SHIV
Shiv Sutra 10
Tenth Discourse from the series of 10 discourses - Shiv Sutra by Osho. These discourses were given during SEP 11-20 1974, Pune.
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सुखासुखयोर्बहिर्मननम्।
तद्विमुक्तस्तु केवली।
तदारूढ़प्रमितेस्तत्क्षयाज्जीवसंक्षयः।
भूतकंचुकी तदाविमुक्तो
भूयः पतिसमःपरः।
ॐ, श्री शिवार्पणं अस्तु।
सुख-दुख बाह्य वृत्तियां हैं, ऐसा सतत जानता है।
और उनसे विमुक्त, वह केवली हो जाता है।
उस कैवल्य अवस्था में आरूढ़ हुए योगी का अभिलाषा-क्षय के कारण
जन्म-मरण का पूर्ण क्षय हो जाता है।
ऐसा भूतकंचुकी, विमुक्त पुरुष परम शिवरूप ही होता है।
ॐ भगवान श्री शिव को यह अर्पित हो।
सूत्र में प्रवेश के पहले--पीछे मैं आपको कहा था कि मंत्र के संबंध में कुछ कहूंगा। आज शिविर का अंतिम दिन है; मंत्र के संबंध में कुछ समझ लें। उसका प्रयोग जीवन में क्रांति ला सकता है।
पहली बात--जैसा मैंने कल कहा, पर्त-पर्त तुम्हारे व्यक्तित्व में है, जैसे प्याज में होती है। एक-एक पर्त को उघाड़ना है, ताकि भीतर छिपे केंद्र को तुम खोज पाओ। हीरा छिपा है, खोया तुमने नहीं। खो सकते भी नहीं हो; क्योंकि वह हीरा तुम ही हो। दब सकते हो; हीरा भी मिट्टी में दब जाता है। हीरे पर भी पर्त जम जाती हैं। हीरा भी पत्थर जैसा दिखाई पड़ने लगता है। पर भीतर कुछ भी नष्ट नहीं होता।
तुम्हें शायद खयाल न हो कि हीरे का इतना मूल्य क्यों?
हीरे के मूल्य के पीछे मनुष्य की शाश्वत की खोज है। इस जगत में हीरा सबसे थिर है। सब चीजें बदल जाती हैं; हीरा बिना बदला हुआ बना रहता है। करोड़ों-करोड़ों वर्ष में भी वह क्षीण नहीं होता। इस बदलते हुए संसार में, हीरा न बदलते हुए अस्तित्व का प्रतीक है। इसलिए हीरे का इतना मूल्य है। अन्यथा वह पत्थर है। मूल्य है उसकी शाश्वतता का, उसके ठहराव का।
हीरा होना तुम्हारा शाश्वत स्वभाव है। और सारी साधना तुम्हारी मिट्टी की जम गई पर्तों को अलग करने की है। पर्तें मिट्टी की हैं; इसलिए अलग करना बहुत कठिन न होगा। और पर्तें हीरे पर हैं और मिट्टी की हैं, शाश्वत पर हैं, परिवर्तनशील की हैं, इसलिए बहुत कठिन बात नहीं होगी। मंत्र इन पर्तों को खोदने की विधि है।
एक छोटी घटना तुमसे कहूं।
मुल्ला नसरुद्दीन का एक मित्र बहुत वर्षों बाद मिला। तो उसने घर के समाचार पूछे और फिर पूछा कि तुम्हारी बेटी का क्या हुआ? नसरुद्दीन ने कहा, तुम भरोसा करो या न करो, बेटी की शादी हो गई। और साधारण आदमी से नहीं, एक बड़े डाक्टर से!
मित्र को भरोसा न आया। उसने कहा, क्षमा करना, विश्वास करना कठिन है। और बुरा मत मानना, तुम भी जानते हो कि बेटी तुम्हारी सुंदर तो थी ही नहीं; निश्चित रूप से कुरूप थी। मिलिट्री के टेंट जैसी उसकी देह थी। तो मैं भरोसा नहीं कर सकता कि उसकी शादी हो गई, और वह भी फिर डाक्टर से! बड़े डाक्टर से! बड़े रहस्य की घटना है! कैसे फांस लिया उसने एक डाक्टर को?
नसरुद्दीन ने कहा, अच्छा-अच्छा! तो नहीं सही। न सही बड़ा डाक्टर, न सही डाक्टर। लेकिन एक बात मैं तुमसे कहूंगा। मेरे सिर का दर्द उसने दूर किया। मेरे लिए वह डाक्टर है।
जो सिर का दर्द दूर करे, वह डाक्टर; और जो सिर को ही दूर कर दे, वह मंत्र। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी! सिर जब तक है, तब तक दर्द होता ही रहेगा। ऐसी भी विधि है, जिससे सिर दूर हो जाए। तुम्हारी सारी तकलीफ तुम्हारा सिर है, तुम्हारे विचार हैं, विचारों का ऊहापोह है, चिंतना है। अगर विचार खो जाएं तो सिर खो गया! तब तुम तो रहोगे, लेकिन मन न रहेगा।
मन को जो मार दे, वह मंत्र है। मन की जिससे मृत्यु घटित हो जाए, वह मंत्र है। और मन जब नहीं रह जाता तो तुम्हारे और शरीर के बीच जो सेतु है वह टूट जाता है। मन ही जोड़े हुए है तुम्हें शरीर से। अगर बीच का सेतु, बीच का संबंध टूट जाए, तो शरीर अलग, तुम अलग हो जाते हो। और जिसने जान लिया अपने को शरीर से अलग और मन से शून्य, वह शिवत्व को उपलब्ध हो जाता है। वह परम केवली है।
इसलिए मंत्र को समझ लें। मंत्र की परिभाषा है--जिससे सिर ही खो जाए, मन न बचे। और ये जो पर्तें हैं शरीर की, मन की, इनको काटने की विधि। एक-एक कदम बढ़ना जरूरी है। और धैर्य रखना होगा; क्योंकि मंत्र बहुत धीरज का प्रयोग है। अधैर्य जिनके मन में बहुत ज्यादा है, उन्हें मंत्र से लाभ न होगा, नुकसान हो सकता है। इसे पहले समझ लें। क्योंकि वैसे ही तुम काफी परेशान हो, मंत्र और एक नयी परेशानी बन जाएगी अगर अधैर्य हुआ।
मैं एक स्टेशन से गुजर रहा था। खिलौनों के एक ठेले पर एक खिलौना मैंने देखा। और वह चिल्ला-चिल्ला कर खिलौने बेचने वाला कह रहा था कि कोई बच्चा इस खिलौने को तोड़ नहीं सकता, यह अनब्रेकेबल है। तो मैंने सोचा, खरीद लूं, नसरुद्दीन के बच्चे के काम आएगा, क्योंकि उसकी पत्नी सदा यही रोना रोती रहती है कि खिलौना घर तक नहीं आ पाता और लड़का तोड़ देता है। उसे मैंने खरीद लिया। उसके दाम भी ज्यादा थे और मजबूत भी था। दिया नसरुद्दीन की पत्नी को, बेटे के लिए। पति-पत्नी दोनों प्रसन्न हुए कि इसको वह भी न तोड़ पाएगा, हम भी न तोड़ पाएंगे। सच में ही खिलौना मजबूत था।
सात दिन बाद उनके घर गया। पूछा, तो पत्नी कहने लगी, बड़ी मुसीबत हो गई! मैंने पूछा, क्या उसने वह खिलौना तोड़ दिया? पत्नी ने कहा, नहीं, वह खिलौना तो नहीं तोड़ पाया, लेकिन उस खिलौने से उसने सारे खिलौने तोड़ डाले, घर के सब दर्पण तोड़ डाले और अब आत्मरक्षा के लिए हमें कुछ उपाय करना पड़ेगा। वह खिलौने का अस्त्र की तरह उपयोग कर रहा है।
तुम वैसे ही विक्षिप्त दशा में हो। मंत्र से विक्षिप्तता टूट भी सकती है, बढ़ भी सकती है। वैसे ही तुम बोझ से भरे हो, और नया मंत्र और एक बोझ ले आएगा। इसलिए एक अनहोनी घटना रोज घटती है कि जिनको तुम साधारणतः धार्मिक आदमी कहते हो, वे साधारण सांसारिक आदमी से ज्यादा परेशान हो जाते हैं। क्योंकि संसारी को संसार की परेशानी है, उनको संसार की तो बनी ही रहती है, धर्म की और जुड़ जाती है। वह प्लस। उससे कुछ घटता नहीं, बढ़ता है। मन पुराने सब धंधे तो जारी रखता है, यह एक नया धंधा और पकड़ लिया; व्यस्तता और बढ़ गई।
तो मंत्र के साथ अत्यंत धैर्य चाहिए, अन्यथा उस झंझट में मत पड़ना। जैसे दवा को मात्रा में लेना होता है! यह मत सोचना कि पूरी बोतल इकट्ठी पी गए तो बीमारी अभी ठीक हो जाएगी। उससे बीमार मर सकता है, बीमारी न मरेगी। उसे मात्रा में ही लेना। और मंत्र की मात्राएं बड़ी होमियोपैथिक हैं, बड़ी सूक्ष्म हैं। तो बहुत धैर्य की जरूरत है, वह पहली जरूरत है। फल की बहुत जल्दी आकांक्षा मत करना; वह जल्दी आएगा भी नहीं, क्योंकि यह परम फल है। यह कोई मौसमी फूल नहीं है कि बोया और पंद्रह दिन के भीतर आ गया। जन्म-जन्म लग जाते हैं। और एक कठिन बात जो समझ लेने की है, वह यह है कि जितना धैर्य हो उतने जल्दी फल आ जाएगा, और जितना अधैर्य हो उतनी ज्यादा देर लग जाएगी।
एक आदमी जा रहा था रास्ते से। उसका जूता उसे काट रहा था; जूता छोटा था। वह जूते को गालियां दे रहा था और बहुत परेशान था। नसरुद्दीन ने उससे पूछा कि मेरे भाई, इतना तंग जूता कहां से खरीदा? वह आदमी वैसे ही जला-भुना था, वैसे ही क्रोध में था। उसने कहा, जूता कहां से खरीदा! झाड़ से तोड़ा है! नसरुद्दीन ने कहा, मेरे भाई, थोड़ी देर रुक जाते तो पैर के नाप का तो हो जाता। कच्चा तोड़ लिया!
मंत्र कभी कच्चा मत तोड़ना, नहीं तो बुरे फंस जाओगे। जूते को तो कोई फेंक दे, मंत्र को फेंकना बहुत मुश्किल है। क्योंकि जूता तो बाहर है, मंत्र भीतर होता है। और अगर गलती से मंत्र में फंस गए तो निकालना बहुत मुश्किल हो जाता है। बहुत से धार्मिक लोग पागल हो जाते हैं। उसका कारण है: मंत्र में फंस गए, कुछ जल्दी कर ली तोड़ने की; फल पक नहीं पाया था, कच्चा ले गए। पक कर तो फल बहुत मीठा हो जाता; कच्चा बहुत तिक्त होगा, बहुत कड़वा होगा, जहरीला होगा।
पहली पर्त है शरीर। तो मंत्र का पहला प्रयोग शरीर से शुरू करना जरूरी है। क्योंकि वहीं तुम हो, वहीं से इलाज शुरू होगा। अगर तुमने वह पर्त छोड़ कर मंत्र का इलाज शुरू किया, तो बीमारी तुम्हारी रह जाएगी, मिटेगी नहीं। कल नहीं परसों, कच्चा फल हाथ आएगा। ध्यान रखना, यात्रा वहीं से शुरू की जा सकती है जहां तुम खड़े हो; कहीं और से यात्रा की, वह सपना है। तुम अभी शरीर हो। तो अभी मंत्र को शरीर से ही शुरू करना होगा।
विधि को समझ लो। पहले दस मिनट शांत बैठ जाना। शांत बैठने के पहले--क्योंकि शांत बैठना आसान नहीं है--पांच मिनट नाचना, उछलना, कूदना। और दिल खोल कर उछलना, कूदना, नाचना। ताकि शरीर के भीतर, रग-रग, रेशे-रेशे में जो रेस्टलेसनेस है, वह जो बेचैनी है, वह निकल जाए। तभी तुम दस मिनट शांति से बैठ पाओगे। शांति से बैठने के लिए यह जरूरी रेचन है। दस-पांच मिनट, जितना तुम्हें ठीक लगे, जितनी तुम्हारी बेचैनी हो, उस हिसाब से तुम नाचना, कूदना, डोलना, शरीर को सब तरफ से हिलाना। ताकि दस मिनट शरीर हिलने की आकांक्षा न करे। उसकी हिलने की तृप्ति कर देना। दस मिनट शरीर को हिलाना-डुलाना, नाचना-कूदना, दौड़ना, फिर बैठ जाना। और फिर बैठ जाना बिलकुल थिर, दस मिनट अब शरीर न हिले। आंख आधी खुली रखना। और उचित होगा कि प्रयोग खुले में मत करना, बंद में करना। छोटा कमरा हो, बंद हो, और बिलकुल खाली हो, वहां कोई भी चीज न हो।
इसलिए मंदिर, मस्जिद या चर्च बहुत अच्छा है, जहां कुछ भी नहीं है, कोई सामान नहीं है। या घर में एक कोना साफ कर लेना, जहां कुछ भी नहीं है। वहां देवी-देवताओं को भी मत रखना, वे भी उपद्रव हैं। वहां बिलकुल खाली कर देना। बस खालीपन ही एकमात्र परमात्मा है, बाकी सब चीजें मन का ही खेल हैं।
अब मन ऐसा पागल है कि अगर लोगों के पूजागृह देखो तो उनका पागलपन पता चल जाए। कोई सौ-पचास देवी-देवताओं को लटकाए हुए हैं! जमाने भर के कैलेंडर काट-काट कर टांग लिए हैं। जो भी देवी-देवता जहां मिल जाता है, रद्दी में, अखबार में, उसको वे चिपका लेते हैं। यह उनकी खोपड़ी का सबूत है। और इन सबके सामने जल्दी-जल्दी सिर झुका कर, पानी वगैरह छिड़क कर, सबको तृप्त करके वे गए!
इनमें से कोई एक भी तृप्त नहीं होता है। एक को तृप्त करने से सब भी तृप्त हो जाएं, सब को तृप्त करने से एक भी तृप्त नहीं होता। एक साधे, सब सधे। और वह एक बाहर नहीं है, वह भीतर है।
कमरे को बिलकुल खाली रखना। जितना शून्य हो, उतना अच्छा; क्योंकि इसी शून्य की भीतर तलाश है। यह कमरा तुम्हारे भीतर शून्य का प्रतीक हो, और छोटा हो, क्योंकि मंत्र में उसका उपयोग है; और खाली हो, उसका भी उपयोग है। आंख आधी खुली रखना; क्योंकि जब आंख पूरी खुली होती है, तो तुम दरवाजे पर खड़े हो अपने मकान के--पीठ मकान की तरफ, मुंह संसार की तरफ। एकदम से पीठ न मुड़ेगी। एकदम से परिवर्तन आसान नहीं। तुम सिर्फ आधी आंख खोलना, आधा संसार की तरफ बंद और आधा अपनी तरफ खुले। आधी आंख खुले होने का यही अर्थ है कि आधा संसार देख रहे हैं, आधा अपने को। यहीं से शुरू करना।
और जल्दी की कोई आवश्यकता नहीं है। आधी आंख जब खुली होती है तो तुम एक तंद्रा जैसी स्थिति अनुभव करोगे। तो अपनी नाक के शीर्ष भाग को देखते रहना। बस उतनी ही आंख खोलनी है। एकाग्रता नहीं करनी है; शांत भाव से नाक का अगला हिस्सा दिखाई पड़ रहा है--नासाग्र दिखाई पड़ रहा है। तब ओम का पाठ जोर से शुरू करना--शरीर से, क्योंकि शरीर में तुम हो। तो जोर से ओम की ध्वनि करना कि कमरे की दीवारों से टकरा कर तुम पर गिरने लगे। इसलिए खाली जरूरी है। खाली होगा तो प्रतिध्वनि होगी। जितनी प्रतिध्वनि हो उतनी लाभ की है।
इसलिए अगर तुम ईसाइयों का कैथेड्रल देखे हो, तो वह मंत्र के लिए बनाया गया था। वहां कुछ भी बोलो तो वह ध्वनि हजार होकर तुम्हारे ऊपर लौट आती है। हिंदुओं ने मंदिर बनाया था अर्धवृत्त में सिर्फ इसीलिए कि उसकी गुंबज में ध्वनि टकरा कर वापस लौट आएगी। वृत्ताकार वस्तु से कोई भी ध्वनि बाहर नहीं जा सकती, भीतर लौट आती है। वे मंत्र के लिए थे।
तो तुम बैठ जाना, जोर से ओंकार--ओम, ओम, जितने जोर से कर सको; क्योंकि शरीर का उपयोग करना है। तुम्हारा पूरा शरीर निमज्जित हो जाए ओम में। ऐसा लगने लगे कि तुमने अपनी पूरी जीवन-ऊर्जा ओम मेंलगा दी, कुछ बचाया नहीं। जैसे इसी पर जीवन-मरण टिका है। इससे कम में मंत्र पूरा नहीं होता। ऐसे धीरे-धीरे मुर्दे की तरह कहते रहो, आधे-आधे, उससे हल न होगा। समग्र भाव से! जैसे कि इसी पर निर्भर है कि अगर तुमने पूरी तरह ओम कहा तो ही तुम बचोगे, अन्यथा मर जाओगे। दांव पर लगा देना! जैसे सिंहनाद होने लगे। आधी आंख खुली, आंधी बंद, जोर से ओम का पाठ। और ध्यान रखना, जैसे कोई पत्थर फेंकता है शांत झील में, लहरें उठती हैं, चारों तरफ चली जाती हैं, ऐसा जब तुम ओम कहोगे, तुमने एक पत्थर फेंका उस शांत शून्यता में कमरे की, चारों तरफ किरणें फैलीं, ध्वनि गई, टकराई, वापस लौटी।
और तुम इतने जल्दी ओम कहना कि ओवरलैपिंग हो जाए। एक मंत्र उच्चार के ऊपर दूसरा मंत्र उच्चार हो जाए: ओम--ओम--ओम। दो ओम के बीच जगह मत छोड़ना। पसीना-पसीना हो जाना। सारी ताकत लगा देना। थोड़े ही दिनों में तुम पाओगे कि पूरा कक्ष ओम से भर गया। तुम पाओगे कि पूरा कक्ष तुम्हें साथ दे रहा है; ध्वनि लौट रही है। अगर तुम कोई गोल कक्ष खोज पाओ तो ज्यादा आसान होगा। अगर गुंबद वाला कक्ष खोज पाओ तो और भी आसान होगा। बिलकुल कुछ भी न हो, ताकि ध्वनि पूरी तरह तुम पर बरसने लगे। तुम्हारा शरीर एक स्नान से गुजर जाएगा। और तुम पाओगे कि ऐसी शीतलता जल के स्नान से कभी भी नहीं मिलती।
अभी वैज्ञानिक इस पर बहुत खोज कर रहे हैं। और वे कहते हैं कि वृक्षों को अगर कुछ खास ध्वनि का संगीत सुनाया जाए, तो उनमें जल्दी फूल आ जाते हैं, जल्दी फल आ जाते हैं, वृक्ष जल्दी बढ़ जाते हैं। रूस और अमरीका में दोनों जगह खेतों में संगीत का प्रयोग किया जा रहा है, ताकि फसलें जल्दी आ जाएं, दुगनी आ जाएं। और परिणाम सफल हुए हैं।
रविशंकर के सितार पर एक प्रयोग किया जा रहा था कनाडा में। रविशंकर सितार बजाते और बीज बोए थे एक तरफ; दूसरी तरफ, थोड़े पास, थोड़े दूर, कई तरह के बीज बोए थे। और बड़ी हैरानी की बात हुई कि जब उनमें से अंकुर आए तो वे सभी अंकुर रविशंकर के सितार की तरफ झुके हुए थे। वृक्ष बड़े हुए, लेकिन जैसे अपने कान को बहरा आदमी पास कर देता है सुनने के लिए, सभी पौधों ने अपने कान सितार पर लगा दिए थे। और दुगनी बढ़ती होती है। जो पौधा तीन महीने में बढ़ता, वह डेढ़ महीने में बढ़ जाता। और पौधे परम आनंदित होते। पौधा सिर्फ शरीर है। अभी उसका सब सोया हुआ है, बिलकुल प्रसुप्त है। लेकिन शरीर भी ध्वनि से तरंगित होता है, आंदोलित होता है।
जब चारों तरफ से ओंकार तुम पर बरसने लगेगा, लौटने लगेगा, तुम्हारी ध्वनि वर्तुलाकार हो जाएगी, तुम पाओगे शरीर का रोआं-रोआं प्रसन्न हो रहा है; रोएं-रोएं से रोग झड़ रहा है; शांति, स्वास्थ्य प्रगाढ़ हो रहा है। तुम हैरान होकर पाओगे कि तुम्हारे शरीर की बहुत सी तकलीफें अपने आप खो गईं; क्योंकि यह बड़ा गहरा स्नान है और बड़ी गहराई तक इसकी पकड़ और पहुंच है। शरीर ध्वनि का ही जोड़ है। और ओंकार से अदभुत ध्वनि नहीं।
यह दस मिनट ओंकार का उच्चार जोर से, शरीर के माध्यम से। फिर आंख बंद कर लेना। ओंठ बंद कर लेना। जीभ तालू से लग जाए, इस तरह मुंह बंद कर लेना कि बिलकुल बंद है, कोई जगह न बची; क्योंकि अब जीभ का उपयोग नहीं करना है, ओंठ का उपयोग नहीं करना है।
दूसरा कदम है, दस मिनट तक अब ओम का उच्चार करना भीतर मन में। अभी तक कक्ष था चारों तरफ, अब शरीर है चारों तरफ। अभी तक मकान के भीतर थे तुम, अब शरीर मकान है। दूसरे दस मिनट में अब तुम अपने भीतर मन में ही गुंजाना। ओंठ का, जीभ का, कंठ का कोई उपयोग न करना। सिर्फ मन में: ओम--ओम...। लेकिन गति वही रखना; तीव्रता वही रखना। जैसे तुमने कमरे को भर दिया था ओंकार से, ऐसे ही अब शरीर को भीतर से भर देना ओंकार से--कि शरीर के भीतर ही कंपन होने लगे, ओम दोहरने लगे पैर से लेकर सिर तक। और इतनी तेजी से यह ओम करना है, जितनी तेजी से तुम कर सको। और दो ओम के बीच जरा भी जगह मत छोड़ना। क्योंकि मन का एक नियम है कि वह एक साथ दो विचार नहीं कर सकता। एक साथ दो विचार असंभव हैं।
