LAO TZU

Tao Upanishad 118

One Hundred And Eighteenth Discourse from the series of 127 discourses - Tao Upanishad by Osho. These discourses were given during JUN 19-26, 1971 - APR 10 1975.
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Chapter 74

ON PUNISHMENT (3)

The people are not afraid of death; Why threaten them with death? Supposing that the people are afraid of death, And we can seize and kill the unruly, Who would dare to do so? Often if happens that the executioner is killed. And to take the place of the executioner Is like handling the hatchet for the master carpenter. He who handles the hatchet for the master carpenter Seldom escapes injury to his hands.
अध्याय 74

दंड (3)

लोग मृत्यु से भयभीत नहीं हैं; तब उन्हें मृत्यु की धमकी क्यों दी जाए? मान लो कि लोग मृत्यु से भयभीत हैं, और हम उपद्रवियों को पकड़ कर मार सकते हैं; कौन ऐसा करने की हिम्मत करेगा? अक्सर ऐसा होता है कि बधिक मारा जाता है। और बधिक की जगह लेना ऐसा है, जैसे कोई महा काष्ठकार की कुल्हाड़ी लेकर चलाए। जो महा काष्ठकार की कुल्हाड़ी हाथ में लेता है, वह शायद ही अपने हाथों को जख्मी करने से बच पाता है।
मनुष्य आज तक भय को आधार बना कर जीया है। इसलिए कुछ आश्चर्य नहीं है कि जीवन नरक हो गया हो। भय नरक का द्वार है। प्रेम अगर स्वर्ग का द्वार है तो भय नरक का।
समाज की, राज्य की सारी व्यवस्था भय-प्रेरित है। हमने डरा कर लोगों को अच्छा बनाने की कोशिश की है। और डर से बड़ी कोई बुराई नहीं है। यह तो ऐसे ही है जैसे कोई जहर से लोगों को जिलाने की कोशिश करे। भय सबसे बड़ा पाप है। और उसको ही हमने आधार बनाया है जीवन के सारे पुण्यों का। तो हमारे पुण्य भी पाप जैसे हो गए हैं। हो ही जाएंगे।
इसे हम थोड़ा समझने की कोशिश करें। सुगम है लोगों को भयभीत कर देना। प्रेम से आपूरित करना तो बहुत कठिन है, क्योंकि प्रेम के लिए चाहिए एक आंतरिक विकास। भय के लिए विकास की कोई भी जरूरत नहीं। एक छोटे से बच्चे को भी भयभीत किया जा सकता है। लेकिन छोटे से बच्चे को तुम प्रेम कैसे सिखाओगे? प्रेम तो लोग नहीं सीख पाते मृत्यु के क्षण तक; अधिक लोग तो बिना प्रेम सीखे ही मर जाते हैं।
छोटे बच्चे को अच्छा काम करवाना हो तो क्या करोगे?
भयभीत करो, मारो, डांटो, डपटो, भूखा रखो, दंड दो। छोटा बच्चा असहाय है। तुम उसे डरा सकते हो। वह तुम पर निर्भर है। मां अगर अपना मुंह भी मोड़ ले उससे और कह दे कि नहीं बोलूंगी, तो भी वह उखड़े हुए वृक्ष की भांति हो जाता है। उसे डराना बिलकुल सुगम है, क्योंकि वह तुम पर निर्भर है। तुम्हारे बिना सहारे के तो वह जी भी न सकेगा। एक क्षण भी बच्चा नहीं सोच सकता कि तुम्हारे बिना कैसे बचेगा।
और मनुष्य का बच्चा सारे पशुओं के बच्चों से ज्यादा असहाय है। पशुओं के बच्चे बिना मां-बाप के सहारे भी बच सकते हैं। मां-बाप का सहारा गौण है; जरूरत भी है तो दो-चार दिन की है; महीने, पंद्रह दिन की है। मनुष्य का बच्चा एकदम असहाय है। इससे ज्यादा असहाय कोई प्राणी नहीं है। अगर मां-बाप न हों तो बच्चा बचेगा ही नहीं। तो मृत्यु हमेशा किनारे खड़ी है। मां-बाप के सहारे ही जीवन खड़ा होगा। मां-बाप के हटते ही, सहयोग के हटते ही, जीवन नष्ट हो जाएगा। इसलिए बच्चे को डराना बहुत ही आसान है। और तुम्हारे लिए भी सुगम है। क्योंकि डराने में कितनी कठिनाई है? आंख से डरा सकते हो; व्यवहार से डरा सकते हो। और डरा कर तुम बच्चे को अच्छा बनाने की कोशिश करते हो।
वहीं भ्रांति हो जाती है। क्योंकि भय तो पहली बुराई है। अगर बच्चा डर गया और डर के कारण शांत बैठने लगा, तो उसकी शांति के भीतर अशांति छिपी होगी। उसने शांति का पाठ नहीं सीखा; उसने भय का पाठ सीखा। अगर डर के कारण उसने बुरे शब्दों का उपयोग बंद कर दिया, गालियां देनी बंद कर दीं, तो भी गालियां उसके भीतर घूमती रहेंगी, उसकी अंतरात्मा की वासिनी हो जाएंगी। वह ओंठों से बाहर न लाएगा। उसने पाठ यह नहीं सीखा कि वह सदव्यवहार करे, सदवचन बोले, भाषा का काव्य सीखे, भाषा की गंदगी नहीं। वह नहीं सीखा, उसने इतना ही सीखा कि कुछ चीजें हैं जो प्रकट नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उनसे खतरा है।
मैंने सुना, मुल्ला नसरुद्दीन अपने बेटे को सिखा रहा था कि गालियां देना बुरा है। बेटा बड़ा होने लगा था, आस-पड़ोस भी जाने लगा था, स्कूल भी; वह गालियां सीख कर आने लगा था। सब तरफ गालियों का बाजार है। तो मुल्ला नसरुद्दीन ने वही किया जो कोई भी पिता करेगा। उसने बच्चे को कहा कि यह देखो, यह दंड की व्यवस्था है। अगर तुमने इस तरह की गाली दी कि तुमने किसी को गधा कहा, उल्लू का पट्ठा कहा, तो तुम्हें चार आने--तुम्हें जो रुपया एक रोज मिलता है--उसमें से चार आने कट जाएंगे, एक बार तुमने गाली दी तो। दो बार दी, आठ आने कट जाएंगे। चार बार तुमने इस तरह की गाली का उपयोग किया, पूरा रुपया कट जाएगा। ज्यादा गाली दी, कल का रुपया भी आज कटेगा। नंबर दो की गाली, पिता ने कहा, कि और अगर तुमने किसी को कहा साला, बदमाश, तो आठ आने कटेंगे। ऐसा उसने फेहरिस्त बना दी, चार तरह की गहरी से गहरी गालियां बता दीं। एक रुपया कटने का इंतजाम कर दिया अगर चौथे ढंग की गाली दी। लड़के ने कहा, यह तो ठीक है, लेकिन मुझे ऐसी भी गालियां मालूम हैं कि पांच रुपया भी काटो तो भी कम पड़ेगा। उनका क्या होगा?
ऊपर से तुम दबा दोगे, भीतर चीजें भरी रह जाएंगी। ऊपर से तुम ढक्कन बंद कर दोगे, आत्मा में धुआं गूंजता रह जाएगा। यह ढक्कन भी तभी तक बंद रहेगा जब तक भय जारी रहेगा। कल बच्चा जवान हो जाएगा, तुम बूढ़े हो जाओगे, तब भय उलटे रूप ले लेगा। तब तुमने जो-जो दबाया था वही-वही प्रकट होने लगेगा। बहुत कम बच्चे हैं जो बड़े होकर अपने बाप के साथ सदव्यवहार कर सकें। पैर भी छूते हों तो भी उसमें सदभाव नहीं होता। बूढ़े बाप के साथ अच्छा व्यवहार करना बड़ा ही कठिन है। कारण?
