QUESTION & ANSWER

Shunya Samadhi 05

Fifth Discourse from the series of 9 discourses - Shunya Samadhi by Osho.
You can listen, download or read all of these discourses on oshoworld.com.


मेरे प्रिय आत्मन्‌!
बीते तीन दिनों में जीवन के तीन सूत्रों पर हमने विचार किया: आश्चर्य, आनंद और अद्वैत। आज अंतिम सूत्र पर सुबह हमने बात की है, उस संबंध में जो प्रश्न पूछे गए हैं, उन पर अभी हम विचार करेंगे।

कुछ मित्रों ने पूछा है कि
भगवान, अद्वैत भाव की सिद्धि के लिए किस भांति चित्त को निर्दिष्ट किया जाए, किस भांति, किस मार्ग पर जीवन को गतिमान किया जाए? अद्वैत कैसे फलित हो सकता है?
इस संबंध में कुछ बात समझ लेनी उपयोगी होगी। पहली बात, अद्वैत की उपलब्धि कोई फिलॉसफी, कोई तत्व-ज्ञान की उपलब्धि नहीं है। इसलिए घर में बैठ कर वेदांत और तत्व-दर्शन के शास्त्रों को पढ़ लेने से उस दिशा में कोई भी कदम नहीं उठता है, न उठ सकता है। अद्वैत की उपलब्धि तो एक विशिष्ट अनुभव की दिशा में, अनुभूति की दिशा में, जीवंत अनुभूति की दिशा में चलने से संभव हो सकती है। उस जीवंत अनुभूति की तरफ पहला चरण होगा--क्या होगा पहला चरण? कैसा होगा? कैसे हम पहली सीमा तोड़ेंगे द्वैत की और अद्वैत की तरफ बढ़ेंगे?
पहला संबंध अद्वैत से होता है: प्रकृति के सान्निध्य में। शास्त्रों के सान्निध्य में नहीं, सिद्धांतों के सान्निध्य में नहीं, शब्दों के सान्निध्य में नहीं। पहला अनुभव होता है अद्वैत का: प्रकृति के सान्निध्य में।
मनुष्य जितना प्रकृति से दूर हुआ है, उतना ही अद्वैत से भी दूर हुआ है।
तो व्यावहारिक सूत्रों में एक बात यह समझ लेनी जरूरी है कि हम प्रकृति के निकट से निकट कैसे हो सकें? जरूरी नहीं है कि कोई चौबीस घंटे प्रकृति के निकट हो। लेकिन प्रकृति के निकट होने के क्षण ही ध्यान के क्षण हैं, वे ही मेडिटेशंस के मोमेंट्‌स हैं। उन क्षणों में पहली बार झलक मिलनी शुरू होती है उसकी जो हम ही हैं, जो हमारा ही विराट स्वरूप है, जो हमारा ही अनंत रूप है, जो हमारा ही विस्तार है, जो हमारी ही व्यापकता है, उसकी प्रतीति होनी शुरू होती है।
लेकिन शायद हम आंख उठा कर भी उस ओर नहीं देखते हैं जहां उसकी उपलब्धि हो सकती है। कभी आपने आकाश की तरफ देखा है? जरूर देखा होगा। आकाश को हम सभी जानते हैं, लेकिन शायद ही हममें से कोई जानता हो कि आकाश क्या है? और कैसे आकाश को देखा जाए? आंख पड़ जाने से कोई चीज दिखाई नहीं पड़ जाती। प्राणों के भीतर जब कोई चीज प्रविष्ट हो जाए, तो ही उसका अनुभव और उसका दर्शन होता है। किसी एकांत क्षण में, किसी मौन क्षण में क्या ऐसा हुआ है कि आप आकाश में प्रविष्ट हो गए हों और आकाश आप में प्रविष्ट हो गया हो? क्या ऐसा हुआ है कि आकाश का यह अनंत शून्य आपके और इसके बीच की सारी सीमा गिर गई हो, किसी क्षण में आप इससे एक हो गए हों? अगर यह नहीं हुआ है, तो आकाश को आपने नहीं देखा है। क्या वृक्षों के पास खड़े होकर कभी आपको ऐसा लगा है कि आप भी एक वृक्ष हैं? नहीं लगा होगा, तो आपने वृक्ष देखे हैं, लेकिन अभी आपने वृक्ष नहीं देखे हैं।
इमैनुअल कांट एक ही मकान में वर्षों तक रहा। उसके मकान के पास ही खिड़की पर रोज ही वह खड़ा हो जाता और घंटों आकाश को निहारता रहता। उसे जिसने भी आकाश को देखते हुए देखा था, वह हैरान हो गया था, वह आदमी होश में है! उसकी आंखें शून्य हो गई हैं! क्योंकि आकाश को देखते समय आंखों में कोई प्रतिबिंब नहीं बनता। आकाश तो कोरा शून्य है, उसका क्या प्रतिबिंब है। उसकी आंखें शून्य हैं, उसका चेहरा शून्य है, उसके चेहरे पर कोई भी भाव नहीं है, सब मौन है। जिन्होंने भी उसे देखा उसे लगा कि जैसे वह पत्थर की एक प्रतिमा हो गया है। फिर पड़ोस में कोई मेहमान आ गए वर्षों के बाद, नया घर बना और उस घर के लोगों ने दीवाल उठा ली और वह खिड़की इमैनुअल कांट की दब गई। इमैनुअल कांट उसी दिन बीमार पड़ गया। सब इलाज किए गए। चिकित्सक हैरान हुए, उसे कोई बीमारी न थी, उसका इलाज क्या होता!
छह महीने बीत गए और कांट की तबीयत बिगड़ती गई, बिगड़ती गई, बिगड़ती गई। उसके नौकर ने कहा चिकित्सकों को कि जहां तक मैं समझता हूं, वह खिड़की बंद हो गई है और कांट का आकाश से जो संबंध था वह टूट गया है, इसलिए वह बीमार पड़ गया है। क्या यह नहीं हो सकता कि प्रार्थना की जाए और वह दीवाल तोड़ दी जाए?
पड़ोस के लोगों से प्रार्थना की गई और वह दीवाल तोड़ दी गई। और कांट दूसरे दिन ही उस खिड़की पर आकर खड़ा हुआ; उसके चेहरे का रंग बदल गया, उसकी आंखें बदल गईं, वह पंद्रह दिन के भीतर वापस स्वस्थ हो गया था।
कांट से किसी ने पूछा कि यह क्या हुआ? कांट ने कहा: आकाश की निकटता में मैंने पहली बार अपनी वृहत्तर आत्मा से संबंध और परिचय पाया। दीवाल उठ गई बीच में, मैं जैसे बंद हो गया, मैं जैसे किसी कारागृह में बंद हो गया, जैसे मेरा कुछ खो गया, खो गया। मेरी कुछ समझ में आना मुश्किल था, मेरे खयाल में भी आना मुश्किल था, यह तो जब मैं वापस स्वस्थ हुआ--आकाश के निकट--तब मुझे पता चला कि मैंने क्या खो दिया था।
आज सारी मनुष्यता बीमार है। प्रकृति के चारों तरफ दीवालें उठा दी गई हैं और आदमी उनके भीतर बैठ गया है। और यह आदमियत स्वस्थ नहीं हो सकेगी जब तक कि चारों तरफ उठी हुईं दीवालों को हम गिरा कर प्रकृति से वापस संबंध न बांध सकें।
परमात्मा के संबंध सबसे पहले प्रकृति के सान्निध्य के रूप में ही उत्पन्न होते हैं। परमात्मा से सीधा क्या संबंध हो सकता है? सीधा परमात्मा तक क्या पहुंच हो सकती है? उस अनंत पर हमारे क्या हाथ हो सकते हैं? हमारे क्या पैर बढ़ सकते हैं? लेकिन जो निकट है, जो चारों तरफ मौजूद है, उसके बीच और हमारे बीच की दीवालें तो गिराई जा सकती हैं। उसके बीच और हमारे बीच द्वार तो हो सकता है, खुले झरोखे तो हो सकते हैं। लेकिन वे नहीं हैं। और प्रकृति का सान्निध्य कुछ मूल्य पर नहीं मिलता; बिलकुल मुफ्त मिलता है। लेकिन हमने वह छोड़ दिया है। हमें उसका खयाल नहीं रह गया है। आदमी की पूरी आत्मा इसीलिए रुग्ण हो गई है।
और जब हम प्रभु की तलाश में भी जाते हैं, तो हम एक मकान को छोड़ कर दूसरे मकान में घुस जाते हैं--उस मकान का नाम हमने मंदिर बना रखा है, उस मकान का नाम हमने मस्जिद रख छोड़ा है, उस मकान का नाम हमने शिवालय रख छोड़ा है। लेकिन एक दीवाल छोड़ते हैं और हम दूसरी दीवाल के पास पहुंच जाते हैं। लेकिन इतना विराट मंदिर है प्रभु का चारों तरफ, उसके निकट जाने का हमें कोई खयाल भी नहीं आता।
जिस व्यक्ति को अद्वैत की प्रतीति में गति करनी हो, उसे पहली गति प्रकृति के सान्निध्य में करनी होती है।
जाएं प्रकृति के निकट और करीब। लेकिन सिर्फ वृक्ष देख लेने से कुछ भी नहीं हो जाता, न आकाश देख लेने से, न सूरज देख लेने से। देखने की एक भाव-दशा, एक ट्यूनिंग, चित्त की एक खास स्थिति में प्रकट होते हैं वे सत्य जो प्रकृति में चारों तरफ छिपे हैं। हर स्थिति में वे प्रकट नहीं हो जाते हैं।
एक सम्राट के दरबार पर एक दिन बहुत उदासी छा गई थी। सम्राट उदास था, तो उसके दरबारी भी उदास थे। एक बहुत बड़ा संगीतज्ञ राजधानी में था। कहते हैं, उस समय पृथ्वी पर वह सबसे बड़ा संगीतज्ञ था। सम्राट को खयाल आया और उसने आज्ञा भेजी संगीतज्ञ को कि तुम इसी समय चले आओ, मैं तुम्हारी वीणा सुनना चाहता हूं।
संगीतज्ञ हंसा। उसने कहा: यह आदेश भेजा गया है या निमंत्रण? अगर आदेश भेजा गया हो, तो मैं चल सकता हूं, लेकिन जिस संगीतज्ञ से वे मिलना चाहते हैं उससे उनका मिलना नहीं हो सकेगा। और अगर निमंत्रण भेजा गया है, तो बात दूसरी है, मैं प्रतीक्षा करूंगा ठीक क्षणों की और आऊंगा, तब उससे मिलना हो सकता है जिससे वे मिलना चाहते हैं।
वजीर तो कुछ भी न समझे। वजीर ने कहा: क्या फर्क पड़ता है निमंत्रण और आदेश से?
