QUESTION & ANSWER

Sumiran Mera Hari Kare 02

Second Discourse from the series of 11 discourses - Sumiran Mera Hari Kare by Osho. These discourses were given during MAY 21-31 1980, Pune.
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पहला प्रश्न:
भगवान, आप कहते हैं, शास्त्रों से प्राप्त ज्ञान उधार एवं बासा है और जीवन के लिए इसका कोई प्रयोजन नहीं है। लेकिन मुझे तो आपका साहित्य ही पढ़ कर संन्यास लेने की प्रेरणा प्राप्त हुई।
प्रेम मूर्ति! शास्त्र-ज्ञान बासा है, उधार है--इसका अर्थ तुम समझे नहीं। शास्त्र-ज्ञान का जीवन के लिए कोई प्रयोजन नहीं है--यह तीर भी निशाने से थोड़ा चूक कर लगा। मगर हम नींद में हैं और नींद में अक्सर ऐसा ही होना स्वाभाविक है।
जब मैं कहता हूं: शास्त्र-ज्ञान बासा है, तो उसका अर्थ है, शास्त्र के ज्ञान को अपना ज्ञान मत समझ लेना; वह तुम्हारा नहीं है। बुद्ध का होगा, महावीर का होगा, कृष्ण का होगा, क्राइस्ट का होगा, मेरा होगा, किसी का भी होगा, मगर तुम्हारा नहीं है। और अहंकार की यह बड़ी सहज प्रक्रिया है कि जो अपना नहीं है, उसे अपना मान लेता है।
तुम इस संसार में कुछ भी लेकर नहीं आते, मगर कितनी चीजों को अपना मान लेते हो! हीरे-जवाहरात, तुम नहीं थे, तब भी यहां पड़े थे; तुम चले जाओगे, फिर भी पड़े रहेंगे। फिर भी तुम उन्हें अपना मान लेते हो। अपना ही नहीं, झगड़ने को, मरने-मारने को तैयार हो जाते हो। जीवन गंवाने को राजी हो जाते हो पत्थरों के लिए! जो अहंकार इतना मूढ़ है कि उस सबको अपना मान लेता हो, जिसमें कुछ भी अपना नहीं है...और ध्यान रहे, हीरे-जवाहरात तुम्हें नहीं पकड़ते; तुम्हीं उन्हें पकड़ते हो। तुम्हारे मर जाने पर हीरे-जवाहरातों की आंखों से कुछ आंसू न झरेंगे। हीरे-जवाहरात खो जाएंगे तो तुम रोओगे। कौन किसका मालिक था? तुम रोते हुए आदमी, तुम मालिक थे?
सूफी फकीर जुन्नैद एक गांव से गुजर रहा था। उसका यह ढंग था...सूफियों के अपने ढंग होते हैं। उसके शिष्य उसके साथ थे। एक आदमी एक गाय को बांध कर कहीं ले जाता था। जुन्नैद ने कहा: भाई रुक, एक क्षण रुक। मेरे शिष्यों को कुछ समझ लेने दे। शिष्यों से कहा: घेर कर खड़े हो जाओ। एक प्रश्न पूछता हूं, जवाब दो।
सूफी जीवंत प्रश्न पूछना पसंद करते हैं और जीवंत जवाब चाहते हैं। यह आदमी तुम देखते हो, इसके हाथ में रस्सी है, गाय के गले में बंधी है। सब शिष्यों ने कहा कि देखते हैं, इसमें कुछ ऐसी क्या खूबी की बात है? इसमें क्या सीखने की बात है?
जुन्नैद ने कहा: मैं यह पूछता हूं, मालिक कौन है? गाय मालिक है या यह आदमी मालिक है? वह आदमी भी थोड़ा उत्सुक हो गया कि यह भी खूब बात रही। वह भी सुनने लगा गौर से कि क्या जवाब होता है। सारे शिष्यों ने कहा कि जाहिर है कि मालिक यह आदमी है, रस्सी इसके हाथ में है।
जुन्नैद ने अपने झोले में से कैंची निकाली और रस्सी काट दी। गाय भाग खड़ी हुई। वह आदमी गाय के पीछे भागा। जुन्नैद ने अपने शिष्यों से पूछा: अब क्या कहते हो? कौन किसके पीछे भाग रहा है? गाय आदमी के पीछे भाग रही है कि आदमी गाय के पीछे भाग रहा है? रस्सी ने तुम्हें धोखा दे दिया था, इसलिए मैंने रस्सी काट दी।
वह आदमी भी चिल्लाया: खूब आप भी फकीर हैं! अरे, मैं समझा कि प्रश्न-उत्तर चल रहा है। अब यह गाय भाग खड़ी हुई है, इसको कौन पकड़ेगा?
फकीर ने कहा: इतना काम तू कर ले। तेरी ही गाय है?
उसने कहा: मेरी नहीं तो किसकी है?
‘तेरी है तो आ जाएगी। तू अपने घर जा।’
उसने कहा: तुम पागल हो और तुम्हारे शिष्य पागल हैं। वह भागा अपनी गाय के पीछे कि गाय कहीं दूर न निकल जाए। कहां के फकीरों की बकवास में पड़ गया! मगर जुन्नैद जो कह रहा है, ठीक कह रहा है। वह यह कह रहा है कि रस्सी तो आदमी के हाथ में है, मगर गला आदमी का बंधा है, गाय का नहीं बंधा है। गाय तो एकदम मुक्त हो गई और भागी। गाय तो भागना ही चाहती थी। गाय को कोई रस नहीं है इस आदमी में।
धन को, पद को, प्रतिष्ठा को, सबको तुम पकड़ते हो। ऐसे ही तुम ज्ञान को पकड़ते हो। और धन के तो दावेदार भी होते हैं, लेकिन ज्ञान में तो कोई अड़चन ही नहीं। गीता को कोई भी चाहे पढ़े, कुरान को कोई भी पढ़े। जिसकी मर्जी वह आयतें कंठस्थ कर ले। कोई प्रतिस्पर्धा भी नहीं है। और जितनी आयतें तुम्हें कंठस्थ हो गईं, उतनी तुम्हारी हो गईं! काश, बात इतनी आसान होती! गीता कंठस्थ हो गई तो गीता तुम्हारी हो गई! तब तो तुम कृष्ण हो जाते! फिर कृष्ण में और तुममें भेद ही क्या रहा? इतनी ही तो कृष्ण की खूबी थी कि गीता बोले; अब तो तुम भी बोलने लगे। बस अर्जुन की कमी है, सो कहीं भी मिल जाएगा। जगह-जगह अर्जुन तैयार हैं, जिज्ञासु मौजूद हैं। और न कहीं कोई मिले तो घर में ही पत्नी है, बच्चे हैं, किसी की भी गर्दन पकड़ लेना। और किसी के भी कंठ में पिला देना गीता।
लेकिन गीता कंठस्थ हो जाए, इससे तुम कृष्ण नहीं होते। मेरा यही अर्थ है जब मैं कहता हूं कि शास्त्र-ज्ञान बासा है। बासे का अर्थ, यह किसी और का है। अब कृष्ण ने पांच हजार साल पहले कहा, बासा कैसे नहीं होगा? ताजा कैसे हो सकता है? मैं अभी कह रहा हूं, मगर तुम तक पहुंचते-पहुंचते बासा हो जाएगा। समय बीत गया, कुछ क्षण बासा तो हो ही जाएगा। तत्क्षण तो तुम नहीं सुन सकते हो। मेरे कहने और तुम्हारे सुनने में समय का अंतराल होगा, व्यवधान होगा। उतना तो अतीत हो गया। उतनी देर तो बीत गई। उतना तो बासा हो गया। मेरा बोला हुआ भी, जो तुम अभी सुन रहे हो, सुनते-सुनते बासा हो जाता है; तुम तक पहुंचते-पहुंचते बासा हो जाता है। उधार तो होगा ही। तुम ठीक मेरे जैसी बातें कहने लगोगे। मगर मेरे भीतर वे बातें किसी अनुभव से जनम रही हैं और तुम्हारे भीतर उनकी बातों के लिए कोई स्रोत नहीं होगा।
तुमने हौज देखी और कुआं देखा? कुएं और हौज में जो फर्क है, वही बासे ज्ञान में और अपने ज्ञान में फर्क होता है। हौज में भी पानी भरा होता है, ठीक वैसा ही जैसा कुएं में, लेकिन हौज में झरने नहीं होते। हौज में किसी कुएं का ही पानी भरा होता है, बासा होता है। हौज में से पानी उलीचोगे तो कम हो जाएगा। फिर हौज अपने आप उसे भर नहीं सकती। लेकिन कुएं में से पानी उलीचे चले जाओ, और नये झरने उस पानी को भरते चले जाते हैं। हौज का कोई संबंध नहीं है सागरों से, वह अपने में बंद है--क्षुद्र उसकी दीवालों में आबद्ध। कुआं दिखता छोटा है। कुआं तो सिर्फ मुंह है सागर का। दूर-दूर सागर तक उसके झरने फैले हैं--पृथ्वी के अंतरगर्भ में।
और एक मजे की बात समझना। हौज का पानी उलीचोगे, कम हो जाएगा, चुक जाएगा। कुएं का पानी नहीं उलीचोगे तो सड़ जाएगा। उलीचोगे तो ताजा रहेगा, तो बढ़ता रहेगा, तो नये झरने फूटते रहेंगे, नई जलधार आती रहेगी।
बुद्ध, कृष्ण, महावीर कुएं हैं, पंडित हौज। मैं चाहता हूं तुम पंडित न बन जाओ। प्रेम मूर्ति, इसलिए कहता हूं: शास्त्र-ज्ञान बासा है, उधार है। अब पांच हजार साल से जो हौज भरी है, बासा ही नहीं, बिलकुल सड़ गया होगा, कीड़े पड़ गए होंगे उसमें। जहर हो गया होगा। पीना मत। भूल-चूक से भी पी मत लेना। उससे प्यासे रहना बेहतर है।
इसलिए कहता हूं कि जीवन के लिए कोई प्रयोजन नहीं, क्योंकि तुम इतने बेईमान हो कि तुम्हें जरा भी कोई आसरा मिल जाए, सहारा मिल जाए, बहाना मिल जाए, तुम उसी बहाने को लेकर और गटक जाओगे। तुमको जरा सा भी मैं मौका दे दूं, तो तुमको मौका मैं नहीं देना चाहता। इसका यह अर्थ नहीं है कि मैंने कहा गीता मत पढ़ना। और यह भी अर्थ नहीं है कि मैंने कहा कि गीता मत समझना। पढ़ो भी, समझो भी, मगर एक बात कभी मत भूलना कि जो ज्ञान अपना नहीं है, वह काम नहीं आएगा। उस ज्ञान का कोई भी तुम्हारे जीवन में क्रांति लाने में उपयोग नहीं हो सकता है।
हां, अगर किसी सदगुरु की वाणी तुम सुनोगे तो वाणी से इतना फायदा हो सकता है--वाणी से, स्मरण रखना; वह भी शास्त्र से नहीं। अगर सदगुरु जीवित हो तो इतना फायदा हो सकता है कि उसकी वाणी तुम्हें सदगुरु के पास ले आए; उसकी वाणी तुम्हें खींच लाए, प्यास जगा दे, तुम्हारे भीतर एक अभीप्सा पैदा कर दे।
तुम कहते हो: ‘आपका साहित्य पढ़ कर ही तो संन्यास लेने की प्रेरणा प्राप्त हुई।’
मैं जिंदा था तो तुमने संन्यास ले लिया। मैं जिंदा नहीं होता तो मेरे साहित्य को तुम सिर पर ढोते रहते या और शास्त्र ढोने वाले, जो तुमसे भी ज्यादा ढेर अपने सिर पर लगाए होते पहाड़ का, उनसे तुम संन्यास ले लेते। वे भी उधार, तुम भी उधार।
जीवित गुरु बोलता है सिर्फ इसीलिए कि बोलना तो सिर्फ निमंत्रण है। यह तो प्रेम-पाती है। कृष्ण की गीता पढ़ कर क्या करोगे तुम? कृष्ण को कहां खोजोगे? मंदिरों में कृष्ण की मूर्तियां हैं पत्थर की। कृष्ण की गीता में बहुत रस भी आ गया, तो उन मूर्तियों के सामने जाकर हाथ जोड़ कर बैठ जाओगे। वे मूर्तियां हंस सकती होतीं तो तुम्हारी मूढ़ता पर हंसतीं। मगर वे हंस भी नहीं सकतीं। वे सिर्फ पत्थर की हैं। उनमें कोई जीवन नहीं है। कृष्ण तो कब के विदा हो चुके। अर्जुन को लाभ हो सका होगा। सामना, सदगुरु से सामना सत्संग है। आमना-सामना होना चाहिए।
और यह खतरा है पुराने ज्ञान का कि पुराना ज्ञान तुम्हें नये सदगुरुओं के पास जाने से रोकता है। नये गुरु की बात तुम्हें जंचते-जंचते ही इतनी देर हो जाती है कि तब तक गुरु जा चुका होता है जब तक तुम्हें बात जंचती है। जब तक तुम्हें बात जंचती है तब तक उस बात का जो मालिक था, वह मौजूद नहीं रहा। फिर पंडितों के हाथ में तुम पड़ जाओगे।
मैंने सुना है, शैतान के पास उसका एक शिष्य भागा हुआ पहुंचा और उसने कहा: कुछ जल्दी करें, एक आदमी को सत्य मिल गया है। और खतरा है, हमारे पूरे धंधे को खतरा है। अगर उसने सत्य पा लिया है और रास्ता बता दिया, और भी लोग सत्य पा लेंगे, तो हमारा क्या होगा?
