PALTUDAS

Sapna Yeh Sansar 15

Fifteenth Discourse from the series of 20 discourses - Sapna Yeh Sansar by Osho. These discourses were given during JUL 11-30 1979.
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करामाति यह खेल अंत पछितायगा।
चटक-मटक दिन चारि, नरक में जायगा।।
भीर-भार से संत भागि के लुकत हैं।
अरे हां, पलटू सिद्धाई को देखि संतजन थुकत हैं।

क्या लै आया यार कहा लै जायगा।
संगी कोऊ नाहिं अंत पछितायगा।।
सपना यह संसार रैन का देखना।
अरे हां, पलटू बाजीगर का खेल बना सब पेखना।।

जीवन कहिये झूठ, साच है मरन को।
मूरख, अजहूं चेति, गहौ गुरु-सरन को।।
मांस के ऊपर चाम, चाम पर रंग है।
अरे हां, पलटू जैहै जीव अकेला कोउ ना संग है।।

भूलि रहा संसार कांच की झलक में।
बनत लगा दस मास, उजाड़ा पलक में।।
रोवनवाला रोया आपनि दाह से।
अरे हां, पलटू सब कोई छेंके ठाढ़, गया किस राह से।।

कच्चा महल उठाय, कच्चा सब भवन है।
दस दरवाजा बीच झांकता कवन है।।
कच्ची रैयत बसै, कच्ची सब जून है।
अरे हां, पलटू निकरि गया सरदार, सहर अब सून है।।

हाथ गोड़ सब बने, नाहिं अब डोलता।
नाक कान मुख ओहि, नाहिं अब बोलता।।
काल लिहिसि अगुवाय, चलै ना जोर है।
अरे हां, पलटू निकरि गया असवार सहर में सोर है।।

आया मूठी बांधि, पसारे जायगा।
छूछा आवत जात, मार तू खायगा।।
किते बिकरमाजीत साका बांधि मरि गये।
अरे हां, पलटू रामनाम है सार संदेसा कहि गये।।

जो जनमा सो मुआ नाहिं थिर कोइ है।
राजा रंक फकीर गुजर दिन दोइ है।।
चलती चक्की बीच परा जो जाइकै।
अरे हां, पलटू साबित बचा न कोय गया अलगाइकै।।
आस्कर वाइल्ड की एक कथा:
रात का समय था और वह अकेला था। वह अर्थात जीसस। उसने दूर एक भव्य नगरी का प्राचीर देखा और वह उसकी ओर बढ़ा।
जब वह पास पहुंचा तो उसने नगरी के अंतराल से आनंदमय पदचाप और प्रमुदित मुखों के हास और अनेक वीणाओं की उन्मत्त झंकार के शब्द मुखरित होते सुने। उसने मुख्य द्वार खटखटाया और द्वारपालों ने उसके लिए द्वार खोल दिए। और उसने देखा एक भवन, जो स्फटिक का बना था और जिसके सामने स्फटिक के सुंदर स्तंभ खड़े थे। स्तंभों पर फूलों के वंदनवार लटके थे और घर के भीतर और बाहर चंदन की मशालें जल रही थीं। उसने भवन में प्रवेश किया।
जब वह पद्मराग के सभाकक्ष और मरकत के सभाकक्ष से होता हुआ भोज के कक्ष में पहुंचा तो उसने नीलरक्ताभ आसन पर एक व्यक्ति को लेटे पाया, जिसके बालों में गुलाब के फूल लगे थे और जिसके अधर मदिरा से लाल हो रहे थे। वह उसके पास गया और उसके कंधे पर हाथ रख कर बोला: मित्र, तुम्हारा यह जीने का ढंग कैसा है? क्या यही जीवन है! वह युवक उसकी ओर मुड़ा और उसे पहचान कर बोला: हे प्रभु! लेकिन मैं तो पहले कोढ़ी था, तुमने ही तो मुझे स्वस्थ कर दिया, अब मैं इस जीवन का क्या करूं? इसे कैसे व्यतीत करूं? जीवन जीने का और कोई ढंग तो मैं जानता नहीं हूं।
उसने उस भवन को त्याग दिया और सड़क पर लौट आया। वह थोड़ा उदास था। उसने ऐसी अपेक्षा न की थी।
कुछ देर बाद उसने एक स्त्री को देखा, जिसका मुखड़ा तथा परिधान रंगीन थे और जिसके नूपुरों में मोती लगे थे। एक युवक उसका पीछा एक शिकारी की तरह मंद गति से कर रहा था। युवक ने दोरंगी कमीज पहन रखी हुई थी। स्त्री का मुख एक मूर्ति की तरह सुंदर था और नवयुवक की आंखों में वासना की चमक थी। उसने द्रुतगति से उसका पीछा किया और नवयुवक के हाथ पर हाथ रख कर कहा: भाई मेरे, तुम स्त्री की ओर क्यों देख रहे हो और इस तरह क्यों घूर रहे हो? आंखें क्या वासना के लिए बनाई गई हैं? आंखें क्या क्षुद्र को देखने के लिए बनाई गई हैं? नवयुवक पलटा और उसे पहचान कर उसने कहा: हे मेरे मालिक! पर मैं तो अंधा था, तुमने ही मुझे दृष्टि दी, अब मैं किस तरह निहारूं, किसको निहारूं? इन आंखों का क्या करूं? जिम्मेवार हो तो तुम जिम्मेवार हो। मेरा कसूर क्या है?
उसने दौड़ कर स्त्री का रंगीन आवरण छुआ और कहा: बहन, क्या पाप के अतिरिक्त कोई और मार्ग नहीं है? औरत उसे पहचान कर हंसी और बोली: पर प्रभु मेरे! तुमने ही तो मेरे पाप क्षमा कर दिए थे। और यह मार्ग सुखमय भी है। और दूसरे किसी मार्ग का मुझे पता भी तो नहीं। क्या तुम मुझे भूल गए? मैं वही तो हूं जिसे लोग नदी के किनारे पत्थरों से मारने के लिए ले गए थे और तुमने उन लोगों से कहा था, वही पत्थर मारे पहले जिसने जीवन में न तो पाप किया हो और न पाप की आकांक्षा की हो। और फिर वे सारे लोग पत्थरों को छोड़ कर चुपचाप हट गए थे; क्योंकि उनमें से कोई भी न था जिसने पाप न किया हो और कोई भी न था जिसने पाप के विचार न किए हों। तब हम दोनों ही अकेले नदी-तट पर रह गए थे। सांझ होने लगी थी और सांझ के पहले तारे निकल आए थे और मैंने तुमसे कहा था, हे मेरे प्रभु! मेरे पापों का दंड दो। लेकिन तुमने कहा था, मैं दंड देने वाला कौन हूं? मैं तुम्हें क्षमा करता हूं। और तब से मैं ऐसे ही जी रही हूं। पाप को तुमने क्षमा कर दिया--और पाप रसमय भी है, सुखमय भी है!
वह बहुत उदास हो गया--वह यानी जीसस, स्मरण रहे--और नगर छोड़ कर बाहर चला आया। जब वह नगर के बाहर हो गया, तो उसने सड़क के किनारे एक नवयुवक को बैठे रोते देखा। वह नवयुवक वृक्ष से रस्सी बांध कर आत्मघात की व्यवस्था कर रहा था। वह उसके पास गया और उसके लंबे बालों को छू कर बोला: मेरे प्रिय! तुम रोते क्यों हो! और यह अपनी ही मृत्यु का आयोजन कैसा! जीवन जैसे बहुमूल्य हीरे को क्या ऐसे फेंका जाता है? नवयुवक ने सिर उठाया और उसे देखा और पहचान कर बोला: महाप्रभु! मैं तो मर चुका था और तुम ने मुझे फिर से जीवन दिया। अब मेरी समझ में नहीं आता मैं इस जीवन का क्या करूं? मैं रोऊं नहीं तो भला और क्या करूं! और रोता कब तक रहूं? और रो-रो कर जीने से फायदा क्या है? इसलिए मैंने मर जाने का निश्चय किया है।
आस्कर वाइल्ड की यह कथा सच हो या सच न हो--क्योंकि ईसाई-ग्रंथों में इसका कोई उल्लेख नहीं है--लेकिन ग्रंथों में उल्लेख हो या न हो, आस्कर वाइल्ड की अंतर्दृष्टि तो पैनी है। बात तो उसने गहरी पकड़ी है। उसने तो जीसस के पूरे जीवन पर एक प्रश्नचिह्न लगा दिया। लोगों को आंखें देना काफी नहीं है, उन्हें देखने का ढंग भी तो देना होगा! लोगों को जीवन देना काफी नहीं है--क्योंकि जीवन तो सबके पास है और प्रत्येक उसे गंवा रहा है। कुछ और लोगों को जीवन मिल जाएगा, वे भी यही करेंगे।
मुर्दों को जिला दो, इसमें चमत्कार नहीं है। असली चमत्कार है: जीवित को जीवन की कला देना। और अंधे को आंख दे दो, इसमें कुछ बड़ा राज नहीं है। असली रहस्य की बात तो है: आंख वाले को देखने की कला दे देना। सभी तो जी रहे हैं और सभी के पास आंखें हैं। लंगड़ों को पैर दे दो, जाएंगे कहां? वेश्यालयों में पहुंच जाएंगे। अंधों को आंखें दे दो, वे भी इसी दौड़ में, इसी स्पर्धा में, इसी बाजार की भीड़ में खो जाएंगे। मुर्दों को जिला दो, वे फिर अपनी मर गई वासनाओं को पुनरुज्जीवित कर लेंगे। मुर्दों को जिलाना अर्थात उनकी वासनाओं को जिलाना। अंधों को आंख देना अर्थात उनकी वासना को आंख देना। लंगड़ों को पैर देना अर्थात उनकी वासना को पैर देना। और वासना को पैर हों, आंख हों, जीवन हो, तो नरक ही निर्मित होता है, स्वर्ग नहीं।
आस्कर वाइल्ड की कथा बहुमूल्य है। जीसस के जीवन में घटी हो या न घटी हो, लेकिन तुम्हारे सबके जीवन में तो रोज घट रही है। परमात्मा ने जीवन दिया और एक दिन जब परमात्मा तुमसे पूछेगा कि मेरे भाई, तुमने जीवन का क्या किया? तो क्या कहोगे? आंखें उठा सकोगे? उससे आंखें चार कर सकोगे? शर्म से गड़-गड़ जाओगे! आंखें जमीन से उठाते न बनेंगी। लौट कर देखोगे तो बहुत पछताओगे। जिंदगी तो ऐसे चली गई जैसे सपना हो। पकड़ में तो कुछ न आया। हाथ तो कोई संपदा न लगी। कोई शाश्वत सत्य तो उपलब्ध न हुआ। हां, धन मिला, पद मिला, प्रतिष्ठा मिली, लेकिन सब पानी के बबूले थे--बने और फूट गए। इंद्रधनुष थे, दूर से बड़े सुहावने थे, पास गए तो कुछ भी न था। मृग-मरीचिकाएं थीं। दूर से बहुत प्रलोभन दिया था और पास जब आए, तो सब सोना मिट्टी हो गया।
पलटू कहते हैं:
करामाति यह खेल अंत पछितायगा।
अभी जागो! इसी क्षण जागो! न कल पर टालना। टाला तो टालते ही चले जाते हो। टाला तो टालने की आदत बन जाती है। आज कल पर टालोगे, कल परसों पर टालोगे; पिछले जन्म इस जन्म पर टाल दिया था, इस जन्म अगले जन्म पर टाल दोगे--टालते ही रहोगे, जीओगे कब? टालते ही रहोगे, देखोगे कब? टालते ही रहोगे, सुनोगे कब? और अहर्निश बज रहा है उसका नाद और अहर्निश हो रहा है उसका नृत्य और अहर्निश वर्षा हो रही है उसके आनंद की। और तुम हो कि वंचित के वंचित।
तुम हो ऐसे चिकने घड़े कि पानी तुम्हें छूता भी नहीं। प्रभु बरस जाता है और तुम रूखे-के-रूखे रह जाते हो। या कि तुम हो उलटे रखे घड़े। प्रभु बरसता है मगर तुम खाली सो खाली। या कि तुम सीधे रखे घड़े हो, मगर बहुत छिद्रों भरे हो। भरते लगते हो मगर भर नहीं पाते। छिद्रों से सब बह जाता है। या कि तुम्हें भ्रांति है कि तुम भरे ही हुए हो। इसलिए तुम प्रभु को द्वार ही नहीं देते कि तुम्हें भर सके। तुमने न मालूम कितनी तरकीबें निकाल ली हैं जीवन को गंवाने की! कमाओगे कब?
करामाति यह खेल...
सम्हलो! यह जिंदगी जादू का एक खेल है।
यह दुनिया जादू का अजब खिलौना है,
मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है।
और खो ही जाता है। और पछताते विदा होते हो कि कितना था, कितना पा सकता था, कुछ भी तो न पा सका! और जहां हीरे मिल सकते थे, वहां समुद्र के तट पर शंख-सीपी बीनता रहा; रंगीन पत्थर बीनता रहा।
मरते वक्त लोग इसलिए नहीं रोते कि मौत आ गई। नहीं, मरते वक्त लोग इसलिए रोते हैं कि जिंदगी व्यर्थ गई।
इसे मैं फिर दोहरा दूं।
मरते वक्त लोग जिंदगी से इसलिए नहीं चिपटते कि मौत से डरते हैं। जिसको जानते ही नहीं, उससे डरेंगे भी कैसे? जिससे कभी मुलाकात ही नहीं हुई, उससे भय क्या? और कौन जाने, वह जीवन से भी बेहतर हो? नहीं, मरते वक्त लोग जीवन को पकड़ते हैं, क्योंकि यह जीवन चला हाथ से और हम तो कल पर टालते रहे--अब कोई कल नहीं होगा, मौत आ गई; अब हम टाल नहीं सकते; अब हमारी पुरानी आदत के लिए कोई उपाय नहीं। और आज जीना तो हम जानते ही नहीं! हम तो सदा कल में जीते हैं।
हिंदी शायद दुनिया की अकेली भाषा है, जिसमें हम बीते कल को भी कल कहते हैं और आने वाले कल को भी कल कहते हैं। यह अनूठी बात है। मगर इसमें बड़ा राज छिपा है। जरूर ज्ञानियों ने इन शब्दों की खोज की होगी। इस देश के शब्दों में ज्ञानियों की ध्वनि समा गई है। बीत गया, वह भी कल; आने वाला है, वह भी कल। दोनों झूठ।
और कल शब्द हमने बनाया कैसे?
बनाया है काल से। काल के दो अर्थ: एक समय और एक मृत्यु। वह भी बड़ा विचारणीय है। समय ही मृत्यु है। मृत्यु समय का ही दूसरा नाम है। बंगाली में तो कल को भी काल कहते हैं।... ऐसे ही तो कलकत्ते का नाम पड़ा।
जब अंग्रेज पहली दफा भारत आए, तो वे तलाश कर रहे थे कहां राजधानी बनाएं। उनके इंजीनियर और उनके स्थापत्य-कला के पारखी स्थान की तलाश कर रहे थे। एक जगह उन्हें बहुत पसंद आई--मनोरम, सुंदर। उन्होंने जो किसान वहां काम कर रहा था उससे पूछा कि इस जगह का नाम क्या है? वह उनकी भाषा न समझा। वह समझा कि वे पूछ रहे हैं कि जो फसल उसने काटी, कब काटी? उसने कहा: काल; काल काटा। ऐसे कलकत्ता पैदा हुआ। तो उन्होंने समझा कि इस जगह का नाम है: काल काटा; कलकत्ता।
काल का अर्थ समय भी, काल का अर्थ मृत्यु भी। कल भी मृत्यु थी। गया कल, मौत घट गई। और आने वाले कल भी और क्या घटने को शेष है, सिर्फ मौत घटेगी! जीवन तो अभी है। जीवन आज है। जीवन समय का हिस्सा नहीं है। जीवन समयातीत है, कालातीत है। जीवन तो क्षण-क्षण जीने की कला है। जो इस कला को सीख लेता है, वही पछताता नहीं। अन्यथा अंत समय बहुत पछताना होता है।
जीना है तो पीकर जी

