि चीर बढ़ता चला जाता है। तुम करते हो जितनी जबरदस्ती उतना ही रहस्य छिपता चला जाता है। रहस्य को खोलना हो तो फुसलाना पड़ता है, आक्रमण नहीं। रहस्य को खोलना हो तो प्रेम भरे आग्रह से जाना पड़ता है, हिंसात्मक दुराग्रह से नहीं।
दुर्योधन तो प्रतीक है उन सबका जिन्होंने जीवन के रहस्य को जबरदस्ती खोलना चाहा है। दुर्योधन बड़ा वैज्ञानिक है। और विज्ञान की यही विधि है। विज्ञान बलात्कार है, जबरदस्ती है। और इसलिए विज्ञान जितना ही चीजों को खोल रहा है, चीर बढ़ता जा रहा है। और चीर बढ़ता ही चला जाएगा।
एक बड़े वैज्ञानिक को मैं पढ़ रहा था, हेजेन बर्ग को। तो हेजेन बर्ग ने कहा है कि पहले हम सोचते थे कि अणु पर सब समाप्त हो जाता है। डेमोक्रीटस से लेकर अब तक यही खयाल था कि अणु का अर्थ है आखिरी टुकड़ा, उसके आगे विभाजन संभव नहीं है। लेकिन फिर चीर बढ़ गया। अणु टूटा, परमाणु आया। फिर सोचा गया कि परमाणु बस आखिरी बात आ गई, रहस्य खुल गया। लेकिन चीर बढ़ गया। जब-जब जाना कि रहस्य खुल गया, तभी चीर बढ़ गया। परमाणु भी टूट गया। अब इलेक्ट्रान, न्यूट्रान, प्रोटान। और हेजेन बर्ग ने लिखा है कि अब हम उतने आश्वासन से नहीं कह सकते कि यही आखिरी है। जल्दी ही इलेक्ट्रान भी टूटेगा। चीर बढ़ता ही चला जाता है। चीर बढ़ता ही चला जाएगा। क्योंकि रहस्य पीछे सरकता जाता है।
मैंने कहा कि तुम किसी स्त्री को निर्वस्त्र कर सकते हो, नग्न नहीं। और जब तुम निर्वस्त्र कर लोगे तब स्त्री और भी गहन वस्त्रों में छिप जाती है। उसका सारा सौंदर्य तिरोहित हो जाता है; उसका सारा रहस्य कहीं गहन गुहा में छिप जाता है। तुम उसके शरीर के साथ बलात्कार कर सकते हो, उसकी आत्मा के साथ नहीं। और शरीर के साथ बलात्कार तो ऐसे है जैसे लाश के साथ कोई बलात्कार कर रहा हो। स्त्री वहां मौजूद नहीं है। तुम उसके कुंआरेपन को तोड़ भी नहीं सकते, क्योंकि कुंआरापन बड़ी गहरी बात है।
लाओत्से वैज्ञानिक की तरह जीवन के पास नहीं गया निरीक्षण करने। उसने प्रयोगशाला की टेबल पर जीवन को फैला कर नहीं रखा है। और न ही जीवन का डिसेक्शन किया है, न जीवन को खंड-खंड किया है। जीवन को तोड़ा नहीं है। क्योंकि तोड़ना तो दुराग्रह है; तोड़ना तो दुर्योधन हो जाना है। द्रौपदी नग्न होती रही है अर्जुन के सामने। अचानक दुर्योधन के सामने बात खतम हो गई; चीर को बढ़ा देने की प्रार्थना उठ आई। वैज्ञानिक पहुंचता है दुर्योधन की तरह प्रकृति की द्रौपदी के पास; और लाओत्से पहुंचता है अर्जुन की तरह--प्रेमातुर; आक्रामक नहीं, आकांक्षी; प्रतीक्षा करने को राजी, धैर्य से, प्रार्थना भरा हुआ। लेकिन द्रौपदी की जब मर्जी हो, जब उसके भीतर भी ऐसा ही भाव आ जाए कि वह खुलना चाहे और प्रकट होना चाहे, और किसी के सामने अपने हृदय के सब द्वार खोल देना चाहे।
तो जो रहस्य लाओत्से ने जाना है वह बड़े से बड़ा वैज्ञानिक भी नहीं जान पाता। क्योंकि जानने का ढंग ही अलग है। लाओत्से का ढंग शुद्ध धर्म का ढंग है। धर्म यानी प्रेम। धर्म यानी अनाक्रमण। धर्म यानी प्रतीक्षा। और धीरे-धीरे राजी करना है। धर्म एक तरह की कोर्टिंग है। जैसे तुम किसी स्त्री के प्रेम में पड़ते हो, उसे धीरे-धीरे राजी करते हो। हमला नहीं कर देते।
विज्ञान अति आतुर है, अधैर्यवान है। वह जल्दी हमला कर देता है। और तब उसके हाथ में जो लगता है वह कचरा है। उसकी उपयोगिता कितनी ही हो, उसमें अर्थ बहुत ज्यादा नहीं है। उससे यंत्र बन सकते हों, क्योंकि यंत्र मुर्दा हैं। और विज्ञान जबरदस्ती में प्रकृति को मार लेता है। इसलिए मृत्यु का जो राज है वह तो उसे पता चल जाता है; इसलिए यंत्र बना लेता है, क्योंकि यंत्र यानी मुर्दा चीजें। लेकिन जीवन का रहस्य नहीं खोल पाता।
लाओत्से ऐसा गया है जीवन के तथ्यों के पास जैसा सुहागरात के दिन कोई अपनी नववधू के पास जाता है, आहिस्ता-आहिस्ता घूंघट उठाता है; उतना ही उठाता है जितने से ज्यादा वधू को राजी पाता है, उससे ज्यादा नहीं। और तब धीरे-धीरे जीवन अपने सब रहस्य खोल देता है। और लाओत्से के समक्ष जीवन ने ऐसे रहस्य खोल दिए हैं जो बहुत बड़े-बड़े वैज्ञानिकों, दार्शनिकों, तार्किकों के समक्ष छिपे रह गए हैं। लाओत्से के सामने छोटी-छोटी चीजों ने बड़े-बड़े द्वार खोल दिए हैं; राह के किनारे पत्थर माणिक-मोती हो गए हैं।
लाओत्से को समझोगे तो पाओगे वह बहुत छोटी-छोटी चीजों की बात कर रहा है। लेकिन छोटी-छोटी चीजें बहुत बड़ी हो गई हैं। वैज्ञानिक बड़ी-बड़ी चीजों की बात करते हैं और बड़ी-बड़ी चीजें बहुत छोटी हो जाती हैं। वैज्ञानिक अगर चांद-तारों की भी बात करे तो छोटे हो जाते हैं। लाओत्से अगर फूल-पत्तों की भी बात करता है तो बड़े हो जाते हैं। धर्म का स्पर्श प्रत्येक चीज को विराट कर देता है। विज्ञान का स्पर्श प्रत्येक चीज को क्षुद्र कर देता है।
और वही स्पर्श पाने योग्य है जिससे हर कण ब्रह्म हो जाए। उस स्पर्श का क्या करोगे जिससे ब्रह्म को छुओ और वह अणु हो जाए? क्षुद्र को बना कर तुम क्या करोगे? क्योंकि जितना तुम्हारे पास क्षुद्र इकट्ठा हो जाएगा, उसमें घिरे--ध्यान रखना--तुम भी क्षुद्र हो जाओगे। तुम जो खोजोगे वह तुम्हें निर्मित करेगा। तुम जो उघाड़ लोगे वह तुम्हें भी बनाएगा। क्योंकि उघाड़ने वाला बाहर नहीं रह सकता घटना के। इसलिए जो क्षुद्र की खोज में लगता है और क्षुद्रतर को पाता चला जाता है, वह धीरे-धीरे क्षुद्र हो जाता है। हो ही जाएगा। लेकिन जो क्षुद्र को विराट करने की कला जानता है, जो जहां छूता है वहीं से अनंत का द्वार खुलने लगता है, उसके स्पर्श में धर्म आ गया। उसका स्पर्श पारस हो गया। और उसके स्पर्श में वह स्वयं भी तो घिर जाएगा, वह स्वयं भी धीरे-धीरे विराट हो जाएगा।
इन तथ्यों को खयाल में रखो, फिर लाओत्से की बड़ी छोटी-छोटी बातों में छिपे बड़े राजों को समझना कठिन न होगा।
कहता है लाओत्से, ‘जब आदमी जन्म लेता है, वह कोमल और कमजोर होता है।’
सभी के घरों में बच्चे जन्म लेते हैं। लेकिन तुमने कभी यह देखा कि बच्चे कोमल हैं, कमजोर हैं? सभी के घर में बूढ़े मरते हैं। तुमने कभी यह देखा कि बूढ़े कठोर और सख्त हैं? अगर तुमने यह देखा तो तुम्हें जीवन का एक बड़ा रहस्य हाथ आ गया कि अगर चाहते हो कि सदा जीवित रहो तो कोमल बने रहना। किसी भी कारण से सख्त मत हो जाना। क्योंकि सख्ती हर हालत में मौत की खबर है।
और तुम्हें हजार तरह की सख्तियों ने घेर लिया है। फिर तुम तड़फड़ाते हो। और फिर तुम कहते हो, जीवन कहां है? अपने हाथ मरते हो, आत्मघात करते हो। क्योंकि सख्त होते चले जाते हो। और फिर पूछते हो, जीवन कहां? फिर पूछते हो, शांति नहीं। फिर पूछते हो, आनंद नहीं। फिर पूछते हो, जीवन की पुलक खो गई; नृत्य खो गया; काव्य नहीं। होगा कैसे? तुम सख्त हो, और सख्त बहुत-बहुत आयाम से हो।
और तुम्हारी सारी दीक्षा-शिक्षा तुम्हें सख्त बनाने की है। हिंदू कहते हैं, मजबूती से हिंदू हो जाओ, सख्त हिंदू। मुसलमान समझाते हैं, कठोर मुसलमान। कोई तुम्हें डिगा न सके; पत्थर की चट्टान हो जाओ। ईसाई सिखाते हैं कि चाहे मर जाना, मगर अपना सिद्धांत कभी मत छोड़ना। और तुम ऐसे लोगों की बड़ी प्रशंसा करते हो कि कितना दृढ़ आदमी है! लेकिन तुम्हें पता है कि दृढ़ता यानी सख्ती! सख्ती यानी मौत!
लाओत्से बड़ा छोटा सा तथ्य पकड़ रहा है। पर यह बड़ी खुली आंखों से देखी गई बात है। देखता है, ‘जब आदमी जन्म लेता है, वह कोमल और कमजोर होता है; मृत्यु के समय वह कठोर और सख्त हो जाता है। जब वस्तुएं और पौधे जीवंत हैं, तब वे कोमल और सुनम्य होते हैं; और जब वे मर जाते हैं, वे भंगुर और शुष्क हो जाते हैं। इसलिए कठोरता और दुर्नम्यता मृत्यु के साथी हैं, और कोमलता और मृदुता जीवन के साथी हैं।’
यह किसी शास्त्र का वचन नहीं है। ऐसा तुमने किसी शास्त्र में लिखा देखा है? किसी उपनिषद में, किसी वेद में, किसी बाइबिल में, किसी कुरान में यह वचन है? अगर तुम खोजने चलोगे तो पाओगे, इससे विपरीत वचन तुम्हें सब शास्त्रों में मिल जाएंगे। यह वचन तो तुम्हें केवल जीवन के शास्त्र में मिलेगा। इसलिए लाओत्से बड़ा ताजा है--सुबह की ओस की भांति, रात के चांद-तारों की भांति, वृक्षों में आई नयी कोंपलों की भांति। एकदम ताजा है; जीवन से सीधी खबर ला रहा है। उसका संदेश जीवंत है। वह किसी शास्त्र को सिद्ध करने में नहीं लगा है। वह सिर्फ इतना कह रहा है कि जरा जीवन को गौर से देखो, और कुंजियां तुम्हें मिल जाएंगी।
तुमने अगर कुंजियां खोई हैं तो कहीं और नहीं, शास्त्रों में खो दी हैं। कोई हिंदू होकर बैठ गया है, कोई मुसलमान होकर बैठ गया है। दोनों मर गए। जिंदा आदमी कहीं हिंदू होता है? जिंदा आदमी कहीं मुसलमान होता है? जिंदा आदमी कहीं जैन होता है? जिंदा आदमी किसी संप्रदाय में हो कैसे सकता है? क्योंकि संप्रदाय तो मरा हुआ रूप है धर्म का। जिस धर्म का प्राण जा चुका वह संप्रदाय है। जहां से आत्मा निकल चुकी और लाश पड़ी रह गई, वह संप्रदाय है।
कभी जैन जीवित था जब महावीर जिंदा थे। तुम्हारे कारण जैन जीवित नहीं था, वह महावीर के कारण जीवित था। फिर महावीर की सुगंध गई, महावीर की लाश को तो तुम दफना आए; लेकिन महावीर के शब्दों की लाश को तुम ढो रहे हो। जो तुमने महावीर के शरीर के साथ किया था वही तुम्हें महावीर के शब्दों के साथ भी करना था, क्योंकि शब्द भी लाश हैं। सत्य तो निःशब्द है। वह जब महावीर उन शब्दों को बोलते थे तब उसमें जीवन था। क्योंकि भीतर निःशब्द से वे शब्द आते थे। भीतर के मौन से उनका जन्म होता था। भीतर के बोध से सिक्त थे वे, तरोताजा थे। अभी-अभी बगीचे से तोड़ा गया फूल था। अभी-अभी, क्षण भी न हुआ था, तोड़ा था और तुम्हें दिया था महावीर ने। लेकिन तुम्हारे हाथों में फूल कितनी देर जिंदा रहेगा? तोड़ते ही फूल की मृत्यु शुरू हो गई। थोड़ी-बहुत देर हरियाली रहेगी; वह भी थोड़ी देर में खो जाएगी। और जब महावीर खो जाएंगे, बगीचा खो जाएगा, जहां से फूल आते थे वह स्रोत खो जाएगा। तुम मुर्दा उन फूलों को लिए चलते रहोगे।
बाइबिलों में तुमने देखा होगा लोग फूलों को रख देते हैं। फिर फूल सूख जाते हैं; धब्बे छूट जाते हैं बाइबिल के पन्नों पर थोड़े से फूल के रंग के। एक मुर्दा फूल रखा रह जाता है, एक याददाश्त फूल की कि कभी जीवित था।
बाइबिल में रखा यह फूल ही मुर्दा नहीं है, बाइबिल में रखे शब्द भी इतने ही मुर्दा हैं। सिर्फ याददाश्त हैं कि कभी जीवन उनमें था, सिर्फ स्मृतियां हैं, पदचिह्न हैं। नदी तो खो गई है सागर में, सिर्फ सूखे तट, रेत का फैलाव छूट गया है। उससे खबर मिलती है कि कभी यहां नदी थी। पर नदी अब वहां है नहीं।
संप्रदाय मृत घटना है। इसलिए सांप्रदायिक आदमी को तुम बहुत सख्त पाओगे। और धार्मिक आदमी को तुम सदा कोमल पाओगे। इससे तुम पहचान कर लेना। धार्मिक आदमी सुनम्य होगा। तुम उसे विनम्र पाओगे। वह झुकने को राजी होगा; वह दूसरे को समझने को राजी होगा। वह नये सत्यों को जगह देने को राजी होगा। अगर तुम नया आकाश दिखाओगे तो वह आंख नहीं बंद कर लेगा; वह अपने पुराने आकाश से नये आकाश को जोड़ कर और बड़े आकाश का मालिक हो जाएगा। तुम उसे अगर नया सत्य दोगे तो वह यह नहीं कहेगा: यह मैं नहीं मान सकता, क्योंकि यह मेरे शास्त्र में नहीं है! शास्त्र कितने छोटे हैं; सत्य कितना बड़ा है। सत्य किसी शास्त्र में कभी पूरा नहीं हो सकता। धार्मिक व्यक्ति हमेशा सुनम्य होगा; वह छोटे बच्चे की भांति होगा।
लाओत्से कहता है, कोमल और कमजोर। और यहीं सारा राज है। कोमलता तो तुम भी चाहोगे, लेकिन कमजोरी तुम न चाहोगे। और कोमलता सदा कमजोरी के साथ होती है। कमजोरी तुम नहीं चाहते, इसलिए तुम सख्त होना चाहते हो। क्योंकि सख्ती हमेशा ताकत के साथ होती है। गणित सीधा है कि आदमी क्यों सख्त होना पसंद करता है। क्योंकि सख्त होने में ताकत मालूम पड़ती है, और कोमल होने में कमजोरी मालूम पड़ती है।
लेकिन लाओत्से यह कहता है कि जीवन ही कमजोर है; सिर्फ मौत ताकतवर है।
तुम मरे हुए आदमी को मार सकते हो? कोई उपाय ही न रहा। तुम मरे हुए आदमी के साथ क्या कर सकते हो? मरे हुए आदमी को बदल सकते हो? अगर वह हिंदू था तो तुम उसको मुसलमान बना सकते हो? कैसे बनाओगे? मरे हुए आदमी के साथ तुम कुछ भी नहीं कर सकते। वह इतना सख्त हो गया, उसकी दृढ़ता का कोई अंत नहीं है। उसकी ताकत की कोई सीमा नहीं है। तुम लाख सिर पटको, तुम अंधे आदमी के हृदय तक आवाज न पहुंचा सकोगे, मरे हुए आदमी तक आवाज न पहुंचा सकोगे। जीवित आदमी निश्चित ही कमजोर है। जीवन का लक्षण कमजोर है। कमजोरी बड़ी गहन बात है। कमजोर का इतना ही अर्थ हो सकता है कि जो टूट सकता है, जो मिट सकता है, जो खो सकता है।
फूल उगता है; पास ही एक चट्टान पड़ी होती है। कल भी पड़ी थी, परसों भी पड़ी थी। कल भी पड़ी रहेगी, परसों भी पड़ी रहेगी। फूल सुबह उगा है, सांझ खो जाएगा। इसलिए क्या तुम कहोगे कि चट्टान फूल से श्रेष्ठ है, क्योंकि ज्यादा मजबूत है? फूल को चाहो तो हाथ में मसल दो, और मिट्टी हो जाएगा। चट्टान को तोड़ना इतना आसान नहीं। शायद चट्टान को तोड़ने में तुम खुद ही टूट जाओ। और फूल को तुम्हें मसलने की भी जरूरत नहीं है। सिर्फ समय की बात है; सुबह उगा है, सांझ अपने से ही गिर जाएगा। लेकिन फूल के पास जीवन है। और फूल के पास एक सौंदर्य है। माना घड़ी भर को है, लेकिन है। और इसीलिए फूल कमजोर है, क्योंकि उसके पास कुछ है जो खो सकता है। चट्टान के पास कुछ भी नहीं है जो खो सके। ध्यान रखना, जिसके पास कुछ है वह कमजोर होगा, और जिसके पास कुछ भी नहीं है वह मजबूत होगा। और जितनी तुम्हारी भीतर की संपदा बढ़ती जाएगी, तुम उतने कमजोर होते जाओगे। क्योंकि उस संपदा के खोने की उतनी ही संभावना बढ़ती जाएगी।
बुद्ध से ज्यादा कमजोर आदमी तुम न पा सकोगे। लाओत्से से कमजोर आदमी तुम न पा सकोगे। क्योंकि वे कोमल हैं, और जीवन की महा संपदा के मालिक हैं। एक फूल नहीं खिला है बुद्ध और लाओत्से में, हजारों फूल खिले हैं। जिसके पास है, उसके पास ही तो खोने की संभावना होती है। जिसके पास है ही नहीं, वह खोएगा क्या?
मैंने सुना है। जापान में एक फकीर हुआ। पुरानी कहानी है कि सम्राट जब गांव के चक्कर लगाते थे रात में। सम्राट चक्कर लगा रहा था राजधानी का, कई बार उसने देखा कि वह फकीर हमेशा उसे जागा मिला। वह एक वृक्ष के नीचे या तो बैठा रहता, या खड़ा रहता, या चलता रहता। लेकिन जागा मिला। कभी गया--आधी रात गया, सुबह गया, सांझ गया--जब भी जाकर देखा, सारी बस्ती भला सो गई हो, वह फकीर जागा हुआ था। सम्राट बड़ा हैरान हुआ। उसने एक दिन, उसकी उत्सुकता न रुक सकी तो उसने पूछा कि मैं एक सवाल पूछना चाहता हूं। बहुत बार यहां से निकलता हूं, तुम पहरा किस चीज का दे रहे हो? क्योंकि सूखे रोटियों के टुकड़े पड़े देखे मैंने। टूटा-फूटा बरतन है। कोई चुरा कर ले जाने की भी चेष्टा न करेगा। फटी गुदड़ी है। जराजीर्ण वस्त्र हैं। तुम्हारे पास कुछ दिखाई नहीं पड़ता, जिस पर तुम पहरा दे रहे हो। तुम पहरा किस चीज का दे रहे हो?