शैतान ने कहा: तू फिकर मत कर। तू अभी नया-नया है, सिक्खड़ है। कोई चिंता मत कर। पा लेने दे उसको सत्य। हमने अपने आदमी छोड़ रखे हैं।
शैतान के शिष्य ने कहा: मैं तो वहां गया, वहां कोई अपने आदमी नहीं दिखाई पड़े।
तो शैतान ने कहा: तू अभी नहीं पहचानेगा। तू अभी बिलकुल नया है। वे जो पंडित वहां बैठे थे तिलक इत्यादि लगाए हुए, वे अपने आदमी हैं। जब तक उसकी बात लोगों तक पहुंचेगी, पहले तो वे पंडित उसकी बातों को पहुंचने ही नहीं देंगे, अगर पहुंचने भी दिया तो तोड़-मरोड़ कर देंगे, उसमें अपना कूड़ा-कर्कट मिला देंगे।
मैं अमृतसर जाता था, तो एक गुरुग्रंथ साहिब को जानने वाले एक ज्ञानी जी को मेरे मित्र ले आते थे। वे कहते थे: ज्ञानी जी आपके बड़े भक्त हैं! आपकी बड़ी सेवा में लगे रहते हैं।
क्या सेवा करते हैं?
कहा: इनकी सेवा यह है कि आप जो भी बोलते हैं, ये गुरुग्रंथ साहिब में से निकाल कर बता देते हैं कि गुरुग्रंथ साहिब में यह है। और सिक्खों में इनकी बड़ी प्रतिष्ठा है, सो सिक्ख भी आपको मानने लगे हैं।
मैंने कहा: सिक्ख मुझे नहीं मान रहे हैं। वे तो गुरुग्रंथ साहिब को ही मान रहे हैं। और यह आदमी जोड़-तोड़ कर रहा है। यह मेरे साथ भी धोखा कर रहा है और गुरुग्रंथ साहिब के साथ भी धोखा कर रहा है। चूंकि गुरुग्रंथ साहिब में और मुझमें पांच सौ साल का फासला है। बात एक हो कैसे सकती है? गुरुग्रंथ साहिब का अपना कहने का ढंग था। वह जमाना गया। वह बात गई। वह हवा न रही। वह मौसम न रहा। लोग बदल गए। परिस्थितियां बदल गईं। जरूरतें बदल गईं। यह आदमी सिक्खों को भरमा रहा है और यह तुमको भी भरमा रहा है। तुम मुझे प्रेम करते हो। यह दोहरे काम कर रहा है। तुम मुझे प्रेम करते हो, तुम सोचते हो कि यह भला आदमी है क्योंकि मेरी बातें सिक्खों को समझा रहा है। और सिक्ख समझते हैं कि यह भला आदमी है, क्योंकि गुरुग्रंथ साहिब की बातें मेरे भक्तों को समझा रहा है। और यह आदमी सिर्फ पंडित है। यह शैतान का शिष्य है। इसको न मुझसे मतलब, न गुरुग्रंथ साहिब से मतलब है। इसको दोनों तरफ से जो आदर मिल रहा है, सम्मान मिल रहा है, जो अहंकार की तृप्ति हो रही है...यह वही काम कर रहा है।
वे ज्ञानी जी तो एकदम नाराज हो गए, एकदम उठ कर खड़े हो गए। मैंने कहा: इस बात को समझाओ अब गुरुग्रंथ साहिब में, कहीं है जो मैंने कही है?
फिर उनका पता नहीं चला। फिर मैं जब भी जाता, पूछता: ज्ञानी जी कहां हैं?
उन्होंने कहा: वे तब से आपके दुश्मन हो गए। अब वे यह सिद्ध करते हैं कि आप जो भी कहते हैं वह गुरुग्रंथ साहिब के खिलाफ है।
मैंने कहा: देखा! यही आदमी सिद्ध करता था कि मैं जो कहता हूं, वह गुरुग्रंथ साहिब के पक्ष में है। अब यही आदमी सिद्ध कर रहा है कि जो मैं कहता हूं, वह गुरुग्रंथ साहिब के विपक्ष में है। इसी आदमी ने दोनों काम कर लिए हैं।
पंडित तो वेश्याओं जैसे होते हैं। उनका कोई भाव नहीं होता, भक्ति नहीं होती। उन्हें तो जहां चार पैसे मिल जाएं, वे उसी की सेवा में नियुक्त हो जाते हैं। जहां उनके अहंकार को आदर मिल जाए, उसी की सेवा में नियुक्त हो जाते हैं। चूंकि मैंने इनकी पीठ नहीं थपथपाई, अगर मैं भी कह देता कि वाह-वाह, बहुत बड़ा काम कर रहे हैं, तो अभी उन्होंने काम जारी रखा होता। तुम भी उनको भोज देते थे। तुम भी उनको दुशाला ओढ़ाते थे और सिक्ख भी उनको दुशाला ओढ़ाते थे। अब तुमने उनका सम्मान बंद कर दिया। अब वे सिक्खों को भड़काने में लगे हैं। अब वे उपद्रव करवाने में लगे हैं।
वे मेरी सभाओं में उपद्रव करवाने लगे। वे सिक्खों को ले आते थे--शोरगुल मचाने को, पत्थर फिंकवाने को। मेरी एक सभा चल रही थी, उसके पास में ही एक छोटा सा गुरुद्वारा था, उसमें उन्होंने जपुजी का अखंड पाठ शुरू करवा दिया--माइक लगा कर, ताकि मैं बोल न सकूं। एक दस-पंद्र्रह सिक्ख जपुजी का पाठ करने लगे। अब दस-पंद्रह सिक्ख पास में ही माइक लगा कर चिल्ला रहे हों...एक तो सिक्ख और फिर माइक! तो जो मुझे सुनने आए थे, कोई दस हजार लोग इकट्ठे थे, मैंने कहा: तुम ऐसा करो, अब यह अच्छा मौका छोड़ो मत। तुम सब आंख बंद करके ध्यानपूर्वक जपुजी को सुनो। साक्षीभाव से। अब इसका ध्यान के लिए उपयोग कर लेना चाहिए। बेचारे इतनी मेहनत कर रहे हैं! और ज्ञानी जी ने इतना इंतजाम किया है तो हम इसका लाभ ले लें।
सो दस हजार लोग बिलकुल चुप होकर बैठ गए। थोड़ी देर तो जपुजी का पाठ चला, शोरगुल रहा, फिर धीरे-धीरे वह ठंडा पड़ने लगा जोश कि मामला क्या है। एकाध आदमी उनमें से आकर देख गया कि वे तो दस हजार आदमी बैठे चुपचाप आंख बंद किए सुन रहे हैं। तो उनको लगा, हम तो बुद्धू बन रहे हैं! वे तो जपुजी वगैरह बंद करके, माइक-वाइक बंद करके भाग गए। कोई पंद्र्रह मिनट...तो मैंने कहा कि अब अपन अपना काम शुरू करें। अच्छा ही हुआ, शुभ आरंभ हो गया।...
(इसी बीच एक व्यक्ति खड़ा होकर गुस्से में बोला: भगवान रजनीश, आप हमारे धर्म के खिलाफ काम कर रहे हैं, हम नहीं सहन करेंगे। ऐसा कहते हुए ओशो की ओर छुरा फेंका। सौभाग्य से छुरा किसी को न लगा। सभा में एक घना सन्नाटा छा गया। दो-तीन संन्यासी उस व्यक्ति को प्रेमपूर्वक सम्हाल कर बुद्ध-कक्ष से बाहर ले गए। ओशो की अमृत-वाणी झरती रही: बैठ जाएं...अपनी जगह बैठ जाएं...अपनी-अपनी जगह बैठ जाएं। फिकर न करें।...उन्हीं शैतान के शिष्यों में से कोई आ गया होगा। कोई चिंता न लें।)
...बासा ज्ञान बासा ही होगा। बासे ज्ञान के परिणाम दुर्गंध ही हो सकते हैं। ऐसी ही दुर्गंध पैदा होगी बासे ज्ञान से, कुछ और होने का उपाय नहीं है।
मैं चाहता हूं तुम्हारे भीतर ज्ञान की ऊर्जा जगे। तुम्हारे भीतर अपना स्वयं का साक्षात पैदा हो। इतना लाभ जरूर हो सकता है साहित्य से। मगर उस साहित्य से लाभ हो सकता है, जो सदगुरु जीवित हो। सदगुरु जीवित हो तो उसकी वाणी तुम्हें ले जा सकती है खींच कर। उसकी वाणी किरणों की तरह, सुगंध की तरह तुम्हें घेर लेगी।
वही, प्रेम मूर्ति, तुम्हें यहां ले आई, तुम संन्यस्त बने। लेकिन इससे तुम यह मत समझना कि इससे सिद्ध हुआ कि शास्त्र-ज्ञान की कोई उपादेयता है।
यह शास्त्र-ज्ञान की तुम उपादेयता देखते हो! अब इस बेचारे को कुछ भी पता नहीं कि यह क्या कर रहा है। यह मूर्च्छित है। इसे होश नहीं। यह सोच रहा है कि धर्म की रक्षा कर रहा है। धर्म तुम्हारी रक्षा करेगा या तुम धर्म की रक्षा करते हो? यह सोच रहा है--हमारा धर्म! जैसे कि धर्म भी किसी की बपौती होता है! धर्म न तो मेरा होता है, न तुम्हारा होता है। धर्म तो वह है जो हम सबको सम्हाले हुए है। धर्म तो वह है जो हमारी श्वास है, हमारा प्राण है, हमारा आधार है। वह किसका हो सकता है? वह किसी का भी नहीं हो सकता। उसका कोई दावेदार नहीं है।
इस तरह के नासमझों और पागलों का मैं कोई बीस वर्ष तक देश भर में दर्शन करता रहा। फिर इनसे मैं थक गया। फिर मैंने देखा निष्प्रयोजन इनके साथ सिर पचाना है, कोई इसमें अर्थ नहीं है। इनके जीवन में कोई क्रांति हो नहीं सकती। ये सदियों का सड़ा-गला, इतना बासा, कूड़ा-करकट ढो रहे हैं कि तुम इन्हें हीरे देना भी चाहो तो इनकी समझ में नहीं आते, इनकी परख में नहीं बैठते । इनकी आंखें ही अंधी हो गई हैं। ये अंधेरे के ही आदी हो गए हैं। इन्हें अंधेरा ही रुचता है।

दूसरा प्रश्न:
भगवान, मैं एक बात से सदा भयभीत रहता हूं कि लोग कहीं मेरे संबंध में कुछ बुरा न सोच लें। इसलिए आपका संन्यास लेने से भी चूक रहा हूं। क्या करूं?
