SHIV
Shiv Sutra 01
First Discourse from the series of 10 discourses - Shiv Sutra by Osho. These discourses were given during SEP 11-20 1974, Pune.
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ॐ नमः श्रीशंभवे स्वात्मानन्दप्रकाशवपुषे।
अथ
शिव-सूत्रः
चैतन्यमात्मा।
ज्ञानं बंधः।
योनिवर्गः कलाशरीरम्।
उद्यमो भैरवः।
शक्तिचक्रसंधाने विश्वसंहारः।
ॐ स्वप्रकाश आनंद-स्वरूप भगवान शिव को नमन।
(अब) शिव-सूत्र (प्रारंभ)
चैतन्य आत्मा है।
ज्ञान बंध है।
योनिवर्ग और कला शरीर है।
उद्यम ही भैरव है।
शक्तिचक्र के संधान से विश्व का संहार हो जाता है।
जीवन-सत्य की खोज दो मार्गों से हो सकती है।
एक पुरुष का मार्ग है--आक्रमण का, हिंसा का, छीन-झपट का। एक स्त्री का मार्ग है--समर्पण का, प्रतिक्रमण का।
विज्ञान पुरुष का मार्ग है; विज्ञान आक्रमण है। धर्म स्त्री का मार्ग है; धर्म नमन है।
इसे बहुत ठीक से समझ लें।
इसलिए पूरब के सभी शास्त्र परमात्मा को नमस्कार से शुरू होते हैं। और वह नमस्कार केवल औपचारिक नहीं है। वह केवल एक परंपरा और रीति नहीं है। वह नमस्कार इंगित है कि मार्ग समर्पण का है, और जो विनम्र हैं, केवल वे ही उपलब्ध हो सकेंगे। और जो आक्रामक हैं, अहंकार से भरे हैं; जो सत्य को भी छीन-झपट करके पाना चाहते हैं; जो सत्य के भी मालिक होने की आकांक्षा रखते हैं; जो परमात्मा के द्वार पर एक सैनिक की भांति पहुंचे हैं--विजय करने, वे हार जाएंगे। वे क्षुद्र को भला छीन-झपट लें, विराट उनका न हो सकेगा। वे व्यर्थ को भला लूट कर घर ले आएं; लेकिन जो सार्थक है, वह उनकी लूट का हिस्सा न बनेगा।
इसलिए विज्ञान व्यर्थ को खोज लेता है; सार्थक चूक जाता है। मिट्टी, पत्थर, पदार्थ के संबंध में जानकारी मिल जाती है, लेकिन आत्मा और परमात्मा की जानकारी छूट जाती है। ऐसे ही जैसे तुम राह चलती एक स्त्री पर हमला कर दो, बलात्कार हो जाएगा, स्त्री का शरीर भी तुम कब्जा कर लोगे, लेकिन उसकी आत्मा तुम्हें न मिल सकेगी। उसका प्रेम तुम न पा सकोगे।
तो जो लोग आक्रमण की तरह जाते हैं परमात्मा की तरफ, वे बलात्कारी हैं। वे परमात्मा के शरीर पर भला कब्जा कर लें--इस प्रकृति पर जो दिखाई पड़ती है, जो दृश्य है--उसकी चीर-फाड़ कर लें, विश्लेषण कर लें, उसके कुछ राज खोज लें, लेकिन उनकी खोज वैसी ही क्षुद्र होगी, जैसे किसी पुरुष ने किसी स्त्री पर हमला किया हो और बलात्कार किया हो। स्त्री का शरीर तो उपलब्ध हो जाएगा, लेकिन उपलब्धि दो कौड़ी की है; क्योंकि उसकी आत्मा को तुम छू भी न पाओगे। और अगर उसकी आत्मा को न छुआ, तो उसके भीतर जो प्रेम की संभावना थी--वह जो छिपा था बीज प्रेम का--वह कभी अंकुरित न होगा। उसकी प्रेम की वर्षा तुम्हें न मिल सकेगी।
विज्ञान बलात्कार है। वह प्रकृति पर हमला है; जैसे कि प्रकृति कोई शत्रु हो; जैसे कि उसे जीतना है, पराजित करना है। इसलिए विज्ञान तोड़-फोड़ में भरोसा करता है--विश्लेषण तोड़-फोड़ है; काट-पीट में भरोसा करता है। अगर वैज्ञानिक से पूछो कि फूल सुंदर है, तो तोड़ेगा फूल को, काटेगा, जांच-पड़ताल करेगा। लेकिन उसे पता नहीं, तोड़ने में ही सौंदर्य खो जाता है। सौंदर्य तो पूरे में था। खंड-खंड में सौंदर्य न मिलेगा। हां, रासायनिक तत्व मिल जाएंगे। किन चीजों से फूल बना है, किन पदार्थों से बना है, किन खनिज और द्रव्यों से बना है--वह सब मिल जाएगा। तुम बोतलों में अलग-अलग फूल के खंडों को इकट्ठा करके लेबल लगा दोगे। तुम कहोगे--ये केमिकल्स हैं, ये पदार्थ हैं; इनसे मिल कर फूल बना था।
लेकिन तुम एक भी ऐसी बोतल न भर पाओगे, जिसमें तुम कह सको: यह सौंदर्य है, जो फूल में भरा था। सौंदर्य तिरोहित हो जाएगा। अगर तुमने फूल पर आक्रमण किया तो फूल की आत्मा तुम्हें न मिलेगी, शरीर ही मिलेगा। विज्ञान इसीलिए आत्मा में भरोसा नहीं करता। भरोसा करे भी कैसे? इतनी चेष्टा के बाद भी आत्मा की कोई झलक नहीं मिलती। झलक मिलेगी ही नहीं। इसलिए नहीं कि आत्मा नहीं है; बल्कि तुमने जो ढंग चुना है, वह आत्मा को पाने का ढंग नहीं। तुम जिस द्वार से प्रवेश किए हो, वह क्षुद्र को पाने का द्वार है। आक्रमण से, जो बहुमूल्य है, वह नहीं मिल सकता।
जीवन का रहस्य तुम्हें मिल सकेगा, अगर नमन के द्वार से तुम गए। अगर तुम झुके, तुमने प्रार्थना की, तो तुम प्रेम के केंद्र तक पहुंच पाओगे।
परमात्मा को रिझाना करीब-करीब एक स्त्री को रिझाने जैसा है। उसके पास अति प्रेमपूर्ण, अति विनम्र, प्रार्थना से भरा हृदय चाहिए। और जल्दी वहां नहीं है। तुमने जल्दी की, कि तुम चूके। वहां बड़ा धैर्य चाहिए। तुम्हारी जल्दी, और उसका हृदय बंद हो जाएगा। क्योंकि जल्दी भी आक्रमण की खबर है।
इसलिए जो परमात्मा को खोजने चलते हैं, उनके जीवन का ढंग दो शब्दों में समाया हुआ है: प्रार्थना और प्रतीक्षा। प्रार्थना से शास्त्र शुरू होते हैं और प्रतीक्षा पर पूरे होते हैं। प्रार्थना से खोज इसलिए शुरू होती है।
इस शास्त्र का पहला चरण है:
‘ॐ स्वप्रकाश आनंद-स्वरूप भगवान शिव को नमन!’
‘और अब शिव-सूत्र प्रारंभ।’
इस नमन को बहुत गहरे उतर जाने दें। क्योंकि अगर द्वार ही चूक गया, तो पीछे महल की जो मैं चर्चा करूंगा, वह समझ में न आएगी।
पुरुष को थोड़ा हटाएं। आक्रामक वृत्ति को थोड़ा दूर करें। यह समझ कुछ बुद्धि से आने वाली नहीं है; हृदय से आने वाली है। यह समझ कुछ तुम्हारे तर्क पर निर्भर न करेगी; यह तुम्हारे प्रेम पर निर्भर करेगी। इस शास्त्र को तुम समझ पाओगे; लेकिन वह समझ ऐसी न होगी जैसे कोई गणित को समझता है। वह समझ ऐसी होगी, जैसे कोई काव्य को समझता है। कविता पर तुम झपट नहीं पड़ते। तुम कविता का धीरे-धीरे स्वाद लेते हो, चुस्की लेते हो; जैसे कोई चाय को पीता है। तुम उसे गटक नहीं जाते। वह कोई कड़वी दवा नहीं है। तुम उसका स्वाद लेते हो, चुस्की लेते हो--धीरे-धीरे, उसके स्वाद को लीन होने देते हो। और एक ही कविता को समझना हो, तो बहुत बार पढ़ना पड़ता है। एक गणित को तुमने एक बार समझ लिया, फिर दुबारा करने की कोई जरूरत नहीं रह जाती; गणित समाप्त हो गया। कविता कभी भी समाप्त नहीं होती; क्योंकि हृदय का कोई ओर-छोर नहीं है। और तुम जितना ही प्रेम करते हो, उतना ही उदघाटित होता है। इसलिए पूरब में हम शास्त्र का अध्ययन नहीं करते; हम शास्त्र का पाठ करते हैं।
अध्ययन शास्त्र का हो भी नहीं सकता। अध्ययन का अर्थ है: एक बार समझ लिया, फिर कचरे में फेंक दिया, जैसे कि बात खतम हो गई। जब समझ ही लिया तो अब दुबारा क्या करना है! पाठ का अर्थ होता है: समझ बुद्धि की होती तो एक बार में पूरी हो जाती, इसकी तो चुस्कियां बार-बार लेनी पड़ेंगी। इसे तो जाने-अनजाने न मालूम कितनी बार दोहराना पड़ेगा। इसे बहुत से भाव-क्षणों में, बहुत सी मनोदशाओं में--कभी सुबह जब सूरज उगता है तब, कभी रात जब सब अंधकार हो जाता है तब, कभी मन जब प्रफुल्लित होता है तब, और कभी मन जब उदासी से भरा होता है तब--विभिन्न चित्त की दशाओं में, विभिन्न मनों-क्षणों में, इसमें उतरना होगा, तब इसके सभी पहलू धीरे-धीरे प्रकट होंगे। फिर भी तुम इसे चुकता न कर पाओगे।
कोई शास्त्र कभी चुकता नहीं। जितना ही तुम पाओगे कि खोज लिया, उतना ही तुम पाओगे खोज के लिए और भी ज्यादा बाकी रह गया। जितने तुम गहरे उतरोगे, पाओगे गहराई बढ़ती चली जाती है। शास्त्र को कभी पाठी चुका नहीं पाता। पाठ का मतलब ही यही है कि बार-बार, बहुत बार।
पश्चिम इस बात को समझ भी नहीं पाता। उनकी पकड़ के बाहर है कि लोग गीता को हजारों साल से क्यों पढ़ रहे हैं? और एक ही आदमी रोज सुबह उठ कर गीता पढ़ लेता है; पागल हो गया है?
उनको खयाल में नहीं है कि पाठ की प्रक्रिया हृदय में उतारने की प्रक्रिया है। उसका समझ से बहुत वास्ता नहीं है; स्वाद से वास्ता है। तर्क और गणित और हिसाब से उसका कोई भी संबंध नहीं है। उसका संबंध तो अपने हृदय को और उसके बीच की जो दूरी है, उसको मिटाने से है। धीरे-धीरे हम इतने लीन हो जाएं उसमें कि पाठी और पाठ एक हो जाए; पता ही न चले कि कौन गीता है और कौन गीता का पाठी।
ऐसे भाव से जो चले--यह स्त्री का भाव है। यह समर्पण की धारा है। इसे खयाल में ले लेना।
नमन से हम चलें तो शिव के सूत्र समझ में आ सकेंगे। उन्हें तुम अपने में उतरने देना, और जल्दी निर्णय की मत करना कि वे ठीक हैं कि गलत हैं। क्योंकि सूत्रों के संबंध में एक बात खयाल रख लेना--तुम्हारे ऊपर निर्भर नहीं है तय करना कि वे ठीक हैं या गलत हैं। तुम निर्णय कर भी कैसे पाओगे? जो अंधेरे में खड़ा है, वह प्रकाश के संबंध में क्या निर्णय करेगा! और जिसने कभी स्वास्थ्य नहीं जाना, जो रोग की शय्या से ही बंधा रहा है, उसे स्वास्थ्य की परिभाषा कैसे समझ में आएगी! जिसने कभी प्रेम की स्फुरणा नहीं पहचानी और जो जीवन भर घृणा, ईर्ष्या और द्वेष में जीया है, वह प्रेम की कविता तो पढ़ सकता है, क्योंकि शब्द उसकी समझ में आ जाएंगे; लेकिन शब्दों में जो छिपा है, अंतरगुंफित है, वह द्वार तो उसके लिए बंद ही रहेगा। इसलिए तुम निर्णय मत करना कि क्या ठीक, क्या गलत।
तुम सिर्फ पीना--समझना भी नहीं कहता हूं--तुम सिर्फ पीना, तुम सिर्फ स्वाद में उतरना। और अगर वह स्वाद तुम्हारे भीतर रहस्य के लोक खोलने लगे, और वह स्वाद अगर तुम्हारे भीतर नई सुगंध को जन्म दे दे, और तुम पाओ कि क्षण भर को भी सही, तुम्हारे दुर्गंध का व्यक्तित्व विलीन हो गया है, तुम्हारे भीतर कोई फूल खिला है और तुम सुगंधित हुए हो, क्षण भर को भी तुम पाओ कि तुम अंधकार नहीं हो, कोई दीया जल गया, एक झलक मिली; जैसे अंधेरे में बिजली कौंध गई हो, उसी से--उसी से समझ आएगी। तुम्हारे समझने से नहीं, तुम्हारे अनुभव की झलक से समझ आएगी। इसलिए तुम विनम्र रहना।
दूसरी बात, सूत्र का अर्थ होता है: संक्षिप्त से संक्षिप्त, सारभूत, टेलीग्राफिक। वहां एक-एक शब्द अत्यंत घना है; विस्तार नहीं होता सूत्र में, घनत्व होता है। लंबा नहीं होता सूत्र, बड़ा छोटा होता है; जैसे छोटा सा बीज होता है। उसमें सारा वृक्ष समाया होता है।
जैसे बीज है, ऐसा सूत्र है। बीज में तुम वृक्ष को देख भी नहीं सकते। देखना भी चाहोगे तो बीज में तुम वृक्ष को पाओगे नहीं, क्योंकि उसके लिए बड़ी गहरी आंखें चाहिए--जो बीज में वृक्ष को देख लें, जो वर्तमान में भविष्य को देख लें, जो आज कल को देख लें, जो दृश्य से अदृश्य को खोज लें--बड़ी पैनी आंखें चाहिए। वैसी पैनी आंखें तुम्हारे पास अभी नहीं हैं। अभी तो तुम्हें बीज बीज ही दिखाई पड़ेगा। वृक्ष को देखना हो तो बीज को तुम्हें बोना पड़ेगा, और कोई रास्ता तुम्हारे पास देखने का नहीं है। और जब बीज टूटेगा जमीन में और वृक्ष अंकुरित होगा, तभी तुम पहचान पाओगे।
ये सूत्र बीज हैं। इन्हें तुम्हें अपने हृदय में बोना होगा। तुम अभी निर्णय मत करना। क्योंकि अभी तुमने अगर बीज पर निर्णय लिया तो तुम इसे फेंक ही दोगे; कचरा कूड़ा मालूम पड़ेगा।
बीज में, कंकड़-पत्थर में कोई ज्यादा फर्क नहीं है। कभी-कभी तो कंकड़-पत्थर ज्यादा चमकीले, रंगीन, खूबसूरत, कीमती होते हैं। लेकिन बीज और कीमती से कीमती कोहिनूर में भी एक फर्क है कि तुम कोहिनूर को बो दो, तो उसमें से कुछ पैदा न होगा। वह कीमती कितना ही हो, मुर्दा है। उसका मूल्य नासमझ कितना ही समझते हों, लेकिन जीवन उसमें नहीं है। वह लाश है। और बीज कुरूप भी दिखाई पड़ता हो, कोई उसकी कीमत भी न हो, लेकिन उसमें जीवन छिपा है। तुम उसे बो दो, उससे विराट वृक्ष पैदा होगा, और एक बीज से करोड़ों बीज लग जाएंगे। एक छोटा सा बीज इस सारे विश्व को पैदा कर सकता है; क्योंकि एक बीज से करोड़ों बीज पैदा होते हैं। फिर करोड़ों बीज से, हर बीज से करोड़ बीज पैदा होते हैं। एक छोटे बीज में सारे विश्व का ब्रह्मांड समा सकता है।
सूत्र बीज है। उसके साथ जल्दी नहीं की जा सकती। उसको बोओगे हृदय में और अंकुरित होगा, फूल लगेंगे--तभी तुम जान पाओगे; तभी निर्णय लिया जा सकता है।
तीसरी बात--इसके पहले कि हम शुरू करें--धर्म महान क्रांति है। धर्म के नाम से तुमने जो समझा हुआ है, उसका धर्म से न के बराबर संबंध है। इसलिए शिव के सूत्र तुम्हें चौंकाएंगे भी। तुम भयभीत भी होओगे, डरोगे भी; क्योंकि तुम्हारा धर्म डगमगाएगा। तुम्हारा मंदिर, तुम्हारी मस्जिद, तुम्हारे गिरजे--अगर ये सूत्र तुमने समझे तो--गिर जाएंगे! तुम उन्हें बचाने की कोशिश में मत लगना; क्योंकि वे बचे भी रहें, तो भी उनसे तुम्हें कुछ भी मिला नहीं है। तुम उनमें जी ही रहे हो, और तुम मुर्दा हो। मंदिर काफी सजे हैं, लेकिन तुम्हारे जीवन में कोई भी खुशी की किरण नहीं। मंदिर में काफी रोशनी है; उससे तुम्हारे जीवन का अंधकार नहीं मिटता। तो उससे भयभीत मत होना; क्योंकि सूत्र तुम्हें कठिनाई में तो डालेंगे ही। क्योंकि शिव कोई पुरोहित नहीं हैं। पुरोहित की भाषा तुम्हें हमेशा संतोषदायी मालूम पड़ती है; क्योंकि पुरोहित को तुम्हारा शोषण करना है। पुरोहित तुम्हें बदलने को उत्सुक नहीं है। तुम जैसे हो ऐसे ही रहो, इसी में उसका लाभ है। तुम जैसे हो--रुग्ण, बीमार--ऐसे ही रहो, इसी में उसका व्यवसाय है।
मैंने सुना है, एक डाक्टर ने अपने लड़के को पढ़ाया। पढ़-लिख कर घर आया। पिता ने कभी छुट्टी भी न ली थी। तो उसने कहा कि अब तू मेरे कारबार को सम्हाल और मैं एक तीन महीने विश्राम कर लूं। जीवन भर सिर्फ मैंने कमाया है और कभी विश्राम नहीं लिया। वह विश्व की यात्रा पर निकल गया। तीन महीने बाद लौटा, तो उसने अपने लड़के से पूछा कि सब ठीक चल रहा है? उसके लड़के ने कहा कि बिलकुल ठीक चल रहा है। आप हैरान होंगे कि जिन मरीजों को आप जीवन भर में ठीक न कर पाए, उनको मैंने तीन महीने में ठीक कर दिया। पिता ने सिर ठोंक लिया। उसने कहा, मूढ़! वही हमारा व्यवसाय थे। क्या मैं उनको ठीक नहीं कर सकता था? तेरी पढ़ाई कहां से आती थी? उन्हीं पर आधार था। और भी बच्चे पढ़-लिख लेते। तूने सब खराब कर दिया।
पुरोहित, तुम जैसे हो--रुग्ण, बीमार--तुम्हें वैसा ही चाहता है। उस पर ही उसका व्यवसाय है। शिव कोई पुरोहित नहीं हैं। शिव तीर्थंकर हैं। शिव अवतार हैं। शिव क्रांतिद्रष्टा हैं, पैगंबर हैं। वे जो भी कहेंगे, वह आग है। अगर तुम जलने को तैयार हो, तो ही उनके पास आना; अगर तुम मिटने को तैयार हो, तो ही उनके निमंत्रण को स्वीकार करना। क्योंकि तुम मिटोगे तो ही नये का जन्म होगा। तुम्हारी राख पर ही नये जीवन की शुरुआत है। इन बातों को खयाल में रख कर एक-एक सूत्र को समझने की कोशिश करें।
पहला सूत्र है: ‘चैतन्यमात्मा। चैतन्य आत्मा है।’
चैतन्य हम सभी हैं, लेकिन आत्मा का हमें कोई पता नहीं चलता। अगर चैतन्य ही आत्मा है तो हम सभी को पता चल जाना चाहिए। हम सब चैतन्य हैं। लेकिन चैतन्य आत्मा है, इसका क्या अर्थ होगा?
पहला अर्थ: इस जगत में, सिर्फ चैतन्य ही तुम्हारा अपना है। आत्मा का अर्थ होता है, अपना; शेष सब पराया है। शेष कितना ही अपना लगे, पराया है। मित्र हों, प्रियजन हों, परिवार के लोग हों, धन हो, यश, पद-प्रतिष्ठा हो, बड़ा साम्राज्य हो--वह सब जिसे तुम कहते हो मेरा--वहां धोखा है। क्योंकि वह सभी मृत्यु तुमसे छीन लेगी। मृत्यु कसौटी है--कौन अपना है, कौन पराया है। मृत्यु जिससे तुम्हें अलग कर दे, वह पराया था। और मृत्यु तुम्हें जिससे अलग न कर पाए, वह अपना था।
आत्मा का अर्थ है, जो अपना है। लेकिन जैसे ही हम सोचते हैं अपना, वैसे ही दूसरा प्रवेश कर जाता है। अपने का मतलब ही होता है: कोई दूसरा, जो अपना है। तुम्हें यह खयाल ही नहीं आता कि तुम्हारे अतिरिक्त, तुम्हारा अपना कोई भी नहीं है; हो भी नहीं सकता। और जितनी देर तुम भटके रहोगे इस धारा में कि कोई दूसरा अपना है, उतने दिन व्यर्थ गए, उतना जीवन अकारण बीता, उतना समय तुमने सपने देखे। उतने समय में तुम जाग सकते थे, मोक्ष तुम्हारा होता; तुमने कचरा इकट्ठा किया।
सिर्फ तुम ही तुम्हारे हो। यह पहला सूत्र, मेरे अतिरिक्त मेरा कोई भी नहीं है।
यह बड़ा क्रांतिकारी सूत्र है, बड़ा समाज-विरोधी। क्योंकि समाज जीता इसी आधार पर है कि दूसरे अपने हैं; जाति के लोग अपने हैं; देश के लोग अपने हैं; मेरा देश, मेरी जाति, मेरा धर्म, मेरा परिवार; मेरे का सारा खेल है। समाज जीता है ‘मेरे’ की धारणा पर। इसलिए धर्म समाज-विरोधी तत्व है। धर्म समाज से छुटकारा है, दूसरे से छुटकारा है। और धर्म कहता है कि तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हारा और कोई भी नहीं।
ऊपर से देखने पर बड़ा स्वार्थी वचन मालूम पड़ेगा। क्योंकि यह तो यह बात हुई कि बस हम ही अपने हैं, तो तत्क्षण हमें लगता है यह तो स्वार्थ की बात है!
