QUESTION & ANSWER
Sumiran Mera Hari Kare 04
Fourth Discourse from the series of 11 discourses - Sumiran Mera Hari Kare by Osho. These discourses were given during MAY 21-31 1980, Pune.
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पहला प्रश्न:
भगवान, परसों की घटना के बाद चारों ओर आश्रम में देखता हूं तो ऐसा लगता है जैसे हमारी जड़ें कंप गई हैं।
सिद्धार्थ! आंधी और तूफान जड़ों को कंपाते भी हैं और जमाते भी। अगर सिर्फ जड़ों का कंपना ही देखोगे तो उदास हो जाओगे। अगर जड़ों का जमना भी देख सको तो आह्लादित हो जाओगे। दृष्टि-दृष्टि की बात है।
आंधी आती है, जड़ें अभी कंपती लगती हैं; जमेंगी तो कल, परसों। जमने में समय लगेगा। लेकिन जो वृक्ष आंधियों में से नहीं गुजरते उनकी रीढ़ सदा के लिए कमजोर रह जाती है। अच्छा ही है कि आंधियां आएं। अच्छा ही है तूफान उठें। क्योंकि आंधियों और तूफानों से पार हो सको तो प्रौढ़ता पैदा होगी, तो आत्मा का जन्म होता है।
बहुत प्राचीन यहूदी कथा है। एक किसान थक गया--वर्षों की असफलता से। कभी वर्षा ज्यादा हो जाए, कभी कम हो। कभी पाला पड़ जाए, कभी कीड़े लग जाएं। कभी सूखा, कभी बाढ़। जैसी आशाएं रखे वह, वैसी फसल हो ही न पाए। एक दिन भगवान से प्रार्थना की कि ऐसा लगता है देख कर कि तुझे खेतीबाड़ी की कोई अक्ल नहीं। और सब तू जानता होगा, होगा सर्वज्ञ, होगा सर्वव्यापी; मगर इतना मैं तुझसे कह सकता हूं--मैं किसान हूं, पुश्तैनी किसान हूं, पीढ़ी दर पीढ़ी का किसान हूं--कि तुझे किसानी नहीं आती। अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं है, सीख सकता है। और अभी अनंत भविष्य पड़ा है; सीख लेगा तो काम आएगा।
बात उसने इतनी हृदय से कही थी, औपचारिक न थी। औपचारिक बातें ऐसी नहीं होतीं। औपचारिक बातें तो थोथी होती हैं--कि हम पतित हैं, तुम पतितपावन हो! औपचारिक बातें तो शास्त्रीय होती हैं। उसने तो सीधी-सीधी दो टूक बात की थी। कहते हैं भगवान प्रकट हुए और उन्होंने कहा: कि तू क्या चाहता है?
उसने कहा: एक मौका मुझे दें। इस वर्ष जैसा मैं चाहूं वैसा हो। और फिर देखें। फिर तुम्हें पाठ पढ़ा दूंगा, ताकि आगे इस तरह की भूल-चूक न हो। हम किसानों को बहुत परेशान किए हुए है तुम्हारा मौसम। तुम्हारी गैर-जानकारी हमारे प्राणों पर बन आई है।
परमात्मा मुस्कुराया। उसने कहा: तो ठीक, इस वर्ष तू जैसा चाहेगा वैसा होगा। और किसान ने जैसा चाहा वैसा ही हुआ। बांछें खिल गईं किसान की। जितनी वर्षा चाहिए थी, जितने इंच, उतनी ही, न आधा इंच कम न आधा इंच ज्यादा। जितनी धूप चाहिए थी उतनी, न जरा कम न जरा ज्यादा। सब चीज नाप-तौल से ली। जितनी जरूरत थी पौधों की...कुछ भी अतिशय न हुआ। और किसान रोज-रोज प्रसन्न था। उसके गेहूं के पौधे ऐसे बढ़े, ऐसे बढ़े कि शायद पृथ्वी पर कभी गेहूं ऐसे न बढ़े होंगे। आदमी खो जाएं उनमें, इतने ऊंचे हो गए। सात-सात आठ-आठ फीट ऊंचे हो गए। दिल ही दिल खुश था। बड़ी बालें ऊगीं--ऐसी बालें कि कभी देखी नहीं गई थीं। सोचता था कि अब दिखा दूंगा परमात्मा को--ऐसे गेहूं आएंगे, जो अनूठे होंगे। उसकी प्रसन्नता का अंत नहीं था। नाचता था, गाता था, मस्त होता था। सो नहीं सकता था, इतना आह्लादित था। उठ आता था भोर, बड़े जल्दी, पहुंच जाता था खेत पर। खेत को देख-देख कर जीवन भर की निराशा बह गई थी। खेत क्या हरा हुआ था, उसके प्राण हरे हो गए थे।
फिर फसल कटने का समय आया, फसल कटी। और किसान सिर पीट कर रह गया। बालें तो बहुत बड़ी थीं, मगर खाली थीं, उनमें गेहूं थे ही नहीं। उसकी आंखों से झर-झर आंसू गिरने लगे। परमात्मा प्रकट हुआ और उसने कहा: क्यों रोते हो? क्या हुआ तुम्हारी खुशी का?
किसान ने कहा: मैं समझ ही नहीं पाता कि यह क्या हुआ। गेहूं पैदा क्यों नहीं हुए? इतने बड़े पौधे, इतनी बड़ी बालें कि मैं तो सोचता था कि एक नया इतिहास अब लिखा जाएगा।
परमात्मा ने कहा: पागल है तू! तूने ओले गिरने न दिए, तूने आंधियां आने न दीं। तूने वर्षा ऐसी होने न दी मूसलाधार कि झकझोर जाती पौधों को। पौधे तो बड़े हो गए, मगर जरा उखाड़ कर देख, इनकी जड़ें बड़ी छोटी हैं। पौधों को चुनौती ही न दी तूने। चुनौती मिले तो जड़ें गहरी हों। पौधा जब झकझोरा जाता है तो उसके प्राणों में उस चुनौती का सामना करने के लिए जड़ें पैदा होती हैं।
परमात्मा ने पौधे उखाड़ कर बताए। पौधे तो आठ-आठ फीट ऊंचे थे और जड़ें आठ-आठ इंच भी नहीं थीं। परमात्मा ने कहा: इतनी छोटी जड़ें, इतने बड़े पौधे! देखने के सुंदर, बस देखने के! दिखावा। गेहूं को पकने का अवसर ही न आया। गेहूं को पैदा होने का अवसर ही न आया। देह ही देह रह गई, आत्मा जन्मी ही नहीं।
इसलिए अक्सर ऐसा हो जाता है कि धनपतियों के घरों में मेधावी व्यक्ति मुश्किल से पैदा होते हैं। सारी सुविधा है। इसलिए न तूफान है, न आंधी है, न ओले पड़ते, न धूप, न वर्षा, कोई पीड़ा झेलने का मौका नहीं आता। थोथे रह जाते हैं। गोबर गणेश रह जाते हैं। उनमें प्राण नहीं होते।
उस किसान को बात समझ में आई। उसने कहा: मुझे क्षमा करो। मैं भूल में था। मैं सोचता था तुम्हें किसानी नहीं आती। लेकिन अब समझा मैं राज।
जीवन का विकास विरोधों के मध्य होता है। जीवन द्वंद्वात्मक है। सिद्धार्थ, इसे याद रखो: जीवन द्वंद्वात्मक है। अगर जीवन में द्वंद्वात्मकता न हो, डायलेक्टिक्स न हो, तो बस जीवन निर्वीर्य हो जाता है, सूख जाता है! दिखावा रह जाता है फिर। देह पड़ी रह जाएगी, प्राणों का पक्षी उड़ जाएगा। पिंजड़ा पड़ा रह जाएगा।
इसलिए अक्सर ऐसा हुआ है कि जिन देशों में सहज सुविधा थी प्रकृति की--जैसे हमारे देश में प्रकृति की जितनी सुविधा थी ऐसी सुविधा शायद ही किसी दुनिया के किसी और देश में रही हो। यही सुविधा हमें खा गई। इस सुविधा के कारण हम दो हजार साल गुलाम रहे। इस सुविधा के कारण ही हमारी आत्मा मरी, हम सड़ गए। जहां कोई सुविधा न थी...तुम जरा इतिहास उठा कर देखो, इतिहास के पन्ने पलटो। हूण आए, मुगल आए, तुर्क आए। ये सब असुविधापूर्ण जगहों से आए थे, रेगिस्तानों से आए थे--जहां घास भी न ऊगे; जहां पानी की बूंद पानी मुश्किल थी; जहां प्राण सदा संकट में थे। ये आए और इस देश को जीत लिया इन्होंने। इसको लूटा।
पश्चिम से लोग आए। इंग्लैंड ने इस देश को इतने दिन तक गुलाम रखा। इंग्लैंड छोटा सा देश है। इस देश के एक बड़े जिले के बराबर। इतने बड़े देश को गुलाम रख सका! और कारण? कारण यही था कि इंग्लैंड के पास कोई ऐसा न तो वातावरण है, न ऐसी भूमि है, न ऐसा मौसम है--जहां लोग सहजता से जी सकें, सरलता से जी सकें। संघर्ष है, द्वंद्वात्मकता है। लड़ना पड़ा। जीना हो तो लड़ना पड़ेगा। तो उन्होंने सात समुंदर पार किए। समुंदरों से कौन संघर्ष लेता! अगर घर में सब सुविधा हो तो कोई पागल है जो दूर की यात्राओं पर जाए, व्यर्थ के खतरे मोल ले! और उन संघर्षों ने ही उन्हें इस योग्य बनाया। जो सात समुंदरों से लड़ सके, उनसे तुम नहीं जीत सकते थे। तुमने सात नदियां भी पार नहीं की थीं, सात समुंदर तो दूर।
यहां हजारों-लाखों लोग ऐसे हैं जो कभी अपने गांव के बाहर नहीं गए। दूर न जाओ, तुम यूं देखो कि देश के मध्य में जो लोग रहते हैं, उनसे कभी सैनिक पैदा नहीं होते। सैनिक पैदा होते हैं सीमांतों पर। जैसे कि मध्य-भारत में जो लोग रहते हैं, इनसे तुम आशा नहीं कर सकते कि ये लड़ सकें। लड़ने की अगर तुम आशा कर सकते हो तो पंजाबी से कर सकते हो। वह सीमांत पर रहा है। उसने न मालूम कितनी टक्करें ली हैं। उन टक्करों ने उसकी तलवार पर धार रख दी है। मध्य में जो रहता है, वह इतने दूर है दुश्मनों से, संघर्षों से, तूफानों से, आंधियों से, कि भूल ही गया तलवार कहां है उसकी। जंग खा गई उसकी तलवार।
सीमांतों पर रहने वाले लोग बलशाली हो जाते हैं, शूरवीर हो जाते हैं। होना ही पड़ेगा।
पंजाब से ही गुजरे सारे हमलावर। कोई भी आया तो पंजाब से ही टक्कर लेनी पड़ी। सिकंदर आया तो पंजाब से जूझा। जो भी आया, उसको पंजाब से आना पड़ेगा। तो पंजाबी में एक बल आ गया। वह बल देश के मध्य के लोगों में नहीं हो सकता। इसलिए सरदार में जो बल होगा, वह देश के मध्य में नहीं हो सकता। वह संभव नहीं है। आंधी ही यहां तक नहीं पहुंच पाती। यहां तक आती-आती है तो भी आते-आते उसके प्राण निकल जाते हैं।
इसलिए सिद्धार्थ, एक पहलू को ही मत देखो। यह सच है कि तुम चौंक गए। मगर अच्छा है कि तुम चौंके। चौंकोगे तो जागोगे। तुम्हारी जड़ें कंपी, यह भी अच्छा है। नहीं तो यह भ्रांति होने लगती है कि जैसे मैं सदा यहां रहूंगा; जैसे कि सदा तुम्हारे पास रहूंगा। आज नहीं कल पर तुम टाल सकते हो, कि कल करेंगे ध्यान, कि पा लेंगे कभी भी समाधि, जल्दी क्या है! मगर उस आदमी ने तुम पर कृपा की। छुरा फेंक कर वह तुमसे कह गया: जल्दी करो। कल पर मत टालो! कुछ करना हो तो कर लो।
और भी एक बात ध्यान रखने योग्य है कि जब भी कभी ऐसी आंधी आती है तो तुम्हें एकजुट कर जाएगी, इकट्ठा कर जाएगी। यह घटना सारी दुनिया में फैले मेरे कोई डेढ़ लाख संन्यासियों को अचानक एक तार में बांध देगी, एक सूत्र में बांध देगी। जैसे कि कोई धागे में पिरो ले फूलों को और माला बन जाए।
हमेशा जीवन को उसकी शुभ्र रेखाओं से देखो। अंधेरे से अंधेरे बादल में भी, काले से काले बादल में भी छिपी चांदी की चमक है। गहरी से गहरी अमावस की रात में भी सुबह छिपी पड़ी है। रात पर ही मत अटक जाना। रात तो गर्भ है; उससे सुबह का जन्म होगा। ऐसी तो और भी आंधियां आएंगी। यह तो शुरुआत है। और हर आंधी तुम्हें मजबूत कर जाएगी। और हर आंधी तुम्हें ज्यादा सजग कर जाएगी। और हर आंधी तुम्हारी जड़ों को ज्यादा जमा जाएगी। और हर आंधी तुम्हें मेरे ज्यादा निकट ले आएगी।
इसी तरह तो नासमझ अनजाने ही सत्य की सेवा करते हैं। जिन्होंने जीसस को सूली दी थी, उन्होंने जैसी जीसस की सेवा की, वैसी किसी और ने नहीं की। न देते सूली जीसस को, न जीसस की जड़ें इतनी गहरी जम पातीं। महावीर की जड़ें इतनी गहरी नहीं जम पाईं। कारण? कोई नासमझ महावीर को सूली नहीं दिया। महावीर का पौधा ऐसा नहीं बढ़ पाया, वट-वृक्ष नहीं बन पाया। बात तो बड़ी कीमती थी महावीर की। बात तो बड़ी गहरी थी। हिमालय के शिखर छोटे पड़ें, इतनी ऊंची थी। और प्रशांत महासागर की गहराई छोटी पड़े, इतनी गहरी थी। मगर कोई चूक हो गई। चूक हो गई यह कि उतनी बड़ी आंधी न आई, जितनी बड़ी आंधी जीसस पर आई। जीसस और महावीर को आमने-सामने खड़ा करते तो महावीर की गरिमा और ही थी, महिमा और ही थी। मगर जीसस सबको मात कर गए। आज आधी दुनिया जीसस के साथ खड़ी है। और कारण? कारण है सूली।
दुनिया में बहुत विचारक हुए, बहुत दार्शनिक हुए; मगर सुकरात को फिर कोई पार न कर पाया। और कारण है केवल इतना कि एथेंस के पागलों ने सुकरात को जहर पिला कर मार डाला। सुकरात मस्ती से मरा, आनंद से मरा। सुकरात यह कहता हुआ मरा कि तुम खयाल रखो कि जो मुझे मार रहे हैं, मैं उनको मार कर भी जिंदा रहूंगा। और यह बात सच साबित हुई। आज सुकरात को मारने वालों का नाम भी तो कोई नहीं गिना सकता। जिन पुरोहितों ने जीसस को मार डालने की साजिश की थी, उनमें से कितनों का नाम तुम्हें पता है? एक का भी नाम पता नहीं है। सुकरात जहर पीकर अमर हो गया।
सत्य की एक खूबी है: तुम उसे नुकसान नहीं पहुंचा सकते। तुम लाख उपाय करो तो भी नुकसान नहीं पहुंचा सकते। तुम्हारा हर उपाय सत्य को लाभ ही पहुंचाता है। और इससे विपरीत अवस्था असत्य की है: तुम लाख उपाय करो, असत्य को तुम लाभ नहीं पहुंचा सकते। तुम्हारा हर उपाय उसे हानि में ही डुबाता है। क्योंकि एक असत्य के लिए तुम्हें दस असत्य बोलने पड़ते हैं। दस असत्यों के लिए फिर हजार असत्य। और असत्यों की भीड़ खड़ी होती जाती है। और जितने असत्य होते हैं उतना ही असत्य कमजोर होता चला जाता है।
सत्य को मारा नहीं जा सकता। सत्य अमर है। लेकिन सत्य की अमरता सिद्ध कब होती है? जब सत्य को मृत्यु के आमने-सामने खड़ा कर दिया जाता है, तब उसकी अमरता सिद्ध होती है। किसी भी चीज को ठीक-ठीक देखने के लिए विपरीत पृष्ठभूमि चाहिए। जैसे स्कूल में काला ब्लैक-बोर्ड होता है, उस पर सफेद खड़िया से लिखते हैं। सफेद दीवाल पर भी लिख सकते हैं, मगर पढ़ेगा कौन, पढ़ेगा कैसे? लिख भी दोगे तो पढ़ा न जा सकेगा। एक तो लिखना भी मुश्किल होगा; लिख भी दिया किसी तरह तो पढ़ना मुश्किल होगा। जिसने लिखा है, वह खुद भी न पढ़ सकेगा। लेकिन काले ब्लैक-बोर्ड पर सफेद खड़िया उभर कर आती है।
देखते हो, दिन में आकाश में तारे दिखाई नहीं पड़ते। तारे तो दिन में भी आकाश में वहीं हैं, उतने ही हैं जितने रात होते हैं। कुछ ऐसा थोड़े ही है कि तारे कहीं भाग जाते हैं और रात फिर लौट आते हैं, कि दिन में छिप जाते हैं, घूंघट ओढ़ लेते हैं और रात अपना घूंघट उठा देते हैं। तारे तो जहां के तहां हैं; लेकिन रात का अंधेरा पृष्ठभूमि बन जाता है, उसमें तारे चमक कर प्रकट हो जाते हैं।
सुकरात चमक कर प्रकट हो गया। वह मृत्यु की घटना ने उसकी अमरता सिद्ध कर दी। जीसस सूली पर क्या चढ़े, सिंहासन पर चढ़ गए। सबको पीछे छोड़ दिया। जीसस सारे पैगंबरों को, सारे तीर्थंकरों को, सारे बुद्धों को पीछे छोड़ गए। कारण था--सूली। काश बुद्ध को भी किसी ने सूली लगा दी होती तो आज दुनिया बौद्ध होती! हानि कुछ भी न होती। बुद्ध का क्या बिगड़ता! आदमी को मरना तो होता ही है। आदमी मरेगा तो ही। लेकिन बुद्ध सामान्य ढंग से मरे, तो मृत्यु कोई छाप नहीं छोड़ गई।
जीसस की मौत ऐसी छाप छोड़ गई, इतिहास को दो खंडों में तोड़ गई। आज जो ईसाई नहीं हैं, वे भी इतिहास को जीसस से ही नापते हैं--ईसा-पूर्व, ईसा-पश्चात। एक लकीर खिंच गई जीसस के कारण। इतिहास विभाजित हो गया। उसके पहले जो इतिहास था, वह एक और उसके बाद जो इतिहास बना, वह और। यह सारा अदभुत खेल हुआ सूली के कारण। जिन्होंने सूली दी थी, काश उनको पता होता कि वे क्या कर रहे हैं, तो वे भूल कर भी सूली न देते। उनको अगर यह पता होता कि वे जीसस की सेवा कर रहे हैं, सेवक भी जितनी सेवा नहीं कर सकते, उतनी सेवा कर रहे हैं, तो उन्होंने कभी सूली न दी होती।
इसलिए सिद्धार्थ, ऐसी छोटी-मोटी बातों की चिंता न लेना। ये तो बड़ी-बड़ी बातों के आगमन की केवल सूचनाएं हैं। ये तुम्हारी तैयारियों के क्षण हैं।
जड़ें हिलीं, यह अच्छा है। इससे तुम चौंकोगे, जागोगे। तुम्हें यह बात साफ होगी कि मेरा उपयोग कर लो जितना करना है। जितना ज्यादा पीना है, इस मधुरस को पी लो। कल पर मत टालो। मुझे तुम इस तरह मत देखो कि ठीक है, आज भी हूं, कल भी तो रहूंगा। आज नहीं सुना, कल सुन लेंगे, जल्दी क्या है!
यह घटना तुम्हें जल्दी से भर जाएगी, त्वरा से भर जाएगी, तीव्रता से भर जाएगी। यह तुम्हें एक सघनता दे जाएगी। और तुम्हारी जड़ें मजबूत होंगी इससे, कमजोर नहीं होंगी।
मेरे देखे वह अनजान आदमी, अपरिचित आदमी, मेरा ही काम कर गया है। ऐसे और भी लोग काम करेंगे। वे मेरा ही काम कर रहे हैं। सत्य की यही तो अलौकिकता है कि बहुत ढंगों से लोग उसकी सेवा करते हैं। जिनको पता भी नहीं होता वे भी सेवा करते हैं। जो सोचते हैं हम नुकसान पहुंचाने चले हैं, वे भी लाभ ही पहुंचा जाते हैं।
फिर जैसा मैंने तुमसे कहा, यह पूना है! नाम तो इसका बड़ा प्यारा है--पुण्य की नगरी! मगर आदमी यहां बड़े अजीब पैदा होते हैं। मगर अक्सर ऐसा होता है। घर में कुरूप लड़की पैदा हो जाती है, उसका नाम लोग रख देते हैं--सुदंरबाई!
मैं एक बस में सफर कर रहा था। कंडक्टर बड़ा परेशान था। उनतीस आदमियों ने टिकट लिए थे और तीस आदमी थे। वह बार-बार कह रहा था कि भई किसी एक आदमी ने टिकट नहीं लिया है, वह पैसे दे दे और टिकट ले ले। मगर लोग एक-दूसरे की तरफ देखते थे। वह तीसवां आदमी कौन सा है, पकड़ में ही न आए। आखिर मजबूरी में सिवाय इसके कोई रास्ता न रहा, उसने एक-एक आदमी का जाकर टिकट जांचा। वह तीसवां आदमी आखिर पकड़ा गया। उस आदमी से उसने पूछा कि क्या भैया, होश में हो कि शराब पीए हो? कितनी बार चिल्लाया, बोले क्यों नहीं? तुम्हारा नाम क्या है?
उस आदमी ने कहा: अच्छेलाल।
उस कंडक्टर ने कहा: गजब के अच्छेलाल हो! किस मूरख ने तुम्हें यह नाम दिया?