नरेश सिंह! यह अधिकतर लोगों की मनोदशा है, तुम्हारी कुछ विशिष्ट बात नहीं। अधिकतर लोग ऐसे ही जीते हैं--औरों से भयभीत, कि कोई दूसरा हमारे संबंध में बुरा न सोच ले। तुम जिनसे डर रहे हो, वे तुमसे डर रहे हैं। यह बहुत अचंभे की दुनिया है। तुम उनसे भयभीत हो, वे तुमसे भयभीत हैं। भय के कारण तुम उनके अनुसार चल रहे हो, भय के कारण वे तुम्हारे अनुसार चल रहे हैं। न तुम जी रहे हो स्वभावतः, न वे जी रहे हैं स्वभावतः। न तुम अपने को जीने की स्वतंत्रता दे रहे हो, न उनको जीने की स्वतंत्रता दे रहे हो।
और स्वभावतः जब तुम दूसरों से भयभीत रहोगे तो तुम दूसरों को भयभीत करोगे भी, क्योंकि तुम बदला चुकाओगे। तुम बदला लोगे। तुम्हारे भीतर प्रतिशोध की अग्नि जलेगी।
मुल्ला नसरुद्दीन एक मरघट के पास से गुजर रहा था। सांझ का धुंधलका था और उसने देखा, कुछ लोग चले आ रहे हैं, बैंड-बाजा है और एक आदमी घोड़े पर सवार है, बंदूकें चलाई जा रही हैं। वह तो समझा कि अरे--शेखचिल्ली तो है ही--कोई दुश्मन ने हमला बोल दिया, कहां छिपूं! कहां छिप जाऊं! कहां बच जाऊं! मरघट की दीवाल छलांग लगा कर कब्रिस्तान में उतर गया। वहां एक ताजी कब्र खुदी थी। लोग कब्र खोदकर मुर्दे को लेने गए थे। सोचा उसने इसी में लेट जाऊं। तो वह उसी में लेट गया।
वे कुछ दुश्मन नहीं थे--बरात आ रही थी। और बरात में बंदूकें चलाई जा रही थीं स्वागत में। दूल्हा कटार इत्यादि बांध कर घोड़े पर बैठा हुआ था। बराती आ रहे थे। बैंड-बाजे बज रहे थे। उन लोगों ने देखा कि एक आदमी दीवाल के पास खड़ा था, एकदम से दीवाल से छलांग लगाई, कब्रिस्तान के भीतर चला गया--कोई उपद्रवी न हो, अंदर से कुछ गोला वगैरह फेंक दे, कोई दुश्मन न हो! सो बैंड-बाजे रुक गए। बैंड-बाजे रुके तो मुल्ला नसरुद्दीन की तो श्वास ही रुक गई। उसने कहा--मारे गए, दिखता है देख लिया इन लोगों ने! अब तो भागने की भी जगह नहीं है। सोचा यूं करो, आंखें बंद कर लो और श्वास रोक कर पड़ रहो। अब मुर्दों को तो कोई मारता ही नहीं। देखेंगे मुर्दा है, मरघट में पड़े हैं, वैसे ही लाश मेरी पड़ी है, छोड़ कर चले जाएंगे।
बराती आकर रुके दीवाल के पास। बड़े घबड़ाए हुए। आहिस्ता से दीवाल पर चढ़े, चारों तरफ देखा, यह आदमी दिखाई पड़ा धुंधलके में। ताजी खुदी कब्र में लेटा है। मुर्दे कहीं ऐसे लेटे होते हैं! मुर्दे तो ढंके होते हैं। और कितनी ही श्वास रोके हो, जिंदा आदमी जिंदा ही आदमी लगता है। वे और भी घबड़ाए कि यह आदमी है कोई शैतान, कोई हरकत करने की पक्की इसने कर रखी है।
मुल्ला ने भी धीरे से एक आंख खोल कर देखी कि कई लोग दीवाल से झांक रहे हैं। उसने कहा कि मैंने बिलकुल ठीक सोचा था कि दुश्मन आ गए। अब मारे गए! वह तो परमात्मा का स्मरण करने लगा कि हे प्रभु, बस अब आखिरी समय है, मेरी पत्नी का खयाल रखना, बच्चों का खयाल रखना, बड़े लड़के की शादी करवा देना, लड़की की शादी करवा देना, ऐसा कर देना, वैसा...जो भी उसको कहना था परमात्मा से, आखिरी वसीयतनामा परमात्मा के नाम करने लगा। अब और तो कोई उपाय न था।
लोग उतरे दीवाल से आहिस्ता-आहिस्ता, कब्र को जाकर घेर लिया। बंदूकें जो चला रहे थे, उन्हीं के हुद्दे से इसको हिलाया कि जिंदा है कि मुर्दा। अब कोई बंदूक के हुद्दे से हिलाए तो श्वास निकल गई उसकी, रोके कब तक रोके रहेगा। एकदम से श्वास निकली तो वे लोग भी चौंक गए। आखिर उन्होंने कहा: तुम यहां क्या कर रहे हो?
मुल्ला ने कहा, अब जो होगा होगा। मुल्ला ने कहा कि मैं पूछना चाहता हूं, तुम यहां क्या कर रहे हो?
उन्होंने कहा: तुम पूछने वाले कौन?
मुल्ला ने कहा: तुम पूछने वाले कौन?
उन्होंने पूछा कि भाई तू आदमी कैसा है, यहां क्यों मरघट में लेटा हुआ है? तब तक मुल्ला को भी समझ में आया कि कुछ भूल हो रही है। ये तो कुछ बराती से दिखते हैं। पास से गौर से देखा, दूल्हा भी खड़ा है मोर मुकुट बांधे हुए और कोई दुश्मन नहीं दिखाई पड़ते। सजे-बजे लोग, इत्र-फुलेल लगाए हुए। मुल्ला ने कहा: तुम मुझसे पूछ रहे हो मैं यहां क्यों लेटा हुआ हूं? अरे तुम्हारे कारण। तुम यहां क्या खड़े हुए हो?
उन्होंने कहा: यह भी खूब रही! तुम्हारे कारण।
मुल्ला उठ कर बैठ गया। उसने कहा कि सब नासमझी है। मैं तुम्हारी वजह से यहां लेटा हूं इस डर से कि दुश्मन आ गए: तुम इस डर से यहां आकर खड़े हो गए हो कि कोई दुश्मन यहां छिपा हुआ है। तुम अपने रास्ते लगो, मैं अपने घर जाऊं। और हे परमात्मा, मैंने तुमसे जो वसीयत की, वापस लेता हूं। कोई खयाल न करना। जो बात हो गई गलती में, हो गई।
तुम कहते हो नरेश सिंह कि मैं एक बात से सदा भयभीत रहता हूं कि लोग कहीं मेरे संबंध में कुछ बुरा न सोच लें! क्यों भयभीत हो? बुरा ही सोच लेंगे तो क्या हर्जा हो जाएगा? और यूं भी क्या तुम सोचते हो कि भला सोचते होंगे? लोग एक-दूसरे की पीठ के पीछे जो कहते हैं, अगर मुंह के सामने कहें तो दुनिया में दो दोस्त भी न बचें।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अगर सारे लोग चौबीस घंटे सत्य-सत्य बातें कह दें, जो एक दूसरे के संबंध में सोचते हैं, बिलकुल सत्य सत्य कह दें, निपट, बिना लाग-लगाव के, बिना मिलावट के--तो दुनिया में एक दोस्ती भी न बचे; सारी दोस्तियां खत्म हो जाएं, सारे पति-पत्नी तलाक दे दें। अगर पति सच्चा-सच्चा कह दे पत्नी से, अगर पत्नी सच्ची-सच्ची बात कहे दे पति से, अगर बच्चे मां-बाप से सच्ची-सच्ची बात कह दें और मां-बाप बच्चों से सच्ची-सच्ची बात कह दें। तो सारे परिवार टूट जाएं। मगर कोई किसी से सच्ची बात कहता नहीं।
फ्रेड्रिक नीत्शे कहता था: मत लोगों को सत्य की बातें कहो, अन्यथा उनकी जिंदगी टूट जाएगी। उनको झूठ में जीने दो। वे झूठ में ही रगे-पगे हैं। झूठ ही उनका आसरा है, झूठ ही उनका सहारा है। झूठ ही उनकी जिंदगी है। झूठ को मत छीनो उनसे, अन्यथा वे मर जाएंगे।
वह बात ठीक ही कह रहा था एक अर्थों में। झूठ को छीनना बड़ा कठिन पड़ जाता है लोगों को। वही तो उनका प्राण बन गया है।
तुम्हें क्या भय है? और लोग कोई तुम सोचते हो कि तुम्हारे संबंध में पीछे अच्छी बातें सोचते होंगे? जैसे वे दूसरों की तुमसे बुराई करते हैं, दूसरों से तुम्हारी बुराई करते होंगे। तुम जैसे दूसरों से उनकी बुराई करते हो...निंदा में कितना रस जगह-जगह लोग लेते हैं! पता नहीं जिन्होंने रसों का वर्णन किया है, उन्होंने निंदा-रस को क्यों नहीं गिना है! बाकी सब रस तो फीके मालूम पड़ते हैं। बाकी सब रसों में तो कभी कोई कविता वगैरह करता है। वीर-रस इत्यादि में कोई कभी कविता वगैरह करता है। मगर निंदा-रस में तो प्रत्येक व्यक्ति निपुण है। आदमी ही खोजना मुश्किल है जो निंदा न करता हो।
मगर तुम्हें भय क्यों लगता है? तुम अपने भीतर इस बात का निरीक्षण करो। भय लगने का एक ही कारण हो सकता है: तुम्हें पता नहीं कि तुम कौन हो। तुम लोगों की ही मान्यताओं पर अपना परिचय बनाए हुए हो। लोग जैसा कहते हैं, वही तुम मानते हो। लोग कहते हैं सुंदर, तो तुम सुंदर मानते हो। लोग कहते हैं बुद्धिमान, तो तुम अपने को बुद्धिमान मानते हो। इससे डर लगता है। लोगों की ही मान्यताओं पर तो तुम्हारा सारा अस्तित्व खड़ा है। अगर उन्होंने खींच ली एक-एक ईंट अपनी मान्यता की, अगर उन्होंने कहना शुरू कर दिया कि तुम सुंदर नहीं हो, तो फिर क्या होगा? तुम्हें तो अपने सौंदर्य का कोई पता नहीं है।
और संन्यास इसी बात की प्रक्रिया का नाम है कि तुम्हें अपने सौंदर्य का स्वयं अनुभव हो सके, ताकि तुम दूसरों पर निर्भर न रह जाओ। तुम्हें अपनी बुद्धिमत्ता का स्वयं अनुभव हो सके, ताकि दूसरों पर निर्भर न रह जाओ। फिर दूसरे क्या कहते हैं कहने दो, क्या बनता-बिगड़ता है? दूसरों से क्या डर है? डर है तो इस कारण कि हमने दूसरों के ही आधार पर अपने जीवन की आधारशिला रख ली है। अपने जीवन का शिलान्यास करवा लिया है दूसरों से। तो भयभीत हैं, कहीं वे अपनी ईंटें न ले जाएं, नहीं तो हमारा भवन गिर जाएगा, हमारे मंदिर का क्या होगा?
