QUESTION & ANSWER
Sumiran Mera Hari Kare 01
First Discourse from the series of 11 discourses - Sumiran Mera Hari Kare by Osho. These discourses were given during MAY 21-31 1980, Pune.
You can listen, download or read all of these discourses on oshoworld.com.
पहला प्रश्न:
आपने आज शुरू होने वाली प्रवचनमाला का शीर्षक दिया है: सुमिरन मेरा हरि करैं। भगवान, इस शीर्षक का अभिप्राय समझाने की अनुकंपा करें।
चैतन्य कीर्ति!
बाबा मलूक दास का प्रसिद्ध वचन है:
माला जपों न कर जपों, जिभ्या कहों न राम।
सुमिरन मेरा हरि करैं, मैं पाया बिसराम।।
मलूकदास उन अनूठे व्यक्तियों में एक हुए, जिनकी गिनती अंगुलियों पर हो सकती है। मलूकदास अनूठों में भी अनूठे हैं। साधारण संत नहीं हैं, बड़े विद्रोही संत हैं। परंपरागत, रूढ़िगत, दकियानूसी उनका व्यक्तित्व नहीं है, आग्नेय हैं। अग्नि जैसे प्रज्वलित हैं। उनका एक-एक वचन हीरों से भी तौलो तो भी वजनी पड़ेगा। हीरे धूल हैं उनके वचनों के समक्ष। और यह उनका प्यारे से प्यारा वचन है। इस वचन की गहराई में उतरो तो तुम ध्यान की गहराई में उतर जाओगे। इसमें ध्यान का सार आ गया है।
माला जपों न कर जपों,...
मलूक कहते हैं: लाख माला जपो, कुछ भी न होगा। यह तो औपचारिकता है। बाहर का कोई कृत्य भीतर न ले जाएगा। बाहर का कृत्य तो और बाहर ही ले जाएगा। और आदमी ऐसा पागल है--अधर्म भी बाहर करता है और धर्म भी बाहर करता है। फिर धर्म और अधर्म में भेद क्या रहा? शराब घर भी बाहर है और तुम्हारी मस्जिद, तुम्हारा मंदिर और तुम्हारा गुरुद्वारा और तुम्हारा गिरजा भी बाहर है। दोनों में एक बात समान है--दोनों बाहर हैं! दोनों की यात्रा बहिर्यात्रा है। दोनों में से कोई भी स्वयं तक नहीं पहुंचा सकता। कोई फिल्मी गीत गा रहा है--अपनी धुन में मस्त; कोई राम-राम जपे जा रहा है--अपनी धुन में मस्त। मगर दोनों मन में उलझे हैं। चाहे फिल्मी गीत हो और चाहे राम का गुणगान हो--मन की ही क्रियाएं हैं। मन की कोई क्रिया अमन में नहीं ले जा सकेगी। मनातीत जाना हो तो मन की सारी क्रियाओं को पीछे छोड़ देना होगा।
पाना हो सत्य को, पाना हो स्वयं को, तो न काबा साथ देगा, न काशी। संसार ही नहीं छोड़ देना है। बाहर की यात्रा व्यर्थ है--यह बोध। और जो ऊर्जा बाहर संलग्न है, इस ऊर्जा को बाहर से मुक्त कर लेना है, ताकि यह अंतर्यात्रा पर निकल जाए। अपने ही भीतर डुबकी मारनी है। वहां कैसी माला, वहां कैसा नाम, वहां कैसा जाप! न मंत्र है वहां, न तंत्र है वहां, न कोई यंत्र है वहां। शास्त्र सब पीछे छूट गए। शब्द सब पीछे छूट गए, तो शास्त्र कैसे बचेंगे?
माला जपों न कर जपों,...
तो न तो माला फेरता हूं, न हाथ की अंगुलियों पर राम का स्मरण करता हूं। करता ही नहीं राम का स्मरण। यह क्रांतिकारी उदघोष देखते हो! छोड़ ही दिया है राम के स्मरण को, क्योंकि स्मरण मात्र बाहर का है। स्मृति मात्र बाहर की बनती है। मन बाहर की सेवा में संलग्न है। मन बाहर का दास है। फिर धार्मिक हो मन कि अधार्मिक, बहुत भेद नहीं पड़ता। दुर्जन का हो कि सज्जन का, समान है।
धर्म की आत्यंतिक दृष्टि में दुर्जन और सज्जन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं; दोनों से कोई भी परमात्मा से न जुड़ सकेगा। और खतरा तो यह है कि वह जो दुर्जन है, शायद अपनी भीतरी पीड़ा के कारण, कि मैं क्या कर रहा हूं, शायद पश्चात्ताप के कारण, शायद आत्मदंश के कारण, किसी दिन अंतर्यात्रा पर भी निकल जाए; मगर सज्जन, जो सोचता है--दान दे रहा हूं, पुण्य कमा रहा हूं, मंदिर बना रहा हूं, पूजा कर रहा हूं, पाठ कर रहा हूं--वह तो क्यों छोड़ेगा! वह कुछ गलत काम तो नहीं कर रहा है! उसकी जंजीरें सोने की हैं। दुर्जन की जंजीरें लोहे की हैं। लोहे की जंजीरें तो खलती हैं, अखरती हैं--कोई भी तोड़ना चाहता है। लेकिन सोने की जंजीरों को आभूषण मान लेना बहुत आसान है। और अगर हीरे-जवाहरात जड़े हों, फिर तो कहना ही क्या! फिर तो सोने में सुगंध आ गई।
तो पापी भी शायद कभी परमात्मा को स्मरण कर ले, लेकिन पुण्यात्मा तो भटकता ही रहेगा, अटकता ही रहेगा। पाप उतना नहीं अटकाता जितना पुण्य अटका लेता है। धर्म की दृष्टि में तो दोनों ही छोड़ने हैं, क्योंकि बहिर्यात्रा छोड़नी है। असल में कृत्य छोड़ना है, क्रिया छोड़नी है, मन छोड़ना है, मन का सारा व्यापार छोड़ना है। और उस अंतस्तल पर पहुंचना है, जहां कोई लहर भी नहीं उठती, न फिल्मी धुन उठती है, न गाली-गलौज उठती है, न हरि-स्मरण उठता है। वहां कोई तरंग ही नहीं उठती। निस्तरंग, निर्विचार, निर्विकल्प! उसी दशा में अनुभव होता है। उसी दशा में साक्षात्कार है, समाधि है। उसी दशा में समाधान है।
मलूक ठीक कहते हैं: माला जपों न कर जपों, जिभ्या कहों न राम! क्या कहूं जीभ से राम को? जीभ से कहे राम का क्या अर्थ है? कोई अर्थ नहीं है। और ध्यान रखना, जब भी संत ‘राम’ शब्द का उपयोग करते हैं तो दशरथ के बेटे राम से उनका कोई प्रयोजन नहीं है। राम शब्द दशरथ के बेटे राम से बहुत पुराना है। राम तो परमात्मा का एक नाम है। राम के पहले परशुराम हो गए। परशुराम का अर्थ है: फरसा वाले राम। राम के पहले राम नाम तो था ही, इसलिए तो राम को भी राम नाम दिया गया था। नाम पहले से था। इसलिए इस भ्रांति में मत पड़ जाना कि दशरथ के बेटे की बात हो रही है। यह तो परमात्मा का एक नाम है, जैसे हरि एक नाम है। वैसे राम एक नाम है, जैसे ओम् एक नाम है। जो भी नाम चुन लो, क्योंकि वस्तुतः तो उसका कोई नाम नहीं है, वह अनाम है।
...जिभ्या कहों न राम।
क्यों कहूं जीभ से? कहूं ही क्यों? कहने से क्या होगा? पुकारूं क्यों? शोरगुल क्यों मचाऊं? प्रदर्शन क्यों करूं?
सुमिरन मेरा हरि करैं, मैं पाया बिसराम।
मैं तो परम विश्राम में बैठ गया हूं।
यही ध्यान है। विश्राम यानी ध्यान। जहां कोई क्रिया नहीं, कोई हलन-चलन नहीं, कोई हिलन-डुलन नहीं। सब थिर हो गया। पत्ता भी नहीं हिलता। जहां सन्नाटा ही सन्नाटा है। उस परम शून्य की अवस्था में एक अदभुत घटना घटती है--मलूकदास कहते हैं--कि स्वयं परमात्मा तुम्हारा स्मरण करता है, तुम्हें करने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। वह तुम्हारी फिकर करता है। वह तुम्हारी चिंता लेता है। उसे ही लेनी चाहिए, वही ले सकता है। हम तो उसके ही अंग हैं। हम तो उसकी ही ऊर्जा की किरणें हैं। हम तो छोटे-छोटे दीये हैं, वही सूरज है। हम में तो उसी की रोशनी है।
परमात्मा से अर्थ है: यह सारा अस्तित्व, इसका जोड़। यह अस्तित्व हमारे प्रति उपेक्षा से भरा हुआ नहीं है। यह अस्तित्व हमारे प्रति परम प्रेम से पूर्ण है। इस अस्तित्व से प्रतिक्षण हमारी तरफ प्रेम की अजस्र धाराएं बह रही हैं। लेकिन हम बंद बैठे हैं। वर्षा तो हो रही है, हमारे घड़े उलटे रखे हैं। वर्षा हो जाती है, हम खाली के खाली। हम रोते ही रहते हैं कि हमारी प्यास कब बुझेगी, हमारी अतृप्ति कब मिटेगी? और घड़ा उलटा रखे बैठे हैं।...‘कि हम भरते क्यों नहीं? परमात्मा की सब पर कृपा होती है, हम पर कृपा क्यों नहीं होती? क्या हम से नाराज है? किन जन्मों के पापों का हम फल भोग रहे हैं?’
किन्हीं जन्मों के पापों का फल नहीं भोग रहे हो। ये तरकीबें हैं तुम्हारी अपने को समझा लेने की। घड़ा सीधा नहीं करना है। तो क्या-क्या ईजादें करते हो! क्या-क्या सिद्धांत खोज लाते हो! कैसे कुशल हो! कैसे चालबाज हो! ऐसे-ऐसे सिद्धांत खोजते हो--बेईमानी से भरे हुए--कि जिनका कोई हिसाब नहीं। और एक बार तुम्हें सिद्धांत मिल जाते हैं तो बस पकड़ कर बैठ जाते हो।
हजारों साल से तुम गरीबों को समझा रहे हो कि तुम पिछले जन्मों के पापों के कारण गरीब हो। अमीरों को समझा रहे हो कि तुम पिछले जन्मों के पुण्यों के कारण अमीर हो। ऐसे पंडित की बन आती है। पंडित को लाभ ही लाभ है। अमीर खुश होता है--दोहरे कारणों से। एक तो इसलिए कि उसके पिछले जन्मों के पुण्य की घोषणा की जा रही है। दुनिया जानती है उसकी बेईमानी को। दुनिया जानती है कैसे उसने यह धन इकट्ठा कर लिया है। दुनिया जानती है कितने गले काटे हैं, किस-किस का खून पीया है। पानी छान कर पीता होगा, खून बिना छाने पी जाता है। उसके शोषण का सबको पता है। और इसने पिछले जन्मों में पुण्य-कर्म किए हैं, पंडित गुहार मचाए रखते हैं। तो एक तो फायदा यह कि उनकी गुहार से पिछले जन्मों के पुण्यों के कारण इस जन्म में वह जो पाप कर रहा है वे छिप जाते हैं, छोटे पड़ जाते हैं। बड़ी-बड़ी लकीरें खींच देता है पुण्य की तो पाप तो छोटे-मोटे हो जाते हैं। दीये जला देता है पुण्य के, चारों तरफ पुण्य की चर्चा गूंज उठती है, घंटनाद हो जाता है। तो इस जन्म के पाप कौन गिनती में रह जाते हैं! एक तो फायदा यह।
दूसरा फायदा यह कि वह जो व्याख्या दे रहा है, उससे गरीब को किसी तरह की बगावत करने की सुविधा नहीं रह जाती। बगावत करने में क्या सार है! पिछले जन्मों में पाप किए हैं, सो भोगोगे ही भोगोगे! जो जैसा करेगा वैसा भोगेगा। जो जैसा बोएगा वैसा काटेगा। किए हैं पाप, सो भोगो। इतना ही करो कम से कम, अब मत करना, नहीं तो अगले जन्म में भी भोगोगे। सो विद्रोह नहीं, क्रांति नहीं, बगावत नहीं; क्योंकि यह सब पाप है। फिर और भोगोगे। अब जितना हो चुका हो चुका। इसी को रफा-दफा करो, किसी तरह इसी हिसाब-किताब को सुलझा लो। पिछला ही काफी है। इससे ही छुटकारा हो जाए, अब और नया उपद्रव न बांधो।
तो धनी दोहरे ढंग से खुश हैं। इस जन्म के पाप छिप जाते हैं पिछले जन्म के पुण्यों के शोरगुल में और गरीबों से सुरक्षा मिल जाती है। इसलिए इस देश में कोई बगावत नहीं हो सकी। इस देश में मार्क्स पैदा नहीं हो सकता था। हो ही नहीं सकता था! इस देश में साम्यवाद की कोई धारणा पैदा नहीं हो सकती थी--असंभव थी, क्योंकि इस देश की परिभाषाएं, इस देश के मन का जो निर्माण हुआ है, वह बड़ा बुर्जुआ है। इस देश के चित्त की जो संस्कारिता है, वह बड़ी जड़ है। इस देश के जो संस्कार हैं वे क्रांति-विरोधी हैं। इसलिए पांच हजार साल में यह शायद अकेला देश है जहां कोई क्रांति नहीं हुई। आज भी क्रांति की कोई संभावना नहीं है, क्योंकि आज भी हमारे पास वही सड़ा-गला दिमाग है।
और गरीब को भी इसमें एक लाभ दिखाई पड़ता है। गरीब को सांत्वना मिल जाती है कि अगर मैं दुख भोग रहा हूं तो मेरे दुख का कारण है। कारण मिलते ही आदमी को बड़ी सहानुभूति, सांत्वना उपलब्ध होती है। सहानुभूति इस तरह मिलती है कि लोग कहते हैं कि बेचारा क्या करे! मजबूरी थी, पिछले जन्मों में जो हुआ, अब तो कुछ किया नहीं जा सकता। जो हो गया, हो गया। कब किया था, अब उसको अनकिया तो किया नहीं जा सकता। इसलिए भोगना ही पड़ेगा।
इसलिए इस देश में गरीब की सेवा करने का कोई सवाल नहीं उठता; वह अपने कर्मों का फल भोग रहा है। उसके फलों में बाधा डालनी है? उसको फल भोग ही लेने दो। अगर तुम बाधा डालोगे सेवा करके, तो अगले जन्म में फिर फल भोगेगा। तो तुम कुछ लाभ नहीं पहुंचाओगे, हानि ही पहुंचाओगे।
जैनों में तेरापंथ है एक। आचार्य तुलसी उसके आचार्य हैं। तेरापंथियों की धारणा है कि अगर कोई आदमी कुएं में भी गिर जाए तो उसे बचाना मत, चूंकि वह अपने कर्मों का फल भोग रहा है। किसी को धकाया होगा पिछले जन्म में। अगर तुम उसको निकाल लोगे तो वह फल कैसे भोगेगा? और फल नहीं भोगेगा--और फल तो भोगना ही पड़ेगा--फिर गिरेगा। सो एक ही बार गिरने से काम हो जाता, तुमने और उपद्रव कर दिया, तुमने दो बार गिरने का इंतजाम कर दिया। और तुमने जो बाधा डाली जीवन के क्रम में, जीवन की व्यवस्था में, उसका कर्मफल तुमको भोगना पड़ेगा। न भी गिरे कुएं में तो छोटी-मोटी हौज में गिरोगे। मगर गिरोगे तुम भी। सो तुमने दोहरे उपद्रव कर लिए: अपने लिए पाप और इस आदमी के जीवन में बाधा डाल दी।
यहां तक तेरापंथ की धारणा है कि कोई प्यासा भी मरता हो मरुस्थल में तो तुम पानी मत पिलाना। तुम चुपचाप अपनी राह चले जाना। तुम डिगना ही मत। तुम अडिग भाव रखना। तुम अविचलित रहना, क्योंकि वह अपना फल भोग रहा है, बेचारे को भोग लेने दो। किया है सो भोगेगा।
कैसे-कैसे सिद्धांत! कैसा-कैसा अदभुत अध्यात्म!
इसलिए इस देश का साधु-संन्यासी किसी की सेवा नहीं करता; सेवा लेता है। यह सेवा करने की बात तो ईसाई ले आए। यह तो ईसाई धारणा है। यह हिंदुओं की, जैनों की, बौद्धों की धारणा नहीं है। तुम कल्पना ही नहीं कर सकते कि जैन मुनि और किसी की सेवा कर रहा हो। जैन श्रावक अपने मुनि के दर्शन करने को जाते हैं तो उनकी भाषा ही यह है। पूछो उनसे कहां जा रहे, तो वे कहते हैं: मुनि महाराज की सेवा को जा रहे हैं। यह कल्पनातीत है कि शंकराचार्य, फिर वे पुरी के हों कि द्वारिका के, कि कहीं और के, कि सेवा कर रहे हों। असंभव।
इसलिए शूद्रों को हम पांच हजार साल तक सताते रहे। हम उनको उनके कर्मों का फल दे रहे हैं। नहीं तो वे शूद्र ही क्यों होते! शूद्र हुए ही इसलिए हैं कि पाप किए हैं। भोगने दो फल। और हम ही फल नहीं देंगे तो कौन उनको फल देगा? भगवान के काम में ही लगे हैं! उनको दो फल, अच्छा फल दो, ताकि दुबारा फिर ऐसी भूल न करें। जैसे न्यायाधीश अच्छा फल देता है न--चोरी करोगे, बेईमानी करोगे, धोखाधड़ी करोगे, तो न्यायाधीश का काम यह है कि अच्छी तरह से फल दे कि दुबारा फिर ऐसा काम न करो। यही कार्य ब्राह्मण का है, पुरोहित का है, तुम सब सज्जनों का है। सेवा करने का सवाल ही नहीं उठता।
सेवा से बच गए, क्रांति से बच गए। और एक बड़ी अजीब सहानुभूति कि भई क्या कर सकते हो! तुम भी क्या करोगे! तुम्हारा भी अब कोई कसूर नहीं है। यह पुराना कसूर है। और दूसरी बात, गरीब को भी एक राहत, एक सांत्वना, क्योंकि उसको कारण मिल गया।
एक बड़ी मजे की बात है आदमी के मन की, कि जब तक उसे कारण न मिल जाए किसी चीज का, उसे बेचैनी होती है। फिर चाहे झूठा कारण ही मिल जाए तो भी उसे चैन आ जाता है। जब तक कारण न मिले तब तक वह पूछता है: क्यों? ऐसा क्यों? विचार उठता है, चिंता उठती है। जैसे ही कारण मिल जाए, गणित हल हो गया। मन को जवाब मिल गया। इसलिए अगर तुम गरीब हो, अंधे हो, लंगड़े हो, लूले हो--उत्तर साफ है: पिछले जन्मों का कर्म भोग रहे हो! भोगना ही पड़ेगा। इससे एक राहत मिल गई, एक सांत्वना मिल गई। अब इतना ही खयाल रखो कि आगे ऐसी भूल न हो।
हमने अजीब-अजीब सिद्धांतों का जाल बुन रखा है! सचाई कुछ और है। सचाई यह है कि तुम अपना घड़ा उलटा रखे बैठे हो; सीधा करो, अभी भर जाए। या कुछ लोग अगर सीधा भी किए हुए हैं तो यही नहीं देखते कि उनकी तलहटी फूटी हुई है। सो वे सीधा रखे बैठे हैं। वे कहते हैं: आप क्या बातें कर रहे हो! घड़ा तो हम सीधा रखे हैं, मगर भरता नहीं। तो जरा यह भी तो देखो कि तलहटी भी है कि फूटी हुई है? तो तलहटी फूटी हुई है। कोई हैं जिनकी तलहटी भी ठीक है, मगर घड़े में इतने छेद हैं कि भरता-भरता है कि खाली हो जाता है। फिर कुछ ऐसे भी हैं जिनके घड़े में छेद भी नहीं हैं, तलहटी भी ठीक है, सीधा भी रखा है; मगर घड़ा इतना गंदा है कि आकाश से अमृत भी बरसे तो जहर हो जाए। शुद्धतम पानी गिरता है, मगर तुम्हारे घड़े में पहुंचते ही, पीने की बात दूर, छूने योग्य भी नहीं रह जाता। तो घड़े की सफाई करनी होगी। सारी बात अभी करने की है।
ध्यान से यह सारी प्रक्रिया पूरी हो जाती है। पहला काम: घड़ा सीधा हो जाता है। मन हटा कि चेतना परमात्मा के सन्मुख हो जाती है; यह घड़े का सीधा होना है। विचार हटे कि छिद्र हटे। विचार, वासनाएं, आकांक्षाएं, महत्वाकांक्षाएं, अभीप्साएं, लालसाएं--ये सारे के सारे छेद हैं, हजारों छेद हैं। जैसे ही ये हटे कि घड़े में छेद नहीं रह गए। अहंकार हटा कि घड़े की तलहटी फूटी नहीं रह जाती। अहंकार फोड़े हुए है तुम्हें। अहंकार तुम्हें मार रहा है।
और अहंकार भी कैसा गजब का है! उसने भी सीढ़ियां बना रखी हैं। ब्राह्मण अहंकार से भरा हुआ है; वह क्षत्रिय को नीचे देखता है। क्षत्रिय का मजा यह है कि वह वैश्य को नीचे देखता है। वैश्य का मजा यह है कि वह शूद्र को नीचे देखता है। शूद्र को भी तुम यह मत सोचना, उसने भी इंतजाम कर रखा है। चमार भंगी को नीचे देखता है। शूद्रों में भी सब शूद्र अपने को एक सा शूद्र नहीं मानते। उन्होंने भी सीढ़ियां बना रखी हैं।
मैं एक नाइयों की सभा में बोलने गया। एक अदभुत संत हुए, सेना नाई। उनका जन्म-दिन था। लोग आए। मैंने कहा कि जरूर आऊंगा। मगर नाइयों के अतिरिक्त कोई नहीं आया सुनने। जो लोग मुझे भी सुनने आते थे सदा, वे भी नहीं आए। मैंने उनसे बाद में पूछा कि तुम कोई दिखाई नहीं पड़े!
उन्होंने कहा: अब क्या हम नाइयों के पास बैठ कर उनके बीच में बैठें! नऊओं के बीच में बैठें! नाई तो शूद्र हैं!
कोई ब्राह्मण है, कोई क्षत्रिय है, कोई वैश्य है; वह शूद्रों में बैठे!
फिर एक बार मैं चमारों की एक सभा में बोलने गया। रैदास की वाणी पर वे सुनना चाहते थे मुझे। तो मैंने सोचा, यहां कम से कम नाई तो आएंगे; वहां नाई तक नहीं आए। तो मैंने पूछा उन नाइयों से कि क्यों भाई, तुम बड़े नाराज थे कि दूसरे नहीं आए थे, तुम्हें तो कम से कम आना था। तुम भी शूद्र हो, ये भी शूद्र हैं!
उन्होंने कहा: आप क्या कहते हैं! चमरट्टों की सभा में और हम आएं! अरे हम नाई हैं! अब आजकल वे अपने को नाई भी नहीं कहते, अपने को सेन कहते हैं, कि हम सेन हैं, हम ऐसे चमारों की सभा में नहीं आ सकते! चमारों के बीच हम बैठेंगे?
