QUESTION & ANSWER

Sumiran Mera Hari Kare 07

Seventh Discourse from the series of 11 discourses - Sumiran Mera Hari Kare by Osho. These discourses were given during MAY 21-31 1980, Pune.
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पहला प्रश्न:
भगवान, आपकी यह सब बात तो ठीक है कि सब शुभ है, सुंदर है; परंतु हमारा क्या होगा--हम जो कि आपकी देह से आसक्त हैं?
योग विद्या! आसक्ति भी अशुभ नहीं। आसक्ति भी असुंदर नहीं। आसक्ति वैसी ही है, जैसे खदान से निकला ताजा-ताजा सोना, शुद्ध नहीं है। अग्नि से गुजरेगा, निखरेगा, शुद्ध हो जाएगा।
आसक्ति प्रेम का अशुद्ध रूप है। आसक्ति का रूपांतरण करना होता है, परिष्कार करना होता है।
मैं आसक्ति के विपरीत नहीं हूं। मैं किसी भी बात के विपरीत नहीं हूं। लेकिन प्रत्येक वस्तु के और भी श्रेष्ठतर रूप हो सकते हैं, और भी शुभतर, और भी सुंदरतर।
उपनिषद के ऋषियों ने प्रार्थना की है: हे प्रभु, हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। तमसो मा ज्योतिर्गमय!
मैं अगर कहूं तो कहूंगा: हे प्रभु, हमें प्रकाश से और प्रकाश की तरफ ले चलो। क्योंकि अंधकार भी प्रकाश का ही एक रूप है। अंधकार में भी प्रकाश ही छिपा हुआ है। अंधकार से ही तो सुबह का जन्म होता है, सूरज उगता है। रात्रि के गर्भ में ही तो सूरज पलता है और बड़ा होता है। यह सुबह का सारा सौंदर्य रात के बिना नहीं हो सकता है।
उपनिषद के ऋषि कहते हैं: हे प्रभु, हमें मृत्यु से अमृत की ओर ले चलो। मृत्योर्मा अमृतं गमय!
मैं कहना चाहूंगा: हे प्रभु, हमें अमृत से और अमृततर की ओर ले चलो। क्योंकि मृत्यु तो है ही नहीं। अमृत ही है। अमृत के ही सब सोपान हैं। कहीं धूल-धूसरित है, कहीं स्वर्ण-मंडित है। कहीं कीचड़ में दबा है और कहीं कीचड़ से मुक्त हो गया है।
उपनिषद के ऋषि कहते हैं: हे प्रभु, हमें असत्य से सत्य की ओर ले चलो। असतो मा सदगमय!
मैं कहूंगा: हे प्रभु, हमें सत्य से और भी सत्यतर की तरफ ले चलो। क्योंकि मेरे लिए कुछ भी असत्य नहीं है। मैं जीवन को उसकी सर्वांगीणता में स्वीकार करता हूं। मेरी स्वीकृति चरम है, समग्र है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि विकास असंभव है। विकास है--पूर्ण से पूर्णतर की ओर, पूर्णतर से पूर्णतम की ओर। अपूर्ण कुछ भी नहीं है। फिर भी विकास संभव है। यही इस जगत का रहस्यमय रूप है। यही इस जगत का जादू है। यही चमत्कार है।
योग विद्या, मेरी देह से तुम्हारी आसक्ति है; वह पहला कदम है--मेरी आत्मा से तुम्हारे प्रेम के बनने का। नहीं कहूंगा: आसक्ति छोड़ दो। कहूंगा: आसक्ति को गहराओ; इतना गहराओ कि आसक्ति प्रेम बन जाए। कहूंगा: आसक्ति को पंख दो, कि पृथ्वी पर ही क्यों सरके आसक्ति, आकाश में उड़े! कहूंगा: आसक्ति को आंखें दो, देह ही क्यों देखे आसक्ति, आत्मा को क्यों न देखे? तब आसक्ति बंधन नहीं है। तब आसक्ति भी मुक्ति है।
मेरी इस दृष्टि को जिसने समझा, वही मेरे संन्यास को समझ पाएगा। इसलिए मैंने कल कहा कि इस भ्रांति में मत रहना कि मैंने संन्यास को सरल कर दिया है। ऊपर-ऊपर बिलकुल सरल, भीतर-भीतर बहुत कठिन कर दिया है। ऊपर-ऊपर इतना सरल कि लोगों को लगता है, कुछ भी तो नहीं करना है; गैरिक वस्त्र पहन लेने हैं कि माला धारण कर लेनी है, कि नाम बदल लेना है--बस संन्यास हो गया। न व्रत है, न उपवास है; न यम है, न नियम है; न तप है, न तपश्चर्या है; न त्याग है, न संसार से हटना है, न दूर पहाड़ों में निवास है। ऊपर से तो निश्चित ही सरल कर दिया है, क्योंकि जो ऊपर से कठिन हो तो बस ऊपर की कठिनाई ही खा जाती है, भीतर तक पहुंचने का अवसर ही नहीं आता। ऊपर का गणित बिठालने में ही जीवन व्यतीत हो जाता है, भीतर कदम उठाने का मौका ही नहीं मिलता। ऊपर से बिलकुल सरल कर दिया है, ताकि भीतर की चुनौती परिपूर्णता से झेली जा सके।
और भीतर की सबसे बड़ी चुनौती यही है: प्रेम जब शुरू होगा तो आसक्ति की तरह ही शुरू होगा। अगर तुमने चाहा कि आसक्ति की तरह प्रेम शुरू न हो तो प्रेम कभी शुरू ही नहीं होगा। बीज होगा तो वृक्ष होगा। बीज की तरह ही वृक्ष शुरू होगा। और कमल शुरू होगा तो कीचड़ में ही शुरू होगा। तुमने अगर कीचड़ से बचना चाहा तो कमल से वंचित रह जाओगे।
इसलिए मेरे लिए कीचड़ भी पूज्य है, पावन है, पवित्र है, क्योंकि उससे कमल का जन्म होता है। कीचड़ जननी है। और जिससे कमल का जन्म होता हो उसे कीचड़ ही कह कर तुम न्याय नहीं कर रहे हो। जिसमें कमल छिपा हो, वह मात्र कीचड़ ही नहीं है, वह कमल का अप्रकट रूप है। ऐसी ही आसक्ति है। यह भी शुभ, यह भी सुंदर।
तू कहती है विद्या कि ‘हमें आपकी देह से आसक्ति है।’
तुझे चिंता हो रही है। तूने इसे प्रश्नवाचक चिह्न के साथ पूछा है कि हम क्या करें? परंतु हमारा क्या होगा? यही तो मेरे होने का प्रयोजन है कि तुम्हारे भीतर की मिट्टी को सोना बना दूं, कि तुम्हारे भीतर की आसक्ति को प्रेम बना दूं। और प्रेम पर भी रुक नहीं जाना है। रुकना तो कहीं भी नहीं है। रुकना ही नहीं है। यह जगत अनंत यात्रा है। फिर प्रेम को प्रार्थना बनाना है। फिर प्रार्थना को परमात्मा बनाना है। यूं चलते ही जाना है। बुद्ध ने कहा है: चरैवेति, चरैवेति! चलते रहो, चलते रहो! कहीं रुकना मत। मंजिल नहीं है; यात्रा ही मंजिल है। और यात्रा के हर कदम पर अपूर्व अनुभव होते हैं। मंजिल आ जाए तो सब समाप्त हुआ। फिर कोई विकास नहीं है। फिर कोई गति नहीं है। मंजिल आ जाए तो मृत्यु आ गई। मंजिल नहीं आती, इसलिए मृत्यु है ही नहीं, जीवन ही जीवन है; जीवन और महाजीवन! सरिताएं सागर बन जाती हैं, ऐसे ही जीवन महाजीवन बन जाता है।
तूने पूछा: ‘आपकी यह सब बात तो ठीक है...।’
तेरे पूछने से ही लगता है कि तुझे बात सब ठीक लग नहीं रही है। कहती है कि आप जब कहते हैं तो ठीक ही कहते होंगे। आपकी यह सब बात तो ठीक है। यह कहने का ढंग बताता है कि मुझसे विवाद भी नहीं किया जा सकता। मगर तुझे बात रुच नहीं रही, गले के नीचे उतर नहीं रही। न गटकते बनती है, न थूकते बनती है। तो तू कह रही है कि आपकी सब बात तो ठीक है। ठीक होगी ही! कौन विवाद में पड़े! और यूं भी विवाद में पड़ने से लाभ क्या होगा! इतना तू भलीभांति जानती है कि विवाद में हारना होगा। इसलिए विवाद में पड़ना नहीं चाहती। लेकिन नकार तेरे भीतर है। तू सच में तो यह कहना चाहती है: हमें यह बात जंचती नहीं। और मैं कह भी नहीं रहा हूं कि तुझे जंचनी चाहिए। अभी कैसे जंचेगी? अगर मेरी बात अभी जंच जाए तो तू प्रबुद्ध हो गई। मेरी बात तो जंचते-जंचते ही जंचेगी, बनते-बनते ही बनेगी।
तू कहती है: ‘आपकी यह सब बात तो ठीक है कि सब शुभ है, सुंदर है...।‘
कहने को कह रही है, औपचारिक रूप से कह रही है। इनकार नहीं करना चाहती मेरी बात को, इसलिए कह रही है। लेकिन भीतर प्रश्न है और प्रश्न यह है: फिर आसक्ति का क्या होगा? अगर सब शुभ है, सब सुंदर है, तो फिर मृत्यु का क्या होगा? वह भी शुभ है, वह भी सुंदर है।
सदियों-सदियों में आदमी ने जीवन को शुभ में और अशुभ में बांटा है। मैं बांटना नहीं चाहता जीवन को। वही मेरा अनुदान है। वही मेरी क्रांति है। मैं जीवन को बिना बांटे स्वीकार करता हूं। उसे खंडों में नहीं तोड़ना चाहता। जिसने जीवन को खंडों में तोड़ दिया, विपरीत खंडों में तोड़ दिया, वह अपने को भी विपरीत खंडों में तोड़ लेगा। वह स्वयं भी खंडित हो जाएगा। और खंडित व्यक्तित्व अखंड को नहीं जान सकता है, इतना स्मरण रहे। खंडित व्यक्ति विक्षिप्त हो जाता है। खंडित होना विक्षिप्त होना है। अखंडित होना स्वास्थ्य है। मगर अखंडित होने की कला यह है कि जीवन को उसके अखंड रूप में स्वीकार करो। कांटों को भी और फूलों को भी! कांटे अगर हैं तो फूलों के रक्षक हैं। एक ही रसधार से दोनों बने हैं। एक ही प्राण ऊर्जा दोनों में बही है। और एक ही परमात्मा दोनों में प्रकट हुआ है। कहीं कांटे की तरह, कहीं फूल की तरह। कांटे से दुश्मनी मत लेना। जब परमात्मा कांटे और फूल दोनों से राजी है, जब गुलाब की झाड़ी में दोनों को सजा रहा है, तो तुम महात्मा बनने की कोशिश मत करना।
ध्यान रखना, तुम्हारे तथाकथित महात्मा परमात्मा के विपरीत काम में लगे हुए हैं। परमात्मा दोनों बनाता है; तुम्हारे महात्मा कहते हैं, एक को चुनो। तुम्हारे महात्मा अपने को परमात्मा से ऊपर रखने की चेष्टा में संलग्न हैं। परमात्मा अंधकार भी बनाता है और प्रकाश भी। निश्चित ही दोनों को अंगीकार करता है। अंधेरे का भी अपना सौंदर्य है। नहीं, तुमने अंधेरे का सौंदर्य देखा? अमावस की रात का तुमने काव्य नहीं देखा, संगीत नहीं देखा? माना कि पूर्णिमा की रात का भी अपना मजा है, मगर अमावस की रात का कुछ कम मजा नहीं। बुद्ध पूर्णिमा की रात्रि को ज्ञान को उपलब्ध हुए। महावीर ने ठीक ही किया कि वे अमावस की रात को ज्ञान को उपलब्ध हुए। महावीर ने एक क्रांति घटित कर दी। अमावस की रात को शायद महावीर के अतिरिक्त कोई भी परमज्ञान को उपलब्ध नहीं हुआ है। पूर्णिमा की रात्रि को तो बहुत लोग परमज्ञान को उपलब्ध हुए; यह प्रतीक है। पूर्णिमा की रात्रि हो, इससे ज्यादा शुभ घड़ी क्या होगी, इससे ज्यादा सुंदर और क्या होगा! आकाश में पूरा चांद हो, बरसती चांदनी हो, चारों तरफ फैला हुआ चांदनी का सौंदर्य हो, पृथ्वी चांदी की हो गई हो, पत्ते-पत्ते पर निखार हो, फूल-फूल अलौकिक आभा से मंडित हो--यह तो ठीक है, यह समझ में आता है। यह बात तर्क में बैठती है कि बुद्ध पूर्णिमा को ज्ञान को उपलब्ध हुए। लेकिन महावीर को मत भूल जाना। महावीर अमावस की रात को ज्ञान को उपलब्ध हुए।
अमावस की रात का भी अपना सौंदर्य है। अंधेरी रात की अपनी गहराई है। अंधेरे की अपनी मखमली देह है। अंधेरे में जो रेशमीपन है, वह उजाले में नहीं है। और अंधेरे में जैसे तारे उभर कर प्रकट होते हैं, रोशनी में खो जाते हैं। अंधेरे में आकाश जैसा मंडित हो जाता है तारों से, तारों का वितान खिंच जाता है--वैसा चांदनी में कहां, वैसा दिन की धूप में कहां! वह मजा कहां!
