LAO TZU

Tao Upanishad 11

Eleventh Discourse from the series of 127 discourses - Tao Upanishad by Osho. These discourses were given during JUN 19-26, 1971 - APR 10 1975.
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Chapter 3 : Sutra 3

He constantly tries to keep them without knowledge and without desire, and where there are those who have knowledge, to keep them from presuming to act (on it). When there is this abstinence from action, good order is universal.

अध्याय 3: सूत्र 3

वे उन्हें कोरे ज्ञान और इच्छादि से मुक्त रखने का प्रयास करते हैं। और जहां ऐसे लोग हैं, जो निपट जानकारी से भरे हैं, उन्हें ऐसी जानकारी के उपयोग से बचाने की यथाशक्य चेष्टा करते हैं। जब अक्रियता की ऐसी अवस्था उपलब्ध हो जाए, तब जो सुव्यवस्था बनती है, वह सार्वभौम होती है।
जो जानते हैं, वे लोगों को कोरे ज्ञान से मुक्त रखने का प्रयास करते हैं।
साधारणतः हम सोचते हैं कि अज्ञान बुरा है, अशुभ है; और ज्ञान अपने आप में शुभ है। लाओत्से ऐसा नहीं सोचता। न ही उपनिषद के ऋषि ऐसा सोचते हैं। और न ही पृथ्वी पर जिन लोगों ने भी परम ज्ञान को पाया है, उनकी ऐसी धारणा है।
उपनिषदों में एक सूत्र है कि अज्ञानी तो अंधकार में भटक ही जाते हैं, ज्ञानी महा अंधकार में भटक जाते हैं।
अकेला जान लेना न जानने से भी खतरनाक है। अज्ञानी विनम्र होता है। उसे कुछ पता नहीं है। और जिसे कुछ पता नहीं है, उसे अहंकार को निर्मित करने का आधार नहीं होता। उसे यह भ्रम भी नहीं होता कि मैं जानता हूं। इसलिए मैं को मजबूत करने की सुविधा भी नहीं होती। समझ लेना जरूरी है कि धन भी अहंकार को उतना मजबूत नहीं करता, पद भी नहीं करता, जितना ज्ञान करता है। यह खयाल कि मैं जानता हूं, जितने दंभ से, जितनी ईगो से आदमी को भर जाता है, उतनी कोई और चीज नहीं भरती है।
इसलिए पंडितों से ज्यादा अहंकारी व्यक्ति खोजना कठिन है। और इसलिए यह भी घटना घटी है कि ज्ञान के दंभ से जो भरा है, वह सड़क पर भीख मांगने को राजी हो सकता है, नंगा रहने को राजी हो सकता है, भूखा मरने को राजी हो सकता है। उसे महल नहीं चाहिए। उसे बड़े राज-सिंहासन नहीं चाहिए। लेकिन वह जो जानता है, अगर उसे प्रतिष्ठा मिलती हो, तो वह सब त्याग करने को तैयार हो सकता है।
धन को छोड़ देना आसान है, पद को छोड़ देना आसान है। जानकारी को, ज्ञान को, नालेज को छोड़ देना अति कठिन है। हम सब छोड़ कर जा सकते हैं--परिवार को, प्रियजनों को--लेकिन जो हमने जाना है, उसे हम छोड़ कर नहीं हट सकते। क्योंकि वह हमारा प्राण है। जो हम जानते हैं, अगर वही हमसे हटा लिया जाए, तो हम शून्य हो जाते हैं। जानकारी ही हमारी सब कुछ संपदा है। वही है हमारा मन, हमारा माइंड, जो हम जानते हैं, उसका जोड़ है, एक्यूमुलेशन है। अगर जानते नहीं हैं कुछ, हटा दिया जाए, तो हम खाली और रिक्त और कोरे हो जाते हैं।
अभी मैं एक सूफी किताब देख रहा हूं। पहली दफा प्रकाशित हुई है। किताब तो एक हजार साल पुरानी है। एक हजार साल में बहुत दफे सोचा गया कि उसे प्रकाशित किया जाए। लेकिन फिर प्रकाशित नहीं किया जा सका। क्योंकि कोई प्रकाशक, कोई पब्लिशर उसे छापने को राजी न हुआ। बात क्या थी कि कोई पब्लिशर उसे छापने को राजी न हुआ? बात यह है कि उस किताब में कुछ लिखा हुआ नहीं है। दो सौ पृष्ठ की किताब है कोरी! उस किताब की कहानी जरूर लंबी है। और सूफियों के हाथ में वह किताब पीढ़ी दर पीढ़ी दी जाती रही है। और कब किसने उस किताब को पढ़ कर क्या कहा, उसका भी इतिहास निर्मित हो गया है। पढ़ने को उसमें कुछ है नहीं। लेकिन जब एक सूफी गुरु ने दूसरे को उसे दिया, तो उसने पढ़ कर जो वक्तव्य दिया, वह संगृहीत हो गया है।
अभी वह किताब प्रकाशित हुई है। पर वह पब्लिशर भी सीधी किताब छापने को राजी नहीं हुआ। उसने कहा कि पहले वे जो-जो बातें किताब के बाबत कही गई हैं, वे भी लिखी जाएं, तो कुछ छापने जैसा हो। ये दो सौ पेज खाली! तो दो सौ पेज खाली छापे हैं और नौ पन्ने आगे लिखित छापे हैं। वे किताब के हिस्से नहीं हैं। वह किताब के संबंध में लोगों ने जो कहा है वह है।
जिस व्यक्ति ने यह किताब पहली दफा दी अपने शिष्य को, उसने कहा कि ठीक से पढ़ लेना, क्योंकि जो भी जानने योग्य है, वह सब मैंने इसमें लिख दिया है। आल दैट इज़ वर्थ नोइंग! शिष्य ने किताब खोली, और उसमें तो कुछ भी नहीं था। उसने अपने गुरु को कहा, लेकिन इसमें तो कुछ भी नहीं है। तो उसके गुरु ने कहा कि दैट मीन्स नथिंग इज़ वर्थ नोइंग। इसका अर्थ है कि कुछ जानने योग्य नहीं है। इसमें मैंने वह सब लिख दिया है जो जानने योग्य है। और जिस दिन तू इस किताब को पढ़ने में समर्थ हो जाएगा, उस दिन तू सब किताबों से मुक्त हो जाएगा।
इसलिए इस किताब का नाम है: दि बुक ऑफ दि बुक्स, शास्त्रों का शास्त्र। इसमें कुछ है नहीं।
फिर जब दूसरे शिष्य को वह किताब दी गई, तो उसने किताब खोली ही नहीं। उसके गुरु ने कहा, खोल कर पढ़ भी! पर उसने कहा कि पढ़ने से कभी कुछ नहीं मिलेगा, यह मैं जानता हूं। इसे भी पढ़ने से कुछ न मिलेगा। तो उसके गुरु ने कहा कि इसीलिए तुझे मैंने योग्य समझा कि यह किताब तुझे दे दूं, क्योंकि जो पढ़ने वाले हैं, उनके यह किसी काम की नहीं है। कथा है कि उस शिष्य ने किताब जिंदगी भर नहीं खोली।
बड़ी कठिन बात है। किताब आपके हाथ में हो और जिंदगी भर न खोली हो, बड़ी कठिन बात है। मरते वक्त अपने जिस शिष्य को उसने सौंपा, उसे उसने कहा कि ध्यान रख, मैंने इसे कभी पढ़ा नहीं। और मेरे गुरु ने मुझे यह इसीलिए दी थी कि वे जानते थे कि पढ़ने में मेरी उत्सुकता नहीं, जानने में मेरी उत्सुकता है। मैं तुझे सौंपता हूं, इसी आशा में कि तू भी जानने की चेष्टा में लगेगा, पढ़ने की चेष्टा में नहीं।
पढ़ने से जो ज्ञान मिल जाएगा, वह सिर्फ ज्ञान जैसा प्रतीत होता है। धोखा होता है। सूडो नालेज होती है। दिखाई पड़ता है कि ज्ञान है; वह ज्ञान होता नहीं।
लाओत्से जो कह रहा है, यह कह रहा है कि जो जानते हैं--अब बड़ी मजेदार बात है--जो जानते हैं, वे लोगों को जानने से रोकते हैं। क्योंकि वे यह जानते हैं कि लोगों के भटकने का जो सुगमतम मार्ग है, वह जानकारी है।
हमारे ही मुल्क में यह घटना घटी है। और पृथ्वी पर इतने सघन रूप से कहीं भी नहीं घटी है। हमारे मुल्क में जितना हम जानते हैं सत्य के संबंध में, पृथ्वी पर कोई भी नहीं जानता; और जितने असत्य में हम जीते हैं, उतना भी कोई नहीं जीता। धर्म के संबंध में हमारी जितनी जानकारी है, इतनी जानकारी सारी दुनिया की भी इकट्ठी मिला दें, तो हमारा पलड़ा भारी रहेगा। लेकिन अधर्म जैसा हमें सरल है, ऐसा पृथ्वी पर किसी को भी नहीं है। बात क्या है? भूल कहां हो गई होगी? हमें तो दुनिया में सबसे ज्यादा धार्मिक लोग होना चाहिए था। और हमारे जीवन से तो सत्य का प्रकाश ही निकलता। और परमात्मा की छबि ही हमारे चारों तरफ हमें दिखाई पड़ती। वह तो हमें दिखाई नहीं पड़ती। हां, बात हम सर्वाधिक करते हैं। ईश्वर के संबंध में जितनी बात हम करते हैं, उसका हिसाब लगाना मुश्किल है। लेकिन ईश्वर से हमारी कोई पहचान नहीं होती।
वह वही भूल हो गई है, जो लाओत्से कह रहा है, जानकारी जानने से रोक देती है। लाओत्से के शिष्य च्वांगत्से ने कहा है कि इफ यू वांट टु नो, बिवेयर ऑफ नालेज। अगर जानना चाहो, तो ज्ञान से सावधान!
