Description
जैसे कि आग को तुम उकसाते हो—राख जम जाती है, तुम उकसा देते हो; राख झड़ जाती है, अंगारे झलकने लगते हैं। ऐसी तुम्हें कोई प्रक्रिया चाहिए, जिससे राख तुम्हारी झड़े और अंगारा चमके; क्योंकि उसी चमक में तुम पहचानोगे कि तुम चैतन्य हो। और जितने तुम चैतन्य हो, उतने ही तुम आत्मवान हो।
तुम्हारी महत यात्रा में, जीवन की खोज में, सत्य के मंदिर तक पहुंचने में—ध्यान बीज है। ध्यान क्या है?—जिसका इतना मूल्य है; जो कि खिल जाएगा तो तुम परमात्मा हो जाओगे; जो सड़ जाएगा तो तुम नारकीय जीवन व्यतीत करोगे। ध्यान क्या है? ध्यान है निर्विचार चैतन्य की अवस्था, जहां होश तो पूरा हो और विचार बिलकुल न हों।
अनुक्रम
#1: जीवन-सत्य की खोज की दिशा
#2: जीवन-जागृति के साधना-सूत्र
#3: योग के सूत्र : विस्मय, वितर्क, विवेक
#4: चित्त के अतिक्रमण के उपाय
#5: संसार के सम्मोहन और सत्य का आलोक
#6: दृष्टि ही सृष्टि है
#7: ध्यान अर्थात चिदात्म सरोवर में स्नान
#8: जिन जागा तिन मानिक पाइया
#9: साधो, सहज समाधि भली!
#10: साक्षित्व ही शिवत्व है
उद्धरण: शिव-सूत्र, पहला प्रवचन
“जीवन-सत्य की खोज दो मार्गों से हो सकती है। एक पुरुष का मार्ग है–आक्रमण का, हिंसा का, छीन-झपट का। एक स्त्री का मार्ग है–समर्पण का, प्रतिक्रमण का। विज्ञान पुरुष का मार्ग है; विज्ञान आक्रमण है। धर्म स्त्री का मार्ग है; धर्म नमन है।
जीवन का रहस्य तुम्हें मिल सकेगा, अगर नमन के द्वार से तुम गए। अगर तुम झुके, तुमने प्रार्थना की, तो तुम प्रेम के केंद्र तक पहुंच पाओगे। परमात्मा को रिझाना करीब-करीब एक स्त्री को रिझाने जैसा है। उसके पास अति प्रेमपूर्ण, अति विनम्र, प्रार्थना से भरा हृदय चाहिए। और जल्दी वहां नहीं है। तुमने जल्दी की, कि तुम चूके। वहां बड़ा धैर्य चाहिए। तुम्हारी जल्दी, और उसका हृदय बंद हो जाएगा। क्योंकि जल्दी भी आक्रमण की खबर है। इसलिए जो परमात्मा को खोजने चलते हैं, उनके जीवन का ढंग दो शब्दों में समाया हुआ है: प्रार्थना और प्रतीक्षा। प्रार्थना से शास्त्र शुरू होते हैं और प्रतीक्षा पर पूरे होते हैं।
पूरब के सभी शास्त्र परमात्मा को नमस्कार से शुरू होते हैं। और वह नमस्कार केवल औपचारिक नहीं है। वह केवल एक परंपरा और रीति नहीं है। वह नमस्कार इंगित है कि मार्ग समर्पण का है, और जो विनम्र हैं, केवल वे ही उपलब्ध हो सकेंगे। और जो आक्रामक हैं, अहंकार से भरे हैं; जो सत्य को भी छीन-झपट करके पाना चाहते हैं; जो सत्य के भी मालिक होने की आकांक्षा रखते हैं; जो परमात्मा के द्वार पर एक सैनिक की भांति पहुंचे हैं–विजय करने, वे हार जाएंगे। वे क्षुद्र को भला छीन-झपट लें, विराट उनका न हो सकेगा। वे व्यर्थ को भला लूट कर घर ले आएं; लेकिन जो सार्थक है, वह उनकी लूट का हिस्सा न बनेगा।
पश्चिम इस बात को समझ भी नहीं पाता। उनकी पकड़ के बाहर है कि लोग गीता को हजारों साल से क्यों पढ़ रहे हैं? उनको खयाल में नहीं है कि पाठ की प्रक्रिया हृदय में उतारने की प्रक्रिया है। उसका संबंध तो अपने हृदय को और उसके बीच की जो दूरी है, उसको मिटाने से है। धीरे-धीरे हम इतने लीन हो जाएं उसमें कि पाठी और पाठ एक हो जाए; पता ही न चले कि कौन गीता है और कौन गीता का पाठी।
ऐसे भाव से जो चले–यह स्त्री का भाव है। यह समर्पण की धारा है। इसे खयाल में ले लेना।
नमन से हम चलें तो शिव के सूत्र समझ में आ सकेंगे।”—ओशो