QUESTION & ANSWER
Sumiran Mera Hari Kare 06
Sixth Discourse from the series of 11 discourses - Sumiran Mera Hari Kare by Osho. These discourses were given during MAY 21-31 1980, Pune.
You can listen, download or read all of these discourses on oshoworld.com.
पहला प्रश्न:
भगवान, बाईस तारीख को प्रवचन में एक मूर्ख ने आप पर चाकू फेंक कर आपकी हत्या का असफल प्रयास किया था। अनिष्ट न हो सका। वह व्यक्ति डॉक्टर मुंशी सिंह की तरह अस्थायी संन्यास लेकर आपके अधिक निकट से कुछ अनिष्ट कर सकता था। आपसे प्रेमपूर्वक आग्रह है कि अब संन्यास देना बंद करें, अथवा अधिक मुश्किल बनावें, ताकि सत्य पर कोई भी प्रहार विफल रहे।
रामदयाल भारती! पहली बात तो यह खयाल में लेनी जरूरी है कि उस व्यक्ति को मूर्ख मत कहो। वह व्यक्ति मूर्च्छित है, मूर्ख नहीं। और मूर्च्छित कौन नहीं है! जब तक तुम समाधि को उपलब्ध नहीं हुए हो, तब तक मूर्च्छित ही हो। फिर मूर्च्छा में तुम जो भी करोगे, तुम चाहे सोचो कि शुभ कर रहे हो, शुभ तुम कर न सकोगे। मूर्च्छा में शुभ होना असंभव है, वैसे ही जैसे अमूर्च्छा में अशुभ होना असंभव है। मूर्च्छा में अशुभ के कांटे लगते हैं; अमूर्च्छा में शुभ के फूल।
मूर्ख हम उन्हें कहते हैं जिन्हें जानकारी कम है। लेकिन मजा यह है कि जिन्हें जानकारी बहुत है, वे तो महामूढ़ होते हैं। जिनको तुम पंडित कहोगे, उनके पांडित्य में अज्ञानियों से भी ज्यादा खतरा है। अज्ञानी तो कम से कम सीधा-साफ होता है। उसकी किताब कोरी है। उस पर कुछ लिखावट नहीं है। लेकिन तथाकथित ज्ञानी, जिनकी किताबों में उधार बातें भरी हैं, जिन्होंने सदियों का कूड़ा-करकट इकट्ठा कर लिया है, जिन्होंने अपनी स्मृति को एक कचरा-घर बना रखा है, उनकी भ्रांति और भी गहन है। उनको सबसे बड़ी भ्रांति तो यह है कि वे सोचते हैं कि वे जानते हैं।
सुकरात ने कहा है कि मैं एक ही बात जानता हूं कि मैं कुछ भी नहीं जानता। यह पहला कदम है परम ज्ञान की ओर। पंडित तो जानता है कि मैं सब-कुछ जानता हूं। जिस व्यक्ति ने छुरा फेंका, वह अपने को मूर्ख नहीं मानता, वह तो अपने को पंडित मानता होगा। वह तो हिंदू धर्म की रक्षा कर रहा था। मूर्ख क्या धर्म की रक्षा करेंगे! बेचारे मूर्खों को क्या धर्म का पता! उसे भ्रांति है कि उसे धर्म का पता है। इतना ही नहीं, उसे यह भी भ्रांति है कि वह धर्म की रक्षा न करेगा तो और कौन करेगा! उसे यह भी पता है कि धर्म की रक्षा के लिए कुछ भी किया जाए, तो शुभ है। अशुभ साधन भी शुभ साध्य के लिए शुभ हो जाते हैं--ऐसी उसकी धारणा होगी। हो सकता है गीता का पाठी हो। हो सकता है रामायण पढ़ता हो। तुकाराम और ज्ञानेश्वर और एकनाथ के वचनों को कंठस्थ कर रखा हो, उनके अभंग स्मृति में संजो लिए हों। वह आदमी अपने को मूर्ख नहीं मानता। वह आदमी अपने को पंडित मानता होगा। यह पांडित्य की ही घोषणा है। और पंडित जितने खतरनाक साबित हुए हैं, उतने अज्ञानी कभी खतरनाक साबित नहीं हुए।
तो पहली तो बात, रामदयाल, उसे मूर्ख न कहो। वह मूर्ख तो नहीं था। जानकारी से भरा होगा। और मैं जो कह रहा था, वह उसकी जानकारी के विपरीत पड़ रहा होगा। न सह सका। पंडित की सहनशीलता बहुत कम होती है, क्योंकि पांडित्य छिछली बात है, उथली बात है; उसमें कोई गहराई नहीं होती। पांडित्य असहिष्णु होता है। इसलिए दुनिया को पंडितों ने, मुल्लाओं ने, मौलवियों ने, अयातुल्लाओं ने लड़वाया है, खून की नदियां बहाई हैं। ये अज्ञानियों के काम नहीं हैं। अज्ञानी तो बेचारे क्या लड़ें, कैसे लड़ें, किस बात के लिए लड़ें--इसका भी उन्हें पता नहीं है। अज्ञानी कैसे धर्म की रक्षा का अहंकार करेगा? अज्ञानी तो जानता ही नहीं कि धर्म क्या है। यह तो तथाकथित ज्ञानियों की बात है।
तो अगर उसे कोई नाम ही देना हो, तो पंडित का देना, महापंडित का देना; मूर्ख का मत देना। क्योंकि वस्तुतः पंडित ही मूर्ख होते हैं। पंडित जितने दूर पड़ जाता है परमात्मा से, उतना कोई और दूर नहीं होता। ज्ञान की दीवाल उसे तोड़ देती है परमात्मा से। वह निर्दोष नहीं रह जाता। उसके मन में इतना अहंकार छा जाता है जानने का, ऐसी भ्रांतियां उसे घेर लेती हैं, ऐसे विभ्रम उसे पकड़ लेते हैं, सिद्धांतों का ऐसा जाल उसके चारों तरफ खड़ा हो जाता है कि वह परमात्मा को जान सके, यह करीब-करीब असंभव है। पापी पहुंच जाते होंगे परमात्मा तक, लेकिन पंडित कभी पहुंचा है, ऐसा सुना नहीं, ऐसा हुआ ही नहीं!
तो उस बेचारे को पंडित भला कहना, मूर्ख न कहो।
दूसरी बात, तुम कहते हो कि आप संन्यास देना बंद कर दें, ताकि कोई आपके करीब न आ सके और सत्य को कोई अनिष्ट न हो। सत्य को अनिष्ट होता ही नहीं। और जिस सत्य को अनिष्ट हो जाए, वह सत्य नहीं है। सत्य तो हर अनिष्ट से गुजर कर और निखरता है। मेरे शरीर को नुकसान पहुंचाया जा सकता है, लेकिन उससे कोई सत्य को नुकसान नहीं पहुंचेगा। क्योंकि मेरा शरीर सत्य नहीं है। शरीर तो पिंजड़ा है। वह तो आज नहीं कल गिरेगा ही। उसे तो किसी को गिराने की जरूरत नहीं, अपने से ही गिर जाएगा। लेकिन उसमें जो अज्ञात पक्षी आवास कर रहा है, उसे कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकता। उसका कोई अनिष्ट नहीं हो सकता। वह तो जितना आग से गुजरेगा, उतना निखरेगा, उतना ही स्वर्ण शुद्ध होगा। इसलिए यह चिंता न लो।
तुम्हारे प्रेम को मैं समझा। और प्रेम अक्सर आसक्ति से भर जाता है। मेरे प्रति तुम्हारी आसक्ति है। मेरी देह के प्रति भी तुम्हारी आसक्ति है। लेकिन तुम बचाना भी चाहो तो भी देह बचेगी नहीं। और कोई मिटाना भी चाहे तो व्यर्थ की मेहनत कर रहा है, देह तो अपने से ही मिट जाएगी।
जीसस को सूली न देते तो कोई जीसस अभी जिंदा थोड़े ही होते। दस-पांच साल ज्यादा जीते, और कौन जाने दस-पांच साल भी ज्यादा जीते या न जीते! शंकराचार्य बिना सूली के ही तैंतीस वर्ष में मर गए। जीसस सूली पर चढ़े और तैंतीस वर्ष में मरे। और जो बात उन्हें कहनी थी, तीन वर्षों में ही उन्होंने कह दी। तीस वर्ष की उम्र में उन्होंने काम शुरू किया, तैंतीस वर्ष में उनको सूली लग गई, जो कहना था, वह तीन वर्षों में कह दिया। कहने की बात तो थोड़ी है। और सूली ने उस बात को ऐसा निखार दिया, सूली ने उस बात को ऐसा उछाला कि सदियां बीत गईं, उस बात की छाप आदमी की आत्मा पर अमिट छूट गई है। सूली कुछ नुकसान न कर सकी। सूली सिंहासन बन गई। सत्य के मार्ग पर सूली सिंहासन हो जाती है और असत्य के मार्ग पर सिंहासन भी सूली ही सिद्ध होता है। इन रहस्यों को समझो।
सिकंदर सारी दुनिया को जीत लिया, लेकिन मरते वक्त रोता मरा, उसकी आंखें आंसुओं से गीली थीं। और जब वह मर रहा था तो उसने अपने वजीरों से कहा कि मेरी अरथी जब निकले तो मेरे हाथों को अरथी के बाहर लटके रहने देना। वजीरों ने पूछा: यह कैसी बात! यह कोई परंपरा नहीं, ऐसा कोई रिवाज नहीं। ऐसा कभी हुआ नहीं। हाथ तो अरथी के भीतर ही होते हैं, बाहर नहीं लटकाए जाते।
सिकंदर ने कहा: हुआ हो या न हुआ हो, मैं जो कहता हूं, वह करना। यह मेरा आखिरी आदेश है। मेरी इच्छा पूरी की जाए।
वजीरों ने कहा: आपकी मर्जी, आप आदेश देंगे तो जरूर पूरा होगा। लेकिन क्या हम पूछ सकते हैं कि इस अनूठे आदेश का प्रयोजन क्या है?
तो सिकंदर ने कहा: मैं दुनिया को यह दिखाना चाहता हूं, हजारों लोग मेरी अरथी को देखने आएंगे--आए थे, लाखों लोग आए थे। मैं चाहता हूं कि वे सब देख लें कि सिकंदर महान भी खाली हाथ जा रहा है। सारी दौड़-धूप व्यर्थ गई, हाथ खाली के खाली हैं। सिकंदर भी भिखारी की तरह मर रहा है, कुत्ते की मौत मर रहा है। यह मैं उनको दिखाना चाहता हूं कि मत दौड़ो, बेकार है दौड़। मैं सिंहासन पाकर भी क्या पा सका! सारी दुनिया जीत कर भी क्या जीता! सब हार गया हूं।
और जीसस की मौत सूली पर हुई और अंतिम क्षण में जीसस की आंखें गीली नहीं थीं, आंसुओं से नहीं भरी थीं। ओंठों पर प्रार्थना के स्वर थे। अंतिम क्षण में उन्होंने प्रार्थना की परमात्मा से कि हे प्रभु, इन सबको माफ कर देना। देख भूल न जाना, इनको माफ कर देना, क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं। ये सब मूर्च्छित लोग हैं। ये सब बेहोश हैं। ये होश में नहीं हैं। ये होश में होते तो कभी ऐसा न करते। इसलिए ये क्षमा के पात्र हैं।
इसमें कौन जीता, कौन हारा? खयाल करो। सिकंदर हार गया, जीसस जीत गए। सिकंदर सिंहासन पाकर भी सूली ही पाया और जीसस सूली पाकर भी सिंहासन पा गए।
और ऐसा सिंहासन, जो फिर छीना नहीं जा सकता है!
तुम्हारी प्रीति ठीक। तुम्हारी प्रीति के लिए धन्यवाद करता हूं। लेकिन तुम्हारी प्रीति आसक्ति न बने, क्योंकि आसक्ति खतरनाक हो जाती है।
एक दूसरे मित्र ने पूछा है, दिवाकर ने, कि ‘क्या हम भी तलवार उठाएं?’
आसक्ति खतरनाक हो जाती है। तलवार तो दूर, कंकड़ भी नहीं उठाना। कोई तलवार उठाए तो गर्दन उसके सामने कर देना। तलवार उठाने की बात ही पागलपन की बात है। वे भी पागलपन करेंगे और तुम भी पागलपन करोगे, तो फिर पागलपन का अंत कैसे होगा?
जीसस ने कहा है: जो तुम्हारे एक गाल पर चांटा मारे, दूसरा भी उसके सामने कर देना। जीसस यही कह रहे हैं कि सिलसिले को तोड़ दो। सिलसिले को बढ़ाने से क्या सार है? और एक चांटा मार लिया, हो सकता है संकोच में दूसरा न मारा हो, तो दूसरा गाल भी सामने कर दो। उस आदमी का संकोच भी मिटा दो। उसका मन ही तृप्त हो जाए। तुम्हारा क्या बिगड़ जाएगा। उसको तृप्ति मिल जाएगी, तुम्हारा कुछ खोएगा नहीं। उसका मन संतुष्ट हो जाएगा। चलो इतने ही काम आ गई तुम्हारी देह, यह भी क्या बुरा!
आसक्ति तलवार उठा सकती है। लेकिन ध्यान रखना, प्रीति आसक्ति नहीं है। प्रीति तो अलौकिक है; पृथ्वी की नहीं है, पृथ्वी के पार की है। प्रीति तो तुम्हें इस योग्य बनाती है कि तुम समझ सको। यह प्रीति है जीसस की कि वे कह सके: क्षमा कर देना इन्हें, क्योंकि ये नासमझ हैं। अगर जरा भी अपनी देह से आसक्ति होती, अपने जीवन से आसक्ति होती, तो यह मौका था जब वे जरूर परमात्मा से कहते कि एक-एक को जला भूनना, एक-एक को भून डालना, एक-एक को सड़ा देना, एक-एक को नरक में डाल देना। ये देखो तुम्हारे बेटे के साथ क्या व्यवहार कर रहे हैं। ये तुम्हारे पैगंबर के साथ क्या व्यवहार कर रहे हैं!
दिवाकर पूछते हैं: ‘क्या हम तलवार उठाएं?’
तलवारें ही तो उठती रहीं सदियों-सदियों से, हल कहां होता है तलवारों से? तलवारों में कोई समाधान नहीं है। समाधान तो प्रेम में है। और आदमी इतना अज्ञानी है कि प्रेम की रक्षा के लिए भी तलवार उठा सकता है, शांति की रक्षा के लिए भी युद्ध में जा सकता है। ये विरोधाभासी बातें हैं। शांति की रक्षा के लिए सिर्फ शांत होना जरूरी है। और प्रीति की रक्षा के लिए प्रीति से आपूर होना जरूरी है।
अनिष्ट तो हो नहीं सकता। कभी हुआ नहीं सत्य का कोई अनिष्ट, अब कैसे होगा? वह नियम नहीं है। वह धर्म नहीं है। एस धम्मो सनंतनो! यही शाश्वत नियम है कि सत्य का कोई अनिष्ट नहीं होता। हालांकि सत्य का अनिष्ट करने की हर चेष्टा की जाती है, की जाएगी। ये चुनौतियां निखारती हैं सत्य को, संवारती हैं, सजावट देती हैं, श्रृंगार देती हैं; उसे और सुंदर बनाती हैं; उसे और माधुर्य देती हैं; उसमें अमृत घोल देती हैं।
तो न तो मैं संन्यास देना बंद करूंगा...क्योंकि संन्यास देना बंद कर दूं, तब तो वे सफल हो गए। यही तो वे चाहते हैं कि संन्यास बंद कर दूं।
एक मित्र ने सलाह दी है कि मैं बोलना ही छोड़ दूं, क्योंकि मैं बोलूंगा तो ये उपद्रव होंगे। मैं चुप हो जाऊं। मैं मौन ही रहूं। मौन ही आकर बैठूं।
तुम्हें तैयार तो कर लूं मौन के लिए! मेरे अभी मौन बैठ जाने से तुम्हें कुछ लाभ नहीं होगा। तुम मेरे मौन को अभी समझ न सकोगे। जब तुम तैयार हो जाओगे तो जरूर मौन मुझे होना है। लेकिन इसलिए मौन नहीं होऊंगा, क्योंकि कोई मेरे शब्दों से बेचैन हो जाता है। होने दो उनकी बेचैनी। उनकी बेचैनी अच्छा लक्षण है। अगर कोई बेचैन हो रहा है, तो किसी को चैन भी मिल रहा होगा। अगर कोई परेशान हो रहा है, तो किसी के जीवन में अमृत भी बरस रहा होगा। मेरे जैसे व्यक्तियों का यह भाग्य है कि या तो उनके मित्र होंगे या उनके शत्रु होंगे; दोनों के बीच में कोई खड़ा नहीं रह सकता। कोई मेरे प्रति तटस्थ नहीं रह सकता। सारी दुनिया को विभाजित ही होना पड़ेगा: या तो कोई मेरे साथ होगा या मेरे विपरीत होगा। स्वभावतः विपरीत ज्यादा लोग होंगे, क्योंकि कितने कम लोगों का साहस है सत्य को पचाने का! और असत्य में लोगों ने इतना अपना जीवन डुबाया है, असत्य में उन्होंने इतने ज्यादा अपने स्वार्थ लगा रखे हैं कि उनको एकदम छोड़ नहीं सकते।
मगर ये अच्छे लक्षण हैं कि उन्हें बेचैनी हो रही है। बेचैनी यही बताती है कि उनके भीतर भी तहलका मच गया है। अब कोई आदमी अगर छुरा फेंकने को आ जाए तो तुम सोचो उसकी दशा। वह यह खतरा ले रहा है कि अगर पकड़ा गया तो सात साल या दस साल की सजा कम से कम। अपने जीवन का दस साल कोई कारागृह में डालने को राजी हो रहा है तो मेरे शब्दों ने जरूर कहीं गहरे में उसे झकझोर दिया है। वह उपेक्षा नहीं कर सकता है मेरी। जरूर उसके स्वार्थों पर मेरे शब्द कुल्हाड़ियों की तरह पड़ रहे हैं।
और यही तो लोग हैं, जो आज नहीं कल, मित्र भी बन सकते हैं। जो शत्रु बन सकता है, वह मित्र बन सकता है। जो मित्र बन सकता है, वह शत्रु बन सकता है। मित्रों में और शत्रुओं में कोई फर्क नहीं होता। वे एक-दूसरे में रूपांतरित हो सकते हैं।
संन्यास देना तो जारी रहेगा। और भी तीव्रता से जारी करना होगा। रामदयाल, तुम्हें मुझसे कहना चाहिए कि और जल्दी करें, और ज्यादा से ज्यादा लोगों को संन्यास दें, कहीं ऐसा न हो कि कोई आपका शरीर जल्दी छीन ले, उसके पहले करोड़ों लोगों को रंग डालें! ऐसा मुझसे कहो। यह तो मुझसे कहो ही मत कि संन्यास देना बंद करें। यह तो भय की बात हुई। तुम्हें भय लगता है कि कोई संन्यास लेकर ज्यादा करीब आ सकता है। तो क्या करेगा? गर्दन ही काट सकता है। तो गर्दन काटेगा। गर्दन बिना काटे भी कट जाती है। देर-अबेर आदमी को इस जमीन से विदा हो ही जाना है। और यूं भी कोई मरने का शानदार ढंग खोजना चाहिए।
झेन फकीर मरते हैं तो अपने शिष्यों से पूछते हैं कि बोलो, क्या इरादे हैं, किस ढंग से मरें? जब बोकोजू मरा तो उसके हजारों शिष्य इकट्ठे हो गए थे। बोकोजू मुझे प्रीतिकर है। बहुत प्यारा आदमी था। उसने पूछा, बैठ गया उठ कर अपने बिस्तर पर और पूछा अपने शिष्यों से कि बोलो, किस ढंग से मरूं? शिष्य तो बहुत चौंके, यह भी कोई बात हुई! मगर वे बोकोजू को जानते थे कि वह आदमी उलटबांसियां बोलता है। झिझके कि क्या उत्तर दें! किस ढंग से मरूं, यह भी कोई सवाल है! बोकोजू ने कहा: सुना नहीं? अरे मैं यह पूछता हूं कि कुछ लोग लेटे-लेटे मरते हैं, कुछ लोग बैठे-बैठे मरते हैं, क्या खयाल है तुम्हारा? खड़े होकर मरूं? तुमने सुना है कभी किसी को खड़े होकर मरते?
एक आदमी ने कहा कि खड़े होकर मरते एक दफा...हमने सुना है कि एक फकीर खड़े होकर मरा था। बोकोजू ने कहा: तो फिर जाने दो। कुछ नया ढंग खोजो। कुछ ऐसा ढंग कि वैसा कोई मरा न हो।
क्या ढंग हो सकता है, जिस ढंग से कोई मरा न हो! फिर बोकोजू ने खुद ही ने कहा कि अच्छा तो फिर ऐसा करो, तुम्हारी कुछ सूझ-बूझ में नहीं आता, तो मैं शीर्षासन लगा कर मर जाऊं? सिर के बल खड़ा होकर? सुना तो नहीं है कभी कि कोई सिर के बल मरा हो, नहीं तो फिर और कोई तरकीब खोजें।
लोगों ने कहा: सिर के बल! कभी सुना नहीं। सुना क्या, कभी सोचा भी नहीं। सपने में भी कल्पना नहीं आई।
तो बोकोजू ने कहा: यह ठीक रहा। अरे मरना भी तो कुछ अपने ढंग से मरना।
वह सिर के बल खड़ा हो गया शीर्षासन लगा कर। शिष्य देखते रहे। लगा कि वह तो मर गया। अब करना क्या? क्योंकि आदमी मर जाए तो उसकी अरथी बनानी पड़े। मगर यह शीर्षासन लगाए हुए खड़ा है आदमी, इसको शीर्षासन से उतारना कि नहीं उतारना, इसका कोई नियम नहीं, कोई पूर्व-उल्लेख नहीं, किस विधि का उपयोग करें? तभी किसी ने कहा: ऐसा करो कि इसकी बहिन भी...पास के ही आश्रम में इसकी बड़ी बहिन भिक्षुणी है, उसको बुला लो, उससे पूछा लो। उसकी बड़ी बहिन को बुलाया गया। उसकी बड़ी बहिन आई और उसने कहा: बोकोजू, शर्म नहीं आती? तुम मरते वक्त भी अपनी शरारतों से बाज न आओगे! जिंदगी भर तुम कुछ न कुछ शरारत करते रहे। अब बाज आओ! ढंग से मरो!
और बोकोजू हंसा और शीर्षासन छोड़ कर बैठ गया। उसने कहा कि मेरी बहिन को कौन बुला कर लाया? यह मुझे अपने ढंग से न मरने देगी। अब यह बड़ी बहिन है तो इसकी माननी पड़ेगी। कहा: तेरा क्या इरादा है?
उन्होंने कहा: जिस ढंग से आमतौर से लोग मरते हैं, ऐसे मरो। लेटो बिस्तर पर! वह लेट कर मर गया। बिलकुल आज्ञाकारी बच्चे की तरह!