और संन्यास का इतना ही अर्थ है, मेरे संन्यास का तो निश्चित इतना ही अर्थ है कि मैं चाहता हूं कि तुम अपने जीवन के मंदिर को स्वयं बनाओ, ताकि किसी पर निर्भर नहीं होगा, भय नहीं होगा, कोई चिंता नहीं होगी, कोई पीड़ा नहीं होगी। फिर लोग क्या कहते हैं, क्या फर्क पड़ेगा? मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता लोग मेरे संबंध में क्या कहते हैं। जितनी गालियां मुझे पड़ती हैं, शायद ही किसी आदमी को इस समय पृथ्वी पर पड़ती होंगी। मगर क्या फर्क पड़ता है?
तो एक तो इस कारण तुम भयभीत हो। और दूसरे इस कारण तुम भयभीत होते हो कि तुम कुछ काम कर रहे हो जो तुम खुद ही समझते हो कि गलत है। मगर छिपा कर कर रहे हो! मगर कितना ही छिपाओ, आखिर इस जिंदगी में लाख छिपाओ तो भी किसी न किसी को तो पता चल जाएगा। अकेले तो तुम कोई भी काम नहीं कर सकते, निपट एकांत में तो कोई भी काम नहीं कर सकते। अगर तुम्हारा पड़ोसी की पत्नी से प्रेम हो गया है तो कम से कम पड़ोसी की पत्नी को तो पता है। और आज नहीं कल, पड़ोसी को भी पता चल जाएगा। और आज नहीं कल तुम्हारी पत्नी को भी पता चल जाएगा। पत्नियों से छिपाना बहुत मुश्किल मामला है। क्या छिपाओगे पत्नियों से? कुछ भी छिपाना मुश्किल है। वे तुम्हारा रोआं-रोआं पहचानती हैं। अगर वे तुमको प्रसन्न देखेंगी तो भी समझ जाएंगी कि कुछ गड़बड़ है। और कोई न कोई देख लेगा कभी, फिर क्या करोगे?
मैं छोटा था तो मुझे कुओं में उतर कर नहाने का बहुत शौक था। अब कुआं कोई नहाने की जगह नहीं है। और किसी के कुएं में नहाओगे तो वह नाराज होगा ही क्योंकि कुआं पानी पीने के लिए है, नहाने के लिए नहीं है। और मुझे इसमें मजा आता था कि कुएं में कूद पड़ना। कबीर पंथियों का एक आश्रम था, मेरे मकान से पीछे ही। उनका बढ़िया कुआं था और उनका शानदार बगीचा था। उस कुएं में मुझे खास रस था। वह गहरा भी काफी था, गांव के बाहर भी था। वहां कोई जाता-आता भी नहीं था; केवल जो उस मठ के महंत थे--साहिबदास, वे वहां रहते थे, एक दो माली वहां काम करते थे। बड़ा उनका बगीचा था, वे माली भी यहां-वहां काम में लगे रहते थे। एकाध-दो और नौकर-चाकर थे। कुछ ज्यादा वहां भीड़-भाड़ नहीं होती थी। कुआं गहरा भी बहुत था, पानी भी बड़ा निर्मल था। और पानी भी खूब गहरा था। फिर उसमें एक और सुविधा थी कि उसमें जंजीर लगी हुई थी। वह कुएं की सफाई करने के लिए आदमियों को उतरने के लिए थी। तो चढ़ने की उसमें सुविधा थी। कूद गए, फिर चढ़ने की भी सुविधा थी। यह मेरा नियमित काम था कि जब भी मौका देखा कि वहां कोई नहीं है, जाकर उसमें कूद जाना। मगर यह बात कब तक छिपती! एक तो आवाज होती कूदने से कुएं में। एक दिन साहब दास आ गए, उन्होंने मुझे पकड़ लिया। मैं कुएं में अंदर ही था। वे भी एक पहुंचे हुए पुरुष थे। उन्होंने देखा यह अच्छा मौका है। मुझे ऐसे फांस भी नहीं पाते थे।
उन्होंने कहा: आज तुम अच्छे फंसे! उन्होंने जंजीर खींच ली बाहर, कि मैं तुम्हारे पिता को बुलवाता हूं। पिता के मेरे दोस्त थे वे। पिता से उनका सत्संग चलता था। कहा कि मुझे खबर तो थी, कई दफा मुझे लोगों ने कहा भी था, मालियों ने भी कहा था कि तुम मेरे वृक्षों से फल भी चुराते हो, मेरे झाड़ों पर भी चढ़ते हो, तुमने मेरे तार भी काट डाले हैं जहां से तुम बगीचे में घुस आते हो। और तुम कुएं में भी कूद कर नहाते हो! और एक ही कुआं है हमारा, इसी में हमको पानी पीना। लेकिन आज तुम अच्छे फंसे, अब तुम भाग कर कहीं जा भी नहीं सकते।
मैंने उनसे कहा कि आप गलती में हैं। आप जंजीर शीघ्रता से डाल दो, नहीं तो आप मुश्किल में पड़ोगे। उन्होंने कहा: क्या कहा! मैं कैसे मुश्किल में पडूंगा? वे एक बांस ले आए। उन्होंने कहा कि मैं बांस से तुम्हें मारूंगा भी। अब सच में मैं मुश्किल में था, क्योंकि नीचे कुएं में, ऊपर से बांस भी वे मारें और चढ़ने का भी कोई उपाय नहीं। मैंने कहा कि तुम बांस भी मारो, मगर बहुत पछताओगे। उन्होंने कहा: तुम करोगे क्या, यह तो बताओ!
मैंने कहा कि पहली तो बात यह कि मैं तुम्हारा कुआं भ्रष्ट कर दूंगा। मुझे लघुशंका लगी है। तुम डालते हो सांकल वापस कि नहीं? अब मैं ज्यादा नहीं रोक सकता।
उन्होंने कहा: भाई रुक, कुआं खराब मत कर देना! हम सांकल डालते हैं।
और मैंने कहा कि मेरे पिता को बुलाने तुमने जो माली भेजा है, दूसरा माली भेजो उसको बुलाने कि मेरे पिता को न लाए। उन्होंने कहा: क्यों?
तो मैंने अपनी एक आंख पर अंगुली रख कर उनको बता दी। वे तो फौरन समझ गए। उन्होंने जल्दी माली भेजा। दो आदमी उनके नौकर खड़े थे, वे कुछ समझे नहीं कि मामला क्या है, यह मेरा एक आंख पर अंगुली रख कर बताना! उनकी जो महाराजिन थी, उसकी एक ही आंख थी, उनसे उनका प्रेम चल रहा था। तो मैंने कहा कि बस खयाल रखना, वह मुझे पता है, सबको बता दूंगा। उन्होंने जल्दी से सांकल डाली, मुझे निकाला। माली को भेजा कि जा उस माली को बुला ला। मुझसे बोला: बेटा, तू अंदर आ। आम पक गए थे, आम मुझे खिलाए; जामुन पक गई थीं, जामुन खिलाईं। और कहा कि यह तेरा बगीचा है, अरे अपना घर है! जब आना हो आ। अरे कुआं क्या, अपना ही है, नहाओ, कूदो, जो करना है करो। मगर देख यह बात किसी से कहना मत। तुझे कैसे पता चला?
मैंने कहा कि मैं यहां ऐसा कोई दिन जाता नहीं जिस दिन मैं आता न होऊं। कभी इस झाड़ पर, कभी उस झाड़ पर। आपकी रासलीला देखता हूं, सो मुझे पता है। उस दिन से वे मुझे बुला-बुला कर फल खिलाते थे। मेरे पिता भी बड़े हैरान थे कि आजकल साहबदास तुम पर बड़े प्रसन्न हैं, क्या बात है? घर भी भेजते थे फल। मैंने कहा: वह बात आप न ही पूछो। वह मेरे और उनके बीच है।
मगर वे मुझसे इतना डरने लगे कि जिसका कोई हिसाब नहीं। मैं अपने मित्रों को भी ले जाता बगीचे में तो कोई रुकावट नहीं; सीधे दरवाजे से हम प्रवेश करने लगे। अब कोई तार वगैरह काटने की और इधर-उधर से घुसने की और चोरी करने की कोई जरूरत न रही। उन्होंने सब मालियों को कह दिया कि यह अपने घर का ही बेटा है, इसको आने दो, जाने दो, इसको कोई रुकावट नहीं डालना, कोई बाधा नहीं डालना, इसको जो करना हो करने दो। अरे क्या है दस-पच्चीस फल खाएगा तो खाने दो। खिलाएगा दस-पांच को लाकर, कोई बात नहीं। इतना बड़ा बगीचा है। आखिर है ही यह धर्म-क्षेत्र! मैंने उनसे एक दिन पूछा कि आप इतने क्यों घबड़ा गए? उन्होंने कहा: घबड़ाऊं न तो क्या करूं! अगर तुम किसी को कह दो, मेरी सारी प्रतिष्ठा पानी में मिला दो!
तो मैंने कहा कि ऐसी प्रतिष्ठा का क्या मूल्य, जो एक बच्चे से भयभीत हो? ऐसी प्रतिष्ठा का क्या करोगे? इस प्रतिष्ठा का कितना बल है?
मगर उनको भीतर ही पीड़ा है, भीतर ही दंश है। उनका अंतःकरण उनको खुद ही काट रहा है कि वे कुछ गलत कर रहे हैं। मैंने कहा: तुम गलत बिलकुल कर ही नहीं रहे।
उन्होंने कहा: तुम्हारा मतलब?