वह फकीर हंसने लगा। उसने कहा, कुछ है जो भीतर है। और जब से वह पैदा हुआ है तब से खोने का डर भी पैदा हो गया। मैं बड़ा कमजोर और कोमल हूं। भीतर कोई चीज खिल रही है, जैसे एक कली खिल रही हो। अब तक तो बंजर था तुम्हारे जैसा ही; मजे से सोता था। कुछ था ही नहीं; खोने को कोई डर ही न था; एक रेगिस्तान था। अब एक छोटा सा मरूद्यान पैदा हो रहा है। अब भय लगता है। अब हाथ-पैर कंपते हैं। अब डर लगता है कि जो हुआ है कहीं वह न न हो जाए। और घटना इतनी कोमल है और इतनी सूक्ष्म है कि जरा भी चूक गया तो खो जाएगी, यह पक्का है। फूल अभी पक्का हाथ में आया भी नहीं है, सिर्फ आभास मिलने शुरू हुए हैं।
जब तुम ध्यान करने उतरोगे तब तुम्हें पता लगेगा कि भीतर एक फूल खिलना शुरू होता है। तब तुम्हारा एक-एक कदम सम्हल कर पड़ने लगेगा। तब तुम एक-एक शब्द होश से बोलोगे; क्योंकि तुम डरोगे, तुम्हारा ही कोई शब्द तुम्हारे ही प्राणों में उठती हुई नयी संभावना को नष्ट न कर दे। तब तुम क्रोध न कर सकोगे; इसलिए नहीं कि तुम दूसरों पर करुणावान हो गए हो, बल्कि अब तुम्हारे पास एक संपत्ति है जो क्रोध की आग में जल सकती है, झुलस सकती है। तुम झगड़ा न करोगे। तुम विवाद में न पड़ोगे। क्योंकि तुम जानते हो, तुम्हारे पास कुछ बचाने योग्य है जो विवाद में चूक सकता है, नष्ट हो सकता है।
कुछ बहुमूल्य जब पैदा होता है तो तुम कमजोर हो जाते हो, इसको ध्यान में रखना। जैसे कि स्त्री जब गर्भवती होती है और एक नया जीवन उसके गर्भ में होता है तब कमजोर हो जाती है। लेकिन गर्भवती स्त्री से ज्यादा सुंदर स्त्री कहीं होती ही नहीं। और गर्भवती स्त्री के चेहरे पर जैसे सौंदर्य की आभा प्रकट होती है वैसी आभा इस स्त्री के चेहरे पर भी पहले न थी। क्योंकि गर्भवती स्त्री मरूद्यान हो रही है; पहले मरुस्थल थी। अब जीवन का उसमें फूल लग रहा है। लेकिन तब वह कोमल हो जाती है। तब वह पैर भी सम्हाल कर चलती है; उठती है तो सम्हाल कर उठती है। कुछ है जो बचाने योग्य है। उससे भी ज्यादा मूल्यवान उसमें कुछ है। अपने जीवन को खोकर भी, एक नये जीवन का सूत्रपात हो रहा है, उसे बचाना है। एक फूल खिल रहा है जो किसी भी क्षण मुर्झा सकता है।
इस दुनिया में तुम चट्टानों को ताकतवर पाओगे, फूलों को कमजोर। इससे एक बड़ी भयंकर स्थिति पैदा होती है। वह स्थिति यह है कि कहीं तुम चट्टान न होने की आकांक्षा कर लो। माना कि चट्टान मजबूत है, लेकिन मुर्दा है। उसकी मजबूती को क्या करोगे? उसका मुर्दापन तुम्हें भी मार डालेगा। उस चट्टान को तोड़ने न तो शैतान बच्चे आएंगे, उस चट्टान को मिटाने न तो पशु-पक्षी आएंगे, उस चट्टान को न तो तोड़ने माली आएगा, उस चट्टान को तोड़ने कोई भी नहीं आएगा। बड़ी सुरक्षित है चट्टान। लेकिन उस सुरक्षा का तुम करोगे क्या? वह कब्र की सुरक्षा है।
जीवन तो कोमल है, और जीवन कमजोर है। और जब तक तुम कोमल और कमजोर होने को राजी हो तभी तक तुम जीवन के धनी रहोगे। जिस दिन तुम सख्त और ताकतवर हुए उसी दिन तुम्हारे हाथ से जीवन की धारा सूखनी शुरू हो गई। क्योंकि केवल मृत्यु ही सख्त और शक्तिशाली हो सकती है। और तुम सब शक्तिशाली होना चाहते हो। इसलिए तुम कब्रें बन गए हो।
धार्मिक व्यक्ति कमजोर होना चाहता है। यह कमजोर शब्द तुम्हारे मन में तो बड़ी निंदा से भरा है। लेकिन धार्मिक व्यक्ति के लिए यही जीवन की सबसे बड़ी गहरी संपदा है कि वह कमजोर होना चाहता है। जब वह घुटने टेकता है और प्रार्थना के लिए आकाश की तरफ सिर उठाता है तब वह एक छोटे बच्चे से भी ज्यादा कमजोर है। वह कंपता है। उसके शब्द तुतला कर निकलते हैं। परमात्मा से क्या बोले? रोता है। घुटने टेक कर झुका हुआ बैठा व्यक्ति जो प्रार्थना में लीन है वह फिर से छोटा बच्चा हो गया है। उसके भीतर एक नये बच्चे का जन्म हो रहा है। उसको ही हम द्विज कहते हैं; जब तुम्हारे भीतर ऐसे कमजोर नये कोमल बच्चे का जन्म फिर से हो जाए तो तुम्हारा दूसरा जन्म हुआ। तब तक तुम मरुस्थल थे, अब तुम अपने को ही जन्म देने की संभावना से भरे। अब तुम्हारे भीतर एक गर्भ का सूत्रपात हुआ जिससे तुम्हारा शाश्वत रूप, सनातन रूप प्रकट होगा।
लाओत्से ने बात पकड़ ली है। कोमलता तो तुम भी चाहोगे, लेकिन कमजोरी नहीं चाहते। इसी से उपद्रव है। और कोमलता हमेशा कमजोर होगी। कोमलता कहीं सख्त हो सकती है?
तो तुम हर हालत में जब भी शक्ति चाहते हो--और तुम शक्ति चाहते हो। नीत्शे कहता है कि आदमी के भीतर एक ही आकांक्षा, दि विल टु पावर, शक्ति की आकांक्षा है। नीत्शे और लाओत्से दो विरोधी छोर हैं। दोनों को साथ-साथ पढ़ना बड़ा उपयोगी है। क्योंकि तब तुम चीजों को ठीक उनकी अति में पाओगे।
नीत्शे कहता है, शक्ति की आकांक्षा एकमात्र आत्मा है। और नीत्शे कहता है, मैंने फूल देखे, चांद-तारे देखे, झरने देखे, जल-प्रपात देखे, लेकिन मुझे सौंदर्य न मिला। सौंदर्य तो मुझे तब दिखाई पड़ा जब मैंने सैनिकों की एक टुकड़ी को कवायद करते देखा, और उनकी संगीनों पर चमकता हुआ सूरज देखा, और उनके पैरों की ताकत देखी, और जो छंद पैदा हो रहा था उनके चलने से, और उनकी संगीनों पर आई हुई सूरज की किरणों की चमक से जो रूप पैदा हो रहा था, उस क्षण मैंने सौंदर्य जाना।
यह सौंदर्य बड़ा सख्त सौंदर्य है। असल में, इसको जानने के लिए बड़ा पथरीला हृदय चाहिए। कोई आश्चर्य नहीं कि नीत्शे पागल होकर मरा। और कोई आश्चर्य नहीं है कि लाओत्से परम ज्ञानी होकर मरा।
शक्ति की आकांक्षा विक्षिप्तता में ले जाएगी। और तुम सब तरफ से शक्ति चाहते हो। धन इकट्ठा करते हो तो इसीलिए क्योंकि धन शक्ति का माध्यम है। जितना ज्यादा धन होगा उतनी शक्ति होगी। अगर तुम्हारी जेब में लाखों रुपये हैं तो इन लाखों रुपयों के कारण तुम बड़े शक्तिशाली हो। तुम जो चाहो करो। स्त्रियों को खरीदना हो खरीदो। नौकरों को खरीदना हो खरीदो। धन ने बड़ी सुविधा बना दी है। बिना धन के आदमी बहुत शक्तिशाली नहीं हो सकता। जब दुनिया में धन नहीं था और विनिमय की मुद्रा नहीं थी, तो लोग इतने शक्तिशाली नहीं हो सकते थे जितने धन के द्वारा हो गए। इसीलिए तो धन का इतना मूल्य हो गया लोगों के मन में। सब कुछ धन मालूम होता है।
तुम्हारी जेब में एक रुपया पड़ा है तो एक रुपया नहीं पड़ा है, हजारों चीजें पड़ी हैं। तुम चाहो तो एक आदमी को कहो, पांव दाबो! तो वह पैर दाबेगा। यह उसमें पड़ा है रुपये में। तुम एक स्त्री को कहो कि चलो प्रेम करो! वह प्रेम करेगी। यह पड़ा है उस एक रुपये में। भूखे हो, भोजन पड़ा है; प्यासे हो, पानी पड़ा है। एक रुपये में कितनी चीजें पड़ी हैं! इनको तुम बिना रुपये के कैसे खीसे में रखते? इसलिए रुपया प्रतीक हो गया शक्ति का। उसमें बड़ी चीजें छिपी हैं। तुम जो चाहो, जब चाहो, उसी वक्त होगा। इसलिए सब छोड़ो फिक्र, सिर्फ रुपया कमाओ।
शक्ति का खोजी कहता है कि रुपया कमाओ। फिर सब पीछे अपने आप चला आएगा।
जीसस का वचन है: फर्स्ट यी सीक दि किंगडम ऑफ गॉड, देन आल एल्स विल कम आटोमेटिकली बाइ इटसेल्फ। पहले खोज लो परमात्मा का राज्य और पीछे सब अपने आप चला आएगा।
शक्ति का पुजारी कहता है: फर्स्ट यी सीक दि किंगडम ऑफ दि रूपी, देन एवरी थिंग विल फालो आटोमेटिकली। पहले रुपये का राज्य खोज लो, और तब सब अपने आप चला आएगा। और कुछ खोजने की जरूरत नहीं। पद चाहिए, पद मिलेगा; प्रतिष्ठा चाहिए, प्रतिष्ठा मिलेगी। रुपये का खोजी कहता है, धर्म चाहिए? वह भी मिलेगा। मंदिर बना देना, धर्मशाला बना देना, दान कर देना। रुपया होगा तो सब मिलेगा।
शक्ति का खोजी रुपया खोजता है, या राजनीति खोजता है। क्योंकि जितने बड़े पद पर होगा उतने हजारों लोग उसके हाथ में होंगे; उनका जीवन और मरण उसके हाथ में होगा। आखिर राष्ट्रपति होने का क्या सुख होता होगा? क्योंकि राष्ट्रपति होने के लिए लोग कैसे दुखस्वप्न से गुजरते हैं! कैसा कष्ट पाते हैं! हजार तरह की गालियां, घेराव, हजार तरह के उपद्रव, लेकिन राष्ट्रपति होकर रहते हैं। और जब राष्ट्रपति हो जाते हैं तो उनको मिलता क्या है? मिलती है ताकत। अगर चालीस करोड़ का मुल्क है तो चालीस करोड़ लोगों की जिंदगी और मौत उनके हाथ में है। युद्ध में उतार दें मुल्क को तो लाखों लोग मर जाएंगे। युद्ध को बचा दें तो लाखों लोग बच जाएंगे। बड़ी ताकत है।
शक्ति का खोजी सभी तरह से शक्ति खोजता है।
अगर वह विवाह भी करता है तो एक पत्नी पर ताकत के लिए। अगर पत्नी विवाह करती है तो एक पति को गुलाम बनाने के लिए। अगर ऐसा आदमी बच्चे भी पैदा करता है तो सिर्फ ताकत के लिए। क्योंकि बच्चों से ज्यादा निरीह तुम कहां पा सकोगे किसी को! तुम्हारे ही बच्चे, जितनी मालकियत तुम उन पर कर सकते हो, किसी और पर दुनिया में न कर सकोगे। अगर तुम बहुत बड़े समाज के मालिक नहीं हो सकते तो कम से कम एक छोटे परिवार के मालिक तो हो सकते हो। तानाशाह तुम्हारे लिए स्टैलिन जैसा बनना मुश्किल होगा तो अपने-अपने घर में तो हर आदमी तानाशाह हो सकता है। वहां तो तुम्हारी आज्ञा चलेगी।
लेकिन जितनी तुम्हारे पास ताकत आती है, ध्यान रखना, उतने ही तुम मरते चले जाते हो, उतने ही तुम सख्त हो जाते हो। तुम्हारी नम्यता खो जाती है; तुम झुक नहीं सकते। धनपति कैसे झुकेगा? अकड़ा रहता है। त्यागी कैसे झुकेगा? अकड़ा रहता है।
ऐसा हुआ। एक जैन मुनि हैं आचार्य तुलसी। बहुत वर्ष पहले उन्होंने एक सम्मेलन किया। मुझे भी बुला भेजा। उन दिनों मोरारजी देसाई सत्ता में थे। वे भी आए। स्वभावतः, आचार्य तुलसी ऊंचे स्थान पर बैठे, सबको नीचे बिठाया। मोरारजी को बात खल गई। मोरारजी भी कोई छोटे महात्मा तो हैं नहीं। दोनों पद के आकांक्षी। अन्यथा निमंत्रित किया था लोगों को तो आचार्य तुलसी को साथ ही बैठना था। अतिथि थे ये लोग, और बुलाए गए थे। लेकिन वे अपने ऊंचे पद पर बैठे; सबको नीचे बिठाया। और किसी को तो नहीं अखरा, लेकिन मोरारजी को कष्ट हो गया। तो मोरारजी ने पहला ही सवाल पूछा कि यह जो गोष्ठी बुलाई गई है इसको हम इस सवाल से ही शुरू करें; मैं आपसे पूछता हूं कि आप ऊपर क्यों बैठे हैं और हम लोग नीचे क्यों बैठे हैं?
दो पदाकांक्षियों की मुठभेड़ हो गई। तुलसी भी थोड़े बेचैन हुए। जवाब भी कुछ न सूझा कि अब जवाब क्या दें! बात ही कोई सिद्धांत की होती तो समझा देते; जीवन की आ गई तो मुश्किल है। इधर-उधर देखने लगे। इतना ही कह सके कि चूंकि परंपरा है कि गुरु ऊपर बैठे। तो मोरारजी ने कहा, आप हमारे गुरु नहीं हैं। आप जिनके गुरु हों उनके साथ ऊपर बैठें; हम तो मेहमान हैं, और समानता की अपेक्षा रखते हैं।
मैंने देखा यह तो बात बिगड़ गई, और अब आगे कुछ चर्चा का कोई उपाय न रहा। तो मैंने आचार्य तुलसी को कहा कि अगर आप मुझे कहें तो मैं मोरारजी को जवाब दूं। और अगर मोरारजी मेरा जवाब सुनने को राजी हों तो। अन्यथा मेरे बोलने का कोई सवाल नहीं। तुलसी जी तो चाहते थे कोई झंझट टले। उन्होंने कहा, जरूर। मोरारजी ने कहा, ठीक है आप जवाब दें; जवाब चाहिए।
मैंने उनको पूछा कि पहली तो बात यह, प्रश्न से ही हम जवाब की खोज करें। आपको यह अखरा क्यों? तुलसी जी ऊपर बैठे हैं; छिपकली देखिए और ऊपर बैठी है; कौआ और ऊपर बैठा है। अब इनसे कोई झगड़ा करने जाएंगे? न छिपकली से कोई झगड़ा, न कौआ से। तुलसी जी से भी क्या झगड़ा? बैठे रहने दें। यह कष्ट क्यों? यह पीड़ा कहां हो रही है? आप भी ऊपर बैठना चाहते थे; उस आकांक्षा को चोट लगी है। और मैं आपसे यह पूछता हूं कि जहां तुलसी जी बैठे हैं अगर वहीं आप भी बिठाए गए होते तो आपने यह सवाल पूछा होता? हम सब नीचे होते, आप भी उनके साथ ऊपर होते, आपने यह सवाल पूछा होता? इसलिए आप यह मत कहिए कि हम नीचे क्यों बिठाए गए हैं; आप इतना ही कहिए कि मैं नीचे क्यों बिठाया गया हूं। हम में मैं को मत छिपाइए; मैं को सीधा करिए। और अगर आप अपने मैं को ठीक से समझ लें तो तुलसी जी के मैं को समझने में कोई अड़चन न रहेगी। आप दोनों एक ही रास्ते के यात्री हैं। आपको अखर रहा है कि नीचे क्यों बिठाया गया; उनको मजा आ रहा है कि मोरारजी को नीचे बिठा दिया। दोनों की भाषा एक है। सवाल उठता नहीं है। अगर हम जो नीचे बैठे हैं इस तरह बैठे रहें कि जैसे हमें नीचे बिठाया या नहीं बिठाया बराबर है, तुलसी जी का मजा खो जाएगा नीचे बिठाने का। रस भी इसी में है कि भारत के वित्त मंत्री को नीचे बिठा दिया। और आपका कष्ट भी इसी में है कि भारत का वित्त मंत्री और नीचे बिठा दिया! आपका कष्ट और उनका सुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। या तो वे अपना सुख छोड़ें, नीचे आ जाएं। या आप अपना कष्ट छोड़ दें और नीचे बैठने को राजी हो जाएं।
पर आदमी के अंधेपन की कोई सीमा नहीं है। मोरारजी को तो फिर भी समझ में आया--इसीलिए मैं कई बार अनुभव करता हूं कि राजनीतिज्ञ भी उतने राजनीतिज्ञ नहीं होते जितने तुम्हारे साधु पुरुष होते हैं--मोरारजी ने तो कहा कि सोचेंगे इस बात पर, विचार करेंगे। और बात को लीपापोती करके दूसरी चर्चा शुरू की। जब सब विदा हो रहे थे और मैं विदा लेने लगा तुलसी जी से तो उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रख कर कहा कि आपने अच्छा मुंहतोड़ जवाब दिया मोरारजी को। तब मैं बहुत चकित हुआ! यह जवाब मोरारजी को, तुलसी जी को नहीं? यह जवाब तो दोनों को था।
पदाकांक्षी त्याग से भी पद की ही तलाश करते हैं। महत्वाकांक्षी चाहे धन इकट्ठा करें, चाहे धन छोड़ें, हर हालत में पद की ही आकांक्षा काम करती रहती है।
मुझे अभी पिछले सप्ताह ही एक पत्र मिला है तीन साध्वियों का तुलसी जी की, कि चूंकि वे मेरी किताबें पढ़ती थीं इसलिए तुलसी जी ने उन्हें संघ से निष्कासित कर दिया। उन्होंने लिखा है कि हम बड़ी मुश्किल में पड़ गई हैं कि अब क्या करें। और उनका कहना यह है कि उनके आदेश के बिना हमने यह हिम्मत कैसे की कि आपकी किताबें पढ़ें!