यह स्वार्थ की बात नहीं है। अगर यह तुम्हें खयाल में आ जाए, तो ही तुम्हारे जीवन में परार्थ और परमार्थ पैदा होगा। क्योंकि जो अभी आत्मा के भाव से ही नहीं भरा है, उसके जीवन में कोई परार्थ और कोई परमार्थ नहीं हो सकता। तुम कहते हो दूसरों को मेरा। लेकिन ‘मेरा’ कह कर तुम करते क्या हो? ‘मेरा’ कह कर तुम उन्हें चूसते हो। ‘मेरा’ तुम्हारा शोषण का हिस्सा है, फैलाव है। जिसको भी तुम ‘मेरा’ कहते हो, तुम उसे गुलाम बनाते हो। तुम उसे अपने परिग्रह में परिवर्तित कर देते हो। मेरी पत्नी, मेरा पति, मेरा बेटा, मेरा पिता--तुम करते क्या हो? इस मेरे के पीछे--इस ‘मेरे’ के परदे के पीछे--तुम्हारे संबंध का मूल आधार क्या है? तुम चूसते हो, तुम शोषण करते हो, तुम दूसरे का उपयोग करते हो। इस दूसरे के उपयोग को तुम सोचते हो परार्थ, तो तुम भ्रांति में हो।
एक सम्राट बूढ़ा हुआ। उसके तीन बेटे थे और वह बड़ी चिंता में था किसको राज्य दे! तीनों ही योग्य और कुशल थे, तीनों ही समान गुणधर्मा थे। इसलिए बड़ी कठिनाई हुई। उसने एक दिन तीनों बेटों को बुलाया और कहा कि पिछले पूरे वर्ष में तुमने जो भी कृत्य महानतम किया हो--एक कृत्य जो पूरे वर्ष में महानतम हो--वह तुम मुझे कहो।
बड़े बेटे ने कहा कि गांव का जो सबसे बड़ा धनपति है, वह तीर्थयात्रा पर जा रहा था; उसने करोड़ों रुपये के हीरे-जवाहरात बिना गिने, बिना किसी हिसाब-किताब के, बिना किसी दस्तखत लिए मेरे पास रख दिए, और कहा कि जब मैं लौट आऊंगा तीर्थयात्रा से, मुझे वापस लौटा देना। चाहता मैं तो पूरे भी पा जा सकता था; क्योंकि न कोई लिखा-पढ़ी थी, न कोई गवाह था। इतना भी मैं करता तो थोड़े-बहुत बहुमूल्य हीरे मैं बचा लेता तो कोई कठिनाई न थी। क्योंकि उस आदमी ने न तो गिने थे, और न कोई संख्या रखी थी। लेकिन मैंने सब जैसी की जैसी थैली वापस लौटा दी।
पिता ने कहा, तुमने भला किया। लेकिन मैं तुमसे पूछता हूं कि अगर तुमने कुछ रख लिए होते, तो तुम्हें पश्चात्ताप, ग्लानि, अपराध का भाव पकड़ता या नहीं? उस बेटे ने कहा, निश्चित पकड़ता। तो बाप ने कहा, इसमें परोपकार कुछ भी न हुआ। तुम सिर्फ अपने पश्चात्ताप, अपनी पीड़ा से बचने के लिए यह किए हो। इसमें परोपकार क्या हुआ? हीरे बचाते तो ग्लानि मन को पीड़ा देती, कांटे की तरह चुभती। उस कांटे से बचने के लिए तुमने हीरे वापस दिए हैं। काम तुमने अच्छा किया, ठीक है; लेकिन परोपकार कुछ भी न हुआ। उपकार तुमने अपना ही किया है।
दूसरा बेटा थोड़ी चिंता में पड़ा। और उसने कहा कि मैं राह के किनारे से गुजरता था, और झील में सांझ के वक्त, जब कि वहां कोई भी न था, एक आदमी डूबने लगा। चाहता तो मैं अपने रास्ते चला जाता, सुना अनसुना कर देता। लेकिन मैंने तत्क्षण छलांग मारी, अपने जीवन को खतरे में डाला और उस आदमी को बाहर निकाला।
बाप ने कहा, तुमने ठीक किया। लेकिन अगर तुम चले जाते और न निकालते तो क्या उस आदमी की मृत्यु सदा तुम्हारा पीछा न करती? तुम अनसुनी कर देते ऊपर से, लेकिन भीतर तो तुम सुन चुके थे उसकी चीत्कार, आवाज--कि बचाओ! क्या सदा-सदा के लिए उसका प्रेत तुम्हारा पीछा न करता? उसी भय से तुमने छलांग लगाई, अपनी जान को खतरे में डाला। लेकिन परोपकार तुमने कुछ किया हो, इस भ्रांति में पड़ने का कोई कारण नहीं है।
तीसरे बेटे ने कहा कि मैं गुजरता था जंगल से। और एक पहाड़ की कगार पर मैंने एक आदमी को सोया हुआ देखा, जो कि नींद में अगर एक भी करवट ले, तो सदा के लिए समाप्त हो जाएगा; क्योंकि दूसरी तरफ महान खड्ड था। मैं उस आदमी के पास पहुंचा और जब मैंने देखा कि वह कौन है, तो वह मेरा जानी दुश्मन था। मैं चुपचाप अपने रास्ते पर जा सकता था। या, अगर मैं अपने घोड़े पर सवार उसके पास से भी गुजरता, तो मेरे बिना कुछ किए, शायद सिर्फ मेरे गुजरने के कारण, वह करवट लेता और खड्ड में गिर जाता। लेकिन मैं आहिस्ते से जमीन पर सरकता हुआ उसके पास पहुंचा कि कहीं मेरी आहट में वह गिर न जाए। और यह भी मैं जानता था कि वह आदमी बुरा है; मेरे बचाने पर भी वह मुझे गालियां ही देगा। उसे मैंने हिलाया, आहिस्ते से जगाया। और वह आदमी गांव में मेरे खिलाफ बोलता फिर रहा है। क्योंकि वह आदमी कहता है, मैं मरने ही वहां गया था। इस आदमी ने वहां भी मेरा पीछा किया। यह जीने तो देता ही नहीं, इसने मरने भी न दिया।
पिता ने कहा, तुम दो से बेहतर हो; लेकिन परोपकार यह भी नहीं है। क्यों? क्योंकि तुम अहंकार से फूले नहीं समा रहे हो कि तुमने कुछ बड़ा कार्य कर दिया। बोलते हो तो तुम्हारी आंखों की चमक और हो जाती है। कहते हो तो तुम्हारा सीना फूल जाता है। और जिस कृत्य से अहंकार निर्मित होता हो, वह परोपकार न रहा। बड़े सूक्ष्म मार्ग से तुमने अपने अहंकार को उससे भर लिया। तुम सोच रहे हो, तुम बड़े धार्मिक और परोपकारी हो। तुम इन दो से बेहतर हो। लेकिन मुझे राज्य के मालिक के लिए किसी चौथे की ही तलाश करनी पड़ेगी।
जब तुम परोपकार करते हो, तब तुम कर नहीं सकते; क्योंकि जिसे अपना ही पता नहीं है, वह परोपकार करेगा कैसे? तुम चाहे सोचते होओ कि तुम कर रहे हो--गरीब की सेवा, अस्पताल में बीमार के पैर दबा रहे हो--लेकिन अगर तुम गौर से खोजोगे तो तुम कहीं न कहीं अपने अहंकार को ही भरता हुआ पाओगे। और अगर तुम्हारा अहंकार ही सेवा से भरता है, तो सेवा भी शोषण है। आत्मज्ञान के पहले कोई व्यक्ति परोपकारी नहीं हो सकता; क्योंकि स्वयं को जाने बिना इतनी बड़ी क्रांति हो ही नहीं सकती।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी उससे झगड़ रही थी और कह रही थी कि यह मामला क्या है, एक दफा साफ हो जाना चाहिए। तुम मेरे सभी रिश्तेदारों को नफरत और घृणा क्यों करते हो?
नसरुद्दीन ने कहा, यह बात गलत है; यह बात तथ्यगत भी नहीं है। और इसका प्रमाण है मेरे पास। और प्रमाण यह है कि मैं तुम्हारी सास को अपनी सास से ज्यादा चाहता हूं।
अहंकार ऐसे रास्ते खोजता है। ऊपर से दिखता है कि तुम परोपकार कर रहे हो; लेकिन भीतर तुम ही खड़े होते हो। और जितनी सूक्ष्म हो जाती है यात्रा, उतनी ही पकड़ के बाहर हो जाती है। दूसरे तो पकड़ ही नहीं पाते; तुम भी नहीं पकड़ पाते हो। दूसरे तो धोखे में पड़ते ही हैं; तुम भी अपने दिए धोखे में घूम जाते हो, भटक जाते हो। हम सभी ने अपनी-अपनी भूलभुलैयां बना ली है। उसमें हमने दूसरों को धोखा देने के लिए ही शुरू किया था सारा उपाय, आयोजन; यह हमने कभी सोचा न था कि अपनी बनाई भूलभुलैयां में हम खुद ही खो जाएंगे। लेकिन हम खो गए हैं।
पहली बात स्मरण रखो: तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हारा कोई भी नहीं है। जैसे ही यह स्मरण सघन होता है कि चैतन्य ही आत्मा है, बस चैतन्य ही मैं हूं, और सब, और सब ‘पर’ है, पराया है, विजातीय है--वैसे ही तुम्हारे जीवन में क्रांति की पहली किरण प्रविष्ट हो जाती है; वैसे ही तुम्हारे और समाज के बीच एक दरार पड़ जाती है; वैसे ही तुम्हारे और तुम्हारे संबंधों के बीच एक दरार पड़ जाती है।
लेकिन आदमी अपनी तरफ देखना नहीं चाहता। देखना कठिन भी है; क्योंकि देखने के पहले जिस प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है, वह बहुत संघातक है।
एक मारवाड़ी व्यापारी एक फिल्म अभिनेत्री के प्रेम में पड़ गया। वैसे बात अनहोनी थी--मारवाड़ी और व्यापारी! प्रेम से सदा दूर ही रहता है। लेकिन अनहोनी भी घटती है। प्रेम में तो पड़ गया; लेकिन व्यापारी का संदेह भरा चित्त! तो उसने एक जासूस नियुक्त कर दिया अभिनेत्री के पीछे कि तू पता लगा, इसका चरित्र तो ठीक है न। इसके पहले कि मैं प्रस्ताव करूं विवाह का, सब बात पक्की कागज पर साफ हो जानी चाहिए।
जासूस ने बड़ी खोजबीन की। सात दिन बाद उसने रिपोर्ट भी भेज दी। रिपोर्ट आई कि इस स्त्री का चरित्र एकदम निर्दोष, निष्कलुष है। ऐसी कोई बात कभी इसके संबंध में नहीं सुनी गई, नहीं जानी गई, जिससे संदेह पैदा हो; सिर्फ एक बात को छोड़ कर--पिछले कुछ दिनों से एक संदिग्ध मारवाड़ी के साथ यह देखी जाती है। वह संदिग्ध मारवाड़ी वे स्वयं थे!
आंख दूसरे को देखती है। हाथ दूसरे को छूते हैं। मन दूसरे की सोचता है। और तुम सदा अंधेरे में खड़े रह जाते हो। तुम्हारी हालत वही है जो दीया तले अंधेरे की होती है। दीये की रोशनी सब पर पड़ती है, सिर्फ तुम्हें छोड़ देती है। इसलिए तुम भटकते हो उस रोशनी में सब तरफ, सब दिशाओं में यात्रा करते हो, और एक अपरिचित रह जाता है--और वही तुम हो।
यह पहला सूत्र है: ‘चैतन्य आत्मा है।’
इस सूत्र को गहरे बीज की तरह अपने हृदय में उतर जाने दो। व्यर्थ है सारे जगत की यात्रा, अगर तुम अपने से अपरिचित रह गए। अगर स्वयं को न जान पाए, और सब भी जान लिया, तो वह सारा ज्ञान भी इकट्ठे जोड़ में अज्ञान सिद्ध होगा। अगर अपने को न देख पाए, और सारा जगत देख डाला, चांद-तारे छान डाले, तो भी तुम अंधे ही रहोगे। क्योंकि आंख तो उसी को मिलती है, जो स्वयं को देख लेता है। ज्ञान तो उसी को मिलता है, जो स्वयं से परिचित हो जाता है। जो चैतन्य के स्वप्रकाश में नहा लेता है, वही पवित्र है। और कोई तीर्थ नहीं है; चैतन्य तीर्थ है।
और चैतन्य तुम्हारा स्वभाव है। उससे तुम क्षण भर को भी पार नहीं गए हो। लेकिन दीया तले अंधेरा है। तुम उससे दूर जा भी नहीं सकते, चाहो तो भी। लेकिन भ्रम पैदा हो सकता है कि तुम बहुत दूर चले गए हो। तुम सपना देख सकते हो संसार में। लेकिन सपना सत्य नहीं हो सकता। सत्य तो सिर्फ एक बात है, वह है तुम्हारा चैतन्य स्वभाव।
‘चैतन्य आत्मा है।’
तो पहली तो बात कि मेरा सिवाय चैतन्य के और कोई भी नहीं। यह भाव तुममें सघन हो जाए, तो संन्यास का जन्म हुआ। क्योंकि मेरे अतिरिक्त भी मेरा कोई हो सकता है, यही भाव संसार है। इसलिए पहले सूत्र में बड़ी क्रांति है। पहली चिनगारी शिव फेंकते हैं तुम्हारी तरफ, और वह यह है कि तुम जान लो कि तुम ही बस तुम्हारे हो, बाकी कोई तुम्हारा नहीं।
इससे बड़ा विषाद मन को पकड़ेगा; क्योंकि तुमने दूसरों के साथ बड़े संबंध बना रखे हैं, बड़े सपने संजो रखे हैं। दूसरों के साथ तुम्हारी बड़ी आशाएं जुड़ी हैं। मां देख रही है कि बेटा बड़ा होगा; बड़ी आशाएं जुड़ी हैं! बाप देख रहा है कि बेटा बड़ा होगा; बड़ी आशाएं जुड़ी हैं! और इन सारी आशाओं में तुम अपने को खो रहे हो। यही तुम्हारे पिता भी इन्हीं आशाओं को कर-कर के समाप्त हुए तुम्हारे लिए। तुमसे क्या उन्हें मिला? यही आशाएं कर-कर के तुम समाप्त हो जाओगे; तुम्हारे बेटे से तुम्हें कुछ मिलेगा नहीं। और तुम्हारा बेटा भी यही मूढ़ता जारी रखेगा। वह अपने बेटों से आशाएं करेगा।
नहीं, अपनी तरफ देखो--न तो पीछे, न आगे। कोई भी तुम्हारा नहीं है। कोई बेटा तुम्हें नहीं भर सकेगा। कोई संबंध तुम्हारी आत्मा नहीं बन सकता। तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हारा कोई मित्र नहीं है। लेकिन तब बड़ा डर लगता है; क्योंकि लगता है कि तुम अकेले हो गए। और आदमी इतना भयभीत है कि गली से गुजरता है अकेले में, तो भी जोर से गीत गाने लगता है। अपनी ही आवाज सुन कर लगता है कि अकेला नहीं है। यह तुम अपनी ही आवाज सुन रहे हो। बाप जब बेटे में अपने सपने रचा रहा है, तो बेटे की कोई सहमति नहीं है। यह बाप खुद ही अकेले में सीटी बजा रहा है। इसलिए दुखी होगा कल; क्योंकि इसने जिंदगी भर सपने रचाए और यह सोचता है कि बेटा भी यही सपने देख रहा है। यह गलती में है। बेटा अपने सपने देखेगा। तुम अपने सपने देख रहे हो। तुम्हारे बाप ने अपने सपने देखे थे। ये कहीं मिलते नहीं।
हर बाप दुखी मरता है। क्या कारण होगा? क्योंकि जो-जो सपने वह बांधता है, वे सभी सपने बिखर जाते हैं। हर आदमी अपने सपने देखने को यहां है, तुम्हारे सपने देखने को नहीं। और तुम्हें अगर चाहिए कि एक आप्त स्थिति उपलब्ध हो जाए--एक तृप्ति मिले--तो तुम सपने किसी और के साथ मत बांधना; अन्यथा तुम भटकोगे।
संसार का इतना ही अर्थ है कि तुमने अपने सपनों की नाव दूसरों के साथ बांध रखी है। संन्यास का अर्थ है कि तुम जाग गए। और तुमने एक बात स्वीकार कर ली--कितनी ही कष्टकर हो, कितनी ही दुखपूर्ण मालूम पड़े प्रथम, और कितनी ही संघातक पीड़ा अनुभव हो--कि तुम अकेले हो। सब संग-साथ झूठा है। इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम भाग जाओ हिमालय। क्योंकि जो हिमालय की तरफ भाग रहा है, उसे अभी संग-साथ सार्थक है, झूठा नहीं हुआ। क्योंकि जो चीज झूठ हो गई, उससे भागने में भी कोई सार्थकता नहीं है। कोई भी सुबह जाग कर भागता तो नहीं कि सपना झूठा है, भागूं इस घर से। सपना झूठा हो गया, बात खत्म हो गई। उसमें भागना क्या है!
लेकिन एक आदमी है जो भाग रहा है पत्नी से, बच्चों से। इसका भागना बताता है: इसने सुन लिया होगा कि सपना झूठा है, लेकिन अभी इसे खुद पता नहीं चला। कल तक यह पत्नी की तरफ भागता था, अब पत्नी की तरफ पीठ करके भागता है; लेकिन दोनों ही अर्थों में पत्नी सार्थक थी।
एक जैन संत हुए, गणेशवर्णी। वर्षों पहले उन्होंने पत्नी त्याग दी। साधु पुरुष थे। कोई बीस वर्ष त्याग के बाद, काशी में थे, तब खबर आई कि पत्नी मर गई। उनके मुंह से जो वचन निकला, वह याद रख लेने जैसा है। उन्होंने कहा, चलो झंझट मिटी। उनके भक्तों ने इस वचन का अर्थ लिया कि बड़ी वीतरागता है। थोड़ा सोचो, तो साफ हो जाएगा कि वीतरागता बिलकुल नहीं है। क्योंकि जिस पत्नी को बीस साल पहले छोड़ दिया, उसकी झंझट अभी कायम थी? तो ही मिट सकती है। गणित बिलकुल सीधा और साफ है। यह पत्नी जो बीस साल पहले छोड़ दी, किसी न किसी तरह छाया की तरह पीछे चल रही होगी। यह मन में कहीं सवार होगी। इसका उपद्रव कायम था। बीस साल भी इसके उपद्रव को मिटा नहीं पाए थे, छोड़ने के बाद। यह मन सतत सोचता रहा होगा--पक्ष में, विपक्ष में। पत्नी के मरने पर यह वचन कि चलो झंझट मिटी, पत्नी के संबंध में कुछ भी नहीं बताते, सिर्फ पति के संबंध में बताते हैं--कि यह आदमी भाग तो गया छोड़ कर, लेकिन छोड़ न पाया।
और गणेशवर्णी साधु पुरुष थे। इसलिए थोड़ा सोच लेना--साधु पुरुष भी बड़ी भ्रांति में रह सकते हैं। उनके चरित्र में, आचरण में कोई भूल-चूक न थी। वे मर्यादा के पुरुष थे। ठीक-ठीक नियम से चलते थे। वहां कोई जरा भी दरार नहीं पा सकता, जरा त्रुटि नहीं पा सकता। सब आचरण ठीक था, साधुता पूरी थी। फिर भी भीतर कोई बात चूक गई। हिमालय पहुंच गए, झंझट साथ चली गई।
फिर दूसरी बात भी समझ लेने जैसी है। और वह यह कि अगर पत्नी के मरने पर पहला खयाल यह आया कि झंझट मिटी, तो कहीं जाने-अनजाने, अचेतन में, पत्नी की मृत्यु की आकांक्षा भी छिपी रही होगी। वह जरा गहरा। किसी तल पर पत्नी मिट जाए, न हो, समाप्त हो जाए। यह तो हिंसा हो गई।
लेकिन एक-एक वचन भी अकारण नहीं आता, आसमान से नहीं आता। एक-एक वचन भी भीतर से आता है। और ऐसे क्षणों में, जब कि पत्नी मर गई, इसकी खबर आई हो, तुम ठीक-ठीक अपने रोजमर्रा के व्यवसायी होश में नहीं होते हो। तब तुमसे जो बात निकलती है, वह ज्यादा सही होती है। घंटे भर बाद तुम्हें मौका मिल जाएगा, तुम खुद ही सोच-समझ कर लीप-पोत कर लोगे। तुम फिर जो कहोगे, वह बात झूठी हो जाएगी। लेकिन तत्क्षण उस क्षण में वर्णी चूक गए। वह जो बीस साल से उन्होंने चारों तरफ साधुता की व्यवस्था कर रखी थी, उस क्षण में भूल गए। जब वर्णी को ऐसा घट सकता है, तो तुम्हें तो सहज ही घट सकता है। भागने से कुछ भी न होगा। भाग कर कोई भी कभी भाग नहीं पाया।
लेकिन भक्त इसको न देख पाएंगे। उन्होंने तो वर्णी की कथा में इसको बड़े बहुमूल्य वचन की तरह संगृहीत किया है, यह सोच कर कि देखो आदमी कैसा वीतराग है!