कारण है कि जब तुम बच्चे थे तब बाप ने जो व्यवहार किया था वह अच्छा नहीं था। इसे तो कोई भी नहीं देखता कि बाप बेटे के साथ बचपन में कैसा व्यवहार कर रहा है। यह सभी को दिखाई पड़ेगा कि बेटा बाप के साथ बुढ़ापे में कैसा व्यवहार कर रहा है। लेकिन जो तुम बोओगे उसे काटना पड़ेगा। उससे बचने का कोई उपाय नहीं है। आज बच्चा सबल हो गया है, बाप अब बूढ़ा होकर दुर्बल हो गया है, इसलिए नाव उलटी हो गई है। अब बच्चा भयभीत करेगा। अब वह जवान है, अब वह तुम्हें डराएगा। वह तुम्हें दबाएगा।
भय से कुछ भी नष्ट नहीं होता, सिर्फ दब जाता है। और जब भय की स्थिति बदल जाती है तो बाहर आ जाता है। तो तुम्हें समाज में दिखाई पड़ेंगे लोग जो भय के कारण अच्छे हैं। उनका अच्छा होना नपुंसक ब्रह्मचर्य जैसा है। वे जबरदस्ती अच्छे हैं। अच्छा होना नहीं चाहते; अच्छे का उन्हें स्वाद ही नहीं मिला। वे सिर्फ बुरे से डरे हैं और घबड़ा रहे हैं, और भीतर कंप रहे हैं। इस कंपन के कारण लोग अच्छे हैं।
इसलिए अच्छे आदमी में भी तो फूल खिलते दिखाई नहीं पड़ते। उलटा ही दिखाई पड़ता है, कभी-कभी बुरा आदमी तो मुस्कुराते और हंसते भी मिल जाए, अच्छा आदमी तुम्हें हंसते भी न मिलेगा। वह इतना डर गया है कि हंसी में भी पाप मालूम पड़ता है। वह इतना भयभीत हो गया है कि जीवन को कहीं से भी अभिव्यक्ति देने में डर लगता है कि कहीं कोई भूल न हो जाए, कहीं कोई गलती न हो जाए। वह कंप-कंप कर पैर रख रहा है; सम्हल-सम्हल कर चल रहा है। साफ-सुथरी जमीन पर भी वह ऐसे चलता है जैसे नट रस्सी पर चल रहा हो।
इस भयभीत आदमी को तुम साधु कहते हो? यह भयभीत आदमी साधु नहीं है; यह केवल भयभीत है। साधुता का भय से क्या संबंध? साधुता कहीं भय से पैदा हो सकती है? साधुता का स्वर तो अभय में होता है। भय तो असाधु को ही पैदा करता है, डरे हुए असाधु को। इतना डरा हुआ असाधु है कि अपराध नहीं कर सकता डर के कारण। डर के कारण जो अपराध नहीं कर रहा है वह भीतर तो अपराध करता ही रहेगा।
इसलिए जिनको तुम अपराधी कहते हो वे निर्भीक लोग हैं, और जिनको तुम सज्जन कहते हो, साधु-चरित्र कहते हो, वे भयभीत-भीरु लोग हैं। इसलिए अक्सर ऐसा हुआ है कि अपराधी तो कभी-कभी छलांग ले लेता है संतत्व की, तुम्हारा जिसको तुम सज्जन आदमी कहते हो वह कभी छलांग नहीं ले पाता। छलांग लेने की हिम्मत ही उसमें नहीं है। भय के कारण ही तो वह अच्छा है। और भय के कारण छलांग कैसे लेगा? वह जिंदगी भर सोचता रहेगा, खड़ा रहेगा, विचार करेगा; छलांग नहीं ले सकेगा। अपराधी कभी-कभी छलांग ले सकता है, एक क्षण में छलांग ले सकता है। क्योंकि कम से कम निर्भीक है। डर के कारण जीवन की व्यवस्था उसने नहीं बनाई है।
दूसरा एक पहलू इस बात का और भी समझ लेना जरूरी है कि जब तुम समाज में डर को आधार बना लेते हो नीति का, तो जो भीरु हैं वे और भीरु हो जाते हैं और जो निर्भीक हैं वे और निर्भीक हो जाते हैं। घर में अगर पांच बच्चे हैं, तो जो उनमें से ज्यादा उपद्रवी है वह और उपद्रवी हो जाएगा तुम्हारे डराने से, और जो उपद्रवी थे ही नहीं वे डर कर बिलकुल मुर्दा हो जाएंगे, वे मिट्टी के लोंदे हो जाएंगे।
भय का परिणाम दो प्रकार से फलित होता है। जब तुम किसी को भयभीत करते हो, अगर वह अहंकार में अभी कच्चा है तो डर जाएगा, और डर कर भला हो जाएगा; और अगर अहंकार में पक्का हो गया है तो तुम्हारे डराने के कारण वही काम करके दिखाएगा जो तुम चाहते थे कि वह न करे। तो तुम्हारा भय उसके लिए चुनौती बन जाएगा और उसके जीवन में अपराध की भावना पैदा करेगा। तो भय ने कुछ लोगों को भीरु बना कर गोबर-गणेश कर दिया है। उनके जीवन में कोई ऊर्जा नहीं रही। वे मरे-मरे जी रहे हैं; लाश की तरह उनका जीवन है। और कुछ लोगों को भय ने चुनौती दे दी है; वे दुष्ट-अपराधी हो गए हैं। क्योंकि तुमने जो कहा था मत करो, उनके अहंकार ने उसको चुनौती मान लिया और उसे करके वे दिखा कर रहेंगे। चाहे कुछ भी हो जाए, जीवन दांव पर लगा देंगे।
ये दोनों ही दुष्परिणाम हैं। दोनों से ही समाज बड़ी विकृत दशा में भर गया है। या तो भयभीत लोग हैं जो अच्छे हैं; और या निर्भीक लोग हैं जो बुरे हैं। होना इससे उलटा चाहिए कि अच्छा आदमी निर्भीक हो और बुरा आदमी भीरु हो। लेकिन भय के शास्त्र ने स्थिति उलटी कर दी है। अच्छे आदमी में निर्भीकता होनी चाहिए, बुरे आदमी में भीरुता होनी चाहिए। लेकिन बुरा तो अकड़ कर चलता है; अच्छे की रीढ़ टूट गई है। भय के शास्त्र ने ये दो परिणाम दिए हैं; दोनों ही महा घातक हैं।
प्रेम का शास्त्र इसके बिलकुल विपरीत है। वह अच्छे को अभय करता है, बुरे को भयभीत करता है। भयभीत करता नहीं, बुरा अपने आप भयभीत होता है। अच्छा अपने आप अभय को उपलब्ध होता है। क्योंकि जितनी ही प्रेम में गति होती है उतना ही अभय उपलब्ध होता है; प्रेम से भरा हुआ व्यक्ति डरता नहीं; कोई कारण डरने का न रहा। प्रेम मृत्यु से भी बड़ा है। तुम प्रेम को मृत्यु से भी नहीं डरा सकते। तुम कहो, हम मार डालेंगे! तो प्रेम मरने को तैयार हो जाएगा, लेकिन डरेगा नहीं। प्रेमी मर सकता है शांति से; जीवन को भी दांव पर लगा सकता है। क्योंकि जीवन से भी बड़ी चीज उसे मिल गई। जब बड़ी चीज मिलती हो, छोटी चीज को दांव पर लगाया जा सकता है।
तुम डरते हो जीवन के खोने से, क्योंकि जीवन से बड़ा तुम्हारे हाथ में कुछ भी नहीं है। और तुम तब तक डरते ही रहोगे जब तक जीवन से बड़ा कुछ तुम्हारे हाथ में न आ जाए। परमात्मा हाथ में आ जाए, प्रेम हाथ में आ जाए, प्रार्थना आ जाए, ध्यान आ जाए, समाधि आ जाए, तब तुम जीवन को ऐसे दे दोगे जैसे कुछ मूल्य ही न था। तुमने जीवन का सार पा लिया। जीवन के अवसर से जो मिलने वाली थी सुगंध वह तुम्हें मिल गई। अब तुम जीवन को दे सकते हो। अब कोई तुमसे जीवन छीनता हो तो तुम हंसते हुए मर सकते हो। अब तुम्हें कोई डरा न सकेगा।
और जो जीवन छोड़ सकता है उसे तुम कैसे डराओगे? क्योंकि डर तो मूलतः मृत्यु का डर है। सब डर मौलिक रूप से मृत्यु का डर है। अब तुम क्या डराओगे?
सिकंदर ने एक भारतीय संन्यासी को कहा कि अगर तुम मेरे साथ चलने को राजी न हुए तो तुम्हारी गर्दन काट दूंगा। उस संन्यासी ने कहा, जिस गर्दन को काटने की तुम धमकी दे रहे हो उसे मैं बहुत पहले काट चुका हूं। अगर तुम्हें मजा आए तो तुम काट डालो। लेकिन एक बात ध्यान रखना, तुम भी गिरते देखोगे गर्दन को जमीन पर और मैं भी गिरते देखूंगा।
सिकंदर तो बेबूझ हालत में हो गया। उसकी कुछ समझ में न पड़ा। वह तो तलवार की भाषा जानता था, केवल भय की भाषा जानता था। कभी प्रेमी से तो उसका मिलना ही न हुआ था। किसी ऐसे व्यक्ति को तो उसने देखा ही न था जो प्रार्थना को उपलब्ध हुआ हो। उसने तलवार तो म्यान में रख ली और उस आदमी को कहा, मेरी समझ में नहीं आता कि बात क्या है! लेकिन लाखों लोगों को मैंने डरा दिया है। और अगर मैं पहाड़ों को भी कहूं कि चलो मेरे साथ, तो वे भी चलने को राजी हो जाएंगे। एक नंगा फकीर! तेरे पास है क्या जिसके बल पर तू डर नहीं रहा है?
उस फकीर ने कहा, जीवन से जो पाना था वह मैंने पा लिया; अब जीवन को छीन कर तुम कुछ भी न छीन पाओगे। नवनीत तो पा लिया है, अब तो जीवन की छाछ पड़ी रह गई है। तुम उसे ले जाओ। डर तो तब तक था जब तक जीवन दूध था और नवनीत पाया नहीं था। तुम ले जाते तो सब ले जाते। अब तो छाछ पड़ी रह गई है। जो पाना था वह पा लिया। अगर तुम्हें डराना था तो कुछ समय पहले आना था।
स्वभावतः, जब तुम भोजन कर चुके और कोई थाली को छीनने लगे तो तुम भेंट ही कर दोगे, यह जूठन को ले जाए, हर्ज क्या है! लेकिन तुम भूखे बैठे थे, भोजन शुरू भी न हुआ था, और कोई थाली छीनने लगा, तब कठिनाई होगी। जिसने जीवन के अवसर का उपयोग कर लिया--अवसर के उपयोग का एक ही अर्थ है कि जिसने जीवन के पार कुछ जान लिया, जिसके लिए जीवन सीढ़ी हो गया और जो सीढ़ी से पार हो गया--जिसने जीवन की सरिता को जीवन के पार के सागर से मिला दिया, अब सरिता बचे या सूख जाए, अब कोई अंतर नहीं पड़ता।
प्रेम का शास्त्र तो सिखाता है अभय; प्रेम में लिप्त व्यक्ति अभय को उपलब्ध हो जाता है। और प्रेम में लिप्त व्यक्ति के जीवन में शुभ का संचार होता है--चुपचाप, पगध्वनि भी सुनाई नहीं पड़ती। एक मां अपने बेटे को प्रेम करती हो तो प्रेम के कारण बेटा शांत होता है; मां मौजूद होती है। क्योंकि प्रेम का प्रतिकार असंभव है। प्रेम की तो प्रतिध्वनि ही होती है। भय का प्रतिकार होता है, कोई प्रतिध्वनि नहीं होती। एक मां अगर अपने बेटे को प्रेम करती है तो मां मौजूद है इसलिए बेटा चुप बैठता है। एक बाप अगर अपने बेटे को प्रेम करता है तो प्रतिध्वनि होती है बेटे से भी प्रेम की। बाप काम कर रहा है तो बेटा सम्हल कर चलता है, आवाज न हो।