मैंने कहा: यह बात तू गलत कह रहा है। जिसने भी दिया, ठीक दिया। नाम सोच-समझ कर दिया। इस आदमी का अच्छेलाल ही नाम होना चाहिए। अच्छे नाम के पीछे ही बुराई छिपाने में आसानी होती है। हम अच्छे-अच्छे नाम दे देते हैं और अच्छे नाम के पीछे बुराई छिप जाती है।
जितने बड़े पाप के अड्डे हमारे धर्म-क्षेत्र होते हैं, उतने बड़े पाप के अड्डे कहीं और नहीं होते। तीर्थ, जहां पुण्य होना चाहिए, पाप के अड्डे बन जाते हैं। आदमी अनूठा है। आदमी हद दर्जे का विक्षिप्त है, मूढ़ है। नाम तो इस नगर का है--पुण्य की नगरी--पूना। लेकिन आदमी यहां अजीब पैदा होते हैं। नाथूराम गोडसे को पैदा करने का सौभाग्य इस नगर को है! और अब ये सज्जन को धर्म की रक्षा की सूझी!
दो चोरों को पकड़ कर थाने में लाया गया। मुंशी उनका नाम दर्ज कर रहा था। नाम पूछने पर एक ने बताया: विमल कुमार बनर्जी। दूसरे ने कहा: चंदूलाल चटर्जी। नये-नये पूना से कलकत्ता ट्रांसफर हुए एस.पी.श्री.एम.के. द्विवेदी पास ही में टहल रहे थे। जब उन्होंने चोरों के नाम सुने तो अपने काबू में न रह सके। गुस्से में बोले: क्यों रे हरामजादो, एक तो चोरी करते हो, ऊपर से अपने नाम में जी-जी लगाते हो! शर्म नहीं आती? मुंशी जी, इनके नाम पर इस प्रकार लिखिए--विमल कुमार बनर और चंदूलाल चटर!
सारे देश में वैसा अनुभव हुआ है, सिद्धार्थ, जैसा तुम्हें अनुभव हुआ। हजारों तार, हजारों फोन पहुंचने शुरू हुए। लोग आने शुरू हो गए। सारी दुनिया में चर्चा पहुंच गई। अलग-अलग देशों में टेलीविजन और रेडियो और अखबारों में खबर फैल गई। मगर जैसे पूना के कानों पर जूं भी नहीं रेंगी। पूना से तो सिर्फ एक फोन आया और वह भी एक सज्जन का आया, जो छुरा फेंकने वाले के पक्ष में थे। और उन्होंने कहा कि अगर धर्म की रक्षा न की जाएगी तो धर्म नष्ट हो ही जाएगा। तो उस आदमी ने कुछ बुरा नहीं किया, जो धर्म की रक्षा की। मैं जानना चाहता हूं कि हमारे धर्म को विनष्ट करने के उपाय क्यों किए जा रहे हैं?
उनसे पूछा गया: आपका शुभ नाम?
कहा: नाम मैं नहीं बताना चाहता।
तो उनसे कहा गया: अगर इतनी भी हिम्मत नहीं है कि अपना नाम बता सको, तो क्या तुम खाक धर्म की रक्षा करोगे! मर्द हो तो यहां आ जाओ, तो यहां तुम्हें समझा लें और तुमसे समझ लें कि धर्म क्या है। और इतनी भी हिम्मत न हो, अगर बिलकुल ही नामर्द हो, तो कम से कम अपने घर का पता दे दो कि हम वहां आ जाएं।
उन्होंने घबड़ा कर फोन रख दिया: बस पूना में इतनी चहल-पहल हुई।
मैंने बहुत सी मरी हुई बस्तियां देखीं, मगर पूना बेजोड़ है। इसकी याद रहेगी। सारी दुनिया से यहां लोग हैं, मगर पूना से कितने हैं? थोड़े से, बहुत थोड़े से। अंगुलियों पर गिने जा सकें। मगर उतने ही लोग समझो यहां जिंदा हैं, बाकी मुर्दों का टीला है।
पूना ने अपना ढंग जाहिर किया।
इसलिए सिद्धार्थ, कुछ चिंता लेना मत, कुछ विषाद में पड़ना मत। ये छुरे आने दो। ये उपाय चलने दो। अगर सत्य है तो बचेगा; अगर सत्य नहीं है तो बचना ही नहीं चाहिए।
योग प्रीतम ने एक गीत भेजा है--
मिल गए रजनीश जब से, मिल गई मंजिल मुझे
अब तो इस मझधार में भी मिल गया साहिल मुझे
हो छिटकती प्यार की यह चांदनी--क्या चाहिए
रागिनी दिल से छिड़ी जो--मिल गई महफिल मुझे
अब नहीं वीरानियों का यह तिमिर तड़फाएगा
आंख से पर्दा हटा तो, दिख गई झिलमिल मुझे
जो मिटा कर बीज मिट्टी में खिला दे फूल को
नव सृजन का देवता वह, मिल गया कातिल मुझे
कर सकूं आराधना के फूल न्योछावर उन्हें
दिल के मंदिर में संजोने के लगे काबिल मुझे
यहां मित्र होंगे, शत्रु होंगे। किन्हीं को मैं प्यारा लगूंगा, किन्हीं को खतरनाक लगूंगा। इन्हीं द्वंद्वों के बीच तो मेरे संन्यास की क्रांति, मेरे संन्यास की आग फैलेगी। कोई मेरे लिए मंदिर बनाएगा, कोई मेरे जीवन को अंत करने की कोशिश करेगा। इसी द्वंद्वात्मकता में यह हवा दूर-दूर तक फैल जाएगी। यह सब शुभ है।
मेरे देखे अशुभ घटता ही नहीं। इसलिए जब तुम्हें कुछ लगे कि अशुभ घट गया, तब भी समझना कि तुम्हें अभी देखना नहीं आया। अशुभ घटता ही नहीं, शुभ ही घटता है। अगर परमात्मा से व्याप्त है यह अस्तित्व, तो जो भी घटता है, उसके इशारे से घटता है। अशुभ कैसे घट सकता है? इसलिए कुछ भी घटे, उसको धन्यवाद देना और हृदय में आभार और आराधना को जगाना। हृदय में दीये जलाना प्रीति के और प्रार्थना के।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, एक ओर तो मनुष्य का जीवन महादुख से भरा है, तथा वह इन दुखों से छुटकारा पाने के लिए युगों-युगों तक किसी अवतार की प्रतीक्षा करता रहता है इस आशा में कि कोई उसका उद्धार करेगा। किंतु जब वह सौभाग्य की घड़ी आती है तब वह उससे बचने का हर संभव प्रयास करता है और अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार लेता है। भगवान, क्या सच ही मनुष्य संतापों से मुक्त नहीं होना चाहता?
अमृत प्रिया! मनुष्य संतापों से तो मुक्त होना चाहता है, मगर उसकी शर्तें हैं। उन शर्तों के आधार पर मुक्त होना चाहता है, बेशर्त मुक्त नहीं होना चाहता। और कठिनाई यह है कि उसकी शर्तें ऐसी हैं कि उन्हीं के कारण संताप है। इसलिए एक दुष्ट-चक्र पैदा हो जाता है।
तुम मुक्त होना चाहते हो संताप से और उसी संताप की जड़ों को पानी डालते रहते हो। तुम फल से तो मुक्त होना चाहते हो कि कोई कड़वा फल न लगे और नीम को तुम पानी सींचते रहते हो। तुम्हें यह नहीं दिखाई पड़ता कि इस पानी सींचने में और नीम के कड़वे फल के लगने में एक अनिवार्य संबंध है, कार्य-कारण का संबंध है। इस कार्य-कारण के संबंध को न देख पाने के कारण यह उपद्रव हो जाता है। और कार्य-कारण का संबंध देखने के लिए प्रतिभा चाहिए।
संताप से तो सभी छुटकारा चाहते हैं, मगर संताप के मूल कारणों को काटने में अड़चन है। जैसे समझो, तुम नहीं चाहते कि तुम्हारा अपमान हो--कौन चाहता है किसी का अपमान हो--लेकिन क्या तुम राजी हो कि तुम सम्मान पाने की आकांक्षा छोड़ दो। बस वहां अड़चन आ जाएगी। अपमान से बचना चाहते हो तो बचने का एक ही उपाय है: सम्मान की आकांक्षा छोड़ दो, क्योंकि सम्मान की आकांक्षा में ही अपमान पैदा होने का अवसर है। और जितनी सम्मान पाने की आकांक्षा हो उतने ही बड़े अपमान की संभावना है। तुम चाहते हो असंभव। तुम चाहते हो: अपमान तो कोई न करे, सम्मान ही सम्मान मिले। यह असंभव है, क्योंकि अपमान और सम्मान एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। तुम एक पहलू बचाना चाहते हो, दूसरे पहलू का क्या होगा? वह उसके साथ ही है, वह अविभाज्य है। तुम उनको अलग-अलग नहीं कर सकते।
तुम दिन तो चाहते हो, रात नहीं चाहते। तुम विश्राम तो चाहते हो, श्रम नहीं चाहते। लेकिन क्या तुमने खयाल किया, अगर श्रम न करोगे तो विश्राम कर ही न पाओगे! इसलिए तो धनपतियों को नींद नहीं होती। धनपतियों के बड़े से बड़े दुखों में एक है: अनिद्रा की बीमारी। सिर्फ धनपतियों को सताती है अनिद्रा की बीमारी, कोई मजदूर को नहीं सताती। ऐसा कभी देखा नहीं गया कि कोई मजदूर, कोई किसान, कोई दिन भर मेहनत करने वाला आदमी अनिद्रा की बीमारी से पीड़ित होता हो, कि रात उसको नींद न आती हो। वह तो घोड़े बेच कर सोता है। श्रम जिसने किया है उसने विश्राम कमा लिया। जिस अनुपात में श्रम किया है उसी अनुपात में विश्राम कमा लिया। धनपति की मुसीबत यह है कि वह दिन भर भी विश्राम कर रहा है और चाहता है कि रात भी विश्राम करे। उसने श्रम तो किया नहीं, विश्राम कमाया नहीं, तो रात जागना पड़ेगा। दिन में जो जागा है वह रात में सो सकता है। लेकिन दिन में ही जो सोया-सोया सा रहा है, वह रात में कैसे सोएगा?
तुम चाहते नहीं कि तुम्हारा कोई अपमान करे, मगर सम्मान करे। सम्मान में ही खतरा है। अगर तुम सम्मान चाहोगे तो फिर तुम छुईमुई हो गए। फिर जरा सा अपमान भी तुम्हें चोट करेगा। जितनी सम्मान की आकांक्षा होगी उतना ही अपमान चोट करेगा।
जीसस ने कहा है: धन्य हैं वे जो अंतिम खड़े होने में समर्थ हैं। क्यों? क्योंकि उनको अब और अंतिम नहीं किया जा सकता, उनका कोई अपमान नहीं कर सकता। मगर अंतिम खड़े होने में समर्थ होना मुश्किल मामला है। तुम चाहते हो प्रथम खड़े हो जाओ और तुम्हें कोई धक्के न मारे। मगर दूसरों को भी प्रथम खड़े होना है, वे धक्के कैसे न मारेंगे? तुम कोई अकेले ही तो नहीं हो, करोड़ों की भीड़ है, सभी प्रथम होना चाहते हैं। तो जो जितने प्रथम होने की चेष्टा में लगा है, उतने ही धक्के खाएगा, उतने ही जूते खाएगा, उतनी ही गालियां पड़ेंगी, उतनी ही कुश्तमकुश्ती होगी।
तुम्हारी संसद में जो जूते फेंके जाते हैं, कुर्सियां फेंकी जाती हैं, मार-पीट हो जाती है, तुम चकित न होना, यह बिलकुल स्वाभाविक है। यह होगा ही। क्योंकि यहां वे सारे लोग इकट्ठे हैं जो प्रथम होने की दौड़ के लिए दीवाने हैं। ये सभी प्रधानमंत्री होना चाहते हैं। वह एक कुर्सी है, उस पर सबको बैठना है। अब ऐसा भी नहीं करते कि एक बड़ी बेंच बना दें कि सबको बिठा दें। मगर तब बैठने का मजा चला जाता है। उसमें भी झगड़ा हो जाएगा कि बेंच पर पहले कौन बैठा है--नंबर एक कौन, नंबर दो कौन? बेंचें भी बनाई हैं कुछ जगह, जैसे रूस में प्रेसीडियम होता है। प्रेसीडेंट नहीं, राष्ट्रपति की श्रृंखला होती है--प्रथम राष्ट्रपति, द्वितीय राष्ट्रपति, तृतीय राष्ट्रपति। मगर उससे क्या फर्क पड़ता है? वह जो प्रथम है, वह झगड़े का कारण है।
राजनेता जो इतना एक-दूसरे के पीछे पड़े रहते हैं, इतने दल-बदल करते हैं, इतनी चालबाजियां-जालसाजियां करते हैं, वह अकारण नहीं है। उसके पीछे कारण हैं। कारण है: पद की आकांक्षा।
चलते हैं लातें-घूंसे
चप्पल-जूते
टूट जाती हैं कुर्सियां
इसी को तो कहते हैं
नेताओं की फ्रीस्टाइल कुश्तियां।
अगर संसद के इन आयोजनों पर
लगा दी जाए टिकट
तो एक ही झपट में
पूरा हो जाए
घाटे का बजट।
इस पर टिकट लगा ही देनी चाहिए। और संसद का भवन बड़ा बनाना चाहिए, स्टेडियम जैसा बनाना चाहिए, कि जनता देख रही है, ताली बजा रही है और नेतागण कुश्ती लड़ रहे हैं। जनता वैसे ही देखती है, मगर अखबार पढ़-पढ़ कर देखना पड़ता है। प्रत्यक्ष आंखों से देखने में जो मजा आएगा, कि किसने किसको चित्त किया, किसने किसको चारों खानों कर दिया, कौन किसकी छाती पर चढ़ बैठा, कोई किसी की टांग ले भागा, कोई किसी का हाथ ले भागा, किसी के किसी की गर्दन हाथ में आ गई है, कोई किसी के बाल पकड़े हुए है--और यह सब वार्ता चल रही है! यह सब राजनैतिक वार्ता है। ये सब नये गठबंधन चल रहे हैं। लोग दो-दो तीन-तीन नावों पर सवार हैं एक साथ। एक को पकड़े हुए हैं, एक में टांग रखे हुए हैं, तीसरे में भी पैर फैलाए हुए हैं--पता नहीं कहां सहारा मिले, कहां टिकना पड़े!
अगर सम्मान की इच्छा है तो अपमान तो झेलने के लिए राजी होना होगा। अगर तुम लोभी हो तो खतरा है फिर। फिर तुम्हें किसी दिन घाटा लगे तो उसको स्वीकार करना। अगर जुआ खेलोगे तो जीतते ही थोड़े ही रहोगे, कभी तो हारोगे। असल में हारोगे ज्यादा, जीतोगे कम। जीतोगे शायद ही कभी, हारोगे ही। लेकिन आदमी चाहता है जीत ही होती रहे, हार न हो जाए।
लाओत्सु ने कहा है: मुझे कोई हरा नहीं सकता, क्योंकि मैं जीतना ही नहीं चाहता। लाओत्सु को नहीं हरा सकते। जो जीतना ही नहीं चाहता, उसको कैसे हराओगे? यह है जड़ को काटने का ढंग। लेकिन जड़ को काटने के लिए इतनी हिम्मत होनी चाहिए कि तुम पहले जड़ को पहचानो।
तुम्हारे सारे संताप की जड़ में अहंकार है। मैं विशिष्ट हूं, खास हूं, बेजोड़ हूं! और सब मुझसे नीचे हैं, मैं ऊपर हूं! और सब-कुछ भी नहीं हैं, ना कुछ हैं, मैं सब-कुछ हूं! मैं सर्वोच्च हूं! यह भ्रांति तुम्हारी तुम्हें दिक्कत में डालेगी। दिक्कत में तो तुम नहीं पड़ना चाहते।
एक राजनेता मेरे पास आते थे। वे कहते थे कि मुझे कुछ ध्यान समझा दें कि चित्त को शांति रहे। मैंने उनसे कहा: तुम अशांति को पैदा करो और मैं तुम्हें शांति के लिए कुछ ध्यान समझाऊं! तुम अशांति के कारण ही क्यों नहीं तोड़ डालते?
उन्होंने कहा: क्या मतलब आपका?
मैंने कहा कि अशांति किसलिए है? अशांति इसलिए है कि तुमको प्रधानमंत्री बनना है। इसलिए तुम रात सोते नहीं, भाग-दौड़ में लगे हुए हो, दिन-रात दांव-पेंच में लगे हुए हो। अब तुम मुझसे ध्यान पूछने आए हो! तुम चाहते यह हो कि तुम शांत भी रहो और यह सब भाग-दौड़ भी जारी रहे, ये सब उपद्रव भी तुम करो। यह नहीं होगा। तुम्हें जड़ से काट डालनी पड़ेगी यह बात। ध्यान तो फल जाएगा। ध्यान तो सरल बात है। मगर तुम जटिल हो।
उन्होंने कहा: यह मैं नहीं कर सकता अभी। एक बार तो प्रधानमंत्री बनूंगा। तो फिर बाद में आऊंगा आपके पास। अभी तो चाहे कुछ भी हो जाए, सब दांव पर लगा देना है।
तो फिर अशांति तो स्वाभाविक है।
तू पूछती है अमृत प्रिया, कि ‘एक ओर तो मनुष्य का जीवन महादुख से भरा है तथा वह इन दुखों से छुटकारा पाने के लिए युगों-युगों तक किसी अवतार की प्रतीक्षा करता है।’
अवतार की प्रतीक्षा आदमी कर सकता है। जब जीसस को लोगों ने सूली दी, तब यहूदी कोई तीन हजार सालों से प्रतीक्षा कर रहे थे अवतार की। और जब जीसस ने घोषणा की कि मैं आ गया हूं, तुम जिसकी प्रतीक्षा करते थे वह आ गया है, तुम्हारे पैगंबरों ने जिसकी घोषणा की थी वह मौजूद है, अब तुम मेरी सुनो--तो उन्होंने सूली लगा दी। प्रतीक्षा करना आसान मामला है, क्योंकि प्रतीक्षा भविष्य की होती है। अवतार सामने खड़ा हो जाए तो झंझट की बात है। दो कारणों से झंझट। एक तो वह प्रतीक्षा नहीं करने देता और तुम्हारी प्रतीक्षा की आदत हो गई, तीन हजार साल से प्रतीक्षा की आदत। तुम कहते हो: हम तो प्रतीक्षा करेंगे। हमारे बापदादे भी प्रतीक्षा करते रहे, उनके बापदादे भी प्रतीक्षा करते रहे। हम तो प्रतीक्षा करेंगे।
फिर प्रतीक्षा में तीन हजार साल में तुम इस-इस तरह की बातें तय कर लेते हो, कल्पित कर लेते हो, जो कोई पूरी नहीं कर सकता। तुम्हारी कल्पनाएं पूरी करने का किसी ने ठेका लिया है? तो उन्होंने इस तरह की कल्पनाएं बना रखी थीं कि जो अवतार होगा वह ऐसा होगा...। अब जीसस में अगर वैसे ही सारे लक्षण हों तो वे स्वीकार करेंगे। वे लक्षण तीन हजार सालों में लाखों लोगों ने तय किए हैं, वे किसी एक आदमी ने भी तय नहीं किए हैं। उसमें न मालूम कितने कवियों ने रंग भरे हैं, कितने चित्रकारों ने तूलिका चलाई है, कितने स्वप्न-द्रष्टाओं ने स्वप्न देखे हैं। अब उन सपनों के आधार से कौन जीसस चल सकते हैं? वह कुछ भी जीसस सिद्ध करने को राजी नहीं हैं। हो भी नहीं सकता। असंभव है।
तुम्हीं यहां इस देश में कृष्ण की प्रतीक्षा कर रहे हो। मुझसे बार-बार लोग पूछते हैं कि कृष्ण ने कहा था कि जब धर्म की हानि हो जाएगी और जब साधुओं पर अत्याचार होने लगेगा, तो मैं आऊंगा। तो वे आते क्यों नहीं? वे तुम्हारे डर से ही नहीं आते, क्योंकि तुमने कृष्ण के नाम से जो-जो कल्पनाएं कर रखी हैं, उनको कौन पूरी करेगा? वे तो कृष्णलीला में जो अभिनेता बनता है, वही पूरी कर सकता है। मगर वे नाटक के मंच पर पूरी हो सकती हैं, वे जीवन की असलियत में पूरी नहीं हो सकतीं। उनको कौन पूरा करेगा? कैसे वे पूरी की जा सकती हैं? तुमने असंभव धारणाएं बना रखी हैं। तुमने ऐसी बेहूदी कल्पनाएं कर रखी हैं कि अगर कोई पूरा करने की कोशिश करेगा तो मुश्किल में पड़ेगा; पूरी नहीं करेगा तो मुश्किल में पड़ेगा।
अब कहते हो तुम कि कृष्ण की सोलह हजार रानियां थीं। अब अगर कोई आदमी पूरी करने की कोशिश करे सोलह हजार रानियां, तो पहली तो बात जेल जाएगा। इस जमाने में कोई सोलह हजार रानियां रख सकता है? सोलह नहीं रख सकता, सोलह हजार की बात छोड़ो तुम। और अगर पूरी न करे और कृष्ण महाराज अकेले ही खड़े हो जाएं आ कर, तो तुम पूछोगे कि सोलह हजार रानियां कहां हैं? अगर सोलह हजार रानियां नहीं हैं तो तुम कैसे कृष्ण? रासलीला कैसे होगी अब? रासलीला करे तो मुश्किल में पड़े, रासलीला न करे तो मुश्किल में पड़े। तुम पूछोगे: मोरमुकुट क्यों नहीं बांधा? अब बीसवीं सदी में कोई मोरमुकुट बांधे तो पागल समझा जाए और न बांधे तो कृष्ण नहीं है यह आदमी। अब आधुनिक कृष्ण होंगे तो मोरमुकुट बांध कर खड़े होंगे? और जंचेगा मोरमुकुट? भला लगेगा? लेकिन तुम्हारी अपेक्षाएं पूरी होनी चाहिए।
और तुमने क्या-क्या कल्पनाएं कर रखी हैं! तुम पूछोगे: कृष्ण महाराज, अगर आप असली हैं तो फिर हमको दिव्य दृष्टि दीजिए, विश्व का दर्शन कराइए। तुम्हारे पास अपने को देखने वाली आंख नहीं है और तुम विश्व को, ब्रह्मांड को देखने वाली आंख चाहते हो! अभी तुमने स्वयं को देखा नहीं है मगर कृष्ण को यह काम करना चाहिए। तुम कृष्ण से न मालूम कैसी-कैसी अपेक्षाएं करोगे!
