MEDITATION

Suno Bhai Sadho 10

Tenth Discourse from the series of 20 discourses - Suno Bhai Sadho by Osho. These discourses were given in KKB during NOV 11-20 1974.
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मन मस्त हुआ तब क्यों बोले।

हीरा पायो गांठ गठियायो, बार-बार बाको क्यों खोले।
हलकी थी तब चढ़ी तराजू, पूरी भई तब क्यों तोले।।

सुरत कलारी भई मतवारी, मदवा पी गई बिन तोले।
हंसा पाए मानसरोवर, ताल-तलैया क्यों डोले।।

तेरा साहिब है घट मांही, बाहर नैना क्यों खोले।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, साहिब मिल गए तिल ओले।।
बुद्ध को ज्ञान हुआ, उसके बाद वे दो सप्ताह तक चुप रहे। कथाएं कहती हैं कि सारा अस्तित्व खिन्न हो गया, उदास हो गया। और देवताओं ने आकर उनके चरणों में प्रार्थना की कि आप बोलें, चुप न हो जाएं; क्योंकि बहुत-बहुत समय में कभी मुश्किल से कोई बुद्धत्व को उपलब्ध होता है। और करोड़ों आत्माएं भटकती हैं, प्रकाश के लिए। वह प्रकाश आपको मिल गया है; उसे छिपाएं मत, उसे दूसरों को बताएं, ताकि दूसरे अपने अंधेरे मार्ग को आलोकित कर सकें। जो खोज लिया है, उसे अपने साथ मत डुबाएं, उसे दूसरों के साथ बांट लें, ताकि उन्हें भी कुछ स्वाद मिल सके। चुप न हों, बोलें!
कहते हैं, बुद्ध ने कहा: अगर बोलूंगा, तो जो मैं कहूंगा वह समझ में न आएगा। इसलिए चुप रह जाना ही उचित है। क्योंकि जो भी मैं बोलूंगा वह दूसरे ही लोक का होगा। और उसका कोई स्वाद न हो तो समझ में न आएगा। अनुभव के सिवाय समझ का कोई और मार्ग नहीं है; इसलिए चुप रह जाना ही उचित है।
पर देवताओं ने फिर आग्रह किया और कहा कि कुछ की समझ में आएगा। थोड़ा सा भी धक्का लगा उस यात्रा पर--न भी समझ में आया, थोड़ा सा रस पैदा हुआ, थोड़ा सा कुतूहल जगा, जिज्ञासा जन्मी, मुमुक्षा पैदा हुई--तो भी उचित है।
बुद्ध ने कहा: जो सच मैं जिज्ञासु हैं वे स्वयं ही खोज लेंगे, उन्हें कुछ कहने की जरूरत नहीं; और जो जिज्ञासु नहीं हैं; वे सुनेंगे ही नहीं; उन्हें कहने में कुछ सार नहीं।
लेकिन देवताओं के सामने बुद्ध हारे, क्योंकि देवताओं ने कहा कि कुछ ऐसे हैं, जो बिलकुल सीमांत पर खड़े हैं। अगर न सुनेंगे तो खोजने में बहुत समय लग जाएगा; अगर सुन लेंगे तो छलांग लग जाएगी। और फिर वे सुनें या न सुनें, जो आपने पाया है आप बांटें।
क्योंकि करुणा प्रज्ञा की छाया है। जो जान लेगा वह महाकरुणा से भर जाएगा। वह इसलिए नहीं बोलता कि बोलना उसकी कोई मजबूरी है। हमारे बोलने और उसके बोलने में फर्क है। हम बोलते हैं इसलिए कि बिन बोले नहीं रह सकते। बिना बोले रहेंगे तो बड़ी बेचैनी होगी। बोलना हमारा रेचन है, कैथार्सिस है। बोल लेते हैं, निकल जाता है।
इसलिए तो लोग अपने दुख की चर्चा करते रहते हैं। क्योंकि जितनी दुख की चर्चा कर लेते हैं, उतना दुख हलका हो जाता है। जितनी बात कर लेते हैं, उतना बिखर जाता है। न बात करने को मिले कोई, तो दुख भीतर-भीतर इकट्ठा होगा, घाव बनेगा।
मनस्विद कुछ भी नहीं करते, सिर्फ बीमारों की बात सुनते हैं। सुन-सुन कर ही उन्हें ठीक कर देते हैं। सुनने से मन हलका हो जाता है। जो बोल लेता है, वह खाली हो जाता है।
हम बोलते हैं इसलिए कि बोलना हमारी रुग्ण-दशा में जरूरी है, अन्यथा हम जी न सकेंगे। कुछ भी न बोलने को हो, तो हम व्यर्थ की बातें बोलते हैं। कहते हैं, मौसम कैसा है! वह दूसरे को भी दिखाई पड़ रहा है, हमको भी दिखाई पड़ रहा है। सुंदर सूरज उगा है! दूसरे के पास भी आंखें हैं, कहने की कोई जरूरत नहीं।
ऐसा हुआ कि एक सम्राट ने अपने वजीर को कहा कि मैं जानना चाहता हूं, कि इस राजधानी में अंधे कितने हैं, तुम उनकी गिनती करो।
वजीर ने कहा: सचमुच अंधों को जानना चाहते हैं या सिर्फ जिनकी आंखें बंद हैं, उनको?
सम्राट ने कहा: सचमुच जो अंधे हैं! ... क्या मतलब है? फर्क है क्या दोनों बातों में?
उस वजीर ने कहा कि अंधों का पता लगाना हो तो गांव के वैद्य ही खबर दे देंगे, अस्पताल से पता चल जाएगा। वह कोई कठिन बात नहीं है। लेकिन, अगर सच में अंधे जानने हों तो जरा मुश्किल है। समय चाहिए।
वजीर दूसरे दिन सुबह जाकर बाजार में बैठ गया! उसने आस-पास जूते फैला लिए। जूते सीने लगा, ठोकने लगा! जो भी आदमी निकला, वही पूछे, क्या कर रहे हैं? वह उसका अंधे में नाम लिख ले। क्योंकि जो वह कर रहा है, वह देख ही रहा है। पूछना क्या है--क्या कर रहे हैं! खुद सम्राट तक का नाम अंधों में आ गया। क्योंकि सम्राट भी जब निकला दोपहर में तो उसने पूछा, यह क्या कर रहे हो? उसने तत्क्षण नाम लिख लिया। जब फेहरिस्त आई तो बहुत लंबी थी। सिर्फ कुछ बच्चों को छोड़ कर, जो उधर से निकले थे और उन्होंने जरा भी फिकर न की और न पूछा, बाकी सभी अंधे थे।
अगर कोई हमारी बातचीत पर ध्यान दे तो बहुत हैरान होगा। हम वे बातें कर रहे हैं जिनका कोई भी अर्थ नहीं है। जो दूसरे को भी दिखाई पड़ रहा है, वह हम दिखा रहे हैं। जो दूसरे को भी पता है, वह हम बता रहे हैं। जो दूसरे ने भी सुन लिया है, वह हम सुना रहे हैं। जो दूसरे ने भी पढ़ लिया है, वह हम समझा रहे हैं। हम क्या कर रहे हैं? और दूसरा हमें बर्दाश्त कर रहा है--सिर्फ इस आशा में कि थोड़ी देर बाद जब हम चुप होंगे तो वह भी अपना रेचन करेगा। हम बैठे रहते हैं तब तक, सुनते रहते हैं तब तक, जब तक हमें मौका न मिले। बस मौके की बात है। जब हम सुनते हैं, हम सुनते नहीं--क्योंकि हम बोलने को तैयार हैं। दूसरा भी तुम्हें जब सुनता है, सुनता नहीं--वह भी बोलने को तैयार है। हम सब बोलने वाले हैं, सुनने वाला कोई है ही नहीं।
अगर तुम दो आदमियों की बातें बड़े साक्षीभाव से सुनो तो तुम हैरान होओगे, वह एकालाप है, वार्तालाप नहीं! वे एक-एक अपने-अपने से बोल रहा है। दोनों सिर्फ जुड़े हुए मालूम पड़ते हैं। वह बहाना है। तुम कोई शब्द चुन लेते हो दूसरे की बातचीत से, उस शब्द की खूंटी पर अपने को टांग देते हो और चल पड़ते हो। तुम्हारी गाड़ी किसी और तरफ जाती है। इसलिए तो दो व्यक्तियों के बीच विवाद आसान है, संवाद मुश्किल है। संवाद तो तभी हो सकता है, जब सुनना भी आता हो। हमें सिर्फ बोलना आता है। तो हम अगर परमात्मा के द्वार पर भी जाते हैं तो वहां भी बोलते हैं। वहां भी उसको हम बोलने का मौका नहीं देते।
वास्तविक प्रार्थना तब शुरू होती है तब तुम उसे बोलने का मौका दो। तुम्हारे बोलने की वहां जरूरत क्या है? तुम जो भी कहोगे, परमात्मा पहले से जानता है। तुम कृपा करके चुप हो जाओ। थोड़ा उसे बोलने दो।
लेकिन चुप होना हमें आता नहीं। चुप होना बहुत कठिन है। बीमार चित्त के साथ चुप होना एकदम कठिन है। स्वस्थ चित्त के साथ बोलना कठिन हो जाता है। क्योंकि जब तुम शांत हो जाते हो, तब कैसे बोलोगे? जब तुम शांत हो जाते हो, तब एक-एक शब्द को बोलना कठिन हो जाता है।
संतों ने बोला है--करुणा के कारण, लेकिन बोलना बड़ी कठिनाई है। भीतर जो गहन शून्य में खड़े हो गए हैं, वहां एक शब्द बनाना भी मुश्किल है। फिर भी उनकी करुणा है कि वे शब्द बनाते हैं। उनकी करुणा है कि वे जानते हुए शब्द देते हैं कि शब्द से बहुत कुछ होगा नहीं। उनकी करुणा है, वे तुम्हारे चेहरे को देखते हैं कि तुमने शब्द तो सुन लिया, अर्थ तुम्हारी समझ में नहीं आया। फिर भी बोले जाते हैं इस आशा में कि शायद संयोग बन जाए, निमित्त बन जाए और कोई जग जाए।
कबीर के ये वचन बहुत महत्वपूर्ण हैं:
मन मस्त हुआ तब क्यों बोले।
जब मस्ती आ जाएगी, जब उस ज्ञान की मदिरा उतरेगी, और जब तुम इतने आनंदित हो जाओगे--‘जब मन मस्त हुआ तब क्यों बोले’--तब बोलोगे कैसे! तब बोलना होगा ही क्यों!