तुम्हें पता भी नहीं हो सकता कि वीतरागता क्या है। तुम राग में जीते हो, तुम्हें विराग समझ में आता है। तुमसे जो विपरीत है, वह समझ में आता है। तुम जानते हो कि तुम पत्नी को छोड़ कर नहीं जा सकते, और यह आदमी छोड़ कर चला गया; यह आदमी तुमसे बड़ा है।
यह तुमसे विपरीत है, लेकिन तुमसे भिन्न नहीं। तुम पैर के बल खड़े हो, यह आदमी सिर के बल खड़ा है। लेकिन तुम्हारे मन में और इसके मन में रत्ती भर भी फर्क नहीं है। खोज कर देखो! तुम सभी सोचते हो कि पत्नी झंझट है। तुम एकाध ऐसा पति पा सकते हो, जो कहे पत्नी झंझट नहीं? पत्नी के सामने मत पूछना; एकांत में, अकेले में।
मुल्ला नसरुद्दीन ने मुझे कहा है कि मैं भी कभी सुखी था। लेकिन यह मुझे पता ही तब चला, जब मैंने विवाह कर लिया, और तब फिर बहुत देर हो चुकी थी। मैं भी कभी सुखी था, यह पता मुझे तब चला, जब मैंने विवाह कर लिया। लेकिन तब तक तो बहुत देर हो चुकी थी; सुख हाथ से जा चुका था।
पति को गहराई में पूछो, तो ऐसा पति खोजना कठिन है, जिसने कई बार पत्नी की हत्या करने का विचार न किया हो, सपने न देखे हों कि मार डाला पत्नी को। सुबह उठ कर वह भी कहेगा, कैसा बेहूदा सपना! लेकिन अचेतन आकांक्षा है। जिससे झंझट पैदा होती है, उसे मिटा देने का मन--सीधा तर्क है।
लेकिन झंझट दूसरे से कभी पैदा होती ही नहीं। पत्नी में अगर कोई उपद्रव होता, तो कौन तुम्हें रोकता था, तुम सब भाग गए होते हिमालय। उपद्रव पत्नी में नहीं है; क्योंकि तुम हिमालय जाकर फिर पत्नी खोज लोगे। उपद्रव तुम्हारे भीतर है। तुम अकेले नहीं रह सकते। तुम्हें कोई दूसरा चाहिए। अकेले में तुम डरते हो। कोई दूसरा, तब तुम निश्चिंत मालूम पड़ते हो। क्यों? दूसरे की मौजूदगी से आश्वासन मिलता है--दुख में, सुख में कोई साथी है। जीवन में, मृत्यु में कोई साथी है।
लेकिन अकेलापन स्वभाव है। और जिस व्यक्ति ने यह अनुभव कर लिया कि आत्मा ही बस मेरी है, उसने अपने अकेलेपन को अनुभव कर लिया। भागने की कोई भी जरूरत नहीं, नहीं तो झंझट पीछे चली जाएगी। तुम जहां हो, वहीं रहना; रत्ती भर भी बाहर कोई फर्क करने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन भीतर तुम अकेले हो जाना। भीतर तुम कैवल्य को अनुभव करना कि मैं अकेला हूं; कोई संगी-साथी नहीं। और यह तुम दोहराना मत, क्योंकि दोहराने की कोई जरूरत नहीं कि रोज सुबह बैठ कर तुम दोहराओ कि मैं अकेला हूं, कोई संगी-साथी नहीं। इससे कुछ भी न होगा। यह दोहराना तो सिर्फ यही बताएगा कि तुम्हें अभी खयाल नहीं हुआ। इसे समझना। यह तथ्य है कि तुम अकेले हो।
समझने में अड़चन है--वही तपश्चर्या है। तप का अर्थ नहीं है कि तुम धूप में खड़े हो जाओ। आदमी को छोड़ कर सभी पशु-पक्षी धूप में खड़े हैं। उनमें से कोई भी मोक्ष नहीं चला जा रहा है। और तप का अर्थ यह नहीं है कि तुम भूखे खड़े हो जाओ, अनशन कर लो, उपवास कर दो; क्योंकि आधी दुनिया वैसे ही भूखी मर रही है, कोई उपवास करके मोक्ष नहीं पहुंच जाता है। शरीर को गला दो, जला दो--उससे कुछ हल नहीं है। वह सिर्फ आत्म-हिंसा है और महानतम पाप है। और सिर्फ मूढ़ उस पाप में उतरते हैं। जिन्हें थोड़ा भी बोध है, वे ऐसी नासमझियां न करेंगे।
दूसरे को भूखा मारना अगर गलत है, तो खुद को भूखा मारना सही कैसे हो सकता है? दूसरे को सताना अगर हिंसा है, तो खुद को सताना अहिंसा कैसे हो सकती है? सताने में हिंसा है। किसको तुम सताते हो इससे क्या फर्क पड़ता है! जो हिम्मतवर हैं वे दूसरे को सताते हैं; जो कमजोर हैं वे खुद को सताते हैं। क्योंकि दूसरे को सताने में एक खतरा है, दूसरा बदला लेगा। खुद को सताने में वह खतरा भी नहीं है। कौन बदला लेगा? कमजोर अपने को सताते हैं।
तुमने कभी खयाल किया--अगर पुरुष नाराज हो जाए तो वह पत्नी को पीटता है, अगर पत्नी नाराज हो वह खुद को पीटती है। यह जो पत्नी है, यह साधुओं का प्रतीक है। कमजोर अपने को पीट लेता है। क्या करे? ताकतवर दूसरे को पीटता है; क्योंकि उसमें खतरा तो है ही कि दूसरा क्या करेगा, कौन जाने! कमजोर आत्म-हिंसक हो जाता है, और ताकतवर पर-हिंसक होता है। और धार्मिक वह है जो अहिंसक है--न वह दूसरे को सताता है, न खुद को सताता है। सताने की बात ही व्यर्थ है।
तपश्चर्या का अर्थ है कि तुमने यह सत्य स्वीकार कर लिया कि तुम अकेले हो, कोई उपाय नहीं है संगी-साथी का। तुम कितना ही चाहो--कितनी ही आंखें बंद करो, सपने देखो--तुम अकेले ही रहोगे। जन्मों-जन्मों से तुमने घर बसाए, परिवार बसाए, मिटाए; लेकिन तुम अकेले ही रहे हो, तुम्हारे अकेलेपन में रत्ती भर फर्क नहीं पड़ता। जिसने यह जान लिया--स्वीकार कर लिया--कि मैं अकेला हूं, उसके लिए इंगित है इस सूत्र में: चैतन्य आत्मा है। वही तुम्हारा, और कोई तुम्हारा नहीं।
और दूसरी बात इस सूत्र में है, वह है: चैतन्य।
आत्मा कोई सिद्धांत नहीं है कि तुम शास्त्र में पढ़ो और मान लो। आत्मा कोई, जैसे गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत है, ऐसा कोई सिद्धांत नहीं है। आत्मा एक अनुभव है, सिद्धांत नहीं। और अनुभव है चैतन्य की तीव्रता का। इसलिए तुम जितने चैतन्य होते जाओगे, उतना ही तुम्हें आत्मा का पता चलेगा। तुम जितने बेहोश होते चले जाओगे, उतना ही तुम्हें अपना पता नहीं चलेगा। और तुम करीब-करीब बेहोश हो।
जो आत्मा को जानना चाहता है, उसे किसी दर्शन-शास्त्र की जरूरत नहीं है, उसे चैतन्य को जगाने की प्रक्रिया चाहिए। उसे विधि चाहिए, जिससे वह ज्यादा चेतन हो जाए। जैसे कि आग को तुम उकसाते हो; राख जम जाती है, तुमउकसा देते हो--राख झड़ जाती है, अंगारे झलकने लगते हैं। ऐसी तुम्हें कोई प्रक्रिया चाहिए जिससे तुम्हारी राख झड़े और अंगारा चमके; क्योंकि उसी चमक में तुम पहचानोगे कि तुम चैतन्य हो। और जितने तुम चैतन्य हो, उतने ही तुम आत्मवान हो। जिस दिन तुम पाओगे कि मैं परम चैतन्य हूं, उस दिन तुम परमात्मा हो। तुम्हारी चेतना की मात्रा ही तुम्हारी आत्मा की मात्रा होगी।
लेकिन अभी तुम करीब-करीब बेहोश हो। अभी करीब-करीब तुम जैसे शराब पीए हो। अभी तुम चल रहे हो, उठ रहे हो, काम कर रहे हो; लेकिन जैसे नींद में। होश तुम्हें नहीं है।
कभी तुमने खयाल किया किताब पढ़ते वक्त, तुम पूरा पेज पढ़ जाते हो, तब तुम्हें खयाल आता है--अरे! मैं पूरा पेज पढ़ भी गया, और एक शब्द याद नहीं! तुमने कैसे पढ़ा होगा पूरा पेज? तुम पढ़ सकते हो सोए-सोए। मन कहीं और रहा होगा। तुम पढ़ गए, तब तुम्हें होश पता चला कि यह तो पूरा पेज व्यर्थ गया। तुम कई बार रास्ते से चलते हो, तुम पूरा रास्ता चल जाते हो, तब तुम्हें खयाल आता है कि तुम चल रहे हो। तुम काम करते हो, और तुम्हें पता नहीं चलता कि तुम कर रहे हो।
तुम बेहोशी में जी रहे हो; और चैतन्य आत्मा है। और तुम पूछते हो, क्या आत्मा है? तुम चाहते हो कोई प्रमाण दे। तुम चाहते हो कोई सिद्ध करे, कोई तर्क से तुम्हें समझा दे तो तुम भी मान लो। नहीं तो तुम नास्तिक हो जाओगे। नास्तिकता बेहोशी का सहज परिणाम है; आस्तिकता होश का फल है। जितना तुम्हारा होश बढ़ेगा, तो जरूरत नहीं है कि तुम मानो कि आत्मा है। क्योंकि कई नासमझ मान रहे हैं, उससे कुछ हल नहीं होता। इस मुल्क में तो सभी मानते हैं कि आत्मा है; लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है? तुम्हारे जीवन में कोई क्रांति इससे आती नहीं। शायद तुम इसीलिए मान लेते हो कि हजारों साल से दोहराया जा रहा है, सुनते-सुनते तुम्हारे कान पक गए हैं। सुनते-सुनते तुम भूल ही गए हो कि इस संबंध में सोचना भी है। सुनते-सुनते, पुनरुक्ति से आदमी सम्मोहित हो जाता है। एक ही बात बार-बार दोहराई चली जाए, तो तुम भूल जाते हो कि वह संदिग्ध है, संदेह किया जा सकता है, विचार किया जा सकता है।
और फिर आत्मा है--इससे तुम्हें बड़ा संतोष भी मिलता है। शरीर मरेगा, यह तुम्हें पता है; आत्मा नहीं मरेगी, इससे बड़ी हिम्मत बंधती है। और आत्मा कभी नहीं मरेगी--अग्नि उसे जलाएगी नहीं, शस्त्र उसे छेदेंगे नहीं, मृत्यु उसका कुछ बिगाड़ न सकेगी--इससे तुम्हें बड़ी सांत्वना मिलती है।
पर सांत्वना सत्य नहीं है। आत्मा को कोई न तो स्वीकार कर सकता है सिद्धांत की तरह, और न पुनरुक्ति की तरह कोई सम्मोहित हो सकता है; आत्मा को तो केवल वे ही लोग जान पाते हैं, जो चैतन्य को बढ़ाते हैं। इस तरह जीओ कि तुम पर राख इकट्ठी न हो। इस तरह जीओ कि तुम्हारे भीतर का अंगारा जलता रहे, प्रकाशित हो। इस तरह जीओ कि प्रतिक्षण तुम होश में रहो, बेहोश नहीं।
मुल्ला नसरुद्दीन को बच्चा पैदा हुआ। पहला ही लड़का था। नसरुद्दीन बड़ा खुश हुआ। अपने खास मित्र को बुलाया। खुशी मनाने दोनों शराबघर में गए। क्योंकि तुम एक ही खुशी जानते हो--बेहोशी। यह बड़े मजे की बात है। शिव, बुद्ध, महावीर, वे सब चिल्ला-चिल्ला कर कहते हैं कि दुनिया में एक ही आनंद है--वह है होश। और तुम एक ही सुख जानते हो--वह है बेहोशी। या तो तुम ठीक हो या वे ठीक हैं; दोनों तो ठीक नहीं हो सकते। मुल्ला नसरुद्दीन सीधा शराबघर गया, बजाय अस्पताल जाने के कि पहले बेटे को देखता। उसने कहा कि पहले जरा आनंद कर लें। कितने दिनों का सपना पूरा हुआ। डट कर दोनों पी गए। जब दोनों पीकर पहुंचे अस्पताल, और कांच की खिड़की में से बेटे को देखा तो मुल्ला रोने लगा। उसने अपने मित्र से कहा, पहली तो बात, मेरे जैसा मालूम नहीं होता।
अपना उन्हें पता नहीं है अभी। अभी खुद की शक्ल भी वह पहचान न सकेंगे। लेकिन मेरे जैसा नहीं मालूम होता! और दूसरी बात, बड़ा छोटा दिखाई पड़ता है। इतने छोटे बच्चे को लेकर करेंगे भी क्या! यह बचेगा? मित्र ने कहा, मत घबड़ाओ। जब मैं पैदा हुआ था, तो मैं भी तीन ही पौंड का था। नसरुद्दीन ने कहा, फिर तुम बचे? मित्र सोचने लगा, क्योंकि वह भी बेहोशी में था। उसने कहा, पक्का नहीं कह सकता।
आदमी बेहोशी में है। उसके जीवन का सारा परिप्रेक्ष्य, उसकी सारी दृष्टि उसकी बेहोशी से भर जाती है; सब धुआं-धुआं हो जाता है। तुम कुछ भी ठीक से नहीं देख पाते। और तुम एक ही सुख जानते हो कि जब तुम अपने को भूल जाते हो। चाहे सिनेमा हो, चाहे संगीत हो, चाहे सेक्स हो, जहां भी तुम अपने को भूल जाते हो, वहीं तुम कहते हो, बड़ा सुख आया। भूलने को तुम सुख कहते हो? विस्मरण को? कारण है। क्योंकि जब भी तुम होश से भरते हो, तुम सिवाय दुख के अपने जीवन में कुछ भी नहीं पाते। इसीलिए जब भी तुम देखते हो जीवन को जरा ही सजग होकर, तुम पाते हो--दुख, दुख; कुरूपता चारों तरफ।
एक मेरे मित्र हैं। अविवाहित ही रह गए हैं। उनसे मैंने पूछा कि क्या हुआ, कैसे चूक गए? तो उन्होंने कहा कि बड़ी अड़चन आई। जिस स्त्री को मैं प्रेम करता था, जब मैं शराब पी लेता, तब वह मुझे सुंदर मालूम पड़ती। तब मैं शादी करने को राजी, लेकिन तब वह राजी नहीं। और जब मैं होश में होता, तब मैं राजी नहीं, तब वह राजी होती थी। इसलिए चूक गए, कोई उपाय न हुआ, मेल न हो सका।
तुम जब भी आंख खोल कर देखोगे, सब तरफ कुरूपता और दुख पाओगे। जब तुम बेहोश होते हो, तब सब ठीक लगता है। इसलिए तुम्हें तकलीफ मालूम पड़ती है: चैतन्य आत्मा! असंभव। इसलिए दुख से गुजरना होगा। उसको ही तपश्चर्या कहा है। जब कोई व्यक्ति जागना शुरू करता है, तो पहले तो उसे दुख में से ही गुजरना होगा। क्योंकि तुमने जन्मों-जन्मों तक दुख अपने चारों तरफ निर्मित किए हैं। कौन उनसे गुजरेगा, तुम अगर न गुजरे तो? इसको हमने कर्म कहा है।
कर्म का कुल इतना ही अर्थ है कि जन्मों-जन्मों तक हमने चारों तरफ दुख निर्मित किए हैं। जाने-अनजाने हमने दुख की फसल बोई है, काटेगा कौन? तो जब भी तुम होश में आते हो, तुम्हें फसल दिखाई पड़ती है--बड़ी लंबी। इस खेत से तुम्हें गुजरना पड़ेगा। डर के मारे तुम वहीं बैठ जाते हो। फिर आंख बंद करके शराब पी लेते हो कि यह तो बहुत झंझट का काम है। लेकिन जितनी तुम शराब पीते हो, उतनी यह फसल बढ़ती जाती है। हर जन्म तुम्हारे कर्म की श्रृंखला में कुछ और जोड़ जाता है, घटाता नहीं। तुम और भी गर्त में उतर जाते हो। नरक और करीब आ जाता है।
होश से भरोगे तो पहली तो घटना यह घटने ही वाली है कि तुम्हारे जीवन में चारों तरफ दुख दिखाई पड़ेगा, नरक। क्योंकि तुमने वह निर्मित किया है। और अगर तुमने हिम्मत रखी, साहस रखा, और तुम उस दुख से गुजर गए, तो जिस दुख से तुम सचेतन रूप से गुजर जाओगे, वह फसल कट गई। उन दुखों से तुम्हें न गुजरना पड़ेगा फिर।
और अगर एक बार तुम इस सारी दुख की श्रृंखला से गुजर जाओ, कर्म की श्रृंखला से--क्योंकि वे तुम्हारी आत्मा के चारों तरफ बंधी हुई जंजीरें हैं--अगर तुम उन सबसे गुजर जाओ, और होश न खोओ और हिम्मत जारी रखो कि कोई फिक्र नहीं, जितना दुख मैंने पैदा किया है, मैं गुजरूंगा। मैं अंत तक जाऊंगा। मैं उस प्रथम घड़ी तक जाना चाहता हूं, जब मैं निर्दोष था, और दुख की यात्रा शुरू न हुई थी। जब मेरी आत्मा परम पवित्र थी, और मैंने कुछ भी संग्रह न किया था दुख का। मैं उस समय तक प्रवेश करूंगा ही--चाहे कुछ भी परिणाम हो; कितना ही दुख, कितनी ही पीड़ा!
अगर तुमने इतना साहस रखा तो आज नहीं कल, दुख से पार होकर तुम उस जगह पहुंच जाओगे, जहां शिव का सूत्र तुम्हें समझ में आएगा: ‘चैतन्य आत्मा है।’ और एक बार तुम अपने भीतर के चैतन्य में प्रतिष्ठित हो जाओ, फिर तुमसे कोई दुख पैदा नहीं होता; क्योंकि बेहोश आदमी अपने चारों तरफ दुख पैदा करता है।
तुमने देखा है शराबी को चलते हुए रास्ते पर--वह कैसा डगमगाता है! ऐसी तुम्हारी जिंदगी है। कहीं पैर रखते हो, कहीं पड़ता है। कहीं जाना चाहते हो, कहीं पहुंच जाते हो। कुछ करना चाहा था, कुछ और ही हो जाता है। कुछ कहने निकले थे, कुछ और ही कह कर घर लौट आते हो। इसे तुम रोज देख रहे हो। फिर भी तुम समझ नहीं पाते कि यह क्यों हो रहा है। तुम गए थे किसी से क्षमा मांगने, और झगड़ा करके वापस आ गए। होश में हो तुम? तुम बात प्रेम की कर रहे थे, दुश्मनी हो गई!
एक आदमी शराब पीए आकाश की तरफ देखता हुआ चला जा रहा था। एक कार उसके पास से निकली; बामुश्किल ड्राइवर बचा पाया। गाड़ी रोक कर ड्राइवर ने कहा, महानुभाव! अगर आप नहीं देखते वहां जहां आप जा रहे हैं, तो फिर आप वहीं चले जाएंगे जहां आप देख रहे हैं।
और हम सब...। हमें कुछ पता भी नहीं कि हम कहां जा रहे हैं, क्यों जा रहे हैं, कहां देख रहे हैं, क्यों देख रहे हैं। चले जा रहे हैं; क्योंकि एक बेचैनी है भीतर जो बैठने भी नहीं देती; एक शक्ति है भीतर जो चलाए चली जाती है। फिर हम जो भी करते हैं, उस सब के उलटे परिणाम आते हैं।
लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, हमने बदी तो कभी की नहीं; नेकी की, और फल बदी मिल रहा है।
ऐसा हो नहीं सकता कि तुम नेकी करो और फल में बदी मिले। ऐसा हो नहीं सकता कि तुम आम के बीज बोओ और नीम के फल लगें। ऐसा हो नहीं सकता। इतना ही हो सकता है कि तुम ऐसे बेहोशी में बोए होओगे, बोए तुमने नीम के ही बीज; तुम होश में न थे। क्योंकि वृक्ष थोड़े ही झूठ बोलेगा। तुम ही कहीं बोते वक्त भूल में पड़े होओगे। तुम जब नेकी भी करते हो, तब भी तुम्हारा नेकी करने का मन नहीं होता।
तुम सच भी बोलते हो, तो तुम दूसरे को चोट पहुंचाने के लिए सच बोलते हो। तुम सच बोलते हो दूसरे के अपमान के लिए। तुम सच बोलते हो, जैसे तुम सच का उपयोग एक घातक हथियार की तरह कर रहे हो। तुम्हारे सत्य कड़वे होते हैं। सत्य के कड़वे होने की कोई भी जरूरत नहीं है। लेकिन मजा तुम्हें कड़वेपन में है, सत्य में तुम्हें मजा भी नहीं है। तुम्हारा झूठ सदा मीठा होता है। तुम्हारा सत्य सदा कड़वा होता है। बात क्या है? क्या कड़वापन सत्य का स्वभाव है? क्या मिठास झूठ का हिस्सा है?
नहीं, झूठ को तुम चलाना चाहते हो, तुम उसे मीठा बनाते हो; क्योंकि अगर वह मीठा न होगा तो चलेगा नहीं। एक तो झूठ, चलना मुश्किल; मिठास के सहारे ही चलेगा। जैसे कड़वी दवा की गोली पर हम मीठी पर्त चढ़ा देते हैं, बच्चा मीठी गोली समझ कर खा लेता है। और जब तक कड़वेपन का पता चलता है, तब तक गोली भीतर जा चुकी है।
तुम झूठ को मीठा बनाते हो, क्योंकि तुम झूठ चलाना चाहते हो। तुम सत्य को कड़वा बनाते हो; क्योंकि सत्य से तुम केवल चोट करना चाहते हो, उसको चलाना नहीं चाहते। तुम सत्य बोलते ही तब हो जब तुम सत्य का इस तरह उपयोग कर सको कि वह झूठ से बदतर साबित हो, तभी तुम बोलते हो।
तुम बेहोश हो। तुम्हारे कृत्यों का तुम्हें कुछ पता नहीं है कि तुम क्या कर रहे हो। इसे थोड़ा होशपूर्वक देखना शुरू करो। जो तुम बोलना चाहते हो, वही बोले? या तुम कुछ और बोल गए? क्या तुमने यही सोचा था बोलने के लिए जो तुम बोले?
मार्क ट्वेन लौटता था एक रात। उसकी पत्नी ने पूछा--घर आया तो पत्नी ने पूछा--कैसा रहा व्याख्यान? वह व्याख्यान देने गया था। उसने कहा, कौन सा व्याख्यान? जो मैंने तैयार किया था वह? या जो मैंने वहां दिया वह? या जो मैं चाहता था कि देता वह? कौन सा व्याख्यान?
एक तो आदमी तैयार करता है, और एक आदमी फिर जो देता है--उसमें बड़ा फर्क है। और फिर एक जो घर लौटते वक्त वह सोचता है दिया होता, वे तीनों अलग-अलग हैं।
होश में हो? सब निशाने तुम्हारे चूक जाते हैं। तुम्हारी जिंदगी में कभी भी कोई निशाना लगा? आंख बंद करके भी आदमी तीर चलाता रहे, तो कभी न कभी निशाना लगेगा।
मैंने सुना है कि अगर बंद घड़ी भी दीवार पर टंगी रहे तो चौबीस घंटे में दो बार सही समय बताएगी। तुम्हारी जिंदगी में ऐसा भी नहीं आया कि दो बार भी तुमने सही समय बताया होता। तुम बंद घड़ी से गए बीते हो? अंधेरे में भी आदमी तीर चलाता रहे, तो कभी न कभी निशाने पर लग जाएगा। तुम खुली आंख से, होश में, प्रकाश में तीर चलाते हो; कभी निशाने पर नहीं लगता। क्या बात होगी?
मुल्ला नसरुद्दीन को बड़ा शौक था हिरण की शिकार करने का। तीसरी बार जब वह शिकार करने जंगल पहुंचा, और जंगल के विश्रामगृह में उसने अपना सामान रखा, और तैयारी की, और जब सूटकेस खोला, तो उसमें एक बड़ी फोटो रखी थी। और पत्नी ने उस फोटो के नीचे लिखा था: मुल्ला, हिरण इस तरह का होता है। उन्हें शिकार का शौक था, लेकिन हिरण का पता नहीं था। तुम कुछ भी मार-मूर कर घर आ जाओगे। हिरण, ठीक से फोटो देख लेना।
तुम सब जगह चूक गए हो--वही तुम्हारे जीवन का दुख है। और चूकने का कुल कारण है कि तुम होश में नहीं हो। इसलिए जो भी करो, होशपूर्वक करो। उठो तो भी होशपूर्वक, चलो तो भी होशपूर्वक।
महावीर ने कहा है, विवेक से चलो, विवेक से बैठो, विवेक से भोजन करो, विवेक से बोलो, विवेक से सोओ तक। महावीर से कोई पूछता है कि साधु कौन? तो महावीर ने कहा, जो अमूर्च्छित है। और असाधु कौन? तो महावीर ने कहा, जो मूर्च्छित है। जो सोया-सोया जी रहा है, वह असाधु। जो जागा-जागा जी रहा है, वह साधु।
यही शिव कह रहे हैं: ‘चैतन्य आत्मा है।’
चैतन्य को बढ़ाओ; धीरे-धीरे आत्मा की झलक तुम्हारे जीवन में आनी निश्चित है।
दूसरा सूत्र है: ‘ज्ञानं बंधः। ज्ञान बंध है।’
बड़ी हैरानी का सूत्र है। ज्ञान के बहुत अर्थ हैं। एक तो जब तक तुम इस ज्ञान से भरे हो कि मैं हूं, तब तक तुम अज्ञान में रहोगे; क्योंकि मैं अज्ञान है। अहंकार अज्ञान है। जिस दिन तुम आत्मा से भरोगे, उस दिन ‘हूं-पन’ तो रहेगा, ‘मैं-पन’ नहीं रहेगा। ‘मैं हूं’ इसमें से ‘मैं’ तो कट जाएगा, सिर्फ ‘हूं’ रहेगा। इसे थोड़ा प्रयोग करके देखो। कभी किसी वृक्ष के नीचे शांत बैठ कर खोजो कि तुम्हारे भीतर ‘मैं’ कहां है? तुम कहीं भी न पाओगे। ‘हूं’ तो तुम सब जगह पाओगे। ‘मैं’ तुम कहीं भी न पाओगे। सब जगह तुम्हें अस्तित्व मिलेगा, लेकिन अस्तित्व के साथ अहंकार तुम्हें कहीं भी न मिलेगा। अहंकार तुम्हारी निर्मिति है। वह तुम्हारा बनाया हुआ है। वह झूठा है, वह असत्य है। उससे ज्यादा अप्रामाणिक और कुछ भी नहीं। वह कामचलाऊ है। उसकी संसार में जरूरत है; लेकिन उसका सत्य में कहीं भी कोई स्थान नहीं है।
तो एक तो ‘मैं हूं’--यह ज्ञान बंध का कारण है। मेरा बोध! ‘हूं-पन’ का बोध नहीं, ‘हूं-पन’ का बोध तो शुद्ध है, उसमें कोई सीमा नहीं है। जब तुम कहते हो ‘हूं’, तो तुम्हारे ‘हूं’ में और वृक्ष के ‘हूं’ में कोई फर्क होगा? तुम्हारे ‘हूं’ में और मेरे ‘हूं’ में कोई फर्क होगा? जब तुम सिर्फ ‘हो’, तो नदियां, पहाड़, वृक्ष, सभी एक हो गए। जैसे ही मैंने कहा ‘मैं’, वैसे ही मैं अलग हुआ। जैसे ही मैंने कहा ‘मैं’, वैसे ही तुम टूट गए, पर हो गए, अस्तित्व से मैं पृथक हो गया।
‘हूं-पन’ ब्रह्म है और ‘मैं’ मनुष्य की अज्ञान दशा है। जब तुम जानते हो कि सिर्फ ‘हूं’, तब तुम्हारे भीतर केंद्र नहीं होता। तब सारा अस्तित्व एक हो जाता है। तब तुम उस लहर की तरह हो, जो सागर में खो गई। अभी तुम उस लहर की तरह हो जो जम कर बर्फ हो गई है; सागर से टूट गई है।
‘ज्ञानं बंधः।’
पहला तो ज्ञान बंध है--इस बात का ज्ञान कि मैं हूं। दूसरा, ज्ञान बंध है--वह सब ज्ञान जो तुम बाहर से इकट्ठा कर लिए हो, जो तुमने शास्त्रों से चुराया है, जो तुमने सदगुरुओं से उधार लिया है, जो तुम्हारी स्मृति है--वह सब बंधन है। उससे तुम्हें मुक्ति न मिलेगी।
इसलिए तुम पंडित से ज्यादा बंधा हुआ आदमी न पाओगे। मेरे पास सब तरह के लोग आते हैं, सब तरह के मरीज। उसमें पंडित से ज्यादा कैंसरग्रस्त कोई भी नहीं। उसका इलाज नहीं है। वह लाइलाज है। उसकी तकलीफ यह है कि वह जानता है। इसलिए न वह सुन सकता, न वह समझ सकता। तुम उससे कुछ बोलो, इसके पहले कि तुम बोलो, उसने उसका अर्थ कर लिया है; इसके पहले कि वह तुम्हें सुने, उसने व्याख्या निकाल ली है। शब्दों से भरा हुआ चित्त जानने में असमर्थ हो जाता है। वह इतना ज्यादा जानता है, बिना कुछ जाने; क्योंकि सब जाना हुआ उधार है।
शास्त्र से अगर ज्ञान मिलता होता, तो सभी के पास शास्त्र हैं, ज्ञान सभी को मिल गया होता। ज्ञान तो तब मिलता है, जब कोई निःशब्द हो जाता है; जब वह सभी शास्त्रों को विसर्जित कर देता है; जब वह उस सब ज्ञान को, जो दूसरों से मिला है, वापस लौटा देता है जगत को; जब वह उसे खोजता है, जो मेरा मूल अस्तित्व है, जो मुझे दूसरे से नहीं मिला।
इसे थोड़ा समझो। तुम्हारा शरीर तुम्हें मां और पिता से मिला है। तुम्हारे शरीर में तुम्हारा कुछ भी नहीं है। आधा तुम्हारी मां का दान है, आधा तुम्हारे पिता का दान है। फिर तुम्हारा शरीर तुम्हें भोजन से मिला है--वह जो रोज तुम भोजन कर रहे हो। पांच तत्वों से मिला है--वायु है, अग्नि है, पांचों तत्व हैं, उनसे तुम्हें मिला है। इसमें तुम्हारा कुछ भी नहीं है। लेकिन तुम्हारी चेतना तुम्हें पांचों तत्वों में से किसी से भी नहीं मिली है। तुम्हारी चेतना तुम्हें मां और पिता से भी नहीं मिली है।
तुम जो-जो जानते हो वह तुमने स्कूल, विश्वविद्यालय से सीखा है, शास्त्रों से सुना है, गुरुओं से पाया है। वह तुम्हारे शरीर का हिस्सा है, तुम्हारी आत्मा का नहीं। तुम्हारी आत्मा तो वही है जो तुम्हें किसी से भी नहीं मिली है। जब तक तुम उस शुद्ध तत्व को न खोज लोगे, जो निपट तुम्हारा है, जो तुम्हें किसी से भी नहीं मिला है--न मां ने दिया, न पिता ने, न समाज ने, न गुरु ने, न शास्त्र ने--वही तुम्हारा स्वभाव है।
ज्ञान बंध है, क्योंकि वह तुम्हें इस स्वभाव तक न पहुंचने देगा। ज्ञान ने ही तुम्हें बांटा है। तुम कहते हो, मैं हिंदू हूं। तुमने कभी सोचा कि तुम हिंदू क्यों हो? तुम कहते हो, मैं मुसलमान हूं। तुमने कभी विचारा कि तुम मुसलमान क्यों हो? हिंदू और मुसलमान में फर्क क्या है? क्या उनका खून निकाल कर कोई डाक्टर परीक्षा करके बता सकता है कि यह हिंदू का खून है, यह मुसलमान का खून है? क्या उनकी हड्डियां काट कर कोई बता सकता है कि यह हड्डी मुसलमान से आती है कि हिंदू से आती है?