लेकिन आदमी ने हमेशा परमात्मा को प्रकाश के साथ पर्यायवाची माना है। करीब-करीब दुनिया के सारे धर्मशास्त्र कहते हैं: परमात्मा प्रकाश है। मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं: परमात्मा प्रकाश है निश्चित ही, परमात्मा लेकिन उतना ही अंधकार भी है।
यह किसी धर्मशास्त्र ने कहा नहीं है। हमें नया धर्मशास्त्र लिखना ही होगा। क्योंकि अंधेरे को छोड़ दोगे तो परमात्मा अधूरा रह जाएगा। सारे धर्मशास्त्रों ने कहा है: परमात्मा महाजीवन है। लेकिन कोई धर्मशास्त्र नहीं कहता कि परमात्मा महामृत्यु भी है। यह मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि परमात्मा महामृत्यु भी है। क्योंकि मृत्यु को छोड़ दोगे तो विश्राम छूट जाएगा। और विश्राम की अपनी गहराई है। जैसे जागरण ही जागरण काफी नहीं है, रात के सोने का भी अपना मजा है। वह दिन के जागने से कम नहीं है। वैसे ही जीवन और मृत्यु एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। मगर आदमी ने क्यों प्रकाश को परमात्मा कहा, क्योंकि आदमी अंधेरे से डरता है। इसलिए आदमी ने सदियों से शैतान को काला चित्रित किया है और परमात्मा को ज्योतिर्मय। यह आदमी की अपनी भय की सूचना है। इससे कोई परमात्मा के संबंध में वह कुछ नहीं कह रहा है; अपने संबंध में कुछ कह रहा है; अपने मनोविज्ञान की उदघोषणा कर रहा है। यह उसका मनसशास्त्र है कि वह अंधेरे से डरता है, घबड़ाता है; उजाले में निश्चिंत हो जाता है। उजाले में दिखाई पड़ता है। अंधेरे में कुछ दिखाई नहीं पड़ता, पता नहीं सांप छिपा हो, बिच्छू छिपा हो, जंगली जानवर हमला बोल दें, कोई चोर-लुटेरा, कोई हत्यारा आ जाए! उजाले में कम से कम सुरक्षा तो है! उजाले में बचने का उपाय तो है, भाग तो सकता है। कुछ न कर सके तो कम से कम भाग तो सकता ही है, चीख-चिल्ला तो सकता है। लेकिन अंधेरे में एकदम असुरक्षित हो जाता है।
मगर असुरक्षा का मजा छोड़ दोगे तुम। सुरक्षा का भी सुख है। मगर सुरक्षा में एक तरह का बंधन है। असुरक्षा में एक स्वतंत्रता है। और जिनकी श्रद्धा परिपूर्ण है, वे असुरक्षा को छोड़ नहीं देंगे। वे उसे भी अंगीकार करते हैं। यह तो श्रद्धा की कमी है, जो असुरक्षा को अस्वीकार करती है। श्रद्धा की पूर्णता में तो सब स्वीकार है--सुरक्षा भी, असुरक्षा भी।
मृत्यु से तुम डरते हो। इसलिए परमात्मा को तुम मृत्यु की तरह चित्रित नहीं करते--जीवन, महाजीवन, परम जीवन, शाश्वत जीवन। क्यों? क्योंकि तुम्हारे भीतर आकांक्षा है सदा जीने की। तुम सदा जीना चाहते हो। तुम कभी मिटना नहीं चाहते। मरने से तुम बड़े भयातुर हो। क्या डर है यूं मरने में? क्या भय है यूं मिटने में? अगर ओस की बूंद सागर में खो जाए तो इतना क्या भय? नदी भी सागर में उतर कर लीन हो जाए, तो इतनी क्या चिंता है? और तुम भी अगर विराट में लीन हो जाओ, खो जाओ--वह परम-मरण है, महामरण है--तो क्या इतना बचाव की कोशिश में लगे हुए हो? बचा कर भी क्या बचा लोगे? बचाने योग्य है भी क्या?
आदमी ने अपने मनोविज्ञान को परमात्मा पर आरोपित किया है। यह परमात्मा की असली तस्वीर नहीं है, जो हमने छाप रखी है, जो अपने मन में खोद रखी है। ये प्रतिमाएं जो हमने गढ़ी हैं, ये हमारे संबंध में खबर देती हैं। इसलिए जैसे-जैसे आदमी बदला है, वैसे-वैसे उसकी परमात्मा की प्रतिमा बदली है। जैसे-जैसे आदमी बदला, वैसे-वैसे उसका परमात्मा के संबंध में दृष्टिकोण बदला। आदमी की बदलाहट के साथ उसका परमात्मा बदलता गया। यह भी खूब रही! क्योंकि आदमी बदला तो स्वभावतः उसे अपने चित्र बदलने पड़े।
अब धनुर्धारी राम कुछ अप्रासांगिक मालूम होते हैं। जिनको नहीं मालूम होते होंगे, वे या तो अंधे हैं या समसामयिक नहीं हैं। बुद्ध कहीं ज्यादा दिव्य रूप मालूम पड़ते हैं। ये धनुषबाण हाथों में लिए हुए राम खड़े हैं, यह धनुषबाण की भाषा अब सार्थक नहीं रही। यह कभी सार्थक थी। आज से पांच-दस हजार साल पहले यह जरूर सार्थक थी। लेकिन अगर धनुषबाण लेकर भगवान खड़े हो सकते हैं तो बंदूक लेकर क्यों नहीं? आखिर बंदूक आधुनिक ढंग का उपाय होगा। तो एटम बम लेकर क्यों नहीं खड़े हो सकते?
एक महापंडित थे, राहुल सांकृत्यायन। वे सिद्ध करने की कोशिश करते रहे जीवन भर--और हो सकता है उनकी बात सच हो--कि गणेश जी हाथ में जो लड्‌डू लिए हुए हैं, वह लड्‌डू नहीं है, अंडा है। अब तो वे चल बसे, मगर वे जिंदगी भर इस चेष्टा में लगे रहे कि वह अंडा है, लड्‌डू नहीं है। अगर वे जिंदा होते तो मैं उनसे कहता कि अब छोड़ो अंडा भी, कहो कि एटम बम है। जरा और आधुनिक करो बात को। क्या लड्‌डू, क्या अंडा? ये कोई रखने की चीजें हैं? अब वक्त बदल गया है। ये एटम बम हाथ में लिए हुए हैं। यह कोई मोतीचूर का लड्‌डू नहीं है। यह सबको चकनाचूर कर दे, ऐसा एटम बम है।
सदियां बदलती हैं, लोग बदलते हैं।
यहूदियों का जो परमात्मा है, तीन हजार साल पुराना, बाइबिल में उसका वर्णन ही पढ़ कर तुमको लगेगा कि इसको परमात्मा मानना कि नहीं मानना! क्योंकि यहूदियों का परमात्मा कहता है कि मैं बहुत ईर्ष्यालु हूं। तुम बहुत चौंकोगे कि परमात्मा और कहे कि मैं बहुत ईर्ष्यालु हूं, कि मैं बरदाश्त नहीं करता, कि जो मेरे विपरीत जाएगा उसको मैं नष्ट कर दूंगा, तहस-नहस कर दूंगा! यह भाषा दिव्य नहीं मालूम होती। मगर उस समय दिव्य रही होगी। जब रामचंद्र जी धनुषबाण लेकर...ये तो युद्ध के प्रतीक ही हैं।
और राम के भी पहले एक और बड़े राम हो गए--परशुराम। वे फरसा वाले राम कहलाते थे, इसलिए उसका नाम--परशुराम। वे तो फरसा लिए घूमते थे। वे समझो कि पहले सरदार थे दुनिया के--कृपाण लिए घूमते रहे। और घूमे ही नहीं सिर्फ कृपाण लिए, धुआंधार गले काटते रहे। कहते हैं उन्होंने अठारह बार पृथ्वी को क्षत्रियों से खाली कर दिया। फिर क्षत्रिय आए कहां से? वह तो भला हो ऋषि-मुनियों का कि उन दिनों एक रिवाज था कि कोई भी स्त्री जाकर ऋषि-मुनियों से प्रार्थना करती और नियोग करवा लेती। तुम सोचते होओगे कि ऋषि-मुनि सब बाल-ब्रह्मचारी थे, तुम गलती में हो। ऋषि-मुनियों का काम अदभुत था। उस महत कार्य में एक कार्य यह भी था कि अगर कोई विधवा उनसे प्रार्थना करे तो उसको बच्चा देना, उसके साथ संभोग करना। उस संभोग की प्रक्रिया को नियोग कहते थे। योगी के द्वारा की जा रही है तो नियोग तो कहेंगे ही। वह तो भला हो इन ऋषि-मुनियों का, अगर ये सब बाल-ब्रह्मचारी होते तो आज दुनिया में क्षत्रिय एक होता ही नहीं। और परशुराम स्त्रियों को मार नहीं सकते थे। स्त्रियों को भी क्या मारना! यह उनकी इज्जत के खिलाफ था। इतने नीचे नहीं उतर सकते थे। तो पुरुषों से तो खाली कर देते थे, मगर स्त्रियां बच जाती थीं। और स्त्रियां ऋषि-मुनियों से जाकर नियोग करवा लेती थीं, फिर उनके बच्चे पैदा हो जाते थे। तो फिर क्षत्रिय खड़े हो जाते थे। अठारह बार पृथ्वी को क्षत्रियों से खाली कर दिया--और परशुराम को भी ईश्वर का अवतार कहा गया है!
इतने बड़े विध्वंसक को ईश्वर का अवतार आज तुम कह सकोगे? तो फिर एडोल्फ हिटलर में क्या हर्जा है? तो फिर चंगीजखां की क्या बुराई है? तो फिर तैमूर लंगड़े में ऐसी क्या खराबी है? लंगड़ा ही था, और क्या था? लंगड़े ही होने की वजह से अवतार मानने से इनकार कर रहे हो! हत्याएं तो इन्होंने भी खूब कीं, जी खोल कर कीं। तो फिर ट्रूमैन ने अगर हिरोशिमा और नागासाकी पर एटम बम गिरवा कर लाखों लोगों को मिनटों के भीतर राख कर दिया, तो इनको भी अवतारी पुरुष मानना चाहिए। क्योंकि परशुराम को तो वर्षों लग जाते थे पृथ्वी को खाली करने में। और वे बेचारे एक कोने से खाली करके जब तक आते लौट कर, तब तक ऋषि-मुनि नियोग करके बच्चे पैदा कर देते। फिर काम शुरू हो जाता। वे खाली नहीं कर पाए।
मैं काशी में एक घर में मेहमान था। यूं बात चली। मैंने कहा कि काशी तीन चीजों के लिए प्रसिद्ध है--मैंने सुना है--भांड, रांड और सांड। जिनके घर ठहरा था वे थोड़े तो चौंके। काशी निवासी थे, मगर फिर भी उन्होंने कहा कि आप बात जो कह रहे हैं, यह है तो, इस तरह की बात कही तो जाती है। इस तरह की लोकोक्ति है। मगर यहां इतने संन्यासी भी हैं।
मैंने कहा: उनकी गिनती सांडों में कर लो। ऋषि-मुनि यह कार्य बहुत प्राचीनकाल से करते रहे हैं। आखिर सांड का काम क्या होता है? नियोग!