वही जीसस के साथ हुआ। तीन हजार साल से यहूदी मान कर चल रहे थे ये-ये अपेक्षाएं पूरी करना। वे-वे अपेक्षाएं पूरी जीसस नहीं कर सके। कोई भी नहीं कर सकता है। क्यों कोई पूरी करे? किन्हीं कवियों की कल्पनाएं कोई क्यों पूरी करे? तो अड़चन खड़ी हो जाती है। फिर प्रतीक्षा की आदत बन गई है, आशा बन गई है। उस आशा को तोड़ने को यह आदमी सामने खड़ा हो गया। तीन हजार साल पुरानी आदत छोड़े नहीं छोड़ी जाती। आदमी कहता है: हम तो प्रतीक्षा करेंगे। हम तो अपनी आशा में जीएंगे। लोग आशाओं में जीते हैं, लोग यथार्थ में नहीं जीते। लोग सपनों में जीते हैं। और यह आदमी सपना तोड़ने को खड़ा हो गया।
अगर महावीर सामने खड़े हो जाएं आ कर तो सबसे बड़े दुश्मन जैन सिद्ध होंगे उनके। और अगर बुद्ध सामने खड़े हो जाएं आकर तो बुद्ध को मानने वाले लोग ही उनको सबसे पहले इनकार करेंगे, क्योंकि उनकी कोई भी अपेक्षाएं वे पूरी करने में असमर्थ हो जाएंगे। अब महावीर के संबंध में क्या-क्या कल्पनाएं बना रखी हैं तुमने! बारह साल में उन्होंने केवल एक साल भोजन किया। अनुपात ऐसा पड़ता है कि बारह दिन में एक दिन भोजन। बारह दिन में जो आदमी एक दिन भोजन करेगा, महावीर की प्रतिमा तुम देखते हो उसकी ऐसी बलिष्ठ देह होगी? वह ऐसा पुष्ट होगा? वह तो बिलकुल हड्डी का पिंजर होगा। हड्डी का पिंजर हो जाओगे तो लोग कहेंगे: अरे आप कैसे महावीर! और अगर ठीक से खाओगे-पीओगे, तो देह बलिष्ठ हो सकती है। मगर तब लोग कहेंगे कि उपवास का क्या हुआ? महावीर की बलिष्ठ देह देख कर लगता है कि या तो यह बारह दिन में एक दिन भोजन करने की बात झूठ है और या फिर यह बलिष्ठ देह की बात कल्पना है, यह सच नहीं हो सकती।
जरा मूर्ति तो देखो महावीर की, कैसी बलिष्ठ है! किसी बड़े पहलवान की भी नहीं होगी। क्या उनकी बाहुएं हैं, क्या उनकी भुजाएं हैं! कैसी उनकी देह है--सर्वांग सुंदर, जिसमें कोई कमी नहीं है! यह इतने उपवास करने वाला आदमी है? तो एकाध जैन मुनि फिर ऐसा क्यों नहीं दिखाई पड़ता? कहीं कुछ भूल-चूक हो रही है । या तो प्रतिमा झूठी है। बहुत संभावना है प्रतिमा के झूठे होने की, क्योंकि प्रतिमाएं बहुत बाद में बनीं और प्रतिमाएं कल्पना से बनीं। तुम जाकर जैन मंदिर में देखो, चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिमाएं हैं सब एक जैसी लगती हैं। जैन भी फर्क नहीं कर सकते। इसलिए हर प्रतिमा के नीचे उनको चिह्न बनाने पड़ते हैं। जैसे कि चुनाव में पेटी में चिह्न होते हैं न--छाता किसी का और हाथ किसी का और हल-बक्खर किसी का--तो वैसे ही हर प्रतिमा के नीचे चिह्न बना हुआ है किस तीर्थंकर का कौन सा चिह्न है। अगर चिह्नों को ढांक दो तो जैन भी नहीं बता सकता कि यह महावीर की प्रतिमा है कि नेमिनाथ की प्रतिमा है कि आदिनाथ की प्रतिमा है। सब एक सी हैं।
इस दुनिया में दो आदमी एक जैसे होते ही नहीं, चौबीस आदमी एक जैसे--असंभव, बिलकुल असंभव है! और ये चौबीस आदमी अलग-अलग समयों में हुए, हजारों साल का फासला है। कोई पांच हजार साल का फासला है इन चौबीस आदमियों के बीच। ये बिलकुल एक जैसे हुए! कार्बनकॉपी मालूम होते हैं। और इनमें सबके फिर लक्षण हैं! सबके कान तुम देखोगे कंधों को छू रहे हैं। क्योंकि जैनों की धारणा है कि तीर्थंकर का कान जो है वह कंधे को छूना चाहिए। हो सकता है एकाध तीर्थंकर का, प्रथम तीर्थंकर का कान छूता रहा हो, उससे यह धारणा पकड़ गई हो। मगर कोई आवश्यक नहीं है, कान से कोई बुद्धि का संबंध नहीं है। कान से कोई भी संबंध बुद्धि का नहीं है। और कान को तुम भी खूब खींचतान करो, मसाज करते रहो, तो धीरे-धीरे तुम्हारा भी छूने लगेगा। मगर इससे तुम तीर्थंकर नहीं हो जाओगे, सिर्फ गधे हो जाओगे। सभी गधों के कान तीर्थंकरों जैसे होते है, लेकिन इससे कोई गधे तीर्थंकर नहीं हो जाएंगे। लेकिन अगर तुम्हारा कान न छुआ कंधे को तो जैन कहेंगे: कैसे तीर्थंकर! कान तो कंधे को छूते ही नहीं। कान कंधे को छूना ही चाहिए।
ये प्रतिमाएं बाद में बनीं, ये सब कल्पनाएं हैं। ये कवि की कल्पनाएं हैं। ये मूर्तिकारों की कल्पनाएं हैं।
बुद्ध की प्रतिमा तो निश्चित ही यूनानी आधार पर बनी। बुद्ध की प्रतिमा भारतीय भी नहीं है, यूनानी है। बुद्ध के मर जाने के तीन सौ साल बाद सिकंदर भारत आया और जब सिकंदर भारत आया और सिकंदर का सौंदर्य और सिकंदर के सेनापतियों का सौंदर्य और यूनानी सैनिकों का सौंदर्य भारत ने देखा तो फिर उसी आधार पर बुद्ध की प्रतिमा बनी। तुम बुद्ध की प्रतिमा को गौर से देखो, वह भारतीय नहीं है। वह चेहरा भारतीय नहीं है। वह नाक-नक्श भारतीय नहीं है। वह यूनानी है। उसका ढंग यूनानी मूर्तिकारों से लिया गया है। तब तक बुद्ध की प्रतिमाएं ही नहीं बनी थीं। बुद्ध की बहुत संभावना है कि वे नेपाली जैसे लगते रहे होंगे, क्योंकि बुद्ध पैदा हुए भारत और नेपाल की सीमा पर। कपिलवस्तु ज्यादा नेपाल का हिस्सा थी बजाय भारत के। बुद्ध लगते रहे होंगे नेपाली जैसे अब कहां नेपाली और कहां बुद्ध की प्रतिमा! हो सकता है बुद्ध की नाक चपटी रही हो, चेहरा नेपाली ढंग का रहा हो, थोड़ा मंगोल असर रहा हो। कहां यूनान, उससे कुछ लेना-देना नहीं। लेकिन एक दफा बुद्ध की प्रतिमा निर्मित हो गई...।
अब बुद्ध ने भी घोषणा की है--ऐसा बौद्ध कहते हैं--कि आऊंगा। सभी को घोषणा करनी पड़ी, क्योंकि वह कृष्ण जो घोषणा कर गए। तो प्रतियोगिता चलती है। अब अगर कोई आदमी अपने को बुद्ध कहे तो पहले लोग पूछेंगे कि चेहरा तो होना चाहिए बुद्ध जैसा, प्रतिमा होनी चाहिए बुद्ध जैसी, सौंदर्य होना चाहिए बुद्ध जैसा। बड़ी मुश्किल हो जाएगी। फिर इन सबके साथ इस-इस तरह की कल्पनाएं जुड़ गईं, इस तरह की पुराण-कथाएं जुड़ गईं...बुद्ध के पैदा होते ही उनकी मां मर गईं तो यह बात लिख दी गई शास्त्रों में कि जब भी बुद्धपुरुष पैदा होता है उसकी मां तत्क्षण मर जाती है। अब अगर किसी की मां जिंदा हो तो आप बुद्धपुरुष नहीं हो सकते। मतलब मां को मारो पहले, तब बुद्धपुरुष हो सकते हो। यह भी कोई बात हुई? अब मां के मरने का और बुद्धपुरुष होने का कोई भी तो संबंध नहीं है।
महावीर की मां तो नहीं मरी, मगर वह अलग परंपरा है जैनियों की, उनको इससे लेना-देना नहीं है। इसलिए बौद्ध महावीर को बुद्ध नहीं मान सकते, क्योंकि मां तो जिंदा रही। महावीर को बौद्ध महात्मा मानते हैं--अच्छे, संतपुरुष। मगर अभी पहुंचे नहीं परम सिद्धि को।
और यही स्थिति जैनियों की है। वे बुद्ध को भी महात्मा मानते हैं, लेकिन जिन नहीं, अभी परम अवस्था को नहीं पहुंचे। लक्षणा क्या है उनकी? तीर्थंकर सर्वज्ञ होता है, उसे तीनों काल ज्ञात होते हैं। उसे तीनों काल का ज्ञान होना चाहिए। और जैन शास्त्र कहते हैं कि बुद्ध लोगों से पूछते हैं: तुम्हारा नाम? इन्हें नाम तक पता नहीं मालूम, ये कैसे त्रिकालज्ञ? किसी से पूछना तुम्हारा नाम, जाहिर हो गया। और बुद्ध की आदत थी, जब भी कोई आता तो वे पूछते: आयुष्मान, तुम्हारा नाम? यह बिलकुल शिष्टाचार की बात थी। मगर जैन कहते हैं: नाम तक पता नहीं, अरे इतना भी अंतर्दृष्टि नहीं हुई तुम्हें, तुम क्या तीन काल जनोगे? महावीर त्रिकालज्ञ हैं!
बौद्ध ग्रंथों में महावीर का खूब मजाक उड़ाया गया है, कि महावीर को जैन कहते हैं कि ये तीन काल के जानने वाले हैं और सुबह अंधेरे में कुत्ते की पूंछ पर पैर पड़ जाता है। जब कुत्ता भौंकता है तब महावीर को पता चलता है कि अरे, कुत्ते की पूंछ पर पैर पड़ गया! ये तीन काल के ज्ञाता हैं! ऐसे घर के सामने भीख मांगते हैं जिस घर में कोई है ही नहीं--ये तीन काल के ज्ञाता हैं! इतना तो पता होना चाहिए कि घर में कोई भी नहीं है, क्या भीख मांग रहे हो, आगे बढ़ो! आगे बढ़ो, यह कहने वाला भी कोई नहीं है। ये कैसे त्रिकालज्ञ?
अगर तुम एक-दूसरों के शास्त्रों को देखो तो बड़े हैरान हो जाओगे, तुम बड़े चकित हो जाओगे। और उसका कुल कारण इतना है कि सबने अपनी-अपनी लक्षणा दी है और वह लक्षणा दूसरे की लक्षणा से मेल नहीं खाती। खा सकती नहीं। खाने की कोई जरूरत भी नहीं है।
मैं तो महावीर को भी मानता हूं कि वे परम ज्ञान को उपलब्ध हुए, बुद्ध को भी, कृष्ण को भी, जीसस को भी, मोहम्मद को भी, मोज़ेज़ को भी। हालांकि वे सब अलग-अलग तरह के लोग हैं, उनमें कहीं कोई तालमेल नहीं है। जितना भेद हो सकता है, उतना भेद है। जीसस को शराब पीने में कोई एतराज नहीं है। जब उनकी बैठक जमती है मित्रों की, रात देर तक भोजन चलता है। रात भी भोजन करने में उनको कोई एतराज नहीं है। असल में दिन भर चलने के बाद रात को ही वे भोजन करते हैं। और रात को जब भोजन हो चुकता है तो थोड़ा पीना-पिलाना भी चलता है सोने के पहले। मुझे इसमें कुछ एतराज नहीं दिखाई पड़ता, क्योंकि किसी ने जीसस को कभी बेहोश पड़ा हुआ सड़क पर गालियां बकते नहीं देखा है। तो इस थोड़ा सा पी लेने से...सिर्फ उस समय का शिष्टाचार था। जीसस के समय का शिष्टाचार था। लेकिन जैन यह कैसे मानेंगे कि कोई शराब पीए और तीर्थंकर की हैसियत का हो? असंभव!
रामकृष्ण मछली खाते थे, जैन कैसे मानेंगे कि रामकृष्ण परमहंस हैं? मछली खाते हैं। इनको अभी यही पता नहीं कि मछली नहीं खानी चाहिए, और क्या पता होगा? रात को भी भोजन करते थे, रात्रि-भोजन भी करते हैं--ये कैसे परमहंस?
इस बात को खयाल में रखना कि तुम्हारी कल्पनाएं तुम्हारी कल्पनाएं हैं, कोई व्यक्ति तुम्हारी कल्पनाएं पूरी करने को नहीं आता। इसलिए जब कोई अवतार, अवतार का अर्थ होता है: जब भी कोई व्यक्ति परमज्ञान को उपलब्ध होता है तो वह अद्वितीय होता है। तुम्हारी किसी कल्पना से तालमेल नहीं खाएगा। तुम्हारे सब कल्पनाओं के जाल तोड़ देगा। इसलिए तुम्हें स्वीकार करना मुश्किल हो जाता है। तुम स्वीकार कर सकते थे, अगर वह ठीक तुम्हारी लकीर का फकीर होता। लेकिन लकीर के फकीर तो रामलीलाओं में हो सकते हैं, असलियत में नहीं हो सकते।
इसलिए युगों-युगों तक लोग अवतार की प्रतीक्षा करते हैं--इस आशा में कि कोई उनका उद्धार करेगा। यह आशा भी गलत है, क्योंकि कोई दूसरा तुम्हारा उद्धार नहीं कर सकता। उपद्रव तुम करो, उद्धार कोई और करे! बीमार तुम हो तो इलाज भी तुमको करना होगा, चिकित्सा भी तुमको झेलनी होगी, आपरेशन भी तुम्हें करवाना होगा और दवा भी तुम्हें पीनी होगी। बीमार तुम और दवा मैं पीऊं! बीमार तुम, उपचार मेरा हो! यह नहीं चलेगा।
लेकिन लोग बड़े अजीब हैं। लोग हमेशा यही आशा करते हैं, कोई और कर दे। जो काम उन्हें नहीं करना है, वह दूसरे पर टालते हैं। जो काम उन्हें करना है, वह दूसरे पर नहीं टालते। वे यह नहीं कहते कि जीसस आएंगे और हमारी दुकान चलाएंगे। दुकान वे खुद चलाते हैं। वे यह नहीं कहते कि कृष्ण आएंगे और हमारे लिए धन कमाएंगे। धन वे खुद कमाते हैं। वे यह नहीं कहते कि महावीर आएंगे और हमारे लिए चुनाव लड़ेंगे। चुनाव वे खुद ही लड़ते हैं। मगर महावीर, जीसस, बुद्ध आएंगे--और हमारा मोक्ष करवाएंगे। मोक्ष तुम्हें चाहिए नहीं, कोई दे-दे यूं मुफ्त राह चलते तो तुम सोच लोगे कि लेना कि नहीं। वह भी तुम सोचोगे। वह भी तुम विचार करोगे।
अगर मैं तुमसे कहूं कि अभी, है तैयारी मोक्ष जाने की? अगर मैं तुमसे पूछूं, अभी, इसी क्षण! तो तुम कहोगे कि थोड़ा सोचने का तो मौका दो, कम से कम मेरी पत्नी को तो पूछ लूं। घर में बच्चे हैं, उनको तो पूछ लूं। नहीं तो वह नाहक नाराज होगी कि तुमने बिना ही पूछे मोक्ष ले लिया, तुमने अपना उद्धार कैसे करवाया मुझसे बिना पूछे? वह सारा उद्धार बिगाड़ कर धर देगी, उपद्रव खड़ा हो जाएगा।
एक बौद्ध भिक्षु मर रहा था। उसके हजारों अनुयायी थे। मरते वक्त उसने पूछा...कोई दस हजार लोग इकट्ठे हो गए थे, क्योंकि उसने घोषणा कर दी थी कि आज मेरा अंतिम दिन है।...उसने पूछा कि मैं जीवन भर समझाता रहा निर्वाण के लिए, तुममें से कोई है जो मेरे साथ निर्वाण पाने को तैयार हो, तो खड़ा हो जाए, तो आज मैं साथ ले जाने को तैयार हूं।
कोई खड़ा नहीं हुआ दस हजार आदमियों में से। हां, लोग एक-दूसरे की तरफ देखने लगे कि भई तुम खड़े हो जाओ। तुम क्या बैठे हो! अब तुम्हारा क्या है? पत्नी भी मर गई, दुकान का भी दिवाला निकली हालत में है, तुम काहे के लिए बैठे हो? किसी ने और की तरफ देखा कि तुम क्या कर रहे हो, तीन चुनाव हार चुके, हो जाओ खड़े! यह मौका क्यों चूक रहे हो? लोग एक-दूसरे की तरफ देखने लगे। कोई खड़ा नहीं हुआ, सिर्फ एक आदमी ने हाथ ऊपर उठाया। उस भिक्षु ने कहा कि चलो कम से कम एक आदमी ने हाथ तो उठाया। उसने कहा: क्षमा करिए, मैं खड़ा इसीलिए नहीं हो रहा हूं, सिर्फ हाथ उठा रहा हूं। मैं जानना चाहता हूं कि निर्वाण पाने का उपाय क्या है? वह बता दीजिए। कभी जाना होगा तो चले जाएंगे। अभी मुझे जाना नहीं है, अभी मेरी घर-गृहस्थी कच्ची है। और भी काम पड़े हैं हजार। निर्वाण के अलावा और भी तो काम हैं। आप जाइए, खुशी से जाइए। हम भी आएंगे कभी अपने समय पर, मगर रास्ता बता जाइए।
वह बूढ़ा भिक्षु हंसने लगा। उसने कहा: रास्ता तो मैं पचास साल से बता रहा हूं।
लोग सिर्फ रास्ता ही पूछते हैं, चलते वगैरह नहीं। कोई देने वाला भी आ जाए तो तुम लोगे नहीं। सच पूछो तो तुम्हें लेना नहीं है, क्योंकि तुम्हारे सारे न्यस्त स्वार्थों के विपरीत पड़ेगा। तुम चाहोगे मोक्ष भी मिल जाए और तुम जैसे हो वैसे के वैसे बने रहो, उसमें रत्ती भर भेद न करना पड़े। हिंदू हो तो हिंदू, मुसलमान तो मुसलमान, जैन तो जैन, चोर तो चोर, बेईमान तो बेईमान--तुम जैसे हो वैसे रहो, और साथ में मोक्ष भी मिलता हो तो क्या हर्जा है! लगे हाथों ले लो। अब गंगा बह रही है तो धो लो हाथ! मगर तुममें कोई फर्क न करना पड़े। तुम्हारी अपनी जिंदगी में कोई रद्दोबदल न करनी पड़े। और यह नहीं हो सकता।
उद्धार का अर्थ होता है: क्रांति। और क्रांति में से तुम्हें गुजरना होगा। उद्धार का अर्थ होता है: आग से गुजरना। जैसे सोना गुजर कर शुद्ध होता है, वैसे तुम्हें आग से गुजरना होगा। तुम्हें अपने सारे पुराने तौर-तरीके बदलने होंगे, जीवन-शैली बदलनी होगी। तुम्हें अपने जीवन का पूरा का पूरा रूपांतरण करना होगा। जहां क्रोध था, वहां करुणा को जन्म देना होगा। जहां कामवासना थी, वहां प्रेम को उपजाना होगा। जहां लोभ था, वहां दान की कला सीखनी होगी। जहां वैमनस्य था, वहां मैत्री के फूल खिलाने होंगे।
इस सबकी तैयारी नहीं है। लोग चाहते हैं: कोई आएगा, जादू का डंडा घुमाएगा, कहेगा, अब्राकदेब्रा और सब ठीक हो जाएगा! ऐसे नहीं हो सकता। तुम्हारी इच्छा इतनी ही है कि अवतार कुछ मदारी की तरह काम करेगा--कि जमूरे स्वर्ग जाना है, मोक्ष जाना है? और तुम कहोगे कि हां। कि जमूरे अभी जाना है? तुम कहोगे, हां। तो वह फेंकेगा एक रस्सी आकाश की तरफ और कहेगा: जमूरे, चढ़ जा! और जमूरा चढ़ जाएगा। और जमूरा अपने साथ अपना सब उपद्रव भी साथ ले जाएगा--अपनी पत्नी, अपना बच्चा, अपने सब जाल-जंजाल; कुछ पीछे छोड़ भी नहीं जाएगा कि यह भी रख लो, यह भी रख लो, सभी कुछ रख लो। बर्तन-भांडे, कूड़ा-करकट! अरे कब किस चीज की जरूरत पड़ जाए, वहां भी आखिर घर-गृहस्थी तो बसाओगे कि नहीं? मोक्ष में भी करोगे क्या? कोई बैठे ही रहोगे वहां? तुमसे तो बैठा ही नहीं रहा जा सकेगा। तुम तो कुछ न कुछ उपद्रव खड़ा करोगे, कोई न कोई झंडा उठाओगे, कोई न कोई डंडा गड़ाओगे। तुमसे ऐसे ही बैठे नहीं रहा जाएगा। जरा सोचो कि अगर तुम्हें मोक्ष मिल जाए, कोई उद्धार कर ही दे समझो, पहुंच गए तुम मोक्ष, अब क्या करोगे? बैठे सिद्ध-शिला पर, कितनी देर बैठे रहोगे? थोड़ी देर में ही सोचोगे कि अब क्या करना चाहिए, यहां कोई अखबार वगैरह मिलता है कि नहीं? चाय की दुकान कहां है? इस समय अगर भजिए वगैरह मिल जाते...नाश्ता भी तो करना ही होगा कि नहीं? तुम फौरन उपद्रव में लग जाओगे। तुम वही करोगे जो तुम यहां कर रहे थे।
चंदूलाल मरा, स्वर्ग पहुंच गया। कैसे पहुंच गया, यही एक आश्चर्य की बात है। चमत्कार ही समझो। मगर चंदूलाल चमत्कारी पुरुष हैं। निकाल ली होगी कोई तरकीब, दे दिया होगा फरिश्तों को कुछ रिश्वत, कर दी होगी किसी की खुशामद। चंदूलाल पुराना चमचा है--पहुंचा हुआ! जिंदगी भर अभ्यास करता रहा है मक्खन लगाने का। यमदूत जो लेने आए होंगे, उनकी खूब कर दी होगी मालिश, खूब पैर दबा दिए होंगे, दिल खोल कर उनकी प्रशंसा कर दी होगी। कंजूसी नहीं करता प्रशंसा करने में, कि
ले चले उनको स्वर्ग की तरफ, पहुंच गया स्वर्ग के द्वार पर। दरवाजा खटखटा दिया। द्वारपाल ने दरवाजा खोला और पूछा: आप कौन हैं?
