MEDITATION

Suno Bhai Sadho 07

Seventh Discourse from the series of 20 discourses - Suno Bhai Sadho by Osho. These discourses were given in KKB during NOV 11-20 1974.
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घूंघट का पट खोल रे, तोको पीव मिलेंगे।
घट घट में वह साईं रमता, कटुक वचन मत बोल रे।।

धन जोवन को गरब न कीजै, झूठा पचरंग चोल रे।
सुन्न महल में दियना बारिले, आसन सों मत डोल रे।।

जागू जुगत सों, रंगमहल में, पिय पायो अनमोल रे।
कह कबीर आनंद भयो है, बाजत अनहद ढोल रे।।
कबीर के पद के पहले, कुछ बातें समझ लें।
एक तो--और अत्यंत आधारभूत--कि पर्दा आपकी आंख पर है, पर्दा परमात्मा पर नहीं। और पर्दा आपने ही डाला है, किसी और ने नहीं। किसी और ने डाला होता तो आप उठाने में समर्थ न हो सकते थे; फिर कोई और ही उठाता। और पर्दा अगर परमात्मा के ऊपर होता, तो भी आप उठाने में समर्थ न हो सकते थे। क्योंकि परमात्मा विराट है, उसका पर्दा भी विराट होता, आपकी सामर्थ्य के बाहर होता। पर्दा आपकी आंख पर है, और आपने ही डाला। यह पहली प्राथमिक बात समझ लेनी चाहिए। इसलिए कबीर घूंघट का उपयोग करते हैं।
घूंघट व्यक्ति स्वयं ही डालता है और अपनी ही आंख पर डालता है। और यही आसान भी है। क्योंकि अपनी आंख छिप गई कि सब छिप गया। हिमालय को छिपाना हो तो बहुत बड़े पर्दे की जरूरत पड़े। छोटा सा घूंघट, आंख बंद हो गई, हिमालय खो गया। सरल भी यही है। फिर खुद ने ही डाला है; इसलिए जब चाहें, जब मर्जी हो, उठा लें। कोई रुकावट भी नहीं है, कोई बाधा भी नहीं है--स्वयं के अतिरिक्त। इस बात को जितना गहरा उतर जाने दें भीतर, उतना अच्छा है। क्योंकि साधारणतः हम सोचते हैं, सत्य के ऊपर पर्दा है; तब तो यात्रा बहुत कठिन हो जाएगी। कमजोर आदमी कर भी पाएगा, इसकी कोई आशा रखनी उचित नहीं है। और सत्य के ऊपर पर्दा हो, तो तुम लाख उपाय करो, उठा कैसे पाओगे! और सत्य के ऊपर पर्दा हो तो एक बार किसी ने उठा दिया तो सभी के लिए उठ जाएगा। विज्ञान और धर्म का फर्क और फासला यही है।
आइंस्टीन एक सत्य को खोज लेते हैं, तो फिर हर पीछे आने वाले वैज्ञानिक को, विज्ञान के विद्यार्थी को वह सत्य नहीं खोजना पड़ता--पर्दा उठ गया! फिर तो आप पढ़ लें किताब में, काफी है। जो श्रम आइंस्टीन को वर्षों करना पड़ा होगा, एक साधारण से विद्यार्थी को घंटों करना पड़ता है।
बुद्ध ने पर्दा उठा दिया, कबीर ने पर्दा उठा दिया, अब आपको करने की जरूरत ही क्या है? जरा सा समझ लेना है, बात खत्म हो गई। विद्यालय में पढ़ाई हो सकती है--विज्ञान की; धर्म की नहीं। क्योंकि बुद्ध ने जो पर्दा उठाया, वह अपनी ही आंख का पर्दा था। वह कोई सत्य का पर्दा नहीं उठा दिया था; नहीं तो सभी के लिए उठ जाता, फिर अज्ञानी कोई होता ही नहीं जगत में। फिर जैसे आइंस्टीन का सिद्धांत किताब में लिख जाता है, लोग पढ़ लेते हैं, खोजने की कोई जरूरत नहीं रह जाती, वैसे ही बुद्ध का सिद्धांत भी किताब में लिख जाता।
यह जान कर तुम्हें हैरानी होगी कि शास्त्र विज्ञान में हो सकता है, धर्म में नहीं। धर्म में कैसे शास्त्र होगा? दूसरे के उठाए तुम्हारा पर्दा तो उठेगा नहीं। और दूसरे ने जो देखा है, वह तुम्हारा दर्शन कैसे बनेगा? तुम्हारी आंख पर जब तक पर्दा है, बुद्ध कितना ही पर्दा उठा दें, कुछ भी न उठेगा। वह उनकी आंख का पर्दा है। इसलिए धर्म में कोई परंपरा नहीं निर्मित हो सकती। ट्रेडिशन धर्म की हो ही नहीं सकती। और दुख की यही बात है कि उसकी बड़ी परंपराएं बन गई हैं।
शास्त्र धर्म का हो ही नहीं सकता। लेकिन धर्म शास्त्र है। धर्म दूसरे से सीखा ही नहीं जा सकता, उसे खुद ही खोजना पड़ता है। लेकिन फिर भी हम दूसरे से सीखते हैं। और इसलिए सब झूठ हो गया है। धर्म के आस-पास जितना झूठ इकट्ठा हो गया है, उतना किसी चीज के आस-पास झूठ नहीं है। क्या कारण होगा? और धर्म, जो की सत्य की खोज है, उसके आस-पास इतना झूठ क्यों इकट्ठा हो गया? इतने शास्त्र, इतने सिद्धांत, इतने दर्शन, इतनी धारणाएं, इतने प्रत्यय, धर्म के आस-पास क्यों इकट्ठे हो गए?--इस मौलिक बात को भूल जाने के कारण कि पर्दा घूंघट है, तुम्हारी आंख पर है। हर आदमी को फिर से उठाना पड़ेगा। और हर आदमी को नये सिरे से उठाना पड़ेगा। किसी दूसरे के उठाए तुम्हें कुछ फर्क न पड़ेगा।
बुद्ध जागेंगे, देख लेंगे, खो जाएंगे--उनका दर्शन भी उनके साथ खो जाएगा; उनकी दृष्टि भी उनके साथ खो जाएगी। तुम जागोगे, देखोगे, पहचानोगे, तुम्हारे जीवन में अनहद आनंद का ढोल बजेगा; लेकिन किसी और को सुनाई नहीं पड़ेगा, तुमको ही सुनाई पड़ेगा। तुम्हारे जीवन में अनंत प्रकाश का अवतरण होगा, लेकिन तुम्हारे पड़ोस में भी कोई बैठा हो, उसको पता नहीं चलेगा। पत्नी को भी पता नहीं चलेगा कि पति के हृदय में प्रकाश की किरण उतरी। बेटे को पता नहीं चलेगा की बाप जाग गया। तुम्हारे चारों तरफ लोग बैठे रहें, किसी को शंका भी न होगी कि तुम जाग गए। क्योंकि पर्दा तुमने अपनी आंख का उठाया है, उनकी आंखों का नहीं। और दूसरे की आंख का पर्दा उठाया ही नहीं जा सकता।
यह पर्दा बाहरी नहीं है--यह दूसरी बात समझ लें। यह पर्दा बाहरी होता तो कोई झटक कर दूसरा भी उठा देता। यह नींद बाहर की होती तो हिला-डुला कर कोई भी तुम्हें जगा देता। यह नींद भीतर की है। कितना ही हिलाओ-डुलाओ, शरीर ही हिलेगा-डुलेगा, तुम्हारी चेतना नहीं। और यह पर्दा भीतर है। यह घूंघट साधारण घूंघट नहीं है, जो स्त्रियों की आंखों पर पड़ा रहता है। उसे तो कोई भी उठा सकता है। यह पर्दा, यह घूंघट भीतर की आंख पर है, जिसको हम तीसरी आंख कहते हैं।
यह इतने भीतर है कि दूसरा तो प्रवेश ही नहीं कर सकता। तुम ही जब चाहोगे, तुम ही जब भरोगे आतुरता से, तुम्हारी ही अभीप्सा जब तुम्हें आंदोलित करेगी, तुम ही जब जीवन की व्यर्थता को देखोगे, और तुम ही जब देखोगे कि इस पर्दे के कारण कितनी दीवालों से टकराना पड़ता है, सब तरफ से जीवन लहूलुहान हो गया है; इस पर्दे के कारण द्वार मिलता ही नहीं; द्वार भी दीवाल हो जाती है; इस पर्दे के कारण जीवन में सिवाय कलह के, दुख के, नरक के, कुछ और नहीं होता, ऐसा क्षण आता ही नहीं जब तुम कह सको: ‘आनंद भयो रे।’... एक क्षण भी जीवन में ऐसा नहीं आता, जब तुम नाच उठो और तुम कहो, धन्यभागी हूं कि जो भी मैंने दुख भोगे, वे इस एक क्षण मिले आनंद के लिए पर्याप्त थे; कोई हर्जा नहीं हुआ, कोई नुकसान नहीं हुआ। खूब पा लिया मैंने, वे दुख ना-कुछ थे। अगर उतने दुख फिर झेलने पड़ें तो मैं तैयार हूं इस एक क्षण के आनंद के लिए। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं होता।
नहीं होता इसलिए कि न तो तूफान चल रहा हो बाहर तो तुम्हारा घूंघट हट सकता है, न आग लग जाए बाहर तो तुम्हारा घूंघट जल सकता है। भूल-चूक से भी, दुर्घटना में भी, तुम्हारा घूंघट हिलेगा नहीं। भीतर है। और इन आंखों पर नहीं है जिनसे तुम देख रहे हो। भीतर की आंख पर है।
एक भीतर की दृष्टि है, उसके खुलते ही सारा जीवन बदल जाता है।
एक बाहर की दृष्टि है, वह खुली भी रहे तो भी काम चलता है--जीवन नहीं बदलता। वह बंद भी हो जाए तो भी काम चल जाता है। अंधा भी काम चला लेता है; आंख वाले भी काम चला लेते हैं। इन आंखों से गहरी भी एक आंख है, वही खुलती है, जब हम किसी व्यक्ति को कहते हैं: बुद्ध हो गया, जिन हुआ, जागा, होश पाया, और तब सब रूपांतरित हो जाता है! क्योंकि जब तुम भीतर जागते हो तो तुम्हारी सारी सृष्टि बदल जाती है। तुम जो देखते हो, तुम्हारे कारण ही देखते हो।
मुल्ला नसरुद्दीन को एक रात पकड़ा गया। काफी पी गया था। काफी झूम-झटक की सिपाही से, गाली-गलौज की। मगर वह उसे घसीट कर कोतवाली ले गया। कोतवाली में भी घुसा तो बहुत नाराज था और कहा कि यह क्या बदतमीजी है, मुझे किसलिए यहां लाया गया है? वह जो इंस्पेक्टर था कोतवाली में, उसने कहा, शराब के लिए लाया गया है। उसने कहा, अरे, तब बात और! प्रसन्न हो गया। फिर कब शुरू करेंगे?