तो अगर तुमने ओम इतने जोर से गुंजाया कि दो ओम के बीच में जरा सी भी संधि न बची, तो कोई विचार न आ सकेगा। अगर जरा सी संधि बची तो विचार आ जाएगा; उसी संधि में से जगह बना लेगा। तो संधि मत छोड़ना; संधि-शून्य उच्चार। इसकी भी फिक्र न करना कि एक ओम पर दूसरा चढ़ा जा रहा है। जैसे कभी मालगाड़ी टकरा जाती है, एक डब्बे के ऊपर दूसरा डब्बा हो जाता है, ऐसा तुम ओम को एक-दूसरे के ऊपर हो जाने देना, जगह बीच में मत छोड़ना।
और ध्यान रखना, शरीर का उपयोग नहीं करना है इसमें। आंख इसीलिए अब बंद कर ली। शरीर थिर है। मन में ही गूंज करनी है। शरीर से ही टकरा कर गूंज मन पर वापस गिरेगी, जैसे कमरे से टकरा कर शरीर पर गिर रही थी। उससे शरीर शुद्ध हुआ; इससे मन शुद्ध होगा। और जैसे-जैसे गूंज गहन होने लगेगी, तुम पाओगे कि मन विसर्जित होने लगा। एक गहन शांति, जैसी तुमने कभी नहीं जानी, उसका स्वाद मिलना शुरू हो जाएगा।
दस मिनट तक तुम भीतर गुंजार करना और दस मिनट के बाद गर्दन झुका लेना कि तुम्हारी दाढ़ी छाती को छूने लगे। दो-चार दिन तकलीफ भी मालूम होगी गर्दन में, उसकी फिक्र मत करना, वह चली जाएगी। तीसरे चरण में दाढ़ी छूने लगे; जैसे गर्दन कट गई, उसमें कोई जान न रही। और अब तुम मन में भी गुंजार मत करना ओम का। अब तुम सुनने की कोशिश करना; जैसे ओंकार हो ही रहा है, तुम सिर्फ सुनने वाले हो, करने वाले नहीं। क्योंकि मन के बाहर तभी जा सकोगे, जब कर्ता छूट जाएगा। अब तुम साक्षी हो जाना। अब तुम गर्दन झुका कर यह कोशिश करना कि भीतर ओंकार चल रहा है, मैं उसे सुनूं।
गालिब का बहुत प्रसिद्ध वचन है:
दिल के आईने में है तस्वीरे-यार।
जब जरा गर्दन झुकाई, देख ली।
वह गर्दन झुकाना जरूरी है। जैसे ही गर्दन झुकती है, दिल का आईना सामने आ जाता है। और उस परम प्रिय की तस्वीर वहां है, प्रतिबिंब वहां है। लेकिन गर्दन झुकाना तुम्हें नहीं आता। तुम तो गर्दन अकड़ा कर चलते हो। जहां गर्दन झुकाने की बात आई, वहीं तुम और तन जाते हो। तुम अगर परमात्मा को खो रहे हो, तो सिर्फ एक अकड़ से कि तुम गर्दन झुकाने को राजी नहीं; समर्पण की तुम्हारी तैयारी नहीं। यह तो प्रतीक है गर्दन को लटका देना, जैसे कट गई, ताकि तुम झुक सको। और जैसे ही गर्दन झुकती है, भीतर देखना आसान हो जाता है। जैसे ही गर्दन झुकती है, विचार मुश्किल हो जाते हैं।
अब तुम सुनने की कोशिश करना। अभी तक तुम मंत्र का उच्चार कर रहे थे; अब तुम मंत्र के साक्षी बनने की कोशिश करना। और तुम चकित होओगे कि तुम पाओगे कि भीतर सूक्ष्म उच्चार चल रहा है। वह ओम जैसा है; ठीक ओम नहीं है, क्योंकि भाषा में उसे लाना कठिन है; ठीक ओम जैसा है। तुम अगर शांति से सुनोगे तो अब वह तुम्हें सुनाई पड़ेगा। शरीर से तुम हट गए। पहले मंत्र के प्रयोग ने तुम्हें शरीर से काट दिया। दूसरे मंत्र के प्रयोग ने तुम्हें मन से काट दिया। अब तीसरा मंत्र का प्रयोग साक्षी-भाव का है।
और इसलिए ओंकार से अदभुत कोई मंत्र नहीं है। ओम से अदभुत कोई मंत्र नहीं है। राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध प्यारे हैं, लेकिन मन के बाहर न ले जा सकेंगे। क्योंकि उनकी प्रतिमा, उनका रूप है। ओम अरूप है। और बुद्ध, कृष्ण, जीसस, उनके साथ तुम्हारा लगाव है; भाव है, प्रेम है, आसक्ति है, मोह है। वह मन के बाहर न ले जाने देगा। ओम बिलकुल अर्थहीन है। ओम बड़ा अनूठा है। इसमें कोई अर्थ नहीं है। न इसका कोई रूप है। न इसकी कोई प्रतिमा है। न इसकी कोई आकृति है। यह वर्णमाला का हिस्सा भी नहीं है। और यह निकटतम है उस ध्वनि के, जो भीतर सतत चल रही है, जो तुम्हारे जीवन का स्वभाव है। जैसे कि झरने कलकल का नाद करते हैं; उन्हें करना नहीं पड़ता, उनके बहने से ही कलकल नाद होता रहता है। जैसे हवा गुजरती है वृक्षों से तो एक सरसराहट की आवाज होती है; वह उसे करनी नहीं पड़ती, उसके गुजरने से और वृक्षों की टकराहट से हो जाती है। ऐसे ही तुम्हारा होना ही इस ढंग का है कि उसमें ओम गूंज रहा है। वह तुम्हारे होने की ध्वनि है--दि साउंड ऑफ योर बीइंग।
इसलिए ओम किसी धर्म की बपौती नहीं है। वह न हिंदुओं का है, न जैनों का, न बौद्धों का, न मुसलमानों का, न ईसाइयों का। ओम अकेला मंत्र है जो गैर-सांप्रदायिक है, बाकी सब मंत्र सांप्रदायिक हैं। यह तुम चकित होओगे कि जैन भी ओम का उपयोग करते हैं, बौद्ध भी ओम का उपयोग करते हैं, ईसाई भी उपयोग करते हैं, मुसलमान भी। थोड़ा फर्क है। वे ओम की जगह आमीन का उपयोग करते हैं। वह ओम का ही रूपांतरण है; वह ओम का ही भ्रष्ट रूप है। इस मुल्क से उन तक खबर पहुंचते-पहुंचते ओम आमीन हो गया। क्योंकि इसका संबंध सोच-विचार से नहीं है। यह तो जो लोग भी निस्सोच में डूब गए, उन्हें सुनाई पड़ा है।
तो दो चरण तो तुम मंत्र करोगे, तीसरे चरण में तुम मंत्र को सुनोगे; श्रावक बनोगे, साक्षी बनोगे। दो तक कर्ता रहोगे, क्योंकि शरीर और मन कर्तृत्व का हिस्सा है; और तीसरा चरण साक्षी-भाव का है। तो तीसरे चरण में तुम सिर्फ सुनना। शरीर कटा, मन कटा; तब तुम बच गए। प्याज के छिलके अलग हुए, अब सिर्फ शुद्ध अस्तित्व बचा। वही शिवत्व है।
और एक बार इसका स्वाद आ जाए, तो फिर तुम जल्दी-जल्दी जाने लगोगे। फिर स्वाद ही खींचने लगेगा। फिर स्वाद एक मैगनेट बन जाता है। और जिसमें हमें स्वाद आता है, उस तरफ हम सहज ही चले जाते हैं। कठिनाई तो वहीं होती है, जहां हमें स्वाद नहीं आता। तुम ध्यान लगाते हो, नहीं लगता, क्योंकि तुम्हें स्वाद नहीं आया अभी। पहला स्वाद आ जाए, उसके बाद कोई अड़चन न होगी। फिर तो मन वहां-वहां अपने आप पहुंच जाता है। जरा समय मिला, आंख बंद की--कि दिल के आईने में है तस्वीरे-यार। जब बाजार में, दुकान में, कहीं मौका मिला--जब जरा गर्दन झुकाई, देख ली।
वह स्वाद एक दफा आ जाए, वही पहला कदम कठिन है। पहला कदम आधी मंजिल के बराबर है। एक दफा स्वाद आ जाए, फिर तो मन भौंरे की तरह वहीं-वहीं जाता है जहां रस है। मन की सहज वृत्ति है वहीं-वहीं जाने की जहां रस है। तुम्हें रस नहीं आया अभी, इसलिए तुम ठोंक-पीट करते हो बहुत, कि मन को धक्का दो कि ध्यान लगाओ, ईश्वर का स्मरण करो। और वह कहता है, चलो बाजार, क्यों समय खराब कर रहे हो? इतनी देर में कुछ कमा ही लेते! और फिर यह बाद में कर लेना, जल्दी भी क्या है? जब समय हो, तब कर लेना; अभी दुकान का समय है, दफ्तर का समय है।
मन तुम्हें वहां ले जाता है, जहां उसने रस पाया है। उसका भी कोई कसूर नहीं। एक बार तुम्हें रस आ जाए भीतर का, तुम पाओगे, मुश्किल हो जाता है बाहर आना। अभी भीतर जाना मुश्किल, तब बाहर आना मुश्किल हो जाता है।
सारिपुत्त था बुद्ध का शिष्य, वह इस परम मंत्र की अवस्था को उपलब्ध हुआ। उसने भीतर का महामंत्र सुन लिया। जिस दिन उसने भीतर का महामंत्र सुना, बुद्ध ने कहा, अब तू जा और लोगों को शिक्षा दे। उसने कहा, अब मेरा जाने का कहीं मन नहीं होता। बुद्ध ने कहा, इसीलिए भेजता हूं। क्योंकि पहले तू बाहर पकड़ा हुआ था--वह भी बंधन था; अब कहीं तू भीतर न पकड़ जाए--वह भी बंधन है। जैसे बाहर से भीतर आने में कठिनाई थी, अब बाहर जाने में कठिनाई है।
परम सिद्ध तो वही है, जिसकी कठिनाई खो गई। वह बाहर-भीतर ऐसे आता है जैसे हवा का झोंका आता-जाता है। न बाहर आने में कोई अड़चन है, न भीतर जाने में कोई अड़चन है। बाहर बाहर नहीं है अब, भीतर भीतर नहीं है; दोनों एक हो गए। तुम
अपने घर के बाहर जैसी सरलता से आ जाते हो, जैसी सरलता से भीतर चले जाते हो, ऐसे ही यह जीवन तुम्हारा घर है, इसके बाहर और भीतर आने में कठिनाई नहीं होनी चाहिए।
तो कुछ हैं, जो आसक्त हैं संसार से; फिर कुछ हैं, जो आसक्त हो जाते हैं आत्मा से। दोनों आसक्त हैं और दोनों बंधन में हैं; परम मोक्ष फलित नहीं हुआ। ज्ञानी वही है, जिसका अब कोई बंधन नहीं--न बाहर, न भीतर; जिसका प्रवाह सहज है।
मंत्र की यह प्रक्रिया--तीसरा चरण जितनी देर तुम रह सको, सम्हालना। पहला चरण: शांत बैठना। शांत के पहले भूमिका: दस मिनट उछल-कूद, शरीर की सब बेचैनी को बाहर फेंक देना। क्योंकि शरीर में बेचैनी भरी रहती है। जब मैं यह कहता हूं तो यह एक वैज्ञानिक बात आपसे कह रहा हूं--शरीर में बेचैनी भरी रहती है।
जैसे तुम किसी को चांटा मारना चाहते हो, जब तुम चांटा मारना चाहते हो तो तुम्हारी शरीर-ऊर्जा हाथ में आ जाती है। इसलिए कमजोर आदमी भी जब चांटा मारता है तो बहुत जोर से मारता है। तुम आशा नहीं कर सकते थे कि यह आदमी और इतने जोर का चांटा मारेगा। यह साधारण हाथ नहीं रहा; ऊर्जा हाथ में आ गई। लेकिन चांटा तुम नहीं मार पाते; हजार कारण हो सकते हैं। जिंदगी जटिल है! जिसको तुम चांटा मारने जा रहे हो, उससे कुछ स्वार्थ है, वह पूरा करना जरूरी है। तुम चांटे को रोक लेते हो। ऊर्जा के वापस लौटने का कोई उपाय नहीं है। यह वैज्ञानिक शोध है, अत्यंत आधुनिक, कि शरीर से बाहर तो ऊर्जा के जाने का मार्ग है; बाहर गई ऊर्जा को भीतर लाने का कोई मार्ग नहीं है। तो जो ऊर्जा हाथ में आ गई, अब वह हाथ में रुकेगी, अगर तुमने चांटा नहीं मारा। चांटा किसको मारा, इससे फर्क नहीं पड़ता। तुम हवा में ही चांटा मार दो, तो भी ऊर्जा का निष्कासन हो जाएगा। लेकिन ऊर्जा को भीतर लाने वाले स्नायु शरीर में नहीं हैं। वह वहीं अटकी रहेगी।
और इस तरह तुम बहुत सी ऊर्जा चौबीस घंटे में शरीर के अलग-अलग हिस्सों में अटका लेते हो। फिर तुम ध्यान को बैठे। वह सब अटकी ऊर्जा बाधा डालेगी। इसलिए तुम कहते हो, पैर में दर्द हो रहा है। कहीं चींटी चढ़ रही है। कहीं यह कमर में कुछ मालूम होता है। कहीं गर्दन में खुजलाहट आती है। यह सब काल्पनिक नहीं है। यह तुम कल्पना नहीं कर रहे हो। यह हो रहा है। क्योंकि कभी तुम खाली बैठे नहीं, कुछ न कुछ में लगे रहे, ऊर्जा संलग्न थी। अब तुम खाली बैठे, तो जहां-जहां ऊर्जा अटकी है, वहां-वहां बेचैनी, रेस्टलेसनेस पैदा होगी।
एक छोटे बच्चे को देखो। उसको कह दो कि बैठो शांत! तो वह आंख बंद करके बैठ जाएगा; लेकिन देखो, कितनी मुसीबत उठा रहा है, सिर्फ खाली बैठने में! हाथ को दबाएगा, पैर को दबाएगा, आंख बंद करेगा, मुंह रोकेगा; क्योंकि सब तरफ ऊर्जा का प्रवाह है। पैर भागना चाहते हैं। हाथ फैलना चाहते हैं। आंखें देखना चाहती हैं। कान सुनना चाहते हैं। उनकी पुरानी आदत है। वह ऊर्जा का पुराना प्रवाह का ढंग है।
इसलिए मैं सदा जोर देता हूं कि प्रत्येक ध्यान के पहले रेचन जरूरी है। रेचन तुम्हें सहयोगी होगा। दस मिनट दौड़ लो, कूद लो, उछल लो; सारी ऊर्जा जो जम गई है, उसे फेंक दो। फिर बैठ जाओ। जैसे तूफान के बाद शांति आ जाती है, ऐसे रेचन के बाद शरीर हलका हो जाता है, उसकी बेचैनी खो जाती है। पर वह भूमिका है, वह कोई चरण नहीं। वह मकान के बाहर की सीढ़ी है। मकान के भीतर असली यात्रा तो शुरू होती है: दस मिनट ओंकार की ध्वनि शरीर से; दस मिनट ओंकार की ध्वनि मन से; दस मिनट ओंकार की ध्वनि तुम्हें नहीं करनी, वह अस्तित्व में हो ही रही है, तुम्हें सिर्फ सुननी है।
इसलिए मैं कहता हूं--राम, कृष्ण, बुद्ध उतने ठीक नहीं होंगे; दूसरे चरण तक तो ले जाएंगे, तीसरे चरण तक नहीं ले जाएंगे। क्योंकि तीसरे चरण में जो ध्वनि हो रही है, वह ओम की है। लेकिन कभी-कभी राम से भी कोई तीसरे चरण में पहुंच जाता है। वह वैसा ही जैसा कभी तुम ट्रेन में चलते हो, रेलगाड़ी आवाज करती है: छक-छक, छक-छक। उसमें तुम कोई भी चीज सोचना चाहो तो सोच सकते हो। तुम अगर सोचना चाहो--अल्लाह, अल्लाह, अल्लाह। धीरे-धीरे तुमको लगने लगेगा कि वह छक-छक नहीं है, अल्लाह, अल्लाह, अल्लाह हो रहा है। या राम, राम, राम; तो राम-राम हो रहा है। लेकिन हो सिर्फ छक-छक, छक-छक रहा है।
ओम शुद्ध ध्वनि है। अगर तुम राम को ही पकड़ कर चलोगे तो तुम्हें राम भी सुनाई पड़ने लगेगा वहां, लेकिन वह आरोपण है। और आरोपण का अर्थ है--मन थोड़ा जिंदा है।
हम वही जानना चाहते हैं, जो है। हम वही देखना चाहते हैं, जो है। हम मन को उसके ऊपर थोपना नहीं चाहते, रंग नहीं देना चाहते। इसलिए मंत्र, महा मंत्र तो ओंकार है। बाकी सब मंत्र छोटे-छोटे हैं; दूसरे तक ले जा सकते हैं, तीसरे में बाधा डालेंगे। कोई जरूरत नहीं है।
तुम ओम का प्रयोग करना। और इस भांति जैसा मैंने कहा। तीन महीने तुम चिंता मत करना कि क्या परिणाम आ रहे हैं। तुम परिणाम का विचार ही मत करना। तुम सिर्फ किए जाना। तुम सोचना ही मत कि कुछ हो रहा है कि नहीं हो रहा, अभी तक हुआ कि नहीं। तुम तीन महीने तक सोचना ही मत। तुम एक तारीख तय कर लेना कि तीन महीने, फलां तारीख को लौट कर सोचेंगे कि कुछ हुआ कि नहीं; तब तक नहीं सोचेंगे फल को। अगर तुमने इतना साहस रखा...और यह साहस वैसा ही है जैसा छोटे बच्चे कभी-कभी आम की गोई बो देते हैं, आधी घड़ी बाद जाकर फिर निकाल कर देखते हैं कि अभी तक अंकुर आया कि नहीं। फिर गड़ा आते हैं उदासी में कि अभी तक कुछ नहीं हुआ। फिर घड़ी भर बाद पहुंच जाते हैं, फिर उखाड़ कर देख लेते हैं। यह अंकुर कभी आएगा ही नहीं। क्योंकि अंकुर आने के लिए जरूरी है एक समय की सीमा कि गोई अंधकार में दबी रहे, पृथ्वी में गड़ी रहे।
तुम्हारा ध्यान भी फल नहीं ला पाता; क्योंकि तुम बार-बार गोई को उखाड़-उखाड़ कर देखते हो--कुछ हुआ कि नहीं? वह हृदय में पहुंच ही नहीं पाता, उसके पहले तुम निकाल कर देख लेते हो।
जीसस ने कहा है, तुम्हारा दायां हाथ क्या करता है, तुम्हारे बाएं हाथ को पता न चले।
मंत्र को ऐसा गड़ा दो भीतर। उसको उखाड़-उखाड़ कर मत देखो; वह बीज है। इसलिए मंत्र को हमने बीज कहा है। बीज का अर्थ है कि उसको उखाड़-उखाड़ कर मत देखना। उसका समय है। वह अपने समय से ही फूटेगा, तुम्हारी जल्दबाजी से नहीं। तुम्हारी जल्दबाजी से उलटा ही परिणाम होगा कि शायद वह कभी न फूटे।
इस महामंत्र को इस समाधि शिविर से अपने साथ ले जाएं और प्रयोग करें। तीन महीने धैर्य से किया तो बड़े मीठे रस से भर जाएंगे; जिसको कबीर ने गूंगे का गुड़ कहा है। और एक बार वह गुड़ स्वाद में आ जाए, फिर कोई कठिनाई नहीं है। फिर तुम जहां हो, ठीक हो; तुम जो कर रहे हो, ठीक हो। फिर संसार स्वप्नवत हो जाता है। जीवन एक अभिनय से ज्यादा नहीं रह जाता। तुम साक्षी हो जाते हो। तुम्हारा साक्षित्व ही शिवत्व है।
अब हम सूत्रों को लें।
‘सुख-दुख बाह्य वृत्तियां हैं, ऐसा सतत जानता है।’
वह जो शिवत्व को उपलब्ध हुआ, ऐसा सतत जानता है कि सुख-दुख बाह्य वृत्तियां हैं।
सुख भी बाहर घटता है, दुख भी बाहर घटता है; दोनों में से कोई भी तुम्हारे भीतर नहीं पहुंचता। लेकिन तुम दोनों से परेशान हो जाते हो। सुख को भी तुम पकड़ लेते हो और तादात्म्य कर लेते हो और समझते हो मैं सुखी हूं। बस तुमने दुख पैदा किया! अब देर नहीं है। यहीं से दुख शुरू हो गया। जैसे ही तुमने कहा--मैं सुखी हूं, तुमने दुख के बीज बो दिए। अब ज्यादा देर न लगेगी, जल्दी ही दुख आ जाएगा। क्योंकि दुख का अर्थ है--वृत्तियों के साथ एक हो जाना। फिर जब दुख आएगा, तब तुम दुख के साथ एक हो जाओगे।
तुम्हारी तकलीफ यह है कि जो भी सामने आता है, तुम उसी के साथ एक हो जाते हो; जो भी दिखाई पड़ता है, उसमें तुम देखने वाले नहीं रह जाते, भोक्ता हो जाते हो। दुख आया तो रोते हो, छाती पीटते हो; सुख आया तो नाचने-कूदने लगते हो।
सुख भी बाहर से आता है, दुख भी बाहर से आता है; और तुम्हारे भीतर जाने का कोई उपाय नहीं। लेकिन तुम ही अपने हाथ से सुख-दुख के साथ जुड़ कर सुख-दुख भोग लेते हो। जैसे ही कोई व्यक्ति मन के पार गया, उसे फिर दिखाई पड़ेगा कि यह सब मंदिर के बाहर ही हो रहा है, भीतर कुछ आता नहीं।
‘सुख-दुख बाह्य वृत्तियां हैं, ऐसा सतत जानता है।’
सतत शब्द महत्वपूर्ण है। ऐसा कभी-कभी तो तुम भी जानते हो। और अक्सर जब दूसरे को समझाना हो, तब तो तुम पक्का ही जानते हो। तुम जितने बुद्धिमान दूसरों के लिए हो, काश उतने ही अपने लिए होते! जितनी समझ सलाह में तुम लगाते हो, उतनी समझ काश तुमने अपनी जीवन-यात्रा में लगाई होती!