इसका यह अर्थ हुआ कि जब तक तुम मस्त नहीं हो तभी तक बोल रहे हो। आदमी आनंदित होता है तो चुप होता है, दुखी होता है तो बोलता है। आदमी स्वस्थ होता है तो स्वास्थ्य की चर्चा नहीं करता; बीमार होता है तो बीमारी की बड़ी चर्चा करता है। जब तुम पूरे स्वस्थ होते हो तब तुम शरीर की बात ही भूल जाते हो। तब शरीर की बात ही क्या करनी, शरीर का पता ही नहीं चलता।
च्वांगत्सु कहता है: जब जूता ठीक आ जाता है पैर पर तो पैर भूल जाता है। जब जूता काटता है, तब पैर की याद आती है। जब तुम्हारा सिर स्वस्थ होता है तब तुम सिर को भूल जाते हो। सच तो यह है, तुम बेसिर हो जाते हो। जब सिर में दर्द होता है तभी सिर का पता चलता है, बीमारी का बोध होता है।
इसलिए संस्कृत में दुख के लिए जो शब्द है, वही शब्द ज्ञान के लिए है। ‘वेदना’ दुख का अर्थ भी रखता है और वेदना वेद का अर्थ भी रखता है--ज्ञान का। दुख का ही बोध होता है। आनंद तो, जैसे शराब हो--सब बोध खो जाता है। होश ही दुख का होता है। पैर में कांटा चुभता है तो पैर का पता चलता है, कांटा न चुभे तो पैर का पता नहीं चलता। पीड़ा का बोध है, आनंद का क्या बोध? आनंद के साथ तो हम इतने एक हो जाते हैं कि बोध किसको होगा, किसका होगा! दुख के साथ फासला होता है।
इसलिए ज्ञानियों ने कहा है: आनंद तुम्हारा स्वभाव है, दुख तुम्हारा स्वभाव नहीं; क्योंकि जिसके साथ हम एक नहीं हो पाते, वह हमारा स्वभाव कैसे होगा? पैर में कांटा लगा होना अस्वाभाविक है, इसलिए दुखता है। जब पैर में कांटा नहीं है--यह स्वाभाविक है--सब दुख खो गया, पैर भी खो गया! जितने-जितने तुम स्वस्थ होते जाओगे, उतना-उतना कहने को क्या बचेगा? जब कोई परिपूर्ण स्वस्थ होता है--शरीर, मन, आत्मा, सब शांत हो जाते हैं--तब कहने को कुछ भी नहीं बचता।
मन मस्त हुआ तब क्यों बोले।
बोलना दुख के जगत का अंग है। और इसलिए जब कोई आदमी विक्षिप्त हो जाता है, तो चौबीस घंटे बोलता रहता है। सिर्फ विक्षिप्त बोलता है चौबीस घंटे! रात में भी बड़बड़ाता है, दिन में भी बोलता रहता है। एक छोर विक्षिप्त का है, जब वह चौबीस घंटे बोलता है; दूसरा छोर विमुक्त का है, जब वह बिलकुल चुप हो जाता है। उसके घर में कोई भी नहीं होता, सन्नाटा होता है। उसके घर में कोई आवाज नहीं होती, कुछ कहने को नहीं होता, कोई शोर नहीं उठता, एक परम शून्यता की लयबद्धता होती है।
विक्षिप्त आदमी को देखो, पागल को ठीक से अध्ययन करो, तो तुम अपने को भी पागल पाओगे। क्योंकि तुम बोलो न बोलो, भीतर तुम्हारी बातचीत जारी रहती है।
सूफियों के पास एक विधि है, जो भीतरी बातचीत को रोकने के काम में लाई जाती है। और सूफी कहते हैं कि जो इंटरनल डायलॉग है, वह जो भीतर बात चल रही है, वही बाधा है, परमात्मा और तुम्हारे बीच। जैसे ही तुम वहां चुप हो गए, सब परदे गिर गए। वही घूंघट है। और भीतर तुम चर्चा किए ही जाते हो। भीतर एक क्षण भी ऐसा नहीं आता, जब चर्चा बंद होती हो। या तो तुम बाहर बात करते हो। अगर बाहर कोई न मिले तो भीतर बात करते हो; लेकिन बात जारी रहती है।
इसे थोड़ा होशपूर्वक जांचने की कोशिश करना। यह जो भीतर वार्तालाप चल रहा है, यही परदा है। और इसके तुम सजग, साक्षी हो जाना। देखना। एक दूरी निर्मित करना। तुम खुद नहीं कर रहे हो यह वार्तालाप, यह तुम्हारा मन कर रहा है। तुम दूर होकर देख सकते हो। तुम एक साक्षी हो सकते हो। जब तुम देखने वाले बन जाओगे, तुम धीरे-धीरे पाओगे कि भीतर का वार्तालाप बंद होने लगा। कभी-कभी बीच में अंतराल के क्षण आ जाएंगे। कभी बादल हट जाएंगे, खाली आकाश दिखाई पड़ेगा। उसी खाली आकाश में पहली समाधि का अनुभव होगा।
तुम बादल नहीं हो, तुम शून्य आकाश हो। बादल आते हैं, चले जाते हैं--शून्य आकाश सदा वहीं है। बादल तुम्हारा स्वभाव नहीं, शून्य आकाश तुम्हारा स्वभाव है। जो सदा रहता है, जो कभी नहीं बदलता है, वही स्वभाव है। शब्द तुम्हारा स्वभाव नहीं, शून्यता तुम्हारा स्वभाव है। शब्द तो आते हैं, बादलों की तरह चले जाते हैं, उठते हैं लहरों की तरह, खो जाते हैं। तुम शब्द नहीं हो। लेकिन तुम चौबीस घंटे शब्दों में खोए हुए हो। जैसे हम किसी आदमी को आकाश देखने भेजें और वह बादलों की खबर लेकर आ जाए--ऐसे ही जब भी तुम भीतर जाते हो, शब्दों को लेकर बाहर आ जाते हो। आकाश तक पहुंच ही नहीं पाते।
तुम्हारी जब तक आकाश की तरफ पहुंच न हो, तब तक गगन-गुफा कैसे खुलेगी? तब तक कैसे झरेगा अजर अमृत? तब तक कैसे डूबोगे तुम रसधार में? और जब कोई उस रसधार में डूब जाता है तो कबीर ठीक कहते हैं: ‘मन मस्त हुआ तब क्यों बोले।’ ...जब आनंद आ गया, तो चुप्पी सध जाती है।
इसलिए संतों को बड़ी कठिनाई है बोलने की। श्रम से बोलते हैं। तुम श्रम से अपने को चुप रखते हो। अगर तुमसे कहा जाए कि कोई मर गया है और दो क्षण शांति रखो, तो दो क्षण ऐसे लगते हैं जैसे दो वर्ष। बड़े लंबे मालूम पड़ते हैं। लगता है, कोई भूल-चूक कर रहा है... बंद करो। दो क्षण हो गए होंगे कब के।... और ऊपर से तुम चुप भी हो जाते हो। भीतर तो सब चलता ही रहता है, भीतर जरा भी चुप्पी नहीं होती।
दो क्षण तुम चुप नहीं रह सकते। कैसी तुम्हारी योग्यता! कैसी तुम्हारी समझ! काहे की कुसलात! और दो क्षण तुम चुप नहीं रह सकते हो तो तुम जान लेना कि तुम विक्षिप्त हो। तुम करीब-करीब पागल हो।
पागल और तुममें जो फर्क है, वह मात्रा का है। तुम अभी अपने पागलपन को भीतर दबाए हो, वह कभी भी फूट सकता है। वह तैयार हो रहा है। वह मवाद की तरह भीतर इकट्ठा हो रहा है; कभी भी मुंह मिल जाएगा, घाव हो जाएगा और वह फूट पड़ेगा। डिग्रीज के फर्क हैं। कोई नब्बे डिग्री का पागल है, कोई पच्चानबे डिग्री का, कोई सौ डिग्री का। सौ डिग्री पर विस्फोट हो जाता है; तब लोग तुम्हें पागलखाने पहुंचा आते हैं।
लेकिन तुम दस मिनट अपने घर के कोने में बैठ कर मन में जो भी चलता हो, एक कागज पर लिख लेना। तो तुम जो भी पाओगे, तुम अपने मित्र को--निकटतम मित्र को भी बताने को राजी न होओगे। क्योंकि वह बिलकुल पागलपन मालूम पड़ेगा। जो तुम्हारे मन में चलता है, उसे लिखना कागज पर और बेईमानी मत करना--जो चलता हो, वही लिखना। तुम बड़े हैरान होओगे: मन कैसी छलांगें लगा रहा है।
रास्ते से गुजरते हो, कुत्ता दिखाई पड़ता है। कुत्ता दिखाई पड़ा कि यात्रा शुरू हो गई। मित्र का कुत्ता याद आ गया। मित्र के कुत्ते की वजह से मित्र याद आ गया। मित्र की वजह से मित्र की पत्नी याद आ गई। और चल पड़े तुम! अब इस कुत्ते से उसका कोई लेना-देना नहीं है। भीतर की यात्रा शुरू हो गई; अंतरंग वार्तालाप, इंटरनल डायलॉग चल पड़ा।
अगर तुम किसी से कहोगे कि कुत्ते को देख कर यह सब हुआ... यह भी हो सकता है कि मित्र की पत्नी के प्रेम में पड़ गए... वह कुत्ता... शादी हो गई, बाल-बच्चे हो गए। उनका तुम विवाह कर रहे हो!
तुमने शेखचिल्लियों की कहानियां पढ़ी हैं? वे तुम्हारी ही कहानियां हैं। मन शेखचिल्ली है। यह मत समझना कि वे बच्चों को बहलाने के लिए लिखी गई कहानियां हैं, यह तुम चौबीस घंटे कर रहे हो। यही तंद्रा है, यही नींद है, जिसको कबीर कहते हैं: ‘संतो जागत नींद न कीजै।’
जागे तुम ऊपर-ऊपर से लग रहे हो, भीतर बड़े सपने चल रहे हैं। पर्त दर पर्त सपनों की तुम्हें घेरे हुए है। पर्त दर पर्त बादलों की आकाश को घेरे हुए है। और यह सब पर्त दर पर्त जो पागलपन है, इसे तुम दूसरे पर उलीचते रहते हो; इसे तुम दूसरों पर फेंकते रहते हो। वही तुम्हारा वार्तालाप है।
मन मस्त हुआ तब क्यों बोले।
लेकिन जब तुम मस्त हो जाओगे, नील गगन हो जाओगे, खुलेगी गगन की गुफा और बरसेगी अजर धार--तब तुम क्यों बोलोगे! तब तुम चुप हो जाओगे।
फिर भी जो चुप हो गए हैं, वे बोले हैं। उनके बोलने और तुम्हारे बोलने में बुनियादी फर्क है, गुणात्मक फर्क है, क्वालिटेटिव फर्क है। वे बोलते हैं इसलिए कि उन्होंने कुछ जाना है। तुम बोलते हो इसलिए कि तुम विक्षिप्त हो। वे बोलते हैं इसलिए कि बोलने से वे कुछ देना चाहते हैं। तुम बोलते हो इसलिए कि तुम बोलने से कुछ रेचन करना चाहते हो।
तुम्हारा बोलना दूसरे के लिए अहितकर है, क्योंकि तुम बीमारी फेंक रहे हो। उनका बोलना दूसरे के लिए परम कल्याण है, क्योंकि वे अपना आनंद बांट रहे हैं। उनके शब्द-शब्द में भीतर की झनकार होगी। उनके शब्द-शब्द में भीतर का रस थोड़ा सा भरा आ जाएगा। उनके शब्द-शब्द में थोड़ी सी सुगंध साथ चली आएगी। तुमने अगर फूल भी हाथ में रखे तो हाथों में सुगंध आ जाती है। तुम अगर बगीचे से गुजर भी गए तो फूलों की गंध तुम्हारे वस्त्रों में आ जाती है।
संत के शून्य से जब कोई शब्द गुजरता है तो थोड़ी सी शून्यता, थोड़ी सी ताजगी उस भीतर के संसार की ले आता है। इसलिए संतों को समझने के लिए बस सुनना काफी है, विचारना जरूरी नहीं।
नानक निरंतर कहते हैं कि तीन चीजें हैं महत्वपूर्ण। एक है परमात्मा, जिसका हमें कोई पता नहीं। उस तक पहुंचने के लिए द्वार है गुरु। लेकिन गुरु का भी तो हमें कोई पता नहीं: कौन गुरु? उस तक पहुंचने का द्वार है, साध-संगत--साधुओं का संग-साथ। जहां भले लोग हों, जहां भली बात होती हो, जहां उस संसार की कुछ चर्चा चलती हो--साध-संगत--वहां बैठ कर सुनना। उसी सुनते-सुनते साध-संगत में गुरु मिल जाएगा। और गुरु मिल गया तो तुम मार्ग पर आ गए। साध-संगत से मिलेगा गुरु, गुरु से मिलेगा परमात्मा।
बड़ा मूल्य है--जहां भली बात चलती हो, वहां बैठ कर सुन लेने का भी बड़ा मूल्य है।
और समझोगे कैसे तुम संतों को? समझ तो तभी होती है जब तुम भी उसी अवस्था में पहुंचोगे। रस ले सकते हो। उनकी वाणी को अपने भीतर प्रवेश हो जाने दे सकते हो। तुम ग्राहक भाव रख सकते हो--खुला मन--ताकि उनके शब्द तुम्हारे भीतर चले जाएं। शायद उनके शब्द जिस अज्ञात लोक से आ रहे हैं, उसकी थोड़ी सी चोट तुम्हारे भीतर भी जगे।
संतों के पास अगर तुम मस्ती सीख लो, तो तुमने सब सीख लिया।
मन मस्त हुआ तब क्यों बोले।
हीरा पायो गांठ गठियायो, बार-बार बाको क्यों खोले।
हीरा मिल गया, गांठ में बांध लिया, अब बार-बार उसको क्या खोलना?