शराब में डूबा हुआ आदमी, जो अर्थ भी देखेगा शब्दों में, वह भी उसका अपना होगा। शराब की अभीप्सा, आकांक्षा से भरा हुआ आदमी इतना बेहोश है कि वह जो सुनेगा, उसमें से भी अपना ही अर्थ निकालेगा। अर्थ भी उसका मूर्च्छित का अर्थ होगा। अर्थ भी उसका अपना ही होगा। स्वाभाविक यही है।
तुम जो देखते हो, वह वही नहीं है जो है। तुम वही देखते हो जो तुम देखना चाहते हो। तुम वही सुन लेते हो जो तुम सुनना चाहते हो। तुम वही खोजते हो जो तुम खोजना चाहते हो। किसी दिन उपवास कर लो फिर उसी रास्ते से गुजरो जिससे रोज गुजरे थे: जो दुकानें मिठाई की कभी नहीं दिखाई पड़ती थीं, वे पहली दफा दिखाई पड़ेंगी। वे ही दिखाई पड़ेंगी, बाकी जब खो जाएगा। रेस्टोरेंट्‌स, होटल्स, मिठाई की दुकान, चाय की दुकान--वे सब प्रगाढ़ होकर दिखाई पड़ेंगी।
एक सात दिन उपवास कर लो, फिर निकलो: तुम्हें बाजार में जूते की दुकान, कपड़े की दुकान दिखाई पड़नी बंद ही हो जाएंगी; सिर्फ तुम्हें भोजन की ही सामग्री की दुकानें दिखाई पड़ेंगी। क्योंकि तुम्हारी चेतना यहां भीतर भूख से भरी है। भूख देख रही है, अब तुम नहीं देख रहे हो। तो दृष्टि सृष्टि है।
बड़ी पुरानी कहानी है। महाराष्ट्र में संत हुए, रामदास। उन्होंने राम की कथा लिखी। वे लिखते जाते, और रोज लोगों को सुनाते जाते। कहते हैं, कथा इतनी प्यारी थी कि खुद हनुमान भी उसे सुनने आते थे। छिप कर बैठ जाते भीड़ में। जब हनुमान सुनने आएं तो बात कुछ राज की ही होगी, क्योंकि हनुमान ने तो कथा खुद ही देखी थी। अब कुछ इसमें देखने जैसा नहीं था। लेकिन रामदास कह रहे थे तो बात ही कुछ थी कि खुद देखने वाला मौजूद जो था, चश्मदीद गवाह, वह भी यह कहानी सुनने आता था। लेकिन एक जगह हनुमान को बरदाश्त न हुआ। क्योंकि हनुमान का ही वर्णन हो रहा था। और रामदास ने कहा, हनुमान गए अशोक-वाटिका में, लंका में। और उन्होंने देखा कि चारों तरफ सफेद फूल खिले हैं। हनुमान ने कहा: ठहरो। सुधार कर लो। फूल लाल थे, सफेद नहीं थे। रामदास ने कहा कि कौन नासमझ बीच में सुधार करवा रहा है? तब हनुमान ने अपने को प्रकट कर दिया। उन्होंने कहा कि अब प्रकट करना ही पड़ेगा कि मैं खुद हनुमान हूं, जिसकी तुम कथा कह रहे हो। और मैं कहता हूं कि वहां फूल लाल थे, सफेद नहीं। रामदास ने कहा: कोई भी हो, चुप बैठो! फूल सफेद थे।
झगड़ा बहुत बड़ा हो गया। और तब एक ही उपाय था कि अब राम के पास जाया जाए। हनुमान ने कहा: तो चलो राम के पास। वे जो कह देंगे वही निर्णय। क्योंकि यह हद हो गई! मैं जब खुद चश्मदीद आदमी मौजूद हूं और कह रहा हूं कि मैंने फूल देखे! तुम मेरी कथा कह रहे हो--और वह भी हजारों साल बाद कह रहे हो। और एक छोटी सी बात पर जिद कर रहे हो। क्या बिगड़ता है कि तुम फूल लिख दो कि लाल थे?
पर रामदास ने कहा: बिगड़ने का सवाल नहीं; जो सच है, सच है। फूल सफेद थे।
झगड़ा राम के पास गया, और राम ने हनुमान से कहा: तुम चुप रहो। रामदास जो कहते हैं, ठीक कहते हैं। तुम उस समय इतने क्रोध में थे, आंखें खून से भरी थीं, तुम्हें लाल दिखाई पड़े होंगे। रामदास को कोई क्रोध नहीं है। वह दूर तटस्थ भाव से देख रहा है! फूल सफेद ही थे। मुझे भी पता है।
जब तुम क्रोध से देखोगे तो चीजें और हो जाएंगी। स्वभावतः जब तुम लोभ से देखोगे तो चीजें और हो जाएंगी। जब तुम वासना, कामना से भर कर देखोगे तो चीजों में एक सौंदर्य आ जाएगा, जो है ही नहीं। देखने वाला अपने को ही फैला कर देखता है। इसलिए तुम्हारी दृष्टि ही तुम्हारी सृष्टि हो जाती है। जब तुम बदलोगे और तुम्हारी दृष्टि बदलेगी, तत्क्षण सारी सृष्टि बदल जाएगी। जहां तुम्हें बहुमूल्य दिखाई पड़ा था वहां कचरा दिखाई पड़ेगा। जिसे तुमने असार समझ कर छोड़ दिया था, हो सकता था वहां सार दिखाई पड़े; और जिसे तुमने सार समझ कर छाती से लगा रखा था वहां तुम्हें असार दिखाई पड़े।
जीवन तुम्हारी दृष्टि का फैलाव है। और जिसके भीतर की दृष्टि सोई हो, वह ऐसा है जैसे भीतर है ही नहीं। सब सोया है। उस भीतर की दृष्टि के सोने के कारण तुम जीवन के भीतरी अंगों को नहीं देख पाते। बाहर की आंख बाहर को ही देख सकती है। भीतर की आंख भीतर देखेगी। तुम देखते हो मुझे, लेकिन अगर बाहर की आंख से देखते हो, तो तुम मेरे शरीर को देखोगे, तुम मुझे न देख पाओगे। अगर तुम भीतर की आंख से देखते हो तो ही मुझे देख पाओगे। तब यह शरीर सिर्फ घर रह जाएगा, ऊपर के वस्त्र, और भीतर के चैतन्य का आविर्भाव होगा। अगर तुम सिर्फ कानों से सुनते हो बाहर के, तो तुम मेरे शब्द सुन पाओगे; और अगर भीतर का कान तुम्हारा जागा हो, तब तुम मेरे अर्थ को समझ पाओगे। क्योंकि शब्द तो खोल है, शरीर है; अर्थ, आत्मा है।
तुम जितने गहरे हो, उतना ही गहरा तुम देखोगे, उतना ही गहरा तुम सुनोगे, उतना ही गहरा तुम्हारा सारा अनुभव होगा। तुम अगर छिछले हो, तो अनुभव बहुत गहरा न हो पाएगा।
झेन कथा है कि एक सदगुरु अपने शिष्य के पास गया। वह शिष्य बाहर ही बैठा था। सदगुरु ने पूछा, सत्य क्या है? उस शिष्य ने मुट्ठी बांध कर बताई। सदगुरु वापस लौटने लगा और उसने कहा कि पानी बहुत उथला है, बड़े जहाज यहां न रुक सकेंगे। शिष्य बड़ा दुखी हुआ, और उत्तर तो उसने बिलकुल सोच-समझ कर दिया था। वहीं तो भूल हो रही थी। उसने सुन रखा था कि जब यह गुरु लोगों से कुछ पूछता है, तो यह शब्दों में उत्तर नहीं चाहता। और उसने पुरानी कहानी सुन रखी थी कि फलां शिष्य के पास गया तो उसने मुट्ठी बांध कर बता दी और इसने कहा कि ठीक। क्योंकि मुट्ठी बांधने का मतलब है एक; पांच नहीं, एक; पंचतत्व नहीं, एक तत्व; पांच इंद्रियां नहीं, एक आत्मा। सो, सुन रखी थीं कहानियां तो उसने भी मुट्ठी बांध के बताई लेकिन वह मुट्ठी झूठी थी, उसके भीतर एक नहीं था। उस मुट्ठी में पांच थे। क्योंकि मुट्ठी उतनी ही गहरी हो सकती है, जितना उसका अनुभव हो। वह जानता तो यही था कि पांच सच है। एक की बात तो सुनी थी, उधार थी, बासी थी, अपनी न थी। तो गुरु ने कहा, यह जगह बहुत उथली है, और बड़े जहाज यहां न रुक सकेंगे। बड़ा पीड़ित हुआ शिष्य, बड़ा दुखी हुआ।
वर्षों के बाद गुरु फिर आया। उसने फिर मुट्ठी बांधी। गुरु ने कहा: खूब! खूब खुदाई की। पानी खूब गहरा कर लिया! अब जहाज रुक सकता है।
देखने वालों को बड़ी हैरानी हुई, क्योंकि दोनों बार एक ही बात हुई थी--वह मुट्ठी बांधी गई थी; पहली दफे भी और दूसरी दफे भी। लोगों ने गुरु से पूछा कि हम कुछ समझे नहीं, रहस्य कर दिया, पहेली बना दी। पहली बार भी इस शिष्य ने यही मुट्ठी बांधी थी। इसके लिए बीस साल बाद दुबारा आने की क्या जरूरत थी?
