LAO TZU

Tao Upanishad 100

Hundredth Discourse from the series of 127 discourses - Tao Upanishad by Osho. These discourses were given during JUN 19-26, 1971 - APR 10 1975.
You can listen, download or read all of these discourses on oshoworld.com.


Chapter 60

RULING A BIG COUNTRY

Rule a big country as you would fry small fish. Who rules the world in accord with Tao, shall find that the spirits lose their power. It is not that the spirits lose their power, But that they cease to do people harm. It is not (only) that they cease to do people harm, The Sage (himself) also does no harm to the people. When both do not do each other harm, The original character is restored.
अध्याय 60

बड़े देश की हुकूमत

एक बड़े देश की हुकूमत ऐसे करो जैसे कि तुम छोटी मछली भूंजते हो। जो संसार की हुकूमत ताओ के अनुसार चलाता है, उसे पता चलेगा कि अशुभ आत्माएं अपना बल खो बैठती हैं। यह नहीं कि अशुभ आत्माएं अपना बल खो देती हैं, लेकिन वे लोगों को कष्ट देना बंद कर देती हैं। इतना ही नहीं कि वे लोगों को हानि पहुंचाना बंद कर देती हैं, संत स्वयं भी लोगों की हानि नहीं करते। जब दोनों एक-दूसरे की हानि नहीं करते, तब मौलिक चरित्र पुनःस्थापित होता है।
कुछ बातें सूत्र के पूर्व।
एक ऐसा शुभ है जो अशुभ के विपरीत साधा जाता है। जैसे कोई करुणा को साधे क्रोध के विरोध में, अहिंसा को साधे हिंसा के विरोध में, सत्य को साधे असत्य के विरोध में। जिसका विरोध होगा, वह भी भीतर दबा हुआ सदा मौजूद रहेगा। विरोध से कोई छुटकारा नहीं है। विरोध से बड़ी नासमझी नहीं है। क्योंकि विरोध का अर्थ है, मैं क्रोधी हूं और अक्रोध को मैंने अगर आदर्श बना लिया, तो अक्रोध को अपने आचरण में ऊपर से थोपूंगा, क्रोध को भीतर-भीतर दबाए जाऊंगा। ऐसी घड़ी भी आ जाएगी कि कोई भी दूसरा पहचान न सके कि मैं क्रोधी हूं। लेकिन मैं अपने सामने तो क्रोधी ही रहूंगा। यह भी हो सकता है कि मेरे व्यवहार में क्रोध की झलक भी न आए, लेकिन मेरी अंतरात्मा में क्रोध ही क्रोध उबलेगा।
दमन से कुछ मिटाया नहीं जाता; दमन से तो मन और भर जाता है। इसलिए जो ब्रह्मचर्य को साधेगा कामवासना के विरोध में, जितनी कामवासना उसके मन में होगी उतनी तुम कामी से कामी व्यक्ति के भीतर न पाओगे। तुम्हारे साधु जितने क्रोधी हैं उतने तुम साधारणजनों को क्रोधी न पाओगे। और तुम्हारे साधुओं की आंखों से जैसी हिंसा झलकेगी वैसी तुम सैनिक की आंखों में भी न पाओगे जो कि हिंसा का ही व्यवसाय करता है।
अक्सर तो उलटा देखने में आता है। अगर तुम गौर से देखोगे तो शिकारी को तुम बड़ा सीधा-सादा पाओगे, जो कि खेल में हिंसा कर रहा है, जिसने हिंसा को कोई मूल्य ही नहीं दिया है, जो हिंसा में मजा ले रहा है। शिकारी को तुम सीधा-सादा पाओगे। शिकारियों के संबंध में सभी लोगों का अनुभव है कि वे बड़े मिलनसार होते हैं। अगर तुम कारागृह में जाओ, अपराधियों को देखो, तो उनकी आंखों में तुम्हें बच्चों जैसी झलक दिखाई पड़ेगी। अपराधी बहुत जटिल नहीं होता, बहुत साफ-सुथरा होता है। शायद इसीलिए अपराधी हो गया कि तुम जैसा चालाक नहीं है। शायद इसीलिए अपराध में पड़ गया कि चालाक समाज की चालाकी न सीख पाया। चालाक भी अपराध करते हैं, लेकिन उनका अपराध व्यवस्थित होता है, उनके अपराध के पीछे कानून का सहारा होता है। सीधा-सादा आदमी अपराध करता है, तत्क्षण फंस जाता है।
अपराधी की आंखों में भी तुम्हें बच्चों जैसी झलक मिलेगी। लेकिन वैसी झलक तुम्हारे मंदिरों में बैठे हुए साधुओं में न मिलेगी। साधु बहुत जटिल होगा।
अपराधी सरल हो सकता है। क्योंकि अपराधी ने कुछ दबाया नहीं है। अपराधी बुरा है, दुर्जन है, लेकिन सरल है। साधु सज्जन है, किसी की बुराई नहीं करता, लेकिन बड़ा कांप्लेक्स और बड़ा जटिल है। उसकी सरलता तो ऊपर से थोपी हुई है। और भीतर ठीक विपरीत, भीतर ठीक उससे उलटा आदमी छिपा है। इसलिए उसका प्रत्येक कृत्य दोहरा है। और जहां दोहराव है वहीं जटिलता खड़ी हो जाती है। साधु चालाक है। सीधे-सादे आदमी को तो साधु होना मुश्किल है। क्योंकि वह हजार दूसरी झंझटों में पड़ जाएगा सीधा-सादा आदमी। और इतनी बड़ी चालाकी नहीं कर सकता, इतना बड़ा पाखंड नहीं कर सकता।
जीसस अपने शिष्यों से बार-बार कहे हैं कि जब तक तुम्हारी नैतिकता तथाकथित सज्जनों से ऊंची न होगी तब तक तुम अपने को नैतिक मत समझना। जब तक तुम्हारा बोध पंडित के बोध से ज्यादा न हो तब तक तुम उसे ज्ञान मत समझना। और अगर तुम्हारी सच्चरित्रता पाखंडियों जैसी ही हो तो उसका दो कौड़ी मूल्य है; तुम मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश न पा सकोगे।
क्या फर्क है पाखंडी की नैतिकता में?
पाखंडी की नैतिकता ऊपर-ऊपर है; वह केवल आचरण मात्र है। उसके पीछे अंतस का हाथ नहीं है। अंतस विपरीत खड़ा है। इसलिए वह कर कुछ रहा है, है कुछ और; होने में और करने में बड़ा फासला है। एक बात।
दूसरी बात ध्यान रखनी चाहिए कि जो व्यक्ति भी जीवन को अपने ही विपरीत साधेगा वह आत्म-हिंसा भी करेगा और पर-हिंसा भी करेगा। वह अपने को भी जबरदस्ती तोड़ेगा-मरोड़ेगा। और जो अपने को तोड़ेगा-मरोड़ेगा वह दूसरे को भी छोड़ नहीं सकता। इसलिए तथाकथित साधु अपने शिष्यों के साथ हजार तरह की हिंसा करेंगे। वह हिंसा तुम्हें दिखाई भी न पड़ेगी, क्योंकि वह शिष्यों के हित में ही करेंगे।
तुम्हें समझ में आ सके इसलिए मैं गांधी का उदाहरण दूं। क्योंकि तुम गांधी से ज्यादा सज्जन आदमी न पा सकोगे इस सदी में। अति सज्जन हैं वे। लेकिन ध्यान रखना, सज्जन और संत का अंतर। उनकी सज्जनता बड़ी ऊंची है, लेकिन उसके भीतर वह सब छिपा है जो उन्होंने आचरण में थोपा है। लाओत्से अगर गांधी को देखता तो हंसता। वह हंसा था कनफ्यूशियस पर, क्योंकि कनफ्यूशियस उस समय गांधी जैसे आदमी थे।
अफ्रीका के फीनिक्स आश्रम में गांधी कस्तूरबा से भी पाखाना साफ करवाना चाहते थे। बात में कुछ बुराई नहीं है। क्योंकि यही तो मजा है, सज्जन की बात तो बिलकुल तर्कयुक्त और सीधी मालूम पड़ेगी। क्योंकि वे कहते, पाखाना तुम करते हो तो फेंकेगा कोई दूसरा क्यों? तो न केवल अपना, बल्कि पूरे आश्रम के दिन बंटे हुए थे कि एक-एक दिन लोग पाखाने को फेंकें। कस्तूरबा के लिए यह कठिन था। उसकी पूरी दीक्षा, संस्कार इसके अनुकूल न थे। वह इतने तक राजी थी कि मैं अपना पाखाना फेंक दूं। लेकिन मैं किसी दूसरे का फेंकने के लिए राजी नहीं हूं। एक रात यह कलह इतनी बढ़ गई, क्योंकि गांधी कहते कि तुम दूसरे को दूसरा क्यों समझती हो! पाखाना फेंकना ही पड़ेगा। यह कलह इतनी बढ़ गई कि रात दो बजे गांधी ने कस्तूरबा का हाथ खींच कर आश्रम के बाहर निकाल दिया। कस्तूरबा गर्भवती थी, नौ महीने का गर्भ था। अंधेरी रात दो बजे उसे आश्रम के बाहर घसीट कर बाहर कर दिया।
इस सज्जनता में बड़ी हिंसा छिपी हुई मालूम पड़ती है। और तुम अपनी धारणा को दूसरे पर थोपना क्यों चाहो? तुम्हारी धारणा अच्छी भी हो तो तुम्हारे लिए है। इससे क्रोध क्यों उठे? और जब भी कोई अपनी धारणा दूसरे पर आरोपित करना चाहता है तो वह एक बड़ी सूक्ष्म हिंसा कर रहा है।
तुम दूसरे के सामने निवेदन कर सकते हो, तुम अपना मनोभाव प्रकट कर सकते हो; मानना न मानना दूसरे की मर्जी है--चाहे वह दूसरा पत्नी ही क्यों न हो। पत्नी भी तुम्हारी गुलाम नहीं है। और पत्नी को भी अपने जीने के ढंग की स्वतंत्रता है। अगर वह तुमसे राजी नहीं है तो क्रोधित होने का कोई कारण नहीं है। और क्रोध इस सीमा तक चला जाए, इस अति तक चला जाए, तो कठिनाई होती है।
लेकिन सज्जन हमेशा अति पर चला आएगा। सज्जन कभी मध्य में नहीं रह सकता। उसको अति पर जाना ही होगा। क्योंकि अगर वह मध्य में रहे तो खुद के भीतर जो दबा है वह बाहर आ जाएगा। यह मन की आंतरिक व्यवस्था है कि अगर तुम्हें किसी चीज को दबाना है तो तुम्हें बिलकुल मतांध होकर दबाना पड़ेगा। अगर तुमने थोड़ी सी भी उदारता बरती तो तुम अपने को दबा न सकोगे। क्योंकि जब तुम दूसरे के साथ उदारता बरतोगे तो अपने साथ भी उदारता बरतोगे।
इस क्रोध में ऐसा लगता है कि भीतर तो कहीं गांधी को भी पाखाना फेंकने का मन नहीं है, जबरदस्ती फेंक रहे हैं। और यह कस्तूरबा उपद्रव खड़ा कर रही है। कस्तूरबा के विरोध में गांधी का इतना क्रोधित हो जाना अपने ही भीतर दबे हुए मन के विरोध में क्रोधित होना है। और इसलिए पत्नी पर वे ज्यादा क्रुद्ध हुए होंगे, क्योंकि पत्नी बहुत निकट है। वह तुम्हारा अचेतन जैसा है; तुम्हारे बहुत करीब है।
गांधी के सभी बच्चे मुश्किल में जीए। गांधी का एक बेटा हरिदास तो मुसलमान हो गया, शराबी हो गया, जुआरी हो गया--गांधी के कारण। क्योंकि अतिशय हो गई हर बात। हरिदास चाहता था कि पढ़ने जाए, शिक्षित हो। लेकिन गांधी शिक्षा के विपरीत थे। वे कहते थे, यह शिक्षा तो बिगाड़ती है। तो बस आश्रम में ही पढ़ो-लिखो, जो भी पढ़-लिख सकते हो।
बाप को भी यह हक नहीं है बेटे के ऊपर अपनी धारणा को थोपने का। लेकिन सज्जन बाप दुष्ट होता है। सज्जन बाप यह देखता ही नहीं कि बेटे की भी कोई आकांक्षाएं हैं, अभिलाषाएं हैं। और वह स्वतंत्र है अपनी आकांक्षाओं-अभिलाषाओं में। अगर वह गलत भी है तो भी स्वतंत्र है।
फिर हरिदास को हर छोटी-छोटी चीज पर बाधा थी। आश्रम में खाने-पीने पर नियंत्रण था; मिठाई नहीं लाई जा सकती, शक्कर नहीं लाई जा सकती, चाय नहीं पी जा सकती, आइसक्रीम नहीं खाई जा सकती। कुछ भी नहीं किया जा सकता। छोटे बच्चे छोटे बच्चे हैं। चोरी की शुरुआत हो गई। तो हरिदास बाहर जाकर चोरी से चीजें खाने लगा। फिर यह चोरी पकड़ी जाने लगी। फिर हरिदास को इसके लिए दंड मिलने लगा। यह संघर्ष घना हो गया। एक ऐसी घड़ी आ गई जहां कि बेटे को बाप से बिलकुल टूट जाना पड़ा। और प्रतिशोध में वह शराब पीने लगा। और आखिरी प्रतिशोध में वह मुसलमान हो गया।
जब गांधी को खबर मिली कि हरिदास मुसलमान हो गया और उसने अपना नाम अब्दुल्ला गांधी कर लिया तो उनको बड़ी चोट लगी। जब हरिदास को वापस खबर मिली कि गांधी को पता चला तो उनको चोट लगी तो वह बहुत हंसा। उसने कहा, चोट का क्या सवाल है? वे तो कहते हैं, हिंदू-मुसलमान सब एक ही हैं। मैं तो उनकी ही बात मान कर चल रहा हूं। इसमें चोट क्यों लगती है? और अगर चोट लगती है तो उनको खुद अपनी बात पर भरोसा नहीं है कि हिंदू-मुसलमान एक ही हैं। अगर सच में ही एक ही हैं तो क्या फर्क पड़ता है हिंदू रहे कि मुसलमान रहे!