क्या कारण है, दूसरे के लिए तुम इतने समझदार क्यों होते हो? कोई आदमी दुख में है तो तुम कहते हो, क्यों परेशान हो रहे हो! यह सब चलता रहता है; संसार है! अपने को जरा दूर रखो। और यही दुख तुम पर आएगा, तो बड़े मजे की बात है, हो सकता है यही आदमी, जिसको तुम सलाह दे रहे हो, वह तुम्हें सलाह दे कि भाई, सुख-दुख तो बाहर की वृत्तियां हैं। बात क्या है? कारण क्या है? कारण यह है कि जब दूसरे पर दुख आता है, तब तुम साक्षी हो। इसलिए ज्ञान उत्पन्न होता है। दूसरे पर दुख आ रहा है, तुम पर तो आ नहीं रहा। तुम सिर्फ देखने वाले हो। इतने ही देखने वाले जब तुम अपने दुख के लिए हो जाओगे, तब इतना ही ज्ञान तुम्हें अपने प्रति भी बना रहेगा। तुमने अभी अपना ज्ञान बांटा है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक मनोचिकित्सक के पास गया और उसने कहा कि मेरी पत्नी की हालत अब खराब है, कुछ आपको करना ही पड़ेगा। मनोचिकित्सक ने अध्ययन किया पत्नी का कुछ सप्ताह तक और कहा कि इसका मस्तिष्क तो बिलकुल खत्म हो गया है। नसरुद्दीन ने कहा, वह मुझे पता था। रोज मुझे बांटती थी, मुझे देती थी। आखिर हर चीज खत्म हो जाती है। रोज थोड़ा-थोड़ा करके अपनी बुद्धि मुझे देती रही, खत्म हो गई।
तुम दूसरों को तो बुद्धि बांट रहे हो; लेकिन उसी बुद्धि का प्रयोग तुम अपने पर ही नहीं कर पाते।
अब जब दुबारा तुम्हारे जीवन में सुख आए तो तुम ऐसे देखना जैसे किसी और के जीवन में आया है। तुम जरा दूर खड़े होकर देखने की कोशिश करना। जरा फासला चाहिए। थोड़ा सा भी फासला काफी फासला हो जाता है। बिलकुल सट कर मत खड़े हो जाओ अपने से। तुम अपने पड़ोसी हो। इतने सट कर मत खड़े हो जाओ।
नसरुद्दीन से मैंने पूछा यह कि जो रास्ते के किनारे पर होटल है, उस होटल का मालिक कहता है कि तुम्हारा बहुत सगा-संबंधी है, बहुत निकट का है। नसरुद्दीन ने कहा, गलत कहता है। नाता है, लेकिन बहुत दूर का। बड़ा फासला है। मैंने पूछा, क्या नाता है? तो नसरुद्दीन ने कहा कि हम एक ही बाप के बारह बेटे हैं। वह पहला है, मैं बारहवां हूं। बड़ा फासला है।
तुम अपने पड़ोसी हो, फासला काफी है। ज्यादा सट कर मत खड़े होओ। जरा दूरी रखो। दूरी के बिना परिप्रेक्ष्य खो जाता है, पर्सपेक्टिव खो जाता है। कोई भी चीज देखनी हो तो थोड़ा सा फासला चाहिए। तुम अगर बिलकुल फूल पर आंखें रख दो, तो क्या खाक दिखाई पड़ेगा! कि तुम दर्पण में बिलकुल सिर लगा दो, तो कुछ भी दिखाई न पड़ेगा। थोड़ी दूरी चाहिए।
अपने से थोड़ी दूरी ही सारी साधना है। जैसे-जैसे दूरी बढ़ती है, तुम हैरान होकर देखोगे कि तुम व्यर्थ ही परेशान थे। जो घटनाएं तुम पर कभी घटी ही न थीं, तुमसे बाहर घट रही थीं, सिर्फ करीब खड़े होने के कारण प्रतिबिंब तुममें पड़ता था, छाया तुम पर पड़ती थी, ध्वनि तुम तक आ जाती थी, उसी प्रतिध्वनि को तुम अपनी समझ लेते थे और परेशान होते थे।
एक मकान में आग लगी थी और मकान का मालिक स्वभावतः छाती पीट कर रो रहा था। लेकिन एक आदमी ने कहा, तुम नाहक परेशान हो रहे हो; क्योंकि मुझे पता है, तुम्हारे लड़के ने कल यह मकान बेच दिया है। उसने कहा, क्या कहा!
यह लड़का गांव के बाहर गया था। रोना खो गया। मकान में अब भी आग लगी है। वह बढ़ गई है बल्कि पहले से। लपटें उठ रही हैं, सब जल रहा है। लेकिन अब यह आदमी इस मकान से फासले पर हो गया। अब यह मकान मालिक नहीं है।
तभी लड़का भागता हुआ आया। और उसने कहा, क्या हुआ? यह मकान जल रहा है? सौदा तो हो गया था, लेकिन पैसे अभी मिले नहीं थे। अब जले के कौन पैसे देगा?
फिर बाप छाती पीटने लगा। मकान वहीं का वहीं है। उसमें कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। मकान को पता ही नहीं कि यहां सुख हो गया, दुख हो गया। और फिर फर्क हो सकता है! अगर वह आदमी आकर कह दे कि कोई बात नहीं, मैं वचन का आदमी हूं; जल गया, जल गया; खरीद लिया, खरीद लिया; पैसे दूंगा। फिर बात बदल गई।
सब बाहर हो रहा है। और तुम इतने करीब सट कर खड़े हो जाते हो, उससे कठिनाई होती है। थोड़ा फासला बनाओ। जब सुख आए, तो थोड़ा दूर खड़े होकर देखना। जब दुख आए, तब भी दूर खड़े होकर देखना। और सुख से शुरू करना, ध्यान रहे। दुख से शुरू मत करना।
हममें से अक्सर लोग, जब दुख होता है, तब दूर होने की कोशिश करते हैं। तब सफल न हो पाओगे। वह जरा कठिन मार्ग है। जब सुख होता है तब दूर होने की कोशिश करना। क्योंकि दुख से तो सभी दूर होना चाहते हैं, वह बिलकुल सामान्य मन की वृत्ति है। सुख से कोई दूर नहीं होना चाहता। इसलिए दुख से दूर होने की तुम कोशिश मत करना; क्योंकि वह तो तुम सदा से कर रहे हो। उससे कुछ फल नहीं हुआ। उलटे चलना होगा। जैसी तुमने यात्रा की है, उससे तो तुम भटकते ही चले गए हो। अब वापस लौटना होगा। प्रतिक्रमण करना होगा।
इसको महावीर प्रतिक्रमण कहते हैं, पतंजलि ने प्रत्याहार कहा है। वापस लौटना होगा--रिटर्निंग बैक टु दि सोर्स। थोड़े कदम वापस लौट आओ। सुख जब आए तब जरा दूर खड़े होकर देखो। मत धड़कने दो हृदय को जोर से। मत नाचो। इतना ही जानो कि आया है, यह भी चला जाएगा। रुकने वाला नहीं; कुछ रुकता नहीं। लहर है हवा की, आई और गई। तुम जान भी न पाए कि चली गई। बस दूर खड़े होकर साक्षीभाव से देखते रहो।
क्या होगा? डर क्या है? सुख को हम देखते क्यों नहीं साक्षीभाव से? साक्षीभाव से न देखने के पीछे कारण है; क्योंकि साक्षी-भाव से देखा कि सुख सुख न रह जाएगा। वह सुख था ही, जितने तुम करीब थे। जितने तुम भूले थे, उतना ही सुख था। जितनी याद की, उतना ही कुछ न रह जाएगा। इसलिए कोई आदमी सुख का साक्षी नहीं होना चाहता। पर वहीं से यात्रा है।
सुख आए, साक्षीभाव से देखना। देखते-देखते ही तुम पाओगे: सुख खो गया, तुम रह गए। और अगर तुम सुख में सफल हो गए, फिर तुम दुख में सफल हो जाओगे। कुंजी तुम्हारे हाथ में है। फिर दुख आए, तुम दूर से खड़े होकर देखना। और दूर खड़े हो सकते हो; क्योंकि शरीर और तुम दूर हो। इससे बड़ी दूरी किन्हीं दो चीजों के बीच नहीं हो सकती। चेतना और पदार्थ की दूरी से बड़ी दूरी और क्या हो सकती है! चांद-तारे भी इतने दूर नहीं हैं एक-दूसरे से, जितना तुम अपने शरीर से दूर हो। एक जड़ है, एक चेतन है। एक मिट्टी से बना है--मृण्मय है; एक चैतन्य से बना है--चिन्मय है। बड़ा फासला है। इससे ज्यादा विपरीत छोर नहीं मिल सकते।
सुख से शुरू करो, दुख तक ले जाओ। और एक ही बात स्मरण रखो कि तुम बाहर हो।
सुख-दुख बाह्य वृत्तियां हैं, ऐसा तुम्हें साधना पड़ेगा; लेकिन बार-बार खो-खो जाएगा। यह सतत नहीं हो सकता। सतत तो तभी होगा, जब तुम आत्मा में थिर हो जाओगे; जब मंत्र सफल हो जाएगा, मन कट जाएगा। लेकिन तब तक जितनी देर बने, साधना। जितनी देर अभ्यास कर सको, करना। उससे रास्ता साफ होगा। उससे भला बीज न बोए जाएं, लेकिन जमीन साफ होगी। बीज बोने के वक्त कम से कम तैयार जमीन तुम पाओगे। यह बार-बार खो जाएगा, यह सतत नहीं रह सकता। जरा ही तुम होश गंवाओगे कि फिर सुख पकड़ लेगा, दुख पकड़ लेगा।
सुख-दुख बाह्य वृत्तियां हैं, शिवत्व को उपलब्ध योगी ऐसा सतत जानता है। सतत का अर्थ है, एक भी क्षण को व्यवधान नहीं पड़ता। सतत तो वही चीज हो सकती है जो तुम्हारा स्वभाव हो। जो तुम्हारा स्वभाव नहीं, वह सतत नहीं हो सकता। तुम कितनी देर क्रोध कर सकते हो?
बोधिधर्म गया चीन। चीन के सम्राट ने उससे कहा कि मेरे मन में बड़ा क्रोध आता है, मैं क्या करूं? तो बोधिधर्म ने कहा, तुमको अगर क्रोध करना पड़े तो तुम कितनी देर कर सकते हो? उसने कहा, कितनी देर! यह भी कोई सवाल है? घड़ी, आधा घड़ी ज्यादा से ज्यादा। तो बोधिधर्म ने कहा, जो घड़ी, आधा घड़ी किया जा सके, वह तुम्हारा स्वभाव नहीं है। चौबीस घंटे कर सकते हो? सतत कर सकते हो? उस सम्राट ने कहा, हम घड़ी, दो घड़ी करके परेशान हो रहे हैं! और यह हम पूछने आए भी नहीं कि सतत कैसे करें। बोधिधर्म ने कहा, यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि जो तुम सतत कर सको, वही स्वभाव है। इसमें परेशान क्यों हो रहे हो?
क्या है जो तुम सतत कर सकते हो? इसे थोड़ा सोचना। तुम सुखी भी सतत नहीं रह सकते हो। यह तुम्हें बहुत कठिन मालूम पड़ेगा समझ में आना; लेकिन मैं तुमसे कहता हूं, तुम सुखी सतत नहीं रह सकते हो। थोड़ी देर सोचो, कितनी देर सुखी रह पाते हो? कुछ भी हो जाए, थोड़ी देर में सुख खोने लगता है, तुम दुखी होने लगते हो। अगर कुछ भी न हो तो तुम सुख से ही ऊब जाओगे। महल हो, अच्छा भोजन हो, पत्नी हो, सब हो; कोई दुख-दुविधा न हो, कोई अड़चन न हो; क्या करोगे? कितनी देर सुखी रहोगे? घड़ी, दो घड़ी में तुम ऊब जाओगे। स्वाद बदलना चाहोगे।
अक्सर ऐसा होता है, सुंदरतम पत्नी वाला व्यक्ति भी साधारण नौकरानी के प्रेम में पड़ जाता है। दूसरों को हैरानी होती है; क्योंकि दूसरे साक्षी हैं कि यह क्या हो रहा है। ऐसी सुंदर स्त्री जो कि खोजनी मुश्किल है, उसको छोड़ कर एक बदशक्ल नौकरानी! क्या हो गया इस आदमी को?
स्वाद बदल रहा है। ऊब गया! सौंदर्य भी उबा देता है। एक सुंदर स्त्री को भी कब तक देखते रहोगे! थोड़ी देर में सिर पीटने लगोगे। अच्छे से अच्छा गीत भी कितनी बार सुनोगे! सिर घूमने लगेगा। कहोगे कि अब बंद करो। अगर फिर भी गीत बजता ही जाए, तो नारकीय हो जाएगा।
मन किसी चीज को सतत सह ही नहीं सकता। सुख को भी नहीं सह सकता। इसलिए जब भी सुख होता है, तत्क्षण मन दुख पैदा करता है। उससे स्वाद बदलता है। फिर तुम तैयार हो जाते हो सुख झेलने के लिए। तुम शांत भी नहीं बैठ सकते हो थोड़ी देर; मन जल्दी ही अशांति पैदा कर लेगा; क्योंकि शांति भी उबाने लगती है।
बर्ट्रेंड रसेल ने लिखा है कि मैं मोक्ष जाना पसंद न करूंगा; क्योंकि मैंने सुना है कि मोक्ष में सिद्धशिला पर लोग बैठे हुए हैं अनंत काल से। कुछ करने को भी नहीं है वहां; क्योंकि करने का मतलब संसार। महावीर स्वामी क्या करते होंगे? बैठे हैं सिद्धशिला पर। कितने दिन से बैठे हैं! और कब तक बैठना है, इसका कोई अंत भी नहीं है। और काम भी नहीं है। अखबार भी नहीं छपते वहां कि सुबह से बैठ कर पढ़ो। कोई खबर ही वहां नहीं घटती; क्योंकि खबरें तो गलत जगह घटती हैं। नर्क में बहुत घटती हैं। यहां से भी ज्यादा घटती हैं। वहां दिन में कम से कम दस-बारह एडिशन अखबार के निकालने पड़ते होंगे। क्योंकि वहां घटता ही रहता है; मार-पीट, काट चलती ही रहती है। स्वर्ग में कुछ घट ही नहीं रहा; सब अपनी-अपनी सिद्धशिला पर बैठे हैं।
बर्ट्रेंड रसेल ने लिखा है, इससे मन ऐसा घबड़ाता है कि इससे तो नर्क बेहतर है।
मन ठीक कह रहा है। लेकिन बर्ट्रेंड रसेल को पता नहीं कि मन जब तक हो, तब तक कोई मोक्ष नहीं जाता। मन तो यहीं छूट जाता है जो बदलाहट मांगता है। मोक्ष तो वही जाता है जिसका मन न रहा। मोक्ष तो वही जाता है जो सतत है।
तुम्हारे भीतर सतत तुम क्या झेल सकोगे? न तो सुख तुम सतत झेल सकते हो, क्योंकि उससे भी उत्तेजना होती है; न तुम दुख सतत झेल सकते हो, क्योंकि उससे भी उत्तेजना होती है। तुम सिर्फ शांत हो सकते हो सतत; क्योंकि वह उत्तेजना की अवस्था नहीं है। वह दोनों के ठीक मध्य में और दोनों के पार है।
मैं मुल्ला नसरुद्दीन के घर मेहमान था। उसका बेटा खाना खा रहा था। पहले वह बाएं हाथ से खा रहा था, फिर थोड़ी देर में उसने दाएं हाथ से खाना शुरू कर दिया। मैं थोड़ा चौंका। फिर मैंने देखा कि उसने फिर बाएं हाथ से शुरू कर दिया। नसरुद्दीन ने कहा, हजार बार तुझसे कहा लड़के कि दाएं हाथ से खाना खा! बाएं हाथ से मत खा! लड़के ने कहा, क्या फर्क पड़ता है; मुंह बिलकुल दोनों के बीच में है--चाहे इधर से खाओ, कि उधर से खाओ। यात्रा बराबर करनी पड़ती है। मुंह बिलकुल मध्य में है।
सुख और दुख के मध्य में खोजना किसी बिंदु को, वही सतत हो सकता है। ठीक मध्य में संतुलन है, सम्यकत्व है। वहां न यह अति है, न वह अति है। जैसे तराजू होता है, वह जो मध्य में कांटा है बीच में थिर--वही तुम हो सकते हो। इस पर वजन पड़ा, थोड़ी देर में थक जाओगे, दूसरी तरफ वजन डालना पड़ेगा। जैसे लोग मरघट ले जाते हैं अरथी को रख कर कंधे पर; रास्ते में कंधा बदलते हैं। एक कंधा दुखने लगता है, दूसरे पर रख लेते हैं। कुछ वजन कम नहीं होता, लेकिन कंधा बदलने से राहत मिलती है। फिर थोड़ी देर में यह कंधा दुखने लगता है, दूसरे पर रख लेते हैं।
सुख-दुख तुम्हारे कंधे हैं और कर्ता का भाव तुम्हारी अरथी है जिसको तुम बदलते रहते हो। कभी सुख के साथ जुड़ जाते हो, कभी दुख के साथ जुड़ जाते हो। साक्षी बनो! मध्य में ठहर जाओ। तब तुम सतत रह पाओगे। बुद्धत्व सतत रह सकता है, क्योंकि वह शांत अवस्था है। वहां आनंद तो है, लेकिन वह आनंद सूरज की प्रगाढ़ किरणों की भांति नहीं, चांद की शांत किरणों की भांति है। वहां आनंद तो है, लेकिन जलती हुई अग्नि की भांति नहीं, शांत आलोक की भांति। उसमें कोई तनाव नहीं है। उसमें कोई बेचैनी नहीं है।
तुमने खयाल किया कि सुखी आदमी अक्सर हार्ट फेल से मर जाते हैं। कभी बहुत सुख जा आए, लाटरी एकदम से मिल जाए--न मिले तो मुसीबत, मिल जाए तो मुसीबत--एकदम से लाटरी मिल जाए कि तुम गए।
मैंने सुना है, एक आदमी को लाटरी मिल गई दस लाख रुपये की। पत्नी को खबर मिली। पत्नी बहुत घबड़ाई; क्योंकि वह अपने पति को जानती है, दस पैसे मिल जाएं तो हार्ट फेल हो जाए। दस लाख रुपये! पति बाहर थे। वह भागी पड़ोस में गई। एक मंदिर के पुजारी को उसने पकड़ा, क्योंकि वह उसको ज्ञानी समझती थी। उसने कहा, भैया, कुछ मेरी सहायता कर। पति घर आएं, उसके पहले कुछ जमाओ। दस लाख रुपये की लाटरी मिल गई है! उसने कहा, मत घबड़ा। ढंग से हम समझा लेंगे। मात्रा-मात्रा में काम करना पड़ेगा। आने दे पति को, मैं आता हूं।
पुजारी जाकर बैठ गया। पति आया। तो पुजारी ने सोचा कि दस लाख बहुत ज्यादा हो जाएगा, एक लाख से शुरू करें। धीरे-धीरे चोट करने से ठीक रहेगा। तो उसने कहा, सुनो, एक लाख रुपये लाटरी में मिल गया! वह आदमी बोला, सच! अगर एक लाख मिला, पचास हजार तुम्हारे मंदिर को दान। वह पुजारी का वहीं हार्ट फेल हो गया। उसने कभी सोचा ही नहीं था--पचास हजार!