ये वाक्य कंट्राडिक्टरी मालूम पड़ते हैं, स्वविरोधी मालूम पड़ते हैं। क्योंकि च्वांगत्से कहता है, जानना चाहो, तो जानने से सावधान! क्यों? जानना चाहो और जानने से सावधान! हां, कोई कहता, न जानना चाहो और जानने से सावधान, तो संगत, तर्कयुक्त बात मालूम होती।
च्वांगत्से कहता है, जानना चाहो, तो जानकारी से सावधान। क्योंकि जिसे जानकारी मिल जाती है, वह जानने से वंचित रह जाता है।
क्यों? क्योंकि जानकारी होती है उधार, किसी और ने जाना। कोई रामकृष्ण कहते हैं कि परमात्मा है, कोई रमण कहता है कि परमात्मा है। हमने सुना, माना और हमने भी कहना शुरू किया कि परमात्मा है। यह जानकारी है। हमने जाना नहीं है। किसी और ने जाना है; उधार है।
और ध्यान रहे, ज्ञान उधार नहीं हो सकता। इस जगत में सब चीजें उधार मिल सकती हैं। एक चीज उधार नहीं मिलती, वह ज्ञान है। इस जगत में सभी चीजें दूसरों से पाई जा सकती हैं, एक चीज दूसरों से नहीं पाई जा सकती, वह ज्ञान है। जानने में और जानकारी में यही फर्क है। जानना होता है स्वयं का और जानकारी होती है किसी और से। कोई और कह देता है। कबीर को सुन लेता है कोई। नानक को सुन लेता है कोई। और जो सुना, वह जानकारी बन जाती है। लेकिन जानकारी से ज्ञान का भ्रम पैदा होता है। अगर हम पुनरुक्त करते जाएं, जानकारी को बार-बार दोहराते जाएं, दोहराते जाएं, तो हम यह भूल ही जाते हैं कि यह हमारा जाना हुआ नहीं है। बार-बार दोहराने से लगता है कि मैं जानता हूं।
सुना है मैंने कि नसरुद्दीन पर एक मुकदमा चला। चोरी का मुकदमा है। और अदालत में मजिस्ट्रेट ने कहा... बड़ी मुश्किल से, मजिस्ट्रेट सख्त था बहुत, बहुत मुश्किल से ही नसरुद्दीन का वकील नसरुद्दीन को बचा पाया। जब अदालत के बाहर निकलते थे, तो वकील ने पूछा कि नसरुद्दीन, सच तो बताओ, चोरी तुमने की भी थी या नहीं? नसरुद्दीन ने कहा कि तुम्हें सुन-सुन कर महीनों तक, मुझे भी शक आने लगा है कि मैंने चोरी की थी? मुझे भी शक होने लगा है। यू हैव कनविंस्ड मी सो मच! नसरुद्दीन ने कहा, इतना तुमने मुझे भरोसा दिलवा दिया, मजिस्ट्रेट ही राजी नहीं हुआ, मैं भी राजी हो गया हूं। अब तो मुझे भी शक आता है कि सच में मैंने चोरी की थी या नहीं की थी।
एक बात बार-बार सुन कर कठिनाई हो जाती है। और दूसरे से सुन कर नहीं, जब आप खुद ही दोहराते रहते हैं। बचपन से दोहराते रहते हैं, ईश्वर है, ईश्वर है, ईश्वर है। खून के साथ मिल जाती है बात। हड्डियों में समा जाती है। मांस-पेशियों में घुस जाती है। रोएं-रोएं से बोलने लगती है। होश नहीं था, तभी से पता चलता है कि ईश्वर है। फिर दोहराते-दोहराते-दोहराते-दोहराते याद ही नहीं रह जाता कि कोई क्षण था जब मैंने सवाल उठाया हो कि ईश्वर है? लगता है, सदा से मुझे मालूम है कि ईश्वर है।
अब यह जानकारी आत्मघाती है। अब जब हमें पता ही है कि ईश्वर है, तो खोजने क्यों जाएं? जो मालूम ही है, उसकी तलाश क्यों करें? जो पता ही है, उसके लिए श्रम क्यों उठाएं? इसलिए पूरा मुल्क अध्यात्म की चर्चा करते-करते गैर-आध्यात्मिक हो गया। अगर इस मुल्क को कभी धार्मिक बनाना हो, तो एकबारगी समस्त धर्मशास्त्रों से छुटकारा पा लेना पड़े। एक बार जानकारी से मुक्ति हो, तो शायद हम फिर तलाश पर निकल सकें, खोज पर निकल सकें।
तो लाओत्से कहता है, जो जानते हैं, वे लोगों को ज्ञान से बचाते हैं।
ज्ञान से बचाने का एक तो कारण यह है कि ज्ञान उधार होता है। लाओत्से उस ज्ञान की बात नहीं कह रहा है, जो भीतर, अंतःस्फूर्त होता है। अगर ठीक से समझें, तो दोनों में बड़े फर्क हैं। जो भीतर से जन्मता है, जो स्वयं का होता है, वह नालेज कम और नोइंग ज्यादा होता है। ज्ञान कम और जानना ज्यादा होता है। असल में, जो ज्ञान भीतर आविर्भूत होता है, वह ज्ञान की तरह संगृहीत नहीं होता, जानने की क्षमता की तरह विकसित होता है। जो ज्ञान बाहर से इकट्ठा होता है, वह संग्रह की तरह इकट्ठा होता है, भीतर इकट्ठा होता जाता है। आप अलग होते हैं, ज्ञान का ढेर अलग लगता जाता है। आप ज्ञान के ढेर के बाहर होते हैं। वह आपको छूता भी नहीं। आप अलग खड़े रहते हैं।
जैसे आप अपने कमरे में खड़े हैं और आपके चारों तरफ रुपए का ढेर लगा दिया जाए। इतना ढेर लग जाए कि रुपए में आप बिलकुल डूब जाएं, सब तरफ रुपए आपको घेर लें, गले तक आप दब जाएं--आकंठ। लेकिन फिर भी आप रुपया नहीं हो गए हैं। आप अभी भी अलग हैं। और एक झटका देकर आप बाहर हो सकेंगे। और नहीं हैं बाहर, तब भी बाहर हैं। आप रुपया नहीं हो गए हैं।
एक तो ज्ञान है, जो बाहर से इसी तरह इकट्ठा होता है, हमारे चारों तरफ इकट्ठा होता है। एराउंड एंड एराउंड, चारों ओर, लेकिन भीतर नहीं। जो भी बाहर से आता है, वह धूल की तरह इकट्ठा होता जाता है, वस्त्रों की तरह इकट्ठा होता जाता है।
जो भीतर से जन्मता है, वह ज्ञान संग्रह की तरह इकट्ठा नहीं होता, वह आपकी चेतना की तरह विकसित होता है। इट इज़ मोर नोइंग एंड लेस नालेज। वह आपकी चेतना बन जाती है। ऐसा नहीं कि आप ज्यादा जानते हैं; आपके पास ज्यादा जानने की क्षमता है।
नानक या कबीर या बुद्ध या लाओत्से ज्यादा नहीं जानते हैं। और आप में से कोई भी उनको परीक्षा में परास्त कर सकता है। उनकी जानकारी बहुत नहीं है, लेकिन जानने की क्षमता बहुत है। अगर एक ही चीज पर आप और वे, दोनों जानने में लगें, तो वे इतना जान लेंगे, जितना आप न जान सकोगे। अगर एक पत्थर बीच में रख दिया जाए, तो वे उस पत्थर से परमात्मा को भी जान लेंगे। आप पत्थर को भी न जान पाओगे। हो सकता है, पत्थर के संबंध में जानकारी आपकी ज्यादा हो, लेकिन पत्थर में गहराई आपकी ज्यादा नहीं हो सकती। जानकारी सुपरफीशियल होती है, धरातल पर होती है, और जानना अंतःस्पर्शी होता है।
ध्यान रहे, अगर आपके चारों तरफ ज्ञान है, तो आप चीजों से परिचित होते रहेंगे।
बर्ट्रेंड रसल ने दो भेद किए हैं ज्ञान के--करीब-करीब ठीक ऐसे। एक को वह कहता है एक्वेनटेंस, परिचय; और दूसरे को वह कहता है नालेज। जो परिचय है वह हमारे पास इकट्ठा हो जाता है; और जो ज्ञान है वह हमारे पास इकट्ठा नहीं होता, वह हम को ही रूपांतरित कर जाता है। ज्ञान और ज्ञानी में फर्क नहीं होता; जानकारी में और जानने वाले में फासला होता है, डिस्टेंस होता है, स्पेस होती है, जगह होती है।
तो लाओत्से कहता है कि जो जानते हैं, वे लोगों को जानकारी से बचाएंगे। इसीलिए बचाएंगे, ताकि कभी लोग भी उस दुनिया में प्रवेश कर सकें, जहां जानने की घटना घटती है। इसलिए समस्त ज्ञानियों ने ज्ञान पर जोर नहीं दिया, ध्यान पर जोर दिया। ध्यान से क्षमता बढ़ती है जानने की, और ज्ञान से तो केवल संग्रह बढ़ता है।
यह फर्क आप खयाल में ले लें: संग्रह और क्षमता।
महावीर ने तो कहा कि जिस दिन परम ज्ञान होता है, उस दिन न जानने वाला बचता है, न जाने जाने वाली वस्तु बचती है, न जानकारी बचती है; बस केवल ज्ञान ही बच रहता है, सिर्फ जानना ही बच रहता है। न पीछे कोई जानने वाला होता, न आगे कुछ जानने को शेष होता; जस्ट ए नोइंग, सिर्फ जानना मात्र रह जाता है।
जैसे एक दर्पण हो, जिसमें कोई प्रतिबिंब न बनता हो, क्योंकि उसके आगे कुछ भी नहीं है; दर्पण हो, उसमें कोई रिफ्लेक्शन न बनता हो, क्योंकि आगे कोई आब्जेक्ट नहीं है, कोई वस्तु नहीं है जिसका बने। फिर भी दर्पण तो दर्पण होगा। लेकिन देन इट इज़ जस्ट ए मिरर। और भी ठीक होगा कहना, देन इट इज़ जस्ट ए मिररिंग। कुछ भी तो नहीं बन रहा है उसमें, लेकिन अभी दर्पण तो दर्पण है।
महावीर कहते हैं, जब सच में ही आंतरिक ज्ञान का आविर्भाव होता है अपनी पूर्णता में, तो व्यक्ति सिर्फ जानने की एक क्षमता मात्र रह जाता है; जानकारी बिलकुल नहीं बचती। और ध्यान रहे, जानकारी जहां खत्म होती है, वहीं जानने वाला भी खत्म हो जाता है।
इसलिए लाओत्से के जोर का दूसरा हिस्सा भी खयाल में ले लें कि जानकारी जानने वाले को मजबूत करती है और ज्ञान जानने वाले को मिटा डालता है। ये फर्क हैं। आप जितना ज्यादा जानने लगेंगे, उतना आपका मैं सघन, क्रिस्टलाइज्ड हो जाएगा। आपकी चलने में अकड़ बदल जाएगी; आपके बोलने का ढंग बदल जाएगा। आपके भीतर कोई एक बिंदु निरंतर, मैं जानता हूं, खड़ा रहेगा। जानकारी जितनी बढ़ती जाएगी, उतना ही यह मैं भी मजबूत होता चला जाएगा।
इससे उलटी घटना घटती है, जब ज्ञान विकसित होता है, आविर्भाव होता है भीतर से, जानने की क्षमता का जन्म होता है, तो बड़े मजे की बात है, वह जो मैं है, एकदम शून्य होते-होते विलीन हो जाता है। जिस दिन पूरी तरह मैं विलीन होता है, उसी दिन वह जिसे महावीर केवल ज्ञान, अकेला ज्ञान कह रहे हैं, वह फलित होता है।
पंडित और ज्ञानी में यही फर्क है।
लाओत्से के पास कनफ्यूशियस गया था। और कनफ्यूशियस ने लाओत्से से कहा था, मुझे कुछ उपदेश दें, जिससे कि मैं अपने जीवन का निर्धारण कर सकूं। लाओत्से ने कहा कि जो दूसरे के ज्ञान से अपने जीवन का निर्धारण करता है, वह भटक जाता है। मैं तुम्हें भटकाने वाला नहीं बनूंगा।
बड़ी दूर की यात्रा करके कनफ्यूशियस आया था। और कनफ्यूशियस बुद्धिमान से बुद्धिमान लोगों में से एक था; बहुत जानते हैं जो लोग, उनमें से एक था। कनफ्यूशियस ने कहा, मैं बहुत दूर से आया हूं, कुछ तो ज्ञान दें।
