QUESTION & ANSWER

Sumiran Mera Hari Kare 03

Third Discourse from the series of 11 discourses - Sumiran Mera Hari Kare by Osho. These discourses were given during MAY 21-31 1980, Pune.
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पहला प्रश्न:
भगवान, कल प्रातः यहां बुद्ध-कक्ष में ठीक प्रवचन के दरम्यान एक धर्मांध हिंदू युवक ने छुरा फेंक कर आपको मारने की चेष्टा की, जो हमारे सौभाग्य से, मनुष्यता के सौभाग्य से निष्फल गई। और यह जघन्य कृत्य धर्म के नाम पर किया गया। भगवान, इस प्रसंग में हमें दिशा-बोध देने की अनुकंपा करें।
आनंद मैत्रेय! धर्म के नाम पर जितने जघन्य कृत्य हुए हैं, किसी और नाम पर नहीं हुए, नहीं हो सकते हैं। बुरे काम के लिए अच्छे नाम की आड़ चाहिए, सुंदर परदा चाहिए, ताकि असुंदर को छिपाया जा सके। अधर्म के नाम पर कोई बुरा कृत्य नहीं हुआ है; कोई करना भी चाहेगा तो कैसे करेगा? अधर्म का नाम ही बनती बात बिगाड़ देगा। नकली घी बेचना हो तो ‘असली घी की दुकान है’ ऐसा लिखना जरूरी होता है। नकली घी की दुकान लिखोगे तो नकली बेचना तो मुश्किल, असली भी बेचना मुश्किल हो जाएगा। असली भी कौन खरीदेगा?
धर्म सुंदर आड़ है। उस आड़ के पीछे क्या नहीं हुआ! जीसस को सूली लगी--धर्म की आड़ थी। सुकरात को जहर पिलाया गया--धर्म की आड़ थी। जिन्होंने जहर पिलाया, उन न्यायाधीशों ने जो अपराध लगाया था सुकरात पर, वह था कि तुम लोगों को बिगाड़ते हो, उनको अधार्मिक बनाते हो। यह भी मजे की बात रही। इस पृथ्वी पर थोड़े से ही लोग हुए हैं, जिन्होंने लोगों के जीवन में किरणें बांटीं, आनंद के फूल खिलाए। उन थोड़े से नामों में सुकरात का नाम एक है। पर उस पर जुर्म था कि तुम लोगों का धर्म बिगाड़ते हो, तुम लोगों को भ्रष्ट करते हो। और एक लिहाज से न्यायाधीश जो कह रहे थे ठीक ही कह रहे थे, क्योंकि जिसे वे धर्म समझते थे, सुकरात निश्चित ही लोगों को उस धर्म से हटा रहा था, क्योंकि वह धर्म नहीं था।
एक तो अंधों की धारणा है धर्म के संबंध में और एक आंख वालों की अंतर्दृष्टि है। अंधों की और आंख वालों की बात मेल नहीं खा सकती। सुकरात ने कहा कि मैं तो जो कर रहा हूं, करना जारी रखूंगा, क्योंकि मैं जो कर रहा हूं, वही धर्म है; मैं जो कर रहा हूं, वही सत्य है। तो उन्होंने निर्णय लिया कि ऐसे आदमी को जीवित न रहने देंगे। वही कसूर जीसस का था, वही कसूर मंसूर का था। मंसूर ने इतना ही तो कहा था कि मैं परमात्मा हूं! अनलहक! मैं सत्य हूं! यह उदघोषणा प्रत्येक को करनी है। मंसूर वही कह रहा है, जो तुम्हें भी कहना है; इसमें नाराज होने की क्या बात थी?
लेकिन लोग बेचैन हो उठे, लोग परेशान हो उठे। मंसूर के हाथ-पैर काट डाले। मगर मंसूर हंसता रहा। लोग चकित थे--हाथ-पैर कटते हों और कोई हंसता हो! फिर भी उन अंधों को यह न दिखाई पड़ा कि हाथ-पैर कटता हुआ आदमी हंसता है तो इसके पास कुछ राज है, कुछ कुंजी है, अभी भी इसे बचा लें! किसी ने भीड़ में से पूछा जरूर कि मंसूर, तुम्हारे हंसने का कारण? तो मंसूर ने कहा: ‘मैं इसलिए हंस रहा हूं कि तुम जिसे मार रहे हो, वह मैं नहीं हूं। और जो मैं हूं, उसे तुम मार न सकोगे। उसे कोई भी न मार सकेगा।’
यही तो कृष्ण ने कहा है: नैनं छिंदन्ति शस्त्राणि--मुझे शस्त्र नहीं छेद सकते। नैनं दहति पावकः--मुझे आग नहीं जला सकती।
मंसूर ने कहा: काटो, जी भर कर काटो! मैं हंस रहा हूं, क्योंकि कसूर कोई करे, सजा किसी को मिले! कसूर मैंने किया है--अगर उसे तुम कसूर समझते हो--और शरीर को काट रहे हो, पागल हो!
और फिर आखिरी क्षण में मंसूर आकाश की तरफ देख कर हंसा, तो और किसी ने पूछा कि अब तक भी बात ठीक थी कि तुम हमारी तरफ देख कर हंस रहे थे, आकाश की तरफ देख कर क्या हंस रहे हो, वहां कौन बैठा है? अगर होता कोई बचाने वाला तो बचा लेता।
मंसूर ने कहा: मैं ईश्वर की तरफ देख कर हंस रहा हूं कि तू किसी भी शक्ल में आ, मैं तुझे पहचान ही लूंगा। तू आज हत्यारों की शक्ल में बन कर आया है, मंसूर को धोखा न दे सकेगा। और उसके हाथों से बचना क्यों चाहूं? उसके हाथों से मर जाना भी सौभाग्य है! उसके हाथों से जहर भी अमृत है!
फिर भी अंधे न चेते। अंधे चेतते ही नहीं। चेत जाएं तो अंधे नहीं। मूर्च्छित हैं।
तुम पूछते हो आनंद मैत्रेय: ‘यह जघन्य कृत्य, और धर्म के नाम पर किया गया!’
धर्म के नाम पर ही ऐसे कृत्य किये जा सकते हैं, क्योंकि धर्म बड़ा प्यारा नाम है। इससे सुमधुर और क्या शब्द होगा, इससे ज्यादा मीठा, माधुर्यपूर्ण और क्या शब्द होगा! ‘धर्म’ शब्द कहते ही जैसे प्राणों में बांसुरी बज जाए! जैसे घूंघर बज उठें, जैसे कोई गीत गुनगुनाने लगे, जैसे कोई हृदय की तंत्री को छेड़ दे! इस आड़ में बहुत कुछ हो सकता है। सदियां-सदियां इसी आड़ में सब-कुछ होता रहा है। पंडित पले, पुरोहित पले। हिंदू, मुसलमान, ईसाई एक-दूसरे की हत्या करते रहे, जलाते रहे मंदिरों को, मस्जिदों को--और सब धर्म के नाम पर! और ये पुरोहित समझाते रहे लोगों को कि जिहाद में जो मरेगा, वह सीधा स्वर्ग जाएगा। धर्मयुद्ध में जो मरेगा, इससे बड़ा कोई कृत्य नहीं है। तो मरो और मारो!
धर्म--जो कि जीवन की कला है--उसे उन्होंने मरने-मारने का धंधा बना दिया। धर्म तो विज्ञान है जीने का--कैसे जीओ? और धर्म न हिंदू होता है, न मुसलमान होता है, न ईसाई होता है। प्रेम हिंदू होता है? प्रेम ईसाई होता है? अगर प्रेम हिंदू नहीं होता तो प्रार्थना कैसे हिंदू हो सकती है? क्योंकि प्रेम की ही आत्यंतिक अवस्था तो प्रार्थना है। और प्रार्थना का ही कमल जब खिल जाता है तो उस अनुभव का नाम ही तो परमात्मा है। परमात्मा हिंदू है या मुसलमान या ईसाई? लेकिन जब तक यह पृथ्वी इन खंडों में बंटी रहेगी, तब तक धर्म के नाम पर राजनीति चलती रहेगी।
तुम कहते हो: ‘एक धर्मांध हिंदू युवक ने छुरा फेंक कर आपको मारने की चेष्टा की।’
कोई भी व्यक्ति वस्तुतः धर्मांध नहीं होता। धर्म तो आंख है। इसलिए ‘धर्मांध’ शब्द उपयोग में तो आता है, मगर ठीक नहीं, सम्यक नहीं। अधर्मांध कहना चाहिए। धर्म के नाम पर होता है, लेकिन है तो अधर्म। धर्मांध तो कोई कैसे हो सकता है? धर्म तो चक्षु है। वह तो आंख है। उससे बड़ी तो कोई आंख नहीं। जिस आंख से परमात्मा दिखता हो, जिस आंख से जीवन के सत्य का अनुभव होता हो, साक्षात्कार होता हो जिस आंख से--स्वयं की निजता का, स्वयं के परम देदीप्यमान रूप का, स्वरूप का, सच्चिदानंद का!