सुख भी मार डालता है। दुख तो मारता ही है, सुख भी मार डालता है; क्योंकि दोनों में एक उत्तेजना है। और जहां उत्तेजना है वहां चीजें टूट जाती हैं। सतत तो वही रह सकता है जो तुम्हारा अनुत्तेजित स्वभाव है। जिसे साधना न पड़े, वही सतत रह सकता है। जो सदा बिना साधे तुम्हारे भीतर है, वही सतत रह सकता है। जिसे तुम छोड़ भी नहीं सकते, वही सतत रह सकता है।
इसलिए सारे धर्म की खोज स्वभाव की खोज है। स्वभाव की खोज धर्म है; क्योंकि वह शाश्वत है। उससे तुम कभी न ऊबोगे; क्योंकि वह तुम ही हो। उससे अलग होने का उपाय ही नहीं है। उसके पार खड़े होकर देखने का उपाय नहीं है। जिससे भी तुम दूर खड़े होकर देख सकते हो, उससे तुम ऊब जाओगे; वह तुम्हारा स्वभाव नहीं है।
मंत्र जब मन को मार डालेगा, मंत्र के द्वारा मन जब आत्महत्या कर लेगा, तब तुम्हारे भीतर उस सतत झरने का प्रवाह शुरू होगा। और जैसे ही यह सतत झरना पैदा होता है, और सुख-दुख बाह्य वृत्तियों से विमुक्त, वह केवली हो जाता है। तब वह अकेला है। और वह अपने अकेले धुन में मस्त है। अब उसे कुछ भी न चाहिए। अब सब चाह मर गई। क्योंकि सुख भी बाहर है, दुख भी बाहर है। अब न तो वह सुख की चाह करता है, न दुख से बचने की चाह करता है। जो बाहर है, उससे उसका संबंध ही छूट गया। अब तो वह अपने भीतर थिर है। और भीतर सतत आनंदित है, इसलिए चाह का कोई सवाल नहीं। अब वह सतत अपनी चेतना में रमता है। उसका सच्चिदानंद अब निरंतर चलता रहता है। वह उसकी श्वास-श्वास में, होने के कण-कण में व्याप्त है।
‘और उनसे विमुक्त, वह केवली हो जाता है।’
‘उस कैवल्य अवस्था में आरूढ़ हुए योगी का अभिलाषा-शून्यता के कारण जन्म-मरण का पूर्ण क्षय हो जाता है।’
फिर न कोई जन्म है, न फिर कोई मरण है। जन्म और मरण सुख की खोज की यात्रा में हैं। हम चाहते हैं सुख। सुख मिल सकता है केवल शरीर से, तो शरीर ग्रहण करना पड़ता है। जैसा सुख हम चाहते हैं, वैसा शरीर हम ग्रहण कर लेते हैं। फिर सुख की आकांक्षा मरते क्षण भी बनी रहती है। मरते जाते हैं, लेकिन सुख की आकांक्षा बनी रहती है। वही आकांक्षा बीज बन जाती है नये जन्म का।
जब एक वृक्ष मरने लगता है, तो क्या करता है? मरने के पहले वृक्ष अपनी सारी जीवन-ऊर्जा को इकट्ठा करके बीज में संगृहीत कर देता है। बीज उस वृक्ष की आकांक्षा है कि मैं फिर भी रहूंगा। और बीज बड़ी अदभुत घटना है! क्योंकि वृक्ष इतना बड़ा है, लेकिन अपने सार-संचय को वह निचोड़ कर बीज में रख देता है। और उस बीज को यात्रा पर भेज देता है। यह वृक्ष तो मर जाएगा, यह देह तो गिरेगी, लेकिन नयी देह का उसने इंतजाम कर लिया। और इसलिए तुम देखो, एक वृक्ष एक बीज से पैदा होता है। लेकिन मरते वक्त, मरने के पहले, एक वृक्ष करोड़ों बीज छोड़ जाता है। क्योंकि क्या भरोसा एक बीज न पहुंच पाए ठीक भूमि तक! पत्थर पर गिर जाए! पानी न मिले! जानवर खा जाएं! कोई रौंद डाले! इतना खतरा वृक्ष मोल नहीं ले सकता। एक के साथ तो खतरा रहेगा, बचे न बचे। इसलिए करोड़ बीज पैदा करता है। और हजार उपायों से बीज को ऐसी जगह भेजता है जहां उसको ठीक भूमि मिल जाए।
तुम देखो! सेमर का फूल देखा? सेमर के वृक्ष की एक खूबी है कि उसके नीचे कोई पौधा पैदा नहीं हो सकता। इसलिए सेमर अपने बीज में रुई लगा देता है, ताकि कोई बीज नीचे न गिर पाए। क्योंकि नीचे गिरा तो मर जाएगा। तुम यह मत समझना कि रुई तुम्हारे गद्दे-तकियों में भरने के लिए सेमर लगाता है। रुई लगाता है सेमर अपने बीज को पंख देने के लिए, ताकि हवा के झोंकों में वह दूर चला जाए। एक बात पक्की कर लेता है कि नीचे न गिर पाए बस, कहीं भी गिरे, यहां न गिर पाए; क्योंकि नीचे सेमर के कोई वृक्ष पैदा न होगा। सेमर सारे पानी को चूस लेता है।
बड़े वृक्ष के नीचे पैदा होना मुश्किल भी है। इसलिए सभी वृक्ष अपनी-अपनी तरकीबें खोजते हैं। तुम इनको इतना आसान मत समझना। वे सब काफी कुशल और चालाक हैं। तुम उनको सीधा-सादा मत समझना! संसार में कोई सीधा-सादा हो ही नहीं सकता। सीधा-सादा हुआ कि मोक्ष! यहां तो तिरछा ही हो सकता है। तिरछा होना यहां होने की शर्त है। वही यहां योग्यता है। तो वृक्ष हजार...अगर तुम वृक्षों के संबंध में अध्ययन करो, तुम चकित हो जाओगे कि कैसी-कैसी तरकीबें वृक्ष खोजते हैं! तितलियों के सहारे; तितलियों को आकर्षित करते हैं। तितलियां सोचती होंगी कि शायद यह जो मधुर रस बह रहा है वृक्ष में, उनके लिए है। वे भ्रांति में हैं। उनको केवल रिश्वत दी जा रही है। वृक्ष उनके पैरों में, पंखों में अपने बीज को लगा कर भेज रहा है। हजार तरकीबें वृक्ष करेगा बचने की। और जब वृक्ष इतनी तरकीबें करता है, तुम कितनी न करते होओगे! तुम्हारी चालाकी का तो कोई अंत नहीं।
एक मनुष्य, एक पुरुष, अगर उसके पूरे वीर्यकणों का उपयोग करे, तो इस पूरी पृथ्वी पर जितनी जनसंख्या है, एक पुरुष पैदा कर सकता है। एक साधारण पुरुष अपने जीवन में--साधारण, न ब्रह्मचारी, न व्यभिचारी, दोनों के मध्य में जो साधारण है--वह कम से कम चार हजार बार संभोग करता है। एक संभोग में कोई दस करोड़ जीवाणु, दस करोड़ बीज, एक संभोग में स्खलित होते हैं। अगर उसके सभी बीज सफल हो जाएं--जो कि किसी दिन हो सकता है; अब तक तो नहीं हो सकता था, क्योंकि स्त्री की सीमा है, क्षमता है, उसको नौ महीने लगेंगे एक बीज पके। तो एक स्त्री बहुत से बहुत बारह, पंद्रह, बहुत से बहुत चौबीस बच्चे पैदा कर सकती है। इसलिए सीमा है। इसलिए सम्राट हजारों रानियां रख लेते थे, ताकि वह सीमा तोड़ दी जाए।
लेकिन अब वैज्ञानिक उपायों से यह संभव हो गया है कि हम एक ही व्यक्ति के वीर्यकणों को सारी स्त्रियों को दुनिया में दे दें, इंजेक्ट कर दें। इस बात की बहुत संभावना है। क्योंकि वैज्ञानिक जब सुझाव देते हैं, उनके सुझाव कितने ही खतरनाक हों, थोड़े-बहुत दिनों में स्वीकृत हो जाते हैं। क्योंकि वे कहते हैं, सभी लोगों को बच्चे पैदा करने का हक नहीं होना चाहिए। आइंस्टीन जैसा कोई आदमी, जिसके पास ऐसी प्रतिभा है, उसके बीज का उपयोग करो। ठीक है! जब बागवानी में तुम इतनी कुशलता बताते हो कि बीज चुनते हो, तो आदमी की बागवानी में क्यों न बीज चुनो! बागवान देखता है, अच्छे से अच्छा बीज खोज कर लाता है। हर कुछ रद्दी नहीं बो देता।
तो आज नहीं कल, दुनिया में सभी लोगों को बच्चे पैदा करने का हक नहीं रह जाने वाला। थोड़े से लोग, जिनको वैज्ञानिक तय करेंगे--स्वास्थ्य में, बुद्धि में, प्रतिभा में, उम्र में--उनका बीज उपयोग में लाया जाएगा। और उसके पैकेट मिल सकेंगे। उसको तुम ले आ सकते हो। तब एक ही आदमी पूरी पृथ्वी को भर दे, इतने बीज पैदा करता है। यह भी जीवन-आकांक्षा है।
तुम हैरान होओगे--कहीं तुमने यह पढ़ा न होगा, क्योंकि कहीं यह लिखा हुआ नहीं है अब तक--कि जैसे ही कोई व्यक्ति सुख-दुख के बाहर हो जाता, केवली हो जाता, उसके भीतर वीर्य का पैदा होना बंद हो जाता है। वही ठीक ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो सकता है, जिसके भीतर वीर्य का पैदा होना बंद हो गया।
लेकिन वह तभी हो सकता है वीर्य का पैदा होना बंद जब सारी आकांक्षा जन्म की खो गई हो। जब तक जन्म की आकांक्षा है कि मैं बचूं, किसी भी रूप में बचूं; यह शरीर खो जाए तो कोई हर्ज नहीं; दूसरे शरीर में रहूं, लेकिन रहूं; जीवेषणा जब तक है, तब तक शरीर पैदा करता जाता है वीर्यकणों को।
इधर शरीर भी जीएगा और उधर तुम्हारी आत्मा भी वासनाग्रस्त, नये गर्भ की खोज करती रहेगी। तुम तभी तक भटकोगे, जब तक तुम सुख और दुख के साथ अपने को एक समझे हो। तब तक तुम पूरी कोशिश करोगे कि दुख न हो और सुख हो। और मैं और-और सुख की यात्रा करूं, और-और सुख खोजूं। तुम्हारे सपने तुम्हें नये जन्मों में ले जाएंगे।
‘उस कैवल्य अवस्था में आरूढ़ हुए योगी का अभिलाषा-शून्यता के कारण जन्म-मरण का पूर्ण क्षय हो जाता है।’
वह जन्मता नहीं। और जो जन्मता नहीं उसके मरण का कोई कारण नहीं है। जन्मोगे तो मरोगे। जन्म का ही दूसरा पहलू मरण है। वह जन्म के ही सिक्के पर एक तरफ जन्म और दूसरी तरफ मृत्यु है। इधर तुम जन्मे, उधर तुम मरोगे। लेकिन जिसे मृत्यु से मुक्त होना है, उसे जन्म से मुक्त होना पड़ेगा।
मृत्यु से तो सभी मुक्त होना चाहते हैं, लेकिन जन्म से कोई मुक्त नहीं होना चाहता। यही हमारी कठिनाई है। दुख से सभी मुक्त होना चाहते हैं, सुख से कोई मुक्त नहीं होना चाहता। जिस दिन तुम सुख से मुक्त होना चाहते हो, उस दिन तुम्हारे जीवन में क्रांति घटी, उस दिन तुम धार्मिक हुए।
मुल्ला नसरुद्दीन पहली दफा समुद्र की यात्रा पर गया। पहली ही दफा जहाज में सवार हुआ। बड़ा बीमार हो गया--उलटी, वमन, चक्कर! और एक दिन सुबह इतना घबरा गया, तूफान भयंकर था और जहाज करवटें ले रहा था और वह लोट रहा था, उसने अपनी पत्नी को कहा कि सुन, सारी संपत्ति तेरे नाम से लिख छोड़ी है और मेरी वसीयत बैंक में रखी है। सब हिसाब-किताब वहां है। और मुझे दूसरे किनारे पर दफना देना--चाहे मैं मरूं या न! क्योंकि जिंदा या मुर्दा, यह यात्रा अब दुबारा नहीं कर सकता हूं। जिंदा या मुर्दा, यह यात्रा अब दुबारा नहीं कर सकता हूं। तू मुझे वहीं दफना आना। और बाकी सब बैंक में है, वह तू सम्हाल लेना।
जिस दिन तुम्हें जिंदगी ऐसी बेहूदी दिखाई पड़ने लगेगी, यह पूरी यात्रा इतनी व्यर्थ दिखाई पड़ने लगेगी कि जिंदा या मुर्दा, तुम कोई भी हालत में इस यात्रा पर वापस न आना चाहोगे, जिस दिन तुम्हें यह जिंदगी मृत्यु से बदतर दिखाई पड़ने लगेगी--और यह है--उसी दिन तुम्हारे जीवन में क्रांति होगी। अभी तुम धर्म में भी उत्सुक होते हो तो वह भी सुख की ही खोज के लिए। इसलिए तुम्हें धर्म कभी मिल नहीं पाता।
धर्म में तुम्हारी उत्सुकता वास्तविक तभी होगी, जब तुम इस जीवन की यात्रा पर किसी भी स्थिति में जाने को राजी नहीं हो। तुमने सब देख लिया और तुमने सब व्यर्थ पाया। तुमने सुख देख लिए और पाया कि वे भी पीड़ा से भर जाते हैं। और तुमने दुख देख लिए और पाया कि वे भी पीड़ा से भर जाते हैं। दुख तो दुख है ही, यहां सुख भी दुख है। यहां जो मीठा लगता है, वह भी जहर है। यहां जहर तो जहर है ही, अमृत की जो घोषणा है, वह भी जहर को ही छिपाने की तरकीब है। जिस दिन तुम्हें सब व्यर्थ हो गया, सब बाहर है और सब सारहीन है, उसी दिन तुम्हारे जीवन में धर्म का जन्म होगा।
ध्यान रहे, अपने मन में साफ-साफ खोजना कि तुम धर्म में उत्सुक सुख के लिए हो? तो तुम उत्सुक ही नहीं हो। धर्म में उत्सुकता तो सच्ची तभी है जब तुम शांति के लिए--सुख के लिए नहीं--शांति के लिए उत्सुक हो। सुख भी व्यर्थ, दुख भी व्यर्थ; अब तुम दोनों से छुटकारा चाहते हो।
‘उस कैवल्य अवस्था में आरूढ़ हुए योगी का अभिलाषा-शून्यता के कारण...।’
अब उसकी कोई वासना नहीं। अब वह किसी यात्रा पर नहीं जाना चाहता। यात्रा मात्र व्यर्थ हो गई।
‘...जन्म-मरण का पूर्ण क्षय हो जाता है।’
‘ऐसा भूतकंचुकी, विमुक्त पुरुष परम शिवरूप हो जाता है।’
वही ब्रह्म है, वही परमात्मा है। ऐसा भूतकंचुकी--यह शब्द बड़ा प्यारा है। भूतकंचुकी का अर्थ है: पांचों तत्व, जिनसे शरीर बना है, उसके लिए वस्त्र जैसे हो गए, भूत कंचुक हो गए। जिसके लिए शरीर, मन--क्योंकि दोनों ही पंच भूतों से बने हैं; यह स्थूल पंच भूतों से जो बना है वह शरीर और जो सूक्ष्म पंच तन्मात्राओं से बना है वह मन, ये दोनों एक के ही सूक्ष्म और स्थूल रूप हैं--ये दोनों ही जब वस्त्रों जैसे हो गए, और उसने अपने को पहचान लिया जो इन वस्त्रों के भीतर छिपा है; जिसने प्याज को पूरा खोल लिया; भीतर के शिवत्व को, शून्यत्व को जान लिया; ऐसा भूतकंचुकी, विमुक्त पुरुष स्वयं परमात्मा हो जाता है।
हम इस देश में किसी एक परमात्मा में भरोसा नहीं करते कि कोई एक परमात्मा आकाश में बैठा है, वह सब को चला रहा है। नहीं; हम इस देश में, सभी जीवन-यात्राओं का अंत परमात्मा में होता है, ऐसा भरोसा करते हैं। यहां सभी खिलते-खिलते परमात्म-रूप हो जाते हैं। परमात्मा कोई स्थिति नहीं है, सभी का भविष्य है। इस बात को थोड़ा गहराई में समझ लो।
दुनिया में दूसरे धर्म हैं, जो भारत के बाहर पैदा हुए--ईसाइयत, यहूदी, इसलाम, वे तीन बड़े धर्म भारत के बाहर पैदा हुए। तीन बड़े धर्म भारत में पैदा हुए--हिंदू, बौद्ध, जैन। इन दोनों के बीच एक बुनियादी फर्क है। और वह बुनियादी फर्क है कि यहूदी, ईसाई और इसलाम परमात्मा को पीछे देखते हैं--आदि कारण की तरह--उसने जगत को बनाया। हम परमात्मा को आगे देखते हैं--अंतिम फल की तरह। इससे बड़ा फर्क पड़ता है। परमात्मा भविष्य है, अतीत नहीं। परमात्मा बीज नहीं है, फूल है। इसलिए हमने बुद्धों को फूल पर बिठाया है--कमल का फूल, सहस्रदल जिसके खिल गए हैं।
अगर परमात्मा पीछे है, दुनिया को उसने बनाया, तो वह एक है। और तब दुनिया एक तरह की तानाशाही होगी। और इस दुनिया में मोक्ष घटित नहीं हो सकता। क्योंकि स्वतंत्रता कैसी जब तुम बनाए गए हो? बनाए हुए की कोई स्वतंत्रता होती है? जिस दिन बनाने वाला मिटाना चाहेगा, मिटा देगा। जब वह बना सका तो मिटाने में क्या बाधा पड़ेगी? तब तुम खेल-खिलौने हो, कठपुतलियां हो। तब तुम्हारी आत्मा और स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं है।
इसलिए हम परमात्मा को स्रष्टा की तरह नहीं देखते, हम परमात्मा को अंतिम निष्पत्ति की तरह देखते हैं। वह तुम्हारा अंतिम विकास है। तो परमात्मा विकास का प्रथम चरण नहीं, अंतिम शिखर है। वह गौरीशंकर है। वह कैलाश है। वह आखिरी शिखर है जहां सभी चेतनाएं अंततः पहुंच जाएंगी; जिस तरफ सभी की यात्रा चल रही है। देर-अबेर सभी को वहां पहुंच जाना है। तुम रोज-रोज हो रहे परमात्मा हो।
तो परमात्मा कोई एक घटना नहीं है जो घट गई; परमात्मा एक प्रवाह है जो प्रतिपल घट रहा है। परमात्मा प्रतिक्षण हो रहा है। वह तुम्हारे भीतर बढ़ रहा है। तुम परमात्मा के गर्भ हो।
इसलिए यह शिव-सूत्र पूरा होता है इस अंतिम बात पर। यहीं सारे शास्त्र पूरे होते हैं। तुमसे शुरू होते हैं, परमात्मा पर पूरे होते हैं। तुम जैसे अभी हो, वह पहला चरण; तुम जैसे अंततः हो जाओगे, वह अंतिम चरण। बीज की तरह तुम, वह तुम्हारा भटकाव; वृक्ष की तरह तुम जब खिल जाओगे अपनी समग्रता में, वह तुम्हारी निष्पत्ति, वह तुम्हारा फुलफिलमेंट, वह तुम्हारा आप्तकाम, सब पूरा हो गया।
फूल जब खिलता है तो वृक्ष के प्राण पूरे हो गए। उसके खिलने में वृक्ष ने अपनी पूरी सुगंध पा ली। वृक्ष जिस चीज के लिए पैदा हुआ था, वह घटित हो गया। फूल के खिलते के साथ वृक्ष एक नृत्य से भर जाता है। उसका रोआं-रोआं पुलकित है। वह व्यर्थ नहीं गया; सार्थक हुआ, फलीभूत हुआ; सुगंध, सौंदर्य उसमें खिल गए!