मैंने कहा: यह तो ऋषि-मुनि सदा से करते रहे। वेदों में इसका उल्लेख है।
वह जो एक आंख वाली उनकी महाराजिन थी, विधवा भी थी और निःसंतान भी थी। वेदों में इस बात की चर्चा है कि अगर कोई निःसंतान स्त्री विधवा हो, या विधवा न भी हो, अगर विधवा हो तब तो वह स्वयं किसी ऋषि-मुनि से नियोग करवा सकती है। नियोग का अर्थ है, संतान पैदा करवा सकती है। और अगर अभी उसका पति जिंदा है तो पति की आज्ञा से नियोग करवा सकती है।
तुम वेदों को इतना सम्मान देते हो, अगर तुम उनको गौर से देखोगे तो तुम बड़े हैरान होओगे। तुम चकित रह जाओगे कि इसमें सम्मान देने योग्य बात है, या कि हर तरह की गलत बातों को भी धर्म के आधार पर आरोपित कर दिया है? यह ऋषि-मुनियों को सुविधा बना दी। ऋषि-मुनि संतान पैदा कर रहे हैं। उसको नाम सुंदर दे दिया: नियोग।
तो मैंने कहा: यह नियोग है। एक तो यह विधवा है, दूसरे निःसंतान है। आप तो यूं समझो कि वैदिक धर्म का पुनरुद्धार कर रहे हो।
अरे--उन्होंने कहा: भैया तू बिलकुल किसी से कहना मत! तू और न मालूम कहां-कहां की बातें खोज ले आता है!
मैंने कहा: आप कहें तो मैं आपको वेद की किताबें लाकर बता दूंगा। मैं वेद पढ़ता ही इसीलिए हूं। उसमें जो भी गहरी-गहरी बातें हैं, वह निकाल कर आपके काम की हों तो निकाल कर ले आऊं? यह नियोग उसमें एक गहरी बात है।
ऋषि-मुनियों को तुम बड़ा आदर देते रहे हो। लेकिन अगर गौर करोगे तो तुम बहुत चकित होओगे, आदर जैसा कुछ भी नहीं है। मगर पिटी-पिटाई, लकीरों को हम पीटते रहते हैं। और सदियां बीत जाती हैं तो हमारा अहंकार जुड़ जाता है। अब अगर आज मैं यह कहूं कि यह नियोग की व्यवस्था एक अनैतिक व्यवस्था थी और ऋषि-मुनियों के व्यभिचार को छिपाने का एक आयोजन था, तो हिंदू नाराज हो जाएंगे, एकदम नाराज हो जाएंगे--उनके धर्म पर हमला हो गया, मैं उनके धर्म के खिलाफ बात कर रहा हूं! तो चुप रहो, कहो मत कुछ! ये लोगों की धार्मिक भावनाओं को ठेस न पहुंचाओ! और धर्म के नाम पर जितना पाखंड चल रहा है, वह सब चलने दो! क्योंकि लोगों की धार्मिक भावना को ठेस पहुंचती है, अगर तुमने सत्य बातें कहीं।
मैं तो सत्य बातें कहूंगा। जैसी हैं वैसी ही कहूंगा। फिर धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचती हो तो तुम्हें अपनी धार्मिक भावनाएं थोड़ी मजबूत बनानी चाहिए। और या फिर अपने धर्म में थोड़े सुधार करने चाहिए, रद्दोबदल करने चाहिए। या धर्म अपना ऐसा बनाना चाहिए कि जिसमें ठेस पहुंचाने की जगह न रह जाए।
मेरा संन्यासी होना, नरेश सिंह, खतरनाक तो है ही। तुम अड़चन में तो पड़ोगे ही, क्योंकि मेरे साथ खड़े होना खतरे का काम है, बगावत का काम है, विद्रोह का काम है। तुम्हारी प्रतिष्ठा होगी समाज में, सब खत्म हो जाएगी। लोग समझेंगे पागल हो गए। लोग यह भी समझेंगे अधार्मिक हो गए। क्योंकि जिसको वे धर्म समझते हैं, उसको मैं अधर्म कहता हूं। और जिसको मैं धर्म समझता हूं, स्वभावतः वह उनकी समझ के बाहर है, उनकी पकड़ के बाहर है।
मगर अगर तुम्हारे मन में संन्यास का भाव उठ रहा है--तुम कह रहे हो कि मैं इसी कारण संन्यास लेने से चूक रहा हूं--जरूर भाव उठ रहा होगा, तो किन लोगों के डर के कारण यह भाव से तुम चूक रहे हो? और ये लोग तुम्हारे काम पड़ेंगे? मौत कल द्वार पर खड़ी होगी तो ये आदमी तुम्हारे काम पड़ेंगे? और इनका सम्मान काम पड़ेगा? इनका सत्कार काम पड़ेगा? उस समय तो तुम्हें सिर्फ तुम्हारे भीतर समाधि जन्मी होगी तो काम आएगी।
और मेरा संन्यास तो समाधि तक पहुंचने की एक प्रक्रिया है। और मेरा संन्यास तो धर्म का अधुनातन रूप है। धर्म से उस सारे कचरे को छांट डालने की चेष्टा है, जो सदियों-सदियों में अपने आप इकट्ठा हो जाता है। हर युग में धर्म को पुनः-पुनः कचरे को जलाना पड़ता है। जैसे हर साल तुम होली जलाते हो न, ऐसे हर युग में पुराने धर्मों में से कचरे को जलाना पड़ता है, ताकि जो खालिस सोना है वह बच जाए। स्वभावतः जिनका पुराने से लगाव बन गया होता है, आसक्ति बन गई होती है, उनको पीड़ा होती है। उनको भारी पीड़ा होती है। उनको कष्ट होता है। उनका कष्ट मैं समझता हूं। उन पर मुझे दया भी आती है। उनके प्रति मेरे मन में सिर्फ क्षमा का भाव होता है। क्योंकि मैं जानता हूं, वे नहीं जानते कि क्या कर रहे हैं।
अभी यह जो आदमी यहां पत्थर फेंक गया है, इसे पता नहीं है कि यह क्या कर रहा है। यह अपने धर्म को लांछित कर रहा है सिर्फ और अपनी मूढ़ता का, अज्ञान का प्रदर्शन कर रहा है। ऐसे इसके धर्म की रक्षा होने वाली नहीं है। यह तो सिर्फ अपने धर्म की नपुंसकता जाहिर कर रहा है। यह तो सिर्फ इस बात की खबर दे रहा है कि अब हमारे पास और कुछ भी नहीं है, कोई और बौद्धिक बात कहने को बची नहीं है। मैं तो जो कह रहा हूं वह सीधा-साफ है। अगर उसके विपरीत कुछ कहना हो, लिखो, कहो। लेकिन मेरे खिलाफ जो बातें कही जाती हैं, उसमें मेरे मंतव्यों का कोई खंडन नहीं किया जाता। उसमें ऊलजलूल बातें होती हैं, जिनसे कुछ मेरा लेना-देना नहीं। मैं जो कहता हूं, उसको छूते भी नहीं लोग। मेरे विचारों पर कोई आलोचना नहीं होती। मैं तो निमंत्रण देता हूं कि आलोचना हो। अच्छा ही होगा, आलोचना से निखार होगा। लेकिन वे टुच्ची बातों की चर्चा करते हैं, जिनसे कुछ प्रयोजन नहीं है: वे इस बात की चर्चा करेंगे कि मैं किस कार में बैठता हूं, किस मकान में रहता हूं। मेरे आश्रम में वैभव है। इससे कुछ लेना-देना नहीं मेरी बातों का।
मैं तो वैभव का पक्षपाती हूं। मैं दरिद्रता का पोषक नहीं हूं। मैं दरिद्र को दरिद्रनारायण नहीं कहता हूं, क्योंकि अगर दरिद्र दरिद्रनारायण है, तब तो नारायण को बचाना होगा। नारायण को मिटाते तो नहीं! फिर तो दरिद्रों को बचाना होगा। जितने दरिद्र हों उतना ही अच्छा, क्योंकि उतने ही दरिद्रनारायण पृथ्वी पर रहेंगे और उतना ही धर्म का विस्तार होगा।
मैं दरिद्र को नारायण नहीं कहता। मैं दरिद्रता को तो महारोग कहता हूं। वह तो आत्मा का रोग है। उस रोग को तो नष्ट करना है। उसको तो जड़ से काट डालना है। मैं भौतिकवाद का विरोधी नहीं हूं।
इसलिए जो लोग इन बातों की आलोचना करते हैं, उन्हें आलोचना करनी चाहिए मेरे विचार की। मैं तो कहता हूं भौतिकवाद का मैं विरोधी नहीं हूं। मैं तो कहता हूं कि भौतिकवाद की ही पराकाष्ठा पर वास्तविक धर्म का शिखर पैदा होता है। भौतिकवाद का मंदिर होगा तो धर्म के स्वर्ण-शिखर होंगे।
इसलिए मैं कोई तपश्चर्या में, कोई शरीर को गलाने में, कोई शरीर का दुश्मन नहीं हूं, कि कांटों पर लेटूं, कि धूप में पड़ा रहूं, कि भूखा मरूं। इस तरह की मूढ़तापूर्ण बातों में मेरी आस्था नहीं है।
इसलिए जो लोग इस बात की चर्चा करते हैं कि आश्रम में वैभव है...यह तो कुछ भी नहीं है। यह तो सिर्फ शुरुआत है। यह तो अभी परीक्षण है। मैं तैयारी कर रहा हूं एक बड़े आश्रम की, जो कि इस पृथ्वी पर सबसे ज्यादा वैभवशाली आश्रम होगा; जहां कि तुम भौतिकवाद को और अध्यात्म को गले में गला डाले, गले में हाथ डाले, आलिंगनबद्ध पाओगे; जहां तुम भौतिकवाद और अध्यात्म को एक साथ समन्वित पाओगे, जहां दोनों अपने शिखर पर होंगे।
मगर मेरी बात का विरोध करो, मेरी बात की आलोचना करो। मैं तो मानता ही यही हूं कि जैनियों के चौबीस तीर्थंकर क्यों राजपुत्र थे, बुद्ध क्यों राजपुत्र थे, राम और कृष्ण क्यों राजपुत्र थे--सिर्फ इसलिए कि केवल राजपुत्रों में ही यह संभावना थी कि वे उठ सकें इस ऊंचाई पर कि धर्म की भावना उनमें जग सके। जिसका पेट ही अभी भूखा है, वह क्या संगीत सुनेगा? और जिसने संगीत भी नहीं सुना, कला नहीं परखी, गीत नहीं गुनगुनाए, वह क्या ध्यान करेगा? क्रमिक विकास होता है आदमी का। पहले देह, फिर मन, फिर आत्मा--और फिर परमात्मा। परमात्मा चतुर्थ है--तुरीय अवस्था है। उसके पहले ये तीन सीढ़ियां पार करनी होंगी।
लेकिन मेरी बातों की कोई आलोचना नहीं होती। इस बात की आलोचना होगी कि मेरे आश्रम में स्त्री और पुरुष हाथ में हाथ डाले हुए चलते हैं। मैंने कभी इनकार किया नहीं, इसलिए इसकी आलोचना करने का कोई कारण नहीं। मैं तो मानता ही यह हूं कि प्रेम की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होनी चाहिए। यह अजीब दुनिया है! यहां अगर