तुम खोलते हो। अगर रास्ते पर तुम्हें हीरा मिला जाए, तुम गांठ तो गठियाओगे, लेकिन बार-बार खोल कर देखोगे। क्यों? तुम्हें संदेह है, तुम्हें पक्का भरोसा नहीं है कि हीरा मिल सकता है, कि यह हीरा है, और मुझे मिल गया। तुम्हें अपने पर भी भरोसा नहीं है, तुम्हें हीरे पर भी भरोसा नहीं है। तुम संदेहग्रस्त हो, इसलिए बार-बार खोल कर देखते हो।
जहां श्रद्धा है, वहां संदेह कैसा? जहां श्रद्धा है, वहां हीरा मिला, गांठ गंठाया--‘बाको बार-बार क्यों खोले?’
तो जब, बुद्ध, कबीर, नानक उपलब्ध हो जाते हैं, मिल गया हीरा, उसको गांठ गठिया लिया, अब बार-बार क्या खोलना है... वे उसकी चर्चा भी नहीं करते। वे उस संबंध में तो चुप ही रहते हैं, जो उन्होंने पा लिया है। अगर वे चर्चा भी करते हैं तो चर्चा परोक्ष है।
ऐसा हुआ, एक सूफी फकीर बायजीद के पास एक औरत को लाया गया। वह बहुत मोटी थी। उसके पति ने कहा कि इससे बच्चे पैदा नहीं होते, आपकी कृपा हो जाए। बायजीद बोले: बच्चे! कृपा! तुम पागल हुए हो? चालीस दिन में यह मरने वाली है। यह औरत बचेगी नहीं। साफ देख रहा हूं इसकी माथे की रेखा। इसके लिए अब हम क्या करें। कुछ भी नहीं किया जा सकता।
पति-पत्नी उदास लौटे। चालीस दिन बाद मौत! पत्नी खाट से लग गई, खाना-पीना बंद हो गया। लेकिन चालीस दिन आए और गुजर गए, और वह न मरी। तो फिर बायजीद के पास जाना पड़ा कि अच्छी मुसीबत खड़ी कर दी। चालीस दिन मौत में गुजरे, रोते गुजरे और यह पत्नी तो जिंदा है!
बायजीद ने कहा: अब जाओ, इसको बच्चा हो सकेगा, सिर्फ इसका मोटापा कम करना था। वह मौत की बात तो दवा थी।
यह इनडायरेक्ट, परोक्ष हुआ। वह स्त्री मानने वाली नहीं थी--अगर उससे कहा जाए कि तू मोटापा कम कर। यह सीधी बात नहीं हो सकती थी। मोटापा कम करने को तो बहुत वैद्य कह चुके थे। बहुत चिकित्सक कह चुके थे। फकीरों के पास तो कोई आता ही तब है जब सब चिकित्सक और वैद्य चुक जाते हैं, तभी तो कोई आशीर्वाद के लिए जाता है। वह आखिरी उपाय है।
तो बायजीद ने देखा कि बात तो साफ है, इतनी मोटी स्त्री को बच्चे नहीं हो सकते। और मोटापा यह कम करेगी नहीं। मौत की बात तो झूठ थी। लेकिन हम इतने झूठे हैं कि झूठ ही हम पर काम करता है।
तो संत हीरे की बात नहीं करते। वे तो कुछ और ही बात करते हैं जिससे हीरे के प्रति रस लग जाए। हीरा तो तुम्हें दे भी दें तो तुम पहचान न सकोगे; क्योंकि पहचान के लिए अनुभव चाहिए।
ऐसा हुआ, सूफी फकीर हुआ, झुन्नून। एक आदमी उसके पास आया और उसने झुन्नून को कहा कि यह सब बकवास है। मैं कई सूफियों के पास गया, सब बातचीत है, कुछ सार नहीं पाया। वह फलां सूफी है, धोखेबाज है। और फलां सूफी है, उसके आचरण का भरोसा नहीं। और एक सूफी है, वह बातचीत तो ऊंची करता है, लेकिन अनुभव उसे बिलकुल नहीं हुआ है।
झुन्नून ने कहा: बात पीछे करेंगे, जरा मुझे जरूरत है एक काम की, तुम थोड़ा सा काम कर दो। यह एक पत्थर मेरे पास है, तुम चले जाओ बाजार में, सोने और चांदी की दुकानों पर, अगर कोई इसे एक सोने के सिक्के में खरीद ले तो तुम बेच आओ।
वह आदमी गया। बाजार पास ही था। सोने-चांदी की दुकानों पर गया, कोई उसे एक सोने के सिक्के में लेने को राजी नहीं था। ज्यादा से ज्यादा एक चांदी का सिक्का कोई देने को राजी हुआ था--वह भी बड़े पसोपेश में! वह आदमी लौट आया। उसने कहा कि पत्थर बिलकुल बेकार है! सोने की तो बात छोड़ो, उस वहम में मत रहो, चांदी का एक सिक्का मिलता है। और वह भी आदमी संदिग्ध है, वह भी पक्का नहीं है कि ले या न ले। क्या करना है?
झुन्नून ने कहा कि अब तुम जौहरी की दुकान पर चले जाओ। और बेचना मत पत्थर को, सिर्फ दाम पूछ कर आना। वह गया। जौहरी एक हजार सोने के सिक्के देने को तैयार था। जब वह बेचने को राजी न हुआ तो वह दस हजार सोने के सिक्के देने को तैयार था। तब भी वह बेचने को राजी न हुआ तो उसने कहा, तुम कितना चाहते हो, तुम बोलो? लेकिन पत्थर वापस जाने न देंगे? उसने कहा, बेचने को कहा ही नहीं उसने, जिसका यह पत्थर है; सिर्फ दाम पूछने को कहा है।
वापस लौट कर आया। कहने लगा, हद हो गई! अच्छा हुआ कि मैं बेच नहीं आया, नहीं तो एक चांदी का सिक्का मिलता। दस हजार तो वह देने को तैयार है और पूछता है कि तुम बोलो!
फकीर ने कहा: पत्थर बेचना नहीं है, सिर्फ तुम्हें इसलिए भेजा था कि तुम पता लगा लो। हीरे की पहचान के लिए जौहरी होना जरूरी है। तुम जौहरी हो कि सूफी की पहचान कर सको?
चांदी-सोने के दुकानदार को हीरे की क्या पहचान। फिर भी थोड़ा बहुत खयाल होगा कि पत्थर रंगीन है, थोड़ा चमकदार है, तो चलो खरीद लो, शायद किसी काम आ जाए। और कहीं तुम शाक-सब्जी की दुकान पर चले जाओ इसे बेचने, तो वह कहेगा: दो पैसा में दे जाओ, शाक-सब्जी तौलने के काम आ जाएगा।
उसने कहा: पत्थर वापस रख दो, जौहरी चाहिए हीरे की पहचान के लिए।
कौन पहचानेगा सूफी को? कौन पहचानेगा संत को, साधु को? हीरा तुम्हें दिया नहीं जा सकता। तुम पहचानोगे नहीं, तुम कहीं गंवा दोगे--या बच्चों को खेलने को दे दोगे।
आज जो कोहनूर है, वह गोलकोंडा में एक गरीब आदमी के घर में बच्चों का खिलौना था, उसको खेत में मिल गया था, और बच्चे उससे खेलते थे।
हीरे की पहचान जौहरी को, ज्ञान की पहचान ज्ञानी को। हीरा तो तुम्हें दिया नहीं जा सकता। दे भी दें तो तुम उसका दुरुपयोग करोगे। इसलिए कबीर कहते हैं:
हीरा पायो गांठ गठियायो, बार-बार बाको क्यों खोले।
और खुद को तो कोई संदेह नहीं है, क्योंकि वह जो अनुभूति है, असंदिग्ध है।
लोग मुझसे पूछते हैं, लोग सदा से पूछते रहे हैं कि यह कैसे पक्का पता चलेगा कि ध्यान लग गया? यह कैसे पक्का पता चलेगा कि परमात्मा मिल गया? यह कैसे पक्का पता चलेगा कि यह समाधि है? मैं उनसे कहता हूं कि तुम्हारी खोपड़ी में कोई लट्ठ मार दे, तब तुम्हें कैसे पक्का पता चलता है कि दर्द हो रहा है? उसको तुम किसी और से पूछने जाते हो कि क्यों भाई, मुझे दर्द हो रहा है कि नहीं?
जब तुम्हें दर्द का अनुभव हो सकता है तो तुम्हें आनंद का अनुभव न होगा? जब तुम पीड़ा को पहचान लेते हो तो तुम आनंद को पहचानने की खबर दे दिए। क्योंकि पीड़ा उसी का तो अभाव है। जब तुम्हें बीमारी का पता चल जाता है तो स्वास्थ्य का भी पता चल ही जाएगा। जब नरक को तुम पहचान लेते हो तो स्वर्ग को भी पहचान लोगे। यह पूछना न पड़ेगा कि जो मुझे मिला है, वह मिला है या नहीं?
नहीं, जब हीरा मिलता है--‘हीरा पायो, गांठ गठियायो, बार-बार बाको क्यों खोले’--संदेह तो कुछ होता नहीं। वह अनुभव असंदिग्ध है।
परमात्मा का अनुभव संदेहातीत है। जब होता है, बस हो गया। फिर सारी दुनिया कहे कि नहीं हुआ तो भी कोई सवाल नहीं। सारी दुनिया सिद्ध कर दे कि नहीं हुआ तो भी कोई सवाल नहीं। सारी दुनिया कहे कि कोई ईश्वर नहीं है, तो भी कुछ फर्क नहीं पड़ता। जब तुम्हें अनुभव हो गया--बस वही प्रमाण है।
परमात्मा का अनुभव सेल्फ-इविडेंट है, स्व-प्रमाण है। उसके लिए किसी और प्रमाण की जरूरत नहीं है। वह खुद ही अपना प्रमाण है। हो गया, हो गया। लेकिन जब तक नहीं हुआ है, तब तक बड़ी मुश्किल है। कोई दूसरा अपना अनुभव तुम्हारे हाथ में रख दे, तुम न पहचान सकोगे; क्योंकि पहचान तो केवल अपने ही अनुभव की होगी, दूसरे के अनुभव की नहीं होगी। इसलिए कबीर लाख सिर पटकें, तुम्हें भरोसा न आएगा; भरोसा तो तभी आएगा, जब तुम्हें घटना घट जाएगी।
और तब--
हीरा पायो गांठ गठियायो, बार-बार बाको क्यों खोले।
हलकी थी तब चढ़ी तराजू, पूरी भई तब क्यों तोले।।
तराजू का पलड़ा जब तक हलका रहता है, तब तक ऊपर रहता है। जैसे-जैसे भारी होने लगता है, नीचे उतरने लगता है। और जब पूरा ही भर जाता है तो जमीन से लग जाता है, फिर तौलना बंद हो जाता है।
हलकी थी तब चढ़ी तराजू, पूरी भई तब क्यों तोले।
फिर तौलना ही बंद हो जाता है।
अभी तुम्हारी जिंदगी में तौलना ही तौलना चलता है। तौलने का अर्थ है: तुलना, कंपेरिजन। तुम अभी जब भी कुछ सोचते हो, हमेशा तुलना में सोचते हो।
एक सौंदर्य की प्रतियोगिता थी। देश की बीस सुंदरियां इकट्ठी थीं। उनमें से चुनाव होना था कि कौन पूरे देश की प्रथम सुंदरी होगी। निर्णायकों ने मुल्ला नसरुद्दीन को भी निमंत्रित कर लिया था। बूढ़ा और अनुभवी आदमी था। जिंदगी के बहुत उतार-चढ़ाव देखे थे। बहुत स्त्रियों के संबंध, विवाह, तलाक--सब देखा हुआ था। पहली युवती आई, उसने कहा--फू! दूसरी आई, तीसरी आई, वह फू-फू कहता रहा। एक से एक सुंदर स्त्रियां थीं, तय करना मुश्किल था कि कौन किससे ज्यादा है। जिन्होंने उसे बुलाया था, वे थोड़े संदिग्ध हुए। बीसवीं युवती आई, तब भी उसने कहा--फू! तो मित्रों ने पूछा कि नसरुद्दीन, कोई भी स्त्री पसंद नहीं आती? तुम फू-फू किए जा रहे हो!
