QUESTION & ANSWER
Sumiran Mera Hari Kare 09
Ninth Discourse from the series of 11 discourses - Sumiran Mera Hari Kare by Osho. These discourses were given during MAY 21-31 1980, Pune.
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पहला प्रश्न:
भगवान, आप अपनी मृत्यु की बात करते हैं तो मैं कांप जाती हूं। प्रभु, हमसे नहीं सुना जाता है। हम तो आपके बिना नहीं रह सकते हैं। यह सोच कर भी दिल दहल जाता है।
धर्म भारती! जीवन को न जानने के कारण मृत्यु का भय है। जैसे प्रकाश न हो तो अंधेरा होता है। प्रकाश हो, अंधेरा नहीं होता।
हम जीवित तो हैं, लेकिन ठीक-ठीक अर्थों में नहीं--मुर्दा-मुर्दा से, मरे-मरे से। हमारी बस्तियां मरघट से ज्यादा नहीं--मुर्दों के टीले हैं।
जीवन को जाना न हो तो कोई जीवित कैसे हो सकता है? और जीवन का अपरिचय ही मृत्यु का भय बन जाता है। स्वभावतः फिर अपनी मृत्यु का भय होता है; जिनसे हम प्रेम करते हैं उनकी मृत्यु का भय होता है। मृत्यु का ही नहीं, मृत्यु शब्द तक से मन कांप उठता है! पर नासमझी है।
मृत्यु बड़ा से बड़ा असत्य है। उससे बड़ा कोई और असत्य नहीं। दुनिया में दो ही असत्य हैं, और दोनों ही एक ही सिक्के के दो पहलू समझो। एक है अहंकार और दूसरा है मृत्यु। अहंकार पहला असत्य है। मृत्यु दूसरा असत्य है। अहंकार का अर्थ है: मैं पृथक हूं अस्तित्व से, जीवन से। बस यहीं से भ्रांति शुरू होती है। जैसे कोई लहर अपने को सागर से भिन्न मान ले। मान लेने से भिन्न हो नहीं जाती। मगर मान लेने से भय पैदा होता है कि कहीं मिट न जाऊं, कहीं सागर में खो न जाऊं! तो अपने को बचाने की कोशिश में लग जाती है। वही मनुष्य की चिंता है, संताप है।
लहर सागर है! मिट कर भी मिटेगी नहीं। बन कर भी बनी कहां? न कोई जन्म है, न कोई मृत्यु है। लहर केवल एक रूप मात्र है। इसलिए ज्ञानियों ने हमारे तथाकथित अस्तित्व को नाम-रूप कहा है। लहर एक नाम है। यूं तो सागर ही है। जरा गहरे झांको तो सागर को ही पाओगे। जरा डुबकी मारो, सागर ही मिलेगा। और लहर खोएगी कैसे? जब थी ही नहीं तो खोने का कोई उपाय नहीं है।
अहंकार हमारी पहली भ्रांति है। फिर अड़चनों का सिलसिला शुरू होता है। फिर चिंता पकड़ती है, कहीं मैं मिट न जाऊं! पहले तो मान बैठे कि मैं हूं। बिना सोचे-समझे मान बैठे कि मैं हूं। न देखा, न खोजा, न जांचा, न परखा। भीतर गए नहीं। बस मान लिया। एक विश्वास है कि मैं हूं, इससे ज्यादा नहीं। जिस दिन तुम जानोगे मैं हूं ही नहीं, उसी दिन मृत्यु भी मिट गई। फिर कौन मिटेगा? फिर परमात्मा है।
मैं को हम पकड़ते हैं जोर से। जितनी जोर से मैं को पकड़ते हैं, उतना ही भय छा जाता है। क्योंकि कहीं गहरे में, कहीं अचेतन में यह प्रतीति तो बनी ही रहती है कि मिटना होगा; हम जिसे पकड़े हैं, वह आभास है। लाख कोई अपने को धोखा दे, तिनकों के सहारे, सहारे नहीं होते। समझा लो भला थोड़ी देर मन को, पर देर-अबेर भ्रांति टूटेगी ही। रोज-रोज टूटती है...कोई मरता है, कोई अरथी निकलती है और तुम्हें भी पता चलता है--मरना होगा, यूं ही अरथी निकलेगी। न हम मरना चाहते हैं--न जिन्हें हम प्रेम करते हैं, चाहते हैं कि वे मरें। मगर मजा यह है कि मरता कोई कभी है ही नहीं। इसलिए चिंता बिलकुल व्यर्थ है।
चिंता यूं है जैसे नंगा नहाता नहीं--इस डर से कि नहाएगा तो निचोड़ेगा कहां, कपड़े सुखाएगा कहां? कपड़े हैं ही नहीं, लेकिन निचोड़ने और सुखाने की चिंता नहाने नहीं देती। नंगा तो जी भर के नहाए, क्या डर है? उसका क्या खो जाएगा?
पर हमने मान लिया है कि हम हैं। यह मनुष्य-जाति का मूलभूत पागलपन है। उसको ही तुम स्वभावतः मुझ पर भी आरोपित कर दोगे। मैं चाहता हूं कि तुम जागो इस भ्रांति से, इस सपने से। लेकिन तुम अपने सपने को मुझ पर ही आरोपित कर दोगे। मैं चाहता हूं तुम्हारी आसक्ति टूटे, मिटे; लेकिन तुम अपनी आसक्ति का जाल मुझ पर ही फेंक दोगे।
हमारे एक दोस्त थे--रामलाल राना।
मस्तक की मशीन में
जाने क्या गड़बड़ हुई।
खुद को समझने लगे
गेहूं का दाना!
जहां कहीं मुर्गा दिखे--डर जाएं
ये तो हमें खा लेगा
--जीते जी मर जाएं।
जहां कहीं बोरा दिखे
घबराएं, बिदक जाएं
कोई इसमें हमें भर लेगा।
बोरे को बंद कर लेगा,
और कहीं आटे की चक्की पड़ जाए दिखाई
तो वहां से भाग लेते राना भाई
यहां हो जाएगी हमारी पिसाई।
खैर, कुछ शुभचिंतकों ने
उनका दिमाग ठीक करने को,
एक फार्म भरवा दिया।
पागलखाने में दाखिल करवा दिया!
डॉक्टर ने समझाया--डियर राना!
तुम्हारे दो कान हैं, दो आंख हैं,
दो पैर हैं, दो हाथ हैं,
चलते हो, बोलते हो,
कैसे हो सकते हो गेहूं का दाना?
पर राना नहीं माना
सो नहीं माना।
खुद को समझता रहा गेहूं का दाना।
अस्पताल में एक वर्ष बीत गया
अचानक एक दिन राना
डॉक्टर से बोला--
डॉक्टर साब! मैं भी हूं कितना भोला!
देखिए तो--
मेरे दो कान हैं, दो आंख हैं,
दो पैर हैं, दो हाथ हैं,
चलता हूं, बोलता हूं, आदमी हूं,
गेहूं का दाना कैसे हो सकता हूं?
अगर अब भी आप मुझे
गेहूं का दाना समझते हैं,
तो आपके दिमाग में ही
कुछ गड़बड़ है हुजूर
मेरा कुछ नहीं है कसूर!
डॉक्टर ने छुट्टी दे दी
आधा घंटे बाद राना फिर आया--
पसीने से लथपथ
कांपता हुआ, हांफता हुआ!
डॉक्टर ने पूछा--
क्या हुआ भई राना!
क्या फिर से खुद को समझने लगे
गेहूं का दाना!
--मैं तो अच्छी तरह समझ गया हूं
बिलकुल आदमी बन गया हूं साब!
लेकिन अभी,
मुर्गे की समझ नहीं आया।
सुनते हो मुझे, शायद समझ भी लेते हो बौद्धिक रूप से, लेकिन प्राणों की गहराई में बात नहीं उतर पाती। वहां अहंकार के साथ बहुत से स्वार्थ जुड़े हैं। वहां तो अहंकार की नई-नई आयोजनाएं चल रही हैं। वहां तो अहंकार कहता है: यूं सजाओ मुझे, यूं श्रृंगार करो! ऐसा धन, ऐसा पद, ऐसी प्रतिष्ठा...!
अहंकार नहीं है, यह मानो तो कैसे मानो? क्योंकि यह मान लो तो तुम्हारे जीवन की जो तथाकथित यात्रा चल रही है, यह पूरी की पूरी गिर जाए, तत्क्षण बिखर जाए। मृत्यु से तो तुम बचना चाहते हो। तुम भी चाहोगे कि मृत्यु न हो, मगर अहंकार को नहीं छोड़ सकते। यही विडंबना है। और जब तक अहंकार को पकड़े हो, मृत्यु से भाग नहीं सकते, बच नहीं सकते। अहंकार छोड़ नहीं सकते, क्योंकि वही तुम्हारे जीवन का सार है, सूत्र है। अहंकार को हटा लो, सब खेल बिखर जाता है। फिर न चुनाव है, न आपा-धापी है, न प्रतियोगिता है, न प्रतिस्पर्धा है, न जलन, न ईर्ष्या; न मैत्री, न द्वेष...सब खो जाता है। अहंकार के जाते ही सारा संसार तिरोहित हो जाता है। यह सारा संसार तुम्हारा अहंकार के वृक्ष पर ही लगे पत्ते हैं, उस पर ही खिले फूल। यह अहंकार की ही फड़फड़ाहट है।
और तुम डरते हो अहंकार नहीं है, तो फिर मैं करूंगा क्या? फिर बचता क्या है करने को! फिर लगेगा एक शून्य में डूबने लगे। उससे तो बेहतर है अहंकार में ही उलझे रहो। मगर मौत से डरते हो। और अहंकार के पीछे मौत आएगी ही आएगी। क्योंकि झूठ को कब तक सम्हालोगे? एक न एक दिन गिरेगा, टूटेगा, बिखरेगा।
मैं चाहता हूं कि तुम समझो--न तो मैं कभी जन्मा हूं, न कभी मरूंगा। जन्म भी एक घटना है जीवन में और मृत्यु भी एक घटना है। लहर का उठना, लहर का गिरना--दोनों घटनाएं हैं। उठने के पहले भी लहर है, गिरने के बाद भी लहर है। और जो मैं अपने संबंध में कह रहा हूं, वह तुम्हारे संबंध में भी कह रहा हूं। मैं अपने अनुभव से कह रहा हूं, तुम्हें अभी अनुभव करना है। अगर मैं तुम्हें अनुभव न करा सकूं तो मेरी मौजूदगी व्यर्थ, तुम्हारा मेरे साथ होना व्यर्थ।
धर्म भारती, तू कहती है: ‘आप अपनी मृत्यु की बात करते हैं तो मैं कांप जाती हूं।’
इसीलिए कांप जाती है कि अभी भी मृत्यु को मानती है। नहीं तो हंसती। कांपने का क्या था? कौन कब मरा है? लेकिन तुझे लगता है कि तू मर सकती है...तो फिर हम अपनी ही भ्रांतियां तो दूसरों पर आरोपित करते हैं। जो हम अपने संबंध में सोचते हैं, उसी गणित को हम फैला कर उनके संबंध में सोचते हैं जिनको हम प्रेम करते हैं। यह भी हो जाता है कि हम अपने प्रेमियों के प्रति इतने आसक्त हो सकते हैं कि खुद मरने को राजी हो जाएं।
न मालूम कितने पत्र आए हैं! मित्रों ने कहा कि हमारी उम्र आपको लग जाए। हम अपना जीवन आपको देना चाहते हैं। आपकी मृत्यु हमारी मृत्यु बन जाए और हमारा जीवन आपका जीवन।
तुम्हारे प्रेम को मैं समझा। तुम्हारी शुभाकांक्षा को समझा। लेकिन तुम्हारी भ्रांति भी है वहां। हम सब शाश्वत हैं, सनातन हैं। तुम भी सदा से यहां हो, मैं भी सदा से यहां हूं। न कोई कहीं गया है, न कहीं कोई आया है। इस भ्रांति को अब तोड़ो और जितने जल्दी तोड़ो, उतना अच्छा है।
तू कहती है: ‘प्रभु, हमसे यह नहीं सुना जाता है। अगर सुना भी नहीं जाता है तो देखा कैसे जाएगा?’
बुद्ध मरे। आखिर उनके शिष्यों को उनकी मृत्यु को देखना ही पड़ा। महावीर विदा हुए तो उनके शिष्यों को विदा देनी ही पड़ी, अलविदा कहना ही पड़ा। जीसस को सूली लगी। शिष्यों को देखना ही पड़ा; आंसू भरी आंखों से सही।
बुद्ध की मृत्यु के समय सिर्फ एक बुद्ध का शिष्य था, मंजुश्री, जो न कुछ बोला, न रोया, न चिंता प्रकट की। जिस वृक्ष के नीचे बैठा था, वहीं बैठा रहा। लोगों ने मंजुश्री को कहा कि पागल तो नहीं हो गए हो? सदमा क्या ऐसा पहुंचा? हम रो रहे हैं...दुख हलका हुआ जा रहा है। तुम रो भी नहीं रहे हो।
मंजुश्री ने कहा: रोए वह, जो जानता नहीं है। मैं क्यों रोऊं? सदमा मुझे पहुंचा नहीं। और यूं नहीं है कि मंजुश्री को बुद्ध से कुछ कम प्रेम था। शायद सर्वाधिक प्रेम था। मंजुश्री के ऊपर बुद्ध की जितनी अनुकंपा बरसी थी, शायद किसी और पर नहीं। मंजुश्री बुद्ध के उन पहले भिक्षुओं में एक था, जो समाधि को उपलब्ध हुए। बुद्ध मंजुश्री को देख कर आह्लादित हो जाते थे। वे सदा लोगों को कहते थे: मंजुश्री से सीखो। मंजुश्री ने जो पाया है, वह पाओ। उनके वचनों में जगह-जगह यह मुहावरा आता है--मंजूश्री की तलवार। तुम पढ़ोगे तो चौंकोगे कि मंजुश्री की तलवार यानी क्या! बुद्ध कहते थे: तलवार हो तो मंजुश्री जैसी होनी चाहिए, एक ही झटके में अपनी गर्दन काट डाली! देर नहीं की। क्रमिक, आहिस्ता-आहिस्ता नहीं, एक झटके में!
बुद्ध ने मुंजश्री को कहा: चुप हो जा, बस कुछ और नहीं करना है। तेरे भीतर शब्द खो जाएं।
मंजुश्री ने कहा: ठीक! बैठ गया एक वृक्ष के तले। नहीं उठा जब तक शब्द नहीं खो गए। और जब सारे शब्द खो गए...तो कथा बड़ी प्रीतिकर है--आकाश से देवता फूलों की वर्षा करने लगे। पूछा मंजुश्री ने...निश्चित ही यह पूछना शब्दों में नहीं हुआ। यह पूछना भाव का रहा। देवताओं से शब्दों की जरूरत भी नहीं है। हृदय से हृदय संबंधित हुआ। पूछा मंजुश्री ने निःशब्द मौन में: ये फूल किसलिए गिरा रहे हो? किस बात का उत्सव मना रहे हो? कौन सा महोत्सव है आज? कौन सी होली, कौन सी दीवाली?
देवताओं ने कहा: तुमने जो धर्म पर प्रवचन दिया, उसके लिए हम फूल बरसा रहे हैं।
मंजुश्री खूब हंसा। उसने कहा: मैं तो बोला ही नहीं, प्रवचन कैसा? धर्म पर प्रवचन कैसा?
तो देवताओं ने कहा: यही तो प्रवचन है धर्म पर कि तुम बोले नहीं। तुम यूं चुप हुए कि तुम्हारे भीतर शब्द की एक लहर भी न रही, तरंग भी न रही।
धर्म के बोलने का यही ढंग है--मौन से मुखर होता है धर्म। शून्य में संगीत बजता है धर्म का। शून्य ही उसकी वीणा है। उसके तारों पर ही छिड़ती है तान। ध्यान की यह परम अवस्था, यह समाधि ही बांसुरी है। इसी में उठता है वह गीत, वह अनाहत नाद, जिसको नानक कहते हैं--एक ओंकार सतनाम! वह ओंकार का नाद इसी शून्य में अपने से होता है, करना नहीं होता। रोएं-रोएं से प्रकट होने लगता है। पूरा व्यक्तित्व एक लयबद्ध संगीत में रूपांतरित हो जाता है।
देवताओं ने कहा: इसीलिए कि तुम बोले नहीं, हम फूल गिरा रहे हैं। ऐसी चुप्पी कभी-कभी घटती है: बुद्ध के बाद तुमको घटी है।
बुद्ध से आकर मंजुश्री ने कहा था: ये देवता भी बड़े पागल हैं! मैं तो चुप बैठा हूं और ये कहते हैं--तुमने धर्म पर प्रवचन दिया!
बुद्ध ने कहा: वे ठीक कहते हैं। वे पागल नहीं हैं। अभी तू नया-नया शून्य में प्रविष्ट हुआ है, इसलिए तुझे पता नहीं है। धीरे-धीरे अनुभव होगा। जैसे-जैसे शून्य गहन होगा, वैसे-वैसे और भी और फूल बरसेंगे। फूल ही फूल रह जाएंगे, कांटे सब खो जाते हैं। भाव ही भाव रह जाते हैं, सुगंध ही सुगंध।
यह मंजुश्री बुद्ध की मृत्यु पर चुपचाप बैठा रहा, वक्तव्य ही नहीं दिया। न अरथी में सम्मिलित हुआ, न अंतिम संस्कारों में। बहुत कहा औरों ने कि मंजुश्री, यह शोभा नहीं देता। मंजुश्री ने कहा: वे न कभी पैदा हुए, न मर सकते हैं। मैं उन्हें पहचानता हूं। वे अब भी वहीं हैं, जहां थे।
धर्म भारती, ऐसा ही मैं चाहूंगा, मंजुश्री की तलवार तुममें से बहुतों के हाथों में हो! तुम पर भी फूल बरसें! तुम्हारे भीतर भी मौन का अनाहत नाद उठे!
फिर अगर मैं तुमसे मृत्यु की बात न करूंगा तो कौन करेगा? इधर तुमसे कहूंगा अहंकार छोड़ो, उधर तुमसे कहूंगा मृत्यु एक झूठ है। अपने ही जीवन से मुझे तुम्हें जीवन की शिक्षा देनी होगी और अपनी ही मृत्यु से मुझे तुम्हें मृत्यु का संदेश देना होगा। और तो कोई उपाय भी नहीं है। ये घटनाएं अस्तित्वगत हैं।
पीड़ा तुम्हें होती है मोह के कारण, मृत्यु के कारण नहीं। आसक्ति के कारण। इस आसक्ति को थोड़ा ऊपर उठाओ, इसे थोड़ा प्रेम बनाओ, प्रार्थना बनाओ, इसे पंख दो। इसे आकाश में उड़ने दो।
आसक्ति तो यूं है जैसे बीज, बंद और प्रेम यूं है जैसे वृक्ष पर खिल आए फूल, मुक्त हो गई गंध, बिखर गई हवाओं में!
आसक्ति से ऊपर उठो। मैं सदा शरीर में नहीं हो सकता। और अच्छा है कि तुम्हें तैयार करूं कि तुम मेरे अशरीरी रूप से भी संबंधित होने लगो। अभी, जब कि मैं शरीर में हूं, तभी! तुम्हें धीरे-धीरे निष्णात करना है, प्रशिक्षित करना है। हर चुनौती का उपयोग कर लेना है, हर अवसर का! ऐसा उपयोग करना है कि सोने में सुगंध आने लगे।
दुख भी होगा, पीड़ा भी होगी तुम्हें--यह जानता हूं, यह स्वीकार करता हूं। लेकिन तुम्हारे आंसू भी शुभ हैं, क्योंकि तुम्हारी आंखों को स्वच्छ कर जाएंगे। तुम्हारी आंखें ज्यादा साफ देख सकेंगी।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, मुझे आश्चर्य है कि पूर्व-सदगुरु इतनी पिटाई नहीं किए जितनी कि आप कर रहे हैं, फिर भी हम लोग जागते नहीं और प्रश्न पर प्रश्न पूछते चले जाते हैं। कृपा कर बोध देने की अनुकंपा करें।
मोहन वेदांत! मनुष्य जैसा आज सोया है, ऐसा पहले कभी सोया भी नहीं था। इसलिए झकझोरना भी ज्यादा होगा। क्योंकि मनुष्य ने सोने के लिए सारी सुविधाएं जुटा ली हैं, सोने के सारे आयोजन जुटा लिए हैं। इतनी सुविधाएं न थीं कभी, इतने आयोजन न थे कभी।
आज जितने गहरे तुम सो सकते हो, इतना आदमी कभी नहीं सो सकता था। जीवन बहुत कंटकाकीर्ण था, बहुत दुखों से भरा था। विज्ञान ने, नये-नये तकनीकों ने, नई-नई खोजों ने मनुष्य के जीवन से बहुत सा दुख अलग कर लिया। ऊपर-ऊपर ही सही, परिधि पर ही सही, लेकिन मनुष्य को सुख के बहुत से आयोजन दे दिए, बहुत से खिलौने दे दिए हैं जिनमें उलझा रहे। इसलिए जगाने में उसके बहुत से खिलौनों को तोड़ना पड़ेगा। इतने खिलौने आदमी के पास पहले कभी थे ही नहीं। बुद्ध तोड़ते भी तो क्या तोड़ते? महावीर तोड़ते भी तो क्या तोड़ते?