गांधी कहते तो हैं कि हिंदू-मुसलमान एक ही हैं, लेकिन गांधी पक्के हिंदू हैं। इसलिए वे किसी और को धोखा दे पाएं, मुसलमान को धोखा नहीं दे पाए। गहरे में हिंदू हैं। गीता को माता कहते हैं, कुरान को तो माता या पिता नहीं कहते। और एक बड़ी चालाकी है बात में। कुरान में उन-उन चीजों की वे प्रशंसा करते हैं जिनका गीता से मेल है; कुरान के वे हिस्से काट डालते हैं जिनका गीता से मेल नहीं है। यह कौन सी प्रशंसा हुई? यह तो कुरान में भी गीता की ही प्रशंसा हुई। जहां कुरान गीता के विपरीत है वहीं सवाल है। ऐसे तो मुसलमान भी गीता की प्रशंसा कर देता है। लेकिन उन्हीं हिस्सों की प्रशंसा करता है जो कुरान का ही अनुवाद मालूम पड़ते हैं; बाकी हिस्सों को छोड़ देता है। ऐसे तो जैन भी प्रशंसा कर देता है।
यह एक बहुत अनूठा प्रयोग हो। अगर जैनों से कहा जाए कि तुम सभी धर्मों में जो सार-धर्म है उसको संगृहीत करके बताओ; मुसलमानों से कहा जाए, हिंदुओं से, बौद्धों से। तो तुम पाओगे, वे जो सारभूत निकालेंगे वह सबका अलग-अलग होगा। क्योंकि जैन यह तो मानता ही है कि सत्य तो महावीर के पास है। अब यह हो सकता है कि उसकी प्रतिध्वनि कुरान में भी कहीं हो थोड़ी-बहुत। लेकिन प्रतिध्वनि! उतनी दूर तक हम कुरान की भी प्रशंसा करेंगे।
लेकिन पूरे कुरान की प्रशंसा गांधी के बस की बात नहीं है। हिंदू भीतर है। हिंदू को दबाया हुआ है। ऊपर से वे कहते हैं कि अल्ला-ईश्वर तेरे नाम, पर गहरे में तो राम ही बैठा है। इसलिए मरते वक्त जब गोली लगी तो अल्लाह नहीं निकला। जब गोली लगी तो राम--हे राम--की आवाज निकली। जो गहरे में दबा था वही तो मरते वक्त निकलेगा। उस वक्त अल्लाह खो गया। उस वक्त बुद्ध-महावीर की कोई याद न आई। उस घड़ी में धोखा भी तो नहीं दिया जा सकता। मौत की घड़ी में, आदमी के भीतर जो छिपा है, वही तो प्रकट होगा। तो राम की आवाज निकली।
व्यक्ति अपने को ऊपर से दबा ले तो अपने साथ तो आत्म-हिंसा करता ही है, उसी अनुपात में, जो उसके पास हों, उनके साथ भी हिंसा करता है। इसलिए तुम गुरुओं को पाओगे कि वे शिष्यों को करीब-करीब मार डालते हैं। उनका काम ही यही है कि शिष्य को बिलकुल मिटा दें। और जब शिष्य बिलकुल नकली हो जाए, न के बराबर हो जाए, तभी वे समझते हैं कि आज्ञा का पालन हुआ, दीक्षा पूरी हुई।
एक तो शुभ है जो हम अशुभ से लड़ कर निर्मित करते हैं; लाओत्से इसको शुभ नहीं कहता। एक दूसरा शुभ भी है जो हम अशुभ से लड़ कर नहीं, अशुभ से एक गहन सामंजस्य स्थापित करके उपलब्ध करते हैं। रात और दिन को हम लड़ाते नहीं। लड़ाने में भूल है; क्योंकि लड़ाई वहां हो नहीं रही है। रात और दिन एक ही अस्तित्व के हिस्से हैं। फूल और कांटे को हम लड़ाते नहीं। लड़ाने में भ्रांति है; क्योंकि फूल और कांटे एक ही जीवन-धार से निकले हैं। शुभ और अशुभ को हम लड़ाते नहीं; शुभ और अशुभ को हम एक संगीत और सामंजस्य में बांधते हैं। एक ऐसी व्यवस्था लाते हैं जिसमें शुभ अशुभ को तोड़ता नहीं, बचाता है; जहां शुभ अशुभ के विपरीत नहीं होता, बल्कि अशुभ की ही पूर्णाहुति होता है; जहां अंधेरा और प्रकाश मिल जाते हैं; और जहां शैतान और ईश्वर में कोई विरोध नहीं रह जाता।
लाओत्से कहता है, जब ऐसे शुभ की दशा आ जाए तभी तुम समझना कि मौलिक स्वभाव उपलब्ध हुआ। क्योंकि स्वभाव में कोई संघर्ष नहीं हो सकता। और तभी तुम शांत हो सकोगे, उसके पहले नहीं। तब न तो तुम किसी को दबाओगे, न अपने को दबाओगे। तब तुमने सारे स्वरों को सजा लिया, और सारे स्वरों के बीच जो तनाव था वह विसर्जित कर दिया, और सारे स्वरों को एक लयबद्धता में बांध लिया।
एक पागल आदमी उन्हीं शब्दों को बोलता है जिनको एक संगीतज्ञ भी गीत में बांधता है। शब्दों में कोई भेद नहीं है; वही अल्फाबेट है। लेकिन पागल आदमी के बोलने में और संगीतज्ञ के गीत में क्या फर्क है? शब्द वही हैं; व्यवस्था का भेद है। संयोजन अलग-अलग है।
तुम भी वही शब्द बोलते हो और एक कवि भी वही शब्द बोलता है। भेद क्या है? तुम शब्दों के बीच संगीत को नहीं खोजते; कवि शब्दों के बीच संगीत को खोजता है। शब्दों को इस भांति जमाता है कि शब्द गौण हो जाते हैं, लयबद्धता प्रमुख हो जाती है। शब्द केवल सहारे हो जाते हैं लयबद्धता को प्रकट करने के। शब्द तो तुम्हें भूल भी जाएंगे, लेकिन लयबद्धता तुम्हारे भीतर गूंजती रह जाएगी। जितना बड़ा संगीतज्ञ हो उतनी ही बड़ी उसकी कला होती है--विरोध के बीच सामंजस्य स्थापित कर लेने की।
विरोध के बीच अविरोध को खोज लेना ही परम ज्ञान है। और जहां-जहां तुम्हें विरोध दिखाई पड़े, अगर तुम लड़ने में पड़ गए तो तुम सदा अधूरे रहोगे। अगर तुम्हारे संतत्व में केवल शुभ ही रहा और अशुभ को तुमने काट डाला तो तुम्हारा संतत्व मुर्दा रहेगा, या बेस्वाद। उसमें नमक न होगा। अगर तुम्हारे संतत्व में तुम्हारे भीतर का शैतान समाविष्ट हो गया हो, अगर तुम्हारे संतत्व ने शैतान का विरोध न किया हो, बल्कि शैतान को आत्मसात कर लिया हो, तुम्हारा दिन तुम्हारी रात को पी गया हो, और दोनों एक ही नदी के दो कूल-किनारे रह गए हों, जरा भी विरोध न हो, तभी तुम पूरे हो सकोगे। तभी तुम टोटल, समग्र हो सकोगे।
सज्जन अधूरा है; दुर्जन अधूरा है। संत पूरा है। पूरे का मतलब क्या है कि वहां सज्जन और दुर्जन का जो भी दंश था वह खो गया, सज्जन-दुर्जन का जो विरोध था वह विलीन हो गया। वहां सज्जन और दुर्जन गले लग गए, आलिंगन में आबद्ध हो गए।
इसलिए हिंदुओं ने बड़ी गहरी खोज की है, और वह गहरी खोज यह है कि हमने परमात्मा में सब कुछ समाविष्ट किया है। ईसाई तो भरोसा ही नहीं कर पाते, यहूदी विश्वास नहीं कर पाते, पारसी मान ही नहीं सकते कि यह कैसी हिंदुओं की ईश्वर की धारणा है! हिंदू कहते हैं, ईश्वर के तीन मुख हैं, वह त्रिमूर्ति है। उनमें एक विष्णु है, एक ब्रह्मा है, एक शिव है। उसमें ब्रह्मा तो जन्मदाता है, सृजनात्मक है, वह क्रिएटिव फोर्स है। उसमें विष्णु सम्हालने वाला है, व्यवस्था को बनाए रखने वाला है। और शिव विध्वंस है, वह डिस्ट्रक्टिव फोर्स है। और ये तीनों चेहरे एक के ही हैं। वहां विध्वंस और सृजन दोनों मिल गए हैं। वहां कोई विरोध नहीं रह गया बुरे और भले में। वहां सब समाविष्ट हो गया है। और तब एक अपरिसीम ऊंचाई आती है।
तुम ऐसा ही समझो कि जैसे तुम कपड़ा बुनते हो ताने-बाने से। ताने-बाने एक-दूसरे के विपरीत रखने पड़ते हैं। तो ही तो कपड़ा बनता है। तुम अगर ताने ही ताने से कपड़ा बुन दो तो कपड़ा बनेगा ही नहीं। तुम अगर बाने ही बाने से कपड़ा बुन दो तो भी कपड़ा न बनेगा। दोनों ही अधूरे रहेंगे। दोनों को मिला दो, वह जो विरोध है ताने-बाने का उस विरोध को तुम संयुक्त कर दो--उस विरोध पर ही तो कपड़ा निर्मित होता है।
राजगीर भवन बनाना है तो विपरीत ईंटों को दरवाजे पर जोड़ देता है। उनके विपरीत के तनाव में ही तो दरवाजे की ताकत है; उस पर ही तो भवन खड़ा होगा।
