QUESTION & ANSWER
Shunya Samadhi 02
Second Discourse from the series of 9 discourses - Shunya Samadhi by Osho.
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मेरे प्रिय आत्मन्!
कल सुबह और सांझ की चर्चा में प्रभु के द्वार की पहली सीढ़ी पर हमने बात की। उस पहली सीढ़ी को मैंने विस्मय का भाव कहा। ज्ञान की जड़ता नहीं, विस्मय की तरलता चाहिए। ज्ञान का बोझ नहीं, विस्मय की निर्बोझ चित्त-दशा चाहिए। ज्ञान का अहंकार नहीं, विस्मय की निर्दोष सरलता चाहिए। इस संबंध में कल मैंने आपसे बात की है। आज दूसरे सूत्र पर मुझे आपसे बात करनी है।
एक छोटी सी कहानी से मैं उसे शुरू करना चाहूंगा।
एक बहुत बड़ी महानगरी में एक नया मंदिर निर्मित हो रहा था। सैकड़ों कारीगर वहां पत्थर खोदने, मूर्तियां बनाने, दीवालें उठाने में लगे हुए थे। एक अजनबी यात्री उस मंदिर के करीब से गुजरा। उस यात्री ने एक पत्थर तोड़ते हुए कारीगर मजदूर से पूछा: मेरे मित्र क्या कर रहे हो?
उस मजदूर ने क्रोध से भरी हुई आंखें ऊपर उठाईं, जैसे उसकी आंखों से आग की चिनगारियां निकलती हों, ऐसे अत्यंत रोष से उसने कहा कि क्या अंधे हो, आंखें नहीं हैं, दिखाई नहीं पड़ता है कि मैं क्या कर रहा हूं? मैं पत्थर तोड़ रहा हूं। और वह वापस अपने पत्थर तोड़ने में लग गया। जैसे वह पत्थर कम तोड़ रहा हो और क्रोध ही ज्यादा निकाल रहा हो।
वह यात्री आगे बढ़ गया। उसने दूसरे एक पत्थर तोड़ते हुए कारीगर से पूछा: मेरे मित्र, क्या कर रहे हो?
उसने अत्यंत उदास आंखों से उस यात्री की तरफ देखा, जैसे उन आंखों में कोई भाव ही न हो, वे आंखें ऐसी निस्तेज, ऐसी उदास, ऐसी उदासीन कि जैसे वे आंखें किसी जीवित व्यक्ति की आंखें न होकर किसी मृत व्यक्ति की आंखें हों। और उस आदमी ने अत्यंत धीमे और रोते से स्वर में कहा: अपने बच्चों के लिए रोटी-रोजी कमा रहा हूं। और वापस उतनी ही सुस्ती से वह पत्थर तोड़ने में लग गया।
वह यात्री आगे बढ़ा और उसने मंदिर की सीढ़ियों पर पत्थर तोड़ते एक तीसरे कारीगर से पूछा कि मेरे मित्र, क्या कर रहे हो?
वह कारीगर पत्थर भी तोड़ रहा था और गीत भी गुनगुना रहा था। और उसकी आंखों में किसी खुशी की चमक थी और उसके प्राणों में किसी आनंद का भाव था। उसने आंखें ऊपर उठाईं और उस आदमी को ऐसे देखा जैसे कोई अपने प्रेमी को देखता है, और फिर उसने कहा कि मेरे मित्र, मैं भगवान का मंदिर बना रहा हूं। और वह वापस गीत गाने लगा और पत्थर तोड़ने लगा।
वह यात्री तो चकित रह गया! वे तीनों लोग ही पत्थर तोड़ रहे थे। वे तीनों एक ही काम कर रहे थे। लेकिन एक क्रोध से भरा था, और उसे वह काम सिर्फ पत्थर तोड़ना दिखाई पड़ रहा था। दूसरा आदमी उदास था, उसके पास कोई जीवंत भाव न था--न क्रोध का, न दुख का, न आनंद का; वह जैसे राह के किनारे चुपचाप पड़ा रह गया था, जैसे उसने जीवन की सारी आशा छोड़ दी हो, उसने धीरे से रोते हुए कहा था: बच्चों के लिए रोटी-रोजी कमा रहा हूं। वह भी पत्थर तोड़ रहा था। और तीसरे आदमी ने तो ऐसे कहा जैसे वह कोई अपने प्रियतम की प्रतिमा बना रहा हो। उसने कहा: मैं भगवान का मंदिर बना रहा हूं। उसकी आंखों में खुशी थी, उसके प्राणों में गीत था, उसके आस-पास की हवा में कुछ और ही झलक थी, कोई और ही नृत्य था, कोई और ही ध्वनि थी, कोई और ही प्रार्थना थी। उसके आस-पास जैसे पूजा की धूप, सुगंध फैल रही हो, वैसी दशा थी। और वे तीनों लोग पत्थर ही तोड़ रहे थे। लेकिन उन तीनों के जीवन को देखने की दृष्टि भिन्न थी।
जीवन वैसा ही हो जाता है जैसी उसे देखने की हमारे पास दृष्टि होती है। जो लोग सत्य के मंदिर में प्रवेश करना चाहते हैं, उनके पास आनंद की दृष्टि चाहिए।
विस्मय का भाव, पहला सूत्र है।
दूसरा सूत्र है: आनंद की दृष्टि।
दुख की दृष्टि से कोई जीवन के मंदिर में प्रवेश नहीं पा सकता है। दुख की दृष्टि अपने हाथों से अपनी आंखें फोड़ लेना है। दुख की दृष्टि अपने हाथों से अपने पंख काट लेना है। दुख की दृष्टि अपने हाथों से अपने पैर तोड़ लेना है। फिर कोई यात्रा नहीं हो सकती है। न आंखें पास रह जाती हैं, न पंख, न पैर। फिर आदमी वहीं पड़ा रह जाता है दुख के डबरे में, दुख के गड्ढे में, दुख की अंधेरी रात में, दुख के कारागृह में ही बंद रह जाता है और उसके पार नहीं उठ पाता।
पृथ्वी पर दुख के अतिरिक्त और कोई मजबूत कारागृह नहीं है। और सब जंजीरें छोटी हैं, और तोड़ी जा सकती हैं। और सब दीवालें कमजोर हैं, और गिराई जा सकती हैं। और सब परतंत्रताएं, आसान है उनसे मुक्त हो जाना। लेकिन दुख की बेड़ी, और दुख की दीवाल, और दुख की परतंत्रता बहुत गहरी है। और आश्चर्यों का आश्चर्य यह है कि आदमी खुद ही उस दीवाल को उठाता है। चुन-चुन कर एक-एक ईंट जमाता है। उस दुख की कड़ियों को खुद निर्मित करता है और उन्हें मजबूत करता है, अपने खून से उन्हें सींचता है। और फिर उस दुख के कारागृह में बंद होकर समाप्त हो जाता है।
जो दुख के कारागृह में बंद हैं, उनकी आंखें अगर आलोक के सूरज को न देख पाती हों, तो कोई आश्चर्य नहीं है।
इसलिए दूसरे सूत्र में मैं आपको यह कहना चाहूंगा: यह दुख की दृष्टि क्या है और हमने कैसे पैदा कर ली? क्या यह आनंद की दृष्टि में परिवर्तित नहीं हो सकती है? और हैरानी होगी यह बात जान कर कि जीवन के प्रति इस दुख की दृष्टि को पैदा करने में तथाकथित धार्मिक परंपराओं का सबसे ज्यादा बुनियादी हाथ है। आज कोई तीन हजार वर्षों से सारी दुनिया में जीवन को निंदित किया जा रहा है, जीवन को बुरा कहा जा रहा है, जीवन को पाप कहा जा रहा है, जीवन को छोड़ने योग्य बताया जा रहा है। जीवन असार है, जीवन दुख है, जीवन पीड़ा है, जीवन चिंता है। और धार्मिक आदमी का एक ही काम है कि किसी भांति जीवन के आवागमन से मुक्त हो जाए। यह दृष्टि इतनी विषाक्त, इतनी पाय़जनस है, इसने सारे जीवन के रस को छीन लिया आदमी से। अगर जीवन दुख है, जीवन पीड़ा है, जीवन चिंता है, पाप है, और केवल वे ही पैदा होते हैं जो पापी हैं। पाप के द्वारा जीवन पाने का अर्जन होता है यदि, और पुण्यात्मा जीवन से दूर हट जाते हैं, जीवन में उनका आवागमन नहीं होता, तो जीवन में जो आते हैं वे किसी अंधकारपूर्ण मार्ग पर यात्रा करते हैं। ऐसी जो यह धारा है हजारों वर्षों से आदमी को समझाए जाने की, उस धारा ने हमारे प्राणों के सारे रस को सोख लिया है, उसने हमारी आंखों के सारे आनंद-भाव को छीन लिया, उसने हमारी जीवन-वीणा के सारे संगीत को तोड़ डाला है, उसने सब तार तोड़ दिए हैं।
तो पहली बात तो यह समझ लेनी जरूरी है कि धार्मिक आदमी वह नहीं है, जो जीवन को दुख कहता है; धार्मिक आदमी वह है, जो जीवन को प्रभु की परम कृपा और आनंद का वरदान समझता है। धार्मिक आदमी वह नहीं है, जो जीवन को छोड़ कर भाग जाता है; धार्मिक आदमी वह है, जो जीवन को उसकी परिपूर्णता में जीता है।
धर्म भागने वालों, पलायनवादियों, एस्केपिस्ट का मार्ग नही है। धर्म तो जीवंत प्रतिभाओं का, आनंद से आपूरित चेतनाओं का, उनका जिन्होंने जीवन के रस को उसकी परिपूर्णता में पी लेने का संकल्प किया है, उनका मार्ग है। लेकिन अब तक धर्म की स्थिति उलटी ही रही है।
और अगर हम जीवन को दुख मान कर शुरुआत करेंगे, जीवन को बुरा मान कर हम यात्रा प्रारंभ करेंगे, जीवन को कांटे समझ कर, कंटकाकीर्ण समझ कर यदि हमारा उपक्रम शुरू होगा, हमारा अभियान शुरू होगा, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि अंत में जीवन में सिर्फ कांटे ही उपलब्ध हों, अंधेरा ही उपलब्ध हो, दुख और पीड़ा ही उपलब्ध हो। हम जिस बात के बीज बोते हैं उसके ही फल हमें उपलब्ध भी हो जाते हैं। जीवन वैसा ही हो जाता है जैसा हम उसे देखने की तैयारी करते हैं। जीवन हमारे देखने की तैयारी में ही ढल जाता है। वही ठीक ही है, वही द्वार है, हमारी तैयारी, जिससे हम जीवन को देखते हैं।
और जीवन को अनंत रूपों में देखा जा सकता है। आप जिस भांति देख रहे होंगे, वह जीवन नहीं है, वह आपके देखने की दृष्टि ही है।
एक छोटे से गांव की मुझे स्मृति आती है। उस गांव में सुबह ही सुबह अभी धूप निकली थी, सूरज निकला था, सर्दी के दिन थे, और एक बैलगाड़ी आकर रुकी, और गांव के दरवाजे पर बैठे बूढ़े से उस सवार ने पूछा बैलगाड़ी के: इस गांव के लोग कैसे हैं? मैं इस गांव में निवास करना चाहता हूं।
उस बूढ़े ने उस आदमी को नीचे से ऊपर तक देखा और उस बूढ़े ने पूछा: इसके पहले कि मैं कुछ कहूं कि इस गांव के लोग कैसे हैं, मैं जानना चाहूंगा कि उस गांव के लोग कैसे थे जिसे तुम छोड़ कर आ रहे हो? क्योंकि उस गांव के बाबत बिना जाने हुए मैं कुछ भी इस गांव के संबंध में कहने में असमर्थ हूं।
वह आदमी तो बहुत हैरान हो गया। उसने कहा: उस गांव के लोगों को जानने से इस गांव के संबंध में बताने का क्या संबंध है? और उस गांव के लोगों की याद भी मत दिलाओ। उन दुष्टों की वजह से ही मुझे वह गांव छोड़ना पड़ा है। उस गांव जैसे बुरे लोग जमीन पर कहीं भी नहीं हैं। और कभी भगवान ने मुझे ताकत दी, तो उस गांव की ईंट-ईंट बजा दूंगा, एक-एक आदमी को उसका फल चखा दूंगा कि मुझे गांव के बाहर हटाने का क्या परिणाम हो सकता था।
उस बूढ़े ने कहा: दोस्त, तुम गाड़ी में वापस सवार हो जाओ, मैं सत्तर साल से इस गांव में रहता हूं, मेरे अनुभव से कहता हूं कि इस गांव के लोगों को तुम उस गांव के लोगों से भी बुरा पाओगे। इस गांव से बुरे लोग जमीन पर कहीं है ही नहीं। तुम कोई और दूसरा गांव खोज लो।
और जब वह बैलगाड़ी आगे बढ़ गई, तब उस बूढ़े ने कहा: और खयाल रखना, इस बूढ़े की बात का खयाल रखना कि अब किसी और गांव में मत पूछना कि इस गांव के लोग कैसे हैं, अन्यथा तुमको जमीन पर कहीं ठहरने की जगह भी नहीं मिलेगी। चुपचाप किसी भी गांव में ठहर जाना।
पता नहीं वह आदमी समझा कि नहीं समझा। लेकिन वह गाड़ी जा भी न पाई थी कि एक घुड़सवार आकर रुक गया और उस घुड़सवार ने भी यही पूछा कि मैं इस गांव का निवासी बनना चाहता हूं। क्या बूढ़े बाबा यह बता सकोगे कि यहां के लोग कैसे हैं?
उस बूढ़े ने कहा: बड़े आश्चर्य की बात है। अभी एक आदमी यही पूछ कर गया! लेकिन मुझे तुमसे फिर पूछना पड़ेगा, उस गांव के लोग कैसे थे जहां से तुम आते हो?
वह आदमी हंसने लगा। और उसने कहा: आप ठीक ही पूछते हैं, क्योंकि जिस गांव को छोड़ कर मैं आता हूं अगर उस संबंध में न बता सकूं तो आप भी अपने गांव के संबंध में कैसे बता सकेंगे। उस गांव के लोग इतने प्यारे थे कि उन्हें छोड़ कर आया हूं, लेकिन मेरे प्राण वहीं पीछे रह गए हैं। और जीवन भर एक ही सपना रहेगा मेरे मन में और एक ही कामना रहेगी कि जब भी मौका मिल जाए मैं वापस उस गांव में पहुंच जाऊं। वे लोग बहुत प्यारे थे, वह पृथ्वी पर स्वर्ग जैसा गांव है। लेकिन दुर्भाग्य ने, किन्हीं मुसीबतों ने मुझे दूसरी जगह शरण लेने के लिए मजबूर कर दिया। इसलिए उस गांव को छोड़ कर आना पड़ा।।
उस बूढ़े ने कहा: बेटे, घोड़े से नीचे उतर जाओ। मैं सत्तर साल से इस गांव में हूं, मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं, इस गांव के लोगों को तुम उस गांव के लोगों से भी अच्छा पाओगे। इस गांव जैसे भले लोग पृथ्वी पर कहीं भी नहीं हैं।
क्या हुआ? उस बूढ़े की समझ कैसी थी?