चमारों की सभा में सिर्फ चमार आए, कोई और नहीं आया। उसमें भी सब चमार नहीं आए। मैंने पूछा कि बस इतने ही चमार हैं यहां? उन्होंने कहा: नहीं, चमार तो और भी हैं। लेकिन हममें भी छोटी-बड़ी जातियां हैं। जो चमार अच्छे काम करते हैं उनकी अलग जाति है। वे लोग अपने को ऊंचा मानते हैं। जो जूते बेचते हैं, वे अपने को ऊंचा मानते हैं--उनसे, जो मरे हुए जानवरों की खाल निकालते हैं।
तो सीढ़ी पर सीढ़ी खड़ी कर दीं हमने। आदमी को ऐसा खंडित कर दिया।
अहंकार होगा तो यह होने वाला है। अहंकार सभी की तलहटी फोड़ देता है। और जहां अहंकार है वहां परमात्मा से संबंध नहीं हो सकता। परमात्मा बरसता रहेगा, तुम खाली के खाली रहोगे। अहंकार भर नहीं सकता। अहंकार कब किसका भरा है? अहंकार खाली है और खाली ही रहता है, लाख भरने के उपाय करो।
ध्यान यह सारी अदभुत क्रिया को कर लेने की कीमिया है। यह तुम्हारे अहंकार को मिटा देगा। क्योंकि जो शून्य हुआ वहां कैसा मैं-भाव! और जहां मैं नहीं है वहां कैसा ब्राह्मण, कैसा शूद्र, कैसा क्षत्रिय, कैसा वैश्य! और जहां मन गया वहां घड़ा सीधा हुआ, चेतना सीधी परमात्मा से जुड़ी। और जहां वासनाएं न रहीं, वहां छिद्र न रहे।
और सारा कलुष क्या है? क्रोध का है, वैमनस्य का है, ईर्ष्या का है। ये तो जहर हैं, जो तुम्हारे घड़े में लिपटे हुए हैं। लेकिन मन से हटे कि ये सारे जहर से हट गए। ये सारे जहरों की सीमा मन तक है; मन के पार इनकी कोई पहुंच नहीं है। यह सारी अशांति, यह सब उपद्रव मन का है।
ठीक कहते हैं मलूकदास:
सुमिरन मेरा हरि करैं, मैं पाया बिसराम।
वे कहते हैं: मेरा तो विश्राम हो गया। मैं बचा ही नहीं। मैं तो ऐसा विश्राम को पा गया हूं, ऐसा ठहर गया--सारी गति गई, सारी क्रिया, दौड़-धूप, आपाधापी गई--कि तब मैंने एक अदभुत बात पाई, एक अनूठा चमत्कार देखा, आश्चर्यों का आश्चर्य--कि मैं तो राम का नाम नहीं जप रहा हूं, लेकिन परमात्मा मेरा स्मरण करता है, चौबीस घंटे मेरी याद रखता है! चौबीस घंटे उसकी अनुकंपा मुझ पर बरस रही है। बिन मांगे बरस रही है।
बिन मांगे मोती मिलें, मांगे मिले न चून।
इसलिए इस शीर्षक को मैंने चुना है--इन आने वाले दस दिनों के लिए। काश, तुम्हारे जीवन में भी ऐसा हो सके, तो ही जानना कि तुम जीए, तो ही जानना कि तुमने कुछ पाया, तो ही जानना कि जीवन सार्थक हुआ है!
दूसरा प्रश्न:
भगवान, मैं चारों ओर ऐसे लोग देख रही हूं जो आनंदित हैं। यह सुंदर बात है। लेकिन मैं अपने आप से पूछती हूं कि इनमें से कितने युवक-युवतियां अपने माता-पिताओं को घर पर संताप में छोड़ आए हैं? क्या यह उचित है कि वे केवल अपनी ही फिकर करें और दूसरे दायित्वों को भूल जाएं?
पावला फलाची! पहली बात: जो अपनी फिकर नहीं कर सकता, वह कोई और दूसरा दायित्व कभी पूरा नहीं कर सकता। पहला दायित्व अपनी तरफ है और जो वहां चूका वह सभी दायित्वों में चूक जाएगा। जो स्वयं शांत नहीं है, वह किसी को भी शांत नहीं कर सकता। जो स्वयं आनंदित नहीं है, वह किसी को भी आनंदित नहीं कर सकता।
हम इस जगत में दूसरों को वही दे सकते हैं जो हमारे पास है। अगर दुख हमारे पास है तो हम दुख ही देंगे, और कोई उपाय नहीं है, अन्यथा हो ही नहीं सकता। यह जीवन की अनिवार्यता है। हां, यह हो सकता है कि हम चाहें कि सुख दें। मगर स्वर्ग चाहने से किसी को हम नहीं दे सकते। नरक का रास्ता, कहते हैं, शुभाकांक्षाओं से पटा पड़ा है। क्यों?
पावला फलाची, जो बेटे और बेटियां अपने मां-बाप के पास हैं, क्या उनके मां-बाप उन बेटे और बेटियों से संतुष्ट हैं, तृप्त हैं? कौन मां-बाप अपने बेटे और बेटियों से तृप्त है, संतुष्ट है? कौन मां-बाप शिकायत से नहीं भरा है? कौन पति शिकायत से नहीं भरा है पत्नियों की, कौन पत्नी शिकायत से नहीं भरी है पतियों की? कौन बच्चे शिकायत से नहीं भरे हैं मां-बाप की? और सारी दुनिया में सभी लोग कहते हैं कि हम प्रेम कर रहे हैं, लेकिन कहीं प्रेम दिखाई पड़ता नहीं। प्रेम का संगीत सुनाई पड़ता नहीं। प्रेम के फूल खिलते अनुभव में नहीं आते। कहीं प्रेम की सुगंध उड़ती नहीं। सब तरफ अप्रेम है, घृणा है। कारण क्या होगा? कारण यही है कि जो हमारे पास नहीं है वह हम दूसरे को देना चाहते हैं। पति स्वयं आनंदित नहीं है और पत्नी को आनंदित करने में लगा है, यह कैसे हो सकता है? पत्नी स्वयं आनंदित नहीं है और पति को आनंदित करने में लगी है, यह कैसे हो सकता है? यह तो दो भिखमंगों जैसी हो गई बात, एक-दूसरे के सामने झोली फैलाए खड़े हैं। कौन किसको दे! दोनों की झोली खाली है। दोनों एक-दूसरे पर नाराज हो रहे हैं।
दो ज्योतिषी एक रास्ते पर मिले। रोज मिलते थे। सुबह-सुबह उसी रास्ते से गुजरते थे बाजार जाने के लिए। एक-दूसरे को अपना हाथ दिखाते थे कि भई, जरा मेरा हाथ तो देखो। आज व्यवसाय कैसा चलेगा?
अब जो ज्योतिषी एक-दूसरे को अपना हाथ दिखा रहे हैं, ये किसका हाथ देख सकेंगे? इनको खुद अपना पता नहीं है, ये किसको किसका पता दे सकेंगे!
दो मनोवैज्ञानिक एक बार बगीचे में मिले। सुबह घूमने गए होंगे। एक मनोवैज्ञानिक ने दूसरे से कहा: तुम तो भले-चंगे हो। मेरे संबंध में कुछ कहोगे, मेरी हालत कैसी है?
दूसरे को बाहर से देख सकते हो, भला-चंगा दिखाई पड़ रहा है। अपने को तो देखने तक की क्षमता नहीं है, क्योंकि अपने भीतर उतरने की क्षमता नहीं है। मेरी हालत कैसी है, कुछ मेरे संबंध में कहो--यह हम दूसरे से पूछ रहे हैं।
पावला, तेरे मन में यह विचार तो उठा कि ये युवक और युवतियां यहां आकर इतने आनंदित हैं, लेकिन घर पर अपने माता-पिताओं को संताप में छोड़ आए हैं। जो नहीं छोड़ कर आए हैं अपने माता-पिता को, उनके माता-पिता आनंदित हैं? यह भी सोच। और फिर माता पिता अगर संताप में हैं तो जरूरी नहीं है कि कारण उनके बेटे-बेटियों का यहां आना हो। कारण उनकी अपनी मूढ़ता हो सकती है, अपनी जड़ता हो सकती है। उनकी जड़ता के लिए उनके बेटा-बेटी जिम्मेवार नहीं हैं।
अभी एक महिला का पत्र आया--उसकी बेटी के नाम। उसकी बेटी ने--संन्यासिनी है और पावला के देश की ही है, इटली से ही है--अपनी मां को मेरी किताबें भेजी होंगी। उसकी मां ने किताबें पढ़ीं और उसने पत्र लिखा कि मैं किताबों को पढ़ कर प्रसन्न हुई, बातें बिलकुल ठीक हैं, सिर्फ एक बात जानना चाहती हूं कि क्या यह व्यक्ति जिसके पास तुम रुक गई हो, कैथोलिक ईसाई है या नहीं? अगर कैथोलिक ईसाई है तो बिलकुल ठीक। और अगर कैथोलिक ईसाई नहीं है तो जितने शीघ्र घर आ सको, आ जाओ।
मेरी बातें ठीक हैं, वह लिखती है। मगर मेरी बातों के ठीक होने से क्या लेना देना है? उसकी बेटी आनंदित है, यह वह जानती है, लेकिन उससे भी कोई प्रयोजन नहीं है; प्रयोजन इस बात से है कि जिस व्यक्ति के पास रुकी हो, वह कैथोलिक ईसाई है या नहीं? निश्चित ही मैं न कैथोलिक हूं, न प्रोटेस्टेंट हूं, न हिंदू हूं, न मुसलमान हूं, न जैन हूं, न बौद्ध हूं। मैं निपट आदमी हूं--खालिस, बस आदमी हूं! कोई विशेषण नहीं। अब अगर यह मां संतापग्रस्त हो जाए तो क्या इसकी बेटी जिम्मेवार है? यह इसकी मां की मूढ़ता है। अब मां की मूढ़ता के लिए बेटी क्या करे? चेष्टा करती है, किताबें भेजती है, पत्र लिखती है, समझाने की कोशिश करती है, और क्या कर सकती है? क्या तुम सोचती हो, यह बेटी वापस चली जाए तो यह अपनी मां को आनंदित कर सकेगी? अपने आनंद को भी गंवा देगी। और इसकी मां ने क्या खाक आनंद पाया होगा, जिसको अभी इतनी भी समझ नहीं आई जीवन में कि धर्म का कोई संबंध कैथेलिक, ईसाई या हिंदू या मुसलमान से नहीं होता! इसकी मां अंधविश्वासी है। अब अगर कोई अपने अंधविश्वासों के कारण दुखी हो रहा हो तो इसमें कसूर किसका है? इसमें भूल-चूक किसकी है?
तब तो हमें सारे शिक्षालय बंद कर देने चाहिए, क्योंकि ईसाई मानते हैं कि पृथ्वी चपटी है और विश्वविद्यालय में बच्चे पढ़ कर लौटेंगे कि पृथ्वी गोल है, मां-बाप को संताप होगा। ईसाई मानते हैं कि सूरज पृथ्वी का चक्कर लगाता है और बच्चे विश्वविद्यालयों से पढ़ कर लौटेंगे कि सूरज पृथ्वी का चक्कर नहीं लगाता, पृथ्वी सूरज का चक्कर लगाती है। इससे मां-बाप को संताप होगा। क्या करना है? मां-बाप के संताप को देखना है या सत्य को देखना है? तो ये सारे विश्वविद्यालय बंद हो जाने चाहिए। और फिर भी क्या तुम सोचती हो कि मां-बाप आनंदित हो जाएंगे? मां-बाप आनंदित होते ही कहां हैं! किसके मां-बाप आनंदित होते हैं? मां-बाप को हमेशा शिकायत बनी रहती है।
इस दुनिया में कोई किसी दूसरे से आनंदित हो ही नहीं सकता; किसी दूसरे के कारण आनंदित हो ही नहीं सकता। आनंद भीतर की घटना है, स्वस्फूर्त होता है। आनंद ध्यान से उपजता है, संबंधों से नहीं।
इसलिए यह जो तुम्हें दिखाई पड़ रहा है पावला कि यहां चारों ओर तुम देख रही हो लोग आनंदित हैं, तुम्हें भी लग रहा है यह बात सुंदर है। ऐसे आनंदित लोग, जो मां-बाप के पास हैं, वे भी तुम्हें दिखाई पड़ते हैं? अगर नहीं तो वे निरानंद लोग कैसे अपने दायित्वों को पूरा कर रहे होंगे? जबर्दस्ती ढो रहे होंगे। मगर भीतर-भीतर बच्चे सोचते हैं--कब इस खूसट बुड्ढे से छुटकारा मिले, कब यह बुढ़िया मरे तो झंझट मिटे! और पश्चिम में तो बच्चे आज नहीं कल मां-बाप को छोड़ कर चले ही जाते हैं। पश्चिम में तो बूढ़े मां-बाप अस्पतालों में या वृद्धालयों में रह रहे हैं। ये तो कहीं न कहीं छोड़ कर जाएंगे ही। अगर ये यहां आ गए हैं तो तत्क्षण सवाल उठता है कि उन्होंने अपना दायित्व छोड़ दिया। अगर ये कहीं जाकर नौकरी करते, धन कमाते--चाहे चोरी से ही धन कमाते, चाहे बेईमानी से ही धन कमाते, तो भी अपना दायित्व पूरा कर रहे होते। लेकिन इनका आनंदित होना दायित्व का पूरा करना नहीं है!
मेरी दृष्टि में तो अगर ये आनंदित होकर वापस लौटेंगे किसी दिन तो शायद आनंद को बांट सकेंगे। ये जहां जाएंगे वहां आनंद की किरणें बिखेरेंगे। मेरे हिसाब में दायित्व गौण है, नंबर दो है; आनंद प्रथम है। और आनंदित व्यक्ति ही केवल अपने कर्तव्य पूरे कर सकता है। दुखी व्यक्ति अपने कर्तव्य पूरे नहीं कर सकता। करे भी तो जबर्दस्ती करता है; मजबूरी में करता है; करना पड़ता है, इसलिए करता है। उसका कोई रस नहीं होता करने में।
और अगर मेरी बात तुम्हें समझ में आए--कठिन पड़ेगी समझना--मैं तो स्वार्थ सिखाता हूं। मेरे लिए स्वार्थ शब्द बुरा शब्द नहीं है। स्वार्थ शब्द का अर्थ है: स्वयं का अर्थ। स्वार्थ शब्द का अर्थ है: मैं कौन हूं, इसको जानना। और जो व्यक्ति स्वयं को जान लेता है, उसके जीवन में क्रांति हो जाती है। वह अच्छा पति होगा, अच्छी पत्नी होगी, अच्छा बेटा होगा, अच्छी बेटी होगी, अच्छा बाप होगा, अच्छी मां होगी। वह जो भी होगा, जहां भी होगा, उसके जीवन में एक सुगंध होगी, उसके संबंधों में एक रस होगा। क्योंकि उसकी हर जीवन-शैली में परमात्मा की छाप होगी। मैं स्वार्थ-विरोधी नहीं हूं।
और भी जान कर तुम्हें हैरानी होगी पावला, कि मेरी मान्यता है कि जो स्वार्थ को ठीक से समझ लेता है वही परार्थी हो सकता है। स्वार्थ और परार्थ में मैं विरोध नहीं देखता। जो स्वार्थी ही नहीं है, वह परार्थी तो कभी हो ही नहीं सकता। जिसने स्वयं का ही अर्थ नहीं साधा अभी, वह औरों का क्या खाक अर्थ साधेगा? हां, जबर्दस्ती उससे सधवा दो दूसरों का अर्थ, धक्के दे-दे कर उससे सेवा करवा लो, तो कर देगा। लेकिन मजबूरी होगी, जबर्दस्ती होगी; उसका आनंद नहीं हो सकता है। और मजा क्या उस बात में, जिसमें आनंद न हो? रस क्या उस बात में, जो तुम्हारे भीतर से उपजती न हो?
मैं स्वार्थ सिखाता हूं। परार्थ के फूल स्वार्थ में ही लगते हैं। हालांकि तुम्हें आज तक यही बात कही गई है, सदा यही दोहराया गया है कि स्वार्थ और परार्थ विरोधी हैं, स्वार्थ छोड़ो और परार्थ करो। आज तक मनुष्य-जाति के इतिहास में यही मूढ़तापूर्ण बात समझाई गई है। इसका परिणाम यह हुआ कि परार्थ तो हुआ ही नहीं, स्वार्थ भी नहीं हो पाया। पहले तो मैं कहता हूं: अपनी जड़ें मजबूत करो, ताकि तुम्हारे जीवन में फूल खिलें। फूल खिलेंगे तो सुगंध दूसरों को मिलेगी ही मिलेगी। और तुम्हारी अपनी ही जड़ें मजबूत नहीं हैं तो तुम इस भ्रांति में मत पड़ना कि तुम किसी को सुगंध देने में कभी भी समर्थ हो सकते हो।
पावला का दूसरा प्रश्न है:
भगवान, आप जानते हैं कि इस समय दुनिया में युद्ध की चर्चा चल रही है। इस खतरे को रोकने के लिए हम में से प्रत्येक व्यक्ति क्या कर सकता है?
पावला, अब तक तुम्हें युद्ध ही सिखाया गया है। अब तक तुम्हें प्रेम सिखाया नहीं गया। अब तक तुम्हें युद्ध के लिए ही तैयार किया गया है; तुम्हें प्रेम की कोई भूमिका नहीं दी गई; तुम्हें शांति का कोई पाठ नहीं पढ़ाया गया। यद्यपि कहते हैं राजनेता कि हम शांति चाहते हैं, मगर बड़ी अजीब है उनकी शांति! शांति चाहते हैं, बनाते एटमबम हैं! शांति चाहते हैं, बनाते हाईड्रोजन बम हैं!