और जब एक वृक्ष एक फूल के खिलने पर इतना आनंदित होता है, जो कि क्षण भर टिकेगा और गिर जाएगा, जो फूल अभी खिला और सांझ के पहले मुरझा जाएगा, तो कितना आनंद है जब कोई वर्द्धमान महावीर होता है--जब फूल खिलता है; जब कोई गौतम सिद्धार्थ बुद्ध होता है--जब फूल खिलता है! और ऐसा फूल जो कभी नहीं मुरझाएगा! उस फूल को ही हम शिवत्व कहते हैं। वही परमात्मा है।
मंत्र का उपयोग करना, ताकि तुममें जो व्यर्थ है, वह कट जाए; और तुममें जो सार्थक है, वह निखर आए। मंत्र का उपयोग करना, जिससे कि जैसे तुम हो, वह टूट जाए, बिखर जाए भूमि में; और तुम जो हो सकते हो, वह अंकुरित हो जाए।
तुम्हारे भीतर परमात्मा को छिपाए तुम चल रहे हो; सम्हाल कर चलना, सावधानी से चलना। जैसे गर्भिणी स्त्री सम्हल कर चलती है, वैसा साधक सम्हल कर चलता है। क्योंकि तुम्हारे ही जीवन का सवाल नहीं है, तुम्हारे भीतर सारे अस्तित्व ने दांव लगाया है। सारा अस्तित्व तुम्हारे भीतर खिलने को आतुर है। उत्तरदायित्व बहुत बड़ा है! बहुत सावधानी से, सम्हल कर, होशपूर्वक एक-एक कदम रखना, क्योंकि तुमसे परमात्मा का जन्म होना है।
आज इतना ही।
तद्विमुक्तस्तु केवली।
तदारूढ़प्रमितेस्तत्क्षयाज्जीवसंक्षयः।
भूतकंचुकी तदाविमुक्तो
भूयः पतिसमःपरः।
ॐ, श्री शिवार्पणं अस्तु।
सुख-दुख बाह्य वृत्तियां हैं, ऐसा सतत जानता है।
और उनसे विमुक्त, वह केवली हो जाता है।
उस कैवल्य अवस्था में आरूढ़ हुए योगी का अभिलाषा-क्षय के कारण
जन्म-मरण का पूर्ण क्षय हो जाता है।
ऐसा भूतकंचुकी, विमुक्त पुरुष परम शिवरूप ही होता है।
ॐ भगवान श्री शिव को यह अर्पित हो।
सूत्र में प्रवेश के पहले--पीछे मैं आपको कहा था कि मंत्र के संबंध में कुछ कहूंगा। आज शिविर का अंतिम दिन है; मंत्र के संबंध में कुछ समझ लें। उसका प्रयोग जीवन में क्रांति ला सकता है।
पहली बात--जैसा मैंने कल कहा, पर्त-पर्त तुम्हारे व्यक्तित्व में है, जैसे प्याज में होती है। एक-एक पर्त को उघाड़ना है, ताकि भीतर छिपे केंद्र को तुम खोज पाओ। हीरा छिपा है, खोया तुमने नहीं। खो सकते भी नहीं हो; क्योंकि वह हीरा तुम ही हो। दब सकते हो; हीरा भी मिट्टी में दब जाता है। हीरे पर भी पर्त जम जाती हैं। हीरा भी पत्थर जैसा दिखाई पड़ने लगता है। पर भीतर कुछ भी नष्ट नहीं होता।
तुम्हें शायद खयाल न हो कि हीरे का इतना मूल्य क्यों?
हीरे के मूल्य के पीछे मनुष्य की शाश्वत की खोज है। इस जगत में हीरा सबसे थिर है। सब चीजें बदल जाती हैं; हीरा बिना बदला हुआ बना रहता है। करोड़ों-करोड़ों वर्ष में भी वह क्षीण नहीं होता। इस बदलते हुए संसार में, हीरा न बदलते हुए अस्तित्व का प्रतीक है। इसलिए हीरे का इतना मूल्य है। अन्यथा वह पत्थर है। मूल्य है उसकी शाश्वतता का, उसके ठहराव का।
हीरा होना तुम्हारा शाश्वत स्वभाव है। और सारी साधना तुम्हारी मिट्टी की जम गई पर्तों को अलग करने की है। पर्तें मिट्टी की हैं; इसलिए अलग करना बहुत कठिन न होगा। और पर्तें हीरे पर हैं और मिट्टी की हैं, शाश्वत पर हैं, परिवर्तनशील की हैं, इसलिए बहुत कठिन बात नहीं होगी। मंत्र इन पर्तों को खोदने की विधि है।
एक छोटी घटना तुमसे कहूं।
मुल्ला नसरुद्दीन का एक मित्र बहुत वर्षों बाद मिला। तो उसने घर के समाचार पूछे और फिर पूछा कि तुम्हारी बेटी का क्या हुआ? नसरुद्दीन ने कहा, तुम भरोसा करो या न करो, बेटी की शादी हो गई। और साधारण आदमी से नहीं, एक बड़े डाक्टर से!
मित्र को भरोसा न आया। उसने कहा, क्षमा करना, विश्वास करना कठिन है। और बुरा मत मानना, तुम भी जानते हो कि बेटी तुम्हारी सुंदर तो थी ही नहीं; निश्चित रूप से कुरूप थी। मिलिट्री के टेंट जैसी उसकी देह थी। तो मैं भरोसा नहीं कर सकता कि उसकी शादी हो गई, और वह भी फिर डाक्टर से! बड़े डाक्टर से! बड़े रहस्य की घटना है! कैसे फांस लिया उसने एक डाक्टर को?
नसरुद्दीन ने कहा, अच्छा-अच्छा! तो नहीं सही। न सही बड़ा डाक्टर, न सही डाक्टर। लेकिन एक बात मैं तुमसे कहूंगा। मेरे सिर का दर्द उसने दूर किया। मेरे लिए वह डाक्टर है।
जो सिर का दर्द दूर करे, वह डाक्टर; और जो सिर को ही दूर कर दे, वह मंत्र। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी! सिर जब तक है, तब तक दर्द होता ही रहेगा। ऐसी भी विधि है, जिससे सिर दूर हो जाए। तुम्हारी सारी तकलीफ तुम्हारा सिर है, तुम्हारे विचार हैं, विचारों का ऊहापोह है, चिंतना है। अगर विचार खो जाएं तो सिर खो गया! तब तुम तो रहोगे, लेकिन मन न रहेगा।
मन को जो मार दे, वह मंत्र है। मन की जिससे मृत्यु घटित हो जाए, वह मंत्र है। और मन जब नहीं रह जाता तो तुम्हारे और शरीर के बीच जो सेतु है वह टूट जाता है। मन ही जोड़े हुए है तुम्हें शरीर से। अगर बीच का सेतु, बीच का संबंध टूट जाए, तो शरीर अलग, तुम अलग हो जाते हो। और जिसने जान लिया अपने को शरीर से अलग और मन से शून्य, वह शिवत्व को उपलब्ध हो जाता है। वह परम केवली है।
इसलिए मंत्र को समझ लें। मंत्र की परिभाषा है--जिससे सिर ही खो जाए, मन न बचे। और ये जो पर्तें हैं शरीर की, मन की, इनको काटने की विधि। एक-एक कदम बढ़ना जरूरी है। और धैर्य रखना होगा; क्योंकि मंत्र बहुत धीरज का प्रयोग है। अधैर्य जिनके मन में बहुत ज्यादा है, उन्हें मंत्र से लाभ न होगा, नुकसान हो सकता है। इसे पहले समझ लें। क्योंकि वैसे ही तुम काफी परेशान हो, मंत्र और एक नयी परेशानी बन जाएगी अगर अधैर्य हुआ।
मैं एक स्टेशन से गुजर रहा था। खिलौनों के एक ठेले पर एक खिलौना मैंने देखा। और वह चिल्ला-चिल्ला कर खिलौने बेचने वाला कह रहा था कि कोई बच्चा इस खिलौने को तोड़ नहीं सकता, यह अनब्रेकेबल है। तो मैंने सोचा, खरीद लूं, नसरुद्दीन के बच्चे के काम आएगा, क्योंकि उसकी पत्नी सदा यही रोना रोती रहती है कि खिलौना घर तक नहीं आ पाता और लड़का तोड़ देता है। उसे मैंने खरीद लिया। उसके दाम भी ज्यादा थे और मजबूत भी था। दिया नसरुद्दीन की पत्नी को, बेटे के लिए। पति-पत्नी दोनों प्रसन्न हुए कि इसको वह भी न तोड़ पाएगा, हम भी न तोड़ पाएंगे। सच में ही खिलौना मजबूत था।
सात दिन बाद उनके घर गया। पूछा, तो पत्नी कहने लगी, बड़ी मुसीबत हो गई! मैंने पूछा, क्या उसने वह खिलौना तोड़ दिया? पत्नी ने कहा, नहीं, वह खिलौना तो नहीं तोड़ पाया, लेकिन उस खिलौने से उसने सारे खिलौने तोड़ डाले, घर के सब दर्पण तोड़ डाले और अब आत्मरक्षा के लिए हमें कुछ उपाय करना पड़ेगा। वह खिलौने का अस्त्र की तरह उपयोग कर रहा है।
तुम वैसे ही विक्षिप्त दशा में हो। मंत्र से विक्षिप्तता टूट भी सकती है, बढ़ भी सकती है। वैसे ही तुम बोझ से भरे हो, और नया मंत्र और एक बोझ ले आएगा। इसलिए एक अनहोनी घटना रोज घटती है कि जिनको तुम साधारणतः धार्मिक आदमी कहते हो, वे साधारण सांसारिक आदमी से ज्यादा परेशान हो जाते हैं। क्योंकि संसारी को संसार की परेशानी है, उनको संसार की तो बनी ही रहती है, धर्म की और जुड़ जाती है। वह प्लस। उससे कुछ घटता नहीं, बढ़ता है। मन पुराने सब धंधे तो जारी रखता है, यह एक नया धंधा और पकड़ लिया; व्यस्तता और बढ़ गई।
तो मंत्र के साथ अत्यंत धैर्य चाहिए, अन्यथा उस झंझट में मत पड़ना। जैसे दवा को मात्रा में लेना होता है! यह मत सोचना कि पूरी बोतल इकट्ठी पी गए तो बीमारी अभी ठीक हो जाएगी। उससे बीमार मर सकता है, बीमारी न मरेगी। उसे मात्रा में ही लेना। और मंत्र की मात्राएं बड़ी होमियोपैथिक हैं, बड़ी सूक्ष्म हैं। तो बहुत धैर्य की जरूरत है, वह पहली जरूरत है। फल की बहुत जल्दी आकांक्षा मत करना; वह जल्दी आएगा भी नहीं, क्योंकि यह परम फल है। यह कोई मौसमी फूल नहीं है कि बोया और पंद्रह दिन के भीतर आ गया। जन्म-जन्म लग जाते हैं। और एक कठिन बात जो समझ लेने की है, वह यह है कि जितना धैर्य हो उतने जल्दी फल आ जाएगा, और जितना अधैर्य हो उतनी ज्यादा देर लग जाएगी।
एक आदमी जा रहा था रास्ते से। उसका जूता उसे काट रहा था; जूता छोटा था। वह जूते को गालियां दे रहा था और बहुत परेशान था। नसरुद्दीन ने उससे पूछा कि मेरे भाई, इतना तंग जूता कहां से खरीदा? वह आदमी वैसे ही जला-भुना था, वैसे ही क्रोध में था। उसने कहा, जूता कहां से खरीदा! झाड़ से तोड़ा है! नसरुद्दीन ने कहा, मेरे भाई, थोड़ी देर रुक जाते तो पैर के नाप का तो हो जाता। कच्चा तोड़ लिया!
मंत्र कभी कच्चा मत तोड़ना, नहीं तो बुरे फंस जाओगे। जूते को तो कोई फेंक दे, मंत्र को फेंकना बहुत मुश्किल है। क्योंकि जूता तो बाहर है, मंत्र भीतर होता है। और अगर गलती से मंत्र में फंस गए तो निकालना बहुत मुश्किल हो जाता है। बहुत से धार्मिक लोग पागल हो जाते हैं। उसका कारण है: मंत्र में फंस गए, कुछ जल्दी कर ली तोड़ने की; फल पक नहीं पाया था, कच्चा ले गए। पक कर तो फल बहुत मीठा हो जाता; कच्चा बहुत तिक्त होगा, बहुत कड़वा होगा, जहरीला होगा।
पहली पर्त है शरीर। तो मंत्र का पहला प्रयोग शरीर से शुरू करना जरूरी है। क्योंकि वहीं तुम हो, वहीं से इलाज शुरू होगा। अगर तुमने वह पर्त छोड़ कर मंत्र का इलाज शुरू किया, तो बीमारी तुम्हारी रह जाएगी, मिटेगी नहीं। कल नहीं परसों, कच्चा फल हाथ आएगा। ध्यान रखना, यात्रा वहीं से शुरू की जा सकती है जहां तुम खड़े हो; कहीं और से यात्रा की, वह सपना है। तुम अभी शरीर हो। तो अभी मंत्र को शरीर से ही शुरू करना होगा।
विधि को समझ लो। पहले दस मिनट शांत बैठ जाना। शांत बैठने के पहले--क्योंकि शांत बैठना आसान नहीं है--पांच मिनट नाचना, उछलना, कूदना। और दिल खोल कर उछलना, कूदना, नाचना। ताकि शरीर के भीतर, रग-रग, रेशे-रेशे में जो रेस्टलेसनेस है, वह जो बेचैनी है, वह निकल जाए। तभी तुम दस मिनट शांति से बैठ पाओगे। शांति से बैठने के लिए यह जरूरी रेचन है। दस-पांच मिनट, जितना तुम्हें ठीक लगे, जितनी तुम्हारी बेचैनी हो, उस हिसाब से तुम नाचना, कूदना, डोलना, शरीर को सब तरफ से हिलाना। ताकि दस मिनट शरीर हिलने की आकांक्षा न करे। उसकी हिलने की तृप्ति कर देना। दस मिनट शरीर को हिलाना-डुलाना, नाचना-कूदना, दौड़ना, फिर बैठ जाना। और फिर बैठ जाना बिलकुल थिर, दस मिनट अब शरीर न हिले। आंख आधी खुली रखना। और उचित होगा कि प्रयोग खुले में मत करना, बंद में करना। छोटा कमरा हो, बंद हो, और बिलकुल खाली हो, वहां कोई भी चीज न हो।
इसलिए मंदिर, मस्जिद या चर्च बहुत अच्छा है, जहां कुछ भी नहीं है, कोई सामान नहीं है। या घर में एक कोना साफ कर लेना, जहां कुछ भी नहीं है। वहां देवी-देवताओं को भी मत रखना, वे भी उपद्रव हैं। वहां बिलकुल खाली कर देना। बस खालीपन ही एकमात्र परमात्मा है, बाकी सब चीजें मन का ही खेल हैं।
अब मन ऐसा पागल है कि अगर लोगों के पूजागृह देखो तो उनका पागलपन पता चल जाए। कोई सौ-पचास देवी-देवताओं को लटकाए हुए हैं! जमाने भर के कैलेंडर काट-काट कर टांग लिए हैं। जो भी देवी-देवता जहां मिल जाता है, रद्दी में, अखबार में, उसको वे चिपका लेते हैं। यह उनकी खोपड़ी का सबूत है। और इन सबके सामने जल्दी-जल्दी सिर झुका कर, पानी वगैरह छिड़क कर, सबको तृप्त करके वे गए!
इनमें से कोई एक भी तृप्त नहीं होता है। एक को तृप्त करने से सब भी तृप्त हो जाएं, सब को तृप्त करने से एक भी तृप्त नहीं होता। एक साधे, सब सधे। और वह एक बाहर नहीं है, वह भीतर है।
कमरे को बिलकुल खाली रखना। जितना शून्य हो, उतना अच्छा; क्योंकि इसी शून्य की भीतर तलाश है। यह कमरा तुम्हारे भीतर शून्य का प्रतीक हो, और छोटा हो, क्योंकि मंत्र में उसका उपयोग है; और खाली हो, उसका भी उपयोग है। आंख आधी खुली रखना; क्योंकि जब आंख पूरी खुली होती है, तो तुम दरवाजे पर खड़े हो अपने मकान के--पीठ मकान की तरफ, मुंह संसार की तरफ। एकदम से पीठ न मुड़ेगी। एकदम से परिवर्तन आसान नहीं। तुम सिर्फ आधी आंख खोलना, आधा संसार की तरफ बंद और आधा अपनी तरफ खुले। आधी आंख खुले होने का यही अर्थ है कि आधा संसार देख रहे हैं, आधा अपने को। यहीं से शुरू करना।
और जल्दी की कोई आवश्यकता नहीं है। आधी आंख जब खुली होती है तो तुम एक तंद्रा जैसी स्थिति अनुभव करोगे। तो अपनी नाक के शीर्ष भाग को देखते रहना। बस उतनी ही आंख खोलनी है। एकाग्रता नहीं करनी है; शांत भाव से नाक का अगला हिस्सा दिखाई पड़ रहा है--नासाग्र दिखाई पड़ रहा है। तब ओम का पाठ जोर से शुरू करना--शरीर से, क्योंकि शरीर में तुम हो। तो जोर से ओम की ध्वनि करना कि कमरे की दीवारों से टकरा कर तुम पर गिरने लगे। इसलिए खाली जरूरी है। खाली होगा तो प्रतिध्वनि होगी। जितनी प्रतिध्वनि हो उतनी लाभ की है।
इसलिए अगर तुम ईसाइयों का कैथेड्रल देखे हो, तो वह मंत्र के लिए बनाया गया था। वहां कुछ भी बोलो तो वह ध्वनि हजार होकर तुम्हारे ऊपर लौट आती है। हिंदुओं ने मंदिर बनाया था अर्धवृत्त में सिर्फ इसीलिए कि उसकी गुंबज में ध्वनि टकरा कर वापस लौट आएगी। वृत्ताकार वस्तु से कोई भी ध्वनि बाहर नहीं जा सकती, भीतर लौट आती है। वे मंत्र के लिए थे।
तो तुम बैठ जाना, जोर से ओंकार--ओम, ओम, जितने जोर से कर सको; क्योंकि शरीर का उपयोग करना है। तुम्हारा पूरा शरीर निमज्जित हो जाए ओम में। ऐसा लगने लगे कि तुमने अपनी पूरी जीवन-ऊर्जा ओम मेंलगा दी, कुछ बचाया नहीं। जैसे इसी पर जीवन-मरण टिका है। इससे कम में मंत्र पूरा नहीं होता। ऐसे धीरे-धीरे मुर्दे की तरह कहते रहो, आधे-आधे, उससे हल न होगा। समग्र भाव से! जैसे कि इसी पर निर्भर है कि अगर तुमने पूरी तरह ओम कहा तो ही तुम बचोगे, अन्यथा मर जाओगे। दांव पर लगा देना! जैसे सिंहनाद होने लगे। आधी आंख खुली, आंधी बंद, जोर से ओम का पाठ। और ध्यान रखना, जैसे कोई पत्थर फेंकता है शांत झील में, लहरें उठती हैं, चारों तरफ चली जाती हैं, ऐसा जब तुम ओम कहोगे, तुमने एक पत्थर फेंका उस शांत शून्यता में कमरे की, चारों तरफ किरणें फैलीं, ध्वनि गई, टकराई, वापस लौटी।
और तुम इतने जल्दी ओम कहना कि ओवरलैपिंग हो जाए। एक मंत्र उच्चार के ऊपर दूसरा मंत्र उच्चार हो जाए: ओम--ओम--ओम। दो ओम के बीच जगह मत छोड़ना। पसीना-पसीना हो जाना। सारी ताकत लगा देना। थोड़े ही दिनों में तुम पाओगे कि पूरा कक्ष ओम से भर गया। तुम पाओगे कि पूरा कक्ष तुम्हें साथ दे रहा है; ध्वनि लौट रही है। अगर तुम कोई गोल कक्ष खोज पाओ तो ज्यादा आसान होगा। अगर गुंबद वाला कक्ष खोज पाओ तो और भी आसान होगा। बिलकुल कुछ भी न हो, ताकि ध्वनि पूरी तरह तुम पर बरसने लगे। तुम्हारा शरीर एक स्नान से गुजर जाएगा। और तुम पाओगे कि ऐसी शीतलता जल के स्नान से कभी भी नहीं मिलती।
अभी वैज्ञानिक इस पर बहुत खोज कर रहे हैं। और वे कहते हैं कि वृक्षों को अगर कुछ खास ध्वनि का संगीत सुनाया जाए, तो उनमें जल्दी फूल आ जाते हैं, जल्दी फल आ जाते हैं, वृक्ष जल्दी बढ़ जाते हैं। रूस और अमरीका में दोनों जगह खेतों में संगीत का प्रयोग किया जा रहा है, ताकि फसलें जल्दी आ जाएं, दुगनी आ जाएं। और परिणाम सफल हुए हैं।
रविशंकर के सितार पर एक प्रयोग किया जा रहा था कनाडा में। रविशंकर सितार बजाते और बीज बोए थे एक तरफ; दूसरी तरफ, थोड़े पास, थोड़े दूर, कई तरह के बीज बोए थे। और बड़ी हैरानी की बात हुई कि जब उनमें से अंकुर आए तो वे सभी अंकुर रविशंकर के सितार की तरफ झुके हुए थे। वृक्ष बड़े हुए, लेकिन जैसे अपने कान को बहरा आदमी पास कर देता है सुनने के लिए, सभी पौधों ने अपने कान सितार पर लगा दिए थे। और दुगनी बढ़ती होती है। जो पौधा तीन महीने में बढ़ता, वह डेढ़ महीने में बढ़ जाता। और पौधे परम आनंदित होते। पौधा सिर्फ शरीर है। अभी उसका सब सोया हुआ है, बिलकुल प्रसुप्त है। लेकिन शरीर भी ध्वनि से तरंगित होता है, आंदोलित होता है।
जब चारों तरफ से ओंकार तुम पर बरसने लगेगा, लौटने लगेगा, तुम्हारी ध्वनि वर्तुलाकार हो जाएगी, तुम पाओगे शरीर का रोआं-रोआं प्रसन्न हो रहा है; रोएं-रोएं से रोग झड़ रहा है; शांति, स्वास्थ्य प्रगाढ़ हो रहा है। तुम हैरान होकर पाओगे कि तुम्हारे शरीर की बहुत सी तकलीफें अपने आप खो गईं; क्योंकि यह बड़ा गहरा स्नान है और बड़ी गहराई तक इसकी पकड़ और पहुंच है। शरीर ध्वनि का ही जोड़ है। और ओंकार से अदभुत ध्वनि नहीं।
यह दस मिनट ओंकार का उच्चार जोर से, शरीर के माध्यम से। फिर आंख बंद कर लेना। ओंठ बंद कर लेना। जीभ तालू से लग जाए, इस तरह मुंह बंद कर लेना कि बिलकुल बंद है, कोई जगह न बची; क्योंकि अब जीभ का उपयोग नहीं करना है, ओंठ का उपयोग नहीं करना है।