हम सबको दिखाई पड़ सकती है उसकी आंख, उसकी समझ। लेकिन क्या हमारी समझ वैसी है? क्या कभी हमने सोचा, गांव वैसा ही दिखाई पड़ता है जैसे हम हैं? क्या कभी हमने सोचा, पड़ोसी वैसे ही मालूम पड़ते हैं जैसे हम हैं? क्या हमने कभी सोचा कि दिन और रात वे ही हो जाते हैं जैसे हम हैं? क्या हमने कभी सोचा कि जीवन की यात्रा उसी पथ से गुजरती है जो हमारी दृष्टि का पथ है? हर आदमी अपने साथ अपनी दुनिया लिए हुए जीता है। और फिर हम पूछते हैं, ईश्वर कहां है? और फिर हम पूछते हैं, आत्मा कहां है? और फिर हम पूछते हैं, आनंद कहां है? फिर हम पूछते हैं, अर्थ कहां है, जीवन का प्रयोजन कहां है?
मत पूछिए यह, पूछिए यह कि कहीं आपकी दृष्टि तो ऐसी नहीं कि आनंद को देख ही न पाए, सत्य को देख ही न पाए, परमात्मा को देख ही न पाए, आलोक और अमृत के दर्शन ही न कर सके? कहीं आप आंख बंद किए हुए तो नहीं खड़े हैं? कहीं आपकी आंख तो विकृत नहीं है? लेकिन हममें से यह कोई भी नहीं पूछता। हम हमेशा पूछते हैं कि बाहर गलत है। हम कभी यह नहीं पूछते कि कहीं बाहर भीतर का ही प्रक्षेपण तो नहीं है, उसी का प्रोजेक्शन तो नहीं? जो भीतर है कहीं वही तो बाहर नहीं दिखाई पड़ता? और मैं आपसे निवेदन करता हूं, कोई भी आदमी उस बात को देखने में असमर्थ है जो उसके भीतर न हो। जो उसके भीतर है केवल उसके ही दर्शन बाहर हो सकते हैं।
इसलिए बाहर मत खोजिए। बाहर हमेशा उसके ही दर्शन होते हैं जो भीतर है, जो पीछे है। सिनेमा में हम देखते हैं पर्दे पर चित्र चलते हैं, लेकिन वे चित्र कहीं पीछे से प्रोजक्ट होते हैं, वहां हम आंख भी उठा कर नहीं देखते। प्रोजेक्टर पीछे लगा होता है, हमारी पीठ के पीछे, दीवाल के पीछे छिपा होता है, चित्रों के प्राण वहां होते हैं, वे चित्र पर्दे पर दिखाई पड़ते हैं सामने, लेकिन आते पीछे से हैं।
जीवन पूरी ही एक पर्दे पर दिखाई पड़ने वाली लीला है। प्रोजेक्टर हमेशा हमारे भीतर और पीछे है, दीवाल की आड़ में है, वह हमें दिखाई नहीं पड़ता। और अगर हम, तस्वीरें जो बन रही हैं पर्दे पर, उनको बदलना चाहें और कोशिश करें कि पर्दा दूसरा दिखाई पड़े, पर्दे पर दूसरे चित्र दिखाई पड़ें, तो हमें क्या करना पड़ेगा? क्या हम पर्दे को बदलें, क्या हम तस्वीरों को बदलें, या प्रोजेक्टर को बदलें, या पीछे प्रोजेक्टर पर चलती हुई फिल्म को बदलें? हम क्या करें? क्या हम पागलों की तरह पर्दे को बदलने में लग जाएं, तो कुछ बदलाहट हो सकेगी? लेकिन सारी दुनिया पर आदमी पर्दे को बदलने में ही लगा रहता है, प्रोजेक्टर का किसी को खयाल ही नही आता। हम पर्दे को फाड़ सकते हैं, हम पर्दे को रंग सकते हैं, लेकिन तस्वीरें नहीं बदलेंगी, तस्वीरें वही बनती रहेंगी जो भीतर से प्रोजेक्टर फेंक रहा है।
एक दुखी आदमी झोपड़े में से महल में चला जाए, उसने पर्दा बदल लिया। पर्दे पर झोपड़े की जगह महल बना लिया, लेकिन अगर वह झोपड़े में दुखी था, तो ध्यान रखिए, वह महल में भी दुखी रहेगा। वह दुख का प्रोजेक्टर तो अपना काम करता रहेगा। उस दुख से झोपड़े का कोई भी संबंध न था। झोपड़ा एक पर्दा था, महल दूसरा पर्दा है। लेकिन वह जो दुख की तस्वीर थी भीतर, वह झोपड़े पर बनती थी, फिर वह महल पर बनने लगेगी। और ठीक से समझ लेना, झोपड़े पर हो सकता था तस्वीर ठीक से दिखाई न पड़ती हो, ऊबड़-खाबड़ दीवालें थीं, महल की साफ चिकनी दीवालों पर तस्वीर और अच्छी बनती है, और स्पष्ट दिखाई पड़ती है।
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम बाहर क्या बदल लेते हैं। बाहर की कोई भी बदलाहट बुनियादी नहीं है। जीवन के अनुभव में उससे कोई भी भेद नहीं पड़ता है। जीवन का अनुभव हमेशा वही है, जो हमारे देखने का कोण है, जहां से हम देखते हैं। वहां नहीं, जहां हम देखते हैं। ऑब्जेक्टिव नहीं, सब्जेक्टिव। जीवन की सारी लीला बाहर नहीं, भीतर अंतस में फलित होती है और घटित होती है। और अगर अंतस में हमारे देखने का बिंदु, हमारा कोण दुख का है, तो फिर कोई फर्क नहीं पड़ सकता है। लेकिन आदमी बड़े धोखे में आ जाता है।
मैंने सुना है, एक आदमी, एक गरीब आदमी एक बहुत कीमती गाय खरीद लाया। वह गाय एक बड़े राजमहल से खरीदी गई थी। उस गाय को अच्छे से अच्छा घास, अच्छे से अच्छे भोजन के चरने की आदत थी। फिर उस गाय को अपने घर में ले आया। लेकिन उस गरीब किसान के पास सूखे भूसे के अतिरिक्त गाय को देने को कुछ भी न था। उसने सूखा भूसा उसके सामने रखा, लेकिन गाय ने तो सिर फिरा लिया, उसने उस भूसे की तरफ देखने की भी तैयारी न दिखाई। वह गरीब किसान बहुत मुश्किल में पड़ गया। उसने अपने सब गहने बेच कर वह गाय खरीदी थी। बड़े दिन की कामना थी उसके मन में कि एक बढ़िया से बढ़िया, सुंदर से सुंदर जाति की गाय उसके घर में हो। लेकिन वह यह भूल ही गया था कि उसे मैं खिलाऊंगा क्या? उसने घास, उसके सामने रखने को उसके पास नहीं थी हरी घास, सूखा भूसा था। लेकिन गाय ने इनकार कर दिया। वह बहुत दुखी और परेशान हुआ। उसने गाय को सब भांति समझाने की कोशिश की, लेकिन गाय की कुछ समझ में नहीं आया। गाय उदास खड़ी रही।
फिर वह गांव में एक साधु के पास गया, जो उस गांव का बूढ़ा समझदार था। उसने उस साधु के पैर छुए और कहा: मैं क्या करूं? घास मेरे पास नहीं, सूखा भूसा है। और गाय उस भूसे को खाने से इनकार करती है। मैंने लाख समझाने की कोशिश की, लेकिन वह सुनती ही नहीं है। मैंने बहुत कहा कि तुम गऊमाता हो, सुन लो। देखो, हम तुम्हारे लिए कितना बड़ा आंदोलन चलाते हैं, दिल्ली में अपनी जान खपाते हैं, और तुम बेटों की इतनी बात भी नहीं सुनतीं। लेकिन वह मानती नहीं, वह सुनती नहीं। आज मुझे पहली दफा पता चला कि आदमी गऊ को माता मानता हो, लेकिन गऊ उसको बेटा होने की बिलकुल फिकर नही करती। वह मानती नहीं है, मैं क्या करूं?
उस संन्यासी ने कहा: तुम एक काम करो, तुम हरे रंग का एक चश्मा खरीद लाओ और गाय को पहना दो।
वह आदमी एक हरे रंग का चश्मा खरीद लाया और उसने गाय को पहना दिया, वह गाय घास चरने लगी। उसे सूखा भूसा हरा दिखाई पड़ने लगा।
वह आदमी बहुत खुश हुआ और संन्यासी को धन्यवाद देने गया और कहा कि आप अदभुत हैं, आपने ऐसी तरकीब बताई कि मुझे तो आश्चर्य कि आप इतना जानते हैं गायों के संबंध में कि आपने यह बता दिया कि उसको हरा चश्मा लगा दो!
उस संन्यासी ने कहा: गायों के संबंध में मैं कुछ भी नहीं जानता, मैं तो आदमियों का जानकार हूं, आदमी चश्मे बदल लेते हैं और समझते हैं सब बदल गया।
धोखा...! पर्दे बदल लेते हैं, ऊपर से तस्वीरें बदल लेते हैं, ऊपर से रंग बदल लेते हैं और भीतर वही के वही बने रहते हैं। और फिर भूसे को घास के धोखे में खा जाते हैं। आदमी खा जाते हैं, वह तो गाय है! तो गाय तो बेचारी धोखे में आ ही जाएगी।
यह जो हमारे सारे जीवन की दुख की कथा है, इसमें हम ऊपर से कितनी ही बदलाहट करें, वह बदलाहट डिसेप्शन और धोखे से ज्यादा सिद्ध नहीं होती। मौलिक परिवर्तन उस अंतस-चित्त में चाहिए, ऊपर नहीं। न चश्मे बदलने का सवाल है, न कपड़े बदलने का, न मकान बदलने का, न चीजें बदलने का। बहुत बुनियाद में गहरा सवाल उस अंतरात्मा को बदलने का है जहां से हम खड़े होते हैं, जो हमारी भूमि है, जहां से हम खड़े होकर जीवन को देखते हैं, जहां से हमारे प्राण सारे जगत की तरफ आंखें उठाते हैं, उस जगह, उस जगह बदलाहट करने का। और वहां हम दुख से भरे हुए हैं। वहां हमारी मौलिक दृष्टि दुख की है। यह दुख कैसे समझ में आ गया आदमी को? किन्होंने समझाया यह दुख? कैसे हमारे प्राणों में जीवन के रस की धार सूख गई और हम दुख से भरे रह गए? और स्मरण रहे, यह कठिन नहीं है, जीवन के हर सुख की निंदा की जा सकती है, जीवन के हर रस का खंडन किया जा सकता है, जीवन के हर आनंद को व्यर्थ बताया जा सकता है। उसके सीके्रट हैं, उसकी तरकीबें हैं, उसके राज हैं।
मैं एक जलप्रपात देखने गया था। एक बहुत खूबसूरत रात में पूर्णिमा का चांद और उस निर्जन वीरान में, उन पहाड़ियों में अपने एक मित्र के साथ मैं गया। वे मित्र मुझे वहां ले गए थे। फिर दूर से ही घनघोर गर्जन सुनाई पड़ने लगा उस प्रपात का, हवाएं ठंडी हो गईं और उसका आमंत्रण, उसकी पुकार आने लगी। फिर हमने कार रास्ते पर छोड़ी और हम दोनों चलने लगे, तो मैंने अपने मित्र को कहा कि आप अपने ड्राइवर को भी बुला लें, वह भी चले। लेकिन मित्र कुछ हंसने लगे, तो मैंने खुद ड्राइवर को बुलाया और मैंने कहा: दोस्त, तुम भी आ जाओ। उसने कहा: मैं वहां क्या खाक करूंगा? वहां क्या रखा हुआ है? कुछ पत्थर पड़े हैं और पानी गिर रहा है! वहां है क्या? वहां है क्या, उस आदमी ने कहा, और मुझे हमेशा हैरानी होती है कि लोग पागलों की भांति वहां क्या देखने आते हैं! कुछ पत्थर पड़े हैं, कुछ पानी गिरता है! देखने जैसी वहां बात क्या है?
मैंने उस ड्राइवर को कहा कि मेरे दोस्त, तुम व्यर्थ ही ड्राइवरी कर रहे हो, तुम तो कोई धर्मगुरु हो सकते हो। तुम छोड़ो यह काम। तुम्हें तो जीवन की निंदा करने का सूत्र उपलब्ध हो गया, तुम्हें तो सीक्रेट पता चल गया, तुम्हें तो राज मिल गया, तुम तो जीवन की किसी भी चीज का खंडन कर सकते हो। तुम व्यर्थ ही इस काम में लगे हो, तुम तो बड़ा काम ले सकते हो हाथ में।
मेरे मित्र रास्ते में पूछने लगे कि आपने यह क्यों कहा उससे? मैंने कहा: बस यही सूत्र है जिससे आदमी के जीवन का सारा दुख, सारा दुख पैदा किया गया है। मनुष्य-जाति के प्राणों में जितना अंधकार भर दिया है--इसी सूत्र ने।
हर चीज को विश्लिष्ट किया जा सकता है, एनालिसिस की जा सकती है और बताया जा सकता है उसमें क्या है। एक सुंदर शरीर है, सुंदर आंख है, एक खूबसूरत फूल है या एक जलप्रपात है, हम विश्लेषण करें और हम कह सकते हैं उसमें क्या है। एक आदमी के शरीर का विश्लेषण करवा लीजिए जाकर किसी शरीर-शास्त्री से, वह कहेगा, उसमें इतना अल्युमिनियम है, इतना लोहा है, इतना तांबा है। कुल जमा मिला कर वैज्ञानिक कहते हैं कि एक आदमी के शरीर में चार रुपये बारह आने से ज्यादा की चीजें नहीं होतीं। तो वह वैज्ञानिक कहेगा, उसमें सौंदर्य-वौंदर्य क्या है, इतना लोहा है, इतना तांबा है, इतना कैल्शियम है, इतना फलां है, ढिकां है, यह चार रुपये बारह आने की चीजें हैं। तुम पागल हुए जा रहे हो, कहते हो कि वह शरीर सुंदर है। कुछ भी नहीं है उसमें। ये इतनी सी चीजें हैं। बाजार में जाकर खरीद लो बजाय आदमी को प्रेम करने के। एक पोटली में ये चीजें रख लो, उसको प्रेम करो। आदमी में और है क्या? आदमी में कुछ भी नहीं है। जलप्रपात में कुछ भी नहीं है, पत्थर और पानी है! आदमी में क्या है? और इस विश्लेषण करने वाले से आप जीत नहीं सकते, क्योंकि वह प्रयोगशाला में सिद्ध कर देगा कि वह ठीक कह रहा है।
एक कवि एक फूल के गीत गा रहा है और नाच रहा है और खुश हो रहा है और कह रहा है कि उसे फूल में भगवान दिखाई पड़ गए। दुर्भाग्य से अगर वहां कोई केमिस्ट चला आए, कोई रसायन-शास्त्री चला आए, कोई वनस्पति-शास्त्री चला आए, वह फौरन कवि की गर्दन पकड़ लेगा और कहेगा, पागल हो गए हो, कुछ भी नहीं है इसमें, कहां है सौंदर्य? चलो मेरी प्रयोगशाला में, मैं वहां लेबोरेटरी में सब जांच-परख करके बताता हूं, सौंदर्य आज तक प्रयोगशाला में पाया नहीं गया। कुछ रासायनिक द्रव्य हैं, कुछ वनस्पति है, कुछ खनिज हैं। फूल में और कुछ भी नहीं है। पागल हुए जा रहे हो, दिमाग खराब है तुम्हारा।
और कवि को हार जाना पड़ेगा। कवि रोज हारता गया उनके सामने जिनके पास जीवन के आनंद की दृष्टि नहीं है, केवल विश्लेषण का सूत्र है। दुनिया में कविता हारती गई और विज्ञान जीतता गया। दुनिया में वे लोग हारते गए जिनमें जीवन को आनंद से देखने की क्षमता थी और वे लोग जीतते गए जिनके जीवन में कोई आनंद की क्षमता नहीं थी। और धीरे-धीरे मनुष्य के प्राण
जड़ पत्थर की भांति होते चले गए।
मार्क ट्वेन का नाम आपने सुना होगा, वह एक हंसोड़ अदुभत आदमी था। उसके एक मित्र ने, जो एक चर्च में उपदेशक था, मार्क ट्वेन को कहा कि कभी मेरा व्याख्यान सुनने भी आइए। मार्क ट्वेन उसका व्याख्यान सुनने गया। उसके व्याख्यानों की बड़ी चर्चा थी, उसके बोलने में कोई जादू था, उसके प्राणों में कोई बात थी कि वह शब्दों में उंड़ेल देता था। उसका बोलना एक गीत था, एक काव्य था, उसके बोलने में एक संगीत था, कोई सच्चाई थी जो प्रतिध्वनित होती थी। मार्क ट्वेन एक घंटे तक वहां बैठा रहा। मंत्रमुग्ध लोग उसे सुन रहे थे। फिर एक घंटे के बाद जब वह मित्र बाहर निकला और मार्क ट्वेन से उसने पूछा कि आपको कैसा लगा मैंने जो बोला? मार्क ट्वेन ने कहा: क्या खाक पूछते हो कैसा लगा? तुम्हें जान कर दुख होगा, तुमने जो भी बोला है उसमें शब्दों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं था। और दूसरी बात, शब्द भी सब बासे और उधार थे। मेरे पास एक किताब है, जो मैंने भाग्य से कल रात ही पढ़ी, उसमें तुम्हारा बोला हुआ एक-एक शब्द लिखा हुआ है।
वह तो हैरान हो गया। उसने कहा: क्या कहते हो? आश्चर्य! मैंने बिना कहीं पढ़े यह बोला है, मैंने बिना तैयार किए यह बोला है। और यह तो असंभव है कि एक-एक शब्द किसी किताब में इसमें का लिखा हो जो मैंने बोला है!