आज परशुराम को कोई ईश्वरीय मानने को राजी अगर हो तो समझना वह समसामयिक नहीं है। मगर इसमें परशुराम का कोई कसूर नहीं है। उन दिनों की धारणा। उन दिनों की धारणा के अनुकूल थी बात। बुद्ध और महावीर ने सारा रंग बदल दिया, सारा ढंग बदल दिया, सारी परिस्थिति बदल दी।
अब फिर एक घड़ी आ गई ढाई हजार साल के बाद कि हम फिर रंग बदलें, फिर ढंग बदलें। आज मनुष्य ज्यादा प्रौढ़ है, इतना प्रौढ़ कभी भी नहीं था। आज मनुष्य और भी ज्यादा गहराई की बातें समझ सकता है, जो गहराई की बातें पहले कभी नहीं समझी जा सकती थीं। उन एक गहराई की बात को मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि परमात्मा अंधकार भी है, प्रकाश भी। समान अनुपात में है। सच तो है यह कि प्रकाश और अंधकार दो चीजें नहीं हैं। अंधकार का अर्थ है कम प्रकाश और प्रकाश का अर्थ है कम अंधकार। उनमें जो अंतर है, वह केवल मात्रा का है, गुण का नहीं है। जैसे सर्दी और गर्मी में जो अंतर होता है, वह केवल डिग्री का होता है, मात्रा का होता है, कोई गुण का नहीं होता। इसलिए एक ही थर्मामीटर से दोनों को नाप सकते हो।
और वही स्थिति जीवन और मृत्यु की है। और वही स्थिति जागरण और सुषुप्ति की है। और वही स्थिति आसक्ति और प्रेम की है। वही स्थिति क्रोध की और करुणा की है। और वही स्थिति कामवासना और ब्रह्मचर्य की है। जो तुम्हें विपरीत दिखाई पड़ते हैं, वे विपरीत दिखाई ही पड़ते हैं, लेकिन भीतर से जुड़े हैं। और जिस दिन तुम्हें यह जोड़ दिखाई पड़ जाएगा, उस दिन मैं जो तुम्हें समझा रहा हूं, वह समझ में आएगा, अन्यथा समझ में नहीं आ सकता।
मैं अतीत का पोषण करने को यहां नहीं हूं। अतीत तो जा चुका, मर चुका, समाप्त हो चुका। मैं तुम्हें भविष्य की दृष्टि दे रहा हूं। अतीत में सदा कहा गया है: आसक्ति बुरी है। मैं तुमसे कहता हूं: नहीं; क्योंकि आसक्ति में ही प्रेम छिपा है। आसक्ति को शुद्ध करना है, त्याग नहीं देना है। और फिर प्रेम में प्रार्थना छिपी है, फिर प्रेम को और निखारना है, और शुद्ध करना है। और फिर प्रार्थना में ही परमात्मा छिपा है, फिर प्रार्थना को और निखारना है। निखारते चलना है। ऐसे धर्म एक जीवन की अदभुत कला हो जाती है, विकास का एक विज्ञान हो जाता है।
तू पूछती है योग विद्या: ‘परंतु हमारा क्या होगा--हम जो कि आपकी देह से आसक्त हैं?’
इसके पहले कि मैं देह छोडूं, तुम्हारी आसक्ति को प्रेम में बदल दूंगा। चिंता न करो। मेरी बिना मर्जी के मेरी देह कोई छुड़ा सकता नहीं। जब तक मुझे काम करना है, जो काम परमात्मा को मुझसे लेना है, वह काम पूरा होगा, तो ही देह छूटेगी। हां, यह हो सकता है, कभी-कभी देह के छूटने से ही वह काम पूरा होता हो, तो भी देह छूटेगी।
जैसे बुद्ध के जीवन में हुआ। आनंद बयालीस वर्ष बुद्ध के साथ रहा, लेकिन ज्ञान को उपलब्ध नहीं हुआ। यही आसक्ति विद्या, जो तुझे मुझसे है, आनंद को बुद्ध से थी। बुद्ध की देह की आनंद ने बड़ी चिंता की, बड़ी फिकर ली। कांटा न चुभ जाए, मच्छर न काट जाए। रात-रात भर बैठ कर पंखा झलता रहता। रात भर सोता नहीं, ताकि बुद्ध विश्राम कर सकें। कोई मच्छर उन्हें सताए न। दिन भर उनकी सेवा में रत रहता। न दिन देखता, न रात देखता। बुद्ध ने उसे बहुत बार कहा कि आनंद, तू अपनी फिकर कब लेगा? तू मेरी ही फिकर में लगा हुआ है!
वह कहता: आपकी फिकर ले ली तो अपनी फिकर ले ली। अपनी फिकर ले लूंगा, फिर कभी ले लूंगा, क्या जल्दी पड़ी है? फिर आप जैसा प्यारा व्यक्ति मिले न मिले।
जिस दिन बुद्ध ने कहा कि आज मैं देह छोड़ दूंगा...विद्या, तुम घबड़ाओ मत, मैं तुमसे कह दूंगा, जिस दिन मुझे देह छोड़नी होगी, कि आज देह छोड़ दूंगा। तुमसे पूछ लूंगा कि बोलो किस ढंग से छोडूं। तुम्हीं निर्णय कर लेना, इस ढंग से छोड़ो, तो उसी ढंग से छोड़ दूंगा। बुद्ध ने एक दिन सुबह कहा कि आज देह छोड़ दूंगा, काम पूरा हो गया मेरा। आनंद ने कहा: अभी कहां काम पूरा हो गया? अभी मैं बैठा हूं, मुझे ज्ञान उपलब्ध हुआ नहीं।
बुद्ध ने कहा: तुझे ज्ञान तभी उपलब्ध होगा, जब मैं देह छोडूंगा। बयालीस साल हो गए, मैं कहता हूं, तू सुनता नहीं। तू उलटे मुझे आज्ञाएं देता है कि इधर मत सोओ, इधर चींटियां हैं; इधर मत बैठो, इधर मच्छर हैं; ऐसा मत करो, वैसा मत करो। तू मुझे बताता चलता है कि यह मत खाओ, वह मत पीओ। इसमें कुछ नुकसान न हो जाए। यह फल कच्चा है, यह अभी मत खाओ, पेट में दर्द हो जाएगा। तू मेरी तो सुनता नहीं, उलटा मुझे सुनाता है। मेरी तू माने, वह तो बात अलग, मैं तेरी मान कर चलता हूं, क्योंकि न मानूं तो तू झंझट खड़ी करता है। वह झंझट से बेहतर है मान ही लेना।
बुद्ध चुपचाप मान लेते थे कि ठीक है भैया, तू कहता है कि यह फल कच्चा है, जाने दे। तू कहता है, इस स्थान पर नहीं रुकना, नहीं रुकेंगे, आगे चल कर रुकेंगे, किसी और वृक्ष के नीचे बैठेंगे। तू कहता है, इस वृक्ष के नीचे चींटियों की संभावना है, किसी और वृक्ष के नीचे ठहरेंगे। जिंदा मैं था, तूने मेरी सुनी नहीं। अब तो मेरी मृत्यु ही तुझे सजग करे तो करे। और मुझे पक्का भरोसा है कि मेरी मौत तुझे हिला जाएगी, तेरी नींद टूट जाएगी।
आनंद तो रोने लगा, स्वभावतः। आनंद ही नहीं रोया, हजारों शिष्य इकट्ठे हो गए थे, सारे रोने लगे। लेकिन बुद्ध की मृत्यु के चौबीस घंटे के भीतर आनंद ज्ञान को उपलब्ध हुआ। और जब ज्ञान को उपलब्ध हुआ तो उसने झुक कर, जो देह अब विदा हो गई थी, जो देह अब थी नहीं, मिट्टी में मिल गई थी, जो व्यक्ति अब आकाश में तिरोहित हो गया था, जो अब कभी भी लौटने को नहीं था...इसलिए बुद्ध का एक नाम है: सुगत--जो इतनी अच्छी भांति चला गया है कि अब कभी वापस नहीं आएग
ा। दूसरा नाम है: तथागत--जो गया, सो गया; अब लौटने को नहीं है। जो लीन हो गया है अस्तित्व में।...उसको झुक कर नमस्कार किया। आकाश की तरफ देख कर आनंद ने कहा: अनुगृहीत हूं! तुमने ठीक कहा था। तुम जीवित होते तो मैं तुम्हारी देह में आसक्त ही बना रहता। तुम अब नहीं हो तो अब आसक्त रहने को कुछ भी न रहा। तुम्हें देख लिया तो सब जगत देख लिया। तुम्हारे सौंदर्य को पी लिया तो सारा सौंदर्य चख लिया। अब सब फीका है। अब बाहर कुछ भी नहीं बचा, इसलिए आंख बंद करके अब अपने को देख सकता हूं। तुम थे तो आंख बंद करने का मन ही नहीं होता था। तुम पर ही आंख टिकाए रखने की आकांक्षा बनी रहती थी। तुम ठीक कहते थे। तुम क्या गए, मुझे जगा गए!
तो विद्या, या तो मेरे रहते-रहते तुम्हारी आसक्ति छुड़ा दूंगा। छुड़ा दूंगा से मेरा अर्थ समझ लेना: उसे प्रेम में रूपांतरित कर दूंगा, प्रार्थना बना दूंगा। यह नहीं हुआ अगर, कुछ का शायद नहीं भी हो पाएगा, तो शायद मेरा न होना उनकी आसक्ति को रूपांतरित करे। मगर रूपांतरण निश्चित है। जो मेरे पास टिके रहेंगे, उनका रूपांतरण निश्चित है। रूपांतरण से बचना असंभव है। जो खुले आकाश के नीचे जब वर्षा हो रही है, खड़ा होगा तो भीगेगा ही भीगेगा! जो मेरे पास रहेगा, वह भीगेगा ही भीगेगा। कैसे बचोगे? कब तक छाता खोले रहोगे? तुम्हारे सब छाते तोड़ दिए जाएंगे। छाते अपने आप जीर्ण-शीर्ण हो जाएंगे। वर्षा पड़ती रहेगी, पड़ती रहेगी। वर्षा चट्टानें तोड़ देती तो छातों का क्या! और तुम्हारे छाते भी क्या हैं--हजार उनमें छेद हैं!
मैं मुल्ला नसरुद्दीन के साथ एक दिन सुबह-सुबह घूमने निकला था। वह हमेशा छाता अपने बगल में दबाए रखता है। दिन हो कि रात, सर्दी हो कि गर्मी, कोई मौसम हो, कोई ऋतु हो, बिना छाते के उसे नहीं पाओगे। अचानक, अकस्मात एक छोटी सी बदली, जिससे कोई आशा नहीं थी कि पानी बरसा देगी, एकदम बरस उठी। लेकिन नसरुद्दीन अपने छाते को दबाए ही चलता रहा। मैंने कहा: नसरुद्दीन, छाता क्यों नहीं खोलते? तुम भी बचो, मुझे भी बचाओ।
नसरुद्दीन ने कहा: छाता खोलना बेकार है। पहली तो बात, वह खुलता ही नहीं। और अगर किसी तरह खुल भी जाए तो भी बेकार है, क्योंकि उसमें इतने छेद हैं कि वैसे कम पानी बरसेगा, छाता रहा तो ज्यादा पानी बरसेगा।
तो मैंने कहा कि फिर महापुरुष, भलेमानस, इसको किसलिए ढोए फिरते हो? नसरुद्दीन ने कहा कि अरे, बस पुरानी आदत। और फिर यह सोच कर कि शायद कभी पानी गिरने लगे या कभी कुछ हो जाए, जरूरत पड़ जाए, इसलिए!