यह तो शांति और तरह की है। यह प्रेम का प्रतिफल है। यहां भीतर अशांति को बेटा दबा नहीं रहा है। बाप की मौजूदगी और बाप का प्रेम एक शांति को जन्म दे रहा है। अगर बाप की भाषा में काव्य हो और बाप की भाषा में संस्कार हो और बाप ने बेटे के आस-पास शब्दों के गीत निर्मित किए हों, तो बेटे से गाली निकलना असंभव होता है। इसलिए नहीं कि वह डरता है, बल्कि इसलिए कि बाप के प्रेम ने उसे इतने ऊपर उठाया है कि गाली देकर नीचे गिरना असंभव हो जाता है।
प्रेम से शुभ का संचार होता है सहज। तुम जिसे प्रेम करते हो तुम उसे ऊपर उठा लेते हो, आकाश में उठा देते हो। तुमने अगर किसी भी व्यक्ति को प्रेम किया तो तुमने कीचड़ से कमल को ऊपर उठा लिया। जैसे कीचड़ से कमल पार हो जाता है ऐसे ही जिसे तुम प्रेम करते हो, प्रेम के क्षण में ही तत्क्षण क्रांति घटित होती है--कीचड़ नीचे पड़ी रह जाती है, कमल पार हो जाता है। बड़ा फासला हो जाता है। तुम कभी किसी को प्रेम करके देखो। जिसे तुम प्रेम करते हो, अगर तुम्हारा प्रेम प्रगाढ़ है, तो तुम्हारे प्रेम की प्रगाढ़ता के अनुपात में ही उस व्यक्ति में परमात्मा का जन्म होना शुरू हो जाता है।
असंभव है प्रेम से बचना। प्रेम से भागना असंभव है। प्रेम के विरोध में जाना असंभव है। प्रेम इस जगत में सबसे बड़ी शक्ति है। वह एक बाढ़ की भांति आता है और तुम्हें निखार जाता है।
लेकिन प्रेम की कमी हमने भय से पूरी करनी चाही है। और परिवार के बीज भय में बोए जाते हैं। फिर परिवार से समाज बनता है; समाज से राष्ट्र बनता है; राष्ट्रों से संसार बन जाता है। और बीज बुनियाद में भय का है। इसलिए हर जगह भय का साम्राज्य है। जब भी तुम्हें किसी को सुधारना हो, भयभीत करो।
धर्मगुरु भी वही करता है। राजनेता करे, समझ में आता है; क्योंकि राजनेता से हम कोई बड़ी समझ की आशा नहीं कर सकते। समझदार होता तो राजनेता ही न होता। राजनीतिज्ञ से हम कोई मानवीय जीवन की गहराई का बोध नहीं मांग सकते। वही बोध होता तो वह महत्वाकांक्षा की दुनिया में न होता। राजनेता को छोड़ दें। लेकिन धर्मगुरु भी भय की ही बात करता है; नरकों की बात करता है कि सड़ाए जाओगे, गलाए जाओगे, मारे जाओगे। वह भी भय से ही चाहता है लोग धार्मिक हो जाएं।
अब यह बिलकुल असंभव है। भय से कभी कोई धार्मिक नहीं हुआ। भय ही तो अधर्म का मूल है। प्रेम धर्म का मूल है। भय का अर्थ है, हम तुम्हें काटेंगे, बदलेंगे। प्रेम का अर्थ है, तुम जैसे हो हम तुम्हें वैसा ही स्वीकार करते हैं। और मजा तो यह है कि भय काट-काट कर भी नहीं बदल पाता, और प्रेम बिना काटे बदल देता है। जैसे ही तुम किसी को प्रेम करते हो, बदलाहट शुरू हो गई। प्रेम की आंख पड़ी नहीं कि किरण आ गई अंधेरे में; प्रेम का स्पर्श हुआ नहीं कि दूसरे जगत का बुलावा आ गया। तुम जिसे प्रेम करते हो, तत्क्षण तुम उसे कुलीन कर देते हो। वह साधारण मनुष्य-जाति का हिस्सा नहीं रहा। पंख लग गए। अब तुम्हारे प्रेम को पाने के लिए, अब तुम्हारे प्रेम को बनाए रखने के लिए, अब तुम्हारे प्रेम की वर्षा जारी रहे इसके लिए वह रोज-रोज ऊपर उठता जाएगा।
प्रेम नहीं कहता कि बदलो; और बदलता है। भय कहता है कि बदलो, नहीं बदलोगे कष्ट पाओगे; और कभी नहीं बदल पाता। इसे तुम जीवन की कीमिया का बहुत आधारभूत नियम समझ लेना कि जो किसी को बदलना चाहता है वह कभी नहीं बदल पाता। बदलने वाले ही लोगों को बिगाड़ते हैं। समाज-सुधारक समाज को नष्ट और भ्रष्ट करते हैं। अच्छे मां-बाप बच्चों को नरक की यात्रा पर भेज देते हैं। कहावत है कि नरक का रास्ता शुभाकांक्षाओं से भरा पड़ा है। अच्छी करते हो आकांक्षा, लेकिन अगर आकांक्षा भय पर ही आधार बना रही है तो तुम नरक ही भेजोगे, स्वर्ग न भेज पाओगे। इसलिए तो सारी मनुष्य-जाति ऐसी भय-कातर, ऐसी दुख में पड़ी है, ऐसी सड़ी-गली अवस्था में है। सिवाय दुर्गंध के कुछ उठता हुआ नहीं मालूम पड़ता।
तो भय ने उन लोगों को मिटाया जो भयभीत हो गए। और भय ने उन लोगों को भी मिटा दिया जो भय के विपरीत खड़े हो गए। घर में अगर पांच बच्चे हैं तो शायद चार डर जाएंगे। लेकिन एक उनमें जरूर ऐसा होगा जो तुम्हारे डराने के कारण ही बगावती हो जाए। तुमने जो-जो कहा है, वही तोड़ेगा। तुमने कहा है, मत जाओ अंधेरे में बाहर। तो अंधेरे में बुलावा अनुभव होगा। तुमने कहा, मत तैरो नदी में जाकर। तो नदी में एक अदम्य आकर्षण हो जाएगा, एक अनिवारणीय आमंत्रण मिल जाएगा नदी से। जाना ही पड़ेगा; कोई अब रोक न सकेगा।
तुम्हारा निषेध रस पैदा करेगा अहंकारी में, और जिनके अहंकार कच्चे हैं उनको भयभीत कर देगा, भयातुर कर देगा। जो भयभीत हो जाएगा वह जिंदगी भर डरता रहेगा। दफ्तर में जाएगा तो दफ्तर के मालिक से डरेगा; विवाह करेगा तो पत्नी से डरेगा; बच्चे पैदा हो जाएंगे तो बच्चों से डरेगा; रास्ते पर चलेगा तो डरेगा; घर में बैठा होगा तो डरेगा। उसके जीवन में एक कंपन समाविष्ट हो जाएगा। भय उसका स्वभाव हो जाएगा। और जो चुनौती ले लिया और अहंकार की यात्रा पर निकल गया, वह जिंदगी भर तोड़ने में संलग्न रहेगा। अगर वह असंस्कृत हुआ तो अपराधी हो जाएगा; अगर संस्कृत हुआ तो क्रांतिकारी हो जाएगा। अगर नासमझ हुआ तो चोरी करेगा, डकैती करेगा।
चंबल की घाटी के डाकू हैं। जब जयप्रकाश ने उन डाकुओं को मुक्त किया तो किसी मित्र ने मुझे आकर कहा। मैंने कहा कि दोनों एक ही तरह के लोग हैं। जरा भी फर्क नहीं है। जयप्रकाश और डाकुओं का मिलन एक जैसा है; दोनों की जीवन-ऊर्जा एक जैसी है। जयप्रकाश सुसंस्कृत आदमी हैं; डाकू असंस्कृत हैं। देवीसिंह और दूसरे असंस्कृत लोग हैं। बाकी उनके भी जीवन का आधार यही है कि समाज ने जो भी कहा है न करो, उसे वे तोड़ रहे हैं, मिटा रहे हैं। निर्भीक लोग हैं; पूरे राज्य के खिलाफ एक छोटी सी बंदूक के सहारे खड़े हैं। और जयप्रकाश, जयप्रकाश की भी वृत्ति वही है। ऐसा समझो कि डाकू शीर्षासन कर रहा हो। तो अराजकता, पूर्ण क्रांति की बातें। अच्छे शब्दों के पीछे भी बगावत है; अच्छे शब्दों के पीछे भी आकर्षण तोड़ने का है, मिटाने का है; बनाने का नहीं है।
और जयप्रकाश ज्यादा लोगों को नुकसान पहुंचा पाएंगे। देवीसिंह कितने लोगों को नुकसान पहुंचा पाएगा? देवीसिंह बहुत से बहुत धन छीन लेगा कुछ लोगों का। लेकिन जयप्रकाश पूरी जीवन की व्यवस्था को नष्ट-भ्रष्ट कर सकते हैं। और फिर भी लोग सम्मान करेंगे।
तो निर्भीक आदमी के दो वर्ग हैं। अगर वह सुसंस्कृत हो तो वह क्रांतिकारी हो जाता है। क्रांति भी अपराध का एक ढंग है। अगर असफल हो जाए तो लोग उसको बगावती गिनते हैं; अगर सफल हो जाए तो वह महा नेता हो जाता है। लेनिन, माओ, कैस्त्रो, स्टैलिन, हो ची मिन्ह, इनके जीवन में और डाकुओं के जीवन में कोई बुनियादी भेद नहीं है। भेद इतना ही है कि डाकू छोटे पैमाने पर उपद्रव करता है, ये बड़े पैमाने पर उपद्रव करते हैं। और इनके उपद्रव के पीछे एक दर्शनशास्त्र है। डाकू के पास कोई दर्शनशास्त्र नहीं है। इनके उपद्रव के पीछे एक फलसफा है और उस फलसफे की आड़ में सभी चीजें सुंदर हो जाती हैं। इसे थोड़ा समझने की कोशिश करो।
चोर क्या कह रहा है? चोर की चोरी क्या कहती है? चोर इतना ही कह रहा है कि हम व्यक्तिगत संपत्ति के नियम को नहीं मानते। बिना जाने। डाकू क्या कह रहा है? डाकू यह कह रहा है कि हम तुम्हारी व्यक्तिगत संपत्ति की नियम की व्यवस्था को नहीं मानते। भला उसे पता भी न हो, भला इतने शब्दों में वह कह भी न सके, उसे भी साफ न हो। वह कर क्या रहा है? व्यक्तिगत संपत्ति के नियम को तोड़ रहा है। वह कहता है, हम इसको वर्जना नहीं मानते। कोई चीज किसी की नहीं है, जिसके हाथ में बल है उसकी है। इतना ही कह रहा है
समाजवाद, साम्यवाद क्या कह रहा है? लेनिन, माओ, स्टैलिन, हो ची मिन्ह क्या कह रहे हैं? वे इसको बड़ा विस्तीर्ण शास्त्र बना रहे हैं। वे कह रहे हैं, व्यक्तिगत संपत्ति को न बचने देंगे।
लेकिन मजा यह है कि व्यक्तिगत संपत्ति को मिटा डालो, कोई फर्क नहीं पड़ता। जिन लोगों के हाथ में सत्ता होती है वे पूरी संपत्ति के उसी तरह मालिक हो जाते हैं जैसा कि राकफेलर, फोर्ड या बिड़ला कभी भी नहीं हो पाते। स्टैलिन तो पूरे मुल्क की संपत्ति का मालिक हो गया। मालकियत जाती नहीं, क्योंकि जो भी राज्यसत्ता में होता है उसके ऊपर फिर कोई भी नहीं। स्टैलिन बड़े से बड़ा डाकू है जिसके हाथ में बीस करोड़ का मुल्क पड़ गया। डाकुओं ने कितने लोग मारे हैं? स्टैलिन ने अपने जीवन में अंदाजन एक करोड़ लोग मारे। जिसने भी ना-नुच की उसी को खत्म किया। जितने साथी थे क्रांति में, धीरे-धीरे सबको मार डाला, क्योंकि उनसे खतरा था। सबको साफ कर दिया और सारे मुल्क की संपत्ति का मालिक बन बैठा।
अगर तुम असंस्कृत हो तो किसी पर डाका डाल दोगे; अगर तुम सुसंस्कृत हो, तुम पूर्ण क्रांति का नारा दोगे। और तुम ज्यादा खतरनाक हो, और तुम्हें कोई भी पकड़ न पाएगा। क्योंकि तुम बड़ी कुशलता से शब्दों के जाल में सारी व्यवस्था जमाओगे।
मैंने सुना एक दिन कि मुल्ला नसरुद्दीन साम्यवादी हो गया। तो मैं उसके घर गया। उससे पूछा मैंने कि क्या हो गया? उसने कहा कि मैं साम्यवादी हो गया। मैंने कहा, तुम्हें पता है साम्यवाद का मतलब क्या होता है?