यह आदमी प्यारा रहा होगा, इसकी बहिन भी अदभुत रही होगी। जब वह मर गया तो उसकी बहिन ने कहा: अब मैं जाऊं, अब तुम निपटो। अब जो तुम्हें करना हो अंतिम संस्कार, वह तुम कर लो।
जिन्होंने स्वयं को जाना है, उनके लिए तो मृत्यु भी खेल है, इससे ज्यादा नहीं। जीवन भी एक खेल है, मृत्यु भी एक खेल है। एक नाटक--एक प्यारा नाटक! मगर अभिनय से ज्यादा नहीं। उनके लिए तो सब मजाक है। सूली लगे कि सिंहासन, कोई भेद नहीं पड़ता।
जीवन को तुम अभिनय से देख सको, इसको ही तो मैं संन्यास कहता हूं।
तुम्हें मैं सब पाठ दे जाना चाहता हूं। तुम्हें जिंदगी भी सिखाऊंगा, तुम्हें मौत भी सिखाऊंगा। तुम्हें जी कर भी बताऊंगा, तुम्हें मर कर भी बताऊंगा--कि यूं! तभी तो शिक्षा पूरी होगी।
नाटक देखने जाते हो न! एक तो नाटक होता है परदे के बाहर और एक नाटक चलता रहता है परदे के पीछे। वह ज्यादा असली होता है, जो परदे के पीछे चलता है। जो परदे के बाहर होता है, वह तो केवल अभिनय होता है। कोई राम बना है, कोई रावण बना है, कोई सीता, कोई हनुमान।
एक गांव में एक नाटक-कंपनी रामलीला कर रही थी। सीता-स्वयंवर में गलती से आसानी से टूट जाने वाले धनुष के बदले लक्ष्मण जी का धनुष आ गया। जब राम उसे तोड़ने लगे तो टूटे ही न। अहम-अहम...पसीना कर-कर के थक गए, मगर धनुष टूटे ही न। ऐसी की तैसी इस धनुष की, उनके मुंह से निकल गया। जनता तो बहुत हंसने लगी कि ऐसा तो रामलीला में कभी देखा नहीं कि रामचंद्र जी और ऐसी बात बोलें! कहीं उल्लेख नहीं। बूढ़े जनक मामला भांप गए। उन्होंने राम को हिम्मत देते हुए कहा: रामचंद्र जी, थोड़ी और ताकत लगाओ, और लक्ष्मण, आप भी राम का सहयोग दो। देखा, यह एक आदमी से टूटने वाला नहीं है। राम जी थोड़ा प्रयत्न करें, परदे की तरफ देख कर मैनेजर को गाली दें कि हरामजादे ने खूब फंसाया, कि मिल जाए उल्लू का पट्ठा तो मजा चखा दूं! जनता बड़ी हैरान कि यह कैसी रामलीला हो रही है! ऐसी तो कभी हुई नहीं। जो सो गए थे, वे भी जग आए।
रामलीला में अक्सर लोग सोते हैं, और करेंगे भी क्या? सब उनको पता ही है जो होना है। मगर इस बार तो कुछ नया हो रहा था। बच्चे किलकारियां मार रहे, लोग खड़े होकर देखने लगे। स्त्रियों ने तो मुंह में अपने-अपने आंचल दबा लिए कि अब करना क्या! यह हो क्या रहा है! न बाबा तुलसीदास ने ऐसा लिखा, न बाल्मीकि जी लिख गए। यह तो कोई नये ढंग की ही रामलीला हो रही है। आखिर अपनी सब ताकत रामजी ने धनुष पर लगा दी। धनुष तो टूटा, मगर वे खुद भी जा गिरे जहां रावण बैठा था, उसके चरणों में। मुकुट-वुकुट टूट गया, धोती निकल गई और खोपड़ी से खून बहने लगा, आंखों में आंसू आ गए। और ऐसी ही अवस्था में सीता ने उन्हें वरमाला पहना दी।
रामलीला आगे चली। कुछ लोगों ने बंदर का परिधान पहना था, उसमें एक असली बंदर भी जा मिला। लंका जीतने के लिए जो युद्ध होने वाला था, उसके लिए एक परदे पर लंका का चित्र तैयार किया गया था। असली बंदर ने उस परदे की रस्सी खींच दी और परदा ऊपर उठ गया। अब असली बंदर को क्या पता कि क्या करना है और क्या नहीं करना है! नकली बंदर होता तो नियम से चलता। असली बंदर को क्या मालूम कि यहां क्या हो रहा है! वह तो बंदरों की भीड़ देख कर समझा कि बंदर हैं, सो वह भी वहां पहुंच गया। परदा ऊपर उठा, क्या तालियां पिटीं! तालियां पिटती ही रहीं, सारी जनता खड़ी हो गई। क्योंकि परदे के पीछे नाटक कंपनी का चौका था, वह दिखने लगा। वहां जो आदमी मंदोदरी बना था, वह बीड़ी पी रहा था। सीता और लक्ष्मण एक-दूसरे के गले मिल रहे थे। रावण और जनक एक ही थाली में भोजन कर रहे थे। और हनुमान जो कि गांव के पहलवान और रसोइया थे; कंधे पर अंगोछा डाले चूल्हे पर चढ़ी दाल हिला रहे थे। और उनके एक हाथ में बियर की बोतल थी। इन सबके बीच भरत जी, जो कि प्रांपटर का काम कर रहे थे, वे रामायण की किताब लिए खड़े थे। जैसे ही परदा खुल गया, सब जनता के सामने आ गए। अपनी-अपनी थाली लेकर भागे और जनता ताली पीट रही। मगर हनुमान जी की पूंछ कहीं अटक गई, सो वे भाग नहीं पाए। उनकी दशा बड़ी बुरी हो गई। रामचंद्र जी, जो कि हक्के-बक्के रह गए थे, वे समझ नहीं पा रहे थे कि अब क्या करें। उनकी कमान से जो तीर चढ़ा हुआ था, वह छूट गया और छज्जे पर लगी थालियों को जा लगा। सभी थालियां धड़ाम से नीचे! कुछ हनुमान के ऊपर, कुछ दाल में। बस हनुमान, जो कि गांव के पहलवान तो थे ही, बात उनके बरदाश्त के बाहर हो गई। एक तो पूंछ फंसी थी और ऊपर से थालियां गिर गईं। उन्होंने निकाली अपनी पूंछ और दे मारी राम के मुंह पर। राम भी भनभना गए। उन्होंने भी आव देखा न ताव, जोश में आकर हनुमान जी को एक तमाचा जड़ दिया। अब तो हनुमान ने अपना होश ही खो दिया और राम पर टूट पड़े। राम-रावण के युद्ध के बदले राम-हनुमान युद्ध छिड़ गया। मिनटों में राम चारों खाने चित्त। रसोइए को लाल-पीला देख कर सभी वानर सेना वाले भाग गए। राम और हनुमान के युद्ध में राम पिटते रहे और सीता खड़ी हंसती रहीं। और बेचारी करतीं भी क्या!
यह तब तक चला जब तक रावण ने बचाव नहीं किया राम का और किसी तरह हनुमान को अलग नहीं किया। हनुमान जी जाते-जाते कहते गए कि हरामजादे, अभी जाता हूं, लेकिन दिखाऊंगा मजा! और जाते-जाते सीता मैया को चोटी से घसीटते हुए अपने घर की तरफ ले गए। ऐसे रामलीला की पूर्णाहुति हुई।
एक तो परदे के बाहर खेल चलता है, एक परदे के पीछे। परदे के बाहर का ही तुमने खेल देखा तो जिंदगी का असली खेल नहीं देखा। तुम्हारे भीतर भी एक जगत है और तुम्हारे बाहर भी एक जगत है। बाहर के जगत में जन्म होता है, मौत होती है, बीमारियां आती हैं, बुढ़ापा आता है, हजारों घटनाएं घटती हैं। भीतर के जगत में कुछ भी नहीं--सन्नाटा है, शून्य है। भीतर के जगत में सिर्फ साक्षीभाव है।
संन्यासी भीतर के साक्षी-भाव में जीता है। बाहर जो भी होता है, देखता रहता है; जैसा भी होता है, देखता रहता है।
रामदयाल, जो भी हो बाहर, उसे साक्षीभाव से देखना सीखो। ऐसी तो बहुत घटनाएं घटेंगी। इन सबको तुम्हें साक्षीभाव से देखना चाहिए। इनसे चिंतित, बेचैन, परेशान नहीं होना है।
तुम कहते हो: ‘या फिर संन्यास को अधिक मुश्किल बनावें।’
संन्यास को जितना मुश्किल बनाया जा सकता है, मैंने उतना मुश्किल बनाया है। आमतौर से लोगों की धारणा यह है कि मैंने संन्यास को सरल बना दिया है। वह धारणा बिलकुल गलत है। संन्यास सरल था। भगोड़ापन हमेशा सरल होता है। युद्ध से भाग जाने में कौन सी कठिनाई है, कौन-सी बुद्धिमत्ता है! युद्ध से जो भाग जाता है--यह तो सबसे सरल काम है--वह डरपोक है, इसीलिए तो भाग जाता है; कायर है, इसीलिए तो भाग जाता है। रण-युद्ध से भागे हुए आदमी को हम कायर कहते हैं और जीवन के इस युद्ध से भागे हुए आदमी को अब तक हम संन्यासी कहते रहे! वह भी भगोड़ा है, संन्यासी नहीं।
इन भगोड़ों की लंबी जमात ने तुम्हें एक संन्यास की गलत धारणा दे दी। और तुम सोचते हो कि वह कोई कठिन काम कर रहा है! तुम
बिलकुल गलती में हो। कोई अपनी पत्नी को छोड़ कर भाग जाता है, तुम सोचते हो वह कठिन काम कर रहा है! कौन अपनी पत्नी को नहीं छोड़ कर भागना चाहता? बहादुर जमे रहते हैं, नहीं भागते; कमजोर भाग खड़े होते हैं। पत्नियों से तो कोई भी परेशान हो जाता है।
स्त्रियों में भी हिम्मत हो तो वे भी भागें। वे भी परेशान हैं, मगर उनमें उतनी भी हिम्मत नहीं है। भागने लायक भी हिम्मत नहीं है। भागने के लिए भी थोड़ी सी तो हिम्मत चाहिए। पीठ दिखाने के लिए भी थोड़ी सी हिम्मत चाहिए ही। आखिर चलना तो पड़ेगा, दौड़ना तो पड़ेगा।
स्त्रियों ने बहुत संन्यास नहीं लिया। प्राचीन ढंग का संन्यास स्त्रियों में नहीं फैला। इसलिए लोग मुझसे पूछते हैं कि स्त्रियों में बुद्ध और महावीर और कृष्ण और मोहम्मद और जीसस जैसी महिलाएं क्यों नहीं हुईं? पुराने ढंग का संन्यास स्त्रियों में नहीं फैला। उसका कारण था। वे टिकी रहीं, वे जमी रहीं। लेकिन पुरुष तो भाग गए। टिकने की तो हिम्मत नहीं थी उनमें, लेकिन भागने योग्य हिम्मत उन्होंने जुटा ली।
यह भगोड़ों की जो कतार है, इसको तुमने अब तक समझा है कठिन बात। कोई दिन में एक बार भोजन करता है तो तुम सोचते हो बड़ा कठिन कार्य कर रहा है। आत्महत्या कोई बहुत कठिन बात नहीं है, फिर वह शीघ्रता से की जाए कि आहिस्ता-आहिस्ता की जाए। सच तो यह है, जैसे दूसरे को सताने में रस आता है, ऐसा ही अपने को सताने में भी रस आता है।
सिगमंड फ्रायड की बड़ी से बड़ी खोजों में एक खोज यह भी है कि आदमी में दो तरह की वासनाएं हैं--मूल वासनाएं। एक को वह कहता है: जीवेषणा, इरोस। और दूसरी को वह कहता है: थानाटोस, मृत्यु की आकांक्षा। वह कहता है: पैंतीस साल की उम्र तक पहली आकांक्षा प्रबल होती है और पैंतीस साल के बाद पहली आकांक्षा निर्बल होने लगती है, जीवेषणा निर्बल होने लगती है और दूसरी आकांक्षा प्रबल होने लगती है। इसलिए ठीक ही शायद हिंदुओं ने हिसाब बांध रखा था कि पचास साल की उम्र में वानप्रस्थ हो जाना और पचहत्तर साल की उम्र में संन्यस्त हो जाना। क्योंकि जैसे-जैसे मौत करीब आती है, अगर आदमी सौ साल जीए तो पचहत्तर साल की उम्र में अपने आप ही इतना ऊब चुका होगा संसार से, इस बुरी तरह ऊब चुका होगा कि छूट ही जाना चाहेगा। इसमें कुछ बहुत बुद्धिमत्ता की या बहुत साधना की जरूरत नहीं पड़ेगी।
रंजन ने पूछा है कि मैं अपने पति से ऊब गई हूं। कौन नहीं ऊब जाता! और उसने पूछा है कि पति से ऊब तो गई हूं, लेकिन अब एक सरदारजी के प्रेम में पड़ गई हूं!
रंजन, यह गजब का काम है, यह तू कर ही गुजर। इससे तेरा आवागमन से छुटकारा हो जाएगा। क्योंकि रंजन है गुजराती--गुजराती बहिन। और सरदारजी मिल जाएं प्रेमी, तो सरदारजी का जो होगा सो होगा, मगर गुजराती बहिन का आवागमन से छुटकारा पक्का है। सरदारजी ऐसा सताएंगे तुझे कि जीवन से तेरा जो कुछ भी लाग-लगाव होगा, अपने आप छूट जाएगा। सरदारजी ऐसे तुझ पर टूटेंगे--वाहे गुरुजी की फतह, वाहे गुरुजी का खालसा!--कि फिर तू भूल कर भी कभी नहीं सोचेगी प्रेम इत्यादि की बात। तूने ठीक ही चुना। आवागमन से छूटने का इससे ज्यादा और कोई सुंदर उपाय नहीं है। तू भी देर मत कर, कूद ही जा। बोल सत सिरी अकाल! और कूद पड़। फिर अब जो होगा, देखा जाएगा। झंझट तो होगी बहुत। काम तो कठिन है। मगर भगोड़ेपन से बेहतर है। भगोड़ापन कोई कठिन काम नहीं है।
तुम कहते हो कि आप संन्यास को अधिक मुश्किल बनावें। मतलब? योगासन करवाऊं लोगों को, शीर्षासन करवाऊं कि तीन घंटे शीर्षासन करो, एक दफा भोजन करो, नमक न खाना, यह न पीना, तीन ही घंटे सोना, तीन बजे रात उठ आना, इस तरह उनको अपने आपको सताने की विधियां दूं? तो तुम पक्का समझो कि अभी मेरे पास जो लोग इकट्ठे हुए हैं, वे बुद्धिमान हैं; फिर जो इकट्ठे होंगे, जिन मूर्खों से तुम मुझे बचाना चाहते हो, वे ही वे इकट्ठे हो जाएंगे। फिर उनके सिवाय दूसरा इकट्ठा ही नहीं होगा। बुद्धिमान तो फिर नमस्कार कर लेंगे, वे कहेंगे, फिर हम चले। क्योंकि कोई बुद्धिमान आदमी क्यों अपने को तीन बजे रात उठाए, किस कारण? कोई दिमाग खराब हुआ है? पशु-पक्षी भी तीन बजे रात नहीं उठते। वे भी जब सूरज उगने लगता है, तब उठते हैं। हां, सूरज उगता है तब जीवन जगता है पृथ्वी पर, तब उठना चाहिए। वह सहज स्वाभाविक है। लेकिन कोई पशु-पक्षी रात देर तक जागता भी नहीं। इसमें कोई बड़ी खूबी नहीं है। पशु-पक्षी करें भी क्या जाग कर! न तो बिजली है उनके पास, न लालटेन हैं उनके पास, न घासलेट का तेल है उनके पास। आदमियों के पास नहीं है, उनके पास कहां से होगा! और अच्छा ही है कि घोड़े, गधे और भैंसे घासलेट का तेल नहीं मांगते, नहीं तो कतार में वे भी खड़े रहें। आदमी को तो फिर मिलना ही मुश्किल हो जाए। क्योंकि वे सींग भी मारें और आगे हो जाएं, कि हमें पहले लालटेन हमारी भरनी है। न रात को वे शास्त्र पढ़ें, न फिल्म देखें, न संगीत सुनें, न विवाह-उत्सव में सम्मिलित हों। शाम हुई कि बेचारे सोएं न तो करें क्या! अब शाम से ही जो सो जाएगा, तुम भी अगर शाम से ही सो जाओ, तो तीन बजे उठ ही आओगे। सोने की एक सीमा है।
आदमी अकेला है, जो सांझ को जागने की क्षमता रखता है; जो रात देर तक रात्रि के सन्नाटे का, मौन का उपयोग करता है। दिन में तो बहुत उपद्रव है, शोरगुल है। जिन्हें अध्ययन करना हो, मनन करना हो, ध्यान करना हो, चिंतन करना हो, उनके लिए रात्रि ही मौका है। तो अगर तुम देर तक जागोगे तो कभी यह भी हो सकता है कि थोड़ी देर तक सोए रहो। कुछ हर्ज नहीं है।
बुद्धिमान आदमी अपने जीवन को अपने ढंग से जमाता है, किसी की बंधी हुई लकीरों पर नहीं चलता।
अभी मेरे पास जो लोग इकट्ठे हुए हैं, वे नवनीत हैं। मूर्खों को मैं चाहता नहीं यहां। मूढ़ों को मैं यहां इकट्ठा करना नहीं चाहता। सिर के बल खड़े होने में तुम समझते हो कोई प्रतिभा की जरूरत है? कोई बुद्धि-अंक बहुत ऊंचा चाहिए सिर के बल खड़े होने के लिए? सिर के बल खड़े होने के लिए किसी बुद्धि-अंक होने की जरूरत नहीं है। गधे से गधा व्यक्ति भी सिर के बल खड़ा हो सकता है। असल में गधे से गधा ही खड़ा होगा। और इस तरह के लोग क्या नहीं कर सकते! वे क्या-क्या नहीं करते हैं! पंचामृत पीते हैं। पंचामृत में क्या-क्या चीजें होती है पता है? गऊ-माता का गोबर, गऊ-मूत्र, इस तरह की चीजों को अमृत कहते हैं। अगर मैं पंचामृत पिलाने लगूं तो तुम समझते हो बुद्धिमान आदमी मेरे पास इकट्ठे होंगे? गोबर-गणेश इकट्ठे होंगे।
कठिन तो बना दूं, लेकिन कठिन बनाने से सिर्फ बुद्धिमान हट जाएंगे। क्योंकि कठिनाई का मतलब क्या है--अपने को सताना किसी तरह से, अपने को परेशान करना। अपने को परेशान करने में प्रतिभा नहीं चाहिए।
मैंने किसी और गहराई में संन्यास को कठिन बनाया है। वह गहराई यह है कि मैं चाहता हूं तुम जीवन की चुनौती में साक्षीपूर्वक जीओ, अभिनय सीखो।
मुझसे एक अभिनेता ने पूछा कि अभिनय की कला के संबंध में आपका क्या कहना है? तो मैंने उससे कहा कि अभिनय की कला का सार-सूत्र है: इस तरह अभिनय करो कि जैसे यह सच्चा जीवन है और सच्चे जीवन का यह सार-सूत्र है कि इस तरह जीओ, जैसे यह अभिनय है।
जो अभिनेता अभिनय कर सके इतनी कुशलता से कि लगे कि सच्चा जीवन है, वह कुशल अभिनेता है। और जो व्यक्ति इस तरह जी सके जीवन को कि जैसे अभिनय है, पानी पर खींची गई लकीर, वही संन्यासी है।
मैं तुम्हें सिर्फ अभिनय की कला सिखाना चाहता हूं, और यह सबसे ज्यादा कठिन है। कठिन है, क्योंकि यह सबसे ज्यादा बुद्धिमत्ता की मांग करेगा।
तो तुम्हारे हिसाब से मैं कठिन नहीं बना सकता कि उपवास सिखाऊं, अनशन सिखाऊं, तुम्हें अपने को सताना सिखाऊं। वह सब तो चल रहा है सारी दुनिया में। मैं एक नये संन्यास का सूत्रपात कर रहा हूं। इसीलिए तो बेचैनी है। इसलिए हिंदू नाराज हैं, जैन नाराज हैं, मुसलमान नाराज हैं। जिनकी बंधी हुई धारणाएं हैं, वे सभी नाराज हैं। मुझसे राजी केवल वे ही हो सकते हैं, जो इतने विचारशील हैं कि बंधी हुई धारणाओं के पार उठ सकें; जो बंधी हुई धारणाओं का अतिक्रमण कर सकें।
और तुम कहते हो: ‘ये सारे सुझाव इसलिए, ताकि सत्य पर कोई भी प्रहार विफल रहे।’
सत्य पर सभी प्रहार हमेशा विफल रहे हैं। उस संबंध में निश्चिंत रहो। सत्य को सभी प्रहार और भी ज्यादा निखार जाते हैं, और भी उसकी जड़ें जमा जाते हैं। तुम अपनी आंखों से यह होते देखोगे। अभी तक तुमने कहानियां सुनी थीं। सुकरात तुम्हारे लिए कहानी हैं और जीसस भी तुम्हारे लिए कहानी हैं और अलहिल्लाज मंसूर भी तुम्हारे लिए कहानी हैं। अब तुम अपनी आंखों के सामने मेरे साथ जीकर इन कहानियों का अर्थ समझोगे। तुम अलहिल्लाज को फिर अपने बीच पाओगे। फिर जीसस को अपने बीच उठते-बैठते हुआ पाओगे। फिर तुम सुकरात के सत्य सुनोगे। और तुम देखोगे कि सत्य पर कैसी धार आती है, सत्य कैसे निखरता है, सत्य का सूर्य कैसे उदय होता है! कोई चीज कभी सत्य को विफल नहीं कर पाई है। अब तक जो नहीं हुआ, वह आज भी नहीं हो सकता है और आगे भी नहीं हो सकता है! एस धम्मो सनंतनो!
दूसरा प्रश्न:
भगवान, बाईस तारीख को हुई घटना से गत स्मृतियां तीव्रता से याद आ रही हैं। पूना से कल्याण आपको रेल पर छोड़ने जा रहे थे, अचानक खपोली गांव के चौराहे पर हमारी कार पर ट्रक जोर से आकर टकरा गया। कार के शीशे पूरी तरह से टुकड़े-टुकड़े होकर आप पर गिर गए। कुछ क्षण लगा आप बुरी तरह से घायल हुए हैं, परंतु आपको और साथ में हम लोगों को कुछ भी लगा नहीं। नासिक से पुंगलिया जी की कार में उनके साथ आप प्रवचन के लिए पूना आ रहे थे। रास्ते में कार तीन-चार पलटी खाकर गड्ढे में गिर गई थी। ऐसी हालत में सबको काफी लग सकता था, फिर भी आपको और साथ वालों को कोई भी चोट नहीं लगी। बंबई, वुडलैंड में आपके ऊपर हमला करने का असफल प्रयास हुआ था। लाओत्से हाल की छत बुरी तरह से गिर गई थी, कुछ घंटे बाद ही वहां आपका प्रवचन होने वाला था। क्या होता, उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। फिर भी किसी तरह का शारीरिक नुकसान किसी को भी नहीं हुआ। दो दिन पूर्व आपके ऊपर छुरी फेंकी गई। सभा में बैठे हुए कितने श्रोताओं के ऊपर से छुरी चली थी, फिर भी किसी को कुछ नुकसान नहीं हुआ। यह बड़ा चमत्कार है। आप तो बचते ही हैं और साथ वालों को भी आप बचाते हैं! चमत्कार के प्रचलित अर्थ में हम यह चमत्कार मानते नहीं। लेकिन इन घटनाओं से कुछ राज जरूर प्रतीत होता है। आप इस पर कुछ प्रकाश डालें, ऐसी इच्छा है।
योग माणिक! अस्तित्व पर श्रद्धा हो, तो अस्तित्व सुरक्षा है। फिर जो भी होता है, शुभ है।
सूफी फकीर जुन्नैद एक रास्ते से गुजर रहा था। उसके पैर में एक पत्थर की चोट लग गई। जुन्नैद की आदत थी, वह हमेशा आकाश की तरफ देख कर चलता था। जैसे सदा-सदा वह जो दूर अज्ञात है, उसकी पुकार उसे सुनाई पड़ती रहती थी। जुन्नैद अदभुत सूफी फकीरों में एक है। अलहिल्लाज मंसूर का गुरु था। उसके पैर में चोट लग गई पत्थर की। नुकीली धार वाला पत्थर सड़क पर पड़ा था। पैर लहूलुहान हो गया। जुन्नैद झुका--घुटने के बल बैठ कर। उसकी आंखों से आनंद के आंसू बहने लगे। वह परमात्मा को धन्यवाद देने लगा कि हे प्रभु, तेरा कितना धन्यवाद करूं! जितना धन्यवाद करूं, वही थोड़ा है!