लाओत्से ने कहा, हम ज्ञान को छीनने का काम करते हैं; देने का अपराध हम नहीं करते।
यह हमें कठिन मालूम पड़ेगा। लेकिन सच ही आध्यात्मिक जीवन में गुरु ज्ञान को छीनने का काम करता है। वह आपकी सब जानकारी झड़ा डालता है। पहले वह आपको अज्ञानी बनाता है। ताकि आप ज्ञान की तरफ जा सकें। पहले वह आपकी जानकारी गिरा डालता है और आपको वहां खड़ा कर देता है जो आपका निपट अज्ञान है।
सच में ही क्या हम जानते हैं? अगर ईमानदारी से हम पूछें, जानते हैं ईश्वर को? लेकिन कहे चले जाते हैं। न केवल कहे चले जाते हैं, लड़ सकते हैं, विवाद कर सकते हैं। है या नहीं, संघर्ष कर सकते हैं। जानते हैं हम आत्मा को? लेकिन सुबह-शाम उसकी बात किए जाते हैं। आम आदमी नहीं, राजनीतिज्ञ कहता है कि उसकी आत्मा बोल रही है। अंतरात्मा की आवाज आ रही है राजनीतिज्ञ को। कोरे शब्द! आपको छाती के भीतर किसी आत्मा का कभी भी कोई पता चलता है? कोई स्पर्श कभी हुआ है उसका जिसे आत्मा कहते हैं? कोई स्पर्श नहीं हुआ, कोई संपर्क नहीं हुआ, एक किरण भी उसकी नहीं मिली है। पर कहे चले जाते हैं।
तो गुरु पहले तो यह सारी जानकारी को झड़ा डालेगा, काट डालेगा एक-एक जगह से, कि पहले तो वहां खड़ा कर दूं जहां तुम हो। क्योंकि यात्रा वहां से हो सकती है जहां आप हैं, वहां से नहीं जहां आप समझते हैं कि आप हैं। अगर मुझे किसी यात्रा पर निकलना है और मैं इस कमरे में बैठा हूं, तो इसी कमरे से मुझे चलना पड़ेगा। लेकिन मैं सोचता हूं कि मैं आकाश में बैठा हुआ हूं। तो मैं सोचता भला रहूं, लेकिन कोई भी यात्रा उस आकाश से शुरू नहीं हो सकती। मैं जहां हूं, वहां से यात्रा का पहला कदम उठाना पड़ता है। मैं सोचता हूं जहां हूं, वहां से कोई यात्रा नहीं होती। और अगर मैं जिद्द में हूं कि मैं वहीं से यात्रा करूंगा जहां कि मैं हूं नहीं, सोचता हूं कि हूं, तो मैं कभी यात्रा पर नहीं जाने वाला हूं।
तो पहले तो गुरु ज्ञान को छीन लेता है; अज्ञानी बना देता है। बड़ी घटना है! आदमी इस जगह आ जाए कि सचाई और ईमानदारी से अपने से कह सके कि मैं अज्ञानी हूं, मैं नहीं जानता हूं; मुझे कुछ भी पता नहीं है। अगर कोई व्यक्ति पूरी सचाई से अपने समक्ष इस सत्य को उदघाटित कर ले, तो वह ज्ञान के मंदिर की पहली सीढ़ी पर खड़ा हो जाता है।
इसलिए लाओत्से कहता है, ज्ञानी, जो जानते हैं, वे लोगों को जानकारी नहीं देते, उनसे जानकारी छीन लेते हैं।
इसलिए आपको असली गुरु प्रीतिकर नहीं लगेगा। आप तो गुरु के पास भी कुछ लेने को जाते हैं। और असली गुरु तो, जो भी है आपके पास, उसको भी छीन लेगा। आप तो जाते हैं सत्संग में कि कुछ शब्द सुन लेंगे और आप उन शब्दों के संबंध में गपशप कर सकेंगे; कुछ जानकारी ले आएंगे और किसी और के सामने गुरु बनने का आनंद ले सकेंगे; किसी के सामने अकड़ कर खड़े हो जाएंगे और बता सकेंगे कि जानते हैं कुछ।
इसलिए असली गुरु बहुत अप्रीतिकर लगता है। वह आपको सब जगह से काटता है। वह जो-जो आप जानते हैं वहां-वहां से आपकी जड़ें हिलाता है। इसलिए असली गुरु के पास जाने में बड़ी घबड़ाहट होती है। क्योंकि वह आपको नग्न करेगा, वह आपके एक-एक वस्त्र को निकाल कर अलग फेंक देगा, वह आपके सब आवरण अलग कर देगा। वह आपको वहीं खड़ा कर देगा, जहां आप हैं।
बहुत दुखद है वहां खड़ा होना, जहां आप हैं; इसे वह भी जानता है। बहुत अरुचिकर है यह बात जाननी कि मुझे कुछ भी पता नहीं है; यह वह भी जानता है। लेकिन वह यह भी जानता है कि इसे जाने बिना जानने के जगत में कोई यात्रा नहीं हो सकती। इसलिए लाओत्से ठीक कहता है।
लाओत्से की यह किताब बहुत प्रचलित नहीं हो पाई; लाओत्से के ये वचन बहुत व्यापक नहीं हो पाए। क्योंकि कौन अज्ञानी बनने को राजी है? ज्ञानी बनने को हम सब राजी हैं। हमारे विश्वविद्यालय, हमारे स्कूल, हमारे कालेज, हमारे पंडित-पुरोहित, हमारे महात्मा-साधु, सब ज्ञान बांट रहे हैं। और मजा यह है कि इतना ज्ञान बंटता है, और इतना ही अज्ञान बढ़ता चला जाता है। जरूर इस ज्ञान के पीछे कहीं कोई भूल हो रही है। यह ज्ञान अज्ञान को तोड़ने वाला नहीं, बढ़ाने वाला सिद्ध हो रहा है। तो लाओत्से की बात तो कठिन मालूम पड़ेगी।
साथ ही, वह कहता है, ‘वे उन्हें कोरे ज्ञान और इच्छादि से मुक्त रखने का प्रयास करते हैं।’
इच्छाओं से मुक्त करने की बात तो हम सुनते हैं। साधारण साधु-संत भी इच्छाओं से मुक्त होने की बात करते हैं। इसलिए लगेगा कि लाओत्से की इस बात में तो कोई नई बात नहीं, ठीक है।
नहीं, लाओत्से की इस बात में भी कुछ नई बात है। क्योंकि लाओत्से मानता है कि इच्छाएं सिर्फ संसार की नहीं होतीं, मोक्ष की इच्छाएं भी इच्छाएं हैं। इसलिए ज्ञानी लोगों को इच्छाओं से मुक्त रखने की कोशिश करता है। अगर हमारा साधारण साधु कह रहा होता, तो वह कहता, सांसारिक इच्छाओं से मुक्त रखने की कोशिश करता है। यह सांसारिक विशेषण जरूर ही जुड़ा होता है। इसका मतलब है कि असांसारिक इच्छाएं भी हो सकती हैं। जब मंदिरों में बैठ कर साधु लोगों को समझाते रहते हैं कि सांसारिक इच्छाएं छोड़ो, तब उनका मतलब साफ है कि असांसारिक इच्छाएं भी हो सकती हैं। निश्चित ही, मोक्ष पाना है, परमात्मा के दर्शन करने हैं, जन्म-मरण से छुटकारा पाना है, ये तो असांसारिक इच्छाएं हैं।
लेकिन लाओत्से को अगर समझना है, तो आपको समझना पड़ेगा, लाओत्से कहता है, इच्छा संसार है। सांसारिक इच्छाएं नहीं होतीं, इच्छा में होना ही संसार में होना है। ऐसा नहीं है कि कुछ इच्छाएं ऐसी भी हैं कि उनके द्वारा कोई आदमी मुक्त हो जाए। क्योंकि लाओत्से कहता है, इच्छा ही बंधन है। वह कोई भी इच्छा हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। इच्छा की क्वालिटी में, गुण में कोई भेद नहीं होता।
मैं धन चाहता हूं, तो क्या होता क्या है मेरे मन के भीतर? इस मैकेनिज्म को थोड़ा समझ लें। मैं धन चाहता हूं, तो मेरे भीतर क्या होता है? चाह होती है अभी, धन तो अभी नहीं होता। धन होगा भविष्य में--कल, परसों, कभी। अभी तो नहीं, कभी। मैं हूं अभी, धन होगा कभी। और मेरा जो अभी होना है, वह कभी जो हो सकता है धन, उसको चाहने की वजह से खिंचेगा और तनाव से भरेगा। जितने दूर होगा वह, उतना ही तनाव होगा। वर्ष भर बाद मिलेगा, तो वर्ष भर का तनाव होगा। मेरे मन को आज से वर्ष भर तक फैल जाना पड़ेगा; और वर्ष भर बाद जो धन है, उसको सपने में छूना और पकड़ना पड़ेगा। इच्छा का मतलब यह है।
मोक्ष और भी दूर है। परमात्मा और भी दूर मालूम पड़ता है। अगर मुझे परमात्मा को पाना है, तो एक जन्म काफी नहीं मालूम होगा; अनंत जन्म लेने पड़ेंगे, तब मिलेगा। तो अनंत जन्मों तक मेरी इच्छा की बांह को मुझे फैलाना पड़ेगा--परमात्मा को पकड़ने के लिए। खिंच गया मैं, तन गया। इच्छा का अर्थ है, तनाव की प्रक्रिया।
लाओत्से कहता है, ज्ञानी लोगों को इच्छादि से मुक्त करते हैं। उसका अर्थ है कि वे उनको तनाव से मुक्त करते हैं। ज्ञानी कहते हैं, अभी रहो--अभी, यहीं। कल को भूल जाओ। कल के धन को भी, कल के धर्म को भी, कल के यश को भी, कल के प्रभु को भी। क्योंकि अगर कल कुछ भी तुम्हारा है, तो इच्छा रहेगी, और तुम तने रहोगे। और तुम तने रहोगे और इच्छा बनी रहेगी, तो तुम बंधे रहोगे--अशांत, पीड़ित, परेशान। लाओत्से कहता है, इच्छादि से। इच्छाओं में कोई विश्लेषण नहीं करता कि कौन सी इच्छाओं से।
अगर आप साधारण धर्मग्रंथ पढ़ने जाएंगे, तो तत्काल फासला किया जाता है कि किन इच्छाओं से मुक्त हो जाओ--बुरी इच्छाओं से! अच्छी इच्छाओं से भर जाओ। सांसारिक इच्छाएं छोड़ दो; पारलौकिक इच्छाओं को निमंत्रण करो। इस जगत में पाने का इरादा छोड़ दो; यहां कुछ न मिलेगा। अगर पाना है, तो परलोक में! बल्कि ये सारे के सारे लोग जो इस तरह की बातें समझाते हुए रहते हैं, ये बड़े मजे की दलीलें देते हैं। वे कहते हैं कि यहां तुम जो भी पा रहे हो, यह क्षणिक है। और हम तुम्हें जो बता रहे हैं, वह शाश्वत है।
बड़ा मजे का प्रलोभन है। यह लोभ को उकसाना है। वे यह कह रहे हैं कि तुम नासमझ हो, धन के पीछे दौड़ रहे हो। हम समझदार हैं, हम धर्म के पीछे दौड़ रहे हैं। और देखना कि तुम धन पा भी लोगे, तो तुमसे छूट जाएगा। और हम जब धर्म को पा लेंगे, तो हमसे कोई छुड़ा न पाएगा।
तो इन दोनों आदमियों में जो फर्क है, वह होशियारी और चालाकी का है या इच्छा का है? यह जो दूसरा आदमी है, जो पारलौकिक इच्छा की बात कर रहा है, मोर कनिंग, ज्यादा चालाक मालूम होता है; मोर कैलकुलेटिंग, ज्यादा होशियार और गणित लगाने वाला मालूम होता है। वह कहता है कि इस जगत की स्त्रियों को पाकर क्या करोगे? इनका सौंदर्य अभी है और अभी नहीं हो जाएगा। स्वर्ग में अप्सराएं हैं, उन्हें पाओ! उनका सौंदर्य कभी स्खलित नहीं होता। यहां सुख पा रहे हो? क्षणभंगुर है सुख; पानी के बबूले जैसा है; हाथ छुओगे, लगाओगे कि टूट जाएगा। हम तुम्हें उस सुख का रास्ता बताते हैं, जो शाश्वत है। यह जो मन बोल रहा है, वासनाग्रस्त है। और इस बात को समझ कर जो चल पड़ेगा, वह वासना से ही चल पड़ा है।
लाओत्से बिना किसी शर्त के कहता है, इच्छादि से मुक्त। कौन सी इच्छा नहीं, इच्छा से मुक्त। कल की मांग नहीं, आज का जीवन! कल का भरोसा नहीं, आज के साथ जीवन! भविष्य में कोई सपनों का फैलाव नहीं, इसी क्षण जो है, उसी में मौजूदगी!