संगीतज्ञ ने कहा: बहुत फर्क पड़ता है। आदेश से छोटी और ओछी चीजें बुलाई जा सकती हैं, निमंत्रण से विराट को बुलाया जा सकता है। आदेश दिया गया है, तो मैं एक अदना आदमी हूं इस राजधानी का, मैं चला चलूंगा। वीणा भी बजाऊंगा, लेकिन वह वीणा का बजाना बिलकुल यांत्रिक होगा, बिलकुल मैकेनिकल, क्योंकि मुझे बजानी पड़ रही है, इसलिए मैं बजाऊंगा। लेकिन अगर निमंत्रण भेजा गया हो प्रेम का, तो मैं आऊंगा किसी क्षण, जब मेरा हृदय तैयार होगा और गीत मेरा पक गया होगा और मेरे प्राणों से संगीत बहने को होगा, तब मैं आऊंगा। लेकिन उसके लिए घड़ी नहीं बताई जा सकती।
वापस वजीर ने लौट कर कहा कि संगीतज्ञ ने यह खबर भेजी है। राजा कहीं इन बातों को समझते हैं। उसने कहा: क्या पागलपन की बात है! उसे पकड़ कर ले आओ। हम संगीत सुनना चाहते हैं अभी, हम कब तक प्रतीक्षा करेंगे।
वह संगीतकार पकड़ कर बुलवा लिया गया। उस दिन वीणा भी बजी, उस संगीतज्ञ ने गीत भी गाया। लेकिन राजा कहने लगा: लोग कहते थे, पृथ्वी पर यह सबसे बड़ा संगीतज्ञ है, यह तो कुछ ना-कुछ मालूम होता है।
वह संगीतज्ञ रोने लगा। उसने कहा: तुम पागल हो, मैं ना-कुछ नहीं हूं। लेकिन भूमिका चाहिए, चित्त की ट्यूनिंग चाहिए, तुम्हारी तैयारी चाहिए। तुम आदेश भेजते हो--तैयारी नहीं है। तैयारी वाला निमंत्रण भेजता है; आदेश नहीं भेजता है।
तो अगर उठ कर आप चले गए और खड़े होकर देख लिया आधा घड़ी आकाश को--एक काम की तरह, एक रूटीन की तरह, एक आदेश की तरह, तो प्रकृति से कोई संबंध नहीं हो सकेगा। एक तैयारी चाहिए।
संगीतज्ञ चला गया। लेकिन राजा के मन में वह घाव, खाली रह गई जगह, वह उदास हो गया। वह उस संगीत को नहीं सुन सका था, जिसे सुनना चाहा था। वह संगीत संगीतज्ञ के हाथ में नहीं था सुनाना, जो राजा सुनना चाहता था। वह राजा की पात्रता पर निर्भर हो सकता था। लेकिन राजा के पास कोई पात्रता न थी। उसके मन में यह बेचैनी खलने लगी। सारे राज्य के दरबारी और अधिकारी उदास थे। एक भिखारी द्वार पर वीणा बजा कर गीत गाकर भीख मांगने आया था। राजा ने कहा: जाओ और उस भिखारी को पूछो, शायद वह कोई रास्ता बता सके। मैं उस अमृत संगीत को सुनना चाहता हूं।
वह भिखारी राजा के सामने लाया गया और सारी कथा कही गई। उस भिखारी ने कहा: मेरे साथ चलें, मेरे साथ उठें इसी समय। संगीतज्ञ को बुलाया, यही भूल की। जो भी विराट है उसे बुलाया नहीं जा सकता, उसके पास जाना पड़ता है। उसे खींच कर नहीं लाया जा सकता, स्वयं को ही उसकी तरफ ले जाना पड़ता है। यह कोई धन नहीं था कि सिपाही भेज देते कि जाओ, उठा लाओ। यह कोई पत्थर न था कि आदमी घसीट लाते। एक...एक संगीतज्ञ को बुलाया था। बुलाया नहीं जा सकता; तुम्हें जाना था। चलो! राजा ने अपने कपड़े सम्हाल लिए और मुकुट सिर पर रख लिया। लेकिन उस भिखारी ने कहा: यह मुकुट नीचे रख दो, ये कपड़े छोड़ दो। राजाओं के वस्त्रों को ले जाकर दिखाई पड़ेगा कि तुम गए, लेकिन तुम गए नहीं। जाने के लिए विनम्रता चाहिए, ह्यूमिलिटी चाहिए। जाता वही है, जो विनम्र है; जो अहंकारी है, वह बुलाता है।
अगर प्रकृति के पास भी जाकर अहंकारी की तरह खड़े हो गए कि कहां है प्रकृति, मैं देखना चाहता हूं, तो आप अंधे के अंधे, बहरे के बहरे वापस लौट आएंगे, वह आपको दिखाई नहीं पड़ेगी। वहां एक विनम्र, एक भिखारी की तरह, एक प्यासे की तरह, एक रोते हुए हृदय को, एक मांगते हुए हृदय को लेकर जाना पड़ता है।
राजा ने कहा: ठीक! तुम जैसा कहोगे वैसा ही मैं करने को तैयार हूं।
उसने एक भिखारी के वस्त्र पहन लिए और वे दोनों भिखारी--राजा और वह भिखारी--संगीतज्ञ के द्वार पर पहुंचे। सांझ होने को थी, उन्होंने जाकर द्वार खटखटाया। उस संगीतज्ञ ने भीतर से कहा: द्वार मत पीटो, मैं आज संगीत गाने की इच्छा में नहीं हूं और न आज वीणा बजाने का मेरा मन है, इसीलिए आज द्वार बंद हैं, लौट जाओ मित्रो, फिर कभी आना। लेकिन उस भिखारी ने राजा से कहा: बैठ जाएं सीढ़ियों पर, इतनी जल्दी नहीं लौट जाना पड़ता, इनकार हमेशा इनकार ही नहीं है, हो सकता है इनकार परीक्षा हो, पहली परीक्षा हो, रुक जाएं, बैठ जाएं सीढ़ियों पर, थोड़ी देर में फिर द्वार खटखटाएंगे। और अभी रात बहुत बड़ी है, रात बहुत लंबी है, फिर भी इनकार हो जाएगा, फिर रुके रहेंगे, फिर द्वार खटखटाएंगे। देखें, हमारी प्रतीक्षा जीतती है या कि ये बंद द्वार जीतते हैं।
प्रकृति के पास एक दफा गए और देखा और कुछ भी नहीं मिला, तो कहा, क्या फायदा है? इतना जल्दी नहीं हो सकता; प्रतीक्षा और गहरी चाहिए।
उस भिखारी ने कहा: रुक जाएं। फिर वे दोनों बैठ गए। फिर उस भिखारी ने एक धुन अपनी उस वीणा पर बजानी शुरू की, वही धुन जो उस संगीतज्ञ को प्राणों से प्यारी थी--वही धुन, और जान कर उस धुन में दो-चार हिस्से गलत बजाने शुरू कर दिए।
राजा ने तो, राजा ने तो ऐसी प्यारी धुन सुनी न थी, वह कोई पारखी तो न था, वह तो वहीं डोलने लगा, नाचने लगा उस भिखारी के गीत पर। लेकिन जोर से दरवाजे खुले और वह संगीतज्ञ बाहर आया। और उसने कहा: कौन बजाता है, कौन बजाता है गलत? उस भिखारी ने कहा: हम क्या जानें बजाना, हम कौन हैं बजाने के हकदार, हम तो केवल ठोकते हैं वाद्य को, हमें बजाना नहीं आता। लेकिन हम प्यासे जरूर हैं, हम जानना जरूर चाहते हैं।
वह संगीतज्ञ वहीं बैठ गया उन दोनों भिखारियों के पास, वीणा उसने अपने हाथ में ले ली और वह धुन बजानी शुरू कर दी जिसकी वजह से वह जगत का सबसे बड़ा संगीतज्ञ था। रात भर वह बजाता रहा और वे दोनों भिखारी बैठे रहे। फिर सुबह होने को हुई, उस राजा ने धन्यवाद दिया और कहा कि शायद तुम पहचाने नहीं, मैं वही सम्राट हूं जिसने तुम्हें बुलवाया था। वह हंसने लगा, उसने कहा: आप समझे आदेश और निमंत्रण का फर्क? यह भिखारी जीत गया और आप सम्राट हार गए। इस भिखारी ने ठीक जगह पर चोट कर दी, राइट मोमेंट में, ठीक क्षण में, ठीक जगह पर चोट!
तो प्रकृति के द्वार पर भी ठीक क्षण में और ठीक जगह पर चोट, और प्रतीक्षा और धैर्य, तो फिर नदियों के पास से अद्वैत का संदेश आना शुरू हो जाता है। पहाड़ों के शिखरों से, आकाश में डोलती हुई बदलियों से, तारों से, सूरज से, सब तरफ से फिर उसका संगीत आना शुरू हो जाता है जब ठीक जगह पर और ठीक से हम चोट करते हैं। तो हमारी एक तैयारी, एक पात्रता, एक रिसेप्टिविटी चाहिए।
अद्वैत के लिए चाहिए एक ग्राहकता। कैसी? प्रकृति के पास कैसी, कैसी ग्राहकता? हम तो आदमियों के पास भी ग्रहणशील होकर नहीं मिलते हैं। सुबह किसी आदमी को हम नमस्कार करते हैं, सुबह का सूरज निकल आया, राह पर कोई दिखाई पड़ गया है, हम हाथ जोड़ते हैं और नमस्कार करते हैं, कभी खयाल किया कि कहीं वे हाथ झूठे तो नहीं हैं जो जोड़े गए हैं? कहीं सिर्फ फार्मल तो नहीं हैं? औपचारिक तो नहीं हैं? वे हाथ बिलकुल झूठे हैं। उन हाथों में कुछ भी नहीं कहा जा रहा है, वे हाथ कोरे मशीन की तरह उठे हैं और जुड़ गए हैं और गिर गए हैं, उन हाथों के पीछे प्राणों का कोई भी संबंध नहीं है। हाथ औपचारिक हैं। पिता के कोई पैर छू रहा है, वह भी औपचारिक है। कोई किसी को हृदय से लगा रहा है, वह भी औपचारिक है। कोई किसी की प्रशंसा कर रहा है, वह भी औपचारिक है। सारा जीवन हमारा फार्मल और औपचारिक है। इस औपचारिकता में घिरा हुआ व्यक्ति प्रकृति के कैसे करीब पहुंच सकता है? प्रकृति के करीब वे पहुंचते हैं जो अनौपचारिक हैं, जो हार्दिक हैं।
चौबीस घंटे के जीवन में यह जानना और जीना जरूरी है कि मैं इस भांति जीऊं कि मेरा जीना एक हार्दिक जीना हो, एक ऑथेंटिक, एक प्रामाणिक जीना हो। अगर मैंने किसी को हाथ जोड़े हैं, तो केवल हाथ ही न जुड़ें, हाथों के साथ मेरे पूरे प्राण भी जुड़ जाएं। और अगर नहीं जुड़ने हैं पूरे प्राण, अगर हाथ नहीं जोड़ने हैं, तो अच्छा है हाथ मत जोड़ें, बिना हाथ जोड़े निकल जाएं, वह कम से कम सत्य के करीब होगा। मत पिता के पैरों में झुकें, अगर वह झुकना झूठा है, वह कम से कम सत्य के करीब होगा। मत अपने प्रियजन को हृदय से लगाएं, अगर हृदय से लगाना एक व्यर्थ की प्रक्रिया है, कम से कम वह सत्य के ज्यादा करीब होगा। और हो सकता है इतनी सच्चाइयों से घिर कर आपको पहली दफा पता चले कि इन सच्चाइयों से घिर कर आप अपने जीवन को खोए दे रहे हैं, इस कठोरता में घिर कर आप अपने प्राणों से वंचित हुए जा रहे हैं, तो शायद आपके प्राणों का कोई झरना फूट पड़े। लेकिन औपचारिक जीवन में प्राणों का झरना कभी भी नहीं फूटता है। हमने हार्दिक कृत्यों के लिए झूठे औपचारिक कृत्य सब्स्टीट्यूट की तरह मौजूद कर दिए हैं। और इसलिए हमारा मानवीय जगत से ही संबंध टूट गया है, तो मनुष्य के इतर जो जगत है, उससे हमारा संबंध कैसे जुड़ सकता है?
प्रकृति की तरफ जाने के लिए औपचारिक संबंधों को शिथिल करें--अनौपचारिक जीवन, सच्चा और हार्दिक जीवन। हमारे किसी भी कृत्य में हमारा हृदय उतरता ही नहीं है। हमारा कोई भी कृत्य हमारे पूरे हृदय को उंड़ेल ही नहीं पाता है। तो जब हम मनुष्य के निकट भी नहीं उंड़ेल पाते, तो हम प्रकृति के निकट कैसे उंड़ेल पाएंगे? यह कैसे संभव हो सकेगा? चौबीस घंटे के धार्मिक जीवन की साधना का यह हिस्सा होगा कि जीवन का समस्त उपक्रम अनौपचारिक होता चला जाए।
लेकिन जिनको हम धार्मिक लोग कहते हैं, उनका जीवन और भी औपचारिक और भी रिचुअलिस्टिक होता चला जाता है। टीका-मीका लगाए हुए चले जा रहे हैं, यज्ञोपवीत डाले हुए हैं, माला हाथ में फेर रहे हैं, मंदिर के सामने खड़े हैं पत्थर की मूर्ति के--उन्हें कोई भगवान वहां नहीं दिखाई पड़ रहे हैं--वे हाथ जोड़े खड़े हैं और कह रहे हैं कि हे भगवान! सब झूठ हुआ चला जा रहा है। क्योंकि जिस आदमी को पत्थर की मूर्ति में भगवान दिखाई पड़ जाएंगे उसे इस जगत में कोई ऐसी जगह शेष रह जाएगी जहां भगवान नहीं दिखाई पड़ेंगे? यह असंभव है। क्योंकि जो पत्थर में भी भगवान को देखने में समर्थ हो गया अब और कहां ऐसी जगह होगी जहां उसे भगवान नहीं दिखाई पड़ेंगे? लेकिन वह आदमी रोज मंदिर की तरफ भागा जा रहा है, वह कह रहा है, मैं भगवान के दर्शन को जा रहा हूं। और यह मंदिर के चारों तरफ जो मौजूद है यह भगवान नहीं है? यह कौन है फिर? यह मंदिर में भगवान है, तो यह सारा, सारा जगत क्या है फिर? नहीं; उसे मंदिर में भी भगवान नहीं दिखाई पड़ते। उसने औपचारिकता का दूसरा कदम भी उठा लिया, उसने रिलीजस फार्मेलिटी भी पैदा कर ली। आदमी की दुनिया में औपचारिकता है, उसने परमात्मा और अपने बीच भी औपचारिकता के संबंध खड़े कर लिए हैं!