मार्क ट्वेन ने कहा: शर्त बदते हो? सौ-सौ रुपये की शर्त हो गई। और मार्क ट्वेन ने कहा: कल सुबह मैं वह किताब भेज दूंगा, जिसमें तुमने जो बोला है एक-एक शब्द लिखा हुआ है। बेइमानी, लोगों को धोखा दे रहे हो। वह आदमी तो चकित रह गया! यह को-इंसीडेंस भी असंभव है। यह संयोग भी असंभव है। और कभी ऐसा हो भी सकता है कि किसी वाक्य का कोई वाक्य कहीं मिल जाए, लेकिन एक घंटा बोला गया एक-एक शब्द मिल जाए! लेकिन मार्क ट्वेन जीत गया। उस पुरोहित को सौ रुपये मार्क ट्वेन को देने पड़े। उसने दूसरे दिन सुबह एक डिक्शनरी भेज दी, शब्दकोश भेज दिया और कहा कि इसमें एक-एक शब्द लिखा हुआ है तुमने जो बोला है। वह मार्क ट्वेन जीत गया। जो शर्त उसने बदी थी, वह ठीक थी। डिक्शनरी में तो एक-एक शब्द लिखा हुआ है बोला हुआ।
यह सीक्रेट है। चीजों में जो भी रहस्य है, चीजों में जो भी सौंदर्य है, चीजों में जो भी जीवन है, उसे क्षण भर में एवोपरेट किया जा सकता है, उसको वाष्पीभूत किया जा सकता है। फिर कुछ नहीं रह जाएगा पीछे वहां।
विश्लेषण की कीमिया, एनालिसिस की केमिस्ट्री जिसको समझ में आ गई, वह आदमी के जीवन के दुख का मूल कारण पता लगा ले सकता है कि आदमी इतना दुखी क्यों हो गया। किसी चीज में कुछ भी नहीं है--प्रेम में कुछ भी नहीं है, परिवार में कुछ भी नहीं है, जगत में कुछ भी नहीं है, हर चीज में कुछ भी नहीं है, यह कहा जा सकता है। और तीन हजार वर्षों से इस महामंत्र को गुंजाया जा रहा है आदमी की छाती पर कि कहीं भी कुछ नहीं है--सब व्यर्थ है, सब असार है, सब छोड़ो और भागो।
जीवन में कुछ भी नहीं है, मृत्यु के पार सब-कुछ है। इस दृष्टि ने सारे जीवन को मृत्यु जैसा बना दिया है। प्रभु के विरोध में अगर और कोई सबसे बड़ा षडयंत्र चला हो, तो इससे बड़ा नहीं हो सकता। परमात्मा के शत्रुओं ने अगर और कोई बड़ा आयोजन किया हो, तो इससे बड़ा नहीं हो सकता।
एक अमरीकी करोड़पति ने एक बहुत बड़े चित्रकार पिकासो से अपना एक चित्र बनवाया। करोड़पति था, उसने सोचा कि पैसे तय करने की क्या जरूरत है, ज्यादा से ज्यादा दो-चार हजार रुपये मंागेगा। फिर छह महीने बाद उसने खबर पहुंचवाई कि बहुत देर लग गई, अब तक चित्र नहीं बन पाया? पिकासो ने कहा: थोड़ा ठहरिए, भगवान को भी आदमी को बनाने में कम से कम नौ महीने लग जाते हैं। मैं कोई भगवान नहीं हूं। कोशिश कर रहा हूं। साल भर बाद खबर मिली कि चित्र बन गया है, आप आकर ले जाएं। वह करोड़पति चित्र को लेने गया। चित्र सुंदर बना था। उसने पूछा कि इसके क्या दाम होंगे? पिकासो ने कहा: पांच हजार डालर। कोई पच्चीस हजार रुपये। उस करोड़पति ने कहा: क्या मजाक कर रहे हैं? इस छोटे से कैनवस के टुकड़े पर थोड़े से रंग पोत दिए हैं और कहने लगे कि पच्चीस हजार रुपये! क्या है इसमें? थोड़ा सा कैनवस का टुकड़ा है और थोड़े से रंग हैं। दस-पांच रुपये की चीज लगी है और आप कहते हैं कि पच्चीस हजार रुपये! क्या मजाक करते हैं? उसे पता नहीं था कि पिकासो क्या कहेगा?
पिकासो ने वह चित्र अपने सहयोगी को कहा कि भीतर ले जाओ, इस आदमी की क्षमता चित्र को देखने की ही नहीं है। और भीतर से इससे भी बड़ा कैनवस का टुकड़ा ले आओ और रंगों की भरी पूरी ट्यूब ले आओ और इसको दे दो, और इसको जो पैसा देना हो दे जाए।
एक कैनवस का टुकड़ा और रंगों की भरी हुई ट्यूब लाकर उसके सहयोगी ने सामने रख दी। उस करोड़पति को पिकासो ने कहा: अब जो भी आपकी मर्जी हो, दाम दो-चार रुपये, दस रुपये; और अगर कोई भी मर्जी न हो, तो मुफ्त में ले जाइए, हम इतने गरीब नहीं हैं।
लेकिन वह करोड़पति कहने लगा: मैं इस ट्यूब को और रंगों को और कैनवस को ले जाकर क्या करूंगा? मुझे चित्र चाहिए।
तो पिकासो ने कहा: फिर स्मरण रखिए, चित्र कैनवस और रंग का जोड़ ही नहीं है, चित्र कैनवस और रंग के जोड़ से कुछ ज्यादा है। और वह जो कुछ ज्यादा है, उसकी कीमत है, उसका मूल्य है। चित्र रंग और कैनवस के जोड़ से कुछ ज्यादा है, वह जो समथिंग है, वह जो कुछ ज्यादा है, वह चित्र है।
लेकिन वैज्ञानिक को पूछिए, तो वह कहेगा, चित्र रंग और कैनवस का जोड़ है। इससे ज्यादा और क्या है? प्रयोगशाला में इससे ज्यादा कुछ पाया भी नहीं जा सकता। इसीलिए प्रयोगशाला शरीर के ऊपर नहीं उठ पाती है। इसलिए विश्लेषण करने वाला शरीर के पार नहीं जा पाता।
और तथाकथित धार्मिक भी शरीरवादी रहे हैं और वैज्ञानिक भी शरीरवादी हैं। अन्यथा जीवन में इतना आनंद है--अकूत। अन्यथा जीवन में इतना सौंदर्य है--अपरंपार। अन्यथा जीवन में इतना अर्थ है, इतना मीनिंग है--अव्याख्य। लेकिन वह उनको नहीं दिखाई पड़ सकता जो विश्लेषण करके चीजों को तोड़ लेंगे। फिर वहां कुछ भी नहीं रह जाता है। आदमी को तोड़ लें, तो हड्डी-मांस-मज्जा रह जाती है। चित्र को तोड़ लें, तो रंग और कैनवस रह जाता है। फूल को तोड़ लें, तो रासायनिक और खनिज द्रव्य रह जाते हैं। और कविता को तोड़ लें, तो केवल शब्द और व्याकरण रह जाती है। और तब कोई भी कह सकता है कि क्या रखा है इसमें? कोई भी कह सकता है कि क्या है इसमें? और इस विश्लेषण की प्रक्रिया से मनुष्य के जीवन के सारे रस को छीन लिया गया। मनुष्य दुखी हो गया, मनुष्य बिलकुल दुखी हो गया। और जब एक बार यह दुख की दृष्टि पकड़ जाए, तो फिर क्या दिखाई पड़ना शुरू होता है मालूम है आपको?
ऐसे दुख भरे आदमी को एक बगिया में खड़ा कर दिया जाए और उससे पूछा जाए: यह जो गुलाब का फूल लगा है, यह दिखाई पड़ता है? वह कहेगा, खाक गुलाब का फूल लगा हुआ है, हजारों कांटे लगे हैं, तब कहीं मुश्किल से जरा सा फूल खिला हुआ है। यह कोई दुनिया है? कांटे ही कांटे हैं यहां। फूल सिर्फ धोखा है, कांटे असलियत हैं। फूल सिर्फ प्रलोभन है। फूल के कारण आदमी कांटों पर चलने को मजबूर हो जाता है। फूल की आशा में आदमी कांटों को झेल लेता है। जिंदगी कांटें हैं। फूल धोखा है, फूल प्रलोभन है। फूल ऐसे ही है जैसे मछली को फांसने के लिए आटे की गोली लगा देते हैं कांटे पर, ऐसा आदमी को फांसने के लिए कांटों के पास एक फूल लगा दिया है। फूल धोखा है, फूल प्रलोभन है, फूल सपना है, फूल असत्य है। असली तो कांटे हैं, कांटों से सावधान! वह जो जिसकी दुख की दृष्टि है, ऐसा कहेगा। लेकिन जिसके पास आनंद की दृष्टि है, वह नाचने लगेगा फूल को देख कर और वह कहेगा, आश्चर्य कि इतने कांटों में भी फूल खिल सकता है! अदभुत है यह जगत! विस्मयपूर्ण है यह जगत! इतने कांटों में भी एक फूल खिल सकता है! कांटों के बीच भी फूल का जन्म हो सकता है! मिरेकल, चमत्कार है यह! और जो आदमी इस मिरेकल को, इस चमत्कार को देखने में समर्थ हो जाएगा, बहुत दूर नहीं है उसकी मंजिल जिस दिन उसे फूलों के पीछे छिपे कांटे भी फूल दिखाई पड़ने न लग जाएं। और जो आदमी कांटों को देखता है और फूल को नहीं, बहुत जल्दी उसे फूल भी कांटा मालूम होने लगेगा।
एक दुख की दृष्टि वाले आदमी से पूछें कि जीवन कैसा है? तो वह कहेगा, क्या रखा है इस जीवन में? दो अंधेरी रातें आती हैं तब कहीं एक छोटा सा दिन आता है। दिन जल्दी गुजर जाता है, रात बहुत मुश्किल से गुजरती है। लेकिन आनंद की दृष्टि से पूछें, वह कहेगी, अदभुत है यह जगत, अदभुत है यह जगत, दो उजाले से भरे हुए दिन के बीच में थोड़ी सी अंधेरी रात आती है।
देखने की सारी बात है, हम कैसे देखते हैं। जिंदगी में रातें भी हैं, दिन भी हैं; फूल भी हैं, कांटे भी हैं। हम कैसे देखते हैं। और स्मरण रखें, जो फूलों को देखता है, धीरे-धीरे उसके लिए कांटे फूल हो जाते हैं। जो दिन को देखता है, दिवस को देखता है, सूर्योदय को देखता है, धीरे-धीरे उसे अंधेरी रातें भी प्रकाशोज्ज्वल हो जाती हैं। जो सूर्य को देखता है, धीरे-धीरे उसे अमावस भी सूरज की रात हो जाती है। उसके अंधेरे मिट जाते हैं, उसे वह अंधेरा भी रोशनी ले लेता है। यह देखने की बात है कि हम कैसे देखते हैं। जरा सा फर्क और पृथ्वी और स्वर्ग अलग हो जाते हैं। जरा सा फर्क, पृथ्वी नरक बन जाती है। जरा सा फर्क, पृथ्वी स्वर्ग बन जाती है। जरा सा फर्क, शायद देखने के जरा से कोण का अंतर और सब-कुछ और हो जाता है।
दो यहूदी संन्यासी अपने गुरु के आश्रम में भर्ती हुए थे। दोनों युवा। वे वहां प्रभु की शिक्षा लेने गए थे। वे वहां उस द्वार के संबंध में समझने गए थे जो परमात्मा तक ले जा सके। लेकिन उन दोनों को धूम्रपान की आदत थी, दोनों को सिगरेट पीने की आदत थी। गुरु के आश्रम में कैसे सिगरेट पी सकेंगे, वे बहुत चिंतित थे। फिर आश्रम में जाकर उन्हें पता चला कि एक घंटे के लिए आश्रम के बाहर बगीचे में घूमने की आज्ञा मिलती है। लेकिन वह आज्ञा भी घूमने के लिए नहीं मिलती, वह समय भी ईश्वर-चिंतन के लिए मिलता है। तो उन्होंने सोचा कि बगीचे में कौन देखेगा, उसी ईश्वर-चिंतन के क्षण में हम सिगरेट भी पी लिया करेंगे। लेकिन फिर उन्हें खयाल आया कि असत्य का व्यवहार आते से ही शुरू कर देना ठीक नहीं है, हम जाकर गुरु से पूछ लें, आज्ञा ले लें, तो अच्छा होगा।
उनमें से एक युवा गुरु के पास गया। और जब वह वहां से आज्ञा लेकर लौटा, तो बहुत क्रोध से लौटा। गुरु ने उसे इनकार कर दिया था। एकदम बोले थे गुरु कि नहीं, सिगरेट नहीं पी सकते हो। वह जब लौट कर आया, तो उसने देखा कि बगीचे में उसका साथी तो गुरु से पूछ कर पहले ही आ गया है और बैठा हुआ सिगरेट पी रहा है। वह तो बहुत घबड़ा गया। और उसने कहा: यह क्या धोखा है? क्या तुम गुरु की आज्ञा नहीं मान रहे हो? उस युवक ने कहा: नहीं, उन्होंने मुझे आज्ञा दी। उन्होंने कहा: तुम पी सकते हो।
तब तो उस युवक का मन और क्रोध और प्रतिशोध से भर गया। और उसने कहा: यह क्या अन्याय है? यह क्या भेदभाव है? मुझे उन्होंने एकदम इनकार किया कि नहीं, नहीं पी सकते हो और तुम्हें कैसे आज्ञा दी? उस सिगरेट पीते हुए युवक ने पूछा: तुमने उनसे क्या पूछा था?