महावीर और बुद्ध की बात सरलता से समझ में आ जाती थी कि जीवन दुख है। और आज भी पूरब के देशों में, जहां जीवन अभी भी महादुख है, नरक है, उनकी बात समझ में आ जाती है। लेकिन पश्चिम में जीवन दुख नहीं है, नरक नहीं है। और पूरब में भी, जिनमें थोड़ी बुद्धि है, उन्होंने जीवन से दुख को कम से कम कर लिया है। और जल्दी ही सारी पृथ्वी पर दुख क्षीण हो जाएगा। और मैं इसके विरोध में नहीं हूं कि दुख क्षीण न किया जाए, कि समृद्धि न बढ़े। मैं कोई दरिद्रनारायण का पक्षपाती नहीं हूं। मैं तो मानता हूं समृद्धि बढ़े।
बर्ट्रेंड रसल ने कहा है: अगर आदमी परिपूर्ण रूप से सुखी हो जाए, जैसा कि विज्ञान एक दिन आदमी को कर सकेगा, तो फिर किसी को धार्मिक होने की जरूरत न रह जाएगी।
उसकी बात में थोड़ी दूर तक सचाई है। अगर तुम्हारे जीवन में सब सुख हो तो तुम्हें बुद्ध की बात ठीक कैसे लगेगी कि जीवन दुख है, जन्म दुख है, जीवन दुख है, जरा दुख है, मृत्यु दुख है, दुख ही दुख है?
हजारों बीमारियां आदमी ने दूर कर ली हैं। न मालूम कितनी महामारियां समाप्त हो गईं! आए दिन प्लेग पड़ती थी, आधे-आधे देश मर जाते थे। अब तो प्लेग सुनी नहीं जाती, अब तो बात इतिहास की हो गई। काला ज्वर लाखों लोगों को मार डालता था। अब तो काला ज्वर सुना नहीं जाता। अब तो सिर्फ पूरब के देशों में तुम्हें कभी-कभी किसी बच्चे पर चेचक के दाग दिखाई पड़ेंगे। पश्चिम में किसी बच्चे के चेहरे पर चेचक के दाग दिखाई नहीं पड़ेंगे। पश्चिम में चेचक विदा हो गई; यहां भी विदा हो रही है। बीमारियां कम हुई हैं, स्वास्थ्य ज्यादा उपलब्ध हुआ है।
पांच हजार वर्ष पहले की जो भी अस्थियां मिली हैं, हड्डियां मिली हैं, उनसे एक बहुत हैरानी की बात पता चलती है कि कोई अस्थिपंजर चालीस वर्ष से ज्यादा उम्र का नहीं मिला। आमतौर से तुम यह सुनते हो कि प्राचीन समय में लोग खूब जीते थे, बड़ी उनकी लंबी आयु होती थी। बात सच नहीं मालूम पड़ती, क्योंकि चालीस साल से लंबी उम्र वाला कोई भी अस्थिपंजर नहीं मिला, अब तक नहीं मिला। लेकिन यह हो सकता है कि चालीस साल भी लंबे मालूम पड़ते हों। दुख में समय लंबा मालूम पड़ता है। और गिनती भी नहीं आती थी। आज भी दूर देहात में जाकर जहां गिनती नहीं आती, अगर लोगों से पूछो कि उनकी उम्र क्या है, तो उम्र नहीं बता सकते वे। न उन्हें पता है कब जन्मे, न उन्हें पता है कितनी उम्र बीत गई। अंदाज ही है बस। और ठेठ आदिवासियों को तो अंदाज भी नहीं होता। चालीस साल से ज्यादा कोई उम्र नहीं होती थी।
आज हालतें और हैं। आज अस्सी वर्ष तक पहुंच जाना बड़ी सरल बात है। नब्बे वर्ष भी बहुत कठिन नहीं है। सौ वर्ष के बहुत लोग हैं पृथ्वी पर। रूस जैसे देशों में जहां स्वास्थ्य ने बहुत प्रगति की है, डेढ़ सौ वर्ष की उम्र वाले हजारों लोग हैं। पौने दो सौ वर्ष और दो सौ वर्ष तक की उम्र तक पहुंचने वाले लोग रूस में मौजूद हैं। और यूं नहीं कि खाट पर पड़े हों कि अस्पतालों में पड़े हों, काम में संलग्न हैं। डेढ़ सौ साल के बूढ़े खेतों में, बगीचों में काम कर रहे हैं, जैसा कि जवान काम करता हो।
वैज्ञानिक कहते हैं कि आदमी का यह जो शरीर है इसकी क्षमता इतनी है कि इसे बड़ी आसानी से तीन सौ साल तक तो जिलाया ही जा सकता है। और ज्यादा भी सुविधाएं अगर उपलब्ध हुईं तो आदमी का शरीर जी सकता है। इसे इतना लंबाया जा सकता है, क्योंकि इसके भीतर स्वयं को बार-बार पुनरुज्जीवित कर लेने की क्षमता है।
तो रसल की बात में थोड़ी सी सचाई है। अगर जीवन से सब बीमारियां मिट जाएं, अगर जीवन से बुढ़ापा मिट जाए--जिसकी संभावना है। आने वाली सदी में बुढ़ापा अतीत की बात हो जाएगी। हममें से बहुत लोग अपने जीवन में यह देख सकेंगे कि बुढ़ापा अतीत की बात हो गई। क्योंकि बुढ़ापा एक खास चीज पर निर्भर है। आदमी जब पैदा होता है तो मां-बाप के जिन जीवाणुओं से मिल कर बनता है, उन जीवाणुओं में उम्र तय होती है। अगर उन जीवाणुओं के प्रोग्राम को बदला जा सके तो उम्र को कितना ही किया जा सकता है, कितना ही लंबाया जा सकता है। और विज्ञान धीरे-धीरे सफल हो रहा है कि उनकी अंतर्निहित प्रक्रिया को बदला जा सकता है। तो बुढ़ापे को काटा जा सकता है। फिर कौन मानेगा बुद्ध की बात कि बुढ़ापा दुख है! बुढ़ापा होगा नहीं। फिर कौन मानेगा कि जीवन पीड़ा है! जीवन बहुत सुखद हो सकता है। जीवन में नब्बे प्रतिशत दुख तो हम अपने कारण बनाए हुए हैं, जीवन में नहीं हैं।
मगर फिर भी मैं रसल से राजी नहीं हूं पूरा-पूरा, क्योंकि मेरा मानना है कि कितना ही जीवन सुखद हो जाए तो भी धर्म समाप्त नहीं हो जाएगा। हां, इतना ही होगा कि सदगुरुओं का काम थोड़ा जटिल हो जाएगा, थोड़ा कठिन हो जाएगा। लोगों को जगाने के लिए पुराने आदिम ढंग काम में नहीं आएंगे, नये ढंग काम में लाने होंगे। जैसे विज्ञान विधियां उपयोग करता है मनुष्य को सुलाने की सुख में, वैसा ही धर्म को भी विधियां उपयोग करनी पड़ेंगी जगाने की। मैं उन सारी विधियों पर ही प्रयोग कर रहा हूं। मेरी उत्सुकता सिर्फ तुममें ही नहीं है; मेरी उत्सुकता उनमें भी है जो तुम्हारे पीछे आने वाले हैं। मेरी उत्सुकता भविष्य में है।
इसलिए मेरा अतीत के धर्मों में बहुत रस नहीं है। उनके दिन लद गए। वह भाषा पुरानी पड़ गई। और भाषाएं पुरानी पड़ ही जाएंगी। वे सिद्धांत भी पुराने पड़ गए। अब हमें नई प्रक्रियाएं खोजगी होंगी। जीवन ही बदल गया, पूरा का पूरा जीवन बदल गया। अब हमें लोगों को जगाने के लिए भी नये आयोजन करने होंगे।
इसलिए यह आश्रम इस पृथ्वी पर अपने किस्म का अकेला आश्रम है। जिन प्रक्रियाओं से यहां संन्यासी गुजर रहे हैं, दुनिया में कहीं नहीं गुजर रहे हैं। कम से कम भारत में तो जो आश्रम हैं, वे उन्हीं पिटी-पिटाई लीकों पर चल रहे हैं। इसलिए वहां बूढ़ों को ही बात जमती है।
यहां लोग आकर चौंकते हैं। जब इतने युवक और युवतियों को देखते हैं तो उनको भरोसा नहीं आता: मुझसे आकर पूछते हैं कि इतने युवक और युवतियां धर्म में उत्सुक हों, इस पर हमें भरोसा नहीं आता। क्योंकि चर्चों में और मंदिरों में तो बूढ़े और बूढ़ियां दिखाई पड़ते हैं। उसका कारण है। उसका कारण है: चर्च और मंदिर की भाषा अत्यंत दकियानूसी हो गई है। वह सिर्फ बूढ़ों की समझ में आ पाती है--बूढ़े, जो कि समसामयिक नहीं हैं।
मैं जो भाषा बोल रहा हूं, वह शायद बूढ़ों की समझ में न आए। वह युवकों की समझ में ही आएगी।
इसलिए अब मैं यह नहीं कह रहा हूं कि जीवन दुख है और जीवन का त्याग कर दो। मैं यह कह रहा हूं कि जीवन महासुख है। जीवन को भोगो, जी भर कर भोगो। जीवन का सारा रस निचोड़ लो। जीवन में एक बूंद भी मत छोड़ो। और तभी तुम्हें पता चलेगा कि जब जीवन इतना रस है तो महाजीवन कितना रस न होगा!
पुराना धर्म कहता था: जीवन दुख है। इसलिए परमात्मा को खोजो, क्योंकि परमात्मा सुख है। मैं कहता हूं: जीवन सुख है। इसलिए परमात्मा को खोजो, क्योंकि परमात्मा महासुख है। इस भेद को समझना। यह भेद बुनियादी है, आधारभूत है। इसलिए दकियानूसी लोग अगर मुझसे नाराज हों तो आश्चर्य नहीं। उनका कसूर भी क्या! मैं उनकी नाराजगी समझ सकता हूं, क्योंकि मैं सारे मापदंड बदल रहा हूं। मैं नई धारणाएं स्थापित कर रहा हूं, नये मूल्य निर्धारित कर रहा हूं। मैं कह रहा हूं: जीवन सुख है। इतने से राजी मत हो जाना, क्योंकि अभी महासुख भी मिल सकता है। जीवन को सीढ़ी बनाओ। अगर यह शरीर का जीवन इतना सुख हो सकता है तो आत्मा का जीवन कितना सुख न होगा, इसकी थोड़ी कल्पना करो!
मैं तुम्हारी कल्पना पर निखार देना चाहता हूं। मैं तुम्हारे भीतर नई आशाओं के सूरज उगाना चाहता हूं। मैं तुम्हारे भीतर एक नई अभीप्सा को प्रज्वलित करना चाहता हूं। मैं तुम्हें भगोड़ा नहीं बनाना चाहता।
इसलिए स्वभावतः, तुम्हें जगाने के लिए मुझे बहुत झकझोरना पड़ेगा। क्योंकि मैं कहता हूं: जीवन सुख है। सुख में आदमी सो जाता है, दुख में सोना मुश्किल हो जाता है। तुम्हारे सिर में दर्द हो तो सोना मुश्किल हो जाता है। हां, दर्द को मिटाने की एक गोली ले लो, एस्प्रो ले लो, फिर नींद आ जाती है। एक कांटा भी पैर में चुभ रहा हो तो सोना मुश्किल हो जाता है। जरा सा भी दुख हो तो जागना आसान होता है, सोना कठिन होता है। और सुख हो तो जागना मुश्किल हो जाता है, सोना आसान हो जाता है।
और चूंकि मैं कह रहा हूं जीवन सुख है और मैं जीवन-विरोधी नहीं हूं, जीवन का पक्षपाती हूं; कहता हूं कि जीवन और परमात्मा पर्यायवाची हैं; परमात्मा महाजीवन है, जीवन उसका द्वार है; परमात्मा मंदिर है तो जीवन उसके मंदिर की सीढ़ियां हैं--तो फिर निश्चित ही मुझे जगाने के लिए खूब तुम्हें झकझोरना पड़ेगा। फिर दुख से तो कोई भी जागना चाहता है। एक तो सो नहीं सकता; अगर सो भी जाए तो जागना चाहता है। लेकिन सुख से नींद भी गहरी आती है और सोया हुआ आदमी जागना भी नहीं चाहता।
तुमने देखा, अगर तुम्हें दुखस्वप्न आता हो तो दुखस्वप्न तुम्हारी नींद को अपने आप तोड़ देता है! जैसे तुम देख रहे हो कि तुम गिर रहे हो पहाड़ से और अब टकराए चट्टान से, अब टकराए चट्टान से, बस टकराओगे और छितर-बितर हो जाओगे--नींद टूट जाएगी।...कि तुम देख रहे हो कि तुम्हारी छाती पर एक सिंह आकर बैठ गया है और बस अब तुम्हारी छाती को चीरने-फाड़ने की तैयारी कर रहा है, उसके नाखून, उसकी हुंकार--तुम सोए रहोगे? तुम जाग ही जाओगे। लेकिन तुम एक सपना देख रहे हो कि तुम्हारे सोने का महल है, सुंदर रानियां हैं, बड़ा राज्य है, जीवन में सुख ही सुख है--कैसे जागोगे? हां, कोई जगाना भी चाहेगा तो भी मुश्किल होगी। जो जगाएगा, वह दुश्मन मालूम होगा। जो जगाना चाहेगा, तुम उसे झिड़कोगे; तुम कहोगे कि भई सोने दो, गड़बड़ न करो, परेशान न करो। अगर तुमने खुद ही अलार्म भर कर रखा होगा तो तुम खुद ही अलार्म बंद कर दोगे, और करवट लेकर सो जाओगे।
तुम पूछते हो वेदांत: ‘मुझे आश्चर्य है कि पूर्व-सदगुरु इतनी पिटाई नहीं किए।’
जरूरत न थी। आदमी वैसे ही काफी पिटा हुआ था। आदमी खुद ही मरा जा रहा था, इतने दुख में दबा जा रहा था। आदमी को सांत्वना की जरूरत थी, संतोष की जरूरत थी। आज हालत बिलकुल बदल गई है। जीवन ने नया मोड़ ले लिया है। हम एक क्रांति से गुजर गए और हम एक क्रांति से गुजर रहे हैं। और वह क्रांति यह है कि मनुष्य का जीवन रोज-रोज सुख से भरता जा रहा है। इसलिए तुम्हें खूब झकझोरना पड़ेगा। तुम्हें जगाने के लिए बहुत प्रगाढ़ आयोजन करने होंगे। इसलिए मैं तुम्हें कूटूंगा, पीटूंगा। तुम्हारी आंखों पर ठंडा पानी छिड़कूंगा, बर्फीला पानी। तुम यूं न उठोगे तो खींचूंगा बिस्तर से, तुम्हारा कंबल छीन लूंगा। उसी से तुम नाराज हो जाते हो।
अब जो आदमी छुरा फेंका, वह क्यों फेंका? चार दिन से सुन रहा थाआकर। उसको लगा होगा मेरा कंबल ही छीने लेते हैं; कि मैं मजे की नींद में सो रहा हूं, मेरी नींद ही खराब किए देते हैं! मेरी धारणाओं को तहस-नहस किए देते हैं। मेरे धर्म पर आघात हो रहा है।
तुम सीधी बात नहीं कहते कि हमारी नींद पर आघात हो रहा है; कहते हो धर्म पर आघात हो रहा है। मगर सचाई यह है कि सिर्फ तुम्हारी नींद पर आघात हो रहा है। लेकिन तुम अच्छे-अच्छे शब्दों का उपयोग करने के आदी हो गए हो। अच्छे शब्दों की आड़ में छिपा लेते हो अपने को, अपनी तंद्रा को, अपनी निद्रा को, अपनी बेहोशी को।
तुम पूछते हो वेदांत: ‘फिर भी हम जागते नहीं और प्रश्न पर प्रश्न पूछे चले जाते हैं।’
पुराने सदगुरु तो चाहते ही नहीं थे कि तुम प्रश्न पूछो। प्रश्नों के पूछने की वस्तुतः मनाही थी। प्रश्न पूछना नास्तिकता समझी जाती थी। पुराने सदगुरुओं का जोर था: हम जो कहें, मानो, भरोसा करो, श्रद्धा रखो।
मेरा मामला जरा भिन्न है। भरोसे की भाषा अब नहीं चलेगी। पुराने सदगुरुओं को पता ही नहीं था, एक दिन भरोसे की भाषा मर जाएगी। विज्ञान ने प्राण ले लिए भरोसे की भाषा के। विज्ञान संदेह पर खड़ा है। विज्ञान पूछता है, खोजता है, प्रयोग करता है और जब तक सुनिश्चित परिणाम हाथ में न आ जाएं, तब तक स्वीकार नहीं करता। सारे जगत की हवा विज्ञान से भरी है। जो लोग विज्ञान से परिचित नहीं हैं, वे भी वैज्ञानिक ढंग में धीरे-धीरे ढलते जा रहे हैं। हर बच्चा वैज्ञानिक ढंग में ढला जा रहा। इसके सिवा कोई उपाय भी नहीं है। विज्ञान आधुनिक जगत की आधारशिला है। विज्ञान को झुठलाया नहीं जा सकता।
अब तुम किसी वैज्ञानिक से कहो कि हम जो कहते हैं मान लो, तो वैज्ञानिक की पूरी की पूरी शिक्षा-दीक्षा के विपरीत है यह बात। अगर मेरी बात सुशिक्षित लोगों के ही समझ में आ रही है तो उसका कारण है। अशिक्षित लोगों को मेरी बात समझ में नहीं आ सकती। अगर मेरी बात पश्चिम के लोगों को ज्यादा समझ में आ रही है तो उसका कारण है। उसका कारण है कि पश्चिम विज्ञान के रंग में रंग गया है। और पूरब में भी उनकी ही समझ में मेरी बात आ रही है और आएगी, जो बौद्धिक रूप से विकसित हैं। जो पूरब में या पश्चिम में बौद्धिक आभिजात्य है, उससे ही मेरा तालमेल बैठेगा।
मैं कोई ग्रामीण भाषा नहीं बोल रहा हूं। ग्रामीण भाषा यह है कि जो कहा जाए वह मान लो; प्रश्न तो पूछना ही मत। नास्तिकता है प्रश्न पूछना। और मेरे हिसाब में नास्तिकता आस्तिकता की सीढ़ी है। मेरे हिसाब में जो व्यक्ति कभी ठीक से नास्तिक नहीं हुआ, वह कभी ठीक से आस्तिक नहीं हो सकेगा। उसकी आस्तिकता हमेशा लचरपचर रहेगी, पोच, नपुंसक! उसकी आस्तिकता में प्राण नहीं होंगे। आत्मा नहीं होगी। उसकी आस्तिकता कहीं न कहीं थोथी होगी। वह हमेशा डरा रहेगा, घबड़ाया रहेगा कि कहीं कोई संदेह न उठ आए। संदेह मिटाए तो हैं नहीं उसने, सिर्फ दबाए हैं।
विश्वास करने का क्या अर्थ होता है?
मैंने खुद कभी किसी चीज पर विश्वास नहीं किया। इसलिए मैं तुमसे कैसे कहूं कि विश्वास करो। मैं तो अविश्वास के मार्ग से चला और सत्य तक पहुंचा। मैं तो तुम्हें भी उसी मार्ग पर निमंत्रण दे सकता हूं, जो मेरा जाना-माना है, जिससे चल कर मैं आया हूं। मैं तो यह सोच ही नहीं सकता कि कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति कैसे विश्वास कर सकता है! असंभव है मेरे लिए, यह कल्पना भी असंभव है। ईश्वर को तुमने देखा नहीं, कैसे मानोगे? और अगर मान लिया तो तुम बेईमान हो। और बेईमान आदमी कहीं धार्मिक होते हैं? धार्मिक आदमी को कम से कम ईमानदार तो होना चाहिए! इतना भी ईमान नहीं है। सच पूछो तो ‘ईमान’ शब्द का अर्थ धर्म होता है। इतना भी ईमान नहीं है कि तुम कह सको कि यह मुझे पता नहीं, तो मैं कैसे मानूं? तुम कायर हो।
लोग कहते हैं कि मानो--और ऐसे लोग, जिनके हाथ में ताकत है। तुम ताकत के सामने झुकते हो। तुम डंडे के बल को मानते हो। तुम जिसकी लाठी उसकी भैंस में भरोसा रखते हो। इसलिए रूस में लाठी नास्तिकों के हाथ में है तो सारा देश नास्तिक। ये ही लोग उन्नीस सौ सत्रह की क्रांति के पहले आस्तिक थे, क्योंकि लाठी आस्तिकों के हाथ में थी। यह चमत्कार तुम देखते हो? रूस दुनिया के सर्वाधिक धार्मिक देशों में से एक देश था--बहुत रूढ़िवादी, बहुत रूढ़िचुस्त, बहुत दकियानूसी, बहुत पुरातनपंथी। साधारण से साधारण आदमी से लेकर रूस का जो सम्राट था जार...जार तक सारे लोग अंधविश्वासी थे। लेकिन यही रूस क्रांति के बाद दस साल में नास्तिक हो गया। इसकी आस्तिकता थोथी थी। बस यह आस्तिक था, क्योंकि जिनके हाथ में डंडे थे, वे आस्तिक थे। और वे आस्तिकता आरोपित कर रहे थे। फिर डंडे बदल गए, नास्तिकों के हाथ में पहुंच गए और उन्होंने नास्तिकता थोप दी।
तुम सोचते हो तुम आस्तिक हो? तुम आस्तिक नहीं हो। तुम्हारे मां-बाप आस्तिक थे, उन्होंने तुम पर आस्तिकता थोप दी। वे भी आस्तिक नहीं थे, उनके मां-बाप उन पर थोप गए। ये बीमारियां पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती हैं। तुम सोचते हो आस्तिक हो? पंडित, पुरोहित, अध्यापक, राजनेता, वे सब आस्तिक हैं। मगर वे भी आस्तिक नहीं हैं। उन पर भी थोपा गया है।
इन सबके बीच ईमानदार आदमी पहला काम तो यह करेगा कि वह इस कूड़े-कचरे को हटा कर रख देगा। वह कहेगा: जो मैं नहीं जानता हूं, उसे कैसे मान सकता हूं?