गुरु ने कहा: इस बार मुट्ठी में पांच नहीं, एक है। तब मुट्ठी में पांच थे। मुट्ठी दिखती थी बंधी है, भीतर खुली थी। अब मुट्ठी बाहर ही नहीं बंधी है, भीतर भी बंध गई है। अब इसकी मुट्ठी में अर्थ है। अब यह मुट्ठी प्रतीक नहीं है, अनुभव है।
शब्द तो वही हैं, प्रतीक वही हैं; लेकिन जैसे ही तुम बदल जाते हो, तुम्हारे शब्दों का अर्थ बदल जाता है--तुम्हारे जीवन के ढंग, तुम्हारे जीवन की सुरभि बदल जाती है। सब-कुछ वैसा ही रहता है, फिर भी कुछ भी वैसा नहीं रह जाता। सब-कुछ ऊपर-ऊपर वैसा ही होगा। तुम कभी बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाओगे, कभी तुम्हारे भीतर का कबीर भी जागेगा ही। आखिर कितनी देर लगाओगे। सब ऊपर-ऊपर ऐसा ही होगा, जैसा आज है--दुकान जाओगे, घर काम करोगे, बच्चों का पालन-पोषण करोगे, भूख लगेगी; खाना खाओगे; नींद आएगी, सोओगे; सब ऊपर-ऊपर वैसा ही होगा--पहली मुट्ठी! लेकिन भीतर-भीतर सब बदल जाएगा--दूसरी मुट्ठी! तुम बदल जाओगे। और तुम्हारे बदलने के साथ जीवन के सारे अर्थ और जीवन का सारा काव्य, जीवन की सारी प्रतीति बदल जाएगी।
जब भीतर की आंख खुलती है तब तुम्हें पदार्थ दिखाई नहीं पड़ता है। या, पदार्थ दिखाई पड़ता है तो पारदर्शी हो जाता है। पदार्थ के भीतर जो छिपा है परमात्मा, वह दिखाई पड़ता है; पदार्थ उसकी पारदर्शी खोल हो जाती है।
ये दो बातें खयाल में रख लें।
पर्दा सत्य पर नहीं, अपनी ही आंख पर है; इसलिए घूंघट किसी और ने नहीं डाला। कोई और डालेगा तो आदमी सदा के लिए परतंत्र हो जाएगा। क्योंकि जब वह उठाना चाहेगा, तब उठेगा। लेकिन मनुष्य की आत्मा परम स्वतंत्र है। यही उसकी गरिमा है। तुमने ही डाला है। भटके हो तो तुम, भटके हो तो जान कर, भटके हो तो बूझ कर! अगर गलत भी गए हो, तो तुम ही गए हो! और इसलिए सुगम है कि तुम ठीक मार्ग पर आ जाओ। जिस दिन चाहोगे उसी दिन आ जाओगे।
दूसरी बात: यह ऊपर की आंखों पर घूंघट नहीं है; घूंघट भीतर की आंख पर है। इनको खयाल में रखें, फिर कबीर के इन सूत्रों में उतरें।
घूंघट का पट खोल रे, तोको पीव मिलेंगे।
कबीर के लिए परमात्मा प्रिय है, प्रीतम है, पिया है।
सत्य को जब प्रेम की आंख से देखा जाता है, तो सत्य फिर एक रूखी-सूखी दार्शनिक धारणा नहीं होती; फिर सत्य प्रियतम होता है। फिर वही प्यारा होता है; बाकी कुछ भी प्यारा नहीं रह जाता। और जहां भी वह होता है, वह सभी प्यारा हो जाता है।
एक तो यह बात खयाल ले लें कि सत्य को अगर तुमने एक रूखी-सूखी धारणा की तरह खोजना चाहा... जैसे विज्ञान की खोज है, वह रूखी-सूखी खोज है। उससे खोजी भीगता नहीं। उससे खोजी वही का वही रहता है। उससे खोजी के जीवन में रूपांतरण नहीं आता है, आर्द्रता नहीं आती, गीलापन नहीं आता। खोजी रूखा ही बना रहता है।
एक दार्शनिक खोजता है सत्य को; तर्क जुटाता है, बड़े सिद्धांतों के जाल खड़े करता है, सब तरह की परीक्षाएं करता है विचार से--उसका जीवन भी रूखा-सूखा रह जाता है। वह ऐसा वृक्ष है, जिस पर हरे पत्ते कभी नहीं लगते; जिसमें कभी फूल नहीं आते। वे सूखी शाखाएं हैं, जिनमें कुछ नहीं लगता। शास्त्र का ढेर बढ़ता जाता है, शब्दों के जाल बढ़ते जाते हैं और भीतर के प्राण सूखते जाते हैं।
अगर तुम दार्शनिक के शब्द भी सुनो तो भी तुम्हें रेगिस्तान का स्वाद देंगे। सब सूखा, तप्त! उनसे कहीं भी तुम्हें जीवन की हरियाली न उठती हुई मालूम पड़ेगी।
कबीर दार्शनिक नहीं हैं--कबीर प्रेमी हैं। उनके शब्दों में बड़ा रस है। और वह रस खबर देता है कि भीतर की किसी रसधार में डूब कर वे शब्द आए हैं।
इसलिए हमने तो ऋषि को कवि कहा है। संस्कृत में ‘ऋषि’ और ‘कवि’ दोनों शब्दों का एक ही अर्थ है। धीरे-धीरे हमें दो अर्थ करने पड़े। क्योंकि ऐसे लोग भी हैं, जिन्होंने बिना सत्य को जाने भी कविताएं लिखी हैं। कविताएं कितनी ही प्यारी हों उनकी, उनमें कोई आत्मा नहीं है। भीतर वे खाली हैं। ऊपर काफी रंग-रौनक है; भीतर प्राण नहीं है। घर बहुत सुंदर है, निवासी नहीं है। देह बिलकुल ठीक है, लेकिन प्राणपखेरू उड़ चुके हैं, या कभी थे ही नहीं।
पश्चिम में मुर्दे को भी लोग ले जाते हैं तो खूब सजा कर ले जाते हैं। स्त्री मर जाती है तो भी उसके ओंठ पर लिपस्टिक लगा देते हैं, आंख की पलकों पर काजल लगा देते हैं, गाल पर लाली लगा देते हैं: मरी हुई स्त्री बड़ी जीवित मालूम पड़ती है।
कवियों की कविताएं ऐसी ही हैं; वहां भीतर कुछ आत्मा नहीं है, ऊपर काफी रंग रौनक है। इसलिए अक्सर एक बात खयाल रखना, किसी कवि की कविता पसंद आ जाए तो भी कवि को खोजने मत जाना, नहीं तो कवि को देख कर बड़ी निराशा होगी। कविता तो बड़ी ऊंची मालूम पड़ती थी, और कवि बिलकुल साधारण मालूम पड़ेगा: कोई ऊंचाई नहीं, कोई गहराई नहीं। कविता पसंद आ जाए तो कवि के पास मत जाना। क्योंकि वहां व्यक्ति नहीं है। वहां सिर्फ एक कौशल है, एक तकनीक है। वह आदमी लय, छंद, शब्द, भाषा का ज्ञाता है, और उनको इस भांति बांध सकता है कि एक संगीत का भ्रम पैदा हो जाए। लेकिन सब ऊपर-ऊपर है--लाश पर लगा हुआ लिपस्टिक है; लाश की आंखों पर लगा हुआ काजल है। और स्त्री बिलकुल सुंदर मालूम पड़ती है। और ऐसी लगती है कि अभी-अभी कश्मीर से यात्रा करके लौटी है। लेकिन भीतर सब मृत है। भीतर कोई जीवित नहीं है। इस स्त्री के प्रेम में मत पड़ जाना। इस स्त्री को सिवाय दफनाने के और कोई उपाय नहीं है।
कविता के प्रेम में अगर कभी आ जाओ तो कवि को खोजने मत जाना, नहीं तो मुश्किल में पड़ोगे; क्योंकि कवि को देखते से कविता भी व्यर्थ हो जाएगी।
उर्दू में बड़े शायर हुए हैं, और उन्होंने बड़ी ऊंचाई की बातें कही हैं; लेकिन उन आदमियों की तलाश में मत जाना। तुम उनको अपने से गया-बीता पाओगे। ऋषि और कवि में यही फर्क है। कवि को तुम हमेशा उसकी कविता से छोटा पाओगे, ऋषि को हमेशा तुम उसकी कविता से बड़ा पाओगे। तुम जब ऋषि को खोजने जाओगे, उसके गीत को सुन कर, तब तुम्हें पता चलेगा कि गीत तो ना-कुछ था, और अगर हम गीत में ही प्रसन्न होकर रह जाते, तो एक अवसर खो जाता। यह जिससे गीत निकला है, यह तो अनंत है; वह गीत तो सिर्फ इसकी एक लहर थी, और गीत ना-कुछ था।
एक दफा तुम कबीर को देख लोगे, तो कबीर के वचनों में कुछ भी पता नहीं चलेगा; इस आदमी को तो पीछे ही छोड़ आए वे वचन। सागर पीछे छूट गया है, और एक हल्की सी बरखा का झोंका तुम्हारे पास आ गया था। एक छोटी सी बदली तुम्हारे घर पर आकर बरस गई थी--ऐसी थी कविता। और यह तो महासागर है--जिससे ऐसी अनंत बदलियां उठ सकती हैं और अनंत घरों पर बरस सकती हैं।
ऋषि हमेशा पाता है कि जो वह कहना चाहता था, नहीं कह पाया।
ऋषि हमेशा पाता है कि जो उसने कहा, वह छोटा हो गया--जो वह कहना चाहता था, उससे।
ऋषि के पास सत्य है। सत्य शब्दों से बड़ा है। जब भी सत्य शब्दों में लाया जाता है तो जैसे एक संकरी जगह में बड़े आकाश को समाने की कोई कोशिश करता हो। बड़ा कठिन है। और ऋषि के शब्दों में जो आनंद की पुलक है, वह केवल शब्दों का सार-संवार नहीं है। वह जो आनंद की पुलक है, वह जहां से शब्द आए हैं, जिस हृदय से जन्मे हैं, उसकी पुलक की थोड़ी सी खबर है। जैसे इस फूलों से भरे बगीचे से हवा का एक झोंका गुजर जाए तो फूलों की थोड़ी गंध साथ ले जाएगा--राह पर चलते हुए राहगीर को भी वह झोंका घेर लेगा, उसे भी थोड़ी फूलों की गंध मिल जाएगी। वह फूलों की गंध सिर्फ पास किसी बड़े बगीचे की खबर है। वह हवा के झोंके में जो थोड़ी सी शीतलता है, वह पास किसी सरोवर की झलक है।
कबीर ऋषि हैं। कविता के ढंग से उन्होंने जो कहा है, वह कविता से ज्यादा बड़ा है। और जब कवि देखता है जगत को तो सत्य रूखा नहीं रह जाता, रसपूर्ण हो जाता है। काव्य जीवन को देखने का वही ढंग है, जिस ढंग से प्रेमी प्रेयसी को देखता है। और तुम्हें शायद उसकी प्रेयसी बिलकुल ना-कुछ मालूम पड़े, लेकिन प्रेमी को वही सब-कुछ मालूम पड़ती है। प्रेमी प्रेयसी को देखता ही नहीं, सृजित करता है।
कहीं खलील जिब्रान ने एक वचन लिखा है कि प्रेमी अपनी प्रेयसी में वही देखता है, जो अगर परमात्मा की मर्जी पूरी होती तो वह स्त्री होती। प्रेमी अपनी प्रेयसी में वही देखता है, जो स्त्री की अनंत संभावना है; वह उसे आज देखता है, जो वह कल हो सकती है--अगर परमात्मा की मर्जी पूरी हो पाए। वह उस फूल को नहीं देखता है जो सामने है; वह उस फूल को देखता है जो हो सकता है इस फूल से। वह सारी संभावनाओं को मौजूद देखता है। वह सारे भविष्य को वर्तमान देखता है।
बाप अपने बेटे में वही देखता है--वह नहीं, जो है। इसलिए तो लोग परेशान होते हैं। हर बाप अपने बेटे की चर्चा कर रहा है, और लोग कहते हैं बंद भी करो! क्योंकि लोगों को उस बेटे में कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता और बाप को सब-कुछ दिखाई पड़ता है। और हर बाप को दिखाई पड़ता है अपने बेटे में। और फिर बेटे साधारण निकल जाते हैं।
बाप को क्या दिखाई पड़ता है बेटे में? बाप को वह दिखाई पड़ता है जो बेटा अगर ठीक-ठीक बढ़े तो होगा, उसे उसका पूर्व-दर्शन होता है। लेकिन बेटा अगर भटक जाए तो नहीं हो पाएगा। और बेटे भटक जाते हैं। बाप झूठा साबित होता है। लेकिन बाप ने जिस प्रेम की आंख से देखा था, वह हो सकता था।
हर मां अपने बेटे में श्रेष्ठतम को देखती है। वह श्रेष्ठतम हो सकता है। वह संभावना है। यह कंकड़ जैसा दिखाई पड़ने वाला बेटा, थोड़े ही निखार से, थोड़े ही छैनी के प्रयोग से हीरा बन सकता है; लेकिन बनेगा या नहीं, यह नहीं कहा जा सकता।
प्रेम उसे देख लेता है, जो अगर सब ठीक-ठीक बीते तो तुम हो सकते। घृणा वह देख लेती है, जो अगर सब गलत हो जाए तो तुम हो जाओगे। घृणा तुममें नरक को देख लेती है, प्रेम तुम में स्वर्ग को देख लेता है। घृणा तुम में शैतान को देख लेती है, प्रेम तुम में भगवान को देख लेता है।
साधारण प्रेम में भी ऐसी झलक मिलती है। वह सिर्फ तुम्हारी कल्पना ही नहीं है। वह प्रेम की आंख है, जो छिपे को उघाड़ लेती है; जो दबे को प्रगट कर लेती है; जिसके सामने गुप्त अपने द्वार खोल देता है; रहस्य खुल जाते हैं। लेकिन जब कोई सारे जगत को प्रेम से देखता है, जब कण-कण को प्रेम से देखता है, जब रत्ती-रत्ती इस जगत की तुम्हें अपनी प्रेयसी या प्रेमी बन जाती है, तब जिस विराट का उदय होता है, वही परमात्मा है।
इसलिए कबीर परमात्मा को पीव कहते हैं, प्यारा कहते हैं, प्रियतम कहते हैं। कबीर के लिए सत्य रूखा-सूखा, धारणा नहीं--प्रियतम है। विश्व और मनुष्य के बीच जो संबंध है, वह तर्क का नहीं, प्रेम का है। इसलिए दार्शनिक जिसे उपलब्ध नहीं कर पाता उसकी झलक कवि को मिल जाती है। और कवि को झलक ही मिलती है, ऋषि उसके साथ एक हो जाता है।
घूंघट का पट खोल रे, तोको पीव मिलेंगे।
और आंख तुम्हारी घूंघट से दबी है।
क्या है घूंघट?