उस युवक ने कहा: पूछने की क्या बात थी, मैंने पूछा था कि क्या मैं ईश्वर-चिंतन करते समय सिगरेट पी सकता हूं? उन्होंने कहा: नहीं, बिलकुल नहीं। तुमने क्या पूछा था?
वह युवक हंसने लगा। उसने कहा: मैंने पूछा था: क्या मैं सिगरेट पीते समय ईश्वर-चिंतन कर सकता हूं? उन्होंने कहा: हां, बिलकुल कर सकते हो।
एक इंच का फर्क और स्वर्ग और नरक अलग हो जाते हैं। एक इंच का फासला और हां और न उपलब्ध हो सकते हैं। एक इंच का फासला और वही जीवन स्वीकृति बन सकता है और वही जीवन अस्वीकृति। एक इंच का फासला, वही जीवन आनंद की धारा बन सकता है और वही जीवन दुख का गड्ढा। दृष्टि का थोड़ा सा फर्क।
विश्लेषण की दृष्टि मनुष्य को दुख देती है। संश्लेषण की दृष्टि, सिंथेटिक व़िजन, एटामिक दृष्टि, अणु-अणु में तोड़ लेने की बात मनुष्य के जीवन का सारा सार, सारी हरियाली छीन लेती है; सारा रस, सारा काव्य विलीन हो जाता है। एटामिक एटिट्यूड, आणविक दृष्टि, तोड़ने की दृष्टि, खंडन करने की दृष्टि, विश्लेषण करने की दृष्टि, सब रस छीन लेती है, सब गीत छीन लेती है।
टोटल व्यू, समग्र दृष्टि, इकट्ठा कर लेने की दृष्टि, सिंथेसिस की दृष्टि, चीजों को जोड़ कर देखने की दृष्टि, मनुष्य के जीवन में वह जो रंग और कैनवस से ज्यादा है, उसका अवतरण बनती है। वह जो शब्दों के जोड़ से ज्यादा है, उस गीत का जन्म बनती है। वह जो ध्वनियों के मेल से ज्यादा है, उस संगीत की खबर बनती है। और परमात्मा, परमात्मा का अनुभव केवल उन्हें हो सकता है जिनके पास जोड़ने की दृष्टि है। जो सारे जीवन को जोड़ कर देखने में समर्थ हो जाते हैं, तब उस जोड़ में ही, समग्र जीवन के उस इकट्ठे होने में ही, उसके दर्शन हो जाते हैं जो जोड़ से ऊपर और ज्यादा है।
विज्ञान परमात्मा तक कभी नहीं पहुंच सकेगा। तर्कशास्त्री भी परमात्मा तक कभी नही पहुंच सकेगा। मैजिशियन, साइंटिस्ट कभी भी परमात्मा तक नही पहुंच सकेंगे। उनकी मौलिक दृष्टि ही तोड़ने की, आणविक खंडन करने की, विश्लेषण करने की है। परमात्मा तक तो केवल वे ही पहुंचते हैं जो जीवन के परिपूर्ण काव्य को उसकी समग्रता में, उसकी परिपूर्णता में, उसके इकट्ठे होने में देखने में समर्थ हो जाते हैं।
आनंद की दृष्टि का अर्थ है: जीवन को जोड़ कर देखने की क्षमता। और जीवन में उस बिंदु को खोजने की क्षमता जहां से आनंद की स्फुरणा हो सकती है। अगर गुलाब के पौधे के पास खड़े हों, तो गुलाब के फूल को देखने की क्षमता, इतने गुलाब के फूल को देखने की क्षमता कि गुलाब के फूल की पंखुड़ियां इतनी बड़ी हो जाएं, इतना प्राणों को घेर लें कि कांटों का कोई पता न रह जाए। धीरे-धीरे गुलाब ही गुलाब रह जाए और कांटे क्षीण होते जाएं और विलीन होते चले जाएं। कांटे न हो जाएं और गुलाब हां हो जाए।
एक इंच का फासला और हां और न अलग हो सकते हैं। जीवन में प्रतिपल, प्रतिक्षण, उठते-बैठते, सोते-जागते, खाते-पीते--दुकान पर, घर में, बाजार में, मंदिर में, भीड़ में, एकांत में उसकी तलाश और खोज जो सबका जोड़ है, उसकी झलक जो प्रकाश है, उसका स्मरण जो आनंद है। और जहां भी भीतर दुख मिले वहां इस बात की तलाश कि कहीं यह दुख की दृष्टि मेरे विश्लेषण से तो पैदा नहीं हो रही है? और विश्लेषण की दृष्टि को विदा। एक व्यक्ति अगर विश्लेषण की वृत्ति को विदा कर दे जीवन को देखने में, तो परमात्मा इतना निकट है जितना और कुछ भी निकट नहीं है। इस दीवाल के अतिरिक्त मनुष्य के बीच और समग्र चेतना के बीच और कोई दीवाल नहीं है।
इसलिए दूसरा सूत्र आपसे कहना चाहता हूं: प्रतिपल पत्थर तोड़ते हुए परमात्मा के मंदिर बनाने का सूत्र: आप वह मजदूर भी हो सकते हैं जो पत्थर तोड़ रहा है, वह मजदूर भी जो रोटी-रोजी कमा रहा है, वह मजदूर भी जो गीत गा रहा है और जान रहा है कि परमात्मा का मंदिर बना रहा है।
जीवन एक पूजा हो सकती है अगर वह आनंद के भाव से भर जाए। जीवन एक प्रार्थना हो जाता है। जीवन का प्रतिपल एक पवित्रता को उपलब्ध हो जाता है अगर वह आनंद की वेदी पर समर्पित हो जाए। खोजें आनंद को, देखें आनंद को। और ऐसा कोई भी आदमी नहीं हो सकता और ऐसी कोई भी स्थिति नहीं हो सकती, ऐसा कोई संयोग नहीं हो सकता, ऐसी कोई परिस्थिति नहीं हो सकती, ऐसा कोई भाग्य नहीं हो सकता, ऐसी कोई नियति नहीं हो सकती जहां कि आनंद को न खोजा जा सके, जहां कि आनंद की खोज असंभव हो। ऐसी कोई सिचुएशन नहीं है, ऐसी कोई संभावना ही नहीं है जहां कि आनंद को न देखा जा सके। आनंद को देखा जा सकता है। और एक बार आनंद दिखाई पड़ने लगे, तो फिर आनंद बड़ा होता चला जाता है।
पहले दर्शन पर जो गंगोत्री में उतरी हुई आनंद की छोटी सी धारा होती है, पहले दर्शन पर, चारों तरफ अंधकार होता है, आनंद की थोड़ी सी किरण होती है। लेकिन एक किरण भी हजारों मील घने अंधकार से ज्यादा शक्तिशाली है। गंगा की धीमी सी धारा भी हिमालय के सख्त और मजबूत पत्थरों से ज्यादा मजबूत है। फिर पत्थरों को तोड़ कर वह धारा बहने लगती है। अंधेरे को फोड़ कर वह किरण आगे बढ़ने लगती है। और एक बार उसका सूत्र हाथ में आ जाए: आनंद की छोटी सी किरण का, छोटी सी धारा का, तो बहुत शीघ्र वह बड़ी होती जाती है। वह मैदानों की गंगा हो जाती है। और बहते-बहते वह आनंद के सागर को उपलब्ध हो जाती है।
लेकिन हमारे पास वह पहली किरण नहीं, हमारे पास वह पहला कदम नहीं, हमारे पास वह पहली गंगोत्री का पहला अवतरण नहीं। और इसलिए हम जीवन भर भटकते हैं और सागर तक नहीं पहुंच पाते हैं।
इसलिए दूसरा सूत्र: जीवन में आनंद को खोजने का प्रयोग करें। मत जाएं मंदिर; मंदिर जाने से कभी कोई धार्मिक नहीं हुआ। मत जाएं मस्जिद; मस्जिद जाने वालों ने क्या-क्या नहीं किया है; जिसको हम अधर्म सहज ही कह सकते हैं, धर्म नहीं। गिरजाघरों में, शिवालयों में इकट्ठे होने वाले लोगों ने पृथ्वी को कौन सी पवित्रता दे दी? मत जाएं वहां। लेकिन जहां भी जाएं वहां आनंद को खोजते हुए जाएं, तो आप पाएंगे: जहां आपको आनंद मिल जाएगा वहीं मंदिर है, वहीं मस्जिद है, वहीं शिवालय है। जहां जाएं वहां आनंद की तलाश में जाएं। जहां जाएं वहां आंखें खोजती रहें, हाथ टटोलते रहें, प्राण धक्-धक् सुनते रहें कि आनंद की कोई खबर, आनंद के कोई पद-चिह्न तो सुनाई नहीं पड़ रहे हैं? और अगर आप सजग हो जाएंगे, सजग हो जाएंगे, तो वे प्रतिपल सुनाई पड़ते हैं। और अगर आप बेहोश सोए रहे, तो वे कभी भी सुनाई नहीं पड़ सकते हैं।
एक छोटी सी घटना और आज की सुबह की चर्चा मैं पूरी करूंगा।
एक आदमी ने जीवन भर मंदिरों में प्रार्थना की, जीवन भर धर्म की कथाएं सुनीं, दान किया, पुण्य किया, यज्ञ-हवन किए, करवाए। सारी पृथ्वी उसे पूजती थी कि वह बहुत धार्मिक व्यक्ति है, बहुत पूज्य व्यक्ति है। लेकिन किसी को यह पता भी नहीं था कि यह सब उपक्रम पूजा पाने के लिए ही किया गया है। फिर उस आदमी की मृत्यु हुई, तो वह सीधा ही भागा हुआ स्वर्ग के द्वार पर पहुंचा। क्योंकि वह तो अधिकारी था--उसने इतना पुण्य किया था और फलां-फलां जगतगुरुओं से वह अपने लिए सर्टिफिकेट लिखवा लाया था कि मुझे प्रवेश-द्वार पर कोई रुकावट न होनी चाहिए। क्योंकि मैंने इतने यज्ञ किए हैं, इतने हवन किए हैं। मैंने इतना घी जलवा दिया है, इतने गेहूं जलवा दिए हैं। मैंने इतने मंत्र पढ़वाए, इतने पंडितों को भोजन करवाया। वह सब अपने खातेबही लेकर स्वर्ग के द्वार पर उपस्थित हो गया। लेकिन द्वार बंद था। उसने बहुत द्वार पीटा, तब भीतर से आवाज आई कि कौन यहां उपद्रव मचा रहा है? यह द्वार सौ वर्ष में केवल एक बार खुलता है। प्रतीक्षा करो। क्योंकि सौ वर्ष में भी मुश्किल से इसके खुलने का मौका आता है। सौ वर्ष में मुश्किल से कोई एक आदमी इस योग्य हो पाता है कि उसके लिए द्वार खुले। तो सौ वर्ष में एक बार खुलता है। तुम बाहर बैठ कर प्रतीक्षा करो। और हमेशा सजग रहना, आंखें खुली रखना, होश से बैठे रहना, क्योंकि एक क्षण में खुलता है और बंद हो जाता है; चूक गए तो फिर सौ साल के लिए चूक गए।
वह आदमी तो बहुत हैरान हुआ। लेकिन उसने सोचा, मैं इतना पुण्यात्मा, इतने यज्ञ-हवन करवाने वाला, इतनी रामायण पढ़वाने वाला, इतने अखंड पाठ करवाने वाला। हालांकि उसे पता नहीं कि उसके अखंड पाठ के कारण कितने विद्यार्थी परीक्षाओं में फेल हो गए हैं। उसको पता नहीं कि उसके अखंड पाठ के कारण कितने मरीज मर गए हैं। उसे यह पता नहीं है। उसने अखंड पाठ करवाए हैं, रात भर लाउड स्पीकर लगवा कर राम-राम जपवाई है, तो क्या इतना नहीं कर सकूंगा मैं कि होश से बैठा रहूं? लेकिन उसे बड़ी तकलीफ होने लगी। दो-चार-दस क्षण ही गुजरे, और वहां कोई सोशल वर्क भी नहीं था, कोई सामाजिक सेवा का काम भी नहीं था कि भूदान करवा दे, कि जाकर स्कूल खुलवा दे, कि अनाथालय चलवा दे, कि यज्ञ करवा दे, कि रामायण पढ़े कि क्या करे, वहां कुछ आकुपेशन नहीं था। बड़ी मुश्किल, बेचैन हो गया। वहां कोई काम नहीं सूझता। वहां कोई सामाजिक सेवा का मौका नहीं, वहां कोई आदमी नहीं जिसकी सेवा करे। कुछ मौका नहीं। सिवाय नींद के कोई रास्ता नहीं। झपकी आने लगी। झपकी उसको आई ही थी कि जोर की आवाज हुई, जैसे कोई बादल गरजे हों। आंख उसने खोली, द्वार खुल चुका था और बंद हो रहा था। वह तो बड़ा घबड़ाया। उसने फिर द्वार पीटे कि यह क्या करते हो? तुम तो कहते थे कि सौ साल में खुलेगा, यह तो अभी खुल गया। उस द्वारपाल ने कहा: मैंने यह नहीं कहा था, मैंने कहा था, सौ साल में एक बार खुलता है। कभी भी खुल सकता है, तुम होश से बैठे रहना।
वह आदमी तो रोने-चिल्लाने लगा। उसने कहा: होश रखना तो कठिन है। वह द्वारपाल भीतर से हंसने लगा। उसने कहा: पागल, जिसे होश रहता है उसे तो जीवन में मरने के पहले ही स्वर्ग का द्वार खुल जाता है। वह द्वार तो प्रतिपल खुलता है जिसके पास होश है, जो सावधान है, जो अलर्ट है। उसे यहां तक आने की जरूरत नहीं पड़ती। उसके लिए तो एक फूल में भी स्वर्ग का द्वार खुल जाता है। उसे तो एक चांद की रोशनी में भी स्वर्ग का द्वार खुल जाता है। उसे तो किन्हीं दो प्यारी आंखों में भी स्वर्ग का द्वार खुल जाता है। उसे तो राह के किनारे एक घास का फूल खिलता है उसमें भी स्वर्ग का द्वार खुल जाता है। एक पक्षी गीत गाता है उसमें भी, हवाओं की एक लहर आती है उसमें भी, और पानी पर एक लहर दौड़ती है उसमें भी, उसके लिए तो सब तरफ स्वर्ग के द्वार प्रतिपल खुलते रहते हैं। लेकिन सावधान और सजग और जागरूक होने की जरूरत है।
मुझे पता नहीं, कहते हैं वह आदमी अभी भी वहीं बैठा है। वह द्वार कई दफा खुल चुका और बंद हो चुका। लेकिन जब खुलता है तब उसकी झपकी लगी होती है। झपकी उसकी खुलने और बंद होने की आवाज से खुलती है। फिर वह रोता है, फिर चिल्लाता है, लेकिन फिर आंख बंद करके बैठ जाता है।
परमात्मा न करे वह आदमी आप ही हों। यह मत सोचना आप कि मैं किसी और के बाबत कहानियां कह रहा हूं। यह कहानी आपके बाबत भी हो सकती है। इसलिए सजगता से जीवन में आनंद की खोज, अलर्ट, होशपूर्वक, तो वह द्वार प्रतिपल खुलता है, रोज खुलता है। कौन कहता है सौ वर्ष में खुलता है? हर क्षण खुलता है। लेकिन जिनकी आंखें बंद हैं उनके लिए सौ वर्ष में भी नहीं खुलता है। आनंद के द्वार की खोज जीवन में प्रतिपल हो, तो यह साधक के लिए दूसरा सूत्र है।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में आपके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं।
मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
कल सुबह और सांझ की चर्चा में प्रभु के द्वार की पहली सीढ़ी पर हमने बात की। उस पहली सीढ़ी को मैंने विस्मय का भाव कहा। ज्ञान की जड़ता नहीं, विस्मय की तरलता चाहिए। ज्ञान का बोझ नहीं, विस्मय की निर्बोझ चित्त-दशा चाहिए। ज्ञान का अहंकार नहीं, विस्मय की निर्दोष सरलता चाहिए। इस संबंध में कल मैंने आपसे बात की है। आज दूसरे सूत्र पर मुझे आपसे बात करनी है।
एक छोटी सी कहानी से मैं उसे शुरू करना चाहूंगा।
एक बहुत बड़ी महानगरी में एक नया मंदिर निर्मित हो रहा था। सैकड़ों कारीगर वहां पत्थर खोदने, मूर्तियां बनाने, दीवालें उठाने में लगे हुए थे। एक अजनबी यात्री उस मंदिर के करीब से गुजरा। उस यात्री ने एक पत्थर तोड़ते हुए कारीगर मजदूर से पूछा: मेरे मित्र क्या कर रहे हो?