तुम्हारा सज्जन एकतरफा जुड़ी हुई ईंटें है। यह भवन गिरेगा। तुम्हारा दुर्जन भी एकतरफा है, यह भवन भी गिरेगा। एक ताना है, एक बाना है; एक काला है, एक सफेद है। लेकिन तुम दोनों को जोड़ दो। और दोनों के विरोध को विरोध में मत खड़ा करो; दोनों के विरोध को एक सामंजस्य बना लो। तब तक भवन बनेगा जो मजबूत है।
संत ऐसा भवन है जहां बुराई और भलाई दोनों एक ही तत्व में लीन हो गई हैं। ऐसे संत से किसी का अहित नहीं होता, क्योंकि ऐसे संत के भीतर कोई घृणा ही नहीं रह जाती, कोई हिंसा नहीं रह जाती, कोई क्रोध नहीं रह जाता, कोई तनाव नहीं रह जाता। ऐसा संत तुम्हें बदलना भी नहीं चाहता। ऐसे संत के पास तुम बदल जाओ, यह तुम्हारी मर्जी। ऐसा संत तुम्हारे पीछे आग्रहपूर्वक नहीं चलता। ऐसा संत तुम्हें तोड़ना-फोड़ना नहीं चाहता। ऐसा संत तुम्हारे विरोध में नहीं है। और ऐसा संत तुम्हारे ऊपर खड़े होकर तुम्हारी निंदा, तुम्हारा तिरस्कार भी नहीं करता। तुम गलत भी हो तो भी तुम्हें नरक भेजने की आकांक्षा उसके भीतर नहीं उठती, क्योंकि वह जानता है, गलत भी स्वर्ग की सीढ़ी पर उपयोग में आ जाता है। क्योंकि वह जानता है कि इस अस्तित्व में तिरस्कार योग्य कुछ भी नहीं है। क्योंकि वह जानता है, सभी चीजों का उपयोग हो जाता है, और सभी चीजें उस परम संगीत में सहयोगी हैं। इनमें से कुछ भी हट जाए...।
तुम थोड़ा सोचो; एक बच्चा पैदा हो जो बिना क्रोध का हो। क्योंकि ऐसा बच्चा पैदा किया जा सकता है। क्रोध के हार्मोन हैं, वे काटे जा सकते हैं। जैसे कि सेक्स के हार्मोन हैं। एक नपुंसक बच्चा पैदा होता है। नपुंसक व्यक्ति की तकलीफ क्या है? और नपुंसक का इतना हीन-भाव क्या है?
नपुंसक के भीतर स्त्री-पुरुष के ताने-बाने नहीं हैं। साधारण पुरुष के भीतर स्त्री भी छिपी है। साधारण स्त्री के भीतर पुरुष भी छिपा है। वे ताने-बाने हैं। कोई पुरुष न तो पुरुष है अकेला और न कोई स्त्री अकेली स्त्री है। सभी दोनों का जोड़ हैं। होना ही चाहिए। क्योंकि तुम अपनी मां और बाप के जोड़ से पैदा हुए हो। आधा तुम्हारे बाप का हाथ है, आधा तुम्हारी मां का। तुम्हारे आधे सेल पिता से आए हैं, आधे मां से। आधा तुम्हारे भीतर पुरुष है, आधा तुम्हारे भीतर स्त्री है। फर्क इतना ही है। जैसे एक सिक्के के दो पहलू होते हैं; एक सिक्के का पहलू ऊपर होता है, एक नीचे दबा होता है। अगर तुम पुरुष हो, तुम्हारी स्त्री पीछे छिपी है। अगर तुम स्त्री हो, तुम्हारा पुरुष पीछे छिपा है। इसलिए तो वैज्ञानिक कहते हैं कि हार्मोन के परिवर्तन से स्त्री को पुरुष बनाया जा सकता है, पुरुष को स्त्री बनाया जा सकता है। जरा सिक्के को पलटने की बात है। कुछ अड़चन नहीं है। और भविष्य में यह घटना बढ़ेगी। बहुत से प्रयोग हो गए हैं। बहुत से पुरुष स्त्रियां हो गए हैं, बहुत सी स्त्रियां पुरुष हो गई हैं। भविष्य में यह अनुपात बढ़ता जाएगा। क्योंकि जब कोई ऊब जाएगा पुरुष होने से तो स्त्री हो जाना पसंद करेगा। जब कोई ऊब जाएगा स्त्री होने से तो पुरुष हो जाना पसंद करेगा। स्वतंत्रता और भी खुल जाएगी। तो तुम दोनों अनुभव कर सकते हो जीवन में।
नपुंसक की तकलीफ क्या है? न तो वह स्त्री है, न वह पुरुष है। उसके भीतर ताना-बाना नहीं है। उसके भीतर तनाव नहीं है। तनाव में शक्ति है। उसके भीतर कोई विरोध नहीं है जिसको जोड़ कर संगीत पैदा किया जा सके। इसलिए वह दीन है। इसलिए वह दया योग्य है। एक अर्थ में वह है ही नहीं; वह सिर्फ दिखाई पड़ता है कि है। उसका व्यक्तित्व एक धोखा है। क्योंकि व्यक्तित्व की गरिमा दो विरोधों के बीच पैदा हुए तनाव और शक्ति और ऊर्जा से आती है।
हम एक बच्चा पैदा कर सकते हैं जिसमें क्रोध न हो। वह बच्चा जी न सकेगा। और अगर जीएगा भी तो बड़ा दयनीय होगा। जिस बच्चे में क्रोध न हो उसमें गरिमा न होगी। उसमें तेज न होगा। उसमें चमक न होगी। उसमें प्रतिरोध की क्षमता न होगी। वह बिना रीढ़ का होगा। वह सांप की तरह सरकेगा जमीन पर, मनुष्य की तरह खड़ा न हो सकेगा। रेंग सकेगा, चल न सकेगा। दौड़ना तो असंभव है। और अगर उसमें क्रोध न हो तो उसके भीतर अस्मिता पैदा न होगी। मैं हूं, यह भाव पैदा न होगा। अहंकार का जन्म न होगा। और जिसमें अहंकार ही न जन्मा वह अहंकार का समर्पण कैसे करेगा? जो तुम्हारे पास है ही नहीं उसे तुम छोड़ोगे कैसे? उसके जीवन में परमात्मा की कभी कोई अनुभूति न हो सकेगी।
फर्क को ठीक से समझ लेना। एक भिखारी रास्ते पर खड़ा है। बुद्ध भी रास्ते पर खड़े हैं भिखारी की तरह। लेकिन तुम यह मत समझना कि वे दोनों एक ही हैं। उनमें गुणात्मक भेद है। एक ने साम्राज्य छोड़ा है; एक ने अभी पाया नहीं। और जिसने साम्राज्य छोड़ा है उसके भिखारीपन में भी सम्राट की आभा होगी। जिसने सब जान लिया है, और इसलिए छोड़ दिया है, उसके छोड़ने में एक परम संतोष होगा, एक अनुभव का प्रकाश होगा। वह प्रौढ़ हो गया है; सम्राट पीछे छूट गया है। इसलिए हम उसे भिखारी नहीं कहते हैं।
हमने भिखारी के लिए दो शब्द चुने हैं। उसको हम भिक्षु कहते हैं। भिक्षु और भिखारी बड़े अलग-अलग शब्द हैं। भिखारी वह है जिसकी वासनाएं जीवित हैं; जो चाहता तो सम्राट होना है, लेकिन नहीं हो पा रहा; जिसकी आकांक्षा तो समृद्धि की है, लेकिन असफल है। उसके भीतर एक विषाद है, एक हताशा है। यह भी हो सकता है, वह अपने मन को समझा ले कि क्या रखा है संपत्ति में और क्या रखा है महलों में! ऐसे बहुत से भिखारी भिक्षु बने भी बैठे हुए हैं, जो सोचते हैं, क्या रखा है महलों में! लेकिन जब तक तुम्हारे मन में यह सवाल उठता है कि क्या रखा है महलों में, तब तक तुम अपने को समझा रहे हो और तुमने महल जाने नहीं। तुम कंसोलेशन, सांत्वना कर रहे हो।
एक जैन मुनि अपना गीत पढ़ कर मुझे सुना रहे थे। सुनने वाले बड़ी प्रशंसा से भर गए। गीत अच्छा था। लेकिन गीत से मुझे प्रयोजन नहीं था; जो उसमें कहा था वह बड़ा बेहूदा था। लेकिन न जैन मुनि को खयाल था, न उनके सुनने वालों को खयाल था। गीत था, एक संन्यासी के भाव गीत में प्रकट थे कि मुझे तुम्हारे महलों से कोई सरोकार नहीं। तुम्हारे तख्तोताज मेरे लिए दो कौड़ी के हैं। तुम्हारा स्वर्ण मेरी इस धूल जैसा है।
मैंने उनसे पूछा, इसको गीत में लिखने की जरूरत क्या है? अगर सच में ही तुम्हें ताज और सिंहासन से कोई मतलब नहीं है तो गीत लिख कर समय क्यों खराब किया? और अगर सच में ही सोना धूल जैसा है तो कहने की जरूरत नहीं है। कोई भी तो नहीं कहता कि धूल धूल जैसी है। नहीं, तुम्हें सोना सोना जैसा ही है, और तख्त और ताज का तुम्हें कोई रस है। फिर बड़े मजे की बात यह है कि तुम इसमें कहते हो कि मुझे तुम्हारे महलों से कुछ भी लेना-देना नहीं, मेरे लिए उनका मूल्य दो कौड़ी का है। लेकिन तुमसे कह कौन रहा है कि तुम महलों में आओ? तुम किससे यह बात कर रहे हो?