औरों की तो बात छोड़ दो, यह गांधीवादी देश है भारत, यह तो अहिंसा की बात करता है। मगर यह भी अपना सत्तर प्रतिशत धन फौजों पर खर्च करता है। भूखा मर रहा है, अधनंगा है, कपड़ा नहीं, मकान नहीं, मिट्टी का तेल नहीं, जीवन की साधारण जरूरतें पूरी नहीं होतीं, मगर मिलिटरी में सांडों को पाल रहा है। कर्नल, जनरल, मेजर--ये सब सांड हैं, जिनका कुछ काम नहीं है। कवायद करो, क्योंकि खतरा है--पड़ोस में दूसरे देश अपने-अपने सांडों को पाल रहे हैं! उनके सांड डंड-बैठक लगा रहे हैं तो अपने सांडों को भी डंड-बैठक लगवाओ। सबको अपना झंडा ऊंचा रखना है। झंडा-वंडा से किसी को मतलब नहीं है, सबको अपना डंडा ऊंचा रखना है! झंडा तो बहाना है, झंडे में छिपा डंडा है।
जब तक दुनिया में देश हैं, तब तक युद्ध होंगे। देश मिटने चाहिए। बहुत हो चुका। अब कोई जरूरत नहीं है कि भारत हो, पाकिस्तान हो, चीन हो, रूस हो, इटली हो, जापान हो, जर्मनी हो। बहुत हो चुका। दुनिया से राष्ट्र मिटने चाहिए। जब तक राष्ट्र हैं, तब तक युद्ध जारी रहेंगे।
मैं यह प्रयोग यहां कर रहा हूं। यहां किसी को पता नहीं कौन कौन है। किसी को चिंता भी नहीं। यहां सारी दुनिया एक परिवार की तरह रह रही है। छोटा सा परिवार, लेकिन इस परिवार में सारे लोग हैं। कोई तीस-पैंतीस राष्ट्रों के लोग हैं। लेकिन कोई भेदभाव नहीं है।
धर्म मिटने चाहिए। धर्म बचेगा, धर्म मिट जाने चाहिए। बहुवचन में धर्मों की कोई जरूरत नहीं, एकवचन काफी है। हिंदू की क्या जरूरत है, मुसलमान की क्या जरूरत है, ईसाई की क्या जरूरत है? पोप की क्या जरूरत है और शंकराचार्य की क्या जरूरत है? इतना काफी है कि लोग धार्मिक हों और धार्मिक होने के लिए ध्यान की जरूरत है, और किसी चीज की कोई जरूरत नहीं है। न बाइबिल को मानने की जरूरत है, न कुरान को, न वेद को। और इन बाइबिल और कुरान और वेदों में ऐसी मूढ़तापूर्ण बातें भरी हैं कि इनको मानने वाले अंधे ही लोग हो सकते हैं। अगर इनको कोई जरा आंख खोल कर देखे तो बहुत घबड़ाएगा कि कैसे मानें इनको! इनमें कचरा ज्यादा है, हीरे तो कभी-कभार मिलेंगे। और जो हीरे हैं, वे तो तुम्हें अपने ध्यान में खोदने से खुद ही मिल जाएंगे, तो इस कचरे में इतना क्यों परेशान होना? और जब तक तुमने अपने हीरे नहीं पहचाने, तब तक तुम यह भी नहीं जान पाओगे कि वेद में क्या कचरा है और क्या हीरा है। कैसे जानोगे? तुम्हारे पास कोई कसौटी नहीं, कोई मापदंड नहीं, कोई तराजू नहीं।
अगर दुनिया से युद्ध मिटाने हैं पावला, तो राष्ट्र मिटने चाहिए, धर्म मिटने चाहिए, सीमाएं मिटनी चाहिए--सब तरह की सीमाएं मिटनी चाहिए। पृथ्वी एक है। पृथ्वी एक है और पृथ्वी को एक ही होना चाहिए। सारी पृथ्वी पर एक शासन काफी है; इतने राष्ट्र, इतनी सत्ताएं, इतनी सरकारें, इनकी कोई आवश्यकता नहीं है।
मेरे संन्यासी उसी दिशा में पहला कदम उठा रहे हैं। जैसे-जैसे संन्यासियों की संख्या बढ़ेगी, वैसे-वैसे राजनेताओं को चिंता बढ़ेगी, क्योंकि मेरा संन्यासी सब तरह की बगावत करने वाला है, कर ही रहा है।
पावला, अगर युद्ध मिटाना है, संन्यासी फैलाओ; अगर युद्ध बढ़ाना है तो सैनिक बनाओ। सैनिक और संन्यासी विपरीत हैं। सैनिक का अर्थ है: युद्ध, युद्ध की तैयारी। और संन्यासी का अर्थ है: शांति, शांति की तैयारी। फैलाओ संन्यासी को! फैलाओ संन्यासी के रंग को! डुबा दो सारी पृथ्वी को ध्यान में! अपने आप युद्ध समाप्त हो जाएंगे। युद्धों की कोई भी जरूरत नहीं है; अकारण लड़े गए हैं, व्यर्थ लड़े गए हैं। तीन हजार सालों में पांच हजार युद्ध हुए हैं। और अब तक तो हो भी सकते थे, क्योंकि टुच्ची-टुच्ची हमारे पास साधन-सामग्री थी। अब तो बड़ा मुश्किल मामला है। अब तो युद्ध होगा तो पूर्ण युद्ध होगा। एक युद्ध में सारी दुनिया समाप्त होगी। न आदमी बचेगा, न पशु-पक्षी बचेंगे, न पौधे बचेंगे, कीड़े-मकोड़े भी नहीं बचेंगे। जीवन ही नहीं बचेगा। एक भयंकर युद्ध के द्वार पर हम खड़े हैं।
एक लिहाज से यह अच्छा है, क्योंकि हमें कुछ निर्णय करना होगा। और इतने ही खतरे के क्षण में लोग निर्णय करते हैं, नहीं तो निर्णय कोई करता भी नहीं। जब जान पर ही आ बनती है, तब ही लोग निर्णय करते हैं। अब जान पर बनी आ रही है बात। इस सदी के पूरे होते-होते दुनिया को निर्णय करना पड़ेगा कि अगर युद्ध चाहिए तो राष्ट्रों को चलने दो और अगर युद्ध नहीं चाहिए तो राष्ट्रों को विदा करो। राष्ट्रों के विदा करते ही हिंदुस्तान को फौजें रखने की जरूरत नहीं, किसके खिलाफ फौज रखनी है? पाकिस्तान को फौजें रखने की जरूरत नहीं, किसके खिलाफ फौज रखनी है? और अभी तो फौजें ही खाए जा रही हैं। सत्तर प्रतिशत दुनिया की संपत्ति फौजें खा जाती हैं। यह दुनिया स्वर्ग बन सकती है। जरा सोचो तो, अगर यह सत्तर प्रतिशत संपत्ति दुनिया में उत्पादक कामों में लगे और ये फिजूल बैठे हुए लोग, जो दिन भर कुछ भी नहीं करते, कवायद करते हैं, मूर्खतापूर्ण! बाएं घूम, दाएं घूम! क्या मतलब है बाएं घूम दाएं घूम से? काहे के लिए बाएं घूम रहे, काहे के लिए दाएं घूम रहे हो? कोई दिमाग खराब हो गया है? काम हो तो जरूर घूमो, मगर बेकाम बाएं-दाएं घूम रहे हो! आगे बढ़, पीछे हट! कोई पूछता भी नहीं किसलिए आगे बढ़ना, किसलिए पीछे हटना! तैयारी चल रही है। हमेशा खतरा बना हुआ है पड़ोसी का।
अगर दुनिया से राष्ट्र समाप्त हो जाएं तो यह खतरा समाप्त हो जाता है, यह भय समाप्त हो जाता है। अब दुनिया में राष्ट्रों के दिन लद चुके, राजनीति के दिन लद चुके। यह सड़ी-गली दुनिया राजनीतिज्ञों की अब समाप्त होने का वक्त आ गया। बहुत सता लिया है दुनिया को। अब वे खुद ही अपने हाथ से उस जगह ले आए हैं जहां आदमी को तय करना होगा कि या तो मर जाओ, या तो सामूहिक आत्मघात, सार्वलौकिक आत्मघात, विश्व-आत्मघात--और या फिर एक महाक्रांति, जिसमें कि हम पुराने सारे तौर-तरीकों को बदलें, जिसमें कि हम पुराने सारे ढंग-ढर्रों को बदलें, कि हम आदमी का फिर क ख ग से निर्माण करना शुरू करें। आदमी को फिर से बनाने की जरूरत है।
वही महत कार्य इस छोटे से पैमाने पर हो रहा है। यह आज काम छोटा है, यह बीस वर्षों में बड़ा हो जाएगा। इस सदी के पूरे होते-होते तुम देखोगे कि इस काम से आदमी के जीवन के लिए एक दिशा मिलनी शुरू हो गई।
ध्यान की ऊर्जा जगत में फैलनी चाहिए और प्रेम का वातावरण जगत में फैलना चाहिए। मेरी दो ही शिक्षाएं हैं: अपने भीतर ध्यान में उतरो और अपने बाहर प्रेम में उतरो।
मेरा विरोध होने वाला है। मेरा विरोध पंडित करेंगे, पुरोहित करेंगे, पोप करेंगे, पादरी करेंगे। मेरा विरोध राजनीतिज्ञ करेंगे, समाज के ठेकेदार करेंगे, न्यस्त स्वार्थ करेंगे; जिनके हाथ में अब तक सत्ता रही है, वे करेंगे। यह स्वाभाविक है, क्योंकि मैं उनको जड़ से काट डालना चाहता हूं। यह जड़-मूल से क्रांति है।
मेरा संन्यासी कोई पुराने ढंग का संन्यासी नहीं है, कोई भगोड़ा नहीं है कि उसे चले जाना है दूर हिमालय में किसी गुफा में बैठ जाना है। मेरा संन्यासी जिंदगी में खड़ा होगा और वहां एक नये ढंग से जीएगा। उसके जीने के दो पहलू होंगे--भीतर प्रेम और ध्यान। ध्यान अपने लिए, प्रेम औरों के लिए। ध्यान उसका केंद्र होगा, प्रेम उसकी परिधि होगी। और जितने लोग ध्यान और प्रेम से भरते चले जाएंगे, उतनी ही दुनिया में युद्ध की संभावना क्षीण होती चली जाएगी।
राजनीतिज्ञ तो पिट चुके हैं, सड़ चुके हैं, लाशें खड़ी हैं; सिर्फ धक्का मारने की जरूरत है, गिर जाएंगे। कोई बहुत बुद्धिमत्ता की जरूरत भी नहीं है राजनीति में।
मैंने सुना है, एक आदमी को अपना मस्तिष्क बदलना था। उसका पुराना मस्तिष्क सड़ गया था, तो वह गया एक सर्जन के पास। सर्जन ने कहा कि मस्तिष्क बदला जा सकता है। तुम जो मस्तिष्क पसंद करो, जितनी तुम्हारी हैसियत, जितनी तुम्हारी जेब की ताकत। उसने जाकर उसे बहुत से मस्तिष्क दिखाए अपनी प्रयोगशाला में। एक वैज्ञानिक का मस्तिष्क था, दाम थे केवल बीस डालर और एक राजनीतिज्ञ का मस्तिष्क था, दाम थे दो हजार डालर। उस आदमी ने पूछा: हद हो गई! मैं तो सोचता था वैज्ञानिकों के मस्तिष्क बहुमूल्य होते हैं। राजनीतिज्ञ के मस्तिष्क के दाम दो हजार डालर और वैज्ञानिक के मस्तिष्क के दाम केवल बीस डालर! और इस वैज्ञानिक को नोबल प्राइज मिली थी।
वह चिकित्सक हंसने लगा और उसने कहा: तुम समझे नहीं। वैज्ञानिक के मस्तिष्क को नोबल प्राइज मिली थी, इसीलिए तो उसके दाम बीस डालर। यह तो अपने मस्तिष्क का उपयोग कर चुका। यह राजनीतिज्ञ ने तो मस्तिष्क का कभी उपयोग किया नहीं, जरूरत पड़ी नहीं; यह काम में आया ही नहीं है। यह तो ब्रैंड न्यू समझो! इसलिए इसके दाम दो हजार डालर।
राजनीतिज्ञ को मस्तिष्क की क्या जरूरत है! जितना कम मस्तिष्क हो, उतनी राजनीति में ज्यादा सफलता की गुंजाइश है। वह मूढ़ों की दुनिया है और मूढ़ काफी सता चुके हैं। ये चंगीज खां और तैमूरलंग और ये नादिरशाह और ये सिकंदर...और इनको हम कहते रहे--महान! इतिहास भरा है इनसे और हम बच्चों की खोपड़ी इन कचरा नामों से भरते हैं। यह सारा इतिहास जला दो! इस इतिहास की कोई जरूरत नहीं है। ये थोड़े से नाम बच्चों को समझा दो--बुद्ध के, जीसस के, जरथुस्त्र के, लाओत्सु के, मोहम्मद के, महावीर के, फरीद के, नानक के, मलूक के--काफी हैं।
हमें इतिहास पूरा का पूरा और ढंग से पढ़ाना चाहिए। उनकी बात पढ़ाओ, जिन्होंने प्रेम की कही बात। उनकी बात पढ़ाओ, जिन्होंने परमात्मा की कही बात। उनकी बात पढ़ाओ, जिन्होंने जगत को ध्यान के सूत्र दिए। किन गधों की बात पढ़ा रहे हो--जिन्होंने जिंदगी को बरबाद किया, तहस-नहस किया, हत्याएं कीं, जो जमीन को खून से भर गए!
हमें सारा का सारा रंग-ढंग बदलना होगा। अब बदलना ही होगा, पावला, क्योंकि तू ठीक पूछती है: ‘आप जानते हैं इस समय दुनिया में युद्ध की चर्चा चल रही है।’
और यह चर्चा अब साधारण नहीं है, यह असाधारण है। क्योंकि अब जो युद्ध होगा, वह आखिरी है, निर्णायक है। या तो आदमी बचेगा या खत्म होगा। अगर बचना होगा आदमी को तो मेरे जैसे लोगों की बात सुननी ही पड़ेगी और अगर नहीं बचना है तो ठीक है, तुम जिस ढंग से रहते रहे हो रहते रहो। ऐसे मर जाओगे जैसे खटमल-मच्छर मर जाते हैं। यह पृथ्वी खाली हो जाएगी। यह पृथ्वी सूनी हो जोगी। यह सदियों-सदियों में जो थोड़े से लोगों ने मनुष्य-जाति में चैतन्य की अपूर्व ज्योति जलाई है, वह बुझ जाएगी। यह महत कार्य जो बुद्धों ने किया है, खो जाएगा। यह मंदिर जो बुद्धों ने बनाया है, यह धूल-धूसरित हो जाएगा। सब तुम्हारे हाथ में है।
सैनिक को विदा करो, संन्यासी को जगह दो। युद्ध की भाषा बंद, प्रेम की भाषा के पाठ पढ़ाओ। लेकिन प्रेम की भाषा के पाठ पढ़ाना, सब-कुछ बदलना होगा। आमूल-चूल बदलना होगा। यह कुछ ऐसा नहीं है कि कुछ शांति के नारेबाजी लगा दिए और कुछ झंडे लेकर शांति का जुलूस निकाल दिया कि हम युद्ध नहीं चाहते हैं, इससे कुछ हल हो जाएगा। इससे कुछ हल होने वाला नहीं है। इसके लिए कोई सृजनात्मक कार्य...वैसा ही सृजनात्मक कार्य यहां हो रहा है।
पावला, इसे समझने की कोशिश करो। यह सूत्रपात है। मेरी दृष्टि में ये सारी बातें हैं। मैं जो कर रहा हूं, उसमें एक बहुत पूरी की पूरी योजना है। उसमें मनुष्य के भविष्य के लिए पूरा का पूरा जीवन-दर्शन है।
तीसरा प्रश्न पावला का है:
भगवान, मैं जानती हूं कि कुछ इटलीवासी अपनी नशीली आदतों से छुटकारा पाने के लिए आपके पास आ रहे हैं। क्या उनके लिए कोई उम्मीद है? क्या आप उनका इलाज कर सकते हैं?
निश्चय ही, क्योंकि मैं उन्हें और बड़ा नशा पिलाता हूं। वे क्या खाक नशा करेंगे इटली में! कोई मारिजुआना, कोई हशिश, कोई गांजा, कोई अफीम, कोई एल.एस.डी.। मैं उन्हें ध्यान दे रहा हूं। जिसको ध्यान का नशा लग गया, फिर सब नशे छूट जाते हैं। और ध्यान के नशे की एक खूबी है: यह नशा है भी और नशा नहीं भी है। ध्यान बड़ा विरोधाभासी नशा है। यह जगाता भी है और डुबाता भी है। यह मदमाता भी है। यह मस्ती से भी भर देता है, और यह परम बोध को भी जगा देता है। यह तुम्हारे भीतर चैतन्य को भी प्रखर करता है, तुम्हारी मूर्च्छा को भी तोड़ता है, और तुम्हारे पैरों में नृत्य भी दे देता है, और तुम्हारे गले में गुनगुन भी भर देता है। यह तुम्हें गीत भी देता है--ऐसे गीत, ऐसे रंग कि तुम्हारे प्राणों में इंद्रधनुष फैल जाएं, कि तुम्हारे प्राणों में कमल खिल जाएं! जिसने इस नशे को किया, उसके सब नशे छूट जाते हैं।
मेरी तो दृष्टि ही यही है कि जो लोग भी दुनिया में नशा कर रहे हैं, वे असल में ध्यान की ही तलाश कर रहे हैं। उन्हें ध्यान का पता नहीं चल रहा, इसलिए बेचारे अंधेरे में टटोल रहे हैं, जो हाथ लग जाता है। शराब किसी ने पी ली, मैं मानता हूं कि वह ध्यान की ही तलाश कर रहा है। लेकिन ध्यान तो बोतलों में बंद हर जगह मिलता नहीं; शराब मिल जाती है। शराब पीकर भी वह क्या कर रहा है? वह यही कर रहा है कि थोड़ी देर को मन के उपद्रव भूल जाना चाहता है। मगर मन के उपद्रव मिटते नहीं; दूसरे दिन सुबह फिर वापस खड़े हैं, दुगनी ताकत से खड़े हैं।
जो आदमी मारिजुआना, एल.एस.डी. और इस तरह के नशे ले रहा है, वह क्या कर रहा है? उसकी जिंदगी फीकी हो गई है, उदास हो गई है, ऊब से भर गई है। अब उसे जिंदगी में कुछ रस और अर्थ नहीं मालूम होता। वह घबड़ा गया है। सब रंग खो गए हैं, सब गीत उजड़ गए हैं। कहीं कुछ ऐसा नहीं लगता जिसमें गरिमा हो, महिमा हो। उसे लगता है कि मिट जाऊं मर जाऊं या कुछ रास्ता मिले--जिससे अर्थवत्ता पैदा हो। तो बेचारा नशा कर लेता है। नशा कर लेता है तो फिर वृक्ष हरे दिखाई पड़ते हैं थोड़ी देर को, फिर फूल सुंदर मालूम होते हैं, फिर तितलियों में परमात्मा के हस्ताक्षर अनुभव होते हैं, फिर चांद-तारों में रोशनी आ जाती है, फिर उसकी आंखें चमकती हैं बच्चों की तरह, फिर आश्चर्य-विमुग्ध होता है वह। लेकिन यह कितनी देर टिकेगा? थोड़ी देर बाद फिर वापस इसी भूमि पर खड़ा है। वह सिर्फ कल्पना थी। वह ध्यान का भ्रम था। ध्यान इसी को स्थायी रूप से देता है। नशे, जिसकी केवल भ्रामक अनुभूति देते हैं, ध्यान उसी को स्थिर रूप से देता है। और एक बार देता है तो फिर जाता नहीं।
मैं कोई नशों का, नशे करने वालों का इलाज नहीं कर रहा हूं। मैं उनकी खोज पहचानता हूं। इसलिए मेरे पास जब आकर कोई नशा करने वाला कहता है कि क्या मैं भी संन्यासी हो सकता हूं, क्योंकि मैं शराबी हूं, क्योंकि मुझे गांजा पीने की आदत है? मैं कहता हूं: तुम इसीलिए तो शराबी हो, इसीलिए तुम गांजा पीते थे कि अंधेरे में टटोलते थे। अब तुम रोशनी में आ गए। अब तुम संन्यासी हो ही जाओ। जिसने कभी गांजा नहीं पीआ, कभी अफीम नहीं खाई, जो गोबर-गणेश की तरह किसी दुकान पर बैठा रहा हमेशा, वह क्या खाक संन्यासी होगा! तुम कम से कम तलाश तो करते थे! तुम खोज तो करते थे। खोज गलत जा रही थी, मगर खोज तो खोज है। गलत हो तो भी, कम से कम है तो! जो गलत खोजता है, वह एक दिन ठीक भी खोज लेगा।
मैं कोई इलाज नहीं करता। लेकिन मैं इतना बड़ा नशा दे देता हूं, उसके सामने छोटे नशे अपने से डूब जाते हैं। तुम चुल्लू भर पानी में डूबने की कोशिश कर रहे थे। मैं कहता हूं: सागर है पूरा, कहां तुम चुल्लू भर पानी में डूब रहे हो! कैसे डूबोगे? डूब ही नहीं सकते। यह रहा सागर, मारो डुबकी, ऐसी कि फिर निकलना ही नहीं।
तीन बच्चे स्कूल में चर्चा कर रहे थे। एक बच्चे ने कहा कि मेरे पिता बड़े गोताखोर हैं, जब पानी में गोता मारते हैं, पांच-सात मिनट तक बाहर नहीं निकलते।
दूसरे बच्चे ने कहा: यह कुछ भी नहीं। गोताखोर हैं मेरे पिता। जब गोता मारते हैं तो आधा-आधा घंटे तक पानी में नदारद हो जाते हैं।
तीसरे ने कहा: अरे यह कुछ भी नहीं, गोताखोर हैं मेरे पिता, आज सात साल हो गए, जो गोता मारा है सो निकले ही नहीं।
मैं तो तीसरी तरह का गोता सिखाता हूं कि जिसने मारा सो मारा, फिर निकलने का कोई सवाल नहीं है।
पांचवां प्रश्न:
भगवान, आप कहते हैं कि पंडित-पुरोहितों द्वारा चलाए जा रहे धर्म नकली हैं। फिर वे सदियों-सदियों से चले आ रहे हैं। क्यों?
धर्म ज्योति! इसीलिए! असली को चलाना मुश्किल है, क्योंकि असली को खरीदने वाले मुश्किल से मिलते हैं। असली जरा मंहगा सौदा है। असली के लिए कीमत भी असली चुकानी पड़ती है। नकली सस्ता मिल जाता है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक स्त्री के प्रेम में था। एक हीरे की अंगूठी लाकर भेंट की। बड़ा हीरा! बेर के बराबर हीरा होगा। स्त्री भी चौंकी। सोने में जड़ा, ऐसे चमकता था! खुश हो गई, अंगुली में पहनाया जब नसरुद्दीन ने उसे। एकदम नसरुद्दीन के गले लग गई और कहा: नसरुद्दीन, तुम सच ही मुझे प्रेम करते हो! तुम जैसा मुझे कोई प्रेम नहीं करता। मगर एक बात तो बताओ, क्या यह हीरा असली है?
नसरुद्दीन ने कहा: असली नहीं है तो जिस हरामजादे से मैंने खरीदा, उसने डेढ़ रुपये मेरे मुफ्त खा गया।
डेढ़ रुपये में असली हीरा--बेर के बराबर! वह भी सोने में जड़ा! नसरुद्दीन बोला कि अगर नकली हो तो तू बता, खोपड़ी खोल दूंगा उसकी जिसने मुझे बेचा है, असली कह कर बेचा है। और नगद डेढ़ रुपये दिए हैं। हालांकि जो डेढ़ रुपये मैंने उसे पकड़ाए हैं, वे भी कोई असली नहीं थे। इसलिए अगर नकली भी है तो अपना कुछ गया नहीं, अपना कुछ खोया नहीं। मगर उसको मजा चखा कर रहूंगा!
नकली हैं धर्म पंडित-पुरोहितों द्वारा चलाए हुए, इसीलिए चलते हैं। मगर तेरा पूछना भी ठीक है कि फिर सदियों-सदियों से क्यों चलते हैं? यह सवाल उठता है कि जब इतनी सदियों से चल रहे हैं तो जरूर कोई सचाई होगी! हमारा गणित ऐसा है कि जब इतनी पुरानी कोई बात चलती है तो इसमें सचाई होनी ही चाहिए।
पुरानी बात में सचाई का कोई संबंध नहीं है। पुराने होने से सत्य का कोई नाता नहीं है। पुराना सिर्फ इतना ही बताता है कि भीड़ को रुचता रहा है। और भीड़ को सत्य से क्या लेना-देना है! भीड़ को असत्य रुचता है। भीड़ को चाहिए सांत्वना, संतोष। और असत्य बड़े संतोषदायी हैं। असत्य बड़ी सांत्वनाएं देते हैं। सत्य कमाना हो तो कीमत चुकानी पड़ती है--शायद जीवन से कीमत चुकानी पड़े; शायद अपने को कुर्बान करना पड़े; शायद गर्दन उतार कर रखनी पड़े। असत्य कुछ नहीं मांगता तुमसे। असत्य तुमसे मांगता है कि कुछ चढ़ा दो दो पैसे। और तुम भी होशियार हो, तुम दो पैसे भी नकली चढ़ा आते हो।
मेरे गांव में झांकियां कृष्ण की बड़े जोर-शोर से मनाई जाती थीं। वह उस गांव की खास बात थी। आस-पास दूर-दूर से गांव के लोग झांकियों को देखने आते थे। कृष्णाष्टमी के समय सावन में जब झूले पड़ते तो मंदिर ऐसे सज जाते और बड़ी भीड़ लगती। तो मैं भी चार-छह बच्चों का झुंड बना कर झांकियों में पहुंचता था। और हमने एक तरकीब निकाल रखी थी। उस समय दो पैसे का एक सिक्का चलता था, जो करीब-करीब रुपये के बराबर होता था। उस पर हम चांदी का वर्क चढ़ा लेते थे, तो बिलकुल रुपया मालूम होता था। और झांकियों में इतनी भीड़ होती थी और इतने पैसे चढ़ते थे कि सवाल ही नहीं था हाथ में देने का पुरोहित के, लोग यूं फेंकते थे। सो वह नकली दो पैसे का जो सिक्का होता था, चांदी का वर्क चढ़ा, उसको हम भी फेंकते थे जोर से, काफी खनखना कर, ताकि पुजारी को दिखाई पड़ जाए कि रुपया फेंका गया है। और तत्क्षण मांगते कि आठ आने वापस!
सो झांकियों के दिन बड़े लाभ के दिन थे। एक-एक मंदिर में चार-चार छह-छह दफे जाते। फिर पुजारियों को थोड़ा शक होने लगा कि मामला क्या है! यह लड़का छह-छह दफे आता है एक ही रात में! और हर बार रुपया और क्या खनक कर फेंकता है! फिर वे जब रात को इकट्ठे होकर पैसे गिनते होंगे तो उनको पता चलना शुरू हुआ कि ये छह दो-दो पैसे के सिक्के नकली हैं और इन पर चांदी का वर्क चढ़ाया हुआ है। एक दिन एक पुजारी ने, जैसे ही मैंने रुपया फेंका, उसने तत्क्षण वह रुपया पकड़ा और कहा कि तुम रुको, आज धोखा न दे सकोगे। नकली दो पैसे पकड़ा जाते हो और साथ में अठन्नी भी हमसे ले जाते हो।
मैंने उनसे कहा कि तुम जो झूला लटकाए हो, इसमें कोई असली कृष्ण बैठे हैं? किसको झूला झूला रहे हो तुम? हम वही कर रह हैं, जो तुम कर रहे हो। तुम जरा बड़े पैमाने पर कर रहे हो, हम जरा छोटे पैमाने पर। हमारी उम्र भी अभी कम है; जब बड़े हो जाएंगे, हम भी बड़े पैमाने पर करेंगे। अभ्यास तो करने दो जी! अभी से अभ्यास करेंगे, तभी तो करते-करते बात बनेगी।
वह भी हंसने लगा। उसने कहा: यह बात तो ठीक है। यह ले भैया अठन्नी। तू औरों को मत बताना। यह राज अपने तक रखना।
और मैंने कहा कि तुम्हीं को हम थोड़े ही धोखा देते हैं; गांव में कोई तीस-पैंतीस मंदिर हैं, सभी को देते हैं, सबको समान भाव से देते हैं। हम सबको समदृष्टि से देखते हैं। यही तो गीता में कहा है कृष्ण ने कि सबको समदृष्टि से देखो।
यह धोखाधड़ी चलती है। और जब तुम धोखाधड़ी चलाओगे तो जनता भी जानती है। चार पैसे में मिल जाता है पुरोहित, सत्यनारायण की कथा करा जाता है। मोक्ष भी सध गया। चार पैसे में मोक्ष साध रहे हो! महावीर मूरख थे, जो बारह वर्ष मेहनत की, ध्यान पर सिर पटका! बुद्ध बुद्धू थे, छह वर्ष तक जान दांव पर लगाई, तब कहीं ध्यान को उपलब्ध हुए। और तुम सत्यनारायण की कथा करवा रहे हो चार पैसे में--उस आदमी से, जिसको सत्य का कोई भी पता नहीं। तुम भी जानते हो। चार पैसे में कोई सत्यनारायण की कथा कहने आएगा! और उस सत्यनारायण की कथा को तुमने कभी सुना है? न उसमें सत्य है, न कहीं नारायण है। मगर सुनता कौन है! किसको पड़ी है सुनने की! किसको लेना-देना है! झूठ का व्यापार काफी गर्म है। झूठ चलना बड़ा आसान है।
असली चीज से नकली अधिक चलती है।
प्यारे!
