SHIV
Shiv Sutra 05
Fifth Discourse from the series of 10 discourses - Shiv Sutra by Osho. These discourses were given during SEP 11-20 1974, Pune.
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आत्मा चित्तम्।
कलादीनां तत्वानामविवेको माया।
मोहावरणात् सिद्धिः।
मोहजयादनत्ताभोगात्सहज विद्याजयः।
जाग्रद् द्वितीय करः।
आत्मा चित्त है।
कला आदि तत्वों का अविवेक ही माया है।
मोह आवरण से युक्त योगी को सिद्धियां तो फलित हो जाती हैं, लेकिन आत्मज्ञान नहीं होता है।
स्थायी रूप से मोह-जय होने पर सहज विद्या फलित होती है।
ऐसे जाग्रत योगी को, सारा जगत मेरी ही किरणों का प्रस्फुरण है, ऐसा बोध होता है।
आत्मा चित्तम्--आत्मा चित्त है।
यह सूत्र अति महत्वपूर्ण है।
सागर में लहर दिखाई पड़ती है; लहर भी सागर है। लहर कितनी ही विक्षुब्ध हो, लहर कितनी ही सतह पर हो, उसके भीतर भी अनंत सागर है। क्षुद्र भी विराट को अपने में लिए है। कण में भी परमात्मा छिपा है। तुम कितने ही पागल हो गए हो, तुम्हारा मन कितना ही उद्विग्न हो; कितने ही रोग, कितनी ही व्याधियों ने तुम्हें घेरा हो--फिर भी तुम परमात्मा हो। इससे कोई भेद नहीं पड़ता कि तुम सोए हो, बेहोश हो। बेहोशी में भी परमात्मा ही तुम्हारे भीतर बेहोश है। सोए हुए भी परमात्मा ही तुम्हारे भीतर सो रहा है। इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि तुमने बहुत पाप किए हैं; बहुत पापों का विचार किया है। वे विचार भी परमात्मा ही तुम्हारे भीतर कर रहा है। वे पाप भी परमात्मा के माध्यम से ही हुए हैं।
आत्मा चित्तम् का अर्थ है कि तुम्हारी चित्त तुम्हारी आत्मा की ही एक परिणति है।
यह बहुत महत्वपूर्ण है समझ लेना। अन्यथा तुम चित्त से लड़ना शुरू कर दोगे। और जो भी चित्त से लड़ेगा वह हार जाएगा। विजय का मार्ग है: चित्त को स्वीकार कर लेना कि वह भी परमात्मा का है। संघर्ष नहीं, व्यर्थ की, द्वंद्व की, द्वैत की स्थिति नहीं, लहर भी सागर है--इस प्रतीति के साथ ही मन की विकृतियां क्षीण होनी शुरू हो जाती हैं। जिस दिन भी तुम यह समझ पाओगे कि क्षुद्र में विराट छिपा है, क्षुद्र की क्षुद्रता खोनी शुरू हो जाएगी। उसकी सीमा तुम्हारी मानी हुई है। छोटे से कण की भी कोई सीमा नहीं है। वह भी असीम का ही भाग है। सीमा तुम्हारी आंखों के कारण दिखाई पड़ती है। जैसे ही तुम देख पाओगे कि सीमा में भी असीम छिपा है, सीमा खो जाएगी।
यह जीवन की गहनतम प्रतीति है कि जिस दिन भी व्यक्ति अपने चित्त में भी परमात्मा को देखने लगता है; अपनी बुराई में भी उसी को देखता है; अपनी भटकन में भी उसके ही चरण-चिन्हों को पाता है; उसी दिन से भटकन बंद हो जाती है। भटकन का अर्थ है कि तुमने अपने को परमात्मा से अलग माना है। उस अलगपन में ही तुम्हारा सारा पाप है, तुम्हारी सारी विकृति है। तुमने अपने को भिन्न माना है, वही तुम्हारा अहंकार है।
और यह बड़े आश्चर्य की बात है कि अहंकार के संबंध में पापी और पुण्यात्मा में रत्ती भर भी भेद नहीं होता। पापी भी अहंकार से भरा होता है उतना ही, जितना जिसे हम पुण्यात्मा कहते हैं वह अहंकार से भरा होता है। उनके कृत्य होंगे अलग; लेकिन उनकी प्रतीति एक ही है। दोनों ही अपने को भिन्न मान रहे हैं। एक अपने को बुरा मान रहा है, एक अपने को भला मान रहा है; लेकिन दोनों अपने को भिन्न मान रहे हैं। और जब तक तुम भिन्न मानोगे, तब तक तुम भिन्न बने रहोगे। भिन्न तुम हो नहीं; तुम्हारी मान्यता ने ही तुम्हें संकीर्ण किया है। तुम्हारी धारणा ने ही तुम्हें बांधा है। तुम अपने ही खयाल में, अपने ही खयाल के कारागृह में कैद हो। अन्यथा चारों तरफ खुला आकाश है और कहीं कोई दीवार नहीं है। किसी ने तुम्हें रोका नहीं, किसी ने कोई बाधा खड़ी नहीं की है। तुम्हारी अस्मिता कैसे गल जाए?
आत्मा चित्तम्--इसका अर्थ है कि तुम तुम नहीं हो; तुम परमात्मा हो। तुम बड़े विराट से जुड़े हो। तुम छोटी लहर नहीं, पूरे सागर हो। इस विराट की प्रतीति से तुम्हारा अहंकार खो जाएगा। और जहां अहंकार नहीं, वहां पाप का कोई उपाय नहीं। एक ही पाप है कि मैं पृथक हूं। और यह पृथकता का भाव, जिसे हम साधु कहते हैं, उसमें भी बना रहता है।
मैंने सुना है, एक हठयोगी मरा। स्वर्ग पहुंचा। द्वार पर दस्तक दी। द्वार खुला और पहरेदार ने कहा, स्वागत है। भीतर आएं! हठयोगी ठिठक गया। उसने कहा, अगर ऐसा स्वर्ग में सभी का स्वागत हो रहा है--क्योंकि न तुमने पूछा पता-ठिकाना; न तुमने पूछा कृत्य; न तुमने पूछा कि कौन हो; क्या किया, पुण्य कि पाप; कुछ भी पूछा नहीं और सीधा अगर इस तरह स्वागत है ऐरे गैरे नत्थू खैरे का, तो यह स्वर्ग मेरे लिए नहीं। न आरक्षण किया, न कोई रिजर्वेशन, न कोई पूछताछ; सीधा स्वागत! तो फिर यह मेरी धारणा का स्वर्ग नहीं।
यह अहंकार पुण्य से भरा है, पाप से नहीं। साधना की है इसने, बड़ी सिद्धियां पाई होंगी; लेकिन सब सिद्धियां व्यर्थ हो गईं। सभी सिद्धियों ने अहंकार को ही भरा है--यह असिद्धि हो गई।
बर्नार्ड शा को नोबल प्राइज मिली। तो एक छोटा सा, लेकिन बड़ा कीमती क्लब है यूरोप में। वह केवल सौ व्यक्तियों को सदस्यता देता है पूरी पृथ्वी पर; चुने हुए लोगों का है, जिनकी बड़ी महिमा है, नोबल पुरस्कार जिन्होंने पाए हैं या कोई और बड़ी जिनकी उपलब्धि है--बड़े चित्रकार, मूर्तिकार, साहित्यकार; पर केवल सौ, सौ से ज्यादा संख्या उस क्लब की नहीं होती। जब एक सदस्य मरता है, तभी कोई नया व्यक्ति प्रवेश करता है। लोग जीवन भर प्रतीक्षा करते हैं कि उस क्लब की सदस्यता मिल जाए।
जब बर्नार्ड शा को नोबल प्राइज मिली, तो उस क्लब की सदस्यता का निमंत्रण उसके पास आया। और क्लब ने कहा, हम गौरवान्वित होंगे तुम्हें अपना सदस्य बना कर। बर्नार्ड शा ने उत्तर में लिखा, जो क्लब मुझे सदस्य बना कर गौरवान्वित होता है, वह मेरे योग्य नहीं। वह मुझसे कुछ नीचा है। मैं उस क्लब का सदस्य बनना चाहूंगा, जो मुझे सदस्य बनाने को राजी न हो।
अहंकार हमेशा दुर्गम को खोजता है, कठिन को खोजता है; और जीवन बिलकुल सरल है। इसलिए अहंकार जीवन से वंचित रह जाता है। और परमात्मा से सरल कुछ भी नहीं है। इसलिए अहंकार उस द्वार पर जाता ही नहीं। वह द्वार खुला ही हुआ है। वहां स्वागत है ही, बिना पूछे कि तुम कौन हो। अगर परमात्मा के द्वार पर भी पूछा जाता हो कि तुम कौन हो, तब होगा स्वागत, तो वह द्वार सांसारिक हो गया। तुम उस द्वार पर ही खड़े हो। अगर तुमने पीठ की है तो अपने ही कारण। द्वार ने तुम्हारा तिरस्कार नहीं किया है। तुम अगर आंख बंद किए हो और द्वार तुम्हें नहीं दिखता तो अपने ही कारण। अन्यथा द्वार सदा खुला है और निमंत्रण सदा तुम्हारे लिए है। ‘स्वागत’ सदा वहां लिखा है।
आत्मा चित्तम्--इसका अर्थ है कि तुम अपने को पृथक मत मानना, कितने ही बुरे तुम हो।
इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम अपनी बुराई किए चले जाना। इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम बुरे बने रहना। तुम बने ही न रह सकोगे।
मनस्विद कहते हैं कि व्यक्ति वैसा ही हो जाता है, जैसा वह स्वयं को मानता है। मान्यता ही धीरे-धीरे जीवन बन जाती है। मनस्विद कहते हैं कि अगर आदमी बुरा भी हो तो भी उसे बुरा मत कहना। क्योंकि बुरा कहने से, बार-बार पुनरुक्त करने से--कि तुम बुरे हो, तुम बुरे हो--यह मंत्र बन जाता है। और अगर सब तरफ सभी लोग दोहराते हों कि तुम बुरे हो, तो वह व्यक्ति भी भीतर दोहराने लगता है कि मैं बुरा हूं। न केवल वह दोहराता है, बल्कि जो सबकी अपेक्षा है, उसको सिद्ध करने की कोशिश भी करता है। धीरे-धीरे बुराई में आबद्ध हो जाता है।
शायद धर्म के जगत में खोज करने वाले लोग इस सत्य को बहुत पहले पहचान लिए थे। उन्होंने तुम्हें जीवन की परम सत्ता को मंत्र बनाने को कहा है: आत्मा चित्तम्। तुम परमात्मा हो। तुम्हारी आत्मा ही तुम्हारा मन है। यह बड़ी से बड़ी बात है, जो तुम्हारे संबंध में कही जा सकती है। और अगर यह तुम्हारा मंत्र बन जाए; और यह तुम्हारे जीवन में ओत-प्रोत हो जाए; तुम्हारे रोएं-रोएं में समा जाए इसकी झंकार, तो तुम धीरे-धीरे पाओगे कि जो तुमने सोचा, वह तुम होने लगे हो; जो तुमने धुना भीतर, वह तुम्हारे जीवन में आना शुरू हो गया है।
धर्म की शुरुआत--तुम नहीं हो, परमात्मा है--इस सूत्र से होती है। माना कि तुम सोए हो; माना कि तुम बहुत अर्थों में बुरे हो; माना कि बहुत भूल-चूक तुमने की है; लेकिन इससे तुम्हारे स्वभाव में कोई भी फर्क नहीं पड़ता। निर्मलता तुम्हारा स्वभाव है। तुम कितना ही बुरा किए हो, इस बात का स्मरण आ जाए कि मैं परमात्मा हूं, सब बुराई कट जाएगी।
तुम्हें एक-एक बुराई को अलग-अलग काटना हो, तो तुम वह भी कर सकते हो; तब जन्मों-जन्मों तक बुराई न कटेगी। क्योंकि अनंत है बुराई, और एक-एक बुराई को जो काटने चलेगा, वह कभी भी काट न पाएगा। क्योंकि जब तुम एक बुराई काटते हो, तब तुम दस बुराइयां पैदा भी कर रहे हो। एक बुराई काटते हो, निन्यानबे बुराइयां तो तुम्हारे भीतर मौजूद हैं। वे तुम्हारी एक भलाई को भी रंग देंगी, उसे भी बुरा कर देंगी।
इसलिए तुम पुण्य भी करते हो, तो वह भी पाप जैसा हो जाता है। तुम अमृत भी छूते हो, तो जहर हो जाता है; क्योंकि शेष सब बुराइयां उस पर टूट पड़ती हैं। तुम मंदिर भी बनाओ, तो भी उससे विनम्रता नहीं आती; उससे अहंकार भरता है। और अहंकार के बड़े सूक्ष्म रास्ते हैं! व्यर्थ से भी अहंकार भरता है।
मुल्ला नसरुद्दीन के पास एक कुत्ता था। न उस कुत्ते की कोई नसल का ठिकाना था; न कोई ढंग-डौल; देखने में बदशक्ल, कमजोर; हर समय डरा हुआ, भयभीत; पैर झुके हुए, शरीर दुर्बल। लेकिन नसरुद्दीन उसकी भी तारीफ हांका करता था।
मैंने उससे पूछा, कुछ इस कुत्ते के संबंध में बताओ भी।
नसरुद्दीन ने कहा...नाम उसने रखा था उसका एडोल्फ हिटलर। नसरुद्दीन ने कहा, हिटलर की नसल का भला कोई ठीक-ठीक पता न हो; लेकिन बड़ा कीमती जानवर है। और एक अजनबी कदम नहीं रख सकता घर के आस-पास, बिना हमें खबर हुए। हिटलर फौरन खबर देता है।
मैंने पूछा, क्या करता है तुम्हारा हिटलर? क्योंकि उसे देख कर संदेह होता था कि वह कुछ कर सकेगा। भौंकता है, चिल्लाता है, चीखता है, काटता है, क्या करता है? नसरुद्दीन ने कहा, ये नहीं! जब भी कोई अजनबी आता है, हिटलर फौरन हमारे बिस्तर के नीचे आकर छिप जाता है। ऐसा कभी नहीं होता कि अजनबी आ जाए और हमें पता न हो। मगर उसका भी गुण-गौरव है।
तुम्हारा अहंकार मुल्ला नसरुद्दीन के हिटलर जैसा है। न तो नसल का कोई पता। तुम्हें पता है तुम्हारा अहंकार कहां से पैदा हुआ? जो है ही नहीं, वह पैदा कैसे होगा? वह भ्रांति है। उसकी नसल का कोई पता नहीं हो सकता।
तुम तो परमात्मा से पैदा हुए हो; तुम्हारा अहंकार कहां से पैदा हुआ? तुमने ही निर्मित कर लिया है। और कभी तुमने अपने अहंकार को गौर से देखा कि भला नाम तुम एडोल्फ हिटलर रख लिए हो--सभी सोचते हैं--लेकिन उसके पैर बिलकुल झुके हैं, दीन-हीन!
बड़े से बड़ा अहंकार भी दीन-हीन होता है। क्यों? क्योंकि बड़े से बड़ा अहंकार भी नपुंसक होता है। उसमें कोई ऊर्जा तो होती नहीं; ऊर्जा तो आत्मा की है। ऊर्जा का स्रोत अलग है। इसलिए अहंकार को चौबीस घंटे सम्हालना पड़ता है। वह अपने पैर पर खड़ा भी नहीं रह सकता; उसे और पैर हमें उधार देने पड़ते हैं। कभी पद से हम सहारा देते हैं; कभी धन से सहारा देते हैं; कभी पुण्य से सहारा देते हैं; कुछ न बने तो पाप से सहारा देते हैं।
कारागृह में जाकर देखो! वहां लोग अपने पापों की झूठी चर्चा करते हैं, जो उन्होंने कभी किए ही नहीं। जिसने एक आदमी को मारा है, वह कहता है कि मैंने सैकड़ों का सफाया कर दिया। क्योंकि कारागृह में अहंकार के बड़े होने का वही उपाय है। छोटे-मोटे कैदी, छोटे-मोटे आदमी वहां बड़े कैदी हैं, जिन्होंने काफी उपद्रव किए हैं। जिन पर एकाध धारा में मुकदमा चला है, उनकी कोई कीमत है! जिन पर दस-पच्चीस धाराएं लगी हैं; जिन पर सौ, दो सौ मुकदमे चल रहे हैं; जो रोज अदालत में हाजिर होते हैं--आज इस मुकदमे के लिए, कल उस मुकदमे के लिए--कारागृह में वे ही दादा गुरु हैं। वहां आदमी झूठे पापों की भी बात करता है, जो उसने कभी नहीं किए।
पुण्य से भी, पाप से भी; धन से, पद से, हर चीज से अहंकार को तुम सहारा देते हो। तब भी वह खड़ा नहीं रह पाता; मौत उसे गिरा देती है। क्योंकि जो नहीं है, मौत उसी को मिटाएगी; जो है, उसके मिटने का कोई भी उपाय नहीं। तुम तोबचोगे। लेकिन ध्यान रखना--जब मैं कहता हूं तुम बचोगे, तो मैं उस तुम की बात कर रहा हूं जिसका तुम्हें कोई पता ही नहीं है। जिसे तुम समझते हो तुम्हारा होना, वह तो नहीं बचेगा; वह तुम्हारा अहंकार मात्र है। तुम्हारा नाम, तुम्हारा रूप, तुम्हारा धन, तुम्हारी प्रतिष्ठा, तुम्हारी योग्यता, तुमने जो कमाया, वह कुछ भी न बचेगा। उसको छोड़ कर भी तुम अगर कुछ हो; अगर तुम्हें थोड़ी सी भी संधि-रेखा उसकी मिलनी शुरू हो गई, जो तुम्हारी योग्यता से बाहर है; जो तुमने कमाया नहीं, जिसे तुम लेकर ही पैदा हुए थे; जो पैदा होने के पहले भी तुम्हारे साथ था--वही केवल मृत्यु के बाद तुम्हारे साथ रहेगा।
‘आत्मा चित्तम्।’
वही आत्मा खोजने जैसी है। तुम्हारे चित्त में भी उसकी किरण है; अन्यथा चित्त भी न चल सकेगा। पाप भी करोगे तो कौन करेगा? करने के लिए ऊर्जा चाहिए। वह ऊर्जा उसी से मिलती है। तुम उस ऊर्जा का दुरुपयोग कर रहे हो। लेकिन दुरुपयोग को तुम सदुपयोग में न बदल सकोगे; क्योंकि दुरुपयोग का मूल कारण और जड़ अहंकार में है।
एक ही पाप है और वह है स्वयं को अस्तित्व से पृथक समझना; फिर सभी पाप उसके पीछे छाया की तरह चले आते हैं। एक ही पुण्य है, अस्तित्व के साथ स्वयं को एक समझ लेना। लहर सागर के साथ एक हो जाए, सभी पुण्य उसके पीछे अपने आप चले आते हैं।
‘आत्मा चित्त है। कला आदि तत्वों का अविवेक ही माया है।’
यह माया क्या है? फिर इस चित्त पर अंधकार क्यों है, अगर आत्मा ही चित्त है? तो कला आदि तत्वों का अविवेक! तुम्हें पता नहीं कि कौन तुम्हारे भीतर कर्ता है; कौन है असली कलाकार भीतर तुम्हारे; कौन है मौलिक तत्व, उसका तुम्हें पता नहीं। और जिसे तुम समझ रहे हो कि यह कर रहा है, वह है ही नहीं। ना-कुछ को पकड़ कर तुम जी रहे हो, इसीलिए परेशान हो। पूरी जिंदगी दौड़-धूप कर भी परेशानी नहीं मिटती, सिर्फ बढ़ती है। और पूरी जिंदगी श्रम करके भी आनंद की एक बूंद भी नहीं मिलती; सिर्फ दुख के पहाड़ बड़े हो जाते हैं। फिर भी आदमी आखिरी दम तक व्यर्थ के पीछे दौड़ता रहता है। आखिर व्यर्थ में इतना रस क्यों है? समझने की कोशिश करें। व्यर्थ की एक खूबी है।
एक आदमी ने एक नया बंगला खरीदा। बगीचा लगाया। फूल के बीज डाले। पौधे भी आने शुरू हुए; लेकिन साथ-साथ घास-पात भी उगा। वह थोड़ा चिंतित हुआ। उसने पड़ोसी मुल्ला नसरुद्दीन से पूछा कि कैसे पहचाना जाए कि क्या घास-पात है और क्या असली पौधा है? नसरुद्दीन ने कहा, सीधी तरकीब है! दोनों को उखाड़ लो। जो फिर से उग आए, वह घास-पात है।
व्यर्थ की एक खूबी है--उखाड़ो, उखाड़ने से कुछ नहीं मिटता। उखाड़ने में सार्थक तो खो जाएगा, व्यर्थ फिर उग आएगा। सार्थक को बोओ, तब भी पक्का नहीं कि फसल काट पाओगे; क्योंकि हजार बाधाएं हैं। व्यर्थ को बोओ ही मत, तो भी फसल काटोगे; उखाड़-उखाड़ कर फेंको, तो और-और उग आएगा। व्यर्थ को बनाने में श्रम नहीं करना पड़ता; सार्थक को बनाने में बड़ा श्रम करना पड़ता है। इसीलिए तुमने व्यर्थ को चुना है। वह अपने से उग रहा है।
किसी को चोर होने के लिए मेहनत नहीं करनी पड़ती; चोरी घास-पात की तरह उगती है। किसी को कामवासना से भरने के लिए कोई श्रम करना पड़ता है? कोई प्रार्थना, कोई योग, कोई साधना? वह घास-पात की तरह उगता है। क्रोध करने के लिए कहीं सीखने जाना पड़ता है किसी विद्यापीठ में? नहीं, वह घास-पात की तरह है।
ध्यान सीखना हो तो कठिनाई शुरू होती है। प्रेम सीखना हो तो बड़ी कठिनाई शुरू होती है। मोह बढ़ता है अपने आप घास-पात की तरह। प्रेम श्रम मांगता है। और प्रेम को अगर लाना हो तो घास-पात को प्रतिक्षण उखाड़ कर फेंकना पड़े; नहीं तो घास-पात उस सबको खा जाएगा, जो सार्थक है; उस सब को ढांक लेगा, छिपा लेगा।
व्यर्थ की एक खूबी है कि वह तुमसे श्रम नहीं मांगता; तुम आलसी बने रहो, वह अपने आप बढ़ता है। वह तुम्हें मृत्यु के आखिरी क्षण तक पकड़े रहेगा।
साधक का अर्थ है: जिसने सार्थक की खोज शुरू की। सार्थक को पाना यात्रा है--पर्वत की तरफ, ऊंचाई की तरफ। व्यर्थ को पाना लुढ़कने जैसा है; जैसे पत्थर पहाड़ से लुढ़कता हो, वह अपने ही आप चला आता है। गुरुत्वाकर्षण उसे नीचे ले आता है, कुछ करना नहीं पड़ता।
तुमने अब तक जीवन में कुछ नहीं किया है, इसीलिए तुम व्यर्थ हो। तुम कहोगे, नहीं, ऐसी बात नहीं। मैंने धन कमाया। मैं पद-प्रतिष्ठा पर पहुंचा। मैंने बड़ी उपाधियां इकट्ठी की हैं।
फिर भी मैं तुमसे कहता हूं कि वह सब तुमने किया नहीं, वह घास-पात की तरह अपने आप बढ़ा है। और अगर गौर से तुम भीतर विश्लेषण करोगे तो तुम्हें भी दिखाई पड़ जाएगा कि धन कमाने के लिए तुमने कुछ किया नहीं; धन की आकांक्षा घास-पात की तरह तुम्हारे भीतर थी, वह बढ़ गई है। तुम उखाड़ कर भी फेंको, तो भी बढ़ जाती है। तुमने घर बनाने के लिए कुछ किया नहीं; वह वासना तुम्हारे भीतर घास-पात की तरह बढ़ी है। वह मृत्यु के आखिरी क्षण तक तुम्हें पकड़ी रहेगी।
साधक का अर्थ है: जो इस सत्य को समझ जाए कि जो अपने आप बढ़ रहा है, वह व्यर्थ ही होगा; मुझे कुछ बोना पड़ेगा।
मैंने सुना है कि एक महिला एक मनोवैज्ञानिक के पास गई। और उसने कहा कि अब सहायता की जरूरत है। बहुत दिन टाला, लेकिन अब! अब मुझे कहना ही पड़ेगा; मेरी सहायता करें। उस मनोवैज्ञानिक ने पूछा, क्या है समस्या? उसने कहा, समस्या मेरी नहीं है, मेरे पति की है। समस्या यह है कि जैसा प्रेम प्रथम में उन्होंने दिखाया था, अब वह धीरे-धीरे खो गया। और जैसी प्रगाढ़ वासना उनमें पहले थी, वह धीरे-धीरे क्षीण हो गई। पहले वे बाढ़ की तरह थे, अब वे एक सूखी नदी की तरह हुए जा रहे हैं। मनोवैज्ञानिक भीतर से तो हंसना चाहा, लेकिन बाहर उसने गंभीरता रखी, व्यावसायिक की गंभीरता, और उसने पूछा, लेकिन आपकी उम्र क्या है? उस महिला ने कहा, बस केवल बहत्तर वर्ष।
और तुम्हारे पति की उम्र?