और बड़ा आश्चर्य यह है कि साधुओं ने, संन्यासियों ने इस तरह के गीत लिखे हैं, सम्राटों ने कभी नहीं लिखे। सम्राट को लिखना चाहिए कि मुझे तुम्हारी धूल से कोई प्रयोजन नहीं; तुम्हारा झोपड़ा मेरे लिए दो कौड़ी का है; रहे आओ तुम, मेरी कोई प्रतिस्पर्धा नहीं। सम्राट लिखते नहीं यह बात। संन्यासी क्यों लिखता है? साधु क्यों लिखता है?
न, यह भिखारी है, भिक्षु नहीं है। आकांक्षा तो इसकी भी महल में होने की है। अब यह अपने दंभ को किसी तरह भर रहा है कि नहीं, तुम्हारा महल दो कौड़ी का है। अगर दो कौड़ी का ही है तो दो कौड़ी के महल पर यह गीत क्यों लिख रहे हो? और सुनने वाले जो चारों तरफ बैठे हैं--जो उतने ही अंधे हैं जितने उनको चलाने वाले--वे सब सिर हिला रहे हैं कि बड़ी गजब की बात है। क्योंकि वे भी भिखमंगे हैं, उनको भी इससे राहत मिलती है। उनको भी लगता है कि हां, रखा क्या है महल में!
इसलिए नहीं कि महल में कुछ रखा नहीं है। तुमने कहानी सुनी है लोमड़ी की जो अंगूरों तक न पहुंच सकी। क्योंकि अंगूर बड़े ऊंचे थे, छलांग बड़ी छोटी थी। लेकिन लोमड़ी का भी अहंकार यह मानने को नहीं होता कि मैं पहुंच नहीं सकी। जब वह वहां से वापस लौटने लगी और एक खरगोश ने उससे पूछा कि क्या हुआ मौसी? तो उसने कहा, अंगूर खट्टे हैं, खाने योग्य नहीं।
जिन अंगूरों तक तुम पहुंच नहीं पाते वे खट्टे हो जाते हैं। उनके खट्टेपन में तुम अपने अहंकार को बचा लेते हो, अपने दंभ को सम्हाल लेते हो।
भिखारी कहता है, अंगूर खट्टे हैं; बुद्ध जानते हैं। वह सांत्वना नहीं है, वह अनुभव है। इसलिए बुद्ध के भीतर सम्राट की प्रतिभा है। भिखारी सिर्फ दीन-हीन है। बुद्ध का भिखारीपन बड़ा समृद्ध है। बुद्ध के भिखारीपन में बड़ा साम्राज्य छिपा है। भिखारी के हाथ में सिर्फ खाली पात्र है, उसमें कुछ छिपा नहीं है। उसमें सिर्फ वासना के इंद्रधनुष टूटे पड़े हैं, सपने उजड़े पड़े हैं; एक हताशा है, एक दीनता है। फिर अपनी दीनता को छिपाने की वह कोशिश कर रहा है।
अगर तुम एक ऐसा बच्चा पैदा कर सको जिसमें क्रोध न हो तो तुम पाओगे उसमें रीढ़ नहीं है। वह जीवन में खड़ा ही न हो सकेगा। उसमें अस्मिता भी न जगेगी। उसका अहंकार भी निर्मित न होगा। और जिसका अहंकार निर्मित न हो गया हो वह समर्पण नहीं कर सकता। वास्तविक समर्पण तभी आता है जब तुम्हारे भीतर बड़ा प्रगाढ़ अहंकार होता है। जैसे कि वास्तविक भिक्षु तुम तभी बनते हो जब तुम सम्राट रह चुके हो।
इसलिए तुम्हें मेरी बात बड़ी उलटी लगेगी। मैं चाहता हूं कि पहले तुम अपने अहंकार को निर्मित करो, सबल करो, शक्तिशाली करो। लड़ो संसार से, अपने व्यक्तित्व को संगठित करो। एक इंटीग्रेशन, एक क्रिस्टलाइजेशन तुममें आ जाए; तुम एक मजबूत अहंकार के बिंदु हो जाओ। उसके बाद ही समर्पण संभव है। क्योंकि जो तुम्हारे पास है ही नहीं, उसे तुम छोड़ोगे कैसे? जो तुमने कभी पाया ही नहीं, उसका विसर्जन कैसे करोगे?
आधा जीवन आदमी को अहंकार संयोजित करने में लगाना चाहिए, और आधा जीवन विसर्जित करने में। और जब संयोजित करना और विसर्जित करना दोनों संयुक्त हो जाते हैं तब तुम्हारे जीवन में विरोध के बीच सामंजस्य, संगीत का जन्म होता है।
नहीं, क्रोध भी जरूरी है, अहंकार भी जरूरी है। इसलिए दबाना मत, काटना मत। नहीं तो तुम अपंग हो जाओगे। जैसे हाथ को काट दे कोई, आंख को काट दे कोई, तो शरीर अपंग हो जाता है। ऐसे ही क्रोध को कोई काट दे, काम को कोई काट दे, लोभ को कोई काट दे, तो आत्मा अपंग हो जाती है। सभी कुछ अनिवार्य है।
इसका मतलब यह नहीं है कि तुम क्रोध में ही जीते रहना। इसका मतलब यह है कि तुम क्रोध में खोज करना कि कैसे करुणा का जन्म हो सके, क्रोध में कैसे करुणा का जन्म हो सके, कैसे करुणा क्रोध को समाविष्ट कर ले, कैसे क्रोध की ऊर्जा और शक्ति करुणा में लीन हो जाए, करुणा बन जाए।
महावीर निश्चित ही बहुत क्रोधी रहे होंगे। नहीं तो इतनी बड़ी अहिंसा पैदा नहीं हो सकती थी। और इसमें कारण साफ दिखाई पड़ता है। बुद्ध भी बड़े क्रोधी रहे होंगे। नहीं तो इतनी बड़ी महाकरुणा कहां से पैदा होती? और इसीलिए जैनों के चौबीस तीर्थंकर क्षत्रिय हैं। क्योंकि क्षत्रियों से बड़ा क्रोधी खोजना मुश्किल है। बुद्ध भी क्षत्रिय हैं। एक भी तीर्थंकर ब्राह्मण नहीं हुआ, बनिया नहीं हुआ। कारण है। क्योंकि अगर अहिंसा का जन्म होना हो तो महाक्रोध से ही हो सकता है। और क्षत्रियों से ज्यादा महाक्रोधी तुम नहीं खोज सकते हो।
क्रोध की ऊर्जा को बदलो।
कुछ ही समय पहले, आकाश में बिजली कौंधती थी और आदमी सिर्फ डरता था और कंपता था। अब हम उसी बिजली को घर में बांधे हुए हैं। वही बिजली तुम्हारा पंखा चलाती है। गर्मी हो तो शीतलता देती है; शीतलता हो तो गर्मी देती है। वही बिजली चाकर की तरह, नौकर की तरह काम में संलग्न है चौबीस घंटे। यह वही बिजली है जिससे वेद के ऋषि घबड़ा रहे थे। यह वही बिजली है जिसको वे सोच रहे थे कि इंद्र नाराज होकर भेज रहा है। यह वही बिजली है जो आकाश में कड़कती थी तो छाती कंप जाती थी। वही बिजली नौकर हो गई।
आज तुम सोच भी नहीं सकते, अगर बिजली खो जाए तो सभ्यता कहां होगी? थोड़ी देर सोचो, अगर बिजली अचानक खो जाए तो तुम दस हजार साल पीछे एकदम गिर जाओगे। इससे कम नहीं। तुम वहीं पहुंच जाओगे जहां आदमी ने सभ्यता की शुरुआत की थी। आज सारी सभ्यता और संस्कृति का आधार बिजली है।
कोई तीन वर्ष पहले अमरीका में कुछ आटोमैटिक यंत्रों की भूल से--अमरीका चार हिस्सों में बंटा है बिजली के हिसाब से, चार केंद्र हैं--एक केंद्र की बिजली गड़बड़ हो गई तो सैकड़ों नगरों की बिजली चली गई तीन दिन तक। और जो अनुभव वहां हुए, किसी ने सोचे भी न थे। क्योंकि बिजली क्या चली गई सारा जीवन चला गया। बिजली नहीं तो पानी मिलना बंद हो गया। बिजली नहीं तो लोग पचास-पचास ऊपर की मंजिल में कैद हो गए; नीचे आना मुश्किल हो गया। बिजली नहीं तो ट्रेनें बंद हो गईं। बिजली नहीं तो सब ठप्प हो गया। दस हजार साल पीछे तीन दिन के लिए पूरी व्यवस्था गिर गई। गांव उजाड़ मालूम पड़ने लगे। सब तरफ सन्नाटा हो गया। सब शोरगुल, सब चहल-पहल सब विदा हो गई। सब दफ्तर बंद हो गए। सब दुकानें बंद हो गईं। उन तीन दिनों में अमरीका के उस हिस्से में जो अनुभव हुआ वह अनुभव ऐसा हुआ कि जैसे कि अब बिजली हमारा प्राण है।
कभी यह बिजली हमारी दुश्मन थी, शत्रु की तरह कौंधती थी। और वेद के ऋषि प्रार्थना करते हैं, हे इंद्र, कृपा कर! यज्ञ करते हैं, आहुति चढ़ाते हैं, ताकि तू नाराज न हो जाना, बिजली मत भेज देना। जिस बिजली से मौत आती थी वह अब जीवन का आधार हो गई।
ठीक ऐसी ही घटना मनुष्य के भीतर भी घटती है। जिस क्रोध से तुम्हें लगता है जीवन दुखपूर्ण है, वही क्रोध करुणा बन जाता है। जिस कामवासना से तुम्हें लगता है कि जीवन नरक हो गया है, वही कामवासना ब्रह्मचर्य की परम अनुभूति बन जाती है। एक बात ध्यान रख लेना तो लाओत्से का सूत्र तुम्हें सहज ही समझ में आ जाएगा कि जीवन में कुछ भी व्यर्थ नहीं है। अगर तुम्हें पता न चल रहा हो तो जल्दी मत करना।
बीस साल पहले तक शरीरशास्त्री, फिजियोलाजिस्ट कहते थे कि मनुष्य के मस्तिष्क का आधा हिस्सा बिलकुल बेकार है, किसी काम का नहीं। क्योंकि कुछ काम समझ में नहीं आता था। बहुत से शरीर के हिस्से शरीरशास्त्री यों ही काट देते हैं, सर्जन ऐसे ही अलग कर देता है, कि यह बेकार है। टांसिल का कोई उपयोग नहीं, निकालो, जितनी जल्दी बने निकाल डालो। जरा सी गड़बड़ हुई कि टांसिल अलग कर दो। एपेंडिक्स का कोई उपयोग ही नहीं है; काट कर फेंक दो।
लेकिन यह हो कैसे सकता है कि एपेंडिक्स है और बिना उपयोग के हो? नहीं तो होगी क्यों? अस्तित्व किसी चीज को किस लिए पैदा कर लेगा? जहां इतनी व्यवस्था है, जहां अस्तित्व इंच-इंच किसी बड़े गहन नियम के अनुसार चल रहा है, अस्तित्व कोई अराजकता नहीं है, जहां इतना सूक्ष्म तत्व मनुष्य का मन पैदा हो गया है, वहां कोई चीज अकारण होगी, व्यर्थ होगी?