कहा: चंदूलाल।
क्या काम करते थे?
कहा कि लोहे की, पुराना लोहा बेचने की दुकान थी। खरीदता भी था बेचता भी था। इसलिए मेरा पूरा नाम--चंदूलाल लोहावाला।
इस तरह के आदमी यहां आते नहीं, कबाड़ियों का यहां कोई काम नहीं है। ये बंबई के चोर बाजार में रहते होंगे--चंदूलाल लोहावाला। इस तरह के आदमी बंबई में रहते हैं। लोहावाला, दारूवाला! एक से एक पहुंचे हुए लोग--बाटलीवाला! जैसे नामों की कमी पड़ गई है!
तो उन्होंने कहा: तू ठहर, तू बंबईवाला मालूम होता है।
हां, बंबई में रहता हूं।
चोरबाजार में काम करता है?
कहा: हां।
पता लगाना पड़ेगा, रुको। वह भीतर गया। बही-खाते खोल कर बड़ी देर में खोज बीन की उसने। कोई नाम इसका मिले नहीं। उसकी जगह तो थी नर्क में। जब तक वह आया, देखा तो चंदूलाल नदारद। चंदूलाल ही नदारद नहीं, लोहे का फाटक भी नदारद! तब से स्वर्ग के दरवाजे पर कोई दरवाजा नहीं है। चंदूलाल लोहावाला ले गया। वह पुरानी आदत, वही काम वे यहां करते थे--लोहा खरीदना, लोहा बेचना। जब तक वह अंदर गया, उसने सोचा: ऐसी की तैसी स्वर्ग की! इतना बड़ा लोहे का फाटक, मजा आ जाएगा! ले चलो बंबई के चोर बाजार।
तुम क्या करोगे मोक्ष में!
अमृत प्रिया, लोग बातें करते हैं उद्धार वगैरह की। बातें करने में अच्छी बातें हैं। अच्छी-अच्छी बातें करने में क्या बिगड़ता है? लच्छेदार बातें हैं। मगर कोई उद्धार वगैरह चाहता नहीं, क्योंकि उद्धार में तो फिर जीवन को दांव पर लगाना होगा। लोग सब मुफ्त में चाहते हैं। कुछ न करना पड़े और सब हो जाए। और हम जैसे हैं, वैसे के वैसे रहें।
तू पूछती है: ‘किंतु जब वह सौभाग्य की घड़ी आती है, तब वह उससे बचने का हर संभव प्रयास करता है और अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार लेता है।’
क्यों न करे, क्योंकि उसने कभी सोचा नहीं था कि यह घड़ी आ ही जाएगी। यह घड़ी तो बिलकुल अकस्मात आ जाती है। कभी-कभी आती है। जब आ जाती है, तब वह घबड़ाता है।
रवींद्रनाथ की कविता है कि मैं परमात्मा को खोजता था, सदियों से खोजता था, जन्मों-जन्मों से खोजता था और बड़ी लगन से खोजता था, दीवाना था! आंसू बहाता, रोता, इकतारा बजाता। और मेरी बड़ी ख्याति थी भक्त की तरह। मेरी गिनती होने लगी थी मीरा और चैतन्य के नामों के साथ। और फिर एक दिन मैं पहुंच गया उसके द्वार पर। आनंदित हुआ पहले तो। तख्ती लगी थी कि यही रहा भगवान का घर। सीढ़ियां चढ़ गया तेजी से, मगर तब ठिठका। एक क्षण सोचा कि पहले समझ तो ले पागल, क्या कर रहा है! फिर तेरी भक्ति का क्या होगा? भगवान मिल जाएंगे, फिर भक्ति का क्या होगा? यह सवाल तो है। फिर इकतारे का क्या होगा? और तेरी प्रतिष्ठा और मीरा और चैतन्य में तेरा जो नाम गिना जाता है, उसका क्या होगा? भगवान मिल गए कि सब खेल खत्म, फिर उसके आगे तो कुछ है नहीं। फिर तो इति आ गई। वह तो यूं जैसे बूंद सागर में समा गई। तब जरा चौंका कि यह मैं क्या कर रहा हूं, अपने हाथ से अपनी आत्महत्या कर रहा हूं! हाथ में ले ली थी कुंडी बजाने को, धीरे से छोड़ दी। जूते पैर में से निकाल लिए कि कहीं आवाज न हो सीढ़ियां उतरने में, कहीं ऐसा न हो कि आवाज ही सुन कर और भगवान एकदम दरवाजा खोल दें और कहें: बेटा आओ, अब कहां जा रहे हो? अब आ ही जाओ। आ ही गए तो अब कहां जाते हो? और जो भागा जूता हाथ में ले कर मैं...!
तो कविता में रवींद्रनाथ कहते हैं, फिर मैंने पीछे लौट कर नहीं देखा। अभी भी मैं इकतारा बजाता हूं, भगवान के गीत गाता हूं, भक्तों में मेरी गिनती है। और बड़े आंसू बहाता हूं, जार-जार रोता हूं। और जानता हूं उसका घर कहां है, इसलिए उसका घर बच कर और सब जगह जाता हूं, उसके घर को छोड़ कर। उस रास्ते भर पर नहीं जाता, क्योंकि मैं देख लिया एक दफा जाकर कि वह झंझट का काम है। एक दफा वहां पहुंच गए तो बात सब खत्म हो गई। स्वयं भी समाप्त हो जाएंगे। अहंकार मिट जाएगा। और अहंकार को कौन मिटाना चाहता है!
तुम अहंकार को बचा कर मुक्त होना चाहते हो। तुम चाहते हो: मैं मुक्त हो जाऊं! मैं मुक्त नहीं होता कोई। मैं से मुक्ति होती है। मैं की कोई मुक्ति नहीं है, मैं से मुक्ति है। और उतना साहस न होने से जब कोई समाने खड़ा हो जाता है कि लो यह द्वार खुला परमात्मा का, तब तुम मुश्किल में पड़ जाते हो। इसलिए तुम ऐसे लोगों से, जो द्वार खोल देते हैं परमात्मा का, बदला लेते हो।
संताप से तो तुम मुक्त होना चाहते हो, मगर संताप की जड़ें नहीं काटना चाहते। जड़ तो तुम स्वयं हो। तुम्हारा अहंकार ही जड़ है। जो अपने अहंकार को मिटाने को राजी है, उसका संताप अभी मिट जाएगा। अहंकार बंधन है और अहंकार से छूट जाना मोक्ष है।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, दुर्घटना, दुर्भाग्य और दुर्दिन में क्या अंतर है?
अटलबिहारी! आप वही तो नहीं हैं अटलबिहारी दांतनिपोर? अर्थात अटलबिहारी वाजपेयी, अध्यक्ष, भारतीय जनता पार्टी। हो तो नहीं सकते, क्योंकि ऐसे दांतनिपोर यहां किसलिए आएंगे! तुम कोई और ही अटलबिहारी होओगे। भैया, अपना नाम बदल लो। ऐसे गलत नामों के साथ अपने को जोड़ रखना ठीक नहीं!
मगर तुम्हारा प्रश्न ठीक है: तुम पूछते हो: ‘दुर्घटना, दुर्भाग्य और दुर्दिन में क्या अंतर है?’
उदाहरण से समझो तो जल्दी समझ में आएगा। जैसे कि तीन मंत्रीगण कार से किसी पहाड़ की सैर को जा रहे थे। कार एक मोड़ पर से फिसल गई और चकनाचूर हो गई। कार के इस फिसल जाने को दुर्घटना कहा जाएगा। दुर्घटना में ड्राइवर तो मर गया, लेकिन तीनों मंत्री जिंदा बच गए। इसे देश का दुर्भाग्य समझिए। फिर दूसरे दिन अखबार के मुख्य पृष्ठों पर तीनों मंत्रियों की फोटो छपेगी और लोगों को सुबह-सुबह उन्हें देखना पड़ेगा। यही दुर्दिन है।
चौथा प्रश्न:
भगवान, क्या मारवाड़ी सच में ही इतने गजब के लोग होते हैं?
सत्यप्रिया! तू तो खुद भी मारवाड़ी है। कहना चाहिए--थी। अब तो नहीं है।
सत्यप्रिया तो छोटी सी लड़की है। अब संन्यासी है। संन्यास में तो सब खो जाता है--मारवाड़ी होना, भारतीय होना, हिंदू होना, मुसलमान होना, पाकिस्तानी होना।
मगर तेरा प्रश्न ठीक है। मारवाड़ी होते तो गजब के ही लोग हैं। तेरी समझ में आ सके, इसलिए दो कहानियां खयाल में रखना। एक--
एक मारवाड़ी अपने लड़के लिए दुल्हन तलाश करने के लिए पास के गांव गया और अपने एक परिचित के पास ठहरा। मारवाड़ी, जैसा कि उनका स्वभाव होता है, पैसे का लालची था। उसने परिचित व्यक्ति के गांव के कुछ लखपति आदमियों के नाम बताने को कहा। परिचित व्यक्ति खुद भी लखपति था, उसकी भी एक लड़की शादी के योग्य थी, परंतु अपने मुंह से खुद को लखपति बताना शोभा नहीं देता--यही सोच कर पांच-सात नाम गिनाने के बाद वह बोला: कि थोड़ा-थोड़ा शक लोग मेरा भी लखपतियों में करते हैं। थोड़ा-थोड़ा शक!
एक आदमी ने एक मारवाड़ी बनिए को एक थप्पड़ मार दी। मामला अदालत में गया। हो सकता है अदालत, सत्यप्रिया, यह तेरे पिताजी की रही हो। सत्यप्रिया के पिता संन्यासी होने के पहले न्यायाधीश थे। हाकिम ने उस आदमी को एक अठन्नी दंड स्वरूप मारवाड़ी को देने की सजा दी। उस आदमी ने एक रुपया निकाला और मारवाड़ी की ओर बढ़ाते हुए कहा: सेठजी, आप आठ आने वापस कर दें।
सेठ ने रुपया ललचाई आंखों से देखा और हाथ में लेते हुए कहा: भाई, फुटकर पैसे मेरे पास नहीं हैं। ऐसा करो, तुम एक थप्पड़ और मार लो।
आखिरी प्रश्न:
भगवान, चुनाव सिर पर हैं। इस संबंध में कुछ कहें।
प्रीति! ऐसे संबंधों में न पूछो तो अच्छा।
एक आदमी का चेहरा बड़ा अजीब था। किसी को भी उसके चेहरे की ओर देखना पसंद नहीं था। मोहल्ले के आठ-दस आदमी एक बार मुझसे मिलने आए। वे सभी यह कहने के लिए आए थे कि कोई उपाय ऐसा ढूंढ निकालिए कि जिससे उस आदमी का चेहरा देखना न पड़े। हम सब उपाय के बारे में सोचने लगे। काफी सोचने के बाद हमने एक उपाय ढूंढ लिया। हम सबने जी-जान से मेहनत करके उस आदमी को चुनाव में विजयी करा दिया। कम से कम पांच साल के लिए राहत हो गई।
चुनाव का अर्थ है, जिनसे छुटकारा पाना हो पांच साल के लिए, फिर उनके तुम्हें दर्शन नहीं करने होंगे। जिन-जिन को देख कर दिन बिगड़ जाता हो, उन-उन को चुनाव में खड़ा करवा दिया करो और मेहनत करके उनको जितवा दिया। एक दफा वे जीत गए तो जैसे गधे के सिर से सींग नदारद होते हैं, ऐसे वे नदारद पांच साल के लिए! और एक दफा उनको नशा लग गया नदारद होने का तो वे बार-बार नदारद होना चाहेंगे। हर बार चुनाव में एक दफा उनके दर्शन तुम्हें करने पड़ेंगे, मगर फिर अगर जिता दिया...। इसलिए तो जो एक दफा जीत जाता है, जनता उसको बार-बार जिताए चली जाती है कि भैया किसी तरह तू जा, पिंड छोड़ हमारा!
चुनाव का समय था, गांव के नेताजी चुनाव का टिकट प्राप्त करने के लिए घोड़े पर सवार हो कर गए हुए थे। टिकट के लिए लंबी लाइन लगी थी। बहुत देर हो गई, मगर नेताजी का नंबर न आया। तभी एक चमचे किस्म के व्यक्ति ने आकर कहा: नेताजी, ढाई सौ रुपये लगेंगे, आइए अभी एक मिनट में टिकट दिलवा देता हूं। जिस पार्टी की चाहिए हो उस पार्टी की।
नेताजी ने आश्चर्य से कहा: क्या कहते हो, सिर्फ ढाई सौ रुपये!
उस व्यक्ति ने कहा: हां, सिर्फ ढाई सौ रुपये। नेताजी ने जल्दी से अपनी खादी की बंडी से ढाई सौ रुपये निकाले और उस चमचे को थमा दिए। लेकिन वह चमचा गया सो लौटा ही नहीं। आखिर खिसकते-खिसकते नेताजी का नंबर आया, तो नेताजी ने टिकट बांटने वाले अफसर को कहा कि अच्छी अंधेरगर्दी है! फलां-फलां व्यक्ति ने मुझसे टिकट दिलवाने के बहाने ढाई सौ रुपये ले लिए।
उस अफसर ने कहा: अच्छा तो आप रिश्वत देते और लेते हैं?
नेताजी ने बात बिगड़ती देख कर कहा: नहीं, वह तो यूं ही। अच्छा टिकट के लिए क्या करना होगा?
उस अफसर ने कहा: आपको दो हजार रुपया डिपाजिट करना होगा।
नेताजी ने कहा: ठीक, किए देते हैं दो हजार जमा। दो हजार जमा कर उन्होंने जनता पार्टी का टिकट प्राप्त कर लिया। फिर बोले: श्रीमान, अच्छा होता यदि आप एक टिकट मेरे घोड़े को भी दिला देते। यह बड़ा श्रेष्ठ घोड़ा है।
उस आफिसर ने कहा: नहीं-नहीं, यह असंभव है। ऐसा नहीं होगा।
नेताजी बोले: अरे, क्या असंभव है! अरे दो हजार की जगह तीन हजार ले लो।
अफसर बोला: नहीं-नहीं, ऐसा नहीं होगा। टिकट हम सिर्फ गधों को देते हैं, घोड़ों को नहीं।
सब गधे मैदान में हैं इस समय। चुनाव सिर पर नहीं हैं, सब गधे सिर पर हैं। अब देखें कौन गधा बाजी मार ले जाए!
एक प्रसिद्ध नेताजी का बेटा कह रहा था कि पिताजी चुनाव लड़ना मेरे वश के बाहर की बात है। अरे, लोग बड़ा अपमान करते हैं, टुच्चे-टुच्चे लोग अपमान करते हैं!
नेताजी बोले: अरे, कैसे बहकी-बहकी बातें करता है! मेरी तो जिंदगी गुजर गई चुनाव लड़ते-लड़ते, मेरे साथ तो ऐसी नौबत कभी नहीं आई कि किसी ने कभी मेरा अपमान किया हो। हां, यह सच है कि लोगों ने गालियां दीं, चप्पलें फेंक-फेंक कर मारीं, सड़े टमाटर फेंके, केले के छिलके मारे, अनेक बार लोगों ने धक्के दे-दे कर घर के बाहर निकाल दिया, लेकिन अपमान तो किसी ने नहीं किया। यह तू बिलकुल नई ही बात कह रहा है!
नेता बनना हो तो गीता पढ़ो, सुख-दुख को समान भाव से लेना, समदृष्टि रखना। अपमान-सम्मान सब बराबर समझना। कोई धक्का मारे, जूता मारे, तुम खीसे निपोरे हंसते ही चले जाना। तुम धन्यवाद ही देते रहना। अभी सब दांतनिपोर तुम्हारे दरवाजों पर आएंगे। एक सिर्फ दरवाजा है इस आश्रम का, जिस पर कोई दांतनिपोर कभी नहीं आता। आ नहीं सकता। अगर तुम्हें चुनाव के उपद्रव से बचना हो, तो आश्रम के भीतर। फिर पता ही नहीं चलता कि दुनिया में चुनाव हो रहा है कि नहीं हो रहा है। यहां कोई आता ही नहीं, आ सकता नहीं। क्योंकि यहां आने का मतलब झंझट है।
प्रसिद्ध नेता, श्री मुल्ला नसरुद्दीन अपने मित्र से कह रहे थे कि मैं अपनी जवानी के कारण चुनाव हार गया। दोस्त बोला: अरे, जवानी के कारण! लेकिन तुम्हारी उम्र तो अब तिहत्तर साल है। जवानी तो तुम्हारी कब की गुजर चुकी!
नसरुद्दीन बोला: दरअसल लोगों को यह पता चल गया है कि मेरी जवानी कैसे गुजरी थी।
चुनाव में वही जीतता है जिसका लोगों को कम से कम पता होता है।
दो आदमी चुनाव लड़े, एक हार गया, एक जीत गया। दोनों बाद में मिले। जो हार गया था, उसने जीतने वाले से पूछा: तुम्हारे जीतने का राज क्या है? तुम तो इस इलाके में बिलकुल नये-नये हो? मैं इस इलाके की सेवा करते-करते थक गया और तुम जीत गए, मैं हार गया!
वह आदमी हंसने लगा। उसने कहा: इसीलिए। तुम्हें लोग जानते हैं, मुझे लोग नहीं जानते। जब मुझे जानने लगेंगे, मैं भी हारूंगा।
चुनाव में वही जीतता है, जिसको लोग जानते नहीं, पहचानते नहीं। और जब तक पहचानते हैं, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।
प्रीति, तू ठीक पूछती है: ‘चुनाव सिर पर हैं, इस संबंध में कुछ कहें।’
इतना ही कहना चाहूंगा कि राजनीति तो चलेगी, एकदम आज समाप्त हो नहीं सकती। होनी चाहिए, मगर यह अनिवार्य बुराइयों में से एक है। उन रोगों में से एक है, जिसको अभी मिटने में बहुत समय लगेगा, जिसके लिए अभी तक उपचार ठीक-ठीक खोजा नहीं जा सका है। मिटाने योग्य है, क्योंकि सदियों से आदमी इससे परेशान है। लेकिन अभी तक ठीक उपचार खोजा नहीं जा सका है। उसी उपचार की खोज है संन्यास। अगर संन्यासियों की आग फैलती जाती है दुनिया में तो हम राजनीति को जला कर राख कर देंगे। दुनिया में शासन होना चाहिए, लेकिन राजनीति की कोई खास जरूरत नहीं है। शासन--जैसे पोस्ट आफिस है, जैसे रेलवे है, वैसे ही और भी इंतजाम होने चाहिए। इंतजाम की जरूरत पड़ेगी। मगर न तो राष्ट्रों की जरूरत है, न राज्यों की जरूरत है, न राजनीति की जरूरत है, न राजनेताओं की जरूरत है। दुनिया में एक शासन काफी है, तो युद्धों से बचना हो जाए। अभी तो मनुष्य की सत्तर प्रतिशत ऊर्जा युद्धों में नष्ट हो जाती है। जो ऊर्जा इस पृथ्वी को स्वर्ग बना सकती है, वही ऊर्जा इस पृथ्वी को नरक बना रही है।
इसलिए मैं तो विशुद्ध रूप से राजनीति-विरोधी हूं। लेकिन अभी तो राजनीति चलेगी, आज समाप्त होने वाली नहीं है। समय लगेगा। तब तक इतना ही खयाल रखना कि तुम जिसे भी चुनो, कम से कम राजनीतिज्ञ को चुनना। जिसके जीवन में कम से कम राजनीति हो, उसे चुनना। इतना ही काफी है। राजनीति के कारण मत चुनना, उसकी मनुष्यता के कारण चुनना। उसकी चालबाजियों और बेईमानियों के कारण मत चुनना, उसकी बुद्धिमत्ता के कारण चुनना। उसके किसी दिशा में विशेष ज्ञान के कारण चुनना। उसकी कुशलता के कारण चुनना। कोई वैज्ञानिक हो, उसे चुनना। कोई कवि हो, उसे चुनना। कोई कलाकार हो, उसे चुनना। कोई संगीतज्ञ हो, उसे चुनना। नहीं तो तुम्हारी संसद में गधों की जमात इकट्ठी हो जाती है और फिर ये गधे पूरे मुल्क को रेंक-रेंक कर हैरान कर देते हैं। थोड़े-बहुत संगीतज्ञ भेजो, कम से कम इनकी रेंक कम सुननी पड़े। कोई बांसुरी बजाए, कोई शहनाई बजाए। थोड़े कवि भेजो कि कुछ गीत भी बनें, ये सिर्फ जूता-चप्पल ही न चलें। अगर जूता-चप्पल का ही बहुत आग्रह हो तो कुछ चमार भेजो, जूता-चप्पल बनाएं, चलाएं नहीं। विशेषज्ञों को भेजो, वैज्ञानिकों को भेजो। सूझ-बूझ के लोगों को भेजो। बुद्धुओं को मत भेजो।
लेकिन अभी तो ढंग ही कुछ और है। ठाकुर ठाकुरों को चुनेंगे। ब्राह्मण बाह्मणों को चुनेंगे। हिंदू हिंदू को चुनेंगे, मुसलमान मुसलमानों को चुनेंगे। आदमी की तो कोई कीमत ही नहीं है। आदमी को चुनो! और जिसमें जितनी आदमियत हो, जितनी ज्यादा आदमियत हो, उसको चुनो। और ध्यान रखना, आदमियत जितनी ज्यादा होगी, राजनीति उतनी कम होगी। और जितनी राजनीति कम होगी, उतनी प्रतिभा ज्यादा होती है।
राजनीतिज्ञ अक्सर प्रतिभाहीन होता है। राजनीतिज्ञ होता ही कोई इसलिए है कि हीनता की ग्रंथि से पीड़ित होता है। वह एक मानसिक रोग है। पृथ्वी को उससे छुड़ाने में तो समय लगेगा, लेकिन तुम से जो भी बन सके अपने-अपने छोटे-छोटे दायरे में वह जरूर करो। तू पूछती है प्रीति, इसलिए इतना कहता हूं।
आज इतना ही।
भगवान, परसों की घटना के बाद चारों ओर आश्रम में देखता हूं तो ऐसा लगता है जैसे हमारी जड़ें कंप गई हैं।
सिद्धार्थ! आंधी और तूफान जड़ों को कंपाते भी हैं और जमाते भी। अगर सिर्फ जड़ों का कंपना ही देखोगे तो उदास हो जाओगे। अगर जड़ों का जमना भी देख सको तो आह्लादित हो जाओगे। दृष्टि-दृष्टि की बात है।
आंधी आती है, जड़ें अभी कंपती लगती हैं; जमेंगी तो कल, परसों। जमने में समय लगेगा। लेकिन जो वृक्ष आंधियों में से नहीं गुजरते उनकी रीढ़ सदा के लिए कमजोर रह जाती है। अच्छा ही है कि आंधियां आएं। अच्छा ही है तूफान उठें। क्योंकि आंधियों और तूफानों से पार हो सको तो प्रौढ़ता पैदा होगी, तो आत्मा का जन्म होता है।
बहुत प्राचीन यहूदी कथा है। एक किसान थक गया--वर्षों की असफलता से। कभी वर्षा ज्यादा हो जाए, कभी कम हो। कभी पाला पड़ जाए, कभी कीड़े लग जाएं। कभी सूखा, कभी बाढ़। जैसी आशाएं रखे वह, वैसी फसल हो ही न पाए। एक दिन भगवान से प्रार्थना की कि ऐसा लगता है देख कर कि तुझे खेतीबाड़ी की कोई अक्ल नहीं। और सब तू जानता होगा, होगा सर्वज्ञ, होगा सर्वव्यापी; मगर इतना मैं तुझसे कह सकता हूं--मैं किसान हूं, पुश्तैनी किसान हूं, पीढ़ी दर पीढ़ी का किसान हूं--कि तुझे किसानी नहीं आती। अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं है, सीख सकता है। और अभी अनंत भविष्य पड़ा है; सीख लेगा तो काम आएगा।
बात उसने इतनी हृदय से कही थी, औपचारिक न थी। औपचारिक बातें ऐसी नहीं होतीं। औपचारिक बातें तो थोथी होती हैं--कि हम पतित हैं, तुम पतितपावन हो! औपचारिक बातें तो शास्त्रीय होती हैं। उसने तो सीधी-सीधी दो टूक बात की थी। कहते हैं भगवान प्रकट हुए और उन्होंने कहा: कि तू क्या चाहता है?