लेकिन हम ‘धर्मांध’ का रूढ़ उपयोग करते हैं। रूढ़ उपयोग यह है कि कोई हिंदू पागल है, कोई मुसलमान पागल है, कोई ईसाई पागल है--तो इनको हम धर्मांध कहते हैं। इनको धर्मांध कहना नहीं चाहिए; ये सिर्फ अंधे हैं, अंधे कहना काफी है। हां, धर्म का चोगा ओढ़े हैं। अब अंधा अगर राम-नाम की चदरिया ओढ़ लेगा तो धर्मांध हो जाएगा क्या? या अंधा अगर कुरान-शरीफ सिर पर लेकर चलने लगेगा तो धर्मांध हो जाएगा क्या? धर्म तो वही जो आंख खोले और जिनकी आंख खुली, उन्हें स्वभावतः दिखाई पड़ा कि धर्म तो एक ही हो सकता है।
बुद्ध बौद्ध नहीं थे, स्मरण रहे। और महावीर जैन नहीं थे, भूल मत जाना। और जीसस ईसाई नहीं थे, कभी किसी को यह भ्रांति पालने के लिए जरा भी गुंजाइश नहीं है। मोहम्मद मुसलमान नहीं थे। लेकिन मोहम्मद को जो नहीं समझेंगे वे मुसलमान हो जाएंगे। यह चमत्कार रोज घटता है इस दुनिया में। जो बुद्ध को नहीं समझते वे बौद्ध हो गए हैं। बौद्ध होता ही वही है जो बुद्ध को नहीं समझता। जो बुद्ध को समझेगा वह बुद्ध होगा, बौद्ध क्यों होगा? भेद को खयाल में रखना। जो महावीर को समझेगा वह जिन होगा, जैन नहीं। जिन का अर्थ है: जिसने अपने को जीता। और जैन का अर्थ है: जीते हुओं की बातों को जो मान कर अंधे की तरह स्वीकार करके चल रहा है। विश्वासी है, अनुभवी नहीं।
मोहम्मद को जिन्होंने मान लिया वे मुसलमान। मान लिया, जाना नहीं। जान लेते तो स्वयं भी मोहम्मद होते। जान लेते तो उनके जीवन में भी कुरान वैसे ही उतरती जैसे मोहम्मद के जीवन में उतरी। परमात्मा किसी के साथ पक्षपात तो नहीं करता। अगर मोहम्मद के जीवन में कुरान उतारी तो तुम्हारे जीवन में क्यों न उतारेगा! बस चाहिए वही अभीप्सा, वही प्यास, वही आकांक्षा, वही ज्वलित-प्रज्वलित भाव-दशा! वही दीवानापन, जो परवाने में होता है शमा की तरफ जाने का--जिस दिन किसी के भीतर पैदा होता है परमात्मा की तरफ जाने का उस दिन कुरान उसके जीवन में उतर आएगी; उसे बाहर की कुरानों को पकड़ने की जरूरत नहीं रह जाती। बाहर की किताबों को तो वही लोग पकड़ते हैं जो भीतर की किताब को पढ़ने में असमर्थ हैं। और भीतर की किताब न पढ़ी तो बाहर की तुम कोई भी किताब समझ न पाओगे। शब्द याद हो जाएंगे, अर्थ चूक जाओगे। अंधों को अर्थ दिखाई नहीं पड़ते--पड़ नहीं सकते।
एक अंधे आदमी को लोग बुद्ध के पास लाए। वह अंधा बड़ा तार्किक था, दार्शनिक था। उसने सारे गांव के लोगों को हरा रखा था। गांवों के लोग कहते थे: तुम अंधे हो। वह हंसता था। वह कहता था, प्रमाण लाओ कि मैं अंधा हूं। और वे कहते थे कि प्रकाश है, तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता। तो वह कहता कि मुझे दिखा दो, मैं देखने को राजी हूं। मेरी तरफ से कोई इनकार नहीं। दिखा दो तो मान लूं। चलो दिखा न सकते होओ, मेरे हाथ पर रख दो, जरा तौल लूं, वजन देख लूं, स्पर्श कर लूं। यह भी न बनता हो, जरा ठोंक-बजा कर आवाज करके दिखा दो। यह भी न बनता हो, लाओ स्वाद लेकर देख लूं। यह मेरा मुंह खुला है, रख दो एक डगली प्रकाश की मेरे मुंह में, चख लूं। यह भी न बनता हो, तो कम से कम गंध तो ले लेने दो मुझे तुम्हारे प्रकाश की!
ये चार इंद्रियां उसके पास थीं। वह कहता था: मैं राजी हूं, जो भी मेरे पास है, सब तरफ से राजी हूं। तुम मुझे प्रकाश का अनुभव करा दो।
अब अंधे आदमी को कोई प्रकाश का कैसे अनुभव कराए? चखा सकते हो किसी को प्रकाश, कि स्वाद दिला सकते हो, कि गंध, कि ध्वनि पैदा कर सकते हो? प्रकाश में न कोई ध्वनि होती है, न कोई गंध होती है, न कोई स्वाद होता है, न कोई स्पर्श हो सकता है प्रकाश का। वह जीत जाता। अंधा जीत जाता, आंख वाले हार जाते! फिर बुद्ध का गांव में आना हुआ, तो गांव के लोग उस अंधे को बुद्ध के पास ले गए। उन्होंने कहा कि आप आए हैं, हमारा सौभाग्य! आप शायद समझा सकें इसे तो समझा सकें, हम तो हार गए। यह अंधा बड़ा तार्किक है। यह इस-इस तरह की बातें करता है, हम क्या करें?
बुद्ध ने कहा: पागल हो तुम! तुम इसे समझाते हो, यही तुम्हारी भूल है। इस बेचारे का क्या कसूर? इसको दिखाई नहीं पड़ता, यह तुम्हें भी मालूम है और प्रकाश सिर्फ देखा जा सकता है। तुम मेरे पास लाए, ठीक नहीं। मेरा चिकित्सक है, मेरा निजी चिकित्सक है--जीवक। तुम उसके पास इसे ले जाओ। वह मेरे साथ ही है, खोज लो, संघ में कहीं ठहरा होगा--दस हजार भिक्षु बुद्ध के साथ चलते थे--तुम जीवक को खोज लो। जीवक इसकी चिकित्सा कर देगा। इसकी आंखें ठीक हो जाएं, फिर किसी को प्रमाण देने की जरूरत न रहेगी।
जीवक ने छह महीने उसकी आंखों का इलाज किया। आंखों पर जाली थी, कट गई। छह महीने बाद वह आदमी नाचता हुआ बुद्ध के चरणों में गिर पड़ा। बुद्ध ने कहा: क्या करते हो? उसने कहा: धन्यवाद देने आया हूं। अगर मैं अपने गांव वालों से ही विवाद करता रहता तो मैं जीवन भर अंधा ही बना रहता। वे विवाद में मुझे हरा न सकते थे और चूंकि हरा न सकते थे, इसलिए मुझे लगता था जो मैं कहता हूं, वह ठीक कहता हूं। स्वभावतः मेरे तर्क सही थे। वे तर्क में निष्णात न थे। गांव के सीधे-सादे लोग थे, वे क्या तर्क करते! मगर आपने अच्छा किया कि मुझे समझाने की कोशिश न की। आपने मुझे वैद्य के पास भेज दिया, यह शुभ किया। मेरी आंखों की जाली कट गई है। आज मैं देख सकता हूं रंग, रूप, प्रकाश, आकृतियां। मेरे जीवन का अहोभाग्य! मैं वंचित ही रह जाता हरियाली से। मैं वंचित ही रह जाता फूलों के रंगों से। मैं वंचित ही रह जाता सूरज से, चांद-तारों से। मैं वंचित ही रह जाता इस जीवन के परम अनुभव से। यह जो प्रकाश का साक्षात्कार है, इसकी जो अनुपम महिमा है, इससे मैं वंचित ही रह जाता। इसलिए धन्यवाद देने आया हूं। और एक बात और पूछने आया हूं, क्योंकि जीवक से मैंने पूछा कि मैंने यह भी सुना है कि भीतर की भी आंख होती है। अब बाहर की आंख मुझे मिल गई, अब मैंने बाहर का प्रकाश देख लिया। मैंने यह भी सुना है कि लोग ऐसे भी हुए जिन्होंने भीतर का प्रकाश देखा है, तू उसकी भी चिकित्सा कर दे। तो जीवक ने कहा, अगर उसकी चिकित्सा करवानी है तो बुद्ध के पास जाओ। उसके चिकित्सक वही हैं। उस संबंध में मैं कुछ भी न कर सकूंगा। तो अब मैं आपके पास आया हूं, अब मेरे भीतर की आंख भी खोल दें।
बुद्ध ने कहा: प्रमाण नहीं मांगोगे?
उसने कहा: बहुत हो चुके प्रमाण। बहुत हो चुका विवाद। पहले विवाद ने ही मेरी जिंदगी खराब कर डाली। अब नहीं विवाद। अब नहीं प्रमाण। अब कोई शास्त्र वचन नहीं चाहिए। जब बाहर का प्रकाश है तो भीतर का भी होगा। जब बाहर की आंख है तो भीतर की भी आंख होगी। जब बाहर एक जगत फैला है तो भीतर भी एक जगत फैला होगा। क्योंकि जब कोई चीज बाहर होती है तो भीतर भी होती है। बाहर अकेला नहीं हो सकता, बिना भीतर के बाहर कैसे हो सकता है? अब नहीं मुझे विवाद करना है। मेरी भीतरी की आंख भी खोल दो।
वह आदमी बुद्ध के चरणों में रहा वर्षों और परम ज्ञान को उपलब्ध हुआ। उसने भीतर का प्रकाश भी जाना।
जिनको तुम धर्मांध कहते हो, वे वस्तुतः मतांध हैं, उनको धर्मांध न कहो। ‘धर्म’ बड़ा प्यारा शब्द है। मतांध हैं, मतवादी हैं। और मतवादी धार्मिक नहीं होता। इसलिए मैं हिंदू को, मुसलमान को, ईसाई को, जैन को, बौद्ध को धार्मिक नहीं कहता। कृष्ण को धार्मिक कहता हूं, हिंदू को नहीं। ईसाई को नहीं, जीसस को धार्मिक कहता हूं। मोहम्मद को धार्मिक कहता हूं, मुसलमान को नहीं। और मेरा कारण? चूंकि ये सारे लोग अनुभव किए सत्य का, अनुभूति के अतिरिक्त सत्य का कोई प्रमाण नहीं है। और इस जगत में कितने थोड़े से लोगों को अनुभव हुआ है। कारण? कारण है तुम्हारी मतांधता; अपने-अपने मतों को पकड़ कर बैठे हो।
दुनिया में तीन सौ धर्म हैं और तीन सौ धर्मों के कम से कम तीन हजार संप्रदाय होंगे, और तीन हजार संप्रदायों के कम से कम तीस हजार उप-संप्रदाय होंगे। इनके बीच तलवारें खिंची रहती हैं।
अब जिस पागल युवक ने कल छुरा फेंक कर मुझे मारने की चेष्टा की, पहली तो बात: मुझे मारा नहीं जा सकता। जिस देह को मारा जा सकता है, वह यूं ही मर जाएगी। इसे मारने की कोई खास जरूरत ही नहीं है। बुद्ध नहीं रहे, महावीर नहीं रहे, कृष्ण नहीं रहे, तो यह देह भी नहीं रहेगी। देह तो किसी की रहती नहीं। जो अपने से ही जाने वाली है, उसके लिए नाहक इतनी चेष्टा की बेचारे ने! अपने को कष्ट में डाल लिया। अपने को उलझन में डाल लिया।
दूसरी बात: इस आशा में उसने यह प्रयास किया कि वह धर्म की रक्षा कर रहा है; जैसे कि उसे धर्म का पता हो! जैसे उसे धर्म का अनुभव हुआ हो! उसे खयाल है कि मैं जो कर रहा हूं वह उसके धर्म के विपरीत है; जैसे कि धर्म भी अलग-अलग हैं! मेरा अलग, तुम्हारा अलग, किसी और का अलग! धर्म तो एक है। जैसे विज्ञान एक है। जैसे प्रकाश एक है। जैसे चांद एक है। कितनी ही झीलों में उसका प्रतिबिंब बने और कितने ही पोखरों में, तालाबों में, सागरों में उसकी छाया पड़े। करोड़ों प्रतिबिंब बनते हैं रात को, लेकिन चांद तो एक है। बुद्ध एक प्रतिबिंब, महावीर दूसरे प्रतिबिंब, मोहम्मद तीसरे प्रतिबिंब, जीसस चौथे प्रतिबिंब, जरथुस्त्र पांचवें प्रतिबिंब। ये सब झीलें हैं। मैं भी एक झील हूं, चांद की एक छाया मुझ में भी बन रही है।
लेकिन यह युवक सोचता था कि इसके धर्म के खिलाफ बोल रहा हूं। धर्म किसी का भी नहीं, किसी की बपौती नहीं। धर्म का अर्थ भी समझते हो? धर्म का अर्थ है: जिसने हम सबको धारण किया है, जो हम सबका स्वभाव है। महावीर ने धर्म की ठीक-ठीक परिभाषा की है: वथ्थु सहावो धम्म। वस्तु का स्वभाव धर्म है।
इस जगत का जो अंतर्तम स्वभाव है, वह धर्म है। हमारा जो स्वभाव है, वह हमारा धर्म है। अपने स्वभाव से परिचित हो जाना, धर्म से परिचित हो जाना है।
लेकिन वह बेचारा धारणाओं में ग्रस्त होगा। पागल तो निश्चित ही रहा होगा, निशाना भी लगाना आता नहीं! कम से कम निशाना लगाना तो ठीक से समझ लेना था, अनुभव कर लेना था, प्रयोग कर लेना था। छुरा भी मारा तो मुझे लगा नहीं। यह भी कोई ढंग है? यह कोई शैली हुई? मुझसे भी पूछता तो मेरे पास यहां युवक हैं जो उसको प्रशिक्षित कर सकते थे कि कैसे छुरा फेंकना, कैसे मारना। मारना ही हो तो प्रशिक्षण तो लेना चाहिए।
और छुरा भी कहां का मारा! वह लग भी जाता तो भी प्राण तो नहीं ले सकता था। उतना ही पुराना समझो जितना हिंदू धर्म। बाबा आदम के जमाने का समझो। और कंजूस भी पक्का था! साथ में अच्छे ढंग की तलवार भी रखे था, वह उसने अपने बेल्ट में छिपा रखी थी। वह काहे के लिए रखे रहा! सोचा होगा पहले सस्ते में काम चल जाए तो ठीक है। मराठा था कि मारवाड़ी था?