दो आदमी सड़क पर लड़ रहे हैं तो कोई हर्जा नहीं, अगर एक-दूसरे को घूंसाबाजी कर रहे हैं तो कोई हर्जा नहीं। लेकिन दो आदमी अगर हाथ में हाथ डाले जा रहे हैं तो हर्जा है। अगर दो व्यक्ति प्रेम से आलिंगनबद्ध हों तो अनैतिक कृत्य हो रहा है! और दो आदमी गुत्थमगुत्था हो जाएं, घूंसेबाजी करें, तो बड़ा नैतिक कृत्य हो रहा है! यहां युद्ध की प्रशंसा होती है और प्रेम की निंदा।
अगर मैं जो कह रहा हूं उसके विपरीत कर रहा होता, तो मेरी आलोचना की जा सकती थी। मैं तो जो कह रहा हूं, वही कर रहा हूं। उसको भी पूरी तरह नहीं कर पा रहा हूं, क्योंकि चारों तरफ पागलों से घिरा हुआ हूं। मेरी पूरी बस्ती बसने दो, तब उस बस्ती में तुम देखना--उसका रंग, उसका राग, उसका आनंद; उसका उत्सव, उसके गीत! वहां बांसुरी बजेगी पूरी तरह! वहां नृत्य होगा! वहां मृदंग बजेगी! वहां पैरों में घुंघरू बंधेंगे! अभी तो मजबूरी में जीना पड़ रहा है।
लेकिन जो भी आलोचना की जाती है वह आलोचना नहीं है, क्योंकि वह तो मेरा वक्तव्य ही है। वह तो मैं चाहता ही हूं कि होना चाहिए। व्यक्तियों को प्रेम की स्वतंत्रता होनी चाहिए, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होनी चाहिए। और दुनिया में जितना प्रेम फैलेगा, उतनी ही घृणा कम होगी। स्वभावतः वही ऊर्जा तो प्रेम बनती है, वही घृणा बनती है। और अगर हम चाहते हैं कि दुनिया से युद्ध मिट जाएं तो एक ही उपाय है कि दुनिया में प्रेम का एक ऐसा ज्वार आए, महा ज्वार आए कि सारे युद्धों को बहा ले जाए। अब प्रेम का भी विस्फोट इतना ही बड़ा होना चाहिए जितना अणु का विस्फोट है, तो ही हम पृथ्वी को बचा सकते हैं, अन्यथा पृथ्वी को बचाने की अब कोई संभावना नहीं है।
नरेश सिंह, संन्यास लोगे तो अड़चन में तो पड़ोगे, क्योंकि मेरा संन्यास दकियानूसी नहीं है। मेरा संन्यास पुराने संन्यास से कुछ संबंध ही नहीं रखता। तुम यह भी पूछोगे, तो फिर मैं इसको संन्यास नाम क्यों दिया हूं! सिर्फ इसीलिए दिया हूं, ताकि पुराने शब्द की जो महिमा है, वह पुरानों से छीन लूं। इसीलिए गैरिक वस्त्र मैंने चुने हैं, ताकि गैरिक वस्त्रों की जो महिमा है, वह पुराने के हाथ में नष्ट न हो जाए। पुराने में जो भी श्रेष्ठ है, वह सब बचा लूंगा और जो-जो नया संभव है जोड़ना, वह सब जोड़ दूंगा।
तुम कठिनाई में तो पड़ोगे। लोग न मालूम क्या-क्या कहेंगे! लेकिन मेरे साथ बदनाम होने का भी मजा है। नहीं तो इतने लोग बदनाम होने को राजी न होते। और इनकी संख्या रोज बढ़ती जाती है। और तुम्हारा नाम है नरेश सिंह! थोड़ा सिंह जैसी हिम्मत करो! क्या भेड़ों जैसी बातें कर रहे हो! क्या मेमने जैसी बातें कर रहे हो! भेड़ें भीड़ से डरती हैं; सिंह तो अकेले चलते हैं, भेड़ों की तरह नहीं। सिंह तो डरते नहीं। यह तो भेड़चाल, भीड़ की जो गति है, उससे अपने को मुक्त करो। फिर किसी भी भीड़ के हिस्से तुम क्यों न होओ।
मेरा संन्यासी व्यक्तित्व की तलाश कर रहा है, व्यक्तित्व की खोज कर रहा है, निजता की खोज कर रहा है। जरूर कठिनाइयां होंगी। आग से बिना गुजरे कोई भी शुद्ध सोना नहीं बनता है। और तुम्हें बहुत तरह की आग से गुजरना होगा, तो ही तुम खालिस सोना बन सकोगे।
पूछते हो: ‘मैं क्या करूं?’
हिम्मत करो! साहस करो! भयभीत न रहो। जिंदगी चार दिन की है, इस चार दिन की जिंदगी में क्या भय करना, किसका भय करना! बहुत से बहुत मौत ही तो हो सकती है न! मौत तो होनी ही है। इसलिए मौत तो एक ऐसी चीज है, जिसको कि बिलकुल ही एक किनारे रख दो, उसकी तो कोई कीमत ही मत मानो। जो होना ही है, वह होना ही है। उसके लिए क्या फिकर करनी! जीने का मजा क्यों छोड़ो? जीने की पूर्णता क्यों छोड़ो? जीने का निखार क्यों छोड़ो? हां, अगर ऐसा होता कि मौत से सदा के लेकिन बच सकते तो बात सोचने की भी थी, विचारने की भी थी। बच तो सकोगे नहीं, ऐसे भी मरोगे, वैसे भी मरोगे। मिट जाना है, मिट्टी में गिर जाना है। इसके पहले कि मिट्टी में गिरो, अपने भीतर अमृत को खोज लेना आवश्यक है।

तीसरा प्रश्न:
भगवान, मैं अपनी पत्नी पर कभी भी संदेह नहीं करता हूं, लेकिन यह जिज्ञासा जरूर होती है कि और लोग क्यों संदेह करते हैं!
रामदास! यह भी खूब रही! अगर तुम संदेह नहीं करते हो तो यह जिज्ञासा भी क्यों? जरूर कहीं संदेह का कीड़ा सरकता होगा। कहीं बहुत गहरे में होगा, पता न चलता होगा, चेतन तक न आता होगा, दबा रखा होगा। और दूसरे क्यों करते हैं, इसकी भी तुम्हें क्या चिंता? सबको अपनी-अपनी चिंता लेने दो। सबको अपनी-अपनी फिकर करने दो।
पुरुष पत्नियों पर संदेह करते हैं, पहला तो कारण यह होता है कि उन्हें अपने पर भरोसा नहीं है। वे खुद बेईमान हैं। वे खुद धोखेबाज हैं। वे खुद जानते हैं कि उनकी नजर यहां-वहां भटकती है। तो स्वभावतः उनके मन में यह सवाल उठता है कि मेरी पत्नी की नजर भी न भटकती हो और इसमें कुछ अस्वाभाविक भी नहीं है। अगर स्वाभाविक ही है यह बात, तो तुम्हारी भी नजर भटकेगी, तुम्हारी पत्नी की भी नजर भटकेगी। इसको हमें स्वीकार ही कर लेना चाहिए। इसको नाहक समस्या बनाने की जरूरत नहीं। यह बिलकुल स्वाभाविक है। एक सुंदर पुरुष जा रहा हो और स्त्री को बिलकुल भी सुंदर पुरुष को देख कर कुछ खयाल न उठे, तो या तो वह मर चुकी हो, बिलकुल मर चुकी हो, जड़ हो चुकी हो, विक्षिप्त हो और या फिर बुद्धत्व को उपलब्ध हो चुकी हो, इसके अलावा तो हर हालत में एक क्षण को तो उसकी आंखें ठगी रह जाएंगी। पुरुष की भी यही दशा है। और स्वाभाविक है, नैसर्गिक है। एक सुंदर स्त्री सामने से गुजरे, सुंदर फूल खिले, सुंदर सूरज निकले और तुम न देखो, एक सुंदर स्त्री पास से गुजर जाए और तुम्हारी आंख थोड़ी देर को उसके रूप से न भर जाएं...!
मगर इसका कुछ यह अर्थ तो नहीं है कि कुछ पाप हुआ। इसका कुछ यह भी अर्थ नहीं है कि तुम उस स्त्री के पीछे ही हो लिए। इसका यह भी कुछ अर्थ नहीं है कि तुमने अपनी स्त्री के साथ कुछ दगा किया या धोखा किया। सिर्फ इतना ही अर्थ है कि यह स्वाभाविक है। और यह तुम्हारी स्त्री को भी होता होगा, इसमें कुछ अड़चन नहीं है।
अगर दुनिया बेहतर हो और लोग अगर एक-दूसरे को ईमानदारी से स्वीकार करते हों तो एक-दूसरे से कह भी सकेंगे और इससे कुछ अड़चन न होगी। हंसेंगे इस बात पर। अगर पति-पत्नी में सच में प्रेम हो तो पति कह सकेगा कि आज रास्ते पर तुमने देखा, जो स्त्री जाती थी, उसे देख कर एक क्षण को मैं ठगा रह गया था! और पत्नी भी कह सकेगी कि आज जो मेहमान घर पर आए थे, मेरा मन डांवाडोल हो गया था। मगर अभी तो हम स्वीकार नहीं करते। इस तरह की बात एक-दूसरे से कहने का मतलब होगा: झगड़ा-झांसा, उपद्रव। तो छिपा लो! छिपा लेते हैं तो यही बातें घाव बन जाती हैं। छिपा लेते हैं तो यही बातें रुग्ण बन जाती हैं। छिपा लेते हैं तो इन्हीं बातों के कारण भीतर पीड़ा अनुभव होती है, पाप अनुभव होता है, अंतःकरण नाहक कचोटता है। और हमने इस तरह सारे लोगों को दुखी कर दिया है। यहां हर आदमी अपराध-भाव से भरा है--स्त्रियां, पुरुष सब! जब कि अपराध-भाव की कोई भी आवश्यकता नहीं है।
रामदास, अगर तुम मुझे समझो तो मैं तो कहूंगा यह बिलकुल स्वाभाविक है। इसमें कुछ अस्वाभाविक नहीं है। जब तक कि तुम बुद्धत्व को उपलब्ध न हो जाओ, यह होगा। हां, बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाओ तो फिर न कोई स्त्री है, न कोई पुरुष है; न कोई सुंदर है, न कोई असुंदर है। तब क्रांति हो जाती है। तब तुम चैतन्य को देखने लगते हो। तब देह से तुम्हारी आंखें ऊपर उठ जाती हैं। मगर जब तक यह नहीं हुआ है, तब तक जो हो रहा है उसमें पाप मत समझना।
फिर तुम क्या फिकर करते हो कि और-और लोग ऐसा क्यों सोचते हैं? उनके अपने-अपने अनुभव होंगे। हर आदमी के अलग अनुभव हैं। हर आदमी अलग है, अद्वितीय है, बेजोड़ है।
गुलजान, मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी, ने अखबार पढ़ते हुए अपने पति से कहा: सुनो, कैसी अच्छी खबर है! एक गुंडा रात दो बजे किसी के घर में घुस गया और उसकी पत्नी का अपहरण करके भागने लगा। पति की नींद खुल गई, तो उसने बहादुरी के साथ उस पिस्तौलधारी लफंगे का सामना किया और उसकी अच्छी मरम्मत की। यदि कहीं अपने घर में ऐसा कोई चोर घुस आए और मुझे भगा कर ले जाने लगे, तो तुम क्या करोगे?
