QUESTION & ANSWER

Sumiran Mera Hari Kare 08

Eighth Discourse from the series of 11 discourses - Sumiran Mera Hari Kare by Osho. These discourses were given during MAY 21-31 1980, Pune.
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पहला प्रश्न:
भगवान, यह कैसा न्याय है कि आप अमृत बांट रहे हैं और लोग आपको जहर पिलाना चाहते हैं! आप मनुष्य-जाति को एक नया जीवन देना चाहते हैं और लोग आपका जीवन छीनने की कोशिश कर रहे हैं! क्या इतिहास फिर-फिर अपनी गलतियों को दोहराता है?
कृष्णतीर्थ भारती! सत्य को कभी भी क्षमा नहीं किया जाता। सत्य को क्षमा करना बहुत कठिन है, क्योंकि भीड़ जीती है असत्य में। सत्य को स्वीकार करना भी कठिन है। सत्य की स्वीकृति का अर्थ होता है: अपनी सारी जीवन-व्यवस्था, अपनी जीवन-शैली, अपने जीवन की आधारशिलाओं को बदलने का दुस्साहस।
प्रत्येक व्यक्ति ने ताश के पत्तों के घर बना रखे हैं। सत्य आता है एक आंधी की तरह। गिरने लगते हैं वे महल। ताश के पत्तों के हैं--हवा का जरा सा झोंका उन्हें गिरा देता है। स्वभावतः उनके निवासी नाराज होंगे। इसमें अन्याय नहीं है। यह अत्यंत स्वाभाविक है, सहज है।
लोगों ने कागज की नावें बना रखी हैं। कागज की नावों पर भरोसा किए बैठे हैं। सत्य उन्हें झकझोरता है, स्मरण दिलाता है--ये नावें कागज की हैं, डूबेंगी, मत चढ़ो इन पर। लेकिन बड़ी मेहनत की है लोगों ने उन कागज की नावों पर। सदियों-सदियों में तैयार की हैं। उन पर अपना जीवन निछावर किया है। उनको सजाने में, उनको रंगने में, उनको श्रृंगारित करने में। एकदम से उनसे मोह का छूटना, एकदम से इस बात को देख लेना कि वे कागज की हैं और व्यर्थ हैं, अत्यंत प्रतिभा का लक्षण होगा। इतनी प्रतिभा भीड़ में नहीं होती। इतनी प्रतिभा भीड़ में हो तो फिर भीड़ भीड़ नहीं है। हां, इतनी प्रतिभा व्यक्ति में हो सकती है।
इसलिए सत्य का संदेश सदा थोड़े से व्यक्तियों को ही सुनाई पड़ता है। शेष सुनते भी हैं तो अनसुना कर देते हैं। सुनते भी हैं तो अपने ढंग से सुन लेते हैं। कुछ कहो, कुछ और सुन लेते हैं। कुछ कहो, कुछ और व्याख्या कर लेते हैं। उनके अपने निहित स्वार्थ हैं। वे सत्य को भी अपने अनुकूल चाहते हैं। और सत्य किसी के अनुकूल नहीं होता। सत्य तो स्वयं के अनुकूल होता है। जिन्हें सत्य चाहिए हो, उन्हें सत्य के अनुकूल होना पड़ता है। लेकिन हमारी आकांक्षा होती है, सत्य हमारे अनुकूल हो।
हम स्वयं सत्य के अनुकूल हों तो एक आंतरिक क्रांति से गुजरना जरूरी है। आग से गुजरना जरूरी है। बहुत कुछ टूटेगा, बहुत कुछ गिरेगा। बहुत कुछ बदलेगा। बहुत से सपने, बहुत सी आशाएं धूल-धूसरित हो जाएंगी। जिन पर तुमने सारे जीवन को आरोपित किया होगा, वे बुनियादें पैर के नीचे से खिसक जाएंगी। तुम अधर में अटके रह जाओगे। और कभी-कभी ऐसा होता है कि हम अधर में अटकने से इतने डरते हैं, इतने डरते हैं कि पास में ही भूमि हो, वह भी चूक जाती है।
मैंने सुना है, एक यात्री रात जंगल में भटक गया। अंधेरी रात थी। फिसल गया पैर उसका रास्ते से। गिर पड़ा किसी खड्ड में। सोचा: गए प्राण! लटक रहा एक वृक्ष की जड़ से। ठंडी रात थी। हाथ बर्फ की तरह होने लगे, ठंडे होने लगे। जड़ें हाथ से छूटने लगीं। चिल्लाया, चीखा, मगर उस निर्जन वन में कोई सुनने को न था। अंततः कोई उपाय न रहा। हाथ का खून जैसे जम गया। पकड़ ढीली हो गई। आखिर-आखिर में हाथ से जड़ें छूट गईं। उस आदमी ने समझा कि मर गया। उसने तो हे राम कह कर जीवन से आशा छोड़ दी। मगर चौंका, क्योंकि वह तो जमीन पर खड़ा था। आधा फीट नीचे ही जमीन थी। वह नाहक घंटों अधर में लटका रहा। लटका रहा भय के कारण, कि कहीं गिरे, पता नहीं कितना गहरा खड्ड हो, बचे कि न बचे! खड्ड था ही नहीं। मगर खड्डे के भय ने आधी रात तक उसे मृत्यु के मुंह में रखा। वह कल्पित मृत्यु थी उसकी।
लोग भीड़ के साथ इसी डर से हैं कि अकेले होने में अधर में अटक जाएंगे। कम से कम भीड़ में यह तो भरोसा रहता है--इतने लोग जा रहे हैं किसी दिशा में, तो दिशा ठीक ही होगी।
जॉर्ज बर्नार्ड शॉ को किसी ने कहा--एक ईसाई पादरी ने--कि आप इतना तो स्वीकार करेंगे कि आधी पृथ्वी ईसाइयत को स्वीकार करती है, आधी मनुष्य-जाति। क्या इतने लोग गलत हो सकते हैं?
जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने जो उत्तर दिया, उसे खूब सोचना और मनन करना। जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने क्षण भर उस ईसाई पादरी को गौर से देखा और कहा कि मैं तुमसे यह पूछता हूं, इतने लोगों की भीड़ सही कैसे हो सकती है?
उस पादरी की दलील थी कि इतनी बड़ी भीड़, आधी मनुष्य-जाति गलत कैसे हो सकती है? और बर्नार्ड शॉ की दलील थी कि इतनी बड़ी भीड़ सही कैसे हो सकती है? सत्य तो कभी एकाध-दो व्यक्तियों को मिला है--किसी बुद्ध को, किसी कृष्ण को, किसी लाओत्सु को, किसी जीसस को। अंगुलियों पर गिने जा सकें ये नाम। भीड़ों के पास तो सत्य नहीं रहा--न हिंदुओं की भीड़, न मुसलमानों की भीड़, न ईसाइयों की भीड़, न आस्तिकों की भीड़, न नास्तिकों की भीड़। भीड़-मात्र के पास सत्य नहीं होता। भीड़ में तो सम्मिलित ही भेड़ें होती हैं। भयभीत जो हैं, वे भीड़ में सम्मिलित होते हैं; क्योंकि भीड़ में ऐसा लगता है, अकेला नहीं हूं, इतने लोग साथ हैं, क्या डर?
आदमी अकेले होने में डरता है। और सत्य की खोज एकांत में होती है। एकांत से मेरा अर्थ नहीं है कि तुम हिमालय की गुफाओं में जाओ। एकांत से अर्थ है--अपने भीतर जाओ। वहीं है एक और वहीं है एकांत। भीड़ बाहर होती है, एकांत भीतर है। भीड़ बहिर्मुखता है और एकांत अंतर्मुखता। सत्य को उन्होंने जाना है जो अपने भीतर गए, जिन्होंने अपना साक्षात किया। और स्वभावतः इनके वक्तव्य कभी भी भीड़ से तालमेल नहीं खाते, कभी नहीं खाए; आज भी नहीं खा सकते, कभी खाएंगे भी नहीं।
कृष्णतीर्थ भारती, तुम पूछते हो कि ‘यह कैसा न्याय है कि आप अमृत बांट रहे हैं और लोग आपको जहर पिलाना चाहते हैं!’
यही उन्होंने सदा किया है। यही न्याय है। यही नियम है। अगर वे ऐसा न करें तो समझना कि जो मैं कह रहा हूं, वह सत्य नहीं है।
लाओत्सु का एक बहुत प्रसिद्ध वचन है, लाओत्सु ने कहा है: मूढ़ों के सामने सत्य बोला जाए तो वे सुनते ही नहीं हैं। विद्वानों के सामने सत्य बोला जाए, वे सोच-विचार में पड़ जाते हैं।
सोच-विचार भी बचने की एक तरकीब है। सत्य को देखते नहीं, सत्य के संबंध में ऊहापोह करने लगते हैं--ठीक है या गलत है, शास्त्रों के अनुकूल है या प्रतिकूल है, तर्क में बैठता कि नहीं, मेरे पक्षपात और इसके साथ तालमेल हो सकता है या नहीं? और अगर भीड़ के सामने सत्य कहा जाए तो लोग हंसने लगते हैं। लोग समझते हैं: क्या मूढ़ता की बात कही!
जीसस को लोगों ने पागल समझा। जीसस पर लोग हंसे। और यह बात पागलपन की लगी होगी कि कोई आदमी अपने को कहे कि मैं ईश्वर का बेटा हूं। लेकिन जीसस सिर्फ अपने लिए नहीं कह रहे थे, वे प्रत्येक के लिए कह रहे थे कि प्रत्येक व्यक्ति परमात्मा का ही बेटा है। यह घोषणा निज के संबंध में नहीं थी। यह घोषणा प्रत्येक की निजता के संबंध में थी। यह स्व के संबंध में न थी, यह प्रत्येक की आंतरिक आत्मा के संबंध में थी। मगर लोग हंसे।
जब जीसस को लोग सूली पर चढ़ाने ले गए, तो सूली उनके कंधे पर रख दी और उनको कोड़े मारे, क्योंकि सूली वजनी थी। और जीसस को पहाड़ी पर चढ़ना पड़ा सूली को लेकर। लोग हंसते थे। सड़े-गले टमाटर फेंक रहे थे, केलों के छिलके फेंक रहे थे, पत्थर फेंक रहे थे और कह रहे थे--यह रहा ईश्वर का बेटा! यह रहा सम्राट! और उन्होंने कांटों का एक ताज जीसस को पहना रखा था। सम्राट की तरह स्वागत होना चाहिए न! सूली पर भी लिख रखा था कि यह है परमात्मा का इकलौता बेटा, अब देखो चमत्कार! और जब सूली लगाई तो लाखों लोग देखने इकट्ठे हुए थे। देखने क्या, हंसने इकट्ठे हुए थे। और जब सूली लग गई तो लोग हंसते हुए, गपशप करते हुए घर लौट गए। एक तमाशा हुआ। लोग हंसे।
लाओत्सु ठीक कहता है: भीड़ के सामने सत्य कहो तो भीड़ पहले हंसेगी। और अगर तुम कहते ही चले जाओ तो भीड़ फिर तुमसे बदला लेगी। भीड़ डरने लगेगी कि तुम कहे ही चले जा रहे हो, कहीं कुछ लोग भीड़ में तुमसे राजी ही न हो जाएं! कहीं ऐसा न हो कि कुछ लोग को तुम्हारी बात ठीक ही लगने लगे।
इतिहास का यही न्याय है, क्योंकि इतिहास अंधों से बनता है। भेड़चाल तुम्हें समझ लेनी चाहिए। एक छोटे से बच्चे से स्कूल में शिक्षक ने पूछा कि तेरे बगीचे में चारदीवारी के भीतर दस भेड़ें बंद हैं, उनमें से एक चारदीवारी को छलांग लगा कर बाहर निकल गई, तो पीछे कितनी बचेंगी? उस बच्चे ने कहा: एक भी नहीं।
शिक्षक ने कहा: तू गणित समझता है या नहीं? तुझे बुद्धि कब आएगी? यह छोटा सा सवाल तुझसे हल नहीं होता? एक भेड़ मैं कह रहा हूं बाहर निकल गई तो भीतर कितनी बचेंगी, दस थीं?