उसने कहा, बस केवल छियासी वर्ष।
सभी लोग ऐसा सोचते हैं कि बस केवल अस्सी-नब्बे। ‘केवल’ मृत्यु के खिलाफ लगाए हुए हैं--कि अभी कोई उम्र है! अभी तो जैसे शुरुआत है!
और मनोवैज्ञानिक ने कहा कि कब तुम्हें ये लक्षण दिखाई पड़ने शुरू हुए कि पति की ऊर्जा खो रही है, शक्ति खो रही है, प्रेम वासना कम हो रही है। पत्नी ने कहा, कल रात और आज सुबह फिर।
अंतिम, मरते क्षण तक कचरा ही पकड़े रखता है; क्योंकि उसके लिए कुछ करने की जरूरत नहीं, वह अपने से उग रहा है।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, ध्यान करते हैं, छूट-छूट जाता है; दो दिन चलता है, फिर बंद हो जाता है।
ऐसा वासना के साथ नहीं होता। ऐसा क्रोध के साथ नहीं होता। तुम कभी भूल कर भी नहीं छोड़ पाते। उसे तुम पकड़े ही रहते हो। मामला क्या है? ध्यान कर-कर के छूट जाता है; दो दिन करते हैं, फिर भूल जाते हैं। फिर चार-छह महीने में याद आती है। प्रार्थना कर-कर के छूट जाती है। और क्रोध? और लोभ? और काम? और मोह?
एक तथ्य को समझने की कोशिश करो--क्योंकि ध्यान तुम्हें करना पड़ता है, इसलिए छूट-छूट जाता है। वे बीज हैं जो बोने पड़ते हैं; उन्हें सम्हालना पड़ेगा। और यह सब कचरा अपने आप उगता है। जो भी अपने आप चल रहा है, उसे व्यर्थ समझना। और जब तक तुम उसी में जीते रहोगे, तब तक तुम्हें कुछ भी न मिलेगा। तब मौत के समय तुम पाओगे कि तुम खाली हाथ आए और खाली हाथ जा रहे हो। और यह अविवेक ही माया है--यह मूर्च्छा, यह भेद न कर पाना कि क्या सार्थक है, क्या व्यर्थ है।
शंकर ने सार्थक और व्यर्थ के विवेक को ही ज्ञान कहा है। जीवन में यह दिखाई पड़ जाए कि यह सार्थक और यह व्यर्थ। वहां दोनों हैं। वहां घास-पात भी है और फूल के पौधे भी हैं। तुम्हें ही जीवन के अनुभव से तय करना पड़ेगा कि क्या सार्थक है। सार्थक पर दृष्टि आ जाए तो ब्रह्म पर दृष्टि आ गई और व्यर्थ पर दृष्टि लगी रहे तो माया में भटकन है। न तुम्हें पता है कि तुम कौन हो; न तुम्हें पता है कि तुम किस दिशा में जा रहे हो; न तुम्हें पता है कि तुम कहां से आ रहे हो; तुम बस रास्ते के किनारे के कचरे से उलझे हुए हो। राह के किनारे को तुम ने घर बना लिया है। और इतनी चिंताओं से तुम भरे हो उस व्यर्थ के कचरे के कारण, जो तुम्हारे बिना ही उगता रहा है। तुम्हें उस संबंध में चिंतित होने का कोई भी प्रयोजन नहीं।
‘अविवेक माया है।’
अविवेक का अर्थ है: भेद न कर पाना, डिसक्रिमिनेशन का अभाव, यह तय न कर पाना कि क्या हीरा है और क्या पत्थर है। जीवन के जौहरी बनना होगा। जीवन के जौहरी बनने से ही विवेक पैदा होता है। तुम्हारे पास जीवन है। और तुम खोजो। और इसको मैं खोज की कसौटी कहता हूं कि जो अपने आप चल रहा है, उसे तुम व्यर्थ जानना; और जो तुम्हारे चलाने से भी नहीं चलता है, उसे तुम सार्थक जानना। यह कसौटी है। और जिस दिन तुम्हारे जीवन में वह चलने लगे, जिसे तुम चलाना चाहते थे और जिसका चलना मुश्किल था, उस दिन समझना कि फूल आएंगे। और जिस दिन उसका उगना बंद हो जाए, जो अपने आप उगता था, समझना माया समाप्त हुई।
‘मोह आवरण से युक्त योगी को सिद्धियां तो फलित हो जाती हैं, लेकिन आत्मज्ञान नहीं होता।’
और यह व्यर्थ इतना महत्वपूर्ण हो गया है जीवन में कि जब तुम सार्थक को भी साधने जाते हो, तब भी सार्थक नहीं सधता, व्यर्थ ही सधता है।
लोग ध्यान करने आते हैं, तो भी उनकी आकांक्षा को समझने की कोशिश करो तो बड़ी हैरानी होती है। ध्यान से भी वे व्यर्थ को ही मांगते हैं। मेरे पास वे आते हैं, वे कहते हैं कि ध्यान करना चाहता हूं, क्योंकि शारीरिक बीमारियां हैं। क्या आप आश्वासन देते हैं कि ध्यान करने से वे दूर हो जाएंगी?
अच्छा होता, वे चिकित्सक के पास गए होते। अच्छा होता कि उन्होंने आदमी खोजा होता, जो शरीर की चिकित्सा करता। वे आत्मा के वैद्य के पास भी आते हैं तो भी शरीर के इलाज के लिए ही। वे ध्यान भी करने को तैयार हैं, तो भी ध्यान उनके लिए औषधि से ज्यादा नहीं है; और वह औषधि भी शरीर के लिए।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि बड़ी कठिनाई में जीवन जा रहा है, धन की असुविधा है; क्या ध्यान करने से सब ठीक हो जाएगा?
यह मोह का आवरण इतना घना है कि तुम अगर अमृत को भी खोजते हो तो जहर के लिए। बड़ी हैरानी की बात है! तुम चाहते तो अमृत हो; लेकिन उससे आत्महत्या करना चाहते हो। और अमृत से कोई आत्महत्या नहीं होती। अमृत पीया कि तुम अमर हो जाओगे। लेकिन तुम अमृत की तलाश में आते हो तो भी तुम्हारा लक्ष्य आत्महत्या का है। धन या देह, संसार का कोई न कोई अंग, वही तुम धर्म से भी पूरा करना चाहते हो।
सुनो लोगों की प्रार्थनाएं, मंदिरों में जाकर वे क्या मांग रहे हैं? और तुम पाओगे कि वे मंदिर में भी संसार मांग रहे हैं। किसी के बेटे की शादी नहीं हुई है; किसी के बेटे को नौकरी नहीं मिली है; किसी के घर में कलह है। मंदिर में भी तुम संसार को ही मांगने जाते हो? तुम्हारा मंदिर सुपर मार्केट होगा, बड़ी दुकान होगा, जहां ये चीजें भी बिकती हैं, जहां सभी कुछ बिकता है। लेकिन तुम्हें अभी मंदिर की कोई पहचान नहीं। इसलिए तुम्हारे मंदिरों में जो पुजारी बैठे हैं, वे दुकानदार हैं; क्योंकि वहां जो लोग आते हैं, वे संसार के ही ग्राहक हैं। असली मंदिर से तो तुम बचोगे।
मेरे एक मित्र हैं, दांत के डाक्टर हैं। उनके घर मैं मेहमान था। बैठा था उनके बैठकखाने में एक दिन सुबह, एक छोटा सा बच्चा डरा-डरा भीतर प्रविष्ट हुआ। चारों तरफ उसने चौंक कर देखा। फिर मुझसे पूछा कि क्या मैं पूछ सकता हूं--बड़े फुसफुसा कर--कि डाक्टर साहब भीतर हैं या नहीं? तो मैंने कहा, वे अभी बाहर गए हैं। प्रसन्न हो गया वह बच्चा। उसने कहा, मेरी मां ने भेजा था दांत दिखाने। क्या मैं आपसे पूछ सकता हूं कि वे फिर कब बाहर जाएंगे?
बस, ऐसी तुम्हारी हालत है। अगर मंदिर तुम्हें मिल जाए तो तुम बचोगे। दांत का दर्द तुम सह सकते हो; लेकिन दांत का डाक्टर तुम्हें जो दर्द देगा, वह तुम सहने को तैयार नहीं हो। तुम छोटे बच्चों की भांति हो। तुम संसार की पीड़ा सह सकते हो; लेकिन धर्म की पीड़ा सहने की तुम्हारी तैयारी नहीं है। और निश्चित ही धर्म भी पीड़ा देगा। वह धर्म पीड़ा नहीं देता; वह तुम्हारे संसार के दांत इतने सड़ गए हैं, उनको निकालने में पीड़ा होगी। धर्म पीड़ा नहीं देता; धर्म तो परम आनंद है। लेकिन तुम दुख में ही जीए हो और तुमने दुख ही अर्जित किया है। तुम्हारे सब दांत पीड़ा से भर गए हैं; उनको खींचने में कष्ट होगा। तुम इतने डरते हो उनको खींचे जाने से कि तुम राजी हो उनकी पीड़ा और जहर को झेलने को। उससे तुम विषाक्त हुए जा रहे हो; तुम्हारा सारा जीवन गलित हुआ जा रहा है।
लेकिन तुम इस दुख से परिचित हो। आदमी परिचित दुख को झेलने को राजी होता है; अपरिचित सुख से भी भय लगता है! ये दांत भी तुम्हारे हैं। यह दर्द भी तुम्हारा है। इससे तुम जन्मों-जन्मों से परिचित हो। लेकिन तुम्हें पता नहीं कि अगर ये दांत निकल जाएं, यह पीड़ा खो जाए, तो तुम्हारे जीवन में पहली दफा आनंद का द्वार खुलेगा।
तुम मंदिर भी जाते हो तो तुम पूछते हो पुजारी से, परमात्मा फिर कब बाहर होंगे, तब मैं आऊं। तुम जाते भी हो, तुम जाना भी नहीं चाहते हो। तुम कैसी चाल अपने साथ खेलते हो, इसका हिसाब लगाना बहुत मुश्किल है।
निरंतर तुम्हें देख कर, तुम्हारी समस्याओं को देख कर, मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि तुम्हारी एक ही मात्र समस्या है कि तुम ठीक से यही नहीं समझ पा रहे हो कि तुम क्या करना चाहते हो। ध्यान करना चाहते हो? यह भी पक्का नहीं है। फिर ध्यान नहीं होता तो तुम परेशान होते हो। लेकिन जो करने का तुम्हारा पक्का ही नहीं है, वह तुम पूरे-पूरे भाव से करोगे नहीं, आधे-आधे भाव से करोगे। और आधे-आधे भाव से जीवन में कुछ भी नहीं होता। व्यर्थ तो बिना भाव के भी चलता है। उसमें तुम्हें कुछ भी लगाने की जरूरत नहीं; उसकी अपनी ही गति है। लेकिन सार्थक में जीवन को डालना पड़ता है, दांव पर लगाना होता है।
यह सूत्र कहता है: ‘मोह आवरण से युक्त योगी को सिद्धियां तो फलित हो जाती हैं, लेकिन आत्मज्ञान नहीं होता।’
मोह का आवरण इतना घना है कि अगर तुम धर्म की तरफ भी जाते हो तो तुम चमत्कार खोजते हो वहां भी। वहां भी अगर बुद्ध खड़े हों, तुम न पहचान सकोगे। तुम सत्य साईं बाबा को पहचानोगे। अगर बुद्ध और सत्य साईं बाबा दोनों खड़े हों, तो तुम सत्य साईं बाबा के पास जाओगे, बुद्ध के पास नहीं। क्योंकि बुद्ध ऐसी मूढ़ता न करेंगे कि तुम्हें ताबीज दें, हाथ से राख गिराएं; बुद्ध कोई मदारी नहीं हैं।
लेकिन तुम मदारियों की तलाश में हो। तुम चमत्कार से प्रभावित होते हो। क्योंकि तुम्हारी गहरी आकांक्षा, वासना परमात्मा की नहीं है; तुम्हारी गहरी वासना संसार की है। जहां तुम चमत्कार देखते हो, वहां लगता है कि यहां कोई गुरु है। यहां आशा बंधती है कि वासना पूरी होगी। जो गुरु हाथ से ताबीज निकाल सकता है, वह चाहे तो कोहिनूर भी निकाल सकता है। बस गुरु के चरणों में, सेवा में लग जाने की जरूरत है, आज नहीं कल कोहिनूर भी निकलेगा। क्या फर्क पड़ता है गुरु को! ताबीज निकाला, कोहिनूर भी निकल सकता है।
कोहिनूर की तुम्हारी आकांक्षा है। कोहिनूर के लिए छोटे-छोटे लोग ही नहीं, बड़े से बड़े लोग भी चोर होने को तैयार हैं। जिस आदमी के हाथ से राख गिर सकती है शून्य से, वह चाहे तो तुम्हें अमरत्व प्रदान कर सकता है; बस केवल गुरु-सेवा की जरूरत है!
नहीं, बुद्ध से तुम वंचित रह जाओगे; क्योंकि वहां कोई चमत्कार घटित नहीं होता। जहां सारी वासना समाप्त हो गई है, वहां तुम्हारी किसी वासना को तृप्त करने का भी कोई सवाल नहीं है। बुद्ध के पास तो महानतम चमत्कार, आखिरी चमत्कार घटित होता है--निर्वासना का प्रकाश है वहां। लेकिन तुम्हारी वासना से भरी आंखें वह न देख पाएंगी। बुद्ध को तुम तभी देख पाओगे, तभी समझ पाओगे, उनके चरणों में तुम तभी झुक पाओगे, जब सच में ही संसार की व्यर्थता तुम्हें दिखाई पड़ गई हो, मोह का आवरण टूट गया हो।
मोह एक नशा है। जैसे नशे में डूबा हुआ कोई आदमी चलता है, डगमगाता; पक्का पता भी नहीं कहां जा रहा है, क्यों जा रहा है; चलता है बेहोशी में; ऐसे तुम चलते रहे हो। कितना ही तुम सम्हालो अपने पैरों को, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। सभी शराबी सम्हालने की कोशिश करते हैं। तुम अपने को भला धोखा दे लो, दूसरों को कोई धोखा नहीं हो पाता। सभी शराबी कोशिश करते हैं कि वे नशे में नहीं हैं; वे जितनी कोशिश करते हैं, उतना ही प्रकट होता है। और यह मोह नशा है।
और जब मैं कहता हूं मोह नशा है, तो बिलकुल रासायनिक अर्थों में कहता हूं कि मोह नशा है। मोह की अवस्था में तुम्हारा पूरा शरीर नशीले द्रव्यों से भर जाता है--वैज्ञानिक अर्थों में भी। जब तुम किसी स्त्री के प्रेम में गिरते हो, तो तुम्हारा पूरे शरीर का खून विशेष रासायनिक द्रव्यों से भर जाता है। वे द्रव्य वही हैं जो भांग में हैं, गांजे में हैं, एल एस डी में हैं। इसीलिए स्त्री अब, जिसके तुम प्रेम में पड़ गए हो, वह स्त्री अलौकिक दिखाई पड़ने लगती है। वह इस पृथ्वी की नहीं मालूम होती। जिस पुरुष के तुम प्रेम में पड़ जाओ, वह पुरुष इस लोक का नहीं मालूम पड़ता। नशा उतरेगा, तब वह दो कौड़ी का दिखाई पड़ेगा। जब तक नशा है!