इच्छारहितता का अर्थ है, टु बी प्रेजेंट इन दि प्रेजेंट। वासनारहितता का अर्थ है, अभी जो है, वहीं होना। वासनारहितता का अर्थ है, यह क्षण पर्याप्त है; मैं इस क्षण के बाहर न जाऊंगा। जो है, उसके साथ ही जीऊंगा। दुख है तो दुख के साथ; सुख है तो सुख के साथ; अंधेरा है तो अंधेरा और रोशनी है तो रोशनी; और दिन है तो दिन और रात है तो रात। जो है अभी, उसके साथ मैं जीऊंगा। इसके पार मैं अपनी इच्छाओं के सपनों में नहीं खोऊंगा। इसका अर्थ है, सत्य के साथ जीना, तथ्य के साथ जीना; जो है, उसके साथ जीना।
लाओत्से कहता है, इच्छादि से मुक्त करते हैं वे, जो जानते हैं। वे नई-नई इच्छाओं का प्रलोभन नहीं देते। वे कहते हैं, यह इच्छा छोड़ो और दूसरी पकड़ लो, ऐसा नहीं। क्योंकि उससे क्या फर्क पड़ेगा?
लेकिन हमें बहुत कठिनाई होगी। हमें आसानी रहती है; कोई कहता है, धन छोड़ो, धर्म पकड़ लो। तकलीफ होती है थोड़ी, लेकिन फिर भी पकड़ने को हमें वह कुछ देता है। सामान बदलता है, लेकिन मुट्ठी नहीं खुलती। मुट्ठी के भीतर हमने धन पकड़ा था। वह कहता है, धन छोड़ो, इसमें कोई सार नहीं है। और उसकी बात कोई ऐसी कठिन नहीं है बहुत समझ लेनी। हम को भी समझ में आ ही जाएगी किसी न किसी दिन कि कोई सार नहीं है। धन में कोई सार नहीं है, यह मूढ़ से मूढ़ आदमी को भी एक दिन समझ में आ जाता है, बहुत बुद्धिमान होने की जरूरत नहीं है। या है? धन में सार नहीं है, यह बुद्धिहीन से बुद्धिहीन को समझ में आ जाता है।
अगर नहीं आता, तो उसका कुल कारण इतना ही होता है कि उसके पास धन नहीं होगा। और कोई कारण नहीं होता। बुद्धिहीनता बाधा नहीं डालती। धन न हो, तो समझ में आना मुश्किल होता है। क्योंकि जो है ही नहीं, वह बेकार है, यह कैसे समझ में आएगा? लेकिन धन हो, तो बुद्धू को भी समझ में आ जाता है कि बेकार है; कुछ पाया नहीं। तब खुद ही मन होने लगता है कि कुछ और पाऊं, यह तो बेकार गया।
तभी कोई नई वासनाओं को जगाने वाला अगर आपसे कहता है, धन को छोड़ो, धर्म को पकड़ो, तो तत्काल आप धन छोड़ कर धन पकड़ लेते हैं। मुट्ठी फिर कायम हो जाती है।
और ध्यान रहे, धन बेकार है, यह समझने में बहुत बुद्धिमत्ता की जरूरत नहीं है, लेकिन धर्म बेकार है, इसे समझने में बड़ी बुद्धिमत्ता की जरूरत है। मैंने कहा कि बुद्धू से बुद्धू भी समझ लेगा एक दिन कि धन बेकार है, और बुद्धिमान से बुद्धिमान भी नहीं समझ पाता कि धर्म भी बेकार है। असल में, बेकार का मतलब यह है कि जिस चीज पर भी मुट्ठी बांधनी पड़ती है वह बेकार है। क्योंकि जिस चीज पर आप मुट्ठी बांधते हैं, उसी के आप गुलाम हो जाते हैं। क्लिंगिंग, वह जो मुट्ठी का बांधना है, गुलामी शुरू हो जाती है।
आप जब किसी चीज पर मुट्ठी बांधते हैं, तो आप सोचते होंगे, मालिक हो गए! क्योंकि मुट्ठी आपकी बंधी है, चीज तो अंदर है; मालिक आप हैं। लेकिन आपको पता नहीं कि वह जो चीज भीतर है, आप उसके गुलाम हो गए। वह चीज तो आपकी बिना मुट्ठी के भी रह सकती है, लेकिन अब आपकी मुट्ठी उस चीज के बिना नहीं रह सकती। अगर आप धन को छोड़ देंगे मुट्ठी से, तो वह धन यह नहीं कहेगा कि ऐसा क्यों कर रहे हो? मुझे बड़े दुख में डाल रहे हो! लेकिन आप से कोई धन छीन लेगा, छुड़ा लेगा, तो आपकी मुट्ठी रोएगी, आपके प्राण भटकेंगे और चिंतित होंगे। तो गुलाम कौन हो गया है वहां?
और हम जिस चीज पर भी मुट्ठी बांधते हैं, उसी के बंधन को स्वीकार कर लेते हैं। और जिस चीज को भी हम चाहते हैं कि वह हमें कल मिले, वह हमारे आज को नष्ट कर जाती है। और मजा यह है कि जब वह कल हमें मिलेगी, तब भी हम उसे भोगने को कल न होंगे। क्योंकि इस बीच हमारी जो निरंतर की आदत हो गई है कल की, वह कल भी साथ रहेगी। क्योंकि कल जब आएगा, तो वह आज हो जाएगा। और आज को जीने का आपने कभी कोई अनुभव नहीं किया; आज में आप कभी जीए नहीं। आपका चिरंतन अभ्यास है कल में जीने का। यह जो आज, जिसे हम आज कह रहे हैं, यह भी तो कल कल था। जैसे ही आज बनता है, आपके लिए बेकार हो गया। आपका मन कल पर चला गया।
यह तो बड़ी मजेदार बात है। जब भी कल आएगा, आज हो जाएगा। और जब भी वह आज हो जाएगा, तभी आप उसके लिए बेखबर हो जाएंगे। और हो सकता है, वर्षों उसकी प्रतीक्षा की हो। और हो सकता है, वर्षों तड़पे हों। वर्षों चाहा हो, मांगा हो, प्रार्थना की हो। और जब वह आएगा, तब आप वहां नहीं होंगे। क्योंकि वर्षों प्रार्थना करने वाला चित्त संस्कारित हो गया। यह तो कल में ही मांग करता रहेगा। यह फिर और आगे कल की मांग करने लगेगा।
हम रोज ही ऐसा करते हैं। ऐसा लगता है कि जैसे किसी आदमी की आंख में खराबी हो और वह पास न देख पाता हो; दूर का ही दिखाई पड़ता हो उसे। उसे दूर एक हीरा पड़ा हुआ दिखाई पड़ता है, वह भागता है। लेकिन जब तक वह हीरे के पास पहुंचता है, तब तक--उसकी आंख तो दूर ही देख सकती है, उसकी आंख पास नहीं देख सकती--जब तक वह हीरे के पास पहुंचता है, तब तक हीरा ओझल हो जाता है। क्योंकि उसकी आंख फारसाइटेड है, वह फिर दूर देखने लगता है। और इस आदमी को कभी खयाल भी नहीं आता कि हर हीरे के साथ यही किया मैंने अब तक। यह फिर दौड़ेगा, क्योंकि फिर कोई चमकदार चीज इसे दिखाई पड़ने लगी। और ऐसे यह जिंदगी भर दौड़ेगा। और कभी इसे खयाल न आएगा कि मेरे पास जो आंख है, वह फिक्स्ड है। वह पचास फीट के पार ही देखती है। पचास फीट के भीतर मैं अंधा हो जाता हूं, ब्लाइंड स्पाट आ जाता है।
हम सब ऐसे ही ब्लाइंड स्पाट में जीते हैं। आज जो है, वह अंधेरे में हो जाता है; और कल पर हमारी रोशनी पड़ती रहती है। कल बड़ा चमकदार दिखता है, जो नहीं है। कुछ कर नहीं सकते आप, सिर्फ चमकदार होना उसका सोच सकते हैं--स्वप्न। कुछ कर नहीं सकते, कल में कुछ भी नहीं किया जा सकता, क्योंकि वह है ही नहीं। आदमी की इम्पोटेंसी, आदमी की जो नपुंसकता है, उसके व्यक्तित्व का जो रिक्त रूप है, वह इस कारण है। कल में कुछ किया नहीं जा सकता, और आज कुछ कर नहीं सकते हैं। आज में कुछ किया जा सकता है, लेकिन आज में आप मौजूद नहीं हैं। और कल में कुछ किया नहीं जा सकता और आप सदा कल में मौजूद हैं। तो पूरी जिंदगी रिक्त हो जाती है।
यह जो आज हर आदमी को लगता है कि एक एम्पटीनेस है, एक खालीपन है। शून्य-शून्य सब, कहीं कुछ भराव नहीं, कोई फुलफिलमेंट नहीं। जो भी पाते हैं, वही बासा सिद्ध होता है; जो भी हाथ में आता है, वही फेंकने जैसा मालूम पड़ता है। जिसको भी खोज लेते हैं, उसकी ही सारी अर्थवत्ता खो जाती है।
लाओत्से कहता है, इच्छादि से मुक्त कर देते हैं।
ज्ञानी यह नहीं कहता कि इच्छाओं से मुक्त हो जाओ। यह भी ध्यान रखें। क्योंकि अगर ज्ञानी आपसे यह कहे कि इच्छाओं से मुक्त हो जाओ, तो आप फौरन पूछेंगे, किसलिए? फार व्हाट? और तब ज्ञानी को बताना पड़ेगा कि मोक्ष के लिए, शाश्वत आनंद के लिए, परमात्मा के लिए, स्वर्ग के लिए। फिर तो इच्छा का जाल शुरू हो गया। जो भी आपको कहेगा, इच्छाओं से मुक्त हो जाओ, वह आपको नई इच्छा जनमाएगा। क्योंकि आप उससे पूछेंगे, क्यों?