उस बच्चे ने कहा: गणित आपको आता होगा, लेकिन मेरे घर में भेड़ें हैं। मैं गड़रिये का बेटा हूं। मैं भेड़ों को जानता हूं। और मैं आपसे कहता हूं, भेड़ों को भी गणित नहीं आता। और एक भेड़ अगर निकल गई तो बाकी भी निकल जाएंगी, कोई पीछे बचने वाला नहीं।
भेड़ें भीड़ में चलती हैं। एक भेड़ गड्ढे में गिर जाए तो बाकी भी गिर जाएंगी। एक कुएं में गिर जाए तो बाकी भी गिर जाएंगी।
तुम चारों तरफ यह होते देखते हो। भीड़ के पास अपनी सूझ नहीं होती। किसी के पास अपनी सूझ नहीं होती भीड़ में। इसीलिए तो वे भीड़ में इकट्ठे हो जाते हैं। सोचते हैं, दूसरों के पास सूझ होगी; दूसरे सोचते हैं, इनके पास सूझ होगी। किसी के पास सूझ नहीं।
कबीर कहते हैं: अंधा अंधा ठेलिया, दोनों कूप पड़ंत। अंधे अंधों को धक्के दे रहे हैं। अंधे अंधों के नेता बने हुए हैं। फिर सब कुएं में गिरते हैं। और तुम देख तो रहे हो कि प्रत्येक व्यक्ति कुएं में गिरा हुआ है। किसकी आंखों में आनंद की किरण है? और किसके प्राणों में प्रेम के गीत हैं? और किसके ओंठों पर अमृत का स्वाद है? किसने पहचाना है परमात्मा को? किसने शाश्वत जीवन की झलक पाई है? वे कौन हैं जिनके पैरों में शाश्वत के घुंघरू बंधे हों, जिनके जीवन में नृत्य हो, गीत हो, उत्सव हो? सब उदास हैं। सब महा उदास हैं। सबका जीवन बोझ है। लोग ढो रहे हैं बोझ की तरह। घसिट रहे हैं। नृत्य कहां, चलना मुश्किल है। चलना भी कहां, घसिट रहे हैं, घुटनों के बल घसिट रहे हैं। और उनकी आंखों में सिवाय आंसुओं के और कुछ भी नहीं। और उनके प्राणों में अगर झांको तो कोई फूल खिलता नहीं, कांटे ही कांटे हैं। दुख ही दुख है। विषाद ही विषाद है। संताप ही संताप है।
लोग मुझसे आकर पूछते हैं: नरक है?
मैं उनसे पूछता हूं: पागल हो गए हो! पूछते हो नरक है! नरक में रह रहे हो और फिर भी पूछते हो नरक है! जरा आंख खोल कर चारों तरफ देखो, नरक और कहां होगा?
एक आदमी नई दिल्ली में मरा। नरक के द्वार पर उसने दस्तक दी। शैतान ने द्वार खोला। नाम-धाम, पता-ठिकाना पूछा। जब उसने कहा कि नई दिल्ली से आता हूं, तो शैतान ने कहा कि भई, तुम नरक में काफी रह लिए, अब और नरक में आने की कोई जरूरत नहीं। और जो तुम देख चुके हो नई दिल्ली में, उससे ज्यादा हमारे पास दिखाने को कुछ भी नहीं है। अब तुम स्वर्ग जाओ। तुम स्वर्ग के योग्य हो गए। पर्याप्त भोग चुके, अब और क्या भोगना है? यहां किसलिए आए हो? अभी तृप्ति नहीं हुई?
लोग नरक में जी रहे हैं। मगर हम जहां जीते हैं, उसका हमें स्मरण नहीं रह जाता। जैसे कि मछली को सागर याद में नहीं रह जाता। सागर में ही पैदा होती है, सागर में ही जीती है, सागर में ही मर जाती है। कहते हैं, जो दार्शनिक मछलियां होती हैं, वे विचार करती हैं कि सागर कहां है; चिंतन करती हैं, मनन करती हैं, शास्त्रों का अध्ययन करती हैं। पूछती हैं जानकारों से, अनुभवियों से, वृद्धों से, बुजुर्गों से--सागर कहां है? मछली को तो सागर का पता तभी चलता है जब कोई मछुआ उसे खींच लेता है बाहर सागर के, डाल देता है तट पर और तड़पने लगती है धूप में तपती रेत पर, तब उसे पता चलता है कि अरे मैं जहां थी वह सागर था।
तुम जहां जी रहे हो वह नरक है। लेकिन तुम जहां भी जी रहे हो, वह नरक ही क्यों न हो, तुम्हारा जीवन है। और तुम अपने जीवन से चिपटते हो। यह जीवेषणा बड़ी गहरी है।
इजिप्त में ऐसा हुआ, एक वास्तविक घटना कोई हजार साल पुरानी। ईसाइयों की एक बहुत पुरानी संस्था थी, आश्रम था--दूर रेगिस्तान में बना हुआ। वहां जब भी कोई साधु मर जाता, उस आश्रम का नियम था कि जो साधु एक बार प्रवेश कर जाए, फिर दुबारा आश्रम के बाहर नहीं जाता था। प्रवेश-द्वार ही था वहां, निकास का कोई द्वार नहीं था। तो वहां जो गया, गया। अभी भी ऐसे आश्रम ईसाइयों के हैं, जिनमें एक बार जाने के बाद दुबारा बाहर आना संभव नहीं है। फिर लाश ही निकलती है। पर उस आश्रम से लाश भी नहीं निकलती थी। वहां जब कोई मर जाता था तो उन्होंने नीचे आश्रम की जमीन में ही गुफा खोद रखी थी, उस गुफा में उसकी लाश को उतार देते थे और चट्टान से गुफा बंद कर देते थे।
एक ईसाई फकीर मरा। उसे गुफा में उतार कर चट्टान से बंद कर दिया गया। संयोग की बात, वह मरा नहीं था सिर्फ बेहोश था, कोमा में था। कोई दस-बारह घंटे बाद उसे होश आ गया। जब उसे होश आया, तुम उसकी तकलीफ समझ सकते हो। बहुत चिल्लाया, मगर अब तो कब्रिस्तान का द्वार बंद हो चुका था। चट्टान वापस रख दी गई थी। उसकी आवाज बाहर पहुंच सकती नहीं थी। वह तो मुर्दों की बस्ती में था। चारों तरफ लाशें ही लाशें थीं। सड़ रही थीं। कीड़े-मकोड़े थे। दुर्गंध ही दुर्गंध थी। सैकड़ों वर्षों में न मालूम कितने फकीर मरे थे। पहले तो बहुत घबड़ाया। तुम शायद सोचोगे, उसने आत्महत्या कर ली होगी, पत्थरों से सिर मार कर तोड़ लिया होगा। नहीं, जीवेषणा बड़ी प्रबल है! दो-चार दिन तो वह दुखी रहा, परेशान रहा, चिल्लाया, चीखा-पुकारा, फिर धीरे-धीरे अपनी नई परिस्थिति से राजी हो गया। मनुष्य के समायोजन की क्षमता अनंत है। वह राजी हो गया। और उसका राजी होना तुम्हें घबड़ाएगा। लेकिन तुम भी अगर सोचोगे तो शायद तुम भी राजी हो जाते। यूं ही तो दुनिया में अधिकतम लोग राजी हैं। मरना उसने नहीं चाहा। सोचा कौन जाने दो-चार आठ दिन में कोई आदमी मर ही जाए, और कोई दूसरा फकीर मर जाए। बहुत बूढ़े हैं आश्रम में, कोई मरेगा ही। तो अपनी जिंदगी क्यों गंवानी! कोई मरेगा तो चट्टान फिर उठेगी और तब मैं निकल जाऊंगा। जरा सी प्रतीक्षा करनी है। इतनी जल्दबाजी की जरूरत नहीं है। और यूं भी आश्रम में ही ऐसा कौन सा महासुख था जो मैं इतना घबड़ाऊं।
रही दुर्गंध, सो दो-चार दिन में नासापुट दुर्गंध से राजी हो गए। मगर भूख लगी, प्यास भी लगी। आश्रम की नालियों से जो पानी बहता था, वह इस गुफा के, यह जो अंतर्गर्भ में बनी हुई मरघट की गुफा थी, उसकी दीवालों से रिस-रिस कर बहता था। पहले तो उस पानी को यह सोच कर कि चाटना, बड़ी ग्लानि हुई, लेकिन मरता क्या न करता! कब तक प्यासा रहता! वह उस पानी को चाट-चाट कर प्यास बुझाने लगा। मगर भूख का भी सवाल था। और तुम चकित होओगे कि वह सड़ी-गली लाशों का मांस खाने लगा। आदमी कुछ भी कर सकता है। बचने के लिए ऐसी प्रबल आकांक्षा होती है। और दिन गुजरे, सप्ताह गुजरे, माह गुजरे, एक ही प्रार्थना करता था, रोज पांच बार प्रार्थना करनी पड़ती थी आश्रम में, लेकिन यहां तो और काम ही न था तो दिन भर जब फुर्सत मिलती प्रार्थना करता। और प्रार्थना एक ही थी कि हे प्रभु, जल्दी किसी को मार, किसी को भी मार डाल! एक बार यह चट्टान उघड़ जाए तो मैं बाहर निकल जाऊं।
यह भी कोई धार्मिक व्यक्ति की प्रार्थना हुई, कि किसी को मार डालो? मगर यही उसकी प्रार्थना थी, एकमात्र प्रार्थना थी। वर्ष बीत गए, धीरे-धीरे तो वह भूल ही गया। प्रार्थना करता था, वह रोज का उपक्रम हो गया, औपचारिकता हो गई। जैसे आदमी यंत्रवत दोहराता चला जाए। मांस खाने लगा। मांस में मजा भी आने लगा--सड़े-गले मांस में।
दस साल बाद कोई मरा, तब चट्टान खुली। उस आदमी की दाढ़ी बढ़ कर जमीन तक पहुंच गई थी। उसकी आंखें अंधी हो गई थीं अंधेरे के कारण। लेकिन वह बड़ा मोटा-तगड़ा हो गया था। मांस ही मांस खा रहा था। और कोई काम न था--खाना और विश्राम करना। और जब वह बाहर निकला तो साथ में एक पोटली बाहर लेकर निकला। सारा आश्रम इकट्ठा हो गया कि इस पोटली में क्या है! लोगों को तो भरोसा ही नहीं आया। उसको देखा तो विश्वास ही नहीं आया। वे तो भूल ही चुके थे। दस साल पहले मरा हुआ आदमी, किसको याद था! आश्रम में कोई हजार फकीर थे। फिर उन्हें याद आई। और उस आदमी ने कहा: भूल से तुमने मुझे गड़ा दिया। मैं जिंदा था। मैं बच गया। बड़ी मुश्किल पड़ी, लेकिन बच गया। प्रभु की कृपा कि बच गया।
इस पोटली में क्या है?