सिर पीट रहे हैं आसमान के तारे
उन्हें कोई पूछता नहीं
चमक रहे फिल्म के सितारे।
किस्मत के मारे चांद को
चांद-सी सूरत खलती है।
क्योंकि असली चीज से नकली अधिक चलती है।
रात-रात आंखें फोड़ीं
सारी गरमी के सीजन
दस दफे किया रिवीजन
फिर भी न हुए पास
टूट गई आस
जो मस्ती मारे साल भर
वे ही मार ले गए फर्स्ट डिवीजन
समझे प्रियजन!
विद्या के अध्ययन से नकल अधिक फलती है।
क्योंकि असली चीज से नकली अधिक चलती है।
जैसा कि सब जानते हैं
चांद से ज्यादा
चंद्रमुखियों की कद्र होती है।
राजसिंहासन
बना झूठ का आसन
सच्चाई कब्र में सोती है
कच्चा मोती सुंदरियों के वक्षों पर चमके
और वैद्यराज के खल में बेचारा
पिसता पक्का मोती है
देख-देख पड़ोसिन के गहनों को
ईमानदार हरिश्चंद्र की बीबी रोती है
कहती है हमें खाने को तेल नहीं
और यह कुत्ते की पूंछ पर मक्खन मलती है।
क्योंकि असली चीज से नकली अधिक चलती है
आगे सुनो भैया
रो रहा अपनी किस्मत को
मगनलाल मलैया
मनमोहन जी मिलाते रहे
चूने में नमक, सोडे में चूना
गरम मसाले में कचरा भूना
दाम लिया दूना
जीरों में लकड़ी का बुरादा
उच्च विचार, जीवन सादा।
मिर्च में घिसी ईंटा
शक्कर में पानी सींचा
खूब पैसा खींचा।
मलैया जी रो-रो कर कहते हैं
बेकार गए जिंदगी के दस साल
हम बेवकूफ बेचते रहे असली माल
असली तंबाखू असली लैया
ले डूबी अपनी नैया।
असली होती महंगी, नकली होती सस्ती
महंगी कौन लेगा, पागल है क्या बस्ती?
महंगी से प्यारे सस्ती अधिक खपती है
क्योंकि असली चीज से नकली अधिक चलती है।
गांव की महासुंदरी भी
शहर में नहीं फब्ती है
और शहर की प्रौढ़ा भी बच्ची सी लगती है।
पावडर का लेप, माडर्न वेष, चमचमाता फेस
ओंठों पे लाली, आंखों में काजल की काली।
केशों के नकली विग से जवानी नहीं ढलती है।
क्योंकि असली चीज से नकली अधिक चलती है।
होशियार लोग समझते हैं
कि नकली में असली से ताकत होती ज्यादा
डालडा खाने वाला फूलता जाता।
जीवित राम जंगल जाते
रामलीला का राम पूजा जाता।
ईसा का गला सूली पर लटकता,
और ईसाई गले में सूली लटकाता।
आत्मकथा होती सच्ची
व्यंगकथा झूठी
इसलिए आत्मकथा से ज्यादा व्यंग पढ़ा जाता।
पहलवान रियाज करते रह जाते
नकली मूंछों वाले बन जाते दादा
नेताजी को वोटें कैसे मिलीं
राज है उसका झूठा वादा।
गाने को लोग भूल जाते, पर पैरोडी चलती है,
झूठों के आगे सच्चे की दाल नहीं गलती है
क्योंकि असली चीज से नकली अधिक चलती है।
असली फूल से ज्यादा कागज के फूल जीते हैं।
शराब से ज्यादा लोग काकटेल पीते हैं
क्योंकि अर्धनारीश्वर को पूजने वाले
हम भारतवासी हैं।
समन्वयवादी हैं।
मिलावट के आदी हैं।
मेलजोल से रहो
कह गए हमारे दादा-दादी हैं
अपनी से ज्यादा ‘पराई’ हमें जंचती है
प्योर चीज से ज्यादा
मिली-जुली भली लगती है
दूध में कहां वह मजा
हमें तो चाय अच्छी लगती है
क्योंकि असली चीज से नकली अधिक चलती है।
डॉक्टरों की सलाह भी सुन जाइए
बच्चों को असली दूध न पिलाइए
अगर लिखा होगा उनके भाग्य में
तो अमूल या लेक्टोजन मिल जाएगा बाजार में
उसी को घर लेते आइए।
डिब्बों के दूध से बच्चों की हेल्थ बनती है
केवल नासमझों के घर में आजकल गाय पलती है।
क्योंकि असली चीज से नकली अधिक चलती है।
रोती है बुद्धिमानी, चालाकी हंसती है
मुस्कुराती बेईमानी, ईमानदारी फंसती है
दीये सभी चुक जाते, अंधियारी नहीं मिटती है
जिंदगी का अंत है, पर मौत नहीं मरती है
पैर तो थक जाते, बैसाखी नहीं थकती है
क्योंकि असली चीज से नकली अधिक चलती है।
धर्म ज्योति, वह जो नकली है, चलता रहा--स्वभावतः इसीलिए चलता रहा कि नकली है। असली को अड़चन है। असली को हजार बाधाएं हैं। वह बिलकुल स्वाभाविक है। जितनी पुरानी चीज हो, उतने समझ-बूझ कर, सोच-विचार कर ग्रहण करना। समझ लेना कि इतनी पुरानी है तो जरूर नकली होगी। इतनी देर चलती रही, इतनी भीड़ में चलती रही--असली हो कैसे सकती है?
सत्य सदा नया है, नित-नूतन है। सत्य उतना ही नया है जैसे सुबह की ओस नई है, जैसे सुबह की सूरज की किरण नई है। झूठ तो पुराना, बहुत पुराना। लेकिन झूठ अपना खूब प्रचार कर लेता है। झूठ ही अपना प्रचार करता है। झूठ प्रचार पर जीता है। और प्रचार के करिश्मे हैं, विज्ञापन के अदभुत करिश्मे हैं। खूब जोर-शोर से प्रचार करो!
वही तो पंडित-पुजारी कर रहे हैं हजारों साल से। तुमको फिर खयाल भी नहीं आता कि हम यह क्या कर रहे हैं। पत्थर की मूर्ति के सामने हाथ झुकाए खड़े हो! आदमी की बनाई मूर्ति, आदमी की सजाई मूर्ति--और तुम हाथ झुकाए खड़े हो! और जिंदा आदमी को हाथ जोड़ने में तुम्हें मुश्किल हो जाती है। पत्थर की मूर्ति भगवान बनी बैठी है और जिंदा आदमी में तुम्हें भगवान दिखाई नहीं पड़ता! कैसा गजब है! प्रचार ने कैसा तुम्हें अंधा किया है। कैसे आंखों पर चश्मे चढ़ा दिए--रंगीन चश्मे! जो चढ़ा दिया वही दिखाई पड़ने लगा।
नया हो तो संभावना भी है सत्य की। और ध्यान रखना, सत्य को चुनना हमेशा सूली को चुनना है। सत्य को चुनना हमेशा दुर्गम को चुनना है। सत्य को चुनना हमेशा खड़ग की धार पर चलना है। इसलिए थोड़े से ही साहसी चुन पाते हैं।
आखिरी प्रश्न:
भगवान, मैं डॉक्टर हूं, लेकिन मेरी डॉक्टरी चलती नहीं। क्या परमात्मा मुझसे नाराज है? आपका आशीष चाहिए!
डॉक्टर शोभालाल! मुझे तो कुछ लगता नहीं आशीर्वाद देने में। मेरा क्या जाता? लेकिन फिर मरीजों का भी खयाल आता है। नहीं चलती तो कुछ राज होगा। डॉक्टरी कोई हवा में तो चलाओगे नहीं। कोई पतंग तो नहीं है डॉक्टरी, कि हवा में उड़ाओगे। मरीजों पर चलाओगे। मरीजों की तुम दुर्गति किए होओगे; नहीं तो चल गई होती।
परमात्मा क्यों नाराज होने लगा! परमात्मा तो तुम पर खुश ही होगा। तुम लोगों को परमात्मा के प्यारे बना देते होओगे। वह तो बहुत चाहता होगा कि शोभालाल की चले, खूब चले, शोभालाल भेजे और-और आदमी। मगर मरीज को भी तो हक है अपनी जान बचाने का कि नहीं? मरीज को भी आत्मरक्षा का जन्म सिद्ध अधिकार है या नहीं?
तुमको तो मैं आशीर्वाद दे दूं, तुम तो एक, और मरीज अनेक। तुम्हारा प्रश्न देख कर मैं सोच ही रहा था कि दे ही दूं आशीर्वाद। फिर मैंने सोचा मगर आशीर्वाद का मतलब क्या होगा! पता नहीं तुम कितने मरीजों को एकदम स्वर्गवासी बना दो। और बहुत दिन से अगर चली नहीं है तो तुम एकदम तैयार ही बैठे होओगे, अपनी छुरी-कांटे पर धार रख रहे होओगे, अपना साज-समान बिलकुल तैयार किए बैठे होओगे, एकदम टूट पड़ोगे।
मुल्ला नसरुद्दीन ऑपरेशन कराने गया था। घबड़ा रहा था। कोई भी घबड़ाता है। अपेंडिक्स का ऑपरेशन था, पेट कटेगा। पसीना-पसीना हुआ जा रहा था। यद्यपि ऑपरेशन थियेटर तो वातानुकूलित था, लेकिन पसीना चू रहा था। डॉक्टर ने कहा: ऐसा क्यों घबड़ाते हो नसरुद्दीन?
नसरुद्दीन ने कहा: इसलिए घबड़ाता हूं कि यह मेरा पहला ही ऑपरेशन है। अरे, डॉक्टर ने कहा, तू फिकर मत कर। मैं घबड़ाता हूं? मेरा भी यह पहला ही आपरेशन है। जब मैं नहीं घबड़ा रहा, तू क्यों घबड़ा रहा है?
नसरुद्दीन उठ कर खड़ा हो गया। उसने कहा: फिर हम चले। यह तो बहुत झंझट हो गई। पहला ही आपरेशन है, तो तुम जरा किसी और पर अभ्यास करो। पहले पशु-पक्षियों पर अभ्यास करो, फिर आदमियों पर करना।
शोभालाल, तुम एकदम आदमियों पर अभ्यास करना चाहते हो, क्या विचार है? चलती नहीं तो कुछ कारण होगा। कारण खोजो। कहीं भूल-चूक होगी। लेकिन हमारे मुल्क में कारण-वारण खोजने की किसी को जरूरत नहीं। नहीं चलती तो इसका मतलब है: किस्मत में खराबी है। अरे वाह! अरे दूसरों की किस्मत अच्छी है, यह कहो। तुम्हारी किस्मत में खराबी है, ऐसा कुछ नहीं।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने गधे पर से गिर पड़ा। मैं उसे देखने गया। मैंने कहा कि नसरुद्दीन, तुम्हारे गधे ने बड़े गजब का काम किया! बड़ा होशियार गधा है! मैंने सुना कि तुम तो गधे से गिर पड़े और गधा गया और डॉक्टर को बुला लाया!
अरे, नसरुद्दीन बोला, क्या डॉक्टर को बुला कर लाया--डॉक्टर शोभालाल को बुला लाया! गधा ही है, इसको कोई और डॉक्टर न मिला बस्ती में।
तुम पहले अभ्यास करो। जैसे नसरुद्दीन के गधे पर अभ्यास करो। और भी गधे मिल जाएंगे। पहले मुफ्त अभ्यास करो या कुछ पैसे देकर अभ्यास करो। और अगर नहीं यह सब सुविधा हो तो तुम पंजाब चले जाओ और होशियारपुर में बस जाओ, क्योंकि मैंने यह कहानी सुनी है--
मुल्ला नसरुद्दीन अपने काम के सिलसिले में एक बार होशियारपुर गया। रात दस बजे गाड़ी होशियारपुर पहुंची। इस लंबे सफर में मुल्ला को पेट में जोर का दर्द हो गया। जाकर उसने स्टेशन मास्टर से पूछा कि क्या यहां सवारी का कोई इंतजाम हो सकता है? स्टेशन मास्टर बोला: बड़े मियां, सवारी के नाम पर तो यहां बस तांगे-इक्के चलते हैं। मुल्ला किसी तरह स्टेशन से बाहर निकला, देखा सामने ही एक तांगा खड़ा हुआ था तथा घोड़ा रात के अंधेरे में ही सड़क पर डाली गई घास चर रहा था। उसने पास से जाते हुए व्यक्ति से पूछा: क्यों भाई, इस तांगे का ड्राइवर कहां है? वह गांव का व्यक्ति बोला कि भैया, यह ड्राइवर क्या होता है?
नसरुद्दीन बोला: अरे हद कर दी मूर्खता की! जैसा सुना था वैसा ही पाया। अरे जो तांगा चलाए उसे ड्राइवर कहते हैं।
इस पर वह व्यक्ति प्रसन्न होकर बोला: अच्छा-अच्छा, अब पता चला कि ड्राइवर किसे कहते हैं। तो वह देखो सामने ही रहा इस तांगे का ड्राइवर, जो तांगे में जुता घास चर रहा है। मुल्ला को ऐसी मूर्खतापूर्ण बातों से बड़ा दुख हुआ। कुछ समय बाद तांगे वाले आया, उसने तांगे वाले से किसी तरह डॉक्टर के यहां चलने को कहा। तांगे में जो दचके खाए, दर्द और बढ़ गया। रास्ते में मुल्ला ने देखा घर-घर दीये जल रहे हैं--कहीं पांच दीये जल रहे हैं तो कहीं दस, तो कहीं पूरी दीपावली। दीये ही दीये! थोड़ी देर बाद तांगा एक टूटे से घर के आगे जाकर रुका और तांगे वाले ने कहा: लीजिए बड़े मियां, सामने ही डॉक्टर साहब का घर है।
मुल्ला ने जाकर दरवाजा खटखटाया। एक वृद्ध व्यक्ति ने लालटेन हाथ में लिए दरवाजा खोला। नसरुद्दीन को देख कर बोला: आओ मियां, आओ, सुनाओ क्या तकलीफ है?
नसरुद्दीन बोला: बड़े मियां, मैं बाहर से आया हूं और पेट में बड़े जोरों का दर्द हो रहा है। दर्द तो वैसे ही जोर से हो रहा था, इस तुम्हारे होशियारपुर के तांगे में बैठ कर तो बिलकुल प्राण निकले जा रहे हैं, आत्मा ही उड़ी जा रही है। जल्दी कोई दवा दीजिए, नहीं तो पिंजड़ा ही पड़ा रह जाएगा, पक्षी उड़ जाएगा।
बड़े मियां बोले: चिंता मत करो, बरखुरदार। अभी लो, ऐसी दवा देता हूं कि मर्ज जड़ से ही खत्म हो जाए।
बड़े मियां दवा बनाने लगे और साथ ही दोनों की बातचीत भी होने लगी। नसरुद्दीन ने पूछा कि अच्छा यह तो बताओ बड़े मियां, कि ये घरों-घर दीये क्यों जल रहे है? बड़े मियां बोले: बात यह है बरखुरदार कि जिस डॉक्टर के हाथ से जितने मरीज मरते हैं, वह अपने घर के सामने उतने ही दीये जलाता है। तो रास्ते में तुमने जो दीपावली देखी वह मरीजों के मरने के उत्सव में मनाते हैं हम लोग।
इतनी देर में दवा तैयार हो चुकी थी। मुल्ला ने दवा पीते हुए कहा: मगर बड़े मियां, हर घर के ऊपर कहीं पांच दीये, कहीं दस दीये, तो कहीं कतार ही कतार लगी है दीयों की, मगर आपके घर के ऊपर तो एक भी दीया नहीं जल रहा है! क्या बात है?
बड़े मियां खीसे निपोरते हुए बोले: हें-हें-हें, जलेगा बरखुदार, जलेगा। अरे परमात्मा ने चाहा तो आज ही जलेगा। उसी ने तो तुम्हें मेरे पास भेजा है!
डॉक्टर शोभालाल, अब पता नहीं तुम किस प्रकार के डॉक्टर हो। होम्योपैथी के डॉक्टर हो कि ऐलोपैथी के डॉक्टर हो कि आयुर्वेदिक डॉक्टर हो कि बायो-केमिस्ट्री के डॉक्टर हो कि नैचरोपैथी के डॉक्टर हो। इस वक्त इतने डॉक्टर हैं, मरीजों को मारने के लिए इतने लोग पीछे पड़े हैं! एक मरीज और हजार मारने वाले। जड़ से ही काट डालते हैं। और बीमारी हो या न हो, इलाज करने वाले एकदम पीछे पड़ जाते हैं। इलाज ही इलाज करने वाले चारों तरफ मौजूद हैं। पता नहीं तुम किस तरह के डॉक्टर हो। और आशीर्वाद मांग रहे हो। और मैं ध्यान करता हूं तुम्हारे मरीजों का।
परमात्मा नाराज नहीं है, लेकिन कुछ सोचो, कहीं कुछ भूल तुम्हारी हो रही होगी। यह हमारी पुरानी आदत हो गई है, परंपरागत आदत हो गई है। हम अपनी भूल ही नहीं देखते। हम हमेशा भूल किसी और जगह खोजते हैं--किस्मत में, परमात्मा में, कर्मों में। अपने में नहीं, कहीं और टालते हैं दायित्व को। यह सोचने की प्रक्रिया गलत है। यह सोचने की प्रक्रिया अवैज्ञानिक है।
तुम सोचो, ध्यान करो--क्या भूल-चूक हो रही है? और कहीं ऐसा तो नहीं कि जबर्दस्ती डॉक्टर बन गए। कई दफा यूं हो जाता है कि मां-बाप को डॉक्टर बनाना है, सो वे बना देते हैं। जिसको दर्जी बनना था, वह डॉक्टर हो गया है। जिसको डॉक्टर बनना था, वह चमार है। जिसको चमार बनना था, वह मिठाई बेच रहा है। जिसको मिठाई बेचना था, वह कपड़े बना रहा है। सब गड़बड़ हो गया है। कोई किसी को सुविधा ही नहीं देता, मौका ही नहीं देता कि वह जो होना चाहे हो।
एक छोटे बच्चे से मैंने पूछा कि तू क्या बनना चाहता है? उसने कहा: मैं बड़ी उलझन में हूं। मेरे बाप मुझे डॉक्टर बनाना चाहते हैं, मेरी मां मुझे इंजीनियर बनाना चाहती है। मेरे चाचा संगीतज्ञ हैं, वे मुझे संगीतज्ञ बनाना चाहते हैं। और मेरी चाची मेरे चाचा से परेशान है, उनको तलाक दे रही है। वह कहती है कि भूल कर संगीतज्ञ मत बनना। ये संगीतज्ञ बड़े चरित्रहीन होते हैं। यह लफंगों की तरह न मालूम कहां-कहां संबंध बना लेता है। इसीलिए तो इसको तलाक दे रही हूं। तू संगीतज्ञ भर मत बनना। तू कुछ भी बन जा, मगर संगीतज्ञ नहीं।...सो मैं बड़ी उलझन में पड़ा हूं कि अब क्या बनूं क्या न बनूं! और मुझसे तो कोई पूछता ही नहीं कि तुझे क्या बनना है। सब थोप रहे हैं अपनी-अपनी।
करीब-करीब दुनिया में यह अस्तव्यस्तता है। और लोग थोप रहे हैं तुम पर कि तुम्हें क्या बनना है। इसलिए तुम्हें ठीक से तय ही नहीं हो पाता कि तुम्हारे जीवन की अपनी स्वाभाविकता कहां खिलेगी, कहां फलेगी।
मैं चाहता हूं एक ऐसा जीवन, एक ऐसी व्यवस्था, जहां प्रत्येक बच्चे को धीरे-धीरे हम उसकी नियति की तरफ ले जाएं। उस बच्चे को समझें, नहीं अपनी आकांक्षाएं आरोपित करें। नहीं तो गड़बड़ होगी। जिसको लोहार बनना था, वह डॉक्टर बन गया, तो गड़बड़ तो होने ही वाली है। जिसको दर्जी बनना था, वह इंजीनियर बन गया, वह क्या खाक इंजीनियर बनेगा! जिसको चमार होना था, वह शिक्षक हो गया। वह चमारी जारी रखेगा। शिक्षक के बहाने चमारी ही जारी रहेगी।
इस दुनिया में आज हालत ऐसी है कि प्रत्येक व्यक्ति वहां है, जहां उसे नहीं होना चाहिए। बहुत कम लोग वहां हैं, जहां उन्हें होना चाहिए। इसलिए इतनी अस्तव्यस्तता है, इतनी अराजकता है। इसमें भगवान का कोई कसूर नहीं है। इसमें आशीर्वादों की कोई भूल-चूक नहीं है। हमें पुनर्विचार करना चाहिए।
तुम फिर से सोचो, शोभालाल। अगर तुम्हें लगता हो कि यह तुम्हारा रस नहीं है, इसमें तुम्हारा आनंद नहीं है, अभी भी छोड़ दो। अभी क्या बिगड़ा है? बढ़ई हो जाओ, दुकान खोल लो, नौकरी कर लो, बर्तन मलो, तंदूरी रोटी बनाओ--कुछ भी करो। मगर जिसमें तुम्हारा रस हो।
और एक बात ध्यान रखो कि सवाल यह नहीं है कि कौन ऊंचा काम कर रहा है; सवाल यह है कि जो भी जो कर रहा है, उसे परम कुशलता से कर रहा है या नहीं?
जब लिंकन राष्ट्रपति हुआ अमरीका का तो एक आदमी ने उसका अपमान करने के लिए--पहले ही दिन जब वह अपनी सभा में संसद की बोल रहा था--बीच में खड़ा हो गया और कहा कि एक बात न भूल जाना महाशय लिंकन, कि तुम्हारे पिता मेरे घर जूते सीते थे! लिंकन के बाप चमार थे। सन्नाटा हो गया संसद में कि यह क्या भद्दी बात, मगर अपमान करने के लिए कही गई थी। लेकिन लिंकन अपने किस्म का आदमी था। लिंकन ने कहा: अच्छी याद दिलाई। मैं अपने पिता का अनुग्रह मानता हूं। एक बात मैं जानता हूं कि उन जैसे जूते सीने वाला आदमी मैंने दूसरा नहीं देखा। मुझ जैसे प्रेसीडेंट तो बहुत हो गए और बहुत होंगे, मगर उन जैसा जूते सीने वाला बस उन जैसा ही था। उनकी जगह कोई भर नहीं सकता। और मैं यह पूछना चाहता हूं, उन्होंने तुम्हारे घर जूते सीए, क्या तुम्हें कोई शिकायत है? क्या अभी भी उनके बनाए जूते तुम्हें काट रहे हैं या कोई तकलीफ है? तुम्हें आज क्यों याद आई? अब तो वे जिंदा भी नहीं हैं। लेकिन मैं धन्यभागी हूं कि मैं उस बाप का बेटा हूं, जिसने कभी गलत जूते नहीं सीए। और जिसके जूते एक बार सीए, वह सदा फिर उनके पास ही जूते सिलवाने आया। वे अदभुत चमार थे, वे कलाकार थे!
यही मेरी जीवन के संबंध में दृष्टि है: न कोई काम बड़ा होता है, न कोई छोटा होता है। तुम जो करो वह श्रेष्ठता से करो, कुशलता से करो; उसमें कला हो, प्रतिभा हो। फिर तुम जो भी करो, बुहारी लगाओ, कोई हर्जा नहीं। कोई डॉक्टर या इंजीनियर होना या राजनेता होने की जरूरत नहीं। राष्ट्रपति होने की जरूरत नहीं है। अगर जूते भी तुम सी सकते हो--बेजोड़, अद्वितीय--तो तुम्हारे जीवन में धन्यता होगी। तुम जीवन में तृप्त होओगे। जो व्यक्ति जो करने को पैदा हुआ है, अगर वही कर पाए, तो उसके भीतर बड़ी कृतार्थता का अनुभव होता है।
आज इतना ही।
आपने आज शुरू होने वाली प्रवचनमाला का शीर्षक दिया है: सुमिरन मेरा हरि करैं। भगवान, इस शीर्षक का अभिप्राय समझाने की अनुकंपा करें।
चैतन्य कीर्ति!
