MEDITATION
Suno Bhai Sadho 08
Eighth Discourse from the series of 20 discourses - Suno Bhai Sadho by Osho. These discourses were given in KKB during NOV 11-20 1974.
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संतो जागत नींद न कीजै।
काल न खाय कलप नहिं व्यापै, देह जरा नहिं छीजै।।
उलट गंग समुद्रहि सोखै, ससिं ओ सूरहि ग्रासै।
नवग्रह मारि रोगिया बैठे, जल मंह बिंब प्रगासै।।
बिनु चरनन को दहं दिसि धावै, बिनु लोचन जग सूझै।
ससै उलटि सिंह कंह ग्रासै, ई अचरज को बूझै।।
औंधे घड़ा नहीं जल बूड़ै, सूधे सों जल भरिया।
जिहि कारन नल भींन भींन करु, गुरु परसादे तरिया।।
पैठि गुफा मंह सब जग देखै, बाहर किछुउ न सूझै।
उलिटा बान पारधिहि लागै, सुरा होय सो बूझै।।
गायन कहे कवहुं नहिं गावै, अनबोला नित गावै।
नट वट बाजा पेखनि पेखै, अनहद हेत बढ़ावै।।
कथनी बदनी निजुके जोहै, ई सभ अकथ कहानी।
धरती उलटि आकासहि बेधै, ई पुरखन की बानी।।
बिना पियाले अमृत अंचवै, नदिय नीर भरि राखै।
कहहिं कबीर सो जुग-जुग जीवै, राम सुधारस चाखै।।
संतो जागत नींद न कीजै।
दो अर्थ हैं इस वचन में। दोनों ही जरूरी और समझ लेने योग्य। पहला तो साधारणतः हम परिचित हैं कि हम जागे हुए भी सोए-सोए हैं। हमारे जागने में त्वरा, तीव्रता नहीं है। हमारा जागरण ऐसा नहीं है कि लपट हो। हमारा जागरण बहुत ही टिमटिमाते दीये की तरह है। हमारे जागरण में नींद मिश्रित है। उठते हैं, बैठते हैं, चलते हैं, काम भी करते हैं, लेकिन जैसे कोई सोए-सोए चल रहा हो।
एक बीमारी होती है--सोमनाबुलिज्म--नींद में चलने की बीमारी। उस बीमारी का मरीज आंख खुली रखता है, रात उठ जाता है नींद से, काम कर आता है, भोजन कर आता है जाकर चौके में, वापस लौट कर सो जाता है। और सुबह उसे याद भी नहीं होती कि रात वह चौके में गया। सुबह वह खुद ही चकित होता है। अगर वह घर में अकेला है तो सोचेगा कि भूत-प्रेत हैं: कौन रात भोजन कर गया! किसने रात कपड़े फाड़ डाले! वह खुद ही फाड़ देता है रात। किसने आग लगा दी! किसने बर्तन फेंक दिए! कोई याद नहीं रह जाती सुबह।
यह जो नींद में जागने वाला मरीज है, ऐसी हमारी दशा भी है--थोड़ी कम मात्रा में। लेकिन हमारी नींद टूटती नहीं। धीमी-धीमी नींद हम पर छाई ही रहती है। एक गहन आलस्य हमें घेरे हुए है। एक अंधकार हमारे भीतर बना रहता है। और इस नींद का जो प्राथमिक लक्षण है, वह यह कि जो भी हम करते हैं, वहां हम नहीं होते हैं। भोजन कर रहे हैं; यंत्रवत हाथ कौर बना लेता है, मुंह में डाल लेता है। मन हमारा न मालूम कहां भटक रहा है! मन कोई सपने देख रहा है। मन वहां है ही नहीं। फिर भी हम कौर बनाते हैं, मुंह में रोटी डाल लेते हैं, चबा लेते हैं, भोजन कर लेते हैं, उठ जाते हैं। कोई भी देखने वाला कहेगा कि हम जागे हुए कर रहे हैं। लेकिन हम जागे हुए नहीं कर रहे हैं, हम सोए-सोए कर रहे हैं? जागना तो तभी संभव होता है, जब हमारा पूरा होश वर्तमान क्षण में केंद्रित हो; जो भी हम कर रहे हों, वहीं हमारा पूरा मन हो। पूरी चेतना हो।
चेतना का वर्तमान से जुड़ जाना जागरण है; और चेतना का वर्तमान से टूट जाना निद्रा है।
नींद को हम नींद इसीलिए कहते हैं कि वर्तमान से हमारा पूरा संबंध टूट जाता है। तुम सो रहे हो अपने बिस्तर पर, सोच रहे हो: किसी सम्राट के महल में विश्राम कर रहे हैं! सो रहे हो यहां--सपना देख रहे हो, कलकत्ता, लंदन, न्यूयार्क का। और जब तुम सपना देखते हो तब तुम्हें क्षण भर भी याद नहीं आती कि तुम अपने घर में, पूना में विश्राम कर रहे हो। सुबह जाग कर तुम खुद ही हंसोगे कि बड़ी दूर की यात्रा की, बड़े दूर चले गए।
सपने का अर्थ है: जहां तुम हो वहां से दूर चले जाना; जो तुम हो उससे दूर चले जाना; जो तुम नहीं हो वह हो जाना; जहां तुम नहीं हो वहां पहुंच जाना।
असत्य सत्य जैसा दिखाई पड़ने लगे तो सपना!
सत्य सत्य जैसा दिखाई पड़ जाए तो जागना।
तो हम सब सोए हैं। इस पहले अर्थ को ठीक से समझ लें।
संतो जागत नींद न कीजै।
जागते-जागते सोओ मत!
मुल्ला नसरुद्दीन एक प्रवचन में सुनने गया था। जो बोलने वाला गुरु था, वह थोड़ा बेचैन हुआ, क्योंकि मुल्ला नसरुद्दीन और उसकी पत्नी दोनों ही सामने बैठे थे। और पत्नी तो थोड़ी ही देर बाद गुर्राटे लेने लगी। और थोड़ी देर बाद जब उसने गुर्राटा लेना शुरू किया, मुल्ला ने अपनी छड़ी उठाई और चलता बना। वह और भी दुखी हुआ, बोलने वाला। प्रवचन के बाद उसने पत्नी को पूछा, यह तो पूछना ठीक न मालूम पड़ा कि आप सो गईं, क्या मेरा व्याख्यान इतना उबाने वाला था; पर उससे यह न रहा गया बिना पूछे कि आपके पति उठ कर चले गए, क्या मैंने कोई ऐसी बात कही जिससे उन्हें चोट पहुंची हो? पत्नी ने कहा कि नहीं, आप बिलकुल निश्चिंत रहें, उन्हें नींद में चलने की बचपन से आदत है।
संतो जागत नींद न कीजै।
जब जागे हो तब पूरी तरह जागो। इसका एक परिणाम होगा कि जब तुम सोओगे तब तुम पूरी तरह सोओगे। अभी न तो तुम पूरी तरह जाग पाते हो, न पूरी तरह सो पाते हो। तुम्हारे जागरण में नींद बनी रहती है, तुम्हारी नींद में जागरण बना रहता है। सब मिश्रित है--एक कंफ्यूजन है। सब गोलमाल है। तुम एक खिचड़ी हो, एक साफ-सुथरापन नहीं। इसीलिए, जो लोग भी जागते में नींद करेंगे, उनकी नींद में जागरण घुस जाएगा। यह स्वाभाविक है। इसलिए सारी दुनिया में लोगों की नींद खोती जा रही है। इस समय बड़े से बड़ा सवाल आदमी के सामने है कि नींद को कैसे बचाया जाए?
हजारों प्रकार के ट्रैंक्वेलाइजर हैं, नींद की दवाएं हैं, लेकिन सब व्यर्थ होती जा रही हैं। रूस में उन्होंने विद्युत के छोटे-छोटे यंत्र बनाए हैं जिनका उपयोग किया जा रहा है। हम तो पागल के लिए ही सिर्फ विद्युत के शॉक देते हैं। वह भी शॉक ही हैं विद्युत के, झटके ही हैं, लेकिन बहुत कम मात्रा में। उस यंत्र को सिर से लगा देते हैं रात, वह यंत्र बिजली फेंकता है मस्तिष्क में, तब नींद आ पाती है। हजारों घरों में वह यंत्र लगा दिया गया है रोजमर्रा के उपयोग की तरह। और मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि इस सदी के पूरे होते-होते, ऐसा आदमी खोजना मुश्किल होगा, कम से कम पश्चिम में, जो स्वाभाविक नींद सोता हो; जो कहे कि बिस्तर पर सिर रख लेता हूं और सो जाता हूं। सौ साल बाद लोग भरोसा ही न कर सकेंगे कि एक जमाना था दुनिया में जब लोग बिना कुछ किए सो जाते थे। हम भी भरोसा नहीं कर पाते। जब कोई कहता है कि महावीर या बुद्ध वृक्ष के नीचे बैठे या खड़े-खड़े ध्यान को उपलब्ध हो गए। और जब कोई कहता है, बुद्ध ने कुछ भी न किया और ध्यान को उपलब्ध हो गए, तो हमें भरोसा नहीं आता।
ठीक ऐसी ही हालत नींद के संबंध में हुई जा रही है--अभी भी हो गई है। जो अनिद्रा से पीड़ित है, इनसोमेनिया से, उससे कहो, वह तुमसे पूछेगा, वह जगह-जगह पूछता फिरता है कि मुझे नींद नहीं आती, आप कैसे सो जाते हैं? तो तुम कहोगे कि हम कुछ करते नहीं, सोने के लिए कोई उपाय, विधि भी नहीं है। हम तो सिर्फ सिर रखते हैं तकिए पर और सो जाते हैं। तो वह कहेगा कि जरूर झूठ बोल रहे हो, क्योंकि सिर तो मैं भी रखता हूं तकिए पर और करवटें बदलता हूं, रात भर उठाता हूं और रखता हूं--नींद नहीं आती। जरूर कोई तरकीब होगी, जो लोग छिपा रहे हैं। जरूर कोई षडयंत्र है मेरे खिलाफ: सारी दुनिया सो रही है और मैं जाग रहा हूं!
क्या हो गया है उस आदमी के भीतर जो रात सो नहीं पाता? वह दिन में नींद कर रहा है। जब वह जागा हुआ है, तब नींद कर रहा है। और जब तुम्हारे जागने में नींद चली जाएगी, तो स्वभावतः तुम्हारी नींद में जागना चला जाएगा। तुम एक घोलमेल हो जाओगे। तुम्हारे जीवन में कुछ भी साफ-सुथरा नहीं रह जाएगा। तुम्हारे प्रेम में घृणा घुस जाएगी। तुम्हारी घृणा में प्रेम घुस जाएगा। तुम मित्र को भी नफरत करोगे, तुम शत्रु को भी प्रेम करोगे। तुम्हारी जिंदगी एक बेबूझ पहेली हो जाएगी।
यह तो पहला अर्थ है कि जागते समय तुम जागना, ताकि सोते समय तुम सो सको। रात रात है; दिन दिन है। दिन को पूरी तरह जागना, ताकि रात पूरी तरह सो सको।
लेकिन कुछ भी तुम्हारी जिंदगी में साफ-सुथरा नहीं है। घर आते हो तब तुम दफ्तर की सोचते हो। दफ्तर जाते हो तब तुम घर की सोचते हो। तुम पागल मालूम होते हो। जब दफ्तर गए हो तब दफ्तर को पूरा कर लो।
मैं एक हाईकोर्ट के न्यायाधीश के घर मेहमान हुआ करता था। जब उनसे निकटता बढ़ गई तो उनकी पत्नी ने एक दिन कहा कि मेरे पति आपके भक्त हैं। एक बात भर उन्हें समझा दें कि न्यायाधीशपन अदालत में रख आएं। रात सोते समय बिस्तर पर भी वे मजिस्ट्रेट बने रहते हैं। हम जैसे नौकर-चाकर हैं, या अपराधी हैं। वे मजिस्ट्रेट होने से नीचे उतरते ही नहीं। सारा घर पागल हुआ जा रहा है उनके मजिस्ट्रेटपन से।
तुम व्यापार को घर ले आते हो। पत्नी के पास बैठे हो, बीच में तिजोरी रखी है, खाते-बही का ढेर लगा है--फिर पत्नी से मिल नहीं पाते, प्रेम नहीं कर पाते, बच्चे के साथ खेल नहीं पाते, हंस नहीं पाते। पहुंचे दफ्तर--वहां पत्नी खड़ी है, बच्चे आस-पास खड़े हैं।
तुम जो भी करते हो, अधूरा है। तो जो अधूरा लटका रह जाता है, जो हैंगओवर, वह तुम्हारा पीछा करता है। जागा हुआ आदमी हर काम को पूरा करता है; पूरे होश से करता है; अपनी समग्र चेतना को दांव पर लगा देता है--वह चाहे क्षुद्र से क्षुद्र काम क्यों न हो। प्यास लगी है, और वह पानी क्यों न पी रहा हो, चाय क्यों न ले रहा हो--वह पूरे होश से चाय लेता है। वह बात को वहीं समाप्त कर देता है। वह आगे-पीछे कुछ हिसाब-किताब बाकी नहीं रखता। वैसा आदमी जागता भी पूरी तरह है, सोता भी पूरी तरह है। वैसे आदमी के जीवन में एक प्रगाढ़ शांति फैल जाती है। उसका कोई भी काम अधूरा नहीं है। मौत अगर अभी आ जाए और उससे कहे, उठो, तो वह तैयार पाएगी, क्योंकि उसको कुछ बचा नहीं है, जो करना है। जो भी उसे करना था, वह हमेशा पूरा कर लिया है।
लेकिन अगर मौत आज तुम्हारे द्वार पर आए, तुम तैयार न पाओगे अपने को। तुम कहोगे, थोड़ी देर... कल किसी को गाली दी थी, उससे क्षमा मांगनी है। और कल किसी से रुपये उधार लिए थे, उसके वापस लौटाने हैं। और न मालूम कितने कल बीत गए हैं, और न मालूम कितने जाल अधूरे रह गए हैं, वे सब पूरे करने हैं। अभी तो वक्त नहीं है।
इसलिए हर आदमी असमय मरता है। सिर्फ जागा हुआ आदमी समय पर मरता है--कभी भी मरे! तुम यह नहीं कह सकते कि बुद्ध समय के पहले मर गए। बुद्ध समय के पहले कभी मरते ही नहीं। क्योंकि हर घड़ी जब भी मौत आए, समय है।
एक अमीर आदमी था। उसने एक बहुमूल्य तोता पाल रखा था। तोते को दरवाजे पर लटका रखा था। और उसको सिखा रखा था कि जब भी मैं बाहर जाऊं, तब-तब कहना कि मालिक! हुजूर! स्वामी! जल्दी करिए। वैसे ही बहुत देर हो गई है। भाग-दौड़ की दुनिया, उसमें उसने तोते को भी भगाने की तरकीब सिखा रखी थी। सीढ़ियां उतरता तो वह तोता फौरन कहता, मालिक, जल्दी करिए, वैसे ही बहुत देर हो गई है। फिर वह आदमी मरा, और जब अरथी निकाली जा रही थी, तब तोता बोला: मालिक, जल्दी करिए, वैसे ही बहुत देर हो गई है।
तोते को क्या पता कि अब मालिक मर चुका है! लेकिन मालिक मरा जल्दी ही जल्दी करने में, कुछ भी पूरा नहीं कर पाया। हर चीज में भागा हुआ था। इधर पूरा नहीं हो पाता कि भागते हम हैं दूसरी चीज को पूरी करने; दूसरी पूरी हो नहीं पाती कि तीसरी को पूरा करने... पूरी जिंदगी एक भाग-दौड़ हो जाती है। एक आपाधापी! आखिर में हम पाते हैं, कुछ भी तो पूरा नहीं हुआ।
और ध्यान रखना, अगर तुम्हारे सब काम अधूरे रह गए तो तुम अधूरे रह गए। अगर तुम्हारे सब काम पूरे हो गए तो तुम पूरे हो गए। एक ही पूर्णता है कि सब काम पूरे हो जाएं। और एक ही तृप्ति है, जब तुम्हारा सब काम पूरा हो जाता है तो उस काम के पूरे होने के बीच में एक गहन शांति तुम पर छा जाती है! एक शांति से भरा आकाश तुम पर उतर आता है। वह परिपूर्णता का, फुलफिलमेंट का आकाश है। वह तृप्ति का, एक संतोष... सब काम पूरा हो गया। लेकिन तुम्हारे तो सब काम पूरे नहीं होंगे। तुम्हारे क्षुद्र काम पूरे नहीं होते। वह भी तुम्हारा पीछा करते हैं। खाते वक्त तुम भागे हुए हो। किसी तरह खा लिया--अब सड़क पर तुम भोजन के संबंध में सोच रहे हो! प्रेम करते वक्त किसी तरह प्रेम कर लिया, जल्दी की, अब तुम रास्ते पर दूसरी स्त्रियों को, पुरुषों को देख रहे हो और प्रेम की कामना उठ रही है। तुम्हारा सब अधूरा है।
अधूरापन तुम्हारा रोग है। तुम अगर ठीक से स्वाद ले लो तो भोजन का विचार न आएगा। तुमने अगर ठीक से प्रेम किया तो वासना तिरोहित हो जाएगी। जिस चीज को भी हम परिपूर्णता से भोग लेते हैं, उससे छुटकारा हो जाता है।
मुक्ति अनुभव का नाम है। और जो अनुभव अधूरा है, वह तुम्हें बांधे रखेगा।
संतो जागत नींद न कीजै।
यह तो पहला अर्थ है। दूसरा अर्थ तुम्हें अभी खयाल में शायद न आ सके, क्योंकि दूसरा अर्थ तो उन्हीं को खयाल में आएगा जो ध्यान में गहरे उतर रहे हैं। एक ऐसी घड़ी आती है, जैसा कल मैंने कहा कि समाधि और सुषुप्ति समान हैं। एक ही फर्क है कि सुषुप्ति में गहरी नींद है, समाधि में परिपूर्ण जागरण है; बाकी सब एक जैसा है।
ध्यान की जो लोग गहराई में उतर रहे हैं, उनके खयाल में आ जाएगी बात। एक ऐसी घड़ी आती है जब ध्यान सधने के करीब होता है, तो तुम सुषुप्ति और समाधि के बीच की रेखा पर खड़े होते हो। वहां तुम चाहो तो सो भी जा सकते हो, तुम चाहो तो जाग भी सकते हो। पतंजलि ने उसके लिए अलग ही नाम खोज लिया है। वह नाम है: ‘योग-निद्रा।’ ठीक जब तुम शांत हो गए, परिपूर्ण शांत हो गए--अभी आनंद नहीं उतरा है--अभी तुम कबीर की तरह नहीं कह सकते कि ‘आनंद भयो है, अनहद बाजत ढोल रे।’ नहीं, अभी कोई ढोल बजा नहीं, अभी कोई आनंद नहीं हुआ, अभी अमृत की कोई वर्षा नहीं हुई, लेकिन तुम शांत हो गए हो! संसार गया, मोक्ष अभी नहीं आया। रात बीत गई है, सूरज अभी नहीं ऊगा--भोर है, मध्य में खड़े हो। इसको हिंदुओं ने संध्याकाल कहा है। इसलिए वे दो संध्याएं बनाई हैं उन्होंने। सुबह--रात जा चुकी, सूरज अभी ऊगा नहीं--वह प्रार्थना का क्षण है। सांझ--जब सूरज डूब गया, रात अभी आई नहीं--वह भी प्रार्थना का क्षण है। ये दो संध्याएं प्रार्थना के काल हैं। लेकिन ये प्रतीक हैं। ऐसी ही संध्या भीतर घटित होती है। वही असली संध्या है। जब नींद, संसार, अंधेरा जा चुका; सूरज अभी ऊगा नहीं; आनंद अभी हुआ नहीं; अभी ढोल बजा नहीं; संसार का शोरगुल खो गया। एक शांति का संगीत भीतर है लेकिन अभी आनंद नहीं हुआ है। गलत छूट गया है, ठीक अभी आया नहीं। यह किनारा तो चला गया, अभी वह किनारा नहीं आया है--मझधार है। उस हालत में दो संभावनाएं हैं: या तो तुम सो जाओ, क्योंकि शांति इतनी घनी है, नींद बड़ी आनंदपूर्ण होगी। ऐसी नींद तुमने कभी देखी न होगी। वह इतनी गहन होगी। और जब उस नींद से तुम उठोगे तो इतना ताजा पाओगे कि जैसे हजारों साल सोए हो, इतनी ताजगी है। लेकिन वह नींद खतरनाक है; क्योंकि उस नींद में तुम अगर डूब गए... सुखद है वह नींद, लेकिन अगर डूब गए तो आनंद की जो घटना घटने के करीब थी, वह चूक गई।
योग-निद्रा बड़ी शांतिदायी है; लेकिन नकारात्मक है। और योग-निद्रा के वक्त अपने को सम्हाल कर रखना बहुत कठिन है। क्योंकि तुम साधारण निद्रा के समय ही अपने को नहीं सम्हाल सकते, जब नींद आती है, जम्हाई उठती है, पलकें झपकी जाती हैं, भारी हो जाती हैं जैसे पत्थर बंधे हों, तब तुमसे कोई कहे कि जागे रहो एक क्षण और, तो जागना मुश्किल हो जाता है। जब साधारण नींद इतने जोर से पकड़ती है तो वह तो असाधारण नींद है--योग-तंद्रा। उस समय तो तुम्हारा रोआं-रोआं इतना शांत होता है, तुम एक शांति के सागर हो गए होते हो। उस समय तो बिलकुल सो जाने की तबियत होती है। और इतना सुख मालूम होगा उस सो जाने में कि तुम भूल ही जाओगे। शायद तुम यह भी समझ लो कि यही आनंद है, जिसकी कबीर, नानक चर्चा करते हैं।
बहुत से साधन योग-तंद्रा तक ही ले जाते हैं। जैसे महेश योगी की ध्यान की विधि, बस योग-तंद्रा तक ले जाती है। भावातीत ध्यान जिसे वे कहते हैं--ट्रांसेंडेंटल मेडिटेशन--वह योग-तंद्रा के आगे नहीं ले जाती। इसलिए पश्चिम में उसका बहुत प्रभाव पड़ा, पूरब में कोई प्रभाव नहीं पड़ा। पश्चिम में प्रभाव पड़ा, क्योंकि पश्चिम में नींद बड़ी कठिन हो गई है। पूरब में तो लोग अभी भी मजे से सो रहे हैं। पश्चिम में नींद बड़ी मुश्किल हो गई है। नींद बड़े से बड़ा सवाल है। इसलिए महेश योगी की ध्यान-पद्धति का अमरीका पर काफी प्रभाव पड़ा। लोगों को नींद आने लगी। यह कोई छोटी घटना नहीं है, कीमती है। और लोगों ने बड़ा सुख भी पाया।
लेकिन सुख आनंद नहीं है। सुख केवल दुख का अभाव है। बीमारी चली गई, लेकिन अभी स्वास्थ्य का नर्तन नहीं हुआ है। और बीमारी का चले जाना ही स्वास्थ्य नहीं है। स्वास्थ्य एक पाजिटिव, एक विधायक स्थिति है।
इसे थोड़ा समझने की कोशिश करें।
अगर आपके शरीर में कोई बीमारी नहीं है, तो चिकित्सक कहेगा, स्वस्थ हो; मैं कोई गड़बड़ नहीं देखता। सब जांच-पड़ताल कर ली, कोई बीमारी नहीं है, ठीक हो। लेकिन आप जानते हो कि ठीक होने और ठीक होने में फर्क है। एक ऐसा ठीक होना है, जिसमें एक वैलबीइंग, एक भीतरी आनंद की भाव-दशा होती है। जैसे भरे-पूरे, फूल ही फूल खिल गए। जैसे धारा जीवन की बाढ़ से भर गई, दोनों किनारे तोड़ कर बहने लगी। एक मस्ती स्वास्थ्य की! पैर रखते हैं, लेकिन पैर में एक नृत्य है। बोलते हैं, बोलने में संगीत है। आंख खोलते हैं, आंखों में एक माधुर्य है। शक्ति प्रगाढ़ होकर बह रही है। एक तो स्वास्थ्य की वह दशा है। और एक स्वास्थ्य की वह दशा है, जब कोई बीमारी नहीं है। तो चिकित्सक बीमारी नहीं पकड़ता; वह कहता है, स्वस्थ हैं। लेकिन आप बिलकुल ढीले बैठे हैं, मुर्दे की तरह। बीमारी कोई भी नहीं--न सिर दुख रहा है, न पेट दुख रहा है, न हाथ-पैर टूटा हुआ है, न कोई पलस्तर बंधा है--ठीक बैठे हैं; लेकिन कहीं कोई मस्ती नहीं है; कहीं कोई अहोभाव नहीं है। ऐसा नहीं है कि उठें और नाचें, ऐसा नहीं है कि गीत गाएं। ऐसा नहीं है। बस, बैठे हैं--एक सुस्त, मुर्दे की भांति।
मुर्दा भी बीमार नहीं होता। आप भी बीमार नहीं हैं। मुर्दे में भी बीमारी नहीं पाई जा सकती; आपमें भी बीमारी नहीं है। आपका स्वास्थ्य सिर्फ अभाव है, बीमारी की गैर-मौजूदगी है। ठीक ऐसी ही घटना योग-तंद्रा में घटती है। तनाव खो जाते हैं, मस्तिष्क की संताप की अवस्था खो जाती है, चिंता मिट जाती, कोई फिकर नहीं रह जाती। बड़ी शांति मालूम पड़ती है। लेकिन योग-निद्रा समाधि नहीं है; बस समाधि के द्वार तक ले जाती है। असली यात्रा उसके आगे शुरू होती है।
इसलिए कबीर कहते हैं:
संतो जागत नींद न कीजै।
वे साधुओं से बोल रहे हैं, संन्यासियों से बोल रहे हैं। इसलिए मैं भी कबीर पर इतने दिन तक नहीं बोला; पहले साधु और संन्यासी तो मेरे पास हों। तो कबीर पर चुप ही रहा, क्योंकि कबीर पर बोलना है तो संतों से ही बोला जा सकता है, जो ध्यान कर रहे हों। नहीं तो उनकी समझ में ही न आएगा। जो यहां ध्यान में गहरे उतर रहे हैं, उनको खयाल में आएगी बात। यह भीतरी अनुभव है: सब शांत हो जाता है, सुख मिलता है। इतना काफी नहीं है, रुक मत जाना। अभी मंजिल नहीं आई; यह भी पड़ाव है। और आगे जाना है!
