Description
पुस्तक के कुछ मुख्य विषय बिंदु:
प्रेम बड़ा दांव है
भौतिकवाद और अध्यात्म का मिलन
ध्यान वैज्ञानिक प्रक्रिया है
क्या जीवन भर की आदतोंको सरलता से छोड़ा जा सकता है?
प्रेम ही धर्म है
अनेकांतवाद का अर्थ
अनुक्रम
#1: आलोक हमारा स्वभाव है
#2: ये फूल लपटें ला सकते हैं
#3: प्रेम बड़ा दांव है
#4: प्रार्थना या ध्यान?
#5: धर्म क्रांति है, अभ्यास नहीं
#6: प्रार्थना अंतिम पुरस्कार है
#7: बोध क्रांति है
#8: प्रेम ही धर्म है
#9: जो है, उसमें पूरे के पूरे लीन होना समाधि है
#10: जरा सी चिनगारी काफी है
उद्धरण : साहेब मिल साहेब भये – पहला प्रवचन – आलोक हमारा स्वाभाव है
परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है, जैसा कि साधारणतः समझा जाता है। उस भ्रांत समझ के कारण मंदिर बने, मस्जिद बने, काबा बने, काशी बने; मूर्तियां, हवन-यज्ञ, पूजा-पाठ, पांडित्य-पौरोहित्य, सारा सिलसिला, सारा षडयंत्र, मनुष्य के शोषण का सारा आयोजन हुआ। सारी भ्रांति एक बात पर खड़ी है कि जैसे परमात्मा कोई व्यक्ति है। परमात्मा का केवल इतना ही अर्थ है कि अस्तित्व पदार्थ पर समाप्त नहीं है। पदार्थ केवल अस्तित्व की बाह्य रूप-रेखा है, उसका अंतस्तल नहीं। परिधि है, केंद्र नहीं। और परिधि मालिक नहीं हो सकती। केंद्र ही मालिक होगा। इसलिए परमात्मा को ‘साहेब’ कहा है। कहना कुछ होगा, नाम कुछ देना होगा। लाओत्सु ने कहा: उसका कोई नाम नहीं है, इसलिए मैं ‘ताओ’ कहूंगा। मगर वक्तव्य पर ध्यान देना। उसका कोई नाम नहीं, फिर भी इशारा तो करना होगा, अंगुली तो उठानी होगी, उसका कोई पता-ठिकाना तो देना होगा, अंधों तक उसकी कोई खबर तो पहुंचानी होगी, बहरों के कान में चिल्लाना तो होगा, सोयों को झकझोरना तो होगा। सभी नाम उपचार मात्र हैं। कोई भी नाम दो। कोई भी नाम दिया जा सकता है।
बुद्ध ने उसे धर्म कहा। महावीर ने उसे परमात्मा ही कहा, लेकिन हिंदुओं से बहुत भिन्न अर्थ दिए। हिंदुओं का अर्थ है: वह, जिसने सबको बनाया। स्रष्टा, नियंता, सर्वनियामक। महावीर का अर्थ है: आत्मा की परम शुद्ध अवस्था–परम आत्मा। अर्थ कुछ भी दो, नाम कुछ भी दो, अनाम है अस्तित्व तो। लेकिन बिना नाम दिए काम चलेगा नहीं। बच्चा भी पैदा होता है तो अनाम पैदा होता है। फिर कुछ पुकारना होगा। तो राम कहो, कृष्ण कहो, रहीम कहो, रहमान कहो–सब प्रतीक हैं, इतना स्मरण रहे तो फिर कुछ भूल नहीं होती। लेकिन प्रतीक को ही जो जोर से पकड़ ले, प्रतीक को ही जो सत्य मान ले, तो भ्रांति हो जाती है। चित्र चित्र है, इतनी स्मृति बनी रहे तो चित्र भी प्यारा है। लेकिन चित्र ही सब-कुछ हो जाए तो चूक हो गई। जिससे सहारा मिलना था, वही बाधा हो गया। मूर्ति मूर्ति है तो प्यारी हो सकती है।
बुद्ध की मूर्तियां हैं, महावीर की मूर्तियां हैं, कृष्ण की मूर्तियां हैं, प्यारी हो सकती हैं–प्रतीक समझो तो। तो कृष्ण की बांसुरी बजाती हुई मूर्ति उत्सव का प्रतीक है–नृत्य का, गीत का। कृष्ण की नृत्य की मुद्रा में खड़ी मूर्ति इस बात की खबर है कि अस्तित्व उदासीनों के लिए नहीं है। जिन्हें जीना है, जो जीने के परम अर्थ को जानना चाहते हैं, वे नाचें, गाएं, गुनगुनाएं; उड़ाएं रंग, जीवन को उत्सव बनाएं। उदासीन तो जीवन से भागता है, भगोड़ा होता है, पलायनवादी होता है, जीवन-विरोधी होता है। और जीवन के सत्य को जीवन की तरफ पीठ करके कैसे पा सकोगे? चूक सकते हो, पा नहीं सकते। जीवन में गहरे उतरना होगा, डुबकी मारनी होगी–ऐसी कि लीन ही हो जाओ, कि लौट कर आने को भी कोई न बचे। —ओशो