Description
आस्था का दीप–सदगुरु की आंख में अजहूं चेत गंवार! नासमझ! अब भी चेत! ऐसे भी बहुत देर हो गई। जितनी न होनी थी, ऐसे भी उतनी देर हो गई। फिर भी, सुबह का भूला सांझ घर आ जाए तो भूला नहीं। अजहूं चेत गंवार! अब भी जाग! अब भी होश को सम्हाल! ये प्यारे पद एक अपूर्व संत के हैं। डुबकी मारी तो बहुत हीरे तुम खोज पाओगे। पलटूदास के संबंध में बहुत ज्यादा ज्ञात नहीं है। संत तो पक्षियों जैसे होते हैं। आकाश पर उड़ते जरूर हैं, लेकिन पद-चिह्न नहीं छोड़ जाते। संतों के संबंध में बहुत कुछ ज्ञात नहीं है। संत का होना ही अज्ञात होना है। अनाम। संत का जीवन अंतर-जीवन है। बाहर के जीवन के तो परिणाम होते हैं इतिहास पर, इतिवृत्त बनता है। घटनाएं घटती हैं बाहर के जीवन की। भीतर के जीवन की तो कहीं कोई रेख भी नहीं पड़ती। भीतर के जीवन की तो समय की रेत पर कोई अंकन नहीं होता। भीतर का जीवन तो शाश्वत, सनातन, समयातीत जीवन है। जो भीतर जीते हैं उन्हें तो वे ही पहचान पाएंगे जो भीतर जाएंगे। इसलिए सिकंदरों, हिटलरों, चंगीज और नादिरशाह, इनका तो पूरा इतिवृत्त मिल जाएगा, इनका तो पूरा इतिहास मिल जाएगा। इनके भीतर का तो कोई जीवन होता नहीं, बाहर ही बाहर का जीवन होता है; सभी को दिखाई पड़ता है। ओशो.