बाबा मलूक दास का प्रसिद्ध वचन है:
माला जपों न कर जपों, जिभ्या कहों न राम।
सुमिरन मेरा हरि करैं, मैं पाया बिसराम।।
मलूकदास उन अनूठे व्यक्तियों में एक हुए, जिनकी गिनती अंगुलियों पर हो सकती है। मलूकदास अनूठों में भी अनूठे हैं। साधारण संत नहीं हैं, बड़े विद्रोही संत हैं। परंपरागत, रूढ़िगत, दकियानूसी उनका व्यक्तित्व नहीं है, आग्नेय हैं। अग्नि जैसे प्रज्वलित हैं। उनका एक-एक वचन हीरों से भी तौलो तो भी वजनी पड़ेगा। हीरे धूल हैं उनके वचनों के समक्ष। और यह उनका प्यारे से प्यारा वचन है। इस वचन की गहराई में उतरो तो तुम ध्यान की गहराई में उतर जाओगे। इसमें ध्यान का सार आ गया है।
माला जपों न कर जपों,...
मलूक कहते हैं: लाख माला जपो, कुछ भी न होगा। यह तो औपचारिकता है। बाहर का कोई कृत्य भीतर न ले जाएगा। बाहर का कृत्य तो और बाहर ही ले जाएगा। और आदमी ऐसा पागल है--अधर्म भी बाहर करता है और धर्म भी बाहर करता है। फिर धर्म और अधर्म में भेद क्या रहा? शराब घर भी बाहर है और तुम्हारी मस्जिद, तुम्हारा मंदिर और तुम्हारा गुरुद्वारा और तुम्हारा गिरजा भी बाहर है। दोनों में एक बात समान है--दोनों बाहर हैं! दोनों की यात्रा बहिर्यात्रा है। दोनों में से कोई भी स्वयं तक नहीं पहुंचा सकता। कोई फिल्मी गीत गा रहा है--अपनी धुन में मस्त; कोई राम-राम जपे जा रहा है--अपनी धुन में मस्त। मगर दोनों मन में उलझे हैं। चाहे फिल्मी गीत हो और चाहे राम का गुणगान हो--मन की ही क्रियाएं हैं। मन की कोई क्रिया अमन में नहीं ले जा सकेगी। मनातीत जाना हो तो मन की सारी क्रियाओं को पीछे छोड़ देना होगा।
पाना हो सत्य को, पाना हो स्वयं को, तो न काबा साथ देगा, न काशी। संसार ही नहीं छोड़ देना है। बाहर की यात्रा व्यर्थ है--यह बोध। और जो ऊर्जा बाहर संलग्न है, इस ऊर्जा को बाहर से मुक्त कर लेना है, ताकि यह अंतर्यात्रा पर निकल जाए। अपने ही भीतर डुबकी मारनी है। वहां कैसी माला, वहां कैसा नाम, वहां कैसा जाप! न मंत्र है वहां, न तंत्र है वहां, न कोई यंत्र है वहां। शास्त्र सब पीछे छूट गए। शब्द सब पीछे छूट गए, तो शास्त्र कैसे बचेंगे?
माला जपों न कर जपों,...
तो न तो माला फेरता हूं, न हाथ की अंगुलियों पर राम का स्मरण करता हूं। करता ही नहीं राम का स्मरण। यह क्रांतिकारी उदघोष देखते हो! छोड़ ही दिया है राम के स्मरण को, क्योंकि स्मरण मात्र बाहर का है। स्मृति मात्र बाहर की बनती है। मन बाहर की सेवा में संलग्न है। मन बाहर का दास है। फिर धार्मिक हो मन कि अधार्मिक, बहुत भेद नहीं पड़ता। दुर्जन का हो कि सज्जन का, समान है।
धर्म की आत्यंतिक दृष्टि में दुर्जन और सज्जन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं; दोनों से कोई भी परमात्मा से न जुड़ सकेगा। और खतरा तो यह है कि वह जो दुर्जन है, शायद अपनी भीतरी पीड़ा के कारण, कि मैं क्या कर रहा हूं, शायद पश्चात्ताप के कारण, शायद आत्मदंश के कारण, किसी दिन अंतर्यात्रा पर भी निकल जाए; मगर सज्जन, जो सोचता है--दान दे रहा हूं, पुण्य कमा रहा हूं, मंदिर बना रहा हूं, पूजा कर रहा हूं, पाठ कर रहा हूं--वह तो क्यों छोड़ेगा! वह कुछ गलत काम तो नहीं कर रहा है! उसकी जंजीरें सोने की हैं। दुर्जन की जंजीरें लोहे की हैं। लोहे की जंजीरें तो खलती हैं, अखरती हैं--कोई भी तोड़ना चाहता है। लेकिन सोने की जंजीरों को आभूषण मान लेना बहुत आसान है। और अगर हीरे-जवाहरात जड़े हों, फिर तो कहना ही क्या! फिर तो सोने में सुगंध आ गई।
तो पापी भी शायद कभी परमात्मा को स्मरण कर ले, लेकिन पुण्यात्मा तो भटकता ही रहेगा, अटकता ही रहेगा। पाप उतना नहीं अटकाता जितना पुण्य अटका लेता है। धर्म की दृष्टि में तो दोनों ही छोड़ने हैं, क्योंकि बहिर्यात्रा छोड़नी है। असल में कृत्य छोड़ना है, क्रिया छोड़नी है, मन छोड़ना है, मन का सारा व्यापार छोड़ना है। और उस अंतस्तल पर पहुंचना है, जहां कोई लहर भी नहीं उठती, न फिल्मी धुन उठती है, न गाली-गलौज उठती है, न हरि-स्मरण उठता है। वहां कोई तरंग ही नहीं उठती। निस्तरंग, निर्विचार, निर्विकल्प! उसी दशा में अनुभव होता है। उसी दशा में साक्षात्कार है, समाधि है। उसी दशा में समाधान है।
मलूक ठीक कहते हैं: माला जपों न कर जपों, जिभ्या कहों न राम! क्या कहूं जीभ से राम को? जीभ से कहे राम का क्या अर्थ है? कोई अर्थ नहीं है। और ध्यान रखना, जब भी संत ‘राम’ शब्द का उपयोग करते हैं तो दशरथ के बेटे राम से उनका कोई प्रयोजन नहीं है। राम शब्द दशरथ के बेटे राम से बहुत पुराना है। राम तो परमात्मा का एक नाम है। राम के पहले परशुराम हो गए। परशुराम का अर्थ है: फरसा वाले राम। राम के पहले राम नाम तो था ही, इसलिए तो राम को भी राम नाम दिया गया था। नाम पहले से था। इसलिए इस भ्रांति में मत पड़ जाना कि दशरथ के बेटे की बात हो रही है। यह तो परमात्मा का एक नाम है, जैसे हरि एक नाम है। वैसे राम एक नाम है, जैसे ओम् एक नाम है। जो भी नाम चुन लो, क्योंकि वस्तुतः तो उसका कोई नाम नहीं है, वह अनाम है।
...जिभ्या कहों न राम।
क्यों कहूं जीभ से? कहूं ही क्यों? कहने से क्या होगा? पुकारूं क्यों? शोरगुल क्यों मचाऊं? प्रदर्शन क्यों करूं?
सुमिरन मेरा हरि करैं, मैं पाया बिसराम।
मैं तो परम विश्राम में बैठ गया हूं।
यही ध्यान है। विश्राम यानी ध्यान। जहां कोई क्रिया नहीं, कोई हलन-चलन नहीं, कोई हिलन-डुलन नहीं। सब थिर हो गया। पत्ता भी नहीं हिलता। जहां सन्नाटा ही सन्नाटा है। उस परम शून्य की अवस्था में एक अदभुत घटना घटती है--मलूकदास कहते हैं--कि स्वयं परमात्मा तुम्हारा स्मरण करता है, तुम्हें करने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। वह तुम्हारी फिकर करता है। वह तुम्हारी चिंता लेता है। उसे ही लेनी चाहिए, वही ले सकता है। हम तो उसके ही अंग हैं। हम तो उसकी ही ऊर्जा की किरणें हैं। हम तो छोटे-छोटे दीये हैं, वही सूरज है। हम में तो उसी की रोशनी है।
परमात्मा से अर्थ है: यह सारा अस्तित्व, इसका जोड़। यह अस्तित्व हमारे प्रति उपेक्षा से भरा हुआ नहीं है। यह अस्तित्व हमारे प्रति परम प्रेम से पूर्ण है। इस अस्तित्व से प्रतिक्षण हमारी तरफ प्रेम की अजस्र धाराएं बह रही हैं। लेकिन हम बंद बैठे हैं। वर्षा तो हो रही है, हमारे घड़े उलटे रखे हैं। वर्षा हो जाती है, हम खाली के खाली। हम रोते ही रहते हैं कि हमारी प्यास कब बुझेगी, हमारी अतृप्ति कब मिटेगी? और घड़ा उलटा रखे बैठे हैं।...‘कि हम भरते क्यों नहीं? परमात्मा की सब पर कृपा होती है, हम पर कृपा क्यों नहीं होती? क्या हम से नाराज है? किन जन्मों के पापों का हम फल भोग रहे हैं?’
किन्हीं जन्मों के पापों का फल नहीं भोग रहे हो। ये तरकीबें हैं तुम्हारी अपने को समझा लेने की। घड़ा सीधा नहीं करना है। तो क्या-क्या ईजादें करते हो! क्या-क्या सिद्धांत खोज लाते हो! कैसे कुशल हो! कैसे चालबाज हो! ऐसे-ऐसे सिद्धांत खोजते हो--बेईमानी से भरे हुए--कि जिनका कोई हिसाब नहीं। और एक बार तुम्हें सिद्धांत मिल जाते हैं तो बस पकड़ कर बैठ जाते हो।
हजारों साल से तुम गरीबों को समझा रहे हो कि तुम पिछले जन्मों के पापों के कारण गरीब हो। अमीरों को समझा रहे हो कि तुम पिछले जन्मों के पुण्यों के कारण अमीर हो। ऐसे पंडित की बन आती है। पंडित को लाभ ही लाभ है। अमीर खुश होता है--दोहरे कारणों से। एक तो इसलिए कि उसके पिछले जन्मों के पुण्य की घोषणा की जा रही है। दुनिया जानती है उसकी बेईमानी को। दुनिया जानती है कैसे उसने यह धन इकट्ठा कर लिया है। दुनिया जानती है कितने गले काटे हैं, किस-किस का खून पीया है। पानी छान कर पीता होगा, खून बिना छाने पी जाता है। उसके शोषण का सबको पता है। और इसने पिछले जन्मों में पुण्य-कर्म किए हैं, पंडित गुहार मचाए रखते हैं। तो एक तो फायदा यह कि उनकी गुहार से पिछले जन्मों के पुण्यों के कारण इस जन्म में वह जो पाप कर रहा है वे छिप जाते हैं, छोटे पड़ जाते हैं। बड़ी-बड़ी लकीरें खींच देता है पुण्य की तो पाप तो छोटे-मोटे हो जाते हैं। दीये जला देता है पुण्य के, चारों तरफ पुण्य की चर्चा गूंज उठती है, घंटनाद हो जाता है। तो इस जन्म के पाप कौन गिनती में रह जाते हैं! एक तो फायदा यह।
दूसरा फायदा यह कि वह जो व्याख्या दे रहा है, उससे गरीब को किसी तरह की बगावत करने की सुविधा नहीं रह जाती। बगावत करने में क्या सार है! पिछले जन्मों में पाप किए हैं, सो भोगोगे ही भोगोगे! जो जैसा करेगा वैसा भोगेगा। जो जैसा बोएगा वैसा काटेगा। किए हैं पाप, सो भोगो। इतना ही करो कम से कम, अब मत करना, नहीं तो अगले जन्म में भी भोगोगे। सो विद्रोह नहीं, क्रांति नहीं, बगावत नहीं; क्योंकि यह सब पाप है। फिर और भोगोगे। अब जितना हो चुका हो चुका। इसी को रफा-दफा करो, किसी तरह इसी हिसाब-किताब को सुलझा लो। पिछला ही काफी है। इससे ही छुटकारा हो जाए, अब और नया उपद्रव न बांधो।
तो धनी दोहरे ढंग से खुश हैं। इस जन्म के पाप छिप जाते हैं पिछले जन्म के पुण्यों के शोरगुल में और गरीबों से सुरक्षा मिल जाती है। इसलिए इस देश में कोई बगावत नहीं हो सकी। इस देश में मार्क्स पैदा नहीं हो सकता था। हो ही नहीं सकता था! इस देश में साम्यवाद की कोई धारणा पैदा नहीं हो सकती थी--असंभव थी, क्योंकि इस देश की परिभाषाएं, इस देश के मन का जो निर्माण हुआ है, वह बड़ा बुर्जुआ है। इस देश के चित्त की जो संस्कारिता है, वह बड़ी जड़ है। इस देश के जो संस्कार हैं वे क्रांति-विरोधी हैं। इसलिए पांच हजार साल में यह शायद अकेला देश है जहां कोई क्रांति नहीं हुई। आज भी क्रांति की कोई संभावना नहीं है, क्योंकि आज भी हमारे पास वही सड़ा-गला दिमाग है।
और गरीब को भी इसमें एक लाभ दिखाई पड़ता है। गरीब को सांत्वना मिल जाती है कि अगर मैं दुख भोग रहा हूं तो मेरे दुख का कारण है। कारण मिलते ही आदमी को बड़ी सहानुभूति, सांत्वना उपलब्ध होती है। सहानुभूति इस तरह मिलती है कि लोग कहते हैं कि बेचारा क्या करे! मजबूरी थी, पिछले जन्मों में जो हुआ, अब तो कुछ किया नहीं जा सकता। जो हो गया, हो गया। कब किया था, अब उसको अनकिया तो किया नहीं जा सकता। इसलिए भोगना ही पड़ेगा।
इसलिए इस देश में गरीब की सेवा करने का कोई सवाल नहीं उठता; वह अपने कर्मों का फल भोग रहा है। उसके फलों में बाधा डालनी है? उसको फल भोग ही लेने दो। अगर तुम बाधा डालोगे सेवा करके, तो अगले जन्म में फिर फल भोगेगा। तो तुम कुछ लाभ नहीं पहुंचाओगे, हानि ही पहुंचाओगे।
जैनों में तेरापंथ है एक। आचार्य तुलसी उसके आचार्य हैं। तेरापंथियों की धारणा है कि अगर कोई आदमी कुएं में भी गिर जाए तो उसे बचाना मत, चूंकि वह अपने कर्मों का फल भोग रहा है। किसी को धकाया होगा पिछले जन्म में। अगर तुम उसको निकाल लोगे तो वह फल कैसे भोगेगा? और फल नहीं भोगेगा--और फल तो भोगना ही पड़ेगा--फिर गिरेगा। सो एक ही बार गिरने से काम हो जाता, तुमने और उपद्रव कर दिया, तुमने दो बार गिरने का इंतजाम कर दिया। और तुमने जो बाधा डाली जीवन के क्रम में, जीवन की व्यवस्था में, उसका कर्मफल तुमको भोगना पड़ेगा। न भी गिरे कुएं में तो छोटी-मोटी हौज में गिरोगे। मगर गिरोगे तुम भी। सो तुमने दोहरे उपद्रव कर लिए: अपने लिए पाप और इस आदमी के जीवन में बाधा डाल दी।
यहां तक तेरापंथ की धारणा है कि कोई प्यासा भी मरता हो मरुस्थल में तो तुम पानी मत पिलाना। तुम चुपचाप अपनी राह चले जाना। तुम डिगना ही मत। तुम अडिग भाव रखना। तुम अविचलित रहना, क्योंकि वह अपना फल भोग रहा है, बेचारे को भोग लेने दो। किया है सो भोगेगा।
कैसे-कैसे सिद्धांत! कैसा-कैसा अदभुत अध्यात्म!
इसलिए इस देश का साधु-संन्यासी किसी की सेवा नहीं करता; सेवा लेता है। यह सेवा करने की बात तो ईसाई ले आए। यह तो ईसाई धारणा है। यह हिंदुओं की, जैनों की, बौद्धों की धारणा नहीं है। तुम कल्पना ही नहीं कर सकते कि जैन मुनि और किसी की सेवा कर रहा हो। जैन श्रावक अपने मुनि के दर्शन करने को जाते हैं तो उनकी भाषा ही यह है। पूछो उनसे कहां जा रहे, तो वे कहते हैं: मुनि महाराज की सेवा को जा रहे हैं। यह कल्पनातीत है कि शंकराचार्य, फिर वे पुरी के हों कि द्वारिका के, कि कहीं और के, कि सेवा कर रहे हों। असंभव।
इसलिए शूद्रों को हम पांच हजार साल तक सताते रहे। हम उनको उनके कर्मों का फल दे रहे हैं। नहीं तो वे शूद्र ही क्यों होते! शूद्र हुए ही इसलिए हैं कि पाप किए हैं। भोगने दो फल। और हम ही फल नहीं देंगे तो कौन उनको फल देगा? भगवान के काम में ही लगे हैं! उनको दो फल, अच्छा फल दो, ताकि दुबारा फिर ऐसी भूल न करें। जैसे न्यायाधीश अच्छा फल देता है न--चोरी करोगे, बेईमानी करोगे, धोखाधड़ी करोगे, तो न्यायाधीश का काम यह है कि अच्छी तरह से फल दे कि दुबारा फिर ऐसा काम न करो। यही कार्य ब्राह्मण का है, पुरोहित का है, तुम सब सज्जनों का है। सेवा करने का सवाल ही नहीं उठता।
सेवा से बच गए, क्रांति से बच गए। और एक बड़ी अजीब सहानुभूति कि भई क्या कर सकते हो! तुम भी क्या करोगे! तुम्हारा भी अब कोई कसूर नहीं है। यह पुराना कसूर है। और दूसरी बात, गरीब को भी एक राहत, एक सांत्वना, क्योंकि उसको कारण मिल गया।
एक बड़ी मजे की बात है आदमी के मन की, कि जब तक उसे कारण न मिल जाए किसी चीज का, उसे बेचैनी होती है। फिर चाहे झूठा कारण ही मिल जाए तो भी उसे चैन आ जाता है। जब तक कारण न मिले तब तक वह पूछता है: क्यों? ऐसा क्यों? विचार उठता है, चिंता उठती है। जैसे ही कारण मिल जाए, गणित हल हो गया। मन को जवाब मिल गया। इसलिए अगर तुम गरीब हो, अंधे हो, लंगड़े हो, लूले हो--उत्तर साफ है: पिछले जन्मों का कर्म भोग रहे हो! भोगना ही पड़ेगा। इससे एक राहत मिल गई, एक सांत्वना मिल गई। अब इतना ही खयाल रखो कि आगे ऐसी भूल न हो।
हमने अजीब-अजीब सिद्धांतों का जाल बुन रखा है! सचाई कुछ और है। सचाई यह है कि तुम अपना घड़ा उलटा रखे बैठे हो; सीधा करो, अभी भर जाए। या कुछ लोग अगर सीधा भी किए हुए हैं तो यही नहीं देखते कि उनकी तलहटी फूटी हुई है। सो वे सीधा रखे बैठे हैं। वे कहते हैं: आप क्या बातें कर रहे हो! घड़ा तो हम सीधा रखे हैं, मगर भरता नहीं। तो जरा यह भी तो देखो कि तलहटी भी है कि फूटी हुई है? तो तलहटी फूटी हुई है। कोई हैं जिनकी तलहटी भी ठीक है, मगर घड़े में इतने छेद हैं कि भरता-भरता है कि खाली हो जाता है। फिर कुछ ऐसे भी हैं जिनके घड़े में छेद भी नहीं हैं, तलहटी भी ठीक है, सीधा भी रखा है; मगर घड़ा इतना गंदा है कि आकाश से अमृत भी बरसे तो जहर हो जाए। शुद्धतम पानी गिरता है, मगर तुम्हारे घड़े में पहुंचते ही, पीने की बात दूर, छूने योग्य भी नहीं रह जाता। तो घड़े की सफाई करनी होगी। सारी बात अभी करने की है।
ध्यान से यह सारी प्रक्रिया पूरी हो जाती है। पहला काम: घड़ा सीधा हो जाता है। मन हटा कि चेतना परमात्मा के सन्मुख हो जाती है; यह घड़े का सीधा होना है। विचार हटे कि छिद्र हटे। विचार, वासनाएं, आकांक्षाएं, महत्वाकांक्षाएं, अभीप्साएं, लालसाएं--ये सारे के सारे छेद हैं, हजारों छेद हैं। जैसे ही ये हटे कि घड़े में छेद नहीं रह गए। अहंकार हटा कि घड़े की तलहटी फूटी नहीं रह जाती। अहंकार फोड़े हुए है तुम्हें। अहंकार तुम्हें मार रहा है।
और अहंकार भी कैसा गजब का है! उसने भी सीढ़ियां बना रखी हैं। ब्राह्मण अहंकार से भरा हुआ है; वह क्षत्रिय को नीचे देखता है। क्षत्रिय का मजा यह है कि वह वैश्य को नीचे देखता है। वैश्य का मजा यह है कि वह शूद्र को नीचे देखता है। शूद्र को भी तुम यह मत सोचना, उसने भी इंतजाम कर रखा है। चमार भंगी को नीचे देखता है। शूद्रों में भी सब शूद्र अपने को एक सा शूद्र नहीं मानते। उन्होंने भी सीढ़ियां बना रखी हैं।
मैं एक नाइयों की सभा में बोलने गया। एक अदभुत संत हुए, सेना नाई। उनका जन्म-दिन था। लोग आए। मैंने कहा कि जरूर आऊंगा। मगर नाइयों के अतिरिक्त कोई नहीं आया सुनने। जो लोग मुझे भी सुनने आते थे सदा, वे भी नहीं आए। मैंने उनसे बाद में पूछा कि तुम कोई दिखाई नहीं पड़े!
उन्होंने कहा: अब क्या हम नाइयों के पास बैठ कर उनके बीच में बैठें! नऊओं के बीच में बैठें! नाई तो शूद्र हैं!
कोई ब्राह्मण है, कोई क्षत्रिय है, कोई वैश्य है; वह शूद्रों में बैठे!
फिर एक बार मैं चमारों की एक सभा में बोलने गया। रैदास की वाणी पर वे सुनना चाहते थे मुझे। तो मैंने सोचा, यहां कम से कम नाई तो आएंगे; वहां नाई तक नहीं आए। तो मैंने पूछा उन नाइयों से कि क्यों भाई, तुम बड़े नाराज थे कि दूसरे नहीं आए थे, तुम्हें तो कम से कम आना था। तुम भी शूद्र हो, ये भी शूद्र हैं!
उन्होंने कहा: आप क्या कहते हैं! चमरट्टों की सभा में और हम आएं! अरे हम नाई हैं! अब आजकल वे अपने को नाई भी नहीं कहते, अपने को सेन कहते हैं, कि हम सेन हैं, हम ऐसे चमारों की सभा में नहीं आ सकते! चमारों के बीच हम बैठेंगे?