बुद्ध का एक वचन है कि तुमसे बड़ा तुम्हारा कोई मित्र नहीं और तुमसे बड़ा तुम्हारा कोई शत्रु भी नहीं। क्योंकि तुम अगर पीठ करके चलो, तो अपने ही सबसे बड़े शत्रु साबित होओगे। और तुम अगर सत्य की तरफ उन्मुख होकर चलो तो तुम ही अपने सबसे बड़े मित्र हो जाओगे।
क्या है घूंघट?
तुम जीवन के प्रति पीठ करके चल रहे हो। तुम भगोड़े हो, पलायनवादी हो, एस्केपिस्ट हो! तुम किसी तरह जीवन से बचना चाहते हो, साक्षात नहीं करना चाहत हो--वही घूंघट है।
समझने की कोशिश करें।
जहां भी जीवन होता है, वहीं से तुम बचने की कोशिश करते हो--और फिर भी तुम परमात्मा को पाना चाहते हो! परमात्मा महाजीवन का नाम है। पर क्यों आदमी जीवन से बचता है? कुछ भय है। एक तो भय है कि जीवन हमेशा प्रतिपल अपरिचित और अनजान में ले जाता है; अज्ञात में और अज्ञेय में ले जाता है। जीवन बंधी हुई लीक नहीं है, कोल्हू के बैल की भांति नहीं है कि तुम एक ही परिधि में चक्कर काटते रहते हो। जीवन एक आदत नहीं है, पुनरुक्ति नहीं है। जीवन प्रतिपल नया हो रहा है। और नये से तुम डरते हो; क्योंकि पुराने से तुम परिचित हो, नये से अपरिचित हो; पुराना जाना-माना है, तुम उसे भली भांति पहचानते हो। तुम पुराने के साथ जी लिए हो, सुख-दुख भोग लिए हो। नये का पता नहीं।
यह हैरानी की बात है: तुम पुरानी बीमारी को भी पसंद करोगे नये स्वास्थ्य के मुकाबले। क्योंकि नये से भय लगता है: पता नहीं क्या हो! बचपन से ही नये से भय लगता है। और सारा समाज सिखाता है नये से भय। अजनबी आदमी पास बैठ जाए तो तुम तत्क्षण उसका नाम पूछते हो: कहां जा रहे हो? क्या करते हो? क्या धर्म है? क्यों पूछते हो, पता है? इसलिए कि जब तक अजनबी है तब तक भय है। पता लग जाए कि ठीक है, हिंदू धर्म मानता है... हम भी हिंदू, तुम भी हिंदू--परिचित हुए।... बाल-बच्चे हैं? क्योंकि बाल-बच्चे वाले आदमी का ज्यादा भरोसा!... कांग्रेसी हो कि कम्युनिस्ट? कांग्रेसी ही है, चलो ठीक ।
हम व्यवस्था बना रहे हैं, उससे परिचित होने की।
ट्रेन में आदमी प्रवेश नहीं हुआ कि लोग उससे पूछना शुरू कर देते हैं। अगर वह आदमी जवाब न दे, या अनर्गल जवाब दे तो तुम शंकित हो जाओगे कि खतरा है, कि चेन खींच दो ट्रेन की, पुलिस को खबर करो। अगर वह आदमी कहे कि हां, हिंदू या मुसलमान... हिंदू ही हूं, तो संदेह पैदा करेगा। क्योंकि इसमें सोचने की क्या बात! कि तुम पूछो कितने बच्चे हैं और वह सोचे और गिनती करे, तो वह आदमी खतरनाक है! पता नहीं बिस्तर उठा ले जाए, सामान चुरा ले, जेब काट ले! भरोसे का नहीं है। अजनबी को हम जल्दी से परिचित बनाना चाहते हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन एक ट्रेन में सवार था। और डिब्बे की छत की तरफ आंख किए एक टकटकी लगा कर देख रहा था। दूसरा आदमी जो उसके पास बैठा था, वह थोड़ी देर में शंकित हो ही गया। उसने एक-दो दफा बात-चीत चलाने की कोशिश की, खांसा-खखारा; मगर वह एकटक देखता रहा। उसने पूछा भी, आप कहां जा रहे हैं? मुल्ला ने कोई जवाब न दिया। कहां से आ रहे हैं? उसने जरा जोर से पूछा कि हो सकता है कि आदमी बहरा हो। तो भी कोई जवाब न दिया। वह एकटक लगाए त्राटक ही करता रहा। आखिर उस आदमी ने कहा, भाई साहब! आपका मफलर खिड़की के बाहर उड़ा जा रहा है! नसरुद्दीन ने कहा कि तुम चुप क्यों नहीं बैठते? तुम्हारी सिगरेट से तुम्हारा कोट जल रहा है। मैं तो कुछ नहीं बोला!
यह आदमी थोड़ा संदेह पैदा करेगा, यह थोड़ा डर पैदा करेगा। तुम शांति से अखबार भी न पढ़ पाओगे इसके पास बैठ कर; इसी-इसी की याद आएगी। तुम्हें जगह बदलनी ही पड़ेगी।
अजनबी डराता है। क्यों? परिचित भले लगते हैं। क्यों? भय है। और हम चाहते हैं सुरक्षा, हम चाहते हैं जाना-माना एक घेरा। इसलिए तो जंगल में जाने में तुम डरते हो; बगीचे में जाने में डर नहीं लगता। बगीचा जाना माना है, आदमी का बनाया हुआ है, परिचित है। सीमा है उसकी, रास्ते हैं। भटकने का कोई कारण नहीं है। जंगल में न रास्ते हैं, न सीमा है; भटकने की पूरी सुविधा है। परमात्मा का बनाया है और विराट है। इसलिए तो आदमी धीरे-धीरे-धीरे आदमी की बनाई हुई धारणाओं में जीने लगा। वह बगीचों की भांति है।
सत्य में जाने से डर लगता है; वह परमात्मा का विराट जंगल है। वहां तुम बचोगे, लौट पाओगे? कहना मुश्किल है। लौटोगे तो तुम ही लौटोगे--यह भी कहना मुश्किल है। वहां जो गया, वह वही तो नहीं लौटता है, जैसा जाता है।
हमने बुद्ध को जाते और लौटते देखा। हमने महावीर को जाते और लौटते देखा। उन सबसे हम भयभीत हो गए हैं। हम पूजा कितनी ही करें, जाकर महावीर के सामने कितना ही सिर पटकें, लेकिन हम भयभीत हो गए हैं। क्योंकि जिन लोगों को हमने उस अनंत के रास्ते पर जाते देखा और वे लौटे, हमने पाया कि वे बिलकुल दूसरे हो गए। उनका हमसे कोई तालमेल न रहा। उनसे हमारे सब संबंध टूट गए। वे हमारे लिए बड़े से बड़े अजनबी, आउटसाइडर्स हो गए।
वह बुद्ध और महावीर की पूजा भी हमारी एक तरकीब है--परिचय बनाने की। उनसे इस तरह हम परिचय बनाते हैं। हम कहते हैं, आप तीर्थंकर हो, बिलकुल ठीक, चौबीस तीर्थंकर होते हैं, आप चौबीसवें हो। हम अपने गणित में बिठा रहे हैं। अब कोई कह दे कि हम पच्चीसवें हैं, झगड़ा शुरू! क्योंकि चौबीस से ज्यादा हो ही नहीं सकते! हम खांचा बना रहे हैं। हम, जो अज्ञात उतरा है महावीर में, उसके लिए भी व्यवस्था दे रहे हैं, तर्क और गणित की। हम कबूतरों के खाने में उनको बिठा रहे हैं कि ठीक, तुम यहां बैठ जाओ, चौबीसवें तीर्थंकर... बिलकुल ठीक! तुम इस-इस तरह आचरण करो, क्योंकि तीर्थंकर ऐसा आचरण करता है! तुम इस तरह उठो, इस तरह बैठो; क्योंकि यह तीर्थंकर का ढंग है! जब वे हमारे ढांचे में बिलकुल हमें बैठे हुए मालूम पड़ेंगे, हम निश्चिंत हो गए; अब कोई डर न रहा।
डर की वजह से हम पूजा करते हैं। पूजा हमारा परिचय बनाने का ढंग है। तो जिन-जिन को हम पहले गाली देते हैं, उन-उन की पीछे पूजा करते हैं। जिन-जिन के खिलाफ हम लड़ते हैं पहले, लड़ते हैं हम इसलिए कि जब तक वे अजनबी रहते हैं। फिर धीरे-धीरे हम उनके साथ राजी हो जाते हैं, परिचय बना लेते हैं। और तब तक वे बेचारे जा चुके होते हैं। फिर उनकी मूर्तियों को रख कर हम पूजा करते हैं। लगता है, अभी तक हम डरे हैं। मैंने एक कहानी सुनी है। सुना है कि ईश्वर बहुत थका था एक दिन।... एक दिन क्या, वह रोज ही थकता होगा। इतना विराट गोरखधंधा है, थकता ही होगा! इतने-इतने उपद्रव हैं! तो उसके एक नौकर ने, एक दास ने, सलाह दी कि आप ऐसा करो, कुछ दिन छुट्टी पर चले जाओ। और बहुत दिन से आप पृथ्वी पर भी नहीं गए। एक दस-पंद्रह दिन के लिए विश्राम करना अच्छा होगा। तो उसने कहा कि नहीं, पृथ्वी पर जाने का मन नहीं है। क्योंकि दो हजार साल पहले गया था विश्राम करने, और एक यहूदी लड़की मेरी के प्रेम में पड़ गया। अभी तक लोगों ने उसकी चर्चा बंद नहीं की पृथ्वी पर; वे लोग अभी भी चर्चा कर रहे हैं। एक लड़का मेरा पैदा हो गया था वहां--जीसस। वह छोटा सा प्रेम का मामला था। छुट्टी पर गया था और लोग अभी तक चर्चा कर रहे हैं और किताबें लिखे जा रहे हैं। और कोई कहता है कि कुंआरी मेरी से पैदा हुआ जीसस, और कोई कुछ कहता है, कोई कुछ कहता है। वह बकवास अभी तक उन्होंने बंद नहीं की। तो वहां तो नहीं जाना चाहूंगा।
क्या होता है?
