Description
ओशो के अमृत-संदेश का स्वाद जिसने भी लिया है, उसके हृदय में एक अभीप्सा जरूर उठती है—इस आनंद को बांटने की, इस आनंद में अपने मित्रों, परिजनों, परिचितों को भी साझीदार, भागीदार करने की। इस अभीप्सा के साथ ही न जाने कितने लोग अपने-अपने अनूठे ढंग से ओशो के कार्य के प्रचार-प्रसार में संलग्न रहे हैं। इस संबंध में अपनी अंतर्दृष्टि देते हुए ओशो कहते हैं : ‘आदमी का जीवन एक स्वर्ग की शांति का और संगीत का जीवन बन सकता है। और जब से मुझे ऐसा लगना शुरू हुआ, तो ऐसा प्रतीत हुआ कि जो बात मनुष्य के जीवन को शांति की दिशा में ले जा सकती है, अगर उसे हम उन लोगों तक नहीं पहुंचा देते जिन्हें उसकी जरूरत है, तो हम एक तरह के अपराधी हैं, हम भी जाने-अनजाने कोई पाप कर रहे हैं। मुझे लगने लगा कि अधिकतम लोगों तक, कोई बात उनके जीवन को बदल सकती हो, तो उसे पहुंचा देना जरूरी है।’
#1: ध्यान-केंद्र की भूमिका
#2: अवधिगत संन्यास
#3: एक एक कदम
#4: कार्यकर्ता की विशेष तैयारी
#5: ‘मैं’ की छाया है दुख
#6: संगठन और धर्म
#7: ध्यान-केंद्र के बहुआयाम
#8: रस और आनंद से जीने की कला
#9: धर्म की एक सामूहिक दृष्टि
#10: कार्यकर्ता का व्यक्तित्व
#11: ध्यान-केंद्र: मनुष्य का मंगल
#12: काम के नये आयाम
#13: संगठन: अनूठा और क्रांतिकारी
#14: तरल संगठन
Reviews
There are no reviews yet.