एक मारवाड़ी युवक पर आरोप था कि उसने अंधेरी गली में चंदूलाल को बंदूक द्वारा मार डालने की कोशिश की थी। अदालत में बचाव पक्ष के वकील ने कहा: अभियुक्त ने बंदूक से चंदूलाल की खोपड़ी का निशाना लगाया था, यह सच है। उनकी पुरानी खानदानी दुश्मनी है, यह भी सच है। किंतु अभियुक्त ने बंदूक का घोड़ा नहीं दबाया था।
न्यायाधीश ने पूछा: आश्चर्य की बात है! जब तुमने खोपड़ी का निशाना साध लिया था तो फिर गोली क्यों नहीं चलाई?
मारवाड़ी युवक ने गुस्से से भर कर कहा: क्या करूं श्रीमान, मैं घोड़ा दबाने ही वाला था कि इस बदमाश चंदूलाल ने पूछा कि इस बंदूक को कितने में बेचेगा? अब आप ही बताइए कि जब कोई धंधे की बात कर रहा हो तो उसको कैसे मारा जाए!
छुरे वह आदमी दो लाया था। पहले उसने सस्ता छुरा फेंका। निश्चित बुद्धू था! कोई भी काम थोड़ा अकल से तो और कुशलता से तो करना चाहिए! असली चीज निकाल ही न पाए और असली चीज उनके बेल्ट में ही रह गई।
मगर जब भी कोई आदमी गलत काम करने जाता है तो ऐसा ही हो जाता है, कुछ का कुछ हो जाता है। होश-हवास नहीं होते। चित्त तनावग्रस्त होता है, अशांत होता है। घबड़ाहट में, बेचैनी में जो हो गया, हो गया। उसे ठीक-ठीक पता भी नहीं होगा, क्या कर रहा है, क्यों कर रहा है। और किसने इसको ठेका दिया है हिंदू धर्म की रक्षा का? और यही एकमात्र ठेकेदार बचा बीस करोड़ हिंदुओं में!
पूना के लोगों में कुछ खूबी है। हिंदू धर्म की रक्षा का पूना के लोगों को कुछ अजीब नशा है। महात्मा गांधी को गोली मारी--पूना के ही एक युवक ने। हिंदू धर्म की रक्षा करने गए थे वे! ‘पूना’ शब्द बना है ‘पुण्य’ से। पुण्य की नगरी है यह। धन्य है पुण्य की नगरी! खूब पुण्यात्मा लोग यहां पैदा होते हैं! पुण्य कर-करके दिखाते हैं!
लेकिन मतांध लोगों से यही आशा की जा सकती है। इसमें कुछ अनहोना नहीं हुआ, कुछ अनघट नहीं हुआ। मेरे जैसे व्यक्तियों को ये सब बातें अपेक्षित ही हैं, होंगी हीं, स्वाभाविक मान कर चलना चाहिए। मेरे जैसे व्यक्तियों के जीवन का ये अनिवार्य हिस्सा हैं।
तुम पूछते हो कि ‘इस प्रसंग में हमें दिशा-बोध देने की अनुकंपा करें।’
इतना ही खयाल रखना कि तुम भी मतांध मत हो जाना, बस। मैं तुम्हें धर्म देना चाहता हूं, मत नहीं। मैं तुम्हें प्रकाश देना चाहता हूं, प्रकाश के सिद्धांत नहीं। मैं तुम्हें अनुभव देना चाहता हूं, शास्त्र नहीं। मैं तुम्हें किसी धर्म के अंग नहीं बनाना चाहता, तुम्हें धार्मिक बनाना चाहता हूं।
भविष्य अब धर्मों का नहीं है; भविष्य है धार्मिकता का। अगर इस पृथ्वी पर धर्म को बचना है तो उसे धर्मों से मुक्त हो जाना पड़ेगा। लद गए वे दिन--ईसाइयों के, हिंदुओं के, मुसलमानों के! काफी मूढ़ता हो चुकी उन नामों पर। अब समय आ गया है, आदमी इतना प्रौढ़ हो चुका है कि अब धार्मिकता के दिन आ रहे हैं। यह सदी का अंत धार्मिकता का उदय देखेगा। लोग धार्मिक होंगे। जैसे कोई वैज्ञानिक होता है, ऐसे लोग धार्मिक होंगे।
इसलिए मेरे जो संन्यासी हैं, वे किसी धर्म के हिस्से नहीं हैं। वे धर्ममुक्त धार्मिक हैं। उनकी कोई धारणा नहीं। वे किसी धारणा में आबद्ध नहीं हैं।
तो इतना स्मरण रखना, क्योंकि यह भ्रांति अक्सर हो जाती है कि हम भूल जाते हैं असली बात को और नकली को पकड़ लेते हैं। मतांध मत हो जाना।
दूसरी बात: इस तरह की बात हुई है, और भी आगे हो सकती है। यह तो समझो एक सिलसिला है, एक शुरुआत है। कोई एकाध पागल ही होगा, ऐसा मत सोचना, और भी पागल होंगे। लेकिन तुम्हारे मन में न तो क्रोध होना चाहिए, न तुम्हारे मन में किसी तरह की प्रतिहिंसा पैदा होनी चाहिए।
मैं इस बात से आनंदित हूं कि उस युवक को तुम में से किसी ने कोई चोट नहीं पहुंचाई। एक थप्पड़ भी नहीं मारा। उसने क्या किया, वह तो दो कौड़ी की बात है, लेकिन तुमने जो किया, उसका मूल्य बहुत ज्यादा है। तुमने मुझे बहुत आनंदित किया। तुमने उसे प्रेम से उठाया। तुम उसे प्रेम से उठा कर ले गए। पुलिस के अधिकारी भी चकित हुए, क्योंकि उनको लगता था कि तुम मारोगे, पीटोगे। लेकिन मारने-पीटने की तो बात अलग, तुमने एक थप्पड़ भी नहीं मारी।
इतना ही ध्यान रखना। आगे भी ध्यान रखना। ऐसा फिर कभी हो तो इतना ही ध्यान रखना। और ऐसा ही नहीं कि वह असफल हो गया, इसलिए। कोई अगर किसी दिन सफल भी हो जाए, मेरी देह भी छीन ले तो भी तुम्हारी तरफ से यही प्रेम, तुम्हारी तरफ से यही आनंद। तुम यह मत भूलना कि मैंने यह घोषणा की है कि सबके भीतर परमात्मा विराजमान है। उस व्यक्ति के भीतर भी विराजमान है--थोड़ा सा भ्रांत हो गया है, थोड़ा सा अंधेरे में पड़ा है, अंधेरे की स्थिति में है। लेकिन है तो परमात्मा ही। तुम्हारे सम्मान में कोई अंतर नहीं होना चाहिए। तुम सम्मानपूर्वक ही उसके साथ व्यवहार करना। तुम्हारे भीतर क्रोध पैदा होगा, उससे मुझे ज्यादा कष्ट होगा। तुम्हारे भीतर प्रतिहिंसा पैदा होगी, तो मुझे ज्यादा पीड़ा होगी।
इसलिए मैं तुम्हारा धन्यवाद करता हूं कि तुम दौड़े, तुमने उसे ऐसे उठाया जैसे कोई गिरे हुए आदमी को सड़क पर से उठा ले। तुमने उसे प्रेम से, सम्मान से, सत्कार से स्वागत दिया। यही संन्यासी का लक्षण होना चाहिए। यही धार्मिकता का लक्षण है।

दूसरा प्रश्न:
भगवान, मैं पैंतीस वर्षीय बाल-ब्रह्मचारी हूं--अखंड! लेकिन कुछ समय से जब भी साधना के लिए बैठता हूं, चारों ओर एकदम स्त्रियां प्रकट हो जाती हैं! भगवान, क्या इंद्र मेरी तपश्चर्या को भंग करना चाहता है?