उस मजदूर ने क्रोध से भरी हुई आंखें ऊपर उठाईं, जैसे उसकी आंखों से आग की चिनगारियां निकलती हों, ऐसे अत्यंत रोष से उसने कहा कि क्या अंधे हो, आंखें नहीं हैं, दिखाई नहीं पड़ता है कि मैं क्या कर रहा हूं? मैं पत्थर तोड़ रहा हूं। और वह वापस अपने पत्थर तोड़ने में लग गया। जैसे वह पत्थर कम तोड़ रहा हो और क्रोध ही ज्यादा निकाल रहा हो।
वह यात्री आगे बढ़ गया। उसने दूसरे एक पत्थर तोड़ते हुए कारीगर से पूछा: मेरे मित्र, क्या कर रहे हो?
उसने अत्यंत उदास आंखों से उस यात्री की तरफ देखा, जैसे उन आंखों में कोई भाव ही न हो, वे आंखें ऐसी निस्तेज, ऐसी उदास, ऐसी उदासीन कि जैसे वे आंखें किसी जीवित व्यक्ति की आंखें न होकर किसी मृत व्यक्ति की आंखें हों। और उस आदमी ने अत्यंत धीमे और रोते से स्वर में कहा: अपने बच्चों के लिए रोटी-रोजी कमा रहा हूं। और वापस उतनी ही सुस्ती से वह पत्थर तोड़ने में लग गया।
वह यात्री आगे बढ़ा और उसने मंदिर की सीढ़ियों पर पत्थर तोड़ते एक तीसरे कारीगर से पूछा कि मेरे मित्र, क्या कर रहे हो?
वह कारीगर पत्थर भी तोड़ रहा था और गीत भी गुनगुना रहा था। और उसकी आंखों में किसी खुशी की चमक थी और उसके प्राणों में किसी आनंद का भाव था। उसने आंखें ऊपर उठाईं और उस आदमी को ऐसे देखा जैसे कोई अपने प्रेमी को देखता है, और फिर उसने कहा कि मेरे मित्र, मैं भगवान का मंदिर बना रहा हूं। और वह वापस गीत गाने लगा और पत्थर तोड़ने लगा।
वह यात्री तो चकित रह गया! वे तीनों लोग ही पत्थर तोड़ रहे थे। वे तीनों एक ही काम कर रहे थे। लेकिन एक क्रोध से भरा था, और उसे वह काम सिर्फ पत्थर तोड़ना दिखाई पड़ रहा था। दूसरा आदमी उदास था, उसके पास कोई जीवंत भाव न था--न क्रोध का, न दुख का, न आनंद का; वह जैसे राह के किनारे चुपचाप पड़ा रह गया था, जैसे उसने जीवन की सारी आशा छोड़ दी हो, उसने धीरे से रोते हुए कहा था: बच्चों के लिए रोटी-रोजी कमा रहा हूं। वह भी पत्थर तोड़ रहा था। और तीसरे आदमी ने तो ऐसे कहा जैसे वह कोई अपने प्रियतम की प्रतिमा बना रहा हो। उसने कहा: मैं भगवान का मंदिर बना रहा हूं। उसकी आंखों में खुशी थी, उसके प्राणों में गीत था, उसके आस-पास की हवा में कुछ और ही झलक थी, कोई और ही नृत्य था, कोई और ही ध्वनि थी, कोई और ही प्रार्थना थी। उसके आस-पास जैसे पूजा की धूप, सुगंध फैल रही हो, वैसी दशा थी। और वे तीनों लोग पत्थर ही तोड़ रहे थे। लेकिन उन तीनों के जीवन को देखने की दृष्टि भिन्न थी।
जीवन वैसा ही हो जाता है जैसी उसे देखने की हमारे पास दृष्टि होती है। जो लोग सत्य के मंदिर में प्रवेश करना चाहते हैं, उनके पास आनंद की दृष्टि चाहिए।
विस्मय का भाव, पहला सूत्र है।
दूसरा सूत्र है: आनंद की दृष्टि।
दुख की दृष्टि से कोई जीवन के मंदिर में प्रवेश नहीं पा सकता है। दुख की दृष्टि अपने हाथों से अपनी आंखें फोड़ लेना है। दुख की दृष्टि अपने हाथों से अपने पंख काट लेना है। दुख की दृष्टि अपने हाथों से अपने पैर तोड़ लेना है। फिर कोई यात्रा नहीं हो सकती है। न आंखें पास रह जाती हैं, न पंख, न पैर। फिर आदमी वहीं पड़ा रह जाता है दुख के डबरे में, दुख के गड्ढे में, दुख की अंधेरी रात में, दुख के कारागृह में ही बंद रह जाता है और उसके पार नहीं उठ पाता।
पृथ्वी पर दुख के अतिरिक्त और कोई मजबूत कारागृह नहीं है। और सब जंजीरें छोटी हैं, और तोड़ी जा सकती हैं। और सब दीवालें कमजोर हैं, और गिराई जा सकती हैं। और सब परतंत्रताएं, आसान है उनसे मुक्त हो जाना। लेकिन दुख की बेड़ी, और दुख की दीवाल, और दुख की परतंत्रता बहुत गहरी है। और आश्चर्यों का आश्चर्य यह है कि आदमी खुद ही उस दीवाल को उठाता है। चुन-चुन कर एक-एक ईंट जमाता है। उस दुख की कड़ियों को खुद निर्मित करता है और उन्हें मजबूत करता है, अपने खून से उन्हें सींचता है। और फिर उस दुख के कारागृह में बंद होकर समाप्त हो जाता है।
जो दुख के कारागृह में बंद हैं, उनकी आंखें अगर आलोक के सूरज को न देख पाती हों, तो कोई आश्चर्य नहीं है।
इसलिए दूसरे सूत्र में मैं आपको यह कहना चाहूंगा: यह दुख की दृष्टि क्या है और हमने कैसे पैदा कर ली? क्या यह आनंद की दृष्टि में परिवर्तित नहीं हो सकती है? और हैरानी होगी यह बात जान कर कि जीवन के प्रति इस दुख की दृष्टि को पैदा करने में तथाकथित धार्मिक परंपराओं का सबसे ज्यादा बुनियादी हाथ है। आज कोई तीन हजार वर्षों से सारी दुनिया में जीवन को निंदित किया जा रहा है, जीवन को बुरा कहा जा रहा है, जीवन को पाप कहा जा रहा है, जीवन को छोड़ने योग्य बताया जा रहा है। जीवन असार है, जीवन दुख है, जीवन पीड़ा है, जीवन चिंता है। और धार्मिक आदमी का एक ही काम है कि किसी भांति जीवन के आवागमन से मुक्त हो जाए। यह दृष्टि इतनी विषाक्त, इतनी पाय़जनस है, इसने सारे जीवन के रस को छीन लिया आदमी से। अगर जीवन दुख है, जीवन पीड़ा है, जीवन चिंता है, पाप है, और केवल वे ही पैदा होते हैं जो पापी हैं। पाप के द्वारा जीवन पाने का अर्जन होता है यदि, और पुण्यात्मा जीवन से दूर हट जाते हैं, जीवन में उनका आवागमन नहीं होता, तो जीवन में जो आते हैं वे किसी अंधकारपूर्ण मार्ग पर यात्रा करते हैं। ऐसी जो यह धारा है हजारों वर्षों से आदमी को समझाए जाने की, उस धारा ने हमारे प्राणों के सारे रस को सोख लिया है, उसने हमारी आंखों के सारे आनंद-भाव को छीन लिया, उसने हमारी जीवन-वीणा के सारे संगीत को तोड़ डाला है, उसने सब तार तोड़ दिए हैं।
तो पहली बात तो यह समझ लेनी जरूरी है कि धार्मिक आदमी वह नहीं है, जो जीवन को दुख कहता है; धार्मिक आदमी वह है, जो जीवन को प्रभु की परम कृपा और आनंद का वरदान समझता है। धार्मिक आदमी वह नहीं है, जो जीवन को छोड़ कर भाग जाता है; धार्मिक आदमी वह है, जो जीवन को उसकी परिपूर्णता में जीता है।
धर्म भागने वालों, पलायनवादियों, एस्केपिस्ट का मार्ग नही है। धर्म तो जीवंत प्रतिभाओं का, आनंद से आपूरित चेतनाओं का, उनका जिन्होंने जीवन के रस को उसकी परिपूर्णता में पी लेने का संकल्प किया है, उनका मार्ग है। लेकिन अब तक धर्म की स्थिति उलटी ही रही है।
और अगर हम जीवन को दुख मान कर शुरुआत करेंगे, जीवन को बुरा मान कर हम यात्रा प्रारंभ करेंगे, जीवन को कांटे समझ कर, कंटकाकीर्ण समझ कर यदि हमारा उपक्रम शुरू होगा, हमारा अभियान शुरू होगा, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि अंत में जीवन में सिर्फ कांटे ही उपलब्ध हों, अंधेरा ही उपलब्ध हो, दुख और पीड़ा ही उपलब्ध हो। हम जिस बात के बीज बोते हैं उसके ही फल हमें उपलब्ध भी हो जाते हैं। जीवन वैसा ही हो जाता है जैसा हम उसे देखने की तैयारी करते हैं। जीवन हमारे देखने की तैयारी में ही ढल जाता है। वही ठीक ही है, वही द्वार है, हमारी तैयारी, जिससे हम जीवन को देखते हैं।
और जीवन को अनंत रूपों में देखा जा सकता है। आप जिस भांति देख रहे होंगे, वह जीवन नहीं है, वह आपके देखने की दृष्टि ही है।
एक छोटे से गांव की मुझे स्मृति आती है। उस गांव में सुबह ही सुबह अभी धूप निकली थी, सूरज निकला था, सर्दी के दिन थे, और एक बैलगाड़ी आकर रुकी, और गांव के दरवाजे पर बैठे बूढ़े से उस सवार ने पूछा बैलगाड़ी के: इस गांव के लोग कैसे हैं? मैं इस गांव में निवास करना चाहता हूं।
उस बूढ़े ने उस आदमी को नीचे से ऊपर तक देखा और उस बूढ़े ने पूछा: इसके पहले कि मैं कुछ कहूं कि इस गांव के लोग कैसे हैं, मैं जानना चाहूंगा कि उस गांव के लोग कैसे थे जिसे तुम छोड़ कर आ रहे हो? क्योंकि उस गांव के बाबत बिना जाने हुए मैं कुछ भी इस गांव के संबंध में कहने में असमर्थ हूं।
वह आदमी तो बहुत हैरान हो गया। उसने कहा: उस गांव के लोगों को जानने से इस गांव के संबंध में बताने का क्या संबंध है? और उस गांव के लोगों की याद भी मत दिलाओ। उन दुष्टों की वजह से ही मुझे वह गांव छोड़ना पड़ा है। उस गांव जैसे बुरे लोग जमीन पर कहीं भी नहीं हैं। और कभी भगवान ने मुझे ताकत दी, तो उस गांव की ईंट-ईंट बजा दूंगा, एक-एक आदमी को उसका फल चखा दूंगा कि मुझे गांव के बाहर हटाने का क्या परिणाम हो सकता था।
उस बूढ़े ने कहा: दोस्त, तुम गाड़ी में वापस सवार हो जाओ, मैं सत्तर साल से इस गांव में रहता हूं, मेरे अनुभव से कहता हूं कि इस गांव के लोगों को तुम उस गांव के लोगों से भी बुरा पाओगे। इस गांव से बुरे लोग जमीन पर कहीं है ही नहीं। तुम कोई और दूसरा गांव खोज लो।
और जब वह बैलगाड़ी आगे बढ़ गई, तब उस बूढ़े ने कहा: और खयाल रखना, इस बूढ़े की बात का खयाल रखना कि अब किसी और गांव में मत पूछना कि इस गांव के लोग कैसे हैं, अन्यथा तुमको जमीन पर कहीं ठहरने की जगह भी नहीं मिलेगी। चुपचाप किसी भी गांव में ठहर जाना।
पता नहीं वह आदमी समझा कि नहीं समझा। लेकिन वह गाड़ी जा भी न पाई थी कि एक घुड़सवार आकर रुक गया और उस घुड़सवार ने भी यही पूछा कि मैं इस गांव का निवासी बनना चाहता हूं। क्या बूढ़े बाबा यह बता सकोगे कि यहां के लोग कैसे हैं?
उस बूढ़े ने कहा: बड़े आश्चर्य की बात है। अभी एक आदमी यही पूछ कर गया! लेकिन मुझे तुमसे फिर पूछना पड़ेगा, उस गांव के लोग कैसे थे जहां से तुम आते हो?
वह आदमी हंसने लगा। और उसने कहा: आप ठीक ही पूछते हैं, क्योंकि जिस गांव को छोड़ कर मैं आता हूं अगर उस संबंध में न बता सकूं तो आप भी अपने गांव के संबंध में कैसे बता सकेंगे। उस गांव के लोग इतने प्यारे थे कि उन्हें छोड़ कर आया हूं, लेकिन मेरे प्राण वहीं पीछे रह गए हैं। और जीवन भर एक ही सपना रहेगा मेरे मन में और एक ही कामना रहेगी कि जब भी मौका मिल जाए मैं वापस उस गांव में पहुंच जाऊं। वे लोग बहुत प्यारे थे, वह पृथ्वी पर स्वर्ग जैसा गांव है। लेकिन दुर्भाग्य ने, किन्हीं मुसीबतों ने मुझे दूसरी जगह शरण लेने के लिए मजबूर कर दिया। इसलिए उस गांव को छोड़ कर आना पड़ा।।
उस बूढ़े ने कहा: बेटे, घोड़े से नीचे उतर जाओ। मैं सत्तर साल से इस गांव में हूं, मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं, इस गांव के लोगों को तुम उस गांव के लोगों से भी अच्छा पाओगे। इस गांव जैसे भले लोग पृथ्वी पर कहीं भी नहीं हैं।
क्या हुआ? उस बूढ़े की समझ कैसी थी?