दुनिया और दुनिया वालों को
मजहब के सब रखवालों को
नाम बता और जाम चढ़ा जा
आंख दिखा और जाम चढ़ा जा
पीना है तो जी कर पी
जीना है तो पीकर जी

‘पी’ की नजरें घोल के पीले
जय साकी की बोल के पीले
पी ले पी ले जितना चाहे
जी ले जी ले जितना चाहे
पी कर किसने तोबा की
जीना है तो पीकर जी

मन से चिंता मुंह मोड़ेगी
दुख की नागिन दम तोड़ेगी
नश्शे में आशा झूमेगी
तारों की चितवन चूमेगी
पीने वाले जल्दी पी
जीना है तो पीकर जी
जीवन अभी है। काश तुम पी सको, अभी पी सको! यह घूंट, काश, इसी क्षण तुम्हारे कंठ से उतर जाए, तुम्हारे हृदय के पात्र में भर जाए, तो पछताओगे नहीं। मृत्यु है कल, जीवन है आज। मृत्यु है स्थगित करने में, जीवन है जीने में। इसीलिए मैं सभी लोगों को जीवित नहीं कहता। जी ही नहीं रहे, तो जीवित क्या खाक कहो! चलते हैं, फिरते हैं जरूर, और श्वास भी लेते हैं और भोजन भी करते हैं, काम-धंधे भी करते हैं हजार; रात सोते भी हैं, सुबह उठते भी हैं; ऐसे तो सब हो रहा है, अगर इसको ही तुम जीवन कहते हो तो तुम्हारी मर्जी! फिर तुम बुद्धों के जीवन से परिचित न हो पाओगे। फिर तुमने क्षुद्र से ही तृप्ति कर ली, तुम जानो! फिर पछताओ तो पीछे कहना मत! यह जीने का कोई ढंग नहीं है। ऐसे तो पशु भी जीते हैं, फिर मनुष्य का आविर्भाव कहां?
मनुष्य का जीवन एक नई खोज है। मनुष्य का जीवन एक अन्वेषण है। मनुष्य का जीवन एक उत्तुंग आकाश को छूती हुई लहर है। उसके जीने की कला है कि प्रतिपल समग्रता से, एक-एक पल पूरे डूब कर जीना। इतने डूब कर जीना कि न तो बीते कल की याद आए और न आने वाले कल की याद आए; न अतीत रह जाए, न भविष्य रह जाए, सिर्फ वर्तमान हो--फिर कोई मृत्यु नहीं है। और जब कोई मृत्यु नहीं है, तभी तुम जानोगे कि परमात्मा है।
जीना है तो पीकर जी

दुनिया और दुनिया वालों को
मजहब के सब रखवालों को
नाम बता और जाम चढ़ा जा
आंख दिखा और जाम चढ़ा जा
पीना है तो जीकर पी
जीना है तो पीकर जी

‘पी’ की नजरें घोल के पीले
जय साकी की बोल के पीले
पी ले पी ले जितना चाहे
जी ले जी ले जितना चाहे
पी कर किसने तोबा की
जीना है तो पीकर जी

मन से चिंता मुंह मोड़ेगी
दुख की नागिन दम तोड़ेगी
नश्शे में आशा झूमेगी
तारों की चितवन चूमेगी
पीने वाले जल्दी पी
जीना है तो पीकर जी