उसने कहा: एक मौका मुझे दें। इस वर्ष जैसा मैं चाहूं वैसा हो। और फिर देखें। फिर तुम्हें पाठ पढ़ा दूंगा, ताकि आगे इस तरह की भूल-चूक न हो। हम किसानों को बहुत परेशान किए हुए है तुम्हारा मौसम। तुम्हारी गैर-जानकारी हमारे प्राणों पर बन आई है।
परमात्मा मुस्कुराया। उसने कहा: तो ठीक, इस वर्ष तू जैसा चाहेगा वैसा होगा। और किसान ने जैसा चाहा वैसा ही हुआ। बांछें खिल गईं किसान की। जितनी वर्षा चाहिए थी, जितने इंच, उतनी ही, न आधा इंच कम न आधा इंच ज्यादा। जितनी धूप चाहिए थी उतनी, न जरा कम न जरा ज्यादा। सब चीज नाप-तौल से ली। जितनी जरूरत थी पौधों की...कुछ भी अतिशय न हुआ। और किसान रोज-रोज प्रसन्न था। उसके गेहूं के पौधे ऐसे बढ़े, ऐसे बढ़े कि शायद पृथ्वी पर कभी गेहूं ऐसे न बढ़े होंगे। आदमी खो जाएं उनमें, इतने ऊंचे हो गए। सात-सात आठ-आठ फीट ऊंचे हो गए। दिल ही दिल खुश था। बड़ी बालें ऊगीं--ऐसी बालें कि कभी देखी नहीं गई थीं। सोचता था कि अब दिखा दूंगा परमात्मा को--ऐसे गेहूं आएंगे, जो अनूठे होंगे। उसकी प्रसन्नता का अंत नहीं था। नाचता था, गाता था, मस्त होता था। सो नहीं सकता था, इतना आह्लादित था। उठ आता था भोर, बड़े जल्दी, पहुंच जाता था खेत पर। खेत को देख-देख कर जीवन भर की निराशा बह गई थी। खेत क्या हरा हुआ था, उसके प्राण हरे हो गए थे।
फिर फसल कटने का समय आया, फसल कटी। और किसान सिर पीट कर रह गया। बालें तो बहुत बड़ी थीं, मगर खाली थीं, उनमें गेहूं थे ही नहीं। उसकी आंखों से झर-झर आंसू गिरने लगे। परमात्मा प्रकट हुआ और उसने कहा: क्यों रोते हो? क्या हुआ तुम्हारी खुशी का?
किसान ने कहा: मैं समझ ही नहीं पाता कि यह क्या हुआ। गेहूं पैदा क्यों नहीं हुए? इतने बड़े पौधे, इतनी बड़ी बालें कि मैं तो सोचता था कि एक नया इतिहास अब लिखा जाएगा।
परमात्मा ने कहा: पागल है तू! तूने ओले गिरने न दिए, तूने आंधियां आने न दीं। तूने वर्षा ऐसी होने न दी मूसलाधार कि झकझोर जाती पौधों को। पौधे तो बड़े हो गए, मगर जरा उखाड़ कर देख, इनकी जड़ें बड़ी छोटी हैं। पौधों को चुनौती ही न दी तूने। चुनौती मिले तो जड़ें गहरी हों। पौधा जब झकझोरा जाता है तो उसके प्राणों में उस चुनौती का सामना करने के लिए जड़ें पैदा होती हैं।
परमात्मा ने पौधे उखाड़ कर बताए। पौधे तो आठ-आठ फीट ऊंचे थे और जड़ें आठ-आठ इंच भी नहीं थीं। परमात्मा ने कहा: इतनी छोटी जड़ें, इतने बड़े पौधे! देखने के सुंदर, बस देखने के! दिखावा। गेहूं को पकने का अवसर ही न आया। गेहूं को पैदा होने का अवसर ही न आया। देह ही देह रह गई, आत्मा जन्मी ही नहीं।
इसलिए अक्सर ऐसा हो जाता है कि धनपतियों के घरों में मेधावी व्यक्ति मुश्किल से पैदा होते हैं। सारी सुविधा है। इसलिए न तूफान है, न आंधी है, न ओले पड़ते, न धूप, न वर्षा, कोई पीड़ा झेलने का मौका नहीं आता। थोथे रह जाते हैं। गोबर गणेश रह जाते हैं। उनमें प्राण नहीं होते।
उस किसान को बात समझ में आई। उसने कहा: मुझे क्षमा करो। मैं भूल में था। मैं सोचता था तुम्हें किसानी नहीं आती। लेकिन अब समझा मैं राज।
जीवन का विकास विरोधों के मध्य होता है। जीवन द्वंद्वात्मक है। सिद्धार्थ, इसे याद रखो: जीवन द्वंद्वात्मक है। अगर जीवन में द्वंद्वात्मकता न हो, डायलेक्टिक्स न हो, तो बस जीवन निर्वीर्य हो जाता है, सूख जाता है! दिखावा रह जाता है फिर। देह पड़ी रह जाएगी, प्राणों का पक्षी उड़ जाएगा। पिंजड़ा पड़ा रह जाएगा।
इसलिए अक्सर ऐसा हुआ है कि जिन देशों में सहज सुविधा थी प्रकृति की--जैसे हमारे देश में प्रकृति की जितनी सुविधा थी ऐसी सुविधा शायद ही किसी दुनिया के किसी और देश में रही हो। यही सुविधा हमें खा गई। इस सुविधा के कारण हम दो हजार साल गुलाम रहे। इस सुविधा के कारण ही हमारी आत्मा मरी, हम सड़ गए। जहां कोई सुविधा न थी...तुम जरा इतिहास उठा कर देखो, इतिहास के पन्ने पलटो। हूण आए, मुगल आए, तुर्क आए। ये सब असुविधापूर्ण जगहों से आए थे, रेगिस्तानों से आए थे--जहां घास भी न ऊगे; जहां पानी की बूंद पानी मुश्किल थी; जहां प्राण सदा संकट में थे। ये आए और इस देश को जीत लिया इन्होंने। इसको लूटा।
पश्चिम से लोग आए। इंग्लैंड ने इस देश को इतने दिन तक गुलाम रखा। इंग्लैंड छोटा सा देश है। इस देश के एक बड़े जिले के बराबर। इतने बड़े देश को गुलाम रख सका! और कारण? कारण यही था कि इंग्लैंड के पास कोई ऐसा न तो वातावरण है, न ऐसी भूमि है, न ऐसा मौसम है--जहां लोग सहजता से जी सकें, सरलता से जी सकें। संघर्ष है, द्वंद्वात्मकता है। लड़ना पड़ा। जीना हो तो लड़ना पड़ेगा। तो उन्होंने सात समुंदर पार किए। समुंदरों से कौन संघर्ष लेता! अगर घर में सब सुविधा हो तो कोई पागल है जो दूर की यात्राओं पर जाए, व्यर्थ के खतरे मोल ले! और उन संघर्षों ने ही उन्हें इस योग्य बनाया। जो सात समुंदरों से लड़ सके, उनसे तुम नहीं जीत सकते थे। तुमने सात नदियां भी पार नहीं की थीं, सात समुंदर तो दूर।
यहां हजारों-लाखों लोग ऐसे हैं जो कभी अपने गांव के बाहर नहीं गए। दूर न जाओ, तुम यूं देखो कि देश के मध्य में जो लोग रहते हैं, उनसे कभी सैनिक पैदा नहीं होते। सैनिक पैदा होते हैं सीमांतों पर। जैसे कि मध्य-भारत में जो लोग रहते हैं, इनसे तुम आशा नहीं कर सकते कि ये लड़ सकें। लड़ने की अगर तुम आशा कर सकते हो तो पंजाबी से कर सकते हो। वह सीमांत पर रहा है। उसने न मालूम कितनी टक्करें ली हैं। उन टक्करों ने उसकी तलवार पर धार रख दी है। मध्य में जो रहता है, वह इतने दूर है दुश्मनों से, संघर्षों से, तूफानों से, आंधियों से, कि भूल ही गया तलवार कहां है उसकी। जंग खा गई उसकी तलवार।
सीमांतों पर रहने वाले लोग बलशाली हो जाते हैं, शूरवीर हो जाते हैं। होना ही पड़ेगा।
पंजाब से ही गुजरे सारे हमलावर। कोई भी आया तो पंजाब से ही टक्कर लेनी पड़ी। सिकंदर आया तो पंजाब से जूझा। जो भी आया, उसको पंजाब से आना पड़ेगा। तो पंजाबी में एक बल आ गया। वह बल देश के मध्य के लोगों में नहीं हो सकता। इसलिए सरदार में जो बल होगा, वह देश के मध्य में नहीं हो सकता। वह संभव नहीं है। आंधी ही यहां तक नहीं पहुंच पाती। यहां तक आती-आती है तो भी आते-आते उसके प्राण निकल जाते हैं।
इसलिए सिद्धार्थ, एक पहलू को ही मत देखो। यह सच है कि तुम चौंक गए। मगर अच्छा है कि तुम चौंके। चौंकोगे तो जागोगे। तुम्हारी जड़ें कंपी, यह भी अच्छा है। नहीं तो यह भ्रांति होने लगती है कि जैसे मैं सदा यहां रहूंगा; जैसे कि सदा तुम्हारे पास रहूंगा। आज नहीं कल पर तुम टाल सकते हो, कि कल करेंगे ध्यान, कि पा लेंगे कभी भी समाधि, जल्दी क्या है! मगर उस आदमी ने तुम पर कृपा की। छुरा फेंक कर वह तुमसे कह गया: जल्दी करो। कल पर मत टालो! कुछ करना हो तो कर लो।
और भी एक बात ध्यान रखने योग्य है कि जब भी कभी ऐसी आंधी आती है तो तुम्हें एकजुट कर जाएगी, इकट्ठा कर जाएगी। यह घटना सारी दुनिया में फैले मेरे कोई डेढ़ लाख संन्यासियों को अचानक एक तार में बांध देगी, एक सूत्र में बांध देगी। जैसे कि कोई धागे में पिरो ले फूलों को और माला बन जाए।
हमेशा जीवन को उसकी शुभ्र रेखाओं से देखो। अंधेरे से अंधेरे बादल में भी, काले से काले बादल में भी छिपी चांदी की चमक है। गहरी से गहरी अमावस की रात में भी सुबह छिपी पड़ी है। रात पर ही मत अटक जाना। रात तो गर्भ है; उससे सुबह का जन्म होगा। ऐसी तो और भी आंधियां आएंगी। यह तो शुरुआत है। और हर आंधी तुम्हें मजबूत कर जाएगी। और हर आंधी तुम्हें ज्यादा सजग कर जाएगी। और हर आंधी तुम्हारी जड़ों को ज्यादा जमा जाएगी। और हर आंधी तुम्हें मेरे ज्यादा निकट ले आएगी।
इसी तरह तो नासमझ अनजाने ही सत्य की सेवा करते हैं। जिन्होंने जीसस को सूली दी थी, उन्होंने जैसी जीसस की सेवा की, वैसी किसी और ने नहीं की। न देते सूली जीसस को, न जीसस की जड़ें इतनी गहरी जम पातीं। महावीर की जड़ें इतनी गहरी नहीं जम पाईं। कारण? कोई नासमझ महावीर को सूली नहीं दिया। महावीर का पौधा ऐसा नहीं बढ़ पाया, वट-वृक्ष नहीं बन पाया। बात तो बड़ी कीमती थी महावीर की। बात तो बड़ी गहरी थी। हिमालय के शिखर छोटे पड़ें, इतनी ऊंची थी। और प्रशांत महासागर की गहराई छोटी पड़े, इतनी गहरी थी। मगर कोई चूक हो गई। चूक हो गई यह कि उतनी बड़ी आंधी न आई, जितनी बड़ी आंधी जीसस पर आई। जीसस और महावीर को आमने-सामने खड़ा करते तो महावीर की गरिमा और ही थी, महिमा और ही थी। मगर जीसस सबको मात कर गए। आज आधी दुनिया जीसस के साथ खड़ी है। और कारण? कारण है सूली।
दुनिया में बहुत विचारक हुए, बहुत दार्शनिक हुए; मगर सुकरात को फिर कोई पार न कर पाया। और कारण है केवल इतना कि एथेंस के पागलों ने सुकरात को जहर पिला कर मार डाला। सुकरात मस्ती से मरा, आनंद से मरा। सुकरात यह कहता हुआ मरा कि तुम खयाल रखो कि जो मुझे मार रहे हैं, मैं उनको मार कर भी जिंदा रहूंगा। और यह बात सच साबित हुई। आज सुकरात को मारने वालों का नाम भी तो कोई नहीं गिना सकता। जिन पुरोहितों ने जीसस को मार डालने की साजिश की थी, उनमें से कितनों का नाम तुम्हें पता है? एक का भी नाम पता नहीं है। सुकरात जहर पीकर अमर हो गया।
सत्य की एक खूबी है: तुम उसे नुकसान नहीं पहुंचा सकते। तुम लाख उपाय करो तो भी नुकसान नहीं पहुंचा सकते। तुम्हारा हर उपाय सत्य को लाभ ही पहुंचाता है। और इससे विपरीत अवस्था असत्य की है: तुम लाख उपाय करो, असत्य को तुम लाभ नहीं पहुंचा सकते। तुम्हारा हर उपाय उसे हानि में ही डुबाता है। क्योंकि एक असत्य के लिए तुम्हें दस असत्य बोलने पड़ते हैं। दस असत्यों के लिए फिर हजार असत्य। और असत्यों की भीड़ खड़ी होती जाती है। और जितने असत्य होते हैं उतना ही असत्य कमजोर होता चला जाता है।
सत्य को मारा नहीं जा सकता। सत्य अमर है। लेकिन सत्य की अमरता सिद्ध कब होती है? जब सत्य को मृत्यु के आमने-सामने खड़ा कर दिया जाता है, तब उसकी अमरता सिद्ध होती है। किसी भी चीज को ठीक-ठीक देखने के लिए विपरीत पृष्ठभूमि चाहिए। जैसे स्कूल में काला ब्लैक-बोर्ड होता है, उस पर सफेद खड़िया से लिखते हैं। सफेद दीवाल पर भी लिख सकते हैं, मगर पढ़ेगा कौन, पढ़ेगा कैसे? लिख भी दोगे तो पढ़ा न जा सकेगा। एक तो लिखना भी मुश्किल होगा; लिख भी दिया किसी तरह तो पढ़ना मुश्किल होगा। जिसने लिखा है, वह खुद भी न पढ़ सकेगा। लेकिन काले ब्लैक-बोर्ड पर सफेद खड़िया उभर कर आती है।
देखते हो, दिन में आकाश में तारे दिखाई नहीं पड़ते। तारे तो दिन में भी आकाश में वहीं हैं, उतने ही हैं जितने रात होते हैं। कुछ ऐसा थोड़े ही है कि तारे कहीं भाग जाते हैं और रात फिर लौट आते हैं, कि दिन में छिप जाते हैं, घूंघट ओढ़ लेते हैं और रात अपना घूंघट उठा देते हैं। तारे तो जहां के तहां हैं; लेकिन रात का अंधेरा पृष्ठभूमि बन जाता है, उसमें तारे चमक कर प्रकट हो जाते हैं।
सुकरात चमक कर प्रकट हो गया। वह मृत्यु की घटना ने उसकी अमरता सिद्ध कर दी। जीसस सूली पर क्या चढ़े, सिंहासन पर चढ़ गए। सबको पीछे छोड़ दिया। जीसस सारे पैगंबरों को, सारे तीर्थंकरों को, सारे बुद्धों को पीछे छोड़ गए। कारण था--सूली। काश बुद्ध को भी किसी ने सूली लगा दी होती तो आज दुनिया बौद्ध होती! हानि कुछ भी न होती। बुद्ध का क्या बिगड़ता! आदमी को मरना तो होता ही है। आदमी मरेगा तो ही। लेकिन बुद्ध सामान्य ढंग से मरे, तो मृत्यु कोई छाप नहीं छोड़ गई।
जीसस की मौत ऐसी छाप छोड़ गई, इतिहास को दो खंडों में तोड़ गई। आज जो ईसाई नहीं हैं, वे भी इतिहास को जीसस से ही नापते हैं--ईसा-पूर्व, ईसा-पश्चात। एक लकीर खिंच गई जीसस के कारण। इतिहास विभाजित हो गया। उसके पहले जो इतिहास था, वह एक और उसके बाद जो इतिहास बना, वह और। यह सारा अदभुत खेल हुआ सूली के कारण। जिन्होंने सूली दी थी, काश उनको पता होता कि वे क्या कर रहे हैं, तो वे भूल कर भी सूली न देते। उनको अगर यह पता होता कि वे जीसस की सेवा कर रहे हैं, सेवक भी जितनी सेवा नहीं कर सकते, उतनी सेवा कर रहे हैं, तो उन्होंने कभी सूली न दी होती।
इसलिए सिद्धार्थ, ऐसी छोटी-मोटी बातों की चिंता न लेना। ये तो बड़ी-बड़ी बातों के आगमन की केवल सूचनाएं हैं। ये तुम्हारी तैयारियों के क्षण हैं।
जड़ें हिलीं, यह अच्छा है। इससे तुम चौंकोगे, जागोगे। तुम्हें यह बात साफ होगी कि मेरा उपयोग कर लो जितना करना है। जितना ज्यादा पीना है, इस मधुरस को पी लो। कल पर मत टालो। मुझे तुम इस तरह मत देखो कि ठीक है, आज भी हूं, कल भी तो रहूंगा। आज नहीं सुना, कल सुन लेंगे, जल्दी क्या है!
यह घटना तुम्हें जल्दी से भर जाएगी, त्वरा से भर जाएगी, तीव्रता से भर जाएगी। यह तुम्हें एक सघनता दे जाएगी। और तुम्हारी जड़ें मजबूत होंगी इससे, कमजोर नहीं होंगी।
मेरे देखे वह अनजान आदमी, अपरिचित आदमी, मेरा ही काम कर गया है। ऐसे और भी लोग काम करेंगे। वे मेरा ही काम कर रहे हैं। सत्य की यही तो अलौकिकता है कि बहुत ढंगों से लोग उसकी सेवा करते हैं। जिनको पता भी नहीं होता वे भी सेवा करते हैं। जो सोचते हैं हम नुकसान पहुंचाने चले हैं, वे भी लाभ ही पहुंचा जाते हैं।
फिर जैसा मैंने तुमसे कहा, यह पूना है! नाम तो इसका बड़ा प्यारा है--पुण्य की नगरी! मगर आदमी यहां बड़े अजीब पैदा होते हैं। मगर अक्सर ऐसा होता है। घर में कुरूप लड़की पैदा हो जाती है, उसका नाम लोग रख देते हैं--सुदंरबाई!
मैं एक बस में सफर कर रहा था। कंडक्टर बड़ा परेशान था। उनतीस आदमियों ने टिकट लिए थे और तीस आदमी थे। वह बार-बार कह रहा था कि भई किसी एक आदमी ने टिकट नहीं लिया है, वह पैसे दे दे और टिकट ले ले। मगर लोग एक-दूसरे की तरफ देखते थे। वह तीसवां आदमी कौन सा है, पकड़ में ही न आए। आखिर मजबूरी में सिवाय इसके कोई रास्ता न रहा, उसने एक-एक आदमी का जाकर टिकट जांचा। वह तीसवां आदमी आखिर पकड़ा गया। उस आदमी से उसने पूछा कि क्या भैया, होश में हो कि शराब पीए हो? कितनी बार चिल्लाया, बोले क्यों नहीं? तुम्हारा नाम क्या है?
उस आदमी ने कहा: अच्छेलाल।
उस कंडक्टर ने कहा: गजब के अच्छेलाल हो! किस मूरख ने तुम्हें यह नाम दिया?