कोई उपाय नहीं है। शरीर की जांच से कुछ भी पता न चलेगा; क्योंकि दोनों के शरीर पांच तत्वों से बनते हैं। लेकिन अगर उनकी खोपड़ी की जांच करो तो पता चल जाएगा कि कौन हिंदू है, कौन मुसलमान है; क्योंकि दोनों के शास्त्र अलग, दोनों के सिद्धांत अलग, दोनों के शब्द अलग। शब्दों का भेद है तुम्हारे बीच। तुम हिंदू हो; क्योंकि तुम्हें एक तरह का ज्ञान मिला, जिसका नाम हिंदू। दूसरा जैन है; क्योंकि उसे दूसरी तरह का ज्ञान मिला, जिसका ज्ञान जैन।
तुम्हारे बीच जितने फासले हैं, दीवारें हैं, वे ज्ञान की दीवारें हैं। और सब ज्ञान उधार है। तुम एक मुसलमान बच्चे को हिंदू के घर में रख दो, वह हिंदू की तरह बड़ा होगा। वह ब्राह्मण की तरह जनेऊ धारण करेगा। वह उपनिषद और वेद के वचन उद्धृत करेगा। और तुम एक हिंदू के बच्चे को मुसलमान के घर रख दो, वह कुरान की आयत दोहराएगा।
ज्ञान तुम्हें बांटता है; क्योंकि ज्ञान तुम्हारे चारों तरफ एक दीवार खींच देता है। और ज्ञान तुम्हें लड़ाता है, और ज्ञान तुम्हारे जीवन में वैमनस्य और शत्रुता पैदा करता है। थोड़ी देर को सोचो अगर तुम्हें कुछ भी न सिखाया जाए कि तुम हिंदू हो, या मुसलमान, या जैन, या पारसी, तो तुम क्या करोगे? तुम बड़े होओगे एक मनुष्य की भांति; तुम्हारे बीच कोई दीवार न होगी।
दुनिया में कोई तीन सौ धर्म हैं--तीन सौ कारागृह हैं। और हर आदमी पैदा होते ही से एक कारागृह या दूसरे कारागृह में डाल दिया जाता है। और पंडित, पुरोहित बड़ी चेष्टा करते हैं कि बच्चे पर जल्दी से जल्दी कब्जा हो जाए। उसको वे धर्म-शिक्षा कहते हैं। उससे ज्यादा अधर्म और कुछ भी नहीं है। वे उसको धर्म-शिक्षा कहते हैं। सात साल के पहले बच्चे को पकड़ लें; क्योंकि सात साल का बच्चा अगर बड़ा हो गया, तो फिर पकड़ना रोज-रोज मुश्किल होता जाएगा। और बच्चे को अगर थोड़ा भी बोध आ गया, तो फिर वह सवाल उठाने लगेगा। और सवालों का जवाब पंडितों के पास बिलकुल नहीं है।
पंडित सिर्फ मूढ़ों को तृप्त कर पाते हैं। जितनी कम बुद्धि का आदमी हो, पंडित से उतने जल्दी तृप्त हो जाता है। वह एक प्रश्न पूछता है, उत्तर मिल जाता है। तुम जाते हो, पंडित से पूछते हो, संसार को किसने बनाया? वह कहता है, भगवान ने। तुम प्रसन्न घर लौट आते हो, बिना पूछे कि भगवान को किसने बनाया। अगर तुम दूसरा प्रश्न पूछते, पंडित नाराज हो जाता; क्योंकि उसका उसे भी पता नहीं है। किताब में वह लिखा नहीं है। और फिर झंझट की बात है: परमात्मा को किसने बनाया? फिर तुम पूछते ही चले जाओगे; वह कोई भी जवाब दे, तुम पूछोगे, उसको किसने बनाया?
अगर गौर से देखो तो तुम्हारे पहले सवाल का जवाब दिया नहीं गया है। पंडित ने तुम्हें सिर्फ संतुष्ट कर दिया; क्योंकि तुम बहुत बुद्धिमान नहीं हो। और बच्चे अबोध हैं। उनका अभी तर्क नहीं जगा, विचार नहीं जगा; अभी वे प्रश्न नहीं पूछ सकते। अभी तुम जो भी कचरा उनके दिमाग में डाल दो, वे उसे स्वीकार कर लेंगे। बच्चे सभी कुछ स्वीकार कर लेते हैं; क्योंकि वे सोचते हैं, जो भी दिया जा रहा है, वह सभी ठीक है। बच्चा ज्यादा सवाल नहीं उठा सकता। सवाल उठाने के लिए थोड़ी प्रौढ़ता चाहिए।
इसलिए सभी धर्म बच्चों की गर्दन पकड़ लेते हैं और फांसी लगा देते हैं। फांसी बड़ी सुंदर है! किसी के गले में बाइबिल लटकी है, किसी के गले में समयसार लटका है; किसी के गले में कुरान लटकी है, किसी के गले में गीता लटकी है। ये इतने प्रीतिकर बंधन हैं कि इनको छोड़ने की हिम्मत फिर जुटानी बहुत मुश्किल है। और जब भी तुम इन्हें छोड़ना चाहोगे, एक खतरा सामने आ जाएगा। क्योंकि इन्हें छोड़ा तो तुम अज्ञानी! क्योंकि जैसे ही तुम इनको छोड़ोगे, तुम पाओगे, मैं तो कुछ जानता नहीं, बस यह किताब सारी संपदा है। इसको सम्हालो; अपने अज्ञान को छिपाने का यही तो एक उपाय है।
लेकिन अज्ञान छिपने से अगर मिटता होता, तो बड़ी आसान बात हो गई होती। अज्ञान छिपने से बढ़ता है। जैसे कोई अपने घाव को छिपा ले। उससे कुछ मिटेगा नहीं। घाव और भीतर-भीतर बढ़ेगा; मवाद पूरे शरीर में फैल जाएगी।
शिव कहते हैं: ‘ज्ञान बंध है।’
ज्ञान सीखा हुआ, ज्ञान उधार, ज्ञान दूसरे से लिया हुआ--बंधन का कारण है। तुम उस सबको छोड़ देना, जो दूसरे से मिला है। तुम उसकी तलाश करना, जो तुम्हें किसी से भी नहीं मिला। तुम उसकी खोज में निकलना, उस चेहरे की खोज में, जो तुम्हारा है। तुम्हारे भीतर छिपा हुआ एक झरना है चैतन्य का, जो तुम्हें किसी से भी नहीं मिला। जो तुम्हारा स्वभाव है, जो तुम्हारी निज संपदा है, निजत्व है--वही तुम्हारी आत्मा है।
तीसरा सूत्र है: ‘योनिवर्ग और कला शरीर है।’
योनि से अर्थ है: प्रकृति। इसलिए हम स्त्री को प्रकृति कहते हैं। स्त्री शरीर देती है; वह प्रकृति की प्रतीक है। और कला का अर्थ है: कर्ता का भाव। एक ही कला है, वह कला है संसार में उतरने की कला, और वह है--कर्ता का भाव। इन दो चीजों से मिल कर तुम्हारा शरीर निर्मित होता है--तुम्हारे कर्ता का भाव, तुम्हारा अहंकार, और प्रकृति से मिला हुआ शरीर। अगर तुम्हारे भीतर कर्ता का भाव है, तो तुम्हें योग्य शरीर प्रकृति देती चली जाएगी।
इसी तरह तुम बार-बार जन्मे हो। कभी तुम पशु थे, कभी पक्षी थे, कभी वृक्ष थे, कभी मनुष्य। तुमने जो चाहा है, वह तुम्हें मिला है। तुमने जो आकांक्षा की है, तुमने जो कर्तृत्व की वासना की है, वही घट गया है। तुम्हारे कर्तृत्व की वासना घटना बन जाती है। विचार वस्तुएं बन जाते हैं। इसलिए बहुत सोच-विचार कर वासना करना; क्योंकि सभी वासनाएं पूरी हो जाती हैं देर-अबेर।
अगर तुम बहुत बार देखते हो आकाश में पक्षी को और सोचते हो--कैसी स्वतंत्रता है पक्षी को! काश हम पक्षी होते! देर न लगेगी, जल्दी तुम पक्षी हो जाओगे। तुम अगर देखते हो एक कुत्ते को संभोग करते हुए और तुम सोचते हो--कैसी स्वतंत्रता! कैसा सुख! जल्दी ही तुम कुत्ते हो जाओगे। तुम जो भी वासना अपने भीतर संगृहीत करते हो, वह बीज बन जाती है। प्रकृति तो केवल शरीर देती है; कलाकार तो तुम्हीं हो स्वयं को निर्माण करने वाले। अपने शरीर को तुमने ही बनाया है--यह कला का अर्थ है। कोई तुम्हें शरीर नहीं दे रहा है; तुम्हारी वासना ही निर्मित करती है।
तुमने कभी खयाल किया? रात तुम सोते हो, तो आखिरी जो विचार होता है सोते समय, वही सुबह उठते वक्त पहला विचार होगा। रात भर तुम सोए रहे। वह बीज की तरह विचार भीतर पड़ा रहा। जो अंतिम था, वह सुबह प्रथम होगा। तुम मरोगे इस शरीर से, आखिरी मरते क्षण में तुम्हारे सारे जीवन की वासना संगृहीत होकर बीज बन जाएगी। वही बीज नया गर्भ बन जाएगा। जहां से तुम मिटे, वहीं से तुम फिर शुरू हो जाओगे।
तुम जो भी हो, यह तुम्हारा ही कृत्य है। किसी दूसरे को दोष मत देना। यहां कोई दूसरा है भी नहीं, जिसको दोष दिया जा सके। यह तुम्हारे ही कर्मों का संचित फल है। तुम जो भी हो--सुंदर-कुरूप, दुखी-सुखी, स्त्री-पुरुष--तुम जो भी हो, यह तुम्हारे ही कृत्यों का फल है। तुम ही हो कलाकार अपने जीवन के। मत कहना कि भाग्य ने बनाया है; क्योंकि वह धोखा है। और उस भांति तुम जिम्मेवारी किसी और पर टाल रहे हो। मत कहना कि परमात्मा ने भेजा है। तुम परमात्मा पर जिम्मेवारी मत डालना; क्योंकि यह तरकीब है खुद के दायित्व से बचने की। इस कारागृह में तुम अपने ही कारण हो। जो व्यक्ति इस बात को ठीक से समझ लेता है कि अपने ही कारण मैं यहां हूं, उसके जीवन में क्रांति शुरू हो जाती है।
शिव कह रहे हैं: ‘योनिवर्ग और कला शरीर हैं।’
प्रकृति तो सिर्फ योनि है। वह तो सिर्फ गर्भ है। तुम्हारा अहंकार उस योनि में बीज बनता है। तुम्हारे कर्तृत्व का भाव--कि मैं यह करूं, मैं यह पाऊं, मैं यह हो जाऊं--उसमें बीज बनता है। और जहां भी तुम्हारे कर्तृत्व की कला और प्रकृति की योनि का मिलन होता है, शरीर निर्मित हो जाता है।
इसलिए बुद्ध पुरुष कहते हैं, सभी वासनाओं को छोड़ दो, तभी तुम मुक्त हो सकोगे। तुमने अगर स्वर्ग की वासना की तो तुम देवता हो जाओगे, लेकिन वह भी मुक्ति न होगी। क्योंकि वासनाओं से कभी भी अशरीर की स्थिति पैदा नहीं होती; सभी वासनाओं से शरीर निर्मित होते हैं। जब तक तुम निर्वासना को उपलब्ध नहीं हो, जब तक तृष्णा तुमने पूरी ही नहीं छोड़ दी है, तब तक तुम नये शरीरों में भटकते रहोगे।
और शरीर के ढंग अलग हों, शरीर की मौलिक स्थिति एक ही जैसी है। शरीर के दुख समान हैं; चाहे पक्षी का शरीर हो, चाहे आदमी का शरीर हो, दुखों में कोई भेद नहीं है। क्योंकि मौलिक दुख है--आत्मा का शरीर में बंध जाना। मौलिक दुख है--कारागृह में प्रविष्ट हो जाना। फिर कारागृह की दीवारें वर्तुलाकार हैं कि त्रिकोण हैं, कि चौकोन हैं, उससे कोई हल नहीं होता, उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। तुम भला सोचते होओ कि फर्क पड़ता है।
एक मेरे मित्र हैं। ड्राइंग के शिक्षक हैं। उन्हें जेल हो गई। लौटे तीन साल बाद, तो मैंने उनसे पूछा, कैसे रहे दिन, कैसे कटे दिन? उन्होंने कहा, और तो सब ठीक था, लेकिन मेरी कोठरी के कोने नब्बे कोण के नहीं थे। वे ड्राइंग के शिक्षक हैं। उनकी बुद्धि! वे नब्बे कोण के नहीं थे कोठरी के कोने। उनकी असली तकलीफ तीन साल यही रही। क्योंकि उसी कोठरी में रहना और बार-बार देखना वह कोना, वह नब्बे कोण का नहीं है। तो जो बात उन्होंने मुझसे कही वह यह कि और तो सब ठीक था, बाकी कुछ अड़चन न थी; लेकिन कोने ठीक नब्बे के नहीं थे।
कोने नब्बे के हों कि नब्बे के न हों, इससे क्या बुनियादी फर्क पड़ेगा? कारागृह कारागृह है। पक्षी का शरीर कि आदमी का, बहुत फर्क नहीं पड़ता। बंद तुम हो गए, वही दुख है। बंध गए तुम, वही दुख है। वासना बांधती है। वासना है रज्जु, जिससे हम बंधते हैं। और ध्यान रखना, तुम्हारे अतिरिक्त और कोई जिम्मेवार नहीं है।
‘उद्यमो भैरवः।’
चौथा सूत्र है: ‘उद्यम ही भैरव है।’
उद्यम उस आध्यात्मिक प्रयास को कहते हैं, जिससे तुम इस कारागृह के बाहर होने की चेष्टा करते हो। वही भैरव है। भैरव शब्द पारिभाषिक है। ‘भ’ का अर्थ है: भरण, ‘र’ का अर्थ है: रवण, ‘व’ का अर्थ है: वमन। भरण का अर्थ है: धारण, रवण का अर्थ है: संहार, और वमन का अर्थ है: फैलाना। भैरव का अर्थ है: ब्रह्म--जो धारण किए है, जो सम्हाले है, जिसमें हम पैदा होंगे, और जिसमें हम मिटेंगे; जो विस्तार है और जो ही संकोच बनेगा; जो सृष्टि का उद्भव है, और जिसमें प्रलय होगा। मूल अस्तित्व का नाम भैरव है।
शिव कहते हैं: ‘उद्यम ही भैरव है।’
और जिस दिन भी तुमने आध्यात्मिक जीवन की चेष्टा शुरू की, तुम भैरव होने लगे; तुम परमात्मा के साथ एक होने लगे। तुम्हारी चेष्टा की पहली किरण, और तुमने सूरज की तरफ यात्रा शुरू कर दी। पहला खयाल तुम्हारे भीतर मुक्त होने का, और ज्यादा दूर नहीं है मंजिल; क्योंकि पहला कदम करीब-करीब आधी यात्रा है।
‘उद्यम भैरव है।’
पाओगे, देर लगेगी, मंजिल पहुंचने में समय लगेगा। लेकिन तुमने चेष्टा शुरू की, और तुम्हारे भीतर बीज आरोपित हो गया कि मैं उठूं इस कारागृह के बाहर; मैं जाऊं, शरीर से मुक्त होऊं; मैं हटूं वासना से; मैं अब और बीज न बोऊं इस संसार को बढ़ाने के; मैं और जन्मों की आकांक्षा न करूं। तुम्हारे भीतर जैसे ही यह भाव सघन होना शुरू हुआ कि अब मैं मूर्च्छा को तोडूं और चैतन्य बनूं, वैसे ही तुम भैरव होने लगे; वैसे ही तुम ब्रह्म के साथ एक होने लगे। क्योंकि वस्तुतः तो तुम एक हो ही, सिर्फ तुम्हें स्मरण आ जाए। मूलतः तो तुम एक हो ही। तुम उसी सागर के झरने हो, तुम उसी सूरज की किरण हो, तुम उसी महा आकाश के एक छोटे से खंड हो। पर तुम्हें स्मरण आना शुरू हो जाए और दीवारें विसर्जित होने लगें, तो तुम उस महा आकाश के साथ एक हो जाओगे।
‘उद्यम भैरव है।’
बड़ी सघन चेष्टा करनी जरूरी है। क्योंकि नींद गहरी है; तोड़ोगे सतत, तो ही टूट पाएगी। आलस्य करोगे, संभव नहीं होगा। आज तोड़ोगे, कल फिर बना लोगे, तो फिर भटकते रहोगे। एक हाथ से तोड़ोगे, दूसरे से बनाते जाओगे, तो श्रम व्यर्थ होगा। उद्यम का अर्थ है--तुम्हारी पूरी चेष्टा संलग्न हो जाए।
लोग मेरे पास आते हैं। वे कहते हैं, हम करते हैं, लेकिन कुछ हो नहीं रहा।
अब मैं उनकी शक्ल देखता हूं। वे करते हैं ही नहीं, या ऐसा मरे-मरे करते हैं, जैसे मक्खियां उड़ा रहे हों। उनके करने में कोई प्राण नहीं हैं, इसलिए नहीं होता। लेकिन वे आते ऐसे हैं जैसे कि वे परमात्मा पर कोई बड़ी कृपा कर रहे हैं कि करते हैं और नहीं हो रहा। तो शिकायत लेकर आए हैं कि कहीं कुछ गड़बड़ हो रही है, कहीं कोई अन्याय हो रहा है, कि दूसरों को हो रहा है, हमें नहीं हो रहा है।
इस जगत में अन्याय होता ही नहीं। इस जगत में जो भी होता है, न्याय है। क्योंकि यहां कोई आदमी नहीं बैठा है न्याय-अन्याय करने को। जगत में तो नियम हैं, उन्हीं नियमों का नाम धर्म है। तुम अगर इरछे-तिरछे चले, गिरोगे, टांग टूट जाएगी; तो तुम जाकर अदालत में यह नहीं कहोगे कि गुरुत्वाकर्षण के कानून पर एक मुकदमा चलाता हूं। तो अदालत कहेगी, तुम तिरछे मत चलते। गुरुत्वाकर्षण तुम्हें गिराने में उत्सुक नहीं है, न तुम्हें सम्हालने में उत्सुक है। तुम जब सीधे-सीधे चलते हो, वही तुम्हें सम्हालता है। जब तुम तिरछे चलते हो, वही तुम्हें गिराता है। न गिराने की उसकी कोई आकांक्षा है, न सम्हालने की। तटस्थ है जगत का नियम।
उस तटस्थ नियम का नाम धर्म है। उसको हिंदुओं ने ऋत कहा है। वह परम नियम है। वह तुम्हारी तरफ पक्षपात नहीं करता कि किसी को गिरा दे, किसी को उठा दे। तुम जैसे ही ठीक चलने लगते हो, वह तुम्हें सम्हालता है। तुम गिरना चाहते हो, वह तुम्हें गिराता है। वह हर हालत में उपलब्ध है। तुम जैसा भी उसका उपयोग करना चाहते हो, वह तुम्हें खुला है। उसके द्वार बंद नहीं हैं। तुम सिर ठोंकना चाहते हो दरवाजे से, सिर ठोंक लो। तुम दरवाजा खोल कर भीतर जाना चाहते हो, भीतर चले जाओ। वह तटस्थ है।
‘उद्यम भैरव है।’
महान श्रम चाहिए। उद्यम का अर्थ है: प्रगाढ़ श्रम। तुम्हारी समग्रता लग जाए श्रम में, उसका नाम उद्यम है। और तब देर न लगेगी तुम्हारे भैरव हो जाने में।
‘शक्तिचक्र के संधान से विश्व का संहार हो जाता है’--पांचवां सूत्र है।
और अगर तुमने ठीक उद्यम किया, अगर तुमने अपनी संपूर्ण ऊर्जा को संलग्न कर दिया चेष्टा में--सत्य की खोज, परमात्मा की खोज या आत्मा की खोज में--तो तुम्हारे भीतर जो शक्ति का चक्र है, वह पूर्ण हो जाता है।
अभी तुम्हारे भीतर शक्ति का चक्र पूर्ण नहीं है, कटा-बंटा है। वैज्ञानिक कहते हैं कि बुद्धिमान से बुद्धिमान आदमी भी अपनी पंद्रह प्रतिशत से ज्यादा प्रतिभा का उपयोग नहीं करता; पचासी प्रतिशत प्रतिभा ऐसे ही सड़ जाती है। यह तो बुद्धिमान आदमी की बात है; बुद्धू का क्या हिसाब! वह तो शायद करता ही नहीं। हम अपने शरीर की भी ऊर्जा का पूरा उपयोग नहीं करते--पांच प्रतिशत ज्यादा से ज्यादा। तो अगर हम मंदे-मंदे जीते हैं, अगर हमारा दीया टिमटिमाता-टिमटिमाता लगता है, तो कसूर किसका है? तुम जीते ही नहीं पूरी तरह। जैसे तुम जीने से भी भयभीत हो कि लपट कहीं जोर से न आ जाए। तुम डरे-डरे हो, तुम कंपते-कंपते जीते हो, तो फिर शक्ति का जो चक्र है तुम्हारे भीतर, वह पूरा नहीं हो पाता। तो तुम्हारी गाड़ी ऐसे चलती है, जैसे कभी कार को तुमने देखा हो--पेट्रोल कभी आता, कभी नहीं आता, कभी कचरा आता, तो कार ऐसे चलती है जैसे हिचकी खा रही हो। बस ऐसा तुम्हारा जीवन है। हिचकी खाते तुम चलते हो। जरा-जरा सी शक्ति के खंड-खंड आते हैं; अखंड शक्ति नहीं हो पाती।
जिस चीज में भी तुम अपनी पूरी शक्ति लगा दोगे, वह कोई भी हो चीज--अगर तुम चित्र बनाते हो और चित्रकार हो, और तुमने अपनी पूरी शक्ति को चित्र बनाने में लगा दिया--पूरी, कि रत्ती भर बाकी न बची--तो तुम वहीं से मुक्त हो जाओगे; क्योंकि वही उद्यम पूर्ण होते ही भैरव हो जाता है। अगर तुम एक मूर्तिकार हो और तुमने सब कुछ मूर्ति में समाहित कर दिया, कि मूर्ति बनाते समय तुम न बचे, बस मूर्ति ही बची, तो शक्ति का चक्र पूरा हो जाता है। जब तुम पूरी शक्ति को निमज्जित करते हो किसी भी कृत्य में, वही ध्यान हो जाता है; भैरव निकट है, मंदिर पास आ गया।
पांचवां सूत्र है: ‘शक्तिचक्र के संधान से विश्व का संहार हो जाता है।’
और जब भी तुम्हारी शक्ति का चक्र पूरा होता है--टोटल, समग्र; अंश-अंश नहीं, पूर्ण--उसी क्षण तुम्हारे लिए विश्व समाप्त हो गया। तुम्हारे लिए फिर कोई संसार नहीं है। तुम परमात्मा हो गए। तुम भैरव हो गए। तुम मुक्त हो। फिर तुम्हारे लिए न कोई बंधन है, न कोई शरीर है, न कोई संसार है।
पूर्ण शक्ति का प्रयोग, स्मरण रखना। इस समाधि साधना शिविर में अगर तुमने पूरी शक्ति को लगाया--ऐसे ही ऊपर-ऊपर नहीं ध्यान किए, पूरी शक्ति लगा दी--तो तुम अनुभव करोगे कि जिस क्षण शक्ति पूरी लग जाएगी, उसी क्षण, फिर क्षण भर की देर नहीं लगती, अचानक संसार खो जाता है, परमात्मा सामने आ जाता है। तुम्हारी शक्ति का पूरा लग जाना ही तुम्हारे जीवन की क्रांति हो जाती है। फिर संसार की तरफ पीठ, परमात्मा की तरफ मुंह हो जाता है। इसकी तुम्हें एक झलक भी मिल जाए तो फिर तुम वही न हो सकोगे जो तुम पहले थे। उसकी एक झलक काफी है। फिर तुम्हारा जीवन उसी यात्रा में संलग्न हो जाएगा।
तो ध्यान रखना, यहां पूरा अपने को डुबाना, तो ही कुछ हो सकेगा। अगर तुमने थोड़ा भी अपने को बचाया तो तुम्हारा श्रम व्यर्थ है। जब तक श्रम उद्यम न बन जाए--पूर्ण, टोटल एफर्ट न बन जाए--तब तक भैरव की उपलब्धि नहीं है।
आज इतना ही।
अथ
शिव-सूत्रः
चैतन्यमात्मा।
ज्ञानं बंधः।
योनिवर्गः कलाशरीरम्।
उद्यमो भैरवः।
शक्तिचक्रसंधाने विश्वसंहारः।
ॐ स्वप्रकाश आनंद-स्वरूप भगवान शिव को नमन।
(अब) शिव-सूत्र (प्रारंभ)
चैतन्य आत्मा है।
ज्ञान बंध है।
योनिवर्ग और कला शरीर है।
उद्यम ही भैरव है।
शक्तिचक्र के संधान से विश्व का संहार हो जाता है।
जीवन-सत्य की खोज दो मार्गों से हो सकती है।
एक पुरुष का मार्ग है--आक्रमण का, हिंसा का, छीन-झपट का। एक स्त्री का मार्ग है--समर्पण का, प्रतिक्रमण का।
विज्ञान पुरुष का मार्ग है; विज्ञान आक्रमण है। धर्म स्त्री का मार्ग है; धर्म नमन है।
इसे बहुत ठीक से समझ लें।
इसलिए पूरब के सभी शास्त्र परमात्मा को नमस्कार से शुरू होते हैं। और वह नमस्कार केवल औपचारिक नहीं है। वह केवल एक परंपरा और रीति नहीं है। वह नमस्कार इंगित है कि मार्ग समर्पण का है, और जो विनम्र हैं, केवल वे ही उपलब्ध हो सकेंगे। और जो आक्रामक हैं, अहंकार से भरे हैं; जो सत्य को भी छीन-झपट करके पाना चाहते हैं; जो सत्य के भी मालिक होने की आकांक्षा रखते हैं; जो परमात्मा के द्वार पर एक सैनिक की भांति पहुंचे हैं--विजय करने, वे हार जाएंगे। वे क्षुद्र को भला छीन-झपट लें, विराट उनका न हो सकेगा। वे व्यर्थ को भला लूट कर घर ले आएं; लेकिन जो सार्थक है, वह उनकी लूट का हिस्सा न बनेगा।
इसलिए विज्ञान व्यर्थ को खोज लेता है; सार्थक चूक जाता है। मिट्टी, पत्थर, पदार्थ के संबंध में जानकारी मिल जाती है, लेकिन आत्मा और परमात्मा की जानकारी छूट जाती है। ऐसे ही जैसे तुम राह चलती एक स्त्री पर हमला कर दो, बलात्कार हो जाएगा, स्त्री का शरीर भी तुम कब्जा कर लोगे, लेकिन उसकी आत्मा तुम्हें न मिल सकेगी। उसका प्रेम तुम न पा सकोगे।
तो जो लोग आक्रमण की तरह जाते हैं परमात्मा की तरफ, वे बलात्कारी हैं। वे परमात्मा के शरीर पर भला कब्जा कर लें--इस प्रकृति पर जो दिखाई पड़ती है, जो दृश्य है--उसकी चीर-फाड़ कर लें, विश्लेषण कर लें, उसके कुछ राज खोज लें, लेकिन उनकी खोज वैसी ही क्षुद्र होगी, जैसे किसी पुरुष ने किसी स्त्री पर हमला किया हो और बलात्कार किया हो। स्त्री का शरीर तो उपलब्ध हो जाएगा, लेकिन उपलब्धि दो कौड़ी की है; क्योंकि उसकी आत्मा को तुम छू भी न पाओगे। और अगर उसकी आत्मा को न छुआ, तो उसके भीतर जो प्रेम की संभावना थी--वह जो छिपा था बीज प्रेम का--वह कभी अंकुरित न होगा। उसकी प्रेम की वर्षा तुम्हें न मिल सकेगी।
विज्ञान बलात्कार है। वह प्रकृति पर हमला है; जैसे कि प्रकृति कोई शत्रु हो; जैसे कि उसे जीतना है, पराजित करना है। इसलिए विज्ञान तोड़-फोड़ में भरोसा करता है--विश्लेषण तोड़-फोड़ है; काट-पीट में भरोसा करता है। अगर वैज्ञानिक से पूछो कि फूल सुंदर है, तो तोड़ेगा फूल को, काटेगा, जांच-पड़ताल करेगा। लेकिन उसे पता नहीं, तोड़ने में ही सौंदर्य खो जाता है। सौंदर्य तो पूरे में था। खंड-खंड में सौंदर्य न मिलेगा। हां, रासायनिक तत्व मिल जाएंगे। किन चीजों से फूल बना है, किन पदार्थों से बना है, किन खनिज और द्रव्यों से बना है--वह सब मिल जाएगा। तुम बोतलों में अलग-अलग फूल के खंडों को इकट्ठा करके लेबल लगा दोगे। तुम कहोगे--ये केमिकल्स हैं, ये पदार्थ हैं; इनसे मिल कर फूल बना था।
लेकिन तुम एक भी ऐसी बोतल न भर पाओगे, जिसमें तुम कह सको: यह सौंदर्य है, जो फूल में भरा था। सौंदर्य तिरोहित हो जाएगा। अगर तुमने फूल पर आक्रमण किया तो फूल की आत्मा तुम्हें न मिलेगी, शरीर ही मिलेगा। विज्ञान इसीलिए आत्मा में भरोसा नहीं करता। भरोसा करे भी कैसे? इतनी चेष्टा के बाद भी आत्मा की कोई झलक नहीं मिलती। झलक मिलेगी ही नहीं। इसलिए नहीं कि आत्मा नहीं है; बल्कि तुमने जो ढंग चुना है, वह आत्मा को पाने का ढंग नहीं। तुम जिस द्वार से प्रवेश किए हो, वह क्षुद्र को पाने का द्वार है। आक्रमण से, जो बहुमूल्य है, वह नहीं मिल सकता।
जीवन का रहस्य तुम्हें मिल सकेगा, अगर नमन के द्वार से तुम गए। अगर तुम झुके, तुमने प्रार्थना की, तो तुम प्रेम के केंद्र तक पहुंच पाओगे।
परमात्मा को रिझाना करीब-करीब एक स्त्री को रिझाने जैसा है। उसके पास अति प्रेमपूर्ण, अति विनम्र, प्रार्थना से भरा हृदय चाहिए। और जल्दी वहां नहीं है। तुमने जल्दी की, कि तुम चूके। वहां बड़ा धैर्य चाहिए। तुम्हारी जल्दी, और उसका हृदय बंद हो जाएगा। क्योंकि जल्दी भी आक्रमण की खबर है।
इसलिए जो परमात्मा को खोजने चलते हैं, उनके जीवन का ढंग दो शब्दों में समाया हुआ है: प्रार्थना और प्रतीक्षा। प्रार्थना से शास्त्र शुरू होते हैं और प्रतीक्षा पर पूरे होते हैं। प्रार्थना से खोज इसलिए शुरू होती है।
इस शास्त्र का पहला चरण है:
‘ॐ स्वप्रकाश आनंद-स्वरूप भगवान शिव को नमन!’