योग-तंद्रा सुखद है, लेकिन वह बुद्धत्व नहीं है; वह परम अवस्था नहीं है। संसार की विकृति छूट गई, लेकिन अभी परमात्मा का स्वाद नहीं आया है। व्यर्थ हट गया, सार्थक आने को है। उस वक्त अगर झपकी लग गई कि चूक गए, फिर वापस संसार में आ गए; फिर वही किनारा; दूसरा किनारा हट गया।
संतो जागत नींद न कीजै।
काल न खाय कलप नहिं व्यापै, देह जरा नहिं छीजै।।
उलट गंग समुद्रहि सोखै, ससिं ओ सूरहि ग्रासै।
नवग्रह मारि रोगिया बैठे, जल मंह बिंब प्रगासै।।
बिनु चरनन को दहं दिसि धावै, बिनु लोचन जग सूझै।
ससै उलटि सिंह कंह ग्रासै, ई अचरज को बूझै।।
कबीर के वचनों में एक विशिष्ट सूत्र है, उसे समझ लें, फिर ये वचन खयाल में आ सकेंगे। उस विशिष्ट सूत्र का नाम है: ‘उलटबांसी।’ उलटबांसी का अर्थ है: उलटे वचन। जैसे कोई बांसुरी बजाता हो, और एक ऐसा वक्त आ जाए जब कि बजाने वाला तो बांसुरी हो जाए और बांसुरी बजाने वाली हो जाए। सब उलटा हो जाए कि बांसुरी बजाने वाले को बजाने लगे।
उलटबांसी का अर्थ होता है, कि बांसुरी बजाने वाले को बजाने लगे। एक ऐसी घड़ी आती है, एक ऐसी घड़ी आती है, जब जीवन का सब भिन्न हो जाता है। उसे थोड़ा समझ लें, तो ये वचन समझ में आएंगे, क्योंकि ये वचन प्रतीकात्मक हैं, और पहेलियों जैसे हैं। पहेलियों जैसे हमें लगते हैं।
समझें।
आप श्वास लेते हैं। श्वास भीतर जाती, बाहर जाती। आप सोचते हैं, मैं श्वास लेने वाला हूं। लेकिन कभी आपने इस पर विचार किया कि अगर आप श्वास लेने वाले हैं तब तो आप मर ही न सकेंगे; क्योंकि आप जब तक लेना चाहेंगे, लेते जाएंगे।
मुल्ला नसरुद्दीन सौ साल का हो गया था। तो लोग उसके पास पहुंचे धन्यवाद देने और उससे पूछने कि तुम्हारी इतनी लंबी उम्र का राज क्या है, हमें भी कोई तरकीब बताओ!
नसरुद्दीन ने कहा: बस श्वास लेते रहो।
पर श्वास कैसे लेते रहोगे? अगर श्वास रुक गई तो तुम क्या करोगे? श्वास के रुकते ही तुम खो जाओगे; तुम बचोगे ही नहीं जो कि श्वास को फिर से ले सके। श्वास का बंद हो जाना, तुम्हारा समाप्त हो जाना है। अगर तुम एक क्षण भी बच सको श्वास के बाद तो तुम फिर से ले सकते हो, लेकिन तुम बचते ही नहीं। श्वास तुम हो; वह तुम्हारा प्राण है। इधर खोई श्वास, उधर तुम खो गए। एक क्षण का भी तो मौका न मिलेगा कि श्वास खो गई, तुम्हें पता चले कि श्वास खो गई, तुम फिर से ले लो। कोई भीतर रहेगा ही नहीं, जिसको कि खबर लग सके। श्वास बंद हो गई, यह दूसरों को पता चलेगा, तुम्हें नहीं। घर के लोगों को पता चलेगा, पास पड़ोस के लोग रोने लगेंगे, चिल्लाने लगेंगे कि श्वास रुक गई। तुम्हें पता नहीं चलेगा। तुम्हें पता चलता तो तुम लेते ही रहते, रुकने ही कैसे देते?
अगर श्वास की बात को ठीक से समझ लो तो तुम्हें समझ में आ जाएगा कि तुम ले नहीं रहे हो, श्वास घट रही है; तुम लेने वाले नहीं। तुम कर्ता नहीं हो।
तब एक दूसरी दृष्टि है, उसको कबीर कहते हैं कि तुम यह बात ही छोड़ दो कि तुम श्वास ले रहे हो; श्वास तुम्हें ले रही है। तुम संसार में जी रहे हो, ऐसा नहीं; संसार तुम में जी रहा है। तुम जीवित हो, यह बात ही गलत है--परमात्मा जीवित है। वही तुममें श्वास ले रहा है। तब तो उलटी बांसी हो गई कि श्वास लेने वाला, लेने वाला नहीं है बल्कि श्वास ही तुम्हारा जीवन है।
इससे तुम्हें खयाल आ सकेगा। मनोवैज्ञानिक एक छोटी सी तरकीब का प्रयोग करते हैं, जिसे वे ‘गेस्टाल्ट’ कहते हैं। तुमने कभी बच्चों की किताबों में चित्र देखे होंगे कि एक गमला रखा हुआ है। अगर तुम गमले को गौर से देखते रहो तो थोड़ी देर में तुम्हें गमला खो जाएगा और दो आदमियों के चेहरे दिखाई पड़ने लगेंगे जो गमले के पास मिल रहे हैं। उनकी नाक--गमले की कगार; उनका माथा--गमले का हिस्सा है। दो चेहरे, उनके बीच की जो खाली जगह थी, वह गमला मालूम हो रही थी। अगर तुम गौर से देखते रहो उन दो चेहरों को, थोड़ी देर में वे दो चेहरे खो जाएंगे, फिर गमला प्रकट हो जाएगा। अगर तुम और भी गौर से देखते रहो तो गमला फिर खो जाएगा, दो चेहरे प्रकट हो जाएंगे। यह बदलता रहेगा, यह बदलता रहेगा। मजे की बात यह है कि जब तुम गमला देखोगे, तब तुम दो चेहरे न देख पाओगे; हालांकि तुम भलीभांति जानते हो कि चित्र में दो चेहरे भी छिपे हैं। जब तुम दो चेहरे देखोगे तब तुम गमला न देख पाओगे; हालांकि तुम भलीभांति जानते हो कि गमला भी चित्र में छिपा है, क्योंकि मन एक समय में एक ही चीज को जान सकता है। और मन इतना सतत परिवर्तनशील है कि तुम एक गमले को भी बड़ी देर तक नहीं देख सकते; बदलाहट हो जाएगी, चेहरे दिखाई पड़ने लगेंगे; फिर गमला दिखाई पड़ेगा, फिर चेहरे दिखाई पड़ेंगे। जर्मन शब्द है इसके लिए गेस्टाल्ट। और इस तरह की विचारधारा पर एक पूरा शास्त्र निर्मित हो गया है: गेस्टाल्ट साइकोलॉजी। वे कहते हैं, जीवन गेस्टाल्ट है।
अगर तुम ऐसा देखते हो कि मैं श्वास ले रहा हूं, तो तुम्हारी पूरी जीवन-दृष्टि नास्तिक की होगी। और अगर तुम ऐसा देखते हो कि मुझमें कोई श्वास ले रहा है, तुम्हारी पूरी जीवन-दृष्टि आस्तिक की हो जाएगी। इतने छोटे से फर्क से सारे जीवन का दृश्य बदल जाता है। अगर तुम्हें यह समझ में आ जाए कि कोई और मुझमें श्वास ले रहा है, तब तुम्हारा अहंकार खो जाएगा। जब श्वास तक हम अपनी नहीं ले सकते, तो और हमारे कर्तृत्व का क्या अर्थ है?
तुम कहते हो, मैं प्रेम कर रहा हूं--वह भी श्वास है। प्रेम तुम्हारे द्वारा किया जा रहा है, तुम कर नहीं रहे हो। क्योंकि अगर तुम प्रेम कर रहे हो, तो मैं कहता हूं यह रही स्त्री, तुम इसके प्रेम में गिर जाओ। तुम कहोगे, ऐसे कैसे गिर जाएं? हर किसी स्त्री के प्रेम में तो नहीं गिर जाएंगे। जब घटता है, तब घटता है; जब नहीं घटता तो नहीं घटता। हां, अभिनय करना हो तो बात अलग; लेकिन अभिनय तो प्रेम नहीं है।
तुमने कभी प्रेम किया है या कि प्रेम हुआ है? किया है तो बात अलग होगी, तुम समझोगे कि मैं कर्ता हूं। हुआ है, तो तुम समझोगे मैं निमित्त हूं, कर्ता नहीं हूं। मेरे द्वारा किसी और ने प्रेम किया है। तुम अगर कर्ता बनना चाहो, तो तुम्हारा प्रेम सिर्फ वेश्या से हो सकता है, और किसी से नहीं, और वेश्या से कहीं प्रेम होता है?
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन वेश्या के घर गया। उसने कहा कि मैं तुम्हें प्रेम करना चाहता हूं। वेश्या ने कहा: करो। उसने कहा कि मैं तुम्हें अपने जीवन का दीपक बनाना चाहता हूं। वेश्या ने कहा: बनाओ। उसने कहा कि मैं तुम्हें अपने हृदय में संजो लेना चाहता हूं। वेश्या ने कहा: संजोओ। उसने कहा कि मैं तुम्हारे लिए मर जाना चाहता हूं। वेश्या ने कहा: मरो; लेकिन जो भी करना है जल्दी करो, क्योंकि दूसरे ग्राहक बाहर खड़े हैं।
नाटक तो एक बात है; धंधा एक बात है। जीवन को तुम जितना समझोगे, उतना ही पाओगे कि तुम कर्ता नहीं हो, घटनाएं घट रही हैं; हैपनिंग्स हैं। प्रेम उतरता है, हो जाता है। इसलिए तो बड़ी मुसीबत है प्रेम के साथ। लोग समझाते हैं किसी को कि तुम पति हो, चार बच्चे हैं, पत्नी है, तुम किस पागलपन में पड़े हो? पति को भी समझ में आता है। बात सीधी है, साफ है: चार बच्चे हैं, पत्नी है--और किसी के प्रेम में पड़ गए हो, नासमझ हो। होश सम्हालो। पति भी होश सम्हालने की कोशिश करता है। लेकिन वह कहता है कि क्या करूं, हो गया! वह यह भी समझता है कि कुछ गलत हो रहा है, फिर भी रोक नहीं सकता। वह यह भी जानता है कि न होता तो अच्छा था। अपने बच्चों और पत्नी का खयाल भी आता है, लेकिन कर भी क्या सकता है! घटना घट गई! जिम्मेवार हम उसे ठहराते जरूर हैं, लेकिन वह भ्रांति है।
प्रेम की घटना आदमी के हाथ के बाहर है। जब तक कि तुम बुद्धत्व को उपलब्ध न हो जाओ, तब तक तुम्हारे हाथ के बाहर है। और जब तुम बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाते हो, तब एक दूसरा ही आयाम प्रेम का खुलता है। तब तुम किसी के प्रेम में नहीं पड़ते, तुम प्रेम हो जाते हो। तब तुमसे प्रेम मिलता है, बंटता है, बिखरता है; लेकिन तुम किसी के प्रेम में नहीं गिरते। तुम उस दीये की भांति हो जाते हो जो जल रहा है; रास्ते से जो भी निकलता है, उसको भी उसका प्रकाश मिल जाता है। तुम उस फूल की तरह हो जाते हो, जो खिल गया है; उसकी सुगंध, जो भी राहगीर होता है, उसको मिल जाती है। लेकिन अब तुम्हारा प्रेम पुराना प्रेम नहीं है--जब कि तुम अवश गिर जाते थे; जब कि तुम अपने को परवश समझते थे, जब कि तुम्हें लगता था, अब क्या कर सकता हूं! समझते थे, बूझते थे; बुद्धि कहती थी, ठीक है।
बुद्धि के अपने तर्क हैं, लेकिन हृदय उनको मानता नहीं। तुम दबा भी ले सकते हो, द्वार बंद कर दे सकते हो; बुद्धि की मान कर प्रेम की तरफ न भी जाओ--तो भी हृदय किसी और के लिए धड़कता है, उसी के लिए धड़कता रहेगा। तुम पत्नी की फिकर करोगे, पैर दबाओगे। बीमारी में चिंता करोगे, आलिंगन करोगे--लेकिन तुम पाओगे, सब झूठा है; सब बुद्धि से कर रहे हैं।
कर्ता तुम हो कहां? न श्वास तुम्हारी अपनी, न प्रेम तुम्हारा अपना, न जीवन तुम्हारा अपना। इसी को कृष्ण ने गीता में अर्जुन से कहा है कि तू निमित्त मात्र हो जा। तू यह छोड़ ही दे खयाल कि तू कर्ता है। ये जो सामने खड़े हुए योद्धा हैं, ये मेरे लिए तो मर ही चुके हैं। तू तो सिर्फ निमित्त है। तू तो सिर्फ धक्का देगा, ये मुर्दे की तरह खड़े हैं और गिर जाएंगे। ये मर ही चुके हैं। इनका मरना निश्चित है। तू नहीं करेगा यह काम तो कोई और करेगा। ये मरेंगे। कौन मारता है, यह बात गौण है।
जीवन अगर निमित्त है, खयाल में आ जाए... ‘निमित्त’ शब्द बड़ा बहुमूल्य है। इस शब्द के मुकाबले दुनिया की किसी भाषा में शब्द खोजना मुश्किल है। निमित्त पूरब का, हिंदुओं का अपना शब्द है। और बड़ा गहरा है। निमित्त का अर्थ है कि मैं कारण नहीं हूं, न कर्ता हूं--मैं तो सिर्फ बहाना हूं। मेरे बहाने हो गया! मेरे बहाने न होता तो किसी और के बहाने होता। जो होना है वह होता। बहाने कोई भी होते। खूटियां कोई भी होतीं, जो टंगना है, वह टंगता; जो घटना है, वह घटता। मैं इसमें, बीच में अपने अहंकार को न लाऊं।
अगर तुम्हारा कर्ता का भाव छूट जाए और निमित्त का भाव गहन हो जाए--बस फिर उलटी बांसी समझ में आएगी। क्योंकि फिर सब उलटा दिखाई पड़ने लगेगा। गेस्टाल्ट बदल गया। फिर कल तक तुम जैसा दुनिया को देखते थे, वैसी नहीं दिखाई पड़ेगी; बिलकुल उलटी दिखाई पड़ने लगेगी। उस उलटे की सूचना देने के लिए कबीर ने प्रतीक चुने हैं। कबीर कहते हैं:
काल न खाय कलप नहिं व्यापै, देह जरा नहिं छीजै।
जब तुम्हारा निमित्त का भाव आ जाता है, कर्ता का नहीं... जब तक तुम कर्ता हो, तब तक काल तुम्हें खाएगा; तब तक मौत घटेगी; तब तक तुम मरोगे। क्योंकि कर्ता का भाव ही मरता है, आत्मा तो मरती नहीं। लेकिन तुम समझते हो, मैं कर्ता हूं, तो मरोगे।
मृत्यु का भय अहंकार को है, आत्मा को नहीं। तुम जब तक समझते हो, मैं, मैं, मैं--और दोहराए चले जाते हो अपने मैं को, सजाए जाते हो, संवारे जाते हो, तब तक तुम्हें मृत्यु डराएगी।
जितना अहंकारी मनुष्य, उतना मृत्यु से भयभीत होगा; जितना निर-अहंकारी मनुष्य, उतना ही मृत्यु का भय खो जाएगा। और अगर पूर्ण निर-अहंकार घट जाए, मृत्यु समाप्त हो गई; क्योंकि जो बचता है, वह मरता ही नहीं। गेस्टाल्ट बदल जाता है।
काल न खाय कलप नहिं व्यापै,...
न तो काल खाता है, न कोई दुख व्याप्तता है। किसी तरह की पीड़ा, किसी तरह का संताप नहीं व्यापता।
...देह जरा नहिं छीजै।
और जरा भी देह छीजती नहीं, जरा भी बुढ़ापा नहीं आता।
पर शरीर का तो बुढ़ापा आता है। यह शरीर तो मृत्यु में जाता है। यह शरीर तो नष्ट होता है। लेकिन तुम यह शरीर तभी तक हो, जब तक तुमने मान रखा है कि मैं हूं। जिस दिन तुम छोड़ दोगे यह खयाल कि मैं हूं, उसी क्षण सारा चित्त बदल जाएगा। तब तुम शरीर नहीं हो, परमात्मा हो। तब तुम्हारे भीतर जो छिपा है, वह दिखाई पड़ेगा।
और ध्यान रखना, एक ही दिखाई पड़ सकता है, दोनों एक साथ नहीं। जब तक तुम्हें लगता है मैं शरीर हूं, तब तक आत्मा दिखाई न पड़ेगी। जिस दिन तुम्हें दिखाई पड़ेगा कि मैं आत्मा हूं, शरीर खो जाएगा।
इसलिए तो ज्ञानियों ने कहा है कि संसार माया है। क्योंकि जैसे ही ब्रह्म दिखाई पड़ा, संसार नहीं दिखाई पड़ता। और जब तक संसार दिखाई पड़ता है, ब्रह्म दिखाई नहीं पड़ता। गेस्टाल्ट है। एक ही दिखाई पड़ सकता है। क्षमता तुम्हारी एक को ही जानने की है, दो नहीं जान सकते।
काल न खाय कलप नहिं व्यापै, देह जरा नहिं छीजै।
उलट गंग समुद्रहि सोखै,...