मैंने कहा: यह बात तू गलत कह रहा है। जिसने भी दिया, ठीक दिया। नाम सोच-समझ कर दिया। इस आदमी का अच्छेलाल ही नाम होना चाहिए। अच्छे नाम के पीछे ही बुराई छिपाने में आसानी होती है। हम अच्छे-अच्छे नाम दे देते हैं और अच्छे नाम के पीछे बुराई छिप जाती है।
जितने बड़े पाप के अड्डे हमारे धर्म-क्षेत्र होते हैं, उतने बड़े पाप के अड्डे कहीं और नहीं होते। तीर्थ, जहां पुण्य होना चाहिए, पाप के अड्डे बन जाते हैं। आदमी अनूठा है। आदमी हद दर्जे का विक्षिप्त है, मूढ़ है। नाम तो इस नगर का है--पुण्य की नगरी--पूना। लेकिन आदमी यहां अजीब पैदा होते हैं। नाथूराम गोडसे को पैदा करने का सौभाग्य इस नगर को है! और अब ये सज्जन को धर्म की रक्षा की सूझी!
दो चोरों को पकड़ कर थाने में लाया गया। मुंशी उनका नाम दर्ज कर रहा था। नाम पूछने पर एक ने बताया: विमल कुमार बनर्जी। दूसरे ने कहा: चंदूलाल चटर्जी। नये-नये पूना से कलकत्ता ट्रांसफर हुए एस.पी.श्री.एम.के. द्विवेदी पास ही में टहल रहे थे। जब उन्होंने चोरों के नाम सुने तो अपने काबू में न रह सके। गुस्से में बोले: क्यों रे हरामजादो, एक तो चोरी करते हो, ऊपर से अपने नाम में जी-जी लगाते हो! शर्म नहीं आती? मुंशी जी, इनके नाम पर इस प्रकार लिखिए--विमल कुमार बनर और चंदूलाल चटर!
सारे देश में वैसा अनुभव हुआ है, सिद्धार्थ, जैसा तुम्हें अनुभव हुआ। हजारों तार, हजारों फोन पहुंचने शुरू हुए। लोग आने शुरू हो गए। सारी दुनिया में चर्चा पहुंच गई। अलग-अलग देशों में टेलीविजन और रेडियो और अखबारों में खबर फैल गई। मगर जैसे पूना के कानों पर जूं भी नहीं रेंगी। पूना से तो सिर्फ एक फोन आया और वह भी एक सज्जन का आया, जो छुरा फेंकने वाले के पक्ष में थे। और उन्होंने कहा कि अगर धर्म की रक्षा न की जाएगी तो धर्म नष्ट हो ही जाएगा। तो उस आदमी ने कुछ बुरा नहीं किया, जो धर्म की रक्षा की। मैं जानना चाहता हूं कि हमारे धर्म को विनष्ट करने के उपाय क्यों किए जा रहे हैं?
उनसे पूछा गया: आपका शुभ नाम?
कहा: नाम मैं नहीं बताना चाहता।
तो उनसे कहा गया: अगर इतनी भी हिम्मत नहीं है कि अपना नाम बता सको, तो क्या तुम खाक धर्म की रक्षा करोगे! मर्द हो तो यहां आ जाओ, तो यहां तुम्हें समझा लें और तुमसे समझ लें कि धर्म क्या है। और इतनी भी हिम्मत न हो, अगर बिलकुल ही नामर्द हो, तो कम से कम अपने घर का पता दे दो कि हम वहां आ जाएं।
उन्होंने घबड़ा कर फोन रख दिया: बस पूना में इतनी चहल-पहल हुई।
मैंने बहुत सी मरी हुई बस्तियां देखीं, मगर पूना बेजोड़ है। इसकी याद रहेगी। सारी दुनिया से यहां लोग हैं, मगर पूना से कितने हैं? थोड़े से, बहुत थोड़े से। अंगुलियों पर गिने जा सकें। मगर उतने ही लोग समझो यहां जिंदा हैं, बाकी मुर्दों का टीला है।
पूना ने अपना ढंग जाहिर किया।
इसलिए सिद्धार्थ, कुछ चिंता लेना मत, कुछ विषाद में पड़ना मत। ये छुरे आने दो। ये उपाय चलने दो। अगर सत्य है तो बचेगा; अगर सत्य नहीं है तो बचना ही नहीं चाहिए।
योग प्रीतम ने एक गीत भेजा है--
मिल गए रजनीश जब से, मिल गई मंजिल मुझे
अब तो इस मझधार में भी मिल गया साहिल मुझे
हो छिटकती प्यार की यह चांदनी--क्या चाहिए
रागिनी दिल से छिड़ी जो--मिल गई महफिल मुझे
अब नहीं वीरानियों का यह तिमिर तड़फाएगा
आंख से पर्दा हटा तो, दिख गई झिलमिल मुझे
जो मिटा कर बीज मिट्टी में खिला दे फूल को
नव सृजन का देवता वह, मिल गया कातिल मुझे
कर सकूं आराधना के फूल न्योछावर उन्हें
दिल के मंदिर में संजोने के लगे काबिल मुझे
यहां मित्र होंगे, शत्रु होंगे। किन्हीं को मैं प्यारा लगूंगा, किन्हीं को खतरनाक लगूंगा। इन्हीं द्वंद्वों के बीच तो मेरे संन्यास की क्रांति, मेरे संन्यास की आग फैलेगी। कोई मेरे लिए मंदिर बनाएगा, कोई मेरे जीवन को अंत करने की कोशिश करेगा। इसी द्वंद्वात्मकता में यह हवा दूर-दूर तक फैल जाएगी। यह सब शुभ है।
मेरे देखे अशुभ घटता ही नहीं। इसलिए जब तुम्हें कुछ लगे कि अशुभ घट गया, तब भी समझना कि तुम्हें अभी देखना नहीं आया। अशुभ घटता ही नहीं, शुभ ही घटता है। अगर परमात्मा से व्याप्त है यह अस्तित्व, तो जो भी घटता है, उसके इशारे से घटता है। अशुभ कैसे घट सकता है? इसलिए कुछ भी घटे, उसको धन्यवाद देना और हृदय में आभार और आराधना को जगाना। हृदय में दीये जलाना प्रीति के और प्रार्थना के।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, एक ओर तो मनुष्य का जीवन महादुख से भरा है, तथा वह इन दुखों से छुटकारा पाने के लिए युगों-युगों तक किसी अवतार की प्रतीक्षा करता रहता है इस आशा में कि कोई उसका उद्धार करेगा। किंतु जब वह सौभाग्य की घड़ी आती है तब वह उससे बचने का हर संभव प्रयास करता है और अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार लेता है। भगवान, क्या सच ही मनुष्य संतापों से मुक्त नहीं होना चाहता?
अमृत प्रिया! मनुष्य संतापों से तो मुक्त होना चाहता है, मगर उसकी शर्तें हैं। उन शर्तों के आधार पर मुक्त होना चाहता है, बेशर्त मुक्त नहीं होना चाहता। और कठिनाई यह है कि उसकी शर्तें ऐसी हैं कि उन्हीं के कारण संताप है। इसलिए एक दुष्ट-चक्र पैदा हो जाता है।
तुम मुक्त होना चाहते हो संताप से और उसी संताप की जड़ों को पानी डालते रहते हो। तुम फल से तो मुक्त होना चाहते हो कि कोई कड़वा फल न लगे और नीम को तुम पानी सींचते रहते हो। तुम्हें यह नहीं दिखाई पड़ता कि इस पानी सींचने में और नीम के कड़वे फल के लगने में एक अनिवार्य संबंध है, कार्य-कारण का संबंध है। इस कार्य-कारण के संबंध को न देख पाने के कारण यह उपद्रव हो जाता है। और कार्य-कारण का संबंध देखने के लिए प्रतिभा चाहिए।
संताप से तो सभी छुटकारा चाहते हैं, मगर संताप के मूल कारणों को काटने में अड़चन है। जैसे समझो, तुम नहीं चाहते कि तुम्हारा अपमान हो--कौन चाहता है किसी का अपमान हो--लेकिन क्या तुम राजी हो कि तुम सम्मान पाने की आकांक्षा छोड़ दो। बस वहां अड़चन आ जाएगी। अपमान से बचना चाहते हो तो बचने का एक ही उपाय है: सम्मान की आकांक्षा छोड़ दो, क्योंकि सम्मान की आकांक्षा में ही अपमान पैदा होने का अवसर है। और जितनी सम्मान पाने की आकांक्षा हो उतने ही बड़े अपमान की संभावना है। तुम चाहते हो असंभव। तुम चाहते हो: अपमान तो कोई न करे, सम्मान ही सम्मान मिले। यह असंभव है, क्योंकि अपमान और सम्मान एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। तुम एक पहलू बचाना चाहते हो, दूसरे पहलू का क्या होगा? वह उसके साथ ही है, वह अविभाज्य है। तुम उनको अलग-अलग नहीं कर सकते।
तुम दिन तो चाहते हो, रात नहीं चाहते। तुम विश्राम तो चाहते हो, श्रम नहीं चाहते। लेकिन क्या तुमने खयाल किया, अगर श्रम न करोगे तो विश्राम कर ही न पाओगे! इसलिए तो धनपतियों को नींद नहीं होती। धनपतियों के बड़े से बड़े दुखों में एक है: अनिद्रा की बीमारी। सिर्फ धनपतियों को सताती है अनिद्रा की बीमारी, कोई मजदूर को नहीं सताती। ऐसा कभी देखा नहीं गया कि कोई मजदूर, कोई किसान, कोई दिन भर मेहनत करने वाला आदमी अनिद्रा की बीमारी से पीड़ित होता हो, कि रात उसको नींद न आती हो। वह तो घोड़े बेच कर सोता है। श्रम जिसने किया है उसने विश्राम कमा लिया। जिस अनुपात में श्रम किया है उसी अनुपात में विश्राम कमा लिया। धनपति की मुसीबत यह है कि वह दिन भर भी विश्राम कर रहा है और चाहता है कि रात भी विश्राम करे। उसने श्रम तो किया नहीं, विश्राम कमाया नहीं, तो रात जागना पड़ेगा। दिन में जो जागा है वह रात में सो सकता है। लेकिन दिन में ही जो सोया-सोया सा रहा है, वह रात में कैसे सोएगा?
तुम चाहते नहीं कि तुम्हारा कोई अपमान करे, मगर सम्मान करे। सम्मान में ही खतरा है। अगर तुम सम्मान चाहोगे तो फिर तुम छुईमुई हो गए। फिर जरा सा अपमान भी तुम्हें चोट करेगा। जितनी सम्मान की आकांक्षा होगी उतना ही अपमान चोट करेगा।
जीसस ने कहा है: धन्य हैं वे जो अंतिम खड़े होने में समर्थ हैं। क्यों? क्योंकि उनको अब और अंतिम नहीं किया जा सकता, उनका कोई अपमान नहीं कर सकता। मगर अंतिम खड़े होने में समर्थ होना मुश्किल मामला है। तुम चाहते हो प्रथम खड़े हो जाओ और तुम्हें कोई धक्के न मारे। मगर दूसरों को भी प्रथम खड़े होना है, वे धक्के कैसे न मारेंगे? तुम कोई अकेले ही तो नहीं हो, करोड़ों की भीड़ है, सभी प्रथम होना चाहते हैं। तो जो जितने प्रथम होने की चेष्टा में लगा है, उतने ही धक्के खाएगा, उतने ही जूते खाएगा, उतनी ही गालियां पड़ेंगी, उतनी ही कुश्तमकुश्ती होगी।
तुम्हारी संसद में जो जूते फेंके जाते हैं, कुर्सियां फेंकी जाती हैं, मार-पीट हो जाती है, तुम चकित न होना, यह बिलकुल स्वाभाविक है। यह होगा ही। क्योंकि यहां वे सारे लोग इकट्ठे हैं जो प्रथम होने की दौड़ के लिए दीवाने हैं। ये सभी प्रधानमंत्री होना चाहते हैं। वह एक कुर्सी है, उस पर सबको बैठना है। अब ऐसा भी नहीं करते कि एक बड़ी बेंच बना दें कि सबको बिठा दें। मगर तब बैठने का मजा चला जाता है। उसमें भी झगड़ा हो जाएगा कि बेंच पर पहले कौन बैठा है--नंबर एक कौन, नंबर दो कौन? बेंचें भी बनाई हैं कुछ जगह, जैसे रूस में प्रेसीडियम होता है। प्रेसीडेंट नहीं, राष्ट्रपति की श्रृंखला होती है--प्रथम राष्ट्रपति, द्वितीय राष्ट्रपति, तृतीय राष्ट्रपति। मगर उससे क्या फर्क पड़ता है? वह जो प्रथम है, वह झगड़े का कारण है।
राजनेता जो इतना एक-दूसरे के पीछे पड़े रहते हैं, इतने दल-बदल करते हैं, इतनी चालबाजियां-जालसाजियां करते हैं, वह अकारण नहीं है। उसके पीछे कारण हैं। कारण है: पद की आकांक्षा।
चलते हैं लातें-घूंसे
चप्पल-जूते
टूट जाती हैं कुर्सियां
इसी को तो कहते हैं
नेताओं की फ्रीस्टाइल कुश्तियां।
अगर संसद के इन आयोजनों पर
लगा दी जाए टिकट
तो एक ही झपट में
पूरा हो जाए
घाटे का बजट।
इस पर टिकट लगा ही देनी चाहिए। और संसद का भवन बड़ा बनाना चाहिए, स्टेडियम जैसा बनाना चाहिए, कि जनता देख रही है, ताली बजा रही है और नेतागण कुश्ती लड़ रहे हैं। जनता वैसे ही देखती है, मगर अखबार पढ़-पढ़ कर देखना पड़ता है। प्रत्यक्ष आंखों से देखने में जो मजा आएगा, कि किसने किसको चित्त किया, किसने किसको चारों खानों कर दिया, कौन किसकी छाती पर चढ़ बैठा, कोई किसी की टांग ले भागा, कोई किसी का हाथ ले भागा, किसी के किसी की गर्दन हाथ में आ गई है, कोई किसी के बाल पकड़े हुए है--और यह सब वार्ता चल रही है! यह सब राजनैतिक वार्ता है। ये सब नये गठबंधन चल रहे हैं। लोग दो-दो तीन-तीन नावों पर सवार हैं एक साथ। एक को पकड़े हुए हैं, एक में टांग रखे हुए हैं, तीसरे में भी पैर फैलाए हुए हैं--पता नहीं कहां सहारा मिले, कहां टिकना पड़े!
अगर सम्मान की इच्छा है तो अपमान तो झेलने के लिए राजी होना होगा। अगर तुम लोभी हो तो खतरा है फिर। फिर तुम्हें किसी दिन घाटा लगे तो उसको स्वीकार करना। अगर जुआ खेलोगे तो जीतते ही थोड़े ही रहोगे, कभी तो हारोगे। असल में हारोगे ज्यादा, जीतोगे कम। जीतोगे शायद ही कभी, हारोगे ही। लेकिन आदमी चाहता है जीत ही होती रहे, हार न हो जाए।
लाओत्सु ने कहा है: मुझे कोई हरा नहीं सकता, क्योंकि मैं जीतना ही नहीं चाहता। लाओत्सु को नहीं हरा सकते। जो जीतना ही नहीं चाहता, उसको कैसे हराओगे? यह है जड़ को काटने का ढंग। लेकिन जड़ को काटने के लिए इतनी हिम्मत होनी चाहिए कि तुम पहले जड़ को पहचानो।
तुम्हारे सारे संताप की जड़ में अहंकार है। मैं विशिष्ट हूं, खास हूं, बेजोड़ हूं! और सब मुझसे नीचे हैं, मैं ऊपर हूं! और सब-कुछ भी नहीं हैं, ना कुछ हैं, मैं सब-कुछ हूं! मैं सर्वोच्च हूं! यह भ्रांति तुम्हारी तुम्हें दिक्कत में डालेगी। दिक्कत में तो तुम नहीं पड़ना चाहते।
एक राजनेता मेरे पास आते थे। वे कहते थे कि मुझे कुछ ध्यान समझा दें कि चित्त को शांति रहे। मैंने उनसे कहा: तुम अशांति को पैदा करो और मैं तुम्हें शांति के लिए कुछ ध्यान समझाऊं! तुम अशांति के कारण ही क्यों नहीं तोड़ डालते?
उन्होंने कहा: क्या मतलब आपका?
मैंने कहा कि अशांति किसलिए है? अशांति इसलिए है कि तुमको प्रधानमंत्री बनना है। इसलिए तुम रात सोते नहीं, भाग-दौड़ में लगे हुए हो, दिन-रात दांव-पेंच में लगे हुए हो। अब तुम मुझसे ध्यान पूछने आए हो! तुम चाहते यह हो कि तुम शांत भी रहो और यह सब भाग-दौड़ भी जारी रहे, ये सब उपद्रव भी तुम करो। यह नहीं होगा। तुम्हें जड़ से काट डालनी पड़ेगी यह बात। ध्यान तो फल जाएगा। ध्यान तो सरल बात है। मगर तुम जटिल हो।
उन्होंने कहा: यह मैं नहीं कर सकता अभी। एक बार तो प्रधानमंत्री बनूंगा। तो फिर बाद में आऊंगा आपके पास। अभी तो चाहे कुछ भी हो जाए, सब दांव पर लगा देना है।
तो फिर अशांति तो स्वाभाविक है।
तू पूछती है अमृत प्रिया, कि ‘एक ओर तो मनुष्य का जीवन महादुख से भरा है तथा वह इन दुखों से छुटकारा पाने के लिए युगों-युगों तक किसी अवतार की प्रतीक्षा करता है।’
अवतार की प्रतीक्षा आदमी कर सकता है। जब जीसस को लोगों ने सूली दी, तब यहूदी कोई तीन हजार सालों से प्रतीक्षा कर रहे थे अवतार की। और जब जीसस ने घोषणा की कि मैं आ गया हूं, तुम जिसकी प्रतीक्षा करते थे वह आ गया है, तुम्हारे पैगंबरों ने जिसकी घोषणा की थी वह मौजूद है, अब तुम मेरी सुनो--तो उन्होंने सूली लगा दी। प्रतीक्षा करना आसान मामला है, क्योंकि प्रतीक्षा भविष्य की होती है। अवतार सामने खड़ा हो जाए तो झंझट की बात है। दो कारणों से झंझट। एक तो वह प्रतीक्षा नहीं करने देता और तुम्हारी प्रतीक्षा की आदत हो गई, तीन हजार साल से प्रतीक्षा की आदत। तुम कहते हो: हम तो प्रतीक्षा करेंगे। हमारे बापदादे भी प्रतीक्षा करते रहे, उनके बापदादे भी प्रतीक्षा करते रहे। हम तो प्रतीक्षा करेंगे।
फिर प्रतीक्षा में तीन हजार साल में तुम इस-इस तरह की बातें तय कर लेते हो, कल्पित कर लेते हो, जो कोई पूरी नहीं कर सकता। तुम्हारी कल्पनाएं पूरी करने का किसी ने ठेका लिया है? तो उन्होंने इस तरह की कल्पनाएं बना रखी थीं कि जो अवतार होगा वह ऐसा होगा...। अब जीसस में अगर वैसे ही सारे लक्षण हों तो वे स्वीकार करेंगे। वे लक्षण तीन हजार सालों में लाखों लोगों ने तय किए हैं, वे किसी एक आदमी ने भी तय नहीं किए हैं। उसमें न मालूम कितने कवियों ने रंग भरे हैं, कितने चित्रकारों ने तूलिका चलाई है, कितने स्वप्न-द्रष्टाओं ने स्वप्न देखे हैं। अब उन सपनों के आधार से कौन जीसस चल सकते हैं? वह कुछ भी जीसस सिद्ध करने को राजी नहीं हैं। हो भी नहीं सकता। असंभव है।
तुम्हीं यहां इस देश में कृष्ण की प्रतीक्षा कर रहे हो। मुझसे बार-बार लोग पूछते हैं कि कृष्ण ने कहा था कि जब धर्म की हानि हो जाएगी और जब साधुओं पर अत्याचार होने लगेगा, तो मैं आऊंगा। तो वे आते क्यों नहीं? वे तुम्हारे डर से ही नहीं आते, क्योंकि तुमने कृष्ण के नाम से जो-जो कल्पनाएं कर रखी हैं, उनको कौन पूरी करेगा? वे तो कृष्णलीला में जो अभिनेता बनता है, वही पूरी कर सकता है। मगर वे नाटक के मंच पर पूरी हो सकती हैं, वे जीवन की असलियत में पूरी नहीं हो सकतीं। उनको कौन पूरा करेगा? कैसे वे पूरी की जा सकती हैं? तुमने असंभव धारणाएं बना रखी हैं। तुमने ऐसी बेहूदी कल्पनाएं कर रखी हैं कि अगर कोई पूरा करने की कोशिश करेगा तो मुश्किल में पड़ेगा; पूरी नहीं करेगा तो मुश्किल में पड़ेगा।
अब कहते हो तुम कि कृष्ण की सोलह हजार रानियां थीं। अब अगर कोई आदमी पूरी करने की कोशिश करे सोलह हजार रानियां, तो पहली तो बात जेल जाएगा। इस जमाने में कोई सोलह हजार रानियां रख सकता है? सोलह नहीं रख सकता, सोलह हजार की बात छोड़ो तुम। और अगर पूरी न करे और कृष्ण महाराज अकेले ही खड़े हो जाएं आ कर, तो तुम पूछोगे कि सोलह हजार रानियां कहां हैं? अगर सोलह हजार रानियां नहीं हैं तो तुम कैसे कृष्ण? रासलीला कैसे होगी अब? रासलीला करे तो मुश्किल में पड़े, रासलीला न करे तो मुश्किल में पड़े। तुम पूछोगे: मोरमुकुट क्यों नहीं बांधा? अब बीसवीं सदी में कोई मोरमुकुट बांधे तो पागल समझा जाए और न बांधे तो कृष्ण नहीं है यह आदमी। अब आधुनिक कृष्ण होंगे तो मोरमुकुट बांध कर खड़े होंगे? और जंचेगा मोरमुकुट? भला लगेगा? लेकिन तुम्हारी अपेक्षाएं पूरी होनी चाहिए।
और तुमने क्या-क्या कल्पनाएं कर रखी हैं! तुम पूछोगे: कृष्ण महाराज, अगर आप असली हैं तो फिर हमको दिव्य दृष्टि दीजिए, विश्व का दर्शन कराइए। तुम्हारे पास अपने को देखने वाली आंख नहीं है और तुम विश्व को, ब्रह्मांड को देखने वाली आंख चाहते हो! अभी तुमने स्वयं को देखा नहीं है मगर कृष्ण को यह काम करना चाहिए। तुम कृष्ण से न मालूम कैसी-कैसी अपेक्षाएं करोगे!