मुल्ला नसरुद्दीन बोला: मैं उस नासमझ से कहूंगा कि मूर्ख, भागता क्यों है? जो करना है, आराम से कर!
अलग-अलग लोगों के अलग-अलग ढंग होंगे, अलग-अलग जीवन होंगे, अलग-अलग सोचना होगा।
मुल्ला नसरुद्दीन मेरे साथ घूमने जाता था। कोई भी ट्रक, बस वगैरह दिखाई पड़ जाए, एकदम घबड़ा जाए। मैंने उससे पूछा: इतना चौड़ा रास्ता, इस पर बस और ट्रक देख कर ऐसा क्या घबड़ाना! तू तो एकदम कंपने लगता है। जैसे तेरे ऊपर ही चढ़ी आती है! कोई जीवन का ऐसा तेरे लिए दुखद अनुभव है कि कभी किसी ट्रक से टकरा गया हो, या बस से टकरा गया हो, कई फ्रैक्चर हो गए हों, बड़ी मुश्किल से ठीक हुआ हो, साल-छह महीने अस्पताल में पड़ा रहा हो? ससून अस्पताल का नर्क झेला हो? मामला क्या है?
उसने कहा: अब आप पूछते हैं तो कहता हूं। बीस साल हो गए, तब मेरी पत्नी एक ट्रक ड्राइवर के साथ भाग गई। मुझे यही डर लगा रहता है कि कहीं वापस न आ रही हो। बस यही देख कर, जैसे ही ट्रक या बस दिखाई पड़ी, कि मेरी छाती धड़की, कि हे प्रभु, कहीं गुलजान लौट तो नहीं आई!
अपने-अपने अनुभव हैं।
एक दिन चंदूलाल चुपके से अपनी प्रेमिका के घर पहुंचा। घर पर उस समय कोई नहीं था। चंदूलाल ने अपनी प्रेमिका को आलिंगन में ले लिया और उसे चूमने लगा। इतने में प्रेमिका का दस वर्षीय भाई न जाने कहां से आ टपका और चंदूलाल को धमकाने लगा कि मैं अपने मम्मी-पापा को बोलूंगा कि यह अपने मुहल्ले का खूसट बुड्‌ढा हमारे घर दीदी से मिलने आया करता है। मिलता ही नहीं, चूमाचांटी भी करता है।
चंदूलाल तो एकदम घबड़ा गया और बच्चे से बोला: बेटा, ऐसी गंदी बातें नहीं करते। ये लो पांच रुपये पिक्चर देखने के लिए।
बच्चा बोला: सिर्फ पांच रुपये! अरे और दूसरे लोग तो कम से कम दस रुपये देते हैं।
अब रामदास, तुम कहते हो: और लोग क्यों...? और लोगों से पूछो। और लोगों के अपने-अपने अनुभव होंगे।
ढब्बू जी नशे में थे और अपनी बीबी से प्रेम करने की कोशिश कर रहे थे। बीबी गर्भवती थी और वह नहीं चाहती थी कि इस समय प्रेम किया जाए, बच्चे को नुकसान पहुंच सकता है। लेकिन जब ढब्बू जी नहीं माने तो उनकी पत्नी ने उन्हें दस रुपये का नोट देते हुए कहा कि जाओ और किसी नगरवधू से प्रेम कर आओ। भगवान के लिए इस समय मुझे माफ करो।
ढब्बू जी चले गए और पंद्रह मिनट में ही वापस आ गए। पत्नी तो बड़ी चकित हुई। पूछा: इतनी जल्दी कैसे आ गए?
जवाब मिला: मैं घर के बाहर ज्यों ही निकला कि चंदूलाल की पत्नी ने मुझसे पूछा--कहां जा रहे हो? मैंने सारा किस्सा सुनाया। तो वह बोली--अरे इतनी दूर क्यों जाते हो? दस रुपये मुझे ही दे दो न!
ढब्बू जी की पत्नी तो एकदम गुस्से में आकर बोली: क्या कहा! उसने तुझसे दस रुपये ले लिए; और तुमने दे भी दिए, उल्लू कहीं के! जब वह गर्भवती थी तब तो मैं उसके पति से एक भी पैसा नहीं लेती थी।
अब किसके क्या अनुभव हैं! मैं तुम्हें कैसे कहूं! हजारों लोग हैं, हजारों अनुभव हैं। अगर तुमको अनुभव ही इकट्ठे करने हों, कोई शोधकार्य करना हो, तो लोगों से मिलो-जुलो, पूछो कि भाई तुम्हें अपनी पत्नी पर क्यों संदेह है, मुझे तो बिलकुल संदेह नहीं है। पहले तो वे सभी यह कहेंगे: संदेह! कभी नहीं! मुझे और मेरी पत्नी पर संदेह! ऐसी बात करते शर्म नहीं आती? मेरी पत्नी सीता-सावित्री है। मगर अगर तुम पीछे पड़े ही रहोगे, फुसलाओगे, होटल में ले जाओगे, चाय-नाश्ता करवाओगे, पिक्चर दिखलाओगे, धीरे-धीरे पिघलाओगे, तो राज की बातें शायद तुम्हें पता चल जाएं।
इस देश में मुश्किल है। पश्चिम में आसानी से हो जाता है। इस देश में तो कोई भी शोधकार्य मुश्किल है इस तरह का। जितने आंकड़े हैं, सब अमरीका में इकट्ठे करने होते हैं, क्योंकि अमरीका में एक तरह की प्रामाणिकता आनी शुरू हुई है। तुम किसी भी स्त्री से पूछ सकते हो कि तूने विवाह के पहले कितने लोगों से प्रेम किया। और अगर तुम कहो कि मैं शोधकार्य में संलग्न हूं, तो वह जरूर जवाब दे देगी, ईमानदारी से जवाब दे देगी कि चार या तीन या पांच या सात, या जितने लोगों से उसने प्रेम किया हो। भारत में तो बहुत मुश्किल है क्योंकि कौन स्त्री यह कह कर अपनी प्रतिष्ठा सदा के लिए मिट्टी में मिलवा लेगी। यहां तो कुंआरे होने का मूल्य है। यहां प्रामाणिकता का कोई मूल्य नहीं है। यहां तो कुंआरेपन का ऐसा फितूर है कि हर स्त्री को कुंआरा होना ही चाहिए विवाह के पूर्व। यहां तक कि आधुनिक स्त्रियां भी, पढ़ी-लिखी स्त्रियां भी हिम्मत करके यह नहीं कह सकतीं कि उनका किसी से प्रेम हुआ था। स्त्रियों की तो छोड़ दो, पुरुषों का भी बल नहीं है यह कि प्रामाणिक हो सकें। यहां सभी पुरुष कहेंगे कि नहीं, कभी नहीं। इसलिए भारत में आंकड़े नहीं मिलते। भारत के साधु-संतों को इससे बड़ा लाभ है; चूंकि आंकड़े ही नहीं हैं, जब आंकड़े ही नहीं हैं तो उसका मतलब है कि सब पाप पश्चिम में होते हैं, भारत में कोई पाप होता ही नहीं। आंकड़े हों तो पाप का पता चले। पश्चिम में आंकड़े उपलब्ध हैं, इसलिए पाप जाहिर है कि होता है। और सच्चाई यह है कि पाप यहां और भी ज्यादा होते हैं; लेकिन हम पाप समझते हैं उनको, इसलिए छिपाते हैं।
पश्चिम में जीवन को सहज स्वीकार कर लिया गया है। कोई पाप नहीं समझता इन सारी बातों को। यह बिलकुल स्वाभाविक है कि जो लड़की चौबीस या पच्चीस साल में विवाह करेगी, चौदह साल की उम्र में प्रकृति ने उसे प्रेम के योग्य बना दिया, मां बनने के योग्य बना दिया, वह दस साल तक प्रतीक्षा करेगी विवाह की, तो दस साल में उसके जीवन में कुछ तो घटना घटेगी, कि घड़ी बिलकुल रुकी रहेगी, कि कैलेंडर का पन्ना ही नहीं फटेगा? और खयाल रखना, यह चेष्टा की जाए कि दस साल तक सब रुका रहे तो रुका रह सकता है। लेकिन जिसने दस साल सब रोक लिया, वह पच्चीस साल में विवाह करने के बाद फिर कभी भी प्रेम करने में समर्थ नहीं रह जाएगी, क्योंकि दस साल में सब जड़ हो जाएगा, ठहर जाएगा। दस साल में जो उसने जकड़ बना ली, वह फिर छूटेगी नहीं।
इसलिए एक बड़े मजे की बात भारत में दिखाई पड़ती है। अपने पति से भी प्रेम करते वक्त स्त्रियां यही समझती हैं कि पाप कर रही हैं। पति को पापी समझती हैं कि ये दुष्ट पीछे पड़े हैं, मगर मजबूरी है क्योंकि विवाह कर लिया है, झेलना पड़ेगा। मुझसे न मालूम कितनी भारतीय स्त्रियों ने आकर कहा है कि हम तो छूटना चाहते हैं इस काम-विकार से, मगर वे पति देवता छूटें तब न! वे पति देवता तो पीछे ही पड़े हैं। पति देवता के कारण नहीं छूट पा रहे हैं!
और ये जो स्त्रियां हैं, ये क्या प्रेम में रस लेती होंगी! जब इसको पाप समझा जा रहा है, जब ये पति देवता को छुड़ाने की चेष्टा में लगी हैं, जब जबर्दस्ती किसी तरह ढो रही हैं बोझ को, तो इसमें प्रेम तो नहीं रह सकता; इसमें आनंद तो नहीं हो सकता; इसमें संगीत तो खो जाएगा।
तुम जरा ऐसे संगीतज्ञ की कल्पना करो, जो वीणा को बजा रहा है, मजबूरी में, जैसे बजाना पड़ रहा है, जबर्दस्ती; जैसे पीछे कोई तलवार लिए खड़ा है कि गर्दन काट देंगे अगर नहीं बजाई! तो बजा रहा है। मगर उसके तारों से स्वर नहीं निकलेंगे; तार टूटेंगे, स्वर नहीं निकलेंगे। और इसलिए इस देश में प्रेम के स्वर नहीं निकलते। और जब प्रेम के स्वर नहीं निकलते तो स्वभावतः साधु-महात्माओं की बातें बिलकुल ठीक मालूम पड़ती हैं, कि साधु-महात्मा कहते हैं कि जीवन में कुछ है ही नहीं, सब बेकार है। ठीक ही कहते हैं, क्योंकि तुम्हें भी जीवन में किसी सुख का, किसी आनंद का अनुभव नहीं होता।
मैं बिलकुल दूसरी बात कह रहा हूं। मैं कह रहा हूं कि जीवन को परमात्मा ने तुम्हें दिया है एक भेंट की तरह; इसमें बड़े राज हैं, इसमें बड़े रहस्य हैं, इसमें बड़े आनंद छिपे हैं। इन सारे आनंदों को तुम पहचानो। एक तो पुराना संन्यास था, जो जीवन को दुख समझ कर जीवन के त्याग से पैदा होता था। और एक मेरा संन्यास है, जो जीवन को आनंद समझ कर जीवन के अहोभाव से पैदा होता है। इस भेद को तुम खयाल में रखना। एक तो त्यागवादी संन्यास था; यह अहोवादी संन्यास है। एक तो भागने वाला संन्यास था, भगोड़ा; यह जीवन के प्रति प्रेम और आनंद और अनुग्रह का संन्यास है।
मैं चाहता हूं कि तुम्हारे जीवन में प्रेम गहरा हो, आनंद गहरा हो। इतना गहरा हो कि तुम परमात्मा को धन्यवाद दे सको। वही धन्यवाद तुम्हारी प्रार्थना बनेगा। वही धन्यवाद तुम्हारी अर्चना, तुम्हारी पूजा, तीर्थ! और उस तीर्थ की सुगंध ही और होगी। जीवन से हार कर जो भागता है, जीवन को छोड़ कर जो जाता है--विषाद की तरह, संताप की तरह--उसके मुंह में कड़वापन का स्वाद होता है, मिठास नहीं होती। वह परमात्मा को क्या धन्यवाद दे; शिकायत होती है उसके मन में, शिकवा होता है, धन्यवाद नहीं हो सकता। और शिकायतें कैसे प्रार्थना बनेंगी?