रामकृष्ण को पहली दफा दक्षिणेश्वर के मंदिर में पुजारी की जगह मिली। भूल से यह जगह दे दी गई मालूम होता है, क्योंकि रामकृष्ण पुजारी के बिलकुल अयोग्य थे। दो-चार दिन में ही जिस कमेटी ने नियुक्त किया था रामकृष्ण को, उसको अपनी भूल पता चल गई कि गलती हो गई है। क्योंकि रामकृष्ण फूल चढ़ाने जाते, तो पहले उनको सूंघ लेते। अब भगवान को चढ़ाए गए फूल पहले सूंघे नहीं जाते, यह कैसा पागलपन है! और भगवान को भोग लगाते, तो पहले चख लेते, वह सब झूठा हो जाता।
कमेटी को पता चला। रामकृष्ण को कमेटी ने बुलाया कि तुम पागल हो! यह पूजा है? रामकृष्ण ने कहा: मैं ऐसे फूल कैसे चढ़ाऊं जिनका मुझे कोई भरोसा नहीं कि उनमें सुगंध है या नहीं? और मैं ऐसे भोजन का भोग कैसे लगा दूं जो पता नहीं अच्छा बना या नहीं बना? मेरी मां तक मुझे खिलाती थी, तो पहले चख लेती थी। मैं बिना चखे भोग नहीं लगा सकता हूं। चाहो तो यह नौकरी सम्हालूं, नहीं तो मैं जाता हूं।
इस आदमी के लिए मंदिर में पत्थर की मूर्ति नहीं है। इसमें कोई जीवंत भाव है। वैसा ही जीवंत भाव जैसा इसकी मां का इसकी तरफ रहा होगा। और अगर ऐसे आदमी को पत्थर में भगवान दिख जाएं, तो इसमें मूर्ति का कोई हाथ नहीं है, इसमें मंदिर का कोई हाथ नहीं है, इसमें इस आदमी की रिसेप्टिविटी का हाथ है, इस आदमी की भी ग्राहकता का, इसकी भी अनौपचारिकता का, इसकी भी हार्दिकता का हाथ है। इसमें मंदिर की मूर्ति का कोई भी हाथ नहीं है।
तो रामकृष्ण के पीछे दक्षिणेश्वर के मंदिर में हजारों लोग जाते हैं पागलों की तरह, उस मूर्ति के सामने हाथ जोड़ कर खड़े होते हैं, सोचते हैं कि जिस मूर्ति ने रामकृष्ण को दर्शन दिया है वह मुझको भी दर्शन देगी। वे पागल पूजते रहे हैं जिंदगी-जिंदगी वहां कोई दर्शन कभी नहीं होंगे। वे दर्शन मूर्ति के कारण नहीं हुए थे, वे दर्शन हुए थे रामकृष्ण की पात्रता, ग्राहकता, रिसेप्टिविटी, ट्यूनिंग के कारण।
वह जो अनौपचारिक हृदय था, वह देख सका वहां। और वह हृदय फिर धीरे-धीरे सब जगह देखने लगा था। फिर पूजा-पाठ बंद हो गया था। दिन-दिन, दो-दो, चार-चार दिन गुजर जाते थे। फिर कमेटी ने कहा कि यह सब क्या हो रहा है? दो-चार दिन गुजर जाते हैं, पाठ नहीं होती, पूजा नहीं होती। फिर रामकृष्ण कहते हैं: मैं चौबीस घंटे और करता क्या हूं, पूजा ही चल रही है, पाठ ही चल रहा है, लेकिन तुम पहचान नहीं पाते। और भगवान बहुत रूपों में चला आता है। रूप-रूप में खड़ा हो जाता है। मैं उसी रूप में पूजा कर लेता हूं। अब एक रूप से कब तक बंधा रहूं? और मेरे हाथ दो हैं, उसके रूप बहुत हैं, मैं कहां-कहां पूजा करूं? और कितनी पूजा करूं?
लेकिन इस आदमी की अनौपचारिकता का संबंध इसकी धार्मिकता है। और सारी जमीन पर जो पुजारी और पंडे मंदिरों में खड़े हुए हैं हाथ जोड़े हुए और प्रार्थनाएं कर रहे हैं--सब फार्मल, सब औपचारिक, सब झूठ है--सरासर झूठ है। और उस झूठ के आस-पास जो मंदिर और मस्जिदें और धर्म खड़ा हुआ है, वह सारा धर्म भी झूठ है।
पहली बात है: अनौपचारिक दृष्टि। और उसका सवाल, अनौपचारिक दृष्टि का सवाल रोज दैनंदिन के जीवन से है। सुबह से सांझ तक के जीवन से है। क्या आपने कभी अनौपचारिक होकर देखा है? शायद आप कहेंगे, अनौपचारिक होना बड़ा अव्यावहारिक होना है, बहुत इम्प्रेक्टिकल है। औपचारिक होना पड़ता है; क्योंकि हमें व्यावहारिक होना पड़ता है। लेकिन बड़े मजे की बात है, हमने कुछ तरकीबें और दलीलें, हमने कुछ आर्ग्युमेंट खड़े कर रखे हैं अपने आस-पास, जिससे हम बदलने से बच जाएं, हम बदल न सकें। आज तक जो लोग अनौपचारिक थे, उनसे ज्यादा व्यावहारिक आदमी पृथ्वी पर कोई हुआ है? उनसे ज्यादा जीवन के आनंद को और संपदा को उपलब्ध कर लेने वाला कोई हुआ है? उनसे ज्यादा शांति को और कृतार्थता को और धन्यता को उपलब्ध कर लेने वाला कभी कोई हुआ है? आप अपने को व्यावहारिक समझ रहे हैं! आप व्यावहारिक नहीं हैं, व्यावहारिक जैसे शब्दों की आड़ में आप अपनी सब बातों को छिपा लेना चाहते हैं।
अनौपचारिक का मतलब है, अनौपचारिकता का मतलब है: हार्दिक, हम जो भी कर रहे हैं उसके साथ हमारे हृदय का जोड़ है या नहीं?
एक संन्यासी अफ्रीका से भारत वापस आया हुआ था। वह बद्री-केदार की यात्रा पर गया है। बद्री की यात्रा में एक दोपहर में, भरी दोपहरी, जोर से सूरज तप रहा है और पहाड़ गर्म हो गए हैं, उत्तप्त हो गए हैं, और सीधी चढ़ाई है, पसीने से चूर-चूर हो रहा है, कंधे पर अपना सामान, अपनी किताबें, अपने शास्त्र, अपना बोरिया-बिस्तर बांधे हुए है। वह सब वजनी है। और पहाड़ की सीधी चढ़ाई है। और तपती धूप और भरी दोपहरी, पसीने से लथपथ पानी की धारें बही जाती हैं। तभी एक पहाड़ पर चढ़ते समय रास्ते पर एक लड़की उसे मिल गई है। वह लड़की भी ज्यादा उम्र की नहीं है, मुश्किल से चौदह साल की है, और अपने कंधे पर एक मोटे-तगड़े बच्चे को, संभवतः उसका छोटा भाई होगा, उसको कंधे पर बांधे हुए है। वह भी चढ़ रही है। पसीने से लथपथ है। संन्यासी को दया आ गई है।...वैसे संन्यासियों को दया मुश्किल से ही आती है। क्योंकि संन्यासी होने के लिए जितना कठोर और पाषाण हृदय होना पड़ता है, उससे सब दया मर जाती है। लेकिन आ गई है, भूल-चूक हो जाती है। भूल-चूक संभवतः।...उसको दया आ गई है। तो उस लड़की के पास जाकर कहने लगा है, बेटा, तुझे बहुत वजन मालूम पड़ रहा होगा, बहुत बोझ मालूम पड़ रहा होगा।
वह लड़की अवाक खड़ी रह गई है, चौंक कर खड़ी रह गई है, उसे विश्वास नहीं होता अपने कानों पर कि यह संन्यासी क्या कह रहा है। फिर उसने नीचे से ऊपर तक संन्यासी को देखा और कहा: स्वामी जी, बोझ आप लिए हुए हैं, यह मेरा छोटा भाई है! बोझ आपके कंधे पर है, यह मेरा छोटा भाई है! किसने कहा कि बोझ लिए हुए हूं मैं?
संन्यासी के सामने जैसे कोई अंधेरे में दीया जल गया हो। उसे पहली दफा खयाल आया कि छोटे भाई में वजन नहीं होता है। तराजू पर तो वजन होता है, चाहे बोझ तौलें, चाहे छोटे भाई को तौलें, तराजू को कुछ पता नहीं चलता कौन तराजू पर बिठा दिया गया है। लेकिन उस छोटी सी लड़की के हृदय के तराजू पर एक भाई का बोझ नहीं है। और वह चकित रह गई है कि स्वामी इतना भी नहीं जानता कि छोटा भाई है यह, इसका बोझ नहीं होता है!