तुम्हारे छाते भी क्या हैं--या तो खुलेंगे नहीं, खुल भी गए तो उनमें छेद ही छेद हैं। तुम ज्यादा बचा न पाओगे अपने को। और मैं चोट पर चोट करता रहूंगा। मैं उन छातों को तोड़ ही दूंगा।
तुम्हारी धारणाएं क्या हैं--तुम्हारे छाते हैं! तुम्हारे सिद्धांत क्या हैं--तुम्हारे छाते हैं। तुम्हारे शास्त्र क्या हैं--तुम्हारे छाते हैं। छातों पर छाते तुमने लगा रखे हैं। लेकिन तुम अगर मेरे पास बैठे ही रहे, तो मैं छीनता जाऊंगा तुम्हारे छाते। आहिस्ता-आहिस्ता, एक-एक करके। तुम्हें राजी कर लूंगा।
जीवन में हो सका तो जीवन में, मृत्यु में हो सका तो मृत्यु में; मगर मेरे संन्यासी को मुक्त होना ही है। लेकिन मेरे संन्यासी की मुक्ति पुराने ढंग की मुक्ति से बहुत भिन्न है, बहुत अपूर्व है, अनूठी है, अद्वितीय है। पुराने ढंग की मुक्ति अधूरी थी, खंडित थी। उसमें चुनाव था। मैं तुम्हें जो मुक्ति देना चाहता हूं, अखंड है; उसमें चुनाव नहीं है, वह समग्र है। वह जीवन के सब रंगों से भरी है। उसमें सारे आयाम हैं। उसमें सारे स्वर हैं। वह पूरा इंद्रधनुष है।
इसलिए विद्या, चिंता न ले। तेरी देह में आसक्ति है, पाप मत समझ लेना, क्योंकि पाप है ही नहीं कुछ। पाप भी पुण्य का अशुद्ध रूप है। शुद्ध कर लेंगे। हीरे निकलते हैं खदान से तो पहले शुद्ध करने होते हैं, निखारना होता है उन्हें, उन पर चमक लानी होती है, उनके पहलू काटने होते हैं। छैनी-हथौड़ी लेकर जौहरी लग पड़ता है उन पर। बहुत कुछ तोड़ना पड़ता है, तब कहीं हीरे के भीतर की चमक प्रकट होती है।
तुम सब हीरे हो। प्रत्येक व्यक्ति हीरा है, लेकिन खदान से निकला है। सत्संग का अर्थ होता है: किसी जौहरी के हाथ में पड़ जाना। चोटें भी पड़ेंगी। पड़ेंगी ही, क्योंकि बहुत कुछ काटना होगा, बहुत कुछ हटाना होगा। पीड़ा भी होगी। मगर धन्यभागी हैं वे जो किसी भी पीड़ा में भागेंगे नहीं।
और हर अवसर तुम्हारे लिए उपयोगी है। हर अवसर! यह जो आदमी छुरा फेंक गया, यह भी तुम्हारे लिए एक बड़ा अवसर दे गया है। यह तुमसे कह गया है कि जल्दी करो--अपनी आसक्ति को प्रेम बनाओ, ताकि अगर मेरी देह छूट भी जाए तो भी तुमसे मेरा नाता न टूटे। तो तुमसे मेरा आत्मिक नाता बना रहे। यह आदमी यह कह गया तुमसे कि जल्दी करो। यह एक संदेश दे गया है तुम्हें कि जरा जल्दी करो, यूं धीरे-धीरे न चलो। थोड़ी त्वरा लाओ, थोड़ी तीव्रता लाओ, थोड़ी सघनता लाओ प्रयास में। थोड़ा और संकल्प, थोड़ा और समर्पण। थोड़ी और गहन साधना, ताकि तुम मेरे शब्द ही न समझो; तुम मेरा मौन भी समझ पाओ। तुम मेरी देह ही न देखो; मेरे भीतर जो निराकार है, उसे भी देख पाओ।
इस आदमी को भी धन्यवाद ही देना। इसे ही मैं परम स्वीकार कहता हूं और इसे ही मैं परम श्रद्धा कहता हूं और इसे ही परम आस्तिकता।

दूसरा प्रश्न:
भगवान, मैं अनुभव करता हूं कि मेरा जीवन बस एक दुर्घटना है। आप क्या कहते हैं?
सुभाष! जागे नहीं हो जब तक, तब तक जीवन दुर्घटना होगा ही। तुम्हारा ही नहीं, सभी का जीवन दुर्घटना मात्र है। क्योंकि तुम जीते कैसे हो? तुम्हें दिशा का बोध नहीं है। दिशा को जाने दो, तुम्हें यह भी बोध नहीं कि तुम कौन हो? यह भी पता नहीं कहां से आते हो, क्या कर रहे हो, क्यों कर रहे हो, कुछ भी पता नहीं। चलते जाते हो भीड़ के धक्कों में। जहां सारी भीड़ जा रही है, तुम भी जा रहे हो। जैसे पानी के प्रवाह में कोई लक्कड़ बहा जाए, बस वैसा तुम्हारा जीवन है। यह दुर्घटना ही है।
अभी तुमने जो भी किया है अपने जीवन में, उस पर पुनर्विचार करो। तुम चकित होओगे। तुम सब बस यूं ही करते रहे, जैसे हवा के झोंके में पत्ते उड़ते रहते। किसी ने कुछ कह दिया, वह कर लिया। फिर किसी ने कुछ और कह दिया, वह कर लिया। अखबार में कोई विज्ञापन देख लिया, वही कर लिया। चार लोग कुछ गपशप करते थे, उनकी बात सुन ली, वही करने में लग गए। तुम्हें खुद तो पता नहीं कि तुम कौन हो, क्या करना चाहते हो, क्या करने योग्य है। तो तुम जी कैसे रहे हो? बस ऐसे ही जी रहे हो--भीड़ के धक्के खाते हुए। फिर जिस भीड़ में पड़ गए...यह संयोगवशात है...कोई हिंदू की भीड़ में पड़ गया तो वह मंदिर चला जा रहा है। वह सोचता हो कि मैं मंदिर जा रहा हूं तो गलती में है। इसी बच्चे को अगर मुसलमान के घर में पाला गया होता, इसे कभी भी भूल कर मंदिर जाने का सवाल उठता नहीं। यह मस्जिद जाता। यह मंदिर को जलाता। अगर कभी जाता भी मंदिर की तरफ तो जलाने को जाता। इसी बच्चे को अगर ईसाई के घर में पाला होता तो यह मस्जिद का नाम न लेता, यह गिरजा जाता। रविवार इसका पवित्र दिन होता। यह बाइबिल पढ़ता। यह घर में बाइबिल को रखता, उस पर फूल चढ़ाता। पढ़ता या नहीं पढ़ता, कम से कम घर में बाइबिल रखता जरूर।
एक छोटे से बच्चे से चर्च में पादरी पूछ रहा था: बेटा, तुम्हारे घर में बाइबिल है?
उसने कहा: है।
पढ़ते हो?
उसने कहा: पढ़ता तो नहीं, कभी-कभी उलटता हूं।
कह सकते हो क्या लिखा है तुम्हारी बाइबिल में? क्या-क्या है तुम्हारी बाइबिल में?
उसने कहा: क्या लिखा, यह तो नहीं कह सकता; लेकिन क्या-क्या है, यह मैं कह सकता हूं।
पादरी ने कहा: यह तुम चमत्कार की बात कर रहे हो! क्या-क्या है?
तो उसने कहा कि मेरे डैडी के बाल।
पादरी ने कहा: लेकिन तुम्हारे डैडी तो जिंदा हैं, उनके बाल किसलिए रखे हैं?
उसने कहा: डैडी तो जिंदा है, मगर उनके बाल नदारद हो गए हैं। तो मम्मी ने उनके दो बाल बचा कर बाइबिल में रख लिए। एक बाबा का दिया हुआ ताबीज, वह बाइबिल में है। डैडी ने जो पहला फूल प्रेम के समय मां को भेंट किया था, वह बाइबिल में है। सूख गया है, मगर अभी भी है। ऐसी कई चीजें बाइबिल में हैं।
घर में तुम्हारे कोई और बाइबिल पढ़ता है? उस पादरी ने पूछा।
उसने कहा: कोई बाइबिल नहीं पढ़ता। लेकिन बाइबिल पूजते सभी हैं।
बाइबिल पढ़ने की चीज नहीं है, पूजने की चीज है!
कोई हिंदू वेद पढ़ता है? कि कोई बौद्ध धम्मपद पढ़ता है? किसको पड़ी है? रख लेते हैं, पूजा कर लेते हैं। और पूजा भी कैसी-कैसी, एक से एक मजेदार पूजा करने वाले लोग हैं!
मैं एक घर में ठहरा था। सुबह-सुबह उठ कर जा रहा था मैं स्नान करने, उनके बीच के कमरे से गुजरा जहां उन्होंने गुरुग्रंथ साहब रख छोड़ा था। सामने एक चांदी के लोटे में पानी भरा रखा है और दतौन रखी है। मैंने पूछा: यह मामला क्या है?
उन्होंने कहा कि गुरुग्रंथ साहिब के लिए दतौन। आदतें नहीं जातीं। अब मूर्ति के सामने कोई दतौन करने भी रखवा दे तो भी थोड़ा सा अर्थ समझ में आता है। ऐसे तो वह भी व्यर्थ है, क्योंकि मूर्ति भी दतौन करेगी नहीं। लेकिन मूर्ति को कम से कम भोजन कराते हैं, भोग लगाते हैं, तो दतौन भी करवा देनी चाहिए। मगर बेचारे गुरुग्रंथ साहिब! मगर वह ‘साहिब’ शब्द दिक्कत दे रहा है। वह ‘साहिब’ शब्द की वजह से व्यक्तित्व पैदा हो रहा है। व्यक्तित्व की धारणा आ गई, तो दतौन करवानी पड़ेगी। और फिर अब दतौन ही करवानी तो चांदी के लोटे में करवा दो। फिर कोई साधारण दतौन थोड़े ही कर रहे हैं!
मैंने कहा: तुम भी पागल हो! अब यह कोई जमाना दतौन का है? अरे बिनाका टुथपेस्ट रखो!
उन्होंने कहा: बात तो आप पते की कहते हैं!
मैंने कहा: तुम जरा सोचो भी कि कैसे अपमान कर रहे हो! तुम सब बिनाका टुथपेस्ट और गुरुग्रंथ साहिब को दतौन करवा रहे हो नीम की! अरे शर्म से मर जाओ, चुल्लू भर पानी में डूब मरो!
बड़े चिंतित हो गए बेचारे। रात जब मैं सोने जा रहा था, फिर मुझसे पूछने लगे कि आप मजाक तो नहीं कर रहे, सच कह रहे हैं?
मजाक मैं क्यों करूंगा? मजाक मैंने जिंदगी में कभी की ही नहीं। मैं गंभीर आदमी हूं। शर्म नहीं आती तुम्हें? दूसरे दिन सुबह देखा तो रखा है बिनाका टुथपेस्ट। मैंने कहा: अब जरा कुछ बात जंचती है! अब कर ही रहे हो तो कुछ आधुनिक करो। गुरुग्रंथ साहब के दांत बिलकुल खराब करवाने हैं? और मुंह कड़वा हो जाए सुबह ही सुबह, नीम की दतौन करवा रहे हो। जमाने गए नीम की दतौन करने के।
एक भीड़ में तुम पैदा हो जाते हो, वह भीड़ जो करती है, वह तुम करते चले जाते हो।
मैं जैन घर में पैदा हुआ तो बचपन से हवा में यह बात थी, घर की हवा में, जिनके बीच में उठता-बैठता, मंदिर जाता, जिस समाज के बीच मेरे सारे संबंध थे, यह बात थी हवा में कि ये कृष्ण हैं, राम हैं! यह कोई...इनकी कोई गिनती है? पूछता कि क्यों? तो पहली तो बात यह कि ये सीता मैया खड़ी हैं पास में। ये सीता मैया सब गड़बड़ कर रही हैं। महावीर स्वामी को देखो, अकेले खड़े हैं! आसक्ति से मुक्त! बंधन के अतीत! यह क्या स्त्री-पुरुष का संबंध? और ये कृष्ण कन्हैया देखो, कैसे सजे-बजे खड़े हैं! क्या छैल-छबीले बने हैं! यह कोई भगवान होने का ढंग है? महावीर स्वामी को देखो, नग्न खड़े हैं। बाहुबली की प्रतिमा देखो, ऐसे नग्न खड़े हैं, ऐसे तपश्चर्या में लीन कि पता ही नहीं चलता! बेलाएं चढ़ गई हैं पैरों पर, कान में पक्षियों ने घोसले बना लिए हैं!
जैन तीर्थंकरों के कान बड़े होते हैं, यह खयाल रखना। पक्षी घोंसले बना सकते हैं, और किसी के कान में तो बना भी नहीं सकते। शायद इसीलिए उनके कान इतने बड़े रखते हैं कि मौका-बेमौका पक्षियों को जरूरत पड़ जाए, घोंसला बना लें। अरे किसी काम तो आ जाएं! मगर उनको पता ही नहीं है। यह भगवान का, भगवत्ता का ठीक-ठीक रूप है। यह क्या मोरमुकुट बांधे हुए हैं! कोई नाटक कर रहे हैं? नौटंकी हो रही है?