उसके शिष्य तो बड़े हैरान हुए। उन्होंने कहा कि हमें इसमें धन्यवाद करने जैसी कोई बात दिखाई पड़ती नहीं है। हां, अगर परमात्मा तुम्हें बचा लेता और पैर में चोट न लगी होती, तो भी हम सोचते कि धन्यवाद देने की कोई बात है! मगर पैर लहूलुहान हो गया है, फिर भी तुम धन्यवाद दे रहे हो! इसमें धन्यवाद देने का क्या कारण है?
जुन्नैद ने कहा: पागलो, तुम्हें पता नहीं। लगनी तो चाहिए थी मुझे सूली, लेकिन उसकी अनुकंपा के कारण केवल पैर में चोट लगी और सूली टल गई।
और यह बात सच थी, क्योंकि जुन्नैद जिस राजधानी को छोड़ कर आया था, उसके छोड़ने के घड़ी भर बाद ही, जिस सराय में वह ठहरा हुआ था, उसे पुलिस ने घेर लिया था। उस राजधानी का जो बादशाह था, वह जरा सी देर से पहुंचा था। वह जुन्नैद को पकड़ कर मार डालना चाहता था। कारण यह था कि जुन्नैद ऐसी बातें कहता था, जो नासमझों को लगती थीं कि कुरान के खिलाफ हैं। नासमझों को हमेशा यह लगता है। नासमझों को यह भ्रांति होती है कि वे समझते हैं कि कुरान में क्या है। जुन्नैद जैसा आदमी उन्हें गलत लग सकता है, क्योंकि जुन्नैद कुरान को जीता है। उसकी व्याख्या जीवंत है। उसकी व्याख्या शाब्दिक नहीं है।
यह तो पीछे पता चला शिष्यों को कि जुन्नैद ठीक कह रहा था। लग तो गई होती फांसी, लेकिन सिर्फ पैर में चोट लगने से बच गया।
लेकिन यह भी कुछ बात नहीं। एक बार जुन्नैद काबा की यात्रा को निकला। उसकी आदत ही थी कि रोज धन्यवाद देता; पांच बार नमाज पढ़ता तो पांच बार परमात्मा को धन्यवाद देता कि हे प्रभु, तेरी बड़ी कृपा है, तू हमारी कितनी फिकर करता है! हर बात की फिकर! इतनी बड़ी दुनिया चलाता है और मुझ गरीब की भी चिंता रखता है! कैसा तेरा प्रेम है, कि मुझे भूलता नहीं क्षण भर को! मैं भला तुझे भूल जाऊं, मगर तू नहीं भूलता!
उस यात्रा में ऐसा मौका आया कि तीन दिन तक किसी गांव में शरण न मिली।
जिस गांव में भी गया, उस गांव के लोगों ने कहा कि भाग जाओ, इस गांव में जगह नहीं मिलेगी। चुस्त दकियानूसी लोगों के गांव थे। सूफियों को तो वे बगावती समझते थे, भ्रष्ट समझते थे। जैसे मेरे संन्यासी, इस तरह सूफियों को वे समझते थे। रोटी नहीं मिली, पानी पीने को नहीं मिला, तीन दिन तक प्यासे-भूखे, थके-मांदे, सोने को जगह नहीं, रेगिस्तान में पड़े थे। मगर तीसरे दिन भी सांझ जब वह प्रार्थना कर रहा था तो तारों से भरे आकाश की तरफ उसके हाथ उठे थे और वह कह रहा था: हे प्रभु! आनंद के आंसू बह रहे थे। तेरा धन्यवाद, तू हमारी कितनी फिकर करता है!
शिष्यों से नहीं रहा गया। एक ने उसे बीच में हिला कर कहा कि बस, अब बंद करो। किसको धन्यवाद दे रहे हो? तीन दिन से भूखे, न रोटी न पानी, ठहरने की जगह नहीं। अभी भी तुम यह कह रहे हो, यही कहे चले जा रहे हो, कि हे परमात्मा, तेरा धन्यवाद, तू हमारी कितनी फिकर करता है!
जुन्नैद ने कहा: नासमझो, तुम्हें पता नहीं, हमारी जो जरूरत होती है, वही हमें देता है। यही हमारी जरूरत थी अभी कि तीन दिन तक हम भूखे रहें और तीन दिन तक हमें पानी न मिले और तीन दिन तक हमें अपमान सहना पड़ा। यही हमारी जरूरत थी। जो हमारी जरूरत है, वह पूरी करता है। यूं समझो कि वह जो करता है, वही हमारी जरूरत है। इन दोनों में कोई भेद नहीं है।
योग माणिक, चमत्कार कुछ भी नहीं। सीधा-सीधा राज है, खुला हुआ राज है। छिपा हुआ इसमें कुछ भी नहीं। जो उसकी मर्जी! जो इस परिपूर्ण अस्तित्व की मर्जी, वही होगा। जब तक वह जिलाना चाहता है, जब तक उसे जरूरत है कि इस बांसुरी से गीत गाए, यह बांसुरी बनी रहेगी। जिस दिन जरूरत नहीं है, उस दिन यह बांसुरी टूट जाएगी। उस दिन लाख बचाने के उपाय कारगर न होंगे। और तब तक, जब तक कि वह चाहता है--ये गीत चलें, यह नृत्य उठे, ये स्वर गूंजें, यह वीणा बजती रहे--तब तक लाख तोड़ने के उपाय हों तो भी कुछ टूटेगा नहीं।
मुझे याद है भलीभांति, जिन घटनाओं का तुमने स्मरण दिलाया है। ट्रक आकर कार से टकरा गया था और सारा कांच चकनाचूर होकर मेरे ऊपर गिरा था। मुझे भी क्षण भर को लगा था...इस तरह कांच को चकनाचूर होते भी मैंने कभी नहीं देखा था। बिलकुल जैसे धूल हो गया कांच! मेरे बालों में भर गया था, मेरी आंखों में भर गया था, सारे शरीर पर कांच ही कांच हो गया था। मैंने भी सोचा था कि आंख में तो कम से कम चोट पहुंच ही सकती है। मगर मैं भी चकित हुआ था, कहीं कोई खरोंच भी नहीं आई थी। आंख में एक जरा सा धूल का कण भी चला जाता है तो भी आंख लाल हो जाती है। मगर कांच के टुकड़े भी गए थे तो भी आंख लाल नहीं हुई थी। उसकी मर्जी थी। कुछ काम उसे लेना था।
और नासिक से पूना आते समय तो घटना बहुत ही खतरनाक थी। कार एक सूखी हुई नदी में गिर पड़ी थी। तीन-चार बार तो उसने करवट लीं बीच में। और जब गिरी तो उलटी गिरी। चाक ऊपर। हम भी सब कार के भीतर दो-तीन दफे चक्कर खा गए। लेकिन बड़े आश्चर्य की बात थी और बड़े आनंद की भी, कि जब हम गिरे तो कार उलटी थी, मगर हम सब सीधे बैठे हुए थे। सीटें हमारे सिर पर पहुंच गई थीं। और उन सीटों के कारण सिर की भी रक्षा हो गई थी। नहीं तो सिर तो फूट ही जाते कम से कम। एक क्षण को तो ऐसा लगा था कि सबको खत्म हो जाना चाहिए, किसी के बचने की कोई उम्मीद नहीं होनी चाहिए। कार तो बिलकुल पिचक गई थी। कार को तो वहीं छोड़ देना पड़ा। कार तो बिलकुल चकनाचूर हो गई थी। कार में तो कुछ बचा नहीं था।
थोड़ी देर तो सब चुप ही बैठे रहे, क्योंकि समझा कि मामला खत्म ही है, अब बोलना-बालना क्या है! फिर मुझे ही पुंगलिया जी से कहना पड़ा कि पुंगलिया जी, अब हम बाहर निकलें। लगता है जिंदा हैं! बाहर निकले तो सोचते थे कि चोट आई होगी, मगर खरोंच भी नहीं लगी थी। पुंगलिया जी तो बेचारे दौड़-धूप में लग गए कि अब दूसरी कार का इंतजाम करना। माणिक बाबू को फोन किया कि तुम दूसरी गाड़ी लेकर आओ। और मैं आराम से एक घर में जाकर सो गया। अब और करने को क्या बचा था! जब तक उन्होंने भाग-दौड़ की, दूसरी गाड़ी आई, तब तक मैं आराम से सो लिया। दोपहर मुझे सोने की आदत है, वह मैं छोड़ता नहीं। मैं अपनी आदतों से बाज नहीं आता। मैंने कहा, जब बच ही गए तो अब सो लेना चाहिए। या तो सो ही गए होते, तो फिर जरूरत ही नहीं थी अलग से सोने की; और अब बच ही गए तो अब सोना छोड़ना ठीक नहीं।
कोई भी देखेगा तो उसको चमत्कार लगेगा, मगर कुछ चमत्कार की बात नहीं। एकबारगी हम अपने अहंकार को छोड़ कर अस्तित्व के साथ अपनी एकता स्वीकार कर लें, फिर अस्तित्व जाने। मैं इसी को आस्तिकता कहता हूं। बच गए तो ठीक, न बचे तो ठीक। कुछ ऐसा नहीं कि बच गए, इसलिए ही ठीक।
योग माणिक, यह खयाल रखना। यह मत सोचना कि बच गए, इसलिए ठीक। न बचते तो भी इतना ही ठीक।
अब यहां जो छुरा फेंका गया, वह अनेकों के सिर पर से गुजरा। वह मेरे सामने से गुजरता हुआ गया। यहां चैतन्य और गायन के बिलकुल दोनों के पैर के बीच में गिरा। गजब कर दी छुरे ने भी! बड़ा होशियार छुरा रहा; फेंकने वाले से तो ज्यादा ही होशियार रहा! नहीं तो यहां इतने लोग सघन होकर बैठे हुए हैं कि खाली जगह में गिरना, बड़ी बुद्धिमत्ता रही होगी छुरे की। मगर जमीन पर गिरा, खाली जगह पर गिरा। किसी को खरोंच भी नहीं आई।
मगर फिर भी इससे यह मत सोचना--इसलिए चमत्कार। अगर कोई मर भी जाता तो भी चमत्कार था। अगर मैं भी चल बसता तो भी चमत्कार था। चमत्कार में कुछ भेद नहीं पड़ता।
जिस दिन हम--जीवन में भी और मृत्यु में भी, सुख में भी और दुख में भी--समान भाव से परमात्मा का अनुग्रह स्वीकार करते हैं, उस दिन ही हम में आस्तिकता का जन्म होता है।
और यह तो आस्तिकों का जमाव है। यह तो महफिल है आस्तिकों की। तो यहां इस तरह की घटनाएं घटती रहेंगी, होती रहेंगी। छुरा जैसे फूल की तरह आया और गिर गया।
अक्सर ऐसा हो जाता है कि आदमी से कहीं ज्यादा समझदार छुरे होते हैं, क्योंकि छुरे न हिंदू होते, न मुसलमान होते, न ईसाई होते। छुरों को क्या फिकर कि किसका धर्म बचाना है और किसका नहीं बचाना है! छुरे तो बस छुरे हैं--निष्पक्ष, तटस्थ। छुरे को क्या लेना-देना!
बुद्ध के ऊपर किसी ने शिला सरका कर गिरा दी थी--पूरी चट्टान! वे नीचे ध्यान कर रहे हैं, पहाड़ी पर से किसी ने चट्टान सरका दी। कहते हैं वह चट्टान इस ढंग से सरकाई गई थी, नाप-जोख से सरकाई गई थी कि वह बुद्ध को अपनी चपेट में लेकर उनको पीस कर चली जाती। लेकिन पता नहीं क्या हुआ, चट्टान को क्या हुआ, कि वह ठीक बुद्ध के पास तक तो ठीक वैसी आई जैसी भेजने वालों ने कल्पना की थी और बुद्ध के पास से उसने एक मोड़ ले लिया। जरा सा मोड़! और बुद्ध को छोड़ कर फिर उसी पथ पर अग्रसर हो गई, जिस पर उसे जाना चाहिए था। जैसे चट्टान, चट्टान गिराने वालों से ज्यादा समझदार थी।
किसी ने बुद्ध के ऊपर पागल हाथी छोड़ दिया। वह पागल हाथी न मालूम कितने लोगों की हत्या कर चुका था। वह पागल हाथी आया और बुद्ध के चरणों में सिर झुका कर बैठा गया। जिन्होंने छोड़ा था, वे भी चकित हुए कि बात क्या हो गई! यह पागल हाथी को क्या हुआ! बुद्ध के शिष्यों ने बुद्ध से पूछा: इस पागल हाथी को क्या हुआ? यह तो पागल है।
उन्होंने कहा: यह भले पागल है, मगर आदमी थोड़े ही है। मतांध तो नहीं है। हाथी है, इसको कोई धर्मशास्त्र, वेद इत्यादि से कोई मोह नहीं है। जिन्होंने छोड़ा है, उनको वेद से मोह है। उनको है कि मैं वेद के विपरीत बोल रहा हूं, इसलिए मार डाला जाऊं। इस हाथी को क्या लेना वेद इत्यादि से! यह होगा पागल, मगर इतना पागल नहीं है जितना कि आदमी पागल हो सकता है।
खयाल रहे, आदमी जितना नीचे गिर सकता है, उतना दुनिया में कोई नीचे नहीं गिर सकता, क्योंकि आदमी जितना ऊंचा उठ सकता है, उतना कोई ऊंचा नहीं उठ सकता। आदमी पशुओं से बहुत नीचे जा सकता है और देवताओं से बहुत ऊपर। आदमी एक सीढ़ी है, जिसका एक छोर नरक में लगा है और दूसरा छोर स्वर्ग में लगा है। आदमी ही सिर्फ सीढ़ी है, बाकी सारे पशु जैसे हैं वैसे हैं। लेकिन आदमी एक सीढ़ी है।
आदमी विकासमान है, गतिमान है। वह नीचे गिर सकता है, ऊपर चढ़ सकता है। सीढ़ी एक ही है; उसी सीढ़ी से ऊपर जाया जाता है, उसी से नीचे जाया जाता है--सिर्फ दिशा का भेद होता है।
राज कोई छिपा हुआ राज नहीं है। राज खुला हुआ है। छोटा सा है। जैसे बूंद सागर में गिर जाए, तो फिर बूंद को अपनी चिंता क्या! फिर सागर ही हो गई। फिर सागर जाने; बचाना हो बचाए, न बचाना हो न बचाए। बचाए तो भी ठीक, न बचाए तो भी ठीक।
ऐसे ही, मैं नहीं हूं, सागर है। उस सागर को तुम परमात्मा कहो, मोक्ष कहो, निर्वाण कहो, बुद्धत्व कहो, जिनत्व कहो, जो भी तुम्हारी मर्जी हो, जो नाम देना हो। लेकिन इतना ही है कि बूंद अब नहीं है, सागर है। और जो मेरे साथ जुड़ रहे हैं, वे मेरे साथ नहीं जुड़ रहे हैं, क्योंकि मैं तो हूं ही नहीं। मैं तो सिर्फ बहाना हूं। वे मेरे बहाने सागर से ही जुड़ रहे हैं।
इसलिए बहुत चमत्कार होते रहेंगे। यही असली चमत्कार हैं। कोई हाथ से राख निकाल देना चमत्कार नहीं है, कि हाथ से घड़ियां प्रकट कर देना चमत्कार नहीं हैं। ये सब मदारीगीरियां हैं। ये सब मदारी हैं। ये सड़क-छाप मदारी हैं। ये सड़क के कोने-कोने पर जो मदारी खेल दिखाते हैं, उससे भिन्न इन खेलों में कुछ भी नहीं है। मगर ये जो चमत्कार अपने आप होते हैं...जो श्रद्धा के कारण होते हैं, जो आस्था के कारण होते हैं, यही असली चमत्कार हैं।
और इन चमत्कारों को अनुभव करने का जो भी तुम्हें मौका दे, उसका धन्यवाद करना। अब यह जो आदमी छुरा फेंक गया, यह तुम्हें एक मौका दे गया। इस पर नाराज मत होना। इससे मन में कोई दुर्भावना न लाना इसके प्रति। यह एक शुभ अवसर उपस्थित कर गया। यह नाहक अपने को झंझट में डाल गया और तुम्हारे लिए एक मौका दे गया। तुम्हारे लिए एक दर्शन का क्षण, एक झरोखा खोल गया।
योग माणिक, ऐसे बहुत झरोखे खुलेंगे। यही सत्संग है।
सत्संग इतना ही नहीं है, कि मैं कुछ कहूं, वह तुम सुनो। सत्संग के बहुत पहलू हैं, बहुत आयाम हैं। मैं जो नहीं कहूंगा, वह भी तुम सुन सकोगे। जो कभी नहीं कहा जा सकता, वह भी तुम सुन सकोगे। और जो घटेगा, वह भी तुम देख सकोगे। यहां रहस्य खुलेंगे। और रहस्यों के पीछे रहस्य छिपे हुए हैं। उनकी अनंत श्रृंखला है। इस सारी श्रृंखला की खोज ही तो संन्यास है। इस श्रृंखला की खोज का नाम ही तो धर्म है। एक सूत्र तुम्हारे हाथ में पकड़ आ जाए तो तुम इस अनंत यात्रा पर निकल जाओगे। किसी भी बहाने सूत्र को पकड़ लो और चल पड़ो।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, क्या भारत देश ब्रह्मज्ञानी नहीं है?
आत्मानंद ब्रह्मचारी! हो तो तुम भी हिम्मत के आदमी। मार मैं कितनी ही मारूं, मगर तुम भी टस से मस नहीं होते। तुम जमे हो अपनी जगह पर--बिलकुल थिर!
देश कहीं ब्रह्मज्ञानी होते हैं? और अगर ब्रह्मज्ञानी होते हों तो ब्रह्म-देश होगा। देश कैसे ब्रह्मज्ञानी हो सकते हैं? समाज ब्रह्मज्ञानी नहीं होते, समूह ब्रह्मज्ञानी नहीं होते। ब्रह्मज्ञान की घटना तो व्यक्ति के अंतस्तल में घटती है। हां, कोई बुद्ध, कोई महावीर, कोई कृष्ण, कोई गोरख, कबीर, नानक, दादू, मलूक, फरीद--व्यक्ति! लेकिन देश नहीं होते ब्रह्मज्ञानी। देश की कोई आत्मा होती है? देश है ही क्या? एक कोरा नाम मात्र है, एक संज्ञा मात्र है! किस चीज को भारत देश कहते हो? हिमालय? गंगा, यमुना, नर्मदा, गोदावरी, सतपुड़ा, विंध्याचल? जमीन? आकाश? किसको देश कहते हो?
आत्मा अगर अपने को अनुभव करे तो ब्रह्मज्ञान जल उठता है--दीये की लौ की तरह। मगर आत्मा तो व्यक्ति की संपदा है, समूह की नहीं। समूह से ज्यादा मूढ़तापूर्ण कृत्य और कोई नहीं करता। व्यक्ति कभी नहीं करता। भीड़ ने जितने पाप किए हैं दुनिया में, उतने किसी और ने नहीं किए। पाप करवाने हों तो भीड़ चाहिए--हिंदुओं की, मुसलमानों की, ईसाइयों की भीड़ चाहिए। भीड़ हो तो पाप करवाए जा सकते हैं, क्योंकि भीड़ का एक राज है: व्यक्ति को अपना उत्तरदायित्व अनुभव नहीं होता। अगर एक भीड़ मस्जिद को जला रही हो तो तुम भी जोश में आ जाते हो। तुम भी लग जाते हो मस्जिद को गिराने में, जलाने में। अगर तुमसे अकेला पूछा जाए कि क्या तुम अकेले यह काम कर सकते थे? तो शायद तुम्हारी छाती भी धड़केगी। शायद तुम्हारा अंतःकरण भी कचोटेगा। तुम कहोगे कि नहीं, अकेले तो मैं नहीं कर सकता था। क्यों? क्योंकि अकेले करते तो तुमको लगता कि मैं यह क्या कर रहा हूं! क्या यह उचित है? आखिर यह भी तो घर परमात्मा का है! आखिर यहां भी तो लोग प्रार्थना करने ही इकट्ठे होते हैं! यूं न करते होंगे प्रार्थना, यूं करते होंगे; मगर करते तो प्रार्थना ही हैं! याद तो उसी की है! नाम उसका नहीं होगा राम, तो अल्लाह होगा। लेकिन नाम तो सिर्फ इशारा है; वह तो अनाम है। किसी भी इशारे से पुकारो। मैं यह क्या कर रहा हूं!
व्यक्ति को अगर आग लगानी पड़े मंदिर में या मस्जिद में या किसी की छाती में छुरा भोंकना पड़े, सिर्फ इस कारण क्योंकि यह हिंदू है या मुसलमान है, तो चौंकेगा, सहमेगा, ठिठकेगा, हजार बार सोचेगा कि मैं यह क्या कर रहा हूं! यह उत्तरदायित्व मेरे ऊपर होगा! लेकिन जब भीड़ कोई पाप करती है तो भीड़ में तुम्हारा उत्तरदायित्व खो जाता है। तुम कहते हो: कोई मैं थोड़े ही कर रहा हूं! लोग तो आग लगा ही रहे थे, मैं साथ हो लिया, संग-साथ हो लिया। मैं न होता तो भी मस्जिद तो जलती, मंदिर तो गिरता, मूर्ति तो टूटती। मैं न भी होता तो भी आदमी तो मारे ही जाते। मेरे होने से मारे गए, यह तो कोई सवाल ही नहीं है। इसलिए मैं कहीं आता नहीं।
तुम निश्चिंत हो जाओगे। तुम्हारी कोई जिम्मेवारी नहीं है। इसलिए अच्छे-अच्छे नाम चाहिए पाप के लिए--देश, जाति, धर्म। ऊंचे-ऊंचे नारे चाहिए।
जिस आदमी ने हिरोशिमा पर एटम बम गिराया, एक लाख बीस हजार आदमी जल कर राख हो गए--एक आदमी के कृत्य से! तुम जरा सोचो कि तुमसे अगर कोई कहे कि एक लाख बीस हजार आदमी तुम्हारे कृत्य से जल कर राख हो जाएंगे, तुम कर सकोगे? करने के लिए बड़ा नाम चाहिए पड़ेगा--देश, मनुष्यता, शांति की रक्षा! उस आदमी से जब दूसरे दिन सुबह पूछा पत्रकारों ने कि तुम्हें रात नींद आई? उसने कहा: मैं बिलकुल आनंद से सोया। अपना कर्तव्य निभाया। आज्ञा का पालन किया। अपने देश की रक्षा के लिए जो करना चाहिए, वह किया। और यह देश की ही रक्षा नहीं है, यह दुनिया को युद्ध से बचाने का उपाय है। यह मनुष्य की रक्षा है, यह मनुष्यता मात्र की रक्षा है। ये दरिंदे हैं, ये राक्षस हैं।
इसलिए हर एक व्यक्ति अपने दुश्मन को राक्षस कहता है। कोई रावण राक्षस नहीं था। लेकिन राम के पक्ष में जिन्होंने किताबें लिखी हैं, वे रावण को राक्षस कहेंगे। दक्षिण में किताबें लिखी गई हैं, जिनमें रावण को महापुरुष कहा गया है। वे उसको राक्षस नहीं कहेंगे।
जब हिंदुस्तान और चीन में दोस्ती थी तो हिंदी-चीनी भाई-भाई! और जब चीन ने हमला किया तो चीनी राक्षस हो गए। हिंदुस्तान में कविताएं लिखी जाने लगीं कि चीनी जो हैं, राक्षस हैं। दुश्मन राक्षस हो जाता है। राक्षस क्यों? क्योंकि राक्षस कह कर उसको मारना आसान हो जाता है। आदमी कहोगे तो मारना मुश्किल होगा। राक्षस को मारने में क्या हर्जा है! अरे यह तो महापापी है, इसको मिटा दो! तो उतना ही पृथ्वी का भार कम हुआ!