अनौपचारिक हार्दिक संबंध निर्बोझ संबंध हैं, निर्भार संबंध हैं। जितना संबंध निर्भार होगा जीवन में, निर्बोझ होगा, जितना हार्दिक होगा, उतना ही व्यक्ति वेटलेसनेस में प्रविष्ट होता है, उसके जीवन का सारा बोझ उतर जाता है, वह निर्बोझ होता है, उसके पंख खुल जाते हैं उसे, वह आकाश में उड़ सकता है। अद्वैत के आकाश में उड़ने के लिए अनौपचारिक हार्दिक संबंधों के निर्बोझता के पंख चाहिए।
तो जीवन को हार्दिक बनाएं, धार्मिक होने की पहली बात है। लेकिन हम तो न मालूम किन-किन चीजों को धार्मिक समझे हुए हैं। हम तो कुछ ऐसे बेईमान, कुछ ऐसे सेल्फ डिसेप्टिव, खुद को ऐसा धोखा देने में समर्थ लोग हैं कि हमने धार्मिकता का न मालूम क्या-क्या रूप बना रखा है। जिसका जीवन से कोई वास्ता नहीं है। उस बात को हम धार्मिक होना कहते हैं। और इस तरकीब से हम धार्मिक होने से बचने का रास्ता निकाल लेते हैं। अजीब-अजीब बातों को हम धार्मिक होना समझते हैं। किन-किन बातों को हमने धार्मिक होना समझा हुआ है? एक खास तरह के कपड़े पहनने को हम कहते हैं यह धार्मिक आदमी है। यह बहुरुपिया होगा, धार्मिक होने से क्या संबंध? कपड़े बदल लेने से धार्मिक होने का क्या वास्ता? कोई भी तो वास्ता नहीं है। दूर-दूर खोजने पर भी कोई संबंध नहीं है। लेकिन एक आदमी कपड़े बदल लेता है और हम कहते हैं यह धार्मिक हो गया। कल तक वह गृहस्थ था, अब वह संन्यासी है, क्योंकि उसने कपड़े बदल लिए हैं। कल वह फिर कपड़े बदल ले, तो फिर गृहस्थ हो जाएगा। जैसे यह कुल खेल कपड़ों का है।
जैसे एक आदमी रोज सुबह मंदिर चला आता है--रोज मंदिर जाता है, रोज मंदिर आता है, वह धार्मिक हो गया, क्योंकि वह रोज मंदिर जाता है! जिंदगी की गहराइयों में उसकी हार्दिकता क्या है उसकी हमें कोई माप नहीं, कोई जांच नहीं। इसी तरह के धार्मिक लोगों ने सारी पृथ्वी पर धर्म के प्रति अरुचि पैदा कर दी हो तो कोई आश्चर्य नहीं है। सारी दुनिया में जो आज धर्म के प्रति उपेक्षा है, अरुचि है, इनडिफरेंस है, उसका जिम्मा किसके ऊपर है? उन लोगों के ऊपर जिन्होंने थोथी और झूठी धार्मिकता ईजाद की है।
सच्ची धार्मिकता का पहला तो सूत्र है: हार्दिक संबंध, अनौपचारिक संबंध। मनुष्य के जगत में; फिर मनुष्य के जगत के बाहर पशुओं के जगत में; पौधों के जगत में, प्रकृति के जगत में। जितनी यह हार्दिकता फैलती चली जाए। एक फूल आपको सुंदर लगता है, जल्दी से तोड़ लेते हैं। कभी आपने सोचा कि फूल से अगर आपको प्रेम है, तो आप तोड़ सकते थे? तोड़ना प्रेम का कृत्य तो नहीं हो सकता, तोड़ना तो हिंसा का कृत्य हो सकता है, अप्रेम का हो सकता है, घृणा का हो सकता है, प्रेम का कृत्य कैसे हो सकता है? लेकिन एक आदमी कहता है, मुझे गुलाब के फूल से बहुत प्रेम है, तोड़ कर जल्दी से अपने कोट के बटन में लगा लेता है और कहता है कि मुझे गुलाब के फूल से बहुत प्रेम है।
एक बच्चे से आपको बहुत प्रेम है, गर्दन को तोड़ कर घर में नहीं सजा लेते हैं, जाकर गुलदस्ते में नहीं रख लेते हैं बच्चे की गर्दन को तोड़ कर कि इस बच्चे से मुझे बहुत प्रेम है। और अगर आप ऐसा करेंगे तो फौरन राजकोट की पुलिस आपको पकड़ कर ले जाएगी। लेकिन फूल को तोड़ते वक्त कोई नहीं ले जाता। फूल की रक्षा के लिए कोई पुलिस नहीं है। सिर्फ इसलिए। और कोई कारण नहीं है। लेकिन फूल को तोड़ लेते हैं और आप सोचते हैं हम फूल से प्रेम कर रहे हैं। यहां तक फूल से प्रेम करने वाले हैं कि सुबह से दूसरों की बगियों के तोड़ कर भगवान पर चढ़ा आते हैं। रोज सुबह निकलते हैं झोलियां लेकर, गांव-गांव में मुझे दिखाई पड़ते हैं वे, और उनको एक फायदा है, वे किसी की भी बगिया का फूल तोड़ सकते हैं, कोई गड़बड़ करे तो वे कहते हैं भगवान की पूजा के लिए तोड़ रहे हैं। उनको कोई मना भी नहीं कर सकता।
मैंने अपनी बगिया में जहां मैं कुछ दिन तक था, तख्ती लगा छोड़ी थी कि और किसी भी काम के लिए तोड़ सकते हैं, भगवान की पूजा के लिए तोड़ना मना है। क्योंकि कम से कम भगवान के साथ तो इस पाप का संबंध मत जुड़वाओ। और किसी के लिए तोड़ो--अपनी प्रेयसी के बाल में खोंसना हो तोड़ो, लेकिन भगवान पर तो दोष मत दिलवाओ, भगवान के साथ तो इस पाप को मत जोड़ो। यह फूल अपनी जगह बहुत है, यह अपनी जगह खड़े होकर भगवान के चरणों में समर्पित है। जो जहां है वह भगवान के चरणों में समर्पित है, इसे तोड़ कर कहां ले जा रहे हैं?
लेकिन जिसको हम कहते हैं कि बड़ा फूलों का प्रेमी है, वह फूलों का हत्यारा है, उसका फूलों से कभी कोई संबंध ही नहीं हुआ। क्योंकि संबंध हो जाता तो फूलों का टूटना बंद हो जाता।
मैं स्मरण दिलाने के लिए कह रहा हूं कि हमारे संबंध तो बिलकुल ही अजीब हैं। इन अजीब संबंधों को लेकर, इन एब्सर्ड रिलेशनशिप के भीतर, यह बिलकुल ही अर्थहीन, बेबूझ संबंधों को लेकर आप चाहते हों कि संबंध हो जाए आपका अद्वैत से? नहीं हो सकता। नहीं हो सकता। कोई रास्ता नहीं है। लेकिन हो सकता है संबंध। आपको अपनी सारी क्षमता और सारे संबंधों का पूरा ब्यौरा एक दफा आंख डाल कर देख लेना जरूरी है कि वह कैसा है, क्या है वहां? यह स्मरण आ जाए, तो शायद धीरे-धीरे कोई द्वार आपके मन में खुलने लगे और आपको दिखाई पड़ने लगे कि क्या संबंध हो सकता है। प्रकृति से क्या संबंध हो सकता है।
कभी किसी झील के पास चुपचाप घड़ी आधा घड़ी लेटे रहे हैं? छोड़ें, झील बहुत दूर है, कभी गांव में नहीं भी होती, कभी नंगी जमीन पर सारे वस्त्रों को छोड़ कर चुपचाप घड़ी आधा घड़ी पड़े रहे हैं जैसे कोई मां की गोद में पड़ा रह गया हो? शायद नहीं। तो आप उस मां को जानने से अपरिचित रह गए जो हर क्षण आपके नीचे है और आपको सम्हाल रही है।
मैं आपसे कहता हूं कि मत पढ़ना वेद, मत पढ़ना चाहे गीता, मत पढ़ना चाहे कुरान, घड़ी भर भूमि पर नग्न चुपचाप एकांत में भूमि की छाती से छाती मिला कर पड़े रहना आधा घड़ी और अनजानी शक्तियां प्रविष्ट होने लगेंगी, कोई चीज भीतर कंपने लगेगी और बदलने लगेगी, और कोई एक गहरा संबंध खींच लेगा, कोई कशिश, कोई ग्रेविटेशन बीच में दौड़ने लगेगी, कोई विद्युत, और पहली दफा पता चलेगा मैं एक हूं, इस मिट्टी से पैदा होता हूं, इस मिट्टी से बनता हूं और इस मिट्टी में विलीन हो जाता हूं। जो मेरा आज शरीर है वह कल पृथ्वी का हिस्सा था और कल फिर पृथ्वी का हिस्सा हो जाएगा। जो जानते हैं वे जानते हैं कि वह आज भी चलते-फिरते हुए भी पृथ्वी का ही हिस्सा है, वह पृथ्वी से कहीं भी दूर नहीं चला गया है, पृथ्वी और उसके बीच रहस्यपूर्ण संबंध हैं, मिस्टिरियस रिलेशनशिप है। पृथ्वी और शरीर के बीच आज भी संबंध है। क्योंकि पृथ्वी में जो अणु हैं वे शरीर में हैं, शरीर और उन अणुओं के बीच कशिश है। आकाश में चांद है, पूर्णिमा के चांद में सारा समुद्र आकाश की तरफ खिंचने लगता है। चांद खींच रहा है पानी को, कशिश चांद की उस पानी को अपनी तरफ बुला रही है। पृथ्वी से बना हुआ हिस्सा है शरीर भी, पृथ्वी उसे पूरे वक्त खींच रही है अपनी तरफ, पूरे वक्त उसे खींच रही है अपनी तरफ। पूरे वक्त हम रेसिस्ट कर रहे हैं, पूरे वक्त हम प्रतिरोध कर रहे हैं पृथ्वी का कि वह हमको खींच न ले अपनी तरफ।
यह रेसिस्टेंस हमारे चित्त का सबसे बड़ा तनाव है। यह विरोध पृथ्वी के साथ हमारे चित्त की सबसे बड़ी एंग्जाइटी है, सबसे बड़ी चिंता है। इसकी वजह से हम बहुत बेचैन हैं। यह वैसे ही है जैसे एक बच्चा क्रोध में आ गया है और घर के बाहर दूर जाकर एक झाड़ के पीछे छिप गया है और अपनी मां के पास नहीं जाना चाहता है और कहता है कि मैं नहीं जाऊंगा चाहे कुछ भी हो जाए। अब उसे प्यास भी लग रही है, उसे भूख भी लग रही है, उसे मां की याद भी आ रही है, वह बार-बार झांक कर भी देख रहा है, लेकिन कह रहा है कि नहीं जाएंगे। रुका है, झाड़ के पीछे छिपा है। और उसकी मां खोजती फिरती है, चिल्ला रही है, लेकिन वह नहीं बोलना चाहता है। वह नाराज है। वह नहीं जाएगा, वह नहीं जाएगा। लेकिन उसकी आंखों से आंसू बहे जा रहे हैं, वह बेचैन हुआ जा रहा है, वह तड़पा जा रहा है। और उसे पता नहीं है कि वह मां की गोद में जाकर अभी एकदम ठीक हो जाएगा। जाता है मां की गोद में और सब शांत हो गया, उसके आंसू सूख गए हैं, वह हंस रहा है, उसका तनाव विलीन हो गया, उसकी चिंता खो गई, उसकी परेशानी नहीं है, अब वह निश्चिंत है, अब वह आनंदित है, अब वह किसी के हाथों में समर्पित हो गया है।
यह जो जमीन पैरों के नीचे है, आदमी उसका पुत्र है। और चौबीस घंटे उससे दूर है और भागा हुआ है और बिलकुल उसके पास नहीं जाता। सीमेंट की मजबूत सड़कें बना ली हैं उसने, ताकि पृथ्वी से उसका कोई संबंध न हो जाए। मजबूत चमड़ों के जूते बना लिए हैं उसने, ताकि कहीं धूल उसके पैरों से न लग जाए। शरीर को कहीं छू न ले यह मां का हाथ फिर उसे, यह उसकी सारी चेष्टा है। और वह पूछता है कि हम अद्वैत के भाव में कैसे प्रतिष्ठित हो जाएं?
बच्चा मां की गोद में पहले अद्वैत के अनुभव को उपलब्ध होता है। मां से बच्चा जितनी दूर जाता है उतना ही द्वैत, उतना ही द्वैत में प्रविष्ट होता है। इसीलिए तो बचपन की जीवन भर याद आती है, इसीलिए तो जीवन भर यह पीड़ा बनी रहती है कि बचपन बहुत अदभुत था, बहुत सुंदर था। क्या था अदभुत बचपन में? क्या था सुंदर? कुछ बता सकते हैं गिनती कि क्या थी बात, जिसके लिए इतना परेशान हो रहे हैं? कुछ भी बात न थी, मां के निकट एक अद्वैत का अनुभव था, जो उसके बाद कभी नहीं हो सका। फिर दूर से दूर होता गया, फासला बढ़ता गया, फिर कोई अद्वैत का अनुभव नहीं हो सका। वह याद है, वह प्राणों के पीछे बनी हुई, छिपी प्यास है। लेकिन पृथ्वी उस मां से भी बड़ी मां है जिसने आपको जन्म दिया है। वह आपकी मां की भी मां है। इस पृथ्वी के निकट परिपूर्ण सारा बीच का फासला छोड़ कर, सारा रेसिस्टेंस छोड़ कर छोटे बच्चों की तरह जब कोई पृथ्वी पर चुपचाप लेट जाता है, सब भूल जाता है, खो जाता है उस मिट्टी में, उस स्मरण में कि कल मैं इस मिट्टी का हिस्सा था, कल
फिर इसका हिस्सा हो जाऊंगा, आज भी इसका हिस्सा हूं, शायद मुझे पता नहीं। वह पाएगा कि उसके भीतर और पृथ्वी के बीच में कोई चीज टूटती है, कोई दीवाल गिरती है, कोई चीज जुड़ जाती है, कोई चीज बहने लगती है दोनों के बीच।
उदाहरण के लिए मैंने कहा। ऐसे ही आकाश के साथ, ऐसा ही वृक्षों के साथ, ऐसा ही झीलों के साथ जोड़ें अपने संबंध को, अपने हार्दिक संबंध को। और तब आप पाएंगे कि अद्वैत आपके लिए बकवास नहीं रही, जैसी कि बकवास हो गई है। हर कोई बैठ कर अद्वैत की बातें कर रहा है, हर कोई सूत्र दोहरा रहा है रटे हुए। लेकिन उनसे कोई संबंध नहीं है, कोई वास्ता नहीं है। जीवंत अनुभव अद्वैत का कुछ बात और है। तो उस जीवंत वैज्ञानिक अनुभव के लिए प्रयोग करने जरूरी हैं। वृहत्तर जीवन में प्रयोग करने जरूरी हैं।
एक उदाहरण के लिए मैंने कहा। वैसे सब चारों दिशाओं में सब भांति...लेकिन हमें खयाल ही नहीं है, इसीलिए हम इन सारी चीजों के करीब से गुजर जाते हैं और वंचित गुजर जाते हैं।
एक बार एक सम्राट ने अपने एक वजीर के दुर्भाग्य पर पीड़ित होकर उस पर कुछ अनुकंपा करनी चाही। और दूसरे वजीरों ने कहा कि हम सब धनी से धनी होते गए हैं; हमारा यह एक वजीर, हमारा एक साथी गरीब से गरीब होता चला जाता है, हम क्या करें, क्या न करें?