दूसरा कदम है, दस मिनट तक अब ओम का उच्चार करना भीतर मन में। अभी तक कक्ष था चारों तरफ, अब शरीर है चारों तरफ। अभी तक मकान के भीतर थे तुम, अब शरीर मकान है। दूसरे दस मिनट में अब तुम अपने भीतर मन में ही गुंजाना। ओंठ का, जीभ का, कंठ का कोई उपयोग न करना। सिर्फ मन में: ओम--ओम...। लेकिन गति वही रखना; तीव्रता वही रखना। जैसे तुमने कमरे को भर दिया था ओंकार से, ऐसे ही अब शरीर को भीतर से भर देना ओंकार से--कि शरीर के भीतर ही कंपन होने लगे, ओम दोहरने लगे पैर से लेकर सिर तक। और इतनी तेजी से यह ओम करना है, जितनी तेजी से तुम कर सको। और दो ओम के बीच जरा भी जगह मत छोड़ना। क्योंकि मन का एक नियम है कि वह एक साथ दो विचार नहीं कर सकता। एक साथ दो विचार असंभव हैं।
तो अगर तुमने ओम इतने जोर से गुंजाया कि दो ओम के बीच में जरा सी भी संधि न बची, तो कोई विचार न आ सकेगा। अगर जरा सी संधि बची तो विचार आ जाएगा; उसी संधि में से जगह बना लेगा। तो संधि मत छोड़ना; संधि-शून्य उच्चार। इसकी भी फिक्र न करना कि एक ओम पर दूसरा चढ़ा जा रहा है। जैसे कभी मालगाड़ी टकरा जाती है, एक डब्बे के ऊपर दूसरा डब्बा हो जाता है, ऐसा तुम ओम को एक-दूसरे के ऊपर हो जाने देना, जगह बीच में मत छोड़ना।
और ध्यान रखना, शरीर का उपयोग नहीं करना है इसमें। आंख इसीलिए अब बंद कर ली। शरीर थिर है। मन में ही गूंज करनी है। शरीर से ही टकरा कर गूंज मन पर वापस गिरेगी, जैसे कमरे से टकरा कर शरीर पर गिर रही थी। उससे शरीर शुद्ध हुआ; इससे मन शुद्ध होगा। और जैसे-जैसे गूंज गहन होने लगेगी, तुम पाओगे कि मन विसर्जित होने लगा। एक गहन शांति, जैसी तुमने कभी नहीं जानी, उसका स्वाद मिलना शुरू हो जाएगा।
दस मिनट तक तुम भीतर गुंजार करना और दस मिनट के बाद गर्दन झुका लेना कि तुम्हारी दाढ़ी छाती को छूने लगे। दो-चार दिन तकलीफ भी मालूम होगी गर्दन में, उसकी फिक्र मत करना, वह चली जाएगी। तीसरे चरण में दाढ़ी छूने लगे; जैसे गर्दन कट गई, उसमें कोई जान न रही। और अब तुम मन में भी गुंजार मत करना ओम का। अब तुम सुनने की कोशिश करना; जैसे ओंकार हो ही रहा है, तुम सिर्फ सुनने वाले हो, करने वाले नहीं। क्योंकि मन के बाहर तभी जा सकोगे, जब कर्ता छूट जाएगा। अब तुम साक्षी हो जाना। अब तुम गर्दन झुका कर यह कोशिश करना कि भीतर ओंकार चल रहा है, मैं उसे सुनूं।
गालिब का बहुत प्रसिद्ध वचन है:
दिल के आईने में है तस्वीरे-यार।
जब जरा गर्दन झुकाई, देख ली।
वह गर्दन झुकाना जरूरी है। जैसे ही गर्दन झुकती है, दिल का आईना सामने आ जाता है। और उस परम प्रिय की तस्वीर वहां है, प्रतिबिंब वहां है। लेकिन गर्दन झुकाना तुम्हें नहीं आता। तुम तो गर्दन अकड़ा कर चलते हो। जहां गर्दन झुकाने की बात आई, वहीं तुम और तन जाते हो। तुम अगर परमात्मा को खो रहे हो, तो सिर्फ एक अकड़ से कि तुम गर्दन झुकाने को राजी नहीं; समर्पण की तुम्हारी तैयारी नहीं। यह तो प्रतीक है गर्दन को लटका देना, जैसे कट गई, ताकि तुम झुक सको। और जैसे ही गर्दन झुकती है, भीतर देखना आसान हो जाता है। जैसे ही गर्दन झुकती है, विचार मुश्किल हो जाते हैं।
अब तुम सुनने की कोशिश करना। अभी तक तुम मंत्र का उच्चार कर रहे थे; अब तुम मंत्र के साक्षी बनने की कोशिश करना। और तुम चकित होओगे कि तुम पाओगे कि भीतर सूक्ष्म उच्चार चल रहा है। वह ओम जैसा है; ठीक ओम नहीं है, क्योंकि भाषा में उसे लाना कठिन है; ठीक ओम जैसा है। तुम अगर शांति से सुनोगे तो अब वह तुम्हें सुनाई पड़ेगा। शरीर से तुम हट गए। पहले मंत्र के प्रयोग ने तुम्हें शरीर से काट दिया। दूसरे मंत्र के प्रयोग ने तुम्हें मन से काट दिया। अब तीसरा मंत्र का प्रयोग साक्षी-भाव का है।
और इसलिए ओंकार से अदभुत कोई मंत्र नहीं है। ओम से अदभुत कोई मंत्र नहीं है। राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध प्यारे हैं, लेकिन मन के बाहर न ले जा सकेंगे। क्योंकि उनकी प्रतिमा, उनका रूप है। ओम अरूप है। और बुद्ध, कृष्ण, जीसस, उनके साथ तुम्हारा लगाव है; भाव है, प्रेम है, आसक्ति है, मोह है। वह मन के बाहर न ले जाने देगा। ओम बिलकुल अर्थहीन है। ओम बड़ा अनूठा है। इसमें कोई अर्थ नहीं है। न इसका कोई रूप है। न इसकी कोई प्रतिमा है। न इसकी कोई आकृति है। यह वर्णमाला का हिस्सा भी नहीं है। और यह निकटतम है उस ध्वनि के, जो भीतर सतत चल रही है, जो तुम्हारे जीवन का स्वभाव है। जैसे कि झरने कलकल का नाद करते हैं; उन्हें करना नहीं पड़ता, उनके बहने से ही कलकल नाद होता रहता है। जैसे हवा गुजरती है वृक्षों से तो एक सरसराहट की आवाज होती है; वह उसे करनी नहीं पड़ती, उसके गुजरने से और वृक्षों की टकराहट से हो जाती है। ऐसे ही तुम्हारा होना ही इस ढंग का है कि उसमें ओम गूंज रहा है। वह तुम्हारे होने की ध्वनि है--दि साउंड ऑफ योर बीइंग।
इसलिए ओम किसी धर्म की बपौती नहीं है। वह न हिंदुओं का है, न जैनों का, न बौद्धों का, न मुसलमानों का, न ईसाइयों का। ओम अकेला मंत्र है जो गैर-सांप्रदायिक है, बाकी सब मंत्र सांप्रदायिक हैं। यह तुम चकित होओगे कि जैन भी ओम का उपयोग करते हैं, बौद्ध भी ओम का उपयोग करते हैं, ईसाई भी उपयोग करते हैं, मुसलमान भी। थोड़ा फर्क है। वे ओम की जगह आमीन का उपयोग करते हैं। वह ओम का ही रूपांतरण है; वह ओम का ही भ्रष्ट रूप है। इस मुल्क से उन तक खबर पहुंचते-पहुंचते ओम आमीन हो गया। क्योंकि इसका संबंध सोच-विचार से नहीं है। यह तो जो लोग भी निस्सोच में डूब गए, उन्हें सुनाई पड़ा है।
तो दो चरण तो तुम मंत्र करोगे, तीसरे चरण में तुम मंत्र को सुनोगे; श्रावक बनोगे, साक्षी बनोगे। दो तक कर्ता रहोगे, क्योंकि शरीर और मन कर्तृत्व का हिस्सा है; और तीसरा चरण साक्षी-भाव का है। तो तीसरे चरण में तुम सिर्फ सुनना। शरीर कटा, मन कटा; तब तुम बच गए। प्याज के छिलके अलग हुए, अब सिर्फ शुद्ध अस्तित्व बचा। वही शिवत्व है।
और एक बार इसका स्वाद आ जाए, तो फिर तुम जल्दी-जल्दी जाने लगोगे। फिर स्वाद ही खींचने लगेगा। फिर स्वाद एक मैगनेट बन जाता है। और जिसमें हमें स्वाद आता है, उस तरफ हम सहज ही चले जाते हैं। कठिनाई तो वहीं होती है, जहां हमें स्वाद नहीं आता। तुम ध्यान लगाते हो, नहीं लगता, क्योंकि तुम्हें स्वाद नहीं आया अभी। पहला स्वाद आ जाए, उसके बाद कोई अड़चन न होगी। फिर तो मन वहां-वहां अपने आप पहुंच जाता है। जरा समय मिला, आंख बंद की--कि दिल के आईने में है तस्वीरे-यार। जब बाजार में, दुकान में, कहीं मौका मिला--जब जरा गर्दन झुकाई, देख ली।
वह स्वाद एक दफा आ जाए, वही पहला कदम कठिन है। पहला कदम आधी मंजिल के बराबर है। एक दफा स्वाद आ जाए, फिर तो मन भौंरे की तरह वहीं-वहीं जाता है जहां रस है। मन की सहज वृत्ति है वहीं-वहीं जाने की जहां रस है। तुम्हें रस नहीं आया अभी, इसलिए तुम ठोंक-पीट करते हो बहुत, कि मन को धक्का दो कि ध्यान लगाओ, ईश्वर का स्मरण करो। और वह कहता है, चलो बाजार, क्यों समय खराब कर रहे हो? इतनी देर में कुछ कमा ही लेते! और फिर यह बाद में कर लेना, जल्दी भी क्या है? जब समय हो, तब कर लेना; अभी दुकान का समय है, दफ्तर का समय है।
मन तुम्हें वहां ले जाता है, जहां उसने रस पाया है। उसका भी कोई कसूर नहीं। एक बार तुम्हें रस आ जाए भीतर का, तुम पाओगे, मुश्किल हो जाता है बाहर आना। अभी भीतर जाना मुश्किल, तब बाहर आना मुश्किल हो जाता है।
सारिपुत्त था बुद्ध का शिष्य, वह इस परम मंत्र की अवस्था को उपलब्ध हुआ। उसने भीतर का महामंत्र सुन लिया। जिस दिन उसने भीतर का महामंत्र सुना, बुद्ध ने कहा, अब तू जा और लोगों को शिक्षा दे। उसने कहा, अब मेरा जाने का कहीं मन नहीं होता। बुद्ध ने कहा, इसीलिए भेजता हूं। क्योंकि पहले तू बाहर पकड़ा हुआ था--वह भी बंधन था; अब कहीं तू भीतर न पकड़ जाए--वह भी बंधन है। जैसे बाहर से भीतर आने में कठिनाई थी, अब बाहर जाने में कठिनाई है।
परम सिद्ध तो वही है, जिसकी कठिनाई खो गई। वह बाहर-भीतर ऐसे आता है जैसे हवा का झोंका आता-जाता है। न बाहर आने में कोई अड़चन है, न भीतर जाने में कोई अड़चन है। बाहर बाहर नहीं है अब, भीतर भीतर नहीं है; दोनों एक हो गए। तुम
अपने घर के बाहर जैसी सरलता से आ जाते हो, जैसी सरलता से भीतर चले जाते हो, ऐसे ही यह जीवन तुम्हारा घर है, इसके बाहर और भीतर आने में कठिनाई नहीं होनी चाहिए।
तो कुछ हैं, जो आसक्त हैं संसार से; फिर कुछ हैं, जो आसक्त हो जाते हैं आत्मा से। दोनों आसक्त हैं और दोनों बंधन में हैं; परम मोक्ष फलित नहीं हुआ। ज्ञानी वही है, जिसका अब कोई बंधन नहीं--न बाहर, न भीतर; जिसका प्रवाह सहज है।
मंत्र की यह प्रक्रिया--तीसरा चरण जितनी देर तुम रह सको, सम्हालना। पहला चरण: शांत बैठना। शांत के पहले भूमिका: दस मिनट उछल-कूद, शरीर की सब बेचैनी को बाहर फेंक देना। क्योंकि शरीर में बेचैनी भरी रहती है। जब मैं यह कहता हूं तो यह एक वैज्ञानिक बात आपसे कह रहा हूं--शरीर में बेचैनी भरी रहती है।
जैसे तुम किसी को चांटा मारना चाहते हो, जब तुम चांटा मारना चाहते हो तो तुम्हारी शरीर-ऊर्जा हाथ में आ जाती है। इसलिए कमजोर आदमी भी जब चांटा मारता है तो बहुत जोर से मारता है। तुम आशा नहीं कर सकते थे कि यह आदमी और इतने जोर का चांटा मारेगा। यह साधारण हाथ नहीं रहा; ऊर्जा हाथ में आ गई। लेकिन चांटा तुम नहीं मार पाते; हजार कारण हो सकते हैं। जिंदगी जटिल है! जिसको तुम चांटा मारने जा रहे हो, उससे कुछ स्वार्थ है, वह पूरा करना जरूरी है। तुम चांटे को रोक लेते हो। ऊर्जा के वापस लौटने का कोई उपाय नहीं है। यह वैज्ञानिक शोध है, अत्यंत आधुनिक, कि शरीर से बाहर तो ऊर्जा के जाने का मार्ग है; बाहर गई ऊर्जा को भीतर लाने का कोई मार्ग नहीं है। तो जो ऊर्जा हाथ में आ गई, अब वह हाथ में रुकेगी, अगर तुमने चांटा नहीं मारा। चांटा किसको मारा, इससे फर्क नहीं पड़ता। तुम हवा में ही चांटा मार दो, तो भी ऊर्जा का निष्कासन हो जाएगा। लेकिन ऊर्जा को भीतर लाने वाले स्नायु शरीर में नहीं हैं। वह वहीं अटकी रहेगी।
और इस तरह तुम बहुत सी ऊर्जा चौबीस घंटे में शरीर के अलग-अलग हिस्सों में अटका लेते हो। फिर तुम ध्यान को बैठे। वह सब अटकी ऊर्जा बाधा डालेगी। इसलिए तुम कहते हो, पैर में दर्द हो रहा है। कहीं चींटी चढ़ रही है। कहीं यह कमर में कुछ मालूम होता है। कहीं गर्दन में खुजलाहट आती है। यह सब काल्पनिक नहीं है। यह तुम कल्पना नहीं कर रहे हो। यह हो रहा है। क्योंकि कभी तुम खाली बैठे नहीं, कुछ न कुछ में लगे रहे, ऊर्जा संलग्न थी। अब तुम खाली बैठे, तो जहां-जहां ऊर्जा अटकी है, वहां-वहां बेचैनी, रेस्टलेसनेस पैदा होगी।
एक छोटे बच्चे को देखो। उसको कह दो कि बैठो शांत! तो वह आंख बंद करके बैठ जाएगा; लेकिन देखो, कितनी मुसीबत उठा रहा है, सिर्फ खाली बैठने में! हाथ को दबाएगा, पैर को दबाएगा, आंख बंद करेगा, मुंह रोकेगा; क्योंकि सब तरफ ऊर्जा का प्रवाह है। पैर भागना चाहते हैं। हाथ फैलना चाहते हैं। आंखें देखना चाहती हैं। कान सुनना चाहते हैं। उनकी पुरानी आदत है। वह ऊर्जा का पुराना प्रवाह का ढंग है।
इसलिए मैं सदा जोर देता हूं कि प्रत्येक ध्यान के पहले रेचन जरूरी है। रेचन तुम्हें सहयोगी होगा। दस मिनट दौड़ लो, कूद लो, उछल लो; सारी ऊर्जा जो जम गई है, उसे फेंक दो। फिर बैठ जाओ। जैसे तूफान के बाद शांति आ जाती है, ऐसे रेचन के बाद शरीर हलका हो जाता है, उसकी बेचैनी खो जाती है। पर वह भूमिका है, वह कोई चरण नहीं। वह मकान के बाहर की सीढ़ी है। मकान के भीतर असली यात्रा तो शुरू होती है: दस मिनट ओंकार की ध्वनि शरीर से; दस मिनट ओंकार की ध्वनि मन से; दस मिनट ओंकार की ध्वनि तुम्हें नहीं करनी, वह अस्तित्व में हो ही रही है, तुम्हें सिर्फ सुननी है।
इसलिए मैं कहता हूं--राम, कृष्ण, बुद्ध उतने ठीक नहीं होंगे; दूसरे चरण तक तो ले जाएंगे, तीसरे चरण तक नहीं ले जाएंगे। क्योंकि तीसरे चरण में जो ध्वनि हो रही है, वह ओम की है। लेकिन कभी-कभी राम से भी कोई तीसरे चरण में पहुंच जाता है। वह वैसा ही जैसा कभी तुम ट्रेन में चलते हो, रेलगाड़ी आवाज करती है: छक-छक, छक-छक। उसमें तुम कोई भी चीज सोचना चाहो तो सोच सकते हो। तुम अगर सोचना चाहो--अल्लाह, अल्लाह, अल्लाह। धीरे-धीरे तुमको लगने लगेगा कि वह छक-छक नहीं है, अल्लाह, अल्लाह, अल्लाह हो रहा है। या राम, राम, राम; तो राम-राम हो रहा है। लेकिन हो सिर्फ छक-छक, छक-छक रहा है।
ओम शुद्ध ध्वनि है। अगर तुम राम को ही पकड़ कर चलोगे तो तुम्हें राम भी सुनाई पड़ने लगेगा वहां, लेकिन वह आरोपण है। और आरोपण का अर्थ है--मन थोड़ा जिंदा है।
हम वही जानना चाहते हैं, जो है। हम वही देखना चाहते हैं, जो है। हम मन को उसके ऊपर थोपना नहीं चाहते, रंग नहीं देना चाहते। इसलिए मंत्र, महा मंत्र तो ओंकार है। बाकी सब मंत्र छोटे-छोटे हैं; दूसरे तक ले जा सकते हैं, तीसरे में बाधा डालेंगे। कोई जरूरत नहीं है।
तुम ओम का प्रयोग करना। और इस भांति जैसा मैंने कहा। तीन महीने तुम चिंता मत करना कि क्या परिणाम आ रहे हैं। तुम परिणाम का विचार ही मत करना। तुम सिर्फ किए जाना। तुम सोचना ही मत कि कुछ हो रहा है कि नहीं हो रहा, अभी तक हुआ कि नहीं। तुम तीन महीने तक सोचना ही मत। तुम एक तारीख तय कर लेना कि तीन महीने, फलां तारीख को लौट कर सोचेंगे कि कुछ हुआ कि नहीं; तब तक नहीं सोचेंगे फल को। अगर तुमने इतना साहस रखा...और यह साहस वैसा ही है जैसा छोटे बच्चे कभी-कभी आम की गोई बो देते हैं, आधी घड़ी बाद जाकर फिर निकाल कर देखते हैं कि अभी तक अंकुर आया कि नहीं। फिर गड़ा आते हैं उदासी में कि अभी तक कुछ नहीं हुआ। फिर घड़ी भर बाद पहुंच जाते हैं, फिर उखाड़ कर देख लेते हैं। यह अंकुर कभी आएगा ही नहीं। क्योंकि अंकुर आने के लिए जरूरी है एक समय की सीमा कि गोई अंधकार में दबी रहे, पृथ्वी में गड़ी रहे।
तुम्हारा ध्यान भी फल नहीं ला पाता; क्योंकि तुम बार-बार गोई को उखाड़-उखाड़ कर देखते हो--कुछ हुआ कि नहीं? वह हृदय में पहुंच ही नहीं पाता, उसके पहले तुम निकाल कर देख लेते हो।
जीसस ने कहा है, तुम्हारा दायां हाथ क्या करता है, तुम्हारे बाएं हाथ को पता न चले।
मंत्र को ऐसा गड़ा दो भीतर। उसको उखाड़-उखाड़ कर मत देखो; वह बीज है। इसलिए मंत्र को हमने बीज कहा है। बीज का अर्थ है कि उसको उखाड़-उखाड़ कर मत देखना। उसका समय है। वह अपने समय से ही फूटेगा, तुम्हारी जल्दबाजी से नहीं। तुम्हारी जल्दबाजी से उलटा ही परिणाम होगा कि शायद वह कभी न फूटे।
इस महामंत्र को इस समाधि शिविर से अपने साथ ले जाएं और प्रयोग करें। तीन महीने धैर्य से किया तो बड़े मीठे रस से भर जाएंगे; जिसको कबीर ने गूंगे का गुड़ कहा है। और एक बार वह गुड़ स्वाद में आ जाए, फिर कोई कठिनाई नहीं है। फिर तुम जहां हो, ठीक हो; तुम जो कर रहे हो, ठीक हो। फिर संसार स्वप्नवत हो जाता है। जीवन एक अभिनय से ज्यादा नहीं रह जाता। तुम साक्षी हो जाते हो। तुम्हारा साक्षित्व ही शिवत्व है।
अब हम सूत्रों को लें।
‘सुख-दुख बाह्य वृत्तियां हैं, ऐसा सतत जानता है।’
वह जो शिवत्व को उपलब्ध हुआ, ऐसा सतत जानता है कि सुख-दुख बाह्य वृत्तियां हैं।
सुख भी बाहर घटता है, दुख भी बाहर घटता है; दोनों में से कोई भी तुम्हारे भीतर नहीं पहुंचता। लेकिन तुम दोनों से परेशान हो जाते हो। सुख को भी तुम पकड़ लेते हो और तादात्म्य कर लेते हो और समझते हो मैं सुखी हूं। बस तुमने दुख पैदा किया! अब देर नहीं है। यहीं से दुख शुरू हो गया। जैसे ही तुमने कहा--मैं सुखी हूं, तुमने दुख के बीज बो दिए। अब ज्यादा देर न लगेगी, जल्दी ही दुख आ जाएगा। क्योंकि दुख का अर्थ है--वृत्तियों के साथ एक हो जाना। फिर जब दुख आएगा, तब तुम दुख के साथ एक हो जाओगे।
तुम्हारी तकलीफ यह है कि जो भी सामने आता है, तुम उसी के साथ एक हो जाते हो; जो भी दिखाई पड़ता है, उसमें तुम देखने वाले नहीं रह जाते, भोक्ता हो जाते हो। दुख आया तो रोते हो, छाती पीटते हो; सुख आया तो नाचने-कूदने लगते हो।
सुख भी बाहर से आता है, दुख भी बाहर से आता है; और तुम्हारे भीतर जाने का कोई उपाय नहीं। लेकिन तुम ही अपने हाथ से सुख-दुख के साथ जुड़ कर सुख-दुख भोग लेते हो। जैसे ही कोई व्यक्ति मन के पार गया, उसे फिर दिखाई पड़ेगा कि यह सब मंदिर के बाहर ही हो रहा है, भीतर कुछ आता नहीं।
‘सुख-दुख बाह्य वृत्तियां हैं, ऐसा सतत जानता है।’
सतत शब्द महत्वपूर्ण है। ऐसा कभी-कभी तो तुम भी जानते हो। और अक्सर जब दूसरे को समझाना हो, तब तो तुम पक्का ही जानते हो। तुम जितने बुद्धिमान दूसरों के लिए हो, काश उतने ही अपने लिए होते! जितनी समझ सलाह में तुम लगाते हो, उतनी समझ काश तुमने अपनी जीवन-यात्रा में लगाई होती!