अपने को अच्छे-अच्छे शब्दों की आड़ में खड़ा कर लो और दूसरे को बुरे-बुरे शब्दों से लाद दो, तो सुविधा हो जाती है, आसानी हो जाती है , बहुत आसानी हो जाती है।
आत्मानंद ब्रह्मचारी, देश इत्यादि की बातें, जाति और समूह की बातें, संप्रदाय की बातें--ब्रह्मज्ञानियों की बातें नहीं हैं। ब्रह्मज्ञान तो निजी घटना है।
एक स्कूल में एक ब्राह्मण पंडित विद्यार्थियों से पूछ रहा था: बताओ, भारत में कौन-कौन से मत प्रचलित हैं?
एक छात्र ने कहा: पंडित जी, कांग्रेस मत, जनता मत इत्यादि-इत्यादि।
पंडित जी गुस्से में आ गए। वे कहां धर्म की बात कर रहे हैं और यह कहां राजनीति की बात छेड़ रहा है! पंडित जी ने गुस्से में कहा: बको मत!
छात्र ने कहा कि पंडित जी, मैं भूल गया था, बको मत भी बहुत प्रचलित है।
भीड़ में तो बको मत रहता है, कहां ब्रह्मवाद!...बकवास! व्यर्थ की बकवास! लोग ईश्वर की चर्चा कर रहे हैं, आत्मा की चर्चा कर रहे हैं; जैसे कि उन्हें पता हो। पता उन्हें कुछ भी नहीं है, मगर शब्द सीख लिए हैं, तोतों की तरह दोहराए चले जा रहे हैं। किसी काम के वे शब्द नहीं हैं। उनके जीवन में उन शब्दों से कोई क्रांति नहीं होती। अगर तुम इन्हीं शब्दों को ब्रह्मज्ञान मानते हो, तब तो ठीक है, भारत ब्रह्मज्ञानी देश है; क्योंकि यहां जितनी ब्रह्मज्ञान की चर्चा होती है कहीं नहीं होती। और कुछ हमारे पास चर्चा को बचा भी नहीं है।
हर देश की अपनी-अपनी आदतें होती हैं, रिवाज होते हैं। जैसे इंग्लैंड में लोग हमेशा मौसम की चर्चा करते हैं। और कारण है उसका, क्योंकि मौसम एक ऐसा विषय है, जिसमें कोई ज्यादा वाद-विवाद की जरूरत नहीं है। अंग्रेज वाद-विवाद पसंद नहीं करते, अशिष्ट मानते हैं वाद-विवाद को, ऐसी कोई बात छेड़ना, जिसमें वाद-विवाद हो जाए। ये बिलकुल ही निर्विवाद सत्य हैं, जिनमें कोई विवाद का सवाल ही नहीं है। जैसे बादल घिरे हैं तो अंग्रेज कहेंगे: आज बहुत बादल घिरे हैं। स्वभावतः दूसरा भी कहेगा कि हां, आज बहुत बादल घिरे हैं, बड़ी उमस है, बड़ी बेचैनी अनुभव हो रही है। अब इसमें क्या विवाद करना है!
मुल्ला नसरुद्दीन अपने नाई से बाल बनवाने जाता है। बार-बार मैंने उसको देखा कि जब भी वह नाई से बाल बनवाता है, तो बस वह मौसम की ही बात करे--कि आज सूरज निकला हुआ है, बड़ा सुंदर सूरज! और कभी कहे कि आज वर्षा हो गई, खूब बूंदा-बांदी पड़ रही है, बड़ा आनंद आ रहा है! मैंने उससे पूछा: नसरुद्दीन, और तो तू कभी भी मौसम की चर्चा नहीं करता, मगर जब नाई से तू अपने बाल बनवाता है तो हमेशा मौसम की चर्चा करता है!
तो उसने कहा कि आप क्या समझते हैं, कि मैं पागल हूं, जिस आदमी के हाथ में उस्तरा हो और मेरी गर्दन पर उस्तरा लगाए हो, उससे क्या राजनीति या धर्म की बात छेडूं? आ जाए गुस्से में, नउए का बच्चा, क्या पता! छत्तीस गुणों का पूरा, मार दे जोर से! तो मौसम की चर्चा करता हूं, जिसमें कि कोई झगड़े-झांसे का सवाल ही नहीं है।
अंग्रेज मौसम की चर्चा करते हैं, जिसमें कोई वाद-विवाद नहीं है। एक तो वे चर्चा ही नहीं करते, जहां तक बने चर्चा ही नहीं करते। अगर दो अंग्रेज एक रेलगाड़ी के डिब्बे में बैठे हों तो घंटों बैठे रहेंगे बिना एक-दूसरे से बोले हुए, क्योंकि जब तक कोई तीसरा उनका परिचय न कराए, तब तक वे बोलें कैसे! बोलना असंभव। परिचय ही नहीं करवाया गया...तो चुपचाप बैठे रहेंगे, अपना-अपना अखबार पढ़ते रहेंगे।
दो भारतीय मिलेंगे तो ब्रह्मज्ञान छेड़ेंगे। यह भारतीय आदत, रिवाज। यह हमारी पुरानी लीक। इसका कोई मूल्य नहीं है--उतना ही मूल्य है, जितना मौसम की चर्चा का इंग्लैंड में, उतना ही ब्रह्मज्ञान की चर्चा का भारत में। दो भारतीय मिलेंगे तो फौरन वेदांत छिड़ जाएगा। और एक-दूसरे से बढ़-चढ़ कर बात करेंगे, क्योंकि जब वेदांत ही छिड़ा हो तो फिर किससे क्या पीछे रहना। लंबी मारेंगे। गपशप ही चल रही है, तो फिर क्या किसी से हारना! और ब्रह्मज्ञान का मामला ऐसा है, इसमें कुछ भी कहो, सभी ठीक है, क्योंकि न पक्ष में कोई प्रमाण है, न विपक्ष में कोई प्रमाण है, प्रमाण का तो कोई सवाल ही नहीं है।
एक राधास्वामी संप्रदाय को मानने वाले सज्जन मेरे पास आए और उन्होंने कहा कि आप अस्तित्व के कितने खंड मानते हैं? क्योंकि हमारे गुरु तो चौदह खंड मानते हैं और चौदहवां खंड का नाम है--सच्च खंड!
वे नक्शा भी लाए थे--चौदह खंड। और उन खंडों में जो उन्होंने दिखाया था, वह झगड़े-झांसे की बात है। क्योंकि उसमें मोहम्मद, मूसा, इत्यादि तो पांचवें खंड में हैं, अभी वहीं अटके हैं। जीसस, जरथुस्त्र जरा आगे गए हैं--छठवें खंड में। महावीर और बुद्ध और थोड़े आगे बढ़े हैं। बड़ी कृपा की उन्होंने--सातवें खंड में! फिर कबीर, नानक इत्यादि और थोड़े आगे बढ़ा दिए हैं--आठवें खंड में। मगर चौदहवें खंड तक उनके ही गुरु पहुंचे! सच्च खंड! वे मुझसे पूछने लगे: आप कितने खंड मानते हैं? हमारे गुरु के संबंध में आपका क्या खयाल है? क्या ये खंड सच हैं?
मैंने कहा: ये बिलकुल सच हैं, क्योंकि मैंने तुम्हारे गुरु को चौदहवें खंड में अटके देखा है।
तो उन्होंने कहा: आपका मतलब?
मैं पंद्रहवें खंड में हूं! महासच्च खंड!
आप कहते क्या हैं! यह तो कभी सुना नहीं।
मैंने कहा: तुम सुनोगे कैसे? तुम्हारे गुरु को ही पता नहीं था, तो तुम सुनोगे कैसे!
कहने लगे: नहीं-नहीं, ऐसा कैसे हो सकता है कि हमारे गुरु को पता न हो!
उनको पता कैसे होगा, जब वे चौदहवें में ही अटके हैं! जब तुम दूसरों को अटका रहे हो--किसी को सातवें में, किसी को आठवें में; जब तुमको यह अधिकार है अटकाने का--तो अब मैं भी क्या करूं, मैं पंद्रहवें में हूं!
तब से वे आए नहीं। ऐसे नाराज होकर गए हैं कि फिर नहीं लौटे। मैंने उनसे कहा भी कि कभी-कभी सत्संग को आ जाया करो। ऐसे तुम्हारे गुरु भी बहुत प्रार्थना करते हैं कि निकाल लो मुझे चौदहवें खंड से। कोशिश कर रहा हूं उनको भी निकालने की।
वे तो नाराज ही हो गए एकदम कि बात ही हमारे गुरु के खिलाफ हो गई! और दूसरे गुरुओं के खिलाफ जो कह रहे हैं, वह बिलकुल ठीक है। महावीर और बुद्ध को भी सातवें में अटकाए हुए हैं, चौदहवें तक भी नहीं पहुंचने देते। बड़ी कृपा की उन्होंने कबीर, नानक इत्यादि पर, कि उनको आठवें में चढ़ा दिया! तो मैंने कहा: तुम मेरा तो दयाभाव देखो कि तुम्हारे गुरु को चौदहवें तक चढ़ाया स्वीकार करता हूं। और मैं देख ही रहा हूं उनको कि चौदहवें में हैं। बिलकुल सच कहते हैं वे। अब उनको कोई चाहिए जो निकाले। मैं कोशिश करूंगा जितना बन सकेगा निकालने की, निकल आए तो ठीक। जोर से पकड़े हुए हैं चौदहवें खंड को, क्योंकि वे समझते हैं सच्च खंड आखिरी खंड है। सच्च खंड आखिरी कैसे हो सकता है, फिर महासच्च खंड का क्या होगा?
ब्रह्मज्ञान की ही बात करनी हो तो फिर जो दिल में आए बात करो--चौदहवां खंड बनाओ, सोलहवां बनाओ, अठारहवां बनाओ। मंदिरों में नक्शे लटके हुए हैं नरक के, स्वर्ग के। महावीर कहते थे एक नरक। उनका ही एक शिष्य, गोशाल, बगावती हो गया। बगावती यूं हो गया कि उसने देखा कि महावीरजो कहते हैं ब्रह्मज्ञान, यह तो मैं ही कह सकता हूं। कई दिन उनके साथ रहा, सब समझ लिया। उसने कहा कि ठीक है, ये बातें तो मैं ही कह सकता हूं। तो वह भी कहने लगा। उसमें उसने और जोड़ लीं बातें। वह कहने लगा: तीन नरक होते हैं और तीन स्वर्ग होते हैं। अब करोगे क्या? इसमें कुछ झगड़ा तो नहीं है। लोग उससे पूछते कि महावीर तो कहते हैं एक ही है, तो उसने कहा: उनको एक का ही पता है, एक का बताते हैं। आगे का उनको पता नहीं है।
संजय वेलट्ठीपुत्त को पता चला--वह भी एक ज्ञानी था--कि यह गोशाल कहता है तीन नरक हैं। उसने कहा: पागल है, अरे तीन से कहीं काम चला है! सात के बिना हो ही नहीं सकता। सात नरक हैं, सात स्वर्ग हैं।
और पूर्णकाश्यप एक और गुरु था उन दिनों का--कहना चाहिए गुरु घंटाल! आदमी प्यारा है, मुझे पसंद है वह। उसने कहा: क्या लगा रखी है बकवास छोटी-मोटी! अरे सात सौ नरक होते हैं और सात सौ स्वर्ग!
अब इसको अगर ब्रह्मज्ञान कहते हो तो तुम्हारी मौज, फिर तुम्हें जो दिल में आए छेड़ो। अपनी-अपनी मौज है। अपनी-अपनी उड़ान है। जितनी जिसकी कल्पना हो, उतने उड़े चले जाओ।
मगर कोई देश न तो ब्रह्मज्ञानी है, न रहा है, न कभी हो सकता है। यह अहंकार छोड़ो। देश वगैरह से ब्रह्मज्ञान का कोई संबंध नहीं है। ये सब अपने अहंकार को भरने के परोक्ष रास्ते हैं। अपनी आंखें ठीक करो। देश के पास आंखें होती ही नहीं, ठीक भी क्या करोगे! अब कोई कहने लगे कि देश की आंखों पर चश्मे चढ़ा दें, तो सबको ठीक दिखाई पड़ने लगेगा; मगर देश की आंखें ही नहीं हैं तो चश्मा कहां चढ़ाओगे! देश की अंतर्दृष्टि खोल दें! मगर अंतर्दृष्टि देश की है कहां? देश कोई व्यक्ति तो नहीं, आत्मा तो नहीं--संज्ञा मात्र है, थोथा शब्द मात्र है।
शब्दों से जरा सावधान रहो। शब्दों में मत उलझ जाओ।
बुढ़ापे में मुल्ला नसरुद्दीन की आंखें कमजोर हो गईं। जब उसे हाथी तक चूहे के बराबर दिखाई देने लगे तो वह अपने नेत्र-विशेषज्ञ से सलाह लेने पहुंचा। डॉक्टर ने आंखों की जांच की और एक काफी मोटे लेंसों वाला चश्मा नसरुद्दीन को पहना दिया। मुल्ला खुशी-खुशी बाहर आया। घर लौटते समय रास्ते में बाजार पड़ा, तो नसरुद्दीन ने सोचा: आज मुझे नई ज्योति मिली है, चलो इसी खुशी में बच्चों के लिए कुछ खिलौने ले चलूं? वह एक अंगूर की दुकान पर पहुंचा और पूछने लगा: क्यों भाईजान, ये फुग्गे किस भाव दिए?
लोग कभी-कभी अपनी आंख भी ठीक करते हैं तो जरूरत से ज्यादा ठीक कर लेते हैं। तो या तो उनको हाथी चूहा दिखाई पड़ता है, नहीं तो फिर चूहा हाथी दिखाई पड़ने लगता है। सम्यक दृष्टि--इसलिए बुद्ध ने कहा--सम-दृष्टि होनी चाहिए, ढंग की दृष्टि होनी चाहिए।
आदमी चाहता क्या है? एक बात चाहता है कि किसी तरह अपने अहंकार को नये-नये श्रृंगार दे दे, नये-नये आभूषण दे दे। तो मेरा देश महान! क्यों? क्योंकि आप, आत्मानंद ब्रह्मचारी, इस देश में पैदा हुए! महान न होता तो आप यहां पैदा ही क्यों होते? होना ही चाहिए महान! जब आप तक ने पैदा होने के लिए इसको चुना, तो यह महान होना ही चाहिए! यह अपने को ही महान कहने का परोक्ष ढंग है।
पेरिस विश्वविद्यालय में दर्शन शास्त्र का एक प्रधान अध्यापक था। उसने एक दिन घोषणा की अपने विद्यार्थियों के सामने कि मैं इस पृथ्वी का सबसे महान व्यक्ति हूं। विद्यार्थी भी चौंके। एक तो दर्शनशास्त्र के प्रधान अध्यापक...दर्शनशास्त्र की कौन कीमत करता है! विश्वविद्यालय में आखिरी दर्जे में दर्शनशास्त्र होता है। कौन पढ़ने जाता है! जिनको किन्हीं और विषयों में जगह नहीं मिलती, वे दर्शनशास्त्र पढ़ते हैं। भारत में तो आमतौर से लड़कियां पढ़ती हैं, क्योंकि विवाह ही करना है, एम.ए. होकर और तो कुछ करना नहीं है, तो नाहक क्यों उपद्रव में पड़ना! दर्शनशास्त्र ठीक। और फिर ब्रह्मज्ञान तो भारत के खून में ही है। कोई दर्शनशास्त्र में पढ़ने जाता नहीं है। सैकड़ों विश्वविद्यालयों में दर्शनशास्त्र के विभाग खाली पड़े हुए हैं। मगर इज्जत के लिए विश्वविद्यालय दर्शनशास्त्र का विभाग कायम रखते हैं, क्योंकि उसको हटाने में भी बेइज्जती होती है कि इसमें एक विभाग कम है।
और यह गरीब अध्यापक दर्शनशास्त्र का! हां, कोई गणित का अध्यापक कहता, कोई फिजिक्स का अध्यापक कहता। किसी ने एटम बम बनाया होता और वह कहता। यह इसने तो कुछ न बनाया, न कभी कुछ मिटाया। बस ऊंची-ऊंची बातें करता रहा हवाई। यह कह रहा है--मुझसे महान व्यक्ति कोई दुनिया में नहीं है! एक विद्यार्थी ने कहा कि आप तो दर्शन के अध्यापक हैं, क्या आप सिद्ध कर सकते हैं?
उसने कहा कि बिना सिद्ध करे मैं कोई बात कहता ही नहीं। तो सुनो! उसने फौरन नक्शा निकाला दुनिया का, बोर्ड पर टांगा और पूछा कि मैं तुमसे यह पूछता हूं: दुनिया में सबसे महान देश कौन है? स्वभावतः विद्यार्थियों ने कहा कि फ्रांस। और उसने पूछा: मैं तुमसे यह पूछता हूं, फ्रांस में सबसे बड़ा महान नगर कौन सा है?
उन्होंने कहा: पेरिस।
और तब उसने पूछा कि मैं तुमसे पूछता हूं, पेरिस में सबसे महान और पवित्रतम स्थल कौन सा है? उन्होंने कहा: स्वभावतः, जो सरस्वती का मंदिर है, विश्वविद्यालय।
तब वे घबड़ाए कि यह आदमी तो लिए जा रहा है धीरे-धीरे। तब उनको कुछ थोड़ी सी शंका होनी शुरू हुई। और तब उसने कहा कि ठीक, और इस विश्वविद्यालय में सबसे श्रेष्ठ विषय कौन सा है?
अब फांसी लगी लड़कों की! उन्होंने कहा कि अब लग गई फांसी, क्योंकि हम सब दर्शनशास्त्र के विद्यार्थी हैं, तो हमको तो कहना ही पड़ेगा कि दर्शनशास्त्र। तो उन्होंने कहा: दर्शनशास्त्र।
तो उसने कहा: अब कुछ सिद्ध करने को बचा है? और मैं दर्शनशास्त्र का प्रधान अध्यापक, मैं इस दुनिया का सबसे महान व्यक्ति हूं! यह सिद्ध हो गया। और क्या सिद्ध करने लिए चाहिए?
भारत ब्रह्मज्ञानी है! यहां देवता पैदा होने को तरसते हैं! शक्कर मिलती नहीं, देवता पैदा होने को तरसते हैं! तो उनसे कह देना देवताओं से कि शक्कर साथ लेते आएं। घासलेट का तेल मिलता नहीं, तो कह देना उनसे कि घासलेट के तेल के पीपे साथ लेते आएं। तरसते हो, वह तो ठीक है। तरसते हो तो आओ भैया, वैसे ही भीड़-भाड़ है, और थोड़ी भीड़-भाड़ हो जाएगी। मजे से आओ, स्वागत है। अरे अतिथि तक को देवता कहते हैं, जब देवता ही अतिथि होना चाहे तो अब क्या करें! मगर कुछ चीजें लेते आना। रहने के लिए थोड़ी जगह ले आना, मकान ले आना, सामान ले आना, कुछ फर्नीचर ले आना।
देवता तरसते हैं यहां पैदा होने को! किस कारण तरसते होंगे--या तो पागल हो गए हैं या सोमरस ज्यादा पी गए हैं, बात क्या है! भांग चढ़ा गए हैं। भारत में पैदा होने को तरसते हैं, कोई और जगह नहीं मिलती पैदा होने को!
मगर भारतीय मन को, भारतीय अहंकार को तृप्ति मिलती है--यहां देवता पैदा होने को तरसते हैं! यह पुण्य-भूमि है! यह ब्रह्मज्ञानियों का देश है!