धार्मिक व्यक्ति जिज्ञासु होगा, मुमुक्षु होगा, विश्वासी नहीं। और जिसने विश्वास कर लिया, उसके जीवन में श्रद्धा कभी पैदा नहीं होगी। क्योंकि उसने झूठे सिक्के पर भरोसा कर लिया तो असली सिक्के की खोज कौन करेगा? क्यों करेगा? जब झूठा ही असली मान लिया तब असली की खोज की झंझट क्यों उठानी? कैसे उठानी?
तुमसे कहा गया है सदियों-सदियों से कि अगर ईश्वर को पाना है तो पहले मानो। यह भी कोई बात हुई? यह तुम्हारी बुद्धिमत्ता का अपमान हुआ। यह तुम्हारी आत्मा का अपमान हुआ।
मैं तुमसे कहता हूं: अगर ईश्वर को जानना है तो मानना कभी नहीं, अन्यथा तुम कभी जान न सकोगे। अगर ईश्वर को जानना है तो खोजना। विश्वास मत करना, प्रयोग करना। ध्यान प्रयोग है, विश्वास नहीं। जैसे विज्ञान बाहर प्रयोग करता है, वैसे धर्म भीतर प्रयोग करता है। मगर दोनों प्रयोग करते हैं। विज्ञान के प्रयोग वस्तुगत होते हैं; धर्म के प्रयोग आत्मगत होते हैं। विज्ञान के प्रयोग पदार्थों पर होते हैं; धर्म के प्रयोग चैतन्य पर होते हैं। मगर दोनों प्रयोग हैं।
मेरे हिसाब में ‘विज्ञान’ एक शब्द काफी है। भविष्य में धर्म शब्द को जीने की कोई जरूरत नहीं है। विज्ञान की दो शाखाएं होंगी--एक बहिर्मुखी और एक अंतर्मुखी। बहिर्मुखी शाखा पदार्थ की खोज करेगी; अंतर्मुखी शाखा चैतन्य की खोज करेगी। और एक ही बात रह जाएगी--विज्ञान। और एक ही जीवन का दृष्टिकोण रह जाएगा--वैज्ञानिक।
और तुम देखते हो, वैज्ञानिक चाहे हिंदू हो, चाहे मुसलमान हो, चाहे ईसाई हो, उसका विज्ञान अलग-अलग नहीं होता; उसका विज्ञान तो एक ही होता है। चाहे हिंदू पानी गर्म करे और चाहे मुसलमान, सौ डिग्री पर पानी भाप बनता है तो सौ ही डिग्री पर बनता है। वह यह नहीं देखता कि कौन गर्म कर रहा है। गर्म करने वाला कुरान पढ़ता है, कि गीता पढ़ता है, कि बाइबिल पढ़ता है? पानी को क्या लेना-देना?
जैसे विज्ञान ने एक कर दिया है दुनिया के सारे वैज्ञानिकों को, इसी तरह जिस दिन धर्म अंतर का विज्ञान होगा उस दिन दुनिया से ये सारे धर्म--तीन सौ धर्म हैं दुनिया में--ये सब विदा हो जाएंगे। इनके उपद्रव भी विदा हो जाएंगे।
मैं एक वैज्ञानिक धर्म की नींव रख रहा हूं या अंतर के विज्ञान की आधारशिला। यहां तो पूछो, जी भर कर पूछो। पूछोगे तो उसका अर्थ हुआ--तुम खोज रहे हो। जिज्ञासा करो। और कंजूसी मत करना। मैं तुम पर कुछ थोपना नहीं चाहता। इसलिए तुम्हारे प्रश्नों के विपरीत नहीं हूं। चाहता हूं तुम्हारे भीतर प्रश्नों को जगाऊं। सदियों-सदियों से सोए पड़े प्रश्नों को उकसाऊं। सदियों-सदियों से तुम्हारे भीतर प्रश्नों के अंगार विश्वास की राख में दब गए हैं, उस राख को हटाऊं और अंगारों को फिर से हवा दूं कि फिर से वे दमकने लगें। उनकी दमक के साथ तुम्हारे भीतर भी एक दमक आएगी।
इसलिए वेदांत, तुम यह तो कहो ही मत कि हम प्रश्न पर प्रश्न क्यों पूछे चले जाते हैं! यहां नहीं पूछोगे तो कहां पूछोगे? और कहीं पूछोगे तो फौरन तुम्हारा मुंह बंद कर दिया जाएगा। उतना ही पूछना जितना विश्वास की परिधि में आता हो--और वह भी कोई पूछना है? असली पूछना तो तब उठता है जब तुम विश्वास की परिधि के पार जाते हो। और तुम्हारे छोटे-मोटे लोगों की बात छोड़ दो, तुम्हारे छोटे-मोटे महात्माओं की बात छोड़ दो। वे गांव-गांव फैले हुए हैं। तुम्हारे बड़े से बड़े महात्मा भी बहुत भिन्न नहीं हैं। मात्रा के भला भेद हों, गुण के भेद नहीं दिखाई पड़ते।
जनक ने--उपनिषदों में कथा है--एक बहुत बड़ा, विराट आयोजन किया, ब्रह्मज्ञानियों को बुलाया। उस आयोजन में दो अपूर्व घटनाएं घटीं। एक तो घटना घटी याज्ञवल्क्य के संबंध में। याज्ञवल्क्य उस समय का बहुत बड़ा तथाकथित ज्ञानी था। तथाकथित ही मैं कहूंगा। कम से कम उस समय तक तो तथाकथित ही रहा होगा, बाद में सच्चा हो गया हो तो परमात्मा जाने। और अहंकारी भी रहा होगा। क्योंकि जनक ने एक हजार गऊएं भवन के बाहर, राजमहल के बाहर खड़ी कर रखी थीं, उनके सींग सोने से मढ़ दिए थे। वह पुरस्कार था। जो भी ब्रह्मज्ञान में जीत जाएगा, वह हजार गऊओं को ले जाएगा। सुंदरतम गऊएं थीं, श्रेष्ठतम गऊएं थीं। सोने से मढ़े उनके सींग थे। बड़ा पुरस्कार था। अब ब्रह्मज्ञानी पुरस्कार के लिए जाएंगे, पहले तो यही जरा सोचने की बात है। ब्रह्मज्ञानी न हुए, बच्चे हुए कि कोई वाद-विवाद प्रतियोगिता में पहुंच गए, कि जीत लाएंगे कोई चांदी का कप, कि सोने की शील्ड। ब्रह्मज्ञानी न हुए, बहुत बचकाने हुए। सारे ब्रह्मज्ञानी इकट्ठे हो गए! कौन छोड़े हजार गऊएं! गऊ उस समय बड़ी संपदा थी। और श्रेष्ठतम गऊएं थीं वे जनक की गऊशाला की।
याज्ञवल्क्य पहुंचा। जरा पहुंचने में उसे देर हो गई। आश्रम उसका दूर था। और अपने शिष्यों के साथ पहुंचा। गऊएं बाहर खड़ी थीं धूप में, पसीना-पसीना हो रही थीं। उसने अपने शिष्यों से कहा कि तुम गऊओं को खदेड़ कर आश्रम ले जाओ, विवाद मैं जीत लूंगा। यह बात बड़े अहंकार की है। जनक भी चौंका और ब्रह्मज्ञानी भी भड़के। मगर वे जानते थे कि याज्ञवल्क्य है तो बड़ा शास्त्रज्ञ, तो कोई कुछ बोला नहीं। उसके शिष्य गऊओं को खदेड़ कर आश्रम ले गए। अभी जीता है नहीं और पुरस्कार उन्होंने उठा ही लिया। अहंकार की और क्या घोषणा हो सकती है? ब्रह्मज्ञानी तो विनम्र होगा, ऐसा अहंकारी नहीं हो सकता।
फिर दूसरी घटना घटी कि उसने सारे ब्रह्मज्ञानियों को हरा दिया। हरा दिया, क्योंकि वह तार्किक था और शास्त्रों के खूब उल्लेख उसने दिए। कोई दूसरा उतना बड़ा पंडित नहीं था। फिर एक महिला, एक स्त्री ब्रह्मवादिनी, गार्गी खड़ी हुई। और उसने उससे तीन-चार प्रश्न पूछे। और जैसे गऊओं को पसीना बह रहा था, ऐसा पसीना याज्ञवल्क्य को बह गया।
गार्गी के प्रति मेरे मन में बड़ा सम्मान है। और तब से ही भारत के तथाकथित ब्रह्मज्ञानी स्त्रियों से नाराज हुए, तो उन्होंने उनके लिए वेद पढ़ने की मनाही कर दी। स्त्रियों से ऐसे भी विवाद में जीतना जरा मुश्किल है। सभी पति जानते हैं। याज्ञवल्क्य को भी पता होगा। वह भी कोई साधारण पति नहीं था, उसकी दो पत्नियां थीं--मैत्रेयी और कात्यायनी। अब दो पत्नियों के अनुभव से ही उसको पता होगा अच्छी तरह। जब गार्गी खड़ी हुई तो गार्गी ने पूछा कि मैं यह पूछती हूं कि यह पृथ्वी किस पर टिकी है? थोड़ा याज्ञवल्क्य चौंका, क्योंकि यह प्रश्न शास्त्रीय नहीं था। स्त्रियों को शास्त्र वगैरह से क्या लेना? मगर ऐसी कोई रोक भी न थी कि शास्त्रीय प्रश्न हो। तो उसे उत्तर तो देन
ा पड़ा। उत्तर तो बुद्धूपन का था कि कछुए पर टिकी है यह पृथ्वी। मगर उस समय के ब्रह्मज्ञानी, तथाकथित ब्रह्मज्ञानी यही समझते थे कि पृथ्वी कछुए पर टिकी है। मगर गार्गी यूं हर जाने वाली न थी। उसने कहा: कछुआ किस पर टिका हुआ है? क्योंकि कछुआ भी किसी पर टिका होना चाहिए।
वह हाथी पर टिका हुआ है।
और फिर हाथी किस पर टिका हुआ है?
तब याज्ञवल्क्य समझ गया कि यह स्त्री दिक्कत में डालेगी। मैं कुछ भी कहूंगा, यह पूछेगी वह किस पर टिका हुआ है, वह किस पर टिका हुआ है, वह किस पर टिका हुआ है? इसने एक ऐसा प्रश्न उठाया है कि मेरी फजीहत करा कर रहेगी।
तो उसने कहा इसको एक सीधा जवाब दे देना उचित है। उसने कहा कि ये सब इतने प्रश्न पूछने की जरूरत नहीं है। प्रत्येक चीज ब्रह्म पर टिकी हुई है। गार्गी ने पूछा तो मैं भी एक ही प्रश्न पूछती हूं फिर कि ब्रह्म किस पर टिका हुआ है?
याज्ञवल्क्य आगबबूला हो गया। उसने कहा: गार्गी, यह अतिप्रश्न है। अगर आगे तूने बकवास की तो तेरा सिर धड़ से गिर जाएगा।
इसके बाद शास्त्र कुछ नहीं कहते कि क्या हुआ। मगर यह कोई बात न हुई। उसका प्रश्न अतिप्रश्न नहीं है। कोई प्रश्न अतिप्रश्न नहीं है। लेकिन याज्ञवल्क्य इतना घबड़ा क्यों गया? ब्रह्म किस पर टिका है, वह ठीक पूछ रही है। या तो पहले ही कह दो कि कोई चीज किसी पर नहीं टिकी है। जब पहले से तुम जवाब देने को तैयार हो तो फिर आगे चल कर एक जगह जाकर कहना कि यह अतिप्रश्न हो जाएगा...। अतिप्रश्न का क्या अर्थ? जो नहीं पूछना चाहिए। क्यों नहीं पूछना चाहिए? इसलिए कि ब्रह्मज्ञानी के पास उत्तर नहीं है? अतिप्रश्न, क्योंकि ब्रह्मज्ञानी की बेइज्जती हो जाएगी। अतिप्रश्न, क्योंकि वे एक हजार गऊएं वापस लौटानी पड़ेंगी। यह बड़ी भद्द हो जाएगी। और यह भी कोई धमकी, यह उत्तर हुआ? यह बातचीत हुई? यह तो मार-पीट पर बात उतर आई, मारा-मारी पर बात उतर आई कि सिर धड़ से गिरा दिया जाएगा, कि सिर धड़ से गिर जाएगा, बस अब चुप हो जा! यह तो जबर्दस्ती हो गई। यह जवाब न हुआ, लट्ठ मारना हुआ।
और तब से स्त्रियों को ब्रह्मज्ञान में भाग लेने का हकदार नहीं समझा गया। हालांकि मेरी दृष्टि में गार्गी ने ठीक पूछा था। याज्ञवल्क्य के पास उतर नहीं था तो क्षमा मांगनी थी। तो झुक कर गार्गी के चरणों में बैठना था और कहना था कि गार्गी, मेरे पास उत्तर नहीं है, अगर तेरे पास उत्तर हो तो तू दे। मैं तुझसे पूछता हूं फिर। मैं हार गया।
मगर अहंकार कहीं अपनी पराजय स्वीकार करे! और पुरुष स्त्री के सामने पराजय स्वीकार करे! असंभव! फिर तो उचित यही था कि स्त्रियों के लिए द्वार ही दरवाजे बंद कर दो, क्योंकि स्त्रियां पार्थिव होती हैं। उनके प्रश्न भी ज्यादा ठोस होंगे, ज्यादा वास्तविक होंगे, ज्यादा यथार्थवादी होंगे, हवाई कम होंगे। उनको हवाई बातों में कम रस होता है, व्यर्थ की बकवास में कम रस होता है।
और दूसरी घटना उस जनक की ब्रह्मज्ञानियों की सभा में घटी--अष्टावक्र का आना। अष्टावक्र का पिता भी ब्रह्मज्ञानी था, वह भी गया था भाग लेने। देर होती देख कर अष्टावक्र की मां ने कहा कि बहुत देर हो गई, तुम्हारे पिता आए नहीं, जाओ उन्हें बुला लाओ। अष्टावक्र का नाम अष्टावक्र इसीलिए था, क्योंकि उसका शरीर आठ जगह से टेढ़ा-मेढ़ा था। बड़ा कुरूप रहा होगा बेचारा। आठ जगह से शरीर टेढ़ा-मेढ़ा हो तो आदमी कम, ऊंट ज्यादा। ऊंट भी देख कर हंसने लगें।
अष्टावक्र गया। जैसे ही अंदर प्रविष्ट हुआ, सारे ब्रह्मज्ञानी हंसने लगे। अष्टावक्र तो और जोर से ताली बजा कर हंसा। वह इतनी जोर से ताली बजा कर हंसा कि ब्रह्मज्ञानियों में एकदम सन्नाटा छा गया। एक तो गार्गी फजीहत कर गई थी। किसी तरह गार्गी से सुलझे तो यह अष्टावक्र आ गया। जनक ने पूछा: अष्टावक्र, इन सबका हंसना तो मेरी समझ में आया, लेकिन तू ताली बजा कर क्यों हंसा?
उसने कहा: मैं इसलिए ताली बजा कर हंसा कि मैं तो सोचता था कि यह सभा ब्रह्मज्ञानियों की है। ये चमार यहां किसलिए इकट्ठे हुए हैं?
जनक ने कहा: चमार!
अष्टावक्र ने कहा: निश्चित चमार! जिनको चमड़ी दिखाई पड़े वे चमार। आत्मा तो मेरी भी वैसी ही है जैसी इनकी। मेरी आत्मा में और इनकी आत्मा में कोई भेद नहीं है। मेरी आत्मा इरछी-तिरछी नहीं है, सिर्फ मेरी चमड़ी। मेरी चमड़ी देख कर अगर चमार हंसें तो क्षम्य हैं, मगर ये ब्रह्मज्ञानी हंसते हैं!
और तुम जान कर हैरान होओगे, जनक अष्टावक्र का शिष्य हो गया। याज्ञवल्क्य का शिष्य नहीं हुआ, याद रखना। अष्टावक्र का शिष्य हुआ। उसने अष्टावक्र से कहा कि मुझे बोध दो। मुझे लगता है कि वह जो देह के अतीत है, उसका तुम्हें बोध हुआ है। तुमने बात पते की कही है । और तुम इस सभा में विवाद लेने आए भी नहीं थे। तुम तो सिर्फ अपने पिता को बुलाने आए थे। मैं भी सोचता था कि ये सारे ब्रह्मज्ञानी कैसे ब्रह्मज्ञानी हैं कि हजार गऊओं के पीछे चले आए! पुरस्कार पाने की आकांक्षा में! यह बच्चों को शोभा देता है। लेकिन तुम जरूर कुछ पते की बात कह रहे हो।
ये दो घटनाएं उस अदभुत सभा में घटी थीं। भारत में और भारत के बाहर भी सदियों से हमने ब्रह्मज्ञान को ही अतिप्रश्न बना रखा है। असली बात पूछना ही मत। व्यर्थ की बातों में लोग उलझे हुए हैं।
मध्य-युग में यूरोप में पंडित और पुरोहित विचार करते थे कि एक सुई की नोक पर कितने देवता नाच सकते हैं। इस पर विवाद चलता था। और ये बड़े-बड़े संत थे, महंत थे, ऋषि थे, महर्षि थे। और इनकी बातचीत...अगर तुम अपने शास्त्रों को उठा कर देखोगे तो इसी तरह की व्यर्थताओं से भरे हुए पाओगे।
जिज्ञासा शुभ है। और मेरे हिसाब में नकार पहले है, फिर ही स्वीकार है। जिसने नहीं नहीं कहा, उसके हां कहने में कभी भी तेजस्विता नहीं होती। इसलिए तुम जितना नहीं कह सको, कहो; क्योंकि मैं तुम्हारे ऊपर कुछ भी थोपने को नहीं हूं यहां। तुम पूछो, जी भर कर पूछो। क्योंकि मैं पूछ-पूछ कर, खोज-खोज कर, इनकार करते-करते परम स्वीकार को उपलब्ध हुआ। ऐसे ही तुम भी उपलब्ध होओगे।
यह मत सोचना कि पूछना उचित नहीं है, पूछने से अश्रद्धा प्रकट होती है। नहीं, जरा भी नहीं। पूछने से श्रद्धा प्रकट होती है। तुम पूछ कर यह बता रहे हो कि तुम मुझे इस योग्य मानते हो कि मुझसे पूछो। यह तुम्हारा सम्मान है मेरे प्रति। तुम जितना पूछते हो, उतना ही तुम कह रहे हो कि तुम्हें आशा है उत्तर की, अपेक्षा है, अभीप्सा है, प्यास है।
इसलिए वेदांत, पूछते चले जाओ। संकोच न करना। तुम्हारी आदतें पुरानी हैं। इसलिए बहुत तुममें से यह सोचते होंगे कि क्यों लोग इतने प्रश्न पूछते हैं! अरे चुपचाप मान लो! मान लो और बस बात खत्म हो गई। ये कमजोरों के लक्षण हैं। ये कायरों के लक्षण हैं। ये खोजियों के लक्षण नहीं हैं, अन्वेषकों के ये लक्षण नहीं हैं। ये वीरों के लक्षण नहीं हैं।
मेरी पुकार तो साहसियों के लिए है, दुस्साहसियों के लिए है, जुआरियों के लिए है।
धर्म मेरे लिए आत्यंतिक जिज्ञासा है। वहां कोई प्रश्न अतिप्रश्न नहीं है। यद्यपि मैं जानता हूं कि किसी प्रश्न का कोई उत्तर नहीं है। लेकिन मेरे उत्तर धीरे-धीरे तुम्हारे प्रश्नों को तिरोहित करते जाएंगे। उत्तर नहीं मिल जाएगा तुम्हें, खयाल रखना। उत्तर तो तुम्हें मिलेगा अपने ही अनुभव से, लेकिन मेरे उत्तर तुम्हारे प्रश्नों को काटते जाएंगे। धीरे-धीरे तुम्हारे भीतर कोई प्रश्न न बचेगा। और जब कोई प्रश्न न बचेगा तो कोई शब्द भी न बचेगा। उसी निःशब्द में, उसी निष्प्रश्न दशा में समाधि का फूल खिलता है। और वही परम अनुभव है। वही मुक्तिदायी है।
तुम पुरानी आदत छोड़ो, वेदांत। यह आदत तुममें होगी, क्योंकि निवासी हो तुम वाराणसी के। सो बड़ी खतरनाक जगह से आते हो। वाराणसी नंबर एक की खतरनाक जगह है; पूना समझो नंबर दो, यह महाराष्ट्र की वाराणसी है। ये पंडितों के गढ़ हैं। पंडित यानी जड़बुद्धि, मंदबुद्धि--जो यंत्रवत शास्त्रों को दोहराए चले जाते हैं; जिनके लिए ब्रह्मज्ञान तकिया कलाम जैसा हो जाता है, रट गया होता है।
मैंने सुना, चंदूलाल की आदत थी कि प्रत्येक बात के अंत में कहते--आपके मुंह में। यह उनका तकिया कलाम था। एक दिन नसरुद्दीन उनसे बोला कि क्यों भई चंदूलाल, अरे कहां जा रहे हो सबेरे-सबेरे?