चमारों की सभा में सिर्फ चमार आए, कोई और नहीं आया। उसमें भी सब चमार नहीं आए। मैंने पूछा कि बस इतने ही चमार हैं यहां? उन्होंने कहा: नहीं, चमार तो और भी हैं। लेकिन हममें भी छोटी-बड़ी जातियां हैं। जो चमार अच्छे काम करते हैं उनकी अलग जाति है। वे लोग अपने को ऊंचा मानते हैं। जो जूते बेचते हैं, वे अपने को ऊंचा मानते हैं--उनसे, जो मरे हुए जानवरों की खाल निकालते हैं।
तो सीढ़ी पर सीढ़ी खड़ी कर दीं हमने। आदमी को ऐसा खंडित कर दिया।
अहंकार होगा तो यह होने वाला है। अहंकार सभी की तलहटी फोड़ देता है। और जहां अहंकार है वहां परमात्मा से संबंध नहीं हो सकता। परमात्मा बरसता रहेगा, तुम खाली के खाली रहोगे। अहंकार भर नहीं सकता। अहंकार कब किसका भरा है? अहंकार खाली है और खाली ही रहता है, लाख भरने के उपाय करो।
ध्यान यह सारी अदभुत क्रिया को कर लेने की कीमिया है। यह तुम्हारे अहंकार को मिटा देगा। क्योंकि जो शून्य हुआ वहां कैसा मैं-भाव! और जहां मैं नहीं है वहां कैसा ब्राह्मण, कैसा शूद्र, कैसा क्षत्रिय, कैसा वैश्य! और जहां मन गया वहां घड़ा सीधा हुआ, चेतना सीधी परमात्मा से जुड़ी। और जहां वासनाएं न रहीं, वहां छिद्र न रहे।
और सारा कलुष क्या है? क्रोध का है, वैमनस्य का है, ईर्ष्या का है। ये तो जहर हैं, जो तुम्हारे घड़े में लिपटे हुए हैं। लेकिन मन से हटे कि ये सारे जहर से हट गए। ये सारे जहरों की सीमा मन तक है; मन के पार इनकी कोई पहुंच नहीं है। यह सारी अशांति, यह सब उपद्रव मन का है।
ठीक कहते हैं मलूकदास:
सुमिरन मेरा हरि करैं, मैं पाया बिसराम।
वे कहते हैं: मेरा तो विश्राम हो गया। मैं बचा ही नहीं। मैं तो ऐसा विश्राम को पा गया हूं, ऐसा ठहर गया--सारी गति गई, सारी क्रिया, दौड़-धूप, आपाधापी गई--कि तब मैंने एक अदभुत बात पाई, एक अनूठा चमत्कार देखा, आश्चर्यों का आश्चर्य--कि मैं तो राम का नाम नहीं जप रहा हूं, लेकिन परमात्मा मेरा स्मरण करता है, चौबीस घंटे मेरी याद रखता है! चौबीस घंटे उसकी अनुकंपा मुझ पर बरस रही है। बिन मांगे बरस रही है।
बिन मांगे मोती मिलें, मांगे मिले न चून।
इसलिए इस शीर्षक को मैंने चुना है--इन आने वाले दस दिनों के लिए। काश, तुम्हारे जीवन में भी ऐसा हो सके, तो ही जानना कि तुम जीए, तो ही जानना कि तुमने कुछ पाया, तो ही जानना कि जीवन सार्थक हुआ है!
दूसरा प्रश्न:
भगवान, मैं चारों ओर ऐसे लोग देख रही हूं जो आनंदित हैं। यह सुंदर बात है। लेकिन मैं अपने आप से पूछती हूं कि इनमें से कितने युवक-युवतियां अपने माता-पिताओं को घर पर संताप में छोड़ आए हैं? क्या यह उचित है कि वे केवल अपनी ही फिकर करें और दूसरे दायित्वों को भूल जाएं?
पावला फलाची! पहली बात: जो अपनी फिकर नहीं कर सकता, वह कोई और दूसरा दायित्व कभी पूरा नहीं कर सकता। पहला दायित्व अपनी तरफ है और जो वहां चूका वह सभी दायित्वों में चूक जाएगा। जो स्वयं शांत नहीं है, वह किसी को भी शांत नहीं कर सकता। जो स्वयं आनंदित नहीं है, वह किसी को भी आनंदित नहीं कर सकता।
हम इस जगत में दूसरों को वही दे सकते हैं जो हमारे पास है। अगर दुख हमारे पास है तो हम दुख ही देंगे, और कोई उपाय नहीं है, अन्यथा हो ही नहीं सकता। यह जीवन की अनिवार्यता है। हां, यह हो सकता है कि हम चाहें कि सुख दें। मगर स्वर्ग चाहने से किसी को हम नहीं दे सकते। नरक का रास्ता, कहते हैं, शुभाकांक्षाओं से पटा पड़ा है। क्यों?
पावला फलाची, जो बेटे और बेटियां अपने मां-बाप के पास हैं, क्या उनके मां-बाप उन बेटे और बेटियों से संतुष्ट हैं, तृप्त हैं? कौन मां-बाप अपने बेटे और बेटियों से तृप्त है, संतुष्ट है? कौन मां-बाप शिकायत से नहीं भरा है? कौन पति शिकायत से नहीं भरा है पत्नियों की, कौन पत्नी शिकायत से नहीं भरी है पतियों की? कौन बच्चे शिकायत से नहीं भरे हैं मां-बाप की? और सारी दुनिया में सभी लोग कहते हैं कि हम प्रेम कर रहे हैं, लेकिन कहीं प्रेम दिखाई पड़ता नहीं। प्रेम का संगीत सुनाई पड़ता नहीं। प्रेम के फूल खिलते अनुभव में नहीं आते। कहीं प्रेम की सुगंध उड़ती नहीं। सब तरफ अप्रेम है, घृणा है। कारण क्या होगा? कारण यही है कि जो हमारे पास नहीं है वह हम दूसरे को देना चाहते हैं। पति स्वयं आनंदित नहीं है और पत्नी को आनंदित करने में लगा है, यह कैसे हो सकता है? पत्नी स्वयं आनंदित नहीं है और पति को आनंदित करने में लगी है, यह कैसे हो सकता है? यह तो दो भिखमंगों जैसी हो गई बात, एक-दूसरे के सामने झोली फैलाए खड़े हैं। कौन किसको दे! दोनों की झोली खाली है। दोनों एक-दूसरे पर नाराज हो रहे हैं।
दो ज्योतिषी एक रास्ते पर मिले। रोज मिलते थे। सुबह-सुबह उसी रास्ते से गुजरते थे बाजार जाने के लिए। एक-दूसरे को अपना हाथ दिखाते थे कि भई, जरा मेरा हाथ तो देखो। आज व्यवसाय कैसा चलेगा?
अब जो ज्योतिषी एक-दूसरे को अपना हाथ दिखा रहे हैं, ये किसका हाथ देख सकेंगे? इनको खुद अपना पता नहीं है, ये किसको किसका पता दे सकेंगे!
दो मनोवैज्ञानिक एक बार बगीचे में मिले। सुबह घूमने गए होंगे। एक मनोवैज्ञानिक ने दूसरे से कहा: तुम तो भले-चंगे हो। मेरे संबंध में कुछ कहोगे, मेरी हालत कैसी है?
दूसरे को बाहर से देख सकते हो, भला-चंगा दिखाई पड़ रहा है। अपने को तो देखने तक की क्षमता नहीं है, क्योंकि अपने भीतर उतरने की क्षमता नहीं है। मेरी हालत कैसी है, कुछ मेरे संबंध में कहो--यह हम दूसरे से पूछ रहे हैं।
पावला, तेरे मन में यह विचार तो उठा कि ये युवक और युवतियां यहां आकर इतने आनंदित हैं, लेकिन घर पर अपने माता-पिताओं को संताप में छोड़ आए हैं। जो नहीं छोड़ कर आए हैं अपने माता-पिता को, उनके माता-पिता आनंदित हैं? यह भी सोच। और फिर माता पिता अगर संताप में हैं तो जरूरी नहीं है कि कारण उनके बेटे-बेटियों का यहां आना हो। कारण उनकी अपनी मूढ़ता हो सकती है, अपनी जड़ता हो सकती है। उनकी जड़ता के लिए उनके बेटा-बेटी जिम्मेवार नहीं हैं।
अभी एक महिला का पत्र आया--उसकी बेटी के नाम। उसकी बेटी ने--संन्यासिनी है और पावला के देश की ही है, इटली से ही है--अपनी मां को मेरी किताबें भेजी होंगी। उसकी मां ने किताबें पढ़ीं और उसने पत्र लिखा कि मैं किताबों को पढ़ कर प्रसन्न हुई, बातें बिलकुल ठीक हैं, सिर्फ एक बात जानना चाहती हूं कि क्या यह व्यक्ति जिसके पास तुम रुक गई हो, कैथोलिक ईसाई है या नहीं? अगर कैथोलिक ईसाई है तो बिलकुल ठीक। और अगर कैथोलिक ईसाई नहीं है तो जितने शीघ्र घर आ सको, आ जाओ।
मेरी बातें ठीक हैं, वह लिखती है। मगर मेरी बातों के ठीक होने से क्या लेना देना है? उसकी बेटी आनंदित है, यह वह जानती है, लेकिन उससे भी कोई प्रयोजन नहीं है; प्रयोजन इस बात से है कि जिस व्यक्ति के पास रुकी हो, वह कैथोलिक ईसाई है या नहीं? निश्चित ही मैं न कैथोलिक हूं, न प्रोटेस्टेंट हूं, न हिंदू हूं, न मुसलमान हूं, न जैन हूं, न बौद्ध हूं। मैं निपट आदमी हूं--खालिस, बस आदमी हूं! कोई विशेषण नहीं। अब अगर यह मां संतापग्रस्त हो जाए तो क्या इसकी बेटी जिम्मेवार है? यह इसकी मां की मूढ़ता है। अब मां की मूढ़ता के लिए बेटी क्या करे? चेष्टा करती है, किताबें भेजती है, पत्र लिखती है, समझाने की कोशिश करती है, और क्या कर सकती है? क्या तुम सोचती हो, यह बेटी वापस चली जाए तो यह अपनी मां को आनंदित कर सकेगी? अपने आनंद को भी गंवा देगी। और इसकी मां ने क्या खाक आनंद पाया होगा, जिसको अभी इतनी भी समझ नहीं आई जीवन में कि धर्म का कोई संबंध कैथेलिक, ईसाई या हिंदू या मुसलमान से नहीं होता! इसकी मां अंधविश्वासी है। अब अगर कोई अपने अंधविश्वासों के कारण दुखी हो रहा हो तो इसमें कसूर किसका है? इसमें भूल-चूक किसकी है?
तब तो हमें सारे शिक्षालय बंद कर देने चाहिए, क्योंकि ईसाई मानते हैं कि पृथ्वी चपटी है और विश्वविद्यालय में बच्चे पढ़ कर लौटेंगे कि पृथ्वी गोल है, मां-बाप को संताप होगा। ईसाई मानते हैं कि सूरज पृथ्वी का चक्कर लगाता है और बच्चे विश्वविद्यालयों से पढ़ कर लौटेंगे कि सूरज पृथ्वी का चक्कर नहीं लगाता, पृथ्वी सूरज का चक्कर लगाती है। इससे मां-बाप को संताप होगा। क्या करना है? मां-बाप के संताप को देखना है या सत्य को देखना है? तो ये सारे विश्वविद्यालय बंद हो जाने चाहिए। और फिर भी क्या तुम सोचती हो कि मां-बाप आनंदित हो जाएंगे? मां-बाप आनंदित होते ही कहां हैं! किसके मां-बाप आनंदित होते हैं? मां-बाप को हमेशा शिकायत बनी रहती है।
इस दुनिया में कोई किसी दूसरे से आनंदित हो ही नहीं सकता; किसी दूसरे के कारण आनंदित हो ही नहीं सकता। आनंद भीतर की घटना है, स्वस्फूर्त होता है। आनंद ध्यान से उपजता है, संबंधों से नहीं।
इसलिए यह जो तुम्हें दिखाई पड़ रहा है पावला कि यहां चारों ओर तुम देख रही हो लोग आनंदित हैं, तुम्हें भी लग रहा है यह बात सुंदर है। ऐसे आनंदित लोग, जो मां-बाप के पास हैं, वे भी तुम्हें दिखाई पड़ते हैं? अगर नहीं तो वे निरानंद लोग कैसे अपने दायित्वों को पूरा कर रहे होंगे? जबर्दस्ती ढो रहे होंगे। मगर भीतर-भीतर बच्चे सोचते हैं--कब इस खूसट बुड्ढे से छुटकारा मिले, कब यह बुढ़िया मरे तो झंझट मिटे! और पश्चिम में तो बच्चे आज नहीं कल मां-बाप को छोड़ कर चले ही जाते हैं। पश्चिम में तो बूढ़े मां-बाप अस्पतालों में या वृद्धालयों में रह रहे हैं। ये तो कहीं न कहीं छोड़ कर जाएंगे ही। अगर ये यहां आ गए हैं तो तत्क्षण सवाल उठता है कि उन्होंने अपना दायित्व छोड़ दिया। अगर ये कहीं जाकर नौकरी करते, धन कमाते--चाहे चोरी से ही धन कमाते, चाहे बेईमानी से ही धन कमाते, तो भी अपना दायित्व पूरा कर रहे होते। लेकिन इनका आनंदित होना दायित्व का पूरा करना नहीं है!
मेरी दृष्टि में तो अगर ये आनंदित होकर वापस लौटेंगे किसी दिन तो शायद आनंद को बांट सकेंगे। ये जहां जाएंगे वहां आनंद की किरणें बिखेरेंगे। मेरे हिसाब में दायित्व गौण है, नंबर दो है; आनंद प्रथम है। और आनंदित व्यक्ति ही केवल अपने कर्तव्य पूरे कर सकता है। दुखी व्यक्ति अपने कर्तव्य पूरे नहीं कर सकता। करे भी तो जबर्दस्ती करता है; मजबूरी में करता है; करना पड़ता है, इसलिए करता है। उसका कोई रस नहीं होता करने में।
और अगर मेरी बात तुम्हें समझ में आए--कठिन पड़ेगी समझना--मैं तो स्वार्थ सिखाता हूं। मेरे लिए स्वार्थ शब्द बुरा शब्द नहीं है। स्वार्थ शब्द का अर्थ है: स्वयं का अर्थ। स्वार्थ शब्द का अर्थ है: मैं कौन हूं, इसको जानना। और जो व्यक्ति स्वयं को जान लेता है, उसके जीवन में क्रांति हो जाती है। वह अच्छा पति होगा, अच्छी पत्नी होगी, अच्छा बेटा होगा, अच्छी बेटी होगी, अच्छा बाप होगा, अच्छी मां होगी। वह जो भी होगा, जहां भी होगा, उसके जीवन में एक सुगंध होगी, उसके संबंधों में एक रस होगा। क्योंकि उसकी हर जीवन-शैली में परमात्मा की छाप होगी। मैं स्वार्थ-विरोधी नहीं हूं।
और भी जान कर तुम्हें हैरानी होगी पावला, कि मेरी मान्यता है कि जो स्वार्थ को ठीक से समझ लेता है वही परार्थी हो सकता है। स्वार्थ और परार्थ में मैं विरोध नहीं देखता। जो स्वार्थी ही नहीं है, वह परार्थी तो कभी हो ही नहीं सकता। जिसने स्वयं का ही अर्थ नहीं साधा अभी, वह औरों का क्या खाक अर्थ साधेगा? हां, जबर्दस्ती उससे सधवा दो दूसरों का अर्थ, धक्के दे-दे कर उससे सेवा करवा लो, तो कर देगा। लेकिन मजबूरी होगी, जबर्दस्ती होगी; उसका आनंद नहीं हो सकता है। और मजा क्या उस बात में, जिसमें आनंद न हो? रस क्या उस बात में, जो तुम्हारे भीतर से उपजती न हो?
मैं स्वार्थ सिखाता हूं। परार्थ के फूल स्वार्थ में ही लगते हैं। हालांकि तुम्हें आज तक यही बात कही गई है, सदा यही दोहराया गया है कि स्वार्थ और परार्थ विरोधी हैं, स्वार्थ छोड़ो और परार्थ करो। आज तक मनुष्य-जाति के इतिहास में यही मूढ़तापूर्ण बात समझाई गई है। इसका परिणाम यह हुआ कि परार्थ तो हुआ ही नहीं, स्वार्थ भी नहीं हो पाया। पहले तो मैं कहता हूं: अपनी जड़ें मजबूत करो, ताकि तुम्हारे जीवन में फूल खिलें। फूल खिलेंगे तो सुगंध दूसरों को मिलेगी ही मिलेगी। और तुम्हारी अपनी ही जड़ें मजबूत नहीं हैं तो तुम इस भ्रांति में मत पड़ना कि तुम किसी को सुगंध देने में कभी भी समर्थ हो सकते हो।
पावला का दूसरा प्रश्न है:
भगवान, आप जानते हैं कि इस समय दुनिया में युद्ध की चर्चा चल रही है। इस खतरे को रोकने के लिए हम में से प्रत्येक व्यक्ति क्या कर सकता है?
पावला, अब तक तुम्हें युद्ध ही सिखाया गया है। अब तक तुम्हें प्रेम सिखाया नहीं गया। अब तक तुम्हें युद्ध के लिए ही तैयार किया गया है; तुम्हें प्रेम की कोई भूमिका नहीं दी गई; तुम्हें शांति का कोई पाठ नहीं पढ़ाया गया। यद्यपि कहते हैं राजनेता कि हम शांति चाहते हैं, मगर बड़ी अजीब है उनकी शांति! शांति चाहते हैं, बनाते एटमबम हैं! शांति चाहते हैं, बनाते हाईड्रोजन बम हैं!