तो उन ईसाई फकीरों का यह रिवाज था कि जब भी कोई मरता था, उसके साथ दो जोड़ी कपड़े, कुछ धन-पैसा साथ में रखते थे। वह रिवाज था। अभी भी रिवाज है कई मुल्कों में कि जब कोई मर जाए तो उसकी कब्र में कुछ पैसे फेंके जाएं, कुछ कपड़े रख दिए जाएं--परलोक की यात्रा के लिए। लंबी यात्रा पर जा रहा है, साधन तो जुटा देने चाहिए, पाथेय, रास्ते के लिए कलेवा। उसने सारे मुर्दे, जो उसके पहले मर चुके थे, उन सबके पैसे इकट्ठे कर लिए, उन सबके कपड़े इकट्ठे कर लिए, वह सब पोटली बांध कर बाहर ला रहा था। न केवल वह आदमी जीया, उसने संग्रह भी किया, उसने परिग्रह भी किया। उसने कहा कि जब मैं निकलूंगा बाहर तो खाली हाथ क्यों जाना! अरे कुछ लेते ही चलें। अब जब आ ही गए हैं और दस साल इतनी तकलीफ सही है, तो कुछ बचा ही चलें।
भरोसा नहीं आता इस घटना पर। जब पहली दफा मैंने ईसाई आश्रमों के इतिहास में इस कहानी को पढ़ा तो सोचा यह कहानी सिर्फ कहानी ही होगी। मगर फिर लगा कि इसी तरह तो लाखों-करोड़ों लोग जी रहे हैं। जिस आदमी के पैर नहीं हैं, हाथ नहीं हैं, अंधा है, सड़क पर भीख मांग रहा है, घिसट रहा है, कोढ़ी है, शरीर गल-गल कर गिर रहा है, वह भी जीना चाहता है, वह भी मरना नहीं चाहता, वह भी चाहता है तुम उससे कहो: जुग-जुग जीओ! वह भी आशीर्वाद चाहता है। उसके जीने में क्या है? लेकिन औरों के जीने में भी क्या है, जो कोढ़ी भी नहीं हैं, आंखें भी ठीक हैं, हाथ भी ठीक हैं, पैर भी ठीक हैं, भिखमंगे भी नहीं हैं, उनके जीने में भी क्या है? मगर हमारे पास जो भी है, उसी को हम जोर से पकड़ लेते हैं। और सत्य के साथ यही अड़चन है कि सत्य तुम्हारे हाथों को खुलवाता है। और सत्य कहता है: जरा हाथ खोल कर देखो, तुम्हारे हाथ खाली हैं। तुम्हारे हाथों में कुछ नहीं है। तुम सिर्फ कल्पना कर रहे हो।
जिसने धन को पकड़ा है, उसने क्या पकड़ा है? जब मरेगा तब पता चलेगा कि वह कुछ भी न था। एक सपना था। जिसने पद को पकड़ा है, उसने क्या पकड़ा है? लेकिन कुर्सी पर लोग बैठ जाते हैं तो कैसा पकड़ते हैं! छोड़ते ही नहीं। कितनी खींचातानी होती है, कितनी जूता-जूती होती है, मगर छोड़ते ही नहीं। जो पकड़ लिया, उसे जोर से पकड़ लेते हैं।
इसलिए कृष्णतीर्थ भारती, यह मत कहो कि यह कैसा न्याय है! यही होता रहा है। यही इतिहास का न्याय है। यह अंधों का न्याय है। यह अंधों की बस्ती है। इस अंधों की बस्ती में सत्य के साथ यही हो सकता है। सत्य को सूली ही लग सकती है, सिंहासन नहीं मिल सकता। यहां असत्य सिंहासन पर विराजमान है। और असत्य के साथ बहुत लोग हैं, क्योंकि असत्य सस्ता है, मुफ्त मिलता है, कुछ करना नहीं पड़ता। तुम्हें हिंदू होने के लिए कुछ करना पड़ा है? तुम्हें मुसलमान होने के लिए कुछ करना पड़ा है, तुम्हें ईसाई या जैन होने के लिए कुछ करना पड़ा है? ये पैदाइशी बातें हैं, जन्म से मिल गईं। कैसा पागलपन है!
धर्म भी कहीं जन्म से मिल सकता है? धर्म जैसी बहुमूल्य प्रक्रिया तो साधनी होती है। इसके लिए तो हजार-हजार पीड़ाएं उठानी होती हैं। न मालूम कितने पर्वत शिखर चढ़ने पड़ते हैं। यह तो दूभर मार्ग है। यह तो कंटकाकीर्ण मार्ग है। हजारों चलते हैं, तब कहीं एकाध पहुंच पाता है। यह तो यूं है जैसे कोई गौरीशंकर के शिखर पर चढ़े। मगर तुम्हें मुफ्त मिल गया है। तुम पैदा हुए, जनेऊ पहना दिया गया, तुम हिंदू हो गए, द्विज हो गए। इतने सस्ते में द्विज! ‘द्विज’ शब्द का अर्थ समझते हो। द्विज का अर्थ होता है: दुबारा जिसका जन्म हो। और दुबारा जन्म समाधि से होता है, जनेऊ पहनने से नहीं। हर ब्राह्मण द्विज नहीं है, यद्यपि हर द्विज ब्राह्मण होता है। फिर वह द्विज चाहे कोई भी हो। जीसस ब्राह्मण हैं। बुद्ध ब्राह्मण हैं। मोहम्मद ब्राह्मण हैं। बहाऊद्दीन ब्राह्मण हैं। वे द्विज हैं। उन्होंने समाधि से दूसरे जन्म को पा लिया।
मां-बाप से तो शरीर को जन्म मिलता है। फिर एक और जन्म है, जो स्वयं पाना होता है। मगर तुमने दूसरे जन्म की तो कोई कोशिश की नहीं। ईसाई पादरी आया, उसने पानी छिड़क कर बप्तिस्मा कर दिया--और तुम्हारा दूसरा जन्म हो गया, तुम ईसाई हो गए! यूं पानी छिड़कने से! कि यहूदी पुरोहित आया और उसने आकर खतना कर दिया--और तुम यहूदी हो गए! जननेंद्रिय की जरा सी चमड़ी काट देने से, तुम यहूदी हो गए! काश, मामले इतने सस्ते होते! काश, धर्म इतना आसान होता! मगर हमने सस्ती तरकीबें निकाली ली हैं। हमने प्लास्टिक के फूल बना लिए हैं। असली फूल तो उगाने पड़ते हैं, मेहनत करनी पड़ती है, श्रम करना पड़ता है। जमीन तैयार करो, घास-पात उखाड़ो, पत्थर हटाओ, खाद लाओ, बागुड़ लगाओ, गुलाब बोओ। फिर रक्षा करो, फिर पानी डालो, फिर धूप-धाप की फिकर करो। तब कहीं असली गुलाब आएंगे पर उनमें सुगंध होती है।
और नकली गुलाबों में जो जी रहे हैं, वे असली गुलाबों को पसंद नहीं करेंगे, क्योंकि असली गुलाब की मौजूदगी उनके नकली गुलाब का अपमान मालूम पड़ती है। यह अड़चन है। इसलिए इतिहास का यही न्याय है। अंधों का यही न्याय है कि जब सत्य प्रकट हो तो तुम उसकी हत्या कर देना, जहर पिला देना, फांसी पर लटका देना, ताकि तुम्हारी असत्य की दुनिया चलती रहे-- निश्चिंत, कोई बाधा न डाले।
तुम पूछते हो: ‘आप मनुष्य-जाति को नया जीवन देना चाहते हैं और वे आपका जीवन छीनना चाहते हैं।’
स्वाभाविक, मैं भी उनका जीवन छीनना चाहता हूं, तभी तो उनको नया जीवन दे सकूंगा। मैं, जैसा वे जीवन जी रहे हैं, छीनना चाहता हूं। जिसको वे जीवन समझते हैं, मैं जीवन नहीं समझता। उसे मैं मरण से भी बदतर समझता हूं। वह जीवन है ही नहीं। वह जीवन का धोखा है। मैं भी जीवन छीनना चाहता हूं उनका, स्वभावतः वे भी नाराज होते हैं। वे भी कुपित हो जाते हैं। वे भी क्रुद्ध हो जाते हैं। वे मुझे न समझ सकें, मैं तो उन्हें समझ सकता हूं। वे मुझे क्षमा न कर सकें, मैं तो उन्हें क्षमा कर सकता हूं। मैं भलीभांति समझता हूं उनकी तकलीफ। मैं उनका जीवन छीन रहा हूं। भला मुझे लगता है उनका जीवन गलत है, उन्हें तो नहीं लगता।
एक छोटे बच्चे से उसका खिलौना तुम छीनो, तो तुम्हें पता चल जाएगा। रोएगा, चिल्लाएगा, शोरगुल मचाएगा। उसके लिए खिलौना नहीं है, तुम्हारे लिए खिलौना होगा। तुम कौन हो उसका खिलौना छीनने वाले। उसके लिए तो खिलौना बहुत सच है।
और यहां छोटे बच्चे हैं, बड़े बच्चे हैं, और फर्क क्या है? छोटा बच्चा अपनी गुड़िया को या गुड्डे को लेकर बिस्तर पर सोता है। बंगाल में कृष्ण को मानने वालों का एक संप्रदाय है, जो कृष्ण की मूर्ति साथ लेकर सोता है। इनमें और छोटे बच्चों में कुछ भेद है? छोटा बच्चा अपने खिलौने से बातचीत करता है कि राजा बेटा, कैसे हो? रात नींद आई, ठीक से सोए? तुम्हें हंसी आती है कि यह क्या पागलपन की बातें कर रहा है! लेकिन तुम क्या कर रहे हो? कृष्ण को झूला झुला रहे हो। कृष्ण को गए पांच हजार साल हो गए, झूला किसको झुला रहे हो? एक मूर्ति बिठा रखी है; वह भी खिलौना है--धार्मिक खिलौना सही। मगर झूला झुला रहे हो। लिटा देते हो रात में कृष्ण को, दिन में बिठा देते हो।
क्या मजा है, जिंदा कृष्ण के साथ तुम ये हरकतें कर सकते थे? जब तुम्हारा दिल हो, लिटा दो; जब तुम्हारा दिल हो, बिठा दो। भोग लगा देते हो; नाम कृष्ण का, लगाते भोग अपने को। बातचीत भी करते हो। और इसको तुम प्रार्थना कहते हो, उपासना कहते हो! और छोटे-मोटे लोग नहीं, मार्टिन बूबर जैसा बहुत बड़ा विचारक इस सदी का, उसने अपनी प्रसिद्ध किताब आई एंड दाउ में लिखा है, मैं और तू, कि परमात्मा और व्यक्ति के बीच जो वार्ता होती है, उसी का नाम प्रार्थना है। हद हो गई नासमझी की भी! छोटे-छोटे आदमी, छोड़ दो उनको गिनती के बाहर लेकिन मार्टिन बूबर तो इस सदी के दस-पांच अग्रगण्य विचारकों में से एक था। यहूदियों में तो उससे श्रेष्ठ विचारक इस सदी में दूसरा कोई हुआ नहीं। लेकिन वह भी क्या कह रहा है! वह यह कह रहा है--वार्ता, परमात्मा के साथ।
किससे वार्ता करोगे? परमात्मा कोई व्यक्ति है जिससे तुम वार्ता करोगे, जिससे तुम हालचाल पूछोगे, जिसके सामने तुम गिड़गिड़ाओगे और प्रार्थना करोगे? परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है। परमात्मा अस्तित्व का दूसरा नाम है। परमात्मा की प्रार्थना नहीं हो सकती। कोई उपाय नहीं है प्रार्थना का। सब प्रार्थनाएं बचकानी हैं। परमात्मा का तो ध्यान ही हो सकता है, प्रार्थना नहीं हो सकती।
और ध्यान का अर्थ सिर्फ इतना ही होता है कि तुम शून्य हो जाते हो, शांत हो जाते हो, मौन हो जाते हो। तुम्हारे परम मौन में अस्तित्व तुम्हारे भीतर थिरक उठता है। तुम्हारे शून्य में अस्तित्व नाच उठता है। तुम्हारे शून्य में अस्तित्व की बांसुरी बजने लगती है। तुम मिटे कि अस्तित्व तुमको भर देता है--लबालब, भरपूर! बह उठता है, झर उठता है तुमसे! लेकिन कोई वार्ता नहीं हो सकती। वार्ता तो बचकानी बात है।