दो-दो हजार साल तक लोग क्यों व्यर्थ की चर्चा चलाते हैं? अभी तक हम जीसस के साथ परिचित नहीं हो पाए, इसलिए हमें चर्चा चलानी पड़ती है। अभी तक यह आदमी बेबूझ है। अभी तक इसके कई कोने अज्ञात हैं। अभी तक हम इसे पूरा का पूरा समझने में सफल नहीं हो पाए। अभी भी कुछ न कुछ हिस्से ऐसे हैं, जो हमें अंधेरे में ले जाते मालूम पड़ते हैं; इसलिए चर्चा जारी है। नई थीसिस, नये शोधग्रंथ, नये शास्त्र लिखे जाते हैं। जीसस पर कोई लाखों किताबें लिखी गईं हैं। और लोग लिखते ही चले जाते हैं। ऐसा लगता है कि यह आदमी हल नहीं हो पाएगा।
महावीर पर इतनी किताबें नहीं लिखी जातीं। क्योंकि महावीर का जीवन सीधा-साफ है। हम उनसे परिचित हो गए। सच तो यह है कि महावीर के संबंध में बहुत लिखने को है ही नहीं। थोड़े से तथ्य हैं और उनको हमने चुकता कर लिया इसलिए उन्हीं-उन्हीं को जैन बार-बार लिखे जाते हैं--कुछ है भी नहीं उनमें लिखने को अब।
लेकिन जीसस ज्यादा बेबूझ मालूम पड़ता है। क्योंकि किसी भी खांचे में बिठाना मुश्किल है। वेश्या के घर में ठहर जाता है। चोर के साथ रुक जाता है। जुआरी और शराबियों के साथ दोस्ती बना लेता है। इसका कुछ भरोसा नहीं। शुरू से ही कहानी गड़बड़ हो जाती है। ऐसी मां को पैदा हो जाता है, जो कुंआरी है। उपद्रव शुरू हुआ और अंत तक चलता जाता है। कुंआरी मां से पैदा होता है। और फांसी तक बहुत सेनसेशनल है। सारी कथा! और सारी कथा में कोने हैं जो कि अछूते रह गए हैं, जिनको कि समझना मुश्किल है। महावीर को हमने निपटा लिया है; सीधा-साधा जीवन है! हमने उन्हें एक ढांचे में बिठा दिया है। राम को हमने एक ढांचे में बिठा दिया है; सीधा-साधा जीवन है। कृष्ण को हम नहीं बिठा पाए इसलिए गीता पर टीकाएं लिखी जाती हैं। और कृष्ण पर चर्चा जारी रहेगी।
हमारी पूरी कोशिश है कि हमारी जानकारी से बड़ा जगत न हो। जहां-जहां हम पाते हैं, हमारी जानकारी से बड़ा है, वहीं हम ठिठक जाते हैं। और ध्यान रहे, जानकारी से बड़ा है। तुम्हारा जानना है ही क्या? जानने को अनंत शेष है।
और तुम अगर अनजान अपरिचित से भयभीत हो, तो तुम सत्य को कभी भी न जान पाओगे। इसलिए हम घूंघट डाल लेते हैं। जो-जो हमारी जानकारी के बाहर पड़ता है, उसको हम घूंघट से परदा कर लेते हैं। हम घूंघट के भीतर अपनी दुनिया को समा लेते हैं, जो हमारी जानकारी है, हमारी सीमा है, घूंघट के बाहर उसको डाल देते हैं, जो हमारी सीमा के बाहर है।
मनस्विद कहते हैं, इसीलिए हमारे भीतर चेतना दो हिस्सों में खंडित हो गई है: एक जिसको चेतन, कांशस कहते हैं; दूसरा अचेतन, जिसको अनकांशस कहते हैं। उन दोनों के बीच में जो परदा है, वही घूंघट है।
चेतना तो एक है। लेकिन हमने उसके छोटे से साफ सुथरे हिस्से को, जंगल के एक कोने को साफ कर लिया है। झाड़ काट दिए, सीमा बना ली, फेंसिंग लगा दी। छोटा सा हिस्सा, दसवां हिस्सा हमने अपनी चेतना का साफ-सुथरा कर लिया है। वहां नीति है, धर्म हैं, आदर्श हैं, सिद्धांत हैं, शास्त्र हैं, गुरु हैं, मंदिर, पूजा, प्रार्थना--वहां हमने सब जमा दिया है। उससे नौ गुना बड़ा अनंत विस्तार वाला भीतर अचेतन है: उसके और इस चेतन के बीच हमने एक पर्दा डाल दिया, ताकि ना वह दिखाई पड़े... क्योंकि हमारे भी तर्क वही हैं जो शुतुरमुर्ग के हैं। शुतुरमुर्ग दुश्मन को आता देख कर रेत में सिर को छिपा कर खड़ा हो जाता है और सोचता है, जो दिखाई नहीं पड़ता वह है नहीं। यही तो हम भी कहते हैं कि कहां है परमात्मा? पहले दिखाओ तब हम मानेंगे। जो दिखाई पड़ता है, वह है; जो नहीं दिखाई पड़ता है, वह नहीं है! शुतुरमुर्ग बिलकुल नास्तिक है, पक्का! वह सिर को छिपा लेता है रेत में। वह कहता है: न दुश्मन दिखाई पड़ता, न हो सकता है। हो तो दिखाओ!
अचेतन का डर है हमें, तो हमने पर्दा कर लिया, और हम साफ-सुथरे जमीन में रहते हैं। कभी-कभी अचेतन धक्के देता है। कभी-कभी कहीं से घूंघट सरक जाता है। कहीं से व्यवस्था टूट जाती है। तो उस आदमी को हम पागल कहते हैं कि यह आदमी पागल हो गया। लेकिन हमें पता नहीं कि वह पागल हो ही इसलिए गया है कि उसकी जानकारी की सीमा में अज्ञात प्रवेश कर गया।
मैं अभी एक किताब पढ़ रहा हूं एलीवेसेल की--एक यहूदी विचारक। दूसरे महायुद्ध में जर्मनी में उसके मां-बाप, भाई-बहिन सब मारे गए। अकेला वह किसी तरह बच निकला--छोटा सा लड़का! तो वह अपनी यात्रा का वर्णन कर रहा है कि जब उन्हें एक यात्रा की ट्रेन में, एक शिविर में ले जाया गया, जहां सभी को जला दिया जाना है... सब शंकित हैं, लेकिन कोई उपाय नहीं है भागने का। और लाखों लोग हिटलर ने जलाए। उसने बड़ी-बड़ी भट्ठियां बनवाई, ऐसी भट्ठियां कभी नहीं बनाई गईं।
तैमूर, चंगीज सब बचकाने साबित हो गए। क्योंकि उसने ऐसी भट्ठियां बनवाईं, जिसमें दस हजार लोग एक साथ डाल दो और राख हो जाएं, एक सेकेंड में। विद्युत की भट्ठियां! ट्रेन उस तरफ बढ़ रही है। सब लोग परेशान हैं। लेकिन आदमी अपने को किसी तरह आश्वासन देता है कि कुछ न कुछ हो जाएगा; कोई चमत्कार होगा, आज्ञा रद्द हो जाएगी; ऐसा होगा, वैसा होगा... लोग चर्चा कर रहे हैं और बंद कारागृह जैसी ट्रेन में जा रहे हैं।
एक स्त्री पागल हो गई। एक छोटा बच्चा और स्त्री, वे दोनों हैं, वे पागल हो गए। वह बेटा तक उसे समझाने की कोशिश करता है कि मां, घबड़ाओ मत, जल्दी पिताजी से मिलना होगा। चिल्लाओ मत, रोओ मत, जल्दी ही सब ठीक हो जाएगा! और वह स्त्री बार-बार चीखती है कि देखो, लपटें दिखाई पड़ रही हैं! देखते हो, चिमनी आकाश में उठी है! लोग एकदम घबड़ा कर, यह जान कर कि वह पागल है, खिड़की से झांक कर देखते हैं। न कोई चिमनी है, न कोई लपटें उठी जा रही हैं, न कोई लपटें दिखाई पड़ रही हैं। फिर उसको लोग डांटते हैं कि तू चुप रह। पर उसका पागलपन बढ़ता जाता है। फिर लोग उसे मारते हैं, चुप करने को। उसे कितना ही मारते हैं, लेकिन वह खिलखिला कर हंसती, वह कहती, तुम मुझे कितना ही मारो, लेकिन चिमनी है, लपटें उठ रही हैं, हजारों लोग जल रहे हैं! तुम्हें बास नहीं आती? लोग डर के मारे सूंघते भी हैं, लेकिन कोई बास नहीं है। फिर लोगों के पास एक ही उपाय है--जब भी वह चिल्लाती, क्योंकि वह उनके भीतर के भय को भी जगाती और अचेतन उनका भी चेतन में प्रवेश करता है। वह भी घबड़ा तो रहे हैं खुद: पता नहीं, क्या होने को है! और यह औरत एक और मुसीबत हो गई है। यह घाव को छूती है बार-बार। तो वे उसके सिर पर डंडों से मारते हैं। वह जब बेहोश हो जाती तो चुप रहती है, और जब होश में आती है, तब वह फिर खिलखिला कर हंसती है और कहती है देखो, सचेत हो जाओ, भाग खड़े होओ, अभी वक्त है! मगर धीरे-धीरे लोग समझ गए कि वह पागल है; उसकी बातों पर कोई ध्यान देने की जरूरत नहीं।
तीसरे दिन सुबह ट्रेन जब स्टेशन पर जाकर लगी शिविर के और लोगों ने बाहर देखा, तो चिमनी जल रही है, और लपटें उठ रही हैं। और ठीक जैसा वर्णन वह स्त्री कर रही थी, वैसी ही लपटें हैं, वैसी ही चिमनी है। और वह पागल थी! और वे सब होश में थे।
पागल को अक्सर वे बातें दिखाई पड़नी शुरू हो जाती हैं जो तुम्हें दिखाई नहीं पड़तीं। और पागल को अक्सर भविष्य झांकने लगता है, जो तुम्हें नहीं झांकता। और पागल को ऐसे सत्य उदभूत होने लगते हैं, जो तुम्हें नहीं होते। लेकिन कोई पागलों पर ध्यान नहीं देता।
नई शोधें यह कहती हैं कि दुनिया में जितने पागल हैं, उनमें से नब्बे प्रतिशत पागल वस्तुतः पागल नहीं हैं; उनके चेतन और अचेतन के बीच का पर्दा टूट गया है। और सारा मनोविज्ञान इतनी ही कोशिश करता है कि पर्दे को फिर से बना दे, तो वे फिर सामान्य आदमी हो जाएं। पर्दा तो उठाने को कबीर भी कहते हैं। तो दुनिया में पर्दा उठाने के दो ढंग हैं।
एक तो यह है कि पर्दा तुम्हारी समझ के बिना उठ जाए, तो तुम पागल हो जाओगे; अगर तुम्हारी समझ के साथ उठ जाए तो तुम परमहंस हो जाओगे। अगर पर्दा अपने आप किसी तरह सरक जाए तो अचेतन टूट पड़ेगा तुम्हारे चेतन पर। अंधेरा भर जाएगा तुम्हारी रोशनी से भरे घर में। तुम्हारी सब सीमाएं अस्त-व्यस्त हो जाएंगी, एक भूकंप आ जाएगा। तब तुम विक्षिप्त हो जाओगे। और अगर होशपूर्वक, जुगत से तुम खुद ही घूंघट को उठाओ--होशपूर्वक, जान कर, समझपूर्वक एक-एक कदम उठाओ--तो तुम विमुक्त हो जाओगे। विक्षिप्त या विमुक्त--दो घटनाएं घट सकती हैं पर्दे के टूटने से। शायद हम इसीलिए डरते भी हैं कि घूंघट को उठाया और कहीं पागल हो गए...!