उसने कहा: इन स्त्रियों को नहीं कह रहा हूं, अपनी औरत को कह रहा हूं!
वे तुलना कर रहे हैं।
तुम्हारी जिंदगी तुलना से भरी है।
तुम अमीर हो? सच में तुम अमीर हो? तुम अमीर हो नहीं सकते। हां, किसी गरीब की तुलना में अमीर हो, किसी अमीर की तुलना में गरीब हो।
तो अमीर से अमीर भी गरीब बना रहता है; क्योंकि कोई और है जो ज्यादा अमीर है। तुलना से छुटकारा नहीं हो सकता। तुम दस को पीछे छोड़ आए हो, लेकिन दस तुम्हारे सदा आगे हैं।
तुम सुंदर हो? हां, किसी की तुलना में होओगे। लेकिन तुम कुरूप भी हो, क्योंकि किसी और की तुलना चल रही है।
तुम स्वस्थ हो? समझदार हो?...
हर वक्त तुलना चल रही है। जब तुम कहते हो कि मैं स्वस्थ हूं, तब भी तुलना; जब तुम कहते हो कि सुंदर हूं, तब भी तुलना।
तुलना के साथ तुम कभी शांत न हो सकोगे, क्योंकि कोई न कोई आगे बना ही रहेगा। ऐसा असंभव है। और जीवन इतना जटिल है कि हो सकता है एक चीज में तुम सबसे ज्यादा आगे पहुंच जाओ--तुम सबसे ज्यादा धन इकट्ठा कर लो।
हैदराबाद के निजाम के पास शायद सबसे ज्यादा धन था दुनिया में। गोलकुंडा के इतने हीरे-जवाहरात इकट्ठे कर लिए थे कि उनसे बड़ा धनी आदमी दूसरा नहीं था। वर्ष में एक बार जब वे अपने सब हीरे-जवाहरातों को रोशनी दिखाने के लिए निकालते थे, तो सात छतों की जरूरत पड़ती थी उनको फैलाने के लिए। चोटी पर थे। लेकिन जब रात सोते थे, तो एक पैर एक बड़ी मटकी में--जिसमें नमक भरा हो--उसमें डाल कर और बांध कर सोते थे। क्योंकि भूत से उन्हें बहुत डर लगता था। और यह भूत से बचने की तरकीब थी: नमक पास हो तो भूत हमला नहीं करता। इस भय के कारण, इस भूत के भय के कारण वे कमजोर से कमजोर, गरीब से गरीब नौकर से भी दीन थे। नौकर भी उन पर हंसते थे कि यह क्या मालिक, आप और ऐसे भयभीत। हम नहीं डरते, कहां का भूत। यह क्यों इतनी बड़ी कुंडी बांध कर आप सोते हैं? लेकिन पूरी जिंदगी ही वे कुंडी बांध कर ही सोते रहे। उस भूत के भय के कारण जीवन उनका बड़ा दुखी था; क्योंकि चौबीस घंटे एक ही चिंता थी और वे मन ही मन में कई बार कहते भी थे कि गरीब से गरीब आदमी होना मैं पसंद करता, मगर निर्भय। दुनिया का सबसे बड़ा अमीर होकर भी क्या सार है: ऐसा भयभीत हूं। फकीर को, नंगे भिखारी को देख कर भी वे ईर्ष्या से भर जाते थे कि निर्भय चला जा रहा है, कहीं भी सो जाता है; कोई चिंता नहीं, कोई डर नहीं।
क्या करोगे? हैदराबाद के निजाम के पास पांच सौ स्त्रियां थीं, इस जमाने में। तुमने कृष्ण का सुना है कि सोलह हजार स्त्रियां थीं। संदेह मत करना; क्योंकि बीसवीं सदी में जब पांच सौ हो सकती हैं तो सोलह हजार कोई ज्यादा नहीं हैं--सिर्फ बत्तीस गुनी। ...हो सकती हैं।
पांच सौ स्त्रियां थीं, लेकिन यह आदमी सदा दीन-हीन था। धन था, लेकिन यह आदमी दरिद्र से ईर्ष्या करता था। मौत का भय इतना ज्यादा था कि जीना ही असंभव था।
अमरीका का बहुत बड़ा करोड़ पति था, एण्ड्रू कारनेगी। जब वह मरा तो उसके सेक्रेटरी ने उससे पूछा कि आप अपार संपदा के मालिक हैं--दस अरब रुपये वह कैश बैंक में छोड़ कर गया--आप प्रसन्न तो मर रहे हैं? प्रसन्न तो छोड़ रहे हैं इस जगत को?
उसने कहा: कैसी प्रसन्नता? मुझसे असफल आदमी खोजना कठिन है, क्योंकि मेरे इरादे सौ अरब रुपये इकट्ठे करने के थे और दस अरब ही कर पाया। हारा हुआ आदमी हूं।
उसने दस अरब इस तरह कहे, जैसे कोई कहे: दस पैसे। लेकिन उसके लिए वे दस ही पैसे थे। क्योंकि जिसके इरादे सौ के रहे हों, दस ही उपलब्ध कर पाए, वह हारा हुआ ही है--नब्बे से हारा।
तो वह दुखी ही मर रहा है। और उसके सेक्रेटरी ने उसकी जीवन-कथा लिखी है। तो उसमें लिखा है कि अगर मुझसे कोई कहता कि बदल लो जगह एण्ड्रू कारनेगी से, तो मैं न बदलता। वह अगर सेक्रेटरी बनना चाहता और मैं मालिक, तो मैं न बनता। क्योंकि उसका सेक्रेटरी होकर जितना मैं प्रसन्न था, उतना वह मालिक होकर नहीं था।
उसने लिखा है कि दफ्तर का चपरासी दस बजे आए, क्लर्क साढ़े दस बजे आएं, मैनेजर्स बारह बजे आएं; मैनेजर्स तीन बजे चले जाएं, क्लर्क साढ़े चार बजे छुट्टी पा लें, चपरासी पांच बजे चला जाए। लेकिन एण्ड्रू कारनेगी सुबह सात बजे से जुट जाए दफ्तर में, रात बाहर बजे तक।
कहानियां प्रचलित हैं कि एण्ड्रू कारनेगी अपने बच्चों को नहीं पहचान पाता था, क्योंकि फुर्सत ही कहां थी! सात बजे सुबह से बारह बजे रात तक जो जुटा हो, वह क्या बच्चों को पहचानेगा! उनके साथ कभी खेला नहीं, कभी दो बात नहीं की, कभी बैठा नहीं।
तुम धन पा लो तो और हजार चीजें हैं। तुम पद पा लो तो भी हजार चीजें हैं। तुम कुछ भी पा लो, तुम तृप्त न हो सकोगे--जब तक तुलना है, जब तक तराजू तौलता है। जिस दिन तुम कंपेरिजन छोड़ दोगे, उसी दिन तुम मुक्त हो जाओगे। जिस दिन तुम यह खयाल ही छोड़ दोगे कि दूसरे से तौलना है स्वयं को, उसी दिन दुख खो जाएगा। उस दिन तुम पाओगे कि तुम तुम हो; दूसरे दूसरे हैं; बात खत्म हो गई।
एक झेन फकीर से किसी ने पूछा कि तुम्हारे जीवन में इतना आनंद क्यों है? मेरे जीवन में क्यों नहीं? उस फकीर ने कहा: मैं अपने होने से राजी हूं और तुम अपने होने से राजी नहीं हो। फिर भी उसने कहा: कुछ तरकीब बताओ। फकीर ने कहा: तरकीब मैं कोई नहीं जानता। बाहर आओ मेरे साथ। यह झाड़ छोटा है, वह झाड़ बड़ा है। मैंने कभी इन दोनों को परेशान नहीं देखा कि मैं छोटा हूं, तुम बड़े हो। कोई विवाद नहीं सुना। तीस साल से मैं यहां रहता हूं। छोटा अपने छोटे होने में खुश है, बड़ा अपने बड़े होने में खुश है; क्योंकि तुलना प्रविष्ट नहीं हुई। अभी उन्होंने तौला नहीं है।
घास का एक पत्ता भी उसी आनंद से डोलता है हवा में, जिस आनंद से कोई देवदार का कोई बड़ा वृक्ष डोलता है। कोई भेद नहीं है। घास का फूल भी उसी आनंद से खिलता है, जिस आनंद से गुलाब का फूल खिलता है। कोई भेद नहीं है।
तुम्हारे लिए भेद है। तुम कहोगे: यह घास का फूल है, और यह गुलाब का फूल। लेकिन गुलाब और घास के फूल के लिए कोई तुलना नहीं, वे दोनों अपने आनंद में मग्न हैं। जो तुलना छोड़ देता है, वह मग्न हो जाता है। जो मग्न हो जाता है, उसकी तुलना छूट जाती है। तो कबीर कह रहे हैं:
हलकी थी तब चढ़ी तराजू, पूरी भई तब क्यों तोले।
और अब जब पूरा आनंद बरस गया है, गगन-गुफा में अमृत की धार बह रही है, तो अब क्या तौलना।
इससे उलटा भी सही है: तुम तौलना बंद कर दो तो गगन की गुफा का द्वार खुल जाएगा। तुम तौलना बंद कर दो तो तुम अभी आनंदित हो जाओगे; या आनंदित हो जाओ तो तौल बंद हो जाएगी: दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, कहीं से भी शुरू करो।
कबीर ठीक कह रहे हैं, सिद्ध की दशा, कि जब तक हलकी थी तराजू, तब तक तौलती रही है--और अब जब पूरी हो गई है तो अब क्या तौले।
लेकिन तुम्हारी दशा तो सिद्ध की नहीं है--साधक की है। तुम कहां से शुरू करोगे? तुम तौलना छोड़ो। जैसे-जैसे तुम तौलना छोड़ोगे, मैं तुमसे कहता हूं: तराजू भारी होती जाएगी। किसने तुमसे कहा कि तुम किसी से तौलो? तुम अकेले हो, तुम जैसा कोई दूसरा नहीं। न तुम जैसी बुद्धि है, न तुम जैसा चेहरा है; न तुम जैसी आंखें हैं; तुम्हारे जैसे हाथ नहीं, तुम्हारे अंगूठे का निशान बस तुम्हारा ही है।
सारी दुनिया में आज चार अरब आदमी हैं, चार अरब आदमियों में एक का भी अंगूठे का निशान तुम जैसा नहीं। आज तब जमीन पर अरबों-खरबों लोग हो गए हैं, उन सबको कब्रों से उखाड़ लो, उनका एक का भी अंगूठे का निशान तुम जैसा नहीं। भविष्य में अरबों-खरबों लोग होंगे, उनमें से एक भी ऐसा नहीं होगा जिसका अंगूठे का निशान तुम जैसा हो। तुम बिलकुल अद्वितीय हो, तौल कैसी? तुम मुर्गे से तो नहीं तौलते कि देखो इसके सिर पर कैसी सुंदर कलगी और हमारे सिर पर नहीं है, और दुखी होकर बैठ जाते हो। तुम वृक्ष से तो नहीं तौलते कि देखो सौ फीट आकाश में उठ गया और हम केवल छह फीट--गए, गए काम से! जब तुम वृक्ष से नहीं तौलते, मुर्गे से नहीं तौलते, तो पड़ोसी से क्यों तौल रहे हो? किसी से क्यों तौल रहे हो?