यह पागलपन छोड़ो। तुम्हीं ब्रह्मज्ञानी हो जाओ, यही पर्याप्त है। इन व्यर्थ की बातों में समय न गंवाओ।
मुल्ला नसरुद्दीन को चार महीने से कान में भयानक दर्द था। वह कान के विशेषज्ञ के पास पहुंचा। विशेषज्ञ ने एकबारगी कान के भीतर झांका और आधे मिनट के अंदर ही चिमटी से पकड़ कर एक रुपये का सिक्का बाहर निकाल कर मुल्ला की हथेली पर रख कर कहा: देखो, यह है सारी समस्या की जड़।
नसरुद्दीन ने राहत की श्वासें लेते हुए कहा: मेरे तो इसने प्राण ही ले लिए थे। डॉक्टर साहब। आज पूरे चार महीने हो गए हैं, न ठीक से सोया हूं, न कुछ ठीक से खा-पी सका हूं। दिन-रात कान तड़कता था और मैं मछली की तरह तड़फता था। आपने बड़ी कृपा की! मैं आपका एहसान जिंदगी भर नहीं भूलूंगा।
डॉक्टर बोला: लेकिन मुझे समझ नहीं आया कि तुमने पहले आने की कोशिश क्यों नहीं की! चार महीनों से इस नरक की पीड़ा को बेवजह क्यों झेल रहे थे? कभी भी आ जाते। अरे आधा मिनट का ही तो काम था, बस इस सिक्के को बाहर निकालना था।
दरअसल बात यह है डॉक्टर साहब--नसरुद्दीन ने जवाब दिया--कि आज तक मुझे इस सिक्के की आवश्यकता ही नहीं पड़ी।
आत्मानंद ब्रह्मचारी, तुम्हें ब्रह्मज्ञान की आवश्यकता है या नहीं? तुम्हें आवश्यकता हो, अगर आ गई हो आवश्यकता, तो इस व्यर्थ के जाल में मत पड़ो। व्यर्थ की बातों में मत पड़ो। तो अपने भीतर उतरो, खोदो। वहीं पड़ा है हीरा। हीरों की खदान वहीं है। फिर तुम भारतीय हो, कि जापानी, कि चीनी, कि अफगानी, कुछ फर्क नहीं पड़ता। प्रत्येक के भीतर परमात्मा विराजमान है। और प्रत्येक के भीतर यह क्षमता है कि वह स्वयं को खोज ले, स्वयं से परिचित हो जाए।
मगर हमें ब्रह्मज्ञान से तो जरूरत ही नहीं है। हमें तो और ही दूसरी बकवास में लगे रहना है--भारत ब्रह्मज्ञानी है या नहीं! हो भी तो तुम क्या करोगे? हो भी तो तुम ब्रह्मज्ञानी न हो जाओगे। तुम्हें होना पड़ेगा। इसलिए मुद्दे की बात करो, जड़ की बात करो। मूल समस्या को पकड़ो। और समस्या सीधी-साफ है: अपनी चेतना में उतरना है। अपने साक्षीभाव को जाग्रत करना है।
आत्मानंद ब्रह्मचारी, जागो! काफी सो लिए। भोर हो गई है।
आज इतना ही।
भगवान, बाईस तारीख को प्रवचन में एक मूर्ख ने आप पर चाकू फेंक कर आपकी हत्या का असफल प्रयास किया था। अनिष्ट न हो सका। वह व्यक्ति डॉक्टर मुंशी सिंह की तरह अस्थायी संन्यास लेकर आपके अधिक निकट से कुछ अनिष्ट कर सकता था। आपसे प्रेमपूर्वक आग्रह है कि अब संन्यास देना बंद करें, अथवा अधिक मुश्किल बनावें, ताकि सत्य पर कोई भी प्रहार विफल रहे।
रामदयाल भारती! पहली बात तो यह खयाल में लेनी जरूरी है कि उस व्यक्ति को मूर्ख मत कहो। वह व्यक्ति मूर्च्छित है, मूर्ख नहीं। और मूर्च्छित कौन नहीं है! जब तक तुम समाधि को उपलब्ध नहीं हुए हो, तब तक मूर्च्छित ही हो। फिर मूर्च्छा में तुम जो भी करोगे, तुम चाहे सोचो कि शुभ कर रहे हो, शुभ तुम कर न सकोगे। मूर्च्छा में शुभ होना असंभव है, वैसे ही जैसे अमूर्च्छा में अशुभ होना असंभव है। मूर्च्छा में अशुभ के कांटे लगते हैं; अमूर्च्छा में शुभ के फूल।
मूर्ख हम उन्हें कहते हैं जिन्हें जानकारी कम है। लेकिन मजा यह है कि जिन्हें जानकारी बहुत है, वे तो महामूढ़ होते हैं। जिनको तुम पंडित कहोगे, उनके पांडित्य में अज्ञानियों से भी ज्यादा खतरा है। अज्ञानी तो कम से कम सीधा-साफ होता है। उसकी किताब कोरी है। उस पर कुछ लिखावट नहीं है। लेकिन तथाकथित ज्ञानी, जिनकी किताबों में उधार बातें भरी हैं, जिन्होंने सदियों का कूड़ा-करकट इकट्ठा कर लिया है, जिन्होंने अपनी स्मृति को एक कचरा-घर बना रखा है, उनकी भ्रांति और भी गहन है। उनको सबसे बड़ी भ्रांति तो यह है कि वे सोचते हैं कि वे जानते हैं।
सुकरात ने कहा है कि मैं एक ही बात जानता हूं कि मैं कुछ भी नहीं जानता। यह पहला कदम है परम ज्ञान की ओर। पंडित तो जानता है कि मैं सब-कुछ जानता हूं। जिस व्यक्ति ने छुरा फेंका, वह अपने को मूर्ख नहीं मानता, वह तो अपने को पंडित मानता होगा। वह तो हिंदू धर्म की रक्षा कर रहा था। मूर्ख क्या धर्म की रक्षा करेंगे! बेचारे मूर्खों को क्या धर्म का पता! उसे भ्रांति है कि उसे धर्म का पता है। इतना ही नहीं, उसे यह भी भ्रांति है कि वह धर्म की रक्षा न करेगा तो और कौन करेगा! उसे यह भी पता है कि धर्म की रक्षा के लिए कुछ भी किया जाए, तो शुभ है। अशुभ साधन भी शुभ साध्य के लिए शुभ हो जाते हैं--ऐसी उसकी धारणा होगी। हो सकता है गीता का पाठी हो। हो सकता है रामायण पढ़ता हो। तुकाराम और ज्ञानेश्वर और एकनाथ के वचनों को कंठस्थ कर रखा हो, उनके अभंग स्मृति में संजो लिए हों। वह आदमी अपने को मूर्ख नहीं मानता। वह आदमी अपने को पंडित मानता होगा। यह पांडित्य की ही घोषणा है। और पंडित जितने खतरनाक साबित हुए हैं, उतने अज्ञानी कभी खतरनाक साबित नहीं हुए।
तो पहली तो बात, रामदयाल, उसे मूर्ख न कहो। वह मूर्ख तो नहीं था। जानकारी से भरा होगा। और मैं जो कह रहा था, वह उसकी जानकारी के विपरीत पड़ रहा होगा। न सह सका। पंडित की सहनशीलता बहुत कम होती है, क्योंकि पांडित्य छिछली बात है, उथली बात है; उसमें कोई गहराई नहीं होती। पांडित्य असहिष्णु होता है। इसलिए दुनिया को पंडितों ने, मुल्लाओं ने, मौलवियों ने, अयातुल्लाओं ने लड़वाया है, खून की नदियां बहाई हैं। ये अज्ञानियों के काम नहीं हैं। अज्ञानी तो बेचारे क्या लड़ें, कैसे लड़ें, किस बात के लिए लड़ें--इसका भी उन्हें पता नहीं है। अज्ञानी कैसे धर्म की रक्षा का अहंकार करेगा? अज्ञानी तो जानता ही नहीं कि धर्म क्या है। यह तो तथाकथित ज्ञानियों की बात है।
तो अगर उसे कोई नाम ही देना हो, तो पंडित का देना, महापंडित का देना; मूर्ख का मत देना। क्योंकि वस्तुतः पंडित ही मूर्ख होते हैं। पंडित जितने दूर पड़ जाता है परमात्मा से, उतना कोई और दूर नहीं होता। ज्ञान की दीवाल उसे तोड़ देती है परमात्मा से। वह निर्दोष नहीं रह जाता। उसके मन में इतना अहंकार छा जाता है जानने का, ऐसी भ्रांतियां उसे घेर लेती हैं, ऐसे विभ्रम उसे पकड़ लेते हैं, सिद्धांतों का ऐसा जाल उसके चारों तरफ खड़ा हो जाता है कि वह परमात्मा को जान सके, यह करीब-करीब असंभव है। पापी पहुंच जाते होंगे परमात्मा तक, लेकिन पंडित कभी पहुंचा है, ऐसा सुना नहीं, ऐसा हुआ ही नहीं!
तो उस बेचारे को पंडित भला कहना, मूर्ख न कहो।
दूसरी बात, तुम कहते हो कि आप संन्यास देना बंद कर दें, ताकि कोई आपके करीब न आ सके और सत्य को कोई अनिष्ट न हो। सत्य को अनिष्ट होता ही नहीं। और जिस सत्य को अनिष्ट हो जाए, वह सत्य नहीं है। सत्य तो हर अनिष्ट से गुजर कर और निखरता है। मेरे शरीर को नुकसान पहुंचाया जा सकता है, लेकिन उससे कोई सत्य को नुकसान नहीं पहुंचेगा। क्योंकि मेरा शरीर सत्य नहीं है। शरीर तो पिंजड़ा है। वह तो आज नहीं कल गिरेगा ही। उसे तो किसी को गिराने की जरूरत नहीं, अपने से ही गिर जाएगा। लेकिन उसमें जो अज्ञात पक्षी आवास कर रहा है, उसे कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकता। उसका कोई अनिष्ट नहीं हो सकता। वह तो जितना आग से गुजरेगा, उतना निखरेगा, उतना ही स्वर्ण शुद्ध होगा। इसलिए यह चिंता न लो।
तुम्हारे प्रेम को मैं समझा। और प्रेम अक्सर आसक्ति से भर जाता है। मेरे प्रति तुम्हारी आसक्ति है। मेरी देह के प्रति भी तुम्हारी आसक्ति है। लेकिन तुम बचाना भी चाहो तो भी देह बचेगी नहीं। और कोई मिटाना भी चाहे तो व्यर्थ की मेहनत कर रहा है, देह तो अपने से ही मिट जाएगी।
जीसस को सूली न देते तो कोई जीसस अभी जिंदा थोड़े ही होते। दस-पांच साल ज्यादा जीते, और कौन जाने दस-पांच साल भी ज्यादा जीते या न जीते! शंकराचार्य बिना सूली के ही तैंतीस वर्ष में मर गए। जीसस सूली पर चढ़े और तैंतीस वर्ष में मरे। और जो बात उन्हें कहनी थी, तीन वर्षों में ही उन्होंने कह दी। तीस वर्ष की उम्र में उन्होंने काम शुरू किया, तैंतीस वर्ष में उनको सूली लग गई, जो कहना था, वह तीन वर्षों में कह दिया। कहने की बात तो थोड़ी है। और सूली ने उस बात को ऐसा निखार दिया, सूली ने उस बात को ऐसा उछाला कि सदियां बीत गईं, उस बात की छाप आदमी की आत्मा पर अमिट छूट गई है। सूली कुछ नुकसान न कर सकी। सूली सिंहासन बन गई। सत्य के मार्ग पर सूली सिंहासन हो जाती है और असत्य के मार्ग पर सिंहासन भी सूली ही सिद्ध होता है। इन रहस्यों को समझो।
सिकंदर सारी दुनिया को जीत लिया, लेकिन मरते वक्त रोता मरा, उसकी आंखें आंसुओं से गीली थीं। और जब वह मर रहा था तो उसने अपने वजीरों से कहा कि मेरी अरथी जब निकले तो मेरे हाथों को अरथी के बाहर लटके रहने देना। वजीरों ने पूछा: यह कैसी बात! यह कोई परंपरा नहीं, ऐसा कोई रिवाज नहीं। ऐसा कभी हुआ नहीं। हाथ तो अरथी के भीतर ही होते हैं, बाहर नहीं लटकाए जाते।
सिकंदर ने कहा: हुआ हो या न हुआ हो, मैं जो कहता हूं, वह करना। यह मेरा आखिरी आदेश है। मेरी इच्छा पूरी की जाए।
वजीरों ने कहा: आपकी मर्जी, आप आदेश देंगे तो जरूर पूरा होगा। लेकिन क्या हम पूछ सकते हैं कि इस अनूठे आदेश का प्रयोजन क्या है?
तो सिकंदर ने कहा: मैं दुनिया को यह दिखाना चाहता हूं, हजारों लोग मेरी अरथी को देखने आएंगे--आए थे, लाखों लोग आए थे। मैं चाहता हूं कि वे सब देख लें कि सिकंदर महान भी खाली हाथ जा रहा है। सारी दौड़-धूप व्यर्थ गई, हाथ खाली के खाली हैं। सिकंदर भी भिखारी की तरह मर रहा है, कुत्ते की मौत मर रहा है। यह मैं उनको दिखाना चाहता हूं कि मत दौड़ो, बेकार है दौड़। मैं सिंहासन पाकर भी क्या पा सका! सारी दुनिया जीत कर भी क्या जीता! सब हार गया हूं।
और जीसस की मौत सूली पर हुई और अंतिम क्षण में जीसस की आंखें गीली नहीं थीं, आंसुओं से नहीं भरी थीं। ओंठों पर प्रार्थना के स्वर थे। अंतिम क्षण में उन्होंने प्रार्थना की परमात्मा से कि हे प्रभु, इन सबको माफ कर देना। देख भूल न जाना, इनको माफ कर देना, क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं। ये सब मूर्च्छित लोग हैं। ये सब बेहोश हैं। ये होश में नहीं हैं। ये होश में होते तो कभी ऐसा न करते। इसलिए ये क्षमा के पात्र हैं।
इसमें कौन जीता, कौन हारा? खयाल करो। सिकंदर हार गया, जीसस जीत गए। सिकंदर सिंहासन पाकर भी सूली ही पाया और जीसस सूली पाकर भी सिंहासन पा गए।
और ऐसा सिंहासन, जो फिर छीना नहीं जा सकता है!
तुम्हारी प्रीति ठीक। तुम्हारी प्रीति के लिए धन्यवाद करता हूं। लेकिन तुम्हारी प्रीति आसक्ति न बने, क्योंकि आसक्ति खतरनाक हो जाती है।
एक दूसरे मित्र ने पूछा है, दिवाकर ने, कि ‘क्या हम भी तलवार उठाएं?’
आसक्ति खतरनाक हो जाती है। तलवार तो दूर, कंकड़ भी नहीं उठाना। कोई तलवार उठाए तो गर्दन उसके सामने कर देना। तलवार उठाने की बात ही पागलपन की बात है। वे भी पागलपन करेंगे और तुम भी पागलपन करोगे, तो फिर पागलपन का अंत कैसे होगा?
जीसस ने कहा है: जो तुम्हारे एक गाल पर चांटा मारे, दूसरा भी उसके सामने कर देना। जीसस यही कह रहे हैं कि सिलसिले को तोड़ दो। सिलसिले को बढ़ाने से क्या सार है? और एक चांटा मार लिया, हो सकता है संकोच में दूसरा न मारा हो, तो दूसरा गाल भी सामने कर दो। उस आदमी का संकोच भी मिटा दो। उसका मन ही तृप्त हो जाए। तुम्हारा क्या बिगड़ जाएगा। उसको तृप्ति मिल जाएगी, तुम्हारा कुछ खोएगा नहीं। उसका मन संतुष्ट हो जाएगा। चलो इतने ही काम आ गई तुम्हारी देह, यह भी क्या बुरा!
आसक्ति तलवार उठा सकती है। लेकिन ध्यान रखना, प्रीति आसक्ति नहीं है। प्रीति तो अलौकिक है; पृथ्वी की नहीं है, पृथ्वी के पार की है। प्रीति तो तुम्हें इस योग्य बनाती है कि तुम समझ सको। यह प्रीति है जीसस की कि वे कह सके: क्षमा कर देना इन्हें, क्योंकि ये नासमझ हैं। अगर जरा भी अपनी देह से आसक्ति होती, अपने जीवन से आसक्ति होती, तो यह मौका था जब वे जरूर परमात्मा से कहते कि एक-एक को जला भूनना, एक-एक को भून डालना, एक-एक को सड़ा देना, एक-एक को नरक में डाल देना। ये देखो तुम्हारे बेटे के साथ क्या व्यवहार कर रहे हैं। ये तुम्हारे पैगंबर के साथ क्या व्यवहार कर रहे हैं!
दिवाकर पूछते हैं: ‘क्या हम तलवार उठाएं?’
तलवारें ही तो उठती रहीं सदियों-सदियों से, हल कहां होता है तलवारों से? तलवारों में कोई समाधान नहीं है। समाधान तो प्रेम में है। और आदमी इतना अज्ञानी है कि प्रेम की रक्षा के लिए भी तलवार उठा सकता है, शांति की रक्षा के लिए भी युद्ध में जा सकता है। ये विरोधाभासी बातें हैं। शांति की रक्षा के लिए सिर्फ शांत होना जरूरी है। और प्रीति की रक्षा के लिए प्रीति से आपूर होना जरूरी है।
अनिष्ट तो हो नहीं सकता। कभी हुआ नहीं सत्य का कोई अनिष्ट, अब कैसे होगा? वह नियम नहीं है। वह धर्म नहीं है। एस धम्मो सनंतनो! यही शाश्वत नियम है कि सत्य का कोई अनिष्ट नहीं होता। हालांकि सत्य का अनिष्ट करने की हर चेष्टा की जाती है, की जाएगी। ये चुनौतियां निखारती हैं सत्य को, संवारती हैं, सजावट देती हैं, श्रृंगार देती हैं; उसे और सुंदर बनाती हैं; उसे और माधुर्य देती हैं; उसमें अमृत घोल देती हैं।
तो न तो मैं संन्यास देना बंद करूंगा...क्योंकि संन्यास देना बंद कर दूं, तब तो वे सफल हो गए। यही तो वे चाहते हैं कि संन्यास बंद कर दूं।
एक मित्र ने सलाह दी है कि मैं बोलना ही छोड़ दूं, क्योंकि मैं बोलूंगा तो ये उपद्रव होंगे। मैं चुप हो जाऊं। मैं मौन ही रहूं। मौन ही आकर बैठूं।
तुम्हें तैयार तो कर लूं मौन के लिए! मेरे अभी मौन बैठ जाने से तुम्हें कुछ लाभ नहीं होगा। तुम मेरे मौन को अभी समझ न सकोगे। जब तुम तैयार हो जाओगे तो जरूर मौन मुझे होना है। लेकिन इसलिए मौन नहीं होऊंगा, क्योंकि कोई मेरे शब्दों से बेचैन हो जाता है। होने दो उनकी बेचैनी। उनकी बेचैनी अच्छा लक्षण है। अगर कोई बेचैन हो रहा है, तो किसी को चैन भी मिल रहा होगा। अगर कोई परेशान हो रहा है, तो किसी के जीवन में अमृत भी बरस रहा होगा। मेरे जैसे व्यक्तियों का यह भाग्य है कि या तो उनके मित्र होंगे या उनके शत्रु होंगे; दोनों के बीच में कोई खड़ा नहीं रह सकता। कोई मेरे प्रति तटस्थ नहीं रह सकता। सारी दुनिया को विभाजित ही होना पड़ेगा: या तो कोई मेरे साथ होगा या मेरे विपरीत होगा। स्वभावतः विपरीत ज्यादा लोग होंगे, क्योंकि कितने कम लोगों का साहस है सत्य को पचाने का! और असत्य में लोगों ने इतना अपना जीवन डुबाया है, असत्य में उन्होंने इतने ज्यादा अपने स्वार्थ लगा रखे हैं कि उनको एकदम छोड़ नहीं सकते।
मगर ये अच्छे लक्षण हैं कि उन्हें बेचैनी हो रही है। बेचैनी यही बताती है कि उनके भीतर भी तहलका मच गया है। अब कोई आदमी अगर छुरा फेंकने को आ जाए तो तुम सोचो उसकी दशा। वह यह खतरा ले रहा है कि अगर पकड़ा गया तो सात साल या दस साल की सजा कम से कम। अपने जीवन का दस साल कोई कारागृह में डालने को राजी हो रहा है तो मेरे शब्दों ने जरूर कहीं गहरे में उसे झकझोर दिया है। वह उपेक्षा नहीं कर सकता है मेरी। जरूर उसके स्वार्थों पर मेरे शब्द कुल्हाड़ियों की तरह पड़ रहे हैं।
और यही तो लोग हैं, जो आज नहीं कल, मित्र भी बन सकते हैं। जो शत्रु बन सकता है, वह मित्र बन सकता है। जो मित्र बन सकता है, वह शत्रु बन सकता है। मित्रों में और शत्रुओं में कोई फर्क नहीं होता। वे एक-दूसरे में रूपांतरित हो सकते हैं।
संन्यास देना तो जारी रहेगा। और भी तीव्रता से जारी करना होगा। रामदयाल, तुम्हें मुझसे कहना चाहिए कि और जल्दी करें, और ज्यादा से ज्यादा लोगों को संन्यास दें, कहीं ऐसा न हो कि कोई आपका शरीर जल्दी छीन ले, उसके पहले करोड़ों लोगों को रंग डालें! ऐसा मुझसे कहो। यह तो मुझसे कहो ही मत कि संन्यास देना बंद करें। यह तो भय की बात हुई। तुम्हें भय लगता है कि कोई संन्यास लेकर ज्यादा करीब आ सकता है। तो क्या करेगा? गर्दन ही काट सकता है। तो गर्दन काटेगा। गर्दन बिना काटे भी कट जाती है। देर-अबेर आदमी को इस जमीन से विदा हो ही जाना है। और यूं भी कोई मरने का शानदार ढंग खोजना चाहिए।
झेन फकीर मरते हैं तो अपने शिष्यों से पूछते हैं कि बोलो, क्या इरादे हैं, किस ढंग से मरें? जब बोकोजू मरा तो उसके हजारों शिष्य इकट्ठे हो गए थे। बोकोजू मुझे प्रीतिकर है। बहुत प्यारा आदमी था। उसने पूछा, बैठ गया उठ कर अपने बिस्तर पर और पूछा अपने शिष्यों से कि बोलो, किस ढंग से मरूं? शिष्य तो बहुत चौंके, यह भी कोई बात हुई! मगर वे बोकोजू को जानते थे कि वह आदमी उलटबांसियां बोलता है। झिझके कि क्या उत्तर दें! किस ढंग से मरूं, यह भी कोई सवाल है! बोकोजू ने कहा: सुना नहीं? अरे मैं यह पूछता हूं कि कुछ लोग लेटे-लेटे मरते हैं, कुछ लोग बैठे-बैठे मरते हैं, क्या खयाल है तुम्हारा? खड़े होकर मरूं? तुमने सुना है कभी किसी को खड़े होकर मरते?
एक आदमी ने कहा कि खड़े होकर मरते एक दफा...हमने सुना है कि एक फकीर खड़े होकर मरा था। बोकोजू ने कहा: तो फिर जाने दो। कुछ नया ढंग खोजो। कुछ ऐसा ढंग कि वैसा कोई मरा न हो।
क्या ढंग हो सकता है, जिस ढंग से कोई मरा न हो! फिर बोकोजू ने खुद ही ने कहा कि अच्छा तो फिर ऐसा करो, तुम्हारी कुछ सूझ-बूझ में नहीं आता, तो मैं शीर्षासन लगा कर मर जाऊं? सिर के बल खड़ा होकर? सुना तो नहीं है कभी कि कोई सिर के बल मरा हो, नहीं तो फिर और कोई तरकीब खोजें।
लोगों ने कहा: सिर के बल! कभी सुना नहीं। सुना क्या, कभी सोचा भी नहीं। सपने में भी कल्पना नहीं आई।
तो बोकोजू ने कहा: यह ठीक रहा। अरे मरना भी तो कुछ अपने ढंग से मरना।
वह सिर के बल खड़ा हो गया शीर्षासन लगा कर। शिष्य देखते रहे। लगा कि वह तो मर गया। अब करना क्या? क्योंकि आदमी मर जाए तो उसकी अरथी बनानी पड़े। मगर यह शीर्षासन लगाए हुए खड़ा है आदमी, इसको शीर्षासन से उतारना कि नहीं उतारना, इसका कोई नियम नहीं, कोई पूर्व-उल्लेख नहीं, किस विधि का उपयोग करें? तभी किसी ने कहा: ऐसा करो कि इसकी बहिन भी...पास के ही आश्रम में इसकी बड़ी बहिन भिक्षुणी है, उसको बुला लो, उससे पूछा लो। उसकी बड़ी बहिन को बुलाया गया। उसकी बड़ी बहिन आई और उसने कहा: बोकोजू, शर्म नहीं आती? तुम मरते वक्त भी अपनी शरारतों से बाज न आओगे! जिंदगी भर तुम कुछ न कुछ शरारत करते रहे। अब बाज आओ! ढंग से मरो!
और बोकोजू हंसा और शीर्षासन छोड़ कर बैठ गया। उसने कहा कि मेरी बहिन को कौन बुला कर लाया? यह मुझे अपने ढंग से न मरने देगी। अब यह बड़ी बहिन है तो इसकी माननी पड़ेगी। कहा: तेरा क्या इरादा है?
उन्होंने कहा: जिस ढंग से आमतौर से लोग मरते हैं, ऐसे मरो। लेटो बिस्तर पर! वह लेट कर मर गया। बिलकुल आज्ञाकारी बच्चे की तरह!