हम सबको दिखाई पड़ सकती है उसकी आंख, उसकी समझ। लेकिन क्या हमारी समझ वैसी है? क्या कभी हमने सोचा, गांव वैसा ही दिखाई पड़ता है जैसे हम हैं? क्या कभी हमने सोचा, पड़ोसी वैसे ही मालूम पड़ते हैं जैसे हम हैं? क्या हमने कभी सोचा कि दिन और रात वे ही हो जाते हैं जैसे हम हैं? क्या हमने कभी सोचा कि जीवन की यात्रा उसी पथ से गुजरती है जो हमारी दृष्टि का पथ है? हर आदमी अपने साथ अपनी दुनिया लिए हुए जीता है। और फिर हम पूछते हैं, ईश्वर कहां है? और फिर हम पूछते हैं, आत्मा कहां है? और फिर हम पूछते हैं, आनंद कहां है? फिर हम पूछते हैं, अर्थ कहां है, जीवन का प्रयोजन कहां है?
मत पूछिए यह, पूछिए यह कि कहीं आपकी दृष्टि तो ऐसी नहीं कि आनंद को देख ही न पाए, सत्य को देख ही न पाए, परमात्मा को देख ही न पाए, आलोक और अमृत के दर्शन ही न कर सके? कहीं आप आंख बंद किए हुए तो नहीं खड़े हैं? कहीं आपकी आंख तो विकृत नहीं है? लेकिन हममें से यह कोई भी नहीं पूछता। हम हमेशा पूछते हैं कि बाहर गलत है। हम कभी यह नहीं पूछते कि कहीं बाहर भीतर का ही प्रक्षेपण तो नहीं है, उसी का प्रोजेक्शन तो नहीं? जो भीतर है कहीं वही तो बाहर नहीं दिखाई पड़ता? और मैं आपसे निवेदन करता हूं, कोई भी आदमी उस बात को देखने में असमर्थ है जो उसके भीतर न हो। जो उसके भीतर है केवल उसके ही दर्शन बाहर हो सकते हैं।
इसलिए बाहर मत खोजिए। बाहर हमेशा उसके ही दर्शन होते हैं जो भीतर है, जो पीछे है। सिनेमा में हम देखते हैं पर्दे पर चित्र चलते हैं, लेकिन वे चित्र कहीं पीछे से प्रोजक्ट होते हैं, वहां हम आंख भी उठा कर नहीं देखते। प्रोजेक्टर पीछे लगा होता है, हमारी पीठ के पीछे, दीवाल के पीछे छिपा होता है, चित्रों के प्राण वहां होते हैं, वे चित्र पर्दे पर दिखाई पड़ते हैं सामने, लेकिन आते पीछे से हैं।
जीवन पूरी ही एक पर्दे पर दिखाई पड़ने वाली लीला है। प्रोजेक्टर हमेशा हमारे भीतर और पीछे है, दीवाल की आड़ में है, वह हमें दिखाई नहीं पड़ता। और अगर हम, तस्वीरें जो बन रही हैं पर्दे पर, उनको बदलना चाहें और कोशिश करें कि पर्दा दूसरा दिखाई पड़े, पर्दे पर दूसरे चित्र दिखाई पड़ें, तो हमें क्या करना पड़ेगा? क्या हम पर्दे को बदलें, क्या हम तस्वीरों को बदलें, या प्रोजेक्टर को बदलें, या पीछे प्रोजेक्टर पर चलती हुई फिल्म को बदलें? हम क्या करें? क्या हम पागलों की तरह पर्दे को बदलने में लग जाएं, तो कुछ बदलाहट हो सकेगी? लेकिन सारी दुनिया पर आदमी पर्दे को बदलने में ही लगा रहता है, प्रोजेक्टर का किसी को खयाल ही नही आता। हम पर्दे को फाड़ सकते हैं, हम पर्दे को रंग सकते हैं, लेकिन तस्वीरें नहीं बदलेंगी, तस्वीरें वही बनती रहेंगी जो भीतर से प्रोजेक्टर फेंक रहा है।
एक दुखी आदमी झोपड़े में से महल में चला जाए, उसने पर्दा बदल लिया। पर्दे पर झोपड़े की जगह महल बना लिया, लेकिन अगर वह झोपड़े में दुखी था, तो ध्यान रखिए, वह महल में भी दुखी रहेगा। वह दुख का प्रोजेक्टर तो अपना काम करता रहेगा। उस दुख से झोपड़े का कोई भी संबंध न था। झोपड़ा एक पर्दा था, महल दूसरा पर्दा है। लेकिन वह जो दुख की तस्वीर थी भीतर, वह झोपड़े पर बनती थी, फिर वह महल पर बनने लगेगी। और ठीक से समझ लेना, झोपड़े पर हो सकता था तस्वीर ठीक से दिखाई न पड़ती हो, ऊबड़-खाबड़ दीवालें थीं, महल की साफ चिकनी दीवालों पर तस्वीर और अच्छी बनती है, और स्पष्ट दिखाई पड़ती है।
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम बाहर क्या बदल लेते हैं। बाहर की कोई भी बदलाहट बुनियादी नहीं है। जीवन के अनुभव में उससे कोई भी भेद नहीं पड़ता है। जीवन का अनुभव हमेशा वही है, जो हमारे देखने का कोण है, जहां से हम देखते हैं। वहां नहीं, जहां हम देखते हैं। ऑब्जेक्टिव नहीं, सब्जेक्टिव। जीवन की सारी लीला बाहर नहीं, भीतर अंतस में फलित होती है और घटित होती है। और अगर अंतस में हमारे देखने का बिंदु, हमारा कोण दुख का है, तो फिर कोई फर्क नहीं पड़ सकता है। लेकिन आदमी बड़े धोखे में आ जाता है।
मैंने सुना है, एक आदमी, एक गरीब आदमी एक बहुत कीमती गाय खरीद लाया। वह गाय एक बड़े राजमहल से खरीदी गई थी। उस गाय को अच्छे से अच्छा घास, अच्छे से अच्छे भोजन के चरने की आदत थी। फिर उस गाय को अपने घर में ले आया। लेकिन उस गरीब किसान के पास सूखे भूसे के अतिरिक्त गाय को देने को कुछ भी न था। उसने सूखा भूसा उसके सामने रखा, लेकिन गाय ने तो सिर फिरा लिया, उसने उस भूसे की तरफ देखने की भी तैयारी न दिखाई। वह गरीब किसान बहुत मुश्किल में पड़ गया। उसने अपने सब गहने बेच कर वह गाय खरीदी थी। बड़े दिन की कामना थी उसके मन में कि एक बढ़िया से बढ़िया, सुंदर से सुंदर जाति की गाय उसके घर में हो। लेकिन वह यह भूल ही गया था कि उसे मैं खिलाऊंगा क्या? उसने घास, उसके सामने रखने को उसके पास नहीं थी हरी घास, सूखा भूसा था। लेकिन गाय ने इनकार कर दिया। वह बहुत दुखी और परेशान हुआ। उसने गाय को सब भांति समझाने की कोशिश की, लेकिन गाय की कुछ समझ में नहीं आया। गाय उदास खड़ी रही।
फिर वह गांव में एक साधु के पास गया, जो उस गांव का बूढ़ा समझदार था। उसने उस साधु के पैर छुए और कहा: मैं क्या करूं? घास मेरे पास नहीं, सूखा भूसा है। और गाय उस भूसे को खाने से इनकार करती है। मैंने लाख समझाने की कोशिश की, लेकिन वह सुनती ही नहीं है। मैंने बहुत कहा कि तुम गऊमाता हो, सुन लो। देखो, हम तुम्हारे लिए कितना बड़ा आंदोलन चलाते हैं, दिल्ली में अपनी जान खपाते हैं, और तुम बेटों की इतनी बात भी नहीं सुनतीं। लेकिन वह मानती नहीं, वह सुनती नहीं। आज मुझे पहली दफा पता चला कि आदमी गऊ को माता मानता हो, लेकिन गऊ उसको बेटा होने की बिलकुल फिकर नही करती। वह मानती नहीं है, मैं क्या करूं?
उस संन्यासी ने कहा: तुम एक काम करो, तुम हरे रंग का एक चश्मा खरीद लाओ और गाय को पहना दो।
वह आदमी एक हरे रंग का चश्मा खरीद लाया और उसने गाय को पहना दिया, वह गाय घास चरने लगी। उसे सूखा भूसा हरा दिखाई पड़ने लगा।
वह आदमी बहुत खुश हुआ और संन्यासी को धन्यवाद देने गया और कहा कि आप अदभुत हैं, आपने ऐसी तरकीब बताई कि मुझे तो आश्चर्य कि आप इतना जानते हैं गायों के संबंध में कि आपने यह बता दिया कि उसको हरा चश्मा लगा दो!
उस संन्यासी ने कहा: गायों के संबंध में मैं कुछ भी नहीं जानता, मैं तो आदमियों का जानकार हूं, आदमी चश्मे बदल लेते हैं और समझते हैं सब बदल गया।
धोखा...! पर्दे बदल लेते हैं, ऊपर से तस्वीरें बदल लेते हैं, ऊपर से रंग बदल लेते हैं और भीतर वही के वही बने रहते हैं। और फिर भूसे को घास के धोखे में खा जाते हैं। आदमी खा जाते हैं, वह तो गाय है! तो गाय तो बेचारी धोखे में आ ही जाएगी।
यह जो हमारे सारे जीवन की दुख की कथा है, इसमें हम ऊपर से कितनी ही बदलाहट करें, वह बदलाहट डिसेप्शन और धोखे से ज्यादा सिद्ध नहीं होती। मौलिक परिवर्तन उस अंतस-चित्त में चाहिए, ऊपर नहीं। न चश्मे बदलने का सवाल है, न कपड़े बदलने का, न मकान बदलने का, न चीजें बदलने का। बहुत बुनियाद में गहरा सवाल उस अंतरात्मा को बदलने का है जहां से हम खड़े होते हैं, जो हमारी भूमि है, जहां से हम खड़े होकर जीवन को देखते हैं, जहां से हमारे प्राण सारे जगत की तरफ आंखें उठाते हैं, उस जगह, उस जगह बदलाहट करने का। और वहां हम दुख से भरे हुए हैं। वहां हमारी मौलिक दृष्टि दुख की है। यह दुख कैसे समझ में आ गया आदमी को? किन्होंने समझाया यह दुख? कैसे हमारे प्राणों में जीवन के रस की धार सूख गई और हम दुख से भरे रह गए? और स्मरण रहे, यह कठिन नहीं है, जीवन के हर सुख की निंदा की जा सकती है, जीवन के हर रस का खंडन किया जा सकता है, जीवन के हर आनंद को व्यर्थ बताया जा सकता है। उसके सीके्रट हैं, उसकी तरकीबें हैं, उसके राज हैं।
मैं एक जलप्रपात देखने गया था। एक बहुत खूबसूरत रात में पूर्णिमा का चांद और उस निर्जन वीरान में, उन पहाड़ियों में अपने एक मित्र के साथ मैं गया। वे मित्र मुझे वहां ले गए थे। फिर दूर से ही घनघोर गर्जन सुनाई पड़ने लगा उस प्रपात का, हवाएं ठंडी हो गईं और उसका आमंत्रण, उसकी पुकार आने लगी। फिर हमने कार रास्ते पर छोड़ी और हम दोनों चलने लगे, तो मैंने अपने मित्र को कहा कि आप अपने ड्राइवर को भी बुला लें, वह भी चले। लेकिन मित्र कुछ हंसने लगे, तो मैंने खुद ड्राइवर को बुलाया और मैंने कहा: दोस्त, तुम भी आ जाओ। उसने कहा: मैं वहां क्या खाक करूंगा? वहां क्या रखा हुआ है? कुछ पत्थर पड़े हैं और पानी गिर रहा है! वहां है क्या? वहां है क्या, उस आदमी ने कहा, और मुझे हमेशा हैरानी होती है कि लोग पागलों की भांति वहां क्या देखने आते हैं! कुछ पत्थर पड़े हैं, कुछ पानी गिरता है! देखने जैसी वहां बात क्या है?
मैंने उस ड्राइवर को कहा कि मेरे दोस्त, तुम व्यर्थ ही ड्राइवरी कर रहे हो, तुम तो कोई धर्मगुरु हो सकते हो। तुम छोड़ो यह काम। तुम्हें तो जीवन की निंदा करने का सूत्र उपलब्ध हो गया, तुम्हें तो सीक्रेट पता चल गया, तुम्हें तो राज मिल गया, तुम तो जीवन की किसी भी चीज का खंडन कर सकते हो। तुम व्यर्थ ही इस काम में लगे हो, तुम तो बड़ा काम ले सकते हो हाथ में।
मेरे मित्र रास्ते में पूछने लगे कि आपने यह क्यों कहा उससे? मैंने कहा: बस यही सूत्र है जिससे आदमी के जीवन का सारा दुख, सारा दुख पैदा किया गया है। मनुष्य-जाति के प्राणों में जितना अंधकार भर दिया है--इसी सूत्र ने।
हर चीज को विश्लिष्ट किया जा सकता है, एनालिसिस की जा सकती है और बताया जा सकता है उसमें क्या है। एक सुंदर शरीर है, सुंदर आंख है, एक खूबसूरत फूल है या एक जलप्रपात है, हम विश्लेषण करें और हम कह सकते हैं उसमें क्या है। एक आदमी के शरीर का विश्लेषण करवा लीजिए जाकर किसी शरीर-शास्त्री से, वह कहेगा, उसमें इतना अल्युमिनियम है, इतना लोहा है, इतना तांबा है। कुल जमा मिला कर वैज्ञानिक कहते हैं कि एक आदमी के शरीर में चार रुपये बारह आने से ज्यादा की चीजें नहीं होतीं। तो वह वैज्ञानिक कहेगा, उसमें सौंदर्य-वौंदर्य क्या है, इतना लोहा है, इतना तांबा है, इतना कैल्शियम है, इतना फलां है, ढिकां है, यह चार रुपये बारह आने की चीजें हैं। तुम पागल हुए जा रहे हो, कहते हो कि वह शरीर सुंदर है। कुछ भी नहीं है उसमें। ये इतनी सी चीजें हैं। बाजार में जाकर खरीद लो बजाय आदमी को प्रेम करने के। एक पोटली में ये चीजें रख लो, उसको प्रेम करो। आदमी में और है क्या? आदमी में कुछ भी नहीं है। जलप्रपात में कुछ भी नहीं है, पत्थर और पानी है! आदमी में क्या है? और इस विश्लेषण करने वाले से आप जीत नहीं सकते, क्योंकि वह प्रयोगशाला में सिद्ध कर देगा कि वह ठीक कह रहा है।
एक कवि एक फूल के गीत गा रहा है और नाच रहा है और खुश हो रहा है और कह रहा है कि उसे फूल में भगवान दिखाई पड़ गए। दुर्भाग्य से अगर वहां कोई केमिस्ट चला आए, कोई रसायन-शास्त्री चला आए, कोई वनस्पति-शास्त्री चला आए, वह फौरन कवि की गर्दन पकड़ लेगा और कहेगा, पागल हो गए हो, कुछ भी नहीं है इसमें, कहां है सौंदर्य? चलो मेरी प्रयोगशाला में, मैं वहां लेबोरेटरी में सब जांच-परख करके बताता हूं, सौंदर्य आज तक प्रयोगशाला में पाया नहीं गया। कुछ रासायनिक द्रव्य हैं, कुछ वनस्पति है, कुछ खनिज हैं। फूल में और कुछ भी नहीं है। पागल हुए जा रहे हो, दिमाग खराब है तुम्हारा।
और कवि को हार जाना पड़ेगा। कवि रोज हारता गया उनके सामने जिनके पास जीवन के आनंद की दृष्टि नहीं है, केवल विश्लेषण का सूत्र है। दुनिया में कविता हारती गई और विज्ञान जीतता गया। दुनिया में वे लोग हारते गए जिनमें जीवन को आनंद से देखने की क्षमता थी और वे लोग जीतते गए जिनके जीवन में कोई आनंद की क्षमता नहीं थी। और धीरे-धीरे मनुष्य के प्राण
जड़ पत्थर की भांति होते चले गए।
मार्क ट्वेन का नाम आपने सुना होगा, वह एक हंसोड़ अदुभत आदमी था। उसके एक मित्र ने, जो एक चर्च में उपदेशक था, मार्क ट्वेन को कहा कि कभी मेरा व्याख्यान सुनने भी आइए। मार्क ट्वेन उसका व्याख्यान सुनने गया। उसके व्याख्यानों की बड़ी चर्चा थी, उसके बोलने में कोई जादू था, उसके प्राणों में कोई बात थी कि वह शब्दों में उंड़ेल देता था। उसका बोलना एक गीत था, एक काव्य था, उसके बोलने में एक संगीत था, कोई सच्चाई थी जो प्रतिध्वनित होती थी। मार्क ट्वेन एक घंटे तक वहां बैठा रहा। मंत्रमुग्ध लोग उसे सुन रहे थे। फिर एक घंटे के बाद जब वह मित्र बाहर निकला और मार्क ट्वेन से उसने पूछा कि आपको कैसा लगा मैंने जो बोला? मार्क ट्वेन ने कहा: क्या खाक पूछते हो कैसा लगा? तुम्हें जान कर दुख होगा, तुमने जो भी बोला है उसमें शब्दों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं था। और दूसरी बात, शब्द भी सब बासे और उधार थे। मेरे पास एक किताब है, जो मैंने भाग्य से कल रात ही पढ़ी, उसमें तुम्हारा बोला हुआ एक-एक शब्द लिखा हुआ है।
वह तो हैरान हो गया। उसने कहा: क्या कहते हो? आश्चर्य! मैंने बिना कहीं पढ़े यह बोला है, मैंने बिना तैयार किए यह बोला है। और यह तो असंभव है कि एक-एक शब्द किसी किताब में इसमें का लिखा हो जो मैंने बोला है!