‘और अब शिव-सूत्र प्रारंभ।’
इस नमन को बहुत गहरे उतर जाने दें। क्योंकि अगर द्वार ही चूक गया, तो पीछे महल की जो मैं चर्चा करूंगा, वह समझ में न आएगी।
पुरुष को थोड़ा हटाएं। आक्रामक वृत्ति को थोड़ा दूर करें। यह समझ कुछ बुद्धि से आने वाली नहीं है; हृदय से आने वाली है। यह समझ कुछ तुम्हारे तर्क पर निर्भर न करेगी; यह तुम्हारे प्रेम पर निर्भर करेगी। इस शास्त्र को तुम समझ पाओगे; लेकिन वह समझ ऐसी न होगी जैसे कोई गणित को समझता है। वह समझ ऐसी होगी, जैसे कोई काव्य को समझता है। कविता पर तुम झपट नहीं पड़ते। तुम कविता का धीरे-धीरे स्वाद लेते हो, चुस्की लेते हो; जैसे कोई चाय को पीता है। तुम उसे गटक नहीं जाते। वह कोई कड़वी दवा नहीं है। तुम उसका स्वाद लेते हो, चुस्की लेते हो--धीरे-धीरे, उसके स्वाद को लीन होने देते हो। और एक ही कविता को समझना हो, तो बहुत बार पढ़ना पड़ता है। एक गणित को तुमने एक बार समझ लिया, फिर दुबारा करने की कोई जरूरत नहीं रह जाती; गणित समाप्त हो गया। कविता कभी भी समाप्त नहीं होती; क्योंकि हृदय का कोई ओर-छोर नहीं है। और तुम जितना ही प्रेम करते हो, उतना ही उदघाटित होता है। इसलिए पूरब में हम शास्त्र का अध्ययन नहीं करते; हम शास्त्र का पाठ करते हैं।
अध्ययन शास्त्र का हो भी नहीं सकता। अध्ययन का अर्थ है: एक बार समझ लिया, फिर कचरे में फेंक दिया, जैसे कि बात खतम हो गई। जब समझ ही लिया तो अब दुबारा क्या करना है! पाठ का अर्थ होता है: समझ बुद्धि की होती तो एक बार में पूरी हो जाती, इसकी तो चुस्कियां बार-बार लेनी पड़ेंगी। इसे तो जाने-अनजाने न मालूम कितनी बार दोहराना पड़ेगा। इसे बहुत से भाव-क्षणों में, बहुत सी मनोदशाओं में--कभी सुबह जब सूरज उगता है तब, कभी रात जब सब अंधकार हो जाता है तब, कभी मन जब प्रफुल्लित होता है तब, और कभी मन जब उदासी से भरा होता है तब--विभिन्न चित्त की दशाओं में, विभिन्न मनों-क्षणों में, इसमें उतरना होगा, तब इसके सभी पहलू धीरे-धीरे प्रकट होंगे। फिर भी तुम इसे चुकता न कर पाओगे।
कोई शास्त्र कभी चुकता नहीं। जितना ही तुम पाओगे कि खोज लिया, उतना ही तुम पाओगे खोज के लिए और भी ज्यादा बाकी रह गया। जितने तुम गहरे उतरोगे, पाओगे गहराई बढ़ती चली जाती है। शास्त्र को कभी पाठी चुका नहीं पाता। पाठ का मतलब ही यही है कि बार-बार, बहुत बार।
पश्चिम इस बात को समझ भी नहीं पाता। उनकी पकड़ के बाहर है कि लोग गीता को हजारों साल से क्यों पढ़ रहे हैं? और एक ही आदमी रोज सुबह उठ कर गीता पढ़ लेता है; पागल हो गया है?
उनको खयाल में नहीं है कि पाठ की प्रक्रिया हृदय में उतारने की प्रक्रिया है। उसका समझ से बहुत वास्ता नहीं है; स्वाद से वास्ता है। तर्क और गणित और हिसाब से उसका कोई भी संबंध नहीं है। उसका संबंध तो अपने हृदय को और उसके बीच की जो दूरी है, उसको मिटाने से है। धीरे-धीरे हम इतने लीन हो जाएं उसमें कि पाठी और पाठ एक हो जाए; पता ही न चले कि कौन गीता है और कौन गीता का पाठी।
ऐसे भाव से जो चले--यह स्त्री का भाव है। यह समर्पण की धारा है। इसे खयाल में ले लेना।
नमन से हम चलें तो शिव के सूत्र समझ में आ सकेंगे। उन्हें तुम अपने में उतरने देना, और जल्दी निर्णय की मत करना कि वे ठीक हैं कि गलत हैं। क्योंकि सूत्रों के संबंध में एक बात खयाल रख लेना--तुम्हारे ऊपर निर्भर नहीं है तय करना कि वे ठीक हैं या गलत हैं। तुम निर्णय कर भी कैसे पाओगे? जो अंधेरे में खड़ा है, वह प्रकाश के संबंध में क्या निर्णय करेगा! और जिसने कभी स्वास्थ्य नहीं जाना, जो रोग की शय्या से ही बंधा रहा है, उसे स्वास्थ्य की परिभाषा कैसे समझ में आएगी! जिसने कभी प्रेम की स्फुरणा नहीं पहचानी और जो जीवन भर घृणा, ईर्ष्या और द्वेष में जीया है, वह प्रेम की कविता तो पढ़ सकता है, क्योंकि शब्द उसकी समझ में आ जाएंगे; लेकिन शब्दों में जो छिपा है, अंतरगुंफित है, वह द्वार तो उसके लिए बंद ही रहेगा। इसलिए तुम निर्णय मत करना कि क्या ठीक, क्या गलत।
तुम सिर्फ पीना--समझना भी नहीं कहता हूं--तुम सिर्फ पीना, तुम सिर्फ स्वाद में उतरना। और अगर वह स्वाद तुम्हारे भीतर रहस्य के लोक खोलने लगे, और वह स्वाद अगर तुम्हारे भीतर नई सुगंध को जन्म दे दे, और तुम पाओ कि क्षण भर को भी सही, तुम्हारे दुर्गंध का व्यक्तित्व विलीन हो गया है, तुम्हारे भीतर कोई फूल खिला है और तुम सुगंधित हुए हो, क्षण भर को भी तुम पाओ कि तुम अंधकार नहीं हो, कोई दीया जल गया, एक झलक मिली; जैसे अंधेरे में बिजली कौंध गई हो, उसी से--उसी से समझ आएगी। तुम्हारे समझने से नहीं, तुम्हारे अनुभव की झलक से समझ आएगी। इसलिए तुम विनम्र रहना।
दूसरी बात, सूत्र का अर्थ होता है: संक्षिप्त से संक्षिप्त, सारभूत, टेलीग्राफिक। वहां एक-एक शब्द अत्यंत घना है; विस्तार नहीं होता सूत्र में, घनत्व होता है। लंबा नहीं होता सूत्र, बड़ा छोटा होता है; जैसे छोटा सा बीज होता है। उसमें सारा वृक्ष समाया होता है।
जैसे बीज है, ऐसा सूत्र है। बीज में तुम वृक्ष को देख भी नहीं सकते। देखना भी चाहोगे तो बीज में तुम वृक्ष को पाओगे नहीं, क्योंकि उसके लिए बड़ी गहरी आंखें चाहिए--जो बीज में वृक्ष को देख लें, जो वर्तमान में भविष्य को देख लें, जो आज कल को देख लें, जो दृश्य से अदृश्य को खोज लें--बड़ी पैनी आंखें चाहिए। वैसी पैनी आंखें तुम्हारे पास अभी नहीं हैं। अभी तो तुम्हें बीज बीज ही दिखाई पड़ेगा। वृक्ष को देखना हो तो बीज को तुम्हें बोना पड़ेगा, और कोई रास्ता तुम्हारे पास देखने का नहीं है। और जब बीज टूटेगा जमीन में और वृक्ष अंकुरित होगा, तभी तुम पहचान पाओगे।
ये सूत्र बीज हैं। इन्हें तुम्हें अपने हृदय में बोना होगा। तुम अभी निर्णय मत करना। क्योंकि अभी तुमने अगर बीज पर निर्णय लिया तो तुम इसे फेंक ही दोगे; कचरा कूड़ा मालूम पड़ेगा।
बीज में, कंकड़-पत्थर में कोई ज्यादा फर्क नहीं है। कभी-कभी तो कंकड़-पत्थर ज्यादा चमकीले, रंगीन, खूबसूरत, कीमती होते हैं। लेकिन बीज और कीमती से कीमती कोहिनूर में भी एक फर्क है कि तुम कोहिनूर को बो दो, तो उसमें से कुछ पैदा न होगा। वह कीमती कितना ही हो, मुर्दा है। उसका मूल्य नासमझ कितना ही समझते हों, लेकिन जीवन उसमें नहीं है। वह लाश है। और बीज कुरूप भी दिखाई पड़ता हो, कोई उसकी कीमत भी न हो, लेकिन उसमें जीवन छिपा है। तुम उसे बो दो, उससे विराट वृक्ष पैदा होगा, और एक बीज से करोड़ों बीज लग जाएंगे। एक छोटा सा बीज इस सारे विश्व को पैदा कर सकता है; क्योंकि एक बीज से करोड़ों बीज पैदा होते हैं। फिर करोड़ों बीज से, हर बीज से करोड़ बीज पैदा होते हैं। एक छोटे बीज में सारे विश्व का ब्रह्मांड समा सकता है।
सूत्र बीज है। उसके साथ जल्दी नहीं की जा सकती। उसको बोओगे हृदय में और अंकुरित होगा, फूल लगेंगे--तभी तुम जान पाओगे; तभी निर्णय लिया जा सकता है।
तीसरी बात--इसके पहले कि हम शुरू करें--धर्म महान क्रांति है। धर्म के नाम से तुमने जो समझा हुआ है, उसका धर्म से न के बराबर संबंध है। इसलिए शिव के सूत्र तुम्हें चौंकाएंगे भी। तुम भयभीत भी होओगे, डरोगे भी; क्योंकि तुम्हारा धर्म डगमगाएगा। तुम्हारा मंदिर, तुम्हारी मस्जिद, तुम्हारे गिरजे--अगर ये सूत्र तुमने समझे तो--गिर जाएंगे! तुम उन्हें बचाने की कोशिश में मत लगना; क्योंकि वे बचे भी रहें, तो भी उनसे तुम्हें कुछ भी मिला नहीं है। तुम उनमें जी ही रहे हो, और तुम मुर्दा हो। मंदिर काफी सजे हैं, लेकिन तुम्हारे जीवन में कोई भी खुशी की किरण नहीं। मंदिर में काफी रोशनी है; उससे तुम्हारे जीवन का अंधकार नहीं मिटता। तो उससे भयभीत मत होना; क्योंकि सूत्र तुम्हें कठिनाई में तो डालेंगे ही। क्योंकि शिव कोई पुरोहित नहीं हैं। पुरोहित की भाषा तुम्हें हमेशा संतोषदायी मालूम पड़ती है; क्योंकि पुरोहित को तुम्हारा शोषण करना है। पुरोहित तुम्हें बदलने को उत्सुक नहीं है। तुम जैसे हो ऐसे ही रहो, इसी में उसका लाभ है। तुम जैसे हो--रुग्ण, बीमार--ऐसे ही रहो, इसी में उसका व्यवसाय है।
मैंने सुना है, एक डाक्टर ने अपने लड़के को पढ़ाया। पढ़-लिख कर घर आया। पिता ने कभी छुट्टी भी न ली थी। तो उसने कहा कि अब तू मेरे कारबार को सम्हाल और मैं एक तीन महीने विश्राम कर लूं। जीवन भर सिर्फ मैंने कमाया है और कभी विश्राम नहीं लिया। वह विश्व की यात्रा पर निकल गया। तीन महीने बाद लौटा, तो उसने अपने लड़के से पूछा कि सब ठीक चल रहा है? उसके लड़के ने कहा कि बिलकुल ठीक चल रहा है। आप हैरान होंगे कि जिन मरीजों को आप जीवन भर में ठीक न कर पाए, उनको मैंने तीन महीने में ठीक कर दिया। पिता ने सिर ठोंक लिया। उसने कहा, मूढ़! वही हमारा व्यवसाय थे। क्या मैं उनको ठीक नहीं कर सकता था? तेरी पढ़ाई कहां से आती थी? उन्हीं पर आधार था। और भी बच्चे पढ़-लिख लेते। तूने सब खराब कर दिया।
पुरोहित, तुम जैसे हो--रुग्ण, बीमार--तुम्हें वैसा ही चाहता है। उस पर ही उसका व्यवसाय है। शिव कोई पुरोहित नहीं हैं। शिव तीर्थंकर हैं। शिव अवतार हैं। शिव क्रांतिद्रष्टा हैं, पैगंबर हैं। वे जो भी कहेंगे, वह आग है। अगर तुम जलने को तैयार हो, तो ही उनके पास आना; अगर तुम मिटने को तैयार हो, तो ही उनके निमंत्रण को स्वीकार करना। क्योंकि तुम मिटोगे तो ही नये का जन्म होगा। तुम्हारी राख पर ही नये जीवन की शुरुआत है। इन बातों को खयाल में रख कर एक-एक सूत्र को समझने की कोशिश करें।
पहला सूत्र है: ‘चैतन्यमात्मा। चैतन्य आत्मा है।’
चैतन्य हम सभी हैं, लेकिन आत्मा का हमें कोई पता नहीं चलता। अगर चैतन्य ही आत्मा है तो हम सभी को पता चल जाना चाहिए। हम सब चैतन्य हैं। लेकिन चैतन्य आत्मा है, इसका क्या अर्थ होगा?
पहला अर्थ: इस जगत में, सिर्फ चैतन्य ही तुम्हारा अपना है। आत्मा का अर्थ होता है, अपना; शेष सब पराया है। शेष कितना ही अपना लगे, पराया है। मित्र हों, प्रियजन हों, परिवार के लोग हों, धन हो, यश, पद-प्रतिष्ठा हो, बड़ा साम्राज्य हो--वह सब जिसे तुम कहते हो मेरा--वहां धोखा है। क्योंकि वह सभी मृत्यु तुमसे छीन लेगी। मृत्यु कसौटी है--कौन अपना है, कौन पराया है। मृत्यु जिससे तुम्हें अलग कर दे, वह पराया था। और मृत्यु तुम्हें जिससे अलग न कर पाए, वह अपना था।
आत्मा का अर्थ है, जो अपना है। लेकिन जैसे ही हम सोचते हैं अपना, वैसे ही दूसरा प्रवेश कर जाता है। अपने का मतलब ही होता है: कोई दूसरा, जो अपना है। तुम्हें यह खयाल ही नहीं आता कि तुम्हारे अतिरिक्त, तुम्हारा अपना कोई भी नहीं है; हो भी नहीं सकता। और जितनी देर तुम भटके रहोगे इस धारा में कि कोई दूसरा अपना है, उतने दिन व्यर्थ गए, उतना जीवन अकारण बीता, उतना समय तुमने सपने देखे। उतने समय में तुम जाग सकते थे, मोक्ष तुम्हारा होता; तुमने कचरा इकट्ठा किया।
सिर्फ तुम ही तुम्हारे हो। यह पहला सूत्र, मेरे अतिरिक्त मेरा कोई भी नहीं है।
यह बड़ा क्रांतिकारी सूत्र है, बड़ा समाज-विरोधी। क्योंकि समाज जीता इसी आधार पर है कि दूसरे अपने हैं; जाति के लोग अपने हैं; देश के लोग अपने हैं; मेरा देश, मेरी जाति, मेरा धर्म, मेरा परिवार; मेरे का सारा खेल है। समाज जीता है ‘मेरे’ की धारणा पर। इसलिए धर्म समाज-विरोधी तत्व है। धर्म समाज से छुटकारा है, दूसरे से छुटकारा है। और धर्म कहता है कि तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हारा और कोई भी नहीं।
ऊपर से देखने पर बड़ा स्वार्थी वचन मालूम पड़ेगा। क्योंकि यह तो यह बात हुई कि बस हम ही अपने हैं, तो तत्क्षण हमें लगता है यह तो स्वार्थ की बात है!