यह आदमी प्यारा रहा होगा, इसकी बहिन भी अदभुत रही होगी। जब वह मर गया तो उसकी बहिन ने कहा: अब मैं जाऊं, अब तुम निपटो। अब जो तुम्हें करना हो अंतिम संस्कार, वह तुम कर लो।
जिन्होंने स्वयं को जाना है, उनके लिए तो मृत्यु भी खेल है, इससे ज्यादा नहीं। जीवन भी एक खेल है, मृत्यु भी एक खेल है। एक नाटक--एक प्यारा नाटक! मगर अभिनय से ज्यादा नहीं। उनके लिए तो सब मजाक है। सूली लगे कि सिंहासन, कोई भेद नहीं पड़ता।
जीवन को तुम अभिनय से देख सको, इसको ही तो मैं संन्यास कहता हूं।
तुम्हें मैं सब पाठ दे जाना चाहता हूं। तुम्हें जिंदगी भी सिखाऊंगा, तुम्हें मौत भी सिखाऊंगा। तुम्हें जी कर भी बताऊंगा, तुम्हें मर कर भी बताऊंगा--कि यूं! तभी तो शिक्षा पूरी होगी।
नाटक देखने जाते हो न! एक तो नाटक होता है परदे के बाहर और एक नाटक चलता रहता है परदे के पीछे। वह ज्यादा असली होता है, जो परदे के पीछे चलता है। जो परदे के बाहर होता है, वह तो केवल अभिनय होता है। कोई राम बना है, कोई रावण बना है, कोई सीता, कोई हनुमान।
एक गांव में एक नाटक-कंपनी रामलीला कर रही थी। सीता-स्वयंवर में गलती से आसानी से टूट जाने वाले धनुष के बदले लक्ष्मण जी का धनुष आ गया। जब राम उसे तोड़ने लगे तो टूटे ही न। अहम-अहम...पसीना कर-कर के थक गए, मगर धनुष टूटे ही न। ऐसी की तैसी इस धनुष की, उनके मुंह से निकल गया। जनता तो बहुत हंसने लगी कि ऐसा तो रामलीला में कभी देखा नहीं कि रामचंद्र जी और ऐसी बात बोलें! कहीं उल्लेख नहीं। बूढ़े जनक मामला भांप गए। उन्होंने राम को हिम्मत देते हुए कहा: रामचंद्र जी, थोड़ी और ताकत लगाओ, और लक्ष्मण, आप भी राम का सहयोग दो। देखा, यह एक आदमी से टूटने वाला नहीं है। राम जी थोड़ा प्रयत्न करें, परदे की तरफ देख कर मैनेजर को गाली दें कि हरामजादे ने खूब फंसाया, कि मिल जाए उल्लू का पट्ठा तो मजा चखा दूं! जनता बड़ी हैरान कि यह कैसी रामलीला हो रही है! ऐसी तो कभी हुई नहीं। जो सो गए थे, वे भी जग आए।
रामलीला में अक्सर लोग सोते हैं, और करेंगे भी क्या? सब उनको पता ही है जो होना है। मगर इस बार तो कुछ नया हो रहा था। बच्चे किलकारियां मार रहे, लोग खड़े होकर देखने लगे। स्त्रियों ने तो मुंह में अपने-अपने आंचल दबा लिए कि अब करना क्या! यह हो क्या रहा है! न बाबा तुलसीदास ने ऐसा लिखा, न बाल्मीकि जी लिख गए। यह तो कोई नये ढंग की ही रामलीला हो रही है। आखिर अपनी सब ताकत रामजी ने धनुष पर लगा दी। धनुष तो टूटा, मगर वे खुद भी जा गिरे जहां रावण बैठा था, उसके चरणों में। मुकुट-वुकुट टूट गया, धोती निकल गई और खोपड़ी से खून बहने लगा, आंखों में आंसू आ गए। और ऐसी ही अवस्था में सीता ने उन्हें वरमाला पहना दी।
रामलीला आगे चली। कुछ लोगों ने बंदर का परिधान पहना था, उसमें एक असली बंदर भी जा मिला। लंका जीतने के लिए जो युद्ध होने वाला था, उसके लिए एक परदे पर लंका का चित्र तैयार किया गया था। असली बंदर ने उस परदे की रस्सी खींच दी और परदा ऊपर उठ गया। अब असली बंदर को क्या पता कि क्या करना है और क्या नहीं करना है! नकली बंदर होता तो नियम से चलता। असली बंदर को क्या मालूम कि यहां क्या हो रहा है! वह तो बंदरों की भीड़ देख कर समझा कि बंदर हैं, सो वह भी वहां पहुंच गया। परदा ऊपर उठा, क्या तालियां पिटीं! तालियां पिटती ही रहीं, सारी जनता खड़ी हो गई। क्योंकि परदे के पीछे नाटक कंपनी का चौका था, वह दिखने लगा। वहां जो आदमी मंदोदरी बना था, वह बीड़ी पी रहा था। सीता और लक्ष्मण एक-दूसरे के गले मिल रहे थे। रावण और जनक एक ही थाली में भोजन कर रहे थे। और हनुमान जो कि गांव के पहलवान और रसोइया थे; कंधे पर अंगोछा डाले चूल्हे पर चढ़ी दाल हिला रहे थे। और उनके एक हाथ में बियर की बोतल थी। इन सबके बीच भरत जी, जो कि प्रांपटर का काम कर रहे थे, वे रामायण की किताब लिए खड़े थे। जैसे ही परदा खुल गया, सब जनता के सामने आ गए। अपनी-अपनी थाली लेकर भागे और जनता ताली पीट रही। मगर हनुमान जी की पूंछ कहीं अटक गई, सो वे भाग नहीं पाए। उनकी दशा बड़ी बुरी हो गई। रामचंद्र जी, जो कि हक्के-बक्के रह गए थे, वे समझ नहीं पा रहे थे कि अब क्या करें। उनकी कमान से जो तीर चढ़ा हुआ था, वह छूट गया और छज्जे पर लगी थालियों को जा लगा। सभी थालियां धड़ाम से नीचे! कुछ हनुमान के ऊपर, कुछ दाल में। बस हनुमान, जो कि गांव के पहलवान तो थे ही, बात उनके बरदाश्त के बाहर हो गई। एक तो पूंछ फंसी थी और ऊपर से थालियां गिर गईं। उन्होंने निकाली अपनी पूंछ और दे मारी राम के मुंह पर। राम भी भनभना गए। उन्होंने भी आव देखा न ताव, जोश में आकर हनुमान जी को एक तमाचा जड़ दिया। अब तो हनुमान ने अपना होश ही खो दिया और राम पर टूट पड़े। राम-रावण के युद्ध के बदले राम-हनुमान युद्ध छिड़ गया। मिनटों में राम चारों खाने चित्त। रसोइए को लाल-पीला देख कर सभी वानर सेना वाले भाग गए। राम और हनुमान के युद्ध में राम पिटते रहे और सीता खड़ी हंसती रहीं। और बेचारी करतीं भी क्या!
यह तब तक चला जब तक रावण ने बचाव नहीं किया राम का और किसी तरह हनुमान को अलग नहीं किया। हनुमान जी जाते-जाते कहते गए कि हरामजादे, अभी जाता हूं, लेकिन दिखाऊंगा मजा! और जाते-जाते सीता मैया को चोटी से घसीटते हुए अपने घर की तरफ ले गए। ऐसे रामलीला की पूर्णाहुति हुई।
एक तो परदे के बाहर खेल चलता है, एक परदे के पीछे। परदे के बाहर का ही तुमने खेल देखा तो जिंदगी का असली खेल नहीं देखा। तुम्हारे भीतर भी एक जगत है और तुम्हारे बाहर भी एक जगत है। बाहर के जगत में जन्म होता है, मौत होती है, बीमारियां आती हैं, बुढ़ापा आता है, हजारों घटनाएं घटती हैं। भीतर के जगत में कुछ भी नहीं--सन्नाटा है, शून्य है। भीतर के जगत में सिर्फ साक्षीभाव है।
संन्यासी भीतर के साक्षी-भाव में जीता है। बाहर जो भी होता है, देखता रहता है; जैसा भी होता है, देखता रहता है।
रामदयाल, जो भी हो बाहर, उसे साक्षीभाव से देखना सीखो। ऐसी तो बहुत घटनाएं घटेंगी। इन सबको तुम्हें साक्षीभाव से देखना चाहिए। इनसे चिंतित, बेचैन, परेशान नहीं होना है।
तुम कहते हो: ‘या फिर संन्यास को अधिक मुश्किल बनावें।’
संन्यास को जितना मुश्किल बनाया जा सकता है, मैंने उतना मुश्किल बनाया है। आमतौर से लोगों की धारणा यह है कि मैंने संन्यास को सरल बना दिया है। वह धारणा बिलकुल गलत है। संन्यास सरल था। भगोड़ापन हमेशा सरल होता है। युद्ध से भाग जाने में कौन सी कठिनाई है, कौन-सी बुद्धिमत्ता है! युद्ध से जो भाग जाता है--यह तो सबसे सरल काम है--वह डरपोक है, इसीलिए तो भाग जाता है; कायर है, इसीलिए तो भाग जाता है। रण-युद्ध से भागे हुए आदमी को हम कायर कहते हैं और जीवन के इस युद्ध से भागे हुए आदमी को अब तक हम संन्यासी कहते रहे! वह भी भगोड़ा है, संन्यासी नहीं।
इन भगोड़ों की लंबी जमात ने तुम्हें एक संन्यास की गलत धारणा दे दी। और तुम सोचते हो कि वह कोई कठिन काम कर रहा है! तुम
बिलकुल गलती में हो। कोई अपनी पत्नी को छोड़ कर भाग जाता है, तुम सोचते हो वह कठिन काम कर रहा है! कौन अपनी पत्नी को नहीं छोड़ कर भागना चाहता? बहादुर जमे रहते हैं, नहीं भागते; कमजोर भाग खड़े होते हैं। पत्नियों से तो कोई भी परेशान हो जाता है।
स्त्रियों में भी हिम्मत हो तो वे भी भागें। वे भी परेशान हैं, मगर उनमें उतनी भी हिम्मत नहीं है। भागने लायक भी हिम्मत नहीं है। भागने के लिए भी थोड़ी सी तो हिम्मत चाहिए। पीठ दिखाने के लिए भी थोड़ी सी हिम्मत चाहिए ही। आखिर चलना तो पड़ेगा, दौड़ना तो पड़ेगा।
स्त्रियों ने बहुत संन्यास नहीं लिया। प्राचीन ढंग का संन्यास स्त्रियों में नहीं फैला। इसलिए लोग मुझसे पूछते हैं कि स्त्रियों में बुद्ध और महावीर और कृष्ण और मोहम्मद और जीसस जैसी महिलाएं क्यों नहीं हुईं? पुराने ढंग का संन्यास स्त्रियों में नहीं फैला। उसका कारण था। वे टिकी रहीं, वे जमी रहीं। लेकिन पुरुष तो भाग गए। टिकने की तो हिम्मत नहीं थी उनमें, लेकिन भागने योग्य हिम्मत उन्होंने जुटा ली।
यह भगोड़ों की जो कतार है, इसको तुमने अब तक समझा है कठिन बात। कोई दिन में एक बार भोजन करता है तो तुम सोचते हो बड़ा कठिन कार्य कर रहा है। आत्महत्या कोई बहुत कठिन बात नहीं है, फिर वह शीघ्रता से की जाए कि आहिस्ता-आहिस्ता की जाए। सच तो यह है, जैसे दूसरे को सताने में रस आता है, ऐसा ही अपने को सताने में भी रस आता है।
सिगमंड फ्रायड की बड़ी से बड़ी खोजों में एक खोज यह भी है कि आदमी में दो तरह की वासनाएं हैं--मूल वासनाएं। एक को वह कहता है: जीवेषणा, इरोस। और दूसरी को वह कहता है: थानाटोस, मृत्यु की आकांक्षा। वह कहता है: पैंतीस साल की उम्र तक पहली आकांक्षा प्रबल होती है और पैंतीस साल के बाद पहली आकांक्षा निर्बल होने लगती है, जीवेषणा निर्बल होने लगती है और दूसरी आकांक्षा प्रबल होने लगती है। इसलिए ठीक ही शायद हिंदुओं ने हिसाब बांध रखा था कि पचास साल की उम्र में वानप्रस्थ हो जाना और पचहत्तर साल की उम्र में संन्यस्त हो जाना। क्योंकि जैसे-जैसे मौत करीब आती है, अगर आदमी सौ साल जीए तो पचहत्तर साल की उम्र में अपने आप ही इतना ऊब चुका होगा संसार से, इस बुरी तरह ऊब चुका होगा कि छूट ही जाना चाहेगा। इसमें कुछ बहुत बुद्धिमत्ता की या बहुत साधना की जरूरत नहीं पड़ेगी।
रंजन ने पूछा है कि मैं अपने पति से ऊब गई हूं। कौन नहीं ऊब जाता! और उसने पूछा है कि पति से ऊब तो गई हूं, लेकिन अब एक सरदारजी के प्रेम में पड़ गई हूं!
रंजन, यह गजब का काम है, यह तू कर ही गुजर। इससे तेरा आवागमन से छुटकारा हो जाएगा। क्योंकि रंजन है गुजराती--गुजराती बहिन। और सरदारजी मिल जाएं प्रेमी, तो सरदारजी का जो होगा सो होगा, मगर गुजराती बहिन का आवागमन से छुटकारा पक्का है। सरदारजी ऐसा सताएंगे तुझे कि जीवन से तेरा जो कुछ भी लाग-लगाव होगा, अपने आप छूट जाएगा। सरदारजी ऐसे तुझ पर टूटेंगे--वाहे गुरुजी की फतह, वाहे गुरुजी का खालसा!--कि फिर तू भूल कर भी कभी नहीं सोचेगी प्रेम इत्यादि की बात। तूने ठीक ही चुना। आवागमन से छूटने का इससे ज्यादा और कोई सुंदर उपाय नहीं है। तू भी देर मत कर, कूद ही जा। बोल सत सिरी अकाल! और कूद पड़। फिर अब जो होगा, देखा जाएगा। झंझट तो होगी बहुत। काम तो कठिन है। मगर भगोड़ेपन से बेहतर है। भगोड़ापन कोई कठिन काम नहीं है।
तुम कहते हो कि आप संन्यास को अधिक मुश्किल बनावें। मतलब? योगासन करवाऊं लोगों को, शीर्षासन करवाऊं कि तीन घंटे शीर्षासन करो, एक दफा भोजन करो, नमक न खाना, यह न पीना, तीन ही घंटे सोना, तीन बजे रात उठ आना, इस तरह उनको अपने आपको सताने की विधियां दूं? तो तुम पक्का समझो कि अभी मेरे पास जो लोग इकट्ठे हुए हैं, वे बुद्धिमान हैं; फिर जो इकट्ठे होंगे, जिन मूर्खों से तुम मुझे बचाना चाहते हो, वे ही वे इकट्ठे हो जाएंगे। फिर उनके सिवाय दूसरा इकट्ठा ही नहीं होगा। बुद्धिमान तो फिर नमस्कार कर लेंगे, वे कहेंगे, फिर हम चले। क्योंकि कोई बुद्धिमान आदमी क्यों अपने को तीन बजे रात उठाए, किस कारण? कोई दिमाग खराब हुआ है? पशु-पक्षी भी तीन बजे रात नहीं उठते। वे भी जब सूरज उगने लगता है, तब उठते हैं। हां, सूरज उगता है तब जीवन जगता है पृथ्वी पर, तब उठना चाहिए। वह सहज स्वाभाविक है। लेकिन कोई पशु-पक्षी रात देर तक जागता भी नहीं। इसमें कोई बड़ी खूबी नहीं है। पशु-पक्षी करें भी क्या जाग कर! न तो बिजली है उनके पास, न लालटेन हैं उनके पास, न घासलेट का तेल है उनके पास। आदमियों के पास नहीं है, उनके पास कहां से होगा! और अच्छा ही है कि घोड़े, गधे और भैंसे घासलेट का तेल नहीं मांगते, नहीं तो कतार में वे भी खड़े रहें। आदमी को तो फिर मिलना ही मुश्किल हो जाए। क्योंकि वे सींग भी मारें और आगे हो जाएं, कि हमें पहले लालटेन हमारी भरनी है। न रात को वे शास्त्र पढ़ें, न फिल्म देखें, न संगीत सुनें, न विवाह-उत्सव में सम्मिलित हों। शाम हुई कि बेचारे सोएं न तो करें क्या! अब शाम से ही जो सो जाएगा, तुम भी अगर शाम से ही सो जाओ, तो तीन बजे उठ ही आओगे। सोने की एक सीमा है।
आदमी अकेला है, जो सांझ को जागने की क्षमता रखता है; जो रात देर तक रात्रि के सन्नाटे का, मौन का उपयोग करता है। दिन में तो बहुत उपद्रव है, शोरगुल है। जिन्हें अध्ययन करना हो, मनन करना हो, ध्यान करना हो, चिंतन करना हो, उनके लिए रात्रि ही मौका है। तो अगर तुम देर तक जागोगे तो कभी यह भी हो सकता है कि थोड़ी देर तक सोए रहो। कुछ हर्ज नहीं है।
बुद्धिमान आदमी अपने जीवन को अपने ढंग से जमाता है, किसी की बंधी हुई लकीरों पर नहीं चलता।
अभी मेरे पास जो लोग इकट्ठे हुए हैं, वे नवनीत हैं। मूर्खों को मैं चाहता नहीं यहां। मूढ़ों को मैं यहां इकट्ठा करना नहीं चाहता। सिर के बल खड़े होने में तुम समझते हो कोई प्रतिभा की जरूरत है? कोई बुद्धि-अंक बहुत ऊंचा चाहिए सिर के बल खड़े होने के लिए? सिर के बल खड़े होने के लिए किसी बुद्धि-अंक होने की जरूरत नहीं है। गधे से गधा व्यक्ति भी सिर के बल खड़ा हो सकता है। असल में गधे से गधा ही खड़ा होगा। और इस तरह के लोग क्या नहीं कर सकते! वे क्या-क्या नहीं करते हैं! पंचामृत पीते हैं। पंचामृत में क्या-क्या चीजें होती है पता है? गऊ-माता का गोबर, गऊ-मूत्र, इस तरह की चीजों को अमृत कहते हैं। अगर मैं पंचामृत पिलाने लगूं तो तुम समझते हो बुद्धिमान आदमी मेरे पास इकट्ठे होंगे? गोबर-गणेश इकट्ठे होंगे।
कठिन तो बना दूं, लेकिन कठिन बनाने से सिर्फ बुद्धिमान हट जाएंगे। क्योंकि कठिनाई का मतलब क्या है--अपने को सताना किसी तरह से, अपने को परेशान करना। अपने को परेशान करने में प्रतिभा नहीं चाहिए।
मैंने किसी और गहराई में संन्यास को कठिन बनाया है। वह गहराई यह है कि मैं चाहता हूं तुम जीवन की चुनौती में साक्षीपूर्वक जीओ, अभिनय सीखो।
मुझसे एक अभिनेता ने पूछा कि अभिनय की कला के संबंध में आपका क्या कहना है? तो मैंने उससे कहा कि अभिनय की कला का सार-सूत्र है: इस तरह अभिनय करो कि जैसे यह सच्चा जीवन है और सच्चे जीवन का यह सार-सूत्र है कि इस तरह जीओ, जैसे यह अभिनय है।
जो अभिनेता अभिनय कर सके इतनी कुशलता से कि लगे कि सच्चा जीवन है, वह कुशल अभिनेता है। और जो व्यक्ति इस तरह जी सके जीवन को कि जैसे अभिनय है, पानी पर खींची गई लकीर, वही संन्यासी है।
मैं तुम्हें सिर्फ अभिनय की कला सिखाना चाहता हूं, और यह सबसे ज्यादा कठिन है। कठिन है, क्योंकि यह सबसे ज्यादा बुद्धिमत्ता की मांग करेगा।
तो तुम्हारे हिसाब से मैं कठिन नहीं बना सकता कि उपवास सिखाऊं, अनशन सिखाऊं, तुम्हें अपने को सताना सिखाऊं। वह सब तो चल रहा है सारी दुनिया में। मैं एक नये संन्यास का सूत्रपात कर रहा हूं। इसीलिए तो बेचैनी है। इसलिए हिंदू नाराज हैं, जैन नाराज हैं, मुसलमान नाराज हैं। जिनकी बंधी हुई धारणाएं हैं, वे सभी नाराज हैं। मुझसे राजी केवल वे ही हो सकते हैं, जो इतने विचारशील हैं कि बंधी हुई धारणाओं के पार उठ सकें; जो बंधी हुई धारणाओं का अतिक्रमण कर सकें।
और तुम कहते हो: ‘ये सारे सुझाव इसलिए, ताकि सत्य पर कोई भी प्रहार विफल रहे।’
सत्य पर सभी प्रहार हमेशा विफल रहे हैं। उस संबंध में निश्चिंत रहो। सत्य को सभी प्रहार और भी ज्यादा निखार जाते हैं, और भी उसकी जड़ें जमा जाते हैं। तुम अपनी आंखों से यह होते देखोगे। अभी तक तुमने कहानियां सुनी थीं। सुकरात तुम्हारे लिए कहानी हैं और जीसस भी तुम्हारे लिए कहानी हैं और अलहिल्लाज मंसूर भी तुम्हारे लिए कहानी हैं। अब तुम अपनी आंखों के सामने मेरे साथ जीकर इन कहानियों का अर्थ समझोगे। तुम अलहिल्लाज को फिर अपने बीच पाओगे। फिर जीसस को अपने बीच उठते-बैठते हुआ पाओगे। फिर तुम सुकरात के सत्य सुनोगे। और तुम देखोगे कि सत्य पर कैसी धार आती है, सत्य कैसे निखरता है, सत्य का सूर्य कैसे उदय होता है! कोई चीज कभी सत्य को विफल नहीं कर पाई है। अब तक जो नहीं हुआ, वह आज भी नहीं हो सकता है और आगे भी नहीं हो सकता है! एस धम्मो सनंतनो!
दूसरा प्रश्न:
भगवान, बाईस तारीख को हुई घटना से गत स्मृतियां तीव्रता से याद आ रही हैं। पूना से कल्याण आपको रेल पर छोड़ने जा रहे थे, अचानक खपोली गांव के चौराहे पर हमारी कार पर ट्रक जोर से आकर टकरा गया। कार के शीशे पूरी तरह से टुकड़े-टुकड़े होकर आप पर गिर गए। कुछ क्षण लगा आप बुरी तरह से घायल हुए हैं, परंतु आपको और साथ में हम लोगों को कुछ भी लगा नहीं। नासिक से पुंगलिया जी की कार में उनके साथ आप प्रवचन के लिए पूना आ रहे थे। रास्ते में कार तीन-चार पलटी खाकर गड्ढे में गिर गई थी। ऐसी हालत में सबको काफी लग सकता था, फिर भी आपको और साथ वालों को कोई भी चोट नहीं लगी। बंबई, वुडलैंड में आपके ऊपर हमला करने का असफल प्रयास हुआ था। लाओत्से हाल की छत बुरी तरह से गिर गई थी, कुछ घंटे बाद ही वहां आपका प्रवचन होने वाला था। क्या होता, उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। फिर भी किसी तरह का शारीरिक नुकसान किसी को भी नहीं हुआ। दो दिन पूर्व आपके ऊपर छुरी फेंकी गई। सभा में बैठे हुए कितने श्रोताओं के ऊपर से छुरी चली थी, फिर भी किसी को कुछ नुकसान नहीं हुआ। यह बड़ा चमत्कार है। आप तो बचते ही हैं और साथ वालों को भी आप बचाते हैं! चमत्कार के प्रचलित अर्थ में हम यह चमत्कार मानते नहीं। लेकिन इन घटनाओं से कुछ राज जरूर प्रतीत होता है। आप इस पर कुछ प्रकाश डालें, ऐसी इच्छा है।
योग माणिक! अस्तित्व पर श्रद्धा हो, तो अस्तित्व सुरक्षा है। फिर जो भी होता है, शुभ है।
सूफी फकीर जुन्नैद एक रास्ते से गुजर रहा था। उसके पैर में एक पत्थर की चोट लग गई। जुन्नैद की आदत थी, वह हमेशा आकाश की तरफ देख कर चलता था। जैसे सदा-सदा वह जो दूर अज्ञात है, उसकी पुकार उसे सुनाई पड़ती रहती थी। जुन्नैद अदभुत सूफी फकीरों में एक है। अलहिल्लाज मंसूर का गुरु था। उसके पैर में चोट लग गई पत्थर की। नुकीली धार वाला पत्थर सड़क पर पड़ा था। पैर लहूलुहान हो गया। जुन्नैद झुका--घुटने के बल बैठ कर। उसकी आंखों से आनंद के आंसू बहने लगे। वह परमात्मा को धन्यवाद देने लगा कि हे प्रभु, तेरा कितना धन्यवाद करूं! जितना धन्यवाद करूं, वही थोड़ा है!
