Description
प्रेम, हास्य, कर्म, ज्ञान, आदि पहलुओं पर ओशो के सोलह अपूर्व प्रवचनों का यह संकलन मानव जीवन पर ओशो की अंतर्दृष्टि का एक परिचायक संकलन है। विशेषत: इस पुस्तक में नई मनुष्यता पर वैज्ञानिक रूप-रेखा प्रस्तुत करते हुए ‘नियोजित संतानोत्पत्ति’, ‘जेनेटिक इंजीनियरिंग द्वारा श्रेष्ठ मानव-शरीरों का चयन’ एवं ‘श्रेष्ठ आत्माओं को जन्म लेने का अवसर’ आदि विषयों पर ओशो ने प्रकाश डाला है। ओशो कहते हैं : ‘थोड़े से ही लोग समझ पाएंगे मेरी बातों को। पर थोड़े से ही लोग समझ लें तो काफी है। क्योंकि थोड़े से लोग ही इस जगत में प्रकाश को आमंत्रित करने के पात्र हो पाते हैं। और थोड़े से लोग ही अगर दीये बन जाएं तो काफी रोशनी हो जाती है। फिर उस रोशनी में साधारण जन भी धीरे-धीरे अपने बुझे दीयों को जलाने लगते हैं।’
# 1: तेरी जो मर्जी
# 2: खोलो शून्य के द्वार
# 3: मेरा संन्यास वसंत है
# 4: जीवन एक अभिनय
# 5: हंसा, उड़ चल वा देस
# 6: मुझको रंगों से मोह
# 7: युवा होने की कला
# 8: अपने दीपक स्वयं बनो
# 9: ध्यान का दीया
# 10: प्रार्थना की कला
# 11: मेरा संदेश है : ध्यान में डूबो
#Part 2: नियोजित संतानोत्पत्ति
# 12: धर्म और विज्ञान की भूमिकाएं
# 13: तथाता और विद्रोह
# 14: एक नई मनुष्य-जाति की आधारशिला
# 15: हंसो, जी भर कर हंसो
मनुष्य परमात्मा के बिना खाली है, बुरी तरह खाली है। और खालीपन खलता है। खालीपन को भरने के हम हजार-हजार उपाय करते हैं–धन से, पद से, प्रतिष्ठा से। लेकिन खालीपन ऐसे भरता नहीं। धन बाहर है, खालीपन भीतर है। बाहर की कोई वस्तु भीतर के खालीपन को नहीं भर सकती। कुछ भीतर की ही संपदा चाहिए। बाहर की संपदा बाहर ही रह जाएगी। उसके भीतर पहुंचने का कोई उपाय नहीं है। धन के ढेर लग जाएंगे, लेकिन भीतर का भिखमंगा भिखमंगा ही रहेगा। दुनिया में दो तरह के भिखमंगे हैं: गरीब भिखमंगे हैं और धनी भिखमंगे हैं। मगर उनके भिखमंगेपन में कोई फर्क नहीं। सच तो यह है कि धनी भिखमंगे को अपने भिखमंगेपन की ज्यादा प्रतीति होती है। क्योंकि बाहर धन है और भीतर निर्धनता है। बाहर के धन की पृष्ठभूमि में भीतर की निर्धनता बहुत उभर कर दिखाई पड़ती है। जैसे रात में तारे दिखाई पड़ते हैं। अंधेरे में तारे उभर आते हैं। दिन में भी हैं तारे, पर सूरज की रोशनी में खो जाते हैं। गरीब को अपनी गरीबी नहीं खलती, अमीर को अपनी गरीबी बहुत बुरी तरह खलती है। यही कारण है कि गरीब देशों में लोग संतुष्ट मालूम पड़ते हैं, अमीर देशों की बजाय। तुम्हारे साधु-संत तुम्हें समझाते हैं कि तुम संतुष्ट हो, क्योंकि तुम धार्मिक हो। यह बात सरासर झूठ है। तुम संतुष्ट प्रतीत होते हो, क्योंकि तुम गरीब हो। भीतर भी गरीबी, बाहर भी गरीबी, तो गरीबी खलती नहीं, गरीबी दिखती नहीं, उसका अहसास नहीं होता। जैसे कोई सफेद दीवाल पर सफेद खड़िया से लिख दे, तो पढ़ना मुश्किल होगा। इसीलिए तो स्कूल में काले तख्ते पर सफेद खड़िया से लिखते हैं। पृष्ठभूमि विपरीत चाहिए, तो चीजें उभर कर दिखाई पड़ती हैं। गरीब देशों में जो एक तरह का संतोष दिखाई पड़ता है, वह झूठा संतोष है, उसका धर्म से कोई संबंध नहीं है। लेकिन तुम्हारे अहंकार को भी तृप्ति मिलती है। तुम्हारे साधु-महात्मा कहते हैं कि तुम संतुष्ट हो, क्योंकि तुम धार्मिक हो। तुम्हारा अहंकार भी प्रसन्न होता है, प्रफुल्लित होता है। पर यह सरासर झूठ है। अहंकार जीता ही झूठों के आधार पर है। झूठ अहंकार का भोजन है। सचाई कुछ और है। तुम्हारे साधु-महात्मा कहते हैं कि देखो पश्चिम की कैसी दुर्गति है! वे तुम्हें समझाते हैं कि दुर्गति इसलिए हो रही है पश्चिम की, क्योंकि पश्चिम नास्तिक है, क्योंकि पश्चिम ईश्वर को नहीं मानता। —ओशो