और हालत बिलकुल उलटी हो जाती है। हम तो ऐसा देखते हैं कि गंगा सागर में गिर रही है; और कबीर कहते हैं कि सागर गंगा में गिर रहा है।
कबीर के दो वचन हैं। एक वचन है:
हेरत-हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराइ।
बूंद समानी समुंद में, सो कत हेरी जाइ।।
यह गेस्टाल्ट का एक पहलू है। कबीर कहते हैं: खोजते-खोजते-खोजते कबीर खो गया, बूंद सागर में गिर गई, अब उसे कैसे वापस पाएं। फिर दूसरा, इसके बाद ही लगा हुआ वचन है, और जो कहता है:
हेरत-हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराइ।
समुंद समाना बूंद में, सो कत हेरी जाइ।।
और समुद्र बूंद में गिर गया, अब कैसे अपने को खोजूं। एक में वे कहते हैं कि बूंद सागर में गिर गई, कैसे अपने को खोजूं! दूसरे में कहते हैं, सागर बूंद में गिर गया, कैसे अपने को खोजूं! बस ये दो पहलू हैं।
जब तक तुम अपने को मान रहे हो, मैं हूं, तब तक तुम सागर से डरोगे; क्योंकि बूंद सागर में खोएगी, फिर उसका क्या पता लगेगा। जिस दिन तुम जानोगे मैं नहीं हूं, उस दिन सागर तुम में खोएगा। बात एक ही है। बूंद सागर में खोए कि सागर बूंद में खोए, एक ही घटना घटती है; लेकिन दृष्टि बड़ी अलग हो गई। जब तुम खोते हो सागर में, तब घबड़ाते हो; और जब सागर तुममें खो जाएगा, तब तुम घबड़ाओगे नहीं; तुम सोचोगे, मेरी संपदा बढ़ती है। जब तक तुम परमात्मा में खोओगे, तुम डरोगे; और जब परमात्मा तुम में खोएगा, तब तुम आनंद से नाच उठोगे।
परमात्मा के संबंध में भी तुम्हारे मन में भय है, क्योंकि तुम्हें लगता है: हम खो जाएंगे; हमारा अस्तित्व नहीं बचेगा; हमारी आइडेंटिटी, हमारे तादात्म्य का क्या होगा; हमारा नाम, पता-ठिकाना, सब खो जाएगा! तो ऐसे परमात्मा को पाकर क्या करेंगे, जहां हम खो जाएंगे! लेकिन दूसरा पहलू, जो कि सत्य के ज्यादा करीब है: तुम परमात्मा में नहीं खोते हो, परमात्मा ही तुममें खोता है; तुम मिटते नहीं, तुम विराट हो जाते हो। बूंद सागर हो जाती है।
कबीर कहते हैं:
उलट गंग समुद्रहि सोखै, ससिं ओ सूरहि ग्रासै।
गंगा सागर को पी जाती है; सूरज और चांद को सोख लेती है, समा लेती है अपने में। यह तो इसका ऊपरी अर्थ है। इसका भीतरी अर्थ, क्योंकि सूर्य और शशि, चांद और सूरज दो प्रतीक हैं तुम्हारी दो श्वास के। तुम्हारा दायां श्वास का द्वार, सूर्य; तुम्हारे बाएं नाक का द्वार, चंद्र; और इन दोनों से जुड़ी हुई दो नाड़ियां हैं तुम्हारे भीतर--इड़ा, पिंगला; एक सूर्य-नाड़ी, एक चंद्र-नाड़ी। वे योगियों के प्रतीक हैं।
जब तुम्हारी चेतना निमित्त-मात्र हो जाती है, जब तुम अपने को कर्ता नहीं मानते हो, जब तुम्हारा अहंकार तुम छोड़ देते हो--तुम कहते ही नहीं, मैं; तुम कहते हो, तू ही है; न तो मैं कभी था, न हूं, न होऊंगा, मैं सिर्फ एक भ्रम था। जब तुम इस भावदशा में गहरे उतरते हो, तब, तब सागर बूंद में गिरता है। तब तुम्हारी चेतना सूर्य और चंद्र दोनों को अपने में समा लेती है। अभी तुम श्वास लेते हो और अभी तुम श्वास पर निर्भर हो, अभी श्वास खो जाएगी तो तुम मिट जाओगे। अभी श्वास तुम्हारा सहारा है। अभी श्वास के बिना तुम जी न सकोगे। तब, तब तुम चेतना से जीते हो। और श्वास चेतना में लीन हो जाती है। इसीलिए समाधिस्थ योगी कभी-कभी बिलकुल श्वास-शून्य हो जाते हैं। पता लगाना मुश्किल हो जाता है कि श्वास चल रही है या नहीं चल रही।
तुममें से जो गहरे ध्यान के प्रयोग कर रहे हैं, अपने परिवार के लोगों को कह देना कि कभी ऐसी घड़ी आ जाए कि तुम बिलकुल मुर्दे जैसे हो जाओ, तो वे घबड़ा न जाएं, क्योंकि श्वास बिलकुल रुक सकती है। चिकित्सक भी आकर कह सकता है कि यह आदमी मर गया। क्योंकि श्वास करीब-करीब, बिलकुल तो नहीं रुकती, लेकिन निन्यानबे प्रतिशत रुक जाती है। एक हलकी सी ध्वनि रह जाती है। और जब श्वास बिलकुल रुक जाती है, तब मन बिलकुल रुक जाता है।
यह तो तुम्हारे भी अनुभव में आया होगा कि तुम्हारे मन और श्वास का गहरा संबंध है। जब तुम क्रोधित होते हो तो श्वास अलग तरह से चलती है, उद्विग्नता होती है श्वास में; जैसे ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर चलती हो; जैसे कि कार में स्ंिप्रग न हों और रास्ता गड्ढों वाला हो, ऐसी श्वास चलती है--जब तुम क्रोध में होते हो। जब तुम कामवासना से भरते हो, तब श्वास और तरह से चलती है; तब विक्षिप्त हो जाती है; तुम पसीने-पसीने हो जाते हो। जब तुम शांत होते हो तो श्वास धीमी चलती है--एक रिदम, एक छंद होता है श्वास में; एक लयबद्धता होती है। जब तुम बिलकुल आनंदित होते हो, तब श्वास और ढंग से चलती है। तुम्हारे हर मनोभाव के साथ श्वास बदलती है। और अगर तुम होशियार हो जाओ थोड़े, तो तुम अगर श्वास को बदल लो, तुम्हारा मनोभाव बदल जाएगा; क्योंकि दोनों एक-दूसरे से जुड़े हैं। दुबारा जब तुम्हें क्रोध आए, तब तुम जरा गौर से जांच कर लेना कि श्वास की गति क्या है, किस ढंग से चल रही है; उसे ठीक से पहचान लेना।
जब तुम दुबारा कभी शांत हो जाओ, तब उसकी भी जांच कर लेना कि श्वास कैसी चल रही है, शांति की अवस्था में। जब तुम कभी पाओ कि तुम प्रफुल्लित हो, तब भी श्वास को नोट कर लेना। और अगर तुम ठीक से श्वास की गति को पहचानने में समर्थ हो जाओ--आनंद के साथ, क्रोध के साथ, सुख के साथ, शांति के साथ--फिर तुम प्रयोग कर सकते हो। क्रोध आने को है, तुम श्वास को क्रोध की गति मत पकड़ने दो; तुम शांत बैठ जाओ और श्वास को वह गति दे दो, जो शांति में होती है--तुम अचानक पाओगे, क्रोध तिरोहित हो गया, क्रोध आ नहीं सकता। क्योंकि जब तक श्वास न बदले, तब तक क्रोध शरीर में प्रवेश नहीं कर सकता। अगर तुम श्वास की गति को ठीक से पहचान लो कि शांति में कैसी होती है, तो चौबीस घंटे उस गति को वैसा ही बनाए रखने की कोशिश करो। तुम पाओगे तुम गहन शांति से भर गए। अगर तुम समझ लो कि जब तुम प्रफुल्लित होते हो, कैसी श्वास होती है, वैसी ही श्वास को बनाए रखो, प्रफुल्लता झर-झर कर बहती रहेगी।
बुद्ध ने श्वास के और मन के संबंध पर बड़े गहरे प्रयोग किए हैं। और उनका जो ध्यान का प्रयोग है--‘अनापानसतीयोग’--वह सिर्फ श्वास की ही कला है। बस श्वास को देखना, श्वास को पहचानना, श्वास को मनोभावों के साथ संबंधित करना, और फिर जिन भावों को छोड़ना है, श्वास की उन गतियों को छोड़ देना। फिर जिन भावों को सजाना हैं, संवारना है, बढ़ाना है, गति देनी है, श्वास की उन गतियों को पकड़ लेना और उन्हीं को धीरे-धीरे बढ़ाते जाना। तो श्वास के रूपांतरण से चित्त पूरा रूपांतरित होता है। लेकिन जब चित्त बिलकुल ही खो जाता है, तब श्वास भी खो जाएगी। एक छोर श्वास और दूसरा छोर चित्त--एक ही ऊर्जा के दो छोर हैं।
तो अगर कभी तुम्हारे जीवन में ऐसी घड़ी आ जाए, जब तुम पाओगे कि श्वास बंद हो रही है--मेरे पास बहुत से संन्यासी आकर कहते हैं--तो भय लगेगा। तुम भयभीत मत होना। और घर के लोगों को भी बता देना, क्योंकि घर के लोग तुम्हारी न मानेंगे। अगर तुम मर गए, झूठे भी मरे, और डॉक्टर ने कह दिया मर गए, तुम्हारी न मानेंगे।
मैंने सुना है, एक आदमी मरा। मरा नहीं था, सिर्फ श्वास धीमी हो गई थी। चिकित्सक ने कह दिया, मर गया। उसकी अरथी सजा ली। मरघट ले गए। मरघट तक पहुंचते-पहुंचते उस आदमी को होश आ गया। तो वह हिला-डुला। लोग बहुत घबड़ा गए। उसने चिल्लाया भीतर से कि खोलो, मैं जिंदा हूं। लोगों ने कहा: यह हो नहीं सकता। क्योंकि किसी साधारण चिकित्सक ने नहीं कहा, बड़ा विशेषज्ञ है। तो विशेषज्ञ की मानें कि इस मूरख की! सौ आदमी आए थे पहुंचाने। पुरोहित जो आया था, अंतिम संस्कार करवाने, उसने कहा: भाइयो, तुम सब भी मौजूद थे। वह आदमी अंदर से चिल्ला रहा है कि मैं जिंदा हूं, मुझे खोलो--और पुरोहित लोगों का वोट ले रहा है! क्योंकि डेमोक्रेसी के दिन हैं, लोकतंत्र! उसने कहा, तुम सब मौजूद थे। हाथ उठाओ, विशेषज्ञ ने क्या कहा था? किसकी हम मानें? इस मूरख की? पढ़ा, न लिखा, अ ब स मालूम नहीं है जिंदगी और मौत का--और कह रहा है हम जिंदा हैं! या उस विशेषज्ञ की, जो लंदन से शिक्षित होकर लौटा है--एफ. आर. सी. एस. है! और लाखों जिंदा, मुर्दा आदमियों का अध्ययन कर चुका है।
लोगों ने, सभी ने कहा और सभी ने हाथ उठाया कि विशेषज्ञ की मानना ही उचित है, इसकी क्या बात का भरोसा। यह आदमी जिंदगी में भी भरोसे का नहीं था, तो मर कर इसकी बात का क्या खाक भरोसा! जला दिया उन्होंने।
लोग विशेषज्ञ को मानते हैं। तो घर के लोगों को भी बता देना कि अगर ऐसी घड़ी आ जाए, और श्वास बंद हो जाए, तो घबड़ाने की कोई जरूरत नहीं। हिलाने-डुलाने की भी कोई जरूरत नहीं, क्योंकि उससे खतरा हो सकता है। जब तुम्हारी श्वास बिलकुल शांत हो, कोई जोर से हिला दे, तो शरीर और आत्मा का संबंध टूट सकता है; क्योंकि उस वक्त संबंध नाजुक से नाजुक होता है। उस वक्त तुम अपने शरीर से दूर से दूर होते हो। बस, एक बारीक सी रेखा जुड़ी रह जाती है। अगर कोई हिला दे, तो कठिनाई हो जाएगी।
इसलिए ध्यान की अवस्था में, न तो तुम भयभीत होना भीतर; क्योंकि यही तो परम घड़ी है, जिसकी हम तलाश कर रहे हैं। इसी क्षण की तो खोज है। इसी क्षण से तो तुम्हें अमृत का पता चलेगा। इसी क्षण में तो तुम जानोगे कि शरीर अलग पड़ा है, मैं अलग खड़ा हूं, शरीर भिन्न, मैं भिन्न। एक दफा यह दिख जाए, फिर तुम्हारी जिंदगी वही न हो सकेगी जो कल तक थी, गेस्टाल्ट बदल गया। अब तुम पाओगे परमात्मा ही श्वास लेता है, वही तुममें जीता है। तुम नहीं हो, वही है! तुम सिर्फ उसके वाहन हो। तुम सिर्फ उसके हाथ हो। तुम सिर्फ उसके लिए एक माध्यम हो। जीवन उसका है। तुम बांसुरी हो, बजाने वाला वह है।
और अभी तक तुमने यह समझ रखा है कि बजाने वाले तुम हो। अभी तक तुम सोचते हो, गीत तुम गा रहे हो। तुम माध्यम हो, गीत वह गा रहा है। अगर बांसुरी को भी थोड़ी अकल आ जाए, और बांसुरी भी थोड़ा पढ़-लिख ले, तो वह भी सोचती होगी कि गीत मैं गा रही हूं; यह आदमी नाहक ही मुंह लगा कर मेहनत कर रहा है। क्योंकि गीत तो बांसुरी से आता है। और बांसुरी कैसे भरोसा करेगी कि इस आदमी से आता है! इस आदमी का क्या लेना-देना। और बांसुरी कहेगी, मेरे बिना तू गीत बजा कर बता।... तो मैं ही बजा रही हूं।
तुम भी बांसुरी से ज्यादा नहीं हो।
कबीर ने कहा है कि मैं बास की पोंगरी हूं। गीत तेरे, धुन तेरी और समझ रखा है मैंने कि मेरे, उससे ही अकड़ पैदा हो गई है।
बांस की पोंगरी जो हो गया, वह संत हो गया; फिर उसे कुछ पाने को न बचा।
उलट गंग समुद्रहि सोखै, ससिं ओ सूरहि ग्रासै।
नवग्रह मारि रोगिया बैठे, जल मंह बिंब प्रगासै।।
सब उलटा हो जाता है। नव-ग्रह को रोगी मार देता है। जिनकी वजह से रोगी सोचता था कि मैं रोग में ग्रस्त हूं। नव गलत ग्रह जुड़ गए हैं, इनकी वजह से मैं परेशान हूं!
नवग्रह मारि रोगिया बैठे, जल मंह बिंब प्रगासै।
और सब उलटा हो जाता है। पानी के भीतर आग आ जाती है। जल में बिंब प्रकट हो जाता है, प्रकाश हो जाता है।
बिनु चरनन को दहं दिसि धावै, बिनु लोचन जग सूझै।
और फिर वैसी घड़ी आ जाती है, जब तुम पाते हो कि न तो पैर की जरूरत है। चेतना दसों दिशाओं में बिना पैर के जा सकती है। पैर शरीर को चाहिए। चेतना के लिए कोई स्थान और समय की बाधा नहीं है।
बिनु चरनन को दहं दिसि धावै, बिनु लोचन जग सूझै।
और सत्य को देखने के लिए इन आंखों की कोई भी जरूरत नहीं है।
महावीर की आंखें बंद हैं। मूर्तियों में देखो। जैनों के दो पंथ हैं--श्वेतांबर और दिगंबर। उनमें एक झगड़ा है कि महावीर की आंखें खुली रखें कि बंद। श्वेतांबर खुली रखते हैं; दिगंबर बंद। कुछ ऐसे मंदिर हैं जहां दोनों पूजा करते हैं। तो समय बांट लिया उन्होंने। आधे दिन महावीर की आंखें खुली रखते हैं, आधे दिन बंद। तो नकली आंखें ऊपर से लगा देते हैं--खुली। इस संबंध में श्वेतांबर गलत हैं, क्योंकि महावीर की आंखें खुली रखने का कोई भी प्रयोजन नहीं। इन आंखों से सत्य देखा नहीं जाता। ये आंखें तो बंद ही हो जाती हैं। एक भीतर की आंख है, लेकिन वह शरीर की नहीं, वह चेतना की है; वह जागरण की है; वह होश की है।
...बिनु लोचन जग सूझै।
और इन आंखों की जरूरत ही नहीं खोलने की। इनसे तो कोई जगत का सत्य दिखाई नहीं पड़ता। इनसे तो माया ही दिखाई पड़ती है। इन आंखों से तो जो ऊपर-ऊपर है, वही दिखाई पड़ता है। भीतर, भीतर के लिए तो भीतर की आंख चाहिए। आंख तो बंद ही हो जाएगी। ये पैर गति खो देंगे। ये हाथ शक्ति खो देंगे। इनका कोई अर्थ न रह जाएगा। तुम्हारे भीतर जो जीवन की ऊर्जा है, वही ऊर्जा दसों दिशाओं में घूम सकती है; बिना आंख देख सकती है, बिना हाथ छू सकती है।
चेतना के लिए, आत्मा के लिए, समय और स्थान की कोई बाधा नहीं है। टाइम और स्पेस हैं ही नहीं; वे दोनों शरीर के लिए हैं।
बुद्ध से किसी ने पूछा कि जब आप देह को छोड़ देंगे तो कहां होंगे? तो बुद्ध ने कहा: या तो सब जगह, या कहीं भी नहीं। क्योंकि शरीर कहीं होता है--स्थान में, समय में; आत्मा के लिए न तो स्थान है न समय। जब आप, जैसे-जैसे ध्यान में गहरे उतरेंगे, वैसे-वैसे आप पाएंगे कि न तो स्थान है न समय--दोनों के अतीत।
ससै उलटि सिंह कंह ग्रासै, ई अचरज को बूझै।
और जैसे कि खरगोश उलट कर शेर को खा जाए, ऐसा अचरज घटित होता है।
...ई अचरज को बूझै।
तुम जो इतने कमजोर हो, अचानक तुम पाते हो कि तुम विराट शक्ति बन गए। खरगोश सिंह को खा गया! तुम जो इतने दीन-हीन हो, तुम जो जीवन भर भिखारी की तरह जीते हो, मांग कर ही जीते हो, अचानक पाते हो कि तुम मालिक हो गए, सम्राट हो गए!
...ई अचरज को बूझै।
स्वामी राम अमरीका गए। वे अपने को सम्राट कहते थे। बादशाह! था उनके पास कुछ भी नहीं। दो लंगोटी और एक लोटा। लेकिन वे कहते अपने को--बादशाह राम! उन्होंने एक किताब लिखी, उसको नाम दिया: बादशाह राम के छह हुक्मनामे। और वे बोलते, तब भी वे हमेशा अपने को बादशाह राम कहते। वे कहते बादशाह राम को प्यास लगी है, जरा पानी ले आओ। अजीब लगता, और अमरीका में और भी अजीब लगता। खुद अमरीका का प्रेसीडेंट उनसे मिला था। और उसने कहा, और सब तो ठीक है, लेकिन यह मेरी समझ में नहीं आता कि आप किसी भांति के बादशाह हैं। कुछ है नहीं आप के पास। राम ने कहा, इसीलिए हम बादशाह हैं; क्योंकि हमारी कोई मांग नहीं; कोई जरूरत नहीं। हम पूरे हैं। तुम्हारा अमीर से अमीर आदमी भी गरीब है, क्योंकि उसकी मांग अभी बाकी है।
फकीर हुआ एक सूफी, जुन्नैद। एक सम्राट उसके पास आया। सम्राट था, तो कोई दस हजार स्वर्ण-अशर्फियां लाकर उसने चरणों में रखीं। जुन्नैद ने पूछा कि तुम्हारे पास काफी है न? और तो तुम्हारी कोई मांग नहीं, तुम और तो नहीं चाहते? सम्राट ने कहा, मांग कहीं समाप्त होती है! इसलिए तो आपके चरणों में आया हूं कि आशीर्वाद मिल जाए! तो जुन्नैद ने कहा कि ये जो अशर्फियां तुम ले आए हो, दस हजार, ये वापस ले जाओ, क्योंकि इनके कारण तुम गरीब हो जाओगे और हमारे सम्राट होने में कोई फर्क न पड़ेगा। हमें कुछ बढ़ती न होगी इनसे, क्योंकि हम वैसे ही पूरे हैं। घड़ा पहले से भरा है। लेकिन तुम थोड़े खाली हो जाओगे। तुम अभी गरीब हो, तुम ये ले जाओ।
जुन्नैद गरीब आदमी था, नहीं कुछ उसके पास था। यह किस तरह का स्वामित्व है। यह किस तरह की मालकियत है!
कबीर कहते हैं:
ससै उलटि सिंह कंह ग्रासै, ई अचरज को बूझै।
जो बिलकुल दीन-हीन था, अचानक गेस्टाल्ट के बदलते ही, ध्यान के बदलते ही, शरीर से ध्यान हटा, भीतर गया कि मालिक हो गया! जो कमजोर था, वह महाशक्तिशाली हो गया। जो अज्ञानी था, वह परमज्ञानी हो गया। जो बंधा था, वह मुक्त हो गया।
...ई अचरज को बूझै।
जो रो रहा था क्षुद्र के लिए, तड़प रहा था, वह आनंद से नाचने लगा। वह परमात्मा हो गया।
...ई अचरज को बूझै।
कबीर कह रहे हैं कि तुम्हारे भीतर दोनों छिपे हैं। दरिद्र तुम तब तक रहोगे जब तक वासना है। दरिद्र तुम जब तक रहोगे जब तक कर्ता का भाव है। मालिक तुम उसी वक्त हो जाओगे, जब वासना गई। और यह वासना वासना को पूरा करने से न जाएगी, क्योंकि वासना कभी पूरी होती नहीं--दुष्पूर है। बुद्ध ने कहा, वासना दुष्पूर है। उसे तुम पूरा न कर पाओगे। तुम कितने ही उपाय करो, तुम कितने ही दौड़ो, तुम्हारे दौड़ने या उपाय से उसका कोई संबंध ही नहीं है। उसका स्वभाव दुष्पूर है।
तुम्हारे पास दस हजार रुपये हैं, वासना कहती है लाख मिल जाएं तो सब ठीक हो जाए। लाख हो जाते हैं, वासना कहती है, दस लाख हो जाएं तो सब ठीक हो जाए। तुम कितना ही बढ़ते जाओ, वासना दस गुना होती जाएगी। हजार थे, दस हजार! दस हजार थे, लाख! लाख हैं, दस लाख! करोड़ हों, दस करोड़! वासना का और तुम्हारा फासला उतना ही रहेगा--दस गुने का। तुम्हारे पास कितना है, इससे क्या फर्क पड़ता है! गुणित दस--वासना उतना मांगती रहेगी। इसलिए वासना और आदमी का फासला कभी कम नहीं होता--दुष्पूर है। तुम गरीब ही रहोगे।
दुनिया में दो तरह के गरीब हैं: एक, जिनके पास धन है; और एक, जिनके पास धन नहीं है। दो तरह के गरीब हैं: एक, जिनके पास बहुत कुछ है, गरीब हैं; और जिनके पास कुछ भी नहीं, वे भी गरीब हैं। मालिक तो तब पैदा होता है, जब यह दृष्टि बदल जाती है कि वासना के पीछे जा-जा कर कुछ भी नहीं पाया। तो आदमी उलटी कर देता है गंगा को। अब वह बाहर वासना की तरफ नहीं जाता, अपनी तरफ जाता है।
और दो यात्राएं हैं चेतना की--या तो वस्तुओं की तरफ या अपनी तरफ; या तो कुछ पाने के लिए दौड़ते रहो, या खुद को पाने के लिए शांत होकर भीतर बैठ जाओ। जो खुद को पा लेता है, वह सब पा लेता है। और तुम सब पा लो, और खुद से बच जाओ, कुछ भी न पा पाओगे। आखिर में पाओगे कि तुम दरिद्र मर रहे हो; भिखारी की तरह तुम्हारी मृत्यु हो रही है।
औंधे घड़ा नहीं जल बूड़ै, सूधे सों जल भरिया।
जिहि कारन नल भींन भींन करु, गुरु परसादे तरिया।।
बड़ा बहुमूल्य वचन है।
औंधे घड़ा नहीं जल बूड़ै,...
अगर नदी पार करनी हो तो घड़े को औंधा करना पड़ता है। औंधा घड़ा सहारा बन जाता है। तुम औंधे घड़े के सहारे नदी पार कर लेते हो।
औंधे घड़ा नहीं जल बूड़ै, सूधे सों जल भरिया।
और अगर तुम सीधा घड़ा लेकर नदी पार करने गए तो घड़े की वजह से ही डुबोगे।
औंधे घड़े में पानी नहीं भरता; सीधे घड़े में पानी भर जाता है। तुम जैसे हो, अभी डूब रहे हो। जरूर घड़ा तुमने सीधा कर रखा है। तुम जैसे हो अभी सिवाय डूबने के और कुछ भी नहीं हो रहा है। तुम रोज डूब रहे हो, प्रतिपल डूब रहे हो। एक बात साफ है कि तुम्हारे डूबने से पता चलता है: तुम्हारा दुख कम नहीं होता, बढ़ रहा है। कल था, उससे आज ज्यादा है; हालांकि कल तुमने सोचा था कि कल कम होगा। कल तुम्हारी चिंता थी, आज ज्यादा है, कल और ज्यादा होगी। तुम रोज डूब रहे हो। तुम्हारे सब सहारे, सब नावें डूबी जा रही हैं। एक बात साफ है:
औंधे घड़ा नहीं जल बूड़ै, सूधे सों जल भरिया।
तुम्हारा घड़ा सीधा है, इसे उलटा कर लो। तुम जिस तरफ दौड़ रहे हो, उससे उलटी तरफ दौड़ो। तुम जो कर रहे हो, तुम जो सोच रहे हो; उससे उलटा करो, उलटा सोचो। अभी अहंकार है तो निर-अहंकार को यात्रा बनाओ। अभी विचार है तो निर्विचार को यात्रा बनाओ। अभी वासना है तो निर्वासना को यात्रा बनाओ।
औंधे घड़ा नहीं जल बूड़ै, सूधे सों जल भरिया।
जिहि कारन नल भींन भींन करु, गुरु परसादे तरिया।।
और जो लोग सीख गए कला घड़े को उलटा करने की, वे गुरु के प्रसाद से अनेक तरह के लोग तर गए--भिन्न-भिन्न तरह के लोग।
जिहि कारन नल भींन भींन करु,...
भिन्न-भिन्न तरह के लोग, भिन्न-भिन्न तरह के तैरने के ढंग, भिन्न-भिन्न तरह की उनकी जीवन-चेतना की व्यवस्था--लेकिन वे सब तर गए। सार की बात एक है:
औंधे घड़ा नहिं जल बूड़ै, सूधे सों जल भरिया।
...गुरु परसादे तरिया।
पर एक बात उसमें कबीर जोड़ते हैं, जो कि सभी संतों की वाणी में कहीं न कहीं छिपी है। और वह यह है कि तुम्हारा घड़ा भी अगर तुमने उलटा कर लिया हो, और गुरु न हो, तो भी तुम तर न पाओगे। क्योंकि पहली तो यही बात है कि तुम घड़े को उलटा कर ही न पाओगे बिना गुरु के। लेकिन समझ लो कि भूल-चूक, संयोगवशात तुमने घड़े को उलटा कर लिया, तो भी तुम तर न पाओगे। क्योंकि तुम्हारा अहंकार कि मैं तर रहा हूं, कौन छीनेगा? तुम्हारा अहंकार कि मैंने घड़ा उलटा कर लिया, कौन हटाएगा? तुम्हारा अहंकार कि अब मैं दुखी नहीं हूं, शांत हूं, ध्यानस्थ हूं, कौन मिटाएगा? और यह अहंकार किसी भी क्षण घड़े को सीधा कर दे सकता है। क्योंकि घड़ा पूरा उलटा तभी होता है जब अहंकार बिलकुल नहीं होता। तब तुम उलटे घड़े हो जाते हो। यह कौन चिंता लेगा? यह कौन तुम पर सतत ध्यान रखेगा? यह कौन तुम्हें बार-बार चेताएगा?
गुरु का इतना ही अर्थ है, जो खुद पार हो गया, वही तुम्हें चेताएगा। अगर दस लोग यात्रा पर गए हों, जंगल हो घना, खतरा हो, तो वे क्या करते हैं। वे यह करते हैं कि पाली-पाली से जागते हैं। नौ सो जाते हैं, एक जागता है। क्योंकि खतरा आएगा तो जो जाग रहा है वही जगा सकेगा। जब उसकी नींद का वक्त आता है, तब वह दूसरे को जगा देता है कि अब तुम जागो, अब मैं सो जाता हूं। एक तो जागता हुआ चाहिए, नहीं तो खतरा आएगा; पता ही नहीं चलेगा, नींद में ही सब घट जाएगा।
गुरु का अर्थ है: जो स्वयं जागा हुआ है, वह तुम्हारी नींद में उपयोगी होगा। तुम बार-बार सो जाओगे। नींद में बार-बार घड़ा सीधा हो जाएगा। बार-बार तुम भूलोगे। बार-बार तुम चूक जाओगे।
ऐसा हुआ, एक सूफी फकीर हुआ। उसका असली नाम किसी को पता नहीं, लेकिन जिस नाम से जाना जाता है, वह है नस्साज--खैर नस्साज--फकीर था। एक वृक्ष के नीचे ध्यान कर रहा था--स्वस्थ! एक आदमी गुलाम की तलाश में निकला था। गुलाम खरीदना था और एक मजबूत गुलाम चाहिए था। इस आदमी को झाड़ के नीचे इतना स्वस्थ बैठा देख कर--और फकीर, फटे कपड़े--उसे लगा कि यह कोई भागा हुआ गुलाम है। किसी का गुलाम है, भाग गया है, यहां जंगल में छिप रहा है। आदमी मजबूत दिखता है, काम का है। उस आदमी ने जाकर पूछा कि क्या तुम भागे हुए गुलाम तो नहीं?