चंदूलाल बोले: अजी मियां, बस यहीं नुक्कड़ तक जा रहा था, आपके मुंह में!
नसरुद्दीन बोला: ठीक है, ठीक है, अरे जहां मर्जी हो वहां जाओ, हमें क्या? गुस्सा तो नसरुद्दीन को बहुत आया कि यह भी कोई बात हुई--आपके मुंह में! नुक्कड़ मेरे मुंह में--सड़क का नुक्कड़! लेकिन फिर भी एक बात उसे चंदूलाल से कहनी थी तो उसने कहा कि सुनो भई, एक बात जरूर तुमसे कहनी थी, जहां तुम्हें जाना हो जाओ, मुझे उससे कुछ देना-लेना नहीं। लेकिन जरा अपने साहबजादे को समझाना। कल की ही बात है, सामने के मैदान में क्रिकेट खेलते समय हमारी खिड़की का शीशा तोड़ दिया।
चंदूलाल बोले: अरे भाईजान, जो कुछ भी नुकसान हुआ--आपके मुंह में! उसकी मरम्मत करवा देंगे--आपके मुंह में! अरे ऐसी कौन सी खास बात हो गई--आपके मुंह में! अरे एक शीशा ही टूट गया न--आपके मुंह में!
नसरुद्दीन यह सब सुन कर पगला गया। और बोला कि अबे चंदूलाल के बच्चे, अकल के कच्चे! यह बार-बार क्या लगा रखा है, आपके मुंह में? अब यदि एक बार और बोला आपके मुंह में, तो ऐसा घूंसा मारूंगा आपके मुंह में, कि सारे दांत निकल कर बाहर आ जाएंगे आपके मुंह में! और जिंदगी भर याद रखेगा आपके मुंह में।
इस देश में तो ब्रह्मज्ञान तकिया कलाम जैसा है। हर कोई ब्रह्मज्ञान दोहरा रहा है। जो देखो वही बाबा तुलसीदास की चौपाइयां याद किए बैठे हैं। चौपाइयां याद कर-कर के सब चौपाए हो गए हैं। ऐसी कंठस्थ हो गई हैं कि नींद में भी बड़बड़ाते हैं तो चौपाई...ज्ञान की बातें! जीवन में कहीं कोई लक्षण नहीं। जीवन ठीक उलटा। जीवन ठीक उसके विपरीत। लेकिन जीवन से किसी को लेना-देना नहीं है।
जीवन रूपांतरित होता है प्रयोग से, अनुभव से, खोज से; मानने से नहीं, जानने से। मेरा सारा जोर जानने पर है। मैं ईश्वर को जानता हूं और चाहता हूं कि तुम भी ईश्वर को जानो। और मैंने मान कर नहीं जाना, इसलिए तुमसे मैं कैसे कहूं कि मान कर तुम जान सकोगे? और मेरे जानने में किसी ने कभी मान कर नहीं जाना है। जिन्होंने मान कर सोच लिया हो कि जाना है, वे भ्रांति में ही जीए और भ्रांति में ही मरे। मैं अपने किसी संन्यासी को भ्रांति में न जीने देना चाहता हूं और न भ्रांति में मरने देना चाहता हूं। मैं चाहता हूं तुम सजग होओ, तुम पर फूलों की वर्षा हो! तुम्हारे भीतर दीया जले! तुम जगमग हो उठो--अपने अंतर्प्रकाश से!
तीसरा प्रश्न:
भगवान, क्या बुद्धत्व की भी श्रेणियां होती हैं? क्या इसीलिए हिंदुओं ने अवतारों की कलाएं निर्धारित कीं?
सहजानंद! बुद्धत्व का अर्थ ही होता है सीढ़ियों का अतिक्रमण कर जाना, श्रेणियों के पार हो जाना--जहां सब सीमाएं समाप्त हो जाती हैं, जहां सब माप गिर जाते हैं, जहां अमाप शुरू होता है--वहीं बुद्धत्व है। इसलिए दो बुद्धों में कोई छोटा नहीं होता, कोई बड़ा नहीं होता।
मगर ये सब श्रेणियों का निर्धारण बुद्धपुरुष नहीं करते, बुद्धू करते हैं। और बुद्धू तो अपने ही ढंग से करेंगे न! बुद्धू तो हर चीज में श्रेणियां खोजेंगे। वे तो हर चीज को तराजू पर तौलेंगे।
एक जैन पंडित थे, ऋषभदास रांका। वे ही मुझे सबसे पहली दफा पूना लाए थे। अगर पूना को नाराज होना चाहिए तो ऋषभदास रांका पर, मेरा इसमें कुछ कसूर नहीं है। मैं तो शायद कभी पूना आया भी नहीं होता। वे गांधी जी के साथ वर्षों तक रहे, वर्धा में ही रहे। बड़े सर्वोदयी थे। गांधी और विनोबा का सत्संग करते-करते एक बात उन्होंने सीख ली, रट ली, तकिया कलाम हो गया उनका, कि सब धर्म समान हैं। यूं कहने तो लगे; मगर यह बात रही ऊपर ही ऊपर, भीतर तो जाती कैसे! भीतर तो जैन धर्म बैठा हुआ था। उन्होंने एक किताब लिखी महावीर और बुद्ध पर। मुझे उसकी पांडुलिपि दिखाई और कहा कि आप अपना मंतव्य दें। मैंने किताब का शीर्षक देखा और लौटा दी। मैंने कहा कि बस शीर्षक देख लिया, उतना बहुत। उन्होंने कहा: क्या कहते हैं?
मैंने कहा: बस खत्म हो गई बात। आगे कुछ कहना नहीं। इतना ही बहुत है। शीर्षक ने ही सब बता दिया। महावीर और बुद्ध के संबंध में तो नहीं, आपके संबंध में सब बता दिया।
शीर्षक था किताब का: ‘भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध।’ मैंने पूछा कि एक को भगवान और दूसरे को महात्मा क्यों लिखते हो? और अब तक मेरी खोपड़ी चाटते रहे कि सब धर्म समान हैं और जो गीता में लिखा, वही धम्मपद में, वही कुरान में, वही जिनवाणी में। फिर यह भेद क्यों?
कहने लगे: अब आपसे क्या छिपाना! माना कि सब धर्म समान हैं, मगर महावीर को एक सीढ़ी ऊपर तो रखना ही होगा। वे भगवान हैं, वीतराग पुरुष हैं। बुद्ध, माना कि बहुत पहुंचे हुए सिद्ध हैं, लेकिन महात्मा ही हैं, अभी भगवान नहीं। अभी एक सीढ़ी नीचे हैं।
कोई जैन बुद्ध को महावीर के साथ नहीं रख सकता, एक साथ नहीं रख सकता, अड़चन होती है, कठिनाई होती है। और जब बुद्ध को नहीं रख सकता महावीर के साथ तो फिर औरों का तो कहना ही क्या! मोहम्मद को तो तुम सोचो कैसे रखेगा? मोहम्मद तो तलवार लिए रहते थे। बुद्ध का कसूर अगर जैनियों की नजर में कुछ था तो दो कसूर थे। एक तो कसूर यह था कि वे कपड़ा पहनते थे, भगवान को कपड़ा पहनना नहीं चाहिए। अरे भगवान को क्या छिपाना? सब प्रकट होना चाहिए। उसे तो बच्चे की तरह निर्दोष होना चाहिए। जैसे कपड़े ही उतार देने से कोई बच्चे की तरह निर्दोष हो जाता है। तो हिंदुओं के इतने नागा साधु हैं, ये सब निर्दोष बच्चे हैं! ये छंटे हुए बदमाश मालूम होते हैं। तुम किसी भी कुंभ में इनकी जमात देख लो, ये सबसे ज्यादा उपद्रवी हैं--हर कुंभ में कोई झगड़ा होता है, कोई मार-पीट खड़ी होती है, भाले चलते हैं, तो इन्हीं नागा साधुओं की वजह से। क्योंकि वे कहते हैं: पहले स्नान करने का हक हमारा, क्योंकि हम नंगे हैं!
और इनका नंगापन भी बड़ा मजेदार है। ये जब कुंभ में आते हैं तभी नंगे हो जाते हैं, बाकी अपने अखाड़ों में कपड़े पहनते हैं। अखाड़ों में कौन देखता है? इसलिए आमतौर से तुम्हें ये नागा साधु और कहीं दिखाई नहीं पड़ेंगे, सिर्फ कुंभ में दिखाई पड़ेंगे। बाकी समय अपने अखाड़ों में कपड़े पहन कर रहते हैं। सिर्फ नंगे हो जाने से ही अगर कोई भगवान होता हो तो सारे पशु-पक्षी नंगे हैं।
एक तो वह गलती थी बुद्ध की कि वे कपड़ा पहनते थे। दूसरी गलती यह थी कि उन्होंने मरे हुए जानवर का मांस खाने के लिए आज्ञा दी। बुद्ध का कहना यह था कि मारने में हिंसा है, मांस खाने में हिंसा नहीं है। बात तो तर्कयुक्त है, अर्थपूर्ण है। मारने में हिंसा है, मांस खाने में क्या हिंसा हो सकती है? तो अब जो जानवर मर गया है, उसके मांस को खाया जा सकता है। बस ये दो बातों ने बड़ी बेचैनी पैदा कर दी। और सब बातों में मेल खाता हो तो भी ये दो बातें अड़चन कर गईं। तो महात्मा मान लिया, यही बहुत है। असल में उनका मतलब यह था मुझसे कहने का कि आप यह समझिए मेरे समभाव को मैंने महात्मा मान लिया, यही कम है क्या? कोई जैन महात्मा भी मानने को तैयार नहीं है।
तो मोहम्मद को तो छोड़ ही दो। जीसस की तो बात ही न उठाओ। मेरे पास जैन पत्र लिखते हैं कि आप जीसस और महावीर को एक साथ बोल देते हैं, दोनों के नाम...यह बात ठीक नहीं है। यह हमारे महावीर का अपमान है। अरे कहां महावीर! रास्ते पर चलते थे, अगर कांटा सीधा पड़ा हो, तो उनको देख कर उलटा हो जाता था कि कहीं पैर में गड़ न जाए। यह लक्षण है तीर्थंकर का। और एक जीसस, जिनको सूली लगी। सूली लगने का साफ मतलब है कि किसी पिछले जन्म में कोई महापाप किया होगा। कोई छोटा-मोटा पाप नहीं, कोई महापाप किया होगा, तभी तो सूली लगेगी न! कर्म का फल ही तो भोगना पड़ेगा! हर किसी को तो सूली नहीं लगती। कांटा भी नहीं गड़ सकता तीर्थंकर को, क्योंकि उसके सारे पाप क्षय हो गए, उसकी निर्जरा हो गई। अब कांटा भी कैसे गड़ेगा? कांटा गड़ने के लिए भी कोई पाप किया हो, यह होना चाहिए। कहां जीसस और कहां महावीर! आप दोनों को एक साथ बोल देते हैं, ठीक नहीं करते।
और अगर ईसाई से पूछो...। मेरे पास ईसाई मिशनरियों ने कहा है आकर कि आप जीसस के साथ महावीर और बुद्ध को न तौलें तो अच्छा। जीसस ने मनुष्य-जाति के लिए अपना जीवन दे दिया, इन्होंने क्या दिया? जीसस ने अंधों को आंखें दीं, बहरों को कान दिए, लंगड़ों को पैर दिए। महावीर ने किसकी सेवा की? एक अस्पताल भी तो नहीं खोला। एक प्राइमरी स्कूल ही खोल देते। वह भी तो नहीं किया। सेवा तो नाममात्र को नहीं। जब सेवा ही नहीं है तो क्या खाक करुणा! और क्या उपलब्धि? ये महावीर और बुद्ध ने तो स्वार्थ सिखाया। इनकी गिनती आप कहां जीसस के साथ कर रहे हैं? जिसने कि मनुष्य के उद्वार के लिए, मनुष्य के मोक्ष के लिए अपने को सूली पर लटकवा लिया!
परिभाषाएं बदल गईं। उनको लगता है दुख कि मैं महावीर और बुद्ध का नाम जीसस के साथ लेता हूं। बौद्धों को दुख लगता है कि मैं महावीर का नाम बुद्ध के साथ लेता हूं, क्योंकि बौद्ध शास्त्रों में महावीर का बहुत मजाक उड़ाया गया है। महावीर को महात्मा भी नहीं माना गया है। भगवान होना तो दूर, ज्ञानी भी नहीं माना है। ये बुद्धुओं की दुनिया है। ये बुद्धुओं की दुनिया में हिसाब-किताब इस तरह बिठाए जाएंगे कि हर एक के पास अपना तराजू है, अपना मापदंड है, अपने बटखरे हैं, उनसे वह तौलेगा। अन्यथा जो व्यक्ति जाग गया, जो परम जीवन को अनुभव कर लिया, उसमें कोई भेद नहीं होते।
ये कलाओं इत्यादि की बातें सब व्यर्थ हैं। ये हमारे हिसाब हैं, क्योंकि हम सभी को समान नहीं रख सकते। हम बिना तौले मान ही नहीं सकते।
एक नेताजी चुनाव में हार गए। जब वे घर लौटे तो उनकी पत्नी बोली: तुम्हारे हारने-जीतने से मुझे कोई मतलब नहीं है। तुम सिर्फ इतना बता दो कि तुम्हें मिले दो वोटों में से एक तो मेरा था, लेकिन दूसरा किस चुड़ैल का था?
पत्नियों के अपने मापदंड होंगे। हारने-जीतने से क्या लेना-देना? यह सवाल है असली कि तुम्हें दो वोट मिले, वे कैसे मिले! एक तो मेरा था वह मैंने डाला, दूसरा किस चुड़ैल का था?
बुद्धू तो बुद्धू रहेंगे। वे बुद्धों को संबंध में भी चर्चा करेंगे तो भी क्या फर्क पड़ता है? उनका बुद्धूपन तो आ ही जाएगा।
एक होटल में आग लग गई, सब लोग जान बचाने के लिए हड़बड़ा कर भाग खड़े हुए। फायर ब्रिगेड का इंतजार करने लगे। उसी समय होटल में ठहरने वाले एक यात्री ने अपने पास खड़े लोगों से कहना शुरू किया: मैं तो आग से जरा भी नहीं घबड़ाता। आग लगने पर मैं ठाठ से उठा, शर्ट पहनी, घड़ी बांधी, टाई संवारी, बालों में कंघी की, सिगरेट जलाया, फिर शान से बाहर निकल कर आ रहा हूं। एक तुम हो कि कायरों की तरह भागे हड़बड़ा कर! अरे क्या यूं डरना? यह शोभा देता है मनुष्य को? मर्दों को?
पास में ही खड़े एक यात्री ने कहा: श्रीमान, आपने सब-कुछ तो किया, परंतु पतलून पहनना क्यों भूल गए?
तुम अगर बुद्धों के संबंध में भी सोचोगे, तो भी कुछ न कुछ भूल हो ही जाएगी। टाई सम्हाल ली होगी, मगर पतलून का क्या हुआ? इधर सम्हालोगे उधर बात उघड़ जाएगी। तुम्हारी चादर छोटी है। तुम करो भी क्या? सिर ढांकोगे, पैर उघड़ जाएंगे; पैर ढांकोगे, सिर उघड़ जाएगा। लेकिन कहीं न कहीं से बात जाहिर हो जाएगी।
सहजानंद, तुम पूछते हो: ‘क्या बुद्धत्व की भी श्रेणियां होती हैं?’
नहीं, कोई श्रेणियां नहीं होतीं। बुद्धत्व का अर्थ ही है: श्रेणियों का अतिक्रमण।
और तुम पूछते हो: ‘क्या इसलिए हिंदुओं ने अवतारों की कलाएं निर्धारित की हैं?’
इसलिए नहीं, बल्कि इसीलिए कि हमको सबके लिए जगह बनानी पड़ती है। शिष्टाचारवश। कुछ तो जगह सबके लिए बनानी पड़ेगी। अच्छे लोग सबको जमा कर रख देते हैं। अपने को सबसे ऊपर रख लेते हैं। कृष्ण को मानने वाला कृष्ण को सबसे ऊपर रख लेता है; वे पूर्णावतार हैं। बाकी सब अवतार अपूर्ण अवतार हैं। बुद्ध को मानने वाला कृष्ण को अवतार नहीं गिनता, गिन ही नहीं सकता। पूर्णावतार होने की तो बात दूर। महावीर को मानने वालों ने तो कृष्ण को नरक में डाल रखा है।
सबके अपने-अपने हिसाब हैं।
मुसलमान कहते हैं: मोहम्मद अंतिम पैगंबर हैं। बस ईश्वर की आखिरी किताब उतर आई--कुरान। अब किसी किताब की कोई जरूरत नहीं है। हां, उसके पहले भी पैगंबर हुए हैं। जीसस हुए, मोजे़ज हुए, इब्राहिम हुए; मगर ये सब तिथिबाह्य हो गए। जब मोहम्मद आ गए तो आखिरी किताब आ गई। फिर उसके बाद कोई जरूरत नहीं।
भले लोग हैं। इतना तो मान लेते हैं कि चलो जीसस को भी स्वीकार कर लिया कि ये भी पैगंबर थे छोटे-मोटे, अच्छे आदमी थे! मगर मोहम्मद के सामने तो सब फीके पड़ गए। सूरज उग आया, सब तारे बुझ गए। अब दीये जलाने की कोई जरूरत न रही। हालांकि दीया भी रोशनी देता है अंधेरे में। जब मोहम्मद नहीं थे तो इनकी जरूरत थी।
ये हम बुद्धूओं के हिसाब हैं। बुद्धों का इससे कोई संबंध नहीं। जाग्रत पुरुषों का इससे कोई संबंध नहीं। नींद में भेद होते हैं। कोई मीठा सपना देख रहा है, कोई कड़वा सपना देख रहा है; कोई सुखद, कोई दुखद; लेकिन जाग गए, सपने खत्म हुए। फिर न कोई छोटा है, न कोई बड़ा है। फिर वस्तुतः व्यक्ति है ही नहीं, समष्टि है। बूंद खो गई सागर में, अब क्या बूंद का हिसाब?
मगर हमारी पुरानी आदतें हैं। हमारे अपने सोचने के ढंग हैं। हम आरोपित ही किए चले जाते हैं। हम छोड़ते ही नहीं किसी को। हम कुछ न कुछ तरकीब निकाल लेंगे। अपनी मूढ़ता न छोड़ेंगे। अपनी मूढ़ता के माध्यम से ही हम बुद्धों को भी देखेंगे। फिर भूल-चूक होनी स्वाभाविक है।
कोई बुद्धपुरुष किसी से न नीचा है, न ऊंचा। न कोई बुद्धपुरुष पूर्ण है, न कोई अपूर्ण। बुद्धत्व पूर्णता का नाम है। अब इससे और ज्यादा कोई पूर्ण नहीं हो सकता, न इससे कम कोई पूर्ण हो सकता है।
संगीत के गुरु ने अपने एक शिष्य से पूछा: तुम किस ताल के विषय में अधिक जानते हो?
शिष्य ने तुरंत कहा: हड़ताल के विषय में।
आदमी भी करे तो क्या करे?