आत्मानंद ब्रह्मचारी! कलियुग में तुम सतयुगी ऋषि-मुनि मालूम होते हो। बेचारे इंद्र को क्यों कसूर दे रहे हो? कसूर तुम्हारा है। जबर्दस्ती करोगे, अपने ऊपर कुछ अप्राकृतिक थोपोगे, तो आज नहीं कल देर-अबेर विस्फोट होगा। और तब गाली देने के लिए, दोषी ठहराने के लिए कोई चाहिए, तो बेचारे इंद्र को दोषी ठहराते हो। कहीं कोई इंद्र नहीं है, न कहीं कोई इंद्र का आसन है। वे तुम्हारे शास्त्रों में जो कहानियां हैं कि इंद्र का आसन डोलने लगता है; वह सिर्फ ऋषि-मुनियों की ईजाद है। ऋषि-मुनि डोल रहे हैं। और ऋषि-मुनि डोल रहे हैं अपने कारण--अपने दमन के कारण।
लेकिन मनुष्य के मन की यह बुनियादी लक्षणा है कि वह कभी भी दोष को स्वीकार नहीं करता है। दोष तो किसी और को देना चाहता है। बस किसी और को दोष दे दे तो उसे बड़ी राहत मिलती है। तुम बुरे से बुरा काम करो, तो भी तुम चाहते हो कि दोष किसी पर फेंक सको। फेंकते ही दोष किसी और के ऊपर, तुम निर्भार हो जाते हो। इसलिए दुनिया में कोई अपने को दोषी नहीं मानता; सब एक-दूसरे को दोषी ठहराते हैं। और जब कोई भी दोषी न ठहराया जा सके...अब जैसे यह अखंड ब्रह्मचर्य का मामला है, अब इसमें किसको दोषी ठहराओगे? तो पहला तो काम है कि स्त्रियों को दोषी ठहराओ। लेकिन स्त्रियों से भाग जाते थे ऋषि-मुनि दूर जंगल में, वहां कहां स्त्रियां, तो अब किसको दोषी ठहराओ? गांव में होते, बस्तियों में होते, तो स्त्रियां नरक का द्वार हैं!
स्त्रियों के संबंध में ऐसे अभद्र शब्द शास्त्रों में हैं कि सोच कर भी हैरानी होती है। ये शास्त्र अब तक पूज्य बने हुए हैं! और अगर कहो कि इन शास्त्रों में क्या है तो कोई छुरा फेंकने को तैयार है, कि हमारे धर्म के विपरीत बात हो गई। और बातें ऐसी-ऐसी हैं कि इन छुरा फेंकने वालों ने कभी अपने शास्त्र देखे भी नहीं हैं। काश, ये अपने शास्त्र खुद देख लें! मगर न इनको फुर्सत है, न इच्छा है। ये तो पूजते हैं। कितने हिंदू हैं जिन्होंने वेद पढ़े हों? शायद ही तुम्हें मुश्किल से कोई हिंदू मिले जिसने वेद पढ़ा हो। जब मैं वेद को पढ़ा--और मैं हिंदू नहीं हूं! मैं इस तरह के किसी पागलपन में सम्मिलित नहीं हूं--तो मैं चौंका। मैं चौंका इस बात से कि सदियां हो गईं इन वेदों की पूजा करते-करते लोगों को, कोई इनको खोल कर देखता है या नहीं देखता है! और जब मैंने खोल कर देखा तो मैंने सोचा कि ठीक ही करते हैं लोग कि खोल कर नहीं देखते। तब मैं समझा राज न खोल कर देखने का, क्योंकि सौ में से निन्यानबे प्रतिशत कचरा। अब इसमें मैं क्या करूं या कोई भी क्या करे? तुम्हीं खोल कर देख लो। तुम खुद ही कचरा पाओगे। और इस कचरे को भी कहा जाता है कि यह अपौरुषेय है, यह परमात्मा ने स्वयं रचा है, आदमी का रचा हुआ नहीं है। परमात्मा अगर ऐसा कचरा रचता हो, जिसको कि कोई बिलकुल तृतीय श्रेणी का अखबार भी छापने को राजी न होता, वह भी इसको रद्दी की टोकरी में फेंक देता, या अगर टिकट साथ में आए होते तो सधन्यवाद वापस लौटा देता, या कम से कम टिकट बचा लेता और इसको कचरे में फेंकता। यह परमात्मा का रचा हुआ है! परमात्मा को इस तरह की बातें लिखने की क्या जरूरत पड़ी होगी?
और किस-किस तरह की बातें, कि अगर तुम उठा कर देखो तो कोई स्त्री अपने घर में वेदों को न टिकने दे, क्योंकि स्त्रियों के संबंध में ऐसे अभद्र वचन और कहीं मिलने असंभव हैं। वेदों में वर्णन है कि स्त्रियां इतनी ज्यादा पाशविक हैं, मनुष्यों में इनकी गिनती करना ही मत। ये पशुओं से गई-बीती हैं। और स्त्रियों के संबंध में इस-इस तरह के विवरण हैं कि तुम देखोगे तो तुम चकित होओगे कि जो ऋषि-मुनि ये विवरण लिख रहे हैं, ये क्या लिख रहे हैं! इस तरह के अभद्र विवरण, इस तरह की अश्लील बातें तो आज भी अश्लील से अश्लील साहित्य में उपलब्ध नहीं होतीं।
जैसे कल ही मैं देख रहा था। अश्वमेध यज्ञ का वर्णन है कि घोड़े के पास यजमान की पत्नी को नग्न करके लिटा देते थे और फिर घोड़े से पत्नी प्रार्थना करती है कि ‘हे अश्व, मैं अपनी दोनों जंघाएं फैलाती हूं। तुम भी अपने लिंग को बड़ा करो और मेरी योनि में प्रवेश करो। हम स्त्रियों को तुम्हारे संभोग से बड़ा आनंद मिलता है।’
ये ईश्वरकृत ग्रंथ हैं! और अगर यह बात किसी से कहो तो कोई छुरा मारने को तैयार है! नहीं कि देखे जाकर कि बात कहां तक सच है। और यह कोई एकाध बार होता तो ठीक, जगह-जगह ये उल्लेख भरे पड़े हैं।
तो पहला तो काम, ऋषि-मुनि स्त्रियों को जितनी गालियां दे सकते हैं, देंगे--कि स्त्रियां बेहूदी हैं, अभद्र हैं, नरक के द्वार हैं! ये पशुओं से भी व्यभिचार करने को आतुर रहती हैं, इनके व्यभिचार का क्या ठिकाना! आदमियों की तो बात क्या, ये पशुओं को भी आमंत्रित करती हैं कि आओ हमसे व्यभिचार करो। हमें बड़ा रस आता है! तो अगर ये ऋषि-मुनियों को बेचारों को, गरीब ऋषि-मुनियों को भ्रष्ट करती हों तो कुछ आश्चर्य नहीं।
मगर जंगल भाग गया आदमी यह भी नहीं कर सकता। वहां किसको गाली दे, वहां कोई स्त्री नहीं। वहां तो उसके भीतर ही कल्पना के जाल उठते हैं। जो दबा रखा है कामवासना का ज्वार उसने भीतर, वही धक्के मारता है, वही स्वप्न लेने शुरू करता है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अगर तीन सप्ताह तक तुम एकांत में रहो और कोई भी एक चीज का दमन करो, तो तीन सप्ताह के बाद तुम जागते हुए, खुली हुई आंख से सपना देखना शुरू कर दोगे। यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है, जिस पर प्रयोग किए गए हैं। जो तुम रात आंख बंद करके सपने में देखते हो, वह तुम दिन में खुली आंख से देखने लगोगे और बिलकुल प्रत्यक्ष दिखाई पड़ेगा। विभ्रम पैदा हो जाएगा। और यह तीन दिन का सवाल नहीं है।
आत्मानंद ब्रह्मचारी, तुम कहते हो: ‘मैं पैंतीस वर्षीय बाल-ब्रह्मचारी हूं।’
पैंतीस साल से तुम अपने ऊपर ब्रह्मचर्य को थोप रहे हो, तो अगर स्त्रियां तुम्हें दिखाई पड़ने लगी हों तो कुछ आश्चर्य तो नहीं। स्त्रियों से ही लड़ते रहे हो, उन्हीं से बचते रहे हो, उन्हीं से भागते रहे हो, उन्हीं की कल्पना तुम्हारे भीतर प्रगाढ़ होती रही है। तो फिर अब किसको कसूर दें? तो जंगल में बैठे ऋषि-मुनि इंद्र को कसूर देते हैं; वहां स्वर्ग में कोई इंद्र, उसकी कल्पना करते हैं कि उसका आसन डोल रहा है। उसका आसन क्यों डोलेगा? तो वह मेनका को भेजता है, उर्वशी को भेजता है--ऋषि-मुनियों को डिगाने के लिए।
न कहीं कोई मेनका है, न कहीं उर्वशी है, न कहीं कोई इंद्र है। यह ऋषि-मुनि की ही अपनी ही कल्पनाओं का जाल है--अपनी ही दमित वासनाओं का जाल है। सुंदर-सुंदर स्त्रियां खड़ी हो जाती हैं।
दोष तो किसी को देना ही होगा। तो दोष के लिए इंद्र को गढ़ लिया। इंद्र सच्चा होता तो बेचारा अपने पक्ष में कुछ बोलता भी, कहता भी कि भाई मेरा इसमें कोई हाथ नहीं। मगर इंद्र हो, तब कहे न! इंद्र तो कहीं है नहीं। वेदों में वर्णन है कि इंद्र जब कुपित हो जाता है तो बिजली चमकाता है, बादल गड़गड़ाता है, बिजली गिराता है, अपने दुश्मनों को मार डालता है। अब हम जानते हैं कि बिजली क्यों गड़गड़ाती है। और अब हम जानते हैं कि इंद्र देवता घर-घर में अपने-अपने मीटर में बंद हैं। जब चाहो, बटन दबाओ, पंखा चलाओ--इंद्र देवता पंखा चला रहे हैं! अब इंद्र देवता पंखा झल रहे हैं। पहले ये दुश्मनों को मारते थे, आदमियों को डराते थे। आटा पीस रहे हैं इंद्र देवता! अब पनचक्की तो रही नहीं, अब सब चक्कियां बिजली से चल रही हैं। क्या-क्या काम नहीं इंद्र देवता कर रहे हैं, जरा तुम हिसाब तो लगाओ। ऐसा कोई काम है जो इंद्र देवता न कर रहे हों। शूद्र भी जो काम न करने को राजी हों, वह भी इंद्र देवता करने को राजी हैं। अब इंद्र देवता की कोई पूछताछ नहीं करता।