सम्राट ने कहा कि मैंने इसे कम पैसा दिया हो, ऐसा नहीं, तुम सबसे ज्यादा दिया है, लेकिन यह आदमी न मालूम कैसा है कि सारी संपदा से अपने आप वंचित हो जाता है! फिर यह इतना संकोचशील है कि इसे अगर सीधा दो तो यह लेने से इनकार करता है।
वजीरों ने कहा: एक बार और प्रयोग करें।
राजा ने कहा: अब की बार मैं ऐसा कुछ अनजाना प्रयोग करना चाहता हूं, ताकि तुमको भी पता चल जाए कि यह आदमी ही कुछ ऐसा है कि संपत्ति पास में खड़ी हो तो भी वंचित हो जाए।
तो उन्होंने कहा: क्या करिएगा?
उस वजीर को सांझ को राजा ने अपने घर बुलाया कि तू सांझ को छह बजे मेरे पास आना। महल, राजा के महल तक आने के लिए रास्ते और महल के बीच में नदी बहती थी। छोटा एक पुल था, जिस पर सिर्फ राजा के घर आने वाले लोग ही गुजरते थे, विशेष मेहमान, हर कोई नहीं गुजरता था। उस वजीर को छह बजे बुलाया और उस पुल के ऊपर पूरे पुल पर बड़ी-बड़ी हंडियां स्वर्ण-अशर्फियों से भर कर रखवा दीं। वह वजीर आया, सारे वजीर चुपचाप बगीचे में छिपे खड़े हैं कि क्या होता है, राजा भी छिपा है। वह वजीर आया पुल पर और सारे लोग देख कर हैरान हुए, वह आंख बंद किए हुए पुल पर से आ रहा है। वे बड़े हैरान हुए कि वह आंख क्यों बंद किए हुए है? वह आंख बंद किए हुए क्यों आ रहा है? वह आंख बंद किए हुए पुल पर से सरकता-सरकता पुल के नीचे आ गया, आंख खोली, राजा से आकर मिला। वजीरों ने, सबने पूछा कि आप आंख बंद करके क्यों आए?
उसने कहा: जब मैं पुल के उस तरफ आ रहा था, तो मुझे एक अंधा आदमी दिखाई पड़ा और मुझे खयाल आया कि कहीं अगर जीवन में मैं अंधा हो जाऊं तो कैसे चलूंगा। तो मैंने कहा, जरा प्रयोग करके देख लें। तो मैं आंख बंद करके और चलता हुआ आया। नहीं, मैं चल सकता हूं, मैंने यह पुल पूरा पार कर लिया आंख बंद किए हुए।
राजा ने कहा: कहिए अब क्या करें? स्वर्ण-अशर्फियों के हंडे भरवा कर रख दिए हैं पुल पर, लेकिन आज उनको यह खयाल सूझा है कि आंख बंद करके कैसे पार किया जा सकता है!
चारों तरफ हमारे स्वर्ण-अशर्फियां भरी रखी हैं, लेकिन हमको न मालूम कैसे यह खयाल सूझा हुआ है कि हम आंख बंद करके पार करेंगे। हम सारे लोग आंख बंद करके पूरे जीवन के पुल को पार कर जाते हैं। चारों तरफ जो है, वह हमें कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। हमें खयाल में ही नहीं आता कि क्या है, कितनी स्वर्ण-धूल चारों तरफ उड़ी फिर रही है, कितना मधुमय पराग चारों तरफ हवाओं में लुटा जा रहा है, कितनी खुशियां, कितना आनंद सारे आकाश में परिव्याप्त है, कितना संगीत, कितना सौंदर्य चारों तरफ बरसा जा रहा है, लेकिन हम आंख बंद किए चले जा रहे हैं, हमें कोई पता नहीं कि यह सब क्या हो रहा है। और फिर हम पूछते हैं कि अद्वैत भाव कैसे हो सकता है? फिर अद्वैत भाव नहीं हो सकता।
इसलिए पहली बात, प्रकृति के सान्निध्य को उपलब्ध होना आवश्यक है। और प्रकृति के सान्निध्य के लिए हार्दिक संबंधों की पात्रता चाहिए। उसे विकसित करें, उसे फैलाएं, उसे बड़ा करें और धीरे-धीरे आप पाएंगे कोई चीज टूटने लगी, कोई चीज बदलने लगी, कोई परिवर्तन शुरू हो गया, यह पहली बात। दूसरी बात, दूसरी बात है, प्रकृति का सान्निध्य पहली बात, दूसरी बात है, अनुग्रह की वृत्ति। ए फीलिंग ऑफ ग्रेटिट्यूड। अद्वैत से केवल वे ही संबंधित हो सकते हैं जिनके मन में कृतज्ञ होने का भाव है, जो कृतज्ञ हो सकते हैं। क्योंकि अंततः कृतज्ञता से ज्यादा गहरी कोई धार्मिक क्षमता और क्वालिटी नहीं है।
समझाऊं कृतज्ञता से मेरा क्या मतलब है?
एक मुसलमान सम्राट शिकार को गया हुआ है जंगल में, साथ में उसके हमेशा साथ में रहने वाला नौकर है। वे एक बगीचे में ठहरे हैं। सम्राट ने अपने घोड़े पर से हाथ बढ़ाया और एक वृक्ष में एक ही फल लगा हुआ है, उस फल को तोड़ा। जैसी उसकी आदत थी--वह अपने नौकर को अपना दोस्त जैसा मानता था--जैसी उसकी हमेशा की आदत थी, कुछ भी खाता, तो पहले उसे देता। उसने चाकू से एक कली काटी उस फल की और अपने उस नौकर को दी। उस नौकर ने वह कली चखी और उसके चेहरे पर खुशी दौड़ गई। उसने कहा: मालिक, एक कली से कुछ भी न होगा, फल बहुत स्वादिष्ट, बहुत अदभुत है, एक कली और। दूसरी कली खा गया। और उसने कहा कि नहीं, दूसरी कली से भी कुछ न होगा, एक कली और। वह सारी कलियां लेता गया। फिर एक ही कली सम्राट के हाथ में बची। उसने कहा: तू पागल हो गया है, क्या मुझे एक भी नहीं चखने देगा? उस नौकर ने झपट्टा मारा और वह उसके हाथ से कली छीन ली। राजा ने कहा: यह तो हद कर रहा है तू, तू सारा फल खा गया और एक भी कली मुझे देने को तैयार नहीं। और दूसरा फल नहीं है वृक्ष पर, वापस दे।
नौकर कहने लगा: नहीं दूंगा मालिक, फल बहुत स्वादिष्ट है, मुझे ही खाना है। लेकिन मालिक ने कली छीन ली और मुंह में रखी। फल बिलकुल जहरीला था, कड़वा था। वह तो बहुत हैरान हो गया। उसने कहा: पागल, यह तो बिलकुल जहर है! और तू सारी कलियां खा गया और तूने शिकायत भी न की? वह नौकर कहने लगा: मालिक, जिन हाथों से मैंने जीवन भर इतने मीठे फल खाए, उसके एक कड़वे फल की शिकायत करूं? क्या मुझे इतना अकृतज्ञ समझते हैं? इतना, इतना अकृतज्ञ समझते हैं कि जिन हाथों से मैंने बहुत मीठे फल खाए उनके हाथों का एक कड़वा फल न खा सकूं और शिकायत करूं?
जीवन हमें बहुत मीठे फल देता है, लेकिन उनकी हम कोई याद भी नहीं रखते; सिर्फ कड़वे फलों की फेहरिश्त बना लेते हैं। घर-घर में बहीखाते लिखे रखे हैं लोग कि जीवन में क्या-क्या शिकायत है। जिससे मिल जाइए वह कहता है, यह शिकायत है, वह कहता है, यह शिकायत है, यह शिकायत है। आदमी नहीं मिलता जमीन पर खोजे जो यह कहे कि मुझे जीवन के प्रति एकाध धन्यवाद भी देना है। मुझे तो नहीं मिला अब तक, आपको मिले तो मुझे बता देना। एक आदमी नहीं मिलता जो यह कहे कि जीवन के प्रति मुझे कोई धन्यवाद देना है, कि परमात्मा के प्रति मुझे कोई धन्यवाद देना है।
सब क्रोध में हैं, सबके पास शिकायतें हैं, सबके पास निंदा है, सबके पास जीवन का कंडेमनेशन है, सब जीवन के प्रति बदला लेने को उत्सुक और आतुर हैं। लेकिन एक आदमी नहीं मिलता जो कहे कि मुझे कोई धन्यवाद देना है।
धन्यवाद का भाव नहीं है, तो अद्वैत में गति नहीं हो सकती। आप कहेंगे, मैं बड़ी अजीब बातें कह रहा हूं आपसे। ब्रह्मसूत्र पढ़ने को कहूं, उससे अद्वैत में गति होती है? गीता के भाष्य पढ़ने को कहूं, उससे अद्वैत में गति होती है? ओम-ओम जपने को कहूं, उससे अद्वैत में गति होती है? मैं यह क्या बातें कर रहा हूं, इनसे अद्वैत में गति का क्या संबंध? लेकिन अगर जिनके पास आंखें हैं और जिनके पास सुनने को कान हैं, वे समझ सकेंगे कि जो मैं कह रहा हूं उसका ही संबंध हो सकता है अद्वैत में गति से, और किसी चीज का कोई संबंध नहीं हो सकता।
ग्रेटिट्यूड चाहिए, धन्यता का भाव चाहिए। जीवन में क्या कमी है कि धन्यता के लिए कारण न खोजा जा सके? कितना मिला है, लेकिन उसका कोई खयाल नहीं है। जो हमारे पास है, उसका कोई बोध नहीं है। जो नहीं है हमारे पास, उसकी ही तकलीफ है, उसकी ही परेशानी है। जो दूसरे के पास है, उसके लिए शिकायत है; जो मेरे पास है, उसके लिए कोई धन्यवाद नहीं है। जो मेरे पास है, उसका कोई आनंद भी नहीं है।
एक फकीर था, यहूदी फकीर। उसने एक रात भगवान से कहा कि बहुत हो गया, शिकायत करते-करते भी मैं थक गया, मेरे दुखों का कोई अंत नहीं आता। रोज रोता हूं और प्रार्थना करता हूं, कब मेरे दुखों का अंत होगा? आज तुझसे मेरी एक ही प्रार्थना है: सारी पृथ्वी पर लोग मुझसे सुखी हैं, मैं अकेला दुखी हूं सबसे ज्यादा। दुखी आदमी हमेशा यही कहता है कि मुझसे ज्यादा दुखी जमीन पर कोई भी नहीं है। और उस फकीर ने कहा: चल, एक सौदा सही, मैं तुझसे इस बात पर भी राजी हूं: तू चाहे तो किसी भी आदमी का दुख मुझे दे दे और मेरा दुख उसे दे दे। मैं तुझे धन्यवाद दूंगा, क्योंकि सब लोग मुझे हंसते हुए दिखाई पड़ते हैं, मैं ही भर एक रोता हुआ हूं। उस बेचारे फकीर को पता नहीं कि हंसी सब झूठी है। भीतर सब रोते हैं, ऊपर से हंसते हैं। हंसते हैं, चेहरा बना लेते हैं, ताकि किसी को पता न चले कि भीतर क्या हो रहा है। भीतर सब रोते हैं, बाहर सब हंसते हैं। इससे बाहर की दुनिया में एक वहम पैदा होता है कि मैं दुखी हूं, बाकी सारे लोग अच्छे हैं।
लेकिन फकीर को पता नहीं था, पर उसी रात पता चल गया। रात उसने देखा एक स्वप्न, एक जोर की आवाज आकाश से गूंजी है कि सारे लोग पृथ्वी के इकट्ठे हो जाएं फलां-फलां जगह, क्योंकि वहां दुख का अदल-बदल किया जाएगा। फकीर भी भागा एकदम उठ कर, अपनी टोकरी में, अपनी पोटली में सारे दुख बांधे और भागा कि कहीं चूक न जाए, इसी मौके की तो प्रतीक्षा कर रहा था। उसने सोचा कि शायद ही कोई आदमी वहां जाएगा, क्योंकि सब लोग तो सुखी हैं। लेकिन रास्ते में उसने देखा कि सारे लोग भागे जा रहे हैं--गांव का बादशाह भी भाग रहा है, प्रधानमंत्री भी भाग रहा है, सब भाग रहे हैं, सारे लोग भाग रहे हैं, सब अपनी-अपनी पोटलियां लिए हुए। उसने सोचा, अरे! तो बादशाह भी दुखी था, इसकी भी पोटली है, और अपने से छोटी भी नहीं मालूम पड़ती! ये प्रधानमंत्री भी दुखी थे! ये सारे लोग दुखी थे? संन्यासी भी भागे जा रहे हैं, वे भी अपनी पोटलियां लिए हुए हैं। उसे पता भी नहीं था कि इनकी पोटलियों में भी दुख होगा, हालांकि पोटली गेरुआ रंग की बांधी हुई है उन्होंने। अंदर दुख है। वे भी भागे चले जा रहे हैं। और कोई किसी की तरफ देख नहीं रहा, क्योंकि यह मौका चूकना ठीक नहीं।
फिर उस जगह इकट्ठे हो गए सारे पृथ्वी के लोग। बड़े-बड़े भवन हैं और उन भवनों में खूंटियां लगी हैं करोड़ों, और आवाज हुई कि सब खूंटियों पर अपने-अपने दुखों की पोटलियां टांग दें। सबने अपनी पोटलियां टांग दीं। और तब दूसरी आवाज हुई कि जल्दी से जिसको जिसकी भी पोटली चुननी हो चुन ले और उठा ले। जो जो उठा लेगा वह उसी का दुख हो जाएगा। वह फकीर भागा, आप सोच रहे होंगे किसी और का दुख उठाने? नहीं, अपनी ही पोटली उठाने कि कोई और न उठा ले।
आज पहली दफा दिखाई पड़ा कि दूसरों के पास बड़ी-बड़ी पोटलियां हैं। और फिर उसने सोचा कि अपनी छोटी भी है और जो भी दुख हैं परिचित हैं, अपरिचित दुख और न मालूम क्या हों? और कोई और उठा ले, तो मुसीबत पड़ जाए फिर चुनाव करने में कि कौन सी उठानी है?
