Description
‘अंतर्यात्रा’ में ओशो हमें ध्यान के मार्ग पर तय होने वाली यात्रा पर लिए चलते हैं—शरीर से मस्तिष्क, मस्तिष्क से हृदय, हृदय से नाभि, और अंततः शून्य में।
‘प्रभु की पगडंडियां’ में ओशो हमारे भीतर छिपे चार गुप्त द्वारों—करुणा, मैत्री, मुदिता, और उपेक्षा—से हमें परिचित करवाते हैं और उन्हें खोलने की कुंजियाँ हमें देते हैं।
सामग्री तालिका
#1: साधना की भूमिका
#2: ध्यान में कैसे होना
#3: धर्म, संन्यास, अमूर्च्छा और ध्यान
#4: रुको, देखो और होओ
#5: नीति नहीं, धर्म-साधना
#6: नीति, समाज और धर्म
#7: स्व’की अग्नि परीक्षा
#8: सत्य: स्वानुभव की साधना
#9: मन का अतिक्रमण
#10: ध्यान, जीवन और सत्य
#11: निर्विषय-चेतना का जागरण
#12: सत्य-अनुभूति में बाधाएं
#13: साधक का पाथेय
#14: साधना और संकल्प
उद्धरण : साधना पथ – तेरहवां प्रवचन – साधक का पाथेय
“यह कहा गया है कि आप शास्त्रों में विश्वास करो, भगवान के वचनों में विश्वास करो, गुरुओं में विश्वास करो। मैं यह नहीं कहता हूं। मैं कहता हूं कि अपने में विश्वास करो। स्वयं को जान कर ही शास्त्रों में जो है, भगवान के वचनो में जो है, उसे जाना जा सकता है।
वह जो स्वयं पर विश्वासी नहीं है, उसके शेष सब विश्वास व्यर्थ हैं।
वह जो अपने पैरों पर नहीं खड़ा है, वह किसके पैरों पर खड़ा हो सकता है?
बुद्ध ने कहा है: अपने दीपक स्वयं बनो। अपनी शरण स्वयं बनो। स्व-शरण के अतिरिक्त और कोई सम्यक गति नहीं है। यही मैं कहता हूं।
साधना, जीवन का कोई खंड, अंश नहीं है। वह तो समग्र जीवन है। उठना, बैठना, बोलना, हंसना सभी में उसे होना है। तभी वह सार्थक और सहज होती है।धर्म कोई विशिष्ट कार्य–पूजा या प्रार्थना करने में नहीं है, वह तो ऐसे ढंग से जीने में है कि सारा जीवन ही पूजा और प्रार्थना बन जाए। वह कोई क्रियाकांड, रिचुअल नहीं है। वह तो जीवन-पद्धति है।
इस अर्थ मे कोई धर्म धार्मिक नहीं होता है, व्यक्ति धार्मिक होता है। कोई आचरण धार्मिक नहीं होता, जीवन धार्मिक होता है।”—ओशो