पैमाने की रीत मिटा दे
मैखाने ओंठों से लगा दे
फिर ये मौसम कब आएगा
आएगा क्या तरसाएगा
अब ‘पी’ भी हैं और तू भी
जीना है तो पीकर जी
परमात्मा मौजूद है, पी मौजूद है, प्यारा मौजूद है; लेकिन प्यारा अभी मौजूद है, तुम कल पीओगे, तालमेल हो न पाएगा। तुम्हारी प्याली सुराही के पास कभी आ न पाएगी। सुराही अभी है और प्याली कल। कहीं वर्तमान भविष्य से मिला है? जो है वह उससे मिला है जो नहीं है? कभी भाव अभाव से मिला है? नहीं, यह मिलन होता ही नहीं। किसी राह पर, किसी द्वार पर, किसी मार्ग पर, किसी मोड़ पर यह मिलन होता ही नहीं। वर्तमान में जीने का नाम ध्यान है। वर्तमान में समग्ररूप लीन हो जाने का नाम समाधि है।
करामाति यह खेल अंत पछितायगा।
चटक-मटक दिन चारि, नरक में जायगा।।
हां, तुम कहोगे: हम भी जी रहे हैं। मगर तुम्हारा जीना है क्या? चटक-मटक! चटकुओं-मटकुओं की भीड़ है। तुम्हारा जीवन क्या है? एक नुमाइश, जैसे दूसरों को दिखाने के लिए जी रहे हो। पहन लिए अच्छे कपड़े, थोड़ा रंग-रोगन कर लिया, थोड़ा इत्र-फुलेल लगा लिया और चले! तुम लोगों को दिखा रहे हो कि जी रहे हो? तुम्हारे जीने में कोई गहराई कैसे होगी! तुम तो अभिनेता मात्र हो गए हो। और तुम्हारे चेहरे पर बहुत मुखौटे हैं; जब जैसी जरूरत होती है वैसा मुखौटा लगा लेते हो। कहीं पूंछ हिलानी होती है तो पूंछ हिला देते; कहीं गुर्राना होता है तो गुर्रा देते। मगर न तुम्हारे गुर्राने में बल है, न तुम्हारे पूंछ हिलाने में कोई सत्य है। तुम्हारी जिंदगी एक झूठ है। एक लंबा झूठ, जिसको तुम खींचे चले जाते हो। एक झूठ, जिसको तुम माने चले जाते हो। न तुमने ठीक से प्रेम किया है, न तुमने कभी मैत्री की है।
ऐसी तुमने मैत्री जानी कि जरूरत पड़े तो जीवन दे दो? तो फिर तुमने मैत्री नहीं जानी। और ऐसा तुमने प्रेम किया है कि अपना सब गंवाने को राजी हो जाओ? नहीं, प्रेम तुम करते हो गंवाने के लिए नहीं, दूसरे से कुछ पाने के लिए। प्रेम सौदा है। तुमने कभी ऐसी भक्ति की है कि अपनी गर्दन उतार कर रख दो? अपने को नहीं चढ़ाते भक्त, पड़ोसियों के बगीचों से फूल तोड़ कर चढ़ा देते हैं। अपने बगीचे से भी नहीं तोड़ते! वह भी पड़ोसियों के बगीचे से फूल तोड़ कर चढ़ा देते हैं! चैतन्य का फूल चढ़ाओ, अपनी आत्मा का फूल चढ़ाओ, तो उस प्यारे से मिलना हो। तुमने सस्ती तरकीबें निकाली हैं, तुम परमात्मा तक को धोखा देने की चेष्टा में संलग्न हो। दीया जलाया, आरती उतार ली। प्राणों में कब दीया जलाओगे? आरती वहां उतारनी है! धूप-दीप जला ली, सुगंध का धुआं उड़ा दिया। अपने को कब जलाओगे? तुम्हारे प्राणों से कब धूप उठेगी? कब तुम्हारे प्राण धुआं बन कर आकाश की तरफ उड़ेंगे! तब तुम छू पाओगे उसके चरण; उसके पहले नहीं।
लेकिन लोग चटक-मटक में लगे हैं। कोई हीरों के दीवाने हैं, कोई मोतियों के दीवाने हैं, कोई धन के दीवाने हैं, कोई पद के दीवाने हैं। और बड़े भूले हैं। और सोचते हैं, मिल गया पद, मिल गया धन तो सब मिल गया।
मैंने सुना है, मंत्री जी जंगल में भटक गए। सिर पर गांधी टोपी, अचकन, चूड़ीदार पाजामा--बिलकुल ठेठ नेता थे, नेता में जरा भी कमी न थी। पीछे सेक्रेटरी था। सेक्रेटरी के हाथ में तिरंगी झंडी थी। कोई भी पहचान लेता कि ये मंत्री जी हैं। भटकते-भटकते एक आदमी दिखाई दिया--देहात का गंवार--नेता जी ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए पूछा: भइया, तुम बता सकते हो कि मैं कहां हूं? उस गंवार ने नीचे से ऊपर तक नेता जी को कई बार देखा, पीछे झंडी देखी, फिर बोला: महाराज, अभी तो कुर्सी पर हैं। लेकिन जिस दिन यह छूट जाएगी, उस दिन असली जगह का पता चल सकेगा। उसके पहले तो मैं कुछ भी नहीं कह सकता हूं।
धन है, तुम फूले नहीं समाते। यह धन का धोखा है। कल धन न होगा तब पता चलेगा कि तुम कौन हो, कहां हो, क्या हो? अपने वाले भी पहचानेंगे नहीं। पराए तो पराए, अपने भी पराए हो जाएंगे। रास्ते से कट कर निकल जाएंगे। अभी पद पर हो, तो चमचों की जमात तुम्हें घेरे रहेगी। कल पद पर न हो, तब देखना। तब तुम्हें खुद ही चमचा होकर किसी की जमात में सम्मिलित होना पड़ेगा। लेकिन कुर्सियां धोखा दे देती हैं। और छोटे बच्चों को ही नहीं देती हैं, बूढ़ों को दे देती हैं।
छोटे बच्चे अक्सर, बाप अखबार पढ़ रहा है, छोटे बच्चे कुर्सी के मुट्ठे पर खड़े हो जाते हैं और कहते हैं: मैं तुमसे बड़ा। पिता मुस्कुरा कर कहता है कि हां, ठीक! बच्चे प्रसन्न, बाप से बड़े हो गए। इन पर तुम हंसते हो, कहोगे बच्चे हैं, नासमझ हैं। मगर कुर्सियों पर बैठे हुए दिल्ली में जो लोग हैं, ये बच्चे नहीं हैं? कोई सत्तर पार कर गया है, कोई पचहत्तर पार कर गया है, कोई अस्सी पार कर गया है, कोई चौरासी पार कर गया है... इनको अब तक कब्रों में विश्राम करना चाहिए था। मगर कुर्सियां इनको जिलाए हैं। कुर्सियों के कारण ये मर भी नहीं सकते। और कौन जाने कई इनमें मर भी गए हों! मगर शेरवानी और अचकन और गांधी टोपी के मारे पता ही नहीं चलता कि कौन मर गया कौन जिंदा है! कुर्सियां इनको ऐसा बल देती हैं कि ये चले जा रहे हैं।
मैंने सुना है ऐसा कि फोर्ड के एक प्रदर्शन-गृह में एक आदमी ने एक कार पसंद की। मैनेजर उस कार में उसे बिठा कर पास की पहाड़ी का चक्कर लगवाने ले गया कि दिखा दे। कोई दस मील जाकर कार अचानक पहाड़ी पर रुक गई। संभावित खरीददार ने पूछा: नई गाड़ी और ठेठ पहाड़ पर रुक जाए, यह क्या मामला है? अच्छा हुआ कि तुमने चला कर मुझे दिखा दी; अन्यथा मैं फंसता। मैनेजर ने कहा: चिंता न करो, कोई गाड़ी में खराबी नहीं है। असल में मैं पेट्रोल डालना भूल गया। तो उस आदमी ने पूछा कि बिना पेट्रोल के दस मील कैसे चली आई? मैनेजर ने कहा: इसमें कोई खूबी नहीं है, दस मील तो फोर्ड के नाम से ही गाड़ी चल जाती है। दस-पांच मील का तो कोई हिसाब ही नहीं, फोर्ड का नाम काफी है!
दिल्ली में गौर से अगर जांच-पड़ताल की जाए, अगर पोस्टमार्टम किया जाए, तो बहुत से नेता पाए जाएंगे कि मर चुके हैं, काफी दिन पहले मर चुके हैं, मगर कुर्सी की गरमी थर्मामीटरों को धोखा दे रही है! कुर्सी की धक-धक और तुम समझ रहे हो उनके हृदय धड़क रहे हैं!
एक लड़की अपनी मां से कह रही थी कि मां, मैं जिस युवक के प्रेम में हूं, उसका प्रेम बहुत होना चाहिए। क्योंकि जब भी वह मुझे गले लगाता है, मैं सुन सकती हूं उसके हृदय की धक-धक, धक-धक, धक-धक...! उसकी मां ने कहा कि तू जरा ठहर! तेरे पिताजी भी मुझे धोखा देते रहे दो साल तक। उसने कहा: क्या मतलब? उसने कहा कि एक बड़ी सी जेबघड़ी रख कर छाती के पास... धक-धक, धक-धक, धक-धक... मैं यही समझती थी कि वह प्रेम चल रहा है। वह केवल जेबघड़ी थी।
दिल्ली में नेताओं की एक जांच होनी ही चाहिए... एक जांच-कमीशन! शाह कमीशन तो काम नहीं आया, बादशाह कमीशन बैठना चाहिए! पहले तो यही जांच होनी चाहिए, इनमें कितने लोग मर गए हैं और कितने लोग जिंदा हैं? जो मर गए हैं, उनको विदा किया जाए। सम्मान सहित! कुर्सी की गर्मी जिलाए रख सकती है। और ध्यान रखना, कुर्सी की गर्मी होती है। बड़ी गर्मी होती है। पैसे की गर्मी होती है।
मुल्ला नसरुद्दीन और उसका बेटा दोनों एक नाले को पार कर रहे थे, मुल्ला ने तो छलांग मारी और नाले के उस पार निकल गया! बूढ़ा! अब बूढ़ा छलांग मारे और बेटा पीछे रह जाए तो जरा जंचे न, भद्द हो, तो बेटे ने भी छलांग मारी। भद्द होकर रही! बुरी भद्द हुई! इससे तो बेहतर था कि नाले में उतर कर पार कर जाता आसानी से! बीच नाले में गिरा, चारों खाने चित्त! पानी में डुबकी मार गया। बाहर निकला और पिता से पूछा कि आपका राज क्या है? आप बूढ़े हो गए, नाला छलांग लगा गए, मैं जवान आदमी हूं, मैं बीच में गिर गया। मुल्ला हंसा। उसने कहा: इसका राज है, बेटा! जिंदगी मैंने कुछ ऐसे ही नहीं गंवाई--धूप में बाल नहीं पकाए हैं! जेब खनखाई। उसमें नगद रुपये थे। बेटे ने कहा: मैं कुछ समझा नहीं; जेब खनखनाना, नगद रुपये, इससे क्या मतलब? मुल्ला ने कहा: मैं कभी जेब में बिना नगद रुपये लिए चलता ही नहीं--इसमें गर्मी बनी रहती है। उसी गर्मी से छलांग लगाई। तेरी जेब में क्या है? खाली जेब, फोकट जेब--गर्मी कहां! अरे, गर्मी चाहिए!
बिना पैसे के गर्मी नहीं होती।