उसने कहा, मुझे सब पता है। तो मैंने कहा, अगर तुम्हारे पास दो कारें हों तो क्या तुम एक उस आदमी को देना पसंद करोगे जिसके पास एक भी नहीं है? उसने कहा, निश्चित! पूर्ण रूप से निश्चित। अगर तुम्हारे पास दो मकान हों, मैंने पूछा, क्या तुम एक उसको दे दोगे जिसके पास एक भी नहीं? उसने कहा कि बिलकुल दे दूंगा, अभी दे दूंगा। फिर मैंने पूछा, और अगर तुम्हारे पास दो गधे हों तो क्या तुम एक उसको दे दोगे जिसके पास एक भी नहीं? उसने कहा, कभी नहीं। तो मैंने कहा, यह कैसा साम्यवाद? उसने कहा, मेरे पास दो गधे हैं! दो कारें तो हैं नहीं, न दो मकान हैं।
जो नहीं है, वह हम दे देंगे। और दूसरे के पास जो है वह हम छीन लेंगे।
दूसरे के पास जो है उसको छीनने का अपराधी भी उपाय करता है। उसका उपाय बड़ा छोटा है, बहुत छोटा है। उससे कुछ हल होने वाला नहीं है। दूसरे के पास जो है उसे छीनने का साम्यवादी भी उपाय करता है, लेकिन उसका उपाय बड़ा व्यवस्थित है। उसकी स्ट्रैटेजी है, उसका पूरा रणशास्त्र है। वह पहले तो विचार का प्रवाह फैलाता है। और निश्चित ही उसका विचार सभी को अपील होता है, क्योंकि ऐसा आदमी खोजना कठिन है जिसके पास सब कुछ हो। सभी के ऊपर लोग हैं जिनके पास बहुत कुछ है। और तुम उनसे छीनना चाहोगे।
इसलिए साम्यवाद की अपील है। जब भी साम्यवाद तुम्हें समझाता है कि सब संपत्ति बंट जाएगी, तब तुम कभी यह नहीं सोचते कि तुम्हारे दो गधे बंटेंगे। तुम सोचते हो: पड़ोसी की दो कार बंटेंगी, दूसरे पड़ोसी के दो मकान बंटेंगे। एक मकान तुम्हें भी मिलेगा; एक कार तुम्हें भी मिलेगी। तुम सदा यह सोचते हो कि दूसरे का बंटेगा, तुम पाने वाले होओगे। तुम कभी यह नहीं सोचते कि तुम्हारे दो गधे बंटेंगे।
यही तो कठिनाई हुई। रूस में क्रांति हुई तो सारा मुल्क प्रसन्न था, क्योंकि लोगों ने सोचा था कि दूसरों का बंटेगा। लेकिन जब उनका बंटना शुरू हुआ तब बड़ी कठिनाई आई। जिसके पास चार मुर्गियां थीं, उसकी भी स्टैलिन ने बांट करने की कोशिश की। जिसके पास थोड़ी सी खेती थी उसको भी बांटने की कोशिश की। एक करोड़ लोग जो मारे गए वे अमीर नहीं थे। अमीर कहीं होते हैं एक करोड़ किसी मुल्क में? वे गरीब लोग थे जिन्होंने अपनी छोटी-छोटी संपत्ति का आग्रह किया कि हम न बंटने देंगे। इन्हीं ने क्रांति की थी।
यह बड़ा मजा है! ये ही क्रांति के जाल में पड़े थे। ये आश्वासन से भर गए। इन्होंने कभी सोचा ही नहीं था कि मेरे पास की दस एकड़ जमीन बंट जाएगी। इन्होंने सोचा था, बंटेगा बिड़ला, बंटेगा राकफेलर, बंटेगा कोई और; मिलेगा मुझे।
मिलने की भाषा सिखाता है साम्यवाद। वही तो डाकू और चोर की भाषा है। उसकी अपील है। लेकिन जब बंटाव हुआ तब पता चला कि मेरा भी बंट रहा है। तब कठिनाई खड़ी हो गई। कितने अमीर हैं? दस, बीस, पचास, सौ। उनको बांटने से तुम्हारे हाथ में रत्ती भर भी नहीं आएगा। क्योंकि तुम हो करोड़ों, अरबों। लेकिन तुम्हारा बंटेगा। छोटे-छोटे किसानों ने बंटने से इनकार किया कि जब उनकी मुर्गियां जाने लगीं सामूहिक फार्म में तब उन्होंने इनकार कर दिया। जब उनकी खेती होने लगी सामूहिक तब वे लड़ने को खड़े हो गए। एक करोड़ छोटे-छोटे किसान और गरीब कटे। और फिर भी मुल्क में कोई साम्यवाद तो आया नहीं।
साम्यवाद कभी आ नहीं सकता, क्योंकि आदमी इतने भिन्न हैं। और वर्ग सदा रहेंगे। नये वर्ग खड़े हो गए। और अब इन नये वर्गों को सम्हाल रखने के लिए इतना इंतजाम करना पड़ा स्टैलिन को, हिंसा का, भय का इतना आयोजन करना पड़ा, जितना कि मनुष्य-जाति में कभी भी नहीं हुआ था। लोग अकेले में भी बात करते रूस में डरने लगे, क्योंकि दीवारों को भी कान हो गए। जरा किसी ने बात की विपरीत, और वह आदमी नदारद हो गया, फिर उसका पता ही नहीं चला कि वह कहां गया। स्टैलिन ने जितनी सुविधा से हत्या की, कभी किसी ने नहीं की।
लेकिन स्टैलिन महा नेता हो गया। साम्यवाद के इतिहास में उसकी कथा स्वर्ण-अक्षरों में लिखी जाएगी। है सिर्फ बड़ा डाकू, लेकिन डाकू एक दर्शनशास्त्र के साथ। दुनिया के सब राजनेता डाकुओं से भिन्न नहीं हैं। करते वही हैं, लेकिन उनके पास कुशलता है।
तो ध्यान रखना, या तो भय तुम्हें इतना भयभीत कर देगा कि तुम जिंदगी भर मुर्दे की तरह जीओगे। या भय तुम्हें इतनी चुनौती से भर देगा कि तुम जिंदगी भर बगावती की तरह जीओगे। लेकिन दोनों हालत में तुम जीवन से वंचित रह जाओगे। क्योंकि जीवन तो उसे मिलता है जो न भीरु है और न बगावती है। तभी तो जीवन-चेतना स्वयं में ठहर पाती है। भयभीत दूसरे से डरता रहता है; निर्भीक दूसरे को डराने की कोशिश करता रहता है। दोनों हालत में जीवन-ऊर्जा व्यर्थ होती है, नष्ट होती है।
तो न तो भयभीत ने कभी परमात्मा को जाना और न निर्भीक ने कभी परमात्मा को जाना। इन दोनों से अलग एक जीवन-दशा है जिसको मैं अभय कहता हूं। अभय न तो भयभीत होता है और न निर्भीक होता है। अभय का मतलब यह है कि न तो वह किसी को डराना चाहता है और न किसी से डरता है। चेतना अपने में थिर हो जाती है। और जब चेतना अपने में लौटती है, अपने में गिरती है जब चेतना की धारा, तो जीवन का परमानंद, परम-स्वाद उपलब्ध होता है।
अब हम लाओत्से के सूत्र को समझने की कोशिश करें।
‘लोग मृत्यु से भयभीत नहीं हैं; तब उन्हें मृत्यु की धमकी क्यों दी जाए?’
पहली बात, ‘लोग मृत्यु से भयभीत नहीं हैं।’
क्योंकि अगर वे मृत्यु से भयभीत होते तो उनके जीवन में क्रांति घटित हो जाती। लोग सोचते हैं, मृत्यु सदा दूसरे की होती है। और सोचना ठीक भी है, क्योंकि तुम सदा दूसरे को मरते देखते हो, खुद को तो तुमने मरते कभी देखा नहीं। कभी इस पार का पड़ोसी मरता है, कभी उस पार का पड़ोसी मरता है। हमेशा दूसरा मरता है। लाश तो निकलती है, लेकिन किसी की निकलती है। तुमने अपनी लाश तो निकलती देखी नहीं। उसे तुम कभी देखोगे भी नहीं; दूसरे देखेंगे उसे। तो ऐसा लगता है मृत्यु सदा दूसरे की होती है--एक बात।
जिसको ऐसी याद आ गई कि मृत्यु मेरी होती है, वह तो खुद बदल जाएगा। तुम्हें उसे भयभीत करने की जरूरत न रहेगी। क्योंकि जिसे यह दिखाई पड़ा कि मृत्यु मेरी होने वाली है, वह तो एक अर्थ में इस जीवन के प्रति जो उसकी वासना है, तृष्णा है, उसको छोड़ देगा। क्योंकि जब मरना ही है, जब क्षण भर ही यहां होना है, तो इतना आग्रह होने का क्या मूल्य रखता है? तो उसकी तृष्णा विलीन हो जाएगी।
जिसको मृत्यु दिखाई पड़ने लगी उसकी तृष्णा विलीन हो जाएगी। और जिसकी तृष्णा विलीन हो जाती है वह आदमी बुरा तो हो ही नहीं सकता। बुरे तो हम तृष्णा के कारण होते हैं; वासना के कारण बुरे होते हैं। दूसरे से हम छीनते इसी आशा में हैं कि वह हमारे पास बचेगा--सदा और सदा।
लेकिन जब हम ही खो जाने को हैं, और क्षण भर बाद आ जाएगा मृत्यु का संदेशा और हमें विदा होना होगा, तो क्या छीनना है किसी से? अगर कोई दूसरा भी हमसे छीन ले जाए तो हम ले जाने देंगे। क्योंकि दूसरा शायद भ्रांति में हो कि सदा यहां रहना है; हम इस भ्रांति में नहीं हैं।
जिसको मृत्यु का स्मरण आ गया, जिसे मृत्यु का बोध हो गया, उसे तुम्हें थोड़े ही बदलना पड़ेगा! समाज को थोड़े ही बदलना पड़ेगा! वह बदल जाएगा स्वयं।
जिनको तुम्हें बदलना पड़ता है उनको मृत्यु की याद भी नहीं है। वे बिलकुल भूले हुए हैं। वे ऐसे जी रहे हैं जैसे सदा रहना है। वे इस तरह के मजबूत मकान बना रहे हैं कि जैसे सदा रहना है। वे इस तरह का बैंक बैलेंस इकट्ठा कर रहे हैं कि जैसे अनंत काल तक उन्हें यहां रहना है। इंतजाम वे बड़ा लंबा कर रहे हैं और उन्हें पता नहीं कि घड़ी भर की बात है, रात भर का विश्राम है इस धर्मशाला में, और सुबह विदा हो जाना होगा। बड़ी व्यवस्था कर रहे हैं छोटे से समय के लिए। धर्मशाला में टिके हैं, आयोजन ऐसा कर रहे हैं जैसे कि किसी महल में सदा-सदा के लिए आवास करना हो।
जिनको मृत्यु का जरा सा भी स्मरण आ गया वे तो खुद ही सजग हो गए। उनसे बुराई तो अपने आप गिर जाएगी, तुम्हें उसे गिराना न पड़ेगा।
तो लाओत्से कहता है, लोग मृत्यु से भयभीत नहीं हैं, अन्यथा वे धार्मिक हो जाते।
बुद्ध को मृत्यु दिखाई पड़ गई, क्रांति घटित हो गई। एक आदमी को मरते देख लिया, पूछा सारथी को, क्या मुझे भी मरना पड़ेगा? सारथी डरा, कैसे कहे? पर उसने कहा कि झूठ भी तो मैं नहीं बोल सकता हूं। आप पूछते हैं तो मजबूरी में डालते हैं, मुझे कहना ही पड़ेगा। यद्यपि कहना नहीं चाहिए। यह भी कैसे अपशकुन भरे शब्द कि मैं आपसे कहूं कि आप भी मरेंगे! लेकिन झूठ नहीं बोला जा सकता। मरना तो सभी को पड़ेगा। रंक हो कि राजा, भिक्षु हो कि सम्राट, मरना तो पड़ेगा ही। आपको भी मरना पड़ेगा। बुद्ध ने कहा, रथ वापस लौटा लो, बात खत्म हो गई।
वे एक उत्सव में जा रहे थे। राज्य का सबसे बड़ा उत्सव था। उन्होंने कहा, अब कोई उत्सव न रहा। जब मौत होने ही वाली है, सब उत्सव व्यर्थ हो गए। अब तुम रथ वापस घर लौटा लो। अब मुझे कुछ और करना पड़ेगा। अब उत्सवों में समय खोने का समय न रहा। मौत किसी भी घड़ी हो सकती है, तो हो ही गई। अब मुझे मौत को ध्यान में रख कर कुछ करना पड़ेगा। अब तक मैं ऐसे जी रहा था कि मौत पर मैंने ध्यान ही न दिया था। तो अब तो जीवन की पूरी शैली बदलनी पड़ेगी। एक महान तथ्य जीवन में प्रविष्ट हो गया--मृत्यु। अब जीवन को मुझे ऐसे बनाना पड़ेगा जैसे उस आदमी को बनाना चाहिए जो अभी यहां है और कल विदा हो जाएगा। तो मुझे मृत्यु के पार की भी अब चिंता करनी होगी। अब तुम घर लौटा लो। अब यह सब राग-रंग व्यर्थ हो गया। मैं तो ऐसे ही जी रहा था जैसे सदा रहूंगा।
मृत्यु का तथ्य जिसे दिखाई पड़ जाए वह तो खुद ही रथ वापस लौटा लेता है। तुम्हें उसे धमकाना नहीं पड़ता, डराना नहीं पड़ता। वह तो अपनी वासना को खुद ही वापस लौटा लेता है। जब जीवन ही खो जाएगा तो जीवन की तृष्णा का क्या मूल्य है?