ताला-चाबी मरम्मत करने वाला व्यक्ति कभी उपवास नहीं रखता था। पत्नी उसके बहुत पीछे पड़ी रहती थी। पत्नियां तो पतियों को धार्मिक बनाने के पीछे पड़ी ही रहती हैं। पता नहीं उन्हें क्या बेचैनी है! पतियों को मोक्ष भेजना ही है उनको। अपना मोक्ष तो वे तय किए हु
ए हैं, कहीं पति पीछे न छूट जाएं; उनको भी साथ ही ले जाना है, ताकि वहां भी सताएं, कि इधर-उधर कहीं छूट गए, कहीं किसी और से आंख-मिचौनी करने लगें, कुछ हरकत करने लगें, तो नजर भी रखनी पड़ेगी न मोक्ष में भी!...तो पत्नी एकदम पीछे पड़ी थी। बहुत ही पीछे पड़ी, तो बेचारा आदमी भी क्या करे, उसने एक दिन उपवास कर लिया। शाम को पत्नी ने पूछा: तुम्हारे रंग-ढंग से ऐसा मालूम पड़ता है कि तुमने उपवास खोल दिया।
शायद खा-पी आया होगा बाजार में। आखिर पति भी तो अपनी आत्मरक्षा का उपाय कोई न कोई करता ही है। लेकिन पति ने क्या कहा? पति ने कहा: अभी नहीं, चाबी ही गुम गई है, खोलूं तो कैसे खोलूं? ताला-चाबी खोलने का उनका धंधा था। उपवास खोलना, उनको तत्क्षण अपनी भाषा ही याद आई।तुम जिंदगी को नापते हो, तौलते हो--बड़े-छोटे में, ऊंचे-नीचे में--शूद्र हैं, ब्राह्मण हैं, महापुरुष हैं, संत हैं, सज्जन हैं, दुर्जन हैं--बस वही हिसाब तुम बुद्ध पुरुषों पर भी लगा देते हो। बुद्ध पुरुष का ही अर्थ होता है--तुम्हारे हिसाब के बाहर। जहां तुम अवाक रह जाओ, आश्चर्यविमुग्ध! जहां बोल न निकले! जहां कहने को कुछ न सूझे। जहां हृदय धक् से रह जाए! तुम्हारी सारी अब तक की आदतें, अब तक के विचार की प्रक्रियाएं एकदम व्यर्थ हो जाएं--वहीं समझना कि किसी बुद्धपुरुष से सम्मिलन हुआ है।
आज इतना ही।
भगवान, आप अपनी मृत्यु की बात करते हैं तो मैं कांप जाती हूं। प्रभु, हमसे नहीं सुना जाता है। हम तो आपके बिना नहीं रह सकते हैं। यह सोच कर भी दिल दहल जाता है।
धर्म भारती! जीवन को न जानने के कारण मृत्यु का भय है। जैसे प्रकाश न हो तो अंधेरा होता है। प्रकाश हो, अंधेरा नहीं होता।
हम जीवित तो हैं, लेकिन ठीक-ठीक अर्थों में नहीं--मुर्दा-मुर्दा से, मरे-मरे से। हमारी बस्तियां मरघट से ज्यादा नहीं--मुर्दों के टीले हैं।
जीवन को जाना न हो तो कोई जीवित कैसे हो सकता है? और जीवन का अपरिचय ही मृत्यु का भय बन जाता है। स्वभावतः फिर अपनी मृत्यु का भय होता है; जिनसे हम प्रेम करते हैं उनकी मृत्यु का भय होता है। मृत्यु का ही नहीं, मृत्यु शब्द तक से मन कांप उठता है! पर नासमझी है।
मृत्यु बड़ा से बड़ा असत्य है। उससे बड़ा कोई और असत्य नहीं। दुनिया में दो ही असत्य हैं, और दोनों ही एक ही सिक्के के दो पहलू समझो। एक है अहंकार और दूसरा है मृत्यु। अहंकार पहला असत्य है। मृत्यु दूसरा असत्य है। अहंकार का अर्थ है: मैं पृथक हूं अस्तित्व से, जीवन से। बस यहीं से भ्रांति शुरू होती है। जैसे कोई लहर अपने को सागर से भिन्न मान ले। मान लेने से भिन्न हो नहीं जाती। मगर मान लेने से भय पैदा होता है कि कहीं मिट न जाऊं, कहीं सागर में खो न जाऊं! तो अपने को बचाने की कोशिश में लग जाती है। वही मनुष्य की चिंता है, संताप है।
लहर सागर है! मिट कर भी मिटेगी नहीं। बन कर भी बनी कहां? न कोई जन्म है, न कोई मृत्यु है। लहर केवल एक रूप मात्र है। इसलिए ज्ञानियों ने हमारे तथाकथित अस्तित्व को नाम-रूप कहा है। लहर एक नाम है। यूं तो सागर ही है। जरा गहरे झांको तो सागर को ही पाओगे। जरा डुबकी मारो, सागर ही मिलेगा। और लहर खोएगी कैसे? जब थी ही नहीं तो खोने का कोई उपाय नहीं है।
अहंकार हमारी पहली भ्रांति है। फिर अड़चनों का सिलसिला शुरू होता है। फिर चिंता पकड़ती है, कहीं मैं मिट न जाऊं! पहले तो मान बैठे कि मैं हूं। बिना सोचे-समझे मान बैठे कि मैं हूं। न देखा, न खोजा, न जांचा, न परखा। भीतर गए नहीं। बस मान लिया। एक विश्वास है कि मैं हूं, इससे ज्यादा नहीं। जिस दिन तुम जानोगे मैं हूं ही नहीं, उसी दिन मृत्यु भी मिट गई। फिर कौन मिटेगा? फिर परमात्मा है।
मैं को हम पकड़ते हैं जोर से। जितनी जोर से मैं को पकड़ते हैं, उतना ही भय छा जाता है। क्योंकि कहीं गहरे में, कहीं अचेतन में यह प्रतीति तो बनी ही रहती है कि मिटना होगा; हम जिसे पकड़े हैं, वह आभास है। लाख कोई अपने को धोखा दे, तिनकों के सहारे, सहारे नहीं होते। समझा लो भला थोड़ी देर मन को, पर देर-अबेर भ्रांति टूटेगी ही। रोज-रोज टूटती है...कोई मरता है, कोई अरथी निकलती है और तुम्हें भी पता चलता है--मरना होगा, यूं ही अरथी निकलेगी। न हम मरना चाहते हैं--न जिन्हें हम प्रेम करते हैं, चाहते हैं कि वे मरें। मगर मजा यह है कि मरता कोई कभी है ही नहीं। इसलिए चिंता बिलकुल व्यर्थ है।
चिंता यूं है जैसे नंगा नहाता नहीं--इस डर से कि नहाएगा तो निचोड़ेगा कहां, कपड़े सुखाएगा कहां? कपड़े हैं ही नहीं, लेकिन निचोड़ने और सुखाने की चिंता नहाने नहीं देती। नंगा तो जी भर के नहाए, क्या डर है? उसका क्या खो जाएगा?
पर हमने मान लिया है कि हम हैं। यह मनुष्य-जाति का मूलभूत पागलपन है। उसको ही तुम स्वभावतः मुझ पर भी आरोपित कर दोगे। मैं चाहता हूं कि तुम जागो इस भ्रांति से, इस सपने से। लेकिन तुम अपने सपने को मुझ पर ही आरोपित कर दोगे। मैं चाहता हूं तुम्हारी आसक्ति टूटे, मिटे; लेकिन तुम अपनी आसक्ति का जाल मुझ पर ही फेंक दोगे।
हमारे एक दोस्त थे--रामलाल राना।
मस्तक की मशीन में
जाने क्या गड़बड़ हुई।
खुद को समझने लगे
गेहूं का दाना!
जहां कहीं मुर्गा दिखे--डर जाएं
ये तो हमें खा लेगा
--जीते जी मर जाएं।
जहां कहीं बोरा दिखे
घबराएं, बिदक जाएं
कोई इसमें हमें भर लेगा।
बोरे को बंद कर लेगा,
और कहीं आटे की चक्की पड़ जाए दिखाई
तो वहां से भाग लेते राना भाई
यहां हो जाएगी हमारी पिसाई।
खैर, कुछ शुभचिंतकों ने
उनका दिमाग ठीक करने को,
एक फार्म भरवा दिया।
पागलखाने में दाखिल करवा दिया!
डॉक्टर ने समझाया--डियर राना!
तुम्हारे दो कान हैं, दो आंख हैं,
दो पैर हैं, दो हाथ हैं,
चलते हो, बोलते हो,
कैसे हो सकते हो गेहूं का दाना?
पर राना नहीं माना
सो नहीं माना।
खुद को समझता रहा गेहूं का दाना।
अस्पताल में एक वर्ष बीत गया
अचानक एक दिन राना
डॉक्टर से बोला--
डॉक्टर साब! मैं भी हूं कितना भोला!
देखिए तो--
मेरे दो कान हैं, दो आंख हैं,
दो पैर हैं, दो हाथ हैं,
चलता हूं, बोलता हूं, आदमी हूं,
गेहूं का दाना कैसे हो सकता हूं?
अगर अब भी आप मुझे
गेहूं का दाना समझते हैं,
तो आपके दिमाग में ही
कुछ गड़बड़ है हुजूर
मेरा कुछ नहीं है कसूर!
डॉक्टर ने छुट्टी दे दी
आधा घंटे बाद राना फिर आया--
पसीने से लथपथ
कांपता हुआ, हांफता हुआ!
डॉक्टर ने पूछा--
क्या हुआ भई राना!
क्या फिर से खुद को समझने लगे
गेहूं का दाना!
--मैं तो अच्छी तरह समझ गया हूं
बिलकुल आदमी बन गया हूं साब!
लेकिन अभी,
मुर्गे की समझ नहीं आया।
सुनते हो मुझे, शायद समझ भी लेते हो बौद्धिक रूप से, लेकिन प्राणों की गहराई में बात नहीं उतर पाती। वहां अहंकार के साथ बहुत से स्वार्थ जुड़े हैं। वहां तो अहंकार की नई-नई आयोजनाएं चल रही हैं। वहां तो अहंकार कहता है: यूं सजाओ मुझे, यूं श्रृंगार करो! ऐसा धन, ऐसा पद, ऐसी प्रतिष्ठा...!
अहंकार नहीं है, यह मानो तो कैसे मानो? क्योंकि यह मान लो तो तुम्हारे जीवन की जो तथाकथित यात्रा चल रही है, यह पूरी की पूरी गिर जाए, तत्क्षण बिखर जाए। मृत्यु से तो तुम बचना चाहते हो। तुम भी चाहोगे कि मृत्यु न हो, मगर अहंकार को नहीं छोड़ सकते। यही विडंबना है। और जब तक अहंकार को पकड़े हो, मृत्यु से भाग नहीं सकते, बच नहीं सकते। अहंकार छोड़ नहीं सकते, क्योंकि वही तुम्हारे जीवन का सार है, सूत्र है। अहंकार को हटा लो, सब खेल बिखर जाता है। फिर न चुनाव है, न आपा-धापी है, न प्रतियोगिता है, न प्रतिस्पर्धा है, न जलन, न ईर्ष्या; न मैत्री, न द्वेष...सब खो जाता है। अहंकार के जाते ही सारा संसार तिरोहित हो जाता है। यह सारा संसार तुम्हारा अहंकार के वृक्ष पर ही लगे पत्ते हैं, उस पर ही खिले फूल। यह अहंकार की ही फड़फड़ाहट है।
और तुम डरते हो अहंकार नहीं है, तो फिर मैं करूंगा क्या? फिर बचता क्या है करने को! फिर लगेगा एक शून्य में डूबने लगे। उससे तो बेहतर है अहंकार में ही उलझे रहो। मगर मौत से डरते हो। और अहंकार के पीछे मौत आएगी ही आएगी। क्योंकि झूठ को कब तक सम्हालोगे? एक न एक दिन गिरेगा, टूटेगा, बिखरेगा।
मैं चाहता हूं कि तुम समझो--न तो मैं कभी जन्मा हूं, न कभी मरूंगा। जन्म भी एक घटना है जीवन में और मृत्यु भी एक घटना है। लहर का उठना, लहर का गिरना--दोनों घटनाएं हैं। उठने के पहले भी लहर है, गिरने के बाद भी लहर है। और जो मैं अपने संबंध में कह रहा हूं, वह तुम्हारे संबंध में भी कह रहा हूं। मैं अपने अनुभव से कह रहा हूं, तुम्हें अभी अनुभव करना है। अगर मैं तुम्हें अनुभव न करा सकूं तो मेरी मौजूदगी व्यर्थ, तुम्हारा मेरे साथ होना व्यर्थ।
धर्म भारती, तू कहती है: ‘आप अपनी मृत्यु की बात करते हैं तो मैं कांप जाती हूं।’
इसीलिए कांप जाती है कि अभी भी मृत्यु को मानती है। नहीं तो हंसती। कांपने का क्या था? कौन कब मरा है? लेकिन तुझे लगता है कि तू मर सकती है...तो फिर हम अपनी ही भ्रांतियां तो दूसरों पर आरोपित करते हैं। जो हम अपने संबंध में सोचते हैं, उसी गणित को हम फैला कर उनके संबंध में सोचते हैं जिनको हम प्रेम करते हैं। यह भी हो जाता है कि हम अपने प्रेमियों के प्रति इतने आसक्त हो सकते हैं कि खुद मरने को राजी हो जाएं।
न मालूम कितने पत्र आए हैं! मित्रों ने कहा कि हमारी उम्र आपको लग जाए। हम अपना जीवन आपको देना चाहते हैं। आपकी मृत्यु हमारी मृत्यु बन जाए और हमारा जीवन आपका जीवन।
तुम्हारे प्रेम को मैं समझा। तुम्हारी शुभाकांक्षा को समझा। लेकिन तुम्हारी भ्रांति भी है वहां। हम सब शाश्वत हैं, सनातन हैं। तुम भी सदा से यहां हो, मैं भी सदा से यहां हूं। न कोई कहीं गया है, न कहीं कोई आया है। इस भ्रांति को अब तोड़ो और जितने जल्दी तोड़ो, उतना अच्छा है।
तू कहती है: ‘प्रभु, हमसे यह नहीं सुना जाता है। अगर सुना भी नहीं जाता है तो देखा कैसे जाएगा?’
बुद्ध मरे। आखिर उनके शिष्यों को उनकी मृत्यु को देखना ही पड़ा। महावीर विदा हुए तो उनके शिष्यों को विदा देनी ही पड़ी, अलविदा कहना ही पड़ा। जीसस को सूली लगी। शिष्यों को देखना ही पड़ा; आंसू भरी आंखों से सही।
बुद्ध की मृत्यु के समय सिर्फ एक बुद्ध का शिष्य था, मंजुश्री, जो न कुछ बोला, न रोया, न चिंता प्रकट की। जिस वृक्ष के नीचे बैठा था, वहीं बैठा रहा। लोगों ने मंजुश्री को कहा कि पागल तो नहीं हो गए हो? सदमा क्या ऐसा पहुंचा? हम रो रहे हैं...दुख हलका हुआ जा रहा है। तुम रो भी नहीं रहे हो।
मंजुश्री ने कहा: रोए वह, जो जानता नहीं है। मैं क्यों रोऊं? सदमा मुझे पहुंचा नहीं। और यूं नहीं है कि मंजुश्री को बुद्ध से कुछ कम प्रेम था। शायद सर्वाधिक प्रेम था। मंजुश्री के ऊपर बुद्ध की जितनी अनुकंपा बरसी थी, शायद किसी और पर नहीं। मंजुश्री बुद्ध के उन पहले भिक्षुओं में एक था, जो समाधि को उपलब्ध हुए। बुद्ध मंजुश्री को देख कर आह्लादित हो जाते थे। वे सदा लोगों को कहते थे: मंजुश्री से सीखो। मंजुश्री ने जो पाया है, वह पाओ। उनके वचनों में जगह-जगह यह मुहावरा आता है--मंजूश्री की तलवार। तुम पढ़ोगे तो चौंकोगे कि मंजुश्री की तलवार यानी क्या! बुद्ध कहते थे: तलवार हो तो मंजुश्री जैसी होनी चाहिए, एक ही झटके में अपनी गर्दन काट डाली! देर नहीं की। क्रमिक, आहिस्ता-आहिस्ता नहीं, एक झटके में!
बुद्ध ने मुंजश्री को कहा: चुप हो जा, बस कुछ और नहीं करना है। तेरे भीतर शब्द खो जाएं।
मंजुश्री ने कहा: ठीक! बैठ गया एक वृक्ष के तले। नहीं उठा जब तक शब्द नहीं खो गए। और जब सारे शब्द खो गए...तो कथा बड़ी प्रीतिकर है--आकाश से देवता फूलों की वर्षा करने लगे। पूछा मंजुश्री ने...निश्चित ही यह पूछना शब्दों में नहीं हुआ। यह पूछना भाव का रहा। देवताओं से शब्दों की जरूरत भी नहीं है। हृदय से हृदय संबंधित हुआ। पूछा मंजुश्री ने निःशब्द मौन में: ये फूल किसलिए गिरा रहे हो? किस बात का उत्सव मना रहे हो? कौन सा महोत्सव है आज? कौन सी होली, कौन सी दीवाली?
देवताओं ने कहा: तुमने जो धर्म पर प्रवचन दिया, उसके लिए हम फूल बरसा रहे हैं।
मंजुश्री खूब हंसा। उसने कहा: मैं तो बोला ही नहीं, प्रवचन कैसा? धर्म पर प्रवचन कैसा?
तो देवताओं ने कहा: यही तो प्रवचन है धर्म पर कि तुम बोले नहीं। तुम यूं चुप हुए कि तुम्हारे भीतर शब्द की एक लहर भी न रही, तरंग भी न रही।
धर्म के बोलने का यही ढंग है--मौन से मुखर होता है धर्म। शून्य में संगीत बजता है धर्म का। शून्य ही उसकी वीणा है। उसके तारों पर ही छिड़ती है तान। ध्यान की यह परम अवस्था, यह समाधि ही बांसुरी है। इसी में उठता है वह गीत, वह अनाहत नाद, जिसको नानक कहते हैं--एक ओंकार सतनाम! वह ओंकार का नाद इसी शून्य में अपने से होता है, करना नहीं होता। रोएं-रोएं से प्रकट होने लगता है। पूरा व्यक्तित्व एक लयबद्ध संगीत में रूपांतरित हो जाता है।
देवताओं ने कहा: इसीलिए कि तुम बोले नहीं, हम फूल गिरा रहे हैं। ऐसी चुप्पी कभी-कभी घटती है: बुद्ध के बाद तुमको घटी है।
बुद्ध से आकर मंजुश्री ने कहा था: ये देवता भी बड़े पागल हैं! मैं तो चुप बैठा हूं और ये कहते हैं--तुमने धर्म पर प्रवचन दिया!
बुद्ध ने कहा: वे ठीक कहते हैं। वे पागल नहीं हैं। अभी तू नया-नया शून्य में प्रविष्ट हुआ है, इसलिए तुझे पता नहीं है। धीरे-धीरे अनुभव होगा। जैसे-जैसे शून्य गहन होगा, वैसे-वैसे और भी और फूल बरसेंगे। फूल ही फूल रह जाएंगे, कांटे सब खो जाते हैं। भाव ही भाव रह जाते हैं, सुगंध ही सुगंध।
यह मंजुश्री बुद्ध की मृत्यु पर चुपचाप बैठा रहा, वक्तव्य ही नहीं दिया। न अरथी में सम्मिलित हुआ, न अंतिम संस्कारों में। बहुत कहा औरों ने कि मंजुश्री, यह शोभा नहीं देता। मंजुश्री ने कहा: वे न कभी पैदा हुए, न मर सकते हैं। मैं उन्हें पहचानता हूं। वे अब भी वहीं हैं, जहां थे।
धर्म भारती, ऐसा ही मैं चाहूंगा, मंजुश्री की तलवार तुममें से बहुतों के हाथों में हो! तुम पर भी फूल बरसें! तुम्हारे भीतर भी मौन का अनाहत नाद उठे!
फिर अगर मैं तुमसे मृत्यु की बात न करूंगा तो कौन करेगा? इधर तुमसे कहूंगा अहंकार छोड़ो, उधर तुमसे कहूंगा मृत्यु एक झूठ है। अपने ही जीवन से मुझे तुम्हें जीवन की शिक्षा देनी होगी और अपनी ही मृत्यु से मुझे तुम्हें मृत्यु का संदेश देना होगा। और तो कोई उपाय भी नहीं है। ये घटनाएं अस्तित्वगत हैं।
पीड़ा तुम्हें होती है मोह के कारण, मृत्यु के कारण नहीं। आसक्ति के कारण। इस आसक्ति को थोड़ा ऊपर उठाओ, इसे थोड़ा प्रेम बनाओ, प्रार्थना बनाओ, इसे पंख दो। इसे आकाश में उड़ने दो।
आसक्ति तो यूं है जैसे बीज, बंद और प्रेम यूं है जैसे वृक्ष पर खिल आए फूल, मुक्त हो गई गंध, बिखर गई हवाओं में!
आसक्ति से ऊपर उठो। मैं सदा शरीर में नहीं हो सकता। और अच्छा है कि तुम्हें तैयार करूं कि तुम मेरे अशरीरी रूप से भी संबंधित होने लगो। अभी, जब कि मैं शरीर में हूं, तभी! तुम्हें धीरे-धीरे निष्णात करना है, प्रशिक्षित करना है। हर चुनौती का उपयोग कर लेना है, हर अवसर का! ऐसा उपयोग करना है कि सोने में सुगंध आने लगे।
दुख भी होगा, पीड़ा भी होगी तुम्हें--यह जानता हूं, यह स्वीकार करता हूं। लेकिन तुम्हारे आंसू भी शुभ हैं, क्योंकि तुम्हारी आंखों को स्वच्छ कर जाएंगे। तुम्हारी आंखें ज्यादा साफ देख सकेंगी।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, मुझे आश्चर्य है कि पूर्व-सदगुरु इतनी पिटाई नहीं किए जितनी कि आप कर रहे हैं, फिर भी हम लोग जागते नहीं और प्रश्न पर प्रश्न पूछते चले जाते हैं। कृपा कर बोध देने की अनुकंपा करें।
मोहन वेदांत! मनुष्य जैसा आज सोया है, ऐसा पहले कभी सोया भी नहीं था। इसलिए झकझोरना भी ज्यादा होगा। क्योंकि मनुष्य ने सोने के लिए सारी सुविधाएं जुटा ली हैं, सोने के सारे आयोजन जुटा लिए हैं। इतनी सुविधाएं न थीं कभी, इतने आयोजन न थे कभी।
आज जितने गहरे तुम सो सकते हो, इतना आदमी कभी नहीं सो सकता था। जीवन बहुत कंटकाकीर्ण था, बहुत दुखों से भरा था। विज्ञान ने, नये-नये तकनीकों ने, नई-नई खोजों ने मनुष्य के जीवन से बहुत सा दुख अलग कर लिया। ऊपर-ऊपर ही सही, परिधि पर ही सही, लेकिन मनुष्य को सुख के बहुत से आयोजन दे दिए, बहुत से खिलौने दे दिए हैं जिनमें उलझा रहे। इसलिए जगाने में उसके बहुत से खिलौनों को तोड़ना पड़ेगा। इतने खिलौने आदमी के पास पहले कभी थे ही नहीं। बुद्ध तोड़ते भी तो क्या तोड़ते? महावीर तोड़ते भी तो क्या तोड़ते?