नस्साज ने आंखें खोलीं और कहा: तुम ठीक ही कहते हो। भागा हुआ हूं और गुलाम हूं। उसका मतलब था कि परमात्मा से भाग गया हूं, और वही तो मेरी गुलामी हो गई। वह आदमी प्रसन्न हुआ। यही तो मुसीबत है, संसारी और फकीर की भाषा में कहीं मेल नहीं बैठता।
नस्साज ने कहा कि ठीक कहते हो, भागा हुआ हूं और गुलाम हूं। उस आदमी ने कहा: ठीक वक्त पर मिल गए, मैं भी एक गुलाम की तलाश में हूं। मैं तुम्हारा मालिक होने को तैयार हूं। मेरे पीछे आ जाओ। तुम्हें मालिक की खोज है? उस गुलाम ने कहा: बड़े गजब के आदमी हो! यही तो मेरी खोज है; मालिक को खोज रहा हूं।
वह आदमी उसे घर ले गया। और उसने कहा: मैं हुआ तुम्हारा मालिक, तुम हुए मेरे गुलाम! और जो काम मैं बताऊं, वह करो। उसने कहा: यही तो मैं चाहता था कि कोई बताने वाला मिल जाए कि क्या करूं, क्या न करूं। अपने किए तो सब अनकिया हुआ जा रहा है। खुद कर-कर के तो फंस गया हूं। तुम भले मिले।
थोड़ा शक उस आदमी को होना शुरू हुआ कि या तो यह आदमी पागल है और या फिर कहीं कुछ भूल-चूक हो रही है; कहीं भाषा का भेद है। पर उसने सोचा कि अपने को प्रयोजन भी क्या, यह आदमी राजी है, ठीक। और मुफ्त मिल गया। बिना कुछ दिए-लिए! और आदमी तगड़ा-स्वस्थ! उसने उससे काम लेना शुरू कर दिया। वह आदमी इतना भला पाया उस संसारी आदमी ने, इस फकीर को, उसने इसका नाम खैर रख दिया। खैर यानी अच्छा, भला। फिर उसने इसे--वह उसका खुद का काम था कपड़े बुनवाई का--उसने इसे कपड़ा बुनना सिखाया। तो उसका दूसरा नाम हो गया--‘नस्साज।’ नस्साज यानी कपड़ा बुनने वाला। खैर-नस्साज उसका नाम हो गया। दस साल बीत गए, उसने बड़ी सेवा की इस मालिक की। उसने इतनी सेवा की और इतना सम्मान दिया और इतना श्रम किया कि इस मालिक को भी चोट लगने लगी भीतर कि मैं बड़ा शोषण कर रहा हूं। एक पैसा मैंने इस आदमी पर खर्च नहीं किया है, और इसकी वजह से बड़ी धन-दौलत आ गई है। और मैं शोषण कर रहा हूं। अब वक्त आ गया है कि मैं इसे मुक्त कर दूं। तो उसने इसे बुलाया और कहा कि बहुत हो गया। तुम बड़े काम के साबित हुए, लेकिन मुझे मन में खटकता है कि मैं शोषण कर रहा हूं। उस खटकन को अब और ज्यादा नहीं सहा जा सकता। अब मैं तुम्हें मुक्त करता हूं। अब तुम अपने मालिक हुए।
नस्साज ने कहा: बड़ी कृपा कि तुमने मुझे मेरा मालिक बना दिया! और बहुत कुछ सीखने को मिला। तुम्हारे पास दास होने की कला सिखने को मिली। और अब परमात्मा से फासला नहीं है। क्योंकि गुलाम होना जब से मैंने जान लिया, अहंकार टूट गया। अहंकार टूटा कि गुलामी मिटनी शुरू हो गई। और देखो, तुम तक मुझे मुक्त किए दे रहो हो! मैं तो मुक्त हो गया, लेकिन अब तुम्हारे संबंध में क्या खयाल है? तुम कब तक गुलाम बने रहोगे?
फकीरों की भाषा और सांसारिकों की भाषा भला एक हो, एक हो नहीं सकती। उनके गेस्टाल्ट, उनके ध्यान अलग हैं। वे कुछ और देख रहे हैं, तुम कुछ और देख रहे हो।
कबीर कहते हैं कि तुम इतने सोए-सोए हो कि तुम्हें अगर कोई सतत जगाने वाला न हो, तो असंभव है कि तुम जाग सको; असंभव है कि तुम्हारा घड़ा उलटा रह सके। तुम डूब ही जाओगे। और न मालूम कितने जन्मों में तुम कितनी बार डूबे हो? और धीरे-धीरे तुम डूबने के आदी हो गए हो। डूबना तुम्हारी आदत हो गई है। और अब तुम डूबने से परेशान भी नहीं होते। तुम समझते हो, यही जिंदगी है। कारागृह में कोई बहुत दिन रह जाए, तो कैदी समझने लगता है: यही जिंदगी है। कारागृह से जब पुराने कैदी बाहर निकलते हैं, तो दूसरे कैदी पूछते हैं, कब तक लौटोगे? और कारागृह कैदियों को घर जैसा लगने लगता है--बाहर आकर उनको बड़ी बेचैनी होती है। आदत! कारागृह से ज्यादा सुरक्षित जगह भी तो तुम न पा सकोगे। न कोई झगड़ा, न कोई झांसा, न कोई चिंता, न कोई फिकर! चारों तरफ पहरा, जैसे तुम सम्राट हो। बड़ी दीवालें हैं कि कोई भीतर नहीं आ सकता। रात निश्चिंत सो सकते हो। भोजन की फिकर नहीं, कोई अकाल नहीं पड़ता कारागृह में कभी। भोजन मिलेगा ही। न काम की फिकर। कभी कोई बेकाम नहीं रहता। बेरोजगार कोई भी कारागृह में नहीं है। चिंता है ही नहीं। निश्चिंत, सुरक्षित!
तो जब आदमी कारागृह के बाहर आता है तो खुला आकाश बहुत डराता है। तुम कभी अपने तोते को छोड़ दो पिंजरे से, खुले आकाश में, देखो उसकी कैसी गति हो जाती है! भयभीत, कंपता हुआ! ज्यादा देर नहीं कि वह वापस लौट जाएगा पिंजरे में, तुम खुला ही छोड़ दो, पिंजरे में आकर अंदर बैठ जाएगा। तुम किसी तोते को पिंजरे के बाहर खींच कर मुक्त करने की कोशिश करो, वह अपने को पिंजरे में पकड़ेगा, रोकेगा। वह अपनी चोंच तुम्हारे हाथ पर मारेगा कि बंद करो दरवाजा, बाहर मत निकालो! पिंजरे जैसा सुख कहां! खुला आकाश खतरनाक है।
डूबने के तुम आदी हो गए हो। कारागृह तुम्हारा घर बन गया है। और तुमने खूब सजा लिया है। और तुमने भीतर की दीवालों को खूब रंग-रोगन कर लिया है। अब तुम भूल ही गए हो कि तुम जहां हो, वहां तुम रोज-रोज डूब रहे हो।
जिहि कारन नल भींन भींन करु, गुरु परसादे तरिया।
इसलिए अगर तुम अपनी ही तरफ से कोशिश करते रहोगे, करीब-करीब असंभव है कि तुम तर जाओ। कोई चाहिए जागा हुआ जो तुम्हें सतत सचेत करता रहे। उसका ही अर्थ है गुरु-प्रसाद। गुरु-प्रसाद?--प्रसाद इसलिए कि वह तुमसे कुछ लेता नहीं। तुम्हारे पास कुछ है भी नहीं कि तुम उसे दे सको। प्रसाद इसलिए कि वह बेशर्त दान है। वह तुम्हें दे रहा है; तुम ले लो, बस इतना ही काफी है, कुछ और उत्तर में चाहिए नहीं। इसलिए गुरु जो भी देता है, वह प्रसाद है। तुम उसको कभी भी उत्तर चुका नहीं सकते।
कहावत है पुरानी: पिता का ऋण चुकाया जा सकता है, मां का ऋण चुकाया जा सकता है, शिक्षक का ऋण चुकाया जा सकता है; लेकिन तुम गुरु का ऋण कैसे चुकाओगे? तुम क्या दोगे वापस, जिससे गुरु का ऋण चुक जाए?
बुद्ध से उनके शिष्य आनंद ने पूछा कि हम क्या दें कि हम उऋण हो जाएं? बुद्ध ने कहा: तुम एक ही काम करो, तुम जाओ और जो सोए हैं उनको जगाओ। और कोई उपाय नहीं है।
गुरु से उऋण होने का कोई उपाय नहीं है। इसलिए हम उसे प्रसाद कहते हैं। वह जो भी दे, वह प्रसाद। वह राख उठा कर दे देता है, तो प्रसाद। उसके स्पर्श से राख भी स्वर्ण हो जाती है। वह दे रहा है, उसका देना ही हर चीज को मूल्यवान बना देता है। जो जागा हुआ है, उसके हाथ की राख भी मूल्यवान है। जो सोया हुआ है, उसके हाथ का स्वर्ण भी राख है। क्योंकि असली सवाल तो जागने और सोने का है। जागने से हर चीज स्वर्ण हो जाती है; सोने से हर चीज मिट्टी हो जाती है।
मूर्च्छा सभी चीजों को नष्ट कर देती है; वह मृत्यु है। जागरण, सभी चीजों को जगा देता है; वह जीवन है, महाजीवन है।
पैठि गुफा मंह सब जग देखै, बाहर किछुउ न सूझै।
भीतर बैठ जाता है गुफा में--हृदय की गुफा।
पैठि गुफा मंह सब जग देखै, बाहर किछुउ न सूझै।
और बाहर देखता नहीं; भीतर देखता है। वही जागरण का उपाय है कि तुम भीतर देखने लगो। आंख बंद कर लो, कान बंद कर लो, हाथ शिथिल छोड़ दो, शरीर को ऐसा कर दो, जैसे है ही नहीं--और भीतर देखो!
पैठि गुफा मंह सब जग देखै, बाहर किछुउ न सूझै।
उलिटा बान पारधिहि लागै, सुरा होय सो बूझै।।
और तब ऐसी घटना घटती है कि जो बहुत अभय हो--‘सुरा होय सो बूझै’--जो बहुत बहादुर हो, साहसी हो, वही सूझ सकेगा, वही बूझ सकेगा। ‘उलिटा बान पारधिहि लागै।’ जैसे कि तुम तीर चलाओ, और तीर जाए न उस तरफ पक्षी को मारने, चला जाए भीतर, और व्याघ्र खुद उससे छिद जाए।
उलटबांसी है। तुम्हारी चेतना अभी बाहर की तरफ जाता हुआ तीर है। सब निशाने बाहर हैं। किसी को धन पाना है; वह उसका निशाना है। किसी को पद पाना है, यह उसका निशाना है, किसी को कुछ और पाना है। बड़ा संसार है, अनंत लक्ष्य हैं। और तुम्हारी चेतना का तीर उनकी तरफ जा रहा है। इससे एक उलटी यात्रा भी है कि तुम्हारा तीर चेतना का बाहर की तरफ नहीं जाता। तुम आंख बंद कर लेते हो, तीर भीतर की तरफ मुड़ता है। तुम भीतर देखते हो। आंखें उलटी हो जाती हैं। देखने का ढंग बदल जाता है और चेतना भीतर की तरफ बहती है; जैसे गंगा गंगोत्री की तरफ बहे। मूलस्रोत की तरफ तुम्हारी चेतना आती है। जहां से आई है, वहीं वापस ले जाते हो। उदगम ही लक्ष्य हो जाता है। तब, तब जीवन की परम घटना घटती है। तब जीवन की परम धन्यता उतरती है।
लेकिन कबीर कहते हैं: ‘सुरा होय सो बूझै।’ यह कमजोरों का काम नहीं! यह तो बहुत बहादुरों का काम है। इसलिए तो हम महावीर कहते हैं महावीर को। नाम उनका वर्द्धमान था। जिस दिन तीर उलटा हुआ, उस दिन से हमने उन्हें महावीर कहा। वर्द्धमान तो मर गए, महावीर का जन्म हुआ। महावीर इसलिए कहा कि यह परम साहस है।
ध्यान रखना, धर्म कमजोरों की बात नहीं। भीरु, भयभीत, डरे हुए लोग, तुम्हें मंदिरों में मिलेंगे--घुटने टेके, हाथ जोड़े--लेकिन वे धार्मिक लोग नहीं हैं। वहां भी उनका तीर बाहर की तरफ जा रहा है। वहां भी वे मांग रहे हैं संसार की चीजें।
ऐसा हुआ कि विवेकानंद के पिता मर गए। तो घर बड़ा दीन था--कर्ज छोड़ गए थे। चुकाने का कोई उपाय नहीं था। और विवेकानंद को लग गया राग-रंग एक दूसरी दुनिया का। विवेकानंद पर छा गए रामकृष्ण। तो अब तो कोई उपाय ही न रहा। विवेकानंद के दिन बीतने लगे रामकृष्ण के सत्संग में। साधु-संगत में। मां विधवा, कर्ज भारी! ऐसी हालतें थीं कि कभी भोजन भी होता, नहीं भी होता। कई दिन ऐसे हो जाते कि विवेकानंद घर जाते और पाते कि इतना ही भोजन है कि अकेला कोई भी एक ले सकता, या तो मां या बेटा। तो विवेकानंद कहते कि मैं आज भोजन नहीं लूंगा, कहीं निमंत्रण है। किसी मित्र के घर भोज है। तू भोजन ले ले। चक्कर लगा कर गलियों में भूखे पेट, रास्ते के किनारे लगे नल से पानी पी कर हंसते हुए घर लौटते, जैसे भर पेट आए हैं। डकार लेते घर में आते कि बड़ा गजब का भोजन था। बड़ी सुंदर चीजों का नाम गिनाते, ताकि मां आश्वस्त हो जाए।
रामकृष्ण को पता लगा कि यह तो बहुत बुरी हालत है, तो उन्होंने कहा कि यह नहीं चलेगा। तू पागल हुआ है। तू जाकर मां से क्यों नहीं मांग लेता? मंदिर में मां की मूर्ति है। तू जा और जो मांगना है, मांग ले।
विवेकानंद भीतर गए। रामकृष्ण द्वार पर बैठे हैं। घंटा बीत गया। विवेकानंद बाहर आए, आंखों से आंसुओं की धार लगी है। परम आनंदित हैं। रामकृष्ण ने कहा: मांग लिया? विवेकानंद ने कहा: अच्छी याद दिलाई, मैं तो भूल ही गया। फिर भेजा भीतर, फिर घंटे भर बाद बाहर आए, बड़े प्रसन्न हैं। रामकृष्ण ने कहा: मांग लिया? विवेकानंद ने कहा: नहीं मांग सकूंगा। क्योंकि जब मां सामने खड़ी हो, तो मांगना कैसा! और क्या उसे पता नहीं है? परमात्मा से मांगना क्या? और जो उसकी मर्जी, वही हो। उसकी मर्जी से हम ज्यादा समझदार तो नहीं हो सकते। अगर वह चाहता है यही, तो जरूर कोई राज होगा। तो जाता हूं भीतर, आप कहते हैं, आपको भी इनकार नहीं कर सकता और भीतर जाकर धुन में लीन हो जाता हूं। ऐसा आनंद बरसता है कि वहां किसको याद रहती है कि पेट भूखा है, कि हाथ में भिक्षापात्र लिए हूं। नहीं, यह नहीं होगा, यह मैं न मांग सकूंगा।
रामकृष्ण ने कहा: यही मैं सोचता था कि अगर तू मांग ले, तो मैं समझ लूं कि तू संसारी है, और धार्मिक न हो सकेगा। अगर तू न मांग सके तो फिर इस रास्ते पर चल सकता है। क्योंकि इस रास्ते पर तो वे ही चलते हैं--‘सुरा होय सो बूझै।’ हिम्मत है जिनकी, साहस है जिनमें--अज्ञात में जाने का, अनजान में उतरने का, क्षुद्र को छोड़ने का, विराट में खोने का।
...सुरा होय सो बूझै।
गायन कहे कवहुं नहिं गावै, अनबोला नित गावै।
गायन कहे कवहुं नहिं गावै,...
गाता है साधक, फिर भी गाता नहीं। वह कोई गीत नहीं है। वह कोई संगीत नहीं है, एक आनंदभाव है।
गायन कहे कवहुं नहिं गावै, अनबोला नित गावै।
और नहीं भी बोलता, तो भी गीत चलता रहता है। ये उलटबांसियां हैं। तुम गाते हुए पाओगे मीरा को, चैतन्य को--और कबीर कहेंगे फिर भी वे गाते नहीं, भीतर तो सब शांत है, एक शब्द नहीं उठता। तुम बुद्ध को और महावीर को बैठा हुआ पाओगे अनबोला, और कबीर कहेंगे, गाते हैं, भीतर तो धुन उठ रही है, अनहद नाद बाजे!
संत की जो स्थिति है, वह इस उलटबांसी में छिपी है। संत बोलता है तो भी बोलता नहीं। तुम चुप रहते हो तो भी बोलते हो। चुप्पी ऊपर-ऊपर होती है, भीतर तो बोले चले जाते हो। संत बोलता है तो भी बोलता नहीं; बोलना ऊपर-ऊपर होता है, भीतर तो गहन चुप्पी होती है। संत चुप रहता है, तब भी बोलता है, लेकिन उसके चुप रहने में बोलने का ढंग और, तुम्हारे चुप रहने में बोलने का ढंग और। संत चुप रहता है, तब चुप्पी से बोलता है। तब वह तुमसे भी कह रहा है, चुप हो जाओ। तब वह तुमसे भी कह रहा है, जैसा मैं हूं ऐसे हो जाओ। तब वह तुमसे भी कह रहा है, निमंत्रण है, द्वार खुला है, भीतर आ जाओ, चुप हो जाओ। और अगर तुम संत के पास चुप बैठ सको, तो तुम सब सीख लोगे जो सीखने जैसा है।
संत बोले तो भी वह वही बोलता है कि चुप हो जाओ। संत चुप रहे तो भी वह वही बोलता है कि चुप हो जाओ। मौन हो जाना द्वार है। सब भांति शब्द से मुक्त हो जाना विधि है।
गायन कहे कवहुं नहिं गावै, अनबोला नित गावै।
नट वट बाजा पेखनि पेखै, अनहद हेत बढ़ावै।।
संसार को तो वह खेल की तरह लेता है।
नट वट बाजा पेखनि पेखै,...
देखता है कि यह सारा साज जो बज रहा है, खेल-कूद चल रहा है, अभिनय हो रहे हैं, नाटक हो रहा है--इसको वह नाटक की तरह देखता है, एक द्रष्टा!
...अनहद हेत बढ़ावै।
इधर देखता है संसार को एक नाटक, और उधर भीतर अनहद से प्रेम बढ़ाता जाता है।
तुम जब तक इस संसार को वास्तविक मानते हो, तब तक तुम इसके साथ प्रेम को बढ़ाते हो। क्योंकि प्रेम, जहां भी वास्तविकता दिखती है, वहीं बढ़ता है। जब तुम संसार को खेल समझ लेते हो... लेकिन तुम बड़ी मुश्किल में हो। तुम संसार को खेल क्या समझोगे! तुम फिल्म में जाते हो, फिल्म को तुम सत्य समझ लेते हो! फिल्म में देखो। वहां तो अंधेरा रहता है, अच्छा है; नहीं तो सभी अपने आंसू पोंछ रहे हैं। लोगों के रूमाल गीले हो जाते हैं। लोग दो-दो जोड़ी रुमाल लेकर जाते हैं। अंधेरा अच्छा है। कोई देख नहीं रहा है। जल्दी से पोंछ कर फिर सज कर बैठ जाते हैं। फिल्म कुछ भी नहीं है वहां; पर्दे पर धूप-छांव का खेल है।
और संत कहते हैं: यह सारा संसार धूप-छांव का खेल है। संत इस सारे संसार को नाटक बना लेते हैं। तुम नाटक को भी संसार बना लेते हो। तुम वहां भी रोते हो, हंसते हो, प्रसन्न होते हो। वहां भी किसी की हत्या होती है, तुम कहते हो... तुम दुख प्रकट करते हो। वहां कोई किसी की छाती में छुरा भोंक रहा है, तुम एकदम सीधे होकर बैठ जाते हो; जैसे कोई दुर्घटना घटने जा रही है। तुम नाटक को भी वास्तविक कर लेते हो, तो तुम संसार को कैसे नाटक कर पाओगे! और कला यही है कि संसार नाटक हो जाए।
नट वट बाजा पेखनि पेखै, अनहद हेत बढ़ावै।।
कथनी बदनी निजुके जोहै, ई सभ अकथ कहानी।
और इस सारे खेल को, न केवल संसार के खेल को खेल की तरह देखता है, बल्कि अपनी कथनी-करनी, खुद के आचरण, शरीर, क्रिया, गतिविधि को भी द्रष्टा की तरह ही देखता है। भूख लगती है संत को भी, लेकिन लगने का ढंग और है। जब तुम्हें भूख लगती है, तुम्हें लगता है तुम भूखे हो गए; मैं भूखा हूं। जब संत को भूख लगती है तो उसे दिखाई पड़ता है, शरीर भूखा है। भूख से वह जोड़ नहीं लेता है अपने को। तुम्हारे पैर में चोट लगती है तो तुम्हें चोट लगती है। संत को चोट लगती है तो वह देखता है कि पैर को चोट लगी है। जो करना जरूरी है, करता है; लेकिन है सब खेल।
संत साक्षी बना रहता है। और साक्षीभाव इस जगत में सबसे रहस्यपूर्ण दशा है। इसलिए कबीर कहते हैं: ‘कथनी-बदनी निजुके जोहै।’ ‘निजुके जोहै’--अर्थात साक्षी हो जाए। सब देखे और साक्षीभाव से देखे। कोई भी चीज छुए न। किसी भी चीज में बंधे न। सबसे गुजर जाए, लेकिन अस्पर्शित रहे। रहे संसार में, लेकिन संसार को भीतर न घुसने दे। संसार में हो और संसार का न हो। वही तो साधु का लक्षण है।
...ई सभ अकथ कहानी।
और यह बड़ी अदभुत कहानी है, कही नहीं जा सकती। क्योंकि जिस दिन सारा संसार तुम्हें नाटक दिखाई पड़ेगा, उस दिन तुम कैसे रहस्य-लोक में प्रवेश न कर जाओगे। जिस दिन तुम्हारा खुद का जीवन भी एक पार्ट मालूम पड़ेगा, उस दिन तुम्हारे जीवन में कैसी चिंता! उस दिन तुम्हारे जीवन में कैसा कष्ट, कैसा संताप!
...ई सभ अकथ कहानी।
धरती उलटि आकासहि बेधै, ई पुरखन की बानी।।
और जिन्होंने जाना है, उन पुरखों की यह वाणी है कि धरती उलटी होकर आकाश को बेंध देती है। तुम्हारी चेतना उलटी होकर सारे संसार को बेंध देती है।
बिना पियाले अमृत अंचवै, नदिय नीर भरि राखै।
कहहिं कबीर सो जुग-जुग जीवै, राम सुधारस चाखै।।
बिना पियाले अमृत अंचवै,...
और अमृत बरसता है, और ऐसा बरसता है कि तुम्हारे चारों ओर बरसता है। प्याले की जरूरत भी नहीं भरने की। तुम ही उससे भर जाते हो।
बिना पियाले अमृत अंचवै,...
यह कोई प्यालियों में नहीं बरसता, जब बरसता है तो। जब बरसता है तो सब बांध तोड़ कर बरसता है। तुम्हारे चारों तरफ सागर की तरह हो जाता है।
...नदिय नीर भरि राखै।
इस तरह बरसता है कि तुम्हारे भीतर नदियों जैसा भरा रह जाता है। जैसे आकाश से जब वर्षा होती है तो सूखी नदियों में भर जाती है। ऐसा तुम्हारे भीतर भर जाता है और चारों तरफ बरसने लगता है।
कहहिं कबीर सो जुग-जुग जीवै,...