लेकिन धर्म के नाम पर ये सब सस्ते काम हमने कर रखे हैं। रविवार को तुम चर्च में हो आए कि बात खत्म हो गई। धर्म सध गया, ईसाई हो गए तुम। जीसस को तो सूली लगी और तुम चर्च हो आए घड़ी भर को, एक औपचारिकता निभा ली। बुद्ध ने तो छह वर्ष ध्यान की गहन तपश्चर्या की और तुम्हें क्या करना है? तुम्हें कुछ नहीं। तुम्हें जब बनना हो बौद्ध, तब तुम बन जाओ। अंबेदकर लाखों लोगों को लेकर बौद्ध बन गए। न अंबेदकर बौद्ध थे, न वे लाखों लोगों में एक कोई बौद्ध है। राजनीति, शुद्ध राजनीति। अंबेदकर जिंदगी भर कभी सोचते रहे मुसलमान हो जाएं, कभी सोचते रहे ईसाई हो जाएं, फिर आखिर में तय किया कि बौद्ध हो जाएं। ये कोई ढंग हैं? लेकिन बौद्ध हो गए तो उनके मानने वाले उनको बोधिसत्व कहने लगे। अगर वे ईसाई हो जाते तो? ईसाई भी होने में कुछ अड़चन न थी। ये ही अनुयायी उनके साथ ईसाई हो गए होते। ये ही अनुयायी उनके साथ मुसलमान हो गए होते। सब राजनीतिक दांव-पेंच हुए। धर्म से कोई लेना-देना न हुआ।
तुम्हारा धर्म तुमने कमाया है, या तुम्हें मुफ्त मिल गया है? धर्म की कोई वसीयत नहीं होती। बाप मर जाएं तो धन तुम्हें दे सकते हैं, लेकिन धर्म नहीं दे सकते। धर्म हस्तांतरणीय नहीं है, एक हाथ से दूसरे हाथ में नहीं दिया जा सकता। प्रत्येक व्यक्ति को अपने स्वभाव का स्वयं ही आविष्कार करना होता है। अपने सत्य को स्वयं ही पाना होता है।
इसलिए जब भी कोई सत्य की बात कहेगा तो न मालूम कितने लोगों को बेचैनी होगी। सत्य को उपलब्ध व्यक्ति को बरदाश्त करना कठिन हो जाएगा क्योंकि उसकी मौजूदगी तुम्हें बताएगी कि तुम असत्य हो। उसकी मौजूदगी तुम्हें बेचैन करेगी, तुम्हें परेशान करेगी। तुम चाहोगे इस आदमी की वाणी को बंद कर दो, इस आदमी की गर्दन काट दो, इसको समाप्त कर दो। यह समाप्त हो जाए तो हमारी झंझट मिटे; तो हम निश्चिंत होकर जैसे जी रहे हैं, जीते रहें। हमारी जीवन-शैली में कोई बाधा न डाले।
कृष्णतीर्थ भारती, मैं नया जीवन देना चाहता हूं मनुष्य को, लेकिन उनका पुराना जीवन छीनूंगा, तभी न! जगह खाली करनी पड़ेगी पहले। मैं उनका पुराना जीवन छीनूंगा तो उनका भी कसूर क्या, अगर वे मेरा जीवन छीन लेने को आतुर हो जाएं? इसलिए वे भी जो कर रहे हैं--अपनी तंद्रा में, अपनी निद्रा में--सब ठीक ही है। मैं अपना काम करता रहूंगा, वे अपना काम करते रहेंगे। यूं ही चलता रहा है, यूं ही चलता रहेगा। इतिहास अपनी भूलों को दोहराता रहेगा, जब तक कि सारे मनुष्य बुद्धत्व को उपलब्ध नहीं हो जाते। लेकिन यह तो कब होगा? यह तो आशा दुराशा है। यह सारी मनुष्य-जाति कब बुद्धत्व को उपलब्ध होगी? यह हो नहीं सकता।
मैं कल्पना में जीना पसंद नहीं करता। मैं तो यथार्थवादी हूं। मैं तो यह मानता हूं, थोड़े से ही लोग बुद्धत्व को उपलब्ध हुए हैं, थोड़े से ही लोग बुद्धत्व को उपलब्ध होंगे। उनकी संख्या बढ़ती जाएगी। जैसे-जैसे मनुष्य प्रौढ़ होता जाएगा, उनकी संख्या बढ़ती जाएगी। जितने ज्यादा बुद्ध होंगे दुनिया में, उतनी सुगंध होगी, सौरभ होगा, उतनी रोशनी होगी, उतने दीये होंगे। मगर फिर भी अंधेरा रहेगा। अंधेरा बहुत है! अंधेरे के पक्षधर बहुत हैं!

दूसरा प्रश्न:
भगवान, मैं धर्म में जरा भी रुचि नहीं ले पाता हूं, लेकिन राजनीति में मेरी बड़ी उत्सुकता है। क्या कारण हो सकता है?
कृष्णकांत! राजनीति में किसकी उत्सुकता नहीं है? तुम कुछ अनूठे नहीं हो। अनूठे तो तुम उस दिन हो जाओगे जिस दिन धर्म में उत्सुकता ले सकोगे। राजनीति में तो सभी उत्सुक हैं। राजनीति तो अंधों का खेल है--अंधों की शतरंज।
राजनीति का अर्थ क्या होता है? राजनीति का अर्थ होता है: अहंकार की दौड़। और धर्म का अर्थ होता है: अहंकार का विसर्जन। राजनीति और धर्म विपरीत चीजें हैं, बुनियादी रूप से विपरीत चीजें हैं। और तुम्हें राजनीति की शिक्षा दी जाती है। छोटे-छोटे बच्चे को भी हम यह जहर पिलाते हैं। यह प्रथम होने की दौड़! छोटे से बच्चे को भी हम कहते हैं कि प्रथम आना, कक्षा में प्रथम आना, स्कूल में प्रथम आना, विद्यालय में प्रथम आना, विश्वविद्यालय में प्रथम आना। क्यों? दूसरों को पीछे छोड़ना और तुम प्रथम आना।
लेकिन जीसस का वचन याद करो। जीसस ने कहा है: धन्य हैं वे जो अंतिम हैं, क्योंकि जो अंतिम हैं वस्तुतः वे ही मेरे प्रभु के राज्य में प्रथम होंगे।
यह धर्म का सूत्र हुआ। इतने प्यारे ढंग से धर्म को और किसी ने अभिव्यक्ति नहीं दी थी। धन्य हैं वे जो अंतिम हैं!
राजनीति का खेल है प्रथम होने का खेल--राष्ट्रपति बनना है, प्रधानमंत्री बनना है। आगे-आगे! सबको पीछे छोड़ देना है। मैं कुछ खास हो जाऊं, मैं विशिष्ट हो जाऊं, मैं की घोषणा कर दूं! लेकिन मैं की इतनी दौड़ क्यों है? क्यों आदमी इतना पागल होकर पीछे पड़ता है मैं के? कारण है: हीनता की ग्रंथि। राजनीति एक रोग है, जो इनफिरिआरिटी कांप्लेक्स, हीनता की ग्रंथि से पैदा होता है। प्रत्येक व्यक्ति को ऐसा लग रहा है कि मैं हीन हूं। मुझे सिद्ध करना है कि मैं कुछ हूं। अगर नहीं सिद्ध कर पाया तो मेरा जीवन यूं ही गया। मैं सिद्ध करके रहूंगा--धन पाकर या पद पाकर, यश पाकर, नोबल प्राइज पाकर, लेकिन सिद्ध कर के रहूंगा कि मैं कुछ खास हूं। मैं साधारण नहीं हूं, असाधारण हूं, विशिष्ट हूं, गणमान्य हूं!
लेकिन तुम कितनी ही बड़ी कुर्सी पर बैठ जाओ, हाथी पर बैठ जाओ, तुम बुद्धू हो तो बुद्धू हो। हाथी पर और ज्यादा बुद्धू मालूम पड़ोगे। दूर-दूर तक तुम्हारा बुद्धूपन दिखाई पड़ेगा, और कुछ भी नहीं। तुम बड़ी कुर्सी पर बैठ कर सिर्फ अपने बुद्धूपन की घोषणा कर सकोगे ज्यादा आसानी से। और क्या होगा? धन तुम्हारे पास होगा तो तुम अपने बुद्धूपन को व्यावहारिक रूप दे सकोगे, जो बिना धन के देना मुश्किल होता। लेकिन तुम नहीं बदल जाओगे।
राजनीति में व्यक्ति नहीं बदलता, सिर्फ व्यक्ति के हाथ में सत्ता बढ़ती चली जाती है। और यही तो प्रत्येक व्यक्ति चाहता है।
कृष्णकांत, तुम्हीं कुछ विशिष्ट बीमारी से पीड़ित नहीं हो, यह आम बीमारी है। सभी इससे पीड़ित हैं--सारा समाज, सारी संस्कृति, सारी शिक्षा इससे पीड़ित है। हम यही जहर हर बच्चे को पिला रहे हैं। और लगे रहे अगर इस दौड़ में तो कहीं न कहीं पहुंच ही जाओगे। धक्कमधुक्की करते ही रहे, सवाल है धीरज रखने का, पिटते रहे, कुटते रहे, मगर छोड़ा नहीं, जमे रहे, तो पहुंच हो जाओगे। मोटी खाल चाहिए, सौ-सौ जूते खाएं तमाशा घुस कर देखें! बस ऐसी हिम्मत चाहिए, तो कुछ कठिनाई नहीं है कि प्रधानमंत्री न हो जाओ, कि राष्ट्रपति न हो जाओ। उत्सुकता पूरी हो जाएगी, मगर उत्सुकता ही पूरी नहीं होगी, जिंदगी भी पूरी हो जाएगी। और हाथ में घुनघुना आ जाएगा, उसको बजाते रहना, उसको बजाते-बजाते मर जना। घुनघुना है, और कुछ भी नहीं है।
चुनाव के दिनों में
गली के मोड़ पर
चुपचाप बैठे एक कुत्ते से
एक उम्मीदवार ने पूछा--
यार!
आजकल तुम भौंकते नहीं हो?
कुत्ते ने तुनक कर उत्तर दिया--
हां!
क्योंकि अब भौंकने का अर्थ
भाषण हो गया है।
भौंकते रहो, धीरे-धीरे लोग समझेंगे भाषण दे रहे हो। कुत्ते तक शर्माने लगे हैं। कुत्ते तक चुनाव के दिनों में बिलकुल चुपचाप हो जाते हैं। तुमने जरा खयाल किया? शायद तुमने खयाल नहीं किया होगा। कुत्तों तक को शर्म आती है, सिर झुका लेते हैं कि अब क्या भौंकना! आदमी ही हमारा काम किए दे रहे हैं।
एक क्लर्क का सुत नचिकेता,
लख घर के दुख-शोक।
कथा याद कर उपनिषदों की
चला गया यमलोक।
यम बोला--हे बालक! तेरी
पूरी होगी आशा।
तीन दिवस तू रहा हमारे,
घर में भूखा-प्यासा।
वत्स! मांग ले देता हूं मैं,
तीन तुझे वरदान।
नचिकेता चिल्लाया--रोटी,
कपड़ा, और मकान।
मॉडर्न नचिकेता! तुम पहुंच भी जाओगे तो और क्या करोगे? तुम्हें अगर ईश्वर भी मिल जाए, कृष्णकांत, और तुमसे पूछे--बोलो, बोलो बेटा क्या चाहते हो?--तो तुम क्या मांगोगे? कुछ क्षुद्र, कुछ व्यर्थ, कुछ दो कौड़ी का। और लगे ही रहे पीछे तो दो कौड़ी की चीजें हैं, मिल ही जाएंगी।
दोपहरी में चोर द्वार का,
तोड़ रहा था ताला।
पुलिसमैन था खड़ा सड़क पर,
बोले उससे लाला--
खड़े-खड़े क्या देख रहे हो,
पकड़ो इसे सिपाही।
कहा सिपाही ने--इसको मैं,
नहीं पकड़ता भाई,
आगे चल कर यह मेरी,
सर्विस को खो सकता है।
खुले आम चोरी करता है,
मंत्री हो सकता है।
तुम पूछते हो: ‘मैं धर्म में जरा भी रुचि नहीं ले पाता हूं, लेकिन राजनीति में बड़ी मेरी उत्सुकता है।’
अहंकार में उत्सुकता है। राजनीति अहंकार का फैलाव है, अहंकार का व्यवसाय है, व्यापार है। और धर्म बिलकुल उलटा है।
हारे हुए राजनीतिज्ञ धर्म में उत्सुकता लेने लगते हैं, क्योंकि फिर वे सोचते हैं कि अब यहां तो बाजी हार गए, अब आगे की सुध लें। मतलब--अब आगे वहां राजनीति चलाएं। परलोक में भी अब उनकी चेष्टा है कि आगे। राजनीति का जाल बड़ा गहरा है।
जीसस, जिस दिन सूली लगी, अंतिम दिन शिष्यों से विदा ले रहे हैं। और तुम्हें पता है, शिष्यों ने क्या पूछा? और इन्हीं शिष्यों ने फिर ईसाइयत खड़ी की। शिष्यों ने यह पूछा कि गुरुदेव, आप तो अब विदा होते हैं, एक प्रश्न हमारा हल कर जाएं, क्योंकि फिर हम किससे पूछेंगे? प्रश्न हमारा यह है कि परलोक में, प्रभु के राज्य में जिसकी आपने जीवन भर चर्चा की और जिससे प्रभावित होकर हम आपके साथ आ गए थे...। लगता है वह ‘राज्य’ शब्द उनको धोखा दे दिया! ‘प्रभु का राज्य--किंग्डम ऑफ गॉड!’ उन्होंने सोचा: यहां का राज्य क्या! अरे यहां का राज्य तो क्षणभंगुर है! महात्मागण समझाते हैं--शाश्वत, सनातन, सदा चलने वाला! वही जीसस समझा रहे हैं।...उस शाश्वत राज्य में आप तो परमात्मा के बिलकुल बगल में बैठेंगे, आपका तो नंबर दो स्थान होगा; मगर हम आपके जो बारह खास शिष्य हैं, हम किस क्रम से बैठेंगे, यह तो बता जाएं!