तौलोगे तो दुखी रहोगे; क्योंकि तुम तौलते ही जाओगे। कोई न कोई भिन्न रहेगा, कोई न कोई ज्यादा रहेगा, कोई न कोई... हजार तरह के फर्क रहेंगे और तुम दुख में घने गिरते जाओगे। तौल बंद कर दो, तराजू पूरी हो जाएगी। यह साधक के लिए कह रहा हूं।
सिद्ध की बात... कबीर ठीक कह रहे हैं:
हलकी थी तब चढ़ी तराजू, पूरी भई तब क्यों तोले।
स्मरण रखना कि जो सिद्ध के लिए सही है, ठीक उससे विपरीत तुम शुरू करना, क्योंकि यह तो अंतिम दशा का वर्णन है; तुम जहां खड़े हो वहां का वर्णन नहीं है। वहां तो तुम्हारी तराजू तौले चली जाती है। और तब तुम व्यर्थ ही दुखी बने हो। दुख अस्तित्व में नहीं है, तुम्हारे तौलने वाले मस्तिष्क में है।
सुरत कलारी भई मतवारी, मदवा पी गई बिन तोले।
यह आखिरी बात कबीर कह रहे हैं। इसे गहरे उतर जाने देना।
सुरत कलारी भई मतवारी, मदवा पी गई बिन तोले।
‘कलारी’ है शराब की दुकान का नाम--मधुशाला। सारे पीने वाले--‘सुरत कलारी’--जितने पियक्कड़ इकट्ठे हो गए थे--‘सुरत कलारी भई मतवारी, मदवा पी गई बिन तोले’--और बिना तौले मधुशाला को पी गए! बिना तौले! तब सारे पियक्कड़ मस्त हो गए।
तौल-तौल कर क्यों पी रहे हो? आनंद को इंच-इंच क्यों प्रवेश करने देते हो। आनंद से इतने भयभीत क्यों हो? उसे पूरा क्यों नहीं उतरने देते? पूरा आकाश तुम्हारा है। पूरा परमात्मा तुम्हारा है। तौलने की जरूरत क्या है? यह कोई दुकान है? यहां तुम कुछ खरीदने तो नहीं आए। अस्तित्व पूरा खुला है, तुम किसलिए भयभीत हो? तुम बिना तौले पी जाओ।
इसे थोड़ा समझें।
आदमी दुख से इतना भयभीत नहीं होता जितना आनंद से भयभीत होता है; क्योंकि दुख का तो इलाज है, आनंद का तो कोई इलाज नहीं; और दुख से तो बचने के लिए औषधियां हैं, आनंद से बचने के लिए कोई औषधि नहीं। आनंद से आदमी भयभीत होता है, क्योंकि आनंद इतना बड़ा है कि तुम उसके नीचे खो जाओगे, तुम बच न सकोगे। दुख के ऊपर तुम बैठे रह सकते हो। दुख की गठरी पर तुम बैठते हो; आनंद की गठरी तुम्हारे ऊपर बैठेगी। आनंद इतना विराट है!
दुख से तुम इतने भयभीत नहीं होते, जितने तुम आनंद से भयभीत होते हो--इस तथ्य को विश्लिष्ट करके समझ लो।
बचपन से ही तुम्हें आनंद से भय सिखाया गया है। अगर बच्चा नाच रहा है अकारण, तो मां-बाप कहेंगे--क्यों नाच रहा है? अगर बच्चा हंस रहा है अकारण तो मां-बाप कहेंगे--क्या बात है? हंसने की क्या जरूरत है? अगर बच्चा कूद रहा है, प्रफुल्लित हो रहा है--और बच्चे अकारण होते हैं प्रफुल्लित। कारण का जगत अभी खुला नहीं है। अभी बुद्धि के द्वार बंद हैं।
छोटी-छोटी चीजें अकारण! एक तितली जा रही है, और बच्चा प्रसन्न हो गया, और भागने लगा तितली के पीछे। एक लाल पत्थर मिल गया, उसे उठा लाया, और समझा कि हीरा मिल गया और प्रसन्न है। कभी कुछ भी नहीं मिलता है, बैठा है और प्रसन्न हो रहा है।
एक घर में मैं मेहमान था। दो छोटे बच्चे, जिनकी उम्र करीब-करीब छह साल की रही होगी--एक लड़का और एक लड़की; और एक और भी छोटा बच्चा, जिसकी उम्र मुश्किल से तीन-साढ़े तीन साल रही होगी--वे तीनों खेल रहे थे। घर के लोग बाहर गए थे, मैं अकेला था। मैंने देखा कि दो बच्चे एक कमरे में हैं--एक लकड़ी और एक लड़का--और सबसे छोटा बच्चा बाहर सीढ़ियों के पास बैठा बड़ा प्रसन्न हो रहा है, गदगद हो रहा है। कुछ कारण नहीं दिखाई पड़ता। वह खेल में भागीदार भी नहीं है, जो खेल चल रहा है।
तो मैं उसके पास गया और मैंने पूछा: क्या मामला है, तुम खेल नहीं रहे हो?
उसने कहा: मैं खेल रहा हूं।
तू यहां बाहर बैठा हुआ है सीढ़ियों पर! खेल तो वहां भीतर चल रहा है?
उसने कहा: वह खेल है--उसमें लड़का डैडी बना है, लड़की मम्मी बनी है, और मैं होने वाला बच्चा हूं। अभी मैं पैदा नहीं हुआ।
अभी वह पैदा भी नहीं हुए और गदगद हो रहे हैं! और तुम्हें पैदा हुए कितने साल हो गए, तुम अब तक गदगद नहीं हुए हो। ...कब होओगे? क्या मरने की राह देख रहे हो?
वह बड़ा प्रसन्न हो रहा है, क्योंकि जल्दी वक्त आ रहा है।
बच्चे अकारण प्रसन्न होते हैं, और हम उनकी प्रसन्नता को तोड़ते हैं; हम उन्हें गंभीर बनाना चाहते हैं। गंभीरता रोग है। लेकिन बाप पढ़ रहा है, या हिसाब लगा रहा है, या नोट गिन रहा है--वह समझता है, बहुत भारी काम कर रहा है। वह बच्चे से कहता है--चुप रहो, क्योंकि मेरी गिनती भूल जाती है।
तुम नोट गिन रहे हो--जिससे ज्यादा व्यर्थ काम दुनिया में खोजना मुश्किल है; जिसको गिन-गिन कर तुम कहीं न पहुंचोगे--और बच्चे से कहते हो, चुप रहो! और बच्चा आनंद गिन रहा था, वह अकारण नाचना चाहता था, अकारण कूदना चाहता था--तुमने क्षुद्र के लिए विराट को रोक दिया!
और जब सब तरफ से बच्चे पर यह रुकावट पड़ती है, तो धीर-धीरे वह गंभीर होने लगता है। और तब एक बात उसको समझ में आ जाती है कि इस समाज में नियंत्रण, कंट्रोल का मूल्य है: अपने को नियंत्रित रखो! और जितना तुम ज्यादा अपने को नियंत्रित रखोगे, उतना ही आनंद के द्वार बंद हो जाएंगे। क्योंकि आनंद तो उतरता है तुम्हारे स्वच्छंद चित्त में, स्वतंत्र चित्त में--जहां कोई नियंत्रण नहीं, जहां सब कंट्रोल, सब नियंत्रण नीचे रख दिए गए हैं। तभी तुम पूरी मधुशाला को पीने में समर्थ हो पाते हो।
हमारी सारी शिक्षा-दीक्षा व्यक्ति को उपयोगी बनाने की है, आनंदित बनाने की नहीं। उपयोगी का अर्थ है--कहीं क्लर्क हो जाना; कहीं स्कूल में मास्टर हो जाना; किसी दफ्तर में, किसी आफिस में, मशीनरी में फिट हो जाना और जिंदगी भर काम करना, और जिंदगी भर पैसे कमाना, और बच्चे पैदा करना--और उनको भी इसी के लिए तैयार करना कि वे भविष्य में फैक्टरी चलाएं।
कुछ अर्थ नहीं मालूम पड़ता: तुम्हारे बाप फैक्टरी चलाते थे, तुम फैक्टरी चलाते हो। उन्होंने तुम्हें तैयार किया, कभी सुख न जाना जीवन का, तुम्हें तैयार किया कि फैक्टरी चलाओ, अब तुम और बच्चे पैदा करके तैयार कर रहे हो कि तुम फैक्टरी चलाना। जैसे कि फैक्टरी कोई बड़ी भारी बात है, जिसको चलाने के लिए सब को पैदा होने की जरूरत है।
फैक्टरी न चली तो कुछ हर्ज नहीं है। फैक्टरी चल गई तो होना क्या है? आदमी व्यवसाय से कम कीमत का हमने कर दिया है। और जैसे-जैसे फैक्टरी चलती जाती है, वैसे-वैसे आदमी कम कीमत का होता जाता है।
तुम्हारा उपयोग क्या है? तुम्हारा उपयोग इतना है कि तुम समाज के ढांचे में काम के हो जाओ। हमारी सारी शिक्षा-दीक्षा बस इसीलिए है कि आदमी मशीन हो जाए और मशीन की जगह काम करने लगे। जितना कुशल आदमी हो मशीन होने में, उतना हमारी व्यवस्था में ऊपर पहुंच जाता है। हम कहते हैं, यह आदमी बड़ा कुशल है। जितना अकुशल आदमी हो, उतनी हमारी व्यवस्था में नीचे छूट जाता है। लेकिन कुशलता का क्या अर्थ है, जिससे आनंद उपलब्ध न होता हो?
जीवन व्यवसाय नहीं है। और यही गृहस्थ और संन्यासी का फर्क है--मेरे लिए। जिसने जीवन को व्यवसाय समझा है, वह गृहस्थ। और जिसने जीवन को उत्सव समझा है, वह संन्यासी।
तुम्हें मैंने संन्यास के लाल रंग के कपड़े दिए हैं--सिर्फ इस खयाल से कि तुम समझोगे कि लाल फूलों का स्वाभाविक रंग है। जिसका जीवन फल की आकांक्षा रखता है, वह गृहस्थ; और जिसका जीवन सिर्फ फूल होना चाहता है, वह संन्यासी। फल का उपयोग है; फूल का क्या उपयोग है? फल को तुम खा सकते हो, पचा सकते हो, खून बना सकते हो; फूल का क्या करोगे? फूल का कोई भी तो उपयोग नहीं है। इसलिए जब हम आनंदित होते हैं, किसी के उत्सव में सम्मिलित होते हैं, तो फूल ले जाते हैं। फूल निरुपयोगी है, नॉन-यूटिलिटेरियन है। वह कविता की तरह है। उसका कोई भी तो उपयोग नहीं है। उससे तुम प्रसन्न हो सकते हो, उससे तुम तिजोड़ियां नहीं भर सकते हो। तिजोड़ियां भरने के लिए तो मुर्दा नोट चाहिए, जिंदा फूल काम न आएगा। क्योंकि जिंदा फूल अगर तुमने तिजोड़ी में भर लिए तो वे सब सड़ जाएंगे। मरे नोट चाहिए, जो सड़ते ही नहीं। मरी-मराई चीज फिर नहीं मरती, जिंदा चीज तो मरती है।
संन्यास का अर्थ है, जो जिंदगी को फूल की तरह देखता है, फल की तरह नहीं। यही कृष्ण गीता में अर्जुन को कह रहे हैं। प्रतीक अलग है, कहानी और है, पृष्ठभूमि भिन्न है, पर सार तो यही है। वे यही कह रहे हैं कि तू कर्म-फल की आकांक्षा मत कर। तू फल की आकांक्षा मत कर। तू रिजल्ट की, परिणाम की, आकांक्षा मत कर। तू फूल की भांति हो जा। जो हो रहा है, होने दे; जो हो सकता है कर; लेकिन तू इसको प्रयोजन मत बना, तू सिर्फ निमित्त रह।
फूल की भांति होने का अर्थ है, तुमने जीवन में उत्सव को जगह दी। अब तुम नाचोगे, गाओगे, प्रसन्न होओगे। लेकिन, अगर तुमसे मैं कहूं, नाचो, तो तुम्हारा मन तत्काल पूछेगा--क्या फायदा होगा?
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, ध्यान करने से फायदा क्या होगा?