नहीं, लाओत्से जैसा ज्ञानी पुरुष यह नहीं कहता, इच्छाओं से मुक्त हो जाओ। वह सिर्फ इच्छा क्या है, इसे जाहिर कर देता है। बता देता है, यह रही इच्छा। दिस इज़ दि फैक्ट, यह है तथ्य। वह बता देता है कि यह रही दीवार, इससे निकलोगे तो सिर टूट जाएगा। वह यह नहीं कहता कि सिर मत तोड़ो। क्योंकि आप पूछोगे, क्यों न तोड़ें? आप पूछेंगे, क्यों न तोड़ें? वह यह नहीं कहता कि इस दीवार से मत निकलो। क्योंकि आप पूछेंगे, क्यों न निकलें? कोई प्रलोभन है कहीं और से जाने का?
ध्यान रहे, वह आपको कोई पाजिटिव डिजायर नहीं देता कि इसलिए ऐसा मत करो; वह तो इतना ही बता देता है कि ऐसा करोगे तो ऐसा होता है।
बुद्ध के वचनों में बहुत बढ़िया एक तर्कसंगत प्रक्रिया है। बुद्ध निरंतर कहते थे, ऐसा करोगे तो ऐसा होता है। डू दिस एंड दिस फालोज। बुद्ध से कोई पूछता कि हम क्या करें? तो बुद्ध कहते हैं, यह तुम मुझसे मत पूछो। तुम मुझसे यह पूछो कि तुम क्या करना चाहते हो। मैं तुम्हें बता दूंगा कि तुम यह करोगे तो यह होगा, यह करोगे तो यह होगा; इससे ज्यादा मैं कुछ न कहूंगा। मैं तुमसे नहीं कहता कि यह करो। मैं इतना ही कहता हूं कि दीवार से निकलोगे, सिर टूट जाता है; दरवाजे से निकलोगे, बिना सिर टूटे निकल जाओगे। फिर तुम्हारी मौज! तुम दीवार से निकलो, तुम दरवाजे से निकलो! मैं तुमसे नहीं कहता कि तुम दीवार से मत निकलो।
फर्क समझ रहे हैं आप? एक तो यह है कि स्पष्ट आपसे कहा जाए, यह आप करो। लेकिन जब भी आपसे कोई पाजिटिवली कहेगा, डू दिस! आप पूछेंगे, क्यों? इसलिए लाओत्से या बुद्ध या महावीर, इन सभी का चिंतन जो है, गहरे अर्थों में निगेटिव है। वे कहेंगे, ऐसा करोगे तो ऐसा होता है। इच्छाओं में पड़ोगे तो दुख फलित होता है। वे यह नहीं कहते कि इच्छाओं में नहीं पड़े तो सुख मिलेगा। क्योंकि अगर वे ऐसा आप से कहें, तो आप कहेंगे, अच्छा हमको सुख चाहिए; कैसे मिलेगा, बताओ। अब यह नई इच्छा निर्मित हो जाएगी।
यह बारीक है थोड़ा; लेकिन इसे समझ लेना चाहिए। अगर बुद्ध कहते हैं कि सुख...इसलिए बुद्ध ने तो ईश्वर, मोक्ष, इनकी बात ही नहीं उठाई। लाओत्से ने भी नहीं उठाई। लाओत्से ने भी नहीं उठाई। और लाओत्से का जब पहले दफे खयाल पश्चिम में पहुंचा, तो लोगों ने कहा, इसको धर्मग्रंथ कहने की जरूरत क्या है? न तो इसमें मोक्ष की बात है, न ईश्वर की बात है, न पाप-पुण्य से छुटकारे की बात है। यह आदमी बातें क्या कर रहा है!
बुद्ध से लोग पूछते थे, ईश्वर है? बुद्ध चुप रह जाते। बुद्ध कहते, इतना ही पूछो कि संसार क्या है? बुद्ध से लोग पूछते कि मोक्ष में क्या होगा? बुद्ध चुप रह जाते। फिर तो बाद में बुद्ध ने तेरह प्रश्न तैयार करवा लिए, और जिस गांव में जाते, वहां डुग्गी पिटवा देते कि ये तेरह प्रश्न कोई न पूछे, क्योंकि इनके जवाब मैं नहीं देता।
बुद्ध के जो विरोधी थे, उन्होंने तो खबरें उड़ा दीं, कि यह जवाब नहीं देता, क्योंकि इसको मालूम नहीं है। मालूम हो, तो जवाब दो; अगर मालूम है, तो जवाब दो। अगर मालूम नहीं है, तो कह दो कि मालूम नहीं है।
अब बुद्ध की तकलीफ आप समझ सकते हैं। इस जगत में ज्ञानी की तकलीफ सदा से यही रही है। बुद्ध को मालूम है और जवाब नहीं देना है। बुद्ध यह भी नहीं कहते कि मुझे मालूम है। क्योंकि बुद्ध अगर यह कहें कि मुझे मालूम है, तो लोग पूछते, फिर बताएं! बुद्ध कहते हैं, मैं बस चुप रह जाता हूं। मैं इस संबंध में कुछ नहीं कहता; यह भी नहीं कहता कि मुझे मालूम है। क्योंकि मेरा इतना कहना भी तुम्हारे भीतर वासना को जनमाएगा कि अगर आपको मालूम है, तो हमको कैसे मालूम हो।
बुद्ध कहते हैं, मैं यह नहीं बताता कि खुला आकाश कहां है, मैं तो इतना ही बताता हूं कि तुम्हारे हाथ में जो जंजीरें हैं, वे क्यों हैं! तुम्हारे हाथ में जंजीरें पड़ी हैं और मैं तुम्हें आकाश के, खुले आकाश के, मुक्त आकाश के विवरण दूं--तुम जंजीरों में ही पड़े मुक्त आकाश के सपने देखने शुरू कर दोगे। वे सपने जंजीरें तोड़ने में सहयोगी नहीं, बाधा बनेंगे। और इस बात का भी डर है कि कारागृह में ही कोई आदमी इतना गहरा सपना देखने लगे कि भूल जाए कि कारागृह में है। और इस बात का भी डर है कि वह आकाश को पाने के लिए इतना उत्तेजित और परेशान और चिंतित हो जाए कि जंजीरों को तोड़ने के लिए जितनी शांति चाहिए वह उसके पास न बचे।
बुद्ध कहते थे, आकाश का मुझसे मत पूछो। मैं तुम्हें बताता हूं कि तुम्हारे हाथ में जंजीरें क्यों हैं, और क्या करो तो जंजीरें टूट जाएं। मैं तुमसे यह भी नहीं कहता कि तुम क्यों तोड़ो। तुम्हें तोड़ना हो, तो यह रहा मार्ग, यह रही व्यवस्था, यह है विधि। ऐसे तुम तोड़ ले सकते हो।
लाओत्से कहता है, इच्छादि से मुक्त करते हैं। ऐसा कहते नहीं फिरते कि इच्छाओं से मुक्त हो जाओ! इच्छाओं से मुक्त करने के लिए कुछ करते हैं। वह करना दो तरह का है। एक तो इच्छाओं के स्वरूप को उघाड़ कर रख देते हैं, यह रहा। और दूसरा, स्वयं इच्छारहित जीवन जीते हैं।
मैंने कहा कि कनफ्यूशियस मिलने गया। बड़ा उदास लौटा। लाओत्से उसे झोपड़े के द्वार तक छोड़ने आया था। बहुत उदास देख कर--क्योंकि वह मीलों पैदल चल कर आया था--लाओत्से ने कहा, तुम्हें उदास देख कर अच्छा नहीं लगता है। कनफ्यूशियस ने कहा, उदास तो जाऊंगा ही, क्योंकि मैं उपदेश लेने आया था। तो लाओत्से ने कहा, लौट कर एक बार मुझे और गौर से देख लो। अगर मुझे देखना उपदेश बन जाए, तो तुम खाली हाथ नहीं लौटोगे।
बुद्ध या लाओत्से जैसे व्यक्ति जीवंत उपदेश हैं।
लेकिन कनफ्यूशियस ने लौट कर देखा, लेकिन ऐसा नहीं मालूम पड़ता है कि उसे उपदेश मिला। क्योंकि उसने लौट कर अपने शिष्यों को कहा कि सिर पर से निकल गईं बातें, समझ नहीं आया। आदमी तो अदभुत मालूम होता है, सिंह की तरह। डर लगता है पास खड़े होने में उसके। लेकिन बातें सब सिर पर से निकल गईं, कुछ समझ में नहीं आया। और बहुत जोर मैंने दिया, तो उस आदमी ने इतना ही कहा कि मुझे देख लो।
तो ऐसा लगता नहीं कि कनफ्यूशियस समझ पाया। क्योंकि देखने के लिए भी आंख चाहिए। और कनफ्यूशियस ज्ञान लेने आया था--इच्छा से भरा हुआ। और लाओत्से मौजूद था--अभी, यहीं। कनफ्यूशियस था भविष्य में--कुछ मिल जाए, कुछ जिससे आगे रास्ता खुले; कोई मोक्ष मिले, कोई आनंद, कोई खजाना अनुभूति का। यह जो आदमी मौजूद था सामने निपट, इस पर उसकी नजर न थी। इस आदमी से कुछ लेना था जो भविष्य में काम पड़ जाए। इसलिए शायद ही वह लाओत्से को देख पाया हो।
हम भी चूक जाते हैं। ऐसा नहीं है कि कनफ्यूशियस चूक जाता है, हम भी चूक जाते हैं। आप भी बुद्ध या लाओत्से या महावीर के पास से निकलेंगे, तो सौ में एक मौका है इस बात का कि आपको पता चले।
बहाउद्दीन एक सूफी फकीर हुआ। जिस महानगरी में वह था, उसका सबसे बड़ा धनी व्यक्ति बहाउद्दीन के पास आता था और कहता था कि तुम सूर्य हो पृथ्वी पर! अंधेरा तुम्हें देख कर दूर हट जाता है! बहाउद्दीन हंसता था। जब भी वह आता, वह इसी तरह की बातें कहता कि तुम चांद की तरह शीतल हो, तुम अमृत की भांति हो। बहाउद्दीन हंसता। एक दिन जब वह आदमी चला गया, तो बहाउद्दीन के एक शिष्य ने कहा कि हमें बड़ी अजीब सी लगती है यह बात। वह आदमी कितने आदर के वचन बोलता है और आप ऐसा हंस देते हैं, मैनरलेस; यह शिष्टता नहीं मालूम पड़ती। वह आदमी इतने शिष्टाचार से सिर रखता है पैर पर, कहता है सूर्य हो आप, और आप एकदम हंस देते हैं, जैसे कोई गलती बात कह रहा हो।
बहाउद्दीन ने उस आदमी का हाथ पकड़ा और कहा, मेरे साथ चल। वे उस धनपति की दूकान पर गए। बहाउद्दीन ने सिर्फ अपनी टोपी बदल ली थी, और कुछ न बदला था। उसकी दूकान पर गए सामान खरीदने। सामान खरीद कर लौट आए। रास्ते में बहाउद्दीन ने अपने शिष्य से कहा, देखा! उसको खयाल भी नहीं आया है कि मैं सूरज हूं। उसी से सामान खरीद कर लौट रहे हैं। पंद्रह मिनट उससे बातचीत भी हुई। और उसने ठग भी लिया और माल भी कम दिया है। पर उसके शिष्य ने कहा, भूल हो सकती है; काम में व्यस्त था।
दूसरे दिन फिर बहाउद्दीन ने कहा कि चल। बहाउद्दीन तो अपनी तरह का आदमी था। तीन सौ पैंसठ दिन, पूरे साल...वह शिष्य घबड़ा गया, वह कहने लगा, अब बस करो, समझ गए, मान गए। पर उसने कहा कि नहीं। तीन सौ पैंसठ दिन पूरे रोज बहाउद्दीन उसकी दूकान पर जाता किसी शक्ल में, कुछ खरीद कर लाता। और वह शिष्य को भी घसीटता। तीन सौ पैंसठ दिन! और इस बीच भी वह आदमी आता रहा दस-पांच दिन में और कहता, तुम सूरज हो! अंधेरे में रोशनी हो जाती है! तुम अमृत हो! तुम्हारी किरण मिल जाती है एक, तो मृत्यु का कहीं पता नहीं चलेगा!