मेरे पाठ बिलकुल और हैं। इसलिए अगर मेरे पाठों को समझने में अड़चन हो तो आश्चर्य नहीं। इन्हें केवल वे ही समझ पाएंगे जिनके पास एक स्तर की बुद्धिमत्ता है।
एक सज्जन ने पूछा है कि ‘महर्षि संत मेंहीलाल एक ही तरह का ध्यान लोगों को बताते हैं और आप बहुत तरह के ध्यान बता रहे हैं। मगर उनके पास केवल गैर-पढ़े-लिखे लोग जाते हैं; आपके पास सिर्फ पढ़े-लिखे अभिजात्य सारी दुनिया से लोग आते हैं। इसका राज क्या है?’
राज सीधा-साफ है। जिन महर्षि संत मेंहीलाल की तुम बात कर रहे हो, उनको मैं जानता हूं। न तो महर्षि हैं, न संत हैं, बस सिर्फ मेंहीलाल हैं। दकियानूसी किस्म के आदमी हैं, सो दकियानूसी लोग उनके पास इकट्ठे होते हैं। दकियानूसी होने के लिए प्रतिभा की जरूरत नहीं है। सो देहाती गंवार उनके पास इकट्ठे होंगे। उनके पास तृतीय कोटि के लोग इकट्ठे होंगे। स्वाभाविक है। उनको उनकी बातें जंचेंगी।
मेरे पास तृतीय कोटि के लोगों के लिए कोई जगह नहीं है। मैं जो बातें कर रहा हूं, वे कोई दकियानूसी बातें नहीं हैं। उनको समझ पाने के लिए प्रतिभा चाहिए; एक तरह का आभिजात्य चाहिए, एक तरह की अंतर्दृष्टि चाहिए; एक तरह की प्रखरता, तेजस्विता चाहिए। इसलिए सारी दुनिया से तेजस्वी लोग आएंगे और मेरा रस भी उनमें है, क्योंकि उनके द्वारा ही इस जगत में क्रांति हो सकती है। उनके द्वारा ही इस जगत को रूपांतरित किया जा सकता है। ये इस तरह के महर्षि और संत तो इस देश में गांव-गांव में फैले हुए हैं। क्या ध्यान है उनका? कोई मंत्र सिखा देता है, कान फूंक देता है। कोई एक ध्वनि पकड़ा देता है कि इसको रटते रहो, इसको रटते-रटते सब हो जाएगा। निश्चित ही, अगर तुम किसी शब्द को रटते रहोगे या किसी मंत्र को रटते रहोगे तो थोड़ी सी सांत्वना मिलेगी और थोड़ी शांति भी मिलेगी। मगर वह शांति वैसी है, जैसी निद्रा से मिलती है, तंद्रा से मिलती है। वह शांति वस्तुतः शांति नहीं है।
मैं जिस ध्यान की बात कर रहा हूं, वह बड़ी वैज्ञानिक प्रक्रिया है। और इतने तरह के लोग हैं दुनिया में कि मैं हर तरह के व्यक्ति के लिए ध्यान की व्यवस्था जुटा रहा हूं। यहां इस क्षेत्र में--इस बुद्ध क्षेत्र में--तो सारे धर्मों की जो-जो श्रेष्ठतम प्रक्रिया है, जो-जो नवनीत है, उस सबको इकट्ठा कर लिया गया है। यहां तो सारे फूल निचोड़ कर इत्र बना लिया गया है। यहां तो ऐसी कोई विधि नहीं छोड़ी जा रही है, जिससे कभी भी कोई व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध हुआ हो। इसलिए तुम्हें सारे विकल्प दिए जा रहे हैं।
अब जिन सज्जन ने पूछा है, उनको अड़चन यह हो रही है कि एक ही आप बता दें, ताकि हम उसी में लग जाएं। इतनी भी कोशिश करने की इच्छा नहीं है कि दस-पांच विधियां कर के देख लें कि हमें कौन सी जमती है! अपने ऊपर इतना भी उत्तरदायित्व लेने की आकांक्षा नहीं है। कोई बता दे, फिर जमे कि न जमे, फिर तुम्हारे काम की हो या न हो! थोप दे कोई। कोई दे दे पका-पकाया बिलकुल। पका-पकाया ही नहीं, कोई चबा-चबाया दे दे तो और भी अच्छा, ताकि तुम्हें चबाना भी न पड़े, तुम सीधा गटक ही जाओ। फिर चाहे वह जहर ही क्यों न हो।
यह ध्यान रखना, जो एक के लिए अमृत है, वह दूसरे के लिए जहर हो सकता है और जो एक के लिए जहर है, वह दूसरे के लिए अमृत हो सकता है। कुछ लोग हैं जो निष्क्रिय ध्यान से उपलब्ध होंगे; जैसे बुद्ध निष्क्रिय ध्यान से उपलब्ध हुए। यहां विपस्सना की प्रक्रिया चलती है, झाझेन की प्रक्रिया चलती है। वह उन लोगों के लिए है, जो शांत बैठ कर उपलब्ध हो सकते हैं।
लेकिन जलालुद्दीन रूमी सूफी फकीर नाचते-नाचते उपलब्ध हुआ। ऐसा नाचा कि छत्तीस घंटे रुका ही नहीं। दिन आए और गए, रात आई और गई, हजारों लोगों की भीड़ इकट्ठी हो गई कि यह क्या हुआ है! लेकिन नाच कुछ ऐसा था कि लोग भी जाना चाहें तो जा न सकें। ऐसे बंधे रह गए, जैसे कोई सम्मोहित हो गए हों! हजारों की भीड़ खड़ी रही और छत्तीस घंटे तक जलालुद्दीन नाचता रहा, नाचता रहा; तब तक नाचता रहा जब तक कि पहुंच नहीं गया। जैसे बुद्ध तब तक बैठे रहे जब तक कि पहुंच नहीं गए। बैठे ही रहे सात दिन तक, हिले भी नहीं, डुले भी नहीं, कंपे भी नहीं--शांत रह कर पहुंचे। जलालुद्दीन नाच कर पहुंचा। दोनों एक ही जगह पहुंचे।
कुछ लोग होंगे जो जलालुद्दीन के रास्ते से पहुंचेंगे। और मेरे खयाल में इस सदी में जलालुद्दीन के रास्ते से पहुंचने वाले ज्यादा लोग होंगे, बुद्ध के रास्ते की बजाए, क्योंकि यह सदी सक्रिय सदी है। लोग ज्यादा सक्रिय हैं। आलस्य के दिन लद गए हैं। वह आलसी जमाना गया। वह वक्त गया, जब लोग सिर्फ बैठने में ही राजी थे।
तो यहां तो सूफी नृत्य भी होगा, दरवेश नृत्य भी होगा। यहां तो बुद्ध की विपस्सना भी चलेगी। यहां तो सब तरह के प्रयोग होंगे। यहां तुम्हें सब मौके दिए जा रहे हैं। मैं यह कह रहा हूं कि तुम सारे मौकों से गुजर जाओ और देख लो, तुम्हें जो रुच जाए, तुम्हें जो पट जाए, तुम्हारे भीतर जिससे तालमेल बैठ जाए, उसको चुन लेना।
लेकिन तुम इतना भी नहीं करना चाहते। तुम मेहनत ही नहीं करना चाहते। तुम तो कहते हो: आप ही बता दें न! तुम्हारी आदत खराब हो गई है। तो तुम वहीं चले जाओ--महर्षि संत मेंहीलाल के पास! ऐसे बहुत महर्षि गांव-गांव में हैं, वहीं तुमको वे बता देंगे एक मंत्र, कान फूंक देंगे। और कान में जो बता देंगे, उसका कोई मूल्य नहीं है। और तुम उसको दोहराते रहना।
और मैं तुमसे कह देता हूं: कोई भी शब्द दोहराना शुरू कर दो, वही लाभ होगा। कोकाकोला-कोकाकोला कहते रहो, या राम-राम, राम-राम कहते रहो, कोई भेद नहीं है। या नमोकार पढ़ो, कोई अंतर नहीं पड़ता। उन्हीं छब्बीस अक्षरों से मिल कर बनता है सब कुछ। वही वर्णाक्षरी है। वही क ख ग। उसी से कोकाकोला। तुम्हें जो रुचे, अपना मंत्र खुद ही बना लो। अपना ही नाम अगर तुम दोहराते रहो बैठ कर निरंतर तो भी तंद्रा छा जाएगी। जैसे मां छोटे बच्चे के पास बैठ कर लोरी गाती है न--राजा बेटा सो जा, राजा बेटा सो जा, राजा बेटा सो जा! अब राजा बेटा सोए न तो क्या करे! छाती पर उसके बैठी है, कह रही है--राजा बेटा सो जा, राजा बेटा सो जा! बेटे के बाप के पास भी बैठ जाए और कहे कि राजा बेटा सो जा, राजा...तो वे भी सो जाएंगे। सोना ही पड़ेगा। बेटा भाग सकता नहीं, कंबल उढ़ा दिया है, चारों तरफ से दबा दिया है, बेटा भागे भी कहां, जाए भी कहां--तो एक ही भागने का उपाय बच रहता है कि वह नींद में चला जाएगा। नींद भी भागने का एक उपाय है।
जो लोरी का राज है, वही इन मंत्रों का राज है। मगर इन मंत्रों को बताने वाले महर्षि हो जाते हैं।
मेरी इन सब बातों में कोई बड़ी निष्ठा नहीं है। मेरी निष्ठा वैज्ञानिक है। यहां तुम हो तो मेरे ढंग से, वैज्ञानिक ढंग से सोचो-विचारो, चलो। मैं तुम्हें पहुंचा सकता हूं वहां तक, जहां तक कोई भी कभी गया है। अगर तुम सच में ही पहुंचना चाहते हो, तो श्रम करने की तैयारी करो। और अगर तुम्हें पहुंचना नहीं, सिर्फ सांत्वना जुटानी है, राहत जुटानी है, कोई लोरी सुननी है, तो कहीं और, यह स्थान तुम्हारे लिए नहीं।

आज इतना ही।

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