तुम बैंक के बाहर कभी निकलोगे कि नहीं? तुम दुकान के बाहर कभी आओगे कि नहीं? फायदा... प्रॉफिट!... तुम्हारे सोचने का सभी ढंग रुपयों में बंधा है। अगर मैं उनको कह दूं कि जब समाधि लगेगी, तो एकदम हजार का नोट प्रकट होगा, तो वे कहेंगे, करने जैसा है! जल्दी राज बताइए, गुर क्या है? इतनी देर क्यों की? लेकिन अगर मैं उनको कहता हूं कि आनंद बरसेगा, ऐसी घड़ी आएगी--‘सुरत कलारी भई मतवारी, मदवा पी गई बिन तोले’--तो वे कहेंगे, यह अपने बस की बात नहीं! फिर अभी समय भी नहीं आया! वे इसके लिए मरने की प्रतीक्षा करेंगे।
लोग ठीक मरते वक्त धार्मिक होते हैं। आखिरी वक्त पर टालते रहते हैं। इसीलिए लोग कहते हैं: जब बूढ़े हो जाओ तब सुनना संतों की बातें। अभी तो जवान हो, अभी कहां जा रहे हो?
लोग मेरे पास आते हैं। एक बूढ़े सज्जन मेरे पास आए। उनके लड़के ने संन्यास ले लिया। लड़का भी ऐसा कि अब कोई लड़का नहीं है--पचास साल का है! उनकी उम्र कोई होगी पचहत्तर साल की। वे कहने लगे, यह आपने क्या किया? लड़कों को संन्यास देने लगे! अभी उसकी उम्र है? अभी मैं जिंदा हूं! जब तक बाप जिंदा है, तब तक बेटा लड़का ही है। आपने उसको संन्यास दे दिया? यह तो आखिरी बात है!
मैंने कहा: अब आप आ ही गए, चलो छोड़ो, एक गलती मुझसे हो गई, मगर दूसरी न होने दूंगा।
उन्होंने कहा: क्या मतलब?
मैंने कहा: आपको संन्यास...।
...मुस्कुराने लगे। वह मुस्कुराहट खोखली... कि नहीं, सोचूंगा, आऊंगा।
मैंने कहा: अब और क्या देर है?
...कि नहीं-नहीं, इसलिए तो आया ही नहीं था। यह सवाल नहीं है।
अगर तुम कहते हो कि लड़के को थोड़ी देर से देना था, तो देर तुम्हारे लिए हो गई। पचहत्तर साल काफी हैं। औसत से ज्यादा तुम जी गए हो। मूल तो चूक गया, ब्याज में जी रहे हो! अब भी संन्यास की हिम्मत नहीं?
नहीं, कहने लगे, सोचूंगा, अभी कई काम-धाम पड़े हैं, उलझने हैं, नाती-पोतों की शादी करनी है। पर आऊंगा, एक दिन जरूर आऊंगा!
वे कह कर गए थे। लेकिन वह एक दिन नहीं आएगा, क्योंकि वे मर गए। कुछ दिन पहले उनके लड़के का पत्र आया कि पिताजी चल बसे।
व्यवसाय में ही मत चल बसना।
जीवन आनंद-उत्सव है। इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम व्यवसाय मत करना। तुम व्यवसाय आनंद उत्सव के लिए ही करना। तुम कमाना तो भी गंवाने को। तुम इकट्ठा करना तो भी लुटाने को। तुम बचाना तो भी बांटने को। लक्ष्य तुम्हारा आनंद रहे। लक्ष्य तुम्हारा फूल रहे। खिले और लुटा दे अपनी सारी सुगंध।
सुरत कलारी भई मतवारी, मदवा पी गई बिन तोले।
तुम आनंद को तौल-तौल कर मत पीओ, तुम बिना तौले पी जाओ। यहां कुछ दाम भी तो नहीं लग रहे हैं! आनंद का कोई मूल्य भी तो नहीं है! तुम्हें कुछ भी तो नहीं चुकाना पड़ रहा है। सिर्फ पीने की तैयारी काफी है--और कलारी खुली है; और मधुशाला के द्वार खुले हैं!
एक रात मुल्ला नसरुद्दीन ने मधुशाला के मालिक को फोन किया। कोई तीन बजे होंगे, कि मधुशाला कब खुलेगी? उसने कहा कि बड़े मियां! आधी रात, यह भी कोई पूछने की बात है। नींद से जगा दिया नाहक! मधुशाला नियम से खुलेगी, सुबह नौ बजे। उसके पहले एक मिनट पहले नहीं। सो जाओ!
पांच-दस मिनट बाद फिर फोन की घंटी आई। गुस्से में उस आदमी ने फिर फोन उठाया। मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा कि कब तक खुलेगी मधुशाला? उसने कहा कि कह दिया एक दफा कि नौ के पहले--एक मिनट पहले नहीं, चुपचाप सो जाओ!
पंद्रह मिनट बाद फिर फोन आया। तब तो वह आदमी नाराज हो चुका था कि सोने ही नहीं दे रहा है! उसने कहा कि मामला क्या है? क्या ज्यादा पी गए?
नसरुद्दीन ने कहा कि ज्यादा ही पी गए हैं। और असली बात यह है कि मैं मधुशाला के भीतर बंद हूं, बाहर नहीं। तो मुझे निकलना है, भीतर नहीं आना। मधुशाला कब खुलेगी?
तुम सोचोगे, ज्यादा पी गया होगा। पूरी मधुशाला मिल गई बिना मालिक के। रात जब दुकान बंद हुई, तब वे किसी तरह भीतर रह गए।
तुम भी आनंद को ऐसे ही पीना, खरीद के नहीं। खरीदने की कोई बात ही नहीं है। तौल-तौल के क्या पी रहे हो?
लेकिन क्यों आदमी तौल-तौल कर पीता है?... डरता है!
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं कि अगर हम ठीक से नाचने लगते हैं तो थोड़ा सा भय पकड़ता है कि कहीं ऐसा न हो कि नियंत्रण खो जाए। कंट्रोल है अपने पर, वह कहीं खो न जाए! ध्यान में जाते हैं, जैसे ही घड़ी करीब आती है जब कि विस्फोट हो, तभी भयभीत हो जाते हैं। मुझसे आकर कहते है कि वहां ऐसा लगता है कहीं हम खो न जाएं! अब तक अपने पर नियंत्रण रखा है।
नियंत्रण खोने का डर क्या है?
डर इसलिए है कि तुम्हारे समाज ने तुम्हें सप्रेशन, दमन सिखाया है। तुमने इतनी चीजें दबा रखी हैं कि नियंत्रण खो जाएगा तो तुम्हें डर है कि वे प्रकट न हो जाएं। तुम दबा कर बैठे हो बहुत सी चीजें। अगर तुमने आनंद खुल कर पिया, तो जो तुमने दबाया है वह उठ आएगा। तब बड़ी मुश्किल होगी। तब बड़ा कठिन हो जाएगा।
गुरजिएफ के पास जब भी कोई नया साधक जाता था, तो वह पहला काम करता था उसे काफी शराब पिलाने का। गुरजिएफ अनूठा गुरु था, लेकिन बहुत काम का। अनूठे ही काम के होते हैं। जिन मुर्दों को तुम पूजते हो, वे तो किसी काम के नहीं होते। तुम पूजते ही उनको इसलिए हो कि बिलकुल मुर्दा हैं, और तुम्हारे नियंत्रण को कहीं से भी नहीं तोड़ते; बल्कि तुम्हारे नियंत्रण में सहयोगी हैं, तुम्हारे दुख में सहयोगी हैं; तुम्हारे दुख को बढ़ाते हैं, जमाते हैं।
तुम जाओ अपने गुरुओं के पास। कोई कहेगा, चाय पीना छोड़ो। कोई कहेगा, सिगरेट पीना छोड़ो। कोई कहेगा, ब्रह्मचर्य का व्रत ले लो। कोई यह, कोई वह... तुम वैसे ही काफी दुखी हो, तुम वैसे ही काफी बंधे हो, तुमने वैसे ही काफी नियंत्रण थोप रखे हैं--वे और थोड़ा नियंत्रण बढ़ा देंगे; वे तुम्हारे हाथ पर थोड़ी और जंजीरें डाल देंगे। वे तुम्हें आनंद पाने के लिए नहीं उकसाएंगे; वे तुम्हें और बंधन में जाने के लिए उकसाएंगे।
यह सच है कि आनंद के उतरने पर ये सब चीजें खो जाती हैं--जो क्षुद्र तुम्हें आज पकड़े हुए हैं। वे पकड़े ही इसलिए हैं।
अगर एक आदमी शराबी है, तो उससे शराब छुड़ाने के दो उपाय हैं। एक तो उपाय यह है कि उसको वचन लो, उसको आज्ञा दो, उससे कसम खवा लो, उसको व्रत दे दो कि अब मैं शराब नहीं पीऊंगा। यह तुमने उसके हाथ पर एक और जंजीर डाल दी। और दूसरा रास्ता यह है कि उसे परमात्मा की शराब पीने की तरफ ले जाओ। और जिस दिन वह परमात्मा की शराब पी लेगा, उस दिन यह शराब छूट जाएगी। यह तुमने मुक्ति की तरफ, आनंद की तरफ बढ़ाया--बंधन नहीं डाले, तोड़े।
शराब तो छूट ही जाएगी; जब उसकी शराब पी ली तो यह शराब बदबू देने लगेगी। जब उसकी शराब पी ली तब यह शराब गंदी नाली का पानी मालूम पड़ने लगेगी। जब उसका प्रेम पा लिया तो ब्रह्मचर्य तो अपने आप घट जाएगा; उसे घटाने की कोई जरूरत नहीं। और जब उसकी संपदा मिल गई, तब इस संपदा पर, कौड़ियों पर आग्रह तुम्हारा अपने आप छूट जाएगा। पाओ, ताकि यह संसार छूट जाए। यह तो परम ज्ञानियों का सदा से संदेश है।
लेकिन जिन मुर्दों को तुम पूजते हो, वे तुम्हें और हथकड़ियां डाल देंगे। उन्होंने ही तो हथकड़ियां डाली हैं; या उनके बापदादों ने। और उन्होंने सब तरफ से तुम्हें बांध दिया है। तुम मुस्कुरा भी नहीं सकते खुल कर, क्योंकि लोग कहेंगे, यह असंस्कारी है। ऐसे कहीं खिलखिला कर हंसा जाता है। हंसते भी तुम ऊपर-ऊपर हो। तुम्हारी हंसी पेट तक नहीं जाती; क्योंकि वहां भय है। क्योंकि पेट में ही सब दमन है। वहीं कामवासना दबी पड़ी है। अगर हंसी पेट तक गई, तो तुम तत्क्षण पाओगे कि वासना जग रही है। तो डरते हो तुम। ऊपर ही ऊपर हंसते हो; श्वास तक पूरी नहीं लेते।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि श्वास तुम तभी पूरी ले सकोगे, जब कामवासना के प्रति तुम्हारा विरोध मिट जाए। तुम श्वास भी ऊपर-ऊपर लेते हो; छाती के ऊपरी हिस्से से लेते हो, भीतर तक नहीं क्योंकि अगर श्वास भीतर तक जाएगी, तो वह काम के केंद्र पर चोट करती है।
मेरे पास लोग आते हैं। जब वे ठीक से सक्रिय ध्यान करते हैं, तो वे कहते हैं: क्या मामला है? हम तो सोचते थे ब्रह्मचर्य आएगा--वासना जग रही है। मैं उनसे कहता हूं: जगेगी, क्योंकि अब तक तुमने दबाया है। पर जगने दो, भयभीत मत होओ। उसे जाग ही जाने दो, ताकि भय मिट जाए। तुम उससे गुजर जाओ। और ध्यान तुम किए जाओ। क्योंकि वासना की ही शक्ति जब ऊपर चढ़ेगी, तभी ब्रह्मचर्य बनेगी।
ब्रह्मचर्य काम का दुश्मन नहीं है--काम का रूपांतरण है। रूपांतरण के लिए पहले तो वासना का जगना जरूरी है। शक्ति हो तभी तो रूपांतरित होगी; शक्ति ही न हो तो रूपांतरण कैसा? तो तुम भयभीत मत होओ।
तुम्हारे साधु-संत तुम्हें सब तरफ से भयभीत करते हैं। एक बात सूत्र की तरह समझ लो: जो तुम्हें भयभीत करे, उससे बचना। जो तुम्हें निर्भय करे, उसके पास जाना।
गुरजिएफ के पास कोई जाता तो वह पहला काम करता कि शराब पिला देता--इतनी पिला देता कि लोग पूछते कि यह किसलिए करते हैं? तो वह लोगों को कहता कि अब बैठ जाओ। जब आदमी शराब पी लेता तो उसका सारा रूप बदल जाता उस आदमी का। क्योंकि जो-जो दबा पड़ा है, वह बाहर निकलना शुरू हो जाता है। शराब जब तक नहीं पी थी तब तक राम-राम, राम-राम, राम-राम कर रहा था, अब वह गालियां देना शुरू कर देता है।
तुम जानते हो शराबियों को? भला आदमी, लेकिन शराब पीकर... तुम कहते हो शराब की वजह से कर रहा है। कोई शराब गाली को पैदा नहीं कर सकती। कोई केमिस्ट्री सिद्ध नहीं कर सकती कि शराब से कैसे गाली पैदा हो सकती है। गाली भीतर दबी पड़ी थी, शराब ने बंधन हटा दिया, गाली उठ कर ऊपर आ गई। अब राम-राम नहीं कहता, राम चदरिया उतार कर फेंक देता है। अब तक बिलकुल शांत मालूम पड़ता था, एकदम क्रोधित हो जाता है!