उसके शिष्य तो बड़े हैरान हुए। उन्होंने कहा कि हमें इसमें धन्यवाद करने जैसी कोई बात दिखाई पड़ती नहीं है। हां, अगर परमात्मा तुम्हें बचा लेता और पैर में चोट न लगी होती, तो भी हम सोचते कि धन्यवाद देने की कोई बात है! मगर पैर लहूलुहान हो गया है, फिर भी तुम धन्यवाद दे रहे हो! इसमें धन्यवाद देने का क्या कारण है?
जुन्नैद ने कहा: पागलो, तुम्हें पता नहीं। लगनी तो चाहिए थी मुझे सूली, लेकिन उसकी अनुकंपा के कारण केवल पैर में चोट लगी और सूली टल गई।
और यह बात सच थी, क्योंकि जुन्नैद जिस राजधानी को छोड़ कर आया था, उसके छोड़ने के घड़ी भर बाद ही, जिस सराय में वह ठहरा हुआ था, उसे पुलिस ने घेर लिया था। उस राजधानी का जो बादशाह था, वह जरा सी देर से पहुंचा था। वह जुन्नैद को पकड़ कर मार डालना चाहता था। कारण यह था कि जुन्नैद ऐसी बातें कहता था, जो नासमझों को लगती थीं कि कुरान के खिलाफ हैं। नासमझों को हमेशा यह लगता है। नासमझों को यह भ्रांति होती है कि वे समझते हैं कि कुरान में क्या है। जुन्नैद जैसा आदमी उन्हें गलत लग सकता है, क्योंकि जुन्नैद कुरान को जीता है। उसकी व्याख्या जीवंत है। उसकी व्याख्या शाब्दिक नहीं है।
यह तो पीछे पता चला शिष्यों को कि जुन्नैद ठीक कह रहा था। लग तो गई होती फांसी, लेकिन सिर्फ पैर में चोट लगने से बच गया।
लेकिन यह भी कुछ बात नहीं। एक बार जुन्नैद काबा की यात्रा को निकला। उसकी आदत ही थी कि रोज धन्यवाद देता; पांच बार नमाज पढ़ता तो पांच बार परमात्मा को धन्यवाद देता कि हे प्रभु, तेरी बड़ी कृपा है, तू हमारी कितनी फिकर करता है! हर बात की फिकर! इतनी बड़ी दुनिया चलाता है और मुझ गरीब की भी चिंता रखता है! कैसा तेरा प्रेम है, कि मुझे भूलता नहीं क्षण भर को! मैं भला तुझे भूल जाऊं, मगर तू नहीं भूलता!
उस यात्रा में ऐसा मौका आया कि तीन दिन तक किसी गांव में शरण न मिली।
जिस गांव में भी गया, उस गांव के लोगों ने कहा कि भाग जाओ, इस गांव में जगह नहीं मिलेगी। चुस्त दकियानूसी लोगों के गांव थे। सूफियों को तो वे बगावती समझते थे, भ्रष्ट समझते थे। जैसे मेरे संन्यासी, इस तरह सूफियों को वे समझते थे। रोटी नहीं मिली, पानी पीने को नहीं मिला, तीन दिन तक प्यासे-भूखे, थके-मांदे, सोने को जगह नहीं, रेगिस्तान में पड़े थे। मगर तीसरे दिन भी सांझ जब वह प्रार्थना कर रहा था तो तारों से भरे आकाश की तरफ उसके हाथ उठे थे और वह कह रहा था: हे प्रभु! आनंद के आंसू बह रहे थे। तेरा धन्यवाद, तू हमारी कितनी फिकर करता है!
शिष्यों से नहीं रहा गया। एक ने उसे बीच में हिला कर कहा कि बस, अब बंद करो। किसको धन्यवाद दे रहे हो? तीन दिन से भूखे, न रोटी न पानी, ठहरने की जगह नहीं। अभी भी तुम यह कह रहे हो, यही कहे चले जा रहे हो, कि हे परमात्मा, तेरा धन्यवाद, तू हमारी कितनी फिकर करता है!
जुन्नैद ने कहा: नासमझो, तुम्हें पता नहीं, हमारी जो जरूरत होती है, वही हमें देता है। यही हमारी जरूरत थी अभी कि तीन दिन तक हम भूखे रहें और तीन दिन तक हमें पानी न मिले और तीन दिन तक हमें अपमान सहना पड़ा। यही हमारी जरूरत थी। जो हमारी जरूरत है, वह पूरी करता है। यूं समझो कि वह जो करता है, वही हमारी जरूरत है। इन दोनों में कोई भेद नहीं है।
योग माणिक, चमत्कार कुछ भी नहीं। सीधा-सीधा राज है, खुला हुआ राज है। छिपा हुआ इसमें कुछ भी नहीं। जो उसकी मर्जी! जो इस परिपूर्ण अस्तित्व की मर्जी, वही होगा। जब तक वह जिलाना चाहता है, जब तक उसे जरूरत है कि इस बांसुरी से गीत गाए, यह बांसुरी बनी रहेगी। जिस दिन जरूरत नहीं है, उस दिन यह बांसुरी टूट जाएगी। उस दिन लाख बचाने के उपाय कारगर न होंगे। और तब तक, जब तक कि वह चाहता है--ये गीत चलें, यह नृत्य उठे, ये स्वर गूंजें, यह वीणा बजती रहे--तब तक लाख तोड़ने के उपाय हों तो भी कुछ टूटेगा नहीं।
मुझे याद है भलीभांति, जिन घटनाओं का तुमने स्मरण दिलाया है। ट्रक आकर कार से टकरा गया था और सारा कांच चकनाचूर होकर मेरे ऊपर गिरा था। मुझे भी क्षण भर को लगा था...इस तरह कांच को चकनाचूर होते भी मैंने कभी नहीं देखा था। बिलकुल जैसे धूल हो गया कांच! मेरे बालों में भर गया था, मेरी आंखों में भर गया था, सारे शरीर पर कांच ही कांच हो गया था। मैंने भी सोचा था कि आंख में तो कम से कम चोट पहुंच ही सकती है। मगर मैं भी चकित हुआ था, कहीं कोई खरोंच भी नहीं आई थी। आंख में एक जरा सा धूल का कण भी चला जाता है तो भी आंख लाल हो जाती है। मगर कांच के टुकड़े भी गए थे तो भी आंख लाल नहीं हुई थी। उसकी मर्जी थी। कुछ काम उसे लेना था।
और नासिक से पूना आते समय तो घटना बहुत ही खतरनाक थी। कार एक सूखी हुई नदी में गिर पड़ी थी। तीन-चार बार तो उसने करवट लीं बीच में। और जब गिरी तो उलटी गिरी। चाक ऊपर। हम भी सब कार के भीतर दो-तीन दफे चक्कर खा गए। लेकिन बड़े आश्चर्य की बात थी और बड़े आनंद की भी, कि जब हम गिरे तो कार उलटी थी, मगर हम सब सीधे बैठे हुए थे। सीटें हमारे सिर पर पहुंच गई थीं। और उन सीटों के कारण सिर की भी रक्षा हो गई थी। नहीं तो सिर तो फूट ही जाते कम से कम। एक क्षण को तो ऐसा लगा था कि सबको खत्म हो जाना चाहिए, किसी के बचने की कोई उम्मीद नहीं होनी चाहिए। कार तो बिलकुल पिचक गई थी। कार को तो वहीं छोड़ देना पड़ा। कार तो बिलकुल चकनाचूर हो गई थी। कार में तो कुछ बचा नहीं था।
थोड़ी देर तो सब चुप ही बैठे रहे, क्योंकि समझा कि मामला खत्म ही है, अब बोलना-बालना क्या है! फिर मुझे ही पुंगलिया जी से कहना पड़ा कि पुंगलिया जी, अब हम बाहर निकलें। लगता है जिंदा हैं! बाहर निकले तो सोचते थे कि चोट आई होगी, मगर खरोंच भी नहीं लगी थी। पुंगलिया जी तो बेचारे दौड़-धूप में लग गए कि अब दूसरी कार का इंतजाम करना। माणिक बाबू को फोन किया कि तुम दूसरी गाड़ी लेकर आओ। और मैं आराम से एक घर में जाकर सो गया। अब और करने को क्या बचा था! जब तक उन्होंने भाग-दौड़ की, दूसरी गाड़ी आई, तब तक मैं आराम से सो लिया। दोपहर मुझे सोने की आदत है, वह मैं छोड़ता नहीं। मैं अपनी आदतों से बाज नहीं आता। मैंने कहा, जब बच ही गए तो अब सो लेना चाहिए। या तो सो ही गए होते, तो फिर जरूरत ही नहीं थी अलग से सोने की; और अब बच ही गए तो अब सोना छोड़ना ठीक नहीं।
कोई भी देखेगा तो उसको चमत्कार लगेगा, मगर कुछ चमत्कार की बात नहीं। एकबारगी हम अपने अहंकार को छोड़ कर अस्तित्व के साथ अपनी एकता स्वीकार कर लें, फिर अस्तित्व जाने। मैं इसी को आस्तिकता कहता हूं। बच गए तो ठीक, न बचे तो ठीक। कुछ ऐसा नहीं कि बच गए, इसलिए ही ठीक।
योग माणिक, यह खयाल रखना। यह मत सोचना कि बच गए, इसलिए ठीक। न बचते तो भी इतना ही ठीक।
अब यहां जो छुरा फेंका गया, वह अनेकों के सिर पर से गुजरा। वह मेरे सामने से गुजरता हुआ गया। यहां चैतन्य और गायन के बिलकुल दोनों के पैर के बीच में गिरा। गजब कर दी छुरे ने भी! बड़ा होशियार छुरा रहा; फेंकने वाले से तो ज्यादा ही होशियार रहा! नहीं तो यहां इतने लोग सघन होकर बैठे हुए हैं कि खाली जगह में गिरना, बड़ी बुद्धिमत्ता रही होगी छुरे की। मगर जमीन पर गिरा, खाली जगह पर गिरा। किसी को खरोंच भी नहीं आई।
मगर फिर भी इससे यह मत सोचना--इसलिए चमत्कार। अगर कोई मर भी जाता तो भी चमत्कार था। अगर मैं भी चल बसता तो भी चमत्कार था। चमत्कार में कुछ भेद नहीं पड़ता।
जिस दिन हम--जीवन में भी और मृत्यु में भी, सुख में भी और दुख में भी--समान भाव से परमात्मा का अनुग्रह स्वीकार करते हैं, उस दिन ही हम में आस्तिकता का जन्म होता है।
और यह तो आस्तिकों का जमाव है। यह तो महफिल है आस्तिकों की। तो यहां इस तरह की घटनाएं घटती रहेंगी, होती रहेंगी। छुरा जैसे फूल की तरह आया और गिर गया।
अक्सर ऐसा हो जाता है कि आदमी से कहीं ज्यादा समझदार छुरे होते हैं, क्योंकि छुरे न हिंदू होते, न मुसलमान होते, न ईसाई होते। छुरों को क्या फिकर कि किसका धर्म बचाना है और किसका नहीं बचाना है! छुरे तो बस छुरे हैं--निष्पक्ष, तटस्थ। छुरे को क्या लेना-देना!
बुद्ध के ऊपर किसी ने शिला सरका कर गिरा दी थी--पूरी चट्टान! वे नीचे ध्यान कर रहे हैं, पहाड़ी पर से किसी ने चट्टान सरका दी। कहते हैं वह चट्टान इस ढंग से सरकाई गई थी, नाप-जोख से सरकाई गई थी कि वह बुद्ध को अपनी चपेट में लेकर उनको पीस कर चली जाती। लेकिन पता नहीं क्या हुआ, चट्टान को क्या हुआ, कि वह ठीक बुद्ध के पास तक तो ठीक वैसी आई जैसी भेजने वालों ने कल्पना की थी और बुद्ध के पास से उसने एक मोड़ ले लिया। जरा सा मोड़! और बुद्ध को छोड़ कर फिर उसी पथ पर अग्रसर हो गई, जिस पर उसे जाना चाहिए था। जैसे चट्टान, चट्टान गिराने वालों से ज्यादा समझदार थी।
किसी ने बुद्ध के ऊपर पागल हाथी छोड़ दिया। वह पागल हाथी न मालूम कितने लोगों की हत्या कर चुका था। वह पागल हाथी आया और बुद्ध के चरणों में सिर झुका कर बैठा गया। जिन्होंने छोड़ा था, वे भी चकित हुए कि बात क्या हो गई! यह पागल हाथी को क्या हुआ! बुद्ध के शिष्यों ने बुद्ध से पूछा: इस पागल हाथी को क्या हुआ? यह तो पागल है।
उन्होंने कहा: यह भले पागल है, मगर आदमी थोड़े ही है। मतांध तो नहीं है। हाथी है, इसको कोई धर्मशास्त्र, वेद इत्यादि से कोई मोह नहीं है। जिन्होंने छोड़ा है, उनको वेद से मोह है। उनको है कि मैं वेद के विपरीत बोल रहा हूं, इसलिए मार डाला जाऊं। इस हाथी को क्या लेना वेद इत्यादि से! यह होगा पागल, मगर इतना पागल नहीं है जितना कि आदमी पागल हो सकता है।
खयाल रहे, आदमी जितना नीचे गिर सकता है, उतना दुनिया में कोई नीचे नहीं गिर सकता, क्योंकि आदमी जितना ऊंचा उठ सकता है, उतना कोई ऊंचा नहीं उठ सकता। आदमी पशुओं से बहुत नीचे जा सकता है और देवताओं से बहुत ऊपर। आदमी एक सीढ़ी है, जिसका एक छोर नरक में लगा है और दूसरा छोर स्वर्ग में लगा है। आदमी ही सिर्फ सीढ़ी है, बाकी सारे पशु जैसे हैं वैसे हैं। लेकिन आदमी एक सीढ़ी है।
आदमी विकासमान है, गतिमान है। वह नीचे गिर सकता है, ऊपर चढ़ सकता है। सीढ़ी एक ही है; उसी सीढ़ी से ऊपर जाया जाता है, उसी से नीचे जाया जाता है--सिर्फ दिशा का भेद होता है।
राज कोई छिपा हुआ राज नहीं है। राज खुला हुआ है। छोटा सा है। जैसे बूंद सागर में गिर जाए, तो फिर बूंद को अपनी चिंता क्या! फिर सागर ही हो गई। फिर सागर जाने; बचाना हो बचाए, न बचाना हो न बचाए। बचाए तो भी ठीक, न बचाए तो भी ठीक।
ऐसे ही, मैं नहीं हूं, सागर है। उस सागर को तुम परमात्मा कहो, मोक्ष कहो, निर्वाण कहो, बुद्धत्व कहो, जिनत्व कहो, जो भी तुम्हारी मर्जी हो, जो नाम देना हो। लेकिन इतना ही है कि बूंद अब नहीं है, सागर है। और जो मेरे साथ जुड़ रहे हैं, वे मेरे साथ नहीं जुड़ रहे हैं, क्योंकि मैं तो हूं ही नहीं। मैं तो सिर्फ बहाना हूं। वे मेरे बहाने सागर से ही जुड़ रहे हैं।
इसलिए बहुत चमत्कार होते रहेंगे। यही असली चमत्कार हैं। कोई हाथ से राख निकाल देना चमत्कार नहीं है, कि हाथ से घड़ियां प्रकट कर देना चमत्कार नहीं हैं। ये सब मदारीगीरियां हैं। ये सब मदारी हैं। ये सड़क-छाप मदारी हैं। ये सड़क के कोने-कोने पर जो मदारी खेल दिखाते हैं, उससे भिन्न इन खेलों में कुछ भी नहीं है। मगर ये जो चमत्कार अपने आप होते हैं...जो श्रद्धा के कारण होते हैं, जो आस्था के कारण होते हैं, यही असली चमत्कार हैं।
और इन चमत्कारों को अनुभव करने का जो भी तुम्हें मौका दे, उसका धन्यवाद करना। अब यह जो आदमी छुरा फेंक गया, यह तुम्हें एक मौका दे गया। इस पर नाराज मत होना। इससे मन में कोई दुर्भावना न लाना इसके प्रति। यह एक शुभ अवसर उपस्थित कर गया। यह नाहक अपने को झंझट में डाल गया और तुम्हारे लिए एक मौका दे गया। तुम्हारे लिए एक दर्शन का क्षण, एक झरोखा खोल गया।
योग माणिक, ऐसे बहुत झरोखे खुलेंगे। यही सत्संग है।
सत्संग इतना ही नहीं है, कि मैं कुछ कहूं, वह तुम सुनो। सत्संग के बहुत पहलू हैं, बहुत आयाम हैं। मैं जो नहीं कहूंगा, वह भी तुम सुन सकोगे। जो कभी नहीं कहा जा सकता, वह भी तुम सुन सकोगे। और जो घटेगा, वह भी तुम देख सकोगे। यहां रहस्य खुलेंगे। और रहस्यों के पीछे रहस्य छिपे हुए हैं। उनकी अनंत श्रृंखला है। इस सारी श्रृंखला की खोज ही तो संन्यास है। इस श्रृंखला की खोज का नाम ही तो धर्म है। एक सूत्र तुम्हारे हाथ में पकड़ आ जाए तो तुम इस अनंत यात्रा पर निकल जाओगे। किसी भी बहाने सूत्र को पकड़ लो और चल पड़ो।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, क्या भारत देश ब्रह्मज्ञानी नहीं है?
आत्मानंद ब्रह्मचारी! हो तो तुम भी हिम्मत के आदमी। मार मैं कितनी ही मारूं, मगर तुम भी टस से मस नहीं होते। तुम जमे हो अपनी जगह पर--बिलकुल थिर!
देश कहीं ब्रह्मज्ञानी होते हैं? और अगर ब्रह्मज्ञानी होते हों तो ब्रह्म-देश होगा। देश कैसे ब्रह्मज्ञानी हो सकते हैं? समाज ब्रह्मज्ञानी नहीं होते, समूह ब्रह्मज्ञानी नहीं होते। ब्रह्मज्ञान की घटना तो व्यक्ति के अंतस्तल में घटती है। हां, कोई बुद्ध, कोई महावीर, कोई कृष्ण, कोई गोरख, कबीर, नानक, दादू, मलूक, फरीद--व्यक्ति! लेकिन देश नहीं होते ब्रह्मज्ञानी। देश की कोई आत्मा होती है? देश है ही क्या? एक कोरा नाम मात्र है, एक संज्ञा मात्र है! किस चीज को भारत देश कहते हो? हिमालय? गंगा, यमुना, नर्मदा, गोदावरी, सतपुड़ा, विंध्याचल? जमीन? आकाश? किसको देश कहते हो?
आत्मा अगर अपने को अनुभव करे तो ब्रह्मज्ञान जल उठता है--दीये की लौ की तरह। मगर आत्मा तो व्यक्ति की संपदा है, समूह की नहीं। समूह से ज्यादा मूढ़तापूर्ण कृत्य और कोई नहीं करता। व्यक्ति कभी नहीं करता। भीड़ ने जितने पाप किए हैं दुनिया में, उतने किसी और ने नहीं किए। पाप करवाने हों तो भीड़ चाहिए--हिंदुओं की, मुसलमानों की, ईसाइयों की भीड़ चाहिए। भीड़ हो तो पाप करवाए जा सकते हैं, क्योंकि भीड़ का एक राज है: व्यक्ति को अपना उत्तरदायित्व अनुभव नहीं होता। अगर एक भीड़ मस्जिद को जला रही हो तो तुम भी जोश में आ जाते हो। तुम भी लग जाते हो मस्जिद को गिराने में, जलाने में। अगर तुमसे अकेला पूछा जाए कि क्या तुम अकेले यह काम कर सकते थे? तो शायद तुम्हारी छाती भी धड़केगी। शायद तुम्हारा अंतःकरण भी कचोटेगा। तुम कहोगे कि नहीं, अकेले तो मैं नहीं कर सकता था। क्यों? क्योंकि अकेले करते तो तुमको लगता कि मैं यह क्या कर रहा हूं! क्या यह उचित है? आखिर यह भी तो घर परमात्मा का है! आखिर यहां भी तो लोग प्रार्थना करने ही इकट्ठे होते हैं! यूं न करते होंगे प्रार्थना, यूं करते होंगे; मगर करते तो प्रार्थना ही हैं! याद तो उसी की है! नाम उसका नहीं होगा राम, तो अल्लाह होगा। लेकिन नाम तो सिर्फ इशारा है; वह तो अनाम है। किसी भी इशारे से पुकारो। मैं यह क्या कर रहा हूं!
व्यक्ति को अगर आग लगानी पड़े मंदिर में या मस्जिद में या किसी की छाती में छुरा भोंकना पड़े, सिर्फ इस कारण क्योंकि यह हिंदू है या मुसलमान है, तो चौंकेगा, सहमेगा, ठिठकेगा, हजार बार सोचेगा कि मैं यह क्या कर रहा हूं! यह उत्तरदायित्व मेरे ऊपर होगा! लेकिन जब भीड़ कोई पाप करती है तो भीड़ में तुम्हारा उत्तरदायित्व खो जाता है। तुम कहते हो: कोई मैं थोड़े ही कर रहा हूं! लोग तो आग लगा ही रहे थे, मैं साथ हो लिया, संग-साथ हो लिया। मैं न होता तो भी मस्जिद तो जलती, मंदिर तो गिरता, मूर्ति तो टूटती। मैं न भी होता तो भी आदमी तो मारे ही जाते। मेरे होने से मारे गए, यह तो कोई सवाल ही नहीं है। इसलिए मैं कहीं आता नहीं।
तुम निश्चिंत हो जाओगे। तुम्हारी कोई जिम्मेवारी नहीं है। इसलिए अच्छे-अच्छे नाम चाहिए पाप के लिए--देश, जाति, धर्म। ऊंचे-ऊंचे नारे चाहिए।
जिस आदमी ने हिरोशिमा पर एटम बम गिराया, एक लाख बीस हजार आदमी जल कर राख हो गए--एक आदमी के कृत्य से! तुम जरा सोचो कि तुमसे अगर कोई कहे कि एक लाख बीस हजार आदमी तुम्हारे कृत्य से जल कर राख हो जाएंगे, तुम कर सकोगे? करने के लिए बड़ा नाम चाहिए पड़ेगा--देश, मनुष्यता, शांति की रक्षा! उस आदमी से जब दूसरे दिन सुबह पूछा पत्रकारों ने कि तुम्हें रात नींद आई? उसने कहा: मैं बिलकुल आनंद से सोया। अपना कर्तव्य निभाया। आज्ञा का पालन किया। अपने देश की रक्षा के लिए जो करना चाहिए, वह किया। और यह देश की ही रक्षा नहीं है, यह दुनिया को युद्ध से बचाने का उपाय है। यह मनुष्य की रक्षा है, यह मनुष्यता मात्र की रक्षा है। ये दरिंदे हैं, ये राक्षस हैं।
इसलिए हर एक व्यक्ति अपने दुश्मन को राक्षस कहता है। कोई रावण राक्षस नहीं था। लेकिन राम के पक्ष में जिन्होंने किताबें लिखी हैं, वे रावण को राक्षस कहेंगे। दक्षिण में किताबें लिखी गई हैं, जिनमें रावण को महापुरुष कहा गया है। वे उसको राक्षस नहीं कहेंगे।
जब हिंदुस्तान और चीन में दोस्ती थी तो हिंदी-चीनी भाई-भाई! और जब चीन ने हमला किया तो चीनी राक्षस हो गए। हिंदुस्तान में कविताएं लिखी जाने लगीं कि चीनी जो हैं, राक्षस हैं। दुश्मन राक्षस हो जाता है। राक्षस क्यों? क्योंकि राक्षस कह कर उसको मारना आसान हो जाता है। आदमी कहोगे तो मारना मुश्किल होगा। राक्षस को मारने में क्या हर्जा है! अरे यह तो महापापी है, इसको मिटा दो! तो उतना ही पृथ्वी का भार कम हुआ!