तीन सौ पैंसठ दिन के बाद बहाउद्दीन ने कहा कि बंद कर बकवास! तीन सौ पैंसठ दिन रोज तेरे द्वार पर आया हूं। सूरज तो बहुत दूर, दीया भी दिखाई नहीं पड़ा। तूने इतना भी न कहा कि आप एक टिमटिमाते दीए हैं। कुछ भी तूने नहीं कहा। तू सरासर झूठ बोल रहा है। तुझे सिर्फ इतना मतलब है कि बहाउद्दीन बड़ा आदमी है।
तो अगर आपको महावीर मिल जाएं, तख्ती सहित कि मैं महावीर हूं, तब तो आप फौरन झुक कर नमस्कार कर लें कि तीर्थंकर से मिलन हुआ। और नहीं तो पुलिस को आप खबर दे दें कि यह आदमी नग्न खड़ा हुआ है। यह आदमी नग्न खड़ा हुआ है बंबई में, यह बात ठीक नहीं है।
अभी पीछे यहां संन्यासी इकट्ठे थे। तो एक संन्यासी हैं मेरे जो नग्न रहने के शौकीन हैं। फिर भी हमने उनको कहा था कि बंबई में तुम नग्न मत घूमना, तो वे बेचारे एक लंगोटी लगा कर यहां वुडलैंड में आए होंगे। तो मुश्किल हो गई, और एक व्यक्ति ने मुझे आकर शिकायत की कि यह तो बहुत अजीब सी बात है। यह ठीक बात नहीं है कि एक आदमी लंगोटी लगाए यहां चला आए। और चमत्कार तो यह है कि वह आदमी भी दिगंबर जैन हैं, जिन्होंने मुझे शिकायत की। मैंने उनसे कहा, महावीर अगर आ जाएं वुडलैंड में, तो क्या करोगे? यह तो बेचारा कम से कम लंगोटी लगाए था। वह कहने लगे, महावीर की बात और।
पहचानोगे कैसे? कोई तख्ती, बोर्ड लेकर चलेंगे वे? और कितने लोग महावीर के वक्त महावीर को पहचाने?
हम भी करीब से गुजर जाते हैं बहुत बार। पर आंख हमारी बहुत और चीजों पर लगी है। वह जो निकट पड़ता है, वह दिखाई नहीं पड़ता। और कई बार तो ऐसा होता है कि निकट होता है, इसीलिए दिखाई नहीं पड़ता।
लाओत्से कहता है, इच्छादि से मुक्त कर देते हैं ज्ञानी। वह इसीलिए, ताकि जो निकटतम है, निकट से भी निकटतम है, वह जो परमात्मा है, वह दिखाई पड़ जाए। लाओत्से यह नहीं कहता कि मोक्ष नहीं है; लाओत्से कहता है, मोक्ष की इच्छा नहीं हो सकती। लाओत्से यह नहीं कहता कि परमात्मा नहीं है; लाओत्से इतना ही कहता है, परमात्मा को चाहा नहीं जा सकता। जब कोई चाह नहीं होती, तब जो शेष रह जाता है, वह परमात्मा है।
बुद्ध यह नहीं कहते कि मोक्ष नहीं है। बुद्ध इतना ही कहते हैं कि तुम चाहो मत। तुम कुछ न चाहो, मोक्ष भी मत चाहो। फिर तुम मोक्ष में हो।
इस फर्क को समझ लें। मोक्ष को आप अपनी डिजायर का आब्जेक्ट, विषय नहीं बना सकते। मोक्ष आपकी विषय-वासना का आधार नहीं बन सकता। वह आपकी चाह का बिंदु नहीं हो सकता। वह आपका निशान नहीं बन सकता, आपकी चाह का तीर लग जाए उसमें। नहीं, जब आप मय तीर-कमान सब चाह को नीचे गिरा देते हैं, तो आप पाते हैं कि मोक्ष में आप खड़े हैं। असल में, आप सदा से मोक्ष में खड़े थे, लेकिन चाह की वजह से आप दूर-दूर भटकते थे। इच्छा के कारण आप कहीं और भटकते थे। और मोक्ष है यहीं और परमात्मा है यहां निकट, और इच्छा है दूर। इसलिए इच्छा और परमात्मा का मिलन नहीं हो पाता। इच्छा है दूर और परमात्मा है पास। इच्छा है भविष्य में और परमात्मा है वर्तमान में। इच्छा है कल और परमात्मा है आज।
इसलिए लाओत्से कहता है, ज्ञान से और इच्छादि से वे मुक्त करते हैं।
‘और जहां ऐसे लोग हैं, जो निपट जानकारी से भरे हैं, उन्हें ऐसी जानकारी के उपयोग से भी बचाने की यथाशक्य चेष्टा करते हैं।’
और जो लोग जानकारी से भरे ही हैं--रोकने की कोशिश करेंगे, लेकिन लोग तो भरे ही हैं--उन जानकारी से भरे हुए लोगों के लिए वे क्या करेंगे? उनको यथाशक्य कोशिश करेंगे कि अपनी जानकारी पर न चल पाएं।
अब यह बहुत अजीब बात है। सभी साधु-संत तो यह कोशिश कर रहे हैं कि देखो, जो हमने समझाया, उस पर चलने की कोशिश करना। साधु अपने प्रवचनों के बाद कहते हैं कि देखो, जो हमने समझाया, उसे यहीं मत छोड़ जाना। ऐसा न हो कि एक कान से जाए और दूसरे कान से निकल जाए। सम्हाल कर रखना और आचरण करना। और कसम खाओ कि जो समझे, उस पर चलोगे।
और लाओत्से कह रहा है कि वे उनको, जानकारी पर चले न जाएं वे कहीं, इससे बचाने की कोशिश करते हैं। लाओत्से यह कह रहा है कि कोई आदमी अपनी जानकारी के अनुसार चलने न लगे। क्योंकि जानकारी है उधार। दूसरों के पंखों को लेकर जैसे कोई पक्षी उड़ने की कोशिश करे तो जो गति हो, वही गति उस आदमी की हो जाती है जो जानकारी को आचरण बनाने की कोशिश करता है।
यह बड़ा मजा है, जानकारी को आचरण बनाना पड़ता है और ज्ञान आचरण बन जाता है। यही फर्क है। ज्ञान को आचरण नहीं बनाना पड़ता। जिस क्षण आपको ज्ञान होता है, उसी क्षण आचरण शुरू हो जाता है। यू आर नॉट टु प्रैक्टिस इट। ज्ञान का भी आचरण करना पड़े, तो ज्ञान तो दो कौड़ी का हो गया।
अब मुझे पता है कि आग में हाथ डालने से हाथ जलता है। यह जानकारी हो सकती है। तो मुझे हाथ को रोकना पड़ेगा कि आग में कहीं डाल न दूं। और अगर यह ज्ञान है कि आग में डालने से हाथ जलता है, तो क्या मुझे कोई चेष्टा करनी पड़ेगी कि आग में मैं हाथ डाल न दूं? नहीं, फिर कोई चेष्टा न करनी पड़ेगी। आग में हाथ जाएगा नहीं। इसके बाबत सोचना ही नहीं पड़ेगा। यह बात समाप्त हो गई। आग और अपना मिलन अब न होगा।
मुझे पता है कि जहर पी लेने से मैं मर जाता हूं। तो क्या मंदिर में ज
ाकर प्रतिज्ञा करनी पड़ेगी कि अब मैं कसम खाता हूं कि जहर कभी न पीऊंगा? और अगर कोई आदमी किसी मंदिर में कसम खा रहा हो कि मैं प्रतिज्ञा लेता हूं आजीवन, जहर का कभी भी अब पान नहीं करूंगा! तो आप क्या कहेंगे उस आदमी को सुन कर? कि इस आदमी का डर है, यह कभी न कभी जहर पी लेगा। इसको पता कुछ भी नहीं है। क्योंकि पता हो, तो प्रतिज्ञा लेनी पड़ती है!