तुमने देखा है, नेता जब पदों पर होते हैं तो कैसे युवा मालूम होने लगते हैं? जैसे अभी-अभी इस्त्री किए हुए कपड़े! और फिर जब पद चले जाते हैं तब उनकी हालत देखो। कैसे कुटे-पिटे! इस्त्री वगैरह सब खो जाती है। जैसे कई दिनों से इन्हीं कपड़ों को पहने हैं। न नहाया है, न धोया है, इन्हीं कपड़ों को पहन कर सोते हैं, इन्हीं को पहन कर उठ आते हैं।
कहते हैं, चमार लोगों के जूते देख कर पहचान लेते हैं कि कौन आदमी जिंदगी में सफल हो रहा है और कौन असफल। बात तो ठीक है। जरूर पहचान लेते होंगे, जूतों में कहानी छिपी होती है। सफल आदमी के जूते पर चमक होती है, असफल आदमी के जूते की भी हालत वही होती है जो असफल आदमी की होती है। झुर्रियां पड़ी होती हैं। जगह-जगह चूं-चरर-मरर करता है। वर्षों से तेल नहीं दिया गया है। जगह-जगह फट जाता है। थेगड़े लग जाते हैं।
लोग चटक-मटक को जिंदगी समझ रहे हैं! यह जिंदगी का सिर्फ धोखा है। कुर्सी की गर्मी कोई जीवन का उत्ताप नहीं है। और धन की गर्मी कोई आनंद का उल्लास नहीं है।
और ध्यान रखना कि आसान है चटक-मटक की जिंदगी में खो जाना क्योंकि भीड़ उन्हीं लोगों की है। चारों तरफ वे ही लोग तमाशा बनाए हुए हैं। न खुद जीते हैं ठीक से, न किसी और को जीने देते हैं ठीक से। पड़ोसी ने नई कार खरीद ली, अब तुम्हें भी खरीदनी होगी। नहीं तो भद्द होती है। पड़ोसी अकड़ कर निकलने लगता है। उसकी चाल बदल जाती है। वह नई कार ले आया। और तुम अभी तक फटियल... फोर्ड का टी-मॉडल, जिसमें बाबा आदम इदन के बगीचे से निकाले गए थे उसी में चल रहे हो! पड़ोसी ने नये कपड़े बना लिए... स्त्रियां इस मामले में बहुत सजग हैं। कौन कौन सी साड़ी पहन कर निकल आया है?
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन अपनी पत्नी को कह रहा था कि हद्द हो गई तेरी बेखर्ची की, फिजूलखर्ची की! अब मेरी बर्दाश्त के बाहर है। मैं तो कर्ज में डूबा जा रहा हूं और तू नई साड़ी लेकर फिर आ गई! साड़ियों की कमी नहीं है; पहनेगी कब इतनी साड़ियां? तीन सौ तो साड़ियां मैं गिनती कर चुका हूं। ये साड़ी तू पहनेगी कब? पत्नी एकदम भनभना गई, साड़ी जोर से नीचे पटक दी और कहा कि फिजूलखर्ची और मुझको सिखा रहे हो! और वह तुम जो फायर एक्सटिंग्विशर, आग बुझाने का वह जो लाल बंबा ले आए हो, जो हनुमान जी की तरह लटका हुआ है घर में--आज तीन साल हो गए, उसका क्या उपयोग? और मुझे तुम फिजूलखर्ची बता रहे हो!
स्त्रियों के अपने तर्क हैं, अपनी सोचने की व्यवस्थाएं हैं।
और भी चटक-मटक वाली बातें हैं। उनका सारा रस ही इसमें है कि कितने गहने, कितने वस्त्र... यही उनकी आत्मा हो गई है। पुरुषों की हालत भी बहुत भिन्न नहीं है। क्योंकि दोनों जीते तो एक ही जीवनशैली में हैं।
पलटू कहते हैं: जरा सम्हल जाओ--
चटक-मटक दिन चारि, नरक में जायगा।।
और यह चटक-मटक तुम्हें और-और गहरे दुखों की पर्तों में उतारेगी। क्योंकि जितने ही तुम जीवन से टूटते जाओगे उतने दुखी होते जाओगे। दुख का अर्थ है: जीवन से जड़ों का उखड़ जाना। जैसे किसी वृक्ष की जड़ें जमीन से उखड़ जाएं। वह दुखी हो जाएगा। उसके पत्ते कुम्हला जाएंगे। उसके फूल झुक जाएंगे। उसकी कलियां मुर्झा जाएंगी। उस पर फिर पक्षी गीत नहीं गाएंगे। उसके नीचे फिर बटोही छाया में नहीं टिकेंगे। चांद भी निकलेगा, सूरज भी निकलेगा, लेकिन उसके प्राणों में कोई रसधार न बहेगी, कोई उत्सव न होगा। वसंत भी आएगा, लेकिन फूल न खिलेंगे, क्योंकि जड़ें ही जमीन में न रहीं। जीवन में जड़ें चाहिए।
संन्यास का मैं अर्थ करता हूं: जीवन में जड़ें फैलाने की कला। जीवन में जितनी तुम्हारी जड़ें फैल जाएं और जितनी गहरी जड़ें फैल जाएं! मगर जड़ों में तुम्हारी उत्सुकता नहीं है। तुम्हारी उत्सुकता पत्तों में है। क्योंकि जड़ें तो दिखाई नहीं पड़तीं। कौन फिकर करता है! पत्ते दिखाई पड़ते हैं, सो रंग लो पत्ते! पत्तों पर लगा दो, लिपिस्टिक। पत्तों को पहना दो सुंदर-सुंदर साड़ियां। पत्तों के गलों में हार लटका दो। थोड़ी-बहुत जिंदगी भी हो पत्तों में तो मर जाएगी। तुम्हारे हार उन्हें मार डालेंगे! लोग ऐसे ही मर रहे हैं!
इस पूरी जीवन-दृष्टि को बदलना जरूरी है।
सोचो हजार बार, तुम कैसे जी रहे हो? तुम्हारी शैली क्या है? तुम्हारे जीवन का गणित क्या है? चटक-मटक? औरों को दिखाने के लिए भर जी रहे हो? या सच में ही भीतर... तुम जो चीजें खरीद लाते हो उनकी जरूरत थी या औरों को दिखाने के लिए खरीद लाए? उनकी सच में ही आवश्यकता थी? लोग ऐसी चीजें खरीद रहे हैं जिनकी उन्हें आवश्यकता नहीं है। उधार भी लेकर खरीद रहे हैं, जिनकी उन्हें आवश्यकता नहीं है। जिनको वे समझ भी नहीं सकते, वह भी लोग खरीद रहे हैं। लोग पिकासो के चित्र तक खरीद कर अपनी दीवालों पर लटका लेते हैं। हालांकि उन्हें यह भी पता नहीं कि चित्र को वे जो लटका रहे हैं वह सीधा लटका है कि उलटा!... क्योंकि पिकासो के चित्रों में तय करना बड़ा मुश्किल है कि सीधा क्या, उलटा क्या!
एक प्रदर्शनी में, पिकासो के चित्रों की प्रदर्शनी चल रही थी और सारे कला-परीक्षक एक चित्र के पास इकट्ठे थे। वह सबसे अनूठा था, और उसकी प्रशंसा में पुल बांध रहे थे कि यह अनूठी कृति है। इससे एक नये युग का प्रारंभ हुआ। ऐसी कोई कृति कभी नहीं बनाई गई। तभी पिकासो आया और उसने कहा: अरे भाई, इसे किसने उलटा लटका दिया है! उसने जल्दी से चित्र को सीधा लटकाया। वह उलटा लटका होने की वजह से अनूठा मालूम हो रहा था! क्योंकि किसी की कुछ समझ में नहीं आ रहा था। लोग ऐसे मूढ़ हैं कि जो बात जितनी कम समझ में आए, समझते हैं उतनी गहरी होनी चाहिए।
एक महिला ने पिकासो से अपना पोटर्‌रेट बनवाया। पिकासो ने छह महीने लगाए और लाखों डालर मांगे। महिला अरबपति थी, उसने कहा लाखों डालर लो, मगर बनाओ! चित्र तुम्हारे ही हाथ का चाहिए। चित्र बन कर तैयार हो गया, महिला आई, उसने चित्र देखा, उसकी कुछ समझ में नहीं आया--उसको यह समझ में ही न आए कि मैं इसमें कहां हूं? लेकिन पिकासो से कहे कैसे? इतना महान चित्रकार! उसने सिर्फ इतना ही कहा झिझकते-झिझकते कि और सब तो ठीक है, मगर जरा मेरी नाक ठीक नहीं बनी। पिकासो ने कहा: यह बहुत झंझट की बात है! छह महीने मैंने खराब किए, अब इसमें बदलाहट करना मुझे बहुत मुश्किल होगी। उस महिला ने कहा: कुछ जो और खर्च हो ले लेना, मगर नाक तो ठीक कर रही दो। पिकासो ने कहा: बाई, तू मुझे माफ कर! क्योंकि मुझे पता ही नहीं है कि नाक मैंने बनाई कहां है? अब मैं कहां खोजूं?
लेकिन ऐसे चित्रों को लोग लटका रहे हैं। चित्रकार को भी पता नहीं कि नाक कहां है! मगर पिकासो के चित्र होने चाहिए; तो तुम समृद्ध हो। तो अमरीका में पागलपन है। जिसके घर में पिकासो का चित्र नहीं है, वह मध्यमवर्गीय है; आभिजात्य नहीं है। पिकासो, डाली, वानगॉग, सीजां, इनके चित्र होने ही चाहिए। तब तुम सुसंस्कृत हो। तब तुम्हें कला की परख है।
लेकिन यह सब दूसरों को दिखा कर चल रहा है।
मैं ऐसे बहुत से घरों को जानता हूं जिनमें किताबों-किताबों की अलमारियां सजी हैं। लेकिन वे किताबें कभी पढ़ी नहीं गईं। क्योंकि मैंने उन किताबों को खोल कर देखा है, उनके पन्ने तक कई जुड़े हैं! तो उनको पढ़ा तो किसी ने नहीं है।
मैं एक घर में इसी तरह मेहमान था, एक महाराजा के घर में। उनकी बड़ी लाइब्रेरी थी! वे अपनी लाइब्रेरी मुझे दिखाने ले गए। मैंने दो-चार किताबें खोल कर देखीं, उनके पन्ने तक जुड़े थे। मैंने पूछा: इनको किसी ने पढ़ा? वे महाराजा हंसने लगे। उन्होंने कहा: पढ़ने का सवाल ही नहीं है। ये सुंदर मालूम पड़ती है। इनसे घर की शोभा है। किताबें और शोभा!
तुम किसको धोखा दे रहे हो!
मगर यह हमारे जीवन का ढंग है। गरीब से लेकर अमीर तक भी ऐसे ही जी रहा है। यह जीने की शैली बदलनी होगी; अन्यथा तुम्हारे जीवन में कभी परमात्मा का आगमन नहीं हो सकता है।
जिंदगी की कला धीरे-धीरे सीखनी पड़ती है। एकदम नहीं आ जाती। इसलिए मैं कुछ यह नहीं कह रहा हूं कि तुम आत्म-निंदा से भर जाओ। यह स्वाभाविक है। तुम जिस दुनिया में पैदा हुए हो, वहां हर आदमी चटक-मटक से जी रहा है, तुम उन्हीं के बीच बड़े हुए हो, तुमने भी उनकी आदतें सीख ली हैं।
जिंदगी के साज को धीरे-धीरे छेड़िए