मार्क ट्वेन ने कहा: शर्त बदते हो? सौ-सौ रुपये की शर्त हो गई। और मार्क ट्वेन ने कहा: कल सुबह मैं वह किताब भेज दूंगा, जिसमें तुमने जो बोला है एक-एक शब्द लिखा हुआ है। बेइमानी, लोगों को धोखा दे रहे हो। वह आदमी तो चकित रह गया! यह को-इंसीडेंस भी असंभव है। यह संयोग भी असंभव है। और कभी ऐसा हो भी सकता है कि किसी वाक्य का कोई वाक्य कहीं मिल जाए, लेकिन एक घंटा बोला गया एक-एक शब्द मिल जाए! लेकिन मार्क ट्वेन जीत गया। उस पुरोहित को सौ रुपये मार्क ट्वेन को देने पड़े। उसने दूसरे दिन सुबह एक डिक्शनरी भेज दी, शब्दकोश भेज दिया और कहा कि इसमें एक-एक शब्द लिखा हुआ है तुमने जो बोला है। वह मार्क ट्वेन जीत गया। जो शर्त उसने बदी थी, वह ठीक थी। डिक्शनरी में तो एक-एक शब्द लिखा हुआ है बोला हुआ।
यह सीक्रेट है। चीजों में जो भी रहस्य है, चीजों में जो भी सौंदर्य है, चीजों में जो भी जीवन है, उसे क्षण भर में एवोपरेट किया जा सकता है, उसको वाष्पीभूत किया जा सकता है। फिर कुछ नहीं रह जाएगा पीछे वहां।
विश्लेषण की कीमिया, एनालिसिस की केमिस्ट्री जिसको समझ में आ गई, वह आदमी के जीवन के दुख का मूल कारण पता लगा ले सकता है कि आदमी इतना दुखी क्यों हो गया। किसी चीज में कुछ भी नहीं है--प्रेम में कुछ भी नहीं है, परिवार में कुछ भी नहीं है, जगत में कुछ भी नहीं है, हर चीज में कुछ भी नहीं है, यह कहा जा सकता है। और तीन हजार वर्षों से इस महामंत्र को गुंजाया जा रहा है आदमी की छाती पर कि कहीं भी कुछ नहीं है--सब व्यर्थ है, सब असार है, सब छोड़ो और भागो।
जीवन में कुछ भी नहीं है, मृत्यु के पार सब-कुछ है। इस दृष्टि ने सारे जीवन को मृत्यु जैसा बना दिया है। प्रभु के विरोध में अगर और कोई सबसे बड़ा षडयंत्र चला हो, तो इससे बड़ा नहीं हो सकता। परमात्मा के शत्रुओं ने अगर और कोई बड़ा आयोजन किया हो, तो इससे बड़ा नहीं हो सकता।
एक अमरीकी करोड़पति ने एक बहुत बड़े चित्रकार पिकासो से अपना एक चित्र बनवाया। करोड़पति था, उसने सोचा कि पैसे तय करने की क्या जरूरत है, ज्यादा से ज्यादा दो-चार हजार रुपये मंागेगा। फिर छह महीने बाद उसने खबर पहुंचवाई कि बहुत देर लग गई, अब तक चित्र नहीं बन पाया? पिकासो ने कहा: थोड़ा ठहरिए, भगवान को भी आदमी को बनाने में कम से कम नौ महीने लग जाते हैं। मैं कोई भगवान नहीं हूं। कोशिश कर रहा हूं। साल भर बाद खबर मिली कि चित्र बन गया है, आप आकर ले जाएं। वह करोड़पति चित्र को लेने गया। चित्र सुंदर बना था। उसने पूछा कि इसके क्या दाम होंगे? पिकासो ने कहा: पांच हजार डालर। कोई पच्चीस हजार रुपये। उस करोड़पति ने कहा: क्या मजाक कर रहे हैं? इस छोटे से कैनवस के टुकड़े पर थोड़े से रंग पोत दिए हैं और कहने लगे कि पच्चीस हजार रुपये! क्या है इसमें? थोड़ा सा कैनवस का टुकड़ा है और थोड़े से रंग हैं। दस-पांच रुपये की चीज लगी है और आप कहते हैं कि पच्चीस हजार रुपये! क्या मजाक करते हैं? उसे पता नहीं था कि पिकासो क्या कहेगा?
पिकासो ने वह चित्र अपने सहयोगी को कहा कि भीतर ले जाओ, इस आदमी की क्षमता चित्र को देखने की ही नहीं है। और भीतर से इससे भी बड़ा कैनवस का टुकड़ा ले आओ और रंगों की भरी पूरी ट्यूब ले आओ और इसको दे दो, और इसको जो पैसा देना हो दे जाए।
एक कैनवस का टुकड़ा और रंगों की भरी हुई ट्यूब लाकर उसके सहयोगी ने सामने रख दी। उस करोड़पति को पिकासो ने कहा: अब जो भी आपकी मर्जी हो, दाम दो-चार रुपये, दस रुपये; और अगर कोई भी मर्जी न हो, तो मुफ्त में ले जाइए, हम इतने गरीब नहीं हैं।
लेकिन वह करोड़पति कहने लगा: मैं इस ट्यूब को और रंगों को और कैनवस को ले जाकर क्या करूंगा? मुझे चित्र चाहिए।
तो पिकासो ने कहा: फिर स्मरण रखिए, चित्र कैनवस और रंग का जोड़ ही नहीं है, चित्र कैनवस और रंग के जोड़ से कुछ ज्यादा है। और वह जो कुछ ज्यादा है, उसकी कीमत है, उसका मूल्य है। चित्र रंग और कैनवस के जोड़ से कुछ ज्यादा है, वह जो समथिंग है, वह जो कुछ ज्यादा है, वह चित्र है।
लेकिन वैज्ञानिक को पूछिए, तो वह कहेगा, चित्र रंग और कैनवस का जोड़ है। इससे ज्यादा और क्या है? प्रयोगशाला में इससे ज्यादा कुछ पाया भी नहीं जा सकता। इसीलिए प्रयोगशाला शरीर के ऊपर नहीं उठ पाती है। इसलिए विश्लेषण करने वाला शरीर के पार नहीं जा पाता।
और तथाकथित धार्मिक भी शरीरवादी रहे हैं और वैज्ञानिक भी शरीरवादी हैं। अन्यथा जीवन में इतना आनंद है--अकूत। अन्यथा जीवन में इतना सौंदर्य है--अपरंपार। अन्यथा जीवन में इतना अर्थ है, इतना मीनिंग है--अव्याख्य। लेकिन वह उनको नहीं दिखाई पड़ सकता जो विश्लेषण करके चीजों को तोड़ लेंगे। फिर वहां कुछ भी नहीं रह जाता है। आदमी को तोड़ लें, तो हड्डी-मांस-मज्जा रह जाती है। चित्र को तोड़ लें, तो रंग और कैनवस रह जाता है। फूल को तोड़ लें, तो रासायनिक और खनिज द्रव्य रह जाते हैं। और कविता को तोड़ लें, तो केवल शब्द और व्याकरण रह जाती है। और तब कोई भी कह सकता है कि क्या रखा है इसमें? कोई भी कह सकता है कि क्या है इसमें? और इस विश्लेषण की प्रक्रिया से मनुष्य के जीवन के सारे रस को छीन लिया गया। मनुष्य दुखी हो गया, मनुष्य बिलकुल दुखी हो गया। और जब एक बार यह दुख की दृष्टि पकड़ जाए, तो फिर क्या दिखाई पड़ना शुरू होता है मालूम है आपको?
ऐसे दुख भरे आदमी को एक बगिया में खड़ा कर दिया जाए और उससे पूछा जाए: यह जो गुलाब का फूल लगा है, यह दिखाई पड़ता है? वह कहेगा, खाक गुलाब का फूल लगा हुआ है, हजारों कांटे लगे हैं, तब कहीं मुश्किल से जरा सा फूल खिला हुआ है। यह कोई दुनिया है? कांटे ही कांटे हैं यहां। फूल सिर्फ धोखा है, कांटे असलियत हैं। फूल सिर्फ प्रलोभन है। फूल के कारण आदमी कांटों पर चलने को मजबूर हो जाता है। फूल की आशा में आदमी कांटों को झेल लेता है। जिंदगी कांटें हैं। फूल धोखा है, फूल प्रलोभन है। फूल ऐसे ही है जैसे मछली को फांसने के लिए आटे की गोली लगा देते हैं कांटे पर, ऐसा आदमी को फांसने के लिए कांटों के पास एक फूल लगा दिया है। फूल धोखा है, फूल प्रलोभन है, फूल सपना है, फूल असत्य है। असली तो कांटे हैं, कांटों से सावधान! वह जो जिसकी दुख की दृष्टि है, ऐसा कहेगा। लेकिन जिसके पास आनंद की दृष्टि है, वह नाचने लगेगा फूल को देख कर और वह कहेगा, आश्चर्य कि इतने कांटों में भी फूल खिल सकता है! अदभुत है यह जगत! विस्मयपूर्ण है यह जगत! इतने कांटों में भी एक फूल खिल सकता है! कांटों के बीच भी फूल का जन्म हो सकता है! मिरेकल, चमत्कार है यह! और जो आदमी इस मिरेकल को, इस चमत्कार को देखने में समर्थ हो जाएगा, बहुत दूर नहीं है उसकी मंजिल जिस दिन उसे फूलों के पीछे छिपे कांटे भी फूल दिखाई पड़ने न लग जाएं। और जो आदमी कांटों को देखता है और फूल को नहीं, बहुत जल्दी उसे फूल भी कांटा मालूम होने लगेगा।
एक दुख की दृष्टि वाले आदमी से पूछें कि जीवन कैसा है? तो वह कहेगा, क्या रखा है इस जीवन में? दो अंधेरी रातें आती हैं तब कहीं एक छोटा सा दिन आता है। दिन जल्दी गुजर जाता है, रात बहुत मुश्किल से गुजरती है। लेकिन आनंद की दृष्टि से पूछें, वह कहेगी, अदभुत है यह जगत, अदभुत है यह जगत, दो उजाले से भरे हुए दिन के बीच में थोड़ी सी अंधेरी रात आती है।
देखने की सारी बात है, हम कैसे देखते हैं। जिंदगी में रातें भी हैं, दिन भी हैं; फूल भी हैं, कांटे भी हैं। हम कैसे देखते हैं। और स्मरण रखें, जो फूलों को देखता है, धीरे-धीरे उसके लिए कांटे फूल हो जाते हैं। जो दिन को देखता है, दिवस को देखता है, सूर्योदय को देखता है, धीरे-धीरे उसे अंधेरी रातें भी प्रकाशोज्ज्वल हो जाती हैं। जो सूर्य को देखता है, धीरे-धीरे उसे अमावस भी सूरज की रात हो जाती है। उसके अंधेरे मिट जाते हैं, उसे वह अंधेरा भी रोशनी ले लेता है। यह देखने की बात है कि हम कैसे देखते हैं। जरा सा फर्क और पृथ्वी और स्वर्ग अलग हो जाते हैं। जरा सा फर्क, पृथ्वी नरक बन जाती है। जरा सा फर्क, पृथ्वी स्वर्ग बन जाती है। जरा सा फर्क, शायद देखने के जरा से कोण का अंतर और सब-कुछ और हो जाता है।
दो यहूदी संन्यासी अपने गुरु के आश्रम में भर्ती हुए थे। दोनों युवा। वे वहां प्रभु की शिक्षा लेने गए थे। वे वहां उस द्वार के संबंध में समझने गए थे जो परमात्मा तक ले जा सके। लेकिन उन दोनों को धूम्रपान की आदत थी, दोनों को सिगरेट पीने की आदत थी। गुरु के आश्रम में कैसे सिगरेट पी सकेंगे, वे बहुत चिंतित थे। फिर आश्रम में जाकर उन्हें पता चला कि एक घंटे के लिए आश्रम के बाहर बगीचे में घूमने की आज्ञा मिलती है। लेकिन वह आज्ञा भी घूमने के लिए नहीं मिलती, वह समय भी ईश्वर-चिंतन के लिए मिलता है। तो उन्होंने सोचा कि बगीचे में कौन देखेगा, उसी ईश्वर-चिंतन के क्षण में हम सिगरेट भी पी लिया करेंगे। लेकिन फिर उन्हें खयाल आया कि असत्य का व्यवहार आते से ही शुरू कर देना ठीक नहीं है, हम जाकर गुरु से पूछ लें, आज्ञा ले लें, तो अच्छा होगा।
उनमें से एक युवा गुरु के पास गया। और जब वह वहां से आज्ञा लेकर लौटा, तो बहुत क्रोध से लौटा। गुरु ने उसे इनकार कर दिया था। एकदम बोले थे गुरु कि नहीं, सिगरेट नहीं पी सकते हो। वह जब लौट कर आया, तो उसने देखा कि बगीचे में उसका साथी तो गुरु से पूछ कर पहले ही आ गया है और बैठा हुआ सिगरेट पी रहा है। वह तो बहुत घबड़ा गया। और उसने कहा: यह क्या धोखा है? क्या तुम गुरु की आज्ञा नहीं मान रहे हो? उस युवक ने कहा: नहीं, उन्होंने मुझे आज्ञा दी। उन्होंने कहा: तुम पी सकते हो।
तब तो उस युवक का मन और क्रोध और प्रतिशोध से भर गया। और उसने कहा: यह क्या अन्याय है? यह क्या भेदभाव है? मुझे उन्होंने एकदम इनकार किया कि नहीं, नहीं पी सकते हो और तुम्हें कैसे आज्ञा दी? उस सिगरेट पीते हुए युवक ने पूछा: तुमने उनसे क्या पूछा था?