औरों की तो बात छोड़ दो, यह गांधीवादी देश है भारत, यह तो अहिंसा की बात करता है। मगर यह भी अपना सत्तर प्रतिशत धन फौजों पर खर्च करता है। भूखा मर रहा है, अधनंगा है, कपड़ा नहीं, मकान नहीं, मिट्टी का तेल नहीं, जीवन की साधारण जरूरतें पूरी नहीं होतीं, मगर मिलिटरी में सांडों को पाल रहा है। कर्नल, जनरल, मेजर--ये सब सांड हैं, जिनका कुछ काम नहीं है। कवायद करो, क्योंकि खतरा है--पड़ोस में दूसरे देश अपने-अपने सांडों को पाल रहे हैं! उनके सांड डंड-बैठक लगा रहे हैं तो अपने सांडों को भी डंड-बैठक लगवाओ। सबको अपना झंडा ऊंचा रखना है। झंडा-वंडा से किसी को मतलब नहीं है, सबको अपना डंडा ऊंचा रखना है! झंडा तो बहाना है, झंडे में छिपा डंडा है।
जब तक दुनिया में देश हैं, तब तक युद्ध होंगे। देश मिटने चाहिए। बहुत हो चुका। अब कोई जरूरत नहीं है कि भारत हो, पाकिस्तान हो, चीन हो, रूस हो, इटली हो, जापान हो, जर्मनी हो। बहुत हो चुका। दुनिया से राष्ट्र मिटने चाहिए। जब तक राष्ट्र हैं, तब तक युद्ध जारी रहेंगे।
मैं यह प्रयोग यहां कर रहा हूं। यहां किसी को पता नहीं कौन कौन है। किसी को चिंता भी नहीं। यहां सारी दुनिया एक परिवार की तरह रह रही है। छोटा सा परिवार, लेकिन इस परिवार में सारे लोग हैं। कोई तीस-पैंतीस राष्ट्रों के लोग हैं। लेकिन कोई भेदभाव नहीं है।
धर्म मिटने चाहिए। धर्म बचेगा, धर्म मिट जाने चाहिए। बहुवचन में धर्मों की कोई जरूरत नहीं, एकवचन काफी है। हिंदू की क्या जरूरत है, मुसलमान की क्या जरूरत है, ईसाई की क्या जरूरत है? पोप की क्या जरूरत है और शंकराचार्य की क्या जरूरत है? इतना काफी है कि लोग धार्मिक हों और धार्मिक होने के लिए ध्यान की जरूरत है, और किसी चीज की कोई जरूरत नहीं है। न बाइबिल को मानने की जरूरत है, न कुरान को, न वेद को। और इन बाइबिल और कुरान और वेदों में ऐसी मूढ़तापूर्ण बातें भरी हैं कि इनको मानने वाले अंधे ही लोग हो सकते हैं। अगर इनको कोई जरा आंख खोल कर देखे तो बहुत घबड़ाएगा कि कैसे मानें इनको! इनमें कचरा ज्यादा है, हीरे तो कभी-कभार मिलेंगे। और जो हीरे हैं, वे तो तुम्हें अपने ध्यान में खोदने से खुद ही मिल जाएंगे, तो इस कचरे में इतना क्यों परेशान होना? और जब तक तुमने अपने हीरे नहीं पहचाने, तब तक तुम यह भी नहीं जान पाओगे कि वेद में क्या कचरा है और क्या हीरा है। कैसे जानोगे? तुम्हारे पास कोई कसौटी नहीं, कोई मापदंड नहीं, कोई तराजू नहीं।
अगर दुनिया से युद्ध मिटाने हैं पावला, तो राष्ट्र मिटने चाहिए, धर्म मिटने चाहिए, सीमाएं मिटनी चाहिए--सब तरह की सीमाएं मिटनी चाहिए। पृथ्वी एक है। पृथ्वी एक है और पृथ्वी को एक ही होना चाहिए। सारी पृथ्वी पर एक शासन काफी है; इतने राष्ट्र, इतनी सत्ताएं, इतनी सरकारें, इनकी कोई आवश्यकता नहीं है।
मेरे संन्यासी उसी दिशा में पहला कदम उठा रहे हैं। जैसे-जैसे संन्यासियों की संख्या बढ़ेगी, वैसे-वैसे राजनेताओं को चिंता बढ़ेगी, क्योंकि मेरा संन्यासी सब तरह की बगावत करने वाला है, कर ही रहा है।
पावला, अगर युद्ध मिटाना है, संन्यासी फैलाओ; अगर युद्ध बढ़ाना है तो सैनिक बनाओ। सैनिक और संन्यासी विपरीत हैं। सैनिक का अर्थ है: युद्ध, युद्ध की तैयारी। और संन्यासी का अर्थ है: शांति, शांति की तैयारी। फैलाओ संन्यासी को! फैलाओ संन्यासी के रंग को! डुबा दो सारी पृथ्वी को ध्यान में! अपने आप युद्ध समाप्त हो जाएंगे। युद्धों की कोई भी जरूरत नहीं है; अकारण लड़े गए हैं, व्यर्थ लड़े गए हैं। तीन हजार सालों में पांच हजार युद्ध हुए हैं। और अब तक तो हो भी सकते थे, क्योंकि टुच्ची-टुच्ची हमारे पास साधन-सामग्री थी। अब तो बड़ा मुश्किल मामला है। अब तो युद्ध होगा तो पूर्ण युद्ध होगा। एक युद्ध में सारी दुनिया समाप्त होगी। न आदमी बचेगा, न पशु-पक्षी बचेंगे, न पौधे बचेंगे, कीड़े-मकोड़े भी नहीं बचेंगे। जीवन ही नहीं बचेगा। एक भयंकर युद्ध के द्वार पर हम खड़े हैं।
एक लिहाज से यह अच्छा है, क्योंकि हमें कुछ निर्णय करना होगा। और इतने ही खतरे के क्षण में लोग निर्णय करते हैं, नहीं तो निर्णय कोई करता भी नहीं। जब जान पर ही आ बनती है, तब ही लोग निर्णय करते हैं। अब जान पर बनी आ रही है बात। इस सदी के पूरे होते-होते दुनिया को निर्णय करना पड़ेगा कि अगर युद्ध चाहिए तो राष्ट्रों को चलने दो और अगर युद्ध नहीं चाहिए तो राष्ट्रों को विदा करो। राष्ट्रों के विदा करते ही हिंदुस्तान को फौजें रखने की जरूरत नहीं, किसके खिलाफ फौज रखनी है? पाकिस्तान को फौजें रखने की जरूरत नहीं, किसके खिलाफ फौज रखनी है? और अभी तो फौजें ही खाए जा रही हैं। सत्तर प्रतिशत दुनिया की संपत्ति फौजें खा जाती हैं। यह दुनिया स्वर्ग बन सकती है। जरा सोचो तो, अगर यह सत्तर प्रतिशत संपत्ति दुनिया में उत्पादक कामों में लगे और ये फिजूल बैठे हुए लोग, जो दिन भर कुछ भी नहीं करते, कवायद करते हैं, मूर्खतापूर्ण! बाएं घूम, दाएं घूम! क्या मतलब है बाएं घूम दाएं घूम से? काहे के लिए बाएं घूम रहे, काहे के लिए दाएं घूम रहे हो? कोई दिमाग खराब हो गया है? काम हो तो जरूर घूमो, मगर बेकाम बाएं-दाएं घूम रहे हो! आगे बढ़, पीछे हट! कोई पूछता भी नहीं किसलिए आगे बढ़ना, किसलिए पीछे हटना! तैयारी चल रही है। हमेशा खतरा बना हुआ है पड़ोसी का।
अगर दुनिया से राष्ट्र समाप्त हो जाएं तो यह खतरा समाप्त हो जाता है, यह भय समाप्त हो जाता है। अब दुनिया में राष्ट्रों के दिन लद चुके, राजनीति के दिन लद चुके। यह सड़ी-गली दुनिया राजनीतिज्ञों की अब समाप्त होने का वक्त आ गया। बहुत सता लिया है दुनिया को। अब वे खुद ही अपने हाथ से उस जगह ले आए हैं जहां आदमी को तय करना होगा कि या तो मर जाओ, या तो सामूहिक आत्मघात, सार्वलौकिक आत्मघात, विश्व-आत्मघात--और या फिर एक महाक्रांति, जिसमें कि हम पुराने सारे तौर-तरीकों को बदलें, जिसमें कि हम पुराने सारे ढंग-ढर्रों को बदलें, कि हम आदमी का फिर क ख ग से निर्माण करना शुरू करें। आदमी को फिर से बनाने की जरूरत है।
वही महत कार्य इस छोटे से पैमाने पर हो रहा है। यह आज काम छोटा है, यह बीस वर्षों में बड़ा हो जाएगा। इस सदी के पूरे होते-होते तुम देखोगे कि इस काम से आदमी के जीवन के लिए एक दिशा मिलनी शुरू हो गई।
ध्यान की ऊर्जा जगत में फैलनी चाहिए और प्रेम का वातावरण जगत में फैलना चाहिए। मेरी दो ही शिक्षाएं हैं: अपने भीतर ध्यान में उतरो और अपने बाहर प्रेम में उतरो।
मेरा विरोध होने वाला है। मेरा विरोध पंडित करेंगे, पुरोहित करेंगे, पोप करेंगे, पादरी करेंगे। मेरा विरोध राजनीतिज्ञ करेंगे, समाज के ठेकेदार करेंगे, न्यस्त स्वार्थ करेंगे; जिनके हाथ में अब तक सत्ता रही है, वे करेंगे। यह स्वाभाविक है, क्योंकि मैं उनको जड़ से काट डालना चाहता हूं। यह जड़-मूल से क्रांति है।
मेरा संन्यासी कोई पुराने ढंग का संन्यासी नहीं है, कोई भगोड़ा नहीं है कि उसे चले जाना है दूर हिमालय में किसी गुफा में बैठ जाना है। मेरा संन्यासी जिंदगी में खड़ा होगा और वहां एक नये ढंग से जीएगा। उसके जीने के दो पहलू होंगे--भीतर प्रेम और ध्यान। ध्यान अपने लिए, प्रेम औरों के लिए। ध्यान उसका केंद्र होगा, प्रेम उसकी परिधि होगी। और जितने लोग ध्यान और प्रेम से भरते चले जाएंगे, उतनी ही दुनिया में युद्ध की संभावना क्षीण होती चली जाएगी।
राजनीतिज्ञ तो पिट चुके हैं, सड़ चुके हैं, लाशें खड़ी हैं; सिर्फ धक्का मारने की जरूरत है, गिर जाएंगे। कोई बहुत बुद्धिमत्ता की जरूरत भी नहीं है राजनीति में।
मैंने सुना है, एक आदमी को अपना मस्तिष्क बदलना था। उसका पुराना मस्तिष्क सड़ गया था, तो वह गया एक सर्जन के पास। सर्जन ने कहा कि मस्तिष्क बदला जा सकता है। तुम जो मस्तिष्क पसंद करो, जितनी तुम्हारी हैसियत, जितनी तुम्हारी जेब की ताकत। उसने जाकर उसे बहुत से मस्तिष्क दिखाए अपनी प्रयोगशाला में। एक वैज्ञानिक का मस्तिष्क था, दाम थे केवल बीस डालर और एक राजनीतिज्ञ का मस्तिष्क था, दाम थे दो हजार डालर। उस आदमी ने पूछा: हद हो गई! मैं तो सोचता था वैज्ञानिकों के मस्तिष्क बहुमूल्य होते हैं। राजनीतिज्ञ के मस्तिष्क के दाम दो हजार डालर और वैज्ञानिक के मस्तिष्क के दाम केवल बीस डालर! और इस वैज्ञानिक को नोबल प्राइज मिली थी।
वह चिकित्सक हंसने लगा और उसने कहा: तुम समझे नहीं। वैज्ञानिक के मस्तिष्क को नोबल प्राइज मिली थी, इसीलिए तो उसके दाम बीस डालर। यह तो अपने मस्तिष्क का उपयोग कर चुका। यह राजनीतिज्ञ ने तो मस्तिष्क का कभी उपयोग किया नहीं, जरूरत पड़ी नहीं; यह काम में आया ही नहीं है। यह तो ब्रैंड न्यू समझो! इसलिए इसके दाम दो हजार डालर।
राजनीतिज्ञ को मस्तिष्क की क्या जरूरत है! जितना कम मस्तिष्क हो, उतनी राजनीति में ज्यादा सफलता की गुंजाइश है। वह मूढ़ों की दुनिया है और मूढ़ काफी सता चुके हैं। ये चंगीज खां और तैमूरलंग और ये नादिरशाह और ये सिकंदर...और इनको हम कहते रहे--महान! इतिहास भरा है इनसे और हम बच्चों की खोपड़ी इन कचरा नामों से भरते हैं। यह सारा इतिहास जला दो! इस इतिहास की कोई जरूरत नहीं है। ये थोड़े से नाम बच्चों को समझा दो--बुद्ध के, जीसस के, जरथुस्त्र के, लाओत्सु के, मोहम्मद के, महावीर के, फरीद के, नानक के, मलूक के--काफी हैं।
हमें इतिहास पूरा का पूरा और ढंग से पढ़ाना चाहिए। उनकी बात पढ़ाओ, जिन्होंने प्रेम की कही बात। उनकी बात पढ़ाओ, जिन्होंने परमात्मा की कही बात। उनकी बात पढ़ाओ, जिन्होंने जगत को ध्यान के सूत्र दिए। किन गधों की बात पढ़ा रहे हो--जिन्होंने जिंदगी को बरबाद किया, तहस-नहस किया, हत्याएं कीं, जो जमीन को खून से भर गए!
हमें सारा का सारा रंग-ढंग बदलना होगा। अब बदलना ही होगा, पावला, क्योंकि तू ठीक पूछती है: ‘आप जानते हैं इस समय दुनिया में युद्ध की चर्चा चल रही है।’
और यह चर्चा अब साधारण नहीं है, यह असाधारण है। क्योंकि अब जो युद्ध होगा, वह आखिरी है, निर्णायक है। या तो आदमी बचेगा या खत्म होगा। अगर बचना होगा आदमी को तो मेरे जैसे लोगों की बात सुननी ही पड़ेगी और अगर नहीं बचना है तो ठीक है, तुम जिस ढंग से रहते रहे हो रहते रहो। ऐसे मर जाओगे जैसे खटमल-मच्छर मर जाते हैं। यह पृथ्वी खाली हो जाएगी। यह पृथ्वी सूनी हो जोगी। यह सदियों-सदियों में जो थोड़े से लोगों ने मनुष्य-जाति में चैतन्य की अपूर्व ज्योति जलाई है, वह बुझ जाएगी। यह महत कार्य जो बुद्धों ने किया है, खो जाएगा। यह मंदिर जो बुद्धों ने बनाया है, यह धूल-धूसरित हो जाएगा। सब तुम्हारे हाथ में है।
सैनिक को विदा करो, संन्यासी को जगह दो। युद्ध की भाषा बंद, प्रेम की भाषा के पाठ पढ़ाओ। लेकिन प्रेम की भाषा के पाठ पढ़ाना, सब-कुछ बदलना होगा। आमूल-चूल बदलना होगा। यह कुछ ऐसा नहीं है कि कुछ शांति के नारेबाजी लगा दिए और कुछ झंडे लेकर शांति का जुलूस निकाल दिया कि हम युद्ध नहीं चाहते हैं, इससे कुछ हल हो जाएगा। इससे कुछ हल होने वाला नहीं है। इसके लिए कोई सृजनात्मक कार्य...वैसा ही सृजनात्मक कार्य यहां हो रहा है।
पावला, इसे समझने की कोशिश करो। यह सूत्रपात है। मेरी दृष्टि में ये सारी बातें हैं। मैं जो कर रहा हूं, उसमें एक बहुत पूरी की पूरी योजना है। उसमें मनुष्य के भविष्य के लिए पूरा का पूरा जीवन-दर्शन है।
तीसरा प्रश्न पावला का है:
भगवान, मैं जानती हूं कि कुछ इटलीवासी अपनी नशीली आदतों से छुटकारा पाने के लिए आपके पास आ रहे हैं। क्या उनके लिए कोई उम्मीद है? क्या आप उनका इलाज कर सकते हैं?
निश्चय ही, क्योंकि मैं उन्हें और बड़ा नशा पिलाता हूं। वे क्या खाक नशा करेंगे इटली में! कोई मारिजुआना, कोई हशिश, कोई गांजा, कोई अफीम, कोई एल.एस.डी.। मैं उन्हें ध्यान दे रहा हूं। जिसको ध्यान का नशा लग गया, फिर सब नशे छूट जाते हैं। और ध्यान के नशे की एक खूबी है: यह नशा है भी और नशा नहीं भी है। ध्यान बड़ा विरोधाभासी नशा है। यह जगाता भी है और डुबाता भी है। यह मदमाता भी है। यह मस्ती से भी भर देता है, और यह परम बोध को भी जगा देता है। यह तुम्हारे भीतर चैतन्य को भी प्रखर करता है, तुम्हारी मूर्च्छा को भी तोड़ता है, और तुम्हारे पैरों में नृत्य भी दे देता है, और तुम्हारे गले में गुनगुन भी भर देता है। यह तुम्हें गीत भी देता है--ऐसे गीत, ऐसे रंग कि तुम्हारे प्राणों में इंद्रधनुष फैल जाएं, कि तुम्हारे प्राणों में कमल खिल जाएं! जिसने इस नशे को किया, उसके सब नशे छूट जाते हैं।
मेरी तो दृष्टि ही यही है कि जो लोग भी दुनिया में नशा कर रहे हैं, वे असल में ध्यान की ही तलाश कर रहे हैं। उन्हें ध्यान का पता नहीं चल रहा, इसलिए बेचारे अंधेरे में टटोल रहे हैं, जो हाथ लग जाता है। शराब किसी ने पी ली, मैं मानता हूं कि वह ध्यान की ही तलाश कर रहा है। लेकिन ध्यान तो बोतलों में बंद हर जगह मिलता नहीं; शराब मिल जाती है। शराब पीकर भी वह क्या कर रहा है? वह यही कर रहा है कि थोड़ी देर को मन के उपद्रव भूल जाना चाहता है। मगर मन के उपद्रव मिटते नहीं; दूसरे दिन सुबह फिर वापस खड़े हैं, दुगनी ताकत से खड़े हैं।
जो आदमी मारिजुआना, एल.एस.डी. और इस तरह के नशे ले रहा है, वह क्या कर रहा है? उसकी जिंदगी फीकी हो गई है, उदास हो गई है, ऊब से भर गई है। अब उसे जिंदगी में कुछ रस और अर्थ नहीं मालूम होता। वह घबड़ा गया है। सब रंग खो गए हैं, सब गीत उजड़ गए हैं। कहीं कुछ ऐसा नहीं लगता जिसमें गरिमा हो, महिमा हो। उसे लगता है कि मिट जाऊं मर जाऊं या कुछ रास्ता मिले--जिससे अर्थवत्ता पैदा हो। तो बेचारा नशा कर लेता है। नशा कर लेता है तो फिर वृक्ष हरे दिखाई पड़ते हैं थोड़ी देर को, फिर फूल सुंदर मालूम होते हैं, फिर तितलियों में परमात्मा के हस्ताक्षर अनुभव होते हैं, फिर चांद-तारों में रोशनी आ जाती है, फिर उसकी आंखें चमकती हैं बच्चों की तरह, फिर आश्चर्य-विमुग्ध होता है वह। लेकिन यह कितनी देर टिकेगा? थोड़ी देर बाद फिर वापस इसी भूमि पर खड़ा है। वह सिर्फ कल्पना थी। वह ध्यान का भ्रम था। ध्यान इसी को स्थायी रूप से देता है। नशे, जिसकी केवल भ्रामक अनुभूति देते हैं, ध्यान उसी को स्थिर रूप से देता है। और एक बार देता है तो फिर जाता नहीं।
मैं कोई नशों का, नशे करने वालों का इलाज नहीं कर रहा हूं। मैं उनकी खोज पहचानता हूं। इसलिए मेरे पास जब आकर कोई नशा करने वाला कहता है कि क्या मैं भी संन्यासी हो सकता हूं, क्योंकि मैं शराबी हूं, क्योंकि मुझे गांजा पीने की आदत है? मैं कहता हूं: तुम इसीलिए तो शराबी हो, इसीलिए तुम गांजा पीते थे कि अंधेरे में टटोलते थे। अब तुम रोशनी में आ गए। अब तुम संन्यासी हो ही जाओ। जिसने कभी गांजा नहीं पीआ, कभी अफीम नहीं खाई, जो गोबर-गणेश की तरह किसी दुकान पर बैठा रहा हमेशा, वह क्या खाक संन्यासी होगा! तुम कम से कम तलाश तो करते थे! तुम खोज तो करते थे। खोज गलत जा रही थी, मगर खोज तो खोज है। गलत हो तो भी, कम से कम है तो! जो गलत खोजता है, वह एक दिन ठीक भी खोज लेगा।
मैं कोई इलाज नहीं करता। लेकिन मैं इतना बड़ा नशा दे देता हूं, उसके सामने छोटे नशे अपने से डूब जाते हैं। तुम चुल्लू भर पानी में डूबने की कोशिश कर रहे थे। मैं कहता हूं: सागर है पूरा, कहां तुम चुल्लू भर पानी में डूब रहे हो! कैसे डूबोगे? डूब ही नहीं सकते। यह रहा सागर, मारो डुबकी, ऐसी कि फिर निकलना ही नहीं।
तीन बच्चे स्कूल में चर्चा कर रहे थे। एक बच्चे ने कहा कि मेरे पिता बड़े गोताखोर हैं, जब पानी में गोता मारते हैं, पांच-सात मिनट तक बाहर नहीं निकलते।
दूसरे बच्चे ने कहा: यह कुछ भी नहीं। गोताखोर हैं मेरे पिता। जब गोता मारते हैं तो आधा-आधा घंटे तक पानी में नदारद हो जाते हैं।
तीसरे ने कहा: अरे यह कुछ भी नहीं, गोताखोर हैं मेरे पिता, आज सात साल हो गए, जो गोता मारा है सो निकले ही नहीं।
मैं तो तीसरी तरह का गोता सिखाता हूं कि जिसने मारा सो मारा, फिर निकलने का कोई सवाल नहीं है।
पांचवां प्रश्न:
भगवान, आप कहते हैं कि पंडित-पुरोहितों द्वारा चलाए जा रहे धर्म नकली हैं। फिर वे सदियों-सदियों से चले आ रहे हैं। क्यों?
धर्म ज्योति! इसीलिए! असली को चलाना मुश्किल है, क्योंकि असली को खरीदने वाले मुश्किल से मिलते हैं। असली जरा मंहगा सौदा है। असली के लिए कीमत भी असली चुकानी पड़ती है। नकली सस्ता मिल जाता है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक स्त्री के प्रेम में था। एक हीरे की अंगूठी लाकर भेंट की। बड़ा हीरा! बेर के बराबर हीरा होगा। स्त्री भी चौंकी। सोने में जड़ा, ऐसे चमकता था! खुश हो गई, अंगुली में पहनाया जब नसरुद्दीन ने उसे। एकदम नसरुद्दीन के गले लग गई और कहा: नसरुद्दीन, तुम सच ही मुझे प्रेम करते हो! तुम जैसा मुझे कोई प्रेम नहीं करता। मगर एक बात तो बताओ, क्या यह हीरा असली है?
नसरुद्दीन ने कहा: असली नहीं है तो जिस हरामजादे से मैंने खरीदा, उसने डेढ़ रुपये मेरे मुफ्त खा गया।
डेढ़ रुपये में असली हीरा--बेर के बराबर! वह भी सोने में जड़ा! नसरुद्दीन बोला कि अगर नकली हो तो तू बता, खोपड़ी खोल दूंगा उसकी जिसने मुझे बेचा है, असली कह कर बेचा है। और नगद डेढ़ रुपये दिए हैं। हालांकि जो डेढ़ रुपये मैंने उसे पकड़ाए हैं, वे भी कोई असली नहीं थे। इसलिए अगर नकली भी है तो अपना कुछ गया नहीं, अपना कुछ खोया नहीं। मगर उसको मजा चखा कर रहूंगा!
नकली हैं धर्म पंडित-पुरोहितों द्वारा चलाए हुए, इसीलिए चलते हैं। मगर तेरा पूछना भी ठीक है कि फिर सदियों-सदियों से क्यों चलते हैं? यह सवाल उठता है कि जब इतनी सदियों से चल रहे हैं तो जरूर कोई सचाई होगी! हमारा गणित ऐसा है कि जब इतनी पुरानी कोई बात चलती है तो इसमें सचाई होनी ही चाहिए।
पुरानी बात में सचाई का कोई संबंध नहीं है। पुराने होने से सत्य का कोई नाता नहीं है। पुराना सिर्फ इतना ही बताता है कि भीड़ को रुचता रहा है। और भीड़ को सत्य से क्या लेना-देना है! भीड़ को असत्य रुचता है। भीड़ को चाहिए सांत्वना, संतोष। और असत्य बड़े संतोषदायी हैं। असत्य बड़ी सांत्वनाएं देते हैं। सत्य कमाना हो तो कीमत चुकानी पड़ती है--शायद जीवन से कीमत चुकानी पड़े; शायद अपने को कुर्बान करना पड़े; शायद गर्दन उतार कर रखनी पड़े। असत्य कुछ नहीं मांगता तुमसे। असत्य तुमसे मांगता है कि कुछ चढ़ा दो दो पैसे। और तुम भी होशियार हो, तुम दो पैसे भी नकली चढ़ा आते हो।
मेरे गांव में झांकियां कृष्ण की बड़े जोर-शोर से मनाई जाती थीं। वह उस गांव की खास बात थी। आस-पास दूर-दूर से गांव के लोग झांकियों को देखने आते थे। कृष्णाष्टमी के समय सावन में जब झूले पड़ते तो मंदिर ऐसे सज जाते और बड़ी भीड़ लगती। तो मैं भी चार-छह बच्चों का झुंड बना कर झांकियों में पहुंचता था। और हमने एक तरकीब निकाल रखी थी। उस समय दो पैसे का एक सिक्का चलता था, जो करीब-करीब रुपये के बराबर होता था। उस पर हम चांदी का वर्क चढ़ा लेते थे, तो बिलकुल रुपया मालूम होता था। और झांकियों में इतनी भीड़ होती थी और इतने पैसे चढ़ते थे कि सवाल ही नहीं था हाथ में देने का पुरोहित के, लोग यूं फेंकते थे। सो वह नकली दो पैसे का जो सिक्का होता था, चांदी का वर्क चढ़ा, उसको हम भी फेंकते थे जोर से, काफी खनखना कर, ताकि पुजारी को दिखाई पड़ जाए कि रुपया फेंका गया है। और तत्क्षण मांगते कि आठ आने वापस!
सो झांकियों के दिन बड़े लाभ के दिन थे। एक-एक मंदिर में चार-चार छह-छह दफे जाते। फिर पुजारियों को थोड़ा शक होने लगा कि मामला क्या है! यह लड़का छह-छह दफे आता है एक ही रात में! और हर बार रुपया और क्या खनक कर फेंकता है! फिर वे जब रात को इकट्ठे होकर पैसे गिनते होंगे तो उनको पता चलना शुरू हुआ कि ये छह दो-दो पैसे के सिक्के नकली हैं और इन पर चांदी का वर्क चढ़ाया हुआ है। एक दिन एक पुजारी ने, जैसे ही मैंने रुपया फेंका, उसने तत्क्षण वह रुपया पकड़ा और कहा कि तुम रुको, आज धोखा न दे सकोगे। नकली दो पैसे पकड़ा जाते हो और साथ में अठन्नी भी हमसे ले जाते हो।
मैंने उनसे कहा कि तुम जो झूला लटकाए हो, इसमें कोई असली कृष्ण बैठे हैं? किसको झूला झूला रहे हो तुम? हम वही कर रह हैं, जो तुम कर रहे हो। तुम जरा बड़े पैमाने पर कर रहे हो, हम जरा छोटे पैमाने पर। हमारी उम्र भी अभी कम है; जब बड़े हो जाएंगे, हम भी बड़े पैमाने पर करेंगे। अभ्यास तो करने दो जी! अभी से अभ्यास करेंगे, तभी तो करते-करते बात बनेगी।
वह भी हंसने लगा। उसने कहा: यह बात तो ठीक है। यह ले भैया अठन्नी। तू औरों को मत बताना। यह राज अपने तक रखना।
और मैंने कहा कि तुम्हीं को हम थोड़े ही धोखा देते हैं; गांव में कोई तीस-पैंतीस मंदिर हैं, सभी को देते हैं, सबको समान भाव से देते हैं। हम सबको समदृष्टि से देखते हैं। यही तो गीता में कहा है कृष्ण ने कि सबको समदृष्टि से देखो।
यह धोखाधड़ी चलती है। और जब तुम धोखाधड़ी चलाओगे तो जनता भी जानती है। चार पैसे में मिल जाता है पुरोहित, सत्यनारायण की कथा करा जाता है। मोक्ष भी सध गया। चार पैसे में मोक्ष साध रहे हो! महावीर मूरख थे, जो बारह वर्ष मेहनत की, ध्यान पर सिर पटका! बुद्ध बुद्धू थे, छह वर्ष तक जान दांव पर लगाई, तब कहीं ध्यान को उपलब्ध हुए। और तुम सत्यनारायण की कथा करवा रहे हो चार पैसे में--उस आदमी से, जिसको सत्य का कोई भी पता नहीं। तुम भी जानते हो। चार पैसे में कोई सत्यनारायण की कथा कहने आएगा! और उस सत्यनारायण की कथा को तुमने कभी सुना है? न उसमें सत्य है, न कहीं नारायण है। मगर सुनता कौन है! किसको पड़ी है सुनने की! किसको लेना-देना है! झूठ का व्यापार काफी गर्म है। झूठ चलना बड़ा आसान है।
असली चीज से नकली अधिक चलती है।
प्यारे!