इसलिए तुम्हारा कोई भी प्रेम स्थायी नहीं हो सकता; क्योंकि नशे की अवस्था में किया गया है। वह मोह का एक रूप है। होश में नहीं हुआ है वह, बेहोशी में हुआ है। इसलिए हम प्रेम को अंधा कहते हैं। प्रेम अंधा नहीं है, मोह अंधा है। हम भूल से मोह को प्रेम समझते हैं। प्रेम तो आंख है; उससे बड़ी कोई आंख नहीं है। प्रेम की आंख से तो परमात्मा दिखाई पड़ जाता है--इस संसार में छिपा हुआ। मोह अंधा है; जहां कुछ भी नहीं है वहां सब कुछ दिखाई पड़ता है। मोह एक सपना है।
और जिनको हम योगी कहते हैं, वे भी इस मोह से ग्रस्त होते हैं। सिद्धियां तो हल हो जाती हैं। वे कुछ शक्तियां तो पा लेते हैं। शक्तियां पानी कठिन नहीं है। दूसरे के मन के विचार पढ़े जा सकते हैं--थोड़ा ही उपाय करने की जरूरत है। दूसरे के विचार प्रभावित किए जा सकते हैं--थोड़ा ही उपाय करने की जरूरत है। आदमी आए, तुम बता सकते हो कि तुम्हारे मन में क्या खयाल है--थोड़े ही उपाय करने की जरूरत है। यह विज्ञान है; धर्म का इससे कुछ लेना-देना नहीं है। मन को पढ़ने का विज्ञान है, जैसे किताब को पढ़ने का विज्ञान है। जो अपढ़ है, वह तुम्हें किताब को पढ़ते देख कर बहुत हैरान होता है--क्या चमत्कार हो रहा है! जहां कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता उसे, काले धब्बे हैं, वहां से तुम ऐसा आनंद ले रहे हो--कविता का, उपनिषद का, वेद का--मंत्रमुग्ध हो रहे हो! अपढ़ देख कर हैरान होता है।
मुल्ला नसरुद्दीन के गांव में वह अकेला ही पढ़ा-लिखा आदमी था। और जब अकेला ही कोई पढ़ा-लिखा आदमी हो तो पक्का नहीं कि वह पढ़ा-लिखा है भी कि नहीं। क्योंकि कौन पता लगाए? गांव में जिसको भी चिट्ठी वगैरह लिखवानी होती, वह नसरुद्दीन के पास आता। वह चिट्ठी लिख देता था। एक दिन एक बुढ़िया आई। उसने कहा कि चिट्ठी लिख दो नसरुद्दीन! नसरुद्दीन ने कहा, अभी न लिख सकूंगा, मेरे पैर में बहुत दर्द है। बुढ़िया ने कहा, हद हो गई! पैर के दर्द से और चिट्ठी लिखने का संबंध क्या? नसरुद्दीन ने कहा, अब उस विस्तार में मत जाओ। लेकिन मैं कहता हूं कि पैर में दर्द है, और मैं चिट्ठी न लिखूंगा। बुढ़िया भी जिद्दी थी। उसने कहा, मैं बिना जाने जाऊंगी नहीं। क्योंकि मैं बेपढ़ी-लिखी हूं, लेकिन यह मैंने कभी सुना नहीं कि पैर के दर्द से चिट्ठी लिखने का क्या संबंध है। नसरुद्दीन ने कहा, तू नहीं मानती तो मैं बता दूं। फिर पढ़ने दूसरे गांव तक कौन जाएगा? वह मुझ ही को जाना पड़ता है। मेरी लिखी चिट्ठी मैं ही पढ़ सकता हूं। अभी मेरे पैर में दर्द है, मैं लिखने वाला नहीं।
गैर पढ़ा-लिखा आदमी किताब में खोए आदमी को देख कर चमत्कृत होता है। लेकिन पढ़ना सीखा जा सकता है; उसकी कला है। तुम्हारे मन में विचार चलते हैं। तुम देखते हो विचारों को, दूसरा भी उनको देख सकता है; उसकी कला है। लेकिन उस विचारों को देखने की कला का धर्म से कोई भी संबंध नहीं। न किताब को पढ़ने की कला से धर्म का कोई संबंध है; न दूसरे के मन को पढ़ने की कला से धर्म का कोई संबंध है। जादूगर सीख लेते हैं; वे कोई सिद्ध पुरुष नहीं हैं।
लेकिन तुम बहुत चमत्कृत होओगे। तुम गए किसी साधु के पास और उसने कहा कि आओ! तुम्हारा नाम लिया, तुम्हारे गांव का पता बताया और कहा कि तुम्हारे घर के बगल में एक नीम का झाड़ है। तुम दीवाने हो गए! लेकिन साधु को नीम के झाड़ से क्या लेना, तुम्हारे गांव से क्या लेना, तुम्हारे नाम से क्या मतलब! साधु तो वह है जिसे पता चल गया है कि किसी का कोई नाम नहीं, रूप नहीं, किसी का कोई गांव नहीं। ये गांव, नाम, रूप, सब संसार के हिस्से हैं। तुम संसारी हो! वह साधु भी तुम्हें प्रभावित कर रहा है, क्योंकि वह तुमसे गहरे संसार में है। उसने और भी कला सीख ली है। तुम्हारे बिना बताए वह बोलता है। वह तुम्हें प्रभावित करना चाहता है।
ध्यान रखो, जब तक तुम दूसरे को प्रभावित करना चाहते हो, तब तक तुम अहंकार से ग्रस्त हो। आत्मा किसी को प्रभावित करना नहीं चाहती। दूसरे को प्रभावित करने में सार भी क्या है? क्या अर्थ है? पानी पर बनाई हुई लकीरों जैसा है। क्या होगा मुझे? दस हजार लोग प्रभावित हों कि दस करोड़ लोग प्रभावित हों, इससे होगा क्या? उनको प्रभावित करके मैं क्या पा लूंगा?
अज्ञानियों की भीड़ को प्रभावित करने की इतनी उत्सुकता अज्ञान की खबर देती है। तो राजनेता दूसरों को प्रभावित करने में उत्सुक होता है, समझ में आता है। लेकिन धार्मिक व्यक्ति क्यों दूसरों को प्रभावित करने में उत्सुक होगा? और जब भी तुम दूसरे को प्रभावित करना चाहते हो, तब एक बात याद रखना, तुम आत्मस्थ नहीं हो। दूसरे को प्रभावित करने का अर्थ है कि तुम अहंकार स्थित हो।
अहंकार दूसरे के प्रभाव को भोजन की तरह उपलब्ध करता है; उसी पर जीता है। जितनी आंखें मुझे पहचान लें, उतना मेरा अहंकार बड़ा होता है। अगर सारी दुनिया मुझे पहचान ले, तो मेरा अहंकार सर्वोत्कृष्ट हो जाता है। कोई मुझे न पहचाने--गांव से निकलूं, सड़क से गुजरूं, कोई देखे न, कोई रिकग्नीशन नहीं, कोई प्रत्यभिज्ञा नहीं; किसी की आंख में झलक न आए, लोग ऐसा जैसे कि मैं हूं ही नहीं--बस वहां अहंकार को चोट है। अहंकार चाहता है दूसरे ध्यान दें। यह बड़े मजे की बात है। अहंकार ध्यान नहीं करना चाहता; दूसरे उस पर ध्यान करें, सारी दुनिया उसकी तरफ देखे, वह केंद्र हो जाए।
धार्मिक व्यक्ति, दूसरा मेरी तरफ देखे, इसकी फिक्र नहीं करता; मैं अपनी तरफ देखूं! क्योंकि अंततः वही मेरे साथ जाएगा। यह तो बच्चों की बात हुई। बच्चे खुश होते हैं कि दूसरे उनकी प्रशंसा करें। सर्टिफिकेट घर लेकर आते हैं तो नाचते-कूदते आते हैं। लेकिन बुढ़ापे में भी तुम सर्टिफिकेट मांग रहे हो? तब तुमने जिंदगी गंवा दी!
सिद्धि की आकांक्षा दूसरों को प्रभावित करने में है। धार्मिक व्यक्ति की वह आकांक्षा नहीं है। वही तो सांसारिक का स्वभाव है।
यह सूत्र कहता है: ‘मोह आवरण से युक्त योगी को सिद्धियां तो फलित हो जाती हैं, लेकिन आत्मज्ञान नहीं होता।’
वह कितनी ही बड़ी सिद्धियों को पा ले--उसके छूने से मुर्दा जिंदा हो जाए, उसके स्पर्श से बीमारियां खो जाएं, वह पानी को छू दे और औषधि हो जाए--लेकिन उससे आत्मज्ञान का कोई भी संबंध नहीं है। सच तो स्थिति उलटी है कि जितना ही वह व्यक्ति सिद्धियों से भरता जाता है, उतना ही आत्मज्ञान से दूर होता जाता है। क्योंकि जैसे-जैसे अहंकार भरता है, वैसे-वैसे आत्मा खाली होती है; और जैसे-जैसे अहंकार खाली होता है, वैसे-वैसे आत्मा भरती है। तुम दोनों को साथ ही साथ न भर पाओगे।
दूसरे को प्रभावित करने की आकांक्षा छोड़ दो, अन्यथा योग भी भ्रष्ट हो जाएगा। तब तुम योग भी साधोगे, वह भी राजनीति होगी, धर्म नहीं। और राजनीति एक जाल है। फिर येन केन प्रकारेण आदमी दूसरे को प्रभावित करना चाहता है। फिर सीधे और गलत रास्ते से भी प्रभावित करना चाहता है। लेकिन प्रभावित तुम करना ही इसलिए चाहते हो कि तुम दूसरे का शोषण करना चाहते हो।
मैंने सुना है, चुनाव हो रहे थे; और एक संध्या तीन आदमी हवालात में बंद किए गए। अंधेरा था, तीनों ने अंधेरे में एक-दूसरे को परिचय दिया। पहले व्यक्ति ने कहा, मैं हूं सरदार संतसिंह। मैं सरदार सिरफोड़सिंह के लिए काम कर रहा था। दूसरे ने कहा, गजब हो गया! मैं हूं सरदार शैतानसिंह। मैं सरदार सिरफोड़सिंह के विरोध में काम कर रहा था। तीसरे ने कहा, वाहे गुरुजी की फतह! वाहे गुरुजी का खालसा! हद हो गई! मैं खुद सरदार सिरफोड़सिंह हूं।
नेता, अनुयायी, पक्ष के, विपक्ष के--सभी कारागृहों के योग्य हैं। वही उनकी ठीक जगह है, जहां उन्हें होना चाहिए। क्योंकि पाप की शुरुआत वहां से होती है, जहां मैं दूसरे व्यक्ति को प्रभावित करने चलता हूं। क्योंकि अहंकार न शुभ जानता, न अशुभ; अहंकार सिर्फ अपने को भरना जानता है। कैसे अपने को भरता है, यह बात गौण है। अहंकार की एक ही आकांक्षा है कि मैं अपने को भरूं और परिपुष्ट हो जाऊं। और चूंकि अहंकार एक सूनापन है, सब उपाय करके भी भर नहीं पाता, खाली ही रह जाता है। तो जैसे-जैसे उम्र हाथ से खोती है, वैसे-वैसे अहंकार पागल होने लगता है; क्योंकि अभी तक भर नहीं पाया, अभी तक यात्रा अधूरी है और समय बीता जा रहा है।
इसलिए बूढ़े आदमी चिड़चिड़े हो जाते हैं। वह चिड़चिड़ापन किसी और के लिए नहीं है; वह चिड़चिड़ापन अपने जीवन की असफलता के लिए है। जो भरना चाहते थे, वे भर नहीं पाए।
और बूढ़े आदमी की चिड़चिड़ाहट और घनी हो जाती है; क्योंकि उसे लगता है कि जैसे-जैसे वह बूढ़ा हुआ है, वैसे-वैसे लोगों ने ध्यान देना बंद कर दिया है; बल्कि लोग प्रतीक्षा कर रहे हैं कि वह कब समाप्त हो जाए।
मुल्ला नसरुद्दीन सौ साल का हो गया था। मैंने उससे पूछा कि क्या तुम कुछ कारण बता सकते हो नसरुद्दीन कि परमात्मा ने तुम्हें इतनी लंबी उम्र क्यों दी?
उसने बिना कुछ झिझक कर कहा, संबंधियों के धैर्य की परीक्षा के लिए।
सभी बूढ़े संबंधियों के धैर्य की परीक्षा कर रहे हैं। चौबीस घंटे देख रहे हैं कि ध्यान उनकी तरफ से हटता जा रहा है। मौत तो उन्हें बाद में मिटाएगी, लोगों की पीठ उन्हें पहले ही मिटा देती है। उससे चिड़चिड़ापन पैदा होता है।
तुम सोच भी नहीं सकते कि निक्सन का चिड़चिड़ापन अभी कैसा होगा। सब की पीठ हो गई, जिनके चेहरे थे। जो अपने थे, वे पराए हो गए। जो मित्र थे, वे शत्रु हो गए। जिन्होंने सहारे दिए थे, उन्होंने सहारे छीन लिए। सब ध्यान हट गया। निक्सन अस्वस्थ हैं, बेचैन हैं, परेशान हैं। जो भी आदमी जाता है निक्सन के पास, उससे वे पहली बात यही पूछते हैं कि मैंने जो किया वह ठीक किया? लोग मेरे संबंध में क्या कह रहे हैं?
अभी यह आदमी शिखर पर था, अब यह आदमी खाई में पड़ा है! यह शिखर और खाई किस बात की थी? यह आदमी तो वही है जो कल था, पद पर था; वही आदमी अभी भी है। सिर्फ अहंकार शिखर पर था, अब खाई में है; आत्मा तो जहां की तहां है। काश! इस आदमी को उसकी याद आ जाए, जिसका न कोई शिखर होता, न कोई खाई होती; न कोई हार होती, न जीत होती; जिसको लोग देखें तो ठीक, न देखें तो ठीक; जिसमें कोई फर्क नहीं पड़ता, जो एकरस है।
उस एकरसता का अनुभव तुम्हें तभी होगा, जब तुम लोगों का ध्यान मांगना बंद कर दोगे। भिखमंगापन बंद करो। सिद्धियों से क्या होगा? लोग तुम्हें चमत्कारी कहेंगे; लाखों की भीड़ इकट्ठी होगी। लेकिन लाखों मूढ़ों को इकट्ठा करके क्या सिद्ध होता है--कि तुम इन लाखों मूढ़ों के ध्यान के केंद्र हो! तुम महामूढ़ हो! अज्ञानी से प्रशंसा पाकर भी क्या मिलेगा? जिसे खुद ज्ञान नहीं मिल सका, उसकी प्रशंसा मांग कर तुम क्या करोगे? जो खुद भटक रहा है, उसके तुम नेता हो जाओगे? उसके सम्मान का कितना मूल्य है?
सुना है मैंने, सूफी फकीर हुआ, फरीद। वह जब बोलता था, तो कभी लोग ताली बजाते तो वह रोने लगता। एक दिन उसके शिष्यों ने पूछा, हद्द हो गई! लोग ताली बजाते हैं, तुम रोते किसलिए हो? तो फरीद ने कहा कि वे ताली बजाते हैं, तब मैं समझता हूं कि मुझसे कोई गलती हो गई होगी। अन्यथा वे ताली कभी न बजाते। ये गलत लोग! जब वे न ताली बजाते, न उनकी समझ में आता, तभी मैं समझता हूं कि कुछ ठीक बात कह रहा हूं।
आखिर गलत आदमी की ताली का मूल्य क्या है? तुम किसके सामने अपने को ‘सिद्ध’ सिद्ध करना चाह रहे हो? अगर तुम इस संसार के सामने अपने को ‘सिद्ध’ सिद्ध करना चाह रहे हो, तो तुम नासमझों की प्रशंसा के लिए आतुर हो। तुम अभी नासमझ हो। और अगर तुम सोचते हो कि परमात्मा के सामने तुम अपने को सिद्ध करना चाह रहे हो कि मैं सिद्ध हूं, तो तुम और महा नासमझ हो। क्योंकि उसके सामने तो विनम्रता चाहिए। वहां तो अहंकार काम न करेगा। वहां तो तुम मिट कर जाओगे तो ही स्वीकार पाओगे। वहां तुम अकड़ लेकर गए तो तुम्हारी अकड़ ही बाधा हो जाएगी।
इसलिए तथाकथित सिद्ध परमात्मा तक नहीं पहुंच पाते। परम सिद्धियां उनकी हो जाती हैं, लेकिन असली सिद्धि चूक जाती है। वह असली सिद्धि है आत्मज्ञान। क्यों आत्मज्ञान चूक जाता है? क्योंकि सिद्धि भी दूसरे की तरफ देख रही है, अपनी तरफ नहीं। अगर कोई भी न हो दुनिया में, तुम अकेले होओ, तो तुम सिद्धियां चाहोगे? तुम चाहोगे कि पानी को छुऊं, औषधि हो जाए? मरीज को छुऊं, स्वस्थ हो जाए? मुर्दे को छुऊं, जिंदा हो जाए? कोई भी न हो पृथ्वी पर, तुम अकेले होओ, तो तुम ये सिद्धियां चाहोगे? तुम कहोगे, क्या करेंगे! देखने वाले ही न रहे। देखने वाले के लिए सिद्धियां हैं।
दूसरे पर तुम्हारा ध्यान है, तब तक तुम्हारा अपने पर ध्यान नहीं आ सकता। और आत्मज्ञान तो उसे फलित होता है, जो दूसरे की तरफ से आंखें अपनी तरफ मोड़ लेता है।
‘स्थायी रूप से मोह-जय होने पर सहज विद्या फलित होती है।’
स्थायी रूप से मोह-जय होने पर सहज विद्या फलित होती है! मोह को जय करना है। मोह का क्या अर्थ है? मोह का अर्थ है: दूसरे के बिना मैं न जी सकूंगा; दूसरा मेरा केंद्र है।
तुमने बच्चों की कहानियां पढ़ी होंगी, जिनमें कोई राजा होता है और जिसके प्राण किसी पक्षी में, तोते में, मैना में बंद होते हैं। तुम उस राजा को मारो, न मार पाओगे। गोली आर-पार निकल जाएगी, राजा जिंदा रहेगा। तीर छिद जाएगा हृदय में, राजा मरेगा नहीं। जहर पिला दो, कोई असर न होगा। राजा जीवित रहेगा। तुम्हें पता लगाना पड़ेगा उस तोते का, मैना का, जिसमें उसके प्राण बंद हैं। उसे तुम मरोड़ दो, उसकी गर्दन तोड़ दो--इधर राजा मर जाएगा।
ये बच्चों की कहानियां बड़ी अर्थपूर्ण हैं; बूढ़ों के भी समझने योग्य हैं। मोह का अर्थ है: तुम अपने में नहीं जीते, किसी और चीज में जीते हो। समझो, किसी का मोह तिजोरी में है। तुम उसकी गर्दन मरोड़ दो, वह न मरेगा। तुम तिजोरी लूट लो, वह मर गए। उनके प्राण तिजोरी में थे। उनका बैंक बैलेंस खो जाए, वे मर गए। उन्हें तुम मारो, वे मरने वाले नहीं। जहर पिलाओ, वे जिंदा रहेंगे।
मोह का अर्थ है: तुमने अपने प्राण अपने से हटा कर कहीं और रख दिए हैं। किसी ने अपने बेटे में रख दिए हैं; किसी ने अपनी पत्नी में रख दिए हैं; किसी ने धन में रख दिए हैं; किसी ने पद में रख दिए हैं--लेकिन प्राण कहीं और रख दिए हैं। जहां होना चाहिए प्राण वहां नहीं हैं। तुम्हारे भीतर प्राण नहीं धड़क रहा है, कहीं और धड़क रहा है। तब तुम मुसीबत में रहोगे।
यही मोह संसार है; क्योंकि जहां-जहां तुमने प्राण रख दिए, उनके तुम गुलाम हो जाओगे। जिस राजा के प्राण तोते में बंद हैं, वह तोते का गुलाम होगा; क्योंकि तोते के ऊपर सब कुछ निर्भर है। तोता मर जाए तो हमारे प्राण गए। तो वह तोते को सम्हालेगा।
मैंने सुना है, एक सम्राट एक बार एक ज्योतिषी पर बहुत नाराज हो गया; क्योंकि ज्योतिषी ने उसके प्रधानमंत्री की भविष्यवाणी की और कहा कि यह कल मर जाएगा। और कल प्रधानमंत्री मर भी गया। राजा बहुत चिंतित हुआ। और उसे यह शक भी पकड़ा कि यह भी हो सकता है कि यह प्रधानमंत्री इसके कहने के कारण मर गया। इस पर भाव इतना गहरा हो गया, इसकी बात का प्रभाव इतना हो गया कि मर गया। और अब यह झंझट का आदमी है। यह अगर मुझसे भी कह दे कि कल तुम मर जाओगे, तो बचना बहुत मुश्किल है; क्योंकि इसका प्रभाव पड़ेगा मुझ पर।
तो उसने ज्योतिषी को कारागृह में डाल दिया। ज्योतिषी ने पूछा कि क्यों? सम्राट ने कहा कि तुम खतरनाक हो! मुझे लगता है कि यह भविष्यवाणी के कारण नहीं मरा, मरने वाला था इसलिए नहीं मरा; तुमने कहा, यह बात उसके मन में बैठ गई, वह सम्मोहित हो गया और मर गया। तुम खतरनाक हो।
उस ज्योतिषी ने कहा, इसके पहले कि तुम मुझे कारागृह में डालो, मैं एक बात तुम्हें बता दूं, तुम्हारा भविष्य भी मैंने निकाला हुआ है। सम्राट ने बहुत चाहा कि वह भविष्य न सुने; लेकिन ज्योतिषी बोल ही गया। सम्राट ने कहा, चुप! लेकिन ज्योतिषी ने कहा, चुप रहने का कोई उपाय नहीं है। जिस दिन मैं मरूंगा, उसके तीन दिन बाद तुम मरोगे।
बस अब मुसीबत हो गई। उस ज्योतिषी को महल में रखना पड़ा। उसकी बड़ी सेवा, चिंता...। उसके राजा हाथ-पैर दबाता; क्योंकि वह जिस दिन मरा, तीन दिन बाद...।
जहां तुम अपने प्राण रख दोगे, उसकी तुम सेवा में लग जाओगे। लोगों को देखो, तिजोरी के पास कैसे जाते हैं। बिलकुल हाथ जोड़े, जैसे मंदिर के पास जाते हैं। तिजोरी पर ‘लाभ-शुभ’, ‘श्री गणेशाय नमः’। तिजोरी भगवान है! उसकी वे पूजा करते हैं। दीवाली के दिन पागलों को देखो, सब अपनी-अपनी तिजोरी की पूजा कर रहे हैं। वहां उनके प्राण हैं। किस भाव से वे करते हैं, वह भाव देखने जैसा है। दुकानदार हर साल अपने खाता-बही शुरू करता है, तो स्वास्तिक बनाता है, ‘लाभ-शुभ’ लिखता है, ‘श्री गणेशाय नमः’ लिखता है। तुम्हें पता है कि यह गणेश की इतनी स्तुति वह क्यों करता है?