वही जीसस के साथ हुआ। तीन हजार साल से यहूदी मान कर चल रहे थे ये-ये अपेक्षाएं पूरी करना। वे-वे अपेक्षाएं पूरी जीसस नहीं कर सके। कोई भी नहीं कर सकता है। क्यों कोई पूरी करे? किन्हीं कवियों की कल्पनाएं कोई क्यों पूरी करे? तो अड़चन खड़ी हो जाती है। फिर प्रतीक्षा की आदत बन गई है, आशा बन गई है। उस आशा को तोड़ने को यह आदमी सामने खड़ा हो गया। तीन हजार साल पुरानी आदत छोड़े नहीं छोड़ी जाती। आदमी कहता है: हम तो प्रतीक्षा करेंगे। हम तो अपनी आशा में जीएंगे। लोग आशाओं में जीते हैं, लोग यथार्थ में नहीं जीते। लोग सपनों में जीते हैं। और यह आदमी सपना तोड़ने को खड़ा हो गया।
अगर महावीर सामने खड़े हो जाएं आ कर तो सबसे बड़े दुश्मन जैन सिद्ध होंगे उनके। और अगर बुद्ध सामने खड़े हो जाएं आकर तो बुद्ध को मानने वाले लोग ही उनको सबसे पहले इनकार करेंगे, क्योंकि उनकी कोई भी अपेक्षाएं वे पूरी करने में असमर्थ हो जाएंगे। अब महावीर के संबंध में क्या-क्या कल्पनाएं बना रखी हैं तुमने! बारह साल में उन्होंने केवल एक साल भोजन किया। अनुपात ऐसा पड़ता है कि बारह दिन में एक दिन भोजन। बारह दिन में जो आदमी एक दिन भोजन करेगा, महावीर की प्रतिमा तुम देखते हो उसकी ऐसी बलिष्ठ देह होगी? वह ऐसा पुष्ट होगा? वह तो बिलकुल हड्डी का पिंजर होगा। हड्डी का पिंजर हो जाओगे तो लोग कहेंगे: अरे आप कैसे महावीर! और अगर ठीक से खाओगे-पीओगे, तो देह बलिष्ठ हो सकती है। मगर तब लोग कहेंगे कि उपवास का क्या हुआ? महावीर की बलिष्ठ देह देख कर लगता है कि या तो यह बारह दिन में एक दिन भोजन करने की बात झूठ है और या फिर यह बलिष्ठ देह की बात कल्पना है, यह सच नहीं हो सकती।
जरा मूर्ति तो देखो महावीर की, कैसी बलिष्ठ है! किसी बड़े पहलवान की भी नहीं होगी। क्या उनकी बाहुएं हैं, क्या उनकी भुजाएं हैं! कैसी उनकी देह है--सर्वांग सुंदर, जिसमें कोई कमी नहीं है! यह इतने उपवास करने वाला आदमी है? तो एकाध जैन मुनि फिर ऐसा क्यों नहीं दिखाई पड़ता? कहीं कुछ भूल-चूक हो रही है । या तो प्रतिमा झूठी है। बहुत संभावना है प्रतिमा के झूठे होने की, क्योंकि प्रतिमाएं बहुत बाद में बनीं और प्रतिमाएं कल्पना से बनीं। तुम जाकर जैन मंदिर में देखो, चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिमाएं हैं सब एक जैसी लगती हैं। जैन भी फर्क नहीं कर सकते। इसलिए हर प्रतिमा के नीचे उनको चिह्न बनाने पड़ते हैं। जैसे कि चुनाव में पेटी में चिह्न होते हैं न--छाता किसी का और हाथ किसी का और हल-बक्खर किसी का--तो वैसे ही हर प्रतिमा के नीचे चिह्न बना हुआ है किस तीर्थंकर का कौन सा चिह्न है। अगर चिह्नों को ढांक दो तो जैन भी नहीं बता सकता कि यह महावीर की प्रतिमा है कि नेमिनाथ की प्रतिमा है कि आदिनाथ की प्रतिमा है। सब एक सी हैं।
इस दुनिया में दो आदमी एक जैसे होते ही नहीं, चौबीस आदमी एक जैसे--असंभव, बिलकुल असंभव है! और ये चौबीस आदमी अलग-अलग समयों में हुए, हजारों साल का फासला है। कोई पांच हजार साल का फासला है इन चौबीस आदमियों के बीच। ये बिलकुल एक जैसे हुए! कार्बनकॉपी मालूम होते हैं। और इनमें सबके फिर लक्षण हैं! सबके कान तुम देखोगे कंधों को छू रहे हैं। क्योंकि जैनों की धारणा है कि तीर्थंकर का कान जो है वह कंधे को छूना चाहिए। हो सकता है एकाध तीर्थंकर का, प्रथम तीर्थंकर का कान छूता रहा हो, उससे यह धारणा पकड़ गई हो। मगर कोई आवश्यक नहीं है, कान से कोई बुद्धि का संबंध नहीं है। कान से कोई भी संबंध बुद्धि का नहीं है। और कान को तुम भी खूब खींचतान करो, मसाज करते रहो, तो धीरे-धीरे तुम्हारा भी छूने लगेगा। मगर इससे तुम तीर्थंकर नहीं हो जाओगे, सिर्फ गधे हो जाओगे। सभी गधों के कान तीर्थंकरों जैसे होते है, लेकिन इससे कोई गधे तीर्थंकर नहीं हो जाएंगे। लेकिन अगर तुम्हारा कान न छुआ कंधे को तो जैन कहेंगे: कैसे तीर्थंकर! कान तो कंधे को छूते ही नहीं। कान कंधे को छूना ही चाहिए।
ये प्रतिमाएं बाद में बनीं, ये सब कल्पनाएं हैं। ये कवि की कल्पनाएं हैं। ये मूर्तिकारों की कल्पनाएं हैं।
बुद्ध की प्रतिमा तो निश्चित ही यूनानी आधार पर बनी। बुद्ध की प्रतिमा भारतीय भी नहीं है, यूनानी है। बुद्ध के मर जाने के तीन सौ साल बाद सिकंदर भारत आया और जब सिकंदर भारत आया और सिकंदर का सौंदर्य और सिकंदर के सेनापतियों का सौंदर्य और यूनानी सैनिकों का सौंदर्य भारत ने देखा तो फिर उसी आधार पर बुद्ध की प्रतिमा बनी। तुम बुद्ध की प्रतिमा को गौर से देखो, वह भारतीय नहीं है। वह चेहरा भारतीय नहीं है। वह नाक-नक्श भारतीय नहीं है। वह यूनानी है। उसका ढंग यूनानी मूर्तिकारों से लिया गया है। तब तक बुद्ध की प्रतिमाएं ही नहीं बनी थीं। बुद्ध की बहुत संभावना है कि वे नेपाली जैसे लगते रहे होंगे, क्योंकि बुद्ध पैदा हुए भारत और नेपाल की सीमा पर। कपिलवस्तु ज्यादा नेपाल का हिस्सा थी बजाय भारत के। बुद्ध लगते रहे होंगे नेपाली जैसे अब कहां नेपाली और कहां बुद्ध की प्रतिमा! हो सकता है बुद्ध की नाक चपटी रही हो, चेहरा नेपाली ढंग का रहा हो, थोड़ा मंगोल असर रहा हो। कहां यूनान, उससे कुछ लेना-देना नहीं। लेकिन एक दफा बुद्ध की प्रतिमा निर्मित हो गई...।
अब बुद्ध ने भी घोषणा की है--ऐसा बौद्ध कहते हैं--कि आऊंगा। सभी को घोषणा करनी पड़ी, क्योंकि वह कृष्ण जो घोषणा कर गए। तो प्रतियोगिता चलती है। अब अगर कोई आदमी अपने को बुद्ध कहे तो पहले लोग पूछेंगे कि चेहरा तो होना चाहिए बुद्ध जैसा, प्रतिमा होनी चाहिए बुद्ध जैसी, सौंदर्य होना चाहिए बुद्ध जैसा। बड़ी मुश्किल हो जाएगी। फिर इन सबके साथ इस-इस तरह की कल्पनाएं जुड़ गईं, इस तरह की पुराण-कथाएं जुड़ गईं...बुद्ध के पैदा होते ही उनकी मां मर गईं तो यह बात लिख दी गई शास्त्रों में कि जब भी बुद्धपुरुष पैदा होता है उसकी मां तत्क्षण मर जाती है। अब अगर किसी की मां जिंदा हो तो आप बुद्धपुरुष नहीं हो सकते। मतलब मां को मारो पहले, तब बुद्धपुरुष हो सकते हो। यह भी कोई बात हुई? अब मां के मरने का और बुद्धपुरुष होने का कोई भी तो संबंध नहीं है।
महावीर की मां तो नहीं मरी, मगर वह अलग परंपरा है जैनियों की, उनको इससे लेना-देना नहीं है। इसलिए बौद्ध महावीर को बुद्ध नहीं मान सकते, क्योंकि मां तो जिंदा रही। महावीर को बौद्ध महात्मा मानते हैं--अच्छे, संतपुरुष। मगर अभी पहुंचे नहीं परम सिद्धि को।
और यही स्थिति जैनियों की है। वे बुद्ध को भी महात्मा मानते हैं, लेकिन जिन नहीं, अभी परम अवस्था को नहीं पहुंचे। लक्षणा क्या है उनकी? तीर्थंकर सर्वज्ञ होता है, उसे तीनों काल ज्ञात होते हैं। उसे तीनों काल का ज्ञान होना चाहिए। और जैन शास्त्र कहते हैं कि बुद्ध लोगों से पूछते हैं: तुम्हारा नाम? इन्हें नाम तक पता नहीं मालूम, ये कैसे त्रिकालज्ञ? किसी से पूछना तुम्हारा नाम, जाहिर हो गया। और बुद्ध की आदत थी, जब भी कोई आता तो वे पूछते: आयुष्मान, तुम्हारा नाम? यह बिलकुल शिष्टाचार की बात थी। मगर जैन कहते हैं: नाम तक पता नहीं, अरे इतना भी अंतर्दृष्टि नहीं हुई तुम्हें, तुम क्या तीन काल जनोगे? महावीर त्रिकालज्ञ हैं!
बौद्ध ग्रंथों में महावीर का खूब मजाक उड़ाया गया है, कि महावीर को जैन कहते हैं कि ये तीन काल के जानने वाले हैं और सुबह अंधेरे में कुत्ते की पूंछ पर पैर पड़ जाता है। जब कुत्ता भौंकता है तब महावीर को पता चलता है कि अरे, कुत्ते की पूंछ पर पैर पड़ गया! ये तीन काल के ज्ञाता हैं! ऐसे घर के सामने भीख मांगते हैं जिस घर में कोई है ही नहीं--ये तीन काल के ज्ञाता हैं! इतना तो पता होना चाहिए कि घर में कोई भी नहीं है, क्या भीख मांग रहे हो, आगे बढ़ो! आगे बढ़ो, यह कहने वाला भी कोई नहीं है। ये कैसे त्रिकालज्ञ?
अगर तुम एक-दूसरों के शास्त्रों को देखो तो बड़े हैरान हो जाओगे, तुम बड़े चकित हो जाओगे। और उसका कुल कारण इतना है कि सबने अपनी-अपनी लक्षणा दी है और वह लक्षणा दूसरे की लक्षणा से मेल नहीं खाती। खा सकती नहीं। खाने की कोई जरूरत भी नहीं है।
मैं तो महावीर को भी मानता हूं कि वे परम ज्ञान को उपलब्ध हुए, बुद्ध को भी, कृष्ण को भी, जीसस को भी, मोहम्मद को भी, मोज़ेज़ को भी। हालांकि वे सब अलग-अलग तरह के लोग हैं, उनमें कहीं कोई तालमेल नहीं है। जितना भेद हो सकता है, उतना भेद है। जीसस को शराब पीने में कोई एतराज नहीं है। जब उनकी बैठक जमती है मित्रों की, रात देर तक भोजन चलता है। रात भी भोजन करने में उनको कोई एतराज नहीं है। असल में दिन भर चलने के बाद रात को ही वे भोजन करते हैं। और रात को जब भोजन हो चुकता है तो थोड़ा पीना-पिलाना भी चलता है सोने के पहले। मुझे इसमें कुछ एतराज नहीं दिखाई पड़ता, क्योंकि किसी ने जीसस को कभी बेहोश पड़ा हुआ सड़क पर गालियां बकते नहीं देखा है। तो इस थोड़ा सा पी लेने से...सिर्फ उस समय का शिष्टाचार था। जीसस के समय का शिष्टाचार था। लेकिन जैन यह कैसे मानेंगे कि कोई शराब पीए और तीर्थंकर की हैसियत का हो? असंभव!
रामकृष्ण मछली खाते थे, जैन कैसे मानेंगे कि रामकृष्ण परमहंस हैं? मछली खाते हैं। इनको अभी यही पता नहीं कि मछली नहीं खानी चाहिए, और क्या पता होगा? रात को भी भोजन करते थे, रात्रि-भोजन भी करते हैं--ये कैसे परमहंस?
इस बात को खयाल में रखना कि तुम्हारी कल्पनाएं तुम्हारी कल्पनाएं हैं, कोई व्यक्ति तुम्हारी कल्पनाएं पूरी करने को नहीं आता। इसलिए जब कोई अवतार, अवतार का अर्थ होता है: जब भी कोई व्यक्ति परमज्ञान को उपलब्ध होता है तो वह अद्वितीय होता है। तुम्हारी किसी कल्पना से तालमेल नहीं खाएगा। तुम्हारे सब कल्पनाओं के जाल तोड़ देगा। इसलिए तुम्हें स्वीकार करना मुश्किल हो जाता है। तुम स्वीकार कर सकते थे, अगर वह ठीक तुम्हारी लकीर का फकीर होता। लेकिन लकीर के फकीर तो रामलीलाओं में हो सकते हैं, असलियत में नहीं हो सकते।
इसलिए युगों-युगों तक लोग अवतार की प्रतीक्षा करते हैं--इस आशा में कि कोई उनका उद्धार करेगा। यह आशा भी गलत है, क्योंकि कोई दूसरा तुम्हारा उद्धार नहीं कर सकता। उपद्रव तुम करो, उद्धार कोई और करे! बीमार तुम हो तो इलाज भी तुमको करना होगा, चिकित्सा भी तुमको झेलनी होगी, आपरेशन भी तुम्हें करवाना होगा और दवा भी तुम्हें पीनी होगी। बीमार तुम और दवा मैं पीऊं! बीमार तुम, उपचार मेरा हो! यह नहीं चलेगा।
लेकिन लोग बड़े अजीब हैं। लोग हमेशा यही आशा करते हैं, कोई और कर दे। जो काम उन्हें नहीं करना है, वह दूसरे पर टालते हैं। जो काम उन्हें करना है, वह दूसरे पर नहीं टालते। वे यह नहीं कहते कि जीसस आएंगे और हमारी दुकान चलाएंगे। दुकान वे खुद चलाते हैं। वे यह नहीं कहते कि कृष्ण आएंगे और हमारे लिए धन कमाएंगे। धन वे खुद कमाते हैं। वे यह नहीं कहते कि महावीर आएंगे और हमारे लिए चुनाव लड़ेंगे। चुनाव वे खुद ही लड़ते हैं। मगर महावीर, जीसस, बुद्ध आएंगे--और हमारा मोक्ष करवाएंगे। मोक्ष तुम्हें चाहिए नहीं, कोई दे-दे यूं मुफ्त राह चलते तो तुम सोच लोगे कि लेना कि नहीं। वह भी तुम सोचोगे। वह भी तुम विचार करोगे।
अगर मैं तुमसे कहूं कि अभी, है तैयारी मोक्ष जाने की? अगर मैं तुमसे पूछूं, अभी, इसी क्षण! तो तुम कहोगे कि थोड़ा सोचने का तो मौका दो, कम से कम मेरी पत्नी को तो पूछ लूं। घर में बच्चे हैं, उनको तो पूछ लूं। नहीं तो वह नाहक नाराज होगी कि तुमने बिना ही पूछे मोक्ष ले लिया, तुमने अपना उद्धार कैसे करवाया मुझसे बिना पूछे? वह सारा उद्धार बिगाड़ कर धर देगी, उपद्रव खड़ा हो जाएगा।
एक बौद्ध भिक्षु मर रहा था। उसके हजारों अनुयायी थे। मरते वक्त उसने पूछा...कोई दस हजार लोग इकट्ठे हो गए थे, क्योंकि उसने घोषणा कर दी थी कि आज मेरा अंतिम दिन है।...उसने पूछा कि मैं जीवन भर समझाता रहा निर्वाण के लिए, तुममें से कोई है जो मेरे साथ निर्वाण पाने को तैयार हो, तो खड़ा हो जाए, तो आज मैं साथ ले जाने को तैयार हूं।
कोई खड़ा नहीं हुआ दस हजार आदमियों में से। हां, लोग एक-दूसरे की तरफ देखने लगे कि भई तुम खड़े हो जाओ। तुम क्या बैठे हो! अब तुम्हारा क्या है? पत्नी भी मर गई, दुकान का भी दिवाला निकली हालत में है, तुम काहे के लिए बैठे हो? किसी ने और की तरफ देखा कि तुम क्या कर रहे हो, तीन चुनाव हार चुके, हो जाओ खड़े! यह मौका क्यों चूक रहे हो? लोग एक-दूसरे की तरफ देखने लगे। कोई खड़ा नहीं हुआ, सिर्फ एक आदमी ने हाथ ऊपर उठाया। उस भिक्षु ने कहा कि चलो कम से कम एक आदमी ने हाथ तो उठाया। उसने कहा: क्षमा करिए, मैं खड़ा इसीलिए नहीं हो रहा हूं, सिर्फ हाथ उठा रहा हूं। मैं जानना चाहता हूं कि निर्वाण पाने का उपाय क्या है? वह बता दीजिए। कभी जाना होगा तो चले जाएंगे। अभी मुझे जाना नहीं है, अभी मेरी घर-गृहस्थी कच्ची है। और भी काम पड़े हैं हजार। निर्वाण के अलावा और भी तो काम हैं। आप जाइए, खुशी से जाइए। हम भी आएंगे कभी अपने समय पर, मगर रास्ता बता जाइए।
वह बूढ़ा भिक्षु हंसने लगा। उसने कहा: रास्ता तो मैं पचास साल से बता रहा हूं।
लोग सिर्फ रास्ता ही पूछते हैं, चलते वगैरह नहीं। कोई देने वाला भी आ जाए तो तुम लोगे नहीं। सच पूछो तो तुम्हें लेना नहीं है, क्योंकि तुम्हारे सारे न्यस्त स्वार्थों के विपरीत पड़ेगा। तुम चाहोगे मोक्ष भी मिल जाए और तुम जैसे हो वैसे के वैसे बने रहो, उसमें रत्ती भर भेद न करना पड़े। हिंदू हो तो हिंदू, मुसलमान तो मुसलमान, जैन तो जैन, चोर तो चोर, बेईमान तो बेईमान--तुम जैसे हो वैसे रहो, और साथ में मोक्ष भी मिलता हो तो क्या हर्जा है! लगे हाथों ले लो। अब गंगा बह रही है तो धो लो हाथ! मगर तुममें कोई फर्क न करना पड़े। तुम्हारी अपनी जिंदगी में कोई रद्दोबदल न करनी पड़े। और यह नहीं हो सकता।
उद्धार का अर्थ होता है: क्रांति। और क्रांति में से तुम्हें गुजरना होगा। उद्धार का अर्थ होता है: आग से गुजरना। जैसे सोना गुजर कर शुद्ध होता है, वैसे तुम्हें आग से गुजरना होगा। तुम्हें अपने सारे पुराने तौर-तरीके बदलने होंगे, जीवन-शैली बदलनी होगी। तुम्हें अपने जीवन का पूरा का पूरा रूपांतरण करना होगा। जहां क्रोध था, वहां करुणा को जन्म देना होगा। जहां कामवासना थी, वहां प्रेम को उपजाना होगा। जहां लोभ था, वहां दान की कला सीखनी होगी। जहां वैमनस्य था, वहां मैत्री के फूल खिलाने होंगे।
इस सबकी तैयारी नहीं है। लोग चाहते हैं: कोई आएगा, जादू का डंडा घुमाएगा, कहेगा, अब्राकदेब्रा और सब ठीक हो जाएगा! ऐसे नहीं हो सकता। तुम्हारी इच्छा इतनी ही है कि अवतार कुछ मदारी की तरह काम करेगा--कि जमूरे स्वर्ग जाना है, मोक्ष जाना है? और तुम कहोगे कि हां। कि जमूरे अभी जाना है? तुम कहोगे, हां। तो वह फेंकेगा एक रस्सी आकाश की तरफ और कहेगा: जमूरे, चढ़ जा! और जमूरा चढ़ जाएगा। और जमूरा अपने साथ अपना सब उपद्रव भी साथ ले जाएगा--अपनी पत्नी, अपना बच्चा, अपने सब जाल-जंजाल; कुछ पीछे छोड़ भी नहीं जाएगा कि यह भी रख लो, यह भी रख लो, सभी कुछ रख लो। बर्तन-भांडे, कूड़ा-करकट! अरे कब किस चीज की जरूरत पड़ जाए, वहां भी आखिर घर-गृहस्थी तो बसाओगे कि नहीं? मोक्ष में भी करोगे क्या? कोई बैठे ही रहोगे वहां? तुमसे तो बैठा ही नहीं रहा जा सकेगा। तुम तो कुछ न कुछ उपद्रव खड़ा करोगे, कोई न कोई झंडा उठाओगे, कोई न कोई डंडा गड़ाओगे। तुमसे ऐसे ही बैठे नहीं रहा जाएगा। जरा सोचो कि अगर तुम्हें मोक्ष मिल जाए, कोई उद्धार कर ही दे समझो, पहुंच गए तुम मोक्ष, अब क्या करोगे? बैठे सिद्ध-शिला पर, कितनी देर बैठे रहोगे? थोड़ी देर में ही सोचोगे कि अब क्या करना चाहिए, यहां कोई अखबार वगैरह मिलता है कि नहीं? चाय की दुकान कहां है? इस समय अगर भजिए वगैरह मिल जाते...नाश्ता भी तो करना ही होगा कि नहीं? तुम फौरन उपद्रव में लग जाओगे। तुम वही करोगे जो तुम यहां कर रहे थे।
चंदूलाल मरा, स्वर्ग पहुंच गया। कैसे पहुंच गया, यही एक आश्चर्य की बात है। चमत्कार ही समझो। मगर चंदूलाल चमत्कारी पुरुष हैं। निकाल ली होगी कोई तरकीब, दे दिया होगा फरिश्तों को कुछ रिश्वत, कर दी होगी किसी की खुशामद। चंदूलाल पुराना चमचा है--पहुंचा हुआ! जिंदगी भर अभ्यास करता रहा है मक्खन लगाने का। यमदूत जो लेने आए होंगे, उनकी खूब कर दी होगी मालिश, खूब पैर दबा दिए होंगे, दिल खोल कर उनकी प्रशंसा कर दी होगी। कंजूसी नहीं करता प्रशंसा करने में, कि
ले चले उनको स्वर्ग की तरफ, पहुंच गया स्वर्ग के द्वार पर। दरवाजा खटखटा दिया। द्वारपाल ने दरवाजा खोला और पूछा: आप कौन हैं?