सिर पीट रहे हैं आसमान के तारे
उन्हें कोई पूछता नहीं
चमक रहे फिल्म के सितारे।
किस्मत के मारे चांद को
चांद-सी सूरत खलती है।
क्योंकि असली चीज से नकली अधिक चलती है।
रात-रात आंखें फोड़ीं
सारी गरमी के सीजन
दस दफे किया रिवीजन
फिर भी न हुए पास
टूट गई आस
जो मस्ती मारे साल भर
वे ही मार ले गए फर्स्ट डिवीजन
समझे प्रियजन!
विद्या के अध्ययन से नकल अधिक फलती है।
क्योंकि असली चीज से नकली अधिक चलती है।
जैसा कि सब जानते हैं
चांद से ज्यादा
चंद्रमुखियों की कद्र होती है।
राजसिंहासन
बना झूठ का आसन
सच्चाई कब्र में सोती है
कच्चा मोती सुंदरियों के वक्षों पर चमके
और वैद्यराज के खल में बेचारा
पिसता पक्का मोती है
देख-देख पड़ोसिन के गहनों को
ईमानदार हरिश्चंद्र की बीबी रोती है
कहती है हमें खाने को तेल नहीं
और यह कुत्ते की पूंछ पर मक्खन मलती है।
क्योंकि असली चीज से नकली अधिक चलती है
आगे सुनो भैया
रो रहा अपनी किस्मत को
मगनलाल मलैया
मनमोहन जी मिलाते रहे
चूने में नमक, सोडे में चूना
गरम मसाले में कचरा भूना
दाम लिया दूना
जीरों में लकड़ी का बुरादा
उच्च विचार, जीवन सादा।
मिर्च में घिसी ईंटा
शक्कर में पानी सींचा
खूब पैसा खींचा।
मलैया जी रो-रो कर कहते हैं
बेकार गए जिंदगी के दस साल
हम बेवकूफ बेचते रहे असली माल
असली तंबाखू असली लैया
ले डूबी अपनी नैया।
असली होती महंगी, नकली होती सस्ती
महंगी कौन लेगा, पागल है क्या बस्ती?
महंगी से प्यारे सस्ती अधिक खपती है
क्योंकि असली चीज से नकली अधिक चलती है।
गांव की महासुंदरी भी
शहर में नहीं फब्ती है
और शहर की प्रौढ़ा भी बच्ची सी लगती है।
पावडर का लेप, माडर्न वेष, चमचमाता फेस
ओंठों पे लाली, आंखों में काजल की काली।
केशों के नकली विग से जवानी नहीं ढलती है।
क्योंकि असली चीज से नकली अधिक चलती है।
होशियार लोग समझते हैं
कि नकली में असली से ताकत होती ज्यादा
डालडा खाने वाला फूलता जाता।
जीवित राम जंगल जाते
रामलीला का राम पूजा जाता।
ईसा का गला सूली पर लटकता,
और ईसाई गले में सूली लटकाता।
आत्मकथा होती सच्ची
व्यंगकथा झूठी
इसलिए आत्मकथा से ज्यादा व्यंग पढ़ा जाता।
पहलवान रियाज करते रह जाते
नकली मूंछों वाले बन जाते दादा
नेताजी को वोटें कैसे मिलीं
राज है उसका झूठा वादा।
गाने को लोग भूल जाते, पर पैरोडी चलती है,
झूठों के आगे सच्चे की दाल नहीं गलती है
क्योंकि असली चीज से नकली अधिक चलती है।
असली फूल से ज्यादा कागज के फूल जीते हैं।
शराब से ज्यादा लोग काकटेल पीते हैं
क्योंकि अर्धनारीश्वर को पूजने वाले
हम भारतवासी हैं।
समन्वयवादी हैं।
मिलावट के आदी हैं।
मेलजोल से रहो
कह गए हमारे दादा-दादी हैं
अपनी से ज्यादा ‘पराई’ हमें जंचती है
प्योर चीज से ज्यादा
मिली-जुली भली लगती है
दूध में कहां वह मजा
हमें तो चाय अच्छी लगती है
क्योंकि असली चीज से नकली अधिक चलती है।
डॉक्टरों की सलाह भी सुन जाइए
बच्चों को असली दूध न पिलाइए
अगर लिखा होगा उनके भाग्य में
तो अमूल या लेक्टोजन मिल जाएगा बाजार में
उसी को घर लेते आइए।
डिब्बों के दूध से बच्चों की हेल्थ बनती है
केवल नासमझों के घर में आजकल गाय पलती है।
क्योंकि असली चीज से नकली अधिक चलती है।
रोती है बुद्धिमानी, चालाकी हंसती है
मुस्कुराती बेईमानी, ईमानदारी फंसती है
दीये सभी चुक जाते, अंधियारी नहीं मिटती है
जिंदगी का अंत है, पर मौत नहीं मरती है
पैर तो थक जाते, बैसाखी नहीं थकती है
क्योंकि असली चीज से नकली अधिक चलती है।
धर्म ज्योति, वह जो नकली है, चलता रहा--स्वभावतः इसीलिए चलता रहा कि नकली है। असली को अड़चन है। असली को हजार बाधाएं हैं। वह बिलकुल स्वाभाविक है। जितनी पुरानी चीज हो, उतने समझ-बूझ कर, सोच-विचार कर ग्रहण करना। समझ लेना कि इतनी पुरानी है तो जरूर नकली होगी। इतनी देर चलती रही, इतनी भीड़ में चलती रही--असली हो कैसे सकती है?
सत्य सदा नया है, नित-नूतन है। सत्य उतना ही नया है जैसे सुबह की ओस नई है, जैसे सुबह की सूरज की किरण नई है। झूठ तो पुराना, बहुत पुराना। लेकिन झूठ अपना खूब प्रचार कर लेता है। झूठ ही अपना प्रचार करता है। झूठ प्रचार पर जीता है। और प्रचार के करिश्मे हैं, विज्ञापन के अदभुत करिश्मे हैं। खूब जोर-शोर से प्रचार करो!
वही तो पंडित-पुजारी कर रहे हैं हजारों साल से। तुमको फिर खयाल भी नहीं आता कि हम यह क्या कर रहे हैं। पत्थर की मूर्ति के सामने हाथ झुकाए खड़े हो! आदमी की बनाई मूर्ति, आदमी की सजाई मूर्ति--और तुम हाथ झुकाए खड़े हो! और जिंदा आदमी को हाथ जोड़ने में तुम्हें मुश्किल हो जाती है। पत्थर की मूर्ति भगवान बनी बैठी है और जिंदा आदमी में तुम्हें भगवान दिखाई नहीं पड़ता! कैसा गजब है! प्रचार ने कैसा तुम्हें अंधा किया है। कैसे आंखों पर चश्मे चढ़ा दिए--रंगीन चश्मे! जो चढ़ा दिया वही दिखाई पड़ने लगा।
नया हो तो संभावना भी है सत्य की। और ध्यान रखना, सत्य को चुनना हमेशा सूली को चुनना है। सत्य को चुनना हमेशा दुर्गम को चुनना है। सत्य को चुनना हमेशा खड़ग की धार पर चलना है। इसलिए थोड़े से ही साहसी चुन पाते हैं।
आखिरी प्रश्न:
भगवान, मैं डॉक्टर हूं, लेकिन मेरी डॉक्टरी चलती नहीं। क्या परमात्मा मुझसे नाराज है? आपका आशीष चाहिए!
डॉक्टर शोभालाल! मुझे तो कुछ लगता नहीं आशीर्वाद देने में। मेरा क्या जाता? लेकिन फिर मरीजों का भी खयाल आता है। नहीं चलती तो कुछ राज होगा। डॉक्टरी कोई हवा में तो चलाओगे नहीं। कोई पतंग तो नहीं है डॉक्टरी, कि हवा में उड़ाओगे। मरीजों पर चलाओगे। मरीजों की तुम दुर्गति किए होओगे; नहीं तो चल गई होती।
परमात्मा क्यों नाराज होने लगा! परमात्मा तो तुम पर खुश ही होगा। तुम लोगों को परमात्मा के प्यारे बना देते होओगे। वह तो बहुत चाहता होगा कि शोभालाल की चले, खूब चले, शोभालाल भेजे और-और आदमी। मगर मरीज को भी तो हक है अपनी जान बचाने का कि नहीं? मरीज को भी आत्मरक्षा का जन्म सिद्ध अधिकार है या नहीं?
तुमको तो मैं आशीर्वाद दे दूं, तुम तो एक, और मरीज अनेक। तुम्हारा प्रश्न देख कर मैं सोच ही रहा था कि दे ही दूं आशीर्वाद। फिर मैंने सोचा मगर आशीर्वाद का मतलब क्या होगा! पता नहीं तुम कितने मरीजों को एकदम स्वर्गवासी बना दो। और बहुत दिन से अगर चली नहीं है तो तुम एकदम तैयार ही बैठे होओगे, अपनी छुरी-कांटे पर धार रख रहे होओगे, अपना साज-समान बिलकुल तैयार किए बैठे होओगे, एकदम टूट पड़ोगे।
मुल्ला नसरुद्दीन ऑपरेशन कराने गया था। घबड़ा रहा था। कोई भी घबड़ाता है। अपेंडिक्स का ऑपरेशन था, पेट कटेगा। पसीना-पसीना हुआ जा रहा था। यद्यपि ऑपरेशन थियेटर तो वातानुकूलित था, लेकिन पसीना चू रहा था। डॉक्टर ने कहा: ऐसा क्यों घबड़ाते हो नसरुद्दीन?
नसरुद्दीन ने कहा: इसलिए घबड़ाता हूं कि यह मेरा पहला ही ऑपरेशन है। अरे, डॉक्टर ने कहा, तू फिकर मत कर। मैं घबड़ाता हूं? मेरा भी यह पहला ही आपरेशन है। जब मैं नहीं घबड़ा रहा, तू क्यों घबड़ा रहा है?
नसरुद्दीन उठ कर खड़ा हो गया। उसने कहा: फिर हम चले। यह तो बहुत झंझट हो गई। पहला ही आपरेशन है, तो तुम जरा किसी और पर अभ्यास करो। पहले पशु-पक्षियों पर अभ्यास करो, फिर आदमियों पर करना।
शोभालाल, तुम एकदम आदमियों पर अभ्यास करना चाहते हो, क्या विचार है? चलती नहीं तो कुछ कारण होगा। कारण खोजो। कहीं भूल-चूक होगी। लेकिन हमारे मुल्क में कारण-वारण खोजने की किसी को जरूरत नहीं। नहीं चलती तो इसका मतलब है: किस्मत में खराबी है। अरे वाह! अरे दूसरों की किस्मत अच्छी है, यह कहो। तुम्हारी किस्मत में खराबी है, ऐसा कुछ नहीं।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने गधे पर से गिर पड़ा। मैं उसे देखने गया। मैंने कहा कि नसरुद्दीन, तुम्हारे गधे ने बड़े गजब का काम किया! बड़ा होशियार गधा है! मैंने सुना कि तुम तो गधे से गिर पड़े और गधा गया और डॉक्टर को बुला लाया!
अरे, नसरुद्दीन बोला, क्या डॉक्टर को बुला कर लाया--डॉक्टर शोभालाल को बुला लाया! गधा ही है, इसको कोई और डॉक्टर न मिला बस्ती में।
तुम पहले अभ्यास करो। जैसे नसरुद्दीन के गधे पर अभ्यास करो। और भी गधे मिल जाएंगे। पहले मुफ्त अभ्यास करो या कुछ पैसे देकर अभ्यास करो। और अगर नहीं यह सब सुविधा हो तो तुम पंजाब चले जाओ और होशियारपुर में बस जाओ, क्योंकि मैंने यह कहानी सुनी है--
मुल्ला नसरुद्दीन अपने काम के सिलसिले में एक बार होशियारपुर गया। रात दस बजे गाड़ी होशियारपुर पहुंची। इस लंबे सफर में मुल्ला को पेट में जोर का दर्द हो गया। जाकर उसने स्टेशन मास्टर से पूछा कि क्या यहां सवारी का कोई इंतजाम हो सकता है? स्टेशन मास्टर बोला: बड़े मियां, सवारी के नाम पर तो यहां बस तांगे-इक्के चलते हैं। मुल्ला किसी तरह स्टेशन से बाहर निकला, देखा सामने ही एक तांगा खड़ा हुआ था तथा घोड़ा रात के अंधेरे में ही सड़क पर डाली गई घास चर रहा था। उसने पास से जाते हुए व्यक्ति से पूछा: क्यों भाई, इस तांगे का ड्राइवर कहां है? वह गांव का व्यक्ति बोला कि भैया, यह ड्राइवर क्या होता है?
नसरुद्दीन बोला: अरे हद कर दी मूर्खता की! जैसा सुना था वैसा ही पाया। अरे जो तांगा चलाए उसे ड्राइवर कहते हैं।
इस पर वह व्यक्ति प्रसन्न होकर बोला: अच्छा-अच्छा, अब पता चला कि ड्राइवर किसे कहते हैं। तो वह देखो सामने ही रहा इस तांगे का ड्राइवर, जो तांगे में जुता घास चर रहा है। मुल्ला को ऐसी मूर्खतापूर्ण बातों से बड़ा दुख हुआ। कुछ समय बाद तांगे वाले आया, उसने तांगे वाले से किसी तरह डॉक्टर के यहां चलने को कहा। तांगे में जो दचके खाए, दर्द और बढ़ गया। रास्ते में मुल्ला ने देखा घर-घर दीये जल रहे हैं--कहीं पांच दीये जल रहे हैं तो कहीं दस, तो कहीं पूरी दीपावली। दीये ही दीये! थोड़ी देर बाद तांगा एक टूटे से घर के आगे जाकर रुका और तांगे वाले ने कहा: लीजिए बड़े मियां, सामने ही डॉक्टर साहब का घर है।
मुल्ला ने जाकर दरवाजा खटखटाया। एक वृद्ध व्यक्ति ने लालटेन हाथ में लिए दरवाजा खोला। नसरुद्दीन को देख कर बोला: आओ मियां, आओ, सुनाओ क्या तकलीफ है?
नसरुद्दीन बोला: बड़े मियां, मैं बाहर से आया हूं और पेट में बड़े जोरों का दर्द हो रहा है। दर्द तो वैसे ही जोर से हो रहा था, इस तुम्हारे होशियारपुर के तांगे में बैठ कर तो बिलकुल प्राण निकले जा रहे हैं, आत्मा ही उड़ी जा रही है। जल्दी कोई दवा दीजिए, नहीं तो पिंजड़ा ही पड़ा रह जाएगा, पक्षी उड़ जाएगा।
बड़े मियां बोले: चिंता मत करो, बरखुरदार। अभी लो, ऐसी दवा देता हूं कि मर्ज जड़ से ही खत्म हो जाए।
बड़े मियां दवा बनाने लगे और साथ ही दोनों की बातचीत भी होने लगी। नसरुद्दीन ने पूछा कि अच्छा यह तो बताओ बड़े मियां, कि ये घरों-घर दीये क्यों जल रहे है? बड़े मियां बोले: बात यह है बरखुरदार कि जिस डॉक्टर के हाथ से जितने मरीज मरते हैं, वह अपने घर के सामने उतने ही दीये जलाता है। तो रास्ते में तुमने जो दीपावली देखी वह मरीजों के मरने के उत्सव में मनाते हैं हम लोग।
इतनी देर में दवा तैयार हो चुकी थी। मुल्ला ने दवा पीते हुए कहा: मगर बड़े मियां, हर घर के ऊपर कहीं पांच दीये, कहीं दस दीये, तो कहीं कतार ही कतार लगी है दीयों की, मगर आपके घर के ऊपर तो एक भी दीया नहीं जल रहा है! क्या बात है?
बड़े मियां खीसे निपोरते हुए बोले: हें-हें-हें, जलेगा बरखुदार, जलेगा। अरे परमात्मा ने चाहा तो आज ही जलेगा। उसी ने तो तुम्हें मेरे पास भेजा है!
डॉक्टर शोभालाल, अब पता नहीं तुम किस प्रकार के डॉक्टर हो। होम्योपैथी के डॉक्टर हो कि ऐलोपैथी के डॉक्टर हो कि आयुर्वेदिक डॉक्टर हो कि बायो-केमिस्ट्री के डॉक्टर हो कि नैचरोपैथी के डॉक्टर हो। इस वक्त इतने डॉक्टर हैं, मरीजों को मारने के लिए इतने लोग पीछे पड़े हैं! एक मरीज और हजार मारने वाले। जड़ से ही काट डालते हैं। और बीमारी हो या न हो, इलाज करने वाले एकदम पीछे पड़ जाते हैं। इलाज ही इलाज करने वाले चारों तरफ मौजूद हैं। पता नहीं तुम किस तरह के डॉक्टर हो। और आशीर्वाद मांग रहे हो। और मैं ध्यान करता हूं तुम्हारे मरीजों का।
परमात्मा नाराज नहीं है, लेकिन कुछ सोचो, कहीं कुछ भूल तुम्हारी हो रही होगी। यह हमारी पुरानी आदत हो गई है, परंपरागत आदत हो गई है। हम अपनी भूल ही नहीं देखते। हम हमेशा भूल किसी और जगह खोजते हैं--किस्मत में, परमात्मा में, कर्मों में। अपने में नहीं, कहीं और टालते हैं दायित्व को। यह सोचने की प्रक्रिया गलत है। यह सोचने की प्रक्रिया अवैज्ञानिक है।
तुम सोचो, ध्यान करो--क्या भूल-चूक हो रही है? और कहीं ऐसा तो नहीं कि जबर्दस्ती डॉक्टर बन गए। कई दफा यूं हो जाता है कि मां-बाप को डॉक्टर बनाना है, सो वे बना देते हैं। जिसको दर्जी बनना था, वह डॉक्टर हो गया है। जिसको डॉक्टर बनना था, वह चमार है। जिसको चमार बनना था, वह मिठाई बेच रहा है। जिसको मिठाई बेचना था, वह कपड़े बना रहा है। सब गड़बड़ हो गया है। कोई किसी को सुविधा ही नहीं देता, मौका ही नहीं देता कि वह जो होना चाहे हो।
एक छोटे बच्चे से मैंने पूछा कि तू क्या बनना चाहता है? उसने कहा: मैं बड़ी उलझन में हूं। मेरे बाप मुझे डॉक्टर बनाना चाहते हैं, मेरी मां मुझे इंजीनियर बनाना चाहती है। मेरे चाचा संगीतज्ञ हैं, वे मुझे संगीतज्ञ बनाना चाहते हैं। और मेरी चाची मेरे चाचा से परेशान है, उनको तलाक दे रही है। वह कहती है कि भूल कर संगीतज्ञ मत बनना। ये संगीतज्ञ बड़े चरित्रहीन होते हैं। यह लफंगों की तरह न मालूम कहां-कहां संबंध बना लेता है। इसीलिए तो इसको तलाक दे रही हूं। तू संगीतज्ञ भर मत बनना। तू कुछ भी बन जा, मगर संगीतज्ञ नहीं।...सो मैं बड़ी उलझन में पड़ा हूं कि अब क्या बनूं क्या न बनूं! और मुझसे तो कोई पूछता ही नहीं कि तुझे क्या बनना है। सब थोप रहे हैं अपनी-अपनी।
करीब-करीब दुनिया में यह अस्तव्यस्तता है। और लोग थोप रहे हैं तुम पर कि तुम्हें क्या बनना है। इसलिए तुम्हें ठीक से तय ही नहीं हो पाता कि तुम्हारे जीवन की अपनी स्वाभाविकता कहां खिलेगी, कहां फलेगी।
मैं चाहता हूं एक ऐसा जीवन, एक ऐसी व्यवस्था, जहां प्रत्येक बच्चे को धीरे-धीरे हम उसकी नियति की तरफ ले जाएं। उस बच्चे को समझें, नहीं अपनी आकांक्षाएं आरोपित करें। नहीं तो गड़बड़ होगी। जिसको लोहार बनना था, वह डॉक्टर बन गया, तो गड़बड़ तो होने ही वाली है। जिसको दर्जी बनना था, वह इंजीनियर बन गया, वह क्या खाक इंजीनियर बनेगा! जिसको चमार होना था, वह शिक्षक हो गया। वह चमारी जारी रखेगा। शिक्षक के बहाने चमारी ही जारी रहेगी।
इस दुनिया में आज हालत ऐसी है कि प्रत्येक व्यक्ति वहां है, जहां उसे नहीं होना चाहिए। बहुत कम लोग वहां हैं, जहां उन्हें होना चाहिए। इसलिए इतनी अस्तव्यस्तता है, इतनी अराजकता है। इसमें भगवान का कोई कसूर नहीं है। इसमें आशीर्वादों की कोई भूल-चूक नहीं है। हमें पुनर्विचार करना चाहिए।
तुम फिर से सोचो, शोभालाल। अगर तुम्हें लगता हो कि यह तुम्हारा रस नहीं है, इसमें तुम्हारा आनंद नहीं है, अभी भी छोड़ दो। अभी क्या बिगड़ा है? बढ़ई हो जाओ, दुकान खोल लो, नौकरी कर लो, बर्तन मलो, तंदूरी रोटी बनाओ--कुछ भी करो। मगर जिसमें तुम्हारा रस हो।
और एक बात ध्यान रखो कि सवाल यह नहीं है कि कौन ऊंचा काम कर रहा है; सवाल यह है कि जो भी जो कर रहा है, उसे परम कुशलता से कर रहा है या नहीं?
जब लिंकन राष्ट्रपति हुआ अमरीका का तो एक आदमी ने उसका अपमान करने के लिए--पहले ही दिन जब वह अपनी सभा में संसद की बोल रहा था--बीच में खड़ा हो गया और कहा कि एक बात न भूल जाना महाशय लिंकन, कि तुम्हारे पिता मेरे घर जूते सीते थे! लिंकन के बाप चमार थे। सन्नाटा हो गया संसद में कि यह क्या भद्दी बात, मगर अपमान करने के लिए कही गई थी। लेकिन लिंकन अपने किस्म का आदमी था। लिंकन ने कहा: अच्छी याद दिलाई। मैं अपने पिता का अनुग्रह मानता हूं। एक बात मैं जानता हूं कि उन जैसे जूते सीने वाला आदमी मैंने दूसरा नहीं देखा। मुझ जैसे प्रेसीडेंट तो बहुत हो गए और बहुत होंगे, मगर उन जैसा जूते सीने वाला बस उन जैसा ही था। उनकी जगह कोई भर नहीं सकता। और मैं यह पूछना चाहता हूं, उन्होंने तुम्हारे घर जूते सीए, क्या तुम्हें कोई शिकायत है? क्या अभी भी उनके बनाए जूते तुम्हें काट रहे हैं या कोई तकलीफ है? तुम्हें आज क्यों याद आई? अब तो वे जिंदा भी नहीं हैं। लेकिन मैं धन्यभागी हूं कि मैं उस बाप का बेटा हूं, जिसने कभी गलत जूते नहीं सीए। और जिसके जूते एक बार सीए, वह सदा फिर उनके पास ही जूते सिलवाने आया। वे अदभुत चमार थे, वे कलाकार थे!
यही मेरी जीवन के संबंध में दृष्टि है: न कोई काम बड़ा होता है, न कोई छोटा होता है। तुम जो करो वह श्रेष्ठता से करो, कुशलता से करो; उसमें कला हो, प्रतिभा हो। फिर तुम जो भी करो, बुहारी लगाओ, कोई हर्जा नहीं। कोई डॉक्टर या इंजीनियर होना या राजनेता होने की जरूरत नहीं। राष्ट्रपति होने की जरूरत नहीं है। अगर जूते भी तुम सी सकते हो--बेजोड़, अद्वितीय--तो तुम्हारे जीवन में धन्यता होगी। तुम जीवन में तृप्त होओगे। जो व्यक्ति जो करने को पैदा हुआ है, अगर वही कर पाए, तो उसके भीतर बड़ी कृतार्थता का अनुभव होता है।
आज इतना ही।