यह गणेश पुराने उपद्रवी हैं। पुरानी कथा है कि गणेश विघ्न के देवता हैं। दिखते भी इस ढंग से हैं कि उपद्रवी होने चाहिए। एक तो खोपड़ी अपनी नहीं। जिसके पास अपनी खोपड़ी नहीं है, वह आदमी पागल है। उससे तुम कुछ भी...कुछ भी असंभव वह कर सकता है। ढंग-डौल उनका देखो, संदिग्ध है। चूहे पर सवार हैं। वह चूहा तर्क है; कतरनी की तरह काटता है। तर्क कभी भी भरोसे योग्य नहीं है। तर्क जहां भी जाएगा, वहां विघ्न उपस्थित करेगा। जिसके जीवन में तर्क घुस जाएगा, उसके जीवन में उपद्रव आ जाएंगे, अराजकता आ जाएगी, सब शांति खो जाएगी।
तो गणेश पुराने देवता हैं विघ्न के। जहां भी कहीं कुछ शुभ हो रहा हो, वे मौजूद हो जाते थे। लोग उनसे डरने लगे। डरने के कारण पहले ही उनको हाथ जोड़ लेते हैं कि आप--कृपा करके आप कृपा रखना, बाकी हम सब सम्हाल लेंगे। और धीरे-धीरे हालत ऐसी हो गई कि जो देवता विघ्न का था, लोग उसको मंगल का देवता मानने लगे। पर वे भूल गए हैं कहानी। वह उनका हाथ जोड़ना ठीक ही है कि यहां मत आना। इस तरफ कृपा दृष्टि रखना।
देखें, तिजोरी के पास किस भाव से भक्त धन की पूजा करता है!
मोह के आवरण का अर्थ होता है: तुम्हारी आत्मा कहीं और बंद है। वह पत्नी में हो, धन में हो, पद में हो, वह कहीं भी हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता; लेकिन तुम्हारी आत्मा तुम्हारे भीतर नहीं है, मोह का यह अर्थ है। और शाश्वत, स्थायी रूप से मोह-जय का अर्थ है कि तुमने सारी परतंत्रता छोड़ दी। अब तुम किसी और पर निर्भर होकर नहीं जीते; तुम्हारा जीवन अपने में निर्भर है। तुम स्वकेंद्रित हुए। तुमने अपने अस्तित्व को ही अपना केंद्र बना लिया। अब पत्नी न रहे, धन न रहे, तो भी कोई फर्क न पड़ेगा--वे ऊपर की लहरें हैं--तो भी तुम उद्विग्न न हो जाओगे। सफलता रहे कि विफलता, सुख आए कि दुख, कोई अंतर न पड़ेगा। क्योंकि अंतर पड़ता था इसलिए कि तुम उन पर निर्भर थे।
मोह-जय का अर्थ है: परम स्वतंत्र हो जाना; मैं किसी पर निर्भर नहीं हूं--ऐसी प्रतीति; मैं अकेला काफी हूं, पर्याप्त हूं--ऐसी तृप्ति। मेरा होना पूरा है, ऐसा भाव मोह-जय है। जब तक दूसरे के होने पर तुम्हारा होना निर्भर है, तब तक मोह पकड़ेगा; तब तक तुम दूसरे को जकड़ोगे, वह कहीं छूट न जाए, कहीं खो न जाए रास्ते में; क्योंकि उसके बिना तुम कैसे रहोगे!
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी मरी, तो औपचारिक रूप से रो रहा था। लेकिन मुल्ला नसरुद्दीन का एक मित्र था, वह बहुत ही ज्यादा शोरगुल मचा कर रो रहा था--छाती पीट रहा, आंसू बहा रहा। मुल्ला नसरुद्दीन से भी न रहा गया। उसने कहा कि मेरे भाई, मत इतना शोरगुल कर, मैं फिर शादी करूंगा। तू इतना ज्यादा दुखी मत हो।
वे मित्र जो थे, मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी के प्रेमी थे। मुल्ला नसरुद्दीन के प्राण वहां न थे, लेकिन उनके प्राण वहां थे। तो उसने ठीक ही कहा कि तू इतना शोरगुल मत कर, मैं फिर शादी करूंगा।
कौन सी चीज तुम्हें रुलाती है--वहीं तुम्हारा मोह है। कौन सी चीज के खो जाने से तुम अभाव अनुभव करते हो--वहीं तुम्हारा मोह है। सोचना, कौन सी चीज खो जाए तो तुम एकदम दीन-दीन हो जाओगे--वही तुम्हारे मोह का बिंदु है। और इसके पहले कि वह खोए, तुम उस पर अपनी पकड़ छोड़ना। क्योंकि वह खोएगी ही। इस संसार में कोई भी चीज थिर नहीं है--न मित्रता, न प्रेम--कोई भी चीज थिर नहीं है। यहां सब बदलता हुआ है। संसार का स्वभाव प्रतिक्षण परिवर्तन है। यह एक बहाव है--नदी की तरह बह रहा है। यहां कुछ भी ठहरा हुआ नहीं है। तुम लाख उपाय करो, तो भी कुछ भी ठहरा हुआ नहीं हो सकता। तुम्हारे उपाय के कारण ही तुम परेशान हो। जो सदा चल रहा है, उसको तुम ठहराना चाहते हो; जो बह रहा है, तुम उसे रोकना चाहते हो, जमाना चाहते हो। वह जमने वाला नहीं। वह उसका स्वभाव नहीं है।
परिवर्तन संसार है, और वहां तुम चाहते हो कुछ स्थायी सहारा मिल जाए। वह नहीं मिलता। इसलिए तुम प्रतिपल दुखी हो। हर क्षण तुम्हारे सहारे खो जाते हैं।
एक बात खोजने की चेष्टा करना कि कौन सी चीजें हैं जो खो जाएं तो तुम दुखी होओगे? इसके पहले कि वे खोएं, तुम अपनी पकड़ हटाना शुरू कर देना। यह मोह-जय का उपाय है। पीड़ा होगी; लेकिन यह पीड़ा झेलने जैसी है; यह तपश्चर्या है। कुछ छोड़ कर भाग जाने की जरूरत नहीं कि तुम अपनी पत्नी को छोड़ कर हिमालय भाग जाना। तुम जहां हो, वहीं रहना। लेकिन पत्नी पर निर्भरता को धीरे-धीरे काटते जाना। कोई जरूरत नहीं कि पत्नी को इससे दुख दो। पत्नी को पता भी नहीं चलेगा। कोई कारण भी नहीं पता चलाने का किसी को।
जीसस ने कहा है, तुम्हारा बायां हाथ क्या करता है, दाएं को पता न चले, तो ही तुम ठीक-ठीक साधक हो। क्योंकि दूसरे को पता चलाने की इच्छा भी अहंकार की इच्छा है। तुम पता चलाना चाहते हो दूसरे को कि देखो, पत्नी को छोड़ दिया, हिमालय जा रहे हैं! कितना महान कार्य कर दिया!
कुछ भी महान कार्य नहीं है। कोई भी पति से पूछो, सभी पति हिमालय जाना चाहते हैं। नहीं जा पाते, यह दूसरी बात है। इसमें कुछ...।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन पहुंचा गांव के पागलखाने और उसने द्वार खटखटाया। सुपरिनटेंडेंट ने दरवाजा खोला और कहा, क्या मामला है? उसने कहा कि क्या कोई आदमी पागलखाने से भाग गया? सुपरिनटेंडेंट ने कहा, तुम्हें इससे क्या मतलब? क्या तुमने किसी को भागते देखा? उसने कहा कि नहीं, मेरी पत्नी को लेकर कोई आदमी भाग गया है। तो मैंने सोचा, जरूर कोई पागलखाने से छूट गया। क्योंकि हम खुद ही छूटना चाह रहे थे, वह अपने हाथ से आ फंसा।
पतियों से पूछो! संसार में जो खड़ा है, उसके दुख का कोई अंत नहीं है। भाग नहीं सकता; क्योंकि उसे कहीं सुख दूसरी जगह दिखाई भी नहीं पड़ता, कहां जाए? और जहां जाएगा, संसार तो साथ ही होगा। और फिर बड़ी आकांक्षाओं से इस जगह को उसने बनाया है, और अब इतने बनाने के बाद तोड़ना मुश्किल है; पूरी जिंदगी व्यर्थ होती है।
मोह की खोज करना। जिन चीजों के बिना तुम न रह सको, उनके बिना धीरे-धीरे रहने की भीतरी चेष्टा करना। और एक ऐसी स्थिति बना लेना कि अगर वे सब भी खो जाएं तो भी तुम्हारे भीतर कोई कंपन न होगा, तो मोह-जय हुई। और यह हो सकता है; यह हुआ है। एक को हुआ है; सभी को हो सकता है।
सूत्र कहता है शिव का: ‘स्थायी रूप से मोह-जय होने पर सहज विद्या फलित होती है।’
और जिस दिन भी मोह-जय हो जाती है, उसी दिन तुम पाते हो कि उस विद्या का तुम्हें अनुभव होने लगा, वह ज्ञान स्फुरने लगा, जो सहज है, जो किसी से सीखा नहीं जाता। वही आत्मज्ञान है। आत्मज्ञान दूसरे से सीखने की कोई सुविधा नहीं है; वह भीतर स्फुरित होता है। जैसे वृक्षों में फूल लगते हैं, जैसे झरने बहते हैं, ऐसा तुम्हारे भीतर जो बह रहा है सदा, कलकल नाद कर रहा है, वह तुम्हारा ही है, सहज; उसे किसी से लेना नहीं है। कोई गुरु उसे नहीं दे सकता; सभी गुरु उस तरफ इशारा करते हैं। जब तुम पाओगे, तब तुम पाओगे कि यह भीतर ही छिपा था; यह अपनी ही संपदा है। इसलिए सहज विद्या!
दो तरह की विद्याएं हैं। संसार की विद्या सीखनी है, दूसरे से सीखनी पड़ेगी; वह सहज नहीं है। कितना ही बुद्धिमान आदमी हो, संसार की विद्या दूसरे से सीखनी पड़ेगी। और कितना ही मूढ़ आदमी हो, तो भी आत्मविद्या दूसरे से नहीं सीखनी पड़ेगी। वह तुम्हारे भीतर है। बाधा मोह की है। मोह कट जाता है, बादल छंट जाते हैं, सूर्य निकल आता है!
‘ऐसे जाग्रत योगी को, सारा जगत मेरी ही किरणों का प्रस्फुरण है, ऐसा बोध होता है।’
और जिस दिन सहज विद्या का जन्म होता है, जागृति आती है, तो दिखाई पड़ता है कि सारा जगत मेरी ही किरणों का स्फुरण है। तब तुम केंद्र हो जाते हो। तुम बहुत चाहते थे कि सारे जगत के केंद्र हो जाओ। अहंकार के सहारे वह नहीं हो पाया। हर बार हारे। और अहंकार खोते ही तुम केंद्र हो जाते हो।
तुम जिसे पाना चाहते हो, वह तुम्हें मिल जाएगा; लेकिन तुम गलत दिशा में खोज रहे हो। तुम भ्रांत मार्ग पर चल रहे हो। तुम जो पाना चाहते हो, वह मिल सकता है; लेकिन जिसके सहारे तुम पाना चाहते हो, उसके सहारे नहीं मिल सकता; तुमने गलत सारथी चुना है, तुमने वाहन गलत चुन लिया है। अहंकार से तुम कभी विश्व के केंद्र न बन पाओगे। और निर-अहंकार व्यक्ति तत्क्षण विश्व का केंद्र बन जाता है। बुद्धत्व प्रकट होता है बोधि-वृक्ष के नीचे, सारी दुनिया परिधि हो जाती है; सारा जगत परिधि हो जाता है; बुद्धत्व केंद्र हो जाता है। सारा जगत फिर मेरा ही फैलाव है। फिर सभी किरणें मेरी हैं। सारा जीवन मेरा है। लेकिन यह ‘मेरा’ तभी फलित होता है, जब ‘मैं’ नहीं बचता। यही जटिलता है। जब तक ‘मैं’ है, तब तक तुम कितना ही बड़ा कर लो ‘मेरे’ के फैलाव को, कितना ही बड़ा साम्राज्य बना लो, तुम धोखा दे रहे हो।
काफी जल चुके हो, अनेक-अनेक जन्मों में भटक चुके हो, फिर भी सजग नहीं!