हां, अगर अस्तित्व एक्सीडेंटल होता, सिर्फ एक संयोग मात्र होता, तो ठीक था।
लेकिन विज्ञान भी मानता है कि अस्तित्व संयोग मात्र नहीं है। अगर संयोग मात्र हो तब तो विज्ञान को बनाने का उपाय ही नहीं है फिर! कि संयोग का क्या भरोसा? विज्ञान तो जीता ही इस भरोसे पर है कि अस्तित्व एक गहन नियम से चल रहा है। उस नियम की खोज पर तो सारे विज्ञान का आधार है, कि हम उसको खोज लेंगे। तो बस सौ डिग्री पर पानी गरम होता है, यह नियम है। अगर यह संयोग हो तो पूना में हो जाए सौ डिग्री पर, बंबई में न हो। हिंदुस्तान में हो जाए कि चलो, यह धार्मिकों का देश है, सौ डिग्री पर हो जाओ; रूस में न हो, कि नास्तिकों के देश में तीन सौ डिग्री पर होंगे गरम। संयोग नहीं है। सौ डिग्री पर गरम होता है; नियम है। नियम की आस्था तो सारे विज्ञान का आधार है। और तुम विज्ञान से ज्यादा आस्थावान दूसरी कोई चीज न पाओगे। क्योंकि सारी आस्था इस पर है कि जगत दुर्घटना नहीं है, संयोग नहीं है, एक्सीडेंट नहीं है।
जब पूरा अस्तित्व एक किसी गहन नियम से चलता है तो मनुष्य के भीतर भी कुछ भी अकारण नहीं हो सकता। यह हो सकता है, हमें पता न हो। आज नहीं कल एपेंडिक्स का प्रयोजन पता चलेगा। आज नहीं कल टांसिल्स का प्रयोजन पता चलेगा।
मस्तिष्क का आधा हिस्सा बिलकुल निष्क्रिय पड़ा है। तो वैज्ञानिक बीस साल पहले तक कहता था, इसका कोई प्रयोजन नहीं है, एक्सीडेंटल है। लेकिन अब उसका प्रयोजन पता चलना शुरू हुआ है। इधर बीस वर्षों में जो खोज-बीन हुई है मस्तिष्क पर उससे पता चलता है कि जीवन में जितनी चमत्कारी बातें दिखाई पड़ती हैं उन सबमें उस मस्तिष्क के हिस्से का काम है जिसका हमें कोई अर्थ पता नहीं चलता। कोई आदमी दूसरे के विचार पढ़ लेता है, तब वह हिस्सा सक्रिय हो जाता है जो साधारणतया निष्क्रिय पड़ा है। या कोई आदमी, जैसे रूस में एक महिला है मिखालोवा, वह बीस फीट दूर की चीजों को भी प्रभावित कर देती है। बीस फीट दूर से खड़े होकर किसी चीज को हाथ से खींचना चाहे तो वह चीज सरकती हुई चली आती है। उस पर बड़े प्रयोग हुए हैं रूस में कि वह कैसे कर रही है! बहुत सी बातें जाहिर हुईं। एक बात खास जाहिर हुई कि जब वह यह करती है तब उसका वह मस्तिष्क का हिस्सा काम करता है जो साधारणतः काम नहीं करता।
तो इसका अर्थ यह हुआ कि जीवन में जो भी परा-मनोवैज्ञानिक, पैरा-साइकोलाजिकल घटनाएं हैं--वे सामान्य नहीं हैं, कभी-कभी कोई आदमी कर पाता है--वे सदा उस मस्तिष्क के हिस्से से होती हैं जो साधारणतः बेकार पड़ा है। उसको काट मत देना। क्योंकि उसमें ही तुम्हारी सारी परा-मनोवैज्ञानिक क्षमताएं छिपी पड़ी हैं। और आज नहीं कल हम उपाय खोज लेंगे कि ये परा-मनोवैज्ञानिक क्षमताएं भी सिखाई जा सकें और तुम्हारे मस्तिष्क का वह हिस्सा काम करने लगे।
कुछ आदिवासी जातियों में वह हिस्सा काम करता हुआ मालूम पड़ता है। तो आस्ट्रेलिया में एक छोटा सा कबीला है। वैज्ञानिक बड़े चकित हुए हैं कि उसका वह हिस्सा काम करता है। और जो हमारा हिस्सा काम कर रहा है वह उसका काम नहीं करता। मगर वह बड़ा चमत्कारी कबीला है। उसके बड़े गहरे अनुभव हैं जो कि समझ के बाहर हैं। उस कबीले के पास कोई भाषा नहीं है, कोई लिखने की लिपि नहीं है। लेकिन उस कबीले के गांव में बीच में वे एक वृक्ष लगाते हैं। उस वृक्ष का उपयोग वे मंदिर की तरह करते हैं। समझो कि किसी का बेटा शहर गया है कुछ खरीदने और बाप को बाद में याद आया कि मैं यह तो कहना भूल ही गया कि तुम फलां चीज खरीद लाना। तो वह उस वृक्ष के पास जाता है। उस वृक्ष के पास आंख बंद करके खड़ा हो जाता है। और बेटे को संदेश देता है बोल कर कि बेटा, यह चीज मैं भूल गया, तू यह और ले आना।
इस पर कोई दस साल से अध्ययन चल रहा है। और हर मौके पर बेटे को संदेश पहुंच जाता है। लेकिन उस वक्त यह भीतर का मस्तिष्क काम कर रहा है जो साधारणतः काम नहीं करता। उस जाति का वह मस्तिष्क बड़ी तीव्रता से काम कर रहा है।
इजरायल में एक आदमी है, ऊरी। वह दस फीट की दूरी से सिर्फ हाथ के इशारे से किसी भी चीज को तोड़-मरोड़ देता है। चम्मच रखी है दस फीट की दूरी पर, वह सिर्फ हाथ का इशारा करता है, चम्मच मुड़ कर गोल हो जाती है। ऐसे उसने हजारों प्रयोग किए। बड़ा, सबसे बड़ा चमत्कारी प्रयोग तो हुआ, लंदन में पिछले वर्ष टेलीविजन पर उसने यह दिखाया। टेलीविजन पर उसने दस-पचास चीजें टेबल पर रखी हुई दूर से खड़े होकर हाथ के इशारों से मरोड़ दीं, तोड़ दीं। जैसे कि साधारणतः तुम जिस चम्मच को हाथ से भी नहीं घुमा सकते उसे वह दूर से खड़े होकर घुमा देता। पर यह तो ठीक ही था, संयोगवशात एक और बड़ी घटना घटी कि जो लोग टेलीविजन देख रहे थे, उनके घर में कई चीजें तोड़ी-मरोड़ी हो गईं--हजारों। टेलीविजन देख रहे थे लाखों लोग, उनके घरों में, जैसे कि टेलीविजन बैठे देख रहे हैं और टेबल पर कोई गमला रखा है, वह एकदम बिना किसी कारण के आड़ा-तिरछा हो गया।
इस आदमी का वह मस्तिष्क काम कर रहा है जो साधारणतः काम नहीं करता। जिस दिन विज्ञान इसको ठीक से समझ लेगा उस दिन यह हमारा सबसे महत्वपूर्ण मस्तिष्क सिद्ध होने वाला है। संभवतः इसी मस्तिष्क में योग की, पतंजलि की सारी सिद्धियां छिपी हैं। शायद इसी मस्तिष्क को सक्रिय करने के सारे योग के साधन हैं, प्रक्रियाएं हैं। शायद ध्यान की गहनता में यही मस्तिष्क सबसे पहले सक्रिय हो जाता है, और चमत्कार शुरू हो जाते हैं।
मैं यह इसलिए कह रहा हूं, ताकि तुम्हें समझ में आ सके कि जीवन में कुछ भी अकारण नहीं है। तुम्हारा क्रोध, तुम्हारा लोभ, तुम्हारा मोह, कुछ भी अकारण नहीं है। उसका उपयोग करना है। अशुभ का भी उपयोग कर लेना है। तब अशुभ भी शुभ हो जाता है। और अगर तुमने शुभ का भी उपयोग न किया तो वह भी सड़ जाता है और अशुभ हो जाता है। जीवन की सारी कला एक बात में है कि कैसे जो तुम्हें मिला है उस सबको तुम एक लयबद्धता में बांध लो।
अब हम इस सूत्र को समझें।
‘एक बड़े देश की हुकूमत ऐसे करो जैसे कि एक छोटी मछली भूंजते हो। रूल ए बिग कंट्री एज यू वुड फ्राय ए स्माल फिश।’
छोटी मछली भूंजना एक कला है। बड़ा सावधान होना जरूरी है। क्योंकि मछली इतनी छोटी है कि अगर तुम जरा ही ज्यादा भूंज दो तो जल जाएगी। अगर जरा ही कम भूंजो तो कच्ची रह जाएगी। लाओत्से यह कह रहा है कि जीवन को शासित करना, अनुशासित करना, अपने या दूसरे के, बड़ा नाजुक मामला है--छोटी मछली भूंजने जैसा नाजुक। जरा अति हो गई कि भूल हो जाएगी। अतिशय से बचना।
एक ही चीज बचने जैसी है और वह है अति। और मन की पूरी वृत्ति ऐसी है कि वह अति पर जाना पसंद करता है। या तो तुम ज्यादा खाओगे या उपवास करोगे। या तो दिन भर होटल में बैठे हुए पाओगे या उरली कांचन चले जाओगे। बीच में न रुकोगे। या तो भोग में पागल रहोगे या त्याग में पागल हो जाओगे। बीच में न रुकोगे। घड़ी के पेंडुलम की तरह हो; या तो बाएं जाओगे या दाएं जाओगे; बीच में न ठहरोगे।
और लाओत्से कहता है, बीच में ठहर जाना ही वह नाजुक कला है। कभी अति पर मत जाओ। सभी अतियां गलत हैं। क्योंकि अति पर जाने का अर्थ ही यह हुआ कि तुम किसी चीज के विपरीत जा रहे हो।
अगर तुम्हारे मन में क्रोध है तो अति है कि तुम कसम खा लो कि मैं कभी क्रोध न करूंगा। अब यह अति हो गई। अब तुम क्रोध के दुश्मन होकर बैठ गए। जिसके तुम दुश्मन हो गए उसका उपयोग कैसे करोगे? जिससे झगड़ा मोल ले लिया अब तुम उसे संजोओगे कैसे? संगीत कैसे बनाओगे उसका? अब तो तुमने पीठ कर ली। अब तुमने एक अंग काटने की कसम खा ली। तुम पंगु हो जाओगे।