यह तुम चकित होओगे जान कर, अंतिम दिन, विदा के दिन, जीसस को सूली लग रही है और इन मूढ़ों को यह प्रश्न सूझा है! कृष्णकांत, तुम्हारे जैसे ही लोग रहे होंगे। अभी भी राजनीति है। अब उनको फिकर यह लगी है कि हम बारह में से कौन प्रथम होगा, कौन द्वितीय, कौन तृतीय? ये बारह में से आखिर सभी तो नंबर तीन पर नहीं हो सकते। जीसस को तो वे कहते हैं कि चलो, आपको हम स्वीकार करते हैं कि आप नंबर दो पर होंगे; ईश्वर प्रथम, आप नंबर दो, फिर नंबर तीन कौन? इतना जाते-जाते बता जाएं।
जिंदगी भर यह आदमी समझाता रहा: धन्य हैं वे जो अंतिम हैं! और मरते वक्त उसके ही शिष्य पूछ रहे हैं कि इतना तो बता जाएं कि प्रथम कौन होगा! जीसस की आंखों से अगर खून के आंसू टपके हों तो आश्चर्य नहीं। और फिर इन्हीं शिष्यों ने ईसाइयत खड़ी की। यह बड़ी हैरानी की बात है कि बुद्ध ने बुद्ध धर्म खड़ा नहीं किया; उन बुद्धुओं ने खड़ा किया, जो बुद्ध को समझे ही नहीं कभी। और ईसाइयत भी उन बुद्धुओं ने खड़ी की, जिन्होंने ईसा को कभी समझा नहीं। और वही हाल सारे धर्मों का है। बुद्ध और जीसस और जरथुस्त्र तो पर्वत के शिखरों से बोलते हैं। उनके आस-पास जो लोग इकट्ठे हो जाते हैं, वे पता नहीं किन-किन कारणों से इकट्ठे हो जाते हैं। उनकी अपनी आकांक्षाएं हैं। वे उन्हीं आकांक्षाओं के कारण इकट्ठे हो जाते हैं।
एक ईसाई फकीर को एक आदमी ने चांटा मार दिया। क्योंकि वह ईसाई फकीर हमेशा अपने व्याख्यानों में कहता था कि जीसस ने कहा है: जो तुम्हारे बाएं गाल पर चांटा मारे, उसके सामने दायां गाल कर देना। यह आदमी नास्तिक था। इसने कहा कि बहुत बकवास लगा रखी है, इसने, आज देख ही लें। तो उसने एक चांटा उसके बाएं गाल पर लगाया और चकित हुआ मारने वाला, क्योंकि फकीर ने तत्क्षण अपना दायां गाल उसके सामने कर दिया। मगर मारने वाला भी कुछ यूं इतनी जल्दी हार जाने वाला न था। उसने और भी कस कर दाएं गाल पर भी एक चांटा जड़ दिया। बस इसके बाद जो ईसाई फकीर उस पर टूटा, जो उसकी पिटाई की, जो उसकी मरम्मत की...। फकीर यूं ही मस्त होते हैं! नास्तिक आदमी था, वह तो सोच-विचार में ही दुबला था। फकीर को क्या सोच-विचार! आस्तिक को क्या सोच-विचार! श्रद्धा से जीता है। डट कर खाता-पीता था। उसने वह मरम्मत की--मुस्तंडा था--कि वह नास्तिक की छाती पर जब बैठ कर उसको कूटने लगा, तो उस नास्तिक ने कहा: भई, सुनो तो! जीसस ने क्या कहा है, भूल गए?
उसने कहा: नहीं भूला। जीसस ने कहा है, जो तुम्हारे बाएं गाल पर चांटा मारे, उसके सामने दायां कर देना। मगर तीसरा तो कोई गाल ही नहीं है, अब मैं स्वतंत्र हूं। अब मैं तुझे मजा चखाता हूं। जहां तक जीसस ने कहा था, वहां तक पालन कर लिया। अब तो बात खत्म हो गई। अब तो मैं अपना मालिक हूं, अब नियम के बाहर बात है। इसके आगे जीसस कुछ कह नहीं गए हैं।
बुद्ध से एक आदमी ने पूछा: आप बहुत कहते हैं कि क्षमा करो। कितनी बार? आखिर हर चीज की सीमा होती है!
तो बुद्ध ने कहा: सात बार क्षमा करो। उस आदमी ने कहा: अच्छी बात है!
जिस ढंग से उसने कहा अच्छी बात, साफ हो गया बुद्ध को कि यह आदमी खतरनाक है। ये आठवीं बार में ऐसा बदला लेगा कि जैसे सौ सुनार की और एक लोहार की! कहा: ठहर भाई, सतहत्तर बार।
उस आदमी ने कहा: आप इतनी जल्दी बदल गए! क्यों बदल गए?
तो बुद्ध ने कहा: तूने जिस ढंग से कहा कि अच्छी बात, उससे जाहिर हो गया कि तू सात बार बरदाश्त कर लेगा और आठवीं की प्रतीक्षा करेगा। सच तो यह है कि जब कोई पूछता है कितनी बार क्षमा करें, तभी गलत प्रश्न पूछता है। क्षमा में भी कोई गिनती का सवाल है? गणना का सवाल है, माप-तौल से क्षमा करोगे? तो तुम क्षमा का अर्थ ही नहीं समझे।
जब कोई पूछता है प्रेम कितना--तोला, छटांक, आधा पाव, पाव, आधा गज, गज, दो गज, या मीटर, दो मीटर, कितना? जब कोई इस तरह की बातें पूछने लगता है, गुणों के संबंध में जब कोई मात्रा की बात पूछता है, तो समझ जाना कि गलत बात उसने पूछी। उसके उत्तर में जो भी कहा जाएगा, उसका परिणाम बुरा होगा। वह उस उत्तर में से अपना रास्ता निकाल लेगा।
अगर तुम्हें राजनीति में उत्सुकता है तो मूल को समझो, तुम्हें अपने अहंकार में उत्सुकता है। तुम अभी अपने अहंकार के फुग्गे को फुलाना चाहते हो। तो फुला ही लो। और डट कर फुला लो, क्योंकि खूब फुग्गे को फुलाओ तो फूट ही जाता है। और अनुभव से ही आदमी सीखे तो सीखे। मेरी मान कर मत राजनीति छोड़ देना, नहीं तो तुम यहां राजनीति चलाओगे। राजनीति का जाल ऐसा गहरा है कि तुम जहां जाओगे वहीं चलाओगे।
धर्म में भी चलती है राजनीति, खूब चलती है! वहां भी कौन ऊपर कौन नीचे! वहां भी सीढ़ियां बन जाती हैं, हायरेरकी बन जाती है। एक दफा राजनीति से तुम बिलकुल साफ-साफ सजग हो जाने चाहिए, तो ही धर्म में गति हो सकती है। क्योंकि धर्म का तो पूरा का पूरा आयाम भिन्न है। यहां तो मिटना है। यहां तो खोना है। यहां तो समाप्त होना है। यहां तो शून्य होना है। क्योंकि जो शून्य होगा, वही परमात्मा से पूर्ण हो पाता है।
राजनीति और धर्म की भाषा ही अलग-अलग भाषा है।
एक राजनेता के घर एक आदमी ने आ कर द्वार पर दस्तक दी।
नौकर ने पूछा: क्या बात है श्रीमान?
आगंतुक ने कहा: तुम्हारे साहब घर पर हैं? एक बिल।
नौकर तत्क्षण बोला: साहब तो कल शाम ही शहर के बाहर चले गए थे।
आगंतुक ने कहा: मुझे उनका यह बिल अदा करना था।
नौकर बोला: फिकर न करें, वे आज ही सुबह वापस आ गए हैं। मैं उन्हें बुलाता हूं, आप बैठिए।
राजनीति की तो दुनिया ही अलग है। वहां तो हर चीज चालबाजी है, बेईमानी है, धोखाधड़ी है। राजनीतिक को देख कर तुम यह भी तय नहीं कर सकते कि वह पूरब की तरफ जा रहा है कि पश्चिम की तरफ जा रहा है। देखता पूरब की तरफ है, चलता पश्चिम की तरफ है; या एक आंख पूरब एक आंख पश्चिम, एक टांग उत्तर, एक दक्षिण। जब हवा का रुख जैसा हो जाए। वास्तविक राजनेता तो उसी को कहते हैं, जो देख ले कि जनता किस तरफ जा रही है और इसके पहले कि जनता उस तरफ जाए, उचक कर आगे हो जाए। जो इसमें चूक जाते हैं, उनकी दुर्गति हो जाती है।
अब इस तरह के लोगों की तुम दुर्गति तो रोज देखते हो। जैसे बाबू जगजीवन राम, अब जग्गू भैया हो गए। दुर्गति हो गई! इस बार वे उचक कर सामने नहीं हो पाए, जरा चूक गए। पिछली बार उचक कर बिलकुल ठीक मौके पर भीड़ के सामने हो गए थे।
आमतौर से लोग समझते हैं, नेता आगे होता है। नेता अपने अनुयायियों का भी अनुयायी होता है, यह खयाल रखना। वह देखता रहता है: अनुयायी किस तरफ जा रहे हैं, हवा का रुख किस तरफ है?
