Mitti Ke Diye

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“कहानियां सत्य की दूर से आती प्रतिध्वनियां हैं—एक सूक्ष्म सा इशारा, एक नाजुक सा धागा। तुम्हें खोजते रहना होगा। तब कहानी धीरे-धीरे अपने खजाने तुम्हारे लिए खोलने लगेगी।
यदि तुम कहानी को वैसे ही लो जैसी वह दिखाई देती है, तुम उसके संपूर्ण अर्थ से ही चूक जाओगे। प्रत्यक्ष वास्तविक नहीं है। वास्तविक छिपा है…बड़े गहरे में छिपा है—जैसे किसी प्याज में कोई हीरा छिपा हो। तुम उघाड़ते जाते हो, उघाड़ते जाते हो: प्याज की परतों पर परतें, और तब हीरा उजागर होता है।”—ओशो
पुस्तक के कुछ मुख्य विषय-बिंदु:
धार्मिक चित्त क्या है?
सत्य की खोज में सर्वाधिक आवश्यक क्या है?
महत्वाकांक्षा का मूल क्या है?
मनुष्य का भय क्या है? उसकी चिंता क्या है?
धर्म क्या है?
जीवन क्या है?
प्रेम क्या है?

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Description

अनुक्रम
#1: सागर का संगीत
#2: जीवन से बड़ी कोई संपदा नहीं है
#3: त्याग का भी त्याग
#4: धार्मिक चित्त क्या है?
#5: धर्म मूलतः अभय में प्रतिष्ठा का मार्ग है
#6: मनुष्य जैसा होता है, वैसा ही उसका धर्म होता है
#7: साहस
#8: महत्वाकांक्षा का मूल: हीनता का भाव
#9: जागो और जीओ!
#10: प्रेम जहां है वहां परमात्मा है
#11: ठहरो और रुको और स्वयं में देखो?
#12: धर्म स्वयं की श्र्वास-श्र्वास में है
#13: क्या स्वयं जैसे होने का साहस और प्रौढ़ता आपके भीतर है?
#14: धर्म में विज्ञापन की क्या आवश्यकता?
#15: ‘‘मैं’’ एक असत्य है
#16: धर्म विश्र्वास नहीं, विवेक है
#17: आंखें होते हुए भी क्या हम अंधे नहीं हो गए हैं?
#18: प्रेम और प्रज्ञा
#19: शास्त्रों से पाए हुए ज्ञान का यहां कोई मूल्य नहीं है
#20: सावधान और सचेत
#21: परमात्मा को छोड़ो, प्रेम को पाओ
#22: कुछ होने की महत्वाकांक्षा ही मन है
#23: अहंकार के मार्ग बहुत सूक्ष्म हैं
#24: जहां चित्त ठहरता है, वहीं शांति है
#25: चित्त का त्याग कैसे संभव है?
#26: जीवन बहुत रहस्यपूर्ण है
#27: जीवन में कहीं पहुंचने का राज
#28: जिनका स्वयं पर राज्य है, वे ही सम्राट हैं
#29: धर्म के प्रति उपेक्षा
#30: समस्या और समाधान
#31: जन्म में ही मृत्यु छिपी है
#32: जो छोड़ने का निश्र्चय करता है, वह कभी नहीं छोड़ता
#33: जीवन ही जिसका प्रेम नहीं है, उस जीवन में प्रार्थना असंभव है
#34: स्वयं का स्वीकार
#35: क्या हम स्वयं को ही अन्यों में नहीं झांक लेते हैं?
#36: जीवन का सत्य प्रतिध्वनियों में नहीं, वरन स्वयं में ही अंतर्निहित है
#37: मित्र और शत्रु–सब स्वयं की ही परछाइयां हैं
#38: स्वयं की वास्तविक सत्ता की खोज
#39: तुम्हारे हाथ भी क्या मेरे ही हाथ नहीं हैं?
#40: विश्र्वास अज्ञान का समर्थक है और अज्ञान एकमात्र पाप है
#41: सत्य है बहुत आंतरिक–आत्यंतिक रूप से आंतरिक
#42: ‘अहंकार’ समस्त हिंसा का मूल है
#43: अज्ञान मुखर है और ज्ञान मौन
#44: धर्म मृत्यु की विधि से जीवन को पाने का द्वार है
#45: धर्म जीवन में हो, तभी जीवित बनता है
#46: जीवन क्या है?
#47: वह वहीं है और वही है, जहां सदा से है और जो है!
#48: वस्त्र धोखा दे सकते हैं
#49: स्वतंत्रता से व्यक्ति सम्राट होता है
#50: स्वयं का विवेक
#51: जीवन और मृत्यु भिन्न-भिन्न नहीं हैं
#52: धर्म भेद नहीं, अभेद है
#53: धर्म को किसी भी भांति खरीदा ही नहीं जा सकता है
#54: सत्य की खोज में पहला सत्य क्या है?
#55: मृत्यु क्या है? क्या वह जीवन की ही परिपूर्णता नहीं है?
#56: आनंद कहां है?
#57: मृत्यु में ऐसा क्या भय है?
#58: अहंकार जीवन में दीवारें बनाता है
#59: प्रार्थना मांग नहीं है
#60: अहंकार का भार
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