तुमने यह खयाल किया, इंद्र देवता एकदम विदा हो गए हैं! ये आत्मानंद ब्रह्मचारी जैसे थोड़े से व्यक्तियों को छोड़ दो, जिनके लिए इंद्र देवता अभी भी जीवित हैं क्योंकि इनको जरूरत है, उनको जीवित रखना पड़ रहा है। बाकी किसके जीवन में इंद्र देवता का अब कोई मूल्य रहा? अब तुम प्रार्थना करते हो इंद्र देवता से? ऋग्वेद भरा हुआ है इंद्र से, वेद भरे हुए हैं इंद्र से। वेदों को पूजने वाले कितने हिंदू हैं जो आज इंद्र देवता की पूजा करते हों? इंद्र देवता से कोई लेना ही देना नहीं रहा, बात ही टूट गई। देख लिया, राज ही खुल गया सब। इंद्र देवता के हाथ से सब चला गया, बिजली भी चली गई, बादल भी चले गए। अभी हमारे मुल्क में बादल उन्हीं के हाथ में हैं, इसलिए अभी यज्ञ-हवन, पंडित-पुरोहित और उनके पीछे चलने वाले मूढ़ों की जमात अभी भी करती है। लेकिन रूस जैसे देश में अब बादल भी इंद्र देवता के हाथ में नहीं हैं! अब रूस जहां चाहता है वहां बादलों से पानी गिरवा लेता है। हवाई जहाज को बादलों के ऊपर उड़ा कर, हवाई जहाज से बर्फ की पतली फुहार बरसा कर, ठंडक देकर, वर्षा करवा ली जाती है, किसी भी बादल से वर्षा करवा ली जाती है। इंद्र देवता बेचारे मुंह बाए देखते रहते होंगे कि मेरा बादल और ये रूसी दुष्ट क्या समझें हैं मुझको--अफगानिस्तान समझे हुए हैं या क्या समझे हुए हैं? और मुझसे वर्षा करवा रहे हैं और मुझे करनी पड़ रही है! और जहां बादलों को ले जाना चाहते हैं रूसी, वहां बादल ले जाते हैं।
रूस में जो आज से साठ साल पहले रेगिस्तान थे, वे अब हरे-भरे बगीचे बन गए हैं। रेगिस्तान खत्म हो गए। जहां एक घास का अंकुर नहीं ऊगता था, आज वहां सुंदर फूल खिल रहे हैं। और हुआ क्या? छोटा सा राज है बादलों को ले आने का: जहां भी बादल लाने हों, वहां इतना उत्ताप पैदा कर दो, इतनी गर्मी पैदा कर दो, गर्मी के कारण वायु विरल हो जाती है। वायु विरल हो जाती है, स्थान खाली हो जाता है। खाली स्थान को भरने को आस-पास से बादल एकदम दौड़ पड़ते हैं। तो जहां भी पानी गिराना हो, वहां विरल वायु पैदा कर दो, बादल दौड़ पड़ेंगे, वर्षा हो जाएगी। और जहां से बादल हटाने हों वहां से बादल हटाए जा सकते हैं। रूस में कोई यज्ञ करने की जरूरत नहीं पड़ती।
हम अभी भी यज्ञ किए चले जाते हैं। लेकिन वैसे इंद्र देवता मर गए हैं। अब कोई इंद्र देवता की चिंता नहीं करता। उनके हाथ से बहुत ताकत जा चुकी। थोड़ी-बहुत बची-खुची है, वह भी चली जाएगी। मगर तथाकथित ऋषि-मुनि अभी भी गुफाओं में बैठ कर जब स्त्रियों से परेशान होते हैं तो इंद्र देवता की याद करते हैं।
आत्मानंद ब्रह्मचारी, तुम निश्चित सतयुगी हो। धन्यभागी हो! कहां कलियुग में भटक आए लेकिन? यह कलियुग तुम्हारे लिए नहीं है। सतयुग में होते तो न मालूम वशिष्ठ होते कि विश्वामित्र होते। और अभी, मेरे जैसे लोगों के कारण किसी मानसिक चिकित्सालय में भर्ती कराने योग्य हो, और कुछ भी नहीं। यहां आ गए, अच्छा हुआ। हमारे पास चिकित्सालय की व्यवस्था है, वहां तुम्हारी चिकित्सा हो सकेगी। इंद्र देवता की कोई जरूरत नहीं है। किसी का आसन नहीं डोल रहा है। मेरी कुर्सी तक नहीं डोल रही, इंद्र देवता का आसन क्यों डोलेगा! इंद्र देवता यह पंखा चला रहे हैं।
लेकिन दमन का यह परिणाम है।
झेन कथा है, बड़ी प्रसिद्ध कथा है, मुझे बहुत प्रीतिकर है, बहुत बार मैंने कही है। जितनी बार कहता हूं, उतनी ही प्रीतिकर लगती है। दो बौद्ध भिक्षु भिक्षा मांग कर अपने विहार को लौट रहे हैं। सांझ हो रही है, सूरज ढल रहा है। वे एक नदी-तट पर आते हैं। वृद्ध भिक्षु आगे है। नदी-तट पर एक युवती खड़ी है--बहुत सुंदर युवती! और ध्यान रखना, जरूरी नहीं है इतनी सुंदर रही हो जितनी सुंदर वृद्ध को मालूम पड़ी हो। भिक्षुओं को जितनी स्त्रियां सुंदर दिखाई पड़ती हैं उतनी औरों को नहीं दिखाई पड़तीं। भूखे आदमी को भोजन जितना स्वादिष्ट मालूम पड़ता है, भरे पेट आदमी को नहीं मालूम पड़ता, यह सीधा सा नियम है। दो-चार दिन उपवास करके देखो और तुम एकदम हैरान हो जाओगे--कहीं से भी निकलो और तुम्हारे नासापुट एकदम भोजन की गंध से भरने लगेंगे। पड़ोसी के मकान में भोजन बनेगा, पकौड़े पकेंगे और तुम्हें गंध आएगी। पहले कभी नहीं आई थी। तुम्हारे नासापुट एकदम सजीव हो उठे। रास्ते से निकलोगे, जूते की दुकान दिखाई ही नहीं पड़ेगी; बस कहीं रेस्त्रां, कहीं होटल, कहीं रसगुल्ले की दुकान, कहीं कुल्फी, बस इस तरह की चीजें दिखाई पड़ेंगी। और दुनिया खो जाएगी। हमारे भीतर की जो कमी होती है, वह हमें बाहर दिखाई पड़ने लगती है।
उस वृद्ध ने देखा यह सुंदर युवती खड़ी है। वह अपनी आंख नीची कर लिया, तत्क्षण बुद्ध का स्मरण करने लगा--बुद्धं शरणं गच्छामि! ऐसे ही समय के लिए तो मंत्र हैं। मंत्र तो रक्षा करने के लिए हैं। वह बुद्ध की याद करने लगा। और बुद्ध ने कहा: चार फीट से ज्यादा मत देखना। अब समझा कि राज--क्यों कहा चार फीट से ज्यादा नहीं देखना! पहले ही अगर चार फीट तक नीचे देखा होता तो यह झंझट में क्यों पड़ता, यह सुंदर स्त्री अब दिखाई पड़ चुकी थी। अब वह लाख ‘बुद्धं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि’ कर रहा है, मगर दिल तो उस स्त्री में अटका हुआ है। और वह स्त्री और सुंदर होती जा रही है। वह एकदम तेजी से कदम बढ़ाने लगा कि जल्दी नदी पार कर जाए। अरे कुछ से कुछ हो जाए! एकांत का मामला, कोई है नहीं, सन्नाटा है। और ऐसी घड़ी में भिक्षु अपने पर भरोसा नहीं कर सकता। रहा होगा आत्मानंद ब्रह्मचारी जैसा। जल्दी-जल्दी नदी पार कर गया। नदी कोई ज्यादा गहरी नहीं है, लेकिन फिर भी गले-गले तक पानी आ जाता है। निकल गया उस पार। उस पार जाकर उसे खयाल आया कि मेरे ही पीछे मेरा एक युवक संन्यासी भी आ रहा है। उसका ही गुरुभाई है। वह अभी नया-नया दीक्षित हुआ है। वह मूढ़ है, उसको क्या पता, कहीं फंस न जाए चक्कर में! वह भी देखेगा इस लड़की को।
अब बूढ़े को बड़ी बेचैनी होने लगी। जिन्होंने कामवासना को दबाया है, उनके भीतर ईर्ष्या भी बहुत जलती है। हालांकि उसने ईर्ष्या को भी धर्म की आड़ दी। उसने यही अपने मन को समझाया कि मैं तो उस युवक की चिंता कर रहा हूं कि कहीं भ्रष्ट न हो जाए। अरे मैं तो बूढ़ा हूं, समझदार हूं, किसी तरह ‘बुद्धं शरणं गच्छामि’ कह कर निकल आया, मगर वह कहीं उलझ न जाए। अब और सन्नाटा हो गया है और सूरज बिलकुल डूबने के करीब है। अब अंधेरा ही होने के करीब है। अब वह पहुंचा होगा किनारे पर।
और तब वह युवक किनारे पर पहुंचा। उस युवती को खड़ा देख कर उसने पूछा कि क्या बात है, रात उतर रही है, इस अंधेरी जगह में अकेले रुकने का इरादा है? उस युवती ने कहा: मैं उतरने में डरती हूं। पानी गहरा है, कहीं बह न जाऊं। धार तेज है।
उस युवक ने कहा: मेरे कंधे पर बैठ जा, मैं तुझे उतार देता हूं। वह उस युवती को कंधे पर लेकर उतार रहा है। जब वह उस तरफ पहुंचा और बूढ़े ने यह दृश्य देखा, तो तुम सोच सकते हो उसकी छाती पर एकदम सांप लोट गया! इंद्र का आसन डिगा या नहीं, लेकिन उसका आसन बिलकुल डिग गया। हालांकि अंतसचेतन में तो ईर्ष्या जगी, भीतर तो बहुत गहरे में यह हुआ कि काश, मैंने इसे कंधे पर बिठाया होता! ये सुंदर-सुंदर जांघें, यह प्यारी-प्यारी देह, यह कोमल त्वचा, यह युवा स्त्री! मगर ऊपर से यही भाव उठा कि यह मूढ़ युवक, अभी नया संन्यासी, नया दीक्षित, इसको पता नहीं है कि बुद्ध ने कहा कि स्त्रियों को छूना मत, देखना मत। बात मत करना उनसे।
मैं नहीं सोचता यह बुद्ध ने कहा होगा। यह बुद्ध के पीछे आने वाले बुद्धुओं ने जोड़ा होगा। बुद्ध जैसे व्यक्ति इस तरह की बातें नहीं कहते--नहीं कह सकते हैं! अगर कहें तो उनमें और बुद्धुओं में भेद न रह जाए।
उस युवक ने उस युवती को वहीं किनारे पर उतार दिया। युवती ने धन्यवाद दिया, युवक चल पड़ा। बूढ़ा भी चल पड़ा, लेकिन बूढ़ा आग से जला-भुना जा रहा है। इतना जला-भुना जा रहा है, कुछ बोल न सका क्रोध में। दो मील बाद जब वे विहार की सीढ़ियां चढ़ रहे थे, अपने आश्रम में पहुंचे, तो द्वार पर बूढ़ा ठिठका, उसकी आंखें जल रही हैं और उसने युवक से कहा कि सुन, तूने जो किया है, वह महापाप है!