यह स्वार्थ की बात नहीं है। अगर यह तुम्हें खयाल में आ जाए, तो ही तुम्हारे जीवन में परार्थ और परमार्थ पैदा होगा। क्योंकि जो अभी आत्मा के भाव से ही नहीं भरा है, उसके जीवन में कोई परार्थ और कोई परमार्थ नहीं हो सकता। तुम कहते हो दूसरों को मेरा। लेकिन ‘मेरा’ कह कर तुम करते क्या हो? ‘मेरा’ कह कर तुम उन्हें चूसते हो। ‘मेरा’ तुम्हारा शोषण का हिस्सा है, फैलाव है। जिसको भी तुम ‘मेरा’ कहते हो, तुम उसे गुलाम बनाते हो। तुम उसे अपने परिग्रह में परिवर्तित कर देते हो। मेरी पत्नी, मेरा पति, मेरा बेटा, मेरा पिता--तुम करते क्या हो? इस मेरे के पीछे--इस ‘मेरे’ के परदे के पीछे--तुम्हारे संबंध का मूल आधार क्या है? तुम चूसते हो, तुम शोषण करते हो, तुम दूसरे का उपयोग करते हो। इस दूसरे के उपयोग को तुम सोचते हो परार्थ, तो तुम भ्रांति में हो।
एक सम्राट बूढ़ा हुआ। उसके तीन बेटे थे और वह बड़ी चिंता में था किसको राज्य दे! तीनों ही योग्य और कुशल थे, तीनों ही समान गुणधर्मा थे। इसलिए बड़ी कठिनाई हुई। उसने एक दिन तीनों बेटों को बुलाया और कहा कि पिछले पूरे वर्ष में तुमने जो भी कृत्य महानतम किया हो--एक कृत्य जो पूरे वर्ष में महानतम हो--वह तुम मुझे कहो।
बड़े बेटे ने कहा कि गांव का जो सबसे बड़ा धनपति है, वह तीर्थयात्रा पर जा रहा था; उसने करोड़ों रुपये के हीरे-जवाहरात बिना गिने, बिना किसी हिसाब-किताब के, बिना किसी दस्तखत लिए मेरे पास रख दिए, और कहा कि जब मैं लौट आऊंगा तीर्थयात्रा से, मुझे वापस लौटा देना। चाहता मैं तो पूरे भी पा जा सकता था; क्योंकि न कोई लिखा-पढ़ी थी, न कोई गवाह था। इतना भी मैं करता तो थोड़े-बहुत बहुमूल्य हीरे मैं बचा लेता तो कोई कठिनाई न थी। क्योंकि उस आदमी ने न तो गिने थे, और न कोई संख्या रखी थी। लेकिन मैंने सब जैसी की जैसी थैली वापस लौटा दी।
पिता ने कहा, तुमने भला किया। लेकिन मैं तुमसे पूछता हूं कि अगर तुमने कुछ रख लिए होते, तो तुम्हें पश्चात्ताप, ग्लानि, अपराध का भाव पकड़ता या नहीं? उस बेटे ने कहा, निश्चित पकड़ता। तो बाप ने कहा, इसमें परोपकार कुछ भी न हुआ। तुम सिर्फ अपने पश्चात्ताप, अपनी पीड़ा से बचने के लिए यह किए हो। इसमें परोपकार क्या हुआ? हीरे बचाते तो ग्लानि मन को पीड़ा देती, कांटे की तरह चुभती। उस कांटे से बचने के लिए तुमने हीरे वापस दिए हैं। काम तुमने अच्छा किया, ठीक है; लेकिन परोपकार कुछ भी न हुआ। उपकार तुमने अपना ही किया है।
दूसरा बेटा थोड़ी चिंता में पड़ा। और उसने कहा कि मैं राह के किनारे से गुजरता था, और झील में सांझ के वक्त, जब कि वहां कोई भी न था, एक आदमी डूबने लगा। चाहता तो मैं अपने रास्ते चला जाता, सुना अनसुना कर देता। लेकिन मैंने तत्क्षण छलांग मारी, अपने जीवन को खतरे में डाला और उस आदमी को बाहर निकाला।
बाप ने कहा, तुमने ठीक किया। लेकिन अगर तुम चले जाते और न निकालते तो क्या उस आदमी की मृत्यु सदा तुम्हारा पीछा न करती? तुम अनसुनी कर देते ऊपर से, लेकिन भीतर तो तुम सुन चुके थे उसकी चीत्कार, आवाज--कि बचाओ! क्या सदा-सदा के लिए उसका प्रेत तुम्हारा पीछा न करता? उसी भय से तुमने छलांग लगाई, अपनी जान को खतरे में डाला। लेकिन परोपकार तुमने कुछ किया हो, इस भ्रांति में पड़ने का कोई कारण नहीं है।
तीसरे बेटे ने कहा कि मैं गुजरता था जंगल से। और एक पहाड़ की कगार पर मैंने एक आदमी को सोया हुआ देखा, जो कि नींद में अगर एक भी करवट ले, तो सदा के लिए समाप्त हो जाएगा; क्योंकि दूसरी तरफ महान खड्ड था। मैं उस आदमी के पास पहुंचा और जब मैंने देखा कि वह कौन है, तो वह मेरा जानी दुश्मन था। मैं चुपचाप अपने रास्ते पर जा सकता था। या, अगर मैं अपने घोड़े पर सवार उसके पास से भी गुजरता, तो मेरे बिना कुछ किए, शायद सिर्फ मेरे गुजरने के कारण, वह करवट लेता और खड्ड में गिर जाता। लेकिन मैं आहिस्ते से जमीन पर सरकता हुआ उसके पास पहुंचा कि कहीं मेरी आहट में वह गिर न जाए। और यह भी मैं जानता था कि वह आदमी बुरा है; मेरे बचाने पर भी वह मुझे गालियां ही देगा। उसे मैंने हिलाया, आहिस्ते से जगाया। और वह आदमी गांव में मेरे खिलाफ बोलता फिर रहा है। क्योंकि वह आदमी कहता है, मैं मरने ही वहां गया था। इस आदमी ने वहां भी मेरा पीछा किया। यह जीने तो देता ही नहीं, इसने मरने भी न दिया।
पिता ने कहा, तुम दो से बेहतर हो; लेकिन परोपकार यह भी नहीं है। क्यों? क्योंकि तुम अहंकार से फूले नहीं समा रहे हो कि तुमने कुछ बड़ा कार्य कर दिया। बोलते हो तो तुम्हारी आंखों की चमक और हो जाती है। कहते हो तो तुम्हारा सीना फूल जाता है। और जिस कृत्य से अहंकार निर्मित होता हो, वह परोपकार न रहा। बड़े सूक्ष्म मार्ग से तुमने अपने अहंकार को उससे भर लिया। तुम सोच रहे हो, तुम बड़े धार्मिक और परोपकारी हो। तुम इन दो से बेहतर हो। लेकिन मुझे राज्य के मालिक के लिए किसी चौथे की ही तलाश करनी पड़ेगी।
जब तुम परोपकार करते हो, तब तुम कर नहीं सकते; क्योंकि जिसे अपना ही पता नहीं है, वह परोपकार करेगा कैसे? तुम चाहे सोचते होओ कि तुम कर रहे हो--गरीब की सेवा, अस्पताल में बीमार के पैर दबा रहे हो--लेकिन अगर तुम गौर से खोजोगे तो तुम कहीं न कहीं अपने अहंकार को ही भरता हुआ पाओगे। और अगर तुम्हारा अहंकार ही सेवा से भरता है, तो सेवा भी शोषण है। आत्मज्ञान के पहले कोई व्यक्ति परोपकारी नहीं हो सकता; क्योंकि स्वयं को जाने बिना इतनी बड़ी क्रांति हो ही नहीं सकती।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी उससे झगड़ रही थी और कह रही थी कि यह मामला क्या है, एक दफा साफ हो जाना चाहिए। तुम मेरे सभी रिश्तेदारों को नफरत और घृणा क्यों करते हो?
नसरुद्दीन ने कहा, यह बात गलत है; यह बात तथ्यगत भी नहीं है। और इसका प्रमाण है मेरे पास। और प्रमाण यह है कि मैं तुम्हारी सास को अपनी सास से ज्यादा चाहता हूं।
अहंकार ऐसे रास्ते खोजता है। ऊपर से दिखता है कि तुम परोपकार कर रहे हो; लेकिन भीतर तुम ही खड़े होते हो। और जितनी सूक्ष्म हो जाती है यात्रा, उतनी ही पकड़ के बाहर हो जाती है। दूसरे तो पकड़ ही नहीं पाते; तुम भी नहीं पकड़ पाते हो। दूसरे तो धोखे में पड़ते ही हैं; तुम भी अपने दिए धोखे में घूम जाते हो, भटक जाते हो। हम सभी ने अपनी-अपनी भूलभुलैयां बना ली है। उसमें हमने दूसरों को धोखा देने के लिए ही शुरू किया था सारा उपाय, आयोजन; यह हमने कभी सोचा न था कि अपनी बनाई भूलभुलैयां में हम खुद ही खो जाएंगे। लेकिन हम खो गए हैं।
पहली बात स्मरण रखो: तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हारा कोई भी नहीं है। जैसे ही यह स्मरण सघन होता है कि चैतन्य ही आत्मा है, बस चैतन्य ही मैं हूं, और सब, और सब ‘पर’ है, पराया है, विजातीय है--वैसे ही तुम्हारे जीवन में क्रांति की पहली किरण प्रविष्ट हो जाती है; वैसे ही तुम्हारे और समाज के बीच एक दरार पड़ जाती है; वैसे ही तुम्हारे और तुम्हारे संबंधों के बीच एक दरार पड़ जाती है।
लेकिन आदमी अपनी तरफ देखना नहीं चाहता। देखना कठिन भी है; क्योंकि देखने के पहले जिस प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है, वह बहुत संघातक है।
एक मारवाड़ी व्यापारी एक फिल्म अभिनेत्री के प्रेम में पड़ गया। वैसे बात अनहोनी थी--मारवाड़ी और व्यापारी! प्रेम से सदा दूर ही रहता है। लेकिन अनहोनी भी घटती है। प्रेम में तो पड़ गया; लेकिन व्यापारी का संदेह भरा चित्त! तो उसने एक जासूस नियुक्त कर दिया अभिनेत्री के पीछे कि तू पता लगा, इसका चरित्र तो ठीक है न। इसके पहले कि मैं प्रस्ताव करूं विवाह का, सब बात पक्की कागज पर साफ हो जानी चाहिए।
जासूस ने बड़ी खोजबीन की। सात दिन बाद उसने रिपोर्ट भी भेज दी। रिपोर्ट आई कि इस स्त्री का चरित्र एकदम निर्दोष, निष्कलुष है। ऐसी कोई बात कभी इसके संबंध में नहीं सुनी गई, नहीं जानी गई, जिससे संदेह पैदा हो; सिर्फ एक बात को छोड़ कर--पिछले कुछ दिनों से एक संदिग्ध मारवाड़ी के साथ यह देखी जाती है। वह संदिग्ध मारवाड़ी वे स्वयं थे!
आंख दूसरे को देखती है। हाथ दूसरे को छूते हैं। मन दूसरे की सोचता है। और तुम सदा अंधेरे में खड़े रह जाते हो। तुम्हारी हालत वही है जो दीया तले अंधेरे की होती है। दीये की रोशनी सब पर पड़ती है, सिर्फ तुम्हें छोड़ देती है। इसलिए तुम भटकते हो उस रोशनी में सब तरफ, सब दिशाओं में यात्रा करते हो, और एक अपरिचित रह जाता है--और वही तुम हो।
यह पहला सूत्र है: ‘चैतन्य आत्मा है।’
इस सूत्र को गहरे बीज की तरह अपने हृदय में उतर जाने दो। व्यर्थ है सारे जगत की यात्रा, अगर तुम अपने से अपरिचित रह गए। अगर स्वयं को न जान पाए, और सब भी जान लिया, तो वह सारा ज्ञान भी इकट्ठे जोड़ में अज्ञान सिद्ध होगा। अगर अपने को न देख पाए, और सारा जगत देख डाला, चांद-तारे छान डाले, तो भी तुम अंधे ही रहोगे। क्योंकि आंख तो उसी को मिलती है, जो स्वयं को देख लेता है। ज्ञान तो उसी को मिलता है, जो स्वयं से परिचित हो जाता है। जो चैतन्य के स्वप्रकाश में नहा लेता है, वही पवित्र है। और कोई तीर्थ नहीं है; चैतन्य तीर्थ है।
और चैतन्य तुम्हारा स्वभाव है। उससे तुम क्षण भर को भी पार नहीं गए हो। लेकिन दीया तले अंधेरा है। तुम उससे दूर जा भी नहीं सकते, चाहो तो भी। लेकिन भ्रम पैदा हो सकता है कि तुम बहुत दूर चले गए हो। तुम सपना देख सकते हो संसार में। लेकिन सपना सत्य नहीं हो सकता। सत्य तो सिर्फ एक बात है, वह है तुम्हारा चैतन्य स्वभाव।
‘चैतन्य आत्मा है।’
तो पहली तो बात कि मेरा सिवाय चैतन्य के और कोई भी नहीं। यह भाव तुममें सघन हो जाए, तो संन्यास का जन्म हुआ। क्योंकि मेरे अतिरिक्त भी मेरा कोई हो सकता है, यही भाव संसार है। इसलिए पहले सूत्र में बड़ी क्रांति है। पहली चिनगारी शिव फेंकते हैं तुम्हारी तरफ, और वह यह है कि तुम जान लो कि तुम ही बस तुम्हारे हो, बाकी कोई तुम्हारा नहीं।
इससे बड़ा विषाद मन को पकड़ेगा; क्योंकि तुमने दूसरों के साथ बड़े संबंध बना रखे हैं, बड़े सपने संजो रखे हैं। दूसरों के साथ तुम्हारी बड़ी आशाएं जुड़ी हैं। मां देख रही है कि बेटा बड़ा होगा; बड़ी आशाएं जुड़ी हैं! बाप देख रहा है कि बेटा बड़ा होगा; बड़ी आशाएं जुड़ी हैं! और इन सारी आशाओं में तुम अपने को खो रहे हो। यही तुम्हारे पिता भी इन्हीं आशाओं को कर-कर के समाप्त हुए तुम्हारे लिए। तुमसे क्या उन्हें मिला? यही आशाएं कर-कर के तुम समाप्त हो जाओगे; तुम्हारे बेटे से तुम्हें कुछ मिलेगा नहीं। और तुम्हारा बेटा भी यही मूढ़ता जारी रखेगा। वह अपने बेटों से आशाएं करेगा।
नहीं, अपनी तरफ देखो--न तो पीछे, न आगे। कोई भी तुम्हारा नहीं है। कोई बेटा तुम्हें नहीं भर सकेगा। कोई संबंध तुम्हारी आत्मा नहीं बन सकता। तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हारा कोई मित्र नहीं है। लेकिन तब बड़ा डर लगता है; क्योंकि लगता है कि तुम अकेले हो गए। और आदमी इतना भयभीत है कि गली से गुजरता है अकेले में, तो भी जोर से गीत गाने लगता है। अपनी ही आवाज सुन कर लगता है कि अकेला नहीं है। यह तुम अपनी ही आवाज सुन रहे हो। बाप जब बेटे में अपने सपने रचा रहा है, तो बेटे की कोई सहमति नहीं है। यह बाप खुद ही अकेले में सीटी बजा रहा है। इसलिए दुखी होगा कल; क्योंकि इसने जिंदगी भर सपने रचाए और यह सोचता है कि बेटा भी यही सपने देख रहा है। यह गलती में है। बेटा अपने सपने देखेगा। तुम अपने सपने देख रहे हो। तुम्हारे बाप ने अपने सपने देखे थे। ये कहीं मिलते नहीं।
हर बाप दुखी मरता है। क्या कारण होगा? क्योंकि जो-जो सपने वह बांधता है, वे सभी सपने बिखर जाते हैं। हर आदमी अपने सपने देखने को यहां है, तुम्हारे सपने देखने को नहीं। और तुम्हें अगर चाहिए कि एक आप्त स्थिति उपलब्ध हो जाए--एक तृप्ति मिले--तो तुम सपने किसी और के साथ मत बांधना; अन्यथा तुम भटकोगे।
संसार का इतना ही अर्थ है कि तुमने अपने सपनों की नाव दूसरों के साथ बांध रखी है। संन्यास का अर्थ है कि तुम जाग गए। और तुमने एक बात स्वीकार कर ली--कितनी ही कष्टकर हो, कितनी ही दुखपूर्ण मालूम पड़े प्रथम, और कितनी ही संघातक पीड़ा अनुभव हो--कि तुम अकेले हो। सब संग-साथ झूठा है। इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम भाग जाओ हिमालय। क्योंकि जो हिमालय की तरफ भाग रहा है, उसे अभी संग-साथ सार्थक है, झूठा नहीं हुआ। क्योंकि जो चीज झूठ हो गई, उससे भागने में भी कोई सार्थकता नहीं है। कोई भी सुबह जाग कर भागता तो नहीं कि सपना झूठा है, भागूं इस घर से। सपना झूठा हो गया, बात खत्म हो गई। उसमें भागना क्या है!
लेकिन एक आदमी है जो भाग रहा है पत्नी से, बच्चों से। इसका भागना बताता है: इसने सुन लिया होगा कि सपना झूठा है, लेकिन अभी इसे खुद पता नहीं चला। कल तक यह पत्नी की तरफ भागता था, अब पत्नी की तरफ पीठ करके भागता है; लेकिन दोनों ही अर्थों में पत्नी सार्थक थी।
एक जैन संत हुए, गणेशवर्णी। वर्षों पहले उन्होंने पत्नी त्याग दी। साधु पुरुष थे। कोई बीस वर्ष त्याग के बाद, काशी में थे, तब खबर आई कि पत्नी मर गई। उनके मुंह से जो वचन निकला, वह याद रख लेने जैसा है। उन्होंने कहा, चलो झंझट मिटी। उनके भक्तों ने इस वचन का अर्थ लिया कि बड़ी वीतरागता है। थोड़ा सोचो, तो साफ हो जाएगा कि वीतरागता बिलकुल नहीं है। क्योंकि जिस पत्नी को बीस साल पहले छोड़ दिया, उसकी झंझट अभी कायम थी? तो ही मिट सकती है। गणित बिलकुल सीधा और साफ है। यह पत्नी जो बीस साल पहले छोड़ दी, किसी न किसी तरह छाया की तरह पीछे चल रही होगी। यह मन में कहीं सवार होगी। इसका उपद्रव कायम था। बीस साल भी इसके उपद्रव को मिटा नहीं पाए थे, छोड़ने के बाद। यह मन सतत सोचता रहा होगा--पक्ष में, विपक्ष में। पत्नी के मरने पर यह वचन कि चलो झंझट मिटी, पत्नी के संबंध में कुछ भी नहीं बताते, सिर्फ पति के संबंध में बताते हैं--कि यह आदमी भाग तो गया छोड़ कर, लेकिन छोड़ न पाया।
और गणेशवर्णी साधु पुरुष थे। इसलिए थोड़ा सोच लेना--साधु पुरुष भी बड़ी भ्रांति में रह सकते हैं। उनके चरित्र में, आचरण में कोई भूल-चूक न थी। वे मर्यादा के पुरुष थे। ठीक-ठीक नियम से चलते थे। वहां कोई जरा भी दरार नहीं पा सकता, जरा त्रुटि नहीं पा सकता। सब आचरण ठीक था, साधुता पूरी थी। फिर भी भीतर कोई बात चूक गई। हिमालय पहुंच गए, झंझट साथ चली गई।
फिर दूसरी बात भी समझ लेने जैसी है। और वह यह कि अगर पत्नी के मरने पर पहला खयाल यह आया कि झंझट मिटी, तो कहीं जाने-अनजाने, अचेतन में, पत्नी की मृत्यु की आकांक्षा भी छिपी रही होगी। वह जरा गहरा। किसी तल पर पत्नी मिट जाए, न हो, समाप्त हो जाए। यह तो हिंसा हो गई।
लेकिन एक-एक वचन भी अकारण नहीं आता, आसमान से नहीं आता। एक-एक वचन भी भीतर से आता है। और ऐसे क्षणों में, जब कि पत्नी मर गई, इसकी खबर आई हो, तुम ठीक-ठीक अपने रोजमर्रा के व्यवसायी होश में नहीं होते हो। तब तुमसे जो बात निकलती है, वह ज्यादा सही होती है। घंटे भर बाद तुम्हें मौका मिल जाएगा, तुम खुद ही सोच-समझ कर लीप-पोत कर लोगे। तुम फिर जो कहोगे, वह बात झूठी हो जाएगी। लेकिन तत्क्षण उस क्षण में वर्णी चूक गए। वह जो बीस साल से उन्होंने चारों तरफ साधुता की व्यवस्था कर रखी थी, उस क्षण में भूल गए। जब वर्णी को ऐसा घट सकता है, तो तुम्हें तो सहज ही घट सकता है। भागने से कुछ भी न होगा। भाग कर कोई भी कभी भाग नहीं पाया।
लेकिन भक्त इसको न देख पाएंगे। उन्होंने तो वर्णी की कथा में इसको बड़े बहुमूल्य वचन की तरह संगृहीत किया है, यह सोच कर कि देखो आदमी कैसा वीतराग है!