मैंने जो ध्यान की विधियां खोजी हैं, वे सब ऐसी हैं जिनमें तुम जुगत से पर्दा उठा सको। वे सब समझपूर्वक पागल होने की विधियां हैं।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, यह क्या पागलपन करवा रहे हैं। मैं उनको कहता हूं, जान कर ही करवा रहा हूं। यही तुम्हारा भय है कि कहीं पागल न हो जाओ। तो मैं तुम्हें जान कर करवा रहा हूं, ताकि तुम जान कर पागल हो सको, जान कर वापस लौट सको। जान कर चेतन में आ जाओ और जान कर अचेतन में चले जाओ, बीच का घूंघट हटाने की कला तुम्हें आ जाए। फिर तुम कभी पागल न हो सकोगे।
इसलिए परमसंतों में और पागलों में थोड़ा सा तालमेल होता है। और अक्सर लोगों को वे पागल मालूम पड़ते हैं--अक्सर पागल मालूम पड़ते हैं। एक बात का तालमेल होता है कि दोनों के घूंघट उठ गए। पागल का अचेतना में उठ गया है। परमहंस का जान-बूझ कर उठाया गया है। इसलिए दोनों में एक बात समान है कि दोनों के घूंघट हट गए हैं।
अगर तुम पागल होने से बचना चाहो तो परमहंस होने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। क्योंकि तुम जहां खड़े हो वहां किसी भी दिन घूंघट टूट सकता है। तुम ठेठ बीच में खड़े हो। और तुम अगर अनजाने गिर गए पागलपन में तो तुम्हें वापस लाना बहुत असंभव है। इसके पहले कि पागलपन में प्रवेश हो जाए, तुम खुद ही जाग जाओ और पागलपन में से गुजर जाओ। होशपूर्वक जो पागलपन से गुजर जाता है वह परमहंस हो जाता है। होशपूर्वक पागल हो जाना परमहंस होने की कला है।
कबीर कहते हैं:
घूंघट का पट खोल रे, तोको पीव मिलेंगे।
घट घट में वह साईं रमता, कटुक वचन मत बोल रे।।
घट-घट में, कण-कण में एक का ही वास है। जीवन तो एक है। कहीं वृक्ष हो गया, कहीं चट्टान है, कहीं चांद-तारा है; कहीं पशु-पक्षी है, कहीं मनुष्य है; कहीं विक्षिप्त है, कहीं विमुक्त है। जीवन तो एक है; रूप अनेक हैं। और सब रूपों के भीतर छिपा निराकार तो एक है। उसी से सब रूप पैदा होते हैं और सभी उसी में खो जाते हैं।
इसलिए कबीर कहते हैं: शत्रु को देखना बंद कर दे, शत्रु यहां कोई भी नहीं। अजनबी यहां कोई भी नहीं, अपरिचित यहां कोई भी नहीं... वही है! चोर में भी वही, साधु में भी वही। पापी में भी वही, पुण्यात्मा में भी वही। तो तू ‘कटुक वचन मत बोल रे।’
...कटुक वचन मत बोल रे।
तो प्रतीक है कि तू एक कठोर शब्द भी मत बोल। तू क्रोध को बीच में मत ला। घृणा को बीच में मत ला। ईर्ष्या, वैमनस्य को बीच में मत ला। क्योंकि घृणा तू किसको करेगा, क्रोधित तू किस पर होगा? वही एक है!
लेकिन यह तो घूंघट को सरकाने की विधि है। हम क्या करते हैं? हम तो घूंघट को मजबूत करते हैं। हमारी आम दृष्टि यह है कि सारी दुनिया हमारी दुश्मन है। चाहे तुम जान कर सोचते हो या नहीं, लेकिन तुम मानते हो कि सारी दुनिया तुम्हारी दुश्मन है। इस बड़ी, दुश्मनों की दुनिया में तुमने थोड़ा सा परिवार बना लिया है। पत्नी है, बच्चे हैं--ये अपने हैं, बाकी सब पराए हैं। यह परिवार भी धीरे-धीरे छोटा होता जाता है। कभी सौ-पचास लोग एक परिवार में रहते थे, वे अपने थे; अब परिवार में पांच ही लोग बचे हैं। पति है, पत्नी है, बच्चे हैं--वे भी पक्के नहीं मालूम पड़ते कि अपने हैं; क्योंकि तलाक हो सकता है, पत्नी किसी और की हो सकती है। वस्तुतः अगर तुम गौर से देखोगे तो तुम पाओगे कि तुम अकेले ही बचे हो। सारी दुनिया दुश्मन है! और तुम्हें सारी दुनिया से लड़ना है!
और यह शिक्षा, संस्कृति, समाज के संस्कारों का परिणाम है। क्योंकि सिखाया जा रहा है प्रतिस्पर्धा, काम्पिटीशन, लड़ो! क्योंकि तुम्हें भी वही पाना है जो दूसरों को पाना है। चीजें कम हैं, संघर्ष जरूरी है। एक-दूसरे की गर्दन को काटे बिना पहुंचोगे कैसे! एक-दूसरे को सीढ़ी बनाओ! एक-दूसरे के सिर पर पैर रखो और ऊपर चढ़ो! ऊपर चढ़ने का एक ही उपाय है कि लड़ो! अगर तुम जरा चूके, जरा शिथिल हुए, विनम्र हुए, नम्र हुए, भटक जाओगे, फिर पहुंच न पाओगे। संघर्ष कठिन है। और हर आदमी दुश्मन है।
जब हर आदमी दुश्मन दिखाई पड़े तो पर्दा, घूंघट मजबूत होता जाएगा। तब तुम जब तक कारण न मिल जाएं, किसी को मित्र नहीं कहते। लेकिन शत्रु तो सब हैं ही--अकारण। जब तक बिलकुल सिद्ध न हो जाए कि यह मित्र है, तब तक तुम किसी को मित्र नहीं मानते। लेकिन शत्रु बिना सिद्ध किए सभी हैं।
कबीर ठीक उलटी बात कह रहे हैं। वे कह रहे हैं कि जब तक सिद्ध ही न हो जाए कि कोई शत्रु है तब तक तो कम से कम मित्र देखो! लेकिन बड़े मजे की बात है, एक आदमी चोरी कर ले तुम्हारी, सारी मनुष्यता चोर हो जाती है। उस दिन से फिर तुम्हारा मनुष्य पर विश्वास उठ जाता है। चार अरब मनुष्य हैं दुनिया में, और एक आदमी ने चोरी कर ली, और चार अरब मनुष्य चोर हो गए! अब तुम किसी पर भरोसा नहीं कर सकते। जिसने चोरी की उस पर मत करो, एक को छोड़ दो; लेकिन एक को छोड़ कर जो बचते हैं, चार अरब मनुष्य, इन्होंने तो कुछ नहीं किया।
एक मुसलमान ने तुम्हारे साथ कुछ बुरा कर दिया, सारे मुसलमान बुरे हो गए! एक हिंदू ने तुम्हें धोखा दे दिया, सारे हिंदू खराब हो गए। एक जैन बेईमान निकल गया, सारे जैन बेईमान हो गए। जैसे तुम तैयार ही बैठे हो सभी को दुश्मन मानने के लिए! एक सिद्ध कर देता है, सब सिद्ध हो जाते हैं। लेकिन एक आदमी अच्छा हो, उससे सब अच्छे नहीं होते सिद्ध। यह बड़े मजे की बात है। एक मुसलमान तुम्हें कितनी ही सहायता दे, और कितना ही अच्छा हो, साधु हो, मृत्यु के क्षण में दांव पर अपने को लगा दे, तो भी सब मुसलमान साधु नहीं होंगे। तुम कहोगे, यह अच्छा आदमी, बाकी सब बेईमान।
मैं यह कहना चाह रहा हूं कि तुम मान कर ही चलते हो कि सब शत्रु हैं। और जब तुम यह मान कर चलते हो, तो तुम्हारा घूंघट मजबूत होता है। इस घूंघट को तोड़ने का उपाय है कि तुम दूसरे के प्रति जो दुर्भाव है, उसे गिराओ।
महावीर दुर्भाव को गिराने को अहिंसा कहते हैं। बुद्ध दुर्भाव को गिराने को करुणा कहते हैं। क्राइस्ट दुर्भाव को गिराने को सेवा कहते हैं। वे सब शब्दों के भेद हैं। एक बात पक्की है कि दूसरे में तुम दुश्मन मत देखो; क्योंकि--घट-घट में साईं रमता! वह एक ही सबमें रमा हुआ है, तुम उसको ही देखो। वही प्रियतम सबमें छाया हुआ है। सब हृदय की धड़कनों में, सब श्वासों की श्वास में!
...कटुक वचन मत बोल रे।
धन जोवन को गरब न कीजै, झूठा पचरंग चोल रे।
अकड़...! बहाने अनेक, अकड़ एक है। कोई धन से अकड़ा है, कोई पद से अकड़ा है। कोई ज्ञान से अकड़ा है, कोई त्याग से अकड़ा है। कोई इसलिए अकड़ा है कि मैं जवान हूं। कोई इसलिए अकड़ा है कि मैं शक्तिशाली हूं। जितनी अकड़ उतना घूंघट मजबूत। जितना अहंकार, उतना घूंघट मजबूत, पत्थर का हो जाएगा। जितनी अकड़ कम, उतना घूंघट कमजोर, तो अकड़ करने योग्य भी क्या है? जवानी रुकती कहां? तुम अकड़ भी न पाओगे, जवानी चली जाएगी! हवा का झोंका है--आया और गया! और जो सदा नहीं रहने वाला उस पर अकड़ना क्या!