उसने भाग कर अपनी उठा ली। सोचा था कि दूसरों ने बदली होंगी, लेकिन उसने जिससे भी पूछा, उसने कहा, भैया, मैंने अपनी ही उठा ली। वहां एक भी आदमी नहीं था जिसने किसी दूसरे की उठाई, उन सबने अपनी उठा ली थी जल्दी से कि कोई और न उठा ले।
नींद उसकी खुल गई। आपकी नींद कब खुलेगी? खुलेगी या नहीं खुलेगी?
दूसरों को देख रहे हैं, इसीलिए शिकायत पैदा होती है; अपने को देखेंगे, तो धन्यवाद पैदा होगा। दूसरों के पास जो है उसकी गिनती करेंगे, तो शिकायत पैदा होगी, क्रोध पैदा होगा, विद्रोह पैदा होगा। अपने पास जो है उसे देखेंगे, तो कृतज्ञता पैदा होगी कि मेरी पात्रता क्या थी और मुझे क्या-क्या मिला।
अगर एक आदमी ने भी आपको प्रेम किया है, तो आपकी पात्रता थी कि आपको प्रेम मिले? क्या था आपके पास? अगर एक आदमी ने भी आपको कभी गले से लगाया है, कौन सी पात्रता थी आपके पास जिसके लिए वह आपको गले से लगाता? अगर आपके चार मित्र हैं, कौन सी पात्रता थी आपकी कि आपका कोई मित्र होता? अगर आप इतने दिन जीए हैं, श्वास ली है, आपके पास आंखें हैं और सुनने को कान हैं, जीवन का सारा संगीत इन कानों से सुना जा सकता है, जीवन की सारी अभद्रताएं भी सुनी जा सकती हैं, जीवन के सारे उपद्रव भी सुने जा सकते हैं, जीवन का सारा संगीत भी सुना जा सकता है। इन आंखों से पृथ्वी के सारे कांटे भी देखे जा सकते हैं और सारे फूल भी। इस हृदय से घृणा भी की जा सकती है और प्रेम भी। यह सब मिला हुआ है। यह इनफिनिट पॉसिबिलिटी मिली है, यह इनफिनिट पोटेंशियल मिला है। यह इतनी अनंत संभावना मिली है जीवन की, इसकी क्या पात्रता थी आपको मिले? आपने क्या सौदा किया था, क्या चुकाया था कि यह जीवन आपको मिले? लेकिन यह मिला है। और इस मिले हुए के लिए कोई धन्यवाद पैदा नहीं होता, क्योंकि इसे हम देखते ही नहीं हैं।
इसे देखें, इसे खोजें, और धीरे-धीरे आप पाएंगे कि जो मिला है वह बहुत है। वह बहुत से ज्यादा है, वह बहुत से बहुत ज्यादा है। मेरा कोई दावा न था और वह मिला है। मेरा कोई अधिकार न था, वह मिला है। और तब...तब अनंत के प्रति एक कृतज्ञता अगर पैदा हो जाए, तो कौन सा आश्चर्य है, कौन सा विस्मय है। वही कृतज्ञता का भाव अनंत के चरणों में झुका देता है। वह झुक जाना अद्वैत में प्रवेश है। वह समर्पण, वह सरेंडर अद्वैत के दरवाजे का खुल जाना है। तो ग्रेटिट्यूड चाहिए।
एक आदमी एक गांव में ठहरा एक रात, सुंदर उसके पास घोड़ा था, वह चोरी चला गया। बूढ़ा आदमी था। वह घोड़ा बहुत कीमती था। उस घोड़े को बड़े-बड़े सम्राटों ने मांगा था कि यह हमें दे दो, लेकिन उसने नहीं दिया था। सम्राटों ने कहा था, जो भी मूल्य चाहिए ले लो। लेकिन उस बूढ़े ने कहा था: प्रेम का कोई मूल्य तो नहीं होता। प्रेम बेचा तो नहीं जाता। इस घोड़े को मैं प्रेम करता हूं। कोई कीमत नहीं हो सकती।
चकित रह गए थे सम्राट। घोड़ा लेकिन जरूर कीमती था और उस बूढ़े ने नहीं बेचा। लेकिन एक रात वह चोरी चला गया। क्या हुआ पता नहीं? सुबह गांव के लोग इकट्ठे हुए और उन्होंने कहा कि पागल बूढ़े, यह तो बहुत बुरा हुआ, घोड़ा चोरी चला गया। इतनी कीमती चीज थी, बेच ही देता तो अच्छा था। लेकिन वह बूढ़ा चुपचाप बैठा है आकाश की तरफ देखते हुए। और फिर हंसने लगा और उसने उन लोगों से कहा: मत कहो, मत कहो यह कि बुरा हुआ, हमें कुछ भी पता नहीं है कि क्या हुआ। इतना ही कहो कि रात घोड़ा अपने अस्तबल में था, अब अपने अस्तबल में नहीं है। इतना ही कहो, इससे ज्यादा मत कहो। इससे ज्यादा कहना भगवान के प्रति विरोध और एतराज हो जाता है।
उन लोगों ने कहा: इसमें काहे का एतराज और काहे का विरोध, बात सीधी और साफ है, घोड़ा चोरी गया है, यह नुकसान हुआ है। अब जिनका घोड़ा चोरी नहीं गया था, वे कहने लगे शिकायत। जिसका घोड़ा चोरी गया था, वह कहता है, मत कहो, इससे आगे मत कहो। इतना ही बहुत है कहना कि घोड़ा अपने पास था, अब अपने पास नहीं है। बुरा हुआ या अच्छा हुआ, यह सिवाय प्रभु के कौन जानता होगा?
गांव के लोगों ने कहा: पागल है यह बूढ़ा, मालूम होता है घोड़ा चोरी चले जाने से दिमाग भी खराब हो गया है। अव्यावहारिक मालूम होता है। लेकिन पंद्रह दिन बाद ऐसा हुआ कि वह घोड़ा वापस लौट आया। वह जंगल भाग गया था। और साथ में पंद्रह-बीस जंगली घोड़े लेकर आ गया।
गांव के लोगों ने कहा: बूढ़ा चालाक मालूम होता है। सांझ को गांव के लोग इकट्ठे हुए और कहा कि बाबा ठीक कहते थे तुम, मजा आ गया। पंद्रह-बीस घोड़े साथ आ गए। सीख जाएंगे चलना तो कीमती हो जाएंगे। बड़े ताकतवर जानवर हैं जंगल के, बड़ी कीमत मिलेगी। बहुत अच्छा हुआ कि घोड़ा गया और आ भी गया और घोड़ों को भी ले आया।
उस बूढ़े ने कहा: बस, बस, बस, ज्यादा मत बढ़ो, क्योंकि अभी तुम अच्छा कहोगे तो कल तुम्हें बुरा कहने का मौका मिल जाएगा। तुम क्षमा करो! इतना ही काफी है, कहो कि घोड़ा भी लौट आया, पंद्रह घोड़े भी आ गए। इससे ज्यादा मत कहो, इससे ज्यादा कहो ही मत, क्योंकि हम कुछ जानते नहीं हैं, पता नहीं क्या छिपा हो इसके पीछे?
लोगों ने कहा: अब रहस्य की बातें करने की कोई जरूरत नहीं, नगद फायदा है। लेकिन आठ दिन बाद ही गांव के लोगों को अपनी बात बदल लेनी पड़ी। और गांव के, सारी दुनिया के गांव के लोग ऐसे होते हैं कि आठ-पंद्रह दिन में बात बदल लेते हैं और फिर खयाल भी नहीं करते कि पंद्रह दिन पहले हम क्या कह रहे थे। उस गांव के लोग भी ऐसे ही थे। इस गांव के लोग भी ऐसे ही होंगे। पांच दिन में बात बदल जाती है। भूल ही जाते हैं कि पांच दिन पहले हमने क्या कहा था। वह फिर बात बदल गई। उस बूढ़े का एक ही जवान लड़का था, वही उसके बुढ़ापे का सहारा था। वह एक जंगली घोड़े को चलाना सिखा रहा था, घोड़े ने पटक दिया, उसके दोनों पैर टूट गए।
गांव के लोगों ने कहा: बाबा, यह तो बहुत बुरा हुआ। घोड़े क्या आए, यह तो दुर्भाग्य आया घर में। जवान लड़के की टांगें टूट गईं। पता नहीं ठीक होंगी कि नहीं होंगी? बुढ़ापे का वही सहारा था एकमात्र, अब क्या होगा?
बूढ़े ने कहा: फिर, फिर वही तुम कहे चले जाते हो। मत कहो यह, इतना ही काफी है कि कल तक लड़के की टांगें थीं, आज टूट गईं। अच्छा हुआ कि बुरा हुआ हम क्या जानें? जो तोड़ता होगा टांगें, जो बनाता होगा वह जानता होगा। कोई होगा राज इसमें।
लोगों ने कहा: अब तो इस बकवास को हम सुनने को राजी नहीं हैं, यह मामला साधारण नहीं है, लड़के की जिंदगी बरबाद हो गई। उसकी शादी होने वाली थी, अब शादी भी नहीं हो सकती। और अब उसकी सेवा करो, अब तक वह तुम्हारी सेवा करता था, अब इस बुढ़ापे में यह उपद्रव हो गया। गांव के लोग क्रोध से भरे चले गए।
लेकिन पंद्रह दिन बाद उन्हें अपनी बात फिर बदल लेनी पड़ी। गांव पर हमला हो गया, पड़ोस के राजा ने हमला कर दिया। उस गांव के राजा ने जितने जवान लड़के थे, सबको जबरदस्ती मिलिटरी में भर्ती कर लिया, कंप्लसरी। सिर्फ उस बूढ़े का लड़का छूट गया। उसके पैर टूटे थे, वह किसी काम का नहीं था।
गांव के लोगों ने कहा: बड़े चालाक मालूम होते हो तुम! हमारे लड़के तो गए बिलकुल। लंगड़ा भी है तो क्या, कम से कम घर में तो है।
उस बूढ़े ने कहा: तुम बाज नहीं आते अपनी आदतों से। हमें कुछ भी पता नहीं है कि क्या हुआ। इतना ही हुआ कि तुम्हारे लड़के चले गए और मेरा नहीं गया। लेकिन क्या अच्छा हुआ, क्या बुरा हुआ, हम नहीं जानते, वही जानता है। और उसके हाथ कृतज्ञता से आकाश की तरफ जुड़ गए।
ग्रेटिट्यूड, कृतज्ञता का भाव तथ्यों को देखता है और चुप रह जाता है; निर्णय नहीं लेता, जजमेंट नहीं लेता। धार्मिक आदमी निर्णय नहीं लेता; धार्मिक आदमी तथ्य को कह देता है। कह देता है और चुप हो जाता है। क्योंकि वह यह कहता है कि एक तथ्य अनंत तथ्यों से जुड़ा है। एक तथ्य के पीछे अनंत अतीत है। एक तथ्य के आगे अनंत भविष्य है। हम नहीं जानते कि क्या होगा और क्या नहीं होगा। क्या अच्छा है, क्या बुरा है, कोई भी नहीं कह सकता है। हम तो मौन में सिर्फ धन्यवाद दे सकते हैं, जो भी है उसके लिए, जो भी है उसके लिए सिर्फ धन्यवाद दे सकते हैं, और हम क्या कर सकते हैं?