इसलिए लाओत्से कहता है, ‘लोग मृत्यु से भयभीत नहीं हैं।’
काश भयभीत होते, तो तुम्हें उन्हें बदलना पड़ता? वे खुद ही बदल जाते।
‘और जो मृत्यु से भयभीत नहीं हैं, तब उन्हें मृत्यु की धमकी क्यों दी जाए?’
तब तुम उन्हें क्यों मृत्यु की धमकी दे रहे हो? क्यों डरा रहे हो? कोई अर्थ न होगा उस धमकी का। उस धमकी से वे ही डर जाएंगे जिनके अभी जीवन में पैर भी न पड़े थे, जिन्होंने अभी चलना भी न सीखा था वे घबड़ा कर बैठ जाएंगे। उस भय के कारण उनके जीवन में क्रांति तो न होगी, पक्षाघात हो जाएगा। उस भय के कारण वे पैरालाइज्ड हो जाएंगे।
निश्चित ही, अगर किसी आदमी को पक्षाघात हो जाए तो उसके जीवन में बुराई अपने आप कम हो जाती है। अब आप अस्पताल में पड़े हैं, उठ नहीं सकते। चोरी कैसे करेंगे? दूसरे की स्त्री को लेकर भागेंगे कहां? चल ही नहीं सकते, भागने का उपाय न रहा; दूसरी स्त्री का सवाल ही नहीं उठता। जेब कैसे काटेंगे? चुनाव कैसे लड़ेंगे? पक्षाघात में पड़े हैं तो बुराई अपने आप बंद हो गई। लेकिन क्या पक्षाघात से बुराई का बंद करना उचित है? तब तो इसका यह अर्थ हुआ कि अगर सभी लोगों को पक्षाघात हो जाए, पैरालाइज्ड हो जाएं, तो दुनिया से बुराई मिट जाएगी।
बुराई तो मिट जाएगी, लेकिन सारे लोग पक्षाघात से घिर जाएं यह तो महा बुराई हो जाएगी। ये तो मुर्दा हो गए। और यही किया गया है अब तक। भय तुम्हें लकवा लगा देता है। भय के कारण तुम्हारे हाथ-पैर जड़ हो जाते हैं; तुम्हारी चेतना गतिमान नहीं रह जाती। गत्यात्मकता खो जाती है; तुम्हारे जीवन की ऊर्जा डायनेमिक नहीं रहती। तुम्हारे जीवन की ऊर्जा बंधी-बंधी हो जाती है। जैसे नदी ने बहना बंद कर दिया और वह छोटी तलैया हो गई--बंद अपने में। सड़ती है, बहती नहीं; कहीं जाती नहीं, वहीं पड़ी रहती है। अब तक का नीति-शास्त्र और समाज-शास्त्र भय के द्वारा लोगों को पक्षाघात पैदा कर रहा है।
पक्षाघात शुभ नहीं है। भला पक्षाघात से तुम कितने ही नैतिक मालूम पड़ो, लेकिन पड़े पक्षाघात में सोचोगे तो अनीति, सोचोगे तो पाप। पक्षाघात तुम्हारे शरीर को रोक देगा, लेकिन तुम्हारे मन को तो नहीं। तुम्हारा मन तो विक्षिप्त की भांति घूमेगा। और वही मन वस्तुतः निर्णायक है।
तो लाओत्से कहता है, ‘क्यों उन्हें मृत्यु की धमकी दी जाए?’
उससे कुछ सार न होगा, बल्कि खतरा होगा। कुछ जो अभी जीवन में चलना ही सीख रहे थे वे डर के मारे बैठ जाएंगे। और कुछ जो जीवन से मुक्त होने के करीब आ रहे थे, जीवन ने ही जिन्हें इतना सता दिया था, जीवन की पीड़ा ने ही जिन्हें इतना उबा दिया था कि वे करीब आ रहे थे कि जीवन के पार होने की चेष्टा करें, वे तुम्हारी धमकी से चुनौती समझ लेंगे, वे वापस लड़ने को जीवन में खड़े हो जाएंगे। भयभीत और भयभीत हो जाएंगे, निर्भीक और निर्भीक हो जाएंगे। यह बड़ी उलटी घटना है। तुम चाहते थे कि निर्भीक भयभीत हो जाएं; वे नहीं होंगे।
ऐसा एक गांव में हुआ। एक राजपथ पर छोटा सा गांव था--दोनों तरफ रास्ते के किनारे बसा। बड़ा राजपथ था और कारें बड़ी तेज गति से गुजरतीं, बसें और ट्रक, और गांव को बड़ा खतरा था। तो गांव की पंचायत ने तय किया था कि गांव के भीतर कोई भी बीस मील से ज्यादा रफ्तार से वाहन न गुजरे।
लेकिन छोटा गांव, कौन फिक्र करे? उनकी तख्ती को कोई पढ़ता ही न था। वह लगा रखी थी तख्ती, लेकिन कोई उसकी चिंता ही न लेता था। तो उन्होंने सोचा कि शायद बीस मील की बात ठीक नहीं है, हम सिर्फ इतना ही लिखें कि कृपया अत्यंत धीमी गति से यहां से गुजरें। और पंचायत का एक आदमी खड़ा किया गया जो जांच करे खड़े होकर कि इसका कोई परिणाम होता है कि नहीं।
उस आदमी ने सात दिन बाद रिपोर्ट दी और कहा, जो लोग ‘बीस मील की रफ्तार से चलें’ उसको पढ़ कर बीस मील की रफ्तार से चलते थे वे लोग तो पांच मील की रफ्तार से चलने लगे और जो उस बीस मील की तख्ती को देख कर अपनी पचास मील की रफ्तार कायम रखते थे अब वे सत्तर मील से चल रहे हैं।
अक्सर ऐसा ही पूरे जीवन में हो रहा है। निर्भीक डरता नहीं तुम्हारे डराने से, बल्कि और उत्तेजित हो जाता है। भयभीत वैसे ही भयभीत था, वह और भयभीत हो जाता है। एक पक्षाघात से घिर जाता है, दूसरा अहंकार की अकड़ से। दोनों ही समाज के लिए घातक हैं।
लाओत्से कहता है, ‘मान लो लोग मृत्यु से भयभीत हैं, और हम उपद्रवियों को पकड़ कर मार सकते हैं, तो भी कौन ऐसा करने की हिम्मत करेगा?’