महावीर और बुद्ध की बात सरलता से समझ में आ जाती थी कि जीवन दुख है। और आज भी पूरब के देशों में, जहां जीवन अभी भी महादुख है, नरक है, उनकी बात समझ में आ जाती है। लेकिन पश्चिम में जीवन दुख नहीं है, नरक नहीं है। और पूरब में भी, जिनमें थोड़ी बुद्धि है, उन्होंने जीवन से दुख को कम से कम कर लिया है। और जल्दी ही सारी पृथ्वी पर दुख क्षीण हो जाएगा। और मैं इसके विरोध में नहीं हूं कि दुख क्षीण न किया जाए, कि समृद्धि न बढ़े। मैं कोई दरिद्रनारायण का पक्षपाती नहीं हूं। मैं तो मानता हूं समृद्धि बढ़े।
बर्ट्रेंड रसल ने कहा है: अगर आदमी परिपूर्ण रूप से सुखी हो जाए, जैसा कि विज्ञान एक दिन आदमी को कर सकेगा, तो फिर किसी को धार्मिक होने की जरूरत न रह जाएगी।
उसकी बात में थोड़ी दूर तक सचाई है। अगर तुम्हारे जीवन में सब सुख हो तो तुम्हें बुद्ध की बात ठीक कैसे लगेगी कि जीवन दुख है, जन्म दुख है, जीवन दुख है, जरा दुख है, मृत्यु दुख है, दुख ही दुख है?
हजारों बीमारियां आदमी ने दूर कर ली हैं। न मालूम कितनी महामारियां समाप्त हो गईं! आए दिन प्लेग पड़ती थी, आधे-आधे देश मर जाते थे। अब तो प्लेग सुनी नहीं जाती, अब तो बात इतिहास की हो गई। काला ज्वर लाखों लोगों को मार डालता था। अब तो काला ज्वर सुना नहीं जाता। अब तो सिर्फ पूरब के देशों में तुम्हें कभी-कभी किसी बच्चे पर चेचक के दाग दिखाई पड़ेंगे। पश्चिम में किसी बच्चे के चेहरे पर चेचक के दाग दिखाई नहीं पड़ेंगे। पश्चिम में चेचक विदा हो गई; यहां भी विदा हो रही है। बीमारियां कम हुई हैं, स्वास्थ्य ज्यादा उपलब्ध हुआ है।
पांच हजार वर्ष पहले की जो भी अस्थियां मिली हैं, हड्डियां मिली हैं, उनसे एक बहुत हैरानी की बात पता चलती है कि कोई अस्थिपंजर चालीस वर्ष से ज्यादा उम्र का नहीं मिला। आमतौर से तुम यह सुनते हो कि प्राचीन समय में लोग खूब जीते थे, बड़ी उनकी लंबी आयु होती थी। बात सच नहीं मालूम पड़ती, क्योंकि चालीस साल से लंबी उम्र वाला कोई भी अस्थिपंजर नहीं मिला, अब तक नहीं मिला। लेकिन यह हो सकता है कि चालीस साल भी लंबे मालूम पड़ते हों। दुख में समय लंबा मालूम पड़ता है। और गिनती भी नहीं आती थी। आज भी दूर देहात में जाकर जहां गिनती नहीं आती, अगर लोगों से पूछो कि उनकी उम्र क्या है, तो उम्र नहीं बता सकते वे। न उन्हें पता है कब जन्मे, न उन्हें पता है कितनी उम्र बीत गई। अंदाज ही है बस। और ठेठ आदिवासियों को तो अंदाज भी नहीं होता। चालीस साल से ज्यादा कोई उम्र नहीं होती थी।
आज हालतें और हैं। आज अस्सी वर्ष तक पहुंच जाना बड़ी सरल बात है। नब्बे वर्ष भी बहुत कठिन नहीं है। सौ वर्ष के बहुत लोग हैं पृथ्वी पर। रूस जैसे देशों में जहां स्वास्थ्य ने बहुत प्रगति की है, डेढ़ सौ वर्ष की उम्र वाले हजारों लोग हैं। पौने दो सौ वर्ष और दो सौ वर्ष तक की उम्र तक पहुंचने वाले लोग रूस में मौजूद हैं। और यूं नहीं कि खाट पर पड़े हों कि अस्पतालों में पड़े हों, काम में संलग्न हैं। डेढ़ सौ साल के बूढ़े खेतों में, बगीचों में काम कर रहे हैं, जैसा कि जवान काम करता हो।
वैज्ञानिक कहते हैं कि आदमी का यह जो शरीर है इसकी क्षमता इतनी है कि इसे बड़ी आसानी से तीन सौ साल तक तो जिलाया ही जा सकता है। और ज्यादा भी सुविधाएं अगर उपलब्ध हुईं तो आदमी का शरीर जी सकता है। इसे इतना लंबाया जा सकता है, क्योंकि इसके भीतर स्वयं को बार-बार पुनरुज्जीवित कर लेने की क्षमता है।
तो रसल की बात में थोड़ी सी सचाई है। अगर जीवन से सब बीमारियां मिट जाएं, अगर जीवन से बुढ़ापा मिट जाए--जिसकी संभावना है। आने वाली सदी में बुढ़ापा अतीत की बात हो जाएगी। हममें से बहुत लोग अपने जीवन में यह देख सकेंगे कि बुढ़ापा अतीत की बात हो गई। क्योंकि बुढ़ापा एक खास चीज पर निर्भर है। आदमी जब पैदा होता है तो मां-बाप के जिन जीवाणुओं से मिल कर बनता है, उन जीवाणुओं में उम्र तय होती है। अगर उन जीवाणुओं के प्रोग्राम को बदला जा सके तो उम्र को कितना ही किया जा सकता है, कितना ही लंबाया जा सकता है। और विज्ञान धीरे-धीरे सफल हो रहा है कि उनकी अंतर्निहित प्रक्रिया को बदला जा सकता है। तो बुढ़ापे को काटा जा सकता है। फिर कौन मानेगा बुद्ध की बात कि बुढ़ापा दुख है! बुढ़ापा होगा नहीं। फिर कौन मानेगा कि जीवन पीड़ा है! जीवन बहुत सुखद हो सकता है। जीवन में नब्बे प्रतिशत दुख तो हम अपने कारण बनाए हुए हैं, जीवन में नहीं हैं।
मगर फिर भी मैं रसल से राजी नहीं हूं पूरा-पूरा, क्योंकि मेरा मानना है कि कितना ही जीवन सुखद हो जाए तो भी धर्म समाप्त नहीं हो जाएगा। हां, इतना ही होगा कि सदगुरुओं का काम थोड़ा जटिल हो जाएगा, थोड़ा कठिन हो जाएगा। लोगों को जगाने के लिए पुराने आदिम ढंग काम में नहीं आएंगे, नये ढंग काम में लाने होंगे। जैसे विज्ञान विधियां उपयोग करता है मनुष्य को सुलाने की सुख में, वैसा ही धर्म को भी विधियां उपयोग करनी पड़ेंगी जगाने की। मैं उन सारी विधियों पर ही प्रयोग कर रहा हूं। मेरी उत्सुकता सिर्फ तुममें ही नहीं है; मेरी उत्सुकता उनमें भी है जो तुम्हारे पीछे आने वाले हैं। मेरी उत्सुकता भविष्य में है।
इसलिए मेरा अतीत के धर्मों में बहुत रस नहीं है। उनके दिन लद गए। वह भाषा पुरानी पड़ गई। और भाषाएं पुरानी पड़ ही जाएंगी। वे सिद्धांत भी पुराने पड़ गए। अब हमें नई प्रक्रियाएं खोजगी होंगी। जीवन ही बदल गया, पूरा का पूरा जीवन बदल गया। अब हमें लोगों को जगाने के लिए भी नये आयोजन करने होंगे।
इसलिए यह आश्रम इस पृथ्वी पर अपने किस्म का अकेला आश्रम है। जिन प्रक्रियाओं से यहां संन्यासी गुजर रहे हैं, दुनिया में कहीं नहीं गुजर रहे हैं। कम से कम भारत में तो जो आश्रम हैं, वे उन्हीं पिटी-पिटाई लीकों पर चल रहे हैं। इसलिए वहां बूढ़ों को ही बात जमती है।
यहां लोग आकर चौंकते हैं। जब इतने युवक और युवतियों को देखते हैं तो उनको भरोसा नहीं आता: मुझसे आकर पूछते हैं कि इतने युवक और युवतियां धर्म में उत्सुक हों, इस पर हमें भरोसा नहीं आता। क्योंकि चर्चों में और मंदिरों में तो बूढ़े और बूढ़ियां दिखाई पड़ते हैं। उसका कारण है। उसका कारण है: चर्च और मंदिर की भाषा अत्यंत दकियानूसी हो गई है। वह सिर्फ बूढ़ों की समझ में आ पाती है--बूढ़े, जो कि समसामयिक नहीं हैं।
मैं जो भाषा बोल रहा हूं, वह शायद बूढ़ों की समझ में न आए। वह युवकों की समझ में ही आएगी।
इसलिए अब मैं यह नहीं कह रहा हूं कि जीवन दुख है और जीवन का त्याग कर दो। मैं यह कह रहा हूं कि जीवन महासुख है। जीवन को भोगो, जी भर कर भोगो। जीवन का सारा रस निचोड़ लो। जीवन में एक बूंद भी मत छोड़ो। और तभी तुम्हें पता चलेगा कि जब जीवन इतना रस है तो महाजीवन कितना रस न होगा!
पुराना धर्म कहता था: जीवन दुख है। इसलिए परमात्मा को खोजो, क्योंकि परमात्मा सुख है। मैं कहता हूं: जीवन सुख है। इसलिए परमात्मा को खोजो, क्योंकि परमात्मा महासुख है। इस भेद को समझना। यह भेद बुनियादी है, आधारभूत है। इसलिए दकियानूसी लोग अगर मुझसे नाराज हों तो आश्चर्य नहीं। उनका कसूर भी क्या! मैं उनकी नाराजगी समझ सकता हूं, क्योंकि मैं सारे मापदंड बदल रहा हूं। मैं नई धारणाएं स्थापित कर रहा हूं, नये मूल्य निर्धारित कर रहा हूं। मैं कह रहा हूं: जीवन सुख है। इतने से राजी मत हो जाना, क्योंकि अभी महासुख भी मिल सकता है। जीवन को सीढ़ी बनाओ। अगर यह शरीर का जीवन इतना सुख हो सकता है तो आत्मा का जीवन कितना सुख न होगा, इसकी थोड़ी कल्पना करो!
मैं तुम्हारी कल्पना पर निखार देना चाहता हूं। मैं तुम्हारे भीतर नई आशाओं के सूरज उगाना चाहता हूं। मैं तुम्हारे भीतर एक नई अभीप्सा को प्रज्वलित करना चाहता हूं। मैं तुम्हें भगोड़ा नहीं बनाना चाहता।
इसलिए स्वभावतः, तुम्हें जगाने के लिए मुझे बहुत झकझोरना पड़ेगा। क्योंकि मैं कहता हूं: जीवन सुख है। सुख में आदमी सो जाता है, दुख में सोना मुश्किल हो जाता है। तुम्हारे सिर में दर्द हो तो सोना मुश्किल हो जाता है। हां, दर्द को मिटाने की एक गोली ले लो, एस्प्रो ले लो, फिर नींद आ जाती है। एक कांटा भी पैर में चुभ रहा हो तो सोना मुश्किल हो जाता है। जरा सा भी दुख हो तो जागना आसान होता है, सोना कठिन होता है। और सुख हो तो जागना मुश्किल हो जाता है, सोना आसान हो जाता है।
और चूंकि मैं कह रहा हूं जीवन सुख है और मैं जीवन-विरोधी नहीं हूं, जीवन का पक्षपाती हूं; कहता हूं कि जीवन और परमात्मा पर्यायवाची हैं; परमात्मा महाजीवन है, जीवन उसका द्वार है; परमात्मा मंदिर है तो जीवन उसके मंदिर की सीढ़ियां हैं--तो फिर निश्चित ही मुझे जगाने के लिए खूब तुम्हें झकझोरना पड़ेगा। फिर दुख से तो कोई भी जागना चाहता है। एक तो सो नहीं सकता; अगर सो भी जाए तो जागना चाहता है। लेकिन सुख से नींद भी गहरी आती है और सोया हुआ आदमी जागना भी नहीं चाहता।
तुमने देखा, अगर तुम्हें दुखस्वप्न आता हो तो दुखस्वप्न तुम्हारी नींद को अपने आप तोड़ देता है! जैसे तुम देख रहे हो कि तुम गिर रहे हो पहाड़ से और अब टकराए चट्टान से, अब टकराए चट्टान से, बस टकराओगे और छितर-बितर हो जाओगे--नींद टूट जाएगी।...कि तुम देख रहे हो कि तुम्हारी छाती पर एक सिंह आकर बैठ गया है और बस अब तुम्हारी छाती को चीरने-फाड़ने की तैयारी कर रहा है, उसके नाखून, उसकी हुंकार--तुम सोए रहोगे? तुम जाग ही जाओगे। लेकिन तुम एक सपना देख रहे हो कि तुम्हारे सोने का महल है, सुंदर रानियां हैं, बड़ा राज्य है, जीवन में सुख ही सुख है--कैसे जागोगे? हां, कोई जगाना भी चाहेगा तो भी मुश्किल होगी। जो जगाएगा, वह दुश्मन मालूम होगा। जो जगाना चाहेगा, तुम उसे झिड़कोगे; तुम कहोगे कि भई सोने दो, गड़बड़ न करो, परेशान न करो। अगर तुमने खुद ही अलार्म भर कर रखा होगा तो तुम खुद ही अलार्म बंद कर दोगे, और करवट लेकर सो जाओगे।
तुम पूछते हो वेदांत: ‘मुझे आश्चर्य है कि पूर्व-सदगुरु इतनी पिटाई नहीं किए।’
जरूरत न थी। आदमी वैसे ही काफी पिटा हुआ था। आदमी खुद ही मरा जा रहा था, इतने दुख में दबा जा रहा था। आदमी को सांत्वना की जरूरत थी, संतोष की जरूरत थी। आज हालत बिलकुल बदल गई है। जीवन ने नया मोड़ ले लिया है। हम एक क्रांति से गुजर गए और हम एक क्रांति से गुजर रहे हैं। और वह क्रांति यह है कि मनुष्य का जीवन रोज-रोज सुख से भरता जा रहा है। इसलिए तुम्हें खूब झकझोरना पड़ेगा। तुम्हें जगाने के लिए बहुत प्रगाढ़ आयोजन करने होंगे। इसलिए मैं तुम्हें कूटूंगा, पीटूंगा। तुम्हारी आंखों पर ठंडा पानी छिड़कूंगा, बर्फीला पानी। तुम यूं न उठोगे तो खींचूंगा बिस्तर से, तुम्हारा कंबल छीन लूंगा। उसी से तुम नाराज हो जाते हो।
अब जो आदमी छुरा फेंका, वह क्यों फेंका? चार दिन से सुन रहा थाआकर। उसको लगा होगा मेरा कंबल ही छीने लेते हैं; कि मैं मजे की नींद में सो रहा हूं, मेरी नींद ही खराब किए देते हैं! मेरी धारणाओं को तहस-नहस किए देते हैं। मेरे धर्म पर आघात हो रहा है।
तुम सीधी बात नहीं कहते कि हमारी नींद पर आघात हो रहा है; कहते हो धर्म पर आघात हो रहा है। मगर सचाई यह है कि सिर्फ तुम्हारी नींद पर आघात हो रहा है। लेकिन तुम अच्छे-अच्छे शब्दों का उपयोग करने के आदी हो गए हो। अच्छे शब्दों की आड़ में छिपा लेते हो अपने को, अपनी तंद्रा को, अपनी निद्रा को, अपनी बेहोशी को।
तुम पूछते हो वेदांत: ‘फिर भी हम जागते नहीं और प्रश्न पर प्रश्न पूछे चले जाते हैं।’
पुराने सदगुरु तो चाहते ही नहीं थे कि तुम प्रश्न पूछो। प्रश्नों के पूछने की वस्तुतः मनाही थी। प्रश्न पूछना नास्तिकता समझी जाती थी। पुराने सदगुरुओं का जोर था: हम जो कहें, मानो, भरोसा करो, श्रद्धा रखो।
मेरा मामला जरा भिन्न है। भरोसे की भाषा अब नहीं चलेगी। पुराने सदगुरुओं को पता ही नहीं था, एक दिन भरोसे की भाषा मर जाएगी। विज्ञान ने प्राण ले लिए भरोसे की भाषा के। विज्ञान संदेह पर खड़ा है। विज्ञान पूछता है, खोजता है, प्रयोग करता है और जब तक सुनिश्चित परिणाम हाथ में न आ जाएं, तब तक स्वीकार नहीं करता। सारे जगत की हवा विज्ञान से भरी है। जो लोग विज्ञान से परिचित नहीं हैं, वे भी वैज्ञानिक ढंग में धीरे-धीरे ढलते जा रहे हैं। हर बच्चा वैज्ञानिक ढंग में ढला जा रहा। इसके सिवा कोई उपाय भी नहीं है। विज्ञान आधुनिक जगत की आधारशिला है। विज्ञान को झुठलाया नहीं जा सकता।
अब तुम किसी वैज्ञानिक से कहो कि हम जो कहते हैं मान लो, तो वैज्ञानिक की पूरी की पूरी शिक्षा-दीक्षा के विपरीत है यह बात। अगर मेरी बात सुशिक्षित लोगों के ही समझ में आ रही है तो उसका कारण है। अशिक्षित लोगों को मेरी बात समझ में नहीं आ सकती। अगर मेरी बात पश्चिम के लोगों को ज्यादा समझ में आ रही है तो उसका कारण है। उसका कारण है कि पश्चिम विज्ञान के रंग में रंग गया है। और पूरब में भी उनकी ही समझ में मेरी बात आ रही है और आएगी, जो बौद्धिक रूप से विकसित हैं। जो पूरब में या पश्चिम में बौद्धिक आभिजात्य है, उससे ही मेरा तालमेल बैठेगा।
मैं कोई ग्रामीण भाषा नहीं बोल रहा हूं। ग्रामीण भाषा यह है कि जो कहा जाए वह मान लो; प्रश्न तो पूछना ही मत। नास्तिकता है प्रश्न पूछना। और मेरे हिसाब में नास्तिकता आस्तिकता की सीढ़ी है। मेरे हिसाब में जो व्यक्ति कभी ठीक से नास्तिक नहीं हुआ, वह कभी ठीक से आस्तिक नहीं हो सकेगा। उसकी आस्तिकता हमेशा लचरपचर रहेगी, पोच, नपुंसक! उसकी आस्तिकता में प्राण नहीं होंगे। आत्मा नहीं होगी। उसकी आस्तिकता कहीं न कहीं थोथी होगी। वह हमेशा डरा रहेगा, घबड़ाया रहेगा कि कहीं कोई संदेह न उठ आए। संदेह मिटाए तो हैं नहीं उसने, सिर्फ दबाए हैं।
विश्वास करने का क्या अर्थ होता है?
मैंने खुद कभी किसी चीज पर विश्वास नहीं किया। इसलिए मैं तुमसे कैसे कहूं कि विश्वास करो। मैं तो अविश्वास के मार्ग से चला और सत्य तक पहुंचा। मैं तो तुम्हें भी उसी मार्ग पर निमंत्रण दे सकता हूं, जो मेरा जाना-माना है, जिससे चल कर मैं आया हूं। मैं तो यह सोच ही नहीं सकता कि कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति कैसे विश्वास कर सकता है! असंभव है मेरे लिए, यह कल्पना भी असंभव है। ईश्वर को तुमने देखा नहीं, कैसे मानोगे? और अगर मान लिया तो तुम बेईमान हो। और बेईमान आदमी कहीं धार्मिक होते हैं? धार्मिक आदमी को कम से कम ईमानदार तो होना चाहिए! इतना भी ईमान नहीं है। सच पूछो तो ‘ईमान’ शब्द का अर्थ धर्म होता है। इतना भी ईमान नहीं है कि तुम कह सको कि यह मुझे पता नहीं, तो मैं कैसे मानूं? तुम कायर हो।
लोग कहते हैं कि मानो--और ऐसे लोग, जिनके हाथ में ताकत है। तुम ताकत के सामने झुकते हो। तुम डंडे के बल को मानते हो। तुम जिसकी लाठी उसकी भैंस में भरोसा रखते हो। इसलिए रूस में लाठी नास्तिकों के हाथ में है तो सारा देश नास्तिक। ये ही लोग उन्नीस सौ सत्रह की क्रांति के पहले आस्तिक थे, क्योंकि लाठी आस्तिकों के हाथ में थी। यह चमत्कार तुम देखते हो? रूस दुनिया के सर्वाधिक धार्मिक देशों में से एक देश था--बहुत रूढ़िवादी, बहुत रूढ़िचुस्त, बहुत दकियानूसी, बहुत पुरातनपंथी। साधारण से साधारण आदमी से लेकर रूस का जो सम्राट था जार...जार तक सारे लोग अंधविश्वासी थे। लेकिन यही रूस क्रांति के बाद दस साल में नास्तिक हो गया। इसकी आस्तिकता थोथी थी। बस यह आस्तिक था, क्योंकि जिनके हाथ में डंडे थे, वे आस्तिक थे। और वे आस्तिकता आरोपित कर रहे थे। फिर डंडे बदल गए, नास्तिकों के हाथ में पहुंच गए और उन्होंने नास्तिकता थोप दी।
तुम सोचते हो तुम आस्तिक हो? तुम आस्तिक नहीं हो। तुम्हारे मां-बाप आस्तिक थे, उन्होंने तुम पर आस्तिकता थोप दी। वे भी आस्तिक नहीं थे, उनके मां-बाप उन पर थोप गए। ये बीमारियां पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती हैं। तुम सोचते हो आस्तिक हो? पंडित, पुरोहित, अध्यापक, राजनेता, वे सब आस्तिक हैं। मगर वे भी आस्तिक नहीं हैं। उन पर भी थोपा गया है।
इन सबके बीच ईमानदार आदमी पहला काम तो यह करेगा कि वह इस कूड़े-कचरे को हटा कर रख देगा। वह कहेगा: जो मैं नहीं जानता हूं, उसे कैसे मान सकता हूं?