वह जो मैंने सुबह आपसे कहा, एक अनंत संबद्धता है, एक निरंतरता है। चीजें जुड़ी हैं, इकट्ठी हैं। चीजें किसी बड़ी टोटेलिटी के हिस्से हैं, किसी बड़ी पूर्ण के हिस्से हैं। वह पूर्ण क्या है, हमें कुछ पता नहीं है।
मत करें शिकायत, मत लें निर्णय, चुप रह जाएं और कृतज्ञ हों उसके लिए जो है, कृतज्ञ हों उसके लिए जो मिला है, कृतज्ञ हों उसके लिए जो हो गया है। और जो व्यक्ति हर स्थिति में कृतज्ञता को खोज लेता है, वह हर स्थिति में सीमा का अतिक्रमण कर जाता है और असीम से जुड़ जाता है। उसकी अद्वैत की यात्रा काफी गहराइयों तक पहुंच जाती है।
यह दूसरा सूत्र और तीसरा अंतिम और फिर मैं अपनी चर्चा पूरी करूं।
पहली बात: हार्दिकता। दूसरी बात: कृतज्ञता। और तीसरी बात: मौन, साइलेंस।
जीवन को ऐसे जीएं जैसे एक मौन, जैसे एक मौन संगीत हो, एक साइलेंट म्यूजिक हो। जीवन को ऐसे जीएं कि जीवन में कोई कोलाहल, कोई शोरगुल, कोई उपद्रव, कोई तनाव, कोई भाग-दौड़,...नहीं; जीवन एक शांत झरने की तरह हो, एक मौन झरने की तरह। क्या आपको पता है, आदमी को छोड़ कर दुनिया में कहीं भी कोई शोरगुल नहीं है? क्या आपको पता है, आदमी को छोड़ कर कहीं भी जगत में कोई डिस्टर्बेंस नहीं है? अगर पृथ्वी पर आदमी न हो, तो एक अदभुत सन्नाटा सारी पृथ्वी को घेर लेगा और छा लेगा। पृथ्वी की आवाजें भी सन्नाटे को तोड़ती नहीं हैं, सन्नाटे को गहरा करती हैं। एक पक्षी गीत गाता है, झींगुर रात भर चिल्लाते हैं, उससे कोई रात का सन्नाटा टूटता नहीं, सन्नाटा और गहराता है और डीपर होता है। प्रकृति की सब आवाजें साइलेंस के हिस्से हैं, मौन के हिस्से हैं।
आदमी ने जरूर नॉइ़ज ईजाद की है, शोरगुल ईजाद किया है। और आदमी इतना ईजाद करता जा रहा है शोरगुल को कि जिसका कोई हिसाब नहीं। सड़कें, बाजार, घर, सब शोरगुल से भरे हैं। दो आदमी मिल गए हैं और बातें करेंगे। दस आदमी मिल गए हैं, बकवास करेंगे। दुकान है, होटल है, क्लब है, रेडियो है, लाउड स्पीकर है। इनका बस चले तो शायद ये आकाश में ऐसी व्यवस्था करें कि दिन-रात उपद्रव होता रहे। कोई आदमी सुन न पाए, बोल न पाए, यह सारा उपाय चल रहा है। जो मुल्क जितना सभ्य हो गया है उस मुल्क में आवाज और शोरगुल उतना ही बढ़ गया है। सभ्यता नाप सकते हैं आप आवाजों का मापदंड नाप कर कि कितनी आवाजें हो रही हैं उस गांव में, उतना ही सभ्य गांव है यह। असभ्य गांव चुपचाप थे, एक साइलेंस में दबे हुए थे, उनका कोई पता नहीं चलता था।
एक गांव के बाहर, श्रावस्ती के बाहर बुद्ध का संघ ठहरा, दस हजार भिक्षु थे। श्रावस्ती के नरेश को उसके मित्रों ने कहा कि बुद्ध का आगमन हुआ है, आप भी चलें। सुनें, वह आदमी क्या कहता है, वह कुछ दूर की खबरें लाया है, कुछ अज्ञात के संदेश लाया है, चलें। लेकिन नरेश थोड़ा विचार किया कि कहीं कोई साजिश तो नहीं है, क्योंकि जो लोग साजिश करते रहते हैं वे हमेशा इसी खयाल में रहते हैं कि कहीं और कोई साजिश तो नहीं कर रहा है। फिर भी उसने कहा, कहते हैं तो मैं चलूंगा। उसने तलवार अपने साथ बांध ली। मित्रों ने कहा: तलवार कहां ले जाते हैं, वहां तलवार की क्या जरूरत? लोग देख कर हंसेंगे। वहां तलवार की कोई जरूरत नहीं है। उसने कहा कि नहीं-नहीं, अकेले में जाते हैं, जंगल में जाते हैं, तलवार ले लेना ठीक है।
तलवार लेकर, घोड़े पर सवार होकर वह गया। फिर उन्होंने कहा कि वह जो सामने आम्रवन दिखाई पड़ता है, उसी में भिक्षु ठहरे हुए हैं, दस हजार भिक्षु हैं। वह एकदम ठिठक कर खड़ा हो गया और उसने तलवार बाहर निकाल ली। उसने कहा: यह नहीं हो सकता, इतने करीब आ गए हैं हम और जरा सी आवाज नहीं सुनाई पड़ रही, दस हजार भिक्षु वहां कैसे हो सकते हैं? कुछ धोखा है इसमें, बात क्या है? तुम मुझे किसी अनजान गलत जगह पर ले जा रहे हो। उन्होंने कहा: आप हैरान न हों, आप परेशान न हों, दस हजार लोग वहां हैं। उसने कहा: मैं कैसे मानूं? इतने हम करीब आ गए हैं और दस हजार लोग उस आम्रवन में ठहरे हुए हैं तो कितना बाजार नहीं मच जाता?
फिर वे वहां गए। वह तलवार हाथ में निकाले रहा। जब उसने वहां दस हजार लोग देखे तो हैरान हो गया! वहां दस हजार लोग थे और सन्नाटा था। सब अपने-अपने में थे, कोई किसी दूसरे से न बात कर रहा था, न चीत कर रहा था, न विवाद कर रहा था, न झगड़ रहा था, सब अपने-अपने में ही थे। वह राजा उनके पास से निकला, तो उसे लगा कि जैसे वहां सभी अकेले हैं, वहां दस हजार हैं ही नहीं, वहां एक-एक आदमी अकेला-अकेला मालूम हो रहा है। उसने बुद्ध से जाकर पूछा कि इन लोगों को क्या हो गया है, दस हजार लोगों को? क्या बात है? गूंगे हैं, बोलते नहीं हैं?
बुद्ध ने कहा: गूंगे नहीं हैं, लेकिन बोलते भी नहीं हैं। ये किसी गहरे संगीत में डूबे हुए हैं, ये किसी मौन में डूबे हुए हैं। ये जीवन की किन्हीं गहराइयों में प्रवेश पा रहे हैं। और जब जीवन की गहराइयों में प्रवेश पाना हो, तो जीवन की सतह से नीचे डूबना पड़ता है। किसी आदमी को समुद्र में गहरे जाना हो, तो सतह को छोड़ना पड़ता है। सतह पर लहरें हैं, तूफान है, आवाज है, हवाएं हैं। नीचे, नीचे उतरता है समुद्र में, वहां सन्नाटा है, सन्नाटा, सन्नाटा, फिर वहां बिलकुल सन्नाटा है। ऐसा सन्नाटा भी है समुद्र की गहराइयों में कि आवाज तो दूर, सूरज की किरण भी वहां नहीं पहुंचती, एकदम सन्नाटा है। ऐसा ही जीवन की गहराइयों में, अद्वैत में सन्नाटा और सन्नाटा और सन्नाटा है। लेकिन उस सन्नाटे में जाना हो, तो थोड़ा आवाजों की दुनिया और कोलाहल की दुनिया से थोड़ा खिसक जाना पड़ेगा।
लेकिन सुबह से उठे, पागल की तरह दौड़ते हैं, अखबार कहां है? शोरगुल की खोज शुरू हो गई। भागे, रेडियो शुरू किया, अभी तक भजन शुरू नहीं हुए हैं? पत्नी को उठाया, उससे बकवास शुरू की, पति-पत्नी का निरंतर का उपद्रव शुरू हो गया। बच्चों को उठाया कि पढ़ो, यह करो, वह करो, भाग-दौड़ शुरू हो गई। उठे नहीं कि शोरगुल की तलाश शुरू हो गई। और पूछते हैं कि अद्वैत से संबंध कैसे हो सकता है? नहीं हो सकता। रेडियो से संबंध कर लीजिए, अखबार से कर लीजिए। अद्वैत को छोड़िए, उससे संबंध नहीं हो सकता। रेडियो से, अखबार से, इस पत्नी से, इस बच्चे से।
थोड़ा सा डूबिए कहीं और, और कृपा करिए उनको भी डूबने दीजिए। न खुद डूब रहे हैं, न उनको डूबने दे रहे हैं। घर हमारे क्या हो गए हैं, घर में कोई कोना है चुप्पी का, कोई शांति का, कोई एकांत का? घर के, परिवार के लोग कभी रात के अंधेरे में दस-पांच मिनट चुपचाप बैठ जाते हैं? नहीं, बिलकुल नहीं। अगर दस-पांच मिनट पति चुप बैठ जाए, तो पत्नी उसकी गर्दन पकड़ लेगी कि तुम चुप क्यों बैठे हुए हो, मामला क्या है? क्या चाहते हो, क्यों चुप बैठे हुए हो? चुप बैठना बड़ा खतरनाक है। यहां बोलते ही रहना चाहिए, बोलते ही रहना चाहिए, चुप कोई हुआ कि खतरा है।
चुप्पी का जीवन से सूत्र ही उड़ गया है, भाप होकर उड़ गया है, वह कहीं भी नहीं रह गया। और चुप्पी से बड़ी कोई चीज जीवन में है ही नहीं। मौन से बड़ा कोई भी सत्य नहीं है। मौन के मंदिर से धर्म का द्वार जाता है। मौन के रास्ते पर चलने से व्यक्ति वहां पहुंचता है जहां अनंत है।
शब्द कहां ले जाएंगे सीमा के बाहर, वहां तो शून्य ही ले जा सकता है। बातचीत कहां ले जाएगी वहां, वहां तो सब खोकर, मौन होकर ही जाना पड़ता है। सब भांति चुप, सब भांति मौन।
तो तीसरी बात है: जीवन में थोड़े से मौन के गैप, थोड़े से रिक्तस्थल मौन के खोजें। कभी-कभी एकदम चुप हो जाएं, कभी दिन दो दिन को चुप हो जाएं। कभी मौका मिल जाए, तो मत छोड़ें इस अदभुत यात्रा को मौन की, हो जाएं चुप जब मौका मिल जाए। जितना बने कम कर दें, टेलीग्राफिक कर दें बोलने को, जैसे कि एक-एक चीज पर पैसा लगता हो, एक-एक शब्द पर बोलने पर। टेलीग्राम करते हैं, वहां बकवास नहीं करते, वहां छांट-छांट कर लिखते हैं एक-एक शब्द को कि आठ हो गए कहीं नौ न हो जाएं। क्यों? वहां क्या बात है? वहां एक-एक शब्द के लिए पैसा चुकाना पड़ रहा है। लेकिन आपको पता नहीं है, जो एक-एक शब्द आप बोल रहे हैं उसके लिए जीवन चुकाना पड़ रहा है, पैसे से बहुत ज्यादा। जीवन खो रहे हैं उतनी देर में आप, जिसका मूल्य बहुत है। टेलीग्राफिक हो जाएं, एक-एक शब्द तुला हुआ, जरूरत हो तो, न हो तो न।
एक मित्र को मैंने कहा कि तुम जरूरत के शब्द बोलने का अभ्यास शुरू करो। पांच-सात दिन बाद उसने कहा कि बड़ी मुश्किल हो गई है, जरूरत के बोलता हूं तो बोलने की जरूरत नहीं रह गई। अब मुझे पता चला कि सब गैर-जरूरत था, फिजूल बोले चला जा रहा था। और आपको पता है, फिजूल बोल कर आप क्या कर रहे हैं? अपना नुकसान कर रहे हैं। जिससे बोल रहे हैं उसका भी नुकसान कर रहे हैं।