उस युवक ने कहा: पूछने की क्या बात थी, मैंने पूछा था कि क्या मैं ईश्वर-चिंतन करते समय सिगरेट पी सकता हूं? उन्होंने कहा: नहीं, बिलकुल नहीं। तुमने क्या पूछा था?
वह युवक हंसने लगा। उसने कहा: मैंने पूछा था: क्या मैं सिगरेट पीते समय ईश्वर-चिंतन कर सकता हूं? उन्होंने कहा: हां, बिलकुल कर सकते हो।
एक इंच का फर्क और स्वर्ग और नरक अलग हो जाते हैं। एक इंच का फासला और हां और न उपलब्ध हो सकते हैं। एक इंच का फासला और वही जीवन स्वीकृति बन सकता है और वही जीवन अस्वीकृति। एक इंच का फासला, वही जीवन आनंद की धारा बन सकता है और वही जीवन दुख का गड्ढा। दृष्टि का थोड़ा सा फर्क।
विश्लेषण की दृष्टि मनुष्य को दुख देती है। संश्लेषण की दृष्टि, सिंथेटिक व़िजन, एटामिक दृष्टि, अणु-अणु में तोड़ लेने की बात मनुष्य के जीवन का सारा सार, सारी हरियाली छीन लेती है; सारा रस, सारा काव्य विलीन हो जाता है। एटामिक एटिट्यूड, आणविक दृष्टि, तोड़ने की दृष्टि, खंडन करने की दृष्टि, विश्लेषण करने की दृष्टि, सब रस छीन लेती है, सब गीत छीन लेती है।
टोटल व्यू, समग्र दृष्टि, इकट्ठा कर लेने की दृष्टि, सिंथेसिस की दृष्टि, चीजों को जोड़ कर देखने की दृष्टि, मनुष्य के जीवन में वह जो रंग और कैनवस से ज्यादा है, उसका अवतरण बनती है। वह जो शब्दों के जोड़ से ज्यादा है, उस गीत का जन्म बनती है। वह जो ध्वनियों के मेल से ज्यादा है, उस संगीत की खबर बनती है। और परमात्मा, परमात्मा का अनुभव केवल उन्हें हो सकता है जिनके पास जोड़ने की दृष्टि है। जो सारे जीवन को जोड़ कर देखने में समर्थ हो जाते हैं, तब उस जोड़ में ही, समग्र जीवन के उस इकट्ठे होने में ही, उसके दर्शन हो जाते हैं जो जोड़ से ऊपर और ज्यादा है।
विज्ञान परमात्मा तक कभी नहीं पहुंच सकेगा। तर्कशास्त्री भी परमात्मा तक कभी नही पहुंच सकेगा। मैजिशियन, साइंटिस्ट कभी भी परमात्मा तक नही पहुंच सकेंगे। उनकी मौलिक दृष्टि ही तोड़ने की, आणविक खंडन करने की, विश्लेषण करने की है। परमात्मा तक तो केवल वे ही पहुंचते हैं जो जीवन के परिपूर्ण काव्य को उसकी समग्रता में, उसकी परिपूर्णता में, उसके इकट्ठे होने में देखने में समर्थ हो जाते हैं।
आनंद की दृष्टि का अर्थ है: जीवन को जोड़ कर देखने की क्षमता। और जीवन में उस बिंदु को खोजने की क्षमता जहां से आनंद की स्फुरणा हो सकती है। अगर गुलाब के पौधे के पास खड़े हों, तो गुलाब के फूल को देखने की क्षमता, इतने गुलाब के फूल को देखने की क्षमता कि गुलाब के फूल की पंखुड़ियां इतनी बड़ी हो जाएं, इतना प्राणों को घेर लें कि कांटों का कोई पता न रह जाए। धीरे-धीरे गुलाब ही गुलाब रह जाए और कांटे क्षीण होते जाएं और विलीन होते चले जाएं। कांटे न हो जाएं और गुलाब हां हो जाए।
एक इंच का फासला और हां और न अलग हो सकते हैं। जीवन में प्रतिपल, प्रतिक्षण, उठते-बैठते, सोते-जागते, खाते-पीते--दुकान पर, घर में, बाजार में, मंदिर में, भीड़ में, एकांत में उसकी तलाश और खोज जो सबका जोड़ है, उसकी झलक जो प्रकाश है, उसका स्मरण जो आनंद है। और जहां भी भीतर दुख मिले वहां इस बात की तलाश कि कहीं यह दुख की दृष्टि मेरे विश्लेषण से तो पैदा नहीं हो रही है? और विश्लेषण की दृष्टि को विदा। एक व्यक्ति अगर विश्लेषण की वृत्ति को विदा कर दे जीवन को देखने में, तो परमात्मा इतना निकट है जितना और कुछ भी निकट नहीं है। इस दीवाल के अतिरिक्त मनुष्य के बीच और समग्र चेतना के बीच और कोई दीवाल नहीं है।
इसलिए दूसरा सूत्र आपसे कहना चाहता हूं: प्रतिपल पत्थर तोड़ते हुए परमात्मा के मंदिर बनाने का सूत्र: आप वह मजदूर भी हो सकते हैं जो पत्थर तोड़ रहा है, वह मजदूर भी जो रोटी-रोजी कमा रहा है, वह मजदूर भी जो गीत गा रहा है और जान रहा है कि परमात्मा का मंदिर बना रहा है।
जीवन एक पूजा हो सकती है अगर वह आनंद के भाव से भर जाए। जीवन एक प्रार्थना हो जाता है। जीवन का प्रतिपल एक पवित्रता को उपलब्ध हो जाता है अगर वह आनंद की वेदी पर समर्पित हो जाए। खोजें आनंद को, देखें आनंद को। और ऐसा कोई भी आदमी नहीं हो सकता और ऐसी कोई भी स्थिति नहीं हो सकती, ऐसा कोई संयोग नहीं हो सकता, ऐसी कोई परिस्थिति नहीं हो सकती, ऐसा कोई भाग्य नहीं हो सकता, ऐसी कोई नियति नहीं हो सकती जहां कि आनंद को न खोजा जा सके, जहां कि आनंद की खोज असंभव हो। ऐसी कोई सिचुएशन नहीं है, ऐसी कोई संभावना ही नहीं है जहां कि आनंद को न देखा जा सके। आनंद को देखा जा सकता है। और एक बार आनंद दिखाई पड़ने लगे, तो फिर आनंद बड़ा होता चला जाता है।
पहले दर्शन पर जो गंगोत्री में उतरी हुई आनंद की छोटी सी धारा होती है, पहले दर्शन पर, चारों तरफ अंधकार होता है, आनंद की थोड़ी सी किरण होती है। लेकिन एक किरण भी हजारों मील घने अंधकार से ज्यादा शक्तिशाली है। गंगा की धीमी सी धारा भी हिमालय के सख्त और मजबूत पत्थरों से ज्यादा मजबूत है। फिर पत्थरों को तोड़ कर वह धारा बहने लगती है। अंधेरे को फोड़ कर वह किरण आगे बढ़ने लगती है। और एक बार उसका सूत्र हाथ में आ जाए: आनंद की छोटी सी किरण का, छोटी सी धारा का, तो बहुत शीघ्र वह बड़ी होती जाती है। वह मैदानों की गंगा हो जाती है। और बहते-बहते वह आनंद के सागर को उपलब्ध हो जाती है।
लेकिन हमारे पास वह पहली किरण नहीं, हमारे पास वह पहला कदम नहीं, हमारे पास वह पहली गंगोत्री का पहला अवतरण नहीं। और इसलिए हम जीवन भर भटकते हैं और सागर तक नहीं पहुंच पाते हैं।
इसलिए दूसरा सूत्र: जीवन में आनंद को खोजने का प्रयोग करें। मत जाएं मंदिर; मंदिर जाने से कभी कोई धार्मिक नहीं हुआ। मत जाएं मस्जिद; मस्जिद जाने वालों ने क्या-क्या नहीं किया है; जिसको हम अधर्म सहज ही कह सकते हैं, धर्म नहीं। गिरजाघरों में, शिवालयों में इकट्ठे होने वाले लोगों ने पृथ्वी को कौन सी पवित्रता दे दी? मत जाएं वहां। लेकिन जहां भी जाएं वहां आनंद को खोजते हुए जाएं, तो आप पाएंगे: जहां आपको आनंद मिल जाएगा वहीं मंदिर है, वहीं मस्जिद है, वहीं शिवालय है। जहां जाएं वहां आनंद की तलाश में जाएं। जहां जाएं वहां आंखें खोजती रहें, हाथ टटोलते रहें, प्राण धक्-धक् सुनते रहें कि आनंद की कोई खबर, आनंद के कोई पद-चिह्न तो सुनाई नहीं पड़ रहे हैं? और अगर आप सजग हो जाएंगे, सजग हो जाएंगे, तो वे प्रतिपल सुनाई पड़ते हैं। और अगर आप बेहोश सोए रहे, तो वे कभी भी सुनाई नहीं पड़ सकते हैं।
एक छोटी सी घटना और आज की सुबह की चर्चा मैं पूरी करूंगा।
एक आदमी ने जीवन भर मंदिरों में प्रार्थना की, जीवन भर धर्म की कथाएं सुनीं, दान किया, पुण्य किया, यज्ञ-हवन किए, करवाए। सारी पृथ्वी उसे पूजती थी कि वह बहुत धार्मिक व्यक्ति है, बहुत पूज्य व्यक्ति है। लेकिन किसी को यह पता भी नहीं था कि यह सब उपक्रम पूजा पाने के लिए ही किया गया है। फिर उस आदमी की मृत्यु हुई, तो वह सीधा ही भागा हुआ स्वर्ग के द्वार पर पहुंचा। क्योंकि वह तो अधिकारी था--उसने इतना पुण्य किया था और फलां-फलां जगतगुरुओं से वह अपने लिए सर्टिफिकेट लिखवा लाया था कि मुझे प्रवेश-द्वार पर कोई रुकावट न होनी चाहिए। क्योंकि मैंने इतने यज्ञ किए हैं, इतने हवन किए हैं। मैंने इतना घी जलवा दिया है, इतने गेहूं जलवा दिए हैं। मैंने इतने मंत्र पढ़वाए, इतने पंडितों को भोजन करवाया। वह सब अपने खातेबही लेकर स्वर्ग के द्वार पर उपस्थित हो गया। लेकिन द्वार बंद था। उसने बहुत द्वार पीटा, तब भीतर से आवाज आई कि कौन यहां उपद्रव मचा रहा है? यह द्वार सौ वर्ष में केवल एक बार खुलता है। प्रतीक्षा करो। क्योंकि सौ वर्ष में भी मुश्किल से इसके खुलने का मौका आता है। सौ वर्ष में मुश्किल से कोई एक आदमी इस योग्य हो पाता है कि उसके लिए द्वार खुले। तो सौ वर्ष में एक बार खुलता है। तुम बाहर बैठ कर प्रतीक्षा करो। और हमेशा सजग रहना, आंखें खुली रखना, होश से बैठे रहना, क्योंकि एक क्षण में खुलता है और बंद हो जाता है; चूक गए तो फिर सौ साल के लिए चूक गए।
वह आदमी तो बहुत हैरान हुआ। लेकिन उसने सोचा, मैं इतना पुण्यात्मा, इतने यज्ञ-हवन करवाने वाला, इतनी रामायण पढ़वाने वाला, इतने अखंड पाठ करवाने वाला। हालांकि उसे पता नहीं कि उसके अखंड पाठ के कारण कितने विद्यार्थी परीक्षाओं में फेल हो गए हैं। उसको पता नहीं कि उसके अखंड पाठ के कारण कितने मरीज मर गए हैं। उसे यह पता नहीं है। उसने अखंड पाठ करवाए हैं, रात भर लाउड स्पीकर लगवा कर राम-राम जपवाई है, तो क्या इतना नहीं कर सकूंगा मैं कि होश से बैठा रहूं? लेकिन उसे बड़ी तकलीफ होने लगी। दो-चार-दस क्षण ही गुजरे, और वहां कोई सोशल वर्क भी नहीं था, कोई सामाजिक सेवा का काम भी नहीं था कि भूदान करवा दे, कि जाकर स्कूल खुलवा दे, कि अनाथालय चलवा दे, कि यज्ञ करवा दे, कि रामायण पढ़े कि क्या करे, वहां कुछ आकुपेशन नहीं था। बड़ी मुश्किल, बेचैन हो गया। वहां कोई काम नहीं सूझता। वहां कोई सामाजिक सेवा का मौका नहीं, वहां कोई आदमी नहीं जिसकी सेवा करे। कुछ मौका नहीं। सिवाय नींद के कोई रास्ता नहीं। झपकी आने लगी। झपकी उसको आई ही थी कि जोर की आवाज हुई, जैसे कोई बादल गरजे हों। आंख उसने खोली, द्वार खुल चुका था और बंद हो रहा था। वह तो बड़ा घबड़ाया। उसने फिर द्वार पीटे कि यह क्या करते हो? तुम तो कहते थे कि सौ साल में खुलेगा, यह तो अभी खुल गया। उस द्वारपाल ने कहा: मैंने यह नहीं कहा था, मैंने कहा था, सौ साल में एक बार खुलता है। कभी भी खुल सकता है, तुम होश से बैठे रहना।
वह आदमी तो रोने-चिल्लाने लगा। उसने कहा: होश रखना तो कठिन है। वह द्वारपाल भीतर से हंसने लगा। उसने कहा: पागल, जिसे होश रहता है उसे तो जीवन में मरने के पहले ही स्वर्ग का द्वार खुल जाता है। वह द्वार तो प्रतिपल खुलता है जिसके पास होश है, जो सावधान है, जो अलर्ट है। उसे यहां तक आने की जरूरत नहीं पड़ती। उसके लिए तो एक फूल में भी स्वर्ग का द्वार खुल जाता है। उसे तो एक चांद की रोशनी में भी स्वर्ग का द्वार खुल जाता है। उसे तो किन्हीं दो प्यारी आंखों में भी स्वर्ग का द्वार खुल जाता है। उसे तो राह के किनारे एक घास का फूल खिलता है उसमें भी स्वर्ग का द्वार खुल जाता है। एक पक्षी गीत गाता है उसमें भी, हवाओं की एक लहर आती है उसमें भी, और पानी पर एक लहर दौड़ती है उसमें भी, उसके लिए तो सब तरफ स्वर्ग के द्वार प्रतिपल खुलते रहते हैं। लेकिन सावधान और सजग और जागरूक होने की जरूरत है।
मुझे पता नहीं, कहते हैं वह आदमी अभी भी वहीं बैठा है। वह द्वार कई दफा खुल चुका और बंद हो चुका। लेकिन जब खुलता है तब उसकी झपकी लगी होती है। झपकी उसकी खुलने और बंद होने की आवाज से खुलती है। फिर वह रोता है, फिर चिल्लाता है, लेकिन फिर आंख बंद करके बैठ जाता है।
परमात्मा न करे वह आदमी आप ही हों। यह मत सोचना आप कि मैं किसी और के बाबत कहानियां कह रहा हूं। यह कहानी आपके बाबत भी हो सकती है। इसलिए सजगता से जीवन में आनंद की खोज, अलर्ट, होशपूर्वक, तो वह द्वार प्रतिपल खुलता है, रोज खुलता है। कौन कहता है सौ वर्ष में खुलता है? हर क्षण खुलता है। लेकिन जिनकी आंखें बंद हैं उनके लिए सौ वर्ष में भी नहीं खुलता है। आनंद के द्वार की खोज जीवन में प्रतिपल हो, तो यह साधक के लिए दूसरा सूत्र है।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में आपके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं।
मेरे प्रणाम स्वीकार करें।