तुम्हें पता भी नहीं हो सकता कि वीतरागता क्या है। तुम राग में जीते हो, तुम्हें विराग समझ में आता है। तुमसे जो विपरीत है, वह समझ में आता है। तुम जानते हो कि तुम पत्नी को छोड़ कर नहीं जा सकते, और यह आदमी छोड़ कर चला गया; यह आदमी तुमसे बड़ा है।
यह तुमसे विपरीत है, लेकिन तुमसे भिन्न नहीं। तुम पैर के बल खड़े हो, यह आदमी सिर के बल खड़ा है। लेकिन तुम्हारे मन में और इसके मन में रत्ती भर भी फर्क नहीं है। खोज कर देखो! तुम सभी सोचते हो कि पत्नी झंझट है। तुम एकाध ऐसा पति पा सकते हो, जो कहे पत्नी झंझट नहीं? पत्नी के सामने मत पूछना; एकांत में, अकेले में।
मुल्ला नसरुद्दीन ने मुझे कहा है कि मैं भी कभी सुखी था। लेकिन यह मुझे पता ही तब चला, जब मैंने विवाह कर लिया, और तब फिर बहुत देर हो चुकी थी। मैं भी कभी सुखी था, यह पता मुझे तब चला, जब मैंने विवाह कर लिया। लेकिन तब तक तो बहुत देर हो चुकी थी; सुख हाथ से जा चुका था।
पति को गहराई में पूछो, तो ऐसा पति खोजना कठिन है, जिसने कई बार पत्नी की हत्या करने का विचार न किया हो, सपने न देखे हों कि मार डाला पत्नी को। सुबह उठ कर वह भी कहेगा, कैसा बेहूदा सपना! लेकिन अचेतन आकांक्षा है। जिससे झंझट पैदा होती है, उसे मिटा देने का मन--सीधा तर्क है।
लेकिन झंझट दूसरे से कभी पैदा होती ही नहीं। पत्नी में अगर कोई उपद्रव होता, तो कौन तुम्हें रोकता था, तुम सब भाग गए होते हिमालय। उपद्रव पत्नी में नहीं है; क्योंकि तुम हिमालय जाकर फिर पत्नी खोज लोगे। उपद्रव तुम्हारे भीतर है। तुम अकेले नहीं रह सकते। तुम्हें कोई दूसरा चाहिए। अकेले में तुम डरते हो। कोई दूसरा, तब तुम निश्चिंत मालूम पड़ते हो। क्यों? दूसरे की मौजूदगी से आश्वासन मिलता है--दुख में, सुख में कोई साथी है। जीवन में, मृत्यु में कोई साथी है।
लेकिन अकेलापन स्वभाव है। और जिस व्यक्ति ने यह अनुभव कर लिया कि आत्मा ही बस मेरी है, उसने अपने अकेलेपन को अनुभव कर लिया। भागने की कोई भी जरूरत नहीं, नहीं तो झंझट पीछे चली जाएगी। तुम जहां हो, वहीं रहना; रत्ती भर भी बाहर कोई फर्क करने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन भीतर तुम अकेले हो जाना। भीतर तुम कैवल्य को अनुभव करना कि मैं अकेला हूं; कोई संगी-साथी नहीं। और यह तुम दोहराना मत, क्योंकि दोहराने की कोई जरूरत नहीं कि रोज सुबह बैठ कर तुम दोहराओ कि मैं अकेला हूं, कोई संगी-साथी नहीं। इससे कुछ भी न होगा। यह दोहराना तो सिर्फ यही बताएगा कि तुम्हें अभी खयाल नहीं हुआ। इसे समझना। यह तथ्य है कि तुम अकेले हो।
समझने में अड़चन है--वही तपश्चर्या है। तप का अर्थ नहीं है कि तुम धूप में खड़े हो जाओ। आदमी को छोड़ कर सभी पशु-पक्षी धूप में खड़े हैं। उनमें से कोई भी मोक्ष नहीं चला जा रहा है। और तप का अर्थ यह नहीं है कि तुम भूखे खड़े हो जाओ, अनशन कर लो, उपवास कर दो; क्योंकि आधी दुनिया वैसे ही भूखी मर रही है, कोई उपवास करके मोक्ष नहीं पहुंच जाता है। शरीर को गला दो, जला दो--उससे कुछ हल नहीं है। वह सिर्फ आत्म-हिंसा है और महानतम पाप है। और सिर्फ मूढ़ उस पाप में उतरते हैं। जिन्हें थोड़ा भी बोध है, वे ऐसी नासमझियां न करेंगे।
दूसरे को भूखा मारना अगर गलत है, तो खुद को भूखा मारना सही कैसे हो सकता है? दूसरे को सताना अगर हिंसा है, तो खुद को सताना अहिंसा कैसे हो सकती है? सताने में हिंसा है। किसको तुम सताते हो इससे क्या फर्क पड़ता है! जो हिम्मतवर हैं वे दूसरे को सताते हैं; जो कमजोर हैं वे खुद को सताते हैं। क्योंकि दूसरे को सताने में एक खतरा है, दूसरा बदला लेगा। खुद को सताने में वह खतरा भी नहीं है। कौन बदला लेगा? कमजोर अपने को सताते हैं।
तुमने कभी खयाल किया--अगर पुरुष नाराज हो जाए तो वह पत्नी को पीटता है, अगर पत्नी नाराज हो वह खुद को पीटती है। यह जो पत्नी है, यह साधुओं का प्रतीक है। कमजोर अपने को पीट लेता है। क्या करे? ताकतवर दूसरे को पीटता है; क्योंकि उसमें खतरा तो है ही कि दूसरा क्या करेगा, कौन जाने! कमजोर आत्म-हिंसक हो जाता है, और ताकतवर पर-हिंसक होता है। और धार्मिक वह है जो अहिंसक है--न वह दूसरे को सताता है, न खुद को सताता है। सताने की बात ही व्यर्थ है।
तपश्चर्या का अर्थ है कि तुमने यह सत्य स्वीकार कर लिया कि तुम अकेले हो, कोई उपाय नहीं है संगी-साथी का। तुम कितना ही चाहो--कितनी ही आंखें बंद करो, सपने देखो--तुम अकेले ही रहोगे। जन्मों-जन्मों से तुमने घर बसाए, परिवार बसाए, मिटाए; लेकिन तुम अकेले ही रहे हो, तुम्हारे अकेलेपन में रत्ती भर फर्क नहीं पड़ता। जिसने यह जान लिया--स्वीकार कर लिया--कि मैं अकेला हूं, उसके लिए इंगित है इस सूत्र में: चैतन्य आत्मा है। वही तुम्हारा, और कोई तुम्हारा नहीं।
और दूसरी बात इस सूत्र में है, वह है: चैतन्य।
आत्मा कोई सिद्धांत नहीं है कि तुम शास्त्र में पढ़ो और मान लो। आत्मा कोई, जैसे गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत है, ऐसा कोई सिद्धांत नहीं है। आत्मा एक अनुभव है, सिद्धांत नहीं। और अनुभव है चैतन्य की तीव्रता का। इसलिए तुम जितने चैतन्य होते जाओगे, उतना ही तुम्हें आत्मा का पता चलेगा। तुम जितने बेहोश होते चले जाओगे, उतना ही तुम्हें अपना पता नहीं चलेगा। और तुम करीब-करीब बेहोश हो।
जो आत्मा को जानना चाहता है, उसे किसी दर्शन-शास्त्र की जरूरत नहीं है, उसे चैतन्य को जगाने की प्रक्रिया चाहिए। उसे विधि चाहिए, जिससे वह ज्यादा चेतन हो जाए। जैसे कि आग को तुम उकसाते हो; राख जम जाती है, तुमउकसा देते हो--राख झड़ जाती है, अंगारे झलकने लगते हैं। ऐसी तुम्हें कोई प्रक्रिया चाहिए जिससे तुम्हारी राख झड़े और अंगारा चमके; क्योंकि उसी चमक में तुम पहचानोगे कि तुम चैतन्य हो। और जितने तुम चैतन्य हो, उतने ही तुम आत्मवान हो। जिस दिन तुम पाओगे कि मैं परम चैतन्य हूं, उस दिन तुम परमात्मा हो। तुम्हारी चेतना की मात्रा ही तुम्हारी आत्मा की मात्रा होगी।
लेकिन अभी तुम करीब-करीब बेहोश हो। अभी करीब-करीब तुम जैसे शराब पीए हो। अभी तुम चल रहे हो, उठ रहे हो, काम कर रहे हो; लेकिन जैसे नींद में। होश तुम्हें नहीं है।
कभी तुमने खयाल किया किताब पढ़ते वक्त, तुम पूरा पेज पढ़ जाते हो, तब तुम्हें खयाल आता है--अरे! मैं पूरा पेज पढ़ भी गया, और एक शब्द याद नहीं! तुमने कैसे पढ़ा होगा पूरा पेज? तुम पढ़ सकते हो सोए-सोए। मन कहीं और रहा होगा। तुम पढ़ गए, तब तुम्हें होश पता चला कि यह तो पूरा पेज व्यर्थ गया। तुम कई बार रास्ते से चलते हो, तुम पूरा रास्ता चल जाते हो, तब तुम्हें खयाल आता है कि तुम चल रहे हो। तुम काम करते हो, और तुम्हें पता नहीं चलता कि तुम कर रहे हो।
तुम बेहोशी में जी रहे हो; और चैतन्य आत्मा है। और तुम पूछते हो, क्या आत्मा है? तुम चाहते हो कोई प्रमाण दे। तुम चाहते हो कोई सिद्ध करे, कोई तर्क से तुम्हें समझा दे तो तुम भी मान लो। नहीं तो तुम नास्तिक हो जाओगे। नास्तिकता बेहोशी का सहज परिणाम है; आस्तिकता होश का फल है। जितना तुम्हारा होश बढ़ेगा, तो जरूरत नहीं है कि तुम मानो कि आत्मा है। क्योंकि कई नासमझ मान रहे हैं, उससे कुछ हल नहीं होता। इस मुल्क में तो सभी मानते हैं कि आत्मा है; लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है? तुम्हारे जीवन में कोई क्रांति इससे आती नहीं। शायद तुम इसीलिए मान लेते हो कि हजारों साल से दोहराया जा रहा है, सुनते-सुनते तुम्हारे कान पक गए हैं। सुनते-सुनते तुम भूल ही गए हो कि इस संबंध में सोचना भी है। सुनते-सुनते, पुनरुक्ति से आदमी सम्मोहित हो जाता है। एक ही बात बार-बार दोहराई चली जाए, तो तुम भूल जाते हो कि वह संदिग्ध है, संदेह किया जा सकता है, विचार किया जा सकता है।
और फिर आत्मा है--इससे तुम्हें बड़ा संतोष भी मिलता है। शरीर मरेगा, यह तुम्हें पता है; आत्मा नहीं मरेगी, इससे बड़ी हिम्मत बंधती है। और आत्मा कभी नहीं मरेगी--अग्नि उसे जलाएगी नहीं, शस्त्र उसे छेदेंगे नहीं, मृत्यु उसका कुछ बिगाड़ न सकेगी--इससे तुम्हें बड़ी सांत्वना मिलती है।
पर सांत्वना सत्य नहीं है। आत्मा को कोई न तो स्वीकार कर सकता है सिद्धांत की तरह, और न पुनरुक्ति की तरह कोई सम्मोहित हो सकता है; आत्मा को तो केवल वे ही लोग जान पाते हैं, जो चैतन्य को बढ़ाते हैं। इस तरह जीओ कि तुम पर राख इकट्ठी न हो। इस तरह जीओ कि तुम्हारे भीतर का अंगारा जलता रहे, प्रकाशित हो। इस तरह जीओ कि प्रतिक्षण तुम होश में रहो, बेहोश नहीं।
मुल्ला नसरुद्दीन को बच्चा पैदा हुआ। पहला ही लड़का था। नसरुद्दीन बड़ा खुश हुआ। अपने खास मित्र को बुलाया। खुशी मनाने दोनों शराबघर में गए। क्योंकि तुम एक ही खुशी जानते हो--बेहोशी। यह बड़े मजे की बात है। शिव, बुद्ध, महावीर, वे सब चिल्ला-चिल्ला कर कहते हैं कि दुनिया में एक ही आनंद है--वह है होश। और तुम एक ही सुख जानते हो--वह है बेहोशी। या तो तुम ठीक हो या वे ठीक हैं; दोनों तो ठीक नहीं हो सकते। मुल्ला नसरुद्दीन सीधा शराबघर गया, बजाय अस्पताल जाने के कि पहले बेटे को देखता। उसने कहा कि पहले जरा आनंद कर लें। कितने दिनों का सपना पूरा हुआ। डट कर दोनों पी गए। जब दोनों पीकर पहुंचे अस्पताल, और कांच की खिड़की में से बेटे को देखा तो मुल्ला रोने लगा। उसने अपने मित्र से कहा, पहली तो बात, मेरे जैसा मालूम नहीं होता।
अपना उन्हें पता नहीं है अभी। अभी खुद की शक्ल भी वह पहचान न सकेंगे। लेकिन मेरे जैसा नहीं मालूम होता! और दूसरी बात, बड़ा छोटा दिखाई पड़ता है। इतने छोटे बच्चे को लेकर करेंगे भी क्या! यह बचेगा? मित्र ने कहा, मत घबड़ाओ। जब मैं पैदा हुआ था, तो मैं भी तीन ही पौंड का था। नसरुद्दीन ने कहा, फिर तुम बचे? मित्र सोचने लगा, क्योंकि वह भी बेहोशी में था। उसने कहा, पक्का नहीं कह सकता।
आदमी बेहोशी में है। उसके जीवन का सारा परिप्रेक्ष्य, उसकी सारी दृष्टि उसकी बेहोशी से भर जाती है; सब धुआं-धुआं हो जाता है। तुम कुछ भी ठीक से नहीं देख पाते। और तुम एक ही सुख जानते हो कि जब तुम अपने को भूल जाते हो। चाहे सिनेमा हो, चाहे संगीत हो, चाहे सेक्स हो, जहां भी तुम अपने को भूल जाते हो, वहीं तुम कहते हो, बड़ा सुख आया। भूलने को तुम सुख कहते हो? विस्मरण को? कारण है। क्योंकि जब भी तुम होश से भरते हो, तुम सिवाय दुख के अपने जीवन में कुछ भी नहीं पाते। इसीलिए जब भी तुम देखते हो जीवन को जरा ही सजग होकर, तुम पाते हो--दुख, दुख; कुरूपता चारों तरफ।
एक मेरे मित्र हैं। अविवाहित ही रह गए हैं। उनसे मैंने पूछा कि क्या हुआ, कैसे चूक गए? तो उन्होंने कहा कि बड़ी अड़चन आई। जिस स्त्री को मैं प्रेम करता था, जब मैं शराब पी लेता, तब वह मुझे सुंदर मालूम पड़ती। तब मैं शादी करने को राजी, लेकिन तब वह राजी नहीं। और जब मैं होश में होता, तब मैं राजी नहीं, तब वह राजी होती थी। इसलिए चूक गए, कोई उपाय न हुआ, मेल न हो सका।
तुम जब भी आंख खोल कर देखोगे, सब तरफ कुरूपता और दुख पाओगे। जब तुम बेहोश होते हो, तब सब ठीक लगता है। इसलिए तुम्हें तकलीफ मालूम पड़ती है: चैतन्य आत्मा! असंभव। इसलिए दुख से गुजरना होगा। उसको ही तपश्चर्या कहा है। जब कोई व्यक्ति जागना शुरू करता है, तो पहले तो उसे दुख में से ही गुजरना होगा। क्योंकि तुमने जन्मों-जन्मों तक दुख अपने चारों तरफ निर्मित किए हैं। कौन उनसे गुजरेगा, तुम अगर न गुजरे तो? इसको हमने कर्म कहा है।
कर्म का कुल इतना ही अर्थ है कि जन्मों-जन्मों तक हमने चारों तरफ दुख निर्मित किए हैं। जाने-अनजाने हमने दुख की फसल बोई है, काटेगा कौन? तो जब भी तुम होश में आते हो, तुम्हें फसल दिखाई पड़ती है--बड़ी लंबी। इस खेत से तुम्हें गुजरना पड़ेगा। डर के मारे तुम वहीं बैठ जाते हो। फिर आंख बंद करके शराब पी लेते हो कि यह तो बहुत झंझट का काम है। लेकिन जितनी तुम शराब पीते हो, उतनी यह फसल बढ़ती जाती है। हर जन्म तुम्हारे कर्म की श्रृंखला में कुछ और जोड़ जाता है, घटाता नहीं। तुम और भी गर्त में उतर जाते हो। नरक और करीब आ जाता है।
होश से भरोगे तो पहली तो घटना यह घटने ही वाली है कि तुम्हारे जीवन में चारों तरफ दुख दिखाई पड़ेगा, नरक। क्योंकि तुमने वह निर्मित किया है। और अगर तुमने हिम्मत रखी, साहस रखा, और तुम उस दुख से गुजर गए, तो जिस दुख से तुम सचेतन रूप से गुजर जाओगे, वह फसल कट गई। उन दुखों से तुम्हें न गुजरना पड़ेगा फिर।
और अगर एक बार तुम इस सारी दुख की श्रृंखला से गुजर जाओ, कर्म की श्रृंखला से--क्योंकि वे तुम्हारी आत्मा के चारों तरफ बंधी हुई जंजीरें हैं--अगर तुम उन सबसे गुजर जाओ, और होश न खोओ और हिम्मत जारी रखो कि कोई फिक्र नहीं, जितना दुख मैंने पैदा किया है, मैं गुजरूंगा। मैं अंत तक जाऊंगा। मैं उस प्रथम घड़ी तक जाना चाहता हूं, जब मैं निर्दोष था, और दुख की यात्रा शुरू न हुई थी। जब मेरी आत्मा परम पवित्र थी, और मैंने कुछ भी संग्रह न किया था दुख का। मैं उस समय तक प्रवेश करूंगा ही--चाहे कुछ भी परिणाम हो; कितना ही दुख, कितनी ही पीड़ा!
अगर तुमने इतना साहस रखा तो आज नहीं कल, दुख से पार होकर तुम उस जगह पहुंच जाओगे, जहां शिव का सूत्र तुम्हें समझ में आएगा: ‘चैतन्य आत्मा है।’ और एक बार तुम अपने भीतर के चैतन्य में प्रतिष्ठित हो जाओ, फिर तुमसे कोई दुख पैदा नहीं होता; क्योंकि बेहोश आदमी अपने चारों तरफ दुख पैदा करता है।
तुमने देखा है शराबी को चलते हुए रास्ते पर--वह कैसा डगमगाता है! ऐसी तुम्हारी जिंदगी है। कहीं पैर रखते हो, कहीं पड़ता है। कहीं जाना चाहते हो, कहीं पहुंच जाते हो। कुछ करना चाहा था, कुछ और ही हो जाता है। कुछ कहने निकले थे, कुछ और ही कह कर घर लौट आते हो। इसे तुम रोज देख रहे हो। फिर भी तुम समझ नहीं पाते कि यह क्यों हो रहा है। तुम गए थे किसी से क्षमा मांगने, और झगड़ा करके वापस आ गए। होश में हो तुम? तुम बात प्रेम की कर रहे थे, दुश्मनी हो गई!
एक आदमी शराब पीए आकाश की तरफ देखता हुआ चला जा रहा था। एक कार उसके पास से निकली; बामुश्किल ड्राइवर बचा पाया। गाड़ी रोक कर ड्राइवर ने कहा, महानुभाव! अगर आप नहीं देखते वहां जहां आप जा रहे हैं, तो फिर आप वहीं चले जाएंगे जहां आप देख रहे हैं।
और हम सब...। हमें कुछ पता भी नहीं कि हम कहां जा रहे हैं, क्यों जा रहे हैं, कहां देख रहे हैं, क्यों देख रहे हैं। चले जा रहे हैं; क्योंकि एक बेचैनी है भीतर जो बैठने भी नहीं देती; एक शक्ति है भीतर जो चलाए चली जाती है। फिर हम जो भी करते हैं, उस सब के उलटे परिणाम आते हैं।
लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, हमने बदी तो कभी की नहीं; नेकी की, और फल बदी मिल रहा है।
ऐसा हो नहीं सकता कि तुम नेकी करो और फल में बदी मिले। ऐसा हो नहीं सकता कि तुम आम के बीज बोओ और नीम के फल लगें। ऐसा हो नहीं सकता। इतना ही हो सकता है कि तुम ऐसे बेहोशी में बोए होओगे, बोए तुमने नीम के ही बीज; तुम होश में न थे। क्योंकि वृक्ष थोड़े ही झूठ बोलेगा। तुम ही कहीं बोते वक्त भूल में पड़े होओगे। तुम जब नेकी भी करते हो, तब भी तुम्हारा नेकी करने का मन नहीं होता।
तुम सच भी बोलते हो, तो तुम दूसरे को चोट पहुंचाने के लिए सच बोलते हो। तुम सच बोलते हो दूसरे के अपमान के लिए। तुम सच बोलते हो, जैसे तुम सच का उपयोग एक घातक हथियार की तरह कर रहे हो। तुम्हारे सत्य कड़वे होते हैं। सत्य के कड़वे होने की कोई भी जरूरत नहीं है। लेकिन मजा तुम्हें कड़वेपन में है, सत्य में तुम्हें मजा भी नहीं है। तुम्हारा झूठ सदा मीठा होता है। तुम्हारा सत्य सदा कड़वा होता है। बात क्या है? क्या कड़वापन सत्य का स्वभाव है? क्या मिठास झूठ का हिस्सा है?
नहीं, झूठ को तुम चलाना चाहते हो, तुम उसे मीठा बनाते हो; क्योंकि अगर वह मीठा न होगा तो चलेगा नहीं। एक तो झूठ, चलना मुश्किल; मिठास के सहारे ही चलेगा। जैसे कड़वी दवा की गोली पर हम मीठी पर्त चढ़ा देते हैं, बच्चा मीठी गोली समझ कर खा लेता है। और जब तक कड़वेपन का पता चलता है, तब तक गोली भीतर जा चुकी है।
तुम झूठ को मीठा बनाते हो, क्योंकि तुम झूठ चलाना चाहते हो। तुम सत्य को कड़वा बनाते हो; क्योंकि सत्य से तुम केवल चोट करना चाहते हो, उसको चलाना नहीं चाहते। तुम सत्य बोलते ही तब हो जब तुम सत्य का इस तरह उपयोग कर सको कि वह झूठ से बदतर साबित हो, तभी तुम बोलते हो।
तुम बेहोश हो। तुम्हारे कृत्यों का तुम्हें कुछ पता नहीं है कि तुम क्या कर रहे हो। इसे थोड़ा होशपूर्वक देखना शुरू करो। जो तुम बोलना चाहते हो, वही बोले? या तुम कुछ और बोल गए? क्या तुमने यही सोचा था बोलने के लिए जो तुम बोले?
मार्क ट्वेन लौटता था एक रात। उसकी पत्नी ने पूछा--घर आया तो पत्नी ने पूछा--कैसा रहा व्याख्यान? वह व्याख्यान देने गया था। उसने कहा, कौन सा व्याख्यान? जो मैंने तैयार किया था वह? या जो मैंने वहां दिया वह? या जो मैं चाहता था कि देता वह? कौन सा व्याख्यान?
एक तो आदमी तैयार करता है, और एक आदमी फिर जो देता है--उसमें बड़ा फर्क है। और फिर एक जो घर लौटते वक्त वह सोचता है दिया होता, वे तीनों अलग-अलग हैं।
होश में हो? सब निशाने तुम्हारे चूक जाते हैं। तुम्हारी जिंदगी में कभी भी कोई निशाना लगा? आंख बंद करके भी आदमी तीर चलाता रहे, तो कभी न कभी निशाना लगेगा।
मैंने सुना है कि अगर बंद घड़ी भी दीवार पर टंगी रहे तो चौबीस घंटे में दो बार सही समय बताएगी। तुम्हारी जिंदगी में ऐसा भी नहीं आया कि दो बार भी तुमने सही समय बताया होता। तुम बंद घड़ी से गए बीते हो? अंधेरे में भी आदमी तीर चलाता रहे, तो कभी न कभी निशाने पर लग जाएगा। तुम खुली आंख से, होश में, प्रकाश में तीर चलाते हो; कभी निशाने पर नहीं लगता। क्या बात होगी?
मुल्ला नसरुद्दीन को बड़ा शौक था हिरण की शिकार करने का। तीसरी बार जब वह शिकार करने जंगल पहुंचा, और जंगल के विश्रामगृह में उसने अपना सामान रखा, और तैयारी की, और जब सूटकेस खोला, तो उसमें एक बड़ी फोटो रखी थी। और पत्नी ने उस फोटो के नीचे लिखा था: मुल्ला, हिरण इस तरह का होता है। उन्हें शिकार का शौक था, लेकिन हिरण का पता नहीं था। तुम कुछ भी मार-मूर कर घर आ जाओगे। हिरण, ठीक से फोटो देख लेना।
तुम सब जगह चूक गए हो--वही तुम्हारे जीवन का दुख है। और चूकने का कुल कारण है कि तुम होश में नहीं हो। इसलिए जो भी करो, होशपूर्वक करो। उठो तो भी होशपूर्वक, चलो तो भी होशपूर्वक।
महावीर ने कहा है, विवेक से चलो, विवेक से बैठो, विवेक से भोजन करो, विवेक से बोलो, विवेक से सोओ तक। महावीर से कोई पूछता है कि साधु कौन? तो महावीर ने कहा, जो अमूर्च्छित है। और असाधु कौन? तो महावीर ने कहा, जो मूर्च्छित है। जो सोया-सोया जी रहा है, वह असाधु। जो जागा-जागा जी रहा है, वह साधु।
यही शिव कह रहे हैं: ‘चैतन्य आत्मा है।’
चैतन्य को बढ़ाओ; धीरे-धीरे आत्मा की झलक तुम्हारे जीवन में आनी निश्चित है।
दूसरा सूत्र है: ‘ज्ञानं बंधः। ज्ञान बंध है।’
बड़ी हैरानी का सूत्र है। ज्ञान के बहुत अर्थ हैं। एक तो जब तक तुम इस ज्ञान से भरे हो कि मैं हूं, तब तक तुम अज्ञान में रहोगे; क्योंकि मैं अज्ञान है। अहंकार अज्ञान है। जिस दिन तुम आत्मा से भरोगे, उस दिन ‘हूं-पन’ तो रहेगा, ‘मैं-पन’ नहीं रहेगा। ‘मैं हूं’ इसमें से ‘मैं’ तो कट जाएगा, सिर्फ ‘हूं’ रहेगा। इसे थोड़ा प्रयोग करके देखो। कभी किसी वृक्ष के नीचे शांत बैठ कर खोजो कि तुम्हारे भीतर ‘मैं’ कहां है? तुम कहीं भी न पाओगे। ‘हूं’ तो तुम सब जगह पाओगे। ‘मैं’ तुम कहीं भी न पाओगे। सब जगह तुम्हें अस्तित्व मिलेगा, लेकिन अस्तित्व के साथ अहंकार तुम्हें कहीं भी न मिलेगा। अहंकार तुम्हारी निर्मिति है। वह तुम्हारा बनाया हुआ है। वह झूठा है, वह असत्य है। उससे ज्यादा अप्रामाणिक और कुछ भी नहीं। वह कामचलाऊ है। उसकी संसार में जरूरत है; लेकिन उसका सत्य में कहीं भी कोई स्थान नहीं है।
तो एक तो ‘मैं हूं’--यह ज्ञान बंध का कारण है। मेरा बोध! ‘हूं-पन’ का बोध नहीं, ‘हूं-पन’ का बोध तो शुद्ध है, उसमें कोई सीमा नहीं है। जब तुम कहते हो ‘हूं’, तो तुम्हारे ‘हूं’ में और वृक्ष के ‘हूं’ में कोई फर्क होगा? तुम्हारे ‘हूं’ में और मेरे ‘हूं’ में कोई फर्क होगा? जब तुम सिर्फ ‘हो’, तो नदियां, पहाड़, वृक्ष, सभी एक हो गए। जैसे ही मैंने कहा ‘मैं’, वैसे ही मैं अलग हुआ। जैसे ही मैंने कहा ‘मैं’, वैसे ही तुम टूट गए, पर हो गए, अस्तित्व से मैं पृथक हो गया।
‘हूं-पन’ ब्रह्म है और ‘मैं’ मनुष्य की अज्ञान दशा है। जब तुम जानते हो कि सिर्फ ‘हूं’, तब तुम्हारे भीतर केंद्र नहीं होता। तब सारा अस्तित्व एक हो जाता है। तब तुम उस लहर की तरह हो, जो सागर में खो गई। अभी तुम उस लहर की तरह हो जो जम कर बर्फ हो गई है; सागर से टूट गई है।
‘ज्ञानं बंधः।’
पहला तो ज्ञान बंध है--इस बात का ज्ञान कि मैं हूं। दूसरा, ज्ञान बंध है--वह सब ज्ञान जो तुम बाहर से इकट्ठा कर लिए हो, जो तुमने शास्त्रों से चुराया है, जो तुमने सदगुरुओं से उधार लिया है, जो तुम्हारी स्मृति है--वह सब बंधन है। उससे तुम्हें मुक्ति न मिलेगी।
इसलिए तुम पंडित से ज्यादा बंधा हुआ आदमी न पाओगे। मेरे पास सब तरह के लोग आते हैं, सब तरह के मरीज। उसमें पंडित से ज्यादा कैंसरग्रस्त कोई भी नहीं। उसका इलाज नहीं है। वह लाइलाज है। उसकी तकलीफ यह है कि वह जानता है। इसलिए न वह सुन सकता, न वह समझ सकता। तुम उससे कुछ बोलो, इसके पहले कि तुम बोलो, उसने उसका अर्थ कर लिया है; इसके पहले कि वह तुम्हें सुने, उसने व्याख्या निकाल ली है। शब्दों से भरा हुआ चित्त जानने में असमर्थ हो जाता है। वह इतना ज्यादा जानता है, बिना कुछ जाने; क्योंकि सब जाना हुआ उधार है।
शास्त्र से अगर ज्ञान मिलता होता, तो सभी के पास शास्त्र हैं, ज्ञान सभी को मिल गया होता। ज्ञान तो तब मिलता है, जब कोई निःशब्द हो जाता है; जब वह सभी शास्त्रों को विसर्जित कर देता है; जब वह उस सब ज्ञान को, जो दूसरों से मिला है, वापस लौटा देता है जगत को; जब वह उसे खोजता है, जो मेरा मूल अस्तित्व है, जो मुझे दूसरे से नहीं मिला।
इसे थोड़ा समझो। तुम्हारा शरीर तुम्हें मां और पिता से मिला है। तुम्हारे शरीर में तुम्हारा कुछ भी नहीं है। आधा तुम्हारी मां का दान है, आधा तुम्हारे पिता का दान है। फिर तुम्हारा शरीर तुम्हें भोजन से मिला है--वह जो रोज तुम भोजन कर रहे हो। पांच तत्वों से मिला है--वायु है, अग्नि है, पांचों तत्व हैं, उनसे तुम्हें मिला है। इसमें तुम्हारा कुछ भी नहीं है। लेकिन तुम्हारी चेतना तुम्हें पांचों तत्वों में से किसी से भी नहीं मिली है। तुम्हारी चेतना तुम्हें मां और पिता से भी नहीं मिली है।
तुम जो-जो जानते हो वह तुमने स्कूल, विश्वविद्यालय से सीखा है, शास्त्रों से सुना है, गुरुओं से पाया है। वह तुम्हारे शरीर का हिस्सा है, तुम्हारी आत्मा का नहीं। तुम्हारी आत्मा तो वही है जो तुम्हें किसी से भी नहीं मिली है। जब तक तुम उस शुद्ध तत्व को न खोज लोगे, जो निपट तुम्हारा है, जो तुम्हें किसी से भी नहीं मिला है--न मां ने दिया, न पिता ने, न समाज ने, न गुरु ने, न शास्त्र ने--वही तुम्हारा स्वभाव है।
ज्ञान बंध है, क्योंकि वह तुम्हें इस स्वभाव तक न पहुंचने देगा। ज्ञान ने ही तुम्हें बांटा है। तुम कहते हो, मैं हिंदू हूं। तुमने कभी सोचा कि तुम हिंदू क्यों हो? तुम कहते हो, मैं मुसलमान हूं। तुमने कभी विचारा कि तुम मुसलमान क्यों हो? हिंदू और मुसलमान में फर्क क्या है? क्या उनका खून निकाल कर कोई डाक्टर परीक्षा करके बता सकता है कि यह हिंदू का खून है, यह मुसलमान का खून है? क्या उनकी हड्डियां काट कर कोई बता सकता है कि यह हड्डी मुसलमान से आती है कि हिंदू से आती है?