तो बचपन से ही जब यह बात सुनने को मिले तो कृष्ण के मंदिर के सामने हाथ कैसे जुड़ें? जुड़ने का सवाल ही नहीं उठता, प्रश्न ही नहीं उठता। बचपन से ही यह सुना कि कृष्ण तो नरक गए हैं। जाएंगे ही नरक! इनके कृत्य तो देखो! स्त्रियां नहा रही हैं, ये उनके कपड़े चुरा कर झाड़ पर चढ़ गए। ये कोई ढंग हैं? ये सज्जन के भी ढंग नहीं हैं, संत की तो बात छोड़ो। और भगवान की! अगर भगवान भी ऐसे काम करने लगें तो फिर गुंडों को करने के लिए कुछ भी न बचा। यह तो बात ही बेहूदी है। और इतना ही नहीं, फिर उन स्त्रियों को ललचाते हैं। कपड़ा उनको ऐसे जैसे छोटे-छोटे बच्चों को तुम कहते हो न कि यह ले, तो बच्चा एक कदम आगे बढ़ा तो हाथ पीछे हटा लिया। तो वे स्त्रियां बेचारी किसी तरह अपनी इज्जत-आबरू पानी में छिपाए बैठी हैं...हालांकि पानी में कोई ज्यादा इज्जत-आबरू छिपती नहीं; छिपी हो तो और प्रकट होती है...तो उनकी इज्जत-आबरू और खोलने को उतारू हैं! तो ऐसा लटका-लटका कर कपड़े उनको बता रहे हैं। तो वे बेचारी अपने कपड़े लेने को ऊपर उठती हैं तो वे अपना हाथ ऊपर खींच लेते हैं। जब तक वे खड़ी नहीं हो जातीं...! अब यह स्त्रियों को नंग-धड़ंग खड़ा करना नदी-तट पर और भारतीय नदी-तट...सारा गांव वहां इकट्ठा रहता है। यह कोई बात है?
और फिर अर्जुन बेचारा संन्यासी होना चाहता था, उसको इसी आदमी ने भड़काया, भरमाया। वह तो बहुत बचने की कोशिश की उसने, मगर उसका सिर खा गए। उससे ही तो गीता पैदा हुई, उसके सिर खाने से। पचाया उसके सिर को, इतना पचाया कि उसने कहा: अच्छा भैया, हमारे सब भ्रम नष्ट हो गए, अब हम लड़ने को राजी हैं! तुमसे उपद्रव करने से बेहतर है, जूझ ही जाएं, जो होगा देखा जाएगा।
तो जो लाखों लोग मरे...लाखों नहीं, महाभारत के हिसाब के एक अरब से ऊपर लोग मरे...उस सबका पाप किस पर लगेगा? ये नरक गए। सातवें नरक में पड़े हैं। और जल्दी छूटने वाले नहीं हैं। यह पूरा कल्प बीत जाएगा, यह सृष्टि नष्ट होगी, प्रलय होगा, फिर दूसरी सृष्टि बनेगी, तब वे छूटेंगे।
जब यह बात बचपन से सुनी हो तो स्वभावतः कृष्ण के प्रति कैसे सम्मान उठे? और मैं हिंदुओं को देखता था, हिंदू बच्चे, वे महावीर की प्रतिमा देख कर हंसते थे, कि ये नंग-धड़ंग खड़े हैं भैया! इन्हें शर्म भी नहीं आती! अरे लोकलाज करो कुछ! यह कोई तौर-तरीका है? कम से कम लंगोटी तो लगा लो! लंगोटी लगाने में क्या बिगड़ जाएगा तुम्हारा? मगर नहीं, नंगे खड़े हैं। ये कैसे भगवान?
सबकी अपनी धारणाएं हैं--मगर भीड़ की धारणाएं। जिस भीड़ में तुम पैदा हो गए, उस भीड़ की धारणाएं तुम्हें मिल गईं। वह एक दुर्घटना है। फिर तुम्हारे मां-बाप तुम्हें जो बनाना चाहते हैं--कोई को डॉक्टर बनाना है, किसी को इंजीनियर बनाना है--वे तुम्हें इंजीनियर बना देते हैं, डॉक्टर बना देते हैं। कोई पूछता ही नहीं कि तुम, तुम्हारी क्षमता क्या है? जो आदमी संगीतज्ञ हो सकता था, वह बेचारा डॉक्टर होकर बैठा है। रो रहा है। उसकी जिंदगी में कोई रस नहीं है। उसको रस आए कैसे? वह कोई मरीजों की नब्ज पकड़ने को बना नहीं था। उसने तो तार छेड़े होते वीणा के, तो उसके जीवन में रसधार बहती। मगर वीणा बजाने से रोटी-रोजी नहीं मिलती, भूखा मरना पड़ता है। कौन बाप चाहता है किसी का बेटा भूखा मरे! कौन झंझट में डाले अपने बेटे को!...डॉक्टर बनो। तो उसको डॉक्टर बना दिया है। वह जिंदगी भर उदास रहेगा, परेशान रहेगा।
इसलिए तुम्हें चारों तरफ परेशान लोग दिखाई पड़ते हैं। ये दुर्घटनाएं हैं। जिसको जो होना था, वही नहीं है। और जो जहां है, वहीं नहीं होना चाहिए था उसको, कहीं और होना चाहिए था। मगर किसी व्यक्ति को स्वयं होने का अवसर नहीं है।
एक सम्यक मनुष्यता तब पैदा होगी जब हम प्रत्येक बच्चे को मौका देंगे स्वयं होने का, फिर चाहे वह कुछ भी होना चाहे। हम सहयोग देंगे, वह जो भी होना चाहे उसमें। अगर वह चित्रकार होना चाहता है तो चित्रकार होने में सहयोग देंगे। और यह तुम खयाल रखना, अगर उसका निजी व्यक्तित्व चित्रकार बनने से खिलता है, फूलता है, तो वह भूखा मर कर भी प्रसन्न रहेगा, फटे कपड़े पहन कर भी आनंदित रहेगा। और तुम जबर्दस्ती उसे सम्राट भी बना दोगे और अगर उसके व्यक्तित्व का उससे तालमेल नहीं बैठता तो वह सिंहासन पर भी रोएगा, परेशान होगा, दुखी होगा। उसे सिंहासन सुख नहीं दे सकता।
इस दुनिया में इतना दुख इसीलिए है। मगर तुम्हारे महात्मागण इस दुख का फायदा उठाते हैं। वे कहते हैं: हम पहले से ही कह रहे हैं कि जीवन में दुख है। यह देख लो।
इतना दुख नहीं है जीवन में, जितना है। इसमें से निन्यानबे प्रतिशत पैदा किया हुआ है। वह हमारा कृत्य है। क्योंकि हम किसी व्यक्ति को वही नहीं होना देना चाहते, जो वह है। गुलाब से कह रहे हैं, चंपा हो जाए; चंपा से कह रहे हैं, चमेली हो जाए; चमेली से कह रहे हैं कि तू कुछ और हो जा। तो चंपा चमेली होने में लगी है; चमेली तो हो नहीं सकती चंपा और चमेली होने की कोशिश में चंपा भी नहीं हो पाएगी। उसका जीवन अधूरा रह जाएगा, अपंग रह जाएगा।
ठीक पूछते हो सुभाष। तुम कहते हो: ‘मैं अनुभव करता हूं कि मेरा जीवन बस एक दुर्घटना है। आप क्या कहते हैं?’
तुम ठीक अनुभव कर रहे हो। यह शुरुआत है। अच्छी शुरुआत है। शुभ लक्षण है। इस अनुभव के बाद तुम्हारे जीवन से दुर्घटनाएं मिट सकती हैं, तुम्हारे जीवन में एक दिशा-बोध आ सकता है। तुम्हारे जीवन में एक गति आ सकती है। तुम्हारे जीवन में एक सम्यक संतुलन आ सकता है। लेकिन दांव पर लगाना होगा। बहुत सी बातें दांव पर लगानी होंगी।
अस्पताल के प्रसव-वार्ड में अट्ठाइस स्त्रियां भरती थीं--सब एक ही मोहल्ले की। घटना पूना की ही है और सब महिलाएं महिलाओं के लायंस-क्लब की सदस्याएं थीं। लेडी डॉक्टर को बड़ा आश्चर्य हुआ यह जान कर कि उन सबने एक ही दिन बच्चों को जन्म दिया। केवल एक स्त्री ने एक दिन बाद बच्चे को जन्म दिया। उस स्त्री से अचरज भरे स्वर में जब डॉक्टर ने पूछा, क्या बात है कि आपके मोहल्ले की सत्ताईस महिलाओं ने एक ही दिन बच्चे पैदा किए, किंतु आपका बच्चा एक दिन बाद हुआ! तो उस महिला ने जवाब दिया: ये सारी सहेलियां पिछले साल गर्मी में महाबलेश्वर गई थीं, एक साथ पिकनिक मनाने, किंतु बीमार हो जाने के कारण मैं एक दिन बाद पहुंच पाई थी।
बस यूं ही चल रही है जिंदगी। यहां बच्चे दुर्घटनाएं हैं। यहां विवाह दुर्घटनाएं हैं। यहां मेल-जोल, जीवन भर के संबंध दुर्घटनाएं हैं। और इस सबके आधार पर तुम सोचते हो आनंद फलित हो जाए, कैसे फलित हो? और तुम सोचते हो जीवन में अर्थवत्ता आ जाए, कैसे यह संभव हो? तुम असंभव की आकांक्षा कर रहे हो। यह नहीं हो सकता।
तुम्हें जीवन को थोड़ी सजगता देनी होगी। तुम्हें जीवन में थोड़ा सा ध्यान का स्वर जोड़ना होगा। तुम्हें थोड़ा बोध पैदा करना होगा। एक-एक कदम होशपूर्वक रखना जरूरी है। तो धीरे-धीरे तुम्हारे जीवन में एक स्पष्टता आ जाएगी, एक सूझ-बूझ आ जाएगी। तब तुम चलोगे अपनी अंतःप्रेरणा से। तब बाहर की चीजें तुम्हें प्रभावित नहीं करेंगी। तब तुम भीतर से जीना शुरू करोगे। तब बाहर की हवाओं के ऊपर तुम निर्भर नहीं रह जाओगे। तब तुम्हारी अंतःस्फूर्ति ही तुम्हारे जीवन की नियंता और निर्णायक होगी। और वैसा निर्णय परम आनंद से भर देता है।
सुभाष, अभी भी देर नहीं हो गई है, क्योंकि कभी भी देर नहीं हो गई है। जब जागे, तब सबेरा। सुबह का भटका सांझ को भी घर आ जाए तो भटका नहीं कहलाता। अच्छा है कि तुम्हें अब स्मरण आना शुरू हुआ कि सारा जीवन एक दुर्घटना मालूम होता है। बस यहीं से तुम्हारे जीवन में क्रांति हो सकती है। इस बात को यूं ही मत छोड़ देना, इस सूत्र को उठा लो अब और अब सोच-समझ कर चलना शुरू करो। अब विचारपूर्वक कदम उठाना शुरू करो। अब विवेकपूर्वक, देख कर, जो भी करना चाहो, उसे इस ढंग से करो जैसे सारा जीवन तुम्हारा उस पर निर्भर है, क्योंकि जीवन छोटी-छोटी चीजों से मिल कर बना है। जीवन में कोई बड़ी-बड़ी चीजें नहीं होतीं, बहुत छोटी-छोटी चीजों से जीवन निर्मित होता है। जो होशियार है, बुद्धिमान है, वह उन सारी चीजों को यूं जमा लेता है कि उसके जीवन में एक सौंदर्य आ जाता है।
पिकासो से एक अमरीकी धनपति महिला ने अपना चित्र बनवाया। उसने एक लाख रुपये मांगे। उस धनपति महिला ने कहा: कोई फिकर न करो, एक लाख कोई बड़ी बात नहीं। मैं सवा लाख दूंगी, मगर चित्र सुंदर बनाना चाहिए।
पिकासो ने कहा: अगर सुंदर की शर्त हो तो फिर दाम अभी तय मत करो। फिर जब चित्र बन जाए, तभी दाम तय होंगे।
महिला के पास अपार धन-राशि थी। उसने कहा: कितने मांगेगा? लाख मांगता है, सवा लाख, दो लाख मांगेगा, और क्या करेगा? जब चित्र बन कर तैयार हुआ, छह महीने लगा दिए पिकासो ने, वह महिला लेने आई। पिकासो ने दस लाख रुपये मांगे। वह महिला भी चौंकी; यद्यपि बहुत धनी थी, मगर इस एक छोटे से कैनवास के लिए, जिसमें रुपये दो रुपये के रंग लगे होंगे, रुपये दो रुपये का कैनवास समझ लो, रुपये दो रुपये की फ्रेम समझ लो, इस आदमी की थोड़ी मेहनत गिन लो, दस-पच्चीस रुपये का हिसाब है। दस लाख रुपये!