क्या कारण है, दूसरे के लिए तुम इतने समझदार क्यों होते हो? कोई आदमी दुख में है तो तुम कहते हो, क्यों परेशान हो रहे हो! यह सब चलता रहता है; संसार है! अपने को जरा दूर रखो। और यही दुख तुम पर आएगा, तो बड़े मजे की बात है, हो सकता है यही आदमी, जिसको तुम सलाह दे रहे हो, वह तुम्हें सलाह दे कि भाई, सुख-दुख तो बाहर की वृत्तियां हैं। बात क्या है? कारण क्या है? कारण यह है कि जब दूसरे पर दुख आता है, तब तुम साक्षी हो। इसलिए ज्ञान उत्पन्न होता है। दूसरे पर दुख आ रहा है, तुम पर तो आ नहीं रहा। तुम सिर्फ देखने वाले हो। इतने ही देखने वाले जब तुम अपने दुख के लिए हो जाओगे, तब इतना ही ज्ञान तुम्हें अपने प्रति भी बना रहेगा। तुमने अभी अपना ज्ञान बांटा है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक मनोचिकित्सक के पास गया और उसने कहा कि मेरी पत्नी की हालत अब खराब है, कुछ आपको करना ही पड़ेगा। मनोचिकित्सक ने अध्ययन किया पत्नी का कुछ सप्ताह तक और कहा कि इसका मस्तिष्क तो बिलकुल खत्म हो गया है। नसरुद्दीन ने कहा, वह मुझे पता था। रोज मुझे बांटती थी, मुझे देती थी। आखिर हर चीज खत्म हो जाती है। रोज थोड़ा-थोड़ा करके अपनी बुद्धि मुझे देती रही, खत्म हो गई।
तुम दूसरों को तो बुद्धि बांट रहे हो; लेकिन उसी बुद्धि का प्रयोग तुम अपने पर ही नहीं कर पाते।
अब जब दुबारा तुम्हारे जीवन में सुख आए तो तुम ऐसे देखना जैसे किसी और के जीवन में आया है। तुम जरा दूर खड़े होकर देखने की कोशिश करना। जरा फासला चाहिए। थोड़ा सा भी फासला काफी फासला हो जाता है। बिलकुल सट कर मत खड़े हो जाओ अपने से। तुम अपने पड़ोसी हो। इतने सट कर मत खड़े हो जाओ।
नसरुद्दीन से मैंने पूछा यह कि जो रास्ते के किनारे पर होटल है, उस होटल का मालिक कहता है कि तुम्हारा बहुत सगा-संबंधी है, बहुत निकट का है। नसरुद्दीन ने कहा, गलत कहता है। नाता है, लेकिन बहुत दूर का। बड़ा फासला है। मैंने पूछा, क्या नाता है? तो नसरुद्दीन ने कहा कि हम एक ही बाप के बारह बेटे हैं। वह पहला है, मैं बारहवां हूं। बड़ा फासला है।
तुम अपने पड़ोसी हो, फासला काफी है। ज्यादा सट कर मत खड़े होओ। जरा दूरी रखो। दूरी के बिना परिप्रेक्ष्य खो जाता है, पर्सपेक्टिव खो जाता है। कोई भी चीज देखनी हो तो थोड़ा सा फासला चाहिए। तुम अगर बिलकुल फूल पर आंखें रख दो, तो क्या खाक दिखाई पड़ेगा! कि तुम दर्पण में बिलकुल सिर लगा दो, तो कुछ भी दिखाई न पड़ेगा। थोड़ी दूरी चाहिए।
अपने से थोड़ी दूरी ही सारी साधना है। जैसे-जैसे दूरी बढ़ती है, तुम हैरान होकर देखोगे कि तुम व्यर्थ ही परेशान थे। जो घटनाएं तुम पर कभी घटी ही न थीं, तुमसे बाहर घट रही थीं, सिर्फ करीब खड़े होने के कारण प्रतिबिंब तुममें पड़ता था, छाया तुम पर पड़ती थी, ध्वनि तुम तक आ जाती थी, उसी प्रतिध्वनि को तुम अपनी समझ लेते थे और परेशान होते थे।
एक मकान में आग लगी थी और मकान का मालिक स्वभावतः छाती पीट कर रो रहा था। लेकिन एक आदमी ने कहा, तुम नाहक परेशान हो रहे हो; क्योंकि मुझे पता है, तुम्हारे लड़के ने कल यह मकान बेच दिया है। उसने कहा, क्या कहा!
यह लड़का गांव के बाहर गया था। रोना खो गया। मकान में अब भी आग लगी है। वह बढ़ गई है बल्कि पहले से। लपटें उठ रही हैं, सब जल रहा है। लेकिन अब यह आदमी इस मकान से फासले पर हो गया। अब यह मकान मालिक नहीं है।
तभी लड़का भागता हुआ आया। और उसने कहा, क्या हुआ? यह मकान जल रहा है? सौदा तो हो गया था, लेकिन पैसे अभी मिले नहीं थे। अब जले के कौन पैसे देगा?
फिर बाप छाती पीटने लगा। मकान वहीं का वहीं है। उसमें कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। मकान को पता ही नहीं कि यहां सुख हो गया, दुख हो गया। और फिर फर्क हो सकता है! अगर वह आदमी आकर कह दे कि कोई बात नहीं, मैं वचन का आदमी हूं; जल गया, जल गया; खरीद लिया, खरीद लिया; पैसे दूंगा। फिर बात बदल गई।
सब बाहर हो रहा है। और तुम इतने करीब सट कर खड़े हो जाते हो, उससे कठिनाई होती है। थोड़ा फासला बनाओ। जब सुख आए, तो थोड़ा दूर खड़े होकर देखना। जब दुख आए, तब भी दूर खड़े होकर देखना। और सुख से शुरू करना, ध्यान रहे। दुख से शुरू मत करना।
हममें से अक्सर लोग, जब दुख होता है, तब दूर होने की कोशिश करते हैं। तब सफल न हो पाओगे। वह जरा कठिन मार्ग है। जब सुख होता है तब दूर होने की कोशिश करना। क्योंकि दुख से तो सभी दूर होना चाहते हैं, वह बिलकुल सामान्य मन की वृत्ति है। सुख से कोई दूर नहीं होना चाहता। इसलिए दुख से दूर होने की तुम कोशिश मत करना; क्योंकि वह तो तुम सदा से कर रहे हो। उससे कुछ फल नहीं हुआ। उलटे चलना होगा। जैसी तुमने यात्रा की है, उससे तो तुम भटकते ही चले गए हो। अब वापस लौटना होगा। प्रतिक्रमण करना होगा।
इसको महावीर प्रतिक्रमण कहते हैं, पतंजलि ने प्रत्याहार कहा है। वापस लौटना होगा--रिटर्निंग बैक टु दि सोर्स। थोड़े कदम वापस लौट आओ। सुख जब आए तब जरा दूर खड़े होकर देखो। मत धड़कने दो हृदय को जोर से। मत नाचो। इतना ही जानो कि आया है, यह भी चला जाएगा। रुकने वाला नहीं; कुछ रुकता नहीं। लहर है हवा की, आई और गई। तुम जान भी न पाए कि चली गई। बस दूर खड़े होकर साक्षीभाव से देखते रहो।
क्या होगा? डर क्या है? सुख को हम देखते क्यों नहीं साक्षीभाव से? साक्षीभाव से न देखने के पीछे कारण है; क्योंकि साक्षी-भाव से देखा कि सुख सुख न रह जाएगा। वह सुख था ही, जितने तुम करीब थे। जितने तुम भूले थे, उतना ही सुख था। जितनी याद की, उतना ही कुछ न रह जाएगा। इसलिए कोई आदमी सुख का साक्षी नहीं होना चाहता। पर वहीं से यात्रा है।
सुख आए, साक्षीभाव से देखना। देखते-देखते ही तुम पाओगे: सुख खो गया, तुम रह गए। और अगर तुम सुख में सफल हो गए, फिर तुम दुख में सफल हो जाओगे। कुंजी तुम्हारे हाथ में है। फिर दुख आए, तुम दूर से खड़े होकर देखना। और दूर खड़े हो सकते हो; क्योंकि शरीर और तुम दूर हो। इससे बड़ी दूरी किन्हीं दो चीजों के बीच नहीं हो सकती। चेतना और पदार्थ की दूरी से बड़ी दूरी और क्या हो सकती है! चांद-तारे भी इतने दूर नहीं हैं एक-दूसरे से, जितना तुम अपने शरीर से दूर हो। एक जड़ है, एक चेतन है। एक मिट्टी से बना है--मृण्मय है; एक चैतन्य से बना है--चिन्मय है। बड़ा फासला है। इससे ज्यादा विपरीत छोर नहीं मिल सकते।
सुख से शुरू करो, दुख तक ले जाओ। और एक ही बात स्मरण रखो कि तुम बाहर हो।
सुख-दुख बाह्य वृत्तियां हैं, ऐसा तुम्हें साधना पड़ेगा; लेकिन बार-बार खो-खो जाएगा। यह सतत नहीं हो सकता। सतत तो तभी होगा, जब तुम आत्मा में थिर हो जाओगे; जब मंत्र सफल हो जाएगा, मन कट जाएगा। लेकिन तब तक जितनी देर बने, साधना। जितनी देर अभ्यास कर सको, करना। उससे रास्ता साफ होगा। उससे भला बीज न बोए जाएं, लेकिन जमीन साफ होगी। बीज बोने के वक्त कम से कम तैयार जमीन तुम पाओगे। यह बार-बार खो जाएगा, यह सतत नहीं रह सकता। जरा ही तुम होश गंवाओगे कि फिर सुख पकड़ लेगा, दुख पकड़ लेगा।
सुख-दुख बाह्य वृत्तियां हैं, शिवत्व को उपलब्ध योगी ऐसा सतत जानता है। सतत का अर्थ है, एक भी क्षण को व्यवधान नहीं पड़ता। सतत तो वही चीज हो सकती है जो तुम्हारा स्वभाव हो। जो तुम्हारा स्वभाव नहीं, वह सतत नहीं हो सकता। तुम कितनी देर क्रोध कर सकते हो?
बोधिधर्म गया चीन। चीन के सम्राट ने उससे कहा कि मेरे मन में बड़ा क्रोध आता है, मैं क्या करूं? तो बोधिधर्म ने कहा, तुमको अगर क्रोध करना पड़े तो तुम कितनी देर कर सकते हो? उसने कहा, कितनी देर! यह भी कोई सवाल है? घड़ी, आधा घड़ी ज्यादा से ज्यादा। तो बोधिधर्म ने कहा, जो घड़ी, आधा घड़ी किया जा सके, वह तुम्हारा स्वभाव नहीं है। चौबीस घंटे कर सकते हो? सतत कर सकते हो? उस सम्राट ने कहा, हम घड़ी, दो घड़ी करके परेशान हो रहे हैं! और यह हम पूछने आए भी नहीं कि सतत कैसे करें। बोधिधर्म ने कहा, यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि जो तुम सतत कर सको, वही स्वभाव है। इसमें परेशान क्यों हो रहे हो?
क्या है जो तुम सतत कर सकते हो? इसे थोड़ा सोचना। तुम सुखी भी सतत नहीं रह सकते हो। यह तुम्हें बहुत कठिन मालूम पड़ेगा समझ में आना; लेकिन मैं तुमसे कहता हूं, तुम सुखी सतत नहीं रह सकते हो। थोड़ी देर सोचो, कितनी देर सुखी रह पाते हो? कुछ भी हो जाए, थोड़ी देर में सुख खोने लगता है, तुम दुखी होने लगते हो। अगर कुछ भी न हो तो तुम सुख से ही ऊब जाओगे। महल हो, अच्छा भोजन हो, पत्नी हो, सब हो; कोई दुख-दुविधा न हो, कोई अड़चन न हो; क्या करोगे? कितनी देर सुखी रहोगे? घड़ी, दो घड़ी में तुम ऊब जाओगे। स्वाद बदलना चाहोगे।
अक्सर ऐसा होता है, सुंदरतम पत्नी वाला व्यक्ति भी साधारण नौकरानी के प्रेम में पड़ जाता है। दूसरों को हैरानी होती है; क्योंकि दूसरे साक्षी हैं कि यह क्या हो रहा है। ऐसी सुंदर स्त्री जो कि खोजनी मुश्किल है, उसको छोड़ कर एक बदशक्ल नौकरानी! क्या हो गया इस आदमी को?
स्वाद बदल रहा है। ऊब गया! सौंदर्य भी उबा देता है। एक सुंदर स्त्री को भी कब तक देखते रहोगे! थोड़ी देर में सिर पीटने लगोगे। अच्छे से अच्छा गीत भी कितनी बार सुनोगे! सिर घूमने लगेगा। कहोगे कि अब बंद करो। अगर फिर भी गीत बजता ही जाए, तो नारकीय हो जाएगा।
मन किसी चीज को सतत सह ही नहीं सकता। सुख को भी नहीं सह सकता। इसलिए जब भी सुख होता है, तत्क्षण मन दुख पैदा करता है। उससे स्वाद बदलता है। फिर तुम तैयार हो जाते हो सुख झेलने के लिए। तुम शांत भी नहीं बैठ सकते हो थोड़ी देर; मन जल्दी ही अशांति पैदा कर लेगा; क्योंकि शांति भी उबाने लगती है।
बर्ट्रेंड रसेल ने लिखा है कि मैं मोक्ष जाना पसंद न करूंगा; क्योंकि मैंने सुना है कि मोक्ष में सिद्धशिला पर लोग बैठे हुए हैं अनंत काल से। कुछ करने को भी नहीं है वहां; क्योंकि करने का मतलब संसार। महावीर स्वामी क्या करते होंगे? बैठे हैं सिद्धशिला पर। कितने दिन से बैठे हैं! और कब तक बैठना है, इसका कोई अंत भी नहीं है। और काम भी नहीं है। अखबार भी नहीं छपते वहां कि सुबह से बैठ कर पढ़ो। कोई खबर ही वहां नहीं घटती; क्योंकि खबरें तो गलत जगह घटती हैं। नर्क में बहुत घटती हैं। यहां से भी ज्यादा घटती हैं। वहां दिन में कम से कम दस-बारह एडिशन अखबार के निकालने पड़ते होंगे। क्योंकि वहां घटता ही रहता है; मार-पीट, काट चलती ही रहती है। स्वर्ग में कुछ घट ही नहीं रहा; सब अपनी-अपनी सिद्धशिला पर बैठे हैं।
बर्ट्रेंड रसेल ने लिखा है, इससे मन ऐसा घबड़ाता है कि इससे तो नर्क बेहतर है।
मन ठीक कह रहा है। लेकिन बर्ट्रेंड रसेल को पता नहीं कि मन जब तक हो, तब तक कोई मोक्ष नहीं जाता। मन तो यहीं छूट जाता है जो बदलाहट मांगता है। मोक्ष तो वही जाता है जिसका मन न रहा। मोक्ष तो वही जाता है जो सतत है।
तुम्हारे भीतर सतत तुम क्या झेल सकोगे? न तो सुख तुम सतत झेल सकते हो, क्योंकि उससे भी उत्तेजना होती है; न तुम दुख सतत झेल सकते हो, क्योंकि उससे भी उत्तेजना होती है। तुम सिर्फ शांत हो सकते हो सतत; क्योंकि वह उत्तेजना की अवस्था नहीं है। वह दोनों के ठीक मध्य में और दोनों के पार है।
मैं मुल्ला नसरुद्दीन के घर मेहमान था। उसका बेटा खाना खा रहा था। पहले वह बाएं हाथ से खा रहा था, फिर थोड़ी देर में उसने दाएं हाथ से खाना शुरू कर दिया। मैं थोड़ा चौंका। फिर मैंने देखा कि उसने फिर बाएं हाथ से शुरू कर दिया। नसरुद्दीन ने कहा, हजार बार तुझसे कहा लड़के कि दाएं हाथ से खाना खा! बाएं हाथ से मत खा! लड़के ने कहा, क्या फर्क पड़ता है; मुंह बिलकुल दोनों के बीच में है--चाहे इधर से खाओ, कि उधर से खाओ। यात्रा बराबर करनी पड़ती है। मुंह बिलकुल मध्य में है।
सुख और दुख के मध्य में खोजना किसी बिंदु को, वही सतत हो सकता है। ठीक मध्य में संतुलन है, सम्यकत्व है। वहां न यह अति है, न वह अति है। जैसे तराजू होता है, वह जो मध्य में कांटा है बीच में थिर--वही तुम हो सकते हो। इस पर वजन पड़ा, थोड़ी देर में थक जाओगे, दूसरी तरफ वजन डालना पड़ेगा। जैसे लोग मरघट ले जाते हैं अरथी को रख कर कंधे पर; रास्ते में कंधा बदलते हैं। एक कंधा दुखने लगता है, दूसरे पर रख लेते हैं। कुछ वजन कम नहीं होता, लेकिन कंधा बदलने से राहत मिलती है। फिर थोड़ी देर में यह कंधा दुखने लगता है, दूसरे पर रख लेते हैं।
सुख-दुख तुम्हारे कंधे हैं और कर्ता का भाव तुम्हारी अरथी है जिसको तुम बदलते रहते हो। कभी सुख के साथ जुड़ जाते हो, कभी दुख के साथ जुड़ जाते हो। साक्षी बनो! मध्य में ठहर जाओ। तब तुम सतत रह पाओगे। बुद्धत्व सतत रह सकता है, क्योंकि वह शांत अवस्था है। वहां आनंद तो है, लेकिन वह आनंद सूरज की प्रगाढ़ किरणों की भांति नहीं, चांद की शांत किरणों की भांति है। वहां आनंद तो है, लेकिन जलती हुई अग्नि की भांति नहीं, शांत आलोक की भांति। उसमें कोई तनाव नहीं है। उसमें कोई बेचैनी नहीं है।
तुमने खयाल किया कि सुखी आदमी अक्सर हार्ट फेल से मर जाते हैं। कभी बहुत सुख जा आए, लाटरी एकदम से मिल जाए--न मिले तो मुसीबत, मिल जाए तो मुसीबत--एकदम से लाटरी मिल जाए कि तुम गए।
मैंने सुना है, एक आदमी को लाटरी मिल गई दस लाख रुपये की। पत्नी को खबर मिली। पत्नी बहुत घबड़ाई; क्योंकि वह अपने पति को जानती है, दस पैसे मिल जाएं तो हार्ट फेल हो जाए। दस लाख रुपये! पति बाहर थे। वह भागी पड़ोस में गई। एक मंदिर के पुजारी को उसने पकड़ा, क्योंकि वह उसको ज्ञानी समझती थी। उसने कहा, भैया, कुछ मेरी सहायता कर। पति घर आएं, उसके पहले कुछ जमाओ। दस लाख रुपये की लाटरी मिल गई है! उसने कहा, मत घबड़ा। ढंग से हम समझा लेंगे। मात्रा-मात्रा में काम करना पड़ेगा। आने दे पति को, मैं आता हूं।
पुजारी जाकर बैठ गया। पति आया। तो पुजारी ने सोचा कि दस लाख बहुत ज्यादा हो जाएगा, एक लाख से शुरू करें। धीरे-धीरे चोट करने से ठीक रहेगा। तो उसने कहा, सुनो, एक लाख रुपये लाटरी में मिल गया! वह आदमी बोला, सच! अगर एक लाख मिला, पचास हजार तुम्हारे मंदिर को दान। वह पुजारी का वहीं हार्ट फेल हो गया। उसने कभी सोचा ही नहीं था--पचास हजार!