मैंने सुना, मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन हवाई जहाज में सवार हुआ। अपनी कुर्सी पर बैठते ही उसने परिचारिका को बुलाया और कहा कि सुनो! तेल, पानी, हवा, पेट्रोल, सब ठीक-ठाक है न? उस परिचारिका ने कहा कि तुम अपनी जगह शांति से बैठो। यह तुम्हारा काम नहीं है। यह हमारी चिंता है। नसरुद्दीन ने कहा, फिर बीच में उतर कर धक्का देने के लिए मत कहना।
मुझे किसी ने बताया तो मैंने नसरुद्दीन को पूछा कि ऐसी बात घटी? उसने कहा, घटी। दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है। बस का चला हवाई जहाज में भी चिंता रखता है कि कहीं बीच में उतर कर धक्का न देना पड़े।
तुम बहुत बार जल चुके हो। छाछ को भी फूंक-फूंक कर पीना तो दूर, तुमने अभी दूध को भी फूंक-फूंक कर पीना नहीं सीखा है।
जीवन की बड़ी से बड़ी दुविधा यही है कि हम अनुभव से सीख नहीं पाते। लोग कहते हैं कि अनुभव से हम सीखते हैं; दिखाई नहीं पड़ता। कोई अनुभव से सीखता हुआ दिखाई नहीं पड़ता। फिर-फिर तुम वही भूलें करते हो। नयी भी करो, तो भी कुछ कुशलता है। नयी भी करो, तो कुछ जीवन में गति हो, प्रौढ़ता आए। वही-वही भूलें बार-बार करते हो, पुनरुक्ति करते हो।
चित्त एक वर्तुल है। तुम उसी-उसी में घूमते रहते हो चाक की तरह। और वह चाक चलता है तुम्हारे मोह से। मोह को तोड़ो, चाक रुक जाएगा। चाक के रुकते ही तुम पाओगे तुम केंद्र हो। तुम्हें केंद्र बनने की जरूरत नहीं है, तुम हो। तुम्हें परमात्मा बनने की आवश्यकता नहीं है, तुम हो ही। इसलिए वह विद्या सहज है।
‘ऐसे जाग्रत योगी को, सारा जगत मेरी ही किरणों का स्फुरण है, ऐसा बोध होता है।’
और इस बोध का परम आनंद है। इस बोध में परम अमृत है। इस बोध के आते ही तुम्हारे जीवन से सारा अंधकार खो जाता है--सारा दुख, सारी चिंता। तुम एक हर्षोन्माद से भर जाते हो। एक मस्ती, एक गीत का जन्म होता है तुम्हारे जीवन में। तुम्हारी श्वास-श्वास पुलकित हो जाती है, सुगंधित हो जाती है--किसी अज्ञात के स्रोत से।
वह सहज विद्या है; कोई शास्त्र उसे सिखा नहीं सकता और कोई गुरु उसे सिखा नहीं सकता। लेकिन गुरु तुम्हें बाधाएं हटाने में सहयोगी हो सकता है।
इस बात को ठीक से खयाल में ले लेना। उस परम विद्या को सीखने का कोई उपाय नहीं, लेकिन उस परम विद्या के मार्ग में जो-जो बाधाएं हैं, उनको दूर करने का उपाय सीखना पड़ता है। ध्यान से वह परम संपदा नहीं मिलेगी; ध्यान से केवल दरवाजे की चाबी मिलेगी। ध्यान से केवल दरवाजा खुलेगा। वह परम संपदा तुम्हारे भीतर है। तुम ही हो वह! तत्वमसि! वह ब्रह्म तुम ही हो।
सब उपाय बाधाएं हटाने के लिए हैं--मार्ग के पत्थर हट जाएं। मंजिल--मंजिल तुम अपने साथ लिए चल रहे हो। सहज है ब्रह्म; कठिनाई है तुम्हारे मोह के कारण। कठिनाई यह नहीं है कि ब्रह्म को मिलने में देर है; कठिनाई यह है कि संसार को तुमने इतने जोर से पकड़ा है कि जितनी देर तुम छोड़ने में लगा दोगे, उतनी ही देर उसके मिलने में हो जाएगी। इस क्षण छोड़ सकते हो--इसी क्षण उपलब्धि है। रुकना चाहो--जन्मों-जन्मों से तुम रुके हो, और भी जन्म-जन्म रुक सकते हो।
वैसे काफी हो गया, जरूरत से ज्यादा रुक लिए। अब और रुकना जरा भी अर्थपूर्ण नहीं है। समय पक गया है; और संसार के वृक्ष से तुम्हें गिर जाना चाहिए। और डरो मत कि वृक्ष से गिरेंगे तो खो जाएंगे। खो जाओगे, लेकिन तुम्हारा जो व्यर्थ है वही खोएगा; जो सार्थक है, वह अनंत गुना होकर उपलब्ध हो जाता है।
आज इतना ही।
कलादीनां तत्वानामविवेको माया।
मोहावरणात् सिद्धिः।
मोहजयादनत्ताभोगात्सहज विद्याजयः।
जाग्रद् द्वितीय करः।
आत्मा चित्त है।
कला आदि तत्वों का अविवेक ही माया है।
मोह आवरण से युक्त योगी को सिद्धियां तो फलित हो जाती हैं, लेकिन आत्मज्ञान नहीं होता है।
स्थायी रूप से मोह-जय होने पर सहज विद्या फलित होती है।
ऐसे जाग्रत योगी को, सारा जगत मेरी ही किरणों का प्रस्फुरण है, ऐसा बोध होता है।
आत्मा चित्तम्--आत्मा चित्त है।
यह सूत्र अति महत्वपूर्ण है।
सागर में लहर दिखाई पड़ती है; लहर भी सागर है। लहर कितनी ही विक्षुब्ध हो, लहर कितनी ही सतह पर हो, उसके भीतर भी अनंत सागर है। क्षुद्र भी विराट को अपने में लिए है। कण में भी परमात्मा छिपा है। तुम कितने ही पागल हो गए हो, तुम्हारा मन कितना ही उद्विग्न हो; कितने ही रोग, कितनी ही व्याधियों ने तुम्हें घेरा हो--फिर भी तुम परमात्मा हो। इससे कोई भेद नहीं पड़ता कि तुम सोए हो, बेहोश हो। बेहोशी में भी परमात्मा ही तुम्हारे भीतर बेहोश है। सोए हुए भी परमात्मा ही तुम्हारे भीतर सो रहा है। इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि तुमने बहुत पाप किए हैं; बहुत पापों का विचार किया है। वे विचार भी परमात्मा ही तुम्हारे भीतर कर रहा है। वे पाप भी परमात्मा के माध्यम से ही हुए हैं।
आत्मा चित्तम् का अर्थ है कि तुम्हारी चित्त तुम्हारी आत्मा की ही एक परिणति है।
यह बहुत महत्वपूर्ण है समझ लेना। अन्यथा तुम चित्त से लड़ना शुरू कर दोगे। और जो भी चित्त से लड़ेगा वह हार जाएगा। विजय का मार्ग है: चित्त को स्वीकार कर लेना कि वह भी परमात्मा का है। संघर्ष नहीं, व्यर्थ की, द्वंद्व की, द्वैत की स्थिति नहीं, लहर भी सागर है--इस प्रतीति के साथ ही मन की विकृतियां क्षीण होनी शुरू हो जाती हैं। जिस दिन भी तुम यह समझ पाओगे कि क्षुद्र में विराट छिपा है, क्षुद्र की क्षुद्रता खोनी शुरू हो जाएगी। उसकी सीमा तुम्हारी मानी हुई है। छोटे से कण की भी कोई सीमा नहीं है। वह भी असीम का ही भाग है। सीमा तुम्हारी आंखों के कारण दिखाई पड़ती है। जैसे ही तुम देख पाओगे कि सीमा में भी असीम छिपा है, सीमा खो जाएगी।
यह जीवन की गहनतम प्रतीति है कि जिस दिन भी व्यक्ति अपने चित्त में भी परमात्मा को देखने लगता है; अपनी बुराई में भी उसी को देखता है; अपनी भटकन में भी उसके ही चरण-चिन्हों को पाता है; उसी दिन से भटकन बंद हो जाती है। भटकन का अर्थ है कि तुमने अपने को परमात्मा से अलग माना है। उस अलगपन में ही तुम्हारा सारा पाप है, तुम्हारी सारी विकृति है। तुमने अपने को भिन्न माना है, वही तुम्हारा अहंकार है।
और यह बड़े आश्चर्य की बात है कि अहंकार के संबंध में पापी और पुण्यात्मा में रत्ती भर भी भेद नहीं होता। पापी भी अहंकार से भरा होता है उतना ही, जितना जिसे हम पुण्यात्मा कहते हैं वह अहंकार से भरा होता है। उनके कृत्य होंगे अलग; लेकिन उनकी प्रतीति एक ही है। दोनों ही अपने को भिन्न मान रहे हैं। एक अपने को बुरा मान रहा है, एक अपने को भला मान रहा है; लेकिन दोनों अपने को भिन्न मान रहे हैं। और जब तक तुम भिन्न मानोगे, तब तक तुम भिन्न बने रहोगे। भिन्न तुम हो नहीं; तुम्हारी मान्यता ने ही तुम्हें संकीर्ण किया है। तुम्हारी धारणा ने ही तुम्हें बांधा है। तुम अपने ही खयाल में, अपने ही खयाल के कारागृह में कैद हो। अन्यथा चारों तरफ खुला आकाश है और कहीं कोई दीवार नहीं है। किसी ने तुम्हें रोका नहीं, किसी ने कोई बाधा खड़ी नहीं की है। तुम्हारी अस्मिता कैसे गल जाए?
आत्मा चित्तम्--इसका अर्थ है कि तुम तुम नहीं हो; तुम परमात्मा हो। तुम बड़े विराट से जुड़े हो। तुम छोटी लहर नहीं, पूरे सागर हो। इस विराट की प्रतीति से तुम्हारा अहंकार खो जाएगा। और जहां अहंकार नहीं, वहां पाप का कोई उपाय नहीं। एक ही पाप है कि मैं पृथक हूं। और यह पृथकता का भाव, जिसे हम साधु कहते हैं, उसमें भी बना रहता है।
मैंने सुना है, एक हठयोगी मरा। स्वर्ग पहुंचा। द्वार पर दस्तक दी। द्वार खुला और पहरेदार ने कहा, स्वागत है। भीतर आएं! हठयोगी ठिठक गया। उसने कहा, अगर ऐसा स्वर्ग में सभी का स्वागत हो रहा है--क्योंकि न तुमने पूछा पता-ठिकाना; न तुमने पूछा कृत्य; न तुमने पूछा कि कौन हो; क्या किया, पुण्य कि पाप; कुछ भी पूछा नहीं और सीधा अगर इस तरह स्वागत है ऐरे गैरे नत्थू खैरे का, तो यह स्वर्ग मेरे लिए नहीं। न आरक्षण किया, न कोई रिजर्वेशन, न कोई पूछताछ; सीधा स्वागत! तो फिर यह मेरी धारणा का स्वर्ग नहीं।
यह अहंकार पुण्य से भरा है, पाप से नहीं। साधना की है इसने, बड़ी सिद्धियां पाई होंगी; लेकिन सब सिद्धियां व्यर्थ हो गईं। सभी सिद्धियों ने अहंकार को ही भरा है--यह असिद्धि हो गई।
बर्नार्ड शा को नोबल प्राइज मिली। तो एक छोटा सा, लेकिन बड़ा कीमती क्लब है यूरोप में। वह केवल सौ व्यक्तियों को सदस्यता देता है पूरी पृथ्वी पर; चुने हुए लोगों का है, जिनकी बड़ी महिमा है, नोबल पुरस्कार जिन्होंने पाए हैं या कोई और बड़ी जिनकी उपलब्धि है--बड़े चित्रकार, मूर्तिकार, साहित्यकार; पर केवल सौ, सौ से ज्यादा संख्या उस क्लब की नहीं होती। जब एक सदस्य मरता है, तभी कोई नया व्यक्ति प्रवेश करता है। लोग जीवन भर प्रतीक्षा करते हैं कि उस क्लब की सदस्यता मिल जाए।
जब बर्नार्ड शा को नोबल प्राइज मिली, तो उस क्लब की सदस्यता का निमंत्रण उसके पास आया। और क्लब ने कहा, हम गौरवान्वित होंगे तुम्हें अपना सदस्य बना कर। बर्नार्ड शा ने उत्तर में लिखा, जो क्लब मुझे सदस्य बना कर गौरवान्वित होता है, वह मेरे योग्य नहीं। वह मुझसे कुछ नीचा है। मैं उस क्लब का सदस्य बनना चाहूंगा, जो मुझे सदस्य बनाने को राजी न हो।
अहंकार हमेशा दुर्गम को खोजता है, कठिन को खोजता है; और जीवन बिलकुल सरल है। इसलिए अहंकार जीवन से वंचित रह जाता है। और परमात्मा से सरल कुछ भी नहीं है। इसलिए अहंकार उस द्वार पर जाता ही नहीं। वह द्वार खुला ही हुआ है। वहां स्वागत है ही, बिना पूछे कि तुम कौन हो। अगर परमात्मा के द्वार पर भी पूछा जाता हो कि तुम कौन हो, तब होगा स्वागत, तो वह द्वार सांसारिक हो गया। तुम उस द्वार पर ही खड़े हो। अगर तुमने पीठ की है तो अपने ही कारण। द्वार ने तुम्हारा तिरस्कार नहीं किया है। तुम अगर आंख बंद किए हो और द्वार तुम्हें नहीं दिखता तो अपने ही कारण। अन्यथा द्वार सदा खुला है और निमंत्रण सदा तुम्हारे लिए है। ‘स्वागत’ सदा वहां लिखा है।
आत्मा चित्तम्--इसका अर्थ है कि तुम अपने को पृथक मत मानना, कितने ही बुरे तुम हो।
इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम अपनी बुराई किए चले जाना। इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम बुरे बने रहना। तुम बने ही न रह सकोगे।
मनस्विद कहते हैं कि व्यक्ति वैसा ही हो जाता है, जैसा वह स्वयं को मानता है। मान्यता ही धीरे-धीरे जीवन बन जाती है। मनस्विद कहते हैं कि अगर आदमी बुरा भी हो तो भी उसे बुरा मत कहना। क्योंकि बुरा कहने से, बार-बार पुनरुक्त करने से--कि तुम बुरे हो, तुम बुरे हो--यह मंत्र बन जाता है। और अगर सब तरफ सभी लोग दोहराते हों कि तुम बुरे हो, तो वह व्यक्ति भी भीतर दोहराने लगता है कि मैं बुरा हूं। न केवल वह दोहराता है, बल्कि जो सबकी अपेक्षा है, उसको सिद्ध करने की कोशिश भी करता है। धीरे-धीरे बुराई में आबद्ध हो जाता है।
शायद धर्म के जगत में खोज करने वाले लोग इस सत्य को बहुत पहले पहचान लिए थे। उन्होंने तुम्हें जीवन की परम सत्ता को मंत्र बनाने को कहा है: आत्मा चित्तम्। तुम परमात्मा हो। तुम्हारी आत्मा ही तुम्हारा मन है। यह बड़ी से बड़ी बात है, जो तुम्हारे संबंध में कही जा सकती है। और अगर यह तुम्हारा मंत्र बन जाए; और यह तुम्हारे जीवन में ओत-प्रोत हो जाए; तुम्हारे रोएं-रोएं में समा जाए इसकी झंकार, तो तुम धीरे-धीरे पाओगे कि जो तुमने सोचा, वह तुम होने लगे हो; जो तुमने धुना भीतर, वह तुम्हारे जीवन में आना शुरू हो गया है।
धर्म की शुरुआत--तुम नहीं हो, परमात्मा है--इस सूत्र से होती है। माना कि तुम सोए हो; माना कि तुम बहुत अर्थों में बुरे हो; माना कि बहुत भूल-चूक तुमने की है; लेकिन इससे तुम्हारे स्वभाव में कोई भी फर्क नहीं पड़ता। निर्मलता तुम्हारा स्वभाव है। तुम कितना ही बुरा किए हो, इस बात का स्मरण आ जाए कि मैं परमात्मा हूं, सब बुराई कट जाएगी।
तुम्हें एक-एक बुराई को अलग-अलग काटना हो, तो तुम वह भी कर सकते हो; तब जन्मों-जन्मों तक बुराई न कटेगी। क्योंकि अनंत है बुराई, और एक-एक बुराई को जो काटने चलेगा, वह कभी भी काट न पाएगा। क्योंकि जब तुम एक बुराई काटते हो, तब तुम दस बुराइयां पैदा भी कर रहे हो। एक बुराई काटते हो, निन्यानबे बुराइयां तो तुम्हारे भीतर मौजूद हैं। वे तुम्हारी एक भलाई को भी रंग देंगी, उसे भी बुरा कर देंगी।
इसलिए तुम पुण्य भी करते हो, तो वह भी पाप जैसा हो जाता है। तुम अमृत भी छूते हो, तो जहर हो जाता है; क्योंकि शेष सब बुराइयां उस पर टूट पड़ती हैं। तुम मंदिर भी बनाओ, तो भी उससे विनम्रता नहीं आती; उससे अहंकार भरता है। और अहंकार के बड़े सूक्ष्म रास्ते हैं! व्यर्थ से भी अहंकार भरता है।
मुल्ला नसरुद्दीन के पास एक कुत्ता था। न उस कुत्ते की कोई नसल का ठिकाना था; न कोई ढंग-डौल; देखने में बदशक्ल, कमजोर; हर समय डरा हुआ, भयभीत; पैर झुके हुए, शरीर दुर्बल। लेकिन नसरुद्दीन उसकी भी तारीफ हांका करता था।
मैंने उससे पूछा, कुछ इस कुत्ते के संबंध में बताओ भी।
नसरुद्दीन ने कहा...नाम उसने रखा था उसका एडोल्फ हिटलर। नसरुद्दीन ने कहा, हिटलर की नसल का भला कोई ठीक-ठीक पता न हो; लेकिन बड़ा कीमती जानवर है। और एक अजनबी कदम नहीं रख सकता घर के आस-पास, बिना हमें खबर हुए। हिटलर फौरन खबर देता है।
मैंने पूछा, क्या करता है तुम्हारा हिटलर? क्योंकि उसे देख कर संदेह होता था कि वह कुछ कर सकेगा। भौंकता है, चिल्लाता है, चीखता है, काटता है, क्या करता है? नसरुद्दीन ने कहा, ये नहीं! जब भी कोई अजनबी आता है, हिटलर फौरन हमारे बिस्तर के नीचे आकर छिप जाता है। ऐसा कभी नहीं होता कि अजनबी आ जाए और हमें पता न हो। मगर उसका भी गुण-गौरव है।
तुम्हारा अहंकार मुल्ला नसरुद्दीन के हिटलर जैसा है। न तो नसल का कोई पता। तुम्हें पता है तुम्हारा अहंकार कहां से पैदा हुआ? जो है ही नहीं, वह पैदा कैसे होगा? वह भ्रांति है। उसकी नसल का कोई पता नहीं हो सकता।
तुम तो परमात्मा से पैदा हुए हो; तुम्हारा अहंकार कहां से पैदा हुआ? तुमने ही निर्मित कर लिया है। और कभी तुमने अपने अहंकार को गौर से देखा कि भला नाम तुम एडोल्फ हिटलर रख लिए हो--सभी सोचते हैं--लेकिन उसके पैर बिलकुल झुके हैं, दीन-हीन!
बड़े से बड़ा अहंकार भी दीन-हीन होता है। क्यों? क्योंकि बड़े से बड़ा अहंकार भी नपुंसक होता है। उसमें कोई ऊर्जा तो होती नहीं; ऊर्जा तो आत्मा की है। ऊर्जा का स्रोत अलग है। इसलिए अहंकार को चौबीस घंटे सम्हालना पड़ता है। वह अपने पैर पर खड़ा भी नहीं रह सकता; उसे और पैर हमें उधार देने पड़ते हैं। कभी पद से हम सहारा देते हैं; कभी धन से सहारा देते हैं; कभी पुण्य से सहारा देते हैं; कुछ न बने तो पाप से सहारा देते हैं।
कारागृह में जाकर देखो! वहां लोग अपने पापों की झूठी चर्चा करते हैं, जो उन्होंने कभी किए ही नहीं। जिसने एक आदमी को मारा है, वह कहता है कि मैंने सैकड़ों का सफाया कर दिया। क्योंकि कारागृह में अहंकार के बड़े होने का वही उपाय है। छोटे-मोटे कैदी, छोटे-मोटे आदमी वहां बड़े कैदी हैं, जिन्होंने काफी उपद्रव किए हैं। जिन पर एकाध धारा में मुकदमा चला है, उनकी कोई कीमत है! जिन पर दस-पच्चीस धाराएं लगी हैं; जिन पर सौ, दो सौ मुकदमे चल रहे हैं; जो रोज अदालत में हाजिर होते हैं--आज इस मुकदमे के लिए, कल उस मुकदमे के लिए--कारागृह में वे ही दादा गुरु हैं। वहां आदमी झूठे पापों की भी बात करता है, जो उसने कभी नहीं किए।
पुण्य से भी, पाप से भी; धन से, पद से, हर चीज से अहंकार को तुम सहारा देते हो। तब भी वह खड़ा नहीं रह पाता; मौत उसे गिरा देती है। क्योंकि जो नहीं है, मौत उसी को मिटाएगी; जो है, उसके मिटने का कोई भी उपाय नहीं। तुम तोबचोगे। लेकिन ध्यान रखना--जब मैं कहता हूं तुम बचोगे, तो मैं उस तुम की बात कर रहा हूं जिसका तुम्हें कोई पता ही नहीं है। जिसे तुम समझते हो तुम्हारा होना, वह तो नहीं बचेगा; वह तुम्हारा अहंकार मात्र है। तुम्हारा नाम, तुम्हारा रूप, तुम्हारा धन, तुम्हारी प्रतिष्ठा, तुम्हारी योग्यता, तुमने जो कमाया, वह कुछ भी न बचेगा। उसको छोड़ कर भी तुम अगर कुछ हो; अगर तुम्हें थोड़ी सी भी संधि-रेखा उसकी मिलनी शुरू हो गई, जो तुम्हारी योग्यता से बाहर है; जो तुमने कमाया नहीं, जिसे तुम लेकर ही पैदा हुए थे; जो पैदा होने के पहले भी तुम्हारे साथ था--वही केवल मृत्यु के बाद तुम्हारे साथ रहेगा।
‘आत्मा चित्तम्।’
वही आत्मा खोजने जैसी है। तुम्हारे चित्त में भी उसकी किरण है; अन्यथा चित्त भी न चल सकेगा। पाप भी करोगे तो कौन करेगा? करने के लिए ऊर्जा चाहिए। वह ऊर्जा उसी से मिलती है। तुम उस ऊर्जा का दुरुपयोग कर रहे हो। लेकिन दुरुपयोग को तुम सदुपयोग में न बदल सकोगे; क्योंकि दुरुपयोग का मूल कारण और जड़ अहंकार में है।
एक ही पाप है और वह है स्वयं को अस्तित्व से पृथक समझना; फिर सभी पाप उसके पीछे छाया की तरह चले आते हैं। एक ही पुण्य है, अस्तित्व के साथ स्वयं को एक समझ लेना। लहर सागर के साथ एक हो जाए, सभी पुण्य उसके पीछे अपने आप चले आते हैं।
‘आत्मा चित्त है। कला आदि तत्वों का अविवेक ही माया है।’
यह माया क्या है? फिर इस चित्त पर अंधकार क्यों है, अगर आत्मा ही चित्त है? तो कला आदि तत्वों का अविवेक! तुम्हें पता नहीं कि कौन तुम्हारे भीतर कर्ता है; कौन है असली कलाकार भीतर तुम्हारे; कौन है मौलिक तत्व, उसका तुम्हें पता नहीं। और जिसे तुम समझ रहे हो कि यह कर रहा है, वह है ही नहीं। ना-कुछ को पकड़ कर तुम जी रहे हो, इसीलिए परेशान हो। पूरी जिंदगी दौड़-धूप कर भी परेशानी नहीं मिटती, सिर्फ बढ़ती है। और पूरी जिंदगी श्रम करके भी आनंद की एक बूंद भी नहीं मिलती; सिर्फ दुख के पहाड़ बड़े हो जाते हैं। फिर भी आदमी आखिरी दम तक व्यर्थ के पीछे दौड़ता रहता है। आखिर व्यर्थ में इतना रस क्यों है? समझने की कोशिश करें। व्यर्थ की एक खूबी है।
एक आदमी ने एक नया बंगला खरीदा। बगीचा लगाया। फूल के बीज डाले। पौधे भी आने शुरू हुए; लेकिन साथ-साथ घास-पात भी उगा। वह थोड़ा चिंतित हुआ। उसने पड़ोसी मुल्ला नसरुद्दीन से पूछा कि कैसे पहचाना जाए कि क्या घास-पात है और क्या असली पौधा है? नसरुद्दीन ने कहा, सीधी तरकीब है! दोनों को उखाड़ लो। जो फिर से उग आए, वह घास-पात है।
व्यर्थ की एक खूबी है--उखाड़ो, उखाड़ने से कुछ नहीं मिटता। उखाड़ने में सार्थक तो खो जाएगा, व्यर्थ फिर उग आएगा। सार्थक को बोओ, तब भी पक्का नहीं कि फसल काट पाओगे; क्योंकि हजार बाधाएं हैं। व्यर्थ को बोओ ही मत, तो भी फसल काटोगे; उखाड़-उखाड़ कर फेंको, तो और-और उग आएगा। व्यर्थ को बनाने में श्रम नहीं करना पड़ता; सार्थक को बनाने में बड़ा श्रम करना पड़ता है। इसीलिए तुमने व्यर्थ को चुना है। वह अपने से उग रहा है।
किसी को चोर होने के लिए मेहनत नहीं करनी पड़ती; चोरी घास-पात की तरह उगती है। किसी को कामवासना से भरने के लिए कोई श्रम करना पड़ता है? कोई प्रार्थना, कोई योग, कोई साधना? वह घास-पात की तरह उगता है। क्रोध करने के लिए कहीं सीखने जाना पड़ता है किसी विद्यापीठ में? नहीं, वह घास-पात की तरह है।
ध्यान सीखना हो तो कठिनाई शुरू होती है। प्रेम सीखना हो तो बड़ी कठिनाई शुरू होती है। मोह बढ़ता है अपने आप घास-पात की तरह। प्रेम श्रम मांगता है। और प्रेम को अगर लाना हो तो घास-पात को प्रतिक्षण उखाड़ कर फेंकना पड़े; नहीं तो घास-पात उस सबको खा जाएगा, जो सार्थक है; उस सब को ढांक लेगा, छिपा लेगा।
व्यर्थ की एक खूबी है कि वह तुमसे श्रम नहीं मांगता; तुम आलसी बने रहो, वह अपने आप बढ़ता है। वह तुम्हें मृत्यु के आखिरी क्षण तक पकड़े रहेगा।
साधक का अर्थ है: जिसने सार्थक की खोज शुरू की। सार्थक को पाना यात्रा है--पर्वत की तरफ, ऊंचाई की तरफ। व्यर्थ को पाना लुढ़कने जैसा है; जैसे पत्थर पहाड़ से लुढ़कता हो, वह अपने ही आप चला आता है। गुरुत्वाकर्षण उसे नीचे ले आता है, कुछ करना नहीं पड़ता।
तुमने अब तक जीवन में कुछ नहीं किया है, इसीलिए तुम व्यर्थ हो। तुम कहोगे, नहीं, ऐसी बात नहीं। मैंने धन कमाया। मैं पद-प्रतिष्ठा पर पहुंचा। मैंने बड़ी उपाधियां इकट्ठी की हैं।
फिर भी मैं तुमसे कहता हूं कि वह सब तुमने किया नहीं, वह घास-पात की तरह अपने आप बढ़ा है। और अगर गौर से तुम भीतर विश्लेषण करोगे तो तुम्हें भी दिखाई पड़ जाएगा कि धन कमाने के लिए तुमने कुछ किया नहीं; धन की आकांक्षा घास-पात की तरह तुम्हारे भीतर थी, वह बढ़ गई है। तुम उखाड़ कर भी फेंको, तो भी बढ़ जाती है। तुमने घर बनाने के लिए कुछ किया नहीं; वह वासना तुम्हारे भीतर घास-पात की तरह बढ़ी है। वह मृत्यु के आखिरी क्षण तक तुम्हें पकड़ी रहेगी।
साधक का अर्थ है: जो इस सत्य को समझ जाए कि जो अपने आप बढ़ रहा है, वह व्यर्थ ही होगा; मुझे कुछ बोना पड़ेगा।
मैंने सुना है कि एक महिला एक मनोवैज्ञानिक के पास गई। और उसने कहा कि अब सहायता की जरूरत है। बहुत दिन टाला, लेकिन अब! अब मुझे कहना ही पड़ेगा; मेरी सहायता करें। उस मनोवैज्ञानिक ने पूछा, क्या है समस्या? उसने कहा, समस्या मेरी नहीं है, मेरे पति की है। समस्या यह है कि जैसा प्रेम प्रथम में उन्होंने दिखाया था, अब वह धीरे-धीरे खो गया। और जैसी प्रगाढ़ वासना उनमें पहले थी, वह धीरे-धीरे क्षीण हो गई। पहले वे बाढ़ की तरह थे, अब वे एक सूखी नदी की तरह हुए जा रहे हैं। मनोवैज्ञानिक भीतर से तो हंसना चाहा, लेकिन बाहर उसने गंभीरता रखी, व्यावसायिक की गंभीरता, और उसने पूछा, लेकिन आपकी उम्र क्या है? उस महिला ने कहा, बस केवल बहत्तर वर्ष।
और तुम्हारे पति की उम्र?