और जिस पर यह अमृत बरस गया वह सदा जीता है; उसकी कोई मृत्यु नहीं, वह अमृत हो जाता है।
...राम सुधारस चाखै।
और अनंत-अनंत, सदा-सदा परमात्मा के रस का स्वाद लेता रहता है।
दो स्वाद हैं जगत में। एक स्वाद है शरीर का, और एक स्वाद है आत्मा का। भोजन करते हो, तब जो स्वाद मिलता है, वह शरीर का स्वाद है। संभोग करते हो, तब जो स्वाद मिलता है, वह शरीर का स्वाद है। सुगंध आती है फूलों से, तब जो स्वाद मिलता है वह शरीर का स्वाद है।
एक और स्वाद है, जो इंद्रियों से नहीं मिलता--और वही स्वाद परमात्मा का है। लेकिन वह तभी संभव होगा, जब तुम्हारी गंगा सागर को ग्रस ले; जब तुम्हारा तीर तुम्हीं को लग जाए; जब तुम उलटी यात्रा पर निकल जाओ। वह तभी संभव है, जब:
औंधे घड़ा नहीं जल बूड़ै, सूधे सों जल भरिया।
जिहि कारन नल भींन भींन करु, गुरु परसादे तरिया।।
बस इतना ही राज है कि तुम औंधे घड़े हो जाओ। जिस दिन संसार का जल तुममें न भरेगा, उसी दिन परमात्मा की वर्षा तुम पर हो जाएगी। सीधे घड़े में संसार भर जाएगा और तुम डूब जाओगे।
बहुत बार तुम डूबे हो। चेत जाना चाहिए! काफी समय हो गया, अब होश आ जाना चाहिए।
आज इतना ही।
काल न खाय कलप नहिं व्यापै, देह जरा नहिं छीजै।।
उलट गंग समुद्रहि सोखै, ससिं ओ सूरहि ग्रासै।
नवग्रह मारि रोगिया बैठे, जल मंह बिंब प्रगासै।।
बिनु चरनन को दहं दिसि धावै, बिनु लोचन जग सूझै।
ससै उलटि सिंह कंह ग्रासै, ई अचरज को बूझै।।
औंधे घड़ा नहीं जल बूड़ै, सूधे सों जल भरिया।
जिहि कारन नल भींन भींन करु, गुरु परसादे तरिया।।
पैठि गुफा मंह सब जग देखै, बाहर किछुउ न सूझै।
उलिटा बान पारधिहि लागै, सुरा होय सो बूझै।।
गायन कहे कवहुं नहिं गावै, अनबोला नित गावै।
नट वट बाजा पेखनि पेखै, अनहद हेत बढ़ावै।।
कथनी बदनी निजुके जोहै, ई सभ अकथ कहानी।
धरती उलटि आकासहि बेधै, ई पुरखन की बानी।।
बिना पियाले अमृत अंचवै, नदिय नीर भरि राखै।
कहहिं कबीर सो जुग-जुग जीवै, राम सुधारस चाखै।।
संतो जागत नींद न कीजै।
दो अर्थ हैं इस वचन में। दोनों ही जरूरी और समझ लेने योग्य। पहला तो साधारणतः हम परिचित हैं कि हम जागे हुए भी सोए-सोए हैं। हमारे जागने में त्वरा, तीव्रता नहीं है। हमारा जागरण ऐसा नहीं है कि लपट हो। हमारा जागरण बहुत ही टिमटिमाते दीये की तरह है। हमारे जागरण में नींद मिश्रित है। उठते हैं, बैठते हैं, चलते हैं, काम भी करते हैं, लेकिन जैसे कोई सोए-सोए चल रहा हो।
एक बीमारी होती है--सोमनाबुलिज्म--नींद में चलने की बीमारी। उस बीमारी का मरीज आंख खुली रखता है, रात उठ जाता है नींद से, काम कर आता है, भोजन कर आता है जाकर चौके में, वापस लौट कर सो जाता है। और सुबह उसे याद भी नहीं होती कि रात वह चौके में गया। सुबह वह खुद ही चकित होता है। अगर वह घर में अकेला है तो सोचेगा कि भूत-प्रेत हैं: कौन रात भोजन कर गया! किसने रात कपड़े फाड़ डाले! वह खुद ही फाड़ देता है रात। किसने आग लगा दी! किसने बर्तन फेंक दिए! कोई याद नहीं रह जाती सुबह।
यह जो नींद में जागने वाला मरीज है, ऐसी हमारी दशा भी है--थोड़ी कम मात्रा में। लेकिन हमारी नींद टूटती नहीं। धीमी-धीमी नींद हम पर छाई ही रहती है। एक गहन आलस्य हमें घेरे हुए है। एक अंधकार हमारे भीतर बना रहता है। और इस नींद का जो प्राथमिक लक्षण है, वह यह कि जो भी हम करते हैं, वहां हम नहीं होते हैं। भोजन कर रहे हैं; यंत्रवत हाथ कौर बना लेता है, मुंह में डाल लेता है। मन हमारा न मालूम कहां भटक रहा है! मन कोई सपने देख रहा है। मन वहां है ही नहीं। फिर भी हम कौर बनाते हैं, मुंह में रोटी डाल लेते हैं, चबा लेते हैं, भोजन कर लेते हैं, उठ जाते हैं। कोई भी देखने वाला कहेगा कि हम जागे हुए कर रहे हैं। लेकिन हम जागे हुए नहीं कर रहे हैं, हम सोए-सोए कर रहे हैं? जागना तो तभी संभव होता है, जब हमारा पूरा होश वर्तमान क्षण में केंद्रित हो; जो भी हम कर रहे हों, वहीं हमारा पूरा मन हो। पूरी चेतना हो।
चेतना का वर्तमान से जुड़ जाना जागरण है; और चेतना का वर्तमान से टूट जाना निद्रा है।
नींद को हम नींद इसीलिए कहते हैं कि वर्तमान से हमारा पूरा संबंध टूट जाता है। तुम सो रहे हो अपने बिस्तर पर, सोच रहे हो: किसी सम्राट के महल में विश्राम कर रहे हैं! सो रहे हो यहां--सपना देख रहे हो, कलकत्ता, लंदन, न्यूयार्क का। और जब तुम सपना देखते हो तब तुम्हें क्षण भर भी याद नहीं आती कि तुम अपने घर में, पूना में विश्राम कर रहे हो। सुबह जाग कर तुम खुद ही हंसोगे कि बड़ी दूर की यात्रा की, बड़े दूर चले गए।
सपने का अर्थ है: जहां तुम हो वहां से दूर चले जाना; जो तुम हो उससे दूर चले जाना; जो तुम नहीं हो वह हो जाना; जहां तुम नहीं हो वहां पहुंच जाना।
असत्य सत्य जैसा दिखाई पड़ने लगे तो सपना!
सत्य सत्य जैसा दिखाई पड़ जाए तो जागना।
तो हम सब सोए हैं। इस पहले अर्थ को ठीक से समझ लें।
संतो जागत नींद न कीजै।
जागते-जागते सोओ मत!
मुल्ला नसरुद्दीन एक प्रवचन में सुनने गया था। जो बोलने वाला गुरु था, वह थोड़ा बेचैन हुआ, क्योंकि मुल्ला नसरुद्दीन और उसकी पत्नी दोनों ही सामने बैठे थे। और पत्नी तो थोड़ी ही देर बाद गुर्राटे लेने लगी। और थोड़ी देर बाद जब उसने गुर्राटा लेना शुरू किया, मुल्ला ने अपनी छड़ी उठाई और चलता बना। वह और भी दुखी हुआ, बोलने वाला। प्रवचन के बाद उसने पत्नी को पूछा, यह तो पूछना ठीक न मालूम पड़ा कि आप सो गईं, क्या मेरा व्याख्यान इतना उबाने वाला था; पर उससे यह न रहा गया बिना पूछे कि आपके पति उठ कर चले गए, क्या मैंने कोई ऐसी बात कही जिससे उन्हें चोट पहुंची हो? पत्नी ने कहा कि नहीं, आप बिलकुल निश्चिंत रहें, उन्हें नींद में चलने की बचपन से आदत है।
संतो जागत नींद न कीजै।
जब जागे हो तब पूरी तरह जागो। इसका एक परिणाम होगा कि जब तुम सोओगे तब तुम पूरी तरह सोओगे। अभी न तो तुम पूरी तरह जाग पाते हो, न पूरी तरह सो पाते हो। तुम्हारे जागरण में नींद बनी रहती है, तुम्हारी नींद में जागरण बना रहता है। सब मिश्रित है--एक कंफ्यूजन है। सब गोलमाल है। तुम एक खिचड़ी हो, एक साफ-सुथरापन नहीं। इसीलिए, जो लोग भी जागते में नींद करेंगे, उनकी नींद में जागरण घुस जाएगा। यह स्वाभाविक है। इसलिए सारी दुनिया में लोगों की नींद खोती जा रही है। इस समय बड़े से बड़ा सवाल आदमी के सामने है कि नींद को कैसे बचाया जाए?
हजारों प्रकार के ट्रैंक्वेलाइजर हैं, नींद की दवाएं हैं, लेकिन सब व्यर्थ होती जा रही हैं। रूस में उन्होंने विद्युत के छोटे-छोटे यंत्र बनाए हैं जिनका उपयोग किया जा रहा है। हम तो पागल के लिए ही सिर्फ विद्युत के शॉक देते हैं। वह भी शॉक ही हैं विद्युत के, झटके ही हैं, लेकिन बहुत कम मात्रा में। उस यंत्र को सिर से लगा देते हैं रात, वह यंत्र बिजली फेंकता है मस्तिष्क में, तब नींद आ पाती है। हजारों घरों में वह यंत्र लगा दिया गया है रोजमर्रा के उपयोग की तरह। और मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि इस सदी के पूरे होते-होते, ऐसा आदमी खोजना मुश्किल होगा, कम से कम पश्चिम में, जो स्वाभाविक नींद सोता हो; जो कहे कि बिस्तर पर सिर रख लेता हूं और सो जाता हूं। सौ साल बाद लोग भरोसा ही न कर सकेंगे कि एक जमाना था दुनिया में जब लोग बिना कुछ किए सो जाते थे। हम भी भरोसा नहीं कर पाते। जब कोई कहता है कि महावीर या बुद्ध वृक्ष के नीचे बैठे या खड़े-खड़े ध्यान को उपलब्ध हो गए। और जब कोई कहता है, बुद्ध ने कुछ भी न किया और ध्यान को उपलब्ध हो गए, तो हमें भरोसा नहीं आता।
ठीक ऐसी ही हालत नींद के संबंध में हुई जा रही है--अभी भी हो गई है। जो अनिद्रा से पीड़ित है, इनसोमेनिया से, उससे कहो, वह तुमसे पूछेगा, वह जगह-जगह पूछता फिरता है कि मुझे नींद नहीं आती, आप कैसे सो जाते हैं? तो तुम कहोगे कि हम कुछ करते नहीं, सोने के लिए कोई उपाय, विधि भी नहीं है। हम तो सिर्फ सिर रखते हैं तकिए पर और सो जाते हैं। तो वह कहेगा कि जरूर झूठ बोल रहे हो, क्योंकि सिर तो मैं भी रखता हूं तकिए पर और करवटें बदलता हूं, रात भर उठाता हूं और रखता हूं--नींद नहीं आती। जरूर कोई तरकीब होगी, जो लोग छिपा रहे हैं। जरूर कोई षडयंत्र है मेरे खिलाफ: सारी दुनिया सो रही है और मैं जाग रहा हूं!
क्या हो गया है उस आदमी के भीतर जो रात सो नहीं पाता? वह दिन में नींद कर रहा है। जब वह जागा हुआ है, तब नींद कर रहा है। और जब तुम्हारे जागने में नींद चली जाएगी, तो स्वभावतः तुम्हारी नींद में जागना चला जाएगा। तुम एक घोलमेल हो जाओगे। तुम्हारे जीवन में कुछ भी साफ-सुथरा नहीं रह जाएगा। तुम्हारे प्रेम में घृणा घुस जाएगी। तुम्हारी घृणा में प्रेम घुस जाएगा। तुम मित्र को भी नफरत करोगे, तुम शत्रु को भी प्रेम करोगे। तुम्हारी जिंदगी एक बेबूझ पहेली हो जाएगी।
यह तो पहला अर्थ है कि जागते समय तुम जागना, ताकि सोते समय तुम सो सको। रात रात है; दिन दिन है। दिन को पूरी तरह जागना, ताकि रात पूरी तरह सो सको।
लेकिन कुछ भी तुम्हारी जिंदगी में साफ-सुथरा नहीं है। घर आते हो तब तुम दफ्तर की सोचते हो। दफ्तर जाते हो तब तुम घर की सोचते हो। तुम पागल मालूम होते हो। जब दफ्तर गए हो तब दफ्तर को पूरा कर लो।
मैं एक हाईकोर्ट के न्यायाधीश के घर मेहमान हुआ करता था। जब उनसे निकटता बढ़ गई तो उनकी पत्नी ने एक दिन कहा कि मेरे पति आपके भक्त हैं। एक बात भर उन्हें समझा दें कि न्यायाधीशपन अदालत में रख आएं। रात सोते समय बिस्तर पर भी वे मजिस्ट्रेट बने रहते हैं। हम जैसे नौकर-चाकर हैं, या अपराधी हैं। वे मजिस्ट्रेट होने से नीचे उतरते ही नहीं। सारा घर पागल हुआ जा रहा है उनके मजिस्ट्रेटपन से।
तुम व्यापार को घर ले आते हो। पत्नी के पास बैठे हो, बीच में तिजोरी रखी है, खाते-बही का ढेर लगा है--फिर पत्नी से मिल नहीं पाते, प्रेम नहीं कर पाते, बच्चे के साथ खेल नहीं पाते, हंस नहीं पाते। पहुंचे दफ्तर--वहां पत्नी खड़ी है, बच्चे आस-पास खड़े हैं।
तुम जो भी करते हो, अधूरा है। तो जो अधूरा लटका रह जाता है, जो हैंगओवर, वह तुम्हारा पीछा करता है। जागा हुआ आदमी हर काम को पूरा करता है; पूरे होश से करता है; अपनी समग्र चेतना को दांव पर लगा देता है--वह चाहे क्षुद्र से क्षुद्र काम क्यों न हो। प्यास लगी है, और वह पानी क्यों न पी रहा हो, चाय क्यों न ले रहा हो--वह पूरे होश से चाय लेता है। वह बात को वहीं समाप्त कर देता है। वह आगे-पीछे कुछ हिसाब-किताब बाकी नहीं रखता। वैसा आदमी जागता भी पूरी तरह है, सोता भी पूरी तरह है। वैसे आदमी के जीवन में एक प्रगाढ़ शांति फैल जाती है। उसका कोई भी काम अधूरा नहीं है। मौत अगर अभी आ जाए और उससे कहे, उठो, तो वह तैयार पाएगी, क्योंकि उसको कुछ बचा नहीं है, जो करना है। जो भी उसे करना था, वह हमेशा पूरा कर लिया है।
लेकिन अगर मौत आज तुम्हारे द्वार पर आए, तुम तैयार न पाओगे अपने को। तुम कहोगे, थोड़ी देर... कल किसी को गाली दी थी, उससे क्षमा मांगनी है। और कल किसी से रुपये उधार लिए थे, उसके वापस लौटाने हैं। और न मालूम कितने कल बीत गए हैं, और न मालूम कितने जाल अधूरे रह गए हैं, वे सब पूरे करने हैं। अभी तो वक्त नहीं है।
इसलिए हर आदमी असमय मरता है। सिर्फ जागा हुआ आदमी समय पर मरता है--कभी भी मरे! तुम यह नहीं कह सकते कि बुद्ध समय के पहले मर गए। बुद्ध समय के पहले कभी मरते ही नहीं। क्योंकि हर घड़ी जब भी मौत आए, समय है।
एक अमीर आदमी था। उसने एक बहुमूल्य तोता पाल रखा था। तोते को दरवाजे पर लटका रखा था। और उसको सिखा रखा था कि जब भी मैं बाहर जाऊं, तब-तब कहना कि मालिक! हुजूर! स्वामी! जल्दी करिए। वैसे ही बहुत देर हो गई है। भाग-दौड़ की दुनिया, उसमें उसने तोते को भी भगाने की तरकीब सिखा रखी थी। सीढ़ियां उतरता तो वह तोता फौरन कहता, मालिक, जल्दी करिए, वैसे ही बहुत देर हो गई है। फिर वह आदमी मरा, और जब अरथी निकाली जा रही थी, तब तोता बोला: मालिक, जल्दी करिए, वैसे ही बहुत देर हो गई है।
तोते को क्या पता कि अब मालिक मर चुका है! लेकिन मालिक मरा जल्दी ही जल्दी करने में, कुछ भी पूरा नहीं कर पाया। हर चीज में भागा हुआ था। इधर पूरा नहीं हो पाता कि भागते हम हैं दूसरी चीज को पूरी करने; दूसरी पूरी हो नहीं पाती कि तीसरी को पूरा करने... पूरी जिंदगी एक भाग-दौड़ हो जाती है। एक आपाधापी! आखिर में हम पाते हैं, कुछ भी तो पूरा नहीं हुआ।
और ध्यान रखना, अगर तुम्हारे सब काम अधूरे रह गए तो तुम अधूरे रह गए। अगर तुम्हारे सब काम पूरे हो गए तो तुम पूरे हो गए। एक ही पूर्णता है कि सब काम पूरे हो जाएं। और एक ही तृप्ति है, जब तुम्हारा सब काम पूरा हो जाता है तो उस काम के पूरे होने के बीच में एक गहन शांति तुम पर छा जाती है! एक शांति से भरा आकाश तुम पर उतर आता है। वह परिपूर्णता का, फुलफिलमेंट का आकाश है। वह तृप्ति का, एक संतोष... सब काम पूरा हो गया। लेकिन तुम्हारे तो सब काम पूरे नहीं होंगे। तुम्हारे क्षुद्र काम पूरे नहीं होते। वह भी तुम्हारा पीछा करते हैं। खाते वक्त तुम भागे हुए हो। किसी तरह खा लिया--अब सड़क पर तुम भोजन के संबंध में सोच रहे हो! प्रेम करते वक्त किसी तरह प्रेम कर लिया, जल्दी की, अब तुम रास्ते पर दूसरी स्त्रियों को, पुरुषों को देख रहे हो और प्रेम की कामना उठ रही है। तुम्हारा सब अधूरा है।
अधूरापन तुम्हारा रोग है। तुम अगर ठीक से स्वाद ले लो तो भोजन का विचार न आएगा। तुमने अगर ठीक से प्रेम किया तो वासना तिरोहित हो जाएगी। जिस चीज को भी हम परिपूर्णता से भोग लेते हैं, उससे छुटकारा हो जाता है।
मुक्ति अनुभव का नाम है। और जो अनुभव अधूरा है, वह तुम्हें बांधे रखेगा।
संतो जागत नींद न कीजै।
यह तो पहला अर्थ है। दूसरा अर्थ तुम्हें अभी खयाल में शायद न आ सके, क्योंकि दूसरा अर्थ तो उन्हीं को खयाल में आएगा जो ध्यान में गहरे उतर रहे हैं। एक ऐसी घड़ी आती है, जैसा कल मैंने कहा कि समाधि और सुषुप्ति समान हैं। एक ही फर्क है कि सुषुप्ति में गहरी नींद है, समाधि में परिपूर्ण जागरण है; बाकी सब एक जैसा है।
ध्यान की जो लोग गहराई में उतर रहे हैं, उनके खयाल में आ जाएगी बात। एक ऐसी घड़ी आती है जब ध्यान सधने के करीब होता है, तो तुम सुषुप्ति और समाधि के बीच की रेखा पर खड़े होते हो। वहां तुम चाहो तो सो भी जा सकते हो, तुम चाहो तो जाग भी सकते हो। पतंजलि ने उसके लिए अलग ही नाम खोज लिया है। वह नाम है: ‘योग-निद्रा।’ ठीक जब तुम शांत हो गए, परिपूर्ण शांत हो गए--अभी आनंद नहीं उतरा है--अभी तुम कबीर की तरह नहीं कह सकते कि ‘आनंद भयो है, अनहद बाजत ढोल रे।’ नहीं, अभी कोई ढोल बजा नहीं, अभी कोई आनंद नहीं हुआ, अभी अमृत की कोई वर्षा नहीं हुई, लेकिन तुम शांत हो गए हो! संसार गया, मोक्ष अभी नहीं आया। रात बीत गई है, सूरज अभी नहीं ऊगा--भोर है, मध्य में खड़े हो। इसको हिंदुओं ने संध्याकाल कहा है। इसलिए वे दो संध्याएं बनाई हैं उन्होंने। सुबह--रात जा चुकी, सूरज अभी ऊगा नहीं--वह प्रार्थना का क्षण है। सांझ--जब सूरज डूब गया, रात अभी आई नहीं--वह भी प्रार्थना का क्षण है। ये दो संध्याएं प्रार्थना के काल हैं। लेकिन ये प्रतीक हैं। ऐसी ही संध्या भीतर घटित होती है। वही असली संध्या है। जब नींद, संसार, अंधेरा जा चुका; सूरज अभी ऊगा नहीं; आनंद अभी हुआ नहीं; अभी ढोल बजा नहीं; संसार का शोरगुल खो गया। एक शांति का संगीत भीतर है लेकिन अभी आनंद नहीं हुआ है। गलत छूट गया है, ठीक अभी आया नहीं। यह किनारा तो चला गया, अभी वह किनारा नहीं आया है--मझधार है। उस हालत में दो संभावनाएं हैं: या तो तुम सो जाओ, क्योंकि शांति इतनी घनी है, नींद बड़ी आनंदपूर्ण होगी। ऐसी नींद तुमने कभी देखी न होगी। वह इतनी गहन होगी। और जब उस नींद से तुम उठोगे तो इतना ताजा पाओगे कि जैसे हजारों साल सोए हो, इतनी ताजगी है। लेकिन वह नींद खतरनाक है; क्योंकि उस नींद में तुम अगर डूब गए... सुखद है वह नींद, लेकिन अगर डूब गए तो आनंद की जो घटना घटने के करीब थी, वह चूक गई।
योग-निद्रा बड़ी शांतिदायी है; लेकिन नकारात्मक है। और योग-निद्रा के वक्त अपने को सम्हाल कर रखना बहुत कठिन है। क्योंकि तुम साधारण निद्रा के समय ही अपने को नहीं सम्हाल सकते, जब नींद आती है, जम्हाई उठती है, पलकें झपकी जाती हैं, भारी हो जाती हैं जैसे पत्थर बंधे हों, तब तुमसे कोई कहे कि जागे रहो एक क्षण और, तो जागना मुश्किल हो जाता है। जब साधारण नींद इतने जोर से पकड़ती है तो वह तो असाधारण नींद है--योग-तंद्रा। उस समय तो तुम्हारा रोआं-रोआं इतना शांत होता है, तुम एक शांति के सागर हो गए होते हो। उस समय तो बिलकुल सो जाने की तबियत होती है। और इतना सुख मालूम होगा उस सो जाने में कि तुम भूल ही जाओगे। शायद तुम यह भी समझ लो कि यही आनंद है, जिसकी कबीर, नानक चर्चा करते हैं।
बहुत से साधन योग-तंद्रा तक ही ले जाते हैं। जैसे महेश योगी की ध्यान की विधि, बस योग-तंद्रा तक ले जाती है। भावातीत ध्यान जिसे वे कहते हैं--ट्रांसेंडेंटल मेडिटेशन--वह योग-तंद्रा के आगे नहीं ले जाती। इसलिए पश्चिम में उसका बहुत प्रभाव पड़ा, पूरब में कोई प्रभाव नहीं पड़ा। पश्चिम में प्रभाव पड़ा, क्योंकि पश्चिम में नींद बड़ी कठिन हो गई है। पूरब में तो लोग अभी भी मजे से सो रहे हैं। पश्चिम में नींद बड़ी मुश्किल हो गई है। नींद बड़े से बड़ा सवाल है। इसलिए महेश योगी की ध्यान-पद्धति का अमरीका पर काफी प्रभाव पड़ा। लोगों को नींद आने लगी। यह कोई छोटी घटना नहीं है, कीमती है। और लोगों ने बड़ा सुख भी पाया।
लेकिन सुख आनंद नहीं है। सुख केवल दुख का अभाव है। बीमारी चली गई, लेकिन अभी स्वास्थ्य का नर्तन नहीं हुआ है। और बीमारी का चले जाना ही स्वास्थ्य नहीं है। स्वास्थ्य एक पाजिटिव, एक विधायक स्थिति है।
इसे थोड़ा समझने की कोशिश करें।
अगर आपके शरीर में कोई बीमारी नहीं है, तो चिकित्सक कहेगा, स्वस्थ हो; मैं कोई गड़बड़ नहीं देखता। सब जांच-पड़ताल कर ली, कोई बीमारी नहीं है, ठीक हो। लेकिन आप जानते हो कि ठीक होने और ठीक होने में फर्क है। एक ऐसा ठीक होना है, जिसमें एक वैलबीइंग, एक भीतरी आनंद की भाव-दशा होती है। जैसे भरे-पूरे, फूल ही फूल खिल गए। जैसे धारा जीवन की बाढ़ से भर गई, दोनों किनारे तोड़ कर बहने लगी। एक मस्ती स्वास्थ्य की! पैर रखते हैं, लेकिन पैर में एक नृत्य है। बोलते हैं, बोलने में संगीत है। आंख खोलते हैं, आंखों में एक माधुर्य है। शक्ति प्रगाढ़ होकर बह रही है। एक तो स्वास्थ्य की वह दशा है। और एक स्वास्थ्य की वह दशा है, जब कोई बीमारी नहीं है। तो चिकित्सक बीमारी नहीं पकड़ता; वह कहता है, स्वस्थ हैं। लेकिन आप बिलकुल ढीले बैठे हैं, मुर्दे की तरह। बीमारी कोई भी नहीं--न सिर दुख रहा है, न पेट दुख रहा है, न हाथ-पैर टूटा हुआ है, न कोई पलस्तर बंधा है--ठीक बैठे हैं; लेकिन कहीं कोई मस्ती नहीं है; कहीं कोई अहोभाव नहीं है। ऐसा नहीं है कि उठें और नाचें, ऐसा नहीं है कि गीत गाएं। ऐसा नहीं है। बस, बैठे हैं--एक सुस्त, मुर्दे की भांति।
मुर्दा भी बीमार नहीं होता। आप भी बीमार नहीं हैं। मुर्दे में भी बीमारी नहीं पाई जा सकती; आपमें भी बीमारी नहीं है। आपका स्वास्थ्य सिर्फ अभाव है, बीमारी की गैर-मौजूदगी है। ठीक ऐसी ही घटना योग-तंद्रा में घटती है। तनाव खो जाते हैं, मस्तिष्क की संताप की अवस्था खो जाती है, चिंता मिट जाती, कोई फिकर नहीं रह जाती। बड़ी शांति मालूम पड़ती है। लेकिन योग-निद्रा समाधि नहीं है; बस समाधि के द्वार तक ले जाती है। असली यात्रा उसके आगे शुरू होती है।
इसलिए कबीर कहते हैं:
संतो जागत नींद न कीजै।
वे साधुओं से बोल रहे हैं, संन्यासियों से बोल रहे हैं। इसलिए मैं भी कबीर पर इतने दिन तक नहीं बोला; पहले साधु और संन्यासी तो मेरे पास हों। तो कबीर पर चुप ही रहा, क्योंकि कबीर पर बोलना है तो संतों से ही बोला जा सकता है, जो ध्यान कर रहे हों। नहीं तो उनकी समझ में ही न आएगा। जो यहां ध्यान में गहरे उतर रहे हैं, उनको खयाल में आएगी बात। यह भीतरी अनुभव है: सब शांत हो जाता है, सुख मिलता है। इतना काफी नहीं है, रुक मत जाना। अभी मंजिल नहीं आई; यह भी पड़ाव है। और आगे जाना है!