अपने को अच्छे-अच्छे शब्दों की आड़ में खड़ा कर लो और दूसरे को बुरे-बुरे शब्दों से लाद दो, तो सुविधा हो जाती है, आसानी हो जाती है , बहुत आसानी हो जाती है।
आत्मानंद ब्रह्मचारी, देश इत्यादि की बातें, जाति और समूह की बातें, संप्रदाय की बातें--ब्रह्मज्ञानियों की बातें नहीं हैं। ब्रह्मज्ञान तो निजी घटना है।
एक स्कूल में एक ब्राह्मण पंडित विद्यार्थियों से पूछ रहा था: बताओ, भारत में कौन-कौन से मत प्रचलित हैं?
एक छात्र ने कहा: पंडित जी, कांग्रेस मत, जनता मत इत्यादि-इत्यादि।
पंडित जी गुस्से में आ गए। वे कहां धर्म की बात कर रहे हैं और यह कहां राजनीति की बात छेड़ रहा है! पंडित जी ने गुस्से में कहा: बको मत!
छात्र ने कहा कि पंडित जी, मैं भूल गया था, बको मत भी बहुत प्रचलित है।
भीड़ में तो बको मत रहता है, कहां ब्रह्मवाद!...बकवास! व्यर्थ की बकवास! लोग ईश्वर की चर्चा कर रहे हैं, आत्मा की चर्चा कर रहे हैं; जैसे कि उन्हें पता हो। पता उन्हें कुछ भी नहीं है, मगर शब्द सीख लिए हैं, तोतों की तरह दोहराए चले जा रहे हैं। किसी काम के वे शब्द नहीं हैं। उनके जीवन में उन शब्दों से कोई क्रांति नहीं होती। अगर तुम इन्हीं शब्दों को ब्रह्मज्ञान मानते हो, तब तो ठीक है, भारत ब्रह्मज्ञानी देश है; क्योंकि यहां जितनी ब्रह्मज्ञान की चर्चा होती है कहीं नहीं होती। और कुछ हमारे पास चर्चा को बचा भी नहीं है।
हर देश की अपनी-अपनी आदतें होती हैं, रिवाज होते हैं। जैसे इंग्लैंड में लोग हमेशा मौसम की चर्चा करते हैं। और कारण है उसका, क्योंकि मौसम एक ऐसा विषय है, जिसमें कोई ज्यादा वाद-विवाद की जरूरत नहीं है। अंग्रेज वाद-विवाद पसंद नहीं करते, अशिष्ट मानते हैं वाद-विवाद को, ऐसी कोई बात छेड़ना, जिसमें वाद-विवाद हो जाए। ये बिलकुल ही निर्विवाद सत्य हैं, जिनमें कोई विवाद का सवाल ही नहीं है। जैसे बादल घिरे हैं तो अंग्रेज कहेंगे: आज बहुत बादल घिरे हैं। स्वभावतः दूसरा भी कहेगा कि हां, आज बहुत बादल घिरे हैं, बड़ी उमस है, बड़ी बेचैनी अनुभव हो रही है। अब इसमें क्या विवाद करना है!
मुल्ला नसरुद्दीन अपने नाई से बाल बनवाने जाता है। बार-बार मैंने उसको देखा कि जब भी वह नाई से बाल बनवाता है, तो बस वह मौसम की ही बात करे--कि आज सूरज निकला हुआ है, बड़ा सुंदर सूरज! और कभी कहे कि आज वर्षा हो गई, खूब बूंदा-बांदी पड़ रही है, बड़ा आनंद आ रहा है! मैंने उससे पूछा: नसरुद्दीन, और तो तू कभी भी मौसम की चर्चा नहीं करता, मगर जब नाई से तू अपने बाल बनवाता है तो हमेशा मौसम की चर्चा करता है!
तो उसने कहा कि आप क्या समझते हैं, कि मैं पागल हूं, जिस आदमी के हाथ में उस्तरा हो और मेरी गर्दन पर उस्तरा लगाए हो, उससे क्या राजनीति या धर्म की बात छेडूं? आ जाए गुस्से में, नउए का बच्चा, क्या पता! छत्तीस गुणों का पूरा, मार दे जोर से! तो मौसम की चर्चा करता हूं, जिसमें कि कोई झगड़े-झांसे का सवाल ही नहीं है।
अंग्रेज मौसम की चर्चा करते हैं, जिसमें कोई वाद-विवाद नहीं है। एक तो वे चर्चा ही नहीं करते, जहां तक बने चर्चा ही नहीं करते। अगर दो अंग्रेज एक रेलगाड़ी के डिब्बे में बैठे हों तो घंटों बैठे रहेंगे बिना एक-दूसरे से बोले हुए, क्योंकि जब तक कोई तीसरा उनका परिचय न कराए, तब तक वे बोलें कैसे! बोलना असंभव। परिचय ही नहीं करवाया गया...तो चुपचाप बैठे रहेंगे, अपना-अपना अखबार पढ़ते रहेंगे।
दो भारतीय मिलेंगे तो ब्रह्मज्ञान छेड़ेंगे। यह भारतीय आदत, रिवाज। यह हमारी पुरानी लीक। इसका कोई मूल्य नहीं है--उतना ही मूल्य है, जितना मौसम की चर्चा का इंग्लैंड में, उतना ही ब्रह्मज्ञान की चर्चा का भारत में। दो भारतीय मिलेंगे तो फौरन वेदांत छिड़ जाएगा। और एक-दूसरे से बढ़-चढ़ कर बात करेंगे, क्योंकि जब वेदांत ही छिड़ा हो तो फिर किससे क्या पीछे रहना। लंबी मारेंगे। गपशप ही चल रही है, तो फिर क्या किसी से हारना! और ब्रह्मज्ञान का मामला ऐसा है, इसमें कुछ भी कहो, सभी ठीक है, क्योंकि न पक्ष में कोई प्रमाण है, न विपक्ष में कोई प्रमाण है, प्रमाण का तो कोई सवाल ही नहीं है।
एक राधास्वामी संप्रदाय को मानने वाले सज्जन मेरे पास आए और उन्होंने कहा कि आप अस्तित्व के कितने खंड मानते हैं? क्योंकि हमारे गुरु तो चौदह खंड मानते हैं और चौदहवां खंड का नाम है--सच्च खंड!
वे नक्शा भी लाए थे--चौदह खंड। और उन खंडों में जो उन्होंने दिखाया था, वह झगड़े-झांसे की बात है। क्योंकि उसमें मोहम्मद, मूसा, इत्यादि तो पांचवें खंड में हैं, अभी वहीं अटके हैं। जीसस, जरथुस्त्र जरा आगे गए हैं--छठवें खंड में। महावीर और बुद्ध और थोड़े आगे बढ़े हैं। बड़ी कृपा की उन्होंने--सातवें खंड में! फिर कबीर, नानक इत्यादि और थोड़े आगे बढ़ा दिए हैं--आठवें खंड में। मगर चौदहवें खंड तक उनके ही गुरु पहुंचे! सच्च खंड! वे मुझसे पूछने लगे: आप कितने खंड मानते हैं? हमारे गुरु के संबंध में आपका क्या खयाल है? क्या ये खंड सच हैं?
मैंने कहा: ये बिलकुल सच हैं, क्योंकि मैंने तुम्हारे गुरु को चौदहवें खंड में अटके देखा है।
तो उन्होंने कहा: आपका मतलब?
मैं पंद्रहवें खंड में हूं! महासच्च खंड!
आप कहते क्या हैं! यह तो कभी सुना नहीं।
मैंने कहा: तुम सुनोगे कैसे? तुम्हारे गुरु को ही पता नहीं था, तो तुम सुनोगे कैसे!
कहने लगे: नहीं-नहीं, ऐसा कैसे हो सकता है कि हमारे गुरु को पता न हो!
उनको पता कैसे होगा, जब वे चौदहवें में ही अटके हैं! जब तुम दूसरों को अटका रहे हो--किसी को सातवें में, किसी को आठवें में; जब तुमको यह अधिकार है अटकाने का--तो अब मैं भी क्या करूं, मैं पंद्रहवें में हूं!
तब से वे आए नहीं। ऐसे नाराज होकर गए हैं कि फिर नहीं लौटे। मैंने उनसे कहा भी कि कभी-कभी सत्संग को आ जाया करो। ऐसे तुम्हारे गुरु भी बहुत प्रार्थना करते हैं कि निकाल लो मुझे चौदहवें खंड से। कोशिश कर रहा हूं उनको भी निकालने की।
वे तो नाराज ही हो गए एकदम कि बात ही हमारे गुरु के खिलाफ हो गई! और दूसरे गुरुओं के खिलाफ जो कह रहे हैं, वह बिलकुल ठीक है। महावीर और बुद्ध को भी सातवें में अटकाए हुए हैं, चौदहवें तक भी नहीं पहुंचने देते। बड़ी कृपा की उन्होंने कबीर, नानक इत्यादि पर, कि उनको आठवें में चढ़ा दिया! तो मैंने कहा: तुम मेरा तो दयाभाव देखो कि तुम्हारे गुरु को चौदहवें तक चढ़ाया स्वीकार करता हूं। और मैं देख ही रहा हूं उनको कि चौदहवें में हैं। बिलकुल सच कहते हैं वे। अब उनको कोई चाहिए जो निकाले। मैं कोशिश करूंगा जितना बन सकेगा निकालने की, निकल आए तो ठीक। जोर से पकड़े हुए हैं चौदहवें खंड को, क्योंकि वे समझते हैं सच्च खंड आखिरी खंड है। सच्च खंड आखिरी कैसे हो सकता है, फिर महासच्च खंड का क्या होगा?
ब्रह्मज्ञान की ही बात करनी हो तो फिर जो दिल में आए बात करो--चौदहवां खंड बनाओ, सोलहवां बनाओ, अठारहवां बनाओ। मंदिरों में नक्शे लटके हुए हैं नरक के, स्वर्ग के। महावीर कहते थे एक नरक। उनका ही एक शिष्य, गोशाल, बगावती हो गया। बगावती यूं हो गया कि उसने देखा कि महावीरजो कहते हैं ब्रह्मज्ञान, यह तो मैं ही कह सकता हूं। कई दिन उनके साथ रहा, सब समझ लिया। उसने कहा कि ठीक है, ये बातें तो मैं ही कह सकता हूं। तो वह भी कहने लगा। उसमें उसने और जोड़ लीं बातें। वह कहने लगा: तीन नरक होते हैं और तीन स्वर्ग होते हैं। अब करोगे क्या? इसमें कुछ झगड़ा तो नहीं है। लोग उससे पूछते कि महावीर तो कहते हैं एक ही है, तो उसने कहा: उनको एक का ही पता है, एक का बताते हैं। आगे का उनको पता नहीं है।
संजय वेलट्ठीपुत्त को पता चला--वह भी एक ज्ञानी था--कि यह गोशाल कहता है तीन नरक हैं। उसने कहा: पागल है, अरे तीन से कहीं काम चला है! सात के बिना हो ही नहीं सकता। सात नरक हैं, सात स्वर्ग हैं।
और पूर्णकाश्यप एक और गुरु था उन दिनों का--कहना चाहिए गुरु घंटाल! आदमी प्यारा है, मुझे पसंद है वह। उसने कहा: क्या लगा रखी है बकवास छोटी-मोटी! अरे सात सौ नरक होते हैं और सात सौ स्वर्ग!
अब इसको अगर ब्रह्मज्ञान कहते हो तो तुम्हारी मौज, फिर तुम्हें जो दिल में आए छेड़ो। अपनी-अपनी मौज है। अपनी-अपनी उड़ान है। जितनी जिसकी कल्पना हो, उतने उड़े चले जाओ।
मगर कोई देश न तो ब्रह्मज्ञानी है, न रहा है, न कभी हो सकता है। यह अहंकार छोड़ो। देश वगैरह से ब्रह्मज्ञान का कोई संबंध नहीं है। ये सब अपने अहंकार को भरने के परोक्ष रास्ते हैं। अपनी आंखें ठीक करो। देश के पास आंखें होती ही नहीं, ठीक भी क्या करोगे! अब कोई कहने लगे कि देश की आंखों पर चश्मे चढ़ा दें, तो सबको ठीक दिखाई पड़ने लगेगा; मगर देश की आंखें ही नहीं हैं तो चश्मा कहां चढ़ाओगे! देश की अंतर्दृष्टि खोल दें! मगर अंतर्दृष्टि देश की है कहां? देश कोई व्यक्ति तो नहीं, आत्मा तो नहीं--संज्ञा मात्र है, थोथा शब्द मात्र है।
शब्दों से जरा सावधान रहो। शब्दों में मत उलझ जाओ।
बुढ़ापे में मुल्ला नसरुद्दीन की आंखें कमजोर हो गईं। जब उसे हाथी तक चूहे के बराबर दिखाई देने लगे तो वह अपने नेत्र-विशेषज्ञ से सलाह लेने पहुंचा। डॉक्टर ने आंखों की जांच की और एक काफी मोटे लेंसों वाला चश्मा नसरुद्दीन को पहना दिया। मुल्ला खुशी-खुशी बाहर आया। घर लौटते समय रास्ते में बाजार पड़ा, तो नसरुद्दीन ने सोचा: आज मुझे नई ज्योति मिली है, चलो इसी खुशी में बच्चों के लिए कुछ खिलौने ले चलूं? वह एक अंगूर की दुकान पर पहुंचा और पूछने लगा: क्यों भाईजान, ये फुग्गे किस भाव दिए?
लोग कभी-कभी अपनी आंख भी ठीक करते हैं तो जरूरत से ज्यादा ठीक कर लेते हैं। तो या तो उनको हाथी चूहा दिखाई पड़ता है, नहीं तो फिर चूहा हाथी दिखाई पड़ने लगता है। सम्यक दृष्टि--इसलिए बुद्ध ने कहा--सम-दृष्टि होनी चाहिए, ढंग की दृष्टि होनी चाहिए।
आदमी चाहता क्या है? एक बात चाहता है कि किसी तरह अपने अहंकार को नये-नये श्रृंगार दे दे, नये-नये आभूषण दे दे। तो मेरा देश महान! क्यों? क्योंकि आप, आत्मानंद ब्रह्मचारी, इस देश में पैदा हुए! महान न होता तो आप यहां पैदा ही क्यों होते? होना ही चाहिए महान! जब आप तक ने पैदा होने के लिए इसको चुना, तो यह महान होना ही चाहिए! यह अपने को ही महान कहने का परोक्ष ढंग है।
पेरिस विश्वविद्यालय में दर्शन शास्त्र का एक प्रधान अध्यापक था। उसने एक दिन घोषणा की अपने विद्यार्थियों के सामने कि मैं इस पृथ्वी का सबसे महान व्यक्ति हूं। विद्यार्थी भी चौंके। एक तो दर्शनशास्त्र के प्रधान अध्यापक...दर्शनशास्त्र की कौन कीमत करता है! विश्वविद्यालय में आखिरी दर्जे में दर्शनशास्त्र होता है। कौन पढ़ने जाता है! जिनको किन्हीं और विषयों में जगह नहीं मिलती, वे दर्शनशास्त्र पढ़ते हैं। भारत में तो आमतौर से लड़कियां पढ़ती हैं, क्योंकि विवाह ही करना है, एम.ए. होकर और तो कुछ करना नहीं है, तो नाहक क्यों उपद्रव में पड़ना! दर्शनशास्त्र ठीक। और फिर ब्रह्मज्ञान तो भारत के खून में ही है। कोई दर्शनशास्त्र में पढ़ने जाता नहीं है। सैकड़ों विश्वविद्यालयों में दर्शनशास्त्र के विभाग खाली पड़े हुए हैं। मगर इज्जत के लिए विश्वविद्यालय दर्शनशास्त्र का विभाग कायम रखते हैं, क्योंकि उसको हटाने में भी बेइज्जती होती है कि इसमें एक विभाग कम है।
और यह गरीब अध्यापक दर्शनशास्त्र का! हां, कोई गणित का अध्यापक कहता, कोई फिजिक्स का अध्यापक कहता। किसी ने एटम बम बनाया होता और वह कहता। यह इसने तो कुछ न बनाया, न कभी कुछ मिटाया। बस ऊंची-ऊंची बातें करता रहा हवाई। यह कह रहा है--मुझसे महान व्यक्ति कोई दुनिया में नहीं है! एक विद्यार्थी ने कहा कि आप तो दर्शन के अध्यापक हैं, क्या आप सिद्ध कर सकते हैं?
उसने कहा कि बिना सिद्ध करे मैं कोई बात कहता ही नहीं। तो सुनो! उसने फौरन नक्शा निकाला दुनिया का, बोर्ड पर टांगा और पूछा कि मैं तुमसे यह पूछता हूं: दुनिया में सबसे महान देश कौन है? स्वभावतः विद्यार्थियों ने कहा कि फ्रांस। और उसने पूछा: मैं तुमसे यह पूछता हूं, फ्रांस में सबसे बड़ा महान नगर कौन सा है?
उन्होंने कहा: पेरिस।
और तब उसने पूछा कि मैं तुमसे पूछता हूं, पेरिस में सबसे महान और पवित्रतम स्थल कौन सा है? उन्होंने कहा: स्वभावतः, जो सरस्वती का मंदिर है, विश्वविद्यालय।
तब वे घबड़ाए कि यह आदमी तो लिए जा रहा है धीरे-धीरे। तब उनको कुछ थोड़ी सी शंका होनी शुरू हुई। और तब उसने कहा कि ठीक, और इस विश्वविद्यालय में सबसे श्रेष्ठ विषय कौन सा है?
अब फांसी लगी लड़कों की! उन्होंने कहा कि अब लग गई फांसी, क्योंकि हम सब दर्शनशास्त्र के विद्यार्थी हैं, तो हमको तो कहना ही पड़ेगा कि दर्शनशास्त्र। तो उन्होंने कहा: दर्शनशास्त्र।
तो उसने कहा: अब कुछ सिद्ध करने को बचा है? और मैं दर्शनशास्त्र का प्रधान अध्यापक, मैं इस दुनिया का सबसे महान व्यक्ति हूं! यह सिद्ध हो गया। और क्या सिद्ध करने लिए चाहिए?
भारत ब्रह्मज्ञानी है! यहां देवता पैदा होने को तरसते हैं! शक्कर मिलती नहीं, देवता पैदा होने को तरसते हैं! तो उनसे कह देना देवताओं से कि शक्कर साथ लेते आएं। घासलेट का तेल मिलता नहीं, तो कह देना उनसे कि घासलेट के तेल के पीपे साथ लेते आएं। तरसते हो, वह तो ठीक है। तरसते हो तो आओ भैया, वैसे ही भीड़-भाड़ है, और थोड़ी भीड़-भाड़ हो जाएगी। मजे से आओ, स्वागत है। अरे अतिथि तक को देवता कहते हैं, जब देवता ही अतिथि होना चाहे तो अब क्या करें! मगर कुछ चीजें लेते आना। रहने के लिए थोड़ी जगह ले आना, मकान ले आना, सामान ले आना, कुछ फर्नीचर ले आना।
देवता तरसते हैं यहां पैदा होने को! किस कारण तरसते होंगे--या तो पागल हो गए हैं या सोमरस ज्यादा पी गए हैं, बात क्या है! भांग चढ़ा गए हैं। भारत में पैदा होने को तरसते हैं, कोई और जगह नहीं मिलती पैदा होने को!
मगर भारतीय मन को, भारतीय अहंकार को तृप्ति मिलती है--यहां देवता पैदा होने को तरसते हैं! यह पुण्य-भूमि है! यह ब्रह्मज्ञानियों का देश है!
यह पागलपन छोड़ो। तुम्हीं ब्रह्मज्ञानी हो जाओ, यही पर्याप्त है। इन व्यर्थ की बातों में समय न गंवाओ।
मुल्ला नसरुद्दीन को चार महीने से कान में भयानक दर्द था। वह कान के विशेषज्ञ के पास पहुंचा। विशेषज्ञ ने एकबारगी कान के भीतर झांका और आधे मिनट के अंदर ही चिमटी से पकड़ कर एक रुपये का सिक्का बाहर निकाल कर मुल्ला की हथेली पर रख कर कहा: देखो, यह है सारी समस्या की जड़।
नसरुद्दीन ने राहत की श्वासें लेते हुए कहा: मेरे तो इसने प्राण ही ले लिए थे। डॉक्टर साहब। आज पूरे चार महीने हो गए हैं, न ठीक से सोया हूं, न कुछ ठीक से खा-पी सका हूं। दिन-रात कान तड़कता था और मैं मछली की तरह तड़फता था। आपने बड़ी कृपा की! मैं आपका एहसान जिंदगी भर नहीं भूलूंगा।
डॉक्टर बोला: लेकिन मुझे समझ नहीं आया कि तुमने पहले आने की कोशिश क्यों नहीं की! चार महीनों से इस नरक की पीड़ा को बेवजह क्यों झेल रहे थे? कभी भी आ जाते। अरे आधा मिनट का ही तो काम था, बस इस सिक्के को बाहर निकालना था।
दरअसल बात यह है डॉक्टर साहब--नसरुद्दीन ने जवाब दिया--कि आज तक मुझे इस सिक्के की आवश्यकता ही नहीं पड़ी।
आत्मानंद ब्रह्मचारी, तुम्हें ब्रह्मज्ञान की आवश्यकता है या नहीं? तुम्हें आवश्यकता हो, अगर आ गई हो आवश्यकता, तो इस व्यर्थ के जाल में मत पड़ो। व्यर्थ की बातों में मत पड़ो। तो अपने भीतर उतरो, खोदो। वहीं पड़ा है हीरा। हीरों की खदान वहीं है। फिर तुम भारतीय हो, कि जापानी, कि चीनी, कि अफगानी, कुछ फर्क नहीं पड़ता। प्रत्येक के भीतर परमात्मा विराजमान है। और प्रत्येक के भीतर यह क्षमता है कि वह स्वयं को खोज ले, स्वयं से परिचित हो जाए।
मगर हमें ब्रह्मज्ञान से तो जरूरत ही नहीं है। हमें तो और ही दूसरी बकवास में लगे रहना है--भारत ब्रह्मज्ञानी है या नहीं! हो भी तो तुम क्या करोगे? हो भी तो तुम ब्रह्मज्ञानी न हो जाओगे। तुम्हें होना पड़ेगा। इसलिए मुद्दे की बात करो, जड़ की बात करो। मूल समस्या को पकड़ो। और समस्या सीधी-साफ है: अपनी चेतना में उतरना है। अपने साक्षीभाव को जाग्रत करना है।
आत्मानंद ब्रह्मचारी, जागो! काफी सो लिए। भोर हो गई है।
आज इतना ही।