Description
#1: जग-जग कहते जुग भये
#2: डूबो
#3: प्राण के ओ दीप मेरे
#4: सरस राग रस गंध भरो
#5: मैं सिर्फ एक अवसर हूं
#6: आनंद स्वभाव है
#7: संन्यास : परमात्मा का संदेश
#8: मेरी आंखों में झांको
#9: वेणु लो, गूंजे धरा
#10: सावन आया अब के सजन
नीलम, प्रकाश की आकांक्षा जग गई तो जीवन खाली नहीं बीत सकता है। प्रकाश की आकांक्षा बीज है। और बीज है तो अंकुरण भी होगा। अपनी आकांक्षा को तीव्रता दो, त्वरा दो। अपनी आकांक्षा को अभीप्सा बनाओ। आकांक्षा-अभीप्सा का भेद ठीक से समझ लो। आकांक्षा तो और बहुत आकांक्षाओं में एक आकांक्षा होती है। अभीप्सा है सारी आकांक्षाओं का एक ही आकांक्षा बन जाना। जैसे किरणें अलग-अलग छितर कर पड़ें तो आग पैदा नहीं होती; ताप तो होगा, आग नहीं होगी। लेकिन किरणों को इकट्ठा कर लिया जाए और एक ही जगह संगृहीत किरणें पड़ें तो ताप ही नहीं आग भी पैदा होगी। अभीप्सा आकांक्षाओं की बिखरी किरणों का इकट्ठा हो जाना है। मेरे बिना भी तुम्हारा पहुंचना हो सकता है। बुद्ध-क्षेत्र के बिना भी बुद्धत्व घट सकता है। बुद्धत्व का घटना बुद्ध-क्षेत्र पर निर्भर नहीं है। बुद्ध-क्षेत्र बुद्धत्व के लिए कारण नहीं है, निमित्त मात्र है। सहारा मिलेगा, सहयोग मिलेगा। गुरु-परताप साध की संगति! लेकिन जो घटना है वस्तुतः वह तुम्हारे भीतर घटना है, बाहर नहीं। मेरा आश्रम तुम्हारे भीतर निर्मित होना है, तुम्हारे बाहर नहीं। मेरा मंदिर तुम्हें बनना है। बाहर के मंदिर बने तो ठीक, न बने तो ठीक; उन पर निर्भर न रहना। बाहर के मंदिरों का बहुत भरोसा न करना। उनके बनने में बाधाएं डाली जा सकती हैं, हजार अड़चनें खड़ी की जा सकती हैं–की जा रही हैं, की जाएंगी। वह सब स्वाभाविक है। वह सदा से होता रहा है–नियमानुसार है, परंपरागत है, नया उसमें कुछ भी नहीं है। चिंता का कोई कारण नहीं है। नव-आश्रम निर्मित होगा, लेकिन जितनी बाधाएं डाली जा सकती हैं, डाली ही जाएंगी। डाली ही जानी चाहिए भी। क्योंकि सत्य ऐसे ही आ जाए और असत्य कोई बाधा न डाले तो सत्य दो कौड़ी का होगा। सुबह ऐसे ही हो जाए, अंधेरी रात के बिना हो जाए, तो क्या खाक सुबह होगी! गुलाब खिलेगा तो कांटों में खिलेगा। बुद्ध-क्षेत्र का यह गुलाब भी बहुत कांटों में खिलेगा। तुम्हारी प्रीति समझ में आती है, तुम्हारी प्रार्थना समझ में आती है। मगर बुद्ध-क्षेत्र के लिए रुकना नहीं है, एक पल गंवाना नहीं है। होगा तो ठीक, नहीं होगा तो ठीक। मगर तुम्हें इस जीवन में जाग कर ही जाना है। जग-जग कहते जुग-जुग भए! कब से जगाने वाले जगा रहे हैं! कितने जुग बीत गए! जागो, जागो! बाहर के निमित्तों पर मत छोड़ो। यह भी एक निमित्त बन जाएगा कि क्या करें, आश्रम में प्रवेश नहीं मिल पा रहा है; मिल जाता प्रवेश तो आत्मा को उपलब्ध हो जाते। —ओशो