इसलिए धर्म के नाम पर कुछ लोग अंधे हो गए हैं, कुछ लोग लंगड़े होकर बैठे हैं, कोई लूला हो गया है, कोई बहरा हो गया है। धर्म के नाम पर लोग अंगों को काट रहे हैं; उनका उपयोग नहीं कर पा रहे हैं।
अति पर तुम गए कि विरोध शुरू हुआ। कामवासना जीवन में है; तुम ब्रह्मचर्य की कसम ले लो। फिर तुम मुश्किल में पड़ोगे। क्योंकि यह अति हो गई। और अति पर कोई भी ज्यादा देर तक नहीं रह सकता। घड़ी का पेंडुलम भी अति तक जाता है कि फिर लौटता है। मध्य में ही कोई सदा रह सकता है, लेकिन अति पर कोई सदा नहीं रह सकता। तुम कोशिश करो घड़ी के पेंडुलम पर कि एक कोने पर, अति पर वह रुक जाए। कैसे रुकेगा? हां, बीच में अगर रोक दो तो रुक सकता है। वहां शाश्वत विश्राम हो सकता है।
मध्य शाश्वत विश्राम है। अति, छोर तो परिवर्तन है। वहां से तो जाना पड़ेगा। सुख एक अति है; दुख एक अति है। इसीलिए तो ज्यादा देर तुम दुखी भी नहीं रह सकते, ज्यादा देर सुखी भी नहीं रह सकते। सुख भी आएगा और जाएगा। दुख भी आएगा और जाएगा। लेकिन अगर तुम दोनों के मध्य ठहर जाओ। उस मध्य के ठहरने को हमने शांति कहा है, संतोष कहा है। वह न सुख है, न दुख। वह दोनों के ठीक बीच में रुक जाना है। बड़ी नाजुक कला है। और जरा सा ही तुम मध्य से इधर-उधर हुए कि अड़चन शुरू हो जाएगी। इसीलिए तो ज्ञानी कहते हैं, खड्‌ग की धार है, रेजर्स एज; इधर गिरे तो कुआं है, उधर गिरे तो खाई है। मध्य में मार्ग है।
बुद्ध ने अपने मार्ग को नाम दिया है: मज्झिम निकाय, दि मिडल वे। और लाओत्से की सारी शिक्षा गोल्डन मीन, मध्य में रुक जाने की है। इसको वह कहता है, छोटी मछली को भूंजने की कला। जरा इधर-उधर हुए कि भटके। ठीक मध्य में रहे तो ही मछली बचेगी। तो ही ज्यादा न भुंजेगी, कम भुंजी न रहेगी।
‘जो संसार की हुकूमत ताओ के अनुसार चलाता है, उसे पता चलेगा कि अशुभ आत्माएं अपना बल खो बैठती हैं। यह नहीं कि अशुभ आत्माएं अपना बल खो देती हैं, लेकिन वे लोगों को कष्ट देना बंद कर देती हैं। इतना ही नहीं कि वे लोगों को हानि पहुंचाना बंद कर देती हैं, संत स्वयं भी लोगों की हानि नहीं करते।’
इस वचन को याद रख लेना। क्योंकि साधारणतः तुम्हें लगेगा, संत तो वही है जो किसी की हानि नहीं करता। और लाओत्से कह रहा है कि संत भी स्वयं लोगों की हानि नहीं करते। इसका मतलब है, संत से भी हानि की संभावना है।
अगर संत सज्जन हो तो हानि होगी। और सज्जन और संत में फासला करना बहुत ही मुश्किल है। छोटी मछली भूंजना भी आसान, संत और सज्जन में फासला करना बहुत मुश्किल है। अक्सर तो यह होगा कि सज्जन तुम्हें संत मालूम पड़ेगा और संत को तुम चूक जाओगे। क्योंकि अति दिखाई पड़ती है, मध्य दिखाई नहीं पड़ता। अति की उत्तेजना होती है, मध्य तो शांत होता है। मध्य तो ऐसे होता है जैसे है ही नहीं। अति में तो बड़ा शोरगुल होता है; मध्य में तो सब शांत हो गया होता है। सिर्फ मौन संगीत होता है। तुम संत को चूक जाते हो अक्सर, सज्जन को कभी नहीं चूकते। सज्जन को तुम महात्मा बना लेते हो; संत तुम्हें दिखाई ही नहीं पड़ेगा।
इसे थोड़ा ठीक से समझो। अपराधी भी दिखाई पड़ जाएगा। जो आदमी किसी की हत्या करेगा, बराबर दिखाई पड़ जाएगा। सज्जन भी दिखाई पड़ जाएगा। जो किसी को बचाने में अपनी हत्या करेगा, वह भी दिखाई पड़ जाएगा। लेकिन जो न किसी की हत्या करेगा न अपनी हत्या करेगा, वह तुम्हें कैसे दिखाई पड़ेगा? संत कोई ईवेंट नहीं है, वह कोई घटना ही नहीं है। इसलिए अखबार में उसकी खबर ही न छपेगी। दुर्जन की खबर छपेगी; सज्जन की छपेगी। कोई किसी की हत्या कर देगा तो छपेगी; कोई अस्पताल को दान दे देगा तो छपेगी। संत न किसी की हत्या करता है और न जाकर कोढ़ियों के पैर दबाता है। अखबार के बाहर रह जाता है। संत जैसे इतिहास के बाहर पड़ जाता है।
घटनाओं का जहां जाल है वहां तो अतियां हैं। हिटलर की खबर छपती है, गांधी की खबर छपती है। लाओत्से की क्या खबर छपनी है? लाओत्से होता भी है कि नहीं, इसका भी पक्का पता नहीं है। संत सदा संदिग्ध बने रहते हैं। बाद में भी लोग पूछते हैं, ऐसा आदमी हुआ? जब वह मौजूद होता है तब लोग उसे देख नहीं पाते, पहचान नहीं पाते। बाद में संदेह उठता है, क्योंकि इतिहास में कहीं उसकी कोई लकीर नहीं छूट जाती। दुर्जन भी बड़ी लकीर छोड़ता है।
एक आदमी ने कैलिफोर्निया में पिछले कुछ दिनों पहले नौ आदमियों की हत्या की। सारे अखबार अमरीका के उसकी हत्या की चर्चा से भर गए। सुर्खियां बड़े अक्षरों में। अदालत में जब उससे पूछा गया कि तुमने क्यों ये हत्याएं कीं? उसने कहा कि जिंदगी हो गई, मैंने कभी अपना नाम अखबार में नहीं देखा। ऐसे ही गुजर जाएं? इन आदमियों से मुझे कोई विरोध न था। इनमें से कुछ को तो मैं जानता ही नहीं कि वे कौन हैं, क्योंकि मैंने पीठ के पीछे से गोली मारी है। तो मुझे चेहरे का भी कोई पता नहीं है। लेकिन अखबार में बिना छपे नहीं मरना चाहता था।
जैसे पानी की प्यास लगती है, ऐसे अखबार में छपने की छपास लगती है। बुरा आदमी छपता है। इसीलिए तो राजनीतिज्ञों से भरा रहता है अखबार। क्योंकि इनसे ज्यादा दुर्जन तुम खोज न सकोगे। सज्जनों की भी खबर छपती है। कोई दान करता, कोई बड़ा मंदिर बनाता, कोई अस्पताल खड़ा करता, कोई कालेज-स्कूल खोलता, उसकी भी खबर छपती है। लेकिन संत की खबर छपने का कोई कारण नहीं है।
संत बिलकुल अकारण है। वह पानी पर खींची लकीर जैसा है; कुछ पीछे बनता नहीं। लाओत्से ने कहा है, संत ऐसा है जैसे पक्षी आकाश में उड़ते हैं, चिह्न नहीं छूट जाते। पक्षी उड़ गया; आकाश खाली का खाली रह जाता है। पीछे लोग खोज-बीन करते हैं कि यह आदमी हुआ भी!
लाओत्से अभी तक संदिग्ध है। अभी तक इतिहासज्ञ राजी नहीं हैं कि यह आदमी हुआ। और संत के पास लोगों पर जो प्रभाव भी पड़ता है वह प्रभाव इतना काव्यात्मक होने वाला है--क्योंकि संत एक संगीत है, उसका प्रभाव भी एक काव्य है--उस काव्य के कारण वह पुराण जैसा लगेगा, इतिहास जैसा कभी नहीं लगेगा।
समझने की कोशिश करो। लाओत्से को प्रेम करने वाले लोगों ने लिखा है कि लाओत्से बूढ़ा ही पैदा हुआ। अब यह कहीं होता है? यह तो बात पागलपन की हो गई। अस्सी साल का पैदा हुआ। अस्सी साल मां के गर्भ में रहा। और जब पैदा हुआ तो उसके बाल सफेद थे--हिमश्वेत। एक भी बाल काला नहीं था। अब यह तो अपने हाथ से लाओत्से को बाहर फेंकना है इतिहास के। ऐसा तो कहीं होता नहीं। लेकिन यह काव्य है, यह मिथ है, पुराण है। और लाओत्से जैसे व्यक्ति के जीवन में इतना अंतर-संगीत है कि उसका प्रभाव भी काव्य में ही पड़ता है। मानने वाले यह कह रहे हैं कि लाओत्से जन्म के साथ ही बोधपूर्वक जीया। इसलिए बूढ़ा है। अधिक लोग तो बचकाने ही मर जाते हैं। इसमें हमें कोई अड़चन नहीं है। अस्सी साल का आदमी भी बचकाना ही मरता है।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने मनोचिकित्सक के पास जाकर कह रहा था कि अब आपको कुछ करना पड़े। यह जरा जरूरत से ज्यादा हुआ जा रहा है। मेरी पत्नी टब में बैठ कर रबर की बतख से घंटों खेलती रहती है। रोकिए! मनोचिकित्सक ने कहा कि इसमें कुछ ऐसा चिंतित होने का कारण नहीं है। अगर खेलती भी रहे तो बतख से ही खेलती है; किसी का कुछ नुकसान भी नहीं कर रही, कोई हानि भी नहीं कर रही। और पत्नी अगर बतख से खेल रही है तो घर में भी शांति रहेगी, तुम भी चैन में रहोगे। इसमें हर्ज क्या है? यह तो बहुत बेहतर ही है। जिनकी पत्नियां नहीं खेलती हैं, उनको भी खेलना सिखाना चाहिए। इससे तुम चिंतित मत होओ। यह तो बिलकुल इनोसेंट है, ि
नर्दोष बात है। खेलने दो। नसरुद्दीन ने कहा, कैसे खेलने दो? मुझे खेलने का वक्त ही नहीं मिलता। चौबीस घंटे बतख लिए बैठी है। तो हम कब खेलें?