हिम्मत की गई है। करनी नहीं चाहिए; जो नहीं होना था वह हुआ है। हमने सदा यह कोशिश की है कि उपद्रवियों को मार डालो। हत्यारों की हमने हत्या कर दी है कानून के नाम पर। अदालतें समाज के द्वारा नियुक्त की गई हत्या की संस्थाएं हैं। जिस चीज का हम दंड देते हैं वही हम खुद करते हैं। एक आदमी ने किसी की हत्या की; फिर हम अदालत में उस पर कानून का जाल बिछा कर बड़े ढंग से करते हैं, योजना से करते हैं। उस आदमी को मौका नहीं देते कहने का कि कोई अन्याय किया गया। बड़ी न्याय की व्यवस्था जमाते हैं, लेकिन करते हम वही हैं जो उसने किया था। हम उसकी हत्या कर देते हैं। हमारी हत्या न्याय, और उसकी हत्या अन्याय! और उसने हत्या की तो वह हत्यारा, और हमारा न्यायाधीश हत्या करता है तो वह हाथ भी नहीं धोता; उसकी चेतना पर कोई चोट भी नहीं पड़ती।
मनसविद कहते हैं कि हत्यारे और न्यायाधीश एक ही तरह के वर्ग से आते हैं, उनकी चेतना का गुणधर्म एक जैसा है। पुलिसवाले और गुंडे एक ही वर्ग से आते हैं; उनकी चेतना का गुणधर्म एक जैसा है। पुलिसवाले को गुंडा होना ही चाहिए, नहीं तो वह गुंडों से व्यवहार न कर सकेगा। अगर तुम जाकर पुलिसवालों की भाषा सुनो, तो वे जैसी गालियां देंगे वैसी गाली बुरे से बुरा आदमी नहीं देता। और वे जैसा व्यवहार करेंगे, वह तुम्हें पता नहीं चलता, क्योंकि तुम्हें कभी उनके व्यवहार का मौका नहीं आता, लेकिन जिन लोगों को उनके साथ व्यवहार करना पड़ता है वे जानते हैं कि इससे ज्यादा बुरे आदमी खोजने मुश्किल हैं। असल में, फर्क इतना ही है कि वे राज्य के द्वारा नियुक्त गुंडे हैं, दूसरे गुंडे अपनी मर्जी से गुंडे हैं। बस इतना ही फर्क है।
न्यायाधीश हत्यारे हैं, लेकिन बड़ी व्यवस्था से। उनका चोगा, उनके सिर पर लगाए गए विग, व्यवस्था, चारों तरफ गंभीर, काले कोटों से घिरे हुए वकील--ऐसा लगता है कि कुछ हो रहा है, कोई न्यायपूर्ण बात हो रही है। लेकिन हो क्या रहा है? इस सारे जाल के भीतर हो इतना ही रहा है कि जो बुरे आदमियों ने किया है, समाज उनके साथ वही बुराई करना चाहता है; समाज प्रतिशोध लेना चाहता है। तुम हत्या को कानून के शब्दों में रख कर बदल नहीं सकते। हत्या तो हत्या है। राज्य ने की या व्यक्ति ने की, कोई फर्क नहीं पड़ता। हत्या तो हत्या ही रहती है।
और एक बड़ी समझ लेने जैसी बात है कि जो लोग हत्या करते हैं वे उस करने के कारण हत्या के जो परिणाम हैं उनकी चेतना पर, उससे बच नहीं सकते। इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि अगर तुमने बुरे आदमी को दंड देकर ठीक करने की कोशिश की तो इस कोशिश में धीरे-धीरे तुम भी बुरे हो जाओगे। क्योंकि तुम दंड दोगे। दंड देना कोई बड़ा शुभ कृत्य नहीं है। तुम मारोगे। मारना कोई शुभ कृत्य नहीं है। तुम कोड़े चलाओगे; तुम सजाएं दोगे। तुम्हारी आत्मा यह सब करने के कारण धीरे-धीरे सख्त, कठोर, पथरीली होती जा रही है।
और न्यायाधीशों से ज्यादा पथरीली आत्मा तुम कहीं भी न पाओगे। क्योंकि हत्यारा तो शायद भावावेश में हत्या करता है, न्यायाधीश बड़ी शीतलता से हत्या करते हैं, कोल्ड मर्डर।
एक आदमी से तुम्हारा झगड़ा हो गया, तुम क्रोध में आ गए, भावाविष्ट हो गए, उत्तप्त हो गए; उस उत्तप्त बेहोशी में तुमने हत्या कर दी। यह हत्या क्षम्य भी हो सकती है, क्योंकि तुम अपने होश में न थे, तुम बेहोश थे। शायद भविष्य में अदालतें इसे क्षमा करेंगी। जैसे अभी अगर सिद्ध हो जाए कि आदमी पागल था तो फिर पागल को सजा नहीं दी जा सकती। लेकिन क्रोध में भी तो आदमी पागल हो जाता है, क्षण भर को सही। स्थायी पागल न हो; पहले पागल न था, बाद में पागल न रहा; लेकिन उस क्षण में तो पागल हो ही जाता है। उस पागलपन में हत्या करता है। यह क्षमा-योग्य हो सकती है। लेकिन न्यायाधीश सोच-विचार कर, गणित से, कैलकुलेशन से हत्या करता है। उसकी हत्या अक्षम्य है। व्यक्ति हत्या करते हैं भावाविष्ट होकर; समाज हत्या करता है गणित के हिसाब से। समाज की हत्या बिलकुल अक्षम्य है।
लेकिन लाओत्से जैसे व्यक्तियों की बात कोई सुनता नहीं। इसलिए धीरे-धीरे समाज के पास आत्मा तो पत्थर हो जाती है। जो समाज लोगों को आत्मा देना चाहता है उसके पास खुद ही कोई आत्मा नहीं होती। जो न्यायाधीश लोगों को बदलना चाहता है, उसके पास ही बदलने वाली कोई अंतस-चेतना नहीं होती। जो राजनीतिज्ञ समाज के भ्रष्टाचार को दूर करना चाहते हैं, उनका सारा जीवन भ्रष्टाचार से लिप्त होता है। वे वहां तक पहुंच ही नहीं सकते जहां तक पहुंच गए हैं बिना भ्रष्टाचार के।
इसे थोड़ा समझें। क्योंकि जिस यात्रा से तुम गुजरते हो वह तुम्हें बदल देती है। अक्सर ऐसा हुआ है, रोज ऐसा होता है, पूरा इतिहास भरा पड़ा है कि क्रांतिकारियों ने जिनको मिटाना चाहा, अंततः क्रांतिकारी उन्हीं जैसे हो जाते हैं। इस मुल्क में अभी हुआ। उन्नीस सौ सैंतालीस में यह मुल्क आजाद हुआ। जो लोग सत्ता में आए वे अंग्रेजों से बदतर सिद्ध हुए। अंग्रेजों ने इतनी हत्या कभी भी नहीं की थी मुल्क में जितनी इन थोड़े से वर्षों में भारतीयों ने खुद सत्ता में होकर की। इतना भ्रष्टाचार न था जितना भ्रष्टाचार आजादी के इन दिनों में बढ़ा।
क्यों ऐसा होता है? क्योंकि तुम जो करने जाते हो वह तुम्हें भी बदलता है। असल में, सत्ता में पहुंचते-पहुंचते ही जिन सीढ़ियों को पार करना पड़ता है वे तुम्हारी आत्मा का हनन कर देती हैं। जब तक तुम पहुंचते हो तब तक तुम उसी जैसे हो गए होते हो।
एक बहुत पुरानी चीन में कहावत है कि बुरे आदमी से कभी दुश्मनी मत बनाना। क्योंकि बुरे आदमी से तुम दुश्मनी बनाओगे, धीरे-धीरे तुम बुरे हो जाओगे। क्योंकि बुरे आदमी के साथ उसी की भाषा में बोलना पड़ेगा, बुरे आदमी के साथ उसी के ढंग से लड़ना पड़ेगा, बुरे आदमी के साथ वही व्यवहार करना पड़ेगा जो वह समझ सकता है। धीरे-धीरे तुम पाओगे कि तुम बुरे आदमी हो गए।
अगर लड़ाई भी लेनी हो तो किसी अच्छे आदमी से लेना। अगर लड़ना ही हो तो संतों से लड़ना। तो तुम संतों जैसे हो जाओगे। क्योंकि जिससे हमें लड़ना हो उसी के जैसे होना पड़ता है। और कोई उपाय नहीं है। चोर से लड़ोगे, चोर हो जाओगे। बेईमान से लड़ोगे, बेईमान हो जाओगे। क्योंकि बेईमानी का पूरा शास्त्र तुम्हें भी सीखना पड़ेगा। नहीं तो जीत न सकोगे।
हिटलर हार गया, लेकिन सारी दुनिया को बदल गया। क्योंकि जो लोग उससे लड़े वे सब धीरे-धीरे हिटलर जैसे हो गए। हिटलर हार कर भी जिंदा है। और हिटलर के बाद दुनिया में करीब-करीब अधिक मुल्क फैसिस्ट हो गए। भाषा, नाम उनका न हो फैसिज्म, लेकिन हिटलर बदल गया लोगों को; जिनको भी उससे लड़ना पड़ा उनको डेमोक्रेसी छोड़ देनी पड़ी। क्योंकि उससे लड़ना हो तो डेमोक्रेसी नहीं चल सकती। हिटलर से लड़ना था तो इंग्लैंड को तत्क्षण चर्चिल को ताकत देनी पड़ी, क्योंकि हिटलर जैसा दुष्ट आदमी चर्चिल के अतिरिक्त इंग्लैंड में दूसरा नहीं मिल सकता था। हिटलर से चर्चिल ही लड़ सकता था। वह भी हिटलर के ही ढंग का आदमी था; उसमें कोई फर्क न था। हिटलर को हराना जिन लोगों ने किया उनकी सबकी जीवन-चेतना वह बदल गया। वह सारी दुनिया में हार कर भी फैसिज्म की ताकतों को बढ़ावा दे गया। दुनिया में करीब-करीब सब जगह लोकतंत्र की जड़ें हिल गईं, और सब जगह अधिनायकशाही प्रविष्ट हो गई।
अभी बंगला देश में यह घटना घटी। आजादी आए देर नहीं हुई, लोकतंत्र की हत्या हो गई। मुजीबुर्रहमान अधिनायक हो गए। कहते वे यही हैं अभी कि बुराई को मिटाना है। लेकिन बुराई को मिटाने में तुम्हें बुरा होना पड़ता है। लेकिन तुम थोड़े दिन में भूल ही जाओगे कि बुराई मिटी या न मिटी। कभी बुराई मिटी नहीं है आज तक। इसलिए अब इस अधिनायकशाही का अंत कब होगा? बुराई कभी मिटेगी नहीं और अधिनायक कहेगा, अभी बुराई मिटी नहीं इसलिए मुझे अधिनायक रहना है। और जैसे-जैसे अधिनायकशाही मजबूत होती जाएगी वैसे-वैसे वह स्वभाव बन जाएगी। सारी दुनिया में स्वागत किया गया, क्योंकि मुजीबुर्रहमान कहते हैं कि यह दूसरी क्रांति है।
यह क्रांति की हत्या है; यह दूसरी क्रांति नहीं है। क्रांति हो भी न पाई थी कि मर गई। बच्चा मरा हुआ ही पैदा हुआ। और सारी दुनिया में ऐसा हुआ है। लेकिन आदमी इतिहास को दोहराए चला जाता है। स्टैलिन चाहता था कि रूस का छुटकारा जार से हो जाए और स्टैलिन जार जैसा हो गया छुटकारे में। तुम जिस तरह की जीवन-व्यवस्था को तोड़ना चाहते हो तुम भी वैसे हो जाओगे।
हमने तो बड़े अच्छे लोग भेजे थे सत्ता में, अच्छे से अच्छे लोग, जिनको हम समझते थे अच्छे लोग। क्योंकि गांधी ने बड़े सेवक तैयार किए थे, बड़े त्यागी तैयार किए थे। वे सब भोगी सिद्ध हुए। वह सब त्याग दो कौड़ी में मिल गया। जैसे ही सत्ता आई वैसे ही सब रूप बदल गया। क्यों? क्योंकि उनको लड़ना पड़ा, चारों तरफ की बुराई है उससे लड़ना पड़ा। वह बुराई उन्हें बुरा कर गई।
जिससे तुम दुश्मनी लोगे, तुम कभी न कभी उसी जैसे हो जाओगे। इसलिए मैं कहता हूं, शैतान से मत लड़ना। परमात्मा से प्रेम करना; शैतान से मत लड़ना। शैतान से लड़ने की तरफ ध्यान ही मत देना। क्रोध से मत लड़ना, करुणा को जगाना; क्रोध पर ध्यान ही मत देना। कामवासना से मत लड़ना, अन्यथा तुम और कामी हो जाओगे। और अगर कामवासना से लड़-लड़ कर तुम्हारा ब्रह्मचर्य भी पैदा हो गया तो वह ब्रह्मचर्य का गुणधर्म भी कामवासना का होगा, वह भिन्न नहीं हो सकता। इसलिए ठीक दिशा में ध्यान देना जरूरी है।
लाओत्से कहता है, ‘मान लो लोग मृत्यु से भयभीत हैं, और हम उपद्रवियों को पकड़ कर मार भी सकते हैं, तो भी ऐसा करने की हिम्मत कौन करेगा?’