धार्मिक व्यक्ति जिज्ञासु होगा, मुमुक्षु होगा, विश्वासी नहीं। और जिसने विश्वास कर लिया, उसके जीवन में श्रद्धा कभी पैदा नहीं होगी। क्योंकि उसने झूठे सिक्के पर भरोसा कर लिया तो असली सिक्के की खोज कौन करेगा? क्यों करेगा? जब झूठा ही असली मान लिया तब असली की खोज की झंझट क्यों उठानी? कैसे उठानी?
तुमसे कहा गया है सदियों-सदियों से कि अगर ईश्वर को पाना है तो पहले मानो। यह भी कोई बात हुई? यह तुम्हारी बुद्धिमत्ता का अपमान हुआ। यह तुम्हारी आत्मा का अपमान हुआ।
मैं तुमसे कहता हूं: अगर ईश्वर को जानना है तो मानना कभी नहीं, अन्यथा तुम कभी जान न सकोगे। अगर ईश्वर को जानना है तो खोजना। विश्वास मत करना, प्रयोग करना। ध्यान प्रयोग है, विश्वास नहीं। जैसे विज्ञान बाहर प्रयोग करता है, वैसे धर्म भीतर प्रयोग करता है। मगर दोनों प्रयोग करते हैं। विज्ञान के प्रयोग वस्तुगत होते हैं; धर्म के प्रयोग आत्मगत होते हैं। विज्ञान के प्रयोग पदार्थों पर होते हैं; धर्म के प्रयोग चैतन्य पर होते हैं। मगर दोनों प्रयोग हैं।
मेरे हिसाब में ‘विज्ञान’ एक शब्द काफी है। भविष्य में धर्म शब्द को जीने की कोई जरूरत नहीं है। विज्ञान की दो शाखाएं होंगी--एक बहिर्मुखी और एक अंतर्मुखी। बहिर्मुखी शाखा पदार्थ की खोज करेगी; अंतर्मुखी शाखा चैतन्य की खोज करेगी। और एक ही बात रह जाएगी--विज्ञान। और एक ही जीवन का दृष्टिकोण रह जाएगा--वैज्ञानिक।
और तुम देखते हो, वैज्ञानिक चाहे हिंदू हो, चाहे मुसलमान हो, चाहे ईसाई हो, उसका विज्ञान अलग-अलग नहीं होता; उसका विज्ञान तो एक ही होता है। चाहे हिंदू पानी गर्म करे और चाहे मुसलमान, सौ डिग्री पर पानी भाप बनता है तो सौ ही डिग्री पर बनता है। वह यह नहीं देखता कि कौन गर्म कर रहा है। गर्म करने वाला कुरान पढ़ता है, कि गीता पढ़ता है, कि बाइबिल पढ़ता है? पानी को क्या लेना-देना?
जैसे विज्ञान ने एक कर दिया है दुनिया के सारे वैज्ञानिकों को, इसी तरह जिस दिन धर्म अंतर का विज्ञान होगा उस दिन दुनिया से ये सारे धर्म--तीन सौ धर्म हैं दुनिया में--ये सब विदा हो जाएंगे। इनके उपद्रव भी विदा हो जाएंगे।
मैं एक वैज्ञानिक धर्म की नींव रख रहा हूं या अंतर के विज्ञान की आधारशिला। यहां तो पूछो, जी भर कर पूछो। पूछोगे तो उसका अर्थ हुआ--तुम खोज रहे हो। जिज्ञासा करो। और कंजूसी मत करना। मैं तुम पर कुछ थोपना नहीं चाहता। इसलिए तुम्हारे प्रश्नों के विपरीत नहीं हूं। चाहता हूं तुम्हारे भीतर प्रश्नों को जगाऊं। सदियों-सदियों से सोए पड़े प्रश्नों को उकसाऊं। सदियों-सदियों से तुम्हारे भीतर प्रश्नों के अंगार विश्वास की राख में दब गए हैं, उस राख को हटाऊं और अंगारों को फिर से हवा दूं कि फिर से वे दमकने लगें। उनकी दमक के साथ तुम्हारे भीतर भी एक दमक आएगी।
इसलिए वेदांत, तुम यह तो कहो ही मत कि हम प्रश्न पर प्रश्न क्यों पूछे चले जाते हैं! यहां नहीं पूछोगे तो कहां पूछोगे? और कहीं पूछोगे तो फौरन तुम्हारा मुंह बंद कर दिया जाएगा। उतना ही पूछना जितना विश्वास की परिधि में आता हो--और वह भी कोई पूछना है? असली पूछना तो तब उठता है जब तुम विश्वास की परिधि के पार जाते हो। और तुम्हारे छोटे-मोटे लोगों की बात छोड़ दो, तुम्हारे छोटे-मोटे महात्माओं की बात छोड़ दो। वे गांव-गांव फैले हुए हैं। तुम्हारे बड़े से बड़े महात्मा भी बहुत भिन्न नहीं हैं। मात्रा के भला भेद हों, गुण के भेद नहीं दिखाई पड़ते।
जनक ने--उपनिषदों में कथा है--एक बहुत बड़ा, विराट आयोजन किया, ब्रह्मज्ञानियों को बुलाया। उस आयोजन में दो अपूर्व घटनाएं घटीं। एक तो घटना घटी याज्ञवल्क्य के संबंध में। याज्ञवल्क्य उस समय का बहुत बड़ा तथाकथित ज्ञानी था। तथाकथित ही मैं कहूंगा। कम से कम उस समय तक तो तथाकथित ही रहा होगा, बाद में सच्चा हो गया हो तो परमात्मा जाने। और अहंकारी भी रहा होगा। क्योंकि जनक ने एक हजार गऊएं भवन के बाहर, राजमहल के बाहर खड़ी कर रखी थीं, उनके सींग सोने से मढ़ दिए थे। वह पुरस्कार था। जो भी ब्रह्मज्ञान में जीत जाएगा, वह हजार गऊओं को ले जाएगा। सुंदरतम गऊएं थीं, श्रेष्ठतम गऊएं थीं। सोने से मढ़े उनके सींग थे। बड़ा पुरस्कार था। अब ब्रह्मज्ञानी पुरस्कार के लिए जाएंगे, पहले तो यही जरा सोचने की बात है। ब्रह्मज्ञानी न हुए, बच्चे हुए कि कोई वाद-विवाद प्रतियोगिता में पहुंच गए, कि जीत लाएंगे कोई चांदी का कप, कि सोने की शील्ड। ब्रह्मज्ञानी न हुए, बहुत बचकाने हुए। सारे ब्रह्मज्ञानी इकट्ठे हो गए! कौन छोड़े हजार गऊएं! गऊ उस समय बड़ी संपदा थी। और श्रेष्ठतम गऊएं थीं वे जनक की गऊशाला की।
याज्ञवल्क्य पहुंचा। जरा पहुंचने में उसे देर हो गई। आश्रम उसका दूर था। और अपने शिष्यों के साथ पहुंचा। गऊएं बाहर खड़ी थीं धूप में, पसीना-पसीना हो रही थीं। उसने अपने शिष्यों से कहा कि तुम गऊओं को खदेड़ कर आश्रम ले जाओ, विवाद मैं जीत लूंगा। यह बात बड़े अहंकार की है। जनक भी चौंका और ब्रह्मज्ञानी भी भड़के। मगर वे जानते थे कि याज्ञवल्क्य है तो बड़ा शास्त्रज्ञ, तो कोई कुछ बोला नहीं। उसके शिष्य गऊओं को खदेड़ कर आश्रम ले गए। अभी जीता है नहीं और पुरस्कार उन्होंने उठा ही लिया। अहंकार की और क्या घोषणा हो सकती है? ब्रह्मज्ञानी तो विनम्र होगा, ऐसा अहंकारी नहीं हो सकता।
फिर दूसरी घटना घटी कि उसने सारे ब्रह्मज्ञानियों को हरा दिया। हरा दिया, क्योंकि वह तार्किक था और शास्त्रों के खूब उल्लेख उसने दिए। कोई दूसरा उतना बड़ा पंडित नहीं था। फिर एक महिला, एक स्त्री ब्रह्मवादिनी, गार्गी खड़ी हुई। और उसने उससे तीन-चार प्रश्न पूछे। और जैसे गऊओं को पसीना बह रहा था, ऐसा पसीना याज्ञवल्क्य को बह गया।
गार्गी के प्रति मेरे मन में बड़ा सम्मान है। और तब से ही भारत के तथाकथित ब्रह्मज्ञानी स्त्रियों से नाराज हुए, तो उन्होंने उनके लिए वेद पढ़ने की मनाही कर दी। स्त्रियों से ऐसे भी विवाद में जीतना जरा मुश्किल है। सभी पति जानते हैं। याज्ञवल्क्य को भी पता होगा। वह भी कोई साधारण पति नहीं था, उसकी दो पत्नियां थीं--मैत्रेयी और कात्यायनी। अब दो पत्नियों के अनुभव से ही उसको पता होगा अच्छी तरह। जब गार्गी खड़ी हुई तो गार्गी ने पूछा कि मैं यह पूछती हूं कि यह पृथ्वी किस पर टिकी है? थोड़ा याज्ञवल्क्य चौंका, क्योंकि यह प्रश्न शास्त्रीय नहीं था। स्त्रियों को शास्त्र वगैरह से क्या लेना? मगर ऐसी कोई रोक भी न थी कि शास्त्रीय प्रश्न हो। तो उसे उत्तर तो देन
ा पड़ा। उत्तर तो बुद्धूपन का था कि कछुए पर टिकी है यह पृथ्वी। मगर उस समय के ब्रह्मज्ञानी, तथाकथित ब्रह्मज्ञानी यही समझते थे कि पृथ्वी कछुए पर टिकी है। मगर गार्गी यूं हर जाने वाली न थी। उसने कहा: कछुआ किस पर टिका हुआ है? क्योंकि कछुआ भी किसी पर टिका होना चाहिए।
वह हाथी पर टिका हुआ है।
और फिर हाथी किस पर टिका हुआ है?
तब याज्ञवल्क्य समझ गया कि यह स्त्री दिक्कत में डालेगी। मैं कुछ भी कहूंगा, यह पूछेगी वह किस पर टिका हुआ है, वह किस पर टिका हुआ है, वह किस पर टिका हुआ है? इसने एक ऐसा प्रश्न उठाया है कि मेरी फजीहत करा कर रहेगी।
तो उसने कहा इसको एक सीधा जवाब दे देना उचित है। उसने कहा कि ये सब इतने प्रश्न पूछने की जरूरत नहीं है। प्रत्येक चीज ब्रह्म पर टिकी हुई है। गार्गी ने पूछा तो मैं भी एक ही प्रश्न पूछती हूं फिर कि ब्रह्म किस पर टिका हुआ है?
याज्ञवल्क्य आगबबूला हो गया। उसने कहा: गार्गी, यह अतिप्रश्न है। अगर आगे तूने बकवास की तो तेरा सिर धड़ से गिर जाएगा।
इसके बाद शास्त्र कुछ नहीं कहते कि क्या हुआ। मगर यह कोई बात न हुई। उसका प्रश्न अतिप्रश्न नहीं है। कोई प्रश्न अतिप्रश्न नहीं है। लेकिन याज्ञवल्क्य इतना घबड़ा क्यों गया? ब्रह्म किस पर टिका है, वह ठीक पूछ रही है। या तो पहले ही कह दो कि कोई चीज किसी पर नहीं टिकी है। जब पहले से तुम जवाब देने को तैयार हो तो फिर आगे चल कर एक जगह जाकर कहना कि यह अतिप्रश्न हो जाएगा...। अतिप्रश्न का क्या अर्थ? जो नहीं पूछना चाहिए। क्यों नहीं पूछना चाहिए? इसलिए कि ब्रह्मज्ञानी के पास उत्तर नहीं है? अतिप्रश्न, क्योंकि ब्रह्मज्ञानी की बेइज्जती हो जाएगी। अतिप्रश्न, क्योंकि वे एक हजार गऊएं वापस लौटानी पड़ेंगी। यह बड़ी भद्द हो जाएगी। और यह भी कोई धमकी, यह उत्तर हुआ? यह बातचीत हुई? यह तो मार-पीट पर बात उतर आई, मारा-मारी पर बात उतर आई कि सिर धड़ से गिरा दिया जाएगा, कि सिर धड़ से गिर जाएगा, बस अब चुप हो जा! यह तो जबर्दस्ती हो गई। यह जवाब न हुआ, लट्ठ मारना हुआ।
और तब से स्त्रियों को ब्रह्मज्ञान में भाग लेने का हकदार नहीं समझा गया। हालांकि मेरी दृष्टि में गार्गी ने ठीक पूछा था। याज्ञवल्क्य के पास उतर नहीं था तो क्षमा मांगनी थी। तो झुक कर गार्गी के चरणों में बैठना था और कहना था कि गार्गी, मेरे पास उत्तर नहीं है, अगर तेरे पास उत्तर हो तो तू दे। मैं तुझसे पूछता हूं फिर। मैं हार गया।
मगर अहंकार कहीं अपनी पराजय स्वीकार करे! और पुरुष स्त्री के सामने पराजय स्वीकार करे! असंभव! फिर तो उचित यही था कि स्त्रियों के लिए द्वार ही दरवाजे बंद कर दो, क्योंकि स्त्रियां पार्थिव होती हैं। उनके प्रश्न भी ज्यादा ठोस होंगे, ज्यादा वास्तविक होंगे, ज्यादा यथार्थवादी होंगे, हवाई कम होंगे। उनको हवाई बातों में कम रस होता है, व्यर्थ की बकवास में कम रस होता है।
और दूसरी घटना उस जनक की ब्रह्मज्ञानियों की सभा में घटी--अष्टावक्र का आना। अष्टावक्र का पिता भी ब्रह्मज्ञानी था, वह भी गया था भाग लेने। देर होती देख कर अष्टावक्र की मां ने कहा कि बहुत देर हो गई, तुम्हारे पिता आए नहीं, जाओ उन्हें बुला लाओ। अष्टावक्र का नाम अष्टावक्र इसीलिए था, क्योंकि उसका शरीर आठ जगह से टेढ़ा-मेढ़ा था। बड़ा कुरूप रहा होगा बेचारा। आठ जगह से शरीर टेढ़ा-मेढ़ा हो तो आदमी कम, ऊंट ज्यादा। ऊंट भी देख कर हंसने लगें।
अष्टावक्र गया। जैसे ही अंदर प्रविष्ट हुआ, सारे ब्रह्मज्ञानी हंसने लगे। अष्टावक्र तो और जोर से ताली बजा कर हंसा। वह इतनी जोर से ताली बजा कर हंसा कि ब्रह्मज्ञानियों में एकदम सन्नाटा छा गया। एक तो गार्गी फजीहत कर गई थी। किसी तरह गार्गी से सुलझे तो यह अष्टावक्र आ गया। जनक ने पूछा: अष्टावक्र, इन सबका हंसना तो मेरी समझ में आया, लेकिन तू ताली बजा कर क्यों हंसा?
उसने कहा: मैं इसलिए ताली बजा कर हंसा कि मैं तो सोचता था कि यह सभा ब्रह्मज्ञानियों की है। ये चमार यहां किसलिए इकट्ठे हुए हैं?
जनक ने कहा: चमार!
अष्टावक्र ने कहा: निश्चित चमार! जिनको चमड़ी दिखाई पड़े वे चमार। आत्मा तो मेरी भी वैसी ही है जैसी इनकी। मेरी आत्मा में और इनकी आत्मा में कोई भेद नहीं है। मेरी आत्मा इरछी-तिरछी नहीं है, सिर्फ मेरी चमड़ी। मेरी चमड़ी देख कर अगर चमार हंसें तो क्षम्य हैं, मगर ये ब्रह्मज्ञानी हंसते हैं!
और तुम जान कर हैरान होओगे, जनक अष्टावक्र का शिष्य हो गया। याज्ञवल्क्य का शिष्य नहीं हुआ, याद रखना। अष्टावक्र का शिष्य हुआ। उसने अष्टावक्र से कहा कि मुझे बोध दो। मुझे लगता है कि वह जो देह के अतीत है, उसका तुम्हें बोध हुआ है। तुमने बात पते की कही है । और तुम इस सभा में विवाद लेने आए भी नहीं थे। तुम तो सिर्फ अपने पिता को बुलाने आए थे। मैं भी सोचता था कि ये सारे ब्रह्मज्ञानी कैसे ब्रह्मज्ञानी हैं कि हजार गऊओं के पीछे चले आए! पुरस्कार पाने की आकांक्षा में! यह बच्चों को शोभा देता है। लेकिन तुम जरूर कुछ पते की बात कह रहे हो।
ये दो घटनाएं उस अदभुत सभा में घटी थीं। भारत में और भारत के बाहर भी सदियों से हमने ब्रह्मज्ञान को ही अतिप्रश्न बना रखा है। असली बात पूछना ही मत। व्यर्थ की बातों में लोग उलझे हुए हैं।
मध्य-युग में यूरोप में पंडित और पुरोहित विचार करते थे कि एक सुई की नोक पर कितने देवता नाच सकते हैं। इस पर विवाद चलता था। और ये बड़े-बड़े संत थे, महंत थे, ऋषि थे, महर्षि थे। और इनकी बातचीत...अगर तुम अपने शास्त्रों को उठा कर देखोगे तो इसी तरह की व्यर्थताओं से भरे हुए पाओगे।
जिज्ञासा शुभ है। और मेरे हिसाब में नकार पहले है, फिर ही स्वीकार है। जिसने नहीं नहीं कहा, उसके हां कहने में कभी भी तेजस्विता नहीं होती। इसलिए तुम जितना नहीं कह सको, कहो; क्योंकि मैं तुम्हारे ऊपर कुछ भी थोपने को नहीं हूं यहां। तुम पूछो, जी भर कर पूछो। क्योंकि मैं पूछ-पूछ कर, खोज-खोज कर, इनकार करते-करते परम स्वीकार को उपलब्ध हुआ। ऐसे ही तुम भी उपलब्ध होओगे।
यह मत सोचना कि पूछना उचित नहीं है, पूछने से अश्रद्धा प्रकट होती है। नहीं, जरा भी नहीं। पूछने से श्रद्धा प्रकट होती है। तुम पूछ कर यह बता रहे हो कि तुम मुझे इस योग्य मानते हो कि मुझसे पूछो। यह तुम्हारा सम्मान है मेरे प्रति। तुम जितना पूछते हो, उतना ही तुम कह रहे हो कि तुम्हें आशा है उत्तर की, अपेक्षा है, अभीप्सा है, प्यास है।
इसलिए वेदांत, पूछते चले जाओ। संकोच न करना। तुम्हारी आदतें पुरानी हैं। इसलिए बहुत तुममें से यह सोचते होंगे कि क्यों लोग इतने प्रश्न पूछते हैं! अरे चुपचाप मान लो! मान लो और बस बात खत्म हो गई। ये कमजोरों के लक्षण हैं। ये कायरों के लक्षण हैं। ये खोजियों के लक्षण नहीं हैं, अन्वेषकों के ये लक्षण नहीं हैं। ये वीरों के लक्षण नहीं हैं।
मेरी पुकार तो साहसियों के लिए है, दुस्साहसियों के लिए है, जुआरियों के लिए है।
धर्म मेरे लिए आत्यंतिक जिज्ञासा है। वहां कोई प्रश्न अतिप्रश्न नहीं है। यद्यपि मैं जानता हूं कि किसी प्रश्न का कोई उत्तर नहीं है। लेकिन मेरे उत्तर धीरे-धीरे तुम्हारे प्रश्नों को तिरोहित करते जाएंगे। उत्तर नहीं मिल जाएगा तुम्हें, खयाल रखना। उत्तर तो तुम्हें मिलेगा अपने ही अनुभव से, लेकिन मेरे उत्तर तुम्हारे प्रश्नों को काटते जाएंगे। धीरे-धीरे तुम्हारे भीतर कोई प्रश्न न बचेगा। और जब कोई प्रश्न न बचेगा तो कोई शब्द भी न बचेगा। उसी निःशब्द में, उसी निष्प्रश्न दशा में समाधि का फूल खिलता है। और वही परम अनुभव है। वही मुक्तिदायी है।
तुम पुरानी आदत छोड़ो, वेदांत। यह आदत तुममें होगी, क्योंकि निवासी हो तुम वाराणसी के। सो बड़ी खतरनाक जगह से आते हो। वाराणसी नंबर एक की खतरनाक जगह है; पूना समझो नंबर दो, यह महाराष्ट्र की वाराणसी है। ये पंडितों के गढ़ हैं। पंडित यानी जड़बुद्धि, मंदबुद्धि--जो यंत्रवत शास्त्रों को दोहराए चले जाते हैं; जिनके लिए ब्रह्मज्ञान तकिया कलाम जैसा हो जाता है, रट गया होता है।
मैंने सुना, चंदूलाल की आदत थी कि प्रत्येक बात के अंत में कहते--आपके मुंह में। यह उनका तकिया कलाम था। एक दिन नसरुद्दीन उनसे बोला कि क्यों भई चंदूलाल, अरे कहां जा रहे हो सबेरे-सबेरे?