तार हैं डरे हुए
दर्द से भरे हुए
दम बखुद, मरे हुए
जख्म जब हरे हुए

रंग क्या बहाएगा
साज टूट जाएगा

जिंदगी के साज को धीरे-धीरे छेड़िए

फूल ले के आइए
प्रेम रस पिलाइए
साज को मनाइए
फिर इसे बजाइए

साज है कली नहीं
रंग की डली नहीं

जिंदगी के साज को धीरे-धीरे छेड़िए

लो वो तार हिल पड़े
बेदरेग खिल पड़े
अब सुरों में दिल पड़े
जर्ब-ए-मुत्तसिल पड़े

रंग खुल के आएगा
अब्र घिर के छाएगा

जिंदगी के साज को धीरे-धीरे छेड़िए
जल्दी नहीं। ये काम जल्दी में होने वाले नहीं हैं। धीरजपूर्वक, धैर्यपूर्वक, शांतिपूर्वक अपने जीवन का पुनरावलोकन करो। और फिर धीरे-धीरे, आहिस्ता-आहिस्ता एक-एक पहलू को बदलना शुरू करो। जिंदगी के तार को धीरे-धीरे छेड़िए। ये तार नाजुक हैं, तोड़ मत डालना। कुछ लोग जल्दबाजी करते हैं, परिणाम बुरे होते हैं। जैसे तुमने सुना कि यह चटक-मटक जिंदगी बेकार है, तुमने कहा: फिर छोड़ो-छाड़ो। भाग गए जंगल, हो गए महात्मा। मगर वहां तुम करोगे क्या? जिंदगी के जो पुराने ढांचे थे वे तुम्हारे साथ चले जाएंगे। वहां भी तुम क्या करोगे?
तुमने महात्मा देखे? महात्मा भी कम से कम एक आईना रखते हैं अपने झोले में। क्योंकि जब भभूत लगाते हैं और तिलक-चंदन-मंदन लगाते हैं, तो आईने की जरूरत तो पड़ती है। आईने में बिना देखे चंदन इरछा-तिरछा लग जाए, तिलक उलटा-सीधा हो जाए... अलग-अलग पंथों के अलग-अलग तिलक हैं, तो बड़ी होशियारी से तिलक लगाना पड़ता है! राख कहीं छूट न जाए, पूरे शरीर पर पोतनी पड़ती है, जगह-जगह... एक ढंग है उसका भी, एक शैली है उसकी भी। उसकी भी एक कला है। सो साधु को भी आईना रखना पड़ता है। यही सज्जन कल आईने के सामने घंटों बाल सजा रहे थे; अब भी आईने के सामने बैठे घंटों बालों को बिगाड़ रहे हैं! उनमें धूल-धवांस भर रहे हैं। यही सज्जन कल आईने के सामने खड़े होकर पाउडर चेहरे पर पोतते थे, यही अब राख पोत रहे हैं--मगर आईना वही का वही। और भीतर आदमी वही का वही।
कल तक ये सुंदर रेशमी वस्त्र पहनते थे और आईने के समाने खड़े होकर छाती फुलाते थे, प्रसन्न होते थे, आज ये टाट के वस्त्र पहन रहे हैं। लेकिन उनको भी आईने के सामने खड़े होकर पहन रहे हैं। भेद कहीं कुछ भी न पड़ा। बात कुछ बनी नहीं। बात और बिगड़ गई। इसलिए जल्दी मत करना, जल्दी में अति हो जाती है, एक अति से आदमी दूसरी अति पर चला जाता है--और अतियों पर जाने से क्रांति नहीं होती, क्रांति होती है मध्य में ठहरने से।
जिंदगी के साज को धीरे-धीरे छेड़िए