सुख भी मार डालता है। दुख तो मारता ही है, सुख भी मार डालता है; क्योंकि दोनों में एक उत्तेजना है। और जहां उत्तेजना है वहां चीजें टूट जाती हैं। सतत तो वही रह सकता है जो तुम्हारा अनुत्तेजित स्वभाव है। जिसे साधना न पड़े, वही सतत रह सकता है। जो सदा बिना साधे तुम्हारे भीतर है, वही सतत रह सकता है। जिसे तुम छोड़ भी नहीं सकते, वही सतत रह सकता है।
इसलिए सारे धर्म की खोज स्वभाव की खोज है। स्वभाव की खोज धर्म है; क्योंकि वह शाश्वत है। उससे तुम कभी न ऊबोगे; क्योंकि वह तुम ही हो। उससे अलग होने का उपाय ही नहीं है। उसके पार खड़े होकर देखने का उपाय नहीं है। जिससे भी तुम दूर खड़े होकर देख सकते हो, उससे तुम ऊब जाओगे; वह तुम्हारा स्वभाव नहीं है।
मंत्र जब मन को मार डालेगा, मंत्र के द्वारा मन जब आत्महत्या कर लेगा, तब तुम्हारे भीतर उस सतत झरने का प्रवाह शुरू होगा। और जैसे ही यह सतत झरना पैदा होता है, और सुख-दुख बाह्य वृत्तियों से विमुक्त, वह केवली हो जाता है। तब वह अकेला है। और वह अपने अकेले धुन में मस्त है। अब उसे कुछ भी न चाहिए। अब सब चाह मर गई। क्योंकि सुख भी बाहर है, दुख भी बाहर है। अब न तो वह सुख की चाह करता है, न दुख से बचने की चाह करता है। जो बाहर है, उससे उसका संबंध ही छूट गया। अब तो वह अपने भीतर थिर है। और भीतर सतत आनंदित है, इसलिए चाह का कोई सवाल नहीं। अब वह सतत अपनी चेतना में रमता है। उसका सच्चिदानंद अब निरंतर चलता रहता है। वह उसकी श्वास-श्वास में, होने के कण-कण में व्याप्त है।
‘और उनसे विमुक्त, वह केवली हो जाता है।’
‘उस कैवल्य अवस्था में आरूढ़ हुए योगी का अभिलाषा-शून्यता के कारण जन्म-मरण का पूर्ण क्षय हो जाता है।’
फिर न कोई जन्म है, न फिर कोई मरण है। जन्म और मरण सुख की खोज की यात्रा में हैं। हम चाहते हैं सुख। सुख मिल सकता है केवल शरीर से, तो शरीर ग्रहण करना पड़ता है। जैसा सुख हम चाहते हैं, वैसा शरीर हम ग्रहण कर लेते हैं। फिर सुख की आकांक्षा मरते क्षण भी बनी रहती है। मरते जाते हैं, लेकिन सुख की आकांक्षा बनी रहती है। वही आकांक्षा बीज बन जाती है नये जन्म का।
जब एक वृक्ष मरने लगता है, तो क्या करता है? मरने के पहले वृक्ष अपनी सारी जीवन-ऊर्जा को इकट्ठा करके बीज में संगृहीत कर देता है। बीज उस वृक्ष की आकांक्षा है कि मैं फिर भी रहूंगा। और बीज बड़ी अदभुत घटना है! क्योंकि वृक्ष इतना बड़ा है, लेकिन अपने सार-संचय को वह निचोड़ कर बीज में रख देता है। और उस बीज को यात्रा पर भेज देता है। यह वृक्ष तो मर जाएगा, यह देह तो गिरेगी, लेकिन नयी देह का उसने इंतजाम कर लिया। और इसलिए तुम देखो, एक वृक्ष एक बीज से पैदा होता है। लेकिन मरते वक्त, मरने के पहले, एक वृक्ष करोड़ों बीज छोड़ जाता है। क्योंकि क्या भरोसा एक बीज न पहुंच पाए ठीक भूमि तक! पत्थर पर गिर जाए! पानी न मिले! जानवर खा जाएं! कोई रौंद डाले! इतना खतरा वृक्ष मोल नहीं ले सकता। एक के साथ तो खतरा रहेगा, बचे न बचे। इसलिए करोड़ बीज पैदा करता है। और हजार उपायों से बीज को ऐसी जगह भेजता है जहां उसको ठीक भूमि मिल जाए।
तुम देखो! सेमर का फूल देखा? सेमर के वृक्ष की एक खूबी है कि उसके नीचे कोई पौधा पैदा नहीं हो सकता। इसलिए सेमर अपने बीज में रुई लगा देता है, ताकि कोई बीज नीचे न गिर पाए। क्योंकि नीचे गिरा तो मर जाएगा। तुम यह मत समझना कि रुई तुम्हारे गद्दे-तकियों में भरने के लिए सेमर लगाता है। रुई लगाता है सेमर अपने बीज को पंख देने के लिए, ताकि हवा के झोंकों में वह दूर चला जाए। एक बात पक्की कर लेता है कि नीचे न गिर पाए बस, कहीं भी गिरे, यहां न गिर पाए; क्योंकि नीचे सेमर के कोई वृक्ष पैदा न होगा। सेमर सारे पानी को चूस लेता है।
बड़े वृक्ष के नीचे पैदा होना मुश्किल भी है। इसलिए सभी वृक्ष अपनी-अपनी तरकीबें खोजते हैं। तुम इनको इतना आसान मत समझना। वे सब काफी कुशल और चालाक हैं। तुम उनको सीधा-सादा मत समझना! संसार में कोई सीधा-सादा हो ही नहीं सकता। सीधा-सादा हुआ कि मोक्ष! यहां तो तिरछा ही हो सकता है। तिरछा होना यहां होने की शर्त है। वही यहां योग्यता है। तो वृक्ष हजार...अगर तुम वृक्षों के संबंध में अध्ययन करो, तुम चकित हो जाओगे कि कैसी-कैसी तरकीबें वृक्ष खोजते हैं! तितलियों के सहारे; तितलियों को आकर्षित करते हैं। तितलियां सोचती होंगी कि शायद यह जो मधुर रस बह रहा है वृक्ष में, उनके लिए है। वे भ्रांति में हैं। उनको केवल रिश्वत दी जा रही है। वृक्ष उनके पैरों में, पंखों में अपने बीज को लगा कर भेज रहा है। हजार तरकीबें वृक्ष करेगा बचने की। और जब वृक्ष इतनी तरकीबें करता है, तुम कितनी न करते होओगे! तुम्हारी चालाकी का तो कोई अंत नहीं।
एक मनुष्य, एक पुरुष, अगर उसके पूरे वीर्यकणों का उपयोग करे, तो इस पूरी पृथ्वी पर जितनी जनसंख्या है, एक पुरुष पैदा कर सकता है। एक साधारण पुरुष अपने जीवन में--साधारण, न ब्रह्मचारी, न व्यभिचारी, दोनों के मध्य में जो साधारण है--वह कम से कम चार हजार बार संभोग करता है। एक संभोग में कोई दस करोड़ जीवाणु, दस करोड़ बीज, एक संभोग में स्खलित होते हैं। अगर उसके सभी बीज सफल हो जाएं--जो कि किसी दिन हो सकता है; अब तक तो नहीं हो सकता था, क्योंकि स्त्री की सीमा है, क्षमता है, उसको नौ महीने लगेंगे एक बीज पके। तो एक स्त्री बहुत से बहुत बारह, पंद्रह, बहुत से बहुत चौबीस बच्चे पैदा कर सकती है। इसलिए सीमा है। इसलिए सम्राट हजारों रानियां रख लेते थे, ताकि वह सीमा तोड़ दी जाए।
लेकिन अब वैज्ञानिक उपायों से यह संभव हो गया है कि हम एक ही व्यक्ति के वीर्यकणों को सारी स्त्रियों को दुनिया में दे दें, इंजेक्ट कर दें। इस बात की बहुत संभावना है। क्योंकि वैज्ञानिक जब सुझाव देते हैं, उनके सुझाव कितने ही खतरनाक हों, थोड़े-बहुत दिनों में स्वीकृत हो जाते हैं। क्योंकि वे कहते हैं, सभी लोगों को बच्चे पैदा करने का हक नहीं होना चाहिए। आइंस्टीन जैसा कोई आदमी, जिसके पास ऐसी प्रतिभा है, उसके बीज का उपयोग करो। ठीक है! जब बागवानी में तुम इतनी कुशलता बताते हो कि बीज चुनते हो, तो आदमी की बागवानी में क्यों न बीज चुनो! बागवान देखता है, अच्छे से अच्छा बीज खोज कर लाता है। हर कुछ रद्दी नहीं बो देता।
तो आज नहीं कल, दुनिया में सभी लोगों को बच्चे पैदा करने का हक नहीं रह जाने वाला। थोड़े से लोग, जिनको वैज्ञानिक तय करेंगे--स्वास्थ्य में, बुद्धि में, प्रतिभा में, उम्र में--उनका बीज उपयोग में लाया जाएगा। और उसके पैकेट मिल सकेंगे। उसको तुम ले आ सकते हो। तब एक ही आदमी पूरी पृथ्वी को भर दे, इतने बीज पैदा करता है। यह भी जीवन-आकांक्षा है।
तुम हैरान होओगे--कहीं तुमने यह पढ़ा न होगा, क्योंकि कहीं यह लिखा हुआ नहीं है अब तक--कि जैसे ही कोई व्यक्ति सुख-दुख के बाहर हो जाता, केवली हो जाता, उसके भीतर वीर्य का पैदा होना बंद हो जाता है। वही ठीक ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो सकता है, जिसके भीतर वीर्य का पैदा होना बंद हो गया।
लेकिन वह तभी हो सकता है वीर्य का पैदा होना बंद जब सारी आकांक्षा जन्म की खो गई हो। जब तक जन्म की आकांक्षा है कि मैं बचूं, किसी भी रूप में बचूं; यह शरीर खो जाए तो कोई हर्ज नहीं; दूसरे शरीर में रहूं, लेकिन रहूं; जीवेषणा जब तक है, तब तक शरीर पैदा करता जाता है वीर्यकणों को।
इधर शरीर भी जीएगा और उधर तुम्हारी आत्मा भी वासनाग्रस्त, नये गर्भ की खोज करती रहेगी। तुम तभी तक भटकोगे, जब तक तुम सुख और दुख के साथ अपने को एक समझे हो। तब तक तुम पूरी कोशिश करोगे कि दुख न हो और सुख हो। और मैं और-और सुख की यात्रा करूं, और-और सुख खोजूं। तुम्हारे सपने तुम्हें नये जन्मों में ले जाएंगे।
‘उस कैवल्य अवस्था में आरूढ़ हुए योगी का अभिलाषा-शून्यता के कारण जन्म-मरण का पूर्ण क्षय हो जाता है।’
वह जन्मता नहीं। और जो जन्मता नहीं उसके मरण का कोई कारण नहीं है। जन्मोगे तो मरोगे। जन्म का ही दूसरा पहलू मरण है। वह जन्म के ही सिक्के पर एक तरफ जन्म और दूसरी तरफ मृत्यु है। इधर तुम जन्मे, उधर तुम मरोगे। लेकिन जिसे मृत्यु से मुक्त होना है, उसे जन्म से मुक्त होना पड़ेगा।
मृत्यु से तो सभी मुक्त होना चाहते हैं, लेकिन जन्म से कोई मुक्त नहीं होना चाहता। यही हमारी कठिनाई है। दुख से सभी मुक्त होना चाहते हैं, सुख से कोई मुक्त नहीं होना चाहता। जिस दिन तुम सुख से मुक्त होना चाहते हो, उस दिन तुम्हारे जीवन में क्रांति घटी, उस दिन तुम धार्मिक हुए।
मुल्ला नसरुद्दीन पहली दफा समुद्र की यात्रा पर गया। पहली ही दफा जहाज में सवार हुआ। बड़ा बीमार हो गया--उलटी, वमन, चक्कर! और एक दिन सुबह इतना घबरा गया, तूफान भयंकर था और जहाज करवटें ले रहा था और वह लोट रहा था, उसने अपनी पत्नी को कहा कि सुन, सारी संपत्ति तेरे नाम से लिख छोड़ी है और मेरी वसीयत बैंक में रखी है। सब हिसाब-किताब वहां है। और मुझे दूसरे किनारे पर दफना देना--चाहे मैं मरूं या न! क्योंकि जिंदा या मुर्दा, यह यात्रा अब दुबारा नहीं कर सकता हूं। जिंदा या मुर्दा, यह यात्रा अब दुबारा नहीं कर सकता हूं। तू मुझे वहीं दफना आना। और बाकी सब बैंक में है, वह तू सम्हाल लेना।
जिस दिन तुम्हें जिंदगी ऐसी बेहूदी दिखाई पड़ने लगेगी, यह पूरी यात्रा इतनी व्यर्थ दिखाई पड़ने लगेगी कि जिंदा या मुर्दा, तुम कोई भी हालत में इस यात्रा पर वापस न आना चाहोगे, जिस दिन तुम्हें यह जिंदगी मृत्यु से बदतर दिखाई पड़ने लगेगी--और यह है--उसी दिन तुम्हारे जीवन में क्रांति होगी। अभी तुम धर्म में भी उत्सुक होते हो तो वह भी सुख की ही खोज के लिए। इसलिए तुम्हें धर्म कभी मिल नहीं पाता।
धर्म में तुम्हारी उत्सुकता वास्तविक तभी होगी, जब तुम इस जीवन की यात्रा पर किसी भी स्थिति में जाने को राजी नहीं हो। तुमने सब देख लिया और तुमने सब व्यर्थ पाया। तुमने सुख देख लिए और पाया कि वे भी पीड़ा से भर जाते हैं। और तुमने दुख देख लिए और पाया कि वे भी पीड़ा से भर जाते हैं। दुख तो दुख है ही, यहां सुख भी दुख है। यहां जो मीठा लगता है, वह भी जहर है। यहां जहर तो जहर है ही, अमृत की जो घोषणा है, वह भी जहर को ही छिपाने की तरकीब है। जिस दिन तुम्हें सब व्यर्थ हो गया, सब बाहर है और सब सारहीन है, उसी दिन तुम्हारे जीवन में धर्म का जन्म होगा।
ध्यान रहे, अपने मन में साफ-साफ खोजना कि तुम धर्म में उत्सुक सुख के लिए हो? तो तुम उत्सुक ही नहीं हो। धर्म में उत्सुकता तो सच्ची तभी है जब तुम शांति के लिए--सुख के लिए नहीं--शांति के लिए उत्सुक हो। सुख भी व्यर्थ, दुख भी व्यर्थ; अब तुम दोनों से छुटकारा चाहते हो।
‘उस कैवल्य अवस्था में आरूढ़ हुए योगी का अभिलाषा-शून्यता के कारण...।’
अब उसकी कोई वासना नहीं। अब वह किसी यात्रा पर नहीं जाना चाहता। यात्रा मात्र व्यर्थ हो गई।
‘...जन्म-मरण का पूर्ण क्षय हो जाता है।’
‘ऐसा भूतकंचुकी, विमुक्त पुरुष परम शिवरूप हो जाता है।’
वही ब्रह्म है, वही परमात्मा है। ऐसा भूतकंचुकी--यह शब्द बड़ा प्यारा है। भूतकंचुकी का अर्थ है: पांचों तत्व, जिनसे शरीर बना है, उसके लिए वस्त्र जैसे हो गए, भूत कंचुक हो गए। जिसके लिए शरीर, मन--क्योंकि दोनों ही पंच भूतों से बने हैं; यह स्थूल पंच भूतों से जो बना है वह शरीर और जो सूक्ष्म पंच तन्मात्राओं से बना है वह मन, ये दोनों एक के ही सूक्ष्म और स्थूल रूप हैं--ये दोनों ही जब वस्त्रों जैसे हो गए, और उसने अपने को पहचान लिया जो इन वस्त्रों के भीतर छिपा है; जिसने प्याज को पूरा खोल लिया; भीतर के शिवत्व को, शून्यत्व को जान लिया; ऐसा भूतकंचुकी, विमुक्त पुरुष स्वयं परमात्मा हो जाता है।
हम इस देश में किसी एक परमात्मा में भरोसा नहीं करते कि कोई एक परमात्मा आकाश में बैठा है, वह सब को चला रहा है। नहीं; हम इस देश में, सभी जीवन-यात्राओं का अंत परमात्मा में होता है, ऐसा भरोसा करते हैं। यहां सभी खिलते-खिलते परमात्म-रूप हो जाते हैं। परमात्मा कोई स्थिति नहीं है, सभी का भविष्य है। इस बात को थोड़ा गहराई में समझ लो।
दुनिया में दूसरे धर्म हैं, जो भारत के बाहर पैदा हुए--ईसाइयत, यहूदी, इसलाम, वे तीन बड़े धर्म भारत के बाहर पैदा हुए। तीन बड़े धर्म भारत में पैदा हुए--हिंदू, बौद्ध, जैन। इन दोनों के बीच एक बुनियादी फर्क है। और वह बुनियादी फर्क है कि यहूदी, ईसाई और इसलाम परमात्मा को पीछे देखते हैं--आदि कारण की तरह--उसने जगत को बनाया। हम परमात्मा को आगे देखते हैं--अंतिम फल की तरह। इससे बड़ा फर्क पड़ता है। परमात्मा भविष्य है, अतीत नहीं। परमात्मा बीज नहीं है, फूल है। इसलिए हमने बुद्धों को फूल पर बिठाया है--कमल का फूल, सहस्रदल जिसके खिल गए हैं।
अगर परमात्मा पीछे है, दुनिया को उसने बनाया, तो वह एक है। और तब दुनिया एक तरह की तानाशाही होगी। और इस दुनिया में मोक्ष घटित नहीं हो सकता। क्योंकि स्वतंत्रता कैसी जब तुम बनाए गए हो? बनाए हुए की कोई स्वतंत्रता होती है? जिस दिन बनाने वाला मिटाना चाहेगा, मिटा देगा। जब वह बना सका तो मिटाने में क्या बाधा पड़ेगी? तब तुम खेल-खिलौने हो, कठपुतलियां हो। तब तुम्हारी आत्मा और स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं है।
इसलिए हम परमात्मा को स्रष्टा की तरह नहीं देखते, हम परमात्मा को अंतिम निष्पत्ति की तरह देखते हैं। वह तुम्हारा अंतिम विकास है। तो परमात्मा विकास का प्रथम चरण नहीं, अंतिम शिखर है। वह गौरीशंकर है। वह कैलाश है। वह आखिरी शिखर है जहां सभी चेतनाएं अंततः पहुंच जाएंगी; जिस तरफ सभी की यात्रा चल रही है। देर-अबेर सभी को वहां पहुंच जाना है। तुम रोज-रोज हो रहे परमात्मा हो।
तो परमात्मा कोई एक घटना नहीं है जो घट गई; परमात्मा एक प्रवाह है जो प्रतिपल घट रहा है। परमात्मा प्रतिक्षण हो रहा है। वह तुम्हारे भीतर बढ़ रहा है। तुम परमात्मा के गर्भ हो।
इसलिए यह शिव-सूत्र पूरा होता है इस अंतिम बात पर। यहीं सारे शास्त्र पूरे होते हैं। तुमसे शुरू होते हैं, परमात्मा पर पूरे होते हैं। तुम जैसे अभी हो, वह पहला चरण; तुम जैसे अंततः हो जाओगे, वह अंतिम चरण। बीज की तरह तुम, वह तुम्हारा भटकाव; वृक्ष की तरह तुम जब खिल जाओगे अपनी समग्रता में, वह तुम्हारी निष्पत्ति, वह तुम्हारा फुलफिलमेंट, वह तुम्हारा आप्तकाम, सब पूरा हो गया।
फूल जब खिलता है तो वृक्ष के प्राण पूरे हो गए। उसके खिलने में वृक्ष ने अपनी पूरी सुगंध पा ली। वृक्ष जिस चीज के लिए पैदा हुआ था, वह घटित हो गया। फूल के खिलते के साथ वृक्ष एक नृत्य से भर जाता है। उसका रोआं-रोआं पुलकित है। वह व्यर्थ नहीं गया; सार्थक हुआ, फलीभूत हुआ; सुगंध, सौंदर्य उसमें खिल गए!
और जब एक वृक्ष एक फूल के खिलने पर इतना आनंदित होता है, जो कि क्षण भर टिकेगा और गिर जाएगा, जो फूल अभी खिला और सांझ के पहले मुरझा जाएगा, तो कितना आनंद है जब कोई वर्द्धमान महावीर होता है--जब फूल खिलता है; जब कोई गौतम सिद्धार्थ बुद्ध होता है--जब फूल खिलता है! और ऐसा फूल जो कभी नहीं मुरझाएगा! उस फूल को ही हम शिवत्व कहते हैं। वही परमात्मा है।
मंत्र का उपयोग करना, ताकि तुममें जो व्यर्थ है, वह कट जाए; और तुममें जो सार्थक है, वह निखर आए। मंत्र का उपयोग करना, जिससे कि जैसे तुम हो, वह टूट जाए, बिखर जाए भूमि में; और तुम जो हो सकते हो, वह अंकुरित हो जाए।
तुम्हारे भीतर परमात्मा को छिपाए तुम चल रहे हो; सम्हाल कर चलना, सावधानी से चलना। जैसे गर्भिणी स्त्री सम्हल कर चलती है, वैसा साधक सम्हल कर चलता है। क्योंकि तुम्हारे ही जीवन का सवाल नहीं है, तुम्हारे भीतर सारे अस्तित्व ने दांव लगाया है। सारा अस्तित्व तुम्हारे भीतर खिलने को आतुर है। उत्तरदायित्व बहुत बड़ा है! बहुत सावधानी से, सम्हल कर, होशपूर्वक एक-एक कदम रखना, क्योंकि तुमसे परमात्मा का जन्म होना है।
आज इतना ही।