उसने कहा, बस केवल छियासी वर्ष।
सभी लोग ऐसा सोचते हैं कि बस केवल अस्सी-नब्बे। ‘केवल’ मृत्यु के खिलाफ लगाए हुए हैं--कि अभी कोई उम्र है! अभी तो जैसे शुरुआत है!
और मनोवैज्ञानिक ने कहा कि कब तुम्हें ये लक्षण दिखाई पड़ने शुरू हुए कि पति की ऊर्जा खो रही है, शक्ति खो रही है, प्रेम वासना कम हो रही है। पत्नी ने कहा, कल रात और आज सुबह फिर।
अंतिम, मरते क्षण तक कचरा ही पकड़े रखता है; क्योंकि उसके लिए कुछ करने की जरूरत नहीं, वह अपने से उग रहा है।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, ध्यान करते हैं, छूट-छूट जाता है; दो दिन चलता है, फिर बंद हो जाता है।
ऐसा वासना के साथ नहीं होता। ऐसा क्रोध के साथ नहीं होता। तुम कभी भूल कर भी नहीं छोड़ पाते। उसे तुम पकड़े ही रहते हो। मामला क्या है? ध्यान कर-कर के छूट जाता है; दो दिन करते हैं, फिर भूल जाते हैं। फिर चार-छह महीने में याद आती है। प्रार्थना कर-कर के छूट जाती है। और क्रोध? और लोभ? और काम? और मोह?
एक तथ्य को समझने की कोशिश करो--क्योंकि ध्यान तुम्हें करना पड़ता है, इसलिए छूट-छूट जाता है। वे बीज हैं जो बोने पड़ते हैं; उन्हें सम्हालना पड़ेगा। और यह सब कचरा अपने आप उगता है। जो भी अपने आप चल रहा है, उसे व्यर्थ समझना। और जब तक तुम उसी में जीते रहोगे, तब तक तुम्हें कुछ भी न मिलेगा। तब मौत के समय तुम पाओगे कि तुम खाली हाथ आए और खाली हाथ जा रहे हो। और यह अविवेक ही माया है--यह मूर्च्छा, यह भेद न कर पाना कि क्या सार्थक है, क्या व्यर्थ है।
शंकर ने सार्थक और व्यर्थ के विवेक को ही ज्ञान कहा है। जीवन में यह दिखाई पड़ जाए कि यह सार्थक और यह व्यर्थ। वहां दोनों हैं। वहां घास-पात भी है और फूल के पौधे भी हैं। तुम्हें ही जीवन के अनुभव से तय करना पड़ेगा कि क्या सार्थक है। सार्थक पर दृष्टि आ जाए तो ब्रह्म पर दृष्टि आ गई और व्यर्थ पर दृष्टि लगी रहे तो माया में भटकन है। न तुम्हें पता है कि तुम कौन हो; न तुम्हें पता है कि तुम किस दिशा में जा रहे हो; न तुम्हें पता है कि तुम कहां से आ रहे हो; तुम बस रास्ते के किनारे के कचरे से उलझे हुए हो। राह के किनारे को तुम ने घर बना लिया है। और इतनी चिंताओं से तुम भरे हो उस व्यर्थ के कचरे के कारण, जो तुम्हारे बिना ही उगता रहा है। तुम्हें उस संबंध में चिंतित होने का कोई भी प्रयोजन नहीं।
‘अविवेक माया है।’
अविवेक का अर्थ है: भेद न कर पाना, डिसक्रिमिनेशन का अभाव, यह तय न कर पाना कि क्या हीरा है और क्या पत्थर है। जीवन के जौहरी बनना होगा। जीवन के जौहरी बनने से ही विवेक पैदा होता है। तुम्हारे पास जीवन है। और तुम खोजो। और इसको मैं खोज की कसौटी कहता हूं कि जो अपने आप चल रहा है, उसे तुम व्यर्थ जानना; और जो तुम्हारे चलाने से भी नहीं चलता है, उसे तुम सार्थक जानना। यह कसौटी है। और जिस दिन तुम्हारे जीवन में वह चलने लगे, जिसे तुम चलाना चाहते थे और जिसका चलना मुश्किल था, उस दिन समझना कि फूल आएंगे। और जिस दिन उसका उगना बंद हो जाए, जो अपने आप उगता था, समझना माया समाप्त हुई।
‘मोह आवरण से युक्त योगी को सिद्धियां तो फलित हो जाती हैं, लेकिन आत्मज्ञान नहीं होता।’
और यह व्यर्थ इतना महत्वपूर्ण हो गया है जीवन में कि जब तुम सार्थक को भी साधने जाते हो, तब भी सार्थक नहीं सधता, व्यर्थ ही सधता है।
लोग ध्यान करने आते हैं, तो भी उनकी आकांक्षा को समझने की कोशिश करो तो बड़ी हैरानी होती है। ध्यान से भी वे व्यर्थ को ही मांगते हैं। मेरे पास वे आते हैं, वे कहते हैं कि ध्यान करना चाहता हूं, क्योंकि शारीरिक बीमारियां हैं। क्या आप आश्वासन देते हैं कि ध्यान करने से वे दूर हो जाएंगी?
अच्छा होता, वे चिकित्सक के पास गए होते। अच्छा होता कि उन्होंने आदमी खोजा होता, जो शरीर की चिकित्सा करता। वे आत्मा के वैद्य के पास भी आते हैं तो भी शरीर के इलाज के लिए ही। वे ध्यान भी करने को तैयार हैं, तो भी ध्यान उनके लिए औषधि से ज्यादा नहीं है; और वह औषधि भी शरीर के लिए।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि बड़ी कठिनाई में जीवन जा रहा है, धन की असुविधा है; क्या ध्यान करने से सब ठीक हो जाएगा?
यह मोह का आवरण इतना घना है कि तुम अगर अमृत को भी खोजते हो तो जहर के लिए। बड़ी हैरानी की बात है! तुम चाहते तो अमृत हो; लेकिन उससे आत्महत्या करना चाहते हो। और अमृत से कोई आत्महत्या नहीं होती। अमृत पीया कि तुम अमर हो जाओगे। लेकिन तुम अमृत की तलाश में आते हो तो भी तुम्हारा लक्ष्य आत्महत्या का है। धन या देह, संसार का कोई न कोई अंग, वही तुम धर्म से भी पूरा करना चाहते हो।
सुनो लोगों की प्रार्थनाएं, मंदिरों में जाकर वे क्या मांग रहे हैं? और तुम पाओगे कि वे मंदिर में भी संसार मांग रहे हैं। किसी के बेटे की शादी नहीं हुई है; किसी के बेटे को नौकरी नहीं मिली है; किसी के घर में कलह है। मंदिर में भी तुम संसार को ही मांगने जाते हो? तुम्हारा मंदिर सुपर मार्केट होगा, बड़ी दुकान होगा, जहां ये चीजें भी बिकती हैं, जहां सभी कुछ बिकता है। लेकिन तुम्हें अभी मंदिर की कोई पहचान नहीं। इसलिए तुम्हारे मंदिरों में जो पुजारी बैठे हैं, वे दुकानदार हैं; क्योंकि वहां जो लोग आते हैं, वे संसार के ही ग्राहक हैं। असली मंदिर से तो तुम बचोगे।
मेरे एक मित्र हैं, दांत के डाक्टर हैं। उनके घर मैं मेहमान था। बैठा था उनके बैठकखाने में एक दिन सुबह, एक छोटा सा बच्चा डरा-डरा भीतर प्रविष्ट हुआ। चारों तरफ उसने चौंक कर देखा। फिर मुझसे पूछा कि क्या मैं पूछ सकता हूं--बड़े फुसफुसा कर--कि डाक्टर साहब भीतर हैं या नहीं? तो मैंने कहा, वे अभी बाहर गए हैं। प्रसन्न हो गया वह बच्चा। उसने कहा, मेरी मां ने भेजा था दांत दिखाने। क्या मैं आपसे पूछ सकता हूं कि वे फिर कब बाहर जाएंगे?
बस, ऐसी तुम्हारी हालत है। अगर मंदिर तुम्हें मिल जाए तो तुम बचोगे। दांत का दर्द तुम सह सकते हो; लेकिन दांत का डाक्टर तुम्हें जो दर्द देगा, वह तुम सहने को तैयार नहीं हो। तुम छोटे बच्चों की भांति हो। तुम संसार की पीड़ा सह सकते हो; लेकिन धर्म की पीड़ा सहने की तुम्हारी तैयारी नहीं है। और निश्चित ही धर्म भी पीड़ा देगा। वह धर्म पीड़ा नहीं देता; वह तुम्हारे संसार के दांत इतने सड़ गए हैं, उनको निकालने में पीड़ा होगी। धर्म पीड़ा नहीं देता; धर्म तो परम आनंद है। लेकिन तुम दुख में ही जीए हो और तुमने दुख ही अर्जित किया है। तुम्हारे सब दांत पीड़ा से भर गए हैं; उनको खींचने में कष्ट होगा। तुम इतने डरते हो उनको खींचे जाने से कि तुम राजी हो उनकी पीड़ा और जहर को झेलने को। उससे तुम विषाक्त हुए जा रहे हो; तुम्हारा सारा जीवन गलित हुआ जा रहा है।
लेकिन तुम इस दुख से परिचित हो। आदमी परिचित दुख को झेलने को राजी होता है; अपरिचित सुख से भी भय लगता है! ये दांत भी तुम्हारे हैं। यह दर्द भी तुम्हारा है। इससे तुम जन्मों-जन्मों से परिचित हो। लेकिन तुम्हें पता नहीं कि अगर ये दांत निकल जाएं, यह पीड़ा खो जाए, तो तुम्हारे जीवन में पहली दफा आनंद का द्वार खुलेगा।
तुम मंदिर भी जाते हो तो तुम पूछते हो पुजारी से, परमात्मा फिर कब बाहर होंगे, तब मैं आऊं। तुम जाते भी हो, तुम जाना भी नहीं चाहते हो। तुम कैसी चाल अपने साथ खेलते हो, इसका हिसाब लगाना बहुत मुश्किल है।
निरंतर तुम्हें देख कर, तुम्हारी समस्याओं को देख कर, मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि तुम्हारी एक ही मात्र समस्या है कि तुम ठीक से यही नहीं समझ पा रहे हो कि तुम क्या करना चाहते हो। ध्यान करना चाहते हो? यह भी पक्का नहीं है। फिर ध्यान नहीं होता तो तुम परेशान होते हो। लेकिन जो करने का तुम्हारा पक्का ही नहीं है, वह तुम पूरे-पूरे भाव से करोगे नहीं, आधे-आधे भाव से करोगे। और आधे-आधे भाव से जीवन में कुछ भी नहीं होता। व्यर्थ तो बिना भाव के भी चलता है। उसमें तुम्हें कुछ भी लगाने की जरूरत नहीं; उसकी अपनी ही गति है। लेकिन सार्थक में जीवन को डालना पड़ता है, दांव पर लगाना होता है।
यह सूत्र कहता है: ‘मोह आवरण से युक्त योगी को सिद्धियां तो फलित हो जाती हैं, लेकिन आत्मज्ञान नहीं होता।’
मोह का आवरण इतना घना है कि अगर तुम धर्म की तरफ भी जाते हो तो तुम चमत्कार खोजते हो वहां भी। वहां भी अगर बुद्ध खड़े हों, तुम न पहचान सकोगे। तुम सत्य साईं बाबा को पहचानोगे। अगर बुद्ध और सत्य साईं बाबा दोनों खड़े हों, तो तुम सत्य साईं बाबा के पास जाओगे, बुद्ध के पास नहीं। क्योंकि बुद्ध ऐसी मूढ़ता न करेंगे कि तुम्हें ताबीज दें, हाथ से राख गिराएं; बुद्ध कोई मदारी नहीं हैं।
लेकिन तुम मदारियों की तलाश में हो। तुम चमत्कार से प्रभावित होते हो। क्योंकि तुम्हारी गहरी आकांक्षा, वासना परमात्मा की नहीं है; तुम्हारी गहरी वासना संसार की है। जहां तुम चमत्कार देखते हो, वहां लगता है कि यहां कोई गुरु है। यहां आशा बंधती है कि वासना पूरी होगी। जो गुरु हाथ से ताबीज निकाल सकता है, वह चाहे तो कोहिनूर भी निकाल सकता है। बस गुरु के चरणों में, सेवा में लग जाने की जरूरत है, आज नहीं कल कोहिनूर भी निकलेगा। क्या फर्क पड़ता है गुरु को! ताबीज निकाला, कोहिनूर भी निकल सकता है।
कोहिनूर की तुम्हारी आकांक्षा है। कोहिनूर के लिए छोटे-छोटे लोग ही नहीं, बड़े से बड़े लोग भी चोर होने को तैयार हैं। जिस आदमी के हाथ से राख गिर सकती है शून्य से, वह चाहे तो तुम्हें अमरत्व प्रदान कर सकता है; बस केवल गुरु-सेवा की जरूरत है!
नहीं, बुद्ध से तुम वंचित रह जाओगे; क्योंकि वहां कोई चमत्कार घटित नहीं होता। जहां सारी वासना समाप्त हो गई है, वहां तुम्हारी किसी वासना को तृप्त करने का भी कोई सवाल नहीं है। बुद्ध के पास तो महानतम चमत्कार, आखिरी चमत्कार घटित होता है--निर्वासना का प्रकाश है वहां। लेकिन तुम्हारी वासना से भरी आंखें वह न देख पाएंगी। बुद्ध को तुम तभी देख पाओगे, तभी समझ पाओगे, उनके चरणों में तुम तभी झुक पाओगे, जब सच में ही संसार की व्यर्थता तुम्हें दिखाई पड़ गई हो, मोह का आवरण टूट गया हो।
मोह एक नशा है। जैसे नशे में डूबा हुआ कोई आदमी चलता है, डगमगाता; पक्का पता भी नहीं कहां जा रहा है, क्यों जा रहा है; चलता है बेहोशी में; ऐसे तुम चलते रहे हो। कितना ही तुम सम्हालो अपने पैरों को, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। सभी शराबी सम्हालने की कोशिश करते हैं। तुम अपने को भला धोखा दे लो, दूसरों को कोई धोखा नहीं हो पाता। सभी शराबी कोशिश करते हैं कि वे नशे में नहीं हैं; वे जितनी कोशिश करते हैं, उतना ही प्रकट होता है। और यह मोह नशा है।
और जब मैं कहता हूं मोह नशा है, तो बिलकुल रासायनिक अर्थों में कहता हूं कि मोह नशा है। मोह की अवस्था में तुम्हारा पूरा शरीर नशीले द्रव्यों से भर जाता है--वैज्ञानिक अर्थों में भी। जब तुम किसी स्त्री के प्रेम में गिरते हो, तो तुम्हारा पूरे शरीर का खून विशेष रासायनिक द्रव्यों से भर जाता है। वे द्रव्य वही हैं जो भांग में हैं, गांजे में हैं, एल एस डी में हैं। इसीलिए स्त्री अब, जिसके तुम प्रेम में पड़ गए हो, वह स्त्री अलौकिक दिखाई पड़ने लगती है। वह इस पृथ्वी की नहीं मालूम होती। जिस पुरुष के तुम प्रेम में पड़ जाओ, वह पुरुष इस लोक का नहीं मालूम पड़ता। नशा उतरेगा, तब वह दो कौड़ी का दिखाई पड़ेगा। जब तक नशा है!