मधुशाला में जाकर देखो, वहां तुम्हें असली तस्वीर दिखाई पड़ेगी आदमी की। वही तुम्हारी तस्वीर भी है। तुम सिर्फ छिपाए खड़े हो। इसलिए तो तुम डरते हो शराब पीने से, कि कहीं पी ली तो प्रकट हो जाएगा।
कभी भांग-वगैरह पीकर देखी, अनर्गल आदमी बकने लगता है! वह सब भीतर दबा पड़ा है। भांग कैसे उसे पैदा करेगी? भांग सिर्फ इतना करती है कि नियंत्रण को हटा लेती है। तुम भूल गए--समाज, संस्कार, सभ्यता--सब भूल गए; अब तुम शुद्ध आदमी हो गए, जैसे तुम हो भीतर। अब शुद्ध आदमी बाहर प्रकट होने लगा। तो जब तुम होश में थे, तब तुम कह रहे थे कि बड़ी कृपा की कि आप आए! बड़ा शकुन हुआ! आप जब आते हैं तो घर में मंगल की वर्षा हो जाती है। आपका चेहरा ही देख कर फूल खिल जाते हैं। फिर शराब पी गए और कहने लगे--निकलो बाहर! इस शकल को सुबह से यहां ले आए! जब भी तुम दिखाई पड़ जाते हो, तभी दिन खराब जाता है।
यही भीतर दबा पड़ा था, वह बाहर आ गया।
गुरजिएफ पहले भीतर के आदमी को बाहर लाता है। वह कहता है, पहले जान लेना जरूरी है कि यह आदमी भीतर कैसा है! फिर उस हिसाब से इसकी विधियां तय करेंगे। तुम सक्रिय ध्यान करते हो, कुंडलिनी करते हो, और ध्यान करते हो--उसमें तुम्हारे भीतर जो-जो दबा है, वह बाहर आ जाता है। गुरजिएफ शराब पिलाता था, मैं उसे जरूरी नहीं मानता। सक्रिय ध्यान बाहर ले आता है। देखो! सक्रिय ध्यान में जो आदमी बिलकुल शांत था। चीख रहा है, पुकार रहा है! जो आदमी बिलकुल भला मालूम होता था, कि कभी चोट नहीं करेगा, वह एकदम घूंसे तान रहा है हवा में, युद्ध कर रहा है; जैसे किसी को मार डालेगा। यह असली आदमी है।
शराब की कोई जरूरत नहीं, थोड़ा नियंत्रण ढीला करने की जरूरत है, और चीजें बाहर आ जाएंगी। यही असली है और इसी को बदलना है। वह जो नकली ऊपर-ऊपर है, वह तो रंग-रोगन है। उसका कोई भी मूल्य नहीं है। उससे कुछ सार भी नहीं है। उसमें बदलाहट करने से कुछ बदलाहट होगी भी नहीं। असली को ही बदला जा सकता है, क्योंकि वहीं शक्ति के स्रोत हैं।
सुरत कलारी भई मतवारी, मदवा पी गई बिन तोले।
तुम डरे हो आनंद पाने से, क्योंकि नियंत्रण...
जागो! नियंत्रण की फिकर छोड़ो, आनंद की फिकर मन में लाओ! थोड़े ही दिन में जैसे-जैसे आनंद उतरेगा, नियंत्रण अपने आप हट जाएगा। इसका यह अर्थ नहीं कि तुम अनियंत्रित हो जाओगे! इसका यह भी अर्थ नहीं कि तुम असामाजिक तत्व बन जाओगे, कि तुम कुछ गलत करने लगोगे, नहीं, अभी डर है, तब कोई डर न होगा, अभी तुम कभी भी असामाजिक कृत्य कर सकते हो।
हत्यारों का जीवन पढ़ो। उन हत्यारों में से कोई भी ऐसा नहीं था कि कोई भी कह सकता कि यह आदमी हत्या करेगा। ठीक तुम जैसे अच्छे-भले लोग थे; एक दिन हत्या कर दी! मनोवैज्ञानिक तो बड़े विपरीत निष्कर्ष पर पहुंचे हैं। वे कहते हैं, जो आदमी रोज थोड़ा-थोड़ा क्रोध करता रहता है, वह हत्या कभी नहीं कर सकता। वह अच्छा आदमी है क्योंकि उसका क्रोध रोज ही निकल जाता है। जो आदमी रोज चेहरा बनाए रखता है शांति का और इकट्ठा करता जाता है, वह किसी दिन हत्या कर सकता है।
विस्फोट के लिए काफी आग चाहिए। रोज ही चिनगारी निकल जाए तो विस्फोट क्या! इसलिए वह पति बेहतर, वह पत्नी बेहतर जो चौबीस घंटे में एकाध दफे कलह कर लेती है। वह पति खतरनाक, कि पत्नी कलह करती है, वह बुद्ध बने रहते हैं। यह खतरनाक है। यह किसी दिन गर्दन दबा देगा। इससे कम में उसका काम नहीं चलेगा। इतना इकट्ठा कर लेगा कि यह किसी दिन मार ही डालेगा।
साधुओं से सावधान! हत्यारे वही हो जाते हैं। तुम देखो, हिंदू-मुस्लिम दंगा हो जाए, भले-अच्छे लोग, कल तक दुकान कर रहे थे, बाजार जा रहे थे, खरीद रहे थे, बेच रहे थे, मित्र थे--अचानक सब समाप्त हो गया। वही आदमी जो रोज मस्जिद जाता था, नमाज पढ़ता था पांच बार; वह आदमी जो रोज मंदिर जाता था, राम-चदरिया ओढ़े रहता था--वे ही एक-दूसरे के मकान में आग लगा रहे हैं, हत्याएं कर रहे हैं; छोटे बच्चों को काट रहे हैं!
यह कैसे संभव होता है। यह सब भीतर दबा पड़ा है। तुम खतरनाक हो, जैसे तुम हो, तुम्हें विस्फोट के लिए जरा सी जरूरत है--बस आग पकड़ जाती है। इसलिए मनोवैज्ञानिक कहते हैं, हर दस साल में दुनिया में एक बड़ा युद्ध चाहिए ही; क्योंकि लोग इतना इकट्ठा कर लेते हैं कि अगर युद्ध में नहीं निकलेगा तो लोगों का जीवन मुश्किल हो जाएगा। और छोटे-छोटे पागलपन चाहिए ही। किसी भी बहाने पागलपन बाहर निकल आता है; कोई बहाना मिल जाए। फुटबाल खेल रहे हैं लोग। अब बड़ी हैरानी की बात है, लाखों लोग देखने इकट्ठे होते हैं, कुछ भी नहीं कर रहे हैं वे लोग, गेंद इधर-उधर फेंक रहे हैं। और ये धूप सह रहे हैं, और खेलने वालों से भी ज्यादा उछल-कूद मचा रहे हैं। झगड़े हो जाएंगे, मार-पीट हो जाएगी।
घोड़ों की रेस चल रही है, उस पर लोग जाकर दांव लगा रहे हैं; और बिलकुल पुलकित हो रहे हैं; दुखी हो रहे हैं; रो रहे हैं; हंस रहे हैं अगर तुम इनको गौर से देखो, तो तुम पाओगे; यह बड़ा पागलपन है, यह किस तरह चल रहा है! तुम किसी घोड़े को राजी न कर सकोगे। आदमियों को दौड़ाओ, घोड़े कभी न आएंगे देखने! घोड़े कहेंगे कि यह क्या पागलपन है! गधे भी न आएंगे, घोड़ों की तो छोड़ो! लेकिन घोड़े दौड़ रहे हैं और आदमी वहां खड़े हैं। बड़े समझदार लोग हैं; पैसा है, पद है, सब है; बुद्धिमान हैं--क्या कर रहे हैं? कुछ पागलपन है, जिसको निकास के लिए रास्ते चाहिए।
मुर्गे लड़ा रहे हैं! बड़े-बड़े नवाब हैं, बैठे हैं, मुर्गे लड़ा रहे हैं। मुर्गे के लड़ाने से हिंसा निकल रही है। अगर मेरे मुर्गे ने तुम्हारे मुर्गे को मार डाला तो यह प्रतीक है: मैंने तुम्हें मिटा डाला। यह बहाना है। अगर मेरा मुर्गा हार गया तो मैं रात सो न सकूंगा: हार हो गई।
फिर, मुर्गे-वगैरह महंगे काम हैं, तो लोग सस्ते काम--शतरंज! उस पर घोड़े, हाथी--नकली--असली तो महंगा है, असली हाथी रखो, असली घोड़ा रखो--वे जमाने गए, राजा-महाराजा न रहे--तो शतरंज! बैठे हैं लोग, शतरंज खेल रहे हैं। और ऐसे लीन हैं कि जैसे कबीर का वचन इन्हीं के लिए है: सुरत कलारी भई मतवारी, मदवा पी गई बिन तोले। हिंसा, क्रोध शतरंज से निकल रहा है।
हमारे खेल युद्ध के संक्षिप्त संस्करण हैं, हिंसा के रूप हैं। हम सब भांति भरे हुए हैं व्यर्थ कचरे से! तुम्हें उसे हटाना पड़ेगा। नहीं तो तुम आनंद से भयभीत रहोगे। और जो आनंद से भयभीत हो गया, वह भ्रष्ट हो गया। क्योंकि सारा जीवन आनंद के लिए है। और यह सारा जीवन, सारे जीवन की यात्रा एक ही मंजिल को मानती है--वह आनंद है।
सुरत कलारी भई मतवारी, मदवा पी गई बिन तोले।
हंसा पाए मानसरोवर, ताल-तलैया क्यों डोले।
यह सूत्र है सार का: ‘हंसा पाए मानसरोवर, ताल-तलैया क्यों डोले।’
और जब हंस को मानसरोवर मिल गया तो अब वह क्षुद्र ताल-तलैयों में क्यों भटकेगा। जिसको परमात्मा मिल गया, वह अब क्षुद्र में क्यों भटकेगा। जिसको वह आखिरी शराब मिल गई, वह अब इन मधुशालाओं में क्यों जाएगा! इनमें भी तो उसी की तलाश में जाता है।
पत्नी में तुम उसी प्रेम को खोज रहे हो, जो तुम्हें प्रार्थना से ही मिल सकता है--पति में भी तुम उसी प्रेम को खोज रहे हो--जो कोई पति से कभी नहीं मिल सकता--सिर्फ परमात्मा से मिल सकता है। धन में भी तुम वही खोज रहे हो, जो परमधन में ही मिल सकता है। पद में भी तुम वही खोज रहे हो, जो परमपद में मिल सकता है। संसार में तुम उसी को खोज रहे हो--जो संसार में नहीं है।
हंसा पाए मानसरोवर, ताल-तलैया क्यों डोले।
इसलिए असली सवाल ताल-तलैया छोड़ने का नहीं है, मानसरोवर खोजने का है। यह सवाल नहीं है कि तुम क्षुद्र को छोड़ो। क्षुद्र छोड़ने योग्य भी नहीं है--इतना क्षुद्र है। उसकी बात ही उठानी व्यर्थ है। अगर तुम क्षुद्र को छोड़ने में लगोगे, तुम उसको बड़ा महत्व दे दोगे। इतना महत्व भी नहीं है उसका। तुम तो विराट को पाने में लगो।
संसार को छोड़ना नहीं है, परमात्मा को पाना है। कबीर और नानक का यही गहनतम संदेश है। इसलिए उन्होंने संन्यासी नहीं बनाए। उनका संन्यासी गृहस्थ है। वह घर में है।
संसार को क्या छोड़ना! छोड़ने-योग्य भी नहीं है। परमात्मा को पाना है। और जिसने परमात्मा को पा लिया, संसार उसके लिए क्या बाधा है? रहा आए। ताल-तलैयाएं जहां हैं, रहे आएं। मेरा मानसरोवर मुझे मिल गया, मैं ताल-तलैयों में नहीं डोलता। ताल-तलैयों को छोड़ कर भागने की कोई जरूरत नहीं है। ताल-तलैयों को मिटाने की भी कोई जरूरत नहीं। अभी जिनको मानसरोवर नहीं मिले हैं, उनके लिए कुछ तो बचने दो। जिनको मानसरोवर नहीं मिला है, कम से कम ताल-तलैया रहने दो!