राजनीति तो भीड़ की दुनिया है। भीड़ जो मानती है, उसको ही फुसलाओ, उस पर ही मक्खन लगाओ। भीड़ जो मानती है, उसका ही गुणगान करो।
और धर्म तो क्रांति है। यहां तो सिवाय सत्य के और परमात्मा के न किसी का कोई गुणगान है, न संभावना है। धर्म तो भीड़ के विपरीत पड़ जाता है। राजनीति का भीड़ के साथ तालमेल है।
तुम्हें अगर राजनीति में उत्सुकता हो तो उत्सुकता को पूरी ही कर लो। आधे कच्चे, मेरी बातें सुन कर छूट मत आना। पक कर ही गिरो। इस जन्म में न हो, अगले जन्म में होगा। लेकिन अधकच्चे गिरना उचित नहीं है। नहीं तो आदमी लौट-लौट जाता है। तुम्हारे अनंत-अनंत जन्मों की यात्रा में बहुत बार तुमने धर्म में उत्सुकता ली होगी, मगर वह उत्सुकता काम नहीं आई, क्योंकि तुम कच्चे थे। फिर-फिर तुम लौट गए। पुराने गड्ढों ने तुम्हें फिर आकर्षित कर लिया। एक बार उस उत्सुकता को पूरा ही कर लो। मैं भरोसा करता हूं अनुभव में।
और राजनीति का अनुभव अत्यंत दुखांत है। अगर तुम होशपूर्वक राजनीति का अनुभव कर लो तो किसी को समझाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। जहर कड़वा है, यह समझाने की जरूरत नहीं पड़ती है। मगर अगर तुम बिना अनुभव किए मेरी बात सुन लिए, संन्यस्त हो गए, छोड़ दिया कि राजनीति में कुछ सार नहीं है, तो यह यूं ही होगा जैसे लोमड़ी ने कहा था कि अंगूर खट्टे हैं, क्योंकि पहुंच नहीं पाई अंगूरों तक। अंगूरों को चख ही लो। न तो अंगूर खट्टे हैं, न मीठे हैं, अंगूर हैं ही नहीं! बस दूर से दिखाई पड़ते हैं। जैसे-जैसे पास पहुंचते हो, वैसे-वैसे तिरोहित होते चले जाते हैं। मृग-मरीचिकाएं हैं।
जिस दिन राजनीति तुम्हारे जीवन में हार कर गिर जाएगी, उस दिन तुम्हारे जीवन में धर्म का सच्चा सूत्रपात होगा। और राजनीति से तुम सिर्फ उतना ही मत समझना जितना राजनीति में समझा जाता है। राजनीति का जाल बड़ा है। पति राजनीति चलाता है पत्नी के ऊपर, कब्जा किए हुए है। वह भी राजनीति है। छोटा दायरा है उसका। पत्नी राजनीति चलाती है पति के ऊपर, बच्चों के ऊपर।
मुल्ला नसरुद्दीन से कोई पूछ रहा था कि तुम्हारे घर में किसकी चलती है? तो उसने कहा कि सबकी चलती है--यथायोग्य, यथास्थान। पूछने वाले ने कहा: मैं कुछ समझा नहीं। उत्तर जरा आपका दार्शनिक है। थोड़ा विस्तार से कहिए। यथायोग्य, यथास्थान!
तो उन्होंने कहा कि जैसे पत्नी की मेरे ऊपर चलती है, बच्चों के ऊपर चलती है। बच्चों की भी मेरे ऊपर चलती है। लेकिन मेरे कुत्ते के ऊपर सिर्फ मेरी चलती है। ऐसा डांटता-डपटता हूं! गुस्सा आ जाता है, पूंछ मरोड़ देता हूं। सुबह घुमाने ले जाता हूं। कुत्ता लाख उपाय करे वृक्षों के पास पहुंचने के, नहीं पहुंचने देता। घसीटता ही चला जाता हूं। जितना तड़पा सकता हूं, तड़फाता हूं। अरे वे मुझको तड़पा लेते हैं, मैं उसको तड़पा लेता हूं। और कुत्ता भी, घर में जो बिल्ली है, उस पर चलाता है और दिल खोल कर चलाता है! और बिल्ली चूहों पर चलाती है। सब यथास्थान, यथायोग्य। सबकी चल रही है।
अगर तुम गौर से देखोगे तो राजनीति सबकी चल रही है। किसी की छोटी, किसी की बड़ी। यह सब राजनीति है। कुछ ऐसा नहीं है कि राजनेताओं की ही चलती है। जहां भी तुम अधिकार की घोषणा करते हो, जहां भी तुम किसी दूसरे व्यक्ति के ऊपर मालकियत सिद्ध करते हो, जहां भी तुम चाहते हो कि दूसरा मेरे द्वारा चले, मेरे अनुशासन में चले, मैं जैसा कहूं वैसा चले--बस वहीं राजनीति आ गई। दूसरे पर मालकियत करना दूसरे की हत्या करना है।
राजनीति हिंसा है। राजनीति अहिंसक हो ही नहीं सकती। महात्मा गांधी की राजनीति भी अहिंसक नहीं थी, सिर्फ दिखावा अहिंसक था। जैसे गांधी जी के आश्रम में एक आदमी ने चाय पी ली, बस पाप हो गया! यूं तो चाय निर्दोष चीज है, कुछ खास पाप नहीं। जरा सा निकोटिन होता है, इतना कम निकोटिन होता है और वह भी कोई की जान नहीं ले लेता, कि अगर तुम दस कप चाय रोज पीओ और बीस साल में जितनी चाय पीओ, उस सबका निकोटिन निकाल कर अगर एकबारगी में तुम्हें दिया जाए तो मौत होगी। कोई ऐसी घबड़ाने की जरूरत नहीं है निकोटिन से इतनी, इतना कुछ परेशान होने की जरूरत नहीं है। लेकिन गांधी जी के आश्रम में चाय पर पाबंदी थी, चाय नहीं पी सकते। सिर्फ एक व्यक्ति को छूट थी--राजा जी को, क्योंकि वे समधी थे। अब समधी के साथ तो समधी का व्यवहार करना पड़ता है। उनके साथ तो नियम नहीं चल सकते। मगर एक आश्रमवासी चाय पीता हुआ पकड़ा गया।
अब तुम देखते हो मजा! जहां जबर्दस्ती की जाएगी, वहां छोटी-छोटी चीजें पाप हो जाएंगी। अब वह आदमी अपराध-भाव से भर गया। पहले तो उसने इनकार किया कि मैंने पी ही नहीं। मैं तो सिर्फ बना रहा था।
अरे, तो तुम बना किसलिए रहे थे? अब कोई चाय बनाता है बिना पीने के लिए!...
...कि नहीं, मैं तो सिर्फ बना कर देख रहा था!
तो किसलिए देख रहे थे?
कि मतलब कैसी होती है! मगर लोगों ने कहा: हमने इसको पीते भी देखा है। तुम्हारे वहां कप-बसी किसलिए हैं? कप-बसी भी पकड़े गए। जब उसको बहुत ही डांटा-डपटा गया तो वह राजी हुआ कि हां, उसने चाय पी है। मगर सिर्फ एक दफा पी है। तो कप-बसी किसलिए रखे हो? एक दफे तो आदमी गिलास से भी पी ले। कप-बसी रखे हो, केतली रखे हो, इसका मतलब है कि इंतजाम तुमने पूरा किया हुआ है। और चाय की कोई छोटी-मोटी पुड़िया नहीं, पूरा ब्रुक-ब्रांड का डब्बा रखे हुए हो!
गांधी जी ने अनशन कर दिया तीन दिन का, कि जब तक यह आदमी अपने अपराध की क्षमा नहीं मांगता और अपनी भूल स्वीकार नहीं करता, वे तीन दिन उपवास करेंगे। अब इसको तुम क्या कहोगे? यूं तो लगता है कि अहिंसात्मक है, मगर नहीं, यह हिंसा है, यह परोक्ष हिंसा है। अब किसी गरीब आदमी को चाय भी न पीने दो और धमकी दो कि मैं अपने को मार डालूंगा! यह धमकी है। यह शुद्ध धमकी है। सिर्फ लफ्फाजी है अहिंसा की। यह कहना कि मैं तीन दिन...अब तीन दिन गांधी ने भोजन नहीं किया। अब सारा आश्रम उसके खिलाफ पड़ा है। हर आदमी उसको कचोट रहा है। हर आदमी उस पर लानत भेज रहा है। हर आदमी उससे कह रहा है: अरे शर्म खाओ! अरे बेशर्म! अरे पापी! तुझे इतना पता नहीं है कि बेचारे वृद्ध गुरु को इस तरह सता रहा है! एक जरा सी, सड़ी सी चाय का स्वाद, एक क्षण भर का स्वाद, क्या मिल गया तुझे? अगर उनकी मौत हो जाए तो? और उसकी कितनी निंदा और अपमान हो रहा है...यह सब निंदा और अपमान हिंसा है।
मैंने सुना, एक गांव में एक आदमी ने--एक युवक ने--एक घर के सामने जाकर रात बिस्तर लगा दिया। घर के मालिक ने पूछा कि आप यहां बिस्तर क्यों लगा रहे हैं, मेरे बरांडे में? तो उसने कहा कि मैं सत्याग्रह कर रहा हूं।
काहे के लिए सत्याग्रह कर रहे हैं? मैंने आपका क्या बिगाड़ा है?
आपने मेरा कुछ नहीं बिगाड़ा। मुझे आपकी लड़की से विवाह करना है। जब तक आप विवाह नहीं करवाएंगे तब तक मैंने आमरण अनशन किया हुआ है। मैं सत्याग्रह करूंगा।
सारे गांव में हवा फैल गई, भीड़ लग गई। और स्वभावतः जो भी सत्याग्रह करे, लोगों का हमेशा उसके लिए साथ है। लोग कहने लगे कि बात तो ठीक है, अहिंसक आदमी है बेचारा, भला आदमी है, खादी पहने हुए है। और लोग फूलमालाएं पहनाने लगे। पहले तो उसी के दो-चार दोस्तों ने पहनाईं, फिर लोग तो नकलची हैं, फिर जब फूलमालाएं चढ़ रही हैं तो औरों ने भी चढ़ाईं। फिर तो झंडे वगैरह लग गए, झंडियां लटक गईं। वह बेचारा गरीब बाप तो बहुत घबड़ाया कि यह तो बड़ी मुश्किल हो गई। इस लफंगे के साथ वह अपनी लड़की की शादी करना नहीं चाहता। करना क्या? इससे बचो कैसे? और गांव भर उसको लानत देने लगा कि अरे क्या तुम कर रहे हो, क्या जान लोगे इसकी? पछताओगे जिंदगी भर! इसका प्रेम तो देखो। इसको कहते हैं प्रेम! मजनू भी यह नहीं किया। यह आदमी मजनू से भी आगे निकल गया। फरहाद को भी मात कर दिया इस आदमी ने।
दो दिन में तो उस आदमी की फजीहत हो गई, हालांकि रात को उसके मित्र आकर उसको खाना भी खिला जाते। और शोरगुल मच गया, अखबारों में फोटो छप गए और सब तरफ निंदा होने लगी बाप की। आखिर उसे कुछ न सूझा तो गांव के एक वृद्ध सर्वोदयी से उसने जाकर पूछा कि आप कुछ बताएं, अब मैं क्या करूं?
उसने कहा: एक ही रास्ता है। मैं एक वेश्या को जानता हूं। बूढ़ी है, भयानक है, कोढ़ भी निकल आया है, शरीर गल गया है, दांत सब गिर गए हैं। देख कर पहले ऐसा शक होता है कि शायद कोई चुड़ैल है। तुम उसको राजी कर लो। उसको भी कहो कि तू भी बिस्तर लगा दे।
उसने भी बिस्तर लगा दिया बुढ़िया ने आकर। वह युवक के पास जब बिस्तर लगाने लगी, उस युवक ने पूछा: यह क्या कर रही है? माई तू यहां बिस्तर किसलिए लगा रही है ?
उसने कहा कि मैं तुझसे विवाह करूंगी। नहीं तो आमरण अनशन करूंगी।
रात ही वह युवक अपना बिस्तर लेकर भाग गया, कि इसके साथ कौन विवाह करेगा! सत्याग्रह से ऐसे सत्याग्रह कटा। मगर यह सब अहिंसा है? यह सब हिंसा है। जब भी तुम दूसरे पर अपने को थोपना चाहते हो--हिंसा है। और जब भी तुम दूसरे पर अपने को थोपते हो--यह राजनीति है। इसलिए अगर तुम राजनीति से बच भी गए, कम्युनिस्ट न हुए, सोशलिस्ट न हुए, कांग्रेसी न हुए, यह न हुए, वह न हुए--तो तुम फिर छोटी-मोटी राजनीति चलाओगे। पति हो जाओगे, बाप हो जाओगे। इसलिए तो पति होने में इतना रस है। कितने ही कष्ट सहें आदमी, लेकिन पति होना चाहते हैं। किसी और पर न चलेगा, कम से कम पत्नी पर तो चलेगा। बाप बनना चाहते हैं। किसी और पर न चलेगा तो कम से कम बेटे पर तो चलेगा! बाप बेटों पर चला लेते हैं। फिर जब बूढ़े हो जाते हैं तो बेटे बापों पर चला लेते हैं। ऐसे सबका जी भर जाता है, सबकी राजनीति पूरी हो जाती है।
मगर तुम गौर करना। राजनीति सूक्ष्म बात है। जब तक अहंकार है तब तक राजनीति रहेगी। अहंकार की छाया है राजनीति। अहंकार से मुक्त हो जाओ, तो ही राजनीति से कोई मुक्त हो सकता है। और तभी धर्म में प्रवेश है।

तीसरा प्रश्न:
भगवान, मैं अपने परिवार और परिचितों द्वारा मूढ़मति समझा जाता हूं। क्या मैं भी निर्वाण पा सकता हूं? आज ही पहली बार आपके सान्निध्य में उपस्थित हुआ हूं।
बनारसी दास! मैं तुम्हारे परिवार, और परिचितों को दोष नहीं दे सकता। पहली ही बार उपस्थित हुए हो और लंबी छलांग लगा रहे हो--एकदम निर्वाण! क ख ग से शुरू करो। ध्यान की पूछो। तुम समुद्र लांघने चले! मूढ़मति कहते हैं तो ठीक ही कहते होंगे। तुमने आते ही अपनी मति प्रकट कर दी। अभी मैंने तुम्हें देखा भी नहीं, तुम्हें जाना भी नहीं। अब मैं कहूं भी तो कैसे कहूं कि तुम निर्वाण पा सकोगे कि नहीं पा सकोगे?
