Description
मैं जिसको जीवन कहता हूं, वह तुम्हारे मन का जीवन नहीं है। धन-पद पाने का; प्रतिष्ठा, यश, सम्मान, सत्कार पाने का; वह जो तुम्हारा मन का जाल है, वह तो पलटू ठीक कहते हैं उसके संबंध में: ‘सपना यह संसार।’ वह संसार तो सपना है। क्योंकि तुम्हारे मन सपने के अतिरिक्त और क्या कर सकते हैं! लेकिन तुम्हारे सपने जब शून्य हो जाएंगे और मन में जब कोई विचार न होगा और जब मन में कोई पाने की आकांक्षा न होगी, तब एक नया संसार तुम्हारी आंखों के सामने प्रकट होगा–अपनी परम उज्ज्वलता में, अपने परम सौंदर्य में–वह परमात्मा का ही प्रकट रूप है। उसको पिलाने के लिए ही मैंने तुम्हें बुलाया है। उसे तुम पीओ! उसे तुम जीओ! मैं तुम्हें त्याग नहीं सिखाता, परम भोग सिखाता हूं। ओशो
पुस्तक के कुछ मुख्य विषय-बिंदु:
‘संसार’ शब्द का क्या अर्थ है?
साक्षी में जीना क्या है?
प्रेम का जन्म और मन की मृत्यु |
धर्म और आदमी के बीच कौन सी दीवारें है?
क्या है अंतर्यात्रा का विज्ञान?
अनुक्रम
#1: उसका सहारा किनारा है
#2: संसार एक उपाय है
#3: झुकना: समर्पण + अंजुली बनाना: भजन = परमतृप्ति
#4: मनुष्य-जाति के बचने की संभावना किनसे?
#5: मिटे कि पाया
#6: सुबह तक पहुंचना सुनिश्चित है
#7: जीवित सदगुरु की तरंग में डूबो
#8: बहार आई तो क्या करेंगे!
#9: हम चल पड़े हैं राह को दुशवार देख कर
#10: साक्षी में जीना बुद्धत्व में जीना है
#11: झुकने से यात्रा का प्रारंभ है
#12: होश और बेहोशी के पार है समाधि
#13: राग का अंतिम चरण है वैराग्य
#14: धर्म की भाषा है: वर्तमान
#15: करामाति यह खेल अंत पछितायगा
#16: गहन से भी गहन प्रेम है सत्संग
#17: ज्ञानध्यान के पार ठिकाना मिलैगा
#18: मुझे दोष मत देना!
#19: मुंह के कहे न मिलै, दिलै बिच हेरना
#20: ज्ञान से शून्य होने में ज्ञान से पूर्ण होना है
उद्धरण : सपना यह संसार – पहला प्रवचन – उसका सहारा किनारा है
परमात्मा की ओर जाने वाले दो मार्ग: एक ज्ञान, एक भक्ति। ज्ञान से जो चले, उन्हें ध्यान साधना पड़ा। ध्यान की फलश्रुति ज्ञान है। ध्यान का फूल खिलता है तो ज्ञान की गंध उठती है। ध्यान का दीया जलता है तो ज्ञान की आभा फैलती है। लेकिन ध्यान सभी से सधेगा नहीं। पचास प्रतिशत लोग ध्यान को साध सकते हैं। पचास प्रतिशत प्रेम से पाएंगे, भक्ति से पाएंगे। भक्ति का अर्थ है: डूबना, पूरी तरह डूबना; मदमस्त होना, अलमस्त होना। ध्यान है: जागरण, स्मरण; भक्ति है: विस्मरण, तन्मयता, तल्लीनता। ध्यान है होश; भक्ति है उसमें बेहोश हो जाना। ध्यान पाता है स्वयं को पहले और स्वयं से अनुभव करता परमात्मा का। भक्ति पहले पाती है परमात्मा को, फिर परमात्मा में झांकी पाती अपनी।
यह जगत संतुलन है विरोधाभासों का–आधा दिन, आधी रात; आधे स्त्री, आधे पुरुष। एक संतुलन है विरोधों में। वही संतुलन इस जगत का शाश्वत नियम है। उसी को बुद्ध कह रहे हैं: ‘एस धम्मो सनंतनो।’ यही है शाश्वत नियम कि यह जगत विरोध से निर्मित है। वृक्ष आकाश की तरफ उठता है तो साथ ही साथ उसे पाताल की तरफ अपनी जड़ें भेजनी होती हैं। जितना ऊपर जाए, उतना नीचे भी जाना होता है। तब संतुलन है। तब वृक्ष जीवित रह सकता है। ऊपर ही ऊपर जाए और नीचे जाना भूल जाए, तो गिरेगा, बुरी तरह गिरेगा। नीचे ही नीचे जाए, ऊपर जाना भूल जाए, तो जाने का कोई प्रयोजन नहीं, कोई अर्थ नहीं।
विरोधों में विरोध नहीं हैं, वरन एक संगीत है। परम विरोध है ज्ञान और भक्ति का। और इस सत्य को ठीक से समझ लेना चाहिए कि तुम्हारी रुचि क्या है? तुम ज्ञान से जा सकोगे कि प्रेम से? ज्ञान का रास्ता कठोर है, थोड़ा रूखा-सूखा है; पुरुष का है। प्रेम का रास्ता रस डूबा है, रसनिमग्न है; हरा-भरा है; झरनों की कलकल है, पक्षियों के गीत हैं। वह रास्ता स्त्रैण-चित्त का है, स्त्रैण आत्मा का है। ध्यान के रास्ते पर तुम अपने संबल हो। कोई और सहारा नहीं। ध्यान के रास्ते पर संकल्प ही तुम्हारा बल है। तुम्हें अकेले जाना होगा–नितांत अकेले। संगी-साथी का मोह छोड़ देना होगा। इसलिए बुद्ध ने कहा है: अप्प दीपो भव! अपने दीये खुद बनो। कोई और दीया नहीं है; न कोई और रोशनी है; न कोई और मार्ग है। ध्यान के रास्ते पर एकाकी है खोज। लेकिन भक्ति के रास्ते पर समर्पण है, संकल्प नहीं। भक्ति के रास्ते पर परमात्मा के चरण उपलब्ध हैं; उसकी करुणा उपलब्ध है। तुम्हें सिर्फ झुकना है, झोली फैलानी है और उसकी करुणा से भर जाओगे। भक्ति के रास्ते पर परमात्मा का हाथ उपलब्ध है, तुम जरा हाथ बढ़ाओ। तुम अकेले नहीं हो। भक्ति के रास्ते पर संग है, साथ है। —ओशो