क्योंकि जो मारेगा वह उपद्रवियों जैसा ही हो जाएगा। जो उनकी हत्या करेगा, जो बुराई को तोड़ेगा, वह तोड़ने में ही बुरा हो जाएगा।
‘अक्सर ऐसा होता है कि बधिक मारा जाता है।’
मारने वाला मारने की प्रक्रिया में ही मारा जाता है। भला वस्तुतः न मारा जाए, लेकिन मारा जाता है, खो देता है अपने को।
‘और बधिक की जगह लेना ऐसा है जैसे कोई महा काष्ठकार की कुल्हाड़ी लेकर चलाए।’
जब भी तुम बधिक की जगह लेते हो, जैसे ही तुम तय करते हो कि किसी को डराना है, धमकाना है, मिटाना है, क्योंकि भलाई को जन्म इसी तरह मिलेगा, तभी तुम गलती कर रहे हो। क्योंकि बुराई से भलाई को जन्म नहीं मिल सकता। मिटाना, डराना, धमकाना बुराई है। बुराई से कभी भलाई का जन्म नहीं होता।
अभी मैंने, जब हिंदुस्तान और चीन पर युद्ध के बादल छा गए और दोनों मुल्क संघर्ष के लिए करीब आए तो एक जैन मुनि से मेरी बात हो रही थी। मैंने उनसे कहा कि आपने भी आशीर्वाद दिया सेनाओं को, यह कुछ समझ में नहीं आता, क्योंकि अहिंसा परमो धर्मः। उन्होंने कहा, निश्चित दिया, क्योंकि अहिंसा की रक्षा के लिए युद्ध जरूरी है।
अहिंसा की रक्षा के लिए युद्ध जरूरी है! यह वचन तो बिलकुल ठीक लगता है, लेकिन तुम इसमें थोड़ा सोचो इसका क्या अर्थ हुआ? अहिंसा की रक्षा भी हिंसा से होगी? तो तुम हिंसा अहिंसा के नाम पर करोगे; बस इतनी ही बात हुई, और तो कोई फर्क न हुआ। और अगर अहिंसा की रक्षा भी हिंसा से होती है तो अहिंसा नपुंसक है। तो फिर अहिंसा की बकवास ही छोड़ो। कम से कम ईमानदारी ग्रहण करो, प्रामाणिक रूप से यह कहो कि हिंसा के बिना कोई उपाय नहीं है, इसलिए हिंसा करेंगे। बात तो अहिंसा की करोगे, और फिर जब रक्षा करनी पड़ेगी तो हिंसा का ही सहारा लेना पड़ेगा। अहिंसा इतनी कमजोर है? और जब तुम हिंसा करोगे अहिंसा के नाम से तो तुम में और हिंसक में फर्क क्या रह जाएगा? हां, तुम जरा ज्यादा चालाक हो, तुम ज्यादा बेईमान हो। इतना ही फर्क। हिंसक कम से कम साफ-सुथरा है। अहिंसा की रक्षा हिंसा से कैसे हो सकती है?
लोग कहते हैं, धर्म खतरे में है। फिर धर्म की रक्षा हिंसा से करते हैं। धर्म अहिंसा है, प्रेम है। और तुम हिंसा करोगे तो धीरे-धीरे तुम अधार्मिक हो जाओगे। और जब तक तुम रक्षा करके निबटोगे, तुम पाओगे तुम्हारी जीवन-चेतना हिंसात्मक हो गई। क्योंकि तुम जो करते हो उसका अभ्यास तुम्हारे जीवन को बदल जाता है। तुम वही हो जाते हो जो तुम करते हो। तुम उसके साथ तादात्म्य बना लेते हो।
इसलिए लाओत्से कहता है, बधिक की जगह लेना खतरनाक है। क्योंकि तुम बधिक हो जाओगे। और तुम बधिक हो गए और बधिक को ही मिटाना चाहते थे! उपद्रवी को मिटाना चाहते थे, लेकिन मिटाने में तुम स्वयं उपद्रवी हो गए। बुरे को कोई बुराई से नहीं मिटा सकता। घृणा घृणा से नहीं मिटाई जा सकती; घृणा घृणा से बढ़ेगी। बुराई बुराई से नहीं मिटाई जा सकती; बुराई बुराई से बढ़ेगी। बुराई को मिटाना हो तो भलाई चाहिए। घृणा को मिटाना हो तो प्रेम चाहिए। पाप को मिटाना हो तो पुण्य चाहिए।
और समाज यही कोशिश करता रहा है कि बुराई को बुराई से मिटा दे। तुम उपद्रव करते हो तो पुलिस का डंडा तुम्हारे सिर पर पड़ जाता है। पुलिस कहती है कि तुम उपद्रव कर रहे थे, इसलिए डंडा मारना जरूरी है। लेकिन पुलिस का डंडा खुद ही उपद्रव है। इस जाल के बाहर कैसे निकला जाए?
जाल के बाहर रास्ता नहीं दिखाई पड़ता। उलझन बड़ी गहरी है। क्योंकि डंडे के जो मालिक हैं, वे कहते हैं कि अगर डंडा न उठे तो उपद्रव बहुत बढ़ जाएगा। इसलिए डंडा उठाना जरूरी है। और डंडे से कोई उपद्रव दबता नहीं। डंडे से इतना ही होता है कि दूसरी दफे उपद्रवी भी डंडा लेकर आ जाता है। हमारी सारी व्यवस्था ऐसी है।
रवींद्रनाथ ने एक संस्मरण लिखा है। उनका बड़ा घर था, बड़ा परिवार था। उनके दादा को राजा की उपाधि थी। और इतना पैसा था, सुविधा थी, कि ऐसा भी हो जाता था कि जो मेहमान एक दफा मेहमान की तरह आया फिर वह गया ही नहीं, वह वहीं रहने ही लगा। ऐसे परिवार में कोई सौ लोग थे। तो मनों दूध खरीदा जाता था। और बंगाल में तो बहुत दूध की जरूरत है, क्योंकि सारे बंगालियों के मिष्ठान्न छेना से बनते हैं, दूध बहुत चाहिए। हर भोजन के साथ संदेश तो चाहिए ही। बहुत दूध खरीदा जाता था।
तो एक व्यक्ति के हाथ में परिवार के, रवींद्रनाथ के एक भाई के हाथ में जिम्मा था दूध को देखने का। तो दूध में पानी मिल कर आता था। तो भाई बिलकुल गणित-कुशल था, प्रशासक बुद्धि का था। उसने एक और इंसपेक्टर नियुक्त किया जो लोग दूध लाते थे उन पर। जब से इंसपेक्टर नियुक्त किया तब से दूध में और पानी मिलने लगा; क्योंकि इंसपेक्टर का भी भाग जुड़ गया। वह भी जिद्दी आदमी था। उसने एक और बड़ा इंसपेक्टर, इंसपेक्टर के ऊपर नियुक्त कर दिया। तब तो एक दिन गजब हो गया। एक मछली भी आ गई दूध में। पानी ऐसा मिलाया गया, पोखर से सीधे ही डाल दिया; उसमें एक मछली भी चली आई।
रवींद्रनाथ के पिता ने रवींद्रनाथ के भाई को बुलाया और कहा कि तुम विदा करो इंसपेक्टरों को। क्योंकि यह जाल तो बढ़ जाएगा। अगर तुमने अब और एक इंसपेक्टर नियुक्त किया तो धीरे-धीरे पानी ही आएगा, दूध आएगा ही नहीं। क्योंकि सबका भाग निर्धारित होता जा रहा है। लेकिन वह जिद्दी था, उसने कहा कि इसका मतलब यह हुआ, इसका मतलब केवल इतना ही है कि एक ठीक योग्य आदमी और चाहिए ऊपर। रवींद्रनाथ के पिता ने कहा, तुम देखो, क्या घटना घटी है! दूध पहले आ रहा था, पानी मिला था माना; लेकिन इतना पानी मिला नहीं था।
ज्यादा सुरक्षा की व्यवस्था करोगे, असुरक्षा हो जाएगी। भरोसे से चलता है जीवन; इतने भय और इतनी व्यवस्था से नहीं चलता। व्यवस्था बिगाड़ देती है, अव्यवस्था ले आती है। उपद्रवी डंडे लेकर आ जाएंगे; पुलिस गैस के गोले लेकर आएगी; उपद्रवी गोले लेकर आएंगे। ऐसे ही तो दुनिया में क्रांतियां खड़ी होती हैं। जितना राज्य दबाना चाहता है उतना ही लोग बगावत करते हैं। जितनी बगावत करते हैं, राज्य और दबाना चाहता है। क्योंकि गणित साफ है कि नहीं दबाओगे तो क्या होगा! ऐसे ही तो बड़े-बड़े साम्राज्य गिरते हैं। ऐसे ही ब्रिटिश साम्राज्य भारत में गिरा। ऐसे ही यह कांग्रेस गिरेगी। ऐसे ही इनके पीछे जो आएंगे वे गिरेंगे। गिरने का सूत्र यह है कि तुम्हारे गणित में भूल है।
मगर कठिनाई यह है कि वे भी क्या करें। उनसे अगर बात करो तो उनके सामने भी यही सवाल है कि इसको रोकें कैसे?