एक लंबा-तगड़ा बहुत ही मोटा व्यक्ति दर्जी की दुकान पर पहुंचा। दर्जी ने बड़ी कठिनाई से नाप लेकर हांफते हुए कहा: जनाब, इस शेरवानी की सिलाई के सौ रुपये होंगे।
परंतु तुमने तो टेलीफोन पर पचास रुपये बताए थे!
दर्जी ने पसीना पोंछते हुए कहा: जी हां, बताए तो थे, परंतु शेरवानी के बताए थे, शामियाने के नहीं।
पहले मुझे तुम्हें देख तो लेने दो, शेरवानी बनानी है कि शामियाना बनाना है, माजरा क्या है! अभी मैंने तुम्हारे दर्शन नहीं किए, दरस-परस हो जाने दो, फिर सोच लेंगे, निर्वाण की इतनी जल्दी क्या है? और ‘निर्वाण’ का मतलब समझते हो? शायद तुम्हें मतलब भी पता नहीं होगा। निर्वाण शब्द खतरनाक है। निर्वाण शब्द का अर्थ होता है: दीये का बुझ जाना। वह जो तुम्हारे भीतर अहंकार का दीया है, वह बुझ जाए।
रवींद्रनाथ बजरे पर यात्रा कर रहे थे। रात थी आधी। पूरा चांद! और बजरे की अपनी कोठरी में, नाव पर वे देर तक पश्चिम के एक बहुत बड़े सौंदर्यशास्त्री, क्रोशे का एक ग्रंथ पढ़ते रहे--सौंदर्यशास्त्र क्या है, इस संबंध में। आधी रात, थके-मांदे। सौंदर्य के संबंध में जो पहले समझते थे, वह भी गड़बड़ हो गया। क्रोशे उलझा हुआ दार्शनिक है। उससे कोई सुलझने की आशा न करे। जो क्रोशे को पढ़ेगा, वह सुलझा हुआ होगा तो उलझ जाएगा। दार्शनिक होते ही उलझे हुए लोग हैं। जिन चीजों के संबंध में तुम्हें पहले खयाल था सब ठीक-ठाक है, वह भी सब गड़बड़ हो जाता है। दार्शनिक ऐसे-ऐसे प्रश्नों पर विचार करते हैं, जिन पर तुमने कभी सोचा ही नहीं। जैसे दार्शनिक पूछते हैं कि दो और दो सच में ही चार होते हैं, हो सकते हैं दो और दो चार? तुम कहोगे: यह भी कोई सवाल है! मगर दार्शनिक इस पर विचार करते हैं। कुछ दार्शनिक हैं, जो कहते हैं कि कभी नहीं हो सकते दो और दो चार, क्योंकि दो चीजें एक जैसी होती ही नहीं। तो चार चीजें तो एक जैसी कैसे हो सकती हैं! इसलिए या तो पौने चार होंगे या सवा चार होंगे, मगर ठीक चार नहीं हो सकते। और फिर दो और दो चार क्यों होते हैं? क्या कारण है दो और दो चार के होने का? प्रकृति में तो कोई गणित होता नहीं; यह तो आदमी की ईजाद है, काल्पनिक है।
तुमने शायद सोचा ही नहीं होगा कभी। दो और दो चार तो हम मान कर चलते हैं। हम कहते हैं; जब किसी बात को कहना होता है बिलकुल साफ है, तो हम कहते हैं बिलकुल दो और दो चार की तरह साफ है। मतलब इससे ज्यादा और साफ क्या बात होगी! मगर नहीं, दार्शनिक के लिए दो और दो चार भी इतनी साफ बात नहीं है, बहुत उलझी हुई बात है।
आदमी की सारी गिनतियां दस के आंकड़ों पर बनी हैं। और कारण यह है कि आदमी की दस अंगुलियां होती हैं। अब जब तुम किसी देहाती को अंगुलियों पर गिनती करते देखते हो तो हंसते हो। हंसना मत। तुम भी वही कर रहे हो। सारी दुनिया का गणित दस पर बना हुआ है। वे सब देहाती की अंगुलियां हैं। हजारों साल में अंगुलियां तो हट गई हैं, मगर दस की गिनती कायम है। अब दस की कोई अनिवार्यता नहीं है।
पश्चिम का एक बहुत बड़ा दार्शनिक हुआ,--लीबनिज! उसने तीन ही आंकड़े माने--एक, दो, तीन। वह कहता: तीन काफी हैं, दस आंकड़े मानने की जरूरत नहीं है, अनिवार्यता नहीं है। अगर एक दो तीन मानो, तो दो और दो चार नहीं हो सकते। चार होते ही नहीं है लीबनिज के हिसाब में। फिर दो और दो कितने होंगे? दो और दो होंगे दस, क्योंकि तीन के बाद आएगा दस, फिर ग्यारह, फिर बारह, फिर तेरह, और फिर बीस।
अलबर्ट आइंस्टीन ने तो तीन का आंकड़ा भी तोड़ दिया था। आइंस्टीन मानता था, दो काफी हैं--एक और दो। तो अलबर्ट आइंस्टीन के साथ तो और भी फर्क पड़ जाएगा। अलबर्ट आइंस्टीन ने कहा कि दो से कम आंकड़े नहीं हो सकते, कम से कम दो अनिवार्य हैं; बस दो से काम चल जाएगा।
तो दो और दो चार होते हैं, इतनी साफ बात नहीं है दार्शनिकों के साथ।
रवींद्रनाथ सोचते थे, सौंदर्य सरल बात है। कवि थे, सौंदर्य का अनुभव किया था, मगर यह क्रोशे को पढ़ कर तो उनको और अड़चन हो गई, उलझ गए, थक गए। एक छोटी सी मोमबत्ती जला कर पढ़ रहे थे। मोमबत्ती फूंक कर बुझा दी, किताब बंद कर दी। सिर से पसीना पोंछ लिया। और जैसे ही पसीना पोंछ कर आंख खोलीं, चकित हो गए, एकदम चकित हो गए, अवाक हो गए। रंध्र-रंध्र से, बजरे के छिद्र-छिद्र से चांद की रोशनी भीतर आ गई। नाचने लगी रोशनी। द्वार खोला, चांद द्वार पर ही खड़ा था, भीतर आ गया। बाहर निकले, अपूर्व रात्रि थी! सारा आकाश स्निग्ध चांदनी से पटा पड़ा था। सारी नदी चांदी से पटी पड़ी थी। रवींद्रनाथ की आंखें आनंद के आंसुओं से गीली हो गईं। उन्होंने अपनी डायरी में लिखा कि मैं भी कैसा पागल हूं, सौंदर्यशास्त्र क्या है यह किताब में देख रहा था, जब कि सौंदर्य मेरे चारों तरफ बिखरा हुआ पड़ा था! और एक अदभुत अनुभव मुझे आज हुआ है कि मेरी पीली सी मोमबत्ती, टिमटिमाती सी रोशनी, धुआं देती रोशनी, उसकी वजह से चांद भीतर नहीं आ पा रहा था! जैसे ही मैंने वह टिमटिमाता मोमबत्ती का प्रकाश बुझा दिया, वैसे ही चांद भीतर चला आया।
उन्होंने अपनी डायरी में लिखा: ऐसा ही मुझे लगता है हमारा अहंकार है। टिमटिमाता सा! इसको हम बुझा दें तो अनंत सौंदर्य हम पर अभी बरस उठे।
निर्वाण का अर्थ होता है: दीये का बुझना। अहंकार बुझ जाए।
तुम पूछ रहे हो: ‘क्या मैं निर्वाण पा सकता हूं?’
तुम सोच रहे हो, निर्वाण कोई पाने की बात है। यह खोने की बात है, भैया! इसमें बिलकुल मिटने का धंधा है। यह बरबादी का काम है। यह जुआरियों का काम है। मगर तुमने आते से ही राज खोल दिया। तुम न भी कहते कि मैं अपने परिवार और परिचितों द्वारा मूढ़मति समझा जाता हूं तो भी मैं समझ लेता।
एक फौजी आफिसर की पत्नी कम पढ़ी-लिखी थी। अफसर को उसे पार्टी इत्यादि में ले जाते हुए शर्म आती थी। एक बार मित्रों के बहुत जिद करने पर बीबी को बहुत समझा कर एक पार्टी में ले गया। पत्नी पूरे समय चुप रही। लोगों को मुस्कुराते देख कर मुस्कुराई, हंसते देख कर हंसी, गंभीर देख कर गंभीर मुद्रा बनाई तथा अंत तक सब ठीक-ठाक से निभा लिया। अंत में विदाई के समय उसने जो संबोधन किया, वह बड़ा अजीब था। उसने कहा: हार्न प्लीज! सब लोग चौंके। पति भी बहुत चौंका। फिर बाद में पति ने पूछा कि आखिर तूने हॉर्न प्लीज क्यों कहा? तो पत्नी बोली: अरे, सब लोग कह रहे थे टा-टा, बॉय-बॉय, फिर मिलेंगे, इत्यादि, जो कि ट्रकों के पीछे लिखा होता है। और किसी ने भी नहीं कहा हॉर्न प्लीज! सो मैंने कहा कि मैं यह कह दूं। एक ही चीज लोग छोड़ रहे थे--हॉर्न प्लीज! टा-टा, बॉय-बॉय, फिर मिलेंगे, यह सब तो लोगों ने कहा।
कब तक छिपाओगे, कैसे छिपाओगे? कहीं न कहीं से बात प्रकट हो ही जाएगी। तुमने आते ही से जाहिर कर दिया। मगर कोई हर्जा नहीं। अच्छा ही है। अगर कोई व्यक्ति अपने को स्वयं भी मूढ़मति समझ ले तो ज्ञान की शुरुआत हो जाती है। तुम अपने मित्रों को, परिवार के लोगों को, परिचितों को धन्यवाद दो। और तुम अंगीकार कर लो यह बात कि मूढ़मति हो। मूढ़मति तो वे भी होंगे, क्योंकि दुनिया में दो ही मतियां होती हैं--या तो मूढ़मति होते हैं लोग, या बुद्धमति होते हैं। तीसरी तो कोई मति होती नहीं। उनको यह भ्रांति होगी कि वे मूढ़मति नहीं हैं। मगर तुमको कम से कम चौंका रहे हैं, चलो, तुम पर उनकी इतनी कृपा है! अगर तुम इस बात को स्वीकार कर लो कि मूढ़मति हो तो तुम्हारे जीवन में पहली किरण उतर आए। यह निर्वाण का पहला कदम होगा। अब आज से तुम यह मत कहना कि परिचित और परिवार के लोग ऐसा कहते हैं। आज से तुम यह कहो कि मैं जानता हूं कि मैं मूढ़मति हूं।
स्वभावतः, अभी हम मूर्च्छित हैं, बेहोश हैं। हमें पता नहीं कौन हैं, कहां से आए, कहां जा रहे हैं। मूढ़मति न होंगे तो और क्या होंगे? और इसलिए तुम पूछ रहे हो: क्या मैं निर्वाण पा सकता हूं? अब निर्वाण कोई लक्ष्य नहीं है, कोई वासना का विषय नहीं है। इसे तुम महत्वाकांक्षा नहीं बना सकते। निर्वाण पाया नहीं जाता। निर्वाण आता है। तुम मिट जाओ तो आता है। जब तक तुम पाने के लिए मौजूद हो तब तक नहीं आता।
कबीर ने कहा है: जब तक मैं था, तब तक हरि नाहिं। और जब से मैं मिटा हूं, तब से हरि ही हरि है।
हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हेराई।
बुंद समानी समुंद में, सो कत हेरी जाई।।

हेरत-हेरत हे सखी, रह्या कबीर हेराई।
समुंद समाना बुंद में, सो कत हेरी जाई।।
खोजते-खोजते, कबीर कहते हैं, मैं खो गया, खोजने वाला खो गया। और जब खोजने वाला खो गया, तो एक चमत्कार घटा--बूंद सागर में समा गई! और इतना ही नहीं, और एक बड़ा चमत्कार फिर बाद में घटा, कि सागर बूंद में समा गया! अब तो अलग करने को कोई उपाय भी न रहा।
निर्वाण उस मिटने की परम अवस्था का नाम है। तुम मिटो तो परमात्मा है--अभी है, यहीं है!