जीवन के दो ढंग हैं। एक ढंग है--नकारात्मक, निगेटिव; एक ढंग है--विधायक, पाजिटिव। एक ढंग है कि जो गलत है, उसको छोड़ो; वह नकारात्मक है। और दूसरा ढंग है कि जो सही है, उसे पाओ; वह विधायक है। तुम नकारात्मक से बचना, क्योंकि निषेध सिर्फ मृत्यु में ले जाता है।
मैं तुमसे नहीं कहता: धन छोड़ो। मैं तुमसे नहीं कहता: घर छोड़ो। मैं तुमसे कहता हूं: जागो! यह घर तुम्हारे लिए काफी नहीं है, बड़े घर को खोजो! और बड़ा घर मिल जाए तो तुम इस घर में भी रहे आओगे, लेकिन कमलवत हो जाओगे। यह घर तुम्हें छुएगा नहीं। तुम रहोगे संसार में और संसार के बाहर रहोगे, संसार तुम्हारे भीतर प्रवेश न करेगा।
हंसा पाए मानसरोवर, ताल-तलैया क्यों डोले।।
तेरा साहिब है घर मांही, बाहर नैना क्यों खोले।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, साहिब मिल गए तिल ओले।।
तेरा साहिब है घर मांही, बाहर नैना क्यों खोले।
संसार का अर्थ है: जो भीतर है उसे हम बाहर खोज रहे हैं। धर्म का अर्थ है: जो जहां है उसे हम वहीं खोज रहे हैं।
सूफी फकीर औरत हुई, राबिया। बड़ी बहुमूल्य! स्त्रियों में दो-चार स्त्रियां ही मनुष्य-जाति के इतिहास में इस ऊंचाई तक पहुंची हैं, जहां राबिया है। एक दिन लोगों ने देखा, घर के बाहर कुछ खोजती है। बूढ़ी औरत! तो दूसरे लोग साथ देने आ गए। पुरानी कहानी है, अब तो कोई नहीं आता। छोटा गांव, पास-पड़ोस के लोग आ गए। उन्होंने कहा कि राबिया, क्या खो गया है।
उसने कहा: मेरी सुई खो गई है।
तो खोजने लगे वे भी। सांझ का ढलता सूरज, अंधेरा उतरता है। फिर एक आदमी ने पूछा कि सुई बहुत छोटी चीज है, रास्ता बड़ा है, कहां गिरी? ठीक जगह बताओ तो मिल भी जाए। अन्यथा रात उतरने के करीब है।
राबिया ने कहा: वह मत पूछो कि कहां गिरी, क्योंकि गिरी तो घर के भीतर है।
वे सब हंसने लगे, उन्होंने कहा: राबिया, पागल तो नहीं हो गई? अगर सुई घर के भीतर गिरी है तो बाहर क्यों खोज रही है?
राबिया ने कहा: मजबूरी है। घर में दीया नहीं है, अंधेरा है। और अंधेरे में खोजने से क्या सार! बाहर खोजती हूं, सूरज की थोड़ी रोशनी शेष है। रोशनी में ही खोजा जा सकता है।
लोगों ने कहा: पागल, रोशनी में खोजा जा सकता है, यह सच है। लेकिन अगर खोया ही न हो वहां, तो रोशनी भी क्या करेगी? रोशनी कोई सुई को बना तो न देगी। अच्छा हो राबिया कि दीये को हम घर के भीतर ले जाएं। क्योंकि जो चीज जहां खोई है, वहीं मिलेगी।
राबिया ने कहा कि तुम बड़े समझदार हो लोगो, लेकिन अपनी जिंदगी में तुमने ऐसा नहीं किया। और मैं वैसा ही कर रही हूं, जैसा तुमने अपनी जिंदगी में किया है। भीतर जिसे खोया है, तुम बाहर खोज रहे हो। तो मैंने सोचा यही तर्क तुम्हारा है; तुम्हारी बस्ती में रहती हूं, इसी तर्क को मान कर चलना ठीक है। लेकिन तुम मुझे पागल कह रहे हो।
तुमने कभी सोचा कि तुमने आनंद कहां खोया है?
तुमने आनंद कारों में खोया है, बड़े मकानों में खोया है, तिजोड़ियों में खोया है--तुम्हें याद आता है कभी? तुम जब इस संसार में आए थे, तो न तो तिजोड़ियां साथ लाए थे, न बड़ी कारें, न बड़े मकान। तुम क्या लेकर आए थे? लेकिन आनंद तुम्हारे साथ था--तुम प्रफुल्लित थे। बच्चे की भांति तुम परम आनंदित थे, आह्लादित थे। आनंद तुम भीतर लेकर आए थे।
एक बात समझ लेना जरूरी है कि जिसका हमने स्वाद न लिया हो, उसे हम खोजेंगे कैसे। हर आदमी आनंद खोज रहा है। इसका मतलब है कि कभी न कभी उसने आनंद को जाना है, कोई स्वाद पहचाना है, खोजोगे कैसे?
हर बच्चा आनंद से पैदा होता है। हर बच्चा आनंद के जगत से आता है। हर बच्चा अपने भीतर आनंद की धुन लाता है। फिर धीरे-धीरे हम उस पर हावी हो जाते हैं, समाज संस्कारित करता है।
इसीलिए तो तुम्हें चार साल के पहले की याद नहीं आती। तुम खोजने की कोशिश करो अपने अतीत में, तो तीन साल, चार साल, पांच साल--बस उस उम्र तक तुम याददाश्त ले जा सकोगे। फिर याददाश्त समाप्त हो जाती है। क्यों? क्या कारण है? तुम थे, तो याददाश्त तो होनी चाहिए। लेकिन तुम इतने आनंदित थे कि याददाश्त तो दुख की बनती है, आनंद की नहीं बनती। जब जूता पैर में ठीक आ जाता है तो दर्द होता ही नहीं, तो याददाश्त कैसे बनेगी? तुम चार-पांच साल की उम्र तक याद नहीं कर पाते, क्योंकि तुम इतने प्रफुल्लित थे, इतने प्रसन्न थे, याददाश्त बनी ही नहीं। दुख ही न था तो लकीर ही न खिंची। तुम्हारा मन कोरा का कोरा रहा।
आनंद की कोई लकीर नहीं खिंचती। आनंद तो आकाश में उड़ते हुए पक्षियों की भांति है, उनके पद-चिह्न नहीं छूटते। इसलिए तुम याद नहीं कर पाते। मगर कुछ अनजानी धुन भीतर गूंजती रहती है। इसलिए बूढ़े से बूढ़ा आदमी भी कहता है कि बस, बचपन सब-कुछ था। बचपन के गीत गाता है।
जीसस कहते हैं: जब तक तुम पुनः बच्चों की भांति न हो जाओगे तब तक प्रभु का राज्य तुम्हें न मिल सकेगा। इसका अर्थ ही हुआ कि बच्चों को कुछ प्रभु के राज्य की झलक थी। निश्चित थी। आनंद भीतर था, समाज ऊपर से छा गया। शिक्षा और संस्कार ने सब दबा दिया। तुम्हें फिर से शिक्षा और संस्कार काटना पड़े, और अपने भीतर के आनंद की तलाश करनी पड़े।
तेरा साहिब है घट मांही, बाहर नैना क्यों खोले।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, साहिब मिल गए तिल ओले।।
‘तिल’ शब्द को समझना उपयोगी है। आंख खोल कर तुम देखते हो, हिमालय दिखाई पड़ता है--विराट हिमालय! उत्तुंग उसके शिखर! आकाश को छूती हुई उसकी भुजाएं। हिम से ढंके हुए हिमालय को तुम देखते हो। इतना विराट हिमालय और तुम्हारी छोटी सी आंख इतने बड़े हिमालय को देख पाती है। अगर हिमालय को छिपाना हो तुम्हारी आंख से, तो क्या करना पड़े? एक छोटा सा तिल तुम्हारी आंख में डाल देना काफी है। कोई हिमालय को छिपाने की जरूरत नहीं, बस एक छोटा सा रेत का टुकड़ा तुम्हारी आंख में डाल देना जरूरी है। बस, आंख तिलमिला गई, हिमालय खो गया। हिमालय छिप गया तिल की ओट में। आंख में किरकिरी--और हिमालय खो गया। एक जरा से रेत के टुकड़े ने, जो आंख से दिखाई भी न पड़े, उसमें हिमालय दब गया इतना विराट!
कबीर कहते हैं: ऐसा ही तुम्हारा साहब खो गया है। आंख में जरा सा तिल, जरा सा कचरा पड़ गया है, और इतना विराट परमात्मा छिप गया है! तुम्हें कुछ परमात्मा को खोजने के लिए और नहीं करना, सिर्फ आंख को साफ कर लेना है; आंख की किरकिरी को साफ कर लेना है। साफ आंख--और परमात्मा उपलब्ध है। वह सदा वहां मौजूद है।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, साहिब मिल गए तिल ओले।
तिल की ओट में छिपा है साहब, मालिक, प्रभु! खोजने कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं, बस आंख से तिल हट जाए।
क्या है तिल? किस आंख और किस तिल की बात कर रहे हैं कबीर?
तुम्हारा अहंकार बस रेत की तरह तुम्हारी आंख पर पड़ा है। ‘मैं हूं’--यही है तिल। इसी के नीचे वह छिप गया है--जो वस्तुतः है। और जैसे ही तुम हटा दोगे कि ‘मैं हूं’, यह गया, वही हो गया। मैं के हटते ही तिल हट जाता है, साहब मिल जाते हैं।
तुम जब तक हो, तब तक तुम उसे न पा सकोगे। तुम अपने को जिस क्षण खोने को राजी हो जाओगे, उसी क्षण वह मिला हुआ है। वह मिला ही हुआ था। उसे कभी खोया ही न था, बस आंख में तिल पड़ गया था।
इस पद को मैं पूरा दोहरा देता हूं, ताकि तुम्हारे हृदय में गूंजता रह जाए...
मन मस्त हुआ तब क्यों बोले।
हीरा पायो गांठ गठियायो, बार-बार बाको क्यों खोले।
हलकी थी तब चढ़ी तराजू, पूरी भई तब क्यों तोले।।
सुरत कलारी भई मतवारी, मदवा पी गई बिन तोले।
हंसा पाए मानसरोवर, ताल-तलैया क्यों डोले।।
तेरा साहिब है घट मांही, बाहर नैना क्यों खोले।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, साहिब मिल गए तिल ओले।।

आज इतना ही।

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