योग-तंद्रा सुखद है, लेकिन वह बुद्धत्व नहीं है; वह परम अवस्था नहीं है। संसार की विकृति छूट गई, लेकिन अभी परमात्मा का स्वाद नहीं आया है। व्यर्थ हट गया, सार्थक आने को है। उस वक्त अगर झपकी लग गई कि चूक गए, फिर वापस संसार में आ गए; फिर वही किनारा; दूसरा किनारा हट गया।
संतो जागत नींद न कीजै।
काल न खाय कलप नहिं व्यापै, देह जरा नहिं छीजै।।
उलट गंग समुद्रहि सोखै, ससिं ओ सूरहि ग्रासै।
नवग्रह मारि रोगिया बैठे, जल मंह बिंब प्रगासै।।
बिनु चरनन को दहं दिसि धावै, बिनु लोचन जग सूझै।
ससै उलटि सिंह कंह ग्रासै, ई अचरज को बूझै।।
कबीर के वचनों में एक विशिष्ट सूत्र है, उसे समझ लें, फिर ये वचन खयाल में आ सकेंगे। उस विशिष्ट सूत्र का नाम है: ‘उलटबांसी।’ उलटबांसी का अर्थ है: उलटे वचन। जैसे कोई बांसुरी बजाता हो, और एक ऐसा वक्त आ जाए जब कि बजाने वाला तो बांसुरी हो जाए और बांसुरी बजाने वाली हो जाए। सब उलटा हो जाए कि बांसुरी बजाने वाले को बजाने लगे।
उलटबांसी का अर्थ होता है, कि बांसुरी बजाने वाले को बजाने लगे। एक ऐसी घड़ी आती है, एक ऐसी घड़ी आती है, जब जीवन का सब भिन्न हो जाता है। उसे थोड़ा समझ लें, तो ये वचन समझ में आएंगे, क्योंकि ये वचन प्रतीकात्मक हैं, और पहेलियों जैसे हैं। पहेलियों जैसे हमें लगते हैं।
समझें।
आप श्वास लेते हैं। श्वास भीतर जाती, बाहर जाती। आप सोचते हैं, मैं श्वास लेने वाला हूं। लेकिन कभी आपने इस पर विचार किया कि अगर आप श्वास लेने वाले हैं तब तो आप मर ही न सकेंगे; क्योंकि आप जब तक लेना चाहेंगे, लेते जाएंगे।
मुल्ला नसरुद्दीन सौ साल का हो गया था। तो लोग उसके पास पहुंचे धन्यवाद देने और उससे पूछने कि तुम्हारी इतनी लंबी उम्र का राज क्या है, हमें भी कोई तरकीब बताओ!
नसरुद्दीन ने कहा: बस श्वास लेते रहो।
पर श्वास कैसे लेते रहोगे? अगर श्वास रुक गई तो तुम क्या करोगे? श्वास के रुकते ही तुम खो जाओगे; तुम बचोगे ही नहीं जो कि श्वास को फिर से ले सके। श्वास का बंद हो जाना, तुम्हारा समाप्त हो जाना है। अगर तुम एक क्षण भी बच सको श्वास के बाद तो तुम फिर से ले सकते हो, लेकिन तुम बचते ही नहीं। श्वास तुम हो; वह तुम्हारा प्राण है। इधर खोई श्वास, उधर तुम खो गए। एक क्षण का भी तो मौका न मिलेगा कि श्वास खो गई, तुम्हें पता चले कि श्वास खो गई, तुम फिर से ले लो। कोई भीतर रहेगा ही नहीं, जिसको कि खबर लग सके। श्वास बंद हो गई, यह दूसरों को पता चलेगा, तुम्हें नहीं। घर के लोगों को पता चलेगा, पास पड़ोस के लोग रोने लगेंगे, चिल्लाने लगेंगे कि श्वास रुक गई। तुम्हें पता नहीं चलेगा। तुम्हें पता चलता तो तुम लेते ही रहते, रुकने ही कैसे देते?
अगर श्वास की बात को ठीक से समझ लो तो तुम्हें समझ में आ जाएगा कि तुम ले नहीं रहे हो, श्वास घट रही है; तुम लेने वाले नहीं। तुम कर्ता नहीं हो।
तब एक दूसरी दृष्टि है, उसको कबीर कहते हैं कि तुम यह बात ही छोड़ दो कि तुम श्वास ले रहे हो; श्वास तुम्हें ले रही है। तुम संसार में जी रहे हो, ऐसा नहीं; संसार तुम में जी रहा है। तुम जीवित हो, यह बात ही गलत है--परमात्मा जीवित है। वही तुममें श्वास ले रहा है। तब तो उलटी बांसी हो गई कि श्वास लेने वाला, लेने वाला नहीं है बल्कि श्वास ही तुम्हारा जीवन है।
इससे तुम्हें खयाल आ सकेगा। मनोवैज्ञानिक एक छोटी सी तरकीब का प्रयोग करते हैं, जिसे वे ‘गेस्टाल्ट’ कहते हैं। तुमने कभी बच्चों की किताबों में चित्र देखे होंगे कि एक गमला रखा हुआ है। अगर तुम गमले को गौर से देखते रहो तो थोड़ी देर में तुम्हें गमला खो जाएगा और दो आदमियों के चेहरे दिखाई पड़ने लगेंगे जो गमले के पास मिल रहे हैं। उनकी नाक--गमले की कगार; उनका माथा--गमले का हिस्सा है। दो चेहरे, उनके बीच की जो खाली जगह थी, वह गमला मालूम हो रही थी। अगर तुम गौर से देखते रहो उन दो चेहरों को, थोड़ी देर में वे दो चेहरे खो जाएंगे, फिर गमला प्रकट हो जाएगा। अगर तुम और भी गौर से देखते रहो तो गमला फिर खो जाएगा, दो चेहरे प्रकट हो जाएंगे। यह बदलता रहेगा, यह बदलता रहेगा। मजे की बात यह है कि जब तुम गमला देखोगे, तब तुम दो चेहरे न देख पाओगे; हालांकि तुम भलीभांति जानते हो कि चित्र में दो चेहरे भी छिपे हैं। जब तुम दो चेहरे देखोगे तब तुम गमला न देख पाओगे; हालांकि तुम भलीभांति जानते हो कि गमला भी चित्र में छिपा है, क्योंकि मन एक समय में एक ही चीज को जान सकता है। और मन इतना सतत परिवर्तनशील है कि तुम एक गमले को भी बड़ी देर तक नहीं देख सकते; बदलाहट हो जाएगी, चेहरे दिखाई पड़ने लगेंगे; फिर गमला दिखाई पड़ेगा, फिर चेहरे दिखाई पड़ेंगे। जर्मन शब्द है इसके लिए गेस्टाल्ट। और इस तरह की विचारधारा पर एक पूरा शास्त्र निर्मित हो गया है: गेस्टाल्ट साइकोलॉजी। वे कहते हैं, जीवन गेस्टाल्ट है।
अगर तुम ऐसा देखते हो कि मैं श्वास ले रहा हूं, तो तुम्हारी पूरी जीवन-दृष्टि नास्तिक की होगी। और अगर तुम ऐसा देखते हो कि मुझमें कोई श्वास ले रहा है, तुम्हारी पूरी जीवन-दृष्टि आस्तिक की हो जाएगी। इतने छोटे से फर्क से सारे जीवन का दृश्य बदल जाता है। अगर तुम्हें यह समझ में आ जाए कि कोई और मुझमें श्वास ले रहा है, तब तुम्हारा अहंकार खो जाएगा। जब श्वास तक हम अपनी नहीं ले सकते, तो और हमारे कर्तृत्व का क्या अर्थ है?
तुम कहते हो, मैं प्रेम कर रहा हूं--वह भी श्वास है। प्रेम तुम्हारे द्वारा किया जा रहा है, तुम कर नहीं रहे हो। क्योंकि अगर तुम प्रेम कर रहे हो, तो मैं कहता हूं यह रही स्त्री, तुम इसके प्रेम में गिर जाओ। तुम कहोगे, ऐसे कैसे गिर जाएं? हर किसी स्त्री के प्रेम में तो नहीं गिर जाएंगे। जब घटता है, तब घटता है; जब नहीं घटता तो नहीं घटता। हां, अभिनय करना हो तो बात अलग; लेकिन अभिनय तो प्रेम नहीं है।
तुमने कभी प्रेम किया है या कि प्रेम हुआ है? किया है तो बात अलग होगी, तुम समझोगे कि मैं कर्ता हूं। हुआ है, तो तुम समझोगे मैं निमित्त हूं, कर्ता नहीं हूं। मेरे द्वारा किसी और ने प्रेम किया है। तुम अगर कर्ता बनना चाहो, तो तुम्हारा प्रेम सिर्फ वेश्या से हो सकता है, और किसी से नहीं, और वेश्या से कहीं प्रेम होता है?
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन वेश्या के घर गया। उसने कहा कि मैं तुम्हें प्रेम करना चाहता हूं। वेश्या ने कहा: करो। उसने कहा कि मैं तुम्हें अपने जीवन का दीपक बनाना चाहता हूं। वेश्या ने कहा: बनाओ। उसने कहा कि मैं तुम्हें अपने हृदय में संजो लेना चाहता हूं। वेश्या ने कहा: संजोओ। उसने कहा कि मैं तुम्हारे लिए मर जाना चाहता हूं। वेश्या ने कहा: मरो; लेकिन जो भी करना है जल्दी करो, क्योंकि दूसरे ग्राहक बाहर खड़े हैं।
नाटक तो एक बात है; धंधा एक बात है। जीवन को तुम जितना समझोगे, उतना ही पाओगे कि तुम कर्ता नहीं हो, घटनाएं घट रही हैं; हैपनिंग्स हैं। प्रेम उतरता है, हो जाता है। इसलिए तो बड़ी मुसीबत है प्रेम के साथ। लोग समझाते हैं किसी को कि तुम पति हो, चार बच्चे हैं, पत्नी है, तुम किस पागलपन में पड़े हो? पति को भी समझ में आता है। बात सीधी है, साफ है: चार बच्चे हैं, पत्नी है--और किसी के प्रेम में पड़ गए हो, नासमझ हो। होश सम्हालो। पति भी होश सम्हालने की कोशिश करता है। लेकिन वह कहता है कि क्या करूं, हो गया! वह यह भी समझता है कि कुछ गलत हो रहा है, फिर भी रोक नहीं सकता। वह यह भी जानता है कि न होता तो अच्छा था। अपने बच्चों और पत्नी का खयाल भी आता है, लेकिन कर भी क्या सकता है! घटना घट गई! जिम्मेवार हम उसे ठहराते जरूर हैं, लेकिन वह भ्रांति है।
प्रेम की घटना आदमी के हाथ के बाहर है। जब तक कि तुम बुद्धत्व को उपलब्ध न हो जाओ, तब तक तुम्हारे हाथ के बाहर है। और जब तुम बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाते हो, तब एक दूसरा ही आयाम प्रेम का खुलता है। तब तुम किसी के प्रेम में नहीं पड़ते, तुम प्रेम हो जाते हो। तब तुमसे प्रेम मिलता है, बंटता है, बिखरता है; लेकिन तुम किसी के प्रेम में नहीं गिरते। तुम उस दीये की भांति हो जाते हो जो जल रहा है; रास्ते से जो भी निकलता है, उसको भी उसका प्रकाश मिल जाता है। तुम उस फूल की तरह हो जाते हो, जो खिल गया है; उसकी सुगंध, जो भी राहगीर होता है, उसको मिल जाती है। लेकिन अब तुम्हारा प्रेम पुराना प्रेम नहीं है--जब कि तुम अवश गिर जाते थे; जब कि तुम अपने को परवश समझते थे, जब कि तुम्हें लगता था, अब क्या कर सकता हूं! समझते थे, बूझते थे; बुद्धि कहती थी, ठीक है।
बुद्धि के अपने तर्क हैं, लेकिन हृदय उनको मानता नहीं। तुम दबा भी ले सकते हो, द्वार बंद कर दे सकते हो; बुद्धि की मान कर प्रेम की तरफ न भी जाओ--तो भी हृदय किसी और के लिए धड़कता है, उसी के लिए धड़कता रहेगा। तुम पत्नी की फिकर करोगे, पैर दबाओगे। बीमारी में चिंता करोगे, आलिंगन करोगे--लेकिन तुम पाओगे, सब झूठा है; सब बुद्धि से कर रहे हैं।
कर्ता तुम हो कहां? न श्वास तुम्हारी अपनी, न प्रेम तुम्हारा अपना, न जीवन तुम्हारा अपना। इसी को कृष्ण ने गीता में अर्जुन से कहा है कि तू निमित्त मात्र हो जा। तू यह छोड़ ही दे खयाल कि तू कर्ता है। ये जो सामने खड़े हुए योद्धा हैं, ये मेरे लिए तो मर ही चुके हैं। तू तो सिर्फ निमित्त है। तू तो सिर्फ धक्का देगा, ये मुर्दे की तरह खड़े हैं और गिर जाएंगे। ये मर ही चुके हैं। इनका मरना निश्चित है। तू नहीं करेगा यह काम तो कोई और करेगा। ये मरेंगे। कौन मारता है, यह बात गौण है।
जीवन अगर निमित्त है, खयाल में आ जाए... ‘निमित्त’ शब्द बड़ा बहुमूल्य है। इस शब्द के मुकाबले दुनिया की किसी भाषा में शब्द खोजना मुश्किल है। निमित्त पूरब का, हिंदुओं का अपना शब्द है। और बड़ा गहरा है। निमित्त का अर्थ है कि मैं कारण नहीं हूं, न कर्ता हूं--मैं तो सिर्फ बहाना हूं। मेरे बहाने हो गया! मेरे बहाने न होता तो किसी और के बहाने होता। जो होना है वह होता। बहाने कोई भी होते। खूटियां कोई भी होतीं, जो टंगना है, वह टंगता; जो घटना है, वह घटता। मैं इसमें, बीच में अपने अहंकार को न लाऊं।
अगर तुम्हारा कर्ता का भाव छूट जाए और निमित्त का भाव गहन हो जाए--बस फिर उलटी बांसी समझ में आएगी। क्योंकि फिर सब उलटा दिखाई पड़ने लगेगा। गेस्टाल्ट बदल गया। फिर कल तक तुम जैसा दुनिया को देखते थे, वैसी नहीं दिखाई पड़ेगी; बिलकुल उलटी दिखाई पड़ने लगेगी। उस उलटे की सूचना देने के लिए कबीर ने प्रतीक चुने हैं। कबीर कहते हैं:
काल न खाय कलप नहिं व्यापै, देह जरा नहिं छीजै।
जब तुम्हारा निमित्त का भाव आ जाता है, कर्ता का नहीं... जब तक तुम कर्ता हो, तब तक काल तुम्हें खाएगा; तब तक मौत घटेगी; तब तक तुम मरोगे। क्योंकि कर्ता का भाव ही मरता है, आत्मा तो मरती नहीं। लेकिन तुम समझते हो, मैं कर्ता हूं, तो मरोगे।
मृत्यु का भय अहंकार को है, आत्मा को नहीं। तुम जब तक समझते हो, मैं, मैं, मैं--और दोहराए चले जाते हो अपने मैं को, सजाए जाते हो, संवारे जाते हो, तब तक तुम्हें मृत्यु डराएगी।
जितना अहंकारी मनुष्य, उतना मृत्यु से भयभीत होगा; जितना निर-अहंकारी मनुष्य, उतना ही मृत्यु का भय खो जाएगा। और अगर पूर्ण निर-अहंकार घट जाए, मृत्यु समाप्त हो गई; क्योंकि जो बचता है, वह मरता ही नहीं। गेस्टाल्ट बदल जाता है।
काल न खाय कलप नहिं व्यापै,...
न तो काल खाता है, न कोई दुख व्याप्तता है। किसी तरह की पीड़ा, किसी तरह का संताप नहीं व्यापता।
...देह जरा नहिं छीजै।
और जरा भी देह छीजती नहीं, जरा भी बुढ़ापा नहीं आता।
पर शरीर का तो बुढ़ापा आता है। यह शरीर तो मृत्यु में जाता है। यह शरीर तो नष्ट होता है। लेकिन तुम यह शरीर तभी तक हो, जब तक तुमने मान रखा है कि मैं हूं। जिस दिन तुम छोड़ दोगे यह खयाल कि मैं हूं, उसी क्षण सारा चित्त बदल जाएगा। तब तुम शरीर नहीं हो, परमात्मा हो। तब तुम्हारे भीतर जो छिपा है, वह दिखाई पड़ेगा।
और ध्यान रखना, एक ही दिखाई पड़ सकता है, दोनों एक साथ नहीं। जब तक तुम्हें लगता है मैं शरीर हूं, तब तक आत्मा दिखाई न पड़ेगी। जिस दिन तुम्हें दिखाई पड़ेगा कि मैं आत्मा हूं, शरीर खो जाएगा।
इसलिए तो ज्ञानियों ने कहा है कि संसार माया है। क्योंकि जैसे ही ब्रह्म दिखाई पड़ा, संसार नहीं दिखाई पड़ता। और जब तक संसार दिखाई पड़ता है, ब्रह्म दिखाई नहीं पड़ता। गेस्टाल्ट है। एक ही दिखाई पड़ सकता है। क्षमता तुम्हारी एक को ही जानने की है, दो नहीं जान सकते।
काल न खाय कलप नहिं व्यापै, देह जरा नहिं छीजै।
उलट गंग समुद्रहि सोखै,...