उस युवक ने कहा: कौन सा महापाप? अभी मैंने क्या किया? अभी दो मील से तो हम एक-दूसरे से बोले भी नहीं, बिलकुल चुप ही रहे हैं।
उस बूढ़े ने कहा: दो मील की बात नहीं, दो मील पहले की बात याद कर। तूने जो किया, महापाप है। मैं गुरु को कहूंगा। मैं बिना कहे नहीं रह सकता। यह बर्दाश्त के बाहर है।
उस युवक ने कहा: मुझे याद नहीं आता, मैंने क्या किया दो मील पहले। आप साफ-साफ कहें।
उस बूढ़े ने कहा: साफ-साफ समझ में नहीं आता तुझे? तूने उस सुंदर युवती को कंधे पर बिठाल कर नदी पार करवाई। यह बौद्ध भिक्षु को शोभा देता है? तेरा संयम खंडित हो चुका है।
वह युवक हंसने लगा। उसने कहा कि क्या भंते, मैं निवेदन करूं एक बात, कि मैं उस युवती को दो मील पहले नदी के तट पर उतार भी आया, मगर आप उसे अब भी कंधे पर लिए हुए हैं!
आत्मानंद ब्रह्मचारी, पैंतीस साल से तुम न मालूम कितनी युवतियों को कंधों पर लिए हुए हो। वे ही युवतियां तुम्हें परेशान कर रही हैं। इसमें कसूर इंद्र का नहीं है। इंद्र को क्षमा करो। दोष अपना खोजो।
और अक्सर यह होता है कि जब आदमी जवान होता है तो अपनी किसी भी वासना को दबा सकता है, क्योंकि उसके पास बल होता है।
तुम कहते हो: ‘मैं पैंतीस वर्षीय बाल-ब्रह्मचारी हूं--अखंड!’
किस गौरव से कह रहे हो! किस शान से यह बात तुम घोषणा कर रहे हो! लिखते वक्त प्रश्न दिल ही दिल में बहुत आनंदित हुए होओगे कि सबको पता चल जाएगा कि यहां एक अखंड ब्रह्मचारी आया हुआ है। पैंतीस साल तक ब्रह्मचर्य को साधना कठिन नहीं है, क्योंकि पैंतीस साल तक आदमी के पास बल होता है, पैंतीस साल में हम अपनी पराकाष्ठा छू लेते हैं। फिर पैंतीस साल के बाद उतार शुरू होता है। सत्तर साल में मरना है न, तो पैंतीस साल में चढ़ते हैं पहाड़ी, फिर पैंतीस साल में उतरते हैं पहाड़ी। अब तुम उतार पर हो। अब उतार शुरू हुआ। अब तुम्हारी ऊर्जा कम होने लगेगी। जिस ऊर्जा से तुमने वासना को दबाया था, वह कम होने लगेगी। और वासना तो दबी की दबी है, उतनी की उतनी, वैसी ही प्रज्वलित है। और उसको दबाने वाले हाथ कमजोर होने लगेंगे। अब तुम मुश्किल में पड़ोगे। अब रोज-रोज मुश्किल बढ़ेगी। अब तुम इंद्र को तलाशोगे। और इंद्र का इसमें कोई भी हाथ नहीं है।
और अगर स्त्रियां प्रकट हो जाती हैं तुम्हारे चारों तरफ जब तुम साधना करने बैठते हो, तो यह किस तरह का अखंड ब्रह्मचर्य हुआ? स्त्रियां तुम्हें घेर कर चल रही हैं, यह तो रासलीला चल रही है, इसमें कहां ब्रह्मचर्य है?
‘ब्रह्मचर्य’ शब्द को समझो। ब्रह्मचर्य शब्द बड़ा प्यारा है, बड़ा अदभुत है! इस शब्द में बड़ा राज है, बड़ा रहस्य है। जिन्होंने इसको गढ़ा होगा, गजब के लोग रहे होंगे। ब्रह्मचर्य का अर्थ है: ब्रह्म जैसी चर्या। सीधा-सीधा अर्थ है: ईश्वरीय आचरण, दिव्य आचरण। मगर यह दबाने से नहीं होता। यह तो ध्यान का अंतिम फल है। तुमने ध्यान किया है? तुमने शून्य को जाना है? तुमने अपने भीतर उस परम सन्नाटे की अनुभूति की है, जहां सब मिट जाता है? विचार दूर, बहुत दूर छूट जाते हैं, सुनाई भी नहीं पड़ते। मन कहां खो गया, पता भी नहीं पड़ता। तुमने उस अ-मनी दशा को अनुभव किया है? अगर किया होता तो फिर तुम्हारे जीवन में ब्रह्मचर्य की सुगंध उठती। अभी तो तुम जिसको अखंड ब्रह्मचर्य कह रहे हो, थोथा दावा है।
तुम्हारे जैसे ही एक ब्रह्मचारी को मैं जानता हूं, नाम है उनका--मटकानाथ ब्रह्मचारी। मटकानाथ ब्रह्मचारी सुबह जब मंदिर से लौट रहे थे तो उन्होंने देखा कि रास्ते के किनारे पर एक जगह बच्चों की बड़ी भीड़ जमा है। वे वहां पहुंचे। देखा कि भीड़ के बीच में एक छोटा सा पिल्ला खड़ा है। खूबसूरत कुत्ते का पिल्ला। मटकानाथ ने यह सोच कर कि बच्चे इस निर्दोष जानवर को सता रहे होंगे, जोर से चिल्ला कर कहा: चलो, भागो यहां से। रफा-दफा हो जाओ। नहीं तो मैं मारूंगा। क्यों उस छोटे से पिल्ले को तंग कर रहे हो?’
हम लोग उसे तंग नहीं कर रहे--एक बच्चे ने उत्तर दिया। हम लोगों में एक प्रतियोगिता हो रही है कि जो भी सबसे बड़ा झूठ बोलेगा, उसी को यह पिल्ला ईनाम में दिया जाएगा।
ब्रह्मचारी जी ने कहा: हद हो गई! झूठ बोलना कोई प्रतियोगिता का विषय है क्या? अरे कोई अच्छी बात पर प्रतियोगिता करो। मगर वह तुम करोगे कैसे! दोष तुम्हारा नहीं, कलियुग का दोष है। इतनी छोटी उम्र और झूठ बोलना सीख गए? अरे जब मैं तुम्हारी उम्र का था, तब तो मैं जानता तक नहीं था कि झूठ बोलना किस चिड़िया का नाम है।
लीजिए यह पिल्ला आपका हो गया। ऐसा कहते हुए एक बच्चे ने उस पिल्ले को उठा कर मटकानाथ के हाथों में दे दिया। सभी बच्चे तालियां पीटने लगे और बोले: ‘गजब कर दिया आपने! एक भी मिनट न लगा आपको और आप ईनाम जीत गए!
अगर तुम होते आत्मानंद ब्रह्मचारी, तुम भी ईनाम जीत सकते थे। अखंड ब्रह्मचर्य! तुम्हारे स्वप्न में वासना चलेगी, सरकेगी--कहो या न कहो। तुम्हारे विचारों में, तुम्हारी कल्पनाओं में वासना का जहर होगा--कहो या न कहो। यह बिलकुल स्वाभाविक है। इसमें कुछ आश्चर्य जैसा नहीं है। लेकिन यह हो सकता है कि जब उम्र होती है, ऊर्जा होती है, तो आदमी डंड-बैठक मार-मार कर अपने को दबा रख सकता है। लेकिन कब तक ऊर्जा रहेगी? अब ऊर्जा के उतरने के दिन आ गए। इंद्र वगैरह का हाथ नहीं है। अब तुम्हारा उतार शुरू हुआ। अब तुम रोज-रोज मुश्किल में पड़ोगे। असली मुश्किल पैंतालीस साल के बाद आनी शुरू होगी।
इसलिए अक्सर तुम्हारे तथाकथित बाल-ब्रह्मचारी पैंतालीस और पचास साल के बीच भ्रष्ट होते हैं। किसी की स्त्री ले भागेंगे या कुछ भी उपद्रव कर लेंगे। कुछ कहा नहीं जा सकता क्या करें।
कल मैं नई दिल्ली की खबर पढ़ रहा था। सत्तर साल के एक बूढ़े आदमी ने आठ साल की एक बच्ची को व्यभिचारित करने की कोशिश की। आठ साल की बच्ची को सत्तर साल का बूढ़ा भगा कर ले गया। गजब की बात है! बूढ़े को भी खूब सूझी! खूब दूर की सूझी! इसी को तो कहते हैं--अंधे को अंधेरे में दूर की सूझी! इसको चाहो तो तुम अच्छा लक्षण भी मान सकते हो कि अब भारत में सत्तर साल के बूढ़े भी जवान होने लगे। मगर आठ साल की बच्ची को! वह तो लोगों ने पकड़ लिया उसको। लेकिन उस बच्ची के साथ छेड़खानी कर रहा था एकांत में ले जाकर। वह कुछ उपद्रव करता। अब यह पता नहीं बेचारा कितने दिन से दबा रहा था, उस कथा को तो कोई भी नहीं जानेगा। उस कथा को तो कोई भी नहीं पहचानेगा, अदालत भी नहीं सुनेगी। हो सकता है इसने जीवन में न मालूम कितना दबाया हो, तब तो यह दुर्दशा अब उत्पन्न हो रही है।
चरित्र के नाम पर तुम्हें दमन सिखाया जाता है।
मुल्ला नसरुद्दीन जब जवान हुआ और पास-पड़ोस की युवतियों के साथ छेड़खानी करने लगा, तो मोहल्ले के एक बुजुर्ग मौलवी ने उसे एक दिन अपने घर बुला कर प्रेमपूर्वक समझाया: सुनो बेटा, अब तुम बचपन की देहली पार कर चुके हो। यही समय है आदमी के बनने या बिगड़ने का। अतः सावधानी से मेरी बात सुनो और उस पर अमल करो। इस उम्र में अपना चरित्र बनाने के लिए यही सबसे जरूरी बात है कि तुम जिस किसी लड़की से भी मिलो उसे ही अपनी मां समझो।
नसरुद्दीन ने एक क्षण सोचा और जवाब दिया: मौलवी साहब, आपकी बात पर अमल करने से मेरा चरित्र तो निश्चित रूप से सुधर जाएगा। मगर यह तो सोचिए जरा कि मेरे अब्बाजान के चरित्र पर क्या गुजरेगी! और आप भी यदि अपनी पत्नी को मां मानने लगें तो इस कहावत का क्या होगा कि उल्लू मर गए और औलाद छोड़ गए? फिर उल्लू मर जाएंगे, औलाद नहीं छोड़ जाएंगे।
अब इस बूढ़े को पता नहीं किस-किस ने समझाया होगा: चरित्र बनाओ! हर स्त्री को अपनी मां, अपनी बहिन समझो। यह समझता रहा होगा बेचारा। अब देखता है कि मौत द्वार पर खड़ी है, अब कब तक समझता रहे मां-बहिन! और अब इतनी हिम्मत भी न रही होगी कि किसी युवती को छेड़े। युवती को छेड़ेगा तो पिटाई हो जाएगी, युवती ही पीट देगी। तो अब बूढ़ा किसी बच्ची को छेड़ रहा है। ये दुर्दिन किसने दिखलाए? यह तुम्हारे तथाकथित नैतिक, तथाकथित चरित्रवादियों की शिक्षाओं का परिणाम है। जीवन को स्वाभाविक होना चाहिए। जीवन को अस्वाभाविक बनाओगे तो अपने आप मुश्किल में पड़ोगे।
अगर आत्मानंद, तुम यहां तक आने की हिम्मत कर लिए...और यह हिम्मत का काम है यहां आ जाना पुराने ढब के लोगों को। ब्रह्मचारी इत्यादि के लिए बड़ी हिम्मत का काम है। क्योंकि यहां मेनकाएं भी हैं, उर्वशियां भी हैं। अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं है। तुम जीवन में सरल बनो। ब्रह्मचर्य को थोपो मत। और मैं मानता हूं कि ब्रह्मचर्य बहुमूल्य है, मगर आना चाहिए, थोपा हुआ नहीं। खिलना चाहिए, जबर्दस्ती नहीं।
मेरी अपनी समझ यह है कि अगर व्यक्ति जीवन को स्वाभाविक, सरलता से, होशपूर्वक जीए तो ब्रह्मचर्य अपने आप आएगा। जैसे फूलों में अपने आप गंध आती है, कोई ऊपर से लाकर रेवलान की बॉटल थोड़े ही छिड़कनी पड़ती है! अपने से गंध आती है। उसी मिट्टी में गंध छिपी है। जिस मिट्टी में गंध नहीं आती, उसी मिट्टी में से फूल तक गंध आ जाती है। उसी मिट्टी में से फूल गंध चुन लेता है।
तुम्हारी देह में ही राज छिपा है। तुम्हारी देह इस जगत का सबसे बड़ा रहस्य है। उसमें स्वर्ग छिपा है, उसमें निर्वाण छिपा है। उसमें परमात्मा निवास कर रहा है। तो जहां परमात्मा का निवास है, जहां ब्रह्म का निवास है, वहां ब्रह्मचर्य भी आ जाएगा। लेकिन तुम उसकी कीमिया को समझो। ब्रह्मचर्य ध्यान का परिणाम है। लेकिन तुम्हें समझाया गया है सदियों से ठीक उलटा कि ब्रह्मचर्य साधो तो ध्यान सधेगा। यह बात ही गलत है। ब्रह्मचर्य को साधने से ब्रह्मचर्य भी नहीं सधेगा, ध्यान भी नहीं सधेगा। और जब भी तुम ध्यान करने बैठोगे तब-तब तुम्हें वासना सताएगी।
मैं तुमसे कहता हूं: ध्यान साधो, ब्रह्मचर्य की फिकर छोड़ो। कुछ ब्रह्मचर्य से लेना-देना नहीं है। कोई चिंता मत लो उसकी।
लेकिन अजीब-अजीब बातें बताई गई हैं!