तार हैं डरे हुए
दर्द से भरे हुए
दम बखुद, मरे हुए
जख्म जब हरे हुए

रंग क्या बहाएगा
साज टूट जाएगा

जिंदगी के साज को धीरे-धीरे छेड़िए

फूल ले के आइए
प्रेम रस पिलाइए
साज को मनाइए
फिर इसे बजाइए

साज है कली नहीं
रंग की डली नहीं

जिंदगी के साज को धीरे-धीरे छेड़िए

लो वो तार हिल पड़े
बेदरेग खिल पड़े
अब सुरों में दिल पड़े
जर्ब-ए-मुत्तसिल पड़े

रंग खुल के आएगा
अब्र घिर के छाएगा

जिंदगी के साज को धीरे-धीरे छेड़िए
उठेंगे गीत, बजेगा नाद, बदलियां घिरेंगी, तुम्हारा नृत्य व्यर्थ नहीं जाएगा, बादल बरसेंगे, झूम-झूम बरसेंगे, लेकिन जिंदगी की कला आते-आते आती है! और संन्यास जीवन की सबसे बड़ी कला है!
भीर-भार से संत भागि के लुकत हैं।
अरे हां, पलटू सिद्धाई को देखि संतजन थुकत हैं।।
पलटू कहते हैं कि संत भीड़-भाड़ से बचते हैं; छिपते हैं। भीड़-भाड़ है किसकी? बुद्धुओं की। भेड़ों की हैं भीड़ें। संत तो केवल उनमें रस लेते हैं जो शिष्य हैं। जिनकी क्षमता झुकने की है। और जिनका प्रण अपने को बदलने का है। और जिनके जीवन में एक संकल्प उठा है जो कोई भी बाधा नहीं मानेगा। और जिन्होंने तय कर लिया है कि जीवन रहे कि जाए लेकिन पंखों को खोलेंगे और सूरज की यात्रा करेंगे। संत तो केवल शिष्यों के हैं; संसार के नहीं हैं, बाजार के नहीं हैं, भीड़-भाड़ के नहीं हैं। संत तो केवल सिर्फ चुने हुए लोगों के लिए हैं।
मुझसे लोग आ-आ कर कहते हैं कि आश्रम सबके लिए क्यों नहीं खुला हुआ है? सबको आश्रम की जरूरत नहीं है।... उनके लिए निश्चित खुला हुआ है जिनको जरूरत है।... उनको कसौटी देनी होगी। उनको परीक्षा देनी होगी। मुझसे लोग कहते हैं कि आपसे हर कोई हर किसी समय आकर क्यों नहीं मिल सकता? इसीलिए कि अपात्रों की भीड़ यहां इकट्ठी नहीं करनी है। हर कोई हर समय आकर मिल सके, तो मैं पात्रों के लिए तो अनुपलब्ध हो जाऊंगा और अपात्रों की भीड़ से घिर जाऊंगा।
बहुत सी सीढ़ियां पार कर सकोगे तो ही मेरे पास आ सकोगे। और जितनी देर करोगे उतनी ही ये सीढ़ियां और-और बढ़ती जाएंगी। मैं और दूर-दूर छिपता जाऊंगा। ताकि मैं सिर्फ उन्हीं को उपलब्ध हो सकूं, जिनको सच में ही जरूरत है। अमृत को पीने की योग्यता भी तो संगृहीत होनी चाहिए। तुम अपने गंदे पात्र लेकर आ जाओ, क्या होगा? पहले पात्रों को साफ करो।
भीड़-भाड़ आने को उत्सुक होती है। उसकी उत्सुकता बस उत्सुकता होती है, कुतूहल होता है। उसे कुछ प्रयोजन नहीं है। उसकी कोई खोज नहीं है। खोज होगी, तो व्यक्ति दाम चुकाने को राजी होता है, कीमत चुकाने को राजी होता है। खोज हो, तो आदमी सब दांव पर लगाने को राजी होता है। भीड़ कुछ दांव पर लगाने को राजी नहीं है--भीड़ तो उलटा प्रसाद चाहती है। पंडित-पुजारी भीड़ों में उत्सुक होते हैं। पंडित-पुजारी भीड़ों में जीते हैं। संत और पंडित में भेद है। संत छिप जाता है।
भीर-भार से संत भागि के लुकत हैं।
अरे हां, पलटू सिद्धाई को देखि संतजन थुकत हैं।।
और जब संत के जीवन में सिद्धियों का आविर्भाव होता है, तो वे उन पर थूक देते हैं। जो संत सिद्धियों का प्रदर्शन करने लगे, वह बाजारू है। उसका कोई मूल्य नहीं। उसका अस्तित्व के जगत में कोई अर्थ, कोई महिमा नहीं; कोई गरिमा नहीं। हालांकि भीड़-भाड़ उसके पीछे खूब इकट्ठी होगी। क्योंकि भीड़-भाड़ मदारियों में रस लेती है।
भीड़-भाड़ तो तमाशाई है। कहीं कोई ताबीज निकाल दे हाथ से कि धूल निकाल दे कि बस भीड़-भाड़ को बड़ा रस आ गया! कि कोई घड़ी प्रकट कर दे, कि भीड़-भाड़ के रस का क्या कहना! कि भीड़-भाड़ को भगवान मिले! यह राख कहीं भी मिल जाती। यह तो साधारण मदारी, सड़क छाप मदारी निकाल देते। इसमें कुछ भी नहीं है। इसका कोई मूल्य नहीं है। मगर भीड़ की बुद्धि कितनी! उसकी क्षमता कितनी! उसकी समझ कितनी! उसके पास आंखें कहां हैं पारखी की? कंकड़-पत्थरों से राजी हो जाती हैं। संतजन तो हीरे बांटते हैं। मगर हीरे तो उन्हीं के लिए हैं जो पारखी हैं। पहले पारखी बनो, तो संतों से मिलना हो सकता है।
क्या लै आया यार कहा लै जायगा।
संगी कोऊ नाहिं अंत पछितायगा।।
सपना यह संसार रैन का देखना।
अरे हां, पलटू बाजीगर का खेल बना सब पेखना।।
यह जगत तो बस ऐसा ही है जैसे जादूगर का खेल। बजाया डमरू जादूगर ने, फूंके मंत्र, ऊंची लफ्फाजी की बातें कीं, झूठे आम उगा दिए--वे सिर्फ प्रतीत होते हैं, हैं नहीं। सम्मोहन है। तुम्हारी आंखों को दिया गया धोखा है। तुम्हें भरोसा दिला दिया, इसलिए दिखाई पड़ रहा है।
मनुष्य के मन की एक महत्वपूर्ण बात समझ लेना: उसे जिस बात का भरोसा आ जाए, वही उसे दिखाई पड़ने लगती है। अगर तुम्हें भूत-प्रेत में भरोसा है, तुम्हें भूत-प्रेत दिखाई पड़ेंगे। तुम हर बात में से भूत-प्रेत देख लोगे।
मैं एक गांव में कुछ दिन रहा। मेरे साथ एक मित्र रहते थे। वे बार-बार कहते थे, कारण-अकारण कहते थे: मैं भूत-प्रेत नहीं मानता। मैंने उनसे कहा कि तुम इतनी बार कहते हो, इससे जाहिर है कि तुम भूत-प्रेत मानते हो। नहीं तो जरूरत क्या? मैंने एक दफे नहीं कहा! अगर भूत-प्रेत हैं ही नहीं, तो मानना क्या और नहीं मानना क्या? तुम नहीं मानते, यह कहते जरूर हो, लेकिन लगता है भीतर कहीं मानते हो, उस मान्यता को छिपाने की कोशिश में लगे हो। उन्होंने कहा: आप भी उलटे आदमी हैं; आपकी उलटी खोपड़ी है! मैं कहता हूं कि नहीं मानता और आप सिद्ध करना चाहते हैं कि मानते हो!
मैंने कहा: फिर ठहरो। मैं जानता हूं कि भूत-प्रेत कहां हैं। आज ही रात निर्णय हो जाएगा। उन्होंने कहा: क्या मतलब? मैंने कहा: यह जो सामने मकान है, इसके ऊपर की मंजिल पर तुम रात आज सो जाओ। बस आज तय हो जाएगा। सुबह पता चल जाएगा। सुबह भी मैं समझता हूं नहीं हो पाएगी। आधी रात में ही तय हो जाएगा। अब कह तो फंसे थे! एकदम से झुक भी नहीं सकते थे। काशी हिंदू विश्वविद्यालय से संस्कृत की बड़ी उपाधियां लेकर आए थे। पीएच. डी. थे। अकड़ भी बड़ी थी। कहा कि मैं मानता ही नहीं हूं! तो मैंने कहा कि मैं विवाद भी नहीं कर रहा हूं कि तुम मानो। जब हैं ही, तो तुम्हारे न मानने से क्या होता है?
मैंने उनके सोने का इंतजाम सामने के मकान में कर दिया।... सामने के मकान में कुछ भी नहीं था, केरोसिन तेल बेचने वाले एक आदमी के खाली डिब्बे ही डिब्बे भरे थे। पूरे मकान में खाली डिब्बों का ही जमाव था। वे मेरे परिचित थे, मैंने उनसे कहा कि भाई, इतना कर दो। उन्होंने कहा: मामला क्या है? मैंने कहा कि तुम इसकी फिकर न करो, मामला रात में ही जाहिर हो जाएगा।
जैसे-जैसे सांझ करीब आने लगी, पीएच. डी. के पैर के नीचे की जमीन खिसकने लगी। वे मुझसे बोले: क्या आप सच में मानते हैं कि भूत-प्रेत होते हैं? मैंने कहा: यह बात ही फिजूल है! आज जब तय ही हो जाना है, तो इसकी बात ही क्या करनी है! मैं तर्क में नहीं भरोसा करता, अनुभव में। सांझ होते-होते उनका चेहरा पीला पड़ने लगा, उनके हाथ कंपने लगे। मैंने उन्हें देखा कि वे बाथरूम में बैठ कर राम-राम जप रहे हैं। गायत्री मंत्र पढ़ रहे हैं--जो भी उन्हें मालूम था... हनुमान चालीसा! जाते वक्त छोटी कितबिया ले जाने लगे, मैंने कहा: यह क्या है? उन्होंने कहा: यह हनुमान चालीसा है। मैंने कहा: किसलिए ले जा रहे हो? जब भूत-प्रेत होते ही नहीं तो हनुमान बिचारे क्या करेंगे? इनकी जरूरत क्या है? उन्होंने कहा कि मैं तो यह हमेशा रखता हूं अपने पास। भूत-प्रेत से क्या लेना-देना, मुझे हनुमान से प्रेम है। मैंने कहा: तुम्हारी मर्जी!
गर्मी के दिन थे। उनका बिस्तर ऊपर लगवा दिया और नीचे मैंने ताला डाल दिया। वे कहने लगे कि चाभी तो मुझे दे दो। मैंने कहा: चाभी तुम्हें क्यों दूंगा? वे लोग जब आएंगे रात चाभी मांगने, फिर मैं क्या करूंगा? उन्होंने कहा: कौन लोग? मैंने कहा: वही जिनको भूत-प्रेत कहते हैं। आखिर वे चाभी मुझ से मांगेंगे! तुमने तो हनुमान चालीसा रख लिया, वे मुझे झंझट देंगे; मैं सोना चाहता हूं शांति से, सो चाभी उनको देकर मैं शांति से सो जाऊंगा। उन्होंने कहा: आपकी बातें कुछ समझ में नहीं आतीं; कैसी चाभी और कैसे भूत-प्रेत! मैंने कहा: सब समझ आ जाएगा।