अस्सी साल के भी हो जाओ तो भी खिलौनों का ही तो खेल चलता है। खिलौनों के बाहर कहां हो पाते हो? धन-संपत्ति खिलौना है। यश-पद-प्रतिष्ठा खिलौना है। खिलौने का मतलब समझते हो? खिलौने का मतलब जो खेल में उलझाए रहे, उलझाए रखे। खिलौने का मतलब है जो खेल में लगाए रखे। तो जिन-जिन खेलों में तुम्हें जो-जो चीजें लगाए रखी हैं वे सब खिलौना हैं। कोई राजनीति के खेल में लगा है तो राजनीति खिलौना है। तो जिंदगी भर दिल्ली जाने में लगी है बिना इस बात की फिक्र किए कि दिल्ली पहुंच कर करना क्या है। यह पहुंच कर ही सोचेंगे, क्योंकि फुरसत भी नहीं है सोचने की। पहुंच कर ही पता चलता है, पहुंच गए, अब करने को क्या है? अब पीछे लौटते जाते भी नहीं बनता, क्योंकि नाहक बदनामी होगी। अब पूंछ कट गई। अब पीछे जाकर भी लोगों को क्या बताएंगे? तो पहले लोग दिल्ली जाने की कोशिश में लगे रहते हैं, फिर दिल्ली में अड़े रहने की कोशिश में लगे रहते हैं कि अब यहां से जाना कैसे! अब कट गई पूंछ तो अब यहां टिके रहो, बताए रहो कि सब ठीक है, बड़ा आनंद आ रहा है। खेल चल रहे हैं बुढ़ापे तक।
तो इसको तो मानने में हमें कोई अड़चन नहीं है कि आदमी बचकाना ही मर गया। इससे उलटी घटना घटी है लाओत्से के जीवन में कि वह बचकाना कभी था ही नहीं; चाइल्डिश, बचकाना कभी भी न था। बूढ़ा ही पैदा हुआ। बड़ा काव्यपूर्ण वक्तव्य है। लेकिन इतिहास में कैसे इसे जमाओगे? इसको जमाना मुश्किल है। इसको इतिहास में बिठाना मुश्किल है।
जो मध्य में जीता है वह संगीत में जीता है। उसका प्रभाव भी पड़ता है तो प्रभाव भी बड़ा सपनीला, बड़ा काव्यात्मक, जैसे एक झोंका आया, फूल की एक सुगंध आई और चली गई, और फिर तुम याद करते रह गए। लेकिन फूल की सुगंध किसी को बताओ भी तो कैसे बताओ? और लाओत्से जैसे फूल कभी-कभी खिलते हैं, आकाश-कुसुम की भांति, पृथ्वी के फूल नहीं हैं। इसलिए उनकी सुगंध की याद जिन पर छूट जाती है वे गीत गाते हैं, नाचते हैं, उत्सव मनाते हैं, लेकिन बता नहीं पाते कि हुआ क्या है। मदमस्त हो जाते हैं।
इस सारी बात के पीछे कारण है कि संत मध्य में जीता है। नहीं तो इतिहास में कोई परिणाम छोड़ जाएगा।
‘जो संसार की हुकूमत ताओ के अनुसार चलाता है, उसे पता चलेगा कि अशुभ आत्माएं अपना बल खो बैठती हैं।’
जो अशुभ है, जो हमारे भीतर बुराई है, जिसको शैतान कहें, जिसको लाओत्से अशुभ आत्मा कह रहा है, इसका बल खो जाता है। इसका यह अर्थ नहीं है कि इसकी ऊर्जा खो जाती है। इसका इतना ही अर्थ है कि इसका बल रूपांतरित हो जाता है। ऊर्जा तो शेष रहती है, क्योंकि ऊर्जा कभी नष्ट नहीं होती। संसार में कुछ भी नष्ट नहीं होता, सिर्फ बदलता है, रूपांतरित होता है। रूप बदलते हैं, ऊर्जा कभी नष्ट नहीं होती। ऊर्जा तो बनी रहती है, लेकिन लोगों को कष्ट देना बंद कर देती है।
‘इतना ही नहीं कि लोगों को हानि पहुंचाना बंद कर देती है...।’
वह जो अशुभ चेतना के प्रभाव में या अशुभ के प्रभाव में पड़ी हुई आत्मा है वह लोगों को नुकसान करना बंद कर देती है, इतना ही नहीं।
‘संत स्वयं भी लोगों की हानि नहीं करते।’
संत ऐसे जीता है जैसे नहीं है; हवा के झोंके की तरह जीता है। तुम्हारे पास से भी गुजर जाता है, तुम्हें याद भी आती है, स्पर्श भी होता है, अनुभव भी होता है, लेकिन अदृश्य। तुम पर आक्रामक नहीं, तुम्हें बदलने को आतुर नहीं। तुम्हें अच्छा बनाने की भी चेष्टा नहीं है संत की, क्योंकि अक्सर होता है तुम्हें अच्छा बनाने की चेष्टा में ही तुम बुरे हो जाते हो। क्योंकि तुम्हारे अहंकार को वह चेष्टा भी बाधा डालती है।
किसी को भूल कर अच्छा बनाने की कोशिश मत करना। और अगर कोशिश की और वह बुरा हो जाए तो अपने को जिम्मेवार समझना। लोग सोचते हैं, हमने इतनी कोशिश की, फिर यह आदमी अच्छा न हो पाया! असलियत उलटी है। तुम्हारी इतनी कोशिश के कारण ही हो गया।
अच्छे बाप के घर बुरे बेटे पैदा होते हैं, क्योंकि अच्छा बाप बड़ी कोशिश करता है बेटे को अच्छा बनाने की। अपने से ऊंचा न जा सके तो कम से कम अपने तक तो हो जाए। यह कोशिश इतनी ज्यादा हो जाती है कि बेटे के लिए फंदे जैसी लगने लगती है। बेटे की अस्मिता को चोट पहुंचती है। बेटा इस बाप की अगर माने तो मुर्दा हो जाएगा। आज्ञा तोड़नी जरूरी है। बाप से विपरीत जाना जरूरी है। क्योंकि विपरीत जाकर ही बेटे अपने अस्तित्व को अनुभव करेंगे। यह अनिवार्य है।
जैसे मां के पेट के बाहर बच्चा जाएगा, यह जरूरी है नौ महीने के बाद। जाना ही चाहिए। जिस दिन मां के पेट के बाहर बच्चा जाता है उस दिन दूर जाने की प्रक्रिया शुरू हुई। यह चलती रहेगी। फिर जिस दिन बेटा पड़ोस के बच्चों के साथ खेलने लगेगा, वह मां से और दूर गया। मां बड़ी कोशिश करेगी कि किसी के साथ खेलने न जाने दे, घर में ही बंद रख ले। लेकिन फिर बेटा बड़ा कैसे होगा? उसका अहंकार कैसे निर्मित होगा? फिर बेटा स्कूल जाएगा, और दूर गया। फिर हॉस्टल में रहने लगेगा, और दूर गया। फिर किसी एक स्त्री के प्रेम में पड़ जाएगा। उस दिन, उस दिन गर्भ से जो काम शुरू हुआ था, पूरा हुआ। अब वह खुद ही गर्भ देने के योग्य हो गया, प्रक्रिया पूरी हो गई।
और जिस दिन बेटा किसी स्त्री के प्रेम में पड़ता है, मां कितना ही उत्सव मनाए, भीतर दुखी और पीड़ित होती है। इसीलिए तो मां-बाप प्रेम को बिलकुल बरदाश्त नहीं करते। विवाह को बरदाश्त कर लेते हैं, प्रेम को बरदाश्त नहीं करते। क्योंकि विवाह के आयोजक वे ही होते हैं, प्रेम का आयोजन बेटा खुद कर लेता है। उसका मतलब वह बिलकुल इतनी दूर चला गया कि जीवन की इतनी गहनतम बात का भी निर्णय खुद ले रहा है। उस संबंध में भी बाप से पूछने नहीं आया। प्रेम को स्वीकार करना बाप को कठिन पड़ता है।
मुल्ला नसरुद्दीन की लड़की एक अभिनेता के प्रेम में पड़ गई। जैसा कि अक्सर लड़कियां पड़ जाती हैं; फिर पछताती हैं, क्योंकि अभिनेता यानी अभिनेता। बाप को आकर कहा, डरते हुए कहा। मुल्ला नसरुद्दीन ने सुन कर कहा कि बकवास बंद! अभिनेता? ये लुच्चे-लफंगे? इनके साथ प्रेम? जिंदगी खराब करनी है? पर उस लड़की ने कहा, पापा, मेरा प्रेम हो गया है। उसने कहा, छोड़, प्रेम-व्रेम से क्या लेना-देना? जिंदगी भर का सवाल है। यह मैं कभी बरदाश्त न करूंगा। तू कोई भी खोज ले अभिनेता को छोड़ कर।
लेकिन बेटी पीछे ही लगी रही। आखिर धीरे-धीरे बाप को उसने फुसलाना शुरू कर लिया। गांव में नाटक कंपनी आई जिसमें वह लड़का अभिनेता था। तो बेटी ने नसरुद्दीन को राजी कर लिया कि आप एक दफा देख तो लें उसको चल कर। नसरुद्दीन ने अभिनय देखा। अभिनय के पूरे होने पर लड़की से कहा कि नहीं, लड़का अच्छा है, देख-दिखाव भी अच्छा, व्यक्तित्व शानदार, प्रभावशाली। तू शादी कर सकती है; लड़का मुझे पसंद आ गया। और जिस बात से मुझे अड़चन थी वह अब न रही। क्योंकि उसके अभिनय से पक्का मुझे भरोसा आ गया कि यह कोई अभिनेता नहीं है। उसके अभिनय से मुझे पक्का भरोसा आ गया कि यह कोई अभिनेता नहीं है। तू कर सकती है शादी।
मैंने नसरुद्दीन को पूछा कि यह तुमने क्या किया? उसने कहा, बाप की इज्जत भी तो बचानी पड़ती है। अब जब बात इस सीमा तक चली गई कि लौटने का उपाय ही नहीं दिखता तो आज्ञा देना ही उचित है।
प्रेम की आज्ञा भी बाप तभी देता है, मां तभी देती है, जब बात इस सीमा तक पहुंच गई कि लौटने का कोई उपाय ही नहीं है। बेमर्जी से ही देता है। क्योंकि यह आखिरी टूट है। अब यह बेटी, यह बेटा किसी और का हो गया। मगर यह जरूरी है।
मां तो चाहेगी कि बेटा कभी किसी के प्रेम में न पड़े। ऐसी भी मां हैं जो इतना दबा देती हैं गर्दन को कि बेटा किसी के प्रेम में पड़ ही नहीं सकता। पर उन्होंने मार डाला। उन्होंने हत्या कर दी। उन्होंने जन्म न दिया, मौत दे दी।
इसीलिए तो सास और बहू की कलह शाश्वत है। उससे बचने का कोई उपाय नहीं दिखता। क्योंकि मां अकेली अधिकारिणी थी प्रेम की। फिर अचानक एक अजनबी औरत को यह लड़का घर ले आया, जिसका न कोई पता-ठिकाना, न कोई हिसाब। कल की अजनबी और अचानक पूरे हृदय पर काबू कर लिया उसने! और जिस बेटे को मैंने जन्म दिया--मां सोचती है--वह मेरा न रहा, और एक दूसरी औरत का हो गया! यह कलह बड़ी गहरी है।
भला करने की भी अतिशय कोशिश बुरे में ले जाएगी। क्योंकि बेटे को अहंकार, बेटी को अपना अहंकार निर्मित करना जरूरी है। प्रकृति चाहती है कि वे व्यक्ति बनें। और व्यक्ति बनने का उनके पास एक ही उपाय है कि वे आज्ञा तोड़ें। इसलिए बेटों को इस तरह की आज्ञा देना जिनको वे तोड़ भी सकें और उनका कोई नुकसान भी न हो। यह बड़ी नाजुक कला है। बेटे को ऐसी कुछ आज्ञाएं जरूर देना जिनको वह तोड़ सके, और तोड़ कर उसका अहंकार निर्मित हो सके, लेकिन उनको तोड़ने में वह बर्बाद न हो जाए।
बच्चों को जन्म देना बहुत आसान, मां-बाप बनना बहुत कठिन है।
लाओत्से कहता है, ‘संत भी लोगों की हानि नहीं करते।’
वह तभी होता है जब शुभ-अशुभ दोनों संगीत को उपलब्ध हो जाते हैं। तब संत चेष्टा नहीं करता किसी को बदलने की, पर उसकी निश्चेष्टा में ही दूसरे बदलते हैं। वह किसी की गर्दन को नहीं जकड़ लेता, लेकिन उसकी मौजूदगी में, उसकी हवा में लोग बदलते हैं। वह किसी को बदलने नहीं जाता, लेकिन परोक्ष, उसका होना ही, लोगों के लिए परिवर्तन का कारण हो जाता है।
इसी को तो लाओत्से कहता है, बिना किए करने की कला। संत तो सिर्फ एक दीए की भांति है, जिसकी रोशनी में तुम्हें चीजें दिखाई पड़ने लगती हैं। और तुम खुद ही अपने को बदलने में लग जाते हो। क्योंकि जब तुम्हें दिखाई पड़ता है मार्ग तो तुम कब तक भटकोगे?
