Amrit Varsha

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बुद्ध और महावीर ने तो जीवन को आनंद कहा है। उपनिषद के ऋषियों ने चिल्ला कर कहा है कि अमृत और आनंद है यह जीवन। जिन्होंने उस जीवन को जाना है, वे तो नाचने लगे हैं। लेकिन हम, हम भी उसी जीवन में खड़े हैं, और हमें कुछ दिखाई नहीं पड़ता। हम उन अंधों की भांति हैं जो प्रकाश में खड़े हों और जिनकी आंखें बंद हैं। और जिन्हें प्रकाश का कोई अनुभव नहीं मालूम होता। और हम उन लोगों की भांति हैं जिनके चारों तरफ आनंद बरस रहा हो, लेकिन जिनके भीतर कोई रिसेप्टिविटी, कोई ग्राहकता नहीं है। और इसलिए वे आनंद से वंचित रह जाते हैं।-ओशो

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Description

#1: सत्य का दर्शन
#2: शून्य का संगीत
#3: सत्य की भूमि
#4: जागरण का आनंद
#5: धर्म की यात्रा
#6: अपने अज्ञान का अस्वीकार

ऐसा नहीं है कि धन से नहीं भरता, ऐसा नहीं है कि यश से नहीं भरता; धर्म से भी नहीं भरता, त्याग से भी नहीं भरता। भरना उसका स्वभाव नहीं है। मोक्ष से भी नहीं भरता, परमात्मा से भी नहीं भरता। भरना उसका स्वभाव नहीं है। कुछ लोग धन से भरने से ऊब जाते हैं, लेकिन भरने से नहीं ऊब पाते। धन से भरने से ऊब जाते हैं, तो सोचते हैं धर्म से भर लें; यश और कीर्ति से ऊब जाते हैं और पाते हैं कि उससे मन नहीं भरता, तो सोचते हैं कि त्याग और तपश्चर्या से भर लें। लेकिन मन अगर भरने में समर्थ होता, तो धन से भी भर जाता और धर्म से भी भर जाता। मन भरने में ही असमर्थ है। मन स्वभावतः भरने में असमर्थ है। कोई बात है जिसकी वजह से मन नहीं भर सकता है। किसी भी चीज से नहीं। और जब तक इस तथ्य को कोई साक्षात नहीं करता है, इस समग्र सत्य को कि मन को भरना ही असंभव है; तब तक किसी मनुष्य के जीवन में कोई क्रांति फलित नहीं हो सकती है; तब तक कोई मनुष्य आनंद को उपलब्ध नहीं हो सकता है; तब तक कोई मनुष्य धार्मिक नहीं हो सकता है। धार्मिक मनुष्य की शुरुआत इस बात से नहीं होती कि धन से छोड़ कर हम त्याग से मन को भरने लगें। धन और त्याग दोनों की भाषा एक ही है। धन की भाषा है: और, और। और धन मिले तो शायद मन भर जाए। उतना मिल जाता है तो पता चलता है कि मन नहीं भरा, और धन मिले तो शायद मन भर जाए। उतना भी मिल जाता है तो मन नहीं भरता। त्याग की भाषा भी और की ही भाषा है। इतना छोड़ देते हैं तो मन नहीं भरता, और छोड़ दें तो शायद मन भर जाए। और छोड़ देते हैं, फिर पता चलता है और छोड़ दें तो शायद मन भर जाए। पकड़ने और छोड़ने का सवाल नहीं है। और की भाषा समान है, और भरने की आकांक्षा समान है। अगर मन स्वभावतः भरने में असमर्थ है तो शायद किसी रास्ते से उसे नहीं भरा जा सकेगा। और इसलिए मन के साथ, मन के भराव के लिए की गईं सारी बातें व्यर्थ हो जाती हैं। सारे निदान और सारी चिकित्सा व्यर्थ हो जाती है। और मनुष्य की जो गहरी चिंता है, जो तनाव है, जो दुख है; उसके ऊपर मनुष्य नहीं उठ पाता है। अब तक हमने जो भी उपाय खोजे हैं, वे असमर्थ हो गए। असफल हो गए। शायद हमने मूल बात नहीं पूछी और इसलिए सारी गड़बड़ हो गई।
—ओशो

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