जितने लोग प्रतिज्ञाएं लेते हैं, व्रत लेते हैं, कसमें खाते हैं, ऐसा करेंगे और ऐसा नहीं करेंगे, वे वे ही लोग हैं, जो जानकारी पर चलने की कोशिश कर रहे हैं। किसी ने कहा कि क्रोध बुरा है; अब आप कोशिश कर रहे हैं कि क्रोध न करें। और किसी ने कहा कि वासना बुरी है; और आप कोशिश कर रहे हैं कि वासना न करें।
लाओत्से कहता है, ज्ञानी लोगों को उनकी जानकारी पर चलने से यथाशक्य...।
यथाशक्य ही कर सकते हैं, क्योंकि जबरदस्ती रोकने का तो कोई उपाय नहीं है। कह ही सकते हैं कि गड्ढा है, गिर जाओगे। लेकिन जिस आदमी ने कसम खाई है कि वह जानकारी पर आचरण करके रहेगा, वह आदमी धीरे-धीरे फाल्स, झूठा आदमी होता चला जाता है। और ऐसी घड़ी आ सकती है कि वह अपने ही आचरण में इतना घिर जाए कि उसे कभी पता ही न चले कि उसका सारा आचरण झूठा है, नकली सिक्के हैं।
अगर एक आदमी ने तय कर लिया कि क्रोध बुरा है--पढ़ कर, सुन कर, समझ कर--दूसरों से! जान कर नहीं, क्योंकि जान कर तय नहीं करना पड़ता कि क्रोध बुरा है। जिसने जाना कि क्रोध बुरा है, वह क्रोध के बाहर हो गया। जिस चीज को आपने जान लिया कि विषाक्त है, उससे आप बाहर हो गए। तो ज्ञानी क्या करेगा? ज्ञानी आपसे कहेगा, क्रोध करो और जानो कि क्या है। तय मत करो शास्त्र को पढ़ कर कि क्रोध बुरा है। वह यह नहीं कह रहा कि शास्त्र में जो लिखा है, वह गलत है। वह जिसने जाना होगा, उसने ठीक ही लिखा होगा। लेकिन वह जानने वाले ने लिखा है; और न जानने वाला उसको जानकारी बना कर जब चलेगा, तो सब उलटा हो जाने वाला है।
ज्ञानी कहेगा कि जो-जो है, उसे जानो, जीयो, पहचानो। और जो-जो बुरा है, वह गिर जाएगा; और जो-जो भला है, वह बच जाएगा। अज्ञानी शिक्षक लोगों को समझाते हैं, बुरे को छोड़ो, भले को पकड़ो। ज्ञानी शिक्षक लोगों से कहते हैं, जानो क्या बुरा है और क्या भला। भले को जानना, बुरे को जानना। जो बच जाए जानने पर, उसको भला समझ लेना; और जो गिर जाए जानने पर, उसको बुरा समझ लेना। बुरा वह है, जो जानकारी में बचता है, जानने में गिर जाता है; भला वह है, जानकारी में लाने की कोशिश करनी पड़ती है, ज्ञान में आ जाता है--ज्ञान के पीछे छाया की तरह।
आपने कभी भी अगर कोई चीज जानी हो, तो आप मेरी बात समझ जाएंगे। लेकिन कठिनाई यही है कि हमने कभी कोई चीज नहीं जानी है। हमने सुना है।
अब यह कितने आश्चर्य की घटना है! एक आदमी अगर पचास साल जीया है, तो हजारों बार क्रोध कर चुका है। लेकिन अभी भी उसने क्रोध को जाना नहीं है। अभी भी वह किताब पढ़ता है, जिसमें लिखा है, क्रोध बुरा है। और किताब पढ़ कर तय करता है कि अब कसम खा लेते हैं कि अब क्रोध न करेंगे। हजार दफे जो आदमी क्रोध करके नहीं जान पाया, वह कागज पर लिखे गए दो शब्दों से, कि क्रोध बुरा है, जान लेगा? तब तो चमत्कार है।
हजार बार मैं इस मकान में आकर गया और नहीं जान पाया कि इस मकान में जाना बुरा है। एक किताब में पढ़ कर मैं जान लूंगा कि इस मकान में जाना बुरा है? और कसम खा लूंगा कि अब कभी न जाऊंगा, कसम खाता हूं! लेकिन कसम यह बताती है कि जाने का मन बाकी है। क्योंकि कसम खानी किसके खिलाफ पड़ती है? कोई तुमसे कह रहा है कि क्रोध करो? जब हम कसम लेते हैं, तो किसके खिलाफ? अपने खिलाफ। कोई तो नहीं कह रहा है कि क्रोध करो। सारी दुनिया तो कह रही है, क्रोध छोड़ो। कहीं कोई स्कूल नहीं, कोई विद्यापीठ नहीं, जहां हम लोगों को क्रोध करने की ट्रेनिंग दे रहे हों। लोग क्रोध किए चले जा रहे हैं। और मंदिर और मस्जिद और गुरुद्वारे और चर्च, सब समझाए जा रहे हैं कि क्रोध मत करो।
सुना है मैंने कि एक चर्च में एक पादरी लोगों को समझा रहा है। लोगों को समझा रहा है कि कैसी भी स्थिति हो, सदभाव रखना चाहिए। तभी एक मक्खी उसकी नाक पर आकर बैठ गई। उसने कहा, फॉर इग्जाम्पल, उदाहरण के लिए, यह मक्खी मेरे नाक पर बैठी है, लेकिन इसको मैं दुश्मन नहीं मानता, और इसे मैं दुश्मन की तरह हटाता भी नहीं हूं। मक्खी को भी परमात्मा ने बनाया; यह भी उसकी सुंदरतम कृति है। और तभी अचानक उसने कहा कि धत तेरे की! ऐसी की तैसी, मक्खी नहीं है, मधुमक्खी है!
सब गड़बड़ हो गया। वह मक्खी थी भी नहीं। लेकिन मधुमक्खी को भी परमात्मा ने ही बनाया हुआ है। लेकिन वह सज्जन मक्खी के भ्रम में उपदेश दिए जा रहे थे।
सब जगह समझाया जा रहा है, क्रोध मत करो, यह मत करो, वह मत करो। और हम वही तो कर रहे हैं। किसके खिलाफ हम कसम लेंगे फिर? कसम अपने खिलाफ है। और अपने खिलाफ कोई कसम बचेगी नहीं।
और ध्यान रखें, कसम हमेशा आपका कमजोर हिस्सा लेता है। यह भी खयाल रख लें, जब भी आप कसम लेते हैं, आपके भीतर दो हिस्से हो गए। यू हैव डिवाइडेड योरसेल्फ। और जो हिस्सा कसम लेता है, वह कमजोर है, माइनर है। क्योंकि मजबूत हिस्से को कसम कभी लेनी नहीं पड़ती, वह बिना ही कसम के काम करता है। उसको जरूरत ही नहीं है कसम लेने की। आपको कसम लेनी पड़ती है कि क्रोध जारी रखेंगे? आपको कसम लेनी पड़ती है कि ब्रह्ममुहूर्त में कभी न उठेंगे?
कोई कसम नहीं लेनी पड़ती। वह जो मेजर हिस्सा है आपका, वह बिना कसम के चलता है। वह आपके कसम-वसम की लेने की उसको कोई जरूरत नहीं है। नब्बे-निन्यानबे प्रतिशत वह है। उसे क्या कसम लेनी? कसम जब भी आप लेते हो, तो माइनर पार्ट, कमजोर हिस्सा कसम लेता है। और कमजोर हिस्सा कितनी देर टिकेगा मजबूत हिस्से के सामने! वह ज्यादा देर टिकने वाला नहीं है। वह नई तरकीब निकाल लेगा कसम को तोड़ने की। वह कहेगा, मधुमक्खी है, मक्खी नहीं है। वह मक्खी के लिए समझा रहा था; मधुमक्खी के लिए समझा भी नहीं रहे थे।
सुना है मैंने कि एक ईसाई फकीर नियम से जीसस के वचनों का पालन करता था। एक आदमी ने उसके गाल पर एक चांटा मारा, तो उसने दूसरा गाल कर दिया। क्योंकि जीसस ने कहा है, जो तुम्हारे एक गाल पर चांटा मारे, दूसरा कर देना। मगर वह आदमी भी जिद्दी था। उसने दूसरे गाल पर भी चांटा मारा।
यह इसने सोचा नहीं था। और जीसस ने यह कहा भी नहीं है कि वह दूसरे पर भी मारेगा। इतना ही कहा है कि तुम दूसरा कर देना, तो वह तो पिघल जाएगा, पैरों पर गिर पड़ेगा। इसने कहा, हद्द हो गई। उसने दूसरे पर भी दुगुनी ताकत से चांटा मारा। अब इसकी समझ में भी न आया, क्योंकि ईसा का कोई वचन नहीं है कि तीसरा गाल कर देना, तीसरा कोई गाल भी नहीं है। तो उसने उठा कर तीसरा चांटा उसको मारा।
पर उस आदमी ने कहा कि आप यह क्या कर रहे हैं? जीसस को भूल गए?
उसने कहा, नहीं, भूले नहीं। लेकिन दो ही गाल हैं। और तीसरे के बाबत कोई इंस्ट्रक्शन नहीं है। अपनी ही बुद्धि से चलना पड़ेगा। मेरी बुद्धि यह कहती है कि अब मारो।
यह बुद्धि तब भी मौजूद थी, जब दो गाल पर चांटा मारा गया। यही असली बुद्धि है, यह इस आदमी की अपनी बुद्धि है। वक्त पर यही काम पड़ेगी, जब मुसीबत आएगी। वह जो हमारा कमजोर हिस्सा है, वह केवल शब्दों से जीता है। सुने हुए वचन, पढ़े हुए वचन मस्तिष्क में बैठ जाते हैं। फिर हम उन्हीं को आधार बना कर कसमें खाते हैं, आचरण को बनाते हैं।
लाओत्से कहता है कि वह उनको उनकी जानकारी पर चलने से रोकते हैं। वे कहते हैं, जानकारी पर मत चलो, ज्ञान को पा लो। फिर चलना तो हो जाएगा।
‘जब अक्रियता की ऐसी अवस्था उपलब्ध हो जाए, तब जो सुव्यवस्था बनती है, वह सार्वभौम है।’
अक्रियता की! नॉन-एक्शन की! ज्ञान अक्रिय है। ज्ञान कोई क्रिया नहीं है, अवस्था है। जब कोई व्यक्ति अंतर-ज्ञान को उपलब्ध होता है, तो वह एक अवस्था है, एक ज्योतिर्मय अवस्था। सब भर गया प्रकाश से, साफ-साफ दिखाई पड़ने लगा। अंधेरे हट गए, धुआं नहीं रहा आंखों में। दृष्टि स्वच्छ हो गई। चीजें पारदर्शी हो गईं, ट्रांसपैरेंट। सब साफ-साफ दिखाई पड़ने लगा। यह अवस्था है; कोई क्रिया नहीं है इसमें, यह अवस्था है। आचरण के तक के लिए कोई क्रिया नहीं, क्योंकि अब आचरण की कोई क्रिया की जरूरत न रही। अब यह जो अवस्था है प्रकाश की, यह वहीं चलाएगी, जो चलने योग्य है। अब पैर वहीं उठेंगे, जहां मंदिर है। अब पैरों को वेश्यालय से लौटाना न पड़ेगा।
सुना है मैंने कि नसरुद्दीन एक दिन कसम ले लिया कि अब मधुशाला में पैर न रखेंगे। ताकतवर आदमी था, कसम खा ली। सांझ को निकला। मधुशाला सामने पड़ी; आंख बंद कर ली। कहा कि ऐसा नहीं हो सकता, आज ही कसम ली है सुबह ही। बिलकुल नहीं हो सकता। आंख बंद कर ली, तेजी से दौड़ने लगा। पचास कदम के बाद उसने खड़े होकर कहा, शाबाश नसरुद्दीन, तू भी बड़े संकल्प का आदमी है! मधुशाला को पचास कदम पीछे छोड़ आया। नाउ कम बैक, आई विल ट्रीट यू। चलो वापस, मधुशाला में थोड़ा तुम्हें पिलाएं। क्योंकि इतना गजब का काम तूने किया नसरुद्दीन! बड़े संकल्प का आदमी है। हिम्मत देख तेरी, शाबाश, चल वापस!