तो यह कोई साधु होना न हुआ; यह तो सैनिक होने से भी बदतर हो गया। सैनिक को भी कम से कम इतनी स्वतंत्रता है कि वह कौन सी किताब पढ़ना चाहे पढ़े। लेकिन किताब पढ़ने के लिए भी परतंत्रता! वह भी पूछा जाना चाहिए; आज्ञा के अनुसार। और चूंकि मना किया गया था, फिर भी उन्होंने किताब पढ़ीं, उन्होंने उन्हें निकाल बाहर कर दिया। अब वृद्ध साध्वियां, जिन्होंने जीवन कुछ किया नहीं, कुछ करने का उपाय भी नहीं है। उनमें से एक तो बीमार है जो चल-फिर भी नहीं सकती, जिनका कोई परिवार नहीं। उन्हें ऐसा फेंक देना साधुता का लक्षण तो नहीं। गहन असाधुता छिपी है।
लेकिन महत्वाकांक्षी हमेशा असाधु होता ही है। उसकी आकांक्षा यह होती है कि मुझसे ऊपर कोई भी नहीं।
तुलसी जी मुझसे ध्यान के संबंध में समझना चाहते थे। तो उन्होंने कहा, हम बिलकुल एकांत में बात करेंगे। पर मैंने कहा, क्या एकांत की जरूरत है! और लोग भी मौजूद हो सकते हैं। क्योंकि और सब बातें तो आपने सबके सामने मुझसे की हैं। उन्होंने कहा, नहीं, यह जरा गहन बात है, एकांत में ही करेंगे। और एकांत में करने का कुल कारण इतना कि तुलसी जी के अनुयायियों को अगर पता चल जाए कि तुलसी जी भी ध्यान के संबंध में किसी से पूछते हैं, इन्हें अभी ध्यान का पता नहीं, तो पद संकट में पड़ जाएगा।
न कभी ध्यान किया है, न कभी ध्यान के संबंध में कुछ जाना है। शास्त्रों को पढ़ कर पंडित हो गए हैं लोग; कुछ जाना नहीं है। शब्द में कुशल हैं, लेकिन स्वयं में कोई गति नहीं है। हो भी नहीं सकती। क्योंकि स्वयं में तो गति तभी होती है जब तुम कोमल और कमजोर होने को राजी हो।
शक्ति की आकांक्षा का अर्थ है, तुम दूसरे पर कब्जा करना चाहते हो। और अगर गौर से देखो, बहुत गौर से देखो, तो कमजोर आदमी ही दूसरे पर कब्जा करना चाहता है। अब तुम बड़ी जटिलता में पड़ोगे। और कमजोर होने को जो राजी है वही असली शक्तिशाली है। क्योंकि उसे कोई भय ही नहीं है। ठीक है, अगर कमजोर और कोमलता जीवन का लक्षण है तो वह राजी है। वह मिटने को राजी है, लेकिन जीवन को खोने को राजी नहीं है। वह चट्टान होने के लिए तैयार नहीं है, वह फूल ही होने के लिए तैयार है। माना कि सांझ फूल गिर जाएगा, गिरेंगे। लेकिन जब तक फूल है तब तक फूल एक ऐसे अनंत को ला रहा है पदार्थ के जगत में, एक ऐसे सौंदर्य को उतार रहा है, रूप में उसे ला रहा है जिसका कोई रूप नहीं है। इतनी देर को सही, लेकिन जीवन की धड़कन अगर इतनी देर भी बजेगी, अगर वीणा जीवन की इतनी देर भी बजेगी तो बहुत है। एक क्षण भी बजेगी तो अनंत है। पत्थर की तरह अनंतकाल तक भी पड़े रहेंगे तो उसका कोई मूल्य नहीं है।
‘आदमी जब जन्म लेता है, वह कोमल और कमजोर होता है। मृत्यु के समय वह कठोर और सख्त हो जाता है। जब वस्तुएं और पौधे जीवंत हैं, तब वे कोमल और सुनम्य होते हैं। और जब वे मर जाते हैं, वे भंगुर और शुष्क हो जाते हैं।’
जाओ, जीवन को देखो-परखो, और तुम लाओत्से की बात सही पाओगे। छोटे-छोटे पौधे बच जाते हैं, आंधी आती है, और बड़े-बड़े वृक्ष गिर जाते हैं। बड़े वृक्ष अकड़े खड़े हैं। अपनी ताकत से आंधी से लड़ना चाहते हैं। छोटे वृक्ष कमजोर हैं; लड़ते नहीं, सिर्फ झुक जाते हैं। आंधी आती है, चली जाती है, छोटे वृक्ष फिर खड़े हो जाते हैं। और बड़े वृक्ष गिर गए, फिर उनके उठने का कोई उपाय नहीं रह जाता। जब सख्त गिरता है, तो सिर्फ मरता है। जब कोमल गिरता है, कुछ अंतर नहीं पड़ता, फिर उठ कर खड़ा हो जाता है। कोमल नम्य है, लोचपूर्ण है; झुक सकता है। जितने तुम लोचपूर्ण हो उतने ही तुम जीवंत हो।
क्या तुम अपने सिद्धांतों में लोचपूर्ण हो? क्या तुम आस्तिक हो, और नास्तिक की बात भी शांति से सुन सकते हो? क्योंकि हो सकता है वह सही हो। अगर तुम लोचपूर्ण हो तो तुम्हारे भीतर ज्ञान की धारा जीवंत रहेगी। क्या तुम अपने विरोधी की बात उतनी ही शांति से सुन सकते हो जितनी तुम अपनी ही बात शांति से सुनते हो? अगर तुम सख्त हो तो तुम कहोगे कि नहीं, विरोधी की बात ही क्यों सुननी?
ऐसा शास्त्रों में लिखा है--हिंदुओं के शास्त्रों में भी, जैनों के शास्त्रों में भी। हिंदुओं के शास्त्रों में लिखा है कि अगर पागल हाथी तुम्हारा पीछा करता हो और जैन मंदिर पास हो जिसमें शरण लेकर तुम आत्म-रक्षा कर सकते हो, तो भी जैन मंदिर में मत जाना। पागल हाथी के पैर के नीचे दब कर मर जाना बेहतर है, लेकिन जैन मंदिर में संकट के काल में शरण लेना भी पाप है। वही बात जैनों के शास्त्रों में भी लिखी है। बड़े सख्त लोग, पागलपन की सीमा पर सख्त। और ऐसे लोग कैसे जीवंत ज्ञान को उपलब्ध हो सकेंगे!
जीवन की धारा तो बड़ी कोमल है, लोचपूर्ण है। न तो सिद्धांतों में सख्त होना, न मान्यताओं में, न विश्वासों में सख्त होना। और तभी तुम पाओगे कि तुम्हारे भीतर ज्ञान प्रतिपल बढ़ता जाता है। जिस क्षण तुम सख्त होते हो वहीं ज्ञान का विकास रुक जाता है। अगर प्रतिपल ज्ञान को जन्म देना है तो उसका अर्थ हुआ, प्रतिपल ज्ञान का बालक जन्म लेगा; तुम लोचपूर्ण रहोगे। मरते दम तक लोचपूर्ण रहोगे; मरते दम तक तुम आग्रह न करोगे कि जो मैं कहता हूं वही सही है। तुम सदा यही कहोगे कि ऐसा मैंने जाना, पर अन्यथा भी सही हो सकता है; क्योंकि मैंने पूरा जीवन नहीं जाना। जीवन बड़ा है, मैं बहुत छोटा हूं। मैंने सागर का एक किनारा जाना; सभी किनारे ऐसे ही होंगे, कहना जरूरी नहीं है। कहीं चट्टानें होंगी, कहीं रेत का फैलाव होगा, कहीं वृक्ष होंगे, कहीं पहाड़ होंगे। सागर के किनारे अलग-अलग होंगे। हजार-हजार रूप होंगे। यही सागर होगा। मैंने जो जाना, जो कोना मैंने जाना, वह ऐसा है। और कोनों की मुझे कुछ खबर नहीं है। दूसरा भी ठीक होगा। तुमसे जो बिलकुल विरोध में बोल रहा है वह भी ठीक हो सकता है, क्योंकि जीवन इतना बड़ा है कि सभी विरोधाभासों को अपने में समा लेता है।
जीवन की विराटता का अर्थ ही यही है। वहां सभी असंगतियां एक ही संगीत की लयबद्धता में खो जाती हैं। हेराक्लाइटस का वचन बहुत प्यारा है। हेराक्लाइटस कहता है, गॉड इज़ समर एंड विंटर, डे एंड नाइट, लाइफ एंड डेथ, हंगर एंड सेटाइटी। ईश्वर सब है। ग्रीष्म भी वही है और शीत भी वही; और दिन भी वही, रात भी वही; हार भी वही, जीत भी वही; भूख भी वही, परितृप्ति भी वही।
तुमने किसी किनारे से जाना हो कि ईश्वर प्रकाश है, और कोई दूसरा आकर कहे कि ईश्वर महा अंधकार है, तो लड़ने मत खड़े हो जाना। क्योंकि ईश्वर दोनों है। अन्यथा महा अंधकार कहां होगा?
दुनिया के अधिक शास्त्रों में लिखा है ईश्वर प्रकाश है। पर जीसस जिस संप्रदाय में दीक्षित हुए और जिस साधना-पद्धति से उन्होंने परमात्मा को पाया उस संप्रदाय का नाम है इसेनीज। वे अब तो करीब-करीब खो गए। लेकिन उन्हीं के आश्रमों में जीसस का पालन-पोषण हुआ और जीसस बड़े हुए। उनके वचनों में लिखा है: ईश्वर महा अंधकार है। और इसेनीज के पास अपने तर्क हैं। वह कहता है, अंधकार में जैसी शांति है वैसी प्रकाश में कहां? प्रकाश तो एक उत्तेजना है। इसलिए तुम अगर बहुत प्रकाश हो तो सो भी नहीं सकते। तो परम विश्राम कैसे कर सकोगे परमात्मा में? वह महा अंधकार है। और प्रकाश की तो हमेशा सीमा दिखाई पड़ती है; महा अंधकार की कोई सीमा नहीं। और परमात्मा असीम है। और प्रकाश को तो पैदा करो तब पैदा होता है, और ईंधन चुक जाने पर समाप्त हो जाता है। उसका आदि है, अंत है। अंधकार अनादि-अनंत है। न तो कोई पैदा करता, न कोई कभी बुझा पाया; सदा है।
इसेनीज की बात में भी अर्थ है। जो कहते हैं परमात्मा प्रकाश है, उनकी बात में भी अर्थ है। पर कुछ और दूसरे कोने से उनकी बात में अर्थ है। वे कहते हैं, परमात्मा प्रकाश है, क्योंकि परमात्मा के होते ही सब ऐसा ही साफ दिखाई पड़ने लगता है जैसा प्रकाश में। ठीक है बात। अंधकार में तो आदमी अंधा हो जाता है, प्रकाश में दिखाई पड़ता है, दर्शन होता है। अंधकार में तो भय लगता है, प्रकाश में निर्भय-अभय हो जाता है। उनकी बात में भी सत्य है। असल में, अगर तुम नम्य हो तो तुम्हें असत्य कहीं दिखाई ही न पड़ेगा। अगर तुम नम्य हो तो तुम्हें हर जगह सत्य दिखाई पड़ जाएगा। और अगर तुम्हें हर जगह सत्य दिखाई पड़ना शुरू हो जाए तो ही तुमने जीवन का पाठ सीखा।
अकड़ से मत भर जाना, सख्त मत हो जाना, अन्यथा तुम मृत्यु को बुला रहे हो। लोचपूर्ण बने रहना मरने के आखिरी क्षण तक, और तुम मृत्यु को हरा दोगे। मृत्यु आएगी जरूर, लेकिन तुम्हें मार न पाएगी। क्योंकि मृत्यु केवल उसी को मार पाती है जो सख्त हो गया। मृत्यु आएगी जरूर, देह भी चली जाएगी; लेकिन तुम अछूते रह जाओगे। तुम्हें मृत्यु छू भी न पाएगी। तुम कमल जैसे रह जाओगे; मृत्यु का जल तुम्हें स्पर्श भी न कर पाएगा--अगर तुम लोचपूर्ण हो। अगर तुम सख्त हो तो ही मरोगे। सख्ती के कारण तुम मरते हो, तुम्हारे कारण नहीं। सख्ती की खोल तुम्हें चारों तरफ से घेर लेती है और कस देती है, और तुम मर जाते हो।
तो न तो संप्रदाय में, न सिद्धांत में, न शास्त्र में, किसी भी चीज में सख्त मत हो जाना। लेकिन सख्ती बड़े अनूठे ढंग से आती है। मुझे तुम सुनते हो, मुझे प्रेम करते हो। कोई मेरे खिलाफ बोलता हो, तुम तत्क्षण सख्त हो जाओगे। मरे! तुम गए! तुमने मुझसे जीवन न पाया, मौत पाई।
वह भी सही हो सकता है, लोचपूर्ण रहना। उसकी बात भी गौर से सुन लेना, और भी गौर से सुन लेना, जितना कि तुम मुझे प्रेम करने वाले की बात सुनते हो। क्योंकि मुझे प्रेम करने वालों से तुम्हारा मिलना ज्यादा होगा। तुम उनके बीच घूमोगे। उनसे तुम्हारी मैत्री होगी। लेकिन जो मुझे घृणा करता हो उसकी बात बहुत गौर से सुन लेना। क्योंकि वह एक दूसरा पहलू प्रकट कर रहा है। और सत्य बड़ा है। तुम यह मत कहना कि तुम गलत हो। वह भी सही हो सकता है। उसकी बात इतने गौर से सुनना और कोशिश करना कि उसमें भी कुछ सत्य हो तो निकाल लो।
असल में, सत्य के खोजी को सत्य की खोज है। कहां से मिलता है, यह क्या देखना है? प्यासा पानी चाहता है। नदी का है कि कुएं का है कि नल से आता है कि वर्षा का है, क्या लेना-देना? प्यासे को पानी चाहिए। सत्य के प्यासे को सत्य की खोज है। वह अपना द्वार बंद नहीं करता, सब तरफ से खुला रहता है। और जो भी आए, सत्य का खोजी उसमें से अपने सत्य के पानी को खोज लेता है। और उसे धन्यवाद दे देता है।
और अगर तुम, जो मुझे गाली दे रहा हो, उसको भी धन्यवाद दे सको, तो तुमने उसे भी बदलने की शुरुआत कर दी। वह तुम्हें न मार पाया; तुमने उसे जीवन देना शुरू कर दिया। क्योंकि वह चौंकेगा। वह भरोसा न कर सकेगा। तुमने उसे हिला दिया। तुम मेरे कारण कोई संप्रदाय अपने आस-पास मत बना लेना। तुम मुझे प्रेम करना, लेकिन मुझे तुम्हारा कारागृह मत बना लेना। और प्रेम मंदिर भी बन सकता है और कारागृह भी। तुम्हारे हाथ में है। अगर प्रेम लोचपूर्ण बना रहे तो मंदिर है और अगर लोच खो जाए तो कारागृह है। और फासला बहुत बारीक है। और एक-एक कदम सम्हल कर चलोगे तो ही बच पाओगे। अन्यथा संप्रदाय से बचना बहुत मुश्किल है; करीब-करीब असंभव है। क्योंकि जिसको भी हम प्रेम करते हैं, बस हम प्रेम करते हैं और अंधे हो जाते हैं।
और तुम दूसरे अंधों को पहचान लोगे, लेकिन अपना अंधापन तुम्हें पहचान में न आएगा। तुम पहचान लोगे कि यह आदमी पागल है महावीर के पीछे, यह आदमी पागल है बुद्ध के पीछे, यह आदमी पागल है कृष्ण के पीछे, तुम दूसरों को पहचान लोगे। लेकिन दूसरों को पहचानने से कुछ सार नहीं है। अपना खयाल रखना कि तुम कहीं किसी संप्रदाय में तो नहीं बंध जाते हो! तुम कहीं मेरे शब्दों को शास्त्र तो नहीं बना रहे हो!
इसलिए मैं रोज अपने भी विरोध में बोले चला जाता हूं, ताकि तुम शास्त्र बना ही न पाओ। जब तुम शास्त्र बनाने बैठोगे, तुम बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे। मैंने करीब-करीब सब बातें कह दी हैं जो कही जा सकती थीं। कृष्ण ने तो एक पहलू कहा है, इसलिए शास्त्र बन सकता है। लाओत्से ने एक पहलू कहा है, शास्त्र बन सकता है। कृष्णमूर्ति, जो कि शास्त्र के बिलकुल विपरीत हैं, उनका शास्त्र निश्चित बनेगा। क्योंकि उनसे ज्यादा कंसिस्टेंट और संगत आदमी खोजना मुश्किल है। चालीस साल में एक बात के सिवा उन्होंने कुछ कहा ही नहीं है। वे उसी को दोहरा रहे हैं। मेरा तुम शास्त्र न बना सकोगे, क्योंकि जो भी कहा जा सकता है वह सब मैंने कह दिया है। इसकी बिलकुल मैंने फिक्र नहीं की है कि मैं अपना ही विरोध कर रहा हूं, कि आज कुछ, कल कुछ। जब तुम शास्त्र बनाने बैठोगे, तुम पागल हो जाओगे। तुम मुझमें से सिद्धांत निकाल ही न सकोगे। मैंने इंतजाम कर दिया पूरा।
लेकिन प्रेम इतना अंधा है कि मेरे इंतजाम को तोड़ सकता है। क्योंकि जब तुम किसी आदमी को प्रेम करते हो तो तुम उसका विरोध देख ही नहीं पाते, उसका विरोधाभास भी नहीं देख पाते। वह खुद अपने ही सिद्धांतों के विपरीत बोल रहा है, यह भी नहीं देख पाते। तुम भरोसा रखते हो कि वह ठीक ही बोल रहा होगा, संगत ही बोल रहा होगा; सब ठीक ही होगा। क्योंकि प्रेम ठीक तो पहले मान लेता है, फिर विचार करता है। डर है कि तुम शास्त्र बना लो। उससे मुझे कोई नुकसान नहीं है। मेरा उससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं है। लेकिन तुम मर जाओगे। शास्त्रों के नीचे दब कर बहुत लोग मर चुके हैं। तुम मत मरना। उसका होश रखना।
‘जब वस्तुएं और पौधे जीवंत हैं, तब वे कोमल और सुनम्य होते हैं; और जब वे मर जाते हैं, वे भंगुर और शुष्क हो जाते हैं।’
इसलिए पंडितों को तुम सदा शुष्क पाओगे, तुम वहां रसधार न पाओगे। तुम वहां तर्क तो बहुत पाओगे, काव्य तुम्हें बिलकुल न मिलेगा। पंडित बिलकुल शुष्क होगा। क्योंकि पंडित से ज्यादा मुर्दा और क्या होता है? बुद्ध में तो एक काव्य है; शब्दों में एक लय है, एक सौंदर्य है। तुम पाओगे कि शब्द किसी भीतर की आर्द्रता से आ रहे हैं, गीले हैं। अभी भी ओस सूखी नहीं है। लेकिन पंडित के शब्द बिलकुल सूखे हैं। तुम अगर बुद्ध के शब्दों को जलाओगे तो धुआं ही धुआं पैदा होगा। बहुत गीले हैं, प्रेम से भरे हैं। लेकिन अगर तुम पंडित के शब्दों को जलाओगे तो अग्नि बिलकुल ठीक से जलेगी; जरा भी धुआं पैदा न होगा। बिलकुल सूखे हैं; भीतर कोई रसधार ही नहीं है। उधार हैं; भीतर से आए ही नहीं हैं, जीवन में डूबे ही नहीं हैं। उन्होंने जीवन का पानी जाना ही नहीं है, केवल तर्क की सूखी धूप जानी है।
खयाल रखना, जब भी तुम कुछ बोलो वह तुम्हारे पांडित्य से न आए। अगर पांडित्य से आता है, बेहतर है बिना बोले रह जाना, मत बोलना। जब भी कुछ बोलो तो ध्यान रखना, वह तुम्हारे हृदय से डूब कर आए। और जब भी वह हृदय से डूब कर आएगा, तुम पाओगे उसमें रस है। वह दूसरे को भी भिगाएगा, वह दूसरे को भी अपने में डुबा लेगा। पंडित दूसरे को हो सकता है कनविंस भी कर दे, कोई सिद्धांत सिद्ध कर दे दूसरे के सामने, लेकिन कभी किसी दूसरे को कनवर्ट नहीं कर पाता। वह कितना ही समझा दे, तर्क दे दे; दूसरा शायद तर्क का उत्तर भी न दे पाए, कसमसाए, लेकिन उत्तर न हो पास तो मानना पड़े कि ठीक है, भाई ठीक है; लेकिन कभी किसी के दूसरे के हृदय को रूपांतरित नहीं कर पाता पंडित। क्योंकि जब अपने ही हृदय से शब्द न आते हों तो दूसरे के हृदय तक नहीं पहुंच सकते। जितनी गहराई से शब्द आता है उतनी ही गहराई तक दूसरे में जाता है। खोपड़ी से आता है, खोपड़ी तक जाता है; कंठ से आता है, कंठ तक जाता है; हृदय से आता है, हृदय तक जाता है; अगर आत्मा से आता है, आत्मा तक जाता है। बस उतनी ही गति होती है दूसरे में, जितनी गहराई से आता है। वही अनुपात।
जब भी कोई चीज मर जाती है तो शुष्क हो जाती है। तुमने मरे आदमी की लाश देखी, कैसी अकड़ जाती है! वैसे ही पंडित के शब्द हैं, वैसे ही सांप्रदायिक की मान्यताएं हैं, विश्वास हैं।
‘कठोरता और दुर्नम्यता मृत्यु के साथी हैं।’
तुम मौत से तो बचना चाहते हो और कठोरता को साधते हो। तुम मौत से तो बचना चाहते हो और अनम्यता को साधते हो। तो तुम एक हाथ से जो बचाना चाहते हो उसी को दूसरे हाथ से मिटाते हो। तुम्हारी गति ऐसी ही है जैसा पश्चिम में अभी मस्तिष्क के सर्जन एक नतीजे पर पहुंचे हैं। वह नतीजा यह है कि आदमी के भीतर दो मस्तिष्क हैं, और दोनों बीच में जुड़े हैं। अगर उनको दोनों को बीच से काट दिया जाए तो एक आदमी दो आदमियों की तरह व्यवहार करने लगता है। तो उसका बायां हाथ किसी चीज को उठाता है, लेकिन दाएं हाथ को पता नहीं चलता। दायां उसको फिर उठा कर वहीं के वहीं रख देता है। जैसे दो आदमी। और बड़ी बेबूझ स्थिति पैदा हो जाती है। वह एक हाथ से खाना खाता है, क्योंकि एक मस्तिष्क अनुभव कर रहा है भूख का; और दूसरे हाथ से वह हाथ धो रहा है और भोजन से उठ रहा है, और एक हाथ अभी भोजन जारी रखे है। करीब-करीब जीवन की अवस्था में तुम्हारी स्थिति ऐसी ही है। तुम एक हाथ से बनाते हो, दूसरे से मिटाते हो; एक हाथ से मांगते हो, दूसरे से इनकार करते हो; एक हाथ से द्वार खोलते हो, दूसरे से बंद करते हो।
इसी से तो इतनी चिंता तुम्हारे जीवन में पैदा हो गई है। चिंता का अर्थ है, तुम कुछ ऐसा कर रहे हो जो स्व-विरोधी है। एंग्जायटी का इतना ही अर्थ होता है, चिंता का, कि तुम अपने ही विपरीत कुछ करने में लगे हो। तुम्हें पता न होगा। और सबसे बड़ी विपरीतता यह--कौन आदमी है जो मरना चाहता! कोई नहीं मरना चाहता है; लेकिन हर आदमी सख्त हो जाता है, अनम्य हो जाता है, अकड़ जाता है, और अभ्यास करता है जीवन भर अनम्य होने का। फिर मौत तो स्वाभाविक है। अगर नहीं मरना है और अमृत को जानना है, तो नम्यता को मत खोना।
साक्रेटीज मर रहा था। जब वह मर रहा है तब भी उसकी नम्यता कायम है। ठीक मरते वक्त सब साथी, मित्र, शिष्य रो रहे हैं। साक्रेटीज ने कहा, चुप रहो! अभी रोने की कोई जरूरत नहीं, क्योंकि अभी तो मैं जिंदा हूं। और दूसरी बात, अभी पक्का कहां है कि मैं मर ही जाऊंगा! एक शिष्य ने कहा कि कितनी देर लगेगी, सूरज ढलने के करीब आ गया है। सूरज ढलते वक्त ही आपको जहर दिया जाना है। जहर बाहर पीसा जा रहा है। उसकी आवाज सुनाई पड़ रही है। आपको घबराहट नहीं लग रही है? एक शिष्य ने पूछा।
सुकरात ने कहा कि दो ही संभावनाएं हैं। एक तो कि मैं मर ही जाऊंगा। अगर मर ही गए तो डरने का क्या कारण? जब बचे ही नहीं, तो डरे भी कौन? अगर मर ही गए बिलकुल, जैसा कि नास्तिक कहते हैं, तो भय किस बात का है? जन्म के पहले नहीं थे, उससे कोई चिंता पैदा होती है? मृत्यु के बाद फिर वैसे ही हो जाएंगे जैसे जन्म के पहले नहीं थे। चिंता का क्या कारण है? तुमने कभी चिंता की कि जन्म के पहले नहीं थे, तो बैठे हैं चिंता में कि कितना दुख पाया, जन्म के पहले नहीं थे! नहीं होने से कोई दुख होता है? जब थे ही नहीं तो दुख किसको होगा? सुकरात ने कहा कि हो सकता है नास्तिक सही हों और मैं बिलकुल ही मर जाऊं, तो भय किस बात का? जितनी देर जीया, ठीक। फिर मर गए, बात खतम हो गई। रहे ही न, तो अब बात कौन चलाए? और हो सकता है आस्तिक सही हों कि मैं मरने के बाद बच जाऊं। और अगर बच ही गए तो मरना हुआ ही नहीं; चिंता क्यों करना?
यह खुले हुए आदमी का लक्षण है; इतना नम्य कि मरते क्षण में भी!
भय के कारण भी आदमी मरते वक्त आस्तिक हो जाता है; सोचने लगता है कि शायद परमात्मा हो ही; प्रार्थना कर लो। मरते-मरते अधिक नास्तिक आस्तिक हो जाते हैं। मरने के पहले ही, जवान आदमी अधिक नास्तिक होते हैं, जैसे-जैसे बुढ़ापा आता है आस्तिक होने लगते हैं। इसलिए मंदिरों-मस्जिदों में, गिरजाघरों में तुम बूढ़ों को बैठे पाओगे। जवान आदमी मधुशाला में मिलेंगे, क्लबघर में मिलेंगे, वेश्यागृह में मिलेंगे; बूढ़े मंदिर में मिलेंगे। अभी जवान को फिक्र नहीं है, अभी पक्का भरोसा है। जैसे पैर डगमगाएंगे, भरोसा कम होगा। जैसे ही भरोसा कम होगा, घबराहट पकड़ेगी, मंदिर की तरफ चलने लगेगा, भगवान का सहारा लेगा।
साक्रेटीज न तो भयभीत है, न कोई सहारा ले रहा है। वह कहता है, मुझे पता ही नहीं है कि बचूंगा या नहीं बचूंगा, तो पता तो चल जाने दो। तभी कुछ निर्णय किया जा सकता है। यह लोचपूर्णता है।
तुम्हें कुछ भी पता नहीं है, और तुमने कितने निर्णय कर लिए हैं! तुम्हें कुछ भी पता नहीं है, और तुमने कितने सिद्धांत मान लिए हैं! तुम्हें कुछ भी पता नहीं है, और तुम कितने ज्ञानी होकर बैठे हो! गहन अज्ञान पर पांडित्य को तुमने छा दिया है; पता ही नहीं चलता तुम्हारे अज्ञान का कि कहां है। उस पांडित्य के कारण ही तुम सख्त हो गए हो, तुम्हारी लोच खो गई है।
मेरे पास पंडित आ जाते हैं। तो जितना जड़-बुद्धि मैं उनको पाता हूं उतना किसी को भी नहीं पाता। खोपड़ी उनकी बिलकुल भरी, हृदय बिलकुल खाली। वे खुद बोलते ही नहीं, उपनिषद उनमें से बोलता है। वे खुद बोलते ही नहीं, गीता उनमें से दोहरती है। टेप रेकार्डर हो सकते हैं, आदमी नहीं हैं। ग्रामोफोन के रेकार्ड हो सकते हैं, मनुष्य नहीं हैं। और ग्रामोफोन के रेकार्ड भी घिसे-पिटे; वह भी कोई ताजा रेकार्ड नहीं कि अभी ले आए बाजार से; घिसा-पिटा! अक्सर तो ऐसी हालत है उनकी जैसा ग्रामोफोन के रेकार्ड में कहीं लकीर टूटी होती है और सुई फंस जाती है और वही लकीर दोहरती जाती है: हरे कृष्ण हरे राम, हरे कृष्ण हरे राम, हरे कृष्ण हरे राम। इसको वे मंत्र कहते हैं। यह केवल टूटा हुआ ग्रामोफोन रेकार्ड है जिसमें सुई फंस गई। वे उसी को दोहराए चले जाते हैं। आगे जाने का उपाय नहीं, पीछे लौटने का उपाय नहीं; बस एक ही लकीर दोहरती रहती है।
एक गहन जड़ता पंडितों में दिखाई पड़ती है। छोटे बच्चे कहीं ज्यादा ज्ञानपूर्ण होते हैं। अज्ञान उनका है, लेकिन अभी ढंका नहीं। अभी खुले आकाश जैसा है; अभी सब रास्ते खुले हैं; अभी वे कहीं भी जा सकते हैं, अभी उनकी मुक्ति साफ है। तुम छोटे बच्चे की भांति सदा बने रहना--सीखने को तत्पर, सदा उत्सुक-आतुर। पंडित का अर्थ है, जो सिखाने को उत्सुक है, सीखने को नहीं। पंडित का अर्थ है, जो शिष्य की तलाश में है, गुरु की तलाश में नहीं।
सीखने को उत्सुक व्यक्ति हमेशा, हर जगह खोज रहा है; खोजी है। जहां से मिल जाए, धन्यवाद देगा और ले लेगा। और अतीत को कभी भी बोझिल नहीं होने देता, भविष्य को खुला रखता है। अतीत को कभी भविष्य और अपने बीच में दीवाल नहीं बनने देता कि मैंने जान लिया, अब जानने को क्या है, अब जाना कहां है।
कितना ही जाना हो, वह ना-कुछ है उसके मुकाबले जो अभी जानने को शेष है। और सब कुछ जान लिया हो तो भी इस जगत में कुछ है जो अज्ञेय है, जो जानने से जाना ही नहीं जाता। वही परमात्मा है। वह तो होने से जाना जाता है, जानने से नहीं जाना जाता।
‘इसलिए सेना जब हठी होगी, वह युद्ध में हार जाएगी।’
क्योंकि हठ सख्ती है।
‘जब वृक्ष कठिन होगा, वह काट दिया जाएगा। बड़े और बलवान की जगह नीचे है, सौम्य और कमजोर की जगह शिखर पर है।’
इसलिए मैं कहता हूं कि लाओत्से ओस की तरह ताजा है। उसने जिंदगी से सीधा पीया है, जिंदगी के घाट से सीधा पीया है, किसी शास्त्र से नहीं। वह कहता है कि बड़ा और बलवान तुम्हें दिखाई पड़ता है शिखर पर है; तुम गलती में हो। सिर्फ कोमल, नम्य, कमजोर शिखर पर है; क्योंकि कोमल और नम्य सुंदर है, सत्य है, जीवंत है। जड़ें जमीन में हैं; वे मजबूत हैं। फूल शिखर पर है; वह कमजोर है। बड़े पत्थर, मजबूत पत्थर नींव में पड़े हैं मंदिर की; स्वर्ण-शिखर कमजोर, नम्य, ऊपर है। और जीवन में भी यही सत्य है। अगर इससे विपरीत तुम्हें दिखाई पड़ता हो तो उसका केवल एक ही कारण होगा कि तुम शीर्षासन कर रहे हो।
अब अगर तुम शीर्षासन करके खड़े हो जाओ।
मैंने सुना है, एक गधा एक बार पंडित जवाहरलाल नेहरू को मिलने गया। वे उस वक्त शीर्षासन कर रहे थे। सुबह का वक्त था, वे अपने लान में शीर्षासन कर रहे थे। सिपाही भी द्वार पर खड़ा झपकी ले रहा था। और कोई आदमी गुजरता तो वह रोकता भी; गधा जा रहा था, उसने कहा जाने दो, गधा क्या बिगाड़ लेगा! कोई षड्यंत्रकारी भी नहीं हो सकता; कोई बम भी नहीं रख सकता। गधा ही है। थोड़ा-बहुत घास-पात चर लेगा, चला जाएगा।
लेकिन वह गधा बोलने वाला गधा था, वह कोई साधारण गधा नहीं था। अखबार पढ़-पढ़ कर वह बोलना सीख गया था। उसने जाकर पंडित नेहरू के पास खड़े होकर कहा कि सुनिए पंडित जी!
वे थोड़े घबरा गए। उन्होंने आंख उठा कर देखा। वे भूल ही गए कि मैं शीर्षासन कर रहा हूं। तो उन्होंने कहा कि ऐसा गधा मैंने कभी भी नहीं देखा; तू उलटा क्यों खड़ा है?
उस गधे ने कहा, महानुभाव, आप शीर्षासन कर रहे हैं; मैं उलटा नहीं खड़ा हूं।
जब तुम शीर्षासन करते होते हो तो जो चीज ऊपर है वह नीचे मालूम पड़ती है, जो नीचे है वह ऊपर मालूम पड़ती है। तुमने जीवन को शीर्षासन करके देखा है, इसीलिए तुम्हें दिल्ली में जो लोग बैठे हैं वे ऊपर मालूम पड़ते हैं, और जो आदमी सड़क के किनारे गड्ढा खोद रहा है वह तुम्हें नीचे मालूम पड़ता है। जिन्होंने बहुत धन इकट्ठा कर लिया है, बिरला हैं, राकफेलर हैं, वे तुम्हें ऊपर मालूम पड़ते हैं। और जो भिखारी वृक्ष के नीचे भर दोपहरी में शांति से सोया है वह तुम्हें नीचे मालूम पड़ता है। तुम शीर्षासन कर रहे हो।
लाओत्से ने जिंदगी को सीधा खड़े होकर देखा है। उसने देखा है कि सम्राटों के हृदयों में शांति नहीं, न प्रेम है, न आनंद है। कभी-कभी भिखारी के जीवन में आनंद की वर्षा तो होते देखी है, लेकिन सम्राटों के जीवन में कभी नहीं देखी। अन्यथा बुद्ध नासमझ थे कि महलों को छोड़ कर और भिखारी हो जाते? कि महावीर पागल थे? जिसे तुमने ऊपर देखा है, वह तुम्हारी कहीं न कहीं कोई भूल है। क्योंकि हमने उस ऊपर से बैठे आदमी को नीचे उतरते देखा है। बुद्ध और महावीर ईर्ष्या से भर गए हैं भिखारियों की, इसीलिए भिक्षु हो गए। उन्होंने कुछ जीवन का राज देखा। लाओत्से वही कह रहा है। उन्होंने देखा कि जीवन तो बड़ी छोटी-छोटी चीजों में आनंदित है। पद, शक्ति की दौड़ से जीवन का आनंद खो जाता है।
तुम जिस दिन ना-कुछ हो रहोगे उस दिन जीवन बरस जाएगा। इसलिए भिखारी जिस शांति से सोता है, सम्राट नहीं सोता। साधारण आदमी जिसको हम कहें, जिसको कोई भी नहीं जानता, वह जिस भांति प्रेम करता है, उस भांति, जिन लोगों को बहुत लोग जानते हैं, वे लोग प्रेम नहीं कर पाते।
अमरीका की बड़ी अभिनेत्री थी--बड़ी से बड़ी अभिनेत्री--मर्लिन मनरो। उसने आत्महत्या की। उसने बहुत बार विवाह किया। उस जैसी सुंदर स्त्री न थी इस सदी में। दुनिया के बड़े से बड़े लोग उससे विवाह को आतुर थे। और भरी जवानी में उसने आत्महत्या की। और आत्महत्या का कारण उसने यह लिखा कि मैं प्रेम करने में बिलकुल असमर्थ हूं, और मैं कोई प्रेम नहीं पा सकी। साम्राज्ञी थी वह सिनेमा जगत की, लेकिन प्रेम न पा सकी। क्या हो गया? क्या अड़चन आ गई?
असल में, प्रेम उसी हृदय में उपजता है जिस हृदय में शक्ति की आकांक्षा नहीं उपजती। जहां शक्ति की आकांक्षा उपज गई वहीं प्रेम मर जाता है, प्रेम का दम घुट जाता है। और जिसने प्रेम न जाना उसने क्या जाना? वह बैठा रहे शिखर पर, जीवन को गंवा दिया उसने। जिसने धन जाना और धर्म न जाना, उसने जीवन को गंवा दिया। उसने कुछ भी न जाना। जिसने शब्द जाने, शास्त्र जाने और सत्य को न जाना, वह वंचित रह गया। जब सब तरफ सब कुछ भरा था और मिल सकता था तब भी वह खाली हाथ प्यासा लौट गया।
लाओत्से कहता है, उसका निरीक्षण यह है, कि बड़े और बलवान नीचे हैं, सौम्य और कमजोर शिखर पर हैं। और जिस दिन तुम सीधे खड़े होकर देखोगे--और जब मैं कहता हूं सीधे खड़े होकर तो मेरा मतलब होता है निर्विचार होकर देखोगे, विचार ने तुम्हारी खोपड़ी उलटी कर दी है--जिस दिन तुम निर्विचार होकर देखोगे उस दिन यह जीवन का सीधा सा सत्य तुम्हें दिखाई पड़ जाएगा कि साधारण होना ही यहां असाधारण होना है। ना-कुछ होना ही यहां सब कुछ होने का उपाय है।
चुपचाप जी लेना--जैसे वृक्ष जीते हैं, पशु-पक्षी जीते हैं, चांद-तारे जीते हैं--कि किसी को तुम्हारी खबर भी न हो, तुम्हारे पदचिह्न इतिहास के पृष्ठों पर पड़ें ही न। समय की धार में तुम्हारी रेखा भी न उभरे, तुम्हारा हस्ताक्षर कहीं भी दिखाई न पड़े। ऐसे जी लेना जैसे पानी पर किसी ने लकीर खींची हो, खींची और मिट गई। तब तुम पाओगे कि तुम्हारे जीवन में बड़े फूल खिलते हैं। जब तुम ना-कुछ होने को राजी होते हो, शून्य होने को, तब तुम्हारे भीतर पूर्ण होने की क्षमता आ जाती है।
सिर्फ शून्य ही पूर्ण हो सकता है। इसलिए शून्य को मैं परमात्मा का मंदिर कहता हूं। और साधारण होने को संन्यास कहता हूं। असाधारण होने की आकांक्षा पागलपन में ले जाती है। और असाधारण होने की आकांक्षा बड़ी साधारण है, सभी की है। और जिसने साधारण होना चाहा वही असाधारण हो जाता है। क्योंकि साधारण कौन होना चाहता है? निर्विचार होकर देखोगे तो जो लाओत्से की समझ है वही तुम्हारी समझ भी हो जाएगी। और मैं फिर से कहता हूं, लाओत्से से ज्यादा जीवन का सीधा निरीक्षक खोजना मुश्किल है।
आज इतना ही।
HARD AND SOFT
When man is born, he is tender and weak; At death, he is hard and stiff, When the things and plants are alive, They are soft and supple; When they are dead, they are brittle and dry. Therefore hardness and stiffness are the companions of death, And softness and gentleness are the companions of life. Therefore when an army is headstrong, It will lose in battle. When a tree is hard, it will be cut down. The big and strong belong underneath. The gentle and weak belong at the top.
अध्याय 76
कठोर और कोमल
जब आदमी जन्म लेता है, वह कोमल और कमजोर होता है; मृत्यु के समय वह कठोर और सख्त हो जाता है। जब वस्तुएं और पौधे जीवंत हैं, तब वे कोमल और सुनम्य होते हैं; और जब वे मर जाते हैं, वे भंगुर और शुष्क हो जाते हैं। इसलिए कठोरता और दुर्नम्यता मृत्यु के साथी हैं; और कोमलता और मृदुता जीवन के साथी हैं। इसलिए सेना जब हठी होगी, वह युद्ध में हार जाएगी। जब वृक्ष कठिन होगा, वह काट दिया जाएगा। बड़े और बलवान की जगह नीचे है। सौम्य और कमजोर की जगह शिखर पर है।
लाओत्से से ज्यादा सूक्ष्म जीवन का निरीक्षक खोजना कठिन है। निरीक्षण तो बहुत लोग जीवन का करते हैं, लेकिन निरीक्षण में शुद्धता नहीं होती; चित्त दर्पण की भांति नहीं होता; विचारों से भरा होता है। इसलिए निरीक्षण निरीक्षण न रह कर व्याख्या बन जाता है; विचार सम्मिलित हो जाते हैं। और विचार निरीक्षण की शुद्धता को नष्ट कर देते हैं।
दो तरह के निरीक्षण हैं। एक निरीक्षण है जब तुम विचारों से भरे हुए जीवन को देखते हो। तब तुम जीवन को नहीं देखते। तुम अपने विचारों की ही छवि जीवन में देख लोगे। तब तुम अपने विचारों को ही जीवन पर आरोपित कर लोगे। तब तुम जो देखना ही चाहते थे वही देख लोगे। वही नहीं, जो है, वरन वह जो तुम पहले से ही मान बैठे थे--तुम्हारा विश्वास, तुम्हारी धारणा, तुम्हारा धर्म, तुम्हारा शास्त्र, तुम जीवन में देख लोगे। और तब तुम जीवन के सम्यक निरीक्षक नहीं हो।
जीवन को तो ऐसे देखा जाना चाहिए जैसे दर्पण देखता है--खाली; शून्य। जिसके पास अपना जोड़ने को कुछ भी नहीं है, जो सिर्फ दिखलाता है वही जो है। शांत झील; एक तरंग भी नहीं। उगता है चांद, बदलियां आकाश में गतिमान होती हैं; बनता है प्रतिबिंब। फिर एक और झील है, तरंगायित, लहरों से भरी। तब भी चांद का प्रतिबिंब तो बनता है, लेकिन हजार-हजार खंडों में टूट जाता है। तुम चांद को खोज न पाओगे। लहर-लहर पर चांद फैला होगा। तुम्हें पूरी झील पर ही चांदनी फैली हुई मालूम पड़ेगी। चांद को पकड़ना मुश्किल होगा।
तुम्हारा मन विचार की तरंगों से भरा है। जब तुम पांडित्य लेकर आते हो प्रकृति के पास तब तुम चूक जाते हो। तब तुम्हें जरूर कुछ दिखाई पड़ेगा, लेकिन तुम इस धोखे में मत पड़ना कि जो तुम्हें दिखाई पड़ रहा है वह सत्य है। वह केवल तुम्हारे विचार की अनुगूंज है। तुमने जो पहले से ही स्वीकार कर लिया था, वही प्रतिफलित हो रहा है। लाओत्से बड़ा शुद्ध निरीक्षक है। वह कोई विचार लेकर प्रकृति के पास नहीं गया है। उसने तथ्यों को सीधा-सीधा देखना चाहा है। बड़ा कठिन है; शायद इससे कठिन और कुछ भी नहीं है। क्योंकि यही तो मार्ग है सत्य के उदघाटन का।
लाओत्से न तो हिंदू है, न मुसलमान है, न जैन है, न बौद्ध है। लाओत्से का कोई धर्म नहीं है। लाओत्से का कोई शास्त्र भी नहीं है। लाओत्से ने जो भी देखा है वह किसी शास्त्र, किसी शब्द की आड़ से नहीं देखा; सब हटा कर देखा है। इसलिए जो लाओत्से को दिखाई पड़ा है वह बहुत कम लोगों को दिखाई पड़ता है।
महावीर के वचनों में भी ऐसी शुद्धता नहीं है, क्योंकि महावीर के वचन बड़ी प्राचीन परंपरा पर आधारित हैं। कृष्ण के वचनों में भी ऐसी शुद्धता नहीं है, क्योंकि कृष्ण के वचन तो वेदों और उपनिषदों का सार हैं। बुद्ध के वचन महावीर और कृष्ण के वचनों से ज्यादा शुद्ध हैं, फिर भी लाओत्से के मुकाबले वैसी शुद्धता नहीं है। बुद्ध बगावती हैं। उन्होंने वेदों को इनकार कर दिया है, शास्त्रों को इनकार कर दिया है, उपनिषदों को ताक पर रख दिया है। लेकिन अगर कोई गौर से खोजेगा तो बुद्ध के प्राणों में उपनिषदों की गूंज मौजूद है; वह खो नहीं गई है। तुम उनके वचनों में छिपा हुआ उपनिषद पा लोगे। तुम उनके एक-एक शब्द में, भारत का जो पूरा अतीत है, उसका रंग पाओगे, गंध पाओगे।
मनुष्य-जाति के इतिहास में लाओत्से जैसा दूसरा व्यक्ति खोजना करीब-करीब असंभव है। कोई गूंज नहीं है अतीत की। किसी शास्त्र की कोई प्रतिध्वनि नहीं है। जैसे लाओत्से पहला आदमी है; उसके पहले जैसे आदमी हुए ही न हों। जैसे कोई संस्कृति, सभ्यता लाओत्से के पहले थी ही नहीं; जैसे कोई कंडीशनिंग नहीं है, कोई संस्कार नहीं है। लाओत्से बिलकुल पहले आदमी की तरह जगत को देख रहा है।
और जिस दिन तुम भी इस तरह देख सकोगे जैसे पीछे कोई अतीत हुआ ही नहीं, जैसे तुम अभी और यहां बस पहली बार अवतरित हुए हो, खाली और शून्य, उस क्षण तुम लाओत्से को समझ पाओगे। उसके पहले तुम लाओत्से की व्याख्या समझ लोगे, लाओत्से को न समझ पाओगे। लाओत्से को समझने के लिए लाओत्से जैसा हो जाना जरूरी है। यह पहली बात खयाल रखनी आवश्यक है।
लाओत्से को समझने की चेष्टा में इस बात का ध्यान रखना कि लाओत्से किसी सिद्धांत को सिद्ध करने नहीं निकला है। उसका कोई सिद्धांत ही नहीं है। वह तो जीवन के सिद्धांत को खोजने निकला है। वह आरोपित नहीं कर रहा है कुछ, अगर कुछ हो जीवन में तो उसे खोलने की कोशिश कर रहा है। वह तथ्यों के ऊपर पड़े घूंघट को उठा रहा है। उस घूंघट को उठाने में भी उसकी कला अनूठी है। क्योंकि वह घूंघट भी बहुत तरह से उठाया जा सकता है। रास्ते पर चलती एक स्त्री का घूंघट जबरदस्ती उठाया जा सकता है; बलात उसे निर्वस्त्र किया जा सकता है। लेकिन तब तुम देह को ही खोज पाओगे; उस देह के भीतर छिपी गरिमा विलुप्त हो जाएगी। क्योंकि बलात, सौंदर्य को देखा ही नहीं जा सकता। सौंदर्य नाजुक है, टूट जाता है। सौंदर्य अति कोमल है; आक्रामक रूप से तुम सौंदर्य के रहस्य को कभी भी न जान पाओगे। यह तो ऐसा है जैसे झपट कर फूल तोड़ लिया, पंखुड़ियां उखाड़ दीं, और खोजने लगे कि सौंदर्य कहां है?
तुम राह चलती एक स्त्री को निर्वस्त्र कर सकते हो, लेकिन नग्न न कर पाओगे। यही तो महाभारत की मीठी कथा है कि दुर्योधन द्रौपदी को नग्न करना चाहता है; कर नहीं पाया। कहानी का अर्थ इतना ही है कि जब तुम जबरदस्ती किसी को नग्न करने की चेष्टा करोगे तब तुम हारोगे। कोई कृष्ण ने द्रौपदी का चीर बढ़ा दिया हो, ऐसा मत समझ लेना। कौन बैठा है किसी का चीर बढ़ाने को? लेकिन जीवन की व्यवस्था ऐसी है कि उसमें जब तुम जबरदस्ती किसी के वस्त्र उतारना चाहोगे तब चीर बढ़ता ही चला जाता है--जैसे कि चीर बढ़ता चला जाता है। तुम करते हो जितनी जबरदस्ती उतना ही रहस्य छिपता चला जाता है। रहस्य को खोलना हो तो फुसलाना पड़ता है, आक्रमण नहीं। रहस्य को खोलना हो तो प्रेम भरे आग्रह से जाना पड़ता है, हिंसात्मक दुराग्रह से नहीं।
दुर्योधन तो प्रतीक है उन सबका जिन्होंने जीवन के रहस्य को जबरदस्ती खोलना चाहा है। दुर्योधन बड़ा वैज्ञानिक है। और विज्ञान की यही विधि है। विज्ञान बलात्कार है, जबरदस्ती है। और इसलिए विज्ञान जितना ही चीजों को खोल रहा है, चीर बढ़ता जा रहा है। और चीर बढ़ता ही चला जाएगा।
एक बड़े वैज्ञानिक को मैं पढ़ रहा था, हेजेन बर्ग को। तो हेजेन बर्ग ने कहा है कि पहले हम सोचते थे कि अणु पर सब समाप्त हो जाता है। डेमोक्रीटस से लेकर अब तक यही खयाल था कि अणु का अर्थ है आखिरी टुकड़ा, उसके आगे विभाजन संभव नहीं है। लेकिन फिर चीर बढ़ गया। अणु टूटा, परमाणु आया। फिर सोचा गया कि परमाणु बस आखिरी बात आ गई, रहस्य खुल गया। लेकिन चीर बढ़ गया। जब-जब जाना कि रहस्य खुल गया, तभी चीर बढ़ गया। परमाणु भी टूट गया। अब इलेक्ट्रान, न्यूट्रान, प्रोटान। और हेजेन बर्ग ने लिखा है कि अब हम उतने आश्वासन से नहीं कह सकते कि यही आखिरी है। जल्दी ही इलेक्ट्रान भी टूटेगा। चीर बढ़ता ही चला जाता है। चीर बढ़ता ही चला जाएगा। क्योंकि रहस्य पीछे सरकता जाता है।
मैंने कहा कि तुम किसी स्त्री को निर्वस्त्र कर सकते हो, नग्न नहीं। और जब तुम निर्वस्त्र कर लोगे तब स्त्री और भी गहन वस्त्रों में छिप जाती है। उसका सारा सौंदर्य तिरोहित हो जाता है; उसका सारा रहस्य कहीं गहन गुहा में छिप जाता है। तुम उसके शरीर के साथ बलात्कार कर सकते हो, उसकी आत्मा के साथ नहीं। और शरीर के साथ बलात्कार तो ऐसे है जैसे लाश के साथ कोई बलात्कार कर रहा हो। स्त्री वहां मौजूद नहीं है। तुम उसके कुंआरेपन को तोड़ भी नहीं सकते, क्योंकि कुंआरापन बड़ी गहरी बात है।
लाओत्से वैज्ञानिक की तरह जीवन के पास नहीं गया निरीक्षण करने। उसने प्रयोगशाला की टेबल पर जीवन को फैला कर नहीं रखा है। और न ही जीवन का डिसेक्शन किया है, न जीवन को खंड-खंड किया है। जीवन को तोड़ा नहीं है। क्योंकि तोड़ना तो दुराग्रह है; तोड़ना तो दुर्योधन हो जाना है। द्रौपदी नग्न होती रही है अर्जुन के सामने। अचानक दुर्योधन के सामने बात खतम हो गई; चीर को बढ़ा देने की प्रार्थना उठ आई। वैज्ञानिक पहुंचता है दुर्योधन की तरह प्रकृति की द्रौपदी के पास; और लाओत्से पहुंचता है अर्जुन की तरह--प्रेमातुर; आक्रामक नहीं, आकांक्षी; प्रतीक्षा करने को राजी, धैर्य से, प्रार्थना भरा हुआ। लेकिन द्रौपदी की जब मर्जी हो, जब उसके भीतर भी ऐसा ही भाव आ जाए कि वह खुलना चाहे और प्रकट होना चाहे, और किसी के सामने अपने हृदय के सब द्वार खोल देना चाहे।
तो जो रहस्य लाओत्से ने जाना है वह बड़े से बड़ा वैज्ञानिक भी नहीं जान पाता। क्योंकि जानने का ढंग ही अलग है। लाओत्से का ढंग शुद्ध धर्म का ढंग है। धर्म यानी प्रेम। धर्म यानी अनाक्रमण। धर्म यानी प्रतीक्षा। और धीरे-धीरे राजी करना है। धर्म एक तरह की कोर्टिंग है। जैसे तुम किसी स्त्री के प्रेम में पड़ते हो, उसे धीरे-धीरे राजी करते हो। हमला नहीं कर देते।
विज्ञान अति आतुर है, अधैर्यवान है। वह जल्दी हमला कर देता है। और तब उसके हाथ में जो लगता है वह कचरा है। उसकी उपयोगिता कितनी ही हो, उसमें अर्थ बहुत ज्यादा नहीं है। उससे यंत्र बन सकते हों, क्योंकि यंत्र मुर्दा हैं। और विज्ञान जबरदस्ती में प्रकृति को मार लेता है। इसलिए मृत्यु का जो राज है वह तो उसे पता चल जाता है; इसलिए यंत्र बना लेता है, क्योंकि यंत्र यानी मुर्दा चीजें। लेकिन जीवन का रहस्य नहीं खोल पाता।
लाओत्से ऐसा गया है जीवन के तथ्यों के पास जैसा सुहागरात के दिन कोई अपनी नववधू के पास जाता है, आहिस्ता-आहिस्ता घूंघट उठाता है; उतना ही उठाता है जितने से ज्यादा वधू को राजी पाता है, उससे ज्यादा नहीं। और तब धीरे-धीरे जीवन अपने सब रहस्य खोल देता है। और लाओत्से के समक्ष जीवन ने ऐसे रहस्य खोल दिए हैं जो बहुत बड़े-बड़े वैज्ञानिकों, दार्शनिकों, तार्किकों के समक्ष छिपे रह गए हैं। लाओत्से के सामने छोटी-छोटी चीजों ने बड़े-बड़े द्वार खोल दिए हैं; राह के किनारे पत्थर माणिक-मोती हो गए हैं।
लाओत्से को समझोगे तो पाओगे वह बहुत छोटी-छोटी चीजों की बात कर रहा है। लेकिन छोटी-छोटी चीजें बहुत बड़ी हो गई हैं। वैज्ञानिक बड़ी-बड़ी चीजों की बात करते हैं और बड़ी-बड़ी चीजें बहुत छोटी हो जाती हैं। वैज्ञानिक अगर चांद-तारों की भी बात करे तो छोटे हो जाते हैं। लाओत्से अगर फूल-पत्तों की भी बात करता है तो बड़े हो जाते हैं। धर्म का स्पर्श प्रत्येक चीज को विराट कर देता है। विज्ञान का स्पर्श प्रत्येक चीज को क्षुद्र कर देता है।
और वही स्पर्श पाने योग्य है जिससे हर कण ब्रह्म हो जाए। उस स्पर्श का क्या करोगे जिससे ब्रह्म को छुओ और वह अणु हो जाए? क्षुद्र को बना कर तुम क्या करोगे? क्योंकि जितना तुम्हारे पास क्षुद्र इकट्ठा हो जाएगा, उसमें घिरे--ध्यान रखना--तुम भी क्षुद्र हो जाओगे। तुम जो खोजोगे वह तुम्हें निर्मित करेगा। तुम जो उघाड़ लोगे वह तुम्हें भी बनाएगा। क्योंकि उघाड़ने वाला बाहर नहीं रह सकता घटना के। इसलिए जो क्षुद्र की खोज में लगता है और क्षुद्रतर को पाता चला जाता है, वह धीरे-धीरे क्षुद्र हो जाता है। हो ही जाएगा। लेकिन जो क्षुद्र को विराट करने की कला जानता है, जो जहां छूता है वहीं से अनंत का द्वार खुलने लगता है, उसके स्पर्श में धर्म आ गया। उसका स्पर्श पारस हो गया। और उसके स्पर्श में वह स्वयं भी तो घिर जाएगा, वह स्वयं भी धीरे-धीरे विराट हो जाएगा।
इन तथ्यों को खयाल में रखो, फिर लाओत्से की बड़ी छोटी-छोटी बातों में छिपे बड़े राजों को समझना कठिन न होगा।
कहता है लाओत्से, ‘जब आदमी जन्म लेता है, वह कोमल और कमजोर होता है।’
सभी के घरों में बच्चे जन्म लेते हैं। लेकिन तुमने कभी यह देखा कि बच्चे कोमल हैं, कमजोर हैं? सभी के घर में बूढ़े मरते हैं। तुमने कभी यह देखा कि बूढ़े कठोर और सख्त हैं? अगर तुमने यह देखा तो तुम्हें जीवन का एक बड़ा रहस्य हाथ आ गया कि अगर चाहते हो कि सदा जीवित रहो तो कोमल बने रहना। किसी भी कारण से सख्त मत हो जाना। क्योंकि सख्ती हर हालत में मौत की खबर है।
और तुम्हें हजार तरह की सख्तियों ने घेर लिया है। फिर तुम तड़फड़ाते हो। और फिर तुम कहते हो, जीवन कहां है? अपने हाथ मरते हो, आत्मघात करते हो। क्योंकि सख्त होते चले जाते हो। और फिर पूछते हो, जीवन कहां? फिर पूछते हो, शांति नहीं। फिर पूछते हो, आनंद नहीं। फिर पूछते हो, जीवन की पुलक खो गई; नृत्य खो गया; काव्य नहीं। होगा कैसे? तुम सख्त हो, और सख्त बहुत-बहुत आयाम से हो।
और तुम्हारी सारी दीक्षा-शिक्षा तुम्हें सख्त बनाने की है। हिंदू कहते हैं, मजबूती से हिंदू हो जाओ, सख्त हिंदू। मुसलमान समझाते हैं, कठोर मुसलमान। कोई तुम्हें डिगा न सके; पत्थर की चट्टान हो जाओ। ईसाई सिखाते हैं कि चाहे मर जाना, मगर अपना सिद्धांत कभी मत छोड़ना। और तुम ऐसे लोगों की बड़ी प्रशंसा करते हो कि कितना दृढ़ आदमी है! लेकिन तुम्हें पता है कि दृढ़ता यानी सख्ती! सख्ती यानी मौत!
लाओत्से बड़ा छोटा सा तथ्य पकड़ रहा है। पर यह बड़ी खुली आंखों से देखी गई बात है। देखता है, ‘जब आदमी जन्म लेता है, वह कोमल और कमजोर होता है; मृत्यु के समय वह कठोर और सख्त हो जाता है। जब वस्तुएं और पौधे जीवंत हैं, तब वे कोमल और सुनम्य होते हैं; और जब वे मर जाते हैं, वे भंगुर और शुष्क हो जाते हैं। इसलिए कठोरता और दुर्नम्यता मृत्यु के साथी हैं, और कोमलता और मृदुता जीवन के साथी हैं।’
यह किसी शास्त्र का वचन नहीं है। ऐसा तुमने किसी शास्त्र में लिखा देखा है? किसी उपनिषद में, किसी वेद में, किसी बाइबिल में, किसी कुरान में यह वचन है? अगर तुम खोजने चलोगे तो पाओगे, इससे विपरीत वचन तुम्हें सब शास्त्रों में मिल जाएंगे। यह वचन तो तुम्हें केवल जीवन के शास्त्र में मिलेगा। इसलिए लाओत्से बड़ा ताजा है--सुबह की ओस की भांति, रात के चांद-तारों की भांति, वृक्षों में आई नयी कोंपलों की भांति। एकदम ताजा है; जीवन से सीधी खबर ला रहा है। उसका संदेश जीवंत है। वह किसी शास्त्र को सिद्ध करने में नहीं लगा है। वह सिर्फ इतना कह रहा है कि जरा जीवन को गौर से देखो, और कुंजियां तुम्हें मिल जाएंगी।
तुमने अगर कुंजियां खोई हैं तो कहीं और नहीं, शास्त्रों में खो दी हैं। कोई हिंदू होकर बैठ गया है, कोई मुसलमान होकर बैठ गया है। दोनों मर गए। जिंदा आदमी कहीं हिंदू होता है? जिंदा आदमी कहीं मुसलमान होता है? जिंदा आदमी कहीं जैन होता है? जिंदा आदमी किसी संप्रदाय में हो कैसे सकता है? क्योंकि संप्रदाय तो मरा हुआ रूप है धर्म का। जिस धर्म का प्राण जा चुका वह संप्रदाय है। जहां से आत्मा निकल चुकी और लाश पड़ी रह गई, वह संप्रदाय है।
कभी जैन जीवित था जब महावीर जिंदा थे। तुम्हारे कारण जैन जीवित नहीं था, वह महावीर के कारण जीवित था। फिर महावीर की सुगंध गई, महावीर की लाश को तो तुम दफना आए; लेकिन महावीर के शब्दों की लाश को तुम ढो रहे हो। जो तुमने महावीर के शरीर के साथ किया था वही तुम्हें महावीर के शब्दों के साथ भी करना था, क्योंकि शब्द भी लाश हैं। सत्य तो निःशब्द है। वह जब महावीर उन शब्दों को बोलते थे तब उसमें जीवन था। क्योंकि भीतर निःशब्द से वे शब्द आते थे। भीतर के मौन से उनका जन्म होता था। भीतर के बोध से सिक्त थे वे, तरोताजा थे। अभी-अभी बगीचे से तोड़ा गया फूल था। अभी-अभी, क्षण भी न हुआ था, तोड़ा था और तुम्हें दिया था महावीर ने। लेकिन तुम्हारे हाथों में फूल कितनी देर जिंदा रहेगा? तोड़ते ही फूल की मृत्यु शुरू हो गई। थोड़ी-बहुत देर हरियाली रहेगी; वह भी थोड़ी देर में खो जाएगी। और जब महावीर खो जाएंगे, बगीचा खो जाएगा, जहां से फूल आते थे वह स्रोत खो जाएगा। तुम मुर्दा उन फूलों को लिए चलते रहोगे।
बाइबिलों में तुमने देखा होगा लोग फूलों को रख देते हैं। फिर फूल सूख जाते हैं; धब्बे छूट जाते हैं बाइबिल के पन्नों पर थोड़े से फूल के रंग के। एक मुर्दा फूल रखा रह जाता है, एक याददाश्त फूल की कि कभी जीवित था।
बाइबिल में रखा यह फूल ही मुर्दा नहीं है, बाइबिल में रखे शब्द भी इतने ही मुर्दा हैं। सिर्फ याददाश्त हैं कि कभी जीवन उनमें था, सिर्फ स्मृतियां हैं, पदचिह्न हैं। नदी तो खो गई है सागर में, सिर्फ सूखे तट, रेत का फैलाव छूट गया है। उससे खबर मिलती है कि कभी यहां नदी थी। पर नदी अब वहां है नहीं।
संप्रदाय मृत घटना है। इसलिए सांप्रदायिक आदमी को तुम बहुत सख्त पाओगे। और धार्मिक आदमी को तुम सदा कोमल पाओगे। इससे तुम पहचान कर लेना। धार्मिक आदमी सुनम्य होगा। तुम उसे विनम्र पाओगे। वह झुकने को राजी होगा; वह दूसरे को समझने को राजी होगा। वह नये सत्यों को जगह देने को राजी होगा। अगर तुम नया आकाश दिखाओगे तो वह आंख नहीं बंद कर लेगा; वह अपने पुराने आकाश से नये आकाश को जोड़ कर और बड़े आकाश का मालिक हो जाएगा। तुम उसे अगर नया सत्य दोगे तो वह यह नहीं कहेगा: यह मैं नहीं मान सकता, क्योंकि यह मेरे शास्त्र में नहीं है! शास्त्र कितने छोटे हैं; सत्य कितना बड़ा है। सत्य किसी शास्त्र में कभी पूरा नहीं हो सकता। धार्मिक व्यक्ति हमेशा सुनम्य होगा; वह छोटे बच्चे की भांति होगा।
लाओत्से कहता है, कोमल और कमजोर। और यहीं सारा राज है। कोमलता तो तुम भी चाहोगे, लेकिन कमजोरी तुम न चाहोगे। और कोमलता सदा कमजोरी के साथ होती है। कमजोरी तुम नहीं चाहते, इसलिए तुम सख्त होना चाहते हो। क्योंकि सख्ती हमेशा ताकत के साथ होती है। गणित सीधा है कि आदमी क्यों सख्त होना पसंद करता है। क्योंकि सख्त होने में ताकत मालूम पड़ती है, और कोमल होने में कमजोरी मालूम पड़ती है।
लेकिन लाओत्से यह कहता है कि जीवन ही कमजोर है; सिर्फ मौत ताकतवर है।
तुम मरे हुए आदमी को मार सकते हो? कोई उपाय ही न रहा। तुम मरे हुए आदमी के साथ क्या कर सकते हो? मरे हुए आदमी को बदल सकते हो? अगर वह हिंदू था तो तुम उसको मुसलमान बना सकते हो? कैसे बनाओगे? मरे हुए आदमी के साथ तुम कुछ भी नहीं कर सकते। वह इतना सख्त हो गया, उसकी दृढ़ता का कोई अंत नहीं है। उसकी ताकत की कोई सीमा नहीं है। तुम लाख सिर पटको, तुम अंधे आदमी के हृदय तक आवाज न पहुंचा सकोगे, मरे हुए आदमी तक आवाज न पहुंचा सकोगे। जीवित आदमी निश्चित ही कमजोर है। जीवन का लक्षण कमजोर है। कमजोरी बड़ी गहन बात है। कमजोर का इतना ही अर्थ हो सकता है कि जो टूट सकता है, जो मिट सकता है, जो खो सकता है।
फूल उगता है; पास ही एक चट्टान पड़ी होती है। कल भी पड़ी थी, परसों भी पड़ी थी। कल भी पड़ी रहेगी, परसों भी पड़ी रहेगी। फूल सुबह उगा है, सांझ खो जाएगा। इसलिए क्या तुम कहोगे कि चट्टान फूल से श्रेष्ठ है, क्योंकि ज्यादा मजबूत है? फूल को चाहो तो हाथ में मसल दो, और मिट्टी हो जाएगा। चट्टान को तोड़ना इतना आसान नहीं। शायद चट्टान को तोड़ने में तुम खुद ही टूट जाओ। और फूल को तुम्हें मसलने की भी जरूरत नहीं है। सिर्फ समय की बात है; सुबह उगा है, सांझ अपने से ही गिर जाएगा। लेकिन फूल के पास जीवन है। और फूल के पास एक सौंदर्य है। माना घड़ी भर को है, लेकिन है। और इसीलिए फूल कमजोर है, क्योंकि उसके पास कुछ है जो खो सकता है। चट्टान के पास कुछ भी नहीं है जो खो सके। ध्यान रखना, जिसके पास कुछ है वह कमजोर होगा, और जिसके पास कुछ भी नहीं है वह मजबूत होगा। और जितनी तुम्हारी भीतर की संपदा बढ़ती जाएगी, तुम उतने कमजोर होते जाओगे। क्योंकि उस संपदा के खोने की उतनी ही संभावना बढ़ती जाएगी।
बुद्ध से ज्यादा कमजोर आदमी तुम न पा सकोगे। लाओत्से से कमजोर आदमी तुम न पा सकोगे। क्योंकि वे कोमल हैं, और जीवन की महा संपदा के मालिक हैं। एक फूल नहीं खिला है बुद्ध और लाओत्से में, हजारों फूल खिले हैं। जिसके पास है, उसके पास ही तो खोने की संभावना होती है। जिसके पास है ही नहीं, वह खोएगा क्या?
मैंने सुना है। जापान में एक फकीर हुआ। पुरानी कहानी है कि सम्राट जब गांव के चक्कर लगाते थे रात में। सम्राट चक्कर लगा रहा था राजधानी का, कई बार उसने देखा कि वह फकीर हमेशा उसे जागा मिला। वह एक वृक्ष के नीचे या तो बैठा रहता, या खड़ा रहता, या चलता रहता। लेकिन जागा मिला। कभी गया--आधी रात गया, सुबह गया, सांझ गया--जब भी जाकर देखा, सारी बस्ती भला सो गई हो, वह फकीर जागा हुआ था। सम्राट बड़ा हैरान हुआ। उसने एक दिन, उसकी उत्सुकता न रुक सकी तो उसने पूछा कि मैं एक सवाल पूछना चाहता हूं। बहुत बार यहां से निकलता हूं, तुम पहरा किस चीज का दे रहे हो? क्योंकि सूखे रोटियों के टुकड़े पड़े देखे मैंने। टूटा-फूटा बरतन है। कोई चुरा कर ले जाने की भी चेष्टा न करेगा। फटी गुदड़ी है। जराजीर्ण वस्त्र हैं। तुम्हारे पास कुछ दिखाई नहीं पड़ता, जिस पर तुम पहरा दे रहे हो। तुम पहरा किस चीज का दे रहे हो?
वह फकीर हंसने लगा। उसने कहा, कुछ है जो भीतर है। और जब से वह पैदा हुआ है तब से खोने का डर भी पैदा हो गया। मैं बड़ा कमजोर और कोमल हूं। भीतर कोई चीज खिल रही है, जैसे एक कली खिल रही हो। अब तक तो बंजर था तुम्हारे जैसा ही; मजे से सोता था। कुछ था ही नहीं; खोने को कोई डर ही न था; एक रेगिस्तान था। अब एक छोटा सा मरूद्यान पैदा हो रहा है। अब भय लगता है। अब हाथ-पैर कंपते हैं। अब डर लगता है कि जो हुआ है कहीं वह न न हो जाए। और घटना इतनी कोमल है और इतनी सूक्ष्म है कि जरा भी चूक गया तो खो जाएगी, यह पक्का है। फूल अभी पक्का हाथ में आया भी नहीं है, सिर्फ आभास मिलने शुरू हुए हैं।
जब तुम ध्यान करने उतरोगे तब तुम्हें पता लगेगा कि भीतर एक फूल खिलना शुरू होता है। तब तुम्हारा एक-एक कदम सम्हल कर पड़ने लगेगा। तब तुम एक-एक शब्द होश से बोलोगे; क्योंकि तुम डरोगे, तुम्हारा ही कोई शब्द तुम्हारे ही प्राणों में उठती हुई नयी संभावना को नष्ट न कर दे। तब तुम क्रोध न कर सकोगे; इसलिए नहीं कि तुम दूसरों पर करुणावान हो गए हो, बल्कि अब तुम्हारे पास एक संपत्ति है जो क्रोध की आग में जल सकती है, झुलस सकती है। तुम झगड़ा न करोगे। तुम विवाद में न पड़ोगे। क्योंकि तुम जानते हो, तुम्हारे पास कुछ बचाने योग्य है जो विवाद में चूक सकता है, नष्ट हो सकता है।
कुछ बहुमूल्य जब पैदा होता है तो तुम कमजोर हो जाते हो, इसको ध्यान में रखना। जैसे कि स्त्री जब गर्भवती होती है और एक नया जीवन उसके गर्भ में होता है तब कमजोर हो जाती है। लेकिन गर्भवती स्त्री से ज्यादा सुंदर स्त्री कहीं होती ही नहीं। और गर्भवती स्त्री के चेहरे पर जैसे सौंदर्य की आभा प्रकट होती है वैसी आभा इस स्त्री के चेहरे पर भी पहले न थी। क्योंकि गर्भवती स्त्री मरूद्यान हो रही है; पहले मरुस्थल थी। अब जीवन का उसमें फूल लग रहा है। लेकिन तब वह कोमल हो जाती है। तब वह पैर भी सम्हाल कर चलती है; उठती है तो सम्हाल कर उठती है। कुछ है जो बचाने योग्य है। उससे भी ज्यादा मूल्यवान उसमें कुछ है। अपने जीवन को खोकर भी, एक नये जीवन का सूत्रपात हो रहा है, उसे बचाना है। एक फूल खिल रहा है जो किसी भी क्षण मुर्झा सकता है।
इस दुनिया में तुम चट्टानों को ताकतवर पाओगे, फूलों को कमजोर। इससे एक बड़ी भयंकर स्थिति पैदा होती है। वह स्थिति यह है कि कहीं तुम चट्टान न होने की आकांक्षा कर लो। माना कि चट्टान मजबूत है, लेकिन मुर्दा है। उसकी मजबूती को क्या करोगे? उसका मुर्दापन तुम्हें भी मार डालेगा। उस चट्टान को तोड़ने न तो शैतान बच्चे आएंगे, उस चट्टान को मिटाने न तो पशु-पक्षी आएंगे, उस चट्टान को न तो तोड़ने माली आएगा, उस चट्टान को तोड़ने कोई भी नहीं आएगा। बड़ी सुरक्षित है चट्टान। लेकिन उस सुरक्षा का तुम करोगे क्या? वह कब्र की सुरक्षा है।
जीवन तो कोमल है, और जीवन कमजोर है। और जब तक तुम कोमल और कमजोर होने को राजी हो तभी तक तुम जीवन के धनी रहोगे। जिस दिन तुम सख्त और ताकतवर हुए उसी दिन तुम्हारे हाथ से जीवन की धारा सूखनी शुरू हो गई। क्योंकि केवल मृत्यु ही सख्त और शक्तिशाली हो सकती है। और तुम सब शक्तिशाली होना चाहते हो। इसलिए तुम कब्रें बन गए हो।
धार्मिक व्यक्ति कमजोर होना चाहता है। यह कमजोर शब्द तुम्हारे मन में तो बड़ी निंदा से भरा है। लेकिन धार्मिक व्यक्ति के लिए यही जीवन की सबसे बड़ी गहरी संपदा है कि वह कमजोर होना चाहता है। जब वह घुटने टेकता है और प्रार्थना के लिए आकाश की तरफ सिर उठाता है तब वह एक छोटे बच्चे से भी ज्यादा कमजोर है। वह कंपता है। उसके शब्द तुतला कर निकलते हैं। परमात्मा से क्या बोले? रोता है। घुटने टेक कर झुका हुआ बैठा व्यक्ति जो प्रार्थना में लीन है वह फिर से छोटा बच्चा हो गया है। उसके भीतर एक नये बच्चे का जन्म हो रहा है। उसको ही हम द्विज कहते हैं; जब तुम्हारे भीतर ऐसे कमजोर नये कोमल बच्चे का जन्म फिर से हो जाए तो तुम्हारा दूसरा जन्म हुआ। तब तक तुम मरुस्थल थे, अब तुम अपने को ही जन्म देने की संभावना से भरे। अब तुम्हारे भीतर एक गर्भ का सूत्रपात हुआ जिससे तुम्हारा शाश्वत रूप, सनातन रूप प्रकट होगा।
लाओत्से ने बात पकड़ ली है। कोमलता तो तुम भी चाहोगे, लेकिन कमजोरी नहीं चाहते। इसी से उपद्रव है। और कोमलता हमेशा कमजोर होगी। कोमलता कहीं सख्त हो सकती है?
तो तुम हर हालत में जब भी शक्ति चाहते हो--और तुम शक्ति चाहते हो। नीत्शे कहता है कि आदमी के भीतर एक ही आकांक्षा, दि विल टु पावर, शक्ति की आकांक्षा है। नीत्शे और लाओत्से दो विरोधी छोर हैं। दोनों को साथ-साथ पढ़ना बड़ा उपयोगी है। क्योंकि तब तुम चीजों को ठीक उनकी अति में पाओगे।
नीत्शे कहता है, शक्ति की आकांक्षा एकमात्र आत्मा है। और नीत्शे कहता है, मैंने फूल देखे, चांद-तारे देखे, झरने देखे, जल-प्रपात देखे, लेकिन मुझे सौंदर्य न मिला। सौंदर्य तो मुझे तब दिखाई पड़ा जब मैंने सैनिकों की एक टुकड़ी को कवायद करते देखा, और उनकी संगीनों पर चमकता हुआ सूरज देखा, और उनके पैरों की ताकत देखी, और जो छंद पैदा हो रहा था उनके चलने से, और उनकी संगीनों पर आई हुई सूरज की किरणों की चमक से जो रूप पैदा हो रहा था, उस क्षण मैंने सौंदर्य जाना।
यह सौंदर्य बड़ा सख्त सौंदर्य है। असल में, इसको जानने के लिए बड़ा पथरीला हृदय चाहिए। कोई आश्चर्य नहीं कि नीत्शे पागल होकर मरा। और कोई आश्चर्य नहीं है कि लाओत्से परम ज्ञानी होकर मरा।
शक्ति की आकांक्षा विक्षिप्तता में ले जाएगी। और तुम सब तरफ से शक्ति चाहते हो। धन इकट्ठा करते हो तो इसीलिए क्योंकि धन शक्ति का माध्यम है। जितना ज्यादा धन होगा उतनी शक्ति होगी। अगर तुम्हारी जेब में लाखों रुपये हैं तो इन लाखों रुपयों के कारण तुम बड़े शक्तिशाली हो। तुम जो चाहो करो। स्त्रियों को खरीदना हो खरीदो। नौकरों को खरीदना हो खरीदो। धन ने बड़ी सुविधा बना दी है। बिना धन के आदमी बहुत शक्तिशाली नहीं हो सकता। जब दुनिया में धन नहीं था और विनिमय की मुद्रा नहीं थी, तो लोग इतने शक्तिशाली नहीं हो सकते थे जितने धन के द्वारा हो गए। इसीलिए तो धन का इतना मूल्य हो गया लोगों के मन में। सब कुछ धन मालूम होता है।
तुम्हारी जेब में एक रुपया पड़ा है तो एक रुपया नहीं पड़ा है, हजारों चीजें पड़ी हैं। तुम चाहो तो एक आदमी को कहो, पांव दाबो! तो वह पैर दाबेगा। यह उसमें पड़ा है रुपये में। तुम एक स्त्री को कहो कि चलो प्रेम करो! वह प्रेम करेगी। यह पड़ा है उस एक रुपये में। भूखे हो, भोजन पड़ा है; प्यासे हो, पानी पड़ा है। एक रुपये में कितनी चीजें पड़ी हैं! इनको तुम बिना रुपये के कैसे खीसे में रखते? इसलिए रुपया प्रतीक हो गया शक्ति का। उसमें बड़ी चीजें छिपी हैं। तुम जो चाहो, जब चाहो, उसी वक्त होगा। इसलिए सब छोड़ो फिक्र, सिर्फ रुपया कमाओ।
शक्ति का खोजी कहता है कि रुपया कमाओ। फिर सब पीछे अपने आप चला आएगा।
जीसस का वचन है: फर्स्ट यी सीक दि किंगडम ऑफ गॉड, देन आल एल्स विल कम आटोमेटिकली बाइ इटसेल्फ। पहले खोज लो परमात्मा का राज्य और पीछे सब अपने आप चला आएगा।
शक्ति का पुजारी कहता है: फर्स्ट यी सीक दि किंगडम ऑफ दि रूपी, देन एवरी थिंग विल फालो आटोमेटिकली। पहले रुपये का राज्य खोज लो, और तब सब अपने आप चला आएगा। और कुछ खोजने की जरूरत नहीं। पद चाहिए, पद मिलेगा; प्रतिष्ठा चाहिए, प्रतिष्ठा मिलेगी। रुपये का खोजी कहता है, धर्म चाहिए? वह भी मिलेगा। मंदिर बना देना, धर्मशाला बना देना, दान कर देना। रुपया होगा तो सब मिलेगा।
शक्ति का खोजी रुपया खोजता है, या राजनीति खोजता है। क्योंकि जितने बड़े पद पर होगा उतने हजारों लोग उसके हाथ में होंगे; उनका जीवन और मरण उसके हाथ में होगा। आखिर राष्ट्रपति होने का क्या सुख होता होगा? क्योंकि राष्ट्रपति होने के लिए लोग कैसे दुखस्वप्न से गुजरते हैं! कैसा कष्ट पाते हैं! हजार तरह की गालियां, घेराव, हजार तरह के उपद्रव, लेकिन राष्ट्रपति होकर रहते हैं। और जब राष्ट्रपति हो जाते हैं तो उनको मिलता क्या है? मिलती है ताकत। अगर चालीस करोड़ का मुल्क है तो चालीस करोड़ लोगों की जिंदगी और मौत उनके हाथ में है। युद्ध में उतार दें मुल्क को तो लाखों लोग मर जाएंगे। युद्ध को बचा दें तो लाखों लोग बच जाएंगे। बड़ी ताकत है।
शक्ति का खोजी सभी तरह से शक्ति खोजता है।
अगर वह विवाह भी करता है तो एक पत्नी पर ताकत के लिए। अगर पत्नी विवाह करती है तो एक पति को गुलाम बनाने के लिए। अगर ऐसा आदमी बच्चे भी पैदा करता है तो सिर्फ ताकत के लिए। क्योंकि बच्चों से ज्यादा निरीह तुम कहां पा सकोगे किसी को! तुम्हारे ही बच्चे, जितनी मालकियत तुम उन पर कर सकते हो, किसी और पर दुनिया में न कर सकोगे। अगर तुम बहुत बड़े समाज के मालिक नहीं हो सकते तो कम से कम एक छोटे परिवार के मालिक तो हो सकते हो। तानाशाह तुम्हारे लिए स्टैलिन जैसा बनना मुश्किल होगा तो अपने-अपने घर में तो हर आदमी तानाशाह हो सकता है। वहां तो तुम्हारी आज्ञा चलेगी।
लेकिन जितनी तुम्हारे पास ताकत आती है, ध्यान रखना, उतने ही तुम मरते चले जाते हो, उतने ही तुम सख्त हो जाते हो। तुम्हारी नम्यता खो जाती है; तुम झुक नहीं सकते। धनपति कैसे झुकेगा? अकड़ा रहता है। त्यागी कैसे झुकेगा? अकड़ा रहता है।
ऐसा हुआ। एक जैन मुनि हैं आचार्य तुलसी। बहुत वर्ष पहले उन्होंने एक सम्मेलन किया। मुझे भी बुला भेजा। उन दिनों मोरारजी देसाई सत्ता में थे। वे भी आए। स्वभावतः, आचार्य तुलसी ऊंचे स्थान पर बैठे, सबको नीचे बिठाया। मोरारजी को बात खल गई। मोरारजी भी कोई छोटे महात्मा तो हैं नहीं। दोनों पद के आकांक्षी। अन्यथा निमंत्रित किया था लोगों को तो आचार्य तुलसी को साथ ही बैठना था। अतिथि थे ये लोग, और बुलाए गए थे। लेकिन वे अपने ऊंचे पद पर बैठे; सबको नीचे बिठाया। और किसी को तो नहीं अखरा, लेकिन मोरारजी को कष्ट हो गया। तो मोरारजी ने पहला ही सवाल पूछा कि यह जो गोष्ठी बुलाई गई है इसको हम इस सवाल से ही शुरू करें; मैं आपसे पूछता हूं कि आप ऊपर क्यों बैठे हैं और हम लोग नीचे क्यों बैठे हैं?
दो पदाकांक्षियों की मुठभेड़ हो गई। तुलसी भी थोड़े बेचैन हुए। जवाब भी कुछ न सूझा कि अब जवाब क्या दें! बात ही कोई सिद्धांत की होती तो समझा देते; जीवन की आ गई तो मुश्किल है। इधर-उधर देखने लगे। इतना ही कह सके कि चूंकि परंपरा है कि गुरु ऊपर बैठे। तो मोरारजी ने कहा, आप हमारे गुरु नहीं हैं। आप जिनके गुरु हों उनके साथ ऊपर बैठें; हम तो मेहमान हैं, और समानता की अपेक्षा रखते हैं।
मैंने देखा यह तो बात बिगड़ गई, और अब आगे कुछ चर्चा का कोई उपाय न रहा। तो मैंने आचार्य तुलसी को कहा कि अगर आप मुझे कहें तो मैं मोरारजी को जवाब दूं। और अगर मोरारजी मेरा जवाब सुनने को राजी हों तो। अन्यथा मेरे बोलने का कोई सवाल नहीं। तुलसी जी तो चाहते थे कोई झंझट टले। उन्होंने कहा, जरूर। मोरारजी ने कहा, ठीक है आप जवाब दें; जवाब चाहिए।
मैंने उनको पूछा कि पहली तो बात यह, प्रश्न से ही हम जवाब की खोज करें। आपको यह अखरा क्यों? तुलसी जी ऊपर बैठे हैं; छिपकली देखिए और ऊपर बैठी है; कौआ और ऊपर बैठा है। अब इनसे कोई झगड़ा करने जाएंगे? न छिपकली से कोई झगड़ा, न कौआ से। तुलसी जी से भी क्या झगड़ा? बैठे रहने दें। यह कष्ट क्यों? यह पीड़ा कहां हो रही है? आप भी ऊपर बैठना चाहते थे; उस आकांक्षा को चोट लगी है। और मैं आपसे यह पूछता हूं कि जहां तुलसी जी बैठे हैं अगर वहीं आप भी बिठाए गए होते तो आपने यह सवाल पूछा होता? हम सब नीचे होते, आप भी उनके साथ ऊपर होते, आपने यह सवाल पूछा होता? इसलिए आप यह मत कहिए कि हम नीचे क्यों बिठाए गए हैं; आप इतना ही कहिए कि मैं नीचे क्यों बिठाया गया हूं। हम में मैं को मत छिपाइए; मैं को सीधा करिए। और अगर आप अपने मैं को ठीक से समझ लें तो तुलसी जी के मैं को समझने में कोई अड़चन न रहेगी। आप दोनों एक ही रास्ते के यात्री हैं। आपको अखर रहा है कि नीचे क्यों बिठाया गया; उनको मजा आ रहा है कि मोरारजी को नीचे बिठा दिया। दोनों की भाषा एक है। सवाल उठता नहीं है। अगर हम जो नीचे बैठे हैं इस तरह बैठे रहें कि जैसे हमें नीचे बिठाया या नहीं बिठाया बराबर है, तुलसी जी का मजा खो जाएगा नीचे बिठाने का। रस भी इसी में है कि भारत के वित्त मंत्री को नीचे बिठा दिया। और आपका कष्ट भी इसी में है कि भारत का वित्त मंत्री और नीचे बिठा दिया! आपका कष्ट और उनका सुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। या तो वे अपना सुख छोड़ें, नीचे आ जाएं। या आप अपना कष्ट छोड़ दें और नीचे बैठने को राजी हो जाएं।
पर आदमी के अंधेपन की कोई सीमा नहीं है। मोरारजी को तो फिर भी समझ में आया--इसीलिए मैं कई बार अनुभव करता हूं कि राजनीतिज्ञ भी उतने राजनीतिज्ञ नहीं होते जितने तुम्हारे साधु पुरुष होते हैं--मोरारजी ने तो कहा कि सोचेंगे इस बात पर, विचार करेंगे। और बात को लीपापोती करके दूसरी चर्चा शुरू की। जब सब विदा हो रहे थे और मैं विदा लेने लगा तुलसी जी से तो उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रख कर कहा कि आपने अच्छा मुंहतोड़ जवाब दिया मोरारजी को। तब मैं बहुत चकित हुआ! यह जवाब मोरारजी को, तुलसी जी को नहीं? यह जवाब तो दोनों को था।
पदाकांक्षी त्याग से भी पद की ही तलाश करते हैं। महत्वाकांक्षी चाहे धन इकट्ठा करें, चाहे धन छोड़ें, हर हालत में पद की ही आकांक्षा काम करती रहती है।
मुझे अभी पिछले सप्ताह ही एक पत्र मिला है तीन साध्वियों का तुलसी जी की, कि चूंकि वे मेरी किताबें पढ़ती थीं इसलिए तुलसी जी ने उन्हें संघ से निष्कासित कर दिया। उन्होंने लिखा है कि हम बड़ी मुश्किल में पड़ गई हैं कि अब क्या करें। और उनका कहना यह है कि उनके आदेश के बिना हमने यह हिम्मत कैसे की कि आपकी किताबें पढ़ें!
तो यह कोई साधु होना न हुआ; यह तो सैनिक होने से भी बदतर हो गया। सैनिक को भी कम से कम इतनी स्वतंत्रता है कि वह कौन सी किताब पढ़ना चाहे पढ़े। लेकिन किताब पढ़ने के लिए भी परतंत्रता! वह भी पूछा जाना चाहिए; आज्ञा के अनुसार। और चूंकि मना किया गया था, फिर भी उन्होंने किताब पढ़ीं, उन्होंने उन्हें निकाल बाहर कर दिया। अब वृद्ध साध्वियां, जिन्होंने जीवन कुछ किया नहीं, कुछ करने का उपाय भी नहीं है। उनमें से एक तो बीमार है जो चल-फिर भी नहीं सकती, जिनका कोई परिवार नहीं। उन्हें ऐसा फेंक देना साधुता का लक्षण तो नहीं। गहन असाधुता छिपी है।
लेकिन महत्वाकांक्षी हमेशा असाधु होता ही है। उसकी आकांक्षा यह होती है कि मुझसे ऊपर कोई भी नहीं।
तुलसी जी मुझसे ध्यान के संबंध में समझना चाहते थे। तो उन्होंने कहा, हम बिलकुल एकांत में बात करेंगे। पर मैंने कहा, क्या एकांत की जरूरत है! और लोग भी मौजूद हो सकते हैं। क्योंकि और सब बातें तो आपने सबके सामने मुझसे की हैं। उन्होंने कहा, नहीं, यह जरा गहन बात है, एकांत में ही करेंगे। और एकांत में करने का कुल कारण इतना कि तुलसी जी के अनुयायियों को अगर पता चल जाए कि तुलसी जी भी ध्यान के संबंध में किसी से पूछते हैं, इन्हें अभी ध्यान का पता नहीं, तो पद संकट में पड़ जाएगा।
न कभी ध्यान किया है, न कभी ध्यान के संबंध में कुछ जाना है। शास्त्रों को पढ़ कर पंडित हो गए हैं लोग; कुछ जाना नहीं है। शब्द में कुशल हैं, लेकिन स्वयं में कोई गति नहीं है। हो भी नहीं सकती। क्योंकि स्वयं में तो गति तभी होती है जब तुम कोमल और कमजोर होने को राजी हो।
शक्ति की आकांक्षा का अर्थ है, तुम दूसरे पर कब्जा करना चाहते हो। और अगर गौर से देखो, बहुत गौर से देखो, तो कमजोर आदमी ही दूसरे पर कब्जा करना चाहता है। अब तुम बड़ी जटिलता में पड़ोगे। और कमजोर होने को जो राजी है वही असली शक्तिशाली है। क्योंकि उसे कोई भय ही नहीं है। ठीक है, अगर कमजोर और कोमलता जीवन का लक्षण है तो वह राजी है। वह मिटने को राजी है, लेकिन जीवन को खोने को राजी नहीं है। वह चट्टान होने के लिए तैयार नहीं है, वह फूल ही होने के लिए तैयार है। माना कि सांझ फूल गिर जाएगा, गिरेंगे। लेकिन जब तक फूल है तब तक फूल एक ऐसे अनंत को ला रहा है पदार्थ के जगत में, एक ऐसे सौंदर्य को उतार रहा है, रूप में उसे ला रहा है जिसका कोई रूप नहीं है। इतनी देर को सही, लेकिन जीवन की धड़कन अगर इतनी देर भी बजेगी, अगर वीणा जीवन की इतनी देर भी बजेगी तो बहुत है। एक क्षण भी बजेगी तो अनंत है। पत्थर की तरह अनंतकाल तक भी पड़े रहेंगे तो उसका कोई मूल्य नहीं है।
‘आदमी जब जन्म लेता है, वह कोमल और कमजोर होता है। मृत्यु के समय वह कठोर और सख्त हो जाता है। जब वस्तुएं और पौधे जीवंत हैं, तब वे कोमल और सुनम्य होते हैं। और जब वे मर जाते हैं, वे भंगुर और शुष्क हो जाते हैं।’
जाओ, जीवन को देखो-परखो, और तुम लाओत्से की बात सही पाओगे। छोटे-छोटे पौधे बच जाते हैं, आंधी आती है, और बड़े-बड़े वृक्ष गिर जाते हैं। बड़े वृक्ष अकड़े खड़े हैं। अपनी ताकत से आंधी से लड़ना चाहते हैं। छोटे वृक्ष कमजोर हैं; लड़ते नहीं, सिर्फ झुक जाते हैं। आंधी आती है, चली जाती है, छोटे वृक्ष फिर खड़े हो जाते हैं। और बड़े वृक्ष गिर गए, फिर उनके उठने का कोई उपाय नहीं रह जाता। जब सख्त गिरता है, तो सिर्फ मरता है। जब कोमल गिरता है, कुछ अंतर नहीं पड़ता, फिर उठ कर खड़ा हो जाता है। कोमल नम्य है, लोचपूर्ण है; झुक सकता है। जितने तुम लोचपूर्ण हो उतने ही तुम जीवंत हो।
क्या तुम अपने सिद्धांतों में लोचपूर्ण हो? क्या तुम आस्तिक हो, और नास्तिक की बात भी शांति से सुन सकते हो? क्योंकि हो सकता है वह सही हो। अगर तुम लोचपूर्ण हो तो तुम्हारे भीतर ज्ञान की धारा जीवंत रहेगी। क्या तुम अपने विरोधी की बात उतनी ही शांति से सुन सकते हो जितनी तुम अपनी ही बात शांति से सुनते हो? अगर तुम सख्त हो तो तुम कहोगे कि नहीं, विरोधी की बात ही क्यों सुननी?
ऐसा शास्त्रों में लिखा है--हिंदुओं के शास्त्रों में भी, जैनों के शास्त्रों में भी। हिंदुओं के शास्त्रों में लिखा है कि अगर पागल हाथी तुम्हारा पीछा करता हो और जैन मंदिर पास हो जिसमें शरण लेकर तुम आत्म-रक्षा कर सकते हो, तो भी जैन मंदिर में मत जाना। पागल हाथी के पैर के नीचे दब कर मर जाना बेहतर है, लेकिन जैन मंदिर में संकट के काल में शरण लेना भी पाप है। वही बात जैनों के शास्त्रों में भी लिखी है। बड़े सख्त लोग, पागलपन की सीमा पर सख्त। और ऐसे लोग कैसे जीवंत ज्ञान को उपलब्ध हो सकेंगे!
जीवन की धारा तो बड़ी कोमल है, लोचपूर्ण है। न तो सिद्धांतों में सख्त होना, न मान्यताओं में, न विश्वासों में सख्त होना। और तभी तुम पाओगे कि तुम्हारे भीतर ज्ञान प्रतिपल बढ़ता जाता है। जिस क्षण तुम सख्त होते हो वहीं ज्ञान का विकास रुक जाता है। अगर प्रतिपल ज्ञान को जन्म देना है तो उसका अर्थ हुआ, प्रतिपल ज्ञान का बालक जन्म लेगा; तुम लोचपूर्ण रहोगे। मरते दम तक लोचपूर्ण रहोगे; मरते दम तक तुम आग्रह न करोगे कि जो मैं कहता हूं वही सही है। तुम सदा यही कहोगे कि ऐसा मैंने जाना, पर अन्यथा भी सही हो सकता है; क्योंकि मैंने पूरा जीवन नहीं जाना। जीवन बड़ा है, मैं बहुत छोटा हूं। मैंने सागर का एक किनारा जाना; सभी किनारे ऐसे ही होंगे, कहना जरूरी नहीं है। कहीं चट्टानें होंगी, कहीं रेत का फैलाव होगा, कहीं वृक्ष होंगे, कहीं पहाड़ होंगे। सागर के किनारे अलग-अलग होंगे। हजार-हजार रूप होंगे। यही सागर होगा। मैंने जो जाना, जो कोना मैंने जाना, वह ऐसा है। और कोनों की मुझे कुछ खबर नहीं है। दूसरा भी ठीक होगा। तुमसे जो बिलकुल विरोध में बोल रहा है वह भी ठीक हो सकता है, क्योंकि जीवन इतना बड़ा है कि सभी विरोधाभासों को अपने में समा लेता है।
जीवन की विराटता का अर्थ ही यही है। वहां सभी असंगतियां एक ही संगीत की लयबद्धता में खो जाती हैं। हेराक्लाइटस का वचन बहुत प्यारा है। हेराक्लाइटस कहता है, गॉड इज़ समर एंड विंटर, डे एंड नाइट, लाइफ एंड डेथ, हंगर एंड सेटाइटी। ईश्वर सब है। ग्रीष्म भी वही है और शीत भी वही; और दिन भी वही, रात भी वही; हार भी वही, जीत भी वही; भूख भी वही, परितृप्ति भी वही।
तुमने किसी किनारे से जाना हो कि ईश्वर प्रकाश है, और कोई दूसरा आकर कहे कि ईश्वर महा अंधकार है, तो लड़ने मत खड़े हो जाना। क्योंकि ईश्वर दोनों है। अन्यथा महा अंधकार कहां होगा?
दुनिया के अधिक शास्त्रों में लिखा है ईश्वर प्रकाश है। पर जीसस जिस संप्रदाय में दीक्षित हुए और जिस साधना-पद्धति से उन्होंने परमात्मा को पाया उस संप्रदाय का नाम है इसेनीज। वे अब तो करीब-करीब खो गए। लेकिन उन्हीं के आश्रमों में जीसस का पालन-पोषण हुआ और जीसस बड़े हुए। उनके वचनों में लिखा है: ईश्वर महा अंधकार है। और इसेनीज के पास अपने तर्क हैं। वह कहता है, अंधकार में जैसी शांति है वैसी प्रकाश में कहां? प्रकाश तो एक उत्तेजना है। इसलिए तुम अगर बहुत प्रकाश हो तो सो भी नहीं सकते। तो परम विश्राम कैसे कर सकोगे परमात्मा में? वह महा अंधकार है। और प्रकाश की तो हमेशा सीमा दिखाई पड़ती है; महा अंधकार की कोई सीमा नहीं। और परमात्मा असीम है। और प्रकाश को तो पैदा करो तब पैदा होता है, और ईंधन चुक जाने पर समाप्त हो जाता है। उसका आदि है, अंत है। अंधकार अनादि-अनंत है। न तो कोई पैदा करता, न कोई कभी बुझा पाया; सदा है।
इसेनीज की बात में भी अर्थ है। जो कहते हैं परमात्मा प्रकाश है, उनकी बात में भी अर्थ है। पर कुछ और दूसरे कोने से उनकी बात में अर्थ है। वे कहते हैं, परमात्मा प्रकाश है, क्योंकि परमात्मा के होते ही सब ऐसा ही साफ दिखाई पड़ने लगता है जैसा प्रकाश में। ठीक है बात। अंधकार में तो आदमी अंधा हो जाता है, प्रकाश में दिखाई पड़ता है, दर्शन होता है। अंधकार में तो भय लगता है, प्रकाश में निर्भय-अभय हो जाता है। उनकी बात में भी सत्य है। असल में, अगर तुम नम्य हो तो तुम्हें असत्य कहीं दिखाई ही न पड़ेगा। अगर तुम नम्य हो तो तुम्हें हर जगह सत्य दिखाई पड़ जाएगा। और अगर तुम्हें हर जगह सत्य दिखाई पड़ना शुरू हो जाए तो ही तुमने जीवन का पाठ सीखा।
अकड़ से मत भर जाना, सख्त मत हो जाना, अन्यथा तुम मृत्यु को बुला रहे हो। लोचपूर्ण बने रहना मरने के आखिरी क्षण तक, और तुम मृत्यु को हरा दोगे। मृत्यु आएगी जरूर, लेकिन तुम्हें मार न पाएगी। क्योंकि मृत्यु केवल उसी को मार पाती है जो सख्त हो गया। मृत्यु आएगी जरूर, देह भी चली जाएगी; लेकिन तुम अछूते रह जाओगे। तुम्हें मृत्यु छू भी न पाएगी। तुम कमल जैसे रह जाओगे; मृत्यु का जल तुम्हें स्पर्श भी न कर पाएगा--अगर तुम लोचपूर्ण हो। अगर तुम सख्त हो तो ही मरोगे। सख्ती के कारण तुम मरते हो, तुम्हारे कारण नहीं। सख्ती की खोल तुम्हें चारों तरफ से घेर लेती है और कस देती है, और तुम मर जाते हो।
तो न तो संप्रदाय में, न सिद्धांत में, न शास्त्र में, किसी भी चीज में सख्त मत हो जाना। लेकिन सख्ती बड़े अनूठे ढंग से आती है। मुझे तुम सुनते हो, मुझे प्रेम करते हो। कोई मेरे खिलाफ बोलता हो, तुम तत्क्षण सख्त हो जाओगे। मरे! तुम गए! तुमने मुझसे जीवन न पाया, मौत पाई।
वह भी सही हो सकता है, लोचपूर्ण रहना। उसकी बात भी गौर से सुन लेना, और भी गौर से सुन लेना, जितना कि तुम मुझे प्रेम करने वाले की बात सुनते हो। क्योंकि मुझे प्रेम करने वालों से तुम्हारा मिलना ज्यादा होगा। तुम उनके बीच घूमोगे। उनसे तुम्हारी मैत्री होगी। लेकिन जो मुझे घृणा करता हो उसकी बात बहुत गौर से सुन लेना। क्योंकि वह एक दूसरा पहलू प्रकट कर रहा है। और सत्य बड़ा है। तुम यह मत कहना कि तुम गलत हो। वह भी सही हो सकता है। उसकी बात इतने गौर से सुनना और कोशिश करना कि उसमें भी कुछ सत्य हो तो निकाल लो।
असल में, सत्य के खोजी को सत्य की खोज है। कहां से मिलता है, यह क्या देखना है? प्यासा पानी चाहता है। नदी का है कि कुएं का है कि नल से आता है कि वर्षा का है, क्या लेना-देना? प्यासे को पानी चाहिए। सत्य के प्यासे को सत्य की खोज है। वह अपना द्वार बंद नहीं करता, सब तरफ से खुला रहता है। और जो भी आए, सत्य का खोजी उसमें से अपने सत्य के पानी को खोज लेता है। और उसे धन्यवाद दे देता है।
और अगर तुम, जो मुझे गाली दे रहा हो, उसको भी धन्यवाद दे सको, तो तुमने उसे भी बदलने की शुरुआत कर दी। वह तुम्हें न मार पाया; तुमने उसे जीवन देना शुरू कर दिया। क्योंकि वह चौंकेगा। वह भरोसा न कर सकेगा। तुमने उसे हिला दिया। तुम मेरे कारण कोई संप्रदाय अपने आस-पास मत बना लेना। तुम मुझे प्रेम करना, लेकिन मुझे तुम्हारा कारागृह मत बना लेना। और प्रेम मंदिर भी बन सकता है और कारागृह भी। तुम्हारे हाथ में है। अगर प्रेम लोचपूर्ण बना रहे तो मंदिर है और अगर लोच खो जाए तो कारागृह है। और फासला बहुत बारीक है। और एक-एक कदम सम्हल कर चलोगे तो ही बच पाओगे। अन्यथा संप्रदाय से बचना बहुत मुश्किल है; करीब-करीब असंभव है। क्योंकि जिसको भी हम प्रेम करते हैं, बस हम प्रेम करते हैं और अंधे हो जाते हैं।
और तुम दूसरे अंधों को पहचान लोगे, लेकिन अपना अंधापन तुम्हें पहचान में न आएगा। तुम पहचान लोगे कि यह आदमी पागल है महावीर के पीछे, यह आदमी पागल है बुद्ध के पीछे, यह आदमी पागल है कृष्ण के पीछे, तुम दूसरों को पहचान लोगे। लेकिन दूसरों को पहचानने से कुछ सार नहीं है। अपना खयाल रखना कि तुम कहीं किसी संप्रदाय में तो नहीं बंध जाते हो! तुम कहीं मेरे शब्दों को शास्त्र तो नहीं बना रहे हो!
इसलिए मैं रोज अपने भी विरोध में बोले चला जाता हूं, ताकि तुम शास्त्र बना ही न पाओ। जब तुम शास्त्र बनाने बैठोगे, तुम बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे। मैंने करीब-करीब सब बातें कह दी हैं जो कही जा सकती थीं। कृष्ण ने तो एक पहलू कहा है, इसलिए शास्त्र बन सकता है। लाओत्से ने एक पहलू कहा है, शास्त्र बन सकता है। कृष्णमूर्ति, जो कि शास्त्र के बिलकुल विपरीत हैं, उनका शास्त्र निश्चित बनेगा। क्योंकि उनसे ज्यादा कंसिस्टेंट और संगत आदमी खोजना मुश्किल है। चालीस साल में एक बात के सिवा उन्होंने कुछ कहा ही नहीं है। वे उसी को दोहरा रहे हैं। मेरा तुम शास्त्र न बना सकोगे, क्योंकि जो भी कहा जा सकता है वह सब मैंने कह दिया है। इसकी बिलकुल मैंने फिक्र नहीं की है कि मैं अपना ही विरोध कर रहा हूं, कि आज कुछ, कल कुछ। जब तुम शास्त्र बनाने बैठोगे, तुम पागल हो जाओगे। तुम मुझमें से सिद्धांत निकाल ही न सकोगे। मैंने इंतजाम कर दिया पूरा।
लेकिन प्रेम इतना अंधा है कि मेरे इंतजाम को तोड़ सकता है। क्योंकि जब तुम किसी आदमी को प्रेम करते हो तो तुम उसका विरोध देख ही नहीं पाते, उसका विरोधाभास भी नहीं देख पाते। वह खुद अपने ही सिद्धांतों के विपरीत बोल रहा है, यह भी नहीं देख पाते। तुम भरोसा रखते हो कि वह ठीक ही बोल रहा होगा, संगत ही बोल रहा होगा; सब ठीक ही होगा। क्योंकि प्रेम ठीक तो पहले मान लेता है, फिर विचार करता है। डर है कि तुम शास्त्र बना लो। उससे मुझे कोई नुकसान नहीं है। मेरा उससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं है। लेकिन तुम मर जाओगे। शास्त्रों के नीचे दब कर बहुत लोग मर चुके हैं। तुम मत मरना। उसका होश रखना।
‘जब वस्तुएं और पौधे जीवंत हैं, तब वे कोमल और सुनम्य होते हैं; और जब वे मर जाते हैं, वे भंगुर और शुष्क हो जाते हैं।’
इसलिए पंडितों को तुम सदा शुष्क पाओगे, तुम वहां रसधार न पाओगे। तुम वहां तर्क तो बहुत पाओगे, काव्य तुम्हें बिलकुल न मिलेगा। पंडित बिलकुल शुष्क होगा। क्योंकि पंडित से ज्यादा मुर्दा और क्या होता है? बुद्ध में तो एक काव्य है; शब्दों में एक लय है, एक सौंदर्य है। तुम पाओगे कि शब्द किसी भीतर की आर्द्रता से आ रहे हैं, गीले हैं। अभी भी ओस सूखी नहीं है। लेकिन पंडित के शब्द बिलकुल सूखे हैं। तुम अगर बुद्ध के शब्दों को जलाओगे तो धुआं ही धुआं पैदा होगा। बहुत गीले हैं, प्रेम से भरे हैं। लेकिन अगर तुम पंडित के शब्दों को जलाओगे तो अग्नि बिलकुल ठीक से जलेगी; जरा भी धुआं पैदा न होगा। बिलकुल सूखे हैं; भीतर कोई रसधार ही नहीं है। उधार हैं; भीतर से आए ही नहीं हैं, जीवन में डूबे ही नहीं हैं। उन्होंने जीवन का पानी जाना ही नहीं है, केवल तर्क की सूखी धूप जानी है।
खयाल रखना, जब भी तुम कुछ बोलो वह तुम्हारे पांडित्य से न आए। अगर पांडित्य से आता है, बेहतर है बिना बोले रह जाना, मत बोलना। जब भी कुछ बोलो तो ध्यान रखना, वह तुम्हारे हृदय से डूब कर आए। और जब भी वह हृदय से डूब कर आएगा, तुम पाओगे उसमें रस है। वह दूसरे को भी भिगाएगा, वह दूसरे को भी अपने में डुबा लेगा। पंडित दूसरे को हो सकता है कनविंस भी कर दे, कोई सिद्धांत सिद्ध कर दे दूसरे के सामने, लेकिन कभी किसी दूसरे को कनवर्ट नहीं कर पाता। वह कितना ही समझा दे, तर्क दे दे; दूसरा शायद तर्क का उत्तर भी न दे पाए, कसमसाए, लेकिन उत्तर न हो पास तो मानना पड़े कि ठीक है, भाई ठीक है; लेकिन कभी किसी के दूसरे के हृदय को रूपांतरित नहीं कर पाता पंडित। क्योंकि जब अपने ही हृदय से शब्द न आते हों तो दूसरे के हृदय तक नहीं पहुंच सकते। जितनी गहराई से शब्द आता है उतनी ही गहराई तक दूसरे में जाता है। खोपड़ी से आता है, खोपड़ी तक जाता है; कंठ से आता है, कंठ तक जाता है; हृदय से आता है, हृदय तक जाता है; अगर आत्मा से आता है, आत्मा तक जाता है। बस उतनी ही गति होती है दूसरे में, जितनी गहराई से आता है। वही अनुपात।
जब भी कोई चीज मर जाती है तो शुष्क हो जाती है। तुमने मरे आदमी की लाश देखी, कैसी अकड़ जाती है! वैसे ही पंडित के शब्द हैं, वैसे ही सांप्रदायिक की मान्यताएं हैं, विश्वास हैं।
‘कठोरता और दुर्नम्यता मृत्यु के साथी हैं।’
तुम मौत से तो बचना चाहते हो और कठोरता को साधते हो। तुम मौत से तो बचना चाहते हो और अनम्यता को साधते हो। तो तुम एक हाथ से जो बचाना चाहते हो उसी को दूसरे हाथ से मिटाते हो। तुम्हारी गति ऐसी ही है जैसा पश्चिम में अभी मस्तिष्क के सर्जन एक नतीजे पर पहुंचे हैं। वह नतीजा यह है कि आदमी के भीतर दो मस्तिष्क हैं, और दोनों बीच में जुड़े हैं। अगर उनको दोनों को बीच से काट दिया जाए तो एक आदमी दो आदमियों की तरह व्यवहार करने लगता है। तो उसका बायां हाथ किसी चीज को उठाता है, लेकिन दाएं हाथ को पता नहीं चलता। दायां उसको फिर उठा कर वहीं के वहीं रख देता है। जैसे दो आदमी। और बड़ी बेबूझ स्थिति पैदा हो जाती है। वह एक हाथ से खाना खाता है, क्योंकि एक मस्तिष्क अनुभव कर रहा है भूख का; और दूसरे हाथ से वह हाथ धो रहा है और भोजन से उठ रहा है, और एक हाथ अभी भोजन जारी रखे है। करीब-करीब जीवन की अवस्था में तुम्हारी स्थिति ऐसी ही है। तुम एक हाथ से बनाते हो, दूसरे से मिटाते हो; एक हाथ से मांगते हो, दूसरे से इनकार करते हो; एक हाथ से द्वार खोलते हो, दूसरे से बंद करते हो।
इसी से तो इतनी चिंता तुम्हारे जीवन में पैदा हो गई है। चिंता का अर्थ है, तुम कुछ ऐसा कर रहे हो जो स्व-विरोधी है। एंग्जायटी का इतना ही अर्थ होता है, चिंता का, कि तुम अपने ही विपरीत कुछ करने में लगे हो। तुम्हें पता न होगा। और सबसे बड़ी विपरीतता यह--कौन आदमी है जो मरना चाहता! कोई नहीं मरना चाहता है; लेकिन हर आदमी सख्त हो जाता है, अनम्य हो जाता है, अकड़ जाता है, और अभ्यास करता है जीवन भर अनम्य होने का। फिर मौत तो स्वाभाविक है। अगर नहीं मरना है और अमृत को जानना है, तो नम्यता को मत खोना।
साक्रेटीज मर रहा था। जब वह मर रहा है तब भी उसकी नम्यता कायम है। ठीक मरते वक्त सब साथी, मित्र, शिष्य रो रहे हैं। साक्रेटीज ने कहा, चुप रहो! अभी रोने की कोई जरूरत नहीं, क्योंकि अभी तो मैं जिंदा हूं। और दूसरी बात, अभी पक्का कहां है कि मैं मर ही जाऊंगा! एक शिष्य ने कहा कि कितनी देर लगेगी, सूरज ढलने के करीब आ गया है। सूरज ढलते वक्त ही आपको जहर दिया जाना है। जहर बाहर पीसा जा रहा है। उसकी आवाज सुनाई पड़ रही है। आपको घबराहट नहीं लग रही है? एक शिष्य ने पूछा।
सुकरात ने कहा कि दो ही संभावनाएं हैं। एक तो कि मैं मर ही जाऊंगा। अगर मर ही गए तो डरने का क्या कारण? जब बचे ही नहीं, तो डरे भी कौन? अगर मर ही गए बिलकुल, जैसा कि नास्तिक कहते हैं, तो भय किस बात का है? जन्म के पहले नहीं थे, उससे कोई चिंता पैदा होती है? मृत्यु के बाद फिर वैसे ही हो जाएंगे जैसे जन्म के पहले नहीं थे। चिंता का क्या कारण है? तुमने कभी चिंता की कि जन्म के पहले नहीं थे, तो बैठे हैं चिंता में कि कितना दुख पाया, जन्म के पहले नहीं थे! नहीं होने से कोई दुख होता है? जब थे ही नहीं तो दुख किसको होगा? सुकरात ने कहा कि हो सकता है नास्तिक सही हों और मैं बिलकुल ही मर जाऊं, तो भय किस बात का? जितनी देर जीया, ठीक। फिर मर गए, बात खतम हो गई। रहे ही न, तो अब बात कौन चलाए? और हो सकता है आस्तिक सही हों कि मैं मरने के बाद बच जाऊं। और अगर बच ही गए तो मरना हुआ ही नहीं; चिंता क्यों करना?
यह खुले हुए आदमी का लक्षण है; इतना नम्य कि मरते क्षण में भी!
भय के कारण भी आदमी मरते वक्त आस्तिक हो जाता है; सोचने लगता है कि शायद परमात्मा हो ही; प्रार्थना कर लो। मरते-मरते अधिक नास्तिक आस्तिक हो जाते हैं। मरने के पहले ही, जवान आदमी अधिक नास्तिक होते हैं, जैसे-जैसे बुढ़ापा आता है आस्तिक होने लगते हैं। इसलिए मंदिरों-मस्जिदों में, गिरजाघरों में तुम बूढ़ों को बैठे पाओगे। जवान आदमी मधुशाला में मिलेंगे, क्लबघर में मिलेंगे, वेश्यागृह में मिलेंगे; बूढ़े मंदिर में मिलेंगे। अभी जवान को फिक्र नहीं है, अभी पक्का भरोसा है। जैसे पैर डगमगाएंगे, भरोसा कम होगा। जैसे ही भरोसा कम होगा, घबराहट पकड़ेगी, मंदिर की तरफ चलने लगेगा, भगवान का सहारा लेगा।
साक्रेटीज न तो भयभीत है, न कोई सहारा ले रहा है। वह कहता है, मुझे पता ही नहीं है कि बचूंगा या नहीं बचूंगा, तो पता तो चल जाने दो। तभी कुछ निर्णय किया जा सकता है। यह लोचपूर्णता है।
तुम्हें कुछ भी पता नहीं है, और तुमने कितने निर्णय कर लिए हैं! तुम्हें कुछ भी पता नहीं है, और तुमने कितने सिद्धांत मान लिए हैं! तुम्हें कुछ भी पता नहीं है, और तुम कितने ज्ञानी होकर बैठे हो! गहन अज्ञान पर पांडित्य को तुमने छा दिया है; पता ही नहीं चलता तुम्हारे अज्ञान का कि कहां है। उस पांडित्य के कारण ही तुम सख्त हो गए हो, तुम्हारी लोच खो गई है।
मेरे पास पंडित आ जाते हैं। तो जितना जड़-बुद्धि मैं उनको पाता हूं उतना किसी को भी नहीं पाता। खोपड़ी उनकी बिलकुल भरी, हृदय बिलकुल खाली। वे खुद बोलते ही नहीं, उपनिषद उनमें से बोलता है। वे खुद बोलते ही नहीं, गीता उनमें से दोहरती है। टेप रेकार्डर हो सकते हैं, आदमी नहीं हैं। ग्रामोफोन के रेकार्ड हो सकते हैं, मनुष्य नहीं हैं। और ग्रामोफोन के रेकार्ड भी घिसे-पिटे; वह भी कोई ताजा रेकार्ड नहीं कि अभी ले आए बाजार से; घिसा-पिटा! अक्सर तो ऐसी हालत है उनकी जैसा ग्रामोफोन के रेकार्ड में कहीं लकीर टूटी होती है और सुई फंस जाती है और वही लकीर दोहरती जाती है: हरे कृष्ण हरे राम, हरे कृष्ण हरे राम, हरे कृष्ण हरे राम। इसको वे मंत्र कहते हैं। यह केवल टूटा हुआ ग्रामोफोन रेकार्ड है जिसमें सुई फंस गई। वे उसी को दोहराए चले जाते हैं। आगे जाने का उपाय नहीं, पीछे लौटने का उपाय नहीं; बस एक ही लकीर दोहरती रहती है।
एक गहन जड़ता पंडितों में दिखाई पड़ती है। छोटे बच्चे कहीं ज्यादा ज्ञानपूर्ण होते हैं। अज्ञान उनका है, लेकिन अभी ढंका नहीं। अभी खुले आकाश जैसा है; अभी सब रास्ते खुले हैं; अभी वे कहीं भी जा सकते हैं, अभी उनकी मुक्ति साफ है। तुम छोटे बच्चे की भांति सदा बने रहना--सीखने को तत्पर, सदा उत्सुक-आतुर। पंडित का अर्थ है, जो सिखाने को उत्सुक है, सीखने को नहीं। पंडित का अर्थ है, जो शिष्य की तलाश में है, गुरु की तलाश में नहीं।
सीखने को उत्सुक व्यक्ति हमेशा, हर जगह खोज रहा है; खोजी है। जहां से मिल जाए, धन्यवाद देगा और ले लेगा। और अतीत को कभी भी बोझिल नहीं होने देता, भविष्य को खुला रखता है। अतीत को कभी भविष्य और अपने बीच में दीवाल नहीं बनने देता कि मैंने जान लिया, अब जानने को क्या है, अब जाना कहां है।
कितना ही जाना हो, वह ना-कुछ है उसके मुकाबले जो अभी जानने को शेष है। और सब कुछ जान लिया हो तो भी इस जगत में कुछ है जो अज्ञेय है, जो जानने से जाना ही नहीं जाता। वही परमात्मा है। वह तो होने से जाना जाता है, जानने से नहीं जाना जाता।
‘इसलिए सेना जब हठी होगी, वह युद्ध में हार जाएगी।’
क्योंकि हठ सख्ती है।
‘जब वृक्ष कठिन होगा, वह काट दिया जाएगा। बड़े और बलवान की जगह नीचे है, सौम्य और कमजोर की जगह शिखर पर है।’
इसलिए मैं कहता हूं कि लाओत्से ओस की तरह ताजा है। उसने जिंदगी से सीधा पीया है, जिंदगी के घाट से सीधा पीया है, किसी शास्त्र से नहीं। वह कहता है कि बड़ा और बलवान तुम्हें दिखाई पड़ता है शिखर पर है; तुम गलती में हो। सिर्फ कोमल, नम्य, कमजोर शिखर पर है; क्योंकि कोमल और नम्य सुंदर है, सत्य है, जीवंत है। जड़ें जमीन में हैं; वे मजबूत हैं। फूल शिखर पर है; वह कमजोर है। बड़े पत्थर, मजबूत पत्थर नींव में पड़े हैं मंदिर की; स्वर्ण-शिखर कमजोर, नम्य, ऊपर है। और जीवन में भी यही सत्य है। अगर इससे विपरीत तुम्हें दिखाई पड़ता हो तो उसका केवल एक ही कारण होगा कि तुम शीर्षासन कर रहे हो।
अब अगर तुम शीर्षासन करके खड़े हो जाओ।
मैंने सुना है, एक गधा एक बार पंडित जवाहरलाल नेहरू को मिलने गया। वे उस वक्त शीर्षासन कर रहे थे। सुबह का वक्त था, वे अपने लान में शीर्षासन कर रहे थे। सिपाही भी द्वार पर खड़ा झपकी ले रहा था। और कोई आदमी गुजरता तो वह रोकता भी; गधा जा रहा था, उसने कहा जाने दो, गधा क्या बिगाड़ लेगा! कोई षड्यंत्रकारी भी नहीं हो सकता; कोई बम भी नहीं रख सकता। गधा ही है। थोड़ा-बहुत घास-पात चर लेगा, चला जाएगा।
लेकिन वह गधा बोलने वाला गधा था, वह कोई साधारण गधा नहीं था। अखबार पढ़-पढ़ कर वह बोलना सीख गया था। उसने जाकर पंडित नेहरू के पास खड़े होकर कहा कि सुनिए पंडित जी!
वे थोड़े घबरा गए। उन्होंने आंख उठा कर देखा। वे भूल ही गए कि मैं शीर्षासन कर रहा हूं। तो उन्होंने कहा कि ऐसा गधा मैंने कभी भी नहीं देखा; तू उलटा क्यों खड़ा है?
उस गधे ने कहा, महानुभाव, आप शीर्षासन कर रहे हैं; मैं उलटा नहीं खड़ा हूं।
जब तुम शीर्षासन करते होते हो तो जो चीज ऊपर है वह नीचे मालूम पड़ती है, जो नीचे है वह ऊपर मालूम पड़ती है। तुमने जीवन को शीर्षासन करके देखा है, इसीलिए तुम्हें दिल्ली में जो लोग बैठे हैं वे ऊपर मालूम पड़ते हैं, और जो आदमी सड़क के किनारे गड्ढा खोद रहा है वह तुम्हें नीचे मालूम पड़ता है। जिन्होंने बहुत धन इकट्ठा कर लिया है, बिरला हैं, राकफेलर हैं, वे तुम्हें ऊपर मालूम पड़ते हैं। और जो भिखारी वृक्ष के नीचे भर दोपहरी में शांति से सोया है वह तुम्हें नीचे मालूम पड़ता है। तुम शीर्षासन कर रहे हो।
लाओत्से ने जिंदगी को सीधा खड़े होकर देखा है। उसने देखा है कि सम्राटों के हृदयों में शांति नहीं, न प्रेम है, न आनंद है। कभी-कभी भिखारी के जीवन में आनंद की वर्षा तो होते देखी है, लेकिन सम्राटों के जीवन में कभी नहीं देखी। अन्यथा बुद्ध नासमझ थे कि महलों को छोड़ कर और भिखारी हो जाते? कि महावीर पागल थे? जिसे तुमने ऊपर देखा है, वह तुम्हारी कहीं न कहीं कोई भूल है। क्योंकि हमने उस ऊपर से बैठे आदमी को नीचे उतरते देखा है। बुद्ध और महावीर ईर्ष्या से भर गए हैं भिखारियों की, इसीलिए भिक्षु हो गए। उन्होंने कुछ जीवन का राज देखा। लाओत्से वही कह रहा है। उन्होंने देखा कि जीवन तो बड़ी छोटी-छोटी चीजों में आनंदित है। पद, शक्ति की दौड़ से जीवन का आनंद खो जाता है।
तुम जिस दिन ना-कुछ हो रहोगे उस दिन जीवन बरस जाएगा। इसलिए भिखारी जिस शांति से सोता है, सम्राट नहीं सोता। साधारण आदमी जिसको हम कहें, जिसको कोई भी नहीं जानता, वह जिस भांति प्रेम करता है, उस भांति, जिन लोगों को बहुत लोग जानते हैं, वे लोग प्रेम नहीं कर पाते।
अमरीका की बड़ी अभिनेत्री थी--बड़ी से बड़ी अभिनेत्री--मर्लिन मनरो। उसने आत्महत्या की। उसने बहुत बार विवाह किया। उस जैसी सुंदर स्त्री न थी इस सदी में। दुनिया के बड़े से बड़े लोग उससे विवाह को आतुर थे। और भरी जवानी में उसने आत्महत्या की। और आत्महत्या का कारण उसने यह लिखा कि मैं प्रेम करने में बिलकुल असमर्थ हूं, और मैं कोई प्रेम नहीं पा सकी। साम्राज्ञी थी वह सिनेमा जगत की, लेकिन प्रेम न पा सकी। क्या हो गया? क्या अड़चन आ गई?
असल में, प्रेम उसी हृदय में उपजता है जिस हृदय में शक्ति की आकांक्षा नहीं उपजती। जहां शक्ति की आकांक्षा उपज गई वहीं प्रेम मर जाता है, प्रेम का दम घुट जाता है। और जिसने प्रेम न जाना उसने क्या जाना? वह बैठा रहे शिखर पर, जीवन को गंवा दिया उसने। जिसने धन जाना और धर्म न जाना, उसने जीवन को गंवा दिया। उसने कुछ भी न जाना। जिसने शब्द जाने, शास्त्र जाने और सत्य को न जाना, वह वंचित रह गया। जब सब तरफ सब कुछ भरा था और मिल सकता था तब भी वह खाली हाथ प्यासा लौट गया।
लाओत्से कहता है, उसका निरीक्षण यह है, कि बड़े और बलवान नीचे हैं, सौम्य और कमजोर शिखर पर हैं। और जिस दिन तुम सीधे खड़े होकर देखोगे--और जब मैं कहता हूं सीधे खड़े होकर तो मेरा मतलब होता है निर्विचार होकर देखोगे, विचार ने तुम्हारी खोपड़ी उलटी कर दी है--जिस दिन तुम निर्विचार होकर देखोगे उस दिन यह जीवन का सीधा सा सत्य तुम्हें दिखाई पड़ जाएगा कि साधारण होना ही यहां असाधारण होना है। ना-कुछ होना ही यहां सब कुछ होने का उपाय है।
चुपचाप जी लेना--जैसे वृक्ष जीते हैं, पशु-पक्षी जीते हैं, चांद-तारे जीते हैं--कि किसी को तुम्हारी खबर भी न हो, तुम्हारे पदचिह्न इतिहास के पृष्ठों पर पड़ें ही न। समय की धार में तुम्हारी रेखा भी न उभरे, तुम्हारा हस्ताक्षर कहीं भी दिखाई न पड़े। ऐसे जी लेना जैसे पानी पर किसी ने लकीर खींची हो, खींची और मिट गई। तब तुम पाओगे कि तुम्हारे जीवन में बड़े फूल खिलते हैं। जब तुम ना-कुछ होने को राजी होते हो, शून्य होने को, तब तुम्हारे भीतर पूर्ण होने की क्षमता आ जाती है।
सिर्फ शून्य ही पूर्ण हो सकता है। इसलिए शून्य को मैं परमात्मा का मंदिर कहता हूं। और साधारण होने को संन्यास कहता हूं। असाधारण होने की आकांक्षा पागलपन में ले जाती है। और असाधारण होने की आकांक्षा बड़ी साधारण है, सभी की है। और जिसने साधारण होना चाहा वही असाधारण हो जाता है। क्योंकि साधारण कौन होना चाहता है? निर्विचार होकर देखोगे तो जो लाओत्से की समझ है वही तुम्हारी समझ भी हो जाएगी। और मैं फिर से कहता हूं, लाओत्से से ज्यादा जीवन का सीधा निरीक्षक खोजना मुश्किल है।
आज इतना ही।