चंदूलाल बोले: अजी मियां, बस यहीं नुक्कड़ तक जा रहा था, आपके मुंह में!
नसरुद्दीन बोला: ठीक है, ठीक है, अरे जहां मर्जी हो वहां जाओ, हमें क्या? गुस्सा तो नसरुद्दीन को बहुत आया कि यह भी कोई बात हुई--आपके मुंह में! नुक्कड़ मेरे मुंह में--सड़क का नुक्कड़! लेकिन फिर भी एक बात उसे चंदूलाल से कहनी थी तो उसने कहा कि सुनो भई, एक बात जरूर तुमसे कहनी थी, जहां तुम्हें जाना हो जाओ, मुझे उससे कुछ देना-लेना नहीं। लेकिन जरा अपने साहबजादे को समझाना। कल की ही बात है, सामने के मैदान में क्रिकेट खेलते समय हमारी खिड़की का शीशा तोड़ दिया।
चंदूलाल बोले: अरे भाईजान, जो कुछ भी नुकसान हुआ--आपके मुंह में! उसकी मरम्मत करवा देंगे--आपके मुंह में! अरे ऐसी कौन सी खास बात हो गई--आपके मुंह में! अरे एक शीशा ही टूट गया न--आपके मुंह में!
नसरुद्दीन यह सब सुन कर पगला गया। और बोला कि अबे चंदूलाल के बच्चे, अकल के कच्चे! यह बार-बार क्या लगा रखा है, आपके मुंह में? अब यदि एक बार और बोला आपके मुंह में, तो ऐसा घूंसा मारूंगा आपके मुंह में, कि सारे दांत निकल कर बाहर आ जाएंगे आपके मुंह में! और जिंदगी भर याद रखेगा आपके मुंह में।
इस देश में तो ब्रह्मज्ञान तकिया कलाम जैसा है। हर कोई ब्रह्मज्ञान दोहरा रहा है। जो देखो वही बाबा तुलसीदास की चौपाइयां याद किए बैठे हैं। चौपाइयां याद कर-कर के सब चौपाए हो गए हैं। ऐसी कंठस्थ हो गई हैं कि नींद में भी बड़बड़ाते हैं तो चौपाई...ज्ञान की बातें! जीवन में कहीं कोई लक्षण नहीं। जीवन ठीक उलटा। जीवन ठीक उसके विपरीत। लेकिन जीवन से किसी को लेना-देना नहीं है।
जीवन रूपांतरित होता है प्रयोग से, अनुभव से, खोज से; मानने से नहीं, जानने से। मेरा सारा जोर जानने पर है। मैं ईश्वर को जानता हूं और चाहता हूं कि तुम भी ईश्वर को जानो। और मैंने मान कर नहीं जाना, इसलिए तुमसे मैं कैसे कहूं कि मान कर तुम जान सकोगे? और मेरे जानने में किसी ने कभी मान कर नहीं जाना है। जिन्होंने मान कर सोच लिया हो कि जाना है, वे भ्रांति में ही जीए और भ्रांति में ही मरे। मैं अपने किसी संन्यासी को भ्रांति में न जीने देना चाहता हूं और न भ्रांति में मरने देना चाहता हूं। मैं चाहता हूं तुम सजग होओ, तुम पर फूलों की वर्षा हो! तुम्हारे भीतर दीया जले! तुम जगमग हो उठो--अपने अंतर्प्रकाश से!
तीसरा प्रश्न:
भगवान, क्या बुद्धत्व की भी श्रेणियां होती हैं? क्या इसीलिए हिंदुओं ने अवतारों की कलाएं निर्धारित कीं?
सहजानंद! बुद्धत्व का अर्थ ही होता है सीढ़ियों का अतिक्रमण कर जाना, श्रेणियों के पार हो जाना--जहां सब सीमाएं समाप्त हो जाती हैं, जहां सब माप गिर जाते हैं, जहां अमाप शुरू होता है--वहीं बुद्धत्व है। इसलिए दो बुद्धों में कोई छोटा नहीं होता, कोई बड़ा नहीं होता।
मगर ये सब श्रेणियों का निर्धारण बुद्धपुरुष नहीं करते, बुद्धू करते हैं। और बुद्धू तो अपने ही ढंग से करेंगे न! बुद्धू तो हर चीज में श्रेणियां खोजेंगे। वे तो हर चीज को तराजू पर तौलेंगे।
एक जैन पंडित थे, ऋषभदास रांका। वे ही मुझे सबसे पहली दफा पूना लाए थे। अगर पूना को नाराज होना चाहिए तो ऋषभदास रांका पर, मेरा इसमें कुछ कसूर नहीं है। मैं तो शायद कभी पूना आया भी नहीं होता। वे गांधी जी के साथ वर्षों तक रहे, वर्धा में ही रहे। बड़े सर्वोदयी थे। गांधी और विनोबा का सत्संग करते-करते एक बात उन्होंने सीख ली, रट ली, तकिया कलाम हो गया उनका, कि सब धर्म समान हैं। यूं कहने तो लगे; मगर यह बात रही ऊपर ही ऊपर, भीतर तो जाती कैसे! भीतर तो जैन धर्म बैठा हुआ था। उन्होंने एक किताब लिखी महावीर और बुद्ध पर। मुझे उसकी पांडुलिपि दिखाई और कहा कि आप अपना मंतव्य दें। मैंने किताब का शीर्षक देखा और लौटा दी। मैंने कहा कि बस शीर्षक देख लिया, उतना बहुत। उन्होंने कहा: क्या कहते हैं?
मैंने कहा: बस खत्म हो गई बात। आगे कुछ कहना नहीं। इतना ही बहुत है। शीर्षक ने ही सब बता दिया। महावीर और बुद्ध के संबंध में तो नहीं, आपके संबंध में सब बता दिया।
शीर्षक था किताब का: ‘भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध।’ मैंने पूछा कि एक को भगवान और दूसरे को महात्मा क्यों लिखते हो? और अब तक मेरी खोपड़ी चाटते रहे कि सब धर्म समान हैं और जो गीता में लिखा, वही धम्मपद में, वही कुरान में, वही जिनवाणी में। फिर यह भेद क्यों?
कहने लगे: अब आपसे क्या छिपाना! माना कि सब धर्म समान हैं, मगर महावीर को एक सीढ़ी ऊपर तो रखना ही होगा। वे भगवान हैं, वीतराग पुरुष हैं। बुद्ध, माना कि बहुत पहुंचे हुए सिद्ध हैं, लेकिन महात्मा ही हैं, अभी भगवान नहीं। अभी एक सीढ़ी नीचे हैं।
कोई जैन बुद्ध को महावीर के साथ नहीं रख सकता, एक साथ नहीं रख सकता, अड़चन होती है, कठिनाई होती है। और जब बुद्ध को नहीं रख सकता महावीर के साथ तो फिर औरों का तो कहना ही क्या! मोहम्मद को तो तुम सोचो कैसे रखेगा? मोहम्मद तो तलवार लिए रहते थे। बुद्ध का कसूर अगर जैनियों की नजर में कुछ था तो दो कसूर थे। एक तो कसूर यह था कि वे कपड़ा पहनते थे, भगवान को कपड़ा पहनना नहीं चाहिए। अरे भगवान को क्या छिपाना? सब प्रकट होना चाहिए। उसे तो बच्चे की तरह निर्दोष होना चाहिए। जैसे कपड़े ही उतार देने से कोई बच्चे की तरह निर्दोष हो जाता है। तो हिंदुओं के इतने नागा साधु हैं, ये सब निर्दोष बच्चे हैं! ये छंटे हुए बदमाश मालूम होते हैं। तुम किसी भी कुंभ में इनकी जमात देख लो, ये सबसे ज्यादा उपद्रवी हैं--हर कुंभ में कोई झगड़ा होता है, कोई मार-पीट खड़ी होती है, भाले चलते हैं, तो इन्हीं नागा साधुओं की वजह से। क्योंकि वे कहते हैं: पहले स्नान करने का हक हमारा, क्योंकि हम नंगे हैं!
और इनका नंगापन भी बड़ा मजेदार है। ये जब कुंभ में आते हैं तभी नंगे हो जाते हैं, बाकी अपने अखाड़ों में कपड़े पहनते हैं। अखाड़ों में कौन देखता है? इसलिए आमतौर से तुम्हें ये नागा साधु और कहीं दिखाई नहीं पड़ेंगे, सिर्फ कुंभ में दिखाई पड़ेंगे। बाकी समय अपने अखाड़ों में कपड़े पहन कर रहते हैं। सिर्फ नंगे हो जाने से ही अगर कोई भगवान होता हो तो सारे पशु-पक्षी नंगे हैं।
एक तो वह गलती थी बुद्ध की कि वे कपड़ा पहनते थे। दूसरी गलती यह थी कि उन्होंने मरे हुए जानवर का मांस खाने के लिए आज्ञा दी। बुद्ध का कहना यह था कि मारने में हिंसा है, मांस खाने में हिंसा नहीं है। बात तो तर्कयुक्त है, अर्थपूर्ण है। मारने में हिंसा है, मांस खाने में क्या हिंसा हो सकती है? तो अब जो जानवर मर गया है, उसके मांस को खाया जा सकता है। बस ये दो बातों ने बड़ी बेचैनी पैदा कर दी। और सब बातों में मेल खाता हो तो भी ये दो बातें अड़चन कर गईं। तो महात्मा मान लिया, यही बहुत है। असल में उनका मतलब यह था मुझसे कहने का कि आप यह समझिए मेरे समभाव को मैंने महात्मा मान लिया, यही कम है क्या? कोई जैन महात्मा भी मानने को तैयार नहीं है।
तो मोहम्मद को तो छोड़ ही दो। जीसस की तो बात ही न उठाओ। मेरे पास जैन पत्र लिखते हैं कि आप जीसस और महावीर को एक साथ बोल देते हैं, दोनों के नाम...यह बात ठीक नहीं है। यह हमारे महावीर का अपमान है। अरे कहां महावीर! रास्ते पर चलते थे, अगर कांटा सीधा पड़ा हो, तो उनको देख कर उलटा हो जाता था कि कहीं पैर में गड़ न जाए। यह लक्षण है तीर्थंकर का। और एक जीसस, जिनको सूली लगी। सूली लगने का साफ मतलब है कि किसी पिछले जन्म में कोई महापाप किया होगा। कोई छोटा-मोटा पाप नहीं, कोई महापाप किया होगा, तभी तो सूली लगेगी न! कर्म का फल ही तो भोगना पड़ेगा! हर किसी को तो सूली नहीं लगती। कांटा भी नहीं गड़ सकता तीर्थंकर को, क्योंकि उसके सारे पाप क्षय हो गए, उसकी निर्जरा हो गई। अब कांटा भी कैसे गड़ेगा? कांटा गड़ने के लिए भी कोई पाप किया हो, यह होना चाहिए। कहां जीसस और कहां महावीर! आप दोनों को एक साथ बोल देते हैं, ठीक नहीं करते।
और अगर ईसाई से पूछो...। मेरे पास ईसाई मिशनरियों ने कहा है आकर कि आप जीसस के साथ महावीर और बुद्ध को न तौलें तो अच्छा। जीसस ने मनुष्य-जाति के लिए अपना जीवन दे दिया, इन्होंने क्या दिया? जीसस ने अंधों को आंखें दीं, बहरों को कान दिए, लंगड़ों को पैर दिए। महावीर ने किसकी सेवा की? एक अस्पताल भी तो नहीं खोला। एक प्राइमरी स्कूल ही खोल देते। वह भी तो नहीं किया। सेवा तो नाममात्र को नहीं। जब सेवा ही नहीं है तो क्या खाक करुणा! और क्या उपलब्धि? ये महावीर और बुद्ध ने तो स्वार्थ सिखाया। इनकी गिनती आप कहां जीसस के साथ कर रहे हैं? जिसने कि मनुष्य के उद्वार के लिए, मनुष्य के मोक्ष के लिए अपने को सूली पर लटकवा लिया!
परिभाषाएं बदल गईं। उनको लगता है दुख कि मैं महावीर और बुद्ध का नाम जीसस के साथ लेता हूं। बौद्धों को दुख लगता है कि मैं महावीर का नाम बुद्ध के साथ लेता हूं, क्योंकि बौद्ध शास्त्रों में महावीर का बहुत मजाक उड़ाया गया है। महावीर को महात्मा भी नहीं माना गया है। भगवान होना तो दूर, ज्ञानी भी नहीं माना है। ये बुद्धुओं की दुनिया है। ये बुद्धुओं की दुनिया में हिसाब-किताब इस तरह बिठाए जाएंगे कि हर एक के पास अपना तराजू है, अपना मापदंड है, अपने बटखरे हैं, उनसे वह तौलेगा। अन्यथा जो व्यक्ति जाग गया, जो परम जीवन को अनुभव कर लिया, उसमें कोई भेद नहीं होते।
ये कलाओं इत्यादि की बातें सब व्यर्थ हैं। ये हमारे हिसाब हैं, क्योंकि हम सभी को समान नहीं रख सकते। हम बिना तौले मान ही नहीं सकते।
एक नेताजी चुनाव में हार गए। जब वे घर लौटे तो उनकी पत्नी बोली: तुम्हारे हारने-जीतने से मुझे कोई मतलब नहीं है। तुम सिर्फ इतना बता दो कि तुम्हें मिले दो वोटों में से एक तो मेरा था, लेकिन दूसरा किस चुड़ैल का था?
पत्नियों के अपने मापदंड होंगे। हारने-जीतने से क्या लेना-देना? यह सवाल है असली कि तुम्हें दो वोट मिले, वे कैसे मिले! एक तो मेरा था वह मैंने डाला, दूसरा किस चुड़ैल का था?
बुद्धू तो बुद्धू रहेंगे। वे बुद्धों को संबंध में भी चर्चा करेंगे तो भी क्या फर्क पड़ता है? उनका बुद्धूपन तो आ ही जाएगा।
एक होटल में आग लग गई, सब लोग जान बचाने के लिए हड़बड़ा कर भाग खड़े हुए। फायर ब्रिगेड का इंतजार करने लगे। उसी समय होटल में ठहरने वाले एक यात्री ने अपने पास खड़े लोगों से कहना शुरू किया: मैं तो आग से जरा भी नहीं घबड़ाता। आग लगने पर मैं ठाठ से उठा, शर्ट पहनी, घड़ी बांधी, टाई संवारी, बालों में कंघी की, सिगरेट जलाया, फिर शान से बाहर निकल कर आ रहा हूं। एक तुम हो कि कायरों की तरह भागे हड़बड़ा कर! अरे क्या यूं डरना? यह शोभा देता है मनुष्य को? मर्दों को?
पास में ही खड़े एक यात्री ने कहा: श्रीमान, आपने सब-कुछ तो किया, परंतु पतलून पहनना क्यों भूल गए?
तुम अगर बुद्धों के संबंध में भी सोचोगे, तो भी कुछ न कुछ भूल हो ही जाएगी। टाई सम्हाल ली होगी, मगर पतलून का क्या हुआ? इधर सम्हालोगे उधर बात उघड़ जाएगी। तुम्हारी चादर छोटी है। तुम करो भी क्या? सिर ढांकोगे, पैर उघड़ जाएंगे; पैर ढांकोगे, सिर उघड़ जाएगा। लेकिन कहीं न कहीं से बात जाहिर हो जाएगी।
सहजानंद, तुम पूछते हो: ‘क्या बुद्धत्व की भी श्रेणियां होती हैं?’
नहीं, कोई श्रेणियां नहीं होतीं। बुद्धत्व का अर्थ ही है: श्रेणियों का अतिक्रमण।
और तुम पूछते हो: ‘क्या इसलिए हिंदुओं ने अवतारों की कलाएं निर्धारित की हैं?’
इसलिए नहीं, बल्कि इसीलिए कि हमको सबके लिए जगह बनानी पड़ती है। शिष्टाचारवश। कुछ तो जगह सबके लिए बनानी पड़ेगी। अच्छे लोग सबको जमा कर रख देते हैं। अपने को सबसे ऊपर रख लेते हैं। कृष्ण को मानने वाला कृष्ण को सबसे ऊपर रख लेता है; वे पूर्णावतार हैं। बाकी सब अवतार अपूर्ण अवतार हैं। बुद्ध को मानने वाला कृष्ण को अवतार नहीं गिनता, गिन ही नहीं सकता। पूर्णावतार होने की तो बात दूर। महावीर को मानने वालों ने तो कृष्ण को नरक में डाल रखा है।
सबके अपने-अपने हिसाब हैं।
मुसलमान कहते हैं: मोहम्मद अंतिम पैगंबर हैं। बस ईश्वर की आखिरी किताब उतर आई--कुरान। अब किसी किताब की कोई जरूरत नहीं है। हां, उसके पहले भी पैगंबर हुए हैं। जीसस हुए, मोजे़ज हुए, इब्राहिम हुए; मगर ये सब तिथिबाह्य हो गए। जब मोहम्मद आ गए तो आखिरी किताब आ गई। फिर उसके बाद कोई जरूरत नहीं।
भले लोग हैं। इतना तो मान लेते हैं कि चलो जीसस को भी स्वीकार कर लिया कि ये भी पैगंबर थे छोटे-मोटे, अच्छे आदमी थे! मगर मोहम्मद के सामने तो सब फीके पड़ गए। सूरज उग आया, सब तारे बुझ गए। अब दीये जलाने की कोई जरूरत न रही। हालांकि दीया भी रोशनी देता है अंधेरे में। जब मोहम्मद नहीं थे तो इनकी जरूरत थी।
ये हम बुद्धूओं के हिसाब हैं। बुद्धों का इससे कोई संबंध नहीं। जाग्रत पुरुषों का इससे कोई संबंध नहीं। नींद में भेद होते हैं। कोई मीठा सपना देख रहा है, कोई कड़वा सपना देख रहा है; कोई सुखद, कोई दुखद; लेकिन जाग गए, सपने खत्म हुए। फिर न कोई छोटा है, न कोई बड़ा है। फिर वस्तुतः व्यक्ति है ही नहीं, समष्टि है। बूंद खो गई सागर में, अब क्या बूंद का हिसाब?
मगर हमारी पुरानी आदतें हैं। हमारे अपने सोचने के ढंग हैं। हम आरोपित ही किए चले जाते हैं। हम छोड़ते ही नहीं किसी को। हम कुछ न कुछ तरकीब निकाल लेंगे। अपनी मूढ़ता न छोड़ेंगे। अपनी मूढ़ता के माध्यम से ही हम बुद्धों को भी देखेंगे। फिर भूल-चूक होनी स्वाभाविक है।
कोई बुद्धपुरुष किसी से न नीचा है, न ऊंचा। न कोई बुद्धपुरुष पूर्ण है, न कोई अपूर्ण। बुद्धत्व पूर्णता का नाम है। अब इससे और ज्यादा कोई पूर्ण नहीं हो सकता, न इससे कम कोई पूर्ण हो सकता है।
संगीत के गुरु ने अपने एक शिष्य से पूछा: तुम किस ताल के विषय में अधिक जानते हो?
शिष्य ने तुरंत कहा: हड़ताल के विषय में।
आदमी भी करे तो क्या करे?
ताला-चाबी मरम्मत करने वाला व्यक्ति कभी उपवास नहीं रखता था। पत्नी उसके बहुत पीछे पड़ी रहती थी। पत्नियां तो पतियों को धार्मिक बनाने के पीछे पड़ी ही रहती हैं। पता नहीं उन्हें क्या बेचैनी है! पतियों को मोक्ष भेजना ही है उनको। अपना मोक्ष तो वे तय किए हु
ए हैं, कहीं पति पीछे न छूट जाएं; उनको भी साथ ही ले जाना है, ताकि वहां भी सताएं, कि इधर-उधर कहीं छूट गए, कहीं किसी और से आंख-मिचौनी करने लगें, कुछ हरकत करने लगें, तो नजर भी रखनी पड़ेगी न मोक्ष में भी!...तो पत्नी एकदम पीछे पड़ी थी। बहुत ही पीछे पड़ी, तो बेचारा आदमी भी क्या करे, उसने एक दिन उपवास कर लिया। शाम को पत्नी ने पूछा: तुम्हारे रंग-ढंग से ऐसा मालूम पड़ता है कि तुमने उपवास खोल दिया।
शायद खा-पी आया होगा बाजार में। आखिर पति भी तो अपनी आत्मरक्षा का उपाय कोई न कोई करता ही है। लेकिन पति ने क्या कहा? पति ने कहा: अभी नहीं, चाबी ही गुम गई है, खोलूं तो कैसे खोलूं? ताला-चाबी खोलने का उनका धंधा था। उपवास खोलना, उनको तत्क्षण अपनी भाषा ही याद आई।तुम जिंदगी को नापते हो, तौलते हो--बड़े-छोटे में, ऊंचे-नीचे में--शूद्र हैं, ब्राह्मण हैं, महापुरुष हैं, संत हैं, सज्जन हैं, दुर्जन हैं--बस वही हिसाब तुम बुद्ध पुरुषों पर भी लगा देते हो। बुद्ध पुरुष का ही अर्थ होता है--तुम्हारे हिसाब के बाहर। जहां तुम अवाक रह जाओ, आश्चर्यविमुग्ध! जहां बोल न निकले! जहां कहने को कुछ न सूझे। जहां हृदय धक् से रह जाए! तुम्हारी सारी अब तक की आदतें, अब तक के विचार की प्रक्रियाएं एकदम व्यर्थ हो जाएं--वहीं समझना कि किसी बुद्धपुरुष से सम्मिलन हुआ है।
आज इतना ही।