कोई उपाय नहीं है। शरीर की जांच से कुछ भी पता न चलेगा; क्योंकि दोनों के शरीर पांच तत्वों से बनते हैं। लेकिन अगर उनकी खोपड़ी की जांच करो तो पता चल जाएगा कि कौन हिंदू है, कौन मुसलमान है; क्योंकि दोनों के शास्त्र अलग, दोनों के सिद्धांत अलग, दोनों के शब्द अलग। शब्दों का भेद है तुम्हारे बीच। तुम हिंदू हो; क्योंकि तुम्हें एक तरह का ज्ञान मिला, जिसका नाम हिंदू। दूसरा जैन है; क्योंकि उसे दूसरी तरह का ज्ञान मिला, जिसका ज्ञान जैन।
तुम्हारे बीच जितने फासले हैं, दीवारें हैं, वे ज्ञान की दीवारें हैं। और सब ज्ञान उधार है। तुम एक मुसलमान बच्चे को हिंदू के घर में रख दो, वह हिंदू की तरह बड़ा होगा। वह ब्राह्मण की तरह जनेऊ धारण करेगा। वह उपनिषद और वेद के वचन उद्धृत करेगा। और तुम एक हिंदू के बच्चे को मुसलमान के घर रख दो, वह कुरान की आयत दोहराएगा।
ज्ञान तुम्हें बांटता है; क्योंकि ज्ञान तुम्हारे चारों तरफ एक दीवार खींच देता है। और ज्ञान तुम्हें लड़ाता है, और ज्ञान तुम्हारे जीवन में वैमनस्य और शत्रुता पैदा करता है। थोड़ी देर को सोचो अगर तुम्हें कुछ भी न सिखाया जाए कि तुम हिंदू हो, या मुसलमान, या जैन, या पारसी, तो तुम क्या करोगे? तुम बड़े होओगे एक मनुष्य की भांति; तुम्हारे बीच कोई दीवार न होगी।
दुनिया में कोई तीन सौ धर्म हैं--तीन सौ कारागृह हैं। और हर आदमी पैदा होते ही से एक कारागृह या दूसरे कारागृह में डाल दिया जाता है। और पंडित, पुरोहित बड़ी चेष्टा करते हैं कि बच्चे पर जल्दी से जल्दी कब्जा हो जाए। उसको वे धर्म-शिक्षा कहते हैं। उससे ज्यादा अधर्म और कुछ भी नहीं है। वे उसको धर्म-शिक्षा कहते हैं। सात साल के पहले बच्चे को पकड़ लें; क्योंकि सात साल का बच्चा अगर बड़ा हो गया, तो फिर पकड़ना रोज-रोज मुश्किल होता जाएगा। और बच्चे को अगर थोड़ा भी बोध आ गया, तो फिर वह सवाल उठाने लगेगा। और सवालों का जवाब पंडितों के पास बिलकुल नहीं है।
पंडित सिर्फ मूढ़ों को तृप्त कर पाते हैं। जितनी कम बुद्धि का आदमी हो, पंडित से उतने जल्दी तृप्त हो जाता है। वह एक प्रश्न पूछता है, उत्तर मिल जाता है। तुम जाते हो, पंडित से पूछते हो, संसार को किसने बनाया? वह कहता है, भगवान ने। तुम प्रसन्न घर लौट आते हो, बिना पूछे कि भगवान को किसने बनाया। अगर तुम दूसरा प्रश्न पूछते, पंडित नाराज हो जाता; क्योंकि उसका उसे भी पता नहीं है। किताब में वह लिखा नहीं है। और फिर झंझट की बात है: परमात्मा को किसने बनाया? फिर तुम पूछते ही चले जाओगे; वह कोई भी जवाब दे, तुम पूछोगे, उसको किसने बनाया?
अगर गौर से देखो तो तुम्हारे पहले सवाल का जवाब दिया नहीं गया है। पंडित ने तुम्हें सिर्फ संतुष्ट कर दिया; क्योंकि तुम बहुत बुद्धिमान नहीं हो। और बच्चे अबोध हैं। उनका अभी तर्क नहीं जगा, विचार नहीं जगा; अभी वे प्रश्न नहीं पूछ सकते। अभी तुम जो भी कचरा उनके दिमाग में डाल दो, वे उसे स्वीकार कर लेंगे। बच्चे सभी कुछ स्वीकार कर लेते हैं; क्योंकि वे सोचते हैं, जो भी दिया जा रहा है, वह सभी ठीक है। बच्चा ज्यादा सवाल नहीं उठा सकता। सवाल उठाने के लिए थोड़ी प्रौढ़ता चाहिए।
इसलिए सभी धर्म बच्चों की गर्दन पकड़ लेते हैं और फांसी लगा देते हैं। फांसी बड़ी सुंदर है! किसी के गले में बाइबिल लटकी है, किसी के गले में समयसार लटका है; किसी के गले में कुरान लटकी है, किसी के गले में गीता लटकी है। ये इतने प्रीतिकर बंधन हैं कि इनको छोड़ने की हिम्मत फिर जुटानी बहुत मुश्किल है। और जब भी तुम इन्हें छोड़ना चाहोगे, एक खतरा सामने आ जाएगा। क्योंकि इन्हें छोड़ा तो तुम अज्ञानी! क्योंकि जैसे ही तुम इनको छोड़ोगे, तुम पाओगे, मैं तो कुछ जानता नहीं, बस यह किताब सारी संपदा है। इसको सम्हालो; अपने अज्ञान को छिपाने का यही तो एक उपाय है।
लेकिन अज्ञान छिपने से अगर मिटता होता, तो बड़ी आसान बात हो गई होती। अज्ञान छिपने से बढ़ता है। जैसे कोई अपने घाव को छिपा ले। उससे कुछ मिटेगा नहीं। घाव और भीतर-भीतर बढ़ेगा; मवाद पूरे शरीर में फैल जाएगी।
शिव कहते हैं: ‘ज्ञान बंध है।’
ज्ञान सीखा हुआ, ज्ञान उधार, ज्ञान दूसरे से लिया हुआ--बंधन का कारण है। तुम उस सबको छोड़ देना, जो दूसरे से मिला है। तुम उसकी तलाश करना, जो तुम्हें किसी से भी नहीं मिला। तुम उसकी खोज में निकलना, उस चेहरे की खोज में, जो तुम्हारा है। तुम्हारे भीतर छिपा हुआ एक झरना है चैतन्य का, जो तुम्हें किसी से भी नहीं मिला। जो तुम्हारा स्वभाव है, जो तुम्हारी निज संपदा है, निजत्व है--वही तुम्हारी आत्मा है।
तीसरा सूत्र है: ‘योनिवर्ग और कला शरीर है।’
योनि से अर्थ है: प्रकृति। इसलिए हम स्त्री को प्रकृति कहते हैं। स्त्री शरीर देती है; वह प्रकृति की प्रतीक है। और कला का अर्थ है: कर्ता का भाव। एक ही कला है, वह कला है संसार में उतरने की कला, और वह है--कर्ता का भाव। इन दो चीजों से मिल कर तुम्हारा शरीर निर्मित होता है--तुम्हारे कर्ता का भाव, तुम्हारा अहंकार, और प्रकृति से मिला हुआ शरीर। अगर तुम्हारे भीतर कर्ता का भाव है, तो तुम्हें योग्य शरीर प्रकृति देती चली जाएगी।
इसी तरह तुम बार-बार जन्मे हो। कभी तुम पशु थे, कभी पक्षी थे, कभी वृक्ष थे, कभी मनुष्य। तुमने जो चाहा है, वह तुम्हें मिला है। तुमने जो आकांक्षा की है, तुमने जो कर्तृत्व की वासना की है, वही घट गया है। तुम्हारे कर्तृत्व की वासना घटना बन जाती है। विचार वस्तुएं बन जाते हैं। इसलिए बहुत सोच-विचार कर वासना करना; क्योंकि सभी वासनाएं पूरी हो जाती हैं देर-अबेर।
अगर तुम बहुत बार देखते हो आकाश में पक्षी को और सोचते हो--कैसी स्वतंत्रता है पक्षी को! काश हम पक्षी होते! देर न लगेगी, जल्दी तुम पक्षी हो जाओगे। तुम अगर देखते हो एक कुत्ते को संभोग करते हुए और तुम सोचते हो--कैसी स्वतंत्रता! कैसा सुख! जल्दी ही तुम कुत्ते हो जाओगे। तुम जो भी वासना अपने भीतर संगृहीत करते हो, वह बीज बन जाती है। प्रकृति तो केवल शरीर देती है; कलाकार तो तुम्हीं हो स्वयं को निर्माण करने वाले। अपने शरीर को तुमने ही बनाया है--यह कला का अर्थ है। कोई तुम्हें शरीर नहीं दे रहा है; तुम्हारी वासना ही निर्मित करती है।
तुमने कभी खयाल किया? रात तुम सोते हो, तो आखिरी जो विचार होता है सोते समय, वही सुबह उठते वक्त पहला विचार होगा। रात भर तुम सोए रहे। वह बीज की तरह विचार भीतर पड़ा रहा। जो अंतिम था, वह सुबह प्रथम होगा। तुम मरोगे इस शरीर से, आखिरी मरते क्षण में तुम्हारे सारे जीवन की वासना संगृहीत होकर बीज बन जाएगी। वही बीज नया गर्भ बन जाएगा। जहां से तुम मिटे, वहीं से तुम फिर शुरू हो जाओगे।
तुम जो भी हो, यह तुम्हारा ही कृत्य है। किसी दूसरे को दोष मत देना। यहां कोई दूसरा है भी नहीं, जिसको दोष दिया जा सके। यह तुम्हारे ही कर्मों का संचित फल है। तुम जो भी हो--सुंदर-कुरूप, दुखी-सुखी, स्त्री-पुरुष--तुम जो भी हो, यह तुम्हारे ही कृत्यों का फल है। तुम ही हो कलाकार अपने जीवन के। मत कहना कि भाग्य ने बनाया है; क्योंकि वह धोखा है। और उस भांति तुम जिम्मेवारी किसी और पर टाल रहे हो। मत कहना कि परमात्मा ने भेजा है। तुम परमात्मा पर जिम्मेवारी मत डालना; क्योंकि यह तरकीब है खुद के दायित्व से बचने की। इस कारागृह में तुम अपने ही कारण हो। जो व्यक्ति इस बात को ठीक से समझ लेता है कि अपने ही कारण मैं यहां हूं, उसके जीवन में क्रांति शुरू हो जाती है।
शिव कह रहे हैं: ‘योनिवर्ग और कला शरीर हैं।’
प्रकृति तो सिर्फ योनि है। वह तो सिर्फ गर्भ है। तुम्हारा अहंकार उस योनि में बीज बनता है। तुम्हारे कर्तृत्व का भाव--कि मैं यह करूं, मैं यह पाऊं, मैं यह हो जाऊं--उसमें बीज बनता है। और जहां भी तुम्हारे कर्तृत्व की कला और प्रकृति की योनि का मिलन होता है, शरीर निर्मित हो जाता है।
इसलिए बुद्ध पुरुष कहते हैं, सभी वासनाओं को छोड़ दो, तभी तुम मुक्त हो सकोगे। तुमने अगर स्वर्ग की वासना की तो तुम देवता हो जाओगे, लेकिन वह भी मुक्ति न होगी। क्योंकि वासनाओं से कभी भी अशरीर की स्थिति पैदा नहीं होती; सभी वासनाओं से शरीर निर्मित होते हैं। जब तक तुम निर्वासना को उपलब्ध नहीं हो, जब तक तृष्णा तुमने पूरी ही नहीं छोड़ दी है, तब तक तुम नये शरीरों में भटकते रहोगे।
और शरीर के ढंग अलग हों, शरीर की मौलिक स्थिति एक ही जैसी है। शरीर के दुख समान हैं; चाहे पक्षी का शरीर हो, चाहे आदमी का शरीर हो, दुखों में कोई भेद नहीं है। क्योंकि मौलिक दुख है--आत्मा का शरीर में बंध जाना। मौलिक दुख है--कारागृह में प्रविष्ट हो जाना। फिर कारागृह की दीवारें वर्तुलाकार हैं कि त्रिकोण हैं, कि चौकोन हैं, उससे कोई हल नहीं होता, उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। तुम भला सोचते होओ कि फर्क पड़ता है।
एक मेरे मित्र हैं। ड्राइंग के शिक्षक हैं। उन्हें जेल हो गई। लौटे तीन साल बाद, तो मैंने उनसे पूछा, कैसे रहे दिन, कैसे कटे दिन? उन्होंने कहा, और तो सब ठीक था, लेकिन मेरी कोठरी के कोने नब्बे कोण के नहीं थे। वे ड्राइंग के शिक्षक हैं। उनकी बुद्धि! वे नब्बे कोण के नहीं थे कोठरी के कोने। उनकी असली तकलीफ तीन साल यही रही। क्योंकि उसी कोठरी में रहना और बार-बार देखना वह कोना, वह नब्बे कोण का नहीं है। तो जो बात उन्होंने मुझसे कही वह यह कि और तो सब ठीक था, बाकी कुछ अड़चन न थी; लेकिन कोने ठीक नब्बे के नहीं थे।
कोने नब्बे के हों कि नब्बे के न हों, इससे क्या बुनियादी फर्क पड़ेगा? कारागृह कारागृह है। पक्षी का शरीर कि आदमी का, बहुत फर्क नहीं पड़ता। बंद तुम हो गए, वही दुख है। बंध गए तुम, वही दुख है। वासना बांधती है। वासना है रज्जु, जिससे हम बंधते हैं। और ध्यान रखना, तुम्हारे अतिरिक्त और कोई जिम्मेवार नहीं है।
‘उद्यमो भैरवः।’
चौथा सूत्र है: ‘उद्यम ही भैरव है।’
उद्यम उस आध्यात्मिक प्रयास को कहते हैं, जिससे तुम इस कारागृह के बाहर होने की चेष्टा करते हो। वही भैरव है। भैरव शब्द पारिभाषिक है। ‘भ’ का अर्थ है: भरण, ‘र’ का अर्थ है: रवण, ‘व’ का अर्थ है: वमन। भरण का अर्थ है: धारण, रवण का अर्थ है: संहार, और वमन का अर्थ है: फैलाना। भैरव का अर्थ है: ब्रह्म--जो धारण किए है, जो सम्हाले है, जिसमें हम पैदा होंगे, और जिसमें हम मिटेंगे; जो विस्तार है और जो ही संकोच बनेगा; जो सृष्टि का उद्भव है, और जिसमें प्रलय होगा। मूल अस्तित्व का नाम भैरव है।
शिव कहते हैं: ‘उद्यम ही भैरव है।’
और जिस दिन भी तुमने आध्यात्मिक जीवन की चेष्टा शुरू की, तुम भैरव होने लगे; तुम परमात्मा के साथ एक होने लगे। तुम्हारी चेष्टा की पहली किरण, और तुमने सूरज की तरफ यात्रा शुरू कर दी। पहला खयाल तुम्हारे भीतर मुक्त होने का, और ज्यादा दूर नहीं है मंजिल; क्योंकि पहला कदम करीब-करीब आधी यात्रा है।
‘उद्यम भैरव है।’
पाओगे, देर लगेगी, मंजिल पहुंचने में समय लगेगा। लेकिन तुमने चेष्टा शुरू की, और तुम्हारे भीतर बीज आरोपित हो गया कि मैं उठूं इस कारागृह के बाहर; मैं जाऊं, शरीर से मुक्त होऊं; मैं हटूं वासना से; मैं अब और बीज न बोऊं इस संसार को बढ़ाने के; मैं और जन्मों की आकांक्षा न करूं। तुम्हारे भीतर जैसे ही यह भाव सघन होना शुरू हुआ कि अब मैं मूर्च्छा को तोडूं और चैतन्य बनूं, वैसे ही तुम भैरव होने लगे; वैसे ही तुम ब्रह्म के साथ एक होने लगे। क्योंकि वस्तुतः तो तुम एक हो ही, सिर्फ तुम्हें स्मरण आ जाए। मूलतः तो तुम एक हो ही। तुम उसी सागर के झरने हो, तुम उसी सूरज की किरण हो, तुम उसी महा आकाश के एक छोटे से खंड हो। पर तुम्हें स्मरण आना शुरू हो जाए और दीवारें विसर्जित होने लगें, तो तुम उस महा आकाश के साथ एक हो जाओगे।
‘उद्यम भैरव है।’
बड़ी सघन चेष्टा करनी जरूरी है। क्योंकि नींद गहरी है; तोड़ोगे सतत, तो ही टूट पाएगी। आलस्य करोगे, संभव नहीं होगा। आज तोड़ोगे, कल फिर बना लोगे, तो फिर भटकते रहोगे। एक हाथ से तोड़ोगे, दूसरे से बनाते जाओगे, तो श्रम व्यर्थ होगा। उद्यम का अर्थ है--तुम्हारी पूरी चेष्टा संलग्न हो जाए।
लोग मेरे पास आते हैं। वे कहते हैं, हम करते हैं, लेकिन कुछ हो नहीं रहा।
अब मैं उनकी शक्ल देखता हूं। वे करते हैं ही नहीं, या ऐसा मरे-मरे करते हैं, जैसे मक्खियां उड़ा रहे हों। उनके करने में कोई प्राण नहीं हैं, इसलिए नहीं होता। लेकिन वे आते ऐसे हैं जैसे कि वे परमात्मा पर कोई बड़ी कृपा कर रहे हैं कि करते हैं और नहीं हो रहा। तो शिकायत लेकर आए हैं कि कहीं कुछ गड़बड़ हो रही है, कहीं कोई अन्याय हो रहा है, कि दूसरों को हो रहा है, हमें नहीं हो रहा है।
इस जगत में अन्याय होता ही नहीं। इस जगत में जो भी होता है, न्याय है। क्योंकि यहां कोई आदमी नहीं बैठा है न्याय-अन्याय करने को। जगत में तो नियम हैं, उन्हीं नियमों का नाम धर्म है। तुम अगर इरछे-तिरछे चले, गिरोगे, टांग टूट जाएगी; तो तुम जाकर अदालत में यह नहीं कहोगे कि गुरुत्वाकर्षण के कानून पर एक मुकदमा चलाता हूं। तो अदालत कहेगी, तुम तिरछे मत चलते। गुरुत्वाकर्षण तुम्हें गिराने में उत्सुक नहीं है, न तुम्हें सम्हालने में उत्सुक है। तुम जब सीधे-सीधे चलते हो, वही तुम्हें सम्हालता है। जब तुम तिरछे चलते हो, वही तुम्हें गिराता है। न गिराने की उसकी कोई आकांक्षा है, न सम्हालने की। तटस्थ है जगत का नियम।
उस तटस्थ नियम का नाम धर्म है। उसको हिंदुओं ने ऋत कहा है। वह परम नियम है। वह तुम्हारी तरफ पक्षपात नहीं करता कि किसी को गिरा दे, किसी को उठा दे। तुम जैसे ही ठीक चलने लगते हो, वह तुम्हें सम्हालता है। तुम गिरना चाहते हो, वह तुम्हें गिराता है। वह हर हालत में उपलब्ध है। तुम जैसा भी उसका उपयोग करना चाहते हो, वह तुम्हें खुला है। उसके द्वार बंद नहीं हैं। तुम सिर ठोंकना चाहते हो दरवाजे से, सिर ठोंक लो। तुम दरवाजा खोल कर भीतर जाना चाहते हो, भीतर चले जाओ। वह तटस्थ है।
‘उद्यम भैरव है।’
महान श्रम चाहिए। उद्यम का अर्थ है: प्रगाढ़ श्रम। तुम्हारी समग्रता लग जाए श्रम में, उसका नाम उद्यम है। और तब देर न लगेगी तुम्हारे भैरव हो जाने में।
‘शक्तिचक्र के संधान से विश्व का संहार हो जाता है’--पांचवां सूत्र है।
और अगर तुमने ठीक उद्यम किया, अगर तुमने अपनी संपूर्ण ऊर्जा को संलग्न कर दिया चेष्टा में--सत्य की खोज, परमात्मा की खोज या आत्मा की खोज में--तो तुम्हारे भीतर जो शक्ति का चक्र है, वह पूर्ण हो जाता है।
अभी तुम्हारे भीतर शक्ति का चक्र पूर्ण नहीं है, कटा-बंटा है। वैज्ञानिक कहते हैं कि बुद्धिमान से बुद्धिमान आदमी भी अपनी पंद्रह प्रतिशत से ज्यादा प्रतिभा का उपयोग नहीं करता; पचासी प्रतिशत प्रतिभा ऐसे ही सड़ जाती है। यह तो बुद्धिमान आदमी की बात है; बुद्धू का क्या हिसाब! वह तो शायद करता ही नहीं। हम अपने शरीर की भी ऊर्जा का पूरा उपयोग नहीं करते--पांच प्रतिशत ज्यादा से ज्यादा। तो अगर हम मंदे-मंदे जीते हैं, अगर हमारा दीया टिमटिमाता-टिमटिमाता लगता है, तो कसूर किसका है? तुम जीते ही नहीं पूरी तरह। जैसे तुम जीने से भी भयभीत हो कि लपट कहीं जोर से न आ जाए। तुम डरे-डरे हो, तुम कंपते-कंपते जीते हो, तो फिर शक्ति का जो चक्र है तुम्हारे भीतर, वह पूरा नहीं हो पाता। तो तुम्हारी गाड़ी ऐसे चलती है, जैसे कभी कार को तुमने देखा हो--पेट्रोल कभी आता, कभी नहीं आता, कभी कचरा आता, तो कार ऐसे चलती है जैसे हिचकी खा रही हो। बस ऐसा तुम्हारा जीवन है। हिचकी खाते तुम चलते हो। जरा-जरा सी शक्ति के खंड-खंड आते हैं; अखंड शक्ति नहीं हो पाती।
जिस चीज में भी तुम अपनी पूरी शक्ति लगा दोगे, वह कोई भी हो चीज--अगर तुम चित्र बनाते हो और चित्रकार हो, और तुमने अपनी पूरी शक्ति को चित्र बनाने में लगा दिया--पूरी, कि रत्ती भर बाकी न बची--तो तुम वहीं से मुक्त हो जाओगे; क्योंकि वही उद्यम पूर्ण होते ही भैरव हो जाता है। अगर तुम एक मूर्तिकार हो और तुमने सब कुछ मूर्ति में समाहित कर दिया, कि मूर्ति बनाते समय तुम न बचे, बस मूर्ति ही बची, तो शक्ति का चक्र पूरा हो जाता है। जब तुम पूरी शक्ति को निमज्जित करते हो किसी भी कृत्य में, वही ध्यान हो जाता है; भैरव निकट है, मंदिर पास आ गया।
पांचवां सूत्र है: ‘शक्तिचक्र के संधान से विश्व का संहार हो जाता है।’
और जब भी तुम्हारी शक्ति का चक्र पूरा होता है--टोटल, समग्र; अंश-अंश नहीं, पूर्ण--उसी क्षण तुम्हारे लिए विश्व समाप्त हो गया। तुम्हारे लिए फिर कोई संसार नहीं है। तुम परमात्मा हो गए। तुम भैरव हो गए। तुम मुक्त हो। फिर तुम्हारे लिए न कोई बंधन है, न कोई शरीर है, न कोई संसार है।
पूर्ण शक्ति का प्रयोग, स्मरण रखना। इस समाधि साधना शिविर में अगर तुमने पूरी शक्ति को लगाया--ऐसे ही ऊपर-ऊपर नहीं ध्यान किए, पूरी शक्ति लगा दी--तो तुम अनुभव करोगे कि जिस क्षण शक्ति पूरी लग जाएगी, उसी क्षण, फिर क्षण भर की देर नहीं लगती, अचानक संसार खो जाता है, परमात्मा सामने आ जाता है। तुम्हारी शक्ति का पूरा लग जाना ही तुम्हारे जीवन की क्रांति हो जाती है। फिर संसार की तरफ पीठ, परमात्मा की तरफ मुंह हो जाता है। इसकी तुम्हें एक झलक भी मिल जाए तो फिर तुम वही न हो सकोगे जो तुम पहले थे। उसकी एक झलक काफी है। फिर तुम्हारा जीवन उसी यात्रा में संलग्न हो जाएगा।
तो ध्यान रखना, यहां पूरा अपने को डुबाना, तो ही कुछ हो सकेगा। अगर तुमने थोड़ा भी अपने को बचाया तो तुम्हारा श्रम व्यर्थ है। जब तक श्रम उद्यम न बन जाए--पूर्ण, टोटल एफर्ट न बन जाए--तब तक भैरव की उपलब्धि नहीं है।
आज इतना ही।