चित्त तो एक सयंत्र है। जैसा मैंने कहा, सब जुड़ा हुआ है। हम सब चित्त से भी जुड़े हुए हैं। जब मैं एक शब्द फेंकता हूं कहीं, तो उसकी अंतर्धाराएं अनेक लोगों में जाकर कार्य शुरू कर देती हैं। अनेक मस्तिष्क कंपित होंगे। तो मैं जब बोल रहा हूं, तब मुझे अगर परिपूर्ण स्मरण हो कि जो मैं बोल रहा हूं वह मेरे भीतर शून्य से पैदा हुआ है, मौन से पैदा हुआ है, वह मैंने किसी गहरी चुप्पी में पाया है, तो, तो ठीक है, वह शब्द दूसरों के भीतर जाकर भी चुप्पी पैदा करेगा। क्योंकि जो चीज जहां से पैदा होती है वहीं लीन होती है। अगर मेरे शून्य से और मौन से कोई बात निकली है, तो वह आपके भीतर जाकर भी शून्य को पैदा करेगी। और अगर मेरी रुग्णता से, विक्षिप्तता से, मैडनेस से, पागलपन से कोई चीज निकली है, तो वह आपके भीतर भी जाकर पागलपन पैदा करेगी। तो हम एक म्युचुअल मैडनेस का इंतजाम किए हुए हैं सारी दुनिया में। सब पागल हैं और सब अपने पागलपन को एक-दूसरे पर फेंक रहे हैं। सुबह से लेकर सांझ तक हर आदमी अपने पागलपन के कीटाणु सब तरफ फैला रहा है। और उनको फैला-फैला कर हम सारी दुनिया के पागलपन को गहरा और घना करते जा रहे हैं।
एक घंटा मैं यहां बोल रहा हूं, इस एक घंटे में सारी दुनिया में एक हजार लोग आत्महत्या कर लेंगे। चौबीस घंटे में चौबीस हजार लोग इस पागलपन की हालत में पहुंच जाते हैं कि जीवन दुश्वार हो जाता है। सारी जमीन पर पागलों की संख्या बढ़ती चली जाती है। अमरीका में प्रतिदिन तीस लाख लोग मानसिक चिकित्सा के लिए खोज में निकलते हैं। और ये सरकारी आंकड़े हैं। और आप जानते हैं सरकारी आंकड़े कभी भी सच नहीं होते हैं। जब अमरीका की सरकार कहती है कि तीस लाख आदमी रोज मानसिक चिकित्सा करवाते हैं, तो कितने करवाते होंगे, कहना बहुत कठिन है। क्योंकि पागलों की संख्या कोई पूरी-पूरी बताने को कोई सरकार राजी नहीं हो सकती। क्योंकि उनमें से आधे पागल तो सरकारी आफिसर, उनमें से आधे पागल सरकार की पार्लियामेंट बनाते हैं, आधे पागल सरकार के मंत्री-उपमंत्री बनाते। वह सब संख्या ठीक-ठीक बता नहीं सकते कि यह संख्या पागलों की कितनी है। लेकिन सारी दुनिया में वृहत रूप से पागलपन फैल रहा है। क्योंकि मौन स्वास्थ्य को लाता था, वह खत्म हो गया है। शोरगुल, शोरगुल, शोरगुल।
तो तीसरी बात है अद्वैत की तरफ जाने के लिए: मौन। जितना बन सके, जितना संभव हो सके उतना चुप रहने की सामर्थ्य बढ़ानी चाहिए, पात्रता बढ़ानी चाहिए। जिस दिन आपके भीतर मौन की दशा तैयार हो जाएगी, उस दिन वह संगीतज्ञ जिसकी मैंने बात कही, वह संगीतज्ञ नहीं, वह संगीतज्ञ जिसके लिए तीन दिन से खोज के लिए बात कर रहा हूं, वह अपना दरवाजा खोल कर बाहर आ जाएगा और कहेगा कि ठीक, अब तुम तैयार हो गए, अब मैं बजाता हूं वीणा, तुम सुनो। जिस दिन मौन की पात्रता, रिसेप्टिविटी तैयार हो जाती है उस दिन परमात्मा का संगीतज्ञ आपके द्वार पर आकर वीणा बजाने लगता है। वह...वह है धर्म की, सत्य की, ब्रह्म की अनुभूति।
ये तीन बातें सुबह की बात से जोड़ देना, तो अद्वैत के रास्ते पर कैसे एक-एक कदम उठाया जा सकता है वह खयाल में आ जाएगा। और सच बात इतनी ही है कि प्राथमिक कदम ही बताने की जरूरत है, फिर तो एक कदम आदमी उठाता है दूसरा कदम उसे दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है, दूसरा उठाता है तीसरा दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है। हारते केवल वे ही हैं जो पहला कदम ही नहीं उठाते। जो पहला उठा लेते हैं वे तो जीत ही जाते हैं। पहला कदम और आधी मंजिल पूरी हो गई। क्योंकि पहला कदम उठा नहीं कि दूसरा साफ हो जाता है। और पहला उठा नहीं कि उसके साथ जो ताजगी और जो आनंद की खबर आती है वह पैरों को खींचने लगती है और आगे और आगे और आगे। इस यात्रा पर निकलें।
तीन दिनों में इस यात्रा के संबंध में थोड़ी सी बातें मैंने कही हैं। ये बातें मैंने कही हैं, ऐसा कहना ठीक नहीं होगा। जैसा मैंने सुबह कहा, सूरज है इसलिए घास का एक फूल होता है, लेकिन मैं कहता हूं, यह भी हो सकता है कि घास का फूल है इसलिए सूरज है। इतना अंतर-संबंध है। तो मैंने यहां जो कहा वह मैं नहीं कह सकता था अगर आपमें से एक भी आदमी यहां मौजूद नहीं होता। असंभव था यह। जो मैंने कहा वह मैं नहीं कह सकता था, कुछ और कहता। यहां आप इतने लोग, जो लोग यहां मौजूद हैं, जो सिचुएशन, जो परिस्थिति बनी, उसने मुझसे कुछ कहलवा लिया है। उसमें मैं भी एक उपकरण था और आप भी एक उपकरण थे। उसमें न मैं बोलने वाला था और न आप सिर्फ सुनने वाले थे। मैं भी एक सुनने वाला था, आप भी एक बोलने वाले थे। हम यहां मिले, ये इतनी चेतनाओं ने एक हवा यहां पैदा की, इतनी चेतनाओं का एक जाल बन गया, इतनी किरणें यहां मिल गईं और उन किरणों से एक उत्ताप, एक रोशनी और एक बात पैदा हुई, वह बात निकली, मुझसे निकली, लेकिन उससे मेरे होने का कोई संबंध नहीं है। वह बात मेरी नहीं है, वह हम सब मिले यहां, उससे जो स्थिति बनी, जो सिचुएशन, वह जो ठीक जगह खड़ी हुई, ठीक हवा, ठीक मौका, ठीक अवसर, उससे कुछ बात निकली, वह बात हम सबका इकट्ठा संघट परिणाम है। वह किसी एक आदमी की नहीं है। कोई कहने वाला नहीं है, कोई बहुत सुनने वाला नहीं है; हम सबने कहा, हम सबने सुना।
अगर यह बात हमारे प्राणों में गहरे से गहरे चली जाए, अगर हम उसे ले जाना चाहें, तो जरूर ले जा सकते हैं। और कोई भी कारण नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति क्यों उस सत्य को जानने का मालिक न हो जाए जो उसके पास ही है। लेकिन वह आंख खोल कर नहीं देख रहा है। कोई कारण नहीं कि कोई व्यक्ति क्यों भिखारी रह जाए, जीवन में सम्राट क्यों न हो जाए। प्रत्येक हकदार है। सबके भीतर वह बीज छिपा है। थोड़ी चेष्टा, थोड़ा प्रयास।
तीन बात, अपनी चर्चा मैं पूरी कर दूं।
एक फकीर कहा करता था: एक नदी में पानी था, नदी के पास ही एक खदान में नमक था। नमक की खदान के पास ही एक खेत में गेहूं थे। एक आदमी आया, उसने गेहूं तोड़े, उनको पीस कर आटा बनाया, उसने खदान से नमक निकाला, उसको साफ किया, वह नदी से पानी भर कर लाया, उसने तीनों चीजें इकट्ठी कर लीं। तीनों चीजें दूर पड़ी थीं, रॉ-मैटीरियल था। पानी नदी में था, नमक खदान में था, गेहूं खेत में थे। उन तीनों चीजों को इकट्ठा कर लिया। लेकिन इकट्ठा करके बैठ गया। उसके गुरु ने उसे कहा था कि तीनों चीजें इकट्ठी कर लो, तो पेट भरने का उपाय हो जाता है। लेकिन वह इकट्ठा करके बैठ गया। बैठ गया। दिन बीत गए, दो दिन बीत गए, लेकिन भोजन नहीं बना। तीन दिन बीत गए, प्राण तड़फने लगे, वह भागा अपने गुरु के पास। उसने कहा: मैंने सब इकट्ठा कर लिया--मैं पानी ले आया हूं, नमक ले आया हूं, गेहूं का आटा पीस कर बना लिया, लेकिन भोजन नहीं बनता है।
उसके गुरु ने कहा: पागल, सिर्फ इकट्ठा कर लेने से क्या होगा, अब भोजन बना। वह गया। गुरु ने बताया, उसने तीनों चीजें मिला कर रोटी बना ली है और फिर बैठ गया। अब भोजन बन गया। तीनों चीजें अलग थीं, वे इकट्ठी हो गई हैं। लेकिन इकट्ठे होने से भी क्या हो जाएगा? वह फिर गया कि मैं भूखा मरा जा रहा हूं, सब इकट्ठा हो गया, रोटी भी बन गई, लेकिन भूख नहीं मिटती? उसके गुरु ने कहा: पागल, अब खा, तो भूख मिटेगी।
धर्म के भी तीन चरण हैं। जीवन में सारे सत्य बिखरे हुए हैं: पानी पानी में, नमक खदान में, गेहूं खेत में। आमतौर से तो आदमी इसी तरह बिखरा इसी स्थिति में नष्ट हो जाता है। कुछ लोग इन सबको इकट्ठा कर लेते हैं घर में, चुप बैठ जाते हैं और नष्ट हो जाते हैं। कुछ लोग भोजन भी बना कर तैयार कर लेते हैं, लेकिन कभी खाते नहीं हैं और नष्ट हो जाते हैं। कुछ लोग उसको खाते हैं।
वह जो पानी था नदी में, वह जो नमक था खदान में, वह जो गेहूं था खेत में, वह उनके भीतर खून बन जाता है, वह उनका प्राण बन जाता है, वह उनका जीवन बन जाता है।
इन तीन दिन में हम पानी भी लाए, हमने खेत से गेहूं भी इकट्ठे किए, खदान से नमक भी इकट्ठा किया--कुछ लोग यहीं रुक जाएंगे। फिर हमने उन सबको इकट्ठा करके साफ भी किया, आटा बनाया, नमक साफ किया, पानी छाना--कुछ लोग यहां रुक जाएंगे। फिर हमने रोटी भी बनाई--कुछ लोग यहां रुक जाएंगे। आपमें से कौन उस रोटी को खाएगा, यह मैं किससे पूछूं, वह आप अपने से पूछ लेना।

तीन दिन मेरी बातें इतने प्रेम और शांति से सुनीं, उससे बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

Spread the love