उसने कहा: तुम कहते क्या हो, दस लाख रुपये! इस छोटे से कैनवास के टुकड़े के और थोड़े से रंगों के!
पिकासो ने कहा: ठहरो। अपने सहयोगी को कहा कि तुम जाओ, एक कैनवास का टुकड़ा ले आओ, फ्रेम ले आओ, रंग ले आओ। वह सहयोगी रंग ले आया, कैनवास का टुकड़ा ले आया, फ्रेम ले आया। उस महिला को दे दिया और कहा कि यह लो, अब जितना तुम्हें देना हो, दे दो। उस महिला ने कहा: इसका मैं क्या करूंगी? तो पिकासो ने कहा: दाम हम न तो रंग के मांग रहे थे और न फ्रेम के मांग रहे थे और न कैनवास के टुकड़े के मांग रहे थे। दाम मांग रहे थे पिकासो के जमाने की कला के, कि रंग कैसे जमाए गए। वह सिर्फ मैं ही जमा सकता हूं। वह कोई दूसरा आदमी जमा दे तो मैं दस लाख रुपये दूंगा, जिस ढंग से मैंने जमाए हैं।
उस बात से महिला को तत्क्षण समझ में आ गया कि प्रश्न इसका नहीं है कि रंग का कितना मूल्य है। सवाल रंग की जमावट का है।
एक बहुत बड़ी कंपनी में अचानक कंप्यूटर से चलने वाला कारखाना बंद हो गया। एक दिन में लाखों की हानि होने लगी। बहुत खोज-बीन की गई, कुछ पता न चले। विशेषज्ञ आ सकता था दूर अमरीका से। कंपनी थी जापान में। विशेषज्ञ को खबर की गई। उसने अंधाधुंध पैसे मांगे, मगर कोई और उपाय न था। लाखों की रोज हानि हो रही थी। फैक्टरी चलनी ही चाहिए। पूरी फैक्टरी ऑटोमैटिक थी, आदमियों पर कुछ निर्भर न था। वह आदमी आया। वह अंदर गया। उसने अपने बक्से में से एक छोटी सी हथौड़ी निकाली और एक जगह जरा सी खटाक से चोट की, हथौड़ी वापस रख ली, कारखाना चल पड़ा। और उसने जो मांग की थी--हजारों डालर की! धनपति, जिसका कारखाना था, खड़ा देख रहा था। उसने कहा: तुम्हें शर्म नहीं आती, हजारों डालर मांगते हो जरा सी हथौड़ी के चोट करने का!
उसने कहा: यह सवाल हथौड़ी की चोट करने का नहीं है। सवाल यह है--कहां चोट करना? वह मेरे अलावा इस दुनिया में दूसरा आदमी नहीं जानता। दाम उसके मांगे जा रहे हैं।
जीवन तो सभी को मिला है, लेकिन कहां चोट करना कि जीवन चल पड़े? रंग तो सभी को मिले हुए हैं, कैनवास भी सभी को मिला हुआ है, लेकिन कोई पिकासो, कोई वानगॉग रंगों को उभार पाता है, रंगों को जीवन दे पाता है। नहीं तो हम यूं ही जी लेते हैं: कैनवास ढोते रहते हैं, फ्रेम गले में लटकी रहती है, रंग लटके रहते हैं डब्बों में और हम जिंदगी जी लेते हैं। और फिर अगर जिंदगी यूं ही खत्म हो जाती है, टांय-टांय फिस, तो कुछ आश्चर्य नहीं--न कोई अर्थ, न कोई गरिमा, न कोई महिमा, न कोई आनंद का अनुभव, न कोई समाधि की प्रतीति, न कोई परमात्मा का साक्षात्कार। अर्थ ही न बना पाए, संगीत ही न जमा पाए, गीत ही न जुड़ा, कड़ियां ही न बैठीं, साज ही न बैठा, संगीत तो उठता कैसे?
सुभाष, अब तुम यहां आ गए हो तो जीवन की कला सीखो। मैं तो धर्म को जीवन की कला ही कहता हूं। अब तक सदियों से धर्म को जीवन का त्याग कहा गया है और मैं इस बात को स्पष्ट कर दूं कि मैं उस बात से राजी नहीं हूं। धर्म जीवन की कला है। यह जीवन की वीणा से संगीत उठाने का विज्ञान है। यह जीवन को रंग देने का उपाय है। यह जीवन में छिपे हुए राजों को खोलने की कुंजी है।
लेकिन यह तभी संभव है, जब तुम ज्यादा अपनी प्रतिभा को निखारो। लोग मूढ़तापूर्वक जी रहे हैं। और लोग ऐसे अंधे हैं कि अपनी मूढ़ता की रक्षा भी करते हैं। तलवारें निकल आती हैं, अगर उनकी मूढ़ता पर हमला करो। अगर उनकी मूढ़ता पर हमला करो तो वे कहते हैं: हमारी भावना को ठेस पहुंच गई। मूढ़ता उनकी भावना है। व्यर्थता उनका जीवन है। सड़ रहे हैं। कहीं कोई आनंद का कभी अनुभव नहीं किया है। कभी कोई रस चखा नहीं, अमृत की एक बूंद भी जबान पर पड़ी नहीं। लेकिन अगर उनकी धारणाओं पर चोट करो--हमारी भावनाओं पर चोट पहुंच गई! लड़ने-मरने को तैयार हैं। मरने-मारने को तैयार हैं। जीने में उनका रस नहीं है। जीने में उनके कुछ है ही नहीं। जीने में रस हो भी क्या?
अब तुम यहां आ गए हो, तो जीवन की कला सीखो। जीवन की कला का पहला सूत्र है: ध्यान। क्योंकि ध्यान तुम्हारी प्रतिभा को निखार देगा। ध्यान तुम्हारी प्रतिभा की तलवार पर धार रखेगा: ध्यान तुम्हें बुद्धिमान बनाएगा। और साधारणतः जिसको तुम धर्म कहते हो, वह तुम्हें बुद्धू बनाता है, बुद्धिमान नहीं। क्योंकि तुम्हारे ऊपर जबर्दस्ती विश्वास आरोपित कर दिए जाते हैं--यह मानो, वह मानो। जानने की तो बात ही मत करना, बस मानो! जानने की बात की कि तुम नास्तिक हो! मानो, चुपचाप मानो! प्रश्न उठाना मत। जिज्ञासा करना मत। खोज-बीन का सवाल नहीं है। खोज-बीन पहले ही कर चुके बाप-दादे। वे तुम्हारे लिए निपटारा कर गए हैं। वे सदा के लिए सत्य खोज के रख गए हैं। तुम्हारा काम इतना ही है कि जुगाली करते रहो। वही चबाए-चबाए को चबाते रहो। न उसमें कुछ बचा है अब, सब रस कभी का सूख चुका है। कूड़ा-कर्कट है। मगर उसको चबाते रहो। सूखी घास है। उसमें से कुछ मिलेगा नहीं। लेकिन प्राचीन है। सड़ा-गला है, लेकिन बड़ा प्राचीन है। बस प्राचीन का मजा लो। मुर्दों में जीओ। मुर्दे न हो जाओगे तो और क्या होगा?
मैं धर्म को जीवन का त्याग नहीं कहता--जीवन की कला कहता हूं। जीवन से भागना नहीं है, जीवन में डूबना है। ऐसे डूबना है, ऐसी गहरी डुबकी मारनी है कि जीवन के सारे राज तुम्हारे सामने खुल जाएं। जीवन को प्रेम करो। आह्लादित होओ कि परमात्मा ने तुम्हें जीवन का एक अपूर्व अवसर दिया है।
मैं उनको नास्तिक कहता हूं जो जीवन को छोड़ कर भाग जाते हैं, क्योंकि इसका अर्थ क्या हुआ? परमात्मा ने तो भेंट दी जीवन की और तुम जीवन छोड़ कर भाग गए। यह परमात्मा का अपमान है। अब तक तथाकथित संन्यासियों ने परमात्मा का अपमान किया है। मैं तुम्हें परमात्मा का सम्मान सिखाता हूं।
लेकिन ध्यान से शुरुआत करो और प्रेम पर पूर्णता। ध्यान तुम्हारी प्रतिभा को चमकाएगा और प्रेम तुम्हारे हृदय में रस भर देगा। बस ये दो चीजें पूरी हो जाएं तो दो पंख मिल गए तुम्हें, फिर तुम आकाश में उड़ सकते हो। अनंत आकाश तुम्हारा है!

तीसरा प्रश्न:
भगवान, आपकी स्मृति क्यों इतनी चमत्कारिक है? सुबह नाश्ते में क्या लिया, यह भी मैं दोपहर के आते-आते भूल जाता हूं। क्या अच्छी स्मृति का गुर बताने की कृपा करेंगे?
सहजानंद! मैं तुम्हें बता सकता हूं कि उन्नीस सौ चौहत्तर में, बारह फरवरी को सुबह नाश्ते में मैंने क्या लिया या उन्नीस सौ सतहत्तर में सुबह के भोजन में क्या लिया या उन्नीस सौ अठहत्तर में पंद्रह मार्च को सांझ के भोजन में क्या लिया। और उसका कारण यह नहीं है कि मेरी स्मृति अच्छी है। उसका कुल कारण इतना है कि नाश्ता मैं रोज वही लेता हूं और भोजन भी रोज वही करता हूं, उसमें भेद ही नहीं करता। तुम कोई भी तारीख की पूछ लो, मैं जवाब दे सकता हूं। उसमें भूल-चूक का उपाय ही नहीं है। कुछ चमत्कार की बात नहीं है। अब अगर एक ही नाश्ता कोई आदमी ले रहा हो रोज बरसों से, भूलना भी चाहे तो कैसे भूले, तुम बताओ। चमत्कार याद रखने में नहीं होगा, चमत्कार भूलने में हो जाए। भूल सकते ही नहीं।
खाना भी वही लेता हूं--रोज नियमित। सुबह भी वही, शाम भी वही। उतने ही कप चाय पीता हूं रोज। तारीख कोई हो, दिन कोई हो, साल कोई हो। स्वस्थ होऊं कि बीमार, कोई फर्क नहीं करता। हर हालत में सब वैसा ही चलने देता हूं जैसा चलता है। इसमें कुछ स्मृति की खूबी नहीं है।
दूसरी बात, जो भी मैं तुमसे कहता हूं, वह मेरा अनुभव है, स्मृति नहीं है। इसलिए उसमें भी भूल-चूक का कोई कारण नहीं है। तुम मुझे आधी रात उठा कर भी पूछ लोगे तो भी यही कहूंगा, क्योंकि मेरा अनुभव है। हां, अगर तुम्हारा अपना अनुभव नहीं है तो गड़बड़ खड़ी हो जाती है। स्मृति पर निर्भर रहने का मतलब यह होता है कि तुम दूसरों के अनुभव पर निर्भर रह रहे हो। गीता में क्या लिखा है, अगर यह तुम्हें याद रखना है तो स्मृति चाहिए। कुरान में क्या लिखा है, अगर यह तुम्हें याद रखना है तो स्मृति चाहिए। मैं गीता-कुरान की फिकर ही नहीं करता। और कभी अगर गीता-कुरान का उल्लेख भी करता हूं तो भी इसकी फिकर नहीं करता कि लिखा भी है उनमें ऐसा कि नहीं लिखा है।
मैं नागपुर में था और मैंने एक बुद्ध के जीवन की एक कहानी कही, कि बुद्ध एक रास्ते से गुजर रहे हैं। वह उनके बुद्धत्व की उपलब्धि के पहले की घटना है। वह अपने एक शिष्य से बात कर रहे हैं। एक मक्खी उनके मुंह पर आकर बैठ गई। बात जारी रखी उन्होंने और जैसा कि आमतौर से हम करते हैं, मक्खी को यंत्रवत हाथ से उड़ा दिया। फिर ठिठक कर खड़े हो गए, तत्क्षण याद आया कि मक्खी को होशपूर्वक नहीं उड़ाया। और वही उनकी साधना थी। वही साधना में वे लगे थे कि प्रत्येक कृत्य होशपूर्वक करना, यंत्रवत नहीं। अब मक्खी तो थी नहीं, वह तो उड़ गई थी। मक्खी को क्या मतलब कि तुमने यंत्रवत उड़ाया कि होशपूर्वक उड़ाया? मक्खी को क्या लेना-देना? वह तो हाथ देख कर उड़ गई। लेकिन बुद्ध अपने हाथ को उठाए फिर से, जैसे कि मक्खी बैठी हो। शिष्य खड़ा होकर भौचक्का देखता रहा। बुद्ध हाथ को ले गए सिर के पास, मक्खी को उड़ाया--जो कि वहां थी ही नहीं। फिर वापस हाथ को नीचा किया। फिर जहां बात टूट गई थी, वहां बात शुरू की। शिष्य ने कहा: मैं बात तो भूल ही गया। मैं यह पूछना चाहता हूं, यह आपने क्या किया? मक्खी तो कब की उड़ चुकी, आप पहले ही उड़ा चुके, अब क्या उड़ा रहे थे?