और हालत बिलकुल उलटी हो जाती है। हम तो ऐसा देखते हैं कि गंगा सागर में गिर रही है; और कबीर कहते हैं कि सागर गंगा में गिर रहा है।
कबीर के दो वचन हैं। एक वचन है:
हेरत-हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराइ।
बूंद समानी समुंद में, सो कत हेरी जाइ।।
यह गेस्टाल्ट का एक पहलू है। कबीर कहते हैं: खोजते-खोजते-खोजते कबीर खो गया, बूंद सागर में गिर गई, अब उसे कैसे वापस पाएं। फिर दूसरा, इसके बाद ही लगा हुआ वचन है, और जो कहता है:
हेरत-हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराइ।
समुंद समाना बूंद में, सो कत हेरी जाइ।।
और समुद्र बूंद में गिर गया, अब कैसे अपने को खोजूं। एक में वे कहते हैं कि बूंद सागर में गिर गई, कैसे अपने को खोजूं! दूसरे में कहते हैं, सागर बूंद में गिर गया, कैसे अपने को खोजूं! बस ये दो पहलू हैं।
जब तक तुम अपने को मान रहे हो, मैं हूं, तब तक तुम सागर से डरोगे; क्योंकि बूंद सागर में खोएगी, फिर उसका क्या पता लगेगा। जिस दिन तुम जानोगे मैं नहीं हूं, उस दिन सागर तुम में खोएगा। बात एक ही है। बूंद सागर में खोए कि सागर बूंद में खोए, एक ही घटना घटती है; लेकिन दृष्टि बड़ी अलग हो गई। जब तुम खोते हो सागर में, तब घबड़ाते हो; और जब सागर तुममें खो जाएगा, तब तुम घबड़ाओगे नहीं; तुम सोचोगे, मेरी संपदा बढ़ती है। जब तक तुम परमात्मा में खोओगे, तुम डरोगे; और जब परमात्मा तुम में खोएगा, तब तुम आनंद से नाच उठोगे।
परमात्मा के संबंध में भी तुम्हारे मन में भय है, क्योंकि तुम्हें लगता है: हम खो जाएंगे; हमारा अस्तित्व नहीं बचेगा; हमारी आइडेंटिटी, हमारे तादात्म्य का क्या होगा; हमारा नाम, पता-ठिकाना, सब खो जाएगा! तो ऐसे परमात्मा को पाकर क्या करेंगे, जहां हम खो जाएंगे! लेकिन दूसरा पहलू, जो कि सत्य के ज्यादा करीब है: तुम परमात्मा में नहीं खोते हो, परमात्मा ही तुममें खोता है; तुम मिटते नहीं, तुम विराट हो जाते हो। बूंद सागर हो जाती है।
कबीर कहते हैं:
उलट गंग समुद्रहि सोखै, ससिं ओ सूरहि ग्रासै।
गंगा सागर को पी जाती है; सूरज और चांद को सोख लेती है, समा लेती है अपने में। यह तो इसका ऊपरी अर्थ है। इसका भीतरी अर्थ, क्योंकि सूर्य और शशि, चांद और सूरज दो प्रतीक हैं तुम्हारी दो श्वास के। तुम्हारा दायां श्वास का द्वार, सूर्य; तुम्हारे बाएं नाक का द्वार, चंद्र; और इन दोनों से जुड़ी हुई दो नाड़ियां हैं तुम्हारे भीतर--इड़ा, पिंगला; एक सूर्य-नाड़ी, एक चंद्र-नाड़ी। वे योगियों के प्रतीक हैं।
जब तुम्हारी चेतना निमित्त-मात्र हो जाती है, जब तुम अपने को कर्ता नहीं मानते हो, जब तुम्हारा अहंकार तुम छोड़ देते हो--तुम कहते ही नहीं, मैं; तुम कहते हो, तू ही है; न तो मैं कभी था, न हूं, न होऊंगा, मैं सिर्फ एक भ्रम था। जब तुम इस भावदशा में गहरे उतरते हो, तब, तब सागर बूंद में गिरता है। तब तुम्हारी चेतना सूर्य और चंद्र दोनों को अपने में समा लेती है। अभी तुम श्वास लेते हो और अभी तुम श्वास पर निर्भर हो, अभी श्वास खो जाएगी तो तुम मिट जाओगे। अभी श्वास तुम्हारा सहारा है। अभी श्वास के बिना तुम जी न सकोगे। तब, तब तुम चेतना से जीते हो। और श्वास चेतना में लीन हो जाती है। इसीलिए समाधिस्थ योगी कभी-कभी बिलकुल श्वास-शून्य हो जाते हैं। पता लगाना मुश्किल हो जाता है कि श्वास चल रही है या नहीं चल रही।
तुममें से जो गहरे ध्यान के प्रयोग कर रहे हैं, अपने परिवार के लोगों को कह देना कि कभी ऐसी घड़ी आ जाए कि तुम बिलकुल मुर्दे जैसे हो जाओ, तो वे घबड़ा न जाएं, क्योंकि श्वास बिलकुल रुक सकती है। चिकित्सक भी आकर कह सकता है कि यह आदमी मर गया। क्योंकि श्वास करीब-करीब, बिलकुल तो नहीं रुकती, लेकिन निन्यानबे प्रतिशत रुक जाती है। एक हलकी सी ध्वनि रह जाती है। और जब श्वास बिलकुल रुक जाती है, तब मन बिलकुल रुक जाता है।
यह तो तुम्हारे भी अनुभव में आया होगा कि तुम्हारे मन और श्वास का गहरा संबंध है। जब तुम क्रोधित होते हो तो श्वास अलग तरह से चलती है, उद्विग्नता होती है श्वास में; जैसे ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर चलती हो; जैसे कि कार में स्ंिप्रग न हों और रास्ता गड्ढों वाला हो, ऐसी श्वास चलती है--जब तुम क्रोध में होते हो। जब तुम कामवासना से भरते हो, तब श्वास और तरह से चलती है; तब विक्षिप्त हो जाती है; तुम पसीने-पसीने हो जाते हो। जब तुम शांत होते हो तो श्वास धीमी चलती है--एक रिदम, एक छंद होता है श्वास में; एक लयबद्धता होती है। जब तुम बिलकुल आनंदित होते हो, तब श्वास और ढंग से चलती है। तुम्हारे हर मनोभाव के साथ श्वास बदलती है। और अगर तुम होशियार हो जाओ थोड़े, तो तुम अगर श्वास को बदल लो, तुम्हारा मनोभाव बदल जाएगा; क्योंकि दोनों एक-दूसरे से जुड़े हैं। दुबारा जब तुम्हें क्रोध आए, तब तुम जरा गौर से जांच कर लेना कि श्वास की गति क्या है, किस ढंग से चल रही है; उसे ठीक से पहचान लेना।
जब तुम दुबारा कभी शांत हो जाओ, तब उसकी भी जांच कर लेना कि श्वास कैसी चल रही है, शांति की अवस्था में। जब तुम कभी पाओ कि तुम प्रफुल्लित हो, तब भी श्वास को नोट कर लेना। और अगर तुम ठीक से श्वास की गति को पहचानने में समर्थ हो जाओ--आनंद के साथ, क्रोध के साथ, सुख के साथ, शांति के साथ--फिर तुम प्रयोग कर सकते हो। क्रोध आने को है, तुम श्वास को क्रोध की गति मत पकड़ने दो; तुम शांत बैठ जाओ और श्वास को वह गति दे दो, जो शांति में होती है--तुम अचानक पाओगे, क्रोध तिरोहित हो गया, क्रोध आ नहीं सकता। क्योंकि जब तक श्वास न बदले, तब तक क्रोध शरीर में प्रवेश नहीं कर सकता। अगर तुम श्वास की गति को ठीक से पहचान लो कि शांति में कैसी होती है, तो चौबीस घंटे उस गति को वैसा ही बनाए रखने की कोशिश करो। तुम पाओगे तुम गहन शांति से भर गए। अगर तुम समझ लो कि जब तुम प्रफुल्लित होते हो, कैसी श्वास होती है, वैसी ही श्वास को बनाए रखो, प्रफुल्लता झर-झर कर बहती रहेगी।
बुद्ध ने श्वास के और मन के संबंध पर बड़े गहरे प्रयोग किए हैं। और उनका जो ध्यान का प्रयोग है--‘अनापानसतीयोग’--वह सिर्फ श्वास की ही कला है। बस श्वास को देखना, श्वास को पहचानना, श्वास को मनोभावों के साथ संबंधित करना, और फिर जिन भावों को छोड़ना है, श्वास की उन गतियों को छोड़ देना। फिर जिन भावों को सजाना हैं, संवारना है, बढ़ाना है, गति देनी है, श्वास की उन गतियों को पकड़ लेना और उन्हीं को धीरे-धीरे बढ़ाते जाना। तो श्वास के रूपांतरण से चित्त पूरा रूपांतरित होता है। लेकिन जब चित्त बिलकुल ही खो जाता है, तब श्वास भी खो जाएगी। एक छोर श्वास और दूसरा छोर चित्त--एक ही ऊर्जा के दो छोर हैं।
तो अगर कभी तुम्हारे जीवन में ऐसी घड़ी आ जाए, जब तुम पाओगे कि श्वास बंद हो रही है--मेरे पास बहुत से संन्यासी आकर कहते हैं--तो भय लगेगा। तुम भयभीत मत होना। और घर के लोगों को भी बता देना, क्योंकि घर के लोग तुम्हारी न मानेंगे। अगर तुम मर गए, झूठे भी मरे, और डॉक्टर ने कह दिया मर गए, तुम्हारी न मानेंगे।
मैंने सुना है, एक आदमी मरा। मरा नहीं था, सिर्फ श्वास धीमी हो गई थी। चिकित्सक ने कह दिया, मर गया। उसकी अरथी सजा ली। मरघट ले गए। मरघट तक पहुंचते-पहुंचते उस आदमी को होश आ गया। तो वह हिला-डुला। लोग बहुत घबड़ा गए। उसने चिल्लाया भीतर से कि खोलो, मैं जिंदा हूं। लोगों ने कहा: यह हो नहीं सकता। क्योंकि किसी साधारण चिकित्सक ने नहीं कहा, बड़ा विशेषज्ञ है। तो विशेषज्ञ की मानें कि इस मूरख की! सौ आदमी आए थे पहुंचाने। पुरोहित जो आया था, अंतिम संस्कार करवाने, उसने कहा: भाइयो, तुम सब भी मौजूद थे। वह आदमी अंदर से चिल्ला रहा है कि मैं जिंदा हूं, मुझे खोलो--और पुरोहित लोगों का वोट ले रहा है! क्योंकि डेमोक्रेसी के दिन हैं, लोकतंत्र! उसने कहा, तुम सब मौजूद थे। हाथ उठाओ, विशेषज्ञ ने क्या कहा था? किसकी हम मानें? इस मूरख की? पढ़ा, न लिखा, अ ब स मालूम नहीं है जिंदगी और मौत का--और कह रहा है हम जिंदा हैं! या उस विशेषज्ञ की, जो लंदन से शिक्षित होकर लौटा है--एफ. आर. सी. एस. है! और लाखों जिंदा, मुर्दा आदमियों का अध्ययन कर चुका है।
लोगों ने, सभी ने कहा और सभी ने हाथ उठाया कि विशेषज्ञ की मानना ही उचित है, इसकी क्या बात का भरोसा। यह आदमी जिंदगी में भी भरोसे का नहीं था, तो मर कर इसकी बात का क्या खाक भरोसा! जला दिया उन्होंने।
लोग विशेषज्ञ को मानते हैं। तो घर के लोगों को भी बता देना कि अगर ऐसी घड़ी आ जाए, और श्वास बंद हो जाए, तो घबड़ाने की कोई जरूरत नहीं। हिलाने-डुलाने की भी कोई जरूरत नहीं, क्योंकि उससे खतरा हो सकता है। जब तुम्हारी श्वास बिलकुल शांत हो, कोई जोर से हिला दे, तो शरीर और आत्मा का संबंध टूट सकता है; क्योंकि उस वक्त संबंध नाजुक से नाजुक होता है। उस वक्त तुम अपने शरीर से दूर से दूर होते हो। बस, एक बारीक सी रेखा जुड़ी रह जाती है। अगर कोई हिला दे, तो कठिनाई हो जाएगी।
इसलिए ध्यान की अवस्था में, न तो तुम भयभीत होना भीतर; क्योंकि यही तो परम घड़ी है, जिसकी हम तलाश कर रहे हैं। इसी क्षण की तो खोज है। इसी क्षण से तो तुम्हें अमृत का पता चलेगा। इसी क्षण में तो तुम जानोगे कि शरीर अलग पड़ा है, मैं अलग खड़ा हूं, शरीर भिन्न, मैं भिन्न। एक दफा यह दिख जाए, फिर तुम्हारी जिंदगी वही न हो सकेगी जो कल तक थी, गेस्टाल्ट बदल गया। अब तुम पाओगे परमात्मा ही श्वास लेता है, वही तुममें जीता है। तुम नहीं हो, वही है! तुम सिर्फ उसके वाहन हो। तुम सिर्फ उसके हाथ हो। तुम सिर्फ उसके लिए एक माध्यम हो। जीवन उसका है। तुम बांसुरी हो, बजाने वाला वह है।
और अभी तक तुमने यह समझ रखा है कि बजाने वाले तुम हो। अभी तक तुम सोचते हो, गीत तुम गा रहे हो। तुम माध्यम हो, गीत वह गा रहा है। अगर बांसुरी को भी थोड़ी अकल आ जाए, और बांसुरी भी थोड़ा पढ़-लिख ले, तो वह भी सोचती होगी कि गीत मैं गा रही हूं; यह आदमी नाहक ही मुंह लगा कर मेहनत कर रहा है। क्योंकि गीत तो बांसुरी से आता है। और बांसुरी कैसे भरोसा करेगी कि इस आदमी से आता है! इस आदमी का क्या लेना-देना। और बांसुरी कहेगी, मेरे बिना तू गीत बजा कर बता।... तो मैं ही बजा रही हूं।
तुम भी बांसुरी से ज्यादा नहीं हो।
कबीर ने कहा है कि मैं बास की पोंगरी हूं। गीत तेरे, धुन तेरी और समझ रखा है मैंने कि मेरे, उससे ही अकड़ पैदा हो गई है।
बांस की पोंगरी जो हो गया, वह संत हो गया; फिर उसे कुछ पाने को न बचा।
उलट गंग समुद्रहि सोखै, ससिं ओ सूरहि ग्रासै।
नवग्रह मारि रोगिया बैठे, जल मंह बिंब प्रगासै।।
सब उलटा हो जाता है। नव-ग्रह को रोगी मार देता है। जिनकी वजह से रोगी सोचता था कि मैं रोग में ग्रस्त हूं। नव गलत ग्रह जुड़ गए हैं, इनकी वजह से मैं परेशान हूं!
नवग्रह मारि रोगिया बैठे, जल मंह बिंब प्रगासै।
और सब उलटा हो जाता है। पानी के भीतर आग आ जाती है। जल में बिंब प्रकट हो जाता है, प्रकाश हो जाता है।
बिनु चरनन को दहं दिसि धावै, बिनु लोचन जग सूझै।
और फिर वैसी घड़ी आ जाती है, जब तुम पाते हो कि न तो पैर की जरूरत है। चेतना दसों दिशाओं में बिना पैर के जा सकती है। पैर शरीर को चाहिए। चेतना के लिए कोई स्थान और समय की बाधा नहीं है।
बिनु चरनन को दहं दिसि धावै, बिनु लोचन जग सूझै।
और सत्य को देखने के लिए इन आंखों की कोई भी जरूरत नहीं है।
महावीर की आंखें बंद हैं। मूर्तियों में देखो। जैनों के दो पंथ हैं--श्वेतांबर और दिगंबर। उनमें एक झगड़ा है कि महावीर की आंखें खुली रखें कि बंद। श्वेतांबर खुली रखते हैं; दिगंबर बंद। कुछ ऐसे मंदिर हैं जहां दोनों पूजा करते हैं। तो समय बांट लिया उन्होंने। आधे दिन महावीर की आंखें खुली रखते हैं, आधे दिन बंद। तो नकली आंखें ऊपर से लगा देते हैं--खुली। इस संबंध में श्वेतांबर गलत हैं, क्योंकि महावीर की आंखें खुली रखने का कोई भी प्रयोजन नहीं। इन आंखों से सत्य देखा नहीं जाता। ये आंखें तो बंद ही हो जाती हैं। एक भीतर की आंख है, लेकिन वह शरीर की नहीं, वह चेतना की है; वह जागरण की है; वह होश की है।
...बिनु लोचन जग सूझै।
और इन आंखों की जरूरत ही नहीं खोलने की। इनसे तो कोई जगत का सत्य दिखाई नहीं पड़ता। इनसे तो माया ही दिखाई पड़ती है। इन आंखों से तो जो ऊपर-ऊपर है, वही दिखाई पड़ता है। भीतर, भीतर के लिए तो भीतर की आंख चाहिए। आंख तो बंद ही हो जाएगी। ये पैर गति खो देंगे। ये हाथ शक्ति खो देंगे। इनका कोई अर्थ न रह जाएगा। तुम्हारे भीतर जो जीवन की ऊर्जा है, वही ऊर्जा दसों दिशाओं में घूम सकती है; बिना आंख देख सकती है, बिना हाथ छू सकती है।
चेतना के लिए, आत्मा के लिए, समय और स्थान की कोई बाधा नहीं है। टाइम और स्पेस हैं ही नहीं; वे दोनों शरीर के लिए हैं।
बुद्ध से किसी ने पूछा कि जब आप देह को छोड़ देंगे तो कहां होंगे? तो बुद्ध ने कहा: या तो सब जगह, या कहीं भी नहीं। क्योंकि शरीर कहीं होता है--स्थान में, समय में; आत्मा के लिए न तो स्थान है न समय। जब आप, जैसे-जैसे ध्यान में गहरे उतरेंगे, वैसे-वैसे आप पाएंगे कि न तो स्थान है न समय--दोनों के अतीत।
ससै उलटि सिंह कंह ग्रासै, ई अचरज को बूझै।
और जैसे कि खरगोश उलट कर शेर को खा जाए, ऐसा अचरज घटित होता है।
...ई अचरज को बूझै।
तुम जो इतने कमजोर हो, अचानक तुम पाते हो कि तुम विराट शक्ति बन गए। खरगोश सिंह को खा गया! तुम जो इतने दीन-हीन हो, तुम जो जीवन भर भिखारी की तरह जीते हो, मांग कर ही जीते हो, अचानक पाते हो कि तुम मालिक हो गए, सम्राट हो गए!
...ई अचरज को बूझै।
स्वामी राम अमरीका गए। वे अपने को सम्राट कहते थे। बादशाह! था उनके पास कुछ भी नहीं। दो लंगोटी और एक लोटा। लेकिन वे कहते अपने को--बादशाह राम! उन्होंने एक किताब लिखी, उसको नाम दिया: बादशाह राम के छह हुक्मनामे। और वे बोलते, तब भी वे हमेशा अपने को बादशाह राम कहते। वे कहते बादशाह राम को प्यास लगी है, जरा पानी ले आओ। अजीब लगता, और अमरीका में और भी अजीब लगता। खुद अमरीका का प्रेसीडेंट उनसे मिला था। और उसने कहा, और सब तो ठीक है, लेकिन यह मेरी समझ में नहीं आता कि आप किसी भांति के बादशाह हैं। कुछ है नहीं आप के पास। राम ने कहा, इसीलिए हम बादशाह हैं; क्योंकि हमारी कोई मांग नहीं; कोई जरूरत नहीं। हम पूरे हैं। तुम्हारा अमीर से अमीर आदमी भी गरीब है, क्योंकि उसकी मांग अभी बाकी है।
फकीर हुआ एक सूफी, जुन्नैद। एक सम्राट उसके पास आया। सम्राट था, तो कोई दस हजार स्वर्ण-अशर्फियां लाकर उसने चरणों में रखीं। जुन्नैद ने पूछा कि तुम्हारे पास काफी है न? और तो तुम्हारी कोई मांग नहीं, तुम और तो नहीं चाहते? सम्राट ने कहा, मांग कहीं समाप्त होती है! इसलिए तो आपके चरणों में आया हूं कि आशीर्वाद मिल जाए! तो जुन्नैद ने कहा कि ये जो अशर्फियां तुम ले आए हो, दस हजार, ये वापस ले जाओ, क्योंकि इनके कारण तुम गरीब हो जाओगे और हमारे सम्राट होने में कोई फर्क न पड़ेगा। हमें कुछ बढ़ती न होगी इनसे, क्योंकि हम वैसे ही पूरे हैं। घड़ा पहले से भरा है। लेकिन तुम थोड़े खाली हो जाओगे। तुम अभी गरीब हो, तुम ये ले जाओ।
जुन्नैद गरीब आदमी था, नहीं कुछ उसके पास था। यह किस तरह का स्वामित्व है। यह किस तरह की मालकियत है!
कबीर कहते हैं:
ससै उलटि सिंह कंह ग्रासै, ई अचरज को बूझै।
जो बिलकुल दीन-हीन था, अचानक गेस्टाल्ट के बदलते ही, ध्यान के बदलते ही, शरीर से ध्यान हटा, भीतर गया कि मालिक हो गया! जो कमजोर था, वह महाशक्तिशाली हो गया। जो अज्ञानी था, वह परमज्ञानी हो गया। जो बंधा था, वह मुक्त हो गया।
...ई अचरज को बूझै।
जो रो रहा था क्षुद्र के लिए, तड़प रहा था, वह आनंद से नाचने लगा। वह परमात्मा हो गया।
...ई अचरज को बूझै।
कबीर कह रहे हैं कि तुम्हारे भीतर दोनों छिपे हैं। दरिद्र तुम तब तक रहोगे जब तक वासना है। दरिद्र तुम जब तक रहोगे जब तक कर्ता का भाव है। मालिक तुम उसी वक्त हो जाओगे, जब वासना गई। और यह वासना वासना को पूरा करने से न जाएगी, क्योंकि वासना कभी पूरी होती नहीं--दुष्पूर है। बुद्ध ने कहा, वासना दुष्पूर है। उसे तुम पूरा न कर पाओगे। तुम कितने ही उपाय करो, तुम कितने ही दौड़ो, तुम्हारे दौड़ने या उपाय से उसका कोई संबंध ही नहीं है। उसका स्वभाव दुष्पूर है।
तुम्हारे पास दस हजार रुपये हैं, वासना कहती है लाख मिल जाएं तो सब ठीक हो जाए। लाख हो जाते हैं, वासना कहती है, दस लाख हो जाएं तो सब ठीक हो जाए। तुम कितना ही बढ़ते जाओ, वासना दस गुना होती जाएगी। हजार थे, दस हजार! दस हजार थे, लाख! लाख हैं, दस लाख! करोड़ हों, दस करोड़! वासना का और तुम्हारा फासला उतना ही रहेगा--दस गुने का। तुम्हारे पास कितना है, इससे क्या फर्क पड़ता है! गुणित दस--वासना उतना मांगती रहेगी। इसलिए वासना और आदमी का फासला कभी कम नहीं होता--दुष्पूर है। तुम गरीब ही रहोगे।
दुनिया में दो तरह के गरीब हैं: एक, जिनके पास धन है; और एक, जिनके पास धन नहीं है। दो तरह के गरीब हैं: एक, जिनके पास बहुत कुछ है, गरीब हैं; और जिनके पास कुछ भी नहीं, वे भी गरीब हैं। मालिक तो तब पैदा होता है, जब यह दृष्टि बदल जाती है कि वासना के पीछे जा-जा कर कुछ भी नहीं पाया। तो आदमी उलटी कर देता है गंगा को। अब वह बाहर वासना की तरफ नहीं जाता, अपनी तरफ जाता है।
और दो यात्राएं हैं चेतना की--या तो वस्तुओं की तरफ या अपनी तरफ; या तो कुछ पाने के लिए दौड़ते रहो, या खुद को पाने के लिए शांत होकर भीतर बैठ जाओ। जो खुद को पा लेता है, वह सब पा लेता है। और तुम सब पा लो, और खुद से बच जाओ, कुछ भी न पा पाओगे। आखिर में पाओगे कि तुम दरिद्र मर रहे हो; भिखारी की तरह तुम्हारी मृत्यु हो रही है।
औंधे घड़ा नहीं जल बूड़ै, सूधे सों जल भरिया।
जिहि कारन नल भींन भींन करु, गुरु परसादे तरिया।।
बड़ा बहुमूल्य वचन है।
औंधे घड़ा नहीं जल बूड़ै,...
अगर नदी पार करनी हो तो घड़े को औंधा करना पड़ता है। औंधा घड़ा सहारा बन जाता है। तुम औंधे घड़े के सहारे नदी पार कर लेते हो।
औंधे घड़ा नहीं जल बूड़ै, सूधे सों जल भरिया।
और अगर तुम सीधा घड़ा लेकर नदी पार करने गए तो घड़े की वजह से ही डुबोगे।
औंधे घड़े में पानी नहीं भरता; सीधे घड़े में पानी भर जाता है। तुम जैसे हो, अभी डूब रहे हो। जरूर घड़ा तुमने सीधा कर रखा है। तुम जैसे हो अभी सिवाय डूबने के और कुछ भी नहीं हो रहा है। तुम रोज डूब रहे हो, प्रतिपल डूब रहे हो। एक बात साफ है कि तुम्हारे डूबने से पता चलता है: तुम्हारा दुख कम नहीं होता, बढ़ रहा है। कल था, उससे आज ज्यादा है; हालांकि कल तुमने सोचा था कि कल कम होगा। कल तुम्हारी चिंता थी, आज ज्यादा है, कल और ज्यादा होगी। तुम रोज डूब रहे हो। तुम्हारे सब सहारे, सब नावें डूबी जा रही हैं। एक बात साफ है:
औंधे घड़ा नहीं जल बूड़ै, सूधे सों जल भरिया।
तुम्हारा घड़ा सीधा है, इसे उलटा कर लो। तुम जिस तरफ दौड़ रहे हो, उससे उलटी तरफ दौड़ो। तुम जो कर रहे हो, तुम जो सोच रहे हो; उससे उलटा करो, उलटा सोचो। अभी अहंकार है तो निर-अहंकार को यात्रा बनाओ। अभी विचार है तो निर्विचार को यात्रा बनाओ। अभी वासना है तो निर्वासना को यात्रा बनाओ।
औंधे घड़ा नहीं जल बूड़ै, सूधे सों जल भरिया।
जिहि कारन नल भींन भींन करु, गुरु परसादे तरिया।।
और जो लोग सीख गए कला घड़े को उलटा करने की, वे गुरु के प्रसाद से अनेक तरह के लोग तर गए--भिन्न-भिन्न तरह के लोग।
जिहि कारन नल भींन भींन करु,...
भिन्न-भिन्न तरह के लोग, भिन्न-भिन्न तरह के तैरने के ढंग, भिन्न-भिन्न तरह की उनकी जीवन-चेतना की व्यवस्था--लेकिन वे सब तर गए। सार की बात एक है:
औंधे घड़ा नहिं जल बूड़ै, सूधे सों जल भरिया।
...गुरु परसादे तरिया।
पर एक बात उसमें कबीर जोड़ते हैं, जो कि सभी संतों की वाणी में कहीं न कहीं छिपी है। और वह यह है कि तुम्हारा घड़ा भी अगर तुमने उलटा कर लिया हो, और गुरु न हो, तो भी तुम तर न पाओगे। क्योंकि पहली तो यही बात है कि तुम घड़े को उलटा कर ही न पाओगे बिना गुरु के। लेकिन समझ लो कि भूल-चूक, संयोगवशात तुमने घड़े को उलटा कर लिया, तो भी तुम तर न पाओगे। क्योंकि तुम्हारा अहंकार कि मैं तर रहा हूं, कौन छीनेगा? तुम्हारा अहंकार कि मैंने घड़ा उलटा कर लिया, कौन हटाएगा? तुम्हारा अहंकार कि अब मैं दुखी नहीं हूं, शांत हूं, ध्यानस्थ हूं, कौन मिटाएगा? और यह अहंकार किसी भी क्षण घड़े को सीधा कर दे सकता है। क्योंकि घड़ा पूरा उलटा तभी होता है जब अहंकार बिलकुल नहीं होता। तब तुम उलटे घड़े हो जाते हो। यह कौन चिंता लेगा? यह कौन तुम पर सतत ध्यान रखेगा? यह कौन तुम्हें बार-बार चेताएगा?
गुरु का इतना ही अर्थ है, जो खुद पार हो गया, वही तुम्हें चेताएगा। अगर दस लोग यात्रा पर गए हों, जंगल हो घना, खतरा हो, तो वे क्या करते हैं। वे यह करते हैं कि पाली-पाली से जागते हैं। नौ सो जाते हैं, एक जागता है। क्योंकि खतरा आएगा तो जो जाग रहा है वही जगा सकेगा। जब उसकी नींद का वक्त आता है, तब वह दूसरे को जगा देता है कि अब तुम जागो, अब मैं सो जाता हूं। एक तो जागता हुआ चाहिए, नहीं तो खतरा आएगा; पता ही नहीं चलेगा, नींद में ही सब घट जाएगा।
गुरु का अर्थ है: जो स्वयं जागा हुआ है, वह तुम्हारी नींद में उपयोगी होगा। तुम बार-बार सो जाओगे। नींद में बार-बार घड़ा सीधा हो जाएगा। बार-बार तुम भूलोगे। बार-बार तुम चूक जाओगे।
ऐसा हुआ, एक सूफी फकीर हुआ। उसका असली नाम किसी को पता नहीं, लेकिन जिस नाम से जाना जाता है, वह है नस्साज--खैर नस्साज--फकीर था। एक वृक्ष के नीचे ध्यान कर रहा था--स्वस्थ! एक आदमी गुलाम की तलाश में निकला था। गुलाम खरीदना था और एक मजबूत गुलाम चाहिए था। इस आदमी को झाड़ के नीचे इतना स्वस्थ बैठा देख कर--और फकीर, फटे कपड़े--उसे लगा कि यह कोई भागा हुआ गुलाम है। किसी का गुलाम है, भाग गया है, यहां जंगल में छिप रहा है। आदमी मजबूत दिखता है, काम का है। उस आदमी ने जाकर पूछा कि क्या तुम भागे हुए गुलाम तो नहीं?