वापस लौट कर शराब पी रहा है। लेकिन अब वह नसरुद्दीन को शराब पिला रहा है। यह सब रेशनलाइजेशन है। अब वह यह नहीं कह रहा कि मैं शराब पी रहा हूं, कि मैंने कोई वचन तोड़ा; वचन तो पूरा किया, पचास कदम आगे तक चला गया। लेकिन जिसने इतना वचन पूरा किया, उसकी कुछ सेवा-खातिर भी तो करनी चाहिए।
ज्ञान तो अक्रिय है। कोई आचरण की लहर भी उठानी नहीं पड़ती। जैसे जल बिलकुल शांत हो, कोई लहर भी न उठती हो, नदी बहती भी न हो। सब शून्य हो, ऐसी अवस्था है ज्ञान की।
लाओत्से कहता है, जब अक्रियता की ऐसी अवस्था उपलब्ध हो जाए, तो जो सुव्यवस्था, तब जो आर्डर, तब जो अनुशासन निर्मित होता है, वह सार्वभौम है, वह यूनिवर्सल है। उसका फिर अपवाद नहीं होता।
तीन बातें हैं। एक तो ज्ञान अक्रियता की अवस्था है। करने का उतना सवाल नहीं, जितना जानने का है। डूइंग की उतनी बात नहीं, जितनी बीइंग की है। क्या करूं, ऐसा नहीं; क्या हो जाऊं! यह सवाल नहीं है कि मैं क्या करूं जिससे ज्ञान मिल जाए। यह सवाल है कि मैं कैसा हो जाऊं कि ज्ञान प्रकट हो जाए; मैं किस अवस्था में खड़ा हो जाऊं, जहां से दृष्टि सरल, सीधी और साफ और निर्मल हो। क्या करूं का सवाल नहीं है कि आचरण को बदलूं, चोरी छोडूं, बेईमानी छोडूं। नहीं, यह सवाल नहीं है छोड़ने-पकड़ने का। मैं किस भांति देखूं जीवन को! वह दृष्टि। जानकारी की फिक्र न करूं, जानकारी से बचूं। अज्ञान को स्वीकार करूं। जीवन को अनुभव करूं। इच्छाओं में कल भटकूं न। आज, अभी, यहीं जाग कर जीऊं। तो वह अक्रिय अवस्था निर्मित होने लगती है, जहां व्यक्ति एक शांत झील की तरह हो जाता है।
उस शांत झील के क्षण में जीवन से सब अव्यवस्था अपने आप गिर जाती है। उसे व्यवस्थित नहीं करना होता, वह गिर जाती है। वह जो-जो गलत था, छूट जाता है; उसे छोड़ने के लिए प्रयास नहीं करना पड़ता। वह जो जीवन में लगता था अशुभ है, वह अचानक पाया जाता है कि नहीं है। जैसे किसी ने अंधेरे में दीया जला दिया हो, और अंधेरा नहीं है। उस अंधेरे को निकालना नहीं पड़ता, धकाना नहीं पड़ता, हटाना नहीं पड़ता। बस दीया जल गया, और वह अंधेरा नहीं है। यह जो सुव्यवस्था है, यह और है।
एक व्यवस्था है जो आयोजित है, कल्टीवेटेड है। एक बंदर को भी हम डंडे के
जोर से बिठा दे सकते हैं बिलकुल कि वह मालूम पड़े कि बुद्ध की प्रतिमा बना बैठा है। बंदर को भी हाथ वगैरह लगा कर पद्मासन लगा कर बिठा दिया जा सकता है। और डंडा अगर सामने हो, और वह धीरे-धीरे आंख खोल कर देखता रहे कि डंडा है, तो वह बैठा रहेगा। मगर वह बुद्ध नहीं हो गया है। और अनेक आदमी बंदरों की तरह ही पद्मासन लगा कर बैठे रहते हैं, भीतर कहीं कुछ नहीं होता। कोई डंडे का डर--कोई नर्क, कोई पाप, मौत, दुख, चिंता, बीमारी, सब चारों तरफ घेरे हैं, सारा डर--तो उन्हें...।
नसरुद्दीन से कोई पूछ रहा है कि रात प्रार्थना करके तो सोते हो?
नसरुद्दीन ने कहा, नियमित, कभी चूक नहीं करता।
उस आदमी ने पूछा, सुबह भी प्रार्थना करते हो?
नसरुद्दीन ने कहा कि नहीं, क्यों? सुबह प्रार्थना की क्या जरूरत है? अंधेरे में मुझे डर लगता है, सुबह तो कोई जरूरत नहीं है। सुबह क्या जरूरत? अंधेरे में मुझे डर लगता है, आई एम स्केयर्ड ऑफ डार्कनेस। रात तो प्रार्थना नियमित करता हूं। सुबह क्या जरूरत है? सुबह हम किसी से डरते ही नहीं।
भय लगता है, प्रार्थना जन्म ले लेती है। डंडा रखा है सामने, पद्मासन लग जाता है। आंखें बंद हो जाती हैं, माला चलने लगती है, सरकने लगती है। पूजा-पाठ शुरू हो जाते हैं। सब भय से।
नसरुद्दीन को एक दफा तैमूरलंग ने बुलाया। तैमूर तो खतरनाक आदमी था। सुना उसने कि नसरुद्दीन की बड़ी प्रसिद्धि है, बड़ा ज्ञानी है। और अजीब ही तरह का ज्ञानी था। और ज्ञानी जब भी होते हैं, थोड़े अजीब तरह के ही होते हैं। क्योंकि ज्ञानी का कोई पैटर्न नहीं होता, कोई ढांचा नहीं होता। तैमूरलंग ने बुलाया और कहा कि मैंने सुना है नसरुद्दीन कि तुम बड़े ज्ञानी हो!
नसरुद्दीन ने सोचा कि यह तैमूरलंग, वह नंगी तलवार लिए बैठा है। नसरुद्दीन ने कहा कि अगर हां कहें, तो तुम क्या करोगे? उसने कहा, पहले पक्का तो पता चल जाए। अगर न कहें, तो तुम क्या करोगे?
तैमूरलंग ने कहा, क्या करूंगा? सारे लोग कहते हैं कि तुम ज्ञानी हो। हो ज्ञानी कि नहीं? अगर नहीं हो, तो अब तक तुमने खंडन क्यों नहीं किया? तो तुम्हारी गर्दन कटवा देंगे। अगर हो, तो हां बोलो।
नसरुद्दीन ने कहा कि हां, हूं। उसने कहा कि गर्दन कटने का डर है।
तो तुम्हारे ज्ञान का प्रतीक क्या है? क्या सबूत कि तुम ज्ञानी हो?
नसरुद्दीन ने नीचे देखा और कहा कि मुझे नर्क तक दिखाई पड़ रहा है। ऊपर देखा और कहा, मुझे स्वर्ग, सात स्वर्ग दिखाई पड़ रहे हैं।
तैमूरलंग ने पूछा, लेकिन इसके देखने का राज क्या है?
नसरुद्दीन ने कहा, ओनली फियर। कोई दिखाई-विखाई नहीं पड़ रहे हैं। यह आप तलवार लिए बैठे हो, नाहक झंझट कौन करे? सिर्फ भय! इस मेरे ज्ञान का इतना ही आधार है। ये सात नर्क और सात स्वर्ग जो मैं देख रहा हूं। तुम तलवार नीचे रखो और आदमी की तरह आदमी से बातचीत हो। नहीं तो इसमें तो आप जो कहोगे, हम वही चमत्कार बताने को राजी हो जाएंगे कि भय है, क्या है। जान तो अपनी बचानी है।
भय आपसे कुछ भी करवा लेता है। भय आपसे बहुत कुछ करवा रहा है। सारी जिंदगी भय से भरी है। नहीं, इससे जो व्यवस्था आती है, भय से, वह कोई व्यवस्था नहीं है। भीतर तो ज्वालामुखी उबलता रहता है।
लाओत्से जैसे लोग कहते हैं कि एक और व्यवस्था है, ए डिफरेंट क्वालिटी ऑफ आर्डर। एक और ही गुण है; एक और ही नियमन है जीवन का; एक और ही अनुशासन है। और वह अनुशासन व्यवस्था से नहीं आता, थोपा नहीं जाता, आयोजित नहीं किया जाता। न किसी भय के कारण, न किसी इच्छा के कारण, न किसी प्रलोभन से; बल्कि ज्ञान की निष्क्रिय वह जो प्रकाश फैलता है, उससे अपने आप घटित हो जाता है। और जब वैसी व्यवस्था होती है, तो सार्वभौम, यूनिवर्सल होती है।
सार्वभौम का अर्थ है कि उस नियम का, उस व्यवस्था का कहीं भी फिर खंडन नहीं है। नो एक्सेप्शन! फिर उसका कोई अपवाद नहीं है। फिर वह निरपवाद है। फिर वह हर स्थिति में है। जैसे सागर के पानी को हम कहीं से भी चखें और वह नमकीन है, ऐसा ही फिर ज्ञान से जिस व्यक्ति का जीवन निर्मित हुआ, उसको हम कहीं से भी चखें, उसका कहीं से भी स्वाद लें, उसे सोते से जगा कर पूछें, उसे किसी भी स्थिति में देखें और पहचानें, सार्वभौम है। उसकी जो व्यवस्था है वह सदा है। उसमें फिर कोई अपवाद नहीं है। उसमें नियम का कहीं कोई स्खलन नहीं है; क्योंकि नियम ही नहीं है।
इसको ठीक से समझ लें। आप सोचते होंगे, इतना मजबूत नियम है कि स्खलन नहीं है। नहीं, कितना ही मजबूत नियम हो, स्खलन हो जाता है। लाओत्से कहता है कि उसका कहीं स्खलन नहीं होता, क्योंकि वहां कोई नियम ही नहीं है। टूटेगा कैसे? उस आदमी ने कोई नियम तो बनाया नहीं; ज्ञान से आचरण आया है। कोई मर्यादा तो बनाई नहीं; ज्ञान से मर्यादा फलित हुई है। किसी प्रलोभन और लोभ के कारण तो वह सच नहीं बोला; सच बोल ही सकता है, और अब कोई उपाय नहीं है।
सच ही बोल सकता है, ऐसा कहना भी शायद ठीक नहीं। ऐसा कहना ठीक है कि जो भी बोलता है, वह सच ही है। बोलना और सच अब दो चीजें नहीं हैं। झूठ का कोई उपाय नहीं है। इसलिए नहीं कि सच बोलने की पक्की कसम है, कि सच बोलने का उसने दृढ़ निश्चय कर लिया है। ये शब्द बड़े गलत हैं। और हमेशा कमजोर आदमी इनका उपयोग करते हैं। कहते हैं, मैंने सच बोलने का दृढ़ निश्चय कर लिया है। सच बोलने का दृढ़ निश्चय? उसका मतलब है कि असत्य बोलने की बड़ी दृढ़ स्थिति भीतर होगी।
नहीं, असत्य गिर गया; सत्य ही बचा है। जो बोला जाता है, वह सत्य है; जो जीया जाता है, वह शुभ है; जो होता है, वही सुंदर है। इसलिए सार्वभौम!

आज इतना, कल आगे का सूत्र लेंगे।

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