इसलिए तुम्हारा कोई भी प्रेम स्थायी नहीं हो सकता; क्योंकि नशे की अवस्था में किया गया है। वह मोह का एक रूप है। होश में नहीं हुआ है वह, बेहोशी में हुआ है। इसलिए हम प्रेम को अंधा कहते हैं। प्रेम अंधा नहीं है, मोह अंधा है। हम भूल से मोह को प्रेम समझते हैं। प्रेम तो आंख है; उससे बड़ी कोई आंख नहीं है। प्रेम की आंख से तो परमात्मा दिखाई पड़ जाता है--इस संसार में छिपा हुआ। मोह अंधा है; जहां कुछ भी नहीं है वहां सब कुछ दिखाई पड़ता है। मोह एक सपना है।
और जिनको हम योगी कहते हैं, वे भी इस मोह से ग्रस्त होते हैं। सिद्धियां तो हल हो जाती हैं। वे कुछ शक्तियां तो पा लेते हैं। शक्तियां पानी कठिन नहीं है। दूसरे के मन के विचार पढ़े जा सकते हैं--थोड़ा ही उपाय करने की जरूरत है। दूसरे के विचार प्रभावित किए जा सकते हैं--थोड़ा ही उपाय करने की जरूरत है। आदमी आए, तुम बता सकते हो कि तुम्हारे मन में क्या खयाल है--थोड़े ही उपाय करने की जरूरत है। यह विज्ञान है; धर्म का इससे कुछ लेना-देना नहीं है। मन को पढ़ने का विज्ञान है, जैसे किताब को पढ़ने का विज्ञान है। जो अपढ़ है, वह तुम्हें किताब को पढ़ते देख कर बहुत हैरान होता है--क्या चमत्कार हो रहा है! जहां कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता उसे, काले धब्बे हैं, वहां से तुम ऐसा आनंद ले रहे हो--कविता का, उपनिषद का, वेद का--मंत्रमुग्ध हो रहे हो! अपढ़ देख कर हैरान होता है।
मुल्ला नसरुद्दीन के गांव में वह अकेला ही पढ़ा-लिखा आदमी था। और जब अकेला ही कोई पढ़ा-लिखा आदमी हो तो पक्का नहीं कि वह पढ़ा-लिखा है भी कि नहीं। क्योंकि कौन पता लगाए? गांव में जिसको भी चिट्ठी वगैरह लिखवानी होती, वह नसरुद्दीन के पास आता। वह चिट्ठी लिख देता था। एक दिन एक बुढ़िया आई। उसने कहा कि चिट्ठी लिख दो नसरुद्दीन! नसरुद्दीन ने कहा, अभी न लिख सकूंगा, मेरे पैर में बहुत दर्द है। बुढ़िया ने कहा, हद हो गई! पैर के दर्द से और चिट्ठी लिखने का संबंध क्या? नसरुद्दीन ने कहा, अब उस विस्तार में मत जाओ। लेकिन मैं कहता हूं कि पैर में दर्द है, और मैं चिट्ठी न लिखूंगा। बुढ़िया भी जिद्दी थी। उसने कहा, मैं बिना जाने जाऊंगी नहीं। क्योंकि मैं बेपढ़ी-लिखी हूं, लेकिन यह मैंने कभी सुना नहीं कि पैर के दर्द से चिट्ठी लिखने का क्या संबंध है। नसरुद्दीन ने कहा, तू नहीं मानती तो मैं बता दूं। फिर पढ़ने दूसरे गांव तक कौन जाएगा? वह मुझ ही को जाना पड़ता है। मेरी लिखी चिट्ठी मैं ही पढ़ सकता हूं। अभी मेरे पैर में दर्द है, मैं लिखने वाला नहीं।
गैर पढ़ा-लिखा आदमी किताब में खोए आदमी को देख कर चमत्कृत होता है। लेकिन पढ़ना सीखा जा सकता है; उसकी कला है। तुम्हारे मन में विचार चलते हैं। तुम देखते हो विचारों को, दूसरा भी उनको देख सकता है; उसकी कला है। लेकिन उस विचारों को देखने की कला का धर्म से कोई भी संबंध नहीं। न किताब को पढ़ने की कला से धर्म का कोई संबंध है; न दूसरे के मन को पढ़ने की कला से धर्म का कोई संबंध है। जादूगर सीख लेते हैं; वे कोई सिद्ध पुरुष नहीं हैं।
लेकिन तुम बहुत चमत्कृत होओगे। तुम गए किसी साधु के पास और उसने कहा कि आओ! तुम्हारा नाम लिया, तुम्हारे गांव का पता बताया और कहा कि तुम्हारे घर के बगल में एक नीम का झाड़ है। तुम दीवाने हो गए! लेकिन साधु को नीम के झाड़ से क्या लेना, तुम्हारे गांव से क्या लेना, तुम्हारे नाम से क्या मतलब! साधु तो वह है जिसे पता चल गया है कि किसी का कोई नाम नहीं, रूप नहीं, किसी का कोई गांव नहीं। ये गांव, नाम, रूप, सब संसार के हिस्से हैं। तुम संसारी हो! वह साधु भी तुम्हें प्रभावित कर रहा है, क्योंकि वह तुमसे गहरे संसार में है। उसने और भी कला सीख ली है। तुम्हारे बिना बताए वह बोलता है। वह तुम्हें प्रभावित करना चाहता है।
ध्यान रखो, जब तक तुम दूसरे को प्रभावित करना चाहते हो, तब तक तुम अहंकार से ग्रस्त हो। आत्मा किसी को प्रभावित करना नहीं चाहती। दूसरे को प्रभावित करने में सार भी क्या है? क्या अर्थ है? पानी पर बनाई हुई लकीरों जैसा है। क्या होगा मुझे? दस हजार लोग प्रभावित हों कि दस करोड़ लोग प्रभावित हों, इससे होगा क्या? उनको प्रभावित करके मैं क्या पा लूंगा?
अज्ञानियों की भीड़ को प्रभावित करने की इतनी उत्सुकता अज्ञान की खबर देती है। तो राजनेता दूसरों को प्रभावित करने में उत्सुक होता है, समझ में आता है। लेकिन धार्मिक व्यक्ति क्यों दूसरों को प्रभावित करने में उत्सुक होगा? और जब भी तुम दूसरे को प्रभावित करना चाहते हो, तब एक बात याद रखना, तुम आत्मस्थ नहीं हो। दूसरे को प्रभावित करने का अर्थ है कि तुम अहंकार स्थित हो।
अहंकार दूसरे के प्रभाव को भोजन की तरह उपलब्ध करता है; उसी पर जीता है। जितनी आंखें मुझे पहचान लें, उतना मेरा अहंकार बड़ा होता है। अगर सारी दुनिया मुझे पहचान ले, तो मेरा अहंकार सर्वोत्कृष्ट हो जाता है। कोई मुझे न पहचाने--गांव से निकलूं, सड़क से गुजरूं, कोई देखे न, कोई रिकग्नीशन नहीं, कोई प्रत्यभिज्ञा नहीं; किसी की आंख में झलक न आए, लोग ऐसा जैसे कि मैं हूं ही नहीं--बस वहां अहंकार को चोट है। अहंकार चाहता है दूसरे ध्यान दें। यह बड़े मजे की बात है। अहंकार ध्यान नहीं करना चाहता; दूसरे उस पर ध्यान करें, सारी दुनिया उसकी तरफ देखे, वह केंद्र हो जाए।
धार्मिक व्यक्ति, दूसरा मेरी तरफ देखे, इसकी फिक्र नहीं करता; मैं अपनी तरफ देखूं! क्योंकि अंततः वही मेरे साथ जाएगा। यह तो बच्चों की बात हुई। बच्चे खुश होते हैं कि दूसरे उनकी प्रशंसा करें। सर्टिफिकेट घर लेकर आते हैं तो नाचते-कूदते आते हैं। लेकिन बुढ़ापे में भी तुम सर्टिफिकेट मांग रहे हो? तब तुमने जिंदगी गंवा दी!
सिद्धि की आकांक्षा दूसरों को प्रभावित करने में है। धार्मिक व्यक्ति की वह आकांक्षा नहीं है। वही तो सांसारिक का स्वभाव है।
यह सूत्र कहता है: ‘मोह आवरण से युक्त योगी को सिद्धियां तो फलित हो जाती हैं, लेकिन आत्मज्ञान नहीं होता।’
वह कितनी ही बड़ी सिद्धियों को पा ले--उसके छूने से मुर्दा जिंदा हो जाए, उसके स्पर्श से बीमारियां खो जाएं, वह पानी को छू दे और औषधि हो जाए--लेकिन उससे आत्मज्ञान का कोई भी संबंध नहीं है। सच तो स्थिति उलटी है कि जितना ही वह व्यक्ति सिद्धियों से भरता जाता है, उतना ही आत्मज्ञान से दूर होता जाता है। क्योंकि जैसे-जैसे अहंकार भरता है, वैसे-वैसे आत्मा खाली होती है; और जैसे-जैसे अहंकार खाली होता है, वैसे-वैसे आत्मा भरती है। तुम दोनों को साथ ही साथ न भर पाओगे।
दूसरे को प्रभावित करने की आकांक्षा छोड़ दो, अन्यथा योग भी भ्रष्ट हो जाएगा। तब तुम योग भी साधोगे, वह भी राजनीति होगी, धर्म नहीं। और राजनीति एक जाल है। फिर येन केन प्रकारेण आदमी दूसरे को प्रभावित करना चाहता है। फिर सीधे और गलत रास्ते से भी प्रभावित करना चाहता है। लेकिन प्रभावित तुम करना ही इसलिए चाहते हो कि तुम दूसरे का शोषण करना चाहते हो।
मैंने सुना है, चुनाव हो रहे थे; और एक संध्या तीन आदमी हवालात में बंद किए गए। अंधेरा था, तीनों ने अंधेरे में एक-दूसरे को परिचय दिया। पहले व्यक्ति ने कहा, मैं हूं सरदार संतसिंह। मैं सरदार सिरफोड़सिंह के लिए काम कर रहा था। दूसरे ने कहा, गजब हो गया! मैं हूं सरदार शैतानसिंह। मैं सरदार सिरफोड़सिंह के विरोध में काम कर रहा था। तीसरे ने कहा, वाहे गुरुजी की फतह! वाहे गुरुजी का खालसा! हद हो गई! मैं खुद सरदार सिरफोड़सिंह हूं।
नेता, अनुयायी, पक्ष के, विपक्ष के--सभी कारागृहों के योग्य हैं। वही उनकी ठीक जगह है, जहां उन्हें होना चाहिए। क्योंकि पाप की शुरुआत वहां से होती है, जहां मैं दूसरे व्यक्ति को प्रभावित करने चलता हूं। क्योंकि अहंकार न शुभ जानता, न अशुभ; अहंकार सिर्फ अपने को भरना जानता है। कैसे अपने को भरता है, यह बात गौण है। अहंकार की एक ही आकांक्षा है कि मैं अपने को भरूं और परिपुष्ट हो जाऊं। और चूंकि अहंकार एक सूनापन है, सब उपाय करके भी भर नहीं पाता, खाली ही रह जाता है। तो जैसे-जैसे उम्र हाथ से खोती है, वैसे-वैसे अहंकार पागल होने लगता है; क्योंकि अभी तक भर नहीं पाया, अभी तक यात्रा अधूरी है और समय बीता जा रहा है।
इसलिए बूढ़े आदमी चिड़चिड़े हो जाते हैं। वह चिड़चिड़ापन किसी और के लिए नहीं है; वह चिड़चिड़ापन अपने जीवन की असफलता के लिए है। जो भरना चाहते थे, वे भर नहीं पाए।
और बूढ़े आदमी की चिड़चिड़ाहट और घनी हो जाती है; क्योंकि उसे लगता है कि जैसे-जैसे वह बूढ़ा हुआ है, वैसे-वैसे लोगों ने ध्यान देना बंद कर दिया है; बल्कि लोग प्रतीक्षा कर रहे हैं कि वह कब समाप्त हो जाए।
मुल्ला नसरुद्दीन सौ साल का हो गया था। मैंने उससे पूछा कि क्या तुम कुछ कारण बता सकते हो नसरुद्दीन कि परमात्मा ने तुम्हें इतनी लंबी उम्र क्यों दी?
उसने बिना कुछ झिझक कर कहा, संबंधियों के धैर्य की परीक्षा के लिए।
सभी बूढ़े संबंधियों के धैर्य की परीक्षा कर रहे हैं। चौबीस घंटे देख रहे हैं कि ध्यान उनकी तरफ से हटता जा रहा है। मौत तो उन्हें बाद में मिटाएगी, लोगों की पीठ उन्हें पहले ही मिटा देती है। उससे चिड़चिड़ापन पैदा होता है।
तुम सोच भी नहीं सकते कि निक्सन का चिड़चिड़ापन अभी कैसा होगा। सब की पीठ हो गई, जिनके चेहरे थे। जो अपने थे, वे पराए हो गए। जो मित्र थे, वे शत्रु हो गए। जिन्होंने सहारे दिए थे, उन्होंने सहारे छीन लिए। सब ध्यान हट गया। निक्सन अस्वस्थ हैं, बेचैन हैं, परेशान हैं। जो भी आदमी जाता है निक्सन के पास, उससे वे पहली बात यही पूछते हैं कि मैंने जो किया वह ठीक किया? लोग मेरे संबंध में क्या कह रहे हैं?
अभी यह आदमी शिखर पर था, अब यह आदमी खाई में पड़ा है! यह शिखर और खाई किस बात की थी? यह आदमी तो वही है जो कल था, पद पर था; वही आदमी अभी भी है। सिर्फ अहंकार शिखर पर था, अब खाई में है; आत्मा तो जहां की तहां है। काश! इस आदमी को उसकी याद आ जाए, जिसका न कोई शिखर होता, न कोई खाई होती; न कोई हार होती, न जीत होती; जिसको लोग देखें तो ठीक, न देखें तो ठीक; जिसमें कोई फर्क नहीं पड़ता, जो एकरस है।
उस एकरसता का अनुभव तुम्हें तभी होगा, जब तुम लोगों का ध्यान मांगना बंद कर दोगे। भिखमंगापन बंद करो। सिद्धियों से क्या होगा? लोग तुम्हें चमत्कारी कहेंगे; लाखों की भीड़ इकट्ठी होगी। लेकिन लाखों मूढ़ों को इकट्ठा करके क्या सिद्ध होता है--कि तुम इन लाखों मूढ़ों के ध्यान के केंद्र हो! तुम महामूढ़ हो! अज्ञानी से प्रशंसा पाकर भी क्या मिलेगा? जिसे खुद ज्ञान नहीं मिल सका, उसकी प्रशंसा मांग कर तुम क्या करोगे? जो खुद भटक रहा है, उसके तुम नेता हो जाओगे? उसके सम्मान का कितना मूल्य है?
सुना है मैंने, सूफी फकीर हुआ, फरीद। वह जब बोलता था, तो कभी लोग ताली बजाते तो वह रोने लगता। एक दिन उसके शिष्यों ने पूछा, हद्द हो गई! लोग ताली बजाते हैं, तुम रोते किसलिए हो? तो फरीद ने कहा कि वे ताली बजाते हैं, तब मैं समझता हूं कि मुझसे कोई गलती हो गई होगी। अन्यथा वे ताली कभी न बजाते। ये गलत लोग! जब वे न ताली बजाते, न उनकी समझ में आता, तभी मैं समझता हूं कि कुछ ठीक बात कह रहा हूं।
आखिर गलत आदमी की ताली का मूल्य क्या है? तुम किसके सामने अपने को ‘सिद्ध’ सिद्ध करना चाह रहे हो? अगर तुम इस संसार के सामने अपने को ‘सिद्ध’ सिद्ध करना चाह रहे हो, तो तुम नासमझों की प्रशंसा के लिए आतुर हो। तुम अभी नासमझ हो। और अगर तुम सोचते हो कि परमात्मा के सामने तुम अपने को सिद्ध करना चाह रहे हो कि मैं सिद्ध हूं, तो तुम और महा नासमझ हो। क्योंकि उसके सामने तो विनम्रता चाहिए। वहां तो अहंकार काम न करेगा। वहां तो तुम मिट कर जाओगे तो ही स्वीकार पाओगे। वहां तुम अकड़ लेकर गए तो तुम्हारी अकड़ ही बाधा हो जाएगी।
इसलिए तथाकथित सिद्ध परमात्मा तक नहीं पहुंच पाते। परम सिद्धियां उनकी हो जाती हैं, लेकिन असली सिद्धि चूक जाती है। वह असली सिद्धि है आत्मज्ञान। क्यों आत्मज्ञान चूक जाता है? क्योंकि सिद्धि भी दूसरे की तरफ देख रही है, अपनी तरफ नहीं। अगर कोई भी न हो दुनिया में, तुम अकेले होओ, तो तुम सिद्धियां चाहोगे? तुम चाहोगे कि पानी को छुऊं, औषधि हो जाए? मरीज को छुऊं, स्वस्थ हो जाए? मुर्दे को छुऊं, जिंदा हो जाए? कोई भी न हो पृथ्वी पर, तुम अकेले होओ, तो तुम ये सिद्धियां चाहोगे? तुम कहोगे, क्या करेंगे! देखने वाले ही न रहे। देखने वाले के लिए सिद्धियां हैं।
दूसरे पर तुम्हारा ध्यान है, तब तक तुम्हारा अपने पर ध्यान नहीं आ सकता। और आत्मज्ञान तो उसे फलित होता है, जो दूसरे की तरफ से आंखें अपनी तरफ मोड़ लेता है।
‘स्थायी रूप से मोह-जय होने पर सहज विद्या फलित होती है।’
स्थायी रूप से मोह-जय होने पर सहज विद्या फलित होती है! मोह को जय करना है। मोह का क्या अर्थ है? मोह का अर्थ है: दूसरे के बिना मैं न जी सकूंगा; दूसरा मेरा केंद्र है।
तुमने बच्चों की कहानियां पढ़ी होंगी, जिनमें कोई राजा होता है और जिसके प्राण किसी पक्षी में, तोते में, मैना में बंद होते हैं। तुम उस राजा को मारो, न मार पाओगे। गोली आर-पार निकल जाएगी, राजा जिंदा रहेगा। तीर छिद जाएगा हृदय में, राजा मरेगा नहीं। जहर पिला दो, कोई असर न होगा। राजा जीवित रहेगा। तुम्हें पता लगाना पड़ेगा उस तोते का, मैना का, जिसमें उसके प्राण बंद हैं। उसे तुम मरोड़ दो, उसकी गर्दन तोड़ दो--इधर राजा मर जाएगा।
ये बच्चों की कहानियां बड़ी अर्थपूर्ण हैं; बूढ़ों के भी समझने योग्य हैं। मोह का अर्थ है: तुम अपने में नहीं जीते, किसी और चीज में जीते हो। समझो, किसी का मोह तिजोरी में है। तुम उसकी गर्दन मरोड़ दो, वह न मरेगा। तुम तिजोरी लूट लो, वह मर गए। उनके प्राण तिजोरी में थे। उनका बैंक बैलेंस खो जाए, वे मर गए। उन्हें तुम मारो, वे मरने वाले नहीं। जहर पिलाओ, वे जिंदा रहेंगे।
मोह का अर्थ है: तुमने अपने प्राण अपने से हटा कर कहीं और रख दिए हैं। किसी ने अपने बेटे में रख दिए हैं; किसी ने अपनी पत्नी में रख दिए हैं; किसी ने धन में रख दिए हैं; किसी ने पद में रख दिए हैं--लेकिन प्राण कहीं और रख दिए हैं। जहां होना चाहिए प्राण वहां नहीं हैं। तुम्हारे भीतर प्राण नहीं धड़क रहा है, कहीं और धड़क रहा है। तब तुम मुसीबत में रहोगे।
यही मोह संसार है; क्योंकि जहां-जहां तुमने प्राण रख दिए, उनके तुम गुलाम हो जाओगे। जिस राजा के प्राण तोते में बंद हैं, वह तोते का गुलाम होगा; क्योंकि तोते के ऊपर सब कुछ निर्भर है। तोता मर जाए तो हमारे प्राण गए। तो वह तोते को सम्हालेगा।
मैंने सुना है, एक सम्राट एक बार एक ज्योतिषी पर बहुत नाराज हो गया; क्योंकि ज्योतिषी ने उसके प्रधानमंत्री की भविष्यवाणी की और कहा कि यह कल मर जाएगा। और कल प्रधानमंत्री मर भी गया। राजा बहुत चिंतित हुआ। और उसे यह शक भी पकड़ा कि यह भी हो सकता है कि यह प्रधानमंत्री इसके कहने के कारण मर गया। इस पर भाव इतना गहरा हो गया, इसकी बात का प्रभाव इतना हो गया कि मर गया। और अब यह झंझट का आदमी है। यह अगर मुझसे भी कह दे कि कल तुम मर जाओगे, तो बचना बहुत मुश्किल है; क्योंकि इसका प्रभाव पड़ेगा मुझ पर।
तो उसने ज्योतिषी को कारागृह में डाल दिया। ज्योतिषी ने पूछा कि क्यों? सम्राट ने कहा कि तुम खतरनाक हो! मुझे लगता है कि यह भविष्यवाणी के कारण नहीं मरा, मरने वाला था इसलिए नहीं मरा; तुमने कहा, यह बात उसके मन में बैठ गई, वह सम्मोहित हो गया और मर गया। तुम खतरनाक हो।
उस ज्योतिषी ने कहा, इसके पहले कि तुम मुझे कारागृह में डालो, मैं एक बात तुम्हें बता दूं, तुम्हारा भविष्य भी मैंने निकाला हुआ है। सम्राट ने बहुत चाहा कि वह भविष्य न सुने; लेकिन ज्योतिषी बोल ही गया। सम्राट ने कहा, चुप! लेकिन ज्योतिषी ने कहा, चुप रहने का कोई उपाय नहीं है। जिस दिन मैं मरूंगा, उसके तीन दिन बाद तुम मरोगे।
बस अब मुसीबत हो गई। उस ज्योतिषी को महल में रखना पड़ा। उसकी बड़ी सेवा, चिंता...। उसके राजा हाथ-पैर दबाता; क्योंकि वह जिस दिन मरा, तीन दिन बाद...।
जहां तुम अपने प्राण रख दोगे, उसकी तुम सेवा में लग जाओगे। लोगों को देखो, तिजोरी के पास कैसे जाते हैं। बिलकुल हाथ जोड़े, जैसे मंदिर के पास जाते हैं। तिजोरी पर ‘लाभ-शुभ’, ‘श्री गणेशाय नमः’। तिजोरी भगवान है! उसकी वे पूजा करते हैं। दीवाली के दिन पागलों को देखो, सब अपनी-अपनी तिजोरी की पूजा कर रहे हैं। वहां उनके प्राण हैं। किस भाव से वे करते हैं, वह भाव देखने जैसा है। दुकानदार हर साल अपने खाता-बही शुरू करता है, तो स्वास्तिक बनाता है, ‘लाभ-शुभ’ लिखता है, ‘श्री गणेशाय नमः’ लिखता है। तुम्हें पता है कि यह गणेश की इतनी स्तुति वह क्यों करता है?