नस्साज ने आंखें खोलीं और कहा: तुम ठीक ही कहते हो। भागा हुआ हूं और गुलाम हूं। उसका मतलब था कि परमात्मा से भाग गया हूं, और वही तो मेरी गुलामी हो गई। वह आदमी प्रसन्न हुआ। यही तो मुसीबत है, संसारी और फकीर की भाषा में कहीं मेल नहीं बैठता।
नस्साज ने कहा कि ठीक कहते हो, भागा हुआ हूं और गुलाम हूं। उस आदमी ने कहा: ठीक वक्त पर मिल गए, मैं भी एक गुलाम की तलाश में हूं। मैं तुम्हारा मालिक होने को तैयार हूं। मेरे पीछे आ जाओ। तुम्हें मालिक की खोज है? उस गुलाम ने कहा: बड़े गजब के आदमी हो! यही तो मेरी खोज है; मालिक को खोज रहा हूं।
वह आदमी उसे घर ले गया। और उसने कहा: मैं हुआ तुम्हारा मालिक, तुम हुए मेरे गुलाम! और जो काम मैं बताऊं, वह करो। उसने कहा: यही तो मैं चाहता था कि कोई बताने वाला मिल जाए कि क्या करूं, क्या न करूं। अपने किए तो सब अनकिया हुआ जा रहा है। खुद कर-कर के तो फंस गया हूं। तुम भले मिले।
थोड़ा शक उस आदमी को होना शुरू हुआ कि या तो यह आदमी पागल है और या फिर कहीं कुछ भूल-चूक हो रही है; कहीं भाषा का भेद है। पर उसने सोचा कि अपने को प्रयोजन भी क्या, यह आदमी राजी है, ठीक। और मुफ्त मिल गया। बिना कुछ दिए-लिए! और आदमी तगड़ा-स्वस्थ! उसने उससे काम लेना शुरू कर दिया। वह आदमी इतना भला पाया उस संसारी आदमी ने, इस फकीर को, उसने इसका नाम खैर रख दिया। खैर यानी अच्छा, भला। फिर उसने इसे--वह उसका खुद का काम था कपड़े बुनवाई का--उसने इसे कपड़ा बुनना सिखाया। तो उसका दूसरा नाम हो गया--‘नस्साज।’ नस्साज यानी कपड़ा बुनने वाला। खैर-नस्साज उसका नाम हो गया। दस साल बीत गए, उसने बड़ी सेवा की इस मालिक की। उसने इतनी सेवा की और इतना सम्मान दिया और इतना श्रम किया कि इस मालिक को भी चोट लगने लगी भीतर कि मैं बड़ा शोषण कर रहा हूं। एक पैसा मैंने इस आदमी पर खर्च नहीं किया है, और इसकी वजह से बड़ी धन-दौलत आ गई है। और मैं शोषण कर रहा हूं। अब वक्त आ गया है कि मैं इसे मुक्त कर दूं। तो उसने इसे बुलाया और कहा कि बहुत हो गया। तुम बड़े काम के साबित हुए, लेकिन मुझे मन में खटकता है कि मैं शोषण कर रहा हूं। उस खटकन को अब और ज्यादा नहीं सहा जा सकता। अब मैं तुम्हें मुक्त करता हूं। अब तुम अपने मालिक हुए।
नस्साज ने कहा: बड़ी कृपा कि तुमने मुझे मेरा मालिक बना दिया! और बहुत कुछ सीखने को मिला। तुम्हारे पास दास होने की कला सिखने को मिली। और अब परमात्मा से फासला नहीं है। क्योंकि गुलाम होना जब से मैंने जान लिया, अहंकार टूट गया। अहंकार टूटा कि गुलामी मिटनी शुरू हो गई। और देखो, तुम तक मुझे मुक्त किए दे रहो हो! मैं तो मुक्त हो गया, लेकिन अब तुम्हारे संबंध में क्या खयाल है? तुम कब तक गुलाम बने रहोगे?
फकीरों की भाषा और सांसारिकों की भाषा भला एक हो, एक हो नहीं सकती। उनके गेस्टाल्ट, उनके ध्यान अलग हैं। वे कुछ और देख रहे हैं, तुम कुछ और देख रहे हो।
कबीर कहते हैं कि तुम इतने सोए-सोए हो कि तुम्हें अगर कोई सतत जगाने वाला न हो, तो असंभव है कि तुम जाग सको; असंभव है कि तुम्हारा घड़ा उलटा रह सके। तुम डूब ही जाओगे। और न मालूम कितने जन्मों में तुम कितनी बार डूबे हो? और धीरे-धीरे तुम डूबने के आदी हो गए हो। डूबना तुम्हारी आदत हो गई है। और अब तुम डूबने से परेशान भी नहीं होते। तुम समझते हो, यही जिंदगी है। कारागृह में कोई बहुत दिन रह जाए, तो कैदी समझने लगता है: यही जिंदगी है। कारागृह से जब पुराने कैदी बाहर निकलते हैं, तो दूसरे कैदी पूछते हैं, कब तक लौटोगे? और कारागृह कैदियों को घर जैसा लगने लगता है--बाहर आकर उनको बड़ी बेचैनी होती है। आदत! कारागृह से ज्यादा सुरक्षित जगह भी तो तुम न पा सकोगे। न कोई झगड़ा, न कोई झांसा, न कोई चिंता, न कोई फिकर! चारों तरफ पहरा, जैसे तुम सम्राट हो। बड़ी दीवालें हैं कि कोई भीतर नहीं आ सकता। रात निश्चिंत सो सकते हो। भोजन की फिकर नहीं, कोई अकाल नहीं पड़ता कारागृह में कभी। भोजन मिलेगा ही। न काम की फिकर। कभी कोई बेकाम नहीं रहता। बेरोजगार कोई भी कारागृह में नहीं है। चिंता है ही नहीं। निश्चिंत, सुरक्षित!
तो जब आदमी कारागृह के बाहर आता है तो खुला आकाश बहुत डराता है। तुम कभी अपने तोते को छोड़ दो पिंजरे से, खुले आकाश में, देखो उसकी कैसी गति हो जाती है! भयभीत, कंपता हुआ! ज्यादा देर नहीं कि वह वापस लौट जाएगा पिंजरे में, तुम खुला ही छोड़ दो, पिंजरे में आकर अंदर बैठ जाएगा। तुम किसी तोते को पिंजरे के बाहर खींच कर मुक्त करने की कोशिश करो, वह अपने को पिंजरे में पकड़ेगा, रोकेगा। वह अपनी चोंच तुम्हारे हाथ पर मारेगा कि बंद करो दरवाजा, बाहर मत निकालो! पिंजरे जैसा सुख कहां! खुला आकाश खतरनाक है।
डूबने के तुम आदी हो गए हो। कारागृह तुम्हारा घर बन गया है। और तुमने खूब सजा लिया है। और तुमने भीतर की दीवालों को खूब रंग-रोगन कर लिया है। अब तुम भूल ही गए हो कि तुम जहां हो, वहां तुम रोज-रोज डूब रहे हो।
जिहि कारन नल भींन भींन करु, गुरु परसादे तरिया।
इसलिए अगर तुम अपनी ही तरफ से कोशिश करते रहोगे, करीब-करीब असंभव है कि तुम तर जाओ। कोई चाहिए जागा हुआ जो तुम्हें सतत सचेत करता रहे। उसका ही अर्थ है गुरु-प्रसाद। गुरु-प्रसाद?--प्रसाद इसलिए कि वह तुमसे कुछ लेता नहीं। तुम्हारे पास कुछ है भी नहीं कि तुम उसे दे सको। प्रसाद इसलिए कि वह बेशर्त दान है। वह तुम्हें दे रहा है; तुम ले लो, बस इतना ही काफी है, कुछ और उत्तर में चाहिए नहीं। इसलिए गुरु जो भी देता है, वह प्रसाद है। तुम उसको कभी भी उत्तर चुका नहीं सकते।
कहावत है पुरानी: पिता का ऋण चुकाया जा सकता है, मां का ऋण चुकाया जा सकता है, शिक्षक का ऋण चुकाया जा सकता है; लेकिन तुम गुरु का ऋण कैसे चुकाओगे? तुम क्या दोगे वापस, जिससे गुरु का ऋण चुक जाए?
बुद्ध से उनके शिष्य आनंद ने पूछा कि हम क्या दें कि हम उऋण हो जाएं? बुद्ध ने कहा: तुम एक ही काम करो, तुम जाओ और जो सोए हैं उनको जगाओ। और कोई उपाय नहीं है।
गुरु से उऋण होने का कोई उपाय नहीं है। इसलिए हम उसे प्रसाद कहते हैं। वह जो भी दे, वह प्रसाद। वह राख उठा कर दे देता है, तो प्रसाद। उसके स्पर्श से राख भी स्वर्ण हो जाती है। वह दे रहा है, उसका देना ही हर चीज को मूल्यवान बना देता है। जो जागा हुआ है, उसके हाथ की राख भी मूल्यवान है। जो सोया हुआ है, उसके हाथ का स्वर्ण भी राख है। क्योंकि असली सवाल तो जागने और सोने का है। जागने से हर चीज स्वर्ण हो जाती है; सोने से हर चीज मिट्टी हो जाती है।
मूर्च्छा सभी चीजों को नष्ट कर देती है; वह मृत्यु है। जागरण, सभी चीजों को जगा देता है; वह जीवन है, महाजीवन है।
पैठि गुफा मंह सब जग देखै, बाहर किछुउ न सूझै।
भीतर बैठ जाता है गुफा में--हृदय की गुफा।
पैठि गुफा मंह सब जग देखै, बाहर किछुउ न सूझै।
और बाहर देखता नहीं; भीतर देखता है। वही जागरण का उपाय है कि तुम भीतर देखने लगो। आंख बंद कर लो, कान बंद कर लो, हाथ शिथिल छोड़ दो, शरीर को ऐसा कर दो, जैसे है ही नहीं--और भीतर देखो!
पैठि गुफा मंह सब जग देखै, बाहर किछुउ न सूझै।
उलिटा बान पारधिहि लागै, सुरा होय सो बूझै।।
और तब ऐसी घटना घटती है कि जो बहुत अभय हो--‘सुरा होय सो बूझै’--जो बहुत बहादुर हो, साहसी हो, वही सूझ सकेगा, वही बूझ सकेगा। ‘उलिटा बान पारधिहि लागै।’ जैसे कि तुम तीर चलाओ, और तीर जाए न उस तरफ पक्षी को मारने, चला जाए भीतर, और व्याघ्र खुद उससे छिद जाए।
उलटबांसी है। तुम्हारी चेतना अभी बाहर की तरफ जाता हुआ तीर है। सब निशाने बाहर हैं। किसी को धन पाना है; वह उसका निशाना है। किसी को पद पाना है, यह उसका निशाना है, किसी को कुछ और पाना है। बड़ा संसार है, अनंत लक्ष्य हैं। और तुम्हारी चेतना का तीर उनकी तरफ जा रहा है। इससे एक उलटी यात्रा भी है कि तुम्हारा तीर चेतना का बाहर की तरफ नहीं जाता। तुम आंख बंद कर लेते हो, तीर भीतर की तरफ मुड़ता है। तुम भीतर देखते हो। आंखें उलटी हो जाती हैं। देखने का ढंग बदल जाता है और चेतना भीतर की तरफ बहती है; जैसे गंगा गंगोत्री की तरफ बहे। मूलस्रोत की तरफ तुम्हारी चेतना आती है। जहां से आई है, वहीं वापस ले जाते हो। उदगम ही लक्ष्य हो जाता है। तब, तब जीवन की परम घटना घटती है। तब जीवन की परम धन्यता उतरती है।
लेकिन कबीर कहते हैं: ‘सुरा होय सो बूझै।’ यह कमजोरों का काम नहीं! यह तो बहुत बहादुरों का काम है। इसलिए तो हम महावीर कहते हैं महावीर को। नाम उनका वर्द्धमान था। जिस दिन तीर उलटा हुआ, उस दिन से हमने उन्हें महावीर कहा। वर्द्धमान तो मर गए, महावीर का जन्म हुआ। महावीर इसलिए कहा कि यह परम साहस है।
ध्यान रखना, धर्म कमजोरों की बात नहीं। भीरु, भयभीत, डरे हुए लोग, तुम्हें मंदिरों में मिलेंगे--घुटने टेके, हाथ जोड़े--लेकिन वे धार्मिक लोग नहीं हैं। वहां भी उनका तीर बाहर की तरफ जा रहा है। वहां भी वे मांग रहे हैं संसार की चीजें।
ऐसा हुआ कि विवेकानंद के पिता मर गए। तो घर बड़ा दीन था--कर्ज छोड़ गए थे। चुकाने का कोई उपाय नहीं था। और विवेकानंद को लग गया राग-रंग एक दूसरी दुनिया का। विवेकानंद पर छा गए रामकृष्ण। तो अब तो कोई उपाय ही न रहा। विवेकानंद के दिन बीतने लगे रामकृष्ण के सत्संग में। साधु-संगत में। मां विधवा, कर्ज भारी! ऐसी हालतें थीं कि कभी भोजन भी होता, नहीं भी होता। कई दिन ऐसे हो जाते कि विवेकानंद घर जाते और पाते कि इतना ही भोजन है कि अकेला कोई भी एक ले सकता, या तो मां या बेटा। तो विवेकानंद कहते कि मैं आज भोजन नहीं लूंगा, कहीं निमंत्रण है। किसी मित्र के घर भोज है। तू भोजन ले ले। चक्कर लगा कर गलियों में भूखे पेट, रास्ते के किनारे लगे नल से पानी पी कर हंसते हुए घर लौटते, जैसे भर पेट आए हैं। डकार लेते घर में आते कि बड़ा गजब का भोजन था। बड़ी सुंदर चीजों का नाम गिनाते, ताकि मां आश्वस्त हो जाए।
रामकृष्ण को पता लगा कि यह तो बहुत बुरी हालत है, तो उन्होंने कहा कि यह नहीं चलेगा। तू पागल हुआ है। तू जाकर मां से क्यों नहीं मांग लेता? मंदिर में मां की मूर्ति है। तू जा और जो मांगना है, मांग ले।
विवेकानंद भीतर गए। रामकृष्ण द्वार पर बैठे हैं। घंटा बीत गया। विवेकानंद बाहर आए, आंखों से आंसुओं की धार लगी है। परम आनंदित हैं। रामकृष्ण ने कहा: मांग लिया? विवेकानंद ने कहा: अच्छी याद दिलाई, मैं तो भूल ही गया। फिर भेजा भीतर, फिर घंटे भर बाद बाहर आए, बड़े प्रसन्न हैं। रामकृष्ण ने कहा: मांग लिया? विवेकानंद ने कहा: नहीं मांग सकूंगा। क्योंकि जब मां सामने खड़ी हो, तो मांगना कैसा! और क्या उसे पता नहीं है? परमात्मा से मांगना क्या? और जो उसकी मर्जी, वही हो। उसकी मर्जी से हम ज्यादा समझदार तो नहीं हो सकते। अगर वह चाहता है यही, तो जरूर कोई राज होगा। तो जाता हूं भीतर, आप कहते हैं, आपको भी इनकार नहीं कर सकता और भीतर जाकर धुन में लीन हो जाता हूं। ऐसा आनंद बरसता है कि वहां किसको याद रहती है कि पेट भूखा है, कि हाथ में भिक्षापात्र लिए हूं। नहीं, यह नहीं होगा, यह मैं न मांग सकूंगा।
रामकृष्ण ने कहा: यही मैं सोचता था कि अगर तू मांग ले, तो मैं समझ लूं कि तू संसारी है, और धार्मिक न हो सकेगा। अगर तू न मांग सके तो फिर इस रास्ते पर चल सकता है। क्योंकि इस रास्ते पर तो वे ही चलते हैं--‘सुरा होय सो बूझै।’ हिम्मत है जिनकी, साहस है जिनमें--अज्ञात में जाने का, अनजान में उतरने का, क्षुद्र को छोड़ने का, विराट में खोने का।
...सुरा होय सो बूझै।
गायन कहे कवहुं नहिं गावै, अनबोला नित गावै।
गायन कहे कवहुं नहिं गावै,...
गाता है साधक, फिर भी गाता नहीं। वह कोई गीत नहीं है। वह कोई संगीत नहीं है, एक आनंदभाव है।
गायन कहे कवहुं नहिं गावै, अनबोला नित गावै।
और नहीं भी बोलता, तो भी गीत चलता रहता है। ये उलटबांसियां हैं। तुम गाते हुए पाओगे मीरा को, चैतन्य को--और कबीर कहेंगे फिर भी वे गाते नहीं, भीतर तो सब शांत है, एक शब्द नहीं उठता। तुम बुद्ध को और महावीर को बैठा हुआ पाओगे अनबोला, और कबीर कहेंगे, गाते हैं, भीतर तो धुन उठ रही है, अनहद नाद बाजे!
संत की जो स्थिति है, वह इस उलटबांसी में छिपी है। संत बोलता है तो भी बोलता नहीं। तुम चुप रहते हो तो भी बोलते हो। चुप्पी ऊपर-ऊपर होती है, भीतर तो बोले चले जाते हो। संत बोलता है तो भी बोलता नहीं; बोलना ऊपर-ऊपर होता है, भीतर तो गहन चुप्पी होती है। संत चुप रहता है, तब भी बोलता है, लेकिन उसके चुप रहने में बोलने का ढंग और, तुम्हारे चुप रहने में बोलने का ढंग और। संत चुप रहता है, तब चुप्पी से बोलता है। तब वह तुमसे भी कह रहा है, चुप हो जाओ। तब वह तुमसे भी कह रहा है, जैसा मैं हूं ऐसे हो जाओ। तब वह तुमसे भी कह रहा है, निमंत्रण है, द्वार खुला है, भीतर आ जाओ, चुप हो जाओ। और अगर तुम संत के पास चुप बैठ सको, तो तुम सब सीख लोगे जो सीखने जैसा है।
संत बोले तो भी वह वही बोलता है कि चुप हो जाओ। संत चुप रहे तो भी वह वही बोलता है कि चुप हो जाओ। मौन हो जाना द्वार है। सब भांति शब्द से मुक्त हो जाना विधि है।
गायन कहे कवहुं नहिं गावै, अनबोला नित गावै।
नट वट बाजा पेखनि पेखै, अनहद हेत बढ़ावै।।
संसार को तो वह खेल की तरह लेता है।
नट वट बाजा पेखनि पेखै,...
देखता है कि यह सारा साज जो बज रहा है, खेल-कूद चल रहा है, अभिनय हो रहे हैं, नाटक हो रहा है--इसको वह नाटक की तरह देखता है, एक द्रष्टा!
...अनहद हेत बढ़ावै।
इधर देखता है संसार को एक नाटक, और उधर भीतर अनहद से प्रेम बढ़ाता जाता है।
तुम जब तक इस संसार को वास्तविक मानते हो, तब तक तुम इसके साथ प्रेम को बढ़ाते हो। क्योंकि प्रेम, जहां भी वास्तविकता दिखती है, वहीं बढ़ता है। जब तुम संसार को खेल समझ लेते हो... लेकिन तुम बड़ी मुश्किल में हो। तुम संसार को खेल क्या समझोगे! तुम फिल्म में जाते हो, फिल्म को तुम सत्य समझ लेते हो! फिल्म में देखो। वहां तो अंधेरा रहता है, अच्छा है; नहीं तो सभी अपने आंसू पोंछ रहे हैं। लोगों के रूमाल गीले हो जाते हैं। लोग दो-दो जोड़ी रुमाल लेकर जाते हैं। अंधेरा अच्छा है। कोई देख नहीं रहा है। जल्दी से पोंछ कर फिर सज कर बैठ जाते हैं। फिल्म कुछ भी नहीं है वहां; पर्दे पर धूप-छांव का खेल है।
और संत कहते हैं: यह सारा संसार धूप-छांव का खेल है। संत इस सारे संसार को नाटक बना लेते हैं। तुम नाटक को भी संसार बना लेते हो। तुम वहां भी रोते हो, हंसते हो, प्रसन्न होते हो। वहां भी किसी की हत्या होती है, तुम कहते हो... तुम दुख प्रकट करते हो। वहां कोई किसी की छाती में छुरा भोंक रहा है, तुम एकदम सीधे होकर बैठ जाते हो; जैसे कोई दुर्घटना घटने जा रही है। तुम नाटक को भी वास्तविक कर लेते हो, तो तुम संसार को कैसे नाटक कर पाओगे! और कला यही है कि संसार नाटक हो जाए।
नट वट बाजा पेखनि पेखै, अनहद हेत बढ़ावै।।
कथनी बदनी निजुके जोहै, ई सभ अकथ कहानी।
और इस सारे खेल को, न केवल संसार के खेल को खेल की तरह देखता है, बल्कि अपनी कथनी-करनी, खुद के आचरण, शरीर, क्रिया, गतिविधि को भी द्रष्टा की तरह ही देखता है। भूख लगती है संत को भी, लेकिन लगने का ढंग और है। जब तुम्हें भूख लगती है, तुम्हें लगता है तुम भूखे हो गए; मैं भूखा हूं। जब संत को भूख लगती है तो उसे दिखाई पड़ता है, शरीर भूखा है। भूख से वह जोड़ नहीं लेता है अपने को। तुम्हारे पैर में चोट लगती है तो तुम्हें चोट लगती है। संत को चोट लगती है तो वह देखता है कि पैर को चोट लगी है। जो करना जरूरी है, करता है; लेकिन है सब खेल।
संत साक्षी बना रहता है। और साक्षीभाव इस जगत में सबसे रहस्यपूर्ण दशा है। इसलिए कबीर कहते हैं: ‘कथनी-बदनी निजुके जोहै।’ ‘निजुके जोहै’--अर्थात साक्षी हो जाए। सब देखे और साक्षीभाव से देखे। कोई भी चीज छुए न। किसी भी चीज में बंधे न। सबसे गुजर जाए, लेकिन अस्पर्शित रहे। रहे संसार में, लेकिन संसार को भीतर न घुसने दे। संसार में हो और संसार का न हो। वही तो साधु का लक्षण है।
...ई सभ अकथ कहानी।
और यह बड़ी अदभुत कहानी है, कही नहीं जा सकती। क्योंकि जिस दिन सारा संसार तुम्हें नाटक दिखाई पड़ेगा, उस दिन तुम कैसे रहस्य-लोक में प्रवेश न कर जाओगे। जिस दिन तुम्हारा खुद का जीवन भी एक पार्ट मालूम पड़ेगा, उस दिन तुम्हारे जीवन में कैसी चिंता! उस दिन तुम्हारे जीवन में कैसा कष्ट, कैसा संताप!
...ई सभ अकथ कहानी।
धरती उलटि आकासहि बेधै, ई पुरखन की बानी।।
और जिन्होंने जाना है, उन पुरखों की यह वाणी है कि धरती उलटी होकर आकाश को बेंध देती है। तुम्हारी चेतना उलटी होकर सारे संसार को बेंध देती है।
बिना पियाले अमृत अंचवै, नदिय नीर भरि राखै।
कहहिं कबीर सो जुग-जुग जीवै, राम सुधारस चाखै।।
बिना पियाले अमृत अंचवै,...
और अमृत बरसता है, और ऐसा बरसता है कि तुम्हारे चारों ओर बरसता है। प्याले की जरूरत भी नहीं भरने की। तुम ही उससे भर जाते हो।
बिना पियाले अमृत अंचवै,...
यह कोई प्यालियों में नहीं बरसता, जब बरसता है तो। जब बरसता है तो सब बांध तोड़ कर बरसता है। तुम्हारे चारों तरफ सागर की तरह हो जाता है।
...नदिय नीर भरि राखै।
इस तरह बरसता है कि तुम्हारे भीतर नदियों जैसा भरा रह जाता है। जैसे आकाश से जब वर्षा होती है तो सूखी नदियों में भर जाती है। ऐसा तुम्हारे भीतर भर जाता है और चारों तरफ बरसने लगता है।
कहहिं कबीर सो जुग-जुग जीवै,...
और जिस पर यह अमृत बरस गया वह सदा जीता है; उसकी कोई मृत्यु नहीं, वह अमृत हो जाता है।
...राम सुधारस चाखै।
और अनंत-अनंत, सदा-सदा परमात्मा के रस का स्वाद लेता रहता है।
दो स्वाद हैं जगत में। एक स्वाद है शरीर का, और एक स्वाद है आत्मा का। भोजन करते हो, तब जो स्वाद मिलता है, वह शरीर का स्वाद है। संभोग करते हो, तब जो स्वाद मिलता है, वह शरीर का स्वाद है। सुगंध आती है फूलों से, तब जो स्वाद मिलता है वह शरीर का स्वाद है।
एक और स्वाद है, जो इंद्रियों से नहीं मिलता--और वही स्वाद परमात्मा का है। लेकिन वह तभी संभव होगा, जब तुम्हारी गंगा सागर को ग्रस ले; जब तुम्हारा तीर तुम्हीं को लग जाए; जब तुम उलटी यात्रा पर निकल जाओ। वह तभी संभव है, जब:
औंधे घड़ा नहीं जल बूड़ै, सूधे सों जल भरिया।
जिहि कारन नल भींन भींन करु, गुरु परसादे तरिया।।
बस इतना ही राज है कि तुम औंधे घड़े हो जाओ। जिस दिन संसार का जल तुममें न भरेगा, उसी दिन परमात्मा की वर्षा तुम पर हो जाएगी। सीधे घड़े में संसार भर जाएगा और तुम डूब जाओगे।
बहुत बार तुम डूबे हो। चेत जाना चाहिए! काफी समय हो गया, अब होश आ जाना चाहिए।
आज इतना ही।