मगर दो तरह के लोग हैं दुनिया में। बड़ी पुरानी सूफी कथा है कि एक मूढ़ और एक ज्ञानी एक जंगल से गुजरते थे। दोनों रास्ता भूल गए थे। बिजली चमकी। बड़ी प्रगाढ़ बिजली थी। अंधकार क्षण भर को कट गया। मूढ़ ने आकाश में बिजली को देखा। ज्ञानी ने नीचे रास्ते को देखा। मूढ़ ने जब बिजली चमकी तो ऊपर देखा। जब बिजली चमकी तो ज्ञानी ने नीचे देखा। उस नीचे देखने में रास्ता साफ हो गया।
जब कभी तुम किसी संत के पास रहो, नीचे देखना, अपने पैरों के पास देखना। क्योंकि उसकी रोशनी वहां पड़ रही है। संत के चेहरे को देखने से कुछ भी न होगा; उसका चेहरा कितना ही मनमोहक हो। संत के शब्दों से प्रभावित होने से कुछ भी न होगा; उसके शब्द कितने ही गहरे हों। संत की महिमा को गाने से कुछ भी न होगा; उसकी महिमा कितनी ही ऊंची हो। जब तुम संत के करीब जाओ तो अपने पैरों के पास नीचे देखना। क्योंकि संत एक चमकती हुई कौंध है। अगर तुम समझदार हो तो तुम अपने रास्ते को खोज लोगे। और अगर नासमझ हो तो या तो तुम संत के पक्ष में हो जाओगे उसके चेहरे को देख कर, शब्दों को सुन कर, उसके व्यक्तित्व के प्रभाव में या विपक्ष में हो जाओगे। दोनों मूढ़ताएं हैं। ज्ञानी नीचे देख कर अपने रास्ते को समझ लेता है। संत के पास एक रोशनी है। और अगर तुम्हें दिखाई पड़ जाए रास्ता तो तुम कब तक उससे भटकोगे? भटकते हो, क्योंकि दिखाई नहीं पड़ता है। भटकते हो, क्योंकि आंखें अंधेरे से भरी हैं।
और ध्यान रखना अपने जीवन में भी कि कभी किसी दूसरे को बदलने की चेष्टा मत करना। उलटे परिणाम आएंगे। तुम जो चाहोगे उससे उलटा हो जाएगा। अगर किसी को बदलना चाहते हो तो बदलने की कोशिश ही मत करना। सिर्फ अपने को वैसा बना लेना जैसा तुम चाहते हो कि दूसरा बने; बस। फिर अगर तुम्हारे माधुर्य से ही, तुम्हारी मौजूदगी से कुछ हो जाए हो जाए, न हो न हो। प्रत्यक्ष चेष्टा घातक है, हिंसात्मक है। परोक्ष इशारा बहुमूल्य है।
‘और जब दोनों एक-दूसरे की हानि नहीं करते--न शुभ अशुभ की हानि करता है, न अशुभ शुभ की--तब मौलिक चरित्र स्थापित होता है। व्हेन बोथ डू नाट डू ईच अदर हार्म दि ओरिजिनल कैरेक्टर इज़ रिस्टोर्ड।’
वही चरित्र वास्तविक चरित्र है, जब तुम्हारे भीतर न शुभ को अशुभ हानि पहुंचाता है, न शुभ अशुभ को हानि पहुंचाता है। जब तुम्हारे भीतर क्रोध और करुणा में कोई संघर्ष नहीं, काम और ब्रह्मचर्य में कोई विरोध नहीं, बुरे और भले का संघर्ष बंद हो जाता है, जब तुम्हारे भीतर राम और रावण गले में हाथ डाल कर आलिंगनबद्ध खड़े होते हैं, तभी तुम्हारा मौलिक चरित्र, तुम्हारा स्वभाव जो द्वंद्व के अतीत है, जो दुई के बाहर है, जो द्वैत के पार है, जो अद्वैत है, उसकी पहली झलक, उसकी कली खिलनी शुरू होती है, उसका फूल बनना शुरू होता है। अकेले राम तुम अधूरे हो, अकेले रावण तुम अधूरे हो; कथा चलेगी, लेकिन तुम पूरे न हो पाओगे।
हिंदू बहुत ही इस गणित में कुशल हैं। इसलिए राम को उन्होंने पूर्णावतार नहीं कहा; कृष्ण को कहा। क्योंकि कृष्ण में राम और रावण दोनों संयुक्त हो गए हैं। कृष्ण में बुराई भी है, भलाई भी है, और दोनों के बीच एक तालमेल है। कृष्ण से ज्यादा बेईमान आदमी न खोज सकोगे। ईमानदार भी खोजना मुश्किल है। वचन दे और तोड़ दे। कहा युद्ध में अस्त्र न उठाऊंगा और उठा लिया। यह कोई भरोसे का आदमी नहीं है। अगर तुम न समझो तो कृष्ण तुम्हें अवसरवादी मालूम पड़ेंगे। और अगर तुम समझो तो तुम्हें परम संत का दर्शन कृष्ण में हो जाएगा। क्योंकि कृष्ण क्षण-क्षण जीते हैं, और समग्रता से जीते हैं। क्षण का यथार्थ जो पैदा करवा देता है उसी को जी लेते हैं। कृष्ण में राम और रावण का मेल हो गया है। और इसीलिए कृष्ण को हिंदुओं ने पूर्णावतार कहा है। राम अधूरे हैं।
दो दिन पहले ही कोई मुझसे पूछता था। जो पूछता था व्यक्ति वे रामचरित मानस के कथा-वाचक हैं। तो वे मुझसे पूछते थे कि आप राम पर क्यों नहीं बोलते? तो मैंने कहा कि मुझे राम में ज्यादा रस नहीं है। उनको बड़ी चोट लगी होगी। पूछने लगे, क्यों रस नहीं है? मैंने कहा, यह जरा लंबी बात है। रस इसीलिए नहीं है कि राम अधूरे हैं। और कृष्ण में मुझे रस है, क्योंकि कृष्ण पूरे हैं।
और पूरा आदमी बेबूझ होगा। क्योंकि उसमें बुराई-भलाई दोनों का ऐसा सम्मिलन होगा कि तुम पहचान ही न पाओगे कि क्या बुरा है और क्या भला। पूरा आदमी अनूठा होगा; पकड़ मुश्किल हो जाएगी।
राम को पकड़ना आसान है। इसलिए लोग राम के भक्त हैं। इसलिए राम का बड़ा व्यापी प्रभाव पड़ा। कृष्ण का अगर कोई भक्त भी है तो वह भी चुनाव करता है; पूरे कृष्ण को नहीं मानता वह। कुछ हैं जो गीता के कृष्ण को मानते हैं; उनको भागवत का कृष्ण पसंद नहीं पड़ता। कुछ हैं जो कृष्ण के बाल-चरित्र को मानते हैं; उनका युवा चरित्र पसंद नहीं पड़ता।
सूरदास को युवा चरित्र पसंद नहीं है। बच्चा लड़कियों के साथ छेड़खानी करे, चल सकता है; जवान आदमी छेड़खानी करे, बरदाश्त के बाहर है। तो सूरदास के कृष्ण बालक ही बने रहते हैं। वे पैरों में घुंघरू बांध कर ही चलते रहते हैं। उनके पांव की पैजनियां बजती रहती है। उससे बड़ा नहीं होने देते वे उनको। क्योंकि उससे बड़ा हुआ तो यह आदमी खतरनाक है। बालक को हम पसंद कर लेते हैं। छोटा बच्चा अगर कपड़े चुरा कर चढ़ जाए स्त्रियों के वृक्ष पर तो कोई ऐसी बड़ी एतराज की बात नहीं है। लेकिन जवान? तो फिर जरा अड़चन शुरू होती है। हमारी नीति को बाधा आनी शुरू होती है। तो यह हम रावण में तो बरदाश्त कर सकते हैं, लेकिन कृष्ण में कैसे बरदाश्त करेंगे?
इसलिए हमने अशुभ को और शुभ को बिलकुल अलग-अलग कर रखा है। और ध्यान रखना, जिंदगी में दोनों इकट्ठे हैं। और जिंदगी का पूरा राज उसी ने जाना जिसने दोनों को साथ जी लिया। जिंदगी की आखिरी ऊंचाई उसी की है जिसने पूरे जीवन को जीया--बिना चुनाव किए, बिना काटे। कठिन तो जरूर है।
राम का जीवन आसान है, क्योंकि एकंगा है, साफ-सुथरा है, गणित पक्का है। जो-जो ठीक-ठीक है वह-वह करना है। जो गैर-ठीक है, बिलकुल नहीं करना है। रावण का जीवन भी साफ-सुथरा है। दोनों के गणित सीधे हैं। उलझन है कृष्ण के जीवन में। वहां गणित खो जाता है और पहेली निर्मित होती है। वहां साफ-सुथरापन विलीन हो जाता है और रहस्य का जन्म होता है। क्योंकि वहां सभी द्वंद्व एक साथ हो गए; सभी द्वैत मिल गए। कृष्ण अद्वैत हैं।
लाओत्से को अगर तुम्हें समझना हो तो लाओत्से उस परम बिंदु की तरफ इशारा कर रहा है। उसको वह कहता है मौलिक चरित्र। तुम्हारा स्वभाव उसी दिन प्रकट होगा जिस दिन राम और रावण तुम्हारे भीतर आलिंगनबद्ध हो जाएं। यह बहुत कठिन है। इससे कठिन और कुछ भी नहीं। लेकिन इसे बिना किए जीवन की निष्पत्ति नहीं होती। जब तक यह घटित न हो जाए तब तक तुम अधूरे रहोगे और बेचैन रहोगे। पूरे होने की बेचैनी है। अधूरा कभी भी चैन को उपलब्ध नहीं हो सकता। यह तुम्हारा वर्तुल आधा न रहे, पूरा हो जाए, कि फिर परम चैन शुरू हो जाता है।

आज इतना ही।

Spread the love