कहा: चंदूलाल।
क्या काम करते थे?
कहा कि लोहे की, पुराना लोहा बेचने की दुकान थी। खरीदता भी था बेचता भी था। इसलिए मेरा पूरा नाम--चंदूलाल लोहावाला।
इस तरह के आदमी यहां आते नहीं, कबाड़ियों का यहां कोई काम नहीं है। ये बंबई के चोर बाजार में रहते होंगे--चंदूलाल लोहावाला। इस तरह के आदमी बंबई में रहते हैं। लोहावाला, दारूवाला! एक से एक पहुंचे हुए लोग--बाटलीवाला! जैसे नामों की कमी पड़ गई है!
तो उन्होंने कहा: तू ठहर, तू बंबईवाला मालूम होता है।
हां, बंबई में रहता हूं।
चोरबाजार में काम करता है?
कहा: हां।
पता लगाना पड़ेगा, रुको। वह भीतर गया। बही-खाते खोल कर बड़ी देर में खोज बीन की उसने। कोई नाम इसका मिले नहीं। उसकी जगह तो थी नर्क में। जब तक वह आया, देखा तो चंदूलाल नदारद। चंदूलाल ही नदारद नहीं, लोहे का फाटक भी नदारद! तब से स्वर्ग के दरवाजे पर कोई दरवाजा नहीं है। चंदूलाल लोहावाला ले गया। वह पुरानी आदत, वही काम वे यहां करते थे--लोहा खरीदना, लोहा बेचना। जब तक वह अंदर गया, उसने सोचा: ऐसी की तैसी स्वर्ग की! इतना बड़ा लोहे का फाटक, मजा आ जाएगा! ले चलो बंबई के चोर बाजार।
तुम क्या करोगे मोक्ष में!
अमृत प्रिया, लोग बातें करते हैं उद्धार वगैरह की। बातें करने में अच्छी बातें हैं। अच्छी-अच्छी बातें करने में क्या बिगड़ता है? लच्छेदार बातें हैं। मगर कोई उद्धार वगैरह चाहता नहीं, क्योंकि उद्धार में तो फिर जीवन को दांव पर लगाना होगा। लोग सब मुफ्त में चाहते हैं। कुछ न करना पड़े और सब हो जाए। और हम जैसे हैं, वैसे के वैसे रहें।
तू पूछती है: ‘किंतु जब वह सौभाग्य की घड़ी आती है, तब वह उससे बचने का हर संभव प्रयास करता है और अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार लेता है।’
क्यों न करे, क्योंकि उसने कभी सोचा नहीं था कि यह घड़ी आ ही जाएगी। यह घड़ी तो बिलकुल अकस्मात आ जाती है। कभी-कभी आती है। जब आ जाती है, तब वह घबड़ाता है।
रवींद्रनाथ की कविता है कि मैं परमात्मा को खोजता था, सदियों से खोजता था, जन्मों-जन्मों से खोजता था और बड़ी लगन से खोजता था, दीवाना था! आंसू बहाता, रोता, इकतारा बजाता। और मेरी बड़ी ख्याति थी भक्त की तरह। मेरी गिनती होने लगी थी मीरा और चैतन्य के नामों के साथ। और फिर एक दिन मैं पहुंच गया उसके द्वार पर। आनंदित हुआ पहले तो। तख्ती लगी थी कि यही रहा भगवान का घर। सीढ़ियां चढ़ गया तेजी से, मगर तब ठिठका। एक क्षण सोचा कि पहले समझ तो ले पागल, क्या कर रहा है! फिर तेरी भक्ति का क्या होगा? भगवान मिल जाएंगे, फिर भक्ति का क्या होगा? यह सवाल तो है। फिर इकतारे का क्या होगा? और तेरी प्रतिष्ठा और मीरा और चैतन्य में तेरा जो नाम गिना जाता है, उसका क्या होगा? भगवान मिल गए कि सब खेल खत्म, फिर उसके आगे तो कुछ है नहीं। फिर तो इति आ गई। वह तो यूं जैसे बूंद सागर में समा गई। तब जरा चौंका कि यह मैं क्या कर रहा हूं, अपने हाथ से अपनी आत्महत्या कर रहा हूं! हाथ में ले ली थी कुंडी बजाने को, धीरे से छोड़ दी। जूते पैर में से निकाल लिए कि कहीं आवाज न हो सीढ़ियां उतरने में, कहीं ऐसा न हो कि आवाज ही सुन कर और भगवान एकदम दरवाजा खोल दें और कहें: बेटा आओ, अब कहां जा रहे हो? अब आ ही जाओ। आ ही गए तो अब कहां जाते हो? और जो भागा जूता हाथ में ले कर मैं...!
तो कविता में रवींद्रनाथ कहते हैं, फिर मैंने पीछे लौट कर नहीं देखा। अभी भी मैं इकतारा बजाता हूं, भगवान के गीत गाता हूं, भक्तों में मेरी गिनती है। और बड़े आंसू बहाता हूं, जार-जार रोता हूं। और जानता हूं उसका घर कहां है, इसलिए उसका घर बच कर और सब जगह जाता हूं, उसके घर को छोड़ कर। उस रास्ते भर पर नहीं जाता, क्योंकि मैं देख लिया एक दफा जाकर कि वह झंझट का काम है। एक दफा वहां पहुंच गए तो बात सब खत्म हो गई। स्वयं भी समाप्त हो जाएंगे। अहंकार मिट जाएगा। और अहंकार को कौन मिटाना चाहता है!
तुम अहंकार को बचा कर मुक्त होना चाहते हो। तुम चाहते हो: मैं मुक्त हो जाऊं! मैं मुक्त नहीं होता कोई। मैं से मुक्ति होती है। मैं की कोई मुक्ति नहीं है, मैं से मुक्ति है। और उतना साहस न होने से जब कोई समाने खड़ा हो जाता है कि लो यह द्वार खुला परमात्मा का, तब तुम मुश्किल में पड़ जाते हो। इसलिए तुम ऐसे लोगों से, जो द्वार खोल देते हैं परमात्मा का, बदला लेते हो।
संताप से तो तुम मुक्त होना चाहते हो, मगर संताप की जड़ें नहीं काटना चाहते। जड़ तो तुम स्वयं हो। तुम्हारा अहंकार ही जड़ है। जो अपने अहंकार को मिटाने को राजी है, उसका संताप अभी मिट जाएगा। अहंकार बंधन है और अहंकार से छूट जाना मोक्ष है।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, दुर्घटना, दुर्भाग्य और दुर्दिन में क्या अंतर है?
अटलबिहारी! आप वही तो नहीं हैं अटलबिहारी दांतनिपोर? अर्थात अटलबिहारी वाजपेयी, अध्यक्ष, भारतीय जनता पार्टी। हो तो नहीं सकते, क्योंकि ऐसे दांतनिपोर यहां किसलिए आएंगे! तुम कोई और ही अटलबिहारी होओगे। भैया, अपना नाम बदल लो। ऐसे गलत नामों के साथ अपने को जोड़ रखना ठीक नहीं!
मगर तुम्हारा प्रश्न ठीक है: तुम पूछते हो: ‘दुर्घटना, दुर्भाग्य और दुर्दिन में क्या अंतर है?’
उदाहरण से समझो तो जल्दी समझ में आएगा। जैसे कि तीन मंत्रीगण कार से किसी पहाड़ की सैर को जा रहे थे। कार एक मोड़ पर से फिसल गई और चकनाचूर हो गई। कार के इस फिसल जाने को दुर्घटना कहा जाएगा। दुर्घटना में ड्राइवर तो मर गया, लेकिन तीनों मंत्री जिंदा बच गए। इसे देश का दुर्भाग्य समझिए। फिर दूसरे दिन अखबार के मुख्य पृष्ठों पर तीनों मंत्रियों की फोटो छपेगी और लोगों को सुबह-सुबह उन्हें देखना पड़ेगा। यही दुर्दिन है।
चौथा प्रश्न:
भगवान, क्या मारवाड़ी सच में ही इतने गजब के लोग होते हैं?
सत्यप्रिया! तू तो खुद भी मारवाड़ी है। कहना चाहिए--थी। अब तो नहीं है।
सत्यप्रिया तो छोटी सी लड़की है। अब संन्यासी है। संन्यास में तो सब खो जाता है--मारवाड़ी होना, भारतीय होना, हिंदू होना, मुसलमान होना, पाकिस्तानी होना।
मगर तेरा प्रश्न ठीक है। मारवाड़ी होते तो गजब के ही लोग हैं। तेरी समझ में आ सके, इसलिए दो कहानियां खयाल में रखना। एक--
एक मारवाड़ी अपने लड़के लिए दुल्हन तलाश करने के लिए पास के गांव गया और अपने एक परिचित के पास ठहरा। मारवाड़ी, जैसा कि उनका स्वभाव होता है, पैसे का लालची था। उसने परिचित व्यक्ति के गांव के कुछ लखपति आदमियों के नाम बताने को कहा। परिचित व्यक्ति खुद भी लखपति था, उसकी भी एक लड़की शादी के योग्य थी, परंतु अपने मुंह से खुद को लखपति बताना शोभा नहीं देता--यही सोच कर पांच-सात नाम गिनाने के बाद वह बोला: कि थोड़ा-थोड़ा शक लोग मेरा भी लखपतियों में करते हैं। थोड़ा-थोड़ा शक!
एक आदमी ने एक मारवाड़ी बनिए को एक थप्पड़ मार दी। मामला अदालत में गया। हो सकता है अदालत, सत्यप्रिया, यह तेरे पिताजी की रही हो। सत्यप्रिया के पिता संन्यासी होने के पहले न्यायाधीश थे। हाकिम ने उस आदमी को एक अठन्नी दंड स्वरूप मारवाड़ी को देने की सजा दी। उस आदमी ने एक रुपया निकाला और मारवाड़ी की ओर बढ़ाते हुए कहा: सेठजी, आप आठ आने वापस कर दें।
सेठ ने रुपया ललचाई आंखों से देखा और हाथ में लेते हुए कहा: भाई, फुटकर पैसे मेरे पास नहीं हैं। ऐसा करो, तुम एक थप्पड़ और मार लो।
आखिरी प्रश्न:
भगवान, चुनाव सिर पर हैं। इस संबंध में कुछ कहें।
प्रीति! ऐसे संबंधों में न पूछो तो अच्छा।
एक आदमी का चेहरा बड़ा अजीब था। किसी को भी उसके चेहरे की ओर देखना पसंद नहीं था। मोहल्ले के आठ-दस आदमी एक बार मुझसे मिलने आए। वे सभी यह कहने के लिए आए थे कि कोई उपाय ऐसा ढूंढ निकालिए कि जिससे उस आदमी का चेहरा देखना न पड़े। हम सब उपाय के बारे में सोचने लगे। काफी सोचने के बाद हमने एक उपाय ढूंढ लिया। हम सबने जी-जान से मेहनत करके उस आदमी को चुनाव में विजयी करा दिया। कम से कम पांच साल के लिए राहत हो गई।
चुनाव का अर्थ है, जिनसे छुटकारा पाना हो पांच साल के लिए, फिर उनके तुम्हें दर्शन नहीं करने होंगे। जिन-जिन को देख कर दिन बिगड़ जाता हो, उन-उन को चुनाव में खड़ा करवा दिया करो और मेहनत करके उनको जितवा दिया। एक दफा वे जीत गए तो जैसे गधे के सिर से सींग नदारद होते हैं, ऐसे वे नदारद पांच साल के लिए! और एक दफा उनको नशा लग गया नदारद होने का तो वे बार-बार नदारद होना चाहेंगे। हर बार चुनाव में एक दफा उनके दर्शन तुम्हें करने पड़ेंगे, मगर फिर अगर जिता दिया...। इसलिए तो जो एक दफा जीत जाता है, जनता उसको बार-बार जिताए चली जाती है कि भैया किसी तरह तू जा, पिंड छोड़ हमारा!
चुनाव का समय था, गांव के नेताजी चुनाव का टिकट प्राप्त करने के लिए घोड़े पर सवार हो कर गए हुए थे। टिकट के लिए लंबी लाइन लगी थी। बहुत देर हो गई, मगर नेताजी का नंबर न आया। तभी एक चमचे किस्म के व्यक्ति ने आकर कहा: नेताजी, ढाई सौ रुपये लगेंगे, आइए अभी एक मिनट में टिकट दिलवा देता हूं। जिस पार्टी की चाहिए हो उस पार्टी की।
नेताजी ने आश्चर्य से कहा: क्या कहते हो, सिर्फ ढाई सौ रुपये!
उस व्यक्ति ने कहा: हां, सिर्फ ढाई सौ रुपये। नेताजी ने जल्दी से अपनी खादी की बंडी से ढाई सौ रुपये निकाले और उस चमचे को थमा दिए। लेकिन वह चमचा गया सो लौटा ही नहीं। आखिर खिसकते-खिसकते नेताजी का नंबर आया, तो नेताजी ने टिकट बांटने वाले अफसर को कहा कि अच्छी अंधेरगर्दी है! फलां-फलां व्यक्ति ने मुझसे टिकट दिलवाने के बहाने ढाई सौ रुपये ले लिए।
उस अफसर ने कहा: अच्छा तो आप रिश्वत देते और लेते हैं?
नेताजी ने बात बिगड़ती देख कर कहा: नहीं, वह तो यूं ही। अच्छा टिकट के लिए क्या करना होगा?
उस अफसर ने कहा: आपको दो हजार रुपया डिपाजिट करना होगा।
नेताजी ने कहा: ठीक, किए देते हैं दो हजार जमा। दो हजार जमा कर उन्होंने जनता पार्टी का टिकट प्राप्त कर लिया। फिर बोले: श्रीमान, अच्छा होता यदि आप एक टिकट मेरे घोड़े को भी दिला देते। यह बड़ा श्रेष्ठ घोड़ा है।
उस आफिसर ने कहा: नहीं-नहीं, यह असंभव है। ऐसा नहीं होगा।
नेताजी बोले: अरे, क्या असंभव है! अरे दो हजार की जगह तीन हजार ले लो।
अफसर बोला: नहीं-नहीं, ऐसा नहीं होगा। टिकट हम सिर्फ गधों को देते हैं, घोड़ों को नहीं।
सब गधे मैदान में हैं इस समय। चुनाव सिर पर नहीं हैं, सब गधे सिर पर हैं। अब देखें कौन गधा बाजी मार ले जाए!
एक प्रसिद्ध नेताजी का बेटा कह रहा था कि पिताजी चुनाव लड़ना मेरे वश के बाहर की बात है। अरे, लोग बड़ा अपमान करते हैं, टुच्चे-टुच्चे लोग अपमान करते हैं!
नेताजी बोले: अरे, कैसे बहकी-बहकी बातें करता है! मेरी तो जिंदगी गुजर गई चुनाव लड़ते-लड़ते, मेरे साथ तो ऐसी नौबत कभी नहीं आई कि किसी ने कभी मेरा अपमान किया हो। हां, यह सच है कि लोगों ने गालियां दीं, चप्पलें फेंक-फेंक कर मारीं, सड़े टमाटर फेंके, केले के छिलके मारे, अनेक बार लोगों ने धक्के दे-दे कर घर के बाहर निकाल दिया, लेकिन अपमान तो किसी ने नहीं किया। यह तू बिलकुल नई ही बात कह रहा है!
नेता बनना हो तो गीता पढ़ो, सुख-दुख को समान भाव से लेना, समदृष्टि रखना। अपमान-सम्मान सब बराबर समझना। कोई धक्का मारे, जूता मारे, तुम खीसे निपोरे हंसते ही चले जाना। तुम धन्यवाद ही देते रहना। अभी सब दांतनिपोर तुम्हारे दरवाजों पर आएंगे। एक सिर्फ दरवाजा है इस आश्रम का, जिस पर कोई दांतनिपोर कभी नहीं आता। आ नहीं सकता। अगर तुम्हें चुनाव के उपद्रव से बचना हो, तो आश्रम के भीतर। फिर पता ही नहीं चलता कि दुनिया में चुनाव हो रहा है कि नहीं हो रहा है। यहां कोई आता ही नहीं, आ सकता नहीं। क्योंकि यहां आने का मतलब झंझट है।
प्रसिद्ध नेता, श्री मुल्ला नसरुद्दीन अपने मित्र से कह रहे थे कि मैं अपनी जवानी के कारण चुनाव हार गया। दोस्त बोला: अरे, जवानी के कारण! लेकिन तुम्हारी उम्र तो अब तिहत्तर साल है। जवानी तो तुम्हारी कब की गुजर चुकी!
नसरुद्दीन बोला: दरअसल लोगों को यह पता चल गया है कि मेरी जवानी कैसे गुजरी थी।
चुनाव में वही जीतता है जिसका लोगों को कम से कम पता होता है।
दो आदमी चुनाव लड़े, एक हार गया, एक जीत गया। दोनों बाद में मिले। जो हार गया था, उसने जीतने वाले से पूछा: तुम्हारे जीतने का राज क्या है? तुम तो इस इलाके में बिलकुल नये-नये हो? मैं इस इलाके की सेवा करते-करते थक गया और तुम जीत गए, मैं हार गया!
वह आदमी हंसने लगा। उसने कहा: इसीलिए। तुम्हें लोग जानते हैं, मुझे लोग नहीं जानते। जब मुझे जानने लगेंगे, मैं भी हारूंगा।
चुनाव में वही जीतता है, जिसको लोग जानते नहीं, पहचानते नहीं। और जब तक पहचानते हैं, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।
प्रीति, तू ठीक पूछती है: ‘चुनाव सिर पर हैं, इस संबंध में कुछ कहें।’
इतना ही कहना चाहूंगा कि राजनीति तो चलेगी, एकदम आज समाप्त हो नहीं सकती। होनी चाहिए, मगर यह अनिवार्य बुराइयों में से एक है। उन रोगों में से एक है, जिसको अभी मिटने में बहुत समय लगेगा, जिसके लिए अभी तक उपचार ठीक-ठीक खोजा नहीं जा सका है। मिटाने योग्य है, क्योंकि सदियों से आदमी इससे परेशान है। लेकिन अभी तक ठीक उपचार खोजा नहीं जा सका है। उसी उपचार की खोज है संन्यास। अगर संन्यासियों की आग फैलती जाती है दुनिया में तो हम राजनीति को जला कर राख कर देंगे। दुनिया में शासन होना चाहिए, लेकिन राजनीति की कोई खास जरूरत नहीं है। शासन--जैसे पोस्ट आफिस है, जैसे रेलवे है, वैसे ही और भी इंतजाम होने चाहिए। इंतजाम की जरूरत पड़ेगी। मगर न तो राष्ट्रों की जरूरत है, न राज्यों की जरूरत है, न राजनीति की जरूरत है, न राजनेताओं की जरूरत है। दुनिया में एक शासन काफी है, तो युद्धों से बचना हो जाए। अभी तो मनुष्य की सत्तर प्रतिशत ऊर्जा युद्धों में नष्ट हो जाती है। जो ऊर्जा इस पृथ्वी को स्वर्ग बना सकती है, वही ऊर्जा इस पृथ्वी को नरक बना रही है।
इसलिए मैं तो विशुद्ध रूप से राजनीति-विरोधी हूं। लेकिन अभी तो राजनीति चलेगी, आज समाप्त होने वाली नहीं है। समय लगेगा। तब तक इतना ही खयाल रखना कि तुम जिसे भी चुनो, कम से कम राजनीतिज्ञ को चुनना। जिसके जीवन में कम से कम राजनीति हो, उसे चुनना। इतना ही काफी है। राजनीति के कारण मत चुनना, उसकी मनुष्यता के कारण चुनना। उसकी चालबाजियों और बेईमानियों के कारण मत चुनना, उसकी बुद्धिमत्ता के कारण चुनना। उसके किसी दिशा में विशेष ज्ञान के कारण चुनना। उसकी कुशलता के कारण चुनना। कोई वैज्ञानिक हो, उसे चुनना। कोई कवि हो, उसे चुनना। कोई कलाकार हो, उसे चुनना। कोई संगीतज्ञ हो, उसे चुनना। नहीं तो तुम्हारी संसद में गधों की जमात इकट्ठी हो जाती है और फिर ये गधे पूरे मुल्क को रेंक-रेंक कर हैरान कर देते हैं। थोड़े-बहुत संगीतज्ञ भेजो, कम से कम इनकी रेंक कम सुननी पड़े। कोई बांसुरी बजाए, कोई शहनाई बजाए। थोड़े कवि भेजो कि कुछ गीत भी बनें, ये सिर्फ जूता-चप्पल ही न चलें। अगर जूता-चप्पल का ही बहुत आग्रह हो तो कुछ चमार भेजो, जूता-चप्पल बनाएं, चलाएं नहीं। विशेषज्ञों को भेजो, वैज्ञानिकों को भेजो। सूझ-बूझ के लोगों को भेजो। बुद्धुओं को मत भेजो।
लेकिन अभी तो ढंग ही कुछ और है। ठाकुर ठाकुरों को चुनेंगे। ब्राह्मण बाह्मणों को चुनेंगे। हिंदू हिंदू को चुनेंगे, मुसलमान मुसलमानों को चुनेंगे। आदमी की तो कोई कीमत ही नहीं है। आदमी को चुनो! और जिसमें जितनी आदमियत हो, जितनी ज्यादा आदमियत हो, उसको चुनो। और ध्यान रखना, आदमियत जितनी ज्यादा होगी, राजनीति उतनी कम होगी। और जितनी राजनीति कम होगी, उतनी प्रतिभा ज्यादा होती है।
राजनीतिज्ञ अक्सर प्रतिभाहीन होता है। राजनीतिज्ञ होता ही कोई इसलिए है कि हीनता की ग्रंथि से पीड़ित होता है। वह एक मानसिक रोग है। पृथ्वी को उससे छुड़ाने में तो समय लगेगा, लेकिन तुम से जो भी बन सके अपने-अपने छोटे-छोटे दायरे में वह जरूर करो। तू पूछती है प्रीति, इसलिए इतना कहता हूं।
आज इतना ही।