उनको ऊपर करवा आया। उनको ले जाना पड़ा मुझे ऊपर; नहीं तो वे हजार बहाने निकालते थे कि मैं अभी क्यों जाऊं, अभी तो जल्दी है, अभी तो मैं सोऊंगा भी नहीं। मैंने कहा कि तुम... मुझे भी सोना है! ग्यारह बजे उनको मैं ऊपर कर आया।
गर्मी के दिनों में खाली डिब्बे टीन के हों तो वे सिकुड़ते हैं, फैलते हैं। उनमें आवाज होनी शुरू होती है। और डिब्बों के ऊपर डिब्बे लगे हों तो एक की आवाज दूसरे में और दूसरी की तीसरे में...!
बस कोई बारह बजा होगा, साढ़े बारह... उन्होंने एकदम चीख मारी। वह मुझे पता ही था। मैंने मकान-मालिक को भी बिठा रखा था कि आज तुम खेल देखो! चीख मारी, मोहल्ला इकट्ठा हो गया, वे ऊपर छज्जे पर खड़े, एकदम कंप रहे, थर-थर कंप रहे। मैंने उनसे कहा कि उतर कर आ जाओ, हम दरवाजा खोल देते हैं, उन्होंने कहा कि मैं सीढ़ियों पर जा ही नहीं सकता। वहीं तो हैं वे लोग! और हद्द हो रही है, एक डिब्बे में से दूसरे डिब्बे में जा रहे हैं! एक नहीं है, हजारों मालूम होते हैं। मैंने कहा: भई, और तो कोई दूसरा दरवाजा है नहीं निकालने का, तुम आओ उतर कर, मैं दरवाजा खोल दूं नीचे; सीढ़ियां तो उतरो। उन्होंने कहा कि नहीं, भूल कर नहीं; नसेनी लाओ और यहीं से उतरूंगा। नसेनी लाकर दो आदमियों को चढ़ा कर उनको पकड़ कर उतारना पड़ा। बुखार नपवाया तो एक सौ चार डिग्री बुखार, पसीना-पसीना हो रहे। डॉक्टर को बुलाना पड़ा, दवा दिलवानी पड़ी, रात सुलवाया। रात भर हनुमान चालीसा अपनी छाती से लगाए रहे।
फिर मैंने उनसे कहा: अब आइंदा मत कहना कि भूत-प्रेत नहीं होते। तुम मानते हो कि होते हैं। उस मकान में कुछ भी न था, केवल टीन के डिब्बे थे; तुम पीएच. डी. हो, इतनी तो अकल होनी चाहिए कि टीन के खाली डिब्बे होंगे तो गर्मी में सिकुड़ेंगे-फैलेंगे, खटर-पटर होगी। फिर एक-दूसरे के ऊपर कतारबद्ध लगे हैं तो खटर-पटर एक-दूसरे में जाएगी। उन्होंने कहा कि अब तुम मुझे फिर दुबारा फंसाने की कोशिश मत करो! अब मैं उस मकान में कदम नहीं रख सकता। ऐसी की तैसी पीएच. डी. की! जान बची और लाखों पाए, बुद्धू लौट कर घर को आए। उन्होंने कहा: अब मुझे... मुझे पक्का विश्वास है कि होते हैं! अब आपसे मुझे विवाद नहीं करना है। इसी विवाद में मैं नाहक झंझट में पड़ गया। फिर मैं उनको बहुत समझाने की कोशिश किया कि नहीं होते, वे सुनें ही नहीं।
तुम जो मान लो वह हो जाता है। तुम्हारी मान्यता तुम्हारे चारों तरफ एक संसार निर्मित करती है। न तो तुम कुछ लाए हो, न कुछ तुम ले जाओगे, जो तुमने बना लिया है संसार, बस मान्यता का है। किसी स्त्री के साथ सात चक्कर लगा लिए, वह तुम्हारी पत्नी हो गई! खूब खेल खेल रहे हो! बैंड बाजा बजा, शहनाई बजी, कोई भोंदू को पकड़ लाए और उसने मंतर-तंतर पढ़ दिए और तुम्हें सात चक्कर लगवा दिए और गांठ बांध दी--और बंध गई!
एक सज्जन मुझसे कहते थे, उन्हें पत्नी छोड़नी है, मगर कैसे छोड़ें, गांठ बंध गई, सात चक्कर लग गए हैं; मैंने कहा: तुम पत्नी को लिवा लाओ, अगर वह भी राजी हो तो मैं सात उलटे चक्कर लगवा दूं। और गांठ खोल दूं। और मंतर-तंतर, जितने तुम कहो उतने पढ़वा दूं। उलटे पढ़वा देंगे इस बार! सो मामला खत्म हो जाएगा। आखिर गांठ बंधी है न, तो गांठ खुल सकती है! सात चक्कर ऐसे लगाए, उलटे लगा लेना! मंतर-तंतर पढ़े थे, पढ़वा देंगे!
उस दिन से वे यहां आए ही नहीं हैं। वे तो बात कर रहे थे, जैसा कि सभी लोग करते हैं कि कोई सार नहीं है। संसार में... पत्नी, बच्चे, मुश्किल हो गई...! उन्होंने यह नहीं सोचा था कि मैं इतना सुगम उपाय बताऊंगा, कि उलटे फेरे डाल लो!
क्या लेकर आए थे? पलटू कहते हैं:
क्या लै आया यार कहा लै जायगा।
संगी कोऊ नाहिं अंत पछितायगा।।
सपना यह संसार रैन का देखना।
यह सब अंधेरे में तुमने अपने सपनों का एक जाल बुन लिया है, जिसको तुम संसार कहते हो। यह सब टूटा पड़ा रह जाएगा। यहीं का यहीं पड़ा रह जाएगा। यह बाजार उखड़ जाएगी। मौत आएगी और तुम्हारा किया हुआ सब अनकिया हो जाएगा।
अरे हां, पलटू बाजीगर का खेल बना सब पेखना।
ये सब दृश्य जो तुम देख रहे हो, माया के, मोह के, लगाव के, आसक्ति के, अपने, पराए, मेरा, तेरा... कैसे लड़-लड़ पड़ते हो इंच-इंच जमीन पर, तलवारें खिंच जाती हैं, जिंदगी मुकदमों में बीत जाती है--और सब पड़ा रह जाएगा!
और मजा तो देखो:
जीवन कहिये झूठ, साच है मरन को।
पलटू कहते हैं: यह जीवन तो तुम्हारा बिलकुल झूठ है, इससे तो तुम्हारी मौत कहीं ज्यादा सच है!
मूरख, अजहूं चेति, गहौ गुरु-सरन को।।
अभी भी जाग जाओ, इसके पहले कि मौत आए, जाग जाओ! यह सपने को सत्य न समझो। इस सपने के प्रति मर जाओ। सपने के प्रति मर जाना संन्यास है। और सपने के प्रति जो मर गया, उसके भीतर एक होश का दीया जलता है।
लेकिन यह संभव है तभी, तुम जब किसी गुरु के साथ जुड़ जाओ। बुझा दीया जले दीये के पास सरक आए, तो ज्योति से ज्योति जले!
मांस के ऊपर चाम, चाम पर रंग है।
अरे हां, पलटू जैहै जीव अकेला कोउ ना संग है।
है क्या अपने पास? हड्डी-मांस-मज्जा। अस्थिपंजर।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी मर रही थी। दोनों में बातचीत होने लगी कि मृत्यु के बाद आत्मा बचती है कि नहीं! पत्नी कहती थी, बचती है, मुल्ला कहता था कि नहीं बचती। असल में मुल्ला चाहता नहीं था कि बचे। क्योंकि पत्नी से जिंदगी भर परेशान रहा था और अब और संभावना कि बचेगी पत्नी फिर भी!... और अभी तो कम से कम देह में बंद थी; तो घर आए तो ही सताती थी; देहमुक्त हो जाएगी तो पता नहीं कहां-कहां सताए! मधुशाला ही में पहुंच जाए! किसी और स्त्री से मुल्ला अपना राग-रंग रचा रहा हो, वहीं जाकर ऊधम करने लगे! मुल्ला कह रहा था कि नहीं बचती। पत्नी कहती थी: बचती है! आखिर बात यहां तक बढ़ी कि पत्नी ने कहा कि फिर ऐसा करो, कि हम दोनों में से जो पहले मरे, वह यह कसम खाए कि मरते ही आकर दूसरे को खबर देगा कि देखो मैं जिंदा हूं। मैं अभी भी हूं।
मुल्ला ने कहा: यह ठीक है। शर्त रही।
फिर थोड़ा डरा! कह तो गया जोश में... फिर कहा: लेकिन एक बात खयाल रखना कि अगर कभी आओ तो दिन में आना, रात में नहीं! पत्नी ने कहा: क्यों, रात में तुम्हें क्या डर है? आखिर मैं तुम्हारी पत्नी हूं। उन्होंने कहा: वह तो मैं समझा कि मेरी पत्नी अभी हो! मरने के बाद पता नहीं किस रूप में प्रकट होओ? नहीं! दिन में आना, भरी रोशनी में आना! और ऐसे भी रात में तुम आओ तो रात में तुम मुझे घर में पाओगी नहीं! क्योंकि तुम मर गईं, इसका यह मतलब नहीं कि दुनिया में सब स्त्रियां मर गईं! इसलिए बेकार परेशान मत होना। या तो मैं मधुशाला में रहूंगा या किसी स्त्री के पास रहूंगा। तुम तो दिन में आना, भरी दोपहरी में और एक ही बार आना काफी है!
पत्नी ने कहा: अच्छा ठीक, तो दिन में ही आऊंगी! भर दोपहरी में ही आऊंगी! मुल्ला ने फिर थोड़ा सोचा, फिर पत्नी का हाथ हाथ में लिया और कहा: हे प्यारी, मुझे क्षमा करो, मैं मानता हूं कि आत्मा बचती है, आने वगैरह की कोई आवश्यकता नहीं है। क्योंकि भरी दोपहरी में भी तुम मेरी छाती दहला दोगी! अभी जिंदा में ही दहला देती हो, तुम्हें देख कर ही मेरे पैर कंपने लगते हैं, घर की तरफ आते डरता हूं। कल ही रात की बात है, रास्ते पर चल रहा था, दो बज गए, चक्कर काट रहा था। आखिर सिपाही ने कहा कि नसरुद्दीन, दो बज गए और मैं तुम्हें देख रहा हूं कि कम से कम दो घंटे से तुम यहीं-यहीं चक्कर काट रहे हो। तुम्हारे पास यहां बार-बार चक्कर काटने के लिए कोई उत्तर है? नसरुद्दीन ने कहा: अगर उत्तर ही होता तो घर ही क्यों न चले गए होते! उत्तर नहीं है, वही सोचने के लिए चक्कर काट रहा हूं कि घर जाकर पत्नी को क्या उत्तर देना? और जैसे-जैसे देर होती जा रही है वैसे-वैसे मुसीबत होती जा रही है। हवलदार साहब, अगर आपके पास कोई उत्तर हो तो आप बताओ! कभी-कभी यह मुसीबत आप पर भी तो आती होगी!
घर आते वक्त पति को उत्तर तैयार करना पड़ता है। घर आते वक्त पति की वही हालत होती है जो परीक्षा में जाते वक्त विद्यार्थियों की होती है। और वे कोई भी उत्तर तैयार करें, पत्नी मानने को राजी नहीं। वह हर उत्तर में से कुछ न कुछ भूल-चूक निकाल लेती है।
यह हमने एक संसार बना रखा है। इसमें सुख तो कुछ पाया नहीं, दुख बहुत पाया है, पीड़ा बहुत पाई है। चाहा तो सुख है, मगर मिला नहीं।
आदर्श सोते हैं
आईने रोते हैं