अब यह बड़े मजे की बात है कि जिन्होंने उसे खोज लिया जो सदा रहेगा, वे तो अकड़ते ही नहीं; और जिनके हाथ में हवा के झोंके बंधे हैं, मुट्ठी बांधे हुए हैं हवा के झोंके पर, वे अकड़े जा रहे हैं!
धन का क्या करोगे? धन से क्या पा लोगे?... क्षुद्र मिल सकता है, मिलता है! विराट तो खरीदा नहीं जा सकता।
अकड़ क्या है?
धनी से ज्यादा गरीब आदमी कहां है! धन है पास में, और तो कुछ भी नहीं है। तो धन बोझ ही हो जाएगा। और कितनी देर पास में होगा! आज है, कल नहीं होगा। मृत्यु तो छीन ही लेगी। जवानी... कितने लोग तुमसे पहले जवान नहीं रहे! कितने लोग जवानी में अकड़े नहीं! और कितने लोगों ने जवानी में ऐसा नहीं समझा कि बस, अद्वितीय हैं वे! जैसे सदा यह जवानी रहेगी! हवा का एक झोंका, या पानी की एक लहर...।
समुद्र के किनारे जाकर देखो, कोई पानी की लहर बड़े जोर से उठती है, बड़ी अकड़ कर उठती है--उठ भी नहीं पाई कि गिरना शुरू हो जाती है।
इधर तुम जवान हो भी नहीं पाए कि बुढ़ापा आना शुरू हो जाता है; जवानी जैसे बुढ़ापे के आने का ढंग है; जवानी जैसे द्वार है, जिससे बुढ़ापा आता है। किस बात से अकड़े हो? जीवन से अकड़े हो? इस जीवन के पीछे सिवाय मौत के और कुछ भी नहीं है। यह सारा जीवन जाएगा तो मौत के गड्ढे में। सब रास्ते रोम जाते हों या न जाते हों, मरघट जरूर जाते हैं।
कबीर का एक वचन है: ‘ई मुर्दन के गांव।’
कबीर कहते हैं: यह गांव, जहां तुम बसे हो, तुम समझते हो जीवन है? मुझे दिखाई पड़ता है, तुम सब मुर्दे हो। मुर्दे ही हैं--क्यू में खड़े; जब जिसकी बारी आ जाए। कोई जरा जल्दी, जो क्यू में आगे था। और बड़ा मजा यह है कि क्यू में आगे पहुंचने की कोशिश कर रहे हैं कि किस तरह नंबर एक खड़े हो जाएं। मुर्दे हैं! मरना ही है जब यहां, तो इन बस्तियों को तुम बस्तियां मत कहो, मरघट कहो। देर-अबेर है... क्योंकि मरघट पर जगह खाली नहीं है। वहां लाइन लगानी पड़ती है। जब तुम्हारा समय आएगा, सुविधा होगी, कब्र खाली मिलेगी, तुम भी पहुंच जाओगे। तुम जा कहां रहे हो--सिवाय मृत्यु के और कहीं भी नहीं! रास्ते अलग-अलग, दिशाएं भिन्न-भिन्न, हाथ तो मौत आती है। गर्व करने योग्य है भी क्या!
धन जोवन को गर्व न कीजै,...
क्योंकि अगर इसका गर्व किया, अकड़े तो पर्दा मजबूत होगा। अगर तुमने देखा कि यह सब तो पानी पर खींची गई लकीर है, खिंच भी नहीं पाती और मिट जाती है, और गर्व छोड़ दिया--तो तुम पाओगे कि पर्दा हटने लगा, घूंघट सरकने लगा।
धन जोवन को गरब न कीजै, झूठा पचरंग चोल रे।
और ये जो पांच रंग, पांच तत्वों से बनी हुई काया है, यह बिलकुल झूठी है--सपने जैसी है। माना कि सपना काफी दिन चलता है, सत्तर साल चलता है, पर समय का ही फर्क है। सपना सात मिनट चले कि सत्तर साल, क्या फर्क पड़ता है।
कभी तुमने खयाल किया, रात सपने में सात मिनट में सत्तर साल हो सकते हैं। सात मिनट सपना चले, और सत्तर साल का जीवन उसमें बीत जाए। क्या फर्क है? सुबह उठ कर तुम कहो, हद हो गई, पूरा जीवन बचपन से लेकर मरने तक, सात मिनट में बीत गया! कभी-कभी कुर्सी पर बैठे तुम्हें झपकी लग जाती है, झपकी लगी तब तुमने घड़ी देखी कि बारह बजे थे। झपकी जब खुली तब तुमने घड़ी देखी कि बारह बज कर एक मिनट। एक ही मिनट हुआ और भीतर तुमने इतना बड़ा सपना देखा कि जो एक मिनट में कैसे समा गया! अगर तुम उस सपने को बोलो भी, तो भी दस मिनट लगते हैं। अगर तुम किसी को बताओ भी कि क्या-क्या देखा, तो भी दस मिनट लगते हैं। वह एक मिनट में समा कैसे गया! एक क्षण में भी पूरा जीवन समा सकता है।
मनोवैज्ञानिकों की कुछ खोजें इस बात की तरफ इशारा करती हैं कि जीवन की लंबाई से कोई फर्क नहीं पड़ता। कुछ पक्षी हैं, पांच साल जीते हैं। कुछ कीड़े-पतंगे हैं, चार माह जीते हैं। कोई पतंगा है, एक सांझ जीता है--बारह घंटे ज्यादा से ज्यादा। लेकिन बारह घंटे में वह उतना ही जी लेता है जितना तुम सत्तर साल में जीते हो। प्रेम में पड़ता है, बच्चे पैदा करता है, अंडे रखता है, घर-गृहस्थी सम्हालता है, चिंता-फिकर में पड़ता है... संघर्ष, लड़ाई, झगड़े--सब होता है। बारह घंटे में सब पूरा हो जाता है और मर जाता है। अगर ठीक समझो तो तुमसे ज्यादा कुशल है, क्योंकि तुम जो काम सत्तर साल में कर पाते हो, वह बारह घंटे में कर देता है। इफिसिएंसी तो उसकी ही ज्यादा है। कुशलता तो उसी की ज्यादा है। सब कर देता है। कुछ बचता नहीं करने को, सब पूरा हो जाता है।
सत्तर साल चले सपना कि सात क्षण चले--क्या फर्क पड़ता है! सपना सपना है। समय की लंबाई सपने को सत्य नहीं बना सकती। फिर सपने और सत्य में फर्क क्या है? सत्य और सपने का एक ही फर्क है। सपना--जो कभी शुरू हो और कभी अंत हो; और सत्य--जो न कभी शुरू हो और न कभी अंत हो।
गर्व ही करना है तो सत्य को खोजो, उसका करो। और जिसने उसको पा लिया वह तो कभी गर्व करता नहीं। तुम सपने हाथ में लिए घूमते हो और बड़े अकड़े हुए हो।
धन जोवन को गरब न कीजै, झूठा पचरंग चोल रे।
सुन्न महल में दियना बारिले, आसन सों मत डोल रे।।
यह बड़ा बहुमूल्य वचन है। यह सारा सार है सभी संतों का।
सुन्न महल में दियना बारिले,...
भीतर तेरा जो शून्य का भवन है, उसमें ज्ञान का, प्रकाश का दीया बार ले। वह तेरे भीतर जो शांत शून्यता है, उस शांत शून्यता में तू जागरूक हो जा।
सुन्न महल में दियना बारिले, आसन सों मत डोल रे।
और उस दीये को जलाने के दो अनिवार्य चरण हैं। एक, कि तू अडोल हो जा।
...आसन सों मत डोल रे।
जापान में झेन फकीरों ने एक पद्धति विकसित की, जिसको वे ‘झाझेन’ कहते हैं। झाझेन का मतलब होता है: जस्ट सिटिंग, डूइंग नथिंग। बस बैठे रहना, कुछ करना नहीं। सिर्फ एक ही ध्यान रखना कि आसन डोले न। बड़ी कीमती है।
अगर तुम शरीर को बिना डोले थोड़ी देर बैठने में समर्थ हो जाओ, जैसे-जैसे शरीर का डोलना बंद होगा, वैसे-वैसे मन का डोलना बंद हो जाएगा। क्योंकि शरीर और मन दो चीजें नहीं, एक ही चीज के दो पहलू हैं। जब शरीर नहीं डोलता तो मन कैसे डोलेगा। या मन न तो डोले तो शरीर का डोलना रुक जाता है। कहीं से भी शुरू करो, लेकिन अडोल हो जाओ। जिसको झाझेन कहते हैं वह, उसी को कबीर ने कहा है: ‘आसन सों मत डोल रे।’ बैठ जाओ बिना डोले, कुछ मत करो! एक ही खयाल रखो कि जरा भी कंपन न बचे। शरीर ऐसे हो जाए जैसे पत्थर की मूर्ति। इस शरीर के पत्थर की मूर्ति होने में ही तुम पाओगे कि पहले मन शिथिल होगा, विचार कम होंगे, कम होंगे, कम होंगे...। कभी-कभी एक क्षण को जब शरीर बिलकुल अडोल होगा, उसी वक्त विचार भी खो जाएंगे, शून्य हो जाएगा। यह पहला चरण। अडोल होकर तुम शून्य महल का द्वार खोल लोगे।
और तब दूसरा चरण, कि शून्य महल में जाग जाओ। उसमें पूर्ण विवेक को उपलब्ध हो जाओ। देखो, होश को सम्हाल लो। जागरूक! सो मत जाओ!