यह गणेश पुराने उपद्रवी हैं। पुरानी कथा है कि गणेश विघ्न के देवता हैं। दिखते भी इस ढंग से हैं कि उपद्रवी होने चाहिए। एक तो खोपड़ी अपनी नहीं। जिसके पास अपनी खोपड़ी नहीं है, वह आदमी पागल है। उससे तुम कुछ भी...कुछ भी असंभव वह कर सकता है। ढंग-डौल उनका देखो, संदिग्ध है। चूहे पर सवार हैं। वह चूहा तर्क है; कतरनी की तरह काटता है। तर्क कभी भी भरोसे योग्य नहीं है। तर्क जहां भी जाएगा, वहां विघ्न उपस्थित करेगा। जिसके जीवन में तर्क घुस जाएगा, उसके जीवन में उपद्रव आ जाएंगे, अराजकता आ जाएगी, सब शांति खो जाएगी।
तो गणेश पुराने देवता हैं विघ्न के। जहां भी कहीं कुछ शुभ हो रहा हो, वे मौजूद हो जाते थे। लोग उनसे डरने लगे। डरने के कारण पहले ही उनको हाथ जोड़ लेते हैं कि आप--कृपा करके आप कृपा रखना, बाकी हम सब सम्हाल लेंगे। और धीरे-धीरे हालत ऐसी हो गई कि जो देवता विघ्न का था, लोग उसको मंगल का देवता मानने लगे। पर वे भूल गए हैं कहानी। वह उनका हाथ जोड़ना ठीक ही है कि यहां मत आना। इस तरफ कृपा दृष्टि रखना।
देखें, तिजोरी के पास किस भाव से भक्त धन की पूजा करता है!
मोह के आवरण का अर्थ होता है: तुम्हारी आत्मा कहीं और बंद है। वह पत्नी में हो, धन में हो, पद में हो, वह कहीं भी हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता; लेकिन तुम्हारी आत्मा तुम्हारे भीतर नहीं है, मोह का यह अर्थ है। और शाश्वत, स्थायी रूप से मोह-जय का अर्थ है कि तुमने सारी परतंत्रता छोड़ दी। अब तुम किसी और पर निर्भर होकर नहीं जीते; तुम्हारा जीवन अपने में निर्भर है। तुम स्वकेंद्रित हुए। तुमने अपने अस्तित्व को ही अपना केंद्र बना लिया। अब पत्नी न रहे, धन न रहे, तो भी कोई फर्क न पड़ेगा--वे ऊपर की लहरें हैं--तो भी तुम उद्विग्न न हो जाओगे। सफलता रहे कि विफलता, सुख आए कि दुख, कोई अंतर न पड़ेगा। क्योंकि अंतर पड़ता था इसलिए कि तुम उन पर निर्भर थे।
मोह-जय का अर्थ है: परम स्वतंत्र हो जाना; मैं किसी पर निर्भर नहीं हूं--ऐसी प्रतीति; मैं अकेला काफी हूं, पर्याप्त हूं--ऐसी तृप्ति। मेरा होना पूरा है, ऐसा भाव मोह-जय है। जब तक दूसरे के होने पर तुम्हारा होना निर्भर है, तब तक मोह पकड़ेगा; तब तक तुम दूसरे को जकड़ोगे, वह कहीं छूट न जाए, कहीं खो न जाए रास्ते में; क्योंकि उसके बिना तुम कैसे रहोगे!
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी मरी, तो औपचारिक रूप से रो रहा था। लेकिन मुल्ला नसरुद्दीन का एक मित्र था, वह बहुत ही ज्यादा शोरगुल मचा कर रो रहा था--छाती पीट रहा, आंसू बहा रहा। मुल्ला नसरुद्दीन से भी न रहा गया। उसने कहा कि मेरे भाई, मत इतना शोरगुल कर, मैं फिर शादी करूंगा। तू इतना ज्यादा दुखी मत हो।
वे मित्र जो थे, मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी के प्रेमी थे। मुल्ला नसरुद्दीन के प्राण वहां न थे, लेकिन उनके प्राण वहां थे। तो उसने ठीक ही कहा कि तू इतना शोरगुल मत कर, मैं फिर शादी करूंगा।
कौन सी चीज तुम्हें रुलाती है--वहीं तुम्हारा मोह है। कौन सी चीज के खो जाने से तुम अभाव अनुभव करते हो--वहीं तुम्हारा मोह है। सोचना, कौन सी चीज खो जाए तो तुम एकदम दीन-दीन हो जाओगे--वही तुम्हारे मोह का बिंदु है। और इसके पहले कि वह खोए, तुम उस पर अपनी पकड़ छोड़ना। क्योंकि वह खोएगी ही। इस संसार में कोई भी चीज थिर नहीं है--न मित्रता, न प्रेम--कोई भी चीज थिर नहीं है। यहां सब बदलता हुआ है। संसार का स्वभाव प्रतिक्षण परिवर्तन है। यह एक बहाव है--नदी की तरह बह रहा है। यहां कुछ भी ठहरा हुआ नहीं है। तुम लाख उपाय करो, तो भी कुछ भी ठहरा हुआ नहीं हो सकता। तुम्हारे उपाय के कारण ही तुम परेशान हो। जो सदा चल रहा है, उसको तुम ठहराना चाहते हो; जो बह रहा है, तुम उसे रोकना चाहते हो, जमाना चाहते हो। वह जमने वाला नहीं। वह उसका स्वभाव नहीं है।
परिवर्तन संसार है, और वहां तुम चाहते हो कुछ स्थायी सहारा मिल जाए। वह नहीं मिलता। इसलिए तुम प्रतिपल दुखी हो। हर क्षण तुम्हारे सहारे खो जाते हैं।
एक बात खोजने की चेष्टा करना कि कौन सी चीजें हैं जो खो जाएं तो तुम दुखी होओगे? इसके पहले कि वे खोएं, तुम अपनी पकड़ हटाना शुरू कर देना। यह मोह-जय का उपाय है। पीड़ा होगी; लेकिन यह पीड़ा झेलने जैसी है; यह तपश्चर्या है। कुछ छोड़ कर भाग जाने की जरूरत नहीं कि तुम अपनी पत्नी को छोड़ कर हिमालय भाग जाना। तुम जहां हो, वहीं रहना। लेकिन पत्नी पर निर्भरता को धीरे-धीरे काटते जाना। कोई जरूरत नहीं कि पत्नी को इससे दुख दो। पत्नी को पता भी नहीं चलेगा। कोई कारण भी नहीं पता चलाने का किसी को।
जीसस ने कहा है, तुम्हारा बायां हाथ क्या करता है, दाएं को पता न चले, तो ही तुम ठीक-ठीक साधक हो। क्योंकि दूसरे को पता चलाने की इच्छा भी अहंकार की इच्छा है। तुम पता चलाना चाहते हो दूसरे को कि देखो, पत्नी को छोड़ दिया, हिमालय जा रहे हैं! कितना महान कार्य कर दिया!
कुछ भी महान कार्य नहीं है। कोई भी पति से पूछो, सभी पति हिमालय जाना चाहते हैं। नहीं जा पाते, यह दूसरी बात है। इसमें कुछ...।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन पहुंचा गांव के पागलखाने और उसने द्वार खटखटाया। सुपरिनटेंडेंट ने दरवाजा खोला और कहा, क्या मामला है? उसने कहा कि क्या कोई आदमी पागलखाने से भाग गया? सुपरिनटेंडेंट ने कहा, तुम्हें इससे क्या मतलब? क्या तुमने किसी को भागते देखा? उसने कहा कि नहीं, मेरी पत्नी को लेकर कोई आदमी भाग गया है। तो मैंने सोचा, जरूर कोई पागलखाने से छूट गया। क्योंकि हम खुद ही छूटना चाह रहे थे, वह अपने हाथ से आ फंसा।
पतियों से पूछो! संसार में जो खड़ा है, उसके दुख का कोई अंत नहीं है। भाग नहीं सकता; क्योंकि उसे कहीं सुख दूसरी जगह दिखाई भी नहीं पड़ता, कहां जाए? और जहां जाएगा, संसार तो साथ ही होगा। और फिर बड़ी आकांक्षाओं से इस जगह को उसने बनाया है, और अब इतने बनाने के बाद तोड़ना मुश्किल है; पूरी जिंदगी व्यर्थ होती है।
मोह की खोज करना। जिन चीजों के बिना तुम न रह सको, उनके बिना धीरे-धीरे रहने की भीतरी चेष्टा करना। और एक ऐसी स्थिति बना लेना कि अगर वे सब भी खो जाएं तो भी तुम्हारे भीतर कोई कंपन न होगा, तो मोह-जय हुई। और यह हो सकता है; यह हुआ है। एक को हुआ है; सभी को हो सकता है।
सूत्र कहता है शिव का: ‘स्थायी रूप से मोह-जय होने पर सहज विद्या फलित होती है।’
और जिस दिन भी मोह-जय हो जाती है, उसी दिन तुम पाते हो कि उस विद्या का तुम्हें अनुभव होने लगा, वह ज्ञान स्फुरने लगा, जो सहज है, जो किसी से सीखा नहीं जाता। वही आत्मज्ञान है। आत्मज्ञान दूसरे से सीखने की कोई सुविधा नहीं है; वह भीतर स्फुरित होता है। जैसे वृक्षों में फूल लगते हैं, जैसे झरने बहते हैं, ऐसा तुम्हारे भीतर जो बह रहा है सदा, कलकल नाद कर रहा है, वह तुम्हारा ही है, सहज; उसे किसी से लेना नहीं है। कोई गुरु उसे नहीं दे सकता; सभी गुरु उस तरफ इशारा करते हैं। जब तुम पाओगे, तब तुम पाओगे कि यह भीतर ही छिपा था; यह अपनी ही संपदा है। इसलिए सहज विद्या!
दो तरह की विद्याएं हैं। संसार की विद्या सीखनी है, दूसरे से सीखनी पड़ेगी; वह सहज नहीं है। कितना ही बुद्धिमान आदमी हो, संसार की विद्या दूसरे से सीखनी पड़ेगी। और कितना ही मूढ़ आदमी हो, तो भी आत्मविद्या दूसरे से नहीं सीखनी पड़ेगी। वह तुम्हारे भीतर है। बाधा मोह की है। मोह कट जाता है, बादल छंट जाते हैं, सूर्य निकल आता है!
‘ऐसे जाग्रत योगी को, सारा जगत मेरी ही किरणों का प्रस्फुरण है, ऐसा बोध होता है।’
और जिस दिन सहज विद्या का जन्म होता है, जागृति आती है, तो दिखाई पड़ता है कि सारा जगत मेरी ही किरणों का स्फुरण है। तब तुम केंद्र हो जाते हो। तुम बहुत चाहते थे कि सारे जगत के केंद्र हो जाओ। अहंकार के सहारे वह नहीं हो पाया। हर बार हारे। और अहंकार खोते ही तुम केंद्र हो जाते हो।
तुम जिसे पाना चाहते हो, वह तुम्हें मिल जाएगा; लेकिन तुम गलत दिशा में खोज रहे हो। तुम भ्रांत मार्ग पर चल रहे हो। तुम जो पाना चाहते हो, वह मिल सकता है; लेकिन जिसके सहारे तुम पाना चाहते हो, उसके सहारे नहीं मिल सकता; तुमने गलत सारथी चुना है, तुमने वाहन गलत चुन लिया है। अहंकार से तुम कभी विश्व के केंद्र न बन पाओगे। और निर-अहंकार व्यक्ति तत्क्षण विश्व का केंद्र बन जाता है। बुद्धत्व प्रकट होता है बोधि-वृक्ष के नीचे, सारी दुनिया परिधि हो जाती है; सारा जगत परिधि हो जाता है; बुद्धत्व केंद्र हो जाता है। सारा जगत फिर मेरा ही फैलाव है। फिर सभी किरणें मेरी हैं। सारा जीवन मेरा है। लेकिन यह ‘मेरा’ तभी फलित होता है, जब ‘मैं’ नहीं बचता। यही जटिलता है। जब तक ‘मैं’ है, तब तक तुम कितना ही बड़ा कर लो ‘मेरे’ के फैलाव को, कितना ही बड़ा साम्राज्य बना लो, तुम धोखा दे रहे हो।
काफी जल चुके हो, अनेक-अनेक जन्मों में भटक चुके हो, फिर भी सजग नहीं!
मैंने सुना, मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन हवाई जहाज में सवार हुआ। अपनी कुर्सी पर बैठते ही उसने परिचारिका को बुलाया और कहा कि सुनो! तेल, पानी, हवा, पेट्रोल, सब ठीक-ठाक है न? उस परिचारिका ने कहा कि तुम अपनी जगह शांति से बैठो। यह तुम्हारा काम नहीं है। यह हमारी चिंता है। नसरुद्दीन ने कहा, फिर बीच में उतर कर धक्का देने के लिए मत कहना।
मुझे किसी ने बताया तो मैंने नसरुद्दीन को पूछा कि ऐसी बात घटी? उसने कहा, घटी। दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है। बस का चला हवाई जहाज में भी चिंता रखता है कि कहीं बीच में उतर कर धक्का न देना पड़े।
तुम बहुत बार जल चुके हो। छाछ को भी फूंक-फूंक कर पीना तो दूर, तुमने अभी दूध को भी फूंक-फूंक कर पीना नहीं सीखा है।
जीवन की बड़ी से बड़ी दुविधा यही है कि हम अनुभव से सीख नहीं पाते। लोग कहते हैं कि अनुभव से हम सीखते हैं; दिखाई नहीं पड़ता। कोई अनुभव से सीखता हुआ दिखाई नहीं पड़ता। फिर-फिर तुम वही भूलें करते हो। नयी भी करो, तो भी कुछ कुशलता है। नयी भी करो, तो कुछ जीवन में गति हो, प्रौढ़ता आए। वही-वही भूलें बार-बार करते हो, पुनरुक्ति करते हो।
चित्त एक वर्तुल है। तुम उसी-उसी में घूमते रहते हो चाक की तरह। और वह चाक चलता है तुम्हारे मोह से। मोह को तोड़ो, चाक रुक जाएगा। चाक के रुकते ही तुम पाओगे तुम केंद्र हो। तुम्हें केंद्र बनने की जरूरत नहीं है, तुम हो। तुम्हें परमात्मा बनने की आवश्यकता नहीं है, तुम हो ही। इसलिए वह विद्या सहज है।
‘ऐसे जाग्रत योगी को, सारा जगत मेरी ही किरणों का स्फुरण है, ऐसा बोध होता है।’
और इस बोध का परम आनंद है। इस बोध में परम अमृत है। इस बोध के आते ही तुम्हारे जीवन से सारा अंधकार खो जाता है--सारा दुख, सारी चिंता। तुम एक हर्षोन्माद से भर जाते हो। एक मस्ती, एक गीत का जन्म होता है तुम्हारे जीवन में। तुम्हारी श्वास-श्वास पुलकित हो जाती है, सुगंधित हो जाती है--किसी अज्ञात के स्रोत से।
वह सहज विद्या है; कोई शास्त्र उसे सिखा नहीं सकता और कोई गुरु उसे सिखा नहीं सकता। लेकिन गुरु तुम्हें बाधाएं हटाने में सहयोगी हो सकता है।
इस बात को ठीक से खयाल में ले लेना। उस परम विद्या को सीखने का कोई उपाय नहीं, लेकिन उस परम विद्या के मार्ग में जो-जो बाधाएं हैं, उनको दूर करने का उपाय सीखना पड़ता है। ध्यान से वह परम संपदा नहीं मिलेगी; ध्यान से केवल दरवाजे की चाबी मिलेगी। ध्यान से केवल दरवाजा खुलेगा। वह परम संपदा तुम्हारे भीतर है। तुम ही हो वह! तत्वमसि! वह ब्रह्म तुम ही हो।
सब उपाय बाधाएं हटाने के लिए हैं--मार्ग के पत्थर हट जाएं। मंजिल--मंजिल तुम अपने साथ लिए चल रहे हो। सहज है ब्रह्म; कठिनाई है तुम्हारे मोह के कारण। कठिनाई यह नहीं है कि ब्रह्म को मिलने में देर है; कठिनाई यह है कि संसार को तुमने इतने जोर से पकड़ा है कि जितनी देर तुम छोड़ने में लगा दोगे, उतनी ही देर उसके मिलने में हो जाएगी। इस क्षण छोड़ सकते हो--इसी क्षण उपलब्धि है। रुकना चाहो--जन्मों-जन्मों से तुम रुके हो, और भी जन्म-जन्म रुक सकते हो।
वैसे काफी हो गया, जरूरत से ज्यादा रुक लिए। अब और रुकना जरा भी अर्थपूर्ण नहीं है। समय पक गया है; और संसार के वृक्ष से तुम्हें गिर जाना चाहिए। और डरो मत कि वृक्ष से गिरेंगे तो खो जाएंगे। खो जाओगे, लेकिन तुम्हारा जो व्यर्थ है वही खोएगा; जो सार्थक है, वह अनंत गुना होकर उपलब्ध हो जाता है।
आज इतना ही।