मनमानी करके रहेंगे
आप कौन होते हैं

अंधे भाई नयन सुख
सूरज के पोते हैं

दर्द बेहिसाब है
बेहिसाब रोते हैं

सुख उगता ही नहीं
सुख रोज बोते हैं।
रोज बोते हो सुख, आशा-अपेक्षा में, आकांक्षा में, मगर सुख ऊगता कब? जब ऊगता है तब दुख ऊगता है। स्वर्ग चाहते हो, मिलता नरक है। जरूर कहीं कोई मौलिक भूल हो रही है। तुम झूठ को सच मान रहे हो।
भूलि रहा संसार कांच की झलक में।
बनत लगा दस मास, उजाड़ा पलक में।।
कितना जिंदगी में मेहनत करके इसको बसा पाते हो, इस सपने को! और उजड़ने में पलक नहीं लगती। इधर सांस टूटी कि सब उजड़ गया।
रोवनवाला रोया आपनि दाह से।
और ध्यान रखना, जो लोग रोएंगे तुम्हारे मर जाने पर, वे तुम्हारे लिए नहीं रो रहे हैं, वे अपने लिए रो रहे हैं। पत्नी रोएगी, पति रोएगा, बच्चे रोएंगे, माता-पिता रोएंगे, मित्र रोएंगे, मगर ध्यान रखना, इस भ्रांति में मत पड़ना कि वे तुम्हारे लिए रो रहे हैं; वे अपने लिए रो रहे हैं। पत्नी रो रही है कि अब क्या होगा? यह पति तो खिसक गया, अब अपना क्या होगा? बच्चे रो रहे हैं कि पिता चल बसे, अब अपना क्या होगा? मां-बाप रो रहे हैं कि बेटा चल बसा, अब बुढ़ापे में अपने हाथ की लाठी कौन? यहां कोई किसी और के लिए नहीं रोता है, यहां सब अपने लिए रोते हैं।
अरे हां, पलटू सब कोई छेंके ठाढ़, गया किस राह से।।
और जब तुम्हारी जिंदगी उड़ने लगेगी--जैसे कपूर उड़ जाए--जब तुम्हारे प्राणपखेरू उड़ने लगेंगे, तो सभी रोक कर खड़े होंगे राह, मगर कोई छेड़ न पाएगा, रोक न पाएगा। क्योंकि तुम अदृश्य हो। लाख पत्नी सिर पटके, रोक न सकेगी। लाख पति रोए, रोक न सकेगा। और सब रोकने इत्यादि की बातें दिन-दो दिन की हैं। फिर पत्नी बसा लेगी नया सपना, फिर पति बसा लेगा नया सपना।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी मरी। मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी का एक प्रेमी था। और सब मित्र और वह प्रेमी भी आखिरी विदाई में सम्मिलित हुए। मरघट पर वह प्रेमी ऐसा छाती पीट-पीट कर रो रहा था कि नसरुद्दीन को मात कर रहा था। जैसे वही असली पति हो। आखिर नसरुद्दीन से न रहा गया और उसने जाकर उसके कंधे पर हाथ रखा और कहा: भाई मेरे, ज्यादा दुख न पाओ, मैं फिर विवाह करूंगा। घबड़ाओ मत। इतने न पछताओ, मैं फिर विवाह करूंगा।
कच्चा महल उठाय, कच्चा सब भवन है।
दस दरवाजा बीच झांकता कवन है।।
‘कच्चा महल उठाय, कच्चा सब भवन है।’ यहां तुम जो बना रहे हो, सब कच्चा है। यहां तो पक्की सिर्फ एक चीज बन सकती है, वह है तुम्हारी आत्मा की प्रौढ़ता; वह है तुम्हारी चेतना का जागरण।
दस दरवाजा बीच झांकता कवन है।
जो इन दस दरवाजों, इंद्रियों के भीतर छिपा है, उसमें झांक ले, उसने पक्का महल बनाया।
कच्ची रैयत बसै, कच्ची सब जून है।
अरे हां, पलटू निकरि गया सरदार, सहर अब सून है।।
और आज नहीं कल हंसा तो उड़ जाएगा, सूना शहर पड़ा रह जाएगा। और इस शहर को बसाने में तुमने कितना श्रम किया था! कितनी मेहनत उठाई थी। क्या नहीं कर छोड़ा था! सब दांव पर लगा दिया था। लेकिन सब पत्तों के घर हैं; हवा का झोंका आया, गिर जाते हैं। कागज की नावें हैं; चल भी नहीं पातीं कि डूब जाती हैं। इन पर भरोसा मत करो।
हाथ गोड़ सब बने, नाहिं अब डोलता।
एक क्षण में, श्वास क्या उड़ी, हाथ-पैर सब वैसे के वैसे हैं लेकिन अब डोलता नहीं।
नाक कान मुख ओहि, नाहिं अब बोलता।
नाक-कान सब वैसे के वैसे हैं, लेकिन अब बोलता नहीं।
काल लिहिसि अगुवाय, चलै ना जोर है।
मौत आ गई, काल द्वार पर खड़ा हो गया, धक्के देकर ले चलने लगा, अब उस पर कुछ जोर नहीं चलता। एक क्षण भी रुकने के लिए नहीं मांगा जा सकता। एक क्षण की छुट्टी नहीं मिलती। चाहे तुम लाख कहो कि मैं कोई साधारण आदमी नहीं, वी. वी. आई. पी हूं; लाख कहो कि मैं प्रधानमंत्री, मैं राष्ट्रपति, मैं यह, मैं वह, मौत कुछ सुनती नहीं। मौत के पास ये कोई प्रमाणपत्र चलते नहीं। एक क्षण का भी अवसर नहीं दिया जा सकता।
आया मूठी बांधि, पसारे जायगा।
और कैसा मजा है, कैसा मजाक है, बच्चा आता है तो मुट्ठी बंधी होती है और जाता है तो हाथ खुले होते हैं। यह तो खूब उलटी बात हो गई। खुले हाथ आते, मुट्ठी बंधे हाथ जाते तो कुछ समझ में आती बात कि आए थे खाली हाथ, कुछ लेकर गए! यहां हालत उलटी है। बच्चा बंद मुट्ठी आता, शायद कुछ लेकर आता है; कुछ अदृश्य; एक निर्दोषता लेकर आता है; एक सरलता, एक स्वच्छता, एक ताजगी। जैसे ओस की बूंद सुबह ताजी-ताजी, कि कमल के फूल की पंखुड़ी सुबह ताजी-ताजी। कोरा आता। कुछ भी गुदा नहीं, कुछ भी लिखा नहीं, कोरा कागज। जिस पर कोई संस्कार नहीं, कोई लिखावट नहीं। एक शून्य की तरह आता। एक मौन की तरह आता। न शब्द हैं, न विचार हैं, न भाषा है। न वासना है कोई अभी, न कामना है कोई अभी। न बीता कल है, न आगा कल है। क्षण-क्षण में पुलकित होता, आनंदित होता।
और प्रामाणिक होता है बच्चा। ऑथेंटिक होता है। धोखा नहीं देता। अगर क्रोध है तो क्रोध प्रकट कर देता है। और प्रेम है तो प्रेम प्रकट कर देता है। तर्क और तर्क की संगति में भी नहीं उलझा होता। अभी कह रहा था कि तुम्हारे बिना जी न सकूंगा और अभी नाराज हो गया और कहता है, अब तुम्हारी शक्ल दुबारा नहीं देखूंगा--और फिर घड़ी भर बाद तुम्हारी गोदी में बैठा है। क्षण-क्षण जीता है। स्वस्फूर्त।
जरूर कुछ लेकर आता है। कुछ बहुमूल्य। इसीलिए तो जीसस ने कहा है: अगर मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश पाना हो तो तुम्हें पुनः छोटे बच्चे की भांति हो जाना पड़ेगा।
आया मूठी बांधि, पसारे जायगा।
छूछा आवत जात, मार तू खायगा।।
और जितने तुम छूछे जाओगे उतने ही मार खाओगे। क्योंकि परमात्मा के समक्ष, अस्तित्व के समक्ष उत्तर क्या है तुम्हारे पास देने को? कैसे तुमने जीवन गंवाया, कुछ हिसाब... कुछ तो कह सको कि ऐसे गंवाया। कि बुद्धू की तरह खड़े रह जाओगे! कहते न बनेगा, जबान लड़खड़ाएगी, क्योंकि जिसमें भी तुमने जीवन गंवाया, वह सब तुम्हें फिजूल दिखाई पड़ेगा। अब तुम उसका उत्तर नहीं बना सकते। वह सब सपना था। और सपने को तुमने सच मान लिया था। आंख न उठेगी!
किते बिकरमाजीत साका बांधि मरि गये।
और साधारण लोगों की तो छोड़ दो, बड़े-बड़े सम्राट, विक्रमादित्य जैसे सम्राट, जिनके नाम से विक्रम संवत्‌ चलता है; जिनके नाम से संवत्‌ बना, जो इतनी बड़ी छाप छोड़ गए समय पर...
किते बिकरमाजीत साका बांधि मरि गये।
संवत्‌ रूपी कीर्ति-स्तंभ जो बना गए, समय पर ऐसी अमिट रेख छोड़ गए, वे भी पानी में खो गए, धूल में खो गए। उनका भी कहां पता है? कभी होंगे तो बहुत अकड़ कर चले होंगे; सोने के सिंहासनों पर उठे होंगे, धूल में पैर न पड़े होंगे, कांटों से परिचित न हुए होंगे; धूप न लगी होगी, पसीना न बहा होगा; फूलों में, फूलों की गंध में, इत्रों में डूबे रहे होंगे; गुलाब जल में नहाए होंगे। और फिर वही देह, गुलाबजलों में नहाई देह एक दिन मिट्टी में मिल जाती है। जब बड़े-बड़े ऐसे मिट जाते हैं, तो छोटे-छोटों की तो बिसात क्या!
अरे हां, पलटू रामनाम है सार संदेसा कहि गये।।
और विक्रमादित्य जैसे लोग भी जब मर जाते हैं, जब अरथी उठती है तो मालूम है हम क्या कहते हैं? रामनाम सत्य है। हर अरथी के साथ हम कहते हैं: रामनाम सत्य है, सत्य बोले गत्त है। जिंदगी भर राम को याद न किया, मुर्दा लाश के चारों तरफ हम दोहराते हैं: रामनाम सत्य है। बड़ी देर हो गई, जरा पहले दोहराना था!
मैं तो तुमसे कहूंगा: जिनसे तुम्हें प्रेम हो उनको पकड़ लो, बांध दो अरथी में, ले चलो: रामनाम सत्य है! जिंदगी में कुछ कहो, तो सुनें तो कुछ अकल आए! अब मर गए, अब न उन्हें सुनाई पड़ता है, अब तुम चिल्ला रहे हो: रामनाम सत्य है!
और ध्यान रखना, तुम मुर्दों के लिए तो रामनाम सत्य कह रहे हो और कह रहे हो: सत्य बोले गत्त है, कि सत्य बोलो तो गति हो जाती है, अपने बाबत क्या खयाल है? वह तुम दूसरों पर छोड़ रहे हो, कि भई, जैसे हमने तुम्हारी लाश पर बोला रामनाम सत्य है, जब हम मरें, तुम भी बोल देना। एक औपचारिकता निभा रहे हो!
मरघट पर लोग जाकर गपशप करते हैं बाजार की... कौन सी फिल्म अच्छी लगी है गांव में? न मालूम कहां-कहां की फिजूल बातें करते हैं।... जरा मरघट पर जाया करें! जब अरथी ले जाते हैं तो रामनाम सत्य है! अरथी पहुंचा कर, अरथी को रखा चिता पर, फिर अरथी की तरफ पीठ करके जरा लोगों की बातें सुनो! क्या-क्या गजब की बातें लोग कर रहे हैं!
मैंने तो अपने गांव में ऐसे लोग भी देखे हैं की उधर लाश जल रही है और वे जुआ खेल रहे हैं। मरघट पर! मरघट पर जुआ खेलने की सुविधा है, पुलिस को भी पता नहीं चलता कि वहां जुआ चल रहा है। और फिर बैठे-बैठे करें भी क्या? अब ये सज्जन तो जलने में वक्त लेंगे। तीन-चार घंटे लगें, कि छह घंटे लगें। और अगर लकड़ियां गीली हों और वर्षा का मौसम हो तो पता नहीं दिन भर खराब होने वाला है! तो लोग ताश ले जाते हैं साथ कि वहीं बैठ कर ताश जमा देंगे! कैसी अदभुत दुनिया है, कोई मर गया और तुम्हें अभी भी ताश खेलने की पड़ी है!
लेकिन मैं समझता हूं, इसके पीछे मनोवैज्ञानिक कारण हैं। ये बचने के उपाय हैं। इस तरह अपने मन को इस सत्य से बचाना है कि मौत है, कि मौत आती है। इसकी आई, कल अपनी भी आती होगी। इसको झुठलाना है। और कोई मरते हैं; दूसरे लोग मरते हैं। यह मरने का धंधा हमेशा दूसरे करते हैं, अपने को थोड़े ही मरना है! मैं नहीं मरूंगा, ऐसा हम अपने भीतर भाव रखते हैं। कहें, चाहे न कहें।
अरे हां, पलटू रामनाम है सार संदेसा कहि गये।।
जो जनमा सो मुआ नाहिं थिर कोइ है।
जो जन्मा, वह मरेगा, कोई भी बचने वाला नहीं है। जन्म के साथ ही मृत्यु भी आ गई।
राजा रंक फकीर गुजर दिन दोइ है।।
फिर चाहे अमीर हो, चाहे गरीब, दो दिन की जिंदगी है! ऐसे गुजारो कि वैसे, सुविधा में कि असुविधा में, झोपड़ों में कि महल में, कुछ बहुत फर्क नहीं पड़ता।
चलती चक्की बीच परा जो जाइकै।
यह जो जन्म-मृत्यु की चक्की है, इसके बीच में जो भी पड़ गया है...
अरे हां, पलटू साबित बचा न कोय गया अलगाइकै।।
उसे काल का ग्रास हो ही जाना पड़ा है। मृत्यु अवश्यंभावी है।
जिसको इस सत्य की गहरी प्रतीति होने लगती है कि मृत्यु अवश्यंभावी है, वह धार्मिक हुए बिना नहीं रह सकता। क्योंकि मृत्यु से बचने का एक ही उपाय है, वह धर्म है। मृत्यु के सागर के पार ले जाने वाली एक ही नौका है, वह धर्म है। मृत्यु के पार आंखों को अमृत का दर्शन करा देने वाला अगर कोई भी द्वार है तो वह धर्म है।
पलटू की बात पर ध्यान करना। यहां खूब जिंदगी सुहानी है, प्यारी है, मगर रुक मत जाना!
देख सजन का रूप सुहाना करना मत बिसराम
बटोही करना मत बिसराम

तेरा काम है चलते रहना
धूल डगर की तेरा गहना
तूफानों में खोजते रहना नये-नये नित गाम
बटोही नये-नये नित गाम

गर्मी हो चाहे सर्दी हो
फूलन रुत हो या जर्दी हो
प्रेम के कारण बैठके जलना नहीं है तेरा काम
बटोही नहीं है तेरा काम

सूरज तेरे पांव चूमे
धरती तेरे संग में घूमे
प्रेम लगन के गीत सुना और जाप हरी का नाम
बटोही जाप हरी का नाम

देख सजन का रूप सुहाना करना मत बिसराम
बटोही करना मत बिसराम

आज इतना ही।

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