किसी मित्र ने पूछा है: ‘काम-विकार से पीड़ित हूं, क्या करूं?’
विकार क्यों कहते हो? अगर तुम्हारे पिताजी भी काम-विकार से पीड़ित न होते तो तुम कहां होते? और बुद्ध के पिता अगर काम-विकार से पीड़ित न होते तो दुनिया बुद्ध से वंचित रह जाती। काम-विकार से बुद्ध पैदा हुए। काम-विकार से महावीर पैदा हुए। विकार से इस तरह के अदभुत चमत्कार पैदा हो सकते हैं? विकार नहीं है, मगर तुमने पहले से ही घोषणा कर दी--काम-विकार! इससे कैसे छुटकारा हो?
विकार नहीं है, काम ऊर्जा है। काम तुम्हारे भीतर की अंतर्निहित संभावना है। काम अभी ऐसे है, जैसे कच्चा हीरा, खदान से निकला। माना कि अभी हीरा है, लेकिन अभी जौहरी ही परख सकेंगे। अभी हर कोई नहीं परख सकेगा। लेकिन अगर पड़ जाएगा जौहरी के हाथ में, निखारेगा इसको, साफ करेगा इसको, पहलू देगा इस पर, चमकाएगा इसे। और तब एक दिन कोई अंधा भी पहचान लेगा।
काम विकार नहीं है, काम तुम्हारे जीवन की ऊर्जा है। इसी काम से तुम्हारे बच्चे पैदा होते हैं और इसी काम से तुम्हारा पुनर्जन्म हो सकता है। यह काम तो शक्ति है; नीचे की तरफ बहे तो संतति बनती है, ऊपर की तरफ उठने लगे तो समाधि बन जाती है। इसको विकार मत कहो।
मगर तुम्हें निंदा सिखाई गई है। और ध्यान रखना, जिस चीज की भी निंदा की, फिर उस चीज को तुम समझने में असमर्थ हो जाओगे। निंदा समझने ही नहीं देगी।
निष्कर्ष मत लो। बिना निष्कर्ष लिए, ध्यानपूर्वक अपने जीवन की सारी ऊर्जाओं को समझने की चेष्टा में डूबो। अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं है। यह मूर्खतापूर्ण बात, यह अखंड ब्रह्मचर्य जाने दो, विदा करो। सरल स्वाभाविक बनो। तो अभी देर नहीं हो गई है, पैंतीस साल कुछ बहुत देर नहीं हो गई है। अभी कम से कम पैंतीस साल तुम जिंदा रहोगे। और पैंतीस साल भी क्या, पांच साल भी जिंदा रह जाओ, पांच दिन भी जिंदा रह जाओ अगर ठीक ढंग से, तो निर्वाण पाया जा सकता है। लेकिन ठीक ढंग का सवाल है। और इस ढंग से अगर रहे तो तुम मुश्किल में पड़ोगे। मरते वक्त भी तुम स्त्रियों के खयाल से ही भरे रहोगे। मरते क्षण भी स्त्रियों की ही सोचोगे।
मरते वक्त भी आदमी वही सोचता है जो उसने जीवन भर सोचा है। मरते वक्त और जोर से वही सोचता है।
आत्मानंद ब्रह्मचारी, ध्यान पर शक्ति को लगाओ। और सब तरफ से अपनी बातों को, अपने विचारों को मुक्त कर लो। जीवन को स्वाभाविक बनाओ। जैसे भोजन है, वैसा ही काम है। कोई चिंता की बात नहीं है। नैसर्गिक है। निंदा करके अपने बीच और अपनी ऊर्जा के बीच व्यवधान खड़े न करो। दमन बहुत खतरनाक है।
मैंने सुना, एक होटल में एक आदमी मेहमान हुआ। मैनेजर जगह देने को राजी नहीं था। मैनेजर ने कहा कि हमारे पास स्थान खाली नहीं है। एक कमरा जरूर खाली है, लेकिन हम दे नहीं सकते। पूछा उस यात्री ने: क्यों? तो कहा कि उस कमरे के नीचे एक बड़े राजनेता ठहरे हुए है, वे बड़े गुस्सेबाज हैं। जब से पद पर पहुंचे हैं, उनका सिर बहक गया है। किसका नहीं बहक जाता! अगर ऊपर जरा भी आवाज हो जाती है तो वे इतना उपद्रव मचा देते हैं। तुम अगर ऊपर रहे, कोई बर्तन गिर गया, या कुछ बात हो गई, या तुम जोर से चल भी दिए ऊपर और उनके पास आवाज पहुंच गई, तो वे सारे होटल को सिर पर उठा लेंगे।
उस आदमी ने कहा: आप बिलकुल निश्चिंत रहें। मुझे दिन भर बाजार में काम करना है, रात बारह बजे लौटूंगा। और चार घंटे सिर्फ मुझे सोना है। और चार बजे की गाड़ी मुझे पकड़नी है। इसलिए क्या मुझसे भूल-चूक होने वाली है? और मैं ध्यान रखूंगा, चार घंटे जो सोऊंगा कि नींद में कुछ गड़बड़ न हो। ऐसे भी नींद में क्या गड़बड़ हो सकती है?
मैनेजर ने भी देखा कि कोई गड़बड़ की बात नहीं है, जगह दे दी। रात को वह आदमी बारह बजे थका-मांदा लौटा। इतना थका था कि बिस्तर पर बैठ कर उसने एक जूता खोला और पटक दिया। जूते का गिरना था कि उसको खयाल आया कि कहीं वे राजनेता उपद्रव खड़ा न कर दें, कहीं नींद न खुल जाए उनकी! तो उसने दूसरा जूता बहुत आहिस्ते से रखा कि आवाज न हो। अब एक भूल हो गई, हो गई, दूसरी न हो। सो गया। दो घंटे बाद कोई ने जोर से दरवाजा भड़भड़ाया। चौंका, दरवाजा खोला, राजनेता खड़े थे। एकदम भन्ना रहे थे, कि तुमने समझ क्या रखा है? दूसरे जूते का क्या हुआ?
उस आदमी ने कहा: दूसरे जूते का क्या हुआ! तब उसे याद आया। उसने कहा: अच्छा! पहला जूता मैंने भूल से पटक दिया था?
उन्होंने कहा: पहले का तो मुझको पता है, क्योंकि तुमने जब पटका तो उसकी आवाज हुई थी। उससे मुझे दिक्कत नहीं हुई। फिर मैं सोचने लगा कि दूसरा क्यों नहीं पटका! यह आदमी है कैसा, क्या एक जूता पहने ही सो गया! मैंने लाख अपने को समझाया कि मुझे क्या मतलब, उसकी मर्जी, अगर एक पहने उसको सोना है तो सोए। मगर मेरी नींद नहीं लग रही। मैं बेचैनी में पड़ा हुआ हूं। मुझे यह बात ही बहुत परेशान कर रही है कि एक आदमी एक जूता पहने सो रहा है। आखिर जब मैंने देखा कि सोने का कोई उपाय नहीं है तो मैंने कहा मैं जाकर पूछ ही लूं। तो महाशय, यह जानने आया हूं कि दूसरे जूते का क्या हुआ?