सुन्न महल में दियना बारिले, आसन सों मत डोल रे।
क्योंकि सो भी सकते हो। अगर सो गए तो चूक गए। क्योंकि अगर तुम बिना देखे ही शून्य हो गए, तो शून्य तुम्हारा अनुभव न हो पाया। तुम दरवाजे तक पहुंचे और वहीं सो गए सीढ़ियों पर, महल में प्रवेश न हो पाया।
गहरी निद्रा में यही घटता है--शरीर अडोल हो जाता है। तुमने खयाल किया होगा जिस दिन नींद ठीक नहीं आती उस दिन तुम करवट बहुत बदलते हो। जिस दिन नींद ठीक आती है, उस दिन करवट कम बदलते हो। जिस दिन नींद सच में ही ठीक आती है--जिसे कहते हैं घोड़े बेच कर सो गए--उस दिन तुम करवट बदलते ही नहीं। क्योंकि शरीर अडोल हो जाता है। और जब शरीर अडोल हो जाता है तो भीतर स्वप्न शांत हो जाते हैं; तब सुषुप्ति आती है, जो स्वप्न-रहित निद्रा है। उस सुषुप्ति का एक क्षण भी सुबह ऐसा लगेगा कि परम आनंद और ताजगी हुई। लेकिन कोई तुमसे पूछे कि सिर्फ सोने से आनंद और ताजगी कैसे हो गई, तो तुम भी न बता पाओगे। तुम द्वार तक पहुंच गए थे सुन्न महल के, लेकिन सोए थे, दरवाजे से वापस आ गए, भीतर प्रवेश न कर पाए।
पतंजलि ने कहा है: समाधि और सुषुप्ति में एक ही अंतर है, अन्यथा दोनों समान हैं। वह अंतर है कि सुषुप्ति में तुम्हें होश नहीं होता, समाधि में होश होता है; अन्यथा सुषुप्ति ठीक समाधि जैसी है। क्योंकि पहला चरण तो वही है कि शरीर बिलकुल अडोल हो जाए, मन बिलकुल शून्य हो जाए। और दूसरा चरण यह है कि तुम जाग जाओ, होश से भर जाओ। फिर सुषुप्ति समाधि हो गई। फिर सोना ही परम जागना हो गया।
सुन्न महल में दियना बारिले, आसन सों मत डोल रे।।
जागू जुगत सों, रंगमहल में, पिय पायो अनमोल रे।
‘जागू जुगत सों’--जागने की जुगत से, जागने की तरकीब से--‘पिय पायो अनमोल रे।’
सुन्न महल में दियना बारिले, आसान सों मत डोल रे।।
जागू जुगत सों, रंगमहल में, पिय पायो अनमोल रे।
और फिर जाग जा वहां, फिर होश से देख उस शून्य के महल को। तत्क्षण वह शून्य का महल रंगमहल हो जाता है। जागते ही शून्य नहीं रह जाता। परम भोग का द्वार खुल जाता है, परम आनंद का! इसलिए रंगमहल हो जाता है। राग-रंग, अनंत राग-रंग! क्योंकि जीवन एक उत्सव है। और परमात्मा सदा नाच रहा है, सदा गीत गा रहा है। परमात्मा एक आनंद है। वह आनंद का ही नृत्य है। तो जैसे ही तुम जागोगे, शून्य महल तत्क्षण रंगमहल हो जाता है।
जागू जुगत सों, रंगमहल में, पिय पायो अनमोल रे।
और न केवल शून्य का महल रंगमहल हो जाता है, उस रंगमहल में प्रियतम से मिलन हो जाता है।
कह कबीर आनंद भयो है, बाजत अनहद ढोल रे।
कबीर कहता है, परम आनंद हुआ है, और ऐसा ढोल बज रहा है, ऐसा संगीत बज रहा है, जो अनहद है।
‘अनहद’ बड़ा कीमती शब्द है। अनहद का मतलब है: जिसकी कोई हद नहीं, जिसकी कोई सीमा नहीं, जो बजता ही रहता है, जो सदा बजता रहा है; तुम जानो या न जानो, जो अभी भी बज रहा है; तुम नहीं थे, तब भी बजता था; तुम नहीं होओगे, तब भी बजता रहेगा! इस जगत का उत्सव तुम्हारे कारण नहीं चल रहा है। अनहद, यह उत्सव चलता ही रहा है। यह उत्सव चलता ही रहेगा! दिन हो कि रात, अंधेरा हो कि प्रकाश, सुबह हो कि सांझ, चांद-तारे हों कि सूरज--यह नृत्य चलता ही रहा है! सारा जगत नृत्य लीन है और एक अनहद ढोल बज रहा है।
कबीर उसको ‘ढोल’ कहते हैं। उसी को उपनिषदों ने ‘ओंकार’ कहा है। वही नाद, अनहद नाद, एक राग, एक संगीत, बिना किसी के बजाए बज रहा है। क्योंकि अगर कोई बजाएगा तो कभी थक भी जाएगा। कोई बजाएगा तो कभी रुक भी जाएगा। नहीं, बिना किसी के बजाए बज रहा है; कोई बजाने वाला नहीं।
बड़ी गहरी धारणा है, और धारणा यह है कि कोई नाचने वाला नहीं, नृत्य चल रहा है। क्योंकि नाचने वाला होगा तो कभी थकेगा, कभी विश्राम करेगा।
अस्तित्व एक नृत्य है--नर्तक वहां कोई भी नहीं। अस्तित्व सृजन है--स्रष्टा वहां कोई भी नहीं। व्यक्ति कोई भी नहीं है। जिस दिन तुम शून्य महल में प्रवेश करोगे, उसी क्षण तुम्हें दिखाई पड़ेगा कि यह अनहद नाद तो सदा चल रहा था। तुम बहरे थे। यह शून्य महल तो सदा ही रंगमहल था, तुम अंधे थे। और यह प्रियतम तो तुम्हारे भीतर ही बैठा था।
तुम ही हो प्रियतम, तुम ही हो प्रियतमा! किसी और से तुम्हारा मिलन होने को नहीं है--अपने से ही मिलन होना है!
कह कबीर आनंद भयो है, बाजत अनहद ढोल रे।
और जब तक ऐसा क्षण न आ जाए, जहां तुम भी कह सको--‘आनंद भयो है’--तब तक चेष्टा को शिथिल मत करना। और चेष्टा एक ही है, जुगत एक ही है: ‘जागु जुगत सों।’ एक ही चेष्टा है कि तुम जो भी कर रहे हो, होशपूर्वक करो। तुम इतने होशपूर्वक करो, जो भी कर रहे हो कि धीरे-धीरे होश की किरण तुम्हारी नींद में समा जाए। तब तुम्हारी सुषुप्ति समाधि बन जाएगी। तब तुम सोए-सोए जाग जाओगे। तब तुम सोए में ही जाग जाओगे। तब तुम पाओगे: सो भी रहे हो, जागे हुए भी हो। और जिस क्षण ऐसा घट जाएगा, उसी दिन तुम कहोगे:
आनंद भयो है, बाजत अनहद ढोल रे।
और जब तक ऐसी घड़ी न आ जाए, तब तक रुकना मत। क्योंकि बहुत से पड़ाव धोखा देते हैं कि मंजिल हैं। लेकिन जब तक तुम्हारा पूरा प्राण न कह दे कि आनंद भयो है, तुम नाचने न लगो और अनहद ढोल न सुनाई पड़ने लगे, कि सब तरफ एक राग-रंग है...
समझ लें।
यात्रा के प्रारंभ में आदमी शांति की तलाश करता है। शांति मिल जाएगी--अगर तुम सुन्न महल में सोये हुए भी प्रवेश कर गए, तो शांति मिल जाएगी। लेकिन वह पड़ाव है, मंजिल नहीं। नींद से भी शांति मिल जाती है। इसलिए तो डॉक्टर, चिकित्सक, मनोवैज्ञानिक, अगर तुम अशांत हो तो ट्रैंक्वेलाइजर देते हैं। नींद आ जाए तो शांत हो जाओ। अच्छी नींद आ जाए तो शांति आ जाएगी। पागल का भी एक ही इलाज है उनके पास कि ट्रैंक्वेलाइजर दें ताकि वह सो जाए। सो जाए तो शांत हो जाए। सोने से शांति मिल जाएगी। इसलिए धर्म का लक्ष्य शांति नहीं हो सकता। शांति तो सिर्फ प्राथमिक तैयारी है। वह तो सुन्न महल है। धर्म तो तभी पूरा होगा, जब वह रंगमहल हो जाए।
इसलिए आनंद लक्ष्य है, शांति नहीं। शांति तो निगेटिव है, नकारात्मक है। शांति का अर्थ है कि तनाव नहीं। परेशानी नहीं। लेकिन इतना क्या काफी है? इतना क्या काफी है कि तुम परेशान नहीं? इतने से तुम कैसे कहोगे, आनंद भयो है? इतना ही कहोगे कि दुख नहीं रहा। लेकिन दुख न होना कोई बड़ी उपलब्धि तो नहीं हुई। यह तो ऐसे ही हुआ कि पैर से कांटा निकल गया, लेकिन फूलों की वर्षा कहां हुई अभी?
शांति नकारात्मक है; वह पड़ाव है। आनंद विधायक है; वह लक्ष्य है। पहले शांति और शांति मिलेगी--अगर तुम--‘आसन सों मत डोल रे’--उसको साध लो।
यहां ध्यान के जो प्रयोग इस समाधि शिविर में चल रहे हैं, उन सबमें पहले तुम्हें डुलाने की चेष्टा है, ताकि शरीर डोल ले पूरा, मन भर कर। क्योंकि अगर शरीर में तनाव रह जाए, उत्तेजना रह जाए, तो जब तुम शांत खड़े या बैठे होओगे, तो वह उत्तेजना चहल-पहल करेगी, शरीर डोलना चाहेगा। इसलिए इन सारे प्रयोगों में पहले पूरी तरह डुला दो शरीर को, ताकि शरीर की आकांक्षा हल हो जाए। और तब तुम अगर थोड़े से क्षणों को भी अडोल हो गए, तो बस, शांति का पहला कदम पूरा हुआ। पर यह आधा है। आधी यात्रा हुई; आधी और बाकी है। इसलिए ध्यान का हर प्रयोग उत्सव, अहोभाव में पूरा होना चाहिए। ध्यान के हर प्रयोग के पीछे, शांति ही नहीं, आनंद की रसधार बहनी चाहिए, ताकि तुम नाचो और धन्यवाद दो, और तुम भी कह सको: ‘कह कबीर आनंद भयो है, अनहद बाजत ढोल रे।’
शांति--पहला पड़ाव; आनंद--लक्ष्य, वह अंतिम पड़ाव है। तुम जहां हो वहां अशांति है और दुख है। अशंाति तो शांति से मिट जाएगी; दुख शांति से न मिटेगा। दुख आनंद से मिटेगा। बुद्ध पहले लक्ष्य की बात करते हैं--शांति, शून्य; दूसरे की बात नहीं करते। इसलिए बुद्ध का विचार अधूरा है। वेदांत, शंकर, पूर्ण की बात करते हैं--आनंद की; विधायक अहोभाव की। इसलिए वेदांत बुद्ध के विचार से गहरा जाता है और पूरा है। बुद्ध पहले कदम हैं, शंकर मंजिल हैं। और कबीर ने दोनों को जोड़ दिया है। कबीर संगम हैं।
कबीर कहते हैं:
सुन्न महल में दियना बारिले,...
यह ‘सुन्न’ शब्द बुद्ध से आया है, क्योंकि बुद्ध ‘शून्य’ शब्द का बहुत प्रयोग करते हैं। वे कहते हैं: शून्य ही सब-कुछ है। शून्यता ही सिद्धावस्था है। यह सुन्न शब्द बुद्ध से आया है। ‘सुन्न महल में दियना बारि ले।’ और ‘दियना’ भी बुद्ध से आया है। क्योंकि वे भी कहते हैं कि दीया जला लो। आखिरी क्षण भी, मरते वक्त भी, अंतिम वचन भी उन्होंने--‘अप्प दीपो भव’--आनंद को कहा कि तू अपना दीया जला ले; अपना दीया खुद हो जा! ये दोनों शब्द बुद्ध से आए हैं।
सुन्न महल में दियना बारिले, आसन सों मत डोल रे।
लेकिन शेष हिस्सा वेदांत का है। यह पहला कदम बुद्ध, दूसरा कदम शंकर।
जागू जुगत सों, रंगमहल में, पिय पायो अनमोल रे।
कह कबीर आनंद भयो है, बाजत अनहद ढोल रे।।

आज इतना ही।

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