पर बनारसीदास, जल्दी न करो। धैर्य। बहुत धैर्य चाहिए। अनंत धैर्य चाहिए।

आखिरी प्रश्न:
भगवान, मैं समझता तो हूं कि विवाह के चक्कर में पड़ना खतरे से खाली नहीं है, फिर भी मन नहीं मानता है। क्या करूं क्या न करूं, कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है?
वीरेंद्र सिंह! बहादुर आदमी मालूम पड़ते हो--कम से कम नाम से तो! मत चूक चौहान! कूद पड़ो! ऐसे कहीं डरते हैं! लाख मैं कहूं, लाख बुद्ध पुरुष कहते रहें कि विवाह के चक्कर में पड़ना खतरे से खाली नहीं है--कहने दो। ऐसे विचलित नहीं होते वीर पुरुष किन्हीं की बातों से।
तुम कहते हो: ‘क्या करूं क्या न करूं, कुछ समझ में नहीं आता?’
विवाह करो, फिर पत्नी तय करेगी, तुमको तय करना ही नहीं पड़ेगा--क्या करना है, क्या नहीं करना!
मुल्ला नसरुद्दीन को एक दिन रास्ते पर पुलिसवाले ने रोका, क्योंकि गाड़ी को भगाए जा रहा है--ऐसे रास्ते से, जहां बीस मील से ज्यादा रफ्तार की मनाही है, वह कम से कम अस्सी मील की रफ्तार से जा रहा है। पुलिसवाले ने कहा कि बड़े मियां, होश में हो? बीस मील से ज्यादा रफ्तार की मनाही है। चालान करता हूं। जुर्माना भरना होगा।
नसरुद्दीन ने कहा: अब आपसे क्या छिपाना! गाड़ी के लाइट खराब हैं और रात उतर आ रही है। सो तेजी से भाग रहा हूं कि अंधेरा उतरने के पहले घर पहुंच जाऊं।
तो पुलिसवाले ने कहा: अच्छा तो लाइट भी खराब है! तो जुर्माना और ज्यादा होगा।
नसरुद्दीन ने कहा: अब करो भी क्या! इस गांव में कोई ठीक से मेकेनिक तो मिलते नहीं। लाइट ठीक करवाने गया था उस मूर्ख ने ब्रेक भी खराब कर दिए।
तो पुलिसवाले ने कहा: हद हो गई! तो ब्रेक भी खराब हैं!
तभी पत्नी पीछे से चिल्लाई कि हजार दफे कहा तुमसे फजलू के बाप कि होश से बातें किया करें। जब भी तुम ज्यादा पी लेते हो, अंट-शंट बकने लगते हो।
पुलिसवाले ने कहा: अच्छा तो ये ज्यादा भी पीए हुए हैं, तो गाड़ी कौन चला रहा है फिर?
नसरुद्दीन ने कहा: गाड़ी तो जब से पत्नी मिली है, पत्नी ही चलाती है। हम तो सिर्फ स्टियरिंग पर बैठे रहते हैं। यह पीछे से बताती है--बाएं मुड़ो, दाएं मुड़ो, यूं करो, वूं करो। वही हम करते हैं। आप खुद ही देख लो कैसी बमक रही है और हमारी घर जाकर क्या गति होगी!
पुलिसवाले ने झांक कर पत्नी की तरफ देखा और उसने कहा: भैया, तू घर जा! तेरे जुर्माने की कोई जरूरत नहीं है, तेरा जुर्माना हो चुका है। तू काफी दंड भुगत चुका है, और भुगतेगा, जा! तेरा क्या कसूर! ऐसी पत्नी मेरी होती तो मैं भी ज्यादा पी लेता।
तुम पूछते हो: ‘क्या करूं क्या न करूं?’
ऐसी अवस्था में ही तो लोग विवाह करते हैं। पत्नी फिर यह मौका नहीं देती कि क्या करो क्या न करो। पत्नियां बिलकुल सुनिश्चित होती हैं। इस मामले में उनका मन कभी भी संदेहग्रस्त नहीं होता। यह-वह, ऐसी झंझट में पत्नियां नहीं पड़तीं। वह बिलकुल उनकी दिशा साफ होती है। और उसी दिशा पर तुमको चलावाएंगी। नहीं चलोगे तो पछताओगे।
तुम कह रहे हो: ‘विवाह के चक्कर में पड़ना खतरे से खाली नहीं है, यह मैं समझता हूं।’
क्या खाक समझते हो! समझते ही होते तो फिर पूछते? सुन रहे हो, समझ नहीं रहे हो। समझोगे अनुभव से। समझोगे तब जब घनचक्कर ही बन जाओगे। तब समझ में आएगा कि चक्कर है।
पंडित जी--एक आदमी पहुंचा पंडित जी के पास और बोला: क्या यह उचित है कि कोई आदमी किसी की गलती का फायदा उठाए?
नहीं, बिलकुल नहीं--पंडित जी ने कहा।
तो फिर आप मुझे वे रुपये लौटा दीजिए जो मैंने आपको अपनी शादी कराते समय दिए थे।
मैं मुल्ला नसरुद्दीन के घर में बैठा हुआ था। उसका बेटा पास ही खेल रहा था। अचानक बोला: नीचे के कमरे में कोई आया है।
मैंने पूछा: हद हो गई, ऊपर के कमरे से तुझे कैसे पता चला? मुझे पता नहीं चल रहा, तुझे कैसे पता चला फजलू कि नीचे के कमरे में कोई आया है?
उसने कहा: देखते नहीं हो, अभी तक मम्मी बोल रही थीं, अब मम्मी चुपचाप हैं, पापा बोल रहे हैं। जरूर कोई आया है।
पत्नी होगी तो बोलने का ही मौका नहीं देगी, सोचने वगैरह की तो बात बहुत दूर है। वाणी नहीं खुलने देगी।
नसरुद्दीन के पिता मरे। मैंने उनसे पूछा कि तुम्हारे पिता चल बसे, आखिरी समय कुछ कह गए?
उसने कहा कि क्या खाक कहते! माताराम अंत तक उनके साथ थीं। बोलने का उन्हें अवसर ही नहीं मिला।
वाणी ही तुम्हारी इतनी है ओजमयी,
या कि मुझे भय देने के लिए दहाड़ रही हो।
बंकिम नयन से जो देखती हो मेरी ओर,
भृकुटी कटाक्ष है कि मुझे ताड़ रही हो।।
बार-बार पकड़-पकड़ झकझोर देती हो,
स्पर्श करती हो कि वस्त्र फाड़ रही हो?
ऐसा भी क्या प्यार हुआ सारी देह नोच डाली,
च्यूंटी काट रही हो कि खूंटी गाड़ रही हो?
अनुभव! थोड़ा अनुभव करो वीरेंद्र सिंह, कोई भी स्त्री बिल्ली बना कर छोड़ेगी। सिंह वगैरह होना सब भूल जाओगे।
मगर अनुभव से ही लोग सीखते हैं। कई तो ऐसे मूढ़ हैं कि अनुभव से भी नहीं सीखते। अनुभव से भी सीख लें वे तो समझना कि मेधावी हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन को बहुत उदास बैठा देख कर मैंने उससे पूछा: नसरुद्दीन, क्या बात है? इतने गुमसुम क्यों हो? क्या तुम्हारे ऊपर कोई बड़ी आफत आ पड़ी है?
मुल्ला ने कहा: हां। क्या आपको मालूम नहीं, परसों शाम को चंदूलाल की पत्नी चल बसी?
मैंने कहा: मगर चंदूलाल से तो बहुत दिनों से तुम्हारा बैर है, तुम्हें तो खुश ही होना चाहिए।
मुल्ला ने गुस्से में कहा: खुश होना चाहिए! आपका दिमाग खराब हो गया है क्या? अरे कल रात को ही धन्नालाल की पत्नी भी चल बसी और ढब्बू जी की पत्नी को डाकू उठा ले गए। इतना कहते-कहते नसरुद्दीन की आंखों से टपाटप आंसू गिरने लगे। मैंने सांत्वना देते हुए कहा: इतने दुखी न होओ मेरे भाई, एक न एक दिन दुनिया से सभी को जाना होता है।
मुल्ला बोला: उसी दुख से तो पागल हुआ जा रहा हूं, कि दोस्तों की, दुश्मनों की, सभी की बीवियां मरती जा रही हैं, पता नहीं मैंने ही क्या गुनाह किया है जो परमात्मा मुझ पर कृपा ही नहीं करता है!
वीरेंद्र सिंह, हो जाने दो। अरे चार दिन की जिंदगी है, ऐसे ही गंवा दोगे क्या? कुछ अनुभव लेकर जाओ। कुछ चोटें खाकर जाओ। अब तुम कहते हो कि मन मानता नहीं। मनाओ भी मत, क्योंकि मनाया तो वह जबर्दस्ती होगी। मनाया तो खिसल-खिसल जाएगा, फिसल-फिसल जाएगा, बार-बार सताएगा। इस अनुभव से गुजर ही लो।
मैं तो हमेशा इस पक्ष में हूं कि जो भी चीज तुम्हारे मन को पकड़ती है, उस अनुभव से गुजर ही जाओ। हां, होशपूर्वक गुजरना, ध्यानपूर्वक गुजरना, ताकि एक ही भूल दुबारा न करो।
एक आदमी मरा, स्वर्ग पहुंचा। द्वार पर दस्तक दी। द्वारपाल ने पूछा: विवाहित हो?
उस आदमी ने कहा: हां।
द्वारपाल ने कहा: आ जा भैया, भीतर आ जा। अब तुझे नरक जाने की जरूरत नहीं। नरक तू भोग चुका।
उसी के पीछे दूसरा आदमी चला आ रहा था। उसने यह सुना। उसने भी दस्तक दी। उससे पूछा: विवाहित हो?
उसने कहा: एक बार नहीं, तीन बार।
द्वारपाल ने दरवाजा बंद किया और कहा कि दुखियों के लिए यहां स्थान है, पागलों के लिए नहीं।
अगर कोई व्यक्ति ध्यानपूर्वक किसी भी अनुभव से गुजरे तो एक बार पर्याप्त होगा। और अगर ध्यानपूर्वक जीवन की कोई भी प्रक्रिया को हम समझ लें तो उससे मुक्ति हो जाती है। नहीं तो मन भरमाता रहेगा, भटकाता रहेगा।
मैं नहीं कहता कि विवाह मत करो। मैं तो किसी बात की रुकावट नहीं डालता। मैं तो कहता हूं, जो करना है, कर ही लो। कल पर मत छोड़ो। कल का क्या भरोसा! कल करते हो तो आज ही कर लो। अनुभव से गुजर जाओ। अनुभव परिपक्वता लाता है, प्रौढ़ता लाता है। अनुभव मुक्ति है। दुख तो आएगा उससे, पीड़ा भी आएगी। मगर कौन बिना पीड़ा के सीखा है?

आज इतना ही।

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