अब दूसरा जूता इस आदमी के सिर पर लटक रहा है। व्यर्थ की बात दबा दी तो दो घंटे सो नहीं सका, रात भर नहीं सो सकता था। और तुम तो जो दबा रहे हो, वह बड़ा नैसर्गिक मामला है। इससे छुटकारा नहीं हो सकेगा। मरते दम तक तुम स्त्रियों से ही भरे रहोगे। मरते घड़ी भी तुम्हें स्त्रियां ही दिखाई पड़ेंगी। और तब तुम यही सोचोगे कि इंद्र परेशान हो रहा है और इंद्र मेनका को, उर्वशी को भेज रहा है। न कहीं कोई इंद्र है, न कहीं कोई उर्वशी है, न कोई मेनका है। ये सब दमित वासना के खेल हैं। अभी भी समय है, जाग जाओ, सचेत हो जाओ।
और तुम ठीक जगह आ गए हो, जहां इस तरह की व्यर्थ की बकवास से छुटकारा हो सकता है। मैं तुम्हारा दूसरे जूते से छुटकारा दिलवा सकता हूं। दूसरे से क्या, पहले से भी दिलवा देंगे। लेकिन तुम्हें यह भ्रांति और यह अकड़ छोड़नी होगी। यह अखंड ब्रह्मचर्य, यह बाल-ब्रह्मचर्य--यह सब व्यर्थ की बकवास है। स्वाभाविक मनुष्य होने की कोशिश करो। साधारण होने की अपने भीतर स्वीकृति दो।
इस जगत में सबसे असाधारण लोग वे ही हैं, जो अपने को साधारण मानते हैं। जिन्होंने अपने को बिलकुल साधारण माना और जाना है, उनके भीतर भगवत्ता प्रकट होती है।
ब्रह्मचर्य के संबंध में यह जो सारी बकवास चलती है, यह लोगों को जंचती है। यह किनको जंचती है, मालूम है? या तो नासमझ बच्चों को जम जाती है यह बात, क्योंकि उनकी अभी कोई समझ नहीं, अभी उन्हें कोई अनुभव नहीं। और या फिर विवाहित लोगों को जमती है यह बात, क्योंकि विवाहित लोगों को विवाह का जो कड़वा अनुभव होता है, उससे उनको ब्रह्मचर्य ठीक मालूम होने लगता है कि ठीक ही होगा, क्योंकि वे जो कष्ट भोग रहे हैं...। मगर इस दुनिया में राज कुछ ऐसा है कि विवाहित सोचते हैं अविवाहित मजे में हैं और अविवाहित सोचते हैं कि विवाहित मजे में हैं। हर आदमी सोचता है, दूसरा आदमी मजे में है। पड़ोसी के बगीचे की घास ज्यादा हरी मालूम होती है। पड़ोसी की पत्नी भी ज्यादा सुंदर मालूम होती है। क्योंकि बाहर जब लोग निकलते हैं तो मुखौटे ओढ़ लेते हैं, सुंदर-सुंदर चेहरे बना लेते हैं।
एक बार चंदूलाल और उनकी पत्नी के बीच लेखन को लेकर बड़ा झगड़ा चल पड़ा। चंदूलाल ने अपनी पत्नी को कहा कि कई बार तुम्हें पहले भी बोला है कि पति में हमेशा बड़ी ई की मात्रा लगाया करो। पति को शास्त्रों में परमात्मा कहा है। छोटी इ की मात्रा पति में नहीं जंचती। और पत्नी में छोटी इ की मात्रा लगाया करो। लेकिन तुम हो कि जब देखो तब पत्नी में बड़ी ई की मात्रा और पति में छोटी इ की मात्रा लगाती हो। यह बरदाश्त के बाहर हो गई है बात। यह मेरा अपमान सरासर किया जा रहा है। हर जगह मेरा अपमान किया जा रहा है।
चंदूलाल तो इतने भन्नाए कि बोले: यह बात आज तय ही हो जाना चाहिए, नहीं तो तलाक।
हर बात की एक सीमा होती है, और जैसे यह आखिरी तिनका ऊंट पर और ऊंट की कमर टूट जाए। चंदूलाल ने कहा: समझ में नहीं आता कि तुम्हारे कान पर जूं तक नहीं रेंगती। इस पर पत्नी बड़बड़ाती हुई बोली: चुप रहो जी, पहले डिक्शनरी तो देख लो, उसमें भी पति की मात्रा छोटी इ और पत्नी की बड़ी ई दी हुई है।
इस पर झल्ला कर चंदूलाल ने कहा: मैं डिक्शनरी-विक्शनरी कुछ नहीं मानता। डिक्शनरी बनाई होगी किसी जोरू के गुलाम ने। तुम्हें यहां रहना है तो पति को बड़ा और पत्नी को छोटा ही लिखना पड़ेगा।
पति-पत्नियों के झगड़े देखोगे...मगर वे भीतरी बातें हैं, वे पति-पत्नी ही जानते हैं। बाहर तो जब वे निकलते हैं तो यूं मुस्कुराते निकलते हैं कि एकदम आनंद ही आनंद है, एकदम स्वर्ग से चले आ रहे हैं! घर में मेहमान आ जाता है तो पति-पत्नी एकदम झगड़ा बंद कर देते हैं, सुंदर-सुंदर बातें करने लगते हैं, मेहमान के जाते ही फिर कथा शुरू होती है; फिर सुंदर बातें खत्म, फिर असली रंग पर उतर आते हैं।
तो या तो पति-पत्नियों को जंचती है ब्रह्मचर्य की बात बहुत, कि राज तो ऋषियों ने ठीक बता दिया है। काश पहले ही समझ गए होते तो क्यों इस झंझट में पड़ते! मगर अब तो पड़ चुके। और या फिर छोटे बच्चों की खोपड़ी में भर दी जाती है। छोटे बच्चे तो असहाय हैं, कुछ भी उनकी खोपड़ी में भर दो।
अभी तो उनका मस्तिष्क कोरी किताब है, जो भी चाहे लिख दो; वे बेचारे वही घोंट लेंगे, उसी को दोहराते रहेंगे।
लेकिन अब तुम पैंतीस साल के हो गए, अब तो थोड़ी अक्ल की बात करो! थोड़ा सोचो-समझो, थोड़ा विचारो। अगर यह विकार होता तो परमात्मा देता ही क्यों? यह ऊर्जा है। यह तुम्हारी महाशक्ति है। हां, यह सच है कि जैसी यह ऊर्जा है अभी, ऐसी ही छोड़ देने की नहीं है। इसको बड़ी ऊंचाइयों पर ले जाया जा सकता है। इसको इतना विशुद्ध किया जा सकता है कि इसमें से ही तुम्हारा सहस्र-दल-कमल खिले। यह कीचड़ है अभी, मगर इसी कीचड़ में कमल खिल सकता है। मगर कमल यूं ही नहीं खिलेगा; ध्यान के बीज बोओगे तो खिलेगा। नहीं तो तुम कीचड़ में ही पड़े रहोगे, कीचड़ से ही लड़ते रहोगे, कीचड़ से ही जूझते रहोगे। देते रहना इंद्र को गालियां, इंद्र को गालियां देने से कुछ भी नहीं होगा। समय रहते जाग जाना अच्छा है। अभी भी समय है।

आखिरी प्रश्न:
भगवान, कौन है वह? जो तुम्हारी मधुर वीणा सुन मदिर-सा डोलता है, जो तुम्हारे प्रेम-रस की झील में तिरता, तुम्हारे शून्य के आकाश में पर खोलता है, जो तुम्हारे रूप का काजल नयन में आंजता है आचमन करता तुम्हारे मधुर अमृत का तुम्हारे संग भांवर डाल कर नित नाचता है-- कौन है वह? तुम्हारा मौन स्मित-सौंदर्य-- शरद चांदनी में जिस तरह कोई कली चटके, तुम्हारे बोल का जादू-- कि जैसे बांसुरी की मदभरी धुन पर समर्पित राधिका के प्राण हों अटके, जो तुम्हारी दृष्टि के संस्पर्श भर से गंध बन कर खो गया है जो तुम्हारे इस बसंती रंग में मिल कर रंगीला हो गया है-- कौन है वह?
योग प्रीतम! वही है, बस केवल वही है। ‘तत्वमसि’ उसे ही उपनिषद कहते हैं। वह तू ही है। उसे ही मंसूर अलहिल्लाज कहता है: ‘अनलहक! वह मैं ही हूं!’ उसे ही जिन्होंने देखा, जाना, कहते हैं: ‘अहं ब्रह्मास्मि! वह परमात्मा मैं ही हूं!’ चाहे कहो मैं ही हूं, चाहे कहो तू ही है--बात एक ही है। मैं में भी वही है, तू में भी वही है। हर पत्ते में वही है, हर फूल में वही है।
मेरे पास बैठते हो तुम योग प्रीतम। मेरी बात तुम सुनते हो। यह बात मेरी नहीं है, उसकी ही है। और जो तुम्हारे भीतर सुनता है, वह भी तुम नहीं हो--वही है! यह बांसुरी भी उसकी है, ये बोल भी उसके हैं, यह सुनने वाला भी वही है। जिस घड़ी ऐसा मेरे और तुम्हारे बीच तादात्म्य हो जाता है, एकता बंध जाती है, एकरसता हो जाती है, जिस क्षण तुम्हारे और मेरे बीच प्रेम का यह सेतु बन जाता है, उस क्षण ही सत्संग फलित होता है।
सत्संग फलित हो सके, इसीलिए संन्यास है। संन्यास तो केवल उपाय है सत्संग को फलित करने का। इसलिए मेरे पास जो केवल तमाशबीन की तरह आते हैं, वे खाली हाथ आते हैं और खाली हाथ चले जाते हैं। मेरे पास जो सत्संगी की तरह आते हैं, वे एक अर्थों में बिलकुल शून्य हो जाते हैं--अहंकार से शून्य; और एक अर्थों में पूर्ण हो जाते हैं--परमात्मा से भर जाते हैं लबालब, ऐसे कि परमात्मा उनके ऊपर से बहने लगे!
अगर तुमने मुझे एकात्म होकर सुना, तो जरा भी भेद न पाओगे। तुम्हें यूं लगेगा कि मैं नहीं बोल रहा, तुम्हीं बोल रहे हो। तुम्हें यूं लगेगा तुम नहीं सुन रहे, मैं सुन रहा हूं। सुनने वाला और बोलने वाला, ये भेद बहुत जल्दी मिट जाते हैं। और जहां ये भेद मिटते हैं वहीं आनंद है, वहीं रसधार बहती है। रसो वै सः! वही परमात्मा का स्वरूप है। रस परमात्मा का स्वरूप है।
यह तो मधुशाला है, योग प्रीतम। पीओ, पिलाओ। शराब बांटी जा रही है; पियक्कड़ों के लिए है, रिंदों के लिए है। लेकिन हृदय का पैमाना चाहिए। मैं तो भरने को राजी हूं, अगर तुम खाली हो तो। तुम अगर पहले से ही भरे हो तो मुश्किल हो जाती है।
धन्यभागी हैं वे जो खाली हैं। और तुम उन धन्यभागियों में से एक हो। तुम्हारा सौभाग्य है!

आज इतना ही।

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