ऊपर से बदलाहट नहीं की जा सकती। क्रांति, बदलाहट जड़ से लानी होती है। ऊपर से बदलने जाओगे, कुछ भी न बदलेगा। मूल भय पर खड़ा है। वहीं भूल है। मूल प्रेम पर खड़ा होना चाहिए। एक-एक परिवार से प्रेम की व्यवस्था बननी शुरू होनी चाहिए। डराओ मत बच्चों को। वक्त लगेगा, समय लगेगा, दो-चार पीढ़ियां अगर प्रेम में जीने की कोशिश करें तो ऐसी घड़ी आएगी जहां उपद्रव शांत हो जाएंगे। कोई इतना अशांत न होगा कि उपद्रव करने की कोशिश करे।
और तात्कालिक व्यवस्था कुछ भी करने का बड़ा प्रयोजन नहीं है। तात्कालिक व्यवस्था से कुछ भी नहीं होता, सनातन व्यवस्था चाहिए। बीमारी गहरी है, ऊपर से चोट करने से मिटती नहीं। तुम थोड़ी-बहुत देर के लिए दबा दो, फिर बीमारी खड़ी हो जाएगी। मौलिक रूपांतरण चाहिए।
उसी मौलिक रूपांतरण के लिए लाओत्से के वचन हैं।
वह कहता है, ‘बधिक की जगह लेना ऐसा है जैसे कोई महा काष्ठकार की कुल्हाड़ी लेकर चलाए। जो महा काष्ठकार की कुल्हाड़ी हाथ में लेता है, वह शायद ही अपने हाथों को जख्मी होने से बचा पाए।’
ऐसा हुआ कि मुल्ला नसरुद्दीन एक स्कूल में मास्टर था। एक औरत एक दिन आई अपने बेटे को लेकर और उसने कहा कि कुछ इसे डराओ-धमकाओ, क्योंकि यह बिलकुल बगावती हुआ जाता है। न किसी की सुनता, न कोई आज्ञा मानता। सब अनुशासन इसने तोड़ डाला है। हम बड़े बेचैन हैं। इसे थोड़ा डराओ-धमकाओ। इसे रास्ते पर लाओ। ऐेसा सुनते ही नसरुद्दीन ऐसा उछला-कूदा, ऐसा चीखा-चिल्लाया कि बच्चा तो डरा ही डरा, औरत बेहोश हो गई। उसने इतना न सोचा था कि यह...। वह तो समझी कि यह आदमी पागल हो गया या क्या हुआ। बच्चा भाग खड़ा हुआ। औरत बेहोश हो गई। और नसरुद्दीन खुद इतना घबड़ा गया कि खुद भी बच्चे के पीछे भाग खड़ा हुआ।
घड़ी भर बाद झांक कर उसने देखा कि औरत होश में आई या नहीं। जब औरत होश में आ गई तब वह भीतर आकर, वापस अपने आसन पर बैठा। उस औरत ने कहा कि यह जरा ज्यादा हो गया, मेरा मतलब ऐसा नहीं था। मैंने यह नहीं कहा था कि मुझे डरा दो।
नसरुद्दीन ने कहा कि देख, भय का शास्त्र किसी की चिंता नहीं करता। जब बच्चे को मैंने डराया तो भय थोड़े ही देखता है कि कौन बच्चा है और कौन तू है। जब भय पैदा किया तो वह सभी के लिए पैदा हो गया। बच्चा तो डरा ही डरा, अब सपने में भी मेरी सूरत देख कर कंप जाएगा। लेकिन भय किसी का पक्षपात नहीं करता। तू भी डरी। और तेरी छोड़, मेरी हालत पूछ! मैं तक घबड़ा गया। अब इस बच्चे को मैं भी देख लूंगा तो मेरे हाथ-पैर कंपेंगे। मैं खुद ही आधा मील का चक्कर लगा कर आ रहा हूं; बामुश्किल रोक पाया अपने को भागने से। ऐसी घबड़ाहट पकड़ गई।
इसे ध्यान में रखो। नसरुद्दीन ठीक कह रहा है। भय से जब तुम किसी को भयभीत करते हो तो तुम दूसरे को ही भयभीत नहीं करते, अपने को भी भयभीत कर लेते हो। जब तुम बुराई से किसी को डराते हो तब तुम खुद भी डर जाते हो। यह दुधारी तलवार है। और इसे सम्हाल कर हाथ में उठाना, क्योंकि तुम्हारे हाथ भी लहूलुहान हो जाएंगे।
लाओत्से कह रहा है कि कोई कलाकार काष्ठकार होता है, निष्णात होता है अपनी कुल्हाड़ी को पकड़ने में। तुम उसकी कुल्हाड़ी पकड़ कर मत चलाना। नहीं तो तुम अपने हाथों को जख्मी होने से न बचा पाओगे।
जीवन का शास्त्र बड़ा बारीक, नाजुक है। और जीवन के शास्त्र को सम्हल कर एक-एक कदम होशपूर्वक कोई चले तो ही अपने को बचा पाएगा जख्मी होने से। अन्यथा तुम दूसरे को सुधारने में अपने को बिगाड़ लोगे, दूसरे को बनाने में खुद मिट जाओगे।
ऐसा मैंने सुना है कि इजिप्त में एक बादशाह पागल हो गया। और पागल हो गया शतरंज खेलते-खेलते। इतना शतरंज के खेल का उसे शौक था कि रात भर चालें चलता रहे नींद में। सुबह होते ही से सब काम छोड़ कर वह शतरंज की चाल पर बैठ जाए; दिन देखे न रात। धीरे-धीरे वह पगला गया; धीरे-धीरे बस शतरंज ही रह गई, और सब भूल गया। चिकित्सक बुलाए गए। चिकित्सकों ने कहा, यह हमारे हाथ की बात नहीं। अगर कोई शतरंज का बड़ा खिलाड़ी इसके साथ शतरंज खेले तो शायद कुछ हल हो जाए।
तो राज्य के सबसे बड़े खिलाड़ी को बुलाया गया। वह राजी हो गया सम्राट को सुधारने को। एक साल तक, कहते हैं, वह उसके साथ खेल खेलता रहा। और वह सही साबित हुआ, सम्राट ठीक हो गया एक साल के बाद, लेकिन खिलाड़ी पागल हो गया। पागल के साथ शतरंज खेलना! एक तो शतरंज वैसे ही पागल करने वाला खेल, फिर पागल के साथ खेलना! तो सम्राट तो कहते हैं ठीक हो गया साल भर में, लेकिन खिलाड़ी पागल हो गया।
चिकित्सकों से खिलाड़ी के घर के लोगों ने पूछा, अब क्या करें? उन्होंने कहा कि और कोई बड़ा खिलाड़ी खोजो जो राजी हो इसको सुधारने को। मगर तब कोई खिलाड़ी राजी न हुआ, क्योंकि बात फैल गई कि जो सुधारेगा वह पागल हो जाएगा।
बुरे को सुधारने में सम्हल कर कदम उठाना। पहले अपनी तरफ गौर से देख लेना, कहीं बुरे को सुधारने में तुम बुरे तो न हो जाओगे! गलत को सुधारने में गलत तो न हो जाओगे! वेश्या को सुधारने सोच-समझ कर जाना; शराबी को सुधारने होश से जाना।
एक युवक अभी कुछ दिन पहले मेरे पास आया और उसने कहा कि मैं बड़ी झंझट में पड़ गया हूं। लंदन में कोई संस्था होगी जो शराबियों को सुधारने का काम करती है। पश्चिम में ऐसी बहुत सी संस्थाएं हैं। बड़ी अंतर्राष्ट्रीय एक संस्था है: अल्कोहलिक अनॉनिमस। वैसी कोई संस्था में वह शराबियों को सुधारने के काम में लगा होगा। शराबी सुधरे कि नहीं, वह शराब पीना सीख गया। अब वह कहता है, मुझे कौन सुधारे?
जरा सम्हल कर सुधारने की बात में उतरना। क्योंकि वह महा काष्ठकार की कुल्हाड़ी है। बुद्धों ने वह काम किया है; वह तुमसे न हो सकेगा। तुम उस कुल्हाड़ी को हाथ में लेकर चलाओगे, तुम अपने ही हाथ-पैर काट लोगे। बुद्ध वह काम कर सकते हैं, क्योंकि उन्हें करना नहीं पड़ता, उनकी मौजूदगी सुधारती है। वही तो कला है। उनका होना सुधारता है; उनका अस्तित्व, उनका पूरा समग्र चैतन्य। उनकी मौजूदगी से क्रांति घटित होती है।
बुद्ध पुरुष के पास होने से तुम बदलने शुरू हो जाते हो। वह तुम्हें बदलना नहीं चाहता। उसकी कोई चाह नहीं रही; इसीलिए तो वह बुद्ध पुरुष है। वह तुम्हें बदलने की भी चाह नहीं रखता। वह तुम्हें तुम्हारी समग्रता में स्वीकार करता है; तुम जैसे हो भले हो। इसी स्वीकार से तुम्हारी क्रांति शुरू होती है। वह तुम्हें प्रेम करता है; तुम जैसे हो, बेशर्त, वैसे ही प्रेम करता है। वह यह नहीं कहता कि तुम ऐसे हो जाओ तब मैं तुम्हें प्रेम करूंगा। वह कहता है, तुम जैसे हो परिपूर्ण हो; मैं तुम्हें प्रेम करता हूं। उसका हृदय तुम्हें अंगीकार कर लेता है। वह तुम्हें आलिंगन कर लेता है; एक गहन तल पर तुम्हें स्वीकार कर लेता है। उसी स्वीकृति से तुम्हारे जीवन में क्रांति घटनी शुरू होती है। उसका प्रेम तुम्हें बदलता है। उसकी करुणा तुम्हें बदलती है। उसकी चेतना तुम्हें बदलती है। वह तुम्हें नहीं बदलता; वह तुम्हें बदलना भी नहीं चाहता।
और जो तुम्हें बदलना चाहते हैं वे तुम्हें तो बदल ही नहीं पाते, तुम्हें बदलने में खुद बदल जाते हैं। तुम भी दूसरे को बदलने की चेष्टा में मत लगना। उससे बड़ी भूल नहीं है। अगर किसी को भी तुम्हें बदलना हो तो खुद को बदलना। तुम जिस दिन बदल जाओगे, तुम एक जले हुए दीये होओगे। तुम्हारी रोशनी तुम्हारे चारों तरफ पड़ेगी। जो भी वहां से निकलेगा उस रोशनी का दान ले लेगा। जो भी वहां से निकलेगा वह रोशनी उसे जीवन का दर्शन करा देगी। बदलाहट निष्क्रिय चेतना से घटती है, सक्रिय चेतना से नहीं।
जो भी किसी को बदलना चाहता है वह अहंकारी है। यह बदलने की तरकीब भी अहंकार का खेल है। बदलने के नाम पर वह दूसरे की गर्दन को पकड़ना चाहता है। बदलने के नाम पर वह दूसरे के साथ ऐसा व्यवहार करना चाहता है जैसा कोई वस्तुओं के साथ करता है। वह कहता है, तुम्हारा यह पैर काटेंगे, तुम्हारी यह गर्दन अलग करेंगे; तुमको सुंदर बनाएंगे, तुम्हें शुभ बनाएंगे। वह तुम्हें विध्वंस करना चाहता है। सुधारक की वृत्ति में बड़ी हिंसा छिपी है। और तुम्हारे तथाकथित महात्मा सभी हिंसक हैं। वे तुम्हें बदलना चाहते हैं।
वस्तुतः बुद्ध पुरुष तुम्हें स्वीकार करता है। बदलने को क्या है? तुम भले हो, तुम सर्वांग भले हो जैसे हो। तुम्हारे होने में रत्ती भर भी कुछ बुद्ध पुरुष को शिकायत नहीं है। और तब क्रांति घटित होती है। तब भभक कर क्रांति घटित होती है। उस परिपूर्ण स्वीकार में ही तुम्हारा जीवन एक नयी यात्रा पर निकल जाता है।

आज इतना ही।

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