बुद्ध ने कहा: अब मैं इस तरह उड़ा रहा था जैसे कि मुझे पहले उड़ाना चाहिए था। भूल हो गई, भूल सुधार कर रहा था और देख रहा था कि किस तरह उड़ाना उचित होता। वह मैंने अनुभव करके देखा।
एक बौद्ध भिक्षु मेरी यह बात सुन रहे थे। वे रात मुझसे मिलने आए। उन्होंने कहा: कहानी तो आपने बड़ी अदभुत कही है! लेकिन मैं त्रिपटक पढ़ चुका हूं, पूरे शास्त्र बौद्धों के, यह कहानी कहीं है ही नहीं।
तो मैंने कहा: जोड़ लेना। छूट गई होगी, लिखने वाले भूल गए होंगे। वे मुझे बहुत भौचक्के होकर देखे। उन्होंने कहा: आप कहते क्या हैं? पच्चीस सौ साल बाद आप कैसे सुधार कर सकते हैं शास्त्र में?
मैंने कहा: मुझे शास्त्र से कुछ लेना-देना नहीं। मैं बुद्धत्व का स्वाद जानता हूं। यह कहानी घटनी ही चाहिए--बुद्धत्व की साधना में जो लगा है उसके जीवन में। ऐसी घटे, वैसी घटे, कोई और ढंग से घटे, मगर यह घटना घटनी ही चाहिए। कई तरह घट सकती है।
उन्होंने कहा: बात तो बिलकुल जमी। बात समझ में भी आई कि बुद्ध की सारी साधना ही जागरूकता की है।
तो मैंने कहा कि बस बात जमने की बात है। बात समझने की बात है। बुद्ध की अंतर-धारा के विपरीत तो नहीं है बात?
उन्होंने कहा: नहीं, अंतर-धारा के विपरीत नहीं है। अंतर-धारा के बिलकुल अनुकूल है।
तो फिर मैंने कहा कि मेरा अंतर-धारा से लेना-देना है। शास्त्रों से मुझे क्या पड़ी है? हो शास्त्र में तो ठीक, न हो शास्त्र में तो ठीक। मैं कोई शास्त्रज्ञ नहीं हूं। और न मुझे शास्त्रज्ञ होने में कोई रस है।
इसलिए मैं जो उद्धरण देता हूं, तुम यह मत सोचना कि ठीक वैसा उद्धरण तुम्हें मिल ही जाएगा। मिल भी सकता है, न भी मिले। मगर सुनने वाले को निश्चित ही लगेगा कि मैं इतने बलपूर्वक कहता हूं कि होना ही चाहिए। बल का कारण यह नहीं है कि शास्त्र में है ही; बल का कारण यह है कि मैं अपने अनुभव से जानता हूं कि ऐसा ही सत्य है। शास्त्र में हो तो, न हो तो। सारे शास्त्र भी नष्ट हो जाएं तो भी जो मैं कह रहा हूं वह सत्य है। सारे शास्त्र विपरीत हों तो भी जो मैं कह रहा हूं वह सत्य है। और सारे शास्त्र पक्ष में हों, तो भी जो मैं कह रहा हूं वह सत्य है। यह स्मृति का सवाल नहीं है, यह मेरे बोध का सवाल है।
और तुम मुझसे स्मृति का गुर मत पूछो। तुम मुझसे बोध का गुर पूछो। मैं यहां स्मृति सिखाने के लिए नहीं बैठा हूं। स्मृति सीखनी हो, कठिन मामला नहीं है। एक ही रास्ता है: खूब घोंको। और कोई रास्ता नहीं है स्मृति का। जो भी याद करना है, खूब घोंकते रहो उसको। बार-बार दोहराओ, ताकि लकीर पड़ जाए। कहावत तो सुनी न--रसरी आवत जात है, सिल पर पड़त निशान! पत्थर तक पर निशान पड़ जाता है, रस्सी आती-जाती रहे, आती रहे, जाती रहे। करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान! सुजान नहीं होते, ख्याल रखना। जड़मति तो जड़मति ही रहते हैं, अभ्यास कितना ही करें। हां, स्मृति उनकी अच्छी हो जाती है। पंडित हो जाते हैं, सुजान नहीं। सुजान तो बात और है। और जड़मति भी अगर कोई पक्के ही जड़मति हों तो यह कहावत भी उन पर लागू नहीं होगी। रस्सी आती रहे, जाती रहे, घिस जाएगी, रस्सी ही टूट जाएगी, उनकी सिल पर निशान वगैरह नहीं पड़ेगा। अगर सिल ही मजबूत हो तो क्या करेगी रस्सी?
सहजानंद, अगर किसी चीज को याद करना है तो दोहराओ। दोहराते रहो। इसी तरह तो पाठ कर रहे हैं लोग बैठे रोज सुबह गीता का, कुरान का। दोहराते रहते हैं, दोहराते रहते हैं, दोहराते रहते हैं। तोते को भी तुम रोज-रोज कहो कि कहते रहो मिट्‌ठू! राम-राम, राम-राम। तोता भी घबड़ा जाता है सुन-सुन कर कि राम-राम, राम-राम। वह भी कहने लगता है कि राम-राम, राम-राम। तोतों तक में स्मृति आ जाती है। मगर कोई सुजान नहीं हो जाता तोता।
मुझसे तो तुम पूछो बोध का गुर, बुद्धत्व का राज। इसलिए मुझसे पंडित नाराज हैं, क्योंकि उनको अड़चन होती है। उनको हैरानी होती है। वे शास्त्र की बंधी हुई लकीरों से जीते हैं।
मैं कबीर पर बोला तो कबीर-पंथियों के जो प्रधान हैं, उनका पत्र आया, लंबा पत्र आया कि और तो आपने सब अच्छा कहा, लेकिन एक जगह आपने कबीर की इस तरह व्याख्या की जो शास्त्रीय नहीं है।
तो मैंने उनको लिखवा दिया कि वह शास्त्रों का दुर्भाग्य। इसमें मैं क्या कर सकता हूं? मुझे जो कहना है, वही कहूंगा। शास्त्र का समर्थन मुझे मिलना चाहिए इसकी न तो अपेक्षा है, न जरूरत है, न प्रयोजन है।
मैं जो भी बोल रहा हूं, उसका प्रमाण मैं हूं। उसका प्रमाण कहीं और नहीं है। इसलिए मैं सारी बातों को बलपूर्वक बोल सकता हूं। ऐसा बल स्मृति का नहीं होता। ऐसा बल स्मृति में हो ही नहीं सकता। और भूलने का कोई सवाल ही नहीं उठता। अपना अनुभव है, भूलूं भी तो कैसे भूलूं? जो जाना है, सो जाना है। इधर से पूछो, उधर से पूछो, हजार ढंग से पूछो। मैं वही कहूंगा, जो मुझे कहना है।
कई लोगों ने मुझे खबरें की हैं कि आप भी गजब हैं, कबीर पर बोलते हैं तो ऐसा लगता है कबीर ठीक और मीरा पर बोलते हैं तो ऐसा लगता है मीरा ठीक और रैदास पर बोलते हैं तो ऐसा लगता है रैदास ठीक, और फरीद पर बोलते हैं तो ऐसा लगता है फरीद ठीक, और नानक पर बोलते हैं तो लगता है कि नानक ठीक!...मैं उनको कहना चाहता हूं कि मुझे उनके ठीक और गलत होने से कुछ लेना नहीं। मुझे तो जो ठीक है, वही बोलना है। वे तो बोतलें हैं, शराब मैं अपनी भरता हूं। अब बोतलों से शराब में क्या फर्क पड़ता है? नानक की बोतल कि कबीर की बोतल। गगरी किसी की भी, अनुभव तो मैं अपना डालता हूं। इसलिए पंडित नाराज होते हैं। कबीर-पंथियों का जो पंडित है, वह नाराज होगा। जो लोग अनुभव की दिशा में चल रहे हैं, वे तो कबीर के संबंध में मैंने जो कहा है, उससे आह्लादित हो जाएंगे। मगर कबीर को पांडित्य की तरह पकड़ने वाला आदमी नाराज हो जाएगा। अब कबीर जैसे आदमी को भी तुम पंडिताऊ ढंग से पकड़ते हो तो हद हो गई! तो तुम किसे छोड़ोगे?
कबीर ने कहा है: मसि कागद छुओ नहीं!...कि मैंने कभी कागज और स्याही हाथ से नहीं छुई। और कबीर ने कहा है: लिखा लिखी की है नहीं, देखा-देखी बात! मगर कबीर को मानने वाले उनके जो बड़े महंत हैं, उन्होंने पत्र लिखा, बड़े गुस्से में, कि आपने जो कहा, यह शास्त्र के विपरीत पड़ रहा है। और कबीर कहते हैं: लिखा लिखी की है नहीं, देखा-देखी बात! और मैं देखा-देखी बात कर रहा हूं, वे लिखा लिखी की बात उठा रहे हैं। अब कबीर के साथ कौन है--मैं हूं या ये महंत? कबीर जैसे व्यक्ति को, जिसने कहा कि ढाई आखर प्रेम के, पढ़ै सो पंडित होय, उसको भी लोग किताबों में पकड़े हुए हैं, पोथियों में जकड़े हुए हैं!
मेरी स्मृति कुछ बहुत अच्छी नहीं है। मगर मैं फिकर भी नहीं करता। फिकर करो तो अड़चन। इसलिए बहुत बार तुम्हें यूं भी हो जाएगा कि मैंने वही कहानी कभी बोकोजू के नाम से कही, कभी रिंझाई के नाम से कही, कभी बोधिधर्म के नाम से कही। कौन फिकर करता है! मेरे लिए ये सब बोतलें हैं। मुझे कहानी कहनी थी। कोई भी बहाना हो, खूंटियां हैं। मुझे अपना कोट टांगना था, टांग दिया। अब खूंटियां देखता फिरूं कि कोट टांगूं? अगर खूंटियां न मिलें तो आदमी खीलों पर भी टांग देता है; खीलें न मिलें, द्वार-दरवाजों पर भी टांग देता है। और कुछ न मिले तो अपने कंधे पर टांग लेता है। करेगा क्या!
यह स्मृति नहीं है, यह मेरा अनुभव है।

चौथा प्रश्न:
भगवान, मैं विवाहित व्यक्ति हूं। मैं तो वैवाहिक जीवन में कोई दुख नहीं देखता हूं, फिर आप क्यों वैवाहिक जीवन का मजाक उड़ाते हैं?
नारायणदत्त तिवारी! भैया, ऐसा मालूम पड़ता है, पत्नी भी तुम्हारे साथ यहां आई हुई है। सच कहना, ईमान से कहना।
अदालत में सरकारी वकील ने मुल्ला नसरुद्दीन पर आरोप लगाते हुए कहा कि माई लार्ड, यही वह आदमी है जिसने अपनी पत्नी को चिड़ियाघर के गहरे तालाब में ढकेला था और जिसे मगरमच्छ खा गए थे।
जज के हृदय में तो आनंद की एक लहर उठी। मगर दुर्भाग्य की बात, उस दिन उसकी पत्नी भी अदालत में मौजूद थी, अदालत देखने आई थी। सो जज ने कहा: लेकिन क्या यह बदमाश यह नहीं जानता था कि चिड़ियाघर के जानवरों को कुछ भी खिलाने की मनाही है?
चंदूलाल एक दिन अपने मित्र नसरुद्दीन से कह रहे थे कि जैसी आज्ञाकारी हमारी पत्नी है, शायद ही किसी की हो। पत्नी भी मौजूद थी, स्वेटर भी बुनती जाती थी और सुनती भी जाती थी कि क्या बात चल रही है। पत्नियां चार-चार पांच-पांच काम इकट्ठे कर लेती हैं। जैसे स्वेटर बुन लें, पैर से लड़के का झूला भी झुलाती रहें, कान से--पति क्या चर्चा कर रहा है...और जितनी धीमी खुसर-पुसर चर्चा हो रही हो, उतनी साफ उनको सुनाई पड़ती है। जोर से बोलो तो वह सुनने की जरूरत नहीं।
चंदूलाल की यह बात सुन कर नसरुद्दीन चौंका। उसने कहा कि तुम्हारा मतलब? चंदूलाल ने कहा: अरे जब भी कहता हूं कि मुझे गर्म पानी चाहिए, फौरन करके देती है। रोज कहूं तो रोज करके देती है।
नसरुद्दीन बोला: लेकिन एक बात समझ में नहीं आती कि आखिर तुम रोज गर्म पानी का करते क्या हो? तुम्हें देख कर तो ऐसा लगता नहीं कि नहाना-धोना भी तुम्हें आता हो!
चंदूलाल बोले: अरे यार, तुमने भी मूर्खता की हद कर दी! अरे क्या इतनी ठंड में कोई ठंडे पानी से बर्तन साफ कर सकता है? बर्तनों को धोने के लिए आखिर गर्म पानी ही चाहिए न!
भैया नारायणदत्त तिवारी, अकेले आओ कभी। फिर जो मैं कहता हूं, जंचेगा। अभी पत्नी बिलकुल बगल में ही बैठी होगी और तुम्हारे चेहरे की तरफ देख रही होगी।
मुल्ला नसरुद्दीन और उसकी बीबी सैर करने को निकले थे। बातचीत चल रही थी कि अचानक बीबी ने किसी बात पर गर्म होकर नसरुद्दीन को जोर से एक चपत रसीद कर दी। नसरुद्दीन तो क्रोध से भनभना गया। बोला कि तूने यह चपत सच में मारी या मजाक में मारी?
गुलजान भी क्रोध में आकर बोली: सच में मारी है, बोल क्या करना है?
नसरुद्दीन नर्म होकर बोला: कुछ नहीं, यही कि मुझे मजाक इस तरह के बिलकुल पसंद नहीं। यदि सच में मारी है तो कोई बात नहीं।
तुम कह रहे हो: मैं विवाहित व्यक्ति हूं। जरूर होओगे! तुम कह रहे हो: मैं तो वैवाहिक जीवन में कोई दुख नहीं देखता हूं। फिर आप क्यों वैवाहिक जीवन का मजाक उड़ाते हैं?
सौभाग्यशाली हो। अगर वैवाहिक जीवन में तुम्हें कोई दुख नहीं दिखाई पड़ता तो तुम यहां आए किसलिए हो? क्यों यहां समय खराब कर रहे हो? वैवाहिक जीवन का सुख लो। मगर खाने के दांत और, दिखाने के दांत और। कहते लोग कुछ और, असलियत कुछ और। कहता कोई भी नहीं। कहे कैसे? जबानें बंद हैं। और फिर फजीहत करवाने से सार क्या?
सभी कहानियां, पुरानी कि नई, विवाह पर खत्म हो जाती हैं। फिल्में भी विवाह पर खत्म हो जाती हैं। शहनाई बजती है, माला डाली जा रही, फेरे लगाए जा रहे, और कहानी खत्म! क्योंकि फिर इसके बाद जो होता है, वह न दिखाने योग्य है, न बताने योग्य है, न किसी से कहने योग्य है। कहानियों में कहा जाता है कि दोनों का विवाह हो गया, फिर दोनों सुख से रहने लगे। तुमने एकाध भी ऐसी कहानी देखी, जिसमें यह आया हो कि विवाह हो गया और फिर दोनों दुख से रहने लगे? ऐसी कहानी ही नहीं लिखी गई आज तक। अगर यह बात सच है कि विवाह हो जाने के बाद दोनों सुख से रहने लगते हैं, तो यह जीवन, यह जगत अपूर्व आनंद से भरा हुआ होना चाहिए। मगर ऐसा कहीं दिखाई पड़ता नहीं। और इस समाज, इस व्यवस्था, इस जीवन की आधारशिला विवाह है। मगर हम छिपाते हैं, हम मुखौटे लगाए रहते हैं।
मैं जो मजाक उड़ाता हूं वह सिर्फ तुम्हारे मुखौटों की उड़ा रहा हूं। अब यह भी हो सकता है संयोगवशात तुम अपवाद होओ। मिल गई हो कोई अप्सरा तुम्हें या तुम स्वयं कोई देवता होओ। और दोनों का जीवन सच में ही सुख से बीत रहा हो। मैं यह भी नहीं कहता, क्योंकि मैं कौन हूं, संदेह करूं तुम पर? श्रद्धा रखता हूं! तुम्हारी तुम जानो! मगर इतना ही निवेदन है कि अगली बार अकेले आना। और फिर बातें तुम्हें ज्यादा और ढंग से दिखाई पड़ेंगी।

अंतिम प्रश्न:
भगवान, विवाह से बचना तो असंभव है। क्या ऐसा कोई उपाय नहीं है कि विवाह में कम से कम दुख हो?
अविनाश! उपाय क्यों नहीं है? उपाय तो हर चीज का है। जहां बीमारी है, वहां कोई न कोई औषधि भी होती है।
ढब्बू जी की तीन प्रेमिकाएं थीं। फिर जब उन्होंने शादी की तो जो सबसे छोटे कद की थी, साढ़े तीन फीट की, उसे चुना। एक मित्र ने पूछा: इसका राज क्या है? तुम्हारे पीछे तो दो-दो स्वस्थ, सुंदर, पढ़ी-लिखी और ऊंचे कद की लड़कियां पड़ी थीं, फिर इस दुबली-पतली, मरियल सी, ठिगनी लड़की को ही क्यों पसंद किया?
ढब्बू जी ने कहा: राज वगैरह कुछ नहीं है, सीधी-सच्ची बात है। अरे भई, मुसीबत जितनी छोटी हो, उतना ही अच्छा, उतना ही शुभ, उतना ही सुंदर।
अब तुम कह रहे हो कि कम से कम दुख हो। कोई रास्ता तो मिल सकता है। मुसीबत सोच-समझ कर चुनना। तुम्हारे हाथ में है मुसीबत चुनना।
मुल्ला नसरुद्दीन ने जब शादी की तो गांव की सबसे बदशक्ल औरत से शादी कर ली, जिससे कोई शादी करने को राजी नहीं था। सारा गांव चौंका। भरोसा ही नहीं आया किसी को, कि इस स्त्री से कोई शादी करेगा। उसका रूप ऐसा था--ऐसा भयंकर कि जो उसे एक दफा देख ले तो या तो पहाड़ों की तरफ भाग जाए, गुफाओं में छिप जाए, संसार से एकदम विरक्त ही हो जाए, आत्महत्या कर ले, कूद पड़े नदी में। उससे विवाह कर लिया। मुसलमानों में रिवाज है कि जब विवाह के बाद पत्नी घर आती है तो वह पूछती है कि मैं अपना बुरका, अपना घूंघट किस-किस के सामने उठा सकती हूं! पति से आज्ञा लेती है। सो नसरुद्दीन ने कहा: देवी, मुझे छोड़ कर सबके सामने! ऐसे भी मैं दिन में घर आऊंगा नहीं। रात अंधेरे में आऊंगा। और इतनी प्रार्थना है, जब आऊं, जैसे ही दरवाजे पर दस्तक दूं, बिजली बुझा देना।
लोगों ने पूछा कि नसरुद्दीन तुमने ऐसी बदशक्ल औरत क्यों चुनी? उसने कहा: कई कारणों से। पहली तो बात, यह कभी धोखा नहीं देगी। धोखा देगी तो कैसे देगी? इस पर कभी संदेह नहीं आएगा। चित्त हमेशा इस पर श्रद्धा रखेगा। यह किसी के साथ भागेगी नहीं। घर इसके हाथ में सुरक्षित है। यह हमेशा मेरी सेवा करेगी। सुंदरी हो तो सेवा करवाती है। और यह हमेशा अनुगृहीत रहेगी। सुंदरी हो तो वह कहती है--हमने तुम्हारे ऊपर अनुग्रह किया, नहीं तो तुमको कौन चुनने वाला था!
अविनाश, तुम पूछते हो: ‘क्या कोई रास्ता नहीं है?’
रास्ते क्यों नहीं हैं?
ढब्बू जी बेचारे बहुत व्यस्त आदमी हैं। सुबह छह बजे से उठ कर घर का कामकाज करते हैं। फिर आठ बजे से शाम छह बजे तक दफ्तर में भी जी-तोड़ मेहनत करते हैं। शाम को घर आकर फिर घर-गृहस्थी के कामों में जुट जाते हैं। इस तरह उन्हें अपने बच्चे की पढ़ाई-लिखाई पर ध्यान देने का अधिक समय नहीं मिल पाता। अभी पिछले ही रविवार की बात है, दोपहर को उनका मन हुआ कि बेटे से उसके अध्ययन आदि के संबंध में पूछताछ की जाए। परीक्षा पास आ रही है। उन्होंने बेटे से सबसे पहले भाषा-संबंधी प्रश्न किए, फिर गिनती के सवाल। इसी पूछताछ में एक उपद्रव होते-होते बच गया, जब ढब्बू जी ने पूछा: बताओ बेटे, आठ के बाद क्या आता है?
तो भोले-भाले बेटे ने सहज उत्तर दिया: आठ के बाद रोज आपका दोस्त चंदूलाल आता है--मम्मी से मिलने के लिए। सिर्फ रविवार को छोड़ कर।
उपद्रव तो हो ही जाता, लेकिन ढब्बूजी विपस्सना ध्यान करने लगे। विपस्सना ध्यान का यही तो महत्व है!
अविनाश, विपस्सना ध्यान पहले सीखो, विवाह बाद में करना। क्योंकि कई ऐसे अवसर आएंगे जब विपस्सना ध्यान ही बचा सकता है। और ध्यान होगा तो आदमी समदृष्टि हो जाता है, सुख-दुख में समभाव रखता है।
नसरुद्दीन और उसकी बीबी रात को प्रेम-कीड़ा में मशगूल थे, कि अचानक किसी ने दोनों के चेहरों पर टार्च की रोशनी डाली। देखा तो उनका पुत्र फजलू ही रोशनी में उन्हें देख रहा था। नसरुद्दीन बोला: क्यों बे उल्लू के पट्ठे, यह क्या कर रहा है? फजलू बोला: पापा देख रहा हूं कि मम्मी के साथ आप ही हैं या और कोई बदमाश!
नसरुद्दीन बोला: फजलू, बेटा तेरी सूझ-बूझ का हमें बड़ा गर्व है!
फिर समझदारी से काम लेना पड़ता है। फिर समझदारी में ही सार है। और कुछ भी न हो सके तो पुलिस किसलिए है? अदालत किसलिए है? जो अपनी रक्षा खुद नहीं कर सकते, उनकी रक्षा के लिए पुलिस है।
पुलिस स्टेशन के टेलीफोन की घंटी बजी। थानेदार ने रिसीवर उठाया। आवाज आई: हलो, मैं पोस्ट आफिस के सामने स्थित गणेश भवन नामक बिल्ंिडग से बोल रहा हूं। इस बिल्ंिडग की चौथी मंजिल पर पांचवें नंबर के फ्लैट में एक खूंखार स्त्री अपने दुर्बल पति चंदूलाल पर बुरी तरह चीख रही है और उसे मार-पीट रही है। सारे पड़ोस के लोगों की नींद हराम हो रही है। कृपा कर कुछ करिए।
थानेदार ने कहा: अच्छी बात है जनाब, मैं अभी आदमी भेजता हूं। मगर यह तो बताइए कि आप कौन हैं!
जवाब मिला: मैं कौन हूं! अरे उसी खतरनाक स्त्री का मरियल पति चंदूलाल हूं, और कौन हूं!
कुछ भी न बन सके, आखिर में तो पुलिस है। मगर विवाह अविनाश, जरूर करो। विवाह से बड़े अनुभव होंगे। और विवाह के बिना अनुभव के जीवन अधूरा रह जाता है। विवाह के बिना अनुभव के...तुमने देखा नहीं अभी, नारायणदत्त तिवारी, ऐसा स्वर्गीय सुख तुम्हें कैसे मिलेगा! पहले स्वर्गीय सुख लो। हालांकि सब स्वर्ग, नरक सिद्ध होते हैं। मगर जब सब स्वर्ग, नरक सिद्ध हो जाते हैं, तभी कोई व्यक्ति अपने भीतर प्रवेश करता है। पहले बाहर टटोलता है, खोजता है--दूसरों में। वही तो विवाह है, और क्या? कोई विवाह धन से करता है, कोई पद से करता है, कोई स्त्री से, कोई पुरुष से, कोई महत्वाकांक्षा से, कोई यश से। ये सब विवाह हैं। पहले और में खोजता है आदमी अपने सुख को। जब कहीं भी नहीं पाता, तब कहीं अंततः हार कर, थक कर अपने भीतर प्रवेश करता है।

आज इतना ही।

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