LAO TZU
Tao Upanishad 120
One Hundred And Twentieth Discourse from the series of 127 discourses - Tao Upanishad by Osho. These discourses were given during JUN 19-26, 1971 - APR 10 1975.
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पहला प्रश्न:
भगवान, आपने कहा कि विकास की तीन क्रमिक सीढ़ियां हैं--शरीर, मन, आत्मा। पश्चिमी सभ्यता ने शरीर और मन के तल पर काफी विकास किया है। लेकिन परिणाम में विषाद, अर्थहीनता और निराशा हाथ आई है। कृपया समझाएं कि सहज परिणाम की तरह पश्चिम की मनीषा ने तीसरे चरण की ओर विकास क्यों नहीं किया है?
पहली बात, प्रकृति का सारा विकास अचेतन है। प्रकृति अस्तित्व को मनुष्य तक ले आई है चुपचाप, बिना किसी साधना के। लेकिन मनुष्य का विकास अब अचेतन नहीं होगा। मनुष्य उस जगह खड़ा है जहां से चेतन विकास की प्रक्रिया शुरू होती है। अब तो जो साधना करेगा, जो श्रम करेगा, वही ऊपर उठेगा।
मनुष्य अचेतन विकास और चेतन विकास के बीच की कड़ी है। प्रकृति तो अचेतन है; वह तुम्हें मनुष्य होने तक ले आई। तुमने खुद क्या किया है मनुष्य होने तक? तुम्हारा अर्जन नहीं है मनुष्यता की उपलब्धि। करोड़ों-करोड़ों वर्षों में प्रकृति की बड़ी धीमी गति से, ट्रायल और इरर--करना, भूलना, सुधारना--ऐसे प्रकृति तुम्हें इस किनारे तक ले आई है जिसका नाम मनुष्यता है। लेकिन इससे आगे प्रकृति तुम्हें न ले जा सकेगी। उसने तुम्हें मनुष्यता के तट पर छोड़ दिया; अब आगे तो तुम्हें सचेतन रूप से विकास करना होगा। अन्यथा तुम मनुष्य होकर ही बार-बार मरते रहोगे। इसी को हिंदुओं ने आवागमन की पुनरुक्ति का सिद्धांत कहा है। तुम बुद्धत्व को उपलब्ध न हो जाओगे जैसे तुम मनुष्यत्व को उपलब्ध हुए हो। बुद्धत्व के लिए तो तुम्हें सचेत रूप से चेष्टा करनी होगी।
तो मनुष्य के बाद की जो सीढ़ियां हैं वे ये तीन सीढ़ियां हैं।
पहली बात है, शरीर के तल पर तुम्हें स्वस्थ होना पड़ेगा; शरीर के तल पर तुम्हें आजीविका अर्जित करनी होगी। प्रकृति पशु-पक्षियों को आजीविका के लिए मजबूर नहीं करती; आजीविका उपलब्ध है। पौधों को पानी चाहिए, पानी उपलब्ध है; भोजन चाहिए, भोजन उपलब्ध है। लेकिन मनुष्य को तो शरीर के तल पर भी श्रम करना होगा तो ही शरीर बचेगा; अन्यथा शरीर भी खो जाएगा। और यह सौभाग्य है; यह दुर्भाग्य नहीं है। क्योंकि जो मुफ्त मिलता है वह मिलता ही कहां? जो चेष्टा से मिलता है वही तुम्हारी संपदा है। जिसे तुम श्रम से अर्जित करते हो केवल वही तुम्हारा है। शेष सब मिला था मुफ्त; मुफ्त ही छीन लिया जाएगा। जिसे तुमने मेहनत से पाया है, जिसके लिए तुम्हारे प्राणों को कष्ट झेलना पड़ा है, जिसके लिए तुमने कुछ ऊर्जा व्यय की है, वह तुमसे न छीना जा सकेगा।
शरीर के तल से ही यात्रा शुरू हो जाती है सचेतन। तुम्हें शरीर को सम्हालने के लिए व्यवस्था करनी पड़ेगी, अन्यथा तुम जी भी न सकोगे। जब शरीर परिपूर्ण स्वस्थ होगा, भरा-पूरा होगा, तब जरूरी नहीं है कि मन की आवश्यकताएं पैदा हो जाएं। यह भी हो सकता है कि तुम शरीर के ही जीवन में परिभ्रमण करने लगो। तब बड़ी उदासी आएगी। क्योंकि शरीर की दौड़ पूरी हो गई और आगे कोई यात्रा का द्वार न खुला। उदासी का एक ही अर्थ है, वह तभी आती है जब एक पड़ाव आ जाता है और आगे का रास्ता नहीं सूझता। उदास सभी नहीं होते, केवल सौभाग्यशाली होते हैं। दुखी होना एक बात है, दुखी तो सभी होते हैं; उदास सिर्फ सौभाग्यशाली होते हैं।
उदासी बड़ा गुण है। उदासी का अर्थ यह है कि यहां तक यात्रा थी, पा लिया; अब? वह जो अब है, जब वह सामने खड़ा हो जाता है और कोई द्वार नहीं दिखता, कोई मार्ग नहीं दिखता, तब उदासी घेरती है। उदासी का अर्थ है, अब वही-वही दोहरा-दोहरा कर करना पड़ रहा है जो कर चुके। अब उस करने में न तो कोई रस मालूम पड़ता है, न उस करने से कोई आनंद की झलक मिलती है। वह रस उबाने वाला हो गया अब। संभोग कर लिया, भोजन कर लिया, विश्राम कर लिया, भवन बना लिए, सब व्यवस्था कर ली सुविधा की। अब? शरीर का काम पूरा हो गया; अब तुम्हारी प्राण-ऊर्जा नयी यात्रा पर जाना चाहती है और द्वार नहीं मिलता। इसका नाम उदासी है।
अगर तुम इस उदासी को तोड़ने के लिए सतत रूप से जागरूक न हुए, और तुमने कोई प्रयास न किया, तो द्वार अपने आप न खुलेगा। मनुष्य के जीवन में अपने आप अब कुछ भी न होगा; अर्जित करना होगा। मनुष्य की यही गरिमा है कि वह भिखारी नहीं है, वह दान नहीं मांगता; वह केवल अपने श्रम का पुरस्कार चाहता है। उससे ज्यादा का मांगना कोई सार्थक भी नहीं है। और मिल भी जाए तो मिलेगा नहीं; मिल भी जाए तो बोझ होगा, क्योंकि तुम्हारी तैयारी न होगी उसे भोगने की।
अगर तुमने श्रम किया तो तुम मन की यात्रा पर निकलोगे। काव्य है, संगीत है, सौंदर्य है; ये बारीक स्वाद हैं। भोजन है, संभोग है; ये बहुत स्थूल स्वाद हैं। इसका अर्थ है कि तुम्हारी चेतना बहुत परिष्कृत नहीं है। जो आदमी संगीत में रस ले पाता है; जो आदमी काव्य की गहनताओं में उतर पाता है; जो सुबह उगते सूरज के सौंदर्य में वैसा ही रस पाता है जैसा कि संभोग में भी नहीं पाया; उससे भी बड़े रस का अनुभव करता है रात आकाश के तारों में, नदी की कलकल में, गिरते झरने के संगीत में; भोजन से भी जो स्वाद नहीं पाया उससे भी गहन स्वाद अनुभव करता है; इस आदमी की मन की यात्रा शुरू हो गई।
लेकिन मन की यात्रा भी जल्दी ही पड़ाव पर पहुंच जाएगी। फिर उदासी पकड़ लेगी। और पहली उदासी से दूसरी उदासी ज्यादा सघन होगी। क्योंकि शरीर से मन की यात्रा पर जाना बहुत कठिन नहीं है। शरीर और मन बड़े करीब हैं; इतने करीब हैं कि जरा सी समझ हो कि तुम शरीर से और मन की यात्रा पर निकल जाओगे। वे पड़ोसी हैं। दोनों के मकान में बहुत अंतर नहीं है, जरा सा अंतर है। वस्तुतः अंतर नहीं है; जैसे यह कमरा है और पास का कमरा है, बीच में द्वार है। शरीर से तुम मन में जा सकते हो, क्योंकि शरीर की भाषा और मन की भाषा में स्थूल और सूक्ष्म का भेद है, लेकिन कोई मौलिक भेद नहीं है। संगीत में भी वही अनुभव होता है जो संभोग में--बड़े सूक्ष्म तल पर। सौंदर्य में भी वही स्वाद आता है जो भोजन में--बहुत सूक्ष्म तल पर। लेकिन भाषा एक ही है।
जो जानते हैं, वे कहते हैं, शरीर और मन दो नहीं है; एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ऐसा समझो कि शरीर है मन का प्रकट रूप और मन है शरीर का अप्रकट रूप। ऐसा समझो कि तुमने बर्फ के एक टुकड़े को पानी में तैरा दिया है। तो नौ हिस्सा पानी में छिप जाता है बर्फ का टुकड़ा और एक हिस्सा ऊपर दिखाई पड़ता रहता है। जो ऊपर दिखाई पड़ता है वह तुम्हारा शरीर है, जो भीतर डूबा हुआ है वह तुम्हारा मन है। इसलिए मन और शरीर दो हैं, ऐसा कहना उचित नहीं। एक ही हैं, एक ही चीज के दो छोर हैं। मन थोड़े गहरे में है, शरीर थोड़े ऊपर है।
इसलिए शरीर से मन में जाने में बहुत कठिनाई नहीं है। वहां भी उदासी पकड़ती है। लेकिन वह उदासी बहुत बड़ी नहीं है; थोड़े ही श्रम से टूट जाएगी। लेकिन जब शरीर और आत्मा के बीच तुम खड़े हो जाओगे तब महा उदासी तुम्हें पकड़ लेगी। वह उदासी केवल बुद्धों को पकड़ती है। उसे तुम दुख मत मान लेना, अभिशाप मत समझ लेना। वह तो वरदान है। क्योंकि उसी हताशा से तो तुम जाग सकोगे, खोद सकोगे। उसी प्यास में तो तुम तड़पोगे और आखिरी सरोवर के किनारे आ सकोगे। प्यास ही न हो तो कोई सरोवर तक कैसे जाएगा?
इसलिए प्यास को तुम दुर्भाग्य मत समझो। हां, प्यास अगर धीमी-धीमी लगी हो कि टाली जा सके तो दुर्भाग्य समझना। प्यास ऐसी अदम्य रूप से पकड़ ले कि रोआं-रोआं जले, एक क्षण चैन न मिले, सागर जब तक न पहुंच जाओगे तब तक विश्राम न कर सकोगे, ऐसे आविष्ट हो जाओ; प्यास न रहे, बल्कि तुम ही प्यास हो जाओ, रोआं-रोआं पुकारे; तभी तुम पार कर पाओगे वह दूरी जो मन और आत्मा के बीच है। वह दूरी बहुत बड़ी है।
शरीर और मन के बीच दूरी है ही नहीं; है तो अत्यल्प है। मन और आत्मा के बीच दूरी अत्यंत है; अत्यंत भी कहना ठीक नहीं, अनंत है। क्योंकि मन क्षणभंगुर, आत्मा शाश्वत; मन पानी का बुलबुला, अभी है, अभी फूट जाए; आत्मा, न जिसका कोई आदि, न कोई अंत, जो सदा है। भाषा ही और। दोनों के बीच कोई भी तालमेल नहीं, कोई भी सेतु नहीं। बहुत थोड़े लोग ही पार कर पाते हैं।
थाईलैंड में एक मंदिर है। और उस मंदिर में एक बड़ी प्राचीन कथा है, और बड़ी मधुर है। उस मंदिर में एक विजय-स्तंभ है जिसमें सौ सीढ़ियां हैं, टावर है। उन सीढ़ियों पर चढ़ कर ऊपर जाकर चारों तरफ बड़ा सुंदर दृश्य है। कथा यह है कि उस विजय-स्तंभ की पहली सीढ़ी पर एक अदृश्य पशु का वास है; पहली सीढ़ी पर एक अदृश्य पशु का वास है। वह पशु सांप जैसा है, लेकिन दिखाई नहीं पड़ता, अदृश्य है। और जब भी कोई व्यक्ति चढ़ता है सीढ़ियां तो जितनी व्यक्ति की चेतना की ऊंचाई होती है--समझो दस सीढ़ियों तक--तो वह सांप दस सीढ़ियों तक उसके साथ जाता है। वहीं तक जा सकता है जहां तक व्यक्ति की चेतना की ऊंचाई है। बीस सीढ़ियों तक, तो बीस सीढ़ियों तक जाता है। उस सांप को अभिशाप है कि जब तक वह तीन बार आखिरी सीढ़ी तक नहीं पहुंच जाएगा तब तक मुक्त न हो सकेगा। और अब तक अनंत-अनंत काल में केवल एक बार वह आखिरी सीढ़ी तक पहुंच पाया है।
हजारों यात्री आते हैं रोज। मंदिर बड़ा तीर्थ का स्थान है। हजारों यात्री चढ़ते हैं उन सीढ़ियों पर। कभी एक सीढ़ी, कभी दो सीढ़ी, कभी तीन सीढ़ी; आधे तक भी कभी-कभी पहुंच पाया है। आखिरी सीढ़ी पर, कहते हैं, केवल एक बार जब कोई बुद्ध पुरुष आया होगा। वह प्रतीक्षा उसे करनी है। और अब वह थक गया है, हताश हो गया है। क्योंकि अनंत काल में केवल एक बार बुद्धत्व के साथ आखिरी सीढ़ी तक पहुंचा है। और तीन बार पहुंचना है। अब तो उसने आशा भी खो दी होगी। तीन बुद्धों को पाना मुश्किल है अनंत काल में!
निश्चित ही, मन और आत्मा के बीच फासला बहुत बड़ा होगा। कितने करोड़-करोड़ लोग पैदा होते हैं, लेकिन कभी कोई एक उस परम दशा को उपलब्ध होता है, जिसको उपलब्ध किए बिना कोई भी चैन से न रह सकेगा; जिसको उपलब्ध करना प्रत्येक की नियति है; जिसको तुम कितना ही टालो, तुम टाल न पाओगे; जिसे तुम्हें पाना ही होगा; जिससे बचने की कोई सुविधा नहीं है। फासला बहुत है। और बड़े श्रम की जरूरत है; अभीप्सा की जरूरत है, आकांक्षा की नहीं। अभीप्सा का अर्थ होता है, तुम सब दांव पर लगा दो; तुम कुछ भी न बचाओ। तो ही शायद कदम उठ पाए, और तुम वह छलांग ले सको जो तुम्हें मन से आत्मा में उतार दे।
स्वभावतः, पश्चिम में बड़ी निराशा है, अर्थहीनता है, विषाद है। लेकिन इससे पूरब के लोग समझते हैं कि हम बड़े सौभाग्यशाली! इस भूल में मत पड़ना। इस भूल में कभी भी मत पड़ना, क्योंकि पूरब में धर्मगुरु, साधु-संन्यासी लोगों को यही समझाते हैं कि तुम सौभाग्यशाली हो; पश्चिम में देखो कितना विषाद है!
तुम अभागे हो। तुम्हारी शरीर की जरूरतें पूरी नहीं हुईं। इसलिए तुम में से बहुतों को तो पहला विषाद भी नहीं पकड़ा है जो कि शरीर से मन में जाने में पकड़ता है। तुम्हारी मन की जरूरतें भी पूरी नहीं हुईं। इसलिए तुम्हें दूसरा विषाद भी नहीं पकड़ा है। तुम यह मत सोचना कि तुम बड़े सौभाग्यशाली हो।
अगर तुम सौभाग्यशाली हो तो पशुओं के संबंध में क्या कहोगे? वे तो बहुत सौभाग्यशाली हैं, तुमसे भी ज्यादा। और अगर पशुओं के भी गुरु होंगे, शंकराचार्य होंगे, तो वे उनको समझा रहे होंगे कि तुम आदमियों से बेहतर अवस्था में हो कि देखो, कितने परेशान, चिंता से मरे जाते हैं, शांति नहीं; तुम कम से कम शांत तो हो।
फिर पौधों की क्या कहो? पौधों के शंकराचार्य उनको समझा रहे होंगे कि तुम तो पशुओं से भी बेहतर हो। इनको तो फिर भी थोड़ा रोटी-रोजी के लिए यहां-वहां जाना पड़ता है, थोड़ा श्रम करना पड़ता है; कभी मिलती भी है, कभी नहीं भी मिलती; तुम तो अपनी जड़ जमाए खड़े हो। वर्षा में वर्षा हो जाती है; जमीन से भोजन मिल जाता है; तुम्हारा तो कहना ही क्या!
फिर पत्थर हैं, चट्टानें हैं, पहाड़ हैं। उनके शंकराचार्य उनको समझा रहे होंगे कि तुम्हारा सौभाग्य तो अनंत है। कभी-कभी वर्षा नहीं भी होती तो पौधे तक बेचैन हो जाते हैं। कभी-कभी जमीन अपना सत्व खो देती है तो पौधों को भोजन नहीं मिलता। लेकिन चट्टान! तू तो अहोभागी है! तुझे फिक्र ही नहीं; वर्षा हो तो ठीक, वर्षा न हो तो ठीक; जमीन में सत्व बचे तो ठीक, जमीन का सत्व खो जाए तो ठीक। तू तो परम समाधि में लीन है।
स्मरण रखना, मूर्च्छा समाधि नहीं है। और जो होश से भरता है वही विषाद से भरता है। मूर्च्छित आदमी में कोई विषाद होता है? इसलिए तुम पाओगे, मनुष्य-जाति में जो सबसे छिछले लोग हैं, उनको तुम ज्यादा प्रसन्न पाओगे--सड़कों पर घूमते, होटलों में बैठे, क्लबघरों में, रोटरी, लायंस--जो सबसे छिछले लोग हैं, तुम उन्हें वहां बड़ा प्रसन्न पाओगे। जो आदमी जितना ज्यादा विचार में पड़ेगा, जितनी जिसकी चेतना में सघनता आएगी, उतनी ही उसकी मुस्कुराहट खो जाएगी। क्योंकि तब उसे दिखाई पड़ेगा: जो मैं जी रहा हूं, यह भी कोई जीवन है? रोटरी क्लब का सदस्य हो जाना कोई भाग्य है? नियति है? अच्छे होटल में भोजन कर लेने से क्या मिलेगा? थोड़ी देर का राग-रंग है, सपना है; खो जाएगा।
जिस आदमी में विचार का जन्म होगा वह उदास हो जाएगा, वह बड़े विषाद से भर जाएगा। ये सब खिलौने मालूम पड़ेंगे, जिन्हें तुमने जीवन समझा। और मौत द्वार पर खड़ी है। जो किसी भी क्षण पकड़ लेगी और खिलौने पड़े रह जाएंगे। न तुम्हारे धन की, न तुम्हारी संपत्ति की, न तुम्हारे पद की, न तुम्हारी प्रतिष्ठा की मृत्यु कोई चिंता करेगी; क्षण भर का भी मौका न देगी। तुम कितना ही कहो कि मैं पार्लियामेंट का मेंबर हूं, जरा रुक जाओ; वह न रुकेगी। सब पड़ा रह जाएगा--तुम्हारी पार्लियामेंट, तुम्हारे खिलौने, तुम्हारे पद, प्रतिष्ठाएं, सब कूड़ा-कर्कट में पड़ी रह जाएंगी। जैसे ही मौत द्वार पर दस्तक देगी, तत्क्षण तैयार हो जाना पड़ेगा जाने को। बबूला फूट गया।
जिस आदमी में विचार होगा, जिसमें थोड़ा विमर्श होगा, वह चिंतित तो हो ही जाएगा। यहां तो सिर्फ मूढ़ ही निश्चिंत मालूम पड़ते हैं। या तो बुद्ध निश्चिंत होते हैं या मूढ़ निश्चिंत होते हैं। और तुम निश्चिंत होओ तो यह मत सोच लेना कि बुद्ध हो गए। क्योंकि बुद्ध तो कभी करोड़ों-करोड़ों वर्षों में कोई एकाध होता है; करोड़ों में से संभावना एक की बुद्ध होने की है, शेष की तो मूढ़ होने की है।
पूरब बहुत मूढ़ है। पूरब शरीर के तल से भी नीचे जी रहा है--बड़े परिमाण में। थोड़े से पूरब के लोग मन के तल पर जी रहे हैं। और बहुत थोड़े से लोग आत्मा में प्रवेश करने की चेष्टा कर रहे हैं।
लेकिन पश्चिम में बड़ा प्रवाह आया है। शरीर की जरूरतें पूरी हो गई हैं, भूख मिट गई है, भोजन पर्याप्त हो गया है। इसलिए शरीर से जो जीवन उलझा था वह मुक्त हो गया है। शरीर में जो ऊर्जा लग जाती थी--भोजन कमाने में, रोटी बनाने में, कपड़ा पाने में--वह समाप्त हो गई है। तो जो ऊर्जा मुक्त हो गई है शरीर के जीवन से, वह मन में काम आ रही है। इसलिए लोग ज्यादा संगीत में डूबे हैं, ज्यादा साहित्य में डूबे हैं। कोई मूर्ति बना रहा है, कोई पेंटिंग कर रहा है। पश्चिम में ऐसा आदमी पाना मुश्किल है जिसकी कोई हॉबी न हो।
पूरब में ऐसा आदमी पाना कभी-कभी होता है जिसकी कोई हॉबी हो। जीवन ही काफी है, हॉबी की फुरसत कहां है? आठ-दस घंटे दफ्तर और दुकान में काम करके कोई लौटता है, बारह घंटे खेत में श्रम करके कोई लौटता है; अब पेंटिंग करने की ऊर्जा कहां है? अब गीत बनाए कौन? प्राण तो पसीने में बह गए, अब गीत गाए कौन? भीतर सब रिक्त हो गया। किसी तरह पड़ जाता है, सो जाता है। सुबह उठ कर फिर वही दौड़ शुरू हो जाती है। कौन सुने आकाश का संगीत? किसको समय है कि आंखें खोले और आकाश के तारों को देखे? इतनी फुरसत किसे है? कौन देखे फूलों को? फूल को देखने के लिए सुविधा चाहिए, थोड़ी चैन चाहिए। फूल को पहचानने को तो काफी विराम की दशा चाहिए।
तो पश्चिम में लोग मन के तल पर हैं, और इसलिए महा विषाद से घिर गए हैं। क्योंकि अब आगे कुछ नहीं दिखाई पड़ता। जान लिया संगीत, गा लिए गीत, बना ली मूर्तियां, चित्र बना लिए, घर सौंदर्य से भर गया। अब? एक चट्टान खड़ी हो गई है सामने। अब जीवन अर्थहीन मालूम पड़ता है। अर्थ तो आता है लक्ष्य से; जब लक्ष्य खो जाता है तो अर्थ खो जाता है।
गरीब आदमी का लक्ष्य है रोटी। तो अभी जीवन में अर्थ है, क्योंकि रोटी पानी है। असल में, अर्थ को सोचने की सुविधा नहीं है। फिर अमीर आदमी का लक्ष्य है मन के वैभव, मन का सुख-सौष्ठव, मन का संगीत। लोग सोचते हैं कि जब सब होगा तो सुनेंगे शांति से लेट कर संगीत, सुनेंगे पक्षियों को। लेकिन वह भी चुक जाता है, क्योंकि वह भी सब प्रकृति का ही है, वह भी ऐंद्रिक है। जिस दिन वह भी चुक जाता है उस दिन महा विषाद घेर लेता है: अब किसलिए जीएं? शरीर भरा-पूरा, मन भी भरा-पूरा, कुछ पाने को नहीं दिखाई पड़ता; कहीं जाने को नहीं दिखाई पड़ता; जो पाना था, पा लिया; जो मिल सकता था बाजार में, खरीद लिया; जिसकी सुविधा थी समाज में, वह भी पा लिया; संस्कृति जो दे सकती थी श्रेष्ठतम--मोझर्ट और वेजनर और बीथोवन, सब सुन लिए; और कालिदास और भवभूति, सब पढ़ लिए। अब? अब क्या? जब यह अब खड़ा हो जाता है मन के बाद, तब लगता है कि जीवन में कोई अर्थ नहीं।
इसलिए पश्चिम के बड़े से बड़े विचारक--सार्त्र, जेस्पर्स, हाइडेगर--वे सब विषाद से भरे हैं। वे उसी दशा में हैं जिस दशा में बुद्ध ने महल छोड़ा था। जिस रात बुद्ध महल को छोड़ कर गए थे, महा विषाद से भरे थे। वह विषाद उनके प्राणों को काट रहा था। एक आरे की तरह उनका जीवन कट रहा था दुख से; सब था और कोई सार न था। सब व्यर्थ था; जिंदगी सिर्फ एक ऊब थी। जिस रात बुद्ध ने छोड़ा था घर वह अमावस की रात थी, और भीतर भी अमावस की निराशा घिरी थी, अमावस जैसा अंधेरा घिरा था। सार्त्र, हाइडेगर, मार्शल उसी अवस्था में हैं पश्चिम में। कठिनाई उनकी यह है कि पश्चिम की पूरी जीवन-व्यवस्था आत्मा को अस्वीकार करती रही है। और जिसे तुम अस्वीकार करते हो वह द्वार बिलकुल बंद हो जाता है।
पूरब की जीवन-व्यवस्था आत्मा को सदा स्वीकार करती रही है। जिस दिन तुम थक जाओगे मन से, सब नहीं समाप्त हो गया; अभी एक चीज और बाकी है। पूरब की हवा में एक चीज सदा बाकी है। असल में, तुम उसी के लिए अब तक शरीर की तैयारी कर रहे थे, मन की तैयारी कर रहे थे; अब तो मौका आ गया जब अब तुम उसकी खोज में लग सकते हो जो वास्तविक खोज है।
पश्चिम मानता है शरीर और मन को; उसके आगे उसकी मान्यता नहीं है, बस। इसलिए पश्चिम में बड़ा उपद्रव है। जब मन चुक जाता है, मन के भोग चुक जाते हैं, तब पश्चिम में एक उदासी घेर लेती है और सिर्फ आत्महत्या उपाय दिखती है। आत्म-साधना नहीं, आत्महत्या उपाय दिखती है। यहीं पूरब और पश्चिम का फर्क है। पूरब की धारा जब सब चुक जाए तब एक नया लक्ष्य देती है--आत्मा, जो पश्चिम में नहीं है।
इसलिए सार्त्र घूम-घूम कर उदासी पर लौट आता है। बुद्ध जब उदास हुए तो गोल उदास चक्कर में नहीं घूमने लगे; जब उदास हुए पूरे तो आत्मा की खोज पर निकले। क्योंकि हवा पूरब की बड़े अनादि काल से आत्मा का गुणगान कर रही है। और हर आदमी प्रतीक्षा कर रहा है कि कब वह मौका आएगा जब मेरी छोटी जरूरतें पूरी हो जाएंगी, तब मैं उस बड़ी जरूरत की तरफ यात्रा पर निकल जाऊंगा। जाने-अनजाने, गहरे अचेतन में वह आत्मा की खोज छिपी है; तुम्हें पता हो, न पता हो। तुम शरीर में भोग रहे हो, भोगते रहो; लेकिन तुम्हारे भीतर अचेतन कोने में एक आवाज खड़ी है कि कब उठोगे इससे? कब जागोगे इससे? यहां बेहोश से बेहोश आदमी के भीतर भी एक स्वर गूंज रहा है, वह स्वर पूरब की संस्कृति का स्वर है। वही तो पूरब का भाग्य है।
पूरब दरिद्र है, दीन है, वह दुर्भाग्य है। जब भी पूरब में कभी पश्चिम जैसी सुविधा होगी--जब थी, जैसे बुद्ध के समय में थी, तो हजारों-लाखों लोग आत्मा की खोज पर गए, और सैकड़ों लोगों ने आत्मा के दर्शन किए। जैसे वह हमारा नियत कार्यक्रम है, जब सब काम चुक जाएगा तब हम तीर्थ-यात्रा पर निकल जाएंगे, तब वह अनंत की यात्रा शुरू होगी।
तो बुद्ध को उपाय था, संस्कृति में एक द्वार था। पश्चिम की संस्कृति मन पर पूरी हो जाती है। इसलिए पश्चिम की संस्कृति में मन की वासना पूरे होने पर दीवाल आ जाती है, द्वार नहीं आता। इसलिए वहां इतनी उदासी है। लेकिन यह ज्यादा देर नहीं रहेगी, क्योंकि कोई भी संस्कृति ज्यादा देर कैसे उदासी को बरदाश्त कर सकती है? और आत्महत्या कहीं लक्ष्य बन सकता है? आदमी खोज ही लेगा, दीवाल को तोड़ ही देगा, दरवाजा बना ही लेगा। इसलिए तो हजारों लोग पश्चिम से मेरे पास चले आ रहे हैं; खोज रहे हैं।
कल ही एक युवक मेरे पास आया। बड़ा लेखक है, दस-बारह बड़ी प्रसिद्ध किताबों का लेखक है। पश्चिम में बड़ा नाम है, इज्जत है, प्रतिष्ठा है, पैसा है, सब है। उसके आने के पहले मैंने उसकी किताबें पढ़ी हुई थीं। मुझे कभी खयाल भी न था कि यह व्यक्ति कभी आ जाएगा। वह मौजूद हो गया। खोज पर है। सूफियों के पास गया है। तिब्बेतन लामाओं के पास गया है। गुरजिएफ की व्यवस्था में शिक्षा पाई है। खोज रहा है--दूर-दूर तक खोज रहा है।
दीवाल टूटेगी। कितनी देर दीवाल टिक सकती है? पश्चिम जल्दी ही बड़ी धार्मिक क्रांति के निकट पहुंच रहा है। उसके पहले आसार तो आ गए। सूरज की पहली किरण तो फूट गई है। सुबह होने के करीब है। इसलिए पश्चिम अब पूरब की तरफ उन्मुख है।
अब यह बहुत बड़ी मजेदार घटना घट रही है। पूरब का समझदार आदमी पश्चिम की तरफ देख रहा है। पूरब में जो समझदार हैं--वैज्ञानिक, इंजीनियर, डाक्टर--वे पश्चिम की तरफ भाग रहे हैं। क्योंकि वहां है राज शरीर के विज्ञान का, मन के विज्ञान का। सब पश्चिम की तरफ भाग रहे हैं। तुम्हारे गांव में भी डाक्टर हो, उसके पास अगर डिग्री लंदन की है तो बात और। और यहीं पूना की डिग्री है तो ठीक है। सर्जन हो और एफ.आर.सी.एस. है तो बात और! क्योंकि ज्ञान वहां है शरीर और मन का। हम तो उधार हैं उस मामले में। हमारे पास वह कुछ भी नहीं है। हम वहां जा रहे हैं। शरीर और मन की शिक्षा के लिए पूरब पश्चिम के चरणों में बैठ रहा है; और आत्मा की शिक्षा के लिए पश्चिम पूरब के चरणों में झुक रहा है। एक बड़ी अनूठी घटना घट रही है।
पूरब से घूम कर जब कोई आदमी पूरब की यात्रा से पश्चिम लौटता है तो जो खबरें ले जाता है वे अध्यात्म की हैं--ध्यान की हैं, योग की हैं, संन्यास की हैं। पश्चिम से जब कोई आदमी पूरब लौट कर आता है तो वह जो खबरें लाता है, वे विज्ञान की हैं; धर्म की नहीं हैं, अध्यात्म की नहीं हैं।
पूरब को सीखना पड़ेगा पश्चिम से शरीर और मन का शास्त्र। और जितने जल्दी सीख ले उतना बेहतर। काफी हमने उपेक्षा कर ली उसकी; समय है कि हम समझ लें। और ध्यान रहे कि अगर पूरब ने मन और शरीर का शास्त्र ठीक से समझ लिया और व्यवस्था बना ली तो पूरब का कोई मुकाबला न रह जाएगा। अध्यात्म का शास्त्र तो उसके पास है; नीचे की दो सीढ़ियां टूट गई हैं। ऊपर की तीसरी सीढ़ी है। और नीचे की दो सीढ़ियां न बनें तो तुम कैसे तीसरी सीढ़ी पर पहुंचोगे? तुम गुणगान कर सकते हो, स्तुति कर सकते हो तीसरी सीढ़ी की, चढ़ नहीं सकते। इसलिए तुम पूजा कर रहे हो गीता की, उपनिषद की, वेद की। वेद, गीता, उपनिषद सीढ़ियां हैं, जिन पर चढ़ो। पूजा करने से क्या होगा? लेकिन चढ़ोगे तुम कैसे, पहली दो सीढ़ियां टूटी हुई हैं।
अगर ठीक से समझो तो पश्चिम इस समय तुमसे बेहतर हालत में है। उसकी पहली दो सीढ़ियां तैयार हैं; तीसरी नहीं है। तीसरी बनाई जा सकती है। वह तीसरी की तलाश में लगा है। वह जल्दी ही तीसरी को बना लेगा। इसके पहले कि वह तीसरी को बनाए, तुम पहली दो जो खो गई हैं, मिट गई हैं, उनको सुधार लो; उखड़ गई हैं, उनको जमा लो। अन्यथा अध्यात्म के लिए भी तुम्हें सीखने पश्चिम जाना पड़ेगा। और इससे बड़े दुर्भाग्य की कोई बात न होगी। सदियों-सदियों तक हमने उस पूरे शास्त्र को निर्मित किया है, और तुम्हें उसे भी सीखने पश्चिम जाना पड़े और क्या दुर्भाग्य होगा? लेकिन पहली दो सीढ़ियां न हों तो तीसरी सीढ़ी भी टूट जाएगी, बच नहीं सकती। कैसे तुम सम्हालोगे? क्योंकि वे दो सीढ़ियां ही उसका आधार हैं।
इसलिए मैं निरंतर कहता हूं कि गरीब धार्मिक नहीं हो सकता; उसकी दो सीढ़ियां खो गई हैं। अमीर जरूरी नहीं है कि धार्मिक हो जाए, लेकिन चाहे तो हो सकता है। इस फर्क को ठीक से समझ लेना। अमीर होने से कोई धार्मिक हो जाएगा, यह जरूरी नहीं है, लेकिन चाहे तो हो सकता है। अमीर होने से उस जगह तो आ जाता है जहां इस जीवन का सब व्यर्थ दिखाई पड़ने लगता है। जब तक तुम्हारे पास धन नहीं है, धन की व्यर्थता न दिखाई पड़ेगी। और जब तक तुम्हारे पास सुंदर स्त्रियां नहीं हैं तब तक सुंदर स्त्रियों की व्यर्थता न दिखाई पड़ेगी। और जब तक तुमने पदों पर बैठ कर नहीं देखा तभी तक पदों की मूर्खता दिखाई न पड़ेगी। जब तुम जीवन का सब राग-रंग देख लेते हो तभी तुम्हें पता चलता है कि यह तो सब नासमझी है।
लेकिन जरूरी नहीं है। जैसा मैंने कल कहा कि अगर गरीब आदमी को धार्मिक होना हो तो बड़ा कल्पनाप्रवण, संवेदनशील, बड़ी गहरी बुद्धिमत्ता चाहिए, ताकि वह उसको भी देख ले जो उसके पास नहीं है, और इतने गहरे में देख ले कि उसकी व्यर्थता दिखाई पड़ जाए। अमीर आदमी को अगर धार्मिक होना हो तो बहुत बुद्धिमत्ता की जरूरत नहीं है, न बहुत संवेदनशीलता की जरूरत है। न्यूनतम बुद्धि से भी काम चल जाएगा। इसलिए बुद्धू अमीर भी धार्मिक हो सकता है, चाहे तो। केवल बुद्धिमान गरीब धार्मिक हो सकेगा, वह भी बहुत श्रम करे तो। क्योंकि अमीर उस स्थिति में होता है जहां चीजों की व्यर्थता दिखाई पड़नी ही चाहिए, अगर थोड़ी भी बुद्धि हो। और अगर किसी अमीर को तुम पाओ कि वह धार्मिक नहीं हुआ तो समझना कि वह इतनी गई-बीती बुद्धि का है कि उसे कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता; वह अंधा है। अमीर बिलकुल अंधा हो तो ही धार्मिक होने से बच सकता है, नहीं तो धार्मिक हो ही जाएगा। क्योंकि क्या पाता है? महलों के भीतर रिक्तता है, सूना हृदय है, प्रेम के कोई मेघ नहीं बरसते, न कोई अमृत की धार बहती है, न कहीं कोई आनंद का निनाद सुना जाता है; बड़े महल करीब-करीब कब्रों जैसे हैं जहां सब मुर्दा है। अमीरों के पास बाहर सब कुछ होता है, भीतर कुछ भी नहीं। बुद्धू से बुद्धू को भी दिखाई पड़ सकता है कि भीतर कुछ भी नहीं है।
इसलिए पश्चिम ज्यादा देर निराश न रहेगा, ज्यादा देर हताश न रहेगा; राह तोड़ ही लेगा। और वही कोशिश चल रही है। इसलिए पश्चिम पूरब की तरफ दौड़ रहा है--सीखने उस शास्त्र को जिससे तीसरी सीढ़ी निर्मित हो जाए, बंद दीवाल टूट जाए, द्वार बन जाए। एक बार पश्चिम के हाथ में कुंजियां आ गईं कि तुम्हें पश्चिम जाना पड़ेगा सीखने धर्म को भी। क्योंकि पश्चिम बड़ा कुशल है; जिस चीज को भी करता है, फिर बड़ी संलग्नता से करता है।
अब यहां मैं देखता हूं, भारतीय संन्यासी हैं, उनमें मैं वैसी समग्रता नहीं देखता, ध्यान भी करते हैं तो कुनकुना-कुनकुना। ऐसा कर लेते हैं, क्योंकि मैं कहता हूं। करने में ऐसा लगता है कि मैंने कहा इसलिए कर रहे हैं। पूरा प्राण दांव पर नहीं लगाते, कुछ बचाते हैं। पश्चिम का संन्यासी आता है, पूरा प्राण दांव पर लगा देता है। कुछ भी नहीं बचाता, जिंदगी को दांव पर लगा देता है। जल्दी ही परिणाम आने शुरू हो जाते हैं।
रोज मैं देख कर चकित हूं! भारतीय आता है, वह कहता है कि यह ध्यान किया, यह जमता नहीं; वह ध्यान किया, वह भी नहीं जमता; इसको करने में सांस पर तकलीफ मालूम होती है, उसको करने में पैर थक जाते हैं। हजार बहाने हैं। अभी कोई बता दे कि सोने की खदान है तो वह पहाड़ चढ़ जाए। अभी खबर भर मिल जाए उसको कि कहीं धन बंट रहा है तो वह जी-जान दांव पर लगा दे। लेकिन ध्यान में वह कहता है, पैर दुखते हैं; ध्यान में वह कहता है कि इतनी देर सांस नहीं ली जाती। पश्चिम से जो लोग आते हैं वे यह नहीं कहते; वे पहले पूरा दांव लगाते हैं, पूरा करके देखते हैं। उनकी अगर कोई तकलीफ होती है तो वह चौथे चरण की होती है ध्यान की, तीन चरणों की कभी नहीं। और जब भी भारतीय आते हैं तो तीन चरणों की कठिनाई होती है, चौथे की वह बात ही नहीं, क्योंकि चौथा तो आता ही नहीं। जब तीन ही पूरे नहीं होते तो चौथा कैसे आएगा?
इससे मैं चकित हूं कि बात क्या है! पश्चिम जो भी करता है परिपूर्णता से करता है। या तो करता नहीं या करता है तो परिपूर्णता से करता है। पूरब कुछ ढुलमुल हालत में है; करता भी है, अधूरा करता है। पूरब का मन बड़ी दुविधा में दिखता है। पूरब की स्थिति ऐसी है कि वह चाहता है संसार भी सम्हाल ले और परमात्मा को भी सम्हाल ले। वह एक कदम इस नाव में और दूसरा कदम उस नाव में। और दोनों नावें दो अलग दिशाओं में जा रही हैं। वह संकट में पड़ता है। दांव पर लगाने की हिम्मत पूरब ने खो दी है।
और उसका कारण वही है कि पहली दो सीढ़ियां नहीं हैं। दांव पर लगाने की हिम्मत तो तभी आती है जब तुम समझ लेते हो कि यहां कुछ सार्थक है ही नहीं, लगा दो। जब तक तुम्हें लगता है कि यहां संसार में कुछ सार्थक है बचाने योग्य, इसको जरा साथ में ही लेकर अगर धर्म की यात्रा पर जा सके तो अच्छा होगा, तब तक तुमने पहली दो सीढ़ियां पार नहीं की हैं।
इसलिए तुम यह पूछ कर अपने मन में बहुत प्रसन्न मत होना कि पश्चिम बहुत निराश है, विषाद है, अर्थहीन अनुभव कर रहा है। सौभाग्य होगा कि तुम भी इतने ही विषाद से घिर जाओ और इस व्यर्थ के जीवन को तुम भी व्यर्थ जानो; इस अर्थहीन दौड़ को तुम भी अर्थहीनता की तरह पहचान लो; तुम भी इतने हताश हो जाओ कि जीवन में कुछ भी सार न दिखाई पड़े, ताकि तुम पूरे जीवन को दांव पर लगा सको। वह आगे की छलांग तुम्हें पूरा का पूरा मांगती है; अधूरे से काम न चलेगा। आधा कहीं कोई यात्रा पर गया है? आधे घर और आधे यात्रा पर? जाना हो तो पूरे ही जाना होगा।
कबीर ने कहा है: जो घर बारे आपना चले हमारे संग। जला दो घर तो हमारे साथ चल सकते हो।
वे किस घर की बात कह रहे हैं? वे उस घर की बात कह रहे हैं जिसको तुम बचाना चाहते हो। तुम घर भी रहना चाहते हो और यात्रा पर भी जाना चाहते हो। असल में, तुम मुफ्त में पाना चाहते हो परमात्मा को। या तुम परमात्मा को भी इसीलिए पाना चाहते हो ताकि संसार के संबंध में कुछ वरदान मांग लो।
तुमने कभी सोचा, अगर परमात्मा तुम्हें मिल जाएगा तो तुम क्या मांगोगे? सोचना ईमानदारी से कि अगर परमात्मा मिल ही जाए कल सुबह उठते ही से, तुम क्या मांगोगे? एक कागज पर जरा लिखना। तीन चीजें तुम मांग सकते हो, तो लिखना कि कौन सी तीन चीजें मांगोगे। तुम खुद ही चकित होओगे कि क्या मांगने की आकांक्षा आ रही है--कि एक सुंदर पत्नी, फिल्म अभिनेत्री, कोई बड़ा मकान, कि बड़ी कार, कि मुकदमे में जीत--क्या मांगोगे? तुम जो मांगोगे, उससे पता चलेगा कि तुम कहां हो। तुम्हारी मांग तुम्हें बता देगी। क्या तुम परमात्मा को देख कर मांगने की चेष्टा करोगे या सच में ही देख कर इतने परितृप्त हो जाओगे कि कहोगे कि कुछ भी मांगना नहीं? मांगने की चेष्टा में ही छिपा है कि परमात्मा की चाह न थी; चाह कुछ और थी, परमात्मा का तो उपयोग था। मांग तो कुछ और ही रहे थे; परमात्मा से मिलेगा, इसलिए परमात्मा की भी खोज थी। लेकिन परमात्मा लक्ष्य न था; लक्ष्य तो वही है जो तुम मांगना चाहते हो। मिला परमात्मा और तुमने मांग ली इंपाला कार; इंपाला कार लक्ष्य था। तो परमात्मा न हुआ, इंपाला कार का कोई दुकानदार हुआ। और तुम्हारी नजर इंपाला कार पर थी और परमात्मा से भी तुमने वही मांगा। तुम जब मंदिर जाते हो, क्या मांगते हो, सोचना थोड़ा। तुम्हारी मांग ही तुम्हारे और परमात्मा के बीच में बाधा है।
वे दो सीढ़ियां नहीं हैं तुम्हारे जीवन में, इसलिए हजार तरह की मांगें खड़ी हो गई हैं। अगर तुम परमात्मा से ही तृप्त हो सको तो समझना कि दो सीढ़ियों को तुम पार कर गए।
इसलिए अपने मन में बहुत प्रसन्न मत होना। क्योंकि मैं यह देखता हूं कि पूरब के लोग बड़ी रुग्ण सांत्वना से भर गए हैं। वे अपने को संतोष दिलाते रहते हैं कि पश्चिम में तो बड़ा विषाद है, लोग दुखी हैं। देखो पश्चिम में कितने लोग आत्महत्या करते हैं, यहां कोई करता है? आत्मा भी तो होना चाहिए आत्महत्या करने के पहले; हत्या किसकी करोगे! पश्चिम में कितने लोग पागल हो जाते हैं; यहां कोई होता है? पागल होने के लिए बुद्धि भी तो चाहिए। जिनकी बुद्धि नहीं है, उनको कभी पागल होते देखा है? जो हो वही तो खो सकते हो। पश्चिम सोचता है, प्रगाढ़ता से सोचता है, इसलिए पागल हो जाता है। तुमने कभी सोचा है? तुम्हारा सोच-विचार क्या है? अखबार पढ़ने से ज्यादा तुम्हारा कोई सोच-विचार है? अखबार पढ़ कर तुम सोच रहे हो पागल हो जाओगे? तुमने किसी विचार को इतनी गहनता से समझने की कोशिश की है कि तुम्हारा सारा जीवन आंदोलित हो जाए, कि तुम कंप जाओ, कि तुम्हारी जमीन से जड़ें हिल जाएं, कि तुम्हारी बुनियाद गिर जाए? तुमने कभी कुछ नहीं सोचा है। तुमने क्या सोचा है? पागल कैसे हो जाओगे? और जिंदगी में तुमने पाया कुछ नहीं है अभी; आत्महत्या के करीब तुम आओगे कैसे? आत्महत्या के करीब तो वही आता है जिसने जीवन को सारा देख लिया और पाया कि व्यर्थ है; अब कुछ करने को नहीं दिखाई पड़ता, आत्महत्या कर लूं! मिटा दूं इस जीवन को!
इस घड़ी में ही दो रास्ते खुलते हैं--या तो आत्महत्या या आत्मक्रांति। अगर कोई द्वार न दिखे तो आदमी आत्महत्या कर लेता है। अगर कोई द्वार दिख जाए तो रूपांतरित हो जाता है। आत्महत्या की घड़ी को ही पूरब ने आत्मक्रांति में बदल लिया है। पश्चिम तैयार है अब पूरब की क्रांति के लिए। और पूरब तो अभी पश्चिम की क्रांति के लिए तैयार हो रहा है। पूरब के गुरु अब मार्क्स, एंजिल्स, स्टैलिन, लेनिन, माओत्से-तुंग। तुम बातें कितनी ही करो वेद की और उपनिषदों की, तुम्हारे गुरु माओ, महावीर नहीं। उनकी तो तुम सिर्फ पूजा करते हो! पश्चिम देख रहा है उपनिषद की तरफ, वेद की तरफ, गीता की तरफ। वह घड़ी आ गई है जहां शरीर और मन की यात्रा पूरी हो गई है। अभी हताशा है; जल्दी ही आनंद की वर्षा भी हो जाएगी। अभी उदासी है; अगर मार्ग मिल गया तो जितनी गहन उदासी है उतना ही हर्षोन्माद भी हो जाएगा। वह अनुपात हमेशा बराबर होता है।
तुम कितने उदास हो परमात्मा के बिना, इस पर ही निर्भर करेगा कि परमात्मा को पाकर तुम कितने आनंदित होओगे! अगर परमात्मा को बिना पाए तुम सिर्फ दो इंच उदास हो तो परमात्मा को पाकर दो इंच आनंद की वर्षा होगी, बस। अगर परमात्मा को बिना पाए तुम सौ इंच उदास हो तो परमात्मा को पाकर सौ इंच वर्षा हो जाएगी। अगर परमात्मा को बिना पाए तुम पांच सौ इंच उदास हो तो परमात्मा को पाकर तुम चेरापूंजी में हो जाओगे, पांच सौ इंच मेघ बरस जाएंगे। कितनी तुम्हारी उदासी है परमात्मा को बिना पाए उतना ही तुम्हारा आनंद होगा परमात्मा को पाकर। आनंद की मात्रा वही होगी जो उदासी की सघनता है। प्यास ही तो तय करेगी कि तृप्ति कितनी होगी! प्यासे ही नहीं थे, ऐसा ही कोकाकोला दिखाई पड़ गया, इसलिए प्यास पैदा हो गई; ऐसे भूल-चूक से आ गए किसी सदगुरु के पास। कोई मित्र जा रहा था और तुम खाली बैठे थे, तो कहा चलो, खाली बैठे क्या करते। कोई प्यास ही न थी। सु
न लीं बातें आनंद की, अमृत की, और एक झूठी प्यास पैदा हो गई। तुम्हें परमात्मा मिल भी जाए तो कोई तृप्ति न होगी। वस्तुतः तुम्हें मिल भी जाए तो तुम उसे पहचान भी न पाओगे। उसे पहचानने को बड़ी गहन प्यास चाहिए।
इसलिए मैं तुमसे कहता हूं कि मुझे तुम कम पहचान पाओगे, पश्चिम के लोग ज्यादा। वहां बड़ी हताशा है। इसलिए तुम्हें कई दफे हैरानी होगी कि पश्चिम के लोग क्यों चले आते हैं! जब वे मेरे पास आते हैं तो उन्हें कोई द्वार दिखाई पड़ता है जो तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता। जब वे मेरे पास आते हैं तो उनके जीवन में कुछ नये का उदय होता है जो तुम्हारे जीवन में नहीं होता। तुम हताश ही नहीं हो। तुम उदास ही नहीं हो। और अगर तुम उदास भी हो तो उन चीजों के लिए हो जो चीजें पहली दो सीढ़ियों से संबंधित हैं।
अपने को सौभाग्यशाली मत समझ लेना; अपने को सौभाग्यशाली समझ लेना खतरनाक है। क्योंकि उसमें फिर अगर तुम लिप्त होकर बैठ गए तो तुम्हारी यात्रा अवरुद्ध हो जाएगी। और सांत्वना झूठी मत दे देना अपने को। और यह मत सोचना कि पश्चिम के लोग पूरब आ रहे हैं, तो हम पूरब के लोग बड़ी ऊंची अवस्था में हैं इसलिए आ रहे हैं। यह भी भ्रांति है तुम्हारी। कभी कोई एकाध आदमी उस अवस्था में होता है; कोई पूरा पूरब उस अवस्था में नहीं है। लेकिन हमारे मन में ऐसा होता है कि बुद्ध पूरब में पैदा हुए, महावीर पूरब में पैदा हुए और हम भी पूरब में पैदा हुए! तो जैसे कोई हमारी जाति बुद्ध और महावीर की है, जैसे हम उनके वंशज हैं।
बुद्ध का वंशज केवल वही हो सकता है जो बुद्धत्व को उपलब्ध हो। बुद्ध का वंशज भूगोल से तय नहीं होता, चेतना से तय होता है। तुम व्यर्थ अपनी प्रशंसा करके और व्यर्थ अपने अहंकार को आभूषणों से सजा कर तृप्त होकर मत बैठ जाना, क्योंकि वह तुम्हारी मौत हो सकती है। वे आभूषण जंजीरें सिद्ध होंगे, और वह झूठी सांत्वना कब्र बन जाएगी।
जागो! मुझे पता है कि तुम्हारी दो सीढ़ियां टूटी हुई हैं। इसलिए तुम्हें बहुत बुद्धिमत्ता की जरूरत है, बहुत होश की जरूरत है। और इसलिए मैं ऐसी विधियां तुम्हारे लिए दे रहा हूं जो छलांग लगाने की हैं और सीढ़ियां चढ़ने की नहीं हैं। क्योंकि सीढ़ियां टूटी हुई हैं, उनको बनाने अगर बैठा जाए तो वे कब बनेंगी, कुछ पता नहीं है। लेकिन जब सीढ़ी टूटी होती है तो आदमी दो सीढ़ियां इकट्ठी भी छलांग लगा कर चढ़ जाता है। तुम छलांग लगाओगे तो ही पहुंच पाओगे। पश्चिम को छलांग लगाने की जरूरत नहीं है, वह दूसरी सीढ़ी पर खड़ा है; तीसरी सीढ़ी मिल भर जाए, वह पैर रख देगा। लेकिन पूरब को तो छलांग लगानी पड़ेगी; दो सीढ़ियां चूक गई हैं। और चूकने का कारण है। उसको भी तुम समझ लो। उसका गणित है। अकारण कुछ भी नहीं होता।
जब भी कोई मुल्क समृद्ध होता है तब उस मुल्क को पता चलता है, समृद्धि बेकार है। जैसे ही मुल्क को पता चलता है समृद्धि बेकार है, वह आत्मा की खोज में लग जाता है, परमात्मा की खोज में लग जाता है, वह मोक्ष की यात्रा पर निकल जाता है। और जीवन की दो सीढ़ियों की तरफ नकार का भाव पैदा हो जाता है--बेकार है। उन दो सीढ़ियों की साज-सम्हाल बंद हो जाती है। उनकी कोई फिक्र नहीं लेता। उनकी निंदा शुरू हो जाती है। समाज धीरे-धीरे-धीरे-धीरे पदार्थ, शरीर के विरोध में हो जाता है। और जिसके तुम विरोध में हो वह सीढ़ी टूट जाती है। और जब सीढ़ी टूट जाती है तब ऐसी अड़चन आ जाती है जिसमें हम हैं।
जब कोई समाज गरीब होता है तब धन में मूल्य मालूम होता है, तब वह धन के पीछे पड़ जाता है। जब वह धन के पीछे पड़ जाता है तब धर्म की उपेक्षा हो जाती है। जब धन इकट्ठा कर लेता है तब उसे पता चलता है कि यह तो बेकार है। तब धन की आकांक्षा शुरू होती है।
ऐसा एक वर्तुल है। गरीब समाज धन में उत्सुक होता है; धन पाकर पाता है कि यह तो बेकार की मेहनत हुई, तब वह धर्म में उत्सुक होता है। जब धर्म में उत्सुक होता है तो धन की उपेक्षा हो जाती है। जब धन की उपेक्षा हो जाती है तो धीरे-धीरे समाज फिर गरीब हो जाता है। ऐसा चक्र की तरह सारी बात घूमती जाती है।
पूरब अमीर था, बहुत अमीर था। लोग कहते थे, सोने की चिड़िया है। वह था। उस सोने की चिड़िया के दिनों में उसने पाया कि सब सोना व्यर्थ है; सोने की चिड़िया होने में कोई सार नहीं। वह दूध और दही की नदियां सब व्यर्थ हैं। इस संसार में सब असार है। यह सब माया है, सपना है--ऐसा पाया। और यह पाना सच है। जब ऐसा पाया कि यह सब सपना है, तो सपने की कौन फिक्र करता है? कौन साज-सम्हाल रखता है? उपेक्षा हो गई। जब उपेक्षा हो गई तो पूरब धीरे-धीरे-धीरे-धीरे गरीब हो गया। अब जब गरीब हो गया तो सीढ़ियां टूट गईं; अब धर्म से कोई संबंध न रहा। अब उत्सुकता है--कैसे धन वापस मिले? कैसे शरीर वापस मिले? कैसे मन के सुख वापस मिलें?
अब पश्चिम अमीर है। पश्चिम गरीब था जब पूरब अमीर था। करीब-करीब ऐसा है कि जैसा सूरज जब पूरब में होता है तो पश्चिम में रात होती है; जब पश्चिम में सूरज होता है तो पूरब में रात हो जाती है। जो बाहर के सूरज के संबंध में सच है वही भीतर के सूरज के संबंध में भी सच है। जब पूरब में प्रकाश था तो पश्चिम अंधकार में था; गहन रात थी वहां। लोग भयंकर गरीबी में थे। धर्म की कोई बात ही न थी; कोई पूछने का सवाल ही न था।
फिर अब पश्चिम में सूरज उग रहा है। पूरब में गहन अंधेरी रात है। सारा पूरब धीरे-धीरे कम्युनिज्म की अमावस में दबा जा रहा है। कम्युनिज्म का अर्थ होता है: धन महत्वपूर्ण है, धर्म नहीं। कम्युनिज्म का अर्थ होता है: पदार्थ महत्वपूर्ण है, परमात्मा नहीं। कम्युनिज्म का अर्थ होता है: यही संसार सब कुछ है, और कोई संसार नहीं। कम्युनिज्म का अर्थ होता है: सपना ही सत्य है, और कोई सत्य नहीं। इसको सम्हाल लो, सब सम्हल जाएगा। पूरब कम्युनिस्ट होता जा रहा है। सब तरफ पूरब की पुरानी व्यवस्था टूटती जाती है। इसे बचाना मुश्किल है। पश्चिम धीरे-धीरे धार्मिक होता जा रहा है। पूरब का जवान कम्युनिस्ट होता है। और अगर पूरब में कोई जवान कम्युनिस्ट न हो तो लोगों को शक होता है कि यह आदमी जवान ही कैसा! समाजवादी, साम्यवादी, नाम कुछ भी हों, लेकिन पूरब का जवान आदमी कम्युनिस्ट होता है।
पश्चिम में जवान आदमी हिप्पी हो गया है। हिप्पी का अर्थ समझते हैं? हिप्पी का अर्थ है कि इस संसार में कुछ सार नहीं। कपड़े-लत्ते कैसे ही हुए, तो चल जाएगा। नहाए, न नहाए, तो चल जाएगा। पैसे पास हुए, न हुए, तो चल जाएगा। न बड़े मकान की जरूरत है, न बड़ी कार की जरूरत है। पैदल चल लिए, तो चल जाएगा; राह में चलते ट्रक वाले से प्रार्थना कर ली, उसने बिठा लिया, तो चल जाएगा। पश्चिम में अमीर से अमीर घरों के लड़के और लड़कियां हिप्पी हो गए हैं। हिप्पी पश्चिम का संस्करण है संन्यास का। वह पश्चिमी ढंग है संन्यासी होने का।
बुद्ध ने हजारों लोगों को संन्यासी कर दिया था। संन्यास का अर्थ ही था: इस जिंदगी की हम चिंता नहीं करते, उपेक्षा करते हैं। एक बार भोजन मिल गया तो ठीक है, न मिला तो भूखे सो जाएंगे।
पश्चिम का जवान आदमी तो समाज के बाहर हट रहा है; एक तरह के संन्यास का जन्म हो रहा है। और पूरब का जवान आदमी संसार में प्रवेश कर रहा है। सूरज पश्चिम में उग रहा है, पूरब में डूब रहा है। और यह स्वाभाविक है। लेकिन अगर समझ हो तो अंधेरी रात में भी तुम परिपूर्ण प्रकाशित हो सकते हो, और नासमझी हो तो सूरज उगा हो तो भी आंख बंद करके अंधेरे में बैठ सकते हो।
इसलिए इससे कुछ बहुत परेशान मत हो जाना। जिसको समझ है, वह भीतर का दीया जला लेता है और बाहर के सूरज की चिंता छोड़ देता है। और जो नासमझ है, वह सूरज भी उगा रहता है तो आंख बंद करके खड़ा रहता है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, आपने कहा कि हिंसा से अहिंसा नहीं आ सकती, लेकिन कृष्ण और मोहम्मद ने तो युद्ध के विराट हिंसा-कार्य में सक्रिय भाग लिया। वे युद्ध से किस ढंग की अहिंसावी शांति लाना चाहते थे?
हिंसा से शांति नहीं आ सकती, यह कृष्ण भी जानते हैं और मोहम्मद भी। और आई भी नहीं। महाभारत के बाद कौन सी शांति आई भारत में? युद्ध तो हुआ; शांति कौन सी आई? मुल्क अशांत रहा। हिंसा मिट नहीं गई; हिंसा जारी रही। मोहम्मद के युद्धों के बाद कौन सी शांति आ गई है मुसलमानों में? वस्तुतः वे और अशांत हो गए। मोहम्मद की तलवार उनके लिए बहाना बन गई तलवार चलाने का। मोहम्मद का युद्ध उनको हर युद्ध को करने के लिए तर्क बन गया। मुसलमान अशांत रहे हैं, युद्धखोर रहे हैं। कृष्ण भी हार गए, मोहम्मद भी हार गए; हिंसा से अहिंसा आ ही नहीं सकती।
लेकिन तब तुम पूछोगे, फिर कृष्ण को, मोहम्मद को क्या यह दिखाई नहीं पड़ा?
यह भलीभांति दिखाई पड़ा; लेकिन इसके अतिरिक्त कोई उपाय न था। यह मजबूरी थी। यह था कम से कम बुराई को चुनना। इसे तुम थोड़ा समझ लेना।
सवाल यह नहीं था कृष्ण के सामने कि युद्ध से अहिंसा आएगी कि नहीं; वह तो उन्हें भी साफ है कि युद्ध से कहीं अहिंसा आती है! हिंसा से कैसे अहिंसा का जन्म हो सकता है? और घृणा से कैसे प्रेम पैदा होगा? और शत्रु बनाने से कैसे कोई मित्र हो जाएगा? पागलपन है। मारने से कहीं कोई जीता है? आग लगाने से कहीं वृक्षों में फूल खिलेंगे? और कांटे बोने से क्या तुम सोचते हो कि फूलों की शय्या बन जाएगी? यह तो कृष्ण को भी पता है। कोई कृष्ण नासमझ नहीं हैं। कृष्ण से समझदार आदमी खोजना मुश्किल है। कृष्ण को भलीभांति पता है कि युद्ध से कोई शांति नहीं होगी; हिंसा से कोई अहिंसा नहीं आएगी।
लेकिन यह सवाल ही नहीं है कृष्ण के सामने; सवाल ही दूसरा था। सवाल था दो तरह की हिंसाओं के बीच चुनने का; अहिंसा और हिंसा के बीच चुनाव का सवाल ही नहीं था। युद्ध खड़ा था सामने। या तो कौरवों की हिंसा जीतेगी या पांडवों की हिंसा जीतेगी, चुनाव था दो हिंसाओं के बीच में। अगर कृष्ण के सामने अहिंसा और हिंसा का चुनाव होता तो स्वभावतः वे अहिंसा चुनते। लेकिन वह चुनाव न था। चुनाव था: ये दो तरह की हिंसाएं आमने-सामने खड़ी थीं युद्ध में; इसमें जो सबसे कम बुरा था, उसे चुनने के अतिरिक्त कोई मार्ग न था। पांडव कौरवों से कम बुरे थे, बस इतनी ही बात है। और अगर पांडव हारते हैं तो कौरव जीतेंगे, वह बहुत भयंकर हिंसा जीतेगी। अगर कौरव जीतते हैं तो हिंसा पूरी तरह जीतती है। अगर पांडव जीतते हैं तो हिंसा आधी तरह जीतती है।
यही तो पूरे गीता का राज है। वह राज यह है कि दुर्योधन ने तो नहीं पूछा कि मैं युद्ध करूं या न करूं; दुर्योधन के मन में तो सवाल भी न उठा। दुर्योधन के सामने सवाल तो वही था जो अर्जुन के सामने था। मित्र-परिजन खड़े थे, अपने ही सगे-संबंधी खड़े थे--उस तरफ भी, इस तरफ भी। परिवार का ही गृहयुद्ध था। सब बंट गए थे। इस तरफ भाई खड़ा था, दूसरा भाई उस तरफ खड़ा था। कृष्ण एक तरफ खड़े थे, उनकी युद्ध की सेना दूसरी तरफ खड़ी थी। अपनी ही सेना से लड़ रहे थे। गृहयुद्ध था। ठीक-ठीक गृहयुद्ध था। लेकिन दुर्योधन को सवाल भी न उठा। अर्जुन को सवाल उठा। इसलिए अर्जुन कम हिंसक है इसलिए सवाल उठा।
और अर्जुन ने पूछा कि इससे तो अच्छा है मैं छोड़ कर चला जाऊं। अपनों को ही मार कर क्या पा लूंगा? और अगर इन सबको मार कर राज्य मिल भी गया तो उस राज्य का भी क्या मूल्य है? इतने खून के बाद इस खून से सने राज्य को पाकर मेरा मन तो सदा पीड़ा ही पाता रहेगा। वह कोई सुख की अवस्था न होगी; वह तो एक दुखस्वप्न हो जाएगा। ये सब अपने ही हाथ से काटे गए लोगों के चेहरे मुझे याद आते रहेंगे। न मैं ठीक से भोजन कर सकूंगा, न रात सो सकूंगा। इससे तो बेहतर है मैं भाग जाऊं, युद्ध से पलायन कर जाऊं। सिर्फ जीतने की आकांक्षा से इतना बड़ा रक्तपात मुझसे नहीं होता। अर्जुन ने कहा कि मेरे गात शिथिल हुए जाते हैं; मेरा गांडीव मेरे हाथ से छूटा जाता है; मेरे हाथ कंप रहे हैं। इससे खबर दी अर्जुन ने कि यह आदमी कम हिंसक है।
दुर्योधन को तो कोई सवाल ही न उठा। वह असंदिग्ध रूप से हिंसक है। अर्जुन की हिंसा में कम से कम विचार है, बोध है, होश है। यह छोड़ने को राजी है। यह धन को, राज्य को त्याग देना चाहता है। इसके भीतर एक समझ है। इसीलिए तो कृष्ण ने इतनी मेहनत करके इसे राजी किया कि तू लड़!
अब सारा गणित इतना है कि कृष्ण को दिखाई पड़ा साफ-साफ कि अर्जुन का लड़ना, अर्जुन का जीतना, कम बुरे लोगों के हाथ में सत्ता जाएगी। तो जहां दो बुराइयों में चुनना हो वहां कम बुराई को ही चुनना उचित है।
इस संसार में भलाई और बुराई के बीच तो चुनाव बहुत मुश्किल से खड़ा होता है; यहां तो चुनाव हमेशा कम बुराई और ज्यादा बुराई के बीच खड़ा होता है। यह तो ऐसे ही है कि जैसे तुम डाक्टर के पास जाओ और डाक्टर तुमसे कहे कि यह पैर इतना खराब है कि इसे काट डालो; अगर न काटोगे तो दोनों पैर खराब हो जाएंगे। क्या करोगे? डाक्टर के पास जाते हो, वह कहता है, यह एक दांत सड़ गया है, इसे अलग कर दो; अगर इसे अलग न किया तो बाकी दांत भी सड़ जाएंगे। क्या करोगे? कोई दांत निकालना सुखद तो नहीं है। एक पैर काटना कोई सुखद तो नहीं है। और डाक्टर कोई पैर काटने का हिमायती तो नहीं है कि वह कहता है सब लोग एक पैर काट डालो। न; वह यह कह रहा है कि इस स्थिति में अगर पैर न काटा गया तो दूसरा पैर भी काटना पड़ेगा। तो विकल्प दो हैं, या तो दोनों पैर कटेंगे या एक कटेगा। तो बेहतर है एक काट डालो। अब कोई विकल्प और है नहीं। विकल्प अगर यह हो कि दोनों पैर बचते हों तो डाक्टर भी नहीं कहेगा कि एक पैर काट डालो; वह कहेगा, कोई सवाल ही नहीं है। अगर सब दांत बचते हों तो डाक्टर भी कहेगा कि इलाज कर लो, दांत बचा लो।
कृष्ण ने सब तरह की कोशिश कर ली थी कि युद्ध टल जाए। सब तरह की कोशिश पांडवों ने कर ली थी कि युद्ध टल जाए। लेकिन वह संभव नहीं था। दूसरी तरफ बड़ा युद्धखोर आदमी था। हिंसा उसकी आंखों में थी। वह बिलकुल विक्षिप्त था। ऐसी अवस्था में यही एक उपाय था कि या तो संसार को दुर्योधन के हाथों में छोड़ दिया जाए; ये पांचों पांडव संन्यासी हो जाएं, हिमालय चले जाएं--जिसकी उनकी तैयारी थी; वे छोड़ देना चाहते थे। और इसलिए एक बड़ी बेबूझ घटना घटती है कि कृष्ण को युद्ध के लिए उन्हें तैयार करना पड़ता है। क्योंकि कृष्ण को लगता है कि अगर युद्ध ही होना है तो भले आदमी जीतें, जिनका युद्ध पर भरोसा नहीं है। अगर युद्ध ही होना है तो वे लोग जीतें जो छोड़ने को तैयार थे। अगर युद्ध ही होना है तो अर्जुन जीते, दुर्योधन न जीते।
दो बुराइयों में कम बुराई को चुनने के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं है।
वही अवस्था मोहम्मद की भी थी। वे जिनसे भी लड़े हैं, उसका कारण कुल इतना था कि जिन लोगों के बीच वे थे, वे लड़ाई के अतिरिक्त दूसरी कोई भाषा ही नहीं समझते थे। कोई उपाय ही न था। जब तुम संसार में खड़े होते हो तो संसार में जो विकल्प होते हैं उन्हीं में से तो चुनोगे। मोहम्मद जिन खूंखार लोगों के बीच में थे, वे सिर्फ तलवार की भाषा समझते थे। और अगर मोहम्मद लड़ने को राजी नहीं हैं तो जितने लोग मोहम्मद के पास ध्यान में, प्रार्थना में, धर्म में उत्सुक हुए थे, वे सब काट डाले जाएंगे। तो उपाय एक ही था--या तो धार्मिक लोग कट जाएं, अधार्मिक लोग जीत जाएं। या फिर धार्मिक लोग लड़ें।
यद्यपि लड़ने से कोई शांति नहीं आती, न कहीं हिंसा से अहिंसा आती है। लेकिन अच्छे आदमी की हिंसा से थोड़ी अच्छी हिंसा आती है, बुरे आदमी की हिंसा से बुरी हिंसा आती है। और अगर बुरी हिंसा, अच्छी हिंसा में चुनना हो तो अच्छी हिंसा ही बेहतर है।
इसे खयाल में रखोगे तो दुविधा न पड़ेगी। कोई कृष्ण में और महावीर में भेद नहीं है; परिस्थिति में भेद है। और इसलिए कृष्ण और महावीर को मानने वाले व्यर्थ का विवाद करते रहे हैं। परिस्थिति दोनों की भिन्न है। महावीर कह रहे हैं कि मांस मत खाओ, क्योंकि मांस खाना या न खाना दो विकल्प हैं। महावीर कह रहे हैं, देख कर चलो, क्योंकि चींटी व्यर्थ दबा कर मर जाए पैर के नीचे; बचाई जा सकती है तो क्यों मारते हो?
महावीर ने जो परिस्थिति चुनी है मनुष्य के लिए वह साधक की है। वे संन्यासी से बात कर रहे हैं। अगर महावीर खड़े होते कृष्ण की जगह तो जो सलाह कृष्ण ने दी है, मैं कहता हूं कि वही सलाह महावीर ने दी होती। क्योंकि कोई और उपाय न था; वह परिस्थिति साफ थी। लेकिन महावीर वहां नहीं थे; महावीर की परिस्थिति और थी। महावीर किसी युद्ध के मैदान पर नहीं खड़े थे। महावीर संन्यस्त हैं, उन्होंने संसार छोड़ दिया है। वे जो सलाह दे रहे हैं वह संन्यासी को दे रहे हैं। वे उससे कह रहे हैं कि तू अहिंसा की तरफ बढ़ और हिंसा को छोड़, क्योंकि हिंसा से हिंसा ही पैदा होती है। लेकिन महावीर क्या करते कृष्ण की स्थिति में? या तो वे कह देते मैं सलाह नहीं देता, जो कि उचित न होता; और या वे वही सलाह देते जो कृष्ण ने दी है।
कई बार मैंने इस बात को सोचा है कि अगर परिस्थिति वही हो और ज्ञानी बदल दिया जाए तो क्या ज्ञानी दूसरी सलाह दे सकेगा? और मैंने बहुत सोच कर यही पाया है कि असंभव है! ज्ञानी वही सलाह देगा, क्योंकि कोई उपाय ही नहीं है। अगर महावीर होते अरब में और हिंदुस्तान में नहीं--क्योंकि हिंदुस्तान की हवा और, हिंदुस्तान की बात और। हजारों-हजारों साल की अहिंसा का शिक्षण है इस मुल्क के पास। ठीक वेदों से लेकर, और महावीर चौबीसवें तीर्थंकर हैं, उनके पहले तेईस महान विराट पुरुषों ने अहिंसा के फूल बिछाए हैं; एक धारा है; पीछे से आता एक महान प्रवाह है! उस प्रवाह के कारण पूरे मुल्क में अहिंसा की भाषा को समझने की क्षमता है। तो महावीर यह बात कह सके। मोहम्मद के पीछे कोई प्रवाह नहीं है। मोहम्मद पहले हैं; महावीर आखिरी हैं। एक बड़ी धारा के महावीर आखिरी पुरुष हैं। और मोहम्मद एक बड़ी धारा के पहले पुरुष हैं। बड़ा फर्क है। फिर अरब, जहां सिवाय जंगली, खूंखार लोगों के और कोई भी नहीं; जिनके पास न कोई संस्कृति है, न कोई सभ्यता है; जिनके पास कोई अतीत नहीं है; जिनकी अतीत में कोई जड़ें नहीं हैं; जिनके पीछे कोई इतिहास नहीं है; जो बिलकुल असंस्कृत हैं। इन आदमियों से अगर तुम अहिंसा की बात करते तो तुम ही मूढ़ सिद्ध होते। क्योंकि इनसे बात ही नहीं की जा सकती; अहिंसा का कोई अर्थ ही नहीं होता। हिंसा एकमात्र बात थी जिसे वे समझ सकते थे।
तो मोहम्मद ने उन्हें समझाने की चेष्टा स्वभावतः उन्हीं की भाषा में की, और कोई उपाय नहीं था। तो मोहम्मद ने भी तलवार उठाई। लेकिन तलवार पर मोहम्मद ने लिख रखा था: शांति मेरा संदेश है। यह तलवार की भाषा से शांति समझाने का उपाय है। कोई और रास्ता नहीं था। तो तलवार पर लिखना पड़ा है बेचारे मोहम्मद को अपना संदेश कि शांति मेरा संदेश है। इसलाम शब्द का अर्थ होता है शांति। शांति भी समझानी पड़ी तो तलवार से। क्योंकि जो समझने वाले थे उन पर सब निर्भर करता है।
आखिर जब मैं तुम्हें समझाता हूं तो तुम्हारी ही भाषा में बोलना पड़ेगा, और तो कोई उपाय नहीं है। या मैं अपनी भाषा बोलता रहूं, जिस भाषा को तुम समझते ही नहीं, तो मैं पागल हूं। महावीर अगर मोहम्मद की जगह होते, वही तलवार महावीर के हाथ में होती और वही संदेश होता कि शांति मेरा संदेश है। और मोहम्मद अगर भारत में पैदा होते महावीर के समय में, तो वे चौबीसवें तीर्थंकर हो जाते। कोई बचने का उपाय न था।
लेकिन परिस्थिति बदल जाती है रोज। और परिस्थिति तय करती है कि क्या कहा जाए, क्या न कहा जाए; कहां तक लोग बढ़ सकेंगे, कहां तक लोग जा सकेंगे; कितने दूर तक लोगों की चेतना को खींचा जा सकता है। कहीं ऐसा तो न होगा कि जो हम कहें, वह लोगों को असंभव मालूम पड़े, इसलिए वे उसकी बात ही छोड़ दें।
ऐसा समझो कि अगर मैं तुम्हें कोई बात बताऊं, वह इतनी दूर मालूम पड़े कि जैसे एवरेस्ट का शिखर हो, तो तुम बात ही छोड़ दो, तुम कहो कि यह अपने से होने वाला नहीं है; अपनी जिंदगी ठीक, और अपन ठीक। लेकिन मैं तुम्हें एक छोटी सी पहाड़ी बताऊं जिसको तुम चढ़ सकते हो, फिर तुम्हें और बड़ी पहाड़ी बताऊं; क्योंकि छोटी पहाड़ी पर चढ़ने के बाद तुम्हारा साहस बढ़ जाएगा, स्वयं में आस्था बढ़ जाएगी; फिर और बड़ी पहाड़ी बताऊं। एक दिन जब तुम्हें रस पकड़ जाए पहाड़ों को चढ़ने का, तब मुझे बताना भी न पड़ेगा, तुम खुद ही पूछने लगोगे कि अब आखिरी बता दें! बार-बार चढ़ने-उतरने का क्या सार; अब उसको ही चढ़ लें जिसके बाद चढ़ने को फिर कुछ बचता नहीं है।
तुम्हें देख कर बोलना पड़ता है: तुम्हारी समझ कहां तक खींची जा सकती है? कहीं ऐसा तो न होगा कि बात बिलकुल तुम्हारे सिर पर से निकल जाएगी।
और निश्चित ही अर्जुन भला आदमी था, अत्यंत भला था। अन्यथा कभी युद्ध के मैदान में किसी को इतना होश आता है कि सोचे? क्रोध से, ज्वर से भरा हुआ जब दुश्मन सामने खड़ा हो, तुम्हें भी खयाल आता है कभी? जब दूसरा तुम्हें गाली दे रहा हो और शंख बजा दिए हों युद्ध के, तब तुम्हें यह खयाल आता है कि मारूं, न मारूं? मारना उचित होगा कि न मारना? खयाल की बात कहां, तुम्हें होश ही नहीं रह जाता। युद्ध के क्षण में होश की बात करनी, युद्ध के क्षण में इस तरह बोलना जैसा संन्यासी को शोभा देता है; सैनिक की बात ही नहीं है अर्जुन में।
और यह, जिस गणित को मैं निरंतर तुम्हें समझाता हूं, उसे फिर तुम्हें समझाऊं: जब कोई सैनिक अपनी सैन्य शक्ति की पराकाष्ठा पर होता है तब संन्यास का जन्म हो जाता है। क्योंकि जान लिया सब; अर्जुन ने सब जान लिया खेल मारने का, मरने का। वह कोई छोटा-मोटा सैनिक नहीं है; उससे बड़ा कोई सैनिक नहीं हुआ। वह प्रतिमान है सैनिकों का। उसने सब जान लिया; सब तरह के खेल हिंसा के जान लिए। इस तरफ या उस तरफ उसका कोई भी मुकाबला नहीं है। वह बेजोड़ है। इस बेजोड़ सैनिक के मन में संन्यास का भाव आ रहा है। छोटे-मोटे सैनिक के मन में नहीं आता; अभी सेना की यात्रा बाकी है, अभी लड़ना बाकी है। यह लड़ चुका, जीत चुका, सब देख चुका; सबको व्यर्थ पाया, संन्यास का भाव उठ रहा है।
इसलिए तुम चकित होओगे, क्षत्रियों ने जितने संन्यासी पैदा किए हैं, और जितने गहन संन्यासी, उतने ब्राह्मणों ने पैदा नहीं किए। क्षत्रियों की बात ही और है। उन्होंने देख लिया सब राग-रंग हिंसा का, इसलिए अहिंसा की बात उनकी समझ में आती है।
इसलिए मैं गांधी और महावीर की स्थिति को बड़ा भिन्न मानता हूं। महावीर क्षत्रिय हैं; गांधी बनिया हैं। महावीर जिनको समझा रहे थे वे सब सैन्य-जीवन में निष्णात लोग थे; गांधी जिनको समझा रहे थे वे सब डरे हुए, डरपोक लोग थे, भयभीत लोग थे। अन्यथा एक हजार साल तक कोई कौम गुलाम रहती है? और एक छोटी सी कौम इतनी विराट कौम को तीन सौ साल तक, दो सौ साल तक गुलाम रख ले! उसके पहले आठ सौ साल तक इसलाम गुलाम रखे! एक हजार साल लंबे समय तक जो कौम गुलाम रही हो, वह कोई बहादुरों की कौम नहीं हो सकती। वे डरपोक हैं, कमजोर हैं, कायर हैं। गांधी कायरों से बोल रहे थे।
और इसलिए गांधी की अहिंसा सिर्फ एक तरकीब थी। मनुष्य बहुत तरकीबें खोजता है अपनी कायरता को छिपा लेने की। और गांधी की बात कायरों को जंच गई और काम भी कर गई। काम भी कर गई, लेकिन काम होते ही सब बिखर गया। क्योंकि जैसे ही कायर ताकत में आए, फिर वे भूल गए अहिंसा वगैरह। बिलकुल आसान था ब्रिटिश हुकूमत से लड़ना अहिंसा से, क्योंकि हिंसा से लड़ने की हमारी कोई सामर्थ्य ही न थी। लेकिन जैसे ही शक्ति में आई अहिंसकों की सेना, वैसे ही वे सब हिंसक हो गए, वैसे ही उठा ली बंदूक।
यह कायर की अहिंसा थी जो अपने को छिपा रहा था। अन्यथा असली रूप तो तब प्रकट होता जब सत्ता हाथ में आती। अगर ये असली अहिंसक थे तो जब तुम बिना सत्ता के अहिंसक रह सके तो सत्ता में तो तुम्हें बिलकुल अहिंसक हो जाना था। जब दुश्मन से तुम लड़ सके अहिंसा से तो अपने ही लोगों को समझाने में अहिंसा काम न आई? अपने ही लोगों की छाती में गोली दागने में तुम्हें रास्ता दिखाई पड़ता है?
साफ है मामला। तुम्हारे हाथ में गोली न थी, न हाथ तैयार थे, न हिम्मत थी गोली चलाने की अंग्रेज के खिलाफ। लेकिन अब ये गरीब हिंदुस्तानियों के खिलाफ तो तुम गोली मजे से चला सकते हो; कोई अड़चन नहीं है। हाथ में बंदूक भी है, ताकत भी है, चलाओ गोली।
तो जितनी गोली इन पच्चीस साल की आजादी में अहिंसावादियों ने चलाई है, गांधीवादियों ने चलाई है, उतनी अंग्रेजों ने अपने पूरे दो सौ साल में नहीं चलाई थी। सच बात तो यह है कि गांधी की अहिंसा जीत सकी, क्योंकि अंग्रेज कौम बड़ी विशिष्ट कौम है। अन्यथा जीत नहीं सकती थी।
थोड़ी देर को समझो कि अंग्रेजों की जगह जर्मन होते; गांधी-वांधी की कोई स्थिति नहीं थी। अंग्रेज बड़ी सुसंस्कृत कौम है। वह अहिंसा की भाषा को समझ सकी। जर्मन होते, मिट्टी में मिला देते। गांधी को कोई इतना सम्हाल कर रखने की जरूरत नहीं। तुम थोड़ा सोचो, अंग्रेज गांधी को न मार पाए और हिंदुओं ने खुद मार दिया! अंग्रेजों को क्या दिक्कत थी इस आदमी को मिटाने में? इतना आसान मामला था, इससे ज्यादा आसान कुछ भी नहीं था कि इस आदमी को मिटा दो, झंझट खतम करो।
लेकिन नहीं; अंग्रेज जाति के पास एक अंतःकरण है, एक समझ है; उदार है। यह आदमी अहिंसक था तो इसको मिटाया नहीं; इसको बचाया, सम्हाला; इसको सब तरह से सम्हाला; और धीरे से इसको राज्य भी सौंप दिया। फिर हमने ही मार डाला। वल्लभ भाई पटेल न बचा सके जो कि गांधी के सरदार थे, और अंग्रेज बचाए रहे। और ऐसी संभावना है पूरी कि गांधी के मारने में जाने-अनजाने गांधीवादियों का भी हाथ है। कहता हूं, जाने-अनजाने। अचेतन मन से वे भी चाहते थे कि अब यह बुड्ढा खतम हो, क्योंकि अब यह एक उपद्रव था। पहले तो यह नेता था, अब यह एक उपद्रव था। पहले तो यह कायरों को छिपाने का आवरण था। और अब? अब यह हर चीज में अड़ंगा डाल रहा था। क्योंकि यह अब भी अपनी अहिंसा का राग लगाए हुए था।
गांधी की अहिंसा वस्तुतः कायर आदमी की सांत्वना है। और गांधी ने पूरा अहिंसा का शास्त्र बड़ी कायरता से विकसित किया। अगर तुम गांधी का जीवन ठीक से समझने की कोशिश करो तो तुम पाओगे, यह आदमी अपनी जवानी में बहुत कायर आदमी था। इतना कायर कि कहना मुश्किल है। जब वे भारत से यूरोप की यात्रा पर जा रहे थे तो कसम मां ने दिला दी ब्रह्मचर्य की।
वह कसम भी कायरता में ही खाई होगी; क्योंकि मां कहती थी, जाने न देंगे, अगर ब्रह्मचर्य की कसम न खाई। तो कसम खा ली, क्योंकि जाना था। एक सज्जन से मित्रता हो गई जहाज पर। और जब कैरो में जहाज रुका तो वे सज्जन वेश्या के घर जा रहे थे, जैसा कि जहाज में यात्रा करने वाले लोग, हर जगह जहां जहाज रुकता है, स्त्रियों की तलाश करने निकलते हैं। और हर जहाजी नगर वेश्याओं का घर हो जाता है। वह आदमी एक वेश्या के यहां जा रहा था। उसने कहा कि आओ, चलो भी!
गांधी इतने कायर कि उससे यह न कह सके कि मुझे नहीं जाना है। तब तुम्हें समझ में आएगा कि ब्रह्मचर्य का व्रत भी कैसे लिया होगा। मां ने कहा लो, तो ले लिया। इस आदमी ने कहा चलो, तो अब उनको ऐसा लगा अगर मैं कहूं कि मुझे नहीं जाना है या ब्रह्मचर्य का व्रत ले लिया है तो यह आदमी समझेगा कि पता नहीं नपुंसक है, क्या है, क्यों डरता है। डर के मारे उसके साथ चले गए। हाथ-पैर कंप रहे हैं, क्योंकि व्रत लिया है। डर लग रहा है कि अब यह बड़ी मुसीबत हुई। और इसको भी न नहीं कह सकते और वह आदमी ऐसा है जिद्दी कि वह सुनेगा भी नहीं। वह ठीक वेश्या के घर ले गया। उसने जाकर वेश्या के कमरे में उनको प्रवेश भी करवा दिया।
वे उस वेश्या से भी न कह सके कि मैंने ब्रह्मचर्य का व्रत लिया है और मुझ पर कृपा करो, मुझे जाने दो, मैं बड़ी भूल में आ गया। वे आंख बंद करके बैठ गए वहां। हाथ कंप रहे हैं, पसीना बह रहा है; वह वेश्या बेचारी सेवा कर रही है कि यह मामला क्या हो गया! किसी तरह हिम्मत जुटा कर वहां से वापस लौटे।
उनका अगर पूरा जीवन पढ़ो तो तुम पाओगे कि सारे जीवन का सूत्र कायरता थी। वे भीरु आदमी थे और उनका धर्म भीरु का धर्म था। और उसी भीरुता में से उन्होंने धीरे-धीरे अहिंसा का शास्त्र निकाला। तो कायरता तो छिप गई और अहिंसा ऊपर आ गई।
मगर बहुत मुश्किल है, क्योंकि एक दफा जब हम एक आदमी को स्वीकार कर लेते हैं, पूजने लगते हैं, तो कभी उसके जीवन का ठीक-ठीक विश्लेषण नहीं करते, और कभी उसके जीवन की पर्तों में नहीं उतरते कि उसका जीवन कैसे निर्मित हुआ।
महावीर की बात और है। वह एक क्षत्रिय की अहिंसा थी। वह अहिंसा किसी कायरता से पैदा नहीं हो रही थी। वह अहिंसा बड़े अभय से आई थी। और कृष्ण भी क्षत्रिय हैं; वे भी समझ लेते महावीर की अहिंसा को। मोहम्मद भी क्षत्रिय हैं; वे भी समझ लेते महावीर की अहिंसा को। ये लड़ाके हैं, और अहिंसा तो आखिरी लड़ाई है। तब तुम प्रेम से लड़ते हो, मगर वह लड़ाई है। हिंसा में तुम घृणा से लड़ते हो, क्योंकि तुम्हें अपने प्रेम का भरोसा नहीं है। और हिंसा में तुम तलवार उठाते हो, क्योंकि तुम्हें अपने बल पर भरोसा नहीं है, तलवार का सहारा लेते हो।
अहिंसा आदमी की आखिरी ताकत है। तब वह तलवार छोड़ देता है, क्योंकि हाथ काफी हैं। तब वह शस्त्र छोड़ देता है, क्योंकि हृदय काफी है। तब वह हमला नहीं करता, क्योंकि प्रार्थना काफी है। तब वह तुम्हें अपने प्रेम से हरा देता है। वह तुम्हें हराना भी नहीं चाहता, क्योंकि वह भी व्यर्थ है। वह तुम्हारे ऊपर जीतना भी नहीं चाहता, क्योंकि वह भी हिंसा है। वह तुमसे हार जाता है, और तुम्हें हरा देता है।
वही लाओत्से का पूरा शास्त्र है कि तुम हारो। और तुम जिससे हार जाओगे उसे तुम हरा दोगे। इसलिए लाओत्से स्त्रैण शक्ति का बड़ा हामी और बड़ा तरफदार है। वह कहता है, स्त्री की ताकत क्या है? स्त्री की ताकत यह है कि वह जिसको प्रेम करती है उससे हार जाती है। और तुम्हें पता है कि वह हार कर तुम पर पूरा कब्जा कर लेती है। तुम्हें लगता है तुम जीत गए; जीतती वही है।
एक कमजोर से कमजोर स्त्री जो तुम्हारे प्रेम में तुमसे हार जाती है, और तुम्हारे कंधे का ऐसा ही सहारा लेती है जैसे कोई लता वृक्ष का सहारा लेकर चढ़ती है--बिलकुल कमजोर, अपने में खड़ी भी न हो सकेगी लता, वृक्ष का सहारा चाहिए। एक स्त्री बिलकुल हार जाती है; लता की तरह तुम्हारे चारों तरफ लिपट जाती है--बिलकुल हारी हुई। लेकिन अंततः तुम पाओगे कि वह जीत गई, तुम हार गए। वह बिना कहे, जो करवाना चाहती है, करवा लेती है। वह बिना इशारे के तुम्हें चलाती है। वह तुम्हारे पीछे होती है, लेकिन वस्तुतः तुम्हारे आगे होती है। उसकी तरकीब आगे होने की यही है कि वह तुम्हारे पीछे हो जाती है। वह तुम्हें प्रेम में दबा लेती है। वह तुम्हें सेवा से भर देती है। वह तुम्हारे आस-पास इतनी कोमल हवा को पैदा कर देती है कि तुम उस हवा को तोड़ना भी न चाहोगे।
जब भी कोई स्त्री प्रेम में होती है तब जो घटना घटती है वही अहिंसक के पास भी घटती है। हिंसा पुरुष के मन का लक्षण है। अहिंसा स्त्री के हृदय का भाव है।
अहिंसा से ही अहिंसा आती है; हिंसा से कभी अहिंसा नहीं आती। लेकिन ऐसी स्थितियां हो सकती हैं जब हिंसा-अहिंसा के बीच चुनाव ही नहीं होता; चुनाव अच्छी हिंसा और बुरी हिंसा के बीच
होता है। और कभी-कभी ऐसी स्थिति भी आती है कि चुनाव अच्छी अहिंसा और बुरी अहिंसा के बीच होता है। और यही मैं फर्क करता हूं महावीर और गांधी की अहिंसा में। महावीर की अहिंसा, बात और। उसके भीतर अभय है; वह अच्छी अहिंसा है। गांधी की अहिंसा, बात और। उसके भीतर भय है और कायरता है। वह बुरी अहिंसा है।
तो चार चीजें हैं संसार में। हिंसा और अहिंसा दो चीजें ही होतीं तो आसान हो जाता मामला; जटिल है मामला। यहां अच्छी अहिंसा भी है, रुग्ण अहिंसा भी है। यहां स्वस्थ हिंसा है और रुग्ण हिंसा भी है। और इन चारों के बीच केवल वही चुनाव कर सकता है जिसकी अंतःप्रज्ञा बहुत थिर हो गई हो। जब तुम चीजों के आर-पार देखने में समर्थ हो जाओगे तुम्हारे ध्यान से, तभी तुम्हें साफ हो पाएगा। क्योंकि बुरी अहिंसा भी अहिंसा मालूम पड़ती है और अच्छी हिंसा भी हिंसा मालूम पड़ती है। इसलिए तुम्हें या तो मोहम्मद और कृष्ण हिंसक मालूम पड़ेंगे, अगर तुम अच्छी हिंसा को देखने में समर्थ नहीं हो। और या तुम्हें गांधी अहिंसक मालूम पड़ेंगे, अगर तुम बुरी अहिंसा को पहचानने में समर्थ नहीं हो।
तुम्हारी प्रज्ञा इतनी गहन जब हो जाएगी, जब विचार शांत हो जाएंगे और तुम्हारा मन का दर्पण उजला होगा, धूल हट गई होगी, तभी तुम देख पाओगे। और तब तुम हर जगह यह बात पाओगे कि यहां अच्छा चरित्र भी है और बुरा चरित्र भी है; यहां अच्छे अपराधी हैं, बुरे अपराधी भी हैं; यहां संत भी अच्छे हैं और बुरे संत भी हैं। क्योंकि तुम्हें यह लगेगा कि यह तो बड़ी मैं अटपटी बात कह रहा हूं, क्योंकि संत यानी अच्छा। लेकिन संतत्व भी अगर भय पर खड़ा हो तो बुरा और असंतत्व भी अगर अभय पर खड़ा हो तो अच्छा।
जीवन थोड़ा जटिल है; उतना सरल नहीं जितना तुम गणित को सरल पाते हो। और जीवन की जटिलता को पहचानने की क्षमता जब तक विकसित न हो, तब तक बहुत सी बातें जो मैं तुमसे कहता हूं, तुम समझ न पाओगे। और डर यह है कि तुम कहीं उलटा न समझ लो। इसलिए बहुत होश से मेरे साथ चलना, क्योंकि बहुत बार मैं बहुत खतरनाक रास्ते पर चलता हूं। चलना जरूरी है, क्योंकि ऐसे ही चल-चल कर तुम्हारा अभ्यास भी होगा और खतरनाक रास्ते भी सुगम और सरल हो जाएंगे।
आखिरी सवाल:
एक मित्र ने पूछा है कि भगवान, अठारह वर्ष की उम्र से, कैसे प्रबुद्ध हो जाएं, इसकी ही उत्कंठा रही है। प्रबुद्धता तो नहीं मिली, एक सतत सिरदर्द पैदा हो गया है; एक तनाव, एक बेचैनी। और वह बेचैनी धीरे-धीरे चौबीस घंटे का सिरदर्द बन गई है। तो अब क्या करें?
बन ही जाएगी। क्योंकि प्रबुद्धता को पाने की आकांक्षा प्रबुद्धता के पाने में बाधा है। तुम उसे इस तरह न पा सकोगे, चाह कर न पा सकोगे। क्योंकि चाह तो तनाव पैदा करेगी; तनाव सिरदर्द बन जाएगा। और इस संसार की चीजों को पाना हो तो शायद तुम कोशिश करके पा भी लो; उस संसार की चीजें तो तुम्हारी मौन दशा में ही अवतरित होती हैं। उनको पाने का ढंग ही यही है कि तुम्हारे भीतर पाने वाला भी खो जाए। अन्यथा सिरदर्द पैदा हो जाएगा।
अब क्या किया जाए?
प्रबुद्धता को पाने का खयाल छोड़ दो। इस क्षण आनंदित और शांत होने की फिक्र लो। कल की बात ही मत पूछो और कल की बात ही मत सोचो। यह क्षण आनंद में बीत जाए, काफी। क्योंकि दूसरा क्षण इसी क्षण से तो पैदा होगा। अगर यह क्षण आनंद में बीत गया तो दूसरा क्षण भी अपने आप और गहरे आनंद में बीतेगा। आएगा कहां से दूसरा क्षण? दूसरा क्षण भी तुमसे ही पैदा होता है। तुम अगर प्रसन्न हो अभी तो कल भी प्रसन्न होओगे। तुम कल की बात ही मत पूछो। आज जीओ! और जो व्यक्ति भी आज जीता है, उसके सिरदर्द खो जाते हैं।
फिर भी, हो सकता है, लंबे अभ्यास से सिरदर्द न केवल मानसिक रहा हो, शारीरिक हो गया हो; न केवल मन में रहा हो, बल्कि मस्तिष्क के स्नायुओं में प्रवेश कर गया हो। तो फिर एक काम करो; सिरदर्द को हटाने की कोशिश मत करो, लाने की कोशिश करो।
यह तुम्हें बहुत कठिन मालूम पड़ेगा, लेकिन यह बड़ा अदभुत उपाय है। और न केवल सिरदर्द में, बहुत सी बातों में कारगर है।
सिरदर्द को तुम जितना हटाने की कोशिश करते हो, तुम उतने ही तनाव से भर जाते हो। और सिरदर्द पैदा हो जाता है। पहला सिरदर्द तो रहता ही है; दूसरा सिरदर्द कि सिरदर्द को कैसे हटाएं। सिरदर्द है, उसे स्वीकार कर लो। स्वीकार करते ही, तुम्हारे स्नायु शिथिल हो जाएंगे। स्वीकार करते ही आधा सिरदर्द तो गया। न केवल स्वीकार कर लो, बल्कि अहोभाव से परमात्मा के प्रति अनुगृहीत भी हो जाओ--कि तूने सिरदर्द दिया, जरूर कोई कारण होगा, जरूर कोई राज होगा, हम स्वीकार करते हैं। हमें कुछ पता भी नहीं कि इस सिरदर्द से कल क्या फायदा होने वाला है। कुछ पता नहीं। हम स्वीकार करते हैं।
तुम सिरदर्द को लाने की कोशिश करो कि आ जाए। जब सिरदर्द हो, तब तुम पूरी कोशिश करो कि वह अपनी पूरी त्वरा को उपलब्ध हो जाए, तीव्रता को उपलब्ध हो जाए। और तुम चकित हो जाओगे कि कुछ ही दिनों में जितना तुम लाने की कोशिश करते हो उतना ही वह आना मुश्किल हो गया। और जितना तुम उसे त्वरा देने की कोशिश करते हो वह उतना ही कम हो गया। और जितना तुम स्वीकार करते हो वह उतना ही समाप्त हो गया।
यही लाओत्से की विधि है। जीवन के दुख को स्वीकार कर लो और दुख चला जाता है। जो भी हो रहा है, उसे स्वीकार कर लो; संघर्ष मत करो। संघर्ष के हटते ही सभी चीजें सरल और शुभ और शांत और आनंदपूर्ण हो जाती हैं।
एक युवक यहां पूना में है। वह एक कालेज में प्रोफेसर है। उसने कोई पांच साल पहले मुझे आकर कहा कि एक बड़ी मुसीबत है उसकी। और मुसीबत यह है कि वह भूल जाता है और बार-बार इस तरह चलने लगता है जिस तरह स्त्रियां चलती हैं। तो कालेज में तो मुसीबत हो ही जाएगी। कहीं भी होओ तो मुसीबत होगी, लोग हंसेंगे; फिर कालेज तो सबसे ज्यादा खतरनाक जगह हो गई। वहां हजार, पांच सौ विद्यार्थी, और कोई प्रोफेसर स्त्रियों जैसा चले, तो वह तो मजाक का, हंसी का आधार बन गया। और वह जितना इससे बचने की कोशिश करता है--क्योंकि वह सम्हल कर जाता है, एक-एक कदम सम्हल कर उठाता है--लेकिन जितना ही वह बचने की कोशिश करता है उतनी ही मुश्किल में पड़ जाता है।
तो मैंने उस युवक को कहा, तू एक काम कर, तू स्त्रियों जैसा चलने का अभ्यास कर। हंसी तो हो ही रही है, मजाक तो हो ही रही है, बदनामी तो हो ही रही है; अब इससे ज्यादा कुछ और होगा नहीं। अब जब हो ही रहा है स्त्री जैसा चलना, तो कुशलता से चलो।
उसने कहा, क्या आप कहते हैं! मैं मरा जा रहा हूं इसको हटा-हटा कर और आप कहते हैं कि अभ्यास करूं?
मैंने कहा, तू हटा-हटा कर हटा नहीं पाया, हमारी भी बात सुन ले। तू कल अब कालेज जा और घर से ही स्त्री जैसा चलने की कोशिश करता हुआ जा।
डरा बहुत, पर उसने हिम्मत की। और तीन महीने तक निरंतर, जब भी वह कालेज जाए, तो होशपूर्वक स्त्री जैसा चलने की कोशिश करे। लेकिन तीन महीने में एक बार भी सफल न हो पाया, स्त्री जैसा न चल पाया।
मन का एक यंत्र है; कुछ चीजें हैं जो अचेतन हैं। अगर तुम उन्हें चेतन बना लोगे, विलीन हो जाएंगी। कुछ चीजें इसीलिए जीती हैं, क्योंकि तुम उनसे लड़ते हो। अगर तुम स्वीकार कर लो, वे समाप्त हो जाएंगी।
यही मैं सिरदर्द के संबंध में कहता हूं। और यही तुम्हारे जीवन की बहुत सी चीजों के संबंध में तुम प्रयोग करके देखना। अलग-अलग होंगे उपद्रव तुम्हारे जीवन में, लेकिन स्वीकार करना, अहोभाव से स्वीकार करना, और फिर देखना, तुमने उनका प्राण ही छीन लिया! तुमने उनकी जड़ काट दी! तुमने मूल स्रोत पर चोट कर दी!
आज इतना ही।
भगवान, आपने कहा कि विकास की तीन क्रमिक सीढ़ियां हैं--शरीर, मन, आत्मा। पश्चिमी सभ्यता ने शरीर और मन के तल पर काफी विकास किया है। लेकिन परिणाम में विषाद, अर्थहीनता और निराशा हाथ आई है। कृपया समझाएं कि सहज परिणाम की तरह पश्चिम की मनीषा ने तीसरे चरण की ओर विकास क्यों नहीं किया है?
पहली बात, प्रकृति का सारा विकास अचेतन है। प्रकृति अस्तित्व को मनुष्य तक ले आई है चुपचाप, बिना किसी साधना के। लेकिन मनुष्य का विकास अब अचेतन नहीं होगा। मनुष्य उस जगह खड़ा है जहां से चेतन विकास की प्रक्रिया शुरू होती है। अब तो जो साधना करेगा, जो श्रम करेगा, वही ऊपर उठेगा।
मनुष्य अचेतन विकास और चेतन विकास के बीच की कड़ी है। प्रकृति तो अचेतन है; वह तुम्हें मनुष्य होने तक ले आई। तुमने खुद क्या किया है मनुष्य होने तक? तुम्हारा अर्जन नहीं है मनुष्यता की उपलब्धि। करोड़ों-करोड़ों वर्षों में प्रकृति की बड़ी धीमी गति से, ट्रायल और इरर--करना, भूलना, सुधारना--ऐसे प्रकृति तुम्हें इस किनारे तक ले आई है जिसका नाम मनुष्यता है। लेकिन इससे आगे प्रकृति तुम्हें न ले जा सकेगी। उसने तुम्हें मनुष्यता के तट पर छोड़ दिया; अब आगे तो तुम्हें सचेतन रूप से विकास करना होगा। अन्यथा तुम मनुष्य होकर ही बार-बार मरते रहोगे। इसी को हिंदुओं ने आवागमन की पुनरुक्ति का सिद्धांत कहा है। तुम बुद्धत्व को उपलब्ध न हो जाओगे जैसे तुम मनुष्यत्व को उपलब्ध हुए हो। बुद्धत्व के लिए तो तुम्हें सचेत रूप से चेष्टा करनी होगी।
तो मनुष्य के बाद की जो सीढ़ियां हैं वे ये तीन सीढ़ियां हैं।
पहली बात है, शरीर के तल पर तुम्हें स्वस्थ होना पड़ेगा; शरीर के तल पर तुम्हें आजीविका अर्जित करनी होगी। प्रकृति पशु-पक्षियों को आजीविका के लिए मजबूर नहीं करती; आजीविका उपलब्ध है। पौधों को पानी चाहिए, पानी उपलब्ध है; भोजन चाहिए, भोजन उपलब्ध है। लेकिन मनुष्य को तो शरीर के तल पर भी श्रम करना होगा तो ही शरीर बचेगा; अन्यथा शरीर भी खो जाएगा। और यह सौभाग्य है; यह दुर्भाग्य नहीं है। क्योंकि जो मुफ्त मिलता है वह मिलता ही कहां? जो चेष्टा से मिलता है वही तुम्हारी संपदा है। जिसे तुम श्रम से अर्जित करते हो केवल वही तुम्हारा है। शेष सब मिला था मुफ्त; मुफ्त ही छीन लिया जाएगा। जिसे तुमने मेहनत से पाया है, जिसके लिए तुम्हारे प्राणों को कष्ट झेलना पड़ा है, जिसके लिए तुमने कुछ ऊर्जा व्यय की है, वह तुमसे न छीना जा सकेगा।
शरीर के तल से ही यात्रा शुरू हो जाती है सचेतन। तुम्हें शरीर को सम्हालने के लिए व्यवस्था करनी पड़ेगी, अन्यथा तुम जी भी न सकोगे। जब शरीर परिपूर्ण स्वस्थ होगा, भरा-पूरा होगा, तब जरूरी नहीं है कि मन की आवश्यकताएं पैदा हो जाएं। यह भी हो सकता है कि तुम शरीर के ही जीवन में परिभ्रमण करने लगो। तब बड़ी उदासी आएगी। क्योंकि शरीर की दौड़ पूरी हो गई और आगे कोई यात्रा का द्वार न खुला। उदासी का एक ही अर्थ है, वह तभी आती है जब एक पड़ाव आ जाता है और आगे का रास्ता नहीं सूझता। उदास सभी नहीं होते, केवल सौभाग्यशाली होते हैं। दुखी होना एक बात है, दुखी तो सभी होते हैं; उदास सिर्फ सौभाग्यशाली होते हैं।
उदासी बड़ा गुण है। उदासी का अर्थ यह है कि यहां तक यात्रा थी, पा लिया; अब? वह जो अब है, जब वह सामने खड़ा हो जाता है और कोई द्वार नहीं दिखता, कोई मार्ग नहीं दिखता, तब उदासी घेरती है। उदासी का अर्थ है, अब वही-वही दोहरा-दोहरा कर करना पड़ रहा है जो कर चुके। अब उस करने में न तो कोई रस मालूम पड़ता है, न उस करने से कोई आनंद की झलक मिलती है। वह रस उबाने वाला हो गया अब। संभोग कर लिया, भोजन कर लिया, विश्राम कर लिया, भवन बना लिए, सब व्यवस्था कर ली सुविधा की। अब? शरीर का काम पूरा हो गया; अब तुम्हारी प्राण-ऊर्जा नयी यात्रा पर जाना चाहती है और द्वार नहीं मिलता। इसका नाम उदासी है।
अगर तुम इस उदासी को तोड़ने के लिए सतत रूप से जागरूक न हुए, और तुमने कोई प्रयास न किया, तो द्वार अपने आप न खुलेगा। मनुष्य के जीवन में अपने आप अब कुछ भी न होगा; अर्जित करना होगा। मनुष्य की यही गरिमा है कि वह भिखारी नहीं है, वह दान नहीं मांगता; वह केवल अपने श्रम का पुरस्कार चाहता है। उससे ज्यादा का मांगना कोई सार्थक भी नहीं है। और मिल भी जाए तो मिलेगा नहीं; मिल भी जाए तो बोझ होगा, क्योंकि तुम्हारी तैयारी न होगी उसे भोगने की।
अगर तुमने श्रम किया तो तुम मन की यात्रा पर निकलोगे। काव्य है, संगीत है, सौंदर्य है; ये बारीक स्वाद हैं। भोजन है, संभोग है; ये बहुत स्थूल स्वाद हैं। इसका अर्थ है कि तुम्हारी चेतना बहुत परिष्कृत नहीं है। जो आदमी संगीत में रस ले पाता है; जो आदमी काव्य की गहनताओं में उतर पाता है; जो सुबह उगते सूरज के सौंदर्य में वैसा ही रस पाता है जैसा कि संभोग में भी नहीं पाया; उससे भी बड़े रस का अनुभव करता है रात आकाश के तारों में, नदी की कलकल में, गिरते झरने के संगीत में; भोजन से भी जो स्वाद नहीं पाया उससे भी गहन स्वाद अनुभव करता है; इस आदमी की मन की यात्रा शुरू हो गई।
लेकिन मन की यात्रा भी जल्दी ही पड़ाव पर पहुंच जाएगी। फिर उदासी पकड़ लेगी। और पहली उदासी से दूसरी उदासी ज्यादा सघन होगी। क्योंकि शरीर से मन की यात्रा पर जाना बहुत कठिन नहीं है। शरीर और मन बड़े करीब हैं; इतने करीब हैं कि जरा सी समझ हो कि तुम शरीर से और मन की यात्रा पर निकल जाओगे। वे पड़ोसी हैं। दोनों के मकान में बहुत अंतर नहीं है, जरा सा अंतर है। वस्तुतः अंतर नहीं है; जैसे यह कमरा है और पास का कमरा है, बीच में द्वार है। शरीर से तुम मन में जा सकते हो, क्योंकि शरीर की भाषा और मन की भाषा में स्थूल और सूक्ष्म का भेद है, लेकिन कोई मौलिक भेद नहीं है। संगीत में भी वही अनुभव होता है जो संभोग में--बड़े सूक्ष्म तल पर। सौंदर्य में भी वही स्वाद आता है जो भोजन में--बहुत सूक्ष्म तल पर। लेकिन भाषा एक ही है।
जो जानते हैं, वे कहते हैं, शरीर और मन दो नहीं है; एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ऐसा समझो कि शरीर है मन का प्रकट रूप और मन है शरीर का अप्रकट रूप। ऐसा समझो कि तुमने बर्फ के एक टुकड़े को पानी में तैरा दिया है। तो नौ हिस्सा पानी में छिप जाता है बर्फ का टुकड़ा और एक हिस्सा ऊपर दिखाई पड़ता रहता है। जो ऊपर दिखाई पड़ता है वह तुम्हारा शरीर है, जो भीतर डूबा हुआ है वह तुम्हारा मन है। इसलिए मन और शरीर दो हैं, ऐसा कहना उचित नहीं। एक ही हैं, एक ही चीज के दो छोर हैं। मन थोड़े गहरे में है, शरीर थोड़े ऊपर है।
इसलिए शरीर से मन में जाने में बहुत कठिनाई नहीं है। वहां भी उदासी पकड़ती है। लेकिन वह उदासी बहुत बड़ी नहीं है; थोड़े ही श्रम से टूट जाएगी। लेकिन जब शरीर और आत्मा के बीच तुम खड़े हो जाओगे तब महा उदासी तुम्हें पकड़ लेगी। वह उदासी केवल बुद्धों को पकड़ती है। उसे तुम दुख मत मान लेना, अभिशाप मत समझ लेना। वह तो वरदान है। क्योंकि उसी हताशा से तो तुम जाग सकोगे, खोद सकोगे। उसी प्यास में तो तुम तड़पोगे और आखिरी सरोवर के किनारे आ सकोगे। प्यास ही न हो तो कोई सरोवर तक कैसे जाएगा?
इसलिए प्यास को तुम दुर्भाग्य मत समझो। हां, प्यास अगर धीमी-धीमी लगी हो कि टाली जा सके तो दुर्भाग्य समझना। प्यास ऐसी अदम्य रूप से पकड़ ले कि रोआं-रोआं जले, एक क्षण चैन न मिले, सागर जब तक न पहुंच जाओगे तब तक विश्राम न कर सकोगे, ऐसे आविष्ट हो जाओ; प्यास न रहे, बल्कि तुम ही प्यास हो जाओ, रोआं-रोआं पुकारे; तभी तुम पार कर पाओगे वह दूरी जो मन और आत्मा के बीच है। वह दूरी बहुत बड़ी है।
शरीर और मन के बीच दूरी है ही नहीं; है तो अत्यल्प है। मन और आत्मा के बीच दूरी अत्यंत है; अत्यंत भी कहना ठीक नहीं, अनंत है। क्योंकि मन क्षणभंगुर, आत्मा शाश्वत; मन पानी का बुलबुला, अभी है, अभी फूट जाए; आत्मा, न जिसका कोई आदि, न कोई अंत, जो सदा है। भाषा ही और। दोनों के बीच कोई भी तालमेल नहीं, कोई भी सेतु नहीं। बहुत थोड़े लोग ही पार कर पाते हैं।
थाईलैंड में एक मंदिर है। और उस मंदिर में एक बड़ी प्राचीन कथा है, और बड़ी मधुर है। उस मंदिर में एक विजय-स्तंभ है जिसमें सौ सीढ़ियां हैं, टावर है। उन सीढ़ियों पर चढ़ कर ऊपर जाकर चारों तरफ बड़ा सुंदर दृश्य है। कथा यह है कि उस विजय-स्तंभ की पहली सीढ़ी पर एक अदृश्य पशु का वास है; पहली सीढ़ी पर एक अदृश्य पशु का वास है। वह पशु सांप जैसा है, लेकिन दिखाई नहीं पड़ता, अदृश्य है। और जब भी कोई व्यक्ति चढ़ता है सीढ़ियां तो जितनी व्यक्ति की चेतना की ऊंचाई होती है--समझो दस सीढ़ियों तक--तो वह सांप दस सीढ़ियों तक उसके साथ जाता है। वहीं तक जा सकता है जहां तक व्यक्ति की चेतना की ऊंचाई है। बीस सीढ़ियों तक, तो बीस सीढ़ियों तक जाता है। उस सांप को अभिशाप है कि जब तक वह तीन बार आखिरी सीढ़ी तक नहीं पहुंच जाएगा तब तक मुक्त न हो सकेगा। और अब तक अनंत-अनंत काल में केवल एक बार वह आखिरी सीढ़ी तक पहुंच पाया है।
हजारों यात्री आते हैं रोज। मंदिर बड़ा तीर्थ का स्थान है। हजारों यात्री चढ़ते हैं उन सीढ़ियों पर। कभी एक सीढ़ी, कभी दो सीढ़ी, कभी तीन सीढ़ी; आधे तक भी कभी-कभी पहुंच पाया है। आखिरी सीढ़ी पर, कहते हैं, केवल एक बार जब कोई बुद्ध पुरुष आया होगा। वह प्रतीक्षा उसे करनी है। और अब वह थक गया है, हताश हो गया है। क्योंकि अनंत काल में केवल एक बार बुद्धत्व के साथ आखिरी सीढ़ी तक पहुंचा है। और तीन बार पहुंचना है। अब तो उसने आशा भी खो दी होगी। तीन बुद्धों को पाना मुश्किल है अनंत काल में!
निश्चित ही, मन और आत्मा के बीच फासला बहुत बड़ा होगा। कितने करोड़-करोड़ लोग पैदा होते हैं, लेकिन कभी कोई एक उस परम दशा को उपलब्ध होता है, जिसको उपलब्ध किए बिना कोई भी चैन से न रह सकेगा; जिसको उपलब्ध करना प्रत्येक की नियति है; जिसको तुम कितना ही टालो, तुम टाल न पाओगे; जिसे तुम्हें पाना ही होगा; जिससे बचने की कोई सुविधा नहीं है। फासला बहुत है। और बड़े श्रम की जरूरत है; अभीप्सा की जरूरत है, आकांक्षा की नहीं। अभीप्सा का अर्थ होता है, तुम सब दांव पर लगा दो; तुम कुछ भी न बचाओ। तो ही शायद कदम उठ पाए, और तुम वह छलांग ले सको जो तुम्हें मन से आत्मा में उतार दे।
स्वभावतः, पश्चिम में बड़ी निराशा है, अर्थहीनता है, विषाद है। लेकिन इससे पूरब के लोग समझते हैं कि हम बड़े सौभाग्यशाली! इस भूल में मत पड़ना। इस भूल में कभी भी मत पड़ना, क्योंकि पूरब में धर्मगुरु, साधु-संन्यासी लोगों को यही समझाते हैं कि तुम सौभाग्यशाली हो; पश्चिम में देखो कितना विषाद है!
तुम अभागे हो। तुम्हारी शरीर की जरूरतें पूरी नहीं हुईं। इसलिए तुम में से बहुतों को तो पहला विषाद भी नहीं पकड़ा है जो कि शरीर से मन में जाने में पकड़ता है। तुम्हारी मन की जरूरतें भी पूरी नहीं हुईं। इसलिए तुम्हें दूसरा विषाद भी नहीं पकड़ा है। तुम यह मत सोचना कि तुम बड़े सौभाग्यशाली हो।
अगर तुम सौभाग्यशाली हो तो पशुओं के संबंध में क्या कहोगे? वे तो बहुत सौभाग्यशाली हैं, तुमसे भी ज्यादा। और अगर पशुओं के भी गुरु होंगे, शंकराचार्य होंगे, तो वे उनको समझा रहे होंगे कि तुम आदमियों से बेहतर अवस्था में हो कि देखो, कितने परेशान, चिंता से मरे जाते हैं, शांति नहीं; तुम कम से कम शांत तो हो।
फिर पौधों की क्या कहो? पौधों के शंकराचार्य उनको समझा रहे होंगे कि तुम तो पशुओं से भी बेहतर हो। इनको तो फिर भी थोड़ा रोटी-रोजी के लिए यहां-वहां जाना पड़ता है, थोड़ा श्रम करना पड़ता है; कभी मिलती भी है, कभी नहीं भी मिलती; तुम तो अपनी जड़ जमाए खड़े हो। वर्षा में वर्षा हो जाती है; जमीन से भोजन मिल जाता है; तुम्हारा तो कहना ही क्या!
फिर पत्थर हैं, चट्टानें हैं, पहाड़ हैं। उनके शंकराचार्य उनको समझा रहे होंगे कि तुम्हारा सौभाग्य तो अनंत है। कभी-कभी वर्षा नहीं भी होती तो पौधे तक बेचैन हो जाते हैं। कभी-कभी जमीन अपना सत्व खो देती है तो पौधों को भोजन नहीं मिलता। लेकिन चट्टान! तू तो अहोभागी है! तुझे फिक्र ही नहीं; वर्षा हो तो ठीक, वर्षा न हो तो ठीक; जमीन में सत्व बचे तो ठीक, जमीन का सत्व खो जाए तो ठीक। तू तो परम समाधि में लीन है।
स्मरण रखना, मूर्च्छा समाधि नहीं है। और जो होश से भरता है वही विषाद से भरता है। मूर्च्छित आदमी में कोई विषाद होता है? इसलिए तुम पाओगे, मनुष्य-जाति में जो सबसे छिछले लोग हैं, उनको तुम ज्यादा प्रसन्न पाओगे--सड़कों पर घूमते, होटलों में बैठे, क्लबघरों में, रोटरी, लायंस--जो सबसे छिछले लोग हैं, तुम उन्हें वहां बड़ा प्रसन्न पाओगे। जो आदमी जितना ज्यादा विचार में पड़ेगा, जितनी जिसकी चेतना में सघनता आएगी, उतनी ही उसकी मुस्कुराहट खो जाएगी। क्योंकि तब उसे दिखाई पड़ेगा: जो मैं जी रहा हूं, यह भी कोई जीवन है? रोटरी क्लब का सदस्य हो जाना कोई भाग्य है? नियति है? अच्छे होटल में भोजन कर लेने से क्या मिलेगा? थोड़ी देर का राग-रंग है, सपना है; खो जाएगा।
जिस आदमी में विचार का जन्म होगा वह उदास हो जाएगा, वह बड़े विषाद से भर जाएगा। ये सब खिलौने मालूम पड़ेंगे, जिन्हें तुमने जीवन समझा। और मौत द्वार पर खड़ी है। जो किसी भी क्षण पकड़ लेगी और खिलौने पड़े रह जाएंगे। न तुम्हारे धन की, न तुम्हारी संपत्ति की, न तुम्हारे पद की, न तुम्हारी प्रतिष्ठा की मृत्यु कोई चिंता करेगी; क्षण भर का भी मौका न देगी। तुम कितना ही कहो कि मैं पार्लियामेंट का मेंबर हूं, जरा रुक जाओ; वह न रुकेगी। सब पड़ा रह जाएगा--तुम्हारी पार्लियामेंट, तुम्हारे खिलौने, तुम्हारे पद, प्रतिष्ठाएं, सब कूड़ा-कर्कट में पड़ी रह जाएंगी। जैसे ही मौत द्वार पर दस्तक देगी, तत्क्षण तैयार हो जाना पड़ेगा जाने को। बबूला फूट गया।
जिस आदमी में विचार होगा, जिसमें थोड़ा विमर्श होगा, वह चिंतित तो हो ही जाएगा। यहां तो सिर्फ मूढ़ ही निश्चिंत मालूम पड़ते हैं। या तो बुद्ध निश्चिंत होते हैं या मूढ़ निश्चिंत होते हैं। और तुम निश्चिंत होओ तो यह मत सोच लेना कि बुद्ध हो गए। क्योंकि बुद्ध तो कभी करोड़ों-करोड़ों वर्षों में कोई एकाध होता है; करोड़ों में से संभावना एक की बुद्ध होने की है, शेष की तो मूढ़ होने की है।
पूरब बहुत मूढ़ है। पूरब शरीर के तल से भी नीचे जी रहा है--बड़े परिमाण में। थोड़े से पूरब के लोग मन के तल पर जी रहे हैं। और बहुत थोड़े से लोग आत्मा में प्रवेश करने की चेष्टा कर रहे हैं।
लेकिन पश्चिम में बड़ा प्रवाह आया है। शरीर की जरूरतें पूरी हो गई हैं, भूख मिट गई है, भोजन पर्याप्त हो गया है। इसलिए शरीर से जो जीवन उलझा था वह मुक्त हो गया है। शरीर में जो ऊर्जा लग जाती थी--भोजन कमाने में, रोटी बनाने में, कपड़ा पाने में--वह समाप्त हो गई है। तो जो ऊर्जा मुक्त हो गई है शरीर के जीवन से, वह मन में काम आ रही है। इसलिए लोग ज्यादा संगीत में डूबे हैं, ज्यादा साहित्य में डूबे हैं। कोई मूर्ति बना रहा है, कोई पेंटिंग कर रहा है। पश्चिम में ऐसा आदमी पाना मुश्किल है जिसकी कोई हॉबी न हो।
पूरब में ऐसा आदमी पाना कभी-कभी होता है जिसकी कोई हॉबी हो। जीवन ही काफी है, हॉबी की फुरसत कहां है? आठ-दस घंटे दफ्तर और दुकान में काम करके कोई लौटता है, बारह घंटे खेत में श्रम करके कोई लौटता है; अब पेंटिंग करने की ऊर्जा कहां है? अब गीत बनाए कौन? प्राण तो पसीने में बह गए, अब गीत गाए कौन? भीतर सब रिक्त हो गया। किसी तरह पड़ जाता है, सो जाता है। सुबह उठ कर फिर वही दौड़ शुरू हो जाती है। कौन सुने आकाश का संगीत? किसको समय है कि आंखें खोले और आकाश के तारों को देखे? इतनी फुरसत किसे है? कौन देखे फूलों को? फूल को देखने के लिए सुविधा चाहिए, थोड़ी चैन चाहिए। फूल को पहचानने को तो काफी विराम की दशा चाहिए।
तो पश्चिम में लोग मन के तल पर हैं, और इसलिए महा विषाद से घिर गए हैं। क्योंकि अब आगे कुछ नहीं दिखाई पड़ता। जान लिया संगीत, गा लिए गीत, बना ली मूर्तियां, चित्र बना लिए, घर सौंदर्य से भर गया। अब? एक चट्टान खड़ी हो गई है सामने। अब जीवन अर्थहीन मालूम पड़ता है। अर्थ तो आता है लक्ष्य से; जब लक्ष्य खो जाता है तो अर्थ खो जाता है।
गरीब आदमी का लक्ष्य है रोटी। तो अभी जीवन में अर्थ है, क्योंकि रोटी पानी है। असल में, अर्थ को सोचने की सुविधा नहीं है। फिर अमीर आदमी का लक्ष्य है मन के वैभव, मन का सुख-सौष्ठव, मन का संगीत। लोग सोचते हैं कि जब सब होगा तो सुनेंगे शांति से लेट कर संगीत, सुनेंगे पक्षियों को। लेकिन वह भी चुक जाता है, क्योंकि वह भी सब प्रकृति का ही है, वह भी ऐंद्रिक है। जिस दिन वह भी चुक जाता है उस दिन महा विषाद घेर लेता है: अब किसलिए जीएं? शरीर भरा-पूरा, मन भी भरा-पूरा, कुछ पाने को नहीं दिखाई पड़ता; कहीं जाने को नहीं दिखाई पड़ता; जो पाना था, पा लिया; जो मिल सकता था बाजार में, खरीद लिया; जिसकी सुविधा थी समाज में, वह भी पा लिया; संस्कृति जो दे सकती थी श्रेष्ठतम--मोझर्ट और वेजनर और बीथोवन, सब सुन लिए; और कालिदास और भवभूति, सब पढ़ लिए। अब? अब क्या? जब यह अब खड़ा हो जाता है मन के बाद, तब लगता है कि जीवन में कोई अर्थ नहीं।
इसलिए पश्चिम के बड़े से बड़े विचारक--सार्त्र, जेस्पर्स, हाइडेगर--वे सब विषाद से भरे हैं। वे उसी दशा में हैं जिस दशा में बुद्ध ने महल छोड़ा था। जिस रात बुद्ध महल को छोड़ कर गए थे, महा विषाद से भरे थे। वह विषाद उनके प्राणों को काट रहा था। एक आरे की तरह उनका जीवन कट रहा था दुख से; सब था और कोई सार न था। सब व्यर्थ था; जिंदगी सिर्फ एक ऊब थी। जिस रात बुद्ध ने छोड़ा था घर वह अमावस की रात थी, और भीतर भी अमावस की निराशा घिरी थी, अमावस जैसा अंधेरा घिरा था। सार्त्र, हाइडेगर, मार्शल उसी अवस्था में हैं पश्चिम में। कठिनाई उनकी यह है कि पश्चिम की पूरी जीवन-व्यवस्था आत्मा को अस्वीकार करती रही है। और जिसे तुम अस्वीकार करते हो वह द्वार बिलकुल बंद हो जाता है।
पूरब की जीवन-व्यवस्था आत्मा को सदा स्वीकार करती रही है। जिस दिन तुम थक जाओगे मन से, सब नहीं समाप्त हो गया; अभी एक चीज और बाकी है। पूरब की हवा में एक चीज सदा बाकी है। असल में, तुम उसी के लिए अब तक शरीर की तैयारी कर रहे थे, मन की तैयारी कर रहे थे; अब तो मौका आ गया जब अब तुम उसकी खोज में लग सकते हो जो वास्तविक खोज है।
पश्चिम मानता है शरीर और मन को; उसके आगे उसकी मान्यता नहीं है, बस। इसलिए पश्चिम में बड़ा उपद्रव है। जब मन चुक जाता है, मन के भोग चुक जाते हैं, तब पश्चिम में एक उदासी घेर लेती है और सिर्फ आत्महत्या उपाय दिखती है। आत्म-साधना नहीं, आत्महत्या उपाय दिखती है। यहीं पूरब और पश्चिम का फर्क है। पूरब की धारा जब सब चुक जाए तब एक नया लक्ष्य देती है--आत्मा, जो पश्चिम में नहीं है।
इसलिए सार्त्र घूम-घूम कर उदासी पर लौट आता है। बुद्ध जब उदास हुए तो गोल उदास चक्कर में नहीं घूमने लगे; जब उदास हुए पूरे तो आत्मा की खोज पर निकले। क्योंकि हवा पूरब की बड़े अनादि काल से आत्मा का गुणगान कर रही है। और हर आदमी प्रतीक्षा कर रहा है कि कब वह मौका आएगा जब मेरी छोटी जरूरतें पूरी हो जाएंगी, तब मैं उस बड़ी जरूरत की तरफ यात्रा पर निकल जाऊंगा। जाने-अनजाने, गहरे अचेतन में वह आत्मा की खोज छिपी है; तुम्हें पता हो, न पता हो। तुम शरीर में भोग रहे हो, भोगते रहो; लेकिन तुम्हारे भीतर अचेतन कोने में एक आवाज खड़ी है कि कब उठोगे इससे? कब जागोगे इससे? यहां बेहोश से बेहोश आदमी के भीतर भी एक स्वर गूंज रहा है, वह स्वर पूरब की संस्कृति का स्वर है। वही तो पूरब का भाग्य है।
पूरब दरिद्र है, दीन है, वह दुर्भाग्य है। जब भी पूरब में कभी पश्चिम जैसी सुविधा होगी--जब थी, जैसे बुद्ध के समय में थी, तो हजारों-लाखों लोग आत्मा की खोज पर गए, और सैकड़ों लोगों ने आत्मा के दर्शन किए। जैसे वह हमारा नियत कार्यक्रम है, जब सब काम चुक जाएगा तब हम तीर्थ-यात्रा पर निकल जाएंगे, तब वह अनंत की यात्रा शुरू होगी।
तो बुद्ध को उपाय था, संस्कृति में एक द्वार था। पश्चिम की संस्कृति मन पर पूरी हो जाती है। इसलिए पश्चिम की संस्कृति में मन की वासना पूरे होने पर दीवाल आ जाती है, द्वार नहीं आता। इसलिए वहां इतनी उदासी है। लेकिन यह ज्यादा देर नहीं रहेगी, क्योंकि कोई भी संस्कृति ज्यादा देर कैसे उदासी को बरदाश्त कर सकती है? और आत्महत्या कहीं लक्ष्य बन सकता है? आदमी खोज ही लेगा, दीवाल को तोड़ ही देगा, दरवाजा बना ही लेगा। इसलिए तो हजारों लोग पश्चिम से मेरे पास चले आ रहे हैं; खोज रहे हैं।
कल ही एक युवक मेरे पास आया। बड़ा लेखक है, दस-बारह बड़ी प्रसिद्ध किताबों का लेखक है। पश्चिम में बड़ा नाम है, इज्जत है, प्रतिष्ठा है, पैसा है, सब है। उसके आने के पहले मैंने उसकी किताबें पढ़ी हुई थीं। मुझे कभी खयाल भी न था कि यह व्यक्ति कभी आ जाएगा। वह मौजूद हो गया। खोज पर है। सूफियों के पास गया है। तिब्बेतन लामाओं के पास गया है। गुरजिएफ की व्यवस्था में शिक्षा पाई है। खोज रहा है--दूर-दूर तक खोज रहा है।
दीवाल टूटेगी। कितनी देर दीवाल टिक सकती है? पश्चिम जल्दी ही बड़ी धार्मिक क्रांति के निकट पहुंच रहा है। उसके पहले आसार तो आ गए। सूरज की पहली किरण तो फूट गई है। सुबह होने के करीब है। इसलिए पश्चिम अब पूरब की तरफ उन्मुख है।
अब यह बहुत बड़ी मजेदार घटना घट रही है। पूरब का समझदार आदमी पश्चिम की तरफ देख रहा है। पूरब में जो समझदार हैं--वैज्ञानिक, इंजीनियर, डाक्टर--वे पश्चिम की तरफ भाग रहे हैं। क्योंकि वहां है राज शरीर के विज्ञान का, मन के विज्ञान का। सब पश्चिम की तरफ भाग रहे हैं। तुम्हारे गांव में भी डाक्टर हो, उसके पास अगर डिग्री लंदन की है तो बात और। और यहीं पूना की डिग्री है तो ठीक है। सर्जन हो और एफ.आर.सी.एस. है तो बात और! क्योंकि ज्ञान वहां है शरीर और मन का। हम तो उधार हैं उस मामले में। हमारे पास वह कुछ भी नहीं है। हम वहां जा रहे हैं। शरीर और मन की शिक्षा के लिए पूरब पश्चिम के चरणों में बैठ रहा है; और आत्मा की शिक्षा के लिए पश्चिम पूरब के चरणों में झुक रहा है। एक बड़ी अनूठी घटना घट रही है।
पूरब से घूम कर जब कोई आदमी पूरब की यात्रा से पश्चिम लौटता है तो जो खबरें ले जाता है वे अध्यात्म की हैं--ध्यान की हैं, योग की हैं, संन्यास की हैं। पश्चिम से जब कोई आदमी पूरब लौट कर आता है तो वह जो खबरें लाता है, वे विज्ञान की हैं; धर्म की नहीं हैं, अध्यात्म की नहीं हैं।
पूरब को सीखना पड़ेगा पश्चिम से शरीर और मन का शास्त्र। और जितने जल्दी सीख ले उतना बेहतर। काफी हमने उपेक्षा कर ली उसकी; समय है कि हम समझ लें। और ध्यान रहे कि अगर पूरब ने मन और शरीर का शास्त्र ठीक से समझ लिया और व्यवस्था बना ली तो पूरब का कोई मुकाबला न रह जाएगा। अध्यात्म का शास्त्र तो उसके पास है; नीचे की दो सीढ़ियां टूट गई हैं। ऊपर की तीसरी सीढ़ी है। और नीचे की दो सीढ़ियां न बनें तो तुम कैसे तीसरी सीढ़ी पर पहुंचोगे? तुम गुणगान कर सकते हो, स्तुति कर सकते हो तीसरी सीढ़ी की, चढ़ नहीं सकते। इसलिए तुम पूजा कर रहे हो गीता की, उपनिषद की, वेद की। वेद, गीता, उपनिषद सीढ़ियां हैं, जिन पर चढ़ो। पूजा करने से क्या होगा? लेकिन चढ़ोगे तुम कैसे, पहली दो सीढ़ियां टूटी हुई हैं।
अगर ठीक से समझो तो पश्चिम इस समय तुमसे बेहतर हालत में है। उसकी पहली दो सीढ़ियां तैयार हैं; तीसरी नहीं है। तीसरी बनाई जा सकती है। वह तीसरी की तलाश में लगा है। वह जल्दी ही तीसरी को बना लेगा। इसके पहले कि वह तीसरी को बनाए, तुम पहली दो जो खो गई हैं, मिट गई हैं, उनको सुधार लो; उखड़ गई हैं, उनको जमा लो। अन्यथा अध्यात्म के लिए भी तुम्हें सीखने पश्चिम जाना पड़ेगा। और इससे बड़े दुर्भाग्य की कोई बात न होगी। सदियों-सदियों तक हमने उस पूरे शास्त्र को निर्मित किया है, और तुम्हें उसे भी सीखने पश्चिम जाना पड़े और क्या दुर्भाग्य होगा? लेकिन पहली दो सीढ़ियां न हों तो तीसरी सीढ़ी भी टूट जाएगी, बच नहीं सकती। कैसे तुम सम्हालोगे? क्योंकि वे दो सीढ़ियां ही उसका आधार हैं।
इसलिए मैं निरंतर कहता हूं कि गरीब धार्मिक नहीं हो सकता; उसकी दो सीढ़ियां खो गई हैं। अमीर जरूरी नहीं है कि धार्मिक हो जाए, लेकिन चाहे तो हो सकता है। इस फर्क को ठीक से समझ लेना। अमीर होने से कोई धार्मिक हो जाएगा, यह जरूरी नहीं है, लेकिन चाहे तो हो सकता है। अमीर होने से उस जगह तो आ जाता है जहां इस जीवन का सब व्यर्थ दिखाई पड़ने लगता है। जब तक तुम्हारे पास धन नहीं है, धन की व्यर्थता न दिखाई पड़ेगी। और जब तक तुम्हारे पास सुंदर स्त्रियां नहीं हैं तब तक सुंदर स्त्रियों की व्यर्थता न दिखाई पड़ेगी। और जब तक तुमने पदों पर बैठ कर नहीं देखा तभी तक पदों की मूर्खता दिखाई न पड़ेगी। जब तुम जीवन का सब राग-रंग देख लेते हो तभी तुम्हें पता चलता है कि यह तो सब नासमझी है।
लेकिन जरूरी नहीं है। जैसा मैंने कल कहा कि अगर गरीब आदमी को धार्मिक होना हो तो बड़ा कल्पनाप्रवण, संवेदनशील, बड़ी गहरी बुद्धिमत्ता चाहिए, ताकि वह उसको भी देख ले जो उसके पास नहीं है, और इतने गहरे में देख ले कि उसकी व्यर्थता दिखाई पड़ जाए। अमीर आदमी को अगर धार्मिक होना हो तो बहुत बुद्धिमत्ता की जरूरत नहीं है, न बहुत संवेदनशीलता की जरूरत है। न्यूनतम बुद्धि से भी काम चल जाएगा। इसलिए बुद्धू अमीर भी धार्मिक हो सकता है, चाहे तो। केवल बुद्धिमान गरीब धार्मिक हो सकेगा, वह भी बहुत श्रम करे तो। क्योंकि अमीर उस स्थिति में होता है जहां चीजों की व्यर्थता दिखाई पड़नी ही चाहिए, अगर थोड़ी भी बुद्धि हो। और अगर किसी अमीर को तुम पाओ कि वह धार्मिक नहीं हुआ तो समझना कि वह इतनी गई-बीती बुद्धि का है कि उसे कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता; वह अंधा है। अमीर बिलकुल अंधा हो तो ही धार्मिक होने से बच सकता है, नहीं तो धार्मिक हो ही जाएगा। क्योंकि क्या पाता है? महलों के भीतर रिक्तता है, सूना हृदय है, प्रेम के कोई मेघ नहीं बरसते, न कोई अमृत की धार बहती है, न कहीं कोई आनंद का निनाद सुना जाता है; बड़े महल करीब-करीब कब्रों जैसे हैं जहां सब मुर्दा है। अमीरों के पास बाहर सब कुछ होता है, भीतर कुछ भी नहीं। बुद्धू से बुद्धू को भी दिखाई पड़ सकता है कि भीतर कुछ भी नहीं है।
इसलिए पश्चिम ज्यादा देर निराश न रहेगा, ज्यादा देर हताश न रहेगा; राह तोड़ ही लेगा। और वही कोशिश चल रही है। इसलिए पश्चिम पूरब की तरफ दौड़ रहा है--सीखने उस शास्त्र को जिससे तीसरी सीढ़ी निर्मित हो जाए, बंद दीवाल टूट जाए, द्वार बन जाए। एक बार पश्चिम के हाथ में कुंजियां आ गईं कि तुम्हें पश्चिम जाना पड़ेगा सीखने धर्म को भी। क्योंकि पश्चिम बड़ा कुशल है; जिस चीज को भी करता है, फिर बड़ी संलग्नता से करता है।
अब यहां मैं देखता हूं, भारतीय संन्यासी हैं, उनमें मैं वैसी समग्रता नहीं देखता, ध्यान भी करते हैं तो कुनकुना-कुनकुना। ऐसा कर लेते हैं, क्योंकि मैं कहता हूं। करने में ऐसा लगता है कि मैंने कहा इसलिए कर रहे हैं। पूरा प्राण दांव पर नहीं लगाते, कुछ बचाते हैं। पश्चिम का संन्यासी आता है, पूरा प्राण दांव पर लगा देता है। कुछ भी नहीं बचाता, जिंदगी को दांव पर लगा देता है। जल्दी ही परिणाम आने शुरू हो जाते हैं।
रोज मैं देख कर चकित हूं! भारतीय आता है, वह कहता है कि यह ध्यान किया, यह जमता नहीं; वह ध्यान किया, वह भी नहीं जमता; इसको करने में सांस पर तकलीफ मालूम होती है, उसको करने में पैर थक जाते हैं। हजार बहाने हैं। अभी कोई बता दे कि सोने की खदान है तो वह पहाड़ चढ़ जाए। अभी खबर भर मिल जाए उसको कि कहीं धन बंट रहा है तो वह जी-जान दांव पर लगा दे। लेकिन ध्यान में वह कहता है, पैर दुखते हैं; ध्यान में वह कहता है कि इतनी देर सांस नहीं ली जाती। पश्चिम से जो लोग आते हैं वे यह नहीं कहते; वे पहले पूरा दांव लगाते हैं, पूरा करके देखते हैं। उनकी अगर कोई तकलीफ होती है तो वह चौथे चरण की होती है ध्यान की, तीन चरणों की कभी नहीं। और जब भी भारतीय आते हैं तो तीन चरणों की कठिनाई होती है, चौथे की वह बात ही नहीं, क्योंकि चौथा तो आता ही नहीं। जब तीन ही पूरे नहीं होते तो चौथा कैसे आएगा?
इससे मैं चकित हूं कि बात क्या है! पश्चिम जो भी करता है परिपूर्णता से करता है। या तो करता नहीं या करता है तो परिपूर्णता से करता है। पूरब कुछ ढुलमुल हालत में है; करता भी है, अधूरा करता है। पूरब का मन बड़ी दुविधा में दिखता है। पूरब की स्थिति ऐसी है कि वह चाहता है संसार भी सम्हाल ले और परमात्मा को भी सम्हाल ले। वह एक कदम इस नाव में और दूसरा कदम उस नाव में। और दोनों नावें दो अलग दिशाओं में जा रही हैं। वह संकट में पड़ता है। दांव पर लगाने की हिम्मत पूरब ने खो दी है।
और उसका कारण वही है कि पहली दो सीढ़ियां नहीं हैं। दांव पर लगाने की हिम्मत तो तभी आती है जब तुम समझ लेते हो कि यहां कुछ सार्थक है ही नहीं, लगा दो। जब तक तुम्हें लगता है कि यहां संसार में कुछ सार्थक है बचाने योग्य, इसको जरा साथ में ही लेकर अगर धर्म की यात्रा पर जा सके तो अच्छा होगा, तब तक तुमने पहली दो सीढ़ियां पार नहीं की हैं।
इसलिए तुम यह पूछ कर अपने मन में बहुत प्रसन्न मत होना कि पश्चिम बहुत निराश है, विषाद है, अर्थहीन अनुभव कर रहा है। सौभाग्य होगा कि तुम भी इतने ही विषाद से घिर जाओ और इस व्यर्थ के जीवन को तुम भी व्यर्थ जानो; इस अर्थहीन दौड़ को तुम भी अर्थहीनता की तरह पहचान लो; तुम भी इतने हताश हो जाओ कि जीवन में कुछ भी सार न दिखाई पड़े, ताकि तुम पूरे जीवन को दांव पर लगा सको। वह आगे की छलांग तुम्हें पूरा का पूरा मांगती है; अधूरे से काम न चलेगा। आधा कहीं कोई यात्रा पर गया है? आधे घर और आधे यात्रा पर? जाना हो तो पूरे ही जाना होगा।
कबीर ने कहा है: जो घर बारे आपना चले हमारे संग। जला दो घर तो हमारे साथ चल सकते हो।
वे किस घर की बात कह रहे हैं? वे उस घर की बात कह रहे हैं जिसको तुम बचाना चाहते हो। तुम घर भी रहना चाहते हो और यात्रा पर भी जाना चाहते हो। असल में, तुम मुफ्त में पाना चाहते हो परमात्मा को। या तुम परमात्मा को भी इसीलिए पाना चाहते हो ताकि संसार के संबंध में कुछ वरदान मांग लो।
तुमने कभी सोचा, अगर परमात्मा तुम्हें मिल जाएगा तो तुम क्या मांगोगे? सोचना ईमानदारी से कि अगर परमात्मा मिल ही जाए कल सुबह उठते ही से, तुम क्या मांगोगे? एक कागज पर जरा लिखना। तीन चीजें तुम मांग सकते हो, तो लिखना कि कौन सी तीन चीजें मांगोगे। तुम खुद ही चकित होओगे कि क्या मांगने की आकांक्षा आ रही है--कि एक सुंदर पत्नी, फिल्म अभिनेत्री, कोई बड़ा मकान, कि बड़ी कार, कि मुकदमे में जीत--क्या मांगोगे? तुम जो मांगोगे, उससे पता चलेगा कि तुम कहां हो। तुम्हारी मांग तुम्हें बता देगी। क्या तुम परमात्मा को देख कर मांगने की चेष्टा करोगे या सच में ही देख कर इतने परितृप्त हो जाओगे कि कहोगे कि कुछ भी मांगना नहीं? मांगने की चेष्टा में ही छिपा है कि परमात्मा की चाह न थी; चाह कुछ और थी, परमात्मा का तो उपयोग था। मांग तो कुछ और ही रहे थे; परमात्मा से मिलेगा, इसलिए परमात्मा की भी खोज थी। लेकिन परमात्मा लक्ष्य न था; लक्ष्य तो वही है जो तुम मांगना चाहते हो। मिला परमात्मा और तुमने मांग ली इंपाला कार; इंपाला कार लक्ष्य था। तो परमात्मा न हुआ, इंपाला कार का कोई दुकानदार हुआ। और तुम्हारी नजर इंपाला कार पर थी और परमात्मा से भी तुमने वही मांगा। तुम जब मंदिर जाते हो, क्या मांगते हो, सोचना थोड़ा। तुम्हारी मांग ही तुम्हारे और परमात्मा के बीच में बाधा है।
वे दो सीढ़ियां नहीं हैं तुम्हारे जीवन में, इसलिए हजार तरह की मांगें खड़ी हो गई हैं। अगर तुम परमात्मा से ही तृप्त हो सको तो समझना कि दो सीढ़ियों को तुम पार कर गए।
इसलिए अपने मन में बहुत प्रसन्न मत होना। क्योंकि मैं यह देखता हूं कि पूरब के लोग बड़ी रुग्ण सांत्वना से भर गए हैं। वे अपने को संतोष दिलाते रहते हैं कि पश्चिम में तो बड़ा विषाद है, लोग दुखी हैं। देखो पश्चिम में कितने लोग आत्महत्या करते हैं, यहां कोई करता है? आत्मा भी तो होना चाहिए आत्महत्या करने के पहले; हत्या किसकी करोगे! पश्चिम में कितने लोग पागल हो जाते हैं; यहां कोई होता है? पागल होने के लिए बुद्धि भी तो चाहिए। जिनकी बुद्धि नहीं है, उनको कभी पागल होते देखा है? जो हो वही तो खो सकते हो। पश्चिम सोचता है, प्रगाढ़ता से सोचता है, इसलिए पागल हो जाता है। तुमने कभी सोचा है? तुम्हारा सोच-विचार क्या है? अखबार पढ़ने से ज्यादा तुम्हारा कोई सोच-विचार है? अखबार पढ़ कर तुम सोच रहे हो पागल हो जाओगे? तुमने किसी विचार को इतनी गहनता से समझने की कोशिश की है कि तुम्हारा सारा जीवन आंदोलित हो जाए, कि तुम कंप जाओ, कि तुम्हारी जमीन से जड़ें हिल जाएं, कि तुम्हारी बुनियाद गिर जाए? तुमने कभी कुछ नहीं सोचा है। तुमने क्या सोचा है? पागल कैसे हो जाओगे? और जिंदगी में तुमने पाया कुछ नहीं है अभी; आत्महत्या के करीब तुम आओगे कैसे? आत्महत्या के करीब तो वही आता है जिसने जीवन को सारा देख लिया और पाया कि व्यर्थ है; अब कुछ करने को नहीं दिखाई पड़ता, आत्महत्या कर लूं! मिटा दूं इस जीवन को!
इस घड़ी में ही दो रास्ते खुलते हैं--या तो आत्महत्या या आत्मक्रांति। अगर कोई द्वार न दिखे तो आदमी आत्महत्या कर लेता है। अगर कोई द्वार दिख जाए तो रूपांतरित हो जाता है। आत्महत्या की घड़ी को ही पूरब ने आत्मक्रांति में बदल लिया है। पश्चिम तैयार है अब पूरब की क्रांति के लिए। और पूरब तो अभी पश्चिम की क्रांति के लिए तैयार हो रहा है। पूरब के गुरु अब मार्क्स, एंजिल्स, स्टैलिन, लेनिन, माओत्से-तुंग। तुम बातें कितनी ही करो वेद की और उपनिषदों की, तुम्हारे गुरु माओ, महावीर नहीं। उनकी तो तुम सिर्फ पूजा करते हो! पश्चिम देख रहा है उपनिषद की तरफ, वेद की तरफ, गीता की तरफ। वह घड़ी आ गई है जहां शरीर और मन की यात्रा पूरी हो गई है। अभी हताशा है; जल्दी ही आनंद की वर्षा भी हो जाएगी। अभी उदासी है; अगर मार्ग मिल गया तो जितनी गहन उदासी है उतना ही हर्षोन्माद भी हो जाएगा। वह अनुपात हमेशा बराबर होता है।
तुम कितने उदास हो परमात्मा के बिना, इस पर ही निर्भर करेगा कि परमात्मा को पाकर तुम कितने आनंदित होओगे! अगर परमात्मा को बिना पाए तुम सिर्फ दो इंच उदास हो तो परमात्मा को पाकर दो इंच आनंद की वर्षा होगी, बस। अगर परमात्मा को बिना पाए तुम सौ इंच उदास हो तो परमात्मा को पाकर सौ इंच वर्षा हो जाएगी। अगर परमात्मा को बिना पाए तुम पांच सौ इंच उदास हो तो परमात्मा को पाकर तुम चेरापूंजी में हो जाओगे, पांच सौ इंच मेघ बरस जाएंगे। कितनी तुम्हारी उदासी है परमात्मा को बिना पाए उतना ही तुम्हारा आनंद होगा परमात्मा को पाकर। आनंद की मात्रा वही होगी जो उदासी की सघनता है। प्यास ही तो तय करेगी कि तृप्ति कितनी होगी! प्यासे ही नहीं थे, ऐसा ही कोकाकोला दिखाई पड़ गया, इसलिए प्यास पैदा हो गई; ऐसे भूल-चूक से आ गए किसी सदगुरु के पास। कोई मित्र जा रहा था और तुम खाली बैठे थे, तो कहा चलो, खाली बैठे क्या करते। कोई प्यास ही न थी। सु
न लीं बातें आनंद की, अमृत की, और एक झूठी प्यास पैदा हो गई। तुम्हें परमात्मा मिल भी जाए तो कोई तृप्ति न होगी। वस्तुतः तुम्हें मिल भी जाए तो तुम उसे पहचान भी न पाओगे। उसे पहचानने को बड़ी गहन प्यास चाहिए।
इसलिए मैं तुमसे कहता हूं कि मुझे तुम कम पहचान पाओगे, पश्चिम के लोग ज्यादा। वहां बड़ी हताशा है। इसलिए तुम्हें कई दफे हैरानी होगी कि पश्चिम के लोग क्यों चले आते हैं! जब वे मेरे पास आते हैं तो उन्हें कोई द्वार दिखाई पड़ता है जो तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता। जब वे मेरे पास आते हैं तो उनके जीवन में कुछ नये का उदय होता है जो तुम्हारे जीवन में नहीं होता। तुम हताश ही नहीं हो। तुम उदास ही नहीं हो। और अगर तुम उदास भी हो तो उन चीजों के लिए हो जो चीजें पहली दो सीढ़ियों से संबंधित हैं।
अपने को सौभाग्यशाली मत समझ लेना; अपने को सौभाग्यशाली समझ लेना खतरनाक है। क्योंकि उसमें फिर अगर तुम लिप्त होकर बैठ गए तो तुम्हारी यात्रा अवरुद्ध हो जाएगी। और सांत्वना झूठी मत दे देना अपने को। और यह मत सोचना कि पश्चिम के लोग पूरब आ रहे हैं, तो हम पूरब के लोग बड़ी ऊंची अवस्था में हैं इसलिए आ रहे हैं। यह भी भ्रांति है तुम्हारी। कभी कोई एकाध आदमी उस अवस्था में होता है; कोई पूरा पूरब उस अवस्था में नहीं है। लेकिन हमारे मन में ऐसा होता है कि बुद्ध पूरब में पैदा हुए, महावीर पूरब में पैदा हुए और हम भी पूरब में पैदा हुए! तो जैसे कोई हमारी जाति बुद्ध और महावीर की है, जैसे हम उनके वंशज हैं।
बुद्ध का वंशज केवल वही हो सकता है जो बुद्धत्व को उपलब्ध हो। बुद्ध का वंशज भूगोल से तय नहीं होता, चेतना से तय होता है। तुम व्यर्थ अपनी प्रशंसा करके और व्यर्थ अपने अहंकार को आभूषणों से सजा कर तृप्त होकर मत बैठ जाना, क्योंकि वह तुम्हारी मौत हो सकती है। वे आभूषण जंजीरें सिद्ध होंगे, और वह झूठी सांत्वना कब्र बन जाएगी।
जागो! मुझे पता है कि तुम्हारी दो सीढ़ियां टूटी हुई हैं। इसलिए तुम्हें बहुत बुद्धिमत्ता की जरूरत है, बहुत होश की जरूरत है। और इसलिए मैं ऐसी विधियां तुम्हारे लिए दे रहा हूं जो छलांग लगाने की हैं और सीढ़ियां चढ़ने की नहीं हैं। क्योंकि सीढ़ियां टूटी हुई हैं, उनको बनाने अगर बैठा जाए तो वे कब बनेंगी, कुछ पता नहीं है। लेकिन जब सीढ़ी टूटी होती है तो आदमी दो सीढ़ियां इकट्ठी भी छलांग लगा कर चढ़ जाता है। तुम छलांग लगाओगे तो ही पहुंच पाओगे। पश्चिम को छलांग लगाने की जरूरत नहीं है, वह दूसरी सीढ़ी पर खड़ा है; तीसरी सीढ़ी मिल भर जाए, वह पैर रख देगा। लेकिन पूरब को तो छलांग लगानी पड़ेगी; दो सीढ़ियां चूक गई हैं। और चूकने का कारण है। उसको भी तुम समझ लो। उसका गणित है। अकारण कुछ भी नहीं होता।
जब भी कोई मुल्क समृद्ध होता है तब उस मुल्क को पता चलता है, समृद्धि बेकार है। जैसे ही मुल्क को पता चलता है समृद्धि बेकार है, वह आत्मा की खोज में लग जाता है, परमात्मा की खोज में लग जाता है, वह मोक्ष की यात्रा पर निकल जाता है। और जीवन की दो सीढ़ियों की तरफ नकार का भाव पैदा हो जाता है--बेकार है। उन दो सीढ़ियों की साज-सम्हाल बंद हो जाती है। उनकी कोई फिक्र नहीं लेता। उनकी निंदा शुरू हो जाती है। समाज धीरे-धीरे-धीरे-धीरे पदार्थ, शरीर के विरोध में हो जाता है। और जिसके तुम विरोध में हो वह सीढ़ी टूट जाती है। और जब सीढ़ी टूट जाती है तब ऐसी अड़चन आ जाती है जिसमें हम हैं।
जब कोई समाज गरीब होता है तब धन में मूल्य मालूम होता है, तब वह धन के पीछे पड़ जाता है। जब वह धन के पीछे पड़ जाता है तब धर्म की उपेक्षा हो जाती है। जब धन इकट्ठा कर लेता है तब उसे पता चलता है कि यह तो बेकार है। तब धन की आकांक्षा शुरू होती है।
ऐसा एक वर्तुल है। गरीब समाज धन में उत्सुक होता है; धन पाकर पाता है कि यह तो बेकार की मेहनत हुई, तब वह धर्म में उत्सुक होता है। जब धर्म में उत्सुक होता है तो धन की उपेक्षा हो जाती है। जब धन की उपेक्षा हो जाती है तो धीरे-धीरे समाज फिर गरीब हो जाता है। ऐसा चक्र की तरह सारी बात घूमती जाती है।
पूरब अमीर था, बहुत अमीर था। लोग कहते थे, सोने की चिड़िया है। वह था। उस सोने की चिड़िया के दिनों में उसने पाया कि सब सोना व्यर्थ है; सोने की चिड़िया होने में कोई सार नहीं। वह दूध और दही की नदियां सब व्यर्थ हैं। इस संसार में सब असार है। यह सब माया है, सपना है--ऐसा पाया। और यह पाना सच है। जब ऐसा पाया कि यह सब सपना है, तो सपने की कौन फिक्र करता है? कौन साज-सम्हाल रखता है? उपेक्षा हो गई। जब उपेक्षा हो गई तो पूरब धीरे-धीरे-धीरे-धीरे गरीब हो गया। अब जब गरीब हो गया तो सीढ़ियां टूट गईं; अब धर्म से कोई संबंध न रहा। अब उत्सुकता है--कैसे धन वापस मिले? कैसे शरीर वापस मिले? कैसे मन के सुख वापस मिलें?
अब पश्चिम अमीर है। पश्चिम गरीब था जब पूरब अमीर था। करीब-करीब ऐसा है कि जैसा सूरज जब पूरब में होता है तो पश्चिम में रात होती है; जब पश्चिम में सूरज होता है तो पूरब में रात हो जाती है। जो बाहर के सूरज के संबंध में सच है वही भीतर के सूरज के संबंध में भी सच है। जब पूरब में प्रकाश था तो पश्चिम अंधकार में था; गहन रात थी वहां। लोग भयंकर गरीबी में थे। धर्म की कोई बात ही न थी; कोई पूछने का सवाल ही न था।
फिर अब पश्चिम में सूरज उग रहा है। पूरब में गहन अंधेरी रात है। सारा पूरब धीरे-धीरे कम्युनिज्म की अमावस में दबा जा रहा है। कम्युनिज्म का अर्थ होता है: धन महत्वपूर्ण है, धर्म नहीं। कम्युनिज्म का अर्थ होता है: पदार्थ महत्वपूर्ण है, परमात्मा नहीं। कम्युनिज्म का अर्थ होता है: यही संसार सब कुछ है, और कोई संसार नहीं। कम्युनिज्म का अर्थ होता है: सपना ही सत्य है, और कोई सत्य नहीं। इसको सम्हाल लो, सब सम्हल जाएगा। पूरब कम्युनिस्ट होता जा रहा है। सब तरफ पूरब की पुरानी व्यवस्था टूटती जाती है। इसे बचाना मुश्किल है। पश्चिम धीरे-धीरे धार्मिक होता जा रहा है। पूरब का जवान कम्युनिस्ट होता है। और अगर पूरब में कोई जवान कम्युनिस्ट न हो तो लोगों को शक होता है कि यह आदमी जवान ही कैसा! समाजवादी, साम्यवादी, नाम कुछ भी हों, लेकिन पूरब का जवान आदमी कम्युनिस्ट होता है।
पश्चिम में जवान आदमी हिप्पी हो गया है। हिप्पी का अर्थ समझते हैं? हिप्पी का अर्थ है कि इस संसार में कुछ सार नहीं। कपड़े-लत्ते कैसे ही हुए, तो चल जाएगा। नहाए, न नहाए, तो चल जाएगा। पैसे पास हुए, न हुए, तो चल जाएगा। न बड़े मकान की जरूरत है, न बड़ी कार की जरूरत है। पैदल चल लिए, तो चल जाएगा; राह में चलते ट्रक वाले से प्रार्थना कर ली, उसने बिठा लिया, तो चल जाएगा। पश्चिम में अमीर से अमीर घरों के लड़के और लड़कियां हिप्पी हो गए हैं। हिप्पी पश्चिम का संस्करण है संन्यास का। वह पश्चिमी ढंग है संन्यासी होने का।
बुद्ध ने हजारों लोगों को संन्यासी कर दिया था। संन्यास का अर्थ ही था: इस जिंदगी की हम चिंता नहीं करते, उपेक्षा करते हैं। एक बार भोजन मिल गया तो ठीक है, न मिला तो भूखे सो जाएंगे।
पश्चिम का जवान आदमी तो समाज के बाहर हट रहा है; एक तरह के संन्यास का जन्म हो रहा है। और पूरब का जवान आदमी संसार में प्रवेश कर रहा है। सूरज पश्चिम में उग रहा है, पूरब में डूब रहा है। और यह स्वाभाविक है। लेकिन अगर समझ हो तो अंधेरी रात में भी तुम परिपूर्ण प्रकाशित हो सकते हो, और नासमझी हो तो सूरज उगा हो तो भी आंख बंद करके अंधेरे में बैठ सकते हो।
इसलिए इससे कुछ बहुत परेशान मत हो जाना। जिसको समझ है, वह भीतर का दीया जला लेता है और बाहर के सूरज की चिंता छोड़ देता है। और जो नासमझ है, वह सूरज भी उगा रहता है तो आंख बंद करके खड़ा रहता है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, आपने कहा कि हिंसा से अहिंसा नहीं आ सकती, लेकिन कृष्ण और मोहम्मद ने तो युद्ध के विराट हिंसा-कार्य में सक्रिय भाग लिया। वे युद्ध से किस ढंग की अहिंसावी शांति लाना चाहते थे?
हिंसा से शांति नहीं आ सकती, यह कृष्ण भी जानते हैं और मोहम्मद भी। और आई भी नहीं। महाभारत के बाद कौन सी शांति आई भारत में? युद्ध तो हुआ; शांति कौन सी आई? मुल्क अशांत रहा। हिंसा मिट नहीं गई; हिंसा जारी रही। मोहम्मद के युद्धों के बाद कौन सी शांति आ गई है मुसलमानों में? वस्तुतः वे और अशांत हो गए। मोहम्मद की तलवार उनके लिए बहाना बन गई तलवार चलाने का। मोहम्मद का युद्ध उनको हर युद्ध को करने के लिए तर्क बन गया। मुसलमान अशांत रहे हैं, युद्धखोर रहे हैं। कृष्ण भी हार गए, मोहम्मद भी हार गए; हिंसा से अहिंसा आ ही नहीं सकती।
लेकिन तब तुम पूछोगे, फिर कृष्ण को, मोहम्मद को क्या यह दिखाई नहीं पड़ा?
यह भलीभांति दिखाई पड़ा; लेकिन इसके अतिरिक्त कोई उपाय न था। यह मजबूरी थी। यह था कम से कम बुराई को चुनना। इसे तुम थोड़ा समझ लेना।
सवाल यह नहीं था कृष्ण के सामने कि युद्ध से अहिंसा आएगी कि नहीं; वह तो उन्हें भी साफ है कि युद्ध से कहीं अहिंसा आती है! हिंसा से कैसे अहिंसा का जन्म हो सकता है? और घृणा से कैसे प्रेम पैदा होगा? और शत्रु बनाने से कैसे कोई मित्र हो जाएगा? पागलपन है। मारने से कहीं कोई जीता है? आग लगाने से कहीं वृक्षों में फूल खिलेंगे? और कांटे बोने से क्या तुम सोचते हो कि फूलों की शय्या बन जाएगी? यह तो कृष्ण को भी पता है। कोई कृष्ण नासमझ नहीं हैं। कृष्ण से समझदार आदमी खोजना मुश्किल है। कृष्ण को भलीभांति पता है कि युद्ध से कोई शांति नहीं होगी; हिंसा से कोई अहिंसा नहीं आएगी।
लेकिन यह सवाल ही नहीं है कृष्ण के सामने; सवाल ही दूसरा था। सवाल था दो तरह की हिंसाओं के बीच चुनने का; अहिंसा और हिंसा के बीच चुनाव का सवाल ही नहीं था। युद्ध खड़ा था सामने। या तो कौरवों की हिंसा जीतेगी या पांडवों की हिंसा जीतेगी, चुनाव था दो हिंसाओं के बीच में। अगर कृष्ण के सामने अहिंसा और हिंसा का चुनाव होता तो स्वभावतः वे अहिंसा चुनते। लेकिन वह चुनाव न था। चुनाव था: ये दो तरह की हिंसाएं आमने-सामने खड़ी थीं युद्ध में; इसमें जो सबसे कम बुरा था, उसे चुनने के अतिरिक्त कोई मार्ग न था। पांडव कौरवों से कम बुरे थे, बस इतनी ही बात है। और अगर पांडव हारते हैं तो कौरव जीतेंगे, वह बहुत भयंकर हिंसा जीतेगी। अगर कौरव जीतते हैं तो हिंसा पूरी तरह जीतती है। अगर पांडव जीतते हैं तो हिंसा आधी तरह जीतती है।
यही तो पूरे गीता का राज है। वह राज यह है कि दुर्योधन ने तो नहीं पूछा कि मैं युद्ध करूं या न करूं; दुर्योधन के मन में तो सवाल भी न उठा। दुर्योधन के सामने सवाल तो वही था जो अर्जुन के सामने था। मित्र-परिजन खड़े थे, अपने ही सगे-संबंधी खड़े थे--उस तरफ भी, इस तरफ भी। परिवार का ही गृहयुद्ध था। सब बंट गए थे। इस तरफ भाई खड़ा था, दूसरा भाई उस तरफ खड़ा था। कृष्ण एक तरफ खड़े थे, उनकी युद्ध की सेना दूसरी तरफ खड़ी थी। अपनी ही सेना से लड़ रहे थे। गृहयुद्ध था। ठीक-ठीक गृहयुद्ध था। लेकिन दुर्योधन को सवाल भी न उठा। अर्जुन को सवाल उठा। इसलिए अर्जुन कम हिंसक है इसलिए सवाल उठा।
और अर्जुन ने पूछा कि इससे तो अच्छा है मैं छोड़ कर चला जाऊं। अपनों को ही मार कर क्या पा लूंगा? और अगर इन सबको मार कर राज्य मिल भी गया तो उस राज्य का भी क्या मूल्य है? इतने खून के बाद इस खून से सने राज्य को पाकर मेरा मन तो सदा पीड़ा ही पाता रहेगा। वह कोई सुख की अवस्था न होगी; वह तो एक दुखस्वप्न हो जाएगा। ये सब अपने ही हाथ से काटे गए लोगों के चेहरे मुझे याद आते रहेंगे। न मैं ठीक से भोजन कर सकूंगा, न रात सो सकूंगा। इससे तो बेहतर है मैं भाग जाऊं, युद्ध से पलायन कर जाऊं। सिर्फ जीतने की आकांक्षा से इतना बड़ा रक्तपात मुझसे नहीं होता। अर्जुन ने कहा कि मेरे गात शिथिल हुए जाते हैं; मेरा गांडीव मेरे हाथ से छूटा जाता है; मेरे हाथ कंप रहे हैं। इससे खबर दी अर्जुन ने कि यह आदमी कम हिंसक है।
दुर्योधन को तो कोई सवाल ही न उठा। वह असंदिग्ध रूप से हिंसक है। अर्जुन की हिंसा में कम से कम विचार है, बोध है, होश है। यह छोड़ने को राजी है। यह धन को, राज्य को त्याग देना चाहता है। इसके भीतर एक समझ है। इसीलिए तो कृष्ण ने इतनी मेहनत करके इसे राजी किया कि तू लड़!
अब सारा गणित इतना है कि कृष्ण को दिखाई पड़ा साफ-साफ कि अर्जुन का लड़ना, अर्जुन का जीतना, कम बुरे लोगों के हाथ में सत्ता जाएगी। तो जहां दो बुराइयों में चुनना हो वहां कम बुराई को ही चुनना उचित है।
इस संसार में भलाई और बुराई के बीच तो चुनाव बहुत मुश्किल से खड़ा होता है; यहां तो चुनाव हमेशा कम बुराई और ज्यादा बुराई के बीच खड़ा होता है। यह तो ऐसे ही है कि जैसे तुम डाक्टर के पास जाओ और डाक्टर तुमसे कहे कि यह पैर इतना खराब है कि इसे काट डालो; अगर न काटोगे तो दोनों पैर खराब हो जाएंगे। क्या करोगे? डाक्टर के पास जाते हो, वह कहता है, यह एक दांत सड़ गया है, इसे अलग कर दो; अगर इसे अलग न किया तो बाकी दांत भी सड़ जाएंगे। क्या करोगे? कोई दांत निकालना सुखद तो नहीं है। एक पैर काटना कोई सुखद तो नहीं है। और डाक्टर कोई पैर काटने का हिमायती तो नहीं है कि वह कहता है सब लोग एक पैर काट डालो। न; वह यह कह रहा है कि इस स्थिति में अगर पैर न काटा गया तो दूसरा पैर भी काटना पड़ेगा। तो विकल्प दो हैं, या तो दोनों पैर कटेंगे या एक कटेगा। तो बेहतर है एक काट डालो। अब कोई विकल्प और है नहीं। विकल्प अगर यह हो कि दोनों पैर बचते हों तो डाक्टर भी नहीं कहेगा कि एक पैर काट डालो; वह कहेगा, कोई सवाल ही नहीं है। अगर सब दांत बचते हों तो डाक्टर भी कहेगा कि इलाज कर लो, दांत बचा लो।
कृष्ण ने सब तरह की कोशिश कर ली थी कि युद्ध टल जाए। सब तरह की कोशिश पांडवों ने कर ली थी कि युद्ध टल जाए। लेकिन वह संभव नहीं था। दूसरी तरफ बड़ा युद्धखोर आदमी था। हिंसा उसकी आंखों में थी। वह बिलकुल विक्षिप्त था। ऐसी अवस्था में यही एक उपाय था कि या तो संसार को दुर्योधन के हाथों में छोड़ दिया जाए; ये पांचों पांडव संन्यासी हो जाएं, हिमालय चले जाएं--जिसकी उनकी तैयारी थी; वे छोड़ देना चाहते थे। और इसलिए एक बड़ी बेबूझ घटना घटती है कि कृष्ण को युद्ध के लिए उन्हें तैयार करना पड़ता है। क्योंकि कृष्ण को लगता है कि अगर युद्ध ही होना है तो भले आदमी जीतें, जिनका युद्ध पर भरोसा नहीं है। अगर युद्ध ही होना है तो वे लोग जीतें जो छोड़ने को तैयार थे। अगर युद्ध ही होना है तो अर्जुन जीते, दुर्योधन न जीते।
दो बुराइयों में कम बुराई को चुनने के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं है।
वही अवस्था मोहम्मद की भी थी। वे जिनसे भी लड़े हैं, उसका कारण कुल इतना था कि जिन लोगों के बीच वे थे, वे लड़ाई के अतिरिक्त दूसरी कोई भाषा ही नहीं समझते थे। कोई उपाय ही न था। जब तुम संसार में खड़े होते हो तो संसार में जो विकल्प होते हैं उन्हीं में से तो चुनोगे। मोहम्मद जिन खूंखार लोगों के बीच में थे, वे सिर्फ तलवार की भाषा समझते थे। और अगर मोहम्मद लड़ने को राजी नहीं हैं तो जितने लोग मोहम्मद के पास ध्यान में, प्रार्थना में, धर्म में उत्सुक हुए थे, वे सब काट डाले जाएंगे। तो उपाय एक ही था--या तो धार्मिक लोग कट जाएं, अधार्मिक लोग जीत जाएं। या फिर धार्मिक लोग लड़ें।
यद्यपि लड़ने से कोई शांति नहीं आती, न कहीं हिंसा से अहिंसा आती है। लेकिन अच्छे आदमी की हिंसा से थोड़ी अच्छी हिंसा आती है, बुरे आदमी की हिंसा से बुरी हिंसा आती है। और अगर बुरी हिंसा, अच्छी हिंसा में चुनना हो तो अच्छी हिंसा ही बेहतर है।
इसे खयाल में रखोगे तो दुविधा न पड़ेगी। कोई कृष्ण में और महावीर में भेद नहीं है; परिस्थिति में भेद है। और इसलिए कृष्ण और महावीर को मानने वाले व्यर्थ का विवाद करते रहे हैं। परिस्थिति दोनों की भिन्न है। महावीर कह रहे हैं कि मांस मत खाओ, क्योंकि मांस खाना या न खाना दो विकल्प हैं। महावीर कह रहे हैं, देख कर चलो, क्योंकि चींटी व्यर्थ दबा कर मर जाए पैर के नीचे; बचाई जा सकती है तो क्यों मारते हो?
महावीर ने जो परिस्थिति चुनी है मनुष्य के लिए वह साधक की है। वे संन्यासी से बात कर रहे हैं। अगर महावीर खड़े होते कृष्ण की जगह तो जो सलाह कृष्ण ने दी है, मैं कहता हूं कि वही सलाह महावीर ने दी होती। क्योंकि कोई और उपाय न था; वह परिस्थिति साफ थी। लेकिन महावीर वहां नहीं थे; महावीर की परिस्थिति और थी। महावीर किसी युद्ध के मैदान पर नहीं खड़े थे। महावीर संन्यस्त हैं, उन्होंने संसार छोड़ दिया है। वे जो सलाह दे रहे हैं वह संन्यासी को दे रहे हैं। वे उससे कह रहे हैं कि तू अहिंसा की तरफ बढ़ और हिंसा को छोड़, क्योंकि हिंसा से हिंसा ही पैदा होती है। लेकिन महावीर क्या करते कृष्ण की स्थिति में? या तो वे कह देते मैं सलाह नहीं देता, जो कि उचित न होता; और या वे वही सलाह देते जो कृष्ण ने दी है।
कई बार मैंने इस बात को सोचा है कि अगर परिस्थिति वही हो और ज्ञानी बदल दिया जाए तो क्या ज्ञानी दूसरी सलाह दे सकेगा? और मैंने बहुत सोच कर यही पाया है कि असंभव है! ज्ञानी वही सलाह देगा, क्योंकि कोई उपाय ही नहीं है। अगर महावीर होते अरब में और हिंदुस्तान में नहीं--क्योंकि हिंदुस्तान की हवा और, हिंदुस्तान की बात और। हजारों-हजारों साल की अहिंसा का शिक्षण है इस मुल्क के पास। ठीक वेदों से लेकर, और महावीर चौबीसवें तीर्थंकर हैं, उनके पहले तेईस महान विराट पुरुषों ने अहिंसा के फूल बिछाए हैं; एक धारा है; पीछे से आता एक महान प्रवाह है! उस प्रवाह के कारण पूरे मुल्क में अहिंसा की भाषा को समझने की क्षमता है। तो महावीर यह बात कह सके। मोहम्मद के पीछे कोई प्रवाह नहीं है। मोहम्मद पहले हैं; महावीर आखिरी हैं। एक बड़ी धारा के महावीर आखिरी पुरुष हैं। और मोहम्मद एक बड़ी धारा के पहले पुरुष हैं। बड़ा फर्क है। फिर अरब, जहां सिवाय जंगली, खूंखार लोगों के और कोई भी नहीं; जिनके पास न कोई संस्कृति है, न कोई सभ्यता है; जिनके पास कोई अतीत नहीं है; जिनकी अतीत में कोई जड़ें नहीं हैं; जिनके पीछे कोई इतिहास नहीं है; जो बिलकुल असंस्कृत हैं। इन आदमियों से अगर तुम अहिंसा की बात करते तो तुम ही मूढ़ सिद्ध होते। क्योंकि इनसे बात ही नहीं की जा सकती; अहिंसा का कोई अर्थ ही नहीं होता। हिंसा एकमात्र बात थी जिसे वे समझ सकते थे।
तो मोहम्मद ने उन्हें समझाने की चेष्टा स्वभावतः उन्हीं की भाषा में की, और कोई उपाय नहीं था। तो मोहम्मद ने भी तलवार उठाई। लेकिन तलवार पर मोहम्मद ने लिख रखा था: शांति मेरा संदेश है। यह तलवार की भाषा से शांति समझाने का उपाय है। कोई और रास्ता नहीं था। तो तलवार पर लिखना पड़ा है बेचारे मोहम्मद को अपना संदेश कि शांति मेरा संदेश है। इसलाम शब्द का अर्थ होता है शांति। शांति भी समझानी पड़ी तो तलवार से। क्योंकि जो समझने वाले थे उन पर सब निर्भर करता है।
आखिर जब मैं तुम्हें समझाता हूं तो तुम्हारी ही भाषा में बोलना पड़ेगा, और तो कोई उपाय नहीं है। या मैं अपनी भाषा बोलता रहूं, जिस भाषा को तुम समझते ही नहीं, तो मैं पागल हूं। महावीर अगर मोहम्मद की जगह होते, वही तलवार महावीर के हाथ में होती और वही संदेश होता कि शांति मेरा संदेश है। और मोहम्मद अगर भारत में पैदा होते महावीर के समय में, तो वे चौबीसवें तीर्थंकर हो जाते। कोई बचने का उपाय न था।
लेकिन परिस्थिति बदल जाती है रोज। और परिस्थिति तय करती है कि क्या कहा जाए, क्या न कहा जाए; कहां तक लोग बढ़ सकेंगे, कहां तक लोग जा सकेंगे; कितने दूर तक लोगों की चेतना को खींचा जा सकता है। कहीं ऐसा तो न होगा कि जो हम कहें, वह लोगों को असंभव मालूम पड़े, इसलिए वे उसकी बात ही छोड़ दें।
ऐसा समझो कि अगर मैं तुम्हें कोई बात बताऊं, वह इतनी दूर मालूम पड़े कि जैसे एवरेस्ट का शिखर हो, तो तुम बात ही छोड़ दो, तुम कहो कि यह अपने से होने वाला नहीं है; अपनी जिंदगी ठीक, और अपन ठीक। लेकिन मैं तुम्हें एक छोटी सी पहाड़ी बताऊं जिसको तुम चढ़ सकते हो, फिर तुम्हें और बड़ी पहाड़ी बताऊं; क्योंकि छोटी पहाड़ी पर चढ़ने के बाद तुम्हारा साहस बढ़ जाएगा, स्वयं में आस्था बढ़ जाएगी; फिर और बड़ी पहाड़ी बताऊं। एक दिन जब तुम्हें रस पकड़ जाए पहाड़ों को चढ़ने का, तब मुझे बताना भी न पड़ेगा, तुम खुद ही पूछने लगोगे कि अब आखिरी बता दें! बार-बार चढ़ने-उतरने का क्या सार; अब उसको ही चढ़ लें जिसके बाद चढ़ने को फिर कुछ बचता नहीं है।
तुम्हें देख कर बोलना पड़ता है: तुम्हारी समझ कहां तक खींची जा सकती है? कहीं ऐसा तो न होगा कि बात बिलकुल तुम्हारे सिर पर से निकल जाएगी।
और निश्चित ही अर्जुन भला आदमी था, अत्यंत भला था। अन्यथा कभी युद्ध के मैदान में किसी को इतना होश आता है कि सोचे? क्रोध से, ज्वर से भरा हुआ जब दुश्मन सामने खड़ा हो, तुम्हें भी खयाल आता है कभी? जब दूसरा तुम्हें गाली दे रहा हो और शंख बजा दिए हों युद्ध के, तब तुम्हें यह खयाल आता है कि मारूं, न मारूं? मारना उचित होगा कि न मारना? खयाल की बात कहां, तुम्हें होश ही नहीं रह जाता। युद्ध के क्षण में होश की बात करनी, युद्ध के क्षण में इस तरह बोलना जैसा संन्यासी को शोभा देता है; सैनिक की बात ही नहीं है अर्जुन में।
और यह, जिस गणित को मैं निरंतर तुम्हें समझाता हूं, उसे फिर तुम्हें समझाऊं: जब कोई सैनिक अपनी सैन्य शक्ति की पराकाष्ठा पर होता है तब संन्यास का जन्म हो जाता है। क्योंकि जान लिया सब; अर्जुन ने सब जान लिया खेल मारने का, मरने का। वह कोई छोटा-मोटा सैनिक नहीं है; उससे बड़ा कोई सैनिक नहीं हुआ। वह प्रतिमान है सैनिकों का। उसने सब जान लिया; सब तरह के खेल हिंसा के जान लिए। इस तरफ या उस तरफ उसका कोई भी मुकाबला नहीं है। वह बेजोड़ है। इस बेजोड़ सैनिक के मन में संन्यास का भाव आ रहा है। छोटे-मोटे सैनिक के मन में नहीं आता; अभी सेना की यात्रा बाकी है, अभी लड़ना बाकी है। यह लड़ चुका, जीत चुका, सब देख चुका; सबको व्यर्थ पाया, संन्यास का भाव उठ रहा है।
इसलिए तुम चकित होओगे, क्षत्रियों ने जितने संन्यासी पैदा किए हैं, और जितने गहन संन्यासी, उतने ब्राह्मणों ने पैदा नहीं किए। क्षत्रियों की बात ही और है। उन्होंने देख लिया सब राग-रंग हिंसा का, इसलिए अहिंसा की बात उनकी समझ में आती है।
इसलिए मैं गांधी और महावीर की स्थिति को बड़ा भिन्न मानता हूं। महावीर क्षत्रिय हैं; गांधी बनिया हैं। महावीर जिनको समझा रहे थे वे सब सैन्य-जीवन में निष्णात लोग थे; गांधी जिनको समझा रहे थे वे सब डरे हुए, डरपोक लोग थे, भयभीत लोग थे। अन्यथा एक हजार साल तक कोई कौम गुलाम रहती है? और एक छोटी सी कौम इतनी विराट कौम को तीन सौ साल तक, दो सौ साल तक गुलाम रख ले! उसके पहले आठ सौ साल तक इसलाम गुलाम रखे! एक हजार साल लंबे समय तक जो कौम गुलाम रही हो, वह कोई बहादुरों की कौम नहीं हो सकती। वे डरपोक हैं, कमजोर हैं, कायर हैं। गांधी कायरों से बोल रहे थे।
और इसलिए गांधी की अहिंसा सिर्फ एक तरकीब थी। मनुष्य बहुत तरकीबें खोजता है अपनी कायरता को छिपा लेने की। और गांधी की बात कायरों को जंच गई और काम भी कर गई। काम भी कर गई, लेकिन काम होते ही सब बिखर गया। क्योंकि जैसे ही कायर ताकत में आए, फिर वे भूल गए अहिंसा वगैरह। बिलकुल आसान था ब्रिटिश हुकूमत से लड़ना अहिंसा से, क्योंकि हिंसा से लड़ने की हमारी कोई सामर्थ्य ही न थी। लेकिन जैसे ही शक्ति में आई अहिंसकों की सेना, वैसे ही वे सब हिंसक हो गए, वैसे ही उठा ली बंदूक।
यह कायर की अहिंसा थी जो अपने को छिपा रहा था। अन्यथा असली रूप तो तब प्रकट होता जब सत्ता हाथ में आती। अगर ये असली अहिंसक थे तो जब तुम बिना सत्ता के अहिंसक रह सके तो सत्ता में तो तुम्हें बिलकुल अहिंसक हो जाना था। जब दुश्मन से तुम लड़ सके अहिंसा से तो अपने ही लोगों को समझाने में अहिंसा काम न आई? अपने ही लोगों की छाती में गोली दागने में तुम्हें रास्ता दिखाई पड़ता है?
साफ है मामला। तुम्हारे हाथ में गोली न थी, न हाथ तैयार थे, न हिम्मत थी गोली चलाने की अंग्रेज के खिलाफ। लेकिन अब ये गरीब हिंदुस्तानियों के खिलाफ तो तुम गोली मजे से चला सकते हो; कोई अड़चन नहीं है। हाथ में बंदूक भी है, ताकत भी है, चलाओ गोली।
तो जितनी गोली इन पच्चीस साल की आजादी में अहिंसावादियों ने चलाई है, गांधीवादियों ने चलाई है, उतनी अंग्रेजों ने अपने पूरे दो सौ साल में नहीं चलाई थी। सच बात तो यह है कि गांधी की अहिंसा जीत सकी, क्योंकि अंग्रेज कौम बड़ी विशिष्ट कौम है। अन्यथा जीत नहीं सकती थी।
थोड़ी देर को समझो कि अंग्रेजों की जगह जर्मन होते; गांधी-वांधी की कोई स्थिति नहीं थी। अंग्रेज बड़ी सुसंस्कृत कौम है। वह अहिंसा की भाषा को समझ सकी। जर्मन होते, मिट्टी में मिला देते। गांधी को कोई इतना सम्हाल कर रखने की जरूरत नहीं। तुम थोड़ा सोचो, अंग्रेज गांधी को न मार पाए और हिंदुओं ने खुद मार दिया! अंग्रेजों को क्या दिक्कत थी इस आदमी को मिटाने में? इतना आसान मामला था, इससे ज्यादा आसान कुछ भी नहीं था कि इस आदमी को मिटा दो, झंझट खतम करो।
लेकिन नहीं; अंग्रेज जाति के पास एक अंतःकरण है, एक समझ है; उदार है। यह आदमी अहिंसक था तो इसको मिटाया नहीं; इसको बचाया, सम्हाला; इसको सब तरह से सम्हाला; और धीरे से इसको राज्य भी सौंप दिया। फिर हमने ही मार डाला। वल्लभ भाई पटेल न बचा सके जो कि गांधी के सरदार थे, और अंग्रेज बचाए रहे। और ऐसी संभावना है पूरी कि गांधी के मारने में जाने-अनजाने गांधीवादियों का भी हाथ है। कहता हूं, जाने-अनजाने। अचेतन मन से वे भी चाहते थे कि अब यह बुड्ढा खतम हो, क्योंकि अब यह एक उपद्रव था। पहले तो यह नेता था, अब यह एक उपद्रव था। पहले तो यह कायरों को छिपाने का आवरण था। और अब? अब यह हर चीज में अड़ंगा डाल रहा था। क्योंकि यह अब भी अपनी अहिंसा का राग लगाए हुए था।
गांधी की अहिंसा वस्तुतः कायर आदमी की सांत्वना है। और गांधी ने पूरा अहिंसा का शास्त्र बड़ी कायरता से विकसित किया। अगर तुम गांधी का जीवन ठीक से समझने की कोशिश करो तो तुम पाओगे, यह आदमी अपनी जवानी में बहुत कायर आदमी था। इतना कायर कि कहना मुश्किल है। जब वे भारत से यूरोप की यात्रा पर जा रहे थे तो कसम मां ने दिला दी ब्रह्मचर्य की।
वह कसम भी कायरता में ही खाई होगी; क्योंकि मां कहती थी, जाने न देंगे, अगर ब्रह्मचर्य की कसम न खाई। तो कसम खा ली, क्योंकि जाना था। एक सज्जन से मित्रता हो गई जहाज पर। और जब कैरो में जहाज रुका तो वे सज्जन वेश्या के घर जा रहे थे, जैसा कि जहाज में यात्रा करने वाले लोग, हर जगह जहां जहाज रुकता है, स्त्रियों की तलाश करने निकलते हैं। और हर जहाजी नगर वेश्याओं का घर हो जाता है। वह आदमी एक वेश्या के यहां जा रहा था। उसने कहा कि आओ, चलो भी!
गांधी इतने कायर कि उससे यह न कह सके कि मुझे नहीं जाना है। तब तुम्हें समझ में आएगा कि ब्रह्मचर्य का व्रत भी कैसे लिया होगा। मां ने कहा लो, तो ले लिया। इस आदमी ने कहा चलो, तो अब उनको ऐसा लगा अगर मैं कहूं कि मुझे नहीं जाना है या ब्रह्मचर्य का व्रत ले लिया है तो यह आदमी समझेगा कि पता नहीं नपुंसक है, क्या है, क्यों डरता है। डर के मारे उसके साथ चले गए। हाथ-पैर कंप रहे हैं, क्योंकि व्रत लिया है। डर लग रहा है कि अब यह बड़ी मुसीबत हुई। और इसको भी न नहीं कह सकते और वह आदमी ऐसा है जिद्दी कि वह सुनेगा भी नहीं। वह ठीक वेश्या के घर ले गया। उसने जाकर वेश्या के कमरे में उनको प्रवेश भी करवा दिया।
वे उस वेश्या से भी न कह सके कि मैंने ब्रह्मचर्य का व्रत लिया है और मुझ पर कृपा करो, मुझे जाने दो, मैं बड़ी भूल में आ गया। वे आंख बंद करके बैठ गए वहां। हाथ कंप रहे हैं, पसीना बह रहा है; वह वेश्या बेचारी सेवा कर रही है कि यह मामला क्या हो गया! किसी तरह हिम्मत जुटा कर वहां से वापस लौटे।
उनका अगर पूरा जीवन पढ़ो तो तुम पाओगे कि सारे जीवन का सूत्र कायरता थी। वे भीरु आदमी थे और उनका धर्म भीरु का धर्म था। और उसी भीरुता में से उन्होंने धीरे-धीरे अहिंसा का शास्त्र निकाला। तो कायरता तो छिप गई और अहिंसा ऊपर आ गई।
मगर बहुत मुश्किल है, क्योंकि एक दफा जब हम एक आदमी को स्वीकार कर लेते हैं, पूजने लगते हैं, तो कभी उसके जीवन का ठीक-ठीक विश्लेषण नहीं करते, और कभी उसके जीवन की पर्तों में नहीं उतरते कि उसका जीवन कैसे निर्मित हुआ।
महावीर की बात और है। वह एक क्षत्रिय की अहिंसा थी। वह अहिंसा किसी कायरता से पैदा नहीं हो रही थी। वह अहिंसा बड़े अभय से आई थी। और कृष्ण भी क्षत्रिय हैं; वे भी समझ लेते महावीर की अहिंसा को। मोहम्मद भी क्षत्रिय हैं; वे भी समझ लेते महावीर की अहिंसा को। ये लड़ाके हैं, और अहिंसा तो आखिरी लड़ाई है। तब तुम प्रेम से लड़ते हो, मगर वह लड़ाई है। हिंसा में तुम घृणा से लड़ते हो, क्योंकि तुम्हें अपने प्रेम का भरोसा नहीं है। और हिंसा में तुम तलवार उठाते हो, क्योंकि तुम्हें अपने बल पर भरोसा नहीं है, तलवार का सहारा लेते हो।
अहिंसा आदमी की आखिरी ताकत है। तब वह तलवार छोड़ देता है, क्योंकि हाथ काफी हैं। तब वह शस्त्र छोड़ देता है, क्योंकि हृदय काफी है। तब वह हमला नहीं करता, क्योंकि प्रार्थना काफी है। तब वह तुम्हें अपने प्रेम से हरा देता है। वह तुम्हें हराना भी नहीं चाहता, क्योंकि वह भी व्यर्थ है। वह तुम्हारे ऊपर जीतना भी नहीं चाहता, क्योंकि वह भी हिंसा है। वह तुमसे हार जाता है, और तुम्हें हरा देता है।
वही लाओत्से का पूरा शास्त्र है कि तुम हारो। और तुम जिससे हार जाओगे उसे तुम हरा दोगे। इसलिए लाओत्से स्त्रैण शक्ति का बड़ा हामी और बड़ा तरफदार है। वह कहता है, स्त्री की ताकत क्या है? स्त्री की ताकत यह है कि वह जिसको प्रेम करती है उससे हार जाती है। और तुम्हें पता है कि वह हार कर तुम पर पूरा कब्जा कर लेती है। तुम्हें लगता है तुम जीत गए; जीतती वही है।
एक कमजोर से कमजोर स्त्री जो तुम्हारे प्रेम में तुमसे हार जाती है, और तुम्हारे कंधे का ऐसा ही सहारा लेती है जैसे कोई लता वृक्ष का सहारा लेकर चढ़ती है--बिलकुल कमजोर, अपने में खड़ी भी न हो सकेगी लता, वृक्ष का सहारा चाहिए। एक स्त्री बिलकुल हार जाती है; लता की तरह तुम्हारे चारों तरफ लिपट जाती है--बिलकुल हारी हुई। लेकिन अंततः तुम पाओगे कि वह जीत गई, तुम हार गए। वह बिना कहे, जो करवाना चाहती है, करवा लेती है। वह बिना इशारे के तुम्हें चलाती है। वह तुम्हारे पीछे होती है, लेकिन वस्तुतः तुम्हारे आगे होती है। उसकी तरकीब आगे होने की यही है कि वह तुम्हारे पीछे हो जाती है। वह तुम्हें प्रेम में दबा लेती है। वह तुम्हें सेवा से भर देती है। वह तुम्हारे आस-पास इतनी कोमल हवा को पैदा कर देती है कि तुम उस हवा को तोड़ना भी न चाहोगे।
जब भी कोई स्त्री प्रेम में होती है तब जो घटना घटती है वही अहिंसक के पास भी घटती है। हिंसा पुरुष के मन का लक्षण है। अहिंसा स्त्री के हृदय का भाव है।
अहिंसा से ही अहिंसा आती है; हिंसा से कभी अहिंसा नहीं आती। लेकिन ऐसी स्थितियां हो सकती हैं जब हिंसा-अहिंसा के बीच चुनाव ही नहीं होता; चुनाव अच्छी हिंसा और बुरी हिंसा के बीच
होता है। और कभी-कभी ऐसी स्थिति भी आती है कि चुनाव अच्छी अहिंसा और बुरी अहिंसा के बीच होता है। और यही मैं फर्क करता हूं महावीर और गांधी की अहिंसा में। महावीर की अहिंसा, बात और। उसके भीतर अभय है; वह अच्छी अहिंसा है। गांधी की अहिंसा, बात और। उसके भीतर भय है और कायरता है। वह बुरी अहिंसा है।
तो चार चीजें हैं संसार में। हिंसा और अहिंसा दो चीजें ही होतीं तो आसान हो जाता मामला; जटिल है मामला। यहां अच्छी अहिंसा भी है, रुग्ण अहिंसा भी है। यहां स्वस्थ हिंसा है और रुग्ण हिंसा भी है। और इन चारों के बीच केवल वही चुनाव कर सकता है जिसकी अंतःप्रज्ञा बहुत थिर हो गई हो। जब तुम चीजों के आर-पार देखने में समर्थ हो जाओगे तुम्हारे ध्यान से, तभी तुम्हें साफ हो पाएगा। क्योंकि बुरी अहिंसा भी अहिंसा मालूम पड़ती है और अच्छी हिंसा भी हिंसा मालूम पड़ती है। इसलिए तुम्हें या तो मोहम्मद और कृष्ण हिंसक मालूम पड़ेंगे, अगर तुम अच्छी हिंसा को देखने में समर्थ नहीं हो। और या तुम्हें गांधी अहिंसक मालूम पड़ेंगे, अगर तुम बुरी अहिंसा को पहचानने में समर्थ नहीं हो।
तुम्हारी प्रज्ञा इतनी गहन जब हो जाएगी, जब विचार शांत हो जाएंगे और तुम्हारा मन का दर्पण उजला होगा, धूल हट गई होगी, तभी तुम देख पाओगे। और तब तुम हर जगह यह बात पाओगे कि यहां अच्छा चरित्र भी है और बुरा चरित्र भी है; यहां अच्छे अपराधी हैं, बुरे अपराधी भी हैं; यहां संत भी अच्छे हैं और बुरे संत भी हैं। क्योंकि तुम्हें यह लगेगा कि यह तो बड़ी मैं अटपटी बात कह रहा हूं, क्योंकि संत यानी अच्छा। लेकिन संतत्व भी अगर भय पर खड़ा हो तो बुरा और असंतत्व भी अगर अभय पर खड़ा हो तो अच्छा।
जीवन थोड़ा जटिल है; उतना सरल नहीं जितना तुम गणित को सरल पाते हो। और जीवन की जटिलता को पहचानने की क्षमता जब तक विकसित न हो, तब तक बहुत सी बातें जो मैं तुमसे कहता हूं, तुम समझ न पाओगे। और डर यह है कि तुम कहीं उलटा न समझ लो। इसलिए बहुत होश से मेरे साथ चलना, क्योंकि बहुत बार मैं बहुत खतरनाक रास्ते पर चलता हूं। चलना जरूरी है, क्योंकि ऐसे ही चल-चल कर तुम्हारा अभ्यास भी होगा और खतरनाक रास्ते भी सुगम और सरल हो जाएंगे।
आखिरी सवाल:
एक मित्र ने पूछा है कि भगवान, अठारह वर्ष की उम्र से, कैसे प्रबुद्ध हो जाएं, इसकी ही उत्कंठा रही है। प्रबुद्धता तो नहीं मिली, एक सतत सिरदर्द पैदा हो गया है; एक तनाव, एक बेचैनी। और वह बेचैनी धीरे-धीरे चौबीस घंटे का सिरदर्द बन गई है। तो अब क्या करें?
बन ही जाएगी। क्योंकि प्रबुद्धता को पाने की आकांक्षा प्रबुद्धता के पाने में बाधा है। तुम उसे इस तरह न पा सकोगे, चाह कर न पा सकोगे। क्योंकि चाह तो तनाव पैदा करेगी; तनाव सिरदर्द बन जाएगा। और इस संसार की चीजों को पाना हो तो शायद तुम कोशिश करके पा भी लो; उस संसार की चीजें तो तुम्हारी मौन दशा में ही अवतरित होती हैं। उनको पाने का ढंग ही यही है कि तुम्हारे भीतर पाने वाला भी खो जाए। अन्यथा सिरदर्द पैदा हो जाएगा।
अब क्या किया जाए?
प्रबुद्धता को पाने का खयाल छोड़ दो। इस क्षण आनंदित और शांत होने की फिक्र लो। कल की बात ही मत पूछो और कल की बात ही मत सोचो। यह क्षण आनंद में बीत जाए, काफी। क्योंकि दूसरा क्षण इसी क्षण से तो पैदा होगा। अगर यह क्षण आनंद में बीत गया तो दूसरा क्षण भी अपने आप और गहरे आनंद में बीतेगा। आएगा कहां से दूसरा क्षण? दूसरा क्षण भी तुमसे ही पैदा होता है। तुम अगर प्रसन्न हो अभी तो कल भी प्रसन्न होओगे। तुम कल की बात ही मत पूछो। आज जीओ! और जो व्यक्ति भी आज जीता है, उसके सिरदर्द खो जाते हैं।
फिर भी, हो सकता है, लंबे अभ्यास से सिरदर्द न केवल मानसिक रहा हो, शारीरिक हो गया हो; न केवल मन में रहा हो, बल्कि मस्तिष्क के स्नायुओं में प्रवेश कर गया हो। तो फिर एक काम करो; सिरदर्द को हटाने की कोशिश मत करो, लाने की कोशिश करो।
यह तुम्हें बहुत कठिन मालूम पड़ेगा, लेकिन यह बड़ा अदभुत उपाय है। और न केवल सिरदर्द में, बहुत सी बातों में कारगर है।
सिरदर्द को तुम जितना हटाने की कोशिश करते हो, तुम उतने ही तनाव से भर जाते हो। और सिरदर्द पैदा हो जाता है। पहला सिरदर्द तो रहता ही है; दूसरा सिरदर्द कि सिरदर्द को कैसे हटाएं। सिरदर्द है, उसे स्वीकार कर लो। स्वीकार करते ही, तुम्हारे स्नायु शिथिल हो जाएंगे। स्वीकार करते ही आधा सिरदर्द तो गया। न केवल स्वीकार कर लो, बल्कि अहोभाव से परमात्मा के प्रति अनुगृहीत भी हो जाओ--कि तूने सिरदर्द दिया, जरूर कोई कारण होगा, जरूर कोई राज होगा, हम स्वीकार करते हैं। हमें कुछ पता भी नहीं कि इस सिरदर्द से कल क्या फायदा होने वाला है। कुछ पता नहीं। हम स्वीकार करते हैं।
तुम सिरदर्द को लाने की कोशिश करो कि आ जाए। जब सिरदर्द हो, तब तुम पूरी कोशिश करो कि वह अपनी पूरी त्वरा को उपलब्ध हो जाए, तीव्रता को उपलब्ध हो जाए। और तुम चकित हो जाओगे कि कुछ ही दिनों में जितना तुम लाने की कोशिश करते हो उतना ही वह आना मुश्किल हो गया। और जितना तुम उसे त्वरा देने की कोशिश करते हो वह उतना ही कम हो गया। और जितना तुम स्वीकार करते हो वह उतना ही समाप्त हो गया।
यही लाओत्से की विधि है। जीवन के दुख को स्वीकार कर लो और दुख चला जाता है। जो भी हो रहा है, उसे स्वीकार कर लो; संघर्ष मत करो। संघर्ष के हटते ही सभी चीजें सरल और शुभ और शांत और आनंदपूर्ण हो जाती हैं।
एक युवक यहां पूना में है। वह एक कालेज में प्रोफेसर है। उसने कोई पांच साल पहले मुझे आकर कहा कि एक बड़ी मुसीबत है उसकी। और मुसीबत यह है कि वह भूल जाता है और बार-बार इस तरह चलने लगता है जिस तरह स्त्रियां चलती हैं। तो कालेज में तो मुसीबत हो ही जाएगी। कहीं भी होओ तो मुसीबत होगी, लोग हंसेंगे; फिर कालेज तो सबसे ज्यादा खतरनाक जगह हो गई। वहां हजार, पांच सौ विद्यार्थी, और कोई प्रोफेसर स्त्रियों जैसा चले, तो वह तो मजाक का, हंसी का आधार बन गया। और वह जितना इससे बचने की कोशिश करता है--क्योंकि वह सम्हल कर जाता है, एक-एक कदम सम्हल कर उठाता है--लेकिन जितना ही वह बचने की कोशिश करता है उतनी ही मुश्किल में पड़ जाता है।
तो मैंने उस युवक को कहा, तू एक काम कर, तू स्त्रियों जैसा चलने का अभ्यास कर। हंसी तो हो ही रही है, मजाक तो हो ही रही है, बदनामी तो हो ही रही है; अब इससे ज्यादा कुछ और होगा नहीं। अब जब हो ही रहा है स्त्री जैसा चलना, तो कुशलता से चलो।
उसने कहा, क्या आप कहते हैं! मैं मरा जा रहा हूं इसको हटा-हटा कर और आप कहते हैं कि अभ्यास करूं?
मैंने कहा, तू हटा-हटा कर हटा नहीं पाया, हमारी भी बात सुन ले। तू कल अब कालेज जा और घर से ही स्त्री जैसा चलने की कोशिश करता हुआ जा।
डरा बहुत, पर उसने हिम्मत की। और तीन महीने तक निरंतर, जब भी वह कालेज जाए, तो होशपूर्वक स्त्री जैसा चलने की कोशिश करे। लेकिन तीन महीने में एक बार भी सफल न हो पाया, स्त्री जैसा न चल पाया।
मन का एक यंत्र है; कुछ चीजें हैं जो अचेतन हैं। अगर तुम उन्हें चेतन बना लोगे, विलीन हो जाएंगी। कुछ चीजें इसीलिए जीती हैं, क्योंकि तुम उनसे लड़ते हो। अगर तुम स्वीकार कर लो, वे समाप्त हो जाएंगी।
यही मैं सिरदर्द के संबंध में कहता हूं। और यही तुम्हारे जीवन की बहुत सी चीजों के संबंध में तुम प्रयोग करके देखना। अलग-अलग होंगे उपद्रव तुम्हारे जीवन में, लेकिन स्वीकार करना, अहोभाव से स्वीकार करना, और फिर देखना, तुमने उनका प्राण ही छीन लिया! तुमने उनकी जड़ काट दी! तुमने